आचार्य सोमानन्द निर्दिष्ट इतिहास
काश्मीर शैव दर्शन पर न्यायशास्त्र की प्रतिपादन प्रक्रिया के अनुसार लिखा गया सबसे पहला ग्रन्थ है नवम शताब्दी के आचार्य सोमानन्द की शिवदृष्टि। उस ग्रन्थ के अन्तिम प्रकरण के अन्त में आचार्य ने इस शास्त्र के आविर्भाव और प्रसार के विषय में एक ऐसा परिचय दिया है, जिसे आजकल के विचारक एक पौराणिक ढंग की गाथा ही कह सकते हैं। परन्तु वर्तमान लेख के लेखक को कई एक साधना-अभ्यास करने वाले सिद्धिसम्पन्न महानुभावों के सम्पर्क में आने से ऐसे विषयों की जो यथार्थ जानकारी प्राप्त हुई है, उसको दृष्टि में रखते हुए तथा कुछ एक इतिहास तत्त्वों पर विचार करते हुए आचार्य सोमानन्द के द्वारा दिया गया वह परिचय सर्वथा एक ऐतिहासिक सत्य सिद्ध होता है। तदनसार आचार्य ने इस विषय में निःशंक भाव से जो लिख रखा है, उससे निम्नलिखित सत्य ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी मिलती है
- इस पराद्वैत शैवदर्शन के सिद्धान्तों का और इसकी साधना की प्रक्रियाओं का ज्ञान और विज्ञान प्राचीन काल में ऋषियों के पास था। वे ही योग्य अधिकारियों को इसकी दीक्षा भी दिया करते थे और उन पर वे अनुग्रही शक्तिपात भी किया करते थे। परन्तु कलियुग के आरम्भ में कलिदेवता के प्रभाव के प्रवृत्त हो जाने पर वे ऋषि कैलास पर्वत पर स्थित किसी कलापि ग्राम नामक अदृश्य स्थान की ओर जब चले गए, तो देश में अद्वैत शैव-दर्शन की परम्परा का उच्छेद सा हो गया। तब कैलासवासी श्रीकण्ठनाथ शिव ने महान् मुनि दुर्वासा को इस शास्त्र की परम्परा को पुनः नये सिरे से चला देने का आदेश दिया। तदनुसार महामुनि ने इस कार्य को करवाने के लिए त्र्यम्बकादित्य नामक मानसपूत्र की सृष्टि करके तीव्रतर शक्तिपात के द्वारा उसे इस शास्त्र के ज्ञान और विज्ञान से सम्पन्न कर दिया और शैवदर्शन के प्रचार का काम उसी को सौंप दिया। वे त्र्यम्बकादित्य भी कुछ समय तक योग्य साधकों को इस शास्त्र की दीक्षा देते रहे और अन्ततोगत्वा परिपूर्ण योग-सिद्धि को पाकर अभिनव मानसपुत्र को उसी तरह से ज्ञान और विज्ञान से सम्पन्न बनाकर तथा इस शास्त्र के प्रचार के काम को उसे ही सौप कर स्वयं उत्कष्ट ऊर्ध्व लोकों के प्रति संक्रमण कर गये। वे अभिनव गुरु भी त्र्यम्बकादित्य ही कहलाए, उन्हें द्वितीय त्र्यम्बक कहा जा सकता है। इसी तरह से इस सिद्ध-परम्परा की चौदह पीढ़ियाँ व्यतीत हो गयीं। पन्द्रहवीं पीढ़ी के त्र्यम्बकादित्य एक बार कहीं लोकसम्पर्क में आने पर बहिर्मुख हो गए, तो उनकी १. चोदयामास भूतले…… मुनि दुर्वाससं नाम भगवानूर्ध्वरेतसम्। मोदी नोच्छिद्येत यथा शास्त्रं रहस्यं कुरु तादृशम् ।। (शि. दृ. ७.१०६-११०) नीनिक पीक नही २१० तन्त्रागम-खण्ड दृष्टि एक सुन्दर और सुयोग्य ब्राह्मणकन्या पर पड़ी, उसके पिता से प्रार्थना करके उन्होंने उसके साथ ब्राह्मणोचित विधि से विवाह किया। उस वैवाहिक संगम से उनका जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम संगमादित्य रखा गया। इस संगम से ही इस पराद्वैत शैवदर्शन के गृहस्थ गुरुओं की परम्परा चल पड़ी। वे संगमादित्य घूमते-घूमते कश्मीर आकर इसी देश में बस गये। इस मेधा प्रधान पीठ में यह मठिका खुब फली और फली तथा थोड़े ही समय में इस तरह से अद्वैत शैवदर्शन की यह मठिका कैलाश पर्वत के प्रदेश से उखड़ कर कश्मीर की उर्वरा भूमि में प्रतिरोपित हो गयी। कश्मीर को आश्रमों में मेधापीठ नाम दिया गया है। इस मेधाप्रधान पीठ में यह मठिका खूब फली और फूली तथा थोड़े ही समय में इस मठिका में शिष्य-परम्परा का खूब विस्तार हो गया। उस परम्परा को काश्मीरी भाषा में ‘तेरम्बा’ कहा जाता रहा। इस समय भी ‘व्यम्बि’ उपनाम के लोग कश्मीर में निवास करते हैं। संगमादित्य की वंशपरम्परा में क्रम से वर्षादित्य, अरुणादित्य, आनन्द और सोमानन्द इस त्र्यम्बक मठिका के अधिपतिपद को विभूषित करते गये। इस मठिका के अगले अधिपति, अर्थात् आचार्य उत्पलदेव, लक्ष्मणगुप्त और अभिनवगुप्त श्रीनगर में रहते रहे। परन्तु ‘बालबोधिनी न्यास के रचयिता शितिकण्ठ अपने किसी निग्रह और अनुग्रह के सामर्थ्य से विभूषित ‘सोम’ को अपना पूर्वज बताते हैं और अपना निवास स्थान पद्मपुर (पाम्पोर) के पास सिंहपुर (साम्पोर) बताते हैं। यदि यह बात सत्य प्रमाणित हो, तो आचार्य सोमानन्द का निवासस्थान सिंहपुर ही था। जनिक
सिन्धु घाटी की शैवी साधना
प्रागैतिहासिक युग के भग्नावशेषों से भी यह बात सिद्ध होती है कि शैवधर्म और शैवी योग-साधना का प्रचार सिन्धु घाटी की सुविशाल भूमि में पर्याप्त मात्रा में विकास को प्राप्त हुआ था। सिन्धु घाटी के प्राचीनतर निवासी शिव की, मातृदेवी की, शिवलिंग की, योनिमूर्ति की, तांत्रिक यन्त्रों आदि की पूजा किया करते थे और योग-साधना का अभ्यास भी किया करते थे। विशेष करके त्रिशिरः शिव की मूर्ति और शाम्भवी मुद्रा में स्थित योगी की मूर्ति यह जतलाती है कि शैवी योगसाधना करने वाले शिवोपासक प्रागैतिहासिक युगों से ही भारतभूमि में रहा करते थे और शैवधर्म ही भारत में प्राचीनतर ऐतिहासिक युग में प्रचलित था। यह धर्म और शैवी साधना दोनों ही आगे भी यहाँ लगातार चलते ही रहे, इस बात की और भी अनेकों साक्षियाँ सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में पर्याप्त मात्रा में मिल रही हैं। उधर ऋग्वेद (७.२१.५; १०.६६.३) में लिंगपूजकों की निन्दा करने वाले १. श्रीमत्पद्मपुरं पुरन्दरपुरप्रोद्यत्प्रभं भासते तत्राचार्यवरो बभूव भगवान् सोमः स सोमप्रभः। किसी यः सिद्धामृतशम्भुदर्शितमहाविद्यः सतां मस्तकः शापानुग्रहकृद् वितानपरमः सोमस्तदीयेऽन्वये।। (बा. बो. न्या. प्रस्तावना) अत्र कानिचिदक्षराणि संशयितानीव भान्ति। नामा २. “शिश्नदेवा अपि गुर्जतं नः" (ऋ. ७.२१.५); “शिश्नदेवा अभि वर्पसा भूत् (ऋ. १०.६६.३)। २११ काश्मीर शैवदर्शन दो मन्त्र भी विद्यमान हैं। तीसरी बात यह है कि इस वेद में योग शब्द का प्रयोग योगाभ्यास के अर्थ में कहीं भी नहीं हुआ है। अन्य वैदिक संहिताओं में भी योगाभ्यास का उल्लेख नहीं मिल रहा है। वैदिक वाङ्मय के अर्वाचीन भागों में जैसे कठोपनिषद् आदि में योगविद्या का नामोल्लेख और अस्पष्ट संकेत मात्र मिलते हैं। योगाभ्यास का स्पष्ट प्रतिपादन सबसे पहले श्वेताश्वतर जैसे शैवी रंग में रंगे हुए वैदिक उपनिषदों में मिल रहा है। अब भी उन्हें वैदिक न मानते हुए आगमिक ही माना जाता है। इन बातों से यह सिद्ध होता है कि जब सहस्रों वर्षों तक वैदिक और आगमिक जन परस्पर मिल-जुल कर रहते रहे, तो उनका आपस में काफी आदान-प्रदान होता रहा। उसके फलस्वरूप वैदिक ऋषियों ने शैवी साधना को सीखा और आगे उसको दीक्षा-योग्य साधकों को वे देते रहे, जो बात आचार्य सोमानन्द ने कही है। आगमिक जनता ने भी वैदिक धर्म को धीरे-धीरे अपनाया। 13 OPE
शाम्भवी योगविद्या
दूसरी बात जो आचार्य सोमानन्द ने कह दी है, वह यह है कि ऋषियों में यह परम्परा लगातार चलती रही। तदनुसार वेदोत्तर वाङ्मय में आगमिक योगविद्या के कई एक अंश मिल रहे हैं। उदाहरण के तौर पर ‘याज्ञवल्क्यस्मृति के तीसरे अध्याय में, यतिधर्म-प्रकरण में, शैवी योग-साधना की शाम्भवी मुद्रा के रहस्यात्मक तत्त्वों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के शांकरभाष्य में कहीं से उद्धृत याज्ञवल्क्य-गार्गी-संवाद जो दिया गया है, उसमें भी शाम्भवी योग-साधना का और तदुचित नाड़ीशोधन, प्राणायाम आदि का जो वर्णन मिल रहा है, वह एकदम मूलतः वैदिक न होता हुआ सर्वथा एक आगमिक उपासना की प्रक्रिया है। वर्तमान युग में उसी रहस्यात्मक योगविद्या की साधना के रहस्यभूत अंशों को इन पंक्तियों के लेखक के पूज्य गुरुदेव आचार्य अमृतवाग्भव को महामुनि श्रीदुर्वासा ने साक्षात् दर्शन देकर सिखा दिया था। इस बात को उन्होंने स्वयं बताया भी है और अपने “सिद्धमहारहस्यम्” नामक ग्रन्थ में लिख भी रखा है। भगवद्गीता के छठे अध्याय में भी शैवी साधना की उस उत्कृष्ट योग-प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाली उसी शाम्भवी मुद्रा का स्पष्ट निरूपण किया गया है। महाभारत में कहा गया है कि महामुनि दुर्वासा ने भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञान-विज्ञान-प्रद योगविद्या की दीक्षा दी थी। तभी तो उस विद्या का १. अनन्यविषयं कृत्वा मनोबुद्धिस्मृतीन्द्रियम्। ध्येय आत्मस्थितो योऽसौ हृदये दीपवत् प्रभुः।।। का ऊरुस्थोत्तानचरणः सव्ये न्यस्त्वोत्तरं करम्। पलामी शिदि . धारयेत् तत्र चात्मानं धारणां धारयन् बुधः।। २. दुर्वाससो भगवतो वदनारविन्दात् साक्षान्निधानमधिगम्य समाधियुक्तेः। वयस्क आलम्ब्य तच्छिवकरं जनतापहर्ता ग्रन्थो व्यधायि विदुषाऽमृतवाग्भवेन।। ____३. दुर्वाससः प्रसादात् ते यत्तदा मधुसूदन। अवाप्तमिह विज्ञानं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ।। (अनु. १६०.१)जमायामा मन मा २१२ तन्त्रागम-खण्ड समावेश भगवद्गीता में हुआ। मध्यकाल में महाकवि कालिदास ने भी ‘कुमारसम्भव के तीसरे सर्ग में उसी शाम्भवी मुद्रा का अतीव सुन्दर काव्यात्मक शैली में वर्णन किया है।
आचार्य भर्तृहरि
ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन युगों से ही शाम्भवी योगविद्या गुरु-शिष्य-क्रम में चिरकाल तक चलती रही और उसी परम्परा से महावैयाकरण भर्तृहरि को भी प्राप्त हुई। यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो व्याकरण के ग्रन्थ वाक्यपदीय को आरम्भ करते हुए ही वे इस शाम्भवी दर्शनविद्या को उसके बीच क्यों घुसेड़ देते? वस्तुतः उन्हें इस शाम्भवी योगसाधना के अभ्यास से एक ऐसे विशेष आत्मानन्द की अनुभूति के साथ-साथ उपने स्वरूप का साक्षात्कार हुआ होगा, जिसका स्मरण करते ही वे ग्रन्थारम्भ में मंगल श्लोक का निर्माण करते हुए अन्तःकरणभूमिका में उसी आनन्द के प्रवाह में बह गए और इसी कारण वाक्यविषय और पदविषय को किनारे रखकर उस आध्यात्मिक विषय की लहरों में कुछ देर गोते खाते रहे और उसी के फलस्वरूप उनकी लेखनी से पहले-पहल दर्शन विद्या का ही निर्माण हो गया। इस विषय में खेद की एक बात अवश्य है। वह यह है कि उनके अनुयायी शुष्क तकों के बरसाती प्रवाहों में बहते हुए उनके उस अमृतमय भागीरथी प्रवाह का आनन्द नहीं ले सके, इसी कारण से अद्वैत वेदान्त के विर्वतवाद के उस खारे समुद्र की ओर बढ़ते रहे, जिसे पश्चात् वैष्णव गुरुओं ने प्रच्छन्न बौद्धाचार कहा। ‘विवर्तते’ इस पद से भर्तृहरि यह कहना चाहते थे- ‘बहुविध-प्रमाणप्रमेयतत्त्वतया वर्तते आभासते इति”। वस्तुतः उस प्राचीन युग में शाम्भवी योगविद्या को तथा वैसी दर्शन विद्या को शब्दों के प्रयोग के द्वारा वर्णन करने की समुचित शैली का विकास होने ही नहीं पाया था। ऐसे विकास के क्रम को भी पूर्ण बनने में काफी समय लगता है। उदाहरण के तौर पर महर्षि याज्ञवल्क्य के समय तक ‘पद्मासनम्’ इस शब्द का उपयोग विकसित और प्रचलित नहीं हुआ था, अतः उन्हें इस शब्द के बदले ‘ऊरुस्थोत्तानचरणः’ ऐसा कहना पड़ा। महाकवि कालिदास ने भी-“पद्मासनस्थं स्थिरपूर्वकायम्" ऐसा न कहकर यह कहा “पर्यकबन्धस्थिरपूर्वकायम्"। बहुत सम्भव है कि इस आसन को ‘पद्मासनम्’ ऐसा नाम वज्रयानी सिद्ध पद्मसम्भव के सम्बन्ध से पड़ गया हो। यह भी बहुत सम्भव है कि महाकवि कालिदास को भी कहीं से इस शाम्भवी योगमुद्रा की दीक्षा मिल गई हो।
काश्मीरी शैव दर्शन
इस तरह की साक्षियों से सोमानन्द के कथन की प्रामाणिकता पर्याप्त मात्रा में सिद्ध होती है, तो निश्चयपूर्वक यह बात मान ली जा सकती है कि शाम्भवी योग-विद्या और १. स देवदारुद्रुमवेदिकायां शार्दूलचर्मव्यवधानवत्याम्।…. यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमात्मन्यविलोकयन्तम्।। (३.४४-५०) निकाला काश्मीर शैवदर्शन २१३ उसकी फलस्वरूपा अद्वैतदृष्टि वाली शाम्भवी दर्शन-विद्या भारत में प्रागैतिहासिक युग से मध्यकालीन युग तक गुरुशिष्य-परम्परा में प्रकट होते हुए सिद्धों में लगातार चलती ही रही, चाहे उन सिद्धों और साधकों ने इस विद्या को रहस्य-विद्या समझते हुए इस पर विस्तृत ग्रन्थों का निर्माण नहीं किया। वह निर्माण शिव की ही प्रेरणा से आगे त्र्यम्बकादित्य की शिष्य-परम्परा में प्रकट होते हुए सिद्धों ने कश्मीर मण्डल में कर दिया, इसी कारण से समस्त भारत को व्याप्त करती हुई भी यह विद्या वर्तमान युग में ‘काश्मीर शैव-दर्शन’ ही कहलाती है।
बौद्ध वाद और शाङ्कर अद्वैतवाद
कि भारतीय दर्शन-विद्याओं के इतिहास के विषय में एक और बात पर प्रकाश डालना आवश्यक है। वह यह है कि प्राचीन युगों से ही योगविद्या और अध्यात्मदर्शन विद्या दोनों को ही रहस्य विद्याएं मानते हुए इनका विशेष स्पष्टीकरण ग्रन्थों के द्वारा नहीं किया जाता था, केवल कहीं-कहीं संकेत मात्र किए जाते थे। वे युग श्रद्धा के युग थे। गुरुजन जो उपदेश देते थे, शिष्यजन उन पर विश्वास रखते हुए और तदनुसार अभ्यास करते हुए यथा-समय उन दर्शन-तत्त्वों का साक्षात् अनुभव कर पाते थे। इसी तरह से प्राचीनतर योग आदि दर्शन-विद्याएं उपनिषदों में संकेतमात्र से प्रकट हुई और आगे उसी रूप में परम्परा से चलती ही रही, परन्तु कलियुग की तीसरी सहस्राब्दी में भारत में बुद्ध अवतरित हो गए। उन्होंने मानव बुद्धि को विशेष महत्त्व देते हुए यह उपदेश किया— “मेरे उपदेशों को भी तब तक सत्य मत मानो, जब तक तुम लोग स्वयं अपने बुद्धि-क्षेत्र में पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं हो पाओ।" ऐसा उपदेश करते हुए उन्होंने प्राचीन ऋषियों वाले विश्वास का स्थान मानव बुद्धि को दे दिया और श्रद्धा के स्थान पर तर्क को बिठा दिया। आगे अपरोक्ष साक्षात्कारमूलक प्राचीन दर्शन-विद्या का स्थान व्यावहारिक प्रयोगमूलक तर्कविद्या ने ही ले लिया। बौद्धों की तर्कविद्या का सामना करने के लिए औपनिषद दर्शनों के अनुयायियों को भी तर्कविद्या को ही अपनाना पड़ा। उस होड़ के फलस्वरूप एक ओर से बौद्धों के सर्वास्तिवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद का विकास हो गया और दूसरी ओर से वैदिक षड्दर्शनों का। इस होड़ में बौद्ध तार्किकों ने विशेष प्रगति प्राप्त की, विशेषकर विज्ञानवाद के गुरुओं ने। षड्दर्शनों वाला तर्क विज्ञानवाद के तर्क की अपेक्षा काफी स्थूल स्तर पर ही टिका रहा। श्रीशंकराचार्य जैसे गुरु ने भी आचार्य धर्मकीर्ति और आचार्य धर्मोत्तर के द्वारा प्रस्तुत अतीव सूक्ष्म तकों की पूरी अवहेलना की। प्राचीन बौद्ध गुरुओं के द्वारा दी गई स्थूल तर्क-युक्तियों का जो निराकरण आचार्य बादरायण ने कर रखा था, आचार्य शंकर ने भी उसी पर सन्तोष किया। उन्होंने प्रमाणवार्त्तिक में आचार्य धर्मकीर्ति के द्वारा प्रस्तुत तों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया। उनके अनुयायी वाचस्पति मिश्र आदि को उन सूक्ष्म तों को छेड़ने का उत्साह ही नहीं हुआ। इस तरह वैदिक दर्शनाचार्यों ने बौद्धों के साथ पर्याप्त अन्याय किया। २१४ तन्त्रागम-खण्ड उस अन्याय को आगे अद्वैत शैव-दर्शन के आचार्यों ने ही दूर कर दिया। उनमें से विशेष करके सोमानन्द, उत्पलदेव और अभिनवगुप्त नाम के आचार्यों ने पहले तो बौद्धों की तर्कविद्या का पूरा अध्ययन किया और उसके रहस्यों को ठीक तरह से समझ कर ही उन तकों को अपने सूक्ष्मतर तकों के बल से तथा मनोवैज्ञानिक युक्तियों से परास्त कर दिया। आचार्य धर्मकीर्ति और आचार्य धर्मोत्तर दोनों ही के सूक्ष्म तकों को उन्होंने अधिक सूक्ष्म और उत्कृष्ट तथा मनोविज्ञान से परिपुष्ट तों ही के द्वारा एक एक करके काट दिया। यह काम विशेषतया आचार्य सोमानन्द की शिवदृष्टि के छठे आहिनक में हुआ। उसकी संक्षिप्त व्याख्या आचार्य उत्पलदेव ने की तो थी और आचार्य अभिनवगुप्तकृत शिवदृष्ट्यालोचन में उसकी सविस्तर व्याख्या की गई थी, परन्तु हमारे दुर्भाग्य से इस युग में उन व्याख्याओं में से कोई भी मिल नहीं रही है। उस बात के फलस्वरूप एक ओर से उन दो बौद्ध गुरुओं के तर्क अभी तक दार्शनिक जगत् में ऊँचे पद पर स्थित हैं और दूसरी ओर से शिवदृष्टि का वह भाग अभी तक दुर्बोध बना हुआ है। उसे सुबोध बना देने के लिए पहले आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्त्तिक जैसे रूक्ष ग्रन्थ को और उस पर आचार्य धर्मोत्तर की रूक्षतर व्याख्या को भलीभांति पढ़कर पूरी तरह से समझने की आवश्यकता है। उसे ठीक तरह से समझकर ही आचार्य सोमानन्द के अभिप्रायों को समझा और समझाया जा सकता है। वर्तमान युग में किसी भी शैवदर्शन के विद्वान् में उतना उत्साह प्रकट नहीं हुआ, विशेषकर के बौद्धों के द्वारा किए गए संस्कृत भाषा के विकृत प्रयोग के कारण और उनकी प्रतिपादन शैली के रूक्षातिरूक्ष होने के कारण। इस समय पश्चिम के देशों में कहीं-कहीं प्रमाणवार्त्तिक का अध्ययन हो रहा है। उसका विशेष फल अभी तक देखने में नहीं आया। का माय मी कशी पर गिरील
काश्मीरी अद्वयवाद
बौद्धों के अनात्मवाद से भरी तर्कविद्या ने प्राचीन औपनिषद वेदान्त-विद्या को काफी पीछे धकेल दिया। यहां तक कि उस वेदान्तविद्या के सुप्रसिद्ध गुरुओं की नीति भी बौद्धों के शून्यवाद की ओर झुकने लगी। उसी कारण से मध्यकाल के वैष्णव गुरुओं ने वेदान्त को प्रच्छन्न बौद्धवाद कहा और आचार्य अभिनवगुप्त ने उसे—“शून्यवादाविदूरवर्ति ब्रह्मदर्शन" अर्थात् शून्यवाद के समीप पहुँचने वाला ब्रह्मदर्शन’ कहा। अद्वैत वेदान्तियों ने शून्यवाद और अनीश्वरवाद के प्रभाव से दबते हुए ही परब्रह्म की ईश्वरता को माया पर आश्रित और असत्य आभासमात्र ठहराया। उन्होंने औपनिषद श्रुतियों को दो वर्गों में विभक्त किया। तदनुसार ब्रह्म को विश्वोत्तीर्ण शुद्ध और एकमात्र चैतन्य बताने वाली श्रुतियों को पारमार्थिक, अर्थात् वास्तविक दर्शनविद्या सम्बन्धी श्रुतियां और ब्रह्म के पारमैश्वर्य को जतलाने वाली श्रुतियों को व्यावहारिक, अर्थात् धर्म और उपासना से सम्बद्ध श्रुतियां १. “ब्रह्म बृहद् व्यापकं बंहितं च, न तु वेदान्तपाठकाङ्गीकृतकेवलशून्यवादाविदूरवर्तिब्रह्मदर्शन इव” (प. त्री. वि., पृ. २२१)।२१५ काश्मीर शैवदर्शन बताया। तदनुसार उन्होंने परमेश्वर और उसकी परमेश्वरता का आधार माया को ठहराया। इस तरह से ब्रह्म और माया दो अनादि तत्त्वों को मानते हुए उन्होंने नवीन प्रकार के द्वैत वाद का प्रचार किया। यह सब कुछ उन्हें बौद्धों के तकों के प्रभाव से करना पड़ा। उस तर्क को आगे काश्मीर शैव के आचार्यों ने ही ठिकाने लगाया और वास्तविक अद्वैत सिद्धान्त को भलीभांति प्रतिष्ठित कर दिया। वेदान्त के अद्वैतवाद से इसे पृथक् ठहराने के लिए आचार्य अभिनवगुप्त ने इसे ‘पराद्वैत’ या ‘परमाद्वय’ या ‘परमाद्वैत’ या केवल ‘अद्वय’ इस प्रकार की परिभाषाओं के द्वारा प्रतिपादित कर दिया। वैष्णव गुरु आचार्य वल्लभ ने भी आगे इसी शंका से प्रेरित होकर पारमैश्वर्य प्रतिपादक औपनिषद सिद्धान्त को विशुद्धाद्वैत नाम दिया। वेदान्त के गुरुओं ने ऐसी नीति केवल वादविवाद की दृष्टि को लेकर के ही अपनाई थी। जिस दर्शन-सिद्धान्त पर उनके चित्त में वास्तविक श्रद्वा थी, उसे उन्होंने ‘विद्यारत्नसूत्र’ और ‘प्रपञ्चसार’ जैसे तन्त्र ग्रन्थों में तथा ‘सुभगोदयस्तुति’ और ‘सौन्दर्यलहरी’ जैसे स्तोत्र-काव्यों में भलीभांति अभिव्यक्त किया है। परन्तु श्रीवाचस्पति मिश्र जैसे उनके प्रभावशाली अनुयायियों ने उस प्रच्छन्न बौद्धवाद को ही आगे बढ़ा दिया और पारमैश्वर्यवाद को पीछे धकेल दिया। इस नीति को ‘खण्डनखण्डखाद्य’ के निर्माता श्रीहर्ष ने पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया।
शैवी दर्शनविद्या
