जनक उवाच ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १
अहो निरञ्जनः शान्तो
बोधोऽहं प्रकृतेः परः।
एतावन्तम् अहं कालं
मोहेनैव विडम्बितः॥१॥
मूलम् १
अहो निरञ्जनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।
एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडम्बितः॥१॥
अन्वयः १
अहो अहम् निरञ्जनः शान्तः प्रकृतेः परः बोधः ( अस्मि ) अहम् एतावन्तम् कालम् मोहेन विडम्बितः एव ॥१॥
हिन्दी १
श्रीगुरु के वचनरूपी अमृत पानकर तिस से आत्मा का अनुभव हुआ, इस कारण शिष्य अपने गुरु के प्रति आत्मानुभव कहता है कि, हे गुरो बड़ा आश्चर्य दीखने में आता है कि, मैं तो निरञ्जन हूं, तथा सर्वउपाधिरहित हूं, शान्त अर्थात् सर्वविकाररहित हूं तथा प्रकृतिसे परे अर्थात् माया के अन्धकार से रहित हूं, अहो ! आज दिनपर्यन्त गुरु की कृपा नहीं थी इस कारण बहुत मोह था और देह आत्मा का विवेक नहीं था तिस से दुःखी था अब आज सद्गुरु को कृपा हुई सो परम आनन्द को प्राप्त हुआ हूं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
यथा प्रकाशयाम्य् एको
देहम् एनं तथा जगत् ।
अतो मम जगत् सर्वम्
अथवा न च किञ्चन॥२॥
मूलम् २
यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत् ।
अतोमम जगत् सर्वमथवा न च किञ्चन॥२॥
अन्वयः २
यथा ( अहम् ) एक: (एव) जगत् प्रकाशयामि तथा एनम देहम् (प्रकाशयामि) अतः सर्वम् जगत मम अथवा च किञ्चन न ॥२॥
हिन्दी २
ऊपर के श्लोक में शिष्यने अपना मोह गुरु के पास वर्णन किया । अब गुरु को कृपा से देह आत्मा का विवेक प्राप्त हुआ तहां समाधान करता है कि, हे गुरो! मैं जिस प्रकार स्थूल शरीर को प्रकाश करता हूं तिस ही प्रकार जगत् को भी प्रकाश करता हूं, तिस कारण देह जड है तिस ही प्रकार जगत् भी जड है. यहां शङ्का होती है कि, शरीर जड और आत्मा चैतन्य है तिन दोनों का सम्बन्ध किस प्रकार होता है ? तिस का समाधान करते हैं कि, भ्रान्तिसे देह के विषय में ममत्व माना है यह अज्ञानकल्पित है, देह को आदिलेकर बन्धा जगत् दृश्य पदार्थ है, तिस कारण मेरे विषय में कल्पित है, फिर यदि सत्य विचार करे तो देहादिक जगत् है ही नहीं, जगत् की उत्पत्ति और प्रलय यह दोनों अज्ञानकल्पित हैं, तिस कारण देह से पर आत्मा शुद्ध स्वरूप है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
सशरीरम् अहो विश्वं
परित्यज्य मयाऽधुना।
कुतश्चित् कौशलाद् एव
परमात्मा ऽविलोक्यते॥३॥
मूलम् ३
सशरीरमहोविश्वं परित्यज्य मयाऽधुना।
कुतश्चित्कौशलादेवपरमात्माविलोक्यते॥३॥
अन्वयः ३
अहो अधुना सशरीरम् विश्वम् परित्यज्य कुतश्चित कौशलात् एव मया परमात्मा विलोक्यते ॥३॥
हिन्दी ३
शिष्य आशङ्का करता है कि, लिङ्गशरीर और कारण शरीर इन दोनों का विवेक तौ हुआ ही नहीं फिर प्रकृतिसे पर आत्मा किस प्रकार जाना जायगा ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, लिङ्गशरीर, कारणशरीर, तथा स्थूलशरीर सहित सम्पूर्ण विश्व है तहां गुरु शास्त्र के उपदेश के अनुसार त्यागकर के और उन गुरु शास्त्र की कृपा से चातुयता को प्राप्त हुआ हूं तिस कारण परम श्रेष्ठ आत्मा जानन में आता है अर्थात् अध्यात्म वेदान्तविद्या प्राप्त होती है ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
यथा न तोयतो भिन्नास्
तरङ्गाः फेन-बुद्धदाः ।
आत्मनो न तथा भिन्नं
विश्वम् आत्म-विनिर्गतम् ॥ ४॥+++(5)+++
मूलम् ४
यथानतोयतोभिन्नास्तरङ्गाःफेनबुद्धदाः ।
आत्मनोनतथाभिन्नविश्वमात्मविनिर्गतम् ॥ ४॥
अन्वयः ४
यथा तोयतः तरङ्गाः फेनवुद्धदाः भिन्नाः न तथा आत्मविनिर्गतम् विश्वम् आत्मनः भिन्नम् न ॥ ४॥
हिन्दी
