०८ कौल और क्रम मत

कुल मत

शैवागमों में पल्लवित अद्वैतवादी दृष्टि में कुलमत का अपना एक अति विशिष्ट स्थान है। आगमों में विकसित अद्वैतवादी धारा के अन्तर्गत प्रायः तीन सम्प्रदायों की विशेषतः चर्चा की जाती है— त्रिक, क्रम तथा कुल। इनके अतिरिक्त भारत के दक्षिण में विकसित त्रिपुरा सम्प्रदाय का भी विशेष महत्त्व है। यद्यपि तन्त्रों में अद्वैत दृष्टि का पल्लवन अन्य प्रकार से भी हुआ है, पर इन प्ररूपों का ही स्वतन्त्र सम्प्रदायों के रूप में विशेषतः विवेचन किया गया उपलब्ध होता है। __सम्पूर्ण शैव तान्त्रिक विचारधारा का प्रारम्भ पाशुपत व कापालिक परम्परा से माना जाता है, अतः उत्तर काल में विकसित सभी तान्त्रिक वर्गों के मूल में इन्हीं दो में से एक दृष्टि रहती है। तान्त्रिक परम्परा के लुप्त स्रोतों का अनुसंधान करने पर शिव के उपासक साधकों के कई वर्गों का उल्लेख प्राप्त होता है, यद्यपि इन वर्गों का अपना कोई साहित्य आज उपलब्ध नहीं है, जिसके कि आधार पर इनके विषय में प्रामाणिक रूप से कुछ कहा जा सके। केवल उनके विरोधियों के द्वारा उल्लिखित विवरण ही आज उनके विषय में जानने का एकमात्र साधन है। इन वर्गों में शैव, पाशुपत, कालामुख व कापालिक विशेष हैं। इनमें भी पाशुपत व कापालिक वर्ग का प्रमुख स्थान है। पाशुपत वर्ग इन सबमें प्राचीन है व कालामुख वर्ग का स्रोत है। पाशुपत व कालामुख दोनों ही वर्ग अपने उद्भावक के रूप में आचार्य लकुलीश को स्वीकारते हैं। साथ ही इन दोनों में सिद्धान्त व प्रक्रिया पक्ष में भी काफी साम्य है। अतः प्रारम्भिक तन्त्रसाधना में दो ही धारायें प्रमुख रूप से उपलब्ध होती हैं—पाशुपत व कापालिक । इनका ही विकास आगे चलकर विविध सम्प्रदायों के रूप में होता है। पाशुपत मत जहाँ शुद्ध संन्यासियों की परम्परा है, वहीं कापालिक परम्परा उन साधकों की परम्परा है. जो अधिक उग्र चर्याओं के सम्पादन के द्वारा विविध सिद्धियों की प्राप्ति का प्रयास करते थे। अभिन-वगुप्त तन्त्रालोक में इसी तथ्य को मूल में रख कर संभवतः यह बतलाते हैं कि शैव शास्त्रों का विकास दो धाराओं में हुआ - (क) श्रीकण्ठ की धारा (ख) लकुलेश्वर की धारा’ १. द्वावाप्तौ तत्र च श्रीमच्छ्रीकण्ठलकुलेश्वरौ।। द्विप्रवाहमिदं शास्त्रं सम्यङ् निःश्रेयसप्रदम्। (तं., ३७.१४ ख- १५ क) श्रीकण्ठ से प्रवर्तित धारा कापालिक परम्परा से सम्बद्ध है। इसका ही पंचस्रोत रूप से विभाजन किया जाता है तथा इसी त्रिविध वर्गीकरण में १०, १८, ६४ तन्त्रों के शिव, रुद्र व भैरव रूप वगों को भी प्रस्तुत किया जाता है और लकुलेश्वर से पाशुपत परम्परा को सम्बद्ध किया जाता है। कौल और क्रम मत ३०७ इस श्रीकण्ठ की धारा से ही उस त्रिक धारा का उद्विकास (evolution) होता है, जिसका अभिनवगुप्त अपने ग्रन्थों में विवेचन करते हैं। इस त्रिक में अर्धचतस्र मठिकाओं से उद्भूत अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत तथा कुलधारा का समन्वित प्रवाह विद्यमान है, जिसे कि वह अनुत्तर त्रिक या अनुत्तर षडर्धशास्त्र’ की संज्ञा देते हैं। इस प्रकार कुलमत का उद्भव उसी स्रोत से हुआ है, जिससे बाकी तान्त्रिक पद्धतियाँ उद्विकसित होती हैं, परन्तु इसका उनसे भेद भी स्पष्टतः स्वीकृत किया गया है। जहाँ अन्य तान्त्रिक दृष्टियाँ त्र्यम्बक, आमर्दक व श्रीनाथ के द्वारा प्रतिपादित मठिकाओं से प्रारम्भ होती हैं, वहीं कुलधारा का उद्भव त्र्यम्बक की पुत्री के क्रम से स्वीकृत किया गया है। इसे यहाँ अर्धमठिका कहा गया है। यही तथ्य इस मान्यता को भी पुष्ट करता है कि कुल सम्प्रदाय शक्ति की प्रधानता का पोषक सम्प्रदाय है । डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय इस विवरण के आधार पर त्र्यम्बक के नाती को इस मठिका का संस्थापक मानते हैं और उन्हें कुलमत के प्रथम अवतारक समझे जाने वाले मच्छन्दनाथ से जोड़ते हैं । प्राचीन दृष्टि यही रही है कि इस मत का उद्भवस्थल कामरूप है, जहाँ मच्छन्दनाथ को स्वप्न में योगिनी ने इस विशिष्ट परम्परा का ज्ञान प्रदान किया । मच्छन्दनाथ का समय लगभग पाँचवीं शताब्दी माना जाता है। बाद में इस परम्परा का विकास दक्षिणपीठ में हुआ, ऐसा उल्लेख मिलता है, क्योंकि मच्छन्दनाथ के बाद इस परम्परा का जो विवेचन हमें अभिनवगुप्त के ग्रन्थों के द्वारा मिलता है, वहाँ शम्भुनाथ ही इस परम्परा में उनके गुरु के रूप से स्वीकृत है। शम्भुनाथ का सम्बन्ध जालन्धर पीठ से है। शम्भुनाथ के गुरु थे सोमदेव और सोमदेव के गुरु थे सुमतिनाथ । सुमतिनाथ का सम्बन्ध दक्षिणपीठ से बतलाया गया है। यदि दक्षिण पीठ में दक्षिण शब्द को भारत के दक्षिणी हिस्से का वाचक मानें, तो यह कहा जा सकता है कि यह धारा असम से दक्षिण होती हुई जालन्धर पहुँची, पर यह निश्चित रूप से स्पष्ट नहीं है, क्योंकि दक्षिण शब्द का अन्य तरह से भी अर्थ समझा जा सकता है। यह किसी प्रान्त विशेष का दक्षिणी भाग भी हो सकता है, या किसी पीठ (मठ) विशेष का अभिधान भी हो सकता है। पर इतना तो स्पष्ट है कि अभिनवगुप्त के समय जालन्धर में यह धारा पूर्ण विकसित रूप में विद्यमान थी, तभी उन्हें इसका सैद्धान्तिक व व्यावहारिक दोनों ही स्तरों पर सम्यक् ज्ञान वहाँ प्राप्त हो सका। क १. तं. ३६.११-१५ २. तं. १.४ ३. कुलप्रक्रियायां हि दूतीमन्तरेण क्वचिदपि कर्मणि नाधिकारः, इत्यतस्तत्सहभावोपनिबन्धनम्। (तं. वि., भा. २, पृ. ३२) ४. अभिनवगुप्त : एन हिस्टॉरिकल एण्ड फिलॉसफिकल स्टडी, पृ. ५४६ ५. तं. वि., भा. २, पृ. २४ पर उद्धृत ६. तं. वि., भा. २, पृ. २३६ पर उद्धृत ७. तं. वि., भा. ७, पृ. ३३१३ ८. तं. वि., भा. २, पृ. २३६ ३०८ तन्त्रागम-खण्ड मा काश्मीर में संभवतः यह परम्परा अभिनवगुप्त के पहले भी प्रचलित थी, ऐसा कई तथ्यों से ज्ञात होता है। आचार्य सोमानन्द ने अभिनवगुप्त के पूर्व भी कुलमत से सम्बद्ध तन्त्र परात्रीशिका पर एक टीका लिखी थी। इसके अतिरिक्त जयरथ के वामकेश्वरीमतविवरण से भी यह स्पष्ट है कि नवीं शताब्दी में यह परम्परा काश्मीर में ईश्वरशिव तथा शङ्करराशि द्वारा प्रतिपादित की गई, पर आज उनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि यह धारा मच्छन्दनाथ से प्रारम्भ होकर अभिनवगुप्त के समय तक लगातार प्रवाहित रही है और अभिनवगुप्त के बाद भी विविध रूपों में इसकी उपस्थिति के संकेत उपलब्ध होते हैं। डॉ. पाण्डेय ने मच्छन्दनाथ से अभिनवगुप्त तक के बीच के लगभग ४०० वर्षों के अन्तराल में कुल-धारा की उपस्थिति के प्रमाणों को एकत्र किया है। उन्होंने अभिनवगुप्त द्वारा देव्यायामल तन्त्र के आधार पर प्रस्तुत १० गुरुओं की सूची में देवीपञ्चशतिका में उल्लिखित ४ गुरुओं के क्रम’ को जोड़कर इस अन्तराल की व्याख्या करने का प्रयास किया है। एक अभिनवगुप्त भी तन्त्रालोक में इस कुल-प्रक्रिया के अवतरण क्रम को प्रस्तुत करते हैं। यहाँ ४ युगों में ४ युगनाथों की कल्पना की गयी है। सत्ययुग में खगेन्द्रनाथ, त्रेतायुग में कूर्मनाथ, द्वापर युग में मेषनाथ तथा कलियुग में मच्छन्दनाथ इन अवतारक नाथों के रूप में कथित हैं। यही उस परम्परा का सिद्धक्रम है और कुलप्रक्रिया के अनुष्ठानों में इस सिद्धक्रम की पूजा अनिवार्य प्रारम्भिक अनुष्ठान है। ये सिद्ध अपनी-अपनी संतति व उनके परिवार सहित दिशाविशेष में पूज्य हैं। खगेन्द्रनाथ व उनकी पत्नी विज्जाम्बा तथा उनका संततिक्रम पूर्व दिशा में पूज्य है, कूर्मनाथ व उनकी पत्नी मंगला तथा उनका संततिक्रम दक्षिण दिशा में, मेषनाथ व उनकी पत्नी काममंगला तथा उनका संततिक्रम पश्चिम में और मच्छन्दनाथ व उनकी पत्नी कुंकुणाम्बा तथा उनका संततिक्रम उत्तर दिशा में पूज्य हैं ४ । मच्छन्दनाथ के पुत्रों का उल्लेख राजपुत्रों के रूप में किया गया है। संभवतः मच्छन्दनाथ एक राजा थे। इनके १२ पुत्रों का वर्णन आता है, जिनमें ६ का ही कुल परम्परा के विस्तार में अधिकार है, बाकी ६ स्वात्ममात्र में ही विश्रान्त रहने से कुलपरम्परा के विस्तार में अधिकृत नहीं हैं । साधिकार पुत्र हैं- अमरनाथ, वरदेव, चित्रनाथ, अलिनाथ, विन्ध्यनाथ तथा गुडिकानाथ। इनकी पत्नियाँ हैं—क्रमशः सिल्लाई, एरुणा, कुमारी, बोधाई, महालच्छी तथा अपरमेखला । इनकी शिष्यसन्तति के नामों में अन्त में क्रमशः आनन्द, १. .तं., २८.३६१ २. तं. वि., ७, पृ. ३३२१ पर उद्धृत। को पूर्ण निकाहनामा ३. तं., २६.२६-३५ ४. तं., २६.२६-३३ मोल्लगे व माजी : शुभतीक ५. वहीं, २६.३५ ६. अधिकारो हि वीर्यस्य प्रसरः कुलवमनि। र तदप्रसरयोगेन ते प्रोक्ता ऊर्ध्वरेतसः।। (वहीं, २६.४२) ७. तं., २६.३३-३४ कौल और क्रम मत ३०६ आवलि, बोधि, प्रभु, पाद व योगिन् संज्ञायें जोड़ी जाती हैं, जिनसे इनका एक दूसरे से अलग-स्वरूप पता चलता है । इसी वैयक्तिक पहचान को बताने के लिये इन छहों में मुद्रा, छुम्मा, घर, पल्ली तथा पीठ आदि का भी भेद बताया गया है २ । इन्हीं साधिकार छः पुत्रों से ६ कुल-सन्ततियों का उद्भव होता है। निरधिकार छः पुत्र हैं—भट्ट, इन्द्र, वल्कल, अहीन्द्र, गजेन्द्र व महीधर । इन विविध कुल-सन्ततियों के अतिरिक्त भी विविध कुलविधियों का उल्लेख मिलता है, जिसके कारण इनका बहुविध विस्तार दृष्टिगोचर होता है । पर यहाँ एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि इन विविध कुल-सन्ततियों व कुलविधियों के अनुयायियों के मध्य किसी भी प्रकार का संपर्क वर्जित है । एक कुल के सदस्य अपने सवर्गियों के साथ ही साधना कर सकते हैं। यहाँ तक कि अन्यों के साथ किसी भी प्रकार की चर्चा तक का निषेध है। इसी कारण हर कुल के विशिष्ट चिह्नरूप छुम्मा, मुद्रा, पीठ आदि के द्वारा उस कुल के लोग अपने सवर्गियों को पहचानते थे। यह परमगोप्यता की चेतना यहाँ सम्भवतः इस परम्परा को अपात्रों से बचाने व अपने वर्ग-विशेष में ही सुरक्षित रखने के उद्देश्य से इतनी प्रबल है। इसी कारण कुलचर्या का सम्पादन उन्हीं एकान्त स्थलों पर किया जाता था, जहाँ उसी वर्ग के सिद्ध और योगिनियों के अतिरिक्त और कोई न हो। तान्त्रिक साहित्य में इस कुल के साथ-साथ कौल नाम से भी एक सम्प्रदाय का उल्लेख मिलता है। वैसे तो कौल शब्द कुल मत के अनुयायियों, कुल मत के सम्बद्ध शास्त्रों व सिद्धान्तों का वाचक हो सकता है, पर उपलब्ध उल्लेखों में कुल व कौल का एक साथ दो सम्प्रदायों के रूप में ग्रहण किया गया है। यह तथ्य इन दोनों सम्प्रदायों के स्वतन्त्र प्ररूप की मान्यता पर ही बल देता है। तन्त्रालोक में अभिनवगुप्त स्वयं कुल, कौल व त्रिक नाम से तीन मतों का एक ही श्लोक में उल्लेख करते हैं ६ । जयरथ भी अपने विवरण में इस तरह के उल्लेखों को संगृहीत करते हैं ७ । HE १. वहीं, २६.३६ २. वहीं, २६.३६-३६ ३. वहीं, २६.४१ ४. तं. वि., भा. ७, पृ. ३३२८ ५. (क). तं. ४.२६८ ख. २६६ क छ डिगा (ख). तं. १५.५७२ ६. क्रमिकः शक्तिपातश्च सिद्धान्ते वामके ततः ।। दक्षे मते कुले कौले षडधैं हृदये ततः। (तं. १३.३०० क-३०१ ख) ७. क. वाममार्गाभिषिक्तोऽपि दैशिकः परतत्त्ववित्। संस्कार्यो भैरवे सोऽपि कुले कौले त्रिकेऽपि सः।। (तं. वि., भा. २, पृ. ४६ पर उद्धृत) ख. वेदाच्छैवं ततो वामं ततो दक्षं ततः कुलम्।। ततो मतं ततश्चापि त्रिकं सर्वोत्तमं परम्।। (वहीं, पृ. ४६) र म प नि ग. वेदादिभ्यः परं शैवं शैवाद् वामं च दक्षिणम्। दक्षिणाच्च परं कौलं कौलात् परतरं नहि।। (वहीं, पृ. ४८) ३१० तन्त्रागम-खण्ड मार्क डिच्कोफस्की ने अपनी पुस्तक कैनन ऑफ शैवागम में मन्थानभैरवतन्त्र से कई उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिनमें कुल व कौल का कई बार स्वतन्त्र सम्प्रदायों के रूप में प्रयोग मिलता है । यहाँ एक ऐसी धारा का उल्लेख है, जिसमें कुल व कौल मतों का मिश्रण है । इस परम्परा में स्त्री व पुरुष दोनों तत्त्वों की उपासना होती है, फलतः शिव व शक्ति के आनन्दमय अनुभव की प्राप्ति होती है। चिञ्चिणीमतसारसमुच्चय में भी ये दोनों संज्ञायें दो स्वतन्त्र सम्प्रदायों की बोधक हैं । पर इस तरह के भी विवरण मिलते हैं, जहाँ कुल व कौल शब्द पर्याय हैं। अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में त्रैशिरसमत के प्रामाण्य पर कौल शब्द को उस तत्त्व का वाचक कहते हैं, जो समस्त आवरणों से शून्य ज्ञान-ज्ञेय रूप है । कुछ उद्धरणों में एक मात्र “कौल” मत का ही उल्लेख आया है। वहाँ इस “कौल” संज्ञा से इनमें से कौन सा मत अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं है । भैरवकुलतन्त्र कुल व कौल व त्रिक की आनुपूर्वी में कौल को कुल से व त्रिक को सबसे श्रेष्ठ बतलाता है, पर इन दोनों मतों में क्या भेदक रेखाएँ हैं, इस सन्दर्भ में प्राप्त विवरण अस्पष्ट व अपर्याप्त हैं। _जयरथ अपने तन्त्रालोकविवेक में कुलानि शब्द की व्याख्या में महाकौल, कौल, अकुल तथा कुलाकुल नामक ४ वर्गों को संगृहीत करते हैं । यदि इन्हें कुलमत के अवान्तर सम्प्रदाय मान लिया जाये, तो उनमें से प्रत्येक का अपना निजी स्वरूप क्या था, यह आज स्पष्ट नहीं है। त्रिपुरा सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी कौल व कुल शब्द का कई प्रकार से प्रयोग मिलता है, जैसे सौन्दर्यलहरी की लक्ष्मीधरा टीका में कौल मत का द्विविध विभाजन किया गया है—पूर्व कौल व उत्तर कौल’ । अर्थरत्नावली में कुल के पाँच प्रकार के भेद किये गए हैं—अकुल, कुल, कुलाकुल, कौल तथा शुद्ध कौल । पूर्व कौल के तीन प्रकार हैं मूलाधारनिष्ठ, स्वाधिष्ठाननिष्ठ तथा उभयनिष्ठ। उत्तर कौल के चार प्रकार हैं - मातंगी, १. कुण्डानां लक्षणं वक्ष्ये कुले कौले तु पश्चिमे।। (म. भैरवतन्त्र, पृ. ८ ब, कैनन ऑफ शैवागम, पृ. १६४ पर उद्धृत) ये केचिद् देवताश्चान्ये कुले कौले तु पश्चिमे। तिष्ठन्ति कुण्डमध्ये तु भैरवो भैरवी सह।। (वहीं, पृ. ६ अ, वहीं पर उद्धृत) कैनन आफ शैवागम, पृ. ६२ ३. चि. म. सा. स., पृ. ३ अ, वहीं पृ. १६५ पर उद्धृत। ४. षण्मण्डलविनिर्मुक्तं सर्वावरणवर्जितम्। ज्ञानज्ञेयमयं कौलं प्रोक्तं शिरसे मते।। (तं. २१.१) ५. द्रष्टव्य पादटिप्पणी, संख्या ७ (इसी लेख में, पृ. ३०६ पर) ६. तं. वि, भा. ५, पृ. २३८२ ७. तं. वि., भा. ७, पृ. ३४४५ ६. लक्ष्मीधरा, सौन्दर्यलहरी के साथ प्रकाशित, सौन्दर्यलहरी, पंडित आर. अनन्तकृष्ण शास्त्री व श्री कर्रा राममूर्ति गारु द्वारा अनूदित, गणेश एण्ड कं. प्रा. लि., मद्रास, सन् १६५७, श्लोक ३४ व ३५ पर अर्थरत्नावली विद्यानन्दकृत, नित्याषोडशिकार्णव तन्त्र के साथ प्रकाशित, नित्याषोडशिकार्णव तन्त्र, व्रजवल्लभ द्विवेदी द्वारा संपादित, योगतन्त्र ग्रन्थमाला, भा. १, १६७८, पृ. ७४)। अम्बास्तवव्याख्या में सुभगोदय आदि के प्रमाण से कौलों के ७ भेद प्रदर्शित हैं। नित्याषोडशिकार्णव, पं. व्रजवल्लभ द्विवेदी द्वारा सम्पादित, भूमिका, पृ. ६१ कौल और क्रम मत ३११ वाराही, कौलमुखी, तथा तन्त्रनिष्ठा। पर त्रिपुरा सम्प्रदाय के ग्रन्थों में प्रस्तुत ये वर्गीकरण त्रिपुरा सम्प्रदाय के अन्तर्गत ही आते हैं या पूरी कुल/कौल परम्परा के सन्दर्भ में, यह स्पष्ट नहीं है और न ही कुल व कौल की अन्तरंगता या भेद पर ही यहाँ प्रकाश डाला गया है। इसी प्रकार कुछ अन्य तन्त्रों में भी इस प्रकार के वर्गीकरण मिलते हैं, जैसे कौलज्ञाननिर्णय कौलों के ७ भेद बतलाता है—पदोत्तिष्ठ कौल, महाकौल, मूल कौल, योगिनी कौल, वहिन कौल, वृषणोत्थ कौल तथा सिद्ध कौल’। इनमें से योगिनी कौल व सिद्ध कौल नामक दो भेदों का उल्लेख तो मृगेन्द्रागम में भी अनुस्रोतों के रूप से किया गया है । को अब इस कुल मत से सम्बद्ध साहित्य को क्या माना जाय, इस विषय में गवेषणा अपेक्षित है। यद्यपि काफी तन्त्र ऐसे मिलते हैं, जिनकी संज्ञा में कुल शब्द विद्यमान है, जैसे कुलार्णव, कुलोड्डीश, कुलचूडामणि, कुलरत्नमाला आदि। पर इनमें कुल सिद्धान्तों का विशेष महत्त्वपूर्ण वर्णन नहीं है। कुछ तन्त्र ऐसे हैं, जो अपने को कुल सिद्धान्त से जोड़े बिना विविध संदों में कुल सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते जाते हैं; कुछ तन्त्र ऐसे भी हैं, जो किसी दूसरे सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने पर भी एक अध्याय विशेष में कुलविधि या रहस्यविधि के नाम से इस प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। अतः कुल मत के साहित्य में कुछ निश्चित ग्रन्थों को ग्रहण कर पाना कठिन काम है, क्योंकि यह मत ऐकान्तिक रूप से विकसित न होकर सभी तान्त्रिक अद्वैतवादी परम्पराओं की पार्यन्तिक धारा रूप से ही पल्लवित है। अतः आम्नायगत विभाजन को आधार बनाकर उन विशिष्ट दृष्टियों के प्रतिपादक तन्त्रों को ही इस कुल मत का आधार बनाया जा सकता है। साथ ही प्राचीन तंत्रों में कुल सम्प्रदाय का जो भी स्वरूप था, वह पर्याप्त सामग्री उपलब्ध न होने से आज स्पष्टतः ज्ञात नहीं है, अतः अभिनवगुप्त तथा उत्तरवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में विकसित दृष्टि को ही आधार बनाकर इस कुलमत की रूपरेखा को प्रस्तुत किया जा सकता है। मी य इस कुलमत के विकास के विविध प्ररूपों के विश्लेषण से यह विदित होता है कि इसका विकास विशेषतः ४ दिशाओं में हुआ, जिसे यहाँ के ग्रन्थ स्वयं ४ आम्नायों के रूप से प्रतिपादित करते हैं। यह आम्नाय का वर्गीकरण कुल मत का निजी वैशिष्ट्य है, जो कि संभवतः सिद्धान्तागमों में प्रस्तुत पंचस्रोतों के वर्गीकरण के आधार पर विकसित किया गया है। यों तो मुख्यतः चार ही आम्नायों का उल्लेख मिलता है, पर कहीं-कहीं ऊर्ध्वाम्नाय, ऊोर्खाम्नाय तथा अधर आम्नाय की कल्पना करके पाँच, छह या सात आम्नायों की भी कल्पना की गई है। जैसे कुलार्णवतन्त्र अपने द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को रहस्यातिरहस्य कहता हुआ स्वयं को ऊर्ध्व आम्नाय से सम्बद्ध रूप से प्रस्तुत करता है। षट्साहस्रीसंहिता सात आम्नायों की कल्पना करती है। परन्तु चार आम्नायों की धारणा ही सर्वाधिक प्रचलित व प्रामाणिक है। १. नि.षो., उ. पृ. ६२ २. शैवं मान्त्रेश्वरं गाणं दिव्यमार्ष च गौयकम्। योगिनीसिद्धकौलं च नोत्तीर्ण ताभ्य एव तत्।। (मृगेन्द्रतन्त्र, चर्यापाद, १.३७ ख-३८ क) ३१२ तन्त्रागम-खण्ड क अब हम देखते हैं कि इन चार आम्नायों’ में कुलमत का उद्विकास किस प्रकार हुआ है।

पूर्वाम्नाय

त्रिक परम्परा में उद्विकसित कुलधारा को इस आम्नाय से जोड़ा जाता है। यह धारा मूल कौल मत के बहुत नजदीक है। विद्यापीठ के प्रमुख त्रिक-तन्त्रों में इसका विकास हुआ है। इस त्रिक मत का वैशिष्ट्य है परा, परापरा व अपरा रूप त्रिविध विद्याओं को केन्द्र में लेकर उद्विकसित मीमांसा व साधना पद्धति । अतः यहाँ वर्तमान कुलधारा में इसी परादि के त्रिक के मध्य ब्राह्मी आदि मातृकुलों से घिरे कुलेश्वर व कुलेश्वरी की प्रतिष्ठापना की गयी है । इसे मुख्य कुलचक्र कहा गया है। इस मुख्य कुलचक्र के बाहर सिद्धक्रम (सपरिवार) की पूजा का विधान है । यह सिद्धक्रम है—खगेन्द्रनाथ, कूर्मनाथ, मेषनाथ व मच्छन्दनाथ या मत्स्येन्द्रनाथ का। इस कुल धारा के प्रतिपादक मुख्य तन्त्र हैं सिद्धयोगेश्वरीमत तन्त्र तथा उसका संक्षेप मालिनीविजयोत्तर तन्त्र, त्रिशिरोभैरव तन्त्र, त्रिकसद्भाव तन्त्र तथा अन्य त्रिक परम्परा के तन्त्र ५ । इनके अतिरिक्त माधवकुल तन्त्र तथा निशिसंचार तन्त्र को भी इस परम्परा से सम्बद्ध किया जा सकता है। इनमें से अभिनवगुप्त मालिनीविजयोत्तर तन्त्र को ही मुख्यतः आधार बनाकर अपने ग्रन्थ तन्त्रालोक में व मालिनीविजयवार्त्तिक में इस धारा को उद्विकसित करने का प्रयास करते हैं। यद्यपि अभिनवगुप्त कहीं भी इसको किसी आम्नाय से नहीं जोड़ते है और न मालिनीविजयोत्तर तन्त्र ही अपने को त्रिक तन्त्र कहता है, या किसी आम्नाय की चर्चा करता है, पर अन्यत्र उपलब्ध उल्लेखों व विवरणों के आधार पर यह स्पष्ट है कि इस धारा को पूर्वाम्नाय संज्ञा से ही निर्दिष्ट किया गया है। अभिनवगुप्त का परात्रीशिकाविवरण नामक ग्रन्थ भी इसी धारा १. इस आम्नायगत विभाजन का मुख्य आधार सैण्डर्सन व मार्क डिच्कोफस्की द्वारा कुब्जिकामततन्त्र, कुलरत्नोद्योत आदि के आधार पर दिये गये विवरण हैं। कि जमीय २. “कुलप्रक्रियायां तिस्रः शक्तयः पराद्याः" (तं. वि., भा. २, पृ. १५३) ३. तं. २६.४७-४८, ५१-५३ ४. तं. २६.२७ क ५. अभिनवगुप्त अनुत्तर त्रिकशास्त्र के विवेचन के सन्दर्भ में अपने ग्रन्थों में जिन तन्त्रों को मुख्य 5 आधार बनाते हैं, हमने यहाँ उन्हीं को इस परम्परा के अन्दर गृहीत किया है। यद्यपि अपने र विवेचन में वह अन्य तन्त्रों के विवरणों को भी प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं, पर मुख्यतः उनका विवेचन इन्हीं तन्त्रों पर आधारित है। चिञ्चिणीमतसारसमुच्चय त्रिक-धारा को पूर्वाम्नाय से ही जोड़ता है। कुलरत्नोद्योत तन्त्र पूर्वाम्नाय व पश्चिमाम्नाय में परस्पर संबन्ध स्थापित करता है व पूर्वाम्नाय को पश्चिमाम्नाय से ही विकसित बतलाता है। पूर्वाम्नाय व पश्चिमाम्नाय के सिद्धान्तों में भी काफ़ी साम्य है, परन्तु यह तन्त्र पूर्वाम्नाय को त्रिक परम्परा से स्पष्टतः नही जोड़ता, यद्यपि वह बराबर त्रिक तन्त्रों का उल्लेख कौल और क्रम मत ३१३ के विवेचन से सम्बद्ध किया जा सकता है। “परात्रीशिका” रुद्रयामलतन्त्र का उत्तर भाग है, जिससे यह संकेतित है कि रुद्रयामलतन्त्र में भी इसी धारा का विवेचन है।

