हा काली काली नः कुशलं करोतु सततं तारा तनोतु श्रियं दीर्घायुर्भुवनेश्वरी वितनुतां विघ्नं हरेत् षोडशी। एक साल भैरव्यस्त्वशुभापहा रिपुकुलं सा छिन्नमस्ता हरेन् माया मारे मातङ्गी वगलामुखी च कमला धूमावती पान्तु नः।।
पराशक्ति या आदिशक्ति
इस चराचरात्मक संसार के अभिन्न निमित्त-उपादान कारण के रूप में प्रसिद्ध परब्रह्म की स्वाभाविक शक्ति ही पराशक्ति या आदिशक्ति कहलाती है, जो प्रयोजनवश दस महाविद्याओं के रूप में प्रकट होकर भक्तों एवं साधकों के द्वारा चिरकाल से आराधिता होती आ रही हैं। वेद, पुराण तथा आगम इस पराशक्ति की महिमा गाते हुए कभी थकते नहीं श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया है कि परब्रह्म की स्वभावसिद्धा यह पराशक्ति नाना प्रकार की सुनी जाती हैं। वह ज्ञान, सामर्थ्य और क्रिया स्वरूपा है’ । अथर्वशीर्ष उपनिषद् में वर्णित है कि देवताओं ने देवी से उनका परिचय पूछा तो उन्होंने सृष्टि के मूलकारण परब्रह्म के रूप में अपना परिचय दिया और अपने को प्रकृतिपुरुषात्मक, जड़चेतनात्मक इस जगत् के उद्भव का कारण बताया । इसका विस्तृत संवाद या भाष्यात्मक विवरण शाक्त उपनिषद् तथा अथर्वगुह्य उपनिषत् में मिलता है । उभयत्र वाक्यसमूह तथा प्रतिपाद्य एक ही है और वह है परमसत्ता के रूप में शक्ति की अवधारणा। निश्चय ही मूल उपनिषद् के अनुकरणात्मक इन उपनिषदों में ब्रह्म का स्वभाव शक्ति में आरोपित हुआ है। अतः मूल उपनिषद् के वचन स्त्रीलिंग में परिवर्तित कर यहाँ रख दिए गये हैं। फलतः इन उपनिषदों की मौलिकता एवं प्राचीनता यद्यपि सन्दिग्ध है, तथापि परम्परा के संपोषक साधक इन उपनिषदों के प्रति पूर्ण श्रद्धालु तथा निष्ठासंपन्न देखे जाते हैं। १. परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। (श्वेताश्वतर उप. ६.८) हा काही २. सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः। काऽसि त्वं महादेवीति। साऽब्रवीत्- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी, मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। (अथर्वशीर्ष उप. ७.१) ३. माइनर उपनिषत्स नामक ग्रन्थ में शाक्त उपनिषद् अड्यार लाइब्रेरी से प्रकाशित हैं तथा अथर्वगुह्योपनिषत् महाकालसंहिता, गुह्यकाली खण्ड के प्रथम पटल में उपलब्ध एवं प्रकाशित है।दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा _मार्कण्डेय पुराण कहता है कि हे भगवति! आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण हैं। आपमें सत्त्व, रजस् तथा तमस्- ये तीनों गुण विद्यमान हैं, फिर भी दोषों से आप निर्लिप्त हैं। भगवान् विष्णु तथा शंकर आदि देवगण भी आपका पार नहीं पाते। आप ही सबका आश्रय हैं। यह सम्पूर्ण संसार आपका ही अंश है, क्योंकि आप सबकी आदिभूता अव्याकृता परा प्रकृति हैं । कर शिवपुराण में भी इसका संवाद मिलता है। यहाँ कहा गया है कि प्रकाश तथा चित् के मिथुन, अर्थात् युगलभाव का तादात्म्य इस संसार का कारण है। इन दोनों में शिव और शक्ति का भाव मानना चाहिए। इन्हीं शिव और शक्ति के संयोग से आनन्द होता है, क्योंकि एक ही परमात्मा शिव और शक्ति के रूप में लोगों के द्वारा देखे जाते हैं । समअभिप्राय यह है कि शाक्त उपासना का परम लक्ष्य है अद्वैत की प्राप्ति, किन्तु शिव और शक्ति की यामल सत्ता भी यहाँ स्वीकृत है। संसार में विविधता के रहने पर भी मूल में एकता है और एक से अनेक होने के लिए दो की आवश्यकता होती है। उपनिषद् में कहा गया है- “एकाकी न रमते स द्वितीयमैच्छत् । एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय” आदि। यह द्वितीय सत्ता शाक्त आगमों की दृष्टि से दो रूपों में प्रकाशित होती है— एक के साथ उससे भिन्न रूप में तथा एक के साथ उससे अभिन्न रूप में। जहाँ यामल रूप है, मिथुन है, वहाँ बहिरंगा शक्ति के रूप में परिचित यह शक्ति भेदमय प्रपञ्च, अर्थात् संसार की सृष्टि करती है और जहाँ अद्वैत है, अर्थात् नीर-क्षीर की तरह अपना अस्तित्व खोकर दोनों सामरस्य भावापन्न हैं, वहाँ अन्तरंगा शक्ति के रूप में परिचित यह पराशक्ति अपुनर्भव का दान करती है। यही है शिव और शक्ति की यथार्थ मिथुनता। शाक्त तन्त्रों में बिन्दु का अधिक महत्त्व है, क्योंकि पराशक्ति का आविर्भाव बिन्दु से माना गया है। अत एव महाकालसंहिता बिन्दु, ब्रह्म और गुह्यकाली में अभेद का प्रतिपादन करती है- कान्छि कि छवि क या ती काम का बिन्दुः पुल्लिङ्ग उदिती ब्रह्म चव नपुसकम्ा ग स्त्रीलिङ्गा गुह्यकाली च त्रयमेतत् समं मतम् ।।
पराशक्ति के विविध रूप
आदिकाल से ही आराधक साधक अपनी क्षमता, रुचि, संस्कार तथा सम्प्रदाय के अनुसार निराकारा चित्स्वरूपा इस पराशक्ति के अनन्त स्वरूपों की कल्पना करके इनमें से किसी एक रूप की उपासना करते आ रहे हैं। अत एव इनकी अनेक संज्ञाएँ तथा अनेक मूर्तियाँ उपलब्ध हैं, जो चिरकाल से पूजित होती आ रही हैं। यही कारण है कि पुराणों तथा १ दुर्गासप्तशती ४.७ डिनर २. शिवमहापुराण ३.६८.२५-२६ काय इ नाम ३. महाकालसंहिता-गुह्यकालीखण्ड १०.१५३६ फार वा सह कोक नियम ३६६ आगमों में इनके विविध स्वरूपों की उपासना का विधान है। सृष्टि की मर्यादा के पालनहेतु शिष्टानुग्रह के साथ दुष्टनिग्रह भी अपेक्षित है। दुर्गासप्तशती में इसका स्पष्ट संकेत मिलता वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः। रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी॥ (४.४१-४२) False पा अतः इस पराशक्ति के सौम्य एवं उग्र दोनों स्वरूपों का वर्णन उपलब्ध है। सौम्य स्वरूप की परम अवधि यदि भगवती त्रिपुरसुन्दरी हैं, तो उग्र रूप की परम अवधि भगवती काली’ । का का प्राक्तन संस्कारवश तथा संस्कार के अनुरूप रुचि की अनुकूलता से व्यक्तिविशेष देवताविशेष के प्रति बद्धादर देखा जाता है। विश्वासपूर्वक यथाविधि आराधना करने पर व्यक्ति की वह अपनी इष्टदेवता सभी प्रकार के ऐहिक एवं आमुष्मिक सुख देती हुई उसके जीवन को सफल करती है । इसी क्रम में दस महाविद्याएँ अवतरित होती हैं।
दस महाविद्याएँ
दस महाविद्याओं का सबसे प्राचीन, किन्तु संक्षिप्त उल्लेख शिवमहापुराण में मिलता है। यहाँ रौरव नामक असुर तथा उसकी अक्षौहिणी सेना के संसारहेतु इन दस महाविद्याओं के आविर्भाव की बात कही गयी है। इनकी नामावली इस प्रकार है- काली, तारा, छिन्नमस्ता, कमला, भुवनेश्वरी, भैरवी, वगला, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी तथा मातंगी। बृहद्धर्मपुराण में भी महाविद्याओं की यही नामावली मिलती है। केवल कमला के स्थान पर षोडशी का उल्लेख है। इनकी दस संख्या के प्रसंग में यहाँ कहा गया है कि दक्ष के यज्ञ में पति के अपमान से रुष्टा भगवती सती ने अपनी विभूति के प्रदर्शनार्थ दस दिशाओं को अपनी भयानक दस मूर्तियों से ढककर भगवान् शंकर को भी विस्मित किया, अत एव महाविद्या की दस संख्या प्रसिद्ध हुई। शिवजी की दसों ओर देवी की भयानक मूर्तियाँ आविर्भूत हो गयीं। उत्तर में काली, ऊपर में तारा, पूर्व में छिन्नमस्ता, पश्चिम में भुवनेश्वरी, दक्षिण में वगलामुखी, अग्निकोण में धूमावती, नैर्ऋत्यकोण में त्रिपुरसुन्दरी, १. द्रष्टव्य–महाकालसंहिता-कामकलाखण्ड (पटल १४.२५-२६ तथा ३१-३२)। RIPURTETTE २. “सम्प्रदायविश्वासाभ्यां सर्वसिद्धिः” (परशरामकल्पसत्र १६) TOPP E LFARE ३. शिवमहापुराण ५०.२८-३० शाक्त सम्प्रदाय में श्रीविद्या के नाम से प्रसिद्ध भगवती-त्रिपुरसुन्दरी के । स्पष्टतः यहाँ पृथक् उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्रीविद्या पद यहाँ भगवती कमला (लक्ष्मी). के लिए प्रयुक्त है। श्री पद लक्ष्मी के पर्याय के रूप में कोष में निर्दिष्ट है। खिष्टीय दशम शताब्द के वैदेशिक पण्डित अलबेरुनी ने इस पुराण का अनुवाद किया है, जहाँ दस महाविद्याओं का जी स्वभावतः उल्लेख है, इससे उक्त पुराण की प्राचीनता निःसन्दिग्ध है। दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३६७ वायुकोण में मातंगी, ईशानकोण में षोडशी (कमला) और अधोभाग में भैरवी विराजमान थीं। इन महाविद्याओं के माहात्म्य-वर्णन में यहाँ अभिहित है कि साधकों के लिये मोक्ष एवं वाञ्छित सांसारिक प्रयोजन दोनों ही महाविद्याएँ सिद्ध करती हैं। शाक्त साधकों में प्रसिद्ध इस सूक्ति में इसी का संवाद उपलब्ध है- “देवीपदाम्भोजयुगार्चकानां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव”। अतः इन महाविद्याओं का गोपन अपेक्षित है और प्रकाशन निषिद्ध । देवी ने शिव से यहाँ कहा है कि दिव्य ज्ञान से आप मुझे इन मूर्तियों में देखें तथा मेरी आराधना के लिए आप स्वयं शास्त्र का निर्माण करें। ब्रहद्धर्मपुराण में अभिहित महाविद्या संबन्धी सम्पूर्ण आख्यान का स्पष्ट संवाद शाक्त सम्प्रदाय के पुराण महाभागवत में मिलता है । महाविद्या की दस संख्या के प्रसंग में कालीक:रस्तोत्र की भूमिका में कहा गया है कि गणित में जैसे बिन्दु या शून्य का अपना स्वतन्त्र मूल्य कुछ नहीं है, किन्तु जिस किसी संख्या के साथ इसका योग हो जाता है, उसका मूल्य दस गुना बढ़ जाता है। अत एव इस बिन्दु को पूर्णता का प्रतीक माना गया है तथा असीम का द्योतक कहा गया है। इसी तरह निराकार ब्रह्ममयी आदिशक्ति अपनी त्रिगुणात्मिका प्रकृति से जुड़कर संसार की सृष्टि, पालन और संहार में लग जाती है। भक्त उपासकों की सभी मनः कामनाएँ पूरी करती हैं। अत एव आदिशक्ति का दस महाविद्याओं के रूप में आविर्भाव शून्य या बिन्दु के साथ यथाक्रम एक के योग से उत्पन्न होता है। १ द्रष्टव्य-बृहद्धर्मपुराण ३०.३६ और श्रीमद्भागवतपुराण, स्कन्ध ८ २. अर्थताः दश वै देव्यो मूर्तयो मम पश्य ताः। महाविद्या इमा प्रोक्ता नामान्यासां तु वर्णये।।। काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी। भैरवी छिन्नमस्ता च सुन्दरी वगलामुखी।। धूमावती च मातङ्गी महाविद्या दशैव ताः। (बृहद्धर्मपुराण ३६.१२५-१२६) तन्त्रों में षोडशी तथा सुन्दरी भगवती त्रिपुरसुन्दरी के वाचक हैं, अतः यहाँ उक्त दोनों पदों में भेद चिन्त्य है। साथ ही भगवती कमला या उनका वाचक पद यहाँ नहीं है। अतः उक्त पदों में अन्यतर पद इनका वाचक हो सकता है। वाया जाता एताः सर्वा महाविद्या भजतां मोक्षदाः पराः। प्रमजान गवान मारणोच्चाटनक्षोभमोहनद्रावणानि च।। समिनिकाणी जमिश का कि जृम्भणस्तम्भसंहारान् वाञ्छितार्थान् प्रकुर्वते।। गोपनीयं परं चैतन्न प्रकाश्यं कदाचन। दिव्यज्ञानेन भगवन् पश्य मा जगदम्बिकाम्। अण्डका राजा ममाराधनशास्त्राणि करिष्यसि तथा स्वयम्।। (वहीं, ३६.१३२-१३५) 15 वाला जिल्लामा ३. द्रष्टव्य—महाभागवतपुराण, अष्टम स्कन्ध । ਤਤ ਹੀ ਕਈ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ४. तान्त्रिक टेक्स्ट सिरीज, खण्ड-६, पृ. १३-१४ ! म तन्त्रागम-खण्डमा सनातन्त्र-ग्रन्थों में यद्यपि इन महाविद्याओं का परिचय भिन्न-भिन्न रूप में उपलब्ध है, संख्या के प्रसंग में पर्याप्त मतभेद है, तथापि मुण्डमालातन्त्र में निर्दिष्ट’ नामावली तथा संख्या अधिक मान्य है, जो उपर्युक्त पुराणों में उल्लिखित महाविद्या की सूची में सर्वांशतः समान है। यह नामावली चामुण्डातन्त्र तथा शक्तिसंगमतन्त्र में भी यथावत् उपलब्ध है। किन्त यहाँ महाविद्या की अन्य नामावलियाँ भी दी गयी हैं। विरूपाक्ष के मत में महाविद्याओं की संख्या तेरह कही गयी है। उपर्युक्त दस महाविद्याओं के साथ चण्डेश्वरी, लघुश्यामा तथा त्रिपुटा के योग से तेरह संख्या होती है। दस महाविद्याओं को यहाँ लघु महाविद्या भी कहा गया है। ती भैरव के मत में महाविद्या की संख्या सोलह है। वनदुर्गा, शूलिनी, अश्वारूढा, त्रैलोक्यविजया, वाराही तथा अन्नपूर्णा को उपर्युक्त दस महाविद्याओं के साथ जोड़ने पर इनकी सोलह संख्या होती है। महाकाल के मत में इनकी संख्या इक्यावन है। अवधेय है कि महाकालसंहिता के कामकलाखण्ड में इस संकेत के अनुसार महाविद्याओं का विवरण उपलब्ध है । र तन्त्रसार में महाविद्याओं की दो नामावलियां दी गयी हैं। एक तो मुण्डमालातन्त्र की है और अपर मालिनीविजयतन्त्र की। दोनों में परस्पर भेद है। मालिनीविजयतन्त्र के अनुसार’ काली, नीला (तारा), महादुर्गा, त्वरिता, छिन्नमस्ता, वाग्वादिनी, अन्नपूर्णा, प्रत्यंगिरा, कामाख्यावासिनी, बाला तथा शैलवासिनी मातंगी कलियुग में साधकों को पूर्ण फल देने में समर्थ हैं। शाक्तानन्दतरंगिणी के तृतीय उल्लास में भी यहीं से यह नामावली संगृहीत है, किन्तु यह अवधेय है कि कश्मीर से प्रकाशित मालिनीविजयोत्तरतन्त्र में ये पद्य नहीं मिलते है। समय चन मैथिल तान्त्रिक देवनाथ ठक्कुर (खी. १६श.) कृत तन्त्रकौमुदी में महाविद्या की दो नामावलियाँ देखी जाती हैं-एक विश्वसारतन्त्र से उद्धृत है और अपर का मूल अनिर्दिष्ट १. द्रष्टव्य–मुण्डमालातन्त्र प्रथम-भाग ६.१५२-१५३ एवं द्वितीय भाग १.७-६ २. चामुण्डातन्त्र का वचन शब्दकल्पद्रुम तथा प्राणतोषिणीतन्त्र (काण्ड ५ परिच्छेद ६) में उद्धृत है। शक्तिसंगमतन्त्र, ताराखण्ड ११.३, एवं छिन्नमस्ता खण्ड १.३-४ द्रष्टव्य है। ३. द्रष्टव्य-शक्तिसंगमतन्त्र, ताराखण्ड ११.२-३ ४. द्रष्टव्य–महाकालसंहिता, कामकलाखण्ड ८.२०१-२१० नारा तन्त्रसार में उद्धृत मालिनीविजयतन्त्र के पद्य । काली तारा महादुर्गा त्वरिता छिन्नमस्तका। वाग्वादिनी चानपूर्णा तथा महिषमर्दिनी।। कामाख्या वासिनी बाला मातङ्गी चण्डिका तथा। इत्याद्याः सकला विद्याः कलौ पूर्णफलप्रदाः।। (विश्वसारतन्त्रवचन, तन्त्रकौमुदी में उद्धृत) काली तारा भैरवी च षोडशी भुवनेश्वरी। अन्नपूर्णा महामाया दुर्गा महिषमर्दिनी।। त्रिपुरा वगला छिन्ना धूमा च त्वरिता तथा। मातमी धनदा गौरी त्रिपुटा परमेश्वरी। हालाही प्रत्यङ्गिरा महामाया भेरुण्डा शूलिनी तथा। चामुण्डा सर्वदा बाला तथा कात्यायनी शिवा।। सप्तविंशतिर्महाविद्याः सर्वशास्त्रेषु गोपिताः। (तन्त्रकौमुदी में उद्धृत) तन्त्र स्टडीज आन देयर रिलीजन एण्ड लिटरेचर, प्रो. चिन्ताहरण चक्रवर्ती पृ. ८५-८६ में उद्धृत एवं संकलित। दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३६६ है। एक में ग्यारह महाविद्याओं का उल्लेख है, जो मालिनीविजयतन्त्र की नामावली से मिलती-जुलती है। भेद इतना ही है कि यहाँ प्रत्यंगिरा के स्थान पर महिषमर्दिनी का तथा अतिरिक्त रूप से चण्डिका का उल्लेख है। ऊपर की नामावली में सत्ताईस महाविद्याएँ निर्दिष्ट हैं। यथा—काली, तारा, भैरवी, षोडशी, भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा, महामाया, दुर्गा, महिषमर्दिनी, त्रिपुरा, वगला, छिन्ना (छिन्नमस्ता), धूमा (धूमावती), त्वरिता, मातंगी, धनदा, गौरी, त्रिपुटा, परमेश्वरी, प्रत्यंगिरा, महामाया, भेरुण्डा, शूलिनी, चामुण्डा, सर्वदा, बाला तथा कात्यायनी-ये सत्ताईस महाविद्याएँ सभी शास्त्रों में गोपिता हैं। निरुत्तरतन्त्र में अठारह महाविद्याओं का विवरण उपलब्ध है। प्रसिद्ध दस महाविद्याओं के साथ अन्नपूर्णा, नित्या, महिषमर्दिनी दुर्गा, त्वरिता, त्रिपुरा, त्रिपुटा, जयदुर्गा और सरस्वती–इन आठ विद्याओं के योग से अठारह महाविद्याएँ मानी गयी हैं। नारदपाञ्चरात्र में सात कोटि महाविद्याएँ तथा इतनी ही उपविद्याएँ वर्णित हैं । यहाँ दो बातें अवश्य अवधेय हैं कि युगविशेष में महाविद्या-विशेष को प्रधान माना गया है तथा इन महाविद्याओं में पारस्परिक भेद कल्पित है, यथार्थ नहीं। इसका स्पष्ट प्रतिपादन मुण्डमालातन्त्र में तथा अन्यत्र किया गया है। कृतयुग में भगवती त्रिपुरसुन्दरी प्राधान्य के कारण आद्या पद से अभिहित होती है। इसी तरह त्रेता में भगवती भुवनेश्वरी, द्वापर में भगवती तारा और कलियग में भगवती काली आद्या पद से अभिहित हई हैं । कति हशिन
