प्रस्तावना
संस्कृत वाङ्मय के बृहद् इतिहास के तन्त्रागम खण्ड के लिये लिखे गये इस निबन्ध में “पुराणगत योग एवं तन्त्र" विषय पर यथामति प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जा रहा है। इस विषय पर कुछ लिखने से पहले हम आगम और तन्त्रशास्त्र की परिभाषा और विषय-सीमा को निर्धारित कर देना चाहते हैं। साथ ही भारतीय वाङ्मय में इनका क्या स्थान है, इसको भी पुराणों के उद्धरणों की सहायता से ही निर्धारित करना चाहते हैं।
पुराण वेदार्थ और आगमार्थ के उपबृंहक
पुराण वेदार्थ के उपबृंहक है, इस बात पर पर्याप्त विचार किया गया है, किन्तु पुराणों में आगम और तन्त्रशास्त्र की सामग्री को भी अनेक रूपों में संजोया गया है, इनका विस्तार किया गया है, इसका पहला प्रयास हमें “पुराणानां नूनमागमानुवर्तित्वम्’’ शीर्षक निबन्ध में देखने को मिला। हमने “कूर्मपुराण : धर्म और दर्शन" शीर्षक अपने महानिबन्ध (थीसिस) में इसी दृष्टिकोण का अनुसरण किया है। ऐसा करते समय हमने देखा कि पुराणों में आई आगमतन्त्र-विषयक सामग्री को पुराण-विषयक अनेक ग्रन्थों में सही रूप से उपस्थित नहीं किया गया है। षडध्व जैसे तन्त्रशास्त्र में अतिप्रसिद्ध अनेक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या पुराणों के परिष्कृत संस्करणों की टिप्पणियों में भी प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत नहीं की गयी हैं। विज्ञानाकल, प्रलयाकल जैसे आगमतन्त्र-दर्शन के शब्दों का सही स्वरूप पुराणों के संस्करणों में नहीं आ पाया है। इस निबन्ध में इन सब विषयों पर सही प्रकाश डालने का हमारा संकल्प है। इस प्रसंग में सबसे पहले शास्त्र-प्रामाण्य पर विचार कर तदनन्तर आगम और तन्त्रशास्त्र की परिभाषा देते हुए पुराणों पर उनके प्रभाव की समीक्षा करना चाहते हैं। इस निबन्ध में पद्मपुराण और स्कन्दपुराण का समावेश नहीं किया गया है। अन्य सभी महापुराणों के साथ मतभेद से महापुराणों में सम्मिलित किये गये देवीभागवत और शिवपुराण दोनों से हमने सामग्री ली है। प्रायः अधिकांश पुराणों के कलकत्ता से प्रकाशित मोर संस्करण का ही उपयोग किया गया है। अन्य संस्करणों का भी यथास्थान निर्देश कर दिया गया है। ती जागा माशा व विनाममा
शास्त्र प्रामाण्य
कूर्मपुराण (१।११।२७२-२७३) में तथा देवीभागवत ११।१३०-३१, ११।८।२-३, १२।६७१-७२,७५, ६५-६६, १२।११।६२ में भी श्रुति-स्मृति विरुद्ध वेदबाह्य शास्त्रों की १. पुराणम्, वर्ष २६, अंक १, जनवरी, सन् १९८४ में प्रकाशित उक्त निबन्ध देखिये। ४६२ तन्त्रागम-खण्ड चर्चा की गयी है और उनको मोहनशास्त्र माना है। धर्मशास्त्र के निबन्ध-ग्रन्थों में इन वचनों को लेकर शैव और वैष्णव आचार्यों ने पर्याप्त विचार किया है। प्रस्तुत प्रसंग में कूर्मपुराण में कापाल, पांचरात्र, यामल, वाम और आर्हत मत को कुशास्त्र, व्यामोहक और वेदबाह्य माना है। आगे (१।१५।१११-११३) पुनः कापाल, नाकुल, वाम, भैरव, पूर्व, पश्चिम, पांचरात्र, पाशुपत और इसी तरह के अन्य शास्त्रों की मोहनशास्त्र में गणना की गई है और वेदबाह्य आचार वाले व्यक्तियों के लिये इनकी उपयोगिता बताई गई है। यहाँ (१।२३।३२-३३) सात्वत महाशास्त्र का उल्लेख कर कहा गया है कि कुण्ड-गोल आदि संकर वर्ण के लोगों के लिये इसका उपदेश किया गया है। आगे (१।२८।१६) काषायवस्त्रधारी, निर्ग्रन्थ और कापालिकों की एवं (१।२८।२५) वामाचारी, पाशुपत और पांचरात्रिकों की पुनः चर्चा की गई है। ऐसे यतियों की भी यहाँ चर्चा की गई है, जो लौकिक भाषा के गीतों से देवताओं की स्तुति करते हैं (१।१५।१०५ तथा १।२८।२३-२४)। इसी तरह से २।१६।१५ पर पाषण्डी, वामाचारी, पांचरात्रों और पाशुपतों का, २।२१।३४ में वृद्धश्रावक, निर्ग्रन्थ, पंचरात्रविद्, कापालिक, पाशुपत, सोम, लाकुल एवं भैरव मतों का उल्लेख है। ममा इन देवीभागवत में भी इन शास्त्रों को वेदमार्ग-बहिष्कृत (११।१।३१) वेदश्रद्धाविवर्जित (११।८।३) और श्रुति-स्मृति विरुद्ध (७।३६।२८) कहा गया है। इन स्थलों पर और अन्यत्र (११।६।७१) भी तप्तमुद्रांकितों के साथ वैखानसों का भी उल्लेख है। इनके साथ कौलिकों, बौद्धों और जैनों का भी यहाँ (११।६।६५-६६) उल्लेख है। लिंगधारियों तथा गाणपत्यों का भी यहाँ (११।१।३०) इन्हीं में समावेश है। चार्वाकों के साथ वैष्णवों और दिगम्बरों को भी यहाँ (११।८।२-३) वेदश्रद्धाविवर्जित कहा गया है। और निशाण उक्त सभी स्थलों पर प्रायः पांचरात्रों और पाशुपतों की चर्चा आई है। यह आश्चर्य की ही बात है कि इन्हीं पांचरात्रों और पाशुपतों के झगड़े में डॉ. हाजरा कूर्मपुराण को डालना चाहते हैं। कूर्मपुराण का समय निर्धारित करने के लिये वे कहते हैं कि यहाँ शाक्त वाम शाखा का तो उल्लेख है, किन्तु दक्षिण शाखा का उल्लेख नहीं है। उनके मत से दक्षिण शाखा का विकास ११वीं शताब्दी में हुआ (पुराणिक., पृ. ६६-७०)। उनका यह कथन उचित नहीं है। शैवागमों के अनुसार शिव के पांच मुखों से पांच शास्त्रों का आविर्भाव हुआ था। इन पांच शास्त्रों में से चार शास्त्रों का उल्लेख कूर्मपुराण के उक्त वचनों में वाम, भैरव, पूर्व और पश्चिम के रूप में एक साथ मिलता है। शिव के दक्षिण मुख से भैरवागमों का प्रादुर्भाव हुआ, अतः भैरवागम ही दक्ष या दक्षिण के नाम से प्रसिद्ध है। चौसठ भैरवागमों का उल्लेख देवीभागवत (१२।११।६२) में हुआ भी है। वामाचार के विपरीत दक्षिणाचार के लिये इस शब्द का प्रयोग मानकर इसी अर्थ में दक्षिण आगमों की चर्चा करना और उनका आविर्भाव ११वीं शताब्दी में मानना (पुराणिक., पृ. ६९-७०) भी ठीक नहीं है, क्योंकि दक्षिणाचार शब्द के द्वारा सिद्धान्त शैवों की पूजाविधि सरीखी पूजापद्धति का आजकल ग्रहण किया जाता है। आगम की इस शाखा का भी आविर्भाव उक्त चार शाखाओं के साथ पुराणगत योग एवं तन्त्र ४६३ ही हो चुका था और यह शिव के ऊर्ध्व’ मुख से प्रकट हुई मानी जाती है। शिव के वाम मुख से वाम तन्त्र, दक्षिण मुख से भैरव तन्त्र, पूर्व मुख से गारुड़ तन्त्र और पश्चिम मुख से भूत तन्त्रों का आविर्भाव हुआ है। ऊर्ध्व मुख से आविर्भूत तन्त्र की शाखा आजकल सिद्धान्त शैव के नाम से प्रसिद्ध है। IFE
- इस मत को कूर्मपुराण में वेद-बाह्य नहीं माना गया, प्रत्युत अभिनव-गुप्त के शिष्य क्षेमराज का तो कहना है कि सामान्य जन सिद्धान्त-शास्त्र की तरफ अधिक आकृष्ट होते हैं। यह माना जा सकता है कि वैदिक और तान्त्रिक धर्म को मिलाकर स्मार्त धर्म की प्रतिष्ठा में और पुराणों को असाम्प्रदायिक रूप देने में सिद्धान्त शैवों का बहुत बड़ा हाथ है। वैरोचन शिवाचार्य के अतिरिक्त तन्त्रालोक के टीकाकार जयरथ (१८) ने भी शिव के ऊर्ध्व मुख से निकले १० शिवागमों और १८ रुद्रागमों का विवरण दिया है। अघोरशिवाचार्य का कहना है कि सिद्धान्त शब्द इन २८ शिवागमों के लिये रूढ हो गया है। अतः कूर्मपुराण के समय में शैव और दक्षिण शब्द प्रयोग में नहीं आये थे (पुराणिक., पृ. ६८), डॉ. हाजरा का कथन सही नहीं माना जा सकता। यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि वाम मत की प्राचीन आगमों में शैव तन्त्रों के अन्तर्गत ही गणना की जाती है, शाक्त तन्त्रों के अन्तर्गत नहीं। आगम और तन्त्रशास्त्र की पांचरात्र, पाशुपत, वाम, भैरव, पूर्व और पश्चिम शाखाओं के अतिरिक्त कूर्मपुराण के साथ देवीभावगत में उक्त स्थलों पर कापाल, यामल, आहेत, नाकुल, सात्वत, वृद्धश्रावक, निर्ग्रन्थ, कापालिक, सोम और लाकुल मतों का भी उल्लेख है। पांचरात्र एक प्राचीन वैष्णव मत है। रामानुज, माधव आदि मतों का आधारभूत शास्त्र यही है। अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग नामक पांच विषयों का निरूपण करने से इस मत का नाम पांचरात्र पड़ा है। यहाँ भगवान् के पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार नामक पांच स्वरूपों का भी वर्णन किया गया है। पाशुपत मत सभी शैव सम्प्रदायों का जनक है। पंचमन्त्रमूर्ति शिव पशुपति हैं। अविद्या आदि पाशों से ग्रस्त जीव पशु है। इस प्रकार पाशुपत दर्शन में पति, पशु, पाश नामक तीन तत्त्वों का विवेचन किया जाता है। ‘कापालिकों का उल्लेख दसरी शताब्दी के राजा सातवाहन की गाथासप्तशती (गा. ४०८) में मिलता है। कापालिकों को महाव्रती भी कहा जाता है। वामनपुराण (६।६१) ने धनद (कुबेर) के लिये महाव्रती विशेषण दिया है। वहाँ उनको कापालिक मत का प्रथम प्रवर्तक माना गया है। यह तो स्पष्ट ही है कि कुबेर यक्षों और गन्धर्वो के देवता माने जाते हैं। डॉ. डी.एन. लोरेंजन’ ने कापालिक सम्प्रदाय का विस्तार से वर्णन किया है। सोम १. द्रष्टव्य—वैरोचन शिवाचार्यकृत प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्चय (२१०८-१३२), काठमाण्डू, नेपाल। २. “प्रायश्च सिद्धान्तप्रियो लोकः सिद्धान्तक्रममाश्रितः” (२।२५) स्वच्छन्दोद्योत देखिये। ३. “सिद्धान्तशब्दश्च पङ्कजादिपदवद् योगरूढ्या शिवप्रणीतेषु कामिकादिषु दशाष्टादशसु तन्त्रेषु प्रसिद्धः’ (रत्नत्रयोल्लेखिनी, श्लो. १०)। * ४. “कापालिक्स एण्ड कालामुख्स” (पृ. १-१२) देखिये। सवार कुमार । ४६४ तन्त्रागम-खण्ड सम्प्रदाय के लिये भी कूर्मपुराण में कहा गया है कि यह शैव मत की ही एक शाखा है। भगवान् सोम की चर्चा कूर्मपुराण (२।३७।१५०) में मिलती है, किन्तु इस वचन से यह स्पष्ट नहीं होता कि शैवागम की किस शाखा में इसका समावेश होगा। वहाँ (१।२१।४२) सोम को गन्धर्वो और यक्षों का देवता माना गया है। ये मदिराप्रिय देव हैं। अतः हम कह सकते हैं कि सोम सम्प्रदाय का सम्बन्ध शैव-शाक्त सम्प्रदाय की वाम अथवा कौल शाखा से हो, अथवा कापालिक सम्प्रदाय का ही यह दूसरा नाम हो। कौल शाखा का उल्लेख देवीभागवत (७।३६।२७-२८) में वाम, कापाल और भैरवागमों के साथ तथा अन्यत्र (१२।६।६६) वाम, कापालिक, बौद्ध और जैन मतों के साथ स्पष्ट रूप से हुआ है। शकूर्मपुराण के श्राद्ध प्रकरण (२।२२।३५) में नील एवं काषाय रंग का वस्त्र पहनने वालों और पाषण्डियों को निमन्त्रण के अयोग्य बताया है। साथ ही कूर्मपुराण (२।३३।६०) में यह भी कहा गया है कि ब्राह्मण नीला और लाल रंग का वस्त्र पहन लेने पर पंचगव्य के प्राशन के बाद ही शुद्ध होता है। महापंडित ‘राहुल सांकृत्यायन ने वज्रयान की उत्पत्ति के प्रसंग में नीलपट-दर्शन की चर्चा की है। सोमदेव नीलपट के एक श्लोक को उद्धृत करते हैं। डॉ. कृष्णकान्त हांडीकी सदुक्तिकर्णामृत में संगृहीत नीलपट के दूसरे श्लोक का उदाहरण देते हैं। वहीं वे भर्तृहरि के एक श्लोक को भी उद्धृत करते हैं। इन सबका अभिप्राय एक सरीखा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने नीलपट-दर्शन विषयक जिस घटना की चर्चा की है, उसका काल ५१५-५२४ ई. बताया गया है। स्पष्ट है कि वाम, कौल और कापालिक सरीखे मतों का प्रचलन बहुत पहले हो चुका था। व नाकुल और लाकुल भी भिन्न मत नहीं है। ये योगाचार्य लकुलीश द्वारा प्रवर्तित पाशुपत मत के बोधक शब्द हैं। रुद्रयामल आदि आठ प्रसिद्ध यामल शास्त्रों का उल्लेख नित्याषोडशिकार्णव आदि प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। अब तक सत्तर यामलों की सूची प्रस्तुत की जा चुकी है। सात्वत मत का समावेश पांचरात्र मत में ही किया जाता है। बड़ौदा से प्रकाशित जयाख्यसंहिता की अंग्रेजी और संस्कृत प्रस्तावना में इस विषय पर सप्रमाण विचार किया गया है (पृ. ६-८, ४६-४७)। आर्हत और निर्ग्रन्थ शब्द जैन मत के और वृद्धश्रावक शब्द बौद्ध मत का द्योतक है। ये सब मत अवैदिक हैं, इसमें तो कोई सन्देह नहीं, किन्तु पांचरात्र और पाशुपत मत को वैदिक सिद्ध करने का यामुनाचार्य और श्रीकण्ठ जैसे वैष्णव और शैव आचार्यों ने भगीरथ प्रयत्न किया है। धर्मशास्त्र के अनेक निबन्धकारों ने और आचार्य ‘शंकर ने भी इनके आंशिक प्रामाण्य को स्वीकार किया है। मान्कए १. “वज्रयान और चौरासी सिद्ध” पुरातन निबन्धावली, पृ. १०६-१३० द्रष्टव्य। २. यशस्तिलकचम्पू, सोमदेवकृत, भा. २, पृ. २५, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई। ER ३. यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर, पृ. ४४१ देखिये। ४. द्रष्टव्य कृष्णयामलतन्त्र का उपोद्घात, पृ. ७-१६, प्राच्य प्रकाशन, वाराणसी, १६६२. भिकना ५. द्रष्टव्य–ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य (२।२।४२)४६५ पुराणगत योग एवं तन्त्र मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट का इस विषय में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनका कहना है कि श्रुति दो प्रकार की है– एक वैदिकी और दूसरी तान्त्रिकी’ । उनके इस कथन को भागवत (११।२७।७), अग्निपुराण (३७२।३४), देवीभागवत (७।३६।३-५) का भी समर्थन मिलता है। यहाँ भाग० और अग्नि० में वैदिक, तान्त्रिक और मिश्र पूजाविधि का उल्लेख है। पौराणिक धर्म को हम मिश्र विभाग के अन्तर्गत रख सकते हैं, क्योंकि इसमें वैदिक और तान्त्रिक विधियों का यथोचित समावेश किया गया है। वैदिक और तान्त्रिक विधियों को मिश्रित करने का महनीय प्रयास प्रपंचसार में हमें सबसे पहले दिखाई पड़ता है। इस ग्रन्थ के प्रणेता आद्य शंकराचार्य माने जाते हैं। इस ग्रन्थ के द्वारा उन्होंने पांच देवों की पंचायतन पूजाविधि का निरूपण किया है। शांकर भाष्य (१।३।३०) में कूर्मपुराण स्मृति के नाम से स्मृत है। सिद्धान्त शैव मत के शैवाचार्य इसी दृष्टि का समर्थन करते हैं।
- भोजदेव ने तत्त्वप्रकाश नामक शैव सिद्धान्त के ग्रन्थ की रचना की है। लाट (गुजरात) देश के आचार्य उत्तुंगशिव के कनिष्ठ भ्राता इनके विद्यागुरु थे। सातवीं शताब्दी पूर्वार्ध के शिवगुप्त बालार्जुन के सेनकपाट शिलालेख में आमर्दक तपोवन से विनिर्गत आचार्य सदाशिव का उल्लेख है। लाट देश के राजा ने इनको अपने यहाँ बुलाया था। आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार द्वैतवादी आगमाचार्यों का मुख्य मठ आमर्दक था। म.म.वी.वी. मिराशी आमर्दक को उज्जयिनी का ही दूसरा नाम बताते हैं, जबकि म.म. “हरप्रसाद शास्त्री ग्वालियर के आसपास इसकी स्थिति मानते हैं और कहते हैं कि रुद्रमहालय के प्रतिष्ठापक गुजरात के राजा मूलराज के गुरु कुमारदेव आमर्दक तपोवन के ही आचार्य थे। ईशानशिव ने लाट देश के आचार्यों को उत्तम कोटि के गुरुओं की श्रेणी में गिना है। आमर्दक तपोवन से ही कश्मीर और कर्णाटक तक शैव धर्म का विस्तार हुआ और इन्हीं आचार्यों ने पंचायतन पजा के माध्यम से स्मार्त धर्म की प्रतिष्ठा की। जैसा कि हमने अभी कहा. प्रपंचसार इसी परम्परा का उत्कृष्ट अवदान है। ईशानशिवगुरुदेवपद्धति को भी हम इसी कोटि में रखेंगे। ला भृगुकच्छ लाट देश का ही एक भाग है। यह अनेक योगाचार्यों की जन्मभूमि है। कायावरोहण में लकुलीश का जन्म हुआ और क्षेमराज का कहना है कि मौसुलेन्द्र की जन्मभूमि भी कायावरोहण ही है। हम जानते हैं कि यह कायावरोहण महातीर्थ बड़ौदा के पास ही हैं। कूर्मपुराण में नर्मदा माहात्म्य के प्रसंग में आये कार्णाटिकेश्वर, भृगुतीर्थ, गौतमेश्वर, भारभूति आदि नाम लकुलीश की इस परम्परा से ही संबद्ध हैं। श्वेताश्वतर है १. मनुस्मृति २।१६ २. आगममीमांसा, पृ. ३६, मूल एवं टिप्पणी द्रष्टव्य। म R Bायात ३. द्रष्टव्य तन्त्रालोक (३६ ॥११-१२)। लेक बिना TET की कार ४. प्राच्यविद्या निबन्धावली, चतुर्थ भाग, पृ. १७५ द्रष्टव्य। - माजिक ईशानशिवगुरुदेवपद्धति, भाग-२, प्रस्तावना देखिये। Hਲੀ ਵ ਲ ਨੀ “श्रीलकुलेशशिष्येण मुसुलेन्द्रेण कारोहणस्थानावतीर्णेन” (११.७१) ४६६ तन्त्रागम-खण्ड और अथर्वशिरस् उपनिषद् तथा यजुर्वेद के रुद्राध्याय अथवा शतरुद्रियाध्याय का कूर्मपुराण में बार-बार उल्लेख मिलता है। कूर्मपुराण में वेदाध्यायी पाशुपतों का भी उल्लेख है (१।१३।४८, १।३२७)। शिवपुराण (७।१।३२ ११) में शैवागम के श्रौत और स्वतन्त्र नामक दो भेद बताये गये हैं। इनमें २८ भेद वाला शिवागम स्वतन्त्र और पाशुपत व्रत एवं ज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र श्रौत माना गया है। इनमें पहला सिद्धान्त शैवागम और दूसरा पाशुपतागम के नाम से प्रसिद्ध है। ६४ भैरवागमों का उल्लेख देवीभागवत (१२।११।६२) में हुआ है। मा शिवपुराण के इस विभाजन को मान्यता नहीं मिली। कामिक आदि के भेद से विभक्त २८ द्वैतवादी शिवागमों को ही अन्यत्र प्राथमिकता प्राप्त हुई है और यहाँ श्रौत नाम से अभिहित पाशुपतागम को दूसरा स्थान मिला। वामनपुराण (६।८६-६१) में चार वर्षों के भेद से शिवपूजकों के चार भेद बताये गये हैं। इनके नाम हैं- १. शैव (सिद्धान्त), २. पाशुपत, ३. कालवदन और ४. कापालिक। यहाँ ब्राह्मण के लिये शैव, क्षत्रिय के लिये पाशुपत, वैश्य के लिये कालामुख और शूद्र के लिये कापालिक पद्धति से शिवपूजा का विधान है। यहाँ प्रत्येक सम्प्रदाय के दो-दो आचार्यों के नाम भी दिये गये हैं। ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि पुराणों में कूर्मपुराण, देवीभागवत आदि में वर्णित वेदबाह्य शास्त्रों में से कुछ को मान्यता मिल गयी थी। शास्त्र-प्रामाण्य के प्रसंग में विष्णुपुराण (१।२२।८५) का दृष्टिकोण बहुत उदार है। तदनुसार चारों वेद, इतिहास, उपवेद, वेदान्त, समस्त वेदांग, मन्वादि प्रोक्त शास्त्र, समस्त आख्यान, सारी काव्यचर्चा और नाना प्रकार की राग-रागिनियों में रचित गीत- ये सब शब्दमूर्तिधर (शब्दब्रह्मस्वरूप) भगवान् विष्णु के ही अंश हैं, अवयव हैं। जल निक
कृतान्तपंचक का प्रामाण्य
शास्त्र-प्रामाण्य के सन्दर्भ में पिछले पृष्ठों में हमने देखा है कि कूर्मपुराण और देवीभागवत वेद और तदनुवर्ती शास्त्रों को प्रमाणभूत मानते हैं और जो वेद से बाह्य, वेदविरोधी शास्त्र, मत या सम्प्रदाय हैं, उनको प्रमाणभूत नहीं मानते। पूर्व प्रकरण का उपसंहार करते हुए हमने बताया है कि कूर्मपुराण में वर्णित वेद-बाह्य शास्त्रों में से कुछ को मान्यता मिल गई थी। कृतान्तपंचक को यह मान्यता मिली, ऐसा हम कह सकते हैं। का संस्कृत शब्दकोश के अनुसार ‘कृतान्त’ शब्द अनेक अर्थों का बोधक है। यथा मृत्यु, यम, भाग्य (प्रारब्ध), सिद्धान्त आदि। यहाँ ‘कृतान्त’ शब्द से ‘सिद्धान्त’ अर्थ विवक्षित है। कृतान्तपंचक शब्द से १. वेद, २. सांख्य, ३. योग, ४. पांचरात्र और ५. पाशुपत नामक पांच सिद्धान्तों का बोध होता है। ब्रह्मसत्र (तर्कपाद) और महाभारत दोनों में इनका उल्लेख मिलता है। अग्निपराण (२१६।६१) में भी इनका उल्लेख है। ब्रह्मसत्र में वेद के अतिरिक्त बाकी चारों सिद्धान्तों को वेद-बाह्य माना गया है, जबकि महाभारत शान्तिपर्व ४६७ पुराणगत योग एवं तन्त्र (३४६।६४-६८) के नारायणीयोपाख्यान में इनके प्रवर्तक आचार्यों के साथ इन सबको धर्म के निर्णय में प्रमाण माना गया है। पुष्पदन्त के महिम्नस्तव के- “त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति” इस वाक्य में कृतान्तपंचक का ही उल्लेख है। अनेक धर्मशास्त्रीय निबन्ध-ग्रन्थों में भी धर्म के प्रति प्रमाण के प्रसंग में इनका उल्लेख हुआ है। वहाँ शांकर-भाष्य की पद्धति से इनका आंशिक प्रामाण्य अंगीकृत है। देवीभागवत (७।३६।३०-३१, १११।२४-२५) का भी यही मत है कि तन्त्रशास्त्र में वर्णित उस अंश को वैदिक ग्रहण कर सकते हैं, जो कि वेदविरुद्ध नहीं है। कूर्मपुराण में वेद के अतिरिक्त सांख्य और योग को प्रमाणभूत माना गया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। वेद-बाह्य शास्त्रों की प्रवृत्ति के प्रयोजन को बताते हुए कूर्मपुराण में दधीचि शाप (१।१४।२८-३२), गौतम शाप (१।१५।१-१०४) और एक साथ दोनों के शापों का (१।२८।२७-२६) का उल्लेख मिलता है। यहाँ कहा गया है कि दक्ष के यज्ञ में शिव के निन्दक ब्राह्मणों को ऋषि दधीचि ने त्रयीबाह्य कुशास्त्रों में रुचि रखने का शाप दे दिया था। इसी तरह से गौतम ऋषि के साथ कपट व्यवहार करने वाले ब्राह्मणों को भी गौतम ने त्रयीबाह्य महापातकी बन जाने का शाप दिया। इन वेदबाह्य पतित लोगों के कल्याण के लिये ही भगवान् रुद्र और माधव ने पाशुपत (शैव) और पांचरात्र (वैष्णव) जैसे शास्त्रों की रचना की। ये कथाएँ तथा इस तरह के वचन अन्य पुराणों में भी मिलते हैं। इससे हम यह मान सकते हैं कि मुक्ति का द्वार वेदबाह्य लोगों के लिये भी खोलने के प्रयोजन से इन शास्त्रों का आविर्भाव हुआ और धीरे-धीरे इनमें से कुछ शास्त्रों को सामाजिक मान्यता मिल गई। इनमें पांचरात्र और पाशुपत शास्त्र का हम विशेष रूप से उल्लेख कर सकते हैं, जिनका कि कृतान्तपंचक में अन्तर्भाव किया गया है। पांचरात्र और पाशुपत मत का तथा शिव के पांच मुखों से विनिःसृत पंचविध शास्त्रों का आगम और तन्त्रशास्त्र में अन्तर्भाव किया जाता है। हमने बताया है कि इनको तान्त्रिक श्रुति के रूप में मान्यता मिली है। वायुपुराण के प्रारम्भ और अन्त (१।११, १०४।८६) में आगम, तन्त्र और संहिताओं का उल्लेख मिलता है। नारदीय पुराण के पूर्व भाग के तृतीय पाद (६३-६१ अध्याय) में विस्तार से तन्त्रशास्त्र का विषय वर्णित है। यहाँ के ६३वें अध्याय में सिद्धान्त शैवों की पद्धति से पति, पशु और पाश नामक तीन तत्त्वों का निरूपण किया गया है। ईश्वरगीता में भी इन तत्त्वों का विवेचन मिलता है। अग्निपुराण के ३६-७० अध्यायों में हयशीर्ष पांचरात्र के तथा ७१-१०६ अध्यायों में लीलावती नामक शिवागम के विषय वर्णित हैं। यहाँ कुब्जिका, त्वरिता आदि का तथा अष्टाष्टक देवियों (योगिनियों) का पूजाविधान भी वर्णित है। इससे किसी का यह कहना गलत सिद्ध हो जाता है कि अग्निपुराण में केवल वैष्णव मत का वर्णन है। श्रीकण्ठ प्रवर्तित पाशुपत मत श्रौत था, इसके लिये अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कूर्मपुराण में पाशुपतों को वेदाध्यायी बताया गया है। कृष्ण और शुक्ल यजुर्वेद * ४६८ तन्त्रागम-खण्ड राम का रुद्राध्याय, श्वेताश्वतर और अथर्वशिरस् उपनिषद् इनके प्रमुख ग्रन्थ माने जाते हैं और हम बता चुके हैं कि इनका कूर्मपुराण में पाशुपतों के प्रसंग में बार-बार उल्लेख हुआ है। ऐसी स्थिति में पाशुपतों को वेद-बाह्य क्यों कहा गया? इस प्रश्न पर विचार करना होगा। हम समझते हैं कि श्रीकण्ठ के श्रौत पाशुपत मत की परम्परा में ही परवर्ती काल में लाकुल, मौसुल आदि सम्प्रदायों का विकास हुआ। इन मतों का अतिमार्गी शास्त्र के रूप में तन्त्र-ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। हो सकता है कि इन सम्प्रदायों में कालामुख, कापालिक, कौल आदि सम्प्रदायों के बीज निहित हों और नीलपट, सोम-सम्प्रदाय जैसी दृष्टियों के प्रवेश के कारण ये समाज में हीन दृष्टि से देखे जाने लगे हों। अभी इस तरह के प्रश्नों पर पर्याप्त विचार अपेक्षित है। हमने यह बताया है कि कूर्मपुराण की ईश्वरगीता पाशुपत सिद्धान्तों से इसी प्रकार अनुप्राणित है, जिस तरह भगवद्गीता पांचरात्र सिद्धान्तों से। महाभारत सहित सभी पुराण वेद, सांख्य और योग के समान पांचरात्र और पाशुपत मत को भी प्रमाण मानते हैं। फलतः पुराणों की दृष्टि में कृतान्तपंचक का प्रामाण्य निर्विवाद है। कू. पु. और देवीभागवत के विरोधी वचनों की संगति शांकर-भाष्य के अनुसार बैठानी होगी कि इनके वेदविरोधी सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकते। कार कति भगवद्गीता के एक वचन से ऐसा लगता है कि सांख्य और योग भिन्न न होकर एक ही शास्त्र हैं, किन्तु कृतान्तपंचक में इनकी सत्ता अलग-अलग मानी गयी है। वेद के साथ ही सांख्य और योग का प्रामाण्य पुराणों को निर्विवाद रूप से मान्य है। पांचरात्र और पाशुपत मत के विषय में विवाद रह जाता है। इनका अन्तर्भाव आगम शास्त्र में किया जाता है। वेदबाह्य अन्य अनेक मतों की भी ऊपर चर्चा आई है। इनमें से अनेक मतों का तन्त्रशास्त्र में अन्तर्भाव माना जाता है। आगम और तन्त्रशास्त्र का स्वरूप क्या है? इनका पुराणों पर कितना प्रभाव पड़ा? और इनके प्रामाण्य के विषय में सामान्य रूप से क्या दृष्टिकोण अपनाया गया ? इन विषयों पर विचार कर लेना उचित प्रतीत होता है। कि
