११ जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा

मानक-परम्परा

भारतीय धर्मों में वैदिक, जैन तथा बौद्ध धर्मों की तीन धाराएं सुप्रसिद्ध हैं और इन तीनों धर्मों के अनुयायी आचार्यों ने अपने-अपने धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए उसको सर्वांगपूर्ण बनाये रखने के लिये अनेकविध साहित्य का निर्माण किया है। जैन विद्वानों ने अपने धर्म के सिद्धान्त की सुदृढ़ता के लिये निर्धारित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में तान्त्रिक वाङ्मय का भी सर्जन किया है। “जो साहित्य गतिशील होता है, उसमें प्राणवत्ता स्पन्दन करती हैं” इस उक्ति के अनुसार ही जैन धर्म ने ‘आदान-प्रदान’ के द्वार खुले रख कर एकता में अनेकता का विकास किया है। पिता की कि व का धर्मप्राण देश में अनेकविध धार्मिक एवं उपासनामूलक शास्त्रों की शृंखला में जैन तन्त्र-साहित्य की भी एक ‘मानक-परम्परा’ प्रचलित है। सम्प्रदाय-गत शाखा-प्रशाखाएँ भी प्रायः बनती-बिगड़ती रही हैं। १. श्वेताम्बर २. दिगम्बर और ३. स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय की तीन प्रमुख शाखाएँ हैं और कतिपय अवान्तर शाखाएँ भी आज उभरी हुई हैं। सभी की दृष्टि में मूलतः साम्य है, किन्तु विधिगत मान्यताओं के कारण ये पृथक् अस्तित्व . रख रही हैं। HERE

जैनतन्त्र का उद्गम-स्रोत एवं प्रवाह

जैन-सम्प्रदाय में भगवद्भाषित एवं गणधरों द्वारा ग्रथित द्वादशांगी में बारहवाँ अंग ‘दृष्टिवाद’ के रूप में प्रसिद्ध है। इसमें ५ विभाग हैं- १. परिकर्म २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत तथा ५. चूर्णिका। इनमें चौथे पूर्वगत विभाग में चौदह पूर्व वर्णित हैं, जिनमें दसवां पूर्व विद्यानुप्रवाद’ है। यह ‘विद्यानुप्रवाद’ अतिविशाल है और इसी में साधना-विधि, सिद्धि एवं साधनों का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैन-परम्परा की मान्यता है कि इन पूर्वो का ज्ञान प्रायः लुप्त हो गया है। छत इसके अतिरिक्त ‘द्वादशांगी’ के दसवें अंग ‘पद्मव्याकरण’ में मन्त्र-तन्त्रात्मक विषयों का वर्णन था, किन्तु वह भी आज उस रूप में उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में जो ‘पद्मव्याकरण’ ग्रन्थ मिलता हैं, उसमें ‘आस्रव’ और ‘संवर’ का वर्णन है, ‘नन्दिसूत्र’ में वर्णित ‘पद्मव्याकरण’ के विषयों में ‘विद्यातिशय’ का जो निर्देश है, वह आज अनुपलब्ध कीटनाश्मनात ५५ अपाह प्राचीन ग्रन्थ संघदास गणी द्वारा रचित ‘वसुदेवहिण्डी’ (५वीं शती) के चौथे लम्बक में भगवान् ऋषभदेव के चरित के अन्तर्गत एक कथा वर्णित है, जिसमें तन्त्रविद्या का प्रवर्तन ऋषभदेव के समय में ही होने का संकेत है। ऋषभदेव आद्य तीर्थंकर हैं। जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४५१ का एक अन्य मान्यता के अनुसार श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकर ने जैनतन्त्र और उसकी विभिन्न साधनाओं को जन्म दिया है। ये तेईसवें तीर्थंकर थे और योग एवं अन्य विविध सिद्धियों के धनी थे। इस समय जैन-तन्त्रों में जो साहित्य मन्त्र-यन्त्रादि का प्राप्त होता है, उसमें सर्वाधिक श्रीपार्श्वनाथ से सम्बद्ध है। धरणेन्द्र यक्ष और पद्मावती देवी की उपासना में भी श्रीपार्श्वनाथ का ही महत्त्व है। म इस प्रकार मूल तीर्थंकर एवं उनके द्वारा भाषित आगमों से जैनतन्त्र का उद्गम हुआ और उसका प्रवाह क्रमशः बढ़ते-बढ़ते आज अत्यधिक विस्तार को प्राप्त हो गया है। दिगम्बर सम्प्रदाय का दक्षिण में पूर्ण प्रसार रहा, जिसके फलस्वरूप वहाँ जैन-ब्राह्मणों की परम्परा भी विकसित हुई। उन्होंने अपने संस्कारों के अनुरूप जैन तन्त्र-साहित्य में वैदिक-विधानों के क्रम को भी अवतारित किया, बहुत से प्रचलित मन्त्रों का जैनीकरण किया तथा अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचनाएँ भी की। प्रभाचन्द्र का ‘प्रभावकचरित्र’ ग्रन्थ इसी कोटि का है, जिसमें अनेक महाप्रभावी तान्त्रिक जैनाचार्यों की मन्त्र-निष्णातता एवं प्रभावापन्न उत्कृष्ट कर्मों का वर्णन है। जैन आख्यानों में ऐसे अनेक आख्यान प्राप्त होते हैं, जिनमें आचार्यों/सूरियों ने नगर में आये ईति, भीति, मारी, चोर आदि तथा प्रेतयोनि-प्राप्त भूत, वेताल, डाकिनी, शाकिनी एवं व्यन्तरों के द्वारा किये गये उपद्रवों का तात्कालिक शमन मन्त्रसाधना के बल पर ही किया था। __जैन मान्त्रिक स्तुतियों की फलसूचक पुष्पिकाओं से भी यह विषय स्पष्ट हो जाता है। यद्यपि जैन-आचार में ऐसी मन्त्र-तन्त्रात्मक साधना और प्रयोगों को कर्मबन्धन का कारण ही माना है, तथापि अन्य धर्मावलम्बियों की समानता में स्थिर रहने तथा हमारे धर्म में भी यह सब है, अतः अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं, इस मन्तव्य की सिद्धि के लिये इस क्षेत्र का भी विस्तार हुआ। निवृत्ति-प्रधान, अध्यात्मवादी तथा कर्म-सिद्धान्त पर अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिये तन्त्र-मार्ग का आश्रय मूलतः श्रद्धा बनाये रखने की भावना से ही प्रवृत्त हुआ, ऐसी धार्मिक मान्यता है, तथापि आगमों में इस विषय के संकेत, विधि और महत्त्व के निर्देश मिलने से तन्त्रशास्त्रीय प्रवृत्ति को अपनी जैन धर्मानुमत सीमाओं में स्वीकरण से निषेध नहीं किया जा सकता। साथ ही जो व्यक्ति यह कहते हैं कि “धर्म का उद्देश्य मनुष्य को मक्ति-मार्ग की ओर ले जाने का है, उसके साथ तन्त्र का कोई सम्बन्ध नहीं” तो यह कथन भी उचित नहीं है, क्योंकि मन्त्र-तन्त्र मोक्षमार्ग के साधनभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र इन तीनों की पुष्टि करने वाले हैं। “नमस्कार" यह मन्त्र है, ‘सिद्धचक्र’ यह यन्त्र है और ‘स्नात्रपूजा’ यह तन्त्र है। मन्त्र के अर्थ, भाव, रहस्य पर विचार करते हैं, तो सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती है। यन्त्र की आराध्य वस्तु पर गहरा मनन करते हैं, तो सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती है और पूजादि तन्त्रविधानों में तल्लीन होते हैं, तो भी सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती की ४५२ म तन्त्रागम-खण्ड मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र की साधना-आराधना से शुभ भावों की अभिवृद्धि होती है, अतः वह चारित्र की पुष्टि करने वाली है। इस प्रकार तन्त्रोदित-साधना मोक्षमार्ग में उपकारक होने से भी यह विद्या अतिप्राचीन काल से जैनधर्म में समादृत स्थान को प्राप्त है।

जैन-तन्त्र के देवी-देवता

प्राचीन काल में जैन मन्त्र साधक ‘श्री, हरी, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी इन छह देवियों की साधना करते थे, यह “भगवती-सूत्र" आदि आगमों में आने वाले उल्लेखों से ज्ञात होता है। एक समय में तीर्थकरों की माताओं की भी पूजा-उपासना होती होगी, यह ‘चिन्तामणि-कल्प’ आदि में आये विधानों से जाना जा सकता है। परन्तु विशेष रूप से जैनतन्त्रसाधक सोलह विद्यादेवियों तथा तीर्थंकरों की, यक्ष-यक्षिणियों, अर्थात् शासनदेवों तथा शासनदेवियों की साधना करते हैं। सोलह विद्याओं के नाम इस प्रकार हैं १. रोहिणी, २. प्रज्ञप्ति, ३. वज्रशृंखला, ४. वज्राङ्कुशी, ५. अप्रतिचक्रा, ६. पुरुषदत्ता, ७. काली, ८. महाकाली, १०. गान्धारी, ११. सर्वास्त्रा-महाज्वाला, १२. मानवी, १३. वैरोट्या, १४. अच्छुप्ता, १५. मानसी और १६. महामानसी। जाई की इन देवियों के वाहन, वर्ण तथा भुजा आदि का विस्तृत वर्णन ‘निर्वाण-कलिका’ में दिया गया है। २४ तीर्थंकरों के यक्ष और यक्षिणियों से नीमन क्रम तीर्थकर जाम यक्ष निकि यक्षिणी १. श्रीऋषभदेव का । गोमुख अप्रतिचक्रा (चक्रेश्वरी) श्रीअजितनाथ महायक्ष अजिता जता कि श्रीसम्भवनाथ त्रिमुख दुरिता

  • ४. श्रीअभिनन्दन ईश्वर कालिका मानि श्रीसुमतिनाथ तुम्बुरु महाकाली ६. श्रीपद्मप्रभ गांET: अच्युता के किसी ७. श्रीसुपार्श्वनाथ मातंग शान्तादेवी ८. श्रीचन्द्रप्रभ कि अनार विजय ज्वालामालिनी ६. श्रीसुविधिनाथमा अजित सुतारा १०. श्रीशीतलानाथ गावपमा र अशोका क-ना जोकि ते ११. श्रीश्रेयांसनाथ जी ईश्वर मानवी (श्रीवत्सा) १२. श्रीवासुपूज्य हि आजार कुमार नए प्रचण्डा (चण्डा)मा वाम १३. श्रीविमलनाथ जी षण्मुख झा विदिता (विजया)H जो कि १४. श्रीअनन्तनाथ लामिक पातालनि अङ्कुशा क र سه कुसुम १५. श्राधमा धारिणी गोमेध पद्मावती जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा श्रीधर्मनाथ किन्नर का कन्दर्पा (प्रज्ञप्ति), १६. श्रीशान्तिनाथ गरुड निर्वाणी १७. श्रीकुन्थुनाथ गान्धर्व बला (अच्युत बला) १८. श्रीअरनाथ यक्षेन्द्र १६. श्रीमल्लिनाथ को कुबेर वैरोट्या २०. श्रीमुनिसुव्रत वरुणमा विरदना (अच्छुता) २१. श्रीनेमिनाथ गान्धारीता २२. श्रीअरिष्टनेमि
  • कूष्माण्डी (अम्बिका) २३. श्रीपार्श्वनाथ पार्श्व २४. श्रीमहावीरस्वामी मातंग सिद्धायिका __इनमें से प्रत्येक के मन्त्र-यन्त्र हैं और इनकी प्रमुख उपासना-विधियाँ भी हैं। आज इन यक्ष-यक्षिणियों में से चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, कूष्माण्डी (अम्बिका) और पद्मावती देवी की उपासनाएँ विशेष रूप से होती है। इनके विशिष्ट कल्प, स्तोत्र, आम्नाय भी प्राप्त हैं। ए इनके अतिरिक्त ‘श्रुतदेवता’ और ‘सरस्वती,’ ‘६४ योगिनियां’ तथा ‘श्रीमणिभद्र’ तथा ‘घण्टाकर्ण’ की पूजा-उपासना भी गतानुगतिक प्रवाह से आज भी चल रही है। अन्य यक्षिणी आदि के मन्त्रों की कर्मपरता से भी देव-देवियों के स्वरूप-विस्तार में विविधता आयी है। इन देव-देवियों की स्थिति एवं गति के सम्बन्ध में भी बताया गया है कि ये आकाश और पाताल में निवास करते हैं। संसार में सुख-दुःख देने वाले, अच्छा-बुरा करने वाले जो देव अथवा देवियाँ हैं, वे सब पातालवासी ही होते हैं। जैन मान्यतानुसार देव-देवियां भी सांसारिक जीव ही हैं, किन्तु मनुष्यों की अपेक्षा शरीर-सम्पत्ति, बुद्धि, ऋद्धि-सिद्धि आदि के सम्बन्ध में वे अधिक ‘सम्पन्न’ हैं तथा इसी श्रेष्ठता के कारण उन्हें ‘देव’ कहा जाता जैसे देव के रूप में ज्ञात ईश्वरीय व्यक्तियों की ही भक्ति-उपासना इष्ट कार्य और मनोरथों को पूर्ण करती है, उसी प्रकार इन सांसारिक देवों की उपासना भी विशिष्ट शक्तिमत्ता के कारण यथाशक्ति उपासक जीवों की बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की भावनाओं को, कामनाओं को सफल करती है। इन देवों की शारीरिक सम्पदा सामान्य मनुष्य से भिन्न है। ये हम जैसे होते हुए भी भिन्न पुद्गल-परमाणुओं से बने होते हैं। चैतन्य एवं अचैतन्य इस समग्र सृष्टि में पाँच प्रकार के शरीर-१. औदरिक, २. वैक्रिय, ३. आहारक, ४. तैजस एवं५. कार्मण हैं। देव और देवियों के शरीर वैक्रिय होते हैं। इन वैक्रिय शरीरों में रक्त, मांस मज्जा आदि सात धातुओं में से एक भी धातु नहीं होती, तथापि वैक्रिय वर्यणा के पुद्गल शरीर के उन स्थानों में इस प्रकार संयुक्त हो जाते हैं कि वे देखने में मानव जैसे होने पर भी मानव शरीर तन्त्रागम-खण्ड से अधिक सुदृढ़, तेजस्वी, प्रकाशमान और अतिसुन्दर होते हैं। इन देवों के दर्शन अशक्य है, तथापि इनके दर्शन का एक मार्ग है और वह है—मन्त्रसाधना। मन्त्रसाधना से असम्भव भी सम्भव हो सकता है। वैक्रिय शरीरधारी देवलोक में जन्म लेने के साथ ही त्रिकाल ज्ञानकारी मर्यादित अवधि ज्ञान को प्राप्त होते हैं। उसी के द्वारा वे भगवान् की समर्पणभाव से भक्ति-उपासना करने वालों की इष्ट सफलता में सहायक होते हैं। इसी प्रकार स्वयं उनकी पूजा-उपासना करने वालों पर प्रसन्न होकर उनकी इष्टपूर्ति करते हैं। वे मानव की अपेक्षा शक्तिसम्पन्न होने के साथ ही सदा नीरोगी, सुगन्धित श्वासवाले, चिरयुवा, दीर्घायु होते हैं। अतः ये केवल भौतिक सुख देने में ही सहायक नहीं होते, अपितु धर्मप्राप्ति, कर्मक्षय तथा मोक्षप्राप्ति में भी सहायक बनते हैं। बार

जैन धर्म और मन्त्र

सभी धर्मों में जिस प्रकार साधना का सर्वोत्तम साधन ‘मन्त्र’ को बताया गया है, उसी प्रकार जैनधर्म भी स्वात्मबोध, स्वरूपज्ञान तथा सांसारिक अपेक्षाओं का परिपूरक ‘मन्त्र’ को ही बताता है। जैनधर्म की एक परिभाषा प्रसिद्ध है - “आत्मा के लिये, आत्मा के द्वारा प्राप्य और आत्मा में प्रतिष्ठित होने वाला धर्म जैन धर्म है”। इसी मन्तव्य की पुष्टि के लिये पूर्ववर्ती महापुरुषों ने अनेक उपाय बताये हैं, जिनमें मन्त्र-तन्त्रात्मक साधना-पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हजारों वर्षों से प्रयुक्त, परीक्षित एवं अनुभव-सिद्ध इस पद्धति के प्रयोगों से हजारों साधकों ने अभीष्ट सिद्धि के द्वार उद्घाटित किये हैं, असम्भव को सम्भव बनाया है तथा यथायोग्य आवश्यकतानुसार परिष्कार भी किये है। जैन आगमों से आविर्भूत मन्त्र और मन्त्र-साधना के विधानों के दीर्घकालिक अनुष्ठानों से प्रसन्न होकर स्वयं आराध्य देवों ने भी इस सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश दिये हैं, यह भी विभिन्न प्राचीन आचार्यों के चरित से प्रमाणित होता है। साधना की शास्त्रोपदिष्ट पात्रता प्राप्त करके निर्मल भाव से गुरूपदिष्ट विधि से साधना करने पर यह सर्वार्थ सिद्धि देती है, यह सुनिश्चित शास्त्रवचन है।

