आर्यकुमारस्मृतिः

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आर्यकुमार स्मृति

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भिषगाचार्य श्री ए. ईश्वरदत्तजी विद्यालङ्कार
मुख्याध्यापक श्रीश्रद्धानन्द ब्रह्मचर्याश्रम
गुरुकुल (कांगडी)

[TABLE]

आर्य कुमार संकीर्तन
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परिवर्द्धित एवं संशोधित तृतीय संस्करण
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आर्य-कुमार संकीर्तन जैसी उपयोगा पुस्तक इतने सस्ते मूल्यमें आजतक नहीं देखी गई। एक हीपुस्तकमें स्वतिवाचन, शांति प्रकरण, ईश्वर प्रार्थनाके मंत्र, अर्थ सहित अग्निहोत्र, संध्या, उपयोगी वेदमन्त्र और सुन्दर समायिक बहुतसे भजनोंका अभूतपूर्व संग्रह है। पुस्तकको सफाई छपाई और कागज बहुत बढ़िया हैं। मुख्य पृष्ठपर महर्षि दयानन्दजी महाराजका भव्य चित्र है।

सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मूल्य एक प्रतिका केवल ५ पैसे हो रखा गया है। १०० खरीदने वालोंको ६५ रु० में मिलती है। अबतक इसकी ५ हज़ार प्रतियां हाथोंहाथ बिकचुकी हैं। शीघ्रता कीजिये वरना अगले संस्करण तक ठहरना पड़ेगा।

आर्यकुमार कार्यालय

कलकत्ता।

मनुस्मृति-शतक
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अर्थात्

आर्यकुमार-स्मृति की विशेषता

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(१) मनुस्मृति जिस श्लोक पर समाप्त होती है, उसी श्लोकसे “आर्य कुमार-स्मृति” प्रारम्भ होती है।

(२) मनुस्मृतिमें २७४४ श्लोक हैं; जिन्हें सब आर्यकुमार पढ़भी नहीं सकते हैं— परन्तु “आर्यकुमार-स्मृति" के सौ श्लोक भलीभांति जिह्वाग्र कर सकते हैं। एवं प्रक्षिप्त श्लोंका भय भी नष्ट हो जाता है।

( ३ ) प्रत्येक विषयके विखरे हुवेश्लोक एकत्रित कर दिए गये हैं अतएव विषयकीज्ञान ठीक ठीक हो सकता है।

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प्रकाशक—

श्रीविश्वम्भर प्रसाद शर्मा विशारद
(सम्पादक-आर्यकुमार।

प्रथम वार
दो हजार

गुरुकुल विश्वविद्यालय
कांगड़ीकी पचीसी
फाल्गुण १९८३ सम्वत्

मूल्य
दो आना

*ओ३म्*
श्रद्धानन्द पुस्तकमाला
का

प्रथम पुष्प

आर्य-कुमार स्मृति


मनुस्मृति शतक

लेखक—

भिषगाचार्य पं० ईश्वरदत्तजी विद्यालंकार (गुरुकुल कांगड़ी)

…प्रकाशक…

पं० विश्वम्भर प्रसाद शर्म्माविशारद

सम्पादक—आर्य-कुमार कलकत्ता
प्रकाशन मन्त्री-भारतवर्षीय आर्य-कुमार परिषद
नं० ४ शोभाराम वैशाख स्टी्ट कलकत्ता।
दयानन्दाब्द १०२

प्रथम वार
२०००

वसंत पंचमी, सं० १९८३॥
मूल्य २ आना,

*ओ३म्*

आत्मनिवेदन

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अपने परम पूज्य श्रद्धेय आचार्य श्रीस्वामी श्रद्धानन्दजी सन्यासीके मुखारविन्दसे गुरुकुल विश्वविद्यालय काँगड़ीमें जब मैं साप्ताहिक उपदेशों द्वारा मनुस्मृतिका स्वाध्याय किया करता था; उस समयकी मेरी प्रबल आकांक्षा आज पूर्ण हुई है। जिन पवित्र विचारोंका प्रतिबिम्ब मेरे कोमल बाल्य हृदयपर पड़ा था उन्हींका दिग्दर्शन “आर्यकुमार—स्मृति" में होगया है।

इसमें मेरा कुछ भी नहीं हे—फिर भी मैने बिखरे हुये फूलोंके १६ स्तवक (गुच्छे) बनाकर अपनी कुलमाता की पचीसीके अवसर पर कुलपति अपने परम पूज्य आचार्यजीके चरणोंमें श्रद्धा और भक्तिपूर्वक समर्पित कर दिए हैं; इतना ही मुझे संतोष है।

फूलोंमें सुगन्ध है इसीलिये मेरे बनाये गुच्छोंमें भी सुगन्ध आ रही है परन्तु मैं इस श्रेयका पात्र नहीं हूं। मैं तो संसारभर की जागृति और उन्नति आर्यकुमारोंकी जागृति और उन्नतिमें मानता हूं इसीलिये आर्यकुमारोंकी हितसाधनाकी भावनासे मैंने यह प्रयत्न किया है।

आर्यकुमार स्मृति
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मेरे आर्यकुमार भाइयों !
यह “आर्यकुमार-स्मृति” आपके लिए है; इसको अपनेसे कभी अलग मत कीजिए। प्रतिदिन प्रातःकाल स्वाध्याय कीजिए और चौंसठ कलाओं द्वारा अपने जीवनमें पूर्ण उन्नति कीजिये।

किमधिकं-विज्ञेषु।

आर्यकुमार गीताकीतरह श्लोकोंकी संख्या सौ रखते हुवे केवल भावार्थ मात्र अत्यन्त आवश्य जानकर कर दिया है। शब्दार्थके लिये स्वयं यत्न कीजिये।

प्रत्येक श्लोकके नीचे जो मनुस्मृतिके अध्याय और श्लोककी संख्या दीगई है वह बम्बईमें छपी हुई मनुस्मृतिके अनुसार है।

अस्तु—:

अन्तमें अपने प्रिय सुहृत् श्री पण्डित धीरेन्द्रजी सिद्धान्तालंकार (गुरुकुल सूपा) और उत्साह मूर्त्ति मित्रवर श्रीपण्डित विश्वम्भर प्रसादजी शर्मा विशारद (सम्पादक-आर्यकुमार) कलकत्ता को हृदयसे भूरि भूरि धन्यवाद देता हूं जिनकी सहायतामे मेरा यह तुच्छ प्रयास पूर्ण हुआ है।

१ दिसम्बर
सन् १९२६

वैदिकधर्मका सेवक
ईश्वरदत्त भिषगाचार्य
(स्नातक—गुरुकुल,कांगड़ी)