आगम और तन्त्रशास्त्र का स्वरूप
‘तनु विस्तारे’ (१४६४ तना.) धातु से औणादिक ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न तन्त्र शब्द शास्त्र, सिद्धान्त, विज्ञान तथा विज्ञानविषयक ग्रन्थों का बोधक है। शंकराचार्य ने सांख्य दर्शन को भी तन्त्र नाम से अभिहित किया है। महाभारत में न्याय, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र आदि के लिये तन्त्र शब्द का प्रयोग उपलब्ध है। डॉ. हाजरा, पं. बलदेव उपाध्याय आदि विद्वानों के मत के अनुसार आजकल यह शब्द तन्त्रशास्त्र के लिये रूढ़ हो गया है। वाराही तन्त्र के अनुसार सृष्टि, प्रलय, देवार्चन, मन्त्रसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन तथा ध्यान योग—इन सात लक्षणों से युक्त ग्रन्थ को आगम या तन्त्र कहते हैं। अभिनव गुप्त ने समस्त पुरातन व्यवहार और प्रसिद्धि को ही आगम माना है। पुराणगत योग एवं तन्त्र ४६६ हम यह जानते हैं कि भारतीय संस्कृति निगमागममूलक है। जिस प्रकार भारतीय धर्म और संस्कृति निगम (वेद) पर आश्रित है, उसी प्रकार यह आगम और तन्त्र से भी अनुप्राणित है। आगम और तन्त्र शब्द की व्याख्या के विषय में बहुत मतभेद है। पुराणों पर उनके प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिये इनकी स्पष्ट परिभाषा जान लेना आवश्यक ‘प्रो. विण्टरनित्ज के अनुसार संहिताएं वैष्णवों के, आगम शैवों के तथा तन्त्र शाक्तों के पवित्र ग्रन्थ हैं। वे कहते हैं— इन शब्दों में स्पष्ट भेद करने वाली कोई रेखा नहीं है और तन्त्र शब्द का प्रयोग बहुधा इस प्रकार के सम्पूर्ण ग्रन्थों के लिये हुआ है। इस प्रकार आगम अथवा तन्त्र शब्द से समान प्रकृति और विशेषताओं वाले एक विशाल भारतीय वाङ्मय का बोध होता है। प्रो. ईलियट का कहना है कि सब मत तान्त्रिक हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे सब शाक्त हैं, किन्तु शाक्त मत मूलतः आनुपूर्वी से सिद्धान्त और व्यवहार में विशुद्ध तान्त्रिक है। डॉ. पी.वी. काणे लिखते हैं कि लोग तन्त्रों से तात्पर्य लगाते हैं शक्ति (काली देवी) की पूजा, मुद्राएं, मन्त्र, मण्डल, पंचमकार, दक्षिण मार्ग, वाम मार्ग एवं ऐन्द्रजालिक क्रियाएं, जिनके द्वारा अलौकिक शक्तियां प्राप्त की जाती हैं। शक्तिवाद और तन्त्रों के उद्भव के विषय में जानकारी देते हुए वे जब कहते हैं कि उन्होंने पुराणों पर कुछ प्रभाव डाला और प्रत्यक्ष रूप से तथा पुराणों के द्वारा मध्यकाल के भारतीय रीतियों एवं व्यवहारों को प्रभावित किया, तब वे तन्त्र शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में ही करते हैं। इस विषय का अध्ययन अब तक इसी दृष्टिकोण के आधार पर हुआ है। का वस्तुस्थिति यह है कि भागवतों और पाशुपतों (शैवों) ने एक ऐसी पूजा-विधि का आविर्भाव किया था, जिसमें आराधक आराध्य के साथ आन्तर और बाह्य वरिवस्या (पूजा) के द्वारा तादात्म्य स्थापित करने के उद्देश्य से भूतशुद्धि, प्राणप्रतिष्ठा, न्यास और मुद्रा की सहायता से स्वयं देवस्वरूप हो जाता है। “देवो भूत्वा देवं यजेत्” यह उसका सिद्धान्त वाक्य है। स्वयं देवस्वरूप होकर वह अपने आराध्य को भी इसी विधि से मूर्ति, पट, मन्त्र, मण्डल आदि में प्रतिष्ठित करता है और इस प्रकार अपने इष्टदेव की बाह्य वरिवस्या (पूजा) संपन्न करता है। बाह्य वरिवस्या की पूर्णता के लिये यहाँ व्रत, उपवास, उत्सव, पर्व आदि का विधान है और आन्तर वरिवस्या के लिये वह कुण्डलिनी योग का सहारा लेता है। वैदिक कर्मकाण्ड से विलक्षण इस कर्मकाण्ड की निष्पत्ति के लिये जिस शास्त्र का आविर्भाव हुआ, वही आज आगम व तन्त्रशास्त्र के नाम से अभिहित है। अपने आराध्य की आन्तर वरिवस्या के लिये इसका अपना दर्शन और यौगिक पद्धति है और बाह्य वरिवस्या के लिये मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण तथा उनकी आराधना की विशिष्ट विधियाँ इनमें वर्णित हैं। शिव और विष्णु के अतिरिक्त शक्ति, सूर्य, गणेश आदि देवताओं की आराधना इसी विधि से होने लगी थी। १. आगम और तन्त्रशास्त्र, पृ. १-५ देखिये ५०० तन्त्रागम-खण्ड
पुराणों पर इनका प्रभाव
वैदिक यज्ञों को न केवल उपनिषदों ने कमजोर नाव बताया, किन्तु उसी समय सांख्य, योग, पांचरात्र और पाशुपत जैसे धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों का भी उदय हुआ। इनकी प्राचीनता के विषय में विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। भगवान् बुद्ध और महावीर ने जब वैदिक यज्ञीय धर्म पर प्रबल आक्रमण किया, तब भारतीय प्रबुद्ध चिन्तकों ने एक नवीन दृष्टिकोण की उद्भावना की, जिसका पूर्ण प्रतिबिम्ब हमें महाभारत एवं पुराणों में मिलता है। इनमें उक्त मतों का ही नहीं, भगवान् बुद्ध और महावीर के उपदेशों का सार भी मिलता है और वैदिक यज्ञीय कर्मकाण्ड से विलक्षण भक्तिप्रधान पौराणिक धर्म के दर्शन होते हैं, जिसमें स्त्री एवं शूद्र को भी समान अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार नवीन पौराणिक धर्म की ही नहीं, अपितु भक्तिप्रधान बौद्ध महायान धर्म की भी उत्पत्ति हुई। पौराणिक धर्म को हम बौद्ध महायान धर्म का सहोदर मान सकते हैं, जनक नहीं। फलतः कहा जा सकता है कि न केवल तन्त्रशास्त्र ने, अपितु इससे पहले आगमशास्त्र ने पुराणों पर गहरा प्रभाव डाला और प्रत्यक्ष रूप से तथा पुराणों के द्वारा न केवल मध्यकालीन, परन्तु बुद्धोत्तरकालीन भारतीय धार्मिक रीतियों तथा व्यवहारों को भी प्रभावित किया।
पुराणों में इनका प्रामाण्य
PिTE प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्चय (२।१५६) का कहना है कि वेद में मूर्तियों और मन्दिरों तथा द्वार-मण्डप आदि के निर्माण की विधियां नहीं बताई गई हैं। ये सब विषय आगमशास्त्र में ही वर्णित हैं। इस सिद्धान्त की पुष्टि में नारदीय (२।२४।१६-२१) का कहना है कि वेद में ज्योतिष सम्बन्धी ग्रहसंचार तथा अन्य व्यावहारिक बातों का सर्वथा अभाव है। कौन तिथि कब होती है? दो एकादशी होने पर कौन ग्राह्य होगी? इत्यादि तिथि-निर्णय तथा काल-शुद्धि का विषय पुराणों में ही विवेचित है। वेदों में जो वस्तु प्रतिपादित नहीं है, उसका स्मृतियों में और जो वस्तु स्मृतियों में प्रतिपादित नहीं है, उसका पुराणों में वर्णन मिलता है। इसलिये पुराण की महिमा वेद और स्मृति से कहीं अधिक है। देवीभागवत (११।१।२१) में भी यह विषय इस तरह से प्रतिपादित है कि श्रुति और स्मृति नेत्र हैं, परन्तु पुराण तो धर्मपुरुष का हृदय है। साथ ही देवीभागवत (११।१।२२-२३) में श्रुति और स्मृति के विरोध में श्रुति की प्रबलता और स्मृति एवं पुराण के विरोध में स्मृति की प्रबलता भी प्रतिपादित है। देवीभागवत (११।१।२४-२५) का स्पष्ट मत है कि पुराणों में तान्त्रिक धर्म का भी प्रतिपादन मिलता है। यह तान्त्रिक धर्म यदि वेदविरोधी है, तो कभी प्रमाण नहीं हो सकता। स्मृति, पुराण, तन्त्रशास्त्र अथवा अन्य कोई शास्त्र तभी प्रामाणिक माना जा सकता है, जबकि वह वेदमूलक हो, श्रुतिवचन से वह समर्थित हो। देवीभावगत (७।३६।३०-३१) का १. राष्ट्रीय अभिलेखालय, काठमाण्डू, नेपाल (प्रथम भाग, संवत् २०२३, द्वितीय भाग, संवत् २०२५) से प्रकाशित। पुराणगत योग एवं तन्त्र ५०१ यह भी कथन है कि शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त और गाणपत्य आगमों का प्रणयन भी भगवान् शंकर ने किया है। इनमें कहीं-कहीं वेदों के अविरोधी सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन मिलता है। वैदिकों के द्वारा इस तरह के अंशों के ग्रहण में कोई दोष नहीं है। म पुराणों का यही स्वरूप निगमागममूलक माना गया है, जिसमें सभी धाराओं का समन्वयात्मक समावेश हो गया है। आज सनातन धर्म नाम से जो धारा प्रचलित है, वह व्यवहारतया पुराण-प्रधान है, इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता। इसी दृष्टिकोण के आधार पर आगम और तन्त्रशास्त्र के पुराण वाङ्मय पर पड़े प्रभाव का विश्लेषण होना चाहिये। यह कार्य अभी तक हुआ नहीं है। सिडक शाएं हमने अभी बताया है कि भारतीय संस्कृति निगमागममूलक है। वैदिक धारा का वेदभिन्न आगम धारा के साथ मिलन सहसा नहीं हुआ, परिस्थितिवश क्रमशः ही हुआ है, जिसकी ओर हम संक्षेप में ऊपर इंगित कर चुके हैं। यही कारण है कि आगम धारा और वैदिक धारा के सम्बन्ध के विषय में पुराणों में अनेक परस्पर-विरोधी मत मिलते हैं। उनमें से मुख्य ये हैं १. आगम धारा या तन्त्र धारा वेद धारा से प्राचीन है, ये दोनों परस्पर भिन्न हैं (बृहद्धर्म पुराण, मध्य. ५।१३८)। २. पतित और अज्ञ वैदिकों के लिये आगमोक्त मार्ग है। भट्टोजी दीक्षित ने अपने छोटे से ग्रन्थ ‘तन्त्राधिकारिनिर्णय’ में इस विषय पर विचार किया है। देवीभागवत में भी इस विषय की चर्चा है। ३. कलियुग में आगम धारा ही सिद्धिकारक है। चारों युगों में क्रमशः वेद, स्मृति, पुराण और तन्त्रशास्त्र की स्थिति अधिक प्रामाणिक मानी गई है। ४. वैदिक या आगमोक्त किसी भी धारा का अवलम्बन करना चाहिये। इससे श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता का प्रश्न नहीं है। ५. तन्त्र का जो अंश वेदविरुद्ध है, वह त्याज्य है, पर अन्य अंश ग्राह्य है। पुराणों में तान्त्रिक विषयों के समावेश के समय के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. हाजरा ने इस विषय पर विचार करते हुए अपने ’ ग्रन्थ में कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। तदनुसार १. अष्टम शती से प्राचीनतर पुराणों में तान्त्रिक प्रभाव का लेश भी विद्यमान नहीं है। प्रथमतः पुराणों में किसी देवविशेष के मुद्रा, न्यास आदि का ही वर्णन मिलता है। दशम तथा एकादश शती में पुराणों में तन्त्रों ने अपनी पूर्ण प्रतिष्ठा तथा प्रामाण्य प्राप्त कर लिया था। गरुड़ तथा अग्निपुराण में उपलब्ध तान्त्रिक विधान इसके प्रमाण हैं। १. द्रष्टव्य—स्टडीज इन दी पुराणिक रिकार्ड्स ऑन हिन्दू राइटस् एण्ड कस्टम्स, पृ. २६०-२६४ ५०२ तन्त्रागम-खण्ड २. अग्निपुराण का पूजाविधान पांचरात्र विधि के अनुसार है, यह अन्तरंग अनुशीलन से स्पष्ट होता है। पांचरात्रों से वर्तमान अग्निपुराण अत्यन्त प्रभावित है। इस पर शैव तथा शाक्त तन्त्र का कुछ भी प्रभाव लक्षित नहीं होता। मत ३. तन्त्र का सन्निवेश प्राचीन पुराणों—वायु, भागवत, विष्णु, मार्कण्डेय आदि में बिल्कुल नहीं है। भागवत में वैदिकी पूजा के साथ तान्त्रिकी तथा मिश्र पूजा का संकेत मात्र है, कहीं भी विस्तार नहीं है। डॉ. आर.सी. हाजरा’ ने यह भी कहा है कि मूलतः कूर्मपुराण वैष्णव था तथा विष्णुपुराण, भागवत एवं हरिवंश की ही भाँति पांचरात्र सम्प्रदाय का ग्रन्थ था, पर उन तीन पुराणों से इसमें अन्तर यह था कि इन तीन पुराणों में शाक्त तत्त्व नहीं थे, परन्तु यह पुराण वैष्णव होते हुए भी शाक्त सम्प्रदाय से प्रभावित था। वैष्णव कूर्मपुराण में बाद में शैव पाशुपतों के सिद्धान्तों का समावेश हो गया और जो कूर्मपुराण पहले पांचरात्र सिद्धान्तों से युक्त था, वह शैव पाशुपतों के सिद्धान्तों का प्रतिपादक हो गया। पाशुपतों ने बहुत से विष्णुपरक अध्यायों को बदल डाला और अपने पाशुपत विचार के समर्थक बहुत से आख्यान जोड़ दिये। जैसे—श्रीकृष्ण भगवान् महादेव को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने उपमन्यु के आश्रम में गये और वहाँ महर्षि उपमन्यु से उन्होंने पाशुपत व्रत की शिक्षा ली। डॉ. हाजरा के इस मत की समीक्षा कूर्मपुराण के परिष्कृत संस्करण के सम्पादक डॉ. आनन्दस्वरूप गुप्त’ कर चुके हैं। हम गुप्त जी के मत से पूरी तरह से सहमत हैं। पुराण वेद के उपबृहक हैं। वेदों को ये सर्वोपरि मानते हैं। वेदों की इस श्रेष्ठता का प्रतिपादन कूर्मपुराण, देवीभागवत आदि में भी स्थान-स्थान पर हुआ है। पांचरात्र तथा पाशुपत मत को यहाँ वेदविरोधी माना गया है। इसकी चर्चा अभी यहाँ हो चुकी है। इस स्थिति में पुराणों के प्रसंग में पांचरात्र एवं पाशुपतों की चर्चा निरर्थक है। पुराणों की रचना वस्तुतः वैदिक वर्णाश्रम धर्म के विस्तार के लिये स्मार्त दृष्टिकोण के अनुरूप की गई है। मीमांसकों ने स्मृतियों एवं पुराणों को मान्यता इसलिये दी है कि ये वेद के सिद्धान्तों का ही विस्तार करते हैं। इस मान्यता में पुराणों का तृतीय स्थान इसलिये है कि ये स्त्री और शूद्र को भी धर्म और मोक्ष का अधिकारी मानते हैं। पुराणों को भारतीय धर्मों का विश्वकोष माना जाता है, क्योंकि पुराणों ने सभी भारतीय धर्मों की अच्छाइयों को ग्रहण कर अपने स्वरूप को प्रतिष्ठित किया है। १. द्रष्टव्य स्टडीज इन दी पुराणिक रिकार्ड्स आन हिन्दू राइटस एण्ड कस्टम्स, पृ. ५-७१ २. “पुराणम्” (व, १४ अ२, सन् १६७२) में प्रकाशित “दि प्राब्लम आफ दि इक्सटैण्ट आफ दी कूर्मपुराण” शीर्षक निबन्ध देखिये। ३. मीमांसासूत्र के प्रथम अध्याय के तृतीय पाद के प्रारम्भ के दो अधिकरणों में श्रुति और स्मृति के प्रामाण्य की मीमांसा की गई है। भट्ट कुमरिल ने यहाँ अपने तन्त्रवार्त्तिक में पुराणों के प्रामाण्य पर भी विचार किया है। जानी राणी । पुराणगत योग एवं तन्त्र के ५०३ प डॉ. हाजरा श्रीकृष्ण के ऋषि उपमन्यु के आश्रम में जाने और वहाँ पाशुपत व्रत की दीक्षा लेने की कूर्मपुराण वर्णित कथा पर पाशुपत प्रभाव देखते हैं, किन्तु यह कथा इसी रूप में महाभारत के अनुशासन पर्व (१४-१८ अ.) में भी वर्णित है। वहाँ के और यहाँ के अनेक श्लोकों की आनुपूर्वी भी एक जैसी है। वास्तव में महाभारत और पुराणों की रचना वेद, उपनिषद्, सांख्य, योग, पांचरात्र और पाशुपत मतों के समन्वित दृष्टिकोण को सामने रखकर की गई है। अतः इस तरह की कथाओं का पुराणों में समावेश किसी साम्प्रदायिकता का द्योतक न होकर उनकी संग्राहिका वृत्ति का परिचायक है। कूर्मपुराण के उपमन्यु उपाख्यान में भी केवल शिव की ही नहीं, श्रीकृष्ण की भी जगत् के मूलकारण, महायोगी और सनातन पुरुष के रूप में स्तुति और पूजा की गई है (१।२४।१४-१८)। ति वैष्णवागम, शैवागम और शाक्तागम के नाम से प्रसिद्ध त्रिविध आगमों अथवा तन्त्रों का ऊपर उल्लेख किया गया है। प्रत्येक आगम के कई अवान्तर सम्प्रदाय भी हैं, जैसे वैष्णवागम में वैखानस, पांचरात्र और भागवत सम्प्रदाय। शैवागम में सिद्धान्तशैव, पाशुपत, कालामुख, कापालिक, भैरव, वाम आदि सम्प्रदाय तथा शाक्तागम में दस महाविद्या आदि के सम्प्रदाय । इन सभी सम्प्रदायों का उल्लेख पुराणों में सामान्य-विशेष रूप से मिलता है तथा प्रत्येक मत की अंशतः स्वीकृति और अस्वीकति (हेय और उपादेय कह कर, वैदिक और पास्य मानकर) भी पुराणों में मिलती है। वेद के विषय में (तथा श्रौत धर्म के विषय) में भी प्रत्येक सम्प्रदाय की दृष्टियाँ नाना प्रकार की हैं और उनमें स्तरभेद भी हैं। सर्वान्तिम स्तर में वैदिक और अवैदिक धाराएं एक रूप में मिल गई हैं। वैदिक-तान्त्रिक विशिष्टता का परिहार कर एक समन्वित स्वरूप की निगमागम धारा का नाम ही पुराण धारा है। ___ सनातन धर्म की दृष्टि में वेद और स्मृति के बाद इस पुराण धारा का प्रामाण्य माना गया है। प्रामाण्य के प्रसंग में आगम और तन्त्रशास्त्र का चतुर्थ स्थान है। अनेक स्थानों पर उद्धृत’ एक श्लोक में बताया गया है कि सत्य युग में वेद, त्रेता में स्मृति, द्वापर में पुराण और कलियुग में तन्त्रागम संमत आचार को प्रधानता दी जाती है। यहाँ जो क्रम दिया गया है, उससे उक्त क्रम की पुष्टि होती है। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि कलियुग में तन्त्रशास्त्र को प्रधानता देनी चाहिये। गरिमा लिन का किसान
पुराणगत योग
योग का लक्षण पनि निमा वाम पशिक्षा कर्म, ज्ञान और भक्ति के समान योग को भी परम पुरुषार्थ मोक्ष का साधन माना गया है। पुराणों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। कूर्मपुराण (२।११।१-४) में योग १. कृते श्रुत्युक्त आचारस्त्रेतायां स्मृतिसम्भवः। एमाद्वापरे तु पुराणोक्तः कलावागमसम्भवः।। (पुराणविमर्श, पंचम संस्करण, पृ. ७६३ पर उद्धृत) ५०४ तन्त्रागम-खण्ड की महिमा बताने के बाद अभावयोग और महायोग के भेद से योग के दो प्रकार तो लिखे हैं (२।११।१५-१२), किन्तु योग का लक्षण नहीं बताया गया। योगसूत्रकार पंतजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। लिंगपुराण (१८७) भी योग का यही लक्षण बताता है। शिवपुराण (७।२।३७।६) इसमें इतना जोड़ता है कि चित्तवृत्ति का निरोध हो जाने के बाद शिव के प्रति निरन्तर निश्चल वृत्ति ही योग है। अग्नि० (३७६।२४-२५), नारद० (१।४७७) और विष्णु० (६७।३१) का कहना है कि अपने प्रयत्न से, यम-नियम आदि के अभ्यास से मन की गति को बास्य विषयों से विमुख कर ब्रह्म के प्रति नियोजित कर देना ही योग है। देवीभावगत (७।३५।२) का कहना है कि योग के लिये आकाश, पाताल को एक नहीं करना पड़ता, यह तो वास्तव में जीवात्मा और परमात्मा का संयोग है। अग्निपुराण (१६५७-१०) इस विषय में अधिक विस्तार से विचार करता है। उसका कहना है कि जब व्यक्ति अपने से भिन्न किसी दूसरे को नहीं देखता, तो उसकी यह सर्वत्र ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाली दृष्टि ही योग है। कुछ लोग विषयों के साथ इन्द्रियों के संयोग को ही योग मानते हैं, किन्तु वे अपने अज्ञान के कारण अधर्म को ही धर्म मान बैठते हैं। अन्य लोग आत्मा और मन के संयोग को योग मानते हैं, यह मत भी ठीक नहीं है। वस्तुतः मन को वृत्तिहीन कर जब योगी जीवात्मा को परमात्मा में विलीन कर देता है, तो वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। योग की यही उत्तम अवस्था है। अग्निपुराण में ही अन्यत्र (३७२।१-२) कहा गया है कि ज्ञान से ब्रह्म प्रकाशित होता है और योग से वहाँ चित्तवृत्ति स्थिर होती है। चित्तवृत्ति के स्थिर हो जाने से जीवात्मा और परमात्मा का भेद मिट जाता है।
