भारतीय धर्म-दर्शन में वीरशैव धर्म-दर्शन की भी एक भूमिका है। यह धर्म-दर्शन आगमों पर आधारित है। सिद्धान्ताख्ये महातन्त्रे कामिकाये शिवोदिते। निर्दिष्टमुत्तरे भागे वीरशैवमतं परम् ।। (सि.शि.५.१४) __सिद्धान्तशिखामणि की इस उक्ति से यह बात सिद्ध होती है। भगवान् शिव के द्वारा प्रतिपादित कामिक आदि वातुलान्त अट्ठाईस शैवागम सिद्धान्त आगम के नाम से प्रसिद्ध हैं। “आप्तोक्तिरत्र सिद्धान्तः शिव एवाप्तिमान् यतः” श्रीकण्ठ सूरि की इस उक्ति से यह पुष्ट हो जाता है। इन अट्ठाईस आगमों में दस आगम भगवान् शिव से और अट्ठारह आगम भगवान् रुद्र से उपदिष्ट माने जाते हैं। इन दस और अट्ठारह आगमों को दक्षिण के अघोरशिव जैसे शिवाचार्य सिद्धान्तागम नाम देते हैं और उनकी द्वैतपरक व्याख्या करते हैं। रत्नत्रयपरीक्षा में वे कहते हैं– “सिद्धान्तशब्दः पङ्कजादिशब्दवद् योगरूढ्या शिवप्रणीतेषु कामिकादिषु दशाष्टादशसु तन्त्रेषु प्रसिद्धः” (पृ. १४६)। इसके विपरीत काश्मीरी विद्वान् अभिनवगुप्त अपने महनीय ग्रन्थ तन्त्रालोक में और जयरथ इस विशाल ग्रन्थ की अपनी अतिविशिष्ट विवेक नामक टीका में १० शिवागमों को द्वैतवादी, १८ रुद्रागमों को द्वैताद्वैतवादी और ६४ भैरवागमों को अद्वयवादी बताते हैं। वे अपने इसी ग्रन्थ में कहते हैं कि अद्वय द्वय और द्वयाद्वय शिवागमों के व्याख्याता त्र्यम्बक, आमर्दक और श्रीनाथ नामक आचार्य हुए हैं और इन सिद्धान्तों के प्रचार के लिये इन्होंने अपनी-अपनी स्वतन्त्र मठिकाएँ स्थापित की हैं। शैवागमों के आधुनिक विद्वान् डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय जी ने भी १० शिवागमों को द्वैतवादी और १८ रुद्रागमों को द्वैताद्वैतवादी माना है। इन पूरे अट्ठाईस आगमों को मानने वाले वीरशैव आचार्य इनसे द्वैताद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। पूर्वोक्त अट्ठाईस शैवागमों के उत्तर भाग में वीरशैव सिद्धान्त प्रतिपादित है। अतः वीरशैव धर्म-दर्शन का मूल अट्ठाईस आगमों को ही माना जाता है। इसलिये पारमेश्वर आगम के । वीरशैवं वैष्णवं च शाक्तं सौरं विनायकम्। कापालमिति विज्ञेयं दर्शनानि षडेव हि।। इस वचन में आगम-संमत षड्दर्शनों की गणना में वीरशैव की गणना की गई है।
वीरशैव शब्द का निर्वचन
वीशब्देनोच्यते विद्या शिवजीवैक्यबोधिका। तस्यां रमन्ते ये शैवा वीरशैवास्तु ते मताः।। (सि. शि. ५.१६)
२६१
वीरशैव धर्म-दर्शन सिद्धान्तशिखामणि की इस उक्ति में वीरशैव पद का दार्शनिक निर्वचन किया गया है। यहाँ ‘वी’ शब्द का अर्थ शिव और जीव इन दोनों के अभेद की बोधक विद्या होता है और ‘र’ शब्द का अर्थ उस विद्या में रमण करने वाला शिवभक्त है। इस प्रकार शिव और जीव का अभेद बोधन कराने वाली विद्या में रमण करने वाले शिवभक्त ही वीरशैव कहलाते हैं।
सिद्धान्तशिखामणि में वीरशैव शब्द के बारे में प्रतिपादित निर्वचन पर डॉ. एस.एन. दास गुप्त’ एक आक्षेप उपस्थित करते हैं
The Siddhntśikhāmāņi gives a fanciful interpretation of the word, Vira’ as being composed of Vi’ meaning knowledge of identity with Brahman, and ‘ra’ as meaning someone who takes pleasure in such knowledge. But such an etymology, accepting it to be correct, would give the form Vira’ and not Vira’. No explanation is given as to how “Vi standing for Vidyā’ would lengthen its vowel into Vi'. I, there fore, find it difficult to accept this etymological interpretations as justi fying the application of the word Vira’ to Vira-saiva. Moreover, most systems of Vedāntic thought could be called Viira’ in such an interpre tation, for most types of Vedānta would feel enjoyment and bliss in true knowledge of identity. The word Vira’ would thus not be a distinctive mark by which we could distinguish Viira-Saivas from the adherents of other religions. Most of the Agamic śaivas also would believe in the ultimate identity of individuals with Brahman or Siva”.
उसका भाव इस प्रकार है-सिद्धान्तशिखामणि में प्रतिपादित वीरशैव शब्द में जो ‘वीर’ शब्द है, इसकी व्युत्पत्ति बहुत विचित्र ढंग से की गयी है। यदि “विद्यायां रमते" ऐसी व्युत्पत्ति करेंगे, तो उससे निष्पन्न शब्द ‘विर’ होगा, न कि ‘वीर’। तब ह्रस्व ‘वि’ दीर्घ ‘वी’ के रूप में कैसे परिवर्तित हो गया? दूसरा प्रश्न यह है कि शिव और जीव इन दोनों का अभेद बोधन करने वाली तत्त्वज्ञान रूप विद्या में अद्वैत वेदान्ती और अद्वैत को मानने वाले कुछ शैव सम्प्रदाय के लोग भी तो रमण करते हैं, अतः वे भी “विद्यायां रमते" इस व्युत्पत्ति सिद्ध ‘वीर’ विशेषण से युक्त हो जाते हैं। तब उनसे वीरशैवों की व्यावृत्ति कैसे होगी? उस तरह की विद्या में रमण करने वाले सभी लोगों में उस विशेषण का रहना अनिवार्य है और इस तरह से “व्यावृत्तिर्व्यवहारो वा लक्षणस्य प्रयोजनम्” इस नियम की सार्थकता यहाँ नहीं हो पा रही है। __डॉ. एस.एन. दासगुप्त का यह आक्षेप अविचारित रमणीय है। सिद्धान्तशिखामणि में “वीशब्देनोच्यते विद्या” यहाँ पर विद्या वाचक शब्द को ‘वी’ कहा गया है न कि ‘वि’, अतः ह्रस्व ‘वि’ दीर्घ ‘वी’ कैसे हो गया? इस आक्षेप का अवसर ही नहीं है। पाणिनीय धातुपाठ
1.
A Hist Ory of Idian Philoshopy, (Vol. 5, P. 44-45).
२६२
तन्त्रागम-खण्ड में “वी गतिव्याप्तिप्रजनन कान्त्यसनखादनेषु" (अदादि. १०४८) इस प्रकार गत्याद्यर्थक ‘वी’ धातु है। " ये गत्यर्थकास्ते ज्ञानार्थकाः" इस नियम के अनुसार गत्यर्थक ‘वी’ धातु का ज्ञान अथवा विद्या अर्थ होता है। ‘र’ शब्द का अर्थ रमण है। इस प्रकार ‘वी’ शब्द से प्रतिपाद्य शिव और जीव का अभेद-बोधन करने वाली विद्या में जो रमण करता है, उसे वीरशैव कहते हैं। इस प्रकार विद्या में रहने वाला ह्रस्व ‘वि’ दीर्घ कैसे हुआ, इस आक्षेप का अवसर ही नहीं है।
_उनके दूसरे आपेक्ष का तात्पर्य इस प्रकार है – शिव और जीव का अभेद-बोधन करने वाली विद्या में रमण तो अद्वैत वेदान्ती और अद्वैत को मानने वाले शैव सम्प्रदाय के अन्य लोग भी करते हैं, अतः वीरशैव शब्द की उनमें अतिव्याप्ति हो जाती है। उसको इष्टापत्ति भी नहीं कह सकते, क्योंकि वे लोग अपने को वीरशैष नहीं मानते। असाधारण धर्म को ही लक्षण कहते हैं। वह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव नामक तीन दोषों से रहित होना चाहिये। इस तरह के निर्दुष्ट लक्षण से ही लक्ष्य को जाना जा सकता है। अतः शिव और जीव की अभेदबोधक विद्या में रमण करने वाले शैव ही, अर्थात् शिवभक्त ही वीरशैव हैं, यह लक्षण वीरशैवेतर सम्प्रदाय के लोगों में अतिव्याप्त होने के कारण वीरशैवों का असाधारण लक्षण नहीं हो सकता। nebsias
4 डॉ. एस.एन. दासगुप्त का यह आक्षेप भी आपाततः ही सुचारु प्रतीत होता है, विचार करने पर उसका भी निराकरण हो जाता है। जैसे कि “अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा" (ब्र.सू. १. १.१) इस सूत्र का भाष्य लिखते हुए श्रीपति पण्डिताराध्य ने– “कल्याणकैवल्यविभूतित्रय प्रदायकाष्टावरणपञ्चाचारसद्गुरुकरुणाकटाक्षलब्धशक्तिपाताद्यवच्छिन्नपरशिवस्येष्टलिङ्गे धारणात्मकपाशुपतदीक्षानन्तर्यमित्यथशब्दाथों निर्णीयते" यहाँ ‘अथ’ शब्द का अर्थ सद्गुरु की कपा से दीक्षा के द्वारा इष्टलिंग के धारण के अनन्तर ब्रह्मजिज्ञासा करनी चाहिये, ऐसा किया गया है। जैसे वेदान्तशास्त्र में विवेक, वैराग्य, समाधि-षट्क-सम्पत्ति और मुमुक्षुता आदि साधन-चतुष्टय की प्राप्ति के अनन्तर ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकार माना जाता है, वैसे ही वीरशैव सिद्धान्त में त्रिविध दीक्षा के द्वारा जिसके मलत्रय निवृत्त हो गये हों, जो सदा इष्टलिंग को शास्त्रविहित पद्धति से शरीर पर धारण किये हुए हो, जो अष्टावरणों में निष्ठा रखकर पंचाचार में परायण हो, वही ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकारी माना जाता है। इसका निष्कर्ष यही हुआ कि सद्गुरु के द्वारा दीक्षा में प्राप्त इष्टलिंग को शरीर पर धारण करके जो शिव-जीव का अभेद-बोधन कराने वाली विद्या में रमण करता है, ऐसा शिवभक्त ही वीरशैव कहलाता है। इष्टलिंग का धारण पूर्वोक्त वेदान्ती तथा शैव लोग नहीं करते, अतः उनमें यह लक्षण अतिव्याप्त नहीं होगा।
इस प्रकार वीरशैव शब्द को योग-रूढ़ समझना चाहिये। “अन्यद्धि शब्दानां व्युत्पत्तिनिमित्तमन्यद्धि प्रवृत्तिनिमित्तम्" इस न्याय से व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की कथंचित् अन्यनिष्ठ होने की शंका उठने पर भी वीरशैव सिद्धान्त प्रतिपादित इष्टलिंग धारणरूप
वीरशैव धर्म-दर्शन
२६३ साधन-विशेष से विशिष्ट साधकों में वह रूढ़ माना गया है। अतः डॉ. दासगुप्त के द्वारा प्रतिपादित अतिव्याप्ति रूप आक्षेप का यहाँ अवसर ही नहीं है।
सालमा
वीरशैव शब्द का धार्मिक निर्वचन
वीरशैव धर्म में श्रीसद्गुरु दीक्षा के द्वारा इष्टलिंग को प्रदान कर उसको यावज्जीवन शरीर पर धारण करने का आदेश देते हुए कहते हैं - प्राणवद्धारणीयं तत्प्राणलिङ्गमिदं तव। २. कदाचित् कुत्रचिद्वापि न वियोजय देहतः।। (सि.शि. ६.२६) हे शिष्य! तुमको जो इष्टलिंग दिया गया है, इसको तुम अपना प्राणलिंग समझो। जैसे तुम अपने प्राण पर प्रेम रखते हो, वैसे ही इस शिवलिंग पर प्रेम रखो और किसी भी परिस्थिति में इसका अपने शरीर से वियोग न होने दो।’ जो व्यक्ति गुरु के इस आदेश के अनुसार अत्यन्त सावधानी से व्यवहार करता हुआ कदाचित् प्रमाद से उस इष्टलिंग का शरीर से वियोग होने पर अपने प्राण को भी त्याग कर देने के वीरव्रत का परिपालन करता है, ऐसा वीरव्रत वाला शिवभक्त ही वीरशैव सगुनकालाता है। इसी भाव को - इष्टलिङ्गवियोगे वा व्रतानां वा परिच्युतौ। तृणवत् प्राणसंत्याग इति वीरव्रतं मतम् ।। सिका भक्त्युत्साहविशेषोऽपि वीरत्वमिति कथ्यते। वीरव्रतसमायोगाद् वीरशैवं प्रकीर्तितम् ।।
- (चन्द्र. क्रिया. १०.३३-३४) माला आगम के इस वचन में स्पष्ट किया गया है। अत एव “वीरश्चासौ शैवश्च वीरशैवः" इस व्युत्पत्ति के द्वारा इन लोगों में शिव के प्रति रहने वाली भक्ति की पराकाष्ठा का प्रतिपादन किया जाता है। यहाँ पर जो वीरत्व कहा गया है, वह शारीरिक बलप्रयुक्त नहीं है, किन्तु भक्त्युत्साह प्रयुक्त समझना चाहिये। अत एव षडक्षरमन्त्री ने कहा है— वीरत्वमस्य न धनेन न वा बलेन नो कार्यतश्च विहितं दृढशम्भुभक्त्या। वीरस्तुरीय इति शङ्करभाषणेन श्रीवीरशैवमतगान परोऽस्ति कश्चित् ।। कि कार (वी.धर्म.शिरो. १.६) बाइक २६४ तन्त्रागम-खण्ड युद्धभूमि में युद्ध करने वाला योद्धा अपने स्वामी के प्रति अत्यन्त श्रद्धा रखकर उसके लिये जैसे अपने प्राण का भी त्याग कर देता है, वैसे ही शिव में भक्ति रखने वाला यह भक्त भी अपने शरीर में रहने वाली ममत्व-बुद्धि को त्याग कर प्रसंग होने पर भगवान् शिव के लिये किसी प्रकार के विकल्प के बिना अपने प्राण का भी त्याग कर देता है। अत एव नीलकण्ठ शिवाचार्य ने कहा है - वीशब्दो वा विकल्पार्थो रशब्दो रहितार्थकः। विकल्परहितं शैवं वीरशैवं प्रचक्षते।। इति। (क्रिया. भा. १, पृ. ११) स्कन्दपुराण की ‘शंकरसंहिता के यो हस्तपीठे निजमिष्टलिङ्गं विन्यस्य तल्लीनमनःप्रचारः। बाह्यक्रियासंकुलनिस्पृहात्मा संपूजयत्यङ्ग स वीरशैवः।। इस श्लोक में करपीठ में इष्टलिंग की अर्चना-विधि को सम्पन्न कर उस तरह की अर्चना में अनुरक्त व्यक्ति को वीरशैव की संज्ञा दी गई है। इससे वीरशैवों का यह इष्टलिंगार्चन कितने प्राचीन काल से चला आ रहा है, इसका भी ज्ञान हम लोगों को हो जाता है। इस प्रकार इष्टलिंग को धारण करने वाला यह शिवभक्त अपने लौकिक और पारमार्थिक व्यवहार में अन्य सभी लोगों से अत्यन्त विलक्षण प्रतीत होता है। इस विलक्षण आचार के कारण भी इन्हें वीरशैव कहा जाता है। वातुलशुद्धाख्य तन्त्र के विशिष्ट ईर्यते यस्माद् वीर इत्यभिधीयते। शिवेन सह सम्बन्धः शैवमित्यादृतं बुधैः ।। उभयोः सम्पुटीभावाद् वीरशैवमिति स्मृतम्। शिवायार्पितजीवत्वाद् वीरतन्त्रसमुद्भवात्।। वीरशैवसमायोगाद् वीरशैवमिति स्मृतम्। (वा.शु.त. १०.२७-२६) १. स्कन्दपुराण की तीसरी ३० हजार श्लोक वाली शांकरी संहिता का उल्लेख मद्रास गवर्नमेन्ट लाइब्रेरी में स्थित आर. १२२८१ संख्या की सनत्कुमारसंहिता की मातृका में मिलता है।वीरशैव धर्म-दर्शन २६५ । इस वचन में “विशिष्ट ईर्यते इति वीरः” इस तरह वीर शब्द की व्युत्पत्ति को बताकर उस विशिष्ट आचार वाले शैव को वीरशैव कहा गया है। श्री नीलकण्ठ शिवाचार्य ने क्रियासार के विरोधार्थो विशब्दः स्याद् रशब्दो रहितार्थकः । विरोधरहितं शैवं वीरशैवं विदुर्बुधाः।। (भाग १, पृ. ११) इस वचन में वीरशैव शब्द की व्युत्पत्ति को विरोधरहित के अर्थ में बताकर वीरशैवों के सर्वलोकानुरागित्व को सिद्ध किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि वीरशैव प्राणिमात्र के प्रति अनुराग करते आये हैं और आगे भी करते रहेंगे। कार इस प्रकार उपर्युक्त वीरशैव शब्द के विवेचन से यह सिद्ध होता है कि अपने सद्गुरु से दीक्षा में प्राप्त इष्टलिंग को जो अपने शरीर से कदापि वियुक्त न करता हुआ सावधानी से उसे अपने शरीर के वक्षस्थल पर धारण करता है, प्रसंग होने पर भगवान् शिव के लिये प्राणत्याग करने के वीरव्रत का परिपालन करता है और विरोध भावना का सर्वथा त्याग कर सब प्राणियों से सदा प्रेम करता हुआ शिव और जीव की अभेदबोधक विद्या में जो निरन्तर रमण करता रहता है, वही वीरशैव है।
लिंगायत शब्द की व्याख्या
कर्णाटक प्रदेश में वीरशैवों को लिंगायत भी कहा जाता है। यह लिंगायत शब्द वीरशैव का ही पर्यायवाचक है। “लिङ्गमायतिर्यस्य स लिङ्गायतः” यह इसकी व्युत्पत्ति है। “उत्तरः काल आयतिः” (अ.को.२.८.२६) अमरसिंह की इस उक्ति में उत्तर काल को आयति कहा गया है। जिसके जीवन का उत्तरकाल लिंग ही है, वह लिंगायत कहलाता है। शिवदीक्षा के अनन्तर जिसके जीवन का उत्तरकाल, अर्थात् अवशिष्ट आयु अधिकतर शिवलिंग की पूजा, ध्यान आदि में ही यापित हो जाता है, वही लिंगायत है। अत एव महर्षि वेदव्यास ने - समिति के शैलादेन महाभागा विचित्रा लिङ्गधारकाः। शवस्योपरि लिङ्गं यद् ध्रियते च पुरातनैः।। लिङ्गेन सह पञ्चत्वं लिङ्गेन सह जीवनम् । (स्कन्द. केदार. ७.४१-४२) 3 स्कन्दपुराण के इस वचन में लिंगधारी वीरशैवों की शिवलिंगनिष्ठा का बहुत ही सुन्दर रीति से चित्रण किया गया है। वीरशैव दीक्षा के बाद अपने शरीर पर निरन्तर इष्टलिंग धारण करते हैं। शरीर से प्राण छूट जाने पर भी इष्टलिंग का शरीर से वियोग नहीं किया वि २६६ तन्त्रागम-खण्ड जाता, उस इष्टलिंग के साथ ही समाधि-क्रिया की जाती है। इस प्रकार लिंग के साथ ही जीवन और लिंग के साथ ही मरण पाने वाले वीरशैव दूसरों को कुछ विचित्र जैसे लगते हैं, ऐसा महर्षि व्यास ने प्रतिपादित किया है। इस प्रकार इष्टलिंग के अधीन होकर अपना जीवन व्यतीत करने वाले ‘लिंगायत’ शब्द से भी सम्बोधित किये जाते हैं। यहाँ यह जानना अत्यन्त जरूरी है कि लिंगायत और वीरशैव इन दोनों में वीरशैव शब्द ही शास्त्रीय माना जाता है, संस्कृत साहित्य में उसी का प्रयोग होता है और उसकी नाना प्रकार की व्याख्याएँ मिलती हैं। लिंगायत शब्द के व्यावहारिक जीवन में रूढ़ होने के कारण उसको वीरशैव शब्द का पर्याय मानकर यहाँ उसकी व्याख्या की गयी है। मामला
