०३ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत

उपोद्घात

का जिम जा ब्रह्मसूत्र के तर्कपाद स्थित पत्यधिकरण (२.२.३७-४०) के विभिन्न भाष्यों में शैव, पाशुपत, कालामुख और कापालिक नामक चार प्रकार के शैवों और उनके सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है। वामनपुराण (E.८६-9) में इन चारों सिद्धान्तों को ब्राह्मण क्षत्रिय आदि चार वर्णों से जोड़ा गया है और उनके आद्य प्रवर्तक दो-दो आचार्यों के नाम दिये गये हैं। यहाँ प्रथम शैव पद से द्वैतवादी सिद्धान्त शैवों का ग्रहण किया जाता है। आगम शास्त्रों में शैवागमों के तीन भेद मिलते हैं - द्वैतवादी शैवागम, द्वैताद्वैतवादी रौद्रागम और अद्वैतवादी भैरवागम। तन्त्रालोक (१.१८) के टीकाकार जयरथ (पू. ३७-४०) के अनसार द्वैतवादी शैवागमों की संख्या दस, द्वैताद्वैतवादी रौद्रागमों की संख्या अठारह और अद्वैतवादी भैरवागमों की संख्या चौसठ है। अघोरशिवाचार्य का कहना है कि इनमें से दस और अठारह आगम सिद्धान्त शैवागम के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये सभी द्वैतवाद के समर्थक हैं, ऐसा उनका मानना है। वीरशैव मत में भी इन सभी अठाईस आगमों को श्रुति के समान ही प्रमाणभूत माना है। उनके मत से ये सभी आगम द्वैताद्वैतवाद के समर्थक हैं। जालना या महानामा

दशविध विभाग

डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने इस त्रिविध दार्शनिक विभाग के अन्तर्गत शैवागम-संमत दर्शनों की संख्या दस मानी है। इनमें से प्राचीन पाशुपत मत और शैवदर्शन द्वैतवादी हैं। ‘शैव’ शब्द से इन्होंने भी सिद्धान्त शैव का ही ग्रहण किया है और इसको दक्षिण भारत का दर्शन माना है। लकुलीश पाशुपत मत को ये द्वैताद्वैतवादी मानते हैं और कहते हैं कि द्वैतवादी पाशुपत मत वह है, जिसका खण्डन ब्रह्मसूत्र के पत्यधिकरण में किया गया है। वस्तुतः देखा जाय तो ब्रह्मसूत्र के पत्यधिकरण में लकुलीश पाशुपत मत का ही खण्डन किया गया है। सभाष्य पाशुपतसूत्रों के सम्पादक श्री अनन्तकृष्ण शास्त्री ने इस ग्रन्थ की भूमिका (पृ. ५) में बताया है कि ब्रह्मसूत्रों के व्याख्याता शंकराचार्य और उनके टीकाकारों के सामने सूत्र और भाष्य दोनों विद्यमान थे। इतना होने पर भी यह सही है कि पाशुपत मत की श्रीकण्ठ प्रवर्तित प्रथम धारा तथा बाद की लकुलीश प्रवर्तित धारा को अलग-अलग मान्यता अवश्य मिली हुई है। १. चार प्रकार के शैवों का परिचय आगे कालामुख-कापालिक प्रकरण में दिया गया है। २. “सिद्धान्तशब्दः पङ्कजादिशब्दवद् योगरूढ्या शिवप्रणीतेषु कामिकादिषु दशाष्टादशतन्त्रेषु प्रसिद्धः" (अष्टप्रकरण, पृ. १४६) काका विजय १०४ तन्त्रागम-खण्ड डॉ. पाण्डेय जी ने इस लकुलीश पाशुपत मत के अतिरिक्त श्रीकण्ठ के विशिष्टाद्वैत का, शुद्धद्वैताद्वैत, सेश्वराद्वैत, शिवाद्वैत अथवा विशेषाद्वैत के नाम से प्रसिद्ध वीरशैवमत का और रसेश्वर दर्शन का भी समावेश द्वैताद्वैतवादी दर्शन में किया है। अद्वैतवादी दर्शन इनके मत से चार हैं- नन्दिकेश्वर प्रतिपादित दर्शन एवं प्रत्यभिज्ञा, क्रम और कुल नाम से प्रसिद्ध तीन कश्मीरी दर्शन। इस प्रकार द्वैतवादी दो, द्वैताद्वैतवादी चार और अद्वैतवादी चार दर्शनों को मिलाने से शैवागम-संमत दर्शनों की संख्या दस हो जाती है। अपने शैवदर्शनबिन्दु नामक ग्रन्थ में इन्होंने इन सभी दर्शनों का परिचय दिया है। सिद्धान्त शैव, लकुलीश पाशुपत, प्रत्यभिज्ञा और रसेश्वर दर्शन का परिचय हमें सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में भी मिलता है। शैवागमों की प्रवृत्ति के बीज विद्वानों ने मोहेंजोदड़ों और हड़प्पा की संस्कृति में खोज निकाले हैं। वहां उपलब्ध पशुओं से घिरी हुई ध्यानमग्न योगी की आकृति को पशुपति के रूप में पहचाना गया है। अथर्ववेद के व्रात्यसूक्त में पशुपति के भव, शर्व आदि नाम उपलब्ध होते हैं। कृष्ण यजुर्वेद में भगवान् शिव के ईशान, तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात और वामदेव नामक पांच मन्त्रों का विशेष माहात्म्य है। पशुपति द्वारा प्रवर्तित इस पाशुपत सिद्धान्त का उल्लेख बौद्ध और जैन वाङ्मय के अतिरिक्त महाभारत में भी मिलता है। वहां श्रीकण्ठनाथ को पाशुपत मत का आद्य प्रवर्तक बताया गया है। २८ पाशुपत योगाचार्यों और उनमें से प्रत्येक के चार-चार शिष्यों की नामावली अनेक पुराणों में मिलती है। इनमें से अन्तिम योगाचार्य का नाम लकुलीश है। लकुलीश पांच अध्याय वाले पाशुपत सूत्रों के रचयिता हैं। इनमें ईशान, तत्पुरुष आदि पांच मन्त्रों के अतिरिक्त कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त नामक पांच पदार्थों की भी व्याख्या प्रस्तुत की गई है। ऊपर चर्चित ब्रह्मसूत्र तर्कपाद के विभिन्न भाष्यों में पाशुपत मत के इसी सिद्धान्त की समालोचना की गई है। आचार्य कौण्डिन्य ने इस सूत्र-ग्रन्थ पर पंचार्थ-भाष्य की रचना की थी। भासर्वज्ञ पाशुपत मत के साथ न्याय-दर्शन के भी प्रख्यात आचार्य हुए हैं। हमने अन्यत्र’ यह बताया है कि न्यायवार्त्तिककार उद्योतकर आदि महान् नैयायिक पाशुपत मत के अनुयायी थे। इन दोनों दर्शनों में अनेकविध समानताएं हैं। भनी भासर्वज्ञ का न्यायभूषण नामक ग्रन्थ अतिप्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ के कारण ही वे दर्शन-सम्प्रदाय में भूषणकार के नाम से चर्चित हुए हैं। इस ग्रन्थ पर पाशुपत मत का स्पष्ट प्रभाव है। पाशुपत मत पर इनका ग्रन्थ गणकारिकाव्याख्या के नाम से प्रसिद्ध है। गणकारिका’ हरदत्ताचार्य की कृति है। इसमें केवल आठ श्लोक हैं। इनमें आठ पंचकों, १. महाभारत, शान्तिपर्व, नारायणीयोपाख्यान, ३४६.६७ २. तन्त्रयात्रा, शिवपुराणीयं दर्शनम्, पृ. ५४ ३. सायण-माधव ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह में नकुलीश पाशुपत मत का परिचय देते हुए “तदाह हरदत्ताचार्यः" (पृ. ६०) कह कर गणकारिका के वचनों को उद्धृत किया है। या१०५ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत अर्थात् पांच-पांच पदार्थों के आठ समूहों और त्रिक, अर्थात् तीन पदार्थों का, इस तरह नौ गणों का निरूपण किया गया है। भासर्वज्ञ की व्याख्या के अतिरिक्त सर्वदर्शनसंग्रह के लकुलीश पाशुपत प्रकरण में और शैवदर्शनबिन्दु के संबद्ध द्वैताद्वैत प्रकरण में इनकी विस्तार से व्याख्या की गई है। __पाशुपत मत के अन्य उपलब्ध ग्रन्थों का परिचय डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय के उक्त ग्रन्थ से मिलता है और इसकी संक्षिप्त समालोचना हमारे आगममीमांसा नामक ग्रन्थ में देखी जा सकती है। इधर इस मत के हृदयप्रमाण नामक ग्रन्थ की भी सूचना हमें अष्टप्रकरण का सम्पादन करते समय मिली है। इन सबका विस्तृत परिचय हम आगे देंगे। लकुलीश पाशुपत मत और दर्शन का सर्वांगपूर्ण परिचय ऊपर उद्धृत ग्रन्थों से प्राप्त किया जा सकता है। नकुलीश नाम का भी उल्लेख प्रायः अनेक स्थलों पर मिलता है, किन्तु सही शब्द लकुलीश है, इसमें हमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहना चाहिये।

द्विविध पाशुपत

शिवपुराण’ में शैवागमों के दो भेद मिलते हैं - एक श्रौत और दूसरा स्वतन्त्र । यहां पाशुपतागम को श्रौत तथा कामिकादि वातुलान्त २८ सिद्धान्तागमों को स्वतन्त्र बताया है। उमापति शिवाचार्य ने शतरत्नसंग्रह की स्वोपज्ञ व्याख्या (पृ. ८-६) में कामिक आदि तन्त्रों के प्रमाण से पूरे भारतीय वाङ्मय को पांच भागों में बांटा है लौकिक, वैदिक, आध्यात्मिक, अतिमार्ग और मान्त्रिक इन पांचों विभागों के भी पुनः पांच-पांच भेद किये गये हैं। उमापति शिवाचार्य ने यहां लिखा है कि सर्वात्मशम्भु की सिद्धान्तदीपिका में इन सबका स्वरूप विस्तार से बताया गया है। ग्रन्थकार ने यहां केवल मान्त्रिक विभाग के सिद्धान्त, गारुड, वाम, भूत और भैरव नामक पांच भेदों का वर्णन किया है। कुछ आधुनिक पाश्चात्य विद्वान् इनमें से अतिमार्ग विभाग के अन्तर्गत पाशुपत मत की गणना करना चाहते हैं। अतिमार्ग विभाग में किन पांच मतों की गणना की गई है, इसका जब तक स्पष्ट पता नहीं चलता, तब तक यह उक्ति केवल अनुमान पर आधारित मानी जायगी। उक्त शिवपुराण के वचन के विपरीत इस तरह की कल्पनाओं को प्रमाण नहीं माना जा सकता है। १. द्रष्टव्य-शिवपुराण, वायवीयसंहिता, १.३२.११-१३. २. स्वच्छन्दतन्त्र (११.४३-४५) में इन पाँच विभागों की भी उत्पत्ति शिव के सद्योजात आदि पांच मुखों से मानी गई है। क्षेमराज ने यहाँ अतिमार्ग शब्द की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की। ३. सर्वात्मशम्भु की सिद्धान्तदीपिका के प्रसंग में पांडिचेरी से प्रकाशित विवरणात्मक सूची के द्वितीय भाग (पृ. १६३-१६४) में १६६ संख्या के सिद्धान्तप्रकाशिका नाम के हस्तलेख का विवरण मिलता है। वहां बताया गया है कि यही ग्रन्थ शैवसिद्धान्तदीपिका भी कहलाता है। विवरण में दी गई प्रतिपाद्य विषयों की सूची से ऐसा प्रतीत होता है कि शतरत्नसंग्रह में प्रदर्शित पांच विभागों तथा उनके उपविभागों का यहां परिचय दिया गया है। परीक्षा के बाद ही पता चलेगा कि क्या यह सिद्धान्तदीपिका का ही हस्तलेख है? है १०६ तन्त्रागम-खण्ड अपमा

अतिमार्गी शास्त्र

_ इस विषय पर हम एक दूसरी दृष्टि से विचार कर सकते हैं। लकुलीश ने “सर्वदेवमयः कायः" (तन्त्रा. १५.६०४) सिद्धान्त की स्थापना की है। नेत्रतन्त्र (१३.१०) में वर्णित विश्वरूप के ध्यान को, काठमांडू में गुह्येश्वरी और पशुपतिनाथ के बीच की पहाड़ी, मृगस्थली पर स्थित विश्वरूप की मूर्ति को और राजस्थान आदि में उपलब्ध लगुडधारी लकुलीश की मूर्तियों को देखने से ऐसा विचार उठ सकता है कि इस प्रकार के काय-पूजा के सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले सम्प्रदाय अतिमार्ग के अन्तर्गत आ सकते हैं। स्वच्छन्दतन्त्र (११.७१-७२) में पाशुपतों के लाकुल, मौसुल, कारुक और वैमल नामक चार भेदों का उल्लेख मिलता है। इनमें विशेष कर कारुक नामक तृतीय विभाग में हमें कालामुख सम्प्रदाय की प्रवृत्ति के बीज खोजने होंगे। कालामुख सम्प्रदाय का यामुनाचार्य के आगमप्रामाण्य में जिस प्रकार का वर्णन मिलता है, उससे उसकी अतिमार्गी प्रवृत्ति का पता चलता है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि वामनपुराण के पूर्वोक्त प्रसंग में कालास्य आपस्तम्ब कालामुख सम्प्रदाय के प्रथम प्रवर्तक माने गये हैं और क्राथेश्वर नामक वैश्य उनके प्रथम शिष्य थे। शिलालेखों के प्रमाण से यह स्पष्ट ही है कि एक हजार वर्ष पूर्व तक कर्णाटक राज्य के बेलगांव जनपद के आसपास इस सम्प्रदाय की विशिष्ट स्थिति थी। _ इस पृष्ठभूमि में लकुलीश पाशुपत, कालामुख, कापालिक, कौलिक और बौद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय की गणना हम अतिमार्ग के भेदों के अन्तर्गत कर सकते हैं। वाम मत की गणना इसमें नहीं की जा सकती, क्योंकि उमापति शिवाचार्य ने उक्त स्थल पर इसकी गणना मान्त्रिक विभाग के अन्तर्गत की है। वायुपुराण (१०४.१६) ने छः दर्शनों में आर्हत दर्शन का भी समावेश किया है। उसी तरह यहां अतिमार्गी शास्त्रों में बौद्ध तान्त्रिक सम्प्रदाय की गणना की जा सकती है। कायपूजक सिद्धों और नाथों की परम्परा पर उक्त मतों की विचारधारा का कितना प्रभाव पड़ा, इसकी समीक्षा करना अभी बाकी है। तब भी इतना स्पष्ट है कि शिवपुराण में वर्णित श्रौत पाशुपत मत की परम्परा इससे एकदम भिन्न है। अभिनवगुप्त (तन्त्रा. ३७.१४-१५) ने शिवागम के श्रीकण्ठ और लकुलीश प्रवर्तित दो प्रवाहों का स्पष्ट उल्लेख किया है। ___ यद्यपि वीरशैव मत की प्रवृत्ति कालामुख सम्प्रदाय की प्रसारस्थली में हुई, तथापि इस मत पर श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत का ही प्रभाव है। श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत का कोई ग्रन्थ आज हमारे बीच में नहीं है, किन्तु महाभारत, पुराण आदि में पाशुपत योग और भस्मोद्धूलन आदि विधियों का तथा रुद्राध्याय आदि के साथ कुछ उपनिषदों का उल्लेख मिलता है। वीरशैव सम्प्रदाय पुराणवर्णित इन विधियों को और उक्त साहित्य को निर्विवाद रूप से प्रमाण मानता है। वेद और पुराण-वर्णित विधियों के साथ वीरशैव मत २८ सिद्धान्तागमों को भी प्रमाण मानता है। इसी पृष्ठभूमि में हम यहां पाशुपत, कालामुख और कापालिक मतों का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करना चाहते हैं। पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत १०७

