प्राक् मैकण्डशास्त्र ग्रन्थ
ईसापूर्व शताब्दियों में द्रविड़ भूमि में तमिल साहित्य एवं संस्कृति का विशेष विकास हुआ है, जिसमें ईश्वर-प्रत्यय, जगत् सम्बन्धी विवेचन एवं जीवन के अन्यान्य मूल्यों के प्रत्यय पाये जाते हैं। तत्कालीन साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया है - अगत्तिनई एवं पुरत्तिनई। अगत्तिनई में प्रेम-भक्ति का विशद वर्णन किया गया, जो तोलकप्पियम् में पाया जाता है। संगम साहित्य ईश्वर एवं उसकी उपासना के सन्दर्भ में विवेचन प्रस्तुत करता है। चिलप्पडिकारम् एवं मणिमेकई में तत्कालीन तमिल भूमि के धर्म के विषय में विवेचन प्रस्तुत किया गया है। कई जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में भी शिव एवं कृष्ण की उपासना का उल्लेख पाया जाता है। जैन शासक कलबों के शासनकाल में वैदिक़ मान्यताओं की पर्याप्त हानि हुई। कलब्र शासन के अन्तिम भाग में पुनः शैव सन्तों के आविर्भाव से तमिल देश में शैव धर्म की पुनः प्रतिष्ठा हुई, जिसमें शक्तिसम्पन्न ईश्वर की उपासना प्रेममय एवं करुणामय देव के रूप में की गई है। शैव सन्तों ने शिव की वन्दना में अनेक प्रेमपूर्ण स्तुतियों की रचना की, जो भक्तों के द्वारा उपासना में प्रेम-संगीत के रूप में गायी जाने लगी। इन शैव भक्तों का ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम एवं ईश्वर की करुणा से आप्लावित उनकी जीवन-कहानियाँ उस समय जैन धर्म पर शैव धर्म के पुनः प्रचार की स्थिति को स्पष्ट करती है। तमिल भूमि में शैव धर्म का यह अप्रतिहत प्रवाह बारहवीं शताब्दी तक निरन्तर प्रवाहित होता रहा, जिसके फलस्वरूप महान् शैव सन्तों, अर्थात् नयनमारों के अलौकिक जीवन वृत्तान्तों से प्रभावित तेरहवीं शताब्दी में शैव सिद्धान्त-दर्शन एवं धर्म का क्रमशः तात्त्विक एवं आध्यात्मिक विकास हुआ। दसवीं शताब्दी में नम्बी अन्दार नम्बी ने शैव-सिद्धान्त के आधारभूत शास्त्रों का संकलन एवं आकलन किया, जिसके कारण उत्तर काल में इस सिद्धान्त का पुनर्जागरण तथा उसकी पुनः प्रतिष्ठा हुई। तमिल भाषा में लिखित परम्परागत शास्त्र-आधारित प्रामाणिक कई ग्रन्थ शैव सिद्धान्त-दर्शन के आधार माने जाते हैं। ये विभिन्न सन्तों द्वारा प्रतिपादित कुछ ऐसे आध्यात्मिक एवं रहस्यात्मक अनुभवाश्रित ग्रन्थ हैं, जो समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। मक शैव-सिद्धान्त के इन प्रामाणिक ग्रन्थों में सन्त तिरुमूलर द्वारा रचित ‘तिरुमन्दिरम्’ का विशेष स्थान है, क्योंकि उक्त ग्रन्थ को आगमाश्रित बताते हुए लेखक ने स्वयं उसे शैव-सिद्धान्त के तात्त्विक, नैतिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वों के विवेचन का आधार कहा है। उक्त ग्रन्थों में सन्त तिरुमूलर द्वारा बताये गये औपनिषदिक महावाक्यों की व्याख्या वेदान्त एवं शैव-सिद्धान्त की विशिष्टताओं से युक्त है। सन्तों की महान् जीवन-कथा ‘पेरिय-पुराणम्’ में वर्णित की गयी है। उसमें यह भी उल्लेख मिलता है कि किस प्रकार सन्त तिरुमूलर दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १७३ कैलास से दक्षिण भारत आकर अनेक वर्षों पूर्व (तीन हजार साल) प्रायः तीन हजार पदों के माध्यम से शैव सिद्धान्त-दर्शन के विभिन्न तात्त्विक विषयों का आध्यात्मिक, क्रमबद्ध एवं सुसंगठित बौद्धिक विवेचन प्रस्तुत करते हैं। इन रचनाओं के माध्यम से विभिन्न तान्त्रिक एवं शैव दर्शन में उनकी विशेष व्युत्पत्ति परिलक्षित होती है। परन्तु उन्होंने कहीं भी शैव-सिद्धान्त की विशिष्ट दार्शनिक विवेचना को अन्यान्य शैव दर्शन एवं तान्त्रिक सिद्धान्तों के साथ मिश्रित नहीं किया, वरन् शैव-सिद्धान्त के दार्शनिक दृष्टिकोण को अत्यन्त स्पष्ट एवं स्वतन्त्र रूप से प्रतिष्ठित किया। म तमिल भाषा के सम्पूर्ण शैव शास्त्र को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है; स्तोत्र एवं शास्त्र। उत्तर काल के सैद्धान्तिक विकास का मूल स्रोत या आधार पूर्व काल का स्तोत्र साहित्य ही है, जो उच्च कोटि की आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त किये हुए सन्तों की वाणी है। परम्परा के अनुसार उन्हें बारह ग्रन्थों के अन्तर्गत समाहित किया गया है, जिसे ‘तिरुमुरई’ कहते हैं। तमिल भाषा में ‘मुरई’ शब्द के कई अर्थ होते हैं, जैसे वाक्य, सम्बन्ध, सदाचार, आदतें, गुण, स्तर, निवेदन, महत्ता इत्यादि। सन्त तिरुज्ञानसम्बन्दर (सातवीं शताब्दी) की रचनायें प्रथम तीन ग्रन्थों में समाहित की गई हैं। सन्त तिरुनावुक्करसर की, जिन्हें अप्पर भी कहा जाता है, महान् रचनाओं को चौथी, पाँचवीं एवं छठवीं तिरुमुरई के रूप में रखा गया है। तदनन्तर सन्त सुन्दरमूर्ति (नवीं शताब्दी) द्वारा रचित पदों का संकलन सातवीं और आठवीं तिरुमुरई में है। तिरुमुरई महान् सन्त माणिक्यवाचकर की अमर कृतियाँ मानी जाती हैं, जो तिरुवाचकम् एवं तिरुक्कोवईयार कहलाती है। नवीं तिरुमुरई नौ भक्त कवियों की कविताओं का संकलन है, जिसे तिरुवशैयप्पा-तिरुप्पलाण्डु कहा जाता है। ये नौ कवि इस प्रकार हैं- तिरुमालिकेट्टेवर, चेण्डनार, करुवूर्तेवर, वेनात्तदिगल, तिरुवालियमुदुनार, पुरुदोत्तम, नम्बी एवं चेदिरायर। दसवाँ ग्रन्थ महान् दार्शनिक सन्त तिरुमूलर का तिरुमन्दिरम् माना जाता है। ग्यारहवीं तिरुमुरई पुनः बारह भक्त कवियों की कविताओं का संकलन है, जो इस प्रकार हैं-तिरुवालवायुदैयार, करैक्कलअम्मैयार, अयैदिगल काडवरकोन, चेरामानपेरुमाल नायनार, नक्किरर, कगल्लाददेव नायनार, कपिलदेवर, पाषाणदेवर, इलम्पेरुमान अडिगल, अडिराअडिगल, पट्टिनट्टप्पिल्लैयार एवं नम्बिअण्डारनम्बी। बारहवाँ ग्रन्थ शेक्किलार द्वारा रचित ‘पेरियपुराणम्’ को माना जाता है। उक्त ग्रन्थ में तिरसठ महान् शैव सन्तों के अलौकिक, कृपा-धन्य जीवन वृत्तान्त संकलित किये गये हैं। उक्त रचना बारहवीं शताब्दी की मानी जाती है। मा अब प्रत्येक तिरुमुरई के सन्दर्भ में संक्षिप्त रूप में यह विवेचन किया जायगा कि किस प्रकार इन महान् सन्तों की रचनाओं के प्रभाव से शैव-सिद्धान्त के तत्त्व-दर्शन का विकास हुआ। उपर्युक्त रचनाओं में प्रथम आठ तिरुमुरई के रचयिता के रूप में सन्त तिरुज्ञानसम्बन्दर, सन्त तिरुनावुक्करसर, सन्त सुन्दरमूर्ति एवं सन्त माणिक्यवाचकर की महान् रचनाओं का प्रभाव शैव दर्शन में विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। वे ‘समय’ अथवा ‘समय-गुरवर’ कहे जाते हैं। इनकी रचनाओं में मुख्यतः ईश्वर की स्तुति, जीवों के प्रति १७४ तन्त्रागम-खण्ड ईश्वर की कृपा एवं ईश्वर के प्रति जीवों की प्रेम-भक्ति की अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति है। इन सन्तों का आविर्भाव उस समय हुआ था, जब तमिल भूमि अन्य धर्मों के प्रभाव से पर्याप्त प्रभावित थी। इन शैव सन्तों ने अपनी महान् रचनाओं के माध्यम से तमिल भूमि में शैव-उपासना की धारा को अत्यन्त व्यापक एवं गहन रूप से प्रवाहित किया। सन्त अप्पर के विषय में पेरियपुराण में शेक्किलार ने कहा है कि अप्पर उस सूर्य की भाँति हैं, जिसके उदय होने से सम्पूर्ण विश्व का अन्धकार दूर हो जाता है। उसी प्रकार शेक्किलार ने सन्त सुन्दरमूर्ति की महत्ता का वर्णन करते हुए बताया है कि सुन्दरमूर्ति ऐसे महान् सन्त हैं, जिनके आविर्भाव से विश्व समस्त प्रकार के अशुभों से मुक्त हो जाता है। इन सन्तों के . बारे में उक्त मन्तव्यों की सत्यता तत्कालीन तमिल भूमि की परिस्थिति के विवेचन से परिलक्षित होती है। इन महान् सन्तों ने केवल शैव धर्म का पुनर्जागरण ही नहीं किया, वरन् सम्पूर्ण समाज में आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की चेतना को व्यापक रूप से प्रवाहित किया। परम्परागत रूप से यह मान्यता है कि उक्त चार समयाचार्यों ने अपनी रचना एवं जीवन-प्रणालियों के द्वारा चार आध्यात्मिक मार्ग; सत्पुत्रमार्ग, दासमार्ग, सहमार्ग, सन्मार्ग के सार्थक दृष्टान्त को उपस्थित किया। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि उक्त चार मागों का विकास शैवागमों में प्रतिपादित चर्या, क्रिया, योग एवं ज्ञान—इन चार पादों से सम्बद्ध है। अप्पर की रचनाओं का भाव, जैसे पूजन, भजन, अर्चन एवं अन्यान्य धार्मिक आचार तथा अनुष्ठान चर्यापाद के अनुकूल हैं। सम्बन्दर का ईश्वर के प्रति पिता-पुत्र के रूप में प्रगाढ़ प्रेम, प्रार्थना एवं उपासना इत्यादि क्रियापाद के अनुकूल हैं। सुन्दरमूर्ति का ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम एवं नित्य-सम्बन्ध योगपाद को ही प्रतिष्ठित करता है। शेक्किलार द्वारा वर्णित सुन्दरमूर्ति की ईश्वर-प्रेमोन्मत्तता अत्यन्त प्रभावशाली है। माणिक्यवाचकर शास्त्र द्वारा अनुमोदित दीक्षा प्रणालियों के माध्यम से प्राप्त सत्य ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं, जो ज्ञानपाद के अनुकूल है। सन्त सम्बन्दर, अप्पर एवं सुन्दर मूर्ति द्वारा रचित सात ग्रन्थों (तिरुमुरई) को समन्वित रूप से तेवारम् कहा जाता है। उक्त सात तिरुमुरई को तेवारम् के नाम से सन्त उमापति शिवाचार्य ने सर्वप्रथम ‘कलिवेनबा’ नामक पुस्तक में अभिहित किया। चौदहवीं शताब्दी के कवि इरत्तैयर ने भी बाद में उसे तेवारम् के नाम से उल्लिखित किया। सत्रहवीं शताब्दी में एलाप्पलनावलर ने अपनी पुस्तक तिरुवरुणई क्कलम्बकम् में भी तेवारम का उल्लेख किया। तेवारम शब्द में ‘ते’ एवं ‘वारम’ इन दो शब्दों का योग है, जिसका तात्पर्य ईश्वर एवं उसकी स्तुति है। इन तेवारम् स्तुतियों को संगीत के रूप में गाया जाता है। चूंकि शिव संगीत-कला के जन्मदाता हैं, इसीलिये संगीत को शिव की उपासना का एक माध्यम माना गया है। तेवारम् स्तुतियों के माध्यम से भक्ति का प्रवाह अत्यन्त व्यापक रूप से प्रवाहित हुआ, जिसमें ईश्वर के प्रति प्रेम को ही सर्वोच्च साधन के रूप में बताया गया। प्रेम-भक्ति ही वह माध्यम है, जिससे ईश्वर की कृपा निरन्तर वर्षित होती है।दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १७५ उक्त समयाचार्यों की रचना एवं उनकी जीवन प्रणाली के माध्यम से शैव धर्म की धारा तमिल भूमि पर निरन्तर अत्यन्त व्यापकता एवं गहनता के साथ प्रवाहित होने लगी। इन आचार्यों ने अपने धार्मिक या आध्यात्मिक स्रोत को वैदिक धारा के रूप में स्वीकार किया एवं वेद की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिये उसे परमेश्वर शिव द्वारा प्रदत्त बताया। वेद का सार एवं तत्त्वार्थ ही शिव-ज्ञान है। वेद की उपासना-पद्धति को मरईबलकम् एवं वैदिकम् बताया गया। सन्त सम्बन्दर ने वैदिक उपासना का उल्लेख कई स्थानों में किया। सन्त सुन्दरमूर्ति यजुर्वेद के श्रीरुद्र का स्तवन नित्य किया करते थे। शिवभक्ति के साथ शिवमन्त्र (पंचाक्षर), रुद्राक्ष एवं विभूति इत्यादि के धारण को भी शिवसाधना के अंग के रूप में माना गया, जो आगमिक प्रभावयुक्त है, अर्थात् इन सन्त दार्शनिकों के माध्यम से वैदिक तथा आगमिक धारा का सुन्दर समन्वय हुआ। सन्त सुन्दरमूर्ति ने पंचाक्षर मन्त्र की अपार महिमा का वर्णन करते हुए बताया है कि पंचाक्षर वेद का ही सारतत्त्व है, जिसके आश्रय से शिवज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। इन महान् सन्तों ने शिव उपासना को इतना महत्त्वपूर्ण बताया है कि शिव-भक्तों को देवों से भी ऊपर स्थान दिया गया है। शिवभक्त, जो शिवकृपा से आप्लावित रहते हैं, सभी असम्भव को सम्भव कर सकते हैं। वे शिवकृपा में निमज्जित होकर शिवज्ञान एवं शिवानन्द के अनुभव में लीन रहते हैं। अतः शिवभक्तों की महिमा अपार है, जिनमें प्रभु नित्य निवास करते हैं। इसीलिये सन्त सुन्दरमूर्ति अपने को शिवभक्तों का सेवक मानते हैं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक तिरुतोण्डत्तोगई इसी महिमा का गान करती है। सन्त सुन्दरमूर्ति शिवभक्तों की महिमा का वर्णन करते समय उन्हें जाति, वर्ग, उच्च एवं नीच से परे मानते हैं। शिवभक्तों का अस्तित्व स्थान, काल, पात्र, जाति से निरपेक्ष है। इसी प्रकार शैव-दर्शन में सन्त सुन्दरमूर्ति ने अत्यन्त उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया, जो उत्तर काल में शैव सिद्धान्त-दर्शन का आधार बना। न तेवारम् के तीन रचनाकारों में सन्त तिरुज्ञानसम्बन्दर का स्थान भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। सुन्दरमूर्ति ने उन्हें अपना पथप्रदर्शक माना। सम्बन्दर ने अपनी रचना को वेदविहित देव-वाणी एवं दैव-साधन के रूप में ही माना है, अर्थात् उनकी रचनाओं का प्रतिपाद्य विषय तथा भाव वेद-विहित एवं वेद का सार मर्म है। नि अप्पर (सन्त तिरुनावुक्करसर) सम्बन्दर के ही कुछ पहले प्रायः समकालीन थे। ईश्वर की कृपा से उनका शैव धर्म में धर्मान्तरण एवं रूपान्तरण हुआ। उनकी कविताएं भावपूर्ण भक्ति की सहज अभिव्यक्तियाँ हैं। भक्त का ईश्वर के प्रति ऐसा आत्म-निवेदन विरल ही पाया जाता है। जैन धर्म से विरत होकर शैव उपासक के रूप में अप्पर की भक्तिभाव से परिपूर्ण रचनाएं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
शैव-सिद्धान्त की तत्त्व-दृष्टि