योग के भेद
कूर्मपुराण वर्णित अभावयोग और महायोग की ऊपर चर्चा हुई है। यहाँ उनके लक्षण भी बताये गये हैं (१।११।५-११)। शिवपुराण वायवीयसंहिता (२।२७।७) में इसके पांच भेद वर्णित हैं। उनके नाम हैं— मन्त्रयोग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग और महायोग। इनके लक्षण भी वहाँ वर्णित हैं। अभावयोग और महायोग का लक्षण कु०पु० से मिलता-जुलता ही है। नारदपुराण (१।३३।३१-३५) में कर्मयोग और ज्ञानयोग के भेद से योग के दो प्रकार बताये गये हैं और कहा गया है कि क्रियायोग के बिना ज्ञानयोग सिद्ध नहीं हो सकता। क्रियायोग द्वारा पहले श्रद्धापूर्वक विष्णु की पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मण, भूमि, अग्नि, सूर्य, जल, धातु, हृदय और चित्र— इन सबमें भगवान् की प्रतिमा की भावना कर पूजा की जाती है। अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनीर्ष्या और दया नामक गुण ज्ञानयोग और क्रियायोग दोनों के लिये आवश्यक है। कर्मयोग और ज्ञानयोग का वर्णन मत्स्यपुराण में भी मिलता है। वहाँ कहा गया है कि कर्मयोग का महत्त्व ज्ञानयोग से हजार गुना अधिक है। यह उक्ति मत्स्यपुराण में दो स्थानों पर (५२।१५, २५७।१) मिलती है। कर्मयोग की महत्ता भागवत में भी बताई गई है (११।३।४१)। वहाँ (११।२७।७) यह भी बताया गयापुराणगत योग एवं तन्त्र ५०५ है कि भगवान् की आराधना ही क्रियायोग है। इसके तीन प्रकार हैं- वैदिक, तान्त्रिक और मिश्र। अग्निपुराण (३७२।३४) में भी इसकी चर्चा है। वहाँ यह भी कहा गया है कि इनमें से किसी एक विधि से भगवान् की उपासना करनी चाहिये। कर्मयोग के अन्तर्गत मत्स्यपुराण में ४८ संस्कारों का उल्लेख हुआ है। इनमें से आठ आत्मा के संस्कार हैं, गुण हैं। इनकी चर्चा स्मृति-ग्रन्थों में ही नहीं, शैवागमों में भी विशेष रूप से मिलती है।
योग के अंग
पुराणों में अष्टांग और षडंग दोनों प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है। बौद्ध तन्त्रों को दृष्टि में रखकर म.म.पी.वी. काणे ने षडंग योग की समीक्षा की है, किन्तु हमें स्मरण रखना है कि षडंग योग आगम अथवा तन्त्रशास्त्र में ही नहीं, योगशास्त्र के ग्रन्थों, उपनिषदों और पुराणों में भी मिलता है। भास्कर के गीताभाष्य (पृ. १२७) में तथा बोधायन धर्मसूत्र (४।४।२६) की व्याख्या में भी षडंग योग उल्लिखित है। स्वयं कूर्मपुराण में भी योगांगों की गणना के समय षडंग योग की पद्धति ही अपनाई गई है। मार्कण्डेय पुराण में (३६ अ.) भी यही क्रम अपनाया गया है। शिवपुराण में दोनों ही योग वर्णित हैं (वाय०१।३७।१४-१८)। वायु० तो पांच ही योगांगों की चर्चा करता है (१०७६)। न्यायभाष्य (४।२।४६) में भी तप, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और धारणा नामक पांच अंग ही प्रतिपादित हैं। यहाँ यमों और नियमों का सूत्रों में उल्लेख हुआ है।
योगांगों का विवरण
यम और नियम
छ: अथवा आठ योगांगों के विवरण में भी पुराणों में विविधता मिलती है। पातंजल योग की पद्धति से अधिकांश पुराणों में यम और नियमों की संख्या पाँच-पाँच ही बताई गई है, तथापि कहीं-कहीं नाम और क्रम में अन्तर मिलता है। नारदपुराण में यमों की संख्या सात और नियमों की छः बताई है (१३३७५, ८७)। लिंगपुराण (१1८) में यमों की संख्या तो पांच ही है, किन्तु नियम दस हैं। देवीभागवत (७।३५।६-८) में यम और नियम दोनों की संख्या दस-दस है। श्रीमद्भागवत (११।१६।३३-३५) में इनकी संख्या बारह-बारह दी गई है। कूर्मपुराण (२।११।२८) के समान गरुड़ पुराण (१।२१८ ।१२-१३, २२६ १-२२) में भी द्विविध शौच की चर्चा की गई है, किन्तु इसका विस्तार हमें नारदपुराण (१।३३।१००-१०८) में मिलता है।
आसन
कूर्मपुराण में स्वस्तिक, पद्म और अर्धासन नामक तीन आसन लक्षणों के साथ वर्णित हैं। मार्कण्डेयपुराण (३६ २७-३२), लिंगपुराण (१८८६-८६) और वायुपुराण (११।१२-१६) में भी ये ही तीन आसन और इनके लक्षण बताये गये हैं। गरुडपुराण (१।२२६ १२३) में केवल इन तीनों के नाम हैं। देवीभागवत पुराण (७।३५।८-१५) में पद्मासन, स्वस्तिक, भद्र, वज्र और वीर नामक पांच आसन लक्षणों के साथ वर्णित हैं। शिवपुराण वायवीयसंहिता में (२।३७।३०) आठ आसनों के नाम गिनाये हैं, किन्तु यहाँ का ५०६ का तन्त्रागम-खण्ड पाठ कुछ भ्रष्ट लगता है। नारदपुराण (१।३३।११२-११५) में ३० आसनों के नाम मिलते हैं, किन्तु वहाँ उनका लक्षण नहीं दिया गया। विष्णुपुराण (६७।३६) में केवल भद्रासन की चर्चा आई है। ठीक ऐसा ही पाठ नारदपुराण (१।४७।१५) में भी उपलब्ध है। योगसूत्र में आसन से सम्बद्ध तीन सूत्र हैं (२।४६-४८)। यहाँ किसी आसन का नाम नहीं गिनाया है, किन्तु योगभाष्य (२।४६) में ये नाम मिलते हैं- १. पद्मासन, २. भद्रासन, ३. स्वस्तिक, ४. दण्डासन, ५. सोपाश्रय, ६. पर्यक, ७. क्रौंचनिषदन, ८. हस्तिनिषदन, ६. उष्ट्रनिषदन, १०. समसंस्थान, ११. स्थिरसुख और १२. यथासुख। योगाभ्यास के प्रारम्भ में बिना किसी परेशानी के स्थिरतापर्वक बैठने का अभ्यास करना आवश्यक है। आसनों के द्वारा शरीर को इसीलिये तैयार किया जाता है। शरीर की स्थिरता के बाद मनुष्य का मन भी स्थिर हो सकता है और उसमें गर्मी-सर्दी जैसे द्वन्द्वों को सहने की शक्ति भी आ जाती है। आला
प्राणायाम
प्राणायाम के रेचक, पूरक, कुम्भक नामक तीन प्रसिद्ध भेदों के अतिरिक्त सगर्भ-अगर्भ तथा अधम, मध्य और उत्तम प्राणायामों का निरूपण प्रायः कूर्मपुराण (२।११।२०-३७) की पद्धति से ही सर्वत्र मिलता है। देवीभागवत पुराण (७।३५।१५-२१) के अनुसार इडा नाड़ी (वाम नासापुट) से १६ मात्रा पर्यन्त खींचा गया श्वास पूरक, ६४ मात्रा पर्यन्त सुषुम्ना नाड़ी में स्थिर किया गया कुम्भक और ३२ मात्रा पर्यन्त पिंगला नाड़ी (दक्षिण नासापुट) से निकला प्रश्वास रेचक कहलाता है। नारदपुराण (१।३३।११८-१२८) में रेचक आदि तीन भेदों के अतिरिक्त शून्यक नामक चौथा भेद भी बताया गया है और इनके लक्षण भी वहाँ वर्णित हैं। सगर्भ और निगर्भ (अगर्भ) के स्थान पर सबीज और निर्बीज शब्द भी मिलते हैं। जप के साथ किया गया प्राणायाम सगर्भ तथा बिना जप का अगर्भ कहा जाता है। कुछ पुराणों में सगर्भ प्राणायाम में जप के साथ ध्यान को भी जोड़ा है। मन्द, मध्य और उत्तम प्राणायाम में से पहले के लिये पुराणों में लघु, कन्यक, अधम, नीच आदि; दूसरे के मध्यम आदि तथा तीसरे के उत्तरीय आदि भेद मिलते हैं। योगभाष्य (२।५०) में इनको मृदु, मध्य और तीव्र नाम दिया गया है। शिवपुराण (७।२३७-३६) में इन तीन के अतिरिक्त चौथा भेद भी माना गया है। प्रायः सभी पुराणों में १२ मात्रा का लघु, २४ मात्रा का मध्य और ३६ मात्रा का उत्तम प्राणायाम कहा गया है। गरुडपुराण (१।२१८१४-१५) में इनकी कालगणना १०, २०, तथा ३० मात्रा बताई गई है।) __मात्रा का काल मार्कण्डेय (३६।१५) में निमेषोन्मेष काल अथवा ह्रस्व स्वर के उच्चारण के काल के तुल्य माना गया है। शिवपुराण (७।२।३७।३१) में इसकी दूसरी परिभाषा दी है। वहाँ कहा गया है कि अपने घुटने के चारों तरफ, बिना देरी या जल्दी किये, हाथ फेर कर चुटकी बजाने में जो समय लगता है, उसको मात्रा कहते हैं। वाचस्पति मिश्र ने योगभाष्य की अपनी व्याख्या (२०५०) में इसी परिभाषा को माना है। यह श्लोक अतिप्रसिद्ध है कि जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्ण आदि धातुओं के दोष दूर हो जाते हैं, उसी तरह से प्राणायाम के अभ्यास से सारे इन्द्रियगत दोष दूर हो जाते ५०७ पुराणगत योग एवं तन्त्र हैं। गरुडपुराण (११॥३६॥३) और लिंग० (१।८।५५-५६) का कहना है कि प्राणायाम से मन, वाणी और शरीर के दोष दूर हो जाते हैं। प्राणायाम के अभ्यास से योगी को ध्वस्ति, प्राप्ति, संवित् और प्रसाद नामक चार अवस्थाएं प्राप्त होती हैं। इनका स्वरूप मार्क० (३६।२१-२६) में देखना चाहिये। वायु० (१०॥४-१०) में शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति और प्रसाद नाभक प्राणायाम के चार प्रयोजन बताये हैं। लिंगपुराण (१८५७-७५) और शिवपुराण (७।२।३६ ॥११-१३) वायुपुराण का अनुसरण करते हैं। इनके लक्षणों को देखने से ऐसा लगता है कि चारों पुराणों में एक ही विषय वर्णित है। कि आप
प्रत्याहार
इसके विषय में कूर्म की अपेक्षा अन्य पुराणों में कोई विशेष विवरण नहीं मिलता। मार्कण्डेय पुराण (३६।४४) में इतना अवश्य कहा गया है कि प्रत्याहार के लिये बाह्य और आन्तर पवित्रता (शौच) अति आवश्यक है। प्राणायाम से पवन को तथा प्रत्याहार से इन्द्रियों को वश में करने की चर्चा विष्णुपुराण (६७।४५) और नारदपुराण (१४७।२१) में मिलती है। इसका अभिप्राय यह है कि प्राणायाम और प्रत्याहार का अभ्यास पूरा हो जाने के बाद ही धारणा, ध्यान और समाधि की योग्यता योगी को प्राप्त होती है। मार्कण्डेयपुराण (३६१०) और वायुपुराण (१०।६३) का कहना है कि प्राणायाम से योगी को अपने शारीरिक दोषों को दूर करना चाहिये, धारणाओं से सारे पाप कर्मों को. प्रत्याहार से सारे बाह्य विषयों को और ध्यान से योग के अन्तरायभूत गुणों को भी धो डालना चाहिये। इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिंगपुराण (१८७५-७७) में कहा गया है कि योगी को प्राणायाम के अभ्यास के द्वारा अपने सारे दोषों को जला डालना चाहिये। धारणाओं के द्वारा अपने सारे पापों को और प्रत्याहार द्वारा विषयों को विष समझ कर उनका परित्याग कर देना चाहिये। ध्यान के द्वारा योग के अन्तरायभूत प्रातिभ ज्ञान आदि गुणों का भी योगी को मोह छोड़ देना चाहिये और अन्त में समाधि में स्थित होकर अपनी प्रज्ञा की निर्मलता को बढ़ाना चाहिये। यदि आम
धारणा
कूर्म आदि सभी पुराणों में पातंजल योग की पद्धति से धारणा के बाद ही ध्यान का लक्षण बताया गया है, किन्तु अग्निपुराण में ध्यान के बाद धारणा को स्थान दिया गया है। यहाँ ३७४ वें अध्याय में ध्यान का विवरण दे लेने के बाद ३७५ वें अध्याय में धारणाओं का वर्णन किया गया है। कूर्म, पातंजल योगसूत्र तथा अन्य पुराणों में प्रतिपादित क्रम के अनुसार हम यहाँ धारणा की ही पहले चर्चा करना चाहते हैं। धारणा की कूर्मपुराण में केवल एक श्लोक (२।११।३६) में संक्षिप्त चर्चा है, किन्तु अन्य पुराणों में इसका बहुत विस्तार मिलता है। र अग्निपुराण (३७५।४) में धारणा, ध्यान और समाधि विषयक एक श्लोक मिलता है। वही श्लोक कूर्मपुराण (२।११।४२), लिंगपुराण (१।८।१३-१४) और शिवपुराण (७।२।३७।६०) में भी मिलता है। उसका हमें यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि १२ प्राणायामों के बराबर माहात्म्य धारणा का, १२ धारणाओं के बराबर ध्यान का और १२ ध्यानों के बराबर समाधि है ५०८ तन्त्रागम-खण्ड का महत्त्व है। धारणा के विषय में मार्कण्डेय (३६।३५) का भी यही कथन है। मार्कण्डेयपुराण का यह वचन गरुडपुराण (१।२१८।२०) में भी मिलता है, किन्तु “दश द्वौ च" के स्थान पर “दशाष्टौ च" का पाठ ठीक नहीं लगता। यहाँ (३६३५-४२) प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा का समवेत विवरण दिया गया है। हम पशु अग्निपुराण के ३७५वें अध्याय में आग्नेयी, वारुणी, ऐशानी और अमृता नामक चार धारणाएं वर्णित हैं। योग-ग्रन्थों में इनका अतिविस्तार मिलता है। श्रीमद्भागवत (११।१४-१५ अ.) में विभिन्न सिद्धियों की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की धारणाएं वर्णित हैं। धारणाओं का यह तीसरा प्रकार है। विज्ञान भैरव नामक कश्मीरी योगशास्त्र के ग्रन्थ में ११२ धारणाओं का वर्णन है। मार्कण्डेयपुराण (४०।१७-२८) और वायुपुराण (१२ ॥१८-३३) में सात सूक्ष्म धारणाएं वर्णित हैं। कूर्मपुराण (२८१२) में भी सात सूक्ष्मों और षडंग महेश्वर की चर्चा है। यही प्रसंग वायुपुराण (१२।३२-३३) एवं महाभारत अनुशासन पर्व (१४।४२३) में भी मिलता है। स्पष्ट है कि कूर्मपुराण में महा० अनु० और वायु० निर्दिष्ट इन्हीं सात सूक्ष्म धारणाओं की चर्चा है और वे ही मार्कण्डेयपुराण में भी वर्णित हैं। अन्तर इतना ही है कि मार्कण्डेयपुराण में षडंग महेश्वर की चर्चा नहीं है। O m गरुड़ (१।२१८ २१-२२) में कहा गया है कि प्राणनाड़ी, हृदय, उरःस्थल, कण्ठ, मुख, नासिकाग्र, नेत्र, भूमध्य, मूर्धा और तत्पर (शिखान्त) नामक दस स्थानों में धारणा लगाने से योगी अक्षरस्वरूप हो जाता है। ये श्लोक मार्कण्डेयपुराण (३६।४४-४६) में भी मिलते हैं। किन्तु वहाँ “प्राणनाड्यां" के स्थान पर “प्राङ्नाभ्यां" पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। देवीभागवत (७।३५।२२-२४) में बताया है कि धारणा के द्वारा अंगुष्ठ, गुल्फ, जानु, ऊरु, मूलाधार, लिंग, नाभि, हृदय, ग्रीवा, कण्ठ, लम्बिका, नासिका, भूमध्य, मस्तक, मूर्धा और द्वादशान्त नामक १६ स्थानों में पवन को स्थिर किया जाता है। नाथयोग के ग्रन्थों में १६ आधारों की सूचना मिलती है, उनसे इनकी तुलना की जा सकती है। नारदपुराण (१।४७।२१-६५) और विष्णुपुराण (६७।४६-८८) दोनों में शुभाश्रय-विषयक धारणा का निरूपण है। वायुपुराण (११।५१-५८) में रोगनिवारक धारणाएं वर्णित हैं। शिवपुराण (७।२।३७।५०-५१) का कहना है कि प्रथमतः धारणा के द्वारा ही मन स्थिर हो सकता है, अतः धीर योगी को धारणा के अभ्यास से मन को स्थिर करना चाहिये।नया राम
ध्यान
कूर्मपुराण (२।११।४०) में ध्यानविषयक भी एक ही श्लोक है, किन्तु आगे (२५३-६७) दो प्रकार के ध्यानों का वर्णन किया है और इनको पाशुपत योग की संज्ञा दी है। अग्निपुराण (३७४।१-३४) में इन सबका एक साथ वर्णन किया है। वहाँ कहा गया है ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान के प्रयोजन को भलीभाँति जानने के बाद ही साधक को योग का अभ्यास करना चाहिये। यही बात नारदपुराण (१।३३।१४१-१४२) और शिवपुराण (७।२।३७१५७, ३६१४-१५) में भी कही गई है। “ध्यै चिन्तायां स्मृतो धातुः” ध्यान शब्द की व्युत्पत्ति बताने वाला यह श्लोक अग्निपुराण और शिवपुराण दोनों में मिलता है, किन्तु अग्निपुराण में विष्णु के तथा शिवपुराण में शिव के ध्यान से उसको जोड़ा गया पुराणगत योग एवं तन्त्र ५०६ है। नारदपुराण (१।३३।१५३-१६२) में ध्यानान्तर के नाम से प्रतिमा आदि का ध्यान वर्णित है। शिवपुराण (७।२।३७।५६) ध्यान के दो प्रयोजन बताता है। पहला ध्यान अणिमा आदि सिद्धियों की प्राप्ति के लिये और दसरा मक्तिलाभ के लिये किया जाता है। ध्यान के सबीज और निर्बीज नामक दो भेद भी शिवपुराण (७।२।३६।६-१०) में वर्णित हैं। शिवपुराण (७।२।३७५६) और अग्निपुराण (३७४।३३) में यह भी बताया गया है कि ध्यान करते-करते योगी जब थक जाय, तो वह जप करे और जप करते-करते थक जाय, तो पुनः ध्यान में लग जाय। अग्निपुराण (३७४।३४) में जप के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है कि अन्य यज्ञ इसकी १६वीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते। रोग, ग्रह आदि जप करने वाले के पास नहीं आते। ध्यानी व्यक्ति भक्ति और मुक्ति तो पाता ही है, मृत्यु को भी वह जीत सकता है। प्राणायाम के प्रसंग में यह बताया गया है कि सगर्भ प्राणायाम में मन्त्रजप और ध्यान भी किया जा सकता है। कहीं-कहीं जप को भी योग का अंग माना गया है, इसकी चर्चा आगे की जायेगी। अपने जी 7
समाधि
समाधि के विषय में कूर्मपुराण (२।११।४१) में एक श्लोक है। यहाँ बताया गया है कि समाधि में केवल अर्थमात्र की प्रतीति होती है। योगसूत्र (१।४३) में निर्वितर्क समापत्ति का यह लक्षण दिया है कि इसमें केवल ध्येय अर्थ की प्रतीति बच रहती है। इसका अभिप्राय यह है कि समाधि दशा में योगी का अपना स्वरूप ओझल हो जाता है और अपने ध्येय इष्टदेव का स्वरूप केवल बचा रहता है, अर्थात् वह तदाकार हो जाता है। इस स्थिति को भगवद्गीता (६।१६) में दीपक के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है कि जैसे पवनरहित स्थान में दीपक की लौ एकाकार हो जाती है, उसी तरह से समाधिस्थ योगी का चित्त भी निरन्तर ध्येयाकार बना रहता है। प्रायः सभी पुराणों ने इन दोनों स्थितियों का इस प्रसंग में उल्लेख किया है। इस प्रसंग में विष्णुपुराण का एक श्लोक (६७।६६)प्रायः सभी पुराणों में मिलता है कि भेद उत्पन्न करने वाले अज्ञान के सर्वथा नष्ट हो जाने पर ब्रह्म और जीवात्मा में अविद्यमान भेद को कौन पैदा कर सकता है ? इसका अभिप्राय यह है कि समाधि दशा में सभी प्रकार के भेद विलीन हो जाते हैं। तब जीवात्मा और परमात्मा का भेद भी नहीं रहेगा और इस तरह से समाधि दशा में पहुँचने तक योग का यह लक्ष्य पूरा हो जायगा कि उस स्थिति में जीवात्मा का परमात्मा में योग हो जायगा, वह तदाकार बन जायगा। चित्त की वृत्तियों के ऊपर नियन्त्रण करने पर ही यह सम्भव हो सकता है। इस तरह से योग की इस पुराण-प्रतिपादित पद्धति में योग के सभी लक्षण समन्वित हो जाते
पाशुपत योग
समाधि पर्यन्त योगांगों का निरूपण करने के बाद कूर्मपुराण (२।११।५२-५७) में योग की दो पद्धतियाँ वर्णित हैं और वहाँ इनको पाशुपत योग बताया गया है। इस प्रकरण का प्रारम्भ तो भगवद्गीता (६।११-१५) की पद्धति से हुआ है, किन्तु आगे का विवरण तन्त्रागम-खण्ड भिन्न प्रकार का हो जाता है। यहाँ आगम और तन्त्रशास्त्र वर्णित कुण्डलिनी योग के आन्तर - स्थानों और चक्रों की एक झलक मिलती है। ठीक इसी तरह का वर्णन लिंगपुराण (१।८।८५-११३) और शिवपुराण (७।२३८ ।५४-७७) में कुछ अधिक विशद रूप में मिलता है। अग्निपुराण के ३७४ वें अध्याय में भी इसी से मिलता-जुलता वर्णन है। इन सभी पुराणों में अनेक श्लोकों की आनुपूर्वी भी मिलती है।
मन्त्रयोग
जो शिवपुराण में जो पाँच प्रकार का योग वर्णित है, उनमें एक मन्त्रयोग भी है। अग्निपुराण २१४ अ., देवीभागवत (७।३५।२६-६३), नारदपुराण (१६५७६-६४), लिंगपुराण (११८ अ.) और शिवपुराण (७।२।३८६१-६३) में इसका विवरण मिलता है। इसके अन्तर्गत नाड़ी, वायु (१० प्राण), अजपा जप (हंस गायत्री), आधार (चक्र), कुण्डलिनी-जागरण, भूतशुद्धि आदि विषय वर्णित हैं। इनके अतिरिक्त योग की चर्या, योगाभ्यास के उपयुक्त स्थान, योगाभ्यास के नियम, आहार-शुद्धि, योग के उपसर्ग या अन्तराय, योग के दोष, जप की महिमा, योग की विभूतियाँ अथवा सिद्धियाँ, योगसिद्धि प्राप्त पुरुष के लक्षण, योगाभ्यास विधि, रोग परिहार के उपाय आदि विषय भी यहाँ वर्णित हैं।
जप की योगांगता
कूर्मपुराण (२।११।२३-२६) ने स्वाध्याय के प्रसंग में त्रिविध जप का भी निरूपण किया है। मनुस्मृति (२१८५) में भी कहा गया है कि विधि-यज्ञ से जप-यज्ञ (वाचिक जप) दस गुना बढ़कर है और उपांशु जप वाचिक जप से सौ गुना और मानस जप हजार गुना बढ़ कर है। प्रायः सभी पुराण इन त्रिविध जपों का निरूपण करते हैं। शैव और वैष्णव आगमों में तो जप को भी योग का एक अंग माना गया है। मृगेन्द्रागम के योगपाद (श्लो. ३) और जयाख्यसंहिता (३३/११) में इस विषय को देखा जा सकता है। लक्ष्मीतन्त्र (३६३५) ने तो उक्त तीन प्रकारों के अतिरिक्त जप का एक चौथा प्रकार भी बताया है। ध्यान को ही यहाँ जप का चौथा भेद माना गया है। जयाख्यसंहिता के जपविधान नामक १४वें पटल में इस विषय को विस्तार से समझाया गया है। जिन पुराणों में जप के अतिरिक्त ध्यान को भी सगर्भ प्राणायाम का अंग माना है, उसकी सार्थकता हम इस प्रकार स्थापित कर सकते हैं और यह भी कि ध्यान के बाद जप और जप के बाद ध्यान करने के लिये क्यों कहा गया है। लिंगपुराण में एक वचन मिलता है- ‘जपः शिवप्रणीधानम्” (१८३१)। इससे ऐसा लगता है कि यह पुराण भी जप की योगांगता को स्वीकार करता है, क्योंकि यहाँ योगांगों का ही निरूपण किया गया है। हार
देश-काल
कूर्मपुराण (२।११।४७-५१) ने उचित देश और काल में ही योग सिद्ध हो सकता है, यह कह कर योग के लिये निषिद्ध देश-काल का निरूपण कर उचित देश-काल का पुराणगत योग एवं तन्त्र उल्लेख किया है। यहाँ के सभी श्लोक लिंगपुराण (१८७७-८४) और वायुपुराण (११।३२-३५) में भी पाठभेद के साथ मिलते हैं। एक दो श्लोक दोनों ही पुराणों में अधिक हैं। मार्कण्डेय (३६४७-५१) और शिवपुराण (७।२।३८।४६-५४) में भी अपने ढंग से यह विषय आया है। इन सभी स्थलों पर योगाभ्यास के लिये निषिद्ध और विहित स्थानों का निरूपण किया गया है। पुराणों में ही नहीं, ऋग्वेद (८।६।२८) और यजुर्वेद (२६।१५) के एक मन्त्र में भी पर्वतशिखर, नदीसंगम आदि स्थानों की प्रशंसा की गई है। मन्त्र इस प्रकार है उपहवरे गिरीणां संगथे नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत। यजुर्वेद के मन्त्र में “संगथे" के स्थान पर “संगमे" पाठ है। इस तरह के देश और काल का निरूपण आगम और तन्त्रशास्त्र ही नहीं, बौद्ध और जैन साहित्य में भी मिलता
२८ योगाचार्यावतार
