+जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन

संस्कृत-वाङमय बृहद इतिहास द्वादश-खण्ड जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन प्रधान सम्पादक स्व. पद्मभूषण आचार्य श्री बलदेव उपाध्याय प्रो. श्रीनिवास रथ सम्पादक प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी प्रो. रामशंकर त्रिपाठी Jalali उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास द्वादश-खण्ड जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन प्रवर प्रधान सम्पादक पुण्यश्लोक पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय आचार्य श्रीनिवास रथ उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखन संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास द्वादश-खण्ड जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन प्रवर प्रधान सम्पादक पुण्यश्लोक पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय प्रधान सम्पादक आचार्य श्रीनिवास रथ उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान Fe0%ा लखनऊ नाम । प्रकाशक राजकिशोरयादवः निदेशक : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ

  • 4.1130 प्राप्ति स्थान : विक्रय विभाग : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, नया हैदराबाद लखनऊ-२२६ ००७ फोन : २७८०२५१, फैक्स : २७८१३५२ ई-मेल : nideshak@upsansthanam.org प्रथम संस्करण : वि.सं. २०६४ (२००७ ई.) प्रतियाँ : ११०० मूल्य : ३६०.००/- (तीन सौ साठ रुपये) © उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ कलांग जर माछ मुद्रक : शिवम् आर्ट्स, निशातगंज, लखनऊ। दूरभाष : २७८२३४८, २७८२१७२ संस्कृत-वाङ्मय-बृहदितिहासं परिभाषिताष्टादशाश्वासम्। मनसि विभाव्याकलितोपायाः श्रीयुतबलदेवोपाध्यायाः।। ނަންއި प्रवर प्रधान सम्पादक पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय (संवत् १६५६-२०५६ : १८६६-१६६६ ई.) ई प्रकाशकीय यो कार्ड का प्रकाशकीय कामात तक का संसार के सभी प्राणियों में मनुष्य ही सर्वाधिक विवेक प्रधान जीव होने के कारण प्रत्येक कार्य में अपनी तर्क बुद्धि का प्रयोग करता है, जो उसका दर्शन है। हमारा भारतीय दर्शन मुख्य रूप से आस्तिक और नास्तिक दो प्रमुख धाराओं में विभक्त है। नास्तिक दर्शनों के रूप में बृहस्पति प्रवर्तित चार्वाक दर्शन, ऋषभ देव प्रवर्तित जैन दर्शन तथा गौतम बुद्ध प्रवर्तित बौद्ध दर्शनकी गणना होती है। जैन दर्शन का विकास चौबीस तीर्थङ्करों के उपदेशों के रूप में हुआ। यह आचार प्रधान दर्शन है, जो भूतों से पृथक् आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सम्प्रदायों में विभक्त जैनदर्शन जगत् को जीवन तथा अजीव भेद से व्याख्यायित करता है। गुण तथा द्रव्य पर्याय, पुद्गल, अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद, सप्तभङ्गीनय आदि जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्त हैं। कर्मपुद्गलों से भाव मुक्ति इस मत में जीवन्मुक्ति तथा कर्म के सभी भावों से आत्यन्तिक रूप से मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है। जैन दर्शन प्रत्यक्ष, परोक्ष तथा शब्द ये तीन प्रमाण मानता है। __ बौद्ध दर्शन का बीज भगवान् तथागत के धर्मोपदेशों में निहित है, जो कालान्तर में चार दार्शनिक सम्प्रदायों के रूप में फलित हुआ। बौद्धमत की प्रमुख शाखाओं महायान तथा हीनयान से दो-दो दार्शनिक सम्प्रदाय अभिव्यक्त हुए। प्रथम से विज्ञानवाद या योगाचार तथा माध्यमिक या शून्यवाद, और द्वितीय से वैभाषिक या बाह्यार्थप्रत्यक्षवाद तथा सौत्रान्तिक या बाह्यानुमेयार्थवाद विकसित हुए। नामों के आधार सृष्टिकारण विषयक सिद्धान्त हैं। बौद्धदर्शन का मौलिक कार्यकारण-सिद्धान्त ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ के नाम से ख्यात है जिसके अङ्ग क्रमिक परम्परा से कारण कार्यरूप से बद्ध हैं। बौद्धदर्शन अनात्मवादी दर्शन कहलाता है। निर्वाण या बुद्धत्व की प्राप्ति ही इस दर्शन के अनुसार मोक्ष है।। ___ लोकायत या लोकायतिक नाम से प्रसिद्ध चार्वाक दर्शन भौतिकवादी दर्शन है जिसकी पृष्ठभूमि सृष्टिकारण विषयक औपनिषद मतों में दृष्टिगत होती है। इस दृष्टि से काल, नियति, यदृच्छा, स्वभाव आदि उपनिषदुक्त सृष्टि-कारणों का उल्लेख किया जा सकता है। इस दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं प्राप्त होता, किन्तु आचार्य बृहस्पति के कुछ सूत्रों को चार्वाक सूत्र के रूप में स्वीकार किया जाता है। इन सूत्रों के अनुसार पृथिवी, जल, तेज, वायु इन चार भूतों के संयोग से उत्पन्न शरीर, इन्द्रिय तथा विषय का सङ्घटन ही चैतन्य में हेतु है। चैतन्य ही जीव है तथा मृत्यु ही मोक्ष है। इसके अनुसार अर्थकाम ही पुरुषार्थ हैं तथा प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। यह दर्शन लौकिक मार्ग को ही व्यवहार्य मानता है। जैनदर्शन यह मेरा सौभाग्य रहा है कि संस्थान का कार्य आरम्भ करते ही अखिल भारतीय व्यास महोत्सव में प्रधान सम्पादक प्रो. रथ सहित खण्ड के अधिकांश विद्वान लेखकों से वाराणसी में भेंट हो गयी है। प्रधान सम्पादक जी से इस खण्ड पर विचार विमर्श में इस बृहद् योजना का विशेष ज्ञान हुआ। मैं इस योजना के प्रवर प्रधान सम्पादक स्व. पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय जी के चरणों में प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूँ, जिन्होंने इस योजना को साकार रूप देते हुए इसके लेखन और सम्पादन का कार्य सम्बन्धित विषयों के विशेषज्ञ विद्वानों के हाथों में दिया।
