त्रिविध धर्मचक्र प्रवर्तन
ईसा-पूर्व छठी शताब्दी में शाक्य राजवंश के राजा शुद्धोदन के यहां राजकुमार सिद्धार्थ का जन्म हुआ। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों के बीच कुमार सिद्धार्थ अपने राजकीय संमान, पत्नी, बच्चे और घर को त्यागकर, दु:खी और सन्तप्त मानव को दुःख से मुक्त करने के लिये, दुःख के कारणों को खोजने निकल पड़े। उन्होंने आडार कालाम, उद्रक रामपुत्र आदि अनेक श्रमणों का शिष्यत्व भी स्वीकार किया। अनेक वर्षों तक अपने शरीर को अनेक दुष्कर चर्याओं द्वारा सुखाया। इतनी कठोर तपस्या के बाद भी उन्हें दुःख के कारणों का ज्ञान नहीं हुआ। तब उन्होंने मध्यम मार्ग का अवलम्बन कर वैशाख पूर्णिमा के दिन बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर दुःख के कारणों को पहचाना और उन्हें बोधि प्राप्त हई। कमार सिद्धार्थ बद्ध कहलाये। उन्होंने बोधि-प्राप्ति के अनन्तर वाराणसी के समीप ऋषिपतन मृगदाव वन में सर्वप्रथम अपने पांच शिष्यों के समक्ष धर्मोपदेश दिया। इसे ही प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। विद्वान् इसे स्थविरवादी मत का धर्मचक्र प्रवर्तन मानते हैं। द्वितीय धर्मचक्र प्रवर्तन राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर हुआ, जिसमें महायानी सिद्धान्तों का प्रवर्तन किया गया। तृतीय धर्मचक्र प्रवर्तन धान्यकटक या श्रीपर्वत पर हुआ, जिसमें मन्त्रयानी सिद्धान्तों का प्रकाश हुआ। भोट परम्परा में मान्यता है कि बोधि-प्राप्ति के प्रथम वर्ष में ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में स्थविरवाद का, तेरहवें वर्ष में गृध्रकूट पर्वत पर महायान का तथा सोलहवें वर्ष में मन्त्रयान का धान्यकटक में प्रवर्तन किया गया। कालचक्रतन्त्र के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि इसका प्रवर्तन निर्वाण के एक वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार हम बुद्ध के उपदेशों को तीन श्रेणियों में बांट कर देख सकते हैं- प्रथम पालि साहित्य, द्वितीय महायानी साहित्य तथा तृतीय तन्त्र साहित्य। सामान्यतः यह स्वीकार किया जाता है कि बौद्ध तन्त्रों का उद्भव बहुत परवर्ती काल का है। स्थविरवादी परम्परागत विद्वान् तो यह भी स्वीकार नहीं करते कि बुद्ध ने तन्त्र सम्बन्धी कोई उपदेश दिया था और मन्त्रयान का धर्मचक्र प्रवर्तन किया था, क्योंकि तन्त्र साहित्य में जो सिद्धान्त प्रतिपादित हैं, वे बुद्ध के मूल वचनों (पालि साहित्य) से सर्वथा विपरीत हैं। उनका यह मानना है कि परवर्ती काल में आचार्यों ने इसे बौद्ध धर्म में प्रविष्ट करा दिया, जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का पतन हुआ। यहां तक कि कुछ स्थविरवादी विद्वान् महायान को भी बुद्धवचन नहीं स्वीकार करते। इस प्रकार बुद्ध के उपदेशों का प्रचार दो धाराओं में हुआ। एक स्थविरवादी परम्परा और दूसरी महायानी परम्परा, जिसमें बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४०७ मन्त्रयान भी सम्मिलित है। प्रथम धारा का प्रचार-प्रसार दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में हुआ, जबकि दूसरी धारा का प्रचार पूर्वोत्तर एशियाई देशों में।
मन्त्रनय की देशना
परम्परावादी महायानी तन्त्रों का प्रवर्तन भगवान् बुद्ध द्वारा ही स्वीकार करते हैं। अतीत के बुद्धों ने भी तन्त्रों का प्रवचन किया था, भविष्य के बुद्ध भी तन्त्र-प्रवचन करेंगे और प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान बुद्ध भी पुनः पुनः प्रवचन देंगे। नामसंगीति का प्रसिद्ध वचन याऽतीतैर्भाषिता बुद्धैर्भाषिष्यन्ते ह्यनागताः। प्रत्युत्पन्नाश्च संबुद्धा यां भाषन्ते पुनः पुनः।। बुद्ध ने तन्त्रों की देशना विभिन्न देश-कालों एवं विभिन्न पर्षदों के समक्ष की। तन्त्रशास्त्रों का प्रमुख लक्ष्य इसी जन्म में बुद्धत्व प्राप्ति है। बौद्ध तन्त्रों के उद्भव के सम्बन्ध में प्रायः दो प्रकार के मत सामने आते हैं। एक परम्परावादी मान्यता और दूसरी ऐतिहासिक एवं तात्त्विक विकासक्रम की दृष्टि। इस सन्दर्भ में उपर्युक्त दोनों दृष्टियों का विश्लेषण करना सार्थक होगा। बौद्ध तन्त्रों को सामान्यतया चार प्रमुख विभागों में विभाजित किया जाता है— क्रिया तन्त्र, चर्यातन्त्र, योगतन्त्र तथा अनुत्तर-योगतन्त्र। इस सम्बन्ध में हम आगे विस्तार से विचार करेंगे। धान्यकटक में भगवान् ने तन्त्र की देशना की, इस सम्बन्ध में अनेक उद्धरण मिलते हैं। तन्त्रों को विभाजन की दृष्टि से देखें, तो इन सभी तन्त्रों का प्रवचन धान्यकटक में ही हुआ हो, ऐसा भी नहीं लगता। सूत्र-ग्रन्थों की तरह भगवान् ने भिन्न-भिन्न स्थानों एवं काल में भिन्न-भिन्न पर्षदों के समक्ष इनकी देशना की। कछ परम्परावादियों की धारणा यह भी है कि जब भगवान् गृध्रकूट पर्वत पर प्रज्ञापारमिता-शास्त्रों का प्रवचन कर रहे थे, ठीक उसी समय कुछ तीक्ष्णेन्द्रिय शिष्य धान्यकटक में मन्त्रनय का श्रवण कर रहे थे। प्रारम्भ में मन्त्रनय को प्रज्ञापारमितानय के अन्तर्गत ही स्वीकार किया जाता था’ । बाद में यह तन्त्रयान एवं वज्रयान के रूप में प्रचारित हुआ। प्रज्ञापारमिता-शास्त्रों की देशना गृध्रकूट पर्वत पर हुई तथा मन्त्रनय की देशना धान्यकटक में। धान्यकटक संभवतः श्रीशैल पर्वत ही है, क्योंकि श्रीपर्वत के तन्त्र से सम्बद्ध होने के कई उद्धरण मिलते हैं। बाण भट्ट और श्रीहर्ष की रचनाओं में यह उल्लेख मिलता है कि यह तन्त्र-साधना का एक प्रधान केन्द्र था। मालतीमाधव (१.८,१०) में भवभूति ने भी इसे तान्त्रिक केन्द्र के रूप में चित्रित किया शनी जा १. महायानं च द्विविधम्—पारमितानयो मन्त्रनयश्चेति (अद्वयवज्रसंग्रह, पृ. १४)। A . २. गृध्रकूटे यथा शास्त्रा प्रज्ञापारमितानये। तथा मन्त्रनये प्रोक्ता श्रीधान्ये धर्मदेशना।। (से. टी., पृ. ३) लोपोना सीमाभानियावासी ४०८ तन्त्रागम-खण्ड न तन्त्र की देशना के सम्बन्ध में भोट परम्परा का उल्लेख करना युक्तियुक्त होगा। तदनुसार चारों तन्त्रों की देशना भगवान् तथागत बुद्ध ने विभिन्न समयों में अकनिष्ठ, त्रायस्त्रिंश आदि अनेक देवभूमियों में विभिन्न पात्रों के समक्ष दी। सर्वप्रथम इन चारों तन्त्रों के स्वरूप पर विचार कर लेना उचित होगा। 15
क्रियातन्त्र
क्रियातन्त्र के अन्तर्गत अनेक तन्त्र-ग्रन्थ संगृहीत हैं। इन तन्त्रों की देशना समय-समय पर विभिन्न लोकों में भिन्न-भिन्न पात्रों के समक्ष तथागत बुद्ध ने की। यह स्वीकार किया जाता है कि भगवान बुद्ध अपनी माता को धर्मोपदेश देने के लिए श्रावस्ती से तीन महीने के लिये त्रायस्त्रिंश लोक गये। वहीं से समय समय पर सुमेरु पर्वत आदि स्थानों में जाकर तथा पुनः जम्बुद्वीप लौटकर मगध, श्रावस्ती आदि विभिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न आशय के सत्त्वों के अनुसार तन्त्र की देशना की। क्रियातन्त्र के ग्रन्थों को मुख्यतया छः भागों में विभाजित किया जाता है। इनमें प्रथम मञ्जुश्री से सम्बद्ध तन्त्रों का प्रवर्तन शुद्धावासलोक में हुआ। अवलोकितेश्वर से सम्बद्ध तन्त्रों का प्रवर्तन पोतल नामक पर्वत पर, अचलतन्त्र का त्रायस्त्रिंश लोक में, वज्रपाणि से सम्बद्ध तन्त्रों का प्रवर्तन पाताल लोक में तथा गृध्रकूट में उष्णीष से सम्बद्ध तन्त्रों का प्रवर्तन हुआ । इनमें कुछ प्रमुख तन्त्रों का जैसे त्रिसमयव्यूहराजनामतन्त्र(तो.२ ५०२) की देशना शुद्धावास भूमि में, अनन्तमुखसाधकधारणी (तो. ५२५) की देशना सुमेरु पर्वत पर, सर्वतथागताधिष्ठानहृदयगुह्यधातुकरण्डनामधारणी महायानसूत्र की देशना मगध में, रश्मिविशुद्धप्रभानामधारणी (तो. ५१०) की कपिल नामक स्थान में बोधिसत्त्व सर्वनीवरणविष्कम्भिन द्वारा अध्येषणा करने पर हुई।
चर्यातन्त्र
चर्यातन्त्रों की देशना भी भगवान् बुद्ध ने विभिन्न लोकों में विभिन्न पात्रों के समक्ष दी। नीलाम्बरवज्रपातालतन्त्र (तो. ४६६) की देशना भगवान् ने सप्तपातालक्रम में स्थित नागलोक में की। नीलाम्बरत्रैलोक्यविनयतन्त्र (तो. ४६८) की देशना सुमेरु पर्वत पर विहार करते समय अनन्त देव, असुरों और वज्रपाणि के सम्मुख की। अचलमहाक्रोधतन्त्र की देशना भगवान् ने वायुमण्डल में विभिन्न रत्नों से अलंकृत विमान पर स्थित होकर वज्रपाणि अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्त्व एवं ब्रह्मा, विष्णु आदि के साथ विहार करते हुये की। वैरोचनाभिसम्बोधितन्त्र (तो. ४६४) की देशना भगवान् ने कुसुमतलगभलंकार में स्थित होकर की’ ।
योगतन्त्र
योगतन्त्र के अन्तर्गत तीन प्रकार के तन्त्र हैं। मूलतन्त्र, व्याख्यातन्त्र एवं सदृशतन्त्र। इन तन्त्रों की देशना भी तथागत ने अनेक देवसत्त्व-समूहों को विभिन्न लोकों १. बौद्ध तन्त्र साहित्य का वर्गीकरण) (धीः अंक ५, पृ. ६३-८२, १६८८) २. तन्त्र का स्वरूप एवं आभ्यन्तर भेद (धीः अंक ७, पृ. १५४) विस्तार के लिये देखें- इं. बु. ता. सि., पृ. १०३-१२३ 3. A Complete Catalogue of the Tibetan Buddhist Canon, Sendai, Japan 1934.) ४. इं. बु. ता. सि., पृ. १०३-११३ इं. बु. ता. सि., पृ. २०५ । ४०६ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास में दो। सर्वतथागततत्त्वसंग्रह’ योगतन्त्र का मूल तन्त्र है, इसकी देशना तथागत ने सम्भोगकाय द्वारा देवलोक में की। त्रैलोक्यविजयमहाकल्प की देशना तथागत ने सुमेरु पर्वत पर स्थित होकर मणिरत्नाग्रप्रासाद में अनन्त देव, नाग, यक्ष एवं गन्धर्व आदि के साथ विहार करते हुए की। इसी प्रकार सर्वदुर्गतिपरिशोधनकल्प की देशना तथागत ने नन्द नामक उपवन में की। परमाद्यतन्त्र (तो. ४८८) की देशना कामधातु के परनिर्मितवशवर्ती प्रासाद में बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि, मंजुश्री आदि के समक्ष की। वज्रगर्भालंकारतन्त्र की देशना सर्वतथागतों द्वारा अधिष्ठित तथागतस्थान गर्भालंकार में अनन्त महासत्त्वों की परिषद् के समक्ष की। मणितिलकतन्त्र की देशना अकनिष्ठ भुवन में तथा पंचविंशति साहसिकाप्रज्ञापारमितामुख की सुमेरु पर्वत पर हुई।
अनुत्तर-योगतन्त्र
अनुत्तर-योगतन्त्र मातृतन्त्र, पितृतन्त्र एवं अद्वयतन्त्र नामक तीन भागों में विभक्त हैं। पितृतन्त्र तथा मातृतन्त्र को योगतत्र-योगिनीतन्त्र, उपायतन्त्र-प्रज्ञातन्त्र डाकतन्त्र-डाकिनीतन्त्र के नाम से भी जाना जाता है। अनुत्तर-तन्त्रों की देशना के सम्बन्ध में विभिन्न मत मिलते हैं। जैसे कि गुह्यसमाजतन्त्र की देशना भगवान बुद्ध ने परनिर्मित-वशवर्तिन् लोक में की थी। भोट परम्परा के अनुसार यह स्वीकार किया जाता है कि इसकी देशना बुद्ध ने ओडियान के राजा इन्द्रभूति को दी। मातृतन्त्रों में हेवज्र की देशना के सम्बन्ध में कहा जाता है कि भगवान् तथागत ने जम्बुद्वीप में निवास करते समय मगध में बोधिसत्त्व वज्रगर्भ को इसकी देशना दी। कालचक्रतन्त्र के सम्बन्ध में आचार्य नारोपा ने सेकोद्देशटीका में स्पष्ट कहा है कि इसकी देशना श्रीधान्यकटक में हुई । कालचक्रतन्त्र के अध्येषक राजा सुचन्द्र ने इसे शम्भल देश में प्रचारित किया। कायद्यपि इस परम्परा में अनेक तन्त्रों की देशना देवलोक, नागलोक इत्यादि भूमियों में होने के प्रमाण हैं, फिर भी इस परम्परा से स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् बुद्ध ने ही तन्त्रों की देशना की। बहुत समय तक यह जम्बुद्वीप में प्रचारित नहीं हुए। कालान्तर में अनेक तान्त्रिक आचार्यों एवं सिद्धों ने इन तन्त्रों को जम्बुद्वीप में प्रचारित कर जगदर्थ सम्पादित किया। तारनाथ का मानना है कि मूलतः सूत्र और तन्त्र के शास्ता और देशकाल के सम्बन्ध में कोई भेद नहीं है । जापानी परम्परा के अनसार भी यही मान्यता है कि मन्त्रनय के सिद्धान्तों को बुद्ध के निर्देशानुसार वज्रसत्त्व ने दक्षिण भारत के एक चैत्य में सुरक्षित रखा, जिन्हें बाद में नागार्जुन ने वहां से निकाल कर इस लोक में प्रचारित किया। १. सर्वतथागततत्त्वसंग्रह, सम्पा. डॉ. लोकेशचन्द्र, दिल्ली १६८७ (तो. ४७६) २. सर्वदुर्गतिपरिशोधनतन्त्र, सम्पा. टी. स्कोरूपकी। ३. विस्तार के लिये, ई. बु. ता. सि., पृ. २१४-२२७ एवं धीः अंक ११ वा, पृ. १४७-१५४ ४. से. टी., पृ. ३ ५. बौ. ध. इति., पृ. १४५ ६. ई. बु., पृ. ४८६
- ४१० म तन्त्रागम-खण्ड
मन्त्रनय का तात्त्विक विकास
दूसरा मत इसके ऐतिहासिक और तात्त्विक विकास को क्रमानुसार प्रतिपादित करता है। आधुनिक अध्येताओं ने बौद्ध तन्त्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रायः इसी मत का अवलम्बन किया है। इस विकासक्रम में क्रमशः वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद और माध्यमिक मत हैं। तन्त्रों के अध्ययन के लिए भी पहले इन सिद्धान्तों का अध्ययन अपेक्षित है’। इस अध्ययन क्रम में प्रथमतः बुद्ध के प्रारम्भिक उपदेशों में तन्त्र की प्रवृत्तियों को खोजने का प्रयास किया गया है। विनयपिटक में आये कथानक, मिलिन्दप्रश्न के उद्धरण, दीघनिकाय के परीत्तसुत्त इत्यादि सामग्रियों के आधार पर विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि बीज रूप में तन्त्र का सिद्धान्त बुद्ध के मूल वचनों में ही निहित था। विनयपिटक में दो कथानक हैं, जिसमें राजगृह के एक सेठ ने चन्दन का बना हुआ एक भिक्षापात्र एक बांस के ऊँचे सिरे पर बांध कर रख दिया। अनेक श्रमण एवं तीर्थंकर आये, परन्तु उसे उतारने में समर्थ नहीं हुए। अन्त में भारद्वाज अपनी योगसिद्वि के बल पर आकाश में ऊपर उठ गये और आकाश से ही भिक्षा पात्र को लेकर राजगृह की प्रदक्षिणा की। तब लोग इस कृत्य को देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुए, परन्तु बुद्ध ने एक काष्ठपात्र के लिये इतनी शक्ति का प्रयोग अनुचित ठहराया। उन्होंने भारद्वाज के इस कृत्य की निन्दा की और काष्ठपात्र को निषिद्ध ठहराया। इसी प्रकार मगधनरेश बिम्बसार द्वारा पुरस्कृत ‘मेण्डक’ नाम के गृहस्थ के परिवार की सिद्धियों का वर्णन विनयपिटक में मिलता है। कथावस्तु में मैथुन को किसी खास अभिप्राय से सेवन करने के लिये वर्जित नहीं किया गया। धारणियों को मन्त्रों का जनक माना जाता है। इस प्रकार के धारणी-मन्त्र परीत्त सुत्तों में भी आये हैं। जैसे दीघनिकाय का आटानाटीय सुत्त, मिलिन्दप्रश्न और महासमयसुत्तन्त । प्रो. हाजिमे नाकामूरा यह भी मानते हैं कि बौद्ध तन्त्र मूलतः वैदिक पोषधं दीयते प्रथमं तदनु शिक्षापदं दशम्। मत वैभाष्यं तत्र देशेत सूत्रान्तं वै पुनस्तथा।। योगाचारं ततः पश्चात् तदनु मध्यमकं दिशेत्। सर्वमन्त्रनयं ज्ञात्वा तदनु हेवज्रमारभेत् ।। (हे. त. २.८.८., ६) २. ‘एकाभिप्पायेन मेथुनो धम्मो पठिसेवितब्बो’ (२३.१)। ३. स्ट. बु. क. ई., पृ. २४३ ४. तन्त्रों के वर्गीकरण में ‘आटानाटीय’ नामक ग्रन्थ क्रियातन्त्र के अन्तर्गत संगृहीत है। इसका भोट अनुवाद भी उपलब्ध है (तो. ६५६ )। क्या यह पालि सूत्र का ही अनुवाद है ? परीक्षा अपेक्षित है। ५. मिलिन्दप्रश्न, पृ. ११४, बौद्ध भारती। ६. इंडियन बुद्धिज्म, पृ. ३१४ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४११ क्रियाकाण्डों से प्रभावित हैं। इसी का प्रभाव प्रारंभिक पालि-सूत्रों पर पड़ा। इस प्रकार रक्षा-सूत्रों की तरह परीत्त सुत्त अस्तित्व में आये’। नि पालि-ग्रन्थों के इन सन्दर्भो के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि तन्त्र का मल बीज रूप में पहले से बुद्धवचनों में विद्यमान था। इस साहित्य में अनेक इस प्रकार के कथानक भी मिलते हैं, जहां बुद्ध स्वयं इस प्रकार की चामत्कारिक प्रवृत्तियों की निन्दा करते थे, जबकि भगवान् स्वयं भी ऋद्धिबल जानते थे। जैसे कैवटसुत्त में भगवान् ने माया एवं अलौकिक चमत्कारों की भर्त्सना की है । मूलतः इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ पहले से ही तत्कालीन समाज में प्रचलित थीं। वैदिक काल से ही हम इस प्रकार की प्रवृत्तियों को देखते हैं ३ । डॉ. डी. पी. चट्टोपाध्याय ने वैदिक वाङ्मय में प्रचलित अनेक अनुष्ठानों को तन्त्र के सन्दर्भ में देखा है, जबकि वैदिक संस्कृति एवं तन्त्र संस्कृति को स्पष्टतया पृथक् माना जाता है। बुद्धवचनों को महायानी परम्परागत रूप से सूत्र और तन्त्र वर्ग में वर्गीकृत करते हैं। अनेक महायानी प्रारम्भिक सूत्र-ग्रन्थों में भी धारणियों एवं मन्त्रों का उल्लेख आया है। जैसे ललितविस्तर, समाधिराजसूत्र, सन्धिनिर्मोचनसूत्र, सद्धर्मपुण्डरीक एवं लंकावतारसूत्र आदि। उसी प्रकार कारण्डव्यूहसूत्र, सुवर्णप्रभाससूत्र और भैषज्यगुरुवैडूर्यप्रभराजसूत्र ऐसे सूत्र-ग्रन्थ हैं, जिनमें तन्त्र के तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। भोट परम्परा में तो सुवर्णप्रभाससूत्र को क्रियातन्त्र का ही ग्रन्थ स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार की धारणियों से ही मन्त्रों का उद्भव माना जाता है। बौद्ध निकायों के विभाजन-काल और ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी में महासांघिकों का प्रादुर्भाव तथा उनके द्वारा स्थापित स्वतन्त्र विद्याधरपिटक की जानकारी भी मिलती है। उक्त महायानी सूत्रों से यह विदित होता है कि इन सूत्रों के श्रोता मनुष्यों के अतिरिक्त अनेक देव, नाग, यक्ष गन्धर्व आदि भी हुआ करते थे। ललितविस्तरसूत्र को अंशतः सर्वास्तिवादी तथा अंशतः महायानी स्वीकार किया जाता है, जिसमें देव, नाग, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर तथा लोकपालों का उल्लेख है। यद्यपि पाँच ध्यानी बुद्धों का उल्लेख आर्य नागार्जुन रचित धर्मसंग्रह में है, तथापि नागार्जुन का काल स्वयं में विवादग्रस्त है। इसमें मैत्रेय, गगनगंज, समन्तभद्र, सर्वनीवरणविष्कंभी आदि बोधिसत्त्वों का भी उल्लेख है, जिनका बाद में वज्रधातमण्डल ७ सहित अनेकों मण्डलों में है १.’ वहीं, पृ. ३१४ २. दी. नि. १, पृ.१८३ ३. विस्तार के लिये देखें धर्मशास्त्र का इतिहास, पंचम भाग, पृ. ४-६; स्ट. बु. क. इं., पृ. २३८-२४० ४. लोकायत, पृ.२७१ ५. विद्याधरपिटकोपनिबद्धां सर्वभयरक्षणार्थ….मन्त्रपदाः स्वाहा’ (शिक्षासमुच्चय, पृ. ७६)। ६. स्ट. बु. क. इं., पृ. २४४ ७. निष्पन्नयोगावली, पृ.४४ ४१२ rani तन्त्रागम-खण्ड उल्लेख मिलता है। सामान्यतः विद्वानों का यह मत है कि प्रज्ञापारमिता-साहित्य का प्रादुर्भाव ईसा की प्रथम शती के आसपास हुआ। नागार्जुन को प्रज्ञापारमिता-शास्त्रों का रचयिता एवं प्रवर्तक स्वीकार किया जाता है। प्रारम्भ में देशना के प्रसंग में यह इंगित करने का प्रयास किया गया है कि महायान की देशना भी स्वयं बुद्ध ने बोधि के १३वें वर्ष में राजगृह के निकट गृध्रकूट पर्वत पर की। महायानी सूत्रों में ही इन सूत्रों के वाचन, लेखन आदि का अपरिमित पुण्य एवं अनुशंसा का उल्लेख मिलता है। इसी प्रसंग में विद्वानों ने यह मत स्थापित करने का प्रयास किया कि प्रारम्भ में प्रज्ञापारमिता-शास्त्र बृहदाकार के थे। उसका सम्पूर्ण वाचन करना काफी श्रमसाध्य था। इसीको सरल एवं सुविधाजनक बनाने के लिये प्रज्ञापारमिता-शास्त्रों के संक्षेपीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। शतसाहसिका से पंचविंशतिसाहस्रिका, दशसाहस्रिका, अष्टसाहस्रिका और क्रमशः शतश्लोकी तथा प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र के रूप में संक्षेपीकरण हो गया। बाद में इसका भी संक्षेप एक धारणी मन्त्र “ॐ गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा" में कर दिया गया और अन्त में एक बीजाक्षर ‘प्रं’ में ही सब कुछ निहित हो गया । एडबर्ड कोंजे ने अपने अध्ययन के आधार पर अनेक प्रज्ञापारमिता-सूत्रों का शैलीगत एवं विषय की भिन्नता के कारण तान्त्रिक प्रज्ञापारमिता-साहित्य में समावेश किया है। इस प्रकार बहुत प्राचीन काल से ही धारणी एवं मन्त्रों का उल्लेख महायानी सूत्रों में प्राप्त हो जाता है, जिनकी सन्तति हम पालि, सूत्र-ग्रन्थों के परीत्त सुत्तों से जोड़ सकते
बौद्ध तन्त्रों के प्रवर्तक प्रारम्भिक आचार्य
तन्त्र के उद्भव के सन्दर्भ में कुछ प्रारम्भिक महायानी आचार्यों की जीवनी एवं उनकी रचनाएं भी निर्णयकारी हो सकती हैं। इस क्रम में नागार्जुन, आर्यदेव, एवं असंग आदि प्रमुख हैं। यहां संक्षेप में इस पर विचार करने का प्रयास किया जा रहा है। पण
नागार्जुन
आधुनिक विद्वानों ने अपने अनुसन्धानों के आधार पर यह निश्चित करने का प्रयास किया है कि बौद्ध धारा में तीन नागार्जुन प्रसिद्ध हुए। प्रथम माध्यमिक मत के संस्थापक नागार्जुन, जिनका समय १५०-२५० ई. के मध्य स्वीकार किया जाता है। दूसरे तान्त्रिक नागार्जुन, जिन्हें सरह का शिष्य माना जाता है तथा इनका समय लगभग ६४५ ई. के आसपास अनुमानित है। तीसरे नागार्जुन सिद्ध रसायनज्ञ थे। भोट परम्परा के अनुसार इस प्रकार का विभाजन स्वीकार नहीं किया जाता । इन सभी को एक ही नागार्जुन १. ए. ई. बु. एसो., पृ. ३०-३१, ५६; सिद्ध साहित्य, पृ. १३६ २. Tantric Prajnaparamita. Texts-E. -Conze, Sino-Indian studies, vol. V, Part-2, P. 100-122 ३. इंडियन बुद्धिज्म, पृ.२३५ ४. ए. ई. बु. एसो., पृ.६७ JAIN बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४१३ मानकर इनका समय लगभग ६०० वर्ष का स्वीकार किया गया है। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य का मानना है कि भोट परम्परा में इन तीनों को एक व्यक्ति मानकर भ्रम पैदा कर दिया है। उनका मानना है कि तान्त्रिक नागार्जुन सरह के शिष्य थे, जो सातवीं शताब्दी में हुए थे। जिनके अनेक साधन-ग्रन्थ साधनमाला के अन्तर्गत संगृहीत हैं। नागार्जुन के नाम से भोट संग्रह-ग्रन्थ तन्युर में शताधिक ग्रन्थ मिल जाते हैं। उनमें अनेक तन्त्र से सम्बद्ध रचनाएं हैं। ऐसा भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि माध्यमिक नागार्जुन ने तन्त्र विषय पर कुछ भी न लिखा हो। जैसा कि प्रसिद्ध है कि प्रज्ञापारमिता–शास्त्रों की रचना या प्रवर्तन नागार्जुन ने की। प्रज्ञापारमिता-शास्त्रों के साथ ही धारणी एवं मन्त्रों का भी उद्भव हुआ। पञ्चक्रम एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जो नागार्जुन की रचना है। आर्य नागार्जुन की रचनाओं एवं काल इत्यादि के सम्बन्ध में विद्वानों ने बहुत अधिक लिखा है, यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं। मात्र इस ओर इंगित करने का प्रयास किया गया है कि तन्त्र का प्रारम्भ नागार्जुन के समय से ही हो चुका था। पर
आर्यदेव
नागार्जुन के शिष्यों में आर्यदेव प्रमुख थे। आर्यदेव का समय १७०-२७०ई. स्वीकार किया जाता है। माध्यमिक मत को प्रकाशित करने वाले इनके अनेक ग्रन्थों की सूचना मिलती है। इनके अतिरिक्त इनके नाम से अनेक तन्त्र-ग्रन्थ भी उल्लिखित हैं, जिनमें चतुष्पीठयोगतन्त्रसाधन (तो. १६१०), श्रीचतुष्पीठतन्त्रराजमण्डलविधिसारसमुच्चयनाम (तो. १६१३), वज्रकर्मपूजासाधनकर्म (तो.१६१५), चर्यामेलापकप्रदीप (तो.१८०३), चित्तविशुद्धिप्रकरण (तो. १८०४), स्वाधिष्ठानप्रभेद (तो. १८०५) इत्यादि प्रमुख हैं। भार __ यद्यपि आर्यदेव के सम्बन्ध में भी विद्वानों का यह मत है कि इस नाम से एकाधिक आचार्य हए हैं, परन्त इन रचनाओं का शैलीगत एवं प्रतिपादन की दृष्टि से यदि हम अध्ययन करें, तो यह अनुमान किया जा सकता है कि यह सब एक ही व्यक्ति की रचनाएं हैं। भोट परम्परा में सिद्ध कर्णरिपा ही आर्यदेव हैं। आर्यदेव एकाक्ष थे। इसीलिये कानेरिपा या कर्णरिपा के नाम से भी ये प्रसिद्ध थे।
असंग
आर्य असंग विज्ञानवाद के संस्थापक आचार्य हैं। तुषित लोक में मैत्रेयनाथ के उपदेश के आधार पर इन्होंने पांच प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की। इनका काल तृतीय-चतुर्थ शताब्दी माना जाता है। यद्यपि इनके ये ग्रन्थ स्पष्ट रूप से तन्त्र से सम्बद्ध नहीं हैं, तथापि इनमें प्रतिपादित कुछ सिद्धान्तों के आधार पर इन रचनाओं में तन्त्र के सिद्धान्तों के बीज रूप में होने की संभावना व्यक्त की जाती है। इस प्रसंग में प्रथमतः हम आदिबुद्ध की कल्पना को ले सकते हैं। यद्यपि कुछ विद्वान् आदिबुद्ध का अस्तित्व दसवीं शताब्दी का १. बौ. ध. इति., पृ. ४३ २. ए. इं. बु. एसो., पृ.६७-६८ ३. रचनाओं की सूची के लिये देखें वैदल्य सूत्र, सम्पा. प्रो. सेम्पा दोर्जे। सिर शाया ४१४ तन्त्रागम-खण्ड मानते हैं,’ तथापि इसका उल्लेख कारण्डव्यूह आदि सूत्रों में तथा महायानसूत्रालंकार’ में भी प्राप्त होता है। बोधिसत्त्व का रूप ही आदिबुद्ध या वज्रसत्त्व है। कालान्तर में आदिबुद्ध का प्रकर्ष आर्यमञ्जुश्रीनामसंगीति एवं कालचक्रतन्त्रराज में दीखता है। दूसरा आश्रयपरावृत्ति का सिद्धान्त है। एक भिन्न सन्दर्भ में प्राचीन काल से ही चित्तविशुद्धि और प्रज्ञाविशुद्धि को स्वीकार किया गया था। बाद में बोधिसत्त्वभूमि (पृ. २६५) में आश्रय और आलम्बन विशुद्धि को भी स्वीकार किया गया। सर्वप्रथम लंकावतारसूत्र में चित्त की धर्मता को विशुद्ध करने की दृष्टि से परावृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया। बाद में इसका विस्तृत विश्लेषण आचार्य असंग ने अपने ग्रन्थ महायानसूत्रालंकार (६.१४-४८) में किया। मूलतः इस आश्रयपरावृत्ति का अर्थ सत्त्वों के लिये अचिन्त्य कृत्यों का अनुष्ठान किया जा सके, इसके लिये साधक को अनास्रव भूमि में अप्रमेय परावृत्तियों का विधान करना है। इसमें मैथुन की परावृत्ति का उल्लेख होने से यह स्वीकार किया जाता है कि यहां तन्त्र का प्रभाव है। महायानसूत्रालंकार में मैथुन की परावृत्ति से विभुत्व की प्राप्ति बताई गई है। यहाँ परावृत्ति का अर्थ मनोवृत्ति का परिवर्तन है। पांच इन्द्रियों की परावृत्ति होने पर पांचों इन्द्रियों की सब विषयों में वृत्ति हो जाती है। मन की परावृत्ति होने पर निर्विकल्प ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार मैथुन की परावृत्ति होने पर बुद्धसौख्य विहार तथा स्त्रियों का असंक्लेश दर्शन प्राप्त होता है। तीसरा अभिधर्मसमुच्चय का ‘अभिसन्धिविनिश्चय’ शब्द है। विद्वानों का मानना है कि यह परवर्ती सिद्धाचार्यों की सन्ध्याभाषा की तरह का द्वि-अर्थी शब्द है। आदर्श आदि पांच तथागत-ज्ञानों का भी, जिनका बाद में तन्त्रशास्त्रों में व्यापक विस्तार मिला, उल्लेख महायानसूत्रालंकार में है। कुछ विद्वानों का मत है कि गुह्यसमाजतन्त्र की रचना असंग ने की है। साधनमाला में इनके नाम से प्रज्ञापारमितासाधन भी संगृहीत है। इस प्रकार अनेक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने सूत्र-ग्रन्थों के साथ-साथ तन्त्र-ग्रन्थों पर भी समान रूप से टीका-टिप्पणियां की हैं। इनमें हम बुद्धपालित से लेकर धर्मकीर्ति तक के आचार्यों को रख सकते हैं। तारनाथ ने अपने इतिहास ग्रन्थ में इन सभी आचार्यों की जीवनी एवं रचनाओं का उल्लेख किया है। यहां इन सभी का विवरण देना अभीष्ट नहीं हैं। मात्र यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि तन्त्र का प्रचलन भी महायान दर्शन के १. आदिबुद्ध, पृ.१, कन्हाई लाल हाज़रा। SET २. महायानसूत्रालंकार, IX, पृ. ५० मैथुनस्य परावृत्तौ विभुत्वं लभ्यते परम्। बुद्धसौख्यविहारोऽथ दाराऽसंक्लेशदर्शने।। (६.४६)। ४. बौ. ध. वि. इति., पृ. ४६५ ५. महायानसूत्रालंकार ६.६७-७६ ६. द. इं. बु. आई., पृ. १२-१३ ७. साधनमाला, भाग-१, पृ.३२१ मा रिमित बाजा किया४१५ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास साथ-साथ हो चुका था। इतने पर्याप्त आधारों के पश्चात् भी विद्वानों ने प्रायः यही मत स्थापित किया है कि बौद्ध तन्त्रों का आविर्भाव सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुआ। केवल डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य और प्रो.जी.टुची जैसे कुछ विद्वानों ने उक्त सन्दर्भो की दृष्टि से तीसरी-चौथी शताब्दी से इनका प्रारम्भ माना है। मिशन
सिद्धाचार्य
तारनाथ के अनुसार प्रारम्भ में तन्त्र की परम्परा गुप्त रूप से प्रचलित थी। कालान्तर में, विशेष कर धर्मकीर्ति के पश्चात् पालयुग में, इसका व्यापक प्रचार हुआ। सातवीं-आठवीं शताब्दी से सिद्धों एवं तान्त्रिक आचार्यों ने तन्त्र पर व्याख्याएँ लिख कर जनसामान्य में इसका प्रवेश कराया। अतः सिद्धों का काल एवं उनकी कृतियों का विवेचन करना भी बौद्ध तन्त्र के इतिहास के सन्दर्भ में समीचीन होगा। का मा बौद्ध तान्त्रिक आचार्यों एवं सिद्धों की अनेक गुरु-परम्पराएं मिलती हैं। जैसा कि लामा तारनाथ स्वीकार करते हैं, यह परम्परा असंग से धर्मकीर्ति तक गुप्त रूप से प्रचलित रही। धर्मकीर्ति का काल ६००-६५० ई. के आस पास है। अतः तान्त्रिक आचार्यों की परम्परा भी इसी काल से माननी चाहिये। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य दो गुरु परम्पराओं का उल्लेख करते हैं। प्रथम है- पद्मवज्र, अनंगवज्र, इन्द्रभूति, लक्ष्मींकरा, लीलावज्र, दारिकपा, सहजयोगिनी चिन्ता, डोम्बी हेरुक की; और दूसरी परम्परा है- सरह, नागार्जुन, शबरीपा, लूयीपा, वज्रघण्टा, कच्छपा, जालन्धरी, कृष्णाचार्य, गुह्यपा, विजयपा, तिलोपा, नरोपा की। विनयतोष भट्टाचार्य प्रथम परम्परा के तान्त्रिकों का पद्मवज्र से लेकर डोम्बी हेरुक तक का समय ६६३ ई. से ७७७ ई.तक तथा दूसरी परम्परा का समय ६३३ ई. से लेकर ६६० ई. तक स्वीकार करते हैं। वज्रयान में ८४ सिद्ध प्रमुख हैं। इन सिद्धों के क्रम में अनेक सूचियों और परम्पराओं के अनुसार लुयीपाद को आदि सिद्ध के रूप में स्वीकार किया जाता है। सिद्धों की ८४ की संख्या केवल प्रतीकात्मक प्रतीत होता है। यदि सभी सूचियों में आये सिद्धों के नामों का संकलन करके देखें, तो यह एक लम्बी नामावली हो जाती है। कि नाथ सम्प्रदाय के नाथों एवं बौद्धों के सिद्धों में अनेक नाम दोनों ही परम्पराओं में सामान्य रूप से प्रसिद्ध हैं। लुयीपाद को ही मत्स्येन्द्रनाथ भी बताया जाता है। मत्स्येन्द्रनाथ ही आदिनाथ स्वीकृत हैं। लुई शब्द को लोहित (रोहित-मत्स्य) का अपभ्रंश माना जाता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनका समय १०३८ ई. के आसपास माना है । बौद्ध सिद्धों में आदिसिद्ध लुयीपा हों, यह सिद्ध नहीं है। अनेक परम्पराओं में नागार्जुन को कुछ अन्य परम्पराओं में सरह को आदिसिद्ध माना गया है। आदिसिद्ध कौन था तथा इनकी कौन कौन सी गुरु-शिष्य परम्पराएं हैं ? इस सम्बन्ध में विविध तथ्य हैं तथा इनका क्या काल था? यह निर्विवाद विषय नहीं है। अध्येताओं ने अनेकविध तर्क प्रस्तुत किये हैं। इस सम्बन्ध १. सिद्ध एवं अपभ्रंश साहित्य का सर्वेक्षण, धीः १, पृ. २५७-२६८ २. नाथ सम्प्रदाय, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ.३६. मामा जा ४१६ म तन्त्रागम-खण्डका में डॉ. धर्मवीर भारती की पुस्तक सिद्ध-साहित्य में विस्तृत विवेचना मिलती हैं। यद्यपि सिद्धों ने अनेक तन्त्रों पर टीका-टिप्पणियां भी की हैं, तथापि सिद्धों के द्वारा साधना से अनुभूत तथ्यों का सहज उदान हम उनके चर्यागीतों या दोहापदों में पाते हैं। ____ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मन्त्रनय के विकास के अनेक चरण माने हैं, यथा– सूत्र रूप में मन्त्र ई.पू. ४००-१०० तक, धारणी मन्त्रों का काल १००-४०० ई. और मन्त्र का काल ४००-७०० ई. तक। आगे उन्होंने वज्रयान के (नरम और गरम) दो काल भी स्थिर किये हैं। ४००-७०० ई. तक नरम मन्त्रनय तथा ८००-१२०० ई. तक (गरम) वज्रयान। निश्चय ही उनकी दृष्टि में ८००-१२०० ई. तक का काल सिद्धों का काल था। परन्तु हमें सिद्धों के काल के प्रसंग में इनका काल सातवीं शताब्दी के उत्तार्थ से ही स्वीकार करना होगा, आगे १२०० ई. तक के युग को हम सिद्धों का युग कह सकते हैं। सिद्धों ने इस युग में अपनी टीका-टिप्पणियों से ही नहीं, साधनाविधियों और चर्यागीतों द्वारा भी बौद्ध तन्त्रशास्त्र को पल्लवित और पुष्पित किया।
बौद्ध तन्त्रों का विस्तार
बौद्ध तन्त्रों के इतिहास के प्रसंग में भारत से बाहर बौद्ध धर्म, विशेष कर तन्त्रों का प्रचार किस समय एवं किस आचार्य द्वारा हुआ, इसका विवेचन करना भी सन्दर्भानुकूल होगा। यह विदित है कि थेरवादी परम्परा का प्रचार-प्रसार दक्षिण एशिया के देशों में हुआ और महायान तथा मन्त्रयान का प्रचार-प्रसार पूर्वोत्तर एशियाई देश तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया आदि देशों में हुआ। महायानी बौद्ध धर्म के प्रसार ने उन देशों की संस्कृति को भी पूर्ण रूप से बौद्धमय बना दिया तथा वहां की पूर्व विशिष्ट संस्कृति से समञ्जस होकर एक नये रूप में प्रस्तुत हुआ। संक्षेप में उन देशों में बौद्ध तन्त्रों के प्रवेश का उल्लेख किया जा रहा है।
चीन
