०४ द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम

अनादिकाल से भगवान् शिव के ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात नामक पाँच मुखों से निर्गत ज्ञान को, जो गुरु-शिष्य की परम्परा से आज तक चला आया है, आगम कहा जाता है। वेद की ही तरह यह अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण शास्त्र है। यही ज्ञानरूप आगम शब्द रूप में अवतरण करता है। अखण्ड आगम परा वाक है। उसका कोई स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सकता। वह पश्यन्ती अवस्था में स्वयंवेद्य रूप से प्रकाशित होता है। यह स्वयं प्रकाशरूप है और यही साक्षात्कार की अवस्था है। इस अवस्था में शब्द और अर्थ दोनों एक रूप में रहते हैं, दोनों का विभाग नहीं होता। यह ज्ञान मध्यमा में उतर कर सूक्ष्म शब्द (नाद) का आकार लेता है। इस भूमि पर शब्द और अर्थ का विभाग तो हो जाता है, किन्तु शब्द मन ही मन मडराते रहते हैं, कण्ठ, तालु आदि का कोई व्यापार उनमें नहीं होता और न उन शब्दों को कोई सुन सकता है। इसे लोक में मन से बात करना कहते हैं। इस भूमि पर गुरु-शिष्य भाव का उदय होता है, जिसके परिणाम स्वरूप एक आधार से दूसरे में ज्ञान का संचरण होता है। विभिन्न शास्त्र और गुरु-परम्परा मध्यमा भूमि में ही प्रकट होते हैं। वैखरी में वह ज्ञान या शब्द स्थूल रूप धारण करता है और इन्द्रियों का विषयीभूत होता है। शिवपुराण में शिवागम के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं - श्रौत और स्वतन्त्र। श्रौत संज्ञक शिवागम के उपदेष्टा रुरु, दधीचि, अगस्त्य और उपमन्यु आदि हैं और ये पाशुपत ज्ञान से सम्बद्ध हैं। महाभारत के अनुशासन-पर्व (१४.६७-३७७) तथा वायुसंहिता के उत्तर भाग में उपमन्यु के द्वारा कृष्ण को आगम-ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा देने का विवरण मिलता है। स्वतन्त्र संज्ञक शिवागम दस और अठारह भागों में विभक्त कामिकादि शास्त्र ‘सिद्धान्त’ पद वाच्य हैं। इस पद को अघोर शिवाचार्य ने रत्नत्रय की अपनी टीका में पंकजादि शब्दों की तरह उक्त अट्ठाईस आगमों में रूढ़ माना है। इसी तरह से स्वच्छन्द तन्त्र की टीका में क्षेमराज ने “प्रायश्च सिद्धान्तप्रियो लोकः” (२.२५) तथा “शैवशब्देन अनुत्तीर्णपदप्रापक कैरणादिसिद्धान्तशास्त्रमुच्यते” (११.७४) कह कर सिद्धान्त पद का परिचय दिया है।

शैवागम परम्परा काल-निर्णय

आधुनिक दृष्टि से आगमों के काल निर्धारण के प्रसंग में भूखनन से उपलब्ध प्रागैतिहासिक संस्कृति-सूचक वस्तुओं के अवलोकन से यह निश्चित हो जाता है कि इनका अस्तित्व आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व की हरप्पा-मोहनजोदड़ो की संस्कृति के समय में भी विद्यमान था। वास्तुशास्त्र के इतिहासकारों ने भी यह स्वीकार किया है कि शैवागमों से प्राचीनतर वास्तु-विद्या विषयक ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। ज्ञातव्य है कि शैवागमों के सामान्यतः चार पाद हैं- ज्ञान, योग, चर्या और क्रिया। क्रिया पाद में मन्दिर निर्माणविधि १४६ तन्त्रागम-खण्ड और मूर्तियों की रचना-विधि का विवरण है तथा इस तरह का विवरण आगमेतर अन्य किसी भी साहित्य में दृष्टगोचर नहीं होता। हरप्पा और मोहनजोदड़ो के उपलब्ध संस्कृति-सूचक अवशेषों में वास्तु-विद्या की इस परम्परा के चिह्न प्राप्त होते हैं। इनमें शिवलिंग और योनि की मूर्तियाँ, शिवचरणामृत कुण्ड, भित्ति से परिवृत नगरों के नष्टावशेष इत्यादि मिले हैं, जिनका निर्माण शैवागमों में वर्णित पद्धतियों के अनुसार प्रतीत होता है। आधुनिक इतिहासकार यह भी मानते हैं कि आर्यों का भारतवर्ष (वर्तमान काल का) में आगमन बाहर के देशों से हुआ है और उनका प्रमुख धार्मिक ग्रन्थ वेद रहा है। उनका भारत में विद्यमान तात्कालिक संस्कृति से विरोध भी था। उनके द्वारा यहाँ के आदिवासियों के साथ हुए युद्ध का विवरण ऋग्वेद की ऋचाओं (ऋ. २.१४.६, ४.१६.१३, ४.३०.२०) से स्पष्ट होता है। उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों पर विजय प्राप्त की तथा उनकी संस्कृति को भी प्रभावित किया। निश्चित रूप से यहाँ के आदिवासियों की संस्कृति शैवागमों पर आधारित रही होगी, जो कालान्तर में वैदिक आर्यों की मुख्य भाषा संस्कृत में निबद्ध हुई। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि शैव शास्त्रों की काल-सत्ता आयों के वेदों की काल-सत्ता से पूर्व अथवा समकक्ष थी। ऋग्वेद के उत्तरभाग के एक सूक्त (१०.१३६) में रुद्र के एक रहस्यमय स्वरूप का वर्णन मिलता है, जिसमें यह कहा गया है कि रुद्र ने केशी के साथ विषपान किया। यास्क और सायणाचार्य ने केश का किरणपरक अर्थ करते हुए केशी को सूर्य का द्योतक बताया है। इसके पूर्व ऋग्वेद (१.१६४.४४) के अन्य सूक्तों में तीन केशियों का उल्लेख मिलता है, जहाँ वे क्रम से अग्नि, सूर्य और वायु के प्रतीक जान पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त इस सूक्त के तीसरे और उसके बाद के मन्त्रों में केशी की तुलना उन मुनियों से की गयी है, जिनके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि अपने “मौन्य” अथवा “मुनित्व” के आवेश से उन्मत्त होकर वे अपने अन्तः स्वत्व को पवन के अन्दर विलीन कर देते हैं और इसी पवन में वे विहार करते हैं। सांसारिक मर्त्य जनों को जो दिखायी देता है, वह तो केवल उनका पार्थिव शरीर होता है। ऋग्वेद (६.५६.८) के एक मन्त्र में उड़ते हुए मरुतों के बल की उपमा मुनियों से दी गयी है। यहाँ भी उनका सम्बन्ध “पवन" से स्पष्ट दिखायी पड़ता है। एक अन्य मन्त्र (ऋ. ७.१७.१४) में सनक में आये हुए इन्द्र को मुनियों का सहचर भी कहा गया है। इन सब प्रकरणों से यह अनुमान लगता है कि ‘मुनि’ तपस्वियों का एक वर्गविशेष था। इनके स्वभाव में कुछ सनक सी थी। ये बहुधा भ्रमण करते थे और इनका वस्त्र पिंगलवर्ण (ताम्राभ) था। इनका एक विशेषण वायुरशना भी था, जिसका सायण ने वायुमेखला अर्थ किया है, किन्तु ऋग्वेद में रशना का तात्पर्य रज्जु के अर्थ में ही मिलता है। इस प्रकार इनका सम्बन्ध प्राणाकर्षण की साधना से निश्चित होता है। ये दिग्वासा थे और सुरापान करते थे। उनके सम्बन्ध में यह विश्वास किया जाता था कि तपस्या के बल पर इन्ह मानवात्तर शाक्तया प्राप्त थान मा द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १४७ - इस प्रकार ऋग्वेद में ‘मुनि’ शब्द का अर्थ उत्तेजित, अभिप्रेरित अथवा उन्मत्त होता है। यह भी निश्चित है कि यह शब्द इण्डो-यूरोपियन मूल का नहीं है। संस्कृत के वैयाकरणों ने इसका उल्लेख उणादि सूत्रों के अन्तर्गत किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत-व्याकरण के साधारण नियमों के अनुसार नहीं की जा सकती थी। इन सूत्रों में इसको मन धातु से बना बताया गया है, जिससे इसके उकार का समाधान नहीं होता। यह शब्द सामान्यतः कन्नड़ भाषा में पाया जाता है और वहाँ इसका अर्थ है जो क्रुद्ध हो जाय। यह अर्थ मुनि शब्द के ऋग्वेदीय अर्थ के बहुत समीप है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद में मुनियों का यह उद्धरण वैदिक ऋषियों से भिन्न एक ऐसी परम्परा से लिया गया है, जो उससे भी प्राचीन अथवा समकालीन रही है। की ति प्राचीन वैदिक साहित्य से लेकर आज तक के साहित्य में शक्ति की साधना अथवा उपासना में मुनियों को प्रमुख स्थान प्राप्त है। आगम साहित्य में भी यत्र-तत्र इनका उल्लेख मिलता है। नाना पराणनिगमागम पर आधारित रामचरितमानस में गोस्वामी तलसीदास ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है। इन मुनियों की परम्परा मूलतः योगाभ्यास और तत्त्वचिन्तन पर आश्रित थी। ये संसार का त्याग कर तपश्चर्या करते थे तथा वैदिक कर्मकाण्ड की उपयोगिता न मानकर आत्मसाक्षात्कार के नये साधनों और उपायों को ढूँढ़ने एवं जीवन तथा सृष्टि-विषय के उबुद्ध मूल प्रश्नों के उपयुक्त उत्तर के अनुसन्धान में ही लगे रहते थे। उनकी दृष्टि में इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वैदिक कर्मकाण्ड के अनेक विधानों के यन्त्रवत् सम्पादन की अपेक्षा ध्यान और तपश्चर्या द्वारा योगाभ्यास अधिक उपयोगी था।