  • इस धारा का प्रमुख वैशिष्ट्य यह है कि यहाँ विविध अनुष्ठानों के ऊपर समावेश को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है । यद्यपि उन समाविष्ट साधकों के लिये भी कुछ विशेष पर्वो पर कुलपूजा व रहस्यचर्या का विधान है, पर उनकी साधना प्रक्रिया में सारे विधि-निषेधों को छोड़कर एकमात्र उस तन्मयीभाव तक पहुँचने की प्रक्रिया पर बल है । अतः सारी तान्त्रिक विधियों की अनिवार्य प्रक्रियायें स्नान, अन्तर्याग, होम, न्यास आदि का सम्पादन यहाँ उसके लिये अपरिहार्य नहीं हैं ३ । कुल-चक्र की पूजा का सम्पादन बाह्य की बजाय अन्य अधिकरणों पर भी संभव है। अभिनवगुप्त ने ये अधिकरण छः बतलाये हैं साधक बाह्यतः भू-वस्त्र आदि में, शक्ति में, यामल अर्थात् आद्ययागाधिरूढ मिथुनभाव में, देह में, प्राणपथ अर्थात् मध्यनाडी में और बुद्धि में इस कुल-पूजा का सम्पादन कर सकता है। कुल साधक के लिये आवश्यक है कि उसमें आवेश के चिह्न लक्षित हों। इस आवेश की प्राप्ति के लिये यहाँ शोध्यशोधकभाव की कल्पना है और तदनुसार आवेश के भी कई स्तर बतलाये गये हैं। ५० प्रकार के समावेश तो अभिगणित हैं ही, पर साथ ही प्रकारान्तर से उनके असंख्य भेद कहे गये हैं। वाच्य और वाचक दोनों ही स्तरों पर इस तन्मयीभाव को पाने की प्रक्रिया का यहाँ निरूपण है और कुल-चर्या के सम्पादन में भी शक्ति-अनुसंधान की कल्पना पर ही विशेष बल है ५ । इस समावेश की स्थिति तक पहुँचने में ज्ञान, क्रिया व योग तीनों ही मार्गों का आश्रय लिया जा सकता है। अन्ततः जब उसमें आनन्द, उद्भव, कम्प, निद्रा व घूर्णि—इन ५ लक्षणों का क्रम से या एक साथ उदय घटित होता है, तभी वह पूर्ण समावेश को प्राप्त होता है। इस धारा में कौलिक चर्याविधि को तो वही महत्त्व प्राप्त है, जो अन्यत्र विकसित धाराओं में है, पर उन अनुष्ठानों को यहाँ स्वकाय, प्राणवायु’ या स्वसंविन्मात्र में भी सम्पादित किया जा सकता है। यहाँ यह कि AP प्रितीक पर १. तं.३.२७१ पजिवि परतत्त्वप्रवेशे तु यमेव निकटं यदा। उपायं वेत्ति स ग्राह्यस्तदा त्याज्योऽथवा क्वचित्।। (तं. ३.२७३) वहीं, २६.८, ४.२५६-२७३ ४. बहिः शक्तौ यामले च देहे प्राणपथे मतौ। इति षोढा कुलेज्या स्यात्प्रतिभेदं विभेदिनी।। (वहीं, २६.७) ५. नाहमस्मि च चान्योऽस्ति केवलाः शक्तयस्त्वहम्। इत्येवं वासनां कुर्यात् सर्वदा स्मृतिमात्रतः।। (वहीं, २६.६४) तन्मुख्यचक्रमुक्तं महेशिना योगिनीवक्त्रम्। तत्रैव संप्रदायस्तस्मात् संप्राप्यते ज्ञानम् ।। (तं. २६.१२४-१२५) मी निजदेहगते धामनि तथैव पूज्यं समभ्यसेत् । (तं. २६.१३३) ५. एवं प्राणक्रमेणैव तर्पयेद् देवतागणम्। अचिरात्तत्प्रसादेन ज्ञानसिद्धीरथाश्नुते।। (वहीं, २६.१८०) ६. संविन्मात्रस्थितं देवीचक्रं वा संविदर्पणात्। विश्वाभोगप्रयोगेण तर्पणीयं विपश्चिता।। (वहीं, २६.१८१) 90 कशालामा ज्यान लस ३१४ तन्त्रागम-खण्ड द्रष्टव्य है कि मालिनीविजयोत्तर तन्त्र में आदियाग की धारणा का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं है, यद्यपि १६ वें अधिकार में आये हुये विवरणों के विश्लेषण से ऐसा प्रतीत होता है कि योगिनीमेलन की धारणा उस समय भी कौलिक साधना-विधि का महत्त्वपूर्ण अंग थी, पर उसका प्रक्रियात्मक स्वरूप स्पष्टतः क्या था, इसका विवरण अज्ञात है। पर अभिनवगुप्त ने अपने विवेचनों में आदियाग’ को कुल-प्रक्रिया का अनिवार्य घटक माना है।
  • सैण्डर्सन अपने लेख में इस धारा को शैव गृहस्थों में ही प्रचलित परम्परा मानते हैं। उनके अनुसार जो शैव कापालिक तान्त्रिक परम्परा के अनुयायी होने पर भी गृहस्थ धर्म से सम्बद्ध होने के कारण इस परम्परा के पालन में असमर्थ थे, उनके लिये कापालिक परम्परा की अति उग्र साधनाविधियों के स्थान पर सामाजिक जीवन में ग्राह्य मध्यमार्गीय चर्याविधियों का प्रतिपादन इस धारा में किया गया है। समाजलगाया

उत्तराम्नाय

काली परम्परा में उद्विकसित कुल धारा को इस आम्नाय के अन्तर्गत रखा जाता है। सैण्डसेन इसमें मत, क्रम व उत्तराम्नाय नामक सम्प्रदायों में विकसित कुलपरम्परा को रखते हैं। विद्यापीठ के वे तंत्र, जिनमें काली को सर्वोच्च देवी का स्थान दिया गया, इस धारा से सम्बद्ध है। अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक में इस परम्परा का भी विशेष विवेचन मिलता है, परन्तु वे इसे अलग से एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित करने का प्रयास नहीं करते। यहाँ त्रिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में ही क्रम सिद्धान्तों का भी विश्लेषण किया गया है। वैसे भी अभिनवगुप्त के तन्त्रप्रक्रिया रूप वर्गीकरण की व्यापक परिधि में यह सम्प्रदाय स्वतः आ जाता है। कई बार त्रिक या कुल के सिद्धान्तों या प्रक्रिया की चर्चा करते समय वह काली की परम्परा के ग्रन्थों से प्रमाण व उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, जो कि यही बतलाता है कि उनकी दृष्टि में क्रम एक विजातीय परम्परा नहीं है। इसीलिये वह इसे त्रिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ में प्रस्तुत करते हैं। इस काली की परम्परा में सारी मीमांसाएं व प्रक्रियाएं काली को केन्द्र में लेकर घटित होती है। यहाँ बारह कालियों या १२ कालियों से घिरी कालसंकर्षिणी की पूजा ही स्वीकृत है। परन्तु जो त्रिक में मातृसद्भाव है, वही यह कालसंकर्षिणी है ; जो त्रिक की १२ शक्तियों का मुख्य चक्र है, वही क्रम सम्प्रदाय में १२ कालियों के रूप से वाच्य है । इसी प्रकार दूतीयाग आदि चर्याविधियों में भी एकता है। भेद केवल उस साधना के सम्पादन की दृष्टि में है। यहाँ दृष्टि समग्रता के अनुसंधान पर । १. आदीयते यतः सारं तस्य मुख्यस्य चैष यत्। मुख्यश्च यागस्तेनायमादियाग इति स्मृतः।। (वहीं, २६.१३४) शिया धाराणाकार २. सैव काली महादेवी गीयते लोकवेदयोः। इतिहासेषु तन्त्रेषु सिद्धान्तेषु कुलेषु च।। (म. मं. प., पृ. १०७ पर उद्धृत) ३. तं., ३.७०-७१, ३.२३४ ४. वहीं, ३.२५-२५३ क३१५ कौल और क्रम मत केन्द्रित न होकर उस साधना के क्रमिक स्तरों पर केन्द्रित है। यहाँ भी बाह्यपूजा से संवित्पूजा को उच्चतर माना गया है और संवित् में ही सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम, संहारक्रम, अनाख्याक्रम आदि की पूजा का विधान है। इस धारा का मुख्य तन्त्र है जयद्रथयामलतन्त्र, जिसे तन्त्रराजभट्टारक भी कहा जाता है। देवीपंचशतिक व क्रमसद्भाव तन्त्र भी इस धारा के विवेचक ग्रन्थ हैं, जिनमें इस परम्परा का अधिक व्यवस्थित विवेचन है। यहाँ चर्या अपेक्षाकृत अधिक उग्र है और कापालिक धारा के अधिक नजदीक है। पूज्य सिद्धक्रम वही है, जो त्रिक परम्परा में स्वीकृत है। शेष कुलविधि की प्रक्रिया का स्पष्ट विवेचन उपलब्ध नहीं है। अतः हम यही कह सकते हैं कि उपर्युक्त भेदों को दृष्टिगत रखते हुए अभिनवगुप्त द्वारा विवेचित कुलप्रक्रिया को यहाँ भी लागू किया जा सकता है।

दक्षिणाम्नाय

त्रिपुरा या त्रिपुरसुन्दरी की परम्परा में विकसित कुलधारा का सम्बन्ध इस आम्नाय से है। इस परम्परा में शक्ति के सौम्य रूप की उपासना की जाती है। इस परम्परा को श्रीविद्या सम्प्रदाय और सौभाग्य सम्प्रदाय जैसी संज्ञाओं से भी पुकारा गया है। इस सम्प्रदाय का सबसे प्राचीन तन्त्र वामकेश्वर तन्त्र है। इसके अतिरिक्त तन्त्रराज तन्त्र, ज्ञानार्णव तन्त्र व शक्तिसंगम तन्त्र को भी उस धारा का तन्त्र कहते हैं। नित्याषोडषिकार्णव तन्त्र उसी वामकेश्वर तन्त्र का एक भाग है। वामकेश्वर तन्त्र के उपलब्ध अंश पर लिखे गये व्याख्या ग्रन्थों से ही इस धारा के स्वरूप की स्थिति स्पष्ट होती है। इस पर वामकेश्वरीमतविवरण नाम से सबसे पहले जयरथ द्वारा लिखी हुई व्याख्या प्राप्त होती है, जिसमें इस सम्प्रदाय में विकसित कुलविधि के स्वरूप को प्रस्तुत करने का स्पष्ट प्रयास है। यद्यपि जयरथ के द्वारा प्रस्तुत उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि इस धारा की उपस्थिति काश्मीर में उनसे पूर्व भी थी, पर आज वे ग्रन्थ उपलब्ध न होने से जयरथ द्वारा प्रस्तुत विवरण ही प्रमाण है। जयरथ के बाद नित्याषोडशिकार्णव तन्त्र के पूर्व भाग पर शिवानन्द के द्वारा लिखी हुई ऋजुविमर्शिनी टीका एवं विद्यानन्द द्वारा रचित अर्थरत्नावली टीका तथा उत्तर भाग योगिनीहृदय पर भास्करराय द्वारा रचित सेतुबन्ध व अमृतानन्दयोगी द्वारा रचित दीपिका टीकाएं तथा अन्य स्वतन्त्र ग्रन्थों- सौभाग्यसुधोदय, कामकलाविलास, मातृकाचक्रविवेक आदि में इस सम्प्रदाय का विकास दृष्ट होता है। विवरणों से ऐसा ज्ञात होता है कि यह सम्प्रदाय सर्वप्रथम काश्मीर के पास ओड्डियान नामक स्थान पर चर्यानाथ के द्वारा स्थापित किया गया और उसी पीठ में दीक्षित ईश्वरशिव ने इसे काश्मीर में अवतारित किया । १. पूजा नाम न पुष्पाद्यैर्या मतिः क्रियते दृढा। निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा स्यादराल्लयः।। (म. मं. प., पृ. ११२ पर उद्धृत) २. इस सम्प्रदाय के तन्त्रों में आम्नाय विभाजन का उल्लेख नहीं मिलता, पर यहाँ ४ महापीठों के रूप में विभाजन उपलब्ध है। ४ महापीठ हैं- कामरूप, जालन्धर, पूर्णगिरि तथा ओड्डियान। इनको ४ स्रोतों के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया गया है। ३१६ तन्त्रागम-खण्ड इस त्रिपुरा धारा का जो पूज्य सिद्धक्रम (मित्रनाथ, ओडुनाथ, षष्ठनाथ, चर्यानाथ) स्वीकृत किया जाता है, वह उसी मान्यता को पुष्ट करता है। ऋजुविमर्शिनीकार शिवानन्द के अनुसार त्रिपुरा सम्प्रदाय की उत्पत्ति काश्मीर में हुई, परन्तु काश्मीरी विद्वान् जयरथ के अनुसार आचार्य ईश्वरशिव व विश्वावर्त इस सिद्धान्त को काश्मीर लाये थे। सम्भवतः मध्यदेश से, जिसे अभिनवगुप्त ‘निःशेषशास्त्रसदन’ कहते हैं, यह परम्परा काश्मीर में आयातित हुई और फिर यहाँ से दक्षिण देश में। इस परम्परा को दक्षिणाम्नाय से जोड़ना संभवतः दक्षिण देश में ही इसके विशेष संरक्षण व प्रसार को संकेतित करता है। वैसे इस तरह के भी मत उपलब्ध हैं, जिनमें इस सम्प्रदाय को अन्य आम्नायों से सम्बद्ध किया गया है। जैसे कुलरत्नोद्योत इसे पश्चिमाम्नाय से सम्बद्ध करता है, पर विद्यानन्द’ व अमृतानन्द’ अपनी टीकाओं में इसे दक्षिणपक्षपातिनी धारा ही कहते हैं। इस सम्प्रदाय में कुलधारा विद्यमान थी, इसका स्पष्ट संकेत वामकेश्वरीमतविवरण, योगिनीहृदयदीपिका आदि ग्रन्थों से मिलता है। सौभाग्यविद्या के विविध अर्थों में कौलिकार्थ की गणना इस दृष्टि को पुष्ट करती है। यहाँ कुल है शरीर । इस शरीर में ८ सूक्ष्म पुर्यष्टक हैं, जिनमें ८ योगिनियाँ स्थित हैं। वैखरी वाणी के ८ वर्ग इन्हीं के रूप हैं। इनकी पूजा यहाँ चक्रविशेष में करने का विधान है। पर इसके अतिरिक्त कुलाचार को पराद्वयभावना के प्रकर्ष रूप से ही व्याख्यात किया गया है और इसका फल खेचरता की प्राप्ति कथित है’ । योगिनीहृदय में चक्र, देवता, विद्या, गुरु और साधक के ऐक्य का अनुसंधान ही कौलिक शब्द का अभिधेय है । जयरथ वामकेश्वरीमतविवरण में कुल ज्ञान को अधराधर शास्त्रों का भी अनुप्राणक मानते हैं । उनके अनुसार इसी व्यापक दृष्टि के कारण वह शक्ति कही ऊर्मि, कहीं भोगिनी, कहीं कुब्जा, कहीं कुलेश्वरी, कहीं कालकर्षिणी, १. “इयं च विद्या चतुराम्नायसाधारण्यपि दक्षिणपक्षपातिनी" (अर्थरलावली, पृ. ४१)। २. “दक्षिणस्रोतःपक्षपातिन्याः सौभाग्यदेवतायाः” अमृतानन्दकृत योगिनीहृदयदीपिका (योगिनीहृदय के साथ प्रकाशित), पं. व्रजवल्लभ द्विवेदी द्वारा संपादित व अनूदित, मोतीलाल बनारसीलाल, पृ. १३३-१३४)। “कुलं षट्त्रिंशत्तत्त्वात्मकं शरीरं …..” (वहीं, पृ. ३२०)। “कुलाचारक्रमेणेति पराद्वयभावनयेत्यर्थः” (वा. म. वि., पृ. ६०)। पूजयेद् रात्रिसमये कुलाचारक्रमेण यः। EिE तत्क्षणात् स महेशानि साधकः खेचरो भवेत् ।। (वामकेश्वरीमततन्त्र, वामकेश्वरीमतविवरण के साथ प्रकाशित, २.७४ ख-७५ क.) मा ६. कौलिकं कथयिष्यामि चक्रदेवतयोरपि। विद्यागर्वात्मनामैक्यं…..।। (योगिनीहृदय, २.५१ ख -५२ को साका ७. वा. म. वि., पृ. २८ कौल और क्रम मत ३१७ कहीं त्रिपुरा और कहीं कुण्डलिनी कही गई हैं । वामकेश्वरीमतविवरण में परा शक्ति को ही कुण्डलिनी रूप में भी उसी प्रकार विवेचित किया गया है, जैसे अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक की व्याख्या में जयरथ करते हैं । कि वास्तव में इस सम्प्रदाय में प्रकाशात्मक अनुत्तर तत्त्व कामेश्वर व इसकी शक्ति कामेश्वरी कही गई है। यही मिथुनस्वरूप विविध चक्रों के क्रम से विकसित होता हुआ श्रीचक्र रूप से अवतरित होता है। यह श्रीचक्र कामकला का ही प्रसार है। कामकला है आद्या शक्ति। श्रीचक्र त्रैलोक्यमोहन, सर्वाशापरिपूरक, सर्वसंक्षोभण, सर्वसौभाग्यदायक, सर्वार्थसाधक, सर्वरक्षाकर, सर्वरोगहर, सर्वसिद्धिमय और सर्वानन्दमय-नामक नौ चक्रों की समष्टि है। इस श्रीचक्र की सृष्टि-स्थिति-संहार क्रम से त्रिविध भावना करने पर त्रिपुराचक्र का स्वरूप ज्ञात होता है। त्रिपुरा वाग्भव रूप वागीश्वरी, कामकलारूप कामराज व पराशक्ति रूप शक्तिबीज का समग्र रूप है। नित्याषोडशिकार्णव में १६ नित्याओं का वर्णन है। पराशक्ति ही १६ नित्याओं के रूप में स्फुरित होती है । मकर इस प्रकार इस सम्प्रदाय की विशिष्ट पूजापद्धति में कुलदृष्टि मिश्रित रूप से उपलब्ध होती है। यहाँ कुलदृष्टि का लक्षण है अहन्ता दृष्टि का ही सर्वत्र विकास। यही यहाँ वीरभाव Pिoe

पश्चिमाम्नाय

इसमें कुब्जिका की परम्परा में विकसित कुलधारा को रखा जाता है। यद्यपि इस परम्परा के ग्रन्थ आज नेपाल में ही उपलब्ध हैं, जिससे ऐसा लगता है कि यह परम्परा वहीं विकसित हुई, पर इन तन्त्रों के अवलोकन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि इनका प्रचलन एक समय पूरे भारत में था। अभिनवगुप्त भी तन्त्रालोक में कुब्जिकामत तन्त्र का एक बार उल्लेख करते हैं। यहाँ कुब्जिका ही मुख्य देवी है। कुब्जिकामत तन्त्र इस परम्परा का मुख्य तन्त्र है। डॉ. मार्क डिच्कोफस्की मन्थानभैरवतन्त्र को भी इसी परम्परा में रखते हैं। यहाँ अधिकांश सिद्धान्त त्रिक मत से ही गृहीत हैं। कई स्थल तो त्रिक तन्त्रों की ही नकल लगते हैं। पर यहाँ मुख्य भेदक तथ्य यह है कि यह परम्परा शैव भी है व शाक्त भी। कुब्जिका की जहाँ परमता में कोई सन्देह नहीं है, वहीं मन्थानभैरव को भी सर्वोत्तीर्ण तत्त्व के रूप में १३ वी काली के स्थान पर स्वीकारा गया है। इस परम्परा में सिद्धक्रम १. वहीं, पृ. २८ शामा हिमगर जाति २. वहीं, पृ. १०३-१०६ ३. तं. वि., भा. २, पृ. ४२८-४२६ ४. वा. म. तं., ४.१७-१८ क मानाजी विधान ५. नित्याषोडशिकार्णव, १.२५-२८ क। माया ६. योगिनीहृदयदीपिका, पृ. ३७८ तन्त्रागम-खण्ड ३१८ वही है, जो त्रिपुरा परम्परा में स्वीकृत है—मित्रनाथ, ओड्डनाथ, षष्ठनाथ व चर्यानाथ। कुण्डलिनी योग इस परम्परा का वैशिष्ट्य है। कुलप्रक्रिया का यहाँ वही रूप स्वीकृत है, जो त्रिक तन्त्रों में उपलब्ध होता है। कुब्जिका कुण्डलिनी के रूप में विशुद्ध आनन्द है, जो शरीर के ६ केन्द्रों में, जिन्हें चक्र कहते हैं, ६ रूपों में अवस्थित है। चित्-शक्ति के रूप में यह सभी मन्त्रों का स्रोत है। इसके तीन पक्ष हैं—परा, परापरा व अपरा। इस त्रिविध रूप में वह पंचाशद् आमर्श वाली मालिनी है, जो कि सारे विश्ववैचित्र्य के प्रसार व संहार को प्रस्तुत करती है। यह इच्छा-ज्ञान-क्रिया के त्रिक रूप से भी वाच्य है। इसके लिये जिस त्रिकोण की कल्पना की जाती है, उसके तीन कोणों पर तीन पीठ स्थित हैं—पूर्णगिरि, जालन्धर तथा कामरूप। मध्य में ओड्डियान पीठ है, जिसमें इस कुब्जिका का निवास है। यह कुब्जिका यहाँ अकुल (कुब्जेश्वर) व कुल के संघट्ट रूप से निवास करती है। यह कुल-कुलेश्वरी ही