वेद एवं आगम दोनों ही परमेश्वर शिव द्वारा प्रदत्त हैं, यह शैव सिद्धान्त-दर्शन का मौलिक दृष्टिकोण है। तेवारम् ग्रन्थ के प्रणेता ने भी इसका प्रतिपादन किया है। इसी ग्रन्थ है १७६ तन्त्रागम-खण्ड में सर्वप्रथम शैव-सिद्धान्त के तीन तत्त्व—पति, पशु एवं पाश का विवेचन प्रस्तुत हुआ। पति परम तत्त्व, नित्य, शाश्वत, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सच्चिदानन्द शिव है। पश अनादि काल से आणवाधृत आत्म-तत्त्व है। आणव वह पाश है, जो अनादि काल से आत्मा की स्वाभाविक ज्ञान-सत्ता को आच्छादित करता हुआ आत्मा में ही विद्यमान रहता है। पाश त्रिरूप है- आणव, कार्म एवं मायीय। कार्म वह मल है जो आत्मा को जन्म-जन्मान्तर के बन्धन में आबद्ध कर लेता है। मायीय मल वह पाश है, जिससे आत्मा को तनु-करण-भुवन-भोग इत्यादि उपभोग की सामग्रियाँ प्राप्त होती हैं। कर्म एवं माया मल में आंशिक प्रकाशकत्व है, क्योंकि ये चित्-शक्ति के द्वारा प्रेरित होकर इस विश्व-संसार में कार्य करते हैं। ईश्वर की कृपा से अन्ततः आत्मा पाश-बन्धन से मुक्त होती है। तेवारम् के लेखक ने आणव को ही वह मल मल माना, जिससे आत्मा का चैतन्य अनादिकाल से आवत रहता है। सर्य के प्रकाश की तरह जब ईश्वरीय-चैतन्य कृपा के रूप में आत्मा पर वर्षित होता है, तब अज्ञान रूपी अन्धकार दूर होकर क्रमशः ज्ञान प्रकाशित होता रहता है। तेवारम् में अज्ञान-रूपी इस मूल मल की तुलना अन्धकार (ईरुल) से की गई है। ईश्वरीय कृपा को ही प्रकाश-स्वरूप मार्ग (ओलिनेरी) कहा गया है, अर्थात् ईश्वरीय चैतन्य से ही आत्म-चैतन्य प्रकाशित होता है एवं आत्मा को ईश्वरत्व का बोध भी होता है। इसीलिये ईश्वर को पशुपति कहा गया है। अतः उत्तर काल के शैव-सिद्धान्त दर्शन का मूल आधार तेवारम् में वर्णित तत्त्व-विचार है सी शैव-सिद्धान्त की मुख्य विशेषता इसके तीन तत्त्व की नित्यता एवं साथ ही इनके अद्वैत सम्बन्ध की मान्यता है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर अद्वितीय सर्वात्म तत्त्व है एवं आत्मा तथा विश्वप्रपंच में व्याप्त होते हुए भी विश्वातीत है। यही ईश्वर के साथ आत्मा एवं अनात्मा का अद्वैत सम्बन्ध है। इसे ही ईश्वर की स्वर वर्ण की तरह अन्य सभी वर्गों में अनस्यूत विद्यमानता माना गया है। ’ ईसापूर्व शताब्दी में रचित महान् ग्रन्थ तिरुक्कुरल में भी इसका उल्लेख पाया गया है। उत्तर काल में तेवारम् ग्रन्थ के रचयिता एवं सन्त सुन्दरमूर्ति ने भी इस उपमा की महत्ता को स्वीकार किया है। उनके अनुसार परमेश्वर शिव ही सब विषयों के आदि एवं अन्त हैं तथा अष्ट दिशाओं में विद्यमान होते हुए भी सबके परे हैं। इस प्रकार शैव.सिद्धान्त में तीनों तत्त्वों की नित्यता को मानते हुए भी ईश्वर के साथ अद्वैत सम्बन्ध स्वीकार किया गया है। ईश्वर की सर्वव्यापकता को सूचित करने के लिए उसे अष्टमूर्ति बताया गया है। वह पंचतत्त्व, सूर्य, चन्द्र तथा कर्ता-रूपी आत्म तत्त्व में व्याप्त है। इस सन्दर्भ का उल्लेख वायवीय संहिता में प्राप्त होता है, जो अद्वैत दृष्टिकोण को प्रतिपादित करती है। आठवीं तिरुमरई के रचयिता माणिक्यवाचकर ने तिरुवाचकम एवं तिरुक्कोवैयार नामक जो दो ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें परमेश्वर शिव के विश्वव्यापक एवं विश्वातीत रूपों के " १. तिरुपरुद्पयन, १.१ काशी कि हामी १७७ दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त वर्णन पाये जाते हैं। इन ग्रन्थों में माणिक्यवाचकर ने आगम प्रमाण के आधार पर ईश्वर एवं शैव-सिद्धान्त के अन्य तत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार पाश से आबद्ध होने के कारण ही आत्म-तत्त्व को पशु कहा जाता है। पाश का विमोचन होने से आत्मा शिवकृपा से शिवज्ञान को प्राप्त करती है। शिवकृपा ही शिवज्ञान को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। शिव के विश्व तथा आत्मा से ‘अनन्य-भाव’ एवं ‘विश्वातीत-भाव’ का अत्यन्त तात्पर्य पूर्ण दार्शनिक विवेचन सन्त माणिक्यवाचकर के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। उनके अनुसार बीज में तेल की तरह ईश्वर विश्वप्रपंच में सार तत्त्व के रूप में अन्तभूत रहता है। परन्तु वह विश्व में विलीन नहीं हो जाता, अपितु विश्वातीत अनन्त सत्ता के रूप में भी विद्यमान रहता है। उन्होंने ईश्वर के एकत्व एवं अद्वितीयत्व का प्रतिपादन किया। यद्यपि पाश अनादि काल से आत्मा के ज्ञान को आच्छादित करता हुआ आत्मा में स्थित रहता है, परन्तु शिवकृपा के द्वारा वह शक्तिहीन हो जाता है एवं आत्मा शिवचैतन्य से अपना तादात्म्य करती हुई शिवानन्द का अनुभव प्राप्त करती है। पाशबद्ध स्थिति में आत्मा पाश के साथ अपना तादात्म्य समझती है। ईश्वर की कृपा के बिना इस बन्धन से मुक्त होना उसके लिए कदापि सम्भव नहीं है। ईश्वर ही अपनी चैतन्य रूपी कृपा के द्वारा आत्मा के पाशबन्धन को शिथिल एवं शक्तिहीन करता हुआ उसे ईश्वरानन्द का अनुभव प्रदान करता है। आत्मा के प्रति ईश्वर का प्रकाशन ही शक्ति-निपात के रूप में वर्णित होता है। तिरुवाचकम् में माणिक्यवाचकर ने ईश्वर के प्रति आत्मा के आत्मसमर्पण के लिये उस प्रेम-भक्ति का वर्णन किया, जिसे आत्मा ईश्वर द्वारा प्रदत्त कृपाशक्ति रूपी साधन के द्वारा प्राप्त करती है। यह वास्तव में अतुलनीय है। इसे माणिक्यवाचकर ने ‘शिवमाक्की’ शब्द से अभिव्यक्त किया है, जिसका तात्पर्य शिवत्व में रूपान्तरण है। भक्ति एवं कृपा रूपी साधन शिव-शक्ति की ही अभिव्यक्ति है, जो उक्त दो धाराओं में प्रवाहित होती है। श्री जी.यू. पोप ने तिरुवाचकम ग्रन्थ को तमिल भाषियों का ‘बाईबिल’ कहा है। का परमशिव योग एवं भोग दोनों ही है। अष्ट रूपों में वह साधन एवं साध्य दोनों है। वह भक्तों के प्रति परम कृपालु है, स्वयं अनादि होते हुए भी सब विषयों के आदि, अन्त एवं शक्ति समन्वित महायोगी है। उनके अनवरत कृपा वर्षन से ही जीव माया, कर्म तथा मूल मल के पाश-बन्धन से विमुक्त हो सकता है। नवीं तिरुमुरई शैव-सिद्धान्त दर्शन के अन्तिम स्वरूप को स्पष्ट करती है। करुवूर्तेवर बन्धन एवं उसके विमोचन के सन्दर्भ में स्पष्ट विवेचन प्रस्तुत करते हैं। तिरुवालियमुदनार आत्मा के पाशयुक्त, अर्थात् माया, कर्म, आणव युक्त होने का एवं क्रमशः पाशमुक्त होते हुए निर्लिप्त योगी-स्वरूपता को प्राप्त करने का वर्णन करते हैं। उनके अनुसार शैव-सिद्धान्त शास्त्र ही मुख्य शास्त्र है। शिव ही दिन, रात्रि, सावयव, निरवयव, एकमात्र आश्रय, प्राण, वायु, पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा इत्यादि सब कुछ हैं। चेन्दनार शिव उपासना को ही एक मात्र आध्यात्मिक मार्ग के रूप में वर्णित करते हैं। शिवभक्त की महिमा को प्रतिष्ठित करते हुए अपने को उन्होंने शिवभक्तों का है १७८ तन्त्रागम-खण्डी पद-रेणु-विभूषित बताया है। तिरुमालिक्कईत्तेवर ने तिरुविषईप्पा नामक अपने ग्रन्थ में विशद रूप से शिव-कृपा का वर्णन किया। उन्होंने शिव को आत्मा से ‘अनन्य’ बताया। शिवभक्तों के आत्म-समर्पण एवं परमेश्वर शिव से उनके ‘अनन्य’ सम्बन्ध का मार्मिक विशद वर्णन ‘शिवयोगम्’ के रूप में किया गया है। तिरुमन्दिरम् (दसवीं तिरुमुरई) का विकास थोड़ा भिन्न रूप में हुआ। नवीं एवं ग्यारहवीं तिरुमुरई रहस्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति है। बारहवीं तिरुमुरई में महान् शैव सन्तों की जीवन-कथाएँ हैं, जो तात्त्विक एवं रहस्यात्मक वर्णनों से पूर्ण हैं। तिरुमूलर ने अपनी रचना को आगम प्रमाण पर आधारित माना। अपनी रचना के प्रारम्भ में उन्होंने ईश्वरप्रेरित तीस उपदेश, तीन सौ मन्त्र एवं तीन हजार पदों को लिपिबद्ध किया। तिरुमूलर वह प्रथम सिद्धान्त-शास्त्र रचयिता हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम वेद तथा आगम दोनों को ईश्वर प्रणोदित मानते हुए वेद को ‘सामान्य’ तथा आगम को ‘विशेष’ रूप से शैव सिद्धान्त का आधार-शास्त्र बताया। उत्तर काल में उनका समर्थन करते हुए सन्त अरुलनन्दी शिवाचार्य ने शैवागमों को वेदान्त का सारमर्म बताया एवं उसे शैव.सिद्धान्त के ‘विशेष’ स्रोत के रूप में प्रतिष्ठित किया। अतः यह कहा जा सकता है कि आगम-शास्त्र पूरक ग्रन्थ के रूप में वेद का ही भाष्य है। इसीलिये ये दोनों ही शैव सिद्धान्त के शास्त्रीय आधार माने जाते हैं। ‘आगम’ शब्द का व्युत्पत्तिगत तात्पर्य है ‘जिसका आगमन हुआ’, अर्थात् परमेश्वर से जिसका आविर्भाव हुआ। सन्त तिरुमूलर ने ही उक्त दर्शन को सर्वप्रथम ‘सिद्धान्त’ शब्द से अभिहित करते हुए यह बताया है कि इस दर्शन में ही पति, पशु एवं पाश के तात्त्विक स्वरूप का विवेचन सम्यक् रूप से हुआ है और इसे ही “सिद्धान्तों का सिद्धान्त” कहा जाना चाहिये। तिरुमूलर ही वह प्रथम शैव सिद्धान्त दार्शनिक हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम छत्तीस तत्त्व एवं आत्मा की तीन अवस्थाओं (केवल, सकल एवं शुद्ध) तथा पाँच पाशों (आणव, कर्म, माया, महामाया, तिरोधान) का विवेचन विशद रूप से प्रस्तुत किया है। तिरुमूलर ने तिरुमन्दिरम् में विस्तृत एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधि से शैव सिद्धान्त-दर्शन के सभी तात्त्विक पक्षों को प्रस्तुत किया, जो उत्तर काल में अन्य समयाचार्यों की रचनाओं में क्रमशः प्रति वनित होते हैं। परमेश्वर शिव द्वारा दैवी विभूतियों को प्रदत्त अट्ठाइस आगमों का विवरण तिरुमूलर ने प्रस्तुत किया है। उन अट्ठाइस आगमों में से निम्न आगमों के ऊपर उन्होंने अपना दार्शनिक विवेचन प्रस्तुत किया है— कारण, कामिक, वीर, चिन्त्य, वातुल, यामल, कालोत्तर, सुप्रभेद एवं मकुट। शैव-सिद्धान्त अट्ठाइस आगमों को ही आधार-ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करता है। तिरुमन्दिरम् नौ भागों में विभक्त है। प्रत्येक भाग को तन्त्र कहा जाता है। प्रथम तन्त्र कारणागम के ऊपर आश्रित है, जो शरीर एवं इन्द्रियों के परिवर्तनशील कालधर्मी स्वरूप को बताता है। यह सद्गुण, विनय, शिक्षा, उपदेश एवं शाकाहारी भोजन की महत्ता को स्पष्ट करता है। द्वितीय तन्त्र कामिकागम के ऊपर आधारित है, जिसमें कई पौराणिक कहानियाँ, १७६ दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त पंच-कृत्य, तीन प्रकार के जीव, विज्ञानाकल, प्रलयाकल एवं सकल इत्यादि का वर्णन है, तथा शैव-सिद्धान्त द्वारा किये गये दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्गीकरण किया गया है। तृतीय तन्त्र वीरागम पर आधारित है, जो योग के विभिन्न तत्त्वों का वर्णन करता है। चतुर्थ तन्त्र चिन्त्यागम पर आधारित है, जो मन्त्रों, उपासना एवं चक्रों के बारे में विवेचन प्रस्तुत करता है। पांचवां तन्त्र वातुलागम पर आधारित है, जो शैवदर्शन के विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत करता है एवं चार साधन प्रणाली (चर्या, क्रिया, योग एवं ज्ञान), चार प्रकार के उपासना मार्ग (सन्मार्ग, सहमार्ग, सत्पुत्रमार्ग एवं दासमार्ग), चार प्रकार की मुक्ति (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सायुज्य) एवं शक्तिनिपात के चार भेद (मन्दतर, मन्द, तीव्र, तीव्रतर) इत्यादि शैव-सिद्धान्त के विशिष्ट विषयों का विवेचन प्रस्तुत करता है। छठा तन्त्र जो यामलागम पर आधारित है, शिव-गुरु-दर्शन, ज्ञान, कृपा एवं उससे सम्बद्ध अन्यान्य विषयों का वर्णन करता है। इसमें ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान की त्रिपुटी, विभूति, भक्त इत्यादि सन्दर्भो का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। सातवां तन्त्र कालोत्तरागम के ऊपर आधारित है, इसमें छ: अध्व, छ: लिंग (अण्ड, पिण्ड, सदाशिव, आत्म, ज्ञान एवं शिवलिंग), शिवकृपा का स्वरूप, विभिन्न उपासनायें, शिव, गुरु, माहेश्वर एवं भक्त, शिव भक्तों का माहात्म्य, पशु का स्वरूप एवं पंच ज्ञानेन्द्रियों के नियन्त्रण इत्यादि विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। आठवां तन्त्र सुप्रभेद के ऊपर आधारित है। यहाँ पशु की विभिन्न अवस्थायें (जाग्रत्, स्वप्न आदि), तीन गुण (केवल, सकल, शुध), तीन तुरीय (पशु तुरीय एवं शिव तुरीय आदि) तथा ‘तत्त्वमसि’ महावाक्य की व्याख्या की गई है। नवां तथा अन्तिम तन्त्र मकुटागम के ऊपर आधारित है। इसमें गुरु, दर्शन, समाधि, पंचाक्षर (स्थूल, सूक्ष्म एवं अतिसूक्ष्म) शिव के नृत्य ज्ञान का उद्भव, शिव-स्वरूप-दर्शन, भक्त के लक्षण एवं परमेश्वर की स्तुति इत्यादि का विशद वर्णन है। इस अध्याय के एक परिच्छेद में मरईपरूटकुट के नाम से वेदों का विवेचन किया गया है। सन्त सुन्दरमूर्ति ने तिरुमूलर की महत्ता को बताते हुए उन्हें ‘हम लोगों में श्रेष्ठ’ के रूप में अभिहित किया तथा सन्त तिरुज्ञानसम्बन्दर को अपने चिन्तकों में प्रधान बतलाया। इससे यह स्पष्ट होता है कि तिरुमूलर को, जो अपनी दार्शनिक एवं रहस्यवादी रचनाओं के लिये तथा सम्बन्दर को, जो भक्ति-गीतों के लिये प्रसिद्ध हैं, सुन्दरमूर्ति ने अपना पथप्रदर्शक माना। ___ ग्यारहवीं तिरुमुरई चालीस ऐसे भक्ति-संगीतों का संकलन है, जिसमें परमेश्वर शिव एवं उनके कृत्य, भक्त एवं उसके माहात्म्य का वर्णन किया गया है। शिव ही वेद एवं आगम को प्रदान करने वाला, ब्रह्मा-विष्णु सहित सभी भुवनों की सृष्टि करने वाला, बन्धन से मोक्ष ज्ञान प्रदान करने वाला शाश्वत साध्य तत्त्व है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है एवं उसी में सम्पूर्ण सृष्टि लीन हो जाती है। इस पशुपति को स्त्रीलिंग, पुल्लिंग या नपुंसकलिंग के रूप में समझाया नहीं जा सकता। भक्त की इच्छानुसार वह कोई भी रूप एवं आकार को शामिल लोक तर के १८० तन्त्रागम-खण्ड धारण करता है। सभी की उत्पत्ति उसी से होती है। परन्तु उसकी उत्पत्ति किसी से नहीं होती। एकमात्र पंचाक्षर रूपी शिवमन्त्र ही जन्म-मृत्यु के चक्र से उद्धार कर सकता है। एकमात्र परमेश्वर शिव ही कर्म.बन्धन से मोक्ष प्रदान कर सकता है। शिव-भक्त, शिव से ‘अनन्य भाव’ से सम्बन्धित रहते हैं, इसीलिये ईश्वर सदैव भक्तों के हृदय में निवास करता है। इस सत्य को शैव-सिद्धान्त ग्रन्थों में अत्यन्त भावपूर्ण ढंग से प्रतिपादित किया गया है। ग्यारहवीं तिरुमुरई में ईश्वर और उसके भक्तों के सम्बन्ध का विशद वर्णन करते हए शैव-सिद्धान्त के सभी दार्शनिक दृष्टिकोणों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसी ग्रन्थ में पुरुष, स्त्री एवं नपुंसकलिंग में परमेश्वर का अनुस्यूत होना सूचित किया गया है। उत्तर काल में ‘शिवज्ञान-बोधम्’ के प्रथम सूत्र के रूप में इसी का प्रतिपादन हुआ है। बारहवीं तिरुमुरई ‘पेरियपुराणम्’ को कहा जाता है, जिसका मूल नाम ‘तिरुत्तोन्दरपुराणम्’ है। कवि सेक्किलार की यह रचना शैव साहित्य की एक महान् कृति है। यह तिरसठ भक्तों की अनुपम जीवनकथा है, जो विभिन्न जाति, धर्म एवं वर्गों के लोग हैं। उक्त ग्रन्थ का मूल स्रोत सुन्दरमूर्ति का तिरुत्तोन्दतोगई एवं नम्बीअन्दारनम्बी का तिरुत्तोन्दर एवं तिरुबन्दादि को कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त तिल्लईउला इत्यादि कुछ छोटे ग्रन्थ हैं, जिनमें नयनमारों (शिव-भक्तों) की जीवन-कथा पायी जाती है। पेरियपुराणम् ग्रन्थ से बारहवीं शताब्दी के तमिल भूमि का इतिहास प्राप्त होता है। इस रचना के माध्यम से सेक्किलार जैसे महान् विद्वान् कवि की साहित्यिक महत्ता, ऐतिहासिक एवं पारम्परिक ज्ञान तथा शैव-सिद्धान्त के दार्शनिक तत्त्वों का गहन ज्ञान प्रकाशित होता है। उक्त ग्रन्थ, बौद्ध दर्शन की जातक कहानियाँ तथा जैन धर्म के जीवन-चिन्तामणि की तरह शैव धर्म में शिव भक्तों की जीवन प्रणाली का वर्णन करते हुए धर्म एवं दर्शन दोनों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इस ग्रन्थ में सेक्किलार ने ‘शिव-धर्म’ एवं ‘पशु-धर्म’ के नाम से जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक दृष्टिकोण प्रदान किया है। तेवारम् के रचनाकारों की तरह सेक्किलार ने भी आणव मल को ‘इरूल’ कहकर अन्धकार से उसकी तुलना की है। उन्होंने मायेयम्, सत्कर्म, असत्कर्म एवं तीन पाशों का उल्लेख करते हुए शिवकृपा को ही सर्वोच्च एवं सर्वशक्तिमान् । कहा है, जिसके समक्ष सभी पाश शक्तिहीन हो जाते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि सेक्किलार ने महान् शिवभक्तों की जीवन-कथा एवं जीवन-दर्शन के रूप में पेरियपुराणम् नामक महाकाव्य की रचना करके शैव-सिद्धान्त धर्म एवं दर्शन को सर्वमान्य मूर्त रूप प्रदान किया। यह स्पष्ट है कि उत्तर काल के सिद्धान्त-शास्त्रों का विकास पूर्व के महान् स्तोत्र ग्रन्थों पर आधारित है, उन्हीं से वे धर्म तथा दर्शन के मौलिक दृष्टिकोण को प्राप्त करते हैं। शैव-सिद्धान्त के अनुसार शैवागम द्वारा प्रतिपादित चर्यापाद, क्रियापाद, योगपाद एवं ज्ञानपाद से सम्बद्ध सगुण ब्रह्म का विवेचन तथा वेदान्तिक एकतत्त्ववाद के प्रतिपादन में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। विश्वप्रपंच को शैव-सिद्धान्त ईश्वर की स्वाभाविक, स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करता है। यह अभिव्यक्ति जीवों के प्रति स्वाभाविक करुणा के कारण स्वतः उत्सारित होती है और इसीलिये यह अविरोधात्मक है। दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १८१
