विश्वास-प्रस्तुतिः १
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो॥१॥
मूलम् १
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो॥१॥
अन्वयः १
हे प्रभो ! (पुरुषः ) ज्ञानम् कथम् अवाप्नोति । (पुंसः) मुक्तिः कथम् भविष्यति । ( पुंसः) वैराग्यम् च कथम् प्राप्तम् ( भवति ) एतत् मम ब्रूहि ॥१॥
हिन्दी १
एक समय मिथिलाधिपति राजा जनक के मन में पूर्वपुण्य के प्रभाव से इस प्रकार जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि, इस असार संसाररूपी बन्धन से किस प्रकार मुक्ति होगी और तदनन्तर उन्होन्ने ऐसा भी विचार किया कि, किसी ब्रह्मज्ञानी गुरु के समीप जाना चाहिये, इसी अन्तर में उन को ब्रह्मज्ञान के मानो समुद्र परम दयालु श्रीअष्टावक्रजी मिले । इन मुनि की आकृति को देखकर राजा जनक के मन में यह अभिमान हुआ कि, यह ब्राह्मण अन्त्यत ही कुरूप है । तब दूसरे के चित्त का वृत्तान्त जाननेवाले अष्टावक्रजी राजा के मन का भी विचार दिव्यदृष्टि के द्वारा जानकर राजा जनक से बोले कि, हे राजन् ! देहदृष्टि को छोडकर यदि आत्मदृष्टि करोगे तो यह देह टेढा है परन्तु इस में स्थित आत्मा टेढा नहीं है, जिस प्रकार नदी टेढी होती है परन्तु उस का जल टेढा नहीं होता है, जिस प्रकार इक्षु (गन्ना) टेढा होता है परन्तु उस का रस टेढा नहीं है। तिसी प्रकार यद्यपि पाञ्चभौतिक यह देह टेढा है, परन्तु अन्तर्यामी आत्मा टेढा नहीं है। किन्तु आत्मा असङ्ग, निर्विकार, व्यापक, ज्ञानघन, सचिदानन्दस्वरूप, अखण्ड, अच्छेद्य, अभेद्य, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव है, इस कारण हे राजन् ! तुम देहदृष्टि को त्यागकर आत्मदृष्टि करो । परम दयालु अष्टावक्रजी के इस प्रकार के वचन सुनने से राजा जनक का मोह तत्काल दूर हो गया और राजा जनकने मन में विचार किया कि मेरे सब मनोरथ सिद्ध हो गये, में अब इनको ही गुरु करूङ्गा। क्योङ्कि यह महात्मा ब्रह्मविद्या के समुद्ररूप है, जीवन्मुक्त हैं, अब इन से अधिक ज्ञानी मुझे कौन मिलेगा? अब तो इन से ही गुरुदीक्षा लेकर इनको ही शरण लेना योग्य है, इस प्रकार विचारकर राजा जनक अष्टावक्रजी से इस प्रकार बोले कि, हे महात्मन् ! मैं संसारबन्धन से छूटने के निमित्त आप की शरण लेने की इच्छा करता हूं, अष्टावक्रजीने भी राजा जनक को अधिकारी समझकर अपना शिष्य कर लिया, तब राजा जनक अपने चित्त के सन्देहों को दूर करने के निमित्त और ब्रह्मविद्या के श्रवण करने की इच्छा कर के अष्टावक्रजी से पूञ्छने लगे। अष्टावक्रजी से राजा जनक प्रश्न करते हैं कि - हे प्रभो ! अविद्याकर के मोहित नाना प्रकार के मिथ्या सङ्कल्प विकल्पोङ्कर के बारम्बार जन्ममरणरूप दुःखों को भोगनेवाले इस पुरुष को अविद्यानिवृत्तिरूप ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है ? इन तीनों प्रश्नों का उत्तर कृपा कर के मुझ से कहिये॥१॥
अष्टावक्र उवाच।
विश्वास-प्रस्तुतिः २
मुक्तिमिच्छसिचेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज ॥२॥
मूलम् २
मुक्तिमिच्छसिचेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज ॥२॥
अन्वयः २
हे तात ! चेन् मुक्तिम् इच्छसि ( तर्हि ) विषयान् विषवत् ( अवगत्य ) त्यज । क्षमार्जवदयातोषसत्यम् पीयूषवत् ( अवगत्य ) भज ॥२॥
हिन्दी २
इस प्रकार जब राजा जनकने प्रश्न किया तब ज्ञानविज्ञानसम्पन्न परम दयालु अष्टावक्रमुनिने विचार किया कि, यह पुरुष तो अधिकारी है और संसारबन्धन से मुक्त होने की इच्छा से मेरे निकट आया है, इस कारण इस को साधनचतुष्टयपूर्वक ब्रह्मतत्व का उपदेश करूं क्योङ्कि साधनचतुष्टय के बिना कोटि उपाय करने से भी ब्रह्मविद्या फलीभूत नहीं होती है इस कारण शिष्य को प्रथम साधनचतुष्टय का उपदेश करना योग्य है और साधनचतुष्टय के अनन्तर ही ब्रह्मज्ञान के विषय की इच्छा करनी चाहिये, इस प्रकार विचार कर अष्टावक्राजी बोले कि-हे तात ! हे शिष्य ! सम्पूर्ण अनर्थो की निवृत्ति और परमानन्दमुक्ति की इच्छा जब होवे तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पाञ्चों