  • इस प्रकार कुल मत के इस चतुर्विध विकास के विश्लेषण से यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि इस मत को अभिनवगुप्त के अनुरूप एक प्रक्रिया कहना ही बेहतर है, क्योंकि इस मत के सारे सन्दर्भ इसकी विशिष्ट प्रक्रिया को केन्द्र में लेकर ही निर्धारित होते हैं। विविध दिशाओं में इसका विकास इसके मानक स्वरूप को नहीं बदलता, मात्र पूज्य देवता व देवीचक्र की संज्ञाओं में परिवर्तन आता है। कुण्डलिनी योग व आदियाग इस कुलप्रक्रिया के अनिवार्य सोपान हैं। सर्वत्र निषिद्ध पदार्थों का उपयोग इस साधना का विशेष घटक है। परन्तु इस कुलचर्या के अतिरिक्त भी यहाँ एक विशिष्ट चिन्तन-प्रणाली विद्यमान है, जो कि इन चर्यागत अनुष्ठानों को सार्थकता प्रदान करती है। अतः अब हम उस अभिप्राय को खोजने का प्रयास करेंगे, जो इस सम्प्रदाय के विशिष्ट स्वरूप का आधार है। सबसे पहले इस सम्प्रदाय की विशिष्ट शब्दावली का विश्लेषण आवश्यक है। कुल, अकुल, कौलिकी शक्ति व कौलिकी सिद्धि इस संप्रदाय की परिचायक संज्ञायें हैं। कुल का अर्थ है एक परिवार या समूह और इस समूह के द्वारा गृहीत हर व्यक्ति इसका सदस्य है । अतः कुल का अर्थ है - वह तत्त्व जो नानात्व को अंगभाव से स्वीकृत कर अंगीरूप में स्थित है। अकुल तत्त्व वह है, जो इस नानात्व से उत्तीर्णतया स्वात्ममात्र में विश्रान्त होकर स्थित है। कौलिकी शक्ति है, इस विश्वरूप कुल का प्रथन करने की सामर्थ्य । अकुल व कौलिकी शक्ति का यामलभाव ही वह परम कौल तत्त्व है, जो एक साथ शान्त व उदित १. “कुल संस्त्याने बन्धुषु च” (परात्री. वि., पृ. ५२)। २. मा. वि. वा., १.८६०; अनुत्तरं परं धाम तदेवाकुलमुच्यते। (तं., ३.१४३ क) ३. अकुलस्यास्य देवस्य कुलप्रथनशालिनी। कौलिकी सा परा शक्तिरवियुक्तो यया प्रभुः।। (तं. ३.६७) कौल और क्रम मत ३१६ दोनों अवस्थाओं में विद्यमान है’ । कौलिकी सिद्धि है, इस परम कौल तत्त्व के साथ समावेश की अवस्था । अभिनवगुप्त कुल शब्द को परमेश की शक्ति, सामर्थ्य, ऊर्ध्वता, स्वातन्त्र्य, ओज, वीर्य, पिण्ड, संवित् तथा शरीर रूप से व्याख्यात करते हैं ३ । अन्यत्र वह इसे सूक्ष्म और स्थूल तत्त्वों—प्राण, पंचभूत, दस इन्द्रिय आदि का समूह कहते हैं। इस सामूहिक प्रवृत्ति का प्रयोजक या तो कार्यकारणभाव हो सकता है, अथवा परम संवित् का आश्यानीभावः । इसी प्रकार भैरव की असंख्य रश्मियों का सामस्त्यभाव कहकर भी इसे व्याख्यात किया जाता है । अतः यह कुल तत्त्व वह अन्तिम तत्त्व है, जिससे सब कुछ निर्गत भी होता है व विश्रान्त भी ६ । इस प्रकार तो यह उस परम कौल अवस्था का ही पर्याय बन जाता है, जिसके नमन से तन्त्रालोक का प्रारम्भ भी होता है व जिसकी सबमें अनुस्यूति दिखला कर इस बृहत् ग्रन्थ का अन्त भी होता है। तान्त्रिक ग्रन्थों में कुल शब्द विविध माताओं के कुलों का भी वाचक है। ये मातायें यहाँ वे तान्त्रिक देवियाँ हैं, जिन्हें तान्त्रिक भाषा में मातृका, योगिनी, यक्षिणी, शाकिनी व डाकिनी कहा गया है। इनमें से कुछ का रौद्र कर्मों में अधिकार है व कुछ का सौम्य कर्मों में। इन सभी के अपने कुल हैं व विशिष्ट सिद्धियों को देने में अधिकार है। साधक जिस कुल के साथ एकत्व स्थापित करता है, उसी कुल की अधिष्ठात्री माता उसे अभीष्ट फल प्रदान करती हैं। कुलेश्वरी के रूप में जिसकी कल्पना की जाती है, वे अकुल तत्त्व तथा कौलिकी शक्ति हैं। यह कौलिकी शक्ति ही क्षुब्ध होने पर विसर्गरूपता में परिणत हो जाती है । वस्तुतः अकुल व कौलिकी शक्ति १. इत्थं यामलमेतद् गलितभिदासंकथं यदेव स्यात् । क्रमतारतम्ययोगात् सैव हि संविद्विसर्गसंघट्टः।। तधृवधामानुत्तरमुभयात्मकजगदुदारसानन्दम्। नो शान्तं नाप्युदितं शान्तोदितसूतिकारणं परं कौलम्।। (तं. २६.११५ ख-११७ क) २. कुले भवा कौलिकी सिद्धिः। तथात्वदाढय परिवृत्य आनन्दरूपं हृदयस्पन्दस्वरूपपरसंविदात्मकशिवविमर्शतादात्म्यम्, तां (सिद्धि) ददाति, अनुत्तरस्वरूपतादात्म्ये हि कुलं तथा भवति। (प. श्री. वि., पृ. ५३-५४) ३. कुलं च परमेशस्य शक्तिः सामर्थ्य मूर्खता। इन स्वातन्त्र्यमोजो वीर्य च पिण्डः संविच्छरीरकम् ।। (तं. २६.४) लिए ४. “कुलं स्थूल-सूक्ष्म-पर-प्राणेन्द्रिय-भूतादि-समूहात्मतया कार्यकारणभावाच्च कुलम, बोधस्यैव आश्यानरूपतया यथावस्थानात्” (प. श्री. वि., पृ. ५१-५२)। ५. “इदं परमेश्वरस्य भैरवभानो रश्मिचक्रात्मकं निजभासास्फारमयं कुलमुक्तम् …"। (वहीं, पृ. ५५) ६. यत्रोदितमिदं चित्रं विश्वं यत्रास्तमेति च। तत्कुलं विद्धि सर्वज्ञ शिवशक्तिविवर्जितम्।। (तं. वि., भा. २, पृ. ४२७) -805 ७. हृदयमनुत्तरामृतकुलं मम संस्फुरतात् (तं. १.१)। तं. ३५.३४ ६. अस्यान्तर्विसिसृक्षासौ या प्रोक्ता कौलिकी परा। सैव क्षोभवशादेति विसर्गात्मकतां ध्रुवम्।। (तं. ३.१३६-१३७) ३२० तन्त्रागम-खण्ड के संघट्ट से ही उस विसर्गरूपता का उद्भव होता है, जिसका परिणाम है यह सारा वाच्य-वाचक रूप जागतिक विस्तार’ । सर्वप्रथम इससे अनुत्तर, इच्छा, उन्मेष रूप त्रिक उदित होता है और तब उससे अन्य परामों का उदय होता है । यहाँ इस दार्शनिक सन्दर्भ को चर्याक्रम के आदियाग की स्थिति से पुष्ट करने का प्रयास भी किया गया है । यह विसर्ग शक्ति आनन्द से क्रियाशक्ति पर्यन्त विविध सामों को अभिव्यक्त करती हुई पहले १२ परामर्शों के रूप से परिस्फुटित होती है । ये द्वादश संविद्देवियां भैरव का मुख्य शक्तिचक्र है । तब यह बाकी परामों का भी उदय कर ५० आमों व तद्वाच्य जगत् के रूप में भासित होती हैं । आगम इस विसर्ग शक्ति को विविध सन्दर्भो में विविध संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। कभी वह शब्दराशि है, कभी वह मातृका और कभी मालिनी ७ । कभी वह परा शक्ति रूप से वर्णित है, जो कि अन्यत्र कालकर्षिणी रूप से भी वाच्य है । यह विसर्ग शक्ति ही ५० आमों के संपुटित रूप अहम् रूप से भी भासित है । दार्शनिक विवेचन में इसी अहम् परामर्श को सबका विश्रान्तिस्थान कहा जाता है। यही विसर्गशक्ति योगप्रक्रिया में कुण्डलिनी संज्ञा से अभिहित है। यह समस्त विश्व का बीजरूप भी है व जीवरूप भी । “कुलगुह्वरतन्त्र” में यह विसर्ग शक्ति कामतत्त्व रूप से वर्णित है। यह काम शब्द यहाँ इच्छा का ही वाचक है " । अभिनवगुप्त इस विसर्गशक्ति के योग को अनुत्तर तत्त्व की विश्वरूपता के लिये उत्तरदायी मानते हैं। साथ ही अनुत्तर का स्वाच्छन्द्य और अनुत्तरत्व भी उसकी इस विश्वरूपता को संभव बनाते हैं, पर जयरथ के अनुसार विसर्ग शक्ति का योग ही दो कारणों से होता है—स्वाच्छन्द्य के कारण व अनुत्तरत्व के कारण। १. विसर्गशक्तिर्या शम्भोः सेत्थं सर्वत्र वर्तते। रिन भी तत एवं समस्तोऽयमानन्दरसविभ्रमः।। (वहीं, ३.२०८-२०६) विसर्ग शक्ति की यह विश्वस्फार-सामर्थ्य शैव शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों में भी स्वीकृत की गई है। उदाहरणार्थ, ऐतरेय उपनिषद् में प्रस्तुत विवेचन को अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में प्रस्तुत करते हैं। (तं., ३.२२६-२३१) या २. वहीं, ३.२०७-२०८ ३. चर्याक्रमे ऽपि स्त्रीपुंसयोः संघट्ट एवानन्दोदयाद् विसर्गः। (तं. वि., भा. २, पृ. ४३३) ४. विसर्गता च सैवास्या यदानन्दोदयक्रमात् । स्पष्टीभूतक्रियाशक्तिपर्यन्ता प्रोच्छलस्थितिः।। (तं., ३.१४४) ५. तं., ३.२५१ ६. वहीं, ३.१६६ ख-१६७ क.. .काम ना मिल पाया ७. वहीं, ३.१६८-२०० क कलामाकाकाना र निकम ८. वहीं, ३.२३४ ६. वहीं, ३.२०४-२०६ १०. वहीं, ३.२२० ख ११. वहीं, ३.१७२ ख १२. वहीं, ३.१६५ ख-१६६ क १३. तं. वि., भा. २, पृ. ५४१ ease-सा काकी कशमी ३२१ कौल और क्रम मत कि यह विसर्ग शक्ति अनिवार्यतः स्पन्दनात्मक है, क्योंकि इसका प्रसार उभय दिशाओं में घटित होता है। बहिः प्रसार व अन्तः संकोच रूप दो प्रत्यय ही, जिन्हें कि उन्मेष व निमेष भी कहा जा सकता है, पंचकृत्यों की अवधारणा के मूल में है। कुल मत में संवित् की सामस्त्यरूपता के लिये स्वातन्त्र्य को ही अनिवार्य घटक माना गया है, अतः उस स्वातन्त्र्य की प्रक्रिया को संभव करने के लिये ही स्पन्दनात्मक विसर्ग शक्ति की धारणा स्वीकृत की गई है। यह विसर्ग ही उस जगदानन्द शब्दवाच्य पूर्ण अनुत्तर तत्त्व तक पहुँचने का साध न है। इसे ही अभिनवगुप्त हृदयोच्चार की प्रक्रिया के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं ’ । विसर्ग सबका सार होने से तान्त्रिक भाषा में हृदय भी कहा जाता है । विमर्श, विसर्ग, हृदय व स्पन्द परस्पर पर्याय ही हैं । अतः हृदयोच्चार है विसर्ग का उच्चार। इसे ५० आमर्शों तथा उसके प्रसाररूप में तत्त्वपद्धति का विस्तार बतला कर स्पष्ट किया गया है । इस हृदयोच्चार के माध्यम से उस जगदानन्द तत्त्व की प्राप्ति के कथन में अद्वैत दृष्टि की उसी मान्यता की स्वीकति है, जिसमें शक्ति को ही शिवतत्त्व को जानने का उपाय बतलाया गया है। यहाँ विसर्ग को स्पन्दात्मक हृदय रूप से भी कहा गया है। उसकी यह स्पन्दनात्मकता मत्स्य के उदर की भाँति सर्वदा स्थायी है । योगी प्राण के तिर्यक् प्रवाह को रोक कर, उसकी कुण्डलता को दूर कर, उसे एक सीधे दण्ड के रूप में प्राण व अपान की गति को समीकृत करता हुआ पहले मध्य धाम में प्रविष्ट कराता है। पुनः उस नाडीत्रय के संघट्टरूप त्रिशूल भूमि को उत्तीर्ण कर इच्छा-ज्ञान-क्रियाशक्ति के समत्वरूप जिस अवस्था की प्राप्ति करता है, वह विसर्ग भूमि ही है। इसी के माध्यम से उसे भैरवरूपता की प्राप्ति होती है। यहाँ उसे रासभी-वडवा की अवस्था-विशेषवत् ही उस आनन्दावस्था की प्राप्ति होती है, जिसके द्वारा वह बार-बार भाव-जगत् को लय व सृष्ट करने की सामर्थ्य वाले भैरव-भैरवी के यामलभाव का साक्षात्कार कर लेता है । फलतः उसमें हेयोपादेय वृत्ति का तिरस्कार हो कर सर्वापूरणात्मिका दृष्टि विकसित हो जाती है " । अब यह बाह्य जगत् को भी अपने स्वरूप परामर्श रूप से ही ग्रहण करता है, जिसे यहाँ “अन्तर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टिः" रूप भैरव मुद्रा कहा गया है । अतः इसी विसर्गरूपा संजीवनी कला का आश्रय लेकर सार्वात्म्य-प्रतिपत्तिदायक अर्चना आदि करणीय है। इस विसर्ग-भू की प्राप्ति का मार्ग यों तो अति दुष्कर है, पर LU है मा १. तत्र विश्रान्तिराधेया हृदयोच्चारयोगतः।। (तं. ५.५२) २. एकीकृतमहामूलशूलवैसर्गिक हृदि ।। (वही, ५.६०) ३. तं. वि., भा. ३, पृ. १००२-१००३ ४. तं. वि., ५.६७ ५. वहीं, ५.५७ ख-५८ क ६. तं. ५.५८-६० ७. वहीं, ५.६१ ८. वहीं, ५.८० ६. वहीं, ५.६६ ३२२ तन्त्रागम-खण्ड इसकी प्राप्ति के लिये कुलचर्या में कथित आदियागाधिरूढ मिथुनावस्था का मात्र ध्यान करने से या यथाविधि संपादन करने से इसकी अनायास ही प्राप्ति हो जाती है। अन्य सभी उपायों से उपलब्ध आनन्द इसी चरम आनन्दावस्था से ही सार्थकता प्राप्त करते हैं । इस स्पन्द दशा को प्राप्त साधक में ५ लक्षण उत्पन्न होकर उसकी पहचान कराते हैं। ये ५ लक्षण हैं—आनन्द, उद्भव, कम्प, निद्रा व घूर्णिः । यदि ये लक्षण एक साथ उत्पन्न होते हैं, तो उसमें महाव्याप्ति का उदय हो जाता है और यदि क्रम से उदित होते हैं, तो तत्सम्बन्धी चक्रों (आनन्द का चक्र वयश्रि (योगिनीवक्त्र), उद्भव का कन्द, कम्प का हृत्, निद्रा का तालु, घूर्णि का ऊर्ध्वकुण्डली या द्वादशान्त) की ईशता की प्राप्ति होती है । कि समस्त उच्चारों का विश्रान्तिस्थल यह हृदय-परमस्पन्द त्रिविध रूप से भासित होता है। इन त्रिविध अवस्थाओं को तान्त्रिक भाषा में अव्यक्त लिंग, व्यक्ताव्यक्त लिंग व व्यक्त लिंग कहा गया है । लिंग वह है, जिससे विश्व उदित होता है, जिसमें लीन होता है व जिसमें अन्तःस्थ रहता है । यह संज्ञा संभवतः तान्त्रिक संस्कृति के संस्कार की ही प्रतिनिधि है। अव्यक्त लिंग नर-शक्ति-शिवात्मक रूप होकर वही पूर्ण तत्त्व है, जो अन्यत्र शिवशक्ति के यामलभाव से कथित है। व्यक्ताव्यक्त लिंग नर-शक्ति प्रधान है व व्यक्त लिंग नर प्रधान ही है। अतः भैरवैकात्म्य की प्राप्ति हेतु इस अव्यक्त लिंग की ही पूजा करणीय है। इस विसर्ग को आनन्दानुभूति का ही प्रसार कहा जाता है। अकुल व कौलिकी शक्ति के संघट्ट से उद्भूत आनन्दावस्था ही वह सामर्थ्य है, जिससे सारा विश्व सृष्ट होता है। इस विश्व को भी आनन्दरसविभ्रम कह कर इसी बात को पुष्ट किया गया है । वस्तुतः कुल मत में आनन्द की धारणा केन्द्रीभूत है । यहाँ इसके विविध स्तरों की कल्पना को अनुत्तर के विकास की विविध अवस्थाएं कहा गया है, परन्तु अन्ततः इन सबका पर्यवसान गान का नाम १. वहीं, ५.७०-७२ २. तं. वि., भा. ३, पृ. ६६६-६६७ जागा ३. तं. ५.१०७ ४. वहीं, ५.१०८-१०६; ५.१११ ५. तं. ५.११२-११३, ११५-११७ ६. वहीं, ५.११३ ७. आनन्द की स्थिति की व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त इसे हृदय की वह स्पन्दनावस्था बतलाते हैं, जिसमें सारे माध्यस्थयों का विलय होकर शुद्ध एकतानता की स्थिति शेष रहती है। (तं. ३.२०६ ख-२१० क) ८. तयोर्यद् यामलं रूपं स संघट्ट इति स्मृतः। आनन्दशक्तिः सैवोक्ता यतो विश्वं विसृज्यते।। (तं. ३.६८) ६. तत एव समस्तोऽयमानन्दरसविभ्रमः। (वहीं, ३.२०६) १०. आनन्द की यहाँ इतनी महिमा है कि अभिनवगुप्त इस सम्प्रदाय को आनन्दयोग की विशिष्ट दृष्टि का ही प्रतिपादक मान लेते हैं। (मा. वि. वा., २.११८) कौल और क्रम मत ३२३ जगदानन्द में ही माना गया है । अतः चर्यात्मक स्तर पर इस आनन्द तत्त्व का अनुसंधान ही यहाँ एकमात्र लक्ष्य है और इसी आनन्द के माध्यम से उस चरम आनन्द के सन्दोह रूप कुल तत्त्व को पाने का सतत प्रयास ही परम साध्य है । साथ ही जो दार्शनिक दृष्टि विकसित हुई है, उसमें भी आनन्द को ही मूल में रखकर सारी विश्वरूपता के विकास का विश्लेषण किया गया है। दीक्षादि अनुष्ठानों में भी इस आनन्दावस्था के स्तरों के माध्यम से ही उस कुल तत्त्व के साथ एकतानता की प्रगाढता को मापा गया है । इसी दृष्टि से यहाँ चर्या को अधिक सुखकर बनाने का प्रयास मिलता है। पर अब कुलविधि को रहस्यविधि कहने का प्रयोजन खोजने की यदि चेष्टा करें, तो हम पाते हैं कि यहाँ इस प्रक्रियाविशेष को अतिगोप्य बनाये रखने की चेष्टा अति प्रबल है। इसके पीछे हर कुल वर्ग की वैयक्तिकता को सुरक्षित बनाये रखने का प्रयास तो है ही, साथ ही इसके विशिष्ट सन्दों को भी बचाये रखना लक्ष्य है। यह कुलप्रक्रिया तन्त्रप्रक्रिया से तीन-चार कारणों से भिन्न है - प्रथम, अधिकारी के भेद के कारण । म उशिया द्वितीय, मन्त्रसामर्थ्य के भेद के कारण ५ । नागरात्री तृतीय, अधिकरण के भेद के कारण। मला साजरा चतुर्थ, इतिकर्तव्यता के भेद के कारण । तन्त्रप्रक्रिया जहाँ सामान्य अधिकारी के लिये है, वहीं कुलप्रक्रिया मात्र धाराधिरूढ शिष्यों के लिये ही है। तन्त्रप्रक्रिया में प्रयुक्त मन्त्र इतने प्रभावी नहीं है, जितने प्रभावी कुलप्रक्रिया में प्रयुक्त मन्त्र हैं; कुलप्रक्रिया में प्रयुक्त मन्त्र स्वभावदीप्त व सद्यः प्रत्ययकारक हैं। तन्त्रप्रक्रिया में याग का अधिकरण केवल बाह्यतः ही संभव है, जबकि कुलप्रक्रिया में १. अभिना वाथ भिन्ना वा भिन्नाभित्रा अथापि वा। भावा निजादिकानन्ददशापञ्चकयोजिताः। जायन्ते जगदानन्दसमुद्दामदशाजुषः।। (मा. वि. वा., २.३३-३४) मा २. आनन्दनाडीयुगलस्पन्दनावहितौ स्थितः।। एनां विसर्गनिष्यन्दसौधभूमिं प्रपद्यते।। (तं. ५.७०) मा अनया शोध्यमानस्य शिष्यस्यास्य महामतिः। सर लक्षयेच्चिनसंघातमानन्दादिकमादरात्।। माना अहम काम आनन्द उद्भवः कम्पो निद्रा घूर्णिश्च पञ्चकम्। ततो (मालिनीविजयोत्तर तन्त्र (मा. वि. सं.), काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, १६२२, ११.३५ । इसी बात को अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में स्पष्ट करते हैं (२६.२०७-२०८)। ४. तं. वि., भा. ७, पृ. ३२६२ ५. तं. २६.३, तं. वि., भा. ७, पृ. ३२६२-६३ ६. सं. २६.७ ७. तं. २६.८, तं. वि., भा. ७, पृ. ३२६६ ३२४ तन्त्रागम-खण्डले ६ अधिकरण संभव हैं - बहिः, शक्ति, यामल, देह, प्राणपथ व बुद्धि। तन्त्रप्रक्रिया में स्नान, मण्डल, कुण्ड, न्यास आदि अनुष्ठान अनिवार्य हैं, पर कुलप्रक्रिया में इनका सम्पादन साधक की इच्छा पर निर्भर है। वह चाहे तो करे, या न करे। एकिक कक क्रमरहस्य में कुलप्रक्रिया के तीन वैशिष्ट्य कथित हैं—अर्घपात्र, यागधाम तथा दीप’। जयरथ के अनुसार इस त्रिक-कुल-परम्परा में अर्घमात्र की बजाय अर्घ की ही प्रधानता है। ये अर्घ-द्रव्य क्या हों, इस विषय में गुरु शम्भुनाथ के वचन ही प्रमाण हैं। इनके विषय में किसी भी प्रकार की आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि शंका कुलप्रक्रिया में सबसे बड़ा विघ्न है । कुल तत्त्व का साक्षात्कार उसी व्यक्ति को संभव है, जिसकी सारी शंकायें ध्वस्त हो गयी हों, क्योंकि कुल तत्त्व तो सभी विरोधों का एकात्मभाव है, अतः सारे विधि व निषेधों से मुक्त है। अर्घद्रव्य मुख्यतः आद्ययाग में शक्तिसंगम से प्राप्त कुण्डगोलकाख्य (शुक्रशोणितरूप) द्रव्यविशेष है, जिसे वीरद्रव्य, वामामृत आदि रूप से भी कहा गया है। यागधाम भू, वस्त्र, काय और पीठ में से कोई हो सकता है, पर इनमें उत्तरोत्तर उत्कृष्टता है । दीपक विविध देवियों के प्रतीक रूप में कुल-अनुष्ठानों में प्रयुक्त होते हैं ७ । इस कुलप्रक्रिया में वे पदार्थ, जो अन्यत्र निषिद्ध रूप से वर्णित हैं, अनिवार्यतः प्रयुक्त किये जाते हैं । सम्भवतः यह इसी दृष्टि को पुष्ट करने के लिये है कि यहाँ तो सब कुछ संविद् रूप है, अतः कुछ भी निषिद्ध नहीं है । साथ ही यह स्वीकृति यह भी बतलाती है कि उस परम आनन्द तक पहुँचने में इस जीवन में इस देह के द्वारा प्राप्य सभी स्तर के आनन्द सोपान बन जाते हैं। जो भी पदार्थ आनन्दमात्र के जनक हैं, वे कुलपूजा में उपयोगी हैं। १. तं. २६.१४ २. वहीं, २६.१७ ३. वहीं, १२.२०-२१, १२.२४-२५ ४. वहीं, २६.५ ५. अर्घद्रव्य के सन्दर्भ में डॉ. सैण्डर्सन द्वारा प्रस्तुत दृष्टि विशेषतः द्रष्टव्य है। उनके अनुसार विद्यापीठ के प्राचीन तन्त्रों में शक्तिसंगम से प्राप्त विशेष अर्घद्रव्य को बुभुक्षु साधक देवी को भी अर्पित करते थे व स्वयं भी उसका पान करते थे, जब कि मुमुक्षु मात्र उसे देवी को ही अर्पित करते थे। परन्तु कुल-सम्प्रदाय के अन्तर्गत इस द्रव्य की बजाय उसके पूर्व की आवेशावस्था (orgasm) को ही महत्त्वपूर्ण माना गया, क्योंकि यह स्थिति चेतना के आनन्दात्मक विकास की प्रतिनिधि है, जिसमें कि साधक की अहन्ता का पूर्णतया विलय हो जाता है। बारिश ६. तं. २६.१५ ७. वहीं, २६.५४ ८. वहीं, २६.१० ६. अतश्च संविन्मात्रसारत्वात् सर्वस्य शुद्ध्यशुद्धी अपि वास्तवे न स्त इति कटाक्षयितुम्। । (तं. वि., भा. ७, पृ. ३२६७) १०. नन्दहेतुफलैर्द्रव्यैरर्घपात्रं प्रपूरयेत्। (तं. २६.२२)है कौल और क्रम मत ३२५ अतः मद्य, मांस, मैथुन ये सभी कुलमार्ग के अनुयायियों के द्वारा अनिवार्यतः सेव्य हैं । दि आदियाग (आद्ययाग) या दूतीयाग कुलप्रक्रिया की अनिवार्य पहचान है। इसके बिना कुलसाधना सम्पन्न नहीं होती । पर इस अनुष्ठान के पीछे रिरंसा (रमण करने की इच्छा) निमित्त नहीं है, वरन् परम संवित् के अनवच्छिन्न स्वरूप में आविष्ट होने की उत्सुकता ही प्रयोजक है । फलतः दूती व साधक के बीच किसी लौकिक अथवा ज्ञानीय सम्बन्ध की बजाय तादात्म्य स्थापित करने पर अधिक बल है । इस दूतीयाग में दूती व साधक में परस्पर औन्मुख्य के साथ-साथ स्वरूप-विश्रान्ति की भी स्थिति रहने से सृष्टि व संहार दोनों की ही स्थितियाँ विद्यमान हैं। अतः यह कलमत की दष्टि में उत्तम मेलक है, जो कि परम पद से तादात्म्य की प्राप्ति कराने वाला है ५ । यही मेलक, यामल व संघट्ट शब्दों से भी व्यक्त किया गया है। इसी को शिव-शक्ति का सामरस्य रूप जगदानन्द भी कहा जाता है। यही परम कौल तत्त्व है ६ । संभवतः इस आदियाग के कारण भी यह प्रक्रिया रहस्य-विधि कही गई है। यह अनुष्ठान निर्विकल्प चित्तवृत्ति वाले साधकों के द्वारा ही सम्पाद्य है। इसके पीछे जयरथ यह तर्क देते हैं कि निर्विकल्प चित्तवृत्ति को प्राप्त ज्ञानी जन इस याग का सम्पादन केवल इस उद्देश्य से करते हैं कि वे जान सकें कि उनका चित्त संविदद्वैत में एकाग्र हुआ है या नहीं । परन्तु अन्यत्र मुख्यचक्र का पूजन कुल-पूजा का अनिवार्य अंग कहा गया है। साथ ही कुल अनुष्ठानों का मुख्य अधिकरण योगिनीवक्त्र को बतलाया गया है। अतः यह बात स्पष्ट होती है कि कुल-परम्परा में इस अनुष्ठान को उत्तर काल में एक तार्किक अभिप्राय देने की चेष्टा की गई, जबकि प्रारम्भ में यह विशुद्ध अभिधात्मक अभिप्राय में ही यहाँ स्वीकत था। १. आनन्दो ब्रह्म परमं तच्च देहे त्रिधा स्थितम्। जो मा शितमा उपकारि द्वयं तत्र फलमन्यत्तदात्मकम्। (तं. २६.६७-६८) २. साकं बाह्यस्थया शक्त्या यदा त्वेष समर्चयेत्। तदायं परमेशोक्तो रहस्यो भण्यते विधिः ।। (तं. २६.६६) ३. सत्यम्, किन्तु अत्र लौकिकवन्न प्रवृत्तिः रिरंसया, अपितु वक्ष्यमाणदृशा __ अनवच्छिन्नपरसंवित्स्वरूपावेशसमुत्सुकतयेत्येवं परमेतदुक्तम्"। (तं. वि., भा. ७, पृ. ३३६२) ४. “…यतोऽत्र अस्या लौकिकाद् यौनादलौकिकाद् ज्ञानीयाच्च सम्बन्धादधिकं तादात्म्यम्” _(वहीं, पृ. ३३६२)। ५. द्वाभ्यां तु सृष्टिसंहारौ तस्मान्मेलकमुत्तमम्। (तं. २६.१०४) किमान ६. तं. २६.११५-११७ ७. “एवं चात्र निर्विकल्पवृत्तीनां महात्मनां ज्ञानिनामेवाधिकारः, येषां स्ववृत्तिप्रतिक्षेपेण संविदद्वैत एव किमेकाग्रीभूतं चेतो न वेति प्रत्यवेक्षामात्रे एवाऽनुसंधानम्" का भीलडीज (तं. वि., भा. ७, पृ. ३३६३-३३६४)। ८. “पिचुवकत्राद्यपरपर्यायं योगिनीवक्त्रमेव मुख्यचक्रमुक्तम् । तत्रैव एष उक्तो वक्ष्यमाणो वा कि सम्प्रदायोऽनुष्टेयः, यतस्तस्माद् ज्ञानं संप्राप्यते, परसंवित्समावेशोऽस्य जायते”। (तं. वि., भा. ७, पृ. ३३७६) विजयी ३२६ तन्त्रागम-खण्ड इस कुलमत का एक अन्य भेदक वैशिष्ट्य है काययाग। अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में कुलमत को ‘देहे विश्वात्मताविदे" विशेषण’ से प्रस्तुत कर त्रिक, सिद्धान्त आदि सम्प्रदायों से इस सम्प्रदाय के विशिष्ट स्वरूप को उपस्थित करते हैं। कुल शब्द का एक अर्थ देह भी है, साथ ही देह को यहाँ याग का अधिकरण भी कहा गया है । अतः स्वदेह में ही साधक सारी विश्वात्मता का दर्शन कर उसे कुल रूप में देख सकता है और इस प्रकार उस कुल तत्त्व के साथ समावेश प्राप्त कर सकता है। विश्व के क्षुद्र से क्षुद्र अंश को उस बृहत् कुल का सदस्य बनाना तो यहाँ अन्तिम लक्ष्य है ही, साथ ही उन अंशों का भी उस बृहत कुलभाव से पूर्ण रूप में चिन्तन करना ही इस समग्र दृष्टि का आपादक है। इसी दृष्टि से यहाँ हर तत्त्व शोध्य भी है व शोधक भी। यही शोध्यशोधकभाव सारे द्वैत की वैयक्तिकता का परिहार कर और उसे समग्र भाव से अभिषिक्त कर उस कुलचेतना की प्राप्ति का पथ प्रशस्त कर देता है। PR इस कुलविधि के सम्पादन के ६ अधिकरणों में प्राण-वायु व मति से गृहीत स्वसंवित् भी स्वीकृत है। अतः प्राण-वायु के विविध व्यापारों के माध्यम से मध्य नाड़ी में प्रवेश कर सुप्त आत्मशक्ति को जगाना भी कुलसाधना है, जिसे यहाँ कुण्डलिनीयोग की तान्त्रिक शब्दावली में व्यक्त किया गया है। इसी प्रकार स्वसंवित् मात्र में ही सारी पूजाविधि का सम्पादन भी कुलसाधनाविधि का ही एक प्रकार है। इन सभी अधिकरणों के नाना भेद संभव है; अतः नाना कल-विधियों की कल्पना की संभावनाएं खल जाती हैं, जैसा कि आगमों में प्राप्त उल्लेखों से स्पष्ट है।
