०५ लयचतुष्टयम्

नते सङ्गोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्य- का तुमिच्छसि ॥

सङ्घातविलयं कुर्वन्नेव-मेवलयं व्रज॥१॥

अन्वयः १

( हे शिष्य ! ) ते केन अपि सङ्गः न अस्ति; शुद्धः (त्वम् ) किम् त्यम् ( उपादातुं च ) इच्छसि; सङ्घातविलयम् कुर्वन् एवम् एव लयम् व्रज ॥ १॥

इस प्रकार शिष्य की परीक्षा लेकर उस को दृढ उपदेश दिया, अब चार श्लोकों से गुरु लय का उपदेश करते हैं, हे शिष्य ! तू शुद्धबुद्धस्वरूप है, अहङ्कारादि किसीके भी साथ तेरा सम्बन्ध नहीं है, सो नित्य शुद्धबुद्ध मुक्तस्वभाव तू त्यागने को ओर ग्रहण को किस को इच्छा करता है अर्थात तेरे त्यागने और ग्रहण करने योग्य कोई पदार्थ नहीं है, तिस कारण सङ्घात का निषेध करता
हुआ लय को प्राप्त हो अर्थात् देहादि सम्पूर्ण वस्तु जड हैं उस का त्याग कर और मिथ्या जान ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २

उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्रुदः।
इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लयं व्रज ॥२॥

मूलम् २

उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्रुदः।
इति ज्ञात्वैकमात्मानमेवमेव लयं व्रज ॥२॥

अन्वयः २

(हे शिष्य ! ) वारिधेः बुद्धद इव भवतः विश्वम् उदेति; इति एकम् आत्मानम् ज्ञात्वा एवम् एव लयम् व्रज ॥२॥

हिन्दी २

हे शिष्य ! यह जगत् अपनी भावना से हुआ है अर्थात् जिस प्रकार जल से बुलबुले भिन्न नहीं होते हैं, तिसी प्रकार तुझ (आत्मा) से यह जगत् भिन्न नहीं है, सजातीय विजातीय और स्वङ्गत ये तीन भेद आत्मा के विषें नहीं हैं आत्मा एक है, सो में ही हूं इस प्रकार जानकर आत्मस्वरूप के विषें लय को प्राप्त हो, ( एक मनुष्य जाति के विषें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि अनेक भेद हैं. यह सजातीय भेद कहाता है, और मनुष्य, पशु, पक्षी यह जो भिन्न २ जाति हैं. सो विजातीय भेद हैं तथा एक देह के विषें हाथ, चरण, मुख इत्यादि जो भेद हैं सो स्वगत भेद कहाता है )॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वादिश्वन्नास्त्यमलेत्वयि ।
रज्जसर्प इव व्यक्तमेवमेव लयं व्रज ॥३॥

मूलम् ३

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वादिश्वन्नास्त्यमलेत्वयि ।
रज्जसर्प इव व्यक्तमेवमेव लयं व्रज ॥३॥

अन्वयः ३

प्रत्यक्षम् अपि व्यक्तम् विश्वम् रज्जुसः इव अवस्तुत्वात् अमले त्वयि न अस्ति; (तस्मात् ) एवम् एव लयम् व्रज ॥३॥

हिन्दी ३

तहां शङ्का होती है कि, जब प्रत्यक्ष हार और सर्प आदि का भेद प्रतीत होता है तो फिर किस प्रकार हार आदि को विलय हो सकता है ? तिस का समाधान करते हैं कि, रज्जु अर्थात् डोरे के विषें सर्प की प्रत्यक्ष प्रतीति होती हे परन्तु वास्तव में वह सर्प नहीं होता है, इसी प्रकार यह प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रतीत होनेवाला जगत् निर्मल आत्मा के विषें नहीं है, इस प्रकार ही जानकर आत्मस्वरूप के विषें लीन हो ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

समदुःखसुखःपूर्णआशानैराश्ययोःसमः।
समजीवितमृत्युःसन्नेवमेव लयं व्रज ॥४॥

मूलम् ४

समदुःखसुखःपूर्णआशानैराश्ययोःसमः।
समजीवितमृत्युःसन्नेवमेव लयं व्रज ॥४॥

अन्वयः ४

हे ( शिष्य ! ) पूर्णः समदुःखसुखः ( तथा.) आशानैराश्ययोः समः सन् एवम् एव लयं व्रज ॥ ४ ॥

हिन्दी ४

हे शिष्य ! तू (आत्मा) आत्मानन्द से परिपूर्ण इस कारण ही प्रारब्धवश प्राप्त हुए सुख और दुःख के विषें समदृष्टि करनेवाला तथा आशा और निराशा के विषें समदृष्टि करनेवाला और जीवन तथा मरण के समदृष्टि से देखता हुआ ब्रह्मदृष्टिरूप लय को प्राप्त हो ॥४॥

इति श्रीमदष्टावक्रगीतायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितमाचार्योक्तं लयचतुष्टयं नाम पञ्च प्रकरणं समाप्तम् ॥५॥