बौद्ध धर्म के ग्रन्थों का प्रारंभिक काल में जिन विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ, उनमें चीनी भाषा प्रमुख है। पुष्ट प्रमाणों के आधार पर यह कहा जाता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में मातंग तथा धर्मरत्न नामक दो आचार्यों ने चीन में सर्वप्रथम पहुंच कर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। वैसे इससे पूर्व भी हानवंशीय राजा बू-ती (१४८-८० ई.पू) के समय चीन में बौद्ध धर्म के प्रवेश का सन्दर्भ प्राप्त होता है । ईसा की दूसरी-तीसरी १. क- दोहाकोष, सम्पा. पी.सी.बागची, कलकत्ता। र शिप ख- दोहाकोष, सम्पा. राहुल सांकृत्यायन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना। ग- चर्यागीतिकोष, सम्पा. पी.सी बागची एवं शान्तिभिक्षु शास्त्री, विश्वभारती। घ- बौद्ध गान ओ दोहा, हरप्रसाद शास्त्री, बंगीय साहित्य परिषद्, कलकत्ता। २. पुरातत्त्व निबन्धावली, पृ. १११-११२ ३. बौद्ध दर्शन मीमांसा, प्र. ३४८, चीनी बौद्ध धर्म का इतिहास, पृ. २०-२१ TERTE ४. चीनी बौद्ध धर्म का इतिहास, पृ. २० Y बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४१७ शताब्दी से संस्कृत बौद्ध-शास्त्रों का चीनी में अनुवाद होना प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार ईसा की चौथी-पांचवीं शताब्दी तक अनेक क्रियातन्त्र एवं चर्यातन्त्र के ग्रन्थों का अनुवाद हो चुका था। उनमें सुस्थितमतिपरीक्षा (मायोपमसमाधि), उग्रपरिपृच्छा, तथागताचिन्त्यगुह्यनिर्देश का धर्मरक्ष’ ने त्सिन राजवंश २६५-३१६ ई. के समय अनुवाद किया। महामायूरी विद्याराज्ञी के अनेक अनुवाद चौथी शती से लेकर आठवीं शताब्दी तक होते रहे। इनमें कुमारजीव ने दक्षिणवर्ती त्सिन राजवंश (३८४-४१७ ई.) तथा श्रीमित्र ने पूर्वी त्सिन राजवंश (३१७-४२० ई.) के समय इसका अनुवाद किया। अन्य अनुवादों में थङ् राजवंश (६१८-६०७ ई.) के समय अमोघवज्र के, लीयन राजवंश (५०२-५५७ ई.) के समय संघपाल तथा इत्सिंग (७०५ ई.) के अनुवाद मुख्य हैं। षडक्षरविद्यामन्त्र का अनुवाद पूर्वी त्सिन राजवंश (३१७-४२० ई.) के समय हुआ। कि पुष्पकूटधारणी ऋद्धिमन्त्रसूत्र’ तथा अनन्तमुखधारणी’ का अनुवाद वू राजवंश (२२२-२८० ई.) के समय सम्पन्न हुआ। इसका दूसरा अनुवाद पूर्वी त्सिन राजवंश (३१७-४२० ई.) के समय भी सम्पन्न हुआ। या यह स्वीकार किया जाता है कि चीन में तन्त्र का प्रवेश पो के श्रीमित्र के समय हुआ। परन्तु उन्होंने इसे अत्यन्त गुह्य रखा। कई ऐसे धारणीमन्त्र-ग्रन्थों की सूचना मिलती है, जिनका अनुवाद श्रीमित्र से पूर्व हो चुका था। जैसे पूर्वी राजवंश (२५-२२० ई.) के समय धारणीमन्त्र-ग्रन्थों का अनुवाद हो चुका था। श्रीमित्र दक्षिण क्षेत्र के किसी देश के राजकुमार थे। ये अपनी राजसत्ता को छोटे भाई को सौंप कर श्रमण बन गये थे और सन् ३०७-३१२ ई. में चीन गये। वहां उन्होंने महामायूरीविद्याराज्ञी तथा महाभिषेकऋद्धि धारणी का अनुवाद किया। इसी प्रकार चौथी शताब्दी के अन्त में धर्मरक्ष ने, ई. सन् ३८१-३६५ के मध्य अनेक तन्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों का अनुवाद किया। उनमें धारणीसूत्र” मायाकर ऋद्धिमन्त्रसूत्र तथा अनेक धारणी-मन्त्र ग्रन्थ हैं। बाद में लीयन राजवंश (५०२-५५७ १. नाजियो, सं-४७,३३,२३ (३) २. नाजियो, सं.-३११, ३१० ३०६, ३०८, ३०७, ३०६ ३. वहीं, सं.३४० ਸਵਿਸ ਬR ਦੇ ४. वहीं, सं. ३३७ ५. वहीं, सं. ३३५ वहीं, सं. ३३८, ३३६ ७. चीनी बौद्ध धर्म का इतिहास, पृ.४१ ८. नाजियो, सं.-४७८ ६. वहीं, सं. ३०६, ३१० १०. वहीं, सं.१६७ मामीशन लीक माह का कि ११. नाजियो, सं. ३६५ म हीन मिति नाम जान १२. वहीं, सं. ४७६ १३. वहीं, सं. ४८०, ४८१, ४८२, ४८८, ४८४ ४१८ मामा तन्त्रागम-खण्ड ई.) के समय भी अनेक मन्त्र-ग्रन्थों का अनुवाद हुआ। उनमें समन्तभद्रधारणी’ तथा महासप्तरत्नधारणी आदि हैं। का कि इस प्रकार यह निश्चित हो जाता है कि चौथी शती से ही वहां तन्त्र का प्रवेश एवं अध्ययन प्रारम्भ हो चुका था। इस अध्ययन को और अधिक बल तब मिला, जब सातवीं-आठवीं शताब्दी के मध्य तीन भारतीय आचार्य वहां पहुंचे, जिन्होंने वहां तन्त्र को और अधिक दृढ़ किया। ये आचार्य हैं- शुभाकर सिंह (६३७-७३५ ई.), वज्रबोधि (६७१-७४१ ई.) एवं अमोघवज्र (७०५-७७४ ई.)। एक ही शुभाकर सिंह (६३७-७३५ ई.) का जन्म मगध में हुआ था। ये कांची के राजपुरोहित थे तथा नालन्दा में इन्होंने बौद्ध तन्त्र का अध्ययन किया था। बाद में ७१६ ई. में चीन पहुंच कर इन्होंने करीब ३० ग्रन्थों का संस्कृत से चीनी में अनुवाद किया। उन ग्रन्थों में महावैरोचनसूत्र प्रमुख है, जो चर्यातन्त्र का मुख्य ग्रन्थ है। इसी के आधार पर वहां वज्रधातुमण्डल एवं करुणागर्भधातुमण्डल का विकास हुआ और इसी मण्डल के आधार पर वहां अभिषेक सम्पन्न होता रहा। 1. वज्रबोधि (६७१-७४१ ई.) मध्य भारत के निवासी थे। इन्होंने दक्षिण भारत में बौद्ध दर्शन तथा तन्त्र का अध्ययन किया। कुछ लोग उन्हें दक्षिण भारत के मलय प्रदेश का वासी भी मानते हैं । ७१६ ई. में चीन पहुँच कर इन्होंने करीब २० ग्रन्थों का चीनी में अनुवाद किया। ७१ वर्ष की आयु में इनका देहावसान हुआ। इनके द्वारा अनूदित ग्रन्थों में मुख्य वज्रशेखरसूत्र है, जो योगतन्त्र की व्याख्या-तन्त्र श्रेणी का ग्रन्थ है। जाय जिम क अमोघवज्र (७०५-७७४ ई.) के जन्म स्थान के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। कुछ विद्वान् इन्हें समरकन्द का निवासी मानते हैं, जबकि अन्य इन्हें श्रीलंका का वासी बतलाते हैं। मूलतः वे उत्तर भारत के निवासी थे। १४ वर्ष की आयु में ये वज्रबोधि से जावा में मिले। पहले ये सर्वास्तिवादी मत के अनुयायी थे। बाद में वज्रबोधि के साथ चीन जाकर उनके अनुवाद कार्यों में सहयोग किया। वज्रबोधि की मृत्यु के पश्चात् वे पुनः मूल ग्रन्थों को लेने के लिये श्रीलंका आये। वहां से ७४६ ई. में सैंकड़ों तन्त्र-ग्रन्थों के साथ पुनः चीन पहुंचे। उन्होंने वहां लगभग ८० ग्रन्थों का संस्कृत से चीनी में अनुवाद १. वहीं, सं. ४७५ २. वहीं, सं. ४७६ ३. ए. के. बार्डर के अनुसार इनका जन्म कलिंग में हुआ था (इं. बु., पृ. ४८७), 30 Eि पं. बलदेव उपाध्याय ने इन्हें दक्षिण भारत का माना है। (बौद्ध दर्शनमीमांसा, पृ.३५५) तथा के नाञ्जियों इन्हें मध्य भारत का निवासी मानते हैं (नाजियो, पृ.४४४)। किसी ? ४. नाजियो, पृ.४४३ ५. नाजियो, पृ.४४४-४४५ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४१६ किया। इनमें मुख्य था सर्वतथागततत्त्वसंग्रह, जो योगतन्त्र श्रेणी का मूल तन्त्र-ग्रन्थ माना जाता है। बाद में वे वहाँ ताँग राजवंश के राजगुरु नियुक्त हुए। __ इन्हीं की शिष्यपरम्परा के साथ चीन में बौद्ध तन्त्र की परम्परा स्थापित हुई और वहां के आचार्य तन्त्र की साधना करने लगे। इनके शिष्यों में हुई काव प्रमुख थे। जापान के कोबो देशी ने भी इन्हीं का शिष्यत्व ग्रहण कर वहां तन्त्र का अध्ययन किया। ८०५ ई. में इनका देहावसान हुआ।
जापान
जापान में सम्प्रति बौद्ध तन्त्रानुयायियों की दो शाखाएं हैं- तेन्देई एवं शिंगोन। शिंगोन सम्प्रदाय के संस्थापक कोबो देशी (७७४-८३५ ई.) थे तथा तेन्देई सम्प्रदाय के संस्थापक देंग्यो देशी (७६७-८२२ ई.)। इन दोनों आचार्यों ने चीन जाकर तन्त्र का अध्ययन किया तथा स्वदेश लौट कर इसका प्रचार किया। तब से वहां यह परम्परा चली आ रही है। तेन्देई सम्प्रदाय का मूल ग्रन्थ सद्धर्मपुण्डरीक है, परन्तु अन्य मूल ग्रन्थों में सुवर्णप्रभाससूत्र, महावैरोचनाभिसम्बोधिसूत्र, वज्रशेखरतन्त्रराजसूत्र, सुसिद्धिकरमहातन्त्रराज आदि प्रमुख हैं। ___
श्रीलंका
श्रीलंका प्रारंभ से ही थेरवादी परम्परा का देश रहा है। यहां तक कि वहां महायान के प्रचार का भी कोई पुष्ट साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। फिर भी कुछ सन्दर्भो के आधार पर यह निश्यचपूर्वक कहा जा सकता है कि महायान एवं मन्त्रनय का वहाँ कुछ समय तक अवश्य प्रचार हुआ था। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भी यह स्वीकार करते हैं कि वहां वज्रयानियों का एक सम्प्रदाय था। इस सम्प्रदाय का उद्भव छठी शती के राजा कुमारदास (५१५-५२४ ई.) के समय हुआ था। इसके सन्दर्भ में एक और पुष्ट प्रमाण यह भी है कि भारतीय आचार्य जब सातवीं-आठवीं शताब्दी में समुद्र मार्ग से चीन की ओर जाते थे, तो वे श्रीलंका, जावा इत्यादि देशों से होकर गुजरते थे। शुभाकरसिंह, वज्रबोधि तथा अमोघवज्र का यहां से अवश्य सम्बन्ध रहा है। वज्रबोधि से अमोघवज्र जावा में मिले थे और उन्हीं के साथ चीन गये थे। बाद में पुनः वह तन्त्र-ग्रन्थों की खोज के लिये श्रीलंका पहुंचे तथा वहां से करीब एक सौ ग्रन्थ लेकर ७४६ ई. में चीन लौटे। इससे यह सिद्ध होता है कि सातवीं-आठवीं शताब्दी में वहां तन्त्रों का अवश्य प्रचार हुआ, परन्तु कालान्तर में वहा यह परम्परा स्थिर नहीं रह पाई। सामाजिक १. इनके सम्बन्ध में विस्तृत विवरण के लिये देखें- “इनसाइक्लोपीडिया आफ, बुद्धिज्म" जी. मलालशेखर, कोलम्बो,-१६४४ ई., पृ. ४८२-४८७, इनके द्वारा अनूदित १०८ ग्रन्थों की सूची के लिये देखें नाजियो, पृ. ४४५-४४८. २. विस्तार के लिए देखें चीनी बौद्ध धर्म का इतिहास, डॉ. चाउ सियांग कुआंग। विस्तार के लिये देखें हिस्ट्री ऑफ मन्त्रयान, चिक्यो यामामोटो। ४. परिसंवाद (१), पृ.५६, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी। ५. पुरातत्त्व निबन्धावली, पृ.११५-११७ ६. स्ट. बु. क. ई., पृ. २५४ ४२० तन्त्रागम-खण्ड
तिब्बत
बौद्ध धर्म और बौद्ध तन्त्र का जिसे देश में व्यापक विस्तार एवं प्रचार हुआ, वह देश तिब्बत है। यहां इसका अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विस्तार हुआ तथा अनेक नवीन सम्प्रदाय बनें। भोट देश में बौद्ध धर्म का प्रथम प्रवेश सातवीं शताब्दी में राजा स्रोङ् चन गमपो के काल में हुआ। भोट सम्राट् खिसोङ् देचन ने आठवीं शताब्दी में भारत से सद्धर्म के प्रचार के लिये आचार्य शान्तरक्षित को तिब्बत आमन्त्रित किया। परन्तु आचार्य को वहां सद्धर्म के प्रचार करने में अनेकविध कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। उन्हीं की आज्ञा के अनुसार तब राजा ने ओडियान देश से सिद्ध गुरु पद्मसम्भव को वहां निमन्त्रित किया। उन्होंने वहां अनेक प्रकार की साधनात्मक गुह्य चर्याओं द्वारा वहां दुष्टात्माओं का दमन कर, उन्हें विनीत कर सद्धर्म के प्रचार में सहायक बनाया। तभी से भोट देश में तन्त्र का प्रारम्भ हुआ। __प्रारम्भ में वहां जिस तन्त्र-सम्प्रदाय का प्रचार हुआ, उसे बाद में जिङ्मा सम्प्रदाय के नाम से जाना जाने लगा। भोट संग्रह-ग्रन्थ कन्युर में ‘जिङ् युद’’ (प्राचीन तन्त्र) नाम से तन्त्रों का पृथक् संकलन है। दसवीं शताब्दी में दीपंकर श्रीज्ञान ने तिब्बत पहुंच कर पारमितानय और मन्त्रनय का समन्वय कर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन कर सद्धर्म का प्रचार किया। कालान्तर में वहां अनेक सिद्ध साधक हुए, जो भारतीय सिद्धों के साक्षात् शिष्य या शिष्य-परम्परा में थे। उनमें अन्यतम भट्टारक मिलारेपा हैं, जो तिलोपा, नरोपा एवं भोट सिद्ध मरपा की परम्परा के थे। भोट देश में बौद्ध तन्त्रों की अनेक शाखाएं हैं। इनमें मुख्य सम्प्रदाय जिङ्मा, कार्य्यद, सास्क्य तथा गेलुग हैं। बौद्ध तन्त्रों के जिस बृहत् साहित्य का ज्ञान आज हमें होता है, वह मात्र भोट अनुवाद में सुरक्षित होने से है। वहां इनके दो मुख्य संग्रह-ग्रन्थ कन्युर एवं तन्युर हैं। चौदहवीं शताब्दी से पूर्व जितने भी तन्त्र एवं अन्य दार्शनिक ग्रन्थों का तथा उनकी टीका-टिप्पणियों का अनुवाद हो चुका था, वे सब इस संग्रह में संकलित हैं। यहां उन सभी का विस्तार में विवेचन इष्ट नहीं है, क्योंकि वहां तन्त्र का प्रचार काफी परवर्ती काल में हुआ। को
बौद्ध तन्त्र-साहित्य एवं उसका वर्गीकरण
बौद्ध तन्त्रशास्त्र का विशाल साहित्य है। बौद्ध दर्शन के अन्य ग्रन्थों की भांति तन्त्र ग्रन्थों का अनुवाद भी भोट एवं चीनी भाषाओं में हुआ। बौद्ध तन्त्रों की इस विशाल साहित्य की सूचना भी हमें इसी अनूदित साहित्य से मिलती है। जहां कन्ग्युर संग्रह में मूल तन्त्र (आगम) ग्रन्थों का पृथक् खण्ड है, उसी प्रकार मूल ग्रन्थों पर भारतीय तान्त्रिक आचार्यों एवं सिद्धाचार्यों की टीका-टिप्पणियों का संकलन तन्युर संग्रह के तन्त्र वर्ग के अन्तर्गत १. भोट देश में तन्त्रप्रसार के लिये देखें द राइज ऑफ एसोटेरिक बुद्धिज्म इन टिबेट, इवा. एम.दरज्ञे। २. आचार्यों एवं अनुवादों के सम्बन्ध में विस्तार के लिये देखें—द ब्ल्यू एनाल्स, जी.एन.रोरिख। है बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४२१ उपलब्ध है। इस सम्पूर्ण साहित्य को मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित किया जाता है। वे हैं क्रियातन्त्र, चर्यातन्त्र, योगतन्त्र तथा अनुत्तर-योगतन्त्र’। इस प्रकार के विभाजन के अनेक कारण हैं। उसमें लक्षण तथा अर्थ की दृष्टि से विभाजन प्रमुख है। कि का चित त्यांना
चतुर्विध तन्त्र का लक्षण
काम—गुणों के मार्गीकरण करने के उपाय तथा देवता योग जिनमें हो तथा इन दोनों को अभिमुख कर स्नान, शौच आदि बाह्य क्रियाओं को जहाँ दर्शाया गया हो, उन तन्त्रों को क्रियातन्त्र के अन्तर्गत रखा गया है। जिन तन्त्रों में बाह्य क्रिया और आन्तर समाधि के साथ साथ चर्या भी बताई गई हो, उन्हें चर्यातन्त्र के अन्तर्गत संगृहीत किया गया है। जिन तन्त्रों में बाह्य क्रिया गौण हो और आन्तर योग को प्रमुख रूप से बताया गया हो, उन्हें योगतन्त्र के अन्तर्गत तथा जिस योग से श्रेष्ठ कोई अन्य योग न हो, इस प्रकार के योग को दर्शाने वाले तन्त्रों को अनुत्तर-योगतन्त्र की श्रेणी में रखा गया है। चार तन्त्रों के विभाजन को दर्शाते हुए वसन्ततिलकटीका में सम्पुटतन्त्र के इस वचन को उद्धृत किया गया है वडानमार हसितप्रेक्षिताभ्यां वा आलिङ्गद्वन्द्वकैस्तथा। तन्त्राणामपि चतुर्णा सन्ध्याभाषेण देशितम् ।। ( व. ति., पृ. ८३) इसकी व्याख्या करते हुए वसन्ततिलक टीकाकार ने कहा है-“ननु योगिनीतन्त्रे घुण एवं निर्दिष्टो न क्रियादितन्त्रेष्विति। कथमव्यापको धर्मकाय इति चेत्, उच्यते हसितेत्यादि । क्रियाचर्यातन्त्रेषु प्रज्ञोपायानां परस्परं हासः, योगतन्त्रे तु दर्शनम्, योगचर्योभयतन्त्रेषु पाणिग्रहणम्। उपलक्षणं चैतत् । महायोगतन्त्रे आश्लेषः, योगिनीतन्त्रेषु द्वन्द्वम्” यहां साधक के राग का चार स्तरों पर मार्गीकरण करने के कारण तन्त्रों का चार प्रकार का विभाजन १. मूल ग्रन्थों के विस्तृत विभाजन के लिये देखें-“बौद्ध तन्त्र साहित्य का वर्गीकरण” ‘धीः’ कि अंक ५, पृ. ६३-८२ र २. ङ्ग-रिम-छन्-मो, चोखापा कृत, अनुवाद—जैफरी हॉपकिन्स ‘तन्त्र इन टिबेट’, पृ. १६२. ३. मूलतः यह वचन सम्पुटतन्त्र का लगता है। किंचित् पाठ भेद के साथ यह वचन अनेक स्थलों में उद्धृत मिलता है- “हासदर्शनपाण्याप्तिः स तु तन्त्रे व्यवस्थितः। रागश्चैव विरागश्च चर्बयित्वा घुणः स्थितः।।” (सम्पुटतन्त्र-६.३) । तारनाथ के अनुसार वसन्ततिलक के रचयिता कृष्णपाद ही सम्पुटतन्त्र के प्रचारक थे। हेवजतन्त्र (२.३.५४) की व्याख्या के प्रसंग में योगरत्नमाला में ‘हसित’ आदि से क्रिया आदि चार तन्त्रों को गृहीत किया है। यथा- “हसितेत्यादिनातिगुह्यतामाह- चतुर्णामिति क्रिया-चर्या-योग-योगोत्तराणामिति”। चोंखापा कृत ङ्ग-रिम-छेन-मों में इस विषय पर विस्तृत विवेचना की गई है। देखें तन्त्र इन टिबेट, पृ. १५१-१६४. ४. अनुत्तरतन्त्र के तीन मुख्य विभाग हैं- प्रजातन्त्र, उपायतन्त्र तथा अद्वयतन्त्र। प्रज्ञातन्त्र तथा उपायतन्त्र का ही नामभेद मातृतन्त्र-पितृतन्त्र, योगतन्त्र-योगिनीतन्त्र, डाकतन्त्र-डाकिनीतन्त्र भी है। ४२२ तन्त्रागम-खण्ड किया गया है, जिसमें साधक स्व-भावनीय प्रज्ञा के दर्शन से राग का मार्गीकण करते हैं, परन्तु उससे श्रेष्ठ राग के मार्गीकरण में असमर्थ हैं, उस राग का मार्गीकरण बताने वाले तन्त्र क्रियातन्त्र या ईक्षण तन्त्र कहलाते हैं। जो साधक स्व-भावनीय प्रज्ञा के दर्शन मात्र से ही नहीं, अपितु हास के द्वारा भी राग का मार्गीकरण करते हैं, परन्तु उससे श्रेष्ठ राग का मार्गीकरण करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें उस राग का मार्गीकरण बताने वाले तन्त्रों को चर्यातन्त्र अथवा हास तन्त्र भी कहा जाता है। जो साधक स्व-भावनीय प्रज्ञा के हास-सुख के अतिरिक्त पाण्याप्ति के द्वारा भी राग का मार्गीकरण करते हैं, परन्तु इससे श्रेष्ठ द्वीन्द्रिययोग के राग का मार्गीकरण करने में असमर्थ हैं, उन्हें द्वीन्द्रिययोग में राग का मार्गीकरण बताने वाला तन्त्र या योगतन्त्र पाण्याप्ति तन्त्र कहलाता है। इसी प्रकार जो साधक स्व-भावनीय प्रज्ञा का द्वीन्द्रिययोग से राग का मार्गीकरण करते हैं, परन्तु इससे श्रेष्ठ राग का मार्गीकरण करने में असमर्थ हैं, उन्हें उस श्रेष्ठ राग के मार्गीकरण बताने वाले तन्त्रों को अनुत्तर-योगतन्त्र के अन्तर्गत परिगणित किया गया है। इनके अतिरिक्त भी तन्त्रों के विभाजन की अनेक दृष्टियों का उल्लेख मिलता है। जैसे चार वर्णों की दृष्टि से, चार क्लेशों की प्रधानता की दृष्टि से, बुद्धि के चार स्तर-हीन, उच्च, तीक्ष्ण तथा अतितीक्ष्ण के भेद से, चार वासनाओं का क्षय करने की दृष्टि से, चार युग–सत्य, कलि, द्वापर तथा त्रेता की दृष्टि से। बौद्धों के चार सम्प्रदायों वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवादी तथा माध्यमिक की दृष्टि से भी तन्त्रों की चार प्रकार की देशना मानी गयी है। भोट आचार्यों ने, विशेषकर चोंखापा एवं बुस्तोन इत्यादि ने इस विषय पर अत्यधिक प्रकाश डाला है। नाममा गयाथ