  • इस खण्ड के जैन दर्शन भाग के सम्पादक प्रो. फूलचन्द जैन तथा बौद्ध दर्शन भाग के सम्पादक प्रो. रामशंकर त्रिपाठी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी सम्पादनकला और दीर्घकालीन शास्त्रीय ज्ञान से इसे अभिसिञ्चित किया है। खण्ड के सभी विद्वान् लेखकों के प्रति आभारी हूँ जिनके ज्ञान सम्पदा से यह ग्रन्थ मण्डित है। इस खण्ड के लेखन सम्पादन में गति लाकर वर्तमान स्वरूप देने वाले मेरे पूर्वाधिकारी श्री प्रमोद कुमार पाण्डेय को साधुबाद देता हूँ, जिनके प्रयास से यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। सम्पादन मुद्रण में आने वाले गतिरोधों को दूर करने में सदा सभी को सहयोग पूर्वक वाँछित सूचना तथा सामग्री उपलब्ध कराने वाले अपने सहयोगी डॉ. चन्द्रकान्त द्विवेदी को भी हार्दिक शुभकामना देता हूँ। वाङ्मय प्रकाशन कार्य से जुड़े संस्थान के सभी कर्मियों तथा शिवम आर्टस के प्रबन्धक एवं सहयोगियों को भी साधुवाद देता हूँ जिनका इस कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ है। नवागमन शानदार विनयानवत नाग पञ्चमी अमर गया कि जिला राज किशोर यादव वि०स० २०६४ शाकाहांचा वापर कमीजा नदशक निवेदनम् निवेदनम् शाम ऋतु-बाणग्रहक्षोणीमित-वैक्रमवत्सरे। बलियामण्डलग्रामे स्वर्णवर्षेति संज्ञिते।। १ ।। ज्येष्ठस्तनूजनुर्मूर्ति-देवी-रामसुचित्तयोः। संस्कृताधीतिरक्षार्थं शरीरव्यक्तिमादधे।। २ ।। संस्काराद् बलदेवाख्य उपाध्यायकुलध्वजः। शास्त्रानुष्ठाननिरतः सुद्धयुपास्यो विचक्षणः।। ३ ।। स्वदेशतिलकं बालगङ्गाधरमनुस्मरन्। मला गीर्वाण-भारतीज्ञानमानरक्षा-परायणः।। ४ ।। समीक्ष्याबोधवैक्लव्यं दास्यदैन्यसमुद्भवम्। शास्त्रेष्वाकलयाञ्चक्रे नवजागरणौषधम् ।। ५ ।। शास्त्रेषून्मीलितं तत्त्वचिन्तनं सुप्रतिष्ठितम्। दास्यानुपातविच्छिन्नं पुनरुद्धर्तुमुद्यतः।। ६ ॥ चिरत्नशास्त्ररत्नानां निधानं जनभाषया। निबद्धैः सुलभं नूनैश्चक्रे ग्रन्थैः परःशतैः।। ७ ।। निगमागमसाहित्य-पुराणदर्शनेक्षणः। भारतीयासु विद्यासु यावज्जीवं कृतश्रमः।। ८ ।। अधीती सर्वशास्त्रेषु काशीपाण्डित्यदीपकः। पद्मभूषणसम्मानमण्डितः शिष्यवत्सलः।। ६ ।। अथ संस्कृत-संस्थानं कृत्स्नं संस्कृतवाङ्मयम्।। अधिकृत्यैतिह्यदृशा ग्रन्थनिर्माणकाम्यया।। १० ।।जैनदर्शन सम्पादनविभक्त्यर्थं नवत्युत्तरवर्षभाक् । काशीमुपेत्य संस्थानाधिकृतैः प्रार्थितः सुधीः।। ११ ।। युवेव सम्भृतोत्साहः प्रवया अपि सस्पृहम्। सम्पादनधुरं गुर्वी वोढुमग्रेसरोऽभवत् ।। १२ । विद्यानां सङ्ख्यया ग्रन्थान् विभज्याष्टादशात्मकान्। इष्टं ज्ञानमहासत्रं चक्रे सुपरिभाषितम्।। १३ ।। शिष्या रात्रिन्दिवं नैकग्रन्थानां निर्मिती भृशम्। सन्नद्धा गुरुणाशीभिः कृतास्तत्त्वार्थदर्शिना।। १४ ।। संस्थानोपक्रमं प्राज्ञः स्वातन्त्र्योत्तरभारते। दास्यध्वान्तहरं मेने ज्योतिषामुदयोपमम् ।। १५ ।। ततः संस्कृतसंस्थानाध्यक्ष्यभारं सुदुर्वहम् । ग्रन्थनिर्माणसौकर्यमुद्दिश्यैव स ऊढवान्।। १६ ।। वेद वेदाङ्गसाहित्यवाङ्मयैतिरसम्भृतान्। समीक्ष्यैकादशग्रन्थान् प्राकाश्यमनयत् कृती।। १७ ।। ऋतुबाणनभोनेत्रमितेऽब्दे वैक्रमे वशी। पुरुषायुषमासाद्य परब्रह्मण्यलीयत।। १८ ।। गुरुणा मूलतस्तेन यथा ग्रन्थाः प्रकल्पिताः। तथैव ते प्रकाश्यन्तेऽधुनाऽस्माभिर्यथामति।। १६ ।। जैन-सौगत-चार्वाक-दर्शनाख्यो चतुर्दशः। ग्रन्थोऽयं गुरवे तस्मै सप्रणामं निवेद्यते।। २० ।। गुरु पूर्णिमा सं. २०६४ श्रीनिवास-रथः ‘श्रीलीला’ १२ उदयनमार्गः उज्जयिनी अस्मदीयम् अस्मदीयम् ‘संस्कृत वाङ्मय का बृहत् इतिहास’ के अन्तर्गत संकल्पिक ‘जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन का प्रस्तुत खण्ड ग्रन्थ योजना में बारहवाँ खण्ड है। इस योजना की भूमिका में सम्मिलित सभी मनस्वी विद्वज्जनों से विस्तृत विचार विमर्श के उपरान्त पुण्यश्लोक आचार्य बलदेव उपाध्याय जी ने इस उपक्रम को अठारह खण्डों में विभक्त किया था। इस खण्ड के लिये जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन तथा चार्वाक दर्शन को सूचीबद्ध किया था। दार्शनिक धरातल पर ये तीनों प्रस्थान सृष्टि के लिये किसी के कर्तृत्व को स्वीकार नहीं करते। वे ‘मोक्ष’ को अपनी-अपनी दृष्टि से परिभाषित करते हैं। जैन दार्शनिक चिन्तन व्यावहारिक पृष्ठभूमि में आधार प्रधान है। रागद्वेष पर विजय प्राप्त करना भव-बन्धन से मुक्त होने का साधन है। भवबन्धन की ग्रन्थियों का खुल जाना ‘निगण्ठ’ की वह स्थिति है जो ‘अर्हत्’ की पदवी में निहित है। इस पदवी पर सर्वज्ञ तीर्थकरों की प्रतिष्ठा मानी जाती है। जैन मत के अनुयायी आद्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव से वर्धमान महावीर तक चौबीस तीर्थकरों की गणना करते हैं। यह गणना निश्चित ही स्मृति परम्परा में ऐतिहासिक ही हो सकती है, परन्तु इतिहास-दृष्टि में