  • कुलप्रक्रिया में चक्र की धारणा को भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यह चक्र शब्द ४ अभिप्रायों को देता है, क्योंकि ‘कसी विकासे’, ‘चक तृप्तौ’, ‘कृती च्छेदने’ तथा ‘डुकृञ् करणे'५ इन चार धातुओं से इसकी निष्पत्ति की जा सकती है। इस धारणा के पीछे छिपी है शक्ति के स्पन्दनात्मक स्वरूप की कल्पना। शक्ति सदैव गत्यात्मक है और यह गति यहाँ चक्रवत् ही सक्रिय है। इसी दृष्टि को लेकर मुख्य चक्र व अनुचक्रों की कल्पना है । चेतना का जो भी प्रवाह है, वह इसी गति से सदैव सक्रिय है। जहाँ भी इसकी गति में अवरोध आता है, इसका सहज प्रसार रुक जाता है। साधना-प्रक्रिया में इसी अवरोध १. तं. ४.२५६ २. “निजदेहगते धाम्नि तथैव पूज्यं समभ्यस्येत्" (तं. २६.१३३) Eि ३. एवं प्राणक्रमेणैव तर्पयेद् देवतागणम्। अचिरात्तत्प्रसादेन ज्ञानसिद्धीरथाश्नुते।। (तं. २६.१८०) ४. संविन्मात्रस्थितं देवीचक्रं वा संविदर्पणात्। विश्वाभोगप्रयोगेण तर्पणीयं विपश्चिता।। (तं. २६.१८१) वहीं, २६.१०६ ख-१०७ क ६. यदेवानन्दसन्दोहि संविदो ह्यन्तरङ्गकम्। तत्प्रधानं भवेच्चक्रमनुचक्रमतोऽपरम्।। (तं. २६.१०५-१०६) कौल और क्रम मत ३२७ को हटाकर चेतना के सहज प्रवाह को बनाये रखना ही अभीष्ट है। विविध अभिप्रायों व सन्दर्भो में इस चक्रात्मक प्रवाह को विविध नाम दिये गये हैं। जैसे—सहस्रार, षोडशार, द्वादशार, अष्टार, षडर आदि। अतः प्राण-योग के सन्दर्भ में यह चक्र की धारणा साधना-प्रक्रिया का विशेष अंग है। इस प्रकार कुलप्रक्रिया को जानने के लिये जिन प्रत्ययों को समझना अत्यन्त आवश्यक है, उनके संक्षिप्त विश्लेषण के बाद यह द्रष्टव्य है कि अभिनवगुप्त इस प्रक्रिया का सम्बन्ध शांभवोपाय से क्यों जोड़ते हैं? अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में चतुर्विध उपायों की जो आनुपूर्वी प्रस्तुत करते हैं, उसमें कुलप्रक्रिया अनुपाय का अंग इसलिये नहीं बनती, क्योंकि वहाँ चेतना के प्रकाश पक्ष पर ही विशेष बल है, स्वतन्त्र्य पक्ष पर नहीं;’ शाक्तोपाय में विकल्प का संस्कार क्रमशः ही सम्पादित होता है और आणवोपाय तो उन नाना विधियों का संग्रह है, जिनसे कि निर्विकल्प भावना की प्राप्ति हो सके। कुलप्रक्रिया में क्रमशः का किसी स्तर पर कोई स्थान नहीं है। सर्वत्र कुलवादी (समग्रवादी) दृष्टि ही प्रधान है। साथ ही इसका पात्र वही हो सकता है, जो निर्विकल्प भाव को प्राप्त हो चुका है, अतः शांभवोपाय ही वह सही स्तर है, जिससे इस कुलप्रक्रिया को जोड़ा जा सकता है। यहाँ चेतना की विश्वात्मता व स्वातन्त्र्य दोनों का समभाव से प्राधान्य है ५ । यह तीव्र शक्तिपात को प्राप्त साधकों के द्वारा ही अनुसृत मार्ग है। प्रातिभ ज्ञान का या जिसे इस सम्प्रदाय की शब्दावली में सांसिद्धिक ज्ञान कहते हैं, इस स्तर पर विशेष महत्त्व है ६ । इस सहज अनौपदेशिक स्वतः स्फूर्त ‘ज्ञान के उदित होने पर उस भेदात्मक चेतना के संस्कार का भी नाश हो जाता है । अतः प्रातिभ ज्ञानवान साधक ही तीव्र शक्तिपात के पात्र हैं तथा वे ही कुलसाधना के साधन में अधिकारी हैं। शांभवोपाय के विवेचन में अभिनवगुप्त भैरवैकात्म्य-प्राप्ति के लिये जो तरीके बतलाते हैं, उनके आधार पर डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस प्रक्रिया के अनुयायी साधकों की तीन कोटियाँ हो सकती हैं। __प्रथम तो वे साधक, जो अभी निर्विकल्प अनुभव के निम्न स्तर पर हैं। ये साधक ५० वर्गों के द्वारा प्रस्तुत जगत् के प्रत्येक तत्त्व को एक-एक कर विश्वात्म रूप से ग्रहण १. त.३.४ २. वहीं, ४.४ तानी नायड ३. वहीं, ५.६ भी ४. तथा धाराधिरूढेषु गुरुशिष्येषु योचिता।। (तं. २६.२) ५. वहीं, ३.६५.६६ ६. वहीं, १३.१३१-१३३ ७. यदा प्रतिभया युक्तस्तदा मुक्तश्च मोचयेत्। परशक्तिनिपातेन ध्वस्तमायामलः पुमान् ।। (तं. १३.१६६-१६७) ८. अभिनवगुप्त, पृ. ६०५-६०६ ३२८ तन्त्रागम-खण्ड करते हुए उसे स्वात्मसंवित् के प्रतिबिम्ब के रूप में देखते हुए परम कुलतत्त्व के साक्षात्कार में संलग्न हैं । द्वितीय वे साधक हैं, जो इनसे एक सोपान आगे हैं। उन्हें व्यवहार के स्तर पर भी सब कुछ स्वसंविद्दर्पण में ही प्रतिबिम्बित दृष्ट होता है २ । तृतीय वे साधक हैं, जो इन दोनों से निम्नतर स्थिति में है। इन्हें किसी प्रकार की निर्विकल्पावस्था की प्राप्ति नहीं हुई है, पर रुद्र में अविचल भक्ति ही उनमें उपस्थित वह वैशिष्ट्य है, जो उन्हें उस तीव्र शक्तिपात का अधिकारी बना देती है। इन्हीं साधकों के लिये कुलदीक्षा का विधान है । मी डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय कुलप्रक्रिया के अनुष्ठानों को भी द्विविध वर्गों में बाँटते हैं बाह्यचर्या व रहस्यचर्या । बाह्यचर्या जहाँ इस साधनाविधि में प्रवेश की अधिकारिता प्रदान करती है, वहीं यह रहस्यचर्या उस निर्विकल्पक अनुभव की प्रगाढता को मापने में मदद भी करती है। यह रहस्यचर्या उन्हीं साधकों के द्वारा अनुष्ठेय है, जो निर्विकल्पानुभूति को प्राप्त कर चुके हों। प्राप्त विवरणों में इस रहस्यचर्या के एक अन्य उद्देश्य का भी आभास मिलता है, वह है योगिनीभूत्व की प्राप्ति’ । अभिनवगुप्त जब स्वयं को आद्ययागाधिरूढ यामलभाव का ही परिणाम कहते हैं, तब यही संकेतित होता है कि अभिनवगुप्त के माता-पिता इस कुलप्रक्रिया के अनुष्ठानों में निपुण थे। अभिनवगुप्त के स्वयं इन तान्त्रिक अनुष्ठानों के प्रस्तुतीकरण में दक्ष होने के पीछे निहित कारणों में यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण है, जिसका कि बोध वे अनुत्तर त्रिक को आधार बनाकर लिखे गये अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत मंगल-श्लोक के द्वारा प्रारम्भ में ही करा देते हैं । १. निर्विकल्पे परामर्श शाम्भवोपायनामनि। FE काही निमा पञ्चाशद् भेदतां पूर्वसूत्रितां योजयेद् बुधः।। धरामेवाविकल्पेन स्वात्मनि प्रतिबिम्बिताम्। पश्यन भैरवतां याति जलादिष्वप्ययं विधिः।। (तं. ३.२७४-२७५) विचार तदप्यकल्पितोदारसंविदर्पणबिम्बितम् । पश्यन् विकल्पविकलो भैरवीभवति स्वयम्।। (तं. ३.२७७) अधासौ तादृशो न स्याद् भवभक्त्या च भावितः। तं चाराधयते भावितादृशानुग्रहेरितः। तदा विचित्रं दीक्षादिविधिं शिक्षेत कोविदः ।। (तं. ३.२६१-२६२) अभिनवगुप्त, पृ. ६०७ तादृङ्मेलककलिकाकलिततनुः कोऽपि या भवेद् गर्भे ।। गा उक्तः स योगिनीभूः स्वयमेव ज्ञानभाजनं रुद्रः। श्रीवीरावलिशास्त्रे बालोऽपि च गर्भगो हि शिवरूपः ।। (तं. २६.१६२-१६३) ६. वहीं, १.१ ७. अभिनवगुप्त अनुत्तर त्रिक को विकसित करने के लिये मुख्यतः तीन ग्रन्थों की रचना करते हैं मालिनीविजयवार्त्तिक, परात्रीशिकाविवरण तथा तन्त्रालोक। इनके सारभूत ग्रन्थ हैं तन्त्रसार, तन्त्रवटधानिका व तन्त्रोच्चय। उनके इन तीनों ग्रन्थों व तन्त्रसार में एक ही मंगल-श्लोक उपलब्ध होता है, जबकि उनके अन्य ग्रन्थों में अलग-अलग मंगल-श्लोक रचे गये मिलते हैं। इससे यही ध्वनित होता है कि संभवतः इन सभी ग्रन्थों की एकात्मता दिखलाना ही यहाँ उनका लक्ष्य है। जयरथ इसकी तीन तरह से व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं—प्रथम परम त्रिक के सन्दर्भ में, द्वितीय क्रम के सन्दर्भ में तथा तृतीय योगिनीभूत्व के सन्दर्भ में। संभवतः अभिनवगुप्त इस मंगल-श्लोक में पूरी तान्त्रिक विधा के मूल कथ्य को उपस्थित कर रहे हैं, अतः वे अध्युष्टसंततिस्रोतसार रूप रस की उपलब्धि कराने के अपने लक्ष्य की पूर्वपीठिका को ही यहाँ प्रस्तुत करते हैं। २. ३२६ कौल और क्रम मत अब इस विवेचन के बाद यह द्रष्टव्य है कि कुलप्रक्रिया का वास्तविक स्वरूप है क्या? अभिनवगुप्त के विवेचन के आधार पर कुलप्रक्रिया का जो प्ररूप स्पष्ट होता है, उसी को मानक बनाकर हम यह विचार करेंगे। अभिनवगुप्त के अनुसार कुलप्रक्रिया है कुलयाग का सम्पादन’ । कुलयाग शब्द में कुलयाग का कर्म भी हो सकता है, करण भी व अधिकरण भी। कुल तो परमेश्वर की शक्ति या सामर्थ्य है ही, जिसमें सामस्त्य भाव से सब कुछ अवस्थित है। फलतः इस कुल के अभिप्राय को स्फुटता प्रदान करने वाली विसर्गात्मिका कौलिकी शक्ति का यहाँ विशेष माहात्म्य है। इसी विसर्ग को हृदय रूप से सबका सार कहा गया है तथा स्पन्दनात्मक हृदय की प्राप्ति को ही पराद्वैत की प्राप्ति का सोपान बतलाया गया है। याग का अर्थ है समस्त भाव-वैचित्र्य को निश्शंक होकर उस कुलरूप से देखना। इस रूप को प्ररूढ करने के लिये कुलसाधक मन, वाक् व कायरें के मार्गों से जो आचरण करता है, वह सब कुलयाग कहा जाता है । इस प्रकार कुलयाग का सम्पादन तीन मार्गों से सम्भव है १. मन के मार्ग से - यह संभवतः ज्ञानियों का मार्ग है, जो कि वक्ष्यमाण कुलप्रक्रिया का सम्पादन बाह्यतया न कर स्वसंविद् में ही सारी कुलार्चा सम्पादित कर शान्त व उदित कौल तत्त्व का सतत ध्यान करते हैं। २. वाक् के मार्ग से - यह प्राणयोग मन्त्रयोग है, जप आदि के सम्पादन से कुलयाग का अनुष्ठान करने की प्रणाली है। ३. काय के मार्ग से - यह चर्याप्रधान दृष्टि वाले साधकों द्वारा अनुसरणीय मार्ग है। इसके अन्तर्गत देह के माध्यम से संपाद्य विविध अनुष्ठानों की प्रधानता है। इस कुलयाग के ६ आधारों की जो चर्चा अभिनवगुप्त करते हैं, उनमें इन तीनों ही प्रणालियों के अनुरूप अधिकरणों को संमिलित किया गया है। इस कुलयाग का साध्य है शान्तोदित परम कौल तत्त्व की प्राप्ति। इस कुलयाग की विधि इस प्रकार है सबसे पहले सुगन्धित व मन्त्रों से शुद्ध यागसदन में प्रवेश कर साधक अपने शरीर को मन्त्रों के प्रयोग से अनुलोम व विलोम क्रम से शुद्ध करे । इस शुद्धि में दहन व आप्यायन दोनों १. कुलप्रक्रियया उपासेति, कुलयाग इत्यर्थः। (तं. वि., भा. ७, पृ. ३२६२) २. तथात्वेन समस्तानि भावजातानि पश्यतः। ध्वस्तशङ्कासमूहस्य यागस्तादृश एव सः।। (तं. २६.५) ये मन, वाक् व काय के प्रत्यय ध्यानमयी बुद्धि, उच्चारात्मक प्राण तथा इन्द्रिय, विषय व प्राण के एकीभावरूप देह के प्रतिनिधि हैं। आणवोपाय के अन्तर्गत अभिनवगुप्त इन तीनों का उस निर्विकल्प तत्त्व तक पहुँचने के उपाय के रूप से वर्णन करते हैं। (वहीं, ५.७) ४. तादृग्रूपनिरूढ्यर्थ मनोवाक्कायवर्त्मना। यद्यत् समाचरेद् वीरः कुलयागः स स स्मृतः।। (वहीं, २६.६) बहिः शक्तौ यामले च देहे प्राणपथे मतौ। इति षोढा कुलेज्या स्यात् प्रतिभेदं विभेदिनी।। (तं. २६.७) ६. तं., २६.१८-१६ ३३० तन्त्रागम-खण्ड हैं ही कृत्य सम्मिलित हैं। साथ ही इन मन्त्रों के द्वारा शक्ति-अनुसंधान’ करने से यह शुद्धि सम्पन्न होती है और देह को दिव्य भाव की प्राप्ति होती है। इससे देह में सारी देवियाँ जाग्रत् होकर स्थित हो जाती हैं। तब उनका विधिवत् तर्पण करणीय है । इस प्रकार साधक में स्वरश्मियों का समूह पूर्णतया विकसित हो जाता है। यही कुलयाग है। यह यागविधि ऊपर वर्णित ६ अधिकरणों में से किसी पर भी सम्पादित की जा सकती है। यहाँ तो केवल देह का वर्णन किया गया है । कुलसाधक समस्त स्वशक्तियों के जाग्रत् हो जाने पर पूर्णता के आनन्द से उच्छलित होता हुआ बाहर जाग्रत् में भी उसी पूर्णता के दर्शनहेतु बाह्यतः भी अर्चना करता है । इस बाह्यतः अर्चना के कई उपादान हैं—लाल वस्त्र, धरा, नारिकेल पात्र, मण्डल, मद्यपूर्ण पात्र आदि। इन सभी पर एक साथ भी पजाविधि सम्पाद्य है. या किसी एक पर भी की जा सकती है। अब क्रम से गणेशपूजा, वटुकपूजा, गुरुपूजा, सिद्धपूजा, योगिनीपूजा तथा पीठपूजा को विविध दिशाओं में सम्पादित करके मुख्य कुलचक्र में कुलेश्वर व कुलेश्वरी की यामलभाव से या मात्र एक की पूजा सम्पादनीय है। इस कुलचक्र में विविध देवियों से घिरी हुई कुलेश्वरी की कल्पना की जाती है ६ । ये देवियाँ उस रश्मिचक्र को ही विविध प्रकार से प्रस्तुत करती है, अतः कहीं १२ रूपों से, कहीं ६४ रूपों से व कहीं ४ रूपों से उनकी कल्पना कर उनके प्रतीक रूप में कुलानुष्ठान में उतने ही दीपों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार सर्वत्र भैरव-रश्मियों का ही दर्शन करते हुए साधक का कुलयाग पूरा होता है। तन्त्रप्रक्रियावत् इस कुलयाग के लिये कोई विशेष समय या स्थान अपेक्षित नहीं है । यहाँ तो सब कुछ भैरवरूप होने से कहीं किसी प्रकार का भेद संभव ही नहीं है। देह तथा बहिः रूप आधार के अतिरिक्त शक्ति अर्थात् दूती में, आद्ययागाधिरूढ यामलभाव में, प्राणपथ अर्थात् मध्यनाडी में, तथा बुद्धि में भी इसका सम्पादन मन, वाक् व काय में से किसी एक मार्ग से किया जा सकता है। पर सारे कुलयाग में मूल दृष्टि दो ही तथ्यों पर केन्द्रित है १. मन्त्रों के प्रयोग के समय सदैव यही भावना करणीय है कि मेरी व अन्य की चेतना निस्सार है, सब कुछ भैरव की शक्तिमात्र है। यही शक्ति-अनुसंधान है। (तं. २६.२२) २. तेन निर्भरमात्मानं बहिश्चक्रानुचक्रगम्। विपुड्भिर्ध्वाधरयोरन्तः पीत्या च तर्पयेत्।। (तं. २६.२३) ३. तं.२६.१७१ ४. तं.२६.२४ ५. तं. २६, २४-२६ ६. तं. २६.४६ ७. वहीं, २६.५० ८. वहीं, २६.५१-५४ ६. वहीं, २६.८०-८१ ३३१ कौल और क्रम मत शक्ति का अनुसंधान तथा समस्त शक्तिचक्र (अनुचक्र) को मुख्यचक्र का अन्तरङ्ग बना देना’ । उसका लक्ष्य है जगदानन्द की प्राप्ति २ । इस प्रकार के इस कुलयाग में अकुल व कुल के जिस यामलभाव का सतत अनुसंधान किया जाता है, वह इस कुलरूपता के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिये ही है। मन्त्र, ध्यान, जप, होम, व्रत, ज्ञान आदि साधनों से जिस कुल-सामान्य की चेतना उदित होती है, उसी के माध्यम से उस पूर्ण कौल तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को समझा जाता है। यही स्थिति दार्शनिक शब्दावली में कौलिक सिद्धि का लाभ है ३ । इसे खेचरीसाम्य’ की तान्त्रिक शब्दावली में भी व्यक्त किया गया है। इस कुलप्रक्रिया का अनिवार्य वैशिष्ट्य है आदियाग। अक्सर इस सम्प्रदाय को इसी लक्षण से इंगित किया जाता है। वस्तुतः इस आदियाग के द्वारा कुलमत के मुख्य सार तत्त्व को हृदयंगम करना सर्वाधिक सुगम है, इसी कारण यहाँ इसका विशेष महत्त्व है। इस याग में सम्पाद्य अनुष्ठान में दूती के साथ संघट्ट वेला में अहंभाव के न्यग्भाव से जिस पूर्णता की अनुभूति होती है, उसके माध्यम से उस परम कौल तत्त्व रूप यामल के यथार्थ स्वरूप को आत्मसात् किया जा सकता है। इसी कारण इस संघट्टमुद्रा या षडरमुद्रा को यहाँ परम मुद्रा व खेचरी मुद्रा भी कहते हैं। इस पूर्णता के आनन्द से तृप्त होकर सारी अनुचक्ररूप करणेश्वरियाँ जैसे विश्रान्त हो जाती हैं, वैसे ही सारा शक्तिचक्र इस कौल तत्त्व में विश्रान्त रहता है। इस प्रकार कुलप्रक्रिया के सम्पादन के वे ही अधिकारी हैं, जो निर्विकल्प दशा में रूढ़ हो चुके हैं, जिनका लक्ष्य विशुद्ध आध्यात्मिक है, जो जब चाहे तब इच्छामात्र से अपने चित्त को विषयों से हटा सकते हैं व प्राण-वायु को सुषुम्णा में प्रवेश करा सकते हैं। इन्द्रियों से उद्भूत आनन्द को वे परमानन्द की प्राप्ति का माध्यम बनाते हैं और अनासक्त भाव से उन पदार्थों का भोग करते हैं, जो कि परम हृदय हैं, ताकि उस इन्द्रिय आनन्द की चरमावस्था पर पहुँच कर वे इन्द्रिय-सम्पर्क से हट कर उस आत्मतत्त्व के साथ ऐक्य अनुभव कर सकें। यह प्रक्रिया दुःसाध्य न होने पर भी एक दुरूह साधना पद्धति है। अन्य तान्त्रिक विधियाँ जब विकल्प का संस्कार कर निर्विकल्पभाव की प्राप्ति कराकर कृतार्थ हो जाती हैं, तब कुलविधि के द्वारा उस स्वात्मचमत्कारात्मक संवित् का उदय होता है, जो पूर्णता, आनन्द तथा स्वातन्त्र्य का संपुटीभाव है। इसी वैशिष्ट्य के कारण अद्वयवादी दृष्टि का पार्यन्तिक सार होने पर भी कुलविधि मठिका-विभाजन के अन्तर्गत एक स्वतन्त्र स्रोत से जोड़कर प्रस्तुत की गयी है। १. २. ३. ४. तं., २६. १३८-१३६ तं.५.५०-५२ तं. ४.५७-५८ खेचरी में ख ब्रह्म या अनुत्तर का वाचक है, अतः ख में चरण करने वाली शक्ति है खेचरी। यह शक्ति कौलिकी शक्ति है, जिसे अनुत्तरा भी कहा गया है। खेचरीसाम्य का अर्थ है विश्वावभासरूपा अनुत्तरा को अनुत्तर से एकात्मरूप से ग्रहण करना। ३३२ तन्त्रागम-खण्ड वह इस कुलपरम्परा के उद्विकासक्रम की प्रवृत्तियों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल शैव तन्त्रों व परवर्ती शैव साहित्य में कुछ विशिष्ट प्रत्यय (जिन्हें कि यहाँ कुल धारा की ही मौलिक अवधारणाएं कहा गया है), विविध सम्प्रदायों के अन्तर्गत समभाव से उपलब्ध दृष्ट क्यों होते हैं। रहस्यचर्या, कुण्डलिनी-योग, पंचमकार का प्रयोग, आनन्द की अवधारणा, स्वसंवेदन का सर्वाधिक माहात्म्य, योगिनीमेलन आदि प्रत्यय क्रम-ग्रन्थों का भी अविभाज्य अंग बनकर सम्मुख आते हैं तथा त्रिपुरा सम्प्रदाय के ग्रन्थों का भी। इसी व्यापक दृष्टि को रखकर अभिनवगुप्त अपने तन्त्रालोक में ४ मठिकाओं से विकसित सम्पूर्ण तान्त्रिक विचारधारा को नाना सम्प्रदायों में न वर्गीकृत कर केवल दो ही वर्गों में बाँटते हैं तन्त्रप्रक्रिया व कुलप्रक्रिया। __ विविध सम्प्रदायों में भेद प्रायः उस परतत्त्व के रूप व नाम को लेकर ही है। कुछ सिद्धान्तों को अपनी दृष्टि से कहीं कुछ नये नाम दे दिये गये हैं। पर मुख्यतः ये दो ही दृष्टियाँ पूरी तान्त्रिक परम्परा का सार है। इस प्रकार अभिनवगुप्त अपने ग्रन्थों में जिस पराद्वैत को विकसित करने का प्रयास करते हैं, कुल सिद्धान्त उसका आत्मतत्त्व ही है, क्योंकि वे पराद्वैत से सम्बद्ध अपने ग्रन्थों के प्रारम्भ में कुल का ही नमन करते हैं। साथ ही अन्त में कुल को ही विविध सम्प्रदायों व शास्त्रों का सार बतलाते हैं। यह कुल उस कुल सम्प्रदाय से भिन्न है, जिसकी वे तन्त्रालोक के चतुर्थ आह्निक में आलोचना करते हैं। संभवतः यह वही सम्प्रदाय है, जो यत्र-तत्र उपलब्ध अज्ञात स्रोत वाले उद्धरणों में नाना सम्प्रदायों की आनुपूर्वी में अभिगणित है। अभिनवगुप्त अपने अनुत्तरत्रिक नामक सिद्धान्त में इसी कुल की अद्वैतप्रधान दृष्टि को परिष्कृत करके पूर्णता व आनन्द की धारणाओं से समन्वित कर त्रिक के सन्दर्भ में विकसित करते हैं। के विविध सम्प्रदायों को यहाँ एक विशिष्ट आनुपूर्वी में रखने के पीछे विविध प्रयोजन हैं। कहीं विविध दृष्टियों को साधक की जीवनचर्या के साथ समन्वित करने का प्रयास है’, कहीं कुल को सर्वोत्कृष्ट दिखलाया गया है,२ व कहीं त्रिक को कुल व कौल से भी ऊपर स्थापित करने का प्रयास किया गया है ३ । वस्तुतः हर तन्त्र अपने द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त-विशेष को सर्वोत्कृष्ट कहता है। इसी कारण त्रिक-तन्त्र त्रिक को सबसे ऊपर रखते हैं व कुल तन्त्र कुल को। पर वास्तव में मानक रूप में अभिनवगुप्त का अनुसरण कर तन्त्रप्रक्रिया अन्तः कौलो बहिः शैवो लोकाचारे तु वैदिकः। सारमादाय तिष्ठेत नारिकेलफलं यथा।। (तं. वि., भा. ३, पृ. ८६४ पर उद्धृत) २. सर्वेभ्यश्चोत्तमा वेदा वेदेभ्यो वैष्णवं परम् । वैष्णवादुत्तमं शैवं शैवाद् दक्षिणमुत्तमम् ।। दक्षिणादुत्तमं वामं वामात् सिद्धान्तमुत्तमम् । सिद्धान्तादुत्तमं कौलं कौलात् परतरं नहि।। (कुलार्णवतन्त्र, २.७-८) ३. वेदाच्छैवं ततो वामं ततो दक्षं ततः कुलम्। प्रह ततो मतं ततश्चापि त्रिकं सर्वोत्तमं परम् ।। (तं. वि., भा. २, पृ. ४६ पर उद्धृत) कौल और क्रम मत ३३३ व कुलप्रक्रिया रूप वर्गीकरण ही स्वीकरणीय है। यह वर्गीकरण सारी तान्त्रिक परम्पराओं में लागू किया जा सकता है, फलतः कुलमत अद्वैत साधना-पद्धतियों के साररूप में विकसित दृष्टि है, इस बात को अभिनवगुप्त के ही शब्दों में इस प्रकार स्पष्ट कर सकते पुष्पे गन्धस्तिले तैलं देहे जीवो जलेऽमृतम्। यथा तथैव शास्त्राणां कुलमन्तः प्रतिष्ठितम्।। (तं. ३५.३४)