प्रकाशकका वक्तव्य
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आर्य-कुमार स्मृतिके लेखक मेरे पर मित्र भिषगाचार्य पण्डित ईश्वरदत्तजी विद्यालङ्कार गुरुकुल कांगड़ीने इस पुस्तकको मेरे पास प्रकाशनार्थ दिसम्बर मासके आरम्भमें ही भेज दिया था। सुयोग्य लेखकने यह पुस्तक अपने आचार्य-गुरुकुल कांगड़ीके संस्थापक स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराजको समर्पणकी है। पुस्तक गुरुकुल कांगडीका रजत जयन्ती (पचीसी) के उपलक्षमें लिखा गई थी। और लेखक महाशयका यह शुभ संकल्प था कि यह उपहार अपने “कुल पिता” के कर कमलोंमें समर्पितकर अपनेको कृत्य कृत्य करते किन्तु यह मनोवांच्छा अपूर्ण ही रह गई और विगत २३ दिसम्बर १९२६ को सांयकालके पौने ४ बजे उस वीर सन्यासीने एक कातिल अब्दुलरशीद नामक दुष्ट मुसलमान की पिस्तौलकी गोलियां अपनी छातीमें खाकर प्यारे वैदिक धर्मके लिये अपने प्राणों की आहुति देदी।

धर्मपर बलिदान होनेवाले इस वारात्माकी पवित्र स्मृतिमें भारतवर्षीय आर्यकुमार परिषदको ओरसे एक पुस्तकलाला प्रकाशित करनेको हमने संकल्पकिया है। स्वामीश्रद्धानन्दजीको आर्य-

आर्यकुमार स्मृति
—————–

कुमारोंपर बड़ा भरोसा था और वे सदैव उन्हें प्रोत्साहन देते रहते थे। अतएव उन्हीके पवित्र नामपर हम इसका नामकरण करते है।सुतराम् इस पुस्तकमालाका नाम “श्रद्धानन्द पुस्तकमाला” होगा। इसके द्वारा प्रकाशित पुस्तकें वैदिक साहित्यकी अभिवृद्धि और उसके प्रसारमें सहायक होंगी। “आर्यकुमार स्मृति” इस मालाका प्रथम “पुष्प” हैं। द्वितीय पुष्प भी सम्मक्तः गुरुकुलकी जयन्तीतक तैयार होजावेगा।

आशा है प्यारे आर्यकुमार भ्रातृवृन्द “परिषद” के इस सदुद्योग में पूर्ण सहयोग प्रदानकरेंगे और आर्य संसारके विद्वान अपनी अमूल्य रचनाओं द्वारा इस “श्रद्धानन्द पुस्तकमाला” को मूल्यवान बनायगे।

विश्वम्भर प्रसाद शर्मा विशारद।

प्रकाशन विभाग
आर्यकुमार कार्यालय कलकत्ता

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*ओ३म्*
आर्यकुमार-स्मृतिमें वर्णित चौंसठकलाओं की
क्रमबद्ध-सूची
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[TABLE]

आर्यकुमार स्मृति
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[TABLE]

[TABLE]

[TABLE]

[TABLE]

*आ३म्*

मनुस्मृति शतक

अर्थात्

आर्यकुमार—स्मृति

[TABLE]

(पहिलीकला)

मनुस्मृतिका बड़ा महत्व है।
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(१) इत्येतन्मानवं शास्त्रं, भृगुप्रोक्तं पठन् द्विजः।
भवत्याचारवान्नित्यं, यथेष्टां प्राप्नुयाद्गतिम्॥

(म० अ० १२ श्लो० १२६)

मनु महाराजकी बनाई हुई मनुस्मृतिके इन सौ श्लोकोंको अच्छी प्रकार पढ़नेवला मनुष्य सदाचारी और उच्च पदका अधिकारी हो जाता है। इसलिए आर्यकुमार-स्मृतिका स्वाध्याय प्रतिदिन करना चाहिए।

(दूसरी कला)

परमपिता परमात्माको कभी मत भूलो।

(२) प्रशासितारं सर्वेषां, मणीयांसमणोरपि।
रुक्भामं स्वप्नधीगम्यं, विद्यात्तं पुरुषं परम्॥

(म० अ० १२ श्लो० १२२ )

सर्व नियन्ता, सूक्ष्माति सूक्ष्म, सुर्वण सम शोभित अन्तः शक्तियोंके द्वारा जान्ने योग्य परम पुरुष परमात्माको जानो।

(तीसरी कला)

हृदयमें भगवान्को जानकर पाप मत करो।

(३) एकोऽहमस्मीत्यात्मानं, यत्त्वं कल्याणं मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः॥

(म० अ० ८ श्लो० ९१ )

जो मनुष्य आपनेको अ केला जानकर पाप करता है उसके हृदयमें परमात्मा बिराजमान है और सब पुण्य पापको देख रहा हैं

(चौथी कला)

जगदीश्वर सब पापोंको जानता है।

(४) मन्यन्ते वै पाप कृतो, न कश्चित् पश्यतीति नः।
ताँस्तु देवाः प्रपश्यन्ति, स्वस्यैवान्तर पूरुषः॥

( म०प्र० ८ श्लो० ८५)

पाप करनेवाले समझते हैं कि हमें कोई नहीं देखता है-परन्तु अन्तःकरणमें स्थित परमात्मा सब कुछ देखा करता है॥

(पांचवीं कला)

मनुस्मृति भी वेदानुकूल है।

(५) यः कश्चित् कस्यचिद्धर्मो, मनुनापरिकीर्त्तितः।
स सर्वोऽभिहितो वेदे, सर्वज्ञानमयो हि सः॥

( म० अ० २ श्लो० ७ )

मनुने जो जिसका धर्म बताया है वह सब वेदमें कहा है। वास्तवमें वेद ही ज्ञानका भण्डार है। वेद विरुद्ध मनुस्मृति भी त्याज्य है।

(छठी कला)

वेदको न पढ़नेवाला शूद्र कहाता है।

(६) योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः॥

( म० अ० २ श्लो० १६८ )

जो वेदको नहीं पढ़ता है वह इसी जन्ममें शूद्र बन जाता है।

(सातवीं कला)

संकल्पशक्ति के बिना काय सिद्ध नहीं होता।

(७) संकल्पमूलः कामावे, यज्ञाः संकल्प संभवाः।
व्रता नियम धर्मामाश्च सर्वे संकल्पजाःस्मृताः॥

( म० अ० २ श्लो० ३ )

व्रत, यज्ञ, यम और नियम सभा दृढ़ संकल्प करने के बाद ही पूर्ण होते हैं॥

अथ द्वितीयः स्तवकः
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(आठवीं कला)

श्रुति और स्मृति हो धर्मके लिये प्रामाणिक हैं।

(८) श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो, धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये, ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥

(म० अ० २ श्लो० १०)

वेदके लिये श्रुति और धर्मशास्त्रके लिए स्मृति शब्दका व्यवहार है। धर्मके निर्णयके लिए दोनों प्रामाणिक हैं परन्तु वेद बिरुद्ध स्मृति त्याज्य है।

(नवमी कला)

धर्म दश लक्षणोंका पालन करनेवाला होधर्मत्मा है।

(९) धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो, दशकं धर्म लक्षणम्॥

(म० अ० ६ श्लो० ९२)