कूर्मपुराण पूर्व विभाग के ५०वें अध्याय में २८ व्यासावतारों और उनके द्वारा किये गये वेद-पुराण विभाग का वर्णन करने के बाद वहाँ ५१वें अध्याय में महादेव के २८ अवतारों (योगाचार्यों) और उनमें से प्रत्येक के चार-चार शिष्यों (कुल ११२ शिष्यों) का वर्णन किया गया है। इनमें से अन्तिम योगाचार्य लकुलीश का अवतार कायावतरण नामक तीर्थ में हुआ था, जो कि आजकल कायावरोहण महातीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है और गुजरात की विद्यानगरी बड़ौदा से बहुत दूर नहीं है। २८ योगाचार्यों के नाम आत्मसमर्पण’ और स्कन्दपुराण (१।२।४०।२१२-२१५) में भी मिलते हैं। लिंगपुराण (१७३७-५१), वायुपुराण (२३११७-२२४), शिवपराण (३।४।६-५५०, ७२६-२०) में योगाचार्यों के अतिरिक्त उनके ११२ शिष्यों के भी नाम मिलते हैं। वायू और शिवपुराण का विवरण अधिक विस्तृत
- डॉ. कत्रे के अवतार सम्बन्धी लेख में योगाचार्यावतारों का मात्र संक्षिप्त उल्लेख मिलता है। योगाचार्यों और उनके शिष्यों का विस्तृत परिचय हमारे पितृचरण के १. गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, बड़ोदरा से सन् १६६६ में पुनः मुद्रित ग्रन्थ गणकारिका के परिशिष्ट (पृष्ठ २५-२६) में विशुद्धमुनिकृत आत्मसमर्पण नामक लघु ग्रन्थ के १-४ श्लोक द्रष्टव्य। २. इलाहाबाद युनिवर्सिटी स्टडीज, भा. १०, सन् १६३४ में स. ल. कत्रे लिखित “अवताराज् आफ गॉड’ शीर्षक निबन्ध (पृ. १२८-१२६) में शिवावतार शीर्षक से इनकी चर्चा हुई है। ५१२ तन्त्रागम-खण्ड “पुराणवर्णिताः पाशुपता योगाचार्याः”’ शीर्षक संस्कृत निबन्ध में दिया गया है। योगाचार्यों और उनके शिष्यों की नामावली में भी विभिन्न पुराणों में पर्याप्त पाठभेद मिलते हैं। इन सभी योगाचार्यों और उनके शिष्यों की नामावली हमने अपने “कूर्मपुराण : धर्म और दर्शन” शीर्षक महानिबन्ध (पृ. १२२-१३०) में प्रस्तुत कर दी है।
द्विविध पाशुपत
_ये योगाचार्य पाशुपत मत के प्रतिष्ठापक और प्रचारक माने गये हैं। ये निवृत्ति मार्ग के अनुयायी थे । इनके अतिरिक्त कूर्मपुराण (१।१३।३१) में महापाशुपतोत्तम श्वेताश्वतर ऋषि का उल्लेख मिलता है। ये श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रवक्ता माने गये हैं, जो कि पाशुपत मत का प्राचीनतम ग्रन्थ है। श्रीकृष्ण को पाशुपत योग की दीक्षा देने वाले मुनि उपमन्यु की चर्चा पहले आ चुकी है। कूर्मपुराण के उपरि विभाग के ३५वें अध्याय में कालंजर तीर्थ के माहात्म्य के प्रकरण में राजर्षिप्रवर श्वेत का उपाख्यान आता है। त्रिशूलधारी भगवान् शिव के प्रसाद से ये काल के पाश से मुक्त हो जाते हैं। यद्यपि उपमन्यु का नाम पाशुपत योगाचार्यों की सूची में उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्वेताश्वतर की श्वेताश्व से और राजर्षि श्वेत की प्रथम योगाचार्य अथवा उनके शिष्य श्वेत से अभिन्नता की कल्पना की जा सकती है। वामनपुराण (६।८६-६१) में बताया गया है कि क्षत्रिय पाशुपत विधि से शिव की आराधना करें इसीलिये महाभारत, पुराण आदि में वर्णित राजर्षियों की नामावली में अनेक योगाचार्यों के नाम मिलते हैं । तन्त्रालोक (३७।१४-१५) में शैवागम की दो परम्पराओं का उल्लेख मिलता है। पहली परम्परा श्रीकण्ठ से तथा दूसरी लकुलीश से प्रवृत्त हुईं। महाभारत (१२।३४६।६७) १. “पुराणम्” व. २४, अ. २, सन् १६८२ काशीराज ट्रस्ट, रामनगर, वाराणसी, संस्कृत खण्ड, पृ. १-२१ द्रष्टव्य। २. पाशुपत योगाचार्य निवृत्ति मार्ग के और पांचरात्र मतावलम्बी प्रवृत्ति मार्ग के अनुयायी थे, इसके लिये देखिये उपर्युक्त-“पुराणवर्णिताः पाशुपता योगाचार्याः” शीर्षक निबन्ध, पृ. ४-५ (मूल एवं टिप्पणी)। ३. महाभारत (आदि. ११२३३, शान्तिपर्व १५३६८, अनु.पर्व ११५ १६, १५०५२), लिंगपुराण (पूर्वार्ध २६-३०), स्वच्छन्दोद्योत (१०।२००) में उद्धृत पराख्यतन्त्र और मृगेन्द्रागम (वि. ११६) में भी यह प्रसंग आया है। श्रीकण्ठभाष्य के व्याख्याकार अप्पय दीक्षित अपने मंगलाचरण श्लोक में श्वेत को नाना आगम शास्त्रों के रचयिता के रूप में नमन करते हैं। ४. यहाँ बताया गया है कि ब्राह्मण सिद्धान्तशैव पद्धति से, क्षत्रिय पाशुपत, वैश्य कालामुख और शूद्र कापालिक विधि से शिव की आराधना करे। “शैव कल्ट इन नार्दर्न इण्डिया”, “कापालिक्स एण्ड कालामुखम्” नामक ग्रन्थों में इन चतुर्विध शैवों का विस्तृत विवरण दिया गया है। ‘तन्त्रयात्रा’ में प्रकाशित “शिवपुराणीयं दर्शनम्" और “कालदमनः कालवदनो वा” शीर्षक निबन्ध भी इस प्रसंग को स्पष्ट करते हैं। ऊपर उद्धृत “पुराणवर्णिताः पाशुपता योगाचार्याः" शीर्षक निबन्ध (पृ. ४-८) द्रष्टव्य। ) डॉ. वी. एस. पाठक श्रीकण्ठ को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। डॉ. डेविड एन लोरेंजन इस मत से सहमत नहीं हैं। इस विषय में लुप्तागमसंग्रह, द्वितीय भाग, उपोद्घात, पृ. ११७ की टिप्पणी देखिये। ५१३ पुराणगत योग एवं तन्त्र ने श्रीकण्ठ को पाशुपत मत का प्रथम प्रवक्ता माना है। लकुलीश दूसरी परम्परा के प्रवर्तक हैं। इनका मत लकुलीश पाशुपत के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा रचित पंचाध्यायी नामक पाशुपतसूत्र आज भी कौण्डिन्य के पंचार्थभाष्य के साथ उपलब्ध है । हम अभी बता चुके हैं कि कायावरोहण महातीर्थ में इनका अवतार हुआ था। ये निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाते हैं २ । इनके कुशिक आदि चार शिष्यों का उल्लेख ऊपर आ चुका है। राजशेखर कृत षड्दर्शनसमुच्चय में और हरिभद्रकृत षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नकृत व्याख्या में ईश्वर (शिव) के १८ अवतारों की नामावली दी गई है, जो इस प्रकार है - १. लकुलीश, २. कौशिक, ३. गार्ग्य, ४. मैत्र्य, ५. कौरूष्य, ६. ईशान, ७. पारगार्ग्य, ८. कपिलाण्ड, ६. मनुष्यक, १०. कुशिक, ११. अत्रि, १२. पिंगल, १३. पुष्पक, १४. बृहदार्य, १५. अगस्ति, १६. सन्तान, १७, राशीकर और १८. विद्यागुरु । राजशेखर के ग्रन्थ में १०वाँ नाम अपरकुशिक, १२वाँ पिंगलाक्ष और १४वाँ बृहदाचार्य है। पाशुपतसूत्र की प्रस्तावना में भी ये नाम उद्धृत हैं। वहाँ चौथा नाम मैत्रेय दिया गया है। इनमें से पहले न(ल)कुलीश पाशुपतसूत्रों के रचयिता और १७वें राशीकर भाष्यकार कौण्डिन्य से अभिन्न माने जाते हैं। माना का स्वच्छन्दतन्त्र और तन्त्रालोक में तथा क्षेमराज और जयरथकृत इनकी टीकाओं में लाकुल, मौसुल, कारुक और वैमल नामक पाशुपत सम्प्रदायों का तथा उनके मन्तव्यों का उल्लेख मिलता है। क्षेमराज का कहना है कि लकुलेश के शिष्य मुसुलेन्द्र का भी अवतार कारोहण स्थल में ही हुआ। मुसुलेन्द्र के हृदयप्रमाण नामक ग्रन्थ का भी उल्लेख रामकण्ठकृत परमोक्षनिरासकारिकाव्याख्या (श्लो. ३) में मिलता है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है १. यह ग्रन्थ त्रिवेन्द्र म् संस्कृत सिरीज, त्रिवेन्द्रम् से सन् १६४० में प्रकाशित हुआ है। २. डा. कान्तिचन्द्र पाण्डेय कृत शैवदर्शनबिन्दु, पृ. २७-२६ देखिये। ३. गणकारिका, परिशिष्ट, पृ. ३५ द्रष्टव्य। ४. गणकारिका, परिशिष्ट, पृ. २६ देखिये। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि गणकारिका के द्वितीय परिशिष्ट (पृ. २६-३०) में उद्धृत अंश आचार्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय का न होकर उसके व्याख्याकार गुणरत्न की व्याख्या का है। इस ग्रन्थ के ज्ञानपीठ, वाराणसी संस्करण (पृ. ७६-७७) में प्रथम दो नाम नकुली और शोष्यकौशिक मिलते हैं। “नकुलीशोऽथ कौशिकः” इस पद्य खण्ड में लेखक और सम्पादक की असावधानी से यह पाठ कल्पित हुआ प्रतीत होता है। इससे एक सम्प्रदाय के आधुनिक विद्वानों की दूसरे सम्प्रदाय से अपरिचय की भी सूचना मिलती है। ५. पाशुपताचार्यों की यह नामावली जैन ग्रन्थों में मिलती है। परमार्थसार के व्याख्याकार योगराज “एको भावः सर्वभावस्वभावः” इत्यादि श्लोक को शंभुभट्टारक के नाम से उद्धृत करते हैं (पृ. १८-५८)। यही श्लोक उत्पल वैष्णव की स्पन्दप्रदीपिका (पृ. १२१) और द्वादशारनयचक्र नामक प्राचीन जैन ग्रन्थ (पृ. ११६६) में उद्धृत है। कर्णाटक, गुजरात आदि प्रदेशों में शैव और जैन धर्म का विशाल साहित्य निर्मित हुआ है। इनका तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। ६. लुप्तागमसंग्रह, द्वितीय भाग, उपोद्घात, पृ. ११५-११६ द्रष्टव्य। तन्त्रागम-खण्ड कि लकुलीश पाशुपत मत के प्रतिष्ठापक एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे और इनकी शिष्य मण्डली ने गुजरात, राजस्थान आदि में पाशुपत मत की पूर्ण प्रतिष्ठा की। साथ ही यह भी सत्य है कि श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत लकुलीश से पहले भी विद्यमान था। संचा लाल
ज्ञान और कर्म का समुच्चय
प्रधानतः ज्ञानयोग का प्रतिपादन करने वाली ईश्वरगीता के अन्त में ऋषिगण वेदव्यास से सनातन कर्मयोग का उपदेश करने की बात कहते हैं। इस कर्मयोग का उपदेश वे व्यासगीता (२।१२-३३ अ.) के रूप में करते हैं। व्यासगीता (कूर्मपुराण १।१२।१) का प्रारम्भ करते हुए महामुनि व्यास ऋषियों से कहते हैं कि ब्राह्मणों को मोक्षप्रद सनातन कर्मयोग का आचरण करना चाहिये। पूर्वकाल में प्रजापति मनु ने ऋषियों को ब्रह्मा द्वारा प्रदर्शित वेदविहित, समस्त पापों को दूर करने वाले एवं ऋषि-समूह से सेवित इस कर्मयोग को बताया था। कीमत भारत कि जिन किया कृष्ण द्वैपायन व्यास ईश्वरगीता के अन्त में जैसे कर्मयोग का उपक्रम करते हैं, वैसे ही व्यासगीता (कूर्मपुराण २।३३।१४५) के अन्त में वे ज्ञानयोग का माहात्म्य बताते हैं। वे कहते हैं कि मैंने आप लोगों को इस मानव धर्म का और महेश की आराधना-हेतु शाश्वत ज्ञानयोग का भी वर्णन किया है। जो इस विधि से ज्ञानयोग का अनुष्ठान करता है, वह महादेव का दर्शन करता है। इसके सिवाय सैकड़ों कल्पों में भी महादेव का दर्शन पाने का कोई उपाय नहीं है। जो श्रेष्ठ धर्म (कर्म) एवं परमेश्वर संबन्धी ज्ञान की स्थापना करता है, संसार में उससे बढ़ कर कोई नहीं है। उसे श्रेष्ठ योगी माना जाता है। धर्म एवं ज्ञान की स्थापना करने में समर्थ होने पर भी जो मनुष्य मोह वश ऐसा नहीं करता, वह योगयुक्त मुनि होने पर भी भगवान् का प्रिय नहीं होता। अतः सदा धर्मयुक्त, शान्त एवं श्रद्धालु ब्राह्मणों के मध्य कर्म एवं ज्ञान का उपदेश करते रहना चाहिये। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि कूर्मपुराण ज्ञान के ही समान कर्म को भी मोक्ष का साधन मानता है। इन्द्रद्युम्न से श्री (लक्ष्मी) कहती हैं कि जो व्यक्ति भगवान् पुरुषोत्तम की ज्ञानयोग और कर्मयोग द्वारा आराधना करते हैं, उन पर मेरी माया नहीं चल सकती। इसलिये मोक्ष के इच्छुक कर्मयोगपरायण व्यक्ति को ज्ञानयोग का भी अवश्य ही सहारा लेना चाहिये (91919-६०)। यह भी वहाँ (9219-६७) कहा गया है कि कर्म और ज्ञान दोनों से धर्म की प्राप्ति होती है, अतः ज्ञान के साथ ही कर्म का भी सहारा लेना चाहिये। (धर्म शब्द यहाँ मोक्ष का भी सूचक है।) _ यहाँ दो प्रकार का कर्म बताया गया है। उनके नाम हैं— प्रवृत्त कर्म और निवृत्त कर्म । ज्ञानरहित कर्म प्रवृत्त और ज्ञानसहित कर्म निवृत्त माना जाता है। निवृत्त कर्म का अनुष्ठान करने वाला परम पद को प्राप्त करता है। उसके लिये क्षमा, दया, दान, अलोभ, त्याग, ऋजुता (सरलता), अनसूया, तीर्थसेवा, सत्य, सन्तोष, आस्तिक्य, श्रद्धा, इन्द्रियनिग्रह,५१५ पुराणगत योग एवं तन्त्र देवार्चन, ब्राह्मणार्चन, अहिंसा, प्रियवादिता, अपैशुन्य और अकल्कता नामक धर्म के अंगों का पालन करना आवश्यक है, ऐसा मनु ने कहा है। प्रवृत्त और निवृत्त कर्मों की चर्चा उत्तर भाग के ३७वें अध्याय के आरम्भ में भी मिलती है। वहाँ प्रवृत्तिपरायण ब्राह्मणों को निवृत्ति धर्म का उपदेश करने के लिये भगवान् शिव दारुवन में जाते हैं। चमक
- भगवद्गीता में ब्रह्मार्पण दृष्टि से निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। तिलक महाराज ने गीतारहस्य की भूमिका (पृ. १०) में प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग का विश्लेषण करते हुए बताया है कि महाभारत के शान्तिपर्व के अन्त में स्थित नारायणीयोपाख्यान में प्रवृत्ति धर्म का और भगवद्गीता में निवृत्ति धर्म का विधान है। इसके लिये वे वहाँ के (३४७।८२-८३) एक श्लोक को और भगवद्गीता की निवृत्तिधर्मपरकता के लिये भी वहीं (३४८५३) के दूसरे वचन को प्रमाण के रूप में उद्धृत करते हैं। प्रवृत्ति शब्द का अर्थ जीवनपर्यन्त संन्यास न लेकर चातुर्वर्ण्य-विहित निष्काम कर्म करते रहना और निवृत्ति धर्म का अर्थ है यतियों द्वारा लिया गया संन्यास। गीता में प्रवृत्ति धर्म के साथ ही यतियों का निवृत्ति धर्म भी वर्णित है। गीता की मनु, इक्ष्वाकु इत्यादि की तथा जनक इत्यादि की परम्परा प्रवृत्ति मार्ग की है, निवृत्ति मार्ग की नहीं। विष्णुपुराण (१।६।३०-३१) ने प्रवृत्ति मार्ग का विरोध करने वाले को वेदनिन्दक कहा है। इसके विपरीत पाशुपत योगाचार्यों की परम्परा में निवृत्ति मार्ग की प्रधानता है। इन योगाचार्यों को सर्वत्र निवृत्तिपरायण बताया गया है। लिंगपुराण (१२६७-८) में बताया गया है कि प्रवृत्तिपरायण मुनियों को निवृत्ति मार्ग का उपदेश देने के लिये महामुनि श्वेत दारुवन में गये थे। कई _पुराणों में अतिप्रसिद्ध श्रीमद्भागवत (१।३।८) में केवल कर्म की मोङ्क्षसाधनता वर्णित है। मत्स्यपुराण (५२५, २५७।१) में ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग का महत्त्व हजार गुना अधिक बताया है। कर्मयोग की महत्ता भागवत में अन्यत्र (११।३।४१) भी बताई गई है। वहाँ (११।२७७) यह भी बताया गया है कि भगवान् की आराधना ही क्रियायोग है। यहाँ ‘क्रियायोग’ शब्द प्रवृत्ति मार्ग के लिये प्रयुक्त हुआ है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि पांचरात्र-धर्म प्रवृत्ति-लक्षण और पाशुपत-धर्म निवृत्ति-लक्षण है। पुराणों में हमें इन दोनों का यथास्थान समन्वय मिलता है। कूर्मपुराण (१।३।१४-२७) में भी इस विषय को समझाया गया है और कहा गया है कि कर्म सहित ज्ञान से ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है। कर्म की सहायता से ही ज्ञान में निर्मलता आ सकती है और इसके प्रसाद से व्यक्ति को नैष्कर्म्य की प्राप्ति हो सकती है। _श्रीमद्भागवत का “नैष्कर्म्य कर्मणां यतः” (१३) यह वाक्य तो केवल कर्म की मोक्ष-साधनता को बताता है। कुछ टीकाकारों ने यहाँ कर्मयोग को संसार (बन्धन) का ही हेतु माना है, किन्तु श्रीधर जैसे विज्ञ टीकाकारों ने यहाँ कर्म की मोक्ष-साधनता का ही प्रतिपादन किया है। भगवान् पतंजलि भी क्रियायोग के तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान नामक अंगों का निरूपण कर चित्त की एकाग्रता में और मानसिक एवं शारीरिक क्लेशों को दूर करने में इनका विनियोग मानते हैं। में ५१६ तन्त्रागम-खण्ड गि मनुस्मृति (१२१८८-९०) में प्रवृत्त और निवृत्त दोनों ही को वैदिक कर्म माना गया है। आभ्युदयिक ऐहिक सुख को देने वाले काम्य कर्मों को प्रवृत्त और ज्ञानपूर्वक किये गये निष्काम कर्म को निवृत्त कहा है। प्रवृत्त कर्म से स्वर्ग की और निवृत्त कर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है। कर्मयोग के अन्तर्गत यहाँ (१२।८३) वेदाभ्यास, तप, ज्ञान, इन्द्रियसंयम, अहिंसा और गुरुसेवा की गणना की गई है। इन द्विविध कर्मों की हम “यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’ (१।१।२) धर्म के इस वैशेषिक सूत्र वर्णित स्वरूप से तुलना कर सकते हैं। इस प्रकार पुराणों में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों के समन्वय के रूप में ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद का निरूपण किया गया है। कर्म और ज्ञान हंस के दो पंखों के समान हैं। हंस एक पँख से उड़ नहीं सकता, उसी प्रकार कर्म अथवा ज्ञान में से किसी एक से मुक्ति नहीं मिल सकती। दोनों का समुच्चय अपेक्षित है। शाम की म. म. पण्डित गोपीनाथ कविराज ने ब्रह्मसूत्र के हिन्दी अनुवाद की भूमिका (पृ. ४२-४४) में बताया है कि वेदान्त के प्राचीन आचार्य ब्रह्मदत्त और भर्तप्रपंच ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी थे। मण्डनमिश्र ने भी इन्हीं का अनुसरण किया है। ‘सिद्धान्तशिखामणिसमीक्षा ग्रन्थ के लेखक डॉ. चन्द्रशेखर महा स्वामी शिवाचार्य ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि भट्ट कुमारिल और प्रभाकर भी ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी थे (पृ. २७४-२८०)। वैशेषिक दर्शन के प्रशस्तपादभाष्य के टीकाकार श्रीधर भट्ट “किं ज्ञानमात्रान्मुक्तिः, उत ज्ञानकर्मसमुच्चयात्? ज्ञानकर्मसमुच्चयादिति वदामः’ (पृ. ६८३) इतना कहकर विस्तार से अनेक शास्त्रीय प्रमाणों से ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद को स्थापित करते हैं। ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता के भाष्यकार आचार्य भास्कर तो ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद की स्थापना के लिये प्रसिद्ध ही हैं। आचार्य शंकर अन्तःकरण की शुद्धि के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति में कर्मों का विनियोग मानते हैं। उनका मत है कि मुक्ति तो ज्ञान से ही मिलती है। आचार्य भास्कर ने भगवद्गीता के तृतीय अध्याय के प्रारम्भ में तथा ब्रह्मसूत्र के तृतीय अध्याय के चतुर्थ पाद में उक्त मत का खण्डन कर मुक्ति के उपाय के रूप में कर्मों का भी ज्ञान के ही समान साक्षात् उपयोग माना है। केवल कूर्मपुराण ही नहीं, प्रायः सभी पुराण इस समुच्चयवाद को ही मान्यता देते हैं। केवल कर्मों को भी मुक्ति का साधन मानने में इनको कोई हिचक नहीं है। लोककल्याण पुराणों का मुख्य लक्ष्य है। कर्म और ज्ञान के समुच्चय में ही लोककल्याण निहित है। अन्यथा । अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम। दास मलूका कहि गये सबके दाता राम ।। काममा जैसे समाज को पंगु बना देने वाले सिद्धान्तों का प्रचलन बढ़ जाय, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पुराणों ने पुरुषार्थ और भाग्य को तराजू के दो पलड़ों के समान बराबर-बराबर रखा है। १. शैवभारतीभवनम्, जंगमवाड़ी मठ, वाराणसी से सन् १९८६ में प्रकाशित। समाजवाज का है कि कि ५१७ पुराणगत योग एवं तन्त्र
भक्ति और प्रपत्ति