शैव आगमों में स्पष्ट शब्दों में इस विषय पर इस तरह से कहा है- इस-इस प्रकार के अनेकों दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रचार से शैवदर्शन का पारमैश्वर्य सिद्धान्त और उसके पोषक पराद्वैत सिद्धान्त जैसे दर्शन रहस्य विद्वत्-समाज से और साधक-समाज से लुप्त होते गए, तो कैलाशवासी भगवान् श्रीकण्ठनाथ शिव के आदेश से तीन सिद्ध पुरुष पृथ्वी पर अवतार रूप में उतर आए। ‘उन तीन में से आचार्य आमर्दक ने अवर अधिकारियों के हित के लिए शैवी दर्शन-विद्या और साधना-विद्या का प्रचार द्वैत दृष्टि को लेकर के किया। आचार्य श्रीनाथ ने मध्यम श्रेणी के लिए उन विद्याओं का प्रचार द्वैताद्वैत दृष्टि से किया। उत्तम श्रेणी के अधिकारियों के लिए महामुनि दुर्वासा के पूर्वोक्त मानसपुत्र आचार्य त्र्यम्बकादित्य ने इन शैवी विद्याओं के प्रचार के लिए दो संस्थाओं को प्रतिष्ठित किया। एक को अपने मानसपुत्र त्र्यम्बकाचार्य के द्वारा चलवाया। उसी त्र्यम्बक-मठिका का इतिहास सोमानन्द की शिवदृष्टि में मिलता है। प्रथम त्र्यम्बकाचार्य ने अपनी मानसपुत्री के द्वारा एक और मठिका को चलवाया। उसे अर्द्धत्र्यम्बक मठिका कहा जाता रहा। माल की वाशिम फिर १. तदा श्रीकण्ठनाथाज्ञावशात् सिद्धा अवातरन्। त्र्यम्बकामर्दकाभिख्यश्रीनाथा अद्वये द्वये।। पदयातये च निपणाः क्रमेण शिवशासने PAYEEPREDISHA (तन्त्रा. ३६.१०-११) मी मा र क २१६ तन्त्रागम-खण्ड शम उपाय
महामुनि श्री दुर्वासा
काश्मीर शैवदर्शन के आदिगुरु महामुनि दुर्वासा हैं। उनके द्वारा स्वयं निर्मित्त तीन विशालकाय स्तोत्र मिल रहे हैं –१. परशम्भुमहिम्नस्तोत्र शैवी दर्शनविद्या और योगविद्या से भरा पड़ा है। स्पन्दसिद्धान्त का सर्वप्रथम निर्देश इसी में मिल रहा है। “महम्नो नापरा स्तुतिः” यह प्रशंसा मूलतः इसी स्तोत्र की है। पुष्पदन्त कृत स्तोत्र के प्रति इसका अतिदेश ही किया गया है। इस स्तोत्र पर विस्तृत टीका की बड़ी आवश्यकता है। २. त्रिपुरामहिम्नस्तोत्र में शक्ति-उपासना के अनेकों क्रमों का निरूपण रहस्यात्मक शैली से किया गया है। ३. ललितास्तवरत्न एक ओर से एक अतीव सुन्दर काव्य है और दूसरी ओर से श्रीचक्र की उपासना के रहस्यों पर काव्यात्मक शैली के द्वारा प्रकाश डालता है। महामुनि श्री दुर्वासा चिरजीवी होते हुए अब भी योग्य अधिकारियों पर अनुग्रह करते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर आचार्य अमृतवाग्भव को लीजिए, जिन्हें उन्हीं की कृपा से शाम्भवी योगविद्या की शिक्षा मिली। उसी के अभ्यास से उन्हें ग्रन्थों का अध्ययन किए बिना ही शैव दर्शन के सिद्धान्तों की साक्षात् अनुभूति हो गई। उनके एक ग्रन्थ सिद्धमहारहस्य की प्रशंसा म.म. श्री गोपीनाथ कविराज ने मुक्तकण्ठ से की है।
आचार्य शम्भुनाथ
आचार्य अभिनवगुप्त के समय में उपर्युक्त अर्धत्र्यम्बक मठिका कांगड़ा नगर में वज्रेश्वरी के जालन्धर पीठ में प्रतिष्ठित थी और उसके अधिपति आचार्य शम्भुनाथ थे। इन आचार्यवर को ही श्री सिद्धनाथ भी कहा जाता था। भुवनेश्वरीस्तोत्र में पृथ्वीधराचार्य ने इन दोनों ही नामों से इनका स्मरण किया है। आचार्य अभिनवगुप्त ने इनके चरणों में बैठकर शैवदर्शन की और शैवी साधनाओं की अनेकों गुत्थियों को इन्हीं की कृपा से सुलझाया। उन्होंने अपने अनेकों गुरुओं के प्रति आभार प्रकट करते हुए जिस गुरु के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा और भक्ति के भावों को प्रकट किया है, वे ये शम्भुनाथ ही हैं। तन्त्रालोक में संशयास्पद विषयों के यथार्थ स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए, कम से कम बीस बार इन्हीं के उपदेश के आधार पर आचार्य महोदय ने निर्णय ले लिया है। इसी अर्द्धत्र्यम्बक मठिका में आगे एक शैव नागार्जुन नाम के सिद्ध प्रकट हुए। जिनका साधना-स्थान अभी तक ज्वालामुखी पर्वत पर है। उनके द्वारा निर्मित चित्तसन्तोषत्रिंशिका और परमार्चनत्रिंशिका दो अतीव सरस और मनोहर स्तोत्र छप चुके हैं। दोनों ही एक दृष्टि से उत्तम काव्य हैं और दूसरी दृष्टि से उत्तम शास्त्र भी हैं। कितने ही खेद की बात है कि वर्तमान युग में कांगड़ा प्रदेश में ऐसे महत्त्वशाली और सर्वशास्त्रज्ञ गुरुओं के नाम को भी कोई जानता नहीं।
परम्परा का उच्छेद
त्र्यम्बक मठिका की परम्परा पन्द्रहवीं शती में कश्मीर भूमि से उखड़ कर भटकती रही, परन्तु उस देश से भगाए गए पण्डितों ने इस मठिका की विद्याओं को लुप्त होने नहीं काश्मीर शैवदर्शन २१७ दिया। वे अपनी सारी सम्पत्ति को कश्मीर में ही छोड़कर, एकमात्र पुस्तकों के भार को सिर पर उठाकर कश्मीर से भाग निकले। वह था सिकन्दर बुतशिकन नामक शासक के इस्लामीकरण का दौर। उसी दौर में अनेकों सुविशालकाय ग्रन्थों का तभी सर्वनाश हो गया, जब उस शासक की आज्ञा से बड़े-बड़े पुस्तकालयों और शैक्षणिक संस्थाओं को जला दिया गया। उसी शताब्दी के उत्तर भाग में सिकन्दर के एक विशाल दृष्टि वाले पुत्र जैनुलाबदीन ने शिर्यभट्ट नामक पण्डित के परामर्श से कश्मीर के ब्राह्मणों को वापिस बुलाकर वहां पुनः बसा दिया। वे ब्राह्मण अपनी ग्रन्थ-सम्पत्ति को पुनः अपने सिर पर उठाकर वापिस लौट आए और त्र्यम्बक मठिका को पुनः कश्मीर में ही प्रतिष्ठित कर दिया। वर्तमान युग तक उस मठिका के साथ सम्बद्ध महानुभाव शैव दर्शन का अध्ययन, शैवी साधना का अभ्यास, ग्रन्थलेखन आदि कार्य करते आए। परन्तु अब कांग्रेस के राज्यकाल में उन्हें कश्मीर से पुनः भगाया गया। उधर वापिस जाकर बसने की और वहां सुरक्षित और सम्मानपूर्वक रहने की अब कोई आशा शेष नहीं रही, क्योंकि इस युग में जनता का सर्वत्र शासन है। काश्मीर की ६५ प्रतिशत जनता कट्टर स्वभाव के जमाते-इसलामी के प्रभाव में हैं और पाकिस्तान से सैनिक शिक्षा को और भयानक अस्त्रों को प्राप्त करते रहने वाले आततायी विद्रोहियों के आतंक से दबी हुई है। ऐसी स्थिति में वर्तमान ढंग की और वर्तमान नीति वाली भारत सरकार कुछ कर नहीं सकेगी। अस्तु, घोर कलिकाल का प्रभाव और शिव की लीलामयी इच्छा। का शक गाजर
मठिकाओं की स्थिति
आचार्य अभिनवगुप्त के समय में (दसवीं /ग्यारहवीं शती में) आमर्दक मठिका और श्रीनाथ की मठिका दोनों ही मध्यदेश में भी प्रतिष्ठित थीं। दक्षिण में प्रचलित एक जनश्रुति के अनसार तमिल देश के चोल वंश के शासक श्री राजराज एक बार उत्तर की तीर्थयात्रा से लौटते समय गोदावरी नदी के तट पर स्थित एक मन्त्रकालेश्वर पीठ में पहुंचे। वे वहां से आमर्दक की शिष्य-परम्परा के द्वारा प्रचलित एक मठ में से कुछ एक शैव सन्तों को तमिल देश को ले गए। उन्होंने तथा उनकी शिष्य-परम्परा ने आगे उस देश में सिद्धान्त शैव नामक द्वैतदृष्टिप्रधान दर्शन-परम्परा को विकास में लाया। ऐसी जनश्रुति कहां तक सत्य है, इस बात पर निश्चयतः कुछ कहा नहीं जा सकता। मोर आचार्य अभिनवगुप्त के समय में इन दो मठिकाओं के प्रधान गुरु श्री एकनाथ के पुत्र श्रीवामनाथ आमर्दक मठिका के तथा श्री विभूतिराज के पुत्र श्री भट्ट इन्दुराज श्रीनाथ मठिका के प्रधान गुरु कश्मीर में विद्यमान थे। (देखिये तं. आ. ३७.६०)।
छः काश्मीरागम
कश्मीर मण्डल में आठवीं और नवीं शती के बीच त्र्यम्बक मठिका के अनेकों सिद्धों को (मठिका-गुरुओं को) कई एक उत्कृष्टतर आगम शास्त्रों का दर्शन, अर्थात् स्वतःसिद्ध २१८ तन्त्रागम-खण्ड ज्ञान शिव के अनुग्रह से प्राप्त हो गया। उनमें से छः आगमों की विशेष महिमा है और वे हैं सौर, भर्गशिखा आदि आगम। उन छ: के भी दो वर्ग हैं, तीन-तीन आगमों वाले। सौर, भर्गशिखा आदि का पूर्व वर्ग है और उत्तर वर्ग है सिद्धा, नामक (वामक) और मालिनी का। पूर्व वर्ग के तीसरे आगम का नामोल्लेख कहीं नहीं मिलता। उत्तर वर्ग में से एक का नाम जयरथ ने ‘नामक तन्त्र’ ऐसा बताया हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उसका नाम ‘वामक-तन्त्र’ रहा होगा। कश्मीर की शारदालिपि में न और व में इतना थोड़ा अन्तर है कि उनमें परस्पर भ्रम हो जाना कोई बड़ी बात नहीं। सिद्धातन्त्र के केवल अनेकों प्रघट्टक जयरथ ने उद्धृत किए हैं। ग्रन्थ कहीं मिलता नहीं। यह तन्त्र क्रियाप्रधान होता हुआ त्रिक साधनाओं के क्रियाकलाप में विशेषतया प्रामाणिक बना रहा। वामन तन्त्र ज्ञानप्रधान था। उसके कोई वाक्य कहीं उद्धरण रूप में भी मिलते ही नहीं। मालिनीतन्त्र उभयप्रधान है। उस का उत्तर भाग ही मिल रहा है। उसे मालिनीविजयोत्तर कहते हैं। छः काश्मीर आगमों में से सिद्धा आदि तीन की विशेष महिमा मानी गई है, उन तीन में से सबसे बड़ी महिमा मालिनीतन्त्र को दी गई है। छः तन्त्रों का आधा भाग होने के कारण इन तीन तन्त्रों को ‘षडर्ध आगम’ और तीन होने के कारण ‘त्रिक आगम’ कहते हैं। इन तीनों आगमों वाली योगविद्या को ‘योगीश्वरी-मत’ भी कहते हैं। प्रति कि तिर लामा
तीन स्तरों के आगम
इन छः आगमों से अतिरिक्त शेष शैव आगमों का प्रचार सारे भारत में रहा है। आगम ही कहते हैं कि भगवान् शिव ने आगमों के तीन वर्गों का ज्ञान इस पृथ्वी के साधकों को दे दिया। उनमें से अवर अधिकारियों को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने कामिक आदि दस शिव आगमों का दर्शन महापुरुषों को करवा दिया। मध्यम वर्ग के अधिकारियों के लिए उन्होंने विजय आदि अठारह रुद्र आगमों का उपदेश किया। इन १०+१=२८ आगमों का उल्लेख और प्रचार दक्षिण भारत में, विशेष कर तमिलनाडु में भी हैं। कश्मीर में एक श्रीकण्ठीसंहिता भी प्रचलित थी। उसमें इन अट्ठाईस आगमों को गिनाकर आगे उत्तम अधिकारियों के लिए उपदिष्ट स्वच्छन्द आदि चौसठ आगमों का नामोल्लेख है। इन चौसठ को भैरव आगम कहते हैं। इनमें आठ-आठ वर्ग गिनाए गए हैं। ये भैरवागम अभेदप्रधान दृष्टि से कहे गए हैं, जबकि रुद्र आगमों का उपदेश भेदाभेदमयी दृष्टि से तथा शिव आगमों को भेद-दृष्टि से किया गया है। श्री शंकराचार्य की सौन्दर्यलहरी (श्लो. ३१) में चौसठ भैरवागमों का उल्लेख तो मिल रहा है, परन्तु दक्षिण भारत में अब उनकी प्रसिद्धि लुप्त हो चुकी है। जयरथ ने तन्त्रालोक की टीका में श्रीकण्ठी-संहिता के वे श्लोक उद्धृत किए हैं, जिनमें इन १०+१८+६४ आगमों की सूची दी गई है। भैरव आगमों में से एकमात्र स्वच्छन्दतन्त्र कश्मीर में मिल रहा है, क्षेमराजकृत टीका सहित। काश्मीर शैवदर्शन २१६
अन्य आगम-ग्रन्थ
रुद्रयामल नामक सुविशाल आगम के अनेकों खण्ड भारत भर में स्थान-स्थान पर मिलते हैं। कश्मीर में उसके खण्डों में से परात्रीशिका (इसे प्रमादवश परा-त्रिंशिका कहा जा रहा है), विज्ञानभैरव और भवानीसहस्रनाम- ये तीन खण्ड प्रचलित हैं। नेत्र-तन्त्र नामक आगम-विशेष भी कश्मीर में प्रसिद्ध है। यह कोई उप-आगम हो सकता है। इस पर भी क्षेमराज की टीका मिल रही है। ये सभी आगम और विशेष करके त्रिक आगम काश्मीर शैव दर्शन के मूल स्रोत हैं। इस दर्शन के सभी सिद्धान्त और सभी साधनाएं इन्हीं पर आश्रित हैं। कई एक साधना-क्रम भैरव आगमों में भी और रुद्र आगमों में भी दिए गए हैं। त्रिक आगमों पर आश्रित काश्मीर शैव दर्शन अनेकों विषयों में अन्य वर्गों के आगमों का भी आश्रय लेता है। प्रायः ये सभी आगम परस्पर अनेकों बातों के विषय में एकवाक्यता दिखाते हैं, विशेष करके साधनात्मक उपायों के विषय में। शिवदृष्टि में स्वायम्भुव आदि आगमों से तथा तन्त्रालोक में भर्गशिखा, किरण आदि में से उद्धरण लिए गए हैं। अनेकों ही आगम-वाक्यों की एक विशाल निधि को देखना हो, तो तन्त्रालोक पर जयरथकृत सुविशाल व्याख्या को देखिए। उसमें प्रसिद्ध आगमों के अतिरिक्त अन्य-अन्य आगम-ग्रन्थों से भी उद्धरण लिए गए हैं। अनेकों ही वैसे आगमों का परिचय केवल उसी व्याख्या से मिलता है। आगम शास्त्र शैव दर्शन के स्रोत उसी तरह से हैं, जिस तरह से उपनिषद् वेदान्त के स्रोत हैं। जय
आचार्य वसुगुप्त
आठवीं शताब्दी के अन्त के आस-पास कश्मीर में त्र्यम्बक-मठिका में आचार्य वसुगुप्त नामक सिद्ध प्रकट हो गए। बहुत सम्भव है कि ये आचार्य अभिनवगुप्त के पूर्वज, अत्रिगुप्त के वंश में उत्पन्न हुए हों। इन आचार्य महोदय को शिव के अनुग्रह से शिवसूत्र नामक एक संक्षिप्त और परिमार्जित आगम ग्रन्थ प्राप्त हुआ। आगमशास्त्र होता हुआ भी यह ग्रन्थ आगम शैली का न होकर सूत्र शैली का है। शिवसूत्र वसुगुप्त महोदय को कैसे प्राप्त हुआ, इस विषय में क्षेमराज ने जो कथानक शिवसूत्रविमर्शिनी में लिखा है, वह तो दन्तकथा मात्र प्रतीत होता है। वही बात वहाँ बताए हुए शंकरोपल की भी है। जिस शैल खण्ड को आजकल शंकरोपल कहा जा रहा है, वह एक खुरदरा तथा निकृष्ट प्रकृति का पर्वतीय शिला का एक पाद है। वह किसी उत्तम स्तर की ऐसी शिला नहीं, जिस पर अक्षर टंकित किए जा सकें। पर्वतमाला की साधारण और सुविशाल अखण्ड शिला का ऐसा निचला भाग है, जिसे न तो ऊपर उठाया जा सकता है और न ही नीचे गिराया जा सकती है। सुविशाल पर्वत शिला का आधा अंग मात्र है। यदि सचमुच प्राचीन काल से ही उसका नाम शंकरोपल रहा हो, तो इतनी ही बात सम्भव है कि शंकर नाम के किसी सिद्ध ने उस पर बैठ कर शैव-योग की साधना की हो। भट्ट नारायण के बड़े भाई का नाम शंकर था। हो तन्त्रागम-खण्ड सकता है कि उन्हीं के सम्बन्ध से उसको ऐसा नाम दिया गया हो। केवल इतनी ही बात प्रामाणिक है कि आचार्य वसुगुप्त को शिवसूत्र की प्राप्ति महादेव पर्वत पर सिद्धादेश से हुई। कभी कोई दिव्य सिद्ध साक्षात् दर्शन देकर या स्वप्न दर्शन के द्वारा जो उपदेश देता था, उस उपदेश को सिद्धादेश कहा जाता रहा, तो वसुगुप्त महोदय को भी उसी ढंग से शिवसूत्र प्राप्त हुए। बहुत सम्भव है कि आचार्य महोदय प्रायः शिवभाव के आवेश में ही रहते होंगे। इस कारण उन्हें ग्रन्थ-रचना में रुचि नहीं रही होगी। अतः उन्होंने स्वयं किसी ग्रन्थ का निर्माण नहीं किया। उन्होंने जो बड़ा भारी काम किया, वह यह है कि शिवसूत्र पर गम्भीर मननचिन्तन आदि कर करके उन्होंने उसमें से काश्मीर शैव दर्शन के स्पन्द-सिद्धान्त को खोज करके निकाला, जैसे समुद्र के मन्थन से अमृत निकाला गया था। यह बात उनकी शिष्य-परम्परा में उनसे सातवीं पीढ़ी के शिष्य भट्ट भास्कर ने स्पष्ट शब्दों में लिखी है। फिर उन्होंने उस योगप्रक्रिया का आविष्कार किया, जिससे प्राणी अपने शुद्ध-चिदात्मक वास्तविक स्वरूप के स्पन्दात्मक स्वभाव को चमकाते हुए उसी पर अपनी अवधान शक्ति को स्थिरतया लगाए रखने के अभ्यास के द्वारा अपने शिवभाव की प्रत्यभिज्ञा को प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाता हुआ जीवन्मुक्ति को प्राप्त करता है। यह भास्कर की वाणी इस विषय में दृढ़तर प्रमाण है, क्योंकि उसे शैव-दर्शन के ऐसे विषयों की जानकारी अविच्छिन्न गुरु-परम्परा से प्राप्त हुई थी। क्षेमराज तो सुनी सुनाई जनसाधारण की बात पर शिवसूत्र के आविर्भाव की कथा को लिख गए। सम्भव यही है कि आचार्य वसुगुप्त ने शिवसूत्र में उपदिष्ट तीव्र इच्छा शक्ति के प्रयोग रूपी चिन्मय उद्यम के अभ्यास से अपने आपके स्पन्दात्मक स्वभाव का साक्षात्कार करके उस साधना के उन विविध स्वरूपों का आविष्कार और उपदेश किया, जिन्हें स्पन्दकारिका में ‘स्पन्दतत्त्वविविक्ति’ कहा गया है।
भट्ट कल्लट
13 PHET याही _उस स्पन्दसिद्धान्त को तथा उस स्पन्दतत्त्वविविक्ति के उपायभूत साधनात्मक अभ्यासों को उन्होंने अपने शिष्यों को सिखा दिया। उनमें से भट्ट कल्लट ने इस स्पन्द साधना के विषय पर स्पन्दकारिका नामक ग्रन्थ का निर्माण करके उस ग्रन्थ की उन कारिकाओं के तात्पर्य को स्पन्दवृत्ति के द्वारा स्पष्ट कर दिया। वृत्तिसहित उन कारिकाओं को उन्होंने ‘स्पन्दसर्वस्व’ नाम दे दिया। बहुत संभव है कि इसी टीका को ‘मधुवाहिनी’ भी कहा जाता रहा। स्पन्दकारिका में चैतन्यात्मिका संवित् के स्पन्दनात्मक स्वभाव का और उस स्वभाव के अनुसन्धान के अभ्यास से अभिव्यक्त होने वाली अपनी शिवता का तथा उस अभ्यास के अन्य-अन्य आनुषंगिक फलों का भी वर्णन किया गया है। भट्ट कल्लट ने और भी कई १. श्रीमन्महादेवगिरौ वसुगुप्तगुरोः पुरा।। सिद्धादेशात् प्रादुरासन् शिवसूत्राणि तस्य हि।। (शि. सू. वा., २.२) काश्मीर शैवदर्शन २२१ एक ग्रन्थों का निर्माण किया था। उनमें से ‘स्वस्वभावसम्बोधन’ और ‘तत्त्वविचार’ इन दो ग्रन्थों में से उत्पल वैष्णव ने कुछ एक वाक्य अपनी ‘स्पन्दप्रदीपिका’ में उद्धृत किए हैं। इस समय स्पन्दसर्वस्व को छोड़कर भट्ट कल्लट कृत और कोई भी ग्रन्थ मिल नहीं रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग के शैवाचार्यों में से भट्ट कल्लट ने सब से अधिक ख्याति पाई। तभी तो कल्हण की राजतरङगिणी में केवल उसी की चर्चा लोकोपकार के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण सिद्ध के रूप में की गई । एता आचार्य सोमानन्द का नामोल्लेख उनके द्वारा निर्मित उस शिवमन्दिर के सन्दर्भ में किया गया है, जिसकी कुटिया में युद्ध से खिसके हुए हर्षदेव ने कुछ घड़ियों के लिए शरण ली थी। कल्हण के समय में ग्रन्थनिर्माता सिद्ध गुरु के रूप में भट्ट कल्लट ही विशेषतया विख्यात हुए थे। सानिकामाने कि ति
तत्त्वार्थचिन्तामणि
स्पन्दशास्त्र की गुरु-शिष्य-परम्परा में सातवें गुरु भट्ट भास्कर ने अपने वार्त्तिक में स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि “शिवसूत्र के चार खण्ड थे और भट्ट कल्लट ने पहले तीन में प्रतिपादित सिद्धान्तों को स्पन्द-सूत्रों (स्पन्द-कारिका) में स्पष्ट कर दिया और चौथे खण्ड पर तत्त्वार्थचिन्तामणि नामक टीका का निर्माण किया”। (शि.सू.वा.प्र.३) आचार्य अभिनव गुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-विवृति-विमर्शिनी के द्वितीय खण्ड के ३०१ पृष्ठ पर एक ऐसे सूत्र को उद्धृत करते हुए यह कहा है- “यत् किल शिवसूत्रम् ब्रह्मपदे कमलशरीरस्तदुत्थप्राणिरूपेण सर्वत्र सर्वदा विचारयति" (ई.प्र.वि.वि.,खं.२, पृ. ३०१) यह सूत्र शिवसूत्र ग्रन्थ के तीन खण्डों में कहीं भी किसी भी संस्करण में नहीं मिल रहा है। हो सकता है कि इसे उस भट्ट भास्कर-निर्दिष्ट चतुर्थ खण्ड से ही लिया गया हो। आचार्य अभिनवगुप्त ने और क्षेमराज ने तत्त्वार्थचिन्तामणि में से अनेक पंक्तियां उद्धृत की है। उनमें से कई पंक्तियां इतनी लघुकाय हैं कि सूत्र जैसी दीखती हैं। रचनाशैली की दृष्टि से भी सूत्र ही प्रतीत होती हैं। हो सकता है कि शिवसूत्र के उस चतुर्थ खण्ड से ही उद्धृत की गई हों। साथ ही कुछ पंक्तियां व्याख्या जैसी प्रतीत हो रही हैं। एक विशालकाय श्लोक उपसंहार पद्य सा प्रतीत हो रहा है। वस्तुतः उन सूत्रों को और उन पर विरचित टीका को भी एक साथ मिलाकर ही यह कल्लटकृत ‘तत्त्वार्थचिन्तामणि’ कहा जाता रहा, जैसे वाक्यपदीय को और उस पर लिखी वृत्ति को अभिन्न माना जाता है। इस तरह से सूत्रों का यह चौथा खण्ड ‘तत्त्वार्थचिन्तामणि’ में ही विलीन होकर रहा। अतीव रहस्यात्मक होने के कारण उसका न तो अधिक प्रचार ही होता रहा और न ही विश्लेषण। परन्तु निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता कि ये सूत्र और उनकी व्याख्या दोनों परस्पर विलीन होते हुए भी क्यों चलते अनुग्रहाय लोकानां भट्टश्रीकल्लटादयः। अवन्तिवर्मणः काले सिद्धा भवमवातरन।। (रा. त. ६.६६) TELEPS 15 २२२ तन्त्रागम-खण्ड आये। पुस्तक कहीं मिल जाय तो उसे पढ़कर इस विषय पर कुछ कहा जा सके। अन्य टीकाकारों ने शिवसूत्र के उस चतुर्थ खण्ड के विषय में कुछ कहा ही नहीं है, मानों वे उसे जानते ही नहीं थे। जिजह किसी मतिर आजा गरी अनालिनिस्पन्द सिद्धान्त मिल
स्पन्द सिद्धान्त