मैकण्ड शास्त्र
एक शैव-सिद्धान्त के दार्शनिक विवेचन का द्वितीय स्तर मैकण्ड शास्त्र से शुरू होता है, जो पूर्णतः अद्वैतवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन करता है। बारहवीं शताब्दी में श्रीकण्ठ द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रभाष्य शिवाद्वैतवाद का प्रतिपादक है। उसको अद्वैतवाद का मूल आधार कहा जा सकता है। इस शिवाद्वैतवाद का आधार शिवमहापुराण की वायवीयसंहिता एवं स्कन्दपुराण की सूतसंहिता को माना जा सकता है। वास्तव में श्रीकण्ठ ने औपनिषदिक सगुण ब्रह्म के अद्वैतवाद का ही प्रतिपादन किया, जो (9) अत्यन्त भेदवाद (घट एवं पट की तरह), (२) अत्यन्ताभेदवाद (रज्जु एवं सर्प की तरह), (३) अभेद भेदवाद (भिन्नता एवं अभिन्नता) से स्वतन्त्र प्रकार का है। श्रीकण्ठ, ‘देह एवं आत्मा’ की तरह अद्वैतवाद का प्रतिस्थापन करता है। श्रीकण्ठ का यह शिवाद्वैतवाद ही शैव-सिद्धान्त के अद्वैतवादी दृष्टिकोण का आधार है, ऐसा कहा जा सकता है। सोलहवीं शताब्दी में अप्पयदीक्षित द्वारा रचित श्रीकण्ठ के भाष्य पर शिवार्कमणिदीपिका नामक टीका वेदान्त एवं सिद्धान्त, अर्थात् वैदिक एवं आगमिक धारा में सामंजस्य स्थापित करने वाला एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का विशेष प्रभाव ‘शिवज्ञानबोधम्’ के प्रसिद्ध भाष्यकार शिवज्ञानयोगी पर पड़ा। का तेरहवीं शताब्दी के सन्त दार्शनिक मैकण्डदेव ‘शिवज्ञानबोधम्’ नामक प्रसिद्ध सूत्र ग्रन्थ के रचयिता हैं। इस ग्रन्थ के पूर्व आगम शास्त्र का वागीश द्वारा प्रतिपादित ‘ज्ञानामतम’ नाम का एक ग्रन्थ पाया जाता है। इस ग्रन्थ को ज्ञानावरण सिद्धान्त का एक भाग माना जाता है। शिवज्ञान योगी के अनुसार ‘ज्ञानामृतम’ पौष्कर, मगेन्द्र, मतंग इत्यादि शैवागमों के सामान्य दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। एतदतिरिक्त तिरुबुन्दियार एवं तिरुक्कलिट्टप्पदियार नामक गुरु-शिष्य द्वारा रचित परिपूरक ग्रन्थ शिवज्ञानबोधम् से पहले पाये जाते हैं। शिष्य द्वारा गुरु की रचना की उपयुक्त व्याख्या मैकण्ड-शास्त्र की विशेषता रही है। मैकण्डदेव का ति’शिवज्ञानबोधम्’ एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें शैवागमों के सामान्य दर्शन का विशेष वैयक्तिक आध्यात्मिक चेतना के साथ सामंजस्य स्थापित किया गया है। शिवज्ञानबोधम् में वैदिक एवं आगमिक सामान्य दृष्टिकोण तथा विशेष आध्यात्मिक चेतना, दोनों ही सुसम्बद्ध एवं संगतिपूर्ण रूप से स्थापित किये गये हैं। यथार्थ एवं निरपेक्ष सत्य वास्तव में एक दूसरे से पृथक नहीं, वरन् परिपूरक हैं। ‘शिवज्ञानबोधम्’ में शैवागम प्रतिपादित समस्त तथ्यों का दार्शनिक विवेचन है और इसीलिये शैव दर्शन के विकास में यह नवीन युग का सूत्रपात करता है, जिसमें आत्यन्तिक भेद एवं अभेद से भिन्न अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। उक्त दृष्टिकोण की महत्ता इसकी वैयक्तिक आध्यात्मिक चेतना में निहित है, जिसमें ज्ञानावरण एवं कर्मावरण दोनों का सामंजस्य स्थापित किया गया है। सत्य की साक्षात् अनुभूति ही वह आधार है, जिसमें सभी तथ्यों का सामंजस्य स्थापित हो जाता है। सत्य जीव के पशुत्व के परे वह स्वतःसिद्ध तथ्य है, जो स्वतन्त्र एवं निरपेक्ष रूप से प्रतिष्ठित होकर जीव को आप्लावित कर देता है। १८२ तन्त्रागम-खण्ड ज्ञानावरण का दृष्टिकोण द्वैत से अद्वैत भूमि की यात्रा है, जो आन्तरिक एवं बाह्य रूप से प्रकाशित होता है। ‘शिवज्ञानबोधम्’ का अद्वैतवाद प्रसिद्ध शैवस्तोत्र तेवारम् एवं तिरुवाचकम् के द्वारा गहन रूप से प्रभावित हुआ है। द्वितीयतः सर्वज्ञानोत्तर आगम, जो विशेषतः अद्वैतवाद का प्रतिपादन करता है, शैव-सिद्धान्त दर्शन को प्रभावित करने वाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। एतदतिरिक्त शिवाद्वैत दर्शन के स्पष्ट प्रभाव के रूप में शैव-सिद्धान्त दर्शन का क्रमिक विकास होता है। श्री उमापति शिवाचार्य, जो मैकण्ड परम्परा के चतुर्थ आचार्य हैं, शिवाद्वैत एवं शैव-सिद्धान्त की समानता को स्वीकार करते हैं। बाक शिवाय ‘शिवज्ञानबोधम्’ मात्र बारह सूत्रों का एक संक्षिप्त ग्रन्थ है, जिसके प्रथम छः सूत्र ‘सामान्य’ एवं बाद के छः सूत्र ‘विशेष’ अथवा अन्तिम माने गये हैं। ‘सामान्य’ को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम तीन सूत्रों में पति, पशु एवं पाश का तात्त्विक विवेचन, दूसरे तीन सूत्रों में उनकी परिभाषाएं वर्णित है। ‘विशेष’ में प्रथम तीन साधना एवं बाद के तीन सूत्र साधना के आध्यात्मिक परिणाम को प्रतिपादित करते हैं। अतः उक्त ग्रन्थ की रचना बादरायण सूत्र से समानता रखती हुई चार अध्याय एवं पादों में की गई है। शिवज्ञानबोधम् वह अत्यन्त मूल्यवान समन्वित सूत्र-ग्रन्थ है जिसमें वैयक्तिक आध्यात्मिक चेतना के द्वारा शैवागम में प्रतिपादित ‘सामान्य’ एवं ‘विशेष’ सिद्धान्तों के दार्शनिक, तार्किक, सुसम्बद्ध निर्णयात्मक विवेचन प्रस्तुत किये गये हैं। उक्त ग्रन्थ को वैदिक एवं आगमिक धाराओं की विभिन्नताओं का एक सार्थक समन्वय कहा जा सकता है। राष्ट्र मैकण्डदेव द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विवेचन की उपयुक्त ज्ञानात्मक एवं तात्त्विक व्याख्या उनके शिष्य श्री अरुलनन्दी शिवाचार्य द्वारा की गई है। शिवज्ञानबोधम् का ही सार्थक भाष्य शिवज्ञानसिद्धियार है जिसमें परपक्कम् एवं सुपक्कम् नामक दो भाग हैं। परपक्कम् अन्य भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों का खण्डन-पक्ष है, जबकि सुपक्कम् को शिवज्ञानबोधम् का उपयुक्त भाष्य कहा जा सकता है। शैव-सिद्धान्त दर्शन का एक अन्य प्रमुख ग्रन्थ इरुपाविरुपतु भी अरुलनन्दी शिवाचार्य द्वारा प्रतिपादित है, जिसमें मल का विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ही शैव-सिद्धान्त दर्शन में निम्नलिखित चौदह शास्त्र-ग्रन्थ माने गये हैं, जो ‘मैकण्ड-शास्त्र’ कहलाते हैं:- (१) तिरुवुन्दियार, (२) तिरुक्कलिटुप्पडियार, (३) शिवज्ञानबोधम्, (४) शिवज्ञानसिद्धियार, (५) इरुपाइिरुपदु, (६) उण्मैविलक्कम्, (७) शिवम्पिरकाशम्, (८) तिरुवरुट्पयन, (६) वीणवेनबा, (१०) पोट्रीपर्योदई, (११) कोडिक्कवि, (१२) नेविडुजुदु, (१३) उणमैनेरीविलक्कम्, (१४) संकर्पदुनिराकरणम्। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त उमापति शिवाचार्य द्वारा प्रतिपादित संस्कृत भाषा में पौष्करभाष्य, शतरत्नसंग्रह एवं शिवाग्रयोगिन् द्वारा ग्रन्थ लिपि में ‘शिवज्ञानबोधम्’ के महान् भाष्य लिखे गये हैं। दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १८३ काशैव-सिद्धान्त के अनुसार पति, पशु एवं पाश- ये तीन तत्त्व माने गये हैं एवं सृष्टितत्त्व, बन्धन तथा मोक्ष सभी परमकृपालु शिव के ही कार्य हैं। कर्म, जो दैवी प्रवृत्ति है, बन्धन एवं मोक्ष को संचालित करता हुआ परमपद को प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध होता है। ये दार्शनिक मान्यताएं ईसाई शताब्दी के पूर्वार्ध में तमिल भूमि में विद्यमान थीं। परन्तु प्रथम शताब्दी से दशवीं शताब्दी तक तमिल भाषा में निरन्तर भक्ति साहित्य के विकास से उत्तरकालीन शैव-दार्शनिक-तत्त्व एवं सिद्धान्त का विकास हुआ। पल्लव, चोल एवं पाण्ड्य साम्राज्य में शैवागमों को धार्मिक एवं दार्शनिक आधारभूत शास्त्र-ग्रन्थ के रूप में माना जाता था तथा इन शास्त्रों (ग्रन्थों) के अनुसार ही ईश्वर-शास्त्र, उपासना विधि, पूजा एवं उससे सम्बन्धित अन्यान्य धार्मिक अनुष्ठानों का विकास हुआ। इन आगमों के ही ऊपर आधारित तमिल भाषा में ‘तिरुमन्दिरम्’ लिखा गया है, जिसमें शैव दर्शन के सभी तत्त्व विशद रूप से प्रतिपादित किये गये हैं। केवल यही नहीं, इसमें वेदान्त एवं सिद्धान्त की तुलनात्मक विवेचना भी प्रस्तुत की गई है। आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित मायावादी वेदान्तदर्शन के प्रति प्रतिक्रियास्वरूप रामानुजाचार्य द्वारा विशिष्टाद्वैत वेदान्त (ग्यारहवीं शताब्दी) एवं मध्वाचार्य द्वारा द्वैत-वेदान्त (तेरहवीं शताब्दी) के माध्यम से जो भक्ति का स्रोत प्रवाहित हुआ। उसी की एक विशिष्ट धारा के रूप में शैव-सिद्धान्त का भी विकास हुआ है। शैव सिद्धान्त में ‘अद्वैत’ का विशेष तात्पर्य बताते हुए निरपेक्षवाद, द्वैतवाद, एकत्ववाद एवं बहुत्ववाद इत्यादि में समन्वय स्थापित किया गया है। जीव तथा ईश्वर के सम्बन्ध के सन्दर्भ में यह (अद्वैत) का प्रतिपादन करता है, जिसे बहुधा ‘शुद्धाद्वैत’ भी कहा जाता है। मैकण्डदेव से पहले शैव सन्तों की अमरवाणी तिरुमन्दिरम् में भी यह अद्वैत दृष्टिकोण पाया जाता है। मैकण्डदेव की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्व सन्तों की विवेचनाओं एवं दृष्टिकोणों को समाविष्ट करते हुए एक क्रमबद्ध, तात्त्विक, दार्शनिक विवेचन विकसित किया। अतः मैकण्ड शास्त्र पूर्व वर्णित सभी चिन्तन एवं भावों द्वारा समन्वित एक दार्शनिक कृति है। मैकण्ड शास्त्र से पहले ज्ञानामृतम् नामक एक शास्त्र-ग्रन्थ तमिल भाषा में प्राप्त होता है, जिसके रचयिता वागीश्वर अथवा वागीश मुनिवर (बारहवीं शताब्दी) माने जाते हैं। राजाधिराज के लेख के अनुसार वागीश पण्डित सोमशम्भुपद्धति नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। शिवज्ञानबोधम् के भाष्यकार शिवाग्रयोगिन् ज्ञानामृतम् नामक ग्रन्थ को शिवज्ञानबोधम् के पूर्व ग्रन्थ के रूप में मानते हुए कहते हैं कि शिवज्ञानबोधम् की व्याख्या ज्ञानामृतम् के आधार पर ही होनी चाहिये, अर्थात् जो विषय ज्ञानामृतम् में सामान्य रूप से उपस्थित किये गये हैं, मैकण्डदेव ने शिवज्ञानबोधम् में उसे ही क्रमबद्ध रूप से स्थापित किया, जो पौष्कर, मृगेन्द्र, मतंग एवं अन्य आगमों से सुसंगत है। वागीश मुनिवर के अनुसार सभी आगमों में सामान्य रूप से चर्या, क्रिया, योग एवं ज्ञान के विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, जो वैदिक धारा के भी अनुकूल हैं। १८४ नाही तन्त्रागम-खण्ड र सद्गुरु के उपदेश के अनुसार आगम रूपी साधन के द्वारा ज्ञानरूपी तत्त्व को प्राप्त करने की प्रक्रिया का वर्णन ज्ञानामृत में किया गया है। ज्ञानामृत आठ भागों में विभाजित है—(१) सम्यगज्ञानम, (२) सम्यगदर्शनम, (३) पाशबन्धम, (४) देहान्तरम, (५) पाशानादित्वम, (६) पाशच्छेदम्, (७) पतिनिश्चयम्, (८) पाशमोचनम्। उक्त ग्रन्थ में पति, पशु एवं पाश तत्त्व की विवेचना को प्रस्तुत करते हुए पशु की केवलावस्था, सकलावस्था, शुद्धावस्था का विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। पाशबद्ध पशु एवं ईश्वर से उसका सम्बन्ध, अचेतन एवं चेतन तत्त्वों की भिन्नता इत्यादि विषयों का प्रथम भाग में विवेचन प्रस्तुत किया गया हैं। द्वितीय भाग सम्यग्दर्शनम् में पाशबद्ध जीवन-यात्रा और उसकी पाँच अवस्थाओं के साथ व्यावहारिक पाशबद्ध सकलावस्था का विशद वर्णन प्राप्त होता है। कर्म एवं माया पाश में आबद्ध होने के कारण आत्मा के जन्मान्तरण की भी व्याख्या की गयी है। इन पाशों की विशेषता यह है कि उनके बिना अज्ञान के अन्धकार से प्रकाश में आने की कोई सम्भावना नहीं हो सकती। आणव मल, अर्थात् मूल मल आत्मा को आच्छादित कर देता है। अज्ञान के इस आच्छादन को हटाने के लिए माया एवं कर्म पाश की आवश्यकता होती है। यद्यपि माया एवं कर्म पाशरूप हैं, परन्तु उनसे आंशिक मल की निवृत्ति होती है। इन दो पाशों के निरन्तर उपयोग से आणव मल का बन्धन शिथिल होता जाता है एवं ईश्वर की कृपा से सभी पाशों का अन्त हो जाता है। ज्ञानामृतम् के अनुसार माया एवं कर्म उस जल की तरह है, जिसकी सहायता से कपड़े के मैल को साफ किया जाता है एवं अन्त में उस पानी को भी सुखा दिया जाता है। ज्ञानामृतम् ग्रन्थ के अनुसार ईश्वर ही आत्मा के लिए एकमात्र आश्रय है। जगत्-प्रपंच अचेतन है, इसलिए उसके संचालन के लिए किसी शक्तिमान् नियन्त्रक की आवश्यकता है। आत्मा आबद्ध होने के कारण जगत् संसार का नियन्त्रक नहीं बन सकती। प्रभु शिव निरवयव होने पर भी अपनी शक्ति के द्वारा स्वयं अप्रभावित रह कर पंचकृत्य का सम्पादन करता है। ज्ञानामृतम् का अन्तिम परिच्छेद पाश-मोचन के सन्दर्भ में है। अज्ञान का अन्धकार दूर होने पर ही पाश-मोचन होता है एवं पशु शिवज्ञान को प्राप्त करता है। पाश का मोचन होना एवं शिवज्ञान को प्राप्त करने के सन्दर्भ में यह प्रश्न आता है कि क्या शिवज्ञान ही पाशमोचन का कारण है? अथवा पाशमोचन होने पर शिवज्ञान की प्राप्ति होती है ? ज्ञानामृतम् उक्त प्रश्न का समाधान करते हुए बताता है कि ये दोनों कार्य एक ही प्रक्रिया के दो अंग के रूप में सम्पन्न होते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार का दूर होना तथा ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त करना, ये दोनों क्रियायें एक ही साथ घटित होती हैं। संक्षिप्त रूप में ज्ञानामृतम् आध्यात्मिक जीवन का दार्शनिक विवेचन है।
१. तिरुवुन्दियार और २. तिरुक्कलिट्रुप्पडियार