विषयों को त्याग देवे । ये पाञ्च विषय कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासि का इन पाञ्च ज्ञानेन्द्रियों के हैं, ये सम्पूर्ण जीव के बन्धन हैं, इन से बन्धा हुआ जीव उत्पन्न होता है और मरता है तब बड़ा दुःखी होता है, जिस प्रकार विष भक्षण करनेवाले पुरुष को दुःख होता है, उसी प्रकार शब्दादिविषयभोग करने वाला पुरुष दुःखी होता है। अर्थात् शब्दादि विषय महा अनर्थ का मूल है उन विषयों को तू त्याग दे। अभिप्राय यह है कि, देह आदि के विषय में मैं हूं, मेरा है इत्यादि अध्यास मत कर इस प्रकार बाह्य इन्द्रियों को दमन करने का उपदेश किया. जो पुरुष इस प्रकार करता है उस को ‘दम’ नामवाले प्रथम साधन की प्राप्ति होती है और जो अन्तःकरण को वश में कर लेता है उस को ‘शम’ नामवाली दूसरी साधनसम्पत्ति की प्राप्ति होती है। जिस का मन अपने वश में हो जाता है उस का एक ब्रह्माकार मन हो जाता है, उस का नाम वेदान्तशास्त्र में निर्विकल्पक समाधि कहा है, उस निर्विकल्पक समाधि की स्थिति के अर्थ क्षमा ( सब सह लेना ), आर्जव ( अविद्यारूप दोष से निवृत्ति रखना ), दया (बिना कारण ही पराया दुःख दूर करने की इच्छा), तोष ( सदा सन्तुष्ट रहना), सत्य (त्रिकाल में एकरूपता) इन पाञ्च सात्विक गुणों का सेवन करे। जिस प्रकार कोई पुरुष अमृततुल्य औषधि सेवन करे और उस औषधि के प्रभाव से उस के सम्पूर्ण रोग दूर हो जाते हैं, उसी प्रकार जो पुरुष अमृततुल्य इन पाञ्च गुणों को सेवन करता है, उस के जन्ममृत्युरूप रोग दूर हो जाते हैं अर्थात इस संसार के विषय में जिस पुरुष को मुक्ति की इच्छा होय वह विषयों का त्याग कर देवे, विषयों का त्याग करे बिना मुक्ति कदापि नहीं होती है, मुक्ति अनेक दुःखों की दूर करनेवाली और परमानन्द की देनेवाली है इस प्रकार अष्टावक्रमुनिने प्रथम शिष्य को विषयों को त्यागने का उपदेश दिया ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥३॥
मूलम् ३
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥३॥
अन्वयः ३
(हे शिष्य !) भवान् पृथ्वी न । जलम् न। अग्निः न । वायुः न । वा द्यौः न । एषाम् साक्षिणम् चिद्रूपम् आत्मानम् मुक्तये विद्धि ॥३॥
हिन्दी ३
अब मुनि साधनचतुष्टयसम्पन्न शिष्य को मुक्ति का उपदेश करते हैं, तहां शिष्य शङ्का करता है कि, हे गुरो ! पञ्च भूत का शरीर ही आत्मा है और पञ्चभूतोङ्के ही पाञ्च विषय हैं, सो इन पञ्चभूतों का जो स्वभाव है उस का कदापि त्याग नहीं हो सकता, क्योङ्कि पृथ्वी से गन्ध का या गन्ध से पृथ्वी का कदापि वियोग नहीं हो सकता है, किन्तु वे दोनों एकरूप होकर रहते हैं, इसी प्रकार रस और जल, अग्नि और रूप, वायु और स्पर्श, शब्द और आकाश है, अर्थात् शब्दादि पाञ्च विषयों का त्याग तो तब हो सकता है जब पञ्च भूतों का त्याग होता है और यदि पञ्च भूत का त्याग होय तो शरीरपात हो जावेगा फिर उपदेश ग्रहण करनेवाला कौन रहेगा ? तथा मुक्तिसुख को कौन भोगेगा ? अर्थात् विषय का त्याग तो कदापि नहीं हो सकता इस शङ्का को निवारण करने के अर्थ अष्टावक्रजी उत्तर देते हैं-हे शिष्य ! पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा इन के धर्म जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध सो तू नहीं है इस पाञ्चभौतिक शरीर के विषय में तू अज्ञान से अहम्भाव ( मैं हूं, मेरा है इत्यादि ) मानता है इन का त्याग कर अर्थात् इस शरीर के अभिमान का त्याग कर दे और विषयों को अनात्मधर्म जानकर त्याग कर दे। अब शिष्य इस विषय में फिर शङ्का करता है कि, हे गुरो ! मैं गौरवर्ण हूं, स्थूल हूं कृष्णवर्ण हूं, रूपवान हूं, पुष्ट हूं, कुरूप हूं, काणा हूं, नीच हूं, इस प्रकार की प्रतीति इस पाञ्चभौतिक शरीर में अनादि काल से सब ही पुरुषों को हो जाती है, फिर तुमने जो कहा कि, तू देह नहीं है सो इस में क्या युक्ति है ? तब अष्टावक्र बोले कि, हे शिष्य ! अविवे की पुरुष को इस प्रकार प्रतीति होती है, विवेकदृष्टि से तू देह इन्द्रयादि का द्रष्टा