काश्मीर शैव दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है। शैवदर्शन के परमशिव और अद्वैत वेदान्त के परब्रह्म के बीच परस्पर इतना ही अन्तर है कि उन वेदान्तियों ने अपने उस परम तत्त्व को स्पन्दहीन ठहराया और शैवों ने स्पन्द को परमशिव का नैसर्गिक स्वभाव माना। उनके अनुसार परम तत्त्व तभी परमेश्वर है और तभी सष्टि-संहार आदि की लीला को चलाता आया है, जब उसका स्वभाव ही स्पन्द है। स्पन्दहीन ब्रह्मवाद को इन शैवों ने शान्त-ब्रह्मवाद कहा। अद्वैत वेदान्त गुरुओं ने अपने तर्कप्रधान ग्रन्थों में सृष्टि-संहार आदि लीलाओं का आधार माया को मान कर परब्रह्म की ईश्वरता को भी मायाकल्पित ही ठहराया। परन्त कश्मीर के शैवों ने यह घोषणा की कि परमशिव का अपने स्वभावभत स्पन्द के बल से स्वयं अपनी परमेश्वरता को सृष्टि-संहार आदि के द्वारा बहिर्मुखतया अभिव्यक्त करते रहना अपना स्वभाव है। यही उसकी परब्रह्मता है और इस परब्रह्मता का बीज उसके स्वभावभूत परस्पन्द के भीतर निहित है। साधक को जब अपने आपके स्वभाव के रूप में उस परस्पन्द की अभिव्यक्ति हो जाती है, तो वह तत्काल जीवन्मुक्त बन जाता है। शिवसूत्र में इस ‘स्पन्द’-रूपिणी परिभाषा का शब्द प्रयोग नहीं मिलता। इसका प्रयोग स्पन्दकारिका में ही किया गया है। उससे पूर्व इस परिभाषा का प्रयोग महामुनि दुर्वासा कृत परशम्भुमहिम्नस्तोत्र में किया गया है। वहां स्तोत्र के छठे प्रकरण के चौथे और पांचवें पद्य में वह प्रयोग मिलता है। अनुत्तरप्रकाशपञ्चाशिका के निर्माता किसी आदिनाथ नामक सिद्ध ने स्पन्द शब्द का तथा ‘स्पन्द’ के समानार्थक ‘स्फुरत्ता” शब्द का कई बार प्रयोग किया है। आचार्य उत्पलदेव ने भी अपनी ईश्वरप्रत्यभिज्ञा में परमेश्वर के इस स्वभावभूत स्पन्द को “स्फुरत्ता’ ही कहा है। भेदे सत्तास्फुरत्ताभ्यां भिन्नं किं नु जगद् भवेत्। (अ. प्र. पं., श्लो.४) स्वभावतः स्फुरत्ता च सत्ता च न विनाशिनी। (वहीं, श्लो. ७) पञ्चपञ्चात्मकं विश्वं पञ्चस्पन्दविजृम्भितम्। (वहीं, श्लो. ४E) कार क bh; संकोचयत् परामर्शात् सामान्यस्पन्दकेवलम्। (वहीं, श्लो. ५०) का जयति बहुशः स्पन्दाकारा परा चिदनुत्तरा। (वहीं, श्लो. ५२) २. सा स्फुरत्ता महासत्ता देशकालाविशेषिणी। सैषा सारतया प्रोक्ता हृदयं परमेष्ठिनः।। (ई. प्र. १.५.१४) को किस काश्मीर शैवदर्शन
स्पन्द शब्दार्थ
स्पन्द शब्द की ख्याति तभी हुई, जब भट्ट कल्लट की स्पन्दकारिका का विशेष प्रचार हुआ और इस पर कई एक विद्वानों ने टीकाएं लिखी। आचार्य अभिनवगुप्त ने इस स्पन्द शब्द के कई एक समानार्थक पदों का भी प्रयोग किया है। वे पद हैं- स्फुरत्ता, संवित्ति, हृत्, प्रतिभा, कला इत्यादि। उन्होंने इस स्पन्द शब्द की व्याख्या करते हुए इसका निर्वचन ‘स्पदि किञ्चिच्चलने’ इस धातु से किया है। उसके अनुसार ‘जरा भर गतिशीलता’ यह स्पन्द पद का अर्थ बनता है। इस पर वे शंका करते हैं कि यदि स्पन्द गतिशीलता का नाम है, तो ‘जरा भर’ कहने का क्या तात्पर्य है। जरा भर गति भी तो गति ही होगी। गति का यहां तात्पर्य है स्वरूप से विचलित होना। यदि परमशिव स्वरूप से विचलित होता हआ जगत् के रूप को धारण करता है, तो विकारशील सिद्ध हो जाता है। फिर यदि वह स्वरूप से विचलित होता ही नहीं, तो ‘चलन’ काहेका। तो ‘जरा भर चलन’ इस पद से क्या तात्पर्य सिद्ध हो सकता है। ऐसी शंका का समाधान उन्होंने किया है कि ‘किञ्चिच्चलने’ इस पद का प्रयोग परतत्त्व के विषय में लक्षणा का आश्रय लेकर किया गया है। तात्पर्य यह है कि इस स्वरूप से उसका विचलन तो होता ही नहीं, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हो रहा हो। तो चलन के आभासमात्र को स्पन्द कहते हैं। उनकी दार्शनिक दृष्टि के अनुसार सृष्टि-संहार आदि का और जगत् का केवल आभासमात्र ही होता है। तो परमशिव जीव, जगत् और परिमित ईश्वर के रूपों को धारण करता हुआ भी अपने कूटस्थ नित्य चिदानन्दात्मक स्वरूप से जरा भर भी विचलित नहीं होता। वह अपनी शुद्ध चिन्मयता में ही सदा ठहरा रहता है और उसी में विद्यमान चेतना के आध्यात्मिक स्पन्दन से सृष्टि-संहार आदि का केवल आभास कराता है। वह अपनी पारमेश्वरी शक्तियों के बहिर्मुख प्रतिबिम्बों का आभासन अपने ही असीम चित्प्रकाश के भीतर करता रहता है। वे प्रतिबिम्बात्मक आभास जगत् के रूप में और सृष्टि-संहार के रूप में प्रकट होते रहते हैं। आचार्य अभिनवगुप्त कहते हैं कि यदि परम तत्त्व ऐसी गतिशीलता का आभासन तथा सृष्टि-संहार आदि न करता हुआ सदा अपने कूटस्थ नित्य स्वरूप में आकाश की तरह ही ठहरा रहता, तो उसने अपनी परमेश्वरता का परित्याग किया’ होता। तात्पर्य यह है कि परम तत्त्व की परमेश्वरता उसकी सृष्टि-संहार आदि लीला ही है। उस लीला के बीज परम तत्त्व के स्पन्दात्मक स्वभाव क भातर निहित हामी
गति
गति कई प्रकार की होती है। भौतिक पदार्थों का एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर चलन तो स्थूल गति है। इसे दैशिक गति कहा जा सकता है। कालिक गति वस्तुतः कोई १. अस्थास्यदेकरूपेण वपुषा चेन्महेश्वरः। त सSS T ap-कीर की महेश्वरत्वं संवित्त्वं तदत्यक्ष्यद् घटादिवत् ।। (तं. आ. ३३.१००) तामाकोलकातायाधी २२४ तन्त्रागम-खण्ड वस्तुभूत पदार्थ नहीं। वह तो मायीय प्रमाता के द्वारा बुद्धिदर्पण के भीतर कल्पनामात्र से ठहराई गई है। इसीलिए महाकवि भर्तृहरि भी कह गए हैं- “कालो न यातो वयमेव याताः।” सूक्ष्म गति बुद्धि के भीतर संकल्पों और विकल्पों के द्वारा हुआ करती है। उससे भी सूक्ष्मतर गति का अनुभव क्षुधा, पिपासा, निद्रालुता आदि की अवस्थाओं में होता है। इसे प्राणीय गति कहा जा सकता है। कुण्डलिनी शक्ति की ऊर्ध्व-अधः संक्रमण वाली गति इस प्राणीय गति का ही एक सूक्ष्मतर प्रकार है। ये सभी गतियां व्यावहारिक क्षेत्रों में प्रकट होती हैं। इन सबको स्थूल प्रकार के विशेष स्पन्दों में गिना जा सकता है। सूक्ष्मतर पर-स्पन्द का उदय और लय प्राणी के चिदात्मक अन्तरतम स्वरूप में होता है। प्राणी का वास्तविक अन्तरतम स्वरूप ‘चिदानन्द’ है। वस्तुतः चिद्रूपता उसका स्वरूप है और आनन्दरूपता चित् का वास्तविक और नैसर्गिक स्वभाव है। चित अर्थात शुद्ध चेतना सदैव आनन्दमयी ही होती है, चाहे जनसाधारण को ऐसा अनुभव नहीं होता हो, क्योंकि उनकी चेतना तो शरीर आदि जड़ पदार्थों से अभिभूत होकर ही रहती है और शुद्ध रूप में अपना विमर्शन प्रायः नहीं करती। फिर भी इस बात का अनुभव सभी को होता ही है कि आनन्द की अनुभूति जड़वत् स्पन्दहीन नहीं होती। उसके भीतर चमत्कारात्मिका आध्यात्मिक गतिशीलता बनी ही रहती है। आनन्द की स्थिति में प्राणी जड़वत् निश्चेष्ट नहीं पड़ा रहता, अपितु चमत्कारात्मिका सूक्ष्मतर गति के द्वारा स्पन्दशील ही बना रहता है। तभी तो वह उस आनन्द के चमत्कार का आस्वाद लेता हुआ उन क्षणों के लिए कृतकृत्यता का अनुभव करता है। उसके द्वारा आनन्द के चमत्कार का आस्वाद लेना भी एक सूक्ष्मतर क्रिया होती है।
स्फुरत्ता (चलत्ता)
मायीयं पाश से बद्ध प्राणियों को चमत्कारमयी आध्यात्मिक गतिशीलता की अनुभूति कुछ एक क्षणों तक ही स्पन्दन किया करती है, परन्तु शिवयोगियों को उसकी अनुभूति के क्षणों की अवधि में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती रहती है। परमेश्वर की वह चमत्कारमयी गतिशीलता तो उसमे सतत गति से लगातार स्फुरण करती ही रहती है और उसकी उसी स्फुरत्ता की महिमा से अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के स्थिति-संहार आदि कृत्यों का यह सुविशाल और सुविचित्र आभासन लगातार चलता ही रहता है। समस्त विश्व परमेश्वर में चिद्रूपतया सदैव विद्यमान रहता है। असीम चिदानन्द की चमत्कारात्मिका स्पन्दन क्रिया के माहात्म्य से सारे ब्रह्माण्डों के स्थिति-संहार आदि कृत्यों का अभिनयात्मक आभास होता रहता है। परमेश्वर के भीतर अभेद भाव में ‘अहं’ इस रूप से सदैव विद्यमान जगत् के भेदरूपतया ‘इदं’ रूप में प्रतिबिम्ब-न्याय से प्रकट हो जाने को सृष्टि कहते हैं। इसी तरह से स्थिति-संहार आदि कृत्यों का आभासन भी प्रतिबिम्ब-न्याय से ही होता है। परमेश्वर के सृष्टि आदि कृत्य वस्तुतः उसकी अपनी ही शक्तियों के बहिर्मुख प्रतिबिम्ब हैं। यह प्रतिबिम्बन-क्रिया परमेश्वर रूपी चिदात्मक दर्पण के ही भीतर होती रहती है और इसके ऐसे आभासन का मूल कारण पारमेश्वरी शक्ति का आनन्द चमत्कारमय स्पन्दन ही है। यदि वकाश्मीर शैवदर्शन २२५ वह स्पन्दन नहीं होता, तो कुछ भी नहीं होता। परमेश्वर अपने कूटस्थ नित्य चित्स्वरूप में सदैव अविचलतया ठहरता हुआ, साथ ही साथ आनन्दमय स्पन्द की स्फुरत्ता से अनन्त रूपों में प्रकट होता हुआ ऐसा प्रतीत होता है कि मानों वह अपने उस स्थिर भाव से विचलित होता रहता हो। सतत अविचल परमेश्वर के इस विचलन के आभासमात्र को ही धात्वर्थ-प्रकरण वाली ‘स्पदि किञ्चिच्चलने’ इस प्रकार की ऐसी व्याख्या के द्वारा केवल लक्षणा मात्र से ही ‘चलन’ कहा गया है। तात्पर्य यह है कि चलायमानता के आभास मात्र को यहां ‘जरा भर चलन’ समझा जाना चाहिए। परमशिव का यही जरा भर चलनशीलता रूपी स्वभाव उसकी परमेश्वरता है। यदि उसमें यह स्पन्दन नहीं होता, तो वही एक होता और कुछ भी होता ही नहीं। वह भी होता या नहीं होता, इस विषय की न कोई शंका ही उठती और न कोई समाधान ही होता। अनी
स्पन्द तत्त्व
स्पन्दकारिका में अपने वास्तविक स्वभावभूत चित्-स्पन्द को अभिव्यक्त करते हुए उसके वास्तविक तत्त्व पर अपनी शक्ति को स्थिरतया ठहराने के अभ्यास की शिक्षा दी गई है। वह स्पन्द प्रत्येक मानव के क्रोध, हर्ष, विस्मय, भय आदि भावों के अत्यन्त तीव्र आवेशों में क्षणभर के लिए चमक उठता है। चित्त के दो पूर्वोत्तर विचारों को परस्पर जोड़ने वाला यह चित्-स्पन्द उनके बीच में क्षणभर के लिए चमक उठता है। उसे अपनी तीव्र अवध जान शक्ति से पकड़ कर अपने आपको उसी पर ठहराने का अभ्यास स्पन्दकारिका में सिखाया गया है। वास्तविक वस्तु-तत्त्व के प्रति अत्यन्त तीव्र जिज्ञासा से प्रेरित सावधानता से वह स्पन्द-तत्त्व चमकता हुआ अनुभव में आ जाता है। उस स्पन्द-तत्त्व के प्रति ऐसी युक्तियों के द्वारा सावधानता के सतत अभ्यास को ‘स्पन्दतत्त्वविविक्ति’ कहा गया है। कहने के लिए ये युक्तियां अतीव सरल हैं, परन्तु उसी के हाथ में आ पाती हैं, जिस पर शिव ने अनुग्रह शक्तिपात किया हो। इसी तरह स्पन्दकारिका के पद्य भी शब्द-रचना की दृष्टि से अतीव सरल हैं, परन्तु उनके द्वारा बताई गई युक्तियां जनसाधारण के हाथों में आती नहीं। स्वस्वरूप-प्रत्यभिज्ञा को प्राप्त करने के लिए अपने ‘पर’ और ‘अपर’ (शिवरूप और शक्तिरूप) सामान्य स्पन्द का साक्षात्कार अत्यन्त आवश्यक है। स्पन्द के ही दर्शन से प्रत्यभिज्ञा सिद्ध हो पाती है। इसी कारण से आचार्य अभिनवगुप्त ने ईश्वर- प्रत्यभिज्ञा विवति-विमर्शिनी में तथा तन्त्रालोक में अनेकों ही स्थानों पर स्पन्दकारिका का आश्रय लेते हुए बहुत बार उसके पद्यों को उद्धृत किया है। इस तरह से स्पन्दसिद्धान्त प्रत्यभिज्ञादर्शन का एक आवश्यक अंग है, उससे भिन्न कोई और दर्शन सम्प्रदाय नहीं है। परन्तु फिर भी वर्तमान युग के अनेकों शोध विद्वान् प्रत्यभिज्ञा-शास्त्र और स्पन्द-शास्त्र को शैव दर्शन की दो भिन्न शाखाएं कहते रहते हैं। अस्तु, इस स्पन्दसिद्धान्त का साक्षात्कार उपनिषदों के ऋषियों को भी हुआ था। तभी तो उन्होंने कहा था कि “ब्रह्म एक था। उसे इच्छा हुई कि बहुत बन जाऊँ। तब उसने इस संसार की सृष्टि की”। परन्तु पश्चात् आचार्य गौडपाद द्वारा प्रचारित अजातवाद की छाया में यह स्पन्दवाद छिप गया और अद्वैत वेदान्त में इसका २२६ तन्त्रागम-खण्ड विकास नहीं होने पाया। वह विकास कश्मीर में आचार्य वसुगुप्त और भट्ट कल्लट के प्रयत्नों से हुआ। सोमानन्द आदि गुरुओं ने इसकी पुष्टि कर दी। इस उनका एक माय
स्पन्दकारिका
स्पन्दकारिका के निर्माता के विषय में प्राचीन गुरुओं में भी मतभेद था। क्षेमराज के पक्ष के ग्रन्थकारों के मत में इसका निर्माण स्वयं वसुगुप्त गुरु ने किया था। परन्तु वसुगुप्त गुरु के अनुयायी भट्ट भास्कर ने स्पष्ट कहा है कि इसका निर्माण भट्ट कल्लट ने किया। आचार्य रामकण्ठ ने भी इसी बात की ओर संकेत किया है। आचार्य अभिनवगुप्त के समय में यह प्रश्न किसी समस्या के रूप को धारण नहीं कर गया था, अतः उन्होंने इस विषय पर प्रमाणों के आधार पर विचार नहीं किया। इस मतभेद के दो मूल कारण हैं। पहले तो भट्ट कल्लट ने स्पन्दवृत्ति के उपसंहार में स्वयं कहा था । दृब्धं महादेवगिरौ महेशस्वप्नोपदिष्टाच्छिवसूत्रसिन्धोः। स्पन्दामृतं यद् वसुगुप्तपादैः श्रीकल्लटस्तत् प्रकटीचकार।। (स्प. का., पृ. ४०) क्षेमराज आदि ने “स्पन्दामृतं दृब्धम्" का यह अर्थ लगाया कि वसुगुप्त आचार्य ने स्पन्दकारिका का स्वयं निर्माण किया, परन्तु भट्ट कल्लट के ऐसा कहने का यह तात्पर्य था कि आचार्य वसगुप्त ने शिवसूत्ररूपी समुद्र का मन्थन करके जिस स्पन्दसिद्धान्तरूपी अमत का संग्रह किया, उसी का स्पष्टीकरण (स्पन्दकारिका के द्वारा) भट्ट कल्लट ने किया। इसी बात की पुष्टि आचार्य वसुगुप्त की शिष्यपरम्परा के सातवें शिष्य भट्ट भास्कर ने स्पष्ट शब्दों में अपने शिवसूत्रवार्त्तिक के उपोद्घात में की’ । कारिकाओं को ही स्पन्दसूत्र कहा जाता रहा है। उत्पल वैष्णव ने उससे भी स्पष्टतर शब्दों में अपनी स्पन्दप्रदीपिका के आरम्भ और अन्त दोनों स्थानों पर ऐसा ही कहा है। नाय स्पन्दकारिका ग्रन्थ की मूलभूत कारिकाओं की संख्या बावन है। परन्तु स्पन्दप्रदीपिका में ५३ वीं एक और कारिका को जोड़ दिया गया है, जो भट्ट कल्लट को ही ग्रन्थ-निर्माता बताती है। इस कारिका को भट्ट कल्लट की शिष्य-परम्परा में से किसी ने भक्तिपूर्वक जोड़ दिया होगा। उस बात का यह फल निकला कि क्षेमराज ने भी अपने ढंग से स्पन्दनिर्णय १. व्याकरोत् त्रिकमेतेभ्यः स्पन्दसूत्रैः स्वकैस्ततः। तत्त्वार्थचिन्तामण्याख्य-टीकया खण्डमन्तिमम्। (शि. सू. वा., पृ. ३) २. अयमत्र किलाम्नायः सिद्धमुखेनागतं रहस्यं यत्। तद् भट्टकल्लटेन्दुर्वसुगुप्तगुरोरवाप्य शिष्याणाम्।। । अवबोधार्थमनुष्टुप्पञ्चाशिकयात्र संग्रहं कृतवान्।। (स्प. प्र., पृ. १) ३. वसुगुप्तादवाप्येदं गुरोस्तत्त्वार्थदर्शिनः। कि रहस्यं श्लोकयामास सम्यक् श्रीभट्टकल्लटः।। (वहीं, पृ. ४४) काश्मीर शैवदर्शन २२७ में ५३ वी कारिका का निर्माण करके मूल ग्रन्थ के साथ इस प्रयोजन से जोड़ दिया कि यह बात सिद्ध हो जाय कि कारिका का निर्माण स्वयं आचार्य वसुगुप्त ने ही किया है। उनके इसी पग ने इस बात को पक्की समस्या का रूप दे दिया। कारण एक तो यह था कि सम्भवतः भट्ट कल्लट के अनुयायियों से उनकी बनती नहीं थी, दूसरे वे अपने आपको भट्ट कल्लट से भी अधिक बड़े विद्वान् के रूप में जतलाना चाहते थे। तभी तो उन्होंने उनका नामोल्लेख या उसके प्रति संकेत मात्र भी अतीव अनादर पूर्वक (भट्टकल्लटेन, केनापि) किया है, जबकि आचार्य अभिनवगुप्त ने वह नामोल्लेख अतीव आदर से (श्रीमान् कल्लटनाथः) किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य महोदय क्षेमराज की ऐसी प्रवृत्ति को भाँप गए थे। तभी तो उन्होंने अपने सभी योग्य शिष्यों का नामोल्लेख तन्त्रालोक आदि ग्रन्थों में करते हुए क्षेमराज का नाम कहीं भी नहीं लिया है। अस्तु, इस विषय में आचार्य वसुगुप्त की शिष्य-परम्परा वाले भट्ट भास्कर के मत को ही प्रामाणिक माना जा सकता है, क्योंकि उन्हें जानकारी अविच्छिन्न उपदेश परम्परा से मिली थी। दूसरी प्रामाणिक साक्षी ऊपर की उत्पल वैष्णव की स्पष्ट उक्तियां भी हैं। फिर एक और प्रामाणिक साक्षी इस विषय में मिल रही है। वह है आचार्य रामकण्ठ कृत संकेत। उन्होंने केवल ५२ पद्यों वाली स्पन्दकारिका पर स्पन्दविवृति नाम की टीका में ‘गुरुभारतीम्’ इस शब्द की व्याख्या करते हुए यह बात संकेत द्वारा अभिव्यक्त की है कि इस ५२ वीं कारिका के द्वारा ग्रन्थकार भट्ट कल्लट अपने गुरु वसुगुप्त की वाणी को प्रणाम कर रहे हैं। इस तरह से यहां आचार्य वसुगुप्त को ग्रन्थकार न मानते हुए ग्रन्थकार का गुरु ही माना गया है। श्री रामकण्ठ भट्ट कल्लट के समकालीन थे, चाहे आयु में छोटे रहे होंगे। वे आचार्य उत्पलदेव के शिष्य थे और उनका बड़ा भाई मुक्ताकण नामक विद्वान् अवन्तिवर्मा की विद्वत्सभा का एक सदस्य था। अतः भट्ट कल्लट से लेकर रामकण्ठ तक के सभी ग्रन्थकार नवम शताब्दी के ही हैं। इस बात से रामकण्ठ की इस साक्षी में विशेष बल है, जो क्षेमराज की उक्ति में नहीं है। इन बातों की ओर ध्यान न देते हुए वर्तमान युग के शोध विद्वान् प्रायः क्षेमराज के मत को ही यथार्थ मान रहे हैं। अस्तु. समय लिनी
सवित् तत्त्व
सृष्टि-संहार आदि की तर्कसंगत और ऋषिसंगत उपपत्ति अद्वैत पर-तत्त्व की परमेश्वरता के ही आधार पर की जा सकती है। माया की कल्पना से की जाती हुई उपपत्ति उल्टा द्वैतवाद के प्रति संकेत करती है। फिर उस उपपत्ति के द्वारा इन प्रश्नों का उत्तर दिया ही नहीं जा सकता कि उस माया ने शुद्ध आत्मा को क्यों घेर लिया, कब घेर लिया और कैसे घेर लिया। परतत्त्व की परमेश्वरता का बीज उसमें रहने वाली उसकी स्वाभाविक स्पन्दशीलता ही है। वह परतत्त्व शुद्ध और असीम संवित् है। उस संवित् का साक्षात्कार दो पहलुओं को लेकर के इन शैव सिद्धों ने किया। उसका एक पहलू है उसकी प्रकाशरूपता, जिसकी महिमा से वह स्वयमेव सदा प्रकाशमान है। उसके दूसरे पहलू को २२८ तन्त्रागम-खण्ड विमर्श कहा जाता है। उस पहलू से उसे सदैव अपनी सत्ता का तथा अपनी स्वभावभूत परमश्वरता का विमर्श होता रहता है। प्रकाशरूपता उसकी शिवता है और विमर्शरूपता उसकी शक्तिता है। उसके परिपूर्ण शिवभाव को पर स्पन्द कहा गया है और उसके परिपूर्ण शक्तिभाव की बहिरभिव्यक्ति को अपर स्पन्द कहते हैं। शिवभाव अन्तर्मुख स्पन्द है और शक्तिभाव बहिर्मुख स्पन्द है। शिवभाव की अन्तर्मुख स्पन्द की महिमा से वह सदैव अपने चिन्मय स्वरूप में कूटस्थनित्यतया स्थित रहा करता है। उसमें कोई भी विकार होता नहीं। शक्तिभाव के बहिर्मुख के द्वारा उसकी पारमेश्वरी शक्तियां उसी के चित्प्रकाश के भीतर बहिर्मुखतया जब प्रतिबिम्बित हो जाती हैं, तो सृष्टि-संहार आदि पारमेश्वरी कृत्यों का आभास मात्र हो जाता है। उस आभासन-क्रिया का तथा उस प्रतिबिम्बन-क्रिया का मूल कारण उसका शाक्त स्पन्द ही है। इस तरह से स्पन्द पर-तत्त्व का अत्यन्त प्रधान स्वभाव है। शक्तिभाव की मूल स्फुरत्ता को सामान्य स्पन्द कहते हैं और उसके प्रभाव से आभासमान स्थितियों को विशेष स्पन्द कहते हैं। शून्य, प्राण आदि विशेष स्पन्द है। नाच
भास्करराय और अरविन्द घोष
विशेष स्पन्द की बहिर्मुख गति के प्रभाव से सृष्टि होती है और अर्तमुख गति के प्रभाव से संहार होता है। बन्धन के प्रपंच का कारण उसकी बहिर्मुखी गति हैं और मोक्ष का कारण अन्तर्मुखी गति। प्रकाशरूपता परतत्त्व की ज्ञानात्मकता है और विमर्शरूपता उसकी क्रियात्मकता है। अद्वैत वेदान्त के तर्क-पक्ष में उसकी क्रियात्मकता को स्वीकार नहीं किया गया। इस बात का कारण बौद्ध तर्क-विद्या का अदृश्य प्रभाव ही है। इसीलिए श्री भास्करराय ने औपनिषद वेदान्त के परमेश्वरता के सिद्धान्त को पुनः चमकाते हुए यथार्थ वेदान्त का प्रचार किया, परन्तु ऐसे दर्शन-गुरुओं की ओर वर्तमान युग में कोई ध्यान नहीं देता और सभी वेदान्तिक पण्डित, साधु, संन्यासी, शोध विद्वान्, यहाँ तक की परमहंस श्री रामकृष्ण के अनुयायी भी विवर्तवाद को ही वेदान्त कह रहे हैं स्पन्द सिद्धान्त पर आश्रित परमेश्वरतावाद को नहीं। उस वाद की ओर वर्तमान युग के केवल एक मात्र दर्शन-गुरु श्री अरविन्द घोष की ही दार्शनिक दृष्टि गई है, अस्तु।
भट्ट कल्लट का दर्शन सिद्धान्त