शरीर तथा जगत् आत्मा से भिन्न होगा तो द्वैतभाव सिद्ध हो जायगा, ऐसी शिष्य की शङ्का करनेपर उस के उत्तर में दृष्टान्त कहते हैं कि, जिस प्रकार तरङ्ग, झाग बुलबुले जल से अलग नहीं होते हैं परन्तु उन तीनों का कारण एक जलमात्र है तिस ही प्रकार त्रिगुणात्मक जगत् आत्मा से उत्पन्न हुआ है आत्मा से भिन्न नहीं है जिस प्रकार तरङ्ग, झाग और बुलबुलों में जल व्याप्त है तिस ही प्रकार सर्व जगत् में आत्मा व्यापक है, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं है ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
तन्तु-मात्रो भवेद् एव
पटो यद्वद् विचारितः ।
आत्म-तन्-मात्रम् एवेदं
तद्वद् विश्वं विचारितम् ॥५॥
मूलम् ५
तन्तुमात्रो भवेद् एव पटो यद्वद् विचारितः ।
आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद् विश्वं विचारितम् ॥५॥
अन्वयः ५
यदत विचारितः पटः तन्तुमात्रः एव भवेत् तद्वत् विचारितम् इदम् विश्वम् आत्मतन्मात्रम् एव ॥५॥
हिन्दी ५
सर्व जगत् आत्मस्वरूप है तिस के निरूपण करने के अर्थ दूसरा दृष्टान्त कहते हैं कि, विचारदृष्टि के बिना देखे तो वस्त्र सूत्र से पृथक् प्रतीत होता है, परन्तु विचारदृष्टि से देखनेपर वस्त्र सूत्ररूप ही है, इसी प्रकार अज्ञानदृष्टि से जगत् ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है, परन्तु शुद्धविचारपूर्वक देखन से सम्पूर्ण जगत् आत्मरूपहीं है, सिद्धान्त यह है कि, जिस प्रकार वस्त्र में सूत्र व्यापक है, तिसी प्रकार जगत् में ब्रह्म व्यापक है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता
तेन व्याप्तैव शर्करा ।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं
मया व्याप्तं निरन्तरम् ॥ २-६॥
मूलम्
यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा ।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम् ॥ २-६॥
अन्वयः ६
यथा इक्षुर से क्लृप्ता शर्करा तेन एव व्याप्ता तथा एक मयि कृप्तम् विश्वम् निरन्तरं मया व्याप्तम् ॥ ६ ॥
हिन्दी ६
आत्मा सम्पूर्ण जगत् में व्यापक है इस विषय में तीसरा दृष्टान्त दिखाते हैं, जिस प्रकार इक्षु (पौण्डा) के रस के विषय में शर्करा रहती है और शर्करा के विषय में रस व्याप्त है, तिसी प्रकार परमानन्दरूप आत्मा के विषय में जगत् अध्यस्त है और जगत के विषय में निरन्तर आत्मा व्याप्त है, तिस कारण विश्व भी आनन्दस्वरूप ही है। तिस कर के “अस्ति, भाति, प्रियम्, “ इस प्रकार आत्मा सर्वत्र व्याप्त है ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्माज्ञानाज् जगद् भाति
आत्मज्ञानान् न भासते ।
रज्ज्व्-अज्ञानाद् अहिर् भाति
तज् ज्ञानाद् भासते न हि ॥ २-७॥
मूलम्
आत्माज्ञानाज् जगद् भाति आत्मज्ञानान्न भासते ।
रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद् भासते न हि ॥ २-७॥
अन्वयः ७
जगत् आत्माज्ञानात् माति आत्मज्ञानात् न भासते हि रज्ज्वज्ञानात् अहिः भाति तज्ज्ञानात् न भासते ॥ ७ ॥
हिन्दी ७
शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! यदि जगत् आत्मा से भिन्न नहीं है तो भिन्न प्रतीत किस प्रकार होता है ? तहां गुरु उत्तर देते हैं कि, जब आत्मज्ञान नहीं होता है, तब जगत् भासता है और जब आत्मज्ञान हो जाता है, तब जगत् कोई वस्तु नहीं है, तहां दृष्टान्त दिखाते हैं कि, जिस प्रकार अन्धकार में पड़ी हुई रज्जु अम से सर्प प्रतीत होने लगता है और जब दीपक का प्रकाश होता है तब निश्चय हो जाता है कि, यह सर्प नहीं है ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ८
प्रकाशो मे निजं रूपं
नातिरिक्तो ऽस्म्य् अहं ततः ।