वीरशैवों के प्रभेद
सामान्यं प्रथमं प्रोक्तं विशेषं च द्वितीयकम्। घर निराभारं तृतीयं च क्रमाल्लक्षणमुच्यते।। (सू. क्रिया. ७.३०) सूक्ष्मागम के इस प्रमाण वचन में सामान्य, विशेष और निराभार के नाम से वीरशैवों के तीन भेद बताये गये हैं। ये तीनों भेद उनकी क्रमिक उन्नति को बताते हैं। इनमें “सामान्यनियमान् यः परिपालयति स सामान्यवीरशैवः” इस वचन के अनुसार जो गुरुदीक्षा के बाद नियम से इष्टलिंग की पूजा, पूजनीय गुरु और जंगम की सेवा आदि वीरशैवीय सामान्य नियमों का पालन करता है, उसे सामान्य वीरशैव कहते हैं। उन्कोक “विशिष्टधर्मानुष्ठानाद्विशेष इति कथ्यते” __(सू. क्रिया. ७.३६) के इस आगमोक्ति के अनुसार जो पूर्वोक्त सामान्य नियमों के परिपालन से पवित्र मन का होकर वीरशैवशास्त्रोक्त भक्त, महेश, प्रसादी, प्राणलिङ्गी, शरण और ऐक्य नामक मुक्ति के क्रमिक सोपानों के रूप में विद्यमान षट्स्थल-तत्त्वों की गुरुमुख से विशेष जानकारी प्राप्त कर लेता है, उसे विशेष वीरशैव कहते हैं। “निवृत्तकर्मभारत्वान्निराभार इति स्मृतः” ना का की शाखा (सू. क्रिया. ७.६४) आगम के इस वचन के अनुसार उपयुक्त विशेष वीरशैव ही जब अपने सर्वविध कर्तव्यों को पूर्ण करके कृतकृत्य होकर जीवन्मुक्तवत् निस्पृह वृत्ति से जीवनयापन करता है, तब उसको निराभार वीरशैव कहा जाता है। इस तरह वीरशैवों के ये त्रिविध भेद साधकों के क्रमिक आध्यात्मिक विकास के परिचायक हैं। माता वीरशैव धर्म-दर्शन २६७
वीरशैव धर्म-दर्शन के संस्थापक आचार्य
वीरशैव धर्म-दर्शन की स्थापना शिव के पाँच श्रेष्ठ गणों के द्वारा की गई ऐसा माना जाता है। इन्हें पंचाचार्य कहते हैं। वे आचार्य श्री रेवणाराध्य, श्री मरुलाराध्य, श्री एकोर माराध्य, श्री पण्डिताराध्य और श्री विश्वाराध्य के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये पाँचों आचार्य भगवान् शिव की आज्ञा से प्रत्येक युग में धर्म-स्थापना के लिये विभिन्न नामों से अवतार लेते आये हैं, ‘शास्त्रों की ऐसी मान्यता है। कृतयुग में ये आचार्य एकाक्षर शिवाचार्य, व्यक्षर शिवाचार्य, त्र्यक्षर शिवाचार्य, चतुरक्षर शिवाचार्य तथा पंचाक्षर शिवाचार्य कहलाते थे। यही आचार्य त्रेतायुग में क्रमशः एकवक्त्र शिवाचार्य, द्विवक्त्र शिवाचार्य, त्रिवक्त्र शिवाचार्य, चतुर्वक्त्र शिवाचार्य और पंचवक्त्र शिवाचार्य नामों से जाने जाते थे। इसी प्रकार ये ही आचार्य द्वापरयुग में रेणुक शिवाचार्य, दारुक शिवाचार्य, घण्टाकर्ण शिवाचार्य, धेनुकर्ण शिवाचार्य और विश्वकर्ण शिवाचार्य के नाम से प्रसिद्ध थे। ये ही आचार्य कलियुग में रेवणाराध्य, मरुलाराध्य, एकोरामाराध्य, पण्डिताराध्य और विश्वाराध्य के नाम से जाने जाते हैं। कलियुग के ये पाँचों आचार्य क्रमशः कुल्यपाक के (कोलनुपाक के) श्रीसोमेश्वरलिंग, वटक्षेत्र के श्रीसिद्धेश्वरलिंग, द्राक्षाराम के श्रीरामनाथलिंग, श्रीशैल के श्रीमल्लिकार्जुनलिंग और काशीक्षेत्र के श्रीविश्वेश्वरलिंग से अवतरित होकर वीरशैव धर्म-दर्शन की पुनः स्थापना करते हैं। इनका संक्षिप्त इतिहास यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
१. श्रीजगद्गुरु रेवणाराध्य
अथ त्रिलिङ्गविषये कुल्यपाकाभिधे स्थले। सोमेश्वरमहालिङ्गात् प्रादुरासीत् स रेणुकः।। (सि. शि. ४.१) सिद्धान्तशिखामणि के इस वचन के अनुसार द्वापरयुग के श्री जगद्गुरु रेणुकाचार्य ने आन्ध्रप्रदेश के कोलनुपाक क्षेत्र के सुप्रसिद्ध सोमेश्वर महालिंग से अवतार लेकर मलय पर्पत में विराजमान महामहिम श्री अगस्त्य महर्षि को वीरशैव सिद्धान्त का उपदेश किया था। श्री शिवयोगी शिवाचार्य के द्वारा संगृहीत वह उपदेश ही आजकल सिद्धान्तशिखामणि के नाम से प्रसिद्ध है। श्री जगद्गुरु रेणुकाचार्य ने धर्म-प्रचार के लिये उसी मलय पर्वत पर एक पीठ की स्थापना की, जो रंभापुरी पीठ के नाम से प्रसिद्ध है। वह आज चिकमगलूर जिले के बालेहीवनूर ग्राम में स्थित है। इसे वीर सिंहासन मठ भी कहा जाता है। जगद्गुरु रेणुकाचार्य वीर गोत्र के भक्तों के आदिगुरु माने जाने जाते हैं। पर १. वी.स.सं. १.३०-३४ २६८ तन्त्रागम-खण्ड
२. श्री जगद्गुरु मरुलाराध्य
भगवान् शिव की आज्ञा से श्री जगद्गुरु मरुलाराध्य ने वीरशैव धर्म की स्थापना के लिये क्षिप्रा नदी के तट पर विराजमान वटक्षेत्र के सिद्धेश्वरलिंग से अवतार लिया था। तद्वन्मरुलसिद्धस्य वटक्षेत्रे महत्तरे। सिद्धेशलिङ्गाज्जननं स्थानमुज्जयिनीपुरे।। स्वायंभुव आगम के इस वचन के अनुसार इन्होंने धर्म प्रचार के लिये उज्जैन (मध्य प्रदेश) में एक पीठ की स्थापना की, जो कि उज्जयिनी पीठ के नाम से प्रसिद्ध है। है यह प्रसिद्धि है कि इस पीठ के द्वापरयुग के आचार्य दारुकाचार्य ने महर्षि दधीचि को शिवतत्त्व का उपदेश देकर उन्हें कृतार्थ किया था। कलियुग के श्री मरुलाराध्य जी अपने समय में मध्यप्रदेश तथा महाराष्ट्र में विभिन्न स्थानों में अनेक मठों की स्थापना करके वहाँ पर अपने एक शिष्य को पट्टाभिषेक करते हुए सर्वत्र संचार करके वीरशैव धर्मदर्शन के तत्त्वों का प्रचार किया था। अपने अवतार का प्रयोजन पूर्ण होने के बाद अपने शिष्य मुक्तिमुनीश्वर को अधिकार देकर पुनः उसी वट-क्षेत्र के सिद्धेश्वरलिंग में विलीन हो गये। इस पीठ की परम्परा अक्षुण्ण रीति से चली आ रही है। यह कहा जाता है कि कालान्तर में वहाँ के जैन शासकों के साथ मनोमालिन्य हो जाने के कारण तदानीन्तन पीठ के आचार्य ने अपने शिष्य समेत उज्जैन का त्यागकर महाराष्ट्र में संचार करते हुए कर्नाटक के बेल्लारी जिले के एक गाँव में आकर पीठ की पुनः स्थापना की थी। तब से उस गाँव का नाम उज्जयिनी पड़ गया। मध्यप्रदेश के उज्जैन में मूल मठ बहुत दिन तक रहा। आजकल वहाँ किसी के न रहने के कारण उसकी स्थिति बिगड़ गई है।
३. श्री जगद्गुरु एकोरामाराध्य
श्री जगद्गुरु एकोरामाराध्य शिव के आदेश के अनुसार वीरशैव मत की स्थापना के लिये द्राक्षाराम क्षेत्र के श्रीरामनाथलिंग से अवतरित हुए। द्राक्षारामे रामनाथलिङ्गायुगचतुष्टये। एकोरामस्य जननमावासस्तु हिमालये।।। छन स्वायंभुव आगम के इस वचन के अनुसार इन्होंने धर्म-प्रचार के लिये हिमालय में ओखीमठ में एक पीठ की स्थापना की, जो कि केदारपीठ के नाम से प्रसिद्ध है। इसी पीठ के कृतयुग के आचार्य त्र्यक्षर शिवाचार्य से तदानीन्तन सूर्यवंश के महाराजा मान्धाता ने शिवसिद्धान्त का तत्त्वोपदेश प्राप्त किया था। इन्होंने अपनी अन्तिम आयु उस गुरुपीठ की सेवा में ही व्यतीत की। प्रतीक स्वरूप उनकी एक शिलामूर्ति केदारपीठ में (अर्थात् ओखीमठ में) अद्यापि विराजमान है। वीरशैव धर्म-दर्शन २६६
४. श्री जगद्गुरु पण्डिताराध्य
श्री जगद्गुरु पण्डिताराध्य भगवान् शिव के आदेश के अनुसार वीरशैव-धर्म की स्थापना के लिये श्रीशैल (आन्ध्रप्रदेश) क्षेत्र में विराजमान श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिलिंग से आविर्भूत हुए थे। सुधाकुण्डाख्यसुक्षेत्रे मल्लिकार्जुनलिङ्गतः। जननं पण्डितार्यस्य निवासः श्रीगिरौ शिवे।। स्वायंभुव आगम के इस वचन के अनुसार इन्होंने वीरशैव-धर्म के तत्त्वों का बोध कराने के लिये श्रीशैल में ही एक पीठ की स्थापना की, जो श्रीशैलपीठ के नाम से प्रसिद्ध महर्षि सदानन्द ने एक बार पंचाक्षर मन्त्र का उच्चारण करके नरक के समस्त प्राणियों का उद्धार किया था। इन्होंने इस पीठ के द्वापरयुग के आचार्य श्रीधेनुकर्ण शिवाचार्य से शिवतत्त्व को समझकर अपने जीवन को कृतार्थ किया था।
५. श्री जगद्गुरु विश्वाराध्य
श्री जगद्गुरु विश्वाराध्य ने भगवान् शिव की आज्ञा से वीरशैव-धर्म की स्थापना के लिये काशीक्षेत्र के विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग से महाशिवरात्रि के दिन अवतरित होकर काशी में ही एक पीठ की स्थापना की, जो कि काशीपीठ या ज्ञानपीठ के नाम से प्रसिद्ध है। यह बात काश्यां विश्वेश्वरे लिङ्गे विश्वाराध्यस्य सम्भवः। स्थानं श्रीकाशिकाक्षेत्रे शृणु पार्वति सादरम्।। हि स्वायंभुव आगम के इस वचन से सिद्ध होती है। आजकल यह स्थान काशीपीठ जंगमवाडी मठ के नाम से सुप्रसिद्ध है। काशी के अत्यन्त पवित्र और ‘आनन्दकानन’ के नाम से प्रसिद्ध क्षेत्र में ही यह मठ विराजमान है। काशीखण्ड में इस क्षेत्र की बहुत महिमा बताई गई है। प्राचीन काल में यहाँ पर अनेक महर्षियों ने तपस्या करके अपने-अपने नाम से शिवलिंगों की स्थापना की है। वे अद्यापि विद्यमान हैं। उनको देखकर इस स्थान की महत्ता को जानते हुए आजकल के भावुक भक्त लोग भी अपने-अपने पूर्वजों के नाम से शिवलिंगों की स्थापना करते रहते हैं। अतः काशी का यह जंगमवाडी मठ दर्शकों के लिये लिंगमय प्रतीत होता है। इसकी सुप्रसिद्ध दुर्वासा महर्षि को इस पीठ के द्वापरयुग के आचार्य श्री जगद्गुरु विश्वकर्ण शिवाचार्य के द्वारा शिवाद्वैत-सिद्धान्त का उपदेश हुआ था। काशी में रहने वाले विभिन्न सम्प्रदायों के करीब तीन सौ (३००) मठों में यह जंगमवाड़ी मठ अत्यन्त प्राचीन और २७० तन्त्रागम-खण्ड ऐतिहासिक है। इस मठ की प्राचीनता के बारे में ‘स्वतन्त्र भारत’ नामक काशी के हिन्दी दैनिक में दि. २६.११.१६८६ में प्रकाशित श्री वैद्यनाथ सरस्वती का लेखांश इस प्रकार है “काशी में जितने भी जीवित मठ हैं, उनमें सबसे प्राचीन है वीरशैवों का जंगमवाड़ी मठ, जिसकी स्थापना छठी शताब्दी में हुई मानी जाती है। इनमें सर्वाधिक संख्या उन मठों की है, जिनकी स्थापना १८०१ से १६६८ के बीच हुई है”। इस पीठ के कलियुग के आचार्य जगद्गुरु विश्वाराध्य (११००) ग्यारह सौ वर्ष पर्यन्त उत्तर भारत में वीरशैव तत्त्वों का उपदेश देकर पुनः काशी विश्वेश्वरलिंग में विलीन हो जाते हैं। इनके बाद श्री जगद्गुरु मल्लिकार्जुन शिवाचार्य महास्वामी पीठाधिकारी होते हैं। आप ईसा पूर्व २०४० में पीठाचार्य रहे, ऐसी जानकारी इस पीठ से उपलब्ध गुरु-परम्परा से विदित होती है। आप अपने योग सामर्थ्य से तीन सौ ग्यारह (३११) वर्ष पर्यन्त पीठाचार्य रहकर अन्त में सजीव समाधि ग्रहण करते हैं। इस मठ के कैलास मण्डप में उनकी समाधि विद्यमान है। वे आज भी गछी स्वामी के नाम से पूजे जाते हैं। श्री जगद्गुरु मल्लिकार्जुन शिवाचार्य महास्वामी अत्यन्त महिमाशाली थे। उनके पश्चात् उनकी गद्दी पर आये हुए सतहत्तर (७७) पीठाचार्य श्री मल्लिकार्जुन शिवाचार्य स्वामी के नाम से ही जाने गये। इस पीठ-परम्परा में इक्यावन (५१) वें पीठाचार्य श्री जगद्गुरु मल्लिकार्जुन शिवाचार्य स्वामी जी को उस समय के काशी के राजा जयनन्द देव ने विक्रम संवत् ६३१ में प्रबोधिनी एकादशी के दिन भूमिदान किया था। १४०० वर्ष का वह प्राचीन दानशासन आज भी मठ में सुरक्षित है। मठ को दी गई जंगमपुर की उस भूमि में महामना मदनमोहन मालवीय ने उस समय के दरखें जगद्गुरु श्री शिवलिंग शिवाचार्य जी से अनुमति प्राप्त कर ई. १६१७ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की है। जयनन्ददेव का वह प्राचीन दानपत्र, उसकी प्रतिलिपि जो ताम्रपत्र पर लिखी हुई है, जिसे महाराजा प्रभुनारायण सिंह ने लिखवाया है, मठ में सुरक्षित हैं। यांनी काशी के जयनन्द देव के द्वारा प्रदत्त दानशासन पर किये जाने वाले आक्षेपों का व्योमकेश ने “जंगमवाड़ी मठ काशी में सुरक्षित १४०० वर्ष पुराना शासनादेश” इस शीर्षक से ‘नवनीत’ नामक पत्रिका में प्रकाशित लेख में प्रमाणबद्ध रीति से निराकरण किया है। विक्रम संवत् ६३१ में काशी के राजा जयनन्द देव का होना कुछ इतिहास ग्रन्थों में नहीं मिलता, क्योंकि ५वीं शती में कन्नौज के राजा ने काशी पर अधिकार कर लिया था। इस आक्षेप का परिहार व्योमकेश ने इस प्रकार किया है । “यह बात सही है कि पाँचवीं शती में कन्नौज के राजा ने काशी पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था, किन्तु काशी के राजा कन्नौज राज्य के अन्तर्गत स्वायत्त शासनाधिकार सम्पन्न बने रहे। प्राचीन इतिहास-ग्रन्थों में, यथा गदाधरभट्टकृत “विजयदृविलास” में जयनन्ददेव को काशी का राजा बताया गया है। जयनन्ददेव देवता के समान था। काशी के लोग उसको देवतातुल्य मानते थे। यह राजा अनन्तदेव का पुत्र था। जयनन्ददेव का पुत्र गोविन्ददेव हुआ, जो अत्यन्त वीर और धीर था, (विजयदृगविलास, द्वितीय अध्याय, छन्द संख्या ५-६)। अतः वीरशैव धर्म-दर्शन २७१ संवत् ६३१ वि. में जयनन्ददेव का काशी का राजा होना निश्चित है" (नवनीत, वर्ष ३३, अंक ५ में, १६८४, पृष्ठ-१०६-१०७)। इस विषय का विस्तार वहीं देखा जा सकता है। र इस मठ में हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब तथा मुहम्मद शाह द्वारा समय-समय पर मठ को दिये गये दानपत्र भी अपने मौलिक रूप में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में रखे हुए हैं। जिला कोर्ट से लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट तक इन सभी दान-पत्रों की छान-बीन की जा चुकी है और यदुनाथ सरकार जैसे मुगलकाल के विशेषज्ञ इतिहासकार को भी इनकी सत्यता मानने के लिये मजबूर होना पड़ा है। बनारस गजेटियर में पृष्ठ १२३ पर भी इन फरमानों का स्पष्ट उल्लेख है। इन फरमानों में इस मठ को दिये गये भूमिदान का उल्लेख है। हुमायूँ बादशाह ने मिर्जापुर जिले के चुनार नामक स्थान में जंगमबाड़ी के जंगमों के संमानार्थ ३०० बीघा जमीन दान की थी। उनके बाद के सभी मुगल बादशाहों ने इस फरमान को स्वीकार करते हुए नये फरमान भी दिये, जो अब तक मठ में हैं। मुगल बादशाहों के दानपत्र १५३० से १७८४ ई. तक के हैं। हुमायूँ के बाद अकबर ने ४८० बीघा भूमि दान की। अकबर के तीन फरमान यहाँ हैं। जहाँगीर के समय के भी दो फरमान है, जिनमें अकबर द्वारा किये गये दान की जाँच तथा उसका समर्थन है। शाहजहाँ के समय के १६ फरमान हैं। शाम वा मुगलों में सबसे क्रूर और तथाकथित हिन्दूद्रोही औरंगजेब के संबन्ध में तो यहाँ तक कहा जाता है कि जब वह काशी आया तो मन्दिरों को ध्वस्त करता हुआ जंगमवाड़ी मठ पहुँचा। किन्तु प्रवेश करते ही उसे लगा कि कोई भीमकाय काली देव-छाया उसकी ओर लाल नेत्रों से निहार रही है, मानो उसे निगल जायगी। साम्राज्य और सैन्यबल से सुसज्जित सम्राट औरंगजेब काँप उठा और तत्काल बाहर आ गया एवं मठ-ध्वंस का विचार त्याग कर उसने भी भूमिदान किया। असली हस्ताक्षरयुक्त पत्र अब तक मठ में सुरक्षित है, जिसमें यह सब लिखा हुआ है। मल बस नेपाल देश में (भक्तपुर) (भातगाँव) में भी इसका एक उपपीठ है। वहाँ वह जंगममठ. के नाम से ही प्रसिद्ध है। उस मठ के लिये भी विक्रम संवत् ६६२ ज्येष्ठ सुदी अष्टमी के दिन नेपाल के राजा विश्वमल्ल ने श्री मल्लिकार्जुन शिवाचार्य (मल्लिकार्जुन यति) को भूमिदान किया था। शिला पर उत्कीर्ण वह दानपत्र उसी मठ में आज भी उपलब्ध है। आजकल उस मठ में गृहस्थ-परम्परा के जंगम रह रहे है। । विकाशी जंगमवाड़ी मठ की गुरुपरम्परा भी अक्षुण्ण गति से चली आ रही है। अभी तक ऐतिहासिक तौर पर ८५ जगद्गुरु हो चुके हैं। इस पीठ-परम्परा के ७६वें जगद्गुरु श्रीहरीश्वर शिवाचार्य महास्वामी ई. १८२५ से १८७६ पर्यन्त पीठाचार्य रहे। वे मैसूर महाराजा श्री मुम्मडि कृष्णराज वडेयर से निमन्त्रित होकर मैसूर गये थे। वहाँ से राजमर्यादा प्राप्त कर वापिस आते समय मैसूर महाराजा के द्वारा दि. १०.