राम का शिवज्ञानबोधम् और ज्ञानामृतम् के बीच में अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें पायी जाती हैं—तिरुवियलूर के उयैवन्ददेवनायनार द्वारा रचित तिरुवुन्दियार एवं तिरुक्कडवूर का उयैवन्ददेवनायनार द्वारा रचित तिरुक्कलिटुप्पडियार। तिरुवुन्दियार पैंतालीस पद्यों काहै दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १८५ संकलन है। तिरुक्कलिट्रप्पडियार वेनबा छन्द में एक सौ पद्यों का संकलन है, जिसे तिरुवुन्दियार का एक पद्य-भाष्य कहा जा सकता है। इन ग्रन्थों का प्रतिपाद्य विषय यह है कि ईश्वर परम कृपालु है, जो आचार्य के रूप में जीवों को शिवज्ञान प्रदान करता है। केवल अचार्य द्वारा दिये गये ज्ञान से ही सभी शंकाओं एवं द्वन्द्वों का निवारण हो जाता है। समुद्र का जल बादलों से बरसते हुए जल के रूप में रूपान्तरित होकर ही तृष्णा का निवारण कर सकता है। उसी प्रकार पति, जो करुणा की प्रतिमूर्ति है, जीव से ‘अनन्य’ है, आचार्य के रूप में जीव को शिवज्ञान या शिवचैतन्य प्रदान करता है। पंचाक्षर मन्त्र के सतत उच्चारण से तिरोधान शक्ति अनुग्रह शक्ति के रूप में प्रकाशित होती है। आणव मल शक्तिहीन हो जाने के कारण ‘मैं’ और ‘मेरे’ की अनुभूति दूर हो जाती है, तब जीव शिव के साथ ‘एक’ हो जाता है तथा पूर्ण ज्ञान एवं सर्वव्यापकता का अनुभव करने लगता है। इस स्थिति में जाग्रदवस्था भी तुरीय अवस्था की तरह होती है। शिवज्ञान मुनिवर के अनुसार तिरुवुन्दियार में उक्त विचार का प्रतिपादन किया गया है। तिरुक्कलिट्रप्पडियार में विभिन्न शैव सन्तों की जीवन-प्रणाली की महत्ता की विवेचना तथा शिव भक्तों द्वारा किये गये कोमल एवं तीव्र उपासना प्रणालियों का वर्णन किया गया है। उक्त ग्रन्थ में वैदिक महावाक्यों की भी व्याख्या शैव-सिद्धान्त के दृष्टिकोण से की गयी है। प्राक्मैकण्डदेव की रचनाओं में उक्त दो लघु ग्रन्थों की महत्ता की अवहेलना नहीं की जा सकती। निधि
३. शिवज्ञानबोधम्
परम्परागत मान्यता के अनुसार मैकण्डदेव का जन्म परम शिवभक्त परिवार में हुआ। बाल्यकाल में उनके माता-पिता ने उनका नाम श्वेतवनाप्पेरुमाल रक्खा। शैशव में ही उनकी आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित होकर परमज्योति मुनिवर ने उनको दीक्षा प्रदान की एवं उनका नाम मैकण्डदेव (अर्थात् सत्यदर्शी) रक्खा। मैकण्डदेव ने शैव-सिद्धान्त दर्शन के मुख्य तत्त्वों को मात्र बारह सूत्रों के माध्यम से प्रकाशित किया। शैव-सिद्धान्त दर्शन को अद्वैत-दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय मैकण्डदेव को मिलना चाहिए। यद्यपि मैकण्डदेव से पहले शैवसिद्धान्त-दर्शन को अन्य सन्तों ने भी अद्वैत दृष्टिकोण से ही प्रतिपादित किया, परन्तु मैकण्डदेव तथा उनके बाद के दार्शनिकों ने शैव-सिद्धान्त में अद्वैतवाद की विशेष व्याख्या की। ‘शिवज्ञानबोधम्’ वह प्रथम ग्रन्थ है, जिसमें शैवसिद्धान्त-दर्शन के तत्त्वों को सूत्रशैली में क्रमबद्ध रूप से प्रकाशित किया गया है। शिवज्ञानबोधम्’ के बारह सूत्रों में से प्रथम छः सूत्र ‘सामान्य’ तथा शेष छः सूत्र ‘विशेष’ कहे जाते हैं, जो निम्नलिखित प्रथम सूत्र _ विश्व प्रपंच, जो कि पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक तत्त्वों का संयोजन है, सृष्टि, स्थिति तथा लय को प्राप्त होने वाला है। परमेश्वर शिव ही इसके कर्ता हैं, माया सृष्टि का उपादान कारण है, जिससे विश्व प्रपंच की उत्पत्ति होती है तथा जिसमें विश्व प्रपंच का लय भी होता है। इस सृष्टि एवं संहार का उद्देश्य आणवाधृत पशु-आत्मा को मुक्त करना है। निक १८६ तन्त्रागम-खण्ड परमेश्वर मलावृत आत्माओं को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करने के लिए अपनी कृपा-शक्ति से विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों को संघटित करते हुए आत्माओं के साथ अद्वैत रूप से विद्यमान रहता है। आत्माएं ईश्वर से ‘अनन्य’, ‘अभिन्न’ एवं ‘सह-अस्तित्ववान्’ हैं। प्रत्येक स्थिति में ईश्वर शक्ति-समन्वित रूप में अनुस्यूत रहता है। द्वितीय सूत्र परमेश्वर पशु-आत्माओं को उनके कर्मानुसार फल प्रदान करता है, जिससे जन्म मृत्यु के चक्र के माध्यम से आत्मा मोक्ष की ओर अग्रसर होती है। उक्त कार्य को सम्पन्न करने के लिए ईश्वर अपनी कृपा-शक्ति के साथ ‘अनन्य’, ‘सहअस्तित्वपूर्ण’, ‘समवाय’ सम्बन्ध से युक्त रहता है। तृतीय सूत्र कि पशु-आत्मा, माया निर्मित शरीर से भिन्न है। यह पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच वायु से भिन्न, है, क्योंकि निद्रित स्थिति में न तो चैतन्य ही जाग्रत् रहता है और न ही कोई क्रियाशीलता। यह ईश्वर से भी भिन्न है, क्योंकि उसका बोध बाह्य विषयों की अपेक्षा रखता है। चतुर्थ सूत्र पशु-आत्मा अन्तःकरण से भिन्न है, यद्यपि वह अन्यान्य इन्द्रियों की तरह अन्तःकरण से भी सम्बद्ध है, परन्तु अनादिकाल से आणवाधृत होने के कारण वह बोध-शून्य रहती है। ये इन्द्रियां आत्मा के लिए वैसे ही हैं, जैसे राजा के लिए मन्त्रिगण होते हैं। इन्द्रियां आत्मा की पांच अवस्थाओं के मध्य विद्यमान रखती हैं। पंचम सूत्र इन्द्रियां एवं अन्तःकरण आत्मा द्वारा प्रेरित होकर सीमित ज्ञान को प्राप्त करती हैं, परन्तु वे आत्मा की प्रेरणा के बारे में अनभिज्ञ रहती हैं। उसी प्रकार ईश्वर की कृपा से ही आत्मा चैतन्य-ज्ञान को प्राप्त करती है, परन्तु ईश्वर की प्रेरक शक्ति के बारे में वह अचेतन रहती है। तथापि ईश्वर, चुम्बक द्वारा लोहे को क्रमशः प्रेरित करने की तरह, आत्मा को निरन्तर प्रेरित करता रहता है। षष्ठ सूत्र असा जो विषय परिवर्तनशील अनुभूत होता है, सीमित है और जो विषय किसी प्रकार से भी अनुभूत नहीं होता है, अनस्तित्ववान् है— ईश्वर उक्त दोनों प्रकार से परे है। ज्ञानी व्यक्ति इसीलिये उसे ‘शिव-सत्’ कहते हैं। अहिट माई दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १८७ TETTE सप्तम सूत्र ‘शिव-सत्’ किसी वस्तु का उपभोग नहीं करता, क्योंकि सभी उसमें अन्तर्भूत हैं। पुनः असत् विश्व-प्रपंच किसी विषय का उपभोग नहीं कर सकता, क्योंकि वह अचेतन है। एकमात्र आत्मतत्त्व ही इन दोनों तत्त्वों से भिन्न होने के कारण उपभोग करने में समर्थ है। अष्टम सूत्र आत्म-तत्त्व शरीर एवं कारणों में आबद्ध होने के कारण अपने स्वरूप को नहीं जानता। परमेश्वर आत्मा को उपयुक्त समय में गुरु के रूप में उसके स्वरूप-ज्ञान को प्रदान करता है। तब आत्मा सब भ्रमों से मुक्त होकर परमेश्वर को प्राप्त करती है, जो उसी के साथ (जीव के साथ) अद्वैत रूप में विद्यमान रहता है। नवम सूत्र 25 आत्म-तत्त्व आध्यात्मिक साधन से समन्वित होकर ईश्वर का अन्वेषण करता है, जो इन्द्रिय अथवा बुद्धिगोचर नहीं होता। जब जगत्, अन्वेषणकर्ता आत्मा के बोध से मरीचिका की तरह तिरोहित हो जाता है, तब प्रिय परमेश्वर अपने को प्रकाशित करता है। आत्मतत्त्व निरन्तर पंचाक्षर मन्त्र के द्वारा ईश्वर-चैतन्य को प्राप्त करता रहता है। जिनक दशम सूत्र हा ईश्वरीय सत्ता की चेतना के उपरान्त आत्मतत्त्व ईश्वर में वैसे ही निमग्न हो जाता है, जैसे ईश्वर आत्मा के निकट अपने को प्रकाशित करता है। इस प्रकार की भक्ति एवं आत्म-निवेदन से आत्मा आणव, माया एवं कर्म-मल के पाश से मुक्त हो जाती है।। एकादश सूत्र ___ जैसे चक्षु-इन्द्रिय आत्मा को देखने के कार्य में सहयोग प्रदान करती है, उसी प्रकार शिव-शक्ति अपनी विद्यमानता के द्वारा आत्मा को शिवानन्द का उपभोग करवाती है। इस आदान से आत्मतत्त्व में जो शाश्वत प्रेम उत्पन्न होता है, उसी से वह उस परम पद में लीन रहता है। द्वादश सूत्र इस स्वतःस्फूर्त प्रेम से भक्त सब बन्धनों को पार करता हुआ, पाशों को छिन्न करता हुआ, परमेश्वर के चरणकमल में आत्मसमर्पण करता है। इस स्थिति में वह परमेश्वर के सभी भक्तों एवं उसकी प्रतिमा की निरन्तर उपासना करता रहता है। जी ‘शिवज्ञानबोधम्’ की महत्ता का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि वेद रूपी गाय से आगम रूपी दूध के द्वारा चार शैव सन्तों ने महान् सिद्धान्त (तेवारम् एवं तिरुवाचकम्) रूपी घी का मन्थन किया। तिरुवेन्नैनल्लूर का मैकण्डदेव द्वारा रचित ‘शिवज्ञानबोधम्’ उनमें १८८ हालातन्त्रागम-खण्ड अत्यन्त स्वादिष्ट घृत है। शिवज्ञानबोधम् के कई भाष्य हैं। सर्वप्रथम पोण्डिप्पेरुमाल द्वारा रचित भाष्य, तदनन्तर शिवज्ञान मुनिवर ने दो भाष्य लिखे हैं; एक संक्षिप्त भाष्य, जिसका नाम सिर्र एवं दूसरा विस्तृत भाष्य जिसे पेरुरैशिवज्ञानभाष्य, द्रविडमहाभाष्यम् अथवा मापादियम् कहा जाता है। कई विद्वानों का कहना है कि ‘शिवज्ञानबोधम्’ रौरवागम के पाशमोचनपटल का तमिल अनुवाद है। शिवाग्रयोगिन् अपने भाष्य शिवज्ञानसिद्धियार-सुपक्कम् में, शिवज्ञान मुनिवर अपने तमिल भाष्य में एवं उमापति शिवाचार्य पौष्कर भाष्य में इसका उल्लेख करते हैं, परन्तु कई विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार यह मैकण्डदेव की निज कृति है। कहा कि हम कि नारायला काय BEPI४
४. शिवज्ञानसिद्धियार
अरुलनन्दी ने, जो मैकण्डदेव के शिष्य थे, शिवज्ञानसिद्धियार नामक ग्रन्थ की रचना की, जो वास्तव में शिवज्ञानबोधम् का ही पद्य में भाष्य है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शिवज्ञानबोधम् का शैव-सिद्धान्त में वही स्थान है, जो ब्रह्मसूत्र का वेदान्त दर्शन में है। मैकण्डदेव ने शैव-सिद्धान्त के तात्त्विक विवेचन को सूत्र के आकार में शिवज्ञानबोधम् के रूप में प्रस्तुत किया। उनके शिष्य अरुलनन्दी शिवाचार्य ने उसके ऊपर जो तमिलवार्त्तिकम् की रचना की, उसे ही शिवज्ञानसिद्धियार कहा गया है। अरुलनन्दी शिवाचार्य वेद एवं आगमशास्त्र के महान् ज्ञाता थे एवं ‘सकलागमपण्डित’ कहे नाते थे। शिवज्ञानसिद्धियार ग्रन्थ दो भागों में विभाजित है- परपक्कम् (परपक्षम्) एवं सुपक्कम् (स्वपक्षम्)। परपक्कम् में लोकायत, बौद्ध, सौत्रान्तिक, योगाचार, माध्यमिक एवं वैभाषिक, जैन इत्यादि नास्तिक दर्शन, अर्थात् निखण्डवाद एवं आजीवक, मीमांसा दर्शन के दो सिद्धान्त अर्थात् भाट्ट एवं प्राभाकर एवं एकात्मवाद के तीन सिद्धान्त अर्थात् शब्दब्रह्मवाद, मायावाद एवं भास्कर्यवाद, सांख्य एवं वैष्णव पांचरात्र इत्यादि सभी परपक्षवादियों का खण्डन किया गया है। उपर्युक्त परपक्ष सिद्धान्त से यह संकेत प्राप्त होता है कि अरुलनन्दी शिवाचार्य ने नास्तिक एवं आस्तिक दर्शनों के मुख्यतः अनीश्वरवादी सिद्धान्तों का खण्डन किया है। शैव-सिद्धान्त, जो कृपा-शक्ति समन्वित ईश्वर-प्रत्यय का विशद विवेचन प्रस्तुत करता है,उसकेलिएयहीस्वाभाविक भी प्रतीत होता है। मरैज्ञानसम्बन्दर के जो सिद्धियारसुपक्कम् के भाष्यकार हैं, अनुसार जिन ग्रन्थों की आलोचना परपक्कम् में की गयी है, वे निम्नलिखित हैं-(१) सर्वदर्शनसंग्रह, (२) सर्वमतोपन्यास, (३) रामनाथाचार्य का परमतनिराकरण, (४) सर्वात्मशम्भु की सिद्धान्तदीपिका एवं (५) अघोरशिवाचार्य का सिद्धान्तार्थसमुच्चय। का शिवज्ञानसिद्धियार में अरुलनन्दी ने भिन्न मतों का (परपक्कम्) खण्डन करते हुए स्वपक्ष का प्रतिपादन किया (सुपक्कम्)। अरुलनन्दी ने स्वयं ही इसका उल्लेख किया है कि उनके द्वारा किये गये शैव-सिद्धान्त के विभिन्न तत्त्वों का विवेचन गुरु मैकण्डदेव के सूत्र (ग्रन्थ ‘शिवज्ञानबोधम्’ के अनुसार ही है। शिवज्ञानसिद्धियार के सुपक्कम् के प्रारम्भ में क्रिमबद्ध प्रमाणविचार अरुलनन्दी शिवाचार्य के दार्शनिक, तार्किक विवेचन की ओर संकेत दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १८६ करता है। शिवज्ञानसिद्धियार नाम विशेष तात्पर्यपूर्ण है। ‘सिद्धि’ शब्द का तात्पर्य ‘वास्तविक अर्थ’ की प्रतिष्ठा है, अर्थात् शिव-ज्ञान की वास्तविक प्रतिष्ठा ही शिवज्ञानसिद्धियार का लक्ष्य है। उक्त ग्रन्थ शैवागम के ज्ञानपाद के तात्त्विक तात्पर्य को अभिव्यक्त करता है। इस ग्रन्थ की कई सामान्य विशेषताएं हैं- (१) प्रमाण-विचार, (२) ईश्वर की महत्ता का प्रतिपादन। षड्दर्शन का अन्तिम सत्य शिव ही है, जो वेद एवं आगम से परे है। वह ज्ञान का सर्वव्यापी मूल स्रोत है। शिव ही एकमात्र नित्य, शाश्वत, कूटस्थ सत्ता है, जो सब बन्धनों से परे है। (३) अन्य सभी दर्शनों से श्रेष्ठ, अर्थात् अन्तिम सिद्धान्त के रूप में ही उक्त सिद्धान्त प्रतिपादित होता है। चर्या, क्रिया, योग का सम्पादन ज्ञान के द्वारा करते हुए शिव-कृपा से उस परम पद को प्राप्त किया जाता है। शिवपद को प्राप्त करना ही वास्तविक मुक्ति है, जो शास्त्र अध्ययन एवं धर्म-मार्ग से परे है। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त वेदागम भी परम पद को प्रदान नहीं कर सकता। केवल ईश्वरकृपा ही ईश्वर में लीन होने का एकमात्र उपाय है। शैव.सिद्धान्त में सन्मार्ग, दासमार्ग, सत्पुत्रमार्ग एवं सहमार्ग नामक चार प्रकार के साधन मार्ग माने गये हैं। शिवज्ञानसिद्धियार की महत्ता को स्वीकार करते हुए उक्त ग्रन्थ के लिए आदरयुक्त सम्बोधन ‘यार’ का प्रयोग किया गया है। सिद्धियार तमिल भाषा में रचित छ: महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में एक माना जाता है। दार्शनिक ग्रन्थ के साथ-साथ यह साहित्यिक दृष्टिकोण से भी उच्चकोटि का है। अरुलनन्दी शिवाचार्य एक महान दार्शनिक तथा कवि थे। निम्नलिखित विद्वानों के द्वारा सुपक्कम् के भाष्य लिखे गये हैं- (१) स्वामी ज्ञानपिरेकाशर, (२) वेल्ली-अम्बलतम्बिरान्स्वामी, (३) निरम्बवल्लक्रियार, (४) मरैज्ञानदेशिकर, (५) शिवाग्रयोगिन्, (६) शिवज्ञानस्वामिगल, (७) सुब्रमणियदेशिकर। इनके अतिरिक्त अन्य कई आधुनिक विद्वानों की टीकायें भी प्राप्त होती हैं। शिवज्ञानसिद्धियार ग्रन्थ में ईश्वर तत्त्व की विशद दार्शनिक विवेचना की गयी है। ईश्वर सृष्टि का निमित्तकारण, माया उपादानकारण एवं शक्ति निमित्त-सहकारी कारण है। जीव को बन्धनमुक्त कर परम पद को प्रदान करने के लिए ही ईश्वर सृष्टि करता है। ईश्वर द्वारा प्रतिपादित पंचकृत्य का उद्देश्य जीव को तीन पाशों से मुक्त कर ईश्वरानन्द, अर्थात् ईश्वर-चैतन्य को प्रदान करना है। ईश्वर, जो रूपी, अरूपी एवं रूपारूपी है, जीव की मुक्ति के लिए कृपा-परवश होकर कोई भी रूप धारण करता है। चूँकि वह जीव को ज्ञान प्रदान करता है, इसलिए वह शक्ति-समन्वित है। वह षडध्व से परे है। वह अनादि, अनन्त, नित्य, शाश्वत, कूटस्थ, निर्मल, चैतन्यानन्द सत्ता है। प्रेम ही उसका स्वरूप है। इसलिए ईश्वराभिव्यक्ति ही जीव के लिए ईश्वर की कृपा है। आणवाधृत जीव कृपा के स्वरूप से अपरिचित रहता है, परन्तु क्रमशः कृपा ही अपने स्वरूप को प्रकाशित करती है। आवृत.कृपा को ‘तिरोधान’ एवं उसी की अनावृत अभिव्यक्ति को ‘अनुग्रह’ कहा गया है। शिव-शक्ति ही विश्व प्रपंच में समवेत रह कर विश्व की परिचालना करती है। शिव एवं शक्ति एक ही तत्त्व के दो रूप हैं, जो एक दूसरे में समवेत हैं। ईश्वर अपनी शक्ति के माध्यम से जीव-जगत् के साथ अनन्य अर्थात् अभेद, अद्वैत है। आत्मा जो ‘सदसत्’ है, शिवतत्त्व अथवा पाश से सम्बद्ध रहती है। पाशयुक्त स्थिति ही बन्धन या १६० तन्त्रागम-खण्ड अज्ञान की स्थिति है। सम्यक् ज्ञान अर्थात् शिवज्ञान से आत्मा शिव-शक्ति से युक्त रहती है। ईश्वर प्रेम-स्वरूप है। अतः प्रेम या भक्ति ही ईश्वर को प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। शिव-शक्ति अज्ञान को दूर करती हुई ज्ञान प्रदान करती है। फलतः आत्मा शिवतत्त्व में विद्यमान हो जाती है। पति ही पतिज्ञान को प्रदान करता है। शरणागति या प्रपत्ति ईश्वर के प्रसाद से ही प्राप्त होती है। शिवज्ञानसिद्धियार में उपर्युक्त दार्शनिक तत्त्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं सूक्ष्म रूप से विवेचित किये गये हैं। किसी माली हार मिल ) मित शाह का
