विश्वास-प्रस्तुतिः १
अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।
तवात्मज्ञस्यधीरस्यकथमर्थार्जने रतिः॥१॥
मूलम् १
अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।
तवात्मज्ञस्यधीरस्यकथमर्थार्जने रतिः॥१॥
अन्वयः १
हे शिष्य ! अविनाशिनम् एकम् आत्मानम् विज्ञाय तत्त्वतः आत्मज्ञस्य धीरस्य तव अर्थार्जने रतिः कथम् (लक्ष्यते)॥१॥
हिन्दी १
की आत्मज्ञान के अनुभव से युक्त भी अपने शिष्य को व्यवहार में स्थित देखकर उस के आत्मज्ञानानुभव की परीक्षा करने के निमित्त उस की व्यवहार के विषें स्थिति की निन्दा कर के आत्मानुभवात्मक स्थिति का उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! अविनाशी कहिये त्रिकाल में सत्यस्वरूप आत्मा को किसी देशकाल में भेद को नहीं प्राप्त होनेवाला जानकर, यथार्थरूप से आत्मज्ञानी धैर्यवान् जो तू तिस तेरी व्यावहारिक अर्थ के सङ्ग्रह करने में प्रीति किस कारण देखन में आती है ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
आत्मज्ञानादहोप्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
शुक्रज्ञानतोलोभोयथारजतविभ्रमे॥२॥
मूलम् २
आत्मज्ञानादहोप्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
शुक्रज्ञानतोलोभोयथारजतविभ्रमे॥२॥
अन्वयः २
अहो (शिष्य ) ! यथा शुक्तेः अज्ञानतः रजतविभ्रमे लोभः ( भवति तथा) आत्मज्ञानात् विषयभ्रमगोचरे प्रीतिः ( भवति)॥२॥
हिन्दी २
विषय के विषें जो प्रीति होती है सो आत्मा के अज्ञान से होती है इस वार्ता को दृष्टान्त और युक्तिपूर्वक दिखाते हैं, अहो शिष्य ! जिस प्रकार आत्मा के सीपी का ज्ञान होने से रजत की भ्रान्ति कर के लोभ होता है, तिसी प्रकार आत्मा के अज्ञान से भ्रान्ति ज्ञान से प्रतीत होनेवाले विषयों में प्रीति होती है। जिन को आत्मज्ञान होता है, उन ज्ञानियों की विषयों में कदापि प्रीति नहीं होती है ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
विश्वस्फुरतियत्रेदन्तरङ्गा इव सागरे ।
सोऽहमस्मीतिविज्ञायकिन्दीनइवधावसि ॥३॥
मूलम् ३
विश्वस्फुरतियत्रेदन्तरङ्गा इव सागरे ।
सोऽहमस्मीतिविज्ञायकिन्दीनइवधावसि ॥३॥
अन्वयः ३
सागरे तरङ्गा इव यत्र इदम् विश्वम् स्फुगति सः अहम् अस्मि इति विज्ञाय दीनः इव किम् धावा से ॥ ३ ॥
हिन्दी ३
ऊपर इस प्रकार कहा है कि, विषयों के विषें जो प्रीति होती है, सो अज्ञान से होती है, अब इस वार्ता का वर्णन करते हैं कि, सम्पूर्ण अध्यस्त को अधिष्ठानभूत जो आत्मा तिस के जाननेपर फिर विषयों के विष प्रीति नहीं होती है, जिस प्रकार समुद्र के विषें तरङ्ग स्फुरते हैं, अर्थात् अभिन्नरूप होते हैं, तिसी प्रकार जिस आत्मा के विषें यह विश्व अभिन्नरूप है, वह निर्विशेष आत्मा मैं हूं, इस प्रकार साक्षात् कर के दीन पुरुष की समान मैं हूं, और मेरा है इत्यादि अभिमान कर के क्यों दौडता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
श्रुत्वापिशुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तोमालिन्यमधिगच्छति ॥४॥
मूलम् ४
श्रुत्वापिशुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तोमालिन्यमधिगच्छति ॥४॥