धैर्य, क्षमा, शीतोष्णका सहन, अस्तेय, शुद्धता, इन्द्रियोंका वशीकरण, शास्त्रज्ञान, आत्म ज्ञान, सत्य और अक्रोध धर्मके मुख्य दस लक्षण हैं।

(१०) न सीदन्नपि धर्मेण, मनोऽधर्मे निवेशयेत्।
अधार्मिकाणांपापाना, माशुपश्यन् विपर्ययम्॥

(म० अ० ४ श्लो० १७१)

धर्मसे चाहे प्रथम कष्ट होता है तो भी अधर्माचरण कदापि न करो क्योंकि अधर्मसे बड़े बड़े दुष्परिणाम होते हैं।

(११) नाधर्मश्चरितोलोके, सद्यः फलतिगौरिव।
शनैरावर्त्तमानस्तु, कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति॥

(म० अ० ४ स्लो० १७२ )

अधर्मका परिणाम एकदम नहीं मालूम होता है परन्तु धीरे धीरे बढ़ता हुआ जड़ोंको काट देता है।

(१२) एक एव सुहृद्धर्मो, निधनेप्यनुयाति यः।
शरीरेण समं नाशं, सर्वमन्यद्धिगच्छति॥

(म०प्र० ८ श्लो० १७)

सच्चा मित्र तो केवल एक धर्म ही है जो मरनेके बाद भी साथ जाता है शेष सब शरीरके साथ नष्ट हो जाते हैं। इसलिये पुत्र, कलत्रका मोह छोड़कर सारे भुवनके बिधाता भगवान्को प्रतिक्षण स्मरण करते हुए धर्मका पालन करते रहो। हसीमें कल्याण है। कहा भीहै “यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः”

( वैशेषिकदर्शन)।

(दशवीं कला)

गायत्री तीनों वेदोंका सार है इसलिये इसीका जप सर्व श्रेष्ठ है।

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(१३) त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः, पादं पादमदूदुहत्।
तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः, परमेष्ठी प्रजापतिः॥

(म० अ० २ श्लों० ७७)

तीनों वेदोंमेंसे एक एक पाद गायत्रीका बना है इसीलिये गायत्री परमश्रेष्ठ है।

(१४) सावित्रीं च जपेन्नित्यं, पवित्राणि च शक्तितः।
सर्वेष्वेव व्रतेष्ववं, प्रायश्चित्तार्थमाद्दतः॥

(म० अ० ११ श्लो० २२५)

सावित्री अर्थात् गायत्री जिसको गुरुमंत्र भी कहते है—उसीका प्रतिदिन जप करना चाहिये। व्रत भंग होनेपर प्रायश्चित्तके लिये भी गायत्रीका जप परमोत्तम है।

नोटः— प्रत्येक आर्यकुमारको प्रतिदिन सोनेसे पूर्व २५ बार गायत्रीका जप अवश्य करना चाहिये। साथ साथ कमसेकम २५ वर्ष ब्रह्मचारी रहनेकी भावना भी दृढ़ करनी चाहिये।

अथ तृतीयः स्तवकः
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(ग्यारहवीं कला)

ब्रह्मचर्य नाश ही अवनतिका कारण है।

(१५) इन्द्रियाणां तु सर्वेषां, यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्।
तेनास्य क्षरतिप्रज्ञा, दृतेः पादादिबोदकम्॥

(म० अ० २ श्लो० ९९)

सब इन्द्रियोंमेंसे यदि एक मूत्रेन्द्रिय ही वशमें न रहे तो सारी बुद्धि नष्ट हो जाती है।

(१६) एकः शयीत सर्वत्र, नरेतःस्कन्दयेत् क्वचित्।
कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो, हिनस्ति व्रतमात्मनः॥

(म० अ० २ श्लो० १८० )

ब्रह्मचर्यकी रक्षाकेलिये अकेला ही सोना चाहिये। वीर्यनाश होते ही व्रत टूट जाता है।

(१७) वेदोदितानां नित्यानां, कर्मणां समतिक्रमे।
स्नातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तमभोजनम्॥

(म० अ० ११ श्लो० २०३)

वेदोक्त नित्यकर्मों में विघ्न पड़ जानेपर प्रायश्चिन्त के लिये भोजन न करना चाहिये।

(१८) वेदानधीत्य वेदौ वा, वेदं वापि यथाक्रमम्॥
अविप्लुतब्रह्मचर्यो, गृहस्थाश्रममाविशेत्॥

( अ० अ० ३ श्लोक २ )

कमसे कम एक वेद समाप्त करनेके बाद जो कि १५ बर्षमें हो सकता है गृहस्थी बनना चाहिये।

( बारहवीं कला )

स्वाध्यायमें कभीत्रुटि मत करो।
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(१९) सर्वान्परित्यजेदर्थान्, स्वाध्यायस्य विरोधिनः
यथातथा ध्यापयंस्तु, साह्यस्यकृतकृत्यता॥

(म० अ० ४ श्लोक १७ )

स्वाध्याय को बिरोधी सब बातेंछोड़ दो। वास्तवमें स्वाध्याय करनेमें ही सफलता है।

(२०) आहैव स नखाग्रेभ्यः, परमं तप्यते तपः।
यःस्रग्व्यपि द्विजोऽधीते, स्वाध्यायंशक्तितोऽन्वहम्॥

(म० अ० २ श्लोक १६७)

जो प्रतिदिन स्वाध्याय करता है वह फूलोंकी माला धारण करता हुआ भी नखसे शिख तक परम तप करता है। यद्यपि आर्यकुमारके लिये माला पहिनना अनुचित है तो भी स्वाध्यायका महत्व जितलानेके लिये ऐसा लिखा है।

अथ चतुर्थः स्तवकः
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( तेरहवीं कला )

इन्द्रिय निग्रह तपस्यासे होता है।
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(२१) श्रोत्रंत्वक्चक्षुषीजिह्वा, नासिका चैव पञ्चमी।
पायूपस्थं हस्तपादं वाक् चैव दशमी स्मृता॥

(म० अ० २ श्लो० ९० )

आँख, नांक, काँन, जीभ और त्वचा यह पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं। मूत्रन्द्रिय, गुदा, हाथ, पांव और वाणी यह पांच कर्मेन्द्रियां हैं।

(२२) एकादशं मनोज्ञेयं, स्वगुणेनोभयात्मकम्।
यस्मिञ्जित्ते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ॥

( म० अ० २ श्लो० ९२ )

ग्यारहवां मन है। जो ज्ञान और कर्म दोनोंका साधान है। केवल एक मात्र मनको वशमें करनेसे सब इन्द्रियां वशीभूत हो जाती हैं।

(२३) इन्द्रियाणां प्रसंगेन, दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सन्नियम्य तु ताम्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥

(म० अ० २ श्लो० ९३)

इन्द्रियोंको वशमें न करनेसे निस्सन्देह बिगाड़ होता है। इसलिये इन्द्रियोंको वशमें करके सिद्धि प्राप्त करो।