आन्तरिक विभाजन
तन्त्रों का आन्तरिक विभाजन भी किया जाता है। जैसे—मूलतन्त्र, उत्तरतन्त्र, उत्तरोत्तरतन्त्र, संग्रहतन्त्र, व्याख्यातन्त्र, उत्तरिक तन्त्र और सभागीय तन्त्र। भोट विद्वानों में इस विभाजन में मतैक्य नहीं दीखता। कुछ इन्हें आठ वर्गों तथा अन्य इन्हें पांच वर्गों में विभक्त करते हैं। क्रिया तन्त्रों में ये सभी भेद नहीं होते। वहाँ मूलतन्त्र, उत्तरतन्त्र, उत्तरोत्तरतन्त्र, ये चार विभाग ही हैं। चर्यातन्त्र में मूलतन्त्र तथा उत्तरोत्तर तन्त्र नामक दो भेद हैं। योगतन्त्र में मूलतन्त्र, उत्तरतन्त्र और व्याख्यातन्त्र नामक तीन भेद मिलते हैं तथा अनुत्तर-तन्त्रों में अपने तीन आन्तर विभाजनों के आधार पर मूलतन्त्र, व्याख्यातन्त्र आदि की व्यवस्था है। किसानीमा पनि माया १. तन्त्र का स्वरूप एवं आभ्यन्तर भेद, ‘धीः’ अंक-५, पृ. १५५-१५८ २. तन्त्र इन टिबेट, पृ. २०१-२०६; एवं ‘ल्त वाई रिम पा शद पा’ का वा पलचेग, तो. ४३५६ ३. इं.बु.ता.सि., पृ.२५१-२६६. बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४२३ इन विभागों के अन्तर्गत संगृहीत तन्त्रों पर प्रकाश डाला जाय, इसके पूर्व इस विभाजन के मुख्य वर्गीकरण को जान लेना आवश्यक है। क्रियातन्त्र के ग्रन्थों के मुख्य छ: विभाग हैं। यथा-तथागतकुल, पद्मकुल, वज्रकुल, मणिकुल, पञ्चककुल तथा लोककुल। तथागतकुल पुनः आठ भागों में विभक्त है। यथा—प्रधानकुल, अधिपतिकुल, मातृकुल, उष्णीषकुल, क्रोधकुल, दूत एवं दूती कुल, बोधिसत्त्व कुल तथा शुद्धावासिक देवकुल। पद्मकुल पांच उपविभागों में विभक्त हैं—प्रधानकुल, अधिपतिकुल, मातृकुल, क्रोधकुल, तथा आज्ञाकारी कुल। वज्रकुल के भी पांच उपविभाग हैं, यथा-प्रधानकुल, अधिपतिकुल, मातृकुल, क्रोध एवं क्रोधी कुल, तथा दूत एवं आज्ञाकारी कुल। चर्यातन्त्र के ग्रन्थ तीन मुख्य कुलों में विभक्त हैं। ये हैं तथागतकुल, पद्मकुल तथा वज्रकुल। योगतन्त्र के ग्रन्थों को भी तीन मुख्य उपविभागों में वर्गीकृत किया जाता है। यथा—मूलतन्त्र, व्याख्यातन्त्र तथा सदृशतन्त्र। जैसे कि पहले ही कहा जा चुका है, अनुत्तर तन्त्र प्रज्ञातन्त्र, उपायतन्त्र और अद्वयतन्त्र नाम से विभक्त है। उपायतन्त्र का पुनः छः कुलों के आधार पर विभाजन किया जाता है। यथा—अक्षोभ्य, वैरोचन, रत्नसम्भव, अमिताभ, अमोघसिद्धि तथा वज्रधर कुल। प्रज्ञातन्त्र के ग्रन्थों को मुख्य रूप से सात वर्गों में विभाजित किया जाता है। यथा-षट्कुलों से सम्बद्ध हेरुक, वैरोचन, वज्रसूर्य, पद्मनृत्येन्द्र, परमाश्वसिद्धि तथा वज्रधर’।। वही
तन्त्रों का त्रिविध विभाजन
बौद्ध तन्त्रों का एक वर्गीकरण हेतु, फल तथा उपाय तन्त्र के आधार पर भी किया गया है। तन्त्र शब्द की परिभाषा करते हुए गुह्यसमाजतन्त्र में इसे प्रबन्ध कहा गया है और इस प्रबन्ध को तीन प्रकार का बताया है। ये हैं- आधार, प्रकृति और असंहार्य। 15 छ जजिया किमान - प्रबन्ध तन्त्रमाख्यात तत् प्रबन्ध त्रिधा भवत् का आधारः प्रकृतिश्चैव असहायप्रभदतः।। is प्रकृतिश्चाकृतेर्हेतुरसंहार्य फलं तथा। आधारस्तदुपायश्च त्रिभिस्तन्त्रार्थसंग्रहः।। (गु.त.१८.३४-३५) आता यहां तन्त्रों का अभिधेय की दृष्टि से हेतु, फल और उपाय के आधार पर विभाजन किया गया है। महामायातन्त्र की टीका गुणवती में रत्नाकरशान्ति ने इन तीनों तन्त्रों का विस्तार से उल्लेख किया है। इस विभाजन में चित्त की ही हेतु, फल और उपाय अवस्थाओं को प्रकट किया गया है। अतः जिन तन्त्रों में इनकी प्रधानता रहती है, वे तन्त्र हेतुतन्त्र, FIFLan15FEFEEEEE १. तन्त्रों के इस वर्गीकरण का विस्तार से विवेचन आचार्य खेस्-डुब-जे ने अपने ग्रन्थ ‘पर्युद स्दे-स्यी-ही-नम-पर-जग-पा’ में तथा बुस्तोन ने अपने ग्रन्थ ‘युद-स्दे-स्प्यी-ही-नम-पर-जग-पा’ में २. महामायातन्त्र, पृ.२-३, के. उ. ति. शि. सं. सारनाथ। ४२४ अभी तन्त्रागम-खण्ड की उपायतन्त्र और फलतन्त्र कहलाते हैं। सत्त्व के चित्त का स्वभाव प्रकृतिप्रभास्वर तथा निष्प्रपञ्च है, परन्तु वह आगन्तुक मलों के कारण आवृत रहता है। इन आगन्तुक मलों का क्षय होने पर ही चित्त अपनी निष्प्रपञ्च, निर्मल अवस्था में प्रकट होता है। यही निर्मल स्वभाव शुद्ध चित्त बुद्धत्व का आश्रय है। अभिधेय की दृष्टि से यही आश्रय-चित्त हेतुतन्त्र कहलाता है। अन्यथा मलों से आवृत चित्त संसार (प्रपञ्च) का ही निर्माण करता है। उपायतन्त्र से यहाँ यह अभिप्राय है कि बुद्धत्व का हेतु रूप जो प्रभास्वर चित्त है, इस बीज सदृश चित्त को फल रूप में प्राप्त करने में जो उपादान, अर्थात् सहायक कारण हैं, वही उपायतन्त्र हैं। यथा बीज से फल की निष्पत्ति के लिए अथवा परिपाक के लिए पृथ्वी, जल आदि जो कारण हैं, वह उपाय स्वरूप है। उसी प्रकार चित्त को परिपुष्ट करने के लिये जो सहायक प्रत्यय है, वह उपाय तन्त्र के अन्तर्गत समीकृत हैं। कारण में कार्य की विद्यमानता, अर्थात् हेतु में फल असंहार्य रूप में स्थित है, उसका अभिमुखीभाव ही फलतन्त्र है। हेतु-स्वरूप जो प्रकृति-प्रभास्वर चित्त है, उसका उपाय द्वारा बोधिचित्त के रूप में परिवर्तित होकर परिपक्व होना ही फलतन्त्र कहलाता है। इस प्रकार बौद्ध तन्त्रों का इन तीन कोटियों में विभाजन होता है। यह विभाजन ऊपर के चतुर्विध विभाग से पूरी तरह भिन्न है। ऊपर उद्धत रत्नाकरशान्ति ने महामायातन्त्र में इन तीनों लक्षणों को समीकत किया है। इस प्रकरण की एक भिन्न प्रकार की व्याख्या भी की जाती है।
बौद्ध तन्त्र साहित्य
आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प
आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प’ क्रियातन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें अनेक तांत्रिक विधियों, अनेक देवी-देवताओं के स्वरूपों, मुद्रा, मण्डल, मन्त्र एवं उनकी पूजाविधियों का वर्णन है। यह ग्रन्थ महायानी वैपुल्य सूत्र में परिगणित है, फिर भी यह पूर्णतः तन्त्र-ग्रन्थ है। इसी प्रकार महायानी सूत्रों में सुवर्णप्रभाससूत्र को भी क्रियातन्त्र का ग्रन्थ माना गया है। इससे विदित होता है कि महायान सूत्र-ग्रन्थों के साथ-साथ तन्त्र-ग्रन्थ भी अस्तित्व में आये। इसका चीनी अनुवाद बहुत परवर्ती काल में, दसवीं शताब्दी में सम्पन्न हुआ। इसके चीनी अनुवाद में केवल २८ परिच्छेदों के ही होने की सूचना है, जबकि उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थ में ५५ परिच्छेद हैं। उसके ५३ वें परिच्छेद में अनेक राजाओं का उल्लेख है, अतः अनुमान किया जाता है कि यह आठवीं शताब्दी के बाद का है। परन्तु डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य का मत है कि २८ परिच्छेद का ही यह मूल-ग्रन्थ है तथा इसका समय द्वितीय शताब्दी है। शेष परिच्छेदों के सम्बन्ध में उनका मत है कि यह बाद में इसके साथ जोड़ दिये गये हैं। उनका कहना है कि इस ग्रन्थ में पाँच १. आर्यमञ्जुश्रीमूलकल्प, सम्पा.एस.बागची, बौ.सं.प्र. सं., १८, मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १६६४ २. नाञ्जियो, सं. १०५६४२५ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास तथागत बुद्ध एवं उनकी शक्तियों का वर्णन नहीं हैं। अतः उन्होंने इसका समय गुह्यसमाज से पूर्व माना है। गुह्यसमाजतन्त्र का समय उनके अनुसार तृतीय-चतुर्थ शताब्दी है’।
सर्वतथागततत्त्वसंग्रह
तन्त्रों के परम्परागत विभाजन के अनुसार सर्वतथागततत्त्वसंग्रह (तो. ४७६) योगतन्त्र का ग्रन्थ है। यह योगतन्त्र का मूलतन्त्र भी है। माना जाता है कि यह ग्रन्थ महावैरोचनसूत्र से पूर्व का नहीं है। नागबोधि ने इसका दक्षिण भारत में प्रचार किया। आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में वज्रबोधि एवं अमोघवज ने इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया। इस तन्त्र का व्यापक प्रचार बाद में चीन एवं जापान में हुआ। तारनाथ का मत है कि राजा महापद्म (ईसापूर्व चौथी शताब्दी) के कुछ समय पश्चात् ओडिविश में राजा चन्द्रगुप्त हुए। उनके घर में आर्यमंजुश्री भिक्षु के रूप में आकर धर्मोपदेश देते थे। बाद में उन्होंने वहाँ एक ग्रन्थ भी रख छोड़ा था। तान्त्रिकों की ऐसी मान्यता है कि यह ग्रन्थ “सर्वतथागततत्त्वसंग्रह” ही था। एक इस पर रचित प्रसिद्ध टीकाओं में पद्मवज्र का “तन्त्रावतारव्याख्यान" (तो. २५०२), आचार्य आनन्दगर्भ विरचित “सर्वतथागततत्त्वसंग्रहमहायानाभिसमयनामतन्त्र-तत्त्वालोककरीनाम व्याख्या (तो. २५१०) तथा कोशलालङ्कारतत्त्वसंग्रहटीका (तो. २५०३) प्रमुख है। विनयतोष भट्टाचार्य पद्मवज्र का काल ६६३ ई. मानते हैं। अतः हम इसका समय सातवीं शताब्दी से पूर्व का ही मान सकते हैं। इसका भोट अनुवाद ग्यारहवीं शताब्दी में श्रद्धाकरवर्मा तथा रिनछेन जङ्पो ने किया। यह ग्रन्थ चार खण्डों में विभक्त है – वज्रधातु, त्रिलोकविजय, सकलजगद्विनय तथा सर्वार्थसिद्ध। पुनः प्रत्येक के छः मण्डल हैं। इस ग्रन्थ में ३७ देवता-उत्पत्ति, तत्त्व, हृदय, मुद्रा, मन्त्र, विद्या, अधिष्ठान, अभिषेक, ध्यान, पूजा, स्वतत्त्व, देवतत्त्व, मण्डल, प्रज्ञा, उपाय, फल, हेतु योग, अतियोग, महायोग, गुह्ययोग, सर्वयोग, जप होम, व्रत, सिद्धिसाधन, समाधि, बोधिचित्त आदि की साधनाविधियों का संग्रह किया गया है। व
सर्वदुर्गतिपरिशोधनतन्त्र
सर्वदुर्गतिपरिशोधनतन्त्र योगतन्त्र का व्याख्यातन्त्र है। इसमें अनेक देवताओं और शाक्यमुनि के मध्य प्रश्नोत्तर एवं व्याख्या के रूप में विषय का प्रतिपादन किया गया है। इसमें देवताओं में प्रमुख शक्र यह पूछते हैं कि विमलमणिप्रभ १. गुह्यसमाजतन्त्रभूमिका, पृ. xxxII -xxxVIII २. सर्वतथागततत्त्वसंग्रह, सम्पा. डॉ. लोकेशचन्द्र, दिल्ली-१६८७ ३. इंडियन बुद्धिज्म, पृ. ३२४-३२५ ४. बौ. ध. इति., पृ. ३५४ ५. साधनमाला, भाग-२, भूमिका, पृ. XLII ६. तो.४७६ ७. तन्त्र का स्वरूप एवं आभ्यन्तर भेद-६, धीः, अंक-११, पृ. १४७-१५७ ८. सर्वदुर्गतिपरिशोधनतन्त्र, सम्पा. टी. स्कोरूपस्की, मोतीलाल, बनारसीदास, १६८३ ६. तो. ४८५ ४२६ पकतन्त्रागम-खण्ड हात नामक देव त्रायस्त्रिश देवलोक से क्यों च्युत हुआ? भगवान् उत्तर देते हैं कि वह अबीचि नरक में पतित होकर अनेक प्रकार के कष्ट झेल रहा है। पुनः यह पूछने पर कि उसे तथा अन्य नारकीय सत्त्वों को इस नरक से मुक्त करने के लिए क्या करना होगा ? तब भगवान् तथागत समाधि में सम्पन्न हो कर सर्वदुर्गतिपरिशोधनतन्त्र की देशना करते हैं। इसमें अभिषेक, समाधि, दुर्गतिपरिशोधन से सम्बद्ध मण्डल तथा अनेकविध अनुष्ठानों का वर्णन किया गया है। देशना का मुख्य सार यही है कि मृत सत्त्वों को तथा नारकीय सत्त्वों को कैसे सुगति मिले। * आचार्य बुद्धगुह्य ने सम्पूर्ण ग्रन्थ को दो भागों में बाँटा है-आमुख तथा मूल ग्रन्थ । आमुख खण्ड में तन्त्र का उपदेश स्थल, प्रवचन तथा भगवान् एवं अनुचरों द्वारा विषय की उद्भावना है। मुल खण्ड में मण्डल, होम, अभिषेक इत्यादि का वर्णन है। इस पर अनेक आचार्यों ने टीकायें लिखी थी। इनमें बुद्धगुह्य की दुर्गतिपरिशोधनार्थवार्त्तिकनाम’, आचार्य कामधेनु की आर्यसर्वदुर्गतिपरिशोधनतेजोराजनाम महाकल्पराजस्य टीका,२ आनन्दगर्भ की सर्वदुर्गतिपरिशोधनतेजोराजतथागतार्हत्सम्यक्संबुद्धकल्पनाम टीका तथा वज्रवर्मा की सर्वदुर्गतिपरिशोधनतेजोराजकल्पालोकालङ्कारनाम’ प्रमुख हैं। अगर । जो सर्वदुर्गतिपरिशोधनतन्त्र का सर्वप्रथम भोटानुवाद आठवीं शताब्दी में हुआ। इसके अनुवादक जयरक्षित और शान्तिगर्भ थे, जो राजा खिसोङ् देचन (७४०-७६८ ई.) के समकालीन थे। टीकाकार भारतीय आचार्यों में बुद्धगुह्य आठवीं-नवीं शताब्दी में विद्यमान थे। तारनाथ के अनुसार ये क्रिया, चर्या तथा योगतन्त्र के निष्णात आचार्य थे। ये आचार्य बुद्धज्ञानपाद के शिष्य थे । आनन्दगर्भ का जन्म मगध में हुआ तथा विक्रमशिला में इन्होंने अध्ययन किया। तारनाथ के अनुसार ये पहले महासांधिक मतानुयायी थे। बाद में योगतन्त्र के प्रख्यात आचार्य बने। तारनाथ इनको राजा महीपाल (६७५-१०२६ ई.) का समकालीन मानते हैं । अतः हम इस तन्त्र का समय सातवीं शताब्दी या इससे पूर्व स्थापित कर सकते हैं। -
गुह्यसमाजतन्त्र
बौद्ध तन्त्र-साहित्य में गुह्यसमाजतन्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह अनुत्तरतन्त्र में उपायतन्त्र का मूलतन्त्र है। गुह्यसमाजतन्त्र तथागतगुह्यक एवं अष्टादश पटल सालमा दासी कामद १. तो. २६२४ २. तो. २६२५ ३. तो. २६२८ ४. तो. २६२७ ५. बौ.ध. इति., पृ. ११७-११६ ६. वहीं, पृ. १२० ७. इस ग्रन्थ के संस्कृत में तीन संस्करण प्रकाशित है क. सम्पा. विनयतोष भट्टाचार्य, गो.ओ.सी., ५३, १६३१ सालक ख. सम्पा. एस. बागची बौ.सं.ग्र., ६, १६६५ सालकम . ग. सम्पा. प्रो. युकाई मात्सुनागा। ४२७ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास के नाम से भी प्रसिद्ध है। १७वें परिच्छेद तक का ग्रन्थ उपायतन्त्र का मूलतन्त्र है तथा १८वां परिच्छेद उत्तरतन्त्र । इसके व्याख्या-तन्त्रों में प्रमुख है—सन्धिव्याकरणनामतन्त्र (तो. ४४४), वज्रमालातन्त्र (तो. ४४५), चतुर्देवीपरिपृच्छातन्त्र (तो. ४४६) तथा वज्रज्ञानसमुच्चयतन्त्र (तो. ४४७ । इसके व्याख्यातन्त्रों में अनेक अन्य तन्त्र-ग्रन्थ भी परिगणित हैं। यथा देवेन्द्रपरिपृच्छातन्त्र, अद्वयसमताविजयतन्त्र (तो. ४५२), वज्रहृदयालंकारतन्त्र (तो. ४५१) आदि । प्राचीन आचार्यों में भी इस सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद व्याप्त था। प्रो. एलक्स वैमेन ने इसकी विस्तार से चर्चा की है। को गुह्यसमाज पर टीका-टिप्पणी की परम्परा अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है। टीका-व्याख्याओं के अतिरिक्त गुह्यसमाज पर आधारित अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी रचे गये। उनमें पद्मवज्र द्वारा विरचित गुह्यसिद्धि, आर्य नागार्जुन का पंचक्रम तथा इन्द्रभूति की ज्ञानसिद्धि प्रमुख है । इसकी व्याख्या-परम्परा नागार्जुन से प्रारम्भ होती है। पंचक्रम एवं पिण्डीकृत-साधन इस पर आधारित इनकी महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसमें उत्पत्ति एवं निष्पन्नक्रम की व्याख्या की गई है। अठारहवें परिच्छेद पर जो इसका उत्तरतन्त्र है, नागार्जुन ने अष्टादशपटलविस्तरव्याख्या तथा मूलतन्त्र पर तन्त्र-टीका की रचना की। चन्द्रकीर्ति ने गुह्यसमाज पर एक विस्तृत टीका प्रदीपोद्योतन’ की रचना की। इसकी अन्य महत्त्वपूर्ण टीकाओं में चेलुपा की रत्नवृक्षनाम गुह्यसमाजवृत्ति, जिनदत्त की पञ्जिका, रत्नाकरशान्ति की कुसुमाञ्जलि गुह्यसमाजनिबन्धनाम, स्मृतिज्ञानकीर्ति की गुह्यसमाजतन्त्रराजवृत्ति, आनन्दगर्भ की श्रीगुह्यसमाजमहातन्त्रराजटीका आदि प्रमुख हैं। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने गुह्यसमाज की भूमिका में इससे सम्बद्ध सभी टीकाओं एवं ग्रन्थों की सूची दी है ६ और प्रो. एलक्स वैमेन ने अपने ग्रन्थ में इसकी टीकाओं एवं टीकाकारों की विस्तृत चर्चा की है। गुह्यसमाज तन्त्र के काल के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य इसे असंग की रचना मानते हुए तदनुसार इसका काल भी तीसरी-चौथी शताब्दी का स्वीकार करते हैं। नागार्जुन की इस पर मिली टीका-टिप्पणी के आधार पर भी हम इसे तीसरी शताब्दी से पूर्व का ही ग्रन्थ स्वीकार कर सकते हैं। का तमि
आर्यमञ्जुश्रीनामसंगीतिः