अन्वयः शुद्धचैतन्यम् अति सुन्दरम् आत्मानम् श्रुत्वा अपि उपस्थे अत्यन्तसंसक्तः ( अत्मज्ञः ) मालिन्यम् अधिगच्छति॥४॥
ऊपर के तीन श्लोकों में शिष्य की व्यवहारावर की निन्दा की अब सम्पूर्ण ही ज्ञानियों की व्यवहारावस्था में स्थिति की निदा करते हैं कि, गुरु के मुख से वदान्तवाः क्यों से अतिसुन्दरशुद्ध चैतन्य आत्मा को श्रवण कर के तथा साक्षात् कर के तदनन्तर समीपस्थ विषयों के विषें प्राति करनेवाला आत्मज्ञाना मालिन्य काहय मूढपन को प्राप्त हो जाता है ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
मुनेजानतआश्चर्यममत्वमनुवर्तते ॥५॥
मूलम् ५
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
मुनेजानतआश्चर्यममत्वमनुवर्तते ॥५॥
अन्वयः ५
सर्वभूतेषु च आत्मानम् आत्मनि च सर्वभूतानि जानतः मुनेः (विषयेषु) ममत्वम् अनुवर्तते (इति) आश्चर्यम्॥५॥
हिन्दी ५
फिर भी ज्ञानी के विषयों में प्रीति करने को निन्दा करत हैं कि, ब्रह्म से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों के विषें अधिष्ठानरूप से आत्मा विद्यमान है और सम्पूर्ण प्राणी आत्मा के विषें अव्यस्त अर्थात् कल्पित हैं, जिस प्रकार कि, रज्जु के विषें सर्प कल्पित होता है, इस प्रकार जानते हुए भी मुनि को विषयों के विममता होती है, यह बड़ा ही आश्चर्य है. क्योङ्कि सीपी के विषेरजत को काल्पत जानकर भी ममता करना मूर्खता ही होती है ॥५॥
आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपिव्यवस्थितः।
आश्चर्य कामवशगोषिकल केलिशिक्षया६॥
अन्धय:परमाद्वैतम् आस्थितः ( तथा ) मोक्षार्थे व्यवस्थितः अपि कामवशगः (सन् ) केलिशिक्षया विकलः ( दृश्यते इति) याश्चर्यम् ॥६॥
आत्मज्ञानी को विषयों के विषें प्रीति करने की निन्दा करते हुए कहते हैं कि, परम अद्वैत अर्थात् सजातीयस्वगतभेदशून्य जो ब्रह्म तिस का आश्रय और मोक्षरूपो सच्चिदानन्दस्वरूप के विषें निवास करनेवाला पुरुष कामवश होकर नाना प्रकार की क्रीडा के अभ्यास से अर्थात् नाना प्रकार के विषयों में लवलीन होकर विकल देखने में आता है, यह बड़ा ही आश्चर्य है ॥६॥
उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रमबधा-तिदुर्बलः।
आश्चर्य काममाकाङ्क्षेत्कालमन्तमनुश्रितः॥
अन्वयः ७
अन्तम् कालम् अनुश्रितः अतिदुर्बलः ( ज्ञानी) उद्भूतम् ज्ञानदुर्मितम् अवधार्य (अपि ) कामम् आकाङ्क्षेत् ( इति ) आश्चर्यम् ॥ ७ ॥
हिन्दी ७
अब इस वार्ता का वर्णन करते हैं कि, विवे की पुरुष को सर्वथा विषयवासना का त्याग करना चाहिये, उद्भूत कहिये उत्पन्न होनेवाला जो काम वह महाशत्रु ज्ञान को नष्ट करनेवाला है, ऐसा विचार करके भी अति दीन होकर ज्ञानी विषयभोग की आकाङ्क्षा करता है, यह बडे ही आश्चर्य की वार्ता है, क्योङ्कि जो पुरुष विषयवासना में लवलीन होता है वह कालपास होता है अर्थात् क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है इस कारण ज्ञानी पुरुष को विषयतृष्णा नहीं रखनी चाहिये ॥७॥
इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः ।
आश्चर्यमोक्षकामस्य मोक्षादेव विभीषिका८॥
अन्वयः ८