  • ऋग्वेद (७.२२.३०) में लिंग-पूजा को घृणा की दृष्टि से देखने के संकेत प्राप्त हैं। यह लिंग-पूजा शैवागमों का सारभूत अर्चा-पक्ष है। इसको ही आधार मानकर अनेक दार्शनिक पद्धतियों एवं व्याख्याओं की सरणि प्रस्तुत की गयी है। इस आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि आर्यों को यहाँ की जिस उपासना पद्धति से तीव्र मतभेद था, वह शैवधर्म ही था और उनसे प्राचीनतर भी था। ऋग्वेद में भगवान शिव के दो नामों का उल्लेख मिलता है— रुद्र और त्र्यम्बक। सामवेद में भी रुद्र विषयक ऋचाएँ उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता के सोलहवें अध्याय में तथा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में भगवान् शिव के शत नामों की चर्चा है। इस प्रकार अथर्ववेद में न केवल शिव से सम्बद्ध ऋचाएँ उपलब्ध हैं, बल्कि उनका पूजन-प्रकार भी निर्दिष्ट है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वैदिक आर्यों ने भी सम्पर्क में आने के पश्चात् शैवागम परम्परा को यथोचित सम्मान प्रदान किया। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि वेदों की संहिताएँ शैवागम परम्परा से प्रभावित हुईं और ऐतिहासिक दृष्टि से उनसे नवीनतर थीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋग्वेद में उद्धृत मुनियों की वह परम्परा जो मूलतः योगाभ्यास व तत्त्वचिन्तन पर आधारित थी, उपनिषदों की दार्शनिक व्याख्याओं से उपजे १४८ तन्त्रागम-खण्ड सांख्यदर्शन के साथ एक स्वतन्त्र और सुस्पष्ट धारा के रूप में अनादि काल से चलती रही और कालान्तर में आगमशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित हुई। यह परम्परा मूल रूप में गुरु-शिष्य की कर्ण-परम्परा रही है। इसे श्रुति भी कहा गया। इस परम्परा के मूलभूत आधार लिंग-पूजा, शक्ति-पूजा, मन्दिरों का निर्माण, तान्त्रिक-ग्रन्थों के आधार पर मन्दिरों की अर्चाविधि, उपासना में शूद्र और स्त्रियों का अधिकार इत्यादि अनेक ऐसे तत्त्व हैं, जिनका समाधान वेद तथा उसके अंगभूत शास्त्रों में नहीं मिलता। न सोमानन्द, अभिनवगुप्त आदि काश्मीरीय दार्शनिकों के अनुसार वेदादि की ही भाँति आगम-शास्त्र भी अनादि है। आचार्य भास्करराय ने वेदागम की आन्तरिक एकता को अनेक तरह से सिद्ध किया है। इनकी सत्ता सत्ययुग, त्रेता और द्वापर युग में भी थी। स्वच्छन्द, लाकुल, बलि, राम, लक्ष्मण, रावण इत्यादि तथा अन्य ऋषियों ने भी इसका अनुगमन किया। “शिवदृष्टि" के अन्त में सोमानन्द ने अपनी परम्परा दी है। अभिनवगुप्त ने तन्त्रालोक (३६.११-१२) में सिद्धातन्त्र का अनुसरण करते हुए अद्वैत-द्वैताद्वैत-द्वैत आगम दर्शनों का प्रचारक क्रमशः त्र्यम्बक, श्रीनाथ और आमर्दक को बताया है। इन लोगों ने श्रीकण्ठनाथ की आज्ञा से कलिकाल के प्रारम्भिक चरणों में लुप्त हुए शैव आगमों का प्रचार-प्रसार किया। शिष्य
  1. सृष्टिकाल में जीवों के भोग और परापर मुक्ति रूप पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए परमेश्वर ने पांच स्रोतों में विभक्त आगम-ज्ञान प्रकाशित किया था। ये पंचस्रोत ऊर्ध्व, पूर्व, दक्षिण, उत्तर और पश्चिम नाम से प्रसिद्ध हैं। निष्कल शिव से अवबोधरूप ज्ञान प्रथमतः नाद रूप में परिणत होता है। तदनन्तर सदाशिव रूप भूमि में आकर वह ज्ञान तन्त्र तथा शास्त्र के आकार को प्राप्त होता है। कामिक आगम के अनुसार यह ज्ञान सदाशिव के ही प्रत्येक मुख से पांच स्रोतों से निर्गम हुआ है, वे स्रोत हैं- १. लौकिक, २. वैदिक, ३. आध्यात्मिक, ४. अतिमार्ग, ५. मन्त्रात्मक। यतः मुख पाँच हैं, इसलिए स्रोतों की समष्टि पचीस प्रकार की है अर्थात् लौकिकादि तन्त्र पाँच-पाँच प्रकार के हैं। ‘सर्वात्मशम्भुकृत ‘सिद्धान्तदीपिका’ में लौकिकादि विभागों का विवरण द्रष्टव्य है। इसी प्रकार मान्त्रिक तन्त्र भी पाँच प्रकार के हैं। वे क्रमशः ऊर्ध्वादि तन्त्रों के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं। ऊ र्व मुख से उत्पन्न मुक्ति देने वाला सिद्धान्तागम है। पूर्व मुख से उत्पन्न गारुड तन्त्र सब प्रकार के विषों का हरण करने वाला है। उत्तर मुख से उद्भूत तन्त्र वशीकरण के लिये, पश्चिम मुख से उद्भूत भूतग्रहनिवारक भूततन्त्र तथा जो दक्षिण मुख से उद्गत हैं, वह शत्रुक्षयकर भैरव-तन्त्र हैं। ये सभी विवरण कामिकागम में हैं। तान्त्रिक लोग कहते हैं कि नादरूप ज्ञान के अतिरिक्त शास्त्ररूप ज्ञान में वेदादि अपर ज्ञान से सिद्धान्तज्ञान उत्कृष्ट है। सिद्धान्तज्ञान में भी शिवज्ञान तथा रुद्रज्ञान में परापर भेद है। शिवज्ञान में भी परापर भेद है और रुद्रज्ञान में भी यह समान रूप से विद्यमान है। इसका मूल कारण है— प्रवक्ता का क्रम। कामिकादि १. तान्त्रिक साहित्य, म. म. गोपीनाथ कविराज, भूमिका, पृ. १५ द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १४६ दस शिवागमों तथा विजयादि अठारह रुद्रागमों को मिलाकर शैवागमों की संख्या अट्ठाईस मानी जाती है। सिद्धान्त-शैव दार्शनिक इन सभी आगमों को द्वैत प्रतिपादक मानते हैं, जबकि इसके विपरीत अभिनवगुप्त अपने तन्त्रालोक (१.१८) तथा उसकी व्याख्या में जयरथ दस शिवागमों को द्वैतवादी और अठारह रुद्रागमों को द्वैताद्वैतवादी मानते हैं। उनका यह मत श्रीकण्ठी-संहिता पर आधारित है। पाण्डिचेरी से प्रकाशित रौरवागम (भाग-१) में प्रदत्त सूची के अनुसार इन आगमों और उपागमों का विवरण निम्न प्रकार से है शिवभेद(दस) उपागम १. कामिक- सद्योजातमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण–परार्द्ध अर्थात् एक शंख। श्रोता प्रणव, त्रिकल तथा हर। उपागम (तीन)- वक्तार, भैरवोत्तर, नारसिंह। २. योगज- सद्योजातमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक लक्ष। श्रोता- सुधाख्य, भस्म तथा विभु। उपागम (पाँच)- तार, वीणाशिखोत्तर, आत्मयोग, सन्त, सन्तति।" ३. चिन्त्य- सद्योजातमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक लक्ष। श्रोता-दीप्त, गोपति तथा अम्बिका। उपागम (छह)- सचिन्त्य, सुभग, वाम, पापनाश, परोदव अमृत। ४. कारण- सद्योजातमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक करोड़। श्रोता-कारण, शर्व तथा प्रजापति । उपागम (सात)- पावन, मारण, दौर्ग, माहेन्द्र, भीमसंहिता, कारण, विद्वेष। ५. अजित- सद्योजातमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- दस हजार। श्रोता- सुशिव, शिव तथा अच्युत। उपागम (चार)- प्रभूत, परोद्भूत, पार्वतीसंहिता, पद्मसंहिता। ६. दीप्त- वामदेवमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- दस लाख। श्रोता- ईश, त्रिमूर्ति तथा हुताशन। उपागम (नव)- अमेय, अब्द, आच्छाद्य, असंख्य, अमितौजस्, आनन्द, माधवोद्भूत, अद्भुत, अक्षय। ७. सूक्ष्म- वामदेवमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण- एक पद्म। श्रोता- सूक्ष्म, वैश्रवण, तथा प्रभञ्जन.। उपागम (एक)- सूक्ष्म । ८. सहस्र- वामदेवमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक शंख। श्रोता- काल, भीम तथा धर्म। उपागम (दस)- अतीत, मंगल, शुद्ध, अप्रमेय, जातिभाक्, प्रबुद्ध, विबुध, हस्त, अलंकार, सुबोधक। ६. अंशुमद्- वामदेवमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण- पाँच लाख। श्रोता-अंशु, उग्र तथा रवि। उपागम (बारह)- विद्यापुराणतन्त्र, वासव, नीललोहित, प्रकरण, भूततन्त्र, आत्मालंकार, काश्यप, गौतम, ऐन्द्र, ब्राह्म, वासिष्ठ, ईशानोत्तर। - १०. सुप्रभेद- वामदेवमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- तीन करोड़। श्रोता-दिशेश, गणेश और शशी। इसका कोई भी उपागम नहीं है। १५० तन्त्रागम-खण्ड रुद्र भेद (अठारह) मा वा उपागम ११. विजय- अघोरमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण- तीन करोड़। श्रोता-अनादिरुद्र, परमेश्वर। म उपागम (आठ)- उद्भव, सौम्य, अघोर, मृत्युनाशन, कौबेर, महाघोर, विमल, विजय। १२. निश्वास- अघोरमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक करोड़। श्रोता-दशार्ण, शैलसंभवा। __उपागम (आठ)- निश्वास, निश्वासोत्तर, निश्वासमुखोदय, निश्वासनयन, निश्वासकारिका, मग निश्वासघोर, निश्वासगुह्य, मन्त्रनिश्वास। १३. स्वायम्भुव- अघोरमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- सार्धकोटि। श्रोता- निधन, पद्मसंभव। __उपागम (तीन)- प्रजापतिमत, पद्म, नलिनोद्भव। १४. अनल- अघोरमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- तीस हजार। श्रोता- व्योम, हुताशन। न उपागम (एक)- आग्नेय। १५. वीर- अघोरमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- दस लाख। श्रोता- तेज, प्रजापति। उपागम (तेरह)- प्रस्तर, फुल्ल, अमल, प्रबोधक, अमोह, मोहसमय, शकट, शकटाधिक, भद्र, विलेखन, वीर, हल, बोधबोधक। १६. रौरव- तत्पुरुषमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण- अस्सी करोड़। श्रोता- ब्रह्मगणेश, नन्दिकेश्वर । उपागम (छह)- कालाख्य, कालदहन, रौरव, रौरवोत्तर, महाकालमत, ऐन्द्र। १७. मकुट- तत्पुरुषमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक लाख। श्रोता- शिव, महादेव। उपागम (दो)- मकुट, मकुटोत्तर। १८. विमल- तत्पुरुषमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण- तीन लाख। श्रोता- सर्वात्मन्, वीरभद्र। उपागम (सोलह)- अनन्त, भोग, आक्रान्त, वृषपिङ्ग, वृषोदर, वृषोद्भूत, रौद्र, सुदन्त, धारण, आरेवत, अतिक्रान्त, अट्टहास, भद्रविध, अर्चित, अलंकृत, विमल। १९. चन्द्रज्ञान-तत्पुरुषमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण - तीन करोड़। श्रोता-अनन्त, बृहस्पति। उपागम (चौदह)- स्थिर, स्थाणु, महान्त, वारुण, नन्दिकेश्वर, एकपादपुराण, शांकर, नीलरुद्रक, शिवभद्र, कल्पभेद, श्रीमुख, शिवशासन, शिवशेखर, देवीमत। २०. मुखबिम्ब- तत्पुरुषमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक लाख। श्रोता- प्रशान्त, दधीचि। उपागम (पन्द्रह)- चतुर्मुख, संस्तोभ, प्रतिबिम्ब, अयोगज, आत्मालंकार, वायव्य, तौटिक, तुटिनीरक, कुट्टिभ, तुलायोग, कलात्यय, महासौर, पट्टशेखर, नैर्ऋत, महाविद्या। २१. प्रोद्गीत- ईशानमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- तीन लाख। श्रोता- शूलिन्, कवच। उपागम (सोलह)- वाराह, कवच, पाशबन्ध, पिंगलामत, अङ्कुश, दण्डधर, धनुर्धर, शिवज्ञान, विज्ञान, श्रीकालज्ञान, आयुर्वेद, धनुर्वेद, सर्वदंष्ट्रविभेदन, गीतक, भरत, आतोद्य। द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १५१ २२. ललित- ईशानमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण- आठ हजार। श्रोता- आलय, रुद्रभैरव। (HET उपागम (तीन)- ललित, ललितोत्तर, कौमार। एसपणास कामासानिमाला २३. सिद्ध- ईशानमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- सार्धकोटि। श्रोता- बिन्दु, चण्डेश्वर । उपागम (चार)- सारोत्तर, औशनस, शालाभेद, शशिमण्डल। राष्ट्रपति प्रणाली) २४. सन्तान- ईशानमुखोद्भूत । ग्रन्थ-परिमाण-छह हजार। श्रोता- शिवनिष्ठ, शंशपायन। हा उपागम (सात)- लिंगाध्यक्ष, सुराध्यक्ष, अमरेश्वर, शंकर, असंख्य, अनिल, द्वन्द्व । २५. शर्वोक्त- ईशानमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- दो लाख। श्रोता- सोमदेव, नृसिंह। उपागम (पाँच)- शिवधर्मोत्तर, वायुप्रोक्त, दिव्यप्रोक्त, ईशान, शर्वोद्गीत। २६. पारमेश्वर- ईशानमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- बारह लाख। श्रोता- श्रीदेवी, उशनस् । कि उपागम (सात)- मातङ्ग, यक्षिणीपद्म, पारमेश्वर, पुष्कर, सुप्रयोग, हंस, सामान्य। २७. किरण- ईशानमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- पाँच करोड़। श्रोता- देवतार्थ्य, संवर्त। का उपागम (नौ)- गारुड, नैर्ऋत, नील, रूक्ष, भानुक, धेनुक, कालाख्य, प्रबुद्ध, बुद्ध। २८. वातुल- ईशानमुखोद्भूत। ग्रन्थ-परिमाण- एक लाख। श्रोता- शिव, महाकाल। जो उपागम (बारह)- वातुल, वातुलोत्तर, कालज्ञान, प्ररोहित, सर्व, धर्मात्मक, नित्य, श्रेष्ठ, शुद्ध, महानन, विश्व, विश्वात्मक। ___ इस सूची के अतिरिक्त इन आगमों की नामावली कुछ पाठभेदों के साथ किरणागम, ब्रह्मयामल, निःश्वासतत्त्वसंहिता एवं प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्चय इत्यादि ग्रन्थों में भी उपलब्ध ऐसा प्रतीत होता है कि इन अट्ठाईस आगमों में अधिकतर प्राचीन हैं, क्योंकि ये ईसा की आठवीं शती से भी बहुत पहले प्रचलित थे। उत्तर भारत के अधिकांश स्थलों में आर्यावर्त के ब्राह्मण ही शिवाचार्य के रूप में मिलते हैं, जिन्होंने इन पर टीका लिखी है। ___ प्रकाशन के क्रम में सर्वप्रथम इन आगम ग्रन्थों का प्रकाशन श्री अलगप्पा मुदलियर के द्वारा बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में मद्रास में प्रारम्भ हुआ। उन्होंने सन् १६०१ ई. में ग्रन्थ-लिपि में कामिकागम (उत्तर भाग) और कारणागम (उत्तर भाग) को प्रकाशित कराया। सुप्रभेदागम सन् १६०७ ई. में, कामिकागम तमिल अनुवाद सहित (उत्तर भाग) सन् १६०६ ई. में तथा कारणागम (उत्तर भाग) सन् १६२१ में प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त उन्होंने सकलागमसारसंग्रह, शिवलिंगप्रतिष्ठाविधि, देवीप्रतिष्ठाविधि, सुब्रह्मण्य प्रतिष्ठाविधि, वातुलशुद्धाख्य, पौष्करागम, टीका सहित शिवज्ञानबोध, कुमारतन्त्र, पवित्रोत्सव विधि, महोत्सवविधि, अपरक्रियाविधि, क्रियाक्रमद्योतिका और सिद्धान्तसारावलि इत्यादि का भी प्रकाशन सम्पन्न कराया। ये सभी ग्रन्थ-लिपि में ही प्रकाशित थे। मार देवकोट्टै स्थित शिवागमसिद्धान्तपरिपालनसंघ द्वारा देवनागरी लिपि में मृगेन्द्रागम (विद्यापाद और योगपाद) का प्रकाशन भट्टनारायण कण्ठकृत टीका और अघोर शिवाचार्यकृत तट्टीका का प्रकाशन सम्पन्न हुआ। अष्टप्रकरण में भोजदेवकृत तत्त्वप्रकाशिका, १५२ तन्त्रागम-खण्ड सद्योज्योतिशिवाचार्यकृत तत्त्वसंग्रह, तत्त्वत्रयनिर्णय, मोक्षकारिका, भोगकारिका और परमोक्षनिरासकारिका, नारायणकण्ठपुत्र भट्टरामकण्ठविरचित नादकारिका तथा श्रीकण्ठसूरिकृत रत्नत्रय भी प्रकाशित हुआ। इनके अतिरिक्त शिवार्चनचन्द्रिका, मतङ्गपारमेश्वरागम (विद्यापाद), सोमशम्भुपद्धति, शिवपूजास्तव (टीका सहित) इत्यादि ग्रन्थों का भी प्रकाशन देवनागरी लिपि में हुआ। यहाँ से ग्रन्थ-लिपि में प्रकाशित ग्रन्थों में किरणागम, शैवपरिभाषा, परार्थनित्यपूजाविधि, प्रासादशतश्लोकी (टीका सहित), शैवकालविवेक तथा सर्वज्ञानोत्तरागम का विद्यापाद (तमिल भाषा में लिखित टीका सहित) है। सम्प्रति यहाँ का प्रकाशन-कार्य अवरुद्ध है। त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सीरीज से चार भागों में ईशानशिवगुरुदेवपद्धति अथवा सिद्धान्तसार प्रकाशित हुआ। यहीं से टीकाओं सहित तन्त्रसमुच्चय और शेषसमुच्चय के प्रकाशन की भी सूचना मिलती है। मयमत, वास्तुविद्या और शिल्परत्न भी यहीं से प्रकाशित हुए। चिदम्बरम् से सन् १६२५ ई. में उमापति शिवाचार्यकृत भाष्य सहित पौष्करसंहिता (विद्यापाद) प्रकाशित हुई। यहीं से सन् १६२७ ई. में निर्मलमणिकृत टीका समेत अघोरशिवाचार्यपद्धति का प्रकाशन ग्रन्थलिपि में हुआ। सेयलोन से तमिल अनुवाद सहित देवीकालोत्तर सन् १६३५ ई. में तथा शिवागमशेखर दो भागों में क्रमशः १६४६ ई. एवं १६५३ ई. में प्रकाशित हुआ। कन्दनूरस्थ रामनाथ के द्वारा कतिपय लघु ग्रन्थ प्रकाशित हुए। तंजौर के सूर्यनारकोलि ने शिवाग्रयोगिकृत क्रियादीपिका को प्रकाशित किया। धर्मपुरम् अधिनाम के द्वारा वामदेवपद्धति, वर्णाश्रमचन्द्रिका, शैवसंन्यासपद्धति और ज्ञानावर्णविलक्कम् (सम्पूर्ण शैवागमों के उद्धरणों से सज्जीकृत) का प्रकाशन सम्पन्न किया गया। कुदुमियामलै के सदाशिव शिवाचार्य ने ईशानशिवाचार्यपद्धति, परार्थनित्यपजाविधि. नित्यपजाविधि. प्रतिष्ठाविधि (रेणुक, भद्रकाली, शास्त्र, महामारी, विघ्नेश्वर, दक्षिणामूर्ति, भैरव, चण्डेश्वर और गौरी) इत्यादि ग्रन्थों को प्रकाशित कराया। कुम्भकोणम् के सद्योजात शिवाचार्य के द्वारा कामिकागम और अघोरशिवपद्धति ग्रन्थ प्रकाशित किये गये। उमापति शिवाचार्यकृत शतरत्नसंग्रह नामक ग्रन्थ कलकत्ते के तान्त्रिक टेक्ट्स सीरीज से प्रकाशित हुआ। पुनः यह ग्रन्थ तंजौर के सरस्वती महल पुस्तकालय से प्रकाशित हुआ। अंशुमत्काश्यप नामक ग्रन्थ पूना स्थित आनन्दाश्रम सीरीज के अन्तर्गत काश्यपशिल्प नाम से प्रकाशित हुआ तथा तंजौर से पुनः प्रकाशित हुआ। त्रिलोचनशिव द्वारा प्रणीत सिद्धान्तसारावलि अनन्तशम्भुकृत टीका के साथ बुलेटिन आफ मद्रास गवर्नमेन्ट ओरियन्टल मैनुस्क्रिप्ट लाइब्रेरी से प्रकाशित हुआ। ___ बंगलोर के मनोमणि ग्रन्थमाला सीरीज के अन्तर्गत आगमरहस्यम् (वातुलशुद्ध), शैवकालविवेक, अर्चनाप्रकाश, शैवसिद्धान्तपरिभाषा, विश्वनाथकृत सिद्धान्तशेखर इत्यादि आगम ग्रन्थ प्रकाशित हुए। यहीं के एक संस्थान से शैवागमप्रयोगचन्द्रिका और कपर्दीसंहिता तेलुगु लिपि में प्रकाशित हैं। द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १५३ मैसूर के गवर्नमेन्ट ओरियन्टल सीरीज (वर्तमान में ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट सीरीज) से नीलकण्ठकृत क्रियासार, शिवाग्रयोगिन्कृत शैवपरिभाषा और वातुलशुद्धाख्य (परिष्कृत संस्करण) का प्रकाशन हुआ। यहीं से वीरागम और योगजागम के परिष्कृत संस्करण के प्रकाश्यमान होने की सूचना प्राप्त है। माना। काश्मीर सीरीज आफ टेक्स्ट एण्ड स्टडीज से नारायणकण्ठकृत टीका सहित मृगेन्द्रतन्त्र (विद्या और योगपाद), सोमशम्भुकृत क्रियाकाण्डक्रमावलि, सद्योज्योतिकृत नरेश्वर परीक्षा (रामकण्ठकृत टीका सहित) इत्यादि ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। सार्धत्रिशतिकालोत्तर और किरणागम (विद्यापाद) का प्रकाशन इटली में क्रमशः आर. तोरेला और एम. पी. विवन्ति के द्वारा किया गया। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से योगतन्त्रग्रन्थमालान्तर्गत वातुलशुद्धाख्य, निरंजन सिद्धकृत टीका सहित देवीकालोत्तर और अचिन्त्य-आगमरहस्य (वातुलशुद्धाख्य) कर्मकाण्डक्रमावली-(सोमशम्भुपद्धति) कामिकागम-कालोत्तरसूत्र-किरणागम-चन्द्रज्ञान देवीकालोत्तर-नन्दिशिखा-निःश्वासागम-निश्वासोत्तर-नैश्वासोत्तर-पराख्य-पौष्करागम मतंगसूत्र-मकुटतन्त्र-रौरवागम-शिवज्ञानबोधसंग्रह-शिवधर्म-शिवधर्मोत्तर-षट्सहस्रिका सर्वज्ञानोत्तर-सिद्धातन्त्र-सिद्धान्तदीपिका-सिद्धान्तरहस्यसार-सिद्धान्तसारावली-सिद्धान्तवचन-सुप्रभेदागम स्वतन्त्रतन्त्र-स्वायम्भुवागम इत्यादि आगमों के वचनों से संकलित “लुप्तागमसंग्रह" (भाग १ और २) नामक आगम ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। अभी हाल ही में मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली से “वीणाशिख" नामक एक उपागम ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है, किन्तु यह वामतन्त्र से सम्बद्ध है। काशीनाथ ग्रन्थमाला, मैसूर से कन्नड़लिपि में सन् १६५५-५६ ई. में सूक्ष्मागम, कारणागम, चन्द्रज्ञानागम और मकुटागम इत्यादि आगमों का कन्नड़ लिपि में प्रकाशन हुआ। यहीं से सिद्धान्तसारावलि को भी प्रकाशित किया गया। पारमेश्वर तन्त्र और देवीकालोत्तर आगमों के विद्यापाद के कुछ पटल शोलापुरस्थ वीरशैवलिगिब्राह्मणधर्मग्रन्थमाला के अन्तर्गत क्रमशः १६०५ एवं १६०६ में प्रकाशित हुए थे। सूक्ष्मागम, कारणागम, चन्द्रज्ञानागम, मकुटागम और पारमेश्वरागम का देवनागरी संस्करण भाषानुवाद के साथ काशी के जंगमवाड़ी मठ से अभी-अभी हुआ है। _ पाण्डिचेरी फ्रेंच इन्स्टीट्यूट आफ इण्डोलाजी से दो मूलागमों रौरवागम और अजितागम के दो-दो भाग क्रमशः सन् १६६१, ७२ और १६६३, ६७ में प्रकाशित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त मृगेन्द्रागम (क्रियापाद एवं चर्यापाद) सन् १६६२ ई. में (इसका फ्रेंच अनुवाद सन् १६८०, ८५ ई. में), मतंगपारमेश्वर सन् १९७७ और १६८२ ई. में, सार्धत्रिशतिकालोत्तर सन् १९७६ ई. में, रौरवोत्तरागम सन् १६८३ ई. में प्रकाशित हुए हैं। सोमशम्भुपद्धति (तीन भागों में) सन् १९६३-७७ ई. में और शिवयोगरत्न सन् १९७५ ई. में मूल एवं फ्रेंच अनुवाद सहित प्रकाशित किये गये। शिवागम परिभाषामञ्जरी तथा एक १५४ तन्त्रागम-खण्ड वास्तुशास्त्र ग्रन्थ (मयमत) भी यहाँ से प्रकाशित हुआ है। अंशुमत्काश्यपागम और स्वायम्भुवसूत्र प्रकाशन के लिए तैयार किये जा रहे हैं। यहाँ से प्रकाशित सभी आगम ग्रन्थों के परिष्कृत एवं उत्तम कोटि के संस्करण हैं और शैवागम के महान् विद्वान् एन. आर. भट्ट महोदय के द्वारा सम्पादित किये गये हैं। मा