जिन नमस्कार-मन्त्रात्मक साहित्य

जैन धर्म का आराधना मन्त्र “पञ्चनमस्कार-मन्त्र" के नाम से विख्यात है। यह मन्त्र पाँच आराध्य- १. अर्हत्, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय, एवं ५. साधुओं को प्रणति करने से, ‘नमः’ पद से आरम्भ होने से तथा पाँच पदों से युक्त होने के कारण “पञ्च नमस्कार" कहा जाता है। मन्त्र के पाँच सूत्र रूप, नमस्कार-रूप पदों के अतिरिक्त इस मन्त्र में एक पद्य फलश्रुतिरूप भी है, उसके चार पदों के योग से इसे (५+ ४ = ६ पद) नवकार भी कहते हैं। नव का अर्थ नमन भी मान्य है। मूलतः इस मन्त्र की भाषा अर्धभागधी है, अतः इसके नाम ‘णमोकार, णमुक्कार’ आदि भी प्रचलित हैं।जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा को यह मन्त्र महामन्त्र के रूप में सर्वसम्प्रदाय द्वारा मान्य, जाप्य, स्मरणीय, मननीय और तन्त्रात्मक पद्धति से उपास्य है। विभिन्न धर्मों के मान्य मन्त्रों की उपासना-पद्धतियों के अनुसार जैनधर्मानुयायी आचार्यों ने भी इसकी महिमा को व्यक्त करने के लिये शास्त्रीय-प्रक्रियाओं द्वारा व्याख्यान किये हैं, भाष्य लिखे हैं, तों द्वारा तथ्यों को निर्धारित किया है तथा सर्वविध सिद्धियों का परिपूरक बताकर जिनागमों का सार बतलाया है। “इसी मन्त्र के द्वारा जैन साधक विभिन्न अनुष्ठानों के आचरण द्वारा निश्चित लक्ष्य तक पहुँचे हैं, अतः यह नितान्त महत्त्वपूर्ण है” इस मन्तव्य को स्पष्ट करने वाले आख्यान भी जैन वाङ्मय में चतुर्विध संघ– १. साधु, २. साध्वी, ३. श्रावक और ४. श्राविकाओं के लोकोत्तर चरितों के परिचायक प्राप्त हैं और इनमें यह दिखाया गया है कि किस प्रकार वे संकटों से पार हुए तथा लौकिक विडम्बनाओं से मुक्त होकर मोक्षलक्ष्मी का वरण करने में सफल हुए। __जैन-साधना की विधियाँ भी अपने ढंग से कतिपय विशिष्टताओं को लिये हुए हैं, जिनमें तप की प्रधानता है। यह तप बहुत प्रकारों से मण्डित है, यौगिक क्रियाएँ भी इसमें समन्वित हैं। विशिष्ट जैन-सम्प्रदायों में मान्य पौं पर नमस्कार-मन्त्र की आराधना सामूहिक रूप से भी होती है, विशाल मण्डल-यन्त्र की रचना करके उसकी महापूजा की जाती है। इस मन्त्र के साथ इष्ट बीज-मन्त्रों का संयोजन करके जप-स्मरण किया जाता है और सर्वमन्त्र-शिरोमणि प्रणव, ॐकार का ही यह विस्तृत रूप-मन्त्र है, ऐसा सिद्ध करते हुए जैनाचार्यों ने ‘अ-सि-आ-उ-सा नमः’ मन्त्र के पदाक्षरों में सि-सिद्ध और सा-साधु के पर्याय रूप अशरीरी-सिद्ध तथा मुनि-साधु को मानकर ‘अ अ आ उ म्’ इन पाँच स्वर-व्यंजनों की समष्टि सिद्ध की है। इस प्रकार ॐकार-रूप को नमस्कार-मन्त्रात्मक बतलाकर ॐकार की आकृति में पाँचों आराध्यदेवों को विराजमान भी दिखलाया है, जिनके स्वरूप एवं वर्ण भी अंकित होते हैं। माना । जैनतन्त्र की प्रवृत्ति में ‘नमस्कार-मन्त्र-साधनात्मक’ साहित्य का पूर्ण विस्तार है। अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, हो भी रहे हैं तथा हस्तलिखित प्रतियों के रूप में भी यह साहित्य विभिन्न ग्रन्थागारों में उपलब्ध है। प्रमाण नमस्कार-मन्त्र को जैन-मतानुसार अनादि काल से चला आया माना जाता है। एतदर्थ यह वचन है अणाइ कालो अणाइ जीवो अणाइ जिणधम्मो।। तइया वि ते पढंता इसुच्चिअ जिणणमुक्कारो॥ कि ‘महानिशीथ सूत्र’ में इसे ‘पञ्चमङ्गल-महाश्रुत-स्कन्ध’ कह कर सकल जैन आगमों में व्याप्त बताया है। जैन धर्म की समस्त साधनाओं का मूल होने के कारण ‘नमस्कारमन्त्र’ की तन्त्रात्मक विचारणा एवं व्याख्याएं भाष्य एवं स्तोत्रों में पर्याप्त उपलब्ध हैं। नमस्कारमन्त्र में ४५६ तन्त्रागम-खण्ड को सर्वव्यापी मन्त्र के रूप में जैन आगम और शास्त्रों में बहुत ही वैदुष्यपूर्ण पद्धति से परिभाषित किया है। कोई ऐसी तन्त्रमूलक, योगमूलक, उपासनामूलक और अन्य धर्मों में प्रचलित विधि नहीं रही है, जिसमें नमस्कारमन्त्र का समावेश नहीं हुआ हो। अर्धमागधी में संकलित जैन आगमों में प्रधानतः इस मन्त्र के जो जो संकेत आये हैं, उनकी व्याख्या बड़े-बड़े सिद्ध-सारस्वत आचार्यों ने अत्यन्त विशद रूप से की है और उन भाष्यों-व्याख्याओं में वे सभी तथ्य प्रकट किये हैं, जिनकी अपेक्षा रहती है। इनका यत्किञ्चित् परिचय इस प्रकार है १. सप्तस्मरणेषु प्रथमं नमस्कारस्मरणम्-इस पर श्रीसिद्धिचन्द्रगणिकृत व्याख्या और श्रीहर्षकीर्ति सूरि की व्याख्या है। नमस्कारान्तर्गत-पदविशेषानेकार्थाः—पण्डित गुणरत्न मुनि ने यह व्याख्या बहुत विशद रूप से की है तथा नमस्कार के प्रत्येक पद के व्याकरण और अन्य शास्त्रों के आधार पर अर्थ किये हैं। इसके स्मरण से प्राप्य लाभों का सूचन भी यहाँ हुआ

भगवतीसूत्रस्य मङ्गलाचरणम्-इस पर श्रीअभयदेव सूरि ने ‘वृत्ति’ की रचना की है। यह सूत्र ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस व्याख्या का सम्पादन मुनिराज श्रीपुण्यविजय ने किया है। व्याख्या के अन्त में शंका-समाधान को भी स्थान दिया है। श्रीमहानिशीथसूत्रसन्दर्भ (नमस्कारमन्त्र)—इसमें नमस्कार मन्त्र के उपधान-विधान पर विशेष विचार किया गया है। यहाँ नमस्कार मन्त्र के पदों का उपदेश ‘दीक्षापूर्वक’ किस प्रकार लिया जाय, इसका बहुत ही महत्त्वपूर्ण विवेचन है। पदच्छेद, घोषबद्धता, आनुपूर्वी, पूर्वानुपूर्वी, अनानुपूर्वी आदि विचारणीय विषय मन्त्रशास्त्र के लिये अत्युपयोगी चैत्यवन्दनमहाभाष्ये नमस्कारसूत्रम्-अष्टषष्टि ६८ अक्षरों वाले ‘नमस्कारमन्त्र’ के विवेचन में वर्ण, छन्द, चूलिकाएँ, वृच्छसम्प्रदाय आदि का स्पष्टीकरण देते हुए श्रीधर्मकीर्तिसूरि ने वि.सं. १२७० में यह शास्त्र लिखा है। रासस उपहाण-विधि-थुत्त-श्रीमानदेव सूरि (वि.सं. १२६१) का उपधान-विधिस्तोत्र प्राकृत में रचित ५४ गाथाओं का स्तोत्र है। श्रीजिनप्रभसूरि ने ‘विधिमार्गप्रथा’ में इसे बहुत आदर से उद्धृत किया है। यह स्तोत्र उपधान व्रत की प्रामाणिक विधि को प्रस्तुत करता है। इसमें नमस्कार स्तोत्र, ईरियावही-तस्स, उत्तरीसूत्र, नमो त्थु णं सूत्र, अरिहंत चेईमाणं सूत्र, अन्नत्थसूत्र, लोगस्स सूत्र, पुक्खरवर-दीवड्ढे सूत्र, सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र और वेयावच्चगराणं सूत्र की वाचनाओं के तप की, उपधान दिनों की विधि के सम्बन्ध में जानकारी देता है। एक प्रकार से यह व्रत उक्त सूत्रों के जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४५७ दीक्षोपदेश का विधान स्पष्ट करता है। इसमें अनेकविध उपवासों के नियम भी प्रदर्शित हैं। ७. आवश्यकनियुक्तिगत नमस्कारनियुक्ति (वि.सं. छठी शती)—इसकी रचना श्रीभद्रबाहु स्वामी ने १३८ गाथाओं में की है। श्रीभद्रसूरिकृत ‘शिष्यहिता’ टीका और विशेषावश्यकभाष्य के अनुरूप नमस्कारमन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिये यहाँ सूक्ष्म विचार प्रस्तुत हुआ है। यह ज्ञान प्राप्त करने के लिये- १. उत्पत्ति, २. निक्षेप, ३. पद, ४. पदार्थ, ५. प्ररूपणा, ६. वस्तु, ७. आक्षेप, ८. प्रसिद्धि, ६. क्रम, १०. प्रयोजन और ११. फल इन ग्यारह द्वारों से, प्रश्नों से विचार किया गया है। षट्खण्डागम सन्दर्भ (नमस्कार-मन्त्र व्याख्यादि)–श्रीपुष्पदन्त भूतबलिप्रणीत तथा श्रीवीरसेनाचार्यरचित ‘धवला’ टीका से युक्त नमस्कार-मन्त्र व्याख्या में शंका-समाधान पद्धति से महत्ता, मंगलरूपता एवं पद-पदार्थानुसारी व्याख्यान है। यह ग्रन्थ दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय का बहुमान्य ग्रन्थ है। ६-१०.अर्हन्नमस्कारावलिका तथा सिद्धनमस्कारावलिका—ये अर्हत् और सिद्धों के १०८-१०८ गुणों को व्यक्त करने वाली नमस्कारादि पदों से युक्त कृतियाँ अज्ञातकर्तृक हैं। ११. अरिहाणाइ थुत्त अथवा पंचपरमेट्ठि थुत्त-अज्ञातकर्तृक यह कृति जैनपरम्परा की मन्त्र और ध्यानविषयक प्राचीन प्रणाली को प्रस्तुत करती है। यहाँ धर्मचक्र का मन्त्रस्वरूप तथा नमस्कार-मन्त्र का ध्यान विशिष्ट प्रकार से दिया है। मुख्यतः इस स्तोत्र में पाँच विषयों का निरूपण है- १. नमस्कार-सूत्र का रहस्य, २. चार शरणों का रहस्य, ३. पंचनमस्कारचक्र, ४. ध्यान-प्रक्रिया तथा ५. धनुर्विद्या। इस स्तोत्र में । ३६ गाथाएँ हैं। १२. पञ्चनमस्कारचक्रोद्धारवृत्ति-श्रीभद्रगुप्त स्वामी महासैद्धान्तिककृत। इसका वर्णन ‘यन्त्रात्मक साहित्य’ में वर्तमान चक्रोद्धारविधि में किया है। १३. नवकार-सारूपधवणं-श्रीमानतुङ्गसूरिकृत-यह स्तवन ३५ गाथाओं में रचित है। इस स्तोत्र पर ‘नमस्कार-व्याख्या-टीका’ स्वोपज्ञ प्राप्त है, जिसके आधार पर मन्त्रशास्त्रीय विभिन्न विधियों का रहस्य समझाते हुए मन्त्रपद और प्रयोगविधि स्पष्ट की गई है। संस्कृत में यह व्याख्या बहुत उपयोगी है। अनेक विद्याओं का उद्धार, यन्त्रिकाएँ, रंजिकाएँ, षट्कर्म, ध्यानविधि आदि विषयों का तथ्यपूर्ण विवेचन इस व्याख्या की अपूर्वता को सिद्ध करता है। सिद्धचक्रमहिमपद्धति-स्तवन, सिद्धचक्रध्यातव्य-विधि, लघुसिद्धचक्र-स्तोत्र, चूडामणिप्रस्ताव, चिकित्सा, रसायनविद्या, ज्योतिष आदि अनेक विषयों का संग्रह हुआ है। यह व्याख्या दो विभागों में विभक्त है। प्रथम विभाग में स्तोत्र, स्तोत्र से सम्बद्ध साधना-विधि, फल, पञ्चपदाम्नाय, ४५८ तन्त्रागम-खण्ड प्रमुख मन्त्रस्तोत्रादि हैं। द्वितीय विभाग में स्तवन की भिन्न-भिन्न क्रम से गाथाएँ देकर उसमें पूर्वोक्त स्तोत्रादि के साथ ‘आयशास्त्र, पञ्चस्वरोदय, शरीर-स्वरोदय, नाडीशास्त्र, अर्थकाण्ड, वैद्यकशास्त्र, जैनतत्त्वज्ञान आदि भी वर्णित हैं। किसी १४. कुवलयमाला सन्दर्भ (नमस्कारमन्त्र) श्री उद्योत सूरि (वि.सं. ८३५) यह प्राकृत भाषा में रचित चम्पूकाव्य है। इसका १३ हजार श्लोकप्रमाण है। श्री रत्नप्रभसूरि ने इसका संक्षिप्त रूपान्तर ४ हजार श्लोकप्रमाण में गद्य-पद्य रूप में किया है। इसमें पाँच पात्रों की कथा के माध्यम से पंचपरमेष्ठी की आराधना का विषय वर्णित है। १५. पञ्चपरमेष्ठितत्त्वसार—यह संग्रहग्रन्थ है। इसमें परमेष्ठ्यादि पदगर्भित मन्त्रों के आम्नाय सहित पाठ संगृहीत हैं। ८१ मन्त्रों का सविधि उल्लेख इसकी विशिष्टता को व्यक्त करता है। ग्रन्थनाम का सूचन ‘नमस्कारव्याख्यानटीका’ में हुआ है। १६. पञ्चनमस्कारफलस्तोत्र श्रीजिनचन्द्रसूरि—यह स्तोत्र ११८ गाथाओं में रचित है। कर्ता श्री अभयदेव सूरि के सतीर्थ्य थे। इस स्तोत्र के अपरनाम ‘नमुक्कार केहि फलपगरणं’ और ‘वुड्ढनमुक्कार-फलथुत्त’ भी है। नमस्कार-मन्त्र के फल का इसमें शीत विशद वर्णन है। १७. नमुक्कार-रहस्य-थवणं श्रीजिनदत्तसूरि—इस स्तवन में १२ गाथाएँ हैं। कर्ता प्रतिभाशाली तत्त्वज्ञ और मान्त्रिक थे। एक श्रावक को व्यन्तर की पीड़ा से मुक्त कराने के लिये ‘गणधरसप्ततिका’ की रचना की थी। यह स्तवन भी मन्त्र-विदर्भित होने से बड़ा प्रभावक माना जाता है। १८. सिरिगणिविस्ताथुत्तं अज्ञातकर्तृक—यह स्तोत्र नमस्कारमन्त्र के ध्यान, उपदेश और * अभ्यास के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डालता है। गणिविद्या का महत्त्व वर्णन करके यह निर्देश किया है कि प्रत्येक विद्या का नमस्कारमन्त्रपूर्वक स्मरण करने पर वह अधिक फलदायक होती है। जितनावर १६. जिनपञ्जरस्तोत्र श्रीकमलप्रभसूरि-यह २५ पद्यों का स्तोत्र ‘कवच’ की पद्धति पर निर्मित है। न्यास की प्रक्रिया पर विशेष सूचना करते हुए इसमें पंचपरमेष्ठी तथा २४ तीर्थंकरों के शरीर में किस-किस स्थल पर न्यास करना चाहिये, यह बताया है। न्यास के फलों का भी कथन किया है। २०. परमात्मपञ्चविंशतिका उपा. श्रीयशोविजयगणि—इसमें परमेष्ठी जिनेश्वरों के शुद्धस्वरूप का वर्णन तथा उनकी विशेषताओं का सुन्दर वर्णन किया गया है। २१. पञ्चनमस्कृतिदीपक भट्टारक सिंहनन्दी—इसमें १. साधन, २. ध्यान, ३. कर्म, ४. स्तव और ५. फल नामक पाँच अधिकार हैं। ४३ पद्यों में नमस्कार-मन्त्र की विशेषताओं का व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। अनेक विद्याएँ तथा मन्त्र इसके सन्दर्भ में सविधि दिये गये हैं। शाम जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४५६ २२. आत्मरक्षानमस्कारस्तोत्र—अज्ञातकर्तृक पद्यों का यह स्तोत्र ‘कवच’ पद्धति पर मिज निर्मित है। इसमें न्यासविधान दिया गया है। इसी प्रकार सहस्रनाम-स्तोत्रों की भी रचनाएँ हुई हैं तथा ‘लक्षनवकार-गुणनविधि’ पर भी लिखा गया है। नमस्कारमन्त्र के जप की अनेक विधियाँ आचार्यों ने विकसित की हैं। मालाओं के प्रयोग तथा करमालाओं के ३० वर्त, ह्रींवर्त, श्रीवर्त शंखावर्त, नन्द्यावर्त आदि प्रकार अन्य धमों की अपेक्षा स्वतन्त्र महत्त्व रखते हैं। यह भी स्मरणीय है कि तान्त्रिक प्रक्रियाएँ अपने-अपने धर्म के साम्प्रदायिक सिद्धान्तों के घेरे में फिरती रहती है और उनमें तत्कालीन लोक-प्रवृत्तियों की प्रतिच्छाया भी प्रविष्ट होती रहती है।