इह अनुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषि का ( भवति इति ) आश्चर्यम् ॥ ८॥
हिन्दी ८
अब इस वार्ता का वर्णन करते हैं कि, ज्ञानी पुरुष को विषयों का वियोग होनेपर शोक नहीं करना चाहिये, जिस को इस लोक और परलोक के सुख से वैराग्य हो गया है और आत्मा नित्य है तथा जगत् अनित्य है, इस प्रकार जिस को ज्ञान हुआ है, और मोक्ष जो सच्चिदानन्द की प्राप्ति तिस के विषें जिस की अत्यन्त अभिलाषा है, वह पुरुष भी बलवान् देह आदि असत् स्त्रीपुत्रादि के वियोग से भयभीत होता है, यह बडे ही आश्चर्य की वार्ता है, स्वन में अनेक प्रकार के सुख देखनेपर भी जाग्रत् अवस्था में वह सुख नहीं रहते हैं तो उन सुखों का कोई पुरुष शोक नहीं करता है तिसी प्रकार स्त्री पुत्र धन आदि असत् वस्तु का वियोग होनेपर शोक करना योग्य नहीं है ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ९
धीरस्तुज्यमानोऽपिपीड्यमानोऽपिसर्वदा।
अत्मानङ्कवलम्पश्यन्नतुष्यतिनकु.प्यति ॥९॥
मूलम् ९
धीरस्तुज्यमानोऽपिपीड्यमानोऽपिसर्वदा।
अत्मानङ्कवलम्पश्यन्नतुष्यतिनकु.प्यति ॥९॥
अन्वयधीरः तु ( लोकै विषयान ) भेज्यमानः अपि (निन्दादिना ) पीडयमानः अपि केवलम् आत्मानम् पश्यन् न. दुष्यात न वु.प्यति ॥९॥
अब इस वार्ता का वर्णन करते हैं कि, ज्ञानी को शोक हर्ष नहीं करने चाहिये, ज्ञानी पुरुषों को जगत् के विषें पुण्यवान् पुरुष नाना प्रकार के भोग कराते हैं, परन्तु वह ज्ञानी पुरुष तिस से हर्ष को नहीं प्राप्त होता है और पापी पुरुष पीडा देते हैं तो उस से शोक नहीं करता है क्योङ्कि वह ज्ञानी पुरुष जानता है कि, आत्मा सुखदुःखरहित है अर्थात् आत्मा को कदापि हर्ष शोक नहीं हो सकता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १०
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीवत् ।
संस्तवेचापिनिन्दायाङ्कथन्धुभ्येन्महाशयः॥१०॥
मूलम् १०
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीवत् ।
संस्तवेचापिनिन्दायाङ्कथन्धुभ्येन्महाशयः॥१०॥
अन्वयः १०
(यः) चेष्टमानम् स्वम् शरीरम् अन्यशरीरवत् पश्यति (सः) महाशयः संस्तवे अपि च निन्दायाम् कथम् क्षुभ्येत् ॥१०॥
हिन्दी १०
हर्ष शाक के हेतु जो स्तुति निन्दा आदि सो तो शरीर के धर्म हैं और शरीर आत्मा से भिन्न है फिर ज्ञानी को हर्षशोक किस प्रकार हो सकते हैं इस वार्ता का वर्णन करते हैं, जो ज्ञानी पुरुष चेष्टा करनेवाले अपने शरीर को अन्य पुरुष के शरीर की समान आत्मा से भिन्न देखता है, वह महाशय स्तुति और निन्दा के विषें किस प्रकार हर्षशोकरूप क्षोभ को प्राप्त होयगा ? अर्थात् नहीं प्राप्त होयगा ॥१०॥
मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन्विगतकौतुकः।
अपिसन्निहितेमृत्यौकथन्त्रस्यतिधीरधीः११॥
अन्वयः ११
इदम् विश्वम् मायामात्रम् ( इति ) पश्यन् विगतकौतुकः धीरधीः मृत्यौ सन्निहिते अपि कथम् त्रस्यति ॥ ११ ॥
हिन्दी ११