यदा प्रकाशते विश्वं
तदा ऽहं भास एव हि ॥ २-८॥
मूलम् ८
प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः ।
यदा प्रकाशते विश्वं तदाहं भास एव हि ॥ २-८॥
अन्वयः ८
प्रकाशः मे निजम् रूपम् अहम् ततः अतिरिक्त न आस्मि । हि यदा विश्व प्रकाशते तदा अहं भासः एव ॥८॥
हिन्दी ८
जिस को आत्मज्ञान नहीं होता है उस को प्रकाश भी नहीं होता है, फिर जगत् की प्रतीति किस प्रकार होती है ? इस प्रश्न का उत्तर कहते हैं कि, नित्य बोधरूप प्रकाश मेरा (आत्मा का ) स्वाभाविक स्वरूप है, इस कारण मैं (आत्मा) प्रकाश से भिन्न नहीं हूं, यहां शङ्का होती है कि, आत्मचैतन्य जब जगत् का प्रकाश है तो उस को अज्ञान किस प्रकार रहता है ? इस का समाधान यह है कि, जिस प्रकार स्वप्न में चैतन्य अविद्या की उपाघि से कल्पित विषयसुख को सत्य मानते हैं, तिस से चैतन्य में किसी प्रकार का बोध नहीं होता है, आत्मचैतन्य सर्वकाल में है परन्तु गुरु के मुख से निश्चयपूर्वक समझे बिना अज्ञान की निवृत्ति नहीं होती है और आत्मा सत्य है यह वार्ता वेदादि शास्त्रसम्मत है, अर्थात् जगत् को आत्मा प्रकाश करता है यह सिद्धान्त है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ९
अहो विकल्पितं विश्वम्
अज्ञानान् मयि भासते ।
रूप्यं शुक्तौ, फणी रज्जौ
वारि सूर्य-करे यथा ॥ २-९॥
मूलम् ९
अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयिभासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरेयथा ॥९॥
अन्वयः ९
अहो यथा शुक्तौ रूप्यम् रजौ फणी सूर्यकरे वारि ( तथा ) अज्ञानात् विकल्पितम् विश्वम् मयि भासते ॥९॥
हिन्दी ९
शिष्य विचार करता है कि, मैं स्वप्रकाश हूं तथापि अज्ञान से मेरे विषें विश्व भासता है, यह बड़ा ही आश्चर्य है, इस का दृष्टान्त के द्वारा समाधान करते हैं कि, जिस प्रकार भ्रान्तिसे सीपी में रजत की प्रतीति होती है, जिस प्रकार रज्जु में सर्प की प्रतीति होती है तथा जिस प्रकार सूर्य की किरणों में जल की प्रतीति होती है तिसी प्रकार अज्ञान से कल्पित विश्व मेरे विषेभासता है ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १०
मत्तो विनिर्गतं विश्वं
मय्येव लयमेष्यति ।
मृदि कुम्भो जले वीचिः
कनके कटकं यथा ॥ २-१०॥+++(5)+++
मूलम् १०
मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति ।
मृदि कुम्भो जले वीचिः कनके कटकं यथा ॥ २-१०॥
अन्वयः १०
इदम् विश्वं मत्तः विनिर्गतम् मयि एव लयम् एष्यति यथा कुम्भः मृदि वीचिः जले कटकम् कन के ॥ १०॥
हिन्दी १०
शिष्य आशङ्का करता है कि, साङ्ख्यशास्त्रवालों के मतानुसार तो जगत् माया का विकार है इस कारण जगत् मायासकाश से उत्पन्न होता है और अन्त में माया के वि ही लीन हो जाता है और आत्मा सकाश से उत्पन्न नहीं होता है ? इस शङ्का का गुरु समाधान करते हैं कि, यह मायासहित जगत् आत्मा के सकाश से उत्पन्न हुआ है और अन्त में माया के विष ही लीन होगा, तहां दृष्टान्त देते हैं कि, जिस प्रकार घट मृत्तिका में से उत्पन्न होता है और अन्त में मृत्तिका के विष ही लीन हो जाता है और जिस प्रकार तरङ्ग जल में से उत्पन्न होते हैं और अन्त में जल के वि ही लीन हो जाते हैं तथा जिस प्रकार कटक कुण्डलादि सुवर्णमे से उत्पन्न होते हैं और सुवर्णमें ही अन्त में लीन हो जाते हैं। तिसी प्रकार मायासहित जगत आत्मा के सकाश से उत्पन्न होता है और अन्त में माया के वि ही लीन हो जाता है, सोई श्रुतिमेभीकहा है “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति “ ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ११
अहो अहं!! नमो मह्यं!!
