०२ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य

पांचरात्र सिद्धान्त का सर्वांगीण तथा प्रामाणिक विवेचन यद्यपि विभिन्न पांचरात्र संहिताओं में प्राप्त हो जाता है, तथापि महाभारत के शान्तिपर्व के मोक्षधर्म पर्व का कुछ अपना ही वैशिष्ट्य है। इसे पांचरात्र सम्प्रदाय का प्राचीनतम प्रतिपादक-स्थल माना जाता है। सर्वप्रथम यहीं पर इस सम्प्रदाय का व्यापक और विशद प्रतिपादन उपलब्ध होता है। एक इतिहास ग्रन्थ होने के कारण महाभारत की मान्यता किसी सम्प्रदाय-विशेष तक ही सीमित नहीं है। पंचम वेद के रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण इसकी प्रामाणिकता सर्वमान्य है। सांख्य-योग आदि अत्यन्त प्राचीन दार्शनिक सम्प्रदायों के वर्णन के पश्चात् पांचरात्र सिद्धान्त का जो विस्तृत विवेचन यहाँ प्राप्त होता है, वह अध्ययन और अनुसन्धान की विविध दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः यह वर्णन उन-उन सिद्धान्तों के उस स्वरूप का स्मरण कराता है, जो आज अतीत के गर्भ में खो-सा गया है। यद्यपि शान्तिपर्व के इस वर्णन में सांख्य, योग आदि विभिन्न सम्प्रदायों की महिमा अनेक प्रकार से चर्चित और प्रपंचित हुई है, तथापि यहाँ उपलब्ध पांचरात्र सम्प्रदाय के प्रतिपादन की कुछ अपनी ही महत्ता और विलक्षणता है। अनेक अध्यायों में प्रपंचित पांचरात्र सम्प्रदाय के प्रतिपादन की केवल आकार की दृष्टि से ही महत्ता नहीं है, अपितु यहाँ प्रपंचित विषय भी अपनी ऐतिहासिकता, प्राचीनता तथा प्रामाणिकता की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मोक्षधर्म पर्व के तीन सौ चौतीसवें अध्याय से लेकर तीन सौ इक्यानवें अध्याय तक अट्ठारह अध्यायों में “नारायणीयोपाख्यान" उपनिबद्ध है। इसी में पांचरात्र सम्प्रदाय के आविर्भाव का, सम्प्रदाय तथा प्रतिपाद्य विषय का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। यही “नारायणीयोपाख्यान" सम्पूर्ण महाभारत का सार अथवा मुख्य प्रतिपाद्य है। महाभारत में स्पष्ट रूप से कहा गया इदं शतसहस्राद्धि भारताख्यानविस्तरात्। आमन्थ्य मतिमन्थेन ज्ञानोदधिमनुत्तमम्।। नवनीतं यथा दध्नो मलयाच्चन्दनं यथा। आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधीभ्योऽमृतं यथा। समुद्धृतमिदं ब्रह्मन् कथामृतमिदं तथा।।’ यह पांचरात्र सम्प्रदाय महाभारत का परम तात्पर्य होने के साथ ही साथ वेदमूलक भी है। पांचरात्र की वेदमूलकता का प्रतिपादन आगे यथा- अवसर किया जायगा। वेदों का अंग होने के कारण अथवा वेदों का परम प्रतिपाद्य होने के कारण इस पांचरात्र शास्त्र को १. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४३.११-१३ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य कहीं “महोपनिषत्” शब्द से, कहीं “पांचरात्रश्रुति" शब्द से, कहीं “पांचरात्रोपनिषत्" शब्द से निर्दिष्ट किया गया है। पांचरात्र के लिए “महोपनिषत्" संज्ञा का प्रयोग तो महाभारत में ही किया गया है इदं महोपनिषदं चतुर्वेदसमन्वितम्। छ सांख्ययोगकृतान्तेन पाञ्चरात्रानुशब्दितम् ।।’ कहीं-कहीं महाभारत के वचनों से ऐसी प्रतीति हो सकती है कि पांचरात्र सिद्धान्त भी उल्लिखित सांख्य, योग आदि अनेक सिद्धान्तों में एक है अथवा उनके समान ही कोई सिद्धान्त है, यथा - शिवाणयमा पा सांख्यं योगः पाञ्चरात्रं वेदारण्यकमेव च। अहिली ना ज्ञानान्येतानि ब्रह्मर्षे लोकेषु प्रचरन्ति ह।। २ जी इस प्रकार के कथनों से पांचरात्र की अन्य शास्त्रों के साथ समकक्षता अथवा समानता की ही प्रतीति होती है, किसी प्रकार की विशेषता, विलक्षणता अथवा श्रेष्ठता की नहीं। सभी शास्त्रों को समकक्ष नहीं रखा जा सकता है। भिन्न-भिन्न अर्थों का, कहीं-कहीं परस्पर-विरुद्ध अर्थों का प्रतिपादन करने वाले सभी शास्त्र समान रूप से प्रामाणिक तो हो नहीं सकते। कोई एक शास्त्र ही सर्वथा समंजस तथा निस्सन्दिग्ध अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण प्रामाणिक हो सकता है। अनेक प्रकार के शास्त्र तो मतिभ्रम ही उत्पन्न करते एकं यदि भवेच्छास्त्रं ज्ञानं निस्संशयं भवेत्। बहुत्वादिह शास्त्राणां ज्ञानतत्त्वं सुदुर्लभम्।। ३ अतः यदि पांचरात्र शास्त्र प्रमाण है, तो उसे अन्य सांख्य, योग आदि शास्त्रों से विशिष्ट तथा विलक्षण होना चाहिये। महाभारत के इसी शान्तिपर्व में अन्य शास्त्रों की अपेक्षा पांचरात्र शास्त्र के वैशिष्ट्य का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है । या सांख्यं योगः पाञ्चरात्रं वेदाः पाशुपतं तथा। नानी की ज्ञानान्येतानि राजर्षे विद्धि नानामतानिवै।। या इनका सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षिः स उच्यते। शान राशियों पर हिरण्यगर्भो योगस्य वेत्ता नाऽन्यः पुरातनः।। अपान्तरतमाश्चैव वेदाचार्यः स उच्यते। प्राचीनगर्भ तमृषि प्रवदन्तीह केचन ।। प्राणाया १. म.शा., ३३६, १११-११२ २. वहीं, ३४६, १ ३. पांचरात्ररक्षा, पृ. १५६ ६० तन्त्रागम-खण्ड उमापतिर्भूतपतिः श्रीकण्ठो ब्रह्मणः सुतः। उक्तवानिदमव्यग्रो ज्ञानं पाशुपतं शिवम्।। यानी पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वेत्ता तु भगवान् स्वयम्। प्रत सर्वेषु च नृपश्रेष्ठ ज्ञानेष्येतेषु दृश्यते।।’ महाभारत के इस कथन का आशय रामानुजाचार्य ने इन शब्दों में स्पष्ट किया है “सांख्यस्य वक्ता कपिलः’ इत्यारभ्य सांख्ययोगपाशुपतानां कपिलहिरण्यगर्भपशुपतिकृतत्वेन पौरुषेयत्वं प्रतिपाद्य, “अपान्तरतमानाम वेदाचार्यः स उच्यते’ इति वेदानामपौरुषेयत्वमभिधाय “पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायणः स्वयम्” इति पाञ्चरात्रतन्त्रस्य वक्ता नारायणः स्वयमेवेत्युक्तवान्” २ इति। गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत के उपर्युदाहृत पाठ की अपेक्षा रामानुजाचार्य द्वारा उदाहृत पाठ कुछ विशिष्ट है। गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत का पाठ इस प्रकार है HERE “पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वेत्ता तु भगवान स्वयम्" विमाना। __रामानुजाचार्य द्वारा स्वीकृत पाठ इस प्रकार है - “पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायणः स्वयम्।। . आचार्य रामानुज द्वारा स्वीकृत यही पाठ मान्य है, क्योंकि न केवल रामानुज अपितु उनके पूर्ववर्ती यामुनाचार्य भी इसी पाठ को स्वीकार करते हैं। महाभारत के इसी पाठ का संस्कार आचार्यों की उक्तियों में यत्र-तत्र प्रतिबिम्बित होता है। यथा आचार्य वेदान्तदेशिक की यह उक्ति देखिये TRIEगायन कमप्याद्यं गुरुं वन्दे कमलागृहमेधिनम्। किमी का व्यापारी प्रवक्ता छन्दसां वक्ता पाञ्चरात्रस्य यः स्वयम्।। जावर अतः पांचरात्र का महाभारत के अनुसार अन्य शास्त्रों की अपेक्षा यही वैशिष्ट्य है कि अन्य शास्त्र कपिल आदि पुरुषों के द्वारा रचित हैं और पांचरात्र शास्त्र के रचयिता स्वयं भगवान् नारायण हैं। जिक न्याफाश १. महाभारत, शान्तिपर्व, ३४६.६४-६७ र श शार २. श्रीभाष्य, २.२.४२ ३. आगमप्रामाण्य, पृ. १२८ ४. यतिराजसप्तति, १ E9 पांचरात्र-परम्परा और साहित्य

पांचरात्र-सम्प्रदाय की प्राचीनता

विष्णु एक वैदिक देवता है। अतः विष्णु-महिमा की स्तुति-परम्परा की प्राचीनता के विषय में विवाद नहीं है। यह निश्चित रूप से बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि जितना प्राचीन वैदिक-साहित्य है, उतनी ही प्राचीन विष्णु-स्तवन की परम्परा है। वेदों में ऋषि के रूप में नारायण का नाम अनेकत्र प्राप्त होता है। वैदिक देवता विष्णु तथा वैदिक ऋषि नारायण कब एकार्थक हो गये, यह एक अतीत के अन्धकार में छिपा हुआ रहस्य है। पांचरात्र परम्परा में आकर विष्णु, नारायण, वासुदेव, कृष्ण तथा जनार्दन आदि शब्द एकार्थक हो गये और पर्याय के रूप में प्रयुक्त होने लगे। इसी पांचरात्र परम्परा की प्राचीनता का निर्धारण यहाँ इष्ट है। पांचरात्र परम्परा की कुछ प्रसिद्ध संज्ञाएं अथवा सिद्धान्त प्राचीन साहित्य तथा पुरातात्त्विक सामग्रियों में यत्र-तत्र दृष्टिगत होते हैं। उनके आधार पर ही प्राचीनता का निश्चय किया जा सकता है। यहाँ इस सन्दर्भ में पांचरात्र परम्परा में स्वीकृत ईश्वर के विभिन्न रूपों को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। पांचरात्र परम्परा के अन्तर्गत ईश्वर के चार रूप माने गये हैं२ –१. पर, २. व्यूह, ३. विभव तथा ४. अर्चा । कुछ संहिताओं में ईश्वर के अन्तर्यामी रूप को स्वीकार करते हुए पाँच रूपों की कल्पना की गयी है। ईश्वर के पर रूप को पर वासुदेव कहा जाता है। सृष्टि आदि व्यापार के लिए यह पर वासुदेव चार प्रकार के रूपों को धारण करता है। इन चार रूपों को व्यूह रूप कहा गया है। इन चार व्यूह रूपों के नाम इस प्रकार हैं - १. वासुदेव, २. संकर्षण, ३. प्रद्युम्न और ४. अनिरुद्ध । भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न रूपों में ईश्वर के आविर्भाव को विभव रूप कहते हैं। सामान्यतया इस विभव रूप को अवतार रूप कहा जाता है। लोकहितार्थ स्वर्ण, रजत आदि से जिस भगवद्-रूप की कल्पना की जाती है, उसे अर्चारूप कहते हैं | जैसा कि शब्द के अर्थ से स्पष्ट है, अन्तर्यामी रूप उसे कहते हैं, जो जीव के हृदयप्रदेश में निब्य निवास करता है। ईश्वर के इन रूपों का प्रतिपादन करने वाली प्रायः सभी पांचरात्र संहिताएँ ईसा की उत्तरवर्तिनी हैं, किन्तु ईसा के पूर्व प्रचुर मात्रा में ऐसी साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक सामग्री यत्र-तत्र उपलब्ध होती है, जिसमें ईश्वर के उपर्युल्लिखित कुछ रूपों के अथवा उनकी संज्ञाओं के उल्लेख स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हीं उल्लेखों को आधार बनाकर १. द्रष्टव्य-ऋक्. १०.६०; यजु. ३.६२, ३०.३१; अथर्व. १६.६, १०.२ २. लक्ष्मीतन्त्र, २.६०, ११.४१-४७ ३. अहिर्बुध्यसंहिता, १.६३-६५ ४. लक्ष्मीतन्त्र, ११.४१-४७. ५. वहीं, ११.२६. ६. वहीं, ४.३१. ६२ तन्त्रागम-खण्ड इस सम्प्रदाय की प्राचीनता के निर्धारण का प्रयास किया जा सकता है। यहाँ पुरातात्त्विक तथा साहित्यिक स्रोतों से प्राप्त सामग्री का पृथक्-पृथक् अध्ययन किया जायगा।