और देह इन्द्रियादि से पृथक है। जिस प्रकार घट को देखनेवाला पुरुष घट से पृथक होता है, उसी प्रकार आत्माको भी सर्व दोषरहित और सब का साक्षी जान . इस विषय में न्यायशास्त्रवालों की शङ्का है, कि, साक्षिपना तो बुद्धि में रहता है, इस कारण बुद्धि ही आत्मा हो जायगी, इस का समाधान यह है कि, बुद्धि तो जड है और आत्मा चेतन माना है, इस कारण जड जो बुद्धि सो आत्मा नहीं हो सकता है, तो आत्मा को चैतन्यस्वरूप जान तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! चैतन्यरूप आत्मा के जानने से क्या फल होता है सो कहिये ? तिस के उत्तर में अष्टावक्रजी कहते हैं कि, साक्षी और चैतन्य जो आत्मा तिस को जानने से पुरुष जीवन्मुक्तपद को प्राप्त होता है, य ही आत्मज्ञान का फल है, मुक्ति का स्वरूप किसी के विचार में नहीं आया है, षटशास्त्रकार अपनी २ बुद्धि के अनुसार मुक्ति के स्वरूप की कल्पना करते हैं। न्यायशास्त्रवाले इस प्रकार कहते हैं कि, दुःखमात्र का जो अत्यन्त नाश है वही मुक्ति है और बलवान् प्रभाकरमतावलम्बी मीमांसकों का यह कथन है कि, समस्त दुःखों का उत्पन्न होने से पहिले जो सुख है वही मुक्ति है, बौधमतवालों का यह कथन है कि, देह का नाश होना ही मुक्ति है, इस प्रकार भिन्न २ कल्पना करते हैं, परन्तु यथार्थ बोध नहीं होता है, किन्तु वेदान्तशास्त्र के अनुसार आत्मज्ञान ही मुक्ति है इस कारण अष्टावक्रमुनि शिष्य को उपदेश करते हैं।॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥ ४ ॥
मूलम् ४
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥ ४ ॥
अन्वयः ४
(हे शिष्य ! ) यदि देहम् पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य . तिष्ठसि ( तहि ) अधुना एंव सुखी शान्तः बन्धमुक्तः भविष्यसि ॥ ४ ॥
हिन्दी ४
हे शिष्य ! यदि तू देह तथा आत्मा का विवेक कर के अलग जानेगाऔर आत्मा के विषय में विश्राम कर के चित को एकाग्र करेगा तो तू इस वर्तमान ही मनुष्यदेह के विषय में सुख तथा शान्ति को प्राप्त होगा अर्थात् बन्धमुक्त कहिये कर्तृत्व ( कर्तापना) भोक्तृत्व ( भोक्तापना) आदि अनेक अनर्थों से छूट जावेगा॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
न त्वं विप्रादि को वर्णों नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असङ्गोसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५॥
मूलम् ५
न त्वं विप्रादि को वर्णों नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असङ्गोसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५॥
अन्वयः ५
त्वम् विप्रादिकः वर्णः न आश्रमी न अक्षगोचरः न (किन्तु, त्वम् ) असङ्गः निराकारः विश्वसाक्षी असि ( अतः कर्मासक्तिम् विहाय चिति विश्राम्य ) सुखी भव ॥५॥
हिन्दी ५
शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं तो वर्णाश्रम के धर्म में हूं इस कारण मुझे वर्णाश्रम कर्म का करना योग्य है, अर्थात् वर्णाश्रम के कर्म करने से आत्मा के विषय में विश्राम कर के मुक्ति किस प्रकार होगी ? तब तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, तू ब्राह्मण आदि नहीं है, तूब्रह्मचारी आदि किसी आश्रम में नहीं है। तहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि, मैं ब्राह्मण हूं, मैं सन्न्यासी हूं इत्यादि प्रत्यक्ष है, इस कारण आत्मा ही वर्णश्रमी है। तहां गुरु समाधान करते हैं कि, आत्मा का इन्द्रिय तथा अन्तःकरण कर के प्रत्यक्ष नहीं होता है और जिस का प्रत्यक्ष होता है वह देह है, तहां शिष्य फिर प्रश्न करता है कि, मैं क्या वस्तु हूं ? तहां गुरुसमाधान करते हैं कि, तू असङ्ग अर्थात् देहादिक उपाधि यथा आकाररहित विश्व का साक्षी आत्मस्वरूप है, अर्थात् तुझ में वर्णाश्रमपना नहीं है, इस कारण कर्मों के विषय में आसक्ति न कर के चैतन्यरूप आत्मा के विषय में विश्राम कर के परमानन्द को प्राप्त हो ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥ ६ ॥
मूलम् ६
धर्माधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा ॥ ६ ॥
