विश्वास-प्रस्तुतिः १
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया ।
नहि संसारवाहीकर्मूढैः सह समानता ॥१॥
मूलम् १
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया ।
नहि संसारवाहीकर्मूढैः सह समानता ॥१॥
अन्वयः १
हन्त भोगलीलया खेलतः आत्मज्ञस्य धीरस्य संसारबाहीकैः मूढैः सह समानता नहि ॥ १॥
हिन्दी १
इस प्रकार श्रीगुरुने शिष्य की परीक्षा लेने के निमित्त माक्षेप करे, अब तिस के उत्तर में शिष्य गुरु के प्रति इस प्रकार कहता है कि, ज्ञानी सम्पूर्ण व्यवहारों को मिथ्या जानता है, और प्रारब्धानुकूल नाना प्रकार के जो भोग प्राप्त होते हैं उन को आत्मविलास मानता है. आनन्द की वार्ता है कि, जो आत्मज्ञानी है वह अपने आत्मा को सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान जानता है, वही धैर्यवान् है, अर्थात् उस का चित्त विषयों में आसक्त नहीं होता है, प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए निषयों की क्रीडा के विषें रमण करनेवाले तिस ज्ञानी की संसार के विषें देहाभिमान करनेवाले सूखाँ से तुल्यता नहीं होती है, सोई गीता के विषें श्रीकृष्ण भगवान्ने कहा है-”तत्ववित्त महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तत इति मत्वा न सज्जते ॥” अर्थात् आत्मज्ञानी सम्पूर्ण व्यवहारों में रहता है परन्तु किसी कार्य का अभिमान नहीं करता है, क्योङ्कि वह जानता है कि, गुण गुणों के विषें वर्तते हैं, मेरी कोई हानि नहीं है, मैं तो साक्षी हूं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
यत्पदम्प्रेप्सवोदीनाः शकाद्याः सर्वदेवताः।
अहोतत्रस्थितोयोगीनहर्षमुपगच्छति ॥२॥
मूलम् २
यत्पदम्प्रेप्सवोदीनाः शकाद्याः सर्वदेवताः।
अहोतत्रस्थितोयोगीनहर्षमुपगच्छति ॥२॥
अन्वयः २
अहो शकाद्याः सर्वदेवताः यत्पदम् प्रेप्सवः (सन्तः) दीनाः वर्तन्ते तत्र स्थितः योगी हर्षम् न उपगच्छति ॥२॥
हिन्दी २
को तहां शङ्का होती है कि, सांसारिक व्यवहारों का वर्ताव करनेवाला ज्ञानी संसारी पुरुष को तुल्य क्यों नहीं होता है, तिस का समाधान करते हैं कि, बडे आश्चर्य की वार्ता है, हे गुरो! इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता जिस आत्मपद की प्राप्ति की इच्छा करते हुए आत्मपद की प्राप्ति न होने से दीनता को प्राप्त होते हैं, तिस सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मपद के विषें स्थित अर्थात् तत् त्वम् पदार्थ के ऐक्यज्ञान से आत्मपद के विषें वर्तमान आत्मज्ञानी विषयभोग से सुख को नहीं प्राप्त होता है और तिस विषयसुख का नाश होनेपर शोक नहीं करता है ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शोह्यन्तनं जायते।
नह्याकाशस्यधूमेनदृश्यमानापिसङ्गतिः॥३॥
मूलम् ३
तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शोह्यन्तनं जायते।
नह्याकाशस्यधूमेनदृश्यमानापिसङ्गतिः॥३॥
अन्वयः ३
( यथा ) हि आकाशस्य धूमेन ( सह ) दृश्यमाना अपि ( सङ्गतिः ) न ( अस्ति तथा ) हि तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्याम् अन्तः स्पर्शः न जायते ॥ ३ ॥
अब यह वर्णन करते हैं कि, आत्मज्ञानी पुण्य और पाप से लिप्त नहीं होता है ‘तत् त्वम् ’ पदार्थ की एकता को जाननेवाले तत्वज्ञानी को अन्तःकरण के धर्म जो पुण्य पाप तिन से सम्बन्ध नहीं होता है, वह वेदोक्त विधि निषेध के बन्धन में नहीं होता है, क्योङ्कि जिस को आत्मज्ञान हो जाता है, उस के अन्तःकरण में पाप पुण्यका