७.१८४६ में एक दानपत्र * ર૭૨ तन्त्रागम-खण्ड दिया गया। उसमें यह लिखा है कि प्रतिवर्ष ६०० रुपया महाराजा के जन्मदिनोत्सव के निमित्त निरन्तर भेजा जायगा। उससे काशी में संस्कृत शास्त्राध्ययन करने वाले १२ जन माहेश्वर वटओं के नित्य प्रसाद की व्यवस्था होनी चाहिए। कन्नड भाषा में लिखित वह ताम्रशासन भी पीठ में विद्यमान है। भारत स्वतन्त्र होने के बाद राज-संस्थानों के विलीनीकरण पर्यन्त वह धनराशि वर्षासन के रूप में आती रही। इस दानपत्र के अलावा मैसूर के महाराजा द्वारा श्री हरीश्वर शिवाचार्य (सिद्धलिंग स्वामी) को चाँदी के छत्र, चामर व दण्ड आदि प्रदान किये गये थे। महाराजा के हस्ताक्षरयुक्त ये दण्डचामर आदि पीठ में विद्यमान हैं। इनके समय में भी इस पीठ की बहुत तरक्की हुयी। इनके बाद इनके शिष्य श्री वीरभद्र शिवाचार्य स्वामी ने १०वें पीठाचार्य के रूप में पदग्रहण किया। ई. १८७६ से १८६१ पर्यन्त इनका कार्यकाल रहा। इनके समय में कर्नाटक के कोडगु के महाराजा वीर राजेन्द्र वडेयर अपने परिवार समेत काशी आकर रहने लगे। अपने कोर्ट-केस के कारण उनको इंग्लैण्ड जाना पड़ा और वहीं उनका देहावसान भी हुआ। उनके मृत्यु-पत्र के अनुसार उनका पार्थिव शरीर काशी लाया गया और जंगमवाडी मठ में उसकी विधिवत समाधि की गयी। उनकी समाधि पर उनके परिवार के सभी लोगों ने दि. १२.२.१८६२ में लिंग की स्थापना की। उस लिंग का वीरेश्वर नाम रखा गया और समाधि पर स्थित वीरेश्वर लिंग के लिये एक भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया, जो अभी भी मठ के द्वितीय महाद्वार के पास विद्यमान है। उनकी पटरानी देवम्माजी ने यात्रियों के निःशुल्क निवास के लिये एक छत्र का निर्माण करायी। वह रानी-छत्र के नाम से आज भी जाना जाता है। अन्न-छत्र चलाने के लिए भी उस समय रानी देवम्माजी ने गुरु-दक्षिणा के रूप में आर्थिक सहायता की। इसी प्रकार कोडगू राजपरिवार भी काशीपीठ-परम्परा का शिष्य माना जाता है। महिना धित श्री जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्य महास्वामी के १८.८.१८६१ के दिन शिवैक्य हो जाने के बाद उनके शिष्य श्री राजेश्वर शिवाचार्य स्वामी ने ८१वें जगद्गुरु के रूप में अधिकार ग्रहण किया। यह बहुत बड़े तपस्वी विद्वान् और त्यागी थे। इनके औदार्य के कारण काशी के निवासी इनको ‘जंगम राजा’ कहते थे। काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय श्री पं. शिवकुमार मिश्र शास्त्री इनसे प्रभावित हुए और उनकी आज्ञानुसार “लिंगधारणचन्द्रिका" नामक प्राचीन संस्कृत पुस्तक पर शरत् नामक संस्कृत व्याख्या लिखी, जो ई. १६०५ में प्रथम प्रकाशित हुई। आपके समय में सैकड़ों विद्यार्थी मठ में निवास कर संस्कृत शास्त्रों का अध्ययन करते थे। वे १६ वर्ष तक पीठाचार्य रहकर दि. ३१.७.१६०७ में शिवैक्य हो गये। श्री जगद्गुरु राजेश्वर शिवाचार्य महास्वामी के मृत्युपत्र के अनुसार उनके प्रिय शिष्य श्रीशिवलिंग महास्वामी ने सन् १९०७ में रखें पीठाचार्य के रूप में पद ग्रहण किया। अपने काशी में रहने वाले प्राचीन विश्वाराध्य गुरुकुल में अनेक सुधार करके दक्षिण भारत में अनेक शाखाओं को खोलने का प्रयत्न किया। इसके अलावा २३.३.१६१८ में इन्होंने वीरशैव धर्म-दर्शन २७३ काशीपीठ में वीरशैव-धर्म के अन्य चारों पीठाचार्यों को एकत्र बुलाकर पंचाचार्य सम्मेलन का आयोजन करके धर्मजागृति के बारे में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। इन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने प्रिय शिष्य पंचाक्षर शिवाचार्य को दि. १६.२.१६३२ में ८३वें जगद्गुरुत्वाधिकार प्रदान कर दि. ५.४.१६३२ में शिवैक्य हो गये। . इस पीठ के ८३वें जगद्गुरु श्रीपंचाक्षर शिवाचार्य महास्वामी १४ वर्ष पर्यन्त पीठाचार्य रहकर इस पीठ पर आयी हुई कई प्रकार की मुसीबतों का सामना करते हुए बड़ी मात्रा में देय ऋण से पीठ को विमुक्त कराने का भी प्रयास किया। दि. २६.४.१६४४ में ये शिवसायुज्य प्राप्त हुए। ____श्री जगद्गुरु पंचाक्षर शिवाचार्य महास्वामी के मृत्यु पत्र के अनुसार उनके प्रिय शिष्य श्री वीरभद्र शिवाचार्य महास्वामी ८४वें जगद्गुरु के रूप में दि. २७.६.१६४४ को सिंहासनारूढ़ हुए। ये बहुभाषी पण्डित होते हुए पुरातत्त्व में विशेष अभिरुचि रखते थे। इन्होंने इस पीठ में “ज्ञानमन्दिरम्” नामक एक ग्रन्थालय की स्थापना की। उस ग्रन्थालय में १०,००० से अधिक अमूल्य प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थों का संग्रह है। इसके अलावा तन्त्र आगम आदि विषयों के हजारों हस्तलिखित तालपत्र संगृहीत किये गये हैं। आजकल काशी जंगमवाड़ी मठ का वह ज्ञानमन्दिर एक अनोखा ग्रन्थालय माना जाता है। श्री जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्य महास्वामी ने अनेक धार्मिक ग्रन्थों को प्रकाशित कराने के लिये शिवधर्म ग्रन्थमाला की स्थापना करके उसके माध्यम से अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन किया। इन्होंने केवल साढ़े तीन बरस पर्यन्त पीठाचार्य पद पर रहकर अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये और २५.१.१६४८ के दिन शिवसायुज्य प्राप्त किया। श्री जगद्गुरु वीरभद्र शिवाचार्य महास्वामी के मृत्युपत्र के अनुसार ८५वें जगद्गुरु के रूप में श्रीविश्वेश्वर शिवाचार्य महास्वामी दि. १४.१२.१६४८ के दिन ज्ञानसिंहासन पर आरूढ़ हुए। ये ४२ वर्ष पर्यन्त इस पीठ के पीठाचार्य रहे। इनके समय में काशी जंगमवाड़ी मठ के महाद्वार के दोनों तरफ श्रीविश्वाराध्य मार्केट का निर्माण हुआ। वह मार्केट फर्नीचर व्यवसाय के लिये अत्यन्त मशहूर हो गया। इसके अलावा इन्होंने पूना, औरंगाबाद, मंगलवेडा (सोलापुर जिला) आदि स्थानों में विद्यार्थियों के अध्ययन के लिये छात्रावासों का निर्माण कराया। इसी तरह काशी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के वेदान्त विभाग में शक्तिविशिष्टाद्वैत वेदान्त अध्ययन पीठ की स्थापना कराई। इस अध्ययन पीठ में वीरशैव सिद्धान्त की शास्त्री एवं आचार्य कक्षाओं की पढ़ाई होती है। यहाँ अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने की भी व्यवस्था महास्वामीजी ने की है। इस प्रकार इन्होंने अपने पीठाधिकार-काल में अनेक सुधार किये। दि. २.१०.१६८६ के दिन ये शिवसान्निध्य को प्राप्त हए। इनके पश्चात ६वें जगदगरु के रूप में इनके प्रिय शिष्य डॉ. चन्द्रशेखर शिवाचार्य महास्वामी दि. १७.११.१६८६ के दिन ज्ञानसिंहासनारूढ़ होकर विराजमान हैं। २७४ तन्त्रागम-खण्ड उपर्युक्त पाँचों पीठों के आचार्य पंचाचार्य कहे जाते हैं। ये ही पाँच आचार्य वीरशैव धर्म के जगद्गुरु होते हैं। इनके अतिरिक्त इस धर्म के जितने भी गुरु होते हैं, वे सब इन्हीं पंचाचार्यों के शाखा-मठों के अनुयायी पट्टाधिकारी होते हैं। यही
वीरशैवधर्म और सन्त बसवेश्वर
यह प्रवाद सुनने में आता है कि बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में अत्यन्त प्रख्यात चालुक्य वंश के बिज्जल नामक महाराजा के प्रधानमंत्री श्रीबसवेश्वर के द्वारा इस धर्म की स्थापना हुई थी। किन्तु यह बात कदापि सत्य नहीं हो सकती, क्योंकि कर्णाटक के बीजापुर जिले के बागेबाड़ी ग्राम निवासी श्री मादरस और मादलम्बिका नामक ब्राह्मण-दम्पती से उत्पन्न श्रीबसवेश्वर ने आठवें वर्ष में ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार को त्याग कर कूडल संगमक्षेत्र में उस समय के प्रख्यात वीरशैवाचार्य श्री जातवेद मुनि से. वीरशैव धर्मोचित इष्टलिंग-दीक्षा को ग्रहण किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि बसवेश्वर से पहले भी यह धर्म था और इसके आचार्य भी थे। जमात इस बात को अवश्य जान लेना चाहिये कि वीरशैवधर्म में दीक्षा लेने के बाद इस धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिये श्री बसवेश्वर का बहुत योगदान रहा है। इस धर्म के प्रबल प्रचारक होने के कारण लोगों में यह भ्रम पैदा हो गया कि शायद इन्होंने ही इसकी स्थापना की है। किन्तु यह यथार्थ नहीं है। वीरशैव धर्म के बहुत बड़े आधुनिक ऐतिहासिक और दार्शनिक विद्वान डॉ. एस.सी. नन्दीमठ महोदय ने- मानी का माझा The darkness surroundings the early history of the sect has led almost all scholars (Dr. Bhandarkar excepted) to conclude that it was founded by Basava, the minister of kalacuri King Bijjala (1122-1167 A.D.). However, this is far from the truth, for none of the books on Virasaivism, either in Kannada or in Sanskrit, ascribe the foundation of the sect to Basava.“1 जो इस प्रकार श्री बसवेश्वर के वीरशैव-धर्मसंस्थापकत्व प्रवाद का निराकरण किया है। उनका कहना है कि डॉ. भाण्डारकर को छोड़कर अन्य सभी संशोधकों की बद्धि में यह अन्धेरा छा गया है कि बसवेश्वर ही वीरशैव मत के संस्थापक हैं। वीरशैव धर्म के कन्नड़ या संस्कृत के किसी भी ग्रन्थ में बसवेश्वर का धर्मसंस्थापक के रूप में उल्लेख नहीं किया गया है। अतः बसवेश्वर इस धर्म के संस्थापक नहीं हो सकते। रात कधीजी 1. A Hand book of Virasaivism, p. 2, Motilal Banarasidas, 1979.वीरशैव धर्म-दर्शन २७५ मां दक्षिण भारत के प्रमुख इतिहासविद् श्री के. ए. नीलकण्ठ शास्त्री लिखते हैं -गार 1551’‘Lingayāt tradition avers that the sect is very old and was founded by five ascetics-Ekorámā, Panditārādya, Revana, Marula and Viśwārādhyā who were held to have sprung from the five heads of Siva. Basava, they say, was but the reviver of the faith"15 लिंगायत (वीरशैव) धर्म अत्यन्त प्राचीन है। शिव के पाँच मुखों से आविर्भूत एकोराम, पण्डिताराध्य, रेवण, मरुल और विश्वाराध्य नामक पाँच आचार्यों ने इसकी प्रस्थापना की थी। इनके अनुसार बसवेश्वर इस धर्म के केवल पुनरुज्जीवक थे। 1. पाश्चात्त्य विद्वान् डॉ. जे.एन. फर्ग्युहर का कहना है ** The tradition is that the sect was founded by five ascetics-Ekorāma, Panditārādhya, Revaņa, Marula, Viśāwārādhya who are held to have sprung from the five heads of Siva, incarnate age after age. These are regarded as very ancient and Basava is said to have been but the revivor of the faith.” प्रत्येक युग में शिव के पाँच मुखों से उत्पन्न एकोराम, पण्डिताराध्य, रेवण, मरुल और विश्वाराध्य नामक पाँच यतियों ने इस धर्म की स्थापना की। ये पाँचों आचार्य अत्यन्त प्राचीन हैं। बसवेश्वर तो इस धर्म के पुनरुज्जीवक मात्र थे। म डॉ. यदुवंशी का कहना है- “दक्षिण में एक नये सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका आगे चलकर बड़ा महत्त्व हुआ। यह था ‘लिंगायत’ अथवा ‘वीरशैव’ सम्प्रदाय। इस सम्प्रदाय का जन्म कब और कैसे हुआ? तथा इसका संस्थापक कौन था? यह अभी तक विवादास्पद विषय है, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि प्रख्यात ‘बसव’ इस सम्प्रदाय के जन्मदाता नहीं थे। यद्यपि इन्होंने इसको बहुत सहायता दी’। (शैवमत, पृ. १५८-१५६) ____काशी के सुप्रसिद्ध लेखक श्री रामदास गौड़ कहते हैं- “कुछ लोगों का यह अनुमान है कि लिंगायतों के मूल आचार्य बसवेश्वर थे। यह कथन अनेक कारणों से भ्रमपूर्ण है। पहले तो बसवपुराण, जो मूल तेलुगु फिर कन्नड़ भाषा में लिखा गया, अब से ७०० वर्ष से अधिक पुराना ग्रन्थ हो नहीं सकता। इसे बादरायण व्यास प्रणीत कहना तो साफ जाल है। सबसे बड़ी बात यह है कि वीरशैव मत वालों को बसवादि के जन्म के साढ़े चार हजार वर्ष पहले भूमिदान मिलने के प्रमाण मौजूद हैं और स्वयं बसव-पुराण उनकी प्राचीनता की पुष्टि करता है"। (हिन्दुत्व, पृ. ६६७-६६८) म् शैवमत के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय भी बसवेश्वर को वीरशैव धर्म का पुनरुज्जीवक ही मानते हैं, न कि संस्थापक। उनका कहना है—वीरशैवों के इष्टलिंग और प्राणलिंग की चर्चा सदानन्द आदि उपनिषदों में किये जाने के कारण यह धर्म अत्यन्त 1. A History of south India. p. 435, Oxford University Press, 1966. २७६ तन्त्रागम-खण्ड है प्राचीन माना जाता है और इसके संस्थापक रेणुक, दारुक, एकोराम, पण्डिताराध्य और विश्वाराध्य नामक प्रसिद्ध पंचाचार्य ही हैं। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है (सारस्वती सुषमा, १५ वर्ष, १-४ अंक)| Ever 2 इस प्रकार सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वानों के मतानुसार श्री जगद्गुरु पंचाचार्य ही वीरशैव धर्म के संस्थापक माने जाते हैं। बसवेश्वर को तो इस मत के एक प्रबल प्रचारक के रूप में ही मान्यता मिली है। यही सत्य भी है। जा
वीरशैवों के गोत्र व उनके मूल प्रवर्तक