(२४) न जातु कामः कामाना, मुपभोगेन शाम्यति
हविषा कृष्णवर्त्मेव, भूय एवाभिवर्धते॥

(म० अ० २ श्लो० ९४ )

विषय वासनायें भोग करनेसे शान्त नहीं होती हैं। अपितु जैसे आग घृतसे बढ़ती है वैसे ही बढ़ जाती है।

(२५) न तथैतानि शक्यन्ते, संनियन्तुमसेवया।
विषयेषु प्रजुष्टानि, यथा ज्ञानेन नित्यशः॥

[ म० अ० २ श्लो० ९६ ]

केवल भोग न करनेसे भी वासनायें शान्त नहीं होती हैं। अपितु ज्ञान संचय करनेसे दब जाती हैं। इसलिये प्रतिक्षण स्वाध्याय काही ध्यान रखो।

(२६) यद्दुस्तरं यद्दुरापं, यद्दुर्गं यच्च दुस्तरम्।
सर्वं तु तपसा साध्यं, तपोहि दुरतिक्रमम्॥

(म० अ० ११ श्ला० २३८)

इन्द्रिय निग्रह अत्यन्त कठिन है परन्तु तपसे हो जाता है।

(२७) आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तःस्मार्त्त एव च।
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो, नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः॥

(म० अ० १ श्लो० १०८ )

आचार हो परम धर्म है और वह इन्द्रिय निग्रहसे होता है। इसलिये इन्द्रिय निग्रह करते हुये सदाचारी बनो॥

अथ पञ्चमः स्तवकः
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( चौदहवीं कला )

सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि पंच महा यज्ञ हैं।
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(२८) ऋषियज्ञं देवयज्ञं च, भूतयज्ञं च सवथा।
नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्॥

(म० अ० ४ श्लो० २१ )

सन्ध्या, अग्निहोत्र, जीवित पितरोंका श्राद्ध, अतिथि पूजा और बलि वैश्वदेव यही पाँच महा यज्ञ है।

(२९) पूर्वा संध्यां जपस्तिष्ठेत्, सावित्रीमर्कदर्शनात्।
पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्ष विभावनात्॥

(म० अ० २ श्लो० १०१ )

प्रातः काल संध्या सूर्यदर्शनसे पूर्व कर लेनी चाहिये। सायंकाल सूर्यास्त के बाद प्रारम्भ करो।

(३०) न तु तिष्ठति यः पूर्वां, नोपास्तेयस्तु पश्चिमाम्।
स शूद्रवद् बहिष्कार्यः, सर्वस्माद्विज कर्मण॥

(म० अ० २ श्लो० १०३ )

जो प्रातःऔर सायं संध्या नहीं करता है—वह पापी है। ऐसे मनुष्यको शूद्रकी तरह समझो।

(३१) ऋषयो दीर्घं सन्ध्यत्वा, दीर्घमायुरवाप्नुयुः।
प्रज्ञां यशश्च कीर्त्तिंच ब्रह्मवर्चसमेव च॥

(म० अ० ४ श्लो० ९४)

दीर्घायु की इच्छा करनेवालेको प्राणायामके साथ देरतक संध्या करनी चाहिये।

(३२) अग्निहोत्रञ्च जुहुया,दाद्यन्ते द्युनिशोः सदा।
दर्शेन चार्धमासान्ते, पो

र्णामासेन चैवहि॥

(म० अ० ४ शत्रो० २५)

प्रातः सूर्योदय होनेपर और सायं सूर्यास्तसे पूर्व हवन करो।

(३३) न वै स्वयं तदश्नीया,दतिथिं यन्न योजयेत्।
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं चातिथि पूजनम्॥

(म० अ० ३ श्लो० १०६)

अतिथिको भोजन कराये, बिना स्वयं भोजन मतकरो। अतिथि पूजा अत्यन्त आवश्यक है।

(३४) स्वाध्यायेन व्रतैर्होमै, स्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च, ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥

(म० अ० २ श्लो० २८ )

स्वाध्याय, पंच महायज्ञादिके अनुष्ठानसे शूद्र कुलोत्पन्न भी गुण कर्मानुसार ब्राह्मण हो जाता है। इसलिये पंच महायज्ञोंको मत भूलो।

अथ षष्ठः स्तवक
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(पन्दरहवीं कला)

उन्नतिको प्रवल अभिलाषा करो।

(३५) नात्मानमवमन्येत, पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।
आमृत्योः श्रियर्मान्विच्छे,न्नैनां मन्येत दुर्लभम्॥

(म० अ० ४ श्लो० १३६)

पहलो अवनतिको भुलादो और मृत्युपर्यन्त उन्नतिकी आकांक्षा करो—उसको कभी दुर्लभ मत जानो।

(सोलहवीं कला)

बिघ्नोंसे भय भीत होकर कार्य मत रोको।

(३६) आरभेतैव कर्माणि, श्रान्तःश्रान्तः पुनःपुनः।
कर्माण्यारभमाणं हि, पुरुषं श्रीर्निषेवते॥

(म० अ० ९ श्लो० ३००)

बार बार थककर भी काम करते जाओ। अन्तमें श्री लाभहोगी।

(सत्तरहवीं कला)

(३७) सत्यंब्रूयात्प्रियं ब्रूयात्, न ब्रुयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियञ्च नानृतं ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः॥

(म० अ० ४ श्लो० १३८)

सच बोलो परन्तु अप्रिय सच मत बोलो।

(अठारहवीं कला)

सदाचारो सौ वर्ष तक जीता है।
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(३८) सर्वलक्षणहीनोऽपि, यः सदाचारवान्नरः।
श्रद्धानोऽनसूयश्च, शतं वर्षाणि जीवति॥

(म०प्र० ४ श्लोक० १५८)

सर्व लक्षणोंसे रहित सदाचारी मनुष्यः सर्व श्रेष्ठ है ।

(उन्नीसवीं कला)

पाप करके सत्य कहनेसे पाप छूट जाता है।
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(३९) यथा यथा नरोऽधर्मं, स्वयं कृत्वानुभाषते ।
तथा तथा त्वचेवाहि, स्तेनाधर्मेण मुच्यते॥

(म० अ० ११ श्लो० २०९)

जैसे जैसे मनुष्य पाप करके सच सच कह देता है; वैसे वैसे वह केंचुलीसे सांप की तरह अधर्मसे पृथक् होजाता है।

(४०) कृत्वा पापं हि संतप्य, तस्मात् पापात्प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यात्पुनरिति, निवृत्या पूयते तु सः॥

(म० अ० ११० श्लो २३०)

पश्चात्ताप करके पापसे निवृत्त हो जाता है। “मैं फिर ऐसा नहीं करू” इस प्रकार दृढ़ धारण करनी चाहिए।

अथ सप्तमः स्तवकः।
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(बीसवीं कला)

अवनतिके मूख्य चार कारण हैं।
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(४१) अनभ्यासेन वेदानां, आचारस्य च वर्जनात्।
आलस्यादन्नदोषाच्च, मृत्यु