सिद्धविद्या
साधकों की धारणा रही है तथा महाभागवत पुराण में कहा गया है कि चूंकि पराशक्ति के ये स्वेच्छाकल्पित रूप हैं तथा इन रूपों को देखकर स्वयं भगवान् शिव भी मोह में पड़ गये थे, अत एव ये महाविद्याएँ अपने उपासकों की उपासना से प्रसन्न होकर उनकी सभी प्रकार की मनःकामनाएँ शीघ्र सिद्ध करती हैं। अतः सिद्धविद्या के रूप में भी ये प्रसिद्ध दूसरी बात यह है कि इन विद्याओं के बीजमन्त्र प्रकारान्तर से या शास्त्रनिर्दिष्ट किसी विशेष प्रक्रिया से सिद्ध नहीं किये जाते, अपितु स्वतः सिद्ध है। १. निरुत्तरतन्त्र १५ परिच्छेद ही २. सप्तकोटिर्महाविद्या उपविद्याश्च तादृशाः। । तासां मूर्तिर्मुनिश्रेष्ठ संख्यातुं नैव शक्यते।। (मुण्डमालातन्त्र ६.३२) ३. सत्ये तु सुन्दरी आद्या त्रेतायां भुवनेश्वरी। द्वापरे तारिणी विद्या कलौ काली प्रकीर्तिता।। न भेदः कालिकायाश्च ताराया जगदम्बिके। न च भेदो महेशानि विद्याया वरवर्णिनि।। (मुण्डमालातन्त्र ६.३३-३५) ४. नैव सिद्धाद्यपेक्षास्ति नक्षत्रादिविचारणा। कालादिशोधनं नास्ति नास्ति मित्रादिदूषणम्।। (मुण्डमालातन्त्र, द्वितीय भाग १.११-१२ आदि पद्य इस प्रसंग में द्रष्टव्य हैं।) ३७० आमा तन्त्रागम-खण्ड का कर के केवल गुरु से ही इन मन्त्रों का उपदेश अपेक्षित है, अतः सिद्ध मन्त्रों की अधिष्ठात्री ये महाविद्याएँ सिद्धविद्या कहलाती हैं। महाविद्या की नामावली में प्रायः सिद्धविद्या का प्रयोग तन्त्र-ग्रन्थों में सर्वत्र हुआ है। कि किसी-किसी के मत में काली, तारा तथा त्रिपुरसुन्दरी महाविद्या के रूप में प्रसिद्ध हैं। किन्तु यह तान्त्रिकों के द्वारा मान्य नहीं है। शक्तिसंगम,’ चामुण्डा एवं मुण्डमाला तन्त्रों ने सिद्धविद्या और महाविद्या को पर्याय के रूप में लिया है, जो इन दस देवियों के लिए समान रूप से प्रयुक्त होने वाला पारिभाषिक शब्द है। गा या विद् धातु से संज्ञा अर्थ में “संज्ञायां समजनिषदनिपत" (३.३.६६) आदि सूत्र से क्य प्रत्यय करके स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् प्रत्यय किया जाता है और तब विद्या पद निष्पन्न होता है। इसका अर्थ होता है परम पुरुषार्थ के साथ ऐहिक सुख-समृद्धि का साधन रूप ज्ञान। विद् धातु चार अर्थों में प्रसिद्ध है— विद् ज्ञाने, विद् विचारणे, विद् सत्तायां तथा विद्लु लाभे। नागेश भट्ट का मत उद्धृत करता हुआ शब्दकल्पद्रुम कहता है कि परम एवं उत्तम पुरुषार्थ (अपवर्ग) के साधन रूप ब्रह्मज्ञान विद्या पद का अर्थ होता है। यद्यपि तन्त्र ग्रन्थों में मन्त्र अर्थ में भी विद्यापद का प्रयोग हुआ है, क्योंकि ऐहिक काम तथा अपवर्ग का साधन वह होता है, तथापि यहाँ मन्त्र की अधिष्ठात्री देवता ही विद्या पद से अभिप्रेत हैं। दुर्गासप्तशती की शक्रादिस्तुति में इसका स्पष्ट चित्र हमें मिलता है हे देवि! जो मोक्षप्राप्ति का साधन है, अचिन्त्य एवं महाव्रत स्वरूपा है, समस्त दोषों से रहित है, जितेन्द्रिय, तत्त्व को ही सार मानने वाले तथा मोक्ष की इच्छा रखनेवाले मुनिजन जिनका अभ्यास करते हैं, वह भगवती परमा अर्थात् उत्कृष्टा विद्या आप ही हैं । इन्हीं विद्याओं में उत्कृष्टता के प्राचुर्य से काली, तारा तथा त्रिपुरसुन्दरी आदि महाविद्याएँ कहलाती
महाविद्याओं का मानव शरीर में अधिष्ठान
तन्त्ररश्मि नामक बंगला पुस्तक में लेखक शाक्तसाधक आशुतोष चौधरी ने तो मानव शरीर को ही इन महाविद्याओं का अधिष्ठान माना है। इनकी दृष्टि में शरीर के नवद्वारों (छिद्रों) की तथा सहस्रार की अधिष्ठात्री होने से पराशक्ति की दस महाविद्याओं के रूप में प्रसिद्धि है। शरीर के नवद्वार रूप में परिचित छिद्रों में सात छिद्र मस्तक में ही विद्यमान हैं— दो कान, दो आँखें, दो नासिकारन्ध्र और मुख। दो छिद्र पायु और उपस्थ शरीर के अधोभाग में अवस्थित हैं। दशवाँ सर्वोत्कृष्ट छिद्र ब्रह्मरन्ध्र नाम से परिचित हैं, १. द्रष्टव्य-उक्त ग्रन्थ का चतुर्थ खण्ड ५.६३-७५ २. एता दश महाविद्याः सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः। (मुण्डमालातन्त्र, द्वितीय भाग, १.८) ३. दुर्गासप्तशती ४.६ ४. योगमाया आश्रम, लावान् शिलौंग आसाम से प्रकाशित। द्रष्टव्य-इसका पृ. ४५-४६ मा दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३७१ जो सबसे ऊपर शीर्ष भाग के सहस्रार में अवस्थित है। इन रन्ध्रों की अधिष्ठात्री महाविद्याएँ मानी गई हैं। इन रन्ध्रों के माध्यम से ही मानव के अन्तःस्थित शक्ति का विकास होता है। साधना के क्षेत्र में दाहिने कान का महत्त्व अधिक है, क्योंकि गुरु शिष्य के दक्षिण कर्ण में ही इष्ट मन्त्र का दान करता है। साधक दक्षिण कर्ण के माध्यम से ही नादध्वनि सुन पाता है। भगवती काली के अक्षमाला-जप के विधान में अ से क्ष की ओर गति होती है। वह बाँयें से दाहिने की ओर जाती है। दक्षिणा भगवती आद्या का नाम भी है। अत एव दक्षिण कर्ण की अधिष्ठात्री भगवती आद्या हैं। द्वितीया (तारा) के जपविधान का क्रम इससे विपरीत है। अत एव यहाँ दक्षिण से वाम की ओर गति होती है। यहाँ क्ष से अ की ओर जाना होता है। अत एव तारा का नाम वामा भी है। वाम कर्ण से वह बिन्दु सुनाई देता है, जो नाद के ऊपर विराजमान है। फलतः वाम कर्ण की अधिष्ठात्री देवी द्वितीया (तारा) है। षोडशी (त्रिपुरसुन्दरी) और भुवनेश्वरी (जगद्धात्री) क्रमशः दक्षिण एवं वाम नेत्र की अधिष्ठात्री हैं। उपर्यक्त चार देवियों का अधिष्ठान यहाँ मानव शरीर में एक ही सरल रेखा में विद्यमान है। इसके थोड़े से नीचे नासारन्ध्र-युगल है, जहाँ भगवती धूमावती और मातंगी का अधिष्ठान कहा गया है। प्राणायाम में प्रतिष्ठित होने पर आँख और कान क्रियाशील हो उठते हैं। फलतः उक्त चार देवियों की सहायिका के रूप में भी इन दोनों देवियों का परिचय मिलता है। मुख-गह्वर की अधिष्ठात्री भगवती वगलामुखी है। यह वाक्-संयम तथा आहार-नियमन में सहायक होती है। वायु की अधिष्ठात्री भैरवी है। यह सुषुम्णा नाड़ी के विकास का पथ निर्माण करती है। इसका नामान्तर गुह्यवासिनी भी है। भगवती कमला को दोनों ओर से गजयुगल कुम्भों से अमृत सिञ्चन करते रहते हैं। यह कुम्भ-युगल उपस्थ के निकटवर्ती अण्डयुगल का प्रतीक है और यह कमला उपस्थ की अधिष्ठात्री देवी है। इनकी सहायता भगवती छिन्नमस्ता करती हैं, जो शीर्षस्थ ब्रह्मरन्ध्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। वीर्य मस्तिष्क से ही उद्दीपित होकर अण्डद्वय में संचित होता है, यह अनुभवसिद्ध है। किन्तु इस कथन का शास्त्रीय आधार अन्वेषणीय है।
भगवान विष्णु के दस अवतारों के साथ इन महाविद्याओं का तादात्म्य
दात्म्याज तिमि शाक्त तन्त्रों में भगवान् विष्णु के प्रसिद्ध दस अवतारों के साथ इन महाविद्याओं के तादात्म्य स्थापन का प्रतिपादन किया गया है। यद्यपि इसकी न तो प्रसंग-संगति दिखाई गयी है और न तो ठोस आधार ही निर्दिष्ट है, साथ ही तादात्म्य स्थापन में तन्त्र-ग्रन्थों में परस्पर वैमत्य भी परिलक्षित होता है, तथापि “स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया" इस न्याय के आधार पर इस तादात्म्य-स्थापन का एक उद्देश्य यह हो सकता है कि जैसे शिष्टानुग्रह एवं दुष्टनिग्रह हेतु भगवान् विष्णु को अवतार लेना पड़ा, इसी तरह पराशक्ति भी उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु दस महाविद्याओं के रूप में अवतरित होकर भगवान् के अवतारों के साथ तादात्म्य ३७२ म तन्त्रागम-खण्ड BF TE का स्थापन किया हो। उक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु आदिशक्ति की तत्परता का संकेत दुर्गासप्तशती में मिलता है । दूसरी बात यह हो सकती है कि पौराणिक और आगमिक देवताओं में यथाक्रम प्रधान कृष्ण और काली में अभेद का आरोप भक्तों का, साधकों का अभीष्ट रहा हो। इसकी पुष्टि महाकालसंहिता के इस कथन से होती है कि सम्पूर्ण संसार की स्त्रियों के कामोन्माद के प्रशमन हेतु द्वापर में भगवती काली ने वंशीधारी कृष्ण का रूप धारण किया था। महाशिक महाविद्याओं के आविर्भाव का देश तथा काल काकी व इन
महाविद्याओं के आविर्भाव का देश तथा काल
का निर्देश अनेक तन्त्रों में मिलता है। यह देश भारतवर्ष के ही प्रान्त-विशेष के रूप में परिचित है तथा काल विविध पारिभाषिक रात्रियों के नाम से प्रसिद्ध है। साधकों के लिये वह स्थान एवं काल अधिक महत्त्वपूर्ण है, जब जहाँ भगवती का आविर्भाव हुआ। शक्तिसंगमतन्त्र के छिन्नमस्ता खण्ड में उन देशों का निर्देश है, जहाँ इन विद्याओं का आविर्भाव हुआ था। यथा अवन्ती में आधा का, श्रीशैल में (शिवकाञ्ची में) त्रिपुरसुन्दरी का, मेरुगिरि के पश्चिमकूल स्थित चोलहरद में तारा का, पुष्पभद्रा नदी के तट पर छिन्नमस्ता का, सौराष्ट्र के हरिद्राख्य सिद्धकुण्ड में वगला का, मतंग मुनि के तपःप्रभाव से कदम्ब विपिन में मातंगी का और दक्षप्रजापति के यज्ञ में निर्मित गौरीकुण्ड के धूम से धूमावती का आविर्भाव हुआ । यहाँ उस काल का विवरण भी अनेकत्र दिया गया है। यथा प्रथम खण्ड के षष्ठ एवं त्रयोदश पटलों के पूर्णाभिषेक प्रकरण में और चतुर्थ खण्ड के पञ्चम तथा षष्ठ पटलों में विशद रूप में देखा जाता है। किन्तु कल्याण के शक्ति अंक में निर्दिष्ट इन देवियों की आविर्भाव-रात्रियों के १. इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति। तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्।। (दुर्गासप्तशती ११.५५) अवधेय है कि महामारी आदि आधिदैविक उपद्रव की शान्ति हेतु दुर्गासप्तशती के इस पद्य का पाठ, लिखकर घर में रखना तथा जप आदि पुरश्चरण करना मिथिला में प्रचलित है। उक्त पद्य का संवाद भगवद्गीता में पाया जाता है यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। (४.७) सप्तशती यदि पराशक्ति के विषय में कहती हैं, तो भगवद्गीता परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण को आलम्बन करती है। स्त्रीणां त्रैलोक्यजातानां कामोन्मादैकहेतवे। बंशीधरं कृष्णदेहं द्वापरे सञ्चकार ह।। (महाकालसंहिता गुह्यकालीखण्ड १३.३४३) ३. द्रष्टव्य-शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ता खण्ड, पटल ५-६ द्रष्टव्य कल्याण का शक्ति अंक, पृ. ११२ ४. द्रष्टव्य शक्तिसंगमतन्त्र खण्ड १ पटल ६, पद्य २३-२५, व पटल १३, पद्य १-३८, तथा इसी का खण्ड ४, पटल ६, ७०-७५ जाना दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३७३ साथ शक्तिसंगमतन्त्र का मतैक्य नहीं है। प्रतीत होता है कि तन्त्रान्तर से इस शक्ति अंक में इन रात्रियों का विवरण संगृहीत हुआ है। यथा फाल्गुन कृष्ण एकादशी तिथि का पारिभाषिक नाम “महारात्रि" है। इसी रात्रि में यहाँ आद्या (काली) का आविर्भाव कहा गया है। इसी तरह क्रमशः चैत्र शुक्ल नवमी “क्रोधरात्रि” है। इसमें द्वितीया, अर्थात् तारा का आविर्भाव हुआ। त्रिपुरसुन्दरी का आविर्भाव “दिव्यरात्रि” अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हुआ। भुवनेश्वरी का “सिद्धरात्रि” में चैत्र संक्रान्ति के बाद की अष्टमी में, छिन्नमस्ता का “वीररात्रि" में कुलाकुलचक्रघटित कुल नक्षत्र से युक्त चर्तुदशी मंगल यदि मकरसंक्रान्ति के मध्य पड़ता हो तो उस समय में, भैरवी का “कालीरात्रि" में अर्थात् कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को यदि अमावस्या का योग हो, धूमावती का “दारुणारात्रि" वैशाख शुक्ल तृतीया को यदि कुलाकुल नक्षत्र घटित कुल नक्षत्र का योग हो, वगलामुखी का “धोररात्रि” में अर्थात् अगहन कृष्ण अष्टमी को, मातंगी का “मोहरात्रि" में अर्थात् भाद्रकृष्ण अष्टमी को और कमला का “महारात्रि" में आविर्भाव हुआ। इन रात्रियों का विवरण यहाँ स्वतन्त्रतन्त्र से संगृहीत है। प्राणतोषिणी तन्त्र में उक्त वचन का उद्धरण उपलब्ध है।
महाविद्याओं की उद्भव-कथा, स्वरूप, प्रकार तथा साहित्य
पुराण तथा तन्त्रों में इन महाविद्याओं के उद्भव की रोचक कथाएं मिलती हैं। मार्कण्डेयपुराण में दो स्थलों पर भगवती काली के उद्भव की कथा आयी है (क) शुम्भ तथा निशुम्भ द्वारा उत्पीड़ित देवगण हिमालय जाकर महादेवी की स्तुति करने लगे। पार्वती उनके समक्ष आकर पूछने लगी कि आप सब किसकी स्तुति कर रहे हैं। इसी समय पार्वती के शरीर से अम्बिका आविर्भूत हुई और कहने लगी कि ये देवगण मेरी स्तुति कर रहे हैं। पार्वती के शरीर-कोश से उत्पन्न यह अम्बिका “कौशिकी’ नाम से प्रसिद्ध हई। शरीर से इनके निर्गत होते ही पार्वती काली पड़ गयी, वह हिमालय पर रहने वाली “कालिका" कहलाने लगी। I (ख) शुम्भ का आदेश पाकर चण्ड एवं मुण्ड आदि दैत्यगण भगवती अम्बिका को निगृहीत करने के लिये जब सब तरह से उद्यत हुए, तो भगवती अम्बिका क्रोध से काली पड़ गयी और चूँकि इन्होंने चण्ड-मुण्ड का वध किया, अतः “चामुण्डा" कहलायी। प्रसिद्ध काली के स्वरूप के साथ इस चामुण्डा भगवती का विवरण सर्वथा समान है। इनके स्वरूप-ज्ञान के लिये दुर्गासप्तशती का सम्पूर्ण सप्तम अध्याय ही यहाँ अवलोकनीय है। १. प्राणतोषिणी तन्त्र के काण्ड ५, परिच्छेद ६ में उद्धृत स्वतन्त्रतन्त्र के वचन देखिये। तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत् सापि पार्वती। कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया।। (दुर्गासप्तशती ५.८८) ३. ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन प्रति।। कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत् तदा।। (दुर्गासप्तशती ७.