हमारे देश में ऋषिवंश और गणवंश के नाम से दो वंश अत्यन्त प्राचीन हैं। ऋषिवंश के प्रवर्तकों में कश्यप, भरद्वाज और गौतम आदि ऋषि प्रसिद्ध माने जाते हैं। ये ऋषि और इनके वंशज ब्रह्मसृष्टि में आते हैं, ब्रह्मसृष्टि से पूर्व भगवान् शिव की सृष्टि में आने वाले वीर, नन्दी, भुंगी, ऋषभ और स्कन्द ये पाँच गण और इनके वंशज आते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व काल में जब शिव ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण करने के लिये आदेश देते हैं, तब सृष्टिकार्य में प्रवृत्त ब्रह्मा उसमें असफल होकर भगवान् से प्रार्थना करते हैं - सृष्टि विधेहि भगवन् प्रथम परमेश्वर। ज्ञातोपायस्ततः कुर्या जगत्सृष्टिमुमापते।।। (सि.शि. २.२४) हे भगवन् परमेश्वर! आप पहले सृष्टि कीजिये। उसे जानकार बाद में मैं सृष्टि करता हूँ। ब्रह्माजी की इस प्रार्थना को सुनने के बाद भगवान् शिव ने - इत्येवं प्रार्थितः शम्भुर्ब्रह्मणा विश्वयोनिना। ससर्जात्मसमप्रख्यान सर्वज्ञान् सर्वशक्तिकान्॥ प्रबोधपरमानन्दपरिवाहितमानसान्। प्रमथान् विश्वनिर्माणप्रलयादिविधिक्षमान्।। (सि. शि. २.२५-२६) अपने ही जैसे प्रतिभासम्पन्न, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिसमन्वित प्रमथगणों की सृष्टि की। इस प्रकार ब्रह्माजी को सृष्टि-क्रिया सिखाने के लिये भगवान् शिव ने जो सृष्टि की, वह शिवसृष्टि कहलाती है। शिव के द्वारा संसृष्ट अनेक शिवगणों में प्रमुख वीर, नन्दी भुंगी, ऋषभ और स्कन्द ये पाँच शिवगण वीरशैवों के गोत्रपुरुष माने जाते हैं। ईशानमुखसंजाता वीरशैवा महौजसः। को मिलाकर वीरो नन्दी तथा भृगी वृषभः स्कन्द एव च।। (पाशुपत तन्त्र) २७७ वीरशैव धर्म-दर्शन शिव का अतिवर्णाश्रमाः पूर्वे नन्द्यादिप्रमथाः स्मृताः। की तलाशील है तत्सन्ततिक्रममायाता वीरशैवा इति श्रुताः।। हाला उपना विमानसानिया (वीरशैवसदाचारसंग्रह, ६.४) गारद पाशुपत तन्त्र और वीरशैवसदाचारसंग्रह के इन उद्धरणों से वीर, नन्दी आदि पाँच प्रथमगण ही वीरशैव वंश के मूल पुरुष हैं, यह बात सिद्ध होती है। इन प्रमथगणों की शक्तियों के (धर्मपत्नियों के बारे में लिंगपुराण, क्रियासार आदि ग्रन्थों में उल्लेख मिलते हैं वीरभद्रो महातेजा हिमकुन्देन्दुसन्निभः। ताफा भद्रकालीप्रियो नित्यं मातृणामभिरक्षकः।। लिंगपुराण की इस उक्ति में वीरभद्र की धर्मपत्नी भद्रकाली बतायी गयी है। इसी प्रकार क्रियासार की— “कुण्डलिनीसहिताय नन्दिकेश्वराय नमः, हलादिनीसहिताय भृङ्गिणे नमः, भद्रासहिताय वृषभाय नमः, देवसेनासहिताय, स्कन्दाय नमः” (क्रियासार, भाग २, पृ. २७८-२७६) इस उक्ति में नन्दीश्वर की धर्मपत्नी कुण्डलिनी, भंगी की धर्मपत्नी ह्लादिनी, वृषभ की धर्मपत्नी भद्रा और स्कन्द की धर्मपत्नी देवसेना बताई गई है। इस प्रकार वीरशैवों के गोत्रपुरुषों में वीरभद्र ने भद्रकाली का, नन्दी ने कुण्डलिनी का, भंगी ने हलादिनी का, वृषभ ने भद्रा का और स्कन्द ने देवसेना का परिग्रह किया, यह सिद्ध होता है। इन पाँच गणाधीश्वरों के जो वंशज हैं, उन्हें जंगम कहते हैं। जिन इसी प्रकार भगवान् शिव के पाँच मुखों से मुखारि, कालारि, पुरारि, स्मरारि और वेदारि नाम के पाँच गण उत्पन्न हुए। इनकी सन्तान को पंचम सालि कहते हैं। इस प्रकार वीरशैव-परम्परा में जंगम वंश और पंचम सालि वंश के नाम से दो वंश-परम्पराएं चली आ रही हैं। इनमें जंगम वंशज गुरु कहलाते हैं और पंचम सालि-वंशज उनके शिष्य हैं। यहाँ गुरु का जो गोत्र होता है, वही उसकी शिष्य-परम्परा का भी होता है। इस तरह वीरशैव-धर्म में वीर, नन्दी, भंगी, वृषभ और स्कन्द ये ही पाँच गोत्रपुरुष हैं और गोत्र भी इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हैं। वीरशैव-परम्परा में भी सगोत्र विवाह निषिद्ध माना गया है। विवाह आदि मांगलिक कार्य करते समय इस धर्म के संस्थापक मूल पंचाचार्यों से प्रतीक के रूप में संस्थापित पाँच कलशों को साक्षी माना जाता है। नि
धार्मिक संस्कार में स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार
वीरशैव धर्म में प्रत्येक व्यक्ति को साधना में प्रवृत्त होने से पहले परम्परागत अपने कुलगुरु (वंशगुरु) के द्वारा दीक्षा संस्कार लेना पड़ता है। इस धर्म में साधना करने के लिये स्त्री और पुरुष इन दोनों को समान अधिकार दिया गया है। अतः जैसे पुरुषों का दीक्षा-संस्कार किया जाता है, उसी प्रकार स्त्रियों का भी किया जाता है। इस दीक्षा-संस्कार २७८ न तन्त्रागम-खण्ड में पट्टाभिषिक्त शिवाचार्य लोग अपने गोत्र के शिष्यों को इष्टलिंग प्रदान कर पंचाक्षरी महामन्त्र का उपदेश करते हैं। यह दीक्षा जन्म के आठवें वर्ष में की जाती है। इस दीक्षा में प्राप्त इष्टलिंग को स्त्री और पुरुष दोनों अपने शरीर के मस्तक, पसली, वक्षस्थल, कण्ठ और हथेली इन स्थानों में से किसी एक स्थान पर अपनी इच्छानुसार धारण करते हैं, किन्तु नाभि के नीचे इसको धारण करना निषिद्ध है। उस इष्टलिंग को स्वर्ण, चाँदी, पीतल, ताम्र आदि उत्तम धातुओं से बनी सज्जिका में, जो कि शिवलिंग, नन्दीश्वर, आम्रफल, बिल्वफल तथा मोदकाकार का एक छोटा सा मन्दिर होता है, रखकर शुक्ल, रक्त, कृष्ण, पीत तथा चित्र वर्ण के शिवसूत्रों में इच्छानुसार किसी एक का परिग्रह करके इष्टलिंग के मन्दिररूप उस सज्जिका से संलग्न करके शरीर पर धारण करते हैं। दीक्षा के समय धारण किये हुए इष्टलिंग का वीरशैव स्त्री-पुरुष कदापि अपने शरीर से अलग न करते हुए प्रतिदिन सुबह और शाम अपने वामहस्तरूपी पीठपर रखकर पूजा करते हैं और पूजा के बाद पुनः अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार वीरशैव धर्म में दीक्षा, इष्टलिंगधारण और उसकी पूजा आदि धार्मिक विधियों में स्त्री-पुरुषों में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं किया जाता। यह इस धर्म की विशेषता है।
इष्टलिंग की पूजा में सूतक का प्रतिषेध
यहाँ पर शंका होती है कि स्त्रियों को धर्माचरण का समान अधिकार देने पर जननसूतक और रजस्सूतक प्राप्त होने पर दीक्षासम्पन्न स्त्री अपने इष्टलिंग की पूजा कैसे कर सकती है? चूँकि धर्मशास्त्र में सूतक के समय में पूजा आदि का निषेध माना गया है। इस शंका के परिहारार्थ वीरशैव आचार्यों ने इष्टलिंगपूजामात्र में सूतक की प्राप्ति नहीं मानी है। वहाँ कहा गया है कल शाही जिग लिङ्गार्चनरतायाश्च ऋतौ नार्या न सूतकम्। का तथा प्रसूतिकायाश्च सूतकं नैव विद्यते।। का शिकार जोर लगृहे यस्मिन् प्रसूता स्त्री सूतकं नात्र विद्यते। सीमा शामा शिवपादाम्बुसंस्पर्शात् सर्वपापं प्रणश्यति।।एगा कि ३२ वराह (सि.शि. ६.४४-४५) मा सहक इसका तात्पर्य यह है कि जैसे “यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्” इस प्रमाणवचन के अनुसार अग्निहोत्र को नित्य कर्म मानकर वैदिक धर्म में नित्यप्रति उसका अनुष्ठान करते हैं, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में इष्टलिंग का पूजन नित्य कर्म माना गया है। जिसके अनुष्ठान से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती हो और अनुष्ठान न करने पर दुरित की प्राप्ति होती हो, उसे नित्य कर्म कहते हैं। इस प्रकार नित्य कर्म का अनुष्ठान न करने से प्राप्त होने वाला दुरित उसके अनुष्ठान से प्राप्त नहीं होता, यही नित्य कर्म का फल है। वीरशैव धर्म-दर्शन २७६ लिङ्गस्य धारणं यस्य स्थूलदेहे न विद्यते। तद्देहं निष्फलं ज्ञेयं जीवत्यक्तशरीरवत् ।। तस्मात्तद्धारणं प्रोक्तं यावज्जीवाग्निहोत्रवत्। । (सिद्धान्तशिखोपनिषद्वीरशैवभाष्यम्, पृ. ४२). इस प्रमाण-वचन से उमचिगि श्रीशंकर शास्त्री ने इष्टलिंग के बिना वीरशैवों का शरीर निर्जीव होता है, इससे यह स्पष्ट बता दिया है कि यावज्जीव अग्निहोत्र के समान उसके धारण और पूजन करने की विधि पुष्ट होती है। महाशिला प्राणवद्धारणीयं तत्प्राणलिङ्गमिदं तव। काल कदाचित् कुत्रचिद् वापि न वियोजय देहतः।। (सि. शि. ६.२६) सिद्धान्तशिखामणि के इस वचन में भी यही बात कही गई है। इष्टलिंगधारण और उसका पूजन रूप नित्य कर्म वीरशैव धर्म में स्त्रियों के लिये भी विहित है, अतः आचार्यों ने उस कर्म के अनुष्ठानमात्र में स्त्रियों के सूतक की प्राप्ति नहीं मानी। यथा विश्वेशनिकटा गङ्गा सूतकवर्जिता। तथा लिङ्गाङ्किता भक्ताः पञ्चसूतकवर्जिताः।। (लिंगसार) धर्मशास्त्र में वर्षा काल में जब नदियों में बाढ़ आती है, उस समय नदियों को रजस्सूतक की प्राप्ति मानकर नदीस्नान का निषेध करने पर भी शिवसंयुक्त होने के कारण गंगाजी को रजस्सूतक से युक्त जैसे नहीं माना है, वैसे ही वीरशैव स्त्रियों को भी इष्टलिंग का सम्बन्ध होने के कारण रजस्सूतक नहीं होता, यह लिंगसार के इस वचन का तात्पर्य म इस प्रसंग में यह भी स्मरणीय है कि जैसे पौण्डरीक याग आदि दीर्घकालीन सत्रों का संकल्प करके याग करते समय यजमान की पत्नी यदि रजस्वला हो जाती है, तो भी वह स्नान करके पुनः जैसे याग में सम्मिलित होती है, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में दीक्षित स्त्री रजस्वला या प्रसूता होने पर भी उसी दिन स्नान एवं गुरु के चरणोदक का प्रासन करके शुद्ध होकर अपने नित्य कर्म इष्टलिंग की पूजा करने के लिये अधिकारी होती है। इष्टलिंगपूजा के अतिरिक्त पाक आदि अन्य कार्यों के लिये वीरशैव धर्म में भी सूतक माना जाता है। जैसे हाथ से छूने के लिये जिह्वा अपवित्र होने पर भी मन्त्रोच्चारण के लिये सदा पवित्र होती है, उसी प्रकार रजस्वला या प्रसूता स्त्री पाक आदि अन्य लौकिक कर्म करने के लिये अयोग्य और अपवित्र होने पर भी इष्टलिंग के धारण एवं उसकी पूजा के लिये वह अग्नि, रवि, तथा वायु के समान सदा पवित्र रहती है। इसीलिये सिद्धान्तशिखोपनिषद्भाष्य में कहा गया है २८० तन्त्रागम-खण्ड स्वेष्टलिङ्गैकपूजायां नैवाशौचं विधीयते। पौण्डरीके रजः स्त्रीणां स्वाग्निहोत्रे यथा तथा।। अकरस्पर्शयोग्यापि यथा जिह्वा महेश्वरि! मन्त्रोच्चारणमात्रस्य पूता भवति भूतले।। तथा सूतकिनः शैवाः पूजामात्रसुनिर्मलाः। नान्यस्पर्शानुकूलाः स्युरिति वेदानुशासनम् ।। (सिद्धान्तशिखोपनिषद्वीरशैवभाष्यम्, पृ. ४३-४४) - इसके अतिरिक्त घर में किसी की मृत्यु होती है, तो उस घर के लोग भी शव संस्कार के बाद स्नान एवं गुरु के चरणोदक के प्रोक्षण से घर को शुद्ध करके अपने-अपने इष्टलिंगपूजा रूप नित्य कर्म को बिना किसी बाधा के यथावत् अवश्य पूरा करते हैं। अतः वीरशैवों को इष्टलिंगपूजा में मरणसूतक भी नहीं लगता। शैवदेवार्चनं यस्य यस्य चाग्निपरिग्रहः।। ब्रह्मचारियतीनां च शरीरे नास्ति सूतकम्। लिङ्गार्चनरता नारी सूतकी वा रजस्वला।। रविरग्निर्यथा वायुस्तथा कोटिगुणोज्ज्वला। जातके मृतके वापि न त्याज्यं शिवपूजनम् ।। (ब्र. सू. श्रीकर. १.१.१, पृ. १२) पराशरस्मृति के इस वचन को उद्धृत करते हुए भगवान् भाष्यकार श्रीपति पण्डिताराध्य ने श्रीकरभाष्य के जिज्ञासाधिकरण में स्त्रियों की इष्टलिंगपूजा में कोई सूतक बाधक नहीं होता, इस बात का समर्थन किया है। इस प्रकार अनेक प्रमाणों से इष्टलिंगपूजा में सूतक की प्राप्ति न होने से इष्टलिंग-दीक्षा में पुरुष और स्त्री इन दोनों को समान अधिकार है। अन्य धर्मों की अपेक्षा इस धर्म में स्त्रियों को भी धार्मिक स्वातन्त्र्य देकर वीरशैव आचार्यों ने इस धर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाया है।
वीरशैवों में संस्कृत साहित्यकार व उनका साहित्य
अब हम यहाँ संक्षेप में वीरशैव मत के संस्कृत भाषा के साहित्यकारों और उनके साहित्य का परिचय प्रस्तुत करते हैं। जो सिद्धान्ताख्ये महातन्त्रे कामिकाये शिवोदिते। सिमित किनार निर्दिष्टमुत्तरे भागे वीरशैवमतं परम् । यो E (सि. शि. ५.१४) वीरशैव धर्म-दर्शन २८१ सिद्धान्तशिखामणि की इस उक्ति के अनुसार शिवोपदिष्ट २८ शैवागमों के उत्तर भाग में वीरशैव सिद्धान्त प्रतिपादित है, अतः वीरशैव धर्म-दर्शन के २८ शैवागम ही मूल आध गार माने जाते हैं। इस आगम साहित्य के बाद का सारा वीरशैव साहित्य इन आगमों पर ही आधारित है। वीरशैव धर्म के मूल स्थापनाचार्य रेवणसिद्ध, मरुलसिद्ध, एकोरामाराध्य, पण्डिताराध्य और विश्वाराध्य ने वेद और उपनिषदों पर वीरशैव सिद्धान्तपरक भाष्य लिखे थे, यह बात श्रीकरभाष्य से अवगत हो जाती है। (ब्र.सू. श्रीकर. १.१.१, ३.५.४, ३. ३.४०), परन्तु वे भाष्य अब उपलब्ध नहीं हैं। आजकल उपलब्ध साहित्य और साहित्यकारों क परिचय इस प्रकार है -
१. अगस्त्य मुनि
अगस्त्य ने रंभापुरीपीठ-परम्परा के जगद्गुरु रेणुकाचार्य से वीरशैव सिद्धान्त का श्रवण किया था। श्री रेणुकाचार्य का वह उपदेश श्रीशिवयोगी शिवाचार्य द्वारा लिपिबद्ध होकर आज सिद्धान्तशिखामणि के नाम से प्रसिद्ध है। श्री रेणुकाचार्य के द्वारा उपदिष्ट महर्षि अगस्त्य ने ब्रह्मसूत्रों पर वीरशैव सिद्धान्तपरक वृत्ति लिखी थी। वह ‘लघुसूत्रवृत्ति’ के नाम से जानी जाती है। उसी को आधार मानकर श्रीपति पण्डिताराध्य ने श्रीकरभाष्य की रचना की। वे अपने भाष्यारम्भ में लिखते हैं अगस्त्यमुनिचन्द्रेण कृतां वैयासिकी शुभाम्। सूत्रवृत्तिं समालोक्य कृतं भाष्यं शिवङ्करम् ।। (ब्र. सू. श्रीकर. मंगलश्लो. १७) अगस्त्य की यह लघुसूत्रवृत्ति कुम्भकोणं के ग्रन्थालय में उपलब्ध है, इसकी सूचना पण्डित नंजुण्डाराध्य ने श्रीकरभाष्यभूमिका (पृ.११५) में दी है। अतः आगमों के बाद अगस्त्य की यह लघुसूत्रवृत्ति वीरशैव साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है।
२. श्री शिवयोगी शिवाचार्य
सातवीं शताब्दी के श्रीशिवयोगी शिवाचार्य ने जगद्गुरु रेणुकाचार्य द्वारा अगस्त्य मुनि को मौखिक रूप से प्राप्त उपदेश के आधार पर सिद्धान्तशिखामणि नामक पद्यात्मक ग्रन्थ की रचना की। आजकल उपलब्ध वीरशैव संस्कृत साहित्य में इसको अत्यन्त प्राचीन एवं प्रामाणिक माना जाता है। श्री जगद्गुरु रेणुकाचार्य और महर्षि अगस्त्य के संवाद के रूप में यह ग्रन्थ विरचित हुआ है। इसमें ‘सिद्धान्त’ शब्दवाच्य २८ शैवागमों के उत्तर भाग में प्रतिपादित वीरशैव सिद्धान्त का बोध कराये जाने के कारण इस ग्रन्थ का नाम सिद्धान्तशिखामणि रखा गया है। श्रीशिवयोगी शिवाचार्य ने उनका समर्थन अपने १.२८२ तं तन्त्रागम-खण्ड सर्वेषां शैवतन्त्राणामुत्तरत्वान्निरुत्तरम्। नाम्ना प्रतीयते लोके यत् सिद्धान्तशिखामणिः।। (सि. शि. १.३१) मा इस श्लोक म किया है। जिसनमाया आमा
शिवयोगी शिवाचार्य का कालनिर्णय
श्री शिवयोगी शिवाचार्य ने सिद्धान्तशिखामणि में अपने वंश का वर्णन किया है । उससे उनका और उनके पिता और पितामह आदि का नाम तो मालूम हो जाता है, किन्तु उनके समय व देश का निश्चित पता नहीं लगता। उनके द्वारा वर्णित वंशानुक्रम के आधार पर ये शिवयोगी के प्रपौत्र मुद्ददेव के पौत्र और सिद्धनाथ के पुत्र थे, यह विदित होता है। इनके पितामह का नाम मुद्ददेव होने से बहुत से लोग इनको सोलापुर (महाराष्ट्र) के सप्रसिद्ध सिद्धरामेश्वर का वंशज मानने की भूल करते हैं। ऐसी भूल करने वालों में इस ग्रन्थ के संस्कृत व्याख्याकार श्रीमरितोण्टदार्य पहले हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ का व्याख्यान करते समय अपतरणिका में- “अत्र कलिकालप्रवेशानन्तरं लोकहितार्थ रेणुकगणेश्वर इति प्रसिद्धो रेवणसिद्धेश्वरः कुम्भसम्भवाय वीरशैवशास्त्रमुपदिष्टवान् । तदनन्तरं रेवणसिद्धेश्वरदृष्टिगर्भसंभूतसिद्धरामेश्वरसम्प्रदायप्रसिद्धः सकलनिगमागमपारगः शिवयोगीश्वर इत्यभिधानवान् कश्चिद् माहेश्वरस्तद्रेणुकागस्त्यसंवादं निर्विघ्नेन स्वशिष्यान् बोधयितुं स्वमनसि कृतसकलसिद्धान्तश्रेष्ठनिगमागमैक्यगर्भीकारलक्षणस्वेष्टदेवतानमस्काररूपमङ्गलं शिष्यशिक्षार्थं सप्तभिः श्लोकैर्निबध्नाति” (सि. शि., पृ.२) इस प्रकार लिख कर ग्रन्थकार शिवयोगी शिवाचार्य को सिद्धरामेश्वर सम्प्रदाय का, अर्थात् उनकी वंश-परम्परा का माना है। __यहाँ यह जानना अत्यन्त जरूरी है कि ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में महाराष्ट्र प्रान्त के सोलापुर में सिद्धरामेश्वर नामक एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। यह बालक अपने माता-पिता सुग्गला देवी और मुद्दगौड़ को रेवणसिद्धेश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ था। यह बालक आगे चलकर सिद्धराम शिवयोगी नाम से प्रख्यात हुआ। इन्होंने कन्नड़ भाषा में अपनी स्वानुभव-वाणी लिखी है, जो कि “सिद्धरामेश्वरवचनगलु” के नाम से प्रसिद्ध है। कश्चिदाचारसिद्धानामग्रणीः शिवयोगिनाम् । शिवयोगीति विख्यातः शिवज्ञानमहोदधिः ।। तस्य वंशे समुत्पनो मुक्तामणिरिवामलः। मुद्ददेवाभिधाचार्यो मूर्धन्यः शिवयोगिनाम्।। दि तस्यासीनन्दनः शान्तः सिद्धनाथाभिधः शुचिः । शिवसिद्धान्तनिर्णेता शिवाचार्यः शिवात्मकः।। तस्य वीरशिवाचार्यशिक्षारत्नस्य नन्दनः। अभवच्छिवयोगीति सिन्धोरिव सुधाकरः।। .. (सि. शि. १.१३, १५, १७, २०) २८३ वीरशैव धर्म-दर्शन सिद्धान्तशिखामणि के व्याख्याकार श्रीमरितोण्टदार्य कवि के वंशवर्णन में आये हुए मुद्ददेव शब्द को मुद्दगौड़ और सिद्धनाथ शब्द को सिद्धरामेश्वर समझकर शिवयोगी शिवाचार्य को सिद्धरामेश्वर का वंशज मान बैठे हैं, लेकिन यह ठीक नहीं है। मरितोण्टदार्य के इस कथन के अनुसार मुद्ददेव के पुत्र सिद्धनाथ को ही सिद्धरामेश्वर मानकर शिवयोगी शिवाचार्य को उनका पुत्र मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि सोलापुर के सिद्धरामेश्वर अविवाहित थे। दूसरी बात यह है कि ऐसा होने पर शिवयोगी शिवाचार्य अपने वंश का वर्णन करते समय पिता का नाम सिद्धराम लिखते, न कि सिद्धनाथ। यहाँ छन्दोभंग होने का भय भी नहीं है। “सिद्धनाथाभिधः शुचिः” के स्थान पर “सिद्धरामाभिधः शुचिः" लिख सकते थे। यहाँ प्रसिद्ध नाम का व्यत्यय करने का कोई प्रसंग न होने के कारण सिद्धनाथ को सिद्धराम कहना ठीक नहीं है और सोलापुर के सिद्धरामेश्वर के पिता का नाम मुद्दगौड़ था न कि मुद्ददेव। किंचिन्मात्र नामसाम्य से इस प्रकार कहना उचित नहीं प्रतीत होता। अतः सिद्धान्तशिखामणि के रचयिता शिवयोगी शिवाचार्य सोलापुर के सिद्धरामेश्वर के वंशज नहीं हो सकते।