जिस का मरण होता है और जो बन्धकरता है ये दोनों अनित्य हैं इस प्रकार जानने के कारण ज्ञानी को मृत्युकाल के समीप होनेपर भी भय किस प्रकार हो सकता है इस वार्ता का वर्णन करते हैं, यह दृश्यमान विश्व मायामात्र कहिये मिथ्यारूप है इस प्रकार देखता हुआ, इस कारण ही यह शरीर आदि विश्व कहां से उत्पन्न हुआ है और कहां लीन होयगा इस प्रकार विचार नहीं करनेवाला ज्ञानी पुरुष मृत्यु के समीप आनेपर भी भयभीत नहीं होता है ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १२
निस्टहम्मानसंयस्यनैराश्येऽपिमहात्मनः।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्यतुलनाकेनजायते॥१२॥
मूलम् १२
निस्टहम्मानसंयस्यनैराश्येऽपिमहात्मनः।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्यतुलनाकेनजायते॥१२॥
अन्वयः १२
नैराश्ये अपि यस्य मानसम् निःस्पृहम् (भवति तस्य ) आत्मज्ञानतृप्तस्य महात्मन: केन (समम् ) तुलना जायते ? ॥ १२ ॥
हिन्दी १२
अब ज्ञानी का सर्व की अपेक्षा उत्कृष्टपना दिखाते हैं कि, मैं ब्रह्मरूप हूं इस प्रकार ज्ञान होनेपर जिस के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण हो गये हैं ऐसा जो महात्मा ज्ञानी पुरुष तिस का मन मोक्ष के विषे भी निराश होता है, अर्थात् वह मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करता है, ऐसे ज्ञानी की किस से तुलना की जाय अर्थात् ज्ञानी के तुल्य कोई भी नहीं होता है ॥१२॥
स्वभावादेव जानाति दृश्यमेतन किञ्चन ।
इदङ्ग्राह्यमिदन्त्याज्यंसकिम्पश्यतिधीरधी १३
अन्वयः १३
स्वभावात् एव ( इदम् ) दृश्यम् किञ्चन न ( इति ) जानाति सः धीरधीः इदम् ग्राह्यम् इदम् त्याज्यम् ( इति ) किम् पश्यति ॥ १३ ॥
हिन्दी १३
ज्ञानी पुरुष को “ यह ग्रहण करने योग्य है, यह त्यागने योग्य है “ इस प्रकार व्यवहार नहीं करना चाहिये, इस वार्ता का वर्णन करते हैं, स्वभावसेहीअर्थात् अपनी सत्ता से ही जिस प्रकार सीपी के विषें रजत कल्पना मात्र होती है, तिसी प्रकार यह दृश्यमान द्वैत, प्रपञ्च मिथ्यारूप है, जगत् कल्पित है अर्थात् सत् है न असत् इस प्रकार जाननेवाले ज्ञानी की बुद्धि धैर्यसम्पन्न हो जाती है, तो भी वह ज्ञानी “यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है, यह वस्तु त्यागने योग्य है” इस प्रकार का व्यवहार क्यों करता है, यह बडे ही आश्चर्य की वार्ता है अर्थात् ज्ञानी पुरुष को कदापि यह वस्तु त्यागने योग्य है, यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है इस प्रकार व्यवहार नहीं करना चाहिये ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १४
अन्तस्त्यक्तकषायस्य निईन्द्रस्य निराशिषः।
यदृच्छयागतो भोगो न दुःखाय नतुष्टये॥१४॥
मूलम् १४
अन्तस्त्यक्तकषायस्य निईन्द्रस्य निराशिषः।
यदृच्छयागतो भोगो न दुःखाय नतुष्टये॥१४॥
अन्वय:- अन्तस्त्यक्तकषायस्य निईन्दस्य निराशिषः यदृच्छया आगतः भोगः दुःखाय न (भवति ) तुष्टये (च)न (भवति) १४
उपरोक्त विषय में हेतु कहते हैं कि, अन्तःकरण के रागद्वेषादि कषायों को त्यागनेवाले और शीत उष्णादि द्वन्दरहित तथा विषयमात्र की इच्छा से रहित जो ज्ञानी पुरुष तिस को दैवगतिसे प्राप्त हुआ भोग न दुःखदायक होता है और न प्रसन्न करनेवाला होता है ॥१४॥
इति श्रीमदष्टावकविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितमाक्षेपद्वारोपदेशकं नाम तृतीयं प्रकरणं समाप्तम् ॥३॥