सम्बन्ध नहीं होता है, जिस प्रकार धूम आकाश में जाता है, परन्तु उस धूम का आकाश से सम्बन्ध नहीं होता है, गीता के विषें कहा है कि, “ज्ञानाग्निःसंर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा “ अर्थात् ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मो को भस्म कर देता है ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
आत्मैवेदं जगत् सर्व ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छयावर्त्तमानन्तन्निषेधुङ्क्षमेतकः॥४॥
मूलम् ४
आत्मैवेदं जगत् सर्व ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छयावर्त्तमानन्तन्निषेधुङ्क्षमेतकः॥४॥
अन्वयः ४
येन महात्मना इदम् सर्वम् जगत् आत्मा एव (इति) ज्ञातम् तम् यदृच्छया वर्तमानम् कः निषेद्धम् क्षमेत ॥ ४॥
हिन्दी ४
तहां शङ्का होती है कि, ज्ञानी कर्म करता है और उस को पाप पुण्य का स्पर्श नहीं होता है, यह कै से हो सकता है तिस का समाधान करते हैं कि, जिस ज्ञानी महात्माने “यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् आत्मां ही है। इस प्रकार जान लिया और तदनन्तर प्रारब्ध के वशीभूत होकर वर्तता है, उस ज्ञानी को कोई रोक नहीं सकता है अर्थात् वेदवचन भी ज्ञानी को न रोक सकता है न, प्रवृत्त कर सकता है. क्योङ्कि “प्रबोधनीय एवासो सुप्तो राजे बन्दिभिः “ अर्थात् जिस प्रकार बन्दी (भाट) राजा के चरित्रों का वर्णन करते हैं तिसी प्रकार वेद भी आत्मज्ञानी का बखान करते हैं ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
आब्रह्मस्तम्बपर्य्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।
विज्ञस्यैवहिसामर्थ्यमिच्छानिच्छाविसर्जने ॥५॥
मूलम् ५
आब्रह्मस्तम्बपर्य्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।
विज्ञस्यैवहिसामर्थ्यमिच्छानिच्छाविसर्जने ॥५॥
अन्वयः ५
हि आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते चतुर्विधे भूतग्रामे विज्ञस्य एव इच्छानिच्छाविसर्जने सामर्थ्य ( अस्ति ) ॥५॥
हिन्दी ५
शिष्य शङ्का करता है कि, ज्ञानी अपनी इच्छा के अनुसार वर्तता है, या देवेच्छा से वर्तता है ? तिस का गुरु उत्तर देते हैं कि, ब्रह्मा से तृणपर्यन्त चार प्रकार के प्राणियों से भरे हुए ब्रह्माण्ड के विषें इच्छा और अनिच्छा यह दो पदार्थ किसी के दूर करने से दूर नहीं होते हैं परन्तु ज्ञानी को ऐसी सामर्थ्य है कि, न उस को इच्छा है, न अनिच्छा है ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
आत्मानमद्रयं कश्चिन्जानाति जगदीश्वरम् ।
यद्वेत्ति तत्स कुरुते नभयं तस्य कुत्रचित्॥६॥
मूलम् ६
आत्मानमद्रयं कश्चिन्जानाति जगदीश्वरम् ।
यद्वेत्ति तत्स कुरुते नभयं तस्य कुत्रचित्॥६॥
अन्वयः ६
कश्चित् जगदीश्वरम् आत्मानम् अद्वयम् जानाति; सः यत् वेत्ति तत् कुरुते; तस्य कुत्रचित् भयम् न ( भवति ) ॥ ६ ॥
हिन्दी ६
अब इस वार्ता का वर्णन करते हैं कि, ज्ञानी पुरुष सर्वथा निर्भय होता है, आत्मज्ञान से द्वैतप्रपञ्च को दूर करनेवाले ज्ञानी को भय नहीं होता है परन्तु अद्वितीय आत्मस्वरूप को हजारों में कोई एक ही जानता है और अद्वितीय आत्मस्वरूप का ज्ञान होने के अनन्तर कोई कर्म करे अथवा न करे तो भी वह इस लोक तथा परलोक के विषें भय को नहीं प्राप्त होता है॥६॥
इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितं शिष्यप्रोक्तानुभवोल्लासषट्वं चतुर्थ प्रकरणं समाप्तम् ॥ ४॥