विनाशो यस्य नास्ति मे ।
ब्रह्मादिस्तम्ब-पर्यन्तं
जगन्-नाशोऽपि तिष्ठतः ॥ २-११॥
मूलम् ११
अहो अहन्नमो मह्यं विनाशीयस्य नास्तिमे।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तञ्जगन्नाशेपितिष्ठतः॥११॥
अन्वयः ११
अहो अहम् ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तम् ( यत् ) जगत् ( तस्य ) नाशे अपि यस्य मे विनाशः न अस्ति ( तस्मै ) मह्यम् नमः ॥ ११॥
हिन्दी ११
शिष्य आशङ्का करता है कि, यदि जगत् का उपादान कारण ब्रह्म होगा तब तो ब्रह्म के विषें अनित्यता आवेगी, जिस प्रकार घट फूटता है और मृत्तिका बिखर जाती है, तिसी प्रकार जगत् के नष्ट होनेपर ब्रह्म भी छिन भिन्न (विनाशी) हो जायगा ? इस शङ्का का समाधान करते हुए गुरु कहते हैं कि, मैं ( आत्मा ब्रह्म ) सम्पूर्ण उपादान कारण हूं, तो भी मेरा नाश नहीं होता है यह बड़ा आश्चर्य है. सुवर्ण कटक और कुण्डल का उपादान कारण होता है और कस्क कुण्डल के टूटनेपर सुवर्ण विकार को प्राप्त होता है, परन्तु मैं तो जगत् का विवर्ताविष्ठान हूं अर्थात् जिस प्रकार रज्जु में सर्प की भ्रान्ति होनेपर सर्प विवर्त कहाता है और रज्जु अधिष्ठान कहाता तिसी प्रकार जगत् मेरे (आत्माके) विषें प्रतीति मात्र है, जिस प्रकार दूध का दधि वास्तविक अन्यथाभाव (परिणाम) होता है, तिस प्रकार जगत् मेरा परिणाम नहीं है, मैं सम्पूर्ण जगत् का कारण और अविनाशी हूं, तिस कारण मैं अपने स्वरूप (आत्मा) को नमस्कार करता हूं। प्रलयकाल में ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् नाश को प्राप्त हो जाता है परन्तु मेरा (आत्माका) नाश नहीं होता है, इस विषय में श्रुति का भी प्रमाण है “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म “ अर्थात् ब्रह्म सत्य है, ज्ञानरूप है और अनन्त है ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो अहं नमो मह्यम्
एकोऽहं देहवान् अपि ।
क्वचिन् न गन्ता नागन्ता
व्याप्य विश्वम् अवस्थितः ॥ २-१२॥
मूलम्
अहो अहं नमो मह्यमेकोऽहं देहवानपि ।
क्वचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः ॥ २-१२॥
अन्वयः १२
अहो अहम् ( तस्मै ) मह्यम् नमः । ( यत् ) देहवान् अपि एकः अहम् विश्वम् व्याप्य अवस्थितः न ववित् गन्ता न आगन्ता ॥ १२॥
हिन्दी १२
शिष्य आशङ्का करता है कि, सुखदुःखरूपी देहयुक्त आत्मा अनेकरूप है, तिस कारण जाता है और आता है, फिर आत्मा की सर्वव्यापकता किस प्रकार सिद्ध होगी, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, मैं बड़ा आश्चर्यरूप हूं उस कारण मैं अपने (आत्मा) को नमस्कार करता हूं। तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, क्या आश्चर्य है ? तिसे गुरु उत्तर देते हैं कि, मैं (आत्मा) नाना प्रकार के शरीरों में निवास कर के नाना प्रकार के सुख दुःख को भोगता हूं, तथापि में एकरूप हूं, तहां दृष्टान्त दिखाते हैं कि, जिस प्रकार जल से भरे हुए अनेक पात्रों में भरे हुए जल के विषें शीत, उष्ण सुगन्ध, दुर्गन्ध, शुद्ध, अशुद्ध इत्यादि अनेक उपाधियां रहती है और उन अनेकों पात्रों में भिन्न सूर्य के प्रतिबिम्ब पडते हैं, तथापि वह सूर्य एक ही होता है और जल की शीत उष्णादि उपाधियों से रहित होता है इसी प्रकार में सम्पूर्ण विश्व में व्याप रहा हूं, तथापि जगत् की सम्पूर्ण उपाधियों से रहित हूंअर्थात् न कोई जाता है न कोई आता है और जाता है आता है इस प्रकार की जो प्रतीति है सो अज्ञानवश है, वास्तव में नहीं है ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १३
अहोअहन्नमोमह्यं दक्षोनास्तीहमत्समः ।
असंस्टश्यशरीरेणयेनविश्वचिरन्धृतम्॥१३॥
मूलम् १३
अहोअहन्नमोमह्यं दक्षोनास्तीहमत्समः ।
असंस्टश्यशरीरेणयेनविश्वचिरन्धृतम्॥१३॥