अन्वयः ६
हे विभो ! धर्माधर्मौ सुखम् दुःखम् मानसानि ते न (त्वम् ) कर्ता न असि भोक्ता न असि (किन्तु ) सर्वदा मुक्त एव असि ॥ ६ ॥
हिन्दी ६
तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, वेदोक्त वर्णाश्रम के कर्मों को त्यागकर आत्मा के विषें विश्राम करनेमें भी तो अधर्मरूप प्रत्यवाय होता है, तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! धर्म, अधर्म, सुख और दुःख यह तो मन का सङ्कल्प है. तिस कारण तिन धर्माधमादि के साथ तेरा त्रिकालमें भी सम्बन्ध नहीं है। तू कर्ता नहीं है, तू भोक्ता नहीं है, क्योङ्कि विहित अथवा निषिद्ध कर्म करता है वही सुख दुःख का भोक्ता है । सो तुझ में नहीं है क्योङ्कि तूं तो शुद्धस्वरूप है, और सर्वदा कालमुक्त है । अज्ञान कर के भासनेवाले सुख दुःख आत्मा के विषें आश्रय करके ही निवृत्त हो जाते हैं ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ७
ए को द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हिते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥७॥
मूलम् ७
ए को द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हिते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥७॥
अन्वयः ७
( हे शिष्य ! त्वम् ) सर्वस्य द्रष्टा एकः असि सर्वदा मुक्तप्रायः असि हि ते अयम् एव बन्धः (यम् ) द्रष्टारम् इतरम् पश्यसि ॥७॥
हिन्दी ७
तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, शुद्ध, एक, नित्य मुक्त ऐसा जो आत्मा है तिस का बन्धन किस निमित्त से होता है कि, जिस बन्धन के छुटान के अर्थ बडे २ योगी पुरुष यत्न करते हैं ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! तू अद्वितीय सर्वसाक्षी सर्वदा मुक्त है, तू जो द्रष्टा को द्रष्टा न जानकर अन्य जानता है य ही बन्धन है । सर्व प्राणियों में विद्यमान आत्मा एक ही है और अभिमानी जीव के जन्मजन्मान्तर ग्रहण करनेपर भी आत्मा सर्वदा मुक्त है । तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, फिर संसारबन्ध क्या वस्तु है ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, यह प्रत्यक्ष देहाभिमान ही संसारबन्धन है अर्थात् यह कार्य करता हूं, यह भोग करता हूं इत्यादि ज्ञान ही संसारबन्धन है, वास्तव में आत्मा निर्लेप है, तथापि देह और मन के भोग को आत्मा का भोग मानकर बद्धसा हो जाता है ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ८
अहं कतैत्यहमानमहाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव॥८॥
मूलम् ८
अहं कतैत्यहमानमहाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव॥८॥
अन्वयः ८
(हे शिष्य ! ) अहम् कर्ता इति अहम्मानमहाकृष्णाहिन्दंशितः ( त्वम् ) अहं कर्ता न इति विश्वासामृतम् पीत्वा सुखी भव ॥८॥
हिन्दी ८
यहान्तक बन्धहेतु का वर्णन किया अब अनर्थ के हेतु का वर्णन करते हुए अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द के उपाय का वर्णन करते हैं। मैं कर्ता हूं’ इस प्रकार अहङ्काररूप महाकाल सर्प से तू काटा हुआ है इस कारण मैं कर्ता नहीं हूं इस प्रकार विश्वासरूप अमृत पीकर सुखी हो । आत्माभिमानरूप सर्प के विष से ज्ञानरहित और जर्जरीभूत हआ है, यह बन्धन जितने दिनोन्तक रहेगा तबतक किसी प्रकार सुख की प्राप्ति नहीं होगी; जिस दिन यह जानेगा कि, मैं देहादि कोई वस्तु नहीं हूं, मैं निर्लिप्त हूं उस दिन किसी प्रकार का मोह स्पर्श नहीं कर सकेगा ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ९
ए को विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकःसुखी भव॥९॥
मूलम् ९
ए को विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकःसुखी भव॥९॥
अन्वयः ९
( हे शिष्य ! ) अहम् विशुद्धबोधः एकः ( अस्मि) इति निश्चयवह्निना अज्ञानगहनम् प्रज्वाल्य वीतशोकः ( सन ) सुखी भव ॥९॥
हिन्दी ९
तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, आत्मज्ञानरूपी अमृत पान किस प्रकार करूं ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! मैं एक हूं अर्थात् मेरे विषें सजाति विजाति का भेद नहीं है और स्वगतभेद भी नहीं है, केवल एक विशुद्धबोध और स्वप्रकाशरूप हूं, निश्चयरूपी अग्नि से अज्ञानरूपी वन का भस्म कर के शोक, मोह, राग, द्वेष, प्रवृत्ति, जन्म, मृत्यु इन के नाश होनेपर शोकरहित होकर परमानन्द को प्राप्त हो ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १०
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।
आनन्दपरमानन्दःस बोधस्त्वं सुखञ्चर ॥ १० ॥
मूलम् १०
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत् ।
आनन्दपरमानन्दःस बोधस्त्वं सुखञ्चर ॥ १० ॥
अन्वयः १०
यत्र इदम् विश्वम् रज्जुसर्पवत् कल्पितम् भाति सः आनन्दपरमानन्दः बोधः त्वम् सुखम् चर ॥ १० ॥
हिन्दी १०
तहां शिष्य शङ्का करता है कि, आत्मज्ञान से अज्ञानरूपी वन के भस्म होनेपर भी सत्यरूप संसार की ज्ञान से निवृत्ति न होने के कारण शोकरहित किस प्रकार होऊङ्गा ? तब गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार रज्जु के विषें सर्प की प्रतीति होती है और उस का भ्रम प्रकाश होने से निवृत्ति हो जाती है, तिस प्रकार ब्रह्म के विषें जगत् की प्रतीति अज्ञानकल्पित है ज्ञान होने से नष्ट हो जाती है। तू ज्ञानरूप चैतन्य आत्मा है, इस कारण सुखपूर्वक विचर । जिस प्रकार स्वप्न में किसी पुरुष को सिंह मारता है तो वह बड़ा दुःखी होता है परन्तु निद्रा के दूर होनेपर उस कल्पित दुःख का जिस प्रकार नाश हो जाता है तिस प्रकार तू ज्ञान से अज्ञान का नाश कर के सुखी हो । तहां शिष्य प्रश्न करता है, कि, हे गुरो ! दुःखरूप जगत् अज्ञान से प्रतीत होता है और ज्ञान से उस का नाश हो जाता है परन्तु सुख किस प्रकार प्राप्त होता है ? तब गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! जब दुःखरूपी संसार के नाश होनेपर आत्मा स्वभाव से ही आनन्दस्वरूप हो जाता है, मनुष्यलोक से तथा देवलोक से आत्मा का आनन्द परम उत्कृष्ट और और अत्यन्त अधिक है श्रुतिमें भी कहा है, “एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रमुपजीवन्ति “ इति॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ११
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।
किंवदन्तीहसत्येयं या मतिःसा गतिर्भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम् ११
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि ।
किंवदन्तीहसत्येयं या मतिःसा गतिर्भवेत् ॥ ११ ॥
अन्वयः ११
इह मुक्ताभिमानी मुक्तः अपि बद्धाभिमानी बद्धः हि या मतिः सा गतिः भवेत् इयम् किंवन्दती सत्या ॥ ११ ॥
हिन्दी ११
शिष्य शङ्का करता है कि, यदि सम्पूर्ण संसार रज्जु के विषय में सर्प की समान कल्पित है, वास्तव में आत्मा परमानन्दस्वरूप है तो बन्ध मोक्ष किस प्रकार होता है ? तहां गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस पुरुष को गुरु की कृपा से यह निश्चय हो जाता है कि, मैं मुक्तरूप हूं वही मुक्त है और जिस के ऊपर सद्गुरु की कृपा नहीं होती है और वह यह जानता है कि, मैं अल्पज्ञ जीव और संसारबन्धन में बन्धा हुआ हूं वही बद्ध है, क्योङ्कि बन्ध और मोक्ष अभिमान से ही उत्पन्न होते है अर्थात् मरणसमय में जैसा अभिमान होता है वैसी ही गति होती है यह बात श्रुति, स्मृति, पुराण और ज्ञानी पुरुष प्रमाण मानते हैं कि, “मरणे या मतिः सा गतिः” सोई गीतामें भी कहा है कि, “ यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥” इस का अभिप्राय यह है कि, श्रीकृष्णजी उपदेश करते हैं कि, हे अर्जुन ! अन्तसमय में जिस २ भाव को स्मरण करता हुआ पुरुष शरीर को त्यागता है तस २ भावना से तिस २ गतिको ही प्राप्त होता है। श्रुतिमें भी कहा है कि “ तं विद्याकर्मणी समारभेते पूर्वप्रज्ञा च” इस का भी य ही अभिप्राय है और बन्ध तथा मोक्ष अभिमान से होते हैं वास्तव में नहीं. यह वार्ता पहले कह आये हैं तो भी दूसरी बार शिष्य को बोध होने के अर्थ कहा है इस कारण कोई दोष नहीं है क्योङ्कि आत्मज्ञान अत्यन्त कठिन है ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १२