आगमों और पुराणों ने भक्ति पर अधिक बल दिया है। यों भक्ति-सिद्धान्त के संकेत ऋग्वेदीय सूक्तों एवं मन्त्रों में भी मिल जाते हैं, जिनमें कुछ ईश्वर-भक्ति से परिपूर्ण से लगते हैं, विशेषतः वरुण और इन्द्र की स्तुति वाले सूक्त। “भक्ति कल्ट इन एंश्येन्ट इण्डिया” नामक ग्रन्थ में इन स्थानों का विशेष विवरण देखा जा सकता है। यद्यपि प्रमुख उपनिषदों में भक्ति शब्द नहीं आया है, किन्तु कठ एवं मुण्डक उपनिषदों में भक्ति सम्प्रदाय का यह सिद्धान्त पाया जाता है कि यह केवल भगवान् की ही महिमा है, जो भक्त को बचाती है। वहाँ बताया गया है कि यह परम आत्मा गुरु के प्रवचन से नहीं प्राप्त होती और न मेधा (बुद्धि) से और न बहुश्रुतता से ही। परमात्मा की प्राप्ति तो उसी को होती है, जिसपर उसका अनुग्रह होता है। उसी के सामने यह परम आत्मा अपना स्वरूप प्रकट करती है । यह कथन इस सिद्धान्त का द्योतक है कि परमात्मा का अनुग्रह ही भक्तों को मुक्ति प्रदान करता है। अधि श्वेताश्वतर उपनिषद् ने भक्ति शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया है, जो भगवद्गीता तथा अन्य भक्तिविषयक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। वहाँ कहा गया है कि जो परमात्मा में परम भक्ति रखता है और भगवान् की जैसी ही भक्ति गुरु में भी रखता है, उस उच्च कोटि के व्यक्ति के मन में सारे दार्शनिक रहस्य अपने आप प्रकाशित हो जाते हैं । hi इसी उपनिषद ने भक्ति सम्प्रदाय के इस दृष्टिकोण (सिद्धान्त) पर बल दिया है कि मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को परमात्मा की शरण में जाना चाहिये। यहाँ ‘प्रपद्ये’ शब्द का प्रयोग किया गया है। रामानुज जैसे वैष्णव सम्प्रदायों में वर्णित प्रपत्ति-सिद्धान्त का यह मुख्य आधार है। छान्दोग्य उपनिषद् (७।२६।२१) में वर्णित ‘ध्रुवा स्मृति” को ही रामानुज वेदान्त में भक्ति का नाम दिया गया है। शाण्डिल्य के भक्तिसूत्र में ईश्वर में परम अनुरक्ति को भक्ति कहा गया है- “सा परानुरक्तिरीश्वरे" (91१२)। ईश्वर में परम अनुरक्ति रहने पर ही उसके प्रति हमारी स्मृति ध्रुव (स्थिर) हो सकती है। इस तरह से हम कह सकते हैं कि भक्तियोग के मूल सिद्धान्तों की स्थापना उपनिषदों में हो चुकी थी। गोमा उपनिषदों के बाद भक्ति-सम्प्रदाय के आरंभिक उल्लेख शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान एवं भगवदगीता में पाये जाते हैं। ये दोनों ही महाभारत के अंगभूत हैं। भगवद्गीता में चतुर्दूहवाद का उल्लेख न होने से उसको नारायणीय उपाख्यान की अपेक्षा प्राचीन माना जाता है। नारायणीय उपाख्यान (शान्तिपर्व ३४६।६२) और विष्णुधर्मोत्तर १. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ।। (कठो. १।२।२३, मुण्डक. ३।२।३) । २. यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्ते महात्मनः ।। (श्वे. उ. ६।२३) ३. तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वं शरणमहं प्रपद्ये। (श्वे. उ. ६१८) ५१८ ZINE म तन्त्रागम-खण्ड पुराण (१७४।३४) में सांख्य, योग, पांचरात्र, वेद और पाशुपत नामक पांच सिद्धान्तों का उल्लेख है। कृतान्तपंचक के नाम से ये प्रसिद्ध हैं। भगवद्गीता को पांचरात्र सिद्धान्त से प्रभावित माना जाता है। यहाँ सांख्य, योग, वेद और पांचरात्र सिद्धान्तों का तो संग्रह किया गया है, किन्तु कहीं भी पाशुपत मत का उल्लेख नहीं है। नारायणीय उपाख्यान में पाशुपत मत का उल्लेख हुआ है। महाभारत के अनुशासनपर्व में इसकी विशेष महिमा प्रतिपादित पांचरात्र और पाशुपत, ये दोनों मत भक्ति-प्रधान हैं। एक में विष्णु की और दूसरे में शिव की भक्ति का सविशेष प्रतिपादन हुआ है। भक्ति-सिद्धान्त का विकास वैष्णव मत में ही हुआ, ऐसा मानना उचित नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् विशेषण विष्णु के लिये ही नहीं, शिव के लिये भी प्रयुक्त होता था। श्वेताश्वतर उपनिषद् (३।११) ने शिव को भगवान् कहा है। पतंजलि ने अपने भाष्य (५।२७६) में शिव-भागवतों का उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि उस समय शिव के आयुध त्रिशूल को लेकर चलने वाले शिव के भक्त विद्यमान थे। शैव आगमों में भक्ति की पराकाष्ठा को ही मोक्ष कहा गया है। शैव और वैष्णव आगमों में क्रमशः पाशुपत और पांचरात्र मत का ही विस्तार हुआ है और पुराणों में उक्त पांचों सिद्धान्तों का समन्वित रूप हमें दृष्टिगोचर होता है। यहाँ शिव और विष्णु की भक्ति का एक साथ अथवा अलग-अलग रूप हमें देखने को मिलता है। हा वैष्णव और शैव आगमों में ईश्वर-भक्ति में शक्तिपात को भगवदनग्रह का कारण माना गया है। ईश्वर के तिरोधान व्यापार को समेटने के लिये उसी के अनुग्रह की अपेक्षा रहती है, जैसा कि इस प्रकरण के प्रारम्भ में उद्धृत कठ और मुण्डक उपनिषदों के वचनों में कहा गया है। भागवत आदि पुराणों में इसी अर्थ में ‘पोषण’ शब्द प्रयुक्त है। वहाँ कहा गया है – “पोषणं तदनुग्रहः"। आचार्य वल्लभ के पुष्टिमार्ग का यही प्रधान आधार है। भक्ति साहित्य का परिचय देते समय काणे महोदय ने विष्णुभक्ति के प्रतिपादक ग्रन्थों का ही उल्लेख किया है (भा. ४, पृ. ४५६-४६०), किन्तु हमें स्मरण रखना है कि दक्षिण में वैष्णव भक्त आलवारों के ही समान शैव सन्तों की भी लम्बी परम्परा रही है। पुष्पदन्त का महिम्नस्तव, अवधूत सिद्ध का भक्तिस्तोत्र, भट्ट नारायण की स्तवचिन्तामणि, भट्ट उत्पल की शिवस्तोत्रावली, जगद्धर की स्तुतिकुसुमांजलि जैसे सैकड़ों ग्रन्थ शिव की भक्ति में समर्पित हैं। हम कह सकते हैं कि आगम और तन्त्र साहित्य में शिव और विष्णु की भक्ति का साथ-साथ विकास हुआ और पौराणिक साहित्य में इनका हमें समन्वित रूप देखने को मिलता है। यह अलग बात है कि अन्योन्याभिभव-न्याय से किसी पुराण में विष्णु-भक्ति का तो अन्यत्र शिव की भक्ति का सविशेष वर्णन हो। कूर्मपुराण में अनेक स्थलों पर भक्ति का समन्वित स्वरूप ही उजागर हुआ है। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि शैव पुराणों में शिव की भक्ति को वरीयता मिली है। १. “भक्तिरेव परां काष्ठां प्राप्ता मोक्षोऽभिधीयते” (त. वि. १३१२१६) पुराणगत योग एवं तन्त्र गरुड़ पुराण (२१६।१) में बताया गया है कि भगवान् हरि को संतुष्ट करने के लिये भक्ति से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। आगे गरुडपुराण (२१६६-१०) का कहना है कि विष्णु-भक्ति का अनुसरण कर म्लेच्छ और चाण्डाल भी ब्राह्मण से बढ़कर पूजनीय हो जाते हैं। इसके उदाहरण स्वरूप हम कबीर, रविदास, रसखान आदि भक्त कवियों के नाम ले सकते हैं। संसार’ रूपी विषसदृश वृक्ष में दो अमृत फल लगे हैं। एक है केशव के प्रति भक्ति और दूसरा है भक्तों का सत्संग। गरुडपुराण (२२२।४६) का कहना है कि भक्त भले ही शूद्र, निषाद अथवा चाण्डाल हो, उसको द्विजों के समान ही सम्मान प्राप्त होता है।
- भक्ति का निरूपण करते हुए देवीभागवत (७३७।१-४५) में कूर्मपुराण की पद्धति से देवी पार्वती हिमवान् को मोक्ष प्राप्ति के लिये कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग नामक तीन मार्गों का उपदेश करती हैं। गुणभेद से भक्ति के तीन भेद- तामसी, राजसी और सात्त्विकी हैं। भक्ति की पराकाष्ठा ही ज्ञान है। इसी को वैराग्य की सीमा कहा है, क्योंकि ज्ञान में भक्ति और वैराग्य दोनों निहित हैं। देवीभावगत के इस प्रकारण की कूर्मपुराण से इतनी ही विशेषता है कि कूर्मपुराण में उक्त तीनों मार्गों का समान महत्त्व बताया गया है, जबकि देवीभावगत ज्ञान की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करती है। ज्ञान की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को विशेष प्रयत्न करना चाहिये। के नारदपुराण (१।४।३२) में भक्ति, कर्म और ज्ञान के क्रम को इस तरह से निश्चित किया गया है कि भक्तिपूर्वक किये गये कर्म सफल होते हैं, अर्थात् विधिपूर्वक संपादित कर्मों से भगवान् संतुष्ट होते हैं, जिससे ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान ही मोक्ष का साधन है। इस प्रकार यहाँ भी देवीभागवत की पद्धति से ज्ञान को श्रेष्ठ माना गया है। आगे नारदपुराण (२।३।२) का कहना है कि धन आदि से भगवान् को वश में नहीं किया जा सकता, वे तो भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। भक्ति-भाव से पूजित विष्णु मनुष्य के सारे मनोरथों को पूरा करते हैं। भगवद्गीता (६३२) में बताया गया है कि भक्ति-मार्ग का अनुसरण कर स्त्री, वैश्य और शूद्र भी परम गति को पाते हैं। विष्णुपुराण (१।२०।२७) में बताया गया है कि समस्त जगत् के मूल कारण भगवान् विष्णु में जिसकी भक्ति निश्चल हो गई है, उसकी मुट्ठी में मुक्ति भी रहती है, अर्थ, काम और धर्म से तो उसे लेना ही क्या है। श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कन्ध के २६वें अध्याय में भी तामसी, राजसी और सात्त्विकी भक्ति का निरूपण मिलता है। श्रीमद्भागवत (३।२६।११-१२) में बताया गया है कि अन्तरात्मा में निवास करने वाले उस परमात्मा के गुणों का मात्र श्रवण कर जिसकी चित्तवृत्ति निरन्तर भगवान् में ही लगी रहती है, उस स्थिति को निर्गुण भक्ति कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि जैसे गंगा का जल निरन्तर समुद्र की तरफ ही बहता रहता है, समुद्र से मिलने को आकुल रहता है, उसी तरह जिस भक्त की चित्तवृत्ति निरन्तर १. संसारविषवृक्षस्य द्वे फले ह्यमृतोपमे। 5 कदाचित केशवे भक्तिस्तद्वक्तैर्वा समागमः।। (गरुडपराण, ११२१६३३) २५२० म तन्त्रागम-खण्ड भगवत्प्रवण रहती है, उनसे मिलने को आकुल रहती है, यह आकुलता ही, भगवन्मिलन की उत्कंठा ही वस्तुतः भक्ति है। वाणी इस प्रकार कर्मयोग और भक्तियोग में से किसी एक मार्ग से भी भगवान् को प्राप्त किया जा सकता है। भागवतपुराण (७।५।२३) में नवधा भक्ति का भी वर्णन मिलता है। जैसे- १. श्रवण, २. कीर्तन, ३. स्मरण, ४. पादसेवन, ५. अर्चन, ६. वन्दन, ७. दास्य, ८. सख्य तथा ६. आत्मनिवेदन। भक्ति-शास्त्र के ग्रन्थों में इनका अत्यन्त विस्तार मिलता काश भक्ति के ही प्रसंग में अनेक शास्त्रों में प्रपत्ति और प्रपन्न शब्द प्रयुक्त हुए हैं। प्रपत्ति शब्द का अर्थ है शरणागति और प्रपन्न शब्द का अर्थ है भगवान् को अत्यन्त समर्थ और परमश्रेष्ठ समझकर उनके प्रति अपने को समर्पित कर देना। इसी को वैष्णव आगमों में आत्मनिक्षेप या आत्मसमर्पण कहा गया है। भक्ति का अन्तिम लक्ष्य प्रपत्ति या शरणागति ही है। भक्त अपनी भक्ति के द्वारा अपने इष्टदेव की शरण ग्रहण कर सर्वतोभाव से आत्मसमर्पण करता है। इस प्रकार की शरणागति का निर्देश भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के सांख्ययोग प्रकरण में है। जिसका कार्पण्य, दैन्यदोष से ग्रस्त स्वभाव नष्ट हो गया है, वह अर्जुन भगवान् कृष्ण की शरणागति को स्वीकार करता है- “शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" (२७)। श्वेताश्वतर उपनिषद् (६।१८) में भी इसी प्रपत्ति का उपदेश मिलता है। कूर्मपुराण (२।११।१३३-१३४) में भी इस प्रपत्ति, शरणागति का निर्देश है। यहाँ व्यास जी ने ऋषियों को भगवान् ईश्वर की शरण में जाने को कहा है (प्रपद्यध्वम्)। ट्र रामानुजीय एवं अन्य वैष्णव शाखाओं के ग्रन्थों में प्रपत्ति (आत्मसमर्पण) को भक्ति से भिन्न माना है। यतीन्द्रमतदीपिका (पृ. ६४) के अनुसार इसके पांच अंग हैं - १. अनुकूलता का संकल्प, २. प्रतिकूलता का त्याग, ३. यह विश्वास कि परमात्मा भक्त की रक्षा करेगा, ४. अपनी रक्षा के लिये भगवान् के प्रति समर्पण-भावना और ५. आत्मनिक्षेप कर देने पर असहायता के भाव का प्रदर्शन। गीता (२७) में अर्जुन ने अपने को ‘प्रपन्न’ (जो मोक्ष के लिये आ पहँचा हो, या जिसने मोक्ष के लिये आत्मसमर्पण कर दिया हो) कहा है। गीता एवं अन्य ग्रन्थों में भक्ति का जो स्वरूप प्रतिपादित है, वह यही है कि भक्ति से भगवान् का प्रसाद (अनुग्रह या कृपा) प्राप्त होता है, जिससे भक्त मोक्ष प्राप्त करता है। यतीन्द्रमतदीपिका (पृ. ६५) में भक्तिपूर्वक प्रपत्ति को मोक्ष का साधन माना है। विशा यतीन्द्रमतदीपिकाकार द्वारा उद्धृत प्रपत्ति के पाँच अंग बताने वाला श्लोक लक्ष्मीतन्त्र में भिन्न रूप से मिलता है। वहाँ तीसरी पंक्ति का पाठ इस प्रकार है- “आत्मनिक्षेपकारुण्ये षड्विधा शरणागतिः” (१७।६१)। यहाँ आत्मनिक्षेप और कारुण्य को अलग-अलग मानकर शरणागति (प्रपत्ति) के छः अंग माने हैं। यतीन्द्रमतदीपिका (पृ. ६१-६५) में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के लक्षण और भेदों का वर्णन करने के बाद केवल भक्ति और प्रपत्ति को ही मोक्ष का उपादान माना है। पुराणगत योग एवं तन्त्र ५२१ कर्मयोग, भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग की चर्चा करते हुए डॉ. पी. वी. काणे भक्तिमार्ग और ज्ञानमार्ग के विषय में कहते हैं कि ये दोनों मार्ग हमें एक ही लक्ष्य, अर्थात् मोक्ष की ओर ले जाते हैं, किन्तु दोनों की पहुँच के ढंग भिन्न हैं। ज्ञानमार्ग (या अव्यक्तोपासना) में निर्गुण ब्रह्म के केवल पुस्तकीय ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, इसके लिये ब्राह्मी स्थिति परमावश्यक है। ज्ञानमार्ग में व्यक्ति जो कुछ करता है, वह ब्रह्मार्पित होता है (भगवद्गीता ४।१८-२४)। इसके विपरीत भक्तिमार्ग में भक्त ईश्वर के प्रसाद के लिये आत्मसमर्पण कर देता है, वह जो कुछ करता है, उसे अपने आराध्यदेव को समर्पित कर देता है। इस प्रकार भगवद्गीता के नवें अध्याय में भक्तिमार्ग को ज्ञानमार्ग की अपेक्षा सरल बताया है। ।
ईश्वरगीता एवं पुराणों में शक्ति तत्त्व
कूर्मपुराण की ईश्वरगीता का धार्मिक तथा दार्शनिक दृष्टि से वही महत्त्व है, जो महाभारत की भगवद्गीता का। ईश्वरगीता की इस विशिष्टता को देखते हुए गीता-साहित्य में भगवद्गीता के साथ इसको महत्त्व का स्थान दिया जाय, तो यह उचित ही होगा। भारतीय वाङ्मय में वेद, सांख्य, योग, पांचरात्र और पाशुपत मत कृतान्तपंचक के नाम से प्रसिद्ध हैं। भगवद्गीता पर पांचरात्र मत का, तो ईश्वरगीता पर पाशुपत मत का विशेष रूप से प्रभाव परिलक्षित होता है। कूर्मपुराण उपरि विभाग के पहले ११ अध्याय ईश्वरगीता के नाम से प्रसिद्ध हैं। ईश्वर (भगवान् शिव) के द्वारा उपदिष्ट होने से इसको ईश्वरगीता कहा गया है। PE_भोजदेवकृत शैवसिद्धान्त के ग्रन्थ तत्त्वप्रकाश की कुमारकृत तात्पर्यदीपिका टीका में ईश्वरगीता के कुछ श्लोक उद्धृत हैं । इसको ईश्वरगीता का प्राचीनतम उल्लेख माना जा सकता है। ये कुमार रुद्रमहालय के संस्थापक गुजरात के राजा मूलराज के गुरु कुमारदेव से अभिन्न प्रतीत होते हैं। अघोर शिवाचार्य इस टीका पर वेदान्त का प्रभाव मानते हैं। वस्तुतः यह टीका शैव दृष्टिकोण की अपेक्षा स्मार्त दृष्टि के अनुसार शैव तत्त्वों की व्याख्या करती है। ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार श्रीकण्ठ द्वारा अपने भाष्य में इसी दृष्टिकोण को अपनाया गया है। इसीलिये तात्पर्यदीपिका प्रमाण के रूप में विष्णुपुराण का उद्धरण देने में कोई संकोच नहीं करती। ईश्वरगीता (२।१।४०) का भी उपदेश ईश्वर (शिव) भगवान् विष्णु की साक्षी में ही करते हैं। ईश्वरगीता में यही (स्मार्त) दृष्टिकोण उभर कर सामने आया है। ही शैव और शाक्त दर्शन में चिच्छक्ति अथवा चिति को ही परम तत्त्व माना गया है। यहाँ भी देवी इस नाम से सम्बोधित है। इसी तरह से शान्त्यतीता, शान्ति, विद्या, प्रतिष्ठा और निवृत्ति नामक पाँच कलाओं की चर्चा शैव-शाक्त दर्शन की षडध्वप्रक्रिया में आती है। मा १. द्रष्टव्य—अष्टप्रकरण, संस्कृत विश्वविद्यालय संस्करण, पृ. ४-६, ४३, ५८, ७२ २. अद्वैतवासनाविष्टैः सिद्धान्तज्ञानवर्जितैः। व्याख्यातोऽत्रान्यथाऽन्यै….. (वहीं, पृ. ६) ३. द्रष्टव्य—वहीं, पृ. ७२, १०३ ५२२ तन्त्रागम-खण्ड वहाँ बताया गया है कि कलाध्वा ही अन्य पाँच अवाओं का आधार है। यहाँ इन नामों के अतिरिक्त षडध्वपरिवर्तिका जैसे नामों से भी देवी संबोधित है। कूर्मपुराण के काशिराज न्यास के पाठान्तर वाले संस्करण (पृ. ८४२) में श्रीप्रश्नसंहिता के आधार पर इस शब्द की व्याख्या देने का प्रयत्न अधिक सार्थक नहीं है। रत्नत्रय (श्लोक ८४-८८) में उक्त पाँच कलाओं को बिन्दु, अर्थात् महामाया कुण्डलिनी का विस्तार बताया गया है। नाद की भी उत्पत्ति बिन्दु से ही होती है। वहीं महामाया कुण्डलिनी को शब्दयोनि भी कहा गया है। शब्दयोनि, नादविग्रहा, अनाहता, कुण्डलिनी, बिन्दुनादसमुत्पत्ति आदि नाम इसी ओर इंगित करते हैं। आगमों में मल, माया और कर्म नामक तीन पाशों की चर्चा आती है। कश्मीर के प्रत्यभिज्ञा दर्शन में इन तीनों को मल नाम से ही जाना जाता है। यहाँ आये मलवर्जिता, मलत्रयविनाशिनी, मलातीता जैसे नाम इसी ओर इंगित करते हैं। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में “सकृद्विभातोऽयमात्मा” यह श्रुति बहुधा उद्धृत है। देवी का ‘सकृद्विभाविता’ नाम उस आत्मतत्त्व की ओर ही संकेत करता है। कपिल उमति मुद्रा, पंचब्रह्मसमुत्पत्ति और शवासना शब्द भी शैव-शाक्त तन्त्रों की प्रक्रिया को ही बताते हैं। अनेक प्रकार की मुद्राओं का न केवल शैव-शाक्त तन्त्र, अपितु वैष्णव, बौद्ध और जैन तन्त्रों में भी वर्णन मिलता है। पाशपत मत के ईशान, तत्पुरुष, अघोर आदि पांच मन्त्रों को पंचब्रह्म नाम दिया गया है। इन पांच मन्त्रों की लकलीश-विरचित पंचाध्यायी. (पांच अध्याय वाले) पाशुपतसूत्रों में क्रमशः व्याख्या की गई है। देवी को यहाँ पंचब्रह्मसमुत्पत्ति, अर्थात् इन पांच मन्त्रों की जननी कहा है। शैवागमों में शिव को ‘पंचमन्त्रतनु’ कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्ण, रुद्र और ईश्वर रूपी चार पायों से बने मंच पर देवी सदाशिव रूपी शव पर आसन बनाकर बैठती है। अतः इसे शवासना कहा गया है। देवी को यहाँ विन्ध यपर्वतवासिनी कहा गया है। यह देवी भेदाभेदविवर्जिता है, अर्थात् भेद और अभेद दोनों से रहित है। इस शब्द से हम द्वैताद्वैतवाद का ग्रहण कर सकते हैं। भास्कर आदि आचार्यों के मत से कर्म और ज्ञान के समुच्चय से ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान होता है और उनका दर्शन भेदाभेदवादी है, अर्थात उनके मत से जीव और ब्रह्म का न तो पूरी तरह से भेद है और न अभेद ही। इस तरह से वह भेदाभेदविवर्जित है। देवी को यहाँ हृल्लेखा और कामेश्वरेश्वरी भी कहा है। हृल्लेखा से ही देवी का बीज-मन्त्र बनता है। त्रिपुरा सम्प्रदाय में शिव को कामेश्वर तथा शक्ति को कामेश्वरी कहा जाता है। कामेश्वरेश्वरी शब्द कश्मीर के क्रम नामक शाक्त सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करता है। वहाँ कामेश्वरी कामेश्वर की स्वामिनी मानी जाती है। डॉ. हाजरा का कहना है कि कूर्मपुराण के दो अध्यायों को छोड़ कर अन्य स्थानों से वैष्णव चिह्न हटा दिये गये, किन्तु यहाँ देवी को महालक्ष्मीसमुद्रवा, गरुड़ासना, चाणूरहन्तृतनया, वासुदेवसमुद्भवा और महापुरुषपूर्वजा जैसे शब्दों से संबोधित किया गया है। महापुरुषपूर्वजा शब्द मूल रूप से पांचरात्र सम्प्रदाय का है। इस सम्प्रदाय का “जितन्ते है है पुराणगत योग एवं तन्त्र ५२३ स्तोत्र” अति प्राचीन है। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान (शान्ति. ३३६।४४) में यह शब्द मिलता है। सात्वतसंहिता जैसी प्राचीन पांचरात्र संहिताओं (७।२८) में भी यह प्रयुक्त है। इस शब्द से यहाँ देवी को भी संबोधित किया गया है। इतना ही नहीं, धर्मोदया शब्द तो हमें बौद्ध तन्त्रों की भी झलक दिखाता है। विविध अर्थों में यह शब्द वहाँ प्रयुक्त है। हम त्रिपुरा सम्प्रदाय में वर्णित कामकला से इसे अभिन्न मान सकते हैं। तारिणी शब्द बौद्ध और शाक्त दोनों ही तन्त्रों में तारा का प्रतिनिधित्व करता है। मनोन्मनी और भ्रूमध्यनिलया जैसे शब्द योग-सम्प्रदाय का संदेश हमें सुनाते हैं। उन्मनी योगाभ्यास द्वारा प्राप्त होने वाली मन की एक विशिष्ट दशा है। संस्कृत के ही नहीं, विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं के योग-सम्बन्धी ग्रन्थों में भी इसका पर्याप्त वर्णन मिलता है। म पुराण किसी एक सम्प्रदाय से प्रभावित न होकर सभी सम्प्रदायों का यथायोग्य अनुसरण करते हैं। ब्रह्मेशविष्णुजननी, वासुदेवसमुद्भवा, महालक्ष्मीसमुद्भवा, त्रिमूर्ति, लक्ष्म्यादिशक्तिजननी जैसे नाम इसी की सूचना देते हैं। यहाँ देवी को त्रिमूर्ति भी कहा गया है और इनकी जननी भी। वासुदेव और लक्ष्मी से इसकी उत्पत्ति होती है और यह महालक्ष्मी की माता भी हैं। इन सब शब्दों की संगति त्रिगुणन्याय से “अन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुन” पद्धति से ही बैठ सकती है। देवीभागवत के १२वें स्कन्ध के आठवें अध्याय में परा शक्ति का स्वरूप बताया गया है। अध्याय के आरम्भ में वैष्णव, गाणपत्य, कापालिक, चीन-मार्गरत, दिगम्बर, बौद्ध, चार्वाक जैसे वेदविरोधी मतों का उल्लेख है। वेद-बाह्य पद्धति से भगवती तारा के उपासक चीन-मार्गरत कहे जाते हैं। शक्तिसंगमतन्त्र के प्रथम (४।१८६) और द्वितीय (१८१८, ३८।२) खण्ड में इनका उल्लेख मिलता है। यहाँ केनोपनिषद् की पद्धति से यक्ष से पराजित इन्द्र के सामने भगवती प्रकट होती है और माया-बीज़ का जप करने का परामर्श देती है। यहाँ देवी अपने दो स्वरूपों का वर्णन करती है। एक रूप सच्चिदानन्दात्मक और दूसरा माया(प्रकृति)मय है। माया को ही यहाँ शक्ति कहा गया है और स्वयं देवी शक्तिमती। शक्ति और शक्तिमती में यहाँ चन्द्र और चन्द्रिका के समान अभेद माना गया है। माया शक्ति जब बहिर्मुख होती है, तो वह अव्यक्त, तम आदि शब्दों से अभिहित होती है। गुणत्रयात्मिका यह प्रकृति ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर का रूप धारण करती है। इस प्रकार यहाँ भगवती परम तत्त्व के रूप में वर्णित है। अध्याय के अन्त में बताया गया है कि विष्णु अथवा शिव की उपासना नित्य करनी चाहिये, ऐसा वेदों में कहीं नहीं मिलता। इसके विपरीत गायत्री की उपासना यहाँ नित्य-कर्म के रूप में वर्णित है। अतः व्यक्ति को सर्वतोभावेन शक्ति की ही उपासना करनी चाहिये। कतार के
पति, पशु और पाश
ईश्वरगीता के सातवें अध्याय के प्रारम्भ के १७ श्लोकों में ईश्वर की विभूतियों का वर्णन करने के बाद भगवान् शिव शैवागम-संमत पति, पशु और पाश नामक तत्त्वों का