पुरातात्त्विक स्रोत-

जिन विद्वानों ने पुरातात्त्विक सामग्री को भी पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता का निर्धारण करने में आधार बनाया है, उनमें आर.जी. भाण्डारकर का नाम प्रमुख है। इस सामग्री में तीन अभिलेखों को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है १. नानाघाट का गुहाभिलेख, २. घोसुण्डी का शिलाभिलेख तथा ३. बेसनगर का स्तम्भाभिलेख। अब इन तीनों अभिलेखों की सामग्री का क्रमशः परिशीलन आवश्यक है। १. महाराष्ट्र प्रदेश के पूना जनपद में नानाघाट गाँव में प्राप्त गुहाभिलेख “नानाघाट गुहाभिलेख” के नाम से प्रसिद्ध है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में लिखी गयी प्राकृत भाषा में है। इस अभिलेख का प्रासंगिक अंश इस प्रकार है “(सिधं)….. नो (नमो) धमस नमो ईदस नमो संकसन-वासुदेवान चंद-सूरानं (महि) मा (व) तानं चतुं नं यम-वरुन-कुबेर-वासवानं नमो कुमारवरस (वेदि) सिरिसर (ओ)” इसका संस्कृत रूपान्तरण इस प्रकार किया गया है - “सिद्धम् । (प्रजापतये) धर्माय नमः, इन्द्राय नमः, सङ्कर्षण-वासुदेवाभ्यां चन्द्रसुराभ्याम् (-सूर्याभ्याम्), चतुर्थ्यश्च लोकपालेभ्यो यम-वरुण-कुबेर-वासवेभ्यो नमः ।। १ इस अभिलेख में मंगलाचरण किया गया है। इसमें इन्द्र आदि अन्य देवताओं के साथ द्वन्द्व समास में संकर्षण और वासुदेव को नमन किया गया है। इस अभिलेख का समय प्रथम शताब्दी ईसापूर्व का उत्तरार्ध माना गया है। २. दूसरा विवेचनीय अभिलेख घोसुण्डी का शिलाभिलेख है। राजस्थान में चित्तौड़गढ़ जनपद में घोसुण्डी नामक स्थान पर होने के कारण इस अभिलेख को “घोसुण्डी शिलाभिलेख” कहते हैं। यह अभिलेख प्राकृत प्रभावित संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इसकी लिपि ब्राह्मी है। मूल अभिलेख इस रूप में प्राप्त होता है कारितोऽयं राज्ञा भागव(ते)न गाजायनेन पाराशरीपुत्रेण सर्वतातेन अश्वमेध-याजिना भगव(द)भ्यां संकर्षण-वासुदेवाभ्यां (अनिहताभ्यां सर्वेश्वरा)भ्यां पूजाशिलाप्राकारो नारायणवाटिका ।।३जि निक यहाँ गाजायन गोत्रोत्पन्न अश्वमेधयाजी पाराशरीपुत्र राजा सर्वतात के द्वारा भगवान् कि संकर्षण तथा वासुदेव के पूजा-स्थान के चारों ओर शिलाप्राकार के निर्माण का उल्लेख किया गया है। “नारायणवाटिका” इस संज्ञा का भी उल्लेख किया गया है। डी.सी. सरकार के अनुसार इस अभिलेख का समय प्रथम शताब्दी ईसापूर्व का उत्तरार्ध है, जबकि आर.जी. भाण्डारकर इस अभिलेख को कम से कम ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व का मानते हैं। 9. Select Inscriptions, p. 192-195. २. वहीं, तथा Vaisnavism, Saivism…p. 5 ३. Select Inscriptions. p. 90-91 ४. वहीं, पृ. ६० पांचरात्र-परम्परा और साहित्य ६३ ३.बेसनगर का प्रसिद्ध गरुडध्वज अभिलेख तीसरा महत्त्वपूर्ण अभिलेख है। बेसनगर ज्ञा मध्यप्रदेश के विदिशा जनपद में स्थित एक स्थान है। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि में B संस्कृत से प्रभावित प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण है। मूल अभिलेख इस रूप में प्राप्त होता है । (द)वदेवस वा सदे)वस गरुडध्वजे अयं TEAMPIRA कारिते (इ) अ हेलियोदोरेण भागवतेन दियसपत्रेण तक्खसिलाकेन योनदतेन (आ) गतेन महाराजस अंतलिकितस उप ता सकासं र जो कासी-पत्रिोस (भ)-PER PER गभद्रस त्रातारस वसेन च (तु) - दसेन राजेन वधमानस।। अजीज कार र त्रिनि अमतपदानि (इ अ) (स) अनठितानि क काल नेयन्ति (स्वर्ग) दम चाग अप्रमाद (११)२ व इस अभिलेख के संस्कृत रूपान्तर पर भी एक दृष्टिपात कर लेना चाहिये- र (I) देवदेवस्य वासुदेवस्य गरुडध्वजः (=शिखरस्थ-शिखरमूर्तिसनाथो ध्वजस्तम्भः) अयं कारितः, इह हेलियोदोरेण (Heliodoros) भागवतेन (=वैष्णवधर्मान्तर्गत व भागवतधर्मानुसारिणा) दियसथ(Dios)पुत्रेण ताक्षशिलाकेन (=तक्षशिलानिवासिना) यवनदूतेन आगतेन महाराजस्य अन्तजिकितस्य (Antialkidas) उपान्तात् (=समीपात्) सकाशं राज्ञः काशीपुत्रस्य (= काशीगोत्रीयस्य) भागभद्रस्य त्रातुर्वर्षेण चतुर्दशेन राज्येन (च) वर्धमानस्य। (II) त्रीणि अमृतपदानि इह स्वनुष्ठितानि नयन्ति स्वर्ग दमस्त्यागोऽप्रमादः(च) ।। ३ इस अभिलेख में यह कहा गया है कि तक्षशिलानिवासी दियसपुत्र और यवनदूत भागवत धर्मानुयायी हेलियोडोरस ने देवाधिदेव वासुदेव के इस गरुडध्वज का निर्माण किया। वह अन्तलिकित के दूत के रूप में राजा भागभद्र के पास आया था। भाण्डारकर इसे द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के पूर्वार्ध में उत्कीर्ण किया गया मानते हैं। डी.सी. सरकार के अनुसार इसका समय ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी का अन्त है। 9. Select Inscriptions, P. 88 २. वहीं, पृ. ८८-८६ ३. तत्रैव, पृ. ८६ ४. Vaisnavish, saivism……pp. 4-5 4. Select Inscriptions, p. 88 . ……munibertonstrarev onut it to move S

STUDEYEListersor coinagmOA.४ up ४. तन्त्रागम-खण्ड -मानी इस अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस समय वासुदेव की उपासना देवाधिदेव के रूप में की जाती थी। वासुदेव की उपासना करने वालों के लिये “भागवत" शब्द का प्रचलन हो चुका था। भागवत धर्म भारत के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में व्याप्त हो चुका था और यवन लोग भी इस धर्म में दीक्षित हो रहे थे। जति इन अभिलेखों का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के अन्त तक यह धर्म अच्छी प्रकार से व्याप्त हो चुका था। लखनऊ में स्थित उत्तरप्रदेश राज्य संग्रहालय में संकर्षण अथवा बलराम की एक प्रतिमा संरक्षित है। इस प्रतिमा में संकर्षण को दो भुजाओं से युक्त दिखाया गया है। इनके बाँयें हाथ में हल तथा दाहिने हाथ में मुसल है। इसका समय दो सौ वर्ष ईसापूर्व माना गया है। इस परम्परा से सम्बद्ध यह सर्वाधिक प्राचीन प्रतिमा है। इस प्रकार सभी पुरातात्त्विक स्रोतों के आधार पर पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता की खोज करते हुए हम अधिक से अधिक ईसापूर्व दूसरी शताब्दी के अन्त तक पहुँचते हैं, इससे आगे नहीं। इससे यदि. यह निष्कर्ष निकाला जाय कि पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता की यही इयत्ता है, तो यह नितान्त आत्म-प्रवंचना होगी। वस्तुतः इस काल के पूर्व पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता की साधिका अथवा असाधिका कोई पुरातात्त्विक सामग्री उपलब्ध ही नहीं होती। नीशाशया