५.इरुपाइरुपदु
अरुलनन्दी शिवाचार्य द्वारा रचित शैव-सिद्धान्त का और एक शास्त्र ग्रन्थ ‘इरुपाइरुपदु’ नाम से जाना जाता है। इस पुस्तक में पदों की रचना वेनबा छन्द एवं आशिरियप्पा छन्द में की गयी है। उक्त पुस्तक में आणव मल की आठ विशेषताएँ, माया की सात विशेषताएँ एवं कर्म की छः विशेषताएँ वर्णित की गयी हैं। तेवारम् के कई पदों की बहुत सुन्दर व्याख्या इस ग्रन्थ में प्राप्त होती है। कई महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न भी उठाये गये हैं, जैसे; यदि ईश्वर आत्मा में अविच्छेद्य रूप में विद्यमान रहता है, तो आत्मा में अज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है ? क्या आत्मा का आणव मल से सम्बन्ध ईश्वर की अनुपस्थिति को सूचित नहीं करता? आध्यात्मिक दीक्षा के समय ईश्वर किस प्रकार से आत्मा से अभिन्न एवं भिन्न रहता है ? उक्त पुस्तक में आणव, कर्म एवं माया नामक तीन पाशों का विशद विवेचन प्रस्तुत किया गया है। अभिमान, व्यक्ति स्वातन्त्र्य, राग, द्वेष, क्रोध एवं सुख, दुःख इत्यादि सभी अनुभव आणव मल से ही उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्व, भ्रम, विस्मृति, परपीड़ा, भय इत्यादि की उत्पत्ति मायापाश से होती है। उठना, बैठना, कर्म करना, परित्याग करना, अवहेलना करना इत्यादि कर्मज हैं। ये सभी जड़ हैं। प्रश्न यह है कि ये अचेतन तत्त्व आत्मा को कैसे बन्धन में डाल देते हैं ? ईश्वर जो स्वरूपतः मुक्त है, आत्मा को कभी बन्धन में नहीं डालता। यदि मल मूलतः आत्मा में विद्यमान रहता है, तो कैसे आत्मा उससे मुक्ति प्राप्त करती है? आत्मा की पाँच अवस्थाएं क्या हैं? यदि ज्ञान उत्पन्न होते ही अज्ञान दूर हो जाता है, तो क्या आत्मा की व्यक्ति-सत्ता भी नष्ट हो जाती है? क्योंकि आत्मा अनादिकाल से आणवाधृत है। पुनः ईश्वर आत्मा से अनन्य भाव से युक्त है, यदि ऐसा ही है तो आत्मा ईश्वर को क्यों नहीं जानती? आत्मा कब एवं कैसे आत्मज्ञान को प्राप्त करती है ? आदि महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्नों की विवेचना भी यहाँ की गयी है। कि ‘इरुपाइरुपदु’ पुस्तक का मुख्य प्रतिपाद्य विषय विभिन्न दृष्टिकोणों से ईश्वर की व्यापकता को प्रतिष्ठित करना है। उक्त ग्रन्थ में अरुलनन्दी शिवाचार्य ने पुनः पुनः आत्मा के साथ ईश्वर की अनन्यता या अभिन्नता का प्रतिपादन किया है। आध्यात्मिक रहस्यात्मक स्थिति में आत्मा अपने को ईश्वर से भिन्न, अविच्छेद रूप में एकत्व की स्थिति में अनुभव करती है। यह एकत्व परम प्रेमभक्ति का साक्षात् परिणाम है। तात्त्विक रूप में आत्मा अपने दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १६१ में ईश्वरीय शक्ति का आविर्भाव अनुभव करते हुए अपने को उससे अभिन्न एवं उस पर निर्भरशील अनुभव करती है। कृपा-शक्ति (अरुल-शक्ति) आत्मा को पूर्ण रूप से अभिभूत करती हुई परिचालित करती है। ईश्वर-शक्ति द्वारा संचालन का उद्देश्य आत्मा को बन्धनमुक्त करते हुए अपने में मिला लेना है। इस कार्य के लिए ईश्वर, माया एवं कर्म का प्रयोग साधन के रूप में करता है। आत्मा के साथ आणव एवं शिवशक्ति का एक साथ सम्बन्ध जिस समस्या को उत्पन्न करता है, अरुलनन्दी कई दृष्टान्तों के द्वारा उसका समाधान प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार जैसे आत्मा एवं देह का सम्बन्ध रहता है, देखने की प्रक्रिया में चक्षु-इन्द्रिय एवं सूर्य की किरण का सम्बन्ध रहता है, एवं बाह्य व्यावहारिक अनुभव में बुद्धि एवं चक्षु-इन्द्रिय का सम्बन्ध रहता है, उसी प्रकार आणवाधृत आत्मा में भी शिव-शक्ति समवेत रहती है। ईश्वर अन्तर्लीन रहते हुए विभिन्न प्रकार से अपने को प्रकाशित करता है। ईश्वर की कृपा से भक्त क्रमशः ईश्वर की व्यापकता का अनुभव तीव्र से तीव्रतर रूप में प्राप्त करते हुए आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त करता है। प्रथमतः आत्मा अहंकार के कारण सब कर्मों के कर्तृत्व को स्वयं पर आरोपित करती है, परन्तु ईश्वर की कृपा से यह भ्रम दूर हो जाता है एवं अन्ततः अपने को पूर्ण रूप से ईश्वर पर समर्पित करती हुई ईश्वर द्वारा परिचालित होती है। तब ईश्वर की विशेष कृपा से (तीव्र शक्ति-निपात) अज्ञानरूपी बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है एवं ईश्वर से ‘अनन्य-भाव’ प्राप्त होता है। मात्र ईश्वर की कृपाशक्ति से ही आत्मा अज्ञान के अन्धकार से सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करती हई ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव करती है एवं अपने को पूर्ण रूप से ईश्वर पर समर्पित करती हुई उससे एकत्व, अद्वैतत्व, अर्थात् अनन्यत्व की रहस्यात्मक चेतना प्राप्त करती है। तात्त्विक दृष्टिकोण से यह ईश्वर के साथ आत्मा की ‘अद्वैत’ स्थिति की
६. उण्मैविलक्कम्
अरुलनन्दी शिवाचार्य मैकण्डदेव के प्रथम एवं प्रधान शिष्य थे, जिन्होंने भारतीय दर्शन में शैव सिद्धान्त को सर्वप्रथम क्रमबद्ध दार्शनिक विवेचन के रूप में प्रस्तुत किया। मैकण्डदेव के एक और शिष्य मनोवाचकम् कण्डनदार ने उण्मविलक्कम् नामक एक अन्य सिद्धान्त-शास्त्र की रचना की। उक्त ग्रन्थ में उन्होंने सत्य को प्राप्त करना ही एकमात्र लक्ष्य माना। यह ग्रन्थ गुरु एवं शिष्य में कथोपकथन की शैली में लिखा गया है। उक्त ग्रन्थ में आगम प्रतिपादित छत्तीस तत्त्व, दो प्रकार के मल (आणव एवं कर्म) का वर्णन एवं शिवताण्डव, पंचाक्षर, अद्वैतमुक्ति, गुरु तथा शिवभक्तों की वन्दना की गई है। इसमें उन्होंने शैव-सिद्धान्त के तीन तत्त्व पति, पशु एवं पाश की भूमिका को बताते हुए मोक्ष में भी इनकी विद्यमानता का वर्णन किया है। पंचाक्षर मन्त्र की महिमा का गान करते हुए ग्रन्थकार ने उसे वेद, आगम, पराण, शिव-ताण्डव तथा मक्ति-स्वरूप एवं छत्तीस तत्त्वों के परे बताया है। उक्त ग्रन्थ में आचार्य ने शिव-ताण्डव के तात्पर्य को बताते हुए शिव-कृपा को ही एकमात्र साधन . १६२ तन्त्रागम-खण्ड माना है, जो माया, कर्म एवं आणव मल के दुष्प्रभाव को दूर करती है तथा आत्मा को परमानन्द की स्थिति में प्रतिष्ठित करती है। ताण्डव-नृत्य पंचकृत्य का एवं डमरु-वादन सृष्टि का द्योतक है। हाथ की अभय मुद्रा पालनहार को सूचित करती है एवं अन्य हाथ की अग्नि संहार का प्रतीक है। भूमि के ऊपर टिका हुआ पद तिरोधान एवं ऊपर उठा हुआ पद अनुग्रह का संकेत प्रदान करता है। नृत्य पंचाक्षर मन्त्र का प्रतीक है। ‘न’ पद का द्योतक है, ‘म’ नाभि का द्योतक है, “शि’ कन्धों का प्रतीक है, ‘वा’ मुखमण्डल को सूचित करता है एवं ‘य’ मुकुट का प्रतीक है। इसे दूसरे प्रकार से भी बताया जा सकता है—डमरुवादन करता हुआ हाथ ‘शि’ का प्रतीक है, दूसरा प्रसारित हाथ ‘वा’ के लिए है, अभय मुद्रा का हाथ ‘य’ का सूचक है, अग्नि को धारण किया हुआ हाथ ‘न’ का प्रतीक है। मुयलकन के ऊपर विद्यमान पद ‘म’ को सूचित करता है। तिरपन वर्गों के वेनबा छन्द में रचित इस ग्रन्थ में शैव सन्त ने कई दार्शनिक समस्याओं को उठाया एवं क्रमशः उनका समाधान भी बताया है, जो शैव-सिद्धान्त दर्शन के धारावाहिक चिन्तन के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। U
उमापति शिवाचार्य
इसके बाद ‘उमापति शिवाचार्य’ का आविर्भाव हुआ जो ‘मरैज्ञानसम्बन्दर’ के शिष्य थे। उमापति शिवाचार्य द्वारा रचित आठ ग्रन्थ, जो मैकण्डदेव द्वारा रचित शिवज्ञानबोधम् की धारा के अनुकूल हैं, शैव-सिद्धान्त के चौदह शास्त्र-ग्रन्थों के अन्तर्गत माने जाते हैं। अरुलनन्दी शिवाचार्य द्वारा रचित शिवज्ञानसिद्धियार के प्रथम पक्ष परपक्कम् के अनुरूप उमापति ने ‘संकर्पनिराकरणम्’ एवं सुपक्कम् के अनुरूप ‘शिवप्पिरकाशम्’ की रचना की। प्रथम ग्रन्थ में मायावाद एवं अन्य अवान्तर सिद्धान्तों (शैव दर्शन) की आलोचना की गई है एवं द्वितीय ग्रन्थ (शिवप्पिरकाशम्) में शैव सिद्धान्त-दर्शन के मुख्य तात्त्विक विवेचनों को प्रस्तुत किया गया है। संकर्पनिराकरणम् नामक ग्रन्थ में उमापति शिवाचार्य ने निम्नलिखित सिद्धान्तों की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है— (१) मायावादम्, (२) ऐक्यवादम्, (३) पाषाणवादम्, (४) भेदवादम्, (५) शिवसमवादम्, (६) संक्रान्तवादम्, (७) ईश्वर-अविकारवादम्, (८) निमित्तकारणपरिणामवादम्, (६) शैववादम्। अरुलनन्दी शिवाचार्य ने दूसरे, अर्थात् भिन्न दृष्टिकोण के सिद्धान्तों की आलोचना अपनी शिवज्ञानसिद्धियार पुस्तक के परपक्कम् नामक अंश में की है। उमापति शिवाचार्य ने भिन्न मत के सिद्धान्तों को छोड़कर अन्यान्य शैव सिद्धान्तों का आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है। इन आन्तर-सम्प्रदायों के साथ उमापति ने मायावाद की भी आलोचना की है। यद्यपि मायावाद की आलोचना अरुलनन्दी शिवाचार्य ने परपक्कम् में की है, परन्तु उमापति द्वारा पुनः इसकी आलोचना करने का विशेष कारण यह है कि मायावादियों के अनुसार माया रहस्यात्मक अनिवर्चनीय तत्त्व है, परन्तु शैव-सिद्धान्त के अनुसार माया एक PA है दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त तत्त्व एवं सृष्टि का उपादानकारण है। मायावाद की ‘माया’ एवं शैव सिद्धान्त की ‘माया’ दो सम्पूर्ण भिन्न प्रकार के तत्त्व हैं। आलोचनात्मक दृष्टिकोण को अपना कर उमापति ने उक्त भिन्नता की व्याख्या की है। उमापति शिवाचार्य सन्तानाचार्य परम्परा में चतुर्थ आचार्य माने जाते हैं। वे मरैज्ञानसम्बन्दर के शिष्य थे। यद्यपि यह कहा जाता है कि मरैज्ञानसम्बन्दर ने उमापति को कोई लिखित ग्रन्थ हस्तान्तरित नहीं किया, परन्तु कई विद्वानों के अनुसार ‘शतमणिकोवै’ नामक पुस्तक के रचयिता मरैज्ञानसम्बन्दर ही है। उमापति शिवाचार्य संस्कृत एवं तमिल भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उनको वेद, वेदांग एवं शैवागमों का व्यापक तथा गहन ज्ञान था। उनके गुरु मरैज्ञानसम्बन्दर भी वेद के प्रसिद्ध पण्डित होने के कारण ‘मरै’ (वेद) ‘ज्ञानसम्बन्दर’ उपाधि से विभूषित किये गये। उमापति ने अपनी कृतियों को गुरु परम्पराओं (मैकण्डदेव, अरुलनन्दी शिवाचार्य एवं मरैज्ञानसम्बन्दर) की देन के रूप में प्रतिष्ठित किया। वेदागम के प्रकाण्ड ज्ञानी होने के कारण एवं तेरहवीं शताब्दी में अन्यान्य आचार्यों के लेखों की समीक्षात्मक विवेचना करने के उपरान्त उमापति ने व्यापक दार्शनिक दृष्टिकोण से शैव-सिद्धान्त के तात्त्विक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया। शैव सिद्धान्त को ‘वेदान्त के सार’ के रूप में प्रतिपादित करने का श्रेय सन्त उमापति को ही है। उनके द्वारा रचित ‘संकर्पनिराकरणम्’ नामक ग्रन्थ से ही उनके ज्ञान की विशाल परिधि का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है। तमिल भाषा के सभी शास्त्र-ग्रन्थों का भी उनको विशद ज्ञान था। तिरुक्कुरल, तिरुमुरै का प्रभाव उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। पेरियपुराणम् में वर्णित महान् सन्तों की जीवन-कथा में ईश्वर-कृपा की स्वतःसिद्ध अभिव्यक्ति से उमापति कितने प्रभावित हुए वह उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से प्रकाशित हुआ है। तेवारम् के पदों के ऊपर उमापति ने ‘तिरुप्पडिक्कोवै’ नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें तेवारम् के रचयिता द्वारा वर्णित पवित्र स्थानों का उल्लेख प्राप्त होता है। ‘तिरुपडिक्कोवै’ में उन्होंने तेवारम् के वर्णित पदिगमों का उल्लेख भी किया है। तिरुवरुट्पयन् की रचना स्पष्टतः तेवारम् के पदों के आधार पर ही की गयी है। शेक्किलार के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा को उन्होंने ‘शेक्किलारपुराणम्’ के माध्यम से प्रकाशित किया। वास्तव में सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय एवं पूर्ववर्ती तमिल शैव-सिद्धान्त शास्त्र-ग्रन्थों की समन्वयात्मक अभिव्यक्ति उमापति की रचना के माध्यम से हुई है। शैव-सिद्धान्त के चौदह शास्त्र ग्रन्थों में निम्नलिखित आठ ग्रन्थ उमापति शिवाचार्य द्वारा रचित हैं— (१) शिवप्पिरकाशम्, (२) तिरुवरुट्पयन, (३) वीणावेनबा, (४) पोट्रीपर्होदई, (५) कोडिक्कवि, (६) नेविडुतुदु, (७) उणमैनेरीविलक्कम्, (८) संकर्पनिराकरणम्।
७. शिवप्पिरकाशम्
यह ग्रन्थ एक सौ पदों का संकलन है, जिसे दो बराबर भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग को ‘पोदु’ (सामान्य) एवं द्वितीय भाग को ‘उण्मै’ (विशेष अथवा सत्य) कहा जाता है। ‘पोदु’ तटस्थ, अर्थात् बृद्धावस्था एवं ‘उणमै’ स्वरूप अर्थात् मोक्षावस्था का वर्णन है १६४ न तन्त्रागम-खण्डनक करता है। उक्त ग्रन्थ में अध्यायों का वर्गीकरण शिवज्ञानबोधम् के बारह सूत्रों के अनुसार किया गया है। इस ग्रन्थ में शैव-सिद्धान्त के मूल तत्त्वों का सरल परन्तु महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। शिवप्पिरकाशम् पुस्तक में निम्नलिखित प्रकार से शिवज्ञानबोधम् के अनुसार सूत्रों का विभाजन किया गया है शिवज्ञानबोधम् शिवप्घिरकाशम् सूत्र १. प्रमाण सवय कि १३-१८ (छः पद) मारकाप या सूत्र २. सृष्टि १६-५० (बत्तीस पद) सूत्र ३. आत्मा का अस्तित्व, आत्मा की मर ५१-५८ (आठ पद) के लिए पति तथा पाश से भिन्नता __५६ (एक पद) सूत्र ४. आत्मा का स्वरूप मायजि०-६२ (तीन पद) - विकि सूत्र ५. पाश ६३-६७ (पाँच पद) सूत्र ६. सत्, असत् ६८ (एक पद) प्रवासावर सूत्र ७. आत्मा की विशेषता ६९-७० (दो पद) हिका हानि सूत्र ८. ज्ञान ७१-७५ (पाँच पद) फोन तिकी का जो सूत्र ६. पञ्चाक्षर रहा सूत्र १०. बन्धन का विमोचन ARRE ७६-७६ (चार पद) ८०-६२ (तेरह पद) सूत्र ११. शिवानन्दानुभव सका ६३-६७ (पाँच पद) किय सूत्र १२. जीवन्मुक्ति की अवस्था ६५-१०० (तीन पद) शिवप्पिरकाशम् ग्रन्थ में कई प्रकार की मुक्ति, आत्मा का स्वरूप एवं उसकी पाँच अवस्थाएं, दीक्षा-प्रणाली, सत्यज्ञान का स्वरूप एवं उसका प्रभाव तथा जीवन्मुक्ति की स्थिति इत्यादि विषयों पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विवेचन प्रस्तुत किये गये हैं। उक्त ग्रन्थ में आत्मदर्शन, आत्मशुद्धि तथा आत्मलाभ के रूप में ‘दशकार्यों’ का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में ही सर्वप्रथम इस दर्शन को ‘शैव-सिद्धान्त’ अर्थात् ‘सिद्धान्तों के सिद्धान्त’ के अर्थ में उमापति ने उल्लिखित किया है। इससे पहले अरुलनन्दी शिवाचार्य एवं तिरुमूलर ने सिद्धान्त शब्द का प्रयोग आगमान्त के अर्थ में किया था। सर्वप्रथम शिवप्पिरकाशम् पुस्तक में उमापति ने इसे ‘वेदान्त का सार’ एवं ‘सिद्धान्तों के सिद्धान्त’ के रूप में प्रतिष्ठित किया।१६५ दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त इस पुस्तक में उमापति ने केवल शैव-सिद्धान्त का तात्त्विक विवेचन ही प्रस्तुत नही किया, वरन् बाह्य एवं आन्तरिक दार्शनिक सिद्धान्तों की आलोचनात्मक समीक्षा भी प्रस्तुत की। केवल इस ग्रन्थ में ही ‘पोदु’ एवं ‘उण्मै’ के रूप में सामान्य तथा विशिष्ट दृष्टिकोण का वर्णन है। इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय यह है कि ईश्वर मानवीय प्रयत्न अथवा ज्ञान से (पाशज्ञान एवं पशुज्ञान) जाने नहीं जा सकते। ईश्वर-कृपा ही ईश्वरीय ज्ञान (पतिज्ञान) का एकमात्र उपाय है। यह ग्रन्थ पूर्ववर्ती दो ग्रन्थों (शिवज्ञानबोधम् एवं शिवज्ञानसिद्धियार) का तात्त्विक अनुशीलन है तथा अन्य शैव-सिद्धान्त पुस्तकों का दार्शनिक आधारभूत ग्रन्थ भी है, ऐसा विद्वानों का कहना है। स