५) का ३७४ यातन्त्रागम-खण्ड Map (ग) प्राणतोषिणीतन्त्र में नारदपञ्चरात्र का वचन उद्धृत करते हुए कहा गया है कि दक्ष प्रजापति के गृह में सती रूप में जिसने जन्म लिया था, उसने अपने पिता दक्ष के प्रति रुष्ट होकर उस शरीर का त्याग कर दिया और अप्सरा मेनका को अपने जन्म से अनुगृहीत किया, अर्थात् उसके उदर से जन्म लिया। वही भगवती काली नाम से भी शास्त्रों में प्रतिष्ठित हैं। (घ) शक्तिसंगमतन्त्र में वर्णित है कि यन्त्र के मध्य में विद्यमान प्रधान बिन्दु से भगवती काली का उद्भव हुआ। अतः यन्त्र की अधिष्ठात्री भी वही कहलाती हैं। कथा इस प्रकार है कि प्रलय के बाद संसार की सृष्टि के लिये भगवान् शिव काली के साथ विपरीत रति में इस तरह से लीन थे कि उनको अन्य किसी बात का ज्ञान ही नहीं था। उनके पूजन एवं दर्शन हेतु गन्धर्व एवं अप्सराओं के साथ देवगण भी आये और इनकी स्तुति-पूजा करने लगे। उन्होंने कहा कि हे देव! चूँकि आपने प्रलय से इस जगत् की रक्षा की है तथा सृष्टि के लिये तत्पर हैं, अत एव आपके सामरस्यरूप आनन्द के दर्शनार्थ हम लोग यहाँ उपस्थित हुए हैं। सम्भोग में आसक्त प्रभु का ध्यान टूटा। इन्होंने भगवती काली से कहा कि भगवती आपके दर्शनार्थ ये सुन्दरियाँ यहाँ आयी हैं, इन्हें अपने दर्शन से कृतार्थ कीजिये। भगवती काली इतना सुनते ही वहीं अन्तर्हित हो गयी। फिर उनके दर्शन हेतु प्रभु शिव को वर्षों ध्यान-तपस्या करनी पड़ी। शिव के ध्यान-तप से प्रसन्न होकर भगवती ने अनुग्रह किया और शिव को यन्त्रनिर्माण की बुद्धि दी। शिव जी इस यन्त्र की रचना में इस तरह उलझे रहे कि उस यन्त्र से बाहर आने का रास्ता ही इनको भुला गया। एक दिन अकस्मात् उस यन्त्र के मध्य में विद्यमान प्रधान बिन्दु से भगवती काली प्रकट हुई और तब दोनों ही (शिव एवं काली) प्रसन्न हुए। शाक्त तन्त्रों में भगवती का ध्यान इस प्रकार वर्णित है— करालवदना मुक्तकेशी, दिगम्बरा मुण्डमालाविभूषिता चतुर्हस्ता निम्न वाम हस्त में सद्यश्छिन्नमस्तक, ऊर्ध्व वाम हस्त में खड्ग, निम्न दक्षिण हस्त में वरमुद्रा, ऊर्ध्व दक्षिण हस्त में अभयमुद्रा । महामेघ की तरह श्यामवर्णा, स्मेरानना, शवरूप शिव के हृदय पर विद्यमान, अर्धचन्द्रतुल्य भालवती, शवकरों से विनिर्मित काञ्चीधारिणी, दोनों कानों में अवतंस रूप शव को धारण की हुई, दायें एवं बायें दोनों ओष्ठप्रान्तों से रक्तधारा स्राविणी घोरदंष्टा, महारावा रक्तस्राविणी मुण्डावलियों की माला को कण्ठ में धारण करने वाली भगवती दक्षिणकाली कालीतन्त्र में वर्णित है। काली के वाम हस्त में विद्यमान छिन्न मस्तक महामोह का प्रतीक है और काली के तीन नयन क्रमशः अग्नि, सूर्य और चन्द्र रूप हैं— इसका स्पष्ट संकेत रुद्रयामल में मिलता है । क १. प्राणतोषिणीतन्त्र, ५.६-१ कि २. द्रष्टव्य शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ताखण्ड, ५.३-१७३ तथा ६.१-४० जागान मा ३. द्रष्टव्य- कालीतन्त्र ४. द्रष्टव्य-रमानाथकृत कपूरस्तवटीका। यहा तान्त्रिक साहित्य की भूमिका गीत प्र. २७ से यह वर्णन लिया गया है। कांगताण आतिदस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३७५ जिमा तन्त्र-ग्रन्थों में स्वरूपतः एक एवं अद्वितीय अत एव कृष्ण तथा ब्रह्म के साथ तादात्म्ययुक्ता तथा तुलनीया भगवती काली के अनेक प्रभेद, अर्थात् व्यावहारिक सत्ता निर्दिष्ट हैं। महानिर्वाणतन्त्र कहता है कि महाप्रभामयी, कालमाता तथा रूपरहिता काली की रूपकल्पना उनके गुण एवं क्रिया के अनुसार की गई है । तोडलतन्त्र में काली के आठ भेद वर्णित हैं- दक्षिणकाली, सिद्धकाली, गुह्यकाली, श्रीकाली, द्रकाली, चामुण्डाकाली, श्मशानकाली और महाकाली महाकालसंहिता में इनके नौ प्रकार कहे गये हैं- दक्षिणकाली, भद्रकाली, श्मशानकाली, कालकाली, गुह्यकाली, कामकलाकाली, धनकाली, सिद्धिकाली और चण्डकाली । Foतन्त्रालोक में भिन्न प्रकार के बारह कालिकाओं के नाम उपलब्ध हैं। वहीं इनके ध्यान एवं मन्त्र आदि भी दिए गये हैं। व्याख्याकार जयरथ ने इन सबका परिचय विस्तार से प्रस्तुत किया है, किन्तु स्मार्त शाक्त परम्परा में अथवा प्रसिद्ध दस महाविद्याओं के साथ इन कालियों का दूर का भी सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता। तन्त्रालोक का यह प्रकरण प्रायः क्रम-दर्शन से संबद्ध है। I DE
- ज्ञातव्य है कि जैसे युग-विशेष में महाविद्या-विशेष के प्राधान्य का उल्लेख तन्त्र-ग्रन्थों में मिलता है, वैसे ही देश-विशेष में महाविद्या-विशेष की उपासना का प्राचुर्य व्यवहार में देखा जाता है। शाक्त तन्त्रों में विष्णुक्रान्ता क्षेत्र के रूप में परिचित आसाम, बंगाल, मिथिला तथा नेपाल में दीर्घकाल से भगवती आद्या (काली) तथा द्वितीया (तारा) की प्रमुख रूप से उपासना प्रचलित है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य महाविद्याओं की यहाँ उपेक्षा देखी जाती है, किन्तु उक्त दोनों की उपासना के प्राचुर्य में तात्पर्य है। इसका स्पष्ट परिणाम हम देखते हैं कि आसाम में कालिकापुराण का प्रणयन हुआ। बंगाल में स्वनामधन्य महानैयायिक गदाधर भट्टाचार्य, श्रेष्ठ साधक रामप्रसाद कमलाकान्त तथा रामकृष्ण परमहंस आदि ने भगवती काली की उपासना से सिद्धि पायी। मिथिला राज्योपार्जक नैयायिकवरेण्य महेश ठक्कुर ने आद्या की उपासना से राज्यलाभ के साथ निर्मल वैदुष्य तथा धवल कीर्ति का अर्जन किया। इस शताब्दी में भी इनके वंशधर महाराज रमेश्वर सिंह मिथिलानरेश ने परम्पराप्राप्त उपासना के बल पर अनेक सिद्धियाँ पायी और कमला नदी की प्रबल वेगधारा को वर्षाकाल में अपने अनुष्ठान से मोड़ दिया। इनकी निर्मापित दस महाविद्याओं की एवं १. अरूपायाः कालिकायाः कालमातुर्महाधुतेः। गुणक्रियानुसारेण क्रियते रूपकल्पना।। (महानिर्वाणतन्त्र ५.१४०) दक्षिणकालिका सिद्धकालिका गुह्यकालिका। श्रीकालिका भद्रकाली चामुण्डाकालिका परा।। श्मशानकालिका देवि महाकालीति चाष्टधा। (तोडलतन्त्र ३.१८-१६) महाकालसंहिता कामकलाखण्ड का आरम्भ। ४. द्रष्टव्य-तन्त्रालोक चतर्थ आहिनक कारिका १४५ एवं उसके आगे।" ५. द्रष्टव्य-मुण्डमालातन्त्र ६.१३२ ali RPISODE ३७६ तन्त्रागम-खण्डमा महाकालसंहिता के अनुसार गुह्यकाली की प्रतिमाएँ यथाक्रम राजनगर एवं भौरागढ़ी (मधुबनी, बिहार) में पूजित आदृत विराजमान हैं। नेपाल में महाकालसंहिता जैसे विशाल तान्त्रिक ग्रन्थ का निर्माण एवं प्रचार हुआ। उक्त संहिता की पुष्पिका में स्पष्ट कहा गया है -“लिखितमिदं भक्तपट्टने"। भक्तपट्टन नेपाल में आज भी वर्तमान एवं प्रसिद्ध है। इस संहिता में स्मार्त शाक्त सम्प्रदाय के अनुसार उपासनाविधि का सांगोपांग विवरण उपलब्ध है तथा इस सम्प्रदाय के प्रति विशेष पक्षपात यहाँ देखा जाता है। इस प्रसंग के संक्षेप में परिचय हेतु केवल दो पद्य यहाँ उल्लेख योग्य हैं “श्रुतिस्मृत्युदितं कर्म देव्युपासनमेव च। उभयं कुर्वते देवि मदुदीरितवेदिनः।। अतोऽदः श्रेष्ठमन्येभ्यो मन्येऽहमिति पार्वति’ । वेदाविरुद्धं कुर्वन्ति यद् यदागमचोदितम्। आगमादेशितमपि जहति श्रुत्यचोदितम्"।। धाहरू अत एव यहाँ चार वामाचारी तान्त्रिक सम्प्रदायों का उल्लेख एवं आलोचन के साथ अपने सम्प्रदाय की श्रेष्ठता का प्रतिपादन हुआ है। यहाँ कहा गया है कि कापालिक, मौलेय, दिगम्बर तथा भाण्डिकेर क्रमशः डामर, यामल, भैरवसंहिता तथा शाबरतन्त्र के अनुसार देवी के आराधक अपने निन्ध आचरण के कारण सर्वथा आलोच्य एवं स्मातों के लिये वयं की लगभग चौबीस सहस्र पद्यों में उपनिबद्ध इस संहिता में काली की उपासना विषयक यावतीय विधियों एवं विधानों का संकलन हुआ है। काली के प्रभेद, उनके स्वरूपों का विवरण, माहात्म्य, सिद्ध उपासकों की नामावली, अथर्वगुह्य उपनिषद्, अनेक दुर्लभ मन्त्रों का उद्धार, अनेक धारणीय एवं पूजनीय यन्त्रों के स्वरूप, मूर्तिभेद के कारण इनके तान्त्रिक गायत्रियों के प्रकार, कवच, सहस्रनाम, सुधाधारा, सिद्धितत्त्व तथा कालीभुजंगप्रयातस्तोत्र, अनेकों न्यास एवं न्यास-विशेष लघुषोढा, महाषोढा तथा षोढा; उपचारों के भेद से पूजा में वैविध्य, योगविधि, मानसपूजा तथा बाह्यपूजा की विस्तृत विधि, पवित्रारोपण, दमनारोपणविधि, पौराणिक किन्तु प्रासंगिक अनेक उपाख्यान, आवरणपूजा, बिन्दुपूजा तथा शक्तिपूजा आदि विस्तारपूर्वक प्रतिपादित हैं। पानी की पर इन महाविद्याओं के उत्कर्ष प्रदर्शनार्थ यहाँ कहा गया है कि षडाम्नाय की देवियाँ कदाचित् ही सभी समयों में सब प्रकार का फल देने में समर्थ हैं। कोई यदि सत्ययुग में फलप्रदा होती हैं, तो कोई त्रेता में; कोई द्वापर में फलदा होती हैं तो कोई कलियुग में। किन्तु महाविद्याएँ चारों युगों में समान रूप से फलप्रदा होती हैं। इन दसों में भी काली, तारा और त्रिपुरसुन्दरी विशिष्ट हैं । १. द्रष्टव्य-महाकालसाहता गुह्यकालाखण्डा सहा राजा २. द्रष्टव्य—वहीं ३. द्रष्टव्य—महाकालसंहिता, गुह्यकालीखण्ड। ४. द्रष्टव्य–महाकालसंहिता-वचन, पुरश्चर्यार्णव के प्रथम तरंग में उद्धृत। दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३७७ कुब्जिकातन्त्र में तो इससे अधिक ही इनके माहात्म्य निर्दिष्ट हैं। ये महाविद्याएं उपासिता होने पर धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष- इन चतुर्वगों को अवश्य देती हैं तथा कलियुग में भी पूर्ण फल प्रदान करने में समर्थ हैं। एक बार भी इन महाविद्याओं के नामोच्चारण या मन्त्रोच्चारण से जीव सर्वविध पापों से मुक्त हो जाता है । सिंह विष्णुक्रान्ता क्षेत्र की यह दीर्घकालिक परम्परा रही है कि प्रायः वैदिक, पौराणिक और आगमिक दीक्षा अवश्य प्रत्येक द्विज लेता रहा है। मिथिला में पौराणिक दीक्षा का प्रचार या परम्परा प्रायः नहीं है, किन्तु स्मार्त शाक्त परम्परा में निर्दिष्ट अकडमचक्र, अकथहचक्र या सिद्धादिचक्र द्वारा ग्राह्य शाक्त मन्त्र का निर्धारण कर दस महाविद्याओं में से किसी एक देवता के मन्त्र की दीक्षा अवश्य ली जाती है। उपनयन संस्कार की तरह यह अवश्य कर्तव्य होता है। कुल-विशेष में देवता-विशेष का मन्त्र परम्परा से कुल के प्रत्येक सदस्य के लिए मान्य तथा ग्राह्य होता है। यहाँ सिद्धादिचक्र द्वारा मन्त्रनिर्धारण की प्रक्रिया नहीं अपनायी जाती। इसे कौलिक मन्त्र कहते हैं। या दीर्घ काल से मिथिला में कुलदेवता के रूप में भी दस महाविद्याओं में से किसी एक देवता की स्थापना होती आ रही है। इनमें भी दक्षिणकाली, तारा तथा त्रिपुरसुन्दरी का ही प्राधान्य है। यही कारण है कि इस विष्णुकान्ता क्षेत्र में आधुनिक काल में दस महाविद्याओं की आराधन-विधि के प्रचारार्थ अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है। बंगाल में ख्रिष्टीय षोडश शतक के आस-पास की कृति रघुनाथ तर्कवागीश प्रणीत आगमतत्त्वविलास, यदुनाथ शर्मा की आगमकल्पवल्ली तथा अन्य किसी साधक की कृति आगमचन्द्रिका में इन दस महाविद्याओं की विस्तृत उपासनापद्धति निर्दिष्ट है। इसी क्रम में तन्त्रसार तथा प्राणतोषिणी तन्त्र का प्रणयन हुआ। मिथिला में शाक्तप्रमोद तथा राजनाथ मिश्रकृत तन्त्राहिनक का अधिक प्रचार हुआ एवं नेपाल में विशाल ग्रन्थ पुरश्चर्यार्णव का निर्माण हुआ।
काली से संबद्ध साहित्य
काली विद्या विषयक साहित्य का परिमाण इतना अधिक है कि सबका संकलन सीमित स्थान एवं काल में सम्भव नहीं है। काली की उपासना से संबद्ध उपनिषद्, सूत्र, मूलतन्त्र, सारसंग्रह, संहिता, स्वतन्त्र निबन्ध तथा पूजापद्धतियाँ उपलब्ध हैं। यथामति उसका दिग्दर्शन प्रस्तुत करने की चेष्टा की जाती है। काली-उपनिषद्, बचोपनिषद् अथर्वशीर्ष उपनिषद् अथर्वगुह्योपनिषद् तथा शाक्त-उपनिषद् प्रकाशित एवं प्रचारित हैं, जहाँ परा देवी एवं काली के प्रसंग में विवरण उपलब्ध है। कालज्ञानतन्त्र तथा कालोत्तरपरिशिष्ट काली उपासना का प्राचीन ग्रन्थ है। क्षेमराज ने साम्बपञ्चाशिका की टीका में इसका उल्लेख किया है। विमलबोधकृत कालीकुलकमार्चन, भद्रकालीचिन्तामणि, कालीकल्प, कालीसपर्याक्रमकल्पवल्ली, कालीविलासतन्त्र, कालिकार्णव, कालीकुलसर्वस्व, कुलमूलावतार, १. कुब्जिकातन्त्रवचन प्राणतोषिणी में उद्धृत (काण्ड ५ परिच्छेद ६) द्रष्टव्य। जिस पर ३७८ वाम तन्त्रागम-खण्ड कम छ कालीकुलतन्त्र, काशीनाथ तर्कालंकारभट्टाचार्यकृत श्यामासपर्या, कालिका_मुकुर, शक्तिसंगमतन्त्र का कालीखण्ड, भैरवीतन्त्र का कालीमाहात्म्य, महाकालसंहिता का गुह्यकाली तथा कामकलाखण्ड, कुलार्णवतन्त्र, कारणागमतन्त्र, कालीतन्त्र, कालिदासकृत चिद्गगनचन्द्रिका, पुरश्चर्यार्णव का नवम तरंग, विश्वसारतन्त्र, कृष्णानन्द आगमवागीश कृत तन्त्रसार, प्राणतोषिणीतन्त्र, शाक्तप्रमोद तथा तन्त्रानिक आदि ग्रन्थों में काली की उपासनाविधि विस्तार या संक्षेप से वर्णित है। इनके अतिरिक्त मार्कण्डेयपुराण का देवीमाहात्म्य, देवीपुराण, कालिकापुराण, भविष्यपुराण तथा विष्णुधर्मोत्तरपुराण आदि में भी भगवती आद्या का माहात्म्य एवं उपासनाविधि प्रतिपादित है । __ यहाँ यह भी अवधेय है कि प्राचीन तन्त्रों में अनभिहित, किन्तु शताधिक वर्षों से प्रचलित बंगाल में तीन दिन–दीपावली कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, माघ कृष्ण चतुर्दशी तथा रटन्ती चतुर्दशी के रूप में प्रसिद्ध ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी को भगवती काली की पूजा अवश्य अनुष्ठित होती है। मिथिला में केवल दीपावली की रात में काली की उपासना प्रचलित है। उड़ीसा का विरजा देवी का क्षेत्र पड़ोसी प्रान्त बंगाल की परम्परा से ही प्रभावित प्रतीत होता है। बंगाल में कालीतन्त्र के अनुसार ही आज पूजा अनुष्ठान प्रचलित है और मिथिला महाकालसंहिता से प्रभावित है। एक
तारा की उद्भव-कथा