र्विप्राज्जिघांसति॥

(म० अ० ५ श्लो० ४)

वेदोंकी न पढ़ना, आचार पर ध्यान न रखना, आलस्य करना और भोजनमें अनियंम करना बुरा है।

(इक्कीसवीं कला)

सोनेसे पूर्व एकान्तमें बैठकर अपनाहित चिन्तन करो।

(४२) एकाकी चिन्तयेन्नित्यं, विविक्तेहितमात्मनः।
एकाकी चिन्तयानोहि, परं श्रेयोऽधिगच्छति॥

(म० अ० ४ शलों० २५८)

एकान्तमें चिन्तन करनेवाला कल्याणको प्राप्त करता है।

[बाइसवीं कला]

ब्राह्म मुहुर्त्तमें उठकर नित्य कर्म करो।

(४३) ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत, धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
कायक्लेशांश्च तन्मूलान,वेदतत्वार्थमेव च॥

( म० अ० ४ श्लो० ९२ )

ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर धर्मार्थका चिन्तन करो।

[तेईसवीं कला]

अपने से बड़ोंको सदा नमस्ते करो।

[४४] अभिवादनशीलस्य, नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥

( म० अ० २ श्लो० १२१ )

जो सदा अपनेसे बड़ों की सेवा करता है; और नमस्कार करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ जाते हैं।

[४५] अभिवादयेद्बृद्धांश्च, दद्याच्चैवासनं स्वकम्।
कृताञ्जलिरुपासीत, गच्छत पृष्ठतोऽन्वियात्॥

( म०प्र० ४ श्लो० १५४ )

बड़ोंको नमस्कार करके, अपना आसन देवे, सामने हाथ जोड़कर रहे और चलते समय पीछे चले।

[चौबीसवीं कला]

गुरु की सेवा करके विद्या प्राप्त करो।

(४६) यथा खनन्खनित्रेण, नरो वार्यधिगच्छति।
तथा गुरुगतां विद्यां, शुश्रूषुरधिगच्छति॥

(म० अ० २ श्लो० २१८)

जिस प्रकार खोदनेसे पानी मिलता है; उसी प्रकार सेवासे विद्या प्राप्त होती है।

अथ अष्टम स्तवकः।
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( पच्चीसवीं कला )

अधिक भोजन कभी मत करो।

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(४७) अनारोग्यमनायुष्य,मस्वर्ग्यंचाति भोजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं, तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥

(म० अ० २ श्लो० ५७)

अधिक भोजन करनेसे आरोग्यता नष्ट होती है। आयु घटती है।वास्तवमें अधिक भोजन करना पाप है।

(४८) आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत, नार्द्रपादस्तु संविशेत्।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो, दी

र्घामायुरवाप्नुयात्॥

( म० अ० ४ स्लो० ७६)

पाँव भिगोकर भोजन करो – ऐसा करनेसे दीर्घायु होती है। परन्तु सोते समय पाँव धोकर अच्छी तरह पोंछलो।

(४६) नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यात्, नाद्याच्चैव, तथान्तरा।
न चैवाध्यशनं कुर्यात्, न चोच्छिष्टः क्वचिद्व्रजेत्॥

(म० अ० २ श्लो०५६)

जूठा भोजन किसीको मत दो। दो बार भोजन करो बीच बीचमें बार बार मत खाओ कहा हैः - “अग्निहोत्र समोविधिः।’ अर्थात् जैसे अग्निहोत्रका समय है वैसा ही भोजनका समय है।

(छब्बीसवीं कला )

मांस भक्षण महापाप है।

(५०) ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा, मांसमुत्पद्यते क्वचित्॥
न च प्राणिवधःस्वर्ग्य,स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥

(म० अ०५ श्लो०४८ )

प्राणियों को हिंसाके बिना मांस नहीं प्राप्त होता है और प्राणयोंका बध पाप है। अतः मांस भक्षण छोड़ दो।

(५१) समुत्पत्तिं च मांसस्य, बध बन्धौ च देहिनाम्।
प्रसमीक्ष्यनिवर्त्तेत, स

व मांसस्य भक्षणात्॥

(म० अ० ५ श्लो० ४९)

मांस की उत्पत्ति रजवीर्यसे जानकर घृणा पूर्वक मांसको छोड़ दो— प्राणियों की हिंसा तो महापाप है ही।

(५२) स्वमांसं परमांसेन, यो वर्धयितुमिच्छति।
अनभ्यर्च्य पिर्तृंन्देवां,स्ततोऽन्योनास्त्यपुण्यकृत्॥

(म० अ० ५ श्लो० ५२ )

दूसरोंके मांससे जो अपने मांसको बढ़ाने चाहता है उससे बढ़कर पापी कौन हो सकता है। इसलिये माँस भक्षणको महापाप जानकर छोड़ दो।

अथ नवमः स्तवकः
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(सत्ताईसवीं कला)

आचार्यका लक्षण।

(५३) उपनीय गुरुः शिष्यं वेदमध्यापये द्विजः।
सकल्पं सरहस्यं च, तमाचार्यं प्रचक्षते॥

(म० अ० २ श्लो० १४०)

उपनयन संस्कार करके जो यज्ञ किया और उपनिषत् विद्या सहित वेदको पढ़ावे वह आचार्य होता है।

(अट्ठाईसवीं कला)

उपाध्यायका लक्षण।

(५४) एकदेशंतु वेदस्य, वेदाङ्गान्यपि वा पुनः।
योऽध्यापयति वृत्यर्थं, उपाध्याय स उच्यते॥

(म० अ० २ श्लो० १४१ )

केवल वेतनके लिये वेदके एक अंग अथवा वेदांगों पढ़ानेवाला उपाध्याय होता है।

(उन्तीसवीं कला)

गुरुका लक्षण।

(५५) निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि।
संभावयति चान्नेन, स विप्रो गुरुरुच्यते॥

(म० अ० ३ श्लो० १४२ )

जो उपनयन और विद्या दानके साथ साथ भोजन की भी चिन्ता करे वह गुरु कहलाता है।

(तीसवीं कला)

माता पिताका लक्षण !