पाशुपत मत

अभिनवगुप्त ने अपने महनीय ग्रन्थ तन्त्रालोक के अन्त में स्पष्ट रूप से बताया है कि यह शैवशास्त्र श्रीकण्ठ और लकुलीश्वर नाम के दो आप्त पुरुषों की परम्परा से हमें प्राप्त हुआ है। अभिनवगुप्त के परमेष्ठी गुरु सोमानन्द शिवदृष्टि के अन्त में कहते हैं कि उनको यह शास्त्र श्रीकण्ठ, दुर्वासा आदि के क्रम से प्राप्त हुआ (७.१०६-११०)। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान में बताया गया है कि उमा के पति, ब्रह्मा के पुत्र श्रीकण्ठ ने सर्वप्रथम पाशुपत शास्त्र को प्रकाशित किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वत्र शिवशासन के साथ सर्वप्रथम नाम श्रीकण्ठ का जुड़ा हुआ है। डॉ. वी. एस. पाठक अपने ग्रन्थ “शैव कल्ट इन नार्दर्न इण्डिया’ (पृ. ४-८) में महाभारत के उक्त वचन के प्रमाण से उमा के पति, ब्रह्मा के पुत्र, श्रीकण्ठ को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। इसके विपरीत डॉ. डेविड एन. लोरेंजन अपने ग्रन्थ “कापालिक्स एण्ड कालामुख्स्” (पृ. १७४-१७५) में इस मत को स्वीकार नहीं करते। भारतीय परम्परा बताती है कि दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ के क्रम से सारी ज्ञान-परम्परा हम तक १. द्वावाप्तौ तत्र च श्रीमच्छीकण्ठलकुलेश्वरौ।। द्विप्रवाहमिदं शास्त्रं. पञ्चस्रोत इति प्रोक्तं श्रीमच्छीकण्ठशासनम्।। (३७.१४-१६) यहां पंचस्रोतस् शब्द का तन्त्रालोककार ने प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ किया है। दशधा और अष्टादशधा भिन्न कामिकादि वातुलान्त २८ आगमों को ही यहां पांच स्रोतों में बांटा गया है और इसको श्रीकण्ठशासन बताया गया है। इसकी प्रक्रिया जयरथ के ‘दशाष्टादशधा’ (१.१८) इत्यादि श्लोक की व्याख्या करते समय पहिले ही बता दी है। इस विषय की चर्चा श्रद्धेय श्री श्री गोपीराज कविराज जी ने भी “तान्त्रिक वाङ्मय में शाक्त दृष्टि” (पृ. ४७) में की है। लकुलेश्वर के शासन की यहां कोई चर्चा नहीं है। यहां आगे ६४ भैरवागमों का उल्लेख अवश्य हुआ है और भैरवागमों को पीठचतुष्टयात्मक बताया गया है। दक्षिण और वाम भेदों की चर्चा कर क्रमशः उनको मन्त्रपीठ और विद्यापीठ नाम दिया गया है और इनसे क्रमशः मुद्रापीट और मण्डलपीठ की उद्भावना मानी गई है। दक्षिण और वाम नामक स्रोतों की चर्चा नेत्रतन्त्र (मृत्युंजय भट्टारक, ६.११) में भी हुई है और योगवाशिष्ठ (नि.पू. १६.२६) में भी इन दोनों सोतों के प्रवक्ता भैरव और तुम्बुरु माने गये हैं। यहीं आगे (३७.२६) अभिनवगुप्त कहते हैं कि वाम और दक्षिण पीठों के उपादानों को एक के साथ मिला देने से कौलशास्त्र का उद्भव हुआ है। इन सब शास्त्रों का विकास भी वे श्रीकण्ठनाथ से ही मानते हैं, जबकि वे कहते हैं कि श्रीकण्ठनाथ की आज्ञा से सिद्ध अवतरित हुए और उन्होंने साढ़े तीन मठिकाओं की स्थापना की। इस विषय की चर्चा अभी यहाँ आगे होने वाली है। स्पष्ट है कि यहां गारुड़ तन्त्रों और भूत तन्त्रों का उल्लेख नहीं हुआ है, जबकि श्रीकण्ठीसंहिता आदि में उनकी चर्चा विद्यमान है। आप २. उमापतिर्भूतपतिः श्रीकण्ठो ब्रह्मणः सुतः । उक्तवानिदमव्यग्रो ज्ञानं पाशुपतं शिवः।। (शान्ति. ३४६.६७) मामला “श्रीकण्ठेन शिवेनोक्तं शिवायै च शिवागमः” (७.२.७.३) शिवपुराण के इस वचन में श्रीकण्ठ को शिवागमों का उपदेष्टा माना है। १०८ तन्त्रागम-खण्ड पहुंचती है। अभिनवगुप्त’ का कहना है कि श्रीकण्ठनाथ की आज्ञा से त्र्यम्बक, आमर्दक और श्रीनाथ नाम के सिद्ध अद्वैत, द्वैत और द्वैताद्वैत सिद्धान्तपरक शैवशासन के प्रचार के लिये यहां अवतरित हुए। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्रीकण्ठ दिव्यौघ परम्परा के अन्तिम गुरु थे। “श्रीकण्ठादृषयो लब्धाः" पौष्करागम के इस वचन से और “हरात् श्रीकण्ठनाथात्” (पृ. ५), “जगत्पतिः श्रीकण्ठनाथः” (पृ. ५२) इस तरह के मृगेन्द्रागम के विद्यापाद पर नारायणकण्ठ कृत व्याख्यान से ज्ञात होता है कि श्रीकण्ठ शिव के अवतार हैं। ये ही समस्त शैवशास्त्रों के आद्य प्रवर्तक हैं और पाशुपत मत के प्रथम प्रवर्तक भी ये है शैवशासन के द्वितीय प्रवाह के प्रवर्तक लकुलीश हैं। इनकी ऐतिहासिकता में डॉ. डेविड एन. लोरेंजन को भी कोई सन्देह नहीं है, किन्तु वे उनको उतना प्राचीन नहीं मानते, जितना कि अन्य ऐतिहासिकों ने उनको सिद्ध किया है। इनके मत से ये प्रथम-द्वितीय शताब्दी में नहीं, चतुर्थ शताब्दी में हुए हैं (वहीं, पृ. १७५-१८१)। बिना इस विवाद में पड़े हमें यहां इतना ही कहना है कि महाभारत के प्रमाण से ज्ञात होता है कि श्रीकण्ठ पाशुपत मत के प्रथम उपदेष्टा हैं और आगे चलकर योगाचार्य लकुलीश ने इसी परम्परा में एक नवीन दृष्टि का उन्मेष किया। पूर्व परम्परा से इसकी भिन्नता को दिखाने के लिये ही इसके साथ लकुलीश शब्द जुड़ गया। तन्त्रालोक में वर्णित श्रीकण्ठ और लकुलीश के प्रकरण को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि आगे चलकर दक्षिण प्रकृति के शैवशास्त्रों की प्रवृत्ति श्रीकण्ठ की परम्परा में तथा वाम प्रकृति के शास्त्रों की प्रवृत्ति लकुलीश की परम्परा में हुई। इस प्रकार प्राचीन पाशुपत मत और सिद्धान्तशैव मत की प्रवृत्ति श्रीकण्ठ से और परवर्ती पाशुपत मत के साथ कालामुख, कापालिक, कौल, क्रम आदि शास्त्रों की प्रवृत्ति ‘लकुलीश से मानी जा सकती है। १. तदा श्रीकण्ठनाथाज्ञावशात् सिद्धा अवातरन् ।। शिर का जायजा 4 त्र्यम्बकामर्दकाभिख्यश्रीनाथा अद्वये द्वये। लाम द्वयाद्वये च निपुणाः क्रमेण शिवशासने।। (तन्त्रा. ३६.११-१२) आचालाई का २. तन्त्रालोक की जयरथ की विवेक नाम की टीका (३६.१-७) में किसी आगम का एक उद्धरण मिलता है। वहां सिद्धयोगेश्वरी मत की परम्परा का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि यह ज्ञान भैरव से भैरवी को, भैरवी से स्वच्छन्ददेव को, स्वच्छन्द से लकुलीश को, लकुलीश से अनन्त को और अनन्त से गहनाधिप को प्राप्त हुआ। ऊपर की पृ.१०५ की पहली टिप्पणी में ६४ भैरवागमों की; मन्त्र, विद्या, मुद्रा, मण्डल नामक पीठों की तथा दक्षिण और वाम तन्त्रों की चर्चा आई है। वहां यह भी बताया गया है कि इन सबको एक साथ मिला देने से कौलशास्त्र का उद्धव हुआ है। हमें ऐसा लगता है कि बिना नाम लिये यह लकुलीश की परम्परा बताई गई है। तन्त्रालोकविवेक (१.१८) में उद्धृत श्रीकण्ठीसंहिता में भैरवागम के २४ एवं ६४ भेदों की चर्चा एक साथ मिलती है। प्रतिष्ठालक्षणसारसमुच्चय (२.११६-१२०) में ३२ भैरवागमों के नाम मिलते हैं। इससे हम यह कल्पना कर सकते हैं कि भैरवागमों की संख्या पहले २४, बाद में ३२ और अन्त में ६४ हो गई। १०६ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत के सन्ध्यावन्दन आदि सभी धार्मिक कृत्यों को करते समय संकल्प-वाक्य में आजकल “अष्टाविंशतितमे कलियुगे” का उच्चारण किया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि श्वेतवाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर का आजकल २त्वां कलियुग चल रहा है। पुराणों के अनुसार प्रत्येक द्वापर युग के अन्त में कलियुग का आरम्भ होने पर व्यास और योगाचार्य अवतार लेते हैं। तदनुसार अब तक २८ व्यास और २८ योगाचार्य अवतरित हो चुके हैं। प्रथम योगाचार्य श्वेत और अन्तिम लकुलीश हैं। ये सभी योगाचार्य शिव के अवतार माने गये हैं। पाशुपत मत के प्रवर्तक होने से इनको पाशुपत योगाचार्य कहा जाता है। पुराणों में प्रत्येक योगाचार्य के चार-चार शिष्यों का भी वर्णन मिलता है। इस प्रकार गुरु और शिष्यों को मिलाकर इन योगाचार्यों की संख्या १४० हो जाती है। आधुनिक ऐतिहासिकों की दृष्टि में इस पौराणिक वर्णन का कोई मूल्य नहीं है। हमने अपने “पुराणवर्णिताः पाशुपता योगाचार्याः शीर्षक निबन्ध में इन योगाचार्यों में से अनेक की ऐतिहासिक संभावना की ओर महाभारत आदि के प्रमाण से ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न किया है। इस नामावली में कपिल, आसुरि, पंचशिख, पराशर, बृहस्पति, कुणि, श्वेतकेतु, शालिहोत्र, अग्निवेश, अक्षपाद, कणाद जैसे आचार्य हमारे लिये विशेष रूप से अवधेय हैं। ये आचार्य सांख्य, पांचरात्र, आयुर्वेद, चार्वाक और न्याय-वैशेषिक दर्शन से जुड़े हुए हैं। र उपर्युक्त २८ पाशुपत योगाचार्यों की नामावली पुराणों के अतिरिक्त अन्यत्र भी गणकारिका के साथ प्रकाशित विशुद्धमुनि कृत आत्मसमर्पण जैसे ग्रन्थों में देखी जा सकती है। इन २८ पाशुपत योगाचार्यों में से प्रथम श्वेत मुनि को बादरायण के ब्रह्मसूत्रों के अपने भाष्य के मंगलाचरण में श्रीकण्ठ अनेक शैवागमों के उपदेष्टा के रूप में स्मरण करते हैं। इन २८ पाशुपत योगाचार्यों के अतिरिक्त लकुलीश से लेकर विद्यागुरु पर्यन्त १८ आचार्यों की चर्चा जैनाचार्य हरिभद्रसूरि कृत षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नसूरि कृत तर्करहस्यदीपिकाटीका में तथा राजशेखरसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय में आई है। इनके नाम नकुलीश, कौशिक, गार्ग्य, मैत्र्य, कौरूष्य, ईशान, पारगार्ग्य, कपिलाण्ड, मनुष्यक, कुशिक, अत्रि, पिंगल, पुष्पक, बृहदार्य, अगस्ति, सन्तान, राशीकर और विद्यागुरु हैं। इनमें से सत्रहवें आचार्य राशीकर ही कौण्डिन्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। इनका बनाया पाशुपत-सूत्रों का भाष्य आज भी उपलब्ध है और वह लकुलीश विरचित पाशुपत-सूत्रों के साथ प्रकाशित १. इस प्रसंग में परस्पर विरोधी दो तरह की टिप्पणियाँ देखी जा सकती हैं। पहली टिप्पणी सभाष्य पाशुपतसूत्र के सम्पादक श्री आर. अनन्तकृष्ण शास्त्री (भूमिका, पृ. ३) की है और दूसरी “भारतीय दर्शन का इतिहास” के रचयिता डॉ. एस.एन. दासगुप्त (भा. ५, पृ. ६ टि.) की। शास्त्री जी ने अपनी भूमिका (पृ. ३-४) में भारतीय साहित्य की कुछ शाखाओं और आचार्यों पर यूनान-रोम के प्रभाव की भी चर्चा की है। २. द्रष्टव्य पुराणम्, काशिराज न्यास, रामनगर, वाराणसी, व. २४, अं. २, जुलाई, सन् १६८२. ३. “नमः श्वेताभिधानाय नानागमविधायिने” (श्लोक ४, पृ.८)। जंगमवाडी वाराणसी, संस्करण, सन् १९८६ ४. ये नाम पाशुपतसूत्र के उक्त संस्करण की भूमिका (पृ. १-२) में भी दिये गये हैं। नि ११० तन्त्रागम-खण्ड हो चुका है। विद्यागुरु अनुभवस्तोत्र और प्रमाणस्तुति के कर्ता विद्याधिपति से अभिन्न प्रतीत होते हैं। इन दोनों ग्रन्थों के उद्धरण हमें तन्त्रालोक और उसकी टीका जयरथकृत विवेक में मिलते हैं। इन उद्धरणों को लुप्तागमसंग्रह के दो भागों में संगृहीत कर दिया गया है। मालकुलीश के पाशुपत-सूत्रों में पांच अध्याय हैं। इनमें शिव के ईशान, तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात और वामदेव नामक पांच मन्त्रों और कार्य, कारण, योग, विधि तथा दुःखान्त नामक पांच तत्त्वों की व्याख्या की गई है। इसीलिये उस पर लिखे गये कौण्डिन्य के भाष्य का अपर नाम पंचार्थ-भाष्य भी प्रसिद्ध है। पंचवक्त्र (मुख) भगवान् शिव के उक्त नाम के पांच मुख हैं। इन्हीं पांच मुखों से पंचस्रोतस् तान्त्रिक वाङ्मय का; सिद्धान्त शैव, गारुड, भैरव (दक्ष), भूत और वाम तन्त्रों का आविर्भाव हुआ है। पंचमन्त्रतनु भगवान् शिव का तनु (शरीर) इन पांच मत्रों से ही बना हुआ है। शैवागमों में इनका विशेष विवरण मिलता है। साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना है कि ईशान आदि पांच मन्त्रों की स्थिति कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता (२.६.१,१०) में उसी रूप में मिलती है, जिसकी कि व्याख्या लकुलीश के पाशुपत सूत्रों में की गई है। शतरुद्रिय, नीलरुद्र, त्र्यम्बकहोम आदि प्रकरण भी कृष्ण और शुक्ल यजुर्वेद में उपलब्ध हैं। पाशुपत मत का उद्गम हमें यहीं से मानना पड़ेगा। शिवपुराण में श्रौत और स्वतन्त्र भेद से द्विविध शैवागमों का निरूपण कर कामिक आदि २८ शैवागमों को स्वतन्त्र तथा पाशुपत आगम को श्रौत बताया है। इससे भी इसी बात की पुष्टि होती है। जिन म"शैवमत’ के लेखक डॉ. यदुवंशी ने अपने इस ग्रन्थ के प्रथम, द्वितीय और तृतीय परिशिष्टों में क्रमशः संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद् एवं सूत्र-ग्रन्थों में उल्लिखित विविध प्रमाणों से रुद्र की सत्ता को स्वीकार किया है और बताया है कि वैदिक युग का यह रुद्र ही पौराणिक युग में शिव के रूप में मान्य हो गया। अथर्ववेद के व्रात्यसूक्त (१५.५.२-१६) में रुद्र के भव, शर्व, पशुपति, उग्र, रुद्र, महादेव और ईशान नामों का उल्लेख मिलता है। शतपथ ब्राह्मण (१.७.३.८) में ये ही नाम कुमार अग्नि के बताये गये हैं। स्पष्ट है कि यहां रुद्र और अग्नि का तादात्म्य बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण (१.३.३.१७) में बताया गया है कि भूपति, भुवनपति और भूतानांपति ये तीनों अग्नि के ज्येष्ठ भ्राता हैं। बोधायन गृह्यसूत्र (३.३.१०) में इन नामों को विनायक के साथ जोड़ा गया है और वहीं विनायक को उग्र के साथ भीम भी कहा गया है। इस प्रकार यहां विनायक को भी अग्नि और रुद्र से अभिन्न बताया गया है। ऊपर के सात नामों के साथ भीम को भी जोड़कर रुद्र-शिव के इन आठ नामों के आधार पर पौराणिक वाङ्मय में अष्टमूर्ति शिव को मान्यता मिली, ऐसा हम कह सकते हैं। पुराणों की प्रत्येक योगाचार्य के चार-चार शिष्यों की नामावली में लकुलीश के चार शिष्यों के नाम कुशिक (कौशिक), गर्ग (गाठ), मित्र (मैत्र्य = मैत्रेय) और कौरुष (कौरुष्य) पाठभेद के साथ मिलते हैं। डॉ. वी. एस. पाठक ने मैत्रेय को छोड़कर अन्य तीन आचार्यों १. हिस्ट्री… …. शैव कल्ट्स, पृ. ८-१३ कि हाफका कर के १११ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत की गोत्र-परम्पराओं का परिचय शिलाशासनों के प्रमाण से प्रस्तुत किया है और लकुलीश से ही संबद्ध अनन्त, उत्तर, उत्तरपूर्व, कौल आदि परम्पराओं का भी परिचय दिया है। वे कौरुष्य की परम्परा को कारुक अथवा कालानन (कालामुख) सम्प्रदाय से जोड़ते हैं, जिसकी चर्चा रामानुज और केशव कश्मीरी ने अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य (२.२.३५) में की है। अनन्त गोत्र का सम्बन्ध वे कुल सम्प्रदाय से भी जोड़ते हैं। यहाँ उद्धृत शिलाशासन में पंचार्थ लाकुलाम्नाय के गुरु विश्वरूप का उल्लेख मिलता है। वहां उनको औत्तरेश्वर कहा गया है। इससे हम स्पष्ट रूप से तो कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते, किन्तु यहां का औत्तरेश्वर शब्द हमें वामतन्त्रों की, विशेष कर उसकी क्रम-शाखा की याद दिलाता है। IRED व विश्वरूप की ऊपर चर्चा आई है, किन्तु यहां उद्धृत विश्वरूप उनसे भिन्न ही हो सकते हैं, क्योंकि यहां उनका उल्लेख लकुलीश के पिता के रूप में नहीं, पंचार्थ लाकुलाम्नाय की परम्परा के एक गुरु के रूप में हुआ है। अतः इनकी स्थिति लकुलीश के बाद ही माननी होगी। डॉ. पाठक ने लक्ष्मीधरकृत सौन्दर्यलहरी की टीका में उद्धृत पूर्वकौल और उत्तरकौलों का भी सम्बन्ध लकुलीश के शिष्यों की परम्परा से ही जोड़ा है और कार्तिकराशि, तपोराशि, वाल्मीकिराशि, केदारराशि आदि आचार्यों का सम्बन्ध भी वे लकुलीश की विभिन्न गोत्र-परम्पराओं से मानते हैं (पृ. १०)। आगे चलकर (पृ. १६) वे राशि, भाव और गण्ड शब्दान्त नामों का सम्बन्ध क्रमशः कौरुष्य (कालानन), प्रमाण और अनन्त गोत्र के आचार्यों से जोड़ते हैं। गार्ग्य गोत्र के आचार्यों के नाम भी गण्डान्त ही हैं। प्रधानता ना शिलाशासनों से इकट्ठी की गई इस पूरी समग्री का हमें उपलब्ध शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर सावधानी से अध्ययन करना होगा, क्योंकि ७०० से १२०० ई. के शिलाशासनों का ही यहां उपयोग किया गया है और इनमें प्रदर्शित मत-मतान्तरों के प्राचीन रूप को देखने के लिये हमें इनसे पहले के शिलाशासनों का अनुशीलन इसी दृष्टि से करना होगा। यहां यह भी अवधेय है कि पुराण आदि में वर्णित लकुलीश के शिष्यों की सूची में कुशिक आदि चारों को लकुलीश का साक्षात् शिष्य बताया गया है, जबकि गुणरत्न आदि की सूची में ये एक दूसरे के बाद आते हैं। ऐसी स्थिति में इस सूची की भी परीक्षा अभी नये सिरे से करनी होगी। लक्ष्मीधर और भास्करराय ने पूर्व और उत्तर तन्त्रों की ६४ तन्त्रों में स्वतन्त्र गणना की है और इनका उल्लेख कूर्मपुराण में भी मिलता है। अतः पूर्व और उत्तर पद से पूर्वकौल और उत्तरकौल का ग्रहण करना अथवा पूर्वाम्नाय और उत्तराम्नाय का, इस विषय में अभी हमें पुनः विचार करना होगा। नायक

  • स्वच्छन्दतन्त्र (११.७१-७४) में पाशुपतों के लाकुल, मौसुल, कारुक और वैमल नाम के चार भेदों का उल्लेख मिलता है। ऊपर की चर्चा में मौसुल और वैमल सम्प्रदाय की चर्चा नहीं आई है। स्वच्छन्दतन्त्र के टीकाकार क्षेमराज (११.७१) मुसुलेन्द्र को लकुलीश का शिष्य बताते हुए कहते हैं कि इनका भी अवतार लकुलीश की जन्मभूमि कारोहण (कारवण) तीर्थ में ही हुआ। वहां बताया गया है कि (लकुलीश) पाशुपत मत में ईश्वर पद की प्राप्ति ही परम पद (मोक्ष) माना गया है। मौसुल और कारुक मत में माया तत्त्व को ही परम ११२ तन्त्रागम-खण्ड पद (मोक्ष) माना जाता है। अर्थात् इस माया तत्त्व का अधिपति ब्रह्मस्वामी क्षेमेश ही उनकी साधना का परम लक्ष्य है। वैमल मत में तेजेश इस मायातत्त्व का अधिपति है और प्रमाण नामक पाशुपतों के मत में ध्रुव पद परम लक्ष्य है। इस प्रकरण की व्याख्या करते हुए क्षेमराज कहते हैं कि लाकुल और मौसुल के नाम से पाशुपतों के दो भेद हैं। लकुलीश के शिष्य कारोहण तीर्थ में अवतरित मुसुलेन्द्र ने और कारुक ने मायातत्त्व के अधिपति ब्रह्मस्वामी क्षेमेश की प्राप्ति के लिये अपने-अपने शास्त्रों में कर्मकाण्ड-प्रधान अनेक व्रतों का अनुष्ठान बताया है। अन्य वैमल नाम के पाशुपत तथा पंचार्थ और प्रमाणाष्टक में प्रदर्शित उपासना में लगे हुए प्रमाण नाम के पाशुपत ईश्वर तत्त्वगत तेजेश एवं ध्रुवेश की प्राप्ति को ही परम पद मानते हैं। तन्त्रालोक (१.३३) की टीका में जयरथ ने भी इस विषय की संक्षिप्त चर्चा की है। प्रमाण शब्द से अभिहित होने वाले आठ रुद्र प्रणव नाम के पांच रुद्रों के आवरण के ऊपर स्थित हैं। इन आठ रुद्रों को स्वच्छन्दतन्त्र (१०.११३४-३५) में ही इस प्रकार गिनाया है— पंचार्थ, गुह्य, रुद्रांकुश, हृदय, लक्षण, व्यूह, आकर्षण और आदर्श। ये आठ रुद्र प्रमाण नाम के पाशुपत शास्त्र के अवतारक हैं। इनमें जो हृदय नाम का प्रमाण परिगणित है, इसके अन्तर्गत पुर, कल्प, कनक, शाला, निरुत्तर और विश्वप्रपंच नामक छः प्रमाण क्रिया-प्रधान हैं। ऊपर बताये गये प्रमाणाष्टक ज्ञान-प्रधान हैं। हृदय नामक प्रमाण में लकुलीश के शिष्य मुसुलेन्द्र ने मुमुक्षु जनों के लिये इनका प्रतिपादन किया है। प्रणव नामक पांच रुद्रों और प्रमाण नामक आठ रुद्रों का प्रतिपादन तन्त्रालोक (८. ३२८-३२६) में भी मिलता है। यति र यशस्वच्छन्ततन्त्र, तन्त्रालोक आदि में यह सामग्री पंचस्रोतस् शैवशासन की दृष्टि से प्रस्तुत की गई है। पाशुपत मत का प्राचीन साहित्य आज उपलब्ध नहीं है। हमें उपलब्ध आगमों से और पुराणों-उपपुराणों से इस सामग्री को संकलित करना होगा और उसका समीक्षात्मक निरीक्षण करना होगा। तभी हमें पाशुपत मत की इन विभिन्न शाखाओं का सही स्वरूप ज्ञात हो सकेगा। स्कीम

श्रीकण्ठ पाशुपत साहित्य

डॉ. आर.जी. भाण्डारकर ने अपने ग्रन्थ के शैव सम्प्रदाय से सम्बद्ध प्रकरण में संक्षेप में वैदिक प्रमाणों को उद्धृत कर श्वेताश्वतर और अथर्वशिरस् उपनिषदों का विस्तार से परिचय दिया है। शैवमत के लेखक प्रो. यदुवंशी ने इस विषय को अधिक विस्तार से १. “एते रुद्रा एतन्नामकपाशुपतशास्त्रावतारकाः। तत्र च हृदयाख्यं यत्प्रमाणमुक्तम्, तस्यान्तर्भूतानि यानि पुरकल्पकनकशालानिरुत्तरविश्वप्रपञ्चाख्यानि षट् क्रियाप्रधानानि प्रमाणानि प्रोक्तज्ञानप्रधानप्रमाणाष्टक विलक्षणानि हृदयाख्यात् प्रमाणाल्लकुलेशशिष्येण मुसलेन्द्रेणोद्धृत्य आरुरुक्षूणां प्रथमं प्रदर्शितानि” (स्व. १०.११३४)। विशेष विवरण के लिये लुप्ता. उपोद्घात (पृ. ११६) देखिये। पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत ११३ प्रस्तुत किया है। इन सबको देखने से हम इस निश्चय पर पहुंच सकते हैं कि श्वेताश्वतर उपनिषद् पाशुपत मत-संमत सिद्धान्तों का प्रथम आकर ग्रन्थ है।

श्वेताश्वतर उपनिषद्-

इस उपनिषद् में ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं अन्य संहिताओं के मन्त्र विद्यमान हैं। इस उपनिषद् को हम मुण्डक और कठ की श्रेणी में रख सकते हैं। सांख्य, योग और पाशुपत मत का यह प्राचीनतम ग्रन्थ माना जा सकता है। इसकी रचना भगवद्गीता से पहले हो चुकी थी, क्योंकि वहां इसका एक पूरा और एक आधा श्लोक प्राप्त है। यह उपनिषद् भक्ति-सम्प्रदाय के द्वार पर दस्तक दे रही है। यह भगवान् शिव की भक्ति को समर्पित है। इसको हम पाशुपत मत का प्रथम आकर ग्रन्थ मान सकते हैं। शैवागमों में विस्तार से वर्णित पति, पशु और पाश नामक तीन तत्त्वों का यहाँ सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। “यो योनि योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदं स च वि चैति सर्वम्” (४.११), “यो योनि योनिमधितिष्ठत्येको बिम्बानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः” (५.२) ऐसे वचनों को देखकर डॉ. भाण्डारकर का कहना है कि इस प्रकार के वर्णनों से योनि-लिंग के सम्बन्ध को दार्शनिक भूमिका दे दी गई लगती है। द्वैतवाद का प्रतिपादक प्रसिद्ध श्रुतिवचन ‘ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशौ” (१.६) इसी उपनिषत् का है। हमको यह स्मरण रखना है कि पाशुपत मत द्वैतवाद का ही प्रतिपादक है। ‘तस्मात् सर्वगतः शिवः” (३.११), “पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते” (६.८) जैसे यहां के वचनों का व्याख्यान प्रायः सभी शैव सम्प्रदायों में अपनी-अपनी पद्धति से मिलता है। शिवपुराण की वायवीयसंहिता के पूर्व भाग के छठे अध्याय में भी श्वेताश्वतर के विषयों का विस्तार मिलता है।