भगवती तारा द्वितीया पद से भी तन्त्रों में परिचित हैं। चूँकि काली और तारा में नाम मात्र का भेद है, दोनों में वास्तविक अभेद ही है, अतः उपर्युक्त विष्णुक्रान्ता क्षेत्र में ही इनकी । उपासना की प्रचुरता देखी जाती है। आद्या और द्वितीया में अभेद की बात शक्तिसंगमतन्त्र के सुन्दरी खण्ड में (४.५१ एवं ६.१२-१४) तथा मुण्डमालातन्त्र (१.१५) में कही गयी इनके आविर्भाव के प्रसंग में बताया गया है कि ब्रह्माण्ड में स्थावर एवं जंगम पदार्थों के नष्ट हो जाने पर चतुर्भुज भगवान् विष्णु स्वयं उद्भूत हुए और उनकी नाभि से चतुर्मुख ब्रह्मा का तथा ललाट से भगवान् रुद्र का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मा ने विष्णु से पूछा कि किस विद्या की आराधना से चारों वेदों का कथन संभव होगा, तो भगवान् विष्णु ने शंकर से उत्तर की जिज्ञासा की। भगवान् शंकर ने महानील सरस्वती का नाम सुझाया। मजा भगवती नीलसरस्वती मेरुगिरि के पश्चिम तट में चोल नामक महारद से उद्भूत हुई। भगवान् शिव मेरुगिरि की चोटी पर जब तीन युगों तक तपस्या में लीन रहे, उनके ऊर्ध्व मुख से भगवान् विष्णु की तेजोराशि निर्गत होकर उस चोल हद में जा गिरी और १. द्रष्टव्य—म. म. गोपीनाथ कविराज का तान्त्रिक साहित्य, भूमिका पृ. २७-२८, तथा प्रो. चिन्ताहरण चक्रवर्ती का तन्त्र स्टडीज ऑन देयर रिलीजन एण्ड लिटरेचर। काकाकी दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३७ वह हुरद नील वर्ण का हो गया। वही तेजःपुञ्ज भगवती नीलसरस्वती के नाम से विख्यात हुआ। उस हरद के उत्तर भाग में एक ऋषि रहते थे, उनका नाम अक्षोभ्य था। वह यथार्थतः शिव ही थे। चूँकि सबसे पहले इस ऋषि ने ही इनकी आराधना एवं जप किया था, अत एव इस देवी के ऋषि यही (अक्षोभ्य) माने गये। यही भगवती जल से आप्लावित विश्व में, अर्थात् प्रलय काल में चीन देश में महोग्रतारा नाम से आविर्भूत हुई, जो वस्तुतः चित्प्रभारूपा है। मारत तन्त्रशास्त्र में चैत्र शुक्ल नवमी को क्रोधरात्रि कहा गया है और इसी रात्रि में भगवती तारा का आविर्भाव माना गया है। महाकालसंहिता में इनके प्रसिद्ध तीन भेदों—एकजटा, उग्रतारा और नीलसरस्वती का स्पष्ट निर्देश है’ । ला- भगवती मुक्तकेशी के सिर पर जटा रूप में भगवान् शिव स्वयं विराजमान थे, अत एव एकजटा नाम से वह ख्यात हुई। भगवती उग्र आपत्तियों से प्राणियों का उद्धार करती है, अत एव उग्रतारा कहलाती है। चूँकि वेदों के कथन में ब्रह्मा की सफलता इन्हीं की आराधना से सम्भव हुई, अतः नीलसरस्वती भी इनका नाम हुआ। मिथिला में एक विशेष धारणा है कि सरस्वती के प्रभेद के रूप में प्रसिद्ध भगवती तारा के उपासक सविद्य ही होते हैं, अविद्य (मूर्ख) नहीं। यदि इन्होंने साधना पक्ष को सविधि सम्पन्न किया तो वैदुष्य की प्रसिद्धि से भी प्रतिष्ठित होते हैं। धन आदि के अभाव में भी वैदुष्य के कारण सामाजिक प्रतिष्ठा अवश्य मिलती है। २. यद्यपि इनकी उपासना-विधि अनेक तन्त्रों में वर्णित है, तथापि उनमें प्रसिद्ध एवं मुख्य तन्त्र-ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं- तारातन्त्र (तारिणीतन्त्र), तारासूक्त, तोडलतन्त्र, तारार्णव, महानीलतन्त्र, नीलतन्त्र, नीलसरस्वतीतन्त्र, चीनाचारतन्त्र, तन्त्ररत्न, तारोपनिषत, एकजटाकल्प, ब्रह्मयामल के अन्तर्गत महाचीनाचारक्रम, एकवीरतन्त्र तथा तारिणीनिर्णय आदि। इसी तरह प्रकरण ग्रन्थों में लक्ष्मणभट्टकृत ताराप्रदीप, नरसिंह ठक्कुर कृत ताराभक्तिसुधार्णव, आगमाचार्य शंकरकृत तारारहस्य तथा इसकी वृत्ति, प्रकाशानन्द कृत, विमलानन्द कृत तथा काशीनाथ कृत तीन ताराभक्तितरंगिणी, नित्यानन्द कृत ताराकल्पलतापद्धति तथा विद्वदुपाध्याय कृत तारिणीपारिजात आदि इनकी उपासना-विधि के लिए द्रष्टव्य हैं। का यहाँ यह अवधेय है कि विद्या की अधिष्ठात्री पौराणिक देवता सरस्वती का ही आगमिक रूप तारा या नीलसरस्वती है तथा वेदों के रक्षार्थ ब्रह्मा द्वारा उपासिता हुई है, अत एव इनका उपासक विद्वान् अवश्य होता है। मिथिला में इस प्रवाद के साथ इसके निदर्शन रूप में म. म. डॉ. सर गंगानाथ झा तथा म. म. बालकृष्ण मिश्र का उल्लेख किया जाता है। FEST १. यथा त्रिभेदा तारा स्यात् । -३८० तन्त्रागम-खण्ड या इनके ध्यान में कहा गया है कि प्रत्यालीढपदा भगवती तारा शव पर विराजमान हैं। भयंकर अट्टहास कर रही हैं। चार भुजाओं में क्रमशः खड्ग, कमल, कत्ता और खपर विराजमान है। हूँकार से इनका उद्भव हुआ है। यह खर्वा (छोटे कद की) है तथा विशालपिंगल वर्ण के नागों से जटाजूट को बाँध लिया है। सम्पूर्ण विश्व के जाड्य को अपने खर्पर में रखकर नष्ट करती हैं ।
- डॉ. सर गंगानाथ झा वंशपरम्परा से भगवती तारा के उपासक थे। इनकी कुलदेवता एवं इष्टदेवता दोनों ही भगवती तारा ही रही हैं। इनके मूल निवास स्थान महिषी ग्राम (बिहार के सहरसा मण्डल का गाँव) भगवती तारा के सिद्धपीठ के रूप में चिरकाल से प्रसिद्ध है, जहाँ उपर्युक्त ध्यान के अनुकूल भगवती की प्रस्तरमूर्ति आज भी सविधि पूजित होती आ रही है। बंगाल के प्रसिद्ध तारापीठ में जो तारा की प्रतिमा है, वह उपर्युक्त ध्यान से भिन्न है। यहाँ भगवती तारा की गोद में शिशु शिव स्तनपान करते हुए देखे जाते हैं। इसका शास्त्रीय मूल अन्वेषणीय है। सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध इस स्थान का माहात्म्य तो इसी से मान्य है कि वामाखेपा नामक सिद्ध ने यहीं सिद्धि पाई थी। इसी तरह वाराणसी के नेपाली खपरा महल्ला में विद्यमान तारा मन्दिर की प्रतिमा उपर्युक्त ध्यान से मिलती नहीं है, तथापि तारिणीतन्त्र में निर्दिष्ट इनके अपर ध्यान के अनुसार संभव है उक्त प्रतिमा का निर्माण हआ हो. तथापि शास्त्रीय आधार अन्वेषणीय है। मिथिला के मर्मज्ञ तान्त्रिकों के परामर्श से इस शतक के आरंभ में पुण्यश्लोक किसी मैथिल रानी द्वारा यह प्रतिमा स्थापित है। अतः इसका शास्त्रीय आधार अवश्य रहा होगा। आसाम के गौहाटी क्षेत्र में भगवती कामाख्यापीठ के निकट उग्रतारापीठ तो चिरकाल से प्रसिद्ध है। नाच यही एक ऐसी भगवती हैं, जिनका आदर साक्षात् या परम्परया बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय में भी मिलता है। इनके भैरव अक्षोम्य को बौद्ध उपासकों ने भगवान् बुद्ध मानकर इनको अपनी विशिष्ट देवता के रूप में स्वीकार किया है। तारा की उपासना से संबद्ध ग्रन्थ बौद्ध परम्परा में भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। लगता है कि इस अक्षोम्य भैरव के व्युत्पत्तिनिमित्त एवं प्रवृत्तिनिमित्त मूलक अर्थ के समन्वय में बौद्ध एवं सनातन परम्परा की खींचातानी का परिमाण ही कुमारसंभव का यह पद्य कालिदास की लेखनी से उद्भूत हुआ है “विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः” सनातन सम्प्रदाय के अक्षोभ्य भगवान् शिव ही हैं, जो विष पीकर भी क्षुब्ध नहीं हुए और कामदेव द्वारा सपा १. प्रत्यालीढपदार्पिताविशवहृद्घोराट्टहासापरा पाहाय ला खड्गेन्दीवरकत्रिखर्परभुजा हूंकारबीजोदवा। खर्वा नीलविशालपिङ्गलजटाजूटैकनागैर्युता जाड्यं न्यस्य कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।। (शाक्तप्रमोद) २. द्रष्टव्य पुरश्चर्यार्णव, तरंग ८ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३८१ मनोविकार के कारणों के प्रस्तुत करने पर स्वयं उसे ही भस्मसात् किया, किन्तु स्वयं क्षुब्ध नहीं हुए। ___ दार्शनिक श्रेष्ठ गोकुलनाथ उपाध्याय के चचेरे भाई खिष्टीय सप्तदश शतक के सिद्ध महात्मा मैथिल मदन उपाध्याय तारा के उपासक रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। जनश्रुति है कि इन्होंने किसी से कहा था अनवद्ये यदि गद्ये पद्ये शैथिल्यमावहसि। महि । तत्किं त्रिभुवनसारा तारा नाराधिताभवता।। - उपर्युक्त ध्यान के अनुकूल इनकी इष्टदेवता की प्रतिमा इनके वंशधर के पास आज भी सुरक्षित है। शिव
त्रिपुरसुन्दरी के पर्यायनाम, व्युत्पत्ति तथा साहित्य
महाविद्याओं में प्रधान भगवती त्रिपुरसुन्दरी श्रीविद्या, षोडशी तथा त्रिपुरा नाम से भी अभिहित हुई है। कुब्जिकातन्त्र में निर्दिष्ट है कि धन तथा सर्वविध सम्पत्ति देने में औदार्य के कारण श्रीविद्या नाम से और निर्गुणा होने से षोडशी नाम से इन्हीं को पुकारा जाता है। त्रिपुरा पद का अभिप्राय कालिकापुराण में इस प्रकार वर्णित है—चूँकि देवी का मण्डल त्रिकोणों से बनता है, भूपुर में तीन रेखाएँ होती हैं, मन्त्र में तीन अक्षर हैं, उनके तीन स्वरूप हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश रूप त्रिदेव की सृष्टि हेतु तीन प्रकारों की कुण्डली शक्तियाँ इनकी प्रसिद्ध हैं, अतः यह त्रिपुरा नाम से ख्यात हैं । कामकलाविलास में त्रिपुरा पद का अर्थ कुछ तात्त्विक भेद के रहने पर भी आपाततः अभिन्न प्रतीत होता है। यहाँ माता, मेय और मान रूप पदार्थत्रय; रक्त, शुक्ल और मिश्र रूप त्रिबिन्दु; सोम, सूर्य और अग्नि रूप त्रिधाम, कामरूप, पूर्णगिरि तथा जालन्धर रूप त्रिपीठ; इच्छा, ज्ञान और क्रिया रूप त्रिशक्ति; बाण, इतर और पर रूप त्रिलिंग; अ, क और थ रूप त्रिधा भिन्न तीन मातृकाएं आदि त्रिक-विद्या से सांसारिक प्रपञ्चों के आविर्भाव एवं तिरोभाव की भूमि, अर्थात् १. श्रीदात्री च सदा विद्या श्रीविद्या परिकीर्तिता। निर्गुणा च महादेवी षोडशी परिकीर्तिता।। (कुब्जिकातन्त्रवचन, प्राणतोषिणी में उद्धृत ५.६) नित्याषोडशिकार्णव का कहना है जैसे चन्द्र की सोलह कलाओं में १५ कलाएँ क्षयिष्णु हैं, केवल एक सोलहवीं कला अक्षुण्ण होती हैं, क्योंकि वह सर्वतिथिमयी एवं पूर्ण कही गयी है। इसी तरह यहाँ उक्त प्रकार की षोडशतम कला युक्ता यह भगवती “षोडशी" कहलाती है। किसी का कहना है कि इनके बीज मन्त्र में सोलह अक्षर पाये जाते हैं, इस दृष्टि से यह षोडशी कहलाती हैं। २. त्रिकोणं मण्डलं चास्या भूपुरं च त्रिरेखकम्। कामकोटमा बोकी आशशि प्रह मन्त्रोऽपि त्र्यक्षरः प्रोक्तस्तथा रूपत्रयं पुनः।। प्रतिका त्रिविधा कुण्डलीशक्तिस्त्रिदेवानां च सष्टये। कालिका भगवामय यातील सर्व त्रयं त्रयं यस्मात् तस्मात्तु त्रिपुरा मता।। (कालिकापुराणवचन, ललितासहस्रनाम की भूमिका में उद्धत)। शीनामा ३८२ पारका तन्त्रागम-खण्ड आधार स्वरूपा यह पराशक्ति “त्रिपुरा" कहलाती है । प्रपंचसार में भगवान् शंकराचार्य ने इस प्रसंग में कहा है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप त्रिमूर्ति की सृष्टि के कारण त्रयी, अर्थात् वेदस्वरूपा होने के कारण तथा प्रलय में तीनों लोकों को अपने में समा लेने के कारण प्रायः अम्बिका का त्रिपुरा नाम हुआ । नारदपञ्चरात्र के अनुसार काली ही त्रिपुरसुन्दरी है। इनकी उद्भवकथा इस प्रकार है— स्वर्ग की अप्सराएँ कैलास पर्वत पर शिव के दर्शनार्थ आयीं। शिव ने उनके समक्ष भगवती को काली कहकर संबोधित किया। इससे भगवती को लज्जा हुई। इन्होंने सोचा कि काली रूप का त्याग कर परम सुन्दर रूप धारण करूँगी और इसके लिए उसी समय वह अन्तर्हित हो गई। अब शिव अकेले रहने लगे। इस बीच देवर्षि नारद शिव से मिलने आये। शिव को एकाकी देखकर देवर्षि ने पार्वती की जिज्ञासा की। उनके नहीं मिलने पर ध्यानस्थ ऋषि ने सुमेरु पर्वत पर देवी को ध्यानमग्न देखा। वहीं पहुँचकर नारद जी देवी की स्तुति करने लगे। वार्ताक्रम में नारद से यह जानकर कि शिव विवाह के इच्छुक है, सुन्दरतम रूप धारण कर देवी क्षणमात्र में शिव के निकट पहुँच गयी। शिव के स्वच्छ हृदय में अपने सौन्दर्यमयी छवि के प्रतिबिम्ब को अन्य स्त्री मानकर देवी शिव को उपालम्भ देने लर्ग, । शिव ने कहा देवि! ध्यान से देखो, मेरे हृदय में तुम्हारी ही प्रतिच्छवि है। भगवती पुनः ध्यान से देखती हुई वस्तुस्थिति से अवगत होकर शान्त हुई । इसके सारांश का संवाद शक्तिसंगमतन्त्र में भी मिलता है । यहाँ यह भी कहा गया है कि शिवकाञ्ची में श्रीशैल पर्वत पर महानिशा में श्रीविद्या, अर्थात् त्रिपुरसुन्दरी उद्भूत हुई’, किन्तु स्वतन्त्रतन्त्र में दिव्यरात्रि में इनका उद्भव निर्दिष्ट है। नारदपञ्चरात्र में इसी उद्भवक्रम में आगे वर्णित है कि शिव ने कहा कि तीनों भुवनों में लोकोत्तर सौन्दर्यशालिनी होने के कारण तुम त्रिपुरसुन्दरी नाम से और सोलह वर्ष की बाला की तरह प्रतीत होने के कारण षोडशी नाम से भी प्रसिद्ध होओगी । होप ब्रह्माण्डपुराण के ललितोपाख्यान के अनुसार भण्डासुर के वधहेतु चिद्रूप अग्नि से उद्भूता भगवती पराशक्ति ने ऐसा उत्कृष्ट मोहिनी रूप धारण किया कि वह त्रिपुरसुन्दरी माता मानं मेयं बिन्दुत्रयभिन्नबीजरूपाणि। मायाहीतजमिनी धामत्रयपीठत्रयशक्तित्रयभेदभावितान्यपि च।। तेषु क्रमेण लिङ्गत्रितयं तद्वच्च मातृकात्रितयम्। इत्थं त्रितयमयी या तुरीयापीठादिभेदिनी विद्या।। (कामकलाविलास १३-१४) त्रिी त्रिमूर्तिसर्गाच्च पुराभवत्वात् त्रयीमयत्वाच्च पुरैव देव्याः। लये त्रिलोक्या अपि पूरकत्वात् प्रायोऽम्बिकायास्त्रिपुरेति नाम।। (प्रपंचसार ८.२) महल ३. द्रष्टव्य प्राणतोषिणीतन्त्र, काण्ड ५ परिच्छेद ६ ४. द्रष्टव्य-शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ताखण्ड, पटल ६, श्लोक ८१-६१ मामालनीतिक निजी ५. द्रष्टव्य—वहीं, पटल ५ श्लोक १३०-३१ ६. प्राणतोषिणीतन्त्र, का. ५, प. ६ में उद्धृत नारदपंचरात्रवचन। म काकानीको ३८३ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा कहलाने लगीं। चूँकि इन्होंने सदाशिव का मन बहलाया, अतः ललिता और विधाता ने भक्तिपूर्वक इनका ध्यान किया, अतः कामाक्षी कहलायी’ ।जवनमा वा यहाँ प्रतिपादित है कि भारत में इस महिमामयी भगवती के बारह रूप प्रसिद्ध हैं काञ्ची में कामाक्षी, मलयगिरि में भ्रामरी, केरल मलावार में कुमारी (कन्या), आनर्त गुजरात में अम्बा, करवीर में महालक्ष्मी, मालव में कालिका, प्रयाग में ललिता, विंध्याचल में विन्ध्यवासिनी, वाराणसी में विशालाक्षी, गया में मंगलचण्डी, बंगाल में सुन्दरी और नेपाल में गुह्येश्वरी२ । __यहाँ यह अवधेय है कि अनादि काल से इनकी उपासना का प्रसार सम्पूर्ण भारतवर्ष में देखा जाता है। भगवान् आदि शंकराचार्य का योगदान भी इस प्रसंग में यहाँ उल्लेखनीय है। इनके द्वारा स्थापित सभी मठों में— बदरिकाश्रम, पुरी, द्वारका, शृंगेरी तथा काञ्ची में श्रीविद्या की उपासना और श्रीयन्त्र की स्थापना अवश्य देखी जाती है, जो आदिकाल से परम्परा-क्रम से विद्यमान है। इनके पूर्व भी इस पराशक्ति की पूजा अवश्य प्रचलित रही है, अत एव आदि शंकराचार्य के गुरु गौडपादाचार्य ने श्रीविद्यारत्नसूत्र और सुभगोदयस्तोत्र का प्रणयन कर इस देवी (पराशक्ति) की उपासनाविधि एवं माहात्म्य प्रतिपादित किया। उक्त सूत्र शंकरारण्यकृत दीपिका टीका के साथ काशी सरस्वती भवन से प्रकाशित है। उनके समक्ष भी इनकी उपासना की पूर्वतः मान्य आदर्श परम्परा रही होगी। तभी वे प्रभावित होकर इधर प्रवृत्त हुए होंगे। यदि कविका आदि शंकराचार्य ने तो प्रपञ्चसार नामक ग्रन्थरत्न का प्रणयन कर आगमिक उपासना की विशद एवं विस्तृत पद्धति प्रस्तुत की है। साथ ही सौन्दर्यलहरी तथा आनन्दलहरी में भगवती की स्तुति के व्याज से शाक्त दर्शन के गूढ रहस्य, उपासना की विधि, देवी के माहात्म्य आदि विविध तान्त्रिक विषयों का समावेश किया है। अत एव इसकी अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें लक्ष्मीधर (खि. १४ श.) की व्याख्या अधिक विख्यात है। आदि शंकराचार्य की कृति ललितात्रिशतीभाष्य भी प्रसिद्ध है। स्वनामधन्य म. म. डॉ. गोपीनाथ कविराज ने तान्त्रिक साहित्य की भूमिका में इस प्रसंग में पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसके अनुसार त्रिपुरा के उपासकों में सर्वत्र काम या मन्मथ का प्राधान्य रहा है। विद्या के प्रवर्तक होने के कारण ये विद्येश्वर कहे जाते हैं। भगवती की कृपा से विद्याप्रवर्तक काम की तरह अन्य बारह विद्येश्वरों के नाम तन्त्र-ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। यथा—मनु, चन्द्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इन्द्र, स्कन्द, शिव और क्रोधभट्टारक या दुर्वासा । इन लोगों को भगवती के अनुग्रह से १. ब्रह्माण्डपुराण ३.४.३८, ८१-८२ मिशनी २. द्रष्टव्य-ब्रह्माण्डपुराण ४.