अन्वयः १३
अहम् अहो ( तस्म ) मह्यम् नमः इह मत्तमः (कः अपि ) दक्षः न अस्ति येन शरीरेण असंस्पृश्य (मया) चिरम् विश्वम् धृतम् ॥ १३ ॥
हिन्दी १३
शिष्य शङ्का करता है कि, जिस आत्मा का देह से सङ्ग है, वह असङ्ग किस प्रकार हो सकता है, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, मैं आश्चर्यरूप हूं इस कारण मेरे अर्थ नमस्कार है, क्योङ्कि इस जगत् में मेरी समान कोई चतुर नहीं है, अर्थात् अघट घटना करने में मैं चतुर हूं, क्योङ्कि में शरीर में रहकर भी शरीर से स्पर्श नहीं करता हूं और शरीरकार्य करता हूं जिस प्रकार आम धृत के पिण्ड में लीन न होकर भी घृतपिण्ड को गलाकर रसरूप कर देता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् में मैं लीन नहीं होता हूं और सम्पूर्ण जगत् को चिरकाल धारण करता हूं ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १४
अहोअनमोमायस्यमेनास्तिकिञ्चन।
अथवायस्यमसवैयद्राङ्मनसगोचरम् ॥ १४॥
मूलम् १४
अहोअनमोमायस्यमेनास्तिकिञ्चन।
अथवायस्यमसवैयद्राङ्मनसगोचरम् ॥ १४॥
अन्वयः १४
अहो अहम् यस्य मे (परमार्थतः ) किञ्चन न अस्ति अथवा यत् वाङ्मनसगोचरम् ( तत् ) सर्वम् यस्य मे ( सम्बधेि अस्ति अतः ) मह्यं नमः ॥ १४॥
हिन्दी १४
शिष्य आशङ्का करता है कि, हे गुरो! सम्बन्धक बिना जगत् किस प्रकार धारण होता है ? भीत गृह की छत आदि को धारण करती है परन्तु काष्ठ आदि से उस का सम्बन्ध होता है, सो आत्मा बिना सम्बन्ध के जगत् को किस प्रकार धारण करता है इस का गुरु समाधान करते हैं कि, अहो मैं बड़ा आश्चर्यरूप हूं इस कारण अपने स्वरूप को नमस्कार करूं हूं, आश्चर्यरूपता दिखाते हैं कि, परमार्थदृष्टि से तो मेरा किसी से सम्बन्ध नहीं है, और विचारदृष्टि से देखो तो मुझ से भिन्न भी कोई नहीं है और यदि सांसारिकदृष्टि से देखो तो जो कुछ मन वाणी से विचारा जाता है वह सब मेरा सम्बन्धी है परन्तु वह मिथ्या सम्बन्ध है, जिस प्रकार सुवर्ण तथा कुण्डल का सम्बन्ध है, इसी प्रकार मेरा और जगत् का सम्बन्ध है अर्थात् मेरा सब से सम्बन्ध है भी और नहीम्भो है, इस कारण आश्चर्यरूप जो मैं तिस मेरे अर्थ नमस्कार है ॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १५
ज्ञानज्ञेयन्तथाज्ञातात्रितयं नास्तिवास्तवम्।
अज्ञानाद्भातियत्रेदंसोऽहमस्मिनिरञ्जनः ॥१५॥
मूलम् १५
ज्ञानज्ञेयन्तथाज्ञातात्रितयं नास्तिवास्तवम्।
अज्ञानाद्भातियत्रेदंसोऽहमस्मिनिरञ्जनः ॥१५॥
अन्वयः १५
ज्ञानम ज्ञेयम् तथा ज्ञाता (इदम् ) त्रितयम् वास्तवम् न अस्ति यत्र इदम् अज्ञानात् भाति सः अहम् निरञ्जनः अस्मि॥१५॥
हिन्दी १५
त्रिपुटीरूप जगत् तो सत्यसा प्रतीत होता है फिर जगत् का और आत्मा का मिथ्या सम्बन्ध किस प्रकार कहा, इस शिष्य को शङ्का का गुरु समाधान करते हैं कि, ज्ञान ज्ञेय तथा ज्ञाता इन तीनों का इकट्ठा नाम “त्रिपुटी” है, वह त्रिपुटी वास्तविक अर्थात् सत्य नहीं है, तिस त्रिपुटी का जिस मेरे ( आत्मा के ) वि मिथ्या सम्बन्ध अर्थात् अज्ञान से प्रतीत है, वह मैं अर्थात् आत्मा तो निरञ्जन कहिये सम्पूर्ण प्रपञ्च से रहित हूं ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १६
द्वैतमूलमहोदुःखन्नान्यत्तस्यास्तिभेषजम् ।
दृश्यमेतन्मृषासमेकोऽहञ्चिद्रसोऽमलः ॥ १६॥
मूलम् १६
द्वैतमूलमहोदुःखन्नान्यत्तस्यास्तिभेषजम् ।
दृश्यमेतन्मृषासमेकोऽहञ्चिद्रसोऽमलः ॥ १६॥
अन्वयः १६
अहो ( निरञ्जनस्य अपि आत्मनः ) द्वैतमूलम् दुःखम् (भवति ) तस्य भेषजम् एतत् दृश्यम् सर्वम् मृषा अहम् एकः अमल: चिद्रसः ( इति बोवात् ) अन्यत् न अस्ति ॥ १६॥
हिन्दी १६