५२४ तन्त्रागम-खण्ड वर्णन करते हुए कहते हैं कि संसार में वर्तमान सभी जीवों को पशु कहा जाता है। ज्ञानी लोग उन जीवरूपी पशुओं के पतिस्वरूप मुझको पशुपति कहते हैं। मैं अपनी लीलावश पशुओं को मायारूपी पाश से बाँधता हूँ। मुझ अव्यय परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी मायारूपी पाश में बंधे हुए लोगों को मुक्त करने वाला नहीं है। प्रकृति, महदादि चौबीस तत्त्व, माया, कर्म, गुण- ये पशुपति के पाश जीवरूपी पशुओं को बाँधने वाले क्लेश हैं। मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी ये आठ प्रकृतियां हैं और इनसे भिन्न संसार के अन्य समस्त पदार्थ विकार हैं। श्रवण, त्वक्, नेत्र, जिह्वा एवं नासिका, गुदा, लिंग, दोनों हाथ, दोनों पैर एवं दसवीं इन्द्रिय वाणी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध- ये तेईस तत्त्व प्राकृत, अर्थात् प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं। माग आदि, मध्य एवं अन्त से रहित जगत् का परम कारण स्वरूप एवं सत्त्वादि गुणों से लक्षित होने वाला अव्यक्त प्रधान चौबीसवाँ तत्त्व है। सत्त्व, रज एवं तम ये तीन गुण कहे गये हैं। इनकी साम्यावस्था को अव्यक्त, प्रकृति कहा जाता है। सत्त्व गुण को ज्ञान, तमोगुण को अज्ञान, एवं रजोगुण को मिश्र, अर्थात् ज्ञान एवं अज्ञान दोनों से युक्त कहा गया है। धर्म और अधर्म नामक दो पाश ही बन्धन के कारण हैं। मुझे अर्पित किये गये कर्म बन्धन के कारण नहीं बनते, उनसे मुक्ति मिलती है। इस सन्दर्भ में यह भी याद रखना है कि मार्कण्डेयपुराण (३६७-८) में भी कर्म को बन्ध और मोक्ष दोनों का कारण बताया है। इसका अभिप्राय यह है कि सामान्यतः पाशात्मक कर्म बन्धन के कारण बनते हैं और ईश्वरार्पित कर्म मोक्ष के। जिन आत्मा का बन्धन करने के कारण क्लेश नामक अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश को अचल पाश कहा जाता है। माया को इन पाशों का कारण कहा गया है। वह अव्यक्त स्वरूपा प्रकृति मुझमें रहती है। वस्तुतः मैं ही मूलप्रकृति, प्रधान एवं पुरुष हूँ। महत्त्व आदि विकार एवं देवाधिदेव सनातन हैं। वे ही बन्धन, बन्धन करने वाले; वे ही पाश एवं वे ही पशु हैं। वे सब को जानते हैं, किन्तु उन्हें जानने वाला कोई नहीं है। वे आदिपुरुष इस प्रकार यहाँ ईश्वरगीता के सातवें अध्याय के शेष १८-३२ श्लोकों में शैवागम-संमत पति, पशु और पाश नामक तीन तत्त्वों का वर्णन किया गया है। इन तत्त्वों का निरूपण अन्य पद्धति से दूसरे अध्याय में भी हो चुका है। यहाँ यह स्मरण रखने की बात है कि सांख्यसंमत पचीस तत्त्व ही यहाँ वर्णित हैं, शैवागमों के छत्तीस तत्त्व नहीं। पाश के अन्तर्गत यहाँ २४ तत्त्वों और माया, कर्म, गुण की गणना है। शैवागम-संमत पाँच, चार या तीन पाशों की नहीं। शैवागम की सभी शाखाएं मल, माया और कर्म नामक तीन पाश मानती हैं। तिरोधान शक्ति को लेकर चार तथा महामाया को भी सम्मिलित करने पर पाशों की संख्या पांच हो जाती है। यहाँ जिन आठ प्रकृतियों को गिनाया है, वे भगवद्गीता (७।४)५२५ पुराणगत योग एवं तन्त्र में भी वर्णित हैं। अचल पाश के रूप में वर्णित पांच क्लेश’ योगसूत्र में भी निर्दिष्ट हैं। २४ तत्त्वों का निरूपण यहाँ सांख्यदर्शन की पद्धति से किया गया है। हाली ।
पुराणगत तन्त्र
पुराणगत योग का निरूपण हम विस्तार से कर चुके हैं। पुराणों में तन्त्रशास्त्रगत सामग्री भी पर्याप्त मात्रा में मिलती है। पुराण और उपपुराण साहित्य के गंभीर अध्येता डॉ. हाजरा इस मत से सहमत नहीं हैं। उनके इस मत का उल्लेख अभी हम पृष्ठ ५०१-५०२ पर कर चुके हैं। हम यहाँ उनके इस मत की असारता को दिखाते हुए यह बताना चाहते हैं कि सभी पुराणों में तन्त्रशास्त्र की पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। यहाँ हम पद्मपुराण और स्कन्दपुराण को उनकी विशालता के कारण छोड़कर अन्य पुराणों में उपलब्ध सामग्री का संकलन करना चाहते हैं, जिससे कि यह स्पष्ट हो सके कि पुराण वेदों के समान ही आगम और तन्त्रशास्त्र के भी उपबृंहक हैं। यहाँ हम क्रमशः अकारादि क्रम से उक्त दो महापुराणों को छोड़कर सभी पुराणों में प्राप्त इस प्रकार की सामग्री का दिग्दर्शक करा रहे हैं। FFE
अग्नि पुराण
अग्निपुराण के विषय में डॉ. आर.सी. हाजरा का कहना है कि यह पांचरात्रों से अत्यन्त प्रभावित है, इस पर शैव तथा शाक्त तन्त्रों का कुछ भी प्रभाव लक्षित नहीं होता। उनका यह कथन इसलिये सही नहीं है कि इसमें पांचरात्र आगम के साथ ही शैव और शाक्त आगमों की भी पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। इसके ३६ से ७० अध्याय तक की सामग्री हयशीर्ष पांचरात्र से ली गई है और ३८वें अध्याय के प्रारम्भ में २५ पांचरात्र संहिताओं के नाम भी दिये गये हैं, जो कि हयशीर्ष पांचरात्र के प्रारम्भिक प्रकरण में मिलते हैं। १० भागवत संहिताओं के नाम वहाँ छोड़ दिये गये हैं। इस प्रकार डॉ. हाजरा के अनुसार ७० अध्याय तक के अंश पर पांचरात्र का प्रभाव अवश्य दिखाई पड़ता है, किन्तु इसके साथ ही यहाँ ७१ से १०६ अध्याय तक की सामग्री लीलावती नामक शिवागम से ली गई है और यह पूरी सामग्री आनुपूर्वी से सोमशम्भु की कर्मकाण्डक्रमावली में मिल जाती है। दीक्षा, अभिषेक, पवित्रारोपण, मुद्राप्रदर्शन जैसे विषयों का यहाँ वर्णन मिलता है। शैवागमों में वर्णित विज्ञानाकल, प्रलयाकल, सकल जैसे जीवों का भी यहाँ वर्णन मिलता है। पूर्ववर्णित कृतान्तपंचक का भी यहाँ उल्लेख है, इतना ही नहीं त्रैलोक्य-विजय, संग्राम-विजय, महामारी आदि विद्याओं का, तान्त्रिक षट्कर्मों का, कुब्जिका का तथा ६४ योगिनियों की पूजा का भी यहाँ विस्तार से वर्णन मिलता है। इस प्रकार यहाँ केवल पांचरात्र (वैष्णव) मत का ही नहीं, शैव और शाक्त मतों के साथ स्कन्द, गणपति और सूर्य की पूजा का भी, उनके मन्त्र-मुद्रा आदि के साथ पूरा विधान मिलता है। इसी पनामा ९ जनामा १. “अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः” (२३)। ज म ला . ५२६ तन्त्रागम-खण्ड व शैवागमों में ४८ संस्कारों का वर्णन मिलता है। गौतम स्मृति में भी इनका उल्लेख है, किन्तु इनका विस्तार से वर्णन द्वैतवादी शैवों के मृगेन्द्रागम में तथा कश्मीरी विद्वान् अभिनवगुप्त के ग्रन्थों में ही मिलता है। अग्निपुराण के ३२वें अध्याय में भी इन ४८ संस्कारों का उल्लेख है, किन्तु उक्त आगम ग्रन्थों के अध्ययन के बिना इनको समझना कठिन है। यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि सौर, शाक्त, वैष्णव और शैव दीक्षा में इनका समान रूप से अनुष्ठान किया जाता है (३३।११)। इस प्रकार हम देखते हैं कि अग्निपुराण में न केवल पांचरात्र (वैष्णव), किन्तु शैव-शाक्त आदि आगमों की भी पर्याप्त सामग्री संकलित है।
कूर्म पुराण
प्रसिद्ध पौराणिक विद्वान् डॉ. आर.सी. हाजरा का कहना है कि कूर्म पुराण का मौलिक रूप पांचरात्र (वैष्णव) मत के अनुकूल था। बाद में पाशुपतों ने इसके स्वरूप में परिवर्तन कर इसे शैव पुराण का रूप दे दिया। इस मत की हमने अपने शोध प्रबन्ध “कूर्म पुराण : धर्म और दर्शन” में सप्रमाण समीक्षा की है। उनका कहना है कि आजकल उपलब्ध कूर्म पुराण के प्रथम दो अध्यायों में आज भी पांचरात्र का प्रभाव सुरक्षित है। इसका भी उत्तर हम वहीं दे चुके हैं कि इन दोनों अध्यायों में भी शैव भावना को ही वरीयता दी गई है। यदि पाशुपतों ने इसमें कोई परिवर्तन किया होता, तो यहाँ वे वचन न मिलते, जिनमें कि पाशुपत मत को वेदविरुद्ध बताया गया है। वस्तुतः देखा जाय तो त्रिदेवों की समान रूप से मान्यता देने का पौराणिक सिद्धान्त कूर्म पुराण में भी सर्वत्र देखने को मिलता है। सांख्यशास्त्र में सत्त्व, रज, तम नामक त्रिगुणों के समान पुराणों में भी इन त्रिदेवों की स्थिति मानी गई है। “अन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तयश्च गुणाः" वाला सिद्धान्त इन त्रिदेवों पर भी पूरी तरह से लागू होता है। कूर्म पुराण पर न केवल पांचरात्रों, अपितु शैव-शाक्त ही नहीं, बौद्ध तन्त्रों का भी कुछ न कुछ प्रभाव उपलब्ध होता है। महाभारत में विष्णुसहस्रनाम के समान कूर्म पुराण में देवीसहस्रनाम स्तोत्र उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ शिव, सूर्य, सरस्वती आदि देव-देवियों से संबद्ध स्तोत्र भी उपलब्ध हैं। इस प्रसंग में आये शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी मतों का कूर्म पुराण के समय में प्रचलन हो गया था और समाज में इनका पर्याप्त आदर था। उदाहरण के रूप में कुछ शब्दों को हम प्रस्तुत कर सकते हैं। जैसे कि कामेश्वरेश्वरी, कालाग्निरुद्र, क्षेमक, चतुर्ग्रह, धर्मोदया, नित्योदित, पंचब्रह्म, पंचार्थ, बिन्दुनादसमुत्पत्ति, बीजसंभवा, भारभूति, भैरव, मलत्रयविनाशिनी, महापुरुषपूर्वजा, महाविभूति, ललिता, वसोर्धारा, शान्त्यतीता, शिखान्त, श्वेतद्वीप, षडध्वपरिवर्तिका, हल्लेखा आदि शब्द विभिन्न तन्त्र-सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं। न यहाँ कामेश्वरेश्वरी और हल्लेखा शब्द शाक्त-तन्त्र की त्रिपुरा शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। कालाग्निरुद्र शैवागमों में वर्णित एक भुवन का नाम है। क्षेमक, पंचब्रह्म और पुराणगत योग एवं तन्त्र ५२७ पंचार्थ शब्द पाशुपत आगम की याद दिलाते हैं। धर्मोदया शब्द बौद्ध तन्त्रों में व्यवहत हुआ है। महापुरुषपूर्वजा, महाविभूति, परमव्योम जैसे शब्द हमें पांचरात्र आगम की याद दिलाते हैं। मलत्रयविनाशिनी, नित्यमुक्त, नित्योदित, मलत्रय, शान्त्यतीत, शिखान्त जैसे शब्द शैव और शाक्त तन्त्रों में प्रसिद्ध हैं। षडध्वपरिवर्तिका शब्द में आया षडध्व पद भी शैव, शाक्त और वैष्णव सभी तन्त्रों में प्रयुक्त हुआ है। उन आगम-सम्प्रदायों से परिचय न होने के कारण ही यहाँ आये पंचब्रह्म, षडध्व जैसे पारिभाषिक शब्दों का सही अर्थ विद्वद्गण नहीं कर पाये हैं। हमने अपने उक्त शोधप्रबन्ध के परिशिष्ट में इस प्रकार के शताधिक पारिभाषिक शब्दों का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है। इससे भी हमारी यह मान्यता पुष्ट होती है कि पुराणों में आगम शास्त्र की विभिन्न शाखाओं को भी वेद के समान ही मान्यता मिली है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन अथवा नवीन काल की परिधि में परिगणित सभी पुराणों पर तन्त्रशास्त्र की सभी शाखाओं का समान रूप से प्रभाव देखा जा सकता है। हम आगे इस विषय को और भी स्पष्ट करेंगे।
गरुड़ पुराण
___ अग्नि पुराण के समान गरुड़ पुराण में भी आयुर्वेद, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, रत्नपरीक्षा, राजनीति आदि अनेक विषय संगृहीत हैं। आयुर्वेद का यहाँ बहुत विस्तार से वर्णन है। साथ ही गारुड़ तन्त्र के मुख्य विषय विषचिकित्सा का भी यहाँ विस्तार से वर्णन है। शिव के पांच मुखों से क्रमशः शैव, गारुड़, भैरव, भूत और वाम तन्त्रों का आविर्भाव माना जाता है। तदनुसार विषचिकित्सा का प्रधान आधार ये गारुड़ तन्त्र ही हैं। अनेक रोगों की चिकित्सा के प्रसंग में यहाँ विविध मन्त्र उपलब्ध हैं। ये मन्त्र भी तन्त्रशास्त्र का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
- “तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्य कर्मणां यतः” (१।१।१६) यह श्लोक गरुड़ पुराण के समान भागवत (१।३।८) में भी मिलता है। यहाँ सात्वत तन्त्र का उल्लेख है। यह सात्वत तन्त्र वैष्णव आगमों की पांचरात्र शाखा का ही दूसरा नाम है। गरुड़ पुराण के पूर्वार्ध के पूरे सातवें अध्याय में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नामक चतुर्दूह के मन्त्रों के अतिरिक्त नवग्रह आदि के मन्त्र भी निदिष्ट हैं।जो कि कार का च। इसी तरह से बारहवें अध्याय में भी तन्त्रों का विस्तार देखा जा सकता है। वैष्णवागम में सुप्रसिद्ध “जितन्ते” स्तोत्र के कुछ श्लोक भी यहाँ देखे जा सकते हैं। १६वें अध्याय से लेकर ३२वें अध्याय तक सूर्य पूजा, सौर सम्प्रदाय और उनके विविध मन्त्रों आदि का तथा त्रिपुरा, कुब्जिका, मनसा आदि देवियों के साथ विष्णु के श्रीधर आदि स्वरूपों का और विविध मन्त्रों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। वासुदेव आदि चतुयूंह के साथ नारायण का समावेश कर पांचरात्र आगम में पांच वीरों की उपासना वर्णित है। यहाँ ३२वें अध्याय में उसी की विस्तार से चर्चा है। अगले अध्यायों में सुदर्शन, हयग्रीव, गायत्री, दुर्गा, माहेश्वरी आदि की पूजापद्धति भी वर्णित है। पवित्रारोपण तन्त्रशास्त्र की एक विशेष विधि है। यहाँ ४२-४३ अध्यायों में इसी का विस्तार है। इसी प्रसंग में शिव, विद्या और आत्मा नामक में ५२८ तन्त्रागम-खण्ड तीन तत्त्वों का भी उल्लेख है। इनका स्वरूप त्रिपुरा तन्त्रों में वर्णित है। १३४वें अध्याय में महाकौशिक मन्त्र का और सप्त मातृकाओं का वर्णन है। यहाँ प्रसंगवश जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥ कि दुर्गा-सप्तशती के इस प्रसिद्ध श्लोक का भी उल्लेख है। पांचरात्रविदों का यहाँ आदर के साथ उल्लेख किया गया है। चिकित्साशास्त्र में मन्त्रों के उपयोग की बात ऊपर की गई है। उनका विशेष विवरण ७२ से १८५ तक के अध्यायों में देखा जा सकता है। व्याधिहर वैष्णव कवच आदि का निरूपण १६४ से १६६ वें अध्यायों में है। गारुड़ शास्त्र की भी ऊपर चर्चा आयी है। इसका स्वरूप १६७वें अध्याय में भी देखा जा सकता है। १६८वें अध्याय में नित्यक्लिन्ना, त्रिपुरा और असिताङ्ग भैरव आदि के मन्त्र उपलब्ध हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि गरुड़ पुराण का पूर्वार्ध पूरी तरह से तान्त्रिक सामग्री से भरा हुआ है। सूर्यमण्डलमध्यवर्ती भगवान् नारायण की स्तुति में प्रयुक्त मा ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः सरसिजासनसन्निविष्टः। मणिकर देरणा केयूरवान् कनककुण्डलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुर्धतशङ्खचक्रः।। नगर इणि (१।२२२।३४) यह मनोहारी श्लोक भी यहाँ उपलब्ध है।
देवीभागवत
देवीभागवत में आगम और तन्त्रशास्त्र की सामग्री विशेष रूप से उपलब्ध होती है। मार्कण्डेय पुराण में वर्णित देवीमाहात्म्य का यहाँ अधिक विस्तार से वर्णन मिलता है। प्रपंचसार, शारदातिलक आदि ग्रन्थों में पंचायतन पूजा का विधान बताया गया है। यहाँ भी पंचदेवोपासना अथवा देवषट्क का पूजा-विधान अनेक स्थलों पर मिलता है। शैव, पाशुपत, सौर, शाक्त और वैष्णव मतों का पंचदेवोपासना में और गणेश, दिनेश (सूर्य), वह्नि, विष्णु, शिव और शिवा (शक्ति) का ६ देवों में समावेश किया जाता है। अग्नि पुराण के समान यहाँ भी ४८ संस्कारों का उल्लेख मिलता है। यहाँ विशेष रूप से यह बताया गया है कि इनमें से ४० संस्कार गृहस्थों के लिये और ८ संस्कार मुक्ति की कामना वालों के लिये विहित है। शैव और शाक्त आगमों में इन आठ संस्कारों का आत्मा के गुणों के रूप में वर्णन है। दस महाविद्याओं में परिगणित भुवनेश्वरी देवी का और उनके निवासस्थान मणिद्वीप का यहाँ विशेष रूप से माहात्म्य वर्णित है। इस प्रसंग में त्रिपुरा-तन्त्रों में वर्णित अनंगकुसुमा आदि परिवार-देवियों का भी उल्लेख मिलता है। देवी भुवनेश्वरी को यहाँ पंचकृत्यविधात्री कहा गया है। सृष्टि, स्थिति, संहार के अतिरिक्त तिरोधान (निग्रह) और पुराणगत योग एवं तन्त्र ५२६ अनुग्रह नामक पांच कृत्यों का निरूपण शैव, शाक्त तन्त्रों के अतिरिक्त शिव पुराण की वायवीयसंहिता में भी मिलता है। सातवें स्कन्द के ३६वें अध्याय में वैदिकी और तान्त्रिकी भेद से द्विविध पूजा का विधान है। यहाँ स्पष्ट बताया गया है कि शाक्त-तन्त्रों में ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव की पंचप्रेत के नाम से उपासना की जाती है। ये पंचप्रेत पंचमहाभूतों के और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीया और तुरीयातीता नामक पांच अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। विविध नाड़ियों, चक्रों के अतिरिक्त स्वयम्भू और बाणलिंग का एवं वाग्भव और कामराज बीज का भी यहाँ वर्णन मिलता है, जो कि स्पष्टतः त्रिपुरा-तन्त्रों का विषय है। यह दुर्गासप्तशती के अनेक श्लोक यहाँ आनुपूर्वी से मिलने हैं। मधुकैटभ के वध की कथा यहाँ अधिक विस्तार से दी गयी है। वैष्णव आगमों में प्रसिद्ध ‘जितन्ता स्तोत्र’ का “जितन्ते पुण्डरीकाक्ष” यह श्लोक महाभारत के ही समान यहाँ भी उपलब्ध है। दसवें स्कन्ध के पाँचवें अध्याय में देवगण भगवान् विष्णु के दशावतारों की स्तुति करते हैं। यहाँ “महापुरुषपूर्वज” से भगवान् विष्णु को सम्बोधित किया गया है। यह जितन्ता श्लोक का ही अंश है। दुर्गासप्तशती में अतिसंक्षेप में वर्णित भ्रामरी देवी का आख्यान यहाँ दसवें स्कन्ध के तेरहवें अध्याय में विस्तार से मिलता है। इसी अध्याय में दस महाविद्याओं की भी प्रसंगवश स्तुति की गई है। हम जानते हैं कि राजस्थान में चित्तौड़गढ़ के पास विद्यमान भ्रामरी देवी के मन्दिर में उपलब्ध ५वीं शताब्दी के शिलालेख के प्रारम्भ में भ्रामरी देवी की स्तुति की गयी है। ११वें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में तन्त्रों के प्रामाण्य के ऊपर विस्तार से विचार किया गया है। इसी स्कन्ध के १५वें अध्याय में वैष्णवागमों का और उनमें वर्णित पूजाविधान का विशेष रूप से वर्णन देखने को मिलता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस पुराण में तन्त्रागम की प्रायः सभी शाखाओं की सामग्री संक्षेप अथवा विस्तार से मिलती है।
नारद पुराण
नारदीय महापुराण के पूर्व खण्ड में ६३ से ६१वें अध्याय तक आगम और तन्त्रशास्त्र के ही विषय विस्तार से वर्णित हैं। यहाँ ६३वें अध्याय में सनत्कुमार नारद को विष्णु की आराधना के लिये भागवत तन्त्र के उपदेश की प्रतिज्ञा करते हैं, किन्तु पति, पशु, पाश नामक जिन तीन पदार्थों का और भोग (योग), मोक्ष, (विद्या) क्रिया और चर्या नामक चार पादों का जो वर्णन यहाँ दिया गया है, वह भागवत तन्त्रों का विषय न होकर सिद्धान्तशैव दर्शन का है। अष्टप्रकरण नामक ग्रन्थ में और उसकी टीका में तथा मृगेन्द्र, मतंग आदि आगमों में इनका वर्णन मिलता है। पांच पाशों का और त्रिविध पशुओं का वर्णन अष्टप्रकरण में संगृहीत तत्त्वप्रकाश में देखा जा सकता है। मल, माया, कर्म आदि पांच पाशों का और विज्ञानाकल, प्रलयाकल तथा सकल नामक त्रिविध पशुओं का वहाँ विस्तार से वर्णन मिलता है। नारद महापुराण के प्रस्तुत संस्करण में अनेक अशुद्धियों के रहने से अष्टप्रकरण की सहायता से ही इनका सही स्वरूप जाना जा सकता है। ५३० तन्त्रागम-खण्ड । सांख्यकारिका में सत्त्व, रज और तम गुणों के क्रमशः वैकारिक, तैजस और भूतादि नाम दिये गये हैं। इसके विपरीत शैवागमों में सात्त्विक को तैजस और राजस को वैकृत माना गया है। नारद पुराण का प्रस्तुत प्रकरण भी इस आगमीय प्रतिपादन को ही मान्यता देता है। इसके लिये यहाँ के ६६, ७१ श्लोक देखे जा सकते हैं। ऊपर उद्धृत अष्टप्रकरण का हमारे पिताश्री पं. व्रजवल्लभ द्विवेदी जी ने संपादन किया है। उन्होंने मुझे बताया है कि “शिवार्कमणिदीधित्या” (१।६३ ११०), तथा “अन्तःकरणवृत्तिर्या" (१६३।११२) जैसे यहाँ के श्लोक सद्योज्योति शिवाचार्य की मोक्षकारिका में उपलब्ध हैं। इसी तरह से ८६वें अध याय के १० से २१ तक के १२ श्लोक नित्याषोडशिकार्णव के प्रारम्भ के १२ श्लोक ‘द्वादशश्लोकी’ के नाम से तन्त्रशास्त्र में प्रसिद्ध हैं। यहाँ का ६०वां अध्याय नित्यापटल के नाम से अभिहित है।मामूलकामा कम्तीमा का जैसा कि ऊपर लिख गया है, ६३वें अध्याय में द्वैतवादी शैव सिद्धान्त के दार्शनिक तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है। इसके आगे के चार अध्यायों में तान्त्रिक दीक्षा और पूजाविधि आदि का वर्णन हे। ६वें अध्याय में गणेश के और ६६वें अध्याय में नाना देवों के मन्त्रों का विधान है। ६०वें अध्याय से भगवान् विष्णु की और उनके नृसिंह, राम आदि नाना अवतारों की तान्त्रिक-पूजाविधि वर्णित है। इसी प्रसंग में हनुमान् आदि के मन्त्रों का भी विधान है। कार्तिकेय की दीपविधि तन्त्रशास्त्र में प्रसिद्ध है। यह विषय भी यहाँ के ७५वें और ७६वें अध्यायों में देखा जा सकता है। ७७वें और ७८वें अध्यायों में कार्तवीर्य और हनुमान् के कवच वर्णित हैं। ७६वें अध्याय में हनुमान् का चरित्र वर्णित है। ८०वें अध्याय में भगवान् कृष्ण की तान्त्रिक उपासना-विधि का वर्णन है और ८१वें अध्याय में कृष्ण सम्बन्धी अनेक मन्त्रों का विधान है। आगे के कुछ अध्यायों में भी श्रीकष्ण और राधा संबन्धी पूजा-विधान वर्णित है। ८४वें अध्याय से शाक्त तन्त्रों की उपासना-विधि के प्रसंग में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, त्रिपुरा, दुर्गा, राधा, षोडश नित्या आदि की पूजाविधि विस्तार से वर्णित है। हम ऊपर बता चुके हैं यहाँ का ६०वां अध्याय नित्यापटल के नाम से अभिहित है। शाक्त उपासना-पद्धति का विवरण समाप्त करने के बाद अगले ६१वें अध्याय में भगवान् महेश्वर (शिव) की पूजाविधि का और उनके विविध मन्त्रों का वर्णन किया गया है। इस अध्याय के २३४वें श्लोक में नारद पुराण के इस तान्त्रिक प्रसंग को समाप्त करते हुए बताया गया है कि इस प्रकार यहाँ राम, कृष्ण, रासेश्वरी राधा के मन्त्रों का और कल्याणकारी शाक्त, सौर, गणेश और शैव मन्त्रों का निरूपण किया गया है। इस प्रकार नारदीय महापुराण के ६३ से ६१वें लक के ये ३६ अध्याय आगम और तन्त्रशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।
ब्रह्म पुराण