३६ मिडीह हि चिकणमान मनुश्चन्द्रः कुबेरश्च लोपामुद्रा च मन्मथः । अगस्तिरग्निः सूर्यश्च इन्दुः स्कन्दः शिवस्तथा।। क्रोधभट्टारको देव्या द्वादशामी उपासकाः। सीमा ३८४ तन्त्रागम-खण्ड अलग-अलग फल मिले हैं। अतः इनको मुख्य विद्याप्रवर्तक माना गया है। यद्यपि अन्यान्य बीज-मन्त्रों की उपासना भी प्रचलित है, तथापि मुख्यता उपर्युक्त इन बारह में ही मानी गयी है। इन बारह विद्येश्वरों में से दो या तीन के ही सम्प्रदाय आज तक वर्तमान हैं। काम, लोपामुद्रा और अगस्त्य ऋषि का सम्प्रदाय कुछ-कुछ अंशों में प्रचलित है। चूंकि कामराज विद्या क वर्ण से प्रारम्भ होती है, अतः कादिविद्या या कादिमत नाम से भी प्रसिद्ध है। लोपामुद्रा द्वारा प्रवर्तित विद्या ह वर्ण से आरम्भ होती है, अतः हादिविद्या या हादिमत कहलाती है। कामेश्वर के अंक के वर्तमान कामेश्वरी के पूजाक्षेत्र में दोनों विद्याओं का समान उपयोग होता है। माना राजकन्या लोपामुद्रा अगस्त्य मुनि की धर्मपत्नी के रूप में पुराण में अभिहित है। अपने पिता के घर में पराशक्ति की उपासना बचपन से ही देखकर इनको आदिशक्ति के प्रति भक्ति का उद्रेक हो गया था और इससे ये अत्यधिक प्रभावित थीं। इनकी उपासना से प्रसन्न होकर देवी ने इनको वर दिया कि तुम्हें मेरी सेवा करने का अधिकार है। तब इन्होंने त्रिपुरा विद्या का उद्धार किया और ऋषित्व को पाया। त्रिपुरारहस्य के माहात्म्य खण्ड में (अध्याय तिरपन में) यह आख्यान उपलब्ध है। मुनि अगस्त्य वैदिक ऋषि थे, वे पहले तान्त्रिक नहीं थे। इसलिए भगवती की उपासना का इनको अधिकार नहीं था। इन्होंने अपनी धर्मपत्नी लोपामुद्रा से दीक्षा ली और तब भगवती की आराधना के लिए अधिकृत हुए। वाराणसी सरस्वती भवन से प्रकाशित शक्तिसूत्र इसी ऋषि की कृति मानी जाती है। का या यही श्रीविद्या शक्तिचक्र की सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा आत्मशक्ति है। इस परदेवता के माहात्म्य के प्रसंग में यह पद्य बहुत अधिक प्रचलित है- चारक यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षो यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोगः। श्रीसुन्दरीसेवनतत्पराणां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव ।। यह श्रीविद्या केवल शाक्त तन्त्र सिद्ध ही नहीं है, वेदानुमोदित भी है। ऋग्वेद के अन्तर्गत शाखायन आरण्यक में इसका स्पष्ट संकेत मिलता है । मान इस पराशक्तिस्वरूपा महाविद्या त्रिपुरसुन्दरी की उपासना-पद्धति एवं माहात्म्य के अवबोध हेतु सीमित स्थान के कारण कुछ ही प्रसिद्ध शाक्त तन्त्रों के नाम यथामति यहाँ दिये जा रहे हैं। यथा कौलोपनिषत, भावनोपनिषत्, त्रिपुरोपनिषत् तथा त्रिपुरातापिनी -उपनिषत् इस क्रम में अवलोकनीय है। दुर्वासा ऋषिप्रणीत ललितास्तवरत्न एवं त्रिपुरा महिम्नस्तोत्र प्राचीन ग्रन्थ है तथा काव्यमाला में निर्णयसागर से प्रकाशित हैं। श्रीविद्यार्णवतन्त्र के अनुसार कादिमत के मुख्य ग्रन्थ चार है— तन्त्रराज, मातृकार्णव, योगिनीहृदय और त्रिपुरार्णव। तन्त्रराज की अनेक टीकाएँ हुई, उनमें सुभगानन्दनाथ प्रणीत मनोरमा टीका प्रधान है। इसकी प्रेमनिधि पन्त कृत सुदर्शन टीका भी उपादेय है। १. द्रष्टव्य–तान्त्रिक साहित्य की भूमिका, पृ. २६-३०दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३८५ योगिनीहृदय तीन पटलों में पूर्ण है। इसका नामान्तर सुन्दरीहृदय तथा नित्याहृदय भी है। परमानन्दतन्त्र या परानन्दतन्त्र श्रीविद्या की उपासना के लिए विशिष्ट ग्रन्थ है। सौभाग्यसन्दोह नामक व्याख्या के साथ यह ग्रन्थ अब सरस्वती भवन, वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है। परशुरामकल्पसूत्र की वृत्ति में रामेश्वर ने इसका उल्लेख किया है। इस तन्त्र के आधार पर माधवानन्दनाथ ने वाराणसी में सौभाग्यकल्पद्रुम का प्रणयन किया है। महाकालसंहिता में उल्लिखित वामकेश्वरतन्त्र इस सम्प्रदाय का प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें षोडश नित्याओं का विवरण है। नित्याषोडशिकार्णव इसी का अंश है’ । अष्टपटलात्मक वामकेश्वरतन्त्र की व्याख्या सेतुबन्ध नाम से भास्करराय ने की है और पंचपटलात्मक नित्याषोडशिकार्णव की व्याख्या शिवानन्दकृत ऋजुविमर्शिनी तथा विद्यानन्दकृत अर्थरत्नावली वाराणसी से प्रकाशित है। यहाँ इसके परिशिष्ट में दीपकनाथाचार्यप्रणीत त्रिपुरसुन्दरीदण्डक, शिवानन्दमुनि कृत सुभगोदय, सुभगोदयवासना तथा सौभाग्यहृदयस्तोत्र और अमृतानन्दनाथाचार्य प्रणीत सौभाग्यसधोदय एवं चिद्विलासस्तव भी प्रकाशित हैं। सम्पादक ने इसकी लम्बी भूमिका में इस महाविद्या की उपासना संबन्धी चर्या तथा दार्शनिक पक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। अत एव जिज्ञासु साधक तथा अनुसन्धाता दोनों के लिए यह ग्रन्थ उपादेय है। ज्ञानार्णवतन्त्र इस प्रसंग में यहाँ उल्लेखनीय है, जो २६ पटलों में पूर्ण एवं प्रकाशित है। श्रीक्रमसंहिता, बृहतू-श्रीक्रमसंहिता, छियासठ पटलों में पूर्ण दक्षिणामूर्तिसंहिता तथा कश्मीर संस्कृत सिरीज में प्रकाशित स्वच्छन्दतन्त्र, शक्तिसंगमतन्त्र का सुन्दरीखण्ड, काशी से प्रकाशित त्रिपुरारहस्य का ज्ञान तथा माहात्म्य खण्ड आदि अवलोकनीय हैं। अमृतानन्दनाथकृत योगिनीहृदयदीपिका वामकेश्वर तन्त्र के अंशविशेष की उत्तम व्याख्या है। सच्चिदानन्दनाथकृत ललितार्चनचन्द्रिका, सच्चिदानन्दनाथ के शिष्य विद्यानन्दनाथ का सौभाग्यरत्नाकर, भास्कररायकृत (ललितासहस्रनाम की टीका) सौभाग्यभास्कर, सौन्दर्यलहरी की व्याख्या सौभाग्यवर्धिनी, सुभगार्चापारिजात, सुभगा_रत्न, आज्ञावतार, संकेतपद्धति, चन्द्रपीठ, शंकरानन्द विरचित सन्दरीमहोदय, अष्टादशशतक के उमानन्दनाथ कत हृदयामत तथा नित्योत्सवपद्धति, लक्ष्मीतन्त्र का त्रिपुरामाहात्म्य, ललितोपाख्यान, नागभट्ट कृत त्रिपुरासारसमुच्चय इसकी सम्प्रदायदीपिका नाम की टीका है। पूर्णानन्द परमहंसकृत श्रीतत्त्वचिन्तामणि एवं शाक्तक्रम आदि भी इस विषय के उपादेय ग्रन्थ हैं । हादिमत के प्रतिपादक पुण्यानन्दनाथकृत कामकलाविलास, इसकी चिद्वल्ली व्याख्या, भास्कररायकृत (१८ श.) सौभाग्यचन्द्रोदय, वरिवस्यारहस्य, वरिवस्याप्रकाश तथा शाम्भवानन्द की कल्पलता आदि द्रष्टव्य हैं । भास्करराय की शिष्य-परम्परा महाराष्ट्र तथा सुदूर दक्षिण प्रान्त में और काशी में आज भी वर्तमान एवं वर्धमान है। इस शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान सनातन धर्म महामण्डल, वाराणसी के संस्थापक स्वनामधन्य करपात्री स्वामी जी १. द्रष्टव्य तान्त्रिक साहित्य की भूमिका, पृष्ठ ३३ की टिप्पणी। २. द्रष्टव्य—वहीं, पृ. ३३-३६ . ३८६ तन्त्रागम-खण्ड श्रीविद्या के उपासक रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। वैदिक, तान्त्रिक एवं पौराणिक उपासना के परिचय के साथ विविध शास्त्रीय वैदुष्य, निर्मल यश तथा कृतियाँ इनकी प्रसिद्ध एवं पथप्रदर्शक हैं। इनकी लम्बी शिष्य-परम्परा शिक्षा एवं दीक्षा के क्षेत्र में आज वर्तमान एवं वर्धमान है। ही पराम्बा त्रिपुरसुन्दरी का विस्तृत ध्यान नित्याषोडशिकार्णव (१.१३०-१४०) में तथा संक्षिप्त ध्यान शाक्तप्रमोद में देखा जा सकता है। पार
भुवनेश्वरी
शक्तिसंगमतन्त्र में कहा गया है कि सत्ययुग के आरम्भ में ब्रह्मा घोर तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति महेश्वरी क्रोधरात्रि नाम से प्रसिद्ध चैत्र शुक्ल नवमी को आविर्भूत हुई। इनकी योनि में सम्पूर्ण विश्व विराजमान है तथा प्रलयकाल में भी वहीं तिरोहित हो जाता है। इनके आविर्भाव का प्रयोजन सृष्टि का संचालन’ है।
- स्वतन्त्रतन्त्र में चैत्र शुक्ल नवमी को क्रोधरात्रि नाम से परिभाषित किया गया है तथा द्वितीया विद्या का आविर्भाव उक्त तिथि में कहा गया है, दोनों तन्त्रों में इतना पार्थक्य आलोचनीय है। । इनके ध्यान में कहा गया है कि उदयकालिक सूर्य के सदृश वर्णशालिनी त्रिनयना पीनस्तनी एवं हँसमुखी भगवती भुवनेश्वरी के सिर पर चन्द्र ही किरीट के रूप में विराजमान है, इनके चार हाथों में वर, अंकुश, पाश तथा अभय विद्यमान हैं- मानी उद्यद्दिनथुतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्। स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्।। आ इसका संवाद शारदातिलक में मिलता है- माजी कराङ्कुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्ती कमलासनस्थाम्। की बालार्ककोटिप्रतिमां त्रिनेत्रां भजेऽहमाद्यां भुवनेश्वरी ताम्।। असम (६.८१)। अन्य प्रकार का भी इनका ध्यान का उपलब्ध है सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत् तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम्। पाणिभ्यां मणिपूर्णरत्नचषकं रक्तोत्पलं बिभ्रती सौम्यां रत्नघटस्थसव्यचरणां ध्यायेत् परामम्बिकाम्।। १. द्रष्टव्य-शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ता खण्ड, ६.१६-१८ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३८७ श्यामागीं शशिशेखरां निजकरैर्दानं च रक्तोत्पलं रत्नाढ्यं चषकं परं भयहरं संबिभ्रती शाश्वतीम्। मुक्ताहारलसत्पयोधरनतां नेत्रत्रयोल्लासिनी मन वन्देऽहं सुरपूजितां हरवधू रक्तारविन्दस्थिताम् ।। इनके मन्त्र अनेक प्रकार के निर्दिष्ट हैं, अत एव ध्यान में भी भेद स्वाभाविक है। द्विभुजा एवं चतुर्भुजा भगवती का ध्यान अलग अलग है । इनकी उपासना के विषय में सर्वप्रधान ग्रन्थ है- भुवनेश्वरीरहस्य, जो छब्बीस पटलों में पूर्ण है। इसमें भुवनेश्वरी की अर्चन-पद्धति सांगोपांग वर्णित है। इसके प्रणेता पृथ्वीधराचार्य आदिशंकराचार्य के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। इसी आचार्य का भुवनेश्वरीस्तोत्र जर्मनी में विद्यमान है। भुवनेश्वरीतन्त्र, भुवनेश्वरीपारिजात, पुरश्चर्यार्णव के नवम तरंग का भुवनेश्वरीप्रकरण, तन्त्रसार की भुवनेश्वरीपूजा-पद्धति, शाक्तप्रमोद का भुवनेश्वरीप्रकरण, तन्त्रानिक का भुवनेश्वरीप्रकरण, देवीभागवत (१२.१२) तथा भुवनेश्वरी उपनिषत् आदि इनके माहात्म्य एवं अर्चनविधि के लिये द्रष्टव्य है। गुजरात में भुवनेश्वरी पीठ भी सुना जाता है तथा उपासक भी अधिक उपलब्ध हैं। इससे उक्त क्षेत्र में इस विद्या के प्रचार-प्रसार का प्राचुर्य एवं परिचय मिलता
भैरवी
सभी प्रकार के कष्टों का संहार करने वाली, यम–दुःख से छुटकारा दिलाने वाली कालभैरव की भार्या भगवती भैरवी. की उद्भवकथा उपलब्ध नहीं है। परशुरामकल्पसूत्र की वृत्ति में रामेश्वर ने कहा है कि इस संसार का भरणपोषण, रमण अर्थात् सौख्यप्रदान और वमन, अर्थात् प्रलयकाल में परम शिव के उदर में विद्यमान इस संसार की सृष्टि के समय उगिरण करने से यह भैरवी नाम से अभिहित होती है। ज्ञानार्णव, शारदातिलक तथा मेरुतन्त्र आदि शाक्त-ग्रन्थों में इनके अनेक रूपों का उल्लेख हुआ है। पुरश्चर्यार्णव के नवम तरंग में इनके नाम इस प्रकार वर्णित हैं— त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरभैरवी, चैतन्यभैरवी, कमलेश्वरभैरवी, सम्पत्प्रदाभैरवी, कौलेशभैरवी, कामेश्वरीभैरवी, षट्कूटाभैरवी, नित्याभैरवी तथा रुद्रभैरवी। इन सबका ध्यान एवं मन्त्र आदि भी अलग-अलग निर्दिष्ट हैं। १. द्रष्टव्य—शारदातिलक ६.१४, ६०, ६६ २. द्रष्टव्य तान्त्रिक साहित्य की भूमिका, पृ. ३७ R EET ३. भैरवी दुःखसंही यमदुःखविनाशिनी।। __कालभैरवभार्या च भैरवी परिकीर्तिता।। (प्राणतोषिणी ५.६) ४. भैरवीशब्दार्थश्च जगतो भरणाद् रमणात् प्रलये परमशिवकुक्षिस्थितस्य सृष्टिसमये वमनाच्च भैरवीति ज्ञेयम्। (द्रष्टव्य–परशुरामकल्पसूत्रवृत्ति १.२) ३८८ तन्त्रागम-खण्ड सकलसिद्धिदाभैरवी, भयविध्वंसिनीभैरवी, त्रिपुरबालाभैरवी, नवकूटबालाभैरवी तथा अन्नपूर्णाभैरवी का उल्लेख, इनके ध्यान, मन्त्र एवं पूजाविधि तन्त्रसार में उपलब्ध हैं। इससे ज्ञात होता है कि इस महाविद्या का साधक-सम्प्रदाय चिरकाल से विशाल रहा है। इसका ध्यान शारदातिलक में इस प्रकार है- देवी की कान्ति सहस्रों उदीयमान सूर्यों की तरह है, इनका परिधान लाल रेशम वस्त्र की तरह है, गले में मुण्डमाला है, देवी के पयोधर रक्तचन्दन से लिप्त हैं, इनके हाथों में जपमाला, शास्त्र-ग्रन्थ, अभयमुद्रा और वरमुद्रा विराजमान है। त्रिनयना भगवती की मुखाकृति विकसित कमल की तरह शोभायमान है, रत्नमुकुट में चन्द्रकला संलग्न है, ऐसी मृदुहासिनी देवी को प्रणाम करना चाहिये। का उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिनी की निगाही का रक्तालिप्तपयोधरां जपवटी विद्यामभीतिं वरम्। मशीशविर RAPE हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्दे समन्दस्मिताम् ।। इनके माहात्म्य एवं उपासनाविधि के अवबोधहेतु भैरवीयामल विशिष्ट ग्रन्थ है। पुरश्चर्यार्णव में इस ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। शारदातिलककार की कृति भैरवीपटल का उल्लेख व्याख्याकार राघवभट्ट ने अपनी व्याख्या में किया है। इस प्रसंग में भैरवीतन्त्र अत्यधिक परिचित ग्रन्थ है। इसका उल्लेख तन्त्रसार, ताराभक्तिसुधार्णव, पुरश्चर्यार्णव, प्राणतोषिणी, मन्त्रमहार्णव, आगमतत्त्वविलास, आगमकल्पलता, रहस्यार्णव, ललितार्चनचन्द्रिका, तन्त्ररत्न, श्यामारहस्य तथा सर्वोल्लासतन्त्र में मिलता है। मुकुन्दलालप्रणीत भैरवीरहस्य, हरिराम कृत भैरवीरहस्यविधि तथा भैरवीसपर्याविधि आदि ग्रन्थ साधकों के सहायक हैं। श्रीकण्ठी के मतानुसार भैरवीशिखा मूल तन्त्र है, जो इस विद्या की सांगोपांग उपासना एवं माहात्म्य का प्रदर्शक है। मूल चौंसठ तन्त्रों में यह अन्यतम कहा गया है । सुधागड
छिन्नमस्ता