क्रम मत

काश्मीर में पल्लवित शिवाद्वयवाद की परम्परा में, मुख्यतः उस परम्परा में जिसे अभिनवगुप्त ने तन्त्रप्रक्रिया के अन्तर्गत रखा है, क्रमदर्शन एक प्राचीनतम सम्प्रदाय है। कुल, स्पन्द, प्रत्यभिज्ञा और त्रिक सम्प्रदायों के साथ इसकी भी एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में गणना यहाँ उपलब्ध होती है। तन्त्रालोक की विषयवस्तु में इस सम्प्रदाय के विशेष महत्त्व को संकेतित करने के लिये ही जयरथ अभिनवगप्त के मंगल-श्लोक की क्रमपरक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। यह क्रम-सम्प्रदाय काश्मीर शिवाद्वयवाद के ग्रन्थों में विविध संज्ञाओं से उल्लिखित मिलता है। इस क्रम-दृष्टि का बहुविध नामोल्लेख होने पर भी इसके स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में अस्तित्व के विषय में अक्सर विद्वान् सन्देह व्यक्त करते हैं, क्योंकि एक साधनाविधि के रूप में ही उसकी चर्चा प्रायः मिलती है, अतः इसकी स्वतन्त्र स्थिति की मान्यता गवेषणीय हो जाती है। शनि । ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करने पर कई प्रमाण इस सम्प्रदाय के स्वतन्त्र अस्तित्व के पक्ष में प्राप्त होते हैं। मंख अपने ग्रन्थ श्रीकण्ठचरित में महानय के नाम से १. क्रम-सम्प्रदाय की स्वतन्त्र स्थिति को लेकर कई विद्वानों ने सन्देह व्यक्त किया है। तून गांद्रियान, आन्द्रे पादु, लिलियन सिलबर्न तथा मार्क डिच्कोफस्की आदि सभी विद्वान एक स्वर से क्रम को एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय मानने से इंकार करते हैं। उनकी दृष्टि में क्रम कुलधारा का ही एक उपवर्ग है। मार्क इस सन्दर्भ में अभिनवगुप्त व जयरथ के द्वारा प्रस्तुत विवरणों में से कुछ ऐसे स्थलों का उल्लेख करते हैं, जिनमें क्रम-सिद्धान्तों व क्रम-ग्रन्थों की कुल-सन्दर्भो में ही चर्चा की गई लगती है। पर यह स्थिति काश्मीर में पल्लवित तान्त्रिक विचारधारा के उस पक्ष को बताती है, जहाँ कई जीवित परम्पराएं सहजभाव में एक दूसरे को प्रभावित करती हुई व एक दूसरे से प्रभावित होती हुई विकसित हो रही थी। इसी कारण तन्त्रालोक पूर्ण तान्त्रिक दृष्टि का प्रतिनिधि होकर उन सभी परम्पराओं को उसी सजीव परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है, अतः यहाँ त्रिक, क्रम व कुल सम्प्रदायों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ सिद्धान्त, मत आदि सजातीय तथा बौद्ध, भर्तृहरि आदि विजातीय मतों का भी विशिष्ट सन्दर्भो में उल्लेख मिलता है। संभवतः आगमोत्तर काल के क्रम मत पर कुल दृष्टि का इतना प्रभाव है कि क्रम-ग्रन्थों में कुल तत्त्वों का सन्निवेश बहुतायत से दृष्ट होता है। पर क्रम से सम्बद्ध सामग्री के सूक्ष्म विश्लेषण से यह निश्चित हो जाता है कि क्रम की एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में स्थिति निर्विवाद रूप से है। अग्रिम विवेचन से इस बात को पुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया जायेगा। ३३४ तन्त्रागम-खण्डी एक दार्शनिक सम्प्रदाय का उल्लेख करते हैं, जिसमें कि संहार के बाद सृष्टि की स्थिति स्वीकृत है २ । महानय क्रम की ही अपर संज्ञा है और इस सम्प्रदाय में परमसत् को क्रमात्मक ही माना गया है। अतः ११ वीं शती में दार्शनिक क्षेत्र से बाहर एक साहित्यिक ग्रन्थ में क्रम सम्प्रदाय का उल्लेख यही बताता है कि क्रम सम्प्रदाय उस समय पर्याप्त प्रचलन में था। अभिनवगुप्त भी मालिनीविजयवार्त्तिक में क्रम का एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में उल्लेख करते हैं ३ । तन्त्रालोक में भी क्रम की स्वतन्त्र सत्ता का उल्लेख है। जयरथ विवेक में कई स्थलों पर इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं । महानयप्रकाश के रचयिता बार-बार इस सम्प्रदाय की स्वतन्त्र स्थिति पर बल देते हैं । महार्थमंजरीकार प्रत्यभिज्ञा व क्रम को दो स्वतन्त्र सम्प्रदायों के रूप में स्वीकृत करते हुए इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं । ___ इन प्रमाणों के अतिरिक्त कुछ अन्य तथ्य भी है, जो इसको स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में ही स्थापित करते हैं। जैसे इस मत का अपना अलग उद्गम है, अपना अलग इतिहास है और अपना अलग साहित्य है। जैसे प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त के अवतारक हैं सोमानन्द, त्रिक के अवतारक हैं वसुगुप्त और कुल के अवतारक हैं मच्छन्द, उसी प्रकार क्रम के अवतारक हैं शिवानन्द। स्पन्द मत की तरह इस सम्प्रदाय का उद्गमस्थल काश्मीर ही है, अन्य सम्प्रदायों की भाँति यह यहाँ बाहर किसी प्रान्त से आयातित नहीं है। साथ ही इस सम्प्रदाय का अपना बृहत् साहित्य है, जिसका विवरण हम आगे प्रस्तुत करेंगे। काश्मीर से सम्बद्ध विविध सम्प्रदायों में से केवल क्रम ही काश्मीर की भूमि पर उत्पन्न व विकसित सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को ‘औत्तर क्रम’ की संज्ञा देना इसी तथ्य को पुष्ट करता है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस सम्प्रदाय के प्रथम अवतारक शिवानन्दनाथ ने उत्तर पीठ, अर्थात काश्मीर, में ही इस सम्प्रदाय की शिक्षा ग्रहण की। जयरथ भी यही बताते हैं कि काश्मीर में ही शिवानन्द को क्रम सम्प्रदाय का ज्ञान प्राप्त १. श्रीकण्ठचरित, श्रीकण्ठचरितवृत्ति के साथ प्रकाशित, ५.४० २. श्रीकण्ठचरितवृत्ति, जोनराज, श्रीकण्ठचरित के साथ प्रकाशित, काव्यमाला सीरीज, पृ. ६६ ३. अतिमार्गक्रमकुलत्रिकस्रोतोऽन्तरादिषु। (मा. वि. वा. १.१६२) ४. अथ यथोचितमन्त्रकदम्बकं त्रिककुलक्रमयोगि निरूप्यते। (तं. ३०.१) अथ स्वसंवित्सत्तर्कपतिशास्त्रत्रिकक्रमात्। वहीं, १.१०६ ५. “एता…एव द्वादशापि संविदः..क्रमदर्शनादौ अन्वर्थेनाप्यभिधानेन दर्शिताः” (तं. वि.,भा.२, पृ. ५८७)