अन्य जैन मन्त्रात्मक साधना-साहित्य

मन्त्ररचना में मूलतः मातृका-वों का ही संयोजन रहता है। अतः मन्त्र-ज्ञान से पूर्व मातृका के अक्षरों पर चिन्तन भी जैन आचार्यों ने स्वीकार किया है। ‘नमस्कार-मन्त्र’ से ही वर्णमातृका की उत्पत्ति प्रदर्शित की गई है, जिसे मन्त्र-ग्रन्थों में ‘स्वतन्त्र’ और ‘मिश्ररूप’ से व्यक्त किया है। कतिपय प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं-जागनाईला १. विद्यानुशासन, मल्लिषेण सूरि वि.सं. १११० अनु.—यह विविध मन्त्रशास्त्रों का . संग्रह-ग्रन्थ है। इसमें ७००० पद्य तथा २४ प्रकरण हैं। अनेक प्राचीन ग्रन्थों के अवतरण इस संकलन में हैं, जिनके आधार पर पूर्ववर्ती मन्त्रात्मक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों के परिचय भी मिलते हैं। यह भी मान्यता है कि इस ग्रन्थ में उत्तरकाल में कुछ अंश प्रक्षिप्त भी है। यहाँ अकारादि-हकार पर्यन्त वर्णों की मन्त्ररूपता को प्रतिपादित करते हुए ‘मन्त्रव्याकरण’ भी द्वितीय प्रकरण में दिया है। वर्गों के स्थान, चतुर्वर्ग, रंग, सिद्धि-तिथियाँ, वार, अक्षरों की गति, मैत्री-शत्रुता, पार्थिवादि मण्डल, लिंगपरिचय, शक्ति एवं स्मरणफल भी इसमें दिये गये हैं। एतदतिरिक्त अनेक जैन देवी-देवताओं के मन्त्र-विधान, बाल-चिकित्सा, यन्त्र आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इसी नाम से अन्याचार्य निर्मित अन्य ग्रन्थ भी एक-दो प्राप्त होते हैं। २. मातृकाप्रकरण-सन्दर्भ, श्रीरत्नचन्द्र गणि—इसमें भाषा, सन्धिनियम, छन्द, वर्णप्रस्तार, उच्चारण-विधि के साथ ‘याक्षीय अल्पाक्षरी संकेतविधि’ का संकेत विशिष्ट है। ॐ की निष्पत्ति पांच वर्णों ‘अ-अ-आ-उ-म’ से होने का प्रकार भी यहाँ स्पष्ट किया है। अन्य बीज-मन्त्रों की निष्पत्ति पर भी प्रकाश डाला गया है और जप-प्रक्रिया भी प्रदर्शित है। मन्त्रराजरहस्य, सिंहतिलकसूरि, वि.सं. १३३२—यह ग्रन्थ ८०० श्लोकों में निर्मित है। इसमें सूरिमन्त्र पर विशेष विचार है, जिसके प्रथम पीठ में ५० लब्धिपद हैं और ४६० तन्त्रागम-खण्ड इनमें से प्रत्येक में २०-२० विद्याएं हैं। अतः मन्त्रराज पीठ में १००० विद्याएँ तथा १००० मन्त्रों का उल्लेख है। लेखक ने इस पर स्वोपज्ञ ‘लीलावती’ नामक वृत्ति भी लिखी है। ज्ञानार्णव, शुभचन्द्राचार्य, वि.सं. ११३०–यह कृति योग, ध्यान एवं मन्त्रशास्त्रीय विषयों का एक विशिष्ट संग्रह है। इसमें २०७७ श्लोक हैं। ४२ सर्गों में यह विभक्त है। प्राणायाम को इन्होंने निरुपयोगी बताया है। कालज्ञान के लिये ‘पवनजय’ को प्रमुखता देकर इन्द्रियजय का उपाय चित्त की शुद्धि को बताया है। पाँच महाव्रतों से सम्बद्ध भावनाओं का निरूपण तथा मन्त्र-बीज, मन्त्र-मातृका आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला है। ‘अहं’ बीज-मन्त्र और नमस्कार-मन्त्र के पदों से वर्णमातृका की उत्पत्ति भी ज्ञानार्णवकार ने बताई है। इस ग्रन्थ पर ३ टीकाएँ उपलब्ध हैं- १. तत्त्वत्रयप्रकाशिनी, श्रुतसागररचित, २. टीका नामविलास एवं ३. टीका अज्ञातकर्तृक है। ५. ज्ञानार्णवसारोद्धार, अज्ञातकर्तृक यह ग्रन्थ ज्ञानार्णव का संक्षिप्त रूप है। ६. योगशास्त्र, हेमचन्द्राचार्य, वि.सं. १२००–श्रीहेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र ‘अध्यात्मोपनिषद्’ और ‘अध्यात्मविद्योपनिषद्’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह बारह के प्रकाशों में विभक्त है। इसमें १००६ पद्य हैं। इसमें जैन धर्म के मार्गानुसारी के ३५ गुण, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व श्रावकाचार के प्रारंभिक पांच अणुव्रत, शेष ७ व्रत के चामा अतिचारों का निरूपण, रत्नत्रय-ऐक्यभावना, ध्यान, आसन, प्राणायाम-प्रकार, निकालज्ञान, परकायप्रवेश-विवरण, रूपातीत ध्यान, सिद्धि आदि का वर्णन है। नाम प्रासंगिक रूप से इस ग्रन्थ में योग के साथ प्रयोज्य मन्त्रशास्त्रीय विषय भी चर्चित हैं। श्वेताम्बर जैन-सम्प्रदाय का यह परम मान्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ पर ‘स्वोपज्ञ-वृत्ति’ भी रचित है। विषयविशेष के स्पष्टीकरण में प्रायः ७ विवरण लिखे गये हैं। इसका गुजराती भाषा में अनुवाद भी हुआ है, हिन्दी और जर्मनी अनुवाद भी प्रकाशित हैं। ७. ब्रह्मविद्याविधि अथवा मन्त्रसारसमुच्चय-यह विजयवर्णी रचित, एक लघु कृति है। इसमें ही बीज ‘ॐ’ तथा अर्ह’ बीज के तान्त्रिक स्वरूपों का विवेचन है। ८. भद्रबाहुसंहिता, श्रीभद्रबाहु । ६. जैनतन्त्रसार। १०. केवलज्ञान-प्रश्नचूड़ामणि। ११. बृहद् विद्यानुवाद। १२. जैनेन्द्रसूरि-सिद्धान्तकोश गणेशवर्णी जी। कांनी माय १३. धर्मोपदेशमाला, धर्मदास गणि (वि.सं. ६१५)। निकाली गुणासा ४६१ TEST जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा इसमें ‘अहं’ अक्षरतत्त्व स्तव का कथन हुआ है, जिसमें अ-र-ह-बिन्दु इन चार तत्त्वों की महत्ता प्रतिपादित की गई है। इस ग्रन्थ पर अनेक जैनाचार्यों ने व्याख्या और विवरण लिखे हैं। श्री जयसिंह सूरि ने ‘धर्मापदेशमाला-विवरण’ लिखा है। कविवरण के अन्त में श्री जयसिंह सूरि ने ३१ प्राकृत गाथाओं में प्रशस्ति भी दी है। इसमें ‘अहं’ को कुण्डलिनीयोग, नादानुसन्धानयोग, लययोग आदि का जनक भी कहा है। १४. श्री हेमचन्द्राचार्य ने अपने सिद्ध हेमशब्दानुशासन, उसकी स्वोपज्ञ तत्त्वप्रकाशिका-टीका, संस्कृत द्वयाश्रय महाकाव्य, अभयतिलक गणिकृत टीका सहित, तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और उसकी सोमेदेव गणिकृत अवचूर्णि एवं श्रीप्रभानन्द सूरिकृत विवरण में नमस्कार-मन्त्र के सम्बन्ध में अनेकविध वैशिष्ट्य का निदर्शन कराया है। १५. तत्त्वार्थसार-दीपक, भट्टारक सकलकीर्ति-यह एक महान् ग्रन्थ है। इसमें जैन धर्म के तत्त्वों को विस्तार से समझाया गया है। पाण्डुलिपि की पत्रसंख्या ५५ से ६५ तक है। इसमें नमस्कार-मन्त्र के सम्बन्ध में १५४ पद्य लिखे हैं। ग्रन्थकार ने पदस्थ कि ध्यान के विषय को स्पष्ट करने के लिये ‘ज्ञानार्णव’ के पद्यों का सामान्य परिवर्तन के साथ उपयोग किया है। पदस्थ-ध्यान अत्यन्त स्वाधीन है, अतः सत्पुरुषों को मुक्ति के लिये सुसाध्य है, यह कह कर वर्णमाला का ध्यान, मन्त्राधिराज हूँ, अर्ह, हंकार, ॐकार आदि के ध्यान, मन्त्रमयता, जप-विधि, प्रयोगसापेक्ष मन्त्र-विधान आदि यहाँ वर्णित हैं। माता १६. तत्त्वानुशासन, श्रीनागसेनाचार्य-ध्यान-विषय का यह अद्भुत ग्रन्थ है। व्यवहार ध्यान तथा निश्चय आत्मालम्बन ध्यानपूर्वक पञ्चपरमेष्ठी के स्वरूप आदि का विशेष वर्णन है। अभयकुमारचरित, सुकृतसागर—(अपर नाम पेयडचरित)। वर्धमानसूरि का आचारदिनकर, रत्नमन्दिरगणि की उपदेशतरंगिणी आदि अनेक ग्रन्थों में मन्त्रशास्त्रीय एवं योगशास्त्रीय विधियों का स्वरूप बताया गया है। मन्त्र-साधना के अंगरूप —मुद्रा, पीठ, न्यास, पूजा-विधान उत्तर कर्मरूप जप विधान तथा इनके ही सहयोगी कर्म व्यवस्थित रूप से सम्पन्न हों, अतः उनके विधि-पुरस्कार सम्पादन से साध्य की पूर्ति तक पहुँचने के मार्ग को पूर्ण रूप से परिष्कृत किया है। __तान्त्रिक-वाङ्मय की विविधता का मूल लोक-परम्परा से भी जुड़ा हुआ है। विशाल आस्तिक जन-समुदाय “भिन्नरुचिर्हि लोकः” के अनुसार रुचि, सुविधा और समय के साथ उत्तरोत्तर विकास की यात्रा में जो व्यापकता आई है, वह इसकी विशिष्टता का आधार है और यह अनेक नामों से भी व्यवहृत होती रही है। है ४६२ तन्त्रागम-खण्ड का OF ‘मन्त्र’ और ‘विद्या’ शब्द अन्य तन्त्रों में क्रमशः पुरुष-देवतात्मक ‘मन्त्र’ और स्त्री-देवतात्मक ‘विद्या’ के रूप में गृहीत हैं। जैन तन्त्रों में प्रारम्भ में यह मान्यता नहीं रही और बाद में भी इस लक्षण का एकान्ततः स्वीकरण नहीं हुआ। कहा जाता है कि ‘विद्याप्रवाद’ में अंगुष्ठ-प्रश्न आदि सात सौ मन्त्रों, रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओं तथा उनकी साधन-विधियों का वर्णन था। ‘राजवार्त्तिक’ के अनुसार उसमें आठ महानिमित्तों का भी वर्णन था, जिनमें निम्नलिखित आठ विद्याएँ संगृहीत थीं म१. भौमविद्या, २. उत्पातविद्या, की निगा जवालाच्या कि ३. स्वप्नविद्या, ४. अन्तरिक्षविद्या, हा प्रकार की ५. अङ्गविद्या, ६. स्वरविद्या आम ७. लक्षणविद्या, ८. व्यञ्जनविद्या। यह ‘विद्या-प्रवाद’ ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। केवल उसके प्रकीर्ण अंश यत्र-तत्र उपलब्ध हैं। अंगविज्जा, भैरवपद्मावती-कल्प, लघुविद्यानुवाद, अष्टांगनिमित्त आदि ग्रन्थों में विद्या-प्रवाद के अंज्ञों का संचय हुआ है, ऐसी भी गवेषक विद्वानों की मान्यता है। जैन तन्त्रों की यह एक विशेषता रही है कि उसके द्वारा प्रदर्शित साधना-मार्ग में अधिकार की दृष्टि से कोई बन्धन नहीं रखा गया है। यह सभी साधना के इच्छुक की अर्हता को स्वीकार करता है। हाँ, यह अवश्य कहा गया है कि शुद्धता, स्वच्छता, आन्तरिक एवं बाह्य एकाग्रता, निष्ठा तथा श्रद्धा-विश्वास आदि आवश्यक पात्रता की अवहेलना न की जाय। कर्तव्य-कर्म एवं फलापेक्षा में किसी की हिंसा, हानि अथवा विद्वेष-प्रतीकार आदि की भावना न हो। सात्त्विक भाव तथा सात्त्विक साधनों का सदुपयोग किया जाय, यह प्रतिबद्धता ही यहाँ सफलता की कुंजी है। गाजालामाली जन्मकाज म

जैन विद्या-पदान्त मन्त्रग्रन्थ

मन्त्रात्मक-साहित्य को विद्याओं के रूप में व्यक्त करने वाले लघु-ग्रन्थ भी जैन धर्म में बहुत उपलब्ध है। यथा- १. मयूरवाहिनीविद्या २. चन्द्रप्रभविद्या, ३. पार्श्वस्तम्भनीविद्या, ४. शत्रुभयनाशिनीपार्श्वविद्या, ५. परविद्यानिवारिणीपार्श्वविद्या, ६. गान्धार-विद्या, ७. चतुर्विंशतितीर्थड्करविद्या, ८. श्रीऋषभविद्या, ६. श्रीशान्तिनाथविद्या, १०. अपराजिता-महाविद्या, ११. रोगापहारिणी-विद्या, १२. वासुपूज्यविद्याम्नाय, १३. सारस्वत-महाविद्या, १४. श्रुतदेवन विद्या, १५. अपराजिता-विद्या, १६. ब्रह्मविद्या (कल्प), १७. उग्रविद्या (कल्प), १८. पञ्चपरमेष्ठिविद्या तथा १६. वर्धमानविद्या।

  • इसी प्रकार आम्नायपदान्त मन्त्र-ग्रन्थ भी जैनाचार्यों ने बनाये हैं। यथा १. संतिकरस्तवनाम्नाय, २. तिजयपहुन्तस्तोत्राम्नाय, ३. चिन्तामणिमन्त्राम्नाय, ४. श्रीपार्श्वनाथ कल्पद्रुम-आम्नाय, ५. गीर्वाणचक्रस्तोत्राम्नाय, ६. भक्तामरस्तोत्राम्नाय, ७. कल्याणमन्दिर स्तोत्राम्नाय आदि। जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा मन्त्रविषयक साहित्य को ही मन्त्रसाधनान्त पद से भी अभिहित करते हुए कुछ ग्रन्थ लिखे गये प्राप्त होते हैं। यथा __१. चन्द्रपन्नत्ति मन्त्रसाधन, २. कुरुकुल्ला मन्त्रसाधन, ३. उच्छिष्टचाण्डालिनी मन्त्रसाधन, ४. कर्णपिशाचिनी मन्त्रसाधन, ५. चक्रेश्वरी स्वप्नमन्त्रसाधन, ६. अम्बिका स्वप्नमन्त्रसाधन, ७. शान्तिदेवता मन्त्रसाधन ८. योगिनी मन्त्रसाधन, ६. यक्षिणी मन्त्रसाधन, १०. क्षेत्रदेवता मन्त्रसाधन, ११. कृष्णगौर क्षेत्रपालमन्त्र, १२. बोडिया क्षेत्रपालमन्त्र. १३. भैरवमन्त्र, १४. बटुक भैरवमन्त्र, १५. स्वर्णाकर्षण भैरव-मन्त्र-साधन, १६. चतुःषष्टियोगिनीमन्त्रसाधन, १७. श्रीगौतमस्वामी मन्त्र, १८. श्रीवज्रस्वामी मन्त्र, १६. श्रीजिनदनसूरि मन्त्र., २०. श्रीजिनकुशलसूरि मन्त्र., २१. श्रीजिनचन्द्रसूरि मन्त्र., २२. पंचपीरमन्त्रसाधन आदि। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मन्त्रसाधना के रूप में जैन साधकों ने प्रसिद्ध मन्त्रवादी साधकों के मन्त्रों का भी दर्शन करके उनकी साधनाविधियों को प्रकट किया है। इनके चरण-युगलों की स्थापना के स्थानों को ‘दादाबाड़ी’ के नाम से सम्बोधित करके वहाँ उपासना की जाती है। ‘वृद्धसम्प्रदाय’ के सूचन से प्रमुख स्तोत्रों की व्याख्याओं के साथ उल्लिखित विशेष मन्त्र-साधना के सूचक हैं। एक ही देव अथवा देवी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों की आराधना को ध्यान में रखकर भी बहुत सी पुस्तकों का निर्माण हुआ है। पद्मावती देवी से सम्बद्ध पुस्तकें इस प्रकार हैं- १. धरणेन्द्र पद्मावती-पूजनविधि, २. रक्तपद्मावती कल्प, ३. रक्तपद्मावती वृद्धसाधन, ४. शैवागमोक्त पद्मावतीसाधन, ५. हंसपद्मावती-पूजन, ६. सरस्वतीपद्मावतीसाधन, ७. शबरीपद्मावती-पूजन, ८. कामेश्वरीपद्मावती मन्त्रसाधना, ६. भैरवी पद्मावती मन्त्रसाधना, १०. त्रिपुरा पद्मावती मन्त्रसाधना, ११. नित्यापद्मावती मन्त्रसाधना, १२. महामोहिनी पद्मावती विद्या, १३. पुत्रकर-पद्मावती मन्त्रसाधना, १४. पद्मावतीमन्त्रसाधना आदि। एक अन्य साधना-प्रकार जैन धर्मानुयायी आचार्यों ने लोककल्याण की दृष्टि से और यहाँ विकसित किया है, वह है अवतार-विद्या, अर्थात् किसी वस्तु-विशेष में इष्टदेव अथवा देवी को बुलाना। इसके लिये- १. पद्मावतीदीपावतार, २. पद्मावतीकज्जलावतार, ३. अम्बिकाघटावतार, ४. अम्बिकाजलावतार, ५. अम्बिकादर्पणावतार, ६. भुततदेवताघटावतार, ७. अम्बिकाखड्गावतार, ८. पद्मावतीमालावतार तथा ६. नरदर्पणावतार आदि। इन विद्याओं का उपयोग प्रश्नों के उत्तर, भविष्य अथवा आकस्मिक दुर्घटनादि के ज्ञानहेतु एवं कष्टनिवारणोपाय हेतु किया जाता रहा। यह ‘हाजरात’ का शास्त्रीय स्वरूप है। आज भी कुछ साधक इनका सफल प्रयोग करते देखे गये हैं। प्रयोगकर्ता पहले मन्त्र-सिद्ध करता है और समय आने पर प्रयोग करके पृच्छक को उत्तर देता है। का ४६४ तन्त्रागम-खण्ड

जैन यन्त्रात्मक साधना-साहित्य

साधना-विधानों में यन्त्रों का महत्त्व सर्वमान्य रहा है। जैन साधकों की रुचि इस ओर भी पूर्ण विश्वासात्मक होने के कारण अनेकविध यन्त्रों की रचनाएँ जैन-परम्परा में प्रवर्तित हैं। यन्त्रों को यहाँ ‘मण्डल’ भी कहा गया है। १. रेखात्मक यन्त्र, वृत्त-रूप, कमलाकृति और कलशाकृति के यन्त्र विशेष महत्त्व रखते हैं। अंकयन्त्र, बीजाक्षर-गर्भ, मन्त्राक्षर-गर्भ, अंक एवं मन्त्रबीजगर्भयन्त्र भी जैनाचार्यों ने शास्त्रीय पद्धति से प्रतिपादित किये हैं। इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र्य ग्रन्थों की अपेक्षा टीकाओं में विशेष उल्लेख किया हुआ प्राप्त होता है। यन्त्र के लिये ‘चक्र’ का प्रयोग भी जैनाचार में बहुप्रचलित है। शरीरस्थ षट्चक्र एवं सहस्रार-चक्र की भावना को तथा उनमें विराजमान मातृकाक्षर और मन्त्राक्षरों के ध्यान की क्रिया को स्थिर रूप देने के लिये यन्त्र अथवा चक्र-रचना को विशेष प्रोत्साहन मिला हो, ऐसी धारणा मन्त्रों की पूर्वभूमिका के लिये मन्तव्य है। वैसे बिन्दु से और ॐकार से अथवा वर्णमाला के आकारों से यन्त्रनिर्माण में प्रेरणा मिली होगी। अनुष्ठानविधानों में ‘मण्डल’ और ‘पट’ बनाने/रखने का विधान भी बहप्रचलित है। इससे भी यन्त्र-निर्माण का प्रचलन संभव है। जो भी हो, इस देवतागात्ररूप यन्त्र-विधान को सभी अन्य धर्मावलम्बियों के समान जैनाचार्यों ने भी ससंमान स्वीकृति दी है तथा रचना, अर्चना, धारण आदि क्रियाओं पर ग्रन्थों का निर्माण भी हुआ है। कुछ ग्रन्थ इस प्रकार हैं

१. निर्वाणकलिका-पादलिप्तसूरि वि.सं. १५०—

यह ग्रन्थ नित्यकर्म, दीक्षा और प्रतिष्ठा नामक तीन विषयों को लेकर तीन विभागों में विभक्त है। इसमें नित्यपूजा के प्रसंग से ‘सिद्धचक्रयन्त्र’ का स्मरण किया गया है और तत्सम्बन्धी निरूपण भी दिया है। द्वितीय प्रकरण में ‘सर्वतोभद्रमण्डल’ का विधान है। यहीं वास्तु-मण्डल का भी सूचन है, जो ‘यन्त्र’ का पूर्वाभास कराता है। म

२. वर्धमान चक्रोद्धारविधि-भद्रगुप्तस्वामी (१)

यह अरिहाणाइ-थुत्त (अर्हदादि-स्तोत्र) में प्रोक्त ‘पञ्चनमस्कारचक्र’ के उद्धारविधि का सूचक ग्रन्थ है। ग्रन्थकार ने स्वरचित ‘बृहद् वृत्ति’ में इस उद्धार को लिखा है तथा ‘श्रीपञ्चपरमेष्ठि महामन्त्रयन्त्रचक्रवृत्ति’ कह कर इसे संगृहीत किया है। इसके अपरनाम पञ्चपरमेष्ठिचक्र, पञ्चनमस्कारचक्र और वर्धमानचक्र भी प्रसिद्ध हैं। १. ध्यानविधि, २. आत्मरक्षा, ३. षट्कर्मकरणविधि, ४. पल्लव-काल-वर्ण-मण्डल-दिग्विचार, ५. जपविधि, ६. ध्यानविधि (देवतानामादि संकेतसहित) और ७. मानसी पूजा—इन सात विधानों का मन्त्रादि-निर्देश भी इसमें यथाक्रम दिया गया है। यन्त्रलेखनविधि में— “अष्टारमष्टाववं पञ्चनमस्कारचक्र भवति। चक्रतुम्बे साधकनामगर्भ ‘अर्ह’ इत्येतदक्षरं लिखेत्" इत्यादि कहकर पूरे चक्र में जिन स्थानों पर जो-जो मन्त्र लिखे जाते हैं, उनका पाठ स्पष्ट दिया है। जहाँ सम्प्रदाय-विशेष के आधार पर विशेष संकेत थे, वे भी यहाँ सूचित हैं। यन्त्र की महिमा बताते हुए यहाँ कहा गया है४६५ जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा सव कार्यकारणे तूत्पन्नं मण्डलमध्यसंस्थितम्। व्यावः ।। पूजयेद् यः सदा यन्त्रं स देवैरपि पूज्यते।।