भगवती छिन्नमस्ता के उद्भव के प्रसंग में वर्णित है कि महामाया शिव के साथ जब शृंगार में संलग्न थीं, अकस्मात् वह उससे विरक्त हो उठी। शुक्रक्षरण के समय वह चण्डमूर्ति हो गयी। अपना शुक्र विसर्जित कर वह बाहर आ गयी। इसी समय इनके शरीर से इनकी दो सहेलियाँ उद्भूत हुईं। एक का नाम डाकिनी हुआ और दूसरी का वर्णिनी। दोनों सहेलियों के साथ भगवती साधुओं के हित एवं दुष्टों के निग्रह के लिये पुष्पभद्रा नदी के तट पर पहुँची। प्रातःकाल उषा के समय दोनों सहेलियों के साथ वह उस नदी में जलक्रीडा में मग्न हो गयीं। मध्याह्न के समय जलक्रीडा करते-करते इनकी सहेलियों को १. द्रष्टव्य-शारदातिलक ( १२.३१) मा २. द्रष्टव्य-तान्त्रिक साहित्य की भूमिका। राजा का आम निमा मात्र सम्मानका भाई दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३८६ भूख सताने लगीं। भगवती से बुभुक्षा की आतुरतावश भोजन माँगने पर भगवती ने नख के अग्र भाग से अपना सिर ही काट लिया। वाम नाड़ी से स्रवित रक्त से डाकिनी को, दक्षिण नाड़ी से क्षरित रक्त से वर्णिनी को और ग्रीवामूल के मध्य से क्षरित रक्त से अपने सिर को भी आप्यायित करने लगी। इस तरह लीला करती हुई शाम के समय अपने सिर को कबन्ध पर रखकर सबकी सब घर लौटी। वीररात्रि की संध्या के समय चूँकि वह इस रूप में घर आईं, अत एव वही उनका आविर्भाव-काल माना गया तथा छिन्नमस्ता नाम भी प्रसिद्ध हुआ । में स्वतन्त्रतन्त्र में वर्णित है कि मकर संक्रान्ति के मध्य चतुर्दशी मंगल यदि कुलाकुल चक्र के अन्तर्गत कुल नक्षत्र घटित हो, तो वह “वीररात्रि" कहलाती है । इस कथा का विवरण नारदपंचरात्र में भी मिलता है । भगवती छिन्नमस्ता प्रचण्ड चण्डिका नाम से भी प्रसिद्ध हैं, जो सभी मनोरथों को पूरा करती हैं। इनके अनुग्रह से साधक शिवत्व को प्राप्त करता है, पुत्रहीन को पुत्र मिलता है, धनहीन को धन मिलता है, विद्याकामी कवित्व एवं उत्तम पाण्डित्य प्राप्त करता है । मिण इनका प्रसिद्ध ध्यान पुरश्चर्यार्णव के नवम तरंग में देखा जा सकता है। मिथिला में दरभंगा से दस कोस पूर्व प्रसिद्ध दार्शनिक शंकर मिश्र के गाँव सरिसव में एक जीर्ण मन्दिर में लगभग छह सौ वर्ष या उससे भी अधिक पुरानी भगवती छिन्नमस्ता की प्रतिमा आज भी परम्परा क्रम से पूजित समादृत होती आ रही है। यह भगवती सिद्धेश्वरी नाम से परिचित है। इससे लगभग दो कोस पूरब उजान ग्राम में आम के बगीचे में श्मशानालय में किसी आम्रवृक्ष के नीचे मूड़कटी दुर्गा नाम से ख्यात छिन्नमस्ता भगवती की प्राचीन प्रस्तर-प्रतिमा विद्यमान है। यह अपनी उग्रता के लिए आज भी प्रसिद्ध है। लगभग चार सौ वर्ष पुराना इतिहास इस प्रतिमा का उपलब्ध है। जानराजचम्पू, गीतगोपीपति तथा चण्डिकाचरितचन्द्रिका आदि गीतकाव्यों के प्रणेता महाकवि कृष्णदत्त ने सप्तदश शतक में इस भगवती का प्रसाद और अनुग्रह पाकर जीवन एवं कवित्वशक्ति पायी थी। इन्होंने अपनी कृति कुवलयाश्वीय नाटक का मंचन यहाँ सबसे पहले किसी शाक्त पर्व के अवसर पर किया था. जिसका उल्लेख उक्त नाटक की प्रस्तावना में वर्तमान है। बिहार में रामगढ के पास रजरप्पा गांव में विद्यमान इनकी प्राचीन प्रतिमा अपनी उग्रता एवं फलप्रदता के लिए प्रसिद्ध है। वित की जान चन्द्र १. शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ता खण्ड, पंचम पटल। २. द्रष्टव्य—पृष्ठ ३७३ की पहली पादटिप्पणी। ३. प्राणतोषिणीतन्त्र के पृ. ५१६ में उद्धृत नारदपंचरात्रवचन। ४. प्रचण्डचण्डिकां वक्ष्ये सर्वकामफलप्रदाम् । यस्याः प्रसादमात्रेण शिव एव भवेन्नरः।। सनी को किया अपुत्रो लभते पुत्रमधनो धनमाप्नुयात्। कवित्वं च सुपाण्डित्यं लभते नात्र संशयः।। (पुरश्चर्यार्णव, ६ तरंग)। यो स मय 59 तन्त्रागम-खण्डी ३६० शाक्तप्रमोद, पुरश्चर्यार्णव तथा आगमकल्पलता आदि दस महाविद्याओं की उपासनाविधि के प्रतिपादक ग्रन्थों में इनकी उपासना-विधि एवं माहात्म्य वर्णित हैं। शक्तिसंगमतन्त्र का छिन्नमस्ताखण्ड इनका माहात्म्य तो प्रदर्शित करता है, किन्तु उपासना-विधि का संकेत मात्र करता है। भैरवीतन्त्रोक्त इनका त्रैलोक्यविजयकवच, शाक्तप्रमोद का छिन्नमस्तास्तोत्र, । विश्वसार तन्त्रोक्त इनका सहस्रनाम एवं शतनाम आदि द्रष्टव्य हैं।
धूमावती
धूमावती की उद्भवकथा दो तरह से वर्णित है। स्वतन्त्रतन्त्र एवं शक्तिसंगमतन्त्र में कहा गया है कि वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) से युक्त मंगलवार के दिन सन्ध्या समय में दक्ष प्रजापति के यज्ञ में उपस्थित तथा अपमान की अग्नि में जलती हुई भगवती सती के देह से निर्गत धूम से चूँकि इस भगवती का आविर्भाव हुआ, अत्तः यह धूमावती नाम से विख्यात हुई। यह कालमुखी नाम से भी प्रसिद्ध हैं, क्योंकि संहार कार्य में यह पूर्ण दक्ष है। नारदपंचरात्र में कथा है कि एक दिन कैलासगिरि पर विराजमान शिव से क्षुधातुरा पार्वती ने भोजन माँगा, तो शिव ने कहा कि थोड़ी देर रुक जाओ। कुछ क्षणों के बाद पार्वती ने पुनः अपनी आतुरता जताई। उन्होंने इसी तरह पुनः टाल दिया। देवी की क्षुधा असह्य थी। उन्होंने फिर भोजन मांगा और नहीं मिलने पर वह प्रभु शिव को ही निगल गयी। क्षण भर में उनके शरीर से धूमराशि बाहर आने लगी। शिव ने अपनी माया के बल से शरीर धारण कर देवी से कहा कि हे भगवति! प्रज्ञाचक्षु से देखो मेरे अतिरिक्त कोई पुरुष नहीं है और तुमसे भिन्न कोई महिला नहीं है। तुमने अपने पति को ही निगल लिया, तो तुम “विधवा” हो गयी। तुम सधवा के सभी चिह्नों को छोड़ दो। तुम्हारी यह श्रेष्ठ मूर्ति वगलामुखी नाम से विख्यात हो तथा तुम्हारा शरीर धूम से व्याप्त हो गया था, अत एव तुम धूमावती कहलाओगी। तुम्हारी ये दोनों ही मूर्तियाँ सिद्धविद्या के नाम से प्रसिद्ध होंगी। प्रतीत होता है कि नारदपंचरात्र की दृष्टि से वगलामुखी और धूमावती एक ही शक्ति के दो नाम है’ । कुब्जिकातन्त्र में कहा गया है कि धूमावती ने धूम्रासुर का वध किया था तथा यह महादेवी चतुवर्गफलप्रदा है। ए इनके ध्यान में कहा गया है कि धूमावती विवर्णा चञ्चला रुष्टा तथा दीर्घागिनी है। इनका वस्त्र मलिन है, कुन्तल विवर्ण हैं, दन्तपंक्तियाँ विरल हैं, यह विधवा हैं, इनके रथ पर काकचिह्न लगा है, इनके पयोधर लटकते हैं, आंखे रूक्ष हैं, काँपते हुए हाथ से सूप १. प्राणतोषिणीतन्त्र में उद्धृत, द्रष्टव्य काण्ड ५, परिच्छेद ६ २. धूमावती महामाया धूम्रासुरनिषूदनी। धूमरूपा महादेवी चतुर्वर्गप्रदायिनी।। (प्राणतोषिणीतन्त्र में उद्धृत) ३६१ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा एवं वरमुद्रा धारण करती हैं। इनका मुख विशाल है, नेत्र कुटिल हैं, भूख-प्यास से निरन्तर आतुर रहती हैं, भयंकरी तथा कलहप्रिया हैं। फेत्कारिणीतन्त्र में इनका मन्त्र, उपासना-विधि एवं माहात्म्य वर्णित है। दस महाविद्या की उपासना-विधि के प्रतिपादक शाक्तप्रमोद आदि ग्रन्थों का अवलोकन भी इस प्रसंग में आवश्यक है। मेरुतन्त्र में इनका ध्यान मिलता है। ऊर्ध्वाम्नाय में इनका स्तोत्र उपलब्ध है। महामारी आदि आधिदैविक उपद्रव शान्ति के लिए इनकी आराधना प्रसिद्ध है। इस भगवती को वैरिनिग्रह में समर्थ कहा गया है। धूमावतीपंचांग, धूमावतीपूजा-प्रयोग, धूमावतीपूजा-पद्धति तथा धूमावतीपटल भी इनकी उपासना-विधि के लिए अवलोकनीय हैं। इन ग्रन्थों का उल्लेख तान्त्रिक साहित्य में मिलता है।
वगलामुखी
कभी सत्ययुग में झंझावात से प्रलयकाल उपस्थित हो गया था, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जलप्लावित हो गया था। भगवान् विष्णु को सृष्टि के पालन की चिन्ता सताने लगी। इन्होंने हरिद्रावर्ण के सिद्धिकुण्ड में तप करने की ठान ली। स्वयं पीतवर्ण का वस्त्र धारण कर भगवती के जप एवं ध्यान में निरन्तर रहने लगे। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रीविद्या उसी हरिद्राख्य कुण्ड में जलक्रीडा करने लगी और वगलामुखी नाम से ख्यात हुई। यह महापीत हद सौराष्ट्र में विद्यमान है, जहाँ इस देवी का उद्भव हुआ। शक्तिसंगमतन्त्र कहता है कि मकर-संक्रान्ति के मध्य चतुर्दशी मंगलवार यदि कुलाकुल चक्रगत कुल नक्षत्र से युक्त हो, तो उसका नाम वीररात्रि माना गया है। इसी वीररात्रि के मध्य भाग में भगवती बगलामुखी का आविर्भाव हुआ है, जो ब्रह्मास्त्र विद्या के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्वच्छन्दतन्त्र में मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को घोररात्रि कहा गया है। इसी रात में भगवती वगलामुखी आविर्भूत हुई है। शक्तिसंगमतन्त्र में वीररात्रि को इनका उद्भावकाल कहा गया है। नवगला शब्द के निर्वचन में श्रद्धेय पण्डित मोतीलाल जी ने अपना मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है, जो सर्वथा अवधेय है। प्राणियों के शरीर से अथर्वा नामक प्राणसूत्र निकला करता है, जिसे स्थूल दृष्टि से देखना संभव नहीं है। कोसों दूर रहने वाले आत्मीय के दुःख से कभी व्यक्ति दुःखी होने लगता है, जिसे आधुनिक भाषा में “टेलीपैथी” कह सकते हैं। उस अथर्वा से ही यह व्याकुलता होती है। कभी देवगण इस अथर्वसूत्र के द्वारा असुरों पर कृत्या प्रयोग भी करते थे। पुराणों में प्रसिद्ध हरिवाहन एवं वेद में हरिवान् नाम से प्रसिद्ध मनुष्य इन्द्र ने सरमा नामक शुनी की सहायता से बृहस्पति की गायों को चुरा ले जाने वाले पणि नामक असुर का पता लगाया था। श्वास की घ्राणशक्ति में अथर्वसूत्र विद्यमान रहता १. द्रष्टव्य—फेत्कारिणीतन्त्र, पृष्ठ ७ सम्पूर्ण। २. शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ता खण्ड, षष्ठ पटल तथा सम्मोहनतन्त्र। REPE PPERS ३६२ तन्त्रागम-खण्ड है। जिस शुभ या अशुभ भविष्यत् का ज्ञान हम नहीं कर पाते, उसे श्वान या काक ज्ञात कर लेता है और कुछ पहले सूचित कर देता है। इस अथर्वा के दो भेद हैं—घोरांगिरा और अथर्वागिरा। घोरांगिरा में औषधि-वनस्पति विज्ञान है और दूसरे में अभिचारादि प्रयोग। इसी अथर्वशक्ति को वेद में वल्गामुखी कहा गया है। वल्गा ही इसका वैदिक नाम है, जो वर्णव्यत्यास से वगला हो गया है। जैसे हिंस से सिंह का होना प्रसिद्ध है। शतपथब्राह्मण में इस वल्गा पद का प्रयोग देखा जाता है। “अत्र कश्चिद् द्विषन् भ्रातृव्यः कृत्यां वल्गां निखनति। तानेवैतदुत्किरति" (शत.ब्रा. ३.५.४.३) कृत्या शक्ति का आराधक अपने शत्रु को मनमाना कष्ट पहुँचाने में सफल होता है। अत एव भगवती वगलामुखी को उग्र माना गया है तथा ब्रह्मास्त्रस्वरूपा कहा गया है । इनका ध्यान इस प्रकार है- सुधासमुद्र के मध्य में मणिमण्डप है। उसमें रत्न की वेदी बनी हुई है। उस वेदी पर सिंहासन है। उस सिंहासन पर पीतवर्णा, स्वर्णाभूषण एवं सुवर्ण माल्य से अलंकृत, पीतवस्त्र धारण किये हुए भगवती वगलीमुखी विराजमान हैं। देवी के हाथों में क्रमशः मुद्गर एवं शत्रुओं की जिह्वा विद्यमान है धमणिमण्डितरत्नवेदी सिंहासनोपरि गतां परिपीतवर्णाम् । पीताम्बरां कनकभूषणमाल्यशोभां देवीं भजामि धृतमुद्गरवैरिजिह्वाम् ।। तीस पटलों में पूर्ण ईश्वर तथा क्रौञ्चभेदन के संवाद रूप में उपलब्ध शाङ्खायन तन्त्र वगला महाविद्या के विषय में मुख्य तन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है। उसकी प्रति वाराणसी सरस्वतीभवन में उपलब्ध है। इस तन्त्र का नामान्तर “षविद्यागम" भी है। वगलाक्रमकल्पवल्ली, वगलापञ्चांग, वगलापटल, वगलामुखीक्रम आदि ग्रन्थ भी इस प्रसंग में द्रष्टव्य हैं। यह कि चिरकाल से मध्यप्रदेश के दतिया क्षेत्र में भगवती वगलामुखी की प्रस्तर प्रतिमा आराधित होती आ रही हैं। वह सिद्धभूमि पीताम्बरापीठ नाम से विख्यात है। इस विद्या के साधक वहाँ के स्वामीजी ने वहीं से कुछ तान्त्रिक ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया है। वह स्थान अपनी उग्रता के लिए प्रसिद्ध है। मा
मातंगी
ब्रह्मयामल के अनुसार अतिक्रूर विभूतियों को वश में लाने हेतु कभी कदम्ब-वन में मतंग नामक मुनि ने बहुत दिनों तक तपस्या की। जहाँ भगवती त्रिपुरसुन्दरी के नेत्र से १. द्रष्टव्य—दशमहाविद्या संबन्धी निबन्ध, कल्याण के शक्ति अंक के पृ. १११, ११२ में प्रकाशित। २. पुरश्चर्यार्णव, ६ तरंग तथा शाक्तप्रमोद । दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३६३ तेजःपुंज उद्भूत हुआ, वही तेजःपुंज भगवती मातंगी नाम से विख्यात हुआ । चूँकि मुनि मतंग से इनके आविर्भाव का सम्बन्ध है, अतः यह भगवती मातंगी कहलायी। इसका संवाद सम्मोहन तन्त्र में भी देखा जा सकता है। स्वतन्त्रतन्त्र में इनका आविर्भाव समय मोहरात्रि, अर्थात् भाद्रकृष्ण अष्टमी माना गया है। कुब्जिकातन्त्र में वर्णित है कि मतंगासुर के विनाश करने के कारण तथा मदशीलत्व के कारण भगवती का नाम मातंगी हुआ । पुरश्चर्यार्णव में इनके अनेक प्रकारों का विवरण मिलता है। यथा उच्छिष्ट-मातंगी राज-मातंगी, सुमुखी-मातंगी, वश्य-मातंगी, कर्ण-मातंगी तथा मातंगी आदि। महापिशाचिनी तथा उच्छिष्टचाण्डलिनी भी इनका नामान्तर सुना जाता है। उच्छिष्ट विशेषण की कथा शक्तिसंगमतन्त्र के छिन्नमस्ता खण्ड के षष्ठ पटल में दी गयी है। इनके ध्यान में वर्णित है कि भगवती श्यामवर्णा हैं, चन्द्रमा सिर पर विराजमान हैं, तीन आँखें हैं, रत्नालंकरणों से शोभित हैं एवं रत्न के सिंहासन पर विराजमान हैं। भगवती का कटिभाग क्षीण है, स्मितमुखी है तथा पयोधर पीन एवं उन्नत है। चार हाथों में क्रमशः अंकुश, असि, पाश एवं खेटक विराजमान हैं श्यामागीं शशिशेखरां त्रिनयनां सद्रत्नसिंहासने संस्थां रत्नविचित्रभूषणयुतां संक्षीणमध्यस्थलाम्। आपीनस्तनमण्डलां स्मितमुखीं ध्यायेद्वहन्ती क्रमाद् वेदैर्बाहुभिरङ्कुशासिलतिके पाशं तथा खेटकम् ।। कुलमणिगुप्त की रचना मातंगीक्रम तथा रामभट्टकृत मातंगीपद्धति तथा दसमहाविद्या संबन्धी तन्त्र-ग्रन्थों में इनकी उपासना-विधि मिलती है।
कमला
प्राचीन समय में कभी ब्रह्मा संसार की सृष्टि के लिये घोर तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती परमेश्वरी चैत्र शुक्ल नवमी को उद्भूत हुई। वह भगवती क्रोधरात्रि नाम से भी प्रसिद्ध हुई। यह कभी क्षीरसागर के मन्थन के समय उद्भूत हुई थी, विष्णु के वक्षःस्थल पर विराजमान भगवती लक्ष्मी नाम से प्रसिद्ध हुई थी। भाद्र कृष्ण अष्टमी को कोलासुर का वध करने वाली भगवती लक्ष्मी का उद्भव हुआ और फाल्गुन कृष्ण एकादशी को यदि मंगल या शुक्रवार हो तो सर्व-सौभाग्यदायिनी महालक्ष्मी का आविर्भाव होता है । ' १. यह कथा ब्रह्माण्डपुराण के ललितोपाख्यान में तथा शक्तिसंगमतन्त्र में भी वर्णित है। २. मातंगी मदशीलत्वान्मतङ्गासुरनाशिनी। सर्वापत्तारिणी देवी मातङ्गी परिकीर्तिता।। (प्राणतोषिणी में उद्धृत, काण्ड ५, परिच्छेद-६)। ३. शाक्तप्रमोद ४. प्राणतोषिणीतन्त्र, का. ५, प.६ ३६४ तन्त्रागम-खण्डमा इनका ध्यान शारदातिलक में मिलता है—देवी की कान्ति सुवर्ण के समान है। हिमगिरि की तरह चार हाथी अपने शुण्ड के द्वारा हिरण्मय अमृतघट से उनको स्नान कराते हैं। देवी के वाम भाग के नीचे के हाथ में वरमुद्रा ऊपर के हाथ में पद्म विराजमान है। दाहिने भाग के नीचे वाले हाथ में अभयमुद्रा और ऊपर वाले हाथ में कमल विद्यमान है। देवी का परिधान रेशमी वस्त्र है और वह पद्म पर बैठी हुई हैं. कान्त्या काञ्चनसन्निभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिर्गजै हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यमानां श्रियम्। बिभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः किरीटोज्ज्वलां क्षौमाबद्धनितम्बबिम्बलसितां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ।। प्रेमनिधि पन्त कृत कमलापद्धति भगवती कमला की उपासना-विधि के लिये उपादेय ग्रन्थ है। शारदातिलक, पुरश्चर्यार्णव, शाक्तप्रमोद, आगमकल्पलता आदि में इनका माहात्म्य एवं पूजाविधि वर्णित है। इसके अतिरिक्त लक्ष्मीपञ्चांग, लक्ष्मीपद्धति, लक्ष्मीपूजाप्रयोग, लक्ष्मीयामल, लक्ष्मीपूजाविवेक आदि भी द्रष्टव्य हैं। ये दस महाविद्याएं अकेली पूजित नहीं होती । इनके साथ शिव की भी पूजा विहित है, जो भैरव नाम से प्रसिद्ध हैं। सांसारिक भय से जो मुक्त करने में समर्थ हो, वही भैरव है। सांसारिक भय से भीत साधक उपासक भगवान् शिव को आर्त स्वर से पुकारता है, उस समय उस साधक के हृदय में जो स्फुरित होते हैं, वही भैरव है । शक्तिसंगमतन्त्र में दस महाविद्याओं के भैरव यथाक्रम इस प्रकार निर्दिष्ट हैं- महाकाल, ललितेश्वर, अक्षोभ्य, क्रोधभैरव, महादेव, कालभैरव, नारायण, बटुक, मतंग, तथा मृत्युंजय’ । तोडलतन्त्र में यहाँ कुछ पार्थक्य भी है। यथा त्रिपुरसुन्दरी के पञ्चवक्त्र, भुवनेश्वरी के त्र्यम्बक, भैरवी के दक्षिणामूर्ति, छिन्नमस्ता के कबन्ध शिव, धूमावती के कोई नहीं, क्योंकि वह विधवा है, वगलामुखी के एकवक्त्र, कमला के भगवान् विष्णु और काली, तारा तथा मातंगी के महाकाल, अक्षोभ्य एवं मतंग माने गये हैं । विशेष-विशेष कार्य के लिये विशेष-विशेष देवता का आराधन भी शाक्त सम्प्रदाय में प्रसिद्ध है। यद्यपि इष्ट-देवता से साधक की सभी मनःकामनाओं की सिद्धि अवश्य संभव है, तथापि शक्तिसंगमतन्त्र के छिन्नमस्ता खण्ड में एक-एक विशेष कार्य के लिये एक-एक महाविद्याविशेष की प्रसिद्धि कही गयी है। जैसे दान में काली, ज्ञान में तारा, राज्यलाभ में १. शारदातिलक ८.४ तथा शाक्तप्रमोद २. “भयं भीः संसारत्रासः, तया जनितो योऽसौ रवो भगवद्विषय आक्रन्दः परमर्शो वा, ततो जात इति भैरवः। तेनाक्रन्दवतां परामर्शवतां च हृदि परमार्थभूमौ स्फुरित इति यावत्"। (तन्त्रालोके प्रथममानिकम्) ३. शक्तिसंगमतन्त्र, ४.८.२१०-२१२ ४. द्रष्टव्य-तोडलतन्त्र, प्रथम परिच्छेद, ३-१६दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३६५ त्रिपुरसुन्दरी, अनुग्रह में छिन्नमस्ता, विवाद झगड़ा निबटाने में वगला, वशीकरण में तथा मनःकामना-सिद्धि में मातंगी, शान्ति-स्वस्त्ययन में भुवनेश्वरी, क्रोध-कार्य में धूमावती, क्रीडा या लीला में कालिका, वाञ्छा-सिद्धि में सुमुखी, दान में कमला, सत्यसिद्धि में कालिका, ज्ञान में परशिव और ब्रह्माण्ड के निर्माण में राजराजेश्वरी प्रसिद्ध हैं। दस महाविद्याओं के परिचय के वाद अब अवशिष्ट स्मार्ततन्त्र परम्परा का परिचय तथा इस दृष्टि से शाक्त-उपासना के स्वरूप का दिग्दर्शन, तन्त्रों में अवश्य ज्ञातव्य मन्त्र तथा यन्त्र का संक्षिप्त परिचय यथामति प्रस्तुत करना अभिप्रेत है।