इनके कालनिर्णय में दासगुप्त की अनवधानता
भारतीय दर्शनशास्त्र के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ. एस.एन. दासगुप्त ने “ए हिस्ट्री आफ इण्डियन फिलासफी" नामक ग्रन्थ के पाँचवें भाग में वीरशैव दर्शन के इतिहास और साहित्य का विवेचन किया है। उसमें सिद्धान्तशिखामणि का कालनिर्णय करते समय “सिद्धान्तशिखामणि में बसवेश्वर का उल्लेख होने से और श्रीपति पण्डिताराध्य द्वारा श्रीकरभाष्य में सिद्धान्तशिखामणि का उल्लेख होने से यह ग्रन्थ बसवेश्वर के बाद और श्रीपति से पहले रचित मालूम होता है” (पृ. ४४) इस प्रकार अपने मन्तव्य को व्यक्त किया है। यहाँ सिद्धान्तशिखामणि श्रीपति से पहले की है, इस बात के सत्य होने पर भी इस ग्रन्थ में बसवेश्वर का उल्लेख होने के कारण यह उसके बाद की है, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है। डॉ. दासगुप्त ने सिद्धान्तशिखामणि में बसवेश्वर का उल्लेख रहने वाले अंश को–“अथ वीरभद्राचार-बसवेश्वराचारं सूचयन् भक्ताचारभेदं प्रतिपादयति शिवनिन्दाकरं दृष्ट्वा घातयेदथवा शपेत्। स्थानं वा तत्परित्यज्य गच्छेद् यद्यक्षमो भवेत् ।। __(सि. शि. ६.३६) का इस प्रकार उद्धृत किया है (पृ.४५)। इस उद्धृत अंश में बसवेश्वर का नाम मूल ग्रन्थ में न होकर टीकाकार मरितोण्टदार्य के द्वारा लिखित अवतरणिका में है। यहाँ डॉ. दासगुप्त को मूल ग्रन्थ और टीका के पार्थक्य पर ध्यान न देने के कारण इस प्रकार का भ्रम हो गया है। टीकाकार बसवेश्वर के बाद के हो सकते हैं, लेकिन ग्रन्थ के मूल श्लोक में कहीं पर भी बसवेश्वर का नामोल्लेख न होने से ये बसवेश्वर के बाद के नहीं हो सकते। विवेचकों को इसे अच्छी तरह से जान लेना चाहिये। २८४ न तन्त्रागम-खण्ड पड श्रीपति पण्डिताराध्य ने अपने श्रीकरभाष्य में बहुत स्थानों पर सिद्धान्तशिखामणि के नामोल्लेख पुरस्सर ग्रन्थांशों को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। अतः श्रीपति पण्डिताराध्य से इन्हें प्राचीन माना गया है। काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान् भारतीय तत्त्वज्ञान के इतिहासज्ञ पण्डित बलदेव उपाध्याय ने अपने “भारतीय दर्शन” नामक हिन्दी ग्रन्थ (पृ. ४६६) में श्रीपति पण्डिताराध्य का काल ई. सन्. १०६० बताया है, इसी प्रकार श्री टी.एस. नारायण शास्त्री ने प्राचीन शिलालेखों के आधार पर श्रीपति पण्डिताराध्य का काल ई. सन् १०७३ सिद्ध किया है। काशीपीठ के पूर्वगुरु श्रीवीरभद्र शिवाचार्य (चिदरेमठ वीरभद्र शर्मा) आन्ध्रप्रदेश के विजयवाड़ा के मल्लेश्वर देवालय में पल्लवेश राजा के द्वारा लिखाये गये शिलालेख के आधार पर श्रीपति पण्डिताराध्य का काल ई. सन्. १०७० (श्रीकरभाष्य चतुःसूत्रीपीठिका, पृ.६) बताते हैं। इस प्रकार विद्वानों के मतानुसार श्रीपति पण्डिताराध्य का काल ग्यारहवीं शताब्दी निःसन्दिग्ध रूप से सिद्ध हो जाता है। अतः इसमें प्रमाणरूप से उद्धृत सिद्धान्तशिखामणि को ग्यारहवीं शताब्दी से पहले का मानना ही होगा। __ दशलीं शताब्दी के श्रीकण्ठभाष्य में श्रीकण्ठ शिवाचार्य “अविभागेन दृष्टत्वात्" (ब्र.सू. ४.४.४) इस सूत्र का भाष्य लिखते समय “मुक्तः शिवसमो भवेत्” (सि.शि. ६. १४) सिद्धान्तशिखामणि के इस श्लोकांश को प्रमाणरूप से उद्धृत करते हैं, अतः सिद्धान्तशिखामणि को दसवीं शताब्दी से पूर्वकालिक मानना ही पड़ेगा। गुरुवंशकाव्य, शिवतत्त्वरत्नाकर आदि ग्रन्थों में वर्णित आद्य शंकराचार्य को श्रीरेवणसिद्ध द्वारा दिया गया चन्द्रमौलीश्वर लिंग का वृत्तान्त शिवयोगी शिवाचार्य को मालूम नहीं है। नहीं तो त्रिकोटि स्थापना के वृत्तान्त के जैसे इस घटना का भी उल्लेख वे अपने ग्रन्थ में करते। अतः शिवयोगी शिवाचार्य आदि शंकराचार्य से भी पहले के मालूम पड़ते हैं। आद्य शंकराचार्य का काल भारतीय परम्परा के अनुसार आठवीं शताब्दी माना जाता है। अतः सिद्धान्तशिखामणि के रचयिता शिवयोगी शिवाचार्य का काल सातवीं शताब्दी से पहले मानने में कोई कठिनाई नहीं है। शंकराचार्य से भी पहले बौद्धों के असत् सिद्धान्तों का खण्डन करने के लिये उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी, ऐसा स्वयं उन्होंने लिखा है (सि.शि. १.२३)।
सिद्धान्तशिखामणि के टीकाकार
सिद्धान्तशिखामणि की उपलब्ध टीकाओं में श्रीमरितोण्टदार्य की “तत्त्वप्रदीपिका” नामक संस्कृत टीका ही प्राचीन है। यह सत्रहवीं शताब्दी में लिखी गई है। संस्कृत टीका के साथ इस ग्रन्थ का पहला मुद्रण कन्नड़ लिपि में मैसूर के श्री वाय.वीरसंगप्पा ने किया था। इसके बाद सोलापुर (महाराष्ट्र) के अप्पासाहेब वारद ने सन् १९०५ में देवनागरी लिपि में मराठी टीका के साथ इसे प्रकाशित कराया। पुनः प्रकाशन सन् १९६० में उसी की पर कि किनवीरशैव धर्म-दर्शन २८५ संशोधित प्रति का विस्तृत मराठी व्याख्या के साथ सोलापुर के वीरशैव साहित्य संशोधन मण्डल के द्वारा हुआ है। मैसूर के आस्थानविद्वान् एन्.आर.करिबसव शास्त्री ने मूल सिद्धान्तशिखामणि और मरितोण्टदार्य के संस्कृत व्याख्यान का कन्नड़ में अनुवाद करके सन्. १६१६ में और १६२१ में इस तरह दो बार मैसूर से प्रकाशित किया है। मैसूर के ही पं.काशीनाथ शास्त्री ने सिद्धान्तशिखामणि के मूल शलोकों की कन्नड़ में ‘भावप्रकाश’ नामक टीका लिखकर उसे प्रकाशित कराया। उसका बहुत बार पुनर्मुद्रण हुआ THENSARAPAT कालका _मैसूर के ही एम.एल.नागण्णा ने सिद्धान्तशिखामणि का कन्नड़ अनुवाद करके कन्नड़ लिपि में १६५६ में प्रकाशित किया। म ___ कर्णाटक के चित्रदुर्ग निवासी श्री एस.एम्.सिद्धय्या ने सिद्धान्तशिखामणि के संस्कृत श्लोकों को कन्नड़ पद्यानुवाद करके ‘रेणुकगीता’ के नाम से १६७२ में मैसूर से प्रकाशित किया। बंगलौर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्रमुख डा.एम. शिवकुमार स्वामी ने सिद्धान्तशिखामणि के प्रत्येक परिच्छेद के चुने हुए महत्त्वपूर्ण श्लोकों पर अंग्रेजी में भावार्थ लिखकर ई. १६६८ में प्रकाशित किया। बीजापुर (कर्नाटक) के ज्ञानयोगाश्रम के श्रीमल्लिकार्जुन स्वामी ने सिद्धान्तशिखामणि का कन्नड़ और मराठी का विस्तृत भावानुवाद करके प्रकाशित किया। इनका कनड़ ग्रन्थ सन्. १६६६ में प्रकाशित हुआ। शिविर सन् १६६१ में शैवभारती भवन, जंगमवाड़ी मठ, वाराणसी से इसी का एक और संस्करण प्रकाशित हुआ। इसकी विशेषता यह थी कि इसमें मूल संस्कृत श्लोकों की पदावली का आनुपूर्वी से मराठी अनुवाद किया गया था, जिससे कि मराठीभाषी जिज्ञासु संस्कृत पदों के अर्थ से सरलता से परिचित हो सकें। सन् १६६३ में पुनः इसका नया संस्करण शैवभारती भवन, जंगमवाडी मठ, वाराणसी के द्वारा ही हुआ। इसमें अनुसंधाताओं की सहायता के लिये अनेक परिशिष्ट जोड़ दिये गये हैं और टीकाकार मरितोण्टदार्य द्वारा उद्धृत निगमागम शास्त्र के वचनों का स्थलनिर्देश करने का भी प्रयास किया गया है।
३. श्री नीलकण्ठ शिवाचार्य
वीरशैव आचार्य परम्परा में नीलकण्ठ शिवाचार्य नाम के दो आचार्य प्रसिद्ध हुए हैं। उनमें पहले ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार और दूसरे भाष्यार्थ के कारिकाकार हैं। भाष्यकार नीलकण्ठ शिवाचार्य शंकराचार्य के समकालीन माने जाते हैं। आद्य शंकराचार्य और नीलकण्ठ शिवाचार्य में शास्त्रार्थ हुआ था, यह बात ‘शंकरदिग्विजय’ (१५.४८) से मालूम हो जाती है। में २८६ तन्त्रागम-खण्ड जन शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के प्रतिपादक आद्य नीलकण्ठ शिवाचार्य के उस नीलकण्ठभाष्य के काठिन्य को दूर करने के लिए द्वितीय नीलकण्ठ शिवाचार्य ने सरल संस्कृत भाषा में कारिकाओं की रचना की है। यह बात उनकी मयापि तस्य तात्पर्य श्रोतृणां सुखबुद्धये। कारिकारूपतः सर्व क्रमेणैव निबध्यते।। (क्रियासार. १.३३) इस उक्ति से सिद्ध होती है। उनका वह कारिकारूप ग्रन्थ ‘क्रियासार’ नाम से प्रसिद्ध है। क्रियासार का रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी माना जाता है। यह क्रियासार ग्रन्थ सन् १६५४. ५७,५८ में मैसूर के प्राच्यविद्या संशोधनालय से तीन खण्डों में प्रकाशित हुआ है।
४. श्रीपति पण्डिताराध्य
श्रीपति पण्डिताराध्य ग्यारहवीं शताब्दी में श्रीशैलपीठ के आचार्य थे। इन्होंने शारीरक सूत्रों (ब्रह्मसूत्र) पर शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के प्रतिपादक भाष्य की रचना की है। वह भाष्य श्रीकरभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है।। सन् १६७७-७८ में मैसूर के प्राच्यविद्या संशोधनालय से दो खण्डों में इसका प्रकाशन हुआ है। आस्थानविद्वान् पं.नंजुण्डाराध्य ने इसका संपादन किया है। जरिता
५. श्री मायिदेव
श्रीमायिदेव पन्द्रहवीं शताब्दी के वीरशैव मत के पण्डित माने जाते हैं। इन्होंने संस्कृत और कन्नड़ में अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनमें अनुभवसूत्र नामक संस्कृत ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ वातुलतन्त्र पर आधारित है। इस ग्रन्थ का उत्तरार्ध भाग विशेषार्थप्रकाशिका के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अलावा इन्होंने ‘वीरशैवोत्कर्षशतकत्रय’, ‘प्रभुगीता’ आदि संस्कृत के ग्रन्थों की रचना की है। माह कजामा
६. श्री नन्दिकेश्वर
श्री नन्दिकेश्वर पन्द्रहवीं शताब्दी के आचार्य थे। इन्होंने ‘लिंगधारणचन्द्रिका’ नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में वैदिक मन्त्रों के द्वारा वीरशैवों के इष्टलिंगधारण के सिद्धान्त को प्रमाणित किया गया है। इस ग्रन्थ पर काशी के सुप्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय पण्डित शिवकुमार शास्त्री ने शरन्नामक संस्कृत टीका लिखी थी। इस टीका से युक्त ‘लिंगधारणचन्द्रिका’ ई.सन् १९०५ में पहली बार प्रकाशित हुई। वह ग्रन्थ पनः सन १६८५ में हिन्दी भाषानुवाद के साथ काशी जंगमवाडी मठ के शैवभारती भवन से प्रकाशित हुआ है। शालागी मागतात वीरशैव धर्म-दर्शन २८७
७. श्री स्वप्रभानन्द शिवाचार्य
श्री स्वप्रभानन्द शिवाचार्य काश्मीर देश के वीरशैव आचार्य थे। इनका समय सत्रहवीं शताब्दी माना जाता हैं। इन्होंने ‘शिवाद्वैतमंजरी’ नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में पूर्वपक्ष के रूप में अद्वैत-वेदान्त का मण्डन, उसके बाद उसका खण्डन और अन्त में वीरशैव सिद्धान्त का मण्डन अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण पद्धति से किया गया है। विस्तृत कन्नड़ व्याख्यान के साथ सन् १६३४ मे मैसूर से काशीनाथ शास्त्री ने इसका प्रकाशन किया था। मूल शिवाद्वैतमंजरी देवनागरी लिपि में काशी के जंगमवाडी मठ से ई.सन्. १६८६ में प्रकाशित हुई है।
८. श्री मरितोण्टदार्य
श्री मरितोण्टदार्य सत्रहवीं शताब्दी के कर्नाटक प्रदेश के एक विद्वान् स्वामी थे। इन्होंने वीरशैवानन्दचन्द्रिका नामक संस्कृत भाषा के एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है। इसमें क्रियाकाण्ड, वादकाण्ड तथा कथाकाण्ड के नाम से तीन काण्ड हैं। इनमें वादकाण्ड कर्नाटक प्रदेश के हुबली नगर के मूरुसाविर मठ से सन् १६३६ में देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुआ। इस वादकाण्ड में चार्वाक, बौद्ध, जैन, मीमांसक, सांख्य, शाक्त, गौतमीय (न्याय), योग, शंकर, रामानुज और मध्व मतों का यथावत् प्रतिपादन करके पुनः उन मतों का खण्डन करके अन्त में वीरशैव मत का उत्कर्ष प्रतिपादित है। इसके अतिरिक्त इन्होंने सिद्धान्तशिखामणि नामक सुप्रसिद्ध वीरशैव ग्रन्थ पर ‘तत्त्वप्रदीपिका’ नामक संस्कृत व्याख्या की रचना की, जिसकी चर्चा पहले आ चुकी है। गीता का
९. श्री केलदी बसवभूपाल
श्री केलदी बसवभूपाल कर्णा क प्रदेश के केलदी संस्थान के राजा थे। इनका समय सत्रहवीं शताब्दी माना जाता है। ये संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में शिवतत्त्वरत्नाकर, सुभाषितसुरद्रुम और सूक्तिसुधाकर नामक तीन ग्रन्थों की रचना की है (शिवतत्त्वरत्नाकर, भूमिका, पृ. ५)। इनमें सूक्तिसुधाकर उपलब्ध नहीं है। सुभाषितसुरद्रुम मैसूर के प्राच्यविद्या रंधनालय के ग्रन्थालय में उपलब्ध है, किन्तु अद्यापि अप्रकाशित है। ‘शिवतत्त्वरत्नाकर सन् १६२७ में मद्रास से पहली बार प्रकाशित हुआ था। इसके बाद मैसूर विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या संशोधनालय से सन् १६६४ में प्रथम भाग, सन् १६६६ में द्वितीय भाग और १६८८ में तृतीय भाग प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ में ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन आदि अनेक शास्त्रीय विषयों का प्रतिपादन हुआ है, अतः यह संस्कृत वाङ्मय का एक विश्वकोश माना जाता है।
१०. श्री शंकर शास्त्री
गि धर्मरत्न पं. श्रीशंकर शास्त्री आधुनिक काल के संस्कृत विद्वान् थे। आप सन् १६३० में उज्जयिनी पीठ के आस्थानपण्डित थे। आपने ईश, केन, मुण्डक और सिद्धान्तशिखोपनिषद् २८८ तन्त्रागम-खण्ड पर वीरशैवभाष्य की रचना की है। इसके अलावा ब्रह्मसूत्र पर वृत्ति भी लिखी है, जो कि ब्रह्मसूत्रवृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है। आपकी सभी पुस्तकें मैसूर की श्रीशंकर विलास संस्कृत पाठशाला से प्रकाशित हुई है। का अभी तक बताये गये इन वीरशैव विद्वानों और उनके संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त सैकड़ों विद्वानों के द्वारा लिखित सैकड़ों संस्कृत ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। उन सबका विस्तृत विवेचन ग्रन्थगौरव के भय से नहीं किया जा रहा है।