साहित्यिक स्रोत-

साहित्य में अनेक ऐसे स्थल प्राप्त होते हैं, जिनसे पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता के संकेतों का संकलन करके किसी प्रकार के निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है। यहाँ उन्हीं कतिपय स्थलों का परिशीलन करते हुए निष्कर्ष प्राप्ति का प्रयास किया जा रहा है। - १. बादरायण-विरचित “ब्रह्मसूत्र” प्रस्थान-त्रयी का एक प्रमुख ग्रन्थ है। इसके द्वितीय अध्याय के द्वितीय पाद के अन्तर्गत “उत्पत्त्यसम्भवाधिकरण"३ में पांचरात्र-प्रामाण्य की विवेचना की गयी है। शंकराचार्य के अनुसार इस अधिकरण का प्रतिपाद्य पांचरात्र की अप्रामाणिकता है, जबकि रामानुजाचार्य की दृष्टि में इस अधिकरण के द्वारा पांचरात्र की प्रामाणिकता की सिद्धि की गयी है। ब्रह्मसूत्रों की रचना पांचवीं शताब्दी ईसापूर्व से द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के मध्य मानी गई है । स्पष्ट है कि इस समय तक पांचरात्र परम्परा बद्धमूल हो चुकी थी। जिल्लामा र छि १. Vaisnarish sairium……… p.5 2. Development of Hindu Icnography. p. 423 ३. ब्रह्मसूत्र, २.२.३६-४२ 8. A companion to Sanskrit Literature, p. 17. mavipanaivinpicv 5.genournaarilacesपांचरात्र-परम्परा और साहित्य २. महाभारत के भीष्मपर्व में सात्वतविधि का उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त शान्तिपर्व के मोक्षधर्मपर्व का बहुत बड़ा भाग पांचरात्र सिद्धान्तों के निरूपण के लिए ही समर्पित है । महाभारत में यद्यपि पांचरात्र सिद्धान्तों का बहुत स्पष्ट और विशद प्रतिपादन है, तथापि इस आधार पर कोई निष्कर्ष निकाल सकना अत्यन्त कठिन कार्य है। इसका कारण महाभारत की तिथि का स्वयं अनिश्चित होना है। महाभारत का काल ४०० ईसापूर्व से लेकर ४०० ईसवी तक माना गया है। ३ सी.बी. वैद्य महाभारत का रचनाकाल २५० ईसापूर्व मानते हैं । इस तिथि पर विश्वास करते हुए यह कहा जा सकता है कि तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में यह सम्प्रदाय चरमोत्कर्ष पर था। ३. पतञ्जलि के महाभाष्य में कुछ ऐसे स्थल हैं, जिनसे पांचरात्र परम्परा के संकेतों को स्पष्ट रूप से ग्रहण किया जा सकता है। यथा - (१) “सङ्कर्षणद्वितीयस्य बलं कृष्णस्य वर्धताम्"५ यहाँ कृष्ण के सहयोगी के रूप में बलराम का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार एक अन्य स्थल भी द्रष्टव्य है - (२) “प्रासादे धनपतिरामकेशवादीनाम"६ यहाँ पर धनपति, राम अर्थात् बलराम और केशव के प्रासाद अथवा मन्दिर का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार एक अन्य स्थल पर भी पांचरात्र के एक प्रसिद्ध सिद्धान्त चतुर्दूह की कल्पना की ओर संकेत प्राप्त होता है। यथा “जनार्दनस्त्वात्मचतुर्थ एव” ७ इन उद्धरणों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पतंजलि के समय तक पांचरात्र-सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार हो चुका था। पतंजलि का समय ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी माना जाता है। इस विषय में विद्वानों में अधिक मतभेद भी नहीं है। १. महाभारत, भीष्म. ६६.४० २. म.भा. शान्ति, ३३४-३४१ अध्याय 3. A History of Indian Literature, p. 446 (Wintertnitz) 8. “The Mahabharata, as we have it, is assigned by most European Scholars to 500 A.D. where as we assign it to 250 B.C. a date accepted by Lokamanya Tilaka ing his Gitarahasya”. History of Sanskrit Literature, Vol. II p. 9 ५. महाभाष्य, २. २.२२, पृ. २४७ ६. वहीं, २.२.३४, पृ. २७८ 4 ७. वहीं, ६.३.५ 5. A Companion to Sanskrit Literature, p. 79 मी तन्त्रागम-खण्डन ४. “शिलप्पडिकारम्” तथा “परिपडल” नामक तमिल ग्रन्थों में गरुडध्वज, संकर्षण, गाने वासुदेव, अनिरुद्ध, श्रीकृष्ण तथा बलदेव की प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है। इन ग्रन्थों की रचना ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी में मानी गई है। इससे भी पांचरात्र सम्प्रदाय का ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी में प्रचार और प्रसार सिद्ध होता है। इस प्रकार अब तक चर्चित समस्त पुरातात्त्विक तथा साहित्यिक प्रमाणों से अधिक से अधिक द्वितीय शताब्दी तक पांचरात्र की प्राचीनता की सिद्धि हो पाती है। अब हम इससे पूर्व पांचरात्र की प्राचीनता के साधक प्रमाणों पर दृष्टिपात करेंगे। ५. चतुर्थ शताब्दी ईसापूर्व भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य था। इस समय मेगस्थनीज़ नामक एक यवन पर्यटक भारत-भ्रमण के निमित्त आया था। उसने अपनी यात्रा के संस्मरणों को लिपिबद्ध किया, जिसे “इण्डिका” कहा जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, तथापि इसके अनेकत्र उद्धृत अंशों का संकलन किया गया है। मेगस्थनीज़ का कहना है कि “हेराक्लीज़” का “शूरसेनोय” जाति के लोग विशेष रूप से पूजन करते हैं। जो कि “मेथोरा” तथा “क्लीसोबोरा’ में और उसके आसपास रहते हैं। इनके पास से जोबेरीज नामक नदी बहती है। हेराक्लीज़ को कृष्ण, मेथोरा को मथुरा तथा जोबेरीज़ को यमुना नदी माना गया है। इस उल्लेख से यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में भागवत अथवा पांचरात्र सम्प्रदाय विकसित हो चुका था। पाणिनि की अष्टाध्यायी से भी भागवत अथवा पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता के निर्धारण में पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है। अष्टाध्यायी में “भक्तिः” ३ इस सूत्र के अधिकार में “वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन्’ ४ सूत्र आता है, जिसका अर्थ होता है वासुदेव में भक्तिमान् व्यक्ति के अर्थ में वासुदेव शब्द से वुन् प्रत्यय होगा। इस प्रकार वासुदेव + वुन् = वासुदेवक शब्द बनेगा, जिसका अर्थ होगा वासुदेव में भक्तिमान् व्यक्ति। यहाँ पतंजलि यह प्रश्न उठाते हैं कि इस सूत्र के द्वारा वासुदेव शब्द से वुन् प्रत्यय का विधान करने की क्या आवश्यकता है? क्योंकि उत्तरवर्ती सूत्र “गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यो बहुलं वुञ्” ५ सूत्र से गोत्रवाचक अथवा क्षत्रियवाचक वासुदेव शब्द से वुञ् प्रत्यय करने १. भार्गवतन्त्रम्, उपोद्घात, च 2ndeompleesalivartavamalSTirtdirleMant २. This Heracles is held in especial honour by the sourasenoi, an Indian tribe who possess two large cities methora and cleisobora and through whose country flows a nevigable river called the joberes ३. अष्टाध्यायी, ४.३.५ (Megasthenes and India Religion, p.63) ESSES ४. वहीं, ४.३.६८ १. वहा, ४.३. ६६ T ESotrainsama पांचरात्र-परम्परा और साहित्य पर वासुदेवक शब्द बन ही जाता है’। कैयट विरचित “प्रदीप” में इस प्रश्न को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है कि “ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च"२ सूत्र से वसुदेव की सन्तान इस अर्थ में वसुदेव शब्द से अण् प्रत्यय करने पर वासुदेव शब्द बनता है। इस वासुदेव शब्द से गोत्र तथा क्षत्रिय होने के कारण वुञ् लगने पर भी वासुदेवक शब्द ही बनेगा, जैसा कि वुन् प्रत्यय लगने पर बनता है। “वुन्” हो या “वुञ्’ रूप और स्वर में कोई अन्तर नहीं आता । पतंजलि यहाँ वुन् प्रत्यय के विधान के दो प्रयोजन बताते हैं। प्रथम है वासुदेव शब्द का पूर्वनिपात। “लघ्वक्षरं पूर्वम्” से लघु अक्षर अर्जुन का द्वन्द्व समास में पूर्वनिपात होना चाहिये। वासुदेव लघ्वक्षर न होने पर भी पूर्व निपतित होगा, क्योंकि वह अभ्यर्हित अथवा पूज्य है। “अभ्यर्हितं च"५ से अभ्यर्हित के पूर्वनिपात का विधान है। दूसरी बात यह है कि जिस वासुदेव शब्द से वुन् प्रत्यय का विधान किया गया है, वह क्षत्रिय नहीं है। यदि क्षत्रिय होता तो “गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यो बहुलं वुञ्” से वुञ् प्रत्यय अवश्य लग लाता। यह वासुदेव क्षत्रिय न होकर देवताविशेष है। अतः इसके लिए अगल से वुन् प्रत्यय का विधान किया गया है। पतंजलि के ही शब्दों में - । यो प्राका “इदं तर्हि प्रयोजनम्-वासुदेवशब्दस्य पूर्वनिपातं वक्ष्यामीति। दिवा अथवा नैषा क्षत्रियाख्या। संज्ञैषा तत्र भगवतः” । इस विवेचन से यह स्पष्ट होता कि पाणिनि के समय में वासुदेव में भक्ति एक सामान्य बात थी तथा वासुदेव में भक्ति रखने वालों को वासुदेवक कहते थे। पाणिनि के काल के विषय में अनेक मत हैं। किन्तु यहाँ उस मतभेद की उपेक्षा करते हुए हम डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के मत को अपने प्रयोजनहेतु स्वीकार कर लेते हैं। डॉ. अग्रवाल ने पाणिनि का समय ४५० ईसापूर्व से ४०० ईसापूर्व निर्धारित किया है । इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व में इस सम्प्रदाय की पर्याप्त प्रतिष्ठा हो चुकी थी। १. “किमर्थं वासुदेवशब्दाद् वुन् विधीयते? “गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यो बहुलं बुञ्” इत्येव सिद्धम्? मी नास्ति विशेषो वासुदेवशब्दाद् बुजो वा वुनो वा। तदेव रूपं स एव स्वरः। (महाभाष्यम्, ४.३.६८) २. अष्टाध्यायी, ४.१.११४ ३. “वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः, “ऋष्यन्धक” इत्यणन्तः। ___ तत्र गोत्रत्वात् क्षत्रियत्वाच्च बुजि रूपस्वरयोः सिद्धत्वात् प्रश्नः।” (महाभाष्यप्रदीप, ४.३.६८) ४. सिद्धान्तकौमुदी, २.२.६८ (वार्त्तिकम्) ५. तत्रैव ६. महाभाष्यम्, ४.३.६८, द्रष्टव्य—“ननु वासुदेवशब्दाद् गोत्रक्षत्रियाख्येभ्य इति वुजस्त्येव। न चात्र वुनवुजोर्विशेषो विद्यते, किमर्थ वासुदेवग्रहणम्। संज्ञेषा देवताविशेषस्य न क्षत्रियाख्या।" (काशिका, ४.३.६८) ७. पाणिनिकालीन भारतवर्ष, अध्याय ८, पृ. ४६६ तन्त्रागम-खण्ड इससे पूर्व सम्प्रदाय की प्राचीनता के ज्ञान के लिये हमें वैदिक साहित्य पर एक दृष्टि डालनी होगी।

वैदिक साहित्य-

वैदिक साहित्य में पांचरात्र सम्प्रदाय की प्राचीनता के अनुसन्धान हेतु इसके अन्य पर्यायों को भी जान लेना चाहिये। पाद्मसंहिता के अनुसार सूरि, भागवत, सात्वत, पंचकालवित्, ऐकान्तिक और पांचरात्रिक पर्याय शब्द हैं। पाद्मसंहिता के ही शब्दों में

में सूरिः सुहृत् भागवतः सात्त्वतः पञ्चकालवित् । ऐकान्तिकस्तन्मयश्च पाञ्चरात्रिक इत्यपि।। विश्वामित्रसंहिता ने भी यही बात अपने शब्दों में कही है एतैर्नामभिर्वाच्य एकान्ती पाञ्चरात्रिकः। सूरिर्भागवतश्चैव सात्त्वतः पाञ्चकालिकः ।। इस प्रकार वैदिक साहित्य में विष्णु के पर्यायवाचक शब्दों अथवा इस सम्प्रदाय के पर्यायवाचक शब्दों के आधार पर कुछ निष्कर्ष प्राप्त करने का प्रयास किया जा सकता है। १. तैत्तिरीयारण्यक के दशम प्रपाठक में एक स्थान पर नारायण, वासुदेव, विष्णु शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त हैं। गायत्री मन्त्र की छाया में होने के कारण इसे विष्णुगायत्री कहा गया है। यथा - नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तनो विष्णुः प्रचोदयात् ।। दशम प्रपाठक को खिल कहा गया है। इस कारण इस अंश को प्राचीन नहीं माना जाता। २. पांचरात्र-शास्त्र की एक संज्ञा सात्वत भी है, यह प्रतिपादित किया जा चुका है। इस विषय में पराशरभट्ट प्रणीत विष्णुसहस्रनाम के “भगवद्गुणदर्पण” नामक भाष्य में - “सात्वतांपतिः” का व्याख्यान भी द्रष्टव्य है। ऐतरेय ब्राह्मण में “सात्वत” शब्द का शिवाजी १. पाद्मसंहिता, चर्या, २.८७-८८, आगमप्रामाण्यम्, पृ. १ (टिप्पणी) में उदाहृत; २. विश्वामित्रसंहिता, ६.६०, द्रष्टव्य-“ततश्च सत्वान् भगवान् भज्यते यैः परः पुमान्। __ते सात्वता भागवता इत्युच्यन्ते द्विजोत्तमाः।।” (आगमप्रामाण्यम्, पृ. १५३) ३. तैत्तिरीयारण्यक, प्रपा. १०, अनु. १ ४. History of Sanskrit Literature II (vaidya) p. 141 ५. विष्णुसहस्रनामभाष्यम्, पृ. १५७ समाज पांचरात्र-परम्परा और साहित्य ६६ प्रयोग प्राप्त होता है’। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि ऐतरेय ब्राह्मण के समय सात्वत शब्द शास्त्र, धर्म और धर्मावलम्बियों के अर्थ में प्रचलित था। ऐतरेय ब्राह्मण का समय ईसापूर्व एक हजार वर्ष माना जाता है। शतपथ ब्राह्मण का भी इसी अर्थ में सत्वत् शब्द के प्रयोग की दृष्टि से महत्त्व है। शतपथ ब्राह्मण में ही सर्वप्रथम पंचरात्र शब्द के भी दर्शन होते हैं। इन शब्दों के प्राप्त होने वाले इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि आज सात्वत और पांचरात्र शब्दों के जो प्रचलित अर्थ हैं, इन अर्थों से इन शब्दों के सम्बन्ध की प्रक्रिया शतपथ ब्राह्मण के समय आरम्भ हो चुकी थी। शतपथ ब्राह्मण का रचनाकाल ईसापूर्व ३००० से २५०० वर्ष माना जाता है ।