भट्ट कल्लट ने काश्मीर-शैव-दर्शन के सिद्धान्तों को तर्क की कसौटी पर नहीं कसा। उन्होंने केवल कुछ एक सिद्धान्तों को बताते हुए ही स्पन्दकारिकों में स्पन्द-तत्त्व के साक्षात्कार की रहस्यात्मक साधनाओं पर ऐसी रहस्यमयी शैली में विवेचना की है, जिसे परमेश्वर के अनुग्रह शक्तिपात के पात्र बने हुए विशेष अधिकारी ही पूरी तरह अपना सके हैं। हो सकता है कि उन्होंने दर्शन सिद्धान्तों का विशेष प्रतिपादन उन ग्रन्थों में किया हो, जिनके उद्धरण स्पन्दप्रदीपिका में मिल तो रहे हैं, परन्तु जो ग्रन्थ अब कहीं भी उपलब्ध नहीं होते; जैसे ‘स्वस्वभावसम्बोधन’ और ‘तत्त्वविचार’ नामक ग्रन्थ । इन दो ग्रन्थों के नामों से ऐसा प्रतीत होता है कि ये ग्रन्थ इस दर्शन के सिद्धान्त पक्ष पर रचे गये होंगे। कर २२६ काश्मीर शैवदर्शन
आचार्य सोमानन्द
जैसा कि पीछे कहा गया है, काश्मीर शैव दर्शन के सिद्धान्त-पक्ष पर ग्रन्थ निर्माण का आरम्भ नवीं शताब्दी में त्र्यम्बक मठिका के उस समय के मठाधीश आचार्य सोमानन्द ने ही किया। ये आचार्य उस युग में चलते हुए समस्त दर्शन शास्त्रों के विशेषज्ञ थे। इन्होंने पूर्व पक्षों की आलोचना करते हुए कम से कम तेरह प्रमुख दर्शन-विद्याओं की समीक्षा सूक्ष्म तों के आधार पर की है। उनसे पहले त्र्यम्बक मठिका में प्रकट हुए सिद्धों में से भट्ट कल्लट ने स्पन्द-सिद्धान्त पर प्रकाश डाला था और आचार्य वसुगुप्त ने एक सूत्रशैली का अनुसरण करने वाले शिवसूत्र नामक आगम को प्रकट किया था। अन्य मठिका-गुरुओं ने त्रिक प्रक्रिया के मालिनी आदि विविध आगमों को प्राप्त करके उन्हें सिद्धों और साधकों के सामने प्रस्तुत किया था। इस तरह से दर्शन विद्या के आधारभूत ग्रन्थ ही उपलब्ध होते थे। साक्षात् दर्शन ग्रन्थ नहीं। आगम प्रायः संवादात्मक हुआ करते हैं। उनमें प्रतिपाद्य दर्शन-तत्त्वों का कोई क्रमबद्ध निरूपण नहीं किया होता है। जैसे घने वनों में बिखरी पड़ी हुई दिव्य औषधियों को ढूंढ़ कर प्राप्त करना होता है, वैसे ही आगमों में भी दर्शन-विद्या के तत्त्वों की खोज करनी होती है। उस खोज को भलीभाँति करके शैव दर्शन पर न्यायशास्त्र द्वारा उपदिष्ट शैली के अनुसार एक उत्तम ग्रन्थ का निर्माण करने की योग्यता भगवन शिव ने आचार्य सोमानन्द में जो देख ली, तो स्वप्न में दर्शन देकर उन्हें एक ऐसे ग्रन्थ की रचना करने का आदेश दिया। आदेश पाकर उन्होंने काश्मीर शैव-दर्शन के सर्वप्रथम दर्शन ग्रन्थ का निर्माण कारिकाओं द्वारा कर दिया। उस ग्रन्थ का नाम उन्होंने शिवदृष्टि रखा। उन्होंने मुख्य शैव आगमों में से इस दर्शन के सिद्धान्तों और साधनाओं का संग्रह करके तथा उस समय में प्रचलित समस्त अन्य दर्शनों के मूल सिद्धान्तों पर विचार करते हुए एक तो काश्मीर शैव-दर्शन के सिद्धान्तों का सविस्तर निरूपण किया, दुसरे शक्ति दर्शन और व्याकरण दर्शन की समीक्षा शैवी दृष्टि से की। तीसरे उन्होंने काश्मीर शैव दर्शन के पराद्वैत सिद्धान्त के विरुद्ध पूर्वपक्षियों की इक्कीस शंकाओं को खड़ा करके उन्हें तोड़ते हुए शंका-समाधान किया। शैव दर्शन के उस पराद्वैत सिद्धान्त का उन्होंने खूब विस्तार से प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार न केवल शिव ही छत्तीस तत्त्वों से अभिन्न हैं, अपितु एक एक तत्त्व भी समस्त तत्त्वमय होता हुआ शिव ही है, इस तरह से उन्होंने एक-एक तत्त्व क्या, एक-एक घट आदि वस्तु को भी सर्वात्मकभाव में देखने वाली शैवी दृष्टि का प्रतिपादन खूब विस्तार से किया। एक पूरे आह्निक में उन्होंने उस युग में प्रचलित दर्शनों के मतों पर एक-एक करके प्रकाश डालते हुए उन्हें तर्क की युक्तियों के द्वारा काट डालने का सफल यत्न किया। उस प्रकरण में कुछ ऐसे भी दर्शनों का निरूपण करके उनकी आलोचना की गयी है, जिन्हें आजकल कोई जानता ही नहीं। उदाहरण के तौर पर स्वात्मस्वातन्त्र्यवादी सांख्यदर्शन, कालकारणिकों, षड्धामवादियों तथा संवित्तिशून्य ब्रह्मवादियों के दर्शन शिवदृष्टि के अन्तिम २३० कतन्त्रागम-खण्ड आह्निक में शैवी साधना की विविध प्रक्रियाओं को बताकर अन्त में काश्मीर शैव-दर्शन के आविर्भाव और प्रसार का पूर्वोक्त इतिहास उन्होंने लिख रखा है। शिवदृष्टि पर उनके शिष्य आचार्य उत्पलदेव ने एक संक्षिप्त वृत्ति लिखी थी। वह वृत्ति इस समय चौथे आनिक के मध्य भाग तक ही मिल रही है। कश्मीर में शिव-दृष्टि की मूल कारिकाएं भी वहीं तक मिली हैं। मूल ग्रन्थ के शेष भाग का प्रकाशन तो मद्रास के एक पुस्तकालय में मिली एक मात्र पाण्डुलिपि के आधार पर किया गया है। उस पाण्डुलिपि में केवल मूल कारिकाएं ही हैं। वृत्ति के लगभग आधे भाग के न मिलने के कारण बहुत सारी कारिकाओं के तात्पर्य का सन्तोषप्रद स्पष्टीकरण अभी तक किया ही नहीं जा सका है। विशेष करके इस ग्रन्थ के छठे आह्निक की तैतीसवीं कारिका से लेकर के अठासीवीं कारिका तक का भाग अतीव अस्पष्ट रहा है। कारण यह है कि उस भाग में विज्ञानवाद की परीक्षा खूब विस्तार से की गई है। वह भाग अनेकों तर्क-वितों से भरा पड़ा है। उन्हें समझने के लिए प्रमाणवार्त्तिक के गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है। उस ग्रन्थ में दिए हुए तों को समझे बिना तों को तोड़ देने की युक्तियां कैसे समझ में आ सकती हैं ? लगभग ऐसा ही हाल सप्तम आह्निक के अधिकांश भाग का है, जिसमें शैवी साधना की अनेकों रहस्यात्मक प्रक्रियाओं का निरूपण रहस्यमयी रचना के द्वारा ही किया गया है। शिवदृष्टिवृत्ति पर आचार्य अभिनवगुप्त ने एक ‘आलोचन’ नाम की विस्तृत टीका लिखी थी, जो इस समय कहीं भी नहीं मिल रही है। इन कारणों से शिवदृष्टि का आधा भाग अतीव अस्पष्ट रह जाता है। कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी से शिवदृष्टि के वृत्ति-शून्य भाग पर एक अभिनव वृत्ति का और सारे ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन हुआ है। उसे इस शास्त्र के विशेषज्ञ एक घोर दुःसाहस बता रहे हैं। ऐसे यत्न शास्त्र की सेवा में नहीं गिने जा सकते। यह तो शास्त्र की अपहानि ही है। अस्तु, सबकी अपनी-अपनी इच्छा। आचार्य सोमानन्द ने परात्रीशिका आगम पर एक विवृति लिखी थी, जिसके उद्धरण मात्र मिल रहे हैं। शिवदृष्टि पर लिखी उपर्युक्त वृत्ति और आलोचन का न मिलना एक ऐसी बड़ी भारी हानि है, जिससे इस शैव दर्शन के प्रेमी अत्यन्त खेद का अनुभव कर रहे हैं।
आचार्य उत्पलदेव
आचार्य सोमानन्द के पश्चात् उनके शिष्य आचार्य उत्पलदेव दर्शन ग्रन्थों की रचना के क्षेत्र में आगे बढ़े। उनकी लेखन-शैली आपाततः सरल और सुबोध है। विषय प्रतिपादन की शैली विशेषतया परिमार्जित ढंग की है। इन कारणों से उनकी कृतियां शिवदृष्टि की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय बनीं। अत एव उनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा को ही काश्मीर शैव-दर्शन का सबसे अधिक महत्त्व वाला प्रधान दर्शन-ग्रन्थ माना जाता रहा। अद्वैत वेदान्त में जो महत्त्व ब्रह्मसूत्र का है, वही महत्त्व इस शैव दर्शन में ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा का है। आचार्य उत्पलदेव कहते हैं कि ईश्वर की सिद्धि करने वाले ग्रन्थकार और गुरु जडात्मा हैं, क्योंकि चित्प्रकाश रूपी परमेश्वर सदा स्वयं अपने चित्प्रकाश से ही अहं-रूपतया प्रत्येक प्राणी के काश्मीर शैवदर्शन २३१ अन्तस्तल में चमकता हुआ स्वतःसिद्ध ही है। स्वतःसिद्ध तत्त्व की सिद्धि का यत्न करने वाले जडात्मा नहीं तो और क्या है ? फिर सर्वत्र स्वतःसिद्ध चित्प्रकाशरूपी ईश्वर का निषेध करने वाले तो उनसे भी अधिक जडात्मा हैं। प्रत्येक प्राणी अपने आप ही ज्ञान-शक्तिमान् और क्रियाशक्तिमान् होता हुआ वस्तुतः ईश्वर ही है। समस्या केवल एक है कि मायाकृत आवरण के कारण वह अपनी परिपूर्ण ईश्वरता को भूल गया है। अतः शास्त्र का केवल यह प्रयोजन है कि उस माया के आवरण को हटाकर आत्मा की परिपूर्ण ईश्वरता को पुनः पहचान लिया जाय। उस पहचान लेने की क्रिया को ही ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहते हैं। अद्वैत शैव दर्शन का मुख्य प्रयोजन अपने पारमेश्वर स्वभाव की प्रत्यभिज्ञा ही है। इसी कारण से आचार्य महोदय अपने इस प्रधान ग्रन्थ का नाम ही ‘ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा’ रख गये। इसी ग्रन्थ की प्रधानता के कारण और इसमें प्रतिपादित स्वरूप-प्रत्यभिज्ञा की ऐसी प्रधानता के कारण माधवाचार्य ने इस शास्त्र को ‘प्रत्यभिज्ञादर्शनम्’ ऐसा नाम दिया। आचार्य उत्पलदेव ने अनेक अन्य दर्शनों के मतों को न छेडते हए केवल एक विज्ञानवाद को ही पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी इस नीति को एक टीकाकार ने ‘प्रधानमल्लनिबर्हणन्याय’, अर्थात् सबसे बड़े पहलवान को परास्त करने का न्याय कहा है। उन्होंने सूक्ष्मतर तर्क के साथ ही साथ मनोविज्ञान के कुछ तत्त्वों का आश्रय लेते हुए बौद्धों के प्रचलित अनात्मवाद के विरुद्ध यह युक्ति प्रस्तुत की कि यदि क्षणिक विज्ञान की परम्परा के आधारभूत और साक्षी बनते हुए शुद्ध चित्स्वरूप आत्मदेव की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जाय, तो किसी को भी किसी प्रकार की स्मृति हो ही नहीं सकेगी। यह तो नियम ही है कि जिसे किसी वस्तु का अनुभव हो जाय, उसी में उस वस्तु के अनुभव का संस्कार जम जाता है और कालान्तर में उस संस्कार के जाग पड़ने पर उसी को उस वस्तु की स्मृति हुआ करती है। ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि कोई विशेष अनुभूति और उसी से जन्य स्मृति किसी एक ही प्रमाता को हुआ करती हैं। जिस वस्तु की अनुभूति देवदत्त को हो जाय, उसकी स्मृति यज्ञदत्त को नहीं हो सकती, तो क्षणिक विज्ञान की परम्परा में पूर्व विज्ञान को जो अनुभूति हो जाय, उसकी स्मृति उत्तरविज्ञान को हो ही नहीं सकती। अतः क्षणिक अनुभूति विज्ञान और तदाश्रित क्षणिक स्मृति विज्ञान दोनों ही का कोई एक स्थिर आश्रय अवश्य होना चाहिये, जो संस्कार को ग्रहण करता हुआ उसी के द्वारा इनको परस्पर जोड़ सकता है। अन्यथा जिस पूर्व विज्ञान को किसी वस्तु का अनुभव हुआ, वह विज्ञान उस अनुभव के समेत दूसरे ही क्षण में जब नष्ट हो जाय, तो उस विज्ञान के संस्कार को कालान्तर में होने वाली स्मृति तक कौन पहुंचा सकेगा? इस प्रकार के तर्कों के द्वारा उन्होंने यह बात सिद्ध कर दी कि क्षणिक विज्ञान की परम्परा के एक अभिन्न आश्रय के रूप में आत्मदेव सदैव विद्यमान रहता है। उस आत्मदेव को उन्होंने तीन विशेष शक्तियों का आधार बताया। वे शक्तियां हैं ज्ञान-शक्ति, स्मृति-शक्ति और अपोहन-शक्ति। स्मृति की उपर्युक्त महिमा के कारण पहले विस्तार से उसी का निरूपण ईश्वर शक्ति-प्रत्यभिज्ञा में किया गया है। फिर स्मृति के २३२ तन्त्रागम-खण्ड आधारभूत ज्ञान को उसके विविध वैचित्र्यों को लेकर के चमका देने वाली पारमेश्वरी ज्ञान-शक्ति पर विचार किया गया है। फिर इन दोनों पर कृपा करने वाली अपोहन-शक्ति का निरूपण किया गया है। अपोहन-शक्ति का वह निरूपण दार्शनिक दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। जगत् के व्यवहारों का आधार बनने वाली इन तीन शक्तियों के इस दर्शन सिद्धान्त पर किसी भी अन्य वैदिक आगमिक दर्शनकार की दृष्टि गई ही नहीं। इसी कारण से भगवद्गीता के- “मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च” (भ. गी.१५.१५) इस श्लोक की सन्तोषजनक व्याख्या वे कर ही नहीं पाये। सारे के सारे लौकिक व्यवहारों का आधार स्मृति है। स्मृति का आधार है ज्ञान और उस ज्ञान के संस्कार। ज्ञान तभी सम्भव है जब कोई ज्ञाता हो और कोई ज्ञेय। अद्वैत चिदात्मक परतत्त्व में ऐसा सम्भव ही नहीं। अतः वह परतत्त्व अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति की महिमा से पहले अपने भीतर भेद का आभासन करता हुआ ‘अहं’ और ‘इदं’ इन दो अंशों को पृथक्-पृथक् चमका देता है। तभी ‘अहं’ को ‘इदं’ का ज्ञान हो सकता है, जिसके आधार पर जगद्व्यवहारों की आधारभूत स्मृति का उदय होता है। भेद का आभास करने वाली परमेश्वर की उस शक्ति को इस शास्त्र में अपोहन-शक्ति कहा गया है, जिसकी महिमा से अद्वैत परतत्त्व के भीतर प्रमाता और प्रमेय के परस्पर भेद का आभासन हो जाता है। ऐसा होने पर आगे ज्ञात-ज्ञेय-भाव का और स्मर्तृ-स्मार्य-भाव का आभास इस लोक-व्यवहार में अनन्त प्रकार के वैचित्र्यों को लेकर के आभासित होता रहता है। तीन स्तरों के उस समस्त सुविचित्र लोक-व्यवहार का मूल कारण बनी हुई जो परमेश्वर की तीन शक्तियां हैं, उन्हें ही ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा में अपोहन, ज्ञान और स्मृति कहा गया है। इनके स्वरूप का स्वभाव का तथा प्रभाव का सविस्तर निरूपण ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा के पहले छः आहिनकों में किया गया है। इन्हीं के प्रति भगवद्गीता में उपर्युक्त ढंग से निर्देश किया गया है। आगे ग्रन्थ के उस ज्ञानाधिकार नामक प्रथम खण्ड में इन तीन शक्तियों के एकमात्र आधार के रूप में परमेश्वर की सत्ता का प्रतिपादन करके उस अधिकार के अन्तिम आह्निक में परतत्त्व की स्वभावभूत परमेश्वरता का निरूपण किया गया है। ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा के दूसरे क्रियाधिकार नामक खण्ड में क्रिया-शक्ति की पर्याप्त विवेचना करके क्रिया, सम्बन्ध, सामान्य, अवयवी द्रव्य, दिशा, काल आदि पदार्थों के वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डालकर पहले शैवी दृष्टि से प्रामाण्यवाद का और तदनन्तर कार्य-कारण भाव के वास्तविक तत्त्व का निरूपण किया गया है। इस आहिनक के अन्त में अद्वैत वेदान्त के अविद्यावाद की आलोचना करते हुए परमेश्वर की पारमेश्वरी क्रिया को प्रमाणों के आधार पर ठहराया गया है। तीसरे आगमाधिकार में पहले शैव दर्शन के छत्तीस तत्त्वों का और तदनन्तर सात स्तरों के प्रमात वर्गों का निरूपण शैवागमों की दृष्टि से किया गया है। अन्तिम खण्ड में पूर्वोक्त दर्शन-सिद्धान्तों पर सिंहावलोकन-न्याय से पुनः विचार करके शेष बचे हुए दार्शनिक विषयों का, जैसे जाग्रत् आदि चार अवस्थाओं का, तीन गुणों का, बन्धन काश्मीर शैवदर्शन २३३ और मोक्ष आदि का निरूपण करके अन्त में प्रत्यभिज्ञा के स्वरूप और फल को बताया गया है। आचार्य उत्पलदेव ने दर्शन शास्त्र के कुछ एक अवशिष्ट विषयों का निरूपण सिद्धित्रयी नामक ग्रन्थ में, किया है। यह ग्रन्थ तीन छोटे-छोटे ग्रन्थों का एक समदाय है. जिसमें से पहले ग्रन्थ में, अर्थात् अजडप्रमातृ-सिद्धि में बौद्धों के विज्ञानवाद की आलोचना करते हुए क्षणिक विज्ञान की परम्परा के साक्षी और आधार बनने वाले चिदात्मक आत्मा की सत्ता को प्रमाण देकर के सिद्ध किया गया है। ईश्वर-सिद्धि में सांख्य-दर्शन के स्वतन्त्र प्रकृति-परिणाम-वाद की आलोचना करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि चेतन आत्मा की प्रेरणा के बिना वह जाड्य स्वभाव वाली प्रकृति इस प्रकार के सुविचित्र परिणामों के रूपों को धारण कर ही नहीं सकती, जिनमें से कोई भी परिणाम ऐसा नहीं, जिससे किसी न किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि होती हो। इस तरह से इस परिणाम के विषय में चेतन ईश्वर की प्रेरणा को सिद्ध किया गया है। तीसरी सम्बन्ध सिद्धि में सम्बन्ध पदार्थ के वास्तविक तत्त्व की विवेचना की गई है। आचार्य महोदय ने ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा पर, सिद्धित्रयी पर और शिवदृष्टि पर संक्षिप्त वृत्तियों का भी निर्माण किया था, परन्तु वे वृत्तियां इस समय अधूरी ही मिल रही हैं। उस कारण से अभी तक सिद्धित्रयी और शिवदृष्टि की अनेकों ही कारिकाओं के वास्तविक अर्थ का विशेष स्पष्टीकरण नहीं होने पाया है। आचार्य उत्पलदेव केवल एक शास्त्रकार ही नहीं थे, अपितु भावपूर्ण और सुमनोहर कविता की रचना करने वाले एक सुयोग्य कवि भी थे। उन्होंने कई एक अतीव मनोहर शिव-स्तोत्रों की रचना की थी। शिव-भक्ति के तथा आत्मप्रकाश के भावों के आवेश में भी उन्होंने अनेकों मुक्तक श्लोकों का निर्माण किया था। उनके अनुयायियों ने उस सारी कविता का संग्रह करके श्लोकों का वर्गीकरण किया और उस काव्य-संग्रह का नाम रखा शिवस्तोत्रावलि। क्षेमराजकृत टीका सहित और स्वामी लक्ष्मणजू कृत हिन्दी अनुवाद सहित उसके दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। आचार्य महोदय ने और भी कई ग्रन्थों को लिखा तो था, परन्तु वे ग्रन्थ अब कहीं मिलते नहीं। उनसे लिए हुए उद्धरण मात्र मिल रहे हैं। उन ग्रन्थों के नाम भी नहीं मिल रहे हैं। के
लक्ष्मणगुप्त एवं अभिनवगुप्त
आचार्य उत्पलदेव के शिष्य आचार्य लक्ष्मणगुप्त थे। उनके द्वारा लिखा हुआ कोई भी ग्रन्थ अब कहीं नहीं मिल रहा है। केवल उद्धृत पंक्तियां मिल रही हैं, जब आचार्य उत्पलदेव वृद्धावस्था में थे, तो कश्मीर में एक सिद्ध ने जन्म लिया। कौमार अवस्था में उस शिशु को आचार्य महोदय ने श्री लक्ष्मणगुप्त के हवाले कर दिया और उसे ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा के ज्ञान और विज्ञान की दीक्षा देने का आदेश दिया। वे ही बालक आगे आचार्य अभिनवगुप्त __१. श्रीशास्त्रकृद्-घटितलक्ष्मणगुप्तपाद-सत्योपदर्शित-शिवाद्वयवाददृप्तः। (ई. प्र. वि. वि., खं. ३, पृ. ४०६) २३४ तन्त्रागम-खण्ड कहलाये। कश्मीरनरेश ललितादित्य उत्तरी भारत की दिग्विजय के अवसर पर कन्नौज देश से अत्रिगुप्त नाम के सर्वशास्त्रज्ञ विद्वान् को आदरपूर्वक कश्मीर ले आये थे और श्रीनगर में वितस्ता के तट पर सितांशुमौलि के मन्दिर के सामने उन्होंने उन्हें बसाया था। इनके ‘गुप्त’ उपनाम से कोई अल्पज्ञ महानुभाव इन्हें वैश्य वर्ण में गिनते हैं। परन्तु उनके विषय में ‘प्राग्यजन्मा’, ‘भट्टः’ ‘द्विजन्मा’, ‘द्विजस्य’, ‘अगस्त्यगोत्रः’ इस प्रकार के विशेषणों से स्पष्टतया यह सिद्ध हो जाता है कि वे ब्राह्मण थे, वैश्य नहीं थे। लेखक के गुरुदेव आचार्य अमृतवाग्भव जी के कथनानुसार प्राचीन युगों में सौ ग्रामों पर प्रशासन चलाने वाले अधिकारी को गोप्ता कहा जाता था। “गोप्ता ग्रामशताध्यक्षः” | तो यही सम्भव है कि उनका कोई पूर्वज गोप्ता के पद पर इतनी योग्यता और प्रभावशालिता से काम करता रहा कि उनके कुल को ही जनता ‘गोप्ता’ कहने लगी। वही शब्द बिगड़ कर ‘गुप्त’ हो गया। ब्रह्मगुप्त जैसे गणितज्ञ और विष्णुगुप्त जैसे अर्थशास्त्र निर्माता इसी तरह के गुप्त उपनाम वाले ब्राह्मण थे। फिर गुरुदेव के कथन के अनुसार अत्रिगुप्त कन्नौज में अश्वत्थपुर में रहा करते थे। का तन्त्रालोक और तन्त्रसार में आचार्य अभिनवगुप्त ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अपने शास्त्र ज्ञान को परिपूर्ण बनाने के लिए एक से अधिक गुरुओं की शरण लेनी चाहिए तथा अनेक गुरुओं का शिष्य बनने में शंका नहीं करनी चाहिए’ । अतः उन्होंने अनेकों ही शास्त्रों और साधना-पद्धतियों के रहस्यों का ज्ञान अनेकों ही गुरुओं से प्राप्त किया। परन्तु जिस गुरुवर के उपदेशों से उन्होंने शास्त्र की अतीव रहस्यभूत ग्रन्थियों को खुलवाकर उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया और जिनके प्रति उन्होंने विशेष आभार प्रकट किया है, वे थे कांगड़ा नगरी में स्थित जालन्धर पीठ के अधिपति श्री शम्भुनाथ । शांकरी परम्परा के पृथ्वीधराचार्य ने भुवनेश्वरीस्तोत्र में एक ही गुरु के दो नाम बताए हैं— श्री शम्भुनाथ और श्री सिद्धनाथ। तदनुसार प्रसिद्ध क्रमस्तोत्र के निर्माता ये शम्भुनाथ ही हो सकते हैं। इन्हीं से उस विद्या के रहस्य को प्राप्त करके आचार्य अभिनवगुप्त ने एक और क्रमस्तोत्र का निर्माण किया। ये शम्भुनाथ अर्धत्र्यम्बक मठिका के उस समय के प्रधान गुरु थे तथा त्रिक प्रक्रिया के उत्कृष्ट मर्मज्ञ थे। इन्हें तन्त्रालोक में ‘जगदुद्धतिक्षमः’, अर्थात् सारे जगत् का उद्धार कर सकने वाले, तथा ‘त्रिकााम्भोधिचन्द्रमाः’, (त्रिक विषयों के समुद्र के लिए चन्द्रमा) अर्थात् त्रिक विषयों को विकास में लाने वाले और अनेकों शास्त्रों के मर्मज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