आर्यमञ्जुश्रीनामसंगीति (तो. ३६०) बौद्ध तन्त्रों का सर्वाधिक ग्राह्य एवं मान्य ग्रन्थ है। यह स्तोत्रशैली में रचा गया है। परम्परानुसार इसे १. योग ऑफ द गासमाजतन्त्र प. FOTS २. गह्यादि-अष्टसिद्धिसंग्रह, पृ. १-६२ नि तनावग व कि भारत ३. सम्पा. पूसें, सन् १८६६ का ४. गुस्यादि-अष्टसिद्धि संग्रह, पृ. ८६-१५८, टू. वज्रयान वर्क्स, गा.ओ.सी. बड़ौदा।.. ५. चिन्ताहरण चक्रवर्ती द्वारा सम्पादित, के.पी. जायसवाल रिसर्च इंस्टीच्यूट, पटना। ६. गुह्यसमाजतन्त्रभूमिका, पृ. ३० ७. योग आफ दी गुह्यसमाजतन्त्र, पृ. ६०-१००। संस्कृत में इसके चार संस्करण प्रकाशित हैं। देखें – नामसंगीति की अध्ययन सामग्री, ‘धीः’ अंक १, पृ. २३२ ४२८ तन्त्रागम-खण्डमा बुद्धभाषित माना जाता है। यह मायाजाल नामक बृहत्तन्त्र के समाधिजाल पटल से सम्बद्ध है, जैसा कि इसकी अन्तिम पुष्पिका से विदित होता है। यद्यपि इसे बौद्ध तन्त्रों के विभाजन में अनुत्तर तन्त्र के उपाय तन्त्र के व्याख्यातन्त्र में संमिलित किया गया है, फिर भी यह स्वीकार किया जाता है कि इस पर सभी तन्त्रों की दृष्टि से व्याख्या की जाती रही है। इस तन्त्र पर अनेक भारतीय आचार्यों ने व्याख्या, वृत्ति एवं टिप्पणियां की हैं, जिनकी संख्या २५ से अधिक है । इसके प्रारंभिक टीकाकारों में चन्द्रगोमिन, विमलमित्र, विलासवज्र, डोम्बी हेरुक तथा मञ्जुश्रीमित्र प्रमुख हैं। काल की दृष्टि से आचार्य चन्द्रगोमिन् द्वारा विरचित महाटीका सबसे प्राचीन प्रतीत होती है। आचार्य चन्द्रगोमिन् (६३५ ई.) चन्द्रकीर्ति के समकालीन थे। विमलमित्र (७५०-७८० ई.) आठवीं शताब्दी के हैं। ये आचार्य बुद्धगुह्य के शिष्य थे, जो भोटनरेश खी सोङ् देचन (७४२-७६७ ई.) के समकालीन थे। अन्य टीकाकारों में इन्द्रभूति (७०७ ई.), डोम्बी हेरुक (७७७ ई.) तथा लीलावज्र (७४१ ई.) के नाम आते हैं। यद्यपि इसके साधन-ग्रन्थों में नागार्जुन विरचित साधन भी हैं, फिर भी हम उपर्युक्त सामग्री के आधार पर इसका काल सातवीं शताब्दी से पूर्व स्थिर कर सकते हैं। इसके शैलीगत अध्ययन की दृष्टि से यह विष्णुसहस्रनाम तथा ललितासहस्रनाम की भाँति है, जिनमें नामों का संकीर्तन हुआ है। विष्णुसहस्रनाम महाभारत का अंश माना गया है। अतः शैली की दृष्टि से इसका समय सातवीं शताब्दी से भी काफी समय पूर्व ले जा सकते नामसंगीति में नाना तन्त्रों में उपलक्षित महासुखाकार सहजज्ञान को ८१२ नाममन्त्राक्षर पदों द्वारा संगृहीत किया गया है। परन्तु धर्मधातुवागीश्वरसाधन के अनुसार इसमें ८०० नाममन्त्राक्षर पदों का संग्रह होना चाहिये, क्योंकि इसे ‘अष्टशतनामधेया नामसंगीति’ के नाम से स्मरण किया गया है। यह ग्रन्थ १४ परिच्छेदों में विभक्त है, जिसमें १६७ श्लोक तथा अनुशंसा का गद्य-अंश सम्मिलित है। उपसंहार सहित १४ परिच्छेदों के नाम इस प्रकार से हैं—अध्येषणा, प्रतिवचन, षट्कुलावलोकन, मायाजालाभिसम्बोधिक्रम, वज्रधातुमहामण्डल, सुविशुद्धज्ञान, आदर्शज्ञान, प्रत्यवेक्षणाज्ञान, समताज्ञान, कृत्यानुष्ठानज्ञान, पञ्चतथागतस्तुति, अनुशंसा, मन्त्रविन्यास एवं उपसंहार। अनुशंसा-अंश के सम्बन्ध में टीकाकारों में मतभेद लगता है। किसी ने इसे मूल ग्रन्थ का अंश मानकर व्याख्या की तथा किसी ने इस पर व्याख्या नहीं की। ऐसा माना जाता है कि इस अंश को परवर्ती काल में जोड़ दिया गया। हम इस ग्रन्थ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं—प्रारम्भ के चार परिच्छेद आमुख, पांचवें परिच्छेद से १०वें परिच्छेद तक के ६ परिच्छेद मूल ग्रन्थ तथा शेष परिच्छेद पूरक। १. इसकी टीकाओं की सूची तथा अन्य साधन तथा मण्डल विधि आदि से सम्बद्ध ग्रन्थों के लिये देखें -नामसंगीति की अध्ययन सामग्रियां, ‘धीः’ अंक १, पृ. २२०-२३८ । का २. विष्णुसहस्रनाम तथा नामसंगीति के कुछ विशिष्ट शब्दों के साम्य एवं वैषम्य के लिये देखें । ‘नामसंगीति की अध्ययन सामग्रियां-३ ‘धीः’ अंक ४, पृ. ७०-८२ को BSE
- ३. साधनमाला, गा. ओ. सी., २६, पृ. १२७ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४२६
हेवज्रतन्त्र’
अधिकतर अनुत्तरतन्त्र के ग्रन्थों के सम्बन्ध में यह धारणा है कि इन्हें समय-समय पर सिद्धाचार्यों ने इस लोक में प्रचारित किया। हेवजतन्त्र के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि इसका प्रचार सिद्धद्वय कम्बल एवं सरोरुह ने किया। हेवज्रतन्त्र अनुत्तर-तन्त्र के मातृतन्त्र का मूलतन्त्र है। अनेक तन्त्र-ग्रन्थों की व्याख्याओं में इसके उद्धृत वचन द्विकल्पराज के नाम से भी प्राप्त होते हैं, क्योंकि यह ग्रन्थ दो कल्पों में विभक्त है। अर्थसाम्य के कारण सरोरुह एवं पद्मवज्र को एक ही व्यक्ति मान सकते हैं। सरोरुह तथा पद्मवज्र के नाम से हेवज्र से सम्बद्ध साधन, विधि एवं स्तोत्र-ग्रन्थ मिलते हैं। कम्बलपाद के इस ग्रन्थ से सम्बद्ध अधिक ग्रन्थ प्राप्त नहीं होते। परन्त यह माना जाता है कि ये दोनों राजा इन्द्रभूति के समकालीन थे। इन्द्रभूति नाम के तीन आचार्य होने की कल्पना की गई है। डॉ. स्नैलग्रोव के अनुसार ये द्वितीय इन्द्रभूति के समकालीन हैं,२ जिनकी शिष्यपरम्परा में जालन्धरपा एवं कृष्णपा आते हैं। कृष्णपाद ने हेवज पर योगरत्नमाला नाम की टीका रचित की। इस प्रकार हेवज्रतन्त्र का काल आठवीं शताब्दी का अन्तिम भाग माना गया से इसके अतिरिक्त हेवज्र की प्रसिद्ध टीका एवं टीकाकारों में भद्रपाद की हेवज्रव्याख्याविवरण, काङ्गपा की स्मृतिनिष्पत्ति, नरोपा की वज्रपदसारसंग्रह, रत्नाकरशान्ति की मुक्तावली, टंकदास की सुविशुद्धसम्पुट, सरोरुह की पद्मिनी तथा वज्रगर्भ की हेवज्रपिण्डार्थटीका प्रसिद्ध हैं। टीकाओं में काल की दृष्टि से सरोरुह की टीका प्राचीन प्रतीत होती है। कृष्णपाद एवं भद्रपाद समकालीन हैं। नरोपा, टंकदास एवं रत्नाकरशान्ति दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के हैं।
चण्डमहारोषणतन्त्र’
चण्डमहारोषणतन्त्र एकल्लवीरचण्डमहारोषणतन्त्र या एकवीराख्यचण्डमहारोषणतन्त्र (तो. ४३१) के नाम से भी जाना जाता है। यह मातृतन्त्र का ग्रन्थ है। जार्ज क्रिस्टोफर इसे गुह्यसमाज का व्याख्यातन्त्र मानते हैं, जो उचित प्रतीत नहीं होता। यह ग्रन्थ २५ पटलात्मक है। इनमें मन्त्र, मण्डल, अभिषेक, देवता, ध्यान, देहप्रीणन, स्त्रीप्रशंसा, शुक्रवृद्धि, शुक्रस्तम्भन, वायुयोग, देवतासाधन आदि विषय वर्णित हैं। चण्डमहारोषण से सम्बद्ध अनेक साधन-ग्रन्थ भोट तन्युर संग्रह में उपलब्ध हैं। इनमें कुछ साधनों का प्रकाशन विनयतोष भट्टाचार्य द्वारा सम्पादित साधनमाला के अन्तर्गत हुआ है। उक्त संग्रह में शबरपाद के दो साधन (साधन सं. १८५, २३५) संगृहीत हैं। डॉ. भट्टाचार्य ने शबरपाद १. द हेवज्रतन्त्र-ए क्रिटिकल स्टडी, डी.एल. स्नैलग्रोव, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी, लन्दन, १६५६ २. द हेवज्रतन्त्र, भाग-१, पृ. १३ ३. सम्पा. डी. एल. स्नैलग्रोव ‘द हेवजतन्त्र’ ४. द हेवज्रतन्त्र, भाग-१, पृ. १४ ५. द चण्डमहारोषणतन्त्र (१-८ परिच्छेद), सम्पा. जार्ज क्रिस्टोफर, अमेरिकन ओरियण्टल सोसाइटी, न्यू हेवन, १६७४ ६. द चण्डमहारोषणतन्त्र, भूमिका, पृ.१ सामान प्रवासात वाजता ४३० तन्त्रागम-खण्ड का काल ६५७ ई. रखा है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चण्डमहारोषणतन्त्र सातवीं शताब्दी में अस्तित्व में आ चुका था। इसकी अधिक टीकाओं की सूचना नहीं मिलती। वीर पुस्तकालय (नेपाल) की सूची में इसकी एक टीका चण्डमहारोषणतन्त्रपंजिका की सूचना मिलती है। इसके रचयिता महासुखवज्रपाद हैं।
खसमतन्त्र
खसमतन्त्र एक लघुकाय तन्त्र ग्रन्थ है, जो प्रजातन्त्र, अर्थात् मातृतन्त्र का ग्रन्थ है। रत्नाकरशान्तिपाद की इस पर एक सुन्दर टीका ‘खसमानाम टीका’ ४ है। इसमें अनेक अपभ्रंश पदों की व्याख्या की गई है। चक्रसंवरतन्त्र से इसका सम्बन्ध प्रतीत होता है, क्योंकि चक्रसंवरतन्त्रपञ्जिका में खसमतन्त्र को स्मरण किया गया है। मूल संस्कृत ग्रन्थ देखने से ही यह विदित होगा कि यह अपभ्रंश में है या संस्कृत में। वैसे संस्कृत एवं अपभ्रंश मिश्रित अनेक बौद्ध तन्त्र-ग्रन्थ हैं। हेवज्रतन्त्र, सम्पुटतन्त्र आदि इसी श्रेणी में आते हैं। आचार्य रत्नाकरशान्तिपाद के काल के सम्बन्ध में थोड़ा मतभेद है, जहां कुछ विद्वानों ने इनका समय ६७४-१०२६ ई. माना है, वहीं अन्य विद्वान् ६७८-१०३० ई. इनका समय स्थिर करते हैं। ये राजा महीपाल के समकालीन थे। मगध इनकी जन्मस्थली थी। बाद में ये विक्रमशील महाविहार के आचार्य बने। रत्नाकरशान्तिपाद दर्शन, विशेष कर निराकार विज्ञानवाद के साथ-साथ तन्त्र के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। तन्त्र पर इनके २३ ग्रन्थ मिलते हैं। साधनमाला की भूमिका में डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य ने इनके १८ तन्त्र-ग्रन्थों की सूची दी है।
महामायातन्त्र
महामायातन्त्र (तो. ४२५) एक अन्य महत्त्वपूर्ण तन्त्र है। तारनाथ के अनुसार इसका जम्बुद्वीप में सर्वप्रथम प्रचार कुक्कुरिपाद ने किया। विनयतोष भट्टाचार्य के अनुसार कुक्कुरिपाद का समय ६६३ ई. है ८ । वहीं उन्होंने इनकी १४ रचनाओं का भी उल्लेख किया है। इनमें महामायासाधन, मण्डलविधि, महामायातन्त्रानुसारहेरुकसाधनोपायिका आदि महामायातन्त्र से सम्बद्ध हैं। ऐसी स्थिति में हम महामायातन्त्र का काल सातवीं शताब्दी स्वीकार कर सकते हैं। इस पर भी भारतीय आचार्यों ने अनेक टीकाएं रचित की। इनमें रत्नाकरशान्तिपाद की गुणवती’ (तो. १६२३), दुर्जयचन्द्र की ‘मायावती’ १. साधनमाला, भाग-२, पृ. CxIV २. संक्षिप्त सूचीपत्र, पृ. ४४, राष्ट्रीय अभिलेखालय सं-३. ४०२ ३. तो. ४४१ ४. खसमानाम-टीका, सम्पा. प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय, संकाय पत्रिका-१, पृ. २२७-२५५, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, सन् १६८३ ५. साधनमाला, भाग-२, भूमिका, पृ. cxi-cxii महामायातन्त्र का मूल संस्कृत ग्रन्थ अनुपलब्ध है। भोट अनुवाद एवं टीका के आधार पर पुनरुद्धार कर गुणवती टीका के साथ के. उ. ति. शि. सं. सारनाथ से प्रकाशित हुआ है। ७. बौ. ध. इति, पृ. १४६ ८. साधनमाला, भाग-२, भूमिका-cii-ciii. ४३१ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास (तो. १६२२), कृष्णसमयवज्र की स्मृतिवृत्ति’ (तो. १६२४) तथा महामायानामपञ्जिका (तो. १६२५) प्रमुख हैं। ये सभी टीकाकार १०वीं से १२वीं शताब्दी के मध्य के हैं। मूल ग्रन्थ तीन निर्देशों में विभक्त है। प्रथम निर्देश में महामाया तत्त्व का निर्देश करते हुए उसकी प्रकृति, पार्थिवफल, पर्यन्तफल और विशेष मार्ग का निरूपण, आलिकालि मन्त्र, धर्मयोग, गुटिकासाधन, शुक्र-आकृष्टि, पिण्डाकृष्टि आदि का; द्वितीय निर्देश में वज्रजाप, त्रियोग के गुण, रविचन्द्र सम्पुटयोग का अभ्यास, गुह्याभिषेक का निर्देश तथा तृतीय निर्देश में अमृतगुटिकासाधन, मन्त्रसमुच्चय, समापत्ति का अर्थ, वज्र, अक्षर आदि का न्यास एवं अधिष्ठान का निर्देश किया गया है। 10
कृष्णयमारितन्त्र
कृष्णयमारितन्त्र’ (तो. ४६८) पितृतन्त्र का एक मुख्य ग्रन्थ है। तारनाथ के अनुसार इस तन्त्र को लाने का श्रेय ललितवज्र को है । तारनाथ ने ओडियान से यमारितन्त्र के लाने की कथा वर्णित की है और ललितवज्र को उन्होंने आचार्य कुक्कुराज, कम्बल तथा सरोजवज्र आदि के समकालीन माना है । तदनुसार इनका काल भी आठवीं शताब्दी माना जा सकता है। अतः आठवीं शताब्दी से पूर्व कृष्णयमारि का प्रचलन हो चुका होगा। अनेक आचार्यों ने इस पर टीकाएं रचित की। प्रमुख टीका एवं टीकाकारों में श्रीधर की श्रीकृष्णयमारितन्त्रपञ्जिका सहजालोक नाम (तो. १६१८), रत्नाकरशान्ति की श्रीकृष्णयमारिमहातन्त्रराजपञ्जिका रत्नप्रदीपनाम (तो. १६१६), कृष्णपा की श्रीकृष्णयमारितन्त्रराजप्रेषणपथप्रदीप नाम (तो. १६२०), कुमारचन्द्र की कृष्णयमारितन्त्रराज पञ्जिका रत्नावलीनाम (तो. १६२१) तथा पद्मपाणि की कृष्णयमारितन्त्रपञ्जिका (तो. १६२२) आदि हैं। कृष्णपा सम्भवतः कृष्णपाद ही होंगे, क्योंकि कृष्णपाद के ग्रन्थों में कृष्णयमारिहोमविधि तथा कृष्णयमारिबुद्धसाधन भी हैं। रत्नाकरशान्ति कृष्णपा से परवर्ती हैं तथा श्रीधर का समय ११०० ई. से पूर्व का ही माना जाता है। जिस पर कि लिए यह ग्रन्थ अष्टादश पटलों में विभक्त है। मुख्यतः इसमें मण्डल, कर्म, चक्र, आकर्षणादि प्रयोग, मञ्जवज्रसाधन तथा हेरुकसाधन आदि विषय विवत हैं। इसकी यह विशेषता है कि मध्य में कुछ अंश अपभ्रंश भाषा के भी हैं। विभिन्न आचार्यों ने इसके मण्डल होम, अभिषेक, साधन आदि बहुत से ग्रन्थों की रचना की है। बिनजनालापान गणना
सम्पुटतन्त्र
सम्पुटतन्त्र या सम्पुटोद्भवतन्त्र (तो. ३८१) एक विशाल तन्त्र-ग्रन्थ है। इसमें दस परिच्छेद हैं। प्रत्येक परिच्छेद चार-चार प्रकरणों में विभक्त है। यह मातृतन्त्र का व्याख्यातन्त्र है। तारनाथ के अनुसार इसे कृष्णपाद ने लाकर प्रचारित किया। इसलिये कृष्णपाद की अनेक रचनाओं में इसके वचन मिल जाते हैं। कुछ पाण्डुलिपियों में इसके १. यह ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध हुआ है। कुमारचन्द्र की रत्नावलीपञ्जिका के साथ के. उ. ति. शि. सं., सारनाथ से प्रकाशित है। । २. बौ. ध. इति., पृ. १४६ ३. वहीं, पृ. १०१-१०३ ४. साधनमाला, भाग-२, भूमिका, पृ. cxviii ५. बौ. ध. इति., पृ. १४६ है तन्त्रागम-खण्ड
४३२ दस परिच्छेद से भी अधिक अंश हैं। इसकी कुछ पाण्डुलिपियां तथागतगुह्यक के नाम से भी प्राप्त होती हैं। विद्वानों ने गुह्यसमाजतन्त्र के दो भाग स्वीकार कर तथागतगुह्यक को परार्ध भाग माना है। मूलतः यह सम्पुट तन्त्र ही है। गुह्यसमाज से इसका कोई सम्बन्ध नहीं दीखता। लालील के ।
डाकार्णवतन्त्र
डाकार्णवमहायोगिनीतन्त्र (तो. ३७२) भी संवरतन्त्र का व्याख्यातन्त्र है। यह ग्रन्थ ५१ पटलों का एक महत्त्वपूर्ण तन्त्र-ग्रन्थ है। इसमें भी अनेक पटल अपभ्रंश भाषा के हैं। इसके अपभ्रंश अंश का सम्पादन डॉ. एन. एन. चौधरी ने किया है । उन्होंने भाषा की दृष्टि से अध्ययन कर इसका काल १२वीं शताब्दी स्थिर किया है। उन्होंने केवल इसकी भाषा एवं पाण्डुलिपियों की प्राचीन उपलब्धता के आधार पर ही निर्णय किया है। भोट अनुवाद में पद्मवज्र की श्रीडाकार्णवमहायोगिनीतन्त्रराजवाहिकटीका (तो. १४१६) उपलब्ध है। यदि यह प्रसिद्ध सिद्ध पद्मवज्र ही हों, तो इसका काल भी आठवीं शताब्दी से पूर्व ही स्थिर किया जा सकता है। लोग शिकायत नित कि
अभिधानोत्तरतन्त्र
अभिधानोत्तरतन्त्ररे (तो. ३६६) अनुत्तरतन्त्र का मातृतन्त्र है। यह प्रायः चक्रसंवरतन्त्र से साम्य रखता है। यह भी एक विशाल तन्त्र है। इसमें ६६ परिच्छेद हैं। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से कायसंवर, पीठसिद्धि, योगिनी के लक्षण, मुद्रा, मण्डलविधि, मन्त्र, स्वाधिष्ठान, आत्मभावपूजा इत्यादि अनेक विषय हैं। इस ग्रन्थ का भोटानुवाद प्रसिद्ध अनुवादक रिनछेन जङ्पो तथा दीपंकरश्रीज्ञान ने किया। ये दोनों दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में वर्तमान थे। ]
चक्रसंवरतन्त्र
संवरतन्त्रों में चक्रसंवरतन्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मूल चक्रसंवरतन्त्र एक लाख श्लोकों का माना जाता है। इसका संक्षेप रूप ‘श्रीचक्रसंवरलघुतन्त्रराज (तो. ३६८) को ही इदानीं मूल चक्रसंवरतन्त्र माना गया है। यह सात सौ श्लोक प्रमाण का ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ हेरुकाभिधानतन्त्र के नाम से मूल संस्कृत में उपलब्ध हुआ है। भोट विद्वानों में इस संदर्भ में कि यही मूल ग्रन्थ है, मत वैभिन्न्य है । भोट अनुवाद संग्रह-ग्रन्थ तन्युर में साधन तथा मण्डल आदि विषयों से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थ संकलित हैं। टीकाओं में प्रमुख लावापा की साधननिदानश्रीचक्रसंवरनामपञ्जिका (तो.१४०१), भवभद्र की श्रीचक्रसंवरपञ्जिकानाम (तो.१४०३), भव्यकीर्ति की चक्रसंवरपञ्जिका-शूरमनोज्ञनाम (तो. १४०५), जयभद्र की चक्रसंवरमूलतन्त्रपञ्जिका (तो.१४०६), देवगुप्त की श्रीचक्रसंवरसाधनसर्वशालानामटीका (तो.१४०७) इत्यादि हैं। इन टीकाओं में जयभद्र की चक्रसंवरपञ्जिका भवभद्र की १. डाकार्णव, सम्पा. डॉ. एन. एन. चौधरी, कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ सं. x, कलकत्ता १६३५, डॉ. चौधरी के अनुसार इस ग्रन्थ के संस्कृत अंश के कुछ पटलों का सम्पादन डॉ. हरप्रसाद शास्त्री ने किया था, जो वंगीय साहित्य परिषद् से प्रकाशित हुआ। देखें-बौद्ध गान ओ दोहा। २. शतपिटक सीरीज़ भाग-२६३, नई दिल्ली, सन् १९८१ ३. श्रीचक्रसंभारतन्त्र, सम्पा. काजी दावा समडुब। ४. श्रीचक्रसंभारतन्त्रभमिका प. १ काजी दावा समडव। बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४३३ चक्रसंवरविवृति एवं लावापा की साधननिदानपञ्जिका संस्कृत में मातृका के रूप में प्राप्त हैं। इनके अतिरिक्त वज्रपाणि कृत लघुतन्त्रटीका भी प्राप्त है, जो चक्रसंवरतन्त्र की ही व्याख्या है। प्रथम दोनों आचार्य विक्रमशील महाविहार के बारह प्रसिद्ध तान्त्रिक आचार्यों में थे। ये दोनों आचार्य ११वी १२वीं शताब्दी के मध्य वर्तमान थे। भारतीय सिद्धाचार्यों में तिलोपा इसके प्रमुख साधक थे। इस परम्परा में घण्टापा एवं कष्णपा आदि प्रसिद्ध साधक एवं व्याख्याकार हुए। कालान्तर में घण्टापाद का चक्रसंवर का अपना पृथक् आम्नाय भी बना। इन्होंने अनेक साधन, मण्डलविधि, पूजाविधि पर ग्रन्थ लिखकर इसे समृद्ध किया। डॉ. विनयतोष भट्टाचार्य घण्टापाद का समय ६८१ ई. स्थिर करते हैं । तन्युर संग्रह में विभिन्न आचार्यों के इस विषय पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। )