स्मार्ततन्त्र परम्परा
वेद, पुराण तथा आगम में समान श्रद्धा सम्पन्न, पञ्चदेवोपासक स्मार्तधर्मावलम्बी साधक दीर्घकाल से अपनी संस्कृत-रुचि के अनुकूल उपासना की परिष्कृत पद्धति से सात्त्विक उपचारों के द्वारा इन महाविद्याओं के रूप में परिचित आदिशक्ति की आराधना साधना करते आ रहे हैं। इनकी उपासना-विधि ही “स्मार्ततन्त्र परम्परा” नाम से परिचित है। चूँकि वेद की अनुगामिनी स्मृतियों में विशेष रूप से वर्ण एवं आश्रम धर्मों का प्रतिपादन है तथा पञ्चमहाभूत एवं उनकी अधिष्ठात्री देवताओं की आराधना पर बल दिया गया है, अतः स्मार्त धर्मावलम्बी साधक नित्य आराध्य पञ्चदेवता की पूजा से ही किसी भी शुभ कर्म का प्रारम्भ करते हैं। ये वर्ण तथा आश्रम धर्म के प्रतिकूल, किन्तु कौल साधना में प्रशस्त शक्तिपूजा (लतासाधना-परस्त्री संगम), प्रसन्ना विधि एवं पात्रस्थापन (मदिरार्पण) और पशुबलि के व्यवहार आदि को उपासना में वर्ण्य मानते हैं। ये वैदिक, पौराणिक एवं आगमिक मन्त्रों का समान रूप से उपयोग करते हैं। पाँच महाभूतों के अधिष्ठातृदेवता के रूप में प्रसिद्ध विष्णु, अम्बिका, सूर्य, शिव और गणेश यहाँ पञ्चदेवता अभिप्रेत हैं। १. शक्तिसंगमतन्त्र, छिन्नमस्ताखण्ड, २.६८-७३ २. मनुस्मृति का उपसंहार भाग द्रष्टव्य एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः। जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्।। (१२.१२४) पञ्चायतनपूजा वै सर्वेष्वेवागमादिषु। गणेशश्चापि सूर्यश्च विष्णू रुद्रस्तथैव च।। पूजयेन्मध्य ईशानी पञ्चायतनमीदृशम्।। (महाकालसंहिता, गु. ख. १२.२७५-७८) ३. परस्त्रीसंगमो मद्योपसेवा प्राणिघातनम्। को हेतुर्नैव जानामि देवीप्रीतिकरा इमे।। (१०.१६६६-७० म. सं. गु. ख.) मिथिला में रात्रिपूजा में गणपत्यादि पञ्चदेवता का और दिन में सूर्यादि पञ्चदेवता का पूजन निश्चित है। इससे प्रतीत होता है कि सूर्य और गणेश वैकल्पिक देवता हैं और सूर्य या गणेश के अतिरिक्त विष्णु, शिव, दुर्गा तथा अग्नि को सम्मिलित किया जाता है। इसका मूल अन्वेषणीय है। समजा तन्त्रागम-खण्डमा आगमिक उपासना मनुष्य मात्र के लिए विहित है और स्मार्त धर्मावलम्बी केवल द्विज होता है। अतः एकत्र सभी प्रकार के मनुष्यों की रुचि एवं प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर उपासना की विधि निर्दिष्ट हुई है और अपरत्र द्विज मात्र अधिकारी कहा गया है। अतः स्मार्ततन्त्र परम्परा में उपासनाविधि का मर्यादित परिष्कृत होना स्वाभाविक है। जी
इस परम्परा का वैशिष्ट्य
महाकालसंहिता स्पष्ट कहती है कि मेरी तो ऐसी परम्परा है कि साधक श्रुति तथा स्मृति में निर्दिष्ट आचार के अनुपालन के साथ ही देवी की उपासना करते हैं । वेद के अविरोधी आगमों में निर्दिष्ट आचार अनुपालनीय हैं और वेदविरुद्ध आगमोक्त आचार हेय’ । ब्राह्मण (द्विज) सात्त्विक द्रव्य से ही देवी की पूजा करे । दिन में सम्पाद्य पूजा का ही अधिकारी ब्राह्मण (द्विज) होता है, रात्रि में सम्पाद्य पूजा का नहीं । तन्त्र में मद्यपान की जो प्रशंसा सुनी जाती है, वह शूद्रपरक है, ब्राह्मण(द्विज)परक नहीं । सात्त्विक द्विज किसी भी परिस्थिति में जीवहत्या नहीं कर सकता। इक्षुदण्ड, कूष्माण्ड, वन्यफल, दुग्धपिण्ड खोया या मक्खन) अथवा चावल के चूर्ण से निर्मित पशु का बलि रूप में अर्पण इस परम्परा में मान्य है। फलतः आचार की शुचिता, उपचार की सात्त्विकता तथा साधक की संस्कृत-परिष्कृत मानसिकता पर यहाँ बल दिया गया है। महाकालसंहिता का स्पष्ट निर्देश है कि कौल सम्प्रदाय सिद्ध लतासाधन, प्रसन्ना-विधि तथा पशुबलि में यदि स्मार्त साधक का किसी कारण से विशेष आग्रह हो, तो शास्त्रों में निर्दिष्ट अनुकल्प का उपयोग कर अपनी साधना सम्पन्न कर सकता है। यथा लता-साधन में अपनी पत्नी का उपयोग, १. श्रुतिस्मृत्युदितं कर्म देव्युपासनमेव च। उभयं कुर्वते देवि मदुदीरितवेदिनः।। (म. सं., गु. ख. १०.१२६४) २. वेदाविरुद्धं कुर्वन्ति यद्यदागमचोदितम्। आगमादेशितमपि जहति श्रुत्यचोदितम्।। (म. सं., गु. ख. १२.२१३८) ३. द्रव्येण सात्त्विकेनैव ब्राह्मणः पूजयेच्छिवाम् । (म. सं., का. ख. ५.१२३) ४. द्विजादीनां तु सर्वेषां दिवाविधिरिहोच्यते। शुद्रादीनां तथा प्रोक्तं रात्रिदृष्टं महामतम्। (म. सं., का. ख. ५.७३) माना। इसी से शक्तिपूजा एवं प्रसन्नाविधि आदि में उनका अनधिकार सिद्ध होता है। श्रूयते यत्फलाधिक्यं तन्त्रादौ मद्यदानतः। तद्धि शूद्रपरं ज्ञेयं न तु द्विजपरं प्रिये।। (म. सं., गु. ख. ६.४२०) इसका संवाद शक्तिसंगमतन्त्र में तथा ताराभक्तिसुधार्णव में मिलता है। सात्त्विको जीवहत्यां हि कदाचिदपि नो चरेत्। (म. सं., का. ख. ५.१३५) ७. इक्षुदण्डं च कूष्माण्डं तथा वन्यफलादिकम्। क्षीरपिण्डैः शालिचूर्णैः पशुं कृत्वा चरेद् बलिम्। तत्तत्फलविशेषेण तत्तत्पशुमुपानयेत्।। मधुक्षीरं तथाज्यं च नारिकेलोदकं प्रिये। ब्राह्मणानामिदं शस्तं फलानां च रसास्तथा। कूष्माण्डं महिषत्वेन छागत्वेन च कर्कटीम् ।। (म. सं., का. ख. ५.१३६-३७) ८. ३६७ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा प्रसन्ना-विधि में कांस्यपात्र में नारियल का जल एवं ताम्रपात्र में दूध या मधु का व्यवहार और बलि में पूर्वोक्त अनुकल्प का उपयोग हो सकता है। ब्रह्मचारी, गृही, कौल और यती की उपासना में पार्थक्य का प्रदर्शन, द्विज एवं शूद्र की पञ्चायतनवान् स्मार्तता, का अनेकधा उल्लेख इस संहिता को स्मार्त तन्त्र परम्परा का ग्रन्थ मानती है। वैदिक परम्परा श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन को आत्मज्ञान का यथाक्रम सोपान मानती है। उक्त विधि से उपनिषत् प्रतिपादित अहंग्रह उपासना सम्पन्न होती है। इसी तरह आगम परम्परा में गुरुमुख से उपास्य का माहात्म्य सुनकर मन में उसके प्रति निश्चल विश्वास होने पर उसका निरन्तर ध्यान आगमों में निर्दिष्ट विग्रहोपासना में देखा जाता है। शंकर भगवत्पाद ने गीताभाष्य में उपासना के लक्षण में कहा है कि शास्त्र विहित पद्धति से उपास्य के निकट पहुँच कर समान विश्वास रखते हुए तैलधारा की तरह दीर्घकाल तक स्थित रहना ही उपासना है। दैवी कृपा से यही तन्मयीभाव इष्टदेवता का साक्षात्कार करा कर मोक्ष का साधक होता है । फलतः ध्यान के माध्यम से ध्येय के साथ ध्याता का तादात्म्य स्थापन ही उपासना के मूल में निहित है। वैदिक उपासना में उपासक अपने में उपास्य का दर्शन ज्ञान के माध्यम से करता है और तान्त्रिक उपासक भक्ति के द्वारा उपास्य तक पहुंचता है। तादात्म्य उभयत्र अपेक्षित है। बिन
त्रिविध उपासना
इसमें कोटि का निर्देश भी शास्त्रों में मिलता है। उपासना की उत्तम कोटि है योग। मानस पूजा और बाह्य पूजा क्रमशः मध्यम एवं अधम कोटि की मानी गयी हैं । यौगिक उपासना का बहुविध माहात्म्य शास्त्रों में प्रतिपादित है। दिग्दर्शनार्थ इतना कहना पर्याप्त होगा कि सांसारिक बन्धनों से छुटकारा, पूर्व जन्मों के शुभाशुभ कर्मों का नाश तथा निर्मल ज्ञान का प्रकाशन इस विधि से सम्भव है । महाकालसंहिता गुह्यकाली खण्ड के ग्यारहवें पटल में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। यह योगविधि सरल नहीं है, न तो सबसे संभव है। अत एव इस उपासना के अधिकारी विरल होते हैं। प्राक्तन संस्कार तथा उपयुक्त गुरु के उपदेश से ही इसका अभ्यास संभव है। अतः साधक की सामर्थ्य में तारतम्य देखकर ही मानस ध्यान तथा बाह्य पूजा का विधान आगमों में उपदिष्ट हुआ है, जो क्रमशः एक दूसरे का सोपान है। उपासक साधक की क्षमता के अनुसार गुरु इनमें से किसी एक का उपदेश देता है। १. यथाशास्त्रमुपास्यस्यार्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यमुपगम्य तैलधारावत् समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालं यदासनं तदुपासनमाचक्षते। (भगवद्गीता शांकरभाष्य १२.३१) २. उत्तमो योगमार्गेण मध्यमो ध्यानसंश्रयात्।। पूजाध्यानादिभिज्ञेयोऽप्यधमाराधनक्रमः।। (म. सं., का. ख. ७.२०२) ३. योगेन भवबन्धोऽयं विनाशमुपगच्छति। कर्माणि क्षयमायान्ति पूर्वजन्मकृतान्यपि।। IPIES ज्ञानं प्रकाशतेऽत्यर्थ शुद्धं यद्दोषवर्जितम्।। (महाकालसंहिता, गु. ख.) या ३६८ मलाए तन्त्रागम-खण्ड गत उत्कट चंचल एवं निरन्तर क्रियाशील मन सांसारिक विषयों के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध बनाकर स्वच्छन्दता से जहाँ कहीं भी विचरण के लिये प्रस्तुत रहता है। यही कारण है कि ऋषियों ने मन के संयम पर अधिक बल दिया है तथा मन को ही बन्ध और मोक्ष का कारण माना है—“मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः"। नाम इस मन को एकाग्र तथा निश्चल बनाकर केवल इष्टदेवता की ओर निरन्तर संलग्न रखना, अर्थात् उन्हीं की अनुचिन्तना में अपने को सर्वथा अर्पित कर देना मानस पूजा या मानस ध्यान है, जो उपासना की मध्यम कोटि कही गयी है। आगमिक भाषा में यही है अन्तर्याग। इसमें इष्टदेवता के स्वरूप-ध्यान का नैरन्तर्य बना रहता है। उपचार भी यहाँ मानस ही कल्पित होते हैं। हाला बाल यहाँ तीन प्रकार के उपास्य का ध्यान शास्त्रों में वर्णित है— निराकार उपास्य, विराटशरीरशाली उपास्य और मूर्तिमय उपास्य । आगमों में तीनों के ध्यान पृथक्-पृथक् निर्दिष्ट हैं। यह पार्थक्य उपासक की क्षमता में तारतम्य के कारण ही शास्त्रकारों ने दिखाया है। अपनी सामर्थ्य के अनुरूप उपासक उपास्य का ध्यान करता है। सौन्दर्यलहरी में शंकर भगवत्पाद ने इस मानस पूजा का स्वरूप इस प्रकार प्रदर्शित किया है- हे भगवति! मेरी जल्पना ही जप है, लोकयात्रा हेतु किया गया हस्तसंचालन ही मुद्रा है, चलना ही प्रदक्षिणा है, भोजनविधि ही आहुति है और स्वेच्छा से शरीर का कभी झुकाना ही प्रणाम है। जो कुछ भी मैं करता हूँ, वह आत्मसमर्पण-बुद्धि से करने के कारण आपकी ही पूजा है, अर्थात् लोकयात्रा में किये गये आचरणों से ही आपकी सांग पूजा सम्पन्न होती है जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्रा विरचना हक गतिः प्रादक्षिण्यक्रमणमशनाद्याहुतिविधिः। ताहिक प्रणामः संवेशः सुखमखिलमात्मार्पणदृशा पाक सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ।। इसका संवाद शैव उपासकों के द्वारा पठित शिवस्तोत्र में भी मिलता है आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहंक पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः। सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो - कि यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो ! तवाराधनम्।। शिकायत १. द्रष्टव्य—महाकालसंहिता गुह्यकाली खण्ड (१.३०-१०२, १४०-४६, १७८-१६८)बाट २ . द्रष्टव्य-सौन्दर्यलहरी, पद्यसंख्या २७ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ३६६
बाह्य पूजा
प्रतिमा तथा यन्त्र आदि की पूजा अथवा उद्दिष्ट पूजा बाह्य पूजा से यहाँ अभिप्रेत है, जहाँ आवाहन, विसर्जन तथा प्राणप्रतिष्ठा आदि निर्दिष्ट पद्धति से किये जाते हैं। अग्निकुण्ड, कलश, गोमतीचक्र, पटचित्र तथा भित्तिचित्र आदि में से किसी एक में पूज्य देवता का आवाहन, सोपचारपूजा एवं विसर्जन आदि का विधान देखा जाता है। विभव के अनुसार किसी अभ्यर्हित अतिथि के स्वागत सत्कार की तरह साधक उत्साह एवं प्रसन्नता से विविध उपचारों से अपनी पूज्या इष्टदेवता की आराधना करता है। पाँच या दस उपचार सामान्य पूजा में विहित हैं। विशेष पूजा में सोलह, बत्तीस तथा चौसठ उपचारों का विधान भी किया गया है। इष्टदेवता यदि भगवती हैं तो यावतीय महिला-प्रसाधन तथा गृहोपयोगी उपस्कर-उपकरण आदि भी इन उपचारों के अतिरिक्त ही अर्पणीय होते हैं। महाकालसंहिता गुह्यकाली खण्ड के दशम पटल में इसका विशद विवरण मिलता है। । यहाँ यह अवधेय है कि बाह्य पूजा में भी प्राणायाम एवं मानस ध्यान का अनिवार्यतः अनुष्ठान निर्दिष्ट है, जो अन्य विषयों से विरत कर केवल इष्ट की ओर चित्त को लगाने का उपाय है। न्यास, भूतशुद्धि, आसनशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, आत्मशुद्धि, शरीरशुद्धि, विविध मुद्राओं का प्रदर्शन, मन्त्रजप, हवन, कवच एवं स्तोत्रपाठ, विविध प्रकारों के नैवेद्य का यथाविभव अर्पण तथा प्रार्थना आदि आराध्य के निकट पहुँचने के ही मार्ग के रूप में उपदिष्ट हैं, अत एव आवश्यक माने गये हैं। किन्तु उदारता इतनी है कि भगवती ने स्पष्ट कहा है कि यदि कुछ न उपलब्ध हो सके, तो भक्तिपूर्वक सर्वत्र सुलभ केवल जल के अर्पण से भी वह अवश्य सन्तुष्ट होती है “अभावे तोयभक्तिभ्यां सत्यं तुष्टा भवाम्यहम्”’। जैसे आवाहन आदि से प्राणप्रतिष्ठा करने पर जड यन्त्र या प्रतिमा में आराध्य देवता का अधिवास होता है, इसी तरह न्यास के द्वारा आराधक में भी देवता का आवेश होता है। “न्यासस्तन्मयताबुद्धिः” ऐसा शास्त्रवाक्य उपलब्ध है। यह न्यास षडंग न्यास, करषडंग न्यास, मातृकाविन्यास, षोढा, लघुषोढा तथा महाषोढा न्यास आदि के भेद से अनन्त प्रकार का होता है। दूसरी बात यह है कि मानव-सुलभ दुर्बलता के कारण सामाजिक जीवन में साधारण लोगों की इच्छा, रुचि एवं प्रवृत्ति अनुचित भी हो सकती है, होती है। इसका दृढतापूर्वक या हठ से प्रतिरोध करने पर मानव मन का उच्चाटन भी संभव है। अतः उसे विशोधित परिशोधित करने की व्यवस्था के अन्तर्गत यह बाह्य पूजा विहित है, जो क्रमशः शरीर, मन एवं आत्मा के विमलीकरण का साधन होने से इष्ट तक पहुँचाने का सोपान है। शिकार १. महा. गुह्य. ६.३६३ ४०० तन्त्रागम-खण्ड