आत्मा साक्षी विभुःपूर्णए को मुक्तश्चिदक्रियः ।
असङ्गोनिःस्पृहः शान्तोभ्रमात्संसारवानिव॥१२॥
मूलम् १२
आत्मा साक्षी विभुःपूर्णए को मुक्तश्चिदक्रियः ।
असङ्गोनिःस्पृहः शान्तोभ्रमात्संसारवानिव॥१२॥
अन्वयः १२
साक्षी विभुः पूर्णः एकः मुक्तः चित् अक्रियः असङ्गः निःस्पृहः शान्तः आत्मा भ्रमात् संसारवान इव (भाति )॥१२॥
हिन्दी १२
जीवात्मा के बन्ध और मोक्ष पारमार्थिक हैं इस तार्किक की शङ्का को दूर करने के निमित्त कहते हैं कि, अज्ञान से देह को आत्मा माना है तिस कारण वह संसारी प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है, क्योङ्कि आत्मा तो साक्षी है और अहङ्कारादि अन्त:करण के धर्म को जाननेवाला है और विभु अर्थात् नाना प्रकार का संसार जिस से उत्पन्न हुआ है, सर्व का अनुष्ठान है, सम्पूर्ण व्यापक है, एक अर्थात् स्वगतादिक तीन भेदों से रहित है, मुक्त अर्थात् माया का कार्य जो संसार तिस के बन्धन से रहित, चैतन्यरूप, अक्रिय, असङ्ग, निस्पृह अर्थात् विषय की इच्छा से रहित है और शान्त अर्थात् प्रवृत्तिनिवृत्तिरहित है इस कारण वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १३
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय ।
अभासोहम्भ्रमम्मुक्त्वाभावम्बाह्यमथान्तरम् ॥ १३ ॥
मूलम् १३
कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय ।
अभासोहम्भ्रमम्मुक्त्वाभावम्बाह्यमथान्तरम् ॥ १३ ॥
अन्वयः १३
अभासः अहम् (इति) भ्रमम् अथ बाह्यम् अन्तरम् भावम् मुक्त्वा आत्मानम् कूटस्थम् बोधम् अद्वैतम् परिभावय ॥ १३ ॥
हिन्दी १३
मैं देहरूप हूं, स्त्री पुत्रादिक मेरे हैं, मैं सुखी हूं, दुःखी हूं यह अनादि काल का अज्ञान एक बार आत्मज्ञान के उपदेश से निवृत्त नहीं हो सकता है। व्यासजीने भी कहा है “आवृत्तिरसकृदुपदेशात्” “श्रोतव्यमन्तव्य” ॥ इत्यादि श्रुति के विषय में बारम्बार उपदेश किया है, इस कारण श्रवण मननादि बारम्बार करने चाहिये, इस प्रमाण के अनुप्तार अष्टावकमुनि उत्सित वासनाओं का त्याग करते हुए बारम्बार अद्वैत भावना का उपदेश करते हैं कि, मैं अहङ्कार नहीं हूं, मैं देह नहीं हूं, स्त्रीपुत्रादिक मेरे नहीं हैं, मैं सुखी नहीं हूं, दुःखी नहीं हूं, मूढ नहीं हूं इन बाह्य और अन्तर को भावनाओं का त्याग कर के कूटस्थ अर्थात् निर्विकार बोधरूप अद्वैत आत्मस्वरूप का विचार कर ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १४
देहाभिमानपाशेन चिरम्बद्दोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखड्गेन तन्निः कृत्य सुखी भव॥१४॥
मूलम् १४
देहाभिमानपाशेन चिरम्बद्दोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखड्गेन तन्निः कृत्य सुखी भव॥१४॥
अन्वयः १४
है पुत्रक ! देहाभिमानपाशेन चिरम् बद्धः असि ( अतः ) अहम् बोधः (इति) ज्ञानखड्गेन तम् निःकृत्य सुखी भव ॥ १४ ॥
हिन्दी १४
अनादि काल का यह देहाभिमान एक बार उपदेश करने से निवृत्त नहीं होता है इस कारण गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! अनादिकाल से इस समयतक देहाभिमानरूपी फाँसी से तू दृढ बन्धा हुआहै, अनेक जन्मोम्में भी उस बन्धन के काटने को तू समर्थ नहीं होगा इस कारण, शुद्ध विचार बारम्बार कर के ‘मैं बोधरूप’ अखण्ड परिपूर्ण आत्मरूप हूं, इस ज्ञानरूपी खड्ग को हाथ में लेकर उस फाँसी को काटकर सुखी हो ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १५
निःसङ्गो निष्क्रियोऽसि तं स्वप्रकाशो निरञ्जनः ।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि ॥१५॥
मूलम् १५
निःसङ्गो निष्क्रियोऽसि तं स्वप्रकाशो निरञ्जनः ।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठसि ॥१५॥
अन्वयः १५
(हे शिष्य ! ) त्वम् ( वस्तुतः ) स्वप्रकाशः निरञ्जनः निःसङ्गः निष्क्रियः असि (तथापि ) हि ते बन्धः अयम् एव ( यत् ) समाधिम् अनुतिष्ठसि ॥ १५ ॥