पांचरात्र सम्प्रदाय के आविर्भावकाल की परसीमा

यह तो अब तक प्रपंचित तथ्य से स्पष्ट हो चुका है कि चातुर्वृह की अवधारणा में परिगणित वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध- इन चारों का वृष्णि वंश से ही सम्बन्ध है। यह वृष्णि वंश महाभारत काल से सम्बद्ध है। यह चारों व्यूहरूप वासुदेव-कृष्ण के परिवार के ही सदस्य हैं और वासुदेव कृष्ण इस वृष्णि कुल के सर्वाधिक प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण पुरुष थे। महाभारत काल का अर्थ है- द्वापर और कलियुग का सन्धिकाल। यों तो एक वेद का चतुर्धाभवन भी इसी काल में हुआ है,६ तथापि पांचरात्र सम्प्रदाय के आविर्भाव की दृष्टि से इस काल का विशेष महत्त्व है। इसी युग में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इन चार रूपों में भगवान् का अवतार हुआ था। इसी समय भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को पांचरात्र शास्त्र की संग्रहरूप गीता का उपदेश किया था। इसके पूर्व पांचरात्र सम्प्रदाय का आविर्भाव नहीं माना जा सकता। अतः पांचरात्र सम्प्रदाय के आविर्भावकाल की यही पर सीमा है। इसकी पुष्टि महाभारत तथा पांचरात्र संहिताओं से भी होती है। यथा महाभारत की यह उक्ति द्रष्टव्य है १. “एतस्यां दक्षिणस्यां दिशि ये के च सत्त्वतां राजानो भौज्यायैव ते अभिषिच्यन्ते। भोजेति एनान् अभिषिक्तानाचक्षते।” (ऐतरेयब्राह्मण, ८.३.१४) २. हिन्दू राजतन्त्र, भाग १, पृ. १५५ “तदेतदू गाथयाऽभिगीतम्-शतानीकः समन्तासु मेध्यं सात्राजितो हयम्।। आदत्त यज्ञं काशीनां भरतः सत्त्वतामिवेति ।।” (शतपथब्राह्मण, १३.५.४.२१) 8. History of Sanskrit Literature, Vol II (Vidya), page 15 ५. “वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि” (गीता, १०.३७) ६. द्रष्टव्य-द्वापरे द्वापरे विष्णुासरूपी महामुने। वेदमेकं सुबहुधा कुरुते जगतो हितः ।। (विष्णुपुराण, ३.३.५) चतुर्धा यैः कृतो वेदो द्वापरेषु पुनः पुनः। (वहीं, १०) एको वेदश्चतुर्धा तु तैः कृतो द्वापरादिषु । (वहीं, २०) “द्वापरादिषु-द्वापर आदिर्येषां तानि द्वापरादीनि, तेषु द्वापरसन्ध्यंशेष्वित्यर्थः” (तत्रैव,विष्णुचित्तीयव्याख्या) तन्त्रागम-खण्ड द्वापरस्य युगस्यान्ते आदौ कलियुगस्य च। म ना कर म सात्वतं विधिमास्थाय गीतं सङ्कर्षणेन यत् ।। गाव कतिपय पांचरात्र संहिता-वचनों से भी इसका समर्थन होता है ___ द्वापरस्य युगस्यान्ते आदौ कलियुगस्य च। साक्षात् सङ्कर्षणाल्लब्ध्वा वेदमेकायनाभिधम् ।। द्वापरस्य युगस्यान्ते आदौ कलियुगस्य च। साक्षात् सङ्कर्षणो देवः प्राप्य प्रत्यक्षतां मुने।। इसी प्रकार द्वापरस्य युगस्यान्ते आदौ कलियुगस्य च। हामाया साक्षात् सङ्कर्षणाद् व्यक्तात् प्राप्त एष महत्तरः।। एष एकायनो वेदः प्रख्यातः सात्वतो विधिः ।। मा कामीणी इसी प्रकार के उल्लेख अन्य पांचरात्र संहिताओं में भी उपलब्ध होते हैं।

निष्कर्ष-

इस विवेचन से निम्न बातें स्पष्ट हो जाती हैं १. यद्यपि वेदों में विष्णुसूक्तों के देवता के रूप में विष्णु की स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं और ऋषि के रूप में नारायण प्रायः सभी वेदों में परिगणित हुए हैं, तथापि इस काल को वैष्णव अथवा पांचरात्र सम्प्रदाय का आविर्भाव काल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस काल में तो विष्णु और नारायण नितान्त भिन्न हैं। इसके साथ ही यहाँ अन्य किसी वैष्णव सम्प्रदाय के स्वरूप की प्राप्ति भी नहीं होती। यह अवश्य कहा जा सकता है कि उस समय यह सम्प्रदाय बीज रूप में दृष्टिगत होता है। २. वेदों में बीज रूप में प्राप्त होने वाला यह सम्प्रदाय द्वापर तथा कलियुग के सन्धिकाल में प्रस्फुटित हो गया। ३. पाणिनि के समय तक यह सम्प्रदाय पूर्ण व्यवस्थित रूप धारण कर चुका था। इस अर्थ को निम्न रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की जा सकती है - नमाम्य १. महाभारत, भीष्मपर्व, ६६.४० २. ईश्वरसंहिता, १.४० ३. वहीं, २१.५४६ ४. पारमेश्वरसंहिता, १.५५-५६ ही विनय तापमान लाश मंशा य ७१ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य प्रागा कामात वेदादाविर्भवनमसकृत स्वात्मनो दर्शयन्ती विवाद मन्दं मन्दं पुनरुपचयं भारतान्ते व्रजन्ती। वह आष्टाध्याय्यां विशदविशदं धारयन्ती स्वरूपं कल्याणीयं विलसतितरां पाञ्चरात्र-स्रवन्ती।। माता मार

पांचरात्र शास्त्र की श्रुतिमूलकता

पांचरात्र शास्त्र को श्रुतिमूलक कहा गया है। उस मूलभूत श्रुति के रूप में एकायन शाखा प्रतिष्ठित है। वेदों की यह एकायन शाखा आज उपलब्ध नहीं है और न ही इसके विवेच्य अथवा प्रतिपाद्य विषय का कहीं प्रामाणिक विवरण उपलब्ध होता है। पांचरात्र शास्त्र कितना श्रुतिमूलक है, यह निश्चित कर सकना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। इसका निश्चित कारण है, इस शाखा का सर्वथा अनुपलब्ध होना। एकायन श्रुति का महत्त्व तो इसी से समझा जा सकता है कि यह पांचरात्र शास्त्र की मूल होने के कारण उसकी प्राणभूत है। प्रश्न यहाँ यह उठता है कि यदि यह एकायन श्रुति अथवा एकायन शाखा इतनी अधिक महत्त्वपूर्ण है, तो इसे किसी न किसी रूप में उपलब्ध होना चाहिये था। पूर्वाचार्यों का दायित्व था कि वे इसे इसके मूल रूप में सुरक्षित रखते, इस पर टीका, टिप्पणी, व्याख्यान आदि लिख कर इसे स्थायित्व प्रदान करते, अथवा अपने ग्रन्थों में इसके वाक्यों को यथासम्भव उदाहृत करते। किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। सम्भव है कि यह एकायन श्रुति वैष्णवों की आचार्य-परम्परा के आरम्भ होने के पूर्व ही विलुप्त हो गयी हो। “पांचरात्र शास्त्र श्रतिमूलक है और एकायन शाखा ही इस शास्त्र की मूलभूत श्रुति है" शास्त्रों में केवल इस प्रकार के वचनों की उक्तियाँ और पुनरुक्तियाँ ही दृष्टिगत होती हैं। इससे शास्त्र के स्वरूप पर किसी प्रकार का प्रकाश नहीं पड़ता। अस्तु, यह रही वह सीमा, जिसके अन्तर्गत पांचरात्र शास्त्र की श्रुतिमूलकता पर विचार किया जा सकता है। किन्तु किसी भी रूप में एकायन श्रुति के उपलब्ध न होने के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेना सर्वथा अनुचित होगा कि वह कभी थी ही नहीं, अथवा पांचरात्र शास्त्र श्रुतिमूलक नहीं है। श्रुतियों का लुप्त होना अथवा नष्ट हो जाना कोई असम्भव बात नहीं। इनके नाश अथवा उद्धार की कहानियाँ प्राचीन समय से प्राप्त होती है। आज वेदों की ११३१ (ऋग्वेद २१, यजुर्वेद १०१, सामवेद १००० तथा अथर्ववेद ६) शाखाओं में कुछ ही यह पर १. द्रष्टव्य-“तामहमानयिष्यामि नष्टां वेदश्रुतीमिव” (रामायण, कि. ६.५)। “यथा वेदश्रुतिर्नष्टा मया प्रत्याहता पुनः” (महाभारत, शान्ति., ३४८.५६)। - ५८ वी “एतस्मिन्नन्तरे राजन् वेदो हयशिरोधरः। जग्राह वेदानखिलान् रसातलगतान् हरिः।। (तत्रैव, ३५७) “सारस्वतश्चापि जगाद नष्टं वेदं पुनयद् ददृशुर्न पूर्वे” (बुद्धचरित, १.४२)। २. द्रष्टव्य-“एकशतमध्वर्युशाखाः, सहसवा सामवेदः, एकविंशतिधा बावचम्, नवधाऽऽथर्वणो वेदः” (महाभाष्य, १.१ पश्पशाह्निकम्)। ७२ ही तन्त्रागम-खण्ड जाए। शाखायें उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार परिगणित वेदशाखाओं में आज सहस्राधिक शाखाएँ अनुपलब्ध हैं। इन शाखाओं की अनुपलब्धि-मात्र के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि ये थी ही नहीं। यही कहा जायगा कि कभी थीं और बाद में नष्ट हो गयीं। यही बात एकायन शाखा के विषय में भी कही जानी चाहिये। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन और काण्व ये दो शाखाएँ प्रसिद्ध हैं। पांचरात्र संहिताओं में प्राप्त काण्व शाखा के उल्लेखों से प्रतीत होता है कि इस सम्प्रदाय का काण्व शाखा के साथ निकट का सम्बन्ध था। ईश्वरसंहिता में एकायन वेद की महिमा और उसके सम्प्रदाय का वर्णन करते हुए कहा गया है - काण्वी शाखामधीयानान् वेदवेदान्तपारगान्। संस्कृत्य दीक्षया सम्यक् सात्वताद्युक्तमार्गतः ।। जन्मात्रा को इसी प्रकार जयाख्यसंहिता में भी उल्लेख प्राप्त होता है - रत्नेषु त्रिष्वपि श्रेष्ठं जयाख्यं तन्त्रमुच्यते। तदुक्तेन विधानेन प्रतिष्ठादि प्रवर्त्यताम् ।। काण्वीं शाखामधीयानावौपगायनकौशिकौ। प्रपत्तिशास्त्रनिष्णातौ स्वनिष्ठानिष्ठितावुभौ ।। उपर्युक्त उद्धरणों से इस आशय के पर्याप्त संकेत प्राप्त होते हैं कि एकायन शाखा का काण्व शाखा के साथ निकट का सम्बन्ध है। सम्भव है कि यह शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा की कोई शाखा हो। नागेश ने अपने ग्रन्थ “काण्वशाखामहिमसंग्रह” में काण्व शाखा को ही एकायन वेद अथवा मूल वेद कहा है। यथा – इयं शुक्लयजुःशाखा प्रथमेत्यभिधीयते। मूलशाखेति चाप्युक्ता तथा चैकायनीति च।। अयातयामयजुषा तथा मोक्षैकसाधिका। इत्याधनेकनामानि सन्त्यस्यास्तत्र तत्र वै ।। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि-१. पांचरात्र सम्प्रदाय श्रुतिमूलक है, २. मूलभूत श्रुति का नाम एकायन वेद है, ३. इस एकायन वेद का शुक्ल यजुर्वेद से घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा ४. शुक्ल यजुर्वेद की अनेक शाखाओं में इस एकायन शाखा का काण्व शाखा के साथ अभिन्न सम्बन्ध प्रतीत होता है। मानिनः जामीन १. ईश्वरसंहिता, २१.६४ २. जयाख्यसंहिता, १. १०६-११० ३. लक्ष्मातन्त्र, उपाद्घात, पृ.६ (उदाहत) पांचरात्र-परम्परा और साहित्य