अथर्वशिरस् उपनिषद्-

अपेक्षाकृत यह परवर्ती ग्रन्थ माना जाता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के कुछ वचन यहां मिलते हैं। पाशुपतव्रत, भस्मधारण, पाशुपाशविमोक्षण आदि पाशुपत मत के सिद्धान्तों का निरूपण विशेष रूप से मिलता है। विविध शैव पुराणों में और विशेषकर शिवपुराण की वायवीयसंहिता तथा स्कन्दपुराण की सूतसंहिता में शतरुद्र नीलरुद्र आदि के साथ अथर्वशिरस्, जाबालोपनिषद् आदि के नाम पाशुपतव्रत, भस्मधारण आदि के प्रसंग में मिलते हैं। ।

महाभारत-

यहां वनपर्व में किरातवेशधारी शिव से अर्जुन के पाशुपतास्त्र पाने की कथा वर्णित है। भारवि के किरातार्जुनीय काव्य में इसी कथा का विस्तार है। यह कथा द्रोणपर्व में भी दुहराई गई है। अनुशासनपर्व में श्रीकृष्ण महादेव की महिमा का बखान करते हैं। यहां लिंगपूजा का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण पुत्र-प्राप्ति के लिये १. वाजसनेय माध्यन्दिनसंहिता का १६वां अध्याय रुद्राध्याय अथवा शतरुद्रिय के नाम से प्रसिद्ध है। तैत्तिरीयसंहिता (४.५.१) में यह प्रकरण ११ अनुवाकों में विभक्त है। अतः रुदैकादशिनी के नाम से भी यह प्रसिद्ध है। २. तैत्तिरीय-आरण्यक (१०.१६) का “सर्वो ह्येष रुद्रस्तस्मै रुद्राय नमोऽस्तु” इत्यादि सूक्त नीलरुद्र कहलाता है। ११४ कहा तन्त्रागम-खण्ड के माध शिव की आराधना-पद्धति को सीखने के लिये धौम्याग्रज महर्षि उपमन्यु के पास जाते हैं। शिवमहिमा के प्रतिपादक यहां के वचन कूर्मपुराण में भी आनुपूर्वी से मिलते हैं। महाभारत के नारायणीय उपाख्यान में पाशुपत मत की और इसके प्रथम प्रतिष्ठापक श्रीकण्ठ की चर्चा है, यह बात हम पहले ही बता चुके हैं। किसी

शिवमहापुराण (वायवीयसंहिता)-

शिवपुराण के दो संस्करण मिलते हैं। ’ बम्बई वाला संस्करण आजकल उपलब्ध नहीं होता। आजकल दूसरा संस्करण अधिक प्रचलित है। इसी का अन्तिम भाग वायवीयसंहिता के नाम से प्रसिद्ध है तथा शैवागम और दर्शन सम्बन्ध . पी अनेक ग्रन्थों में इसको उद्धत किया गया है। यह वायवीयसंहिता सतसंहिता से प्राचीन लगती है। वायवीयसंहिता के पूर्व और उत्तर भाग की एक स्वतन्त्र सी स्थिति लगती है। उससे ऐसा अनमान किया जा सकता है कि यह संहिता शिवपराण के साथ बाद में जोड दी गई हो। इसको हम पाशुपतों का आकर ग्रन्थ मान सकते हैं। पाशुपत मत का यहां विशेष रूप से उल्लेख मिलता है। यहां (७.१.३२.१-२) श्रौत और स्वतन्त्र के भेद से द्विविध शैवागम का उल्लेख कर बताया गया है कि स्वतन्त्र शैवागम १० और १८ भेदों में विभक्त है। तन्त्रालोक जैसे अनेक शैवागमों के ग्रन्थों में १० शैवागम और १८ रौद्रागमों को मिलाकर उनको “सिद्धान्तशास्त्र” कहा गया है। “सिद्धान्त” पद की व्युत्पत्ति हम पहले दे चुके हैं। पाशुपत मत को वायवीयसंहिता में श्रौत कहा गया हैं। पाशुपत व्रत और ज्ञान का यहां प्रतिपादन किया गया है। तप, कर्म, जप, ध्यान और ज्ञान इन पांच विषयों का यहां विशेष रूप से प्रतिपादन मिलता है। रुरु, दधीचि, अगस्त्य और उपमन्यु ये चार आचार्य इसके उपदेष्टा हैं। आगमों के ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग नामक चार पादों का निरूपण कर इनका लक्षण भी यहां बताया गया है, जो कि वास्तव में कामिक आदि स्वतन्त्र आगमों के स्वरूप को निदर्शित करता है। यहां बताया गया है कि इस चतुर्विध धर्म का जो उपदेश धौम्य के अग्रज उपमन्यु ने श्रीकृष्ण को किया था, वायुसंहिता के उत्तरभाग में संगृहीत है। ऊपर बताया जा चुका है कि महाभारत के अनुशासनपर्व में भी यह विषय संक्षेप में मिलता है। शिवपुराण की कैलाशसंहिता (६.१६) और वायवीयसंहिता में भी कला, काल, नियति आदि तत्त्वों का ही नहीं, स्पन्द-सिद्धान्त का भी उल्लेख मिलता है। शिवभक्ति और ज्ञान का तादात्म्य भी यहां प्रदर्शित है। इस संहिता के पूर्व भाग के छठे अध्याय में श्वेताश्वतर उपनिषद् के विषयों की विशद चर्चा की गई है। इसी तरह से इसकी वायवीयसंहिता के उद्धरण श्रीकण्ठभाष्य और कुमार की तत्त्वप्रकाशटीका में भी मिलते हैं। १. गणपति कृष्णा जी के छापाखाने में शके १८०६, सन् १८६७ में यह छपा था। २. तपः कर्म जपो ध्यानं ज्ञानं चेत्यनुपूर्वशः। पञ्चधा कथ्यते सदिस्तदेव भजनं पुनः ।। (७.१०.७८)। सिद्धान्तशिखामणि (६.२३१-२४) में शिवयज्ञ के रूप में इनका वर्णन इसी रूप में मिलता है। सि.शि. का यह पूरा प्रकरण वायवीय का अनुवर्तन करता है। मनुस्मृति (३.७०-७२) में वर्णित पंचयज्ञों से विलक्षण इन शिवयज्ञों का निरूपण सूक्ष्मागम (क्रि. ६.२६-३४) आदि वीरशैव आगमों में भी मिलता है।पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत ११५ ३ डॉ. एस. एन. दासगुप्त ने पूरे शिवपुराण का और उसकी वायवीयसंहिता का विस्तृत परिचय दिया है। हमने भी अपने “शिवपुराणीयं दर्शनम्” (तन्त्रयात्रा, पृ. ५०-६१) नामक निबन्ध में संक्षेप में इसका परिचय देने का प्रयत्न किया है। इसकी कुछ विशेष बातों का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। इसकी कैलाशसंहिता में शिवसूत्र, शिवसूत्रवार्त्तिक, विरूपाक्षपंचाशिका का, २६ पुराणों का, विशेषतः लिंगपुराण का, जाबालोपनिषद् तथा शिवमहिम्नस्तव का नामोल्लेख हुआ है, अथवा वचन भी उद्धृत हैं। परापंचाशिका के भी कुछ वचन यहां (६.१६.७३) उपलब्ध हैं। दत्त के द्वारा उपदिष्ट संन्यासपद्धति का भी यहां उल्लेख है। पंचविध योग (७.२.३७ अ.), पाशुपत योग (७.२.३८ अ.) और कुण्डलिनी योग (७.१.३२ अ.) का भी यहां विस्तार से वर्णन है। वायवीयसंहिता (२.३१.१७३) में चतुर्विध शैव सम्प्रदायों का भी विवरण मिलता है। इस विषय पर हम आगे विस्तार से विचार करेंगे। परि पानी पूरी संहिता को देखने पर हमें ऐसा लगता है कि यहां पाशुपत मत के साथ सिद्धान्त शैवों के सिद्धान्त एक साथ मिला दिये गये हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया ज्ञान, योग, क्रिया और चर्या नामक पादविभाग शैव सिद्धान्त आगमों में तो उपलब्ध हैं. किन्त किसी पाशुपत ग्रन्थ में नहीं। हम कह सकते हैं कि इसकी छठी कैलाशसंहिता में अद्वैत दर्शन का, वायवीयसंहिता के पूर्व भाग में स्वतन्त्र सिद्धान्त शास्त्र का और उत्तर भाग में पाशुपत मत का विशेष रूप से प्रतिपादन हुआ है। पूरे शिवपुराण में तथा अन्य पुराणों में भी पाशुपतसूत्र के द्वारा प्रतिपादित पंचब्रह्मोपासन, भस्मोद्धूलन, रुद्राक्षधारण आदि विषयों का विवरण मिलता है। यह आश्चर्य की बात है कि इतना सब होते हुए भी अनेक पुराणों में पाशुपत मत को वेद-बाह्य बताया गया है।

  • इसके कारणों की खोज हमें करनी होगी। हमें ऐसा लगता है कि श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत, जिसका कि महाभारत, पुराण आदि में उल्लेख मिलता है, सर्वात्मना श्रौत परम्परा का अनुसरण करता है। जिस पाशुपत मत को यहां वेदबाह्य बताया गया है, वह लकुलीश पाशुपत मत हो सकता है। पुराणों में और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में अत्याश्रमी शब्द यद्यपि दोनों ही प्रकार के पाशुपतों के लिये प्रयुक्त है, किन्तु अतिमार्ग शब्द का प्रयोग श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत के लिये कहीं प्रयुक्त हुआ नहीं मिलता। हम बता चुके हैं कि शतरत्नसंग्रह में मूल शैवागमों के प्रमाण से पूरे भारतीय वाङ्मय को लौकिक, वैदिक, आध्यात्मिक, आतिमार्मिक और मान्त्रिक नामक पांच भेदों में विभक्त कर पुनः उनमें से प्रत्येक के पांच पांच भेद किये गये हैं। वहां मन्त्रशास्त्र के पांच भेदों का तो उल्लेख मिलता है, किन्तु अतिमार्ग के साथ अन्य भेदों का उल्लेख नहीं मिलता। कुछ विद्वान् अतिमार्ग भेद में पाशुपतों की गिनती करना चाहते हैं, किन्तु श्रौत पाशुपत मत की गणना उसमें नहीं की जा. सकती। हां, लकुलीश पाशुपत मत का उसमें समावेश किया जा सकता है। है १. “भारतीय दर्शन का इतिहास” (भा. ५, पृ. ६१-१२१) हिन्दी संस्करण। ११६ तन्त्रागम-खण्ड तन्त्रालोक में अभिनवगुप्त का कहना है कि लकुलीश कायोपासना के प्रवर्तक आदि आचार्य थे। नेत्रतन्त्र (१३.१०-११) में वर्णित विश्वरूप के ध्यान और काठमाण्डू में उपलब्ध उनकी मूर्ति पर और लकुलीश की यत्र तत्र उपलब्ध मूर्तियों पर यदि हम ध्यान दें, तो हमें ऐसा आभास होता है कि तन्त्रशास्त्र में रहस्यवाद का प्रवेश इसी मार्ग से हआ। महाभारत और पुराणों में भी श्रौत पाशुपत मत के सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है, किन्तु कहीं भी लकुलीश प्रदर्शित पद्धति का अथवा दर्शन का विवरण नहीं मिलता। स्पष्ट है कि उक्त स्थलों पर पुराणों में पाशुपत शब्द से लकुलीश पाशुपत मत ही अभिप्रेत है। माया कि डॉ. एस. एन. दासगुप्त ने अपने “भारतीय दर्शन का इतिहास" नामक ग्रन्थ के पांचवें खण्ड में प्रधानतः शैव सम्प्रदाय की विभिन्न शाखाओं पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यहां की सामग्री अतीव अस्तव्यस्त है। प्रथम पृष्ठ पर ही यहां टिप्पणी दी गई है कि पाशुपत शास्त्र की रूपरेखा पहले ही प्रस्तुत की जा चुकी है, किन्तु यह रूपरेखा “पाशुपत सूत्रों का सिद्धान्त’ शीर्षक प्रकरण में मिलती है, जिसको कि बाद में रखा गया है। वस्तुतः इस ग्रन्थ से हम विभिन्न शैव सिद्धान्तों की भेदक-रेखा और उनके कालक्रम को सही रूप में हृदयंगम नहीं कर पाते। इन्होंने यहां पाशुपत मत और सिद्धान्त शैवागमों को आपस में मिला दिया है और इसी कारण वे श्रीकण्ठ एवं श्रीपति के सिद्धान्तों का और वीरशैव मत का सही मूल्यांकन नहीं कर पाये हैं। यह बात इससे स्पष्ट हो जाती है कि लकुलीश पाशुपत मत का उपसंहार करते हुए वे मृगेन्द्रागम का उल्लेख करते हैं, जो कि सिद्धान्त शैवागम का ग्रन्थ है। इसका पाशुपत मत से कोई सम्बन्ध नहीं है। लगता है कि वे श्रीकण्ठ प्रवर्तित पाशुपत मत और लकुलीश पाशुपत मत में भी स्पष्ट भेद नहीं कर पाये हैं। इस विषय में हमें स्पष्ट धारणा बना लेनी चाहिये कि श्वेताश्वतर आदि उपनिषदों में, महाभारत तथा पुराणों में, विशेष कर शिवपुराण की वायवीयसंहिता और स्कन्दपुराण की सूतसंहिता में श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत का उल्लेख है। लकुलीश पाशुपत मत पर भी इसका प्रभाव है, किन्तु पुराणों में प्रवृत्त पाशुपत मत पर लकुलीश का प्रभाव नहीं के बराबर है। सिद्धान्त शैवागम की भी स्वतन्त्र सत्ता है। जैसा कि शिवपुराण की वायवीयसंहिता में इसका स्पष्ट निर्देश हुआ है। इस पर भी लकुलीश का प्रभाव न होकर श्रीकण्ठ प्रवर्तित पाशुपत मत का ही यत्र तत्र प्रभाव देखा जा सकता है। यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिये कि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार श्रीकण्ठ का भी इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। ये अपने मंगलाचरण में नाना आगमों के उपदेष्टा ‘श्वेत (मुनि) का उल्लेख करते हैं। हमने देखा है कि श्वेत (मुनि) २८ पाशुपत योगाचार्यों में प्रथम हैं। शैवागमों के प्रवक्ता के रूप में उन्हीं को यहां प्रस्तुत किया गया है। हम केवल यह मान सकते हैं कि भाष्यकार श्रीकण्ठ और १. ऊपर प. १०६ की तीसरी टिप्पणी दाखय। पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत ११७ उसके टीकाकार अप्पय दीक्षित के मत पर शैवागमों का और कश्मीर के प्रत्यभिज्ञा दर्शन का संमिलित प्रभाव पड़ा है। वायवीयसंहिता और सूतसंहिता को भी ये उद्धृत करते हैं। म प्रो. दासगुप्त की मृत्यु के बाद इस खण्ड का प्रकाशन हुआ। ऐसा लगता है कि ऐसी अवस्था में इसको सही स्वरूप नहीं दिया जा सका। वस्तुतः यहां सबसे पहले श्रीकण्ठ-प्रवर्तित श्रौत पाशुपत मत का, तब लकुलीश पाशुपत मत का वर्णन होना चाहिये था। इस खण्ड के प्रथम पृष्ठ पर ही जो सूचना हमें मिलती है, उससे भी यही पुष्ट होता है कि प्रो. दासगुप्त ने प्रथमतः पाशुपत मत का ही परिचय लिखा था। पाशुपत मत के बाद द्वैतवादी सिद्धान्त शैवागमों को, तब तमिल शैव साहित्य और विशेष कर मेयकंडदेव द्वारा “शिवज्ञानबोध” के आधार पर प्रवर्तित दक्षिण के शैव साहित्य को स्थान दिया जाना चाहिये था। दक्षिण की यह शैव दृष्टि धीरे-धीरे द्वैतवाद को छोड़कर अद्वैत की ओर बढ़ती चली गई। अतः इसके पहले कश्मीर के अद्वयवादी दर्शन की पृष्ठभूमि वहीं प्रदर्शित की जा सकती थी। शिवपुराण की, विशेषतः वायवीयसंहिता की, दार्शनिक दृष्टि का विश्लेषण इसके बाद ही किया जाना था। भाष्यकार श्रीकण्ठ, वीरशैव मत और तदनुवर्ती श्रीकर भाष्य की दृष्टि का उल्लेख इसी पृष्ठभूमि में किया जाना था। डॉ. दासगुप्त का कहना है कि आगमीय शैवमत मुख्यतः तमिल प्रदेश का, पाशुपत गुजरात का, प्रत्यभिज्ञा कश्मीर का तथा भारत के उत्तरी भागों का है एवं वीरशैव अधिकांशतः कन्नडभाषी प्रदेशों में पाया जाता है (पृ. १७)। इस प्रसंग में हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि द्वैतवादी शैवसिद्धान्त का विकास दक्षिण में न होकर प्रथमतः मध्यदेश’ में, ततः कश्मीर में और अन्ततः दक्षिण भारत में हुआ। प्रत्यभिज्ञा दर्शन को कश्मीर का और द्वैतवादी शैवसिद्धान्त दर्शन को दक्षिण भारत का मानने का आग्रह नितान्त असमीचीन है। वस्तुतः शास्त्रों के प्रसंग में देश-विभाग को मान्यता भारत में कभी नहीं मिली। यह पश्चिम की भ्रमपूर्ण अवधारणा है। इसमें पूरे देश को भिन्न-भिन्न कर देने का एक कटिल आग्रह भी छिपा हआ है। हम देखते हैं कि अभिनवगप्त के जीवन-काल में ही भारत के अन्तिम दक्षिण छोर केरल से आकर मधुराज ने उनसे विद्या ग्रहण की थी और उसके बाद चोल देश में प्रत्यभिज्ञा दर्शन की एक लम्बी परम्परा चली। इसी तरह से शैव पद्धतिकारों की लम्बी परम्परा में उत्तर और दक्षिण के विशिष्ट शैवाचार्यों के नाम मिलते

सूतसंहिता-

स्कन्दपुराण के भी दो तरह के संस्करण मिलते हैं - एक खण्डात्मक और दूसरा संहितात्मक। खण्डात्मक विभाग उत्तर भारत में और संहितात्मक विभाग दक्षिण भारत में विशेष रूप से प्रचलित है। सूतसंहिता स्कन्दपुराण के संहितात्मक विभाग के अन्तर्गत आती है। इसका प्रकाशन सायण-माधव की टीका के साथ आनन्दाश्रम मुद्रणालय, १. “निःशेषशास्त्रसदनं किल मध्यदेशः” (तन्त्रालोक, ३७.३८)। शैवभूषण में दी गई १८ पद्धतिकारों की