- आचार्य अभिनवगुप्त ने काश्मीर शैव दर्शन के सिद्धान्त पक्ष के सर्वोत्तम ग्रन्थ की, अर्थात् ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा की विमर्शिनी नामक व्याख्या की रचना करते हुए उस ग्रन्थ को १. क. आमोदार्थी यथा भृङ्गः पुष्पात् पुष्पान्तरं व्रजेत् । विज्ञानार्थी तथा शिष्यो गुरोर्गुन्तिरं व्रजेत् ।। (त. आ.१३.३३५) ख. ज्ञानपूर्णताकाङ्क्षी च बहूनपि गुरुन् कुर्यात् (त. सा., पृ. १२५)२३५ काश्मीर शैवदर्शन अतीव विद्वत्-प्रिय बना दिया। जो स्थान व्याकरण में पातंजल महाभाष्य का है, तथा अद्वैत वेदान्त में ब्रह्मसूत्र के शांकरभाष्य का है, वही स्थान काश्मीर शैव दर्शन में इस ईश्वर प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी का है। इससे तथा तन्त्रालोक से आचार्य महोदय के विषय में यह जाना जा सकता है कि वे उस युग में प्रचलित समस्त शास्त्रों के मर्मों को भलीभांति जानते थे। इस विमर्शिनी नामक ग्रन्थ के रस का स्वाद यदि एकबार भी आ जाय, तो वह जीवन भर के लिए लगा ही रहता है, यद्यपि ग्रन्थ विविध तों से भरा पड़ा है। रूक्ष तर्क भी इस ग्रन्थ में समाकर मधर बन गये हैं। आध्यात्मिक दर्शन-विद्या की कोई भी ऐसी मुख्य पहेली नहीं है, जिसे इस विमर्शिनी में सुलझा कर नहीं रखा गया हो। इस ग्रन्थ के स्वाद के आ जाने पर अन्य ग्रन्थों के अभ्यास में रुचि मन्द हो जाती है, परन्तु यह ग्रन्थ तभी भलीभाँति समझ में आता है, जब भारतीय दर्शन-शास्त्र के अन्य-अन्य विषयों के मुख्य सिद्धान्तों का तथा संस्कृत व्याकरण का ज्ञान पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा चुका हो। आचार्य महोदय ने मूल ग्रन्थकार के द्वारा स्वयं निर्मित ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विवृति पर भी एक और विमर्शिनी नाम की टीका का निर्माण किया है। वह सुविशाल टीका तीन बड़े- बड़े खण्डों में छप भी चुकी है, परन्तु जिस विवृति टीका की व्याख्या इस विशाल ग्रन्थ में की गई है, वह विवृति इस समय तक कहीं भी उपलब्ध नहीं हो रही है। ऐसा विदित हुआ है कि श्रीमती कपिला वात्स्यायन के द्वारा जो पाण्डुलिपि-संग्रह श्रीनगर में कुछ ही वर्ष पूर्व किया गया था, उस संग्रह के भीतर उस ग्रन्थ की एकमात्र पाण्डुलिपि एक विशिष्ट सज्जन के सत्प्रयत्न से आ चुकी है, परन्तु इस बात का पक्का अनुसन्धान करना अभी शेष है। आचार्य महोदय के और भी अनेक अतीव महत्त्व वाले दर्शन ग्रन्थ लुप्त हो चुके हैं। जैसे ‘भेदवादविदारण’, ‘क्रमकेलि’, ‘पूर्वपञ्चिका’, ‘सिद्धित्रयीविमर्शिनी’ इत्यादि। जिज्ञासुओं के प्रारम्भिक अध्ययन के लिए उपयोगी कुछ एक उनके छोटे ग्रन्थ भी मिल रहे हैं। उनमें से १. बोधपञ्चदशिका में इस शास्त्र की एक संक्षिप्त रूपरेखा दी गई है। २. अनुत्तराष्टिका में अनुत्तर परतत्त्व के स्वरूप का सुन्दर और सारगर्भित निरूपण किया गया है। ३. परमार्थ-चर्चा में शैव दर्शन के सत्तर्क को प्रस्तुत किया गया है। ४. परमार्थसार प्रारम्भिक अध्ययन के लिए विशेष उपयोगी पाठ्य पुस्तक का काम दे सकता है। इस पर क्षेमराज के शिष्य योगराज ने टीका भी लिखी है। रणवीर विद्यापीठ, जम्मू से इसका अभिनव संस्करण भी छप चुका है। यह ग्रन्थ वस्तुतः महामुनि पतंजलि के द्वारा प्राचीन वैष्णव दर्शन पर लिखे गए परमार्थसार का एक शैवी रूपान्तर है। वैष्णव परमार्थसार की शैली आचार्य महोदय को जो पसन्द आई, तो उसके शब्दों में कहीं परिवर्तन मात्र करते हुए और कुछ एक कारिकाओं को घटाते बढ़ाते हुए, उन्होंने उसे शैव परामार्थसार के रूप में प्रस्तुत कर दिया। इसका अभिनव अंग्रेजी संस्करण अभी-अभी दिल्ली में प्रकाशित हुआ है, मुंशीराम मनोहरलाल की ओर से। इस तरह से अनेकों अभिनव ग्रन्थों और अनेकों व्याख्या-ग्रन्थों का निर्माण करके आचार्य महोदय ने काश्मीर शैव दर्शन के सिद्धान्त पक्ष के विकास को उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया है। हम यहां उनके ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं। २३६ तन्त्रागम-खण्ड
तन्त्रालोक
आचार्य महोदय ने इस दर्शन के प्रयोग-पक्ष को भी इसी तरह से विकास की सर्वोच्च भूमिका पर चढ़ा दिया। इस विषय में उनके द्वारा विरचित तन्त्रालोक का जोड़ संसार में कहीं भी नहीं मिल सकता । इस ग्रन्थ-रत्न के पढ़ने और समझने से सुविशाल तन्त्रशास्त्र के अध्ययन के प्रति एक राजमार्ग सा खुल जाता है और बिना इसके अध्ययन के तन्त्रशास्त्र के घने वन में आगे बढ़ने का मार्ग हाथ में आता ही नहीं। आचार्य महोदय ने अपने अनेकों प्रिय-शिष्यों की प्रार्थना से अनेकों शैव तन्त्र-ग्रन्थों में से अत्यन्त उपयोगी सार को निकाल कर उसका संग्रह किया। फिर उसको समुचित क्रम में रख करके इस अतीव अद्भुत ग्रन्थरत्न का निर्माण किया। इस ग्रन्थ का आरम्भ करते हुए उन्होंने सबसे पहले बन्ध और मोक्ष का निरूपण करते समय अन्य शास्त्रों के द्वारा उपदिष्ट मोक्ष-सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए उस उस प्रकार के मोक्ष को ‘कुतश्चिन्मुक्तिः’ अर्थात् आंशिक मुक्ति के रूप में सिद्ध करके अन्ततोगत्वा स्वात्मस्वरूप की प्रत्यभिज्ञा से प्राप्त होने वाले मोक्ष को सर्वथा मुक्ति के रूप में सिद्ध किया है। तदनन्तर उस परिपूर्ण मुक्ति के उपायों में से पहले तो शाम्भवोपाय के परिपूर्ण पुष्टि से हाथ में आने वाले अनुपाय योग के स्वरूप और विधान का निरूपण दूसरे आहिनक में किया। अनुपाय उनकी दृष्टि में स्वतःसिद्ध प्रातिभ स्वरूप साक्षात्कार के अभ्यास को कहते हैं। यह प्रायः गुरुकृपा मात्र से होता है। कभी-कभी किसी को उपायों का थोड़ा सा सहारा भी लेना पड़ता है। ये उपाय यहां शाम्भवोपाय, शाक्तोपाय और आणवोपाय के नाम से वर्णित हैं। शाम्भवोपाय में प्रधानतः कुलप्रक्रिया (मातृकोपासना) का और शाक्तोपाय में क्रमप्रक्रिया, द्वादशकाली आदि विषयों का समावेश है। आणवोपाय में सूक्ष्म और स्थूल योगप्रक्रिया का समावेश है। इस ग्रन्थ में षडध्वविवेचन, शक्तिपात, वामपूजा, दीक्षा, मुद्रा, मण्डल, तान्त्रिक और कौलिक यागविधि जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर विस्तार से अद्भुत प्रकाश डाला गया है।
मालिनीविजयवार्त्तिक
_ आचार्य अभिनवगुप्त ने मालिनीतन्त्र के पूर्व भाग को ले करके एक सुविशाल वार्त्तिक ग्रन्थ का निर्माण किया। वह ग्रन्थ मालिनीविजयवार्त्तिक कहलाता है। उसमें काश्मीर शैव दर्शन के अनेकों सिद्धान्तों के रहस्यात्मक स्वरूप को स्फुट किया गया है तथा अनेकों रहस्यात्मक साधनाओं से सम्बद्ध विषयों पर प्रकाश डाला गया है। परन्तु उसके अध्ययन के विषय में एक बड़ी कठिनाई यह है कि उसके ऊपर कोई टीका, वृत्ति या टिप्पणी आदि कुछ भी कहीं मिल नहीं रही है। दूसरी कठिनाई यह है कि कई एक पाण्डुलिपियों को आधार बनाकर उसका जो वैदुष्यपूर्ण सम्पादन होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया है। फिर भी यह एक सौभाग्य की बात है कि उसका प्रकाशन हो चुका है। काश्मीर शैवदर्शन २३७
परात्रीशिकाविवरण
आचार्य महोदय का एक और महामहिमाशाली ग्रन्थ परात्रीशिकाविवरण है। पाण्डुलिपियों के लेखकों के प्रमाद से तथा सम्पादकों की असावधानी के कारण उसका प्रकाशन ‘परात्रिंशिका’ इस नाम से हुआ है, जबकि आचार्य महोदय ने अपने विवरण में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इस मूल आगम का वास्तविक नाम ‘परात्रीशिका’ है। इस नाम की व्याख्या करके उन्होंने यह भी कहा है कि कोई गुरुजन इसे ‘परात्रिंशिका’ कहते हैं, परन्तु ‘त्रिंशिका’ ऐसा कहना सर्वथा असंगत है। आश्चर्य इस बात का है कि वर्तमान युग के शोध विद्वान आचार्य महोदय की ऐसी व्याख्या की ओर ध्यान न देते हुए गड्डलिका-प्रवाह न्याय से इस ग्रन्थ को ‘परात्रिंशिका’ ही कहते हैं। अस्तु. __ इस ग्रन्थ के विवरण में आचार्य अभिनवगुप्त ने त्रिक साधना के अनेकों रहस्यात्मक साधना-प्रकारों पर प्रकाश डाला है, विशेष करके शाम्भवोपाय की मातृकोपासना और मालिनी की उपासना के रहस्यों पर। परन्तु उन्होंने वह प्रकाश भी रहस्यात्मक ढंग से ही इस तरह से डाला है कि उसका क्रियात्मक उपयोग वही कर सकता है, जिस पर भगवान् शिव ने अनुग्रह शक्तिपात किया हो और जिसे तदनुसार सद्गुरु से रहस्य-दीक्षा प्राप्त हो चुकी हो। यों तो वह व्याख्या सुबोध शब्दों में लिखी गई है, परन्तु फिर भी गोपनीय रहस्य गुप्त ही रखे गए हैं। यदि वे रहस्य खुल जाएं किसी के प्रति तो वह स्वल्प प्रयत्न से जीवन्मुक्त हो जाय अथवा उनका दुरुपयोग करता हुआ पतित हो जाय। इस सुविशाल टीका ग्रन्थ में शाम्भवोपाय सम्बन्धी मातृका और मालिनी नामक उपासना पद्धतियों पर विशेष रहस्यात्मक शैली में विस्तार से जो प्रकाश डाला गया है, तदनुसार मातृका-प्रक्रिया में वर्गों और तत्त्वों को उसी क्रम में लिया गया है, जिस क्रम में वे लोकव्यवहार में और दर्शन-शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं, परन्तु ध्यान देने योग्य एक बात यह है कि इस जगत् में समस्त तत्त्व परस्पर ओतप्रोत भाव से परस्पर मिले-जुले ही रहते हैं, पृथक्-पृथक् क्रमरूपतया ठहरे हुए कहीं भी मिलते नहीं। अतः इन सभी का स्वात्मरूपतया साक्षात्कार सुगमता से तभी हो सकता है, जब इन्हें भी मिले-जुले रूप में ही आत्मरूपतया देखने का अभ्यास किया जाय। इसी प्रयोजन से मालिनी में सभी वर्ण और उनसे अभिव्यक्त होने वाले तत्त्व मिले-जुले रूप में लिये जाते हैं। तदनुसार मालिनी क्रम ‘न’ से आरम्भ होकर ‘फ’ पर समाप्त हो जाता है। इन दो वर्षों के बीच में अन्य सभी वर्ण प्रक्षुब्ध क्रम से ही लिए जाते हैं। स्वर वर्ण व्यंजन वर्षों के बीच में इधर-उधर व्युत्क्रम से ही अनुसंधान के विषय बनते हैं। मातृका की अपेक्षा मालिनी त्वरित गति से आत्मसाक्षात्कार कराती है और मुक्ति तथा भुक्ति दोनों ही फलों को अनायास दिया करती है। यह मातृका और मालिनी में परस्पर अन्तर है। कुन विवरण के अन्त में आचार्य महोदय स्वयं लिख गये हैं कि ऐसी रहस्यात्मक साधनाओं को लेकर के अनेकों दम्भी बगुलाभगत मूर्ख जनता को फुसला कर उन्हें वश में करते हुए में २३८ तन्त्रागम-खण्ड अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं। फिर मालिनीविजयवार्त्तिक के अन्त में यह भी कहा है कि जो महानुभाव वस्तु-तत्त्व का ठीक ठीक विमर्श स्वयं कर लेते हैं, उनके लिए उपदेश करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। जो लोग शास्त्रों का अध्ययन तो खूब करते हैं, परन्तु ज्ञान-समुद्र के पार पहुंच ही नहीं पाते, उन्हें उपदेश करने से क्या लाभ ? इत्यादि। ऐसा कहने का उनका तात्पर्य यही है कि ‘त्रीशिका’ नामक विषय अत्यन्त रहस्यात्मक है। अतः इसे लाखों में से कोई एक महानुभाव ही समझ सकता है, जिस पर अनुग्रह शक्तिपात हो चुका हो। ऐसी बात के होते हुए भी अर्वाचीन काल में कुछ एक पण्डितम्मन्य विद्वानों ने इस पर अपनी-अपनी टीकाएं लिखी हैं, जो आचार्य अभिनवगुप्त कृत विवरण का अध्ययन करने पर पर्याप्त मात्रा में अयथार्थ सिद्ध होती हैं। उनमें से एक टीका किसी अर्वाचीन काल के अपना नाम न देते हुए पण्डित ने आचार्य महोदय के ही नाम से नाम परिवर्तन करते हुए लिखी है, यह बात ‘विवरण’ के साथ उसकी तुलना करने से स्पष्ट हो जाती है। उस टीका का नाम ‘परात्रिंशिकालघुवृत्ति’ है। अस्तु.
क्रमकेलि तथा अन्य ग्रन्थ
श्री सिद्धनाथ कृत क्रमस्तोत्र पर आचार्य अभिनवगुप्त की क्रमकेलि नाम की टीका अब कहीं मिल नहीं रही है। उसके कई एक पृष्ठ जयरथ कृत तन्त्रालोक-विवेक में उद्धृत किए गये हैं। मालिनीतन्त्र के पूर्व भाग पर उन्होंने ‘पूर्वपञ्चिका’ नाम की टीका लिखी थी, वह भी कहीं मिलती नहीं। अन्य भी कई एक उनके ग्रन्थ नष्ट हो चुके हैं। उनके नामों का निर्देश न करते हुए ही उन्होंने उनमें से कई एक श्लोक उद्धृत किये हैं। आचार्य महोदय ने अनेकों स्तोत्रों की भी रचना की थी। उनमें से भैरव-स्तोत्र अभी तक कश्मीर के ब्राह्मणों में बहुत लोकप्रिय है। अनुभव-निवेदन-स्तोत्र अतीव लघुकाय तो है, परन्तु शिवयोगी की उत्कृष्ट स्थिति को जतलाता है। ‘देहस्थदेवताचक्रस्तोत्र’ त्रिक प्रक्रिया के अन्तर्याग के रहस्य को बताता है। उन्होंने भगवद्गीता पर जो अतीव संक्षिप्त टीका ‘गीतार्थसंग्रह’ लिखी है, उसमें उनके एक स्तोत्र से दो पद्य उद्धृत किये गये हैं। उन दो पक्षों से ऐसा प्रतीत होता है कि ‘शिवशक्त्यविनाभावस्तोत्र’ नाम वाला वह स्तोत्र अतीव उत्तम स्तोत्र-काव्यों में गिने जाने योग्य था। उन श्लोकों को वर्तमान युग में कई एक लेखकों ने उद्धृत किया, परन्तु वह स्तोत्र अब कहीं मिलता नहीं। उन दो श्लोकों के विषय में खेद की बात यह रह गयी है कि पाण्डुलिपि लेखकों के प्रमाद से और सम्पादकों की लापरवाही से उनमें एक शब्द सर्वत्र गलत ही छपा है। स्तोत्र के पहले पद्य का प्रथम चरण ऐसा छपा है १. भ्राम्यन्तो भ्रमयन्ति मन्दधिषणास्ते जन्तुचक्रं जडं स्वात्मीकृत्य गुणाभिधानवशतो बद्ध्वा दृढं बन्धनैः। दृष्ट्वेत्थं गुरुभारवाहविधये यातानुयातान् पशून् तत्पाशप्रविकर्तनाय घटितं ज्ञानत्रिशूलं मया।। (प. त्री. वि. पृ. २८१) २. ये तावत् प्रविवेकवन्ध्यहृदयास्तेभ्यः प्रणामो वरः केऽप्यन्ये प्रविविञ्चते न च गताः पारं धिगेतान जडान । यस्त्वन्यः प्रविमर्शसारपदवीसंभावनासुस्थितो लक्षैकोऽपि स कश्चिदेव सफलीकुर्वीत यत्नं मम।। (प. श्री. वि., पृ. २८१) काश्मीर शैवदर्शन २३६ “तव च काचन न स्तुतिरम्बिके” परन्तु युक्तियुक्त पाठ ऐसा होना चाहिये “तव न काचन न स्तुतिरम्बिके” म च के स्थान पर न विशेषतया उपयुक्त लगता है, क्योंकि दो “न” ही इस बात की अभिव्यंजना कर सकते हैं कि कोई भी शब्द ऐसा नहीं, जो जगदम्बा का स्तोत्र न हो। तभी तो दूसरे चरण में इसी तात्पर्य को बताते हुए कहा गया है “सकलशब्दमयी किल ते तनुः” इसी बात को अनुभव-निवेदनस्तोत्र में भी अभिव्यक्त किया गया है “शब्दः कश्चन यो मुखादुदयते मन्त्रः स लोकोत्तरः”। माण आचार्य महोदय के द्वारा निर्मित स्तोत्रों में ‘क्रमस्तोत्र’ भी विशेष महत्त्व का है। गुरुवर सिद्धनाथ (शम्भुनाथ) द्वारा विरचित क्रमस्तोत्र के दार्शनिक तात्पर्य को समझ लेने में आचार्य अभिनवगुप्त के द्वारा विरचित इस क्रमस्तोत्र का अध्ययन लाभदायक हो सकता है, यदि उस योगप्रक्रिया में कोई प्रवेश कर पाये। ।
पूर्ववर्ती स्तोत्रकार
आचार्य अभिनवगुप्त से पूर्व भी कुछ एक स्तोत्रकार प्रकट होते रहे। उनमें से स्तवचिन्तामणि के निर्माता भट्ट नारायण का काफी महत्त्व है। आचार्य महोदय ने उनके श्लोकों को उद्धृत करते हुए उन्हें ‘पूर्वगुरु’ कहा है। अतः वे भी नवम शताब्दी के पूर्वार्ध के लगभग स्तोत्ररचना करते रहे होंगे। आचार्य सोमानन्द ने भट्ट प्रद्युम्न के विचारों की आलोचना की है। तदनुसार वे परतत्त्व को ‘शिव’ न कहते हुए ‘शक्ति’ कहा करते थे। उन्होंने अपनी शाक्त दृष्टि के अनुसार शक्ति की महिमा का गायन करते हुए ‘तत्त्वगर्भस्तोत्र’ की रचना की थी। वह स्तोत्र अब कहीं भी मिलता नहीं, परन्तु उसमें से उद्धृत श्लोक शिवदृष्टिवृत्ति में और रामकण्ठकृत स्पन्दविवृति में मिल रहे हैं। ये भट्ट प्रद्युम्न भट्ट कल्लट के मामा के पुत्र थे। तदनुसार इनका समय भी नवीं शताब्दी ही हो सकता है। उसी युग में एक और महत्त्वशाली ग्रन्थकार हुए हैं भट्ट दिवाकर वत्स। इन्होंने दो ग्रन्थों का निर्माण किया था। वे दो ग्रन्थ हैं विवेकाञ्जन और कक्ष्यास्तोत्र। इन दो ग्रन्थों में से लिये गये उद्धरण मात्र मिलते हैं।
क्षेमराज
आचार्य अभिनगुप्त के प्रिय शिष्य प्रायः शिवभाव के आस्वादन में ही मस्त रहे। उनमें से उनके चचेरे भाई अभिनवगुप्त द्वितीय को छोड़कर और किसी ने ग्रन्थलेखन के काम २४० तन्त्रागम-खण्ड में दिलचस्पी नहीं ली। उनके समस्त शिष्यों में से केवल एकमात्र क्षेमराज ने ही दिलचस्पी से यह काम किया। उनका समय ग्यारहवीं शताब्दी है। उन्होंने शिवसूत्र पर विमर्शिनी नाम की एक वैदुष्यपूर्ण टीका का निर्माण किया। स्पन्दकारिका की व्याख्या उन्होंने स्पन्दनिर्णय नामक टीका के द्वारा की। स्पन्द सिद्धान्त की स्फुट व्याख्या उन्होंने एक छोटी सी स्पन्दसन्दोह नामक पुस्तिका में भली भाँति की। फिर प्रारम्भिक अध्ययन करने वालों के लिए उन्होंने पराप्रावेशिका नामक पाठ्य पुस्तक का भी निर्माण किया। आचार्य अभिनवगुप्त के यत्नों से काश्मीर शैव दर्शन के सिद्धान्त पक्ष का और प्रयोग पक्ष का भी पूरा विकास सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा था। आगे क्षेमराज ने अपने विशिष्ट वैदुष्य को चमकाने के लिए तथा अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रदर्शन करने के लिए इस शास्त्र की प्रगति में एक प्रकार से विकार के दौर का ही श्रीगणेश करते हुए शिवसूत्र की पारम्परिक व्याख्या को ठुकराते हुए अपने विचारों के अनुसार उस पर एक स्वकल्पित नवीन ढंग से विमर्शिनी नाम की टीका का निर्माण किया। भट्ट कल्लट जैसे प्राचीन सिद्ध गुरु के प्रति अनादर भाव को अभिव्यक्त करने वाली पदावलि का प्रयोग भी किया। आगे भी कई एक ग्रन्थकार सरल विषयों को इसी तरह से जटिल बनाते हुए इस शास्त्र में विकार ही लाते गये। इस बात का प्रथम स्पष्ट उदाहरण तो क्षेमराजकृत प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक ग्रन्थ है। अन्य उदाहरणों के तौर पर परात्रीशिकाशास्त्र की अभिनव टीकाओं को भी लीजिये। क्षेमराज को आचार्य अभिनवगुप्त का शिष्य होने पर काफी गर्व है, परन्तु गुरुदेव के द्वारा विरचित ग्रन्थों की व्याख्या करने में उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं ली। फलस्वरूप मालिनीविजयवार्त्तिक नामक बहुमान्य ग्रन्थ अभी तक टीका रहित ही पड़ा हुआ है। यही स्थिति तन्त्रसार की है। उस पर कम से कम एक लघु टिप्पणी होनी चाहिये थी। वही न्यूनता परात्रीशिका-विवरण में भी रह गयी है। जातन्त्रालोक भी बारहवीं शताब्दी तक विस्तत टीका के बिना ही चलता रहा। उस न्यूनता को दूर करने का श्रेय क्षेमराज के बदले जयरथ के भाग्य में था। उनके गुरु श्री सुभटदत्त ने उस ग्रन्थ पर टिप्पणी लिख रखी थी और उसी के आधार पर जयरथ ने विवेक नाम की सुविशाल टीका का निर्माण किया। शैव दर्शन के इन अर्वाचीन और परवर्ती ग्रन्थकारों में से सबसे अधिक महत्त्व जयरथ का है। उसने तन्त्रालोक की टीका का निर्माण एक भगीरथ प्रयत्न से किया और ऐसा करते हुए इस शास्त्र की वह सेवा की, जो अतीव बहुमूल्य है। उसकी इस टीका से अनेकों ग्रन्थकारों के इतिहास का परिचय भी मिलता है। साथ-साथ अनेकों ही लुप्त आगमों के वाक्य भी मिल रहे हैं। का क्षेमराज ने साम्बपञ्चाशिका, शिवस्तोत्रावलि और स्तवचिन्तामणि नामक स्तोत्र काव्यों की व्याख्याएं लिखीं और स्वच्छन्दतन्त्र तथा नेत्रतन्त्र पर उयोत नामक टीकाओं का निर्माण किया। उनसे काफी पहले रामकण्ठ ने स्पन्दकारिका पर स्पन्दविवृति नामक टीका का निर्माण भट्ट कल्लट कृत स्पन्दवृत्ति के अनुसार कर रखा था। वह टीका स्पन्दशास्त्र की पारम्परिक व्याख्या के अनुसार लिखी गयी है। दसवीं शताब्दी में भट्ट भास्कर ने शिवसूत्रवार्त्तिक का निर्माण किया। इस ग्रन्थ का विशेष महत्त्व इन बातों में है कि एक तो २४१ काश्मीर शैवदर्शन यह वार्त्तिक-ग्रन्थ शिवसूत्र की व्याख्या करते हुए गुरुशिष्य-परम्परा में चली आती हुई दार्शनिक और उपासना सम्बन्धी दृष्टि का अनुसरण करता है। दूसरे शिवसूत्र के चतुर्थ खण्ड की स्फुट जानकारी दे रहा है। ये भट्ट भास्कर आचार्य वसुगुप्त की परम्परा में सातवें गुरु थे। अतः इनके द्वारा की गई व्याख्या विशेष महत्त्व रखती है और खेद केवल एक बात का है कि अभी तक इस वार्त्तिक-ग्रन्थ की कोई सुबोध टीका नहीं लिखी गयी है। टिप्पणी के रूप में छपी हुई किसी अज्ञात आचार्य के द्वारा शिवसूत्र पर निर्मित एक संक्षिप्त वृत्ति प्रकाशित हुई है, परन्तु उस वृत्ति की भी व्याख्या होनी चाहिये थी, जो अभी तक नहीं हो पायी।