३. सिद्धचक्र-बृहद्यन्त्राराधनाविधि

पूजन यन्त्रों में जैनसाधकों के लिये श्रीनवपदजी का यन्त्र प्रथम स्थान को प्राप्त है। इसी को ‘सिद्धचक्र’ कहा जाता है। इसकी आराधना के लिये अनेक पाण्डुलिपियाँ भण्डारों में उपलब्ध हैं। यन्त्ररचना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसमें सिद्धों का निवास माना गया है और वे पूजित होकर सभी मुमुक्षुओं की वांछापूर्ति करते हैं। मध्य में वर्तुल, उस पर अष्टकमलदल और उस पर तीन वर्तुलाकार अंकित होने से यह यन्त्र बनता है। मध्य में अरिहंत भगवान् की सिंहासनस्थ मूर्ति, दिग्दलों में सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा विदिग्दलों में दर्शन, ज्ञान, चरित्र एवं तप रूप मन्त्रों की स्थापना होती है। तदनन्तर तत्त्वाक्षर ‘ह्रीं’ आदिबीजाक्षर, वर्णमातृका के १६ स्वर, ककारादि सात वर्ग, २८ लब्धियाँ, ८ गुरुपादुका, १० दिक्पाल, २४ यक्ष-यक्षिणी, १८ अधिष्ठायक देव, १६ विद्यादेवियों, लोकपाल, विमलेश्वर देवता, चक्रेश्वरी देवी, नवग्रह, नवनिधान आदि देवता विराजमान होते हैं। सिद्धचक्र को कल्पवृक्ष मान कर प्रार्थना में मनोवांछापूर्ति की कामना की जाती है। इस सिद्धचक्र-यन्त्र की विशेष पूजा-विधि है। इसकी यन्त्र-रचना के पट सैकड़ों वर्षों से आलिखित होते रहे हैं, जिनमें लेखनजन्य त्रुटियाँ भी आ गई हैं, जिनके परिहार के लिये आचार्य श्री धर्मधुरन्धर सूरिजी ने तथा आचार्य श्री यशोदेव सूरिजी ने “सिद्धचक्रयन्त्र-पूजन : एक सर्वेक्षण अने समीक्षा’ पुस्तक लिखकर शास्त्रीय प्रमाणों के साथ वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला है। ‘सिरीवाल-कहा’ के अनुसार मैनासुन्दरी ने इस यन्त्र की आराधना की थी। दिगम्बर सम्प्रदाय में यह यन्त्र केवल अष्टदलकमल के रूप में ही मान्य है।

४. श्रीऋषिमण्डलस्तव-यन्त्रालेखनम्

श्री सिंहतिलकसूरि द्वारा ३६ पद्यों में यह स्तव रचित है। इसमें मुख्यतः यन्त्ररचना पर विशेष निर्देश है। इससे पूर्व ‘ऋषिमण्डलस्तोत्र’ नामक ६८ पद्यरूप अतिविस्तार से इस यन्त्र-विधान का प्रकाशक ग्रन्थ था, उसी के आधार पर कुछ परिष्कार-संक्षेप-पूर्वक सिंहतिलक सूरि ने इस आलेखन-सूचक स्तव की रचना की। इसी स्तोत्र के आधार पर दिगम्बर जैनाचार्य श्री विद्याभूषण कि सूरि ने अन्य ‘ऋषिमण्डल-स्तोत्र’ की ८५ उपजाति वृत्तों में रचना की है। कि इस मन्त्र में ‘हरी’ अधिनायक है। मध्य में इस बीज की स्थापना है। बीज में सर्वोपरि बिन्दु है, जिसमें मुनिसुव्रत और नेमिनाथ का नमस्कारात्मक मन्त्र लिखा जाता है। चन्द्रलेखा में चन्दप्रभ और पुष्पदन्त वन्दित हैं। ह्रींकार के शिरोभाग में पद्मप्रभ एवं वासुपूज्य, दीर्घ ई में मल्लिपार्श्वनाथद्वय, शेष अक्षराकार में ऋषभ आदि १६ तीर्थंकरों के नाम मन्त्र पूज्य कम तन्त्रागम-खण्ड की हैं। वर्तुल मण्डल पर अन्य पाँच मण्डल होते हैं, जिनमें प्रथम मण्डल के ८ भाग हैं, जिनमें १६ स्वर तथा सप्तवर्गाक्षर हसलवरयूं आदि कूटबीजों के साथ लिखे जाते हैं। द्वितीय मण्डल के आठ भागों में अर्हदादि ५ तथा ३ दर्शनों के नाम मन्त्र, तृतीय मण्डल के आठ भागों में भुवनेन्द्रादि १६ पद, चतुर्थ मण्डल के २४ भागों में २४ हरी आदि देवियों के मन्त्र, पाँचवें मण्डल के चारों ओर ४ बीज, तथा बीच में ह्रीं बीज-मन्त्र लिखकर यन्त्र पूर्ण किया जाता है। ऋषिमण्डल-यन्त्र का मूल मन्त्र ६ बीजाक्षर तथा १८ शुद्ध वर्गों का है। यथा— ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रूं ह्रूं . ह्रौं ह्रः असि आउसा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः। कर इस यन्त्र की आराधना भी बहुप्रचलित एवं प्राचीन होने से लेखन और पूजन के प्रकारों में कई अन्तर आ गये हैं। इनका विचार भिन्न-भिन्न आचार्यों ने किया है। वर्तमान में आचार्य श्री धुरन्धर विजयजी महाराज तथा आचार्य श्री यशोदेवसूरि जी ने पर्याप्त ऊहापोहपूर्वक संशोधन किये हैं। श्री यशोदेवसूरि जी ने ‘ऋषिमण्डलयन्त्रपूजनम्’ नामक सचित्र ग्रन्थ भी पालिताणा से प्रकाशित किया है। मजा

५. श्रीपञ्चपरमेष्ठि-विद्यायन्त्र

श्री सिंहतिलकसूरि ने इस यन्त्र की रचना में तीन प्राकार, क्रमशः ४, ८, और १६ पत्रों वाले कमल तथा कमलकर्णिका के आलेखन बतलाये हैं। मध्य में ‘अहं’ बीज, ऊर्ध्वादि चार कमलपत्रों में ‘सि आ उ सा’, तथा चारों दिशाओं में—‘ऋषभ, वर्धमान, चन्द्रानन, वारिषेण’ लिखे जाते हैं। फिर आठ दलों में जिनेश्वर-युगादिनाथ, गोमुखयक्ष, चक्रेश्वरी के नाम लिखने का सूचन है। १६ दलों में सुविधिनाथादि शेष जिनेश्वरों, यक्ष-यक्षिणियों के नाम लिखने का निर्देश है। सभी नाम चतुर्थ्यन्त, नमोऽन्त एवं प्रणव सहित लिखे जाते हैं। यहीं एक अन्य यन्त्र बनाने का विधान भी दिया है, जो ‘सूरिमन्त्र’ तथा ‘वर्धमान-विद्या’ के यन्त्रों के समान है। इस यन्त्र में एक ओर पुस्तक तथा कमल से सुशोभित श्रुतदेवी की आलेखना करने का और कमलाकृति के बाहर भूमण्डल पर रजत, स्वर्ण और रत्नमय तीन प्राकारों की रचना का उल्लेख है। प्राकारत्रय में जाज्वल्यमान रत्नों वाले ध्वज एवं तोरण से शोभित चार द्वार बनाने का संकेत दिया है। भूमण्डल की चारों दिशाओं में और विदिशाओं में ‘ल’ अक्षर की आकृति बनाकर कलश से - अलंकृत ऐसे मण्डल को ‘वं’ अक्षरों के साथ लिखना चाहिये। अन्त में यन्त्रपूजाविधि और फल का सूचन है। यह ७८ पद्यों का संदर्भ है।

६. लघुनमस्कारचक्रस्तोत्र

श्री सिंहतिलक सूरि ही इस स्तोत्र के भी लेखक हैं। स्तोत्रद्वारा चक्रनिर्माण की विधि का सूचन इस स्तोत्र से हुआ है। इसमें आठ अरों तथा आठ वलयों की प्रमुखता है मध्य तुम्ब में ‘अहं’ बीज लिखा जाता है। अरों के बीच में ‘ॐ नमो अरिहंताणं’ आदि चार पद दो बार आवर्त करके लिखने की सूचना है। शेष रिक्त अरों में “पाश, अंकुश, अभय और वरद” ये आयुध और जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४६७ मुद्रा लिखी जाती हैं। प्रथम वलय में ‘ॐ नमो लाए सव्व-साहूणं’ पद भी लिखना चाहिये। द्वितीय वलय में ‘चत्तारि मंगलं’ इत्यादि द्वादशपदी, तृतीय वलय में ॐ तथा माया हुरी पूर्वक ७० वर्ण और जिन बीज अहँ के आश्रयभूत ५ बीजाक्षर ‘ॐ हुरी श्री अर्ह’ लिखने चाहिये। इस विधि से लेखन करके की जाने वाली आराधना का फल भी इसी स्तोत्र में प्रदर्शित है। स्तोत्र में ११५ पद्य हैं। इससे कुछ अधिक विस्तार वाले ‘बृहन्नमस्कारचक्र’ की विधि भी प्राप्त होती है। ७-८ ॐकार तथा हरींकार यन्त्र। Jise ल जैनाचार्यों ने ॐ तथा ‘हुरी, अह’ आदि बीजों की स्वतन्त्र उपासना के लिये चक्र अथवा यन्त्र बनाने के निर्देश भी स्तोत्रों के माध्यम से प्रदर्शित किये हैं, जिन्हें ‘ॐकारविद्यास्तवनम्’ तथा श्री जिनप्रभसूरिविरचित ‘मायाबीजहरीकारकल्प’ से ज्ञात कर सकते हैं।

९. श्रीपद्मावतीसाधनयन्त्र

श्रीपार्श्वनाथ भगवान् तथा धरणेन्द्र पद्मावती की अधिष्ठायकता वाले अनेक यन्त्र बनते हैं। उनमें से एक सिद्धि-सिद्धि-दायक यन्त्र इस प्रकार है यन्त्र के मध्य में वर्तुल होता है, उसमें षटत्रिकोणाकार पंखुड़ियाँ और मध्य में षट्कोण बनता है। षट्कोण में माता पद्मावती की चतुर्भुज मूर्ति पाश, फल, वरद और गजांकुश सहित बनाई जाती है। ॐकार में श्रीपार्श्वनाथ की मूर्ति चित्रित की जाती है, जिसमें उनके मस्तक पर छत्र रहता है। षटकोण की पंखुड़ियों में ‘ॐ हरी हुरै ह्स्क्लीं पद्म पद्मकटिनि नमः’ मन्त्रपद लिखे जाते हैं। इनके ऊपरी भाग में अ से अः तक के स्वर तथा क से ह तक के व्यंजन लिखते हैं। ऊपर के मण्डल में पद्मवर्णा आदि पद्मावती के आठ नाम-मन्त्र लिखकर त्रिवलयरूप भूपुर और उसमें मध्य वर्तुलाकार चार द्वार बनाये जाते हैं। इनमें भी मन्त्रपद बीजसहित लिखे जाते हैं। इनका लेखन-क्रम वामावर्त और दक्षिणावर्त है। मन्त्रपदों में दिक्पाल, उत्कृष्ट देवियाँ आदि मान्य हैं।

१०. चिन्तामणियन्त्र

यह भी धरणेन्द्र-पद्मावती सहित श्रीपार्श्वनाथ प्रभु की स्थापना से मण्डित यन्त्र सर्वमान्य है। इसमें भी पूर्ववत् देव-देवियों तथा वर्णमातृका-बीजमन्त्रादि का लेखन होता है। विशेष में यन्त्र के चारों ओर ऊपर ‘क्षं हीं अहं’ आदि ४८१०२ वों की स्थापना रहती है। इस यन्त्र में मूल मन्त्र ‘नमिऊणं’ चतुष्कोण के चारों ओर लिखने का विधान है। इस प्रकार यन्त्र-संरचना के सम्बन्ध में जैन धर्म की मान्यता, पूजा-पद्धतियों और प्रयोग-प्रकारों का बाहुल्य पूर्णतः व्याप्त है।

यन्त्रोद्भावक स्तोत्र

इन यन्त्रों की व्यापकता और भी दृष्टियों से बढ़ी है, जिसे हम स्तोत्रों के पद्यों के आधार पर बने सम्प्रदायों में पाते हैं। उदाहरणार्थ कतिपय स्तोत्रों का परिचय प्रस्तुत है माम तन्त्रागम-खण्ड १. उवसग्गहरस्तोत्र—भद्रबाहु स्वामी द्वारा यह स्तोत्र श्रीसंघ में महामारी का उपद्रव शान्त करने के लिये बनाया गया था। इनका समय वि.सं. की छठी शती माना जाता िहै। ये वराहमिहिर के ज्येष्ठ भ्राता थे। यह स्तोत्र ५ गाथाओं का है, किन्तु इसमें कालक्रमानुसार गाथाओं की संख्या बढ़ती गई और ७, ६, १३, १७, २१ और २७ तक यह बढ़ गया। इसमें धरणेन्द्र-पद्मावती सहित भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति है। किता’उवसग्गहरं पासं’ पद से इसका आरम्भ होने के कारण इसका नाम भी उसी के आधार पर प्रचलित हो गया। इसकी दूसरी गाथा में ‘विषधरस्फुलिंगमन्त्र’ का संकेत हआ है तथा इसी मन्त्र में अन्य बीजाक्षर तथा पल्लव आदि जोडकर भिन्न-भिन्न मन्त्र कार्य भी बनाये गये हैं, जिनका अनुष्ठान विभिन्न कार्यों के लिये होता है। उक्त इस स्तोत्र पर श्री जिनप्रभसूरि ने ‘अर्थकल्पलता’, श्री पार्श्वदेवगणि ने ‘लघुवृत्ति’ तथा श्री पूर्णचन्द्राचार्य ने ‘बृहद्वृत्ति’ नामक व्याख्या लिखी है। इनमें प्रत्येक गाथा के मन्त्र और यन्त्रों का उल्लेख किया गया है। इसकी प्रथम गाथा के आधार पर आठ मन्त्र बनाने के और उनकी साधना के विधान हैं- यथा १. जगद्वल्लभकरयन्त्र, २. सौभाग्यकरयन्त्र, ३. लक्ष्मीवृद्धिकरयन्त्र, ४. भूतादिनिग्रहकर., ५. ज्वरनिग्रहकर., ६. शाकिनीनिग्रहकर., ७. विषमविषनिग्रहकर. तथा ८. क्षुद्रोपद्रवनाशकरयन्त्र। दूसरी गाथा से २ बृहद्यन्त्र विविध वलययुक्त, तीसरी गाथा में- १. वन्ध्याशब्दापहयन्त्र, २. मृतवत्सादोषनिवारणयन्त्र, ३. काकवन्ध्यादोषनिवारणयन्त्र, ४. बालग्रहपीड़ानिवारणयन्त्र, ५. सौभाग्यकरयन्त्र का विधान है। चौथी गाथा में- १. लघुदेवकुलयन्त्र, २. शान्तिक-पौष्टिक यन्त्र निर्दिष्ट हैं। पहली गाथा से आगे नौ गाथाओं तक एक विशिष्ट यन्त्र बनता है, उसे स्तोत्र के अक्षर तथा अंकों को लिखकर बनाया जाता है। इसके ऊपर और नीचे भी ‘सत्तरिसय’ का यन्त्र, १५ और २० अंकों के यन्त्र हैं। एक यन्त्र १००८ अंकों का है और पट के नीचे सूचन है कि यह उपसर्गहर-यन्त्र न्यायविशारद उपाध्याय श्री यशोविजयजी द्वारा अनुभूत है। दक्षिण में दिगम्बर सम्प्रदाय में जो ‘कलिकुण्डपार्श्वनाथयन्त्र’ की आराधना होती है, वह भी इसी स्तोत्र से प्रेरित है। २, कल्याणमन्दिरस्तोत्र, सिद्धसेनदिवाकर विक्रम की प्रथम अथवा छठी शती में उत्पन्न वृद्धवादी आचार्य के शिष्य श्रीसिद्धसेन दिवाकर ने ४४ पद्यों में इस स्तोत्र की हि रचना की है। इसमें पार्श्वनाथ की स्तुति है। इस पर १६ आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं तथा वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार पद्यों के मन्त्र-यन्त्र-विधान भी रचित हैं। ३. अनुभवसिद्धयन्त्रद्वात्रिंशिका, श्री भद्रगुप्तसूरि—यह विक्रम की सातवीं शती में श्री भद्रगुप्तसूरि द्वारा रचित है। इसमें सूरिमन्त्र-यन्त्र तथा अन्य अनेक यन्त्रों का विधान सूचित है। ४. भक्तामरस्तोत्र–श्री मानतुंग सूरिकृत यह स्तोत्र अति प्रसिद्ध है। इसके प्रत्येक पद्य से मन्त्र बनते हैं और वृद्ध सम्प्रदायानुसार उनके विधान बने हैं। सौन्दर्यलहरी की जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४६६ समानता में इसकी मान्यता है। गिर जी लाए उनी। ५. भत्तिब्भर-थोत्त—प्राकृत में रचित यह स्तोत्र भी श्री मानतुंग सूरि द्वारा रचित है। इसमें मन्त्र और यन्त्रों के विषय में अनेक निर्देश हैं तथा गाथाओं के आधार पर भी यन्त्र बनते हैं। 35 प्रतिशत माहि ६. महाप्राभाविक पद्मावतीस्तोत्र—यह ३७ पद्यों का प्राचीनाचार्य रचित स्तोत्र है। न इसके प्रत्येक पद्य से वृद्ध सम्प्रदाय के अनुसार यन्त्र बनते हैं। कम कि किन