  • नामावली “आगम और तन्त्रशास्त्र" (पृ. ३६) में देखिये। ११८ तन्त्रागम-खण्ड पूना से तीन जिल्दों में हुआ है। इसमें १३ अध्याय का शिवमाहात्म्य खण्ड, २० अ. का ज्ञानयोग खण्ड, ६ अ. का मुक्तिखण्ड और यज्ञवैभव खण्ड नामक चार विभाग हैं। यज्ञवैभव खण्ड पूर्व और उत्तर विभागों में बँटा हुआ है। इसके पूर्व विभाग में ४७ और उपरि विभाग में १२ अध्याय वाली ब्रह्मगीता और आठ अध्याय की सूतगीता है। वायवीयसंहिता के समान ही ब्रह्मसूत्र के श्रीकण्ठ आदि भाष्यकारों ने सूतसंहिता को अपने मत के समर्थन में आदर के साथ स्मरण किया है। पाशुपतयोग, भस्मोद्धूलन, रुद्राक्षधारण आदि विषयों का यहां विस्तार से वर्णन मिलता है। यानी की शाह सूतसंहिता के यज्ञवैभव खण्ड के पूर्व भाग के एक वचन का (४३.१७) आधुनिक इतिहासज्ञों ने उल्लेख किया है। यहां कोई विशेष बात नहीं है, केवल लकुलीश के नाम का उल्लेख है। इस स्थल की विशेषता इसमें है कि यहां लकुलीश की जन्मभूमि कारवण के आसपास विद्यमान अनेक तीर्थों के नाम हैं, जिनका कि परिगणन सिद्धान्त शैवागमों में वर्णित भुवनों में हुआ है। इतना ही नहीं, इनमें से कुछ नाम ५१ शक्तिपीठों में भी देखने को मिलते हैं। जोमा पनि सूतसंहिता के प्रारम्भ में स्कन्दपुराण की सभी संहिताओं के नाम तथा उनका ग्रन्थ-प्रमाण दिया गया है। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - सनत्कुमारसंहिता, सूत संहिता, शांकरीसंहिता और सौरीसंहिता। कूर्मपुराण की भी ब्राह्मी, भागवती, सौरी और वैष्णवी संहिताओं के नाम मिलते हैं। उनमें से आजकल केवल ब्राह्मी संहिता उपलब्ध है। नारदीयपुराण में दी गई इन संहिताओं की विषयसूची से मिलाकर देखना चाहिये कि ये संहिताएं परस्पर भिन्न हैं या अभिन्न? यों नाम से तो इनमें बहुत कुछ समानता दिखाई पड़ती है। सिनिमा कि कि सूतसंहिता के विभिन्न खण्डों में शैवागम प्रतिपादित पति, पशु और पाश नामक तत्त्वों का ही नहीं, पाशुपत व्रत का, वैष्णव, शैव तथा अन्य आगमों का, शिवयोगियों का और उनके मठों का, अगस्त्य के शिष्य श्वेत मुनि का, ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद का, द्विज स्त्रियों के श्रौत कर्म में अधिकार का और लोकभाषा में गाई गई स्तुतियों का अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है। शैवागमों के वचन भी यत्र-तत्र उद्धृत मिलते हैं। अतिवर्णाश्रमी के रूप में यहां वाम. पाशुपत आदि मतों का उल्लेख है। __आठ अध्याय की सूतगीता ने पति (शिव) को पशु और पाश से विलक्षण बताया हैं। “गुरुतः शास्त्रतः स्वतः” इस आगमिक सिद्धान्त को यहां पुष्ट किया गया है, जिसकी चर्चा किरणागम में और योगवासिष्ठ में भी है। “तीर्थे श्वपचगृहे वा शिवतत्त्वविदां समं मरणम्” इस सिद्धान्त को भी यहां स्वीकार किया गया है। “सर्वदेवमयः कायः” लकुलीश द्वारा प्रवर्तित यह सिद्धान्त भी यहां मान्य है। तन्त्र और आगम, इन उभयविध शब्दों का यहां पर्यायवाची शब्दों के रूप में व्यवहार हुआ है और इसी तरह से वैदिक एवं तान्त्रिक धर्म की व्यवस्था पर भी पर्याप्त सामग्री यहां मिलती है। Saamare पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत ११६ जिजा इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों की समन्वयात्मक प्रवृत्ति के अनुसार यहां भी निगम और आगम में समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। इतना सब होते हुए भी स्कन्दपुराण की यह सूतसंहिता प्रधान रूप से शिव के माहात्म्य को समर्पित है। ब्रह्मगीता और सूतगीता में ही नहीं, अन्यत्र भी शैवागमों का और पाशुपत पद्धति का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। कूर्मपुराण की ईश्वरगीता पर भी उपनिषद् की अपेक्षा आगमशास्त्र का यह प्रभाव स्पष्ट है। इन सबको देखते हुए हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्वेताश्वतर, अथर्वशिरस् आदि उपनिषदों के साथ महाभारत और शिवपुराण की वायवीयसंहिता के समान स्कन्दपुराण की यह सूतसंहिता भी हमारे लिये श्रौत पाशुपत मत के स्वरूप को जानने में बहुत उपयोगी है। सानी वायुपुराण और शिवपुराण के अंश के रूप में स्वीकृत कारवणमाहात्म्य और एकलिंगमाहात्म्य का भी इस प्रसंग में अपना महत्त्व है। इसीलिये हम यहां इनका भी संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं। किसी रिक

कारवणमाहात्म्य-

कारवणमाहात्म्य का प्रथम अंश (पृ. ३७-४०) वायुपुराण से तथा शेष अंश (पृ. ४०-५७) शिवपुराण से लिया गया है, ऐसा स्वयं कारवणमाहात्म्य को देखने से ही ज्ञात होता है, किन्तु उक्त दोनों पुराणों में ये अंश उपलब्ध नहीं होते। इसकी प्रतिपाद्य विषयवस्तु का संक्षेप गणकारिका के सम्पादक ने अपनी भूमिका (पृ. ४-५) में दिया है। अतिसंक्षेप में हम इसकी विशेषताओं का दिग्दर्शन इस प्रकार कर सकते हैं -भृगुमण्डल (क्षेत्र) की, कायावरोहण तीर्थ की और वहां अवतीर्ण ब्रह्मा के मानसपुत्र अत्रि की चर्चा हमें यहां (पृ. ५१-५२) मिलती है। यहीं बताया गया है कि अत्रि, आत्रेय, अग्निशर्मा, सोमशर्मा और विश्वरूप के क्रम में लकुलीश की उत्पत्ति हुई। इस माहात्म्य के प्रारम्भ में ही अत्रिवंशज विश्वरूप से उल्का ग्राम में चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को लकुलीश की उत्पत्ति बताई गई है। इनकी माता का नाम सुदर्शना था (पृ. ३७-३८)। उल्का ग्राम की, कायावरोहण तीर्थ की और लकुलीश की चर्चा पूरे माहात्म्य में अनेक स्थलों पर हुई है। पृ. ५२ पर बताया गया है कि कलियुग का कायावरोहण तीर्थ की कृतयुग में इच्छापुरी, त्रेता में मायापुरी और द्वापर में मेघवती के नाम से प्रसिद्ध था। पृष्ठ ५४ पर लकुलीश के अवतरण के प्रसंग में मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु, नारद, देवल, गालव, वामदेव, बालखिल्य, कुश, तृणबिन्दु, उद्दालक, जयच्छंग, माण्डव्य, व्यासनन्दन (शुक), गौतम, भरद्वाज, वात्स्य और कात्यायन की उपस्थिति चर्चित है। इसके अंतिम अंश (पृ. ५५-५७) में पट्टबन्ध की विधि वर्णित है। इस प्रसंग में प्रभास(पट्टन) और सोमेश्वर (सोमनाथ) का भी उल्लेख है। सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र के माहात्म्य की चर्चा भी यहां है, जो कि पूरे भारत में आज भी उसी तरह से मान्य है।

एकलिंगमाहात्म्य-

इस माहात्म्य को वायुपुराण से सम्बद्ध माना गया है, किन्तु वहां यह उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. प्रेमलता शर्मा ने किया है और भारत में संस्कृत ग्रन्थों के प्रमुख प्रकाशक मोतीलाल बनारसी दास ने सन् १६७६ में इसका १२० तन्त्रागम-खण्ड बार प्रकाशन किया है। उदयपुर (मेवाड़) के पास स्थित भगवान् ‘एकलिंग जी का माहात्म्य यहां वर्णित है। साथ ही हारीत मुनि और बप्पा रावल के विषय में भी यहां पर्याप्त सामग्री मिलती है, जिन्होंने लकुलीश पाशुपत मत के अनुसार यहां पंचमुख शिललिंग की प्रतिष्ठा की थी। विदुषी सम्पादिका ने पर्याप्त परिश्रम के साथ इस संस्करण को तैयार किया है। यहां पौराणिक और काव्यमय द्विविध एकलिंगमाहात्म्य समाविष्ट है। पौराणिक माहात्म्य में ३२ अध्याय हैं। काव्यमय माहात्म्य में प्रधानतः बप्पा रावल (बाष्प) के वंश का वर्णन है। साथ ही यहां राणा कुंभा की और भगवान् के पंचायतन स्वरूप की स्तुति की गई है। मुनि की शिष्य-परम्परा का भी यहां वर्णन है। भूमिका एवं परिशिष्टों में यहां पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत की गई है। पौराणिक और काव्यमय एकलिंगमाहात्म्य का कथासार भी यहां दिया गया है। पौराणिक एकलिंगमाहात्म्य को यहां पुराण, जनश्रुति, इतिहास और तन्त्रशास्त्र का संमिलित स्वरूप बताया गया है। भूमिका भाग (पृ. ५३-५७) में कुछ ग्रन्थों के आधार पर जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये गये हैं, उनका पुनः परीक्षण अपेक्षित है। यहां हमें म.म.पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जी की दृष्टि अपेक्षाकृत सही लगती है। इस विषय पर हम अलग से विचार करेंगे। इस माहात्म्य का परिचय भूमिका में इस प्रकार दिया गया है-‘मेवाड़ के इतिहास-प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजकुल के अधिष्ठाता देव एकलिंग जी का यह स्थलपुराण या माहात्म्य है, यह बात इसके नाम से ही स्पष्ट है। मेवाड़ के शासक दीवान कहलाते थे और एकलिंग जी को राजा माना जाता था। एकलिंग जी का मन्दिर उदयपुर से १३ मील उत्तर दो पहाड़ियों के बीच स्थित है। गांव का नाम कैलासपुरी है। मन्दिर के चारों ओर ऊंची प्राचीर या कोट है। जनश्रुति है कि इस मन्दिर को बप्पा रावल ने बनवाया था और महाराणा मोकल (कुंभा के पिता) ने इसका जीर्णोद्वार कराया था" (पृ.२५) । बप्पा रावल के गुरु हारीत राशि को यहां एकलिंग जी के मन्दिर का महन्त माना गया है, किन्तु हारीत का यहां विशेष परिचय नहीं दिया गया। हम देखते हैं कि इस माहात्म्य में केवल हारीत का ही नहीं, उनकी पूर्व परम्परा और उत्तर परम्परा का भी उल्लेख मिलता है।

हारीत मुनि-

पौराणिक एकलिंगमाहात्म्य के प्रारम्भ (१.१०-१४) में वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, मरीचि, गालव, जमदग्नि, विश्वामित्र, गौतम, भारद्वाज, अंगिरा, कृष्ण द्वैपायन, शुक, पराशर, ऋचीक, दुर्वासा, गर्ग, उद्दालक, कंक, कच, कण्व, देवल, अगस्ति, लोमश, रैभ्य, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, उशना, पुलह, पुलस्ति, कपिल, आसुरि, वामदेव और हारीत नामक १. शक्तिसंगमतन्त्र में एकलिंग का लक्षण इस प्रकार दिया गया है पश्चिमाभिमुखं लिङ्गं नन्दिहीनं पुरातनम् । चतुरःपञ्चक्रोशान्ते न लिङ्गं दृश्यते शिवे।। तदेकलिङ्गमाख्यातं तत्र सिद्धिरनुत्तमा।। (१.८.११०-१११) एकलिंग शब्द की व्याख्या कलकत्ता संस्कृत सिरीज के लिये डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची के द्वारा सम्पादित (कलकत्ता, सन् १६३४ में प्रकाशित) ग्रन्थ कौलज्ञाननिर्णय के साथ छपी ज्ञानकारिका (३.६-८) में भी मिलती है। कौल सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने से वह यहां के लिये अनुपयुक्त है। १२१ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत ऋषियों का उल्लेख है। आगे (६.७) बाष्प (बप्पा रावल) और हारीत मुनि के द्वारा कलियुग में एकलिंग जी की आराधना की चर्चा है। पृ. २६ (१०.२७-२८) पर चर्चा है कि भगवान् शिव के द्वारा अभिशप्त चण्ड और नन्दी ही कलियुग में मेदपाट (मेवाड़) में हारीत और बाष्प के नाम से अवतीर्ण हुए। इसी दसवें अध्याय में हारीत द्वारा की गई भगवान् शिव की गद्यपद्यमयी सुन्दर स्तुति विद्यमान है (पृ. २७-३०)। यह स्तुति दीपकनाथकृत’ त्रिपुरसुन्दरीदण्डक, रामानुजकृत शरणागतिगद्य आदि की याद दिलाती है। कार जा. पृ. ३८ पर (१२.६४) भी बाष्प और हारीत की एक साथ चर्चा है। पृ.८५-६० पर पराप्रासाद मन्त्र के प्रसंग में बाष्प को हारीत द्वारा किये गये मन्त्रोपदेश का और पंचोपचार पूजा का विस्तार से वर्णन है। प्रसंगवश यहां (पृ. ८६-६०) शिखरिणी (श्रीखण्ड) को बनाने की विधि भी दी गई है, जो कि गुजरात और महाराष्ट्र का आज भी दही से बनने वाला प्रिय व्यंजन है। उत्तर भारत में इसका प्रचलन न होने के कारण पक्वान्न-सूची में इसका नाम नहीं आ पाया है। हारीत के स्वर्गगमन के उपलक्ष्य में बाष्प के पंचरात्र व्रत के पालन की भी यहां (पृ. ६१) चर्चा है। बीसवें अध्याय के अन्तिम भाग में बाष्प के पुत्र राजा भोज के प्रजापालन का तथा वार्धक्य के आने पर वेदगर्भ मुनि के पास जाकर तपस्या करने का उल्लेख है। पृ. ६४-६६ पर प्रसंगवश शंकराचार्य और उनके प्रमुख चार शिष्यों और उनके विभिन्न सम्प्रदायों का शक्तिसंगम-तन्त्र (४.८.६०-११५, २१७-२१८) की पद्धति से ही वर्णन है। २१ वें अध्याय के प्रारम्भ में बताया गया है कि वेदगर्भ हारीत के गुरु और आथर्वण के शिष्य थे। पृ. १३४ पर हारीत के शिष्य विद्याचार्य का उल्लेख है। पृ. १४६-१४७ पर हारीत इत्यादि के द्वारा सेवित मन्त्र का और उसकी पुरश्चरणविधि का विस्तार से वर्णन है। पुरश्चरण के अर्थ में यहां सेवा शब्द प्रयुक्त है। ३१ वें अध्याय के प्रारंभ में वेदगर्भ ने अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार बताई है- ब्रह्मा, अंगिरा, आथर्वण, हारीत और वेदगर्भ। पृ. २२ की दूसरी टिप्पणी में यहां “महातीर्थ कायावरोहण” नामक ग्रन्थ की चर्चा की गई है। यह परिचयात्मक ग्रन्थ कारवण से ही प्रकाशित हुआ है। पृ. २४ की दूसरी टिप्पणी में नीलमतपुराण के प्रमाण से महाव्रत को व्यास का शिष्य बताया गया है। इस विषय पर अभी अन्य प्रमाणों की खोज करनी होगी। الله १.. त्रिपुरसुन्दरीदण्डक का प्रकाशन नित्याषोडशिकार्णव (वाराणसी संस्करण) के परिशिष्ट में तथा शरणागतिगद्य आदि का रामानुज-ग्रन्थावलि में हुआ है। २. यहां का विवरण सही नहीं है। पूरे ग्रन्थ को देखने से इस बात की पुष्टि होती है कि हारीत के गुरु का नाम आधर्वण था। वेदगर्भ हारीत के शिष्य थे, गुरु नहीं।। ३. उत्तरषट्क नामक त्रिपुरा सम्प्रदाय के ग्रन्थ(२.२७, ५.२५) में तथा बौद्ध मत के कृष्णयमारितन्त्र (५.१६) में पुरश्चरण के लिये पूर्वसेवा पद प्रयुक्त है। प्रस्तुत स्थल पर केवल सेवा पद का प्रयोग किया गया है। १२२ ज जीतन्त्रागम-खण्ड मागधार की इस प्रकार श्रीकण्ठ से सम्बद्ध पाशुपत साहित्य का यथालब्ध स्वरूप प्रदर्शित करने का हमने प्रयत्न किया है। आगे लकुलीश पाशुपत मत से सम्बद्ध साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है। जी गोली ही

लकुलीश पाशुपतसूत्र-

लकुलीश विरचित पाशुपत सूत्र का प्रकाशन कौण्डिन्य विरचित भाष्य के साथ सन् १६४० में त्रिवेन्द्रम् से हो चुका है। इसका दूसरा संस्करण सन् १९७० में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है। कारवण (बड़ोदा जनपद) के नवनिर्मित लकुलीश मन्दिर की दीवालों पर इन सूत्रों को भी अंकित कराया गया है। यह सूत्र-ग्रन्थ’ पांच अध्यायों में विभक्त है और इसमें कुल १६८ सूत्र हैं। इन पांच अध्यायों में अन्य विषयों के साथ प्रत्येक अध्याय के अन्त में क्रमशः सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष और ईशान नामक पांच वैदिक मन्त्रों का उद्धार किया गया है। पाशुपत साहित्य में ये पांच मन्त्र पंचब्रह्म के नाम से और भगवान् शिव पंचमन्त्रतनु के नाम से प्रसिद्ध हैं। यहां कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त नामक पांच पदार्थों का भी निरूपण किया गया है। इन पांच अर्थों के प्रतिपादन के कारण ही इसके कौण्डिन्य विरचित भाष्य का नाम पंचार्थ-भाष्य प्रसिद्ध हो गया है। कारमा निराशा को मामी तक पाशुपतसूत्रों के रचयिता लकुलीश के काल और उनकी शिष्य परम्परा के सम्बन्ध में यहां पहले लिखा जा चुका है। पाशुपतसूत्रों में निर्दिष्ट उन कुछ विशेष विषयों का संक्षेप में उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है, जिनका कि परवर्ती साहित्य पर प्रभाव पड़ा। इससे यह भी स्पष्ट होगा कि इसकी प्रकृति आगम और तन्त्रशास्त्र से बहुत मिलती जुलती है। मनुस्मृति से भी इसकी अनेक अंशों में समानता है। यह ene की जा प्रथमतः हम “अमङ्गलं चात्र मङ्गलं भवति" (२.७), “अपसव्यं च प्रदक्षिणम्” (२.८) इन दो सूत्रों पर ध्यान दें। महिम्नस्तोत्र का यह वचन प्रसिद्ध है- “अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलम्, तथापि स्मर्तृणां वरद परमं मङ्गलमसि” (श्लो. २४)। “श्मशानवासी” (५.३०) जैसे सूत्रों की प्रवृत्ति का आधार यही सूत्र है और “चिताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी" (श्लो. २४) महिम्नस्तोत्र का यह वचन उसी की पुष्टि करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि बौद्ध तन्त्रों और शाक्त तन्त्रों में श्मशान-साधन, शवसाधन, कपालपात्र आदि का कितना महत्त्व है। वहां ये सारी अमंगल वस्तुएं भी मांगल्यप्रद हो गई है। ऊपर उद्धृत दूसरा सूत्र यद्यपि निर्माल्य का उल्लंघन न करने का विधान बताता है, किन्तु साथ ही इसमें दक्ष और वाम पूजा के आरम्भ के बीज भी खोजे जा सकते हैं। इस सूत्र का भाष्य’ भी इस ओर इंगित करता हुआ सा प्रतीत होता है। १. पाशुपतसूत्र एवं कौण्डिन्य के भाष्य का विस्तृत परिचय दासगुप्त के “भारतीय दर्शन का इतिहास" (भा.५, पृ. १२२-१३१) से तथा जे. गोण्डा के “मिडीवल रिलीजियस लिटरेचर” (पृ. २७१-२२०) से प्राप्त कीजिये। “यदन्येषामपसव्यं तदिह प्रदक्षिणं धर्मनिष्पादकं भवति” (पृ. ६२), “येन येन हि बध्यन्ते जन्तवो । रौद्रकर्मणा। सोपायेन तु तेनैव मुच्यन्ते भवबन्धनात्।।” (हवजतन्त्र, २.२.५०) जैसे वचनों में वाम और दक्षिण पूजा का रहस्य छिपा हुआ है। Au पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत १२३ की तप को यहाँ प्रधानता दी गई है। “शून्यागारगुहावासी” (५.६), “श्मशानवासी” (५.३०) जैसे सूत्र प्रायः उन्हीं स्थानों का उल्लेख करते हैं, जो कि आगम-तन्त्रशास्त्र को मान्य हैं। “अवमतः” (३.३), “असन्मानो हि मन्त्राणां सर्वेषामुत्तमः स्मृत" (४.६) जैसे सूत्र हमें “संमानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव। अमृतस्येव चाकाक्षेदवमानस्य सर्वदा ।।" (२.१६२) मनुस्मृति के इस वचन की याद दिलाते हैं। “प्रेतवच्चरेत्, क्राथेत वा, स्पन्देत वा, मण्टेत वा, शृङ्गारेत वा” (३.११-१५), “हसितगीतनृत्तहुंडुकारनमस्कारजप्योहारेणोपतिष्ठेत्” (१.८) इत्यादि सूत्रों का विधान “अवमतः" (३.३), “असन्मानो हि" (४.६) जैसे सूत्रों की पुष्टि के लिये किया गया है। बौद्ध तन्त्र-ग्रन्थ गुह्यसिद्धि के षष्ठ परिच्छेद में तथा अन्तिम भाग में भी प्रायः यही दृष्टि देखने को मिलती है। उन्मत्तव्रत का उल्लेख यहां विशेष रूप से अवधेय है। सिद्धों की जीवनियों से हमें पता चलता है कि उनमें से अनेकों की चेष्टाएं पागलों की सी होती थी। पागलों के पीछे ताली बजाते हुए बालकों का झुण्ड आज भी देखा जा सकता है। गुह्यसिद्धि में इसी स्थिति की चर्चा की गई है- “शिशुभिस्तालशब्दैश्च समन्तात् परिवेष्टितम्" (६.८४)। उन्मत्तव्रत की चर्चा अद्वयवज्रसंग्रह (पृ. ३,५६) में भी आई है। मार्कण्डेयपुराण (१७.१६) में दुर्वासा को उन्मत्तव्रत का पालक बताया गया है और मृगेन्द्रागम के क्रियापाद की नारायणकण्ठ कृत वृत्ति में सात चर्या-व्रतों में उन्मत्तव्रत भी परिगणित है। महाभारत के वनपर्व (२६०.११-१२) में दुर्वासा को उन्मत्तवेषधारी कहा है। इसी प्रसंग का ऊपर के पाशुपत सूत्रों में हमें खुलासा मिलता है। इसी तरस से “पापं च तेभ्यो ददाति" (३.८) और “सिद्धयोगी न लिप्यते कर्मणा पातकेन वा” (५.२०) ये दो सूत्र भी विशेष रूप से अवधेय हैं। उपनिषदों में बताया गया है कि जीवन्मुक्त दशा में सिद्ध पुरुष द्वारा किये गये शुभ कर्म उसके मित्रों में और अशुभ कर्म उसके शत्रुओं में संक्रान्त हो जाते हैं। ठीक यही अभिप्राय उक्त दोनों सूत्रों का भी है। सिद्धान्त शैवागम में कर्मसाम्य को शक्तिपात का हेतु माना गया है। कर्मसाम्य का अभिप्राय है पुण्य और पाप की समान स्थिति। पुण्य और पाप जब समान बल के हो जाते हैं, तो वे आपस में टकरा कर किसी को भी फलोन्मुख नहीं होने देते। ऐसी स्थिति में सिद्धयोगी स्वयं पाप और पुण्य से अस्पृष्ट रहता है, इस जीवन्मुक्त दशा में उसके किये गये पुण्य और पाप क्रमशः उसके मित्रों और शत्रुओं में संक्रान्त हो जाते हैं। यही उक्त दोनों सूत्रों का अभिप्राय है और यह सिद्धान्त उपनिषदों और आगमों में भी समान रूप से मान्य है। सिद्धयोगी को अलौकिक सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है, इसका निर्देश “दूरदर्शनश्रवणमननविज्ञानानि चास्य प्रवर्तन्ते” (१.२१) इस सूत्र में किया गया है। “ततः १२४ तन्त्रागम-खण्ड है प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते” (३.३६) इस पातंजल योगसूत्र में भी यही विषय प्रतिपादित है। सिद्धियों के प्रसंग में प्रायः सभी शास्त्रों में इनका उल्लेख मिलता है। लकुलीश का “स्त्रीशूद्रं नाभिभाषेत्” (१.१३) यह सूत्र इस प्रसंग में विशेष रूप से अवधेय है। यह सूत्र निगम शास्त्र का प्रतिनिधित्व करता है, आगम का नहीं। स्त्री और शूद्र को देखने अथवा भाषण करने का प्रायश्चित्त भी यहाँ बताया गया है– “रौद्री गायत्री बहुरूपी वा जपेत्” (१.१७)। भाष्यकार ने रौद्री गायत्री पद से पंचब्रह्म मन्त्रों में से तत्पुरुष मन्त्र का तथा बहुरूपी पद से अघोर मन्त्र का ग्रहण किया है। इतना होते हुए भी सूत्रकार केवल ब्राह्मण की मुक्ति मानते हैं, यह कथन एकदम निराधार है। वैदिक वाङ्मय की तरह ही यहां त्रैवर्णिक को मोक्ष का अधिकारी माना गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाशुपत-सूत्र निगम और आगम को जोड़ने वाली एक बीच की कड़ी है। इसी तरह केवल वायु और कूर्म में ही नहीं; शिव, स्कन्द आदि पुराणों में भी लकुलीश का उल्लेख अवश्य हुआ है, किन्तु सूत्रकार के रूप में उनका उल्लेख हमें इन पुराणों में खोजना पड़ेगा।