अधुनातन ऐतिहासिक-काल की सीमा में पार्श्वनाथ तथा वर्धमान महावीर ऐतिहासिक महापुरुष हैं जो अपने तपोबल से तीर्थकर पदवी पर प्रतिष्ठित माने जाते हैं। भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म काशी में हुआ था। हमने ‘बलदेवचरितम्’ में काशी और पार्श्वनाथ को प्रणामाञ्जलि अर्पित की है। तीर्थङ्करा ऋषभदेवपरम्परायां काशी तपोभिरनयन्जितीर्थवत्ताम् । श्रीपार्श्वनाथचरणाम्बुजरेणुपूता काशी त्रिरत्नवसुधेति मताऽऽर्हतानाम् ।। भगवान् पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह को महाव्रत के रूप में स्वीकार किया है। वर्धमान महावीर ने पाचवें महाव्रत के रूप में ब्रह्मचर्य को सम्मिलित किया और अपरिग्रह की पूर्णता के लिये वस्त्रधारण करना भी त्याग दिया। के जैन सिद्धान्त मूलतः अर्धमागधी में निबद्ध हैं। अङ्ग, उपाङ्ग, प्रकीर्ण तथा छेदसूत्रों में तीर्थङ्करों के उपदेश प्रतिफलित हुए हैं। आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य समन्तभद्र के अनन्तर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर से कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र तक तत्त्वार्थसूत्र, प्रपञ्चसार, आप्त-मीमांसा तथा प्रमाण-मीमांसा आदि जैन दर्शन के अमूल्य ग्रन्थरत्नों का भण्डार उपलब्ध होता है जो संस्कृत में निबद्ध है। जैन दर्शन, सम्यक्-दर्शन, सम्यक् ज्ञान जिसके अन्तर्गत जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सम्बर, निर्जरा तथा मोक्ष तत्त्वों का अर्थात् जैनदर्शन इन सात पदार्थों का यथोचित ज्ञान अभीष्ट होता है और सम्यक्-चारित्र अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवम् अपरिग्रह का निरन्तर पालन को अपनी आधार मीमांसा के अनुरूप मोक्ष का साधन निरूपित करता है। जैन दार्शनिक चिन्तन में अस्तिकाय के रूप में – जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म तथा अधर्म की गणना द्रव्यों में की जाती है तथा काल को भी द्रव्य कहा गया है। जैन दर्शन में स्याद्वाद तथा ‘सप्तभङ्गीनय’ तार्किक विचार पद्धति के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं जो विश्व के सभी दार्शनिकों के लिये गम्भीर चिन्तन के आयाम उद्घाटित करते हैं। यहाँ यह भी हमारे लिये महत्त्वपूर्ण है कि जैन अनुशासन में धर्म और अधर्म की द्रव्यान्तर्गत गणना के कारण सारा चिन्तन आचार मीमांसा पर विशेष रूप से अवलम्बित दृष्टिगोचर होता है। जैन दर्शन के विकास में श्वेताम्बर तथा दिगम्बर सम्प्रदायों का अपना-अपना महत्त्व है। श्वेताम्बर अपने आगमों की गणना में एकादश अग, द्वादश उपाङ्ग, दश प्रकीर्णक, छह छेदसूत्र, दो सूत्र तथा चार मूलसूत्रों को सम्मिलित करते हैं। श्वेताम्बर आगमों को महावीर के उपदेशों का मौलिक संकलन स्वीकार करते हैं। आगमों की प्राकृत व्याख्या को नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि ग्रन्थों का आकार मिला था। आगमों की संस्कृत व्याख्या नवम शताब्दी से ग्यारहवीं तथा बारहवी शताब्दी तक के आचार्यों की देन है। आचार्य मलयगिरि ने आगमों की अपनी प्राञ्जल संस्कृत व्याख्या में गम्भीर दार्शनिक प्रश्नों को उपस्थापित किया है। ___ दिगम्बर सम्प्रदाय की परम्परा में आचार्य भद्रबाहु को अन्तिम श्रुतकेवली माना गया है, मौर्यकाल में पाटलिपुत्र संघ के अध्यक्ष थे। प्राचीन परम्परा के अति दुर्लभ ग्रन्थों के भागों को जोड़कर आगमों के रूप में उसके उद्धार का श्रेय आचार्य धरसेन तथा उनके शिष्य पुष्पदन्त तथा भूतबलि को है। इन आचार्यों ने ‘षट्खण्डागम’ अर्थात् जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा तथा महाबन्ध नामक छह आगम खण्डों को पुनरुद्धार किया था। इन आगमों में कर्म तथा जीव सिद्धान्त का मौलिक तथा विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। आगमों के प्रथम पाँच खण्डों की विशद व्याख्या धवला टीका में तथा अन्तिम खण्ड की व्याख्या महाधवला टीका में उपलब्ध होती है। मा दिगम्बर सम्प्रदाय में आगमों के उद्धार की एक और धारा ‘कसायपाहुक’ में संकलित हुई है। इसके प्राकृत भाष्य को ‘चूर्णिग्रन्थ’ कहते हैं। इन दोनों की विशाल व्याख्या ‘जयद्यवला’ में उपलब्ध होती है जो प्राकृत तथा संस्कृत की मणिप्रवाल शैली में उपनिबद्ध है। जैन पुराण साहित्य के विशाल भण्डार में चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव तथा नौ प्रतिवासुदेवों को मिलाकर तिरेसठ शलाका पुरुषों का ‘माहात्म्य अंकित हुआ है। आचार्य जिनसेन तथा हेमचन्द्राचार्य की भूमिका पुराणों के लिए महत्त्वपूर्ण है। जैन दर्शन के क्षेत्र में शोध अध्ययन की भावी दिशा, अनेक ग्रन्थागारों में अभी तक अज्ञात और अल्पज्ञात ग्रन्थों के समावित अनुशीलन पर निर्भर है। अस्मदीयम् जैन धर्म दर्शन के आधिकारिक विद्वान् डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया के सहयोगी डॉ. फूलचन्द जी जैन ‘प्रेमी’ ने बड़े परिश्रम से सम्पादन के दायित्व का निर्वाह किया है तथा अपने शोधपूर्ण आलेखों से ग्रन्थ की उपादेयता की श्रीवृद्धि की है। जैन पुराण साहित्य तथा जैन दर्शन में अध्यात्म पर डॉ. पन्नालाल जैन तथा पं. जगमोहन लाल ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। पं. जवाहरलाल सिद्धान्तशास्त्री ने कर्म सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत किया है। डॉ. फूलचन्द जैन जैसे विद्वान् जो ‘प्रेमी’ के रूप में सुपरिचित है जानते हैं कि ज्ञान का प्रसार ही उसका फूल है। मैं उनके माध्यम से सभी सहयोगी विद्वानों के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता हूँ। म नि । बौद्ध दर्शन के विकास में हीनयान, महायान तथा वज्रयान के सम्प्रदायगत विस्तार की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। गौतमबुद्ध के उपदेश की भाषा मगध की लोक भाषा थी जिसे अब पालि के रूप में जाना जाता है। बुद्ध के उपदेश निर्वाण के उपरान्त उनके दो प्रमुख अनुचर शिष्य आनन्द और उपालि के द्वारा लिपिबद्ध किये गये। आनन्द ने उपदेशों का संग्रह सुत्तपिटक में तथा उपालि ने उनके उपदिष्ट आचार संहिता को विनयपिटक में संकलित किया था। अभिधम्मपिटक परवर्ती काल की रचना है तथा सुत्तपिटक में निहित सिद्धान्तों का या बुद्ध के प्रवचनों का शास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत करता है। बौद्ध दर्शन के सैद्धान्तिक तथा मनोवैज्ञानिक पक्षों की तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से इस पिटक के सातों विभाग नितान्त उपादेय और महत्त्वपूर्ण हैं। यानी हीनयान के मत में बुद्ध महापुरुष हैं तथा उन्होंने अपने प्रयत्नों से निर्वाण प्राप्त किया था। इस प्रस्थान ने निवृत्तिपरक दृष्टिकोण को अपनाया था। इसके विपरीत महायान के विद्वान् बुद्ध को लोकोत्तर पुरुष मानते हैं तथा गौतमबुद्ध को उनका अवतार सिद्ध करते हैं। महायान प्रवृत्ति मार्ग पर अवस्थित है तथा भक्ति प्रधान होकर बोधिसत्व की आराधना पर बल देता है। महायान सम्प्रदाय का विपुल साहित्य संस्कृत में लिखा गया है। यह मत चार भागों में बँटा हुआ है। वस्तु जगत को सत्य मानने वाले इस पन्थ को ‘वैभाषिक’ कहते है। इसी मत को ‘सर्वास्तिवाद’ भी कहा जाता है। दूसरा मत है ‘सौत्रान्तिक’ जो अनुमान को स्वीकार करता है। तीसरा मत योगाचार है जिसे विज्ञानवाद भी कहा जाता है। इस मत में सब कुछ शून्य का ही विवर्त है। महायान के चारों सम्प्रदायों को गुरुवर्य उपाध्यायजी एक सुन्दर श्लोक से समझते थे। मुख्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत् योगाचारमते तु सन्ति मतयरतासा विवर्तो ऽखिलः। अथोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिकः प्रत्यक्षं क्षणभङ्गुरं च सकलं वैभाषिको भाषते। १० है जैनदर्शन ___ महायान सम्प्रदाय का विपुल संस्कृत साहित्य आज सहज सुलभ नहीं है। बहुत कुछ तिब्बती तथा सिंहली अनुवादों में प्राप्त होता है। महायान के नौ ग्रन्थ-सद्धर्मपुण्डरीक, प्रज्ञापारमितासूत्र, गण्डव्यूह-सूत्र, दशभूमिक-सूत्र, रत्नकूट, समाधिराज सूत्र, सुखावती व्यूह, सुवर्णप्रभास-सूत्र तथा लङ्कावतार-सूत्र विशिष्ट ऐतिहासिक और शास्त्रीय महत्त्व के हैं। कुछ मूल तथा कुछ अनुवादों में उपलब्ध इन सिद्धान्त ग्रन्थों का बौद्ध दार्शनिक प्रस्थानों के विकास एवं विस्तार की दृष्टि से बड़ा योगदान है। की वज्रयान महायान के विस्तार के साथ योगाचार और मन्त्रयान के माध्यम से विकसित हुआ प्रतीत होता है। वज्रयान में वज्र शून्यता का प्रतीक है तथा उसकी परिभाषा अविनाशी के रूप में की गई है। दृढं सारमसौशीर्य अच्छेद्याभेद्यलक्षणम्। अदाहि अविनाशि च शून्यता वज्रमुच्यते।। वज्रयान के आचार्यों में सिद्ध परम्परा का बड़ा महत्त्व है। इन सिद्धों में चौरासी सिद्ध प्रसिद्ध हैं। __ आचार्य रामशंकर त्रिपाठी ने बड़े परिश्रम से बौद्ध दर्शन के गूढ तत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत किया है। बौद्ध दर्शन के समकालिक आचार्यों में उनका अग्रणी स्थान है। आचार्य त्रिपाठी का योगदान सभी के लिये अभिनन्दनीय है। जा चार्वाक दर्शन नितान्त भौतिकतावादी दर्शन है। इस मत के प्रवर्तन का श्रेय आचार्य बृहस्पति को दिया गया है। चार्वाक दर्शन का अनुयायी वर्ग किसी सम्प्रदाय के रूप में कहीं भी प्रतिष्ठित दृष्टिगोचर नहीं होता, परन्तु भारतीय दार्शनिक चिन्तन की सत्य निष्ठा और वस्तुनिष्ठता को पग पग पर प्रमाणित करता है। भारतीय दर्शनों के आचार्य चार्वाक के मत की चर्चा करते हैं और उस परम्परा में स्वयं चार्वाक दर्शन की विकास यात्रा भी परिलक्षित होती है। चार्वाक मत में आकाश तत्त्व तथा अनुमान की स्वीकृति उसके मूल चिन्तन की परिवर्धित सीमाओं को प्रकाशित करता है। प्रायः विभिन्न दार्शनिक प्रस्थानों के आचार्य सर्वप्रथम प्रहार चार्वाक मत पर ही करते हैं। अधुनातन युग के आचार्य गङ्गाधर शास्त्री तैलङ्ग ने अपने ‘अलिविलासिसंलापः’ में चार्वाक को ‘सकलदार्शनिकप्रथमः ही कहा है। चार्वाक दर्शन के सांगोपांग विवेचन में प्रो. राधेश्याम चतुर्वेदी जी तथा आयुष्मान् डॉ. पीयूष कान्त दीक्षित ने विविध पक्षों को उजागर किया है। हम दोनों मनस्वी आचार्यों को कृतज्ञता पूर्वक साधुवाद अर्पित करते हैं। __उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान इस गौरवपूर्ण अनुष्ठान को बड़ी निष्ठा से सम्पन्न कर रहा है। पूर्व निदेशक श्री प्रमोद कुमार पाण्डेय तथा वर्तमान निदेशक श्रीयुत राज किशोर