शिष्य शङ्का करता है कि यदि आत्मा निरञ्जन है तो दुःख का सम्बन्ध किस प्रकार होता है, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, सुखदुःख भ्रान्तिमात्र है, वास्तविक नहीं, निरञ्जन आत्मा के विषें द्वैतमात्र से सुखदुःख भासता है वास्तव में आत्मा के विषें सुखदुःख कुछ भी नहीं होता है तहां शिष्य प्रश्न करता हे कि, हे गुरो! द्वैतभ्रम को औषधि कहिये जिस के सेवन करने से द्वैतभ्रम की निवृत्ति होती है ! तिस का गुरु उत्तर देते हैं कि, हे शिष्य ! मैं आत्मा हूं, अमल हूं, माया और माया का कार्य जो जगत् तिस से रहित चिन्मात्र अद्वितीयरूप हूं और दृश्यमान यह सम्पूर्ण संसार जड और मिथ्या है, सत्य नहीं है, ऐसा ज्ञान होने से द्वैतभ्रम नष्ट हो जाता है, इस के बिना दूसरी द्वैत भ्रम से उत्पन्न हुए दुःख के दूर करने की अन्य औषधि नहीं है ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १७
बोधमात्रोऽहमज्ञानाडुपाधिः कल्पितोमया।
एवंविमृशतोनित्यनिर्विकल्पेस्थितिर्मम ॥१७॥
मूलम् १७
बोधमात्रोऽहमज्ञानाडुपाधिः कल्पितोमया।
एवंविमृशतोनित्यनिर्विकल्पेस्थितिर्मम ॥१७॥
अन्वयः १७
अहम् बोधमात्रः मया अज्ञानात् उपाधिः कल्पितः एवम् नित्यम् विमृशतः मम निर्विकलो स्थितिः (प्रजाता)॥१७॥
हिन्दी १७
शिष्य प्रश्न करता है कि, आत्मा के विषें द्वैतप्रपञ्च का अध्यास किस प्रकार हुआ है और वह कल्पित है या वास्तविक हे तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, मैं बोधरूप चैतन्यस्वरूप हूं परन्तु मैन्ने अपने विषें अज्ञान से उपाधि (अहङ्कारादि द्वैतप्रपञ्च) कल्पना किया है अर्थात् मैं अखण्डानन्दब्रह्म नहीं हूं किन्तु देह हूं यह माना है. इस कारण नित्य विचार कर के मेरी निर्विकल्प अर्थात् वास्तविक निज स्वरूप (ब्रह्म) के विषें स्थिति हुई है ॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १८
नमेबन्धोऽस्ति मोक्षा वा भ्रान्तिःशान्ता निराश्रया ।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्॥१८॥
मूलम् १८
नमेबन्धोऽस्ति मोक्षा वा भ्रान्तिःशान्ता निराश्रया ।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्॥१८॥
अन्वयः १८
मे बन्धः वा मोक्षः न अस्ति अहो मयि स्थितम् (अपि) विश्वं वस्तुतः मयि न स्थितम् (इति विचारतः अपि) निराश्रया भ्रान्तिः ( एव ) शान्ता ॥ १८॥
हिन्दी १८
शिष्य शङ्का करता है, कि, हे गुरो ! यदि केवल विचार करने ही से मुक्ति होती है तब तो मुक्ति का विनाश होना चाहिये क्योङ्कि जब विचार नष्ट होता है तब मुक्ति का भी नाश होना चाहिये और यदि कहो कि विचार के बिना ही मुक्ति हो जाती है तब तो गुरु और शास्त्र के उपदेश को प्राप्त न होनेवाले पुरुषोङ्की भी मुक्ति होना चाहिये ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, यदि शुद्ध विचार की दृष्टि से देखो तो मेरे बन्ध नहीं है और मोक्ष भी नहीं है अर्थात् विचारदृष्टि से न आत्मा का बन्ध होता है, न मोक्ष होता है, क्योङ्कि मैं (आत्मा) नित्य चित्स्वरूप हूं, तहां शिष्य शङ्कित होकर प्रश्न करता है कि हे गुरो ! वेदान्तशास्त्र विचार का जो फल है सो कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि भ्रान्ति की निवृत्ति ही वेदान्तशास्त्र के विचार का फल है क्योङ्कि बड़ा आश्चर्य है जो मेरे विषें स्थित भी जगत् वास्तव में मेरे विषें स्थित नहीं है इस प्रकार विचार करनेपर भी भ्रान्तिमात्र ही नष्ट हुई, परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई इस से प्रतीत होता है कि, भ्रान्ति की निवृत्ति ही शास्त्रविचार का फल है, तहां शिष्य कहता है कि, हे गुरो ! भ्राति कैसी थी जो विचार करनेपर तुरन्त ही नष्ट हो गई, तिस का गुरु उत्तर देते है कि, भ्राति निराश्रय अर्थात् अज्ञानरूपथी सोविचार से नष्ट हो गई ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १९