  • “तदत्र क्रमनयसमानकक्ष्यत्वविवक्षायाम् …..” (वहीं, भा. ३, पृ. ८०५) “इह क्रमदर्शने …..” (वहीं, भा. ३, पृ. ५०६) । “न केवलमेताः क्रमदर्शनादावेवोक्ता यावदस्मन्त्रयसहोदरेषु शास्त्रेष्वपि" (वहीं, भा. २, पृ. ५८७)। ६. क्रमे सर्वज्ञपर्यन्तं प्रत्यक्षा कापि या स्थिता। (म. प्र. (त्रि.), ७.१३०) कुलकौलादिकाम्नायशाक्तत्रिकमतादिषु …व्यापको हि महानयः। (वहीं, १.३०-३१) ७. अनेन श्रीमहार्थत्रिकदर्शनयोरन्योन्यं नात्यन्तं भेदप्रथेति व्याख्यातम् । (म. मं. प., पृ. ६६)कौल और क्रम मत ३३५ हुआ’। महेश्वरानन्द ऋजुविमर्शिनी से एक उद्धरण उद्धृत करते हुए अन्त में इस सम्प्रदाय को काश्मीर में ही उद्भूत बताते हैं । पर काश्मीर में उद्भूत होकर भी यह सम्प्रदाय काश्मीर में ही सीमित नहीं रहा, वरन् चोल देश (आधुनिक कर्नाटक) तक फैल गया। क्रम सम्प्रदाय को विविध पीठों- ओड्डियान ३, पूर्ण पीठ आदि से जोड़ना भी काश्मीर से बाहर भी इसके प्रसार को इंगित करता है। यदि इन पीठों की भौगोलिक स्थिति का आज हमें सही-सही ज्ञान हो जाय, तो निस्सन्देह इसके प्रसार की विस्तृत परिधि का हम सही-सही अनुमान कर सकेंगे।
  • वस्तुतः क्रम सम्प्रदाय के उद्विकास के विविध स्तरों के ज्ञापक तथ्य विविध आध्यात्मिक, साधनापरक विवेचनों में अन्तर्निहित हैं। वृन्दचक्र के अन्त में गुरुसन्तति की पूजा की क्रमदृष्टि’ इस सम्प्रदाय के ऐतिहासिक इतिवृत्त के सन्दर्भ में कई महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत करती है। इसी तरह सामान्य तान्त्रिक विश्वास के द्वारा भी कि पुस्तक के प्रारम्भ में लेखक अपने गुरुओं का स्मरण करे, स्पष्ट ऐतिहासिक दृष्टि विकसित करने में सहायता मिलती है। पर इसके बावजूद कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। क्रम-धारा में सर्वप्रथम तीन ओघों का वर्गीकरण मिलता है। ये ओघ हैं- दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ । इनमें द्वितीय व तृतीय का ऐतिहासिक सन्दर्भ में विशेष महत्त्व है। ये तीन ओघ एक ओर तो क्रम-सम्प्रदाय के उद्विकास के तीन चरणों के प्रतिनिधि हैं, वहीं तीन प्रकार के सृष्टिक्रमों को भी प्रस्तुत करते हैं । पर इन तीन ओघों की परम्परा का स्पष्ट विवेचन कहीं नहीं मिलता। क्रमकेलि को आधार बनाकर महेश्वरानन्द का कहना है कि सम्पूर्ण गीता में कृष्ण अर्जुन को क्रम-दर्शन का ही उपदेश देते हैं । उनके अनुसार गीता के चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में क्रम सम्प्रदाय के ही इतिहास का विवेचन है १० । अर्जुन को क्रम-रहस्यों की शिक्षा देते समय कृष्ण कालसंकर्षिणी की परम अवस्था में ही प्रवेश करते हैं । इस प्रकार महेश्वरानन्द गीता को क्रम-सम्प्रदाय के सन्दर्भ में १. उत्तरपीठलब्धोपदेशात् श्रीशिवानन्दनाथात् …..। (तं. वि., भा. ३, पृ. ८०८) २. ….सम्प्रदायस्य काश्मीरोद्भूतत्वात् …..। (म. मं. प., पृ. १६३) ३. महानयप्रकाश (शि.), पृ. ५०, ६०; म. म. प., पृ. ८६, ६६, १०२ चिद्गगनचन्द्रिका, ४.१२८ अतो वृन्दक्रमस्यान्ते पूज्यते गुरुसन्ततिः। (म. प्र. (त्रि.), ८.३; म. मं. ३६ भी द्रष्टव्य।) ६. क्रमेण तच्च नाथानां परिपाट्या भुवः स्थलम्। दिव्यसिद्धमनुष्यौघप्रविभागादवातरत् ।। (म. मं. प., पृ. १६७) - ७. अत्र ओघसंघट्टशब्दाभ्यां सृष्टिस्थित्योः …। (भावोपहारविवरण, रम्यदेवकृत भावोपहार के साथ प्रकाशित, काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, १६१८, पृ. ८) एतद् वितत्य विख्यातैः क्रमकेलौ कुलागमे। नाथाभिनवगुप्तायैः पर्यालोचितमादरात् ।। (म. मं. प., पृ. १६०) ६. म. म., श्लो. ७० १०. म. मं. प., पृ. १८७ ११. वहीं, पृ. १८८ ३३६ तन्त्रागम-खण्ड प्रस्तुत करने की पर्याप्त चेष्टा करते हैं। वह क्रम की एक अन्य परम्परा का भी उल्लेख करते हैं, जिसमें तीनों ओघों के विकास को दर्शाया गया है। इस सम्प्रदाय का प्रथम प्रकाशन भैरव से भैरवी को, जो कि इच्छा शक्ति रूपा है, प्राप्त हुआ। कालान्तर में उनके द्वारा यह ज्ञान शिवानन्द को उपदिष्ट होकर, उनसे अन्य बहुत से आचार्यों को प्राप्त होकर, अन्ततः महेश्वरानन्द को प्राप्त हुआ। पर महेश्वरानन्द भी स्पष्टतः इस विवेचन को ओघों से सम्बद्ध करके नहीं दिखलाते। अन्य स्थलों पर अपनी गुरुपंक्ति के विवेचन में भी वह इस सन्दर्भ में ज्यादा कुछ नहीं कहते, बस इच्छाशक्ति के स्थान पर मंगला देवी का उल्लेख करते हैं । केवल एक स्थान पर अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख करते हुए वह एक क्रम का उल्लेख करते हैं, जिसमें शिवानन्द, फिर महाप्रकाश और तब महेश्वरानन्द की गणना है । यह शिवानन्द उन शिवानन्द से भिन्न हैं, जो इस सम्प्रदाय के प्रथम अवतारक कहे गये हैं। उनके विवरण में भैरव-भैरवी को दिव्यौघ में तथा शिवानन्द आदि को मानवौघ में रखने पर भी सिद्धौघ का विवेचन अवशिष्ट रह जाता है कि उसमें किसका ग्रहण किया जाय। यदि अन्य ग्रन्थों में प्रस्तुत सिद्ध-परम्परा को आधार बनावें तो अभिनवगुप्त द्वारा प्रस्तुत विवरण विशेष द्रष्टव्य है। अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में जिस सिद्धसन्तति का उल्लेख करते हैं, वह खगेन्द्रनाथ से प्रारम्भ होकर मीननाथ तक जाती है। इस सिद्धसन्तति की उपासना का विधान महेश्वरानन्द के अनुसार स्थितिक्रम में है ६ । यह चार युगनाथों की परम्परा महेश्वरानन्द के गुरु शिवानन्द (द्वितीय) कृत महानयप्रकाश में भी स्वीकृत है । पर इस सम्प्रदाय के अन्य विद्वान् जैसे अभिनवगुप्त, शितिकण्ठ आदि इस मान्यता का समर्थन नहीं करते। अभिनवगुप्त तो क्रमदृष्टि में सिद्धसन्तति की ऐसी किसी संभावना से इनकार करते हुए इसे पूर्णतया कुलदृष्टि से जोड़ते हैं । शितिकण्ठ की भी यही दृष्टि है। उनके अनुसार यह दृष्टि इस परम्परा में बाहर से आरोपित है। वस्तुतः तो स्थितिक्रम में वृन्दचक्र में अभिगणित चार सिद्धसमूह-ज्ञान, मन्त्र, मेलाप व शाक्त ही पूज्य है। इस प्रकार इस सिद्धक्रम में अध्यात्मवादी दृष्टि ही प्रधान है, अतः उसका ऐतिहासिक महत्त्व गौण हो जाता १. वहीं, पृ. 1 २. वहीं, पृ. १६७ ३. वहीं, पृ.,. ६८-६६ ४. म.मं. प., पृ. १३४ युगक्रमेण कूर्माद्य, मीनान्ता सिद्धसन्ततिः। (तं. ४.२६७) जयरथ इस पर अपनी टीका में कहते हैं “आद्यशब्दस्तन्त्रेण व्याख्येयः, तेन कूर्मस्य त्रेतायुगावतारकस्य श्रीकूर्मनाथस्याद्यः कृतयुगावतारकः श्रीखगेन्द्रनाथः, स आद्यो यस्याः सा"। (तं. वि., भा. ३, पृ. ६१३) ६. शक्तयश्च ताः शिरश्चक्रे युगनाथाश्चत्वारः ….। (म. मं. प., पृ. १०२) महानयप्रकाश (त्रि.) ८.१४-१७) ८. तं. ४.२७०-२७१; तं. वि., भा. ७, पृ. ३२६२-३२६३ ६. म. प्र. (शि.), पृ. ११५-११६; वहीं, पृ. ११६ कौल और क्रम मत ३३७ है। लेकिन शितिकण्ठ महेश्वरानन्द की इस मान्यता को स्वीकार करते हैं कि मंगला देवी इस सम्प्रदाय की प्रथम गुरु हैं ‘। यह मंगलादेवी या मकारदेवी उस आद्य शक्ति का ही रूप है, जो कि दिव्यौघ में सक्रिय होती हैं। अ MS काला नाशि शितिकण्ठ पाँच ओघों का उल्लेख करते हैं३ –परौघ, दिव्यौघ, महौघ, सिद्धौघ और मानवौघ । लेकिन इनमें से प्रथम तीन को एकमात्र दिव्यौघ में ही गृहीत किया जा सकता है। इस तरह तीन ओघों का प्राचीन विभाजन ही मान्य स्वीकृत होता है। 2 सिद्धौघ मकारदेवी से प्रारम्भ होता है । इसके अतिरिक्त कुछ अन्य उल्लेखों में कुछ नाम मिलते हैं, जिन्हें इस परम्परा में रखा जा सकता है। जैसे शितिकण्ठ के महानयप्रकाश में ज्ञाननेत्रनाथ का उल्लेख आता है, जिन्होंने सीधे मकारदेवी या मंगलादेवी से इस सम्प्रदाय की शिक्षा ग्रहण की। वहीं एक जगह पर श्रीनाथ का उल्लेख भी मिलता है । इसी तरह महानयप्रकाश (त्रि.) में शिवानन्द भी एक जगह अन्तर्नेत्रनाथ का उल्लेख करते हैं। अन्तर्नेत्रनाथ व ज्ञाननेत्रनाथ शब्द पर्याय हो सकते हैं व एक ही व्यक्ति को इंगित करा सकते र मानवौघ ह्रस्वनाथ से प्रारम्भ होकर चक्रनाथ तक जाता है । इस मानवौघ का एक अन्य उपवर्ग भी मिलता है, जिसे शिष्यौघ कहा गया है। यह चक्रभानु से प्रारम्भ होकर शितिकण्ठ के साथ समाप्त होता है । इस मानवौघ का क्रम-सम्प्रदाय के विकास में विशेष योगदान है और उन्हीं के विवेचनों के आधार पर इस धारा के स्वरूप को आज समझा जाता है। ही कामास _ वास्तव में इस सम्प्रदाय के व्यवस्थित इतिहास को जानने का प्रमुख साधन जयरथ द्वारा तन्त्रालोकविवेक में प्रस्तुत विवेचन है। जयरथ यह विवेचन क्रमकेलि के आधार पर प्रस्तुत करते हैं. १० । क्रमकेलि ग्रन्थ इस सम्प्रदाय का प्रथम अवतारक शिवानन्द को ही मानता है और उत्तरपीठ में ही उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, यही स्वीकारता है। शिवानन्द ने इस ज्ञान को अपनी तीन शिष्याओं–केयूरवती, मदनिका और कल्याणिका को दिया और इन तीनों ने गोविन्दराज, भानुक और एरक को यह ज्ञान प्रदान किया। १. श्रीमकारदेवी आदिगुरुरूपा जीयात्। (वहीं, पृ. ५) २. तथापि सुप्रबुद्धश्रीमङ्गलारूपेण आदिदेवतैव विवृता (वहीं, पृ.५)। ३. वहीं, पृ. १४४ ४. वहीं, पृ. १०४ ५. वहीं, पृ. ४६ हजार नाकको जिम्मा ६. म.प्र. (शि.), पृ. ७३ श्री। ७. म.प्र. (त्रि.), २.३६-३७ या कामासान को जानना ८. म.प्र. (शि.), पृ. १०७ ६. वहीं, पृ. १४०; वहीं, पृ. १०७ -mass १०. तं. वि.,भा. ३, पृ. ८०७-८१६ ३३८ ततन्त्रागम-खण्ड 12 इनमें से गोविन्दराज और भानुक क्रम-सम्प्रदाय की दो भिन्न-भिन्न धाराओं के प्रवर्तक हैं। सोमानन्द गोविन्दराज की धारा से सम्बद्ध हैं। उन्होंने गोविन्दराज से क्रम की शिक्षा ग्रहण की और भानुक दूसरी धारा से सम्बद्ध हैं, जिसकी शिष्य-परम्परा में उज्जट और उद्भट आते हैं। उस दूसरी धारा से ही जयरथ का भी सम्बन्ध है। तीसरे एरक अपना कोई कुल नहीं बना, वरन् अकेले ही क्रम की शिक्षा का प्रतिपादन करते हैं। जयरथ के ही विवेचन के आधार पर इस सम्प्रदाय के प्रथम अवतारक शिवानन्दनाथ के तीन पूर्ववर्ती आचार्यों की परम्परा का भी उल्लेख मिलता है। देवी-पंचशतिक के आधार पर प्रस्तुत इस विवेचन में इस गुरुक्रम का अपनी दूतियों के साथ निरूपण इस प्रकार है - पार निष्क्रियानन्द - ज्ञानदीप्ति निनावकीचा विद्यानन्द - रक्ता मामय कि पापशाई शक्त्यानन्द - महानन्दा नगा राशन का शिवानन्द -समया १ESSIEpisa Maria EMT यहाँ अभिगणित शिवानन्द इस सम्प्रदाय के अवतारक रूप से कथित शिवानन्द से यदि एकरूप मान लिये जाँय, तो इस सम्प्रदाय की शिवानन्द के पूर्व भी स्थिति में कोई सन्देह नहीं रह जाता। इस सन्दर्भ में एक तो प्रमाण यह देवीपञ्चशतिक स्वयं है, साथ ही वातूलनाथसूत्र के टीकाकार अनन्तशक्तिपाद तथा विज्ञानभैरव-उद्योत के रचयिता शिवोपाध्याय के द्वारा निष्क्रियानन्द के नाम से एक मत का प्रस्तुत किया जाना भी इस सन्दर्भ में प्रमाण है। वातूलनाथसूत्रटीका में गन्धमादन नामक एक सिद्ध का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने निष्क्रियानन्दनाथ पर अनुग्रह कर शास्त्र प्रदान किया । इस प्रकार यह क्रम सम्प्रदाय काश्मीर में विकसित शिवाद्वयवादी सम्प्रदायों में सबसे प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि जहाँ अन्य सभी सम्प्रदाय काश्मीर में ६ वीं शताब्दी के आसपास ही विकसित दृष्ट होते हैं, इसके प्रारम्भ व स्थिति के प्रमाण उससे बहुत पहले से प्राप्त होते हैं। वीं शताब्दी के कवि रत्नाकर अपने ग्रन्थ हरविजय महाकाव्य में परमसत् को संकर्षिणी की संज्ञा से पुकारते हैं, जो कि क्रम सम्प्रदाय का विशिष्ट प्रत्यय है। यह तथ्य यही बताता है कि उस समय क्रम सम्प्रदाय पर्याप्त प्रचलन में था। जयरथ के विवेचन १. तं. वि., भा. ७, पृ. ३३२१L ESED विमान कायम २. वातूलनाथसूत्रवृत्ति (वा. सू. वृ.), अनन्तशक्तिपाद, वातूलनाथसूत्र के साथ प्रकाशित, काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, १६२३, पृ. ४. . ३. विज्ञानभैरवविवृति (वि. भै. वि.), विज्ञान भैरव के साथ प्रकाशित, पृ. ६७-६८ कि ४. वा. सू. वृ., पृ.४ ५. हरविजय महाकाव्य, रत्नाकर कृत, राजानक अलक कृत संस्कृत टीका सहित, दुर्गाप्रसाद द्वारा सम्पादित, काव्यमाला सीरीज, १८६०, ४७.५५ ६. “संकर्षिणी सप्तदशाक्षरा। यदुक्तं श्रीदेव्यायामले-त्रिदशैरपि सम्पूज्या विद्या सप्तदशाक्षरा। कालसंकर्षिणी नाम्ना …" (तं. वि., भा. ७, पृ. ३३३६) कौल और क्रम मत ३३६ के आधार पर शिवानन्द व सोमानन्द के मध्य दो आचार्यों की गणना है - केयूरवती और गोविन्दराज। यदि दो पीढ़ियों के मध्य २५ साल का समय रखें, तो शिवानन्द का समय ६ वीं शताब्दी का प्रथम पूर्वार्ध सिद्ध होता है। गन्धमादन का, जो कि शिवानन्द से ४ पीढ़ी प्राचीन माने जाते हैं, समय ८ वीं शती का प्रथम पूर्वार्ध या ७ वीं शती का अन्तिम उत्तरार्ध सिद्ध होता है। पर क्रम सम्प्रदाय उससे भी प्राचीन है, ऐसा निःसंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है। क्रम सम्प्रदाय के रचनात्मक काल में विविध आचार्यों की गिनती की जा सकती है, जैसे उत्पल, लक्ष्मणगुप्त, ह्रस्वनाथ, सिद्धनाथ, प्रद्युम्न भट्ट, उत्पल वैष्णव, भास्कर आदि। इसी क्रम में अभिनवगुप्त, क्षेमराज व रम्यदेव का भी योगदान विशेषतः उल्लेखनीय है। यह रचनात्मक प्रवाह देवभट्ट तक आकर रुकता है, पर कुछ मध्यान्तर के बाद पुनः शिवानन्द (द्वितीय), जयरथ व महेश्वरानन्द के रूप में प्रवाहित होता हुआ तेरहवीं शताब्दी में पहुँचता है, जहाँ इस परम्परा में कई आचार्य और संमिलित होते हैं। वे हैं चक्रभानु, हरस्वनाथ, भोजराज, सोमराज और श्रीवत्स। इनके अतिरिक्त भी कई अन्य आचार्यों का इस परम्परा को विकसित करने में योगदान रहा है, जिनका बस कहीं-कहीं उल्लेख भर मिलता है, पर उनके ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार यह समृद्ध परम्परा ६ वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी तक लगातार प्रवाहित रही है। यद्यपि १३ वीं शताब्दी में जयरथ व महेश्वरानन्द के बाद इस धारा में एक शून्यता नजर आती है, पर सन् १५७५-१६२५ में शितिकण्ठ तथा १७२५-१७७५ में शिवोपाध्याय के द्वारा यह धारा पुनः उबुद्ध होती है। उसी काल में वातूलनाथसूत्राणि के रचयिता अनन्तशक्तिपाद तथा छुम्मा-सम्प्रदाय के लेखकों को भी रखा जा सकता है। उसके बाद धीरे-धीरे यह परम्परा प्रचलन से बाहर होती गई या एक निश्चित वर्ग में ही सीमित हो गयी। ____वीं से १२ वीं शताब्दी के मध्य का समय सबसे ज्यादा सर्जनात्मक है। इस काल में न केवल नये ग्रन्थों की रचना हुई, वरन् इस सम्प्रदाय का अन्य सहवर्ती सम्प्रदायों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इस काल के आचार्यों का योगदान जहाँ इस सम्प्रदाय को समझने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वहीं गुरुसन्तति-परम्परा व वंश-परम्परा की भी इस काल में स्थिति पूर्णतया स्पष्ट है। इस काल में साधनापरक चिन्तन के स्थान पर विशुद्ध दार्शनिक दृष्टि का विकास हुआ। जयरथ के द्वारा अपने विरोधियों का गुरुक्रम या परम्परा का सही ज्ञान न रखने वालों के रूप में उल्लेख यही बताता है कि उस समय यह परम्परा काश्मीर में सजीव रूप में प्रचलन में थी। अब हम सर्वप्रथम विविध ग्रन्थों में उपलब्ध विविध संज्ञाओं का विश्लेषण करेंगे कि वे कैसे इसी सम्प्रदायविशेष की वाचक हैं। क्रमनय इस सम्प्रदाय की सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा है। यद्यपि अभिनवगुप्त अपने तन्त्रालोक में क्रम शब्द का प्रयोग करते हैं, पर वह इसे ३४० तन्त्रागम-खण्ड किसी सम्प्रदाय-विशेष की संज्ञा नहीं बताते। सर्वप्रथम जयरथ इसको “क्रमश्चतुष्टयार्थः” कह कर परिभाषित करते हैं, पर यह जयरथ की मौलिक दृष्टि नहीं है। उनसे पहले उत्पल वैष्णव भी इसी रूप में क्रम को उपस्थित करते हैं। क्षेमराज भी सृष्टि, स्थिति, संहार के संविच्चक्रों के क्रम को ही इस क्रम शब्द का वाच्य बताते हैं ३ । वह क्रमसूत्रों के क्रम-मुद्रा ब्दों की व्याख्या करते समय इस क्रम शब्द की व्याख्या सम्प्रदाय के सन्दर्भ में ही करते हैं। यह क्रम इसलिये है, क्योंकि यहाँ सृष्टि आदि एक क्रम में घटित होते हैं, साथ ही वह क्रम उन क्रमिक सृष्टि आदि आभासों की आत्मा भी है। इस प्रकार इस सम्प्रदाय में यह क्रम की धारणा केन्द्रीभत है, जिसमें सत के चक्रात्मक स्वरूप को प्रस्तत करना ही मुख्य लक्ष्य है । भेद केवल चतुष्टयार्थ व पंचार्थ रूप में है। इन्हीं दो दृष्टियों को लेकर यहाँ दो भिन्न-भिन्न सिद्धान्त विकसित हुए हैं। इसी को संवित्क्रम व महाक्रम कह कर भी प्रस्तुत किया गया है । क्रम को सामान्य काश्मीर शिवाद्वयवादी दृष्टि के प्रभाव में कालक्रम कह कर भी बतलाया गया है, पर यह कालाख्य क्रम क्रम सम्प्रदाय के स्वरूप का वाचक नहीं है। इसके अतिरिक्त यहाँ अनुत्तर क्रम, अनुपाय क्रम, देवता क्रम, ११ महार्थ क्रम,२ औत्तर क्रम १३ आदि रूप से भी इस क्रम शब्द का प्रयोग मिलता है। इन प्रयोगों में इस सम्प्रदाय के एक पक्षविशेष या सिद्धान्तविशेष पर बल दिया गया है। औत्तर क्रम संज्ञा इसके उत्तर पीठ से सम्बन्ध को लक्षित करती है। इसी सन्दर्भ में इसे उत्तराम्नाय से भी जोड़ा जाता है ५ । सका १. तं. वि., भा. २, पृ. १५० २. “एष एवातिरहस्यक्रमार्थविदामुद्योगावभासचर्वणविलापनरूपः क्रमचतुष्कक्रमोऽत्रैव युक्त्यैवोक्तः” स्पन्दप्रदीपिका, भट्ट उत्पल, वामनशास्त्री इस्लामपुरकर द्वारा सम्पादित, १८६८, पृ. ४८, महेश्वरानन्द के गुरु शिवानन्द भी ठीक ऐसी ही परिभाषा देते हैं- “सर्गावतारसंहाराः क्रमात्मानो व्यवस्थिताः। अनाख्यमक्रममपि क्रमात्मैव तदाश्रयात् ।।" (म. प्र. (त्रि.), ६.१८) ३. प्र. ह., पृ. ६२ ४. वहीं, पृ. ६४ायका बताए ५. म.प्र. (शि.), पृ.४३ जना EFF मना कि एनिमें ६. वहीं, पृ.४५ ७. वहीं, पृ.३६ ८. म. म. प., पृ. ५० - - मार-निजामता विक गाजा शाह ६. वहीं, पृ.१७२ ए क कागावाचाल तामांगा १०. (म. प्र. (त्रि.), १.१३ ११. चिद्गगनचन्द्रिका (चि. ग. च.), त्रिविक्रम तीर्थ द्वारा सम्पादित, तान्त्रिक टेक्सट्स, कलकत्ता १६३६. १२. म. प्र. (शि.), पृ. ५६; म. मं. प., पृ. १७६ १३. वहीं, पृ. १६० १४. आम्नाय-विभाजन विशेषतः कुल-सम्प्रदायगत वर्गीकरण है। पर कुल-दृष्टि से जिस आम्नाय के अन्तर्गत क्रमधारा में विकसित कुल-मत को रखा गया है, उसे उत्तराम्नाय संज्ञा दी गयी है। इसी कारण कुछ आचार्य इस क्रमधारा को उत्तराम्नाय से जोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। १५. म. प्र. (शि.), पृ.१५ मा बजानिमारमा ग ई कौल और क्रम मत ३४१ या क्रम सम्प्रदाय की एक अन्य सुप्रचलित एवं सार्थक संज्ञा महार्थ या महार्थनय है। इस महार्थ शब्द का प्रयोग सबसे पहले क्षेमराज करते हैं । उत्तरवर्ती विकास में इस संज्ञा का ही प्रयोग बहुतायत से मिलता है। इस शब्द के द्वारा एक ओर तो यह सम्प्रदाय वाच्य है तथा दूसरी ओर यह उस अन्तिम लक्ष्य की ओर संकेत करता है, जो कि इस सम्प्रदाय का प्राप्तव्य है। यह उस महार्थ को भी सूचित करता है, जो सारे वाचकों का वाच्य है। महानयप्रकाशकार शितिकण्ठ अपने ग्रन्थ के पहले व तीसरे अध्याय में महार्थ के अभिप्राय की ही विविध संभावनाओं का विवेचन करते हैं। तदनुसार महार्थ है चिदद्वयदशा का आवेश तथा अखण्ड चिद्रूपता की स्थिति । गावी किंवा शिरोधित 7 महानय व महासार संज्ञाएं भी उत्तरकाल में क्रम ग्रन्थों में उपलब्ध होती हैं। दो ग्रन्थ महानयप्रकाश नाम से उपलब्ध होते हैं, इनमें से प्रथम शिवानन्द (द्वितीय) के द्वारा तथा द्वितीय शितिकण्ठ के द्वारा रचित मिलता है। इसके अतिरिक्त जयरथ व अनन्तशक्तिपाद भी इस संज्ञा का उल्लेख करते हैं। इसका वही अभिप्राय है, जो महार्थ का है। महासार संज्ञा का प्रयोग भी एक जगह क्षेमराज इसी अर्थ में करते हैं । PR क्रम सम्प्रदाय की एक अन्य संज्ञा अतिनय नाम से मिलती है । इसका प्रयोग जयरथ करते हैं। शितिकण्ठ भी इस स्थिति का पोषण करते हैं । यह अतिनय अन्यत्र उपलब्ध अतिमार्ग शब्द से वाच्य सम्प्रदाय से भिन्न है। जयरथ ही एक अन्य संज्ञा देवीनय का भी क्रम सम्प्रदाय के सन्दर्भ में उल्लेख करते हैं । इसी को महानयप्रकाशकार देवतानय भी कहते हैं । इस संज्ञा में उस अन्तिम तत्त्व का संकेत है, जिससे यह सारा सृष्टि आदि का क्रम उद्भूत होता है व जिसमें विश्रान्ति लाभ करता है। इसी प्रकार इस नय को कालीनय की संज्ञा से भी अभिहित किया गया है, जो संभवतः इस संप्रदाय के परमसत् को ही केन्द्र में रख कर प्रस्तुत संज्ञा है। १. स्प. नि., पृ. ६; प्र. हृ., पृ. ६४; शिवस्तोत्रावलीवृत्ति (शि. स्तो. वृ.) (क्षेमराज, शिवस्तोत्रावली के साथ प्रकाशित, राजानक लक्ष्मण द्वारा अनूदित व सम्पादित, चौखम्भा, वाराणसी, सन् १६६४, पृ. ३४६ २. म. प्र. (शि.), पृ. ३६-३७ ३. “प्रकृतमहानयशिष्याः प्रथितास्त्रयः सवंशास्तु" (तं. वि., भा. ३, पृ. ८११) ४. “इत्थं महानयोक्तदिशा” (वा. सू. वृ., पृ. ५)। ५. “श्रीमन्महासारोक्तिमयेऽमुत्र स्तोत्रे" (शि. स्तो. वृ., पृ. ३०२)- 10 “संततयोऽतिनयस्य प्रथिता इह षोडशैवेत्थम्” (तं. वि., भा. ३, पृ. ८११) “अस्मिंश्चातिनयसारसर्वस्वे क्रमार्थे " (म. प्र. (शि.), पृ. १२६) ८. “…देवीनये कृताः शिष्याः” (तं. वि.,भा. ३, पृ. ८१२) ६. “सा देवी कथ्यते तस्या नयोऽसौ देवतानयः" (म. प्र. (त्रि.) ३.१०६)ी विवाही १०. “अभिनवगुप्तस्य गुरोर्यस्य हि कालीनये गुरुता” (तं. वि.,भा. ३, पृ. १०६) ३४२ तन्त्रागम-खण्ड अब क्रम सम्प्रदाय के साहित्य व मुख्य लेखकों का कुछ विवरण अपेक्षित है। प्राप्त विवरणों में सबसे प्राचीन स्थिति पर आते हैं वातूलनाथ (६७५-७२५ ई.)। वह यद्यपि सिद्ध कहे गये हैं, पर यह निश्चित करना कठिन है कि उनको सिद्धौघ में रखा जाय या मानवौघ में। वह क्रम के साहस सम्प्रदाय के प्रथम प्रवक्ता हैं और पूज्य, पूजक व पूजन के भेद का परिहार कर इनमें अद्वैत दृष्टि का विकास करने पर ही विशेष बल देते हैं । उसके बाद गन्धमादन (७००-७५० ई.) की स्थिति आती है, जिनका उल्लेख मात्र एक उद्धरण के द्वारा मिलता है, जिसके अनुसार उन्होंने निष्क्रियानन्द पर विशेष अनुग्रह कर उन्हें एक विशेष पुस्तक प्रदान की। उसी की शिक्षाओं के आधार पर वातूलनाथसूत्र की रचना हुई। निष्क्रियानन्द (७२५-७७५ ई.) पंचशतिक में निरूपित आचार्यक्रम में प्रथम हैं। उनसे साहस सम्प्रदाय के दो ग्रन्थ जोड़े जाते हैं-छुम्मा-संप्रदाय और वातूलनाथसूत्राणि। शिवोपाध्याय के द्वारा प्रस्तुत विवेचन के अनुसार निष्क्रियानन्द की मुख्य मान्यतायें ये हैं - वह वामेश्वरी को प्रथम तत्त्व मानते हैं तथा वृन्दचक्र के ६४ पक्षों को स्वीकार करते हैं। उनके मत में ६५ वाँ पक्ष समग्र सत्ता का वाचक है, जिसकी संज्ञा रौद्रेश्वरी है। उनके बाद पंचशतिक के विवरण के आधार पर विद्यानन्दनाथ (७५०-६००ई.) तथा शक्त्यानन्दनाथ (७७५-८२५ ई.) का पत्नियों के साथ उल्लेख मिलता है, पर इनके विषय में अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। अब शिवानन्द (८००-८५० ई.) की स्थिति आती है, जो इस सम्प्रदाय के प्रथम व्यवस्थित अवतारक हैं। उन्होंने उत्तर पीठ से क्रम की शिक्षा प्राप्त की तथा कामरूप में जयाख्य देवियों से कुल की दीक्षा ली । उनके किसी ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता। केवल अनाख्या चक्र में पूज्य कालियों की संख्या के सन्दर्भ में ही उनके मत का उल्लेख उपलब्ध है । ये उन शिवानन्द से भिन्न हैं, जिन्हें महेश्वरानन्द की गुरु-परम्परा में अभिगणित किया गया है। महानयप्रकाशों में जिन अन्तर्नेत्रनाथ व ज्ञाननेत्रनाथ ८ की चर्चा आती है, वे संभवतः इन शिवानन्द के ही पर्याय हैं। इसी प्रकार क्षेमराज द्वारा उल्लिखित श्रीनाथ भी इन्हीं शिवानन्द की संज्ञा है। १. वा. सू. वृ., पृ. १ २. वहीं, पृ.४ ३. तं वि., भा. ७, पृ. ३३२१ । आज मनाला मायाजाला ४. वि. भै. वृ., पृ. ६७-६८ ५. तं. वि., भा. ३, पृ. ८०८, ८१७ जिति विशिमान विमानमा ६. वहीं, पृ. ८१३ ७. म. प्र. (त्रि.), २.३६-३७ म. प्र. (शि.), पृ.४६ ६. शिवसूत्रविमर्शिनी (शि. सू. वि.), क्षेमराज, शिवसूत्र पर टीका, काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, सन् १६११, पृ. ६२ - ३४३ कौल और क्रम मत किन अब वसुगुप्त (८००-८५० ई.) से प्रारम्भ होता है वर्तमान ग्रन्थों के रूप में इस सम्प्रदाय का रचनात्मक विकास। यद्यपि वसुगुप्त मुख्यतः त्रिक और स्पन्द मत के आचार्य के रूप में ही स्वीकृत हैं, पर उनके ग्रन्थों के सूक्ष्म विश्लेषण से उनका क्रम-सम्प्रदाय के विकास में भी स्पष्ट योगदान सिद्ध होता है। इनके ग्रन्थ शिवसूत्र पर क्षेमराज की विमर्शिनी टीका से इस ग्रन्थ का क्रम सन्दर्भ में क्या वैशिष्ट्य है, यह निर्धारित होता है। क्षेमराज शिवसूत्रों को तीन उपायों के अनुसार तीन भागों में बाँट कर द्वितीय भाग को शाक्तोपाय की चर्चा से सम्बद्ध कर इसकी व्याख्या में क्रम सिद्धान्तों को भी प्रस्तुत करते हैं, साथ ही यह भी निर्धारित करते हैं कि इन सूत्रों का इस विशिष्ट सन्दर्भ में क्या कथ्य है। शिवानन्द की तीन शिष्याओं-केयूरवती, मदनिका व कल्याणिका (८२५-८७५ ई.) का बस इतना उल्लेख ही मिलता है कि उन्होंने क्रम सम्प्रदाय की शिक्षा गोविन्दराज, भानुक और एरक को प्रदान की’ । केयूरवती का ककारदेवी के नाम से भी उल्लेख आता है और यह भी विवरण मिलता है कि उनके कुछ अन्य शिष्य भी थे, जिनका नाम आज अज्ञात है। इसके बाद आते हैं कल्लट (८२५-८७५ ई.), जो स्पन्दशास्त्र के विद्वान् होकर भी क्रम सिद्धान्तों को भी अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत करते हैं। पर इस मान्यता का आधार क्षेमराज व भट्ट उत्पल के द्वारा प्रस्तुत विवेचन ही है। गोविन्दराज, भानुक व एरक (८५०-६०० ई.) का भी आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, केवल एरक के द्वारा रचित दो स्तोत्रों को जयरथ अपने विवेक में उद्धृत करते हैं । इतना विवरण अवश्य मिलता है कि गोविन्दराज व भानुक से क्रम-सम्प्रदाय में दो धाराएं विकसित हुईं। गोविन्दराज ने सोमानन्द को क्रम की शिक्षा दी और भानक ने उज्जट व उदट जैसे आचार्यों की परम्परा को प्रारम्भ किया। इसी परम्परा में जयरथ भी आते हैं। कार की कल्लट के शिष्य प्रद्युम्न भट्ट (८५६-६०० ई.) कृत तत्त्वगर्भस्तोत्र को भी क्रमपरक रचना माना जाता है। इसका उल्लेख सोमानन्द से क्षेमराज तक सभी आचार्य अपने ग्रन्थों में करते हैं। तन्त्रालोकविवेक के एक विवरण के आधार पर सोमानन्द गोविन्दराज के सीधे शिष्य थे। गोविन्दराज ने उन्हें क्रम-सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया था। अभिनवगप्त ने देवीपञ्चशतिक का अध्ययन उत्पल व लक्ष्मणगुप्त की परम्परा से होकर इन सोमानन्द (८७५-६०० ई.) से ही प्राप्त किया था। इस प्रकार स्पष्टतः किसी कथन के न होने पर भी सोमानन्द का सम्बन्ध क्रम-परम्परा से जुड़ जाता है। इसी तरह भानुक की परम्परा में आये उज्जट (८७५-६२५ ई.) की भी क्रमधारा के आचार्यक्रम में ही गणना मिलती है, पर इनके विषय में और कोई विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है। उत्पल (६००-६५० ई.) कर आप से हमनकामना , १. तं. वि., भा. ३, पृ. ८०८, ८११-८१२ २. तं. वि., भा. ३, पृ. ८०६, पृ. ८१२ ३. वहीं, पृ.८०८ ४. वहीं, पृ.८१० ५. तं. वि., भा. ३, पृ. ८०८-८०६ ३४४ तन्त्रागम-खण्ड का त्रिक सम्प्रदाय से ही सीधा सम्बन्ध होने पर भी जयरथ द्वारा अभिनवगुप्त के क्रम-गुरुओं में उनका उल्लेख उन्हें भी इस क्रमधारा के आचार्यों में सम्मिलित कर देता जया उद्भट (६००-६५० ई.) भानुक की शिष्य-परम्परा में आते हैं। ये उज्जट के उत्तराधिकारी थे। यद्यपि उन्होंने क्रम-सम्प्रदाय के विकास में कोई स्पष्ट योगदान नहीं दिया, पर क्रम-धारा को जयरथ तक सुरक्षित बनाये रखने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। स्तोत्रकार सिद्धनाथ (६००-६५० ई.) का क्रमस्तोत्र वह पहली रचना है, जो स्पष्टतः क्रम से सम्बद्ध है और तन्त्रालोकविवेक में पूर्ण रूप में उपलब्ध भी है। यद्यपि ऐसा लगता है कि इसमें कुछ श्लोक और भी थे, जो आज अनुपलब्ध हैं। जयरथ के द्वारा प्रस्तुत विवरण’ से ऐसा प्रतीत होता है कि जयरथ के समय इस क्रमस्तोत्र की दो तरह की व्याख्याएं उपलबध थीं। एक के अनुसार कालियों की संख्या १२ थी तथा दूसरी के अनुसार यह संख्या १३ थी। अब भास्करकण्ठ (६२५-६७५ ई.) की स्थिति आती है, जो स्पन्द शाखा के ही आचार्य हैं, पर सिद्धनाथ के प्रत्यक्ष शिष्य होने से क्रम-परम्परा को आगे की शिष्य-परम्परा में प्रवाहित करने में उनकी कृतकार्यता है। लक्ष्मणगुप्त (६२५-६७५ ई.) त्रिक के साथ-साथ क्रम परम्परा में भी अभिनवगुप्त के गुरु हैं। उनके कृतित्व का यद्यपि स्पष्टतः कहीं उल्लेख नहीं मिलता, पर विवरणों से यह प्रतीत होता है कि उन्होंने कुछ क्रमपरक ग्रन्थों की रचनाएं की अवश्य थीं, जो आज उपलब्ध नहीं हैं। श्रीशास्त्र के नाम से उनके एक ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है, जो उपलब्ध सामग्री के आधार पर लक्ष्मणदेशिकेन्द्र-विरचित शारदातिलक तन्त्र से ही एकरूप है, अतः लक्ष्मणगुप्त व लक्ष्मणदेशिकेन्द्र एक ही व्यक्ति प्रतीत होते हैं। RANE उत्पल वैष्णव (६२५-६७५ ई.) कृत स्पन्दप्रदीपिका में क्रम सिद्धान्तों की झलक उन्हें भी इस सम्प्रदाय की परिधि में ला देती है। अभिनवगुप्त के गुरु भूतिराज प्रथम (६००-६५० ई.) का क्रम-सम्प्रदाय में विशेष महत्त्व है, पर दुःख की बात यह है कि आज उनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इन्होंने अभिनवगुप्त को क्रम की शिक्षा ही नहीं दी, वरन् ब्रह्मविद्या और शम्भुशास्त्र का भी अध्यापन किया। उनका क्रम में योगदान तो स्वयं अपना था। काली शब्द की व्युत्पत्ति व मन्त्र की स्थिति के सन्दर्भ में इनके मतों का उल्लेख मिलता है, जो यह बताता है कि उनकी कुछ क्रम सम्बन्धी रचनाएं अवश्य थी। भट्ट दामोदर (६५०-१००० ई.) का उल्लेख एक बार केवल क्षेमराज पंचवाह के प्रत्यय के सन्दर्भ में करते हैं ५ । इसके अतिरिक्त न उनका कोई उल्लेख मिलता है और न कोई ग्रन्थ । उसी १. “इत्यत्र विवरणकारान्तरसंमत एव पाठ इति” (तं. वि., भा. ३, पृ. ८१८)। २. तं. ३०.