जैन अंकात्मक यन्त्र

जैन यन्त्रों के आकार और प्रकार में इतनी विविधता है कि उनका एकत्र संक्षेप में विवेचन करना कठिन है। केवल कोष्ठकों में बीजाक्षर, मन्त्राक्षर, पिण्डाक्षर आदि लिखकर बृहद् और लघु-यन्त्र तो बनते ही थे, तदनन्तर अंक यन्त्रों का भी विकास हुआ। गणित के आधार पर अंकयोजना से सभी ओर अंकयोग करने से एक ही निश्चित संख्या का आ जाना अपने आपमें एक वैशिष्ट्य है। उस पर भी वे अंक देवनाम-संख्या से, देव मन्त्रों से समन्वित हों, तो वे और भी महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं। पञ्चदशांक और विंशांक यन्त्रों के विधान वैदिक धर्मानुसार भी मान्य है। उनके शास्त्रीय विधानों की विविधता भी स्वतन्त्र तन्त्र ग्रन्थों में मिलती है। उसी प्रकार जैनधर्म के अनुसार भी अंक यन्त्रों के विधान प्रवर्तित हैं। इनके लिये ग्रन्थ और स्तोत्र भी प्राप्त होते हैं। यथा १. कोट्ठगचिंतामणि—यह प्राचीन आचार्य श्री देवेन्द्रगणि की कृति है। इसमें अंक यन्त्रों का वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन किया गया है। यन्त्रों के ४ नाम दिये हैं— १. महासर्वतोभद्र, २. अतिसर्वतोभद्र, ३. सर्वतोभद्र तथा ४. सामान्यभद्र। इनमें अंकस्थापना के परिशोधन के प्रकार भी दिखाये गये हैं। पैंसठिया यन्त्र की चर्चा करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है- “पञ्चसप्ततिप्रकारेण महासर्वतोभद्रयन्त्रोऽयं शोध्यः", अर्थात् इस यन्त्र का ७५ प्रकारों से शोधन करना चाहिये, तभी यह ‘महासर्वतोभद्र’ होगा। इसी प्रकार १५, २०, के यन्त्र भी शोधित होते हैं। अंकों के स्थान-परिवर्तन से अन्य प्रकार बन जाते हैं। ‘अर्जुनपताका’ में ये निर्दिष्ट हैं। २४, ३०, ३२, ३६, ४०, ६५, ७०, १००, १०८ और इनसे आगे की संख्याओं के भी यन्त्र इसमें निर्दिष्ट हैं। विजय यन्त्र और विजयपताका यन्त्र के कोष्ठकों की कि संख्या तो ६५६१ तक पहुंची है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। २. विंशतियन्त्रविधि-यह महोपाध्याय मेघविजयगणि की कृति है। इसके प्रथम पद्य में अर्जुनपताका और विजययन्त्र के बारे में कथन करके पन्द्रह अंकों को विविध रूप नजर से बताया है। इसी में अन्य अंकयन्त्रों के बनाने की विधि दी है। अंकों की आवृत्ति कर तथा एकाधिक अंकों की स्थिति को महत्त्वपूर्ण नहीं माना है। सिद्धविंशति-अंकयन्त्र ४७० अामा तन्त्रागम-खण्ड के अनेक प्रकार दिये गये हैं तथा नौ कोष्ठकों में नौ अंक (अकेले) लिखकर उनकी २० गणना लाने के लिये बीस गतियों, प्रकारों का निर्देश किया गया है, जिनमें किसी एक अंक का गुणा और अन्य का योग होता है। ‘कमलाकृति बीसायन्त्र’ में त्रिस्थानि दिग्गति और विदिग्गति, परिधिसव्य और परिधिसव्येतर गतियों का उल्लेख किया है। - इसे पद्य और गद्य दोनों में स्पष्ट किया गया है। हालाण ३. सप्ततिशतजिनपतिसंस्तवन–विक्रम की १५वीं शती के हरिभद्रमुनि की यह रचना है। इसमें १५ पद्य हैं तथा उनसे १७० जिनेश्वरों की स्तुति की गई है। इसके नौवें तथा दसवें पद्य में यन्त्र की विधि वर्णित है, जबकि ११वें पद्य में राजवशीकरण का मन्त्र “हर हुं ह: सर सुं सः ॐ हरी हरीं हुं फट् स्वाहा” भी सचित है। पञ्चषष्टियन्त्रगर्भित-चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र (प्रथम) जयतिलकसूरि के ‘शिवनिधान’ नामक शिष्य ने यह स्तोत्र बनाया है। आठ अनुष्टुप् पद्यों में पैंसठिया यन्त्र से गर्भित ऋषभादि चौबीस तीर्थकरों की यहाँ स्तुति की गयी है। या ५. पञ्चषष्टियन्त्रगर्भित-चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र (द्वितीय)-अज्ञातकर्तृक यह स्तोत्र विक्रम की १५ शती की रचना है। यह भी महासर्वतोभद्र पैंसठिया यन्त्र का बोधक है। ‘कोट्ठगचिन्तामणि’ की संस्कृत टीका में शीलसिंह ने इसका उल्लेख किया है। पञ्चषष्टियन्त्रगर्भित-चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र (तृतीय)-इस स्तोत्र को विक्रम की १६वीं शती में शीलसिंह ने बनाया है। पूर्ववत् इसमें भी जिनेश्वरस्तुति और यन्त्रसूचन हैं। पञ्चषष्टियन्त्रगर्भित-चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र (चतुर्थ)—यह मुनि जैलसिंह की रचना है। इसमें भी पूर्ववत् ६५ अंकों के यन्त्र का विधान अंकित है। चतुर्यन्त्रगर्भित-पञ्चषष्टिस्तोत्र-विजयलक्ष्मीसूरि ने ११ शार्दूलविक्रीडित छन्दों में यह स्तोत्र बनाया है। इसमें ४ पैंसठिये यन्त्र बनाने का विधान है। अन्य पूर्ववत्। जैन आचार्यों ने यन्त्रविद्या को पल्लवित एवं पुष्पित रखने के लिये अनेकविध प्रयोग किये हैं। अतः जैन तन्त्र के विकास में उनका अपूर्व योगदान माना जाता है। बहुत से आचार्यों ने तो समय आने पर आवश्यकता के अनुरूप साधनाएँ करके देवताओं से मन्त्र-यन्त्रात्मक विद्याएँ भी प्राप्त की थीं। यथा-श्री हरिभद्र सूरि के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है कि इनको देवताओं के पास से कुछ ‘रहस्य-ग्रन्थ’ प्राप्त हुए थे। उन्होंने इन ग्रन्थों का उपयोग दिगम्बर आचार्यों पर विजय प्राप्त करने के लिये किया था। विजयप्राप्ति के पश्चात् उन्होंने ‘चौरासी’ नामक प्रासाद के स्तम्भ में आदरपूर्वक इनको रखवा दिया। यह स्तम्भ विशेष औषधियों द्वारा निर्मित था। ‘चतुर्विंशतिप्रबंध’ में यह उल्लेख मिलता है। एक

  • अतः ऐसे बहुत से ग्रन्थ अब अनुपलब्ध होते जा रहे हैं। अन्य अनेक आचार्य प्राचीन काल में मन्त्रधारी थे और उन्होंने मन्त्र-यन्त्र-साधना द्वारा लोक-कल्याण किया था। तन्त्र ४७१ जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा - की प्रक्रिया में मन्त्र के प्रयोगों का विधान भी अनेक प्रकार का है। “जैसा काम वैसा प्रयोग” इस दृष्टि से प्रत्येक प्रयोगकर्ता नये-नये आकर्षक प्रयोग करके जनसाधारण को उत्प्रेरित करता है। बहुधा यह भी कहना अनुचित नहीं है कि ऐसे प्रयोगों में वैज्ञानिकता का भी पूरा समावेश रहता है। शास्त्री म शाला की विरह

जैन कल्प-साहित्य

वेद के छह अंगों में द्वितीय अंग को ‘कल्प’ कहा गया है। इसमें यज्ञों और संस्कारों की विधियाँ वर्णित हैं। इसी के आधार पर धार्मिक कर्तव्यों के विधिविधानों का संग्राहक ग्रन्थ ‘कल्प’ माना जाने लगा। जैन धर्म में इसका अर्थ और भी विस्तृत हुआ तथा वैदिक कल्पसूत्रों की समानता में वैदिक यज्ञादि तथा गृहस्थों के गृह्य-विधानों के संग्रहरूप ग्रन्थों के अनुसार ही प्रारम्भ में ‘कल्प-ग्रन्थ’ जैन-परम्परा के अनुरूप ‘विश्व की स्थिति’ के परिचायक बने। नेमिचन्द्र सूरि के ‘पवयणसारुद्धार’ पर सिद्धसेन सूरि ने (वि.सं. १२४८ में) एक वृत्ति की रचना की थी, उसमें उन्होंने ऐसा उल्लेख किया है। वहीं (गाथा क्र. १२१६-१२२७ में) १. नैसर्प, २. पाण्डुक, ३. पिंगलक, ४. सर्वरत्न, ५. महापद्म, ६. काल, ७. महाकाल, ८. मानवक तथा ६. शंख नामक नौ निधियों के माध्यम से अनेकविध वस्तुओं के लक्षण, उपयोग-विधि एवं फलाफल का विवेचन किया है। इन्हीं को वहाँ ‘शाश्वत कल्प’ की संज्ञा दी गई है। ___ स्पष्ट है कि कल्प-ग्रन्थों की पूर्वभूमिका के प्रस्थापक ये ग्रन्थ उत्तरवर्ती कल्प-ग्रन्थों की रचना में अवश्य ही प्रेरणादायी रहे। कल्प शब्द व्याकरण में “ईषदसमाप्तौ कल्पपदेश्यदेशीयरः” सूत्र के द्वारा प्रत्यय के रूप में ‘अल्प और असमाप्ति’ के अर्थ का बोधक होता है। यही कारण था कि ‘संक्षेपार्थ’ अथवा ‘एकांग’ के अर्थ को भी इस शब्द ने आत्मसात् किया। फलतः ‘कल्प’ शब्द देव, देवी, यक्षी और औषधि आदि के तान्त्रिक अनुष्ठानों की तथा उनके द्वारा प्रयोगों की पद्धति के संग्रह का बोधक ग्रन्थ-नाम बन गया, जिसमें संक्षेप में तत्त्व रूप से सभी उपयोगी सामग्री संकलित होती थी। ____ जैनाचार्यों ने ऐसे अनेक कल्पों की रचना और संकलन प्रस्तुत किये हैं, उनका यथोपलब्ध परिचय इस प्रकार है क्रमांक ग्रन्थनाम कर्ता रचनाकाल १. ज्वालिनीकल्प इन्द्रनन्दी वि.सं. ६ मन्त्रवादात्मक द्राविड संघ के हर्षनन्दी के शिष्य श्री इन्द्रनन्दी ने इस ग्रन्थ को ऐलाचार्य की कृति के आधार पर प्रायः ५०० श्लोकप्रमाण में कृष्णराज तृतीय के राज्य में ‘मालखेट’ में बनाया है। इस ग्रन्थ के चार नाम प्राप्त हैं-१. ज्वालिनीकल्प, २. ज्वालामालिनीकल्प, ३. ज्चालिनीमत और ४. ज्चालिनीमन्त्रवाद। यह दस अधिकारों में विभक्त है, जिनमें क्रमश: मन्त्री, ग्रह, मुद्रा, मण्डल, कटुतैल, यन्त्र, वश्यतन्त्र, वसुधारास्नपनविधि, नीराजनविधि एवं स्नपनविधि का वर्णन है। ज्वालामालिनी देवी चन्द्रप्रभस्वामी की अधिष्ठात्री है और महाप्रभावी विशेष न्या ४७२ कितन्त्रागम-खण्डमा है। इस रचना में कर्ता ने अपनी गुरुपरम्परा का भी उल्लेख किया है, जिनसे यह विद्या उन्हें प्राप्त हुई है। २. ज्वालिनीकल्प पाट दि. मल्लिषेणसूरिन का वि.सं. १११० इसमें ज्वालिनी देवी से सम्बद्ध मन्त्रादि का विषय प्रतिपादित है। कर्ता की अन्य रचना (जैन) महापुराण प्रसिद्ध है। विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है। ३-५. ज्वालामालिनीमन्त्राम्नाय, ज्वालामालिनीविद्या और ज्वालिनीविधान नामक अज्ञातकर्तृक तीन अन्य कृतियाँ भी पाण्डुलिपियों के रूप में प्राप्त हैं, जिनका उल्लेख सूचियों में मिलना है। ६. भैरवपद्मावतीकल्प दि. मल्लिषेण वि.सं. १११० _ दिगम्बर जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण का यह ग्रन्थ जैन सम्प्रदाय में मन्त्रवाद की नींव को सुदृढ़ करने वाला तथा विस्तार देने वाला कहा जाता है। यह पद्यात्मक ग्रन्थ दस परिच्छेदों में विभक्त है तथा इसमें ३०८ पद्य हैं। प्रत्येक परिच्छेद में क्रमशः साधक की योग्यता, न्यास, सकलीकरण, पूजा-पद्धति, यन्त्र, विविध मन्त्र, विद्या, स्तम्भन आकर्षणादि विधानों का वर्णन हुआ है। मुख्यतः भैरवी-पद्मावती से सम्बद्ध मन्त्रादि संकलित हैं। इस ग्रन्थ की एक ‘टीका’ बन्धुषेण ने की है। वहीं ‘कल्प’ का अर्थ ‘मन्त्रवाद-समूह’ किया है, जो यथार्थ है। तन्त्र ग्रन्थों के समान इसके अन्तिम परिच्छेदों में भविष्य कथनोपयोगी दर्पण, दीप और खड्गावतार के प्रयोग, औषधि, चूर्ण और गारुड़ी-विद्या का संकलन भी दर्शनीय है। टीकाकार ने प्राकृत मन्त्रों का उल्लेख तथा दुर्गम स्थलों का स्पष्टीकरण करते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण बातें मूल ग्रन्थ के अतिरिक्त भी जोड़ी हैं। ७. भारतीयकल्प अथवा सरस्वतीकल्प दि. मल्लिषेणसूरि वि.सं. १११० र इसके रचयिता भी पूर्वोक्त महापुराणकार ही हैं। इस कल्प में ७८ पद्य एवं बीच-बीच में गद्यात्मक लेखन है। सरस्वती के मन्त्र एवं ह्रींकार मन्त्र से सम्बद्ध साधना-विवरण इसका प्रमुख विषय है। ८. कामचाण्डालिनीकल्प अथवा सिद्धायिकाकल्प दि. मल्लिषेण वि.सं. १११० पूर्वसूचित मल्लिषेण सूरि की यह रचना है। इसमें ५ अधिकार हैं। सिद्धायिका देवी से सम्बद्ध मन्त्र-यन्त्रादि इसमें दर्शित है। ६. हेमकल्प पादलिप्तसूरि वि.सं. प्रथम-द्वितीय शती __ यह पादलिप्तसूरि-रचित ‘महावीर-स्तव’ के ‘गाहाजुऊलेण’ से आरम्भ होने वाले चार पद्यों का स्वोपज्ञ आम्नाय है। इसमें सुवर्ण-निर्माण की विधि का वर्णन हुआ है। यह ‘महावीर-स्तव’ सुवर्णसिद्धिगर्भित सात पद्यों का है। इसकी टीका वाचक पुण्यसागर ने संस्कृत में वि.सं. १७३६ में लिखी है। का शीननशान करना मत जमणा शिकार शिमहिलामा हिमालया कि मनोभक्त का जिन जान जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा १४७३ १०. उग्रवीरकल्प : पिनासलाई न अज्ञातकर्तृक अनःशा यह नृसिंहमन्त्र से सम्बद्ध कल्प है तथा अन्त में उच्चारण आदि के मन्त्र भी दिये गये हैं। कालायकी END की ११. मन्त्राधिराजकल्प ना सकता कि एक सागरचन्द्र वि.सं. १२५० विशाल इस ग्रन्थ में पाँच पटल हैं, जिनमें ४२४ पद्य हैं। प्रथम पटल में मंगलाचरण के पश्चात् ‘मन्त्रप्रदानविधि’ वर्णित है। अन्य पटलों में जितेन्द्रमन्त्रवर्णन, पार्श्वनाथस्तुति, यक्षवर्णन, यक्षिणीवर्णन, चक्रेश्वरीवर्णन और जिनेश्वरवर्णन के अनन्तर सकलीकरण आदि क्रिया और मन्त्रोद्धार, ध्यान षड्योग दीपनादि, षडासन, शान्तिकादि कर्मसाधना के आठ यन्त्र भी दिये गये हैं। इसमें प्रत्यंगिरा का भी उल्लेख है। ग्रन्थकार ने ‘काव्यप्रकाश’ पर ‘संकेत’ टीका भी लिखी है। १२. वर्धमानविद्याकल्प की सिंहतिलकसूरि वि.सं. १३४० _ मन्त्रराजरहस्यादि ग्रन्थों के रचयिता सिंहतिलकसूरि ने इस कल्प-ग्रन्थ को अनेक प्रकरणों में विभक्त किया है। इसके तृतीय प्रकरण में वज्रस्वामी द्वारा रचित ‘वर्धमान-विद्या-कल्प’ को स्थान मिला है। अन्य प्रकरणों में ‘पञ्च-परमेष्ठी-मन्त्र-कल्प’ दिया गया है। १३. वर्धमानविद्या-कल्प यशोदेव सूरिया १४. वर्धमानविद्या-कल्प किया जा अज्ञातकर्तृक १५. अद्भुतपद्मावती-कल्प आप मा चन्द्रसूरि वि.सं. १४वीं शती का यह छह प्रकरणों में रचित है, किन्तु प्रारम्भ के दो प्रकरण अनुपलब्ध हैं। तीसरे प्रकरण में रक्षणविधि और भूतशुद्धि वर्णित है। पद्मावती देवी के २४ सहचारी देवों तथा २० दण्डेशों का वर्णन महत्त्वपूर्ण है। छठे प्रकरण में ‘कलिकुण्डपार्श्वनाथयन्त्र’ तथा अन्य यन्त्रों का वर्णन हुआ है। १६. चिन्तामणिकल्प धर्मघोषसूरि वि.सं. १६वीं शती नि रचनाकार मानतुंग सूरि के शिष्य थे। इस रचना में ४७ पद्य हैं। यहाँ साधक के लक्षण, यन्त्रोद्धार के नौ वलयों का परिचय, जपविधि आदि देकर चिन्तामणिमन्त्र का कल्प संक्षेप में दिया है। १७. चिन्तामणिकल्पसार अज्ञातकर्तृक यह २४ पद्य की लघुकृति है। इसमें ध्यानविधि, ध्यानफल तथा चिन्तामणिचक्र की पूजा वर्णित है। १८. घण्टाकर्णकल्प अथवा घण्टाकर्णमहावीरकल्प अज्ञातकर्तृक 29 यह कृति अनेक पाण्डुलिपियों में प्राप्त है। इसमें ७० पद्य हैं, जिनमें मूलमन्त्र एवं अन्य तत्सम्बन्धी पूजा-जप-विधान दर्शित है। जग जिन गणनन OF ४७४ तन्त्रागम-खण्डका १६. सूरिमन्त्रकल्प मावा मेरुतुङ्गसूरि वि.सं. १४६६१ श्री अंचलगच्छ के आचार्य मेरुतुंग की इस कृति के अन्य नाम सूरिमन्त्रकल्पसारोद्धार, सूरिमन्त्रविशेषाम्नाय अथवा सूरिमुख्यमन्त्रकल्प भी है। इसमें ५५८ पद्य हैं। सूरिमन्त्र की साधना का अधिकार साधु और उपाध्याय को नहीं है। केवल सूरि ही इसकी साधना करते हैं। इससे सम्बद्ध विविध नामावलियाँ मिलती हैं। २०. हरीकारकल्पना अज्ञातकर्तृक गायक ताला मायाबीज ह्रींकार की उपासना का विशद वर्णन इसमें किया गया है। जिसका २१. बृहद्हरीकारकल्पाम्नाय माना जाल जिनप्रभसूरि इसमें उक्त विषय का विस्तार से वर्णन हुआ है। संस्कृत के अतिरिक्त गुजराती भाषा में भी लेखन है। २२. श्रीघण्टाकर्ण-मणिभद्रमन्त्रतन्त्र-कल्पादिसंग्रह ई. सन् १९६०मानामा गुजराती अनुवाद के साथ यह ग्रन्थ भी साराभाई मणिलाल नबाब के द्वारा मुद्रित हुआ है। इसमें ‘मणिभद्रकल्प’ का मुद्रण है। मणिभद्र के र मन्त्र हैं। इसकी रचना उदयकुशल ने की है। २३. रक्तपद्मावतीकल्प अज्ञातकर्तृक वि.सं. १७वीं शती इसमें मन्त्र, यन्त्र, स्तुति और पद्मावती-पूजन की विशिष्ट विधि वर्णित है। कल्प-सम्बन्धी लघु-ग्रन्थों के संग्रह विभिन्न जैन ग्रन्थ-भण्डारों में बहुत प्राप्त होते हैं। इन संग्रहों की अभिवृद्धि का कारण जैन साधुओं की शास्त्र-रुचि तो है ही, साथ ही शासन की समुन्नति एवं धर्मरक्षा के लिये विघ्नकारी धर्मविरुद्धाचारियों के उत्पातों के शमन-हेतु निजी संग्रह के रूप में पुनः पुनः लेखन है। ‘पुत्थम-लिण’ जैन धर्म में अंग रूप में निर्दिष्ट है। इन कल्पों में मूल-विद्या प्रयोगों के साथ ही ‘वृद्धसम्प्रदाय’ के नाम से प्रयोगविधियों के विशिष्ट सूचन मिलते हैं, जो सम्भवतः उनकी गुरु-परम्परा अथवा साधकानुभव-परम्परा के सूचक हैं। ऐसे कल्प-ग्रन्थों के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं और इनका प्रकाशन भी नहीं हुआ है, तथापि विद्वानों के ज्ञानार्थ यहाँ नामतः निर्देश किया जा रहा है-नियामक १. ओङ्कार कल्प २. ह्रींकार कल्प, ३. नमस्कार कल्प, ४. उपसगाहर कल्प, ५. नमिऊण कल्प, ६. लोगस्स कल्प, ७. भक्तामर कल्प, ८. कल्याणमन्दिर कल्प, ६. शक्रस्तव कल्प, १०. नमोत्थुणं कल्प, ११. अट्टेमट्टे-मन्त्रकल्प, १२. धरणेन्द्र कल्प, १३. कलिकुण्ड मन्त्र-यन्त्र कल्प, १४. जीराउली पार्श्वनाथ कल्प, १५. मेरुतुङ्गरचित पद्मावतीकल्प, १६. गान्धारविद्या कल्प, १७. चक्रेश्वरी कल्प, १८. कूष्माण्डी कल्प, १६. पञ्चांगुली कल्प, २०. श्रीदेवी कल्प, २१. सिद्धचक्र कल्प, २२. ह्रींमण्डल कल्प, २३. ब्रह्मविद्या कल्प, २४. उग्रविद्या कल्प, २५. बीसा कल्प, २६. पञ्चदशी कल्प, २७. पञ्चषष्टियन्त्र कल्प, २८. द्वासप्ततियन्त्र कल्प, २६. विजययन्त्र कल्प, ३०. विजयपताकायन्त्र कल्प, ३१. जैनपताकायन्त्र कल्प, ३२. अर्जुनपताकायन्त्र कल्प,जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४७५ ३३. हनुमानपताकायन्त्र कल्प, ३४. रावणपताका कल्प, ३५. वज्रपञ्जरमहायन्त्र कल्प, ३६. चन्द्र कल्प, ३७. प्रतिष्ठा कल्प, ३८. ह्रींकारमयपञ्चदशीयन्त्र कल्प, ३६. सर्वसिद्धि कल्प, ४०. स्वर्णसिद्धि कल्प आदि। हि इनके अतिरिक्त प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि लोकभाषाओं में लिखित एवं संगृहीत ‘औषध-कल्प’ भी जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत हुए हैं। यथा- कि १. नक्षत्र कल्प (विविध कर्मों की सिद्धि के लिये वनस्पतियोग) २. रुद्राक्ष कल्प, ३. रक्तगंजा कल्प, ४. मयूरशिखा कल्प, ५. सहदेवी कल्प, ६. बहेड़ा कल्प, ७. निर्गुण्डी कल्प, ८. हाथाजोड़ी कल्प, ६. श्वेतार्क कल्प, १०. चन्द्रनक्षत्र कल्प, ११. श्वेतलक्ष्मण कल्प, १२. एकाक्षिनारिकेल कल्प, १३. दक्षिणावर्तशंख कल्प, १४. गोरखमुण्डी कल्प तथा १५. विजयाकल्प। इनके अतिरिक्त चिकित्सा के लिये निर्दिष्ट औषधियों की दिव्यता का आधान करने तथा प्रयोग करने की दृष्टि से भी कुछ कल्प-ग्रन्थ बने प्राप्त होते हैं, इनमें जैन मन्त्रों के प्रति कोई विशेष आग्रह नहीं रखा गया है। इनका जैनत्व इसी में है कि ये जैनाचार्यों द्वारा रचित, संगृहीत, लिखित अथवा लिखाकर अपने भण्डारों में रखे हुए प्राप्त होते हैं। वनस्पति कल्पों की साधना में पौधों अथवा वृक्षों की जड़, पत्ते आदि पञ्चांग का अभिमन्त्रण कर धूप-दीपादि से पूजन करके धारण, स्थापन और सामयिक पर्वाराधन की प्रमुखता रहती है।