उत्पल-वैष्णव आदि
स्पन्दकारिका पर दसवीं शताब्दी के आसपास उत्पल नाम के एक वैष्णव आचार्य ने स्पन्दप्रदीपिका नामक विस्तृत टीका का निर्माण किया। ये आचार्य पांचरात्र सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाले एक वैष्णव गुरु थे। उन्होंने स्पन्दकारिका और पांचरात्र आगमों के बीच पारस्परिक एकवाक्यता को सिद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया है। स्पन्दप्रदीपिका में अनेकों ही आचार्यों के अनेकों ग्रन्थों से उद्धरण लिये गये हैं। फलस्वरूप इस टीका से अनेकों ऐतिहासिक विषयों पर प्रकाश पड़ता है। भट्ट कल्लट के अन्य ग्रन्थों में से स्वस्वभावसम्बोधन और तत्त्वविचार नामक दो ग्रन्थों की जानकारी इसी टीका से मिलती है। क्षेमराज के शिष्य योगराज ने परमार्थसार पर एक वैदुष्यपूर्ण टीका का निर्माण किया। उस टीका की सहायता से परमार्थसार काफी लोकप्रिय बना रहा। काश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली में ग्रन्थांक १३ में राजानक आनन्द विरचित विवरण के साथ षत्रिंशतत्त्वसन्दोह नाम का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। यह ग्रन्थ भी कश्मीर में काफी लोकप्रिय बना रहा। वस्तुतः किसी विद्वान् ने अमृतानन्दनाथकृत सौभाग्यसुभगोदय से श्लोकों को ले करके उनकी व्याख्या करते हुए इस टीका-ग्रन्थ का निर्माण किया है। टीकाओं और छोटे-मोटे ग्रन्थों के निर्माण की परम्परा कश्मीर में भारत की स्वतन्त्रता के आरम्भ तक और कुछ वर्ष आगे भी चलती रही। तदनुसार पं.हरभट्ट की पञ्चस्तवी की टीका और इन पंक्तियों के लेखक द्वारा विरचित सटीक स्वातन्त्र्यदर्पण नामक ग्रन्थ का प्रकाशन हो गया है। वाराणसी से कश्मीर आये हुए विद्वान् श्री रामेश्वर झा ने तन्त्रालोक आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके ‘पूर्णताप्रत्यभिज्ञा’ नामके अभिनव ग्रन्थ का निर्माण किया, जो टीका सहित प्रकाशित हो चुका है। मिकी संगल्यशियाड
नाथ-गुरु
कश्मीर में शाक्त परम्परा के नाथों का सम्प्रदाय भी चलता रहा। वे लोग शाक्ती साधना का अभ्यास करते रहे, परन्तु सिद्धान्त पक्ष में काश्मीर शैव दर्शन का ही अनुसरण उन्होंने किया। उनमें से पुण्यानन्दनाथ का कामकलाविलास और नटनानन्द की चिद्वल्ली नाम की उस पर लिखी टीका कश्मीर में काफी प्रचलित रही। ये दो आचार्य किस देश .. २४२ तन्त्रागम-खण्ड के निवासी थे, इस बात के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता है। अमृतानन्दनाथ कृत चिद्विलास भी प्रकाशित हुआ है। वातूलनाथनामक सिद्धकृत एक वातूलनाथसूत्र भी प्रकाशित हुआ है। चक्रपाणिनाथ कृत भावोपहार स्तोत्र भी कश्मीर में प्रचलित था। तेरहवीं शताब्दी में कश्मीर निवासी शितिकण्ठ नामक सिद्ध ने उस समय की कश्मीरी देश-भाषा में शाक्त सम्प्रदाय के एक ग्रन्थ महानयप्रकाश का निर्माण करके उस पर एक संस्कृत टीका की रचना की। आगे चौदहवीं शती में लल्लेश्वरी नाम की एक सुप्रसिद्ध योगिनी ने भी तत्कालीन काश्मीर भाषा में दर्शन और साधना सम्बन्धी वाक्यों का निर्माण किया। वे वाक्य अभी तक कश्मीर में लोकप्रिय बने हुए हैं। लल्लेश्वरी ने मुसलमान सूफी साधकों को भी शैवी योग-प्रक्रियाओं का उपदेश दिया। उस बात के फलस्वरूप कश्मीर में अर्ध-उन्मत्त जैसे सन्तों की एक मिली जुली परम्परा भी चलती आई है। आगे शाहिजहान् और अवरंगजेब के शासन काल में कश्मीर में नाथ सम्प्रदाय के एक सुप्रसिद्ध महात्मा श्री साहिब कौल आनन्दनाथ कौल सम्प्रदाय की साधनाओं को सिखाते रहे। वे सिद्धिसम्पन्न उपासक थे और बड़े प्रभावशाली थे। उनके ग्रन्थों में से शिवजीवदशकम् और देवीनामविलास नामक स्तोत्र-काव्य छप चुके हैं। उनके द्वारा विरचित कल्पवृक्षप्रबन्ध, सच्चिदानन्द- कन्दली, आत्मचरितम् आदि ग्रन्थ अभी छपे नहीं हैं। शिजाय
सिद्धसम्प्रदाय
काश्मीर शैव दर्शन के आचार्य प्रायः सभी के सभी सिद्ध-सम्प्रदायों से सम्बद्ध थे। ये सिद्ध-सम्प्रदाय भारत भर में प्रचलित थे। उस बात के फलस्वरूप काश्मीर शैव दर्शन के साथ मिलती-जुलती साधना-परम्पराओं का उपदेश करने वाले ग्रन्थों, स्तोत्रों आदि का निर्माण अनेकों प्रान्तों में समय-समय पर होता रहा। उदाहरण के तौर पर उत्तरप्रदेश में किसी विरूपाक्षनाथ सिद्ध ने विरूपाक्षपञ्चाशिका का निर्माण किया। उसकी टीका एक कन्नौज निवासी विद्वान् ने महाराज जयचन्द्र के समय लिखी। किसी और सिद्ध ने साम्बपञ्चाशिका नामक स्तोत्र का निर्माण किया। उसकी टीका क्षेमराज ने लिखी। स्वतन्त्रानन्दनाथ नामक सिद्ध ने मातृकाचक्रविवेक का निर्माण किया। उस पर एक वेदान्ती महात्मा ने टीका लिखी। तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अर्धत्र्यम्बक मठिका के शैव नागार्जुन ने चित्तसन्तोषत्रिंशिका और परमार्चनत्रिंशिका नाम के दो दार्शनिक स्तोत्रों का निर्माण किया, जिन्हें रणवीर विद्यापीठ, ने जम्मू में प्रकाशित किया। वे कांगड़ा मण्डल में ज्वालामुखी पर्वत पर साधना अभ्यास करते रहे। चोल देश के महेश्वरानन्द (गोरखनाथ) ने आचार्य अभिनवगुप्त के ग्रन्थों की शैली को अपनाते हए स्वयं निर्मित महार्धमञ्जरी नामक (प्राकृत भाषामयी) कारिकाओं की एक परिमल नाम की विस्तृत व्याख्या का निर्माण किया। उस ग्रन्थ का प्रचार सारे भारत में चलता रहा। श्रीवत्स नाम के एक उत्कृष्ट सिद्ध महापुरुष ने रहस्यात्मक शैवी साधनाओं की अभिव्यक्ति कराने वाले एक अतीव सुन्दर और सुमनोहर स्तोत्र-काव्य का निर्माण किया, जिसे चिद्गगनचन्द्रिका कहते है। योगिनीहृदयदीपिका में उसके कुछ एक काश्मीर शैवदर्शन २४३ श्लोक मिल रहे हैं। तदनुसार ये श्रीवत्स नाम के सिद्ध अमृतानन्दनाथ से प्राचीन है। अतीव खेद की बात यह है कि इस ग्रन्थरत्न का सम्पादन सन्तोषजनक ढंग से नहीं होने पाया है। फिर पाण्डुलिपि लेखकों के प्रमाद से कवि का नाम ‘कालिदास’ प्रसिद्ध हो गया है। स्तोत्र के अन्तिम पद्य में स्पष्ट कहा गया है “श्रीवत्सो विदधे स तु”। उससे पूर्व कवि ने कहा “कालि दासपदवीं तवाश्रितः” 0 - इसका तात्पर्य यह है कि हे देवि महाकालि! मैं आपके दास की पदवी पर आश्रित हूँ। इस वाक्य से भ्रान्त होते हुए लेखकों और सम्पादकों ने कवि का नाम ही कालिदास घोषित किया है। कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी में इस काव्य का एक सटीक संस्करण छपा है। उसमें इतनी त्रुटियाँ और दोष भरे पड़े हैं कि उसके प्रकाशित हो जाने की अपेक्षा अच्छा यही होता कि ग्रन्थ का अपना रूप ही बना रहता और आगे कोई शैव-शाक्त साधनाओं का विशेषज्ञ इस कार्य को पूरा कर देता। के. अग्निहोत्र शास्त्री की दिव्यचकोरिका टीका के साथ भी इसका एक संस्करण दक्षिण भारत से प्रकाशित हुआ है।
मधुराज और वरदराज
आचार्य अभिनवगुप्त के समय में तमिलदेश के मदुराई नगर से मधुराज नामक एक सन्त कश्मीर आकर कई वर्ष तक आचार्य महोदय के आश्रम में रहते रहे। उन्होंने आश्रम का तथा आश्रमाधीश के शरीर, वेषभूषा आदि का वर्णन एक छोटे से ‘गुरुनाथपरामर्श’ नामक काव्य में किया है। उसने यह भी लिखा है कि आचार्य अभिनवगुप्त ने ‘पर्यन्तपञ्चाशिका’ का निर्माण किया। उस ग्रन्थ का प्रकाशन कुछ ही वर्ष पूर्व श्री वे. राघवन् ने मद्रास में किया। ग्रन्थ सारगर्भित है, यद्यपि कलेवर में छोटा सा ही है। उसका पुत्र वरदराज भी कश्मीर आया और क्षेमराज का शिष्य बना। उसने शिवसूत्र पर एक वार्त्तिक ग्रन्थ का निर्माण किया। उस वार्त्तिक-ग्रन्थ की सहायता से ही आचार्य क्षेमराज की शिवसूत्र विमर्शिनी समझ में आती है। वरदराज के उस वार्त्तिक से क्षेमराज के ही पत का प्रचार दक्षिण आदि देशों में होता रहा और भट्ट भास्कर के मत का कहीं प्रचार नहीं होने पाया। कश्मीर में पठानों के शासन काल में शिवोपाध्याय नाम के एक सिद्ध महापुरुष ने विज्ञानभैरव नाम के आगम-ग्रन्थ पर एक विस्तृत व्याख्या लिखी और श्रीविद्यानिर्णय, गायत्रीनिर्णय आदि छोटे छोटे ग्रन्थों का निर्माण किया। उसी युग में पठानों के द्वारा किये जाते हुए अन्यायों को देख न सकने के कारण श्रीनगर छोड़ कर पंजाब में आकर और वहीं अपना आश्रम बनाकर रहने वाले मनसाराम नामक सिद्ध महात्मा ने स्वातन्त्र्यदीपिका नाम के एक अभिनव ग्रन्थ का निर्माण अभिनव ढंग से ही किया। वह ग्रन्थ सत्रबद्ध है और प्रत्येक सूत्र की व्याख्या भी उसमें की गयी है। अभी तक वह प्रकाशित नहीं हुआ है, यद्यपि एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। २४४ तन्त्रागम-खण्ड निरा-
उपलब्ध वाङ्मय का वर्गीकरण
इस शास्त्र के वाङ्मय का वर्गीकरण निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है (क) आगमग्रन्थ (मूलभूत)- इस शास्त्र के मूल स्रोतःस्थानीय आगमों में से केवल निम्नलिखित ग्रन्थ ही इस समय उपलब्ध हो रहे है—१. शिवसूत्र, २. मालिनी विजयोत्तरतन्त्र, ३. स्वच्छन्दतन्त्र, ४. नेत्रतन्त्र, ५. रुद्रयामलतन्त्र (भागशः), ६. विज्ञानभैरव, ७. परात्रीशिका (त्रिंशिका पाठ अशुद्ध)। मानो (ख) आगमविस्तारात्मक तथा व्याख्यात्मक ग्रन्थ- १. मालिनीविजयवार्त्तिक, माज-२. शिवसूत्रवार्त्तिक (भास्करकृत), ३. शिवसूत्रविमर्शिनी, ४. शिवसूत्रवार्तिक (वरदराजकृत), 151५. परात्रीशिका-विवरण (अभिनवगुप्तकृत), ६. स्वच्छन्द-उद्योत, ७. नेत्रतन्त्र-उद्द्योत, खज ८. विज्ञानभैरव-उद्योत। (ग) दर्शनविद्याविषयक ग्रन्थ–१. शिवदृष्टि, २. शिवदृष्टिवृत्ति (अधूरी), ३. ईश्वर प्रत्यभिज्ञा, ४. ईश्वरप्रत्यभिज्ञावृत्ति, ५. ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृति, (दुष्प्राप्य), ६. ईश्वर प्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी, ७. ईश्वरप्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, ८. ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी टीका, ६. प्रत्यभिज्ञा पर भास्करी, कौमुदी (अमुद्रित), १०. सिद्धित्रयी, __११. सिद्धित्रयीवृत्ति, (अधूरी) १२. प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, १३. परमार्थसार, १४. परमार्थचर्चा, मा १५. बोधपञ्चदशिका, १६. अनुत्तराष्टिका, १७. पराप्रावेशिका, १८. षट्त्रिंशत्तत्त्वसन्दोह, अक्ष १६. स्वातन्त्र्यदीपिका (अमुद्रित), २०. आत्मविलास, २१. आत्मविलाससुन्दरी, । २२. आत्मविलासविमर्शिनी, २३. विंशतिकाशास्त्रम्, २४. पूर्णताप्रत्यभिज्ञा, २५. स्वातन्त्र्यदर्पण। निसार (घ) स्पन्दसिद्धान्तविषयक ग्रन्थ-१. स्पन्दकारिका, २. स्पन्दवृत्ति (स्पन्दसर्वस्व), ३. स्पन्दप्रदीपिका, ४. स्पन्दविवृति, ५. स्पन्दनिर्णय, ६. स्पन्दसन्दोह।हावा (ड.) त्रिकसाधनाविषयक ग्रन्थ—१. तन्त्रालोक, २. तन्त्रसार, ३. तन्त्रवटधानिका, ४. तन्त्रालोकविवेक, ५. परात्रीशिकाविवरण, ६. परात्रीशिका पर अन्य टीकाएँ। (च) दार्शनिक स्तोत्र-१. स्तवचिन्तामणि (भट्टनारायणकृत), २. तत्त्वगर्भस्तोत्र (भट्टप्रद्युम्नकृत), ३. शिवस्तोत्रावलि (उत्पलदेवकृत), अभिनवगुप्तकृत, ४. भैरवस्तोत्र ५. अनुभवनिवेदनस्तोत्र, ६. अनुत्तराष्टिका, ७. शिवशक्त्यविनाभावस्तोत्र (अंशमात्र उपलब्ध), ८. क्रमस्तोत्र (शम्भुनाथ), ६. सिद्धनाथकृत क्रमस्तोत्र, १०. चिद्गगनचन्द्रिका श्रीवत्सकृत) (कालिदासकृत नहीं, वह भ्रान्ति है), ११. चित्तसन्तोषत्रिंशिका, इ.१२. परमार्चनत्रिशिंका (दोनों ही शैव नागार्जुन कृत), १३. परमशिवस्तोत्र, १४. मन्दाक्रान्तास्तोत्र, १५. महानुभवशक्तिस्तोत्र (तीनों ही आचार्य अमृतवाग्भवकृत)। Rकाश्मीर शैवदर्शन २४५
त्रिक पद का अर्थ
का निगिजा गिल काश्मीर शैव दर्शन के अनुसार स्वात्मस्वरूप की प्रत्यभिज्ञा कई एक साधना-पद्धतियों के अभ्यास से हो सकती है और उन सभी में से त्रिक आचार सर्वोत्तम है। इसे (त्रिक) ऐसा नाम देने के कई एक कारण है। त्रिक पद का अर्थ है तीन का समूह । इस साधनाक्रम में कई एक तीन-तीन पदार्थों के समूह विद्यमान है। जैसे १. इसके आधार तीन आगम हैं—मालिनीतन्त्र, सिद्धातन्त्र और वामकतन्त्र। २. समस्त विश्व को शिव, शक्ति और नर (जीव और जगत्) इन तीनों के रूप में देखा शीरि जाता है। तदनुसार शिव ही शक्ति के मार्ग से उतर कर नर (जीव) के रूप में प्रकट आशा होता रहता है और नर (जीव) भी शक्ति ही के मार्ग से आरोहण करता हुआ क लिशिवभाव को प्राप्त करता है। ३. इस साधना क्रम के उपायों के तीन वर्ग हैं-शाम्भव, शाक्त और आणव। ४. साधक को स्वरूप-प्रत्यभिज्ञा तभी होती है, जब उसे अपनी तीन अनिरुद्ध शक्तियों यो का साक्षात्कार हो जाता है। ये शक्तियां हैं—इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रिया-शक्ति। ५. पर तत्त्व भी त्रिकात्मा है, अर्थात् शिवरूप में, शक्तिरूप में और दोनों ही के समरस का रूप में उसका साक्षात्कार करना होता है। मांग ६. अपने आपका दर्शन भी विश्वोत्तीर्ण भाव में, विश्वमय भाव में और समरस भाव में करना होता है। यह माता ७. मातृका उपासना में मूल स्वर तीन ही हैं-अ, ई और उ। इस प्रकार के तीन तीन Tी पदार्थों के आधार पर इस साधना-पद्धति का नाम त्रिक-आचार है। । इस प्रकार की त्रित्व स्थिति पर चलने वाला यह मुख्य साधना-उपाय त्रिक कहलाता है। त्रिक वस्तुतः काश्मीर शैव दर्शन के साधना पक्ष का नाम है, परन्तु बहुत बार इस सारी दर्शन विद्या को ही विद्वानों ने त्रिक दर्शन कहा है। माधवाचार्य ने इसे प्रत्यभिज्ञादर्शन नाम दिया और वर्तमान युग में यह त्र्यम्बकशास्त्र काश्मीर दर्शन कहलाता है। आचार्य अभिनवगुप्त ने इसे पराद्वैत शैवदर्शन कहा है। क्षेमराज ने इसे ईश्वराद्वैत या शिवाद्वैत कहा है। इस तरह से यह दर्शनशास्त्र अनेकों ही नामों से प्रसिद्ध है। ला
कुछ आवश्यक तथ्य
काश्मीर शैव दर्शन पर वर्तमान युग में प्रचलित शैली के अनुसार विशेष प्रकाश डालने के विषय में सबसे पहले दो महानुभावों ने बहुमूल्य शोध कार्य किया। वे थे १. श्री जगदीशचन्द्र चैटर्जी और २. डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय। दोनों महानुभावों ने श्रीनगर में रहकर वहाँ के प्रतिष्ठित विद्वानों से इस शास्त्र को पढ़कर इस पर अंग्रेजी भाषा में वर्तमान युग की शैली में प्रकाश डालने का यत्न किया, परन्तु साथ ही उन्होंने कई एक २४६ तन्त्रागम-खण्ड प्रकार की भ्रान्त धारणाओं को भी प्रवाहित कर दिया। कारण यह बने कि जिन महानुभावों से उन्होंने इस शास्त्र को पढ़ा, वे प्रकाण्ड पण्डित होते हुए भी दार्शनिक अनुभूतियों के विषय में दरिद्र थे। दार्शनिक अनुभूतियों वाले कश्मीरी सिद्ध योगी प्रायः हिन्दी भाषा में व्याख्या नहीं कर सकते थे। संस्कृत भाषा में तर्क-वितर्क बहुल ग्रन्थों को पढ़ाने की बात दूर ही रही। संस्कृत विद्या के व्यवसायात्मक पक्ष में विलीन पण्डितों से शास्त्रों को पढ़कर दोनों शोधविद्वानों ने अपनी बुद्धि के द्वारा की गयी अनेकों ही अयथार्थ कल्पनाओं के भण्डार को काश्मीर शैवदर्शन के अध्ययन-अध्यापन के क्रम में प्रवाहित कर दिया। उनमें से कुछ एक कल्पनाएं हैं शैवदर्शन की परिभाषाओं के विषय में, जैसे १. इन विद्वानों ने आगमशास्त्र को काश्मीर शैवदर्शन की एक शाखा के रूप में घोषित कर दिया। वस्तुतः आगमशास्त्र शैव दर्शन के उन स्रोतों को कहते हैं, जिनके आधार पर उत्तर और दक्षिण भारत में प्रचलित शैवदर्शन की भिन्न-भिन्न शाखाओं का निर्माण, प्रचार, प्रसार आदि हुआ। अतः आगमशास्त्र को स्पन्दशास्त्र या प्रत्यभिज्ञाशास्त्र से उस तरह से विभक्त नहीं किया जा सकता है, जिस तरह से अद्वैत वेदान्त, विशिष्टाद्वैत आदि को उपनिषत् शास्त्र से पृथक् नहीं किया जा सकता। आगम शैवदर्शन के स्रोत हैं, पृथक् सम्प्रदाय नहीं है। शैव आगम मुख्यतया दस भेद प्रधान, अट्ठारह भेदाभेद-प्रधान और चौसठ अभेद-प्रधान हैं। ये बहुत बातों में परस्पर मिलते-जुलते हैं। सभी शैवदर्शन प्रायः सभी आगमों का आश्रय लेते हैं, फिर भी काश्मीर शैवदर्शन के प्रधान स्रोत चौसठ अभेदप्रधान आगम हैं। फिर इन १०+१८+६४ आगमों में से विशेष प्रधानता यहाँ चौसठ अभेद-प्रधान आगमों को ही दी जा रही है। इन ६४ आगमों से भी बढ़-चढ़ कर महत्त्व छः आगमों को दिया गया है। वे हैं-सौर, भर्गशिखा आदि। उनके भी दो वर्ग है—पूर्व और उत्तर। एक-एक में तीन-तीन आगम गिने गए हैं। काश्मीर शैवदर्शन के मुख्य आधार उत्तर वर्ग के तीन आगम हैं। वे हैं-सिद्धातन्त्र, वामक (नामक) तन्त्र और मालिनीतन्त्र। ये तीन आगम त्रिक आगम या षडर्ध (छः का आधा) आगम है। इनमें से सिद्धातन्त्र के अनेकों उद्धरण मात्र तन्त्रालोक की टीका में सुरक्षित हैं। वामक तन्त्र के सिद्धान्त वामकेश्वरीमत-विवरण आदि में संगृहीत हैं। मालिनीतन्त्र के पूर्व भाग पर आचार्य अभिनवगुप्त द्वारा निर्मित मालिनीविजयवार्त्तिक प्रकाशित हो चुका है और उस तन्त्र का उत्तर भाग बिना किसी टीका के छप चुका है। ऊपर निर्दिष्ट २८ आगामों को भी तन्त्रालोक में प्रमाणतया उद्धृत किया गया है, परन्तु विशेषतया उपर्युक्त त्रिक आगमों का ही आश्रय लिया गया है। वर्तमान युग के शैवी शोधकार स्पन्दशास्त्र को काश्मीर शैवदर्शन की दूसरी शाखा मानते हैं। यह धारणा भी अयथार्थ ही है। स्पन्द तो मूलतः परमेश्वर की काश्मीर शैवदर्शन २४७ आनन्दमयता की उस विचित्र आध्यात्मिक गतिशीलता को कहा गया है, जिसके प्रभाव से परमेश्वर सृष्टि-संहार आदि पारमेश्वरी लीला के विलास में सदैव बहिर्मुखतया तरंगित होता ही रहता है। यह स्पन्दशीलता ही उसकी परमेश्वरता का आधार है। जीव और जगत् भी इस स्पन्द-शक्ति के प्रभाव से ही गतिशील बने रहते हैं। एक-एक परमाणु में भी उसके इलेक्ट्रोन और प्रोटोन सदैव गतिशील बने रहते हैं। प्रत्येक जीव इस स्पन्द की गतिशीलता से सदैव इच्छा, ज्ञान और क्रिया में प्रवृत्त होकर चलता ही रहता है। आचार्य वसगुप्त ने शैव योग की एक अनोखी प्रक्रिया को चलाया, जिसे स्पन्दतत्त्व-विविक्ति कहते हैं। तदनुसार शैवी त्रिकयोग के अभ्यास से साधक अपने स्वरूपभत चैतन्य की उस आनन्दमयी तरंगायमाण स्थिति का अनुभव करता हुआ और अपने छिपे हुए वास्तविक स्वरूप और स्वभाव का पुनः साक्षात्कार करता हुआ अपने आपको परिपूर्ण परमेश्वर के रूप में पहचान कर कृतकृत्य हो जाता है। पीछे भुला डाले हुए अपने वास्तविक स्वरूप की इस अभिनवतया पहचान लेने की क्रिया को ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहा जाता है। इस प्रत्यभिज्ञा की ही महिमा से साधक जीवन्मुक्त होकर सदा के लिए कृतकृत्य हो जाया करता गुगल है। यही स्वरूप-प्रत्यभिज्ञा साधक का मुख्य प्रयोजन है और उस प्रयोजन को प्राप्त करने का प्रधान उपाय अपने. परमेश्वरोचित परापर-स्पन्दात्मक स्वभाव का का साक्षात्कार है। अब सोचिये कि स्पन्द और प्रत्यभिज्ञा को दो पृथक् सम्प्रदायों के रूप में मानना कहाँ तक न्यायसंगत है? तभी तो तन्त्रालोक में स्थान-स्थान पर स्पन्दकारिका की ओर संकेत मिलते हैं। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी में भी इसी लिए अनेकों स्थानों पर स्पन्दकारिका के श्लोकों को उद्वत किया गया है। २. हाँ, इतनी बात अवश्य मानी जा सकती है कि काश्मीर शैव दर्शन के वाङ्मय के किसी विभाग को प्रत्यभिज्ञाविषयक, किसी को स्पन्दविषयक और किसी को आगम विषयक कहा जा सकता है। यह इस शास्त्र के वाङ्मय का एक अन्तरंग विषयविभागमात्र हो सकता है, शाखाभेद नहीं। शाखाभेद तो मुख्य चार ही है १. त्र्यम्बकशाखा, जो त्रिकाचार प्रधान है, २. अर्धत्र्यम्बक शाखा, जो मुख्यतया कौलाचार प्रधान है, ३. श्रीनाथ-शाखा, जो भेदाभेददृष्टि-प्रधान है और । ४. आमर्दक-शाखा जो भेददृष्टि प्रधान है। ऐसी चार शाखाएं साधकों के अधिकारभेद की दृष्टि को लेकर के प्रवृत्त हुई हैं। सभी साधक एक जैसे अधिकार के नहीं होते, अतः “चित्तभेदाद् मनुष्याणां शास्त्रभेदो वरानने" ऐसा आगमवाक्य प्रसिद्ध है। ३. काश्मीर शैवदर्शन के गुरुओं ने स्वात्मप्रत्यभिज्ञा को प्राप्त करने के उपायों के भीतर अनेकों ही साधनाओं को स्थान दिया है। जन-साधारण के लिए चातुर्वर्णिक और चातुराश्रमिक वैदिक आचार को उपयुक्त माना गया है। इसी आदर्श को सिखाने के है २४८ तन्त्रागम-खण्ड लिए आचार्य अभिनवगुप्त आजीवन यज्ञोपवीत पहना करते रहे। उन्होंने वैदिक अनुशासन का संन्यास नहीं किया। अभी तक यही परम्परा कश्मीर में चलती रही। शैवदर्शन में भगवद्भक्तों के लिए सिद्धान्तशैव के चर्या, क्रिया और योग नामक तीन सोपानों वाले भक्तिप्रधान शैवाचार को हितकर कहा है। त्वरित गति से स्वस्वभावभूत चिदानन्द के परस्पन्द का साक्षात्कार कर सकने वाले जितेन्द्रिय अधिकारियों के लिए उन्होंने पंचमकार-प्रधान वामाचार को हितकर कहा है। इस आचार से जनसाधारण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने वामाचार से उत्कृष्ट कौलाचार की काफी प्रशंसा की है। इस आचार के अभ्यास में भी पंचमकारों का उपयोग किया जाता है, परन्तु निरकुंशता और निर्लज्जतापूर्वक नहीं, अपितु साधारण जनता से अदृश्य कुलचक्रों में रहस्यात्मकतया की जाने वाली मकार-साधना से सद्यः क परस्पन्दात्मकता को चमकाते हुए स्वरूप-प्रत्यभिज्ञा को प्राप्त करने के अभ्यास से ही इसकी प्रक्रिया का अनुष्ठान किया जाता है। कुलगुरु की प्रभावशीलता से कुलचक्र लामो में प्रविष्ट हुआ प्रत्येक साधक इस अभ्यास से सद्यः स्वात्मस्वरूप की प्रत्यभिज्ञा को जन प्राप्त करता हुआ एक ओर से जीवन्मुक्त हो जाता है और दूसरी ओर से गार योगसिद्धियों से सम्पन्न हो जाता है। तभी तो भट्ट कल्लट, उत्पलदेव, अभिनवगुप्त जैसे गुरु कौल साधना में काफी रुचि लेते रहे। शाम चार कति ४. कौल मार्ग से भी उत्कृष्ट त्रिक मार्ग को माना गया है। इस मार्ग में मकारों का सेवन अनिवार्य नहीं होता। विशेष कर शास्त्रसिद्धान्तों का यथार्थ ज्ञान, त्रिक साधना वाला गि योगाभ्यास और परमेश्वर के प्रति अनन्य भक्ति—इन तीन उपायों के एक साथ अभ्यास से अपनी चिदानन्दात्मिका परस्पन्दरूपता के साक्षात्कार के द्वारा साधक को अपने पारमेश्वर स्वरूप की तथा वैसे स्वभाव की पुनः प्रत्यभिज्ञा हो जाती है और नागा साधक जीवन्मुक्ति को पा जाता है। इस आचार में न तो भयानक मकारों का अवश्यमेव सेवन ही करना होता है, न प्राणायाम, प्रत्याहार आदि कष्टमयी साधनाओं का अभ्यास होता है। इसमें आडम्बरात्मक तान्त्रिक याग आदि की विशेष TIPS आवश्यकता नहीं पड़ती। सर्वथा आडम्बरहीन होने से इस साधना मार्ग को सर्वोच्च गाउ मार्ग माना गया है। तन्त्रालोक, तन्त्रसार आदि ग्रन्थों में इस त्रिकाचार की अनकों ही निम्न तथा उच्च स्तरों की साधना के अभ्यास का निरूपण अतिविस्तार से किया मिति गया है। यह त्रिक आचार वह प्रयोगात्मक उपाय है, जिसे मोक्षोपायों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह त्रिकशास्त्र काश्मीर शैवदर्शन का प्रयोगात्मक पक्ष है और प्रत्यभिज्ञाशास्त्र इसका सिद्धान्तात्मक पक्ष है। इन दोनों को परस्पर तोड़ा नहीं जा सकता। कश्मीर शैवदर्शन को इसी विचार से कुछ एक महानुभावों ने त्रिकदर्शन कहा या है। प्राचीन नाम इस शास्त्र का त्र्यम्बकदर्शन है। गीतको गोवा २४६ काश्मीर शैवदर्शन ५. काश्मीर शैवदर्शन में कौलाचार और त्रिकाचार के मध्य में एक मताचार नाम की साधना का भी उल्लेख हुआ है। आजकल उस मताचार के विषय में कुछ भी पता नहीं लगता कि वह कैसा था और कहाँ प्रचलित था। केवल इतनी बात विदित हो रही है कि यह आचार कौलाचार से कुछ मिलता-जुलता आचार था। चौसठ भैरव आगमों में आठ आगम मताष्टक नाम से प्रसिद्ध हैं। हो सकता है कि उन आठ आगमों में उसका निरूपण किया गया हो। वे आगम तो अब केवल नाममात्र से ही अवशिष्ट रह गये हैं। क्रम के विषय में पीछे बताया गया है कि यह कोई पृथक् आचार नहीं था, अपितु समस्त ब्रह्माण्ड को बारह भागों में विभक्त करते हुए एक-एक भाग को अपनी कलनात्मिका शक्ति से अपने चित्स्वरूप में विलीन करते हुए समस्त विश्व को ही उसमें विलीन करने के अभ्यास का यह एक अपेक्षाकृत सरल उपाय होता हुआ शाक्तोपाय का अभ्यास करने वाले शैवों में विशेषतया लोकप्रिय बन चुका था। तभी इसका नामोल्लेख त्रिक और कुल के साथ किया जाता रहा, परन्तु तन्त्रालोक में इसे प्रमुख शाक्तोपाय ही माना गया है। इस तरह से इन क्रम, कुल, प्रत्यभिज्ञा, स्पन्द आदि परिभाषाओं की उलझनों में पड़ने से बचने के लिए इनके उन-उन मूलभूत स्वरूपों को ध्यान में रखना चाहिए, जिनका निरूपण प्राचीन गुरुओं ने अपने ग्रन्थों में कर रखा है। वर्तमान यग के शोध-विद्वानों द्वारा प्रवाहित अयथार्थ धारणाओं के चा प्रवाहों में बहने से अपने मस्तिष्क को बचाए रखना चाहिए। तभी काश्मीर शैव दर्शन माप का वास्तविक स्वरूप साक्षात् अनुभूति से स्पष्टतया अभिव्यक्त हो सकेगा।
शैव साधना में भक्ति की महिमा
काश्मीर शैवदर्शन के इस त्रिक आचार के अनुसार यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि किसी भी कष्टप्रद अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। साधक को मन का या मानसिक वृत्तियों का दमन करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। दमन करने से उल्टा ही फल हो सकता है, अन्तःकरण पर उल्टी प्रतिक्रिया हो सकती है। आचार्य अभिनवगुप्त कहते हैं कि मन को बलात्कार से दबाए रखने पर वह अधिक-अधिक उल्टे-उल्टे मार्गों की ओर दौड़ने लगता है। जैसे एक नौजवान घोड़े को धीरे-धीरे प्रेमपूर्वक सिखाया जा सकता है, वैसे ही मन को भी धीरे-धीरे ही सीधे मार्ग पर चलाया जा सकता है। इन्द्रियों का शोषण भी प्रायः हानिकारक ही होता है। शोषित इन्द्रियों में अपने-अपने विषयों के प्रति तृष्णा अधिक बढ़ सकती है। इसी लिए त्रिकाचार के अभ्यासी घर छोड़कर साधु नहीं बनते थे। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ही और तदनुसार विषयों का सेवन करते हुए ही साथ-साथ त्रिकाचार की किसी साधना का अभ्यास किया करते थे। उससे ज्यों ही आत्म आनन्द की किसी भूमिका का आस्वाद आने लगता था, त्यों ही उसके रस के सामने विषयरस स्वयं २५० तन्त्रागम-खण्ड फीका पड़ जाता था। तभी तो आचार्य उत्पलदेव, भट्ट कल्लट, भट्ट भूतिराज, नरसिंहगुप्त आदि शैव गुरु सभी गृहस्थ आश्रम में रहते रहे। आचार्य अभिनवगुप्त ने यद्यपि विवाह नहीं किया था, फिर भी वे अपने भाई बन्धुओं के साथ अपने घर में ही रहते रहे, परिव्राजक नहीं बने। इन शैव गुरुओं में से सम्भवतः कोई भी परिव्राजक नहीं बना। शास्त्र-ज्ञान और योगाभ्यास ये ही दो साधन हैं, जिनका आश्रय त्रिक साधक को लेना होता है। फिर इस उपासना-क्रम में भक्ति को विशेष प्राधान्य दिया गया है। उसी के बल से शास्त्र-ज्ञान भी पच जाता है और योगाभ्यास भी दुरुपयोग से बचा रहता है। आचार्य उत्पलदेव ने तो भक्ति की महिमा को बहुत गाया है। ।
आचार्य अमृतवाग्भव
भगवान् शिव कैसे अनुग्रह करते हैं और महामुनि दुर्वासा कैसे योग्य अधिकारियों को शैवदर्शन की दीक्षा देते हैं, इन बातों का एक उदाहरणात्मक प्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है। वाराणसी में रहने वाले और वहाँ के सरकारी संस्कृत कालेज में पढ़ने वाले श्री वैद्यनाथ वरकले नाम के एक युवा छात्र को एक बार अपने विद्याभ्यास के क्रम में एक भारी अड़चन सामने उपस्थित हो गयी। उन्हें उपनयन उत्सव पर अपने पिता श्री कृष्णशास्त्री वरकले से श्रीविद्या के रहस्यमन्त्र की दीक्षा मिली थी और उनकी इष्ट देवी तदनुसार बालात्रिपुरा थी। तो उस अड़चन से पार जा निकलने की अभिलाषा से उन्होंने उनकी ही शरण ले ली। तदनुसार महामुनि दुर्वासा द्वारा निर्मित त्रिपुरामहिम्नस्तोत्र के द्वारा अपनी इष्ट देवी की आराधना करने लगे। चालीस दिन के उस प्रयोग के पूरा हो चुकते ही अर्धरात्रि के समय में महामुनि दुर्वासा ने साक्षात् दर्शन देकर उन्हें शाम्भवी मुद्रा के समेत उत्कृष्टतर शाम्भव योग की सांगोपांग विधि समझा दी। इस तरह से शाम्भवी योग-दीक्षा देते हुए उनसे महामुनि ने कहा कि आपको और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है। आपके सभी प्रयोजन इस योग-प्रक्रिया के अभ्यास से ही सिद्ध हो जायेंगे। ब्रह्मचारी वैद्यनाथ जी ने इस योगविधि को भलीभांति सीखकर पूछा कि आप कौन महानुभाव है ? इस पर गुरुदेव बोले कि तुम जिस स्तोत्र का पाठ प्रतिदिन करते रहे, उसका ऋषि मैं हूँ। इतनी बात बताकर महामुनि अदृश्य हो गए। उस योग के अभ्यास से श्री वैद्यनाथ जी बरकले के सामने उपस्थित हुई अड़चन आश्चर्यजनक ढंग से दूर होती रही और वे शानदार ढंग से परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए। जब ऐसा फल उन्हें शाम्भवी योग-विद्या के अभ्यास से प्राप्त हो गया, तो उन्होंने बड़े शौक से उस विद्या का नित्य अभ्यास आरम्भ कर दिया। नियमपूर्वक किये गये उस अभ्यास के फलस्वरूप उन्हें उस शैवदर्शन के सिद्धान्तों का साक्षात् अनुभव होता गया, जिसे काश्मीर शैवदर्शन कहा जाता है। उस अनुभव से सन्तुष्ट होते हुए उन्होंने परमशिवस्तोत्र का निर्माण किया। उस स्तोत्र के द्वारा उन्होंने बत्तीस तत्त्वों के रूप में प्रकट होते हुए भगवान् शिव को बार-बार प्रणाम निवेदन किया है। यह बात किमान काश्मीर शैवदर्शन २५१ संस्कृत कालेज के प्रिंसिपल उस समय महामहोपाध्याय श्री गोपीनाथ कविराज जी थे। वे वैद्यनाथ जी की योग्यता पर रीझकर उनसे बहुत सन्तुष्ट रहा करते थे। एक दिन पुस्तकालय से सटीक परमार्थसार को निकलवा कर उन्हें पढ़ने को दे दिया। उन्होंने वीरेश्वर शास्त्री के पास जाकर उस ग्रन्थ को पढ़ाने की प्रार्थना की। शास्त्री जी ने आदेश दिया कि आप इसे दो बार स्वयं पढ़ लो। फिर यदि कहीं संशय रह जाय तो मेरे पास आ जाओ। मैं उस संशय को दूर कर दूंगा। ऐसा उपदेश सुनने पर उन्होंने उस ग्रन्थ को पढ़कर भोजकृत तत्त्वप्रकाश को और तदनन्तर महार्थमंजरीपरिमल को पढ़ा। उन्हें ये ग्रन्थ अनायास ही समझ में आते गए। साथ ही उन्हें अपनी योगज अनुभूतियों की यथार्थता पर विश्वास हो गया। तदनन्तर शास्त्री परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्हें कविराज जी ने सरस्वती भवन पुस्तकालय में रिसर्च स्कालर के रूप में नियुक्त किया। कुछ ही समय तक वहाँ काम करते हुए ही उन्होंने घर को, वाराणसी को और सरस्वती भवन पुस्तकालय को छोड़ दिया और परिव्राजक बन गये। घूमते-घूमते वे कश्मीर आ गए। यहाँ उन्हें आचार्य उत्पलदेव और आचार्य अभिनवगुप्त के ग्रन्थों को पढ़ने का जो अवसर मिला, तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि इन ग्रन्थों वाला विज्ञान और उनकी पूर्वोक्त अनुभूतियों वाला विज्ञान दोनों एक हैं। कश्मीर में रहते हुए उन्होंने ‘आत्मविलास’ नामक ग्रन्थ का निर्माण किया। कश्मीर से वापिस लौट जाने पर नालागढ़ पंजाब में उन्होंने अपने प्रेमी लोगों को ‘आत्मविलास’ की कारिकाओं पर हिन्दी भाषा में व्याख्यान सुना दिये। उन व्याख्यानों को शीघ्र लिपि के द्वारा साथ-साथ लिखा भी गया। हत्या व तदनन्तर सन् १६३६ में अमृतसर में उस व्याख्यान का प्रकाशन ‘आत्मविलास सुन्दरी’ इस नाम से हुआ। आगे आने वाले कुम्भ पर्व पर उस ग्रन्थ को हरिद्वार में विद्वानों को बाँटा गया। उस ग्रन्थ में परमतत्त्व की स्वभावभूत परमेश्वरता को विविध ढंग से प्रमाणित करते हुए अद्वैत वेदान्त के विवर्तवाद की आलोचना की गयी थी। उस बात पर बडे-बडे विद्वान साध संन्यासी पण्डित बहत बिगड गये। काफी विवाद के पश्चात यह निश्चय ठहरा कि स्वामी करपात्री जी यथार्थ निर्णय देवें। स्वामी जी ने तीन दिन का समय मांगा और सारे ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़कर तीसरे दिन यह निर्णय सुना दिया कि यह आत्म-विलास नामक ग्रन्थ सच्चे औपनिषद वेदान्त का प्रतिपादन यथार्थतया कर रहा है। इसमें कोई भी बात ऐसी नहीं मिली, जो औपनिषद विद्या के विरुद्ध हो। शास्त्री जी ने इस ग्रन्थ का प्रकाशन अपने कल्पित नाम आचार्य अमृतवाग्भव से किया था। वे परिव्राजक रूप में इसी नाम से प्रसिद्ध थे। अपने घर के नाम को वे छिपाए ही रखते थे। आगे इसी नाम से उनके कई एक दर्शन ग्रन्थ छपे। वे हैं- विंशतिकाशास्त्र, सिद्धमहारहस्य, मन्दाक्रान्ता स्तोत्र, महानुभवशक्तिस्तव, परशुरामस्तोत्र, सञ्जीवनीदर्शन, परमशिवस्तोत्र इत्यादि। उनके अनुयायी उनके उस परम अद्वैत दर्शन सिद्धान्त को अभिनव शैव-दर्शन कहा करते हैं। उनके विचारों में विशेष नवीनता यह है कि वे जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के प्रति २५२ तन्त्रागम-खण्ड उदासीनता का प्रचार नहीं करते रहे, विशेष कर राजनैतिक समस्याओं के विषय में। तदनुसार उन्होंने ‘राष्ट्रालोक’ नामक पुस्तिका का निर्माण करके उसे सन् १९३३-३४ में प्रकाशित किया। तदनन्तर ‘संक्रान्ति पंचदशी’ को १६७० में प्रकाशित किया। राष्ट्रालोक पर उनके द्वारा रचा हुआ राष्ट्रसंजीवन नाम का संस्कृत भाष्य जयपुर में छप रहा है। राजनैतिक परिस्थितियों के विषय में उपेक्षा न करने का उनका सिद्धान्त भगवान् श्रीकृष्ण के उस सिद्धान्त से मिलता है, जिसको भगवान् ने आजीवन निभाया था। वे कहते थे कि व्यावहारिक स्वातन्त्र्य को प्राप्त करते हुए ही पारमार्थिक स्वातन्त्र्य को प्राप्त करने के लिए यत्न किये जाने चाहिए। ईशावास्य-उपनिषद् में भी विद्या और अविद्या के विषय में ऐसा ही कहा गया है। उनके कई एक ग्रन्थ संस्कृत या हिन्दी टीकाओं सहित प्रकाशित हो चुके हैं। कोई ग्रन्थ सोलन से, कोई भरतपुर से और कोई जम्मू से प्रकाशित हुआ। इस समय ‘आत्मविलासविमर्शिनी’ जम्मू से छप गई है। सन् १९८२ में उनका मानव-शरीर दिल्ली में छूट गया और हरिद्वार में उसे गंगा जी को समर्पित किया गया। उनका पुस्तकसंग्रह जयपुर में है और प्रकाशित पुस्तकों का भण्डार वहाँ भी है, दिल्ली में भी है और कुछ जम्मू में भी है। F- काश्मीर शैवदर्शन के प्रमुख ग्रन्थों का निर्माण कुछ तो कश्मीर मण्डल के मूल निवासी ब्राह्मणों के द्वारा हुआ, जो प्रायः भट्ट उपनाम से प्रसिद्ध थे। आजकल भी वे भट्ट ही कहलाते हैं। परन्तु कुछ एक प्रधान ग्रन्थकार उन ब्राह्मणों के वंशज थे, जो कुछ समय पूर्व, सम्भवतः ललितादित्य के शासनकाल में, अन्य प्रान्तों से आकर कश्मीर में बसकर कश्मीरी ही हो गये थे। तदनुसार आचार्य सोमानन्द के पूर्वज कैलास के प्रदेश से, आचार्य उत्पलदेव के लाट देश (गुजरात) से और आचार्य अभिनवगुप्त के कन्नौज से आए थे। भट्ट कल्लट, भट्ट प्रद्युम्न, भट्ट नारायण, भट्ट भास्कर, भट्ट भूतिराज, भट्टेन्दुराज (अभिनवगुप्त के दो गुरु) तथा जिनके नाम का उत्तर भाग ‘राज’ या ‘कण्ठ’ है, वे सभी प्रायः कश्मीर के मूल निवासी ही थे, केवल मधुराज और वरदराज को छोड़कर। उनमें से भी कण्ठ उपनाम वाले रामकण्ठ के पूर्वज कभी मिथिला से आये थे। नाथ उपनाम वाले भी प्रायः कश्मीर के मूल निवासी ही थे. जैसे वातलनाथ. चक्रपाणिनाथ इत्यादि. यद्यपि नाथ सम्प्रदाय के गरु भारत भर में विद्यमान थे। इनमें से सभी प्रमुख आचार्यों के ग्रन्थों और सिद्धान्तों का वर्णन करते हुए उनका संक्षिप्त इतिहास भी पीछे दिया जा चुका है। उसमें से जो शेष रह जाता है, वह इन अगले पृष्ठों में दिया जा रहा है।
इतिहास शेष
भट्ट कल्लट के विषय में यह कहना शेष रह गया है कि उनके पुत्र का नाम भट्ट मुकुल था, जिसने अभिधावृत्तिमातृका का निर्माण किया है। आचार्य सोमानन्द के विषय में और कुछ कहना शेष नहीं रह गया है। आचार्य उत्पलदेव की माता का नाम वागीश्वरी देवी था। उनके पिता का नाम उदयाकर था। विभ्रमाकर उनका पुत्र था और पद्मानन्द काश्मीर शैवदर्शन २५३ उनका एक सहपाठी था। आचार्य मूलतः लाट, अर्थात् गुजराती थे। श्रीनगर में वृद्ध विद्वानों में प्रचलित परम्परा के अनुसार उनका निवास स्थान नगर के उत्तरी छोर पर उस भाग में था, जिसे ‘जोतपुर’ (गुप्तपुर) कहा जाता है। * आचार्य अभिनवगुप्त के पिता नरसिंहगुप्त जनता में ‘चुखुलक’ इस नाम से प्रसिद्ध थे। बहुत सम्भव है कि शैशव में घर के लोग ही उन्हें चुखुलक कहा करते रहे हो और पश्चात् इसी नाम से वे प्रसिद्ध हो गये हों। इनकी माता का नाम विमलकला था और दादा का वराहगुप्त। मनोरथगुप्त इनका छोटा भाई था और कर्ण तथा मन्द्र इनके दो प्रिय शिष्य थे। इनके पाँच चचेरे भाई थे- क्षेमगुप्त, उत्पलगुप्त, द्वितीय अभिनवगुप्त, चक्रगुप्त और पदमगप्त। महिला शिष्याओं में से उन्होंने वत्सलिका और अम्बा. इन दो के गणों की बडी प्रशंसा की है। लुम्पक नाम का शिष्य उनकी सेवा किया करता था। इनके शैशवकाल में ही इनकी माता का देहान्त हो चुका था। उन्होंने विवाह नहीं किया था, अतः लड़का-लड़की आदि उनके कोई नहीं थे। लक्ष्मणगुप्त से उन्होंने प्रत्यभिज्ञादर्शन को सीखा था। भट्ट भूतिराज उनके पिता नरसिंहगुप्त के गुरु थे। आचार्य अभिनवगुप्त ने भी उनसे ब्राह्मी विद्या आदि रहस्यमय विषयों को सीखा था। काश्मीर शैवदर्शन की चारों ही मठिकाओं के गरुओं से उन मठिकाओं की रहस्य-विद्याओं को उन्होंने प्राप्त किया था। इन्होंने कई एक अन्य गुरुओं के प्रति भी आभार प्रकट किया है। सबसे अधिक आभार उन्होंने जालन्धर पीठ (कांगड़ा) में स्थित अर्धत्र्यम्बक मठिका के प्रधान गुरु आचार्य शम्भुनाथ के प्रति बहुत बार प्रकट किया है। क हा । गई इनके प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के गुरु लक्ष्मणगुप्त को वर्तमान युग के कई एक शोध विद्वान् आचार्य उत्पलदेव का पुत्र और आचार्य सोमानन्द का पौत्र ठहराते हैं। वैसा भ्रम उन्हें आचार्य महोदय के इन शब्दों से हुआ है- “सोमानन्दात्मजोत्पलजलक्ष्मणगुप्तनाथाः" (तन्त्रा. ३७.