संवरोदयतन्त्र’
संवरोदयतन्त्र (तो. ३७३) अनुत्तरतन्त्र की मातृतन्त्र शाखा से सम्बद्ध है। इसे संवरतन्त्र का व्याख्यातन्त्र माना जाता हैं। लघुसंवरतन्त्र इसका मूल तन्त्र है। अन्य व्याख्यातन्त्रों में श्रीवज्रडाकमहातन्त्रराज (तो. ३७०), योगिनीसंचर्या (तो. ३७५) आदि हैं। ३३ परिच्छेदों वाले इस ग्रन्थ में अभिषेक, मण्डललेखन, होम, यन्त्र, आचार्य एवं शिष्य के गुण आदि विषयों का विवेचन है। इसकी दो टीकाओं की सूचना मिलती है आचार्य रत्नरक्षित की संवरोदयतन्त्रपञ्जिका और संवरोदयतन्त्रटिप्पणी। संवरोदयतन्त्र के सम्पूर्ण साहित्य का विश्लेषण शीनीची त्सुदा ने अपने संस्करण की भूमिका में किया है। प्रो. त्सुदा इसका काल आठवीं शताब्दी से पूर्व का नहीं मानते, क्योंकि छठे परिच्छेद में कुछ ऐसे श्लोक हैं, जो नागार्जुन के पञ्चक्रम के वज्रजापक्रम में उपलब्ध हैं। प्रो. नाकामुरा भी इस तन्त्र का काल आठवीं शताब्दी ही स्वीकार करते हैं ।
कालचक्रतन्त्र
अनुत्तरतन्त्र के उपविभागों में मातृतन्त्र, पितृतन्त्र एवं अद्वयतन्त्र है। कालचक्रतन्त्र अद्वयतन्त्र का मुख्य तन्त्र है। कालान्तर में विद्वानों ने इसके आधार पर कालचक्रयान नाम से पृथक् यान का नाम भी प्रदान करने का प्रयास किया। अद्वयतन्त्र के सम्बन्ध में भोट विद्वानों में पर्याप्त मतभेद प्रतीत होता है। कई विद्वानों ने अनुत्तरतन्त्र के अद्वयतन्त्र नामक विभाजन को स्वीकार नहीं किया। परन्तु चोंखापा एवं खस्-डुब-जे प्रभृति विद्वानों ने इस विभाजन के कारण को दर्शाते हुए अद्वयतन्त्र होने की पुष्टि की है। जिस तन्त्र में निष्पन्नक्रम की साधना में मायाकाय की प्रमखता होती है, वह पिततन्त्र तथा १. दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थों की आधार सामग्री, प्रथम भाग, पृ. ८ मामाज २. राष्ट्रीय अभिलेखालय काठमाण्डू, पाण्डुलिपि सं. ५.१०६ बि क बाद ३. बौ. ध. इति., पृ. १३६ ४. ए.इं.बु. एसो., पृ. ६५ ) की सीमारी Saper EFTS ५. द संवरोदयतन्त्र (सेलेक्टेड चेप्टर्स) सम्पा. शीनीची त्सुदा। ६. द संवरोदयतन्त्र, भूमिका, पृ. २७-४५ ७. इंडियन बुद्धिज्म, पृ. ३३३ । ८. कालचक्रतन्त्रराज, सम्पा. विश्वनाथ बैनर्जी, एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, सन् १९८५ तन्त्रागम-खण्ड ज जिस तन्त्र में प्रभास्वरता की साधना प्रमुख है, वह मातृतन्त्र कहलाता है। कालचक्रतन्त्र में इन दोनों की प्रमुखता होने से इसे अद्वयतन्त्र कहा जाता है। इन विभाजनों की अन्य भी अनेक दृष्टियाँ हैं, यथा प्रवचन की दृष्टि से, विषय की दृष्टि से, साधक की दृष्टि से, विषयों की उत्पत्ति एवं निष्पन्नक्रम की दृष्टि से। अनुत्तर तन्त्र का उक्त तीन प्रकार से विभाजन इष्ट है। विमलप्रभाकार के अनुसार कालचक्रतन्त्र की देशना तथागत ने चैत्र पूर्णिमा के दिन धान्यकटक’ में दी। इसकी देशना शम्भल के राजा सुचन्द्र की अध्येषणा पर दी गई। मान्यतानुसार प्रारम्भ में यह साठ हजार श्लोकों का बृहद् ग्रन्थ था। राजा सुचन्द्र ने इसे शम्भल देश में राजधर्म के रूप में प्रचारित किया तथा उसके बाद अनेक राजाओं ने इसकी परम्परा का संवर्धन किया। इसी के आधार पर प्रथम कल्की राजा मञ्जुश्रीयश ने इसका पांच पटलों के लघुतन्त्र के रूप में संक्षेप किया । इदानीं यही कालचक्रतन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है। भोट परम्परा में कालचक्रतन्त्र के जम्बुद्वीप में प्रवर्तन के सम्बन्ध में कुछ मतवैभिन्न्य प्रतीत होता है। तारनाथ के अनुसार इसका प्रचार आचार्य पिटोपा ने किया। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि भारतीय आचार्य चिलु पण्डित ने, जो दसवीं शताब्दी में उड़ीसा से शम्भल पहुंचा था और जिसने वहां कालचक्रतन्त्र का अभिषेक प्राप्त किया था, पुनः भारत लौटकर इस तन्त्र का प्रचार किया। भोट विद्वान् जोन नु पल ने अपने ग्रन्थ देव थेर ङोन पो में कालचक्रतन्त्र के उद्भव एवं विकास की विस्तृत चर्चा की है । उसके अनुसार इसका प्रचार भारतवर्ष में काफी समय पूर्व हो चुका था। उन्होंने कालचक्रतन्त्र परम्परा का जो गुरु-शिष्य आम्नाय दिया है, वह इस प्रकार है- घण्टापाद-कूर्मपाद विजयपाद-कृष्णपाद-भद्रपाद-विजयपाद-तिलोपाद-नरोपाद। आधुनिक विद्वान् इसका काल ११वीं-१२वीं शताब्दी का निश्चित करते हैं, क्योंकि इसमें मुस्लिम आक्रमण का एवं परवर्ती अनेक शैव एवं वैष्णव तन्त्रों की समानता का उल्लेख है। राहुल सांस्कृत्यायन को उद्धृत १. ई. बु. ता. सि., पृ. २५०-२६६ २. ‘इह आर्यविषये शाक्यमुनिर्भगवान् वैशाखपूर्णिमायामरुणोदयेऽभिसंबुद्धः शुक्लप्रतिपदादि पञ्चदशकलावसाने कृष्णप्रतिपत्प्रवेशे। ततो धर्मचक्र प्रवर्तयित्वा यानत्रयदेशनां कृत्वा - द्वादशमे मासे चैत्रपूर्णिमायां श्रीधान्यकटके धर्मधातुवागीश्वरमण्डलं षोडशकलाविभागलक्षणं तदुपरि श्रीमन्नक्षत्रमण्डलं षड्विभागिकमादिबुद्धं विस्फारितमिति। (वि. प्र., भाग-२, पृ. ८) का ३. वि. प्र. भाग-१, पृ. ३ मिनिलाक 5 सीमारी ४. बौ. ध. इति., पृ. १४६ ५. द ब्ल्यू एनाल्स, पृ. ७५३-८३८ ६, इंडियन बुद्धिज्म, पृ.३३६ मिमी व मि पाया कि माताबौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४३५ करते हुए “कालचक्र की उत्पत्ति एवं उत्पन्न क्रम की संक्षिप्त व्याख्या” में दीपंकरश्रीज्ञान (१०५१ ई.) की कालचक्र पर टीका का भी उल्लेख है। कालचक्रतन्त्र पांच पटलों में है, यथा—लोकधातु, अध्यात्म, अभिषेक, साधन तथा ज्ञानपटल। परमार्थसेवा एवं सेकोद्देश कालचक्र, अर्थात् अद्वयतन्त्र से सम्बद्ध हैं। मण्डलविधि एवं साधन इत्यादि का विशाल वाङ्मय तन्न्युर में प्राप्त है। इसकी टीकाओं में उपर्युक्त दीपंकरश्रीज्ञान की टीका के अतिरिक्त पुण्डरीक विरचित प्रसिद्ध विमलप्रभारे आज भी उपलब्ध है। कालचक्रतन्त्र पर यह विस्तृत टीका है। इसका समय १२वीं शताब्दी माना गया है। कालचक्रतन्त्र का विषय अत्यन्त व्यापक है। इसमें तन्त्रसम्बन्धी विषयों के अतिरिक्त भूगोल, आयुर्वेद, ज्योतिष, रसायन आदि विविध विषय भी हैं। एक प्रकार से यह तन्त्र का विश्वकोष प्रतीत होता है। का कि बौद्ध तन्त्र-साहित्य का अत्यन्त विशाल भण्डार है। दुर्भाग्य से यह साहित्य मूल संस्कृत में बहुत कम प्राप्त है। इनमें से कुछ ही हमें मूल संस्कृत में प्राप्त होते हैं। इस सम्पूर्ण साहित्य की सूचना हमें इसके भोट एवं चीनी अनुवादों से मिलती है। भोट भाषा में अनूदित साहित्य के दो विशाल संग्रह कन्युर एवं तन्युर हैं। दोनों ही खण्डों में तन्त्र-साहित्य का पृथक् विभाग है। कन्युर में मूल आगम ग्रन्थ तथा तन्ग्युर में भारतीय आचार्यों की टीका-टिप्पणियां हैं। इस विशाल साहित्य का इसी से अनुमान किया जा सकता है कि कन्ग्युर खण्ड में ४६८ मूल आगमतन्त्र-ग्रन्थ तथा २६२ के लगभग धारणी-ग्रन्थ हैं। वहीं तन्युर खण्ड में तन्त्र वर्ग में २६०५ से अधिक ग्रन्थ हैं, जिनमें बौद्ध तान्त्रिक आचार्यों एवं सिद्धों की टीकाएं, व्याख्याएं वृत्तियाँ, साधन, मण्डलविधियां इत्यादि संगृहीत हैं। यहां हमने इनमें से मात्र कुछ ही तन्त्रों की चर्चा की है, जो इस सम्पूर्ण साहित्य के ऐतिहासिक रूप से अध्ययन के लिए दिशानिर्देश करेगी। इन सभी ग्रन्थों की नामावली का परिचय तोहोकू विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित कन्युर-तन्युर की सूची से मिल जाता है। Pाजबाजा
बौद्ध तन्त्रों की विशेषताएं
वज्रयान के ऐतिहासिक विकास के सन्दर्भ में इसका तात्त्विक विकास की दृष्टि से भी अध्ययन करना समीचीन जान पड़ता है। मन्त्रयान, तन्त्रयान तथा वज्रयान सभी पर्यायवाची शब्द हैं। मन्त्रयान को महायान का ही एक भेद माना जाता है, परन्तु मन्त्रनय का किस प्रकार अभ्युदय हुआ और तन्त्रयान और वज्रयान के रूप में इसकी स्थापना किस प्रकार हुई, यह नितान्त विचारणीय विषय है। १. कालचक्र की उत्पत्ति एवं उत्पन्नक्रमों की संक्षिप्त व्याख्या, पृ. २३ का नाही २. विमलप्रभा भाग-१, २, ३, के. उ. ति. शि. संस्थान, सारनाथ। ३. दुर्लभ ग्रन्थों की आधार सामग्री, भाग-१, तथा इस शीर्षक के अन्तर्गत ‘धी’: के प्रत्येक अंकों में प्राप्त पाण्डुलिपियों की सूचना दी जा रही है। ४३६ झानतन्त्रागम-खण्ड का F- बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् कुछ सौ वर्षों के भीतर ही बौद्ध संघ में निकाय-भेद हो चुका था। इस सन्दर्भ में महासांघिक तथा लोकोत्तरवादियों का प्रादुर्भाव उल्लेखनीय है। प्रथम शताब्दी के आसपास ही प्रज्ञापारमिताशास्त्र अस्तित्व में आ चुका था। पारमिता-सूत्रों की पृष्ठभूमि में ही तन्त्रदर्शन भी स्थापित हुआ। पारमितानय द्वारा अनन्त कल्पों में पुण्य एवं ज्ञान संभार के संचय के बल पर प्राप्य बुद्धत्व पद को मन्त्रनयानुयायी अपने साधना-मार्ग का अवलम्बन कर इसी देह द्वारा इसी जन्म में प्राप्त करते हैं। फलतः बौद्ध तन्त्र-शास्त्रों में “जन्मनीहैव मुक्तिः " के शतशः प्रसंग उपलब्ध होते हैं। मन्त्रनय में पारमितानय से भिन्न अपनी विशिष्ट साधनाविधि है। अदुष्करचर्या, उपायबहुलता आदि इसकी विशेषताएं हैं, जो इसे पारमितानय से पृथक् करती हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि प्राप्तव्य पद में मन्त्रनय एवं पारमितानय में कोई भेद नहीं है। यह भेद केवल इसके साधनविधि के आधार पर लक्षित है। यहां संक्षेप में मन्त्रनय के कुछ विशिष्ट तत्त्वों की विवेचना की जा रही है। इसी सन्दर्भ में इसके कुछ आनुष्ठानिक तत्त्वों, अभिषेक, मण्डल एवं पीठों की भी चर्चा की जायेगी, क्योंकि यह तत्त्व बौद्धेतर शैव-शाक्त तन्त्रों में भी समान रूप से पाया जाता है। इसलिये तन्त्रशास्त्र के इतिहास एवं उनके परस्पर प्रभाव के अध्ययन के लिए ये तत्त्व महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। माक्रीसाधी सात
वज्र एवं वज्रसत्त्व
पारमितानय में जो शून्य निःस्वभावात्मक है, वही मन्त्रनय में वज्र के रूप में प्रतिपादित है और उसको अदाही, अविनाशी, अच्छेद्य, अभेद्य बताया गया है “दृढं सारमसौशीर्यमच्छेद्याभेद्यलक्षणम्। र अ धिक।
- अदाहि अविनाशी च शून्यता वज्रमुच्यते॥ कि जिला शाज इस प्रसंग में वज्र की व्याख्या करते हुए विमलप्रभा में कहा गया है कि जो अच्छेद्य-अभेद्य है, वह वज्र है और वही वज्रयान भी। इसमें मन्त्रनय और पारमितानय फल और हेतु की भांति एकलोलीभूत हैं। इसके अतिरिक्त भी मन्त्रनय में वज्र अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, यथा बोधिचित्त के लिये “बोधिचित्तं भवेद्वज्रम्”। एवंकार के वंकार के अर्थ में भी वज्र का अर्थ अभिप्रेत है “वंकारं वज्रमित्याहः । वज्रसत्त्व अथवा वज्रधर पद से निःस्वभावरूप देवबिम्ब प्रतिपादित है, अर्थात् वज्रसत्त्व में जो ‘वज्र’ है, इससे शून्यता तथा ‘सत्त्व’ से ज्ञानमात्रता अभिप्रेत है। इन दोनों का युगनद्ध रूप ही वज्रसत्त्व है। इन दोनों की अभिन्नता प्रदीप एवं उसके आलोक के समान है । महायान के समान तन्त्रयान का भी १. वज्रमच्छेद्यमभेद्यं महदिति। तदेव यानं मन्त्रनयं पारमितानयं फलहेत्वात्मकं एकलोलीभूतम्। (वि.प्र., भाग-१, पृ. १६३)। २. ज्ञानसिद्धि, १५.२४ । ३. गुह्यादि-अष्टसिद्धिसग्रह, पृ.२१८ पाप कि किसी ४. वज्रेण शून्यता प्रोक्ता सत्त्वेन ज्ञानमात्रता। तादात्म्यमनयोः सिद्धं वज्रसत्त्वस्वभावतः।। (अ. व. सं., पृ. २४) शून्यता ‘वजमित्युक्तमाकारः सत्त्वमुच्यते। तादात्म्यमनयोः सिद्धं वज्रसत्त्वस्वभावतः।। (ए. इं. त. बु., पृ. ७८) का बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४३७ बोधिचित्त मूल आधार है। तन्त्रशास्त्र आगे चलकर शून्यता एवं करुणा, प्रज्ञोपाय, अद्वयता, युगनद्ध आदि सिद्धान्तों में बोधिचित्त का ही विस्तार हुआ है। बोधिचित्त एवं बोधिसत्त्व ही वज्र एवं वज्रसत्व के रू का जैसा कि बताया जा चुका है कि पारमितानय और मन्त्रनय महायान के ही दो विभाग हैं। इन दोनों के उद्देश्य में कोई भेद नहीं है, यह भेद केवल साधनविधि के आधार पर है। पारमितानय में सत्त्व अनन्त कल्पों के पुण्य एवं ज्ञानसंभार के बल पर बुद्धत्व पद को प्राप्त करता है, जबकि तन्त्रयान में एक ही जन्म में इस पद की प्राप्ति प्रतिपादित है। इस पद की प्राप्ति में मुख्य आधार बोधिचित्त है। इस चित्त से युक्त सत्त्व बोधिसत्त्व कहलाता है। बोधिचित्त की उत्पत्ति के लिए सत्त्व करुणा की भावना करता है। वह स्व के लिये निर्वाण की कामना न कर यावत् चराचर जगत् के सत्त्वों के दुःख निवारण के लिये अपने को उत्सर्ग कर लेता है। यह प्रतिज्ञा करता है कि जब तक अशेष प्राणी सम्यक् सम्बुद्ध पद को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक स्वयं निर्वाण प्राप्त नहीं करेगा। पारमितानय के समान ही तन्त्रयान में भी इसका महत्त्व है। तन्त्रयान में अभिषेक ग्रहण करने से पूर्व शिष्य में बोधिचित्तोत्पाद करना आवश्यक होता है। इसलिये धीमान् साधक को बोधिचित्तोत्पाद के लिये सभी प्रकार के विकल्पों, सन्देहों और शंकाओं से मुक्त होकर तत्त्वचर्या का अभ्यास मरना पड़ता है। इस यान में बोधिचित्त की परिभाषा इन्हीं सन्दर्भो के अनुरूप प्रतिपादित की गई है। गुह्यसमाजतन्त्र का प्रसिद्ध वचन है बाबाज अनादिनिधनं शान्तं भावाभावक्षयं विभुम् । शून्यताकरुणाभिन्नं बोधिचित्तमिति स्मृतम्।। शून्यता एवं करुणा की अभिन्नता ही बोधिचित्त है। इस प्रकार की प्रतिपत्ति महायान-ग्रन्थों में भी उपलब्ध है तथा इस चित्त का स्वभाव अनादिनिधन, शान्त, भाव और अभाव से अतीत और व्यापक है। FF
पांच तथागत और उनके ज्ञान
यात्रामा महायान-शास्त्र के साथ-साथ तन्त्रशास्त्र में भी पांच तथागत बुद्ध एवं उनके मुद्रा, वर्ण इत्यादि का सविस्तर वर्णन है। ऐतिहासिक रूप से यह प्रतिपादित करना कठिन है कि इन पांच बुद्धों का वर्णन कब से प्रारम्भ हुआ। असंग ने महायानसूत्रालंकार (पृ. ४८-४६) में आदर्श आदि ज्ञानों का उल्लेख किया है। तन्त्र-ग्रन्थों में सर्वप्रथम गुह्यसमाजतन्त्र में इनका वर्णन पाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसका रचनाकाल असंग के समकालीन है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि करीब तीसरी शताब्दी में यह तत्त्व प्रचलित हो चुका था, जिसका पल्लवन परवर्ती बौद्ध तन्त्र-साहित्य में हुआ। आर्यमञ्जुश्रीनामसंगीति नामक ग्रन्थ में पांच तथागत एवं उनके ज्ञान के आधार पर समस्त तन्त्रों को विभाजित कर उनका 4 ४३८ तन्त्रागम-खण्ड जा संगायन बताया गया है। ये पञ्चतथागत हैं— वैरोचन, अक्षोभ्य, अमिताभ, रत्नसम्भव और अमोघसिद्धि तथा उनके ज्ञान हैं- आदर्शज्ञान, समताज्ञान, प्रत्यवेक्षणाज्ञान, कृत्यानुष्ठानज्ञान और सुविशुद्धधर्मधातुज्ञान। मा बौद्ध दार्शनिकों ने समस्त जगत् को पांच स्कन्ध, द्वादश आयतन और अष्टादश धातु के अन्तर्गत माना है। इसी प्रकार बौद्ध तन्त्रों में भी यावत् चराचर जगत् को पांच तथागतों तथा उनके ज्ञान के आधार पर संगृहीत किया है। ये पांच तथागत ही पञ्चस्कन्धों के प्रतीक हैं— “पञ्चस्कन्धाः समासेन पञ्चबुद्धाः प्रकीर्तिताः” (गु. त., पृ. १३७), क्योंकि पञ्चबुद्ध-स्वभाव होने के कारण ही पञ्चस्कन्ध पञ्चजिनस्वरूप हैं- “पञ्चबुद्धस्वभावत्वात् पञ्चस्कन्धा जिनाः स्मृताः” (ज्ञा. सि. २.१)। इसीलिये तन्त्रशास्त्र में समस्त जगत् को पञ्चबुद्धात्मक कहा गया । “पञ्चबुद्धात्मकु सर्वजगोऽयम्”। पांच तथागतों से संबद्ध पांच ज्ञानों का निरूपण बौद्ध तन्त्रशास्त्र की अपनी विशेषता है। अतः इनका लक्षण जान लेना आवश्यक है। आदर्शज्ञान-आकाश के समान निराधार, व्यापक और लक्षणरहित धर्मकाय को आदर्शज्ञान कहा गया है। जिस प्रकार मनुष्य अपना प्रतिबिम्ब दर्पण में देख सकता है, उसी प्रकार योगी आदर्शज्ञान के उत्पन्न होने पर उसमें धर्मकाय के स्वरूप का साक्षात्कार करता है। आचार्य पद्मवज्र आदर्शज्ञान को बुद्धों के लिये भी अविज्ञेय मानते हैं, यह अपर्यन्त गुणों को उत्पन्न करने वाला है बुद्धानामप्यविज्ञेयमपर्यन्तगुणोद्भवम्।। मारवज्ञानं ज्ञानं तदुच्यते ह्यत्र श्रीमदादर्शसंज्ञितम्।। (गु. सि. ४.१७) आदर्शज्ञान सभी ज्ञानों का निमित्त होने के कारण महाज्ञानाकार के सदृश है। अपरिच्छिन्नता, सदानुगम तथा सभी प्रकार के ज्ञेयों में असंमूढता इसका स्वरूप है। समताज्ञान-आदर्शज्ञान के उत्पन्न होने के बाद योगी में समताज्ञान का उदय होता है। इसमें समस्त जगत् को स्वप्नवत्, कल्पनाप्रसूत और प्रतिबिम्बवत् स्वीकार किया जाता है। इससे सभी धर्मों के प्रति अहंकार-ममकार से रहित शून्यता-भावना, अर्थात् सर्वधर्मनैरात्म्य की भावना उत्पन्न होती है। इस समय योगी सभी प्राणियों तथा तथागतों के चित्त में कोई अन्तर नहीं देखता, सभी में एकाकार, एकस्वभाव संबोधि का दर्शन करता है। टीम का काम ३. प्रत्यवेक्षणाज्ञान-प्रत्यवेक्षणाज्ञान का स्वरूप आदिशुद्ध, अनुत्पन्न तथा अनाविल है। सभी संज्ञात्मक वर्ण अकार-कुलोद्भव हैं और अकार सभी वर्गों में अग्र है। इससे उत्पन्न सभी देव-मण्डल प्रभास्वरस्वभाव हैं। इन सभी में एकाकार प्रभास्वरता का दर्शन करना ही प्रत्यवेक्षणा कहलाती है। बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४. कृत्यानुष्ठानज्ञान-सभी लोकों में सदा बुद्धकृत्यों और नानाविध चर्याओं द्वारा लोकहित सम्पादन करने वाला ज्ञान कृत्यानुष्ठानज्ञान कहलाता है। इसकी विशेषता बताते हुए आचार्य पद्मवज्र कहते हैं कि यह ज्ञान परम निर्मल है, जिसमें अक्षोभ्य, वैरोचन आदि तथागत तथा लोचना आदि उनकी मुद्राएं भी स्थित होती हैं और उनकी भावना की जाती है। सुविशुद्धधर्मधातुज्ञान-सत्त्व दो प्रकार के आवरणों से आवृत रहता है। उनके नाम हैं- क्लेशावरण और ज्ञेयावरण। जब वह इन दोनों आवरणों से सदा के लिये मुक्त हो जाता है, तो इस प्रकार के इन आवरणों से मुक्त सत्त्व को वज्रसत्त्व कहा जाता है और उनके ज्ञान को सुविशुद्धधर्मधातुज्ञान। वह इन दो आवरणों से आवृत सभी प्राणियों की मुक्ति के लिये भावना करता है। इस ज्ञान का स्वभाव भी शुद्ध, अनाविल, विज्ञानधर्मतातीत तथा प्रकृतिप्रभास्वर है। यह आकाश की भाँति सभी लक्षणों से रहित आदि मध्यान्त शुद्ध एवं निर्मल है।