ब्रह्म पुराण की गणना प्राचीन पुराणों में की जाती है। हरिवंश और ब्रह्म पुराण के अनेक प्रसंग आनुपूर्वी से मिलते हैं। यहाँ स्पष्टतया तन्त्रशास्त्र का कोई उल्लेख नहीं मिलता, ५३१ पुराणगत योग एवं तन्त्र तो भी भागवत और देवीभागवत में जैसे वैदिक और तान्त्रिक श्रुति का उल्लेख मिलता है, उसी तरह यहाँ वेदोक्त और आगमोक्त मन्त्रों का पृथक्-पृथक् उल्लेख है (४१।६३)। पाशुपत योग का भी यहाँ उल्लेख मिलता है (४१७१)। ब्रह्म पुराण की वैष्णव पुराणों में गणना होती है- “पुराणं वैष्णवं त्वेतत्” (२४५।२०)। इसीलिये यहाँ पांचरात्र आगमों का अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है। यहाँ के ४६वें अध्याय में भगवान् विष्णु के चतुर्दूह की विस्तार से स्तुति की गई है। अन्य भी अनेक अध्यायों में भगवान् के इस चतुर्वृह रूप का वर्णन मिलता है। केवल वेद के साथ ही नहीं, पुराणों के साथ भी अनेक स्थलों पर आगमशास्त्र का उल्लेख मिलता है। सूर्य (आदित्य) की उपासना का यहाँ २८ से ३३ अध्यायों में विस्तार से वर्णन है। पूजा सम्बन्धी विविध मन्त्रों का निरूपण यहाँ ६१वें अध्याय में देखा जा सकता है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण
ब्रह्मवैवर्त पुराण अपेक्षाकृत नवीन माना जाता है। इसकी भी गणना वैष्णव पुराणों में ही होती है। इसीलिये पांचरात्र आगमों का यहाँ अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा और सामवेद से पांचरात्र आगमों का यहाँ विशेष सम्बन्ध बताया गया है। यहाँ एक श्लोक में (४७३७६) पुराणों में भागवत को, इतिहास में भारत को और पांचरात्रों में कपिल को श्रेष्ठ बताया गया है। एक स्थान पर (४।१०।४) पांचरात्र की दस संहिताओं का उल्लेख है और इनके नाम आगे (४।१३१।२३-२६) इस प्रकार बताये गये हैं ताज का पञ्चक पञ्चरात्राणां कृष्णमाहात्म्यपूर्वकम्। पानी का सामाजिक वासिष्ठं नारदीयं च कापिलं गौतमीयकम्।। परं सनत्कुमारीयं पञ्चरात्रं च पञ्चकम्। मिलाई पञ्चकं संहितानां च कृष्णभक्तिसमन्वितम्।। जल ब्रह्मणश्च शिवस्यापि प्रह्लादस्य तथैव च। पाक नभनि गौतमस्य कुमारस्य संहिताः परिकीर्तिताः।। के जीवन का प्रधानतया एक वैष्णव पुराण होते हुए भी यहाँ तन्त्रशास्त्र की अनेक शाखाओं का वर्णन है। मन्त्रों के प्रसंग में वेदोक्त, पुराणोक्त और तन्त्रोक्त मन्त्रों के साथ शैव और शाक्त तन्त्रों के मन्त्रों का भी वर्णन मिलता है। इतना ही नहीं, शैव सिद्धान्त शास्त्र और वाम तन्त्रों के उपासकों का भी यहाँ उल्लेख किया गया है। पंचायतन पूजा और षड्देवोपासना का उल्लेख देवीभागवत के प्रसंग में किया जा चुका है। यहाँ भी (२।३०।२०६) वैष्णव, शैव, शाक्त, सौर और गाणप के रूप में पंचायतन पूजा का और गणेश, दिनेश, वह्नि, विष्णु, शिव और शिवा के रूप में षड्देवोपासना का अनेक स्थलों पर (२।४।३५-३६ इत्यादि) वर्णन मिलता है। इसी तरह से यहाँ ब्रह्माण्डमोहन, विनायक, भास्कर, लक्ष्मी, त्रैलोक्यविजय, ५३२ तन्त्रागम-खण्ड नशा शिव, काली, लक्ष्मी और दुर्गा कवचों का वर्णन द्वितीय प्रकृति खण्ड के अन्तिम अध्याय में और तृतीय गणपति खण्ड के विविध अध्यायों में मिलता है। तन्त्रशास्त्र में अष्टविध भैरव प्रसिद्ध हैं। उनके नाम भी यहाँ (११५७२) कुछ पाठभेद के साथ मिलते हैं। शिवकृत तन्त्रों का भी यहाँ (१।६।६२) उल्लेख मिलता है। तन्त्रशास्त्र वर्णित ६ चक्रों और १६ नाड़ियों की जो नामावली यहाँ (१।१३।१३-१७) दी गई है, वह भी पूरी तरह से तन्त्रशास्त्रों का ही अनुकरण करती है। इस प्रकार यहाँ पांचरात्र आगमों का, श्वेतद्वीप का और दशविध पांचरात्र संहिताओं की नामावली के साथ तन्त्रशास्त्र की दक्ष और वाम शाखाओं का भी उल्लेख मिलने से इस पुराण पर तन्त्रों की स्पष्ट छाप का चित्र हमारे सामने उभरता है। ण प्र णा समाजाTE
ब्रह्माण्ड पुराण
_इस पुराण की गणना प्राचीन पुराणों में होती है। इसीलिये यहाँ तन्त्रसम्बन्धी सामग्री कम ही मिलती है। तो भी पाशुपत आगमों का प्रभाव यत्र-तत्र देखा जा सकता है। प्रथम अनुषंग पाद के दसवें अध्याय में महादेव की विभूतियों का वर्णन करते हुए नीललोहित शिव के रुद्र, शर्व आदि ८ नामों की चर्चा है। अथर्ववेद के व्रात्य सूक्त में भी इन नामों की चर्चा है और शतपथ ब्राह्मण में इनको कुमार अग्नि के नाम बताया गया है। शिव की अष्टमूर्तियों का भी वर्णन पाशुपत आगमों में मिलता है और महाकवि कालिदास ने अभिज्ञान-शाकुन्तल के प्रारम्भ के “या सृष्टिः स्रष्टुराद्या” इत्यादि मंगल-पद्य में शिव के इन आठ स्वरूपों की ही वन्दना की है। प्रस्तुत अध्याय में शिव के इन सब स्वरूपों का विस्तार से वर्णन किया गया है और सूर्य, चन्द्र आदि को भी भगवान पशुपति का ही स्वरूप माना गया है। पाशपत आगमों में वर्णित भस्म-स्नान विधि का यहाँ विस्तार से वर्णन है। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान में वसु उपरिचर की कथा वर्णित है। वह कथा यहाँ भी मिलती है। यहाँ अहिंसक यज्ञ को आगमविहित कहा गया है। स्पष्ट है कि यहाँ पांचरात्र आगम का स्मरण किया गया है। महाभारत के समान ही यहाँ हिंसा का समर्थन करने के कारण वसु उपरिचर को अधोगति प्राप्त हुई, इसका विस्तार से वर्णन है। तृतीय उपोद्घात पाद के ३३वें अ.में त्रैलोक्यविजय कवच का और मन्त्रोद्धार विधि का वर्णन है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में ऊपर निर्दिष्ट त्रैलोक्यविजय कवच के वर्णन से इसकी तुलना की जा सकती है। कि इस प्रकार पूरे ब्रह्माण्ड पुराण में पांचरात्र और पाशुपत आगमों से अतिरिक्त अन्य किसी आगम और तन्त्रशास्त्र का प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता, किन्तु इस पुराण के अन्त में ललितोपाख्यान संयोजित है। चतुर्थ उपसंहारपाद के पांचवें अध्याय से अन्त तक, अर्थात ४४वें अध्याय तक के ४० अध्यायों में यह उपाख्यान स्थित है। स्पष्ट ही इस अंश पर शाक्त तन्त्रों का, विशेष कर त्रिपुरा तन्त्रों का प्रभाव है। यहाँ भण्डासुर के वध की कथा तो विस्तार से वर्णित है ही, साथ ही देवी-दीक्षा, मन्त्रराज-साधन आदि अनेक विषय वर्णित हैं। ४२खें अध्याय के प्रारम्भ में मुद्राओं के लक्षण दिये गये हैं। ये पूरी तरह से नित्याषोडशिकार्णव के तृतीय पटल में दिये गये लक्षणों से आनुपूर्वी से मिल जाते हैं। इससे और नारद पुराण ५३३ पुराणगत योग एवं तन्त्र । में उद्धृत यहाँ की ‘द्वादशश्लोकी’ के उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस तन्त्र का उक्त दोनों पुराणों पर प्रभाव पड़ा है। का निशा की कि मिलाएर गि का विकाफलाई चिन
भागवत महापुराण
भागवत के प्रारम्भ (१।३।८) में सात्वत तन्त्र का उल्लेख मिलता है। गरुडपुराण में भी इस श्लोक का उत्तरार्ध इसी रूप में मिलता है। भागवत में नारदावतार के प्रसंग में यह वचन आया है। नारद पांचरात्र-शास्त्र के उपदेशक माने जाते हैं। भागवत के प्रायः सभी टीकाकार सात्वततन्त्र का अर्थ पांचरात्र-शास्त्र ही करते हैं। पांचरात्र की सात्वतसंहिता सात्वततन्त्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस संहिता का उपदेश नारद ही करते हैं। यहाँ कर्मों को ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बताया गया है। सात्वतसंहिता के प्रारम्भ में ही क्रिया मार्ग में प्रवृत्ति का उपदेश देने की बात कही गई है। पातंजल योगसूत्र में तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग बताया गया है। सात्वतसंहिता में उपदिष्ट क्रिया मार्ग से ये भिन्न नहीं है। यह क्रिया मार्ग पतंजलि के अनुसार समाधि की भावना के लिये और क्लेशों को निर्बल करने के लिये है। पुराणों में क्रियायोग का बड़े विस्तार से वर्णन मिलता है, इसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। भागवत के प्रसिद्ध टीकाकार श्रीधर स्वामी का स्पष्ट मत है कि भागवत के अनुसार कर्म भी मोक्ष-प्राप्ति के साधन हैं। अन्य अनेक टीकाकार भी श्रीधर स्वामी के इस मत की पुष्टि करते हैं। पांचरात्र शास्त्र का यह स्पष्ट उद्घोष है कि प्रवृत्ति मार्ग, अर्थात् कर्मयोग ही मोक्ष-प्राप्ति का मुख्य साधन है। भगवद्गीता में भी निष्काम कर्म योग की मोक्ष-प्रापकता वर्णित है। देवीभागवत के समान यहाँ भी वैदिक और तान्त्रिक अर्चाविधि का अलग-अलग वर्णन है। बारहवें स्कन्द के ११वें अध्याय में तन्त्रराद्धान्त और तान्त्रिक शब्दों के साथ क्रियायोग शब्द भी आया है। स्पष्ट है कि सात्वततन्त्र, जो कि भागवत धर्म के प्रेरणा स्रोत हैं, कर्मयोग को, अर्थात् प्रवृत्ति धर्म को बढ़ावा देते हैं, इसके विपरीत पाशुपत तन्त्र निवृत्ति-परायण हैं। महाभारत में नारायणीय उपाख्यान में इनकी प्रवृत्ति-परायणता और निवृत्ति-परायणता का उल्लेख मिलता है। यह सब होते हुए भी इतना स्पष्ट है कि देवीभागवत और श्रीमद्भागवत पर वेदान्त का प्रभाव कुछ गहरा हो गया है। साथ ही अन्य पुराणों के समान यहाँ, विशेष कर भागवत के ११वें स्कन्ध में कर्म, ज्ञान, भक्ति और योग को समान रूप से मान्यता दी गयी है।
मत्स्य पुराण
अभी ऊपर श्रीमद्भागवत पुराण के प्रसंग में कर्मयोग (क्रियायोग) की मोक्ष प्रतिपादकता वर्णित है। मत्स्य पुराण में भी ५२खें और २५७ में अध्यायों में क्रियायोग का विशेष वर्णन है। इसी प्रसंग में प्रतिमा, प्रासाद आदि के निर्माण की विधि का भी वास्तुशास्त्रपरक निरूपण किया गया है। यहाँ २५१वें अध्याय में भृगु, अत्रि आदि वास्तुशास्त्र __ के उपदेशक आचार्यों की नामावली दी गयी है। ऊपर बताया गया है कि प्रत्येक आगम ५३४ ला तन्त्रागम-खण्ड । के क्रियापाद में प्रतिमा, प्रासाद आदि के निर्माण की विधि वर्णित है। इस प्रकार भूकर्षण से लेकर देवप्रतिमा की प्रतिष्ठा पर्यन्त सारी विधियाँ आगमों के क्रियापाद में बताई जाती है और वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों में भी इन्हीं का वर्णन मिलता है। इस प्रकार ये दोनों शास्त्र एक दूसरे के पूरक हैं। इन पर वैदिक वाङ्मय की अपेक्षा आगमशास्त्र का अधिक गहरा प्रभाव है। दीक्षा या अभिषेक की पूर्व रात्रि में अधिवासन की विधि का आगम और तन्त्रशास्त्र में सविशेष वर्णन मिलता है। देवता की प्रतिष्ठा के प्रसंग में यहाँ (२६२ अ.) संहिताओं में उपदिष्ट मन्त्रों का उल्लेख करते हुए त्रिरात्र, एकरात्र, पंचरात्र और सप्तरात्र अधिवास विधियों का उल्लेख मिलता है। आगमशास्त्र विहित ४८ संस्कारों की ऊपर दो पुराणों में चर्चा आ चुकी है। यहाँ भी ५२वें अध्याय में क्रियायोग के प्रसंग में र आत्मगुणों की और ४० अन्य संस्कारों की नामावली दी गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक १६ संस्कारों के समान आगमविहित ४८ संस्कार भी पुराणों को मान्य हैं। मत्स्य पुराण में आगमों के समान तन्त्रों का प्रभाव भी लक्षित होता है। यहाँ प्रारम्भ में ही १३वें अध्याय में देवी के १०८ नामों के साथ उनके १०८ स्थानों की भी नामावली मिलती है। एक अन्य नामावली देवीभागवत में उपलब्ध है। इन सबको हम आगे तालिका बनाकर प्रस्तुत करेंगे। यहाँ तीर्थ नाम से निर्दिष्ट ये स्थान आगम और तन्त्रशास्त्र में पीठ के नाम से भी वर्णित है। ६४ योगिनियों अथवा मातृकाओं की नामावली १७६वें अध्याय में मिलती है। इसी अध्याय में आगे ३२ मातृकाओं की भी नामावली दी गयी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस प्राचीन पुराणों में भी आगम और तन्त्रशास्त्र के अनेक तत्त्व समाविष्ट
मार्कण्डेय पुराण
इस पुराण के १ से ६३ अध्यायों में दुर्गासप्तशती समाविष्ट है। शाक्त तन्त्र के उपासना-ग्रन्थों में इसका विशिष्ट स्थान है। अनेक विद्वानों ने इस पर टीकायें लिखी हैं और आज भी पूरे भारत में नवरात्र पर्व पर भगवती दुर्गा की उपासना इसी के आधार पर होती है। इसको वर्तमान में उपलब्ध शाक्त उपासना का प्रधान ग्रन्थ मान सकते हैं। मार्ताण्ड, अर्थात् सूर्य के विविध रूपों की उपासना भी यहाँ १०२ अध्याय से ११० अध्याय तक वर्णित है। चतुर्वृह अवतारों की चार मूर्तियों का वर्णन यहाँ १४वें अध्याय में विस्तार से मिलेगा। यह पूरा वर्णन पांचरात्र आगम का अनुवर्तन करता है। शैव और बौद्ध तन्त्रों में उन्मत्तव्रत की चर्चा आती है। मार्कण्डेय पुराण (१७११६) में ऋषि दुर्वासा को उन्मत्तव्रत का पालन करने वाला बताया गया है। शैव मृगेन्द्रागम की क्रियापाद की वृत्ति (८१६०) में भट्ट नारायण कण्ठ पारमेश्वर तन्त्र को उद्धृत कर सात चर्या-व्रतों के शोधन की बात कहते हैं। इन सात व्रतों में एक उन्मत्तव्रत भी है। इस प्रकार यहाँ ऋषि दुर्वासा के प्रसंग में एक ऐसे व्रत का उल्लेख है, जो कि कापालिक अथवा कौल सम्प्रदाय की चर्चा का अनुसरण५३५ पुराणगत योग एवं तन्त्र करता है। स्पष्ट है कि इस पुराण पर न केवल वैष्णव, शैव और शाक्त, अपितु कापालिक और कौल तन्त्रों का भी कुछ न कुछ प्रभाव परिलक्षित होता है।
लिंग पुराण
यह एक शैव पुराण है। पाशुपत सम्प्रदाय का यहाँ स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। २८ योगाचार्यों और उनमें से प्रत्येक के चार-चार शिष्यों की नामावली यहाँ पूर्वार्ध के आठवें अध्याय में मिलती है। लिंग पुराण के अतिरिक्त कूर्म पुराण आदि में वर्णित इन योगाचार्यों का विवरण हम पहले दे चुके हैं। लिंग पुराण इनको पाशुपत सिद्ध बतलाता है। वह पशु और पशुपति के साथ पाशुपत योग का भी विवरण देता है। पाशुपत योग का विवरण पहले दिया जा चुका है। पशुपति शिव के सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान नामक पाँच मुखों का और पंचब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध इन्हीं नामों के पाँच मन्त्रों का उल्लेख नीलरुद्र, अस्यवामीय, पवमान आदि मन्त्रों के साथ (६४७७) में भी आया है। १८वें अध्याय में वर्णित विष्णुस्तव में एक प्रकार से शिव की ही स्तुति की गई है। इस नामावली में श्रीकण्ठनाथ और लिकुचपाणि नाम भी उपलब्ध हैं। श्रीकण्ठनाथ को महाभारत के नारायणीय-उपाख्यान में पाशुपत मत का प्रवर्तक माना गया है। लिकुचपाणि पाशुपत योगाचार्य लकुलीश का ही दूसरा नाम है। ये लकुलीश पाशुपत मत के प्रवर्तक माने जाते हैं। श्रीकण्ठ और लकुलीश नाम की चर्चा यहाँ अन्यत्र भी मिलती है। भगवान् शिव के सकल और निष्कल स्वरूप का वर्णन भी पाशुपत दृष्टि से ही यहाँ किया गया है। चतुर्वृह शब्द का पांचरात्र सम्मत अर्थ यहाँ केवल एक ही स्थान पर (१।३६ ।११-१२) है। अन्यत्र अनेक जगहों पर इस शब्द से संसार-हेतु, संसार, मोक्ष-हेतु और निवृत्ति को चतुर्दूह । बताया गया है। २१वें अध्याय में शिव की स्तुति के प्रसंग में शिव को अक्षोभ्य, अक्षोभण और बुद्ध भी कहा गया है। २४वें अध्याय में पाशुपत व्रत का माहात्म्य बतलाते हुए सहस्रनामस्तोत्र आया है। यहाँ शिव को सिद्धान्तकारी बताया गया है। स्पष्ट ही यहाँ द्वैतवादी सिद्धान्त शैवशास्त्र का उल्लेख है, जो कि इनके ईशान मुख से उपदिष्ट माना जाता है। पाशुपत व्रत और पशुपाश-विमोक्षण व्रत का यहाँ विस्तार से वर्णन किया गया है। ८५वें अध्याय में पंचाक्षर मन्त्र के माहात्म्य का वर्णन करते हुए यहाँ वेद के साथ शिवागम का भी उल्लेख मिलता है। पाशुपत योग का हम पहले संक्षेप में वर्णन कर चुके हैं। यहाँ ८६ से ८८ अध्यायों में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। इस पुराण में शिवसहस्रनाम स्तोत्र दो जगहों पर आय, हे। ६५वें अध्याय में वर्णित शिवसहस्रनामस्तोत्र तण्डिकृत और ६वें अध्याय में आया यह स्तोत्र विष्णुकृत है। १०३वें अध्याय में शक्ति का माहात्म्य वर्णित इस पुराण के उत्तरार्ध के १५-१६ अध्यायों में योगशास्त्र के साथ आगमशास्त्र की भी चर्चा आयी है। सांख्य-सम्मत २५ तत्त्वों के अतिरिक्त शैवागम-संमत शिव, सदाशिव, ईश्वर, माया, अविद्या आदि तत्त्वों की भी चर्चा है। शैवी दीक्षा के प्रसंग में षडध्वशुद्धि की ५३६ तन्त्रागम-खण्ड प्रक्रिया २०वें अध्याय में वर्णित है। शान्त्यतीता आदि पांच कलाओं का भी वर्णन शैवशास्त्रों की पद्धति से ही किया गया है। सौर मन्त्रों से तत्त्वशुद्धि की प्रक्रिया २खें अध्याय में वर्णित है। सूर्य की उपासना के साथ शिव की और उनके अघोर आदि स्वरूपों की अर्चनविधि यहाँ और अगले चार अध्यायों में भी वर्णित है। इसी प्रकार यहाँ अभिषेक, आवरण-पूजा, तला-दीक्षा आदि का वर्णन भी तान्त्रिक पद्धति से मिलता है। शैवागम की पद्धति से जीवित व्यक्ति के लिये किये जाने वाली श्राद्ध की विधि भी यहाँ ४५वें अध्याय में वर्णित है। अगले कुछ अध्यायों में विविध देवों की प्रतिष्ठा का, वज्रेश्वरी देवी का और वश्याकर्षण आदि प्रयोगों का भी वर्णन मिलता है। मन्त्रयोग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग और महायोग नामक पाँच योगों का वर्णन संक्षेप में अन्तिम ५५वें अध्याय में देखा जा सकता है। इन सबसे स्पष्ट हो जाता है कि इस पुराण पर पाशुपत मत का पूर्ण प्रभाव है। षडध्वशुद्धि जैसे विषय शैव, शाक्त और वैष्णव सभी तन्त्रों में मान्य हैं।
वराह पुराण
कर्म की मोक्ष-प्रतिपादकता का वर्णन ऊपर कई जगह आ चुका है। वराह पुराण के पाँचवें अध्याय में इस विषय को विस्तार से प्रतिपादित किया गया है। गणपति, आदित्य (सूर्य), अष्टमातृका, दुर्गा, विष्णु, रुद्र आदि की उत्पत्ति-कथा, स्तुति-पूजा, मन्त्र आदि का यहाँ अनेक अध्यायों में वर्णन मिलता है। वैष्णवों के प्रसिद्ध मन्त्र “ॐ नमो नारायणाय" का भी विवेचन यहाँ ३७वें अध्याय में मिलता है। ६६वें अध्याय में नारदीय पांचरात्र शास्त्र का और ७०वें अध्याय में पाशुषत शास्त्र का वर्णन मिलता है। इस पुराण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ शिवनिर्दिष्ट निःश्वाससंहिता का ७१वें अध्याय में विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। यह निःश्वाससंहिता शिवोपदिष्ट सिद्धान्त शास्त्र के, अर्थात् द्वैतवादी शैवागमों के २८ आगमों में परिगणित है। इस पुराण के अन्तिम कुछ अध्यायों में गोकर्णेश्वर तीर्थ का माहात्म्य वर्णित है। यहाँ वागमती-मणिवती नदियों के संगम का और गोरक्ष तीर्थ का भी वर्णन मिलता है। दक्षिण गोकर्णेश्वर की उत्पत्ति भी यहाँ वर्णित है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथमतः इस पुराण की दृष्टि में गोकर्णेश्वर की स्थापना वागमती नदी के तट पर हुई और दक्षिण में गोकर्ण तीर्थ की स्थापना बाद में हुई। कालिदास के रघुवंश में दक्षिणोदधि के तट पर स्थित गोकर्ण की स्थिति वर्णित है। यह प्रसिद्ध है कि दक्षिण गोकर्ण के पूजक (अर्चक) ही वर्तमान में नेपाल स्थित भगवान् पशुपतिनाथ का अर्चना-पूजन करते हैं। तदनुसार प्रथम स्थिति दक्षिण गोकर्ण की ही मानी जाती है। इस प्रश्न पर अभी गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
वामन पुराण
वराह पुराण में जैसे निःश्वाससंहिता का उल्लेख है, वैसे ही वामन पुराण के ठे अध्याय के ८६-६२ श्लोकों में शैव, पाशुपत, कालवदन और कापालिक नामक चार शैव सम्प्रदायों का वर्णन चातुर्वर्ण्य के क्रम से मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि ब्राह्मण पुराणगत योग एवं तन्त्र
- ५३७ शैव सिद्धान्तशास्त्र की पद्धति से, क्षत्रिय पाशुपत मत के अनुसार, वैश्य कालवदन सम्प्रदाय के अनुसार और शूद्र कापालिक पद्धति से शिव की उपासना करें। यहाँ प्रत्येक सम्प्रदाय के दो-दो आचार्यों का भी उल्लेख किया गया है। शैव सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य वशिष्ठ के पुत्र शक्ति हैं और उनके शिष्य का नाम गोपायन है। पाशुपत मत के प्रथम आचार्य भारद्वाज हैं और उनके शिष्य का नाम ऋषभ सोमकेश्वर है। कालास्य सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य आपस्तम्ब और उनके शिष्य का नाम क्राथेश्वर है। कापालिक अथवा महाव्रत सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य धनद (कुबेर) और उनके शिष्य का नाम ऊर्णोदर है। शिव की कालस्वरूपता का यहाँ पाँचवें अध्याय में विस्तार से वर्णन किया गया है। वामन, सरस्वती और शिव की यहाँ विशेष रूप से स्तुति की गई है। विनायक और कार्तिकेय की उत्पत्ति सी का भी वर्णन है। चण्ड-मुण्ड, शुम्भ-निशुम्भ आदि के वध की कथा और शिव की कालस्वरूपता के समान शिवलिंग के माहात्म्य का भी यहाँ सविशेष वर्णन मिलता है। देवीमाहात्म्य के प्रसंग में महिषासुर आदि के वध की कथा भी यहाँ १७ से २१ तक के अध्यायों में वर्णित है। कोलकाता जाम हि विमान
वायु पुराण