हिन्दी १५
केवल चित्त की वृत्ति का निरोधरूप समाधि ही बन्धन की निवृत्ति का हेतु है इस पातञ्जलमत का खण्डन करते हैं कि, पातञ्जलयोगशास्त्र में वर्णन किया है कि, जिस के अन्तःकरण की वृत्ति विराम को प्राप्त हो जाती है उस का मोक्ष होता है सो यह बात कल्पनामात्र ही है अर्थात् तू अन्तःकरण की वृत्ति को जीतकर सविकल्पक हठसमाधि मत कर क्योङ्कि तू निःसङ्ग क्रियारहित स्वप्रकाश और निर्मल है इस कारण सविकल्प हठसमाधि का अनुष्ठान भी तेरा बन्धन है, आत्मा सदा शुद्ध मुक्त है तिस कारण भ्रान्तियुक्त जीव के चित्त को स्थिर करने के निमित्त समाधि का अनुष्ठान करने से आत्मा की हानि वृद्धि कुछ नहीं होती है जिस को सिद्धि लाभ अर्थात् आत्मज्ञान हो जाता है उस को अन्य समाधिक अनुष्ठान से क्या प्रयोजन है ? इस कारण ही राजा जनक के प्रति अष्टावक वर्णन करते हैं कि, तू जो समाधि का अनुष्ठान करता है य ही तेरा बन्धन है, परन्तु आत्मज्ञानविहीन पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के निमित्त समाधि का अनुष्ठान करना आवश्यक है ॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १६
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।
शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमःक्षुद्रचित्तताम्॥१६॥
मूलम् १६
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः ।
शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमःक्षुद्रचित्तताम्॥१६॥
अन्वयः १६
(हे शिष्य ! ) इदम् विश्वम् त्वया व्याप्तम् त्वयि प्रोतम् यथार्थतः शुद्धबुद्ध स्वरूपः त्वम् क्षुद्रचित्तताम् मा गमः ॥१६॥
हिन्दी १६
अब शिष्य की विपरीत बुद्धि को निवारण करने के निमित्त गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार सुवर्ण के कटक कुण्डल आदि सुवर्ण से व्याप्त होते हैं इसी प्रकार यह दृश्यमान संसार तुझ से व्याप्त है और जिस प्रकार मृत्तिका के विषय में घट शराव आदि किया हुआ होता है तिसी प्रकार यह सम्पूर्ण संसार तेरे विषय में प्रोत है, हे शिष्य ! यथार्थ विचार कर के तू सर्व प्रपञ्चरहित है तथा शुद्ध बुद्ध चिद्रूप है, तू चित्त की वृत्ति को विपरीत मत कर ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १७
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः ॥ १७॥
मूलम् १७
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासनः ॥ १७॥
अन्वयः १७
(हे शिष्य ! त्वम् ) निरपेक्षः निर्विकारः निर्भरः शीतलाशयः अगाधबुद्धिः अक्षुब्धः चिन्मात्रवासनो भव ॥ १७॥
हिन्दी १७
इस देह के विषय में छः उर्मी तथा छः भावविकार प्रतीत होते हैं सो तू नहीं है किन्तु उन से भिन्न और निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित है, तहां शिष्य आशङ्का करता है कि, हे गुरो! छः उर्मी और छः भावविकारों को विस्तारपूर्वक वर्णन करो तहां गुरु वर्णन करते हैं कि, हे शिष्य ! क्षुधा, पिपासा (भूख प्यास ) ये दो प्राण की ऊर्मी अर्थात् धर्म हैं और तिसी प्रकार शोक तथा मोह ये दो मन की ऊर्मी हैं. तिसी प्रकार जन्म और मरण ये दो देह की ऊर्मी हैं, ये जो छः ऊर्मी हैं सो तू नहीं है अब छः भावविकारों को श्रवण कर “जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति” ये छः भाव स्थूलदेह के विषें रहते हैं सो तू नहीं है तू तो उन का साक्षी अर्थात् जाननेवाला है, तहां शिष्य प्रश्न करता है कि, हे गुरो ! मैं कौन और क्या हूं सो कृपा कर के कहिये. तहां गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तू निर्भर अर्थात् सच्चिदानन्दघनरूप है, शीतल अर्थात् सुखरूप है, तू अगाधबुद्धि अर्थात् जिस की बुद्धि का कोई पार न पा स के ऐसा है और अक्षुब्ध कहिये क्षोभरहित है इस कारण तू क्रिया का त्याग कर के चैतन्यरूप हो ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १८
साकारमनृतं विद्धि निराकारन्तु निश्चलम्।
एतत्तत्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः॥१८॥
मूलम् १८