आनन्द, क्षण एवं मुद्रा
आनन्द, क्षण एवं मुद्राओं का उल्लेख एवं उनकी साधनविधि का निरूपण बौद्ध तन्त्रों में साथ-साथ किया गया है, क्योंकि ये परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। चार प्रकार के आनन्द, चार क्षण एवं चार प्रकार की मुद्राएं हैं। आनन्द, परमानन्द, विरमानन्द तथा सहजानन्द ये चार आनन्द हैं। विचित्र, विपाक, विमर्द तथा विलक्षण ये चार क्षण हैं। कर्ममुद्रा, धर्ममुद्रा, महामुद्रा और समयमुद्रा ये चार मुद्राएं हैं। इनमें से प्रत्येक की उत्तरोत्तर श्रेष्ठता मानी गयी है। यथा हैं आनन्देन सुखं किञ्चित् परमानन्दं ततोऽधिकम्। विरमेण विरागः स्यात् सहजानन्दं तु शेषतः।। या कलाकार पा (हे. त. १.८.३२) प्रत्येक आनन्द काय-वाक्-चित्त तथा ज्ञान के भेद से सोलह प्रकार का हो जाता है। आनन्द आदिचित्त, अर्थात् बोधिचित्त या बिन्दु की स्थिति पर निर्भर करता है। जब बोधिचित्त निर्माणकाय में हो, तब वह आनन्द, धर्मकाय में परमानन्द, संभोगकाय में विरमानन्द तथा महासुखकाय में सहजानन्द को उत्पन्न करता है। मुद्रा का स्पर्श आनन्द है, सुख की इच्छा परमानन्द तथा विराग विरमानन्द है। इन तीनों से अतीत अवस्था सहजानन्द है। परमानन्द को भव भी कहा गया है, भव इस अर्थ में कि यह जन्म-मरण के आवागमन ४४० घाट तन्त्रागम-खण्ड आं का मूल है। विरमानन्द विरागस्वरूप होने के कारण निर्वाण है और सहजानन्द न भव है और न ही निर्वाण, यह भव और निर्वाण से अतीत है’ । या क्षणों के भेद के आधार पर भी ये आनन्द आदि उत्पन्न होते हैं। एवंकार की स्थिति में क्षणों के ज्ञान से ही सुख का बोध होता है । विचित्र में अनन्द, विपाक में परमानन्द, विमर्द में विरमानन्द और विलक्षण में सहजानन्द उत्पन्न होता है । विचित्र क्षण आलिंगन, स्पर्श आदि विविध प्रकार के हैं। उस सुखज्ञान का भोग विपाक है। मैंने सुख का भोग किया, इस प्रकार का आलोचनात्मक ज्ञान विमर्द क्षण है और विलक्षण इन तीनों से भिन्न राग और अराग से विवर्जित क्षण है । इसी को कृष्णपाद योगपरक दृष्टि से इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं’ स्पर्श का प्रारम्भिक क्षण विचित्र है, कमलकुलिशयोग विपाक क्षण है, इसके पश्चात् मन्थान से उत्पन्न रागानल से दलित जगदूराशि विमर्द क्षण है। इस प्रकार का योग, जिसमें कमल में रागवह्नि और पवन सहचर हैं, यही संबोधि का मार्ग है, यही विलक्षण क्षण कहलाता है, जो केवल योगियों के लिये गम्य है। __इस योगावस्था को प्राप्त करने के लिये मुद्रा आवश्यक है। चार प्रकार की मुद्राएं प्रतिपादित हैं – कर्ममुद्रा, धर्ममुद्रा, महामुद्रा और समयमुद्रा। इन चार मुद्राओं से क्षण का ज्ञान और क्षण के ज्ञान से सुख, अर्थात् आनन्द आदि का प्रादुर्भाव होता है। मुद्रा का अर्थ ही है जो सुख प्रदान करती है- “मुदं सुखविशेषं राति ददातीति मुद्रा” (से.टी.,पृ. ५६)। तन्त्रशास्त्र में साधना के लिये अभिषेक के समय मुद्रा-समर्पण भी किया जाता है। कर्ममुद्रा स्तनकेश से युक्त कामधातु के सुख का हेतु है। इसमें कर्म आलिंगन, चुम्बनादि व्यापार हैं, इससे उपलक्षित जो सुख है, उसे प्रदान करने वाली कर्ममुद्रा है। कर्ममुद्रा के साथ एवंकारयोग में प्रतिष्ठित होकर क्षण तथा क्षणों के ज्ञान से आनन्द उत्पन्न होते हैं । यहां चंचल बिन्दु ही संवृति बोधिचित्त है। बिन्दु के स्थिर हो जाने पर उसकी ऊर्ध्व गति हो 3. हेवजतन्त्र, २.३.६ १. प्रथमं स्पर्शाकाङ्क्षया द्वितीयं सुखवाञ्छया। तृतीयं रागनाशत्वाच्चतुर्थ तेन भाव्यते।। परमानन्दं भवं प्रोक्तं निर्वाणं च विरागतः। काम कर रहमान मध्यमानन्दमात्रं तु सहजमेभिर्विवर्जितम्।। (हे.त.१.८.३३-३४) २. आनन्दास्तत्र जायन्ते क्षणभेदेन भेदिताः। । क्षणज्ञानात् सुखज्ञानमेवंकारे प्रतिष्ठितम् ।। (हे.त. २.३.५) जलयाना डावाला नालीशा तलाव ४. हेवव्रतन्त्र, २.३.७-८ ५. स्पर्शस्यादौ विचित्रः कमलकुलिशयोर्योगतोऽसौ विपाकः का शमन होक पश्चान्मन्थोत्थरागानलदलितजगत्सङ्गराशिर्विमर्दः । तस्मिन्निध्यायमाने पवनसहचरे रागवह्नौ सरोजे सोऽयं संबोधिमार्गः सकलजिनतनुर्योगिगम्यो विलक्ष्णः ।। (क्रियासंग्रह, पृ. ३५७ पर उद्धृत) ६. से.टी., पृ.५६ ७. अद्वयवज्रसंग्रह, पृ.३२ कोटदी कि ४४१ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास सकती है और अन्त में उष्णीषकमल में पहुँचने पर आनन्द का आविर्भाव होता है। इसे निष्यन्द फल भी कहा जाता है। धर्ममुद्रा धर्मधातु-स्वरूप है। यह निर्विकल्प, निष्प्रपंच, अकृत्रिम, उत्पादरहित करुणास्वभाव है। यह परमानन्द का उपायभूत है। सहजस्वभाव प्रज्ञा से उत्पन्न होने के कारण सहज है। धर्ममुद्रा के अन्य अनेक लक्षण प्रतिपादित हैं, यथा यह अज्ञान के अन्धकार को हटाने वाली किरण सदृश है, यह गुरुपदेश के समान है, जो शिष्य को समस्त प्रकार की भ्रान्तियों से निवृत्त कराता है, यह ललना और रसना के मध्य स्थित अवधूती के समान है। महामुद्रा निःस्वभाव है, क्लेश-ज्ञेयादि आवरणों से निर्मुक्त है और शरत्कालीन मध्याहून गगन के सदृश स्वच्छ और निर्मल है। यह भव और निर्वाण स्वरूप अनालम्बन करुणा तथा महासुख स्वरूप है। इसका फल समयमुद्रा है। समयमुद्रा में वज्रधर स्वयं सत्त्वार्थ के लिये हेरुक रूप में निर्माणकाय में विस्फुरित होते हैं। इसी समय मुद्रा को गृहीत कर आचार्य पांच प्रकार के ज्ञान आदर्श, समता, प्रत्यवेक्षणा, कृत्यानुष्ठान और सुविशुद्धधर्मधातु का प्रकाश करते हैं तथा आदियोग, मण्डलराजाग्री, कर्मराजाग्री, बिन्दुयोग और सूक्ष्मयोग की भावना करते हैं। जिनकी
अभिसम्बोधि एवं कायसिद्धान्त
लो सम्बोधि, अर्थात् जानना ही अभिसम्बोधि है। यह चार प्रकार की है— एकक्षणाभिसम्बोधि, पंचाकाराभिसम्बोधि, विंशत्याकाराभिसम्बोधि और मायाजालाभिसम्बोधि। ये चार अभिसम्बोधियां चार प्रकार के कार्यों से संश्लिष्ट हैं। यथा एकक्षणाभिसम्बोधि स्वभावकाय से, पंचाकाराभिसम्बोधि धर्मकाय से, विंशत्याकाराभिसम्बोधि सम्भोगकाय से और मायाजालाभिसम्बोधि निर्माणकाय से। इन चार अभिसम्बोधियों की प्राप्ति के लिये चार प्रकार का वज्रयोग प्रतिपादित है। यथा ज्ञानवज्रयोग द्वारा एकक्षणाभिसम्बोधि, चित्तवज्रयोग द्वारा पंचाकाराभिसम्बोधि. वाग्वजयोग द्वारा विंशत्याकाराभिसम्बोधि तथा कायवज्रयोग द्वारा मायाजालाभिसम्बोधि का लाभ होता है। मा उत्पत्ति क्रम की अवस्था में सबसे पहले एकक्षणाभिसम्बोधि का लाभ होता है। जन्मोन्मुख प्रतिसन्धि के लिये आलयविज्ञान जिस समय मातृगर्भगृह में माता-पिता के समरसीभूत बिन्दुद्वय के साथ एकत्व-लाभ करता है, इस एकत्व-लाभ का प्रथम क्षण एक महाक्षण है। इस क्षण में जो सुख की संवित्ति, अर्थात् बोध होता है, उस क्षण को एकक्षणाभिसम्बोधि कहा गया है। इस अवस्था में काय रोहित-मत्स्य के सदृश एकाकार रहता है। मातृगर्भ में जब रूपादि वासनात्मक पांच संवित्तियां होती हैं, तब यह क्षण पंचाकाराभिसम्बोधिक्षण कहलाता है। इस क्षण में गर्भस्थ काय कूर्मसदृश पंचस्फोटाकार होता है। जब यह पंचाकारज्ञान पृथिवी आदि चार धातुओं और वासनाओं के भेद से बीस प्रकार का हो जाता है, तब वह क्षण विंशत्याकाराभिसम्बोधि कहलाता है। इस अवस्था में १. अद्वयवजसंग्रह, पृ. ३३-३५ २. पांच इन्द्रिय, पांच इन्द्रियविषय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय-क्रिया। मिस वाट ४४२ भागमा तन्त्रागम-खण्ड साह गर्भस्थ काय भी बीस अंगुलियों से परिपूर्ण हो जाता है। काय का इस अवस्था तक विकास मातृगर्भ में ही होता है। इसके पश्चात् मायाजालाभिसम्बोधि का क्षण आता है, इस क्षण के लाभ के लिये गर्भस्थ काय को गर्भ से निष्क्रमण करना पड़ता है। गर्भ से निष्क्रमण के बाद मायाजाल के सदृश अनन्त भावों की संवित्ति का क्षण ही मायाजालाभिसम्बोधि कहलाता इस उत्पत्तिक्रम की अवस्था में उपर्युक्त चार वज्रयोगों द्वारा इन क्षणों की अभिसम्बोधि का तथा काय का निरूपण होता है। विशुद्ध ज्ञानविज्ञानात्मक अच्युत बिन्दु ही एकक्षणाभिसम्बोधि की अवस्था में सर्वार्थदर्शी वज्रसत्त्व के रूप में निष्पन्न होता है। इस अवस्था में, जो सहज स्वाभाविक काय की स्थिति है, इसमें २१६०० श्वास-प्रश्वास चक्र का क्षय हो जाता है। यह अवस्था ज्ञानवज्रयोग है। यही वज्रसत्त्व पंचाकाराभिसम्बोधि में परमाक्षर सुखक्षण में महासत्त्व के रूप में निष्पन्न होता है। यह चित्तवज्रयोग है। परमाक्षर सुखात्मक क्षण की अवस्था धर्मकाय की है। महासत्त्व वाग्वजयोग द्वारा विंशत्याकाराभिसम्बोधि के क्षण में बोधिसत्त्व के रूप में निष्पन्न होता है। यह अवस्था सम्भोगकाय की है। बोधिसत्त्व ही कायवज्रयोग द्वारा मायाजालाणिसम्बोधि क्षण में समयसत्त्व के रूप में निष्पन्न होता है। यह निर्माणकाय की अवस्था है। इसमें अनन्त मायाजालों से काय का स्फुरण होता है। इस स्फुरित काय में षोडश आनन्द आदि सुखों का निरोध हो जाता है । इस प्रकार अच्युत बिन्दु से निष्पन्न ज्ञानवज्र, चित्तवज्र, वाग्वज्र तथा कायवज्र निराभास, निरंजन, अजात, अकृत और भावाभाव से विवर्जित होता है मगर यत्कायं सर्वबुद्धानां निराभासं निरञ्जनम्। अजातमकृतं शुद्धमभावादिविवर्जितम्।। णाला 15
वज्रयोग
संवृति और परमार्थ का संयोग वज्रयोग है। इसे अद्वय, युगनद्व एवं अक्षर भी कहा गया है। यह योग अस्ति और नास्ति से अतिक्रान्त, शून्यता एवं करुणा से अभिन्न महासुख है । वज्रयोग चार प्रकार का है- विशुद्धयोग, धर्मयोग, मन्त्रयोग और संस्थानयोग। इनकी प्राप्ति के लिये चार विमोक्ष आवश्यक हैं। ये हैं- शून्यता, अनिमित्त, अप्रणिहित और अनभिसंस्कार। विशुद्धयोग के लिये शून्यता-विमोक्ष प्राप्त करना पड़ता है। शून्यता का अर्थ है निःस्वभावता। जिस ज्ञान में शून्यता का भाव ग्रहण होता है, वही १. सेकोद्देशटीका, पृ. ६-७ का “अभावभावावुक्तलक्षणे शून्यताकरुणयोरनयोर्बिम्बं संवृतिपरमार्थसत्यस्वभावयोः । याबिम्ब सातपरमाथसत्यस्वभावधान मा संयोगो मीलनं वज्रयोगः। स चाद्वयो युगनद्धाख्योऽक्षरश्चेति” (से.टी., पृ. ७०)। इस बार ३. अस्तिनास्तिव्यतिक्रान्तो भावाभावक्षयोऽद्वयः। शून्यताकरुणाभिन्नो वज्रयोगो महासुखः ।। परमाणुधर्मतातीतः शून्यधर्मविवर्जितः। शाश्वतोच्छेदनिर्मुक्तो वज्रयोगो निरन्वयः।। (वि. प्र., भा. १, पृ. ४४) र एमा बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास शून्यता-विमोक्ष है। इसके प्राप्त होने पर तुरीय अवस्था का ध्वंस होता है और अक्षर-सुख उत्पन्न होता है। धर्मयोग के लिये अनिमित्त-विमोक्ष का लाभ करना पड़ता है। विकल्प चित्त ही निमित्त है। जिस ज्ञान की अवस्था में चित्त निर्विकल्प होता है, उसे ही अनिमित्त-विमोक्ष कहा जाता है। इसके प्राप्त होने पर सुषुप्ति अवस्था का क्षय होता है। निर्विकल्प चित्त में मैत्री का उदय होता है, यही चित्तवज्र धर्मयोग कहलाता है। मन्त्रयोग के लिये अप्रणिहित-विमोक्ष लाभ करना पड़ता है। निर्विकल्प चित्त में प्रणिधान का अभाव होता है। इसे ही अप्रणिहित-विमोक्ष कहा गया है। इसके लाभ से स्वप्न अवस्था का क्षय होता है। इससे जो मुदिता संचरित होती है, वही मन्त्रयोग कहलाता है। संस्थानयोग के लिये अनभिसंस्कार-विमोक्ष आवश्यक है। प्रणिधान के अभाव में अभिसंस्कार नहीं रहता। इस विमोक्ष के लाभ से जाग्रत् अवस्था का क्षय होता है।
षडंग योग
कालचक्रतन्त्र के अनुसार निष्पन्नक्रम की साधना चतुःसेवा और षडंग योग के अनुसार की जाती है। चतुःसेवा है- सेवा, उपसेवा, साधन और महासाधन। षडंग योग का प्राप्य पद काय-वाक्-चित्तवज्र है। प्रत्याहार तथा धारणा द्वारा कायवज्र तथा उसके लक्षणों तथा अनुव्यंजनों की सिद्धि होती है। प्राणायाम और धारणा द्वारा वाग्वज्र तथा मूल वायु में अधिकार प्राप्त होता है और सर्वज्ञवाक् की सिद्धि होती है। अनुस्मृति और समाधि द्वारा चित्तवज्र की प्राप्ति होती है। अनुस्मृति के समय चण्डाली को बोधिचित्त द्वारा द्रवित कर उष्णीष से मणिचक्र तक पहुंचाने से चार आनन्दों की उत्पत्ति होती है। इसमें सहजानन्द ही समाधि है। सहजानन्द की अवस्था में नाभि में चण्डाली के प्रज्वलित होने पर योगी देवबिम्ब का साक्षात्कार करता है। इस अवस्था में अनुरागपूर्ण सुख की उत्पत्ति होती है। यही अनुस्मृति कहलाता है। इसकी उत्पत्ति के लिये धारणा द्वारा मध्यमा नाड़ी में वायु को स्थिर कर चण्डाली को प्रज्वलित करना पड़ता है। इस प्रकार वायु को मध्यमा नाड़ी में स्थिर करना ही धारणा कहलाती है। धारणा की अवस्था को प्राप्त करने के लिये प्राणायाम द्वारा ललना और रसना नाड़ियों में बहने वाली वायु को मध्यमा में प्रवेश कराना पड़ता है। यही प्राणायाम कहलाता है। ललना और रसना में बहने वाली वायु तभी मध्यमा में प्रवेश करेगी, जब प्रत्याहार और ध्यान द्वारा मध्यमा नाड़ी की पहचान हो। यह प्रत्याहार द्वारा दिन और रात्रि में उदय होने वाले लक्षणों के बाद सम्भव होती है। प्रत्याहार द्वारा लक्षणों को पहचान लेने के बाद ध्यान द्वारा वे स्थिर होते हैं। षडंग योग के अध्ययन में इसका लक्षण, फल और साधन मुख्य पक्ष हैं। यदि इस प्रकार षडंग योग के अभ्यास के द्वारा योगियों को इष्टसिद्धि न हो, तो नादाभ्यास, अर्थात् हठयोग का भी विधान बौद्ध तन्त्रों में प्राप्त है। हठयोग में अब्जगत कुलिशमणि में बिन्दु को रोकर अक्षर सुख की सिद्धि की जाती है। १. से. टी., पृ. ५-६ २. कालचक्रतन्त्र, ४.११६ मायाको विकास विना कामाची नदी ४४४ तन्त्रागम-खण्ड
अभिषेक