एकायन शाखा का स्वरूप

छान्दोग्योपनिषद् में चारों वेदों से पृथक् एकायन का उल्लेख किया गया है। प्रश्न यह उठता है कि क्या वस्तुतः एकायन शाखा चार वेदों के अन्तर्गत आती है अथवा उनसे भिन्न कोई स्वतन्त्र शास्त्र है? छान्दोग्योपनिषद् के चर्चित उद्धरण से तो यही प्रतीत होता है कि यह उनसे पृथक् स्वतन्त्र शास्त्र है। पांचरात्र संहिताओं में कुछ वचन इस बात की पुष्टि भी करते हैं। यथा - प्रतिष्ठा विहिता ब्रह्मन् मन्त्रसिद्धिफलप्रदा। एकायनाख्यवेदोक्तैर्मन्त्रैरन्यैस्त्रयीमयैः।। २ र चतुर्दिक्षु चतुर्वेदपठनं कारयेद् द्विजः। कोणेष्वेकायनी शाखां तन्मयैः पाठयेदपि।। ३ ऋगादिवेदांश्चतुरो द्विजाग्र्यैर्वेदवित्तमैः। शाखामेकायनी चापि विद्वद्भिरभिघोष्य च।।" इस प्रकार के वचन अन्य पांचरात्र संहिताओं में भी मिल जायेंगे। इससे यह प्रतीत होता है कि एकायन शाखा चारों वेदों से पृथक् है। अब यह प्रश्न विचारणीय है कि यदि एकायन शाखा चारों वेदों से पृथक् है, तो उसका संभावित स्वरूप क्या हो सकता है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है १. एकायन शाखा शुक्ल यजुर्वेद की कोई शाखा रही होगी, जो आज उपलब्ध नहीं है। ___ अथवा शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा ही एकायन शाखा है। … २. एकायन वेद के लिये “मूलवेद" ५ अथवा “आदिवेद” ६ जैसी संज्ञाएँ भी प्राप्त होती हैं। ऐसे संकेत मिलते हैं कि द्वापर युग में कृष्णद्वैपायन व्यास के द्वारा जिस वेद का ऋग् आदि रूप में चतुर्धा व्यसन किया गया, वही मूलवेद अथवा आदिवेद है । इस सन्दर्भ में पारमेश्वरसंहिता के निम्न वचन द्रष्टव्य हैं - १. “ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं मकान पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं…..।” (छान्दोग्य., ७.१.२) २. पारमेश्वरसंहिता, १५.७ विश्वामित्रसंहिता, १८.१५७ वहीं, २४.६० ५. मूलवेदाऽनुसारेण छन्दसाऽऽनुष्टुभेन च। मन जिद सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्येत्येवमादिकम् ।। (ईश्वरसंहिता, १.५०, द्रष्टव्य, २१.५४६) हा आद्यवेदोद्भवैर्मन्त्रैः साक्षात् सद्ब्रह्मवाचकैः । (पारमेश्वरसंहिता, १५.४) माया आद्यमेकायनं वेदं वेदानां शिरसि स्थितम् । (ईश्वरसंहिता, २१.५१५)वासी मनमानी आद्यमेकायनं वेदं रहस्याम्नायसंज्ञितम्। (वहीं, २१.५३१) m y ७. एको वेदश्चतुर्धा तु तैः कृतो द्वापरादिषु। (विष्णुपुराण, ३.३.२०) ७४ जी तन्त्रागम-खाण्डमा इत्युक्त्वाऽध्यापयामास वेदमेकायनाऽभिधम्। मूलभूतस्तु महतो वेदवृक्षस्य यो महान्।। एष कार्तयुगो धर्मो निराशीः कर्मसंज्ञितः। युगेषु मन्दसंचार इतरेष्वितरेष्वपि। द्वापरस्य युगस्यान्ते आदौ कलियुगस्य च।।। साक्षात् संकर्षणाद् व्यक्तात प्राप्त एष महत्तरः। एष एकायनो वेदः प्रख्यातः सात्वतो विधिः।। एष प्रकृतिधर्माख्यो वासुदेवैकगोचरः।। प्रवर्तते कृतयुगे ततस्त्रेतायुगादिषु। विकारवेदाः सर्वत्र देवतान्तरगोचराः।। महतो वेदवृक्षस्य मूलभूतो महानयम्। स्कन्धभूता ऋगाद्यास्ते शाखाभूतास्तथा मुने।।’ इसी अभिप्राय की पुनरावृत्ति ईश्वरसंहिता में भी अनेकत्र प्राप्त होती है । इस प्रकार इन संहिताओं के परिप्रेक्ष्य में एकायन वेद ही मूलवेद, प्रकृतिवेद अथवा आद्यवेद है। मिजा ३. पांचरात्र संहिताओं में कतिपय एकायन मन्त्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। ऐसे कुछ मन्त्रों पर एक दृष्टिपात उपादेय होगा १. “ॐ नमो ब्रह्मणे"३ शिकार २. “पूर्णात् पूर्णम्” इन मन्त्रों में यह ध्यान रखना चाहिये कि ये पूर्ण मन्त्र न होकर उनके संकेत मात्र हैं। ऐसी स्थिति में यह “पूर्णात् पूर्णम्” मन्त्र अथर्ववेद का अधोलिखित मन्त्र हो सकता है— १. पारमेश्वरसंहिता (१.३२,३३,३५,३७,५५,५६,७४-७६)। २. ईश्वरसंहिता (१.१८-२६)। ३. “एकायनांस्तदन्ते तु “ॐ नमो ब्रह्मणे तु यत्।” (पारमेश्वरसंहिता, १५.१८७) “ॐ नमो ब्रह्मणेऽभीक्ष्णं…..(पा.सं., १५.८४४) “एकायनांस्तदन्ते तु ॐ नमो ब्रह्मणे तु यत् ।” (सात्वतसंहिता, २५.५३) ४. “दत्वा तदर्थे पूर्णा तु “पूर्णात्पूर्ण” च पाठयेत्। एकायनान्…… || (पारमेश्वरसंहिता, १५.२१२-२१३) निजि जाट “एकायनांस्तदन्ते तु क्रमात् तान् पाठयेत्ततः ।। “पूर्णात्पूर्णेति” वै मन्त्रमाद्यात्पूर्णमसीति यत् । (पा.सं., १५.८६६-८६७) मिजा “दत्वा तदर्थ पूर्णां तु पूर्णात् पूर्णं च पाठयेत्। शिल्पा एकायनान्…….।।” (सात्वतसंहिता, २५.६५-६६)पांचरात्र-परम्परा और साहित्य पूर्णात् पूर्णमुदञ्चति पूर्ण पूर्णेन सिच्यते। ती उतो तद् य विद्याम यतस्तत्परिषिच्यते।।’ म अथवा यजुर्वेद का अधोलिखित शान्ति मन्त्र हो सकता है - ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। TET पान पालन पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ३.“यातव्येति"३ पला कि मीनिशान ४. “अजस्य नाभौग यह मन्त्र ऋग्वेद में इस रूप में प्राप्त होता है “अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन् का विश्वानि भुवनानि तस्युः। ५. “आ त्वा हार्षेति” ६ यह मन्त्र ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद इन तीनों वेदों में स्वल्प अन्तर के साथ उपलब्ध होता है। ६. “विश्वस्य मित्रम्” ७. “जितं ते” सम्भवतः यह प्रसिद्ध “जितन्ता-स्तोत्र” की ओर संकेत करता है, जिसके द्वारा श्वेतद्वीप में भगवान् की स्तुति की गयी थी। इसका उल्लेख महाभारत में इस रूप में किया गया है - मानस पास मातीशांनी पती मिशन १. अथर्ववेद, १०.८.२६ २. यजुर्वेद, शान्तिमन्त्र ३. “यातव्येति” परं मन्त्रं विप्रानेकायनांस्तथा।” (पारमेश्वरसंहिता, १५.३५३; सात्वतसंहिता, २५.११८,२५६) ४. “अजस्य नाभावित्यादिमन्त्रैरेकायनैस्ततः। (पारमेश्वरसंहिता, १५.५६२) “अजस्य नाभावध्येकमिति” (सात्वतसंहिता, २५.१७०; श्रीप्रश्नसंहिता, ६.५६, २४.२०५) ५. ऋग्वेद, १०.८२.६ ६. “आ त्वा हार्षेति” सह वै प्रतिष्ठासीति पाठयन् । “विश्वस्य मित्र"मित्यादि मन्त्रमेकायनान् द्विजान् ।।” (पारमेश्वरसंहिता, १५.८४३) शन ७. ऋग्वेद, १०.१७३.१, यजुर्वेद, १२.११, अथर्ववेद, ६.८७.१ मा ८. “ॐ नमो ब्रह्मणेऽभीक्ष्णं जितं ते त्वेवमेव हि।” (पारमेश्वरसंहिता, १५.८४४) 5 तन्त्रागम-खण्ड जितं ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन। नमस्तेऽस्तु हृषीकेश महापुरुषपूर्वज ।। ’ इसे पांचरात्रागम के श्रीमदष्टाक्षरकल्प में सम्मिलित किया गया है तथा इसे ऋग्वेद के खिल भाग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। स्पन्दप्रदीपिकाकार उत्पल वैष्णव ने अपने ग्रन्थ में कुछ वचन पांचरात्र श्रुति तथा पांचरात्रोपनिषद् से उदाहृत किये हैं। यदि यह मान लिया जाय कि “पांचरात्रश्रुति” अथवा “पांचरात्रोपनिषद्’ से उत्पल वैष्णव को एकायन वेद ही अभिप्रेत है, तो निम्न वाक्यों को एकायन वेद के अन्तर्गत ही मानना होगा - पाञ्चरात्रश्रुतावपि ८. “यद्वत् सोपानेन प्रासादमारुहेत् प्लवेन वा नदी तरेत् तद्वच्छास्त्रेणैव हि भगवान् शास्ताऽवगन्तव्यः”। पाञ्चरात्रोपनिषदि च ६. “ज्ञाता च ज्ञेयं च वक्ता च वाच्यं च भोक्ता च भोग्यं च।” इत्यादि। तथाऽत्रैव १०. “सर्वान्तरं सर्वबाह्यं स्वयंज्योतिः स्वयंसम्बोध्यं स्वयम्भूरिति च” इति। T: उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एकायन शाखा के कुछ मन्त्र ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में भी प्राप्त होते हैं और कुछ मन्त्र किसी भी वेद में नहीं आते। इससे यह सम्भावना भी की जा सकती है कि एकायन वेद एक ऐसा वेद है, जिसमें अनेक स्थानों से लिये गये मन्त्रों का संग्रह है। किन्तु यह सब सम्भावना मात्र है। इस सम्बन्ध में लिया गया कोई भी निर्णय अतिशीघ्रता में लिया गया कहलायेगा।