यादव प्रस्तुत खण्ड के प्रकाशन में निरन्तर सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे हैं। लेखक, ११ अस्मदीयम् सम्पादक तथा प्रधान सम्पादक के बीच निरन्तर सम्पर्क की भूमिका में डॉ. चन्द्र कान्त द्विवेदी का आत्मीय अनुबन्ध अभिनन्दनीय है। पूर्व खण्डों के समान प्रस्तुत प्रकाशन की भव्यता के लिये ‘शिवम् आर्ट्स’ के अथक प्रयास तथा समर्पित सेवा भाव के प्रति धन्यवाद ज्ञापन के साथ हम जैन बौद्ध चार्वाक दर्शन का यह द्वादश खण्ड आचार्य प्रवर उपाध्याय जी को ‘त्वदीय वस्तु’ के रूप में अर्पित करते हैं। आषाढ कृष्ण एकादशी संवत् २०६४ ६ अगस्त, २००७ श्रीनिवास रथ “श्रीलीला” १२, उदयन मार्ग, उज्जैन ਨਾਜ ਦੀ ਵਰਣ ਭਾਵ ਇਸ ਦੋਸ਼ ਜੋ ਨਿਰਸ਼ ਸਮਝ ਉਸ ਨੂੰ ਸਮਝ कानि हिमालय मामले की संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास अन टि गए विषय-सूची का विमान का नायक द्वादश-खण्ड क मामला (णावा ति ०० जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन थापा जवाफ १. जैन दर्शनमा १-३० सम्पादकीय प्रस्तावना ___ जैनदर्शन का वैशिष्ट्य ३, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और परम्परा ४, जैनधर्म-दर्शन नास्तिक नहीं है ५, ईश्वर कर्तृत्व का निषेध ६, वैचारिक अहिंसा और अनेकान्तवाद १७, भारतीय न्यायविद्या के विकास में जैनाचार्यों का योगदान २६ । जैन संस्कृति : उद्भव एवं विकास का वा ३१-५७ प्राग्वृत्त ३१, जैनधर्म के आद्यप्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव ३१, अन्य तीर्थंकर ३२, अरिष्टनेमि ३३, पार्श्वनाथ ३३, तीर्थंकर वर्धमान महावीर ३४, तीर्थंकर-उपदेश : द्वादशांगश्रुत ३५, उपलब्ध श्रुत ३६, धर्म, दर्शन और न्याय ३७, जैन दर्शन और जैन न्याय : उद्भव और विकास ३८, उद्भव ३८, विकास ४०, आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल ४०, दार्शनिक जगत् को आचार्य समन्तभद्र का अवदान ४१, मध्यकाल अथवा अकलंक-काल ४८, दूषणोद्धार ५०, नव-निर्माण ५३, अन्त्यकाल (मध्य-उत्तरवर्ती) अथवा प्रभाचन्द्रकाल ५५ maicine Mr जैनदर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ५९-१२६ १८ भारतीय दर्शन और उनका विभाजन ५८, आस्तिक और नास्तिक के रूप में दर्शनों का विभाजन ६१, जैनदर्शन और उसका उद्देश्य ६३, जैन दर्शन के प्रमुख अंग ६५, तत्त्व मीमांसा ७१, पदार्थ १४ जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन मीमांसा ७८, पंचास्तिकाय-मीमांसा ७६, अनेकान्त-विमर्श ८०, अनेकान्त का स्वरूप ८१, स्याद्वाद-विमर्श ८५, स्याद्वाद : जैनदर्शन का एक मौलिक सिद्धान्त ८५, स्याद्वाद का सार्वत्रिक उपयोग ८६, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद ८७, अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी : भेद-विमर्श ६१, न्याय और उसके अंग ६२, न्यायविद्या ६२, प्रमाण और नय ६४, प्रमाण-विमर्श प्रमाण का प्रयोजन ६५, जैनन्याय में प्रमाण का स्वरूप ६७, प्रमाण-भेद ६६, जैनन्याय में प्रमाण-भेद १००, परोक्ष-प्रमाण १०३, तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद १०४, अनुमान के अंग-साध्य और साधन १०५, अविनाभाव-भेद १०६, हेतु-भेद १०७, अनुमान के अवयव १०८, प्रत्यक्ष प्रमाण-विमर्श १११, नय-विमर्श ११४, नय प्रमाण है या अप्रमाण ? ११७, वाद-विद्या ११८, मध्य युग ११८, कथा का आरम्भ ११६, दार्शनिक कथाएँ ११६, जैनदर्शन में कथा-मान्यता १२१, जय-पराजयव्यवस्था १२४। KEEFITRATSETTE ४. जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ १२७-१३७ आचार्य गृद्धपिच्छ १२७, स्वामी समन्तभद्र १२७, सिद्धसेन १२८, देवनन्दि-पूज्यपाद १२८, श्रीदत्त १२८, पात्रस्वामी १२६, अकलंकदेव १२६, हरिभद्र १२६, सिद्धसेन (द्वितीय) १३०, वादीभसिंह १३०, बृहदनन्तवीर्य १३०, विद्यानन्द १३१, कुमारनन्दि (कुमारनन्दि भट्टारक) १३१, अनन्तकीर्ति १३२, माणिक्यनन्दि १३२, देवसेन १३२, वादिराज १३३, प्रभाचन्द्र १३३, अभयदेव १३४, लघु अनन्तवीर्य १३४, देवसूरि १३४, हेमचन्द्र १३४, भावसेन त्रैविद्य १३४, लघु समन्तभद्र १३५, अभयचन्द्र १३५, रत्नप्रभसूरि १३५, मल्लिषेण १३५, अभिनव धर्मभूषणयति १३५, शान्तिवर्णी १३६, नरेन्द्रसेन भट्टारक १३६, चारुकीर्ति भट्टारक १३६, विमलदास १३६, अजितसेन १३६, यशोविजय १३७, बीसवीं शती के जैन तार्किक १३७। वाट लगा कर मार मा ५. जैनदर्शन में अध्यात्म करने का १३८-१४५ ६. विषय-सूची जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में जाना १४६-१५५ कर्म विषयक साहित्य १४७, कर्मबंध और उसकी प्रक्रिया १४७, अष्टविध कर्म १४६, नामकर्म और इसका वैशिष्टय १४६, नामकर्म का स्वरूप १५०, नामकर्म और उसकी प्रकृतियाँ १५१। ७. जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ मा जानकार १५६-१७८ __धवला टीका १५६, विषय-परिचय १५७, धवला में अन्यान्य वैशिष्ट्य गणित के क्षेत्र में धवला का मौलिक अवदान १६१, व्याकरण-शास्त्र १६१, न्यायशास्त्र १६२, शास्त्रों के नामोल्लेख १६२, प्राचीन दार्शनिकों के नामोल्लेख १६२, तीर्थस्थानों, नगरों के नामोल्लेख १६३, जयधवल टीका १६३, विषय परिचय १६४, पेज्जदोस विभक्ति १६४, स्थिति विभक्ति १६५, अनुभाग विभक्ति १६५, प्रदेश विभक्ति १६५, बन्धक १६५, संक्रम १६६, वेदक १६६, उपयोग १६६, चतुःसंस्थान १६६, व्यंजन १६७, दर्शनमोहोपशामना १६७, दर्शनमोहनीयक्षपणा १६७, देशविरत १६७, संयम १६८, चारित्रमोहोपशामना १६८, चारित्रमोहक्षपणा १६८, गोम्मटपंजिका १६८, मन्दप्रबोधिनी १६६, गोम्मटसार जीवकाण्ड १६६, गुणस्थान १७०, जीव समास १७१, पर्याप्ति १७१, प्राण १७१, संज्ञा १७१, मार्गणा १७१, उपयोग १७१, अन्तर्भाव १७२, आलाप १७२, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड १७२, प्रकृतिसमुत्कीर्तन १७२, बन्धोदय-सत्वाधिकार १७२, सत्वस्थान भंगाधिकार १७३, त्रिचूलिका अधिकार १७३, बन्धोदय सत्त्वयुक्तस्थान समुत्कीर्तन १७३, प्रत्ययाधिकार १७४, भावचूलिका १७४, त्रिकरणचूलिका अधिकार १७४, कर्मस्थितिरचना अधिकार १७४, गोम्मटसार जीवतत्त्वप्रदीपिका १७४, जीवतत्त्वप्रदीपिका १७५, लब्धिसार-क्षपणासार टीका १७५, क्षपणासार (संस्कृत) १७६, पंचसंग्रहटीका १७६, कर्म-प्रकृति १७६, कर्म-विपाक १७७, सिद्धान्तसार-भाष्य १७७, कर्म-प्रकृति-भाष्य १७७, त्रिभंगी टीका १७७, भावसंग्रह १७८, निष्कर्ष १७८ । तरजैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन जैन आचार-मीमांसा कामा १७६-२२६ श्रावकाचार : श्रावकों की आचार-पद्धति १८०, संस्कार और उनका महत्त्व १८०, संस्कार से सम्बन्धित जैन साहित्य १८१, संस्कारों की संख्या १८१, आदिपुराण और उसमें प्रतिपादित संस्कार १८२, प्रमुख सोलह संस्कार : स्वरूप और विधि १८३, शुभ मुहूर्त १८७, विधि १८७, श्रावक के तीन मनोरथ १८६, हिंसा के चार भेद १६३, श्रावक धर्म : विकास के सोपान १६३, चारित्रपाहुड १६६, तत्त्वार्थसूत्र १६८, रत्नकरण्डक श्रावकाचार १६८, रत्नमाला १६८, कार्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकाचार १६६, पद्मचरित १६६, वराङ्गचरित १६६, हरिवंश पुराण १६६, महापुराण २००, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय २००, उपासकाध्ययन २००, अमितगति श्रावकाचार २०१, चारित्रसार ग्रन्थगत-श्रावकाचार २०१, वसुनन्दि-श्रावकाचार २०१, सागारधर्मामृत २०२, धर्मसंग्रह २०२, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार २०२, गुणभूषण श्रावकाचार २०३, धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार २०३, लाटीसंहिता २०४, उमास्वामी श्रावकाचार २०४, पूज्यपाद-श्रावकाचार २०४, व्रतसार २०४, व्रतोद्योतन श्रावकाचार २०५, श्रावकाचार सारोद्धार २०५, भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन २०५, पद्मनन्दि पंचविंशतिका ग्रन्थगत-श्रावकाचार २०५, पद्मनन्दि पंचविंशतिका ग्रन्थगत-श्रावकाचार २०५, भावसंग्रह २०६, पुरुषार्थनुशासनगत श्रावकाचार २०६, कुन्दकुन्द श्रावकाचार २०६, श्रावक धर्म-प्रदीप २०६, श्रावक प्रज्ञप्ति २०७, धर्मबिन्दु २०७, श्रावकधर्म विधि प्रकरण २०७, षट्स्थान प्रकरण २०७, श्राद्धदिन-कृत्यसूत्र २०८, श्रावकधर्म विधि २०८, श्राद्धगुण विवरण २०८, श्राद्धविधि २०६, श्रमणाचार २०६, श्रमणाचार विषयक साहित्य २१०, श्रमणों की अचार-संहिता २१०, मूलगुण २११, महाव्रत २१२, समिति २१३, इन्द्रिय निग्रह २१३, षड्-आवश्यक २१५, शेष सात मूलगुण २१५, लोच २१६, अचेलकत्व २१६, अस्नान २१६, क्षितिशयन २१७, आदन्तघर्षण २१७, स्थित-भोजन २१७, एकभक्त २१८, प्राकृतिक एवं सहज जीवन के प्रतीक हैं ये मूलगुण २१८, उत्तरगुण २१६, आहार, विहार और व्यवहार २१६, आर्यिकाओं की आचार-पद्धति २२०, चतुर्विध संघ में आर्यिकाओं का स्थान २२०, आर्यिका के लिए प्रयुक्त शब्द २२०, आर्यिकाओं का वेष २२१, आर्यिकाओं की वसतिका २२१, विषय-सूची समाचार : विहित एवं निषिद्ध २२२, आहारार्थ गमन विधि २२३, स्वाध्याय सम्बन्धी विधान २२३, वंदना-विनय सम्बन्धी व्यवहार २२४, आर्यिका और श्रमण संघ : परस्पर सम्बन्धों की मर्यादा २२४, आर्यिकाओं के गणधर २२५ । जैन पुराण साहित्य २२७-२४१ आदिपुराण २३०, पुराणकथा और कथानायक २३०, उत्तरपुराण २३१, आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय २३२, हरिवंशपुराण २३३, हरिवंशपुराण का आधार २३३, हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन २३४, हरिवंशपुराण का रचना स्थान और समय २३४, हरिवंशपुराण की कथावस्तु २३४, पद्मपुराण २३४, रामकथा-साहित्य २३५, जैन रामकथा के दो रूप २३५, विद्याधर काण्ड २३६, राम और सीता विवाह २३६, वनभ्रमण २३७, सीता-हरण और खोज २३८, युद्ध २३८, उत्तरचरित २३६, रविषेणाचार्य २३६, शान्तिनाथ पुराण २४१। २. बौद्ध दर्शन १०. भूमिका २४३-२७५ __महायान का उद्भव एवं विकास २४६, महायानसूत्रों की बुद्धवचनता २५३, वस्तुसत्ता २६०, परमाणु २६३, आलयविज्ञान २६४, निर्वाण २६५, बुद्धवचन २६६, धर्मचक्र २६६, द्विविध नैरात्म्य २६७, द्विविध आवरण २६८, द्विविधि सत्य २६८, प्रमाण विचार २६६, त्रिकाय व्यवस्था २६६, बुद्धगुण २७२, एकयानवाद २७३, कृतज्ञता-ज्ञापन २७४। ११. भगवान बुद्ध की शिक्षा २७६-२८४ त्रिविध धर्मचक्रप्रवर्तन २७७, धर्मचक्रों की नेयनीतार्थता २७८, प्रथम धर्मचक्रप्रवर्तन २७८, द्वितीय धर्मचक्रप्रवर्तन २७६, तृतीय धर्मचक्रप्रवर्तन २७६, भगवान् की शिक्षा की सार्वभौमिकता २८१, भाषा १८ जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन २८१, मानव-समता २८१, मानवश्रेष्ठता २८१, व्यावहारिकता २८२, मध्यमा