८. तिरुवरुट्पयन्
उक्त शब्द तीन शब्दों के समन्वय से बना है; यथा ‘तिरु’ (श्री अथवा ईश्वरीय), अरुल (कृपा) एवं पयन् (फल या परिणाम) अर्थात् ‘ईश्वरीय कृपा का फल’ । उक्त ग्रन्थ में दस अध्याय हैं, जिसमें प्रत्येक अध्याय में दो पंक्तियों के दस पदों का संकलन है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस पुस्तक की उमापति ने तिरुवल्लुवर के तिरुक्कुरल नामक महान् ग्रन्थ के परिपूरक ग्रन्थ के रूप में रचना की है, क्योंकि तिरुक्कुरल में तिरुवल्लुवर ने चार पुरुषार्थों में अर्थ, काम एवं धर्म का वर्णन किया, परन्तु मोक्ष का कोई विशेष विवेचन वहां प्राप्त नहीं होता। मोक्ष, जिसे केवल ईश्वरीय कृपा से ही प्राप्त किया जा सकता है, उमापति द्वारा इसकी विशेष महिमा का वर्णन ‘तिरुवरुट्पयन्’ ग्रन्थ में किया गया है। इस पुस्तक में ईश्वरीय कृपा के दृष्टिकोण से ही उमापति ने शैव-सिद्धान्त के सभी तत्त्वों का वर्णन प्रस्तुत किया है। तिरुवरुट्पयन् नामक ग्रन्थ को उमापति ने निम्नलिखित दस अध्यायों में विभाजित किया- (१) पति का स्वरूप, (२) पशु अथवा आत्मा का स्वरूप, (३) आणव अथवा मूल मल का स्वरूप, (४) कृपा का स्वरूप, (५) कृपा की प्रतिमूर्ति के रूप में गुरु का स्वरूप, (६) ज्ञान मार्ग, (७) आत्मा का प्रकाशकत्व, (२) आनन्दानुभूति की स्थिति, (६) पंचाक्षर, (१०) मोक्ष का स्वरूप अथवा जीवन्मुक्तों की स्थिति। प्रथम अध्याय में सर्वोच्च तत्त्व पति, अर्थात् ईश्वरतत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार पति, पशु एवं पाश तीन प्रमुख तत्त्वों में पति सर्वोच्च एवं सर्वशक्तिमान् सत्ता है। यद्यपि ये तीनों ही अनादि हैं, परन्तु पति ही सर्वोच्च एवं सर्वशक्तिमान् तथा नियन्ता है। वह अक्षरों में प्रथम अक्षर ‘अ’ की तरह विश्वव्यापी, सर्वभूत में ज्ञानरूप में अन्तर्लीन, अतुलनीय सत्ता है, जो आत्मा के साथ एकत्व, अनन्य, अभिन्न, अन्तर्यामी रूप से सम्बन्धित है। ईश्वर का चित्-शक्ति से तादात्म्य है। वही उसकी कृपा-शक्ति है। एकमात्र ईश्वर ही पंचकृत्य के अधिकारी हैं। ईश्वर के अनुग्रह के बिना पूर्ण चैतन्य-स्थिति प्राप्त करना असम्भव है, क्योंकि केवल सच्चिदानन्द ही उसके स्वरूप-ज्ञान को प्रदान करने के अधिकारी हैं। तिरुवरुट्पयन् के द्वितीय अध्याय में उमापति ने आत्मतत्त्व की विवेचना की है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार आत्मा ज्ञानस्वरूप, चेतन, १६६ तन्त्रागम-खण्ड ी अनादि, नित्य, शाश्वत, सदसत् एवं अनेक है। अनादि काल से वे अज्ञान के अन्धकार में जड़वत् निष्क्रिय स्थिति में रहते हैं। माया एवं कर्म दो सहकारी कारणों को प्रदान करते हुए, आत्मा को मूल अज्ञान के पाश से मोक्ष प्रदान करने के लिए ईश्वर ने विश्व की सृष्टि की है। इस सृष्टि में विभिन्न अवस्थाओं से गुजरती हुई आत्मा इस जगत् की निस्सारता का अनुभव करती है एवं एकमात्र सारतत्त्व ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण करती है। तब ईश्वर की कृपा से अज्ञान रूपी अन्धकार दूर होकर नित्य शाश्वत ईश्वरानन्द का अनुभव होता है। मल-परिपाक एवं कर्म-साम्य से ही शक्ति-निपात का उपयुक्त अवसर उत्पन्न होता है। तब ईश्वर तीव्र शक्ति-निपात (अनुग्रह शक्ति) से आत्मा को अपने शाश्वत आश्रय में ले लेता है, जहाँ से पुनः लौटने की कोई सम्भावना नहीं रहती। तिरुवरुट्पयन् के तृतीय अध्याय में उमापति आणव, कर्म एवं माया रूपी तीन पाशों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनादि काल से आणवाधृत होने के कारण अपने स्वरूप-ज्ञान एवं ईश्वरीय ज्ञान से वंचित होकर अन्धकारमय स्थिति में जड़वत् पड़ी रहती है। माया एवं कर्म-पाश रूप होने पर भी आंशिक मात्रा में प्रकाशमान हैं। ईश्वर आत्मा को अज्ञान रूपी अन्धकार से मुक्त कराने के लिए माया एवं कर्मरूपी दो सहकारी कारणों से सृष्टि-प्रक्रिया को उत्पन्न करता है, जिसमें आत्मा विभिन्न अवस्थाओं के संघर्ष से उत्पन्न अनेक अनुभवों को प्राप्त करती हुई क्रमशः मलपरिपाक एवं कर्मसाम्य की स्थिति को प्राप्त करती है। इस स्थिति में आणव मल अर्थात् मूल मल का बन्धन जब शिथिल हो जाता है, तभी शक्ति-निपात होता है। आत्मा की मोक्ष-यात्रा की प्रक्रिया में माया एवं कर्म आच्छादित या आवृत कपाशक्ति के द्वारा प्रयुक्त होते हैं। चतुर्थ अध्याय में उमापति ने ईश्वरीय कृपा के स्वरूप के विषय में विशद वर्णन प्रस्तुत किया है। ईश्वर की कृपा ही आत्मा के लिए अपने लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन है। उक्त अध्याय में उमापति ने कृपा के दो रूप तिरोधान एवं अनुग्रह का वर्णन किया है। सृष्टि-प्रक्रिया में आत्मा के विभिन्न अवस्थान्तर के कारण ही मलपरिपाक एवं कर्मसाम्य की स्थिति उत्पन्न होती है। यह ईश्वर की कृपा का ही फल है। आत्मा इसके विषय में सचेत नहीं रहती अथवा यह कहना चाहिए कि ईश्वर की कृपा को समझने की सामर्थ्य ही उसमें नहीं रहती, इसलिए इस स्थिति को तिरोधान शक्ति की अभिव्यक्ति कहा गया है। तिरोधान शक्ति की क्रिया से ही आत्मा में जब सामर्थ्य उत्पन्न होती है, तब तीव्र शक्ति-निपात से ईश्वरीय चैतन्य का अनुभव होता है। गुरु ही वह आधार है, जिसके माध्यम से ईश्वर-शक्ति का आविर्भाव होता है। गुरु-शक्ति ईश्वरीय शक्ति ही है। प्रथम अन्तर्यामी रूप में ईश्वर जीव को परम ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बनाता है, तत्पश्चात् गुरु के रूप में सर्वोच्च एवं अन्तिम स्थिति प्रदान करने वाला परम ज्ञान को प्रदान करता है। प्रथम प्रक्रिया तिरोधान-शक्ति एवं द्वितीय प्रक्रिया अनुग्रह-शक्ति की अभिव्यक्ति है। ईश्वर गरु के रूप में अनग्रह प्रदान कर जीव को सर्वोच्च स्थिति प्रदान करता है। पंचम अध्याय में उमापति ने गुरु की महिमा का वर्णन किया है। षष्ठ अध्याय में आत्मा की इस आध्यात्मिक यात्रा की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। १६७ दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त केवलावस्था आत्मा की आणवाधृत जड़वत् स्थिति है। ईश्वर की अनुकम्पा से माया एवं कर्म का सहयोग प्राप्त कर वह किंचित् ज्ञानरूपी प्रकाश को प्राप्त करती रहती है। यह आत्मा की सकलावस्था है, जिससे क्रमशः आत्मा शुद्धावस्था में पहुँचती है, जिसमें ज्ञान स्वप्रकाशकत्व को प्राप्त करता है एवं उपयुक्त समय में तीव्र शक्ति-निपात से अज्ञान रूपी अन्धकार पूर्ण रूप से तिरोहित हो जाता है। अन्तर्यामी ईश्वरीय शक्ति ही आत्मचैतन्य से अभिन्न होकर उसे उपयुक्त मार्ग में परिचालित करती है। सप्तम अध्याय में उमापति ईश्वर की कृपा से होने वाले आमूल परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति टार्च के पीछे रहकर सब विषयों को उसी प्रकाश से देखता है, मध्याह्न सूर्य में जैसे स्तम्भ की छाया नहीं पडती, उसी प्रकार ईश्वर की कपा के पूर्ण प्रकाशन से आणव मल कोई आवरण उत्पन्न नहीं कर सकता। अष्टम अध्याय में उमापति ईश्वरानन्द को प्राप्त करने के बाद की स्थिति का वर्णन करते हैं। चित् शक्ति के प्रकाश से देखने वाला व्यक्ति सदा ज्ञानसम्पन्न रहता है एवं सच्चिदानन्द ईश्वर के आनन्द में सदा ‘अनन्य’ भाव से निमग्न रहता है। उमापति एक शब्द के उदाहरण से उस एकत्व का वर्णन करते हैं। तमिल शब्द ‘ताडलै’ दो शब्दों के संयोग से बना है। ‘ताल’ अर्थात् पैर एवं ‘तलै’ अर्थात् सिर। इन दो शब्दों की सन्धि ईश्वर एवं आत्मा के मिलन की ‘अनन्यता’ को सूचित करती है। नवम अध्याय में पंचाक्षर मन्त्र की विशिष्टता का वर्णन किया गया है। पंचाक्षर में ‘शि’ ‘शिव’, ‘वा’ शक्ति अर्थात् कृपा का प्रतीक है। ‘न’ एवं ‘म’ मायेय अर्थात् माया एवं कर्म को सूचित करते हैं। ‘य’ आत्मा का द्योतक है। साधक के आध्यात्मिक स्तर के अनुसार पंचाक्षर मन्त्र के तीन रूप होते हैं; “नमः शिवाय”, “शिवाय नमः” एवं “शिवाय शिवः”। दशम अध्याय में मोक्षावस्था का वर्णन किया गया है। अज्ञान रूपी अन्धकार के दूर हो जाने पर आत्मा पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान-प्रकाश से उद्भासित हो जाती है। तब उसे सर्वत्र अन्तर्यामी शिव-शक्ति का बोध होता है। यह जीवन्मुक्ति की स्थिति है, जिसमें साधक शक्ति-चैतन्य से एकात्म होकर सर्वसमन्वयात्मक विभुज्ञान की स्थिति को प्राप्त करता है तथा ईश्वर-चैतन्य से अनन्य, अभेद, अद्वैत होकर ईश्वरानन्द का अनुभव करता है। गार उमापति कृत तिरुवरुट्पयन् ग्रन्थ पूर्ण रूप से ‘चित् शक्ति’ के कृपा प्रत्यय पर आधारित कहा जा सकता है।
९. वीणावेनबा
तमिल में वीणा शब्द का अर्थ है प्रश्न एवं वेनबा उस छन्द का नाम है, जिसमें उक्त पदों की रचना की गयी है। उमापति ने अपने गुरु ‘मरैज्ञानसम्बन्दर’ को सम्बोधित करते हुए तेरह पदों की यह रचना की है। शैव-सिद्धान्त के कई तात्त्विक प्रश्नों एवं उनके उत्तरों का सुन्दर विवेचन इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया गया है। प्रकाश एवं अन्धकार विरोधात्मक हैं। स्वप्नावस्था में स्वप्न मिथ्या रूप में प्रतीत नहीं होता। जाग्रत् स्थिति में स्वप्न तिरोहित हो जाता है। ईश्वर-कृपा का कोई अवस्थान्तर नहीं होता। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि मनुष्य १६८ पर तन्त्रागम-खण्ड कि का अवस्थान्तर क्यों होता है? मनुष्य में ईश्वर एवं अज्ञान कैसे एक साथ विद्यमान रहते बारह पदों में उमापति शैव-सिद्धान्त के मुख्य तात्त्विक प्रश्नों को उपस्थित करते हैं। आठवें पद में गुरु के आविर्भाव के बारे में वर्णन किया गया है। दसवें पद में अद्वैत मुक्ति का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वीणावेनबा की रचना उन जिज्ञासुओं के लिए की गयी है, जिन्होंने शिवज्ञानबोधम्, शिवज्ञानसिद्धियार एवं शिवप्पिरकाशम् का अध्ययन कर लिया हो। अन्तिम पद में उक्त रचना की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। वीणावेनबा के ज्ञान के बिना अन्य शास्त्र-ग्रन्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। शास्त्रज्ञान को आध्यात्मिक चेतना के रूप में परिवर्तित करना वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे कोई मूक व्यक्ति स्वप्न को वर्णित नहीं कर सकता। अरुलनन्दी शिवाचार्य ने ‘इरुपाइरुपदु’ नामक पुस्तक में अपने गुरु मैकण्डदेव को सम्बोधित किया है एवं वीणावेनबा में उमापति ने अपने गुरु मरैज्ञानसम्बन्दर को सम्बोधित किया है। उक्त पुस्तक में कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न उत्थापित किये गये हैं, जैसे सीमित मनुष्य कैसे कृपा को ग्रहण कर सकता है? Day 10 ‘तिरुवाबड्दुरइआदिनम्’ के ‘नमः शिवाय’ ‘तम्बिरान्’ एवं ‘धर्मपुरम्आदिनम्’ के सुब्रमणिय पिल्लइ एवं टी. ए. श्रीनिवासाचार्य ने उक्त पुस्तक की व्याख्या प्रस्तुत की है। जे. एम. नल्लस्वामी पिल्लई ने इस पुस्तक के पदों को अंग्रेजी में रूपान्तरित किया है।
१०. पोट्रीपर्होदई
शैव-सिद्धान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि ईश्वर के कृपा-प्रत्यय पर आधारित है। ईश्वर द्वारा प्रतिपादित पंचकृत्य कृपा की ही अभिव्यक्ति है। ईश्वर-कृपा आत्मा को अन्तिम रूप से बन्धन से मुक्ति प्रदान करने के लिए सृष्टि के तत्त्वों को प्रदान करती है, जिसमें विभिन्न अवस्थाओं के माध्यम से आत्मा उस परिपक्व स्थिति में पहुंचती है, जब तीव्र शक्ति-निपात से ईश्वर मोक्ष प्रदान करता है। पोट्रीप.दई पुस्तक में उमापति ने ईश्वर द्वारा प्रदत्त सृष्टितत्त्व का विवेचन प्रस्तुत किया है। ईश्वर की कृपा से सुख-दुःख के विभिन्न अनुभवों के द्वारा आत्मा शुद्धि होती रहती है, एवं अन्ततः आचार्य के माध्यम से शिव-कृपा की प्राप्ति होती है। उक्त पुस्तक की तुलना माणिक्यवाचगर द्वारा रचित ‘तिरुवाचकम्’ ग्रन्थ के पोट्रीतिरुवकबल नामक अंश से की जा सकती है, जिसमें ‘पोट्रीपर्होदई’ की तरह आचार्य की महिमा का गान किया गया है। धर्मपुरम्-आदिनम् द्वारा प्रकाशित सुब्रमणिय पिल्लइ ने इसे गद्य में रूपान्तरित किया है। विनियमाती विमान किया
११. कोडिक्कवि
ऐसा कहा जाता है कि चिदम्बरम् के नटराज मन्दिर में ध्वजोत्तोलन के उपलक्ष्य में मात्र चार पदों की इस पुस्तक की रचना की गयी थी। मन्दिर के ऊपर ध्वजोत्तोलन नहीं दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त १६६ हो पा रहा था। इन पदों के गाये जाने से निर्विघ्न रूप से ध्वनोत्तोलन हो गया। चार पदों में एक पद ‘कुडलैक्कलितुरइ’ छन्द में एवं बाकी तीन पद ‘बनवा’ छन्द में लिखे गये हैं। ध्वजोत्तोलन का प्रसंग ईश्वर-कृपा से परम-शुभ ज्ञान के प्रारम्भ की सूचना देता है। यद्यपि ध्वज एक प्रतीक ही है, परन्तु मन्दिर के ऊपर उसके अनायास उत्तोलन से ईश्वर की स्वाभाविक, स्वतःस्फूर्त कृपा सूचित होती है। प्रथम पद में आत्मतत्त्व में आणव मल के रूप में अज्ञान का अन्धकार एवं ईश्वर-कृपा की समविद्यमानता बतायी गयी है। आणव मल का अन्धकार ईश्वर-कृपा रूपी प्रकाश को आवृत नहीं कर सकता, वरन् ज्ञान रूपी प्रकाश से अज्ञानरूपी अन्धकार ही दूर हो जाता है। दूसरे पद में ईश्वर का स्वरूप, शक्ति, जीव एवं उसकी अवस्थाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। तृतीय सूत्र में ईश्वर के साथ जीव के अद्वैत सम्बन्ध की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। ईश्वर मन तथा वचन के परे होते हुए भी आत्मा से अविच्छेद्य रूप से सम्बद्ध है। चतुर्थ सूत्र में तीन प्रकार के पंचाक्षर मन्त्र का वर्णन पाया जाता है। ‘शिवाय नमः’ (पंचाक्षर), ॐ हं हौं शिवाय नमः’ (अष्टाक्षर), ॐ नमः शिवाय’ (षडक्षर) – इन मन्त्रों की विभिन्न प्रासंगिकता भी सूचित की गयी है।
१२. नेञ्जुविडुतुदु