विभिन्न भाषाओं में वीरशैव साहित्य
इस विपुल संस्कृत साहित्य के अलावा विभिन्न भारतीय भाषाओं में भी वीरशैव साहित्य उपलब्ध है। ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और उसके बाद भी समय-समय पर कर्णाटक, आन्ध्र और महाराष्ट्र आदि प्रान्तों में अनेक वीरशैव सन्त हो गये हैं। वे सब कट्टर शिवभक्त थे। वीरशैव धर्मोचित इष्टलिंग-दीक्षा प्राप्त कर इन सन्तों ने प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में लिखे गये अमूल्य वीरशैव धर्म के तत्त्वों तथा आचारसंहिता को सामान्य लोगों तक पहुँचाने के लिये तत्तत् प्रदेशों की जनभाषा के माध्यम से बहुत प्रयत्न किया है। उन सन्तों में- देवरदासिमार्य, शंकरदासिमार्य, शिवदासिमार्य, बसवेश्वर, प्रभुदेव, चन्न बसवेश्वर, सिद्धरामेश्वर, मचिदेव, मोलिगेय मारप्पा, आय्दवकी मारप्पा, आदय्या, अजगण्णा, पट्टिवालप्या, मरुल शंकरदेव, अम्बिगर चौडय्या, उरिलिंग देव, उरिलिंग पोट्टिकक्कय्या, काडसिद्धेश्वर, कोल शान्तय्या, गणदासि वीरण्णा, धनलिंगदेव, तेलुगु जोम्मय्या, तोटद सिद्धलिंग, नगोभारितन्दे, तुलिय चन्द्रय्या, मादार धूलन्या, मेरेमिण्डदेव, मेदार केतय्या, शिवनागय्या, षण्मुख स्वामी, सकलेश मादरस, सोल बा चस्स, स्वतन्त्र सिद्धलिंगेश्वर, हडपद अय्यण्णा, हाविन्हाल कल्लय्या आदि सैकड़ों सन्त हो गये हैं। इनके अलावा अवक नागम्मा, नीललोचना (नीलम्मा), अवक महादेवी, मुक्तायक्का लवकम्मा, लिंगम्मा, सत्यक्का आदि महिला सन्त हो गई हैं। इन सबने कन्नड़ भाषा में अपने अनुभवों को अंकित किया है, जो कि कर्णाटक में ‘वचन-साहित्य’ के नाम से जाना जाता है। यह विपुल ‘वचन-साहित्य’ धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक विचारों की दृष्टि से भरा-पूरा है। कर्णाटक में विद्वत्समाज से लेकर सामान्य जनता पर्यन्त इस सन्त-वाणी का बड़ा असर हुआ है। पंचाक्षर गवयी, पुहराज गवयी, मल्लिकार्जुन मनसूर और बसवराज राजगुरु आदि प्रख्यात कर्णाटक के गायक इस सन्तवाणी को सुमधुर संगीत से लयबद्ध करके गाते आये हैं। इसलिये भी उस सन्तवाणी का प्रभाव जनता पर अधिक हुआ है। तालपत्र में विद्यमान इस विपुल सन्त-साहित्य को एकत्र कर प्रकाशित करने का प्रथम श्रेय बीजापुर (कर्नाटक) के श्री फ.गु. हलकट्टी को मिलता है। इसीलिये उनको “वचन-साहित्य का पितामह’ की उपाधि प्राप्त हुई है। इनके बाद धारवाड़ के कर्णाटक विश्वविद्यालय के कन्नड़ विभाग के अध्यक्ष डा. आर.सी. हिरेमठ ने अनेक कन्नड़ विद्वानों वीरशैव धर्म-दर्शन २८६ के सहयोग से विपुल ‘वचन-साहित्य’ का प्रकाशन कराया है। इसके अलावा कुछ वचन-साहित्य का हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में पद्यानुवाद भी हुआ है। कर्णाटक के अन्य विश्वविद्यालय और अनेक मठों के द्वारा भी इस वचन-साहित्य का प्रकाशन कार्य चल रहा है। छ इसी प्रकार महाराष्ट्र प्रदेश में भी मराठी भाषा में वीरशैव साहित्य उपलब्ध है। उनमें विसोब खेचर के शड़च्छल (षट्स्थल) और शान्तलिंग के विवेकचिन्तामणि और करणहसिगे जैसे अनुमोदित ग्रन्थों के अतिरिक्त श्रीमन्मथ स्वामी के परमरहस्य, गुरुगीता, ज्ञानबोध, अनुभवानन्द, स्वयंप्रकाश और अभंग वाङ्मय—लिंगेश्वर का अभंग, बसवलिंग का अभंग, शिवदास का अभंग और लक्ष्मण महाराज का अभंग इस प्रकार वीरशैव सन्तों का विपल अभंग साहित्य भी उपलब्ध है। महाराष्ट्र के इन वीरशैव सन्तों ने अपनी अभंग वाणी और अन्य साहित्य के द्वारा वीरशैव सिद्धान्त के तत्त्वों को मराठीभाषी लोगों को समझाने के लिये खूब प्रयास किया है। महाराष्ट्र में इन सन्तों पर लोगों की बहुत श्रद्धा है। मराठी वीरशैव साहित्य में मन्मथ स्वामी का ‘परमरहस्य’ ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वीरशैव धर्म के अष्टावरण, पंचाचार और षट्स्थल तत्त्वों को बहुत सरल और सुबोध भाषा में समझाने का प्रयास किया है। सोलापुर (महाराष्ट्र) के वीरशैव साहित्य संशोधन-मण्डल द्वारा समग्र मराठी वीरशैव साहित्य के ऊपर संशोधन और प्रकाशन कार्य चल रहा है। इस कार्य के लिये डॉ. सी.एस. कपाले और डॉ. एस.डी. पसारकर का प्रयत्न प्रशंसनीय है। ___ इसी प्रकार तेलुगु भाषा में भी वीरशैव सिद्धान्त-बोधक अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। इनमें रेणुकविजयपुराण, बसवपुराण आदि प्रसिद्ध माने जाते हैं। इस तरह संस्कृत भाषा के अतिरिक्त कन्नड़, मराठी और तुलुगु आदि विभिन्न दक्षिण भारतीय भाषाओं में वीरशैव साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है।
वीरशैव-दर्शन
वीरशैव-दर्शन विशेषाद्वैत, शिवाद्वैत और शक्तिविशिष्टाद्वैत नामों से व्यवहृत किया जाता है। इन नामों में इस दर्शन का रहस्यार्थ छिपा है। उन नामों की व्युत्पत्ति से उसका यथार्थ बोध होता है। अतः संक्षेप से उन नामों की व्युत्पत्ति के बारे में हम विचार करने जा रहे हैं।
१. विशेषाद्वैत
“विश्च शेषश्च विशेषौ ईशजीवौ, तयोरद्वैतं विशेषाद्वैतम्” यह विशेषाद्वैत शब्द की व्युत्पत्ति है। इसका तात्पर्य यह है- “विश्चक्षुषि व्योम्नि वाते परमात्मनि पक्षिणि” (एकाक्षरकोश, पृ.१८) निघण्टु के इस वचन में विशब्द का अर्थ परमात्मा भी होता है। “वाति उत्पादयति जगदिति विः" इस व्युत्पत्ति से वि-शब्द से जगत् के कारणीभूत ईश्वर . २६० तन्त्रागम-खण्ड ही सिद्ध होते हैं। यद्यपि “वि" का अर्थ पक्षी भी बताया गया है, तथापि “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया" (मुण्डको. ३.१.१) मुण्डक उपनिषद् के इस वचन में परमात्मा का पक्षी के रूप में भी वर्णन किया गया है। अतः प्रकृत में ‘वि’ का अर्थ परमात्मा ही लेना चाहिये। शेष शब्द से उसी का अंश रूप जीवात्मा अभिप्रेत है। “यथाग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिङ्गाः” (बृहदारण्यको. २.१.२०) इस श्रुति में अग्निकण के दृष्टान्त से जीवात्मा को परमात्मा का ही अंश सिद्ध किया गया है। इस प्रकार अंशांशीभाव से सिद्ध जीव और परमात्मा में “यथा नद्यः स्यन्दमानाः” (मुण्डको. ३.२.८) यह श्रुति अद्वैत का बोधन कराती है। संसार दशा में अत्यन्त भिन्न स्वरूप वाले शिव-जीव की मुक्तावस्था में अभेद स्थिति के प्रतिपादक इस सिद्धान्त को विशेषाद्वैत के नाम से अभिहित किया गया है। माटी विशब्देनोच्यते शम्भहंस हंसेति मन्त्रतः। नाममा शेषशब्देन शारीरो यथाग्नेरिति मन्त्रतः।। अद्वैतेन भवेद्योगो यथा नद्य इति श्रुतेः।। __(ब्र.सू. श्रीकर. मंगलश्लो . १६) कि इस श्लोक में भगवान् भाष्यकार श्रीपति पण्डिताराध्य ने विशेषाद्वैत के तात्पर्य को संक्षेप में बताया है।
२. शिवाद्वैत
“शिवश्च शिवश्च शिवौ, तयोरद्वैतम्” ___ यह इस शब्द की व्युत्पत्ति है। पहले शिव शब्द से परमात्मा अभिप्रेत है और दूसरे शिव शब्द से उसी का अंशभूत जीवात्मा। संसार-दशा में उपास्य और उपासक के रूप में विद्यमान इन दोनों की मुक्तावस्था में अद्वैत स्थिति को बताने वाला सिद्धान्त ही शिवाद्वैत सिद्धान्त है।
३.शक्तिविशिष्टाद्वैत
“शक्तिश्च शक्तिश्च शक्ती, ताभ्यां विशिष्टौ शक्तिविशिष्टौ शिवजीवौ, तयोरद्वैतं शक्तिविशिष्टाद्वैतम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार सर्वज्ञत्व, सर्वकर्तृत्व आदि सूक्ष्म चिदचित् शक्तिविशिष्ट शिव और अल्पज्ञत्व, अल्पकर्तृत्व आदि स्थूल चिदचित् शक्तिविशिष्ट जीव, इन दोनों के अभेद को, अर्थात् अद्वैत को बताने वाला सिद्धान्त ही शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त है। भ्रमरकीटन्याय से इस सिद्धान्त की उपपत्ति की जाती है। जैसे भ्रमर से अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाला कीट भ्रमर के निरन्तर ध्यान से भ्रमर बन जाता है, वैसे ही शिव से अत्यन्त भिन्न स्वभाव वाला जीव भी शिव का ही निरन्तर ध्यान करते-करते अपनी संकुचित शक्तियों का विकास कर शिवस्वरूप हो जाता है। यही शक्ति-विशिष्टाद्वैत का तात्पर्य है। वीरशैव धर्म-दर्शन २६१ वीरशैवों के इन दार्शनिक पारिभाषिक शब्दों के विश्लेषण से यही ज्ञात होता है कि यह सिद्धान्त भेदाभेद का प्रतिपादक है। अतः इसको भेदाभेद और द्वैताद्वैत शब्द से भी अभिहित किया जाता है। वीरशैव-दर्शन में “शिवजीवशक्तय इति त्रयः पदार्थाः” शिवाद्वैतपरिभाषा की इस उक्ति के अनुसार शिव, जीव और शक्ति- ये तीन पदार्थ माने गये हैं। अतः इन तीनों के स्वरूप के बारे में अलग-अलग विचार करते हुए शक्तिविशिष्ट शिव और शक्तिविशिष्ट जीव का अभेद किस तरह होता है, उसे यहाँ संक्षेप से प्रस्तुत किया जा रहा है।
शिव का स्वरूप
वीरशैव सिद्धान्त में परशिव को ‘स्थल’ अथवा ‘लिंग’ शब्द से अभिहित किया गया है। श्री मायिदेव ने यत्रादौ स्थीयते विश्वं प्राकृतं पौरुषं यतः। लीयते पुनरन्ते च स्थलं तत्प्रोच्यते ततः॥ (अनु. सू. २.४) लयगत्यर्थयोर्हेतुभूतत्वात् सर्वदेहिनाम्। लिङ्गमित्युच्यते साक्षाच्छिवः सकलनिष्कलः।। (अनु. सू. ३.४) अपने अनुभवसूत्र के इन श्लोकों में स्थल एवं लिंग की परिभाषा प्रस्तुत की है। सृष्टि से पूर्व यह विश्व परशिव में स्थित है और प्रलयकाल में उसी में इसका विलय हो जाता है। अत एव उसे स्थल अथवा लिंग कहा गया है। सगुण और निर्गुण होने के कारण शिव को सकल-निष्कल भी कहते हैं। शिव अपनी शक्ति के संकोच से निर्गुण और शक्ति के विकास से सगुण हो जाता है। जगत्सृष्टि के समय शिव की शक्ति अनेक रूपों में विकसित हो जाती है, अतः शक्तिविशिष्ट शिव सगुण कहलाता है। संहार के समय शिव की शक्तियाँ संकुचित हो जाती हैं, तब वे निर्गुण कहलाते हैं। इस प्रकार इस सिद्धान्त में शक्ति के विकास से सृष्टि और उसके संकोच से प्रपंच का संहार होता है। शिव की बाह्य शक्ति शिव में अविनाभाव सम्बन्ध से रहती है। FREE
शक्ति का स्वरूप
शिव के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से रहने वाली वह शक्ति- “तदीया परमा शक्तिः सच्चिदानन्दलक्षणा” (सि. शि. २.१२) सिद्धान्तशिखामणि की इस उक्ति के अनुसार सच्चिदानन्दरूपिणी है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में इस शक्ति को माया कहा गया है। यहाँ माया का अर्थ मिथ्या नहीं हैं, किन्तु “मं शिवम् अयति स्वभावतः प्राप्नोतीति माया” इस व्युत्पत्ति के अनुसार शिव में स्वाभाविक रूप से रहने वाली शक्ति माया है। २८२ तन्त्रागम-खण्ड
शिव-शक्ति का सम्बन्ध
शिव और शक्ति के सम्बन्ध को कुछ लोग समवाय और कुछ लोग तादात्म्य मानते हैं, किन्तु वीरशैव सिद्धान्त में उन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध माना गया है। न शिवेन विना शक्तिर्न शक्तिरहितः शिवः। पुष्पगन्धवदन्योन्यं मारुताम्बरयोरिव।। ती (वीरशैवानन्दचन्द्रिका, पृ.७) इस उपबृंहण वचन से श्री मरितोण्टदार्य जी ने शिव और शक्ति का अविनाभाव सम्बन्ध सिद्ध किया है। सूर्य में प्रभा, चन्द्र में चन्द्रिका, अग्नि में दाहकता, पुष्प में गन्ध, शर्करा में मिठास जैसे अविनाभाव सम्बन्ध से रहती है, वैसे ही शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में शिव और शक्ति में अविनाभाव सम्बन्ध माना गया है। इस सम्बन्ध को नित्य सम्बन्ध भी कहते हैं। शक्तिविशिष्ट शिव से ही सारे प्रपंच की उत्पत्ति होती है, अतः प्रत्येक वस्तु यत्किंचित् शक्तिविशिष्ट ही अनुभव-गोचर ही रही है। जैसे कि पृथ्वी में धारण शक्ति, जल में आप्यायन शक्ति, अग्नि में ज्वलन शक्ति, वायु में स्पन्दन शक्ति, आकाश में व्यापन शक्ति, वृक्षादि में जलाकर्षण शक्ति, चुम्बक में सूच्याकर्षण शक्ति, वनस्पतियों में रोगनिवारण शक्ति, मन्त्रादि में विघ्न-बाधा और भूत-प्रेत बाधा आदि को दूर करने की शक्ति दिखाई पड़ती है। शास्त्रों में शिव को सत्, चित् और आनन्द स्वरूप माना गया है। अर्थात् वह अस्मि, प्रकाशे और नन्दामि इन अनुभवों से युक्त है। इस प्रकार का यह अनुभव ही उस शिव की विमर्श-शक्ति कहलाती है। शिव में इस अनुभव को न मानने पर वह स्फटिक आदि के समान जड हो जायगा। सौन्दर्य विशिष्ट अन्धे को अपने सौन्दर्य का ज्ञान न होने के कारण जैसे वह सौन्दर्य व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का विमर्श शिव को न होने पर उसे व्यर्थ मानना पड़ेगा, जो कि इष्ट नहीं है। अतः वीरशैव सिद्धान्त में पर शिव को सच्चिदानन्दरूप विमर्श-शक्ति से विशिष्ट माना गया है।
शक्ति के भेद
__परशिव की वह शक्ति वस्तुतः एक होने पर भी सृष्टि के समय स्व-स्वातन्त्र्य बल से चिच्छक्ति, पराशक्ति, आदिशक्ति, इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति के नाम से छः प्रकार की हो जाती है (अनु. सू. २.७, ३.६)। (क) चिच्छक्ति -सूक्ष्म कार्यकारणरूप प्रपंच की उपादानकारणीभूत शक्ति चिच्छक्ति कहलाती है (शिवाद्वैतमंजरी, पृ. २७)। इसी को ‘विमर्श-शक्ति’ अथवा ‘परामर्श-शक्ति’ भी कहते हैं। यह शक्ति बोधरूप है। इससे विशिष्ट होने के कारण ही परशिव को मैं हूँ, मैं प्रकाशमान हूँ, मैं आनन्दरूप हूँ, इत्याकारक अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का बोध होता है। २६३ वीरशैव धर्म-दर्शन पराहन्तासमावेशपरिपूर्णविमर्शवान् । सर्वज्ञः सर्वगः साक्षी सर्वकर्ता महेश्वरः।।। काय करीम (सि. शि. २०.३२) जाम महा सिद्धान्तशिखामणि की इस उक्ति के अनुसार विमर्श-शक्ति से विशिष्ट वह परशिव सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सर्वव्यापक तथा सर्व कर्मों का साक्षी बन जाता है। यह चिच्छक्ति ही शिवतत्त्व से पृथ्वीतत्त्व पर्यन्त छत्तीस तत्त्वों की तथा अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय का कारण बन जाती है (सि. शि. २०.२६-३४)। (ख) पराशक्ति–चिच्छक्ति के सहस्रांश से पराशक्ति का प्रादुर्भाव होता है (वातुलशुद्धाख्य तन्त्र) यह आनन्द स्वरूप है। इसे अनुग्रह शक्ति भी कहते हैं। इस शक्ति से युक्त होकर परशिव योगियों के ऊपर अनुग्रह करता है। (ग) आदिशक्ति–पराशक्ति के सहस्रांश से आदिशक्ति का उदय होता है (वातुलशुद्धाख्य तन्त्र १.२५)। प्रपंच की कारणीभूत इच्छा, ज्ञान और क्रिया-शक्तियों की आदिकारण होने से उसे आदिशक्ति कहते हैं। इस शक्ति से युक्त परशिव प्राणियों का निग्रह करते हैं। मा(घ) इच्छाशक्ति-आदिशक्ति के सहस्रांश से इच्छाशक्ति का उदय होता है (वातुलशुद्धाख्य तन्त्र १।२५) ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति इन दोनों की साम्यावस्था को ही इच्छाशक्ति कहते हैं। यह इच्छाशक्ति अपने में विद्यमान ज्ञान और क्रियाशक्तियों के माध्यम से विश्व को उत्पन्न करती है। विश्व-संहार के समय यह विश्व पुनः इच्छाशक्ति में ही विलीन होकर रहता है। इस शक्ति से परशिव प्रपंच का संहार करते हैं (शिवाद्वैतमंजरी, पृ. २७, ३४)।
- (ङ) ज्ञानशक्ति–इच्छाशक्ति के सहस्रांश से ज्ञानशक्ति की उत्पत्ति होती है (वातुलशुद्धाख्य तन्त्र १.२६)। इस ज्ञानशक्ति के कारण ही शिव सर्वज्ञ कहलाते हैं और उनको अपने में विद्यमान प्रपंच का ‘इदम्’ इत्याकारक बोध होता है। इसलिये इस ज्ञानशक्ति को बहिर्मुख शक्ति भी कहते हैं। इस शक्ति से युक्त होकर शिव प्रपंच की उत्पत्ति में निमित्तकारण बनते हैं और उत्पत्ति के अनन्तर उसका पालन भी करते हैं। (शिवाद्वैतमंजरी, पृ. २७, ३४)। (च) क्रियाशक्ति–ज्ञानशक्ति के सहस्रांश से क्रियाशक्ति का प्रादुर्भाव होता है (वातुलशुद्धाख्य तन्त्र १.२६)। यह क्रियाशक्ति इस प्रपंच का उपादानकारण है। क्रियाशक्ति से युक्त होने से शिव सर्वकर्ता बन जाते हैं। यही शिव की कर्तृत्व शक्ति है। इस शक्ति को स्थूल प्रयत्न रूप भी कहते हैं (शिवाद्वैतमंजरी, पृ. २७, ३४)। TERB IPF इस प्रकार परशिव की वह एक ही शक्ति प्रयोजनवश उपर्युक्त छः रूप धारण कर लेती है। सृष्टि-रचना के समय विमर्शशक्तिविशिष्ट परशिव ही शिवतत्त्व से पृथ्वीतत्त्व पर्यन्त छत्तीस तत्त्वों के रूप में उसी तरह से परिणत हो जाता है, जैसे कि स्वर्ण विविध आभूषणों के रूप में परिणत हो जाता है। इस परिणाम को अविकृत-परिणाम कहा जाता है, अतः यह प्रपंच शिवशक्तिमय है, अर्थात् शिवशक्ति का ही विलास है। यान. २६४ तन्त्रागम-खण्ड