हृदयप्रमाण-

सद्योज्योति शिवाचार्य की परमोक्षनिरासकारिका की वृत्ति के प्रारम्भ में भट्ट रामकण्ठ ने रौरवसूत्र को उद्धृत कर मत-मतान्तरों में स्वीकृत मोक्ष-सम्बन्धी विचारों का उल्लेख करते हुए विभिन्न पाशुपत मतों की भी चर्चा की है- “प्रमाणाग्नेयकर्तृत्व विशिखामलकारकः’ (पृ. २७६) इस वचन की व्याख्या करते हुए रामकण्ठ हृदयप्रमाण ग्रन्थ का इस प्रकार उल्लेख करते हैं- “स एव हृदयप्रमाणादिग्रन्थकर्तृत्वेनात्र सूत्रकृता प्रमाणकर्तृपदेनोपक्षिप्ताः’ (पृ. २८१)। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि लकुलीश के शिष्य मुसुलेन्द्र ने हृदयप्रमाण नाम के ग्रन्थ की रचना की थी। ऊपर मुसुलेन्द्र के विषय में और आठ प्रमाणों के विषय में, जिसमें कि हृदय प्रमाण की और उसके भेदों की भी चर्चा की गई है, उससे अधिक हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। इससे तो यह भी सन्देह होने लगता है कि हृदय नाम के प्रमाण की यहां चर्चा है या वास्तव में इस नाम का कोई ग्रन्थ मुसुलेन्द्र द्वारा रचा गया था। डाँ. वी.एस.पाठक अपने ग्रन्थ (पृ. १३,१६) में पाशुपतों की प्रमाण शाखा का भी उल्लेख करते हैं। परमोक्षनिरासकारिका के व्याख्याता भट्ट रामकण्ठ शैवों के मोक्षविषयक समता-सिद्धान्त का विवरण देते हुए कहते हैं कि समुत्पत्ति, संक्रान्ति, आवेश और अभिव्यक्ति पक्ष के अनुसार मुक्त जीव में मोक्ष-दशा में शिवसमता उत्पन्न होती है, संक्रान्त होती है, आविष्ट होती है या अभिव्यक्त होती है। इनमें संक्रान्ति पक्ष पाशुपतों का माना जाता है। १. इन चारों पक्षों का स्वरूप हमारी “आगममीमांसा” (पृ. ३६-४०) में देखिये। २. ‘एतेन शिखासंक्रान्तिवादिनः पाशुपताः सूत्रकृता विशिखाकारकत्वेनोक्ताः’ (प. मो. नि., पृ. २८३)।१२५ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत 15

पञ्चार्थभाष्य-

इसके कर्ता कौण्डिन्य हैं। राशीकर इनका दूसरा नाम है। यह पंचार्थ भाष्य सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह (पृ. ६३) में राशीकर-भाष्य’ के नाम से ही उद्धृत है। जैन आचार्य राजशेखर और गुणरत्न ने लकुलीश से लेकर विद्यागुरु पर्यन्त १८ पाशुपत आचार्यों की जो नामावली दी है, उस नामावली में राशीकर का १७ वां स्थान है। उसके आधार पर इनका समय चौथी से छठी शताब्दी निश्चित किया गया है। डॉ. एस. एन. दासगुप्त का कहना है कि ये एक दो शताब्दी पूर्व के भी माने जा सकते हैं (पृ. १३)। इस भाष्य के सम्पादक का कहना है कि आनन्दगिरि (८२५ ई.) और वाचस्पति मिश्र (८५० ई.) के सामने सूत्र और भाष्य दोनों विद्यमान थे (भूमिका, पृ.५)। इस भाष्य में उद्धरण तो अनेक हैं, किन्तु ग्रन्थ या ग्रन्थकार का नाम कहीं भी नहीं दिया गया है। रामायण, महाभारत, पुराण अथवा आगम-ग्रन्थों में ये उद्धरण मिल सकते हैं, किन्तु अभी तक ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया गया। तन्त्र शब्द का भाष्यकार ने अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है, किन्तु ऐसा लगता है कि इन्होंने इस शब्द का प्रयोग सामान्य शास्त्र के लिये किया है, तन्त्रशास्त्र के लिये नहीं। वाल्मीकिरामायण, महाभारत और मनुस्मृति के कुछ वचन पाठान्तर के साथ यहां निश्चित रूप से मिलते हैं, किन्तु वे इनके काल-निर्णय में सहायक नहीं हो सकते। “अन्यैः, आह, उक्तम्” इत्यादि शब्दों के साथ उद्धृत वचन विविध आचार्यों के हो सकते हैं। इनमें “सूत्रप्रकरणाध्यायैः” (पृ. १०६) और “यस्य येनाभिसम्बन्धः” (पृ. ११७) इन दो उद्धरणों का स्थल-निर्देश होने पर भाष्यकार के समय पर निश्चित प्रकाश पड़ सकता है। इस भाष्य के सम्पादक पं. आर. अनन्तकृष्ण शास्त्री प्रथम सूत्र के कौण्डिन्य-भाष्य और सूतसंहिता (४.४३.१७) के आधार पर लकुलीश पाशुपत मत के प्रवृत्तिकाल पर विचार करते हैं। वे “न जातु कामः कामानाम्” और “यत् पृथिव्यां व्रीहियवम्” इन दो श्लोकों को विष्णुपुराण का मानते हैं (पृ. १३५), किन्तु मनुस्मृति और महाभारत आदि में भी ये हमें उपलब्ध होते हैं। इसी तरह से वे पृ. ३१ के श्लोक में “मनुरब्रवीत्" देखकर इसको मनुस्मृति का वचन मान कर कहते हैं कि यह श्लोक मनुस्मृति में नहीं मिलता (भूमिका, पृ. १३)। वास्तव में यह वचन मनुस्मृति का है ही नहीं, भाष्यकार इस वचन को उद्धृत करते हुए स्वयं “अन्यैरप्युक्तम्" (पृ. ३०) कहते हैं। इसी तरह से वायु, लिंग आदि १. ऊपर की पृ. १२२ की पहली टिप्पणी देखिये। २. गणकारिका परिशिष्ट, पृ. ३० तथा ३६ देखिये। ३. भाष्य का यह संस्करण त्रिवेन्द्रं संस्कृत सिरीज, त्रिवेन्द्रम् से सन् १६४० में छपा था। इसके अतिरिक्त पाशुपत सूत्र और कौण्डिन्य के पंचार्थ भाष्य का अंग्रेजी अनुवाद और भूमिका के साथ इसका दूसरा संस्करण कलकत्ता से सन् १६७० में प्रकाशित हुआ है। इसके संपादक श्री एच. चक्रवर्ती हैं। १२६ मतन्त्रागम-खण्डका पुराणों में राशीकर के नाम का उल्लेख भी अभी परीक्षा की कोटि में ही आता है। यहां (पृ. ७६) किसी श्रुति के छः पाद मिलते हैं। यहां के चार पादों की श्वेताश्वतर उपनिषद् (३.१६) के रूप में पहचान की जा सकती है। पृ. ८६ पर उद्धृत वचन भी श्रुति का ही लगता है। भाष्य में वाम (पृ. ५६), पाप (पृ. ८१) और वरेण्य (पृ. १०१) शब्दों के पर्यायवाची शब्द किसी कोश के आधार पर दिये गये हैं। अमरकोश के ये वचन नहीं हैं। भाष्य के सम्पादक आर्यदास के वाधूलश्रौतसूत्रभाष्य के आधार कल्पसूत्रकार कौण्डिन्य का उल्लेख करते हैं (भूमिका, पृ. १८), किन्तु प्रस्तुत भाष्यकार से इनकी अभिन्नता स्थापित करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया है, यह ठीक ही है। शास्त्री जी ने यहां लकुलीश पाशुपत मत, सिद्धान्त शैव, काश्मीर शैव और रसेश्वर दर्शन पर भी सर्वदर्शनसंग्रह की पृष्ठभूमि में विचार किया है। सिद्धान्त शैव और काश्मीर शैव को ये भी दक्षिण और उत्तर भारत का दर्शन मानते हैं। पुराणों और उपपुराणों में वर्णित शैवमत की, एक लाख श्लोक प्रमाण शिवरहस्य की, २८ आगमों की और कारणागम में वर्णित शैव, पाशुपत, सोम और लाकुल नामक चार शैवभेदों की भी इन्होंने चर्चा की है। कवीन्द्राचार्य सूची में निर्दिष्ट शैव और कापालिक नामों की और प्रसंगवश कवीन्द्राचार्य सूची के ग्रन्थों के फैलाव की चर्चा कर इन्होंने बताया है कि त्रिवेन्द्रम् में भी इस सूची के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। ति कि गणकारिका की भासर्वज्ञ कृत रत्नटीका में भाष्यकार के नाम से एक वचन उद्धृत है (पृ.१३)। इसके आधार पर विद्वानों ने इनके दूसरे स्वतन्त्र ग्रन्थ की सत्ता स्वीकार की है, क्योंकि उक्त श्लोक प्रस्तुत भाष्य में उपलब्ध नहीं होता। यह ध्यान देने की बात है कि यहां एक नहीं, दो श्लोक भाष्यकार के नाम से मिलते हैं और ये दोनों ही प्रस्तुत भाष्य में उपलब्ध नहीं हैं। गणकारिका की रत्नटीका (पृ.६) में संस्कारकारिका भी उद्धृत है। प्रो. जे. गोण्डा इसको भाष्यकार की रचना बताते हैं, किन्तु इसके लिये अभी प्रमाण अपेक्षित प्रस्तुत भाष्य में लकुलीश के साक्षात् शिष्य कौशिक का, कायावरोहण में हुए (लकुलीश) अवतार का और इनके पैदल उज्जयिनी जाने का, इनके अत्याश्रमी सम्प्रदाय का और कुशिक का उल्लेख हुआ है (पृ.३-४)। प्रस्तुत भाष्य के सम्पादक कौशिक और कुशिक शब्द से लकुलीश की परम्परा के दूसरे और दसवें आचार्य का ग्रहण करते हैं। हमारी समझ में यहाँ दोनों स्थानों पर कुशिक ही पाठ होना चाहिये। पुराणों में वर्णित योगाचायों के शिष्यों की नामावली में कुशिक ही नाम मिलता है। कौशिक शब्द की प्रवृत्ति कुशिक के बाद ही मानी जायगी, पहले नहीं। १. वायु और लिंगपुराण में इस नाम की खोज हमें करनी होगी। ति २. देखिये—गणकारिका, पृ. १३-१४ (तत्रैव ज्ञापकान्तरमुक्तम)। ३. देखिये-मिडीवल रिलीजियस लिटरेचर, पृ.२१६. माहार का कई १२७ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत

विद्यागुरु अथवा विद्याधिपति

अनुभवस्तोत्र और प्रमाणस्तुति के कर्ता के रूप में विद्याधिपति अथवा विद्यागुरु का नाम मिलता है। “गुरुः श्रीविद्याधिपतिः, मानस्तुतौ प्रमाणस्तोत्रे" (तन्त्रा.वि.६.१७३), “श्रीमान् विद्यागुरुस्त्वाह प्रमाणस्तुतिदर्शने” (तन्त्रा. १७. ११५) इन दो उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि विद्यागुरु और विद्याधिपति एक ही व्यक्ति हैं। अनुभवस्तोत्र में रथोद्धता छन्द तथा प्रमाणस्तोत्र में मत्तमयूर छन्द है। विद्याधिपति के नाम से कुछ अनुष्टुप् छन्द के श्लोक भी मिलते हैं। स्पन्दप्रदीपिका (पृ. ६८) में अनुष्टुप् छन्द की तीन पंक्तियां और मोक्षकारिकावृत्ति (पृ. २५६) में एक अनुष्टुप् श्लोक मिलता है। तन्त्रालोक में भी “श्रीमान् विद्यागुरुस्त्वाह…." (१७.११५) के बाद अनुष्टुप् छन्द की पांच पंक्तियां मिलती हैं (१७.११५-११७)। प्रथम स्थल पर अनुभवस्तोत्र के प्रसंग में और तन्त्रालोक में प्रमाणस्तुति के प्रसंग में ये श्लोक मिले हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो विद्याधिपति के उक्त दोनों स्तोत्रों में अनुष्टुप् छन्द के भी श्लोक विद्यमान हैं अथवा अनुष्टुप् छन्द में इन्होंने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की भी रचना की होगी। __यह ऊपर बताया जा चुका है कि लकुलीश से प्रारम्भ हुई १८ पाशुपत योगाचार्यों की परम्परा में अन्तिम नाम विद्यागुरु का है। ऊपर के विवरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि विद्याधिपति और विद्यागुरु अभिन्न व्यक्ति हैं। प्रमाणस्तुति में ‘गाहनिक’ शब्द आया है। यह शब्द पाशुपत मत की एक शाखा से सम्बद्ध है। इससे हम यह कल्पना कर सकते हैं कि उपर्युक्त विद्याधिपति अथवा विद्यागुरु पाशुपत सम्प्रदाय से सम्बद्ध विद्यागुरु से अभिन्न हैं और उक्त दोनों स्तोत्र एवं अनुष्टुप् छन्द में उपलब्ध वचन भी पाशुपत मत से ही सम्बद्ध हैं। क्षेमेन्द्र का सुवृत्ततिलक (२.२०) में कहना है कि विद्याधिपति हरविजयकाव्य के कर्ता रत्नाकर का दूसरा नाम है, किन्तु आफ्रेख्ट की सूची (भा.१, पृ. ७३) से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुभाषितावलि में संगृहीत विद्याधिपति के श्लोक रत्नाकर के हरविजयकाव्य में नहीं मिलते। सुभाषितावलि में विद्याधिपति अथवा विद्यापति के नाम से संगृहीत वचन किसी कवि के ही हैं। इन सब प्रश्नों पर अभी गंभीरता से विचार करना अपेक्षित है। विद्याधिपति और उनके अनुभवस्तोत्र की सूचना तन्त्रसार (पृ. ३१), तन्त्रालोक (१.२०१), स्तवचिन्तामणि की क्षेमराजकृत टीका (पृ. ५४) और ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (भा.१, पृ. २०) से मिलती है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी (भ. ३, पृ. २६१) में विद्याधिपति ही विद्यागुरु के नाम से संबोधित है। लुप्तागमसंग्रह प्रथम (पृ. ४) और द्वितीय (पृ. २) भाग में यहाँ के उपलब्ध सभी वचन संगृहीत हैं। इनके अतिरिक्त भट्ट रामकण्ठ की मतंगपारमेश्वर (पृ. ६४, २२४) और सार्धत्रिशतिकालोत्तर (पृ. ३८) की व्याख्या में भी यहाँ के तीन श्लोक नये मिलते हैं। १. “धर्माधर्मव्याप्तिविनाशान्तरकाले शक्तेः पातो गाहनिकैर्यः प्रतिपन्नः” प्रमाणस्तुति का यह वचन तन्त्रालोक (१३.१२८) में उद्धृत है। शैवागमों में माया को ग्रन्थि अथवा गहन भी कहा जाता है। माया को गहन इसलिये कहा जाता है कि गहन नाम के रुद्र इसके अधिपति हैं। गाहनिकों के यहाँ गहन नामक रुद्र पद की प्राप्ति ही परम लक्ष्य है। स्वच्छन्दतन्त्र (११.७१-७२) में इस प्रसंग में मौसुल और कारुक नामक पाशुपतों का उल्लेख किया गया है। PSPDATE १२८ जातन्त्रागम-खण्डमा __मानस्तुति, मानस्तोत्र, प्रमाणस्तुति और प्रमाणस्तोत्र ये सभी एक ही ग्रन्थ के नाम हैं। तन्त्रालोक में अनेक स्थलों से (६.१७३, १३.१२८, १४.६, १७.११५) इन नामों की तथा विद्याधिपति अथवा विद्यागुरु की अभिन्नता जानी जा सकती है। उक्त स्थलों पर इनके कुछ वचन भी मिलते हैं। लुप्ता. प्रथम (पृ. ६२) और द्वितीय (पृ. १२२) में इन सबको संगृहीत कर दिया गया है। जगह

पंचार्थप्रमाण

क्षेमराज ने स्वच्छन्दतन्त्र की अपनी उद्योत नामक टीका (१.४१-४५) में इस ग्रन्थ के कुछ श्लोक उद्धृत किये हैं। स्वच्छन्दतन्त्र में यहाँ अघोर मन्त्र का उद्धार किया गया है। अघोर मन्त्र में स्थित अघोर, घोर और घोरघोरतर शब्दों की व्याख्या के प्रसंग में उक्त ग्रन्थ के ये श्लोक उद्धत हैं। यहाँ बताया गया है कि वामेश्वर आदि रुद्र अघोर, गोपति से गहन पर्यन्त रुद्र घोर और अनन्त आदि विद्येश्वर एवं महामाहेश्वर घोरघोरतर कहलाते हैं। यहाँ इनकी शक्तियों की चर्चा के साथ ‘नमस्कार’ पद का अर्थ भी बताया गया है। ग्रन्थ के उक्त नाम से और इसके प्रतिपाद्य विषय से भी यह स्पष्ट है कि यह पाशुपत मत का ग्रन्थ है।

हरदत्ताचार्य

गणकारिका के सम्पादक ने भासर्वज्ञ को इसका लेखक बताया है और कहा है कि रत्नटीका के लेखक का नाम ज्ञात नहीं हो सका। अब प्रायः यह मान लिया गया है कि गणकारिका हरदत्ताचार्य की कृति है और रत्नटीका के लेखक भासर्वज्ञ हैं। गणकारिका के सम्पादक की दूसरी गलती भासर्वज्ञ के स्थान पर भावसर्वज्ञ नाम की कल्पना करना है। न्यायसार और न्यायभूषण के लेखक को तत्कालीन ग्रन्थों में भासर्वज्ञ के नाम से ही सम्बोधित किया गया है। तीसरी गलती सम्पादक ने षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नकृत टीका के अंश को हरिभद्र के नाम से उद्धृत कर की है। सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह (पृ. ६०) में गणकारिका के साथ हरदत्ताचार्य का स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी कुछ विद्वान् “आचार्यभासर्वज्ञविरचितायां गणकारिकायां रत्नटीका समाप्ता" इस पुष्पिका वाक्य को देखकर भ्रम पालना चाहते हैं। अन्य विद्वानों ने इस पुष्पिका वाक्य की अपेक्षा सायण-माधव की उक्ति को ही प्रबल प्रमाण माना है। डा. एस. एन. दासगुप्त’ इनके विषय में लिखते हैं कि श्रीपति ने हरदत्त को बहुत संमानपूर्ण शब्दों में उद्धृत किया है। हयवदनराव ने भविष्योत्तर पुराण में दिये हुए हरदत्त के जीवन-वृत्तान्त का तथा उनके टीकाकार शिवलिंगभूपति के लेखों का उल्लेख किया है, जो हरदत्त को कलिकाल ३६७६, अर्थात् लगभग ८७६ ई. का निर्धारित करते हैं, किन्तु शिवरहस्यदीपिका में हरदत्त का समय कलिकाल का लगभग ३००० दिया है। प्रो. शेषगिरि शास्त्री ने प्रथम तिथि को अधिक उपयुक्त स्वीकार किया है तथा सर्वदर्शनसंग्रह में उद्धृत हरदत्त को तथा हरिहरतारतम्य एवं चतुर्वेदतात्पर्यसंग्रह के लेखक को एक ही माना है। डॉ. दासगुप्त यहाँ टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि प्रस्तुत हरदत्त काशिकावृत्ति पर १. देखिये भारतीय दर्शन का इतिहास, भा. ५, पृ. ११ (हिन्दी संसकरण) पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत १२६ पदमंजरीकार तथा आपस्तम्बसूत्र के टीकाकार हरदत्त से भिन्न है। सभाष्य पाशुपतसूत्र के सम्पादक चतुर्वेदतात्पर्यसंग्रह (शैव ग्रन्थ) के लेखक हरदत्त को कावेरी तट का निवासी बताते हैं और कहते हैं कि ये वैष्णव से शैव हो गये थे। इस प्रसंग में वे काशिकावृत्ति पर पदमंजरी टीका के लेखक हरदत्त की भी चर्चा करते हैं और उनका समय ८७० ई. बताते हैं। समय की दृष्टि से देखा जाय तो हरदत्त की उक्त दोनों तिथियों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। आफेख्ट की सूची में हरदत्त के नाम से अनेक ग्रन्थ उद्धृत हैं। वे किसी एक ही लेखक की कृतियाँ हैं या इनके लेखक भिन्न-भिन्न हैं, यह विषय अभी निश्चित होना बाकी है। गणकारिका में कुल आठ श्लोक हैं। इनमें आठ पंचकों और नवम त्रिक गण का परिगणन किया गया है। रत्नटीका में इनकी विस्तृत व्याख्या की गई है। सायण-माधव ने गणकारिका और पाशुपतसूत्र के आधार पर अपने सर्वदर्शनसंग्रह में लकुलीश पाशुपत दर्शन का समन्वयात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया है। गणकारिका में प्रतिपादित लाभ, मल, उपाय और देश की पंचात्मकता का प्रतिपादन पंचार्थभाष्य (पृ. १३०) में भी मिलता है। इसी