काश्मीर में द्वैतशैव-सिद्धान्त का प्रचार

सद्योज्योति कृत ‘मोक्षकारिका’ की रामकण्ठ (द्वितीय) कृत टीका से स्पष्ट होता है कि सद्योज्योति के अनुयायी काश्मीरीय थे। उनकी टीका के अन्त में लिखा है - इति मोक्षकारिकायां नारायणकण्ठसूनुना रचिता। संक्षेपाद् वृत्तिरियं शिष्यहिता भट्टरामकण्ठेन।। रामकण्ठ (द्वितीय) काश्मीर के ही थे। यह तथ्य ‘नादकारिका’ के अन्त में उन्हीं के वचनों से स्पष्ट होता है इति नादसिद्धिमेनामकरोच्छ्रीरामकण्ठोऽत्र। नारायणकण्ठसुतः काश्मीरे वृत्तपञ्चविंशत्या।। (नादकारिका, श्लो. २७) - अद्वैत शैवदर्शन के व्याख्याता सोमानन्द, कल्लट, उत्पलदेव, लक्ष्मणगुप्त, अभिनवगुप्त, क्षेमराज इत्यादि प्रसिद्ध हैं। इनके ग्रन्थों से द्वैतशैव-सिद्धान्त के प्रतिपादक रामकण्ठ (प्रथम) एवं रामकण्ठ (द्वितीय) के इनके समकालीन होने तथा काश्मीर के अभिजन होने की पुष्टि होती है। रामकण्ठ (प्रथम) अद्वैत प्रतिपादक ग्रन्थ “स्पन्दकारिका” की टीका के साथ-साथ “सद्वृत्ति” नामक द्वैतपरक ग्रन्थ के भी रचयिता थे, जिसका अनुसरण कर श्रीकण्ठ ने “रत्नत्रयपरीक्षा” नामक ग्रन्थ की रचना की थी। यह बात ग्रन्थ के समाप्तिपरक श्लोकों से स्पष्ट होती है कृतिः श्रीमदुत्पलदेवपादपद्मोपजीविनः श्रीमद्राजानकरामकण्ठस्य। रत्नत्रयपरीक्षेयं कृता श्रीकण्ठसूरिणा॥ श्रीरामकण्ठसवृत्तिं मयैवमनुकुर्वता। म. रत्नत्रयपरीक्षार्थः संक्षेपेण प्रकाशितः।। (रत्नत्रयपरीक्षा, श्लो. ३२२) रामकण्ठ (प्रथम) को “मृगेन्द्रतन्त्रवृत्ति” के कर्ता नारायणकण्ठ अपनी गुरु-परम्परा में उल्लिखित करते साक्षाच्छ्रीकण्ठनाथादिव सुकृतिजनानुग्रहायावतीर्णा- मत जोगी च्छुत्वा श्रीरामकण्ठाच्छिवमतकमलोन्मीलनप्रौढभास्वान्। महाभार (मृ. ७. मङ्गलाचरणश्लो. ४)द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १५५ इससे स्पष्ट है कि काश्मीर में द्वैत प्रतिपादक सिद्धान्त शैवागमों के प्रवर्तक रहे हैं, वे ये थे- रामकण्ठ (प्रथम), श्रीकण्ठ, नारायणकण्ठ, विद्याकण्ठ तथा रामकण्ठ (द्वितीय) इत्यादि। इन लोगों ने सिद्धान्त शैवागमों पर आधारित अनेक टीकाओं की रचना की थी। इस टीकाओं की मातृकाएं आज भी उपलब्ध हैं, जिनका विवरण विशेष रूप से पाण्डिचेरी से तीन खण्डों में प्रकाशित कैटलाग में द्रष्टव्य है। जो काश्मीर प्रदेश में शैव सिद्धान्त आगमों के टीकाकारों एवं सैद्धान्तिक निबन्ध-लेखकों का परिचय एवं उनकी ज्ञात कृतियों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। १. उग्रज्योति सिद्धान्त शैवागमों के प्रथम व्याख्याता सद्योज्योति के ये गुरु थे, यह मोक्षकारिका और नरेश्वरपरीक्षा के अन्तिम श्लोकों से प्रमाणित है। इनकी कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है। सद्योज्योति—यह शैवाचार्य खेटपाल, खेटकनन्दन और सिद्धगुरु इत्यादि नामों से जाने जाते हैं। इनकी सिद्धान्त शैवागमों के प्रथम व्याख्याता के रूप में प्रसिद्धि है। इनका काल नवम शती बताया जाता है। इनके द्वारा ही सर्वप्रथम रौरवागम में प्रतिपादित शैवदर्शन के लिए ‘सिद्धान्त’ शब्द का प्रयोग किया गया, जैसा कि भोगकारिका (श्लो. २) से स्पष्ट है रुरुसिद्धान्तसंसिद्धौ भोगमोक्षौ ससाधनौ। वच्मि साधकबोधाय लेशतो युक्तिसंस्कृतौ॥ सद्योज्योति के इस कथन के अनन्तर अघोरशिवाचार्य ने रत्नत्रयपरीक्षा (श्लो. १०) की टीका में “सिद्धान्त” शब्द का पङ्कजादि शब्दवत् यौगिकार्य किया है। इनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है १. भोगकारिका, २. मोक्षकारिका, यि का शिकार ३. परमोक्षनिरासकारिका, ४. तत्त्वत्रयनिर्णय- स्वायम्भुवागम की वृत्ति पर आधारित, ५. तत्त्वसंग्रह- रौरवागम की सुदृत्ति पर आधारित, ६. नरेश्वरपरीक्षा, ७. स्वायम्भुववृत्ति तत्त्वत्रयनिर्णय (श्लो. ३२) में उद्धृत। इस ग्रन्थ का प्रकाशन फ्रेंच इन्स्टीट्यूट आफ इन्डोलाजी, पूना की मातृकाओं के आधार पर इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नयी दिल्ली से सन् १६६४ ई. में हुआ। का उपर्युक्त सभी ग्रन्थ मुद्रित हैं कि ८. सुवृत्ति अथवा रौरवतन्त्रवृत्ति। यह तत्त्वसंग्रह (श्लो. ५७) एवं तन्त्रालोकविवेक (६.२११) में उद्धृत है। तन्त्रागम-खण्ड ६. मन्त्रवार्त्तिक-मतङ्गपारमेश्वरवृत्ति में निर्दिष्ट। काल ३. बृहस्पति —यह शैवाचार्य सद्योज्योति के समकालीन थे। सद्योज्योति की भाँति इनका भी स्मरण सिद्धान्त शैवाचार्यों के कुलगुरु के रूप में किया गया है। तन्त्रालोक (१.१०४) में अभिनवगुप्त तथा उसके व्याख्याकार जयरथ ने ‘शिवतनुशास्त्र’ के प्रणेता के रूप में इनका स्मरण किया है। यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। ४. शंकरनन्दन–तन्त्रालोकविवेक के नवें आह्निक के समाप्तिपरक श्लोकों में जयरथ ने इनका स्मरण किया है शङ्करनन्दनसद्योज्योतिर्देवबलकणभुगादिमतम्। प्रत्याख्यास्यन् न वमाहिकं व्याचख्यौ जयरथः।। अभिनवगुप्त ने ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (भा. १, पृ. २२५) में परमाणुवादनिरसन के प्रसंग में ‘प्रज्ञालङ्कार’ नामक इनकी कृति का उल्लेख किया है। इनका भी काल नवीं शती ही था। विवाधिपति-अभिनवगुप्त ने तन्त्रालोक (१४.६) और तन्त्रसार (पृ.३१) में क्रमशः मानस्तोत्र और अनुभवस्तोत्र नामक कृतियों के साथ इनका स्मरण किया है। मोक्षकारिका (श्लो. ६७-६८) की भट्ट रामकण्ठकृत टीका में भी इनके वचनों को उद्धृत किया गया है। इन साक्ष्यों के आधार पर इन्हें सिद्धान्त शैव का आचार्य एवं काश्मीरीय होने का अनुमान किया जा सकता है, यद्यपि स्पष्ट प्रमाणों का यहाँ अभाव है। देवबल–तन्त्रालोकविवेक के चतुर्थ आह्निक के अन्त में सद्योज्योति के साथ इनका स्मरण किया गया है। मातृका अथवा उद्धरण रूप में इनकी किसी भी कृति की जानकारी प्राप्त नहीं है। ऊपर कहे गये सभी शैवाचार्य अभिनवगुप्त के पूर्ववर्ती थे। परवर्ती आचार्यों का विवरण निम्न है. ७. रामकण्ठ (प्रथम)—यह महान् शैवाचार्य थे। इनके शिष्य विद्याकण्ठ के पुत्र भट्ट नारायणकण्ठ ने मृगेन्द्रवृत्ति के प्रारम्भिक श्लोकों में “साक्षाच्छ्रीकण्ठनाथादिव सुकृतिजनानुग्रहायावतीर्णात्” (ज्ञानपाद, श्लो. ४) कह कर इन्हें श्रीकण्ठनाथ की तरह महान् कहा है। डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने अपने ग्रन्थ ‘अभिनवगुप्त०’ (पृ. १७३) में इनका साहित्यिक काल सन् १०२५-१०५० ई. निर्धारित किया है। इनके एक अन्य शिष्य श्रीकण्ठ सूरि ने ‘रत्नत्रयपरीक्षा’ नामक ग्रन्थ की रचना की है, जिसके उपसंहार श्लोकों से ज्ञात होता है कि ग्रन्थ का आधारभूत ‘सद्वृत्ति’ नामक कोई रचना रामकण्ठकृत रही है। सम्भवतः यह सद्वृत्ति किसी आगम की वृत्ति रही हो। यह प्राप्य नहीं है। द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १५७ ८. विद्याकण्ठ–यह शैवाचार्य भट्ट नारायणकण्ठ के पिता तथा शंकरकण्ठ के पुत्र थे। मृगेन्द्रागम की वृत्ति (ज्ञानपाद, श्लो. ४) में इन्हें रामकण्ठ (प्रथम) के शिष्य के रूप में कहा गया है। भट्ट नारायणकण्ठ के पिता होने के साथ-साथ ये उनके गुरु भी थे। इनकी कोई भी कृति ज्ञात नहीं है। ‘अभिनवगुप्त०’ (पृ. १७३) में इनका वैदुष्यकाल सन् १०५०-१०७५ ई. निश्चित किया गया है। यदि ६. श्रीकण्ठ सूरि—यह रामकण्ठ (प्रथम) के शिष्य थे। इनके विद्याकण्ठ के समकालीन होने की सूचना मिलती है, क्योंकि इन दोनों के आचार्य एक ही थे। स्वगुरु की ‘सदवत्ति’ पर आधारित ‘रत्नत्रयपरीक्षा’ के अतिरिक्त इनकी किसी भी अन्य रचना की जानकारी नहीं मिलती। १०. नारायणकण्ठ—ये विद्याकण्ठ के पुत्र एवं शंकरकण्ठ के पौत्र थे। इनके गुरु स्वयं इनके पिता ही थे। इन्होंने मृगेन्द्रागम की वृत्ति लिखी जो प्रकाशित भी हो चुकी है। सद्योज्योतिकृत ‘तत्त्वसंग्रह’ की टीका के मंगलाचरण श्लोकों में अघोरशिवाचार्य ने भट्ट नारायणकण्ठकृत ‘शरन्निशा’ नामक एक बृहत् टीका का उल्लेख किया है, जो आज उपलब्ध नहीं है। मृगेन्द्रवृत्ति (क्रियापाद, पृ. २०४) में इनकी एक अन्य रचना ‘स्तोत्रावली’ का भी निर्देश मिलता है। इनका काल ग्यारहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण था। ११. रामकण्ठ (द्वितीय)-यह शैवाचार्य भट्ट नारायणकण्ठ के पुत्र थे। इनकी कृति ‘नादकारिका’ के अन्तिम श्लोकों से इनके काश्मीरीय होने की पुष्टि होती है। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। मुद्रित एवं अमुद्रित रूप में इनके ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है- हम १. नादकारिका, अष्टप्रकरण में प्रकाशित। यो - २. सद्योज्योतिकृत मोक्षकारिका की वृत्ति, अष्टप्रकरण में प्रकाशित। कर ३. सद्योज्योतिकृत परमोक्षनिरासकारिका की वृत्ति, अष्टप्रकरण में प्रकाशित। ४. सद्योज्योतिकृत नरेश्वरपरीक्षा की ‘प्रकाश’ टीका, काश्मीर ग्रन्थावली में १६२६ समय में प्रकाशित। ५. जातिनिर्णयपूर्वकालयप्रवेशविधि, यह ग्रन्थ फ्रेंचभाषानुवाद के साथ श्री प्येर फिलियोसा द्वारा प्रकाशित। ६. मतंगपारमेश्वरवृत्ति, पाण्डिचेरी से प्रकाशित। __७. सार्धत्रिशतिकालोत्तरागम की वृत्ति, पाण्डिचेरी से प्रकाशित। ८. किरणागम की वृत्ति, इस पर अघोरशिवकृत व्याख्या भी उपलब्ध है, अप्रकाशित। ६. व्योमव्यापिस्तव, इसकी वेदज्ञानशिवाचार्यकृत लघु टीका भी उपलब्ध है, अप्रकाशित। १५८ जातन्त्रागम-खण्ड जा १०. सद्योज्योतिकृत मन्त्रवार्त्तिक की टीका, मोक्षकारिका (श्लो. २,११३) की वृत्ति में उद्धृत। मातृका अनुपलब्ध। ११. आगमविवेक, परमोक्षनिरासकारिका (श्लो. ४६) की वृत्ति में उद्धृत। मातृका अनुपलब्ध। १२. रौरववृत्तिविवेक, यह सद्योज्योतिकृत रौरववृत्ति की टीका है, मतंगपारमेश्वर के गायक विद्यापाद (३.२०) की टीका में उद्धृत। मातृका अनुपलब्ध। हक १३. सर्वागमप्रामाण्य, मोक्षकारिका (श्लो. १४५) की वृत्ति में उद्धृत, मातृका अनुपलब्ध। इनके अतिरिक्त मतंगपारमेश्वर के विद्यापाद (२६.५१) एवं मोक्षकारिका (श्लो. १०६) की वृत्ति में इनके द्वारा “उक्तमस्माभिरन्यत्र” कहा गया है। यहाँ ग्रन्थ का नाम निर्दिष्ट नहीं है, किन्तु इनके किसी ग्रन्थ का बोध अवश्य होता है। प्रशासन १२. सोमशम्भु—इस शैवाचार्य की एक ही कृति के चार नामों का उल्लेख मिलता है - कर्मकाण्डक्रमावलि, कर्मक्रियाकाण्ड, क्रियाकाण्डक्रमावलि और सोमशम्भुपद्धति। ‘कर्मकाण्डक्रमावली’ नाम से इस ग्रन्थ के तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं प्रथम शिवागम सिद्धान्त परिपालनसंघ सीरीज (सं. १५, देवकोट्टै, सन् १६३१ ई.), मा द्वितीय काश्मीर टेक्स्ट सीरीज (सं. ७३, सन् १६४७ ई.) और तृतीय पाण्डिचेरी से तीन भागों में (क्रमशः सन् १६६३, १६६८ और १६७७ ई.) प्रकाशित। परन्तु चातु इन सभी संस्करणों में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से प्रकाशित ‘लुप्तागमसंग्रह’ में संगृहीत ‘कर्मकाण्डक्रमावलि’ का वचन नहीं मिलता। ‘सोमशम्भु’ नाम के एक शैवाचार्य का उल्लेख माधुमतेय चूड़ामणि के शिष्य ‘प्रभावशिव’ की परवर्ती दूसरी शाखा में मिलता है, जिनके शिष्य ‘वामशम्भु’ ने कल्चुरि राजाओं में राजगुरुओं की परम्परा स्थापित की थी। इनका काल सन् ६७५ ई. के पूर्व था। इसके अतिरिक्त ‘सोमशम्भु’ नामक एक अन्य शैवाचार्य का उल्लेख सन् १०७३ ई. में निर्मित ‘कर्मकाण्डक्रमावलि’ (जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है) के ग्रन्थकर्ता 36 के रूप में भी मिलता है।