इस पुराण की भी गणना प्राचीन पुराणों में होती है। निगमागम, आगम, संहिता, तन्त्र आदि शब्दों का प्रयोग यहाँ बहुतायत से मिलता है। सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ के महाकवि बाण के हर्षचरित में पवनप्रोक्त पुराण के रूप में इसका विवरण मिलता है। वैखानस शब्द का यद्यपि यहाँ अनेक बार प्रयोग हुआ कि, किन्तु वह वैष्णवागम की एक शाखा के रूप में प्रयुक्त न होकर वानप्रस्थ आश्रम का पालन करने वाले मुनियों के रूप में हुआ है। ऐसा होने पर भी वैखानस आगम में वर्णित पंचवीरों का वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और साम्ब के रूप में वर्णन मिलता है। (६७।१-२) पांचरात्र-सम्मत चतुर्दूह का वर्णन भी यहाँ देखा जा सकता है। पाशुपत व्रत, पाशुपत योग, माहेश्वर योग आदि के रूप में यहाँ पाशुपत मत का भी विस्तार से वर्णन देखने को मिलता है। महेश्वर के सकल और निष्कल स्वरूप का तो वर्णन देखने को मिलता ही है, बौद्ध शास्त्रों में उपलब्ध सकृदागामी शब्द भी यहाँ उपलब्ध है। षड्दर्शन के रूप में यहाँ ब्राह्म, शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त तथा आर्हत (बौद्ध) मतों का १०४वें अध्याय में दो स्थलों पर (श्लोक १६, ८-८२) उल्लेख हुआ है। अनेक पीठों की नामावली भी यहाँ इसी अध्याय के ७४-८१ श्लोकों में देखी जा सकती है। पाशुपत आगम, वैष्णवागम और द्वैतवादी सिद्धान्त आगम दर्शनों में प्रयुक्त पशु, पाश, प्रपन्न आदि शब्दों का भी प्रयोग यहाँ यत्र-तत्र देखने को मिलता है। यह आश्चर्य की ही बात है कि प्राचीन पुराणों में गणना होने पर भी यहाँ आगम और तन्त्रशास्त्र की शाखाओं के लिये प्रयुक्त होने वाले संहिता, आगम और तन्त्र इन तीनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। बौद्ध ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में तिम ५३८ एक तन्त्रागम-खण्ड, Tre मजा करतापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः। सामाडी डी शरणः सनाए लिए परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् (३५७७)
- भगवान् बुद्ध का यह प्रसिद्ध श्लोक उपलब्ध है। प्रस्तुत वायुपुराण भी आगमादनुमानाच्च प्रत्यक्षादुपपत्तितः । परीक्ष्य निपुणं भक्त्या श्रद्धातव्यं विपश्चिता ।। (५३।१२२) यहाँ इसी विषय की उद्घोषणा करता है। यही श्लोक आश्चर्यजनक रूप से लिंग __पुराण (१।६१।६२-६२) में भी उपलब्ध है। वहाँ ‘भक्त्या’ के स्थान पर ‘बुद्धच्या’ पाठ है, जो कि हमारी दृष्टि में ऊपर उद्धृत बुद्धवचन के परिप्रेक्ष्य में अधिक युक्तिसंगत है।
विष्णु पुराण
प्राचीन पुराणों में विष्णु पुराण का अपना विशिष्ट स्थान है। यहाँ आगम या तन्त्र से सम्बद्ध सामग्री का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, तो भी चतुर्वृह वाद का, वासुदेव नाम का और षाड्गुण्य का उल्लेख अवश्य मिलता है। भगवान् शब्द की व्युत्पत्ति बताने वाला यह श्लोक यहाँ मिलता है PETER EिMERE IS ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। गए कलिला नाच ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।। (६५७४) या पांचरात्र संहिताओं में व्यूह देवताओं को षाड्गुण्य-विग्रह बताया गया है। वहाँ ऐश्वर्य आदि की ही गणना ६ गुणों में होती है। वासुदेव में ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं, बाकी तीन संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध में क्रमशः दो-दो गुणों की स्थिति मानी गयी है। बौद्ध तन्त्रों में भी भगवान् शब्द की व्युत्पत्ति प्रायः इसी प्रकार की गयी है। महाभागवतों का यहाँ अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है। वैष्णवी महामाया, योगनिद्रा और विष्णुशक्ति का यहाँ सविशेष वर्णन मिलता है। दुर्गासप्तशती में भी वैष्णवी महामाया का योगनिद्रा के रूप में ही वर्णन मिलता है। “काल्यै पशुमकल्पयत्" (२।१३।४८) यहाँ तो काली का स्पष्ट ही उल्लेख है। उपपुराणों का यहाँ उल्लेख मात्र है। किसी का नाम नहीं दिया गया है। आगमशास्त्र में प्रचलित प्रपन्न शब्द भी यहाँ उल्लिखित है। की विष्णुशक्ति के समान सूर्य की और परब्रह्म की शक्ति का भी यहाँ वर्णन मिलता है और बताया गया है कि परब्रह्म की शक्ति से ही सारे जगत् की सृष्टि होती है। वैष्णवागमों में नारायण की ह्लादिनी, संधिनी और संवित् नामक शक्तियों का विस्तार से वर्णन मिलता है। विष्णुपुराण में भी इनकी संक्षिप्त चर्चा मिलती है (१।१२।६६)। पांचरात्र आगमों में एकान्ती शब्द बहुचर्चित है। इन ब्रह्मध्यायी एकान्ती योगियों की चर्चा भी यहाँ (१।६।३६) है। वैष्णवागमों में प्रसिद्ध द्वादशाक्षर मन्त्र की भी चर्चा अनेक स्थलों पर आयी है। एक है पुराणगत योग एवं तन्त्र स्थान (१।१५।३७) परब्रह्म को “ऊर्मिषट्कातिग" कहा है। इन ऊर्मियों का वर्णन प्रपंचसार में इस तरह से मिलता है जो कि बुभुक्षा च पिपासा च शोकमोही जरामृती। मार छ जजर एका षडूमेयः प्राणबुद्धिदेहधर्मेषु संस्थिताः ।। (२।१८) हाला यह प्रसंग भी यहाँ विचारणीय है कि कुछ विद्वान् प्रपंचसार को वैष्णव ग्रन्थ मानते मक कर्म और ज्ञान के समान भक्ति मार्ग से भी मुक्ति का लाभ होता है, यह सिद्धान्त आगमों में विशेष रूप से प्रतिपादित है। इस सिद्धान्त की झलक यहाँ (१।२०।२७) भी मिलती है। यह ऊपर लिखा जा चुका है कि पांचरात्र आगम प्रवृत्ति मार्ग का और पाशुपत आगम निवृत्ति मार्ग का उपदेश करते हैं। प्रवृत्ति मार्ग का उच्छेद करने वालों की यहाँ (१।६।३१) निन्दा की गयी है। इन सब प्रमाणों से यह प्रतीत होता है कि विष्णुपुराण पर । पांचरात्र आगम का, विशेषकर शक्ति तत्त्व को स्वीकार करने के रूप में अवश्य प्रभाव पड़ा डाई अगमा के ला स्वाध्यायसंयमाभ्यां स दृश्यते पुरुषोत्तमः। तत्प्राप्तिकारणं ब्रह्म तदेतदिति पठ्यते।। (६।६।२) लिमा विष्णुपुराण का यह प्रसिद्ध श्लोक अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर उद्धृत है। शा
शिवपुराण
ऊपर ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित कुछ पांचरात्र संहिताओं के नाम बताये गये हैं। शिवपुराण में भी, विशेषकर इसकी छठी कैलास संहिता और सातवीं वायवीय संहिता में शिवसूत्र, शिवसूत्रवार्त्तिक और विरूपाक्षपंचाशिका का नामपूर्वक उल्लेख हुआ है और उनके वचन भी उद्धृत हैं। बिना नाम लिये यहाँ महिम्नस्तोत्र, परापंचाशिका जैसे शैव-शाक्त ग्रन्थों के भी उद्धरण मिलते हैं। कामिक आदि सिद्धान्त-शैवागमों का, श्रीकण्ठप्रोक्त शैवागम का, पंचार्थ लकुलीश शैवागमों का और शिवधर्म नामक आगम का भी यहाँ यत्र-तत्र उल्लेख हआ है। वामन पराण वर्णित सिद्धान्त शैव. पाशपत. महाव्रतधर और कापालिक नामक चार प्रकार के शैवों का भी विवरण यहाँ मिलता है। पाशुपत योग, षडध्वशुद्धि, शक्तिपात जैसे तन्त्रशास्त्र के विषयों का यहाँ विस्तार से वर्णन हुआ है। तान्त्रिक षडंग योग भी शैव योग के साथ यहाँ वर्णित है। प्रतिष्ठा-तन्त्रों में वर्णित शिव-प्रतिष्ठा की विधि भी यहाँ देखी जा सकती है। चतुर्विध शिवागमों के अतिरिक्त श्रौत और स्वतन्त्र नाम के द्विविध शिवागमों का भी यहाँ वर्णन मिलता है। श्रौत विभाग के अन्तर्गत पाशुपत शाखा को और स्वतन्त्र विभाग में कामिकादि २८ सिद्धान्त शैवागमों को रखा गया है। ਕਾਲ ਵ ਕਿਸੇ ५४० कितन्त्रागम-खण्ड 15 क्षेत्रों और पीठों का यहाँ प्रसंगवश उल्लेख मिलता है। भगवान् शिव के सकल, निष्कल, सकलनिष्कल नामक त्रिविध रूपों का और सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव एवं निग्रह नामक पाँच कृत्यों का, साथ ही सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य और साटि नामक पंचविध मुक्ति का भी यहाँ अनेक स्थलों पर विवरण मिलता है। पंचविध मुक्ति को यहाँ कर्मयोग द्वारा प्राप्य बतलाया गया है। इस कर्मयोग का सविशेष स्वरूप पांचवीं उमा संहिता के अन्तिम ५१वें अध्याय में विस्तार से देखा जा सकता है। तन्त्रशास्त्र के मन्त्र, यन्त्र और तन्त्र नामक त्रिविध भेद भी यहाँ वर्णित हैं। शिव के पंचाक्षर मन्त्र और षडक्षर मन्त्रों का यहाँ अनेक स्थानों पर उल्लेख और विवरण मिलता है। भक्ति के प्रभाव का भी यहाँ विशेष रूप से वर्णन हुआ है। श्रीफी धार अपभ्रंश भाषा में निबद्ध कर्मवादपरक जैन शास्त्र का, बौद्धागमों का, बौद्ध तन्त्रों में वर्णित धारिणी सदृश मन्त्रों का विवरण भी यहाँ देखने को मिलता है। शैवागमों में वर्णित पति, पशु और पाश नामक शैवागम के त्रिविध तत्त्वों का विवरण यहाँ अनेक स्थानों पर दिया गया है। भैरवावतार का वर्णन यहाँ कूर्म पुराण की पद्धति से हुआ है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के अवतार की कथा यहाँ शतरुद्ध संहिता के अनेक अध्यायों में देखी जा सकती है। कोटिरुद्र संहिता के ३५वें अध्याय में शिवसहस्रनामस्तोत्र देखा जा सकता है। छायापुरुष, कालज्ञान एवं कालवंचन जैसे विषय आगम-तन्त्रशास्त्र के योगपाद में उपलब्ध होते हैं। अनेक दार्शनिक विषयों के साथ इनके स्वरूप पर भी यहाँ प्रकाश डाला गया है। दुर्गासप्तशती के समान यहाँ उमासंहिता के (४५-५०) अध्यायों में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती इन तीनों देवियों के अतिरिक्त अन्य अनेक शताक्षी आदि देवियों के अवतार की कथा वर्णित है। काली, तारा आदि दस महाविद्याओं की नामावली भी यहाँ देखी जा सकती है। रुद्र संहिता के सती खण्ड के ११ वें अध्याय में भगवती दुर्गा की स्तुति का विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। _इन सब विषयों को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस पुराण में विशेष रूप से इसकी छठी और सातवीं संहिताओं में श्रौत और स्वतन्त्र नामक शिवागमों का तथा शैव, पाशुपत आदि चतुर्विध शैव मतों का और उनमें प्रतिपादित षडध्वशुद्धि, शक्तिपात जैसे विषयों का आगम और तन्त्रशास्त्र के समान ही विस्तार से वर्णन मिलता है।
पुराणों में शाक्त पीठ
आगम और तन्त्रशास्त्र में मन्त्र, मातृका, यन्त्र, न्यास, मुद्रा आदि की तरह पीठों का भी बहुत महत्त्व है। शैव, शाक्त और बौद्ध तन्त्रों में पीठों की विशेष महिमा वर्णित है। कामरूप आदि चार पीठ तन्त्रशास्त्र की सभी शाखाओं को मान्य हैं। भिन्न-भिन्न तन्त्रों में चार, आठ, चौबीस, बत्तीस, इक्यावन और चौसठ पीठों की नामावलियाँ मिलती हैं। देवीभागवत में इस तरह की दो सूचियाँ उपलब्ध है। उनमें से एक मत्स्यपुराण का अनुसरण पुराणगत योग एवं तन्त्र ५४१ करती है और दूसरी नामावली उससे पूरी तरह से भिन्न है। यह दूसरी नामावली शैवागमों में वर्णित भुवनों की नामावली से अनेक स्थलों पर मिलती-जुलती है। आगे हम इन दोनों नामावलियों को तालिका के रूप में यहाँ दे रहे हैं। 5
पुराणगत १०८ शक्तिपीठ
का विश POS मत्स्यपुराण (१३।२६-५४). देवीभागवत (७५५-८४) देवी स्थान देवी r १. विशालाक्षी वाराणसी १. विशालाक्षी मार २. लिङ्गधारिणी नैमिष २. लिङ्गधारिणी ३. ललिता कुमार प्रयागला . ३. ललिता इस ४. कामाक्षी जी गन्धमादन ४. कामुकी कि ५. कुमुदा शा मानसमा ५. कुमुदा नि । ६. विश्वकाया ए अम्बर ६. विश्वकामा । ७. गोमतीसाठी या गोमन्त गमि ७. गोमती चाव ८. कामचारिणी मन्दर चार ८. कामचारिणी ६. मदोत्कटा चैत्ररथ मा ६. मदोत्कटा - १०. जयन्ती का । हस्तिनापुर : १०. जयन्ती की ११. गौरी कान्यकुब्जी ११. गौरी १२. रम्भा मलयपर्वत । १२. रम्भा जाना। १३. कीर्तिमतीति एकान्तक कि १३. कीर्तिमती के १४. विश्वास विश्वेश्वर १४. विश्वा कानात १५. पुरुहूता जमि पुष्कर मारी। १५. पुरुहूता १६. मार्गदायिनी केदार को १६. सन्मार्गदायिनी १७. नन्दा कापी हिमवत्पृष्ठ १७. मन्दा पानी १८. भद्रकार्णिका गोकर्णी - १८. भद्रकर्णिका १६. भावनी स्थानेश्वर - १६. भवानी म २०. विल्वपत्रिका विल्वकप २०. विल्वपत्रिका २१. माधवी काय श्रीशैल त र २१. माधवी प्रणाम २२. भद्रा जाना भद्रेश्वर , २२. भद्रा काका । २३. जया कावजी वराहशैल सि .२३. जया जी वाराणसी नैमिषारण्य . प्रयागजट गन्धमादन ४ दक्षिण मानस उत्तर मानस गोमन्त गिल . मन्दर जाए चैत्ररथ 32 हस्तिनापुर ४ कान्यकुब्ज मलयाचल एकाम्र पीठ विश्वेश्वर र ४४ पुष्कर मार केदार पीठ 38 हिमवत्पृष्ठ 2 गोकर्ण - ४ स्थानेश्वर विल्वका श्रीशैल कि भद्रेश्वर वराहशैल Eि ५४२ तन्त्रागम-खण्ड गण २४. कमला २५. रुद्राणी २६. काली २७. कपिला २८. मुकुटेश्वरी २६. महादेवी ३०. जलप्रिया ३१. कुमारी ३२. ललिता ३३. उत्पलाक्षी ३४. महोत्पला ३५. मङ्गला ३६. विमला ३७. अमोघाक्षी ३८. पाटला ३६. नारायणी ४०. भद्रसुन्दरी ४१. विपुला का ४२. कल्याणी ४३. कोटवी ४४. सुगन्धा ४५. त्रिसन्ध्या । ४६. रतिप्रिया ४७. सुनन्दा कमलालय रुद्रकोटि कालजर महालिग की मर्कोट शालिग्राम शिवलिङ्ग मायापुरी सन्तान सहस्राक्ष कमलाक्ष रु गंगा । पुरुषोत्तम विपाशा पुण्ड्रवर्धन । सुपार्श्व विकूट विपुल मलयाचल कोटितीर्थ माधववन कुब्जाम्रक गंगाद्वार शिवकुण्ड देविकोत्तर : द्वारवती वृन्दावन मथुरा पाताल चित्रकूट का २४. कमला २५. रुद्राणी २६. काली २७. कपिला २८. मुकुटेश्वरी २६. महादेवी ३०. जलप्रिया ३१. कुमारीण ३२. ललिताम्बिका ३३. उत्पलाक्षी ३४. महोत्पला । ३५. मङ्गला न ३६. विमला ३७. अमोघाक्षी ३८. पाडला पर ३६. नारायणी ४०. रुद्रसुन्दरी ४१. विपुला जा ४२. कल्याणी ४३. कोटवी ४४. सुगन्धा ४५. त्रिसन्ध्या ४६. रतिप्रया ४७. शुभानन्दा ४८. नन्दिनी सजा ४६. रुक्मिणी ५०. राधा ५१. देवकी ५२. परमेश्वरी ५३. सीता भा. कमलालय रुद्रकोटि कालजर महालिङ्ग माकोट शालिग्राम शिवलिङ्ग मायापुरी ही सन्तान सहस्राक्षा हिरण्याक्ष गया कि पुरुषोत्तम विपाशा बात ये पुण्ड्रवर्ध सुपार्श्व त्रिकूट विपुल मलयाचल कोटितीर्थ माधववनी गोदावरी गंगाद्वार पर शिवकुण्ड । देविकोत्तर द्वारवती गाय वृन्दावन मथुरा १८ पाताल चित्रकूट छ । ४८. नन्दिनी का ४६. रुक्मिणी ५०. राधा रा ५१. देवकी ५२. परमेश्वरी ५३. सीता I देवकी नाति ५४३ ५४. विन्ध्यवासिनी ५५. एकवीरा ५६. चन्द्रिका ५७. रमणा ५८. मृगावती का ५६. महालक्ष्मी ६०. उमादेवी ६१. अरोगा ६२. महेश्वरी ६३. अभया ६४. अमृता ६५. माण्डवी ६६. स्वाहा ६७. प्रचण्डाल ६८. चण्डिका ६६. वरारोहा ७०. पुष्करावली ७१. देवमाला ७२. पारा ७३. महाभागा । ७४. पिङ्गलेश्वरी ७५. सिंहिका ७६. यशस्करी ७७. लोला ७८. सुभद्रा ७६. माता ८०. लक्ष्मीङ्गना ८१. विश्वमुखी ८२. तारा में ८३. पुष्टि पुराणगत योग एवं तन्त्र विन्ध्य ५४. विन्ध्यवासिनी सह्याद्रि या५५. एकवीरानी हर्मचन्द्र ५६. चन्द्रिका रामतीर्थ ५७. रमणानक यमुना का ५८. मृगावती करवीर ५६. महालक्ष्मी विनायक ६०. उमादेवीण वैद्यनाथ क ६१. अरोगा र महाकाली ६२. महेश्वरी छ उष्णतीर्थ ग ६३. अभया पूर्ण विन्ध्यकन्दर ६४. नितम्बा माण्डव्य ६५. माण्डवी माहेश्वरपुर ३६६. स्वाहा हा छागलण्ड ए-६७. प्रचण्डा जाई मकरन्दक ६८. चण्डिका सोमेश्वर ६६. वरारोहा प्रभास 60" ७०. पुष्करावली सरस्वती गा.९०७१. देवमाला पारातट ७२. पारावारा महालय ७३. महाभागा पयोष्णी 90° ७४. पिङ्गलेश्वरी कृतशौच गर.९०१ ७५. सिंहिका 95 कार्तिकेय J०१७६. अतिशाङ्करी उत्पलावर्तक १७७. लोला शोणसंगम ३०७८. सुभद्रा साफ सिद्धपुर -20f७६. माता । भरताश्रम ८०. लक्ष्मीरनङ्गा जालन्धर ८१. विश्वमुखी किष्किन्धापर्वत ८२. तारा देवदारुवन ३. पुष्टि विन्ध्य ४३ सह्याद्रिा हरिश्चन्द्र रामतीर्थ भार यमुना का करवीर . विनायकी 3 वैद्यनाथाला है महाकाली उष्णतीर्थ विन्ध्यपर्वत माण्डव्य माहेश्वरीपुर . छगलाण्ड - 2 अमरकण्टक से सोमेश्वर- 3 प्रभास 5.00 सरस्वती पाPor पारातट गार 500 महालय पयोष्णी कृतशौचा . कार्तिकेय 30 उत्पलावर्तक शोणसङ्गम ०१ सिद्धवन :OE भारताश्रम जालन्धर किष्किन्धापर्वत देवदारुवन विश्वेश्वर बदरी पर तन्त्रागम-खण्ड १४. मेधा काश्मीरमण्डल ८४. मेधा मन काश्मीरमण्डल ८५. भीमा का हिमाद्रिका ८५. भीमा शोका हिमाद्रि ८६. पुष्टि पीक विश्वेश्वरी ३ ८६. तुष्टि ८७. शुद्धि किया कपालमोचन ८७. शुद्धि कपालमोचन ८८. माता गड म कायारोहण - ८८. माता म कायारोपण ८६. धरा कि शङ्खोद्धार ८६. धरा जति शङ्खोद्धार ६०. धृति शाही पिण्डारक छ. ६०. धृति मानी पिण्डारक :03 ६१. कालान चन्द्रभागा ६१. कला आग चन्द्रभागा ३ ६२. शिवकारिणी अच्छोद(सर) ६२. शिवधारिणी अच्छोद(सर) ६३. अमृता वेणा रा ६३. अमृतालाप वेणा ६४. उर्वशी की बदरी मा.४ ६४. उर्वशी नही ६५. औषधि या उत्तरकुरु: ६५. औषधी मोर उत्तरकुरुणा ६६. कुशोदकाम कुशद्वीप ६६. कुशोदका ६७. मन्मथा लाल दिया हेमकूट (१६७. मन्मथा नामक हेमकूटण : ६८. सत्यवादिनी मुकुट - ६८. सत्यवादिनी मुकुटपी ६६. वन्दनीया अश्वत्थ - ६६. वन्दनीया अश्वत्थ १००.निधि सभा वैश्रवणालय ० १००.निधि मागा वैश्रवणालय १०१. गायत्री वेदवदन ई १०१. गायत्री साह वेदवदन १०२.पार्वतीकामा शिवसन्निधि ९ १०२. पार्वती जय शिवसन्निधि १०३. इन्द्राणीजा देवलोक १०३. इन्द्राणीमा १०४. सरस्वती ब्रह्मास्य . १०४. सरस्वती ब्रह्मास्य-डी . १०५. प्रभा धित सूर्यबिम्ब १०५.प्रभा जाफको सूर्यबिम्ब १०६.वैष्णवी मातृणाम् १०६.वैष्णवी मातृणाम् । १०७.अरुन्धती सतीनाम् नि १०७.अरुन्धती सतीनाम् । १०८. तिलोत्तमा दिन रामासुमा १०८.तिलोत्तमा रामासु १०६. ब्रह्मकला दाद चित्ते जा 50 १०६.ब्रह्मकला चित्ते का 0 दामाशा न्यायाPEESमन्टादन जिम्मका कुशद्वीप देवलोकन शालीमा गालगंकी नजरक्र.सं. तुलजापुरी सप्तशृङ्गमा +m » us , पुराणगत योग एवं तन्त्र
देवीभागवत वर्णित पीठ(७।३८ ॥५-३०)
णिक पीठ स्थान शिकला (महालक्ष्मी) कोलापुर रेणुका मातृपुर तुलजा हिगुला णि ज्वालामुखी का शाकम्भरी भ्रामरी जी दुर्गा जानित किया रक्तदन्तिका ype विन्ध्याचलनिवासिनी या प्रतिष्ठान अन्नपूर्णा कांचीपुर भीमा विमला नासा ने हिस्सा निधीमार श्रीचन्द्रला कौशिकी नीलाम्बी नीलपर्वत जाम्बूनदेश्वरी मार श्रीनगर गुह्यकाली मीनाक्षी चिदम्बर सुन्दरा वेदारण्य परशक्ति को मिली से एकाम्बर(म्र) महालसा योगेश्वरी नीलसरस्वती साधक को चीन म आगार बगला वैद्यनाथ भुवनेश्वरी - मणिद्वीप त्रिपुराभैरवी कामाख्या शा नेपाल २१. गायत्री कतन्त्रागम-खण्डम ymy नकुलेश्वरी ३७. ३८. ४०. ४२. शर्वाणी चण्डिका (08-1६12) काशमा अमरेश पुष्करेक्षणीय प्रभास नैमिष झिानवर लिङ्गधारिणी नाशिक .१ पुष्कराक्ष पुरुहूता रहार कर आषाढि रति दण्डिनी चण्डमुण्डी मिली भारभूति चिमाजका नाकुल का हरिश्चन्द्र चन्द्रिका विकासको यो । श्रीगिरि शाङ्करी जप्येश्वरी की ३६. त्रिशूला आम्रातकेश्वर जानकी सूक्ष्मा महाकाल ४१. शाङ्करी कि मध्यमा केदार ४३. मार्गदायिनी ४४. ‘भैरवी गया मङ्गला स्थाणुप्रिया कांजगजी नाकुल किया स्वायभुवा माना उग्रा विमलेश्वर विश्वेशा अट्टहास महानन्दा महेन्द्र महान्तका होगका भीमेश्वरी भवानी वस्त्रापथ लिमिटि अर्धकोटिक लाना अविमुक्त ५५. विशालाक्षी महालय महाभागा गोकर्ण जिगिशव जागत विवार ५८. ५६. उत्पलाक्षी भैरव कुरुक्षेत्र कनखल लिका रुद्राणी ५६. भद्रकर्णी भद्रकर्ण भद्रा सुवर्णाक्ष ६०. ६२. पुराणगत योग एवं तन्त्र ५४७ स्थाण्वीशा स्थाणु कमला कमलालय जीए जमाफ: शमा छगलण्डक त्रिसन्ध्या कुरण्डल मुकटेश्वरी बा नागाछ क । शायी कमिज का मण्डलेश कि निशाधक 1 ap-EP कालोनिया प्रचण्डा माकोटा मामा-माला ६५. ६६. काली ध्वनि कालजरजा ममाह HD ६७.. शकुकर्ण ६८. पित्यूला 3998-Bा ति किगजाय स्थूलकेश्वर हृल्लेखा ज्ञानिहृदयाम्भोज ___ इनके अतिरिक्त भी अग्निपुराण में अक्षोभ्यादि ६४ योगिनियों के नाम दिये गये हैं। यह नामावली शैवागम के प्राचीन ग्रन्थ प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्य में दी गई नामावली से पूरी तरह से मिलती है। मत्स्य पुराण में (१७८।६-३२) मातृगणों की एक लम्बी सूची मिलती है। वहीं (१७८६५-७३) ३२ मातृगणों की भी एक अन्य सूची उपलब्ध है। वायु पुराण (१०४।७४-८२) में आन्तर पीठों का भी वर्णन मिलता है। ठीक इसी प्रकार के आन्तर पीठों का वर्णन बौद्ध मत के वसन्ततिलका आदि तन्त्र-ग्रन्थों में तथा तन्त्रालोक जैसे शैव तन्त्रों में भी मिलता है। अधिक विस्तार के भय से मात्र इनकी सूचना यहाँ दी जा रही इस प्रकार हमने पुराण न केवल वेदार्थ के, अपितु आगमार्थ के भी उपबृंहक हैं, इस बात को सिद्ध करने के लिये यहाँ पुराणगत योग और तन्त्रशास्त्र का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है। पुराण वेद के साथ ही सांख्य, योग, पांचरात्र और पाशुपत मत के नाम से प्रसिद्ध कृतान्तपंचक के प्रामाण्य के प्रति मुखर हैं, इस बात का संक्षेप अथवा विस्तार से यहाँ निरूपण हुआ है। यह बात इस निबन्ध के योगखण्ड और तन्त्रखण्ड को देखने से स्पष्ट हो जाती है। हमें मालूम है कि पातंजल योग के अतिरिक्त आगम और तन्त्रशास्त्र के प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ में योगपाद के अन्तर्गत योग का भी अपनी-अपनी पद्धति से वर्णन किया गया है। इनके विद्यापाद में दर्शन का और क्रिया एवं चर्या पाद में दीक्षा, प्रासाद-प्रतिमा निर्माण आदि का और साधक की दैनिक चर्या का सविशेष विस्तार मिलता है। हमें विश्वास है कि आगम और तन्त्रशास्त्र के इन प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशित होने पर अग्निपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण आदि के समान ही मत्स्यपुराण आदि में प्रासाद-निर्माण आदि से सम्बद्ध सामग्री भी आनुपूर्वी से उन आगम ग्रन्थों में मिल सकेगी। बस अभी इतना ही कहकर मैं इस निबन्ध को पूरा करती हूँ।। TEDEE तन्त्रागम-खण्ड