विशुद्धमुनि

इनके यमप्रकरण और आत्मसमर्पण नामक दो ग्रन्थ गणकारिका के साथ परिशिष्ट (पृ. २४-२५) में प्रकाशित हुए हैं। लकुलीश, कुशिक और भाष्यकार का इन्होंने प्रारम्भ में ही उल्लेख किया है, अतः कौण्डिन्य के बाद किसी समय इनकी स्थिति मानी जा सकती है। गणकारिका के समान ये भी छोटे-छोटे ग्रन्थ हैं। यमप्रकरण में कुल २१ श्लोक हैं। भाष्य की पद्धति से यहाँ यमों का निरूपण किया गया है। ये अपने को षड्गोचर का शिष्य (भृत्य) बताते हैं। आत्मसमर्पण में १३ श्लोक हैं और यहाँ पुराणों के क्रम से ही २८ योगाचार्यों (अवतारों) की नामावली दी गई है।

संस्कारकारिका

इसका उल्लेख गणकारिका की रत्नटीका में हुआ है। वहाँ क्रिया का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि कारण, मूर्ति और शिष्य का संस्कार ही क्रिया कहलाती है। इसी प्रसंग में रत्नटीकाकार कहते हैं कि इसका क्रम संस्कारकारिका में देखना चाहिये (पृ.६)। पृ. ८ पर भी संस्कारकारिका का उल्लेख मिलता है। यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। बताया जाता है कि यह राशीकर (कौण्डिन्य) के भाष्य की टीका है, किन्तु इसके लिये अभी प्रमाण अपेक्षित हैं।

टीकाकार

गणकारिका की रत्नटीका (पृ. १६) में ही किसी टीकाकार का उल्लेख मिलता है। हसित, नृत्य, गीत आदि के प्रसंग में काल और संख्या का निरूपण करते हुए रत्नटीकाकार कहते हैं कि अन्य टीकाकारों का इस प्रसंग में यह मत है कि यह सब कुछ तब तक करना चाहिये, जब तक कि आत्मसन्तुष्टि न हो जाय। यह टीका गणकारिका की ही होगी, ऐसा हम मान सकते हैं। इससे यह भी भासित होता है कि भासर्वज्ञ से पहले भी गणकारिका पर टीका लिखी जा चुकी थी। १. डॉ. जे. गोण्डा, मिडीवल रिलीजियस लिटरेचर, पृ. २१६, टि. २७ देखिये। १३० तन्त्रागम-खण्ड

भासर्वज्ञ

अब इसमें कोई भ्रम नहीं रह गया है कि गणकारिका हरदत्ताचार्य की और रत्नटीका भासर्वज्ञ की कृति है। सायण-माधव द्वारा गणकारिका के कर्ता के रूप में हरदत्ताचार्य का स्पष्ट रूप से नाम लिये जाने से रत्नटीका की पुष्पिका में स्थित भासर्वज्ञ का सम्बन्ध रत्नटीका से मानना पड़ेगा, गणकारिका से नहीं। गणकारिका की रत्नटीका में भासर्वज्ञ ने पाशुपत मत से सम्बद्ध सत्कार्यविचार और टीकान्तर नाम के अपने दो ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इन दोनों ग्रन्थों के विषय में अभी आगे बताया जायगा। इनके अतिरिक्त भासर्वज्ञ न्यायसार और उसकी महनीय टीका न्यायभूषण के भी रचयिता हैं। राजशेखर और गुणरत्न ने न्यायसार की १८ टीकाओं का उल्लेख कर उनमें न्यायभूषण को मुख्य बताया है। गणकारिका के सम्पादक प्रो. सी.जी. दलाल और डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् भासर्वज्ञ के स्थान पर भावसर्वज्ञ नाम सुझाते हैं, किन्तु राजशेखर और गुणरत्न ने भासर्वज्ञ ही नाम दिया है। बौद्ध न्याय के ग्रन्थों में और न्यायसार की पुष्पिका में भी वे इसी नाम से उद्धृत हैं। अतः कुछ पाशुपताचायों के नाम के साथ समानता लाने के लिये नाम में परिवर्तन करने की कोई आवश्यकता नहीं है। काम के कि न्यायभूषण में भासर्वज्ञ ने प्रमाणवार्त्तिकालंकार के लेखक प्रज्ञाकरगुप्त का उल्लेख किया है और इसी तरह से रत्नकीर्ति, रत्नाकरशान्ति आदि बौद्ध आचार्यों ने न्यायभूषण का उल्लेख किया है। इसके आधार पर भासर्वज्ञ का समय दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध निश्चित किया गया है। नैयायिक भासर्वज्ञ ही पाशुपत मत के ग्रन्थ गणकारिका के भी व्याख्याता हैं, अब इस विषय में भी कोई विवाद नहीं रह गया है। गुणरत्न ने नैयायिकों को शैव और वैशेषिकों को पाशुपत बताया है, किन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है, इसकी चर्चा हम अन्यत्र कर चुके हैं। न्यायभाष्यवार्त्तिककार उद्योतकर अपने को पाशुपत मानते हैं और वैशेषिक दर्शन के प्रशस्तपादभाष्य की व्योमवती टीका के लेखक व्योमशिव शैव है। इस प्रकार न्याय की परम्परा में आये भासर्वज्ञ भी पाशुपत मत के अनुयायी हैं। इनका नाम भी इसी बात का साक्षी है कि ये पाशुपत परम्परा के आचार्य हैं। गुणरत्न’ ने भी यहाँ स्पष्ट कर दिया है कि यह मैंने जैसे देखा-सुना तदनुसार कह दिया। वस्तुतः देखा जाय तो न्याय और वैशेषिक ये दोनों ही दर्शन पाशुपत मत का अनुवर्तन करते हैं। हमने ऊपर देखा है कि योगाचार्यों के शिष्यों की नामावली में अक्षपाद और कणाद दोनों का नाम उपलब्ध है।

सत्कार्यविचार

जैसा कि ऊपर बताया गया, यह भासर्वज्ञ की रचना है। रत्नटीका (पृ. १०) में स्वयं वे लिखते हैं कि अतथाभूत पदार्थ कैसे सर्प, शिक्य आदि का रूप धारण १. देखिये-गणकारिका परिशिष्ट, पृ. ३० एवं ३६ २. शिवपुराणीयं दर्शनम्, तन्त्रयात्रा, पृ. ५४, रत्ना पब्लिकेशंस, वाराणसी, सन् १९८२ ३. “इदं मया यथाश्रुतं यथादृष्टं चात्राभिदधे" (गणकारिका परि., पृ. ३०)। यो पनि १३१ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत कर लेते हैं, इस विषय पर हमे अपने ग्रन्थ ‘सत्कार्यविचार में विस्तार से विचार किया है। परमाणुकारणतावादी नैयायिक भासर्वज्ञ सत्कार्यवाद पर किस दृष्टि से विचार करते हैं, यह हम इस ग्रन्थ के उपलब्ध होने पर ही जान सकते हैं।

टीकान्तर

पाशुपत मत में विद्या, कला और पशु की कार्य-वर्ग में गणना की गई है। यहाँ विद्या के बोधस्वभाव और अबोधस्वभाव नामक दो भेद किये गये हैं। बोधस्वभाव वाली विद्या के पुनः चार या पाँच भेद बताये गये हैं और कहा गया है कि विवेकवृत्ति और सामान्यवृत्ति ये ही विद्या के दो मुख्य प्रकार हैं। विवेकवृत्ति का अलग से कोई नाम नहीं है, यह विद्या के नाम से ही प्रसिद्ध है और इसकी सामान्यवृत्ति चित्त है। इन दोनों वृत्तियों में अन्तर क्या है? इसका यहाँ उत्तर नहीं दिया गया, किन्तु कहा गया है कि इनके भेद का स्पष्ट निरूपण मैंने टीकान्तर में किया है (पृ. १०)।

कारणपदार्थ

यह छोटा सा २६ श्लोकों का ग्रन्थ गणकारिका के परिशिष्ट (पृ. २६-२८) में छपा है। इसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है। यहाँ सायुज्य नामक मोक्ष का स्वरूप वर्णित है। ग्रन्थकर्ता कुशिक आदि को नमस्कार करता है और शिव के भाव आदि ३४ नामों का विवरण पाशुपतसूत्र की पद्धति से करता है।

पंचार्थभाष्यदीपिका

सायण-माधव ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह के नकुलीश पाशुपत प्रकरण (पृ. ६२) में पंचार्थभाष्यदीपिका को स्मरण किया है। यहाँ कहा गया है कि सांजन, निरंजन आदि का स्वरूप विस्तार से इस ग्रन्थ में देखना चाहिये। इसका कर्ता कौन है? यह तो हमें ज्ञात नहीं होता, किन्तु इतना स्पष्ट है कि यह कौण्डिन्य कृत पंचार्थभाष्य की दीपिका नाम की टीका है।

आदर्शकार

“आदर्शकारादिभिस्तीर्थकरैर्निरूपितम्” (पृ. ६२) सायण-माधव के उक्त ग्रन्थ में उद्धृत इस वचन से पाशुपत मत-संमत तत्त्वों के व्याख्याकार आदर्शकार का पता चलता है। ‘आदर्श’ किसी ग्रन्थ की व्याख्या का नाम हो सकता है। इसके कर्ता के विषय में अभी तक कोई सूचना नहीं मिली है।

स्वयोगशास्त्र

राजशेखर (पृ. ३६) और गुणरत्न (पृ. २६) ने स्वयोगशास्त्र के रूप में पाशुपतों के किसी योगशास्त्रविषयक ग्रन्थ का उल्लेख करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है। इसके विषय में भी अभी विशेष रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं होता। १. सत्कार्यवाद पर भासर्वज्ञ ने न्यायभूषण में भी विचार किया है, किन्तु वहाँ अतथाभूत पदार्थों की कोई चर्चा नहीं है, अतः सत्कार्यविचार इनका स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लगता है। अन्तःकरण की बोध नामक वृत्ति के विषय में अष्टप्रकरण के ग्रन्थों में भी विचार किया गया है। सद्योज्योति शिवाचार्य का – “अन्तःकरणवृत्तिर्या बोधाख्या सा महेश्वरम्। न प्रकाशयितुं शक्ता” (मोक्षकारिका, श्लो. १०६) यह श्लोक नारदपुराण (१.६३.११७) में भी उपलब्ध है। हम प्रस्तुत प्रसंग से इनकी तुलना कर सकते हैं। टीकान्तर से यहाँ न्यायभूषण का ग्रहण किया गया है अथवा यह कोई उससे भिन्न टीका-ग्रन्थ है, इसके निर्णय के लिये प्रस्तुत प्रसंग की हमें न्यायभूषण में खोज करनी होगी। ३. टीका १३२ तन्त्रागम-खण्ड शिक्षा ऊपर जिन ग्रन्थों या ग्रन्थकारों का विवरण दिया गया है, उनमें से अधिकांश की सूचना उद्धरणों के सहारे ही मिलती है। जो ग्रन्थ प्रकाशित हैं, वे सब दो या तीन जिल्दों में समाविष्ट हैं। लकुलीश विरचित पाशुपतसूत्रों के साथ कौण्डिन्य (राशीकर) विरचित पंचार्थभाष्य के दो संस्करणों का परिचय ‘ऊपर दिया जा चुका है। बड़ौदा से सन् १८२० में प्रकाशित हुए गणकारिका के संस्करण में इसकी रत्नटीका भी समाविष्ट है। इनके अतिरिक्त इसके प्रथम परिशिष्ट में विशुद्धमुनिकृत यमप्रकरण (पृ.२४-२५) और आत्मसमर्पण (पृ.२५-२६) का, अज्ञातकर्तृक कारणपदार्थ (पृ. २६-२८) का और रुद्रनामानि (पृ.२८) का प्रकाशन हुआ है। द्वितीय परिशिष्ट में आचार्य हरिभद्रकृत षड्दर्शनसमुच्चय की गुणरत्नकृत टीका के सम्बद्ध अंशों को (पृ.२६-३०) और सायण-माधवकृत सर्वदर्शनसंग्रह में स्थित नकुलीश पाशुपत दर्शन को (पृ.३०-३४) रखा गया है। तृतीय परिशिष्ट में राजशेखरसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चय का सम्बद्ध प्रकरण है (पृ.३५-३६) और चतुर्थ परिशिष्ट में वायुपुराण (पृ.३७-४०) और शिवपुराण (पृ. ४०-५७) में वर्णित कारवणमाहात्म्य ‘प्रकाशित है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सूत्र और भाष्य के अतिरिक्त पाशुपत मत सम्बन्धी उपलब्ध सारी सामग्री इस संस्करण में एकत्र कर दी गई है। इस अतिविशिष्ट ग्रन्थ का अभी सन १६६६ में द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ है। सन १६७६ में वाराणसी से एकलिङ्गमाहात्म्य का प्रकाशन हुआ है। इसका परिचय भी हम ऊपर दे चुके हैं।

आधुनिक साहित्य

इन प्राचीन ग्रन्थों के तथा अन्य उपलब्ध सामग्री के आधार पर आधुनिक प्राच्य-पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा रचित कृतियाँ भी हमें मिलती हैं। उनका संक्षिप्त परिचय दे देना भी उचित प्रतीत होता है।

२वैष्णव, शैव और अन्य धार्मिक मत

डॉ. आर.जी. भाण्डारकर लिखित “वैष्णविज्म, शैविज्म एण्ड अदर माइनर रिलीजियस सिस्टम्स” इस ओर किया गया शायद पहला प्रयास है। इस ग्रन्थ में न केवल पाशुपत, अपितु अन्य शैव सम्प्रदायों और उनके सिद्धान्तों पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है। यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ इस विषय पर किये जाने वाले शोध-प्रयत्नों का मूल प्रेरणास्रोत है। पुराण आदि प्राचीन वाङ्मय में प्रसिद्ध चतुर्विध शैवों के अतिरिक्त यहाँ काश्मारी शैवमत और वीरशैव (लिंगायत) मत पर भी सुव्यवस्थित रूप में अच्छा प्रकाश डाला गया है। साथ ही द्रविड़ देश में विकसित शैव धर्म की प्रक्रिया पर भी संक्षिप्त विचार किया गया है। शैव मत के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में वैष्णव मत पर विस्तार से तथा शाक्त, गाणपत्य, स्कान्द (कार्तिकेय) और सौर सम्प्रदायों पर संक्षेप में विचार प्रस्तुत किये गये हैं। अन्त में हिन्दुदेववाद और विश्वात्मवाद पर भी एक छोटा सा निबन्ध है। है १. ऊपर पृ. १२५ की तीसरी टिप्पणी देखिये। २. भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी से सन् १९६७ में प्रकाशित हिन्दी अनुवाद। पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत १३३

भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग-५

पाशुपत तथा अन्य शैव मतों पर दूसरा प्रयत्न डॉ. दासगुप्त का है। अपने महनीय ग्रन्थ “हिस्ट्री आफ इण्डियन फिलासफी” का पाँचवां भाग इस विषय को उन्होंने समर्पित किया है। यहाँ उन सभी विषयों की चर्चा है, जिनका कि परिचय डॉ. भाण्डारकर ने शैव मत के प्रसंग में दिया है। इस ग्रन्थ की संक्षिप्त समीक्षा हम ऊपर कर चके हैं। इस ग्रन्थ में पर्याप्त संशोधन अपेक्षित है। योगाचार्यों के विषय में भी इनकी टिप्पणियाँ संगत नहीं मानी जा सकतीं। शिवज्ञानबोध नामक एक लघुकाय ग्रन्थ के आधार पर द्रविड़ देश में मेयकंडदेव आदि आचार्यों के द्वारा शैव शास्त्र की सिद्धान्त शाखा पर यहाँ अच्छा प्रकाश डाला गया है। यह शाखा आजकल दक्षिणी सिद्धान्त शैव के नाम से प्रसिद्ध है। इस विषय पर भी हम पहले लिख चुके हैं। सूतसंहिता को इन्होंने छठी शताब्दी की रचना माना है। शिवज्ञानबोध की गणना यहाँ आगमों में की गई है, जो कि उचित नहीं है। यहाँ के श्लोक रौरवागम से लिये गये बताये जाते हैं, किन्तु शैवागमों के प्रथित विद्वान् डॉ. एन.आर. भट्ट का कहना है कि रौरवागम की किसी भी उपलब्ध पाण्डुलिपि में ये श्लोक उपलब्ध नहीं होते। आगमों की रचना पहले संस्कृत में हुई या द्रविड़ भाषा में, इस पर भी डॉ. दासगुप्त ने विचार किया है। श्रीकण्ठ के ब्रह्मसूत्रभाष्य और उस पर लिखी गई अप्पय दीक्षित की शिवार्कमणिदीपिका व्याख्या पर भी इन्होंने अच्छा प्रकाश डाला है। पाशुपतसूत्र और कौण्डिन्यभाष्य का परिचय देने के बाद इन्होंने अपना मत भी दिया है, जिसका कि प्रत्येक लेखक को अधिकार है। वीरशैव मत के साथ इन्होंने श्रीपति पण्डिताराध्य के श्रीकर-भाष्य का भी परिचय दिया है। TH

शैवमत

डॉ. यदुवंशी के शैवमत नामक ग्रन्थ का भी हम यहाँ समावेश कर सकते हैं, किन्तु यहाँ पाशुपत मत पर विशेष कुछ नहीं लिखा गया है। सभी भेदों-उपभेदों को शैव मत नाम देकर सिन्ध-सभ्यता. आर्य-संस्कति जैसे पाश्चात्य दष्टिकोण के आधार पर कल्पित विषयों पर विचार कर यहाँ वैदिक संहिता, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, भक्तिवाद, सूत्र-ग्रन्थ, रामायण, महाभारत आदि के प्रमाण से शैव मत की प्राचीनता सिद्ध करने का इन्होंने स्तुत्य प्रयास किया है। शाक्त परम्परा का विकास, दक्षिण और उत्तर का शैव मत जैसे विषयों पर इन्होंने पाश्चात्य दृष्टिकोण का ही समर्थन किया है। इस ग्रन्थ की विशेषता इसमें है कि यहाँ वैदिक वाङ्मय तथा रामायण, महाभारत, पुराण आदि के सन्दर्भो का विभिन्न परिशिष्टों में समावेश कर दिया गया है। राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर द्वारा प्रकाशित हिन्दी अनुवाद, सन् १६७५ २. फ्रेंच इंस्टीटचूट, पांडिचेरी द्वारा सन् १६७२ में प्रकाशित रौरवागम के द्वितीय भाग का संस्कृत उपोद्घात (पृ.२०-२१) देखिये। ३. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना द्वारा सन् १८५५ में प्रकाशित तथा डॉ. यदुवंशी द्वारा रचित हिन्दी ग्रन्थ। १३४ से हारीतन्त्रागम-खण्ड

शैवदर्शनबिन्दु

संस्कृत भाषा में लिखे इस ग्रन्थ में शैव दर्शन के दस भेदों का संक्षिप्त परिचय देकर डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने द्वैत, द्वैताद्वैत और अद्वैत सिद्धान्तों के प्रतिपादक विभिन्न शैव सम्प्रदायों, उनके ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के अतिरिक्त इन दार्शनिक सिद्धान्तों पर भी प्रामाणिक प्रकाश डालकर अपनी तुलनात्मक समीक्षाएँ भी प्रस्तुत की हैं। इन्होंने पाशुपत मत को भी द्वैत और द्वैताद्वैत सिद्धान्त में विभक्त कर दिया है और कहा है कि इसमें द्वैत पाशुपत मत का परिचय देना थोड़ा कठिन है। लकुलीश पाशुपत मत को इन्होंने द्वैताद्वैतपरक सिद्ध किया है। इसकी हमें परीक्षा करनी होगी। वैसे यहाँ ग्रन्थकार को द्वैत मत से श्रीकण्ठनाथ प्रवर्तित पाशुपत मत और द्वैताद्वैत मत से लकुलीश प्रवर्तित पाशुपत मत अभिप्रेत है। इन दोनों मतों का हम ऊपर तन्त्रालोक के प्रमाण से परिचय दे चुके हैं। द्विविध पाशुपत मत के सिद्धान्तों से सिद्धान्त शैवों के मत की भिन्नता और अर्वाचीनता पर भी ऊपर विचार किया जा चुका है। अतः श्रीकण्ठ प्रवर्तित पाशुपत मत पर इनके प्रभाव की बात स्वीकार नहीं की जा सकती। पत्यधिकरण में द्वैतवादी श्रीकण्ठ प्रवर्तित पाशुपत मत की समालोचना की गई है, इस उक्ति की भी हमें परीक्षा करनी होगी। द्वैतवादी सिद्धान्त शैव मत भी श्रीकण्ठ प्रवर्तित ही माना जाता है। यह घालमेल ही इस उक्ति का प्रवर्तक तत्त्व हो सकता है। TRI