अन्य शैवाचार्य

१३. धाराधिपति भोजदेव–सातवीं शती के शिवगुप्तबालार्जुन के सेनकपाट शिलालेख में आमर्दक तपोवन से विनिर्गत आचार्य सदाशिव का उल्लेख मिलता है, जो लाट देश के राजा द्वारा आहूत होने पर वहाँ गये थे। ईशानशिवगुरुदेवपद्धति (भा. ३, पृ. ६६) में मध्यदेश, कुरुक्षेत्र, उज्जयिनी इत्यादि के साथ-साथ लाट प्रदेश के शैवाचार्यों को भी उत्तम कोटि का कहा गया है। भोजदेव के गुरु के विषय में अघोरशिवाचार्य ने अपनी पद्धति में दो श्लोक कहे हैं, जिनके अनुसार शैवाचार्य उत्तुंगशिव विन्ध्यप्रदेश द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १५६ की कल्याण नगरी में रहते थे। आर्यदेश में जन्मे उनके अनुज धाराधिपति भोजदेव के गुरु थे। उपर्युक्त शिलालेख के प्रमाण से उत्तुंगशिव को सदाशिवाचार्य की परम्परा से जोड़ा जा सकता है। प्राचीन समय में हिमालय पर्वत और विन्ध्य पर्वत के मध मा- य के भूभाग को आर्यदेश कहा जाता था। भोजदेव की मात्र एक कृति ‘तत्त्वप्रकाश’ ही उपलब्ध है और यह ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चुका है। १४. कुमारदेव-भोजदेव के ‘तत्त्वप्रकाश’ की टीका तात्पर्यदीपिका’ के कर्ता के रूप में - इनकी प्रसिद्धि है। ये भरद्वाजगोत्रीय शंकर के पुत्र, सोमयाजी और शिवभक्त थे। ये ईशानशिव के शिष्य थे। १५. त्रिलोचन शिवाचार्य-शैव सिद्धान्त के इस आचार्य की कृतियों में ध्यानरत्नावलि, प्रायश्चित्तसमुच्चय, रत्नत्रयोद्योत, सर्वात्मसिद्धान्तरहस्यसार अथवा सिद्धान्तसमुच्चय और सिद्धान्तसारावलि प्रमुख हैं। ‘सिद्धान्तसारावलि’ ग्रन्थ का कन्नड़ लिपि में प्रकाशन काशीनाथ ग्रन्थमाला, मैंसूर के सातवें क्रम में सन् १६३० में हो चुका है। टीका के साथ इसका संस्करण गवर्नमेण्ट ओरियन्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी बुलेटिन (भाग १७-२०) में तथा शिवज्ञानबोध प्रेस, मद्रास से सन् १६०१ ई. में हुआ था। १६. अघोरशिवाचार्य—यह चोलदेशीय कुण्डिन कुल के शैवाचार्य थे। इनके गुरु सर्वात्मशिव थे। इनका साहित्यिक काल सन् ११३०-११५८ ई. था। इन्होंने तत्त्वप्रकाशिका (तत्त्वप्रकाश), तत्त्वसंग्रह, तत्त्वत्रयनिर्णय, रत्नत्रय, भोगकारिका, नादकारिका और मृगेन्द्रवृत्ति पर टीकाएँ लिखी हैं। स्वतन्त्र प्रबन्ध के रूप में इनकी कृतियाँ आचार्यसार, पाखण्डापजय, भक्तप्रकाश और अभ्युदय नाटक है। इनका विशेष विवरण न्यू. कैट. कैट. (भाग १, पृ. ५८-५६) में द्रष्टव्य है। त्रिलोचन शिवाचार्य कृत ‘प्रायश्चित्तसमुच्चय’ के अनुसार यह आमर्दक मठ की परम्परा के शैवाचार्य थे। परमानन्दकृत शैवभूषण में अठारह शैवाचार्यों की एक सूची मिलती है। यह सूची उग्रज्योति से प्रारम्भ कर अघोरशिव तक की परम्परा से सम्बद्ध है। यहाँ ये शैवाचार्य पद्धतिकार के रूप में कहे गये हैं। इनकी नामावली इस प्रकार है १. उग्रज्योति, २. सद्योज्योति, ३. रामकण्ठ (प्रथम), ४. विद्याकण्ठ, ५. नारायण कण्ठ, ६. विभूतिकण्ठ, ७. श्रीकण्ठ, ८. नीलकण्ठ, ६. सोमशम्भु, १०. ईशानशम्भु, ११. हृदयशिव, १२. ब्रह्मशिव, १३. वैराग्यशिव, १४. ज्ञानशम्भु, १५. त्रिलोचनशिव, १६. वरुणशिव, १७. ईशानशिव, और १८. अघोरशिव। उपर्युक्त शैवाचार्य नवीं शती से बारहवीं शती के कालखण्डों में रहे। इनमें से कुछ का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है। शेष में से कुछ शैवाचार्यों का विवरण मठों की परम्परा के शैवाचार्यों के विवरण में द्रष्टव्य है। १६० तन्त्रागम-खण्ड

शैव मठों की परम्परा

अभिनवगुप्त ने अपने ‘तन्त्रालोक’ (३६.११-१४) में शैवागमों के स्रोतोभूत मठों का वर्णन किया है। इनमें से त्र्यम्बक, शंखमठिका और आमर्दक नाम के मठों का विवरण मध्यकालीन शिलालेखों में मिलता है। त्र्यम्बक मठिका ही लौकिक भाषा में ‘तेरम्ब’ नाम से अभिहित है, ऐसा सोमानन्दकृत ‘शिवदृष्टि’ (७.१५) से स्पष्ट है। ग्यारहवीं शती के रानीपुर शिलालेख में उथरेरम्ब विनिर्गत गगनशिवाचार्य का उल्लेख मिलता है। इस शिलालेख के सम्पादक ने ‘उथरेरम्ब’ शब्द का तात्पर्य (पाठ) ‘तेरम्ब’ ही निश्चित किया है। इसके अतिरिक्त मध्यकाल के शिलालेखों में तथा दसवीं शती के रन्नौद शिलालेख में कदम्बगुहा, शंखमठिका, तेरम्बि, मत्तमयूर, रणिपद्र इत्यादि शब्दों से इनके भेदोपभेद वर्णित म. म. हरप्रसाद शास्त्री ने कदम्बगुहा, शंखमठिका, तेरम्बि तथा आमर्दक तीर्थों की स्थिति ग्वालियर राज्य में बतायी है। ग्यारहवीं शती की रचना ‘तन्त्रालोक’ (३७.३८) के अनुसार सभी प्रकार के शास्त्रों का प्रचार-प्रसार प्रथमतः ‘मध्यदेश’ में हुआ था। मनुस्मृति (२.२१) के तथा अन्य प्रमाणों के आधार पर इसी कालखण्ड के राजशेखरकृत ‘काव्यमीमांसा’ में ‘मध्यदेश’ की भौगोलिक स्थिति कुरुक्षेत्र से प्रयाग तक और हिमालय से विन्ध्यपर्वत के मध्य बतायी गयी है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आमर्दक, त्र्यम्बक और शंखमठिका आदि के प्रतिष्ठापक आचार्यों के विद्या-वंशजों ने ही सम्पूर्ण भारतवर्ष में द्वैतवादी, अद्वैतवादी और द्वैताद्वैतवादी शैव आगमों का प्रचार-प्रसार किया। यतः यहाँ हमारा आलोच्य-विषय द्वैतवादी ‘सिद्धान्त-शैव’ आगम ही है, अतः उससे सम्बद्ध शैवाचार्यों का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। ‘सिद्धान्त-शैव’ शैवाचार्यों के सम्बन्ध में सर्वप्रथम सप्तम-शती के पूर्वार्ध के शिवगुप्त बालार्जुन के सेनकपाट शिलालेख में आमर्दक तपोवन से विनिर्गत ‘सदाशिवाचार्य’ का उल्लेख मिलता है, जो लाट देश के राजा के द्वारा आहूत होकर वहाँ गये थे। ग्यारहवीं शती के धाराधिपति भोज के गुरु के ज्येष्ठ भ्राता ‘उत्तुंगशिव’ सम्भवतः इसी परम्परा के आचार्य थे। सन् ७५४ ई. के कीर्तिवर्मा के समकालिक पत्तदकल के स्तम्भ-लेख में शिववर्धमान के पौत्र एवं शिवरूप के पुत्र ज्ञानशिवाचार्य का वर्णन है। इनके गुरु शुद्धदेवरूप थे। आठवीं शती के ही कदच्छी शिलालेख में शैवसिद्धान्त कोविद कुटुकाचार्य का स्मरण किया गया है। _इन सन्दर्भो में विशेष रूप से उल्लेखनीय चौथी शती के उत्तरार्ध का उदयगिरि गुफा का एक शिलालेख भी है, जिसमें एक शैव भक्त द्वारा संन्यासियों (सम्भवतः शैव) के लिए उस गुफा को समर्पित किये जाने का उल्लेख है। इस शिलालेख में यह भी कहा गया है कि गुफा के समर्पण-समारोह में स्वयं चन्द्रगुप्त भी उपस्थित थे। इसी के लगभग समकालीन महाकवि कालिदास ने ‘रघुवंश’ (१.१) में परमेश्वर शिव और पार्वती की जगत् के माता-पिता के रूप में स्तुति की है और दोनों को शब्द-अर्थ की तरह परस्पर संपृक्त कहा द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १६१ है। यहाँ यह स्मरणीय है कि शैवसिद्धान्त-दर्शन में शिव के इसी स्वरूप की व्याख्या की गयी है। दसवीं शती के प्रारम्भिक काल के जयसिंह वर्मा प्रथम के ‘वाङ्-इयान्ह’ शिलालेख के कुछ भाग संस्कृत और कुछ भाग चाम (चम्पा की भाषा) में प्राप्त हुए हैं। संस्कृत भाषा के लेख में भगवान् शिव को ‘गुहेश्वर’ की असाधारण दी गयी उपाधि है, जो पुराणों में कहीं-कहीं पाई जाती है। मन प्रबोधशिव का गुर्गी शिलालेख (E७३ ई.) यह प्रमाणित करता है कि शैव-सिद्धान्त के उपदेष्टा एक तापस थे, जो इनकी परम्परा के प्रमुख आचार्य थे। आगे चलकर व्योमशिव का रनोद शिलालेख और भी स्पष्ट करता है कि शैवाचार्यों की यह परम्परा दारुवन में ब्रह्मा का स्वयं को शिव के लिये समर्पित किये जाने की घटना के परिणाम-स्वरूप उदित हुई। ग्वालियर के संग्रहालय के पतंगशम्भु-शिलालेख में भी इसी तरह की सूचना मिलती है। इसके अनसार प्राचीन काल में श्रीकण्ठ (शिव) ने दारुवन में ब्रह्मा पर अनग्रह कर उन्हें अपने मत में दीक्षित किया और ब्रह्मा से एक अपूर्व मुनिवंश उद्भूत हुआ। दारुवन में गुहावासी के समागम का विवरण शिलालेखों के साथ-साथ कतिपय पुराणों में भी मिलता है। स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड (३८.२-३) में दारुवन का वर्णन है, जहाँ भगवान् शिव ने स्वयं को गुहावासी के रूप में अवतरित कर ‘भिक्षानट’ के रूप में मुनि-पत्नियों को आकर्षित किया था। लिंगपुराण (अध्याय ३२) और ब्रह्माण्डपुराण (भाग १, अध्याय २७) में भी इसी तरह की कथा मिलती है। वि. सं. ११२० से पूर्व के निर्मित अमरेश्वर मन्दिर में अंकित ‘हलायुध स्तोत्र’ से भी दारुवन में भगवान् शिव के भिक्षुक रूप में अवतरित होने की घटना प्रमाणित होती है। इस प्रकार ये शिलालेख और पौराणिक अभिलेख दारुवन के गुहावासी को शैव-सिद्धान्त का उपदेशक और प्रचारक सिद्ध करते हैं। यह दारुवन सम्भवतः देवदारु-वृक्षों का वन था और ये वृक्ष हिमालय की उपत्यकाओं में मिलते हैं। मामला कन्च गुहावासी से सम्बद्ध और भी शिलालेख उपलब्ध हैं। इनमें रुद्रदेव का मल्कापुरम् शिलालेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो विश्वेश्वर शम्भु से सम्बद्ध है। यह शैवाचार्य दाहल प्रदेश में दुर्वासा से सदावशम्भु की परम्परा में आते हैं। यह परम्परा उत्तर भारत में पंजाब से दक्षिण भारत के तमिल प्रदेशों तक विभिन्न कालखण्डों में फैली। आगे चलकर गुहावासी की यह परम्परा मुख्यतया तीन शाखाओं में विभक्त हुई १. आमर्दक मठ की परम्परा, २. मत्तमयूर की परम्परा और ३. माधुमतेय की परम्परा। इनके प्रतिष्ठापक आचार्य क्रमशः रुद्रशम्भु (आमर्दकतीर्थनाथ), पुरन्दर (मत्तमयूरनाथ) और पवनशिव (माधुमतेय) थे। ये सभी शैवाचार्य एक ही परम्परा के शैवाचार्य थे, जिन्होंने कालक्रम से अलग-अलग स्थानों में मठों की संस्थापना कर सिद्धान्त-शैव का प्रचार-प्रसार किया। ग्वालियर के संग्रहालय में स्थित पतंगशम्भु के शिलालेख में उल्लिखित शैवाचार्यों में क्रमशः कदम्बगुहावासी शंखमठिकाधिपति, तेरम्बिपाल, रुद्रशिव (आमर्दकतीर्थनाथ), पुरन्दर १६२ तन्त्रागम-खण्ड (मत्तमयूरनाथ), कवचशिव, हृदयशिव, व्योमशिव और पतंगशिव के नाम हैं। इसी जनपद के रन्नौद नामक ग्राम से प्राप्त एक अन्य शिलालेख में भी इससे मिलती-जुलती परम्परा का वर्णन है। सबसे महत्त्वपूर्ण युवराजदेव (द्वितीय) का बिल्हारी शिलालेख है, जो स्पष्ट रूप से कदम्बगुहा-सन्तति में उत्पन्न शैवाचार्यों की गुरु-शिष्य परम्परा को दर्शाता है। इसमें क्रमशः रुद्रशम्भु, मत्तमयूरनाथ, धर्मशम्भु, सदाशिव, माधुमतेय, चूड़ामणिशिव और हृदयशिव के नाम हैं। कीकत सुक अब गुहावासी की प्रमुख तीन शाखाओं का अलग-अलग परिचय यथोपलब्ध सामग्रियों के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है