जैनयोग तथा तन्त्रविद्या

जैनाचार्य योग शब्द की परिभाषा— “मोक्षेण सह योजनाद् योगः” (अर्थात् मोक्ष के साथ जोड़ने से यह ‘योग’ कहलाता है) करते हैं। यह योग ज्ञान-श्रद्धान-चरणात्मक है, यह भी योग की व्याख्या है। ‘मोक्षोपायो योगः’ कह कर योग को मोक्ष का उपाय भी कहा है। श्री यशोविजय जी उपाध्याय ने ‘अध्यात्मसार’ के १५वें अधिकार में योग का स्वरूप-निरूपण करते हुए कहा है असद्ग्रहव्ययाद् वान्त-मिथ्यात्वविष-विपुषः। सम्यक्त्वशालिनोऽध्यात्मशुद्धयागः प्रसिद्ध्यति।। १।। अर्थात् पहले असद्ग्रह के त्याग से, तदनन्तर मिथ्यात्व नामक विष-बिन्दुओं के वमन से जब सम्यग्दर्शन होता है, तब शुद्धात्मभाव से प्रयुक्त योग, अर्थात् मोक्षमार्ग प्रसिद्ध होता है। यहीं योग के १. कर्मयोग और २. ज्ञानयोग ऐसे दो भेद भी बताये गये हैं। इनमें कर्मयोग से परम पद की प्राप्ति न होकर स्वर्गादि के सुख मिलते हैं, जबकि ज्ञानयोग से सच्चिदानन्दमय आत्मरमणतारूप शुद्ध तप द्वारा मोक्षसुख मिलता है। जिनेश्वरों ने पहले कर्मयोग और तत्पश्चाद् ज्ञानयोग का क्रम बतलाया है, क्योंकि कर्मयोग से दोषोच्छेद हो जाने पर ज्ञानयोग सफल होता है। पटि त मनमा मायामा ४७६ काम तन्त्रागम-खण्ड IP माह षड्दर्शनों में योगदर्शन की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकृत है। भारतीय तीनों धर्म-धाराओं में ‘योग’ की विशिष्टता को अंकित करते हुए बहुत सूक्ष्म और गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत हुआ है। जैन योगदृष्टि भी अपने क्षेत्र में विविधता और अन्य धर्मों के विचारों में साम्य तथा वैषम्य को व्यक्त करते हुए उत्तरोत्तर अग्रसर हुई है। वैदिक और बौद्ध धर्मों में योग की अनेक शाखा-प्रशाखाओं का विवेचन है। उसमें ऊहापोह-पूर्वक तारतम्य दिखला कर जैनों ने स्वतन्त्र वैशिष्ट्य स्थापना में भी सफलता प्राप्त की है। जीत का ? वियोग-शास्त्रीय ग्रन्थों की परम्परा जैन धर्म में अतिप्राचीन है। यथा- लिप्तत । १. योगनिर्णय-अज्ञातकर्तृक (वि.सं. ७वीं शती)-श्री हरिभद्रसूरि ने ‘योगदृष्टिसमुच्चय’ स्वोपज्ञ वृत्ति में इसका उल्लेख किया है। इसी प्रकार उन्होंने कालातीत, गोपेन्द्र बन्धु भगवद्दत्त एवं भदन्त भास्कर नामक योगियों के नामों का उल्लेख किया है, जो उनसे पूर्व योग-ग्रन्थों के निर्माता थे। अब योगनिर्णय ग्रन्थ भी प्राप्त नहीं है। योगदृष्टिसमुच्चय-श्रीहरिभद्रसूरि (वि.सं. रवीं शती)-यह ग्रन्थ आध्यात्मिक विकास से सम्बद्ध विषयों को क्रमशः व्यक्त करता है। मित्रादि आठ दृष्टियों के अधिकार के श्री हरिभद्रसूरि आद्य प्ररूपक माने जाते हैं। योगदृष्टियों के आठ विभाग योगांगों के आधार पर किये गये हैं। इसमें २२६ पद्य हैं। इस रचना पर श्री सोमसुन्दरसूरि के शिष्य साधु राजगणि ने ४५० श्लोकप्रमाण-टीका की रचना की है। योगदृष्टिसमुच्चयपीठिका नामक एक कृति इसके आधार पर श्री भानुविजयगणि ने लिखी है। ३. योगबिन्दु-श्रीहरिभद्रसूरि (वि.सं. ८वीं शती)-अनादि काल से इस अनन्त संसार में भ्रमण करने वाले मनुष्य को आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्मविकास करने की भावना कब स्फुरित होती है? इस प्रश्न का उत्तर इस ५२७ पद्यों की कृति में दिया गया है। आरम्भ से मोक्षप्राप्ति तक की सिद्धि के लिये योगमार्ग की पाँच भूमिकाएँ १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता और ५. वृत्तिसंक्षय बतलाई गई हैं तथा पातंजल-योग एवं बौद्ध-योग के साथ तादात्म्य साधा गया है। इस ग्रन्थ पर भी एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति प्राप्त है। ४. षोडशक-श्री हरिभद्रसूरि (पूर्ववत)-इसमें १६ अधिकार हैं तथा धर्मपरीक्षा, धर्मलक्ष्य र आदि विविध विषय हैं। १५ अधिकारों में योग के भेदों का निरूपण किया गया है। मई ध्येय के स्वरूप पर भी विचार हुआ है। इस ग्रन्थ पर यशोभद्रसूरि ने ‘विवरण’ लिखा या पदावा योगदीपिका टीका-श्री यशोविजयगणि (पूर्ववत्)-यह ‘षोडशक’ पर निर्मित न्यायविशारद श्री यशोविजयगणि की ‘वृत्ति’ है। योगशास्त्र पर श्री हरिभद्रसूरि-रचित ‘योगशतक, ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय तथा ‘जोग-वीसिया’ ऐसी तीन कृतियों का भी उल्लेख मिलता 1४७७ जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा है। इस प्रकार इनकी ६ कृतियाँ योगविषयक मानी जाती हैं। जिन ६. योगशास्त्र-श्री हेमचन्द्राचार्य (वि.सं. १२००)-यह सुप्रसिद्ध योगशास्त्रीय ग्रन्थ है। इसमें ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप योग चर्चित है। १२ प्रकाशों में विभक्त यह ग्रन्थ योग, ध्यान, मन्त्र, उपासना आदि सभी विषयों को प्रस्फुट करता है। इसके आद्य पद्य के ५०० अर्थ श्री लाभविजयगणि ने तथा ७०० अर्थ विजयसेन सूरि ने किये हैं। द्वितीय प्रकाश के १०वें पद्य के १०६ अर्थ मानसागर ने किये हैं। इसी प्रकाश के ८५वें पद्य के १०० अर्थ श्री जयसुन्दरसूरि ने भी किये हैं। स्वयं ग्रन्थकार ने इस पर १२००० श्लोकप्रमाण स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी है। अन्य आचार्यों ने इस पर ७ टीकाग्रन्थ बालावबोध आदि भी लिखें हैं। इसका परिचय मन्त्रशास्त्र के प्रसंग में भी दिया जा चुका है। ७. योगसार-अज्ञातकर्तृक (वि.सं. १२००)-यह ग्रन्थ ५ प्रस्तावों में विभक्त है। इसमें २०६ पद्य हैं। देवस्वरूप, धर्मोपदेश, साम्योपदेश, सत्त्वोपदेश तथा भावशुद्धिजनकोपदेश इसका विषय है। ८. योगकल्पद्रुम-अज्ञातकर्तृक-इस ४३५ श्लोक-प्रमाण कृति में योग के प्रमुख विषयों की चर्चा है। मिल रही जीत जोर गाय कि ६. योगदीपिका-श्री आशाधर १०. योगभक्ति-अज्ञातकर्तृक। ११. योगप्रदीप-(ज्ञानार्णव)-शुभचन्द्राचार्य १२. योगप्रदीप-श्री देवानन्द-यह १२७० श्लोक-प्रमाण वाली कृति है। १२. योगप्रदीप-अज्ञातकर्तृक-१४० पद्यों की यह कृति सांसारिक आत्मा को परम उत्कर्ष कैसे प्राप्त हो? वह परम पद किस प्रकार प्राप्त करें? ऐसे विषयों के उत्तर से पूर्ण है। प्रासंगिक रूप से उन्मनीभाव, सामायिक, रूपातीत, शुक्ल और निराकार ऐसे ध्यान के ३ प्रकार तथा अनाहत नाद का विचार यहाँ किया गया है। इस पर हैम ‘योगशास्त्र’ तथा ‘ज्ञानार्णव’ का प्रभाव स्पष्ट है। १३. योगतरंगिणी टीका-श्री जिनदत्तसूरि पानी की कमाई १४. योगभेदद्वात्रिंशिका-श्री परमानन्द योगलक्षणद्वात्रिंशिका समान १५. योगमार्ग-श्री सोमदेव पाट ण कि कि निकाला १६. योगमाहात्म्य पार न मिला है कि मारक १७. योगमाहात्म्यद्वात्रिंशिका-अज्ञातकर्तृक-यह ३२ पद्यों की लघु कृति है। प्रशासनाने १८. योगरत्नसमुच्चय-अज्ञातकर्तृक -यह ४५० श्लोक-प्रमाण कृति है। प्रमा १६. योगरत्नावली-अज्ञातकर्तृक । २०. योगविवरण-श्री यादव सूरि (परिचय अज्ञात है) ४७८ तन्त्रागम-खण्ड का २१. योगविवेकद्वात्रिंशिका-अज्ञातकर्तक , २२. योगसंकथा-अज्ञातकर्तृक २३. योगसंग्रह-अज्ञातकर्तृक निकालानंद राम २४. योगसंग्रहसार-श्रीजिनचन्द्र २५. योगामृत-श्रीवीरसेन-इसी प्रकार योगपायच्छित्तविहि, योगविधि, योगानुष्ठानविधि, योगोद्वहनविधि आदि क्रिया-काण्ड की पुस्तकें भी प्राप्त होती है, जो अनुशीलन योग्य