६२-६३; ई. प्र. वि. वि., भा. ३, पृ. ४०५ ३. तन्त्रसार (तं.सा.) अभिनवगुप्त, काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, सन् १६१८, पृ. ३० ४. म. म. प., पृ. १२७ ५. प्र. हृ., पृ. ७०कौल और क्रम मत उल्लेख के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने क्रम से सम्बद्ध कई स्वतन्त्र श्लोकों की रचना की थी। अभिनवगुप्त (६५०-१०२० ई.) की तो न केवल क्रम, वरन् पूरे काश्मीर शिवाद्वयवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने क्रम-सम्प्रदाय को चार तरह से उपकृत किया। प्रथम तो उन्होंने परम्परा को सुरक्षित बनाये रखा, दूसरे अपने से पूर्व के आचार्यों व उनके ग्रन्थों को आकर ग्रन्थ के रूप में अपने ग्रन्थों को प्रस्तुत किया, तीसरे कुछ महत्त्वपूर्ण क्रम-ग्रन्थों की व्याख्या की और चौथे वह मौलिक चिन्तक के रूप में उपस्थित हुए, जिन्होंने इस सम्प्रदाय को एक विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रदान की। पर आज उनके बहुत से ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, जिससे वस्तुस्थिति को यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर पाना मुश्किल है। उन्होंने सिद्धनाथ के क्रमस्तोत्र पर क्रमकेलि नामक टीका लिखी। अपने ही प्रकरणस्तोत्र पर उन्होंने विवरण नामक टीका लिखी। साथ ही तन्त्रालोक, क्रमस्तोत्र, प्रकरणस्तोत्र व तन्त्रसार क्रम-सम्प्रदाय पर उनके मौलिक योगदान हैं। उन्हीं के अपने विवरण के अनुसार जब उनकी रुचि साहित्य से शिवाद्वयवाद की ओर मुड़ी, तो दर्शन में क्रम उनकी प्रथम रुचि थी। क्रम में ही उनके अव्यवस्थित चित्त को शान्ति व सन्तोष की प्राप्ति हुई। उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त मालिनीविजयवार्त्तिक, पर्यन्तपञ्चाशिका और परात्रीशिकाविवरण में भी वे कुछ स्थलों पर क्रम सिद्धान्तों का उल्लेख व वर्णन करते हैं। क्रमस्तोत्र में वे मुख्यतः ४ स्थितियों का वर्णन करते हैं १. क्रम की जगदाभासन-प्रक्रिया की पृष्ठभूमि २. १२ कालियों के द्वारा जगत् की उत्पत्ति व लय की क्रमसम्बन्धी दृष्टि ।। ३. परम तत्त्व में क्रम का लय ४. ईश्वर का जीवों पर अनुग्रह यहाँ कालियों के क्रम की चर्चा पूजनक्रम के अनुसार न होकर संवित्क्रम के अनुसार की गई है तथा शिव को ही परम तत्त्व के रूप में स्वीकृत किया गया है । प्रकरणस्तोत्र, जिसका आज केवल तन्त्रसार में एक उल्लेख के आधार पर ही ज्ञान होता है, सम्भवतः काली शब्द की व्युत्पत्ति को ही आधार बना कर लिखा गया था। इस पर उनकी विवरण नामक टीका भी थी। तन्त्रालोक में आह्निक ४, १३, ३१ और ३२ विशेषतः क्रम-सम्प्रदाय को ही लक्ष्य कर लिखे गये आह्निक हैं। इनके अतिरिक्त १,३,६,१५ और ३० आह्निक भी क्रम के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं प्रस्तुत करते हैं। तन्त्रसार के भी, जो कि तन्त्रालोक का ही संक्षिप्त रूप है, ४ और १३ आनिक इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। क्रमकेलि इस १. क्रमस्तोत्र (क्र. स्तो.), डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय कृत ‘अभिनवगुप्त०,’ के परिशिष्ट में पृ६४८-६५० पर प्रकाशित, श्लो. २८ २. तं. सा., पृ. ३०-३१ ३४६ तन्त्रागम-खण्ड सन्दर्भ में उनकी महत्त्वपूर्ण रचना थी, पर आज यह केवल स्वयं अभिनवगुप्त’, क्षेमराज, जयरथ व महेश्वरानन्द के द्वारा प्रस्तुत उद्धरणों के रूप में ही उपलब्ध है। इन्हीं आचार्यों के विवेचनों से ऐसा प्रतीत होता है कि इस रचना ने कालियों की संख्या के सन्दर्भ में दो तरह की दृष्टियों के मतभेद को प्रोत्साहन दिया। जयरथ जहाँ इसको १२ कालियों के सिद्धान्त का ही प्रतिपादक मानते हैं, वहीं महेश्वरानन्द १३ कालियों के सिद्धान्त का। इसके अतिरिक्त उनके देहस्थदेवताचक्रस्तोत्र को भी कुछ विद्वान् क्रम-ग्रन्थ मानते हैं, पर इसमें विशेषतः क्रमसिद्धान्त का प्रतिपादन न होकर काश्मीर शिवाद्वयवाद की सामान्य प्रवृत्ति को ही दर्शाया गया है, अतः इसे क्रम का ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। माता साना क्षेमराज (६७५-११२५ ई.) योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे। वे अभिनवोत्तर काल के क्रम के प्रमुख प्रवक्ता थे। उन्हें इस सम्प्रदाय की गहरी जानकारी थी। अपने नेत्रतन्त्र-उद्योत में वे क्रम को एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं । उनके सभी ग्रन्थ स्वच्छन्दतन्त्र-उद्योत, प्रत्यभिज्ञाहृदय, शिवस्तोत्रावलीविवृति, शिवसूत्रविमर्शिनी, स्पन्दसन्दोह, स्पन्दनिर्णय आदि इस सम्प्रदाय की पूरी छाप लिये हुए हैं। केवल एक रचना स्तवचिन्तामणिवृत्ति में ही इन क्रम-तत्त्वों का अभाव है। उनका इस सम्प्रदाय से इतना लगाव था कि वे पूरे स्पन्द-दर्शन को क्रम के सन्दर्भ में ही व्याख्यात करते हैं । इसके अतिरिक्त उन्होंने किसी पूर्वकालिक आचार्य के क्रमसूत्रों के कुछ सूत्रों पर भी टीका लिखी, ऐसा विवरणों से ज्ञात होता है। वरदराज (१०००-१०५० ई.) ने वैसे तो क्रम पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा, पर उनका ग्रन्थ शिवसूत्रवार्त्तिक क्रम-सिद्धान्तों के ऐतिहासिक विकास को प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराता है। वह यहाँ क्षेमराज की दृष्टि को प्रस्तुत करने के साथ-साथ कहीं-कहीं अपनी मौलिक दृष्टि को भी प्रस्तुत कर जाते हैं। इसके बाद कालक्रम में देवभट्ट या देवपाणि (१०२५-१०७५ ई.) की स्थिति आती है, जिन्हें महेश्वरानन्द अपने गुरु के रूप में उल्लिखित करते हैं और उनके एक मत का विवरण देते हैं कि उनकी दृष्टि में वह क्रम पूजनीय है, जो सृष्टि चक्र से प्रारम्भ होकर भासाचक्र पर समाप्त होता है । इसी काल में हरस्वनाथ (१०२५-१०७५ ई.) की भी स्थिति आती हैं, जिससे क्रम-धारा के विकास में एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है। इनसे उस परम्परा का प्रारम्भ होता है, जिसमें चिद्गगनचन्द्रिका और महानयप्रकाश (शिति.) जैसे ग्रन्थों की रचना हुई। उनके कृतित्व के १. प. त्रिं. वि., पृ. ३७६ २. यथोक्तमस्मद्गुरुभिः क्रमकेलौ .." (शि. स्तो. वृ., पृ. १५६) ३. तं. वि., भा. ३, पृ. ७७८, पृ. ७६७ ४. म. म. प., पृ. १०४, १०६, १२७, १५६, १७८, १७६, १६०, १६२ ५. ने. तं. उ., भा. २, पृ. ११ पत्रीका वीजा ६. स्प. नि., पृ. ४६, ७४ ७. म. म. प., पृ. १०८ कौल और क्रम मत ३४७ विषय में आज कुछ विशेष ज्ञात नहीं है, पर उपलब्ध विवरणों से यही निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने क्रमस्तोत्र पर एक टीका लिखी थी, जो कि जयरथ के पास थी। संभवतः उनके पास क्रमस्तोत्र की जो प्रतिलिपि थी, वह अन्यत्र आचार्यों के द्वारा विवृत क्रमस्तोत्र के प्ररूप से थोडी भिन्न थी. क्योंकि उपलब्ध उल्लेखों में उनके क्रमस्तोत्र में रुद्रकाली से सम्बद्ध एक अतिरिक्त श्लोक’ प्राप्त होता है। किश 16 ह्रस्वनाथ के शिष्य चक्रभानु (१०५०-११०० ई.) क्रम धारा के महत्त्वपूर्ण आचार्य हैं। उनका उल्लेख कई जगह मिलता है, पर उनकी किसी रचना का कहीं कोई उद्धरण नहीं मिलता। इनके साथ मानवौघ की परम्परा समाप्त हो जाती है और शिष्यौघ की परम्परा प्रारम्भ होती है। चक्रभानु शिष्यौघ में अग्रणी हैं तथा केयूरवती की मूल धारा से जुड़े हैं। इनके मुख्य ८ शिष्यों में से एक ईशाना से जो धारा प्रवाहित हुई, वह शितिकण्ठ के समय तक चलती रही। शितिकण्ठ क्रम-आचार्य के रूप में उनकी बहुत प्रशंसा करते हैं। चक्रपाणि (१०५०-११००/१०७५-११२५ ई.) की रचना भावोपहार एक क्रमस्तोत्र ही है। रम्यदेव कृत इसकी व्याख्या से यह धारणा और पुष्ट हो जाती है। हरस्वनाथ के शिष्य भोजराज (१०५०-११०० ई.) के नाम से जयरथ एक रचना- क्रमकमल का उल्लेख करते हैं। ह्रस्वनाथ के ही शिष्य थे सोमराज, जिनके दो श्लोकों को जयरथ तन्त्रालोकविवेक में उद्धृत करते हैं। वे शिवानन्द की परम्परा में अन्तिम आचार्य थे, जिन्होंने चिद्गगनचन्द्रिका के लेखक को इस सम्प्रदाय के रहस्यों का ज्ञान प्रदान किया । जयरथ अपनी विवेक-टीका में ही परमेष्ठी गुरु की संज्ञा से जोड़कर एक क्रमपरक श्लोक प्रस्तुत करते हैं। उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत विवरण के आधार पर यह परमेष्ठी गुरु विश्वदत्त हैं। इसके अतिरिक्त उनके किसी कृतित्व का विवरण नहीं मिलता। रम्यदेव (११००-११५० ई.) का क्रम-सम्प्रदाय में साधनापरक विवेचनों की प्रस्तुति में विशेष महत्त्व है। यद्यपि भावोपहार पर उनकी विवरण-टीका ही इस सन्दर्भ में विशेष द्रष्टव्य है, पर उनकी कुछ और रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है। वे अपने ग्रन्थों में अपने पुत्र का भी उल्लेख करते हैं, जिसने एक क्रम-ग्रन्थ की रचना की। यह पुत्र संभवतः लोष्ठक या लोष्ठदेव ही है। पर दीनाक्रन्दनस्तोत्र नामक एक रचना को छोड़कर आज उनकी कोई कृति उपलब्ध नहीं है। नामा को सिद्धनाथ के क्रमस्तोत्र पर चिद्गगनचन्द्रिका नामक टीका की रचना करने वाले श्रीवत्स (११२५-११७५ ई.) का भी महत्त्व इस सम्प्रदाय के विकास में विशेष उल्लेखनीय है। महेश्वरानन्द के परमगुरु शिवानन्द द्वितीय (११२५-११७५ ई.) का अभिनवोत्तर काल के क्रम-आचार्यों में विशेष महत्त्व है। काश्मीर में जब यह सम्प्रदाय धीरे-धीरे प्रचलन से १. तं. वि., भा. ३, पृ. ८१८ २. “ततश्च मानवौघस्यान्ते शिष्यौघाग्रणीर्भानुपादः" (म. प्र. (शि.), पृ. १०७)। ३. तं. वि., भा. ३, पृ. ८१२-८१३ ४. चि. ग. चं., ४.१२५ ५. तं. वि., भा. २, पृ. ११ ३४८ तन्त्रागम-खण्ड बाहर हो रहा था, उस समय चोल देश (वर्तमान कर्नाटक) में इस सम्प्रदाय को महेश्वरानन्द ने विकसित किया। उनका योगदान इतना विशेष था कि क्रम सम्प्रदाय की दक्षिण परम्परा ही इस परम्परा में विकसित हो गई। इस परम्परा की विशेषता थी १३ कालियों का सिद्धान्त, क्रमपंचार्थ की धारणा पर विशेष बल, वृन्दचक्र के ६५ पक्षों की कल्पना तथा देह के विविध केन्द्रों में विविध आध्यात्मिक स्तरों की कल्पना। इसी क्षेमराजोत्तर क्रम-परम्परा के आचार्य होने से शिवानन्द का इस परम्परा के विकास में योगदान उल्लेखनीय है। महेश्वरानन्द इनके विविध ग्रन्थों का उल्लेख करते हैं, पर क्रम-सम्प्रदाय के सन्दर्भ में उनकी तीन रचनाओं को रखा जा सकता है-महानयप्रकाश, स्तोत्रभट्टारक और संवित्स्तोत्र। महेश्वरानन्द अपने गुरु महाप्रकाश (११५०-१२०० ई.) का भी उल्लेख करते हैं, जो सीधे शिवानन्द के शिष्य थे। उन्हीं की शिक्षा व प्रेरणा पर महेश्वरानन्द ने महार्थमंजरी की रचना की २ । उनको परम्परा का सीधा ज्ञान था। यद्यपि आज उनकी कोई रचना स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं है, केवल महेश्वरानन्द की परिमल-टीका में उपलब्ध उद्धरण ही उनके कृतित्व के परिचायक हैं। जामिका जपरथ (११५०-१२०० ई.) का नाम क्रम सम्प्रदाय के सन्दर्भ में वह प्रकाशस्तम्भ है, जो इस सम्प्रदाय के ऐतिहासिक इतिवृत्त के व्यवस्थित अनुशीलन के लिये पर्याप्त दिशानिर्देश करता है। तन्त्रालोक के प्रथम, चतुर्थ, त्रयोदश तथा एकोनत्रिंशति आह्निकों पर उनकी विवेक-टीका क्रम सम्प्रदाय के इतिहास की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करती है। वह विवेक के अन्तिम श्लोक में ३ स्वयं को अन्य सम्प्रदायों के साथ क्रम में भी निपुण बताते हैं तथा अन्यत्र गर्व के साथ केयूरवती के शिष्य भानुक की परम्परा से अपने जुड़े होने की घोषणा करते हैं । विवरणों से स्पष्ट है कि उनका गोविन्दराज की परम्परा से भी अच्छा परिचय था, साथ ही उन्हें क्रम की दक्षिण परम्परा का भी पर्याप्त ज्ञान था। मगाचा महेश्वरानन्द (११७५-१२२५ ई.) की महार्थमंजरी व इस पर उन्हीं की परिमल-टीका तो पूरे काश्मीर शिवाद्वयवाद के परिप्रेक्ष्य में क्रम-सम्प्रदाय के विविध रहस्यों को प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है। जयरथ की ही भाँति पूरे काश्मीर शिवाद्वयवाद के ऐतिहासिक सन्दर्भो के स्पष्टीकरण में उनका भी विशेष योगदान है। महार्थमंजरी की टीका में वह अपने कई ग्रन्थों से उद्धरण प्रस्तुत करते हैं। इन्हीं से हम उनके कृतित्व के विषय में विस्तार से जानते हैं। इन्हीं के आधार पर उनकी रचनाएँ—पादुकोदय, कोमलवल्ली या कोमलस्तव, परास्तुति, महार्थोदय और क्रम मुख्यतः क्रम-ग्रन्थ निर्धारित होती हैं, पर उनकी दृष्टि को विशेषतः प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ महार्थमंजरी ही है, जिसको कि उन्हें स्वप्न में एक योगिनी ने प्रदान १. म. म., पृ. १ २. म. म. प., पृ. १६७ ३. तं. वि., भा. ८, पृ. ३७२४-२५ ४. तं. वि., भा. ३, पृ. ८०-९०६ ५. वहीं, पृ. ८१४ कौल और क्रम मत ३४६ किया था । उस योगिनी ने प्राकृत भाषा में उपदेश दिया था, इसीलिये वह भी महार्थमंजरी को प्राकृत भाषा में ही लिखते हैं। यह तो क्रम का प्रस्थान ग्रन्थ ही है। महेश्वरानन्द के उत्तरवर्ती आचार्य उनसे बहुत प्रभावित दृष्ट होते हैं। शिवोपाध्याय कई बार उनको प्रमाण रूप से प्रस्तुत करते हैं। रामेश्वर परशुरामकल्पसूत्रवृत्ति में, कैवल्याश्रम आनन्दलहरी पर अपनी टीका सौभाग्यवर्धिनी में तथा राजानक लक्ष्मीराम अपनी लघुवृत्ति में महार्थमंजरी व परिमल से उद्धरण देते हैं। राज शितिकण्ठ (१४५०-१५०० ई.) का महानयप्रकाश काश्मीर में प्रसुप्त क्रम-धारा के लगभग ३०० वर्ष बाद पुनर्जागरण का संदेश लेकर आता है। यद्यपि यह परम्परा वहाँ बिल्कुल समाप्त नहीं हुई थी, जैसा कि शितिकण्ठ के द्वारा प्रस्तुत विवरण से स्पष्ट होता है कि उनको यह परम्परा काश्मीर में ही चक्रभानु की ईशाना नामक शिष्या से मिली थी। बस केवल उसका रचनात्मक पक्ष लुप्त हो गया था। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त भी उनकी रचनाओं का विवरण मिलता है, पर वे प्रकाशित नहीं हैं। महानयप्रकाश न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, वरन् महार्थ सिद्धान्त की विशिष्ट व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। यह काश्मीरी भाषा में लिखा हुआ ग्रन्थ है, पर इस पर उन्हीं लेखक की टीका संस्कृत में है। अनन्तशक्तिपाद (१७००-१७५० ई.) कृत वातूलनाथसूत्रवृत्ति क्रम के साहस-सम्प्रदाय के स्वरूप को प्रस्तुत करने वाली रचना है। इसी काल से सम्बद्ध भट्टारककृत प्राकृतत्रिशिंकाविवरण नामक एक ग्रन्थ का उल्लेख शिवोपाध्याय अपनी विज्ञानभैरवविवृति में करते हैं। इस ग्रन्थ का मुख्य विषय वृन्दचक्र के स्वरूप का वर्णन करना था ३ । इसके अतिरिक्त इसके विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। अब अन्त में आते हैं शिवोपाध्याय (१७२५-१७७५ ई.), जिनके साथ क्रम-सम्प्रदाय के पूरे विकास को विराम लग जाता है। वह मख्यतः तो क्रम के आचार्य नहीं हैं, पर अपनी विज्ञानभैरवविवति में जहाँ कहीं अवसर पाते हैं, क्रम-सिद्धान्तों को इतनी गंभीरता से विवेचित करते हैं कि इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध उनकी विद्वत्ता में कहीं सन्देह नहीं रह जाता। यदि को 1 क्रम सम्प्रदाय में इस विस्तृत साहित्य के अतिरिक्त कुछ आगम भी विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इन आगमों में कुछ तो सामान्य दृष्टि से त्रिक परम्परा का विवेचन करते हैं और इसी सन्दर्भ में क्रम तत्त्वों को भी प्रस्तुत करते जाते हैं और कुछ आगम ऐसे हैं जो मूलतः क्रमपरक है। प्रथम श्रेणी में आते हैं—मालिनीविजयोत्तर, सर्वज्ञानोत्तर, ब्रह्मयामल, तन्त्रराज, किरणागम आदि। द्वितीय श्रेणी में आते हैं क्रम आगम। इन आगमों में पार्वती द्वारा ही शिव को ज्ञान का उपदेश दिया गया है। इनमें आते हैं—पंचशतिक या देवीपंचशतिक, सार्धशतिक, क्रमसद्भाव, कालिकाक्रम तथा क्रमसिद्धि। पंचशतिक सबसे १. म. म. प. पृ. २। २. म. प्र. (शि.), पृ. १०७ ३. वि. भै. वि., पृ. ६६ ४. इस तन्त्र की एक संज्ञा जयद्रथयामलतन्त्र भी है। ३५० तन्त्रागम-खण्ड प्राचीन ज्ञात क्रम आगम है। इसमें सर्वप्रथम क्रम की गुरुपरम्परा का उल्लेख आता है। जयरथ के विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें १३ कालियों का सिद्धान्त प्रतिपादित था। सार्धशतिक पंचशतिक की दृष्टि का ही पूरी तरह अनुसरण करता है। यह भी एक महत्त्वपूर्ण आगम रहा होगा। क्रमरहस्य एक छोटा आगम प्रतीत होता है। इसको केवल एक बार अभिनवगप्त उद्धत करते हैं। यह पंचशतिक जितना प्राचीन नहीं लगता, पर अभिनवगुप्त से तो प्राचीन अवश्य था। इसका जिस सन्दर्भ में अभिनवगुप्त उल्लेख करते हैं, उससे ऐसा लगता है कि यह अनुष्ठान-प्रधान आगम रहा होगा। वह क्रमसद्भाव का उल्लेख अभिनवगुप्त, जयरथ, महेश्वरानन्द व शितिकण्ठ सभी करते हैं। यह क्रम संज्ञा से भी जाना जाता था । जयरथ इसे क्रमभट्टारक कह कर भी पुकारते हैं। विविध आचार्य इसके उद्धरणों को विविध सन्दर्भो में प्रमाण रूप से प्रस्तुत करते हैं। अनाख्याचक्र में पूज्य काली की संख्या के सन्दर्भ में’, षोडशार चक्र में पूज्य देवियों के विषय में, विविध कालियों के विवरणों से सम्बन्धित मत के सन्दर्भ में तथा वृन्दचक्र ५ के विषय में इस आगम का उल्लेख अक्सर किया गया है। पंचवाह के सिद्धान्त में सृष्टिक्रम से प्रारम्भ व भासाक्रम से अन्त होना, यह दृष्टि भी इसी आगम के नाम से प्रस्तुत की गयी है ६ । कालिकाक्रम दार्शनिक दष्टि से अत्यन्त महत्त्वपर्ण आगम है। इसी कारण क्षेमराज अपने ग्रन्थों में इसका बहुतायत से उल्लेख करते हैं। बाद के आचार्यों में यह देविकाक्रम के नाम से भी विख्यात है। क्रमसिद्धि बाद का क्रम आगम है, क्योंकि यह अभिनवगुप्त, क्षेमराज व जयरथ में से किसी के भी द्वारा उद्धृत नहीं है, केवल महेश्वरानन्द ही इसका उल्लेख करते हैं । इसका ज्यादा उल्लेख परवर्ती साहित्य में भी नहीं मिलता, इससे प्रतीत होता है कि संभवतः यह एक छोटा आगम था। इसके उद्धरणों से ऐसा लगता है कि इसमें शिव भी देवी को उपदेश देते हैं व देवी भी शिव को उपदेश देती हैं, अतः यह उस मध्यवर्ती धारा का प्रतिनिधि है, जिसमें उभयविध दृष्टि स्वीकृत है—शिव की भी प्रधानता है व शक्ति की भी। जिन दि इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी हैं, जो पूर्णतया क्रम-स्वभाव को दर्शाते हैं, पर आगम श्रेणी में नहीं आते। वे हैं तो मानव रचित ही, पर उनके लेखक का नाम, पता कुछ ज्ञात नहीं है, न ही वे ग्रन्थ आज विद्यमान हैं। मात्र कुछ उल्लेखों व उद्धरणों से उनकी थोड़ी बहुत जानकारी हमें मिलती है। इस श्रेणी में आते हैं—क्रमसूत्र, सिद्धसूत्र, किया कि शिविर १.तं. वि., भा. ३, पृ. ८०५ २. तं. २६.१४ तं. १२.२३-२४ ४. तं. वि., भा. ३, पृ. ७५२, ५०६ म. प्र. (शि.), पृ. ८६ ६. म. म. प., पृ. १०८ ७. वहीं, पृ. ८६, ६७, १०१, १०६ कौल और क्रम मत महानयपद्धति, क्रमोदय, अमावस्यात्रिंशिका और राजिका। क्रमसूत्र का उल्लेख सर्वप्रथम क्षेमराज अपने प्रत्यभिज्ञाहृदय में करते हैं। यह मूलतः क्षेत्रीय भाषा में रचित कृति है। क्षेमराज अपने उल्लेख में इसका संस्कृत अनुवाद ही प्रस्तुत करते हैं। सिद्धसूत्र का उल्लेख एक बार महानयप्रकाश (त्रि.) में आता है। पूजनक्रम में वृन्दचक्र के पूजन के बाद सृष्टि, स्थिति आदि चक्रों का पूजन करके ही अनाख्या चक्र का पूजन करणीय है। इससे पूजन-क्रम पूर्ण होता है, जिससे नाना सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इस दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए महानयप्रकाशकार सिद्धसूत्र को प्रमाण रूप से प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार महेश्वरानन्द एक अन्य रचना महानयपद्धति का क्रम-पूजा विधि के सन्दर्भ में उल्लेख करते हैं । क्रमोदय नामक एक रचना का भी उल्लेख महेश्वरानन्द करते हैं। साथ ही अमृतानन्द अपनी योगिनीहृदयदीपिका में तथा भास्कराचार्य अपनी सेतुबन्ध-टीका में भी इसका उल्लेख करते हैं। अमावस्यात्रिंशिका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसकी रचना संभवतः महेश्वरानन्द व शितिकण्ठ के काल के मध्यान्तर में हुई। इसका उल्लेख शितिकण्ठ करते हैं । यह संवाद की संज्ञा से भी उल्लिखित मिलता है। राजिका एक छोटी सी कृति लगती है, जिसका उल्लेख बस एक बार शितिकण्ठ करते हैं । भी इस प्रकार इस सम्प्रदाय के इस विस्तृत इतिहास व साहित्य के आकलन से इसकी स्वतन्त्र सत्ता में कोई सन्देह नहीं रह जाता है। साथ ही इस परम्परा के कुछ वैशिष्ट्य निर्धारित होते हैं। प्रथम तो यह सम्प्रदाय विशुद्ध तान्त्रिक प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत है। प्रारम्भिक रचनाओं में तो ऐसा लगता है कि यहाँ तत्त्वमीमांसात्मक चिन्तन ही प्रधान है, पर साधनापरक पक्षों के सन्दर्भ में तान्त्रिक तत्त्वों की बहुतायत से उपलब्धि होती है। इसी कारण कुछ आचार्य स्पष्टतः अपने ग्रन्थ को तन्त्र कहते हैं । अभिनवगुप्त भी तन्त्रप्रक्रिया के विवेचन में ही त्रिक व प्रत्यभिज्ञा के साथ इस सम्प्रदाय को भी रखते हैं। तन्त्रप्रक्रिया में इसका विशेष स्थान है। इस सम्प्रदाय के प्रारम्भिक विकास के चरण में तो ज्ञान व योग की प्रधानता है, पर उत्तर काल में चर्या व क्रिया का ही प्राधान्य हो गया है। कभी-कभी तो लेखक इन रहस्यात्मक चर्याओं व अनुष्ठानों के विवेचन में इतना एकात्म हो जाता है १. प्र.ह., पृ. ७६ एवं ६१) शाकिनार न किसी ने पति का २. म. प्र. (त्रि.), ८.२६, २८ शनि काममा लगाना मर जाता ३. म. मं. प., पृ. ११२ किलो ४. वहीं, पृ. ५०, ८७ कितनी मिशा की ५. यो. हृ. दी., पृ. २६६, २८३ । ६. (योगिनीहृदयसेतुबन्ध (यो. हृ. से.), भास्करराय, योगिनीहृदयदीपिका के साथ प्रकाशित, गोपीनाथ कविराज द्वारा सम्पादित, वाराणसी, सन् १६६३, पृ. २८६ ७. म. प्र. (शि.), पृ. ६, १३ ८. वहीं, पृ. ५५ ६. “महार्थमञ्जर्याह्वयं महत् तन्त्रम् …..” (म. मं. प., पृ. २) ३५२ क तन्त्रागम-खण्ड कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वह चर्यागत अनुष्ठान को ही इस सम्प्रदाय का मुख्य प्रतिपाद्य मानता है। मुद्रा, मन्त्र, पूजन, पीठ आदि कुछ ऐसी ही धारणाएं हैं, जिनको परवर्ती साहित्य में विशेष महत्त्व दिया गया है। काजमह किन अब क्रम-सम्प्रदाय के सर्वांगीण स्वरूप को समझने के लिये इसकी मूलभूत स्थापनाओं व साधना-पद्धति के विशिष्ट स्वरूप को समझना अनिवार्य है। यहाँ एक बात विशेषतः द्रष्टव्य है कि क्रम-दर्शन मूलतः शिवाद्वयवाद का अंग होते हुए भी अपनी निष्ठा में शक्तिपरक है और शिवाद्वयवाद में शाक्त प्रवृत्तियों के क्रमबद्ध उद्रेक का प्रतीक है। फलतः अन्य सहोदर सम्प्रदायों के विपरीत क्रम-सम्प्रदाय में आगे चलकर शिवपरक और शक्तिपरक निष्ठाओं के इर्द-गिर्द दो अवान्तर सम्प्रदायों का विकास होता है। इन्हें हम एक प्रकार से क्रम के उत्तरी और दक्षिणी या पारम्परिक और अर्वाचीन सम्प्रदाय कह सकते हैं। क्रम-सम्प्रदाय के समग्र आकलन के लिये इस विकास को दृष्टिगत रखना आवश्यक LO का काश्मीर शिवाद्वयवाद के प्रमुख प्रवक्ता अभिनवगुप्त क्रम-दर्शन की चर्चा प्रायः शाक्तोपाय के सन्दर्भ में करते हैं। यहाँ शाक्तोपाय संज्ञा के दो मुख्य अभिधेय हैं-प्रथम इस दर्शन की उपायरूपता, द्वितीय इसका शक्ति से आन्तरिक सम्बन्ध । इन दोनों का समन्वित रूप है—शक्तियों के आविष्करण के द्वारा शक्तिमान् का प्रत्यभिज्ञान। इस स्थिति को भेदाभेदमयी भी कहा जाता है। अभेद इसलिये है, क्योंकि स्वरूप-उपलब्धि में बाह्यता पूर्णतया तिरोहित हो जाती है और भेद इसलिये है कि यहाँ विकल्प की शुद्ध रूप में ही सही, पर स्थिति तो है ही। विकल्प की शुद्धता का अभिप्राय है कि यहाँ विविधता एकता की विरोधिनी न रह उसी की अभिव्यक्ति है। अतः यहाँ की अनुभूति है-यह सब मैं हूँ। महेश्वरानन्द इसी बात को भेद को अभेद की कोटि बतलाकर सिद्ध करते हैं । फलतः क्रम-दृष्टि में भेद व अभेद के भिन्न ध्रुवों का सामंजस्य अनिवार्य प्रतिपाद्य है। यहाँ भोग-मोक्ष के सामरस्य रूप में मक्ति की कल्पना भी इसी दष्टि का यौक्तिक पल्लवन है। वस्ततः जो सत् के स्तर पर भेदाभेद है, वही अनुभूति के स्तर पर भोग व मोक्ष का सामरस्य है। _क्रम-सम्प्रदाय का एक अन्य वैशिष्ट्य है क्रममुक्ति की भावना। यह इस सम्प्रदाय की संज्ञा से ही स्पष्ट है। इस वैशिष्ट्य को भी शाक्तोपाय के सन्दर्भ में व्यक्त किया गया है। शाक्तोपाय जहाँ ज्ञानात्मक या प्रमाणात्मक कहा गया है, वहीं शांभवोपाय प्रमातृपरक तथा आणवोपाय प्रमेयपरक कहा जाता है। अतः शाक्तोपाय इन दोनों के मध्य का सम्पर्क सूत्र है, अर्थात् विकल्प ज्ञान को निर्विकल्प बोध में उदात्तीकरण के माध्यम से पर्यवसित करने की प्रक्रिया ही इसका स्वरूप है। प्रत्यभिज्ञा और कुल जहाँ एक प्रकार से अक्रम या तत्क्षण १. “भेदाभेदौ हि शक्तिता" (तं. १.२२०)। २. म. मं. प., पृ. ४६ ३. वहीं, पृ. १३७ कौल और क्रम मत ३५३ मुक्ति के पक्षधर हैं, वहाँ बुद्धिनिर्माण या विकल्प के क्रमबद्ध संस्कार के कारण मुक्ति की प्रक्रिया यहाँ सोपानात्मक है। यह प्रक्रिया इस बात पर बल देती है कि आध्यात्मिक आरोहण का प्रत्येक चरण स्वयं आत्मचेतना का प्रतीक है और मुक्ति की संभावना का वाहक है। अतः जीवन्मुक्ति का प्रत्यय यहाँ वास्तविक रूप में घटित होता है, जबकि अन्यत्र यह संभावना बुद्धि से ही प्रतिपादित है। पर यह सम्प्रदाय इस उदात्तीकरण या क्रमिक संस्करण की प्रक्रिया की किसी एक विधा से अपने को प्रतिबद्ध नहीं करता। इसी कारण अभिनवगुप्त इसे “उपायमण्डल" के नाम से प्रस्तुत करते हैं। ईश्वर का अनुग्रह या साधक की सामर्थ्य इस विविधता में निमित्त बनते हैं। यह उपाय-वैविध्य क्रम-सम्प्रदाय का सबसे महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य है। इस उपाय-वैविध्य का एक ऐतिहासिक पक्ष भी है। क्रम की तान्त्रिकता की दो अवस्थाएँ हैं। अपने प्राचीन रूप में क्रम का सम्बन्ध तत्त्वचिन्तन और प्रातिभ प्रमेयों से है, पर उत्तर काल में कर्मकाण्डपरक तथा क्रियापरक दृष्टि प्रधान हो जाती है। उपाय वैविध्य के प्रत्यय का यही व्यावहारिक अभिधेय है, जो कि इस सम्प्रदाय के समग्र विकास के विश्लेषण से स्पष्ट होता है। लाम का अभिनवगुप्त तन्त्रालोक के प्रथम आह्निक के अन्त में शाक्तोपाय की साधनात्मक प्रक्रिया को ६ वर्गों में बाँटते हैं। वे ये हैं - विकल्पसंस्क्रिया, तर्कतत्त्व, गुरुतत्त्व, योगांगों की अनुपयोगिता, कल्पित अर्चादि का अनादर, संविच्चक्रोदय, मन्त्रवीर्य, जप्य, निषेधविधितुल्यता। कोही इनमें से विकल्पसंस्क्रिया व संविच्चक्रोदय के प्रत्यय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य धारणाएं-शक्त्याविष्करण व क्रमचतुष्टयार्थ (या पंचार्थ) भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है संविच्चक्रोदय, क्योंकि इसमें अन्य तीनों धारणाएं भी अन्तर्भूत हो जाती हैं। मन शक्त्याविष्करण शब्द का प्रयोग आचार्य उत्पल अपनी ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-कारिका में करते हैं ३ । क्षेमराज इसी को “शक्तिचक्रविकास" कह कर शाक्तोपाय की प्रक्रिया से जोड़ते हैं। चाहे संसार की स्थिति हो या संसारोत्तीर्णता की, प्रमाता की पंचकृत्यकारिता-सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान और अनुग्रह सामर्थ्य सदा बनी रहती है। यदि प्रमाता इन शक्तियों के कर्तृभाव से अपने को पहचान ले, तो परमेश्वर का स्वरूप-बोध तुरन्त हो जाता है, जैसे ईश्वर इच्छादि शक्तियों के द्वारा विश्व का निर्माण करता है, वैसे ही पशु बुद्धि आदि के द्वारा विकल्प आदि का। जैसे ज्ञान, क्रिया ईश्वर की शक्तियाँ हैं, वैसे ही ये सीमित क्षेत्र में पशु-प्रमाता की भी शक्तियाँ हैं। यही बोध स्वात्मदेवतारूप ईश्वर का प्रत्यभिज्ञान १. “अथ शाक्तमुपायमण्डलं कथयामः परमात्मसंविदे" (तं., ४.१) २. वहीं, १.२८६-२६० ३. ई. प्र. का., १.१.