१. आमर्दक मठ की परम्परा

इस मठ का विवरण राष्ट्रकूट और प्रतीहार के शिलालेखों में प्राप्त है। इसके संस्थापक आचार्य रुद्रशम्भु थे, जो दुर्वासा से प्रेरित थे और आमर्दकतीर्थनाथ कहलाये। इनके शिष्य राजपूताना, करहाट और कर्नाटक तक फैले। म. म. डॉ. हरप्रसाद शास्त्री ने इस मठ की भौगोलिक स्थिति ग्वालियर राज्य के अन्तर्गत बतायी है, जबकि कुछ अन्य विद्वान् इस आमर्दक तीर्थ को उज्जयिनी सिद्ध करते हैं। एक अन्य स्रोत ब्रह्मशम्भुरचित पञ्जिका में कहा गया है कि आमर्दकाधीश (आमर्दकतीर्थनाथ) मालवा में रहते थे। की विनायकपाल प्रतीहार (सन् ६५६ ई.) के समकालीन मथनदेव के राजोरा शिलालेख (६६२ ई.) में आमर्दक मठ से विनिर्गत सोपरीय सन्तति में श्रीकण्ठाचार्य, श्रीरूपशिवाचार्य और उनके शिष्य ओंकारशिवाचार्य का वर्णन प्राप्त है। ये श्रीछत्रशिव मठ में रहते थे। दूसरी करंजखेट सन्तति नामक परम्परा करहाट क्षेत्र में मिलती है। राष्ट्रकूट-वंशीय कृष्ण (तृतीय) करहाट के दानपत्र (६५८ ई.) में बल्लकेश्वर मठाधिपति ईशानशिवाचार्य के शिष्य गगनशिव को एक ग्राम दिये जाने का उल्लेख है। कन्नड़ भाषा में प्राप्त सोमेश्वर मन्दिर के एक शिलालेख में गगनशिव को अनूपनरेश दत्तलपेन्द्र श्रीमास का आध्यात्मिक गुरु बताया गया है। साथ ही इन्हें ‘दुर्वासोमुनीन्द्रवंशतिलक’ भी कहा गया है। झा रुद्रदेव के मल्कापुर शिलालेख में विश्वेश्वरशम्भु का वर्णन है। यह शैवाचार्य डाहल प्रदेश में विद्यमान दुर्वासा से सद्भावशम्भु तक की परम्परा में आते हैं। सद्भावशम्भु को ‘प्रभावशिव’ नाम से भी जाना जाता था। इन्होंने गोलकीमठ की स्थापना कर सिद्धान्तशैव मत का प्रचार किया। यह परम्परा तेलुगु और तमिल क्षेत्रों में फैली। समय गरि तेलुगु क्षेत्र के कर्नूल जिले से प्राप्त पुष्पगिरि शिलालेख में गोलकीमठ का विवरण है। इसी जिले से प्राप्त चार त्रिपुरान्तक शिलालेखों में शान्तशिव, धर्मशिव, विमलशिव और विश्वेश्वरशिव को गोलकीमठ से सम्बद्ध बताया है। एक अन्य स्रोत गुन्टूर जिले के पल्नद तालुका से प्राप्त काकतीय नरेश गणपतिदेव के अलुगुरजुपल्लै के शिलालेख में भी गोलकीमठ की सूचना प्राप्त है। ना द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १६३ तमिल क्षेत्र में गोलकीमठ की परम्परा को प्रमाणित करने वाले शिलालेखों में जटावर्मन् त्रिभुवन चक्रवर्तिन् वीर पाण्ड्यदेव का शिलालेख है। इसमें पुरगलि पेरुपल को ज्ञानामृताचार्य की परम्परा से सम्बद्ध बताया गया है। वहीं अघोरदेव को ज्ञानामृताचार्य-सन्तान कहा गया है। एक अन्य शिलालेख में मठाधिपति पाण्डि-मौडुलाधिपति (उपनाम लक्षाध्यायी सन्तान) को भी गोलकीमठ से सम्बद्ध बताया गया है। तंजोर जिले से प्राप्त तिनिवरुर शिलालेख में गोलकीमठ का विवरण है। एक चोल शिलालेख में वाराणसी स्थित कोल्लमठ के लक्षाध्यायी सन्तान ‘ज्ञानशिव’ का वर्णन है। उपर्युक्त सन्दों में काकतीय रुद्रदेव का मल्कापुरम् शिलालेख (वि. सं. ११८३) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अनुसार विश्वेश्वरशम्भु विश्वेश्वर-गोलकीमठ के संस्थापक थे और वारंगल के राजा गणपति (सन् १२१३-१२४६ ई.) के आध्यात्मिक गुरु थे। यह शिलालेख गोलकीमठ के सर्वजन हितकारी गतिविधियों की विस्तृत जानकारी भी देता है।

२. मत्तमयूर मठ की परम्परा

गुहावासी-परम्परा में पाँचवें आचार्य के रूप में पुरन्दर का नाम आता है। इनसे प्रभावित होकर राजा अवन्तिवर्मन् (नवीं शती) ने अपना सम्पूर्ण राज्य इन्हें समर्पित कर दिया था। इसी राज्य के मत्तमयूर नामक स्थान में पुरन्दर ने अपने मठ की स्थापना की और ‘मत्तमयूरनाथ’ कहलाये। इन्होंने अपना दूसरा मठ रणिपद्र में स्थापित किया था, जो रन्नोद नाम से ग्वालियर राज्य में झांसी और गुना के मध्य स्थित है। साई चन्देल शिलालेख में आचार्य पुरन्दर की परम्परा के शैवाचार्यों में प्रबोधशिव का उल्लेख है। यह शैवाचार्य गुहावासीपरम्परा में बारहवीं पीढ़ी के रूप में वर्णित हैं। साथ ही इन्हें मत्तमयूर-सन्तति में भी दिखलाया गया है। इस शिलालेख के अनुसार मत्तमयूर-सन्तति में क्रमशः पुरन्दर, शिखाशिव, प्रभावशिव, प्रशान्तशिव और प्रबोधशिव हुए। प्रबोधशिव ने शोण नद के संगम पर प्रशान्ताश्रम का निर्माण कराया था, जो इनके गुरु के नाम पर था। इसी शिलालेख में प्रभावशिव को युवराजदेव से पोषित कहा गया है। प्रबोधशिव के गुर्गी शिलालेख में ‘प्रबोधशिव’ को ही ‘शिखाशिव’ और ‘चूड़ाशिव’ भी कहा गया है। यहाँ मधुमती नाम की नगरी सैद्धान्तिकों के धाम के रूप में वर्णित है, जिसका संकेत ‘माधुमतेय मठ’ की ओर है। इस शिलालेख में ‘ईशानशिव’ को ‘प्रबोधशिव’ का ज्येष्ठ भ्राता बताया गया है। यहीं प्रबोधशिव द्वारा वाराणसी में एक आवास बनवाने की चर्चा है। रन्नोद शिलालेख में आचार्य पुरन्दर द्वारा रणिपद्र में स्थापित द्वितीय मठ की परम्परा में क्रमशः कवचशिव, सदाशिव, हृदयशिव, व्योमशिव और पतंगशिव का उल्लेख है। यहाँ हृदयशिव का उपनाम ‘हरहास’ बताया गया है। युवराजदेव (द्वितीय) के बिल्हारी शिलालेख (६७५ ई.) में वर्णित मत्तमयूरनाथ (पुरन्दर) की परम्परा में क्रमशः धर्मशम्भु, सदाशिव, पवनशिव, चूड़ामणिशिव और हृदयशिव का वर्णन है। तन्त्रागम-खण्ड मत्तमयूर और रणिपद्र मठों से इनकी शाखाएँ मालवा, दक्षिण के कर्करोणि और आधुनिक मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थानों में फैली। ये लोग चेदि, परमार और राष्ट्रकूट चालुक्य वंश के राजाओं और उनके सामन्तों में पूज्य हुए तथा सम्मानित भी किये गये। _इसी परम्परा की मालव-शाखा में मालव-नरेश सियक के आध्यात्मिक गुरु ‘लम्बकर्ण’ का नाम उल्लेखनीय है। यह रणिपद्र मठ की धारा में स्थित गोरठिका मठ की शाखा में आते हैं। यह विवरण ‘प्रायश्चित्तसमुच्चय’ में प्राप्त है, जो इसी शाखा की परम्परा में आये ईश्वरशिव के शिष्य हृदयशिव (द्वितीय) की रचना है। सो कर्करोणि-शाखा में अम्भोजशम्भु को प्रधान आचार्य का महत्त्व प्राप्त है। यह मत्तमयूर मठ की परम्परा में आते हैं। रट्टराज के खरपतन दानपत्र (सं. ९००) में इनके द्वारा दान लेने की चर्चा की गयी है। इन्हीं की परम्परा के शैवाचार्य ब्रह्मशम्भु ने ‘नैमित्तिकक्रियानुसन्धान’ नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था। सन् ६३८ ई. में प्रणीत इस ग्रन्थ की मातृका एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल के पुस्तकालय (भाग ३, सं. ३०४२ अ) में सुरक्षित है। नो चन्देरी प्रतीहार के कदूह शिलालेख में ‘धर्मशिव’ को रणिपद्र मठ से सम्बद्ध बताया गया है। यह शैवाचार्य दसवीं शती में हरिराज प्रतीहार के आध्यात्मिक गुरु थे। इसी स्थान से प्राप्त एक अन्य शिलालेख में ‘ईश्वरशिव’ को राजा भीमभूप से सम्बद्ध बताया गया है। * वैरोचनकृत ‘प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्चय’ (३२.७२) में मत्तमयूर वंश के शैवाचार्यों में ‘विमलशिव’ का स्मरण किया गया है। यहाँ गुरुओं के क्रम में विमलशिव, ईशानशिव और वैरोचन का नाम आता है। विमलशिवकृत ‘विमलावतीतन्त्रम्’ नामक ग्रन्थ की तीन मातृकाएं नेपाल के दरबार पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। इस ग्रन्थ में वर्णित गुरुपरम्परा में श्रीकण्ठ दुर्वासा-शक्रमुनि-सदाशिव-प्रशान्तशिव-प्रबोधशिव-कुमारशिव-ईशानशिव-अघोरशिव सोमशम्भु-हरिशिव-विमलशिव का नाम आता है और ग्रन्थ-कर्ता का सम्बन्ध वाराणसी से बताया गया है। ग्रन्थ के अन्त में प्राप्त पुष्पिका में धर्मशिव को विमलशिव का गुरु भी कहा गया है। सम्भवतः इस परम्परा के ‘ईशानशिव’ वही शैवाचार्य हैं, जिनका स्मरण अभिनवगुप्त ने “तन्त्रालोक” (२२.३०-३१) में ‘देव्यायामल’ ग्रन्थ के व्याख्याता के रूप में किया है। यह शैवाचार्य ‘ईशानशिवगुरुदेवपद्धति’ के लेखक से भिन्न हैं। यह निर्भरभूमिप के पूज्य थे। वैरोचन स्वयं को योगी के बजाय राजकुमार ही प्रदर्शित करते हैं। इनके पिता धीरनाथ और पितामह गोपाल भूपाल थे। पार हम इस प्रकार पुरन्दर (मत्तमयूरनाथ) द्वारा स्थापित दोनों मठों से इनकी परम्परा पंजाब से दक्षिण होती हुई मध्यभारत में फैली। पंजाब के वर्मन्वंशीय नरेश, चन्देरी प्रतीहार के शासक और मध्यभारत के परमारवंशीय राजा इनके आध्यात्मिक शिष्य बने।