स शरीरमिदंविश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम् ।
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिकल्पनाधुना॥१९॥
मूलम् १९
स शरीरमिदंविश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम् ।
शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिकल्पनाधुना॥१९॥
अन्वयः १९
इदम् शरीरम् विश्वं किञ्चित् न इति निश्चितम् आत्मा व शुद्धचिन्मात्रः तत् अधुना कल्पना कस्मिन् ( स्यात् ) ॥ १९॥
हिन्दी १९
शिष्य शङ्का करता है कि उस मुक्त पुरुष के वि भी प्रपञ्च का उदय होना चाहिये, क्योङ्कि रज्जु होती है तो उस में क भी अन्धकार के विषें सर्प की भ्रान्ति हो ही जाती है, तिसी प्रकार अधिष्ठान जो ब्रह्म है तिस के विषें द्वैत (प्रपञ्च ) की कल्पना हो जाती है इस शङ्का का गुरु समाधान करते हैं कि, यह शरीरसहित सम्पूर्ण जगत् जो प्रतीत होता है सो कुछ नहीं है अर्थात् न सत् है, न असत् है, क्योङ्कि सब ब्रह्मरूप है, सोई श्रुतिमें भी कहा है “ नेह नानास्ति किञ्चन “ अर्थात् यह सम्पूर्ण नगत् ब्रह्मरूप ही है, आत्मा शुद्ध अर्थात् मायारूपी मलरहित और चित्स्वरूप है, इस कारण किस अधिठान में विश्व की कल्पना होती है ? ॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २०
शरीरंस्वर्गनर को बन्धमोक्षोभयन्तथा।
कल्प-नामात्रमेवैतत्किमेकाचिदात्मनः॥२०॥
मूलम् २०
शरीरंस्वर्गनर को बन्धमोक्षोभयन्तथा।
कल्प-नामात्रमेवैतत्किमेकाचिदात्मनः॥२०॥
अन्वयः २०
शरीरम् स्वर्गनर को बन्धमोक्षौ तथा भयम् एतत् कल्पनामात्रमेव चिदात्मनः मे एतैः किम् कार्यम् ॥ २० ॥
शिष्य शङ्का करता है कि, हे गुरो! यदि सम्पूर्ण प्रपञ्च मिथ्या है, तब तो ब्राह्मणादि वर्ण और मनुष्यादि जाति भी अवास्तविक होङ्गे और वर्णजाति के अर्थ प्रवृत्त होनेवाले विधिनिषेध शास्त्र भी अवास्तविक होङ्गे, और विधिनिषेध शास्त्रों के विषें वर्णन किये हुए स्वर्ग नरक तथा स्वर्ग के विषेप्रीति और नरक का भय भी अवास्तविक हो जायगे और शास्त्रों के विषें वर्णन किये हुए बन्ध मोक्ष भी अवास्तविक अर्थात् मिथ्या हो जायँगे ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! तेने जो शङ्का की सो शरीर, स्वर्ग, नरक, बन्ध, मोक्ष तथा भय आदि
सम्पूर्ण मिथ्या हैं, तिन शरीरादि के साथ सच्चिदानन्दस्वरूप जो में तिस मेरा कोई कार्य नहीं है, क्योङ्कि सम्पूर्ण विधिनिषेधरूप कार्य अज्ञानी पुरुष के होते हैं, ब्रह्मज्ञानी के नहीं ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २१
अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।
अरण्यभिवसंवृत्तङ्करतिकरवाण्यहम् ॥२१॥
मूलम् २१
अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।
अरण्यभिवसंवृत्तङ्करतिकरवाण्यहम् ॥२१॥
अन्वयः २१
अहो न दैतम् पश्यतः मम जनसमूहे अपि अरण्यम् इव संवृत्तम् अहम् क रतिम् करवाणि ॥२१॥
हिन्दी २१
अब इस प्रकार वर्णन करते हैं कि, जिस प्रकार स्वर्ग नरक आदि को अवास्तविक वर्णन किया तिसी प्रकार यह लोक भी अवास्तविक है इस कारण इस लोक में मेरी प्रीति नहीं होती है, बडे आश्चर्य की वार्ता है कि, मैं जनप्तमूह में निवास करता हूं, परन्तु मेरे मन को वह जनसमूह अरण्यसा प्रतीत होता है, सो मैं इस अवास्तविक कहिये मिथ्याभूत संसार के विषें क्या प्रीति करूं ? ॥२१॥
नाहन्देहो न मेरेहोजीवो नाहमहंहि चित् ।
अयमेवहिमेबन्धआसीद्याजीवितेस्टहा२२॥
अन्वयः २२
अहम् देहः न मे देहः न अहम् जीवः न हि अहम् चित् मे अयम् एव हि बन्धः या जीविते स्पृहा आसीत् ॥ २२॥
हिन्दी २२