(५६) य आवृणोत्यवितथं, ब्रह्मणाश्रवणावुभौ।
स माता स पिता ज्ञेय,स्तं न द्रुह्येत् कदाचन॥

(म० अ० २ श्लो० १४४ )

सच्चे माता पिता ये ही है जो निरन्तर वेद ज्ञानसे कानोंको भरें; अतः सच्चे मतापितासे कभीद्वेषन करो।

(इकत्तीसवीं कला)

वेदानुकूल आचरण करनेवाला ही बड़ा है।

(५७) न हायनैर्नपलितै, र्नवित्तेन न च बन्धुभिः।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं, योऽनृचानःसनो महान्॥

(म० अ० २ श्लो० १५४ )

ऋषियोंने यह धर्म बनाया है कि जो वेद ज्ञानी है वही बड़ा है। आयु, धन आदिसे कोई बड़ा नहीं होता है।

(बत्तीसवीं कला )

नवयुवक भीवृद्धोंकी तरह पूज्य हो सकते हैं।

(५८) न तेन वृद्धोभवति, येनास्य पलितं शिरः।
यो वै युबाप्यधीयान,स्तं देवाः स्थविरं विदुः॥

(म० अ० २ श्लो० १५६ )

वालोंके सफेद होनेसे कोई बूढ़ा नहीं हो जाता है; जो युवक भीवेद ज्ञानी है उसको भी विद्वान् लोग वृद्ध समझते हैं।

अथ दशमः स्तवकः
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(तेतीसवीं कला)

षोडष संस्कार अनिवार्य हैं।
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५९) वैदिकैः कर्मभिः पुण्यै,र्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।
कार्यः शरीरसंस्कारः, पावनः प्रेत्य चेह च॥

(म० अ० २ श्लो० २६ )

शरीरके सोलह संस्कार वेद मंत्रों द्वारा अवश्य करने चाहिये

,

[चौतीसवीं कला]

ब्रह्मचारी बनकर शूद्र भी विद्याका अधिकारी है।

(६०) यमेव तु शुचिं विद्या,न्नियत ब्रह्मचारिणम्।
तस्मै मां ब्रूहि विप्राय, निधिपाया प्रमादिने॥

( म० अ० २ श्लो० ११५ )

विद्या स्वयं कहती है कि जिस किसीको भी पवित्र और ब्रह्मचारी समझो उसके लिये मुझे दो।

(६१) आचार्य पुत्रः शुश्रूषु,र्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः।
आप्तः शक्तोऽर्थदःसाधुः, सोऽध्याप्यादश धर्मतः॥

(म० अ० २ श्लो० १०९ )

सेवा करनेवाले, धार्मिक, पवित्र और समर्थको विद्या दान दीजिये।

[पैंतीसवींकला]

गुरु भक्तिसे विद्या सफल होती है।

(६२) नोदाहरेदस्य नाम, परोक्षमपि केवलम्।
न चैवास्यानुकुर्वीत, गतिभाषितचेष्टितम्॥

(म० अ० २ श्लो० १९९)

गुरुकेसामने तो गुरुका नाम लेना ही न चाहिये; पीछे भी सम्मान्य शब्दोंके साथ ही नाम बोलो। गुरु की नकल कभी मत करो।

[६३] गुरोर्यत्र परीवादो, निन्दावापि प्रवर्त्तते।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ, गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥

( म० अ० २ श्लो० २०० )

गुरु की जहाँ निन्दा हो वहांसे चले जाना चाहिये, यदि जाना कठिन हो तो कान बन्द करलो।

[छत्तीसवीं कला]

शूद्र कुलोत्पन्न विद्वान्से भी विद्या ग्रहणकरो

[६४] श्रद्धधानः शुभां विद्या,माददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परं धर्मं, स्त्रीरत्नंदुष्कुलादपि॥

( म० अ० २ श्लो० २३८ )

नीच कुलोत्पन्न भी यदि बिद्वान् है तो उसको गुरु समझो और श्रद्धापूर्वक विद्या ग्रहण करो। विदुषी स्त्रीभी गुण कर्मानुसार उच्चकुलको प्राप्त करती है।

अथ एकादेशः स्तवकः
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[सैंतीसवीं कला]

तीन प्राणायाम प्रति दिन मियम पूर्वक किया करो।

(६५) दह्यन्ते ध्मायमानानां, धातूनां हि यथामलाः।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते, दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥

( म०प्र० ६ श्लोक० ७१ )

जिस प्रकार धातुओंकों तपानेसे सब मल जल जाते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियोंके दोष प्राणायामसे दूर हो जाते हैं।

[अड़तीसवीं कला]

शुष्क विवाद और वैर किसीके साथ मत करो।

(६६) भद्रं भद्रमिति ब्रूयात्, भद्रमित्येव वा वदेत्।
शुष्कवैरं विवादं च, न कुर्यात् केन चित्सह॥

( म० अ० ४ श्लो० १३९)

सबके साथ सभ्यता पूर्वक बात करो। निष्प्रयोजन झगड़ा और वादविवाद किसीके साथ मत करो।

[उन्तालीसवीं कला]

संतोषी मनुष्य सव धनवानोंसे बड़ा है।

(६७) संतोषं परमास्थास, सुखार्थी संयतो भवेत्।
संतोषमूलं हि सुखं, दुःखमूलंविपर्ययः॥

(म० अ०५श्लो० १५)

सुखार्थीको संतोष करना चाहिए; सुखकी की

जड़ संन्तोषहै।

[चालीसवीं कला]

रुपये लेन देन में सदा ईमानदार बनो।

(६८) सर्वेषामेवशौचाना,मर्थशौचं परं स्मृत्तम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचि, र्न मृद्वारि शुचिः शुचिः॥

( म० प्र० ५ श्लो० १०६ )

सबसे बड़ी सफाई हिसाब की है इसलिये कभी भी हिसाबमें बेईमानी मत करो।

[इकतालीसवीं कला]

हंसी में भी जुश्रा मत खेलो।

(६९) द्यूतमेतत् पुराकल्पे, दृष्टं वैरकृतं महत्।
तस्मात् द्यूतं न सेवेत, हास्यार्थमपि बुद्धिमान्।

( म० अ० ९ श्लों० २२७ )

जुआ खेलनेसे वैर पैदा होता है; अतः जुआसर्वथा त्याज्य है।

[ब्यालीसवीं कला]

शराब पीना महा पाप है।

(६०) सुरा वै मलमन्नानां, पाप्मा च मल मुच्यते।
तस्मात् ब्राह्मणराजन्यौ, वैश्यश्च नसुरां पिबेत्॥

(म० अ० १९ श्लो०. ९७)

शराव अन्नोंका मैल है; और मैल खाना पाप है। इसलिये शराब कभी नहीं पीनी चाहिये।

अथ द्वादशःस्तवकः।
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[तेतालीसवीं कला ]

वर्णव्यवस्था गुण कर्मस्वभावानुसार मानों।
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(७१) आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद्वेदपारगः॥
उत्पादयति सावित्र्या, सा सत्या साऽजरामरा॥

(म० अ० २ श्लो० १४८)

स्नातक बननेके बाद आचार्य जिस जातिको निश्चित कर देता है वही अजर और अमर है; जन्म की जाति नहीं।

(७२) शुचिरुत्कृष्ट शुश्रूषु,र्मृदुवागनहं कृतः।
ब्राह्मणद्याश्रयो, नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥

(म० अ० ९ श्लो० ३३५)

पवित्रता, सेवाभाव, मधुर वाणीं निरभिर्मान आदि गुण धारण करनेसे नीच कुलोत्पन्न भो उच्च जातिको प्राप्त करता है।

(७३) शूद्रो ब्राह्मणतामेति, ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवन्तु, विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥

( म० अ० १० श्लो० ६५ )