अवान्तर भेद
यद्यपि बाह्य पूजा की धारा बहुमुखी है, उपास्यों के स्वरूप का आनन्त्य, साधक की रुचि एवं प्रवृत्ति में भिन्नता, आम्नायों के भेद, सम्प्रदायों के भेद तथा आचारों के भेद इनके मूल में विद्यमान हैं, अत एव पूजा की अनन्त पद्धतियाँ प्रचलित हैं, तथापि सबका उद्देश्य एक है। अत एव बाह्य पूजा उद्देश्य रूप एक सूत्र में आबद्ध है। इसके तीन मुख्य प्रकार स्थूल दृष्टि से शास्त्रों में वर्णित हैं- नित्य, नैमित्तिक और काम्य। . । प्रतिदिन की जाने वाली पूजा “नित्य पूजा" कहलाती है। प्रातःकाल शयन से उठने के बाद रात में शयन हेतु जाने के पहले तक आराधक उपासक जो कुछ भी करता है, वह उसकी नित्य पूजा की कोटि में आता है। अत एव लोकयात्रा के निर्वाहार्थ प्रातःकाल साधक को अपनी इष्टदेवता से अनुज्ञा की याचना करनी पड़ती है । किसी निमित्त के कारण की जाने वाली पूजा “नैमित्तिक पूजा” कहलाती है। यथा शरत् पूर्णिमा में लक्ष्मी की पूजा, दीपावली में काली की पूजा, नवरात्र में दुर्गा की पूजा आदि। फलप्राप्ति की इच्छा से की गई पूजा अथवा ईप्सित फल की प्राप्ति होने पर प्रतिश्रुत या तत्काल स्फुरित पूजा “काम्य पूजा” कहलाती है। इस पूजा में उपचार, उपकरण सम्भार, नैवेद्य एवं विधि-विधान के विशेष नियम आदि पद्धतियों में स्वतन्त्रतया निर्दिष्ट हैं। इसके आदि में संकल्प एवं अन्त में दक्षिणा अवश्य कृत्य के रूप में निर्दिष्ट हैं। सात्त्विक कामना की सिद्धि में सात्त्विक उपचार से तथा राजस या तामस कामना की सिद्धिहेतु तदनुरूप उपचार से पूजा की जाती है, जो पूजापद्धतियों से समझा जा सकता है।
दीक्षा
आत्मोन्नति के साधन इस उपासना का प्रथम सोपान है दीक्षा। इसके बिना उपासना का अधिकार ही नहीं बनता। आगमों में इसका सर्वाधिक महत्त्व दिखाया गया है। इसका स्वरूप, प्रकार, व्युत्पत्ति, माहात्म्य तथा प्रयोजन आदि का प्रतिपादन प्रायः प्रसिद्ध सभी तन्त्र-ग्रन्थों में विस्तार से हुआ है। दीक्षाग्रहण की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित एवं उपलब्ध हैं। इसके विशेष ज्ञान के लिए प्रपञ्चसार, मेरुतन्त्र, शारदातिलक, ईशानशिवगुरुदेवपद्धति तथा प्राणतोषिणी आदि अवलोकनीय हैं। आश्चर्य है कि महाकालसंहिता में इसकी चर्चा भी नहीं है।
मन्त्र
चूँकि दीक्षा मन्त्र की होती है, अत एव मन्त्र के स्वरूप एवं प्रभेद का परिचय भी आगमों में विशद रूप से दिया गया है। इस पद का अर्थ करते हुए तन्त्र कहता है कि १. आप्रत्यूषादाशयनं यावत्कृत्यं भवेदिह।। (महा. गुह्य. ५.४८६) ४०१ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा सभी प्राणियों के मननयोग्य, संसाररूप सागर से पार करने में समर्थ, देवता के स्वरूप का अवबोधक एवं उनका अधिष्ठान स्वरूप मन्त्र’ होता है। इसके तीन प्रकार पुरुष, स्त्री और नपुंसक रूप शास्त्रों में वर्णित हैं । प्रपञ्चसार, ईशानशिवगुरुदेवपद्धति तथा शारदातिलक में इसका स्पष्ट चित्र उपलब्ध है। जिस मन्त्र के अन्त में स्वाहा हो वह स्त्रीलिंग माना गया है। जिस मन्त्र में अन्त में नमः हो वह नपुंसक है और शेष पुल्लिग मन्त्र हैं। शारदातिलक यहाँ थोड़ा सा अधिक अपना योगदान कर कहता है कि जिस मन्त्र के अन्त में हुंफट् आता हो वह पुल्लिंग है काणशेष सर्वत्र समान है। इसके प्रयोजन के प्रतिपादन में कहा गया है कि वशीकरण तथा उच्चाटन आदि कार्यों के लिए पुरुष मन्त्र, क्षुद्र कर्म एवं ध्वंसात्मक कमों के लिए स्त्री मन्त्र और अन्य कार्य के लिए नपुंसक मन्त्र अनुकूल होते है । अधिष्ठातृदेवता के भेद से भी इसका विभाग हुआ है तथा मन्त्र और विद्या पद क्रमशः पुरुष एवं स्त्री देवता के मन्त्रों के लिए प्रयुक्त होते हैं । अन्य प्रकार से पुनः इसके चार प्रकार माने गये हैं- बीज, बीजमन्त्र, मन्त्र और मालामन्त्र। अनेक वर्षों से युक्त एकाक्षर मन्त्र बीज है, दस से कम अक्षरों का मन्त्र बीजमन्त्र है, दस से अधिक किन्तु बीस से कम अक्षरों के मन्त्र हैं और इससे अधिक अक्षर वाला मालामन्त्र है । समान कहा गया है कि बाल्यावस्था में बीज, कौमार में बीजमन्त्र, यौवन में मन्त्र और वार्धक्य में मालामन्त्र अधिक फलद होते हैं। यहां यह भी कहा गया है कि श्रद्धा तथा भक्ति से अभ्यास करने पर सभी प्रकारों के मन्त्र किसी भी अवस्था में अवश्य फलप्रद होते हैं। महाकालसंहिता में इसके दो प्रभेद मन्त्र और उपमन्त्र के रूप में कहे गये हैं। मन्त्र जप्य १. मननात् त्राणनाच्चैव मद्रूपस्यावबोधनात्।। मन्त्रमित्युच्यते ब्रह्मन् मदधिष्ठानतोऽपि वा।। (योगशिखाब्राह्मण) मननात सर्वभूतानां त्राणात संसारसागरात। EPF का । मन्त्ररूपा हि तच्छक्तिर्मननत्राणधर्मिणी (रत्नत्रय) कामचनमा सिकाई मननत्राणधर्मित्वं वाचकं दैवतस्य तु।। यत्र तन्मन्त्रसंज्ञं स्यान्न तद्बीजेषु वा भवेत् ।। (ईशानशिवगुरुदेवपद्धति १.२२४) इशानाशवगुरुदवपद्धात 7.२२) पावर २. मन्त्रास्त्रेधा स्त्रीपुमांसश्च षण्डाः स्वाहान्ताः स्युर्योषितो ये नमोऽन्ताः। ते षण्डाख्याः शिष्टमन्त्राः पुमांसः प्रोक्तं मन्त्रव्यापृतौ गौतमेन ।। (ईशानशिव. ४.११) ३. पुंमन्त्राः हुंफडन्ताः स्युठिान्ताश्च स्त्रियो मताः। नपुंसका नमोऽन्ताः स्युरित्युक्ता मनवस्त्रिधा।। (शारदातिलक २.५६। ४. शेषाः पुमांसः शक्तास्ते वश्योच्चाटनकेषु च। क्षुद्रक्रियामयध्वंसे स्त्रियोऽन्यत्र नपुंसकाः।। (राघवभट्टकृत शारदा-टीका, पृ. ४६) ५. मन्त्रविद्याविभागेन द्विविधा मन्त्रजातयः। मन्त्राः देवता ज्ञेया विद्या स्त्रीदैवता मताः।। (वहीं २.५७-५८) R S E -5525 ६. मन्त्रास्ते स्युश्चतुर्विधाः। ARE बीजानि बीजमन्त्राश्च मन्त्रा मालाख्यमन्त्रकाः। (ईशानशिव. १.१८-२१) शासनमा ७. ईशानशिवगुरुदेवपद्धति १.१८-२१ हाड ४०२ पर तन्त्रागम-खण्डमा होता है और उपमन्त्र देवी को जो कुछ भी अर्पण करना है, इस विधि में उपयोगी होता है। फलतः जप्य मन्त्र और अर्पणीय उपमन्त्र कहा गया है। शिकायत पुरश्चरण के लिए इन मन्त्रों के दस संस्कार–जनन, जीवन ताडन, बोधन, अभिषेक, विमलीकरण, आप्यायन, तर्पण, दीपन और गोपन अवश्य कर्तव्य के रूप में शारदातिलक में तथा अन्यत्र निर्दिष्ट हैं। इससे स्मार्ततन्त्र परम्परा में इसका महत्त्वातिशय ज्ञात होता है। मानक कुछ मन्त्र शापग्रस्त होते हैं। इन मन्त्रों के दान के समय दीक्षा से पहले उनका शापोद्धार आवश्यक है। अन्यथा वह फलप्रद नहीं होते। शापग्रस्त मन्त्र आगमों में परिगणित छिन्न आदि उनचास दोषों से ग्रस्त हो जाते हैं। शारदातिलक में इन दोषों का परिचय तथा इससे उद्धार के उपाय वर्णित हैं। ला यहाँ ज्ञातव्य है कि चैतन्य का आधान कर मन्त्र का उद्बोधन आवश्यक है। मन्त्र, देवता, गुरु तथा साधक में एक ही चैतन्य रहता है, जो देवता और गुरु में तो उबुद्ध रहता है, किन्तु मन्त्र और साधक में इसके उद्वद्वोधन की आवश्यकता होती है। गुरु अपना उद्बुद्ध चैतन्य इन दोनों में संचारित कर देता है। इसे चैतन्याधान कहते हैं। ‘गुरुदैवतमन्त्राणां’ पद में मध्य में विद्यमान दैवत पद का देहलीदीपकन्याय से दोनों ओर समन्वय होता है। इसकी प्रक्रिया तन्त्र-ग्रन्थों में उपदिष्ट है। रना इन मन्त्रों के सात अंग होते हैं, जिसका उल्लेख मन्त्रजप से पहले आवश्यक है। वे हैं—ऋषि, छन्द, देवता, शक्ति, बीज, कीलक और विनियोग। इसका गूढ तात्पर्य विशद रूप से प्रपञ्चसारसंग्रह में प्रतिपादित है।
यन्त्र
शाक्त तन्त्रों में यन्त्र को देवता का शरीर और मन्त्र को उसकी आत्मा कहा गया है। अत एव यन्त्र मन्त्रमय होता है, जिससे शरीर और आत्मा का परस्पर सम्बन्ध बना रहता है यन्त्रं मन्त्रमयं प्रोक्तं मन्त्रात्मा देवतैव हि। सियामका साकारतान देहात्मनोर्यथाऽभेदो यन्त्रदेवतयोस्तथा ॥ 135ोकशाह) ली कशा परिचित किया १. द्रष्टव्य-शारदातिलक २.११२-११३ २. द्रष्टव्य—वहीं २.६४-७२ ३. द्रष्टव्य पुरश्चर्यार्णव में उद्धृत गन्धर्वतन्त्र के २६ पटल का वचन। ४. शाक्तानन्दतरंगिणी, उल्लास १३, भारतीय शक्ति साधना तथा प्रिन्सिपुल्स ऑफ तन्त्र, भूमिका, पृ. ८५ में उद्धृत। दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा ४०३ एक से यही कारण है कि यन्त्र पर भी देवताओं की पूजा आगमों में प्रशस्त मानी गयी है मोहन “सर्वेषामेव देवानां यन्त्रपूजा प्रशस्यते”। यह गन्धर्वतन्त्र भी इसकी पुष्टि करता है। यहाँ कहा गया है कि देवता का शरीर तीन प्रकार का होता है— भौतिक, मनोमय और विज्ञानमय। मुद्रा उनका भौतिक शरीर है, यन्त्र मनोमय और मन्त्र उनका ज्ञानमय शरीर है शरीरं त्रिविधं प्राहुभौतिकं च मनोमयम्। पिता पर ज्ञानमय नित्यं यदनाशि निरन्तरम्। मुद्रां भौतिकमित्याहुर्यन्त्रं विद्धि मनोमयम्। मन्त्रं ज्ञानमयं विद्धि एवं त्रिधा वपुर्भवेत् ।। ग नी यहीं आगे कहा गया है कि यन्त्र के बिना पूजा करने पर आराध्य देवता प्रसन्न नहीं होते “विना यन्त्रेण चेत् पूजा देवता न प्रसीदति” यद्यपि प्राणप्रतिष्ठा से सम्पन्न प्रतिमा की पूजा मन्दिरों में तथा घरों में देखी जाती है, तथापि यन्त्र के माहात्म्य के प्रदर्शन के लिये उक्त वचन की सार्थकता समझनी चाहिये। दूसरी बात यह है कि प्रतिमा के अभाव में यन्त्र पर पूजा विहित एवं प्रशस्त है, उद्दिष्ट पूजा विवशता का द्योतक है। साधारण साधक तो यन्त्र को देवता का स्वरूप और प्रतीक दोनों मानता है, जैसे कि वेदान्त में ॐकार को ब्रह्म का स्वरूप एवं उपासना के लिये प्रतीक कहा गया है। _तन्त्र-ग्रन्थों में प्रत्येक देवता के यन्त्र का स्वरूप भिन्न प्रकार का वर्णित है। अत एव आगम में विशेष रूप से पृथक्-पृथक् निर्दिष्ट यन्त्र पर तत्तद् देवता की पूजा विहित है। प्रत्येक यन्त्र पर सभी देवताओं की पूजा विहित नहीं है। महाकालसंहिता में मण्डल पद से इस यन्त्र का परिचय दिया गया है। अत एव मण्डल और यन्त्र का व्यवहार आगमों में पर्याय रूप में मिलता है। आगमों में वर्णित है कि कहीं यदि प्रसंग रहने पर भी किसी देवता के यन्त्र का विवरण उपलब्ध नहीं होता हो, तो ऐसी परिस्थिति में अष्टदल कमल लिखकर उसके मध्य में षट्कोण कर्णिका का और बाहर में चार द्वारों एवं भूपुर आदि का निर्माण कर यन्त्र बनाना चाहिये और उस पर अभीष्ट देवता की पूजा करनी चाहिये १. शाक्तानन्दतरंगिणी, उल्लास १३, भारतीय शक्ति साधना तथा प्रिन्सिपुल्स ऑफ तन्त्र, भूमिका, पृ. ८५ में उद्धृत। २. गन्धर्वतन्त्र ५.३६-४० ४०४ तन्त्रागम-खण्ड अनुक्तकल्पे यन्त्रं तु लिखेत् पद्म दलाष्टकम्। षट्कोणं कर्णिकं तत्र वेदद्वारोपशोभितम् ।। इससे यन्त्र का महत्त्व सिद्ध होता है। यह यन्त्र सुवर्ण, रजत, ताम्रपत्र, भूर्जपत्र तथा स्फोटक पर निर्मित होता है कि सौवर्णे राजते पात्रे भूर्जे वा सम्यगालिखेत। तर अथवा ताम्रपट्टेन गुटिकीकृत्य धारयेत्।। (बृहत् तन्त्रसार) यन्त्र दो प्रकार का होता है— पूजनीय और धारणीय। देवता की पूजा जिस यन्त्र पर होती है, उसे पूजनीय यन्त्र और पूजापाठ आदि करके सुवर्ण, रजत या ताम्रपत्र से ढककर गले में या बाहु पर जो यन्त्र धारण किया जाता है, उसे धारणीय यन्त्र कहते हैं। शक्तिसंगमतन्त्र में स्पष्ट प्रतिपादित है कि धारण करने पर यह यन्त्र पुरुष, स्त्री तथा बालक सभी के मनोरथों को सिद्ध करता है तथा आभूषण का भी काम करता है पुरुषस्य तथा स्त्रीणां बालकानां विशेषतः। धारणात् सिद्धिदं देवि यन्त्रं च भूषणं भवेत् ।। इस प्रकार के यन्त्रों पर चिरकाल से भारतीयों का निश्चल विश्वास रहा है। इसका प्रमाण महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल में उपलब्ध है, जहाँ शकुन्तला के पुत्र भरत के गले में कण्व ने ऐसा रक्षायन्त्र डाल रक्खा था कि उससे उसकी रक्षा तो होती ही रही और उसका आनुषंगिक सुफल यह भी हुआ कि उस यन्त्र ने उस शिशु को अपने पिता से मिला दिया। का एलान कर __ आगमों में यन्त्र की जो व्युत्पत्ति दी गयी है, उससे दो बातें अवश्य सिद्ध होती हैं। एक तो यन्त्र में बीज-मन्त्र का समावेश एवं आराधन-विधि से देवता का सान्निध्य रहता है और दूसरा यह कि नानाविध उपद्रवों से रक्षा करने में वह सर्वथा समर्थ होता है। कुलार्णवतन्त्र का स्पष्ट कथन है कि यम, भूत तथा प्रेत आदि के भय से रक्षा करने के कारण इसका नाम यन्त्र पड़ा। काम, क्रोध आदि दोषों से उद्भूत दुःखों का यह प्रतिरोध करता है, अत एव इसे यन्त्र कहा गया है। इस पर पूजा करने से देवता प्रसन्न होते हैं यमभूतादिसर्वेभ्यो भयेभ्योऽपि कुलेश्वरि। कणकर त्रायते सततं चैव तस्माद् यन्त्रमितीरितम्।। १. मत्स्यसूक्त वचन, भारतीय शक्तिसाधना के पृ. १८७ में उद्धृत। २. शक्तिसंगमतन्त्र, ताराखण्ड।४०५ दस महाविद्या एवं स्मार्ततन्त्र परम्परा कामक्रोधादिदोषोत्थसर्वदुःखनियन्त्रणात्। यन्त्रमित्याहुरेतस्मिन् देवः प्रीणाति पूजितः’ ।। श्रीतत्त्वचिन्तामणि में भी इसकी पुष्टि की गयी है। वहाँ कहा गया है कि पूजन, ध्यान तथा धारण से यन्त्र पापों का नाश करता है तथा बड़े से बड़े भय से रक्षा करता यमयत्यखिलं पापं त्रायते महतो भयात्। साधकं पूजनाद् ध्यानात् तस्माद् यन्त्रं प्रकीर्तितम् ।। गवता
उपसंहार
इस प्रकार पराशक्ति-आदिशक्ति के महाविद्याओं के रूप में प्रयोजनवश आविर्भाव, | इसका निदान, देश तथा काल का आख्यान, प्रसिद्ध संख्या का निर्णय, सिद्धविद्या के रूप । में प्रतिष्ठा, दस वैष्णव अवतारों के साथ तादात्म्य, स्वरूप, प्रभेद, माहात्म्य, उपासना की दीर्घकालिक परम्परा का दिग्दर्शन, आराधकों का तथा संबद्ध सिद्धपीठों का यथोपलब्ध परिचय शास्त्रीय आधार के अनुसार यहाँ यथामति प्रस्तुत किया गया है। मधुकरी वृत्ति से इनकी उपासना के प्रतिपादक तन्त्र-ग्रन्थों का विवरण भी संकलित किया गया है। साथ ही स्मार्ततन्त्र की परम्परा, इसका वैशिष्ट्य, उपासना के स्वरूप, प्रभेद, दीक्षा की अनिवार्यता, यन्त्र के स्वरूप एवं प्रभेद, महत्त्व तथा प्राचीन अवधारणा आदि पर यथामति प्रकाश डालने का प्रयास भी किया गया है। हालाकि कान्त एक बात का ध्यान यहाँ अवश्य रखना होगा कि परशुरामकल्पसूत्र में निर्दिष्ट सम्प्रदाय और विश्वास के बिना यहाँ काम नहीं चलता। गुरुपरम्परा से प्राप्त मन्त्र एवं उपासना-विधि का परिचय तथा उस पर पूरी निष्ठा साधक के लिये अपेक्षित है। तभी इस क्षेत्र में सिद्धि संभव है। परशुरामकल्पसूत्र स्पष्ट कहता है- “सम्प्रदायविश्वासाभ्यां सर्वसिद्धिः” (१.६)। जी मिशः का नाममा शास्त्रेषु नास्ति नैपुण्यं विद्याया नास्त्युपासना। बुद्धिशुद्धयै प्रवृत्तोऽत्र गुरूणां हि निदेशतः।। शास्त्रेष्वाकीर्णविषयाः संगृहीता यथामति। समष्ट्या तेन मयि सा जगदम्बा प्रसीदतु ।। निगम का नया कामी चार १. द्रष्टव्य–कुलार्णवतन्त्र, उल्लास ६ श्लो. १७ मा कुरा । ाि कि गाजर ਇਸ ਸਬਈ ਰੀਸ ਨ