पांचरात्र, एकायन तथा पुरुषसूक्त

पांचरात्र संहिताओं में न केवल वैदिक मन्त्रों का प्रचुर प्रयोग तथा माहात्म्य दृष्टिगत होता है, अनेक वैदिक सूक्त भी विशेष महत्त्व से सम्पन्न दिखायी देते हैं। इन वैदिक सूक्तों १.. महाभारत, शान्तिपर्व, ३३६,४४ २. Bibliography of Visistadvaite works. Vol. 11, P.44 पनि वानी की निशान ३. स्पन्दप्रदीपिका, पृ. २, पं. १६-१६ अर्वनाम Otपज ४. तत्रैव, पृ. ३६, पं. २७, पृ. ४०, पं. १ ) का हक तो शामिल गि ७७ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य में भी “पुरुषसूक्त” सर्वाधिक गौरव से युक्त है। “लक्ष्मीतन्त्र” में श्री की यह उक्ति द्रष्टव्य एको नारायणो देवः श्रीमान् कमललोचनः। एकाहं परमा शक्तिः सर्वकार्यकरी हरेः।। तयोनौ हृदि संकल्पः कश्चिदाविर्बभूव ह। उत्तारणाय जीवानामुपायोऽन्विष्यतामिति।। आवाभ्यामुत्थितं तेजः शब्दब्रह्ममहोदधिः। मथ्यमानात्ततस्तस्मादभूत् सूक्तद्वयामृतम् ।। पुरुषस्य हरेः सूक्तं मम सूक्तं तथैव च। अन्योन्यशक्तिसम्पृक्तमन्योन्यार्णपरिष्कृतम् ।। नारायणार्षमव्यक्तं पौरुषं सूक्तमिष्यते। अन्यन्मदार्षकं सूक्तं श्रीसूक्तं यत् प्रचक्षते।। अष्टादश ऋचः प्रोक्ताः पौरुषे सूक्तसत्तमे। मगर इस प्रकार पांचरात्र संहिताओं का पुरुषसूक्त के साथ कोई विशिष्ट घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्थूल रूप से ही यदि देखा जाय, तो पांचरात्र, एकायन तथा पुरुषसूक्त में सम्बन्ध स्पष्टतया परिलक्षित होता है - १. पांचरात्र, एकायन तथा पुरुषसूक्त इन तीनों का भगवान् नारायण से सम्बन्ध है। पांचरात्र के आदिवक्ता भगवान् नारायण हैं २ । वही एकायनवेद के भी उपदेशक हैं। इसी प्रकार पुरुषसूक्त के ऋषि के रूप में नारायण प्रसिद्ध हैं। यदि पांचरात्र, एकायन और पुरुषसूक्त इन तीनों के वक्ता अथवा उपदेशक नारायण हैं, तो तीनों किसी न किसी रूप में सजातीय हुए। २. मोक्ष के एक मार्ग को छोड़ कर दूसरा कोई मार्ग नहीं है। उस एक मार्ग के प्रतिपादक शास्त्र को “एकायन” कहते हैं कि कम किया जा १. लक्ष्मीतन्त्र, ३६.६६, ७१-७४, ७६; पुनरपि द्रष्टव्य सुखिनः स्युरिमे जीवाः प्राप्नुयुनौ कथं विति। उपायान्वेषणायत्तो परमेण समाधिना।। भला पाय काहFAIR FE मथ्नीवः स्मातिगम्भीरं शब्दब्रह्ममहोदधिम् । मथ्यमानात्ततस्तस्मात् सामय॑जुषसंकुलात् ।। तत्सूक्तमिथुनं दिव्यं दध्नो घृतमिवोत्थितम् । तत्र पुंलक्षणं सूक्तं सद्ब्रह्मगुणभूषितम्। स्वीचकारारविन्दाक्षः स्वमहिम्नि प्रतिष्ठितम्। (ल.त. ५०.१२-१४,१६,१७) २. “पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायणः स्वयम्।" (महा. शान्ति., ३४६.६७) मानित ३. ईश्वरसंहिता, २१.५३०-५३४ ७८ तन्त्रागम-खण्ड शृणुध्वं मुनयः सर्वे वेदमेकायनाभिधम् ।। मोक्षायनाय वै पन्था एतदन्यो न विद्यते। तस्मादेकायनं नाम प्रवदन्ति मनीषिणः।।’ ऐसा प्रतीत होता है कि पुरुषसूक्त की अधोलिखित पंक्तियों की यह प्रतिध्वनि ही वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ।। आपाततः इस मन्त्र में “एकायन" शब्द और अर्थ की प्रतीति हो रही है। ३. इस सन्दर्भ में शतपथब्राह्मण का निम्नलिखित वचन द्रष्टव्य है ___ “पुरुषो ह नारायणोऽकामयत। अतिष्ठेयं सर्वाणि भूतान्यहमेवेदं सर्व स्यामिति। स एतं पुरुषमेधं पञ्चरात्रं शतक्रतुमपश्यत्तमाहरत्तेनाऽयजत। तेनेष्ट्वाऽत्यतिष्ठत् सर्वाणि भूतानीदं सर्वमभवत्।“३ ___ इस वाक्य में यह बताया गया है कि पुरुष नारायण ने ‘मैं सर्वोत्कर्ष को प्राप्त करूँ, मैं ही सब कुछ हो जाऊँ” इस उद्देश्य से पुरुषमेध नामक पंचरात्र क्रतु का अनुष्ठान किया और उससे अपने उद्देश्य की प्राप्ति की। यह स्थल पांचरात्र तथा पुरुषसूक्त के बीच सेतु का कार्य करने वाला सबसे प्राचीन सन्दर्भ है। पुरुषसूक्त के ऋषि नारायण और देवता पुरुष है। शतपथ ब्राह्मण तक नारायण और पुरुष की एकता स्थापित हो चुकी थी। पुरुषसूक्त में “स भूमिं सर्वतो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्” ४ के द्वारा पुरुष का सर्वातिशायी होना बताया गया है। शतपथब्राह्मण के उद्धृत वचन “तेनेष्ट्वाऽत्यतिष्ठत् सर्वाणि भूतानीदं सर्वमभवत्’ में उसी पुरुषमेध ऋतु के द्वारा पुरुष के सर्वातिशायी होने की बात कही गयी है। पुरुष सूक्त में भी पुरुषमेध यज्ञ का ही प्रतिपादन किया गया है । जिस प्रकार हम यह कहते हैं कि जिस पुरुषमेध यज्ञ का प्रतिपादन पुरुषसूक्त में किया गया है, वही यज्ञ शतपथब्राह्मण की उपर्युदाहृत पंक्तियों में अनूदित हुआ है, उसी प्रकार यह भी कह सकते हैं कि शतपथब्राह्मण में उल्लिखित पुरुषमेध एक पंचरात्र क्रतु है और उसी प्रकार यह भी कहना चाहिये कि पुरुषसूक्त में जिस यज्ञ का प्रतिपादन है, वह पंचरात्र पुरुषमेध यज्ञ है। _ इस प्रकार पंचरात्र, पुरुषसूक्त और एकायन के किसी न किसी रूप में परस्पर सम्बद्ध होने के संकेत प्राप्त होते हैं। १. ई.सं., १.१६ तथा २१.५३४-५३५ २. पुरुषसूक्त, १८ ३. शतपथब्राह्मण, १३.६.१.१ मा ४. पुरुषसूक्त, १ ५. पु.सू.१ काममा हाल निकालना पांचरात्र-परम्परा और साहित्य

पांचरात्र शब्द

पांचरात्र शब्द अपने अर्थ के विषय में विचारकों के मन में बहुत अधिक कौतूहल उत्पन्न करता रहा है। विभिन्न ग्रन्थों में यह शास्त्रविशेष कहीं पांचरात्र अथवा कहीं पंचरात्र शब्दों के द्वारा सम्बोधित किया जाता है। दोनों ही शब्द समानार्थक हैं। तथापि यह प्रश्न तो विचारणीय है ही कि यह शास्त्रविशेष पांचरात्र संज्ञा से किस कारण अभिहित किया गया? अतः पांचरात्र अथवा पंचरात्र शब्दों के यत्र-तत्र जो विभिन्न अर्थ बताये गये हैं। उन पर दृष्टिपात उपयोगी होगा।

शब्द की निष्पत्ति-

सर्वप्रथम “पंचरात्र” शब्द की निष्पत्ति का स्वरूप विचारणीय है। “पञ्चानां रात्रीणां समाहारः” इस प्रकार यहाँ पर द्विगु-तत्पुरुष समास का होना स्पष्ट ही है। “अहःसर्वैकदेशसंख्यातपुण्याच्च रात्रेः” इस सूत्र की यहाँ प्रवृत्ति होती है। इसके अनुसार अहः, सर्व, एकदेश, संख्यात, पुण्य, संख्या और अव्यय जिनके पूर्व में हैं, ऐसे रात्रि शब्दान्त तत्पुरुष से परे “अच्" यह तद्धित प्रत्यय होगा-पंचरात्रि + अच्। “अच्" प्रत्यय के चकार का “हलन्त्यम्" २ से इत्संज्ञा होकर लोप हो जाता है- पंचरात्रि+अ। “यचि भम्" ३ सूत्र से पंचरात्रि की भ-संज्ञा हो जाती है। इसके पश्चात् “यस्येति च" ४ सूत्र की प्राप्ति होती है। इसके अनुसार ईकार या तद्धित प्रत्यय परे हो तो भ-संज्ञक इवर्ण और अवर्ण का लोप हो जाता है। लोप हो जाने पर पंचरात्र+अ=“पंचरात्र” रूप बनता है। अब इसके पश्चात् लिंग-विचार करना चाहिये। “द्विगुरेकवचनम्’’ इस सूत्र के अनुसार समाहार-द्विगु एकवचन होता है। इस प्रकार जिसके एकवचनत्व का विधान किया गया है, वह द्विगु अथवा द्वन्द्व नपुंसक-लिंग होता है, यह “स नपुंसकम्” ६ सूत्र से विहित किया गया है। इस प्रकार पंचरात्र शब्द में नपुंसकत्व की प्राप्ति होने पर “परवल्लिङ्ग द्वन्द्वतत्पुरुषयोः” ७ इस सूत्र से स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है। “रात्रानाहाः पुंसि"८ इस अपवाद सूत्र से पुंस्त्व की प्राप्ति, तदनन्तर पुंस्त्व को भी बाधित करके “संख्यापूर्वं रात्रं क्लीबम्'६ सूत्र से नपुंसकलिंगत्व का विधान होता है। इस प्रकार प्रातिपदिक कार्य के पश्चात् “पचरात्रम् रूप निष्पन्न हाता । हाल जानना अन्य د نیا پر १. अष्टाध्यायी, ५.४.८७ २. वहीं, १.३.३ ३. वहीं, १.४.८ ४. वहीं, ६.४.१४८ ५. वहीं, २.४.१ कि वहीं, २.४.१७ ७. वहीं, २.४.२६ मा ८. वहीं, २.४.२६ ६. वहीं. वार्त्तिक तन्त्रागम-खण्ड “पंचरात्र” शब्द के समान “पांचरात्र” शब्द उसी अर्थ में बहुलता के साथ प्रयुक्त होता है। पाँच रातों में निर्मित ग्रन्थ अथवा शास्त्र इस अर्थ में “पंचरात्रि” शब्द से “कृते ग्रन्थे’ इस सूत्र से अथवा इदमर्थ में (पाँच रातों से सम्बद्ध) इस अर्थ में “तस्येदम्"२ सूत्र से अण् प्रत्यय की प्राप्ति होगी- पंचरात्रि+अण्। “हलन्त्यम्"३ से अन्तिम हल का लोप होकर “तद्धितेष्वचामादेः” ४ से णित् तद्धित परे होने के कारण “पंचरात्रि” शब्द के आदि अच् की वृद्धि हो जायगी- पांचरात्रि+अ। एतदनन्तर “यस्येति च” ५ से भसंज्ञक इ वर्ण का लोप होकर पांचरात्+अ=“पांचरात्र” शब्द की निष्पत्ति होती है। पूर्वोल्लिखित नियमानुसार नपुंसकत्व की प्राप्ति होकर “पांचरात्रम्” यह शब्द बन जाता है। उपर्युक्त पद्धति से जब हम शब्द-निष्पत्ति के स्वरूप पर विचार करते हैं, तो “पंचरात्रम्” और “पांचरात्रम्” दोनों ही शब्द साधु सिद्ध होते हैं, किन्तु इसके साथ ही दोनों के अर्थ में भेद भी दृष्टिगत होता है। “पञ्चानां रात्रीणां समाहारः" इस अर्थ में समाहार द्विग से निष्पन्न “पंचरात्रम” यह शब्द पाँच रातों के परिमित समय का बोधक होता है। “पांचरात्रम्" यह शब्द “कृते ग्रन्थे” ६ सूत्र से निष्पन्न होने पर पाँच रातों में निर्मित ग्रन्थ अथवा शास्त्र का बोधक होता है और “तस्येदम्” ७ इस सूत्र से निष्पन्न होने पर पाँच रातों से सम्बद्ध वस्तु का बोधक होता है, या पाँच रातों से सम्बद्ध शास्त्र का बोधक हो सकता है। यद्यपि इस पद्धति से विचार करने पर दोनों शब्दों के अर्थों में भेद होना चाहिये था, तथापि दोनों ही शब्द परम्परया शास्त्र-विशेष का अभिधान करते हैं और इस प्रकार समानाभिधायी हैं। पांचरात्र शब्द तो शास्त्रविशेष का वाचक है ही, किन्तु पाँच रातों के परिमित समय का वाचक “पंचरात्र” शब्द भी प्रयोग, परम्परा, रूढि अथवा लक्षणा से शास्त्र-विशेष का वाचक हो सकता है। ऐसा अर्थ करने में किसी प्रकार का अनौचित्य नहीं