बौद्ध तन्त्रों में प्रवेश एवं साधना के लिये अभिषेक एक आवश्यक अंग है। वज्राचार्य शिष्य को मण्डल में प्रवेश कराकर अभिषिक्त करता है। अभिषेक शिष्य की काय-वाक्-चित्त एवं ज्ञान की विशुद्धि के लिये इष्ट है। इसकी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जिसके द्वारा शुद्धि की जाती है, उसे ही सेक कहा जाता है। कालचक्रतन्त्र के अनुसार सेक के दो प्रकार हैं- लौकिक अभिषेक तथा लोकोत्तर अभिषेक। लौकिक अभिषेक में उदकाभिषेक, मुकुटाभिषेक, पटाभिषेक, वज्रघण्टाभिषेक, महाव्रताभिषेक, नामाभिषेक तथा अनुज्ञाभिषेक हैं। लोकोत्तर अभिषेकों में कलशाभिषेक, गुह्याभिषेक, प्रज्ञाज्ञानाभिषेक तथा चतुर्थाभिषेक हैं। इस प्रकार यहां कुल ग्यारह अभिषेक वर्णित हैं। इनमें प्रथम सात लौकिक अभिषेक बालजनों के लिये, शेष तीन संवृति की दृष्टि से तथा अन्तिम चतुर्थाभिषेक परमार्थ की दृष्टि से दिया जाता है। अभिषेक प्रदान करने का क्रम भी यही है। यदि पात्र स्त्री हो तो उसे मुकुटाभिषेक के स्थान पर सिन्दूराभिषेक तथा प्रज्ञाज्ञानाभिषेक के स्थान पर उपायाभिषेक का विधान है। अभिषेक प्रदान करने की विधि सामान्यतः सभी तन्त्रों में कुछ न कुछ भिन्न रूप में प्रतिपादित है। तत् तत् तन्त्रानुसार इष्टदेवों के मन्त्र हैं, जिनकी भावना की जाती है। माण्णास अधिणाणार फलीभी कि विजय अभिषेक से पूर्व मण्डलरचना एवं उसमें प्रवेश आवश्यक है। मण्डल में पुष्पपात या दन्तकाष्ठपात द्वारा शिष्य का कुल निर्धारित किया जाता है। कुल के अनुसार शिष्य का नामकरण कर अभिषेक प्रदान किया जाता है। बौद्ध तन्त्रों में तन्त्रसाधना की पात्रता पर गहन विचार किया गया है। सम्यक् पात्र को ही अभिषिक्त कर साधना की अनुमति दी जाती है। हेवज्रतन्त्र के अनुसार इस तन्त्र का अध्ययन करने से पूर्व शिष्य को पोषध, दशशिक्षापद, इसके पश्चात् वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवाद, माध्यमिक तथा समस्त मन्त्रनय को जानना आवश्यक है। तभी वह हेवज्रतन्त्र के अध्ययन का अधिकारी होता है। तैर्थिक, मूर्ख, शुष्क तार्किक, श्रावक तथा षण्ढ आदि को अभिषेक नहीं दिया जाता । १. सिच्यते स्नाप्यतेऽनेन सेकस्तेनाभिधीयते (हे. त. २.३.१२) । २. आदौ सप्ताभिषेको यो बालानामवतारणम्। त्रिविधो लोकसंवृत्या चतुर्थः परमार्थतः।। (हेवज्रपञ्जिका) (पाम लीफ मैनु. इन द दरबार लायब्रेरी, हरप्रसाद शास्त्री, पृ. ४५, लगत सं. ३.३६४)। ३. पोषधं दीयते प्रथमं तदनु शिक्षापदं दशम्। वैभाष्यं तत्र देशेत सूत्रान्तं वै पुनस्तथा।। का जप शह छ तर जातक योगाचारं ततः पश्चात् तदनु मध्यमकं दिशेत्। पर सर्वमन्त्रनय ज्ञात्वा तदनु हेवज़मारभत् ।। (हे. त. २.८.८-६) ४. न तीर्थ्याय न मूर्खाय न शुष्कतर्करताय च। न श्रावकाय न षण्डाय न वृद्धाय भार्याय च।। न राज्ञेऽपि न पुत्राय न श्रद्धारहिताय च। सप्ताष्टमी प्रदातव्यौ शासने हितमिच्छता।। (संक्षिप्ताभिषेक, पाण्डुलिपि राष्ट्रीय अभिलेखालय, काठमाण्डू, सं. ३.३८७) साताबौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४४५ इसलिये केवल भव्य शिष्य को ही तन्त्र में दीक्षित करना चाहिये, अन्यथा रौरव नरक में अवश्यमेव पतित होगा’ । कालचक्रतन्त्र की टीका विमलप्रभा में कहा गया है कि दस अभिषेक सांवृतिक रूप से काय-वाक्-चित्त-ज्ञान-धातु-स्कन्ध-आयतन तथा कर्मेन्द्रियों की संशुद्धि के लिये हैं तथा चतुर्थाभिषेक परमाक्षर लक्षणस्वरूप महामुद्रा की सिद्धि तथा काय-वाक् आदि के अशेष संशोधन के लिये प्रदान किया जाता है। उदक एवं मुकुटाभिषेक द्वारा कायशुद्धि होती है। पट्ट एवं वज्रघण्टाभिषेक द्वारा वाग्-विशुद्धि होती है। महाव्रताभिषेक तथा नामाभिषेक द्वारा चित्तविशुद्धि और अनुज्ञाभिषेक द्वारा ज्ञानविशुद्धि होती है। क्रियासमुच्चय में तीन लोकोत्तर अभिषेकों का क्रम दिया गया है। तदनुसार आचार्याभिषेक द्वारा कायशुद्धि, गुह्याभिषेक द्वारा वाक्शुद्धि तथा प्रज्ञाज्ञानाभिषेक द्वारा चित्तविशुद्धि निर्दिष्ट
मण्डल
तन्त्रसाधना के लिये जिस प्रकार अभिषेक आवश्यक है, उसी प्रकार मण्डल भी एक आवश्यक अंग है। अभिषेक की विधि बिना मण्डल के सम्पन्न नहीं होती। अभिषेक के समय साधक को बाह्य मण्डल अपेक्षित होता है। इसी के आधार पर साधक अपने आपको देवस्वरूप परिकल्पित कर स्वदेह में मण्डल की कल्पना करता है। इसके लिये प्रथमतः अनित्यता एवं निःस्वभावता का साक्षात्कार कर साधक सम्पूर्ण जगत् को स्व-देहमण्डल में सृजित करता है। साधना के इस क्रम में मण्डल के देवताओं की आकार-निष्पत्ति को ही उत्पत्तिक्रम कहा गया है। इस क्रम में साधक सहज निर्विकल्प होकर सभी आकारों और वर्ण, संस्थान आदि कल्पनाओं से मुक्त होता है। इसे निष्पन्नक्रम या उत्पन्नक्रम कहा गया है। मूलतः इस साधना में देवताओं का स्वदेह-मण्डल में आवाहन तथा देवस्वरूप की निष्पत्ति कराकर विसर्जन की प्रक्रिया पूरी की जाती है। __अभिषेक के लिये प्रायः तीन प्रकार के मण्डलों का ही प्रयोग किया जाता है। ये हैं रजोमण्डल, पट्टमण्डल तथा विमानमण्डल। देहमण्डल तथा ध्यानमण्डल केवल तीक्ष्ण बुद्धि के शिष्य तथा साधनासम्पन्न आचार्य के लिये ही निर्दिष्ट हैं। तत् तत् तन्त्रानुसार मण्डल के देव एवं स्वरूप में भिन्नता होती है। प्रत्येक तन्त्र का मुख्य देव ही उसका इष्टदेव होता है। १. आदौ त्रिशरणं दद्यात् ततः शिक्षा च पोषधम् । अतः पञ्चाभिषेकेण गुह्यं प्रज्ञां च शेषतः ।। ततो भव्यो भवेच्छिष्यस्तन्त्रं तस्यैव देशयेत्। दूरतो वर्जयेदन्यमन्यथा रौरवं व्रजेत् ।। (चण्ड. तन्त्र. तृतीय पटल) गुलाम २. वि. प्र., भाग-१, पृ. २१ ३. से. टी., पृ. १६-२० ४. क्रियासमुच्चय, शतपिटक सीरीज-२३७, पृ. ३४३-३५५ व तन्त्रागम-खण्ड डा _मण्डल शब्द दो शब्दों के योग से बना है— ‘मण्ड’ एवं ‘ल’ । ‘मण्ड’ का अर्थ सार तथा ‘ल’ का अर्थ लाने, ग्रहण करने अथवा स्वीकार करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । हेवव्रतन्त्रटीका योगरत्नमाला में कृष्णपाद ने सार का अर्थ महासुखरूपी ज्ञान बताया है, अर्थात् जो इसे ग्रहण करता है, वह मण्डल है।
कुल
जब वज्राचार्य शिष्य को मण्डल में प्रवेश कराकर अभिषेक प्रदान करता है, तब अभिषेक से पूर्व उस सत्त्व या शिष्य का कुल निश्चय करता है। कुल निश्चित होने पर उसी तथागत कुल में उसे अभिषिक्त करता है। बौद्ध तन्त्रों में समस्त सत्त्वों को छः कुलों में विभक्त किया गया है। ये कुल हैं—पांच तथागत कुल तथा छठा वज्रधर कुल। यहां कुल शब्द के अनेक अर्थ किये गये हैं। पंचभूतात्मक जो जगत् है, वह पंचस्कन्ध स्वरूप है और यही पांच तथागत कुल हैं । मूलतः सत्त्वों की भिन्नता के कारण कुलों की संख्या भी हजारों से अधिक मानी जाती है। उनका समाहरण सौ कुलों में और सौ कुलों का समाहरण पांच या छः कुलों में होता है। पांच कुलों का भी तीन में तथा तीन कुलों का भी एक वज्रसत्त्व कुल में समाहरण होता है । गि बौद्ध तन्त्रों में सत्त्व का कुल निश्चित करने की अनेक विधियां हैं। इसमें मण्डल में पुष्पपात द्वारा भी सत्त्व का कुल निश्चित किया जाता है। मण्डलों में पांच तथागतों के स्थान एवं वर्ण निश्चित होते हैं। गुरु की आज्ञा से शिष्य अभिमन्त्रित पुष्प को मण्डल में प्रक्षिप्त करता है। जिस तथागत के स्थान या वर्ण पर पुष्प गिरे, शिष्य को उस कुल का जानकर अभिषिक्त किया जाता है। इसकी दूसरी विधि व्यक्ति के शरीर में उपस्थित लक्षणों के आधार पर निश्चित की जाती है। जैसे किसी स्त्री या पुरुष की अनामिका के मूल में नवशूक (वज्र) हो, तो वह व्यक्ति अक्षोभ्य कुल का होता है। जिसके चक्र हो, वह वैरोचन कुल का; जिसके पद्म हो, वह अमिताभ कुल का; जिसके रत्न हो, वह रत्नसम्भव कुल १. मण्डलं सारमित्युक्तं बोधिचित्तं महत्सुखम्। आदानं तत् करोतीति मण्डलं मलनं मतम् ।। (हे. त. २.३.२७) “मण्डः सारः, तं लाति गृह्णातीति मण्डलम्” (गु. स. प्र., पृ. ४१)। FEET २. “मण्डलं सारमित्युक्तम्। महासुखज्ञानं लाति गृह्णातीति मण्डलम्” (हे. त. टी., प. २०८)। नीत ३. कुलानां पञ्चभूतानां पञ्चस्कन्धस्वरूपिणाम्।। कुल्यते गण्यतेऽनेन कुलमित्यभिधीयते।। (हे. त.१.५.१०) ४. त्रिकुलं पञ्चकुलं चैव स्वभावैकशतं कुलम्। (वि. प्र., पृ. ५०) पञ्चकं त्रिकुलं चैवं स्वभावैकशतं कुलम्। तत्त्वं पञ्चकुलं प्रोक्तं त्रिकुलं गुह्यमुच्यते। अधिदेवो रहस्यं च परमं शतधा कुलम्।। (गु. स. १८.३५-३६) श्रीमन्त्रेणाभिमन्त्र्य करकमलपुटे पुष्पमेकं प्रदेय मादौ भ्राम्य त्रिवारान् करकमलपुटान्मण्डले पुष्पमोक्षः । यस्मिन् स्थाने सुपुष्पं पतति नरपते तत् कुलं तस्य नूनं पश्चात् सप्ताभिषेकस्त्रिविध इह यथानुत्तरः सम्प्रदेयः।। (का. त. ३.६५) । बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास ४४७ का तथा जिसके खड्ग हो, वह अमोघसिद्धि कुल का होता है । शिष्य या साधक के कुल का निर्णय उसके वर्ण के आधार पर भी होता है। यथा शिष्य कृष्ण वर्ण का हो तो अक्षोभ्य कुल का, श्याम वर्ण का हो तो अमोघसिद्धि कुल का, पिंगल वर्ण का हो तो रत्नसम्भव कुल का, रक्त-गौर वर्ण का हो तो अभिताभ कुल का और श्वेत गौर वर्ण का हो तो वह वज्रसत्त्व कुल का होता है। शासन बौद्ध तन्त्रों की यह कुल की मान्यता बौद्धेतर शैव-शाक्त आदि तन्त्रों में वर्णित कुल सिद्धान्त से कुछ अर्थों में समान तथा कई अर्थों में भिन्न है। इनमें अद्वयता एवं सामरस्य, पञ्चभूतात्मक स्वरूप, मोक्ष एवं निर्वाणदायी पुरुषार्थों की सिद्धि इत्यादि कुछ बिन्दु ऐसे हैं, जिनमें समानता दृष्टिगोचर होती है। साथ
पीठ
मण्डल एवं अभिषेक के प्रसंग में यह बताया जा चुका है कि साधक सम्पूर्ण सृष्टि का अपने देहमण्डल में निर्माण करता है। बाह्य जगत् में जितने भी पीठ-स्थान हैं, तथा उन स्थानों में जो वीर, डाक, डाकिनियाँ आदि स्थित हैं, वे भी देहस्थ मण्डल में विद्यमान हैं। बाह्य जगत् में जो पीठ स्थित हैं, वे अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। देहमण्डल की भावना करते समय उक्त सभी पीठ-स्थानों की स्व-देह में भावना करनी पड़ती है। बौद्ध तन्त्रों में मुख्यतः चार पीठ-स्थानों एवं चतुर्विंशति पीठ-स्थानों का उल्लेख मिलता है। चतुष्पीठों में आत्मपीठ, परपीठ, योगपीठ तथा तत्त्वपीठ हैं। चतुष्पीठ का सम्बन्ध मुख्यतः बौद्ध तान्त्रिक दर्शन एवं आन्तर साधना से है। संक्षेप में इसका विषय है—प्रज्ञा, उपाय, प्रज्ञा और उपाय की युगनद्धता तथा इस अभिन्नता से उत्पन्न सहज ज्ञान। चतुष्पीठ की इसी दार्शनिक स्थिति को स्पष्ट करते हुए रविश्री ने नामसंगीति की टिप्पणी में निम्नलिखित वचन उद्धृत किया है परपीठेति प्रज्ञोक्ता आत्मपीठमुपायकम्। अनयोरद्वयीभावो योगपीठमिति स्मृतम् ।। तत्त्वपीठं तदुत्पन्नं तद्रहितं च यद्भवेत्। मायामा सहजेति समाख्यातं वाक्पथातीतगोचरम्।। नाला कि कि १. अनामिकामूले यस्य स्त्रियो वा पुरुषस्य वा। नवशकं भवेद् वज्रमक्षोभ्यकुलमुत्तमम्।। राजिनामा मा. वैरोचनस्य भवेच्चक्रममिताभस्य पङ्कजम्। रत्नसम्भवो महारत्नं खड्गं कर्मकुलस्य च।। (हे. त. २.१०.३-४) …. यो हि योगी भवेत् कृष्णवर्णो अक्षोभ्यस्तस्य देवता। किनकी यो हि योगी महाश्यामो अमोघस्तस्य देवता।। भागमा यो हि योगी महापिङ्गलो रत्नेशः कुलदेवता। जीजीविका मिजाक रक्तगौरो हि यो योगी अमिताभः कुलदेवता।। 9 श्वेतगौरो हि यो योगी वज्रसत्त्वस्तस्य देवता।। (हे. त. २.११. ६-८) ३. देखें—“बौद्ध तन्त्रों में कुल विवेचन", धीः, अंक ६, पृ. १०४-११४ ४४८ तन्त्रागम-खण्डक कि इसी प्रकार चौबीस पीठ-स्थानों का भी प्रमुखता से विवरण मिलता है। यद्यपि हेवजतन्त्र, डाकार्णवमहायोगिनीतन्त्र तथा कालचक्रतन्त्रटीका विमलप्रभा में इसके अतिरिक्त भी अनेक पीठस्थानों का उल्लेख है, परन्तु ये चौबीस पीठ-स्थान हेरुक से सम्बद्ध हैं। ये पीठ भी पीठ, उपपीठ, क्षेत्र, उपक्षेत्र, मेलापक, उपमेलापक, छन्दोह, उपच्छन्दोह, श्मशान, उपश्मशान में विभक्त हैं। यथा पूर्णगिरि, जालन्धर, ओडियान तथा अर्बुद पीठ हैं, गोदावरी, रामेश्वर, देवीकोट तथा मालव उपपीठ हैं, कामरूप तथा ओड्र क्षेत्र हैं, त्रिशकुनि तथा कौशल उपक्षेत्र हैं, कलिंग तथा लम्पाक छन्दोह हैं, काञ्ची तथा हिमालय उपच्छन्दोह हैं, प्रेताधिवासिनी तथा गृहदेवता मेलापक हैं, सौराष्ट्र तथा सुवर्णद्वीप उपमेलापक हैं, नगर तथा सिन्धु श्मशान हैं तथा मरु और कुलूता उपश्मशान हैं। प्रायः आधारभूत यही पीठक्रम बौद्ध तन्त्रों में पाया जाता है। विभाग की काशी बौद्ध साधना में इन पीठों को स्वदेहस्थ मानकर इनकी भावना के द्वारा देह-मण्डल का निर्माण किया जाता है। देहमण्डल में ये काय, वाक् तथा चित्त-चक्रों में विभक्त होते हैं’ । संवरमण्डल में इन पीठ-स्थानों में स्थित वीर-वीरेश्वरियों का भी वर्णन है। वहां इनके स्वरूप का तथा वाहन, आयुध इत्यादि का भी विवरण मिलता है । ति अनिका
उपसंहार
प्रस्तुत निबन्ध में बौद्ध तन्त्र-साहित्य और उसकी ऐतिहासिकता पर किंचित् प्रकाश डालने की चेष्टा की गई है। बौद्ध तन्त्र-साहित्य अत्यन्त विशाल है। इन तन्त्रों के बुद्ध द्वारा ही भाषित स्वीकार करने में यद्यपि अनेक प्रकार की बाधाएं हैं, तथापि हम इन्हें परवर्ती भी स्वीकार नहीं कर सकते। इसमें पर्याप्त अवकाश है कि महायानी सूत्रों की शैली का अनुकरण कर कुछ साहित्य परवर्ती काल में इसमें जुड़ गया हो। अतः तन्त्र-शास्त्र का इस दृष्टि से भी अध्ययन आवश्यक है। बौद्ध तन्त्रों का ऐतिहासिक दृष्टि से अभी अल्प ही अध्ययन हुआ है। जो अध्ययन हुआ है, उसमें कुछ विद्वानों ने इसके मूल-बीज पालि-सूत्रों में खोजने का प्रयास किया है। इस क्रम में ऋद्धि-सिद्धि के विभिन्न कथानक तथा परीत्त सुत्तों को प्रस्तुत किया जाता है। इनके आधार पर बुद्ध के मूल पालि-वचनों में तन्त्रों की बीजरूप में उपस्थिति स्वीकार की जाती है, परन्तु यह मत युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इस प्रकार के कथानकों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें तन्त्र के तत्त्व हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि उपर्युक्त सन्दर्भ में ही नहीं, बुद्ध से पूर्व के समाज में भी, एताः स्वदेहजाः सर्वा भिद्यन्ते स्थानभेदतः।। मानसिक शिष्य की जि . सबाह्याभ्यन्तरस्थास्तु बुद्धानां दशभूमयः। कायवाञ्चित्तचक्रेषु चतुर्विंशतिभेदतः।। (व. ति. ५.१३-१४) पीठों से सम्बद्ध विवरण के लिये देखें- “बौद्ध तन्त्रों में पीठोपपीठादि का विवेचन" १, २, ३, ४, ‘धीः’ अंक १, पृ. १३७-१४८; अंक ३, पृ. ६५-६६; अंक १०, पृ. १४०-१५२; तथा अंक ११, पृ. ५७-६२ ४४६ बौद्ध तन्त्रवाङ्मय का इतिहास उस समय की सामाजिक व्यवस्था में भी इस प्रकार के तत्त्व प्रचलित थे। इन्हें निश्चित रूप से तन्त्रों का मूल रूप प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। के बौद्ध तन्त्रों का प्रवर्तन महायान सूत्रों के साथ ही हुआ, क्योंकि मन्त्रनय एवं पारमितानय को महायान का ही भेद स्वीकार किया जाता है। मन्त्रनय और पारमितानय के प्राप्य पद में कोई अन्तर नहीं है। इनके देशक शास्ता में भी कोई अन्तर नहीं है। केवल मन्त्रनय की कुछ विशेषताएं हैं, जो इसे पारमितानय से पृथक् करती हैं। अतः हम बौद्ध तन्त्रों के प्रारम्भिक उद्गम को खोजने के लिये महायान सूत्रों का अध्ययन कर सकते हैं और इनमें बौद्ध तन्त्रों की पृष्ठभूमि का अवलोकन कर सकते हैं। सामान्यतः बौद्ध तन्त्रों के सम्बन्ध में यह मान्यता मिलती है कि प्रारम्भ में यह परम्परा गुह्य रूप में प्रचलित थी। बाद में सातवीं शताब्दी के बाद सिद्धाचार्यों ने क्रमशः इन्हें जम्बुद्वीप में प्रकाशित किया। इन तन्त्र-ग्रन्थों में अधिकतर योगतन्त्र एवं अनुत्तर-योगतन्त्र से सम्बद्ध शास्त्र हैं। परन्तु तीसरी-चौथी शताब्दी तक अनेक धारणी-ग्रन्थों का प्रचलन हो चुका था, जिनका चीनी भाषा में अनुवाद भी हुआ। सुवर्णप्रभास आदि अनेक क्रियातन्त्र के ग्रन्थ तथा धारणी-ग्रन्थ महायान सूत्रों के समकाल में अस्तित्व में आ चुके थे। महायानी प्रज्ञापारमिता सूत्रों में भी संक्षेपीकरण की प्रकृति दिखलाई पड़ती है, जो बाद में धारणी-ग्रन्थों के समान प्रचलित हुए। ये धारणी-ग्रन्थ ही महायान एवं तन्त्रयान के मध्य सेतु के समान हैं। अतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि तन्त्रों की देशना बुद्ध ने की तथा इनका प्रचलन महायानी सूत्रों के साथ-साथ हुआ। प्रारम्भ में इनका साधना-पक्ष अत्यन्त गुह्य रूप से प्रचलित था, परन्तु विशेषकर योगतन्त्र एवं अनुत्तरतन्त्र के ग्रन्थों का प्रकाश सातवीं शताब्दी के बाद हुआ। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में इनका व्यापक प्रचार हो चुका था। इस कालावधि में अनेक सिद्धाचार्य एवं बौद्ध तान्त्रिक हुए हैं, जिन्होंने इन तन्त्रों के विविध आयामों पर, जैसे साधनविधि, होम, मण्डल, अभिषेक आदि विषयों पर ग्रन्थ लिखकर इस परम्परा को पुष्ट किया। इस परम्परा के अन्तिम आचार्यों में रत्नाकरशान्ति, अभयाकरगुप्त आदि हैं। उसके बाद इन शास्त्रों की अध्ययन-परम्परा भोट देश में संक्रमित हुई, जहां अद्यावधि यह जीवन्त रूप में है। आर्य देश में बौद्ध धर्म के साथ-साथ यह परम्परा विलुप्त हो गई। बौद्ध तन्त्रशास्त्र के आज अत्यल्प ग्रन्थ ही प्राप्त हैं। यह उस बृहद् वाङ्मय का अंश मात्र ही है। इन तन्त्रों के साधना पक्ष से, अभिषेक, मण्डल, होमविधि आदि से आज हम बहुत कुछ अपरिचित हैं।।