प्रतिपदा २८२, प्रतीत्यसमुत्पाद २८३, कर्मस्वातन्त्र्य २८४। १२. अठारह बौद्ध निकाय २८५-२६६ निकायों की परिभाषा २८६, महासांघिक २८६, स्थविरवाद २८७, सर्वास्तिवाद २८७, एकव्यावहारिक २८७, लोकोत्तरवाद २८७, प्रज्ञप्तिवादी २८८, वात्सीपुत्रीय २८८, सम्मितीय २८८, महीशासक २८६, धर्मगुप्तक २८६, काश्यपीय २६०, विभज्यवाद २६०, निकाय-परम्परा २६०, अठारह निकायों के सामान्य सिद्धान्त २६१, ज्ञान में ग्राह्य (विषय) के आकार का अभाव २६२, ज्ञान में स्वसंवेदनत्व का अभाव २६२, बाह्यार्थ का अस्तित्व २६३, तीनों कालों की सत्ता २६३, निरुपधिशेष निर्वाण २६४, बोधि से पूर्व गौतम बुद्ध का पृथग्जन होना २६४, महायानसूत्रों की अप्रामाणिकता २६५। १३. स्थविरवाद २६७-३३६ परमार्थ धर्म विचार २६७, शील-विमर्श ३०७, समाधि-विमर्श ३१३, चतुष्क नय के अनुसार ३२१, पंचक नय के अनुसार ३२१, चार अरूप ध्यान ३२४, प्रज्ञा-विमर्श ३२७, विशुद्धि और ज्ञान ३३८ । १४. वैभाषिक दर्शन (सर्वास्तिवाद) ३४०-३५७ की परिभाषा ३४०, सर्वास्तिवादियों के नयभेद ३४१, धर्मप्रविचय ३४२, सास्रव-अनास्रव ३४३, संस्कृत-असंस्कृत ३४३, विस्तार ३४३, अविज्ञप्ति ३४४, असंस्कृत ३४४, नित्य-अनित्य ३४५, स्कन्ध-आयतन-धातु ३४५, मनोधातु ३४६, पदार्थ-विभाजन का अन्य प्रकार ३४७, हेतु-फलवाद ३४८, वैशिष्ट्य ३५१, सत्यद्वय व्यवस्था ३५१, परमार्थ सत्य ३५१, परमाणु विचार ३५२, ज्ञानमीमांसा ३५२ । १५. सौत्रान्तिक दर्शन ३५८-३६६ सौत्रान्तिक निकाय का उद्भव एवं विकास ३५८, विभिन्न मत ३५८, समीक्षा ३५६, सौत्रान्तिक विचारों का उद्भव एवं विकास ३६१, विषय-सूची बुद्धवचनों की नेय-नीतार्थता ३६४, सौत्रान्तिक आचार्य और उनकी कृतियाँ ३६७, सौत्रान्तिक दर्शन के प्रमुख आचार्य ३६६, आचार्य भदन्त ३६६, श्रीलात ३६६, कृतियाँ ३७०, कुमारलात ३७१, कुमारलात का समय ३७२, कृतियाँ ३७३, अन्य प्राचीन आचार्य ३७३, वसुबन्धु ३७३, परवर्ती परम्परा ३७६, आचार्य दिङ्नाग ३७७, समय ३७८, युक्त्यनुयायी सौत्रान्तिक ३७८, आचार्य शुभगुप्त ३८०, समय ३८०, कृतियाँ ३८२, प्रमुख सौत्रान्तिक सिद्धान्त ३८२, फलस्थ पुद्गल ३८४, सौत्रान्तिक दर्शन की दस विशेषताएं ३८४, क्षणभङ्ग सिद्धि ३८४, सूत्रप्रामाण्य ३८५, परमाणुवाद ३८५, द्रव्यसत्त्व-प्रज्ञप्तिसत्त्व ३८५, ज्ञान की साकारता ३८६, साकार ज्ञानों के भेद ३८७, कार्य और कारण की भिन्नकालिकता ३८८, प्रहाण और प्रतिपत्ति ३८८, ध्यानाङ्गों की विशेषता ३८८, प्रमाण आदि सम्यग्ज्ञान ३८६, बुद्ध, बोधिसत्त्व और बुद्धकाय ३६०, काय ३६०, ज्ञानमीमांसा ३६०, विविध ज्ञान ३६१, प्रत्यक्ष के भेद ३६४, मार्ग और फलव्यवस्था ३६६ । १६. योगाचार दर्शन (विज्ञानवाद) ३६७-४४१ सत्याकार विज्ञानवादियों के भेद ३६७, आगमानुयायी विज्ञानवाद ३६६, पदार्थ मीमांसा ३६६, लक्षण विचार ४००, आलयविज्ञान और क्लिष्ट मनोविज्ञान ४०२, कतिपय प्रश्न ४०४, आश्रित ‘बीज-आलय’ ४०७, वासना के प्रकार ४०८, गोत्र विचार ४१०, आलयविज्ञान साधक युक्तियाँ ४१३, क्लिष्ट मनोविज्ञान ४२०, मनोविज्ञान साधक युक्तियाँ ४२४, दो सत्य ४३०, कार्यकारणव्यवस्था ४३१, प्रमाणव्यवस्था ४३२, मार्ग-फलव्यवस्था ४३२, बाह्यार्थ के निरास के लिए अन्य युक्तियाँ ४३६, मार्ग एवं फल व्यवस्था ४३७, युक्ति प्रयोग ४३८, प्रमाण और प्रमाणफल व्यवस्था ४३६ । १७. माध्यमिक दर्शन (शून्यवाद) ४४२-५०२ स्वातन्त्रिक माध्यमिक ४४२, प्रासङ्गिक माध्यमिक ४५३, पुद्गल एवं धर्म की निःस्वभावता या सस्वभावता ४५४, श्रावकपिटक में धर्मनैरात्म्य उपदिष्ट है-इसका प्रतिपादन ४६२, धर्मनैरात्म्य ४६३, पुद्गलनैरात्म्य ४६४। २० जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन १८. महायान साहित्य ५०३-५३२ महायानसूत्र ५०३, सद्धर्मपुण्डरीक ५०३, ललितविस्तर ५०५, लङ्कावतार ५०७, सुवर्णप्रभास ५०८, गण्डव्यूह ५१०, तथागगुह्यक ५१२, समाधिराज ५१४, दशभूमीश्वर ५१६, प्रमुदिता ५१७, विमला ५१७, प्रभाकरी ५१७, अर्चिष्मती ५१८, सुदुर्जया ५१८, अभिमुखी ५१८, अचला ५१८, साधुमती ५१६, धर्ममेघा ५१६, प्रज्ञापारमितासूत्र ५१६, अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता ५२१, अवतंसक ५२५, रत्नकूट ५२५, राष्ट्रपालपरिपृच्छा ५२६, कारण्डव्यूह ५२७, अक्षोभ्यव्यूह एवं करुणा पुण्डरीक ५२७, सुखावतीव्यूह ५२८, अवदान साहित्य ५२८, अवदानशतक ५२८, दिव्यादान ५२८, बौद्धसंकर साहित्य ५२६, महावस्तु ५२६, अश्वघोष साहित्य ५३० । महायान के प्रमुख आचार्य ५३३-५५५ नागार्जुन ५३३, आर्यदेव ५३४, बुद्धपालित ५३४, भावविवेक ५३५, चन्द्रकीर्ति ५३६, असङ्ग ५३६, वसबन्धु ५३७, स्थिरमति ५३६, दिङ्नाग ५४०, धर्मकीर्ति ५४१, बोधिधर्म ५४४, शान्तरक्षित ५४७, कमलशील ५४८, आचार्य पद्मसंभव ५४६, तिब्बत में बौद्धधर्म की स्थापना ५५०, दार्शनिक मान्यता ५५१, दीपाकर श्रीज्ञान ५५४ । सहायक ग्रन्थ ५५६-५५८ ३. चार्वाक दर्शन २०. चार्वाक दर्शन ५५६-६२६ प्रास्ताविक ५६१, चार्वाक दर्शन : ऐतिहासिक दृष्टि ५६३, वैदिक काल ५६३, औपनिषदकाल ५६३, रामायण महाभारत काल ५६४, पौराणिक काल ५६८, दार्शनिक काल ५७६, चार्वाकदर्शन के मूल स्रोत ६०७, चार्वाक दर्शन की तत्त्व मीमांसा ६२७, ज्ञान मीमांसा ६२८, आचार मीमांसा ६२८, मोक्ष ६२६ । २१ विषय-सूची २१. चार्वाक-लोकायत ६३०-६५६ चार्वाक दर्शन के प्रणेता बृहस्पति ६३०, चार्वाक के सिद्धान्त ६३२, अदृष्ट एवं ईश्वर का निषेध ६३४, जीव एवं चैतन्य की अवधारणा ६३४, शरीरात्मवाद में स्मरण का उपपादन ६३५, परलोक का प्रतिषेध ६३७, चार्वाक का नव्य एवं प्राच्य भेद ६३८, नव्य परम्परा में अनुमान एवं गगन मान्य ६३६, तत्त्व मीमांसा ६४०, काम ही परम-पुरुषार्थ ६४०, अनुमान एवं शब्द के प्रामाण्य का प्रतिषेध ६४१, व्याप्ति की दुरवबोधता ६४३, उपाधि से विधुर सम्बन्ध रूप व्याप्ति का भी ग्रह असम्भव ६४५, उपाधि-लक्षण ६४६, सम एवं असम व्याप्ति ६४८, व्याप्ति ज्ञान में अन्योन्याश्रय दोष ६४६, अनुमान को मानने पर व्यवहार की अनुपपत्ति का वारण ६४६, स्वभाव-वाद ६५०, कर्म एवं कर्म फल पर चार्वाक की अवधारणा ६५२, प्रामाणिक ग्रन्थ न होने का कारण ६५४, चार्वाक दर्शन की समाज में समरसता ६५५ । विषय एवं लेखक संकेत विषय एवं लेखक सङ्केत १. जैन-दर्शन १. सम्पादकीय/प्रस्तावना
  • डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी पी. २३/४५, पी. ६ शारदानगर, खोजवाँ वाराणसी। २. जैन संस्कृति : उद्भव एवं विकास - डॉ. दरबारीलाल कोठिया ३. जैनदर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग - स्व. डॉ. दरबारीलाल कोठिया ४. जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ - डॉ. दरबारीलाल कोठिया ५. जैन दर्शन में अध्यात्म _- पं. जगमोहनलाल शास्त्री ___ कटनी (म.प्र.) ६. जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के - डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी विशेष सन्दर्भ में ७. जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ - पं. जवाहरलाल जैन उदयपुर (राजस्थान) ८. जैन आचार-मीमांसा
  • डॉ. फूलचन्द जैन प्रेमी ६. जैन पुराण साहित्य - डॉ. पन्नालाल जैन ४ नया कुँआ, कटरा बाजार सागर (म.प्र.) १०. भूमिका २. बौद्ध दर्शन
  • प्रो. रामशंकर त्रिपाठी प्लाट नं. २/५, आशापुर सारनाथ वाराणसी ११. भगवान बुद्ध की शिक्षा किन्न । १२. अठारह बौद्ध निकाय २४ जैनदर्शन मा १३. स्थविरवाद
  • प्रो. रामशंकर त्रिपाठी १४. वैभाषिक दर्शन (सर्वास्तिवाद) १५. सौत्रान्तिक दर्शन १६. योगाचार दर्शन (विज्ञानवाद) १७. माध्यमिक दर्शन (शून्यवाद) १८. महायान साहित्य १६. महायान के प्रमुख आचार्य - " " कि जाति शाह नाला ३. चार्वाक दर्शन म २०. चार्वाक दर्शन मामलामा - प्रो. राधेश्याम चतुर्वेदी गणेशपुरी कालोनी, सुसुवाही, वाराणसी २१. चार्वाक-लोकायतमा - प्रो. पीयूष कान्त दीक्षित अध्यक्ष, दर्शन विभाग, श्री लाल बहादुर राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, कटबरिया सराय, नई दिल्ली संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास द्वादश खण्ड जैन-बौद्ध-चार्वाक दर्शन जैन-दर्शन न सम्पादक प्रो. फूलचन्द्र जैन प्रेमी आचार्य एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊजीवन-वृत्त प्रो. (डॉ.) फूलचन्द जैन प्रेमी पिता का नाम : सिंघई नेमिचन्द्र जैन बैसाखिया जन्म तिथि : १२.०७.१६४८ जन्म स्थान : दलपतपुर, सागर (म.प्र.) शिक्षा : साहित्याचार्य, शास्त्राचार्य (जैनदर्शन), प्राकृताचार्य एम.ए., पी-एच.डी., सिद्धान्तशास्त्री शिक्षा संस्थाएं : श्री शान्ति निकेतन जैन, कटनी, श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, संस्कृत विश्वविद्यालय, बी.एच.यू., वाराणसी विशेषज्ञता : जैनधर्म दर्शन, संस्कृति, प्राकृत-संस्कृत-साहित्य सम्प्रति कार्यक्षेत्र : प्रोफेसर एवं जैनदर्शन विभागाध्यक्ष, श्रमण विद्या-संकाय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी पूर्व अध्यक्ष, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, उपाधिष्ठाता, श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी, संयोजक-अखिल भारतीय जैन विद्वत् सम्मेलन, श्रवणबेलगोला (२००५-२००६) प्रकाशित शोध पत्र : ७० से अधिक प्रकाशित आलेख : ३० से अधिक प्रकाशित मौलिक १. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, २. लाडनूं के ग्रन्थ : जैन मन्दिर का कला वैभव, ३. वैदिक व्रात्य और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन, ४. जैनधर्म में श्रमण संघ इण शाह प्रकाशित सम्पादित १. मूलाचार भाषा वचनिका, २. प्रवचन परीक्षा, ग्रन्थ : ३. अभिनन्दन ग्रन्थ (अनेक), ४. आदिपुराण परिशीलन, ५. आत्म प्रबोध, ६. आत्मानुशासन पुरस्कार : राष्ट्रीय स्तर के सात पुरस्कारों से पुरस्कृत १. चांदमल पाण्ड्या पुरस्कार (१९८१), २. महावीर पुरस्कार (१६८८), ३. चम्पालाल सांड साहित्य पुरस्कार (१६६०), ४. उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ से विशिष्ट पुरस्कार (१६८७), ५. श्रुतसंवर्धन संस्थान पुरस्कार एवं “जैन रत्न” की सम्मानित उपाधि, ६. गोम्मटेश्वर विद्यापीठ पुरस्कार (२००२), ७. महाकवि आचार्य ज्ञानसागर एकादश पुरस्कार (इक्यावन हजार की सम्मान निधि के साथ) २००६ पत्राचार हेतु : प्रो. फूलचन्द जैन ‘प्रेमी’, बी. २३/४५, पी-६ वर्तमान पतााथ अनेकान्त विद्या भवन, शारदानगर कालोनी, खोजवाँ, वाराणसी-२२१०१० फोन नम्बर : (०५४२) २३१५४५१, फैक्स - ०५४२-२३११८१७ मोबाइल नम्बर : ६४५०१७६२५४ HERE काम मचा-सम्पादकापामार का सामान्य