जैन ध्यान-साधना साहित्य

योग से सम्बद्ध ही ध्यान-साधना का विषय है, किन्तु जैन साधकों ने ध्यान को अधिक महत्त्व दिया है। भगवान् महावीर को जो ज्ञान का प्रकाश मिला, वह उनकी ध्यान-साधना का ही परिणाम माना गया है। प्राकत साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ-आचारांग. उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित आदि में ध्यान का महत्त्व स्पष्टतः प्रतिपादित है। ऋषिभाषित (इसिभासियाइ) में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शरीर में जो स्थान मस्तिष्क का है, वही स्थान साधना में ‘ध्यान’ का है। उत्तराध्ययन में श्रमण-जीवन की दिनचर्या में साधक को दिन और रात्रि के दूसरे प्रहर में नियमित रूप से ध्यान करने के लिये कहा गया है। प्रतिक्रमण में भी ध्यान को अनिवार्यतः महत्त्व मिला है। जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ प्रायः ध्यानमुद्रा में ही अंकित होती हैं। आध्यात्मिक साधनाओं का मूल लक्ष्य चैतसिक पीडा से मुक्ति पाना है। चित्त को आकुल-व्याकुलता, उद्विग्नता से छुटकारा दिलाकर समाधिभाव में स्थित करने के लिये समाधियुक्त चित्त का होना आवश्यक है। अत एव सभी धर्मों की साधना-विधियों में ध्यान को स्थान मिला है। तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान को चित्तनिरोध कहा गया है। उत्तराध्ययन में मनरूपी अश्व का निग्रह करने के लिये श्रुतरूपी रस्सियों का प्रयोग अत्यावश्यक माना गया है। ध्यान चेतना के संगठन की कला है, अतः इससे आत्मिक लब्धियाँ और सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं। आध्यात्मिक शान्ति और निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि में ध्यान को अन्यतम साधन भी कहा है। ‘ध्यानशतक’ में ध्यान से होने वाले पारम्परिक एवं व्यावहारिक लाभों की भी विस्तृत चर्चा है। वहाँ कहा गया है कि ध्यान से शुभ आनव, संवर, निर्जरा और देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। इससे आत्मा कर्मरूपी मल और आवरण से मुक्त होकर निर्विकार ज्ञातावस्था को प्राप्त हो जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कायोत्सर्ग ध्यान के पाँच लाभ बताये गये हैं, जिनमें १. देहजाशुद्धि, २. मतिजाशुद्धि, ३. सुखदुःखतितिक्षा, ४. समताभाव तथा ५. ध्यानाभ्यास की गणना की गई है। ध्यान को आत्मसाक्षात्कार की कला भी कहा गया है। ध्यान जीव का जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४७६ में ‘जिन’ का, आत्मा में परमात्मा का दर्शन कराता है। जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक विकास के जिन १४ गुण-स्थानों का उल्लेख किया है, उनमें अन्तिम गुणस्थान को ‘अयोगी केवली-गुणस्थान’ कहा है। यह वह अवस्था है, जिसमें वीतराग आत्मा अपने कामयोग, वचनयोग और मनोयोग से शरीर, वाणी और मन की गतिविधियों का निरोध कर लेता है और उनके निरुद्ध हो जाने पर वह मक्ति अथवा निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। __ ध्यान एक ‘आन्तरिक तप’ है। ध्यान में स्थित होने से पूर्व जैनसाधक “ठाणेणं अप्पाणं वोसिरामि” अर्थात मैं शरीर से स्थिर होकर, वाणी से मौन होकर, मन को ध्यान में नियोजित करके शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करता हूँ, यह उच्चारण करता है। उत्तराध्ययन (२८.३५) में कहा गया है कि आत्मा तप से परिशुद्ध होती है, सम्यग्ज्ञान से वस्तु के स्वरूप का यथार्थ बोध होता है, सम्यग्दर्शन से तत्त्व-श्रद्धा उत्पन्न होती है, सम्यक्चारित्र से आस्रव का निरोध होता है, किन्तु इन सबसे मुक्ति सम्भव नहीं होती। मुक्ति का अन्तिम कारण तो ‘निर्जरा’ है। यह ध्यान से ही सम्भव है। ___ योगदर्शन में ध्यान को समाधि का पूर्व चरण माना गया है। ध्यान से ही समाधि की सिद्धि होती है। अतः ध्यान की इस निर्विकल्प दशा को न केवल जैनदर्शन में, अपितु सभी धर्मों में मुक्ति का अन्तिम उपाय माना गया है। न की महत्ता से ही जैनाचार्यों ने इस पर पर्याप्त साहित्य की रचना की है, जिसका परिचय आगे दिया जा रहा है। १. ध्यानविचार-अज्ञातकर्तृक-यह लघु, किन्तु महत्त्वपूर्ण गद्यात्मक कृति है। इसका आरम्भ ध्यान-मार्ग के २४ प्रकारों के उल्लेख से हुआ है। परम ध्यान और परम शून्य इत्यादि कह कर इनके दो विभाग भी किये हैं। भावकला का निरूपण करते हुए यहाँ आचार्य पुष्पभूति और पुष्पमित्र के नामों का स्मरण किया गया है। नन्दीसुत्त, कप्पनिज्जुत्ति और आवस्सयनिज्जुत्ति के उद्धरण भी इसमें प्राप्त हैं। उपर्युक्त २४ प्रकारों के उपप्रकारों की संख्या ६६ है, जिनमें प्रत्येक के १. प्रणिधान, २. समाधान, ३. समाधि और ४. काष्ठा के साथ गुणन का निर्देश है। ध्यान के ६६ करणों का करणयोग, भवनयोग आदि के साथ गुणित करके छद्मस्थ ध्यान के ४४२३६८ भेद दिखाये हैं। योग के २६० आलम्बनों का और मनोयोग का भी विश्लेषण यहाँ किया गया है। २. ध्यानदीपिका-सकलचन्द्र (वि.सं. १७वीं शती)-‘ध्यानासुगदीपिका’ तथा ध्यानसुपीदिका ऐसे अपर नाम वाली यह कृति २४५ पद्यों में निर्मित है। नौ प्रकरणों में विभक्त इस ग्रन्थ में ज्ञानादि चार भावना, अनित्यादि बारह भावना, आर्त आदि चार ध्यान, अष्टांग योग, पिण्डस्थादि चार ध्यान तथा हितशिक्षा आदि विविध विषय वर्णित हैं। ग्रन्थकार ने ज्ञानार्णव और योगशास्त्र से भी उद्धरण लिये हैं। ग्रन्थकार की अन्य ४८० म तन्त्रागम-खण्ड साक रचनाएँ हैं- अप्पसिक्खापयरण और सुतस्साय, अर्थात् आत्मशिक्षाप्रकरण तथा श्रुतास्वाद । जिनरत्नकोश में ध्यान-विषयक अन्य जैन कृतियाँ इस प्रकार वर्णित हैं ३-४. ध्यानसार-यशःकीर्ति कृत तथा अन्य अज्ञातकर्तृक। ५. ध्यानमाला-नेमिदास ६. ध्यानस्तव-भास्करनन्दिELFREE ७. ध्यानस्वरूप-भावविजय (वि.सं. १६६६) ध्यानामत अभयचन्दा कम ध्यान विचार अनातकर्तक मा १०. ध्यानदण्डकस्तुति-रत्नशेखर सूरि इनके अतिरिक्त समता, समाधि, वैराग्य और अध्यात्म विषय पर भी जैनाचार्यों ने बहुत लिखा है। यथा १. समभावशतक-धर्मघोषसूरि २. साम्यशतक-विजयसिंहसरि (१०६ श्लोकायम ३. समाधितन्त्र-कुन्दकुन्द आचार्य समाधिशतक-पूज्यपाद (१०५ श्लोक) वि.सं. छठी शती। आत्मा से अतिरिक्त पदार्थों में आत्मत्व बुद्धि रखने से सांसारिक जीव दुःखी होता है। आत्मा की गति के बारे में भी यहाँ अच्छा प्रकाश डाला गया है। ‘मोक्ख-पाहुड’ से वैचारिक साम्य प्रतिपादित है। इस कृति पर श्रीप्रभाचार्य, यशचन्द्र पर्वत-धर्म और मेघचन्द्र ने संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी हैं। हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद भी हुए हैं। ५. समाधिशतक, अर्थात् दोधिकाशतक, न्यायविशारद श्री यशोविजयजी गणिकृत। ६. समाधितन्त्रविचार-पूज्यपाद ७. समाधिद्वात्रिंशिका-अज्ञातकर्तृक ८. समाधिभक्ति-अज्ञातकर्तृक ६. वैराग्यकल्पलता-न्यायविशारद यशोविजयगणि। वि.सं. १७३६ में निर्मित १०५० श्लोकात्मक यह कृति नौ स्तबकों में विभक्त है। १० वैराग्यरति-न्यायविशारद यशोविजयगणि ११. वैराग्यदीपक-अज्ञातकर्तृक १२. वैराग्यमणिमाला-विशालकीर्ति जिट feeजी लामा किया। ११ वैराग्यमणिमाला श्रीचन्द POPPERSPIRITES १ गयरसमजरी श्रीलशिEिPTEAFFAIRS १५. आत्मानुशासन-आचार्य गुणसेन (वि.सं. ६४०)। २७० पद्यों में निर्मित यह कृति चार आराधना के विषयों को व्यक्त करती है। BणE ४८१ जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा १६. आत्मानुशासन-पार्श्वनाग (वि.सं. ६६३) १७. गुणस्थानक्रमारोह अथवा गुणस्थानरत्नराशि-रत्नशेखर सूरि की यह वि.सं. १४४७ की रचना है। इसमें आध्यात्मिक विकास किस प्रकार होता है? यह विषय चर्चित है। यह विषय ‘उत्क्रान्तिवाद’ की कोटि में आता है। इसमें आत्मा की उत्क्रान्ति साधने के लिये मन की एकाग्रता की प्राप्ति के लिये लिखा है, जो योग का ही विषय है। २३७ पद्यात्मक यह कृति स्वोपज्ञ अवचूर्णि से भी अलंकृत है। इसी नाम की अन्य कृतियों में ‘गोम्मटसार’ को भी ‘गुणस्थानक्रमारोह’ कहा जाता है। १८-१६. उपशमश्रेणिस्वरूप और क्षपक श्रेणिस्वरूप-ये दोनों कृतियाँ मुक्ति-मन्दिर पर पहुँचने के लिये सोपानों के वर्णन से युक्त हैं। कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं। . २०. लब्धिसार-नेमिचन्द्र २१. खवणासार-नेमिचन्द्र। इन दोनों कृतियों पर माधवचन्द्र की संस्कृत टीकाएं हैं। इस प्रकार ध्यान-योग से पारम्भ होकर उत्क्रान्ति-योग तक को आत्मसात् करके लिखे ग्रन्थों में आत्मकल्याण की साधना के मार्गों को प्रशस्त किया गया है। आज भी जैन आचार्य साधु-सन्त, साध्वीजी आदि इस दिशा में सतत प्रवृत्तिशील हैं, शिक्षण के लिये शिबिरों का आयोजन करते हैं। शोधकार्य हो रहे हैं। किसान ध्यान मुनि-जीवन का आवश्यक अंग है। श्री भद्रबाहु ने नेपाल में जाकर महाप्राण ध्यान की साधना की थी। दुर्बलिका पुष्पमित्र की ध्यान-साधना के उल्लेख भी मिलते हैं। अनेक आगमों में यह विषय वर्णित है। परवर्ती काल में इस पर तन्त्र और हठयोग का प्रभाव भी पड़ा है। ध्यानविधि, धारणाएं, बीजाक्षर और मन्त्रों के ध्यान, षट्चक्रभेदन आदि भी इसमें समाविष्ट हुए। बौद्धों की विपश्यना-साधना भी जैनदृष्टि में जुड़ी है। प्रेक्षाध्यान और समीक्षण ध्यान-विधि को भी प्रवर्तित रखने के लिये प्रायः ४८ लघुपुस्तिकाएं प्रकाशित हुई हैं। इनमें सत्यनारायण गोयनका, युवाचार्य महाप्रज्ञ मुनि, श्री नथमल जी और आचार्य श्री नानालाल जी आदि के नाम स्मरणीय हैं। gE ____

ध्यानयोग सम्बन्धी शोधकार्य

जैन ध्यानयोग पर गवेषणात्मक और समीक्षात्मक कार्यों पर भी विद्वानों ने पर्याप्त ध्यान दिया है। हरिभद्र के ग्रन्थों पर पं. सुखलाल गांधी का, समदर्शी हरिभद्र, अर्हतदास बंडबोध दिधे का, पार्श्वनाथ विद्यालय शोधसंस्थान से प्रकाशित जैनयोग का आलोचनात्मक अध्ययन, मंगला सांड का भारतीय योग आदि और अंग्रेजी में विलियम जेक्श का जैन-योग, डॉ. नथमल टांटिया का स्टडीज इन जैन फिलासफी, पद्मनाभ जैनी का जैन पाथ आफ प्यूरिफिकेशन, मुनि श्री नथमल जी युवाचार्य के हिन्दी ग्रन्थ चेतना का ऊर्ध्वारोहण, किसने कहा मन चंचल है? और आभामण्डल तथा आचार्य तुलसी का ग्रन्थ प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा आदि महत्त्वपूर्ण हैं। साध्वी श्री प्रियदर्शना जी का “जैनसाधना-पद्धति में ध्यानयोग" नामक शोध-प्रबंध भी इस दिशा का उत्तम प्रयास है। व ४८२ मामा तन्त्रागम-खण्डमा तान्त्रिक दृष्टि से साधना करने वालों के लिये बाह्ययजन और अन्तर्यजन दोनों ही परमावश्यक बतलाये गये हैं। केवल एक प्रकार का अवलम्बन लेने से उसकी पूर्णता नहीं होती। न्यास अन्तर्यजन का प्रारम्भिक रूप है। शरीर के तत्तत् अवयवों में देवोद्देश से मन्त्रपूर्वक किया जाने वाला न्यास-विधान आन्तरिक-चिन्तन से ही सरल होता है। भावपूजा में भी अन्तर्भावों का तत्सम विभावन होने से उसमें यथार्थता आती है, साक्षात्कार की स्थिति बनती है और बाह्य आलम्बन को चैतन्य बनाने के लिये भी श्वास-प्रक्रियात्मक कल्पना की आवश्यकता होती है। यह सब ध्यान से सहज सम्भव है। कोरू जाट कि मार

जैन स्तुति-साहित्य और तन्त्रशास्त्र

साहित्य-रचना का मूल आधार स्तुतिकाव्य को माना गया है। परमात्मा के गुणगणों के यथेच्छ कथन की स्तुतियों में स्वतन्त्रता रहती है। इन्हीं स्तुतियों में आचार्य स्तोत्रकार अपने वैदुष्य का विवेक गूढ रूप में भी व्यक्त करते रहे हैं। मन्त्र, यन्त्र और तन्त्रगर्भित स्तोत्र भी उनमें से एक विधा रही है। आगमिक दृष्टि से मन्त्रवर्णगर्भ, यन्त्ररचनाविधानगर्भ, तन्त्रप्रक्रियागर्भ, पारद-सुवर्ण-गुटिकादि-विधानगर्भ और भैषज्यगर्भ स्तोत्र इनमें प्रमुख हैं। जैनाचार्यों ने इस दिशा में पर्याप्त रचनाएं की हैं। उनमें से कुछ का परिचय इस प्रकार है १. सिद्धान्तागमस्तव-श्रीजिनप्रभसूरि ने वि.सं. १३६५ में इस स्तोत्र की रचना की है। १. इसमें ४६ पद्य हैं। यहाँ स्तुति के माध्यम से आवश्यकादि ११ ऋषिभाषित अंग, १२ उपांग, १३ प्रकीर्णक, ६ छेदसूत्र, दृष्टिवाद आदि अनेक ग्रन्थों का और पञ्चनमस्कार आचार्यमन्त्र आदि का भी वर्णन किया गया है। विशालराजसरि ने इस पर अवचूरि लिखी है। २. दशदिक्पालस्तुतिगर्भित-ऋषभजिनस्तवन-यह भी जिनप्रभसूरि द्वारा रचित है। इसके ११ पद्यों में इन्द्र, अग्नि, यम आदि दिक्पालों की श्लिष्ट रूप से योजना करके ऋषभदेव की स्तुति की गई है। मन्त्रों का सूचन भी किया है। ३. मन्त्रस्तवन-यह ५ पद्यों का स्तवन है। जिनप्रभसूरि ने इसमें जिनमन्त्रों का स्मरण दिया है। ४. ऋषिमण्डलस्तोत्र-८६ पद्यों के इस स्तोत्र की जिनप्रभसूरि ने विभिन्न मन्त्रादि से गर्भित करके रचना की हैं। इस स्तोत्र की वाचनाएं भी बहुत प्राप्त होती हैं, जिनमें पद्यसंख्या न्यूनाधिक मान्य है। क्षमाश्रमणगणि ने १०२ पद्यों का एक संस्करण तैयार किया था। ‘ऋषिमण्डलस्तोत्र’ के नाम से ही और भी कतिपय पाण्डुलिपियाँ भण्डारों में प्राप्त होती हैं। चित्रपटों पर यन्त्रों के आलेखन भी प्राचीन वि.सं. १५०० से प्राप्त होते हैं। ऋषिमण्डल-यन्त्रालेखन और लेखनविधि पर भी बहुत लिखा गया है। कामा पनि विदाई कमिशन जिला की जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४८३ ५. सूरिमन्त्रस्तोत्र-वि.सं. १४८५ में मुनि सुन्दरसूरि ने इसकी रचना की है। इसमें कर सूरिमन्त्र की रचना श्री महावीर की सूचना पर गौतम गणधर ने की है, यह उल्लेख करते हुए सूरिमन्त्र पर लिखा गया है। जीवन ६. सिद्धान्तागमस्तव-यह सूरिमन्त्र के सम्बन्ध में विवेचन प्रस्तुत करता है। लघुशान्ति-स्तव के रचयिता मानदेव सूरि ने इसकी रचना प्राकृत भाषा में की है। ७. नवग्रहस्तवगर्भपार्श्वस्तव-श्री रत्नशेखर सूरि ने इसकी रचना वि.सं. १४६० में की है। इसमें १० पद्य हैं तथा इसमें नवग्रह और पार्श्वनाथ की समन्वित स्तुति है। इनके अतिरिक्त- १. मन्त्राक्षरगर्भित श्रीपार्श्वजिनस्तोत्र, २. मन्त्राक्षरगर्भ पार्श्वनाथस्तव, ३. ‘अट्टेमट्टे’मन्त्रगर्भ पार्श्वनाथस्तव, ४. महामन्त्रगर्भित श्री कलिकुण्डपार्श्वजिनस्तवन, ५. श्रीपार्श्वनाथमन्त्रस्तव, ६. मन्त्रयन्त्रादिगर्भित श्री स्तम्भनपार्श्वजिनस्तवन, ७. स्वर्णसिद्धिगर्भित महावीरस्तवन, ८. मन्त्रभेषजादिगर्भित महावीरस्तोत्र, ६. ईर्यापथिकीगर्भितस्तव, १०. नवग्रहस्वरूपगर्भपार्श्वस्तव आदि बहुत से स्तोत्र प्राप्त होते हैं, जिनमें मन्त्र-यन्त्र विधि-विधान तथा उनके माहात्म्य आदि प्रदर्शित हैं। इन स्तोत्रों की रचना से जैनाचार्यों ने संस्कृत काव्यरचना-कौशल को भी प्रौढ़ता दी है।

जैन ग्रन्थ-सम्पदा और सुरक्षा

जैसा कि पहले देख चुके हैं, जैन-तन्त्र का विस्तार भी अन्यान्य तन्त्रों की समानता में पर्याप्त व्यापकता को लिये हुए हैं। उसका वर्गीकरण करने पर ज्ञात होता है कि इसकी परिधि में अनेक विषयों का समावेश होता है। यथा १. योग-ध्यानादि, २. मन्त्र, ३. यन्त्र, ४. तन्त्र, ५. कल्प, ६. स्तोत्र, ७. धार्मिक अनुष्ठानात्मक विधि, ८. उपासकाचार, ६. दर्शन एवं १०. प्रकीर्णमन्त्रादि विद्या। ____इन दस विषयों के ग्रन्थों की रचना-परम्परा तथा प्रक्रिया के विविध पक्षों का विमर्श करने पर तीन प्रकार उपलब्ध होते हैं-१. मूलविषय प्रतिपादन, २. प्रासंगिक प्रतिपादन और ३. अंगोपांग रूप में निरूपण। इन प्रकारों से निरूपित ग्रन्थ विशालकाय भी हैं और लघुकाय भी। गद्यात्मक, पद्यात्मक और उभयात्मक ऐसी तीनों लेखन की विधायें इनमें स्वीकृत हैं। भाषा की दृष्टि से अर्धमागधी (प्राकृत) और संस्कृत दोनों ही प्रयुक्त हैं। इनके अतिरिक्त लोकोपयोगिता को ध्यान में रखकर हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़ आदि लोकभाषाओं में दूहा (दोहे), चौपाई आदि छन्दों का आश्रय लेकर अनुवाद अथवा स्वोपज्ञ वृत्ति आदि का उपयोग हुआ है। जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं स्थानकवासी आदि सभी सम्प्रदायों ने तन्त्र-विद्या के प्रति आस्था न्यूनाधिक रूप में व्यक्त की है तथा प्रक्रियागत वैषम्य रखते हुए भी मूल उपासना को सर्वोपरि स्थान दिया है। जिस प्रकार मन्त्रादि क्रियाओं को गोपनीय माना गया है, उसी प्रकार मन्त्रादि प्रक्रियाओं पर लिखित साहित्य भी गुप्त रखने का ही शास्त्रों में निर्देश है। ४८४ तन्त्रागम-खण्डमा “कुलपुस्तकानि गोपायेत्” ऐसा जो तन्त्रों का वचन एवं सिद्धान्त है, उसमें भी गोपन से रक्षण एवं छिपाने के संकेत मिलते हैं। नागार्जुन और अक्षोभ्य जैसे महान् तान्त्रिक भी अपनी सिद्ध विद्याओं को सदा अपनी कुक्षि में रखते थे, इसीलिये उन्हें ‘कक्षपुटी’ नाम से सम्बोधित किया जाता है। पूज्य साधुसमुदाय भी अपने साथ ऐसी महत्त्वपूर्ण संग्रह-पुस्तकों को अपने पास रखता था और बाद में किसी ग्रन्थ-भण्डार में रखवा देता था। जैन ग्रन्थ-भण्डारों की ऐसी स्थापनाएँ भारत के प्रसिद्ध नगरों में आज भी स्थापित हैं, जिनमें हस्तलिखित एवं मुद्रित जैन धर्म के ग्रन्थों का संग्रह सुरक्षित रूप से स्थित है। ऐसे कतिपय संग्रहालयों की नामावली इस प्रकार है १. श्री वर्धमान जैन आगममन्दिर, पालीताणा (गुजरात)। गिलाश २. श्री विजयमोहन सूरीश्वर हस्तलिखित शास्त्रसंग्रह, पालीताणा। दी। ३. शेठ श्री आणंद जी कल्याण जी नी पेढ़ी, श्री जैनश्वेताम्बर ज्ञानभण्डार, पालीताणा ४. , लींबडी, गुजरात हा ५. श्री हीरजी जैनशाला ज्ञानभण्डार, जामनगर, गुजरात। ६. श्री अंचलगच्छ ज्ञानभण्डार, जामनगर, गुजरात। ७. श्री डे. ला. जैन उपाश्रय ज्ञानभण्डार, अहमदाबाद, गुजरात। ६. श्री संवेगीनो उपाश्रय जैनज्ञानभण्डार, छलन्हित की ६. श्री विजयदानसूरि ज्ञानमन्दिर, किमान पाच किती किमया मांगा है। १०. श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञानमन्दिर, बड़ौदा (गुजरात) की रिकाशित ११. श्री आत्मारामजी जैन ज्ञानमन्दिर, बाल-वि १२. श्री जैनानन्द पुस्तकालय, सूरत ,, मालामाल १३. श्री हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर, पाटण लावणी १४. श्री अमरविजयजी जैन ज्ञानमन्दिर, डभोई कामालाची कि १५. श्री मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर, डभोई , १६. श्री लावण्यविजय जैन ज्ञानभण्डार, राधनपुर १७. श्री वीरसूरीश्वरजी जैन ज्ञानभण्डार, १८. श्री आत्मकमल लब्धि जैन ज्ञानभण्डार, दादर, (बम्बई) १६. श्री शान्तिनाथ जैन देरासर शान्तिगच्छ प्रवचन पूजासभा, बम्बई २०. महावीर जैन विद्यालय, बम्बई (महाराष्ट्र) २१. श्री अभयजैन ग्रन्थालय, बीकानेर (राज.) २२. श्री जैन साहित्यमन्दिर पालीताणा (गुज.) गुजरात, राजस्थान तथा अन्यान्य प्रदेशों में ऐसे अनेक भण्डार हैं। स्थान-विशेष पर ज्ञान-भण्डार की स्थापना करके वहाँ ग्रन्थों को रख दिया जाता था। ये ‘ज्ञान-भण्डार’जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४८५ स्थानीय ज्ञान-रसिकों के काम तो आते ही थे, साथ ही विहार में आकर विश्वास करने वाले साधु-साध्वियों के अध्ययन, अनुसन्धान एवं उद्भूत प्रश्नों के समाधान के लिये भी बहुत उपयोगी होते थे।ार __ज्ञान-भण्डार की सुरक्षा, अभिवृद्धि एवं ग्रन्थों के आदान-प्रदान की व्यवस्था भी स्थानीय संघ, ट्रस्ट अथवा विशिष्ट व्यक्तियों के अधीन रहती थी। इस परम्परा का निर्वाह अब शिथिल हो रहा है। शहरों में विश्वविद्यालय तथा शासकीय संरक्षणों में अनुसंधान संस्थानों की स्थापना तथा मुद्रित ग्रन्थों की अधिकता से जैन समाज ने इस दायित्व के भार से अपने को मुक्त रखने में हित माना है। जहाँ, जिन साधु-मुनिराजों के पास ऐसे दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के संग्रह थे, उन्हें भी उन विशाल संग्रहालयों में दे दिया गया है। प्राप्त प्रसिद्ध जैन ज्ञान-भण्डारों में आज भी ऐसे दुर्लभ पाण्डुलिपि-ग्रन्थ हैं, जिनका उपयोग विद्वज्जन समय-समय पर वहाँ पहुँच कर करते हैं। जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, पाटण, पालीताणा, छाणी, अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत, बम्बई, कलकत्ता, पूना, सोलापुर, वाराणसी, मूडबिद्री आदि ऐसे स्थान जैन ज्ञानभण्डारों के लिये सुप्रसिद्ध हैं। जह र स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ के अध्यवसायी मुनिगण तथा विद्योपासक विद्वान् निरन्तर ऐसे ग्रन्थों के अन्वेषण, सम्पादन और प्रकाशन में अहर्निश सन्नद्ध हैं, यह प्रसन्नता का विषय