शूद्र ब्राह्मण बन जाता है; ब्राह्मण शूद्र हो जाता है; इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी ब्राह्मण बन सकते हैं। परन्तु ब्राह्मणके गुण कर्म धारण करनेपर ही उच्च वर्ण प्राप्त होता है; अन्यथा सब शूद्र हो जाते हैं। यही आर्यसमाजका वेद प्रतिपादित सिद्धान्त सर्वमान्य है। गीतामें भी कहा हैः—चातुर्वण्यं मयासृष्टं गुण कर्मविभागशः" ( आर्यकुमार—गीता श्लो ६४)

(७४) यथा काष्ठमयोहस्ती, यथा चर्म मयो मृगः।
यश्च विप्रोऽनधीयान्, स्त्रयस्तेनाम बिभ्रति॥

(स० अ० २ श्लो० १५७)

जिस प्रकार काठका हाथी और चमड़े का हिरन किसी काममें नहीं आते हैं केवल देखनेके लिये होते हैं उसी प्रकार मूर्खब्राह्मण भी नाम मात्रका ब्राह्मण है।

[चौवालासवीं कला]

सह पाठियोंको जन्म की जातिसेबुरा मत कहो।

(७५) हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोऽधिका।
रूपद्रव्यविहीनांश्च, जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्॥

( म० अ० ४ श्लो० १४१ )

जन्मान्ध, मूर्ख-कुरूप, निर्धन और नीच जातिमें चमक होने वालेको कभीमत चिढ़ाओ।

[पैंतालीसवीं कला]

मातापिताको नरकसे बचाना पुत्रका कर्तव्य है।

(७६) पुन्नाम्नोनरकाद्यस्मात्, त्रयते पितरं सुतः।
तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः, स्वयमेव स्वयम्भुवा॥

(म० अ० ९ श्लो० १३८)

“पुंस्” नामवाले बरकसे माता पिता की रक्षाकरनेके कारणही पुत्रकानाम पुत्र है।

अथ त्रयोदशः स्तवकः
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[ छियालीसवीं कला ]

वर्ण केवल चार हैं।
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(७७) ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्य,स्त्रयो वर्णाद्विजातयः।
चतुर्थ एक जातिस्तु, शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः॥

(म० अ० १० श्लो० ४)

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यही चार वर्ण हैं। पांचवा नहीं है।

[सैंतालीसवीं कला]

सच्चे ब्राह्मण का लक्षण।

(१८) धर्मेणाधिगता यैस्तु, वेदः सपरि वृंहणः।
ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः, श्रुति प्रत्यक्ष हेतवः॥

(म० अ० १२ श्लो० ९०९ )

जिन्होंने धर्माचरण पूर्वक साङ्गोपाङ्गु वेद पढ़ा हैवे ही सच्च ण हैं।

[अड़तालीसनीं कला]

शूद्रका लक्षण।

(७६) वृषो हि भगवान् धम्,स्तस्य यः कुरुते ह्यलम्।
वृषलं तं विदुर्देवा,स्तस्माद्धर्म न लोपयेत्॥

( अ० अ० ८ श्लोक १६ )

वृष शब्द धर्मके लिये प्रयुक्त होता है; और जो धर्मका पालन नहीं करता है उसीको विद्वान् लोग शूद्र कहते हैं।जन्मसे शूद्र भीधर्म पालनसे उच्च जातिको प्राप्त करता है।

[उनचालीसवीं कला]

पूजनीयोंकी पूजा अवश्य करो।

(८०) वेदविद्याव्रतस्नातान्, श्रोत्रियान् गृहमेधिनः।
पूजयेद्धव्यकव्येन, विपरीतांश्च वर्जयेत्॥

(म० अ० ४ श्लो० ३१ )

वेदादि शास्त्रोंके ज्ञाता, व्रतधारी स्नातकों, वेद पाठियों और सद्गृहस्थियोंकी पूजा अन्नदानादिसे करो।

[पचासवीं कला]

निरक्षर ब्राह्मणोंको दान देना व्यर्थ है।

(८१) ब्राह्मणस्त्वनधीयान,स्तृणाग्निखिशाम्यति।
तस्मै हव्यं न दानव्यं, न हि भस्मानि हूयते॥

(म० अ० ३ श्लो० १६८)

अपठित ब्राह्मणको दान देना राखमें आहुति डालना है; जसे तिनकोंकी आग असमर्थ है, उसी प्रकार निरक्षर ब्राह्मणको भी जानो।

[इक्यावनवीं कला]

गुण हीन को कन्या देना पाप है।

(८२) काममामरणात्तिष्ठेत्, गृहे कन्यर्त्तुमत्यपि।
न चैवैनां प्रयच्छेत्तु, गुण हीनाय कर्हिचित्॥

(म० अ० ९ श्लो० ८९ )

चाहे मृत्युपर्यन्त कन्या घरमें ही बैठी रहे परन्तु भूलकर भी गुण, कर्म से हीनके लिये कन्या मत दो।

अथ चतुर्दशःस्तवकः

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[बावनवीं कला]

स्त्रियोंका यथोचित सम्मान करो।
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(८३) यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥

(म० अ० ३ श्लो० ५६)

जिस देशमें स्त्रियोंका यथोचित आदर होता है वहां विद्वान् लोग प्रसन्न रहते हैं, अन्यथा सारे काम बिगड़ जाते हैं।

[त्रेपनवीं कला]

स्त्रियोंके लिये पतिसे बड़ा देवता नहीं।

(८४) विशीलः कामवृत्तो वागुणैर्वा परिवर्जितः।
उपचर्याः स्त्रिया साध्या, सततं देववत् पतिः॥

(म० अ० ५ श्लो० १५४)

चाहे पति बुरे स्वभाव वाला और गुण रहित हो तो भी पतिव्रता स्त्रियां देवताकी तरह पतिकीं सेवा करती हैं।

(८५) नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो, न क्रतुं नाप्युपोषणम्।
पतिं शुश्रूषते येन, तेन स्वर्गे महीयते॥

(म० अ० ५ श्लो० १५५)

स्त्रियोंके लिये कोई अलग यज्ञानुष्ठान, व्रत, उपवास आवश्यक नहीं है। स्त्रियां तो पति सेवा से ही स्वर्गको प्राप्त करती हैं।

[चौवनवीं कला]

सन्तानकी इच्छासं बिधवा विवाह शास्त्रीय है।

(८६) या पत्या वा परित्यक्ता, विधवा वा स्वयेच्छया।
उत्पादयेत् पुनर्भूत्वा, स पौनर्भव उच्यते।

(म० अ० ९ श्लो० १७५ )

विधवा अपनी इच्छासे पौनर्भव पुत्रको उपन्न करती है।
नोटः - नियोगके अभावमें ही पुत्रन

र्विवाह माना गया है।

[पछपनवीं कला]

अक्षय योनि विधवाका पुनः संस्कार मात्र होता है।

(८७) सा चेदक्षत योनिः स्यात्, गतप्रत्यागतापि वा।
पौनर्भवेन भत्रा सा पुनः संस्कारमर्हति॥