आगममीमांसा

इसी प्रसंग में हम अपने संस्कृत ग्रन्थ आगममीमांसा का भी उल्लेख कर देना चाहते हैं। इस ग्रन्थ में पांचरात्र और पाशुपत मत की प्राचीनता को स्थापित करते हुए अन्य सम्प्रदायों पर पड़े इनके प्रभाव की परीक्षा की गई है। लकुलीश पाशुपत मत और पाँच स्रोतों में विभक्त शैवागमों का परिचय देते हुए चतुर्विध शैवों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर यहाँ २८ द्वैतवादी शैवागमों के प्रादुर्भाव और प्रसार पर विचार किया गया है। सिद्धान्त शैव मत के १८ पद्धतिकारों का उल्लेख कर यह स्थापित किया गया है कि इस मत की उद्भवस्थली मध्यदेश है, न कि दक्षिण भारत। शैवागमों के अतिरिक्त यहाँ वैष्णवागमों और शाक्तागमों के ग्रन्थ-ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक परिचय के साथ इनके सिद्धान्तों का भी संक्षेप में परिचय दिया गया है।

हिस्ट्री आफ शैव कल्ट्स इन नार्दर्न इण्डिया

चार शैव सम्प्रदायों की चर्चा करते हुए यहाँ पाशुपत, कापालिक, कालानन और सिद्धान्त शैव मत का अच्छा परिचय दिया गया है। वाम और भैरव मत को यहाँ कापालिक मत के साथ जोड़ दिया गया है, जो कि ठीक नहीं है। यहाँ श्रीकण्ठ को व्यक्तिविशेष मानकर उनको पाशुपत मत का प्रवर्तक माना गया है। इस मत से अन्य विद्वान सहमत नहीं हैं। श्रीकण्ठ के प्रसंग में आठ विद्येश्वरों में प्रथम १. डॉ. कान्तिचन्द्र पांडेय द्वारा लिखित यह संस्कृत भाषा का ग्रन्थ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से सन् १९६८ में प्रकाशित हुआ है। २. पं. व्रजवल्लभ द्विवेदी द्वारा लिखित यह संस्कृत भाषा का ग्रन्थ श्री लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय किसी संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली से सन् १६८२ में प्रकाशित हुआ है। ३. डॉ. वी.एस. पाठक, अविनाश प्रकाशन, इलाहाबाद, सन् १९८०पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत श्रीकण्ठ को उद्धृत करने का और श्रीकण्ठीसंहिता से इनका सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास भी उचित नहीं माना जा सकता। शिलालेखों के प्रमाण से लकलीश का और उनकी शिष्य-परम्परा का प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया गया है। शिष्यों की परम्परा में शिलालेखीय प्रमाणों के अभाव में मैत्रेय की परम्परा का उल्लेख नहीं है और उसके स्थान पर अनन्त गोत्र की परम्परा निर्दिष्ट है। पाशुपतों की नामावली में यहाँ गोरक्ष का भी नाम है। इस विषय पर अभी बहुत कुछ काम करना बाकी है। हमारा सुझाव है कि नाथ-परम्परा पर लकुलीश पाशुपत मत की परम्परा के प्रभाव की खोज होनी चाहिये। एकलिंगमाहात्म्य और वहाँ के आचार्यों की परम्परा में नाथ सम्प्रदाय का वर्चस्व अब पूरी तरह से स्थापित हो चुका है। कापालिक मत के साथ यहाँ सोमसिद्धान्त, सिद्धमत, कौलमत और कालानन सम्प्रदाय का भी उल्लेख किया गया है। इस सम्बन्ध में भी अभी पर्याप्त गवेषणा अपेक्षित है। सिद्धान्तशैव मत के प्रसंग में यहाँ आमर्दक आदि मठों का, उनके आचार्यों का तथा उनके प्रतिपालक राजवंशों का प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः इन्हीं आचार्यों के प्रयत्न से सिद्धान्तशैव मत का पूरे भारत में प्रसार हुआ। सिद्धान्त शैवागमों के विद्या (दर्शन), योग, क्रिया और चर्या नामक पादों के विषयों का परिगणन यहाँ किया गया है और अन्त में प्रथम परिशिष्ट में कलचुरी राजवंश के राजगुरुओं की परम्परा का प्रामाणिक इतिहास शिलालेखों के आधार पर दिया गया है। द्वितीय परिशिष्ट में स्मार्त पंचायतन पूजा का संक्षिप्त विवरण है। इस परम्परा का विस्तृत परिचय लेखक ने अपने दूसरे ग्रन्थ “स्मार्त रिलीजियस ट्रेडीशन"१ में दिया है। लेखक ने शिलालेखों की सामग्री की पुष्टि के लिये साहित्यिक प्रमाण भी दिये हैं। हम कह सकते हैं कि इस लघुकाय ग्रन्थ में लेखक ने शैवागमों की विभिन्न शाखाओं का प्रामाणिक परिचय देने का प्रयत्न किया है।

कापालिक्स एण्ड कालामुख्स

कापालिक और कालामुख सम्प्रदायों को अपने शोध का विषय बनाकर लेखक ने इस ग्रन्थ की रचना की है। उक्त दोनों सम्प्रदायों पर विस्तृत प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र ग्रन्थ है। यहाँ प्रारम्भ में चतुर्विध शैवों के सम्बन्ध में अच्छा विचार प्रस्तुत किया गया है और ग्रन्थ के अन्तिम भाग में प्रसंगवश कालामुख सम्प्रदाय के साथ वीरशैव मत की अनुस्यूतता स्थापित की गई है तथा लकुलीश पाशुपत मत का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है। ये लकुलीश को ही पाशुपत मत का प्रवर्तक मानते हैं और श्रीकण्ठ को केवल किंवदन्तीप्रसूत कहते हैं। लकुलीश की स्थिति ये चौथी शताब्दी में मानते हैं। इनके मत की समालोचना हम पहले ही कर चुके हैं।

मिडीवल रिलीजियस लिटरेचर इन संस्कृत

प्रसिद्ध भारतीय विद्याविद् डॉ. जे. गोण्डा के सम्पादकत्व में निकले भारतीय साहित्य के इतिहास का यह उन्हीं का लिखा हुआ १. कुसुमांजलि प्रकाशन, मेरठ, सन् १९८७ २. डॉ. डेविड एन. लोरेंजन, थामसन प्रेस, नई दिल्ली, सन् १६७२ मा पर मामा के ३. जे. गोण्डा, ओटो हारासोविट्ज, वीजबाडेन, जर्मनी, सन् १८७७६ कि सिर पनि १३६ तन्त्रागम-खण्ड एक खण्ड है। इसमें प्रधानतः वैष्णवागमों और शैवागमों का परिचय दिया गया है। शैवागमों के प्रसंग में यहाँ पाशुपतों और नाथ-योगियों का तथा दत्तात्रेय सम्प्रदाय एवं वीरशैव सम्प्रदाय का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इस प्रसंग में इन्होंने पाशुपत-सूत्रों और उसके कौण्डिन्य भाष्य का भी परिचय दिया है। लकुलीश का समय ये प्रथम शताब्दी ही मानते हैं। इन्होंने डॉ. लोरेंजन के पक्ष का उल्लेख नहीं किया और श्रीकण्ठ के विषय में भी ये अधिक स्पष्ट हैं। ऐसा लगता है कि इन्होंने इस प्रकरण को लिखने में डॉ. दासगुप्त का सहारा लिया है। एक टिप्पणी में यहाँ संस्कारकारिका को राशीकर-भाष्य की टीका बताया गया है, किन्तु इसके लिये कोई प्रमाण नहीं दिया। केवल छः पृष्ठों में यहाँ पाशुपत मत पर विचार किया गया है, किन्तु इन पृष्ठों पर दी गई टिप्पणियों का अपना महत्त्व है। हमें इनसे अनेक प्रकार की सूचनाएं मिलती हैं, जिनमें कि पाशुपत मत सम्बन्धी निबन्धों और उनके लेखकों की जानकारी उल्लेखनीय है। लकुलीश पाशुपत मत का परिचय देने के बाद ही इन्होंने नाथ योगियों का प्रकरण प्रारम्भ किया है। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, इन मतों की अनुस्यूतता पर प्रकाश डालने का कार्य अभी बाकी है।

डॉ. देवराज पौडेल

नेपाली विद्वान् डॉ. देवराज पौडेल ने छठी से बारहवीं शताब्दी तक के संस्कृत शिलालेखों का साहित्यिक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए संस्कृत भाषा में लिखे गये अपने शोधप्रबन्ध में शैव सम्प्रदाय के विभिन्न मतों के आचार्यों का भी परिचय दिया है। उसमें बताया गया है कि राजा हुविष्क की मुद्राओं में दण्डपाणि लकुलीश अंकित हैं। मथुरा स्तम्भ-प्रशस्ति का भी यहाँ उल्लेख है। गुजरात में उपलब्ध हुए एक शिलालेख में लकुलीश साक्षात् शिव ही माने गये हैं। राजस्थान के एकलिंग जी के मन्दिर में स्थित शिलालेख का आरम्भ “ॐ नमो लकुलीशाय” से होता है। विभिन्न शिलालेखों में उल्लिखित विनीतराशि, दानराशि, रत्नराशि आदि का, भावद्योत की गुरुपरम्परा का, जनकराशि, त्रिलोचनराशि, वसन्तराशि आदि का, भावतेज, भावब्रह्म और रुद्रराशि का नामोल्लेख करते हुए डॉ. पौडेल का कहना है कि इन पाशुपताचार्यों की परम्परा छठी से बारहवीं शताब्दी तक अविच्छिन्न रूप से मिलती है। इन आचार्यों के साथ जुड़े हुए पांचार्थिक शब्द की भी यहाँ व्याख्या की गई है। इसी प्रसंग में इन्होंने अन्य शैव मत के आचार्यों की परम्परा का भी परिचय दिया है। डॉ. पौडेल के उक्त ग्रन्थ में हमें इन सब विषयों का अधिक प्रामाणिक रूप में विस्तार से वर्णन मिलता है।

कालामुख एवं कापालिक मत

शिवपुराण, वामनपुराण, जैनाचार्य गुणरत्नकृत षड्दर्शनसमुच्चयटीका, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य की भामती टीका, ब्रह्मसूत्र के अन्य भास्कर, रामानुज आदि के भाष्य, यामुनाचार्यकृत १. इस शोधप्रबन्ध पर विद्वान् लेखक ने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से विद्यावारिधि उपाधि प्राप्त की है। यह ग्रन्थ अधुनावधि अप्रकाशित है। १३७ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत आगमप्रामाण्य आदि में चतुर्विध शैव मतों का उल्लेख मिलता है। यहाँ इनके नामों के अनेक पाठान्तर मिलते हैं। उन सबका सिद्धान्त शैव, पाशुपत, कालामुख और कापालिक विभाग में समावेश किया जा सकता है। हमारी “तन्त्रयात्रा” में संगृहीत दो निबन्धों में, डॉ. वी. एस. पाठक के ग्रन्थ “हिस्ट्री आफ शैव कल्ट्स इन नार्दर्न इण्डिया” तथा डॉ. डेविड एन. लोरेंजन के ग्रन्थ “दि कापालिक्स एण्ड कालामुख्स" में इनका विस्तार देखा जा सकता है। यों प्रायः शैवागम सम्बन्धी ऊपर प्रदर्शित सभी आधुनिक ग्रन्थों में इन चारों सम्प्रदायों की थोड़ी बहुत चर्चा मिलती ही है। __डॉ. दासगुप्त ने भी अपने विशाल ग्रन्थ के पाँचवें खण्ड के पहले अध्याय में इस विषय पर पर्याप्त लिखा है। शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्रभाष्य (२.२.३७) का उल्लेख कर वे कहते हैं कि यहाँ शंकर ने ‘सिद्धान्त’ नामक ग्रन्थों के मतों के सम्बन्ध में लिखा है। किन्तु ऐसा कोई शब्द शांकर भाष्य में नहीं मिलता। वहाँ ‘माहेश्वराः’ शब्द प्रयुक्त है और टीकाकारों ने इस शब्द की व्याख्या में चार शैव मतों की चर्चा की है। अन्य भाष्यकार भी ऐसी ही व्याख्या करते हैं। डॉ. दासगुप्त आगे वाचस्पति मिश्र, सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह और रामानुज के ब्रह्मसूत्रभाष्य को उद्धृत कर कहते हैं कि कालामुख और कापालिक सम्बन्धी वर्णन हमें कहीं नहीं मिलते। बाद में वे भवभूति के मालतीमाधव और आनन्दगिरि के ग्रन्थ को उद्धृत कर दो प्रकार के कापालिकों का परिचय देते हैं। इसी प्रसंग में वे अथर्ववेद के व्रात्यों का भी उल्लेख करते हैं। वे डॉ. आर.जी. भाण्डारकर के मत का खण्डन भी करते हैं। कापालिकों और कालामुखों के सम्बन्ध में अपनी बात को पुनः दुहराने के बाद डॉ. दासगुप्त पाशुपत मत का और योगाचार्यों का परिचय देते हैं। इस बीच इन्होंने मेयकंडदेव के शिवज्ञानबोध और शैव सिद्धान्त का भी उल्लेख किया है। पाशुपतों के प्रसंग में वे वीरशैवों की भी चर्चा करते हैं। यह सब विवरण पुराना तो पड़ ही गया है। पूरी तरह से भ्रामक और अस्तव्यस्त भी है। विभिन्न मतों को एक दूसरे में मिला दिया गया है। शैवागमों का रचनाकाल ये दूसरी-तीसरी शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक मानते हैं। इनका विचार है कि कौण्डिन्य-भाष्य में इन्हीं आगमों के वचन उद्धृत हैं। दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि आगमों में पाशुपत-सूत्रों और कौण्डिन्य-भाष्य का उल्लेख है (पृ.१६)। इनका यह भी सोचना है कि आगम पहले द्रविड भाषा में लिखे गये थे। बाद में उनका संस्कत स्वरूप तैयार हुआ। सुतसंहिता को ये छठी शताब्दी की रचना बताते हैं। शिवज्ञानबोध की किसी टीका के अनुसार शैव मत के छः और सोलह भेदों की भी इन्होंने चर्चा की है। सिद्धान्तशैव दर्शन का परिचय इन्होंने भोजदेव और उसके टीकाकार कुमारदेव के आधार पर (१५०-१६२) दिया है। इसकी समालोचना हम अन्यत्र’ १. देखिये -“शिवपुराणीयं दर्शनम्’ (पृ. ५०-५८) तथा “कालवदनः कालदमनो वा” (पृ.६२-६३) शीर्षक निबन्ध। चय २. अष्टप्रकरण का उपोद्घात (पृ. १६-२०) द्रष्टव्य। कला मह निक १३८ सनीयतन्त्रागम-खण्डमा कर चुके हैं। शिवधर्मोत्तर के एक वचन के प्रमाण से ये सिद्ध करते हैं कि शिवागम संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में थे, किन्तु यहाँ उक्त वचन का इन्होंने गलत अर्थ किया है। । हमने आगममीमांसा (पृ. ५५) में मैत्र्युपनिषत, याज्ञवल्क्यस्मृति, ललितविस्तर और गाथासप्तशती के वचनों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि काषाय वस्त्र, त्रिदण्ड, खट्वांग आदि का धारण और भस्मोद्धूलन आदि विधियाँ लकुलीश के प्रादुर्भाव से पहले भी श्रीकण्ठ प्रवर्तित पाशुपत मत में प्रचलित थीं। धम्मपद (१४१ गाथा) में भी भस्मोद्धूलन विधि का उल्लेख है। गाथासप्तशती के वचन से यह भी ज्ञात होता है कि कापालिक दीक्षा में स्त्रियों का भी अधिकार मान्य था। वराहमिहिर की बृहत्संहिता और बृहज्जातक की टीकाओं में, हर्षचरित, कादम्बरी, दशकुमारचरित, मालतीमाधव, कथासरित्सागर, यशस्तिलकचम्पू, मत्तविलासप्रहसन, कर्पूरमंजरीसट्टक, नलचम्पू, प्रबोधचन्द्रोदय नाटक आदि में वर्णित कापालिक मत का स्वरूप कुल, कौल, क्रम, मत और त्रिक सम्प्रदायों में प्रतिपादित रहस्य-विधियों से ही नहीं, बौद्ध तन्त्रों में वर्णित इस तरह की विधियों से भी बहुत कुछ मिलता-जुलता है। डॉ. आर.जी. भाण्डारकर’ ने जिन तीन शक्ति-तत्त्वों का उल्लेख किया है, वे सब उक्त शैव और बौद्ध तन्त्रों में भी उपलब्ध हैं। लकुलीश पाशुपत और कापालिक मतों की आजकल दक्षिण और वाम नाम से प्रसिद्ध तन्त्रों के उद्भव और विकास में क्या भूमिका रही, इस विषय पर गंभीरता से विचार होना चाहिये। हि प्रवक्ता के दसवीं शताब्दी के आसपास कर्णाटक राज्य में कालामुख सम्प्रदाय की प्रवृत्ति के प्रमाण शिलालेखों में मिलते हैं। इसके स्थान पर आजकल वहाँ वीरशैव सम्प्रदाय प्रतिष्ठित है। यामुनाचार्य द्वारा वर्णित कालामुख सम्प्रदाय के स्वरूप से यह भिन्न है। हम समझते हैं कि सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार उसमें परिवर्तन हुआ। वीरशैव मत पर अलग से निबन्ध लिखवाया गया है। अतः हम यहाँ उसकी चर्चा छोड़कर यामुनाचार्य द्वारा आगमप्रामाण्य (पृ. ६३-६४) में वर्णित कापालिक और कालामुख सम्प्रदाय का स्वरूप प्रदर्शित कर रहे है, क्योंकि इन दोनों सम्प्रदायों का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ हमें अभी तक नहीं मिला। राध कापालिक मत में छः प्रकार की मुद्राओं के विज्ञान से और उनको धारण करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है, ब्रह्म की अवगति (ज्ञान) से नहीं। छ: प्रकार की मुद्राओं के तत्त्व को जानने वाला, पर-मुद्रा में विशारद व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। कर्णिका, डॉ. भाण्डारकर ने शक्ति के सौम्य, प्रचण्ड और कामप्रधान रूपों की चर्चा अपने उक्त ग्रन्थ में शाक्त सम्प्रदाय का परिचय देते समय की है। द्रष्टव्य, पृ. १६५ (हिन्दी संस्करण)। दक्ष और वाम शब्द की प्रवृत्ति प्रधानतः शिव के दक्षिण मुख से निकले भैरव तन्त्रों के लिये तथा वाम मुख से निकले शक्तिप्रधान तन्त्रों के लिये की गई है। सव्य और अपसव्य क्रम से की जाने वाली पूजाविधि के अतिरिक्त पूजा के उपादानों में इन दोनों मतों में कोई अन्तर नहीं है। वर्तमान समय में दक्षिण क्रम में सौम्य उपादानों का और वाम क्रम में उग्र और काम प्रधान रूपों का उपयोग मान्य है। शब्दों के इस परिवर्तित अर्थ की ओर ही ऊपर इंगित किया गया है। पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत १३६ रुचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म और यज्ञोपवीत—ये ही छः मुद्राएं कही जाती हैं। उपमुद्रा में कपाल और खट्वांग परिगृहीत हैं। इन मुद्राओं को धारण करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता, अर्थात् वह मुक्त हो जाता है। वि कालामुख सम्प्रदाय के अनुयायी मानते हैं कि समस्त शास्त्र-निषिद्ध कपालपात्र में भोजन, शवभस्म से स्नान तथा उसका प्राशन, लगुडधारण, सुराकुंभस्थापन, उस कुंभ में देवताओं का अर्चन आदि विधियों से ही समस्त दृष्ट और अदृष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती रामानुजाचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र के अपने श्रीभाष्य में कापालिक और कालामुख सम्प्रदाय का इसी रूप में वर्णन किया है। सम्भवतः इसी प्रकार की आलोचना से आन्दोलित होकर कर्णाटक राज्य में सिद्धान्त शैवागमों के आधार पर कालामुख सम्प्रदाय के संशोधित स्वरूप वीरशैव सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा हुई हो, यद्यपि इस सम्प्रदाय की लिंगधारण आदि विधियाँ हमें मोहेंजोदड़ो के काल तक ले जाती हैं। इस प्रसंग में हम उस समय वहाँ प्रचलित जैन सम्प्रदाय की सत्ता को भी नहीं भुला सकते। कापालिक और कालामुख सम्प्रदाय का परिचय डॉ. डेविड एन. लोरेंजन ने “दि कापालिक्स एण्ड कालामुख्स" नामक अपने ग्रन्थ में बड़े परिश्रम से प्रस्तुत किया है। उसको हम पूरी परीक्षा के बाद ही ग्रहण कर सकते हैं। लकुलीश से प्राचीन पाशुपत मत की सत्ता को मानने के लिये वे तैयार नहीं हैं। लकुलीश को भी वे उतना प्राचीन नहीं मानते, जितना कि डॉ. आर.जी. भाण्डारकर आदि ने उनको बताया है। उनकी ये सारी उक्तियाँ पाश्चात्य विद्वानों के विशेष कर इंग्लिश मूल के विद्वानों के एक पूर्व निर्धारित निश्चित लक्ष्य को, उनकी मानसिक रुग्णता को उजागर करती हैं। वस्तुतः लकुलीश पाशुपत यह नाम ही इससे प्राचीन पाशुपत मत की सत्ता को स्वीकार करता है। यह शोचनीय स्थिति है कि इस तरह के विद्वानों के अनुकरण पर कुछ भारतीय विद्वान् भी अपनी पूरी परम्परा पर बिना ध्यान दिये भारतीय विद्या के प्रत्येक क्षेत्र में विदेशी प्रभाव को खोजने में अधिक परिश्रम करते हैं। यह भारतीय मनीषा का आत्मसमर्पण ही तो है। माना | वामनपुराण (६.८६-६१) में शैवों के चार भेदों को चार वर्षों से जोड़ा गया है और उनमें से प्रत्येक मत के प्रवर्तक दो-दो आचार्यों के नाम दिये गये हैं। वहाँ बताया गया है कि वसिष्ठ के पुत्र शक्ति शैवमत के प्रवर्तक थे और उनके शिष्य का नाम गोपायन था। इसी तरह से भारद्वाज पाशुपत मत के प्रवर्तक थे और राजा ऋषभ सोमकेश्वर उनके शिष्य थे। कालामुख सम्प्रदाय के प्रवर्तक कालास्य आपस्तम्ब थे और वैश्य क्राथेश्वर उनके शिष्य थे। कापालिक मत के प्रवर्तक महाव्रती धनद (कुबेर) थे और उनके शूद्र जाति के शिष्य का नाम ऊर्णोदर था। ‘वामनपुराण के इन श्लोकों को उद्धृत कर हमने “सारस्वती सुषमा" १. वामनपुराण में ही अन्यत्र (६७.१-२०) शैव, पाशुपत, कालामुख, महाव्रती, निराश्रय और महापाशुपत नामक छ: शैव-भेदों का उल्लेख है। १४० नातन्त्रागम-खण्ड (व.१६, अ.४, संवत् २०२१) में छपे “कालवदनः कालदमनो वा" शीर्षक लघुकाय निबन्ध में चार निष्कर्ष निकाले थे। डॉ. लोरेंजन की उक्त पुस्तक’ में उनका उल्लेख न हो, यह तो स्वाभाविक है, किन्तु अन्य किसी भारतीय विद्वान् की भी इस विषय में कोई टिप्पणी देखने को नहीं मिली। हो सकता है, संस्कृत में निबन्ध होने के कारण ऐसा हुआ हो। सन् १९६८ में प्रकाशित हमारे नित्याषोडशिकार्णव के प्रथम संस्करण के परिशिष्ट में योगी अमृतानन्द का सौभाग्यसुधोदय छप चुका था और उसके उपोद्घात में हमने लिखा था कि कश्मीर से छपा षट्त्रिंशत्तत्त्वसंदोह अमृतानन्द के इस ग्रन्थ का एक अंशमात्र है। हमने देखा है कि इस सूचना के छपने के बीस वर्ष बाद भी क्षेमराज के स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में ही इसका उल्लेख किया जाता है, जैसा कि सन् १६१४ ई. में छपे श्री जगदीशचन्द्र चटर्जी के “कश्मीर शैविज्म’ नामक ग्रन्थ में उसका परिचय दिया गया था। इसके विपरीत इसी ग्रन्थ के विस्तृत संस्कृत उपोद्घात के आधार पर लेखक का यूरोप के विद्वानों से सम्पर्क हो सका और वह सम्पर्क यूरोप यात्रा के रूप में प्रतिफलित हुआ। अस्तु. लिखने का तात्पर्य इतना ही है कि हमें उक्त चारों शैव मतों के प्रवृत्ति के बीजों को खोजते समय ऊपर प्रदर्शित प्रथम चार नामों की न सही, किन्तु दूसरे नम्बर के नामों - गोपायन, ऋषभ सोमकेश्वर, क्राथेश्वर और ऊर्णोदर की परीक्षा अवश्य करनी होगी, पुराण और आगम वाङ्मय में और कथासाहित्य में इन नामों की धैर्यपूर्वक खोज करनी होगी। उसके बाद ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। कालामुख सम्प्रदाय से सम्बद्ध कालास्य आपस्तम्ब कृष्ण यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो कि द्रविड देश में प्रचलित वेद की एक लोकप्रिय शाखा है। इनका कालास्य या कालबदन होना स्वाभाविक है। पुराण साहित्य में विशेष कर दक्षिण भारत में प्रचलित कथासाहित्य में इस नाम की भी खोज करनी होगी। इसी तरह से शिलालेखों में कुबेर की सुराप्रिय देवता के रूप में स्तुति मिलती है। इन सब सूचनाओं की हम उपेक्षा नहीं कर सकते।