जीवात्मा
सच्चिदानन्द स्वरूप वह परशिव अपने विनोद के लिये स्वयं ही जीव और जगत् के रूप में परिणत हो जाता है। सिद्धान्तशिखामणि के– “अनाद्यविद्यासम्बन्धात् तदंशो जीव नामकः” (५.३४) इस प्रमाण के अनुसार प्रपंचगत सभी जीव उसी परमात्मा के अंश हैं। शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में शिव और जीव इन दोनों में न अत्यन्त भेद माना जाता है और न ही अत्यन्त अभेद, किन्तु भेदाभेद माना गया है, अर्थात् बद्धावस्था में जीव-शिव में भेद और मुक्तावस्था में अभेद मान्य है। जब शिव अपने विनोद के लिये स्वयं जीवात्मा बन जाता है, तब शिव में रहने वाली वह शक्ति भी अपने स्वरूप को संकुचित करके, उस जीवात्मा में भक्ति के रूप में प्रवेश करती है। यह शक्ति ही क्रमशः जीवात्मा की संकुचित शक्ति को विकसित करती हुई इस जीवात्मा को परशिव के साथ समरस कर देती है।
जीवात्मा की षड्विध भक्ति और षट्स्थल
परशिव की वह शक्ति ही भक्ति के रूप में जीवात्मा में आश्रित होकर जीव के जीवभाव को हटाकर शिवस्वरूप को प्राप्त कराने में उसकी सहायक बनती है। जिस प्रकार जल छः रसों से युक्त होकर षड्रस स्वरूप बन जाता है, उसी प्रकार भक्ति भी जीवात्मा के भक्त, माहेश्वर, प्रसादी, प्राणलिंगी, शरण और ऐक्य नामक षड्विध आध्यात्मिक प्रगति की छ: अवस्थाओं (षट्रस्थल में क्रमशः श्रद्धा, निष्ठा, अवधान, अनुभव, आनन्द और समरस भक्ति) के रूप में परिणत हो जाती है। (अनु. सू. ४.२१-२७.) म
१. भक्त
शैवी भक्तिः समुत्पत्रा यस्यासौ भक्त उच्यते। (सि. शि. ५.२६) इस आचार्योक्ति के अनुसार जब जीवात्मा अपने मूलस्वरूप परशिव के प्रति अत्यन्त अनुरक्त होकर उसकी पूजा, जप आदि में तत्पर हो जाता है, तब उसे भक्त कहते हैं। इसमें रहने वाली भक्ति ही श्रद्धा-भक्ति कहलाती है। पञ्चधा कथ्यते सद्भिस्तदेव भजनं पुनः। तपः कर्म जपो ध्यानं ज्ञानं चेत्यनुपूर्वकम् ।। (सि. शि. ६.२१) इस प्रमाणवचन के अनुसार श्रद्धाभक्तियुक्त वह साधक तप, कर्म, जप, ध्यान तथा ज्ञान नामक शिव पंचयज्ञ में तत्पर रहता है। यहाँ शिवपूजा की सामग्री के संपादन में तथा पूजा आदि क्रियाओं में जो शरीर का शोषण होता है, उसको सहर्ष सहन करना ही तप है। मीमांसाशास्त्र में प्रतिपादित स्वर्गप्रदायक ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ में अनुरक्त न होकर केवल अपने इष्टलिंग का अनन्यभाव से अर्चन करना ही कर्म कहलाता है। पंचाक्षर-मन्त्र, प्रणव- मन्त्र अथवा श्रीरुद्र की पुनः पुनः आवृत्ति ही जप है। शिवस्वरूप का चिन्तन ध्यान है और शैवागमों के वास्तविक अभिप्राय को समझना ही ज्ञान कहलाता है। यही वीरशैवोंवीरशैव धर्म-दर्शन २६५ का शिव-पंचयज्ञ है’ । प्रतिदिन इस शिव-पंचयज्ञ का अनुष्ठान करने वाला ‘भक्त’ कहलाता है। मुक्तिमार्ग में प्रवृत्त साधक का यह प्रथम मुक्ति-सोपान है। किसान
२. माहेश्वर
जगार भक्तयेदा समुत्कर्षा भवद् वैराग्यगौरवात्। महान मात तदा माहेश्वरः प्रोक्तो भक्तः स्थिरविवेकवान्।। गाँट कर निक उला नि (सि. शि. १०.३) पडा यी इस उक्ति के अनुसार पूर्वोक्त श्रद्धा-भक्ति का जब उत्कर्ष हो जाता है, तब वह भक्ति निष्ठा के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इस निष्ठाभक्ति से युक्त भक्त ही ‘माहेश्वर’ कहलाता है अनादिमुक्तो भगवानेक एव महेश्वरः। मानिस मुक्तिदश्चेति यो वेद स वै माहेश्वरः स्मृतः।। (सि. शि. १०.१२) सिद्धान्तशिखामणि के इस वचन के अनुसार महेश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है और वही मुक्तिप्रदायक है, वह स्वयं अनादिमुक्त है, इस प्रकार उसके स्वरूप को जानकर उसमें नितान्त निष्ठा रखने वाला साधक ही माहेश्वर कहलाता है। साधक की यह स्थिति मुक्ति का दूसरा सोपान मानी गयी है।
३. प्रसादी
लिङ्गनिष्ठादिभावेन ध्वस्तपापनिबन्धनः। क मनःप्रसादयोगेन प्रसादीत्येष कथ्यते।। मा (सि. शि. ११.२) लाकार निज का कि लोणार है १. पञ्चधा कथ्यते सद्धिस्तदेव भजनं पुनः। .. तपः कर्म जपो ध्यानं ज्ञानं चेत्यनुपूर्वकम्।। शिवार्थे देहसंशोषस्तपः कृच्छादि नो मतम्। वन विधिना शिवार्चा कर्म विज्ञेयं बास्यं यागादि नोच्यते।। पारखा कि मालिका जपः पञ्चाक्षराभ्यासः प्रणवाभ्यास एव वा। मायामा निकायायो नटायनाटिकमजन RELESEPPER ध्यानं शिवस्य रूपादिचिन्ता नात्मादिचिन्तनम।। काकी लत शिवागमार्थविज्ञानं ज्ञानं नान्यार्थवेदनम्। इति पञ्चप्रकारोऽयं शिवयज्ञः प्रकीर्तितः।। (सि. शि.६.२१-२४) ૨૬૬ तन्त्रागम-खण्ड | इस आचार्योक्ति के अनुसार अपने उपास्य इष्टलिंग में निष्ठा रखने वाले उपर्युक्त माहेश्वर के जब सभी पाप ध्वस्त होकर मन अत्यन्त निर्मल व प्रसन्न हो जाता है, तब वह प्रसन्न मन का माहेश्वर प्रसादी’ कहलाता है। इस प्रसादी में रहने वाली भक्ति को अवधान भक्ति कहते हैं। अत्यन्त सावधानी को अवधान कहते हैं। यह मन की एकाग्रता से संभव है। साधक का मन भूत और भविष्य का चिन्तन छोड़कर जब वर्तमान काल में रहता है, तभी उसकी एकाग्रता सम्भव है। इस एकाग्रता से की जाने वाली भक्ति ही अवधान भक्ति कहलाती है। इस अवधान-भक्ति से युक्त साधक अपने उपभोग की सभी वस्तुओं को शिव को समर्पित करके उसे प्रसाद के रूप में स्वीकार करता रहता है। उस प्रसाद की वजह से उसके मन में निरन्तर प्रसन्नता रहती है। अत एव इसे ‘प्रसादी’ कहते हैं। साधक की यह प्रसादी स्थिति मुक्तिमार्ग में तृतीय सोपान मानी गई है।
४. प्राणलिंगी
A7 लिङ्गं चिदात्मकं ब्रह्म तच्छक्तिः प्राणरूपिणी। तद्रूपलिङ्गविज्ञानी प्राणलिङ्गीति कथ्यते॥ (सि.शि. १२.३) इस आचार्योक्ति में प्राणलिंगी का लक्षण बताया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे सूर्य के उदित होने पर तुषार-कण उसके प्रकाश में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार अपनी चिद्रूप ज्योति में प्राणवायु का भी विलय हो जाता है। अतः इस प्राणशक्तिविशिष्ट चित् तत्त्व को प्राणलिंग कहते हैं। उस प्राणलिंग का उपासक ‘प्राणलिंगी’ कहलाता है। साधक जब अपने चिद्रूप के चिन्तन में लग जाता है, तब उसे धीरे-धीरे अपने प्राणलिंगरूप शिव का अनुभव होने लगता है। इस अनुभव को ही अनुभव-भक्ति कहते हैं। अनुभव-भक्ति से युक्त प्राणलिंगी की यह स्थिति मुक्तिमार्ग में चतुर्थ सोपान है।
५. शरण
सतीव रमणे यस्तु शिवे भक्तिं विभावयन्। तदन्यविमुखः सोऽयं ज्ञातः शरणनामवान्।। (सि.शि.१३.५) इस आचार्योक्ति के अनुसार पतिव्रता स्त्री जैसे प्रत्येक प्रसंग में अनन्यभाव से अपने पति की ही शरण में जाती है, उसी प्रकार जब साधक अन्यान्य देवताओं में आसक्ति छोड़कर अपने इष्टदेव शिव के प्रति ही अनन्यभाव से शरणागत हो जाता है, तब उसे ‘शरण’ कहते हैं। यह शिव के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखकर शिवानन्द का अनुभव करता है। साधक के द्वारा अनुभूयमान उस आनन्द को ही आनन्द-भक्ति कहते हैं। साधक की यह अवस्था मुक्तिमार्ग का पंचम सोपान है। वीरशैव धर्म-दर्शन २६७
६. ऐक्य
नाहकीम प्राणलिङ्गादियोगेन सुखातिशयमेयिवान्। शरणाख्यः शिवेनैक्यभावनादैक्यवान् भवेत्।। (सि. शि. १४.२) ____ इस आचार्योक्ति के अनुसार परशिव का अनन्य शरणागत साधक (शरण) जब शिव के साथ समरस हो जाता है, तब वह ‘ऐक्य’ कहलाता है। इनकी समरस भावना ही समरस भक्ति है। इस भक्ति के माध्यम से साधक अपने संपूर्ण जीवभाव को त्यागकर जले जलमिव न्यस्तं वह्नौ वहिनरिवार्पितम्। परे ब्रह्मणि लीनात्मा विभागेन न दृश्यते।। (सि. शि. २०.६१) या इस उक्ति के अनुसार जल में जल तथा अग्नि में अग्नि की तरह अपने मूल स्वरूप में समरस हो जाता है। यह भक्ति की अन्तिम एवं परिणूर्ण अवस्था है। यह मुक्तिमार्ग का अन्तिम सोपान है।
- इस प्रकार शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में भक्ति के क्रमिक विकास से ही मुक्ति की प्राप्ति बताई गई है। जैसे व्यावहारिक प्रपंच में पुत्र के जन्म के लिये कारणीभूत माता ही उसे अपने पिता का ज्ञान कराती है, वैसे ही जीवात्मा की उत्पत्ति के लिये कारणीभूत शिव की शक्ति ही भक्ति के रूप में जीवात्मा में प्रविष्ट होकर उनकी संकुचित शक्तियों का विकास कर अपने मूलस्वरूप शिव का ज्ञान कराती हुई उसके साथ समरस करा देती है। इस प्रकार चिच्छक्तिविशिष्ट शिव का तथा समरसभक्तिरूप शक्तिविशिष्ट जीव का अद्वैत मानने वाले इस सिद्धान्त को शक्तिविशिष्टाद्वैत सिद्धान्त कहते हैं। बार
वीरशैव धर्म
मुक्तिमार्ग के सहकारी साधन
वीरशैव-दर्शन में साधन-मार्ग में प्रवृत्त प्रत्येक साधक के लिये अष्टावरण और पंचाचार मुक्ति-मार्ग के सहकारी साधन माने गये हैं। उन अष्टावरणों और पंचाचारों के स्वरूप को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
अष्टावरण
आठ प्रकार के आवरणों को अष्टावरण कहते हैं, “आवियते देहादिकं येन तद् आवरणम्” इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसके ढकना, छिपाना, धरना आदि अनेक अर्थ होते २६८ तन्त्रागम-खण्ड हैं। आवरण के दो प्रयोजन होते हैं— पहला किसी को वस्तु का वास्तविक ज्ञान न होने देना और दूसरा सभी प्रकार की विनाशकारी शक्तियों से रक्षा करना। इस प्रकार आवरण शब्द से स्वरूप का आच्छादन और रक्षा का कवच, ये दोनों अर्थ सिद्ध होते हैं। वेदान्त शास्त्र में आवरण को स्वरूप के आच्छादन के अर्थ में लिया गया है, किन्तु वीरशैव धर्म-दर्शन में उसे रक्षाकवच के अर्थ में लिया जाता है। चन्द्रज्ञान आगम में - गुरुर्लिङ्गं जंङ्गमश्च तीर्थ चैव प्रसादकः। भस्मरुद्राक्षमन्त्राश्चेत्यष्टावरणसंज्ञिताः।। इमानि शिवभक्तानां भवदोषततेः सदा। निवारणैककार्याणि ख्यातान्यावरणाख्यया।। (च. ज्ञा., क्रिया. २.१-२) इस प्रकार- (१) गुरु, (२) लिंग, (३) जंगम, (४) पादोदक, (५) प्रसाद, (६) विभूति, (७) रुद्राक्ष और (८) मन्त्र—इन आठों को अष्टावरण की संज्ञा दी गई है। जैसे युद्धभूमि में योद्धा शत्रुओं के शस्त्रप्रहार से अपने शरीर की रक्षा के लिये कवच धारण करता है, उसी प्रकार दीक्षाप्राप्त भक्त की काम, क्रोध आदि दुष्ट वृत्तियों से सुरक्षा इन आठों से होती है, अतः इनको अष्टावरण कहते हैं। ये आठों मोक्ष की प्राप्ति में सहायक बन जाते हैं। इनमें गुरु, लिंग और जंगम ये तीन पूजनीय हैं। विभूति, रुद्राक्ष और मन्त्र ये तीन पूजा के साधन हैं। पादोदक और प्रसाद ये दोनों पूजा के फल हैं। ये आठों साधक की किस तरह से रक्षा करते हैं, उनके बारे में आगे विचार किया जा रहा है। वीरशैव धर्म का रहस्य इसी में छिपा हुआ है। गिड
१. श्रीगुरु
उपर्युक्त आठ आवरणों में गुरु ही पहला आवरण है। शिष्य का योगक्षेम गुरु के ऊपर निर्भर होने के कारण गुरु अपने शिष्य के आणव, मायीय तथा कार्मिक नामक त्रिविध मलों को वेधा, मान्त्री एवं क्रिया नामक दीक्षाओं के द्वारा निवारण करके उसके शरीर, मन तथा बुद्धि को परिशुद्ध कर देता है। साथ ही उपासना के लिये इष्टलिंग, प्राणलिंग तथा भावलिंग की उपासना-विधि को भी समझा देता है। भवारण्य में भटकने वाले शिष्य की इस प्रकार काम, क्रोध आदि दुष्ट वृत्तियों से गुरु रक्षा करता है। इस प्रकार गुरु अपनी समस्त शक्तियों से शिष्य के लिये एक सुदृढ़ रक्षा- कवच का निर्माण कर आवरण पदवाच्य होता है। पनीर भी
लिंग
सद्गुरु से प्राप्त इष्ट, प्राण और भावलिंग साधक का दूसरा आवरण माना जाता है। कोई भी व्यक्ति दुष्ट कार्य को करते समय दूसरों से उसको छिपाने का प्रयत्न करता रहता है। प्रायः मनुष्य इस भावना से आविष्ट रहता है कि अपनी गलती का किसी को पता न लगे और उसे समाज में इज्जत मिलती रहे। वीरशैव धर्म-दर्शन २६६ कितना भी चतुर आदमी क्यों न हो, अपने दुर्व्यवहारों को दूसरों से छिपाने पर भी अपने मन से नहीं छिपा पाता। जब अपने मन से नहीं छिपा पाता, तो सर्वव्यापी भगवान् से कैसे छिपा पायेगा? वह सर्वव्यापी भगवान् ही इष्टलिंग के रूप में शरीर में, प्राणलिंग के रूप में मन में तथा भावलिंग के रूप में बुद्धि में गुरु की कृपा से प्रकट हो जाते हैं, अतः शिवदीक्षा-सम्पन्न साधक को प्रति क्षण अपने शरीर, मन एवं बुद्धि में भगवान् के अस्तित्व का बोध होता रहता है। जब कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के सामने दुर्व्यवहार नहीं कर पाता, तो भगवत्सन्निधि में वह शास्त्रनिषिद्ध मार्ग पर कैसे प्रवृत्त होगा? वीरशैव धर्म का साधक अपने गुरु के उपदेश से मन और बुद्धि में भगवान् के अस्तित्व को प्राणलिंग तथा भावलिंग के रूप में जानते हुए क्रिया-दीक्षा में प्राप्त इष्टलिंग को अपने स्थूल शरीर के वक्षस्थल में सर्वदा धारण करके स्थूल शरीर से इष्टलिंग की पूजा, तथा मन और बुद्धि से’ प्राणलिंग एवं भावलिंग का अनुसंधान शरीर, वाणी और मन में निरन्तर करता हुआ अपने त्रिकरण को परिशुद्ध कर लेता है। तब इस परिशुद्ध साधक का सांसारिक विषयों के प्रति मोह क्षीण हो जाता है। इस प्रकार ये त्रिविध लिंग उपासना के माध्यम से साधक को अधःपतन से बचाते हैं, अतः वीरशैव आचार्यों ने इन त्रिविध लिंगों को दूसरा आवरण, अर्थात् रक्षाकवच माना है।
३. जंगम
साधक का तीसरा आवरण जंगम है। जंगम शब्द का अर्थ शिवज्ञानसम्पन्न महापुरुष होता है। जानन्त्यतिशया ये तु शिवं विश्वप्रकाशकम्। स्वस्वरूपतया ते तु जङ्गमा इति कीर्तिताः।। (सि. शि. ११.३६) सिद्धान्तशिखामणि के इस वचन में जंगम का लक्षण स्पष्ट किया गया है। ऐसे शिवयोगी लोग निरन्तर संचरण करते हुए ज्ञानोपदेश के द्वारा भक्तजनों के अज्ञान को दूर करके सभी को सन्मार्ग में लाने के लिये हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। भैंस आदि पशु जैसे नदी या तालाब में स्वच्छ नहला कर छोड़ने पर भी उस स्वच्छता का परिज्ञान स्वयं को न होने के कारण पुनः कीचड़ में सन कर पूरे शरीर को मलिन कर लेते हैं, उसी प्रकार कितना भी शुद्ध आचरण करने वाला व्यक्ति हो, उसे अपने आचरण १. सिद्धान्तशिखामणि (१२.१३-२०, १५.३७-४४) के आधार पर प्राणलिंग की आन्तर पूजा और भावलिंग की उपासना का वर्णन हमने “अष्टावरण विज्ञान" (पृ. २५-२८ हिन्दी संस्करण) में किया है। ३०० तन्त्रागम-खण्ड का ज्ञान न होने पर उसमें भी भैंस आदि के समान ही दुर्व्यवहार के द्वारा अपने पवित्र मन को पापरूपी कीचड़ से मलिन कर लेने की प्रवृत्ति रहती है। अतः समाज में साधकों को अपने आचरण एवं आत्मज्ञान का बोध करा कर उन्हें पतित होने से बचाने वाले एक महापुरुष की नितान्त आवश्यकता होती है। वीरशैव धर्म में इस आवश्यकता को पूरा करने वाला महापुरुष ही ‘जंगम’ है। जंगम अपने उपदेशों के द्वारा साधकों को सजग करके सदा उनकी रक्षा करता रहता है। अतः वीरशैव सिद्धान्त में जंगम को तीसरा आवरण माना गया है।