३ ४. प्र. हृ., पृ. ६३ ३५४ तन्त्रागम-खण्ड कराता है । सम्प्रदाय में पंचकृत्यपरिशीलन की शब्दावली में इसे अनेक जगह स्मरण किया गया है। क्रमचतुष्टयार्थ२ या क्रमपंचार्थ ३ की धारणा शक्त्याविष्करण की धारणा का ही स्वाभाविक विस्तार है। ईश्वर के पंचकृत्यों को ही पंचार्थ कहा गया है। चतुष्टयार्थ में चतुर्थ तिरोधान में पंचम अनुग्रह का अन्तर्भाव किया गया है। यहाँ की विशिष्ट शब्दावली में इन अन्तिम दो कृत्यों को अनाख्या व भासा भी कहा गया है। परवर्ती क्रम-सम्प्रदाय में इनका प्रयोग ही अधिक हुआ है। पंचकृत्यपरिशीलन और चतुष्टयार्थ के प्रत्यय शक्त्याविष्करण के सन्दर्भ में तो समानार्थक हैं, परन्तु पंचार्थ या चतुष्टयार्थ को लेकर उनके विशिष्ट सन्दर्भ में थोड़ा अन्तर है। एक ही शक्ति में, चाहे वह सृष्टिरूप हो या स्थिति, संहार हो या तिरोधान, कृत्यभेद से क्रम की कल्पना करना चतुष्टयार्थ है । माया । क्रम दर्शन में परम तत्त्व को कहीं पर परम शिव और कहीं पर कालसंकर्षिणी के रूप में प्रतिपादित किया गया है। जहाँ परम तत्त्व को परम शिव के रूप में ग्रहण किया गया है, वहाँ कालसंकर्षिणी को उसकी स्वातन्त्र्य या विमर्शरूपिणी शक्ति माना गया है। कलनात्मकता के कारण इसे कालसंकर्षिणी कहा जाता है। कलन के धातुगत पाँच अर्थ हैं- क्षेप, ज्ञान, संख्यान, गति और नाद’। कलनपंचक और कत्यपंचक अथवा पंचार्थ के समीकरण द्वारा शक्ति के सातत्य और भेदन दोनों ही अवधारणाओं को स्पष्ट किया गया है। व्यक्ति-प्रमाता के सन्दर्भ में साधक को आग्रहपूर्वक समझाया गया है कि वह इन्द्रियों को आन्तरिक शक्तियों के केन्द्र के रूप में और विषय-जगत् को आत्मचैतन्य के अन्दर प्रत्यावर्तन या प्रत्याहरण के उपकरण रूप में ग्रहण करे। साधक यदि ऐसी दृष्टि के अर्जन में समर्थ हो जाता है, तो सहज स्वातन्त्र्य के अनायास उन्मेष में समय नहीं लगता। विज्ञानभैरवोद्योत में शिवोपाध्याय ने क्षेमराज का अनुगमन करते हुए इस पंचकृत्य-परिशीलन से मध्य का विकास माना है । यद्यपि सभी सहोदर सम्प्रदायों में मध्यविकास की धारणा का उल्लेख हुआ है, परन्तु मध्य का स्वरूप सबमें भिन्न है। शांभव उपाय से गृहीत प्रणाली में यह अहं-परामर्श रूप है, शाक्त उपाय से गृहीत प्रणाली में परा-संवित् रूप है और आणव उपाय से गृहीत प्रणाली में सुषुम्णा रूप है। इस मध्यविकास, अर्थात् परा-संवित् के विकास के कारण के रूप में क्षेमराज ने “शक्तिविकास और शक्तिसंकोच" रूप उपाय का उल्लेख किया है। शक्ति के संकोच का अर्थ है इन्द्रिय के माध्यम से बाहर फैलने वाली जा १. तिं. वि., भा. ३, पृ. ८५३ कि यह चार किया २. म. प्र. (शि.), पृ. ४२ ३. म. मं. प., पृ. ६३ ४. म. प्र. (शि.), पृ. ४५ ५. तं. ४.१७३-१७६ ६. तं. वि., भा. ३, पृ. ६८० ७. वि. भै. वृ., पृ. ५७ ८. प्र. ह., पृ. ८२कौल और क्रम मत ३५५ चेतना का अन्तरभिमुखन और विकास का अर्थ है अन्तःस्थ शक्ति का बिना किसी क्रम के सारी इन्द्रियों के माध्यम से एक साथ बाह्य प्रसार। इसी को निमीलन-उन्मीलन समाधि कहा गया है। इसे ही यहाँ क्रमशः व्याप्ति या विकाससमाधि और सर्वात्मसंकोच भी कहा गया है। गाजी BE इस शक्तिचक्र-विकास की धारणा में शक्ति के चक्रात्मक रूप की कल्पना है, जो कि पूरे काश्मीर शिवाद्वयवाद में स्वीकृत मान्यता का ही प्रतिरूप है। काश्मीर शिवाद्वयवाद के सभी सम्प्रदाय एक स्वर से सत् को गतिशील मानते हैं। यह गति चक्रात्मक है। इसीलिये परम तत्त्व को चक्रेश्वर या स्वशक्तिचक्रविभवप्रभव कहा गया है। सृष्टिचक्र में पंचकृत्य और पंचकर्तृभेद से १० कलाएं मानी गयी हैं। इन्हें योनि और सिद्ध कहा गया है। स्थितिचक्र में २२ कलाएं हैं—शिर में अवस्थित ओड्डियाण, जालन्धर, पूर्णगिरि और कामरूप, इन ४ पीठों के युगनाथ (कर्ता, गाता, व्यवसिता, चेता) और उनकी शक्तियाँ (क्रिया, ज्ञप्ति, व्यवसिति और चिति)=८; हृदय के षट्कोण में रहने वाले ६ निरधिकार और ६ साधिकार राजपुत्र (अर्थात् बुद्धि, पांच कर्मेन्द्रियाँ, मन और ५ ज्ञानेन्द्रियाँ) = १२; हृदय षट्कोण के मध्य वर्तमान कुलेश्वर और कुलेश्वरी (अहंकार और अभिमान शक्ति) = २; संहारचक्र में ११ कलायें हैं- अन्तःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) और १० इन्द्रियाँ सृष्टि-कलाएं आत्म-आश्यानीभाव की ओर प्रथम औन्मुख्य की प्रतीक हैं। आविर्भूत का संहरण की इच्छापर्यन्त बने रहना स्थिति-शक्तियों का काम है। बाह्यतया आभासित पदार्थों का अपने में वासना रूप से प्रत्याहरण संहार-शक्तियों का काम है। इनके बाद क्रम में आता है अनाख्या चक्र, जिसे संविच्चक्र भी कहा जाता है और जिसका अभिनवगुप्त स्वतन्त्र रूप से उल्लेख करते हैं। माना जा पर यहाँ यह ध्यान रखना है कि यद्यपि अनाख्या चक्र शक्तिचक्र-विकास या क्रमचतुष्टयार्थ के अन्तर्गत आता है, पर यह एक आत्मनिर्भर प्रत्यय है, जिस पर पूर्व के तीनों चक्र आश्रित हैं। यह अनाख्या ही सृष्टि के सन्दर्भ में व्यापिनी, स्थिति के सन्दर्भ में समना और संहार में उन्मना कहलाती है ‘। चतुष्टयार्थ में अनाख्या और भासा को एक ही माना गया है। वस्तुतः अनाख्या चक्र को संविच्चक्र कहने का अर्थ ही है संवित् या ज्ञान की प्रधानता। अतः प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय में प्रत्येक से सृष्टि आदि क्रमचतुष्टय को जोड़ने पर बारह देवियाँ प्राप्त होती हैं २ । चूँकि ये सारी देवियाँ विचार की आन्तरिक क्रिया से एकरूप हैं, अतः साधक में निर्विकल्प चित् या शुद्ध बोध का उदय इन्हीं की शक्ति से संभव होता है। क्रमकेलि के अनुसार अनाख्या चक्र की बारह कलाएं हमें दूसरी तरह से भी प्राप्त होती हैं। सृष्टि, स्थिति, संहार में से प्रत्येक कृत्य की सृष्टि, स्थिति आदि के भेद से ४-४ स्थितियाँ होती हैं ३ । १. म. प्र. (शि.), पृ. ४२ २. म. प्र. (त्रि.), ६.१६ ३. म. म. प., पृ. १०४ ३५६ तन्त्रागम-खण्ड र इन द्वादश देवियों की दूसरी संज्ञा काली भी है और व्यक्ति-प्रमाता के सन्दर्भ में इनका स्मरण करणेश्वरी या इन्द्रिय-शक्तियों के रूप में भी किया गया है । इन बारह कालियों में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से तो सभी महत्त्वपूर्ण हैं, पर पंचकृत्य-परिशीलन से जिस मध्यधाम के विकास की कल्पना की गयी है, वह संहार काली से व्याप्ति, अर्थात् प्रमाणगत ४ कालिकाओं में ही संभव होता है । व्याप्ति, अर्थात् “सर्वात्मविकास” (यह सब मेरा है) रूप शुद्ध-विकल्प कालानल-रुद्रकाली, अर्थात् प्रमातृगत स्थितिस्वरूप में ही संभव होता है और अलंग्रास तथा हठपाक, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे, महाकाली अर्थात् प्रमातृगत संहारस्वरूप में संभव होता है। क्षेमराज ने प्रत्यभिज्ञाहृदय में जिस क्रममुद्रा का उल्लेख किया है, वह इसी संवित्क्रम में संभव हो पाती है । इस अनाख्या चक्र के षोडशार, द्वादशार, अष्टार, चतुरर एवं सहस्रार आदि अनुचक्रों का भी उल्लेख हुआ है, पर यहाँ हम उनकी विस्तार से चर्चा नहीं करेंगे। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि इन द्वादश कालियों का यहाँ दो सन्दर्भो में उल्लेख हुआ है-पूजनक्रम में और संवित्क्रम में। महिला शक्तिचक्र-विकास का अन्तिम चक्र है भासाचक्र। महेश्वरानन्द के अनुसार शक्ति का वास्तविक विकास और संकोच यही सम्भव है। विकास में ५० मातृकाएं और संकोच में नव चक्रों (सृष्टि आदि ५ चक्र तथा मूर्ति, प्रकाश, आनन्द तथा वृन्द चक्र) एवं पंचपिण्ड का आविर्भाव होता है। इन नव चक्रों की पीठ-निकेतन (देह का स्थूलभाव) की ओर पंचवाहात्मक प्रवृत्ति होती है। पंचवाह में परिणत होता हुआ अनुत्तर कला में पर्यवसित विषय जगत्पिण्ड कहा जाता है, जो वाग्भव बीज में परिणत होता हुआ पुनः अनुत्तर कला में पर्यवसित होता है। करी गली जाताना वाशिम इन शक्ति-चक्रों को क्रमसद्भाव नामक आगम में पंचवाह महाक्रम भी कहा गया है। संप्रदाय में प्रचलित योग और पूजन आदि के सन्दर्भ में प्रथम चार की पूजा को क्रम पूजा तथा भासाचक्र की अर्चना को अक्रम पूजा कहा गया है । क्रम दर्शन में संविक्रम या पंचकृत्य-परिशीलन के प्रत्यय को जो इतना महत्त्व दिया गया है, वह अकारण नहीं है। परम तत्त्व की स्वतः स्फूर्ति में केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, वास्तविक सातत्य भी है। यह सातत्य इस क्रम-संस्कार में क्रमिक दशाओं में अनुस्यूत परस्पर व्याप्ति की अवस्था के प्रत्यभिज्ञान से ही ज्ञात होता है। इस बात को इस सम्प्रदाय में अलातचक्र और उत्पलदलशतविदलन के रूपकों से समझाने का यत्न किया गया है। यह अन्तर्वर्ती अन्विति केवल अत्यन्त अभ्यास से या अत्यन्त तीव्र शक्तिपात से ही उपलब्ध होती है। इसका परामर्श कर लेना ही जीडी हि तु साजिर काही शंका के १. तं. वि., पृ. ६६३ २. म. प्र. (त्रि.), ६.३७-३८, ६.४०, ६.४३-४४ ३. प्र. ह., पृ. ६२ ४. म. मं. प., पृ. १०८ ५. म. मं. प., पृ. १०६ कौल और क्रम मत ३५७ का अभिनवगुप्त शाक्तोपाय की अन्यतम प्रक्रिया के रूप में विकल्पसंस्क्रिया को प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि भर्तृहरि के शब्दपूर्वयोग और विज्ञानवादी बौद्ध के प्रभाव में ही इस पद्धति की अवधारणा की गई जान पड़ती है, पर यह शाक्तोपाय की मौलिक पद्धति है। यह इस बात से ही प्रमाणित है कि सारी पद्धतियों के मूल में विकल्प-संस्कार की धारणा बीजभाव से वर्तमान है। यह विकल्प-संस्कार की धारणा है विकल्प का बार-बार चिन्तन करते हुए अस्फुट से स्फुटतम तक की प्राप्ति तक इस प्रकार से गुणान्तराधान करना कि निर्विकल्प की प्राप्ति हो जाय। मोटे तौर पर विकल्प-संस्कार में अस्फुट, स्फुटताभावी, प्रस्फुटन, स्फुटतात्मक, स्फुटतर और स्फुटतम अवस्थाओं की कल्पना की गयी है और इनमें प्रत्येक दो दशाओं के मध्य भ्रश्यत्-स्फुटत्व, ईषत्-स्फुटत्व, अंकुरित-स्फुटत्व, आसूत्रित-स्फुटत्व और उद्गच्छत्-स्फुटत्व की संभावना की गयी है। अन्तिम स्थिति को शुद्धविद्यात्मक माना गया है और षडंग योग की अन्तिम स्थिति सत्तर्क से इनका समीकरण किया गया है। विषय-बोध की “इदम् इदम् अस्ति” से लेकर “इदम् अहम् अस्मि’ तक पहुँचने की प्रक्रिया ही विकल्प-संस्कार है। धर्म-प्रत्यभिज्ञान-“सर्वो ममायं विभवः” और धर्मि प्रत्यभिज्ञान “सोऽहम्", दोनों शुद्ध अनुसंधान रूप ज्ञानों से विशुद्ध अभिपरामर्श की प्राप्ति ही निर्विकल्प-स्वरूप का आसादन है। इसकी तुलना योग के प्रातिभ ज्ञान से की जा सकती है उसी के अनुकरण पर इसे भी प्रातिभ ज्ञान कहा गया है । इसका वैशिष्ट्य यह है कि समाधि की व्युत्थानावस्था में भी स्वात्मबोध की सद्यस्कता बनी रहती है। रहस्याम्नाय में इसे मध्यदशा-विश्रान्ति-संस्कार कहा गया है । मया जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि क्रम-दर्शन प्रारम्भिक अवस्था में लिंग-पूजा, व्रत, क्षेत्र, पीठ, उपपीठ इत्यादि के प्रति उदासीन ही रहा, किन्तु तान्त्रिक विचारधारा में पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समीकरण की सामान्यतः स्वीकृति के कारण, अन्तर्याग की धारणा के प्रति पारम्परिक निष्ठा के कारण, स्वात्मदेवता को उपास्यभाव से अंगीकार करने के कारण, क्रम-दर्शन की करणेश्वरीचक्र के प्रति असंदिग्ध आस्था के कारण, अभिनवगुप्त के देहस्थदेवताचक्रस्तोत्र में देवताओं के अधिष्ठान रूप में देह के ग्रहण के कारण और बाह्य आचार के प्रति परवर्ती सम्प्रदाय के बढ़ते हुये आकर्षण के कारण संभवतः परिणाम यह हुआ कि देह ने क्रमसाधनाओं में असामान्य महत्त्व ग्रहण कर लिया। फलतः यहाँ देह को केन्द्र में लेकर साधना की चार पद्धतियाँ प्रचलन में आयीं—पीठनिकेतन, वृन्दचक्र, पंचवाह और नेत्रत्रितय की विधियाँ। इन चारों में परस्पर उपकार्य-उपकारकभाव है। वस्तुतः ये चारों प्रक्रियाएं देवताचक्र की अर्चना रूप व्यापक प्रक्रिया की अंग हैं ५ । परिमलकार १. तं. १३.१४६ २. वि. भै. वृ., पृ. ५१ ३. “स्वात्मैव देवता प्रोक्ता ललिता विश्वविग्रहा" (तन्त्रराज से म. मं. प. द्वारा उद्धृत, पृ. १२३)। ४. म. म. प., पृ. ८६ ५. वहीं, पृ. ७ ३५८ का तन्त्रागम-खण्ड का मत है कि इस सर्वोत्तम पूजा के संपादन हेतु इस देह की क्रमशः पीठनिकेतन, वृन्दचक्र और पंचवाह के रूप में भावना व उपलब्धि करनी चाहिये। पीठनिकेतन को पीठक्रम भी कहा जाता है। इसमें ६ कलाएं मानी गई हैं—प्रमाता, औन्मुख्य, इन्द्रियरूप प्रमाण, वस्तुव्यवस्थापनरूप प्रमा और पंचभूतात्मक प्रमेय। सबसे पहले अपनी चिद्रूपता का परामर्श, फिर उस परामर्श की स्थिरता, तदनु उस परामर्श के अनुरूप स्पन्दन का अनुवर्तन, फिर उसी में और उज्ज्वलता का आधान और अन्त में आत्म-विश्रान्ति रूप तृप्ति इस क्रम में ये कलाएं व्याप्त होती हैं। कुछ लोग यहाँ पीठ, श्मशान, क्षेत्रेश, मेलाप और यजन इन पाँच की स्थिति मानते हैं। इन नौ कलाओं का व्योमेशी, खेचरी, भूचरी, संहारभक्षिणी और रौद्रेश्वरी रूप पंचवाह से अभेद है। वृन्दचक्र का सम्बन्ध हमारे सूक्ष्म शरीर से हैं, जिसे काश्मीर शिवाद्वयवाद में पुर्यष्टक शब्द से अभिहित किया गया है। जहाँ पीठनिकेतन का सम्बन्ध मनोभौतिक पार्थिव शरीर से है, वहीं वृन्दचक्र का सम्बन्ध सूक्ष्म लिंगशरीर से है। सामान्यतः मन, बुद्धि, अहंकार और पाँच तन्मात्राओं से या पंच प्राण, ज्ञानेन्द्रियवर्ग, कर्मेन्द्रियवर्ग और बुद्धि से पुर्यष्टक की रचना होती है। पुर्यष्टक का शाब्दिक अर्थ है- आठ की नगरी। वृन्द का अर्थ है समूह’। वृन्दचक्र का अर्थ है समूहों का चक्र। ये समूह हैं- १६ ज्ञान-सिद्धों के, २४ मन्त्र-सिद्धों के, १२ मेलाप-सिद्धों, के ८ शाक्त-सिद्धों के और ४ शांभव-सिद्धों के। इन्हें शाकिनी भी कहा जाता है और वृन्दचक्र को शाकिनीचक्र। इसीमें यदि पंचवाह और रौद्रेश्वरी को जोड़ दिया जाय, तो क्रम दर्शन के ७० रहस्य-तत्त्वों की प्राप्ति होती है। वृन्दचक्र में सारे कर्मप्रपंच की विश्रान्ति मानी जाती है २ । वृन्दचक्र की ६४ कलाएं समस्त सविकल्प और निर्विकल्प विचार-प्रक्रियाओं की बोधक हैं, क्योंकि मन, बुद्धि और दश इन्द्रिय-वत्तियाँ (१+१+१० = १२) जब पंचवाह में से प्रत्येक के सम्बन्ध में गहीत होती हैं तो हमें साठ वृत्तियों की और जब हम उनमें सृष्टि से अनाख्या तक के अर्थचतुष्टय जोड़ते हैं, तो ६४ कलाओं की प्राप्ति होती है। भासा मानने वाले ६५ कलाएं स्वीकारते हैं । ये वृत्तियाँ संवित् के स्वरस से प्रवाहित हो रही हैं। यह भाव प्रत्यावृत्तिक्रम से हठपाक की प्रक्रिया के द्वारा सम्भव होता है । सृष्टि, स्थिति, संहार रूप तीन उपाधियों का प्रशम जिस स्थिति में होता है, उसे अनाख्या कहा गया है। प्रशम दो प्रकार से संभव है- शक्तिक्रम से या हठपाकक्रम से। हठपाक के लिये अलंग्रास नामक पद्धति का प्रयोग होता है । वस्तुतः मूलतः तो यह कुल-दर्शन की प्रक्रिया थी, पर क्रमशः मन्द शक्तिपात और तीव्र शक्तिपात के आधार पर ये प्रक्रियाएं क्रम-दर्शन में भी स्वीकृत हुई। यहाँ तक कि १. “तदिदं समुदायपूर्वकं किल वृन्दचक्रमुच्यते" (म. प्र. (त्रि.), ७.२)। २. म. म. प., पृ. १६४ ३. वि. भै. वृ., पृ. ६८ जापान की रिजाल ४. ४. म. प्र. (त्रि.), ७.३७ ५. तं. ३.२६०-२६६ कौल और क्रम मत ३५६ क्रम-दर्शन का अवान्तर सम्प्रदाय महासाहसचर्या सम्प्रदाय, जिसका प्रतिपादन वातूलनाथसूत्र में मुख्य रूप से हुआ है, इसे अपना प्राण मान बैठा’। वृन्दचक्र का आठ दृष्टियों से क्रम-ग्रन्थों में प्रतिपादन हुआ है-धामक्रम, मुद्राक्रम, वर्णक्रम, कलाक्रम, संवित्क्रम, भावक्रम, पातक्रम और अनिकेतनक्रम (वर्ण के लिये मन्त्र और संवित् के लिये निरीह शब्दों का प्रयोग भी होता है)। महानि कारक पण इस क्रम में अन्तिम है पंचवाह के रूप में देह की परपीठ के रूप में भावना। यह देह का आध्यात्मिक भावन है। इसे पंचवाहक्रम के रूप में भी उपस्थापित किया गया है। ये पंचवाह हैं- (१) व्योमवामेश्वरी, (२) खेचरी, (३) दिक्चरी, (४) गोचरी, और (५) भूचरी। महाक्रम, खचक्र, कुलपंचक, वामेशीचक्र और वामाचक्र— इसकी अन्य संज्ञाएं हैं। परा संवित् मानों एक बड़ी झील है, जिससे चेतना की धाराएं फूटती हैं- इस रूपक के आधार पर इन्हें वाह कहा गया है । इस पंचवाह के क्रम को लेकर आचार्यों में मतभेद है। स्पन्दतत्त्व या चिच्छक्ति को वामेश्वरी कहते हैं, क्योंकि यह विश्व का अन्दर-बाहर वमन करती है। जीव-प्रमाता खेचरी है, अन्तःकरण गोचरी, कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दिक्चरी और स्थूलविषय भूचरी हैं। इसी प्रकार वाणी के सन्दर्भ में परा, सूक्ष्मा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी अथवा विमर्श, बिन्दु, नाद, स्फोट और शब्द से इनका समीकरण या पर्यायता टाई जा सकती है। इस पंचवाह का व्यापार द्विविध है- प्रथम तो अनुभव और उसके आदिसिद्ध आधार के विश्लेषण द्वारा अनुभूति के मूल स्वरूप की उपलब्धि कराना और द्वितीय है प्रमाता, प्रमेय व प्रमाण परम सत् के आभास रूप ही हैं तथा इससे अभिन्न रहते हुए भी भासित होते हैं, इस बात का प्रत्यभिज्ञान कराना। यही कारण है कि सभी तरह के आवरणों के क्षय के लिये यहाँ पंचवाह का ही उपदेश किया गया है। यति हम इस प्रकार क्रम-सम्प्रदाय की सैद्धान्तिक दृष्टि का विश्लेषण करने पर तान्त्रिक दर्शन के रूप में ही इस सम्प्रदाय की स्थिति पुष्ट होती है। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि इस दृष्टि में शक्ति पक्ष का विशेष प्राधान्य है तथा यहाँ सत् को भेदाभेद रूप से लेकर ही अपनी सारी व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। इसी दृष्टि से यहाँ बन्ध-मोक्ष सभी का ऐकान्तिक रूप में निषेध किया गया है। स्पन्द-दर्शन की स्पन्दगत मीमांसा का क्रम के अभिप्राय से विशेष साम्य है। इसी कारण क्षेमराज व उत्पल वैष्णव स्पन्दकारिका पर अपनी टीकाओं में स्पन्द-सिद्धान्तों को क्रम-सन्दर्भो में विवेचित करते हैं। शिवसूत्रविमर्शिनी में भी वह स्पन्द दृष्टि की सबसे अच्छी प्रस्तुति उस महार्थ की धारणा में ही बताते हैं, जहाँ पंचकृत्यों/पंचवाहों के माध्यम से शक्ति के द्वारा शक्तिमान का अनुभव करने की प्रक्रिया का निरूपण है। इसी । १. वा. सू. १; वा. सू. वृ., पृ. ३ २. शिवसूत्रवार्त्तिक (शि. सू. वा.), वरदराज, ३.६१-६३; काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, सन् १६१५ ३. म. प्र. (त्रि.), ३.१३० ४. शि. सू. वि., पृ. २१.२३ ३६० तन्त्रागम-खण्ड प्रकार कुल-सम्प्रदाय का भी इस पर पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अभिनवगुप्त तन्त्रालोक में शाक्तोपाय के सन्दर्भ में जब निषेधविधितुल्यता का कथन करते हैं, वहाँ जिस कुल के प्रतिपक्ष में त्रिक को प्रस्तुत करते हैं, उस कुल से तो क्रम को श्रेष्ठ ही सिद्ध किया गया है. पर बाद में जिस कल को वह सबका साररूप सिद्ध करते हैं, वह परी तन्त्रप्रक्रिया से उत्कृष्ट है’ । अतः क्रम-ग्रन्थों में कुल-मत के प्रभाव में पीठ, अनुष्ठानों, ओवल्लियों, घर, पल्ली आदि के प्रत्ययों को ग्रहण किया गया तथा युगनाथों व राजपुत्रों की परम्परा को स्वीकारा गया है। विश्व कुल का प्रभाव इतना बढ़ गया कि क्रम-ग्रन्थों को भी कुल-ग्रन्थ कहा गया । यहाँ तक कि क्रमाचार्यों ने जहाँ कहीं भी क्रम-दृष्टि में संभव हुआ, कुल-सिद्धान्तों को प्रयुक्त करने का प्रयास किया । इसी प्रकार कुल मत में भी क्रम से कुछ तत्त्व ग्रहण किये गये, जैसे १२ कालियों या संविदेवियों का सिद्धान्त शक्तिचक्र के सन्दर्भ में ग्रहण किया गया। इसी तरह अनाख्या क्रम को कुल मत में स्वीकारा गया । इसी तरह त्रिपुरा सम्प्रदाय और क्रम सम्प्रदाय के मध्य भी विचारों का पर्याप्त विनिमय हुआ। इन दोनों में साम्य का आधार है शक्ति के प्राधान्य को स्वीकारना। शितिकण्ठ के महानयप्रकाश में यह साम्य-स्थापन अधिक मुखरित हुआ है। उनके अनुसार महार्थ का विस्तार पीठचक्र से समयविद्या पर्यन्त है। इस समयविद्या में सारे क्रम-रहस्य समाहित हैं ५ । इसीलिये वह अनाख्या और भासा को क्रमशः अनाख्या समयेश्वरी और भासा समयेश्वरी कहते हैं । इसी तरह वृन्दचक्र उनकी दृष्टि में श्रीचक्र है। संभवतः श्रीचक्र की कल्पना ने ही वृन्दचक्र की धारणा को प्रेरित किया। त्रिपुरा का भी कालसंकर्षिणी से एकात्मता दिखलाने का प्रयास किया गया है। जयरथ तो कुल के साथ भी त्रिपुरा की एकात्मता दिखलाने का प्रयास करते हैं । इसी प्रकार त्रिपुरा-सम्प्रदाय ने भी क्रम से अनाख्या की धारणा, क्रमचतुष्क की दृष्टि, सत्तर्क, प्राकृत भाषा के प्रति लगाव आदि वैशिष्ट्यों को गृहीत किया है। मला निश इन समजातीय सम्प्रदायों के अतिरिक्त कुछ विजातीय दृष्टियों का भी क्रम पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है, जैसे बौद्ध तन्त्रों का इस सम्प्रदाय की दृष्टि पर विशेष प्रभाव है। षडंगयोग की धारणा, अपोहन व क्षणिकवाद के सिद्धान्त का तथा शून्यता-सिद्धान्त का क्रम-सन्दर्भो में विशेष उपयोग किया गया है। सत्तर्क को क्रमयोग का श्रेष्ठ अंग दिखलाने के सन्दर्भ में इस षडंग योग की धारणा को, विकल्प संस्कार की धारणा में अपोहन व क्षणिकवादी १. तं. वि., भा. २, पृ. २४ र २. म. मं. प., पृ. १६० ३. तं. वि., भा. ३, पृ. ७७३ ४. तं. वि., भा. २, पृ. ५६० ५. म. प्र. (शि.), पृ. १२६ मामा ६. वहीं, पृ. १२८ ७. वा. म. वि., पृ. १०३ कलाकार कौल और क्रम मत ३६१ दृष्टि को तथा अनाख्या के सिद्धान्त में शून्यतावादी दृष्टि को ही आधार बनाया गया है। इसी तरह भर्तृहरि द्वारा प्रतिपादित शब्दसंस्कार या शब्दपूर्वयोग की धारणा पर यहाँ की विकल्पसंस्कार की धारणा आधारित है, कालशक्ति या क्रमशक्ति की धारणा को आधार बना कर कालसंकर्षिणी या काली के प्रत्यय को निरूपित किया गया है तथा शब्द के विविध रूपों को आधार बनाकर वाक् के चतुर्विध या पंचविध सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया है। पर इन परस्पर विनिमय-व्यापारों के अतिरिक्त इस क्रम-सम्प्रदाय का सबसे प्रमख योगदान यह है कि इसकी क्रमदृष्टि का प्रभाव शाक्त, शैव, वैष्णव, बौद्ध सभी सम्प्रदायों पर समान रूप से पड़ा। फलतः इन सभी सम्प्रदायों में “क्रम” को लक्ष्य कर ग्रन्थों की रचना हुई। आज अनेक क्रम-रचनायें मिलती है, जिनमें शंकर की क्रमस्तुति, केशव भट्ट की क्रमदीपिका, अज्ञात लेखकों की क्रमोत्तम, क्रमरत्न, क्रमरत्नमाला, क्रमसंग्रह, क्रमसंधान, क्रममालिका, श्रीक्रमसंहिता, क्रमवासना आदि रचनाएं प्रमुख हैं।
  • इस क्रम-सम्प्रदाय के साहित्य के विश्लेषण से इसमें उत्तर काल में कई प्रवृत्तियाँ विकसित होती दृष्ट होती हैं, जैसे वातूलनाथसूत्राणि से साहस नामक उपवर्ग की तथा छुम्मा-सम्प्रदाय से छुम्मा उपवर्ग की जानकारी मिलती है। वातूलनाथसूत्र स्वरूपलाभ का एकमात्र साधन महासाहसवृत्ति को बतलाता है’ । इसीलिये टीकाकार अनन्तशक्तिपाद इस सम्प्रदाय को महासाहसचर्या सम्प्रदाय २ कहते हैं। साहस का अभिप्राय है अकस्मात घटना। अतः शैव दृष्टि से महासाहसवृत्ति है अतितीव्रातितीव्रतर शक्तिपात के कारण बिना किसी पूर्व योग्यता के, बिना किसी पूर्व प्रयास के अचानक स्वरूप लाभ । इसी साहस के प्रत्यय में हठपाक व अलंग्रास की धारणाएं भी अनुस्यूत हैं। वृन्दचक्र के सन्दर्भ में आठ दृष्टियाँ प्रचलित हैं, जिनमें एक है मुद्राक्रम । इसमें पाँच मुद्राएं आती हैं, जिनमें खेचरी ही सर्वोत्कृष्ट है और शांभव सिद्धों से सम्बद्ध है। अनन्तशक्ति इसी खेचरी मुद्रा या दृष्टि को साहस-सम्प्रदाय का प्राण मानते हैं । इसीलिये यह कहीं-कहीं साहसमुद्रा भी कही गई है। दूसरा उपवर्ग छुम्मा-सम्प्रदाय नामक अप्रकाशित कृति पर आधारित है। पहले देखना है कि छुम्मा शब्द का अर्थ क्या है ? इस रचना में छुम्मा शब्द का अर्थ कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है। तन्त्रालोक में इस शब्द का दो बार प्रयोग आता है, पर वहाँ भी इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। क्षेमराज स्वच्छन्दतन्त्र पर अपने उद्योत में इसको स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार यह अपने सम्प्रदाय-विशेष की पारिभाषिकी संज्ञा है । उस सम्प्रदाय की विशिष्ट गोप्य साधनापद्धति को सुरक्षित रखना ही इस विशिष्ट संज्ञा का लक्ष्य १. “महासाहसवृत्त्या स्वरूपलाभः” (वा. सू. १)। २. वा. सू. वृ., पृ. ३ वाला काम काजी बिज ३. वा. सू. वृ., पृ. २ । ४. तं. ३२.६५ ५. तं. २३.६१-६२ मत । ६. स्वच्छन्दतन्त्र-उद्योत, (स्व. तं. उ.) क्षेमराज, काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, ६ भागों में प्रकाशित, भा. ६, पृ. १२६ ३६२ मस तन्त्रागम-खण्ड है, इस संज्ञा का मुख्य अभिधेय है। अतः यह छुम्मा उपवर्ग इस सम्प्रदाय की रहस्यात्मक साधनाविधि से ही सम्बद्ध है’ । छुम्माओं को दो वर्गों में बाँटा गया है—पर्यन्त छुम्मा व पर छुम्मा। इसमें पर्यन्त छुम्मा को साहस सम्प्रदाय से जोड़ा गया है । कि मामले की इसके अतिरिक्त यहाँ विविध धारणाओं के सन्दर्भ में भी अनेक मत-मतान्तर उपलब्ध होते हैं। सबसे पहले पर तत्त्व के स्वरूप के सन्दर्भ में यहाँ दो स्पष्ट मत मिलते हैं। इस तरह की द्विविध दृष्टियों का उद्गम प्रारम्भ से ही क्रम आगमों में विद्यमान है। यह है देवी या शक्ति-केन्द्रित दृष्टि तथा शिव-केन्द्रित दृष्टि। सोमानन्द से सम्बद्ध परम्परा के आचार्य शिवकेन्द्रित दृष्टि के ही अनुयायी हैं और उनके अतिरिक्त सभी आचार्य देवी या काली को ही पर तत्त्व मानते हैं। इसी दृष्टि को लेकर तो इस सम्प्रदाय के लिये कालीनय संज्ञा प्रचलन में आई। सामान्यतः शिवाद्वयवाद में सत् के प्रकाश व विमर्श पक्षों के बीच यथार्थ सम्बन्ध की समस्या ही क्रम-सन्दर्भो में परिणत होकर इन दो दृष्टियों के रूप में प्रवाहित हई। प्रकाश पक्ष जहाँ परमेश्वर, मन्थान या मन्थानभैरव कहा गया, वहीं शक्ति या विमर्श पक्ष काली, देवी या कालसंकर्षिणी कहा गया। जिन्होंने शिव को पर तत्त्व माना, उन्होंने शक्ति को उसका अधीनस्थ माना व जिन्होंने शक्ति को पर तत्त्व कहा, उन्होंने शिव को अधीनस्थ कहा। शिव के पर तत्त्व होने पर भासा व अनाख्या उसके व्यापार कहे गये तथा पंचवाहों में व्योमेश्वरी या व्योमवामेश्वरी उसीसे निःसृत मानी गई। इस दृष्टि वाले संविच्चक्र में द्वादश कालियों के सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं। साथ ही ये वृन्दचक्र में पंचवाहों की गिनती न कर ६४ पक्ष ही मानते हैं। मिली इसके विपरीत शक्ति की प्रधानता के प्रतिपादक मत में भासा या अनाख्या को परम सत् से एकरूप कहा गया। व्योमवामेश्वरी नामक वाह को भी उसी का रूप बताया गया। साथ ही यहाँ संविच्चक्र या अनाख्याचक्र में त्रयोदश कालियों का सिद्धान्त स्वीकृत किया गया। यहाँ वृन्दचक्र के भी ६५ पक्षों की कल्पना की गई, अर्थात् इस दृष्टि में शक्तिरूप । परम सत् को सारे प्रकरण का अंग बनाया गया, जबकि शिव-केन्द्रित दृष्टि में उसे सबसे अलग रखकर विवेचित किया गया। इन्हीं दो दृष्टियों के परिप्रेक्ष्य में यहाँ पंचार्थ व चतुष्टयार्थ के सिद्धान्त प्रचलित हुए। शक्ति की प्रधानता मानने वालों ने पंचार्थ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया और शिव की प्रधानता मानने वालों ने चतुष्टयार्थ का। कि पूनम या इसी तरह यहाँ दो तरह की प्रवृत्तियाँ भी विकसित दृष्ट होती हैं। एक प्रवृत्ति है क्रम-चतुष्टय की धारणा के द्वारा सारी विचारधारा को प्रस्तुत करने का प्रयास। इस दृष्टि में पाँचवें कृत्य भासा या अनुग्रह का तिरोधान या अनाख्या में अन्तर्भाव कर लिया जाता है। पाँचवीं शक्ति चित् चौथी शक्ति आनन्द में एकात्म कर ली जाती है, पंचकृत्यों की जगह १. स्व. त. उ., भा. ६, पृ. १२५ २. छुम्मासम्प्रदाय (छु. सं.), निष्क्रियानन्द (पाण्डुलिपि), शोध संस्थान, जम्मू एवं काश्मीर, सं. २, पृ. ६ की कि काय . ३. क्र. स्तो. (अ.), २८ कौल और क्रम मत ३६३ चार कृत्यों की ही कल्पना की जाती है, पंचवाहों की जगह चार वाहों की स्थिति स्वीकृत की जाती है, पाँच चक्रों की जगह चार चक्रों की कल्पना की जाती है, वाक् को पाँच की जगह चार रूपों में ही बाँटा जाता है। दूसरी प्रवृत्ति है पञ्चकात्मक दृष्टि के द्वारा सारा विवेचन करने की। इस पंचकात्मक दृष्टि वाले सर्वत्र पाँच की कल्पना करते हैं। चतुष्टयात्मिका दृष्टि में चौथी स्थिति बाकी तीन का संश्लिष्ट रूप है, अतः यहाँ पर तत्त्व अनाख्या रूप ही कहा जाता है, भासा रूप नहीं। प्रायः पंचकात्मिका दृष्टि में भासा रूप से पंचम अवस्था स्वीकृत है। क्रम-चतुष्टय की स्थिति क्रम-सम्प्रदाय की प्रिय धारणा रही है, पर पंचार्थ दृष्टि भी यहाँ पर्याप्ततः प्रचलित है। । इनके अतिरिक्त यहाँ कुछ अन्य बिन्दुओं पर भी मतभेद उपलब्ध होता है, जैसे अनाख्या चक्र में पूज्य देवियों की निश्चित संख्या क्या हो, पूजन-क्रम में पंचकृत्यों का क्रम क्या हो, क्रम-सम्प्रदाय में युगनाथों व राजपुत्रों को ग्रहण किया जाय या नहीं, पंचवाहों का सही क्रम क्या हो, पंचवाहों के साथ प्रकाश, आनन्द व मूर्ति चक्रों का समन्वय हो या नहीं; प्रकाश, आनन्द व मूर्ति चक्रों का क्रम क्या हो, वृन्दचक्र के निश्चित रूप से कितने पक्ष हों, उसमें मुद्राएं क्या हों और मुद्राक्रम क्या हों, वाक् की अवस्थाएँ, स्वरूप व संख्या क्या हों? आदि। इस प्रकार क्रम सम्प्रदाय के इस विविधपक्षीय स्वरूप के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि यह अपने समय की एक जीवित परम्परा थी, जिसके विकास और रूपायन पर सहवर्ती स्थितियों व दृष्टियों का बराबर प्रभाव पड़ता रहा, फलतः इसमें विविध प्रवृत्तियों का विकास होता रहा। ये क्रम व कुल दृष्टियाँ त्रिक दृष्टि के साथ मिलकर काश्मीर की तान्त्रिक संस्कृति में प्रचलित अद्वयवादी दृष्टि को समग्र रूप से प्रस्तुत करती हैं। स्पन्द व प्रत्यभिज्ञा, जो कि दार्शनिक विवेचन प्रधान दृष्टियाँ हैं, इन्हीं मूलभूत दृष्टियों से विकसित हुई प्रतीत होती हैं। सम्भवतः इसी कारण अभिनवगुप्त अपने तन्त्रालोक में तान्त्रिक विचारधारा को व्यक्त करने वाली जिन प्रक्रियाओं को प्रस्तुत करते हैं, उनमें स्पन्द व प्रत्यभिज्ञा को वे स्वतन्त्र रूप से नहीं ग्रहण करते। संभवतः प्रत्यभिज्ञा सम्प्रदाय तो सारे काश्मीरी शिवाद्वैत का तार्किक निचोड़ है और स्पन्द यहाँ सत् की सतत गतिशीलता की प्रमुख मान्यता की ही विशेषतः प्रस्तुति करने वाला सम्प्रदाय है। अतः अन्ततः अभिनवगुप्त की दृष्टि को ही आधार बनाकर हम त्रिक के साथ क्रम व कल मत को ही तान्त्रिक अद्वैत के प्रतिनिधि रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। काश्मीर शिवाद्वयवाद को त्रिक की संज्ञा से अभिहित किये जाने के पीछे यही मान्यता है। यहाँ यह त्रिक उस त्रिक से भिन्न है, जो एक सम्प्रदाय विशेष की संज्ञा है।। शलाज जीजील शि टिकामा