जैन-परम्परा में अनुष्ठानों की विविधता

जैन-परम्परा में नित्य कर्म के रूप में सामायिक प्रतिक्रमण षडावश्यक के पश्चात् जिनपूजा को प्रथम स्थान प्राप्त है। स्थानकवासी श्वेताम्बर, तेरापंथ तथा दिगम्बर तारणपन्थ को छोड़कर शेष परम्पराएं जिन-प्रतिमा की पूजा को श्रावक का आवश्यक कर्तव्य मानती हैं। इस दृष्टि से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रचलित अनुष्ठान इस प्रकार स्मरणीय है स्नात्रपूजा, बृहच्छान्तिस्नात्रपूजा, नमिऊणपूजा, अर्हत्पूजा, सिद्धचक्रपूजा, नवपदपूजा, सत्तरहभेदीपूजा, अष्टकर्मपूजा, अन्तरायपूजा, भक्ताभरणपूजा, चक्रपूजा, ऋषिमण्डलपूजा आदि-आदि। जबकि चाची दिगम्बर-परम्परा इसके साथ ही ज्ञानपूजा से विशेष रूप से सम्बद्ध है। वहाँ अभिषेकपूजा, देवशास्त्रपूजा, जिनचैत्यपूजा आदि तो प्रचलित हैं ही, साथ ही व्रत और अनुष्ठान भी बहुत मान्य हैं। दशलक्षण व्रत, अष्टाह्निका व्रत, द्वारालोकन, जिन मुखावलोकन, जिनपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्रभक्ति, तपोऽजलि, मुक्ताञ्जलि., कनकावलि., राकावलि., छिकावलि, रत्नावलि. मुकुटसप्तमी, सिंहनिष्क्रीडित, निदोषसम्पत्ति, अनन्त. षोडश कारण., ज्ञानपच्चीसी., चन्दनषष्ठी., रोहिणी., अक्षयनिधि., पञ्चपरमेष्ठी., सर्वार्थसिद्धि, धर्मचक्र, नवनिधि., कर्मचूर. की इनमें गणना की जाती है। मात्रा निकाली ४८६ तन्त्रागम-खण्ड एक सुखसम्पत्ति., इष्टसिद्धि., निःशल्य-अष्टमीव्रत आदि के अतिरिक्त पञ्चकल्याण, बिम्बप्रतिष्ठा, वेदीप्रतिष्ठा, सिद्धचक्रविधान, इन्द्रध्वजविधान, समवसरण विधान, ढाई द्वीप-विधान, त्रिलोकविधान, बृहच्चारित्रशुद्धिविधान, महामस्तकाभिषेक आदि अनुष्ठान भी तान्त्रिक विधियों से ही प्रपुष्ट हैं। इन अनुष्ठानों में कृत्यात्मक कला (परफॉर्मिंग आर्ट) का भी विकास हुआ है, जिसे पूजाहेतु बनाये जाने वाले भव्य मण्डलों में देखा जा सकता है। नृत्य, गीत, वाद्य आदि भी स्तुतियों में प्रयुक्त होते हैं। यह प्राचीन परम्परा है। नाट्यविधि भी इसमें आ जाती है।

जैन अनुष्ठानात्मक साहित्य

आचार्य उमास्वाति ने ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रन्थ के आरम्भ में कहा है कि “ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः” अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु इसके साथ ही आत्मशुद्धि को भी इसके लिये आवश्यक बताया गया है। आत्मशुद्धि आत्मतत्त्व के ज्ञान से उपलभ्य है। अनुष्ठान का अर्थ है –अनुकूल आचरण, अर्थात् आत्मतत्त्व के लिये हितकारी कोई भी प्रवृत्ति। जैसे कि ज्ञान प्राप्त करना, धर्मोपदेश सुनना, ध्यान करना, जिनपूजन, सामायिक, तप-त्याग आदि धर्मानुष्ठान शास्त्रविहित पद्धति से शक्ति के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में भी किये जाय, तो वे आत्मशुद्धि के साधक बनते हैं। वस्तुतः तीर्थंकर देवों ने जो तीर्थकरत्व प्राप्त किया हैं अथवा करते हैं, वह भी अनुष्ठानों और शुद्ध क्रियाओं के द्वारा ही सम्भव होता है। र जैन धर्म में आत्मा की शुद्धि के लिये अनेक मार्ग बताये गये हैं। कहा गया है “मोक्षेण योजनाद् योगः”। आत्मा की किसी प्रवृत्ति के पश्चात् जो भी कुछ साक्षात् धर्मानुष्ठान रूप हो, वह योग रूप बन जाता है। यद्यपि ‘उत्तराध्ययन’ जैसे प्राचीन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञादि कर्मकाण्ड का निषेध ही परिलक्षित होता है, किन्तु वहीं धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों, अनुष्ठानों को आध्यात्मिक रूप प्रदान करके उसका मण्डन भी कर दिया गया है। कालानमक _जीवन के प्रति अनासक्ति, ममत्वहीनता और इन्द्रियजय की प्रवृत्ति वाले अनुष्ठानों को दार्शनिक रूप से परिभाषित करके उधर प्रवृत्त होने का निर्देश सर्वत्र जैन ग्रन्थों में उपलब्ध है। आचारांग, दशवैकालिक, आवश्यकसूत्र, मूलाचार, सूत्रकृतांग, कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र, राजप्रश्नीय, षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में अनुष्ठानविधियों के बारे में बहुत कहा गया है। दैनिक आवश्यकताओं की प्रक्रिया भी अनुष्ठानमूलक ही है। जैन अनुष्ठान महत्त्वपूर्ण एवं अपेक्षाकृत प्राचीन अंग गुरुवन्दन और चैत्यवन्दन है। भक्तिमार्गी परम्परा में पूजाविधि और श्रमण-परम्परा में तपस्या और ध्यान का विकास हुआ है। जिन-मन्दिर और जिन-प्रतिमाओं के विस्तार से पूजापद्धतियाँ भी विविधता को प्राप्त हो गयीं। तक जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा ४८७ महावीर के धर्मसंघ में ‘प्रतिक्रमण’ एक दैनिक अनुष्ठान बना। इसी से षडावश्यकी, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, गुरुवन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्गध्यान तथा प्रत्याख्यान का विकास हुआ। तदनन्तर भावपूजा और द्रव्यपूजा के रूप में पूजा-विधियों का विस्तार होता गया। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में जैनसामग्री के प्रयोग पर भी अष्ट-द्रव्य, पुष्प-पूजा, आदि के निर्णय हुए, पंचोपचार, छह द्रव्य, षोडशोपचार आदि प्रचलित हुए। राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव द्वारा विहित जिनपूजा के अनुसार अनुष्ठान के प्रमुख अंगरूप पूजाएं भी प्रचलित हो गयीं। अनुष्ठानपरक जैन साहित्य को भी तन्त्र के अंग के रूप में मानना उचित है, क्योंकि तन्त्र की इस सामान्य परिभाषा PER PE यत्र चोपासनामार्गो देवतानां प्रकाशितः। तं ग्रन्थं तन्त्रमित्याहुः पुरातनमहर्षयः।। सपनामा इसके अनुसार यह साहित्य भी उपासना-मार्ग का ही पोषक है। इस दिशा में निर्मित साहित्य का कुछ परिचय इस प्रकार है १. आवश्यक-नियुक्ति २. पूजाविधि-प्रकरण उमास्वाति प्रापार पनि ३. महापुराण जिनसेनाकामशीयाली ४. तिलोयपण्णत्ति यतिवृषभ -विनिमनाए ५. पञ्चाशकप्रकरण हरिभद्र सूरि (१६ पंचाशकों का संग्रह) प्रत्येक पंचाशक ५०-५० श्लोकों में स्वस्वविषय का विवरण देता है। इस पर नावांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरि की वृत्तियां भी हैं। ६. अनुष्ठान-विधि चन्द्रसरि (महाराष्ट्र राज कि ७. समाचारी-शतक RITE RT सोमसन्दरसरिताला या ८. समाचारी तिलकाचार्य म कर ६. विधिमार्गप्रमाण शाशायी विकत जिनप्रभसूरि (वि.सं.१३६५) १०. आचारदिनकर कि न की वर्धमानसूरि (वि.सं.१४६८) ११. श्राद्धविधिनिश्चय हर्षभूषणमणि (वि.सं. १४८०) १२. समाचारीशतक भीक मासमयसुन्दरसूरि १३. प्रतिष्ठाकल्प या किसी (अनेक लेखकों की ६ कृतियाँ) १४. प्रतिष्ठासारसंग्रह वसुनन्दी (वि.सं.११५०) १५. जिनयज्ञकल्पाला आशाधर (वि.स.१२८२) काहनिया १६. महाभिषेक की आशाधर (वि.सं.१२८२) क बाट ४८८ तन्त्रागम-खण्ड नागनन्दीमा श्रीभूषण १७. दशलाक्षणिक व्रतोद्यापन नही सुमतिसागर १८. व्रत-तिथिनिर्णय नगतिशिल पालकी सिंहनन्दी १६. जम्बूद्वीपपूजन सामान ब्रह्मजिनदास (वि.सं. १५वीं शती) काजी २०. षड्विंशतिक्षेत्रपालपूजन शिवानी विश्वसेन (,, १६वीं शती) या २१. बृहत्कलिकुण्डपूजन २ माजगांव विद्याभूषण (., १७वीं शती) - जह २२. धर्मचक्रपूजन एवं व तीतिमा (वि.सं. ,, १६वीं शती) । तावीजा पुना बृहद्धर्मचक्रपूजन बुधवीरुला दिशाम लामा २३. पञ्चपरमेष्ठीपूजन का वार्षिक सकलकीर्ति (,) २४. षोडशकारणपूजन २५. गणपरवलमपूजन २६. प्रतिष्ठाकल्प करा २७. षोडशसागरव्रतोद्यापन का २८. श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र सिमिरमा श्री चन्द्रसूरि (वि.सं. १२२२) २६. नन्दीटीका दुर्गपदव्याख्या हरिभद्र सूरि तथा श्री चन्द्रसूरि ग ____ श्री चन्द्रसूरि ने वि.सं. १२२६ में इस पर ३३०० श्लोकप्रमाण व्याख्या लिखी है। जैसलमेर के भण्डार में इसकी पाण्डुलिपि है। ३०. सर्वसिद्धान्तविषमपदव्याख्या - श्री चन्द्रसूरि (२२६४ श्लोक-प्रमाण) ३१. प्रतिष्ठादीक्षा-कुण्डलिका को श्री नरचन्द्र ३२. अर्हदभिषेकविधि र मापक पं. कल्याणविजयगणि एकच्या (वि.सं.११वीं शती) ऐसी अनेक कृतियाँ अनुष्ठान-विधानों को सम्पन्न कराने के लिये पूर्वाचार्यों ने निर्मित की है। इनका दार्शनिक पक्ष भी है, जो तपःप्रधान अनुष्ठानों के माध्यम से कर्ममलों का निवारण, आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक आवेगों का नियन्त्रण करता है। इनका उद्देश्य भी समन्तभद्र ने इस प्रकार व्यक्त किया है न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विगीतवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।। जी

जैन अध्यात्मदर्शन-साहित्य

जैनदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य अध्यात्म विषय है। इसी प्रकार साधना के क्षेत्र में प्रवेश पाने के इच्छुक व्यक्ति को भी तदनुसार पात्रता प्राप्त करने के लिये अध्यात्मरुचि और आध्यात्मिक चिन्तन का अनुरागी बनना आवश्यक है। अध्यात्म का तात्पर्य है आत्मचिन्तन की ओर प्रवेश। यद्यपि अध्यात्म-साधना से लौकिक फल का कोई सीधा ४८६ जैनतन्त्र और साहित्य-सम्पदा सम्बन्ध नहीं है, तथापि जीवनशुद्धि का प्रथम और अत्यावश्यक सोपान तो है ही। जैन धर्म के आचार्यों ने अध्यात्म विषय पर भी पर्याप्त ग्रन्थ-रचनाएं की है, जिनका कुछ परिचय इस प्रकार है १. अध्यात्मरहस्य-श्री आशाधर (वि.सं.१२८०)। इसकी रचना पं. आशाधर ने अपने पू. पिता की इच्छा पर की थी। इसमें योग के विषय को विशद रूप से समझाते दिन में हुए उसके आध्यात्मिक तथ्य को समझाया गया है। २. अध्यात्म-कल्पद्रुम-सहस्रावधानी मुनिसुन्दरसूरि (वि.सं.१४७०)। सोलह अधिकारों में विभक्त यह ग्रन्थ शान्तरस की भावना से ओतप्रोत है। इस पर तीन संस्कृत टीकाएं रचित हैं- १. धनविजय गणि की अधिरोहिणी, २. रत्नचन्द्रगणि की अध्यात्मकल्पलता और ३. उपाध्याय विद्यासागर कृत। महिला कि ३. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-राजमल्ल कवि। यह चार विभागों में विभक्त २०० पद्यों में रचित है। जब ४. अध्यात्म-तरंगिणी श्री सोमदेव। ५-६ अध्यात्मसारप्रकरण-न्यायविशारद यशोविजयगणि (वि.सं. १७४३)। श्री यशोविजय जी उपाध्याय ने अध्यात्म विषय पर पाँच रचनाएं लिखी हैं- १. अध्यात्मबिन्दु, पोट २. अध्यात्मतत्त्वपरीक्षा, ३. अध्यात्मसार, ४. अध्यात्मतत्त्वोपेदेश ५. अध्यात्मोपनिषद्। इनमें अध्यात्मसार ग्रन्थ अतिविस्तृत है और इस पर श्री भद्रकविजय जी महाराज ने भुवनतिलक नामक संस्कृत टीका भी लिखी है। यहाँ दम्भकषायादि के त्याग, योग-ध्यान तथा अनुभव पर विशेष चर्चा है। १०. ज्ञानसागर अथवा अष्टकप्रकरण-अष्टकद्वात्रिंशार । यह भी श्री यशोविजय जी गणि की रचना है। इसमें आठ-आठ पद्यों में ३२ अष्टक रचित है, जिनमें पूर्ण मनन, स्थिरता, मोह, ज्ञान, शम आदि ३२ विषयों पर लिखा गया है। ११. मातृकाप्रसाद-श्री मेघविजयमणि (वि.सं. १७४७)। “ॐ नमः सिद्धम्” वर्णाम्नाय पर यहाँ विवरण दिया गया है। १२. अध्यात्मतत्त्वालोणु-श्री न्यायविजय। ४८३ पद्यों में निर्मित यह ग्रन्थ प्रकीर्णक उपदेश से आरम्भ होता है। तदनन्तर पूर्वसेवा, ध्यान-योग की श्रेणियां आदि विषयों को स्पष्ट करता है। इनके अतिरिक्त विभिन्न हस्तलिखित भण्डारों में निम्नलिखित पाण्डुलिपियाँ भी प्राप्त होती हैं १. अध्यात्मकभेद-इसकी एक प्रति भाण्डारकर ओरि. इन्स्टी. पूना में है। २. अध्यात्मकलिका-इसकी एक प्रति जैसलमेर में है। ३. अध्यात्मपरीक्षा-यह अज्ञातकर्तृक कृति है। -४० तन्त्रागम-खण्ड ४. अध्यात्मप्रदीप-इसकी प्रति आगरा में है। यानी गोश का ५. अध्यात्मप्रबोध-इसकी प्रति भी आगरा में है। PPP वाया जा ६. अध्यात्मलिंग-इसकी एक पाण्डुलिपि मिलती है। ७. अध्यात्मसारोद्धार-इसकी पाण्डुलिपि सूरत में है। शिकायत ८. प्रशमरति-इसमें अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मव्याख्यातत्त्व नामक बारह अनुप्रेक्षाओं की में भावनाओं का उल्लेख है। ६. बारस्पणुवेक्खा कार्तिकेय-यह अनुप्रेक्षा से सम्बद्ध स्वतन्त्र प्राचीन कृति है। १०. द्वादशभावना-अज्ञातकृति (दिगम्बर कृति)। याना . ११. द्वादशानुप्रेक्षा-सोमदेव रायाजा १२. शान्तसुधारस-विनयविजयगणि (वि.स.१७२३)। यह गेय काव्य २३४ पद्यों में निर्मित है। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य ऐसी चार-चार भावनाओं के यथावत् चित्रण के आठ-आठ पद्यों के गेयाष्टक इसमें समाविष्ट हैं। इस पर गम्भीरविजयगणि बाजा ने एक टीका लिखी है। पीपमालाड सावीइसी प्रकार अन्य सम्प्रदाय के अनुगामियों ने भी अध्यात्म की पुष्टि के लिये साहित्य की सृष्टि की है। वर्तमान काल में संस्कृत भाषा का विशेष प्रसार न होने से हिन्दी और अन्य प्रादेशिक भाषाओं में आध्यात्मिक साहित्य का गद्य और पद्य में निर्माण हो रहा है। ‘अध्यात्मरास’ नामक रंगविलास की कृति इस दिशा में पहला प्रयास है। गुजराती भाषानुवाद अन्य अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों के हो रहे हैं। भाष्यात्मक अनुवादों में अनुवादक के अपने अनुभव और स्वाध्याय के द्वारा प्राप्त ज्ञान का भी पुट दिया जा रहा है और लोकमंगल के लिये स्वस्थ परम्परा का विकास किया जा रहा है। जैन धर्म के मर्मज्ञ मनीषयों ने संस्कृत भाषा का अपने आध्यात्मिक एवं साधना साहित्य के सर्जन में नितान्त प्रयोग किया है। संस्कृत-निष्ठा के इस अप्रतिम उदाहरण से संस्कृतानुरागी समाज अवश्य ही गौरव का अनुभव करता है। यह ज्ञान-मन्दाकिनी अनवरत बहती रहे, यही ईश्वर से प्रार्थना है।। कारविराजमार जनालाई नजि विधी ताजा का प्रियापरिक किसिमकायावर कागजमकी का किसानलीसमाज की सहरका नाममा कारण किया हुए