४. भस्म
अष्टावरण में चौथा स्थान भस्म का है। वीरशैव धर्म में आगम और उपनिषदों में बताई गई पद्धति से शुद्ध गोमय से भस्म का निर्माण किया जाता है। इसके निर्माण करने की विधि कल्प. अनकल्प. उपकल्प तथा अकल्प नाम से चार प्रकार की है (सि. शि. ७.१४-१८)। इनमें कल्पविधि से तैयार की गई भस्म सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। शिव के सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान मुखों से उत्पन्न नन्दा, भद्रा, सुरभि, सुशीला तथा सुमना नाम की पाँच प्रकार की गायों के गोमय से सिद्ध की गई वह भस्म विभूति, भसित, भस्म, क्षार एवं रक्षा के नामों से व्यवहृत होती है (सि. शि. ७.६-६)। अत्यन्त भक्तिभाव से धारण करने वाले को ऐश्वर्य प्रदान करने के कारण उसे विभूति, परमात्म-तत्त्व को शासित करने के कारण भसित, पापों की भर्त्सना करने के कारण भस्म, तापत्रयों से प्राप्त होने वाली विपत्तियों का क्षय करने के कारण क्षार, तथा भूत-प्रेत, पिशाच आदि से सुरक्षा करने के कारण इसे ‘रक्षा’ कहा गया है। (सि. शि. ७.४-५). नित्यकर्म करते समय विभूति को, नैमित्तिक कर्म करते समय भसित को, काम्य कर्म करते समय क्षार को, सर्वविध प्रायश्चित्तों में भस्म को एवं मोक्ष प्राप्ति के लिये निष्काम कर्म करते समय रक्षा नामक भस्म को धारण करने का विधान बताया गया है। (सि. शि. ७. १०-११)। भस्मधारण करते समय पहले भस्मस्नान, उसके बाद भस्मोद्धूलन करके मस्तक, ललाट, दोनों कान, कण्ठ, कन्धे, दोनों भुजा, दोनों बाहू, दोनों मणिबन्ध, वक्षस्थल, नाभि और पृष्ठ इन पन्द्रह स्थानों में त्रिपुण्ड धारण करने से वीरशैवों की भस्मधारण की विधि पूर्ण होती है। (सि. शि. ७.१६-३३) शन गोमय से बनी इस भस्म को प्रतिदिन पूजा के समय धारण करने से रोगाणुओं से शरीर की सुरक्षा होने के साथ ही मन में एक पवित्र भावना पैदा होती है। जैसे चूल्हे की आग का वर्तन के बाहरी भाग से साक्षात् सम्बन्ध होने पर भी उसकी उष्णता से अन्दर का पदार्थ पक जाता है, वैसे ही सभी दोषों को दूर करने में सामर्थ्यशाली भस्म को शरीर वीरशैव धर्म-दर्शन ३०१ के ऊपर धारण करने से शरीर की शुद्धि के साथ-साथ मन के समस्त दोष दूर होकर साधक का हृदय सद्भाव और शिवज्ञान से पूर्ण हो जाता है। कि का 5 इस प्रकार भस्म भक्तों को बाह्य शारीरिक चर्मरोगों से तथा आन्तरिक विषय के वासनाओं से सुरक्षित करके उसकी साधना मार्ग में सहायक होती है। अतः इसको भी आवरण रूप से अंगीकार किया गया है।
५. रुद्राक्ष
आवरणों में रुद्राक्ष पाँचवां आवरण माना जाता है। भगवान् रुद्र के अक्ष (नेत्र) की बूंदों से रुद्राक्ष की उत्पत्ति हुई है। रुद्र के सूर्यनेत्र से कपिल वर्ण के बारह, चन्द्र नेत्र से शुभ्र वर्ण के सोलह और अग्निनेत्र से कृष्ण वर्ण के दस, इस तरह कुल अड़तीस प्रकार के रुद्राक्ष उत्पन्न हुए हैं। (सि. शि. ७.४७-५१)। ये रुद्राक्ष एक मुख से लेकर १४ मुख तक के होते हैं। वीरशैवों के लिये अपने इष्टलिंग की पूजा करते समय शिखा के स्थान पर एक मुख का एक रुद्राक्ष, शिर पर दो मुख, तीन मुख और बारह मुख के एक-एक इस प्रकार तीन रुद्राक्ष, सिर के चारों ओर ग्यारह मुख के पैंतीस रुद्राक्ष, दोनों कानों में पाँच मुख, सात मुख और दस मुख के दो-दो-इस तरह छः छः रुद्राक्ष, कण्ठ में छः मुख के सोलह और आठ मुख के सोलह, इस तरह बत्तीस रुद्राक्ष, वक्षस्थल पर चार मुख के पचास रुद्राक्ष, दोनों बाहुओं में तेरह मुख के सोलह-सोलह रुद्राक्ष, दोनों मणिबन्धों (कलाइयों) में नौ मुख के बारह-बारह रुद्राक्ष और चौदह मुख के एक सौ आठ रुद्राक्ष यज्ञोपवीत के रूप में धारण करने का विधान है (सि. शि. ७.५४-५८)। जा रुद्राक्ष को शरीर पर धारण करने से रक्तचाप, हृदयविकार आदि भयानक रोगों के भी निवृत्त होने का प्रमाण मिलता है। साथ ही रुद्र की पावन दृष्टि के समान रुद्राक्ष के शरीर पर रहने से किसी दुष्ट शक्ति की दृष्टि हमारे ऊपर कोई विपरीत प्रभाव नहीं डाल पाती। इस तरह रुद्राक्ष भी साधक के बाह्य तथा अन्तरंग की परिशुद्धि करके धारक की रक्षा करता है। अतः रुद्राक्ष का भी आवरण कोटि में समावेश किया गया है।
६. मन्त्र
अष्टावरण में छठा आवरण मन्त्र होता है। “मननात् त्राणधर्माऽसौ मन्त्रोऽयं परिकीर्तितः” संकेतपद्धति के इस वचन के अनुसार जिसके मनन से साधक की रक्षा होती है. वही मन्त्र है। इस तरह के मन्त्र एक या दो ही नहीं हैं. शास्त्रों में उनकी संख्या सात करोड़ बताई गई है। ___ “सप्तकोटिषु मन्त्रेषु मन्त्रः पञ्चाक्षरो महान्” (सि. शि. ८.४)। चार इस आचार्योक्ति के अनुसार उन सात करोड़ मन्त्रों में पंचाक्षर मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है। यही वीरशैवों का जप्य मन्त्र है। भी इस मन्त्र के मूल, विद्या, शिव, शैवसूत्र. तथा पंचाक्षर- ये पाँच नाम हैं। (सि. शि. ८.२३)। अन्य सभी मन्त्रों का यही उद्गम स्थान है, अतः इसे ‘मूल’ यह नाम दिया गया ३०२ तन्त्रागम-खण्ड है। इस मन्त्र के मनन से शिव और जीव की एकता की बोधिका शुद्धविद्या का उदय होता है, अतः इसे ‘विद्या’ कहते हैं। इसके जप से अनेक कल्याण परम्पराओं की प्राप्ति होने से इसे ‘शिव’ कहा गया है। शिव-सम्बन्धी सभी विषय इन्हीं पाँच अक्षरों में अत्यन्त संक्षेप से प्रतिपादित है, अतः इसे ‘शैवसूत्र’ कहते हैं। ‘नमः शिवाय’ इन पाँच अक्षरों से युक्त होने के कारण इसे ‘पंचाक्षर’ कहा गया है। यही मन्त्र जब ॐकार से युक्त हो जाता है, तब षडक्षर कहलाता है। वीरशैव सिद्धान्त में मन्त्र का जप वाचिक, उपांशु एवं मानसिक भेद से तीन प्रकार का माना गया है। उसमें मानसिक जप अधिक फलदायी होने से उसे श्रेष्ठ माना गया है। (सि. शि. ८.२७-३२)। गुरुमुख से प्राप्त इस मन्त्र का निरन्तर मानसिक जप करते रहने से मन पवित्र होने के साथ-साथ अन्त में शिव-जीव का ऐक्यभाव प्राप्त होता है। इस तरह जप करने वाले साधक को मन्त्र से भी रक्षा मिलने के कारण मन्त्र भी एक आवरण (रक्षाकवच) है।
७. पादोदक
गुरु, लिंग तथा जंगम के चरणामृत को पादोदक कहते हैं। पाकारं परमं ज्ञानं दीकारं दीपनाशनम्। दकारं दह्यते जन्म ककारं कर्मनाशनम् ।। कि इस प्रमाणवचन के अनुसार पादोदक परम ज्ञान को देने वाला, दोषों का नाश करने वाला, पुनर्जन्म को दग्ध करने वाला तथा सर्वविध दुष्ट कर्मों का नाश करने वाला है। 15 यह पादोदक गुरु की पादपूजा से प्राप्त होने पर गुरुपादोदक, जंगम के पाद की पूजा से प्राप्त होने पर जंगम-पादोदक और इष्टलिंग की पूजा से प्राप्त होने पर लिंग-पादोदक कहलाता है। इन्हीं को क्रमशः दीक्षा-पादोदक, शिक्षा-पादोदक और ज्ञान-पादोदक भी कहते हैं (च. ज्ञा., क्रिया. ५.५)। पादतीर्थ सदा पेयं भवबन्धमुमुक्षभिः। गुरोरपीष्टलिङ्गस्य चरस्यापि विशेषतः।। (च. ज्ञा., क्रिया.५.१६) के आगम की इस उक्ति के अनुसार वीरशैव लोग प्रतिदिन त्रिविध पादोदक का सेवन करते हैं। इस प्रकार पादोदक का सेवन करने वालों के सभी दोषों को हटाकर उन्हें सन्मार्ग में प्रवृत्त कराकर दुर्मार्ग से साधक की रक्षा करने के कारण ‘पादोदक’ को भी आवरण माना गया है। न शा कति
८. प्रसाद
वीरशैव अष्टावरण में अन्तिम आवरण प्रसाद है। अपने इष्टलिंग, गुरु और जंगम को अर्पण करने के बाद अवशिष्ट अन्न को प्रसाद कहते हैं। कि भुञ्जीयाद् रुद्रभुक्तानं रुद्रपीतं जलं पिबेतु। कर की रुद्राघातं सदा जिद्मदिति जाबालिकी श्रुतिः।। र ३०३ TE वीरशैव धर्म-दर्शन अर्पयित्वा निजे लिङ्गे पत्रं पुष्पं फलं जलम्। कि अन्नाद्यं सर्वभोज्यं च स्वीकुर्याद् भक्तिमान्नरः।। का (सि. शि. ६.७०-७१) इस आचार्योक्ति में पदार्थों का उपभोग करने से पहले भगवदर्पित करने को कहा गया है। यह प्रसाद जब गुरु से प्राप्त होता है, तो शुद्ध प्रसाद इष्टलिंग से प्राप्त होता है, तो सिद्ध प्रसाद और जंगम से प्राप्त होता है, तो प्रसिद्ध प्रसाद कहलाता है। आहार की शुद्धि मन की शुद्धि में कारण बनती है, क्योंकि भुक्त अन्न के सूक्ष्म परिणाम से मन प्रभावित होता है। मन की शुभ और अशुभ वासनाओं के कारण ही मनुष्य को सद्गति तथा दुर्गति मिलती है। सद्गति को पाने की इच्छा वाले व्यक्ति को अपने मन को सद् वासनाओं से संयुक्त कर सदा प्रसन्न रहने का प्रयत्न करना चाहिये। उस तरह की प्रसन्नता की प्राप्ति - नैर्मल्यं मनसो लिङ्गं प्रसाद इति कथ्यते। शिवस्य लिङ्गरूपस्य प्रसादादेव सिद्ध्यति।। __(सि. शि. ११.६) का सिद्धान्तशिखामणि के इस वचन के अनुसार प्रसाद-सेवन से ही सिद्धि मिलती है। अतः साधक को सदा प्रसादभोजी होना चाहिये। इस तरह यह प्रसाद मन की शुद्धि के द्वारा हमारी रक्षा करता है, अतः प्रसाद भी एक आवरण है। इस प्रकार वीरशैव सिद्धान्त में साधक के रक्षाकवच के रूप में माने गये इन आठों आवरणों को मोक्ष का सहकारी साधन माना गया है।
पंचाचार
साधक का दूसरा सहकारी साधन पंचाचार है। लिंगाचार, सदाचार, शिवाचार, गणाचार और भृत्याचार–इन पाँच प्रकार के आचारों को पंचाचार कहते हैं। यहाँ शास्त्रविहित कर्मों का पालन करना ही आचार है। वैसे तो आचार अनेक होते हैं, किन्तु इन सभी आचारों को पाँच भागों में विभक्त करके वीरशैव धर्म में पंचाचारों का प्रतिपादन किया गया है। ये पाँच प्रकार के आचार साधकों को दुर्मार्ग से रोक कर उनके अन्तःकरण की शुद्धि में कारण बनते हैं। अतः प्रत्येक वीरशैव के लिये अपने जीवन में उनका पालन करना आवश्यक है (च. ज्ञा. क्रिया. ६.४)। शास्त्रों में इनका स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित
१. लिंगाचार
अंग (जीव) को लिंगस्वरूप की प्राप्ति के लिये बताये गये आचार को लिंगाचार कहते हैं। शरीर, मन तथा भावना से क्रमशः लिंग की पूजा, लिंग का चिन्तन एवं लिंग का निदिध्यासन करना ही लिंगाचार है। वीरशैव धर्म में दीक्षासम्पन्न ३०४ तन्त्रागम-खण्ड जीव को अपने इष्ट, प्राण तथा भाव लिंग के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं की अर्चना आदि का निषेध है। यह निषेध उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, किन्तु इष्टलिंग आदि में निष्ठा बढ़ाने के लिये ही है। अतः गुरुदीक्षा से प्राप्त उन लिंगों को अपना आराध्य समझकर उन्हीं की अर्चना आदि में तत्पर रहना लिंगाचार है। (च. ज्ञा. क्रिया. ६.५१)।
सदाचार
जिस आचरण से सज्जन तथा शिवभक्त सन्तुष्ट होते हैं और जिससे अन्तरंग तथा बहिरंग की शुद्धि होती है, उसे सदाचार कहते हैं। (सूक्ष्म. आ. ८.७) इस सदाचार में धर्ममूलक अर्थ संपादन और धन का यथाशक्ति गुरु, लिंग और जंगम के आतिथ्य में विनियोग करना, सदा शिव-भक्तों के साथ रहना आदि विशुद्ध आचारों का समावेश किया गया है। (च. ज्ञा. क्रिया. ६.६)। इस सदाचार में आठ प्रकार के शीलों को बताया गया है। वीरशैव संप्रदाय में शिवज्ञान की जिज्ञासा की उत्पत्ति में कारणीभूत नैतिक आचरणों को शील’ कहा गया है (च. ज्ञा. क्रिया १६-३१)।
३. शिवाचार
सृष्टि, स्थिति, संहार, निग्रह और अनुग्रह नामक पाँच कृत्यों को करने वाले शिव को ही अपना अनन्य रक्षक मानना शिवाचार है (च. ज्ञा. ६.७)। इस शिवाचार में द्रव्य, क्षेत्र, गृह, भाण्ड, तृण, काष्ठ, वीटिका, पाक, रस, भव, भूत, भाव, मार्ग, काल, वाक् और जन-इन सोलह पदार्थों को शिवशास्त्रोक्त विधि से शुद्ध करके स्वीकार करना ही शिवाचार है (च. ज्ञा. क्रिया ६.३२-५०)।
४. गणाचार
शिव के प्रमथगणों के द्वारा आचरित आचार को गणाचार कहते हैं। इस आचार में कायिक, वाचिक तथा मानसिक चौंसठ प्रकार के शीलों का, अर्थात् उत्तम आचरणों का समावेश किया गया है। उनमें प्रमुख हैं- शिव या शिवभक्तों की निन्दा न सुनना, यदि कोई निन्दा करता है तो उसको दण्डित करना, दण्डित करने का सामर्थ्य न रहने पर उस स्थान को त्याग देना, इन्द्रियों से शास्त्रनिषिद्ध विषयों का सेवन न करना, मन से निषिद्ध भोग का संकल्प भी न करना, किसी पर क्रोधित न होना, धन आदि का लोभ त्याग देना, सम्पत्ति आने पर भी मदोन्मत्त न होना, शत्रु और अपने पुत्र में विषमता को त्यागकर समता का भाव रखना, निगमागम वाक्यों में श्रद्धा रखना, प्रमाद नहीं करना, अनुपलब्ध वस्तुओं का व्यसन छोड़कर प्राप्त वस्तुओं से ही सन्तुष्ट रहना, पंचाक्षरी मन्त्र का सदा मन में जप करना, विश्व चार पत्र सद १. अष्टशील से सम्पन्न सदाचार का तथा छः शीलों से सम्पन्न सदाचार का स्वरूप लेखक के “सिद्धान्तशिखामणिसमीक्षा” (पृ. ३६७, ३६०, ३६२) नामक संस्कृत ग्रन्थ से जाना जा सकता है। रणवहाँ चन्द्रज्ञानागम के प्रमाण से इस विषय का निरूपण किया गया है। की ताज५. वीरशैव धर्म-दर्शन ३०५ के समस्त प्राणियों को शिव के ही अनन्त रूप समझना आदि शीलों से युक्त आचार ही गणाचार है (च. ज्ञा., क्रिया ६.५१-१२३ एवं सि. शि. ६.३६)।
५. भृत्याचार
शिवभक्त ही इस पृथ्वी में श्रेष्ठ है और मैं उनका भृत्य, अर्थात् दास हूँ, ऐसा समझकर उनके साथ विनम्रता से व्यवहार करना ही भृत्याचार कहलाता है (च. ज्ञा., क्रिया. ६.६)। भृत्यभाव और वीरभृत्यभाव के भेद से यह भृत्याचार दो प्रकार का है। अपने को गुरु, लिंग तथा जंगम का सेवक समझ कर श्रद्धा से निरन्तर उनकी सेवा में तत्पर रहने की भावना को भृत्यभाव कहते हैं। जिस भाव से युक्त साधक गुरु को तन, अपने इष्टलिंग को मन, तथा जंगम को अपना सर्वस्व अत्यन्त आनन्द से समर्पित कर देता है और उसके प्रतिफल पारलौकिक सुख से निस्पृह होकर केवल मोक्ष की अभिलाषा रखता है, उसे वीरभृत्यभाव कहते हैं। इस वीरभृत्यभाव के साधक को वीरभृत्य कहा जाता है (च. ज्ञा., क्रिया. ६।१२४-१२६)। यही भृत्याचार है। उपर्युक्त पाँचों आचार साधक के लिये अन्तःकरण की शुद्धि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होते हैं। अतः इन पंचाचारों को मोक्ष का सहकारी कारण माना गया हैं इस तरह वीरशैव साधक अष्टावरण से युक्त होकर, पंचाचारों का निष्ठापूर्वक परिपालन करता हुआ, षड्विध भक्ति के माध्यम से क्रमशः षट्स्थलों पर आरोहण करता हुआ, अन्तिम ऐक्य स्थल में परशिव के साथ समरस हो जाता है। इस समरस स्थिति को वीरशैव आचार्यों ने लिंगांग-सामरस्य कहा है। यही वीरशैव दर्शन प्रतिपादित कैवल्य स्थिति है। । इस दर्शन के द्वारा प्रतिपादित साधना-मार्ग में गुरुदीक्षा प्राप्त मानवमात्र अधिकारी है। मानव समाज को सुधारने के उद्देश्य से प्रतिपादित यह सिद्धान्त पूरे मानव समाज के लिये एक श्रेष्ठ वरदान है।।