साकारमनृतं विद्धि निराकारन्तु निश्चलम्।
एतत्तत्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः॥१८॥
अन्वयः १८
(हे शिष्य !) साकारम् अनृतम् निराकार तु निश्चलम् विद्धि एतत्तत्त्वोपदेशेन पुनर्भव सम्भवः न ॥ १८॥
हिन्दी १८
श्रीगुरु अष्टावक्रमुनिने प्रथम एक श्लोक में मोक्ष का विषय दिखाया था कि, “विषयान् विषवत्त्यज” और “सत्यं पीयूषवद्भज” इस प्रकार प्रथम श्लोक में सब उपदेश दिया। परन्तु विषयों के विषतुल्य होने में और सत्यरूप आत्मा के अमृततुल्य होने में कोई हेतु वर्णन नहीं किया सो १७ वें श्लोक के विषय में इस का वर्णन कर के आत्मा को सत्य और जगत् को अध्यस्त वर्णन किया है. दर्पण के विषें दीखता हुआ प्रतिबिम्ब अध्यस्त है, यह देखने मात्र होता है सत्य नहीं, क्योङ्कि दर्पण के देखने से जो पुरुष होता है उस का शुद्ध प्रतिबिम्ब दीखता है और दर्पण के हटान से यह प्रतिबिम्ब पुरुष में लीन हो जाता है इस कारण आत्मा सत्य है और उस का जो जगत् वह बुद्धियोग से भासता है तिस जगत् को विषतुल्य जान और आत्मा को सत्य जान तब मोक्षरूप पुरुषार्थ सिद्ध होगा इस कारण अब तीन श्लोकों से जगत् का मिथ्यात्व वर्णन करते हैं कि-हे शिष्य ! साकार जो देह तिस को आदि ले सम्पूर्ण पदार्थ मिथ्या कल्पित हैं और निराकार जो आत्मतत्त्व सो निश्चल है और त्रिकाल में सत्य है, श्रुतिमें भी कहा है “ नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म “ इस कारण चिन्मात्ररूप तत्व के उपदेश से आत्मा के विषें विश्राम करने से फिर संसार में जन्म नहीं होता है अर्थात् मोक्ष हो जाता है ॥ १८॥
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।
तथैवास्मिन्शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः१९॥
अन्वयः १९
यथा एव आदर्शमध्यस्थे रूपे अन्तः परितः तु सः (व्याप्य वर्त्तते ) तथा एव अस्मिन् शरीरे अन्तः परितः परमेश्वरः (व्याप्य स्थितः)॥१९॥
हिन्दी १९
अब गुरु अष्टावक्रजी वर्णाश्रमधर्मवाला जो स्थूल शरीर है तिस से और पुण्यअपुण्यधर्मवाला जो लिङ्गशरीर है तिस से विलक्षण परिपूर्ण चैतन्यस्वरूप का दृष्टान्तसहित उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! वर्णाश्रमधमरूप स्थूलशरीर तथा पुण्यपापरूपी लिङ्गशरीर यह दोनों जड हैं सो आत्मा नहीं हो सकते हैं क्योङ्कि आत्मा तो व्यापक है इस विषय में दृष्टान्त दिखाते हैं कि, जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब पडता है, उस दर्पण के भीतर और बाहर एक पुरुष व्यापक होता है। तिसी प्रकार इस स्थूल शरीर के विषें एक ही आत्मा व्याप रहा है सो कहा भी है “यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जु सर्पवत् “ अर्थात् जिस परमात्मा के विषें यह विश्व रज्जु के विषें कल्पित सर्प की समान प्रतीत होता है, वास्त में मिथ्या है ॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २०
एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥२०॥
मूलम् २०
एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥२०॥
अन्वयः २०
यथा सर्वगतम् एकम् व्योम घटे बहिः अन्तः वर्तते तथा नित्यम् ब्रह्म सर्वभूतगणे निरन्तरम् वर्तते ॥ २० ॥
हिन्दी २०
ऊपर के श्लोक में काञ्च का दृष्टान्त दिया है तिस में संशय होता है कि, काञ्च में देह पूर्णरीतिसे व्याप्त नहीं होता है तिसी प्रकार देह में काञ्च पूर्ण रीतिसे व्याप्त नहीं होती है कारण दूसरा दृष्टान्त कहते हैं कि, जिस प्रकार आकाश है, वह घटादि सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप रहा है, तिसी प्रकार अखण्ड अविनाशी ब्रह्म है वह सम्पूर्ण प्राणियों के विषें अन्तर में तथा बाहर में व्याप रहा है, इस विषय में श्रुति का भी प्रमाण है, “ एष त आत्मा सर्वस्यान्तरः” इस कारण ज्ञानरूपी खड़ को लेकर देहाभिमानरूपी फाँसी को काटकर सुखी हो ॥२०॥
इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितम् आत्मानुभवोपदेशवर्णनन्नाम प्रथमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १॥