३. माधुमतेय मठ की परम्परा

की युवराज (द्वितीय) के बिल्हारी शिलालेख (सन् ६७५ ई.) में मत्तमयूरनाथ के शिष्यों में क्रमशः धर्मशम्भु, सदाशिव, पवनशिव, चूड़ामणिशिव और हृदयशिव का नाम आता है।द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १६५ इसी शिलालेख में माधुमतेय पवनशिव, शब्दशिव और ईश्वरशिव का भी वर्णन है। यह परम्परा “पवनशिव" द्वारा स्थापित मठ से प्रारम्भ हुई और वे ‘माधुमतेय’ कहलाये। यहाँ से इनकी शाखाएँ गुर्गी, चन्देल, बिल्हारी एवं अन्य स्थानों पर फैली’। कल्चुरी नरेश युवराजदेव (प्रथम) और लक्ष्मणराज ने ‘प्रभावशिव’ अथवा ‘सद्भावशिव’ को सम्मानित किया था। प्रभावशिव की दूसरी शाखा ‘सोमशम्भु’ के द्वारा प्रचारित हुई। इनके शिष्य ‘वामशम्भु’ ने कल्चुरी शासकों में राजगुरु के रूप में एक परम्परा स्थापित की थी, जो डाहल मण्डल के राजवंश में अन्त तक रही। इस कथन का आधार काकतीय नरेश का मल्कापुरम् शिलालेख है। गुर्गी और चन्देल के शिलालेख के साक्ष्य ‘प्रभावशिव’ और ‘सद्भावशिव’ की अभिन्नता सिद्ध करते हैं, जो माधुमतेय चूडामणि के शिष्य थे। ‘वामशम्भु’ और ‘सोमशम्भु’ इनकी परवर्ती शिष्यपरम्परा में थे। कल्चुरी राजवंश पर अपना आधिपत्य स्थापित करने वाले चन्देल शासकों ने ‘वामदेव’ को परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर इत्यादि उपाधियों से संमानित किया था। इसका उल्लेख ‘पृथ्वीराजविजय’ की जोनराजकृत टीका में है। यहाँ कल्चुरी शासक साहसिक के द्वारा अपने आध्यात्मिक गुरु ‘वामदेव’ को अपना साम्राज्य अर्पित कर विश्वविजयी होने के प्रयास का भी वर्णन है। अन्य साक्ष्यों के आधार पर राजा साहसिक की युवराज (द्वितीय) से अभिन्नता सिद्ध होती है। इस प्रकार राजगुरुओं के रूप में माधुमतेय वंश के शैवाचार्यों की यह परम्परा वामशम्भु से चली। जयसिंह के जबलपुर शिलालेख (सन् ११७५ ई.) में विमलशिव, वास्तुशिव, पुरुषशिव और कीर्तिशिव की शिष्य-परम्परा का वर्णन है। इस शिलालेख में वास्तुशिव और पुरुषशिव के मध्य के आचार्यों के नाम खण्डित होने से स्पष्ट नहीं है। ‘विमलशिव’ और उनके शिष्य ‘वास्तुशिव’ सम्भवतः कोकल्ल (द्वितीय) और उनके पुत्र गांगेयदेव के आध्यात्मिक गुरु थे। जाजल्लदेव के रत्नपुर शिलालेख (सन् ११६६ ई.) में सिद्धान्तविद् शैवाचार्य ‘रुद्रशिव’ को जाजल्लदेव का गुरु बतलाया गया है। यह शैवाचार्य सम्भवतः ‘वास्तुशिव’ के शिष्य थे। कल्चुरी शासकों के सन्दर्भ में अभी तक प्राप्त शिलालेखों में कम से कम आठ राजाओं के नाम मिलते हैं - लक्ष्मीकर्ण, यशःकर्ण, गयाकर्ण, नरसिंह, जयसिंह, विजयसिंह, शंकरगण और त्रैलोक्यवर्मदेव। इनमें लक्ष्मीकर्ण के आध्यात्मिक गुरु की जानकारी अभी तक प्राप्त नहीं है, यह सम्भवतः ‘रुद्रशिव’ ही थे। यशःकर्ण के आध्यात्मिक गुरु ‘पुरुषशिव’ तथा गयाकर्ण के ‘शक्तिशिव’ थे। इनके शिष्य ‘कीर्तिशिव’ सम्भवतः नरसिंह के गुरु थे। इनके शिष्य ‘विमलशिव’ राजा जयसिंह के गुरु थे, यह बात जयसिंह के जबलपुर शिलालेख से प्रमाणित होती है, जिसमें इनको प्रख्यात राजगुरु के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। इनके शिष्य ‘धर्मशिव’ दक्षिणदेश में गये थे। धर्मशिव के ही शिष्य ‘विश्वेश्वरशम्भु’ मालवा और चोल १. हिस्ट्री ऑफ शैव कल्ट्स इन नार्दर्न इण्डिया, बी. एस. पाठक, पृ. ३ २. वहीं, पृ. ३६ तन्त्रागम-खण्ड १६६ राजाओं से पूजित हुए थे। त्रैलोक्यवर्मदेव का रीवां अभिलेख यह प्रमाणित करता है कि ‘शान्तशिव’ और ‘नादशिव’ भी विमलशिव के ही शिष्य थे। ये दोनों सहोदर भ्राता थे, जिनमें ‘नादशिव’ ज्येष्ठ थे। इस प्रकार राजगुरुओं के रूप में सिद्धान्तविद् शैवाचार्यों की यह परम्परा युवराज देव (द्वितीय) के काल (६७५ ई.) में ‘वामशम्भु’ से प्रारम्भ हुई और ढाई सौ वर्षों से भी अधिक समय तक चली। यह परम्परा सन् १२२५ ई. में तब समाप्त हुई, जब चन्देल शासक त्रैलोक्यवर्मदेव ने इस राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

  • चोल शासकों में भी राजगुरुओं के रूप में शैवाचार्यों की एक परम्परा थी।, राजराज प्रथम (६८५ ई.) और राजेन्द्र चोल (१०१२-१०४४ ई.) के अभिलेखों में ‘ईशानशिव’ और ‘शर्वशिव’ का उल्लेख है। ईशानशिव गुरु की परम्परा’ सोमशम्भु रचित ‘कर्मकाण्डक्रियावलि’ नाम की पद्धति में उद्धृत है। इसके अनुसार गुरु-शिष्य परम्परा का क्रम इस प्रकार है ईशानशिव, विमलशिव, शर्वशिव और सोमशम्भु। इनमें ‘शर्वशिव’ राजेन्द्रचोल से पूजित थे। इनके शिष्य आर्यदेश, मध्यदेश और गौड़देश में व्याप्त थे। इनके प्रमुख शिष्य ‘सोमशम्भु’ ने अनेक शैव-ग्रन्थों की रचना की थी। इनका परिचय पहले दिया जा चुका है। ‘त्रिलोचनशिवाचार्य’ कृत ‘सिद्धान्तसारावलि’ की टीका में में राजेन्द्र चोल द्वारा उत्तर भारत से उच्चकोटि के शैव सन्तों को अपने देश कांची और चोलदेश में ले जाने का विवरण है।

सिद्धान्त-शैव दर्शन का संक्षिप्त परिचय

सिद्धान्तशैव दर्शन द्वैतदर्शन की कोटि में आता है। यह दर्शन दस शिवागम और अठारह रुद्रागम, इन समस्त अट्ठाईस आगमों का प्रामाण्य स्वीकार करता है। यद्यपि अभिनवगुप्त आदि अद्वैतवादी आचार्य अट्ठारह रुद्रागमों की द्वैताद्वैतपरक व्याख्या करते हैं, फिर भी सिद्धान्तशैव दर्शन के पूर्ववर्ती आचार्यों ने इनकी भी द्वैतपरक व्याख्या की है। इस कथन की पुष्टि में हम रौरवागम को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। यह आगम श्रीकण्ठीसंहिता में द्वैताद्वैत आगमों में परिगणित है, किन्तु सिद्धान्तशैव के महान् आचार्य सद्योज्योति अपनी ‘मोक्षकारिका’ में यह घोषित करते हैं कि रौरवागम की अविच्छिन्न परम्परा रुरु के समय से प्रारम्भ कर उनके समय तक व्याप्त थी। Pा इस दर्शन के प्रतिपादक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, व्याकरण और पाशुपत इत्यादि दर्शनों की व्यवस्थित समीक्षा की है। इनके द्वारा नाद-बिन्दु आदि का सम्यक् विवरण, सूक्ष्मा (परा), पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी नामक वाक्चतुष्टय का प्रतिपादन, परापर नामक सूक्ष्मा वाक् का नाद के साथ और पश्यन्ती वाक् का अक्षरबिन्दु के साथ तादात्म्य का सुन्दर विवेचन पुष्ट युक्तियों के साथ किया गया है। कापीकर १. हिस्ट्री आफ……., पृ. ३८ द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १६७ ति सिद्धान्तशैव दर्शन शुद्ध धर्माचार मिश्रित दर्शन है। यद्यपि यह दर्शन अपने पूर्वगामी पाशुपत दर्शन से पति-पशु-पाश नामक पदार्थत्रय को ग्रहण करता है, तथापि योग और विधि नामक पदार्थद्वय को छोड़कर दुःखान्त का पति में ही अन्तर्भाव करता है। इस प्रकार यहाँ पति, पशु, पाश नामक तीन मौलिक पदार्थ ही स्वीकृत हैं। यहाँ छत्तीस पदार्थ इन्हीं पदार्थत्रय में अन्तर्गणित हैं। यहाँ पाश के मल, माया, रोधशक्ति, कर्म और बिन्दु नामक पाँच भेद किये गये हैं। बिन्दु महामाया का अपर पर्याय है। ‘पति’ शब्द के स्थान पर ‘कारण’ शब्द भी प्रयुक्त है। जो साधारणतया पाशुपत दर्शन और सिद्धान्तशैव दर्शन में प्रथम तत्त्व का वाचक है। शो सिद्धान्तशैव दर्शन प्रत्यभिज्ञा-दर्शन में वर्णित छत्तीस तत्त्वों के शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्धविद्या इत्यादि तत्त्वों का पति में, पुरुष तत्त्व का पशु में और कला से पृथ्वी पर्यन्त एकतीस तत्त्वों का माया में अन्तर्भाव स्वीकार करता है। इस दर्शन में मोक्ष मात्र दुःखान्त ही नहीं है, अपितु आणव, कार्म, मायीय मलत्रय के क्षय से अभिव्यक्त पशु का सर्वज्ञत्व, सर्वकर्तृत्व रूप शिवसाम्य है। ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ में यह शैवदर्शन नाम से वर्णित है।

  • तमिल शैव-सिद्धान्त में भी पशु, पति, पाश नामक तीन प्रधान तत्त्व, छत्तीस अवान्तर तत्त्व, मल-माया-कर्म नामक मलत्रय, शुद्धाशुद्ध रूप द्विविध सृष्टि, परा-पश्यन्ती मध्यमा-वैखरी रूप चतुर्विध वाक् और अट्ठाईस आगमों का प्रामाण्य स्वीकृत हैं। दोनों में भेद मात्र भाषाभावकृत हैं। तमिल शैव-सिद्धान्त का प्रामाणिक ग्रन्थ मेयकन्ददेव द्वारा तेरहवीं शती में लिखा गया, जबकि इनसे कई शताब्दी पूर्व शैव सिद्धान्त के अनेक ग्रन्थों की रचना सद्योज्योति, देवबल, भोजदेव, अघोरशिव आदि के द्वारा की गयी थी। समार 2_इसके अनन्तर शैव-सिद्धान्त आगमों में वर्णित प्रमुख विषयों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है - मृगेन्द्रागम (विद्यापाद २.२) एवं किरणागम (विद्यापाद १.१३) में पति, पशु, पाश नामक पदार्थत्रय का निरूपण मिलता है। सर्वज्ञानोत्तर (विद्यापाद) के प्रथम पटल में भी तीन पदार्थों का विवरण है, किन्तु इस आगम के योगपाद (श्लो. ३१-३२) में पशु, पति, पाश और शिव नामक पदार्थ-चतुष्टय का निरूपण है। रौरवागम के अध्वपटल (विद्यापाद ४.४८) में विधि, क्रिया, काल, योग और शिव नामक पाँच पदार्थों का निरूपण मिलता है। मतंगपारमेश्वर के द्वितीय पटल (श्लो. १४-२१) में पति, शक्ति, त्रिपर्व, पशु, भोग और उपाय नामक छह पदार्थों का निरूपण है। ऐसा ही विवरण पौष्करागम में भी उपलब्ध होता है और उमापति शिवाचार्य की व्याख्या में भी यही स्वीकृत है। स्वायंभुव आगम (योगपाद ३७.६-११) में बन्ध, अविद्या, विधि, भोग, विद्या, कारण और शाश्वत नामक सात पदार्थों का निरूपण है। १. मतंगपारमेश्वर, भूमिका के आधार पर। १६८ तन्त्रागम-खण्ड उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि विभिन्न शैवागमों में विभिन्न प्रकार के पदार्थों का निरूपण दृष्टिगोचर होता है, किन्तु मुख्य रूप से पति-पशु-पाशाख्य पदार्थत्रय में ही सभी का अन्तर्भाव है। पौष्करागम (विद्यापाद) के पतिपटल (श्लो. ८) के अनुसार पौष्कर और मतंग में छह, स्वायम्भुव में सात, श्रीपराख्य में पाँच और मृगेन्द्र में तीन पदार्थ स्मृत हैं। इसी तरह का विवरण किञ्चित् पाठान्तर से शिवाग्रयोगीकृत ‘शैवपरिभाषा’ के द्वितीय पटल के आरम्भ में मिलता है। इसके अनुसार स्वायम्भुव आगम में सात, पौष्कर एवं मतंग आगम में छः, श्रीपराख्य आगम में पाँच और रौरव आगम में तीन पदार्थ स्वीकृत हैं। ‘सर्वज्ञानोत्तर आगम’ के उपोद्घात में शिव, पति, पशु, शुद्धमाया, अशुद्धमाया, कर्म और आणवमल—ये सपत पदार्थ कहे गये हैं तथा पशु, पति, माया, कर्म और आणवमल इत्यादि पाँच पदार्थ आगमान्तरों में स्वीकृत बताये गये हैं। यह या मतंगपारमेश्वर में तृतीय पदार्थ (पाश) त्रिपर्वपद से अभिहित है। यहाँ कला तत्त्व से पृथ्वी तत्त्व तक तीस तत्त्व शब्द से वाच्य हैं। वामदेव भुवन से आरम्भ कर कालाग्नि भुवन तक एक सौ चौसठ संख्या तक भूवन भावशब्दवाच्य हैं। तत्तद् भुवनज असंख्य शरीर भूतशब्द वाच्य हैं। मृगेन्द्र, किरण और सुप्रभेद आगमों में भी भुवनों का प्रतिपादन है। मृगेन्द्र और किरण में तत्त्वों का विवरण सृष्टिक्रम और भुवनों का क्रम संहारक्रम से वर्णित हैं। मतंगपारमेश्वर में तत्त्वों का और भुवनों का प्रतिपादन सृष्टिक्रम से है। यहाँ पर प्रत्येक तत्त्व का स्वरूप विशद रूप से विवेचित है। मतंगवृत्ति में बुद्धि के भाव-प्रत्यय सर्ग के तीन सौ प्रकार वर्णित हैं। पौष्कर आगम के पुंस्तत्त्व पटल में छह सौ बारह भेद स्वीकृत हैं। मृगेन्द्र आगम के कलादि कार्य प्रकरण में सांख्योक्त पचीस भेद बताये हैं। यो o यद्यपि भुवन संख्याक्रम मृगेन्द्र और किरणागम में भी मिलता है, किन्तु यहाँ शुद्धाशुद्ध अध्वों का विवरण अत्यन्त संक्षिप्त है। मतंग पारमेश्वर में पति पदार्थ में चौदह भुवन, शक्ति पदार्थ में इकतालीस भुवन, त्रिपर्व पदार्थ में एक सौ चौसठ भुवन और प्रति तत्त्वों के भुवनों को संमिलित करते हुए कुल चार सौ उन्नीस भवनों का वर्णन है। किरणागम की व्याख्या में रामकण्ठ ने सदाशिवतत्त्वान्त चार सौ पचीस भुवन कहे हैं। इस प्रकार किरण के अनुसार ४२५ भुवन, मतंग के अनुसार ४१६ भुवन, मृगेन्द्र, रौरव तथा अघोरशिवाचार्य की पद्धति ‘क्रियाक्रमद्योतिका’ में २२४ भुवन वर्णित हैं। किरणागम के अनुसार पृथ्वी तत्त्व में २७० भुवन और मतंग में २५७ भुवन कहे गये हैं। मतंगपारमेश्वर वृत्ति में हाटक का पातालों में अन्तर्भाव है, जबकि मृगेन्द्र और किरण में हाटक का पृथक् भुवन के रूप में वर्णन है।