पांचरात्र शब्द का अर्थ-

इस प्रकार हम देखते हैं कि “पंचरात्र” अथवा “पांचरात्र” शब्द व्याकरण की दृष्टि से पूर्णतया साधु हैं, तथापि यह प्रश्न तो बना ही रहा कि यह नारायणोपदिष्ट शास्त्र-विशेष क्यों और कैसे पांचरात्र शब्द से वाच्य हो गया? पांचरात्र संहिताएँ स्वयं पांचरात्र शब्द से बलात् भिन्न-भिन्न और परस्पर-विरोधी अर्थों का प्रतिपादन करती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। ऐसी स्थिति में विद्वानों में ऐकमत्य का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः विभिन्न संहिता-ग्रन्थों में पांचरात्र शब्द के जो अर्थ बताये गये हैं, यहाँ उन सबका विवेचन क्रमशः प्रस्तुत किया जायगा। १. अष्टाध्यायी. ४.३.११६ २. वहीं. ४.३.१२० ३. वहीं. १.३.३ ४. वहीं. ४.३.११७ ५. वहीं. ६.४.१४८ ६. वहीं. ४.३.११६ ७. वहीं. ४.३.१२० ८१ १. पांचरात्र-परम्परा और साहित्य “अव्यक्त” आदि का पंचरात्रित्व प्रतिपादन-कुछ पांचरात्र संहिताएँ अव्यक्त आदि तत्त्वों के पंचरात्रित्व प्रतिपादन में ही पांचरात्र शब्द की अर्थवत्ता देखती हैं। इस सन्दर्भ में परमसंहिता, विष्णुतन्त्र’ परमसंहिता की भूमिका आदि में देखा जा सकता । पंचमहाभूतों का रात्रित्व प्रतिपादन-इसी प्रकार कुछ संहिताएँ भूतगणों के रात्रित्व के प्रतिपादन के कारण पांचरात्र शब्द की अर्थवत्ता का प्रतिपादन करती हैं। उपर्युदाहृत विष्णुतन्त्र’ इस शब्द की दूसरी व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। - हयशीर्षसंहिता में पंचमहाभूतों के रात्रित्व का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया आकाशवायुतेजांसि पानीयं वसुधा तथा। एता वै रात्रयः ख्याता ह्यचैतन्यास्तमोत्कटाः।। इस प्रकार यहाँ पाँच महाभूतों के रात्रित्व-प्रतिपादन के कारण यह शास्त्र पांचरात्र संज्ञक हुआ, ऐसा कहा गया है। ३. पंचतन्मात्राओं का रात्रित्व प्रतिपादन-विष्णुतन्त्र का कथन है कि यहाँ भूतगुणों को रात्रि कहा गया है। “भूतानां गुणाः" भूतों के गुण इस प्रकार पंचतन्मात्राएँ ही भूतगुण शब्द का अर्थ होगा।’ परमसंहिता में भी इसी प्रकार पंचरात्र शब्द का अर्थ प्रतिपादित किया गया है। विष्णुतन्त्रोक्त “देहभूतगुणाः” पाठ की अपेक्षा परमसंहिता में प्रयुक्त पाठ में “महाभूतगुणाः” स्पष्ट होने के कारण अधिक उचित है। अर्थ की दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है। पाँच तन्मात्राओं को स्पष्ट ही रात्रि कहा गया है। इसी कारण इस शास्त्र को पांचरात्र कहा गया है। ४. गुणों और मात्राओं, दोनों का रात्रित्व प्रतिपादन-ऊपर कहीं महाभूतों को रात्रि कहा गया है और कहीं पाँच तन्मात्राओं को, किन्तु कपिञ्जलसंहिता में महाभूत और तन्मात्र दोनों के ही रात्रित्व का प्रतिपादन किया गया है। “पृथिव्यादीनि भूतानि” इन पदों के द्वारा पाँच महाभूतों के तथा “गुणाः” इस पद के द्वारा पाँच तन्मात्राओं के रात्रित्व का यहाँ स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार भूत और गुण दोनों के १. विष्णुतन्त्र, १.७८-८१; भार्गवतन्त्र-भूमिका, पृ. ठ से उदाहृत। २. वित. परमसंहिता की भूमिका, पृ. ३७ पर उदाहृत। -YEARRC फर ३. हयशीर्षसंहिता (आ.का. ४.२) TES - मा . ४. विष्णुतन्त्र (परमसंहिताभूमिका, पृ. ३७)। ५. परमसंहिता १.३६-४० PER बांका। ६. कपिज्जलसंहिता, (१.३१-३२), भार्गवतन्त्रभूमिका, प. ठ। IRRITE तन्त्रागम-खण्ड रात्रित्व का प्रतिपादन यहाँ किया गया है। विष्णुसंहिता’ में भूत और गुण दोनों में से किसी एक के रात्रित्व का विकल्प से प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार उपर्युदाहृत संहिताएँ पांचरात्र शब्द की अर्थवत्ता बतलाती हैं। जो शास्त्र अव्यक्त आदि पाँच तत्त्वों के रात्रित्व का कथन करता है, वही महाभूतों के रात्रित्व का भी प्रतिपादन करता है। जो शास्त्र महाभूतों के रात्रित्व का निश्चय करता है, वही तन्मात्राओं के रात्रित्व की भी सिद्धि करता है। ५. पाँच रात्रियों में उपदेश-पाँच अहोरात्रों में अध्यापन किये जाने के कारण इस शास्त्र को पांचरात्र कहते हैं, ऐसा भी विभिन्न पांचरात्र संहिताओं में कहा गया है। अन्य अर्थों की अपेक्षा यह अर्थ तर्कसम्मत होने के कारण श्रद्धेय है। इस अर्थ का प्रतिपादन करने वाली संहिताओं में प्रमुख है-प्रसिद्ध ईश्वरसंहिता। इस संहिता के अनुसार शाण्डिल्य, औपगायन, मौंजायन, कौशिक और भारद्वाज-इन पाँच योगियों ने ईश्वराराधन के लिये तोताद्रि पर दुस्तर तप किया। उस तप से प्रसन्न होकर वासुदेव ने एक-एक अहोरात्रों में उन पाँचों योगियों को उपदेश किया। पाँच अहोरात्रों में उपदेश किये जाने के कारण यह शास्त्र “पांचरात्र'२ नाम से प्रसिद्ध हुआ। मार्कण्डेयसंहिता में यही बात इन शब्दों में कही गयी है -शिवाय सार्धकोटिप्रमाणेन कथितं त रात्रिभिः पञ्चभिः सर्वं पाञ्चरात्रमिति स्मृतम् ।।३ यद्यपि परमसंहिता में पांचरात्र शब्द का अव्यक्त आदि परक अर्थ बताया गया है और यहाँ इसके पूर्व इसकी चर्चा भी की गयी है, तथापि उपसंहारात्मक अन्तिम अध्याय में प्रकारान्तर से पंच अहोरात्रपरक अर्थ भी प्रतिपादित किया गया है। पंचरात्र शब्द से अहोरात्रपरक अर्थ सरलता से प्राप्त हो जाता है। पांचरूप्य का प्रतिपादन-पांचरात्र सिद्धान्त में भगवान् वासुदेव का पांचरूप्य प्रसिद्ध है। इस सिद्धान्त को विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में स्वीकार भी किया गया है। ६अहिर्बुध्न्यसंहिता भगवान् के पांचरूप्य का प्रतिपादन करती है। यहाँ विष्णु के पर, व्यूह और विभव इन तीन रूपों का स्पष्ट निर्देश दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि यहाँ के-लिहिण आसिन का कहना की। तब जावा १. विष्णुसंहिता, २.४६-५० २. ईश्वरसंहिता, २१.५१६-५२१, ५३२-५३३ APE OF ३. मार्कण्डेयसंहिता, १.२२-२३ (भार्गवतन्त्र-भूमिका, पृ. ठ)। ४. परमसंहिता, ३१.१६-२० ५. यतीन्द्रमतदीपिका, पृ. १३३ . ६. अहिर्बुध्यसंहिता, ११.६३-६५ लगा कि काही गत Au पांचरात्र-परम्परा और साहित्य अन्तर्यामी और अर्चा ये दो अन्य रूप नहीं गिनाये गये हैं, तथापि “स स्वयं विभिदे तेन पञ्चधा पञ्चवक्त्रगः” यहाँ भगवान् के सुदर्शन नामक संकल्प का जो पंचधा विभजन कहा गया है, उसके आधार पर डॉ. श्राडर आदि विद्वान् नाम्ना अनुल्लिखित होते हुए भी उन दोनों रूपों का उल्लेख मान लेते हैं। ‘डॉ. श्राडर अपने इस मत के समर्थन में शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित पंचरात्र क्रतु की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। शतपथ ब्राह्मण के इस अंश में कहा गया है कि पुरुष नारायण ने “अहमेवेदं सर्वं स्याम्"२ इस इच्छा से पंचरात्र पुरुषमेध याग किया, जिससे वह सब कुछ हो गया, सर्वातिशायी हो गया। डॉ. श्राडर का यह कथन तो सर्वथा सत्य है कि शतपथ ब्राह्मण के उल्लिखित स्थल पर पंचरात्र शब्द सर्वप्रथम प्राप्त होता है, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि नारायण ने “सर्व स्याम्" इस इच्छा से पंचरात्र याग का अनुष्ठान किया, न कि “पञ्चधा स्याम्" इस इच्छा से। अतः भगवान् के पांचरूप्य के साथ पंचरात्र शब्द का संबन्ध सरलतया स्थापित नहीं हो पाता। श्रीप्रश्नसंहिता में भी भगवान् का पांचरूप्य स्वीकार किया गया है, किन्तु इस पांचरूप्य की कुछ अपनी ही विशेषता है। इसमें प्रसिद्ध अन्तर्यामी शब्द के स्थान पर हार्द शब्द का प्रयोग किया गया है। यथा मन्मूर्तयः पञ्चविधा वदन्त्युपनिषत्सु च। परो व्यूहो हार्द इति विभवोऽर्चेति भेदतः।। ३ - यहाँ कहे गये हार्द रूप के विषय में इसी संहिता का कहना है - योगतत्त्वेन मुनयः सदा मां ध्यानगोचरम्। पश्यन्ति देवि हृन्मध्ये तस्मान्मां हार्द उच्यते।। शि विष्वक्सेनसंहिता में भी पाँच ही रूप माने गये हैं। इस प्रकार भगवान् वासुदेव का यह पांचरूप्य पांचरात्र शास्त्र का एक प्रतिपाद्य विषय है। किन्तु यदि इसी को पांचरात्र संज्ञा का प्रवृत्तिनिमित्त मान लिया जाय, तो इस पांचरूप्य को इतना प्रसिद्ध होना चाहिये कि इसके विषय में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति के लिये अवकाश ही १. Introduction to Pancaratra and Ahirbudhnya sanhita, p. 25-26 २: “पुरुषो ह नारायणोऽकामयत अतिष्ठेयं सर्वाणि भूतान्यहमेवेदं सर्व स्याम् । इति स एतं पुरुषमेधं पञ्चरात्रं शतक्रतुमपश्यत्तमाहरत्तेनाऽयजत। तेनेष्ट्वा ऽत्यतिष्ठत्सर्वाणि भूतानीदं सर्वमभवत्" (शतपथब्राह्मण, १३.६.१)। ३. श्रीप्रश्नसंहिता, २.५४-५५ ४. वहीं, २.५६ ५. विष्वक्सेनसंहिता, (ईश्वरप्रकरण, वरवरमुनिभाष्य में उदाहृत)। डाक की तन्त्रागम-खण्ड बाण की न हो। किन्तु पांचरात्र संहिताओं में ही रूपों की संख्या के विषय में विविध मत प्राप्त जोग होते हैं। ‘सात्वतसंहिता में परब्रह्म के त्रैविध्य को ही स्वीकार किया गया है। इस प्रकार त्रैविध्य का उल्लेख करने के पश्चात पर-व्यह-विभव रूपों का विस्तार में स्वरूप बतलाया गया है। यह त्रैरूप्य लक्ष्मीतन्त्र में भी प्रतिपादित है। ना लक्ष्मीतन्त्र में ही इसके पूर्व “अर्चा” रूप को सम्मिलित करके चातूरूप्य का भी प्रतिपादन किया गया है। अतः यदि पांचरूप्य पांचरात्र संज्ञा का प्रवृत्तिनिमित्त होता, ता तो प्रसिद्ध पांचरात्रसंहिताओं में पांचरूप्य के स्थान पर त्रैरूप्य अथवा चातूरूप्य का जा प्रतिपादन दृष्टिगोचर न होता। विधामा ७. पांचरात्र-संज्ञक मनुष्यों का परिपालन-विश्वामित्रसंहिता में पांचरात्र शब्द के तीन अर्थ बताये गये हैं। यहाँ सर्वप्रथम प्रथम अर्थ को विमर्श का विषय बनाया जा रहा है। पंच शब्द के अर्थ का विवेचन करते हुए कहा गया है कि पाँच इन्द्रियाँ, पाँच विषय, पाँच भूत और पाँच गुण - ये ‘पंच’ शब्द वाच्य हैं। इसके पश्चात् “रा" शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है - मशरण कि “रा” धातु धातुपाठों में आदानार्थक माना गया है। इस प्रकार “पंचरा” शब्द का अर्थ होता है “विषयेन्द्रियभूतानामादातारः” अर्थात् मनुष्य। पंचरा-संज्ञक मनुष्यों का परिपालन करने के कारण इस शास्त्र को पंचरात्र या पांचरात्र कहा जाता है। इतर पाँच शास्त्रों का रात्रित्व प्रतिपादन-पांचरात्र शास्त्र के समक्ष अन्य पाँच शास्त्र रात्रित्व को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात् मलिन हो जाते हैं, इस कारण इस शास्त्र को पांचरात्र कहते हैं। यह मत भी विश्वामित्रसंहिता’ में ही प्रदर्शित है। यही अर्थ अनिरुद्धसंहिता में भी प्रतिपादित किया गया है। इसी प्रकार की शब्दावली में यही अर्थ पाद्मसंहिता में भी प्रतिपादित हुआ है। सांख्य, योग आदि वे पाँच शास्त्र कौन से हैं, जो पांचरात्र शास्त्र की सन्निधि में रात्रित्व को प्राप्त हो जाते हैं, इसको स्पष्ट शब्दों में कहीं नहीं कहा गया है। यहाँ सांख्य तथा योग का तो स्पष्ट रूप से कथन किया गया है, किन्तु तीन अन्य शास्त्र कौन से हैं यह स्पष्ट नहीं होता। वस्तुतः उपर्युदाहृत वचन पांचरात्र शास्त्र के उत्कर्ष का प्रतिपादक मात्र है। १. सात्वतसंहिता, १.२३: stions duriensistome otnchayroin २. ल. त. १०. १०-११, मन व पाशाजार , शीट काम पियार ३. ल. त., २-६० नकार किया कि काटाकाटकाममहकमा विचार परिक्षा विश्वामित्रसंहिता, २.३-४ ५. वहीं, २.४-६ ६. अ. नि. १.३५-३८ भार्गवतन्त्रभूमिका, पृ. ठ पर उदाहृत। ७. पाद्मसंहिता, ज्ञानपाद, १.७२-७४ । गिरि लामापांचरात्र-परम्परा और साहित्य Fजाए ६. अज्ञान की विनाशकता-अज्ञानविनाशक होने के कारण भी इस शास्त्र को पंचरात्र कहा गया है। श्रीप्रश्नसंहिता का कहना है कि पंचरात्र शब्द में स्थित रात्रि शब्द का अज्ञान अर्थ है और पंच शब्द का अर्थ है विनाशक । इस प्रकार श्रीप्रश्नसंहिता के अनुसार पंचरात्र शब्द का अर्थ है “अज्ञान को नष्ट करने वाला”। यह भी एक बलपूर्वक आकृष्ट अर्थ है। आदि १०. रात्र-संज्ञक पाँच परिच्छेदों का समावेश- भारद्वाजसंहिता नाम की अनेक पांचरात्र संहिताएँ हैं। इनमें से किसी एक भारद्वाजसंहिता में यह कहा गया है कि रात्र-संज्ञक पाँच परिच्छेदों से युक्त होने के कारण इस शास्त्र को पंचरात्र कहते हैं। यहाँ १. ब्रह्मरात्र, २. शिवरात्र, ३. इन्द्ररात्र, ४. नागरात्र तथा ५. ऋषिरात्र - इन पाँच परिच्छेदों का उल्लेख किया गया है। सनत्कमारसंहिता अपर्ण ही उपलब्ध होती है। इस संहिता में भी रात्र नामक परिच्छेद प्राप्त होते हैं। किन्तु प्राप्त होने वाले जिला परिच्छेदों की संख्या चार ही है। यथा- १. ब्रह्मरात्र, २. शिवरात्र, ३. इन्द्ररात्र और ४. ऋषिरात्र। भारद्वाजसंहिता में कहा गया “नागरात्र" यहाँ उपलब्ध नहीं होता। अतः सनत्कुमारसंहिता के अप्राप्त परिच्छेद का नाम “नागरात्र" होना चाहिये। ११. पंचकाल का प्रतिपादन-पांचरात्र-सम्प्रदाय में पंचकाल विभाग का अत्यन्त महत्त्व है। अहोरात्र का प्रत्येक क्षण भगवान् के लिए समर्पित हो, इस भावना से अहोरात्र को पाँच भागों में विभाजित किया गया है, किन्तु यह पंचकाल-विभाग पंचरात्र संज्ञा के हेतु के रूप में संहिताओं में उपलब्ध नहीं होता। इस अर्थ के विषय में वेदान्तदेशिक विशेष रूप से श्रद्धालु दिखायी देते हैं। उनके पांचरात्ररक्षा नामक ग्रन्थ का यह उपसंहारात्मक श्लोक द्रष्टव्य है कि विदितनिगमसीम्ना वेङ्कटेशेन तत्तद् बहुसमयसमक्षं बद्धजैत्रध्वजेन। प्रतिपदमवधानं पुष्यतां सात्त्विकानां का परिषदि विहितेयं पञ्चकालस्य रक्षा ।। ३ श्री वेदान्तदेशिक के ग्रन्थ का नाम है “पांचरात्ररक्षा’। ग्रन्थ के नाम के अनुरूप ही उपसंहार को भी होना चाहिए- “विहितेयं पंचरात्रस्य रक्षा”, इस रूप में। ऐसा न कहकर श्रीदेशिक कहते हैं- “विहितेयं पञ्चकालस्य रक्षा”। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी दृष्टि में पंचरात्र और पंचकाल शब्द समानार्थक ही हैं। पंचरात्र के साथ पंचकाल का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध प्रतीत होता है। श्री देशिक के ही शब्दों में - है १. श्रीप्रश्नसंहिता, २.४० २. भारद्वाजसंहिता, (२.१२-१३) भार्गवतन्त्र-भूमिका, पृ. ‘ठ’ पर उदाहृत। ३. पांचरात्ररक्षा, पृ. १५४ क मी का तन्त्रागम-खण्ड म पञ्चकालव्यवस्थित्यै वेङ्कटेशविपश्चिता। शिवाला .. श्रीपाञ्चरात्रसिद्धान्तव्यवस्थेयं समर्थिता।। जा या श्री देशिक सर्वत्र प्रामाणिक विषय का ही प्रतिपादन करते हैं। अतः ऐसा कोई शास्त्रवचन अवश्य होना चाहिये, जिसमें पांचरात्र और पंचकाल का सम्बन्ध बताया गया हो, किन्तु ऐसा कोई शास्त्रवचन उपलब्ध नहीं हो सका है। अथवा यह भी हो सकता है कि श्री वेदान्तदेशिक का उपर्युक्त कथन पांचरात्र शब्द के अर्थ से निरपेक्ष एक सामान्य उक्ति हो। प्रो. डैनियल’ स्मिथ के अनुसार अनुपलब्ध पराशरसंहिता . में पंचकाल के साथ पांचरात्र का सम्बन्ध बताया गया है। बार १२. पंचसंस्कार का प्रतिपादन-१. ताप, २. पुण्ड्र, ३. नाम, ४. मन्त्र और ५. याग ताठ ये वैष्णवों के पाँच संस्कार हैं। पराशरसंहिता के अनुसार पांचरात्र शब्द के अर्थ का पंचसंस्कारों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। पराशरसंहिता १६६८ में बैंगलूर से तेलुगु लिपि में मुद्रित हुई थी, जो आज अनुपलब्ध है, किन्तु इसका विवरण डैनियल स्मिथ ने अपनी पुस्तक में विस्तार से दिया है। पंचसंस्कारों का पांचरात्र परम्परा के प्राचीन सन्दर्भो में उल्लेख न होने से पांचरात्र के अर्थ के साथ उसका सम्बन्ध एक कल्पना मात्र है। ति समाज १३. सांख्य, योग आदि के द्वारा प्राप्य आनन्द को प्रदान करना- “शाण्डिल्यसंहिता में १. सांख्य, २. योग, ३. शैव, ४. वेद तथा ५. आरण्यक- इन पाँच शास्त्रों को रात्रि शायी कहा गया है। इन पाँचों शास्त्रों का इष्ट अर्थ आनन्द जिस शास्त्र में प्राप्त होता है, उसे पांचरात्र कहते हैं। इस स्थल को देखकर महाभारत के निम्नलिखित वचन का स्मरण सहज ही हो जाता है— एवमेकं सांख्ययोगं वेदारण्यकमेव च। परस्पराङ्गान्येतानि पञ्चरात्रं च कथ्यते।। यहाँ १. सांख्य, २. योग, ३. वेद, ४. आरण्यक-यह चार शास्त्र पांचरात्र के अंग कहे गये हैं। यदि पाँच शास्त्र कहे गये होते, तो उनका सम्बन्ध पांचरात्र के साथ अधिक उपयुक्त होता। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ पर जिस एक शास्त्र का उल्लेख ही नहीं है, वह शाण्डिल्यसंहिता में कहा गया शैव शास्त्र ही है। १. वहीं, पृ. १०८ 2. A discriptive Bibliography of the Printed Texts of the Pancaratragama, Vol. I. p. 188 ३. वहीं ४. शाण्डिल्यसंहिता, १.४.७७ लाई कामगार - ५. महाभारत, शान्ति. ३४८.८१-८२ ८७ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य १४. प्रो. जे. गोण्डा ने इन मतों के अतिरिक्त- डॉ. वान व्यूतनेन की स्थापना की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जिसमें उन्होंने बुधस्वामी के बृहत्कथाश्लोकसंग्रह (२१.५६) क तथा विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा (३.५८) में प्रयुक्त पांचरात्रिक तथा रात्रिपंचक प्रयोगों के आधार पर कहा है कि सम्भवतः प्राचीन पांचरात्र मानने वाले ज्ञान के अन्वेषक थे और वानप्रस्थ आश्रम में रहते थे। राजा मामला इस प्रकार शास्त्रों में जिन मतों का प्रतिपादन किया गया, उन सबको संगृहीत करने का यथासम्भव यहाँ प्रयास किया गया है। इन मतों के पर्यालोचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पांचरात्र शब्द का अर्थ प्राचीनता के गर्भ में इस प्रकार विलीन हो गया है कि स्वयं पांचरात्र संहिताएँ ही इस विषय में भ्रान्त सी प्रतीत होती हैं। यही कारण है कि वे एकमत से किसी एक निश्चित तथा असन्दिग्ध अर्थ का प्रतिपादन नहीं कर पायी है। जिन अर्थों का प्रतिपादन किया गया है, वे हठाद् आकृष्ट तथा कष्टकल्पना से उद्भावित से प्रतीत होते हैं। हाँ, डॉक्टर श्राडर महोदय ने शतपथ ब्राह्मण के जिस स्थल का उल्लेख किया है, वह अवश्य विचारणीय है। वहाँ पंचरात्र क्रतु तथा उसके अनुष्ठाता के रूप में पुरुष नारायण का उल्लेख किया है। यह नारायण इस पांचरात्र सत्र के भी आद्य उपदेशक हैं। इस स्थल से प्रसिद्ध पुरुष सूक्त की स्मृति हो जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि शतपथ ब्राह्मण में नार्दष्ट पंचरात्र ऋतु का पांचरात्र शास्त्र के आरम्भिक रूप से घनिष्ठ सम्बन्ध है। उसी पंचरात्र क्रतु में पांचरात्र संज्ञा का रहस्य भी छिपा हुआ है।