शिष्य शङ्का करता है कि, हे गुरो ! पुरुष शरीर के विषें मैं हूं मेरा है इत्यादि व्यवहार कर के प्रीति करता है इस कारण शरीर के विषें तो स्पृहा करनी ही होगी, तिस का समाधान करते हैं कि, देह मैं नहीं हूं, क्योङ्कि देह जड है और देह मेरा नहीं है, क्योङ्कि मैं तो असङ्ग हूं और जीव जो अहङ्कार सो मैं नहीं, तहां शङ्का होती है कि, तु कौन है ? तिस के उत्तर में कहते हैं कि, मैं तो चैतन्यस्वरूप ब्रह्म हूं तहां शङ्का होती है कि, यदि आत्मा चैतन्यस्वरूप है, देहादिरूप जड नहीं है तो फिर ज्ञानी पुरुषोङ्की भी जीवन में इच्छा क्यों होती है ? तिस का समाधान करते हैं कि, यह जीवने की जो इच्छा है सोई बन्धन है, दूसरा बन्धन नहीं है, क्योङ्कि, पुरुष जीवन के निमित्तहो सुवर्ण को चोरी आदि अनेक प्रकार के अनर्थ कर के कर्मानुसार संसारबन्धन में बँधता है और सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होनेपर पुरुष की जीवन में स्पृहा नहीं रहती है ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २३
अहोभुवनकल्लोलैविचित्र क्समुत्थितम् ।
मय्यनन्तमहाम्भोधौचित्तवातेसमुद्यते॥२३॥
मूलम् २३
अहोभुवनकल्लोलैविचित्र क्समुत्थितम् ।
मय्यनन्तमहाम्भोधौचित्तवातेसमुद्यते॥२३॥
अन्वयः २३
अहो अनन्तमहाम्भोधौ मयि चित्तवाते समुद्यते विचित्रः भुवनकल्लोलैः द्राक्समुत्थितम् ॥ २३ ॥
हिन्दी २३
जब पुरुष को सब के अधिष्ठानरूप आत्मस्वरूप का ज्ञान होता है, तब कहता है कि, अहो ! बडे आश्चर्य की वार्ता है कि, मैं चैतन्यसमुद्रस्वरूप हूं और मेरे विषें चित्तरूपी वायु के योग से नानाप्रकार के ब्रह्माण्डरूपी तरङ्ग उत्पन्न होते हैं अर्थात् जिस प्रकार जल से तरङ्ग भिन्न नहीं होते हैं, तिसी प्रकार ब्रह्माण्ड मुझ से भिन्न नहीं है ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २४
मय्यनन्तमहाम्भोधी चित्तवातेप्रशाम्यति ।
अभाग्याज्जीववणिजोजगत्पोतोषिनश्वरः ॥ २४ ॥
मूलम् २४
मय्यनन्तमहाम्भोधी चित्तवातेप्रशाम्यति ।
अभाग्याज्जीववणिजोजगत्पोतोषिनश्वरः ॥ २४ ॥
अन्वयः २४
अनन्तमहाम्भोधौ मषि चित्तवाते प्रशाम्यति (सति) जीववणिजः अभाग्यात् जगत् पोतः विनश्वरः ( भवति ) ॥ २४ ॥
हिन्दी २४
अब प्रारब्ध कर्मों के नाश की अवस्था दिखाते हैं कि मैं सर्वव्यापक चैतन्यस्वरूप समुद्र हूं, तिस मेरे विषें चित्तवायु के अर्थात् सङ्कल्पविकल्पात्मक मनरूप वायु के शान्त होनेपर अर्थात् सङ्कल्पादिरहित होनेपर जीवात्मारूप व्यापारी के अभाग्य कहिये प्रारब्ध के नाशरूप विपरीत पवन से जगत् समुद्र के विषें लगा हुआ शरीर आदिरूप नौका का समूह विनाशवान होता है ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २५
मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यजीववीचयः।
उद्यन्तिघ्नन्तिखेलन्तिप्रविशन्तिस्वभावतः॥ २५ ॥
मूलम् २५
मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्यजीववीचयः।
उद्यन्तिघ्नन्तिखेलन्तिप्रविशन्तिस्वभावतः॥ २५ ॥
अन्वयः २५
आश्चर्यम् ( यत् ) अनन्तमहाम्भोधौ मयि जीवबीचयः स्वभावतः उद्यन्ति प्रन्ति खलन्ति प्रविशन्ति ॥ २५ ॥
हिन्दी २५
अब सम्पूर्ण प्रपञ्च को मिथ्या जानकर कहते हैं कि, आश्चर्य है कि, निष्क्रिय निर्विकार मुझ चैतन्यसमुद्र के विषें अविद्याकामकर्मरूप स्वभाव से जीवरूपी तरङ्ग उत्पन्न होते हैं और परस्पर शत्रुभाव से ताडन करते हैं और कोई मित्रभाव से परस्पर क्रीडा करते हैं और अविद्याकाम कर्म के नाश होनेपर मेरे विलीन हो जाते हैं अर्थात् जीवरूपी तरङ्ग अविद्या बन्धन से उत्पन्न होते हैं, वास्तव में चिद्रूप हैं जिस प्रकार घटाकाश महाकाश में लीन हो जाता है, तिस प्रकार मेरे विषें सम्पूर्ण जीव लीन हो जाते हैं, वही ज्ञान है ॥२५॥
इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितं शिष्येणोक्तमात्मानुभवोल्लासपञ्चपञ्चविशतिकं नाम द्वितीयं प्रकरणं समाप्तम् ॥२॥