तत्त्व-परिचय

मतंगपारमेश्वर के विद्या-पाद में छत्तीस-तत्त्वों के नाम सृष्टिक्रम से इस प्रकार हैं १. लय, २. भोग, ३. अधिकार, ४. शुद्धविद्या, ५. माया, ६. कला, ७. विद्या, ८. राग, ६. काल, १०. नियति, ११. पुरुष, १२. अव्यक्त, १३. गुण, १४. बुद्धि, १५. अहंकार, द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम १६६ १६. मन, १७. श्रोत्र, १८. त्वक्, १६. चक्षु, २०. जिह्वा, २१. घ्राण, २२. वाक्, २३. पाणि, २४. पाद, २५. पायु, २६. उपस्थ, २७. शब्दतन्मात्र, २८. स्पर्शतन्मात्र, २६. रूपतन्मात्र, ३०. रसतन्मात्र, ३१. गन्धतन्मात्र, ३२. आकाश, ३३. वायु, ३४. अग्नि, ३५. अप, ३६. पृथिवी। पडरौरवागम के विद्यापाद के दशम पटल (श्लो. ६८-१०१) में तीस तत्त्व कहे गये हैं। यहाँ पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्र, पञ्चकर्मेन्द्रिय, छह बुद्धीन्द्रिय, कला, विद्या, राग, पुरुष, अव्यक्त, गुण, बुद्धि, अहंकार इत्यादि आठ तत्त्व और शिवरूप में एक तत्त्व, अर्थात् कुल तील तत्त्व स्वीकृत हैं। - मृगेन्द्रागम के विद्यापाद में पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा, पञ्चकर्मेन्द्रिय, छह ज्ञानेन्द्रिय, माया-कला-काल-विद्या-राग-नियति-पुरुष-प्रकृति-अव्यक्त-गुण-बुद्धि-अहंकार इत्यादि बारह तत्त्व तथा शुद्धविद्या-सदाशिव-बिन्दु-नाद-परबिन्दु-परमशिव इत्यादि छह शुद्ध तत्त्वों का निरूपण किया गया है। इनकी कुल संख्या उनतालीस होती है। यद्यपि ग्रन्थ में किसी स्थल पर भी इनकी सम्पूर्ण संख्या का निर्देश नहीं मिलता। सा कालोत्तर आगम के तीसवें पटल में छत्तीस तत्त्वों की परिगणना की गयी है। वे इस प्रकार हैं-पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा, पञ्चकर्मेन्द्रिय, छह ज्ञानेन्द्रिय, पुरुष-प्रकृति-महत् अहंकार-राग-माया-विद्या-कला-नियति-विग्रहेश-काल इत्यादि ग्यारह तत्त्व तथा शुद्धविद्या-शुद्धकाल-महेश-सदाशिव इत्यादि चार तत्त्व। इस प्रकार कुल संख्या छत्तीस होती है। यहाँ पर ‘विग्रहेशतत्त्व’ की आत्मतत्त्व से तथा ‘महेशतत्त्व’ की ईश्वरतत्त्व से समानता की जा सकती है। मा मा किरणागम के विद्यापाद के आठवें पटल में भी छत्तीस तत्त्वों की परिगणना में पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा, पञ्चकर्मेन्द्रिय। छह ज्ञानेन्द्रिय, अहंकार-बुद्धि-अव्यक्त-राग-विद्या-काल नियति-कला-माया-शुद्धविद्या-ईश्वर-सदाशिव-प्रथमशक्ति-द्वितीयशक्ति-शिवतत्त्व इत्यादि पन्द्रह तत्त्व हैं। यहाँ इन्द्रियगण एवं तन्मात्र-समूहों का नामतः निर्देश नहीं मिलता। यद्यपि पुरुषतत्त्व का यहाँ निर्देश है, किन्तु उसकी गणना छत्तीस तत्त्वों में नहीं है। शक्तिद्वय का विवरण यहाँ विशेष रूप से अवलोकनीय है। सुप्रभेदागम के योगपाद के प्रथम पटल में पञ्चभूत, दस ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय, राग-विद्या-काल-कला-आत्मा इत्यादि पाँच तत्त्व, अहंकार-बुद्धि-गुण-अव्यक्तादि चार तत्त्व, शुद्धविद्या-सादाख्य-बिन्दु-नाद-शक्तिद्वय-शिव इत्यादि सात तत्त्व हैं। इनकी पूर्ण संख्या इकतीस होती है। इनमें पञ्चतन्मात्र तत्त्व की गणना नहीं की गयी है। भारत है इसी प्रकार चिन्त्यागम और पौष्कर आगम में भी छत्तीस तत्त्वों का निर्देश किया गया है। यहाँ शिव-शक्ति-सादाख्य-ईश्वर-शुद्धविद्या इत्यादि पाँच शुद्धतत्त्व और माया तत्त्व से पृथिवी-तत्त्व पर्यन्त इकतीस तत्त्व मिलकर छत्तीस तत्त्व होते हैं। स्वायम्भुव आगम के अड़तीसवें पटल में बत्तीस तत्त्वों की परिगणना की गयी है। यहाँ इकतीस अशुद्ध तत्त्व और एक शिवतत्त्व स्वीकृत है। १७० तन्त्रागम-खण्ड

दीक्षा

आगमों में दीक्षा आत्मसंस्कार का ही अपर नाम है। आणव, मायीय और कार्म मल अथवा पाश से आच्छन्न संसारी आत्मा का स्वाभाविक पूर्णत्व प्रस्फुटित नहीं हो सकता। पूर्ण और शिव-स्वरूप होते हुए भी अपरिच्छिन्न आत्मा आणव मल के आवरण के कारण अपने को सब प्रकार से परिच्छिन्न सा अनुभव करता है। यह केवल अपूर्णता का बोधमात्र है और अन्य दो मलों का भित्तिस्वरूप है। आणव-भाव प्राप्त करने पर आत्मा में शुभाशुभ वासना का उद्भव होता है, जिसके विपाक से जन्म, आयु और भोग निर्धारित होता है। इसका नाम कार्म मल है। इस कर्म से उत्पन्न कंचुक रूप आवरण हैं— कला, विद्या, राग, काल और नियति और इनकी समष्टिभूत माया। पुर्यष्टक और स्थूल भूतमय विभिन्न जातीय कारण, सूक्ष्म और स्थूलदेह। इन देहों का आश्रय कृत विचित्र भुवन और नाना प्रकार के भोग्य पदार्थों के अनुभव के कारण यह मायीय मल के रूप में प्रसिद्ध है। कला से पंचमहाभूत तक सारे तत्त्व ही देह स्थित मायीय पाश हैं और यहीं तक संसार है। इस प्रकार से ये तीन प्रकार के आवरण बद्ध आत्मा में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। दीक्षा के द्वारा इसी मलिन आत्मा का संस्कार होता है, जिससे मल की निवृत्ति के साथ-साथ निवृत्ति का संस्कार तक शान्त हो जाता है। । अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान दिया जाता है और पशुवासना का क्षय होता है, इस प्रकार के दान और क्षपण-युक्त क्रिया का नाम दीक्षा है। शक्तिपात की तीव्रता आदि के भेद से और शिष्य के अधिकार-वैचित्र्य के अनुसार यह दीक्षा नाना प्रकार की होती है। सिद्धान्त-शैव आगमों में द्विविध दीक्षा का निरूपण मिलता है। प्रथम में सामान्य संस्कार से शैव समयी होकर शिवपूजा-शिवशास्त्र श्रवणादि का अधिकार प्राप्त करता है। इसका नाम समय-दीक्षा है। तदनन्तर द्वितीय निर्वाण-दीक्षा का विधान होता है, जो मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य से होती है। इस दीक्षा के विविध नाम और प्रकार आगमों में उपलब्ध होते हैं, जिनका सामान्य विवरण म. म. पं. गोपीनाथ कविराज, प्रो. व्रजवल्लभ द्विवेदी और पाण्डिचेरी से प्रकाशित ग्रन्थों में द्रष्टव्य है। यहीं पर मन्त्र, मुद्रां और अर्चन का भी विवरण देखा जा सकता है।

योग के अंग

पातंजल योगसूत्र में यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि नामक योग के आठ अंगों का विवरण है। सुप्रभेद आगम (तृतीय पटल) में पातंजल योगसूत्र के ही अनुसार योग के आठ अंग कहे गये हैं, किन्तु यहाँ ध्यान के पश्चात् धारणा का क्रम है। किरणागम के योगपाद में योग के छह अंग ही स्वीकृत हैं। रौरवागम के विद्यापाद (सप्तम पटल) में भी योग के छह अंग स्वीकृत हैं, यथा- प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क एवं समाधि। मृगेन्द्रागम के योगपाद में सात अंग स्वीकृत हैं, यथा- प्राणायाम, १७१ द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, वीक्षण, जप और समाधि। वीक्षण का नामान्तर तर्क, ऊह इत्यादि है। मतंगपारमेश्वर के योगपाद में प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि के क्रम से योगांगों का वर्णन है। ____ इस प्रकार पातंजल योगसूत्र और सुप्रभेदागम में योग के आठ अंग समान रूप में कहे गये हैं. तथापि योगसत्र में धारणा के अनन्तर ध्यान और सप्रभेद में ध्यान के पश्चात धारणा का वर्णन है। किरणागम, रौरवागम और मतंगपारमेश्वर में छह अंग ही कहे गये। रौरव और मतंग आगम में कहे गये योगांग ‘तर्क’ के स्थान में किरणागम में ‘आसन’ स्वीकृत है। किरणागम में अंगों का क्रम निर्दिष्ट नहीं है, अंगों के लक्षणक्रम का निर्देश है। यहाँ पर प्रथमतः आसन-लक्षण कहते हुए क्रमशः प्रत्याहार, प्राणायाम, धारणा और समाधि का लक्षण कहा गया है। यहाँ ध्यान का लक्षण नहीं है। मृगेन्द्रागम में समाधि से पूर्व ‘जप’ का अधिक निर्देश होने से सात अंग हो जाते हैं। यहाँ अंगों के लक्षण-निर्देश के क्रम में क्रमशः प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान और समाधि का लक्षण कहते हुए जप का लक्षण कहा गया है। तदनन्तर वीक्षण (तर्क या ऊह) का लक्षण वर्णित है। मतंगपारमेश्वर में पर्यक, कमल, भद्र और स्वस्तिक इत्यादि चार प्रकार के आसनों का विवरण है। सुप्रभेद में गोमुख, स्वस्तिक, पद्म, अर्धचन्द्रक, वीर और योगासन नाम से छह आसन कहे गये हैं। किरणागम में स्वस्तिक, पद्म, अर्धचन्द्र, वीर, योगपट्ट, प्रसारित, पर्यंक और यथासंस्थ इत्यादि आठ आसन प्रोक्त हैं। मतंगपारमेश्वर के योगपाद में आग्नेयी, वारुणी, ईशानी और अमृता आदि चार प्रकार की धारणाओं का उल्लेख है। रौरवागम (विद्यापीठ) और स्वायम्भुव आगम में आग्नेयी, सौम्या, ऐशानी और अमृता इत्यादि चार धारणाएँ प्रतिपादित हैं। किरणागम (योगपाद) में आग्नेयी, सौम्या, अमृता और परा आदि चार प्रकार की तथा मृगेन्द्रागम के योगपाद में पृथिव्यादि व्योमान्त पञ्च तत्त्वों के आश्रय से पाँच प्रकार की धारणाएँ कही गयी

उपसंहार

भारतीय संस्कृति के बारे में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा लगता है कि अतिप्राचीन काल से आगमिक साधन-धारा का प्रचार-प्रसार रहा है। यह धारा कभी वैदिक धारा से जुड़ती हुई और कभी पृथक् रूप में अपने स्वतन्त्र अस्तित्व में रही, फिर भी आज इसका स्वतन्त्र अस्तित्व आगम-शास्त्र के रूप में विद्यमान है। इस अत्यन्त संक्षिप्त निबन्ध में इस शास्त्र का ऐतिहासिक पक्ष, विवरण, प्रकाशित ग्रन्थों का परिचय, कतिपय प्रमुख प्रचारकों का परिचय, शैवमठों की परम्परा, दार्शनिक पक्ष इत्यादि का सामान्य परिचय दिया गया है।। नया