यह पुस्तक कलिवेनबा छन्द में लिखी गयी है। ईश्वर की कृपा, जो इस विश्वप्रपंच का एकमात्र संचालक तत्त्व है, आत्मा की मुक्ति के लिए सभी विषयों को उसी क्रम में संचालित करती है। तमिल भाषा में मध्य काल में तूदु नामक साहित्यिक पद्धति का विकास हुआ था। उक्त कृति उन छियानबे साहित्यिक प्रबन्धों में एक है। इस पुस्तक में उमापति ने अपने गुरु ‘मरैज्ञानसम्बन्दर’ को ईश्वर के प्रतीक के रूप में मान कर उनके दस मुख्य प्रतीक चिह्नों को इस प्रकार से सूचित किया है ईश्वर की अथवा गुरु की महत्ता का प्रतीक पर्वत, आनन्द का प्रतीक नदी, आगमों के अगम्य स्थान का प्रतीक यह भूमि, शिवज्ञान का प्रतीक यह नगर, ईश्वर-कृपा का प्रतीक माला, शक्ति का प्रतीक घोड़ा, ज्ञान का प्रतीक हाथी एवं षड्-दर्शनों के परे ईश्वर का प्रतीक-चिह्न मूल नाद ही ईश्वर का डमरु है एवं ब्रह्मा-विष्णु से परे ईश्वर का साम्राज्य विस्तृत है। उक्त पुस्तक में ईश्वर की विश्वव्यापकता एवं उसके विश्वातीत स्वरूप का वर्णन करते हुए दार्शनिकों को जड़वाद, मायावाद, बौद्धदर्शन, जैनदर्शन एवं मीमांसदर्शन को भ्रमात्मक बताते हुए सावधान रहने का उपदेश दिया गया है। ने विडुतूदू में उमापति ने ‘तिरुवल्लुवर’ का उल्लेख एक सन्त के रूप में किया एवं इस विश्व संसार से वैराग्य प्राप्त करने वाले व्यक्ति को ही उक्त ज्ञान का अधिकारी बताया है। इस ग्रन्थ का एक प्राचीन भाष्य उपलब्ध है, परन्तु उसमें लेखक का नाम पाया नहीं जाता। ‘सुब्रमणिय पिल्लइ’ ने उक्त पद्यों का गद्य में रूपान्तरण किया (धर्मपुरम्-आदिनम् द्वारा प्रकाशित, १६६२)। २०० कमल तन्त्रागम-खण्ड र
१३. उणमैनेरीविलक्कम्
इस पुस्तक में उमापति ने साधन-जीवन के दस स्तरों का विवरण प्रस्तुत किया है, जिन्हें ‘दशकार्याणि’ कहा जाता है। इनके नाम है- तत्त्वरूपम्, तत्त्वदर्शनम्, तत्त्वशुद्धि; आत्मरूपम्, आत्मदर्शनम्, आत्मशुद्धि; शिवरूपम्, शिवदर्शनम्, शिवयोगम् एवं शिवभोगम्। उणमैनेरीविलक्कम् पुस्तक छः पदों का संकलन है। प्रथम पद में तत्त्वरूपम्, तत्त्वदर्शनम् और तत्त्वशद्धि का विवरण प्रस्तत किया गया है। दसरा पद आत्मरूपम, आत्मदर्शनम एवं आत्मशुद्धि को प्रकाशित करता है। तीसरे पद में शिवरूपम् का वर्णन है। चतुर्थ पद में शिवदर्शनम् के बारे में कहा गया है। पंचम पद शिवयोगम् की व्याख्या करता है एवं षष्ठ पद शिवभोग के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करता है। ‘दशकार्य’ की व्याख्या इस प्रकार से प्रस्तुत की जा सकती है- तत्त्वरूपम् में माया से उत्पन्न छत्तीस तत्त्वों का विवेचन किया गया है। इन छत्तीस तत्त्वों की आत्मतत्त्व से भिन्नता का बोध ही ‘तत्त्वदर्शनम्’ कहलाता है। जब आत्मा शुद्धीकरण की अवस्थाओं से गुजरती है एवं उसमें तत्त्वों का सम्यक् बोध उत्पन्न होता है, उस स्थिति को ही तत्त्व-शुद्धि कहते हैं। आत्मरूप वह स्थिति है जब आत्मा आणव मल के प्रभाव से मुक्त होकर ईश्वर-कृपा का अनुभव करती है, जब क्रमशः ‘मैं’ और ‘मेरे’ की अनुभूति का बन्धन शिथिल हो जाता है एवं आत्मा को अपने स्वरूप का, अर्थात आत्म-चैतन्य का बोध प्राप्त होता है। उस स्थिति को ही ‘आत्मदर्शनम’ कहते हैं। इस स्थिति के बाद आत्मा क्रमशः अपने कार्य एवं अपनी स्वतन्त्रता को ईश्वर पर समर्पित करती है, उसे ही ‘आत्म-शुद्धि’ कहते हैं। तदुपरान्त आत्मा सभी विषयों को जन्म, मृत्यु एवं सांसारिक क्रिया इत्यादि को, ईश्वर-कृपा के दृष्टिकोण से ही देखती है। इस चेतना को ही ‘शिवरूपम्’ कहते हैं। तब साधक का ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण हो जाता है, यह ‘शिवदर्शनम्’ है। पूर्ण समर्पण के फलस्वरूप सभी विषय ईश्वर-कृपा से आप्लावित प्रतीत होते हैं। सृष्टि के प्रत्येक विषय में ईश्वर-कृपा परिलक्षित होती है। यही ‘शिवयोग’ है। इसी अवस्था में सच्चिदानन्द के आनन्दघन स्थिति का निरन्तर अनुभव होता रहता है और साधक उसी ईश्वरानन्द में निमज्जित रहकर उसका उपभोग करता है। उसे ही ‘शिवभोग’ कहा जाता है। यह वह स्थिति है जब साधक को सम्यक् रूप से पति, पशु, एवं पाश का तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है तथा साधक विश्व के सभी विषयों से निर्लिप्त होकर ईश्वर-चैतन्य में अनन्य, अभेद, अद्वैत रूप में स्थित हो जाता है। यद्यपि उणमैनेरीविलक्कम् पुस्तक को उमापति द्वारा रचित “सिद्धान्त-अष्टकम्” के अन्तर्गत माना जाता है, परन्तु कई विद्वानों के अनुसार उक्त पुस्तक ‘शिकाढीतत्तुवनादर’ की रचना मानी जाती है। यह मतवाद प्रामाणिक सिद्ध नहीं हो पाता। उणमैनेरीविलक्कम् की दो व्याख्याएं पायी जाती हैं, एक ‘चिन्दनै-उरई’ एवं दूसरी सुब्रमणिय पिल्लइ की, जिन्होंने इन पदों को गद्य में रूपान्तरित किया। जे.एम.नल्लस्वामी पिल्लइ ने पदों का अंग्रेजी रूपान्तरण किया। बामाभार दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त २०१
१४. संकर्पनिराकरणम्
संकर्पनिराकरणम् नामक ग्रन्थ में उमापति शिवाचार्य ने निम्नलिखित सिद्धान्तों की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है— (१) मायावादम्, (२) ऐक्यवादम्, (३) पाषाणवादम्, (४’ भेदवादम्, (५) शिवसमवादम,(६) संक्रान्तवादम्, (७) ईश्वर–अविकारवादम्, (८) निमित्तकारण-परिणामवादम् (E) शैववादम्—उमापति की विशिष्टता इस बात में है कि . उन्होंने इन दार्शनिक सिद्धान्तों को इस प्रकार से क्रमबद्ध किया कि एक सिद्धान्त दूसरे की केवल आलोचना ही नहीं करता, वरन् सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से सुधारात्मक विवेचन भी प्रस्तुत करता है। शैववादम् का दृष्टिकोण अधिकांश शैव-सिद्धान्त के अनुरूप है, केवल सानान्य दृष्टिकोण में इनकी पारस्परिक भिन्नता दिखलाई पड़ती है, जिसे उमापति शिवाचार्य स्पष्ट करते हैं। संकर्पनिराकरणम् पुस्तक की दो व्याख्याएं प्राप्त होती हैं— एक व्याख्या के लेखक का नाम उपलब्ध नहीं है, दूसरी व्याख्या ज्ञानप्रकाशदेशिकर की बताई जाती है।
उमापति शिवाचार्य के अन्य ग्रन्थ
उपर्युक्त चौदह ग्रन्थ शैव-सिद्धान्त के शास्त्र-ग्रन्थ हैं, जिनमें आठ ग्रन्थ उमापति शिवाचार्य द्वारा रचित हैं। इनके अतिरिक्त उमापति ने संस्कृत में तीन पुस्तकों की रचना की एवं तमिल भाषा में और कई भक्ति-पुस्तकों की रचना की। संस्कृत भाषा में उमापति ने पौष्कर आगम पर विशद भाष्य लिखा। पौष्करभाष्य के आलोच्य विषय की शिवप्रकाशम् की विषयवस्तु से अनेकांश में समानता पायी जाती है। उमापति की दूसरी संस्कृत पुस्तक शतरत्नसंग्रह है, जिसमें उन्होंने मुख्य शैवागमों एवं उपागमों से अनेक उद्धरण देते हुए प्रायः सौ श्लोकों को संकलित किया। उक्त संकलन का उन्होंने संस्कृत भाषा के माध्यम से ‘शतरत्न-उल्लेखनी’ नामक भाष्य लिखा। उक्त संकलन एवं भाष्य में शैव-सिद्धान्त का तात्त्विक एवं दार्शनिक विवेचन हमें स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। उमापति ने ‘कुञ्चिताङ्घिस्तवम्’ नामक पुस्तक में नटराज मूर्ति की महिमा का वर्णन किया है एवं ‘नटराजध्वनिमन्त्रस्तवम्’ में नटराज की महिमा की स्तुति करते हुए नटराज की नित्य एवं नैमित्तिक पूजा का विधान प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त ‘कोयिरपुराणम्’ नामक पुस्तक में चिदम्बरम् का इतिहास बताते हुए नटराज की स्तुति की है। इस पुस्तक में नटराज का आनन्द-ताण्डव एवं चर्या, क्रिया, योग तथा ज्ञान के विवेचन प्रस्तुत किये गये हैं। तिरुप्पडिक्कोवइ नामक पुस्तक में चौदह पदों का संकलन है, जिसमें विभिन्न तीर्थ एवं पवित्र स्थानों का वर्णन करते हुए साधन-जीवन में इनकी आवश्यकता का विवेचन किया गया है। तिरुप्पाडिक्कोवइ नामक पुस्तक भी चौदह पदों का ही संकलन है। इसमें तिरुज्ञानसम्बन्दर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति द्वारा बताये गये विभिन्न मन्दिरों एवं उनमें प्रतिष्ठित विग्रहों की आराधना एवं महिमा की स्तुति की गयी है। ‘सेक्किलारपुराणम्’ नामक पुस्तक में उमापति ने एक सौ तीन पदों में पेरियपुराणम् के रचयिता सेक्किलार की जीवनी एवं ‘पेरियपुराणम्’ का संक्षिप्त वर्णन किया २०२ नाना तन्त्रागम-खण्ड
है। ‘तिरुमुरडकण्डपुराणम्’ पुस्तक में पैंतालीस पदों के माध्यम से उमापति ने तिरुमुरइ का संक्षिप्त ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत किया है। ‘तिरुत्तोण्डरपुराणसारम्’ नामक छिहत्तर पदों की पुस्तक में उमापति ने पेरियपुराणम् में वर्णित तिरसठ सन्तों का नौ वर्गों में वर्गीकरण करते हुए संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत किया, जिसमें सन्तों के जीवन में ईश्वर-कृपा की स्पष्ट अभिव्यक्ति प्रकाशित होती है। ज्ञानाचार्यशास्त्रपञ्चकम् अथवा ज्ञानचरित्तै नामक पुस्तक में उमापति ने (१) ज्ञानपूजाकरणम्, (२) ज्ञानपूजै, (३) ज्ञानदी? अथवा ज्ञानदीक्षाविधि, (४) ज्ञानतिचेत्ति एवं (५) भोजनविधि इत्यादि पांच भागों में विभिन्न विषयों का विवेचन प्रस्तुत किया है। मामी माजावाही मीशा की
मोक्ष एवं साधना
मोक्ष को प्राप्त करने के लिए आत्मा को केवल, सकल एवं शुद्ध नामक तीन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। केवल स्थिति में आत्मा आणव मल से युक्त होकर एवं कर्म मल के व्यापक भार को ग्रहण करने के लिए माया द्वारा उत्पन्न देह को धारण करती है। इसी प्रकार सकल स्थिति में आत्मा अनेक जन्मों के देहान्तर से क्रमशः विभिन्न अनुभवों के माध्यम से विषयों के सम्यक्, सत्य ज्ञान को प्राप्त करती हुई विश्व—प्रपंच के प्रति उदासीन होकर ईश्वर-शरणापन्न हो जाती है। तत्पश्चात् ईश्वरीय-शक्ति गुरु में आविर्भूत होकर अज्ञान के अन्धकार को दूर करती हुई ज्ञान-स्वरूप मोक्ष प्रदान करती है। जन्म-मृत्यु-चक्र के अन्त के साथ ही आत्मा जीवन्मुक्ति की स्थिति को प्राप्त करती है। यह वह स्थिति है, जिसमें आत्मा तीनों पाशों में मुक्त होकर ईश्वरीय परमानन्द का अनुभव करती है। केवल शिव-शक्ति ही इस परम स्थिति को प्रदान करने में समर्थ है। शिव-कृपा से ही आत्मा पाश-बन्धन से मुक्त होकर शिवानन्द को प्राप्त करती है। अनादि काल से आत्मा अज्ञान मल से आच्छादित होकर जड़वत् स्थिति में रहती है। परमेश्वर शिव ही उसके मूल चैतन्य स्वरूप के प्रकाशन के लिए सृष्टि करता है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि-प्रक्रिया परमेश्वर की आत्मा के प्रति सहज स्वाभाविक कृपा की अभिव्यक्ति है। माया एवं कर्म यद्यपि पाश-बन्धन है, परन्तु मूल-मल के दृढ़ बन्धन को शिथिल करने के लिए शिव-शक्ति इन दो पाशों का प्रयोग उसी प्रकार से करती है, जैसे रजक कपड़े के मूल मैल को साफ करने के लिए अन्य मैल का प्रयोग करता है एवं अन्ततः सभी मैलों को धोकर साफ कर देता है। ईश्वर-शक्ति भी, माया एवं कर्म से आत्मा द्वारा अनेक अनुभवों को प्राप्त करने के बाद मूल-मल के परिपक्व फल की तरह शिथिल हो जाने पर, तीव्र शक्ति-निपात से मूल-मल जनित अज्ञान रूपी अन्धकार को तिरोहित कर देती है। शिव-शक्ति की यह प्रक्रिया दो भागों में विभाजित रहती है; एक आच्छादित रूप में और दूसरी पूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में। आच्छादित प्रक्रिया को तिरोधान एवं पूर्ण प्रकाशन को अनुग्रह कहा जाता है। शिव-शक्ति की ये दो प्रक्रियायें वास्तव में आत्मा की अवस्थाओं को ही सूचित करती हैं, अर्थात् पाशबद्ध होने के कारण आत्मा को शिव-शक्ति का साक्षात् ज्ञान दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त २०३ नहीं रहता। शिव-कृपा से पाश का नाश होने पर ही शिव-शक्ति का सम्यक् बोध उत्पन्न होता है। अज्ञान के सघन अन्धकार में आबद्ध जड़वत् स्थिति से आत्मा का उद्धार करने के लिए ही ईश्वर सृष्टि को प्रकाशित करता है एवं उपयुक्त समय में चित्-शक्ति के तीव्र प्रभाव से अज्ञान रूपी पाश का छेदन कर देता है। प्रथम प्रक्रिया तिरोधान एवं द्वितीय प्रक्रिया अनुग्रह कहलाती है। ये दो प्रक्रियाएं एक ही शिव-शक्ति के दो पक्ष हैं, जिसे आत्मा अपनी स्थिति के अनुसार प्राप्त करती है। तिरोधान-शक्ति की अहम् भूमिका ही आत्मा में मल-परिपाक एवं कर्मसाम्य की ऐसी संयुक्त स्थिति को उत्पन्न करती है, जिससे आत्मा चित्-शक्ति को तीव्र रूप में ग्रहण करने में समर्थ हो जाती है। तिरोधान-शक्ति ही आत्मा को अनुग्रह-शक्ति को ग्रहण करने के लिए उपयुक्त बना देती है। कर्म-साम्य एवं मल-परिपाक शक्ति-निपात का आवाहन करने वाली पूर्व-स्थितियां हैं। शैव-सिद्धान्त के अनुसार सृष्टि के साथ ही आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा का आरम्भ शिव-शक्ति के संरक्षण में होता है तथा उसकी यात्रा का अन्त भी शिवशक्ति के संरक्षण में उसी में विलीन होकर ही होता है; अर्थात् शिव-शक्ति ही साधन एवं साध्य दोनों ही है। मलपरिपाक शुभ एवं अशुभ कर्म के प्रति चित्त की वह वैराग्यपूर्ण उदासीन, समता की स्थिति है, जिसमें चित्त परिणाम के प्रति सम्पूर्ण अनुद्विग्न, विकार-रहित, शान्त स्थिति को प्राप्त करता है। इसे ही कर्म-साम्य अथवा ‘इरुविनैयोप्यु’ कहा जाता है। आत्मा द्वारा निरन्तर ईश्वर की शरण लेने का प्रयास ही मल-परिपाक स्थिति को उत्पन्न करता है। विभिन्न सांसारिक अनुभवों के माध यम से आत्मा संसार की निस्सारता एवं ईश्वर-चैतन्य की सर्वव्यापकता के सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करती हुई ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण करती है। मल-परिपाक एवं कर्म-साम्य की संयुक्त स्थिति ही आत्मा को पूर्णरूप से शिव-कृपा को प्राप्त करने के अनुकूल बना देती है। आत्मा की इस उच्च स्थिति को ‘शुद्धावस्था’ कहते हैं, जिसमें सभी पाशबन्धनों के शिथिल हो जाने पर चित्-शक्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। जीवन्मुक्ति की इस स्थिति को प्राप्त करने की प्रक्रिया के कई स्तर हैं; पाश-ज्ञान, पशु-ज्ञान एवं पति-ज्ञान। शैव-सिद्धान्त की आध्यात्मिक चेतना ‘ज्ञानस्वरूपता’ मानी जाती है। यह वेदान्त एवं आगमिक दृष्टिकोण से सामञ्जस्यपूर्ण है। शिवाग्रयोगिन् ने भी अपने भाष्य में मोक्ष की ज्ञानस्वरूपता का स्पष्ट उल्लेख किया है । पति-ज्ञान ही वह मूल ज्ञान है, जो आत्मा को अज्ञान के बन्धन से मुक्ति प्रदान कराता है। ज्ञान के विभिन्न स्तरों में सर्वप्रथम सामान्य रूप से स्थूल तत्त्व का ज्ञान होता है। तदनन्तर स्थूल एवं सूक्ष्म की भिन्नता का बोध होता है। अन्ततः तत्त्व का सत्य या यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में अन्धकार से सीमित प्रकाश के माध्यम से पूर्ण प्रकाश को प्राप्त किया जाता है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान १. “ज्ञानादेव तु कैवल्यम्”, “ज्ञानेनैव तु कैवल्यप्राप्तिस्तत्र न संशयः” सुपभेद आगम, ज्ञानपाद, का १ शिवसृष्टि-विधि-पटल ५ । २. “…ज्ञानादेव तु कैवल्यप्राप्तिस्तत्र न संशयः” इत्यादिभिर्ज्ञानस्य मोक्षसाधनताप्रतिपादकवचनैर्ज्ञानस्यैव चार नामा २०४ तन्त्रागम-खण्ड मी के इन स्तरों को (१) रूप, (२) दर्शन एवं (३) शुद्धि कहते हैं। ‘रूप’ का तात्पर्य प्राथमिक लाक्षणिक ज्ञान है, जिसमें भिन्नता एवं उपाधि का बोध विद्यमान रहता है। यह बौद्धिक ज्ञान क्रमशः समन्वयात्मक ज्ञान को उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध होता है। ‘दर्शन’ वह तात्त्विक ज्ञान है, जिसमें क्रमशः ‘स्वरूप’ का बोध होता है। यह वह समन्वयात्मक ज्ञान है, जिसमें आत्म-विश्लेषण एवं मनन की प्रक्रिया होती रहती है। ‘शुद्धि’ वह बाधारहित अविमिश्र सम्यक्-ज्ञान है, जो तत्त्व के साक्षात्, अपरोक्ष, विशुद्ध ज्ञान को उत्पन्न करता है। शैव-सिद्धान्त के तीन तत्त्व—पति, पशु एवं पाश के अनुसार ज्ञान दस स्तर में उत्पन्न होता है, जो परस्पर क्रमानुसार होते हुए भी सामान्य आधारभूत आश्रय में विद्यमान रहता है। (१) तत्त्वरूप, (२) तत्त्वदर्शन, (३) तत्त्वशुद्धि; (४) आत्मरूप, (५) आत्मदर्शन (६) आत्मशुद्धि; (७) शिवरूप, (८) शिवदर्शन, (६) शिवयोग, (१०) शिवभोग- शैव-सिद्धान्त के अनुसार साधन एवं साध्य के उपर्युक्त दस चरण हैं। इन दस चरणों में अन्तिम दो अर्थात् शिवयोग एवं शिवभोग फल या परिणाम हैं, जिसे अन्तिम आध्यात्मिक उपलब्धि (आत्मलाभ) कहा जा सकता है। ये दोनों शिवशक्ति से ‘अनन्य’ सम्बन्ध को सूचित करते हैं। पूर्वोक्त आठ क्रम साधन के क्रम माने जाते हैं। इन दस साधनक्रमों का केन्द्र-बिन्दु आत्मा ही है। आत्मा के सीमित अहम् का त्याग असीमित पूर्ण अहम् की प्राप्ति से ही हो सकता है। आत्मा और अनात्मा की भिन्नता के सम्यक् ज्ञान से ही आत्मबोध की उत्पत्ति होती है। पशु, जो पति एवं पाश के मध्य स्थित रहता है, इन साधनक्रमों में क्रमशः पाश से अपने को अलग करता हुआ पति में सम्मिलित हो जाता है। ‘तत्त्व-रूप’, ‘तत्त्वदर्शन’ एवं ‘तत्त्वशुद्धि’ क्रमशः ‘आत्मरूप’ में उन्नीत होती है। यद्यपि पशु साधना के इन क्रमों में उन्नीत होता है, परन्त स्वतन्त्र-ज्ञान सम्पन्न नहीं हो सकता। वह शिव-ज्ञान के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। चित्-शक्ति ही सर्वव्यापक प्रकाश है, जो आत्मा को तत्त्वज्ञान-प्रकाश प्रदान करती है। ईश्वर अखण्ड चित्-सत्ता होने के कारण सत् या असत् में खण्डित नहीं होता। असत्, अचित् होने के कारण चित्-सत्ता को प्राप्त नहीं कर सकता। एकमात्र पशु ही अनादि काल से आणवाधृत होने पर भी चित्-शक्ति से समन्वित होकर तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ होता है। तत्त्वज्ञान के क्रम में ‘तत्त्वरूप’ एवं ‘तत्त्वदर्शन’ में तत्त्व का वास्तविक सम्यक् ज्ञान उत्पन्न होता है। पाश-ज्ञान वास्तव में पाशतत्त्वों की सहायता से उत्पन्न होने वाला सम्यक्-ज्ञान है, जिसे पशु प्राप्त करता है। उसी प्रकार पशु-ज्ञान एवं पति-ज्ञान को भी प्राप्त करने वाला अधिकारी पशु ही है। ज्ञान के इन विभिन्न क्रमों को आत्मा अपनी स्थिति के अनुसार शिव-शक्ति से समन्वित होकर ही प्राप्त करती है। ज्ञान के प्रकाशन के विभिन्न चरणों में शिव-शक्ति सामान्य, सार्वभौम, आश्रय तथा निमित्त के रूप में क्रियाशील रहती है। आत्मा ही साधक है। यदि प्रश्न किया जाय कि साधना का स्वरूप क्या ज्ञान अथवा भक्ति है अथवा दीक्षा अथवा तीनों का समन्वय है? उत्तर के रूप में स्पष्टतः, शैव-सिद्धान्त-ज्ञान को ही मोक्ष का साधन मानता है। ज्ञान ही वह सन्मार्ग है. जिसे अन्य सभी साधन-पद्धतियों के द्वारा प्राप्त किया जाता है। कर्म, दीक्षा, भक्ति इत्यादि सभीदक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त २०५ प्रणालियाँ ज्ञान में ही परिसमाप्त होती हैं। ज्ञान के क्रम में सर्वोच्च ज्ञान, पतिज्ञान को ईश्वर स्वयं ही प्रदान करता है एवं वही ज्ञान वास्तविक मोक्षज्ञान है। पाश-ज्ञान एवं पशु-ज्ञान ‘अज्ञान’ के क्रम में ही माने जाते हैं और इसीलिए मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते। सद्गुरु के माध्यम से ही शिव-शक्ति का आविर्भाव होता है तथा आत्मा ‘अहंकार’ एवं ‘ममकार’ से मुक्त होकर ‘तत्त्वशुद्धि’ की स्थिति में पहुँचती है। वही ‘आत्मदर्शन’ की पूर्वावस्था है। अज्ञान का आवरण दूर कर आत्मबोध को प्राप्त करना ही ‘आत्मदर्शन’ है। पाशक्षय के उपरान्त शिवानुभव को प्रदान करने वाला वह सर्वव्यापक, सामान्य, विषय-विषयी से परे पति-ज्ञान ही है, जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करता हुआ आत्मा को अपने से ‘अनन्य’ बना लेता है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान ही साधन एवं ज्ञान ही साध्य है। क्रिया एवं भक्ति ज्ञान से अंगांगी रूप से सम्बद्ध है। दीक्षा वह आध्यात्मिक ज्ञान-प्रणाली अथवा चित्-कर्म है, जिसे ‘शिव-दीक्षा-शक्ति’, ‘संकल्प-चित्कर्म’ कहा जाता है। दीक्षा वास्तव में कर्म नहीं, वरन् किया-शक्ति का व्यापार है, जो स्वरूपतः ज्ञान के रूप में ही प्रकाशित होती है। अतः दीक्षा ज्ञान के माध्यम से मोक्ष-साधना ही है। जैसे गरुड़मन्त्र सर्प-विष को दूर करने में समर्थ होता है, उसी प्रकार दीक्षा की विभिन्न प्रणालियों के द्वारा आध्यात्मिक शुद्धि होती है एवं अन्ततः ‘निर्वाण दीक्षा’ से अज्ञान तिरोहित होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ज्ञान-शक्ति के आविर्भाव से ही अज्ञता दूर हो सकती है। इसीलिए शैव-सिद्धान्त के अनुसार चर्या, किया एवं योग की पूर्णता ज्ञान के रूप में होती है। भक्ति भी आन्तरिक सत्य-ज्ञान को ही सूचित करती है। पौष्कर आगम के अनुसार ‘पर’ एवं ‘अपर’ ज्ञान क्रमशः ‘परमज्ञान’ एवं ‘यौक्तिक आनभविक ज्ञान’ माना जाता है। शिवधर्मोत्तर आगम के अनुसार ज्ञान-यज्ञ सर्वोच्च साधन प्रणाली है। शैव-सिद्धान्त उपर्युक्त दृष्टिकोण का समर्थन करता है। जैसा पहले बताया गया है कि तिरोधान-शक्ति की प्रक्रिया से कर्म-साम्य एवं मल-परिपाक की स्थिति उत्पन्न होने पर ज्ञानरूपी शक्ति का आविर्भाव होता है, जो चित्-शक्ति की व्यक्तावस्था है और इसीलिए ‘अनुग्रह-शक्ति’ कहलाती है। चर्या, क्रिया एवं योग साधन की पूर्णता शुद्धावस्था को उत्पन्न करती है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार उपर्युक्त ‘दशकार्याणि’ में शिवरूप, आत्मदर्शन एवं तत्त्वशुद्धि परस्पर महत्त्वपूर्ण रूप से सम्बद्ध हैं। अचेतन तत्त्व से स्वातन्त्र्य की अनुभूति ही तत्त्वशुद्धि है, जिससे आत्मबोध (आत्मदर्शन) की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर शिवरूपी गुरु की कृपा से ‘शिवरूप’ का दर्शन होता है। शब्द एवं अर्थ की सम्पूर्ण परिधि, अर्थात् वाक्तत्त्व के सभी प्रकाशन वेद, शास्त्र, स्मृति, पुराण, कला, विज्ञान एवं नाद से पृथ्वी तत्त्व तक, पाशज्ञान के अन्तर्गत माने जाते हैं। पति इस शब्द एवं अर्थ की परिधि से परे वाङ्मनोतीत है। पशु-ज्ञान वास्तव में पाशज्ञान से पतिज्ञान तक जाने के मध्य की स्थिति है। ज्ञान के दृष्टिकोण से सूक्ष्म रूप से यह भी पाश-ज्ञान के अन्तर्गत ही आता है, क्योंकि एकमात्र पतिज्ञान ही पति द्वारा प्रदान किया गया मोक्ष-ज्ञान है। पशु-ज्ञान सकलावस्था से शुद्धावस्था, अर्थात् मोक्षावस्था के मध्य की स्थिति है। शिव-शक्ति द्वारा प्रदत्त शिवज्ञान ही पशु-ज्ञान को पूर्णता प्रदान करता है, अर्थात् सार्वभौम, २०६ तन्त्रागम-खण्ड की सर्वव्यापक, अनन्य, अद्वैत, चैतन्य से सब आप्लावित हो जाता है। साधक साधना के द्वारा शुद्धावस्था को प्राप्त करता है, जिसकी पूर्णता पतिज्ञान से होती है। गरुड़ मन्त्र से गरुड़ ‘भाव’ को प्राप्त होकर सर्पविष को दूर करना काल्पनिक नहीं, वरन् वास्तविक तथ्य है। ‘शिवोऽहम् अस्मि’ ज्ञान एवं क्रियाशक्ति का पूर्ण समन्वय है। ज्ञान एवं ज्ञेय के ‘अनन्यत्व’ का दूसरा दृष्टान्त ‘पंचाक्षर’ मन्त्र है, जिसमें ध्यान अर्थात् भावना, मन्त्र एवं क्रिया एकत्व, अद्वैत की स्थिति में परिणत होते हैं। पंचाक्षर की साधना से हृदय-पुण्डरीक में जो अन्तर्याग-पूजा होती है, वही शिवपूजा है। इस प्रकार भावना, मन्त्र एवं क्रिया के समन्वय से मन की भी ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं संकल्पात्मक स्थिति का एकीकरण होकर आत्मशुद्धि होती है, जो साधक को शिवयोग एवं शिवभोग के लिए योग्य बनाकर तैयार कर देती है।
शिवयोग
शैव-सिद्धान्त के अनुसार मोक्ष का तात्पर्य ‘पाशमुक्ति’ है। मल, माया, इत्यादि पाश के क्षय होने से आत्मा की स्वानुभूति अर्थात् ‘आत्मलाभ’ होता है। तदनन्तर पति-ज्ञान से सम्पूर्ण पाश-क्षय होने पर ईश्वर-चैतन्य प्राप्त होता है। मोक्ष में निम्नलिखित क्रम पाये जाते हैं— तत्त्वशुद्धि अर्थात् अनात्मतत्त्व से मुक्ति ही ‘आत्मरूप’ है। तदनन्तर आत्मशुद्धि अर्थात् सीमित आत्मा से मुक्ति ‘शिवदर्शन’ है। पुनः साधक अहंकार तत्त्व से उत्पन्न ‘मैं’ एवं ‘मेरे’ की अनुभूति से मुक्त होकर शिवयोग की स्थिति को प्राप्त करता है। ‘शिव-रूप’ में ईश्वर-चैतन्य क्रिया-शक्ति के प्रयोग से कर्म एवं अध्व (मायीय) को नष्ट करता हुआ आत्मा को आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर कर देता है। ‘शिव-दर्शन’ में ज्ञानशक्ति के प्रयोग से आत्मा से मूल मल का अन्धकार दूर हो जाता है, एवं आत्मा आणव, कर्म तथा माया-पाश से मुक्त होकर ईश्वर-चैतन्य को प्राप्त करती है। तत्त्व-शुद्धि से आत्म-दर्शन की योग्यता होती है तथा आत्मशुद्धि से शिवदर्शन का अर्थात् ज्ञेय को जानने का अधिकार उत्पन्न होता है। गुरु-शक्ति के माध्यम से पंचाक्षर मन्त्र के द्वारा ही आत्मा शिव-शक्ति से रहस्यात्मक मिलन की स्थिति को प्राप्त करती है, जिसे ‘योग’ कहा गया है। यह ‘योग’ विषय एवं विषयी का मिलन है। पाश-क्षय होने पर भी ‘मैं’ के रूप में पशु में जो सूक्ष्म आत्मबोध रह जाता है, उसी के द्वारा सत्य की प्रतीति होती है, अर्थात् ‘सोऽहं भावना’ के रूप में शिव के साथ मिलन की अनुभूति होती है। ज्ञाता के रूप में ‘मैं’ और ‘मेरे’ के माध्यम से ज्ञेय का बोध होता है। जिस प्रकार चक्षु की ज्योति एवं बाह्य प्रकाश के अनन्यत्व से देखने की क्रिया सम्पन्न होती है, अर्थात् बाह्य-प्रकाश एवं चक्षु इन्द्रिय-प्रकाश की संलग्नता के कारण दोनों की भिन्नता प्रतीत नहीं होती। उसी प्रकार आत्मा में विद्यमान शुद्ध ‘मैं’ एवं ‘मेरे’ की अनुभूति के साथ शिव-शक्ति की अनन्यता के कारण दोनों तत्त्वों की भिन्नता की प्रतीति १. मापादियम्, पृ. ६४६८-६६, उणमैविलक्कम्, ५.३४. धार लि नीलाम कर रहाता दक्षिण भारत का शैवसिद्धान्त २०७ नहीं होती। आत्मा शुद्ध ‘मैं’ तत्त्व के माध्यम से ‘तत्’ तत्त्व के बोध को प्राप्त करती है, ‘शिव-योग’ का यह प्राथमिक स्वरूप है। तदनन्तर क्रमशः आत्मा की स्वतन्त्र इच्छा परम इच्छा में विलीन होती जाती है एवं आत्मा उस स्वतः-प्रकाश-ज्योति से अनन्यत्व की स्थिति को प्राप्त करती है, जिसमें केवल दोनों के अभेद की ही प्रतीति नहीं होती, वरन् आत्मा उस परम ज्योति में निमग्न हो जाती है (यद् इच्छति करोति तत्)। यह स्थिति ‘अप्रतिहत स्वेच्छानुवर्तित्व’ की स्थिति है, अर्थात् ‘व्यक्ति-स्वातन्त्र्य’ ‘पूर्ण स्वातन्त्र्य’ में समर्पित होकर पूर्णता को प्राप्त करता है। यह ‘शिवानन्दानुभवेच्छा’ ही आत्मा के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता का अनुवर्तन है। यह आत्मा की चित्-शक्ति के साथ ‘समन्वय’ या मिलन है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार मोक्ष की यह स्थिति ईश्वर-प्रेम अथवा ईश्वरानन्द का साक्षात् अनुभव है। ‘शिवत्व’ की अभिव्यक्ति से पशुत्व का मोचन होने पर आत्मा शिवत्व’ को प्राप्त करती है। शिवयोग की यह शुद्धावस्था आत्मा की तुरीय स्थिति एवं शिवभोग तुरीयातीत स्थिति कही जाती है।
शिवभोग
पशुत्व के नाश से सच्चिदानन्द के अनन्य चैतन्य का निरन्तर अनुभव होता है (सुखप्रभा)। चित-शक्ति की अभिव्यक्ति एवं आनन्दस्वरूप का प्रकाशन ही क्रमशः शिवयोग एवं शिवभोग है, अर्थात् ईश्वर-कृपा की अनुभूति शिव-योग एवं सच्चिदानन्द के आनन्दघन स्वरूप में निमज्जन की स्थिति ‘शिवभोग’ है। परमानन्द का अनुभव ही अद्वैतानुभव है। ‘अद्वैत’ केवल मात्र सम्बन्ध नहीं, वरन् सम्बन्ध की ‘साक्षात् चेतना’ या ‘बोध’ है। चित्-शक्ति के साथ अद्वैत सम्बन्ध ‘शिवयोग’ एवं उसी अद्वैतत्व की चेतना या साक्षात् आनन्दानुभव ‘शिवभोग’ है। चित्-शक्ति के साथ अनन्यत्व से शिवानुभव ‘स्वानुभूति’ के रूप में उसी प्रकार से उत्पन्न होता है, जैसे बाह्य प्रकाश एवं चक्षुरिन्द्रिय प्रकाश के अनन्यत्व से देखने की क्रिया सम्पन्न होती है। यह ‘शिवयोग’ की स्थिति है, जिसमें आत्मा शिवशक्ति से अभिन्न होकर उसी में विद्यमान रहती है। परन्तु यह अन्तिम या चरम स्थिति नहीं है। आत्मा का शिव-शक्ति के साथ मिलन एवं अभिमान का समर्पण शिवयोग के रूप में एक नकारात्मक प्रक्रिया है। तदनन्तर शुद्ध ज्ञान, क्रिया, इच्छा (मैं और मेरे के अभिमान से रहित) का भावात्मक आनन्दानुभव उत्पन्न होता है। यही ‘शिव-भोग’ है। शैव-सिद्धान्त के अनुसार अन्य उपभोग एवं शिवभोग में यह मौलिक अन्तर है कि इस अन्तिम एवं चरम अनभव में ईश्वर स्वयं आत्मा के आधार के रूप में, अनभव एवं अनभविता के रूप में आत्मा को अप्रतिहत आनन्दानुभव प्रदान करता है। शिव स्वयं इस अनुभव प्रक्रिया में सामान्य सार्वभौम रूप में विद्यमान रहकर अनुभव को त्रिपुटी के परे शाश्वत अनन्यत्व प्रदान करता है। यह ऐसा अनुभव है, जिसमें ईश्वर आत्मा को अपने में निमज्जित करता हुआ उसी के रूप में अपने आनन्द स्वरूप का अनुभव करता है। इस अनुभव में जीव एवं शिव के अनुभवों की भिन्नता नहीं रहती। आनन्द-रूप होने के कारण शिव स्वयं उसका २०८ तन्त्रागम-खण्ड ण अनुभव नहीं करता, जीव से ‘अनन्य’ होकर ही वह आत्मस्वरूप का आस्वादन करता है। आत्मा की ओर से यह शाश्वत आनन्द का उपभोग है। यह ऐसी सर्वव्यापक स्थिति है, जिसमें आत्मा के विभु चैतन्य में सभी तत्त्व उद्भासित हो जाते हैं। शैव-सिद्धान्त के अनुसार पूर्णता की इस स्थिति में मल भी तात्त्विक रूप में विद्यमान रहता है, परन्तु उसकी आवरक शक्ति नष्ट हो जाती है, जिससे वह आत्मा के लिए हानिकारक नहीं रहता। आवरक-शक्ति ही चैतन्य को आच्छादित करती हुई अज्ञान रूपी अन्धकार को उत्पन्न करती है। आत्मा में शिव-शक्ति के पूर्ण प्रकाशन से आवरकत्व नष्ट होकर अज्ञता तिरोहित हो जाती है एवं मल-तत्त्व शिव-शक्ति के द्वारा पूर्णरूप से अभिभूत हो जाता है। परन्तु ईश्वर के सर्वव्यापक चैतन्य में अन्य तत्त्वों की तरह उसका भी तात्त्विक अस्तित्व रहता है। वरन् इसे इस प्रकार से कहा जाना चाहिए कि सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्द में सभी सत्ताएं अपने तात्त्विक रूप में विद्यमान रहती हैं। यही शैव-सिद्धान्त का अद्वैत दृष्टिकोण है।। Eਦ ਨੂੰ ਸੁਲ ਨੂੰ ਮੁੜ ਲਾ 5 ਜਨ ਓਹ ਸੰਸਲ ਨੂੰ ਇਹ पल काही गावानतिजा जि तिवारी किरिता कशी किमया