६१)। परन्तु इस विषय में ध्यान देने योग्य एक बात यह है कि शिव-गुरु जिस शिष्य को ‘पुत्रक दीक्षा’ दे देवे, तो उस शिष्य को उनका पुत्र माना जाता है, ऐसा त्रिकाचार की साधना का एक नियम है। तदनुसार आचार्य सोमानन्द ने आचार्य उत्पलदेव को और उन्होंने आचार्य लक्ष्मणगुप्त को पुत्रकदीक्षा के द्वारा अपना पुत्र बनाया था। केवल इसी बात की ओर उक्त स्थल पर संकेत किया गया है। आचार्य अभिनवगुप्त त्रिक और कौल दोनों ही आचारों की साधना में प्रवीण थे, ऐसा ‘गुरुनाथपरामर्श’ के उन पद्यों से स्पष्ट होता है, जिनमें उनकी दो दूतियों का और शिवरस से भरे पानपात्र का वर्णन किया गया है। कौल प्रक्रिया में प्रवीण होने के नाते ही उन्होंने तन्त्रालोक के उन्तीसवें आहिनक में उस साधना का निरूपण रहस्यात्मक शैली में बड़े ही विस्तार से किया है। कौल साधना बड़ी मधुर है, सद्यः सिद्धिप्रद है और भुक्ति-मुक्ति दोनों ही को एक साथ देती है। इसी कारण से भट्ट कल्लट और उत्पलदेव भी उसका अभ्यास करते रहे। शाक्तोपाय की क्रमनय नामक साधना में भी वे प्रवीण थे। उन्होंने अन्य मठिकाओं की तथा जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि सम्प्रदायों की साधना का भी विधिपूर्वक अभ्यास किया था, क्योंकि वे पूरी तरह से सकलशास्त्रनिष्णात २५४ तन्त्रागम-खण्ड बनना चाहते भी थे और बन भी गये। उनका निवास स्थान सम्भवतः (गोतपुर) गुप्तपुर में ही था। वैसे उनका घनिष्ठ सम्बन्ध कई एक अन्य स्थानों के साथ भी रहा होगा; जैसे गुप्तगंगा और गुप्ततीर्थ (गोपी तीर्थ) जैसे स्थान, जो डल झील के पूर्वीय तट पर विद्यमान हैं। आचार्य महोदय सौन्दर्यशास्त्र के भी मर्मज्ञ थे, यह बात उनके अभिनव-भारती नाम के नाट्यशास्त्र-भाष्य और ध्वन्यालोकलोचन से विदित होती है। आचार्य महोदय ने भगवद्गीता पर एक गीतार्थसंग्रह नाम की संक्षिप्त टीका का भी निर्माण किया है। काश्मीर शैवदर्शन के विशेषतया प्रमुख आचार्य पाँच ही गुरु हैं और वे हैं—वसुगुप्त, भट्ट कल्लट, सोमानन्द, उत्पलदेव और अभिनवगुप्त। “यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" न्याय से शास्त्रीय व्यवहार में आचार्य अभिनवगुप्त का प्राधान्य सबसे अधिक है। __ अन्य ग्रन्थकारों में से जो-जो प्रसिद्ध हैं, उनमें से प्राचीन ग्रन्थकार ये हैं स्तवचिन्तामणि के निर्माता भट्टनारायण, तत्त्वगर्भस्तोत्र के रचयिता भट्ट प्रद्युम्न और स्पन्दविवृति के निर्माता श्री रामकण्ठ। श्रीरामकण्ठ ने भगवद्गीता पर एक विस्तृत टीका का भी निर्माण किया है। इसमें, आचार्य अभिनवगुप्त के गीतार्थसंग्रह में तथा वैष्णव गुरु भगवद्भास्कर के गीताभाष्य में भगवद्गीता के उसी मूल पाठ का अनुसरण किया गया है, जो महाभारत की काश्मीर शाखा में प्राचीन काल से पन्द्रहवीं शताब्दी तक प्रचलित था। उस शताब्दी के उत्तराधे में जब कश्मीर से पचास वर्ष पूर्व भागे हुए जिन ब्राह्मणों को सुल्तान जैनुलाबदीन ने वापिस बुलाकर पुनः उसी देश में बसाया, वे लोग ही भगवद्गीता के दाक्षिणात्य पाठ को कश्मीर ले आये। तब से वहाँ की जनता में दाक्षिणात्य पाठ ही चल रहा है और उत्तरीय पाठ को जनता भूल गयी है। वह पाठ इन उपर्युक्त तीन टीकाओं से ही उपलब्ध हो रहा है। अनेकों ही स्थानों पर वह पाठ अधिक उपयुक्त प्रतीत हो रहा है। अस्तु. शैवदर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में से एक आदिनाथकृत अनुत्तरप्रकाशपञ्चाशिका भी मिल रही है। इसमें मातृकासाधना का उपदेश किया गया है और स्पन्दसिद्धान्त का भी कई बार उल्लेख इसमें मिलता है। परन्तु इन बातों के विषय में अभी स्पष्टतया कुछ कहा नहीं जा सकता है कि ये आदिनाथ कौन थे, कब थे और कहाँ रहते थे। नाथ सम्प्रदाय के सिद्धों और ग्रन्थों का परिचय पीछे दिया गया है। आचार्य क्षेमराज का तथा उनके ग्रन्थों और टीकाओं का परिचय भी पीछे दिया गया है। वे या तो विजयेश्वर (विजबिहारा) नाम के पत्तन में रहते थे. अथवा रहते श्रीनगर में ही थे, केवल स्तवचिन्तामणि की टीका का निर्माण उन्होंने विजयेश्वर में किया था। जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है, आचार्य अभिनवगुप्त के शिष्यों में से ये ही एक ऐसे थे, जिन्होंने ग्रन्थलेखन का काम पर्याप्त मात्रा में किया, यद्यपि कुछ नई उलझनों को भी खड़ा कर दिया। उनके शिष्य योगराज ने परमार्थसार की टीका के अन्त में अपने आपको वितस्तापुरी का निवासी बताया है। तदनुसार वे उस गाँव में रहते रहे होंगे, जिसको आजकल ‘बेधवोतुर’ कहा जाता है। अन्य-अन्य ग्रन्थकारों का तथा अन्य प्रान्तों के निवासी आचार्यों का यथासम्भव परिचय पीछे दिया जा चुका है और आधुनिक युग के ग्रन्थकारों का भी। अब हम काश्मीर शैव दर्शन का संक्षिप्त परिचय देना चाहते हैं।काश्मीर शैवदर्शन २५५ या
काश्मीर शैव दर्शन
भारत के सुविशाल दर्शन विषयक वाङ्मय को दृष्टि में रखते हुए इस काश्मीर शैव दर्शन के कई एक प्रमुख सिद्धान्तों का संक्षिप्त सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। आध्यात्मिक दर्शन विद्या की मुख्य समस्या है—मानव जीवन की तथा इस संसार की व्याख्या, अर्थात् यह संसार कैसे बना? क्यों बना? इसे किसने बनाया? इत्यादि। तथा मानव-जीवन का लक्ष्य क्या है? और इस लक्ष्य की प्राप्ति का उपाय क्या है? संसार की कर्मफल-भोग की परम्परा को और पुनर्जन्म को हमारे सभी आस्तिक दर्शनों ने मान लिया है कि ये सब अनादि-अनादि काल से चल रहे हैं। _मीमांसा-शास्त्र ने संसार को नित्य बताया और वैदिक कर्मकलाप के द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति को जीवन का परम लक्ष्य ठहराया। न्याय-वैशेषिक ने संसार को कारुणिक ईश्वर के द्वारा परमाणुओं से जीवों के हित के लिए बनाया हुआ बताते हुए अपवर्ग-प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य ठहराया। अपवर्ग का तात्पर्य है कर्मों के प्रति प्रवृत्ति का त्याग, दुःखों से मोक्ष, कर्मों का अन्त । जीवन की ऐसी सफलता उस उपवर्ग का उपाय है। ज्ञान, वैराग्य, योग आदि उसके सहायक हैं। सांख्य-योग दर्शन ने परमाणुओं के भी मूल कारण के रूप में मूल प्रकृति को खोज निकाला और जीवन का लक्ष्य बताया कैवल्य को। कैवल्य जीव की वह स्थिति है, जिसमें इन्द्रियों और अन्तःकरणों के समेत मूल प्रकृति पुरुष को छोड़कर उसे अकेला ही छोड़ देती है, “केवलस्य भावः कैवल्यम्” योग दर्शन के अष्टांग योग की साधना को उसका उपाय बताया। विज्ञानवादी बौद्ध इस कैवल्य से भी आगे बढ़ गये। उन्होंने यह घोषणा की कि ब्राह्य जगत् स्वप्नसंसार की तरह केवल भासता ही है, वस्तुतः है नहीं। इसका यह मिथ्या आभास क्षणिक विज्ञान की परम्पराओं को होता रहता है और होता है प्राक्तन अनुभूतियों के संस्कारों से। उन संस्कारों की तथा इस विज्ञान की सभी परम्पराएं अनादि काल से चली आ रही हैं। भिक्षुधर्म की साधना से तथा विज्ञानवाद के सिद्धान्तों के संस्कारों को चित्त में गहराई तक ले जाने से शरीर के छूट जाने पर शुद्ध विज्ञान-परम्परा पुनः नये शरीर को धारण नहीं करती। शुद्ध विज्ञान की ऐसी स्थिति को पा जाना ही जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य है। शून्यवादी बौद्धों ने कहा है कि उस स्थिति में उस परम्परा को ‘विज्ञान’ यह नाम भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि विज्ञान उसी को कहते हैं, जो किसी विषय को या किन्ही विषयों को जान लेता हो। उस स्थिति में विषय-ज्ञान कोई होता नहीं। अतः वह स्थिति कोई ऐसी अनिर्वचनीय अवस्था होती है, जो प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय इस त्रिपुटी से शून्य होती है। अतः उसे वसुबन्धु और असंग जैसे प्राचीन गुरुओं ने इसी दृष्टि से ‘शून्य’ यह नाम दिया। पश्चात् उस परम्परा के लोगों ने उसे अभावात्मक शून्य कहा। उस दशा को बौद्धों ने निर्वाण कहा। निर्वाण का अर्थ होता है बुझ जाना। प्राक्तन संस्कारों के प्रभाव से लगातार चलती रहती हई क्षण-क्षण में नये-नये विकल्प-ज्ञानों की ज्योति की परम्परा इस निर्वाण की अवस्था में बुझ ही जाती है। या काश्मीर शैवदर्शन की दृष्टि में अपवर्ग, कैवल्य और निर्वाण नाम की ये तीनों ही अवस्थाएं सुषुप्ति दशा के सूक्ष्म-सूक्ष्मतर प्रकार हैं। इन्हें वास्तविक मुक्ति नहीं माना जा २५६ तन्त्रागम-खण्ड सकता। ऐसी मुक्ति में विश्राम लेते हुए सुषुप्त प्राणी उस समय पुनः जग पड़ते हैं, जिस समय श्रीकण्ठनाथ शिव नवीन सृष्टि करने के लिए मूल प्रकृति को प्रक्षुब्ध करके उसमें नया गुणवैषम्य प्रकट करते हैं। शैवदर्शन में ऐसे प्राणियों को प्रलयाकल नाम दिया गया है। इन प्राणियों को बद्ध जीवों में ही गिना जाता है। । अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में उपनिषदों के श्रवण, मनन और निदिध्यासन नाम के उपायों से तथा शम, दम, तितिक्षा, मुमुक्षा, विरक्ति, विवेक आदि साधनों की सहायता से प्राणी को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि वह एकमात्र शुद्ध चैतन्य है, जो सत् है, चित् है और आनन्द है; परन्तु उसे अपनी पारमेश्वरी शक्ति का साक्षात्कार नहीं होता। इसी कारण अद्वैत वेदान्तियों ने ईश्वर की ईश्वरता को ब्रह्म का वास्तविक स्वभाव न मानकर उसे माया नाम की उपाधि के कारण केवल प्रातिभासिकतया ही प्रकाशित होता हुआ माना है। अद्वैत वेदान्तियों के द्वारा ठहराई हुई इस शुद्ध सच्चिदानन्दमयी और ऐश्वर्यहीन स्थिति को शैवी दृष्टि से सुषुप्ति की उस सूक्ष्मतर स्थिति में गिना जा सकता है, जिसमें तुर्या दशा का ऐसा उन्मेष मात्र हुआ करता है, जिससे भावात्मक आनन्दयमता का अनुभव होता रहता है। उस स्थिति में ठहरे प्राणियों को शैवदर्शन में विज्ञानाकल नाम दिया गया है। सांसारिक बद्ध जीव सकल कहलाते हैं।
प्रतिबिम्बन्याय
कश्मीर के शैवों की दार्शनिक दृष्टि के अनुसार केवल परमशिव, अर्थात् उपनिषदों का परब्रह्म ही एकमात्र परमार्थ सत्य तत्त्व है। वह सर्वशक्तिमान् है उसके भीतर उसकी शक्ति के रूप में सारे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड विद्यमान रहते हैं। वह परम शिव अनन्त और परिपूर्ण चित् (चैतन्य) है। उस पारमेश्वरी चित् का अपना स्वभाव आनन्द है। उस आनन्द के प्रभाव से जब वह चित्-शक्ति झूमने लगती है, तो आनन्द लीला के रूप को धारण करता है। उस लीलात्मक स्वभाव की अभिव्यक्ति के अभिनय के भीतर वह परमशिव अपनी स्वभावभूत अन्तर्मुख शक्तियों के प्रतिबिम्बों को अपने ही चित्-प्रकाश के भीतर जब बहिर्मुखतया आभासित करता है, तो सदाशिव से लेकर पृथ्वी तक के तत्त्वों की सृष्टि का आभास हो जाता है। इस तरह समस्त ब्रह्माण्ड तथा इसमें होने वाले सृष्टि-संहार आदि सबके सब परमेश्वर की शक्तियों के बहिर्मुखी आभास हैं, जो प्रतिबिम्ब के न्याय से आभासित होते रहते हैं। उन पारमेश्वरी शक्तियों के इस विचित्र आभास के होते रहने पर भी परमेश्वर में कोई विकार नहीं आता, जैसे दर्पण में मुख के प्रतिबिम्बित होते रहने पर भी मुख और दर्पण विकाररहित ही बने रहते हैं। इस तरह से परमेश्वर सृष्टि-संहार आदि का तथा अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का आभास करता रहता हुआ भी सदैव निर्विकार ही बना रहता है। इस तरह सृष्टि परिणामन्याय से न होती हुई प्रतिबिम्बन्याय से ही हुआ करती है तथा यह अपने स्वभावभूत परम आनन्द शक्ति का बहिर्मुख आभास है।
लीला (निग्रहानुग्रह)
परमेश्वर परिपूर्ण, शुद्ध तथा असीम चेतना या चित् है। उस चित् का स्वभाव आनन्द है। वह सदैव स्पन्दमान होता हुआ अपने स्वभाव से ही क्रीडनशील होता है। अतः काश्मीर शैवदर्शन २५७ प्रतिबिम्बात्मक सृष्टि-संहार आदि की ऐसी लीलाएं परमेश्वर के अपरिमित चिदानन्द में सदैव चलती रहती हैं। इनका इस तरह से चलते रहना ही परमेश्वर की परमेश्वरता है। आत्मस्वरूप जगत् को अपने से भिन्नरूपतया तथा अभेद को भी भेदरूपतया आभासित करने वाली माया भी उस परमेश्वर की ही एक शक्ति है। बन्धन भी और मोक्ष भी उसी की लीलाएं हैं। सब कुछ वही है। अद्वैत शैवदर्शन के उपासनाशील विशेषज्ञ संसार की प्रत्येक वस्तु को शिवरूपतया अनुभव में लाते हैं। परमेश्वर ही अपने आपको नटवत् बद्ध जीवों के रूप में प्रकट करता हुआ बन्धन-लीला का स्वयं अभिनय मात्र करता है और वही योग, ज्ञान और भक्ति के समन्वित उपासना मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ मोक्ष-लीला का अनुभव करता है। बन्धन का आभास प्रभु की निग्रह-लीला है और मोक्ष प्राप्ति उसकी अनुग्रह-लीला का फल है।
षट्कञ्चुक
शैवदर्शन के छत्तीस तत्त्वों में से निचले पच्चीस तत्त्व तो लगभग वे ही हैं, जो सांख्यशास्त्र में बताये गये हैं। परन्तु शैवशास्त्र की गवेषणा ने आगे भी ग्यारह तत्त्वों को खोजकर के प्रकट कर दिया। परमेश्वर की परा माया शक्ति, अर्थात् अभेद में भी भेद का आभास करने वाली शक्ति, मायारूपी कंचुक तत्त्व का रूप धारण करती हुई प्राणी के स्वरूप को और स्वभाव को संकुचित रूप दे देती है। तब प्राणी अणु, पशु, जीव आदि नाम पाता है। वह सर्वत्र भेद दृष्टि से ही देखने लगता है और अपने आपका विमर्शन सीमित और संकुचित प्रमाता के रूप में करता है। इस तरह से परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता अणु के भीतर, अर्थात् जीव के भीतर किंचिन्मात्रकर्तृता के रूप में प्रकट होती है। सर्वज्ञता अल्पज्ञता बन जाती है। उसे अशुद्ध विद्या कहते हैं। फिर माया उसमें संकुचित रुचि और संकुचित प्रवृत्ति के रूप में प्रकट हो जाती है; उसे राग तत्त्व नामक कंचुक कहा जाता है। काल क्रमिकता के आभास को कहते है। परमेश्वर की क्रमरहित तथा सकृद् विभात असीम नित्यता अणु में काल के रूप में प्रकट हो जाती है। परमेश्वर की स्वतन्त्रता अणु के भीतर नियति के रूप को धारण करती हुई पद-पद पर उसके व्यापारों को नियन्त्रित करती जाती है। इस प्रकार के इन छ: कंचुक तत्त्वों से घिरे हुए चिद्रूप प्राणी को पुरुष तत्त्व कहा जाता है। पुरुष का प्रमेय तत्त्व ही मूल प्रकृति कहलाता है। पुरुष ‘अहं’ इस रूप में चमकता है और अपने उस सामान्य प्रमेय तत्त्व को ‘इदं’ इस रूप में देखता है।
शुद्धतत्त्व
परमशिव परिपूर्ण चैतन्य को कहते है और वह चैतन्य अपने स्वभाव से ही परमेश्वर है। उसकी परमेश्वरता की लीला का जो अभिनय सदैव होता रहता है, उसके भीतर ही विद्वज्जन उसका दर्शन और विमर्शन दो रूपों में किया करते हैं। तदनुसार वे एकमात्र असीम और परिपूर्ण तथा विश्वोत्तीर्ण चिदानन्दघन रूप में उसका साक्षात्कार करते हैं, उस रूप में उसे शिव कहते हैं। साथ ही वे समस्त विश्व के रूप में तथा इस विश्वमयी लीला के रूप में भी उसी का साक्षात्कार करते हैं, इस रूप में उसे शक्ति कहा करते हैं। २५८ तन्त्रागम-खण्ड है इस तरह से एक ही परमशिव एक ओर से शिवतत्त्व है और दूसरी ओर से शक्तितत्त्व है। बहिर्मुख सृष्टि के आरम्भ में पहले पहल परिपूर्ण अहंरूप शुद्ध चैतन्य के भीतर प्रमेयात्मक इदं का आभासमात्र होने लगता है। उस स्थिति में उसे सदाशिव तत्त्व कहा जाता है। आगे जब वह इदं इतना स्फुट हो जाता है कि अहं अंश की चमक को धीमा कर देता है, तो उस स्थिति में वह ईश्वर तत्त्व कहलाता है। इन दो स्थितियों में ठहरने वाले प्रमाता क्रमशः मन्त्रमहेश्वर और मन्त्रेश्वर कहलाते हैं। मन्त्रमहेश्वर अपने आपका ‘अहम् इदम्’ इस तरह से विमर्श करते हैं और मन्त्रेश्वर ‘इदम् अहम्’ इस तरह से। इन दोनों ही स्तरों के प्राणियों की इस भेदाभेदमयी दृष्टि को शुद्धविद्या तत्त्व कहते हैं। उसी शुद्धविद्या के निचले स्तर का नाम शैवशास्त्र में महामाया है। उसकी स्थिति में ठहरे हुए प्राणी विद्येश्वर या मन्त्र प्राणी कहलाते हैं। इन्हें अपने स्वरूप के विषय में कोई हेर-फेर नहीं होता, परन्तु फिर भी प्रमेय रूप इदं को अपने से भिन्न ही समझते हैं। शिवशक्ति तत्त्वों की स्थिति में ठहरने वाले प्राणी शिव या अकल कहलाते हैं। शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर और शुद्धविद्या ये पाँच शुद्ध तत्त्व हैं। महामाया को शुद्धविद्या के भीतर ही गिना जाता है। ये पाँचों ही तत्त्व शुद्ध तत्त्व कहलाते हैं। इनकी सृष्टि स्वयं परमशिव ही करते रहते हैं। इनका संहार भी वही करते हैं। का
शुद्धाशुद्ध तत्त्व
परमेश्वर स्वयमेव एक अशुद्ध तत्त्व की भी सृष्टि करता है। वह तत्त्व माया-तत्त्व कहलाता है। परमेश्वर की उस शक्ति को परा मायाशक्ति कहा जाता है, जो अभेद में भी भेद का अवभास करा सकती है। उसी के बहिर्मुख प्रतिबिम्ब के आभास को माया-तत्त्व कहा जाता है। उपर्युक्त पाँच शुद्ध तत्त्व परमेश्वर की चित, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया नाम की पारमेश्वरी शक्तियों के बहिर्मुख प्रतिबिम्ब हैं। परमेश्वर अपनी इस लीला में माया तत्त्व के अधिष्ठाता के रूप में भगवान् अनन्तनाथ कहलाते हैं। वे मायातत्त्व में क्षोभ को उत्पन्न करके उसे पाँच कंचुकों के रूप में प्रकट कर देते हैं। वे कंचुक हैं १. कला, अर्थात् संकुचित क्रियासामर्थ्य, २. अशुद्ध विद्या, सीमित ज्ञानसामर्थ्य, ३. रागतत्त्व, प्राणी की वह सीमित रुचि और प्रवृत्ति जिसके प्रभाव से वह किसी-किसी विषय को ही जानने और करने में प्रवृत्त होता है, ४. नियति, अर्थात् नियत कार्य-कारण भाव का नियम, जिसके अधीन रहते हुए मायीय प्रमाता को पद-पद पर प्राकृतिक नियमों के अधीन ही काम करना पड़ता है और उसके ज्ञान और क्रिया शक्ति की सामर्थ्य अत्यन्त संकोच से सदा दबी ही रहती है, ५. काल, मायीय प्रमाता संकुचित होने के कारण अपनी स्थिति पर और अपनी क्रियाओं पर तथा अपने वातावरण पर सदैव क्रमिकता की कल्पना करता हुआ अपने ऊपर तथा जगत् के ऊपर काल नाम के संकोच को बढ़ाता रहता है। मैं था, मैं हूँ, मैं होऊँगा; अमुक वस्तु थी, अमुक है और अमुक होगी इत्यादि। ये पाँच तत्त्व पाँच कञ्चुक कहलाते हैं। माया स्वयं छठा कञ्चुक है। इन छ: कञ्चुकों से जब चेतना काश्मीर शैवदर्शन २५६ घेरी जाती है, तो उस घेरी हुई सीमित चेतना को पुरुष तत्त्व कहते हैं। उसका जो सीमित प्रमेय तत्त्व (इद) होता है, वह प्रकृति तत्त्व कहलाता है।
त्रिविध मल
मायीय प्रमाता की संकोचमयी दृष्टि को इस शास्त्र में आणव मल कहा जाता है। उसके प्रभाव से जीवगण शरीर, प्राण, बुद्धि और सौषुप्त शून्य को ही अपना स्वरूप समझते रहते हैं तथा अपनी परमेश्वरता को खोकर अल्पज्ञ और अल्पशक्ति बन जाते हैं। जीवों का यह भेदात्मक दृष्टिकोण ही उनका मायीय मल कहलाता है। उनके शरीर आदि के द्वारा किए जाते हुए कर्मों के विषय में मैंने यह काम किया, इस प्रकार के उनके अभिमान को और उसके संस्कार को कार्म मल कहते है। ये काश्मीर के शैवदर्शन के तीन मल है।
मोक्ष-प्राप्ति के उपाय
काश्मीर शैवदर्शन में माने गये मोक्ष-प्राप्ति के अनेकों ही उपायों में से जो उत्तरोत्तर उत्कृष्ट उपाय हैं, वे इस दर्शन में ये माने गए हैं- वेदाचार (देवयान पितृयान गति रूप) २. शैवाचार (भक्तिपूर्वक) चर्या, क्रिया और योग द्वारा शिव-पूजन, ३. वामाचार, ४. दक्षिणाचार, ५. कुलाचार, ६. कौलाचार ७. मताचार और ८. त्रिकाचार। ये सभी तान्त्रिक-साधनात्मक हैं। इनमें से कश्मीर के शैव साधक विशेषतया त्रिकाचार की साधना करते रहे। कोई विशिष्ट सामर्थ्य वाले महानुभाव कौल साधना का भी अभ्यास करते रहे, क्योंकि वह साधना त्वरित फलप्रद होती है और एक साथ भुक्ति और मुक्ति दोनों फलों को दिया करती है। जन साधारण में वह साधना इस लिए विशेष प्रचलित नहीं रही कि उसमें अल्प सामर्थ्य वाले साधक को पतन का भय रहता है। इसलिए तन्त्रालोक और तन्त्रसार में उसका निरूपण रहस्यमयी भाषा में किया गया है। त्रिक-प्रक्रिया की अनेकों साधनाओं का अभ्यास कश्मीर में अभी-अभी तक किया जाता रहा है। कौल साधना का सफल अभ्यास कई शताब्दियों से लुप्त हो गया है। केवल सारहीन परम्परा ही चलती रही। जैसा कि पीछे कहा गया है, मताचार का दिग्दर्शन कहीं भी ग्रन्थों में मिल नहीं रहा है। सम्भवतः भैरवागमों वाले मताष्टक नाम के आठ आगमों में उसका निरूपण किया गया हो। वे आगम अब कहीं मिल नहीं रहे हैं। सिकन्दर बुतकिशन के आतंकमय शासन में अनेकों ही सारस्वत निधियों का जो विनाश हो गया, उसीमें मताष्टक भी लुप्त हो गए। वाम और दक्षिण नामक आचार दक्षिण भारत में सुप्रसिद्ध है। वर्तमान युग में कांग्रेसी और भूतपूर्व अंग्रेजी शासकों के दुःशासन में कश्मीर की पुरातनी संस्कृति का जो विनाश होता रहा तथा जो इस समय हो रहा है, उसमें से क्या पता है कि कोई धार्मिक या दार्शनिक परम्परा बच कर निकल भी सकेगी। अस्तु, शिव की लीलाओं में से यह भी एक लीला है, जिसका उत्तरदायित्व उसने भारतीय नेताओं के सिर पर चढ़ा दिया।।