  • अपनी उक्त पुस्तक में डॉ. लोरेंजन ने कापालिक सम्प्रदाय का (पृ. १३-६५) विस्तृत परिचय दिया है। प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य में इस मत की कहां कहां किस रूप में चर्चा आई है, इसको विस्तार से बताते हुए इन्होंने उन शिलाशासनों की भी चर्चा की है, जहां कि इस मत का उल्लेख है। आगे शंकराचार्य और कापालिक, शंकर और उग्रभैरव, शंकर और क्रकच अथवा बोधोल्बण नित्यानन्द, शंकर और उन्मत्तभैरव जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत शंकराचार्य का कापालिक मत और कापालिकों से हए विवादों का वर्णन है। विद्वान् लेखक ने संस्कृत नाटकों में निर्दिष्ट कापालिक मत पर भी अपनी पैनी दृष्टि डाली है और अन्त में अन्य सामान्य सामग्री प्रस्तुत की है। अपने ग्रन्थ के तीसरे अध्याय में इन्होंने कापालिक पूजापद्धति और सिद्धान्तों का परिचय दिया है। इस प्रकार कापालिक १. डॉ. लोरेंजन की उक्त पुस्तक (पृ. ११-१२) में यह विषय उल्लिखित है, लेकिन वहाँ उक्त निबन्ध पर उन्होंने अपना कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया। पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत १४१ मत का विस्तृत परिचय देने के बाद यहाँ कालामुख सम्प्रदाय का परिचय दिया गया है (पृ. ६७-१७२)। सा यहां कालामुख सम्प्रदाय की शाक्त परिषद् और सिंह परिषद् का तथा कर्णाटक राज्य के विभिन्न जनपदों से प्राप्त शिलालेखों के आधार पर इस मत के आचार्यों का परिचय दिया गया है। प्रसंगवश हमें जगह जगह लाकुल (लकुलीश) सम्प्रदाय की चर्चा मिलती है। इसकी भी सूचना मिलती है कि कालामुख सम्प्रदाय का उद्भव कश्मीर में हुआ होगा, किन्तु काश्मीरी ग्रन्थों में हमें इस तरह का कोई उल्लेख नहीं मिलता। कालामुख सम्प्रदाय के विषय में अभी हम निश्चयपूर्वक इतना ही कह सकते हैं कि कर्णाटक राज्य में कन्नड़ लिपि में लिखे ११ वीं-१२ वीं शताब्दी के शिलालेखों में इस मत के आचार्यों, सिद्धान्तों और पूजापद्धति का थोड़ा-बहुत परिचय मिलता है, जो कि लकुलीश द्वारा प्रवर्तित पाशुपत मत से बहुत कुछ जुड़ा हुआ लगता है। पनी म विद्वानों का मानना है कि यह कालामुख सम्प्रदाय अन्ततः उस वीरशैव मत में अन्तर्लीन हो गया, जो कि आजकल उसी प्रदेश में प्रचलित है, जहां कि पहले यह सम्प्रदाय फैला हुआ था। कालामुख सम्प्रदाय के अनेक मठ अब वीरशैव मत में अंगीकृत हो चुके हैं। इस वीरशैव मत की प्रकृति यामुनाचार्य द्वारा वर्णित कालामुख सम्प्रदाय से भिन्न है। हम समझते हैं कि सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार उसमें परिवर्तन हुआ। इसकी पृष्ठभूमि में हमें लकुलीश पाशुपत मत और कर्णाटक में उस समय और आज भी विद्यमान जैन मत के सिद्धान्तों और इनके अनुपालक आचार्यों की गतिविधियों का सूक्ष्म ऐतिहासिक पर्यवेक्षण करना होगा। विशेष रूप से यह भी ध्यान देने की बात है कि कालामुख, वीरशैव और जैन मत के सिद्धान्तों और इनके अनुपालक आचार्यों की गतिविधियों का सूक्ष्म ऐतिहासिक पर्यवेक्षण करना होगा। विशेष रूप से यह भी ध्यान देने की बात है कि कालामुख, वीरशैव और जैन मत प्रधानतः व्यापारी वर्ग से जुड़ा हुआ है। ऊपर जिन छ: कापालिक मद्राओं की चर्चा की गई है, वे बौद्ध तन्त्रों में भी वर्णित हैं। यज्ञोपवीत को हटाकर पंचमुद्रा पक्ष भी वहां वर्णित है। नाथ सम्प्रदाय में आज भी इनको देखा जा सकता है। इन सभी में काय-पूजा का विधान मिलता है। घृणा, शंका, लज्जा, जातिग्रह आदि को यहां पाश माना जाता है। विधिनिषेध, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, गम्यागम्य आदि को ये दुराग्रह मानते हैं। आजकल के अघोरी सम्प्रदाय से हम इन सबकी तुलना कर सकते हैं। वे इस शरीर की ही पूजा करने का उपदेश करते हैं और इस पूजा में वे रत्नपंचक (तन्त्रा. वि. २६.२००) अथवा द्रव्य-द्वादशक (तन्त्रा. वि. २६.१७) का उपादान करते हैं। बौद्ध तन्त्रों में वर्णित गोकुदहन नामक समयपंचक और नवद्वार निर्गत द्रव्यों से ये भिन्न नहीं हैं, जो कि वहां कायपूजा के बाह्य और आन्तर उपादान माने गये हैं। इनके अनुसार पीठ, उपपीठ आदि की स्थिति साधक के शरीर में ही है, अतः बाह्य तीर्थाटन आदि अनावश्यक हैं। ये जड़ पाषाण, पट आदि की बनी मूर्तियों और चित्रों आदि की न्त्रागम-खण्ड १४२ तन्त्रागम-खण्ड अपेक्षा इस शरीर में स्थित स्वात्मचैतन्य या अद्वय महासुख की उपासना को वरीयता देते हैं। शब्दों का भेद होने पर भी युगनद्धक्रम अथवा यामलसाधना का क्रम एक ही जैसा है। अन्त्यजा-साधन अथवा दूतीयाग की पद्धति में कोई अन्तर नहीं है। सामरस्य, समरसता, आनन्द आदि शब्दों का प्रयोग सर्वत्र है। स्वयम्भू-कुसुम, बोल-कक्कोल, कुण्ड-गोलक, बोधिचित्त आदि शब्द एक ही अभिप्राय को व्यक्त करते हैं। “पतिते बोधिचित्ते” (गुह्यसिद्धि, ८.३८) और “मरणं बिन्दुपातेन” (हठयोगप्रदीपिका, ३.८८) दोनों का एक ही अभिप्राय है। माना # मन्त्रयान या तन्त्रवाद में रहस्यवाद के प्रवेश के विषय में विद्वानों ने पर्याप्त विचार किया है। सिन्धु-सभ्यता के अवशेषों में हमें ऊर्ध्वलिंगी मुद्राएं मिलती हैं। “एनल्स आफ भाण्डारकर इंस्टीटचूट" के किसी अंक में इनका सचित्र विवरण प्रकाशित हुआ है। नेत्रतन्त्र (मृत्युंजयभट्टारक) के E-१२ अधिकारों में वाम, दक्षिण, कौल आदि तन्त्रों की पूजाविधि के प्रतिपादन के बाद १३ वें अधिकार में वैष्णव, सौर और बौद्ध तन्त्रों की पूजाविधि के साथ शैव मत के अनुसार विश्वरूप की पूजाविधि बताई गई है। पाशुपत मत की नई शाखा के प्रवर्तक लकुटधारी न(ल)कुलीश की मूर्तियों में उनको ऊर्ध्वलिंगी अंकित किया गया है। अभिनवगुप्त के अनुसार लकुलीश के मत में मनुष्य के शरीर में सभी देवता निवास करते हैं। लकुलीश का आविर्भाव-काल डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ई. दूसरी शताब्दी बताते हैं। कौल सम्प्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ का समय इनके अनुसार पांचवी-छठी शताब्दी है। हम मान सकते हैं कि कायपूजा का सिद्धान्त लकुलीश सम्प्रदाय द्वारा इदम्प्रथमतया प्रवर्तित हुआ है हम वैदिक वाङ्मय में भी हमें हिंसाप्रधान यज्ञों के साथ ही सौत्रामणी याग में सुरापान का विधान भी मिलता है। ऋग्वेद (७.२१.५; १०.६६.३) में शिश्नदेवों का उल्लेख है। “न काञ्चन परिहरेत् तद् व्रतम्" (२.१३.२) यह छान्दोग्य उपनिषद् का वाक्य है। “यदेतत् स्त्रियां लोहितं भवत्यग्नेस्तद्रूपम्। तस्मात् तस्मान्न बीभत्सेत। अथ यदेतत् पुरुषे रेतो भवत्यादित्यस्य तद्रूपम्। तस्मात् तस्मान्न बीभत्सेत" (२.३.७) यह ऐतरेयारण्यक का वाक्य है। “न पद्माङ्का न चक्राङ्का न वज्राङ्का यतः प्रजा। लिङ्गाङ्का च भगाङ्का च तस्मान्माहेश्वरी प्रजा।।" (१४.२३३) यह महाभारत के अनुशासनपर्व का वचन है। बार डॉ. शान्तिभिक्षु शास्त्री ने ऊपर की छान्दोग्य श्रुति को उद्धृत किया है और लिखा है कि शंकराचार्य यहां “कामयमानाम्" विशेषण जोड़ते हैं (बोधिचर्यावतारभूमिका, पृ. १५)। यहाँ (पृ. १४-२६) शास्त्री जी ने बौद्ध धर्म में तान्त्रिक प्रवृत्तियों के प्रवेश और विकास पर विचार किया है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी “पुरातत्त्व निबन्धावली" में स्थित “वज्रयान और चौरासी सिद्ध” (पृ. १०६-१३०) शीर्षक निबन्ध में वज्रयान की उत्पत्ति के प्रसंग में नीलपट-दर्शन की चर्चा की है (पृ. ११८)। यशस्तिलकचम्पू के कर्ता सोमदेव नीलपट के एक श्लोक को उद्धृत करते हैं (भा.२, पृ. २५२)। डाँ. कृष्णकान्त हांडीकी “यशस्तिलक एण्ड इण्डियन कल्चर” (पृ.४४१) में सदुक्तिकर्णामृत में संगृहीत नीलपट के १४३ पाशुपत, कालामुख व कापालिक मत दूसरे श्लोक का उदाहरण देते हैं। वहीं वे भर्तृहरि के श्लोक को भी उद्धृत करते हैं। इन सबका अभिप्राय एक सरीखा है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के दिये गये कथानक का घटनाकाल वहां ५१५-५२५ ई. बताया गया है। कूर्मपुराण (२.२२.३५, २.३३.६०) नील और रक्त पट धारण करने वाले ब्राह्मण की निन्दा करता है। इतना सब कहने का अभिप्राय यह है कि ऊपर उद्धृत काव्य-साहित्य के ग्रन्थों में कापालिक मत का जो खाका खींचा गया है, उसके पर्याप्त बीज प्राचीन संस्कृति और साहित्य में मिल जाते हैं। श्रीकण्ठ-प्रवर्तित पाशुपत मत से सिद्धान्त शैव शाखा की और कापालिक मत से लकुलीश पाशुपत, कौल, क्रम, मत और कालामुख सम्प्रदायों की ही नहीं, बौद्ध तन्त्रों और सिद्ध-नाथ सम्प्रदायों की भी प्रवृत्ति कैसे हुई? इस पर अभी हमें पूरी तत्परता से कार्य करना होगा। सिद्धान्त शैव शाखा से विकसित त्रिक और वीरशैव मतों की समीक्षा भी हमें करनी होगी। इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि एकलिंगमाहात्म्य की भूमिका (पृ. ५३-५७) में निर्दिष्ट ओझा जी का मत ही सत्य के अधिक निकट है। भवभूति के मालतीमाधव नाटक से कापालिक मत का अच्छा परिचय मिलता है। अभिनवगुप्त के तन्त्रालोक (१३.१४६) में बताया गया है कि सोमानन्द, कल्याण, भवभूति आदि आचार्यों ने त्रीशिकाशास्त्र की व्याख्या की थी। परात्रीशिका कौलशास्त्र है। भवभूति का “ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञाम्” (१.८) यह प्रसिद्ध श्लोक मालतीमाधव का ही है। ऐसा उनको क्यों लिखना पड़ा? स्पष्ट है कि वे एक क्रान्तिकारी विचारक थे। कुछ ऐसी नई स्थापनाएं उन्होंने की थीं, जो कि तत्कालीन प्रबुद्ध समाज को मान्य नहीं थीं। वे स्थापनाएं क्या थीं? इसके लिये हमें उनके उपलब्ध तीनों नाटकों की इसी पृष्ठभूमि में पुनः समीक्षा करनी होगी। कापालिक और कौल मत का, विशेष कर इनके सामाजिक दृष्टिकोण का तभी सही विश्लेषण प्रस्तुत किया जा सकता है। उदाहरण के लिये उत्तररामचरित के चतुर्थ अंक के प्रारम्भ का “वराकी कपिला कल्याणी मडमडायिता” यह वाक्य प्रस्तुत किया जा सकता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि इसी प्रसंग में वे चन्द्रद्वीप तपोवन की भी चर्चा करते हैं, जो कि मत्स्येन्द्रनाथ की भी तपोभूमि है। शैव शास्त्रों में शिवसमता की प्राप्ति को ही मोक्ष माना गया है। सद्योज्योति शिवाचार्य की मोक्षकारिका और परमोक्षनिरासकारिका में तथा इन पर अघोरशिव एवं भट्ट रामकण्ठ कृत टीकाओं में एवं शिवाग्रयोगी की शैवपरिभाषा में शिवसमता की प्राप्ति के चार प्रकार बताये गये हैं - उत्पत्ति, संक्रान्ति आवेश और अभिव्यक्ति। इनमें अभिव्यक्ति पक्ष सिद्धान्त शैवों का, संक्रान्ति पक्ष पाशुपतों का, उत्पत्ति पक्ष कालामुखों का और आवेश पक्ष कापालिकों का माना गया है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम पक्ष में मोक्ष दशा में शिवसमता अभिव्यक्त होती है, दूसरे पक्ष में उस समय शिवसमता संक्रान्त होती है, तीसरे पक्ष के अनुसार तब समता उत्पन्न होती है और चौथे पक्ष में शिवसमता आविष्ट होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन चारों सम्प्रदायों में मुक्ति के स्वरूप के विषय में भी मतभेद हैं। १४४ तन्त्रागम-खण्ड शैवपरिभाषाकार ने कालामुखों के लिये महाव्रती शब्द का प्रयोग किया है। कालामुखों से सम्बद्ध शिलालेखों में भी उनके लिये यह शब्द प्रयुक्त है। इनके मत के अनुसार मोक्षदशा में शिवसमता उत्पन्न होती है। कापालिकों का वहां अलग से उल्लेख किया गया है, जबकि वामनपुराण के अनुसार महाव्रती ही कापालिक हैं। कापालिकों के मत में मोक्षदशा में शिवभाव आविष्ट होता है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में इसके स्थान पर समावेश शब्द प्रयुक्त है। इस पृष्ठभूमि में कापालिक मत हमारे लिये विशेष अवधेय हो उठता है। चौरासी सिद्धों में कृष्णपाद अपर नाम काङ्गपाद कापालिक के रूप में प्रसिद्ध हैं। बौद्ध सिद्धों में इनकी गिनती होती है। यह हम पहले बता चुके हैं कि कापालिकों के यहां छः मुद्राएं स्वीकृत हैं। ये ही छः मुद्राएं बौद्ध तन्त्रों में भी मान्य हैं। साधनामाला’ जैसे ग्रन्थों को इस प्रसंग में प्रस्तुत किया जा सकता है। दूसरी तरफ कापालिकों के आवेश पक्ष को, प्रत्यभिज्ञा दर्शन में समावेश के रूप में मान्यता मिली है। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बौद्ध तन्त्र और काश्मीरी त्रिक तन्त्रों पर समान रूप से कापालिकों का प्रभाव है। कायपूजा के बाह्य और आन्तर उपादानों के प्रसंग में इस प्रभाव को और भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अन्तर इतना ही है कि बौद्ध तन्त्र कापालिक मत के, अघोरी सम्प्रदाय के अधिक नजदीक है, जब कि त्रिक तन्त्र उससे कुछ हट चुके हैं और त्रिपुरा तन्त्रों में आते आते यह प्रभाव और भी क्षीण हो गया है। इसकी 3 कौल सम्प्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ माने जाते हैं। सिद्धों और नाथों की नामावली में इनका पहला नाम है। डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय ने मत्स्येन्द्रनाथ का आविर्भावकाल ई.५-६ शताब्दी माना है। हमने ऊपर देखा है कि नीलपट आदि के रूप में कौल उपादानों से हम परिचित होने लगते हैं। बौद्ध ग्रन्थ सुभाषितसंग्रह के सम्पादक प्रज्ञोपायविनिश्चयसिद्धि के लेखक अनंगवज्र को नूतनानंगवज्रपाद के नाम से संबोधित करते हैं और कहते हैं कि ये ही गोरक्ष हैं। इस पृष्ठभूमि में मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ को गुरु-शिष्य के रूप में प्रस्तुत करने वाले पूरे आधुनिक भारतीय वाङ्मय का हमें पुनः परीक्षण करना होगा। सिद्धों और नाथों की मूलतः एक ही परम्परा है या इनकी मान्यताएं प्रारम्भ से ही भिन्न हैं, इस पर भी हमें गंभीरता से विचार करना है। हम कापालिक मत में कौल सम्प्रदाय के बीजों को और लकुलीश पाशुपत मत के साथ कालामुख सम्प्रदाय और बौद्ध तन्त्रों की सेकयोग से भिन्न हठयोग की प्रक्रिया में नाथ सम्प्रदाय के सूक्ष्म बीजों को खोजने का प्रयत्न करें, तो इसके अच्छे परिणाम निकल सकते हैं। शोधकर्ताओं की इस ओर प्रवृत्ति हो, इसीलिये हमने यहां पाशुपत, कालामुख और कापालिक सम्प्रदायों को एक साथ पिरोने का प्रयत्न किया है।। १. देखिये-साधनमाला, पृ. ४८६। हेवजतन्त्र (१.३.१४) में पाँच मुद्राएं वर्णित हैं। २. सुभाषितसंग्रह, पृ. २७० देखिये। यह ग्रन्थ सन् १६०५ में पेरिस से छपा था। सम्पादक-सी. वेन्डेल । ३. प्रथमतः गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज, बड़ौदा से यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा संस्करण गुह्यादि-अष्टसिद्धि-संग्रह में हुआ। दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थ शोध योजना, केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, सन् १९८७.