(म० अ० ९ श्लो० १७६ )

यदि विधवा अक्षय योनि हो, चाहे पुनर्गमन भी हो चुका हो; तो भी उसके लिये पुनः संस्काकार अधिकार है।

[छप्पनवीं कला]

वर्णान्तर विधवासे वर्ण संकर नहीं होता है।

(८८) व्यभिचारेण वर्णाना,मवेद्या वेदनेन च।
स्व कर्मणां च त्यागेन, जायन्ते वर्णसंकराः॥

( म० अ० १० श्लो० २४ )

व्यभिचार और अपने कर्मोके परित्यागसे वर्णसंकर हो जाता है।

—————————————–

नोटः- अपने कर्त्तव्यका परित्याग कदापि न करो इसीसे वर्णसङ्कर होते हैं।

अथ पञ्चदशःस्तवकः
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[ सत्तावनवीं कला ]

अपना बलिदान करनेसे स्वाराज्य प्राप्त होता है।

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(८९) सर्वभूतेषु चात्मानं, सर्वभूतानि चात्मनि।
समं पश्यन्नात्मयाजी, स्वाराज्यमधिगच्छति॥

(म० अ० १२ श्लो० ९१ )

सर्व प्राणियों को अपनी तरह समझनेवाले तथा अपने सर्वस्व की आहूति देनेवाले ही स्वराज्य प्राप्त करते हैं।

[ अट्ठावनवींकला ]

परतन्त्रतासे बढ़कर कोई दुःख नहीं हैं।

(९०) सर्वं परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः॥

(म० अ० ४ श्लो० १६०)

दूसरेके वशीभूत होना ही दुःख है, और स्वाधीन रहना हो सुख है। अतः स्वाधीनताके लिये पूर्ण प्रयत्न करो।

[उनसठवीं कला]

अनार्योके तो पड़ोसमें भी न रहों।

(९१) वालघ्नांश्च कृतघ्नांश्च, विशुद्धानपि धमतः।
शरणागतहतृंश्च, स्त्री हतृंश्च न संवसेत्॥

(म० अ० ११ श्लो० १९० )

बच्चोंको मारने वाले, कृतघ्नी, शरणागतोंको मारनेवाले एक स्त्रियोंकोसतानेवाले के पास कदापि निवास मत करो।

[साठवीं कला]

पाखण्डी और धूर्तों का तो वाणीसे भीसम्मान मत करो।

(९२) पाषण्डिनो विकर्मस्था,न्वैडालव्रतिकाञ्छठान्।
हैतुकान् वकवृत्तींश्च, वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥

(म० अ० ४ श्लो० ३०)

पाखण्डियों, नास्तिकों और कुतर्कियोंका बाणीसे भी आदर मत करो।

[इकसठवीं कला]

जो प्राण लेंने आता होचाहे पूज्य भी हो उसको मारडालो।

(९३) गुरुं वा बालवृद्धौ, वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।

(म० प्र० ८ श्ला० ३५०)

चाहे गुरु हो, बालक हो, बूढ़ा हो, ब्राह्मण हो, कोई भी हो यदि वह प्राणलेना चाहता हो तो बिना विचारे मारडालो।

[ बासठवीं कला ]

दण्डके बिना पापसे छुटकारा नहीं होता है।

(९४) नहि दण्डादृते, शक्यःकर्त्तुं पापविनिग्रहः।
स्तेनानां पापबुद्धि बुद्धीनां निभृतं चरतां क्षितौ॥

[ म० अ० ९ श्लो० २६३ ]

दण्डके बिना पाप नहीं रुकता है। इसलिये दण्ड मिलने पर बुरा मत मानो; अपितु पापोंको छोड़दो।

अथ षोङशःस्तवकः
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[त्रेसठवीं कला]

शुद्धिका कार्य अत्यन्त आवश्यक है।
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(९५) शनकैस्तु क्रियालोपा,दिमाक्षत्रियजातयः।
वृषलत्वं गता लोके, ब्राह्मणादर्शनेन च॥

(म० अ० १० श्लो० ४३ )

प्रायः क्षत्रिय जातियां ब्राह्मणोंके प्रमादके कारण शूद्र एवं अनाय बनगई हैं। इनकी शुद्धि करनी चाहिये।

(९६) अनुक्तनिष्कृतीनांतु, पापनामपनुत्तये।
शक्तिं चावेक्ष्यपापं च, प्रायश्चित्तं प्रकल्प्यते॥

(म० अ० ११ श्लो० २०९)

जिन पापोके लिये शास्त्रोंमें प्रायश्चित्त नहीं बताये है; उन पापों की मात्रा देखकर शुद्धि संस्कार कर लेना चाहिये।

(९७) एनस्विभिरनिर्णिकक्तै,र्नार्थं किञ्चित्सहाचरेत्।
कृत निर्णेजनांश्चैव न जुगुप्सेत कर्हिचित्॥

( म०प्र० ११ श्ला० १८९)

जिन्होंने शुद्धि कराली है। उनको फिर कभी भी निन्दित नहीं समझना चाहिये; अपितु उनके साथ प्रेम और सहानुभूतिका व्यवहार करके सदाके लिये साथ मिलालेना चाहिये।

[चौंसठवीं कला]

गोरक्षासे बढ़कर अन्य पुण्य नहीं है।
( भारतवर्षको स्वराज्य गोरक्षासे ही मिल सकता है )

(९८) आतुरामभिशस्तां वा, चौरव्याघ्रादिभिर्भयैः।
पतितां पङ्कलग्नां वा, सर्वोपायैर्विमोचयेत्॥

(म० अ० ११ श्लो० ११२ )

कसाई, चोर और व्याघ्रादिके पंजेसे गायको सर्व प्रयत्नसे छुड़ा डालो।

(९९) आत्मनो यदि वान्येषां,गृहे क्षेत्रैऽथवाखले।
भक्षयन्तीं न कथयेत्, पिबन्ते चैव वत्सकम्॥

(म० अ० ११ श्लो० ११४ )

गाय यदि खेत खारही हो, अथवा बछड़ेको दूध पीला रही हो तो भी कुछ न कहो। यहां भो गौके प्रति पूजाका भाव दिखाया है।

(१००) उष्णो वर्षति शीते वा, मारुते वाति वा भृशम्।
न कुर्वीतात्मनस्त्राणं, गोरकृत्वा तु शक्तितः॥

( म०प्र० ११ श्लो० ११३ )

गरमी हो, सरदी हो, वर्षा हो, आंधो हो, अथवा कोई अन्य आपत्ति गायपर आती हो तो अपने प्राणोंका तनिक भी ध्यान मत कर गाय की रक्षा करलो। जिस दिन भारतके बच्चे २ में गौके प्रति इतना पूजा भाव उत्पन्न हो जायगा —उस दिन भारत स्वतन्त्र होगा। याद रखो गो (पृथिवी वाणी, गौ) रक्षा करने वाला देश कभी परतन्त्र नहीं रह सकता है।

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*समाप्तमिदं मनुस्मृति शतकम्*

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