पांचरात्र सम्प्रदाय की उपदेश परम्परा

पारमेश्वरसंहिता में ब्रह्मा के सात जन्मों में पृथक्-पृथक् रूप से पांचरात्र सम्प्रदाय के उपदेश का उल्लेख प्राप्त है। ब्रह्मा के सात जन्म इस प्रकार हैं - १. मानस, २. चाक्षुष, ३. वाचिक, ४. श्रावण, ५. नासिक्य, ६. अण्डज तथा ७. पंकज’। यही सात जन्म महाभारत में भी गिनाये गये हैं। इन सातों जन्मों में पांचरात्र सम्प्रदाय की उपदेश परम्परा का महाभारत में विशद वर्णन उपलब्ध होता है। यथा १. मानस जन्म-नारायण-फेनप ऋषिगण- वैखानस- सोम । तदनन्तर यह धर्म लुप्त हो गया। पटक जित १. A History of Indian Literature (Medieval Religious literature in Sanskrit), P-46-47 २. ब्रह्मणो मानसं जन्म प्रथमं चाक्षुषं स्मृतम्। द्वितीयं वाचिकं चान्यच्चतुर्थ श्रोत्रसम्भवम्।। नासिक्यमपरं चान्यदण्डजं पङ्कजं तथा। (पारमेश्वरसंहिता, १.३८-३६) ३. महाभारत, शान्ति, ३४७.४०-४३ ४. वहीं, ३४८. २३-५२ + तन्त्रागम-खण्ड गोल २.चाक्षुष जन्म-सोम-ब्रह्मा-रुद्र-बालखिल्य-ऋषिगण। इसके पश्चात् यह धर्म लुप्त हो गया। मिाः ३. वाचिक जन्म-नारायण-सुपर्ण ऋषि-वायु-विघसाशी ऋषिगण-महोदधि। इसके पश्चात् यह धर्म लुप्त होकर पुनः नारायण में विलीन हो गया। ४. श्रावण जन्म-नारायण-ब्रह्मा-स्वारोचिष मनु-शंखपद-सुवर्णाभ। तत्पश्चात् पुनः यह धर्म लुप्त हो गया। ५. नासिक्य जन्म-नारायण-ब्रह्मा-सनत्कुमार-वीरण प्रजापति-रैभ्य मुनि-कुक्षि । नारायण मुखोद्गत यह धर्म पुनः विलुप्त हो गया। शक ६.अण्डज जन्म-नारायण-ब्रह्मा-बर्हिषद् मुनिगण-ज्येष्ठ-अविकम्पन। इसके पश्चात् यह भागवत धर्म पुनः विलुप्त हो गया। न 213 ७.पंकज जन्म-नारायण-ब्रह्मा-दक्ष प्रजापति-आदित्य-विवस्वान् मनु-इक्ष्वाकु क्षयान्त में यह धर्म पुनः नारायण को प्राप्त हो जायगा। शामा वर्तमान सृष्टि पंकज ब्रह्मा की है। अतः उपर्युक्त उपदेश परम्परा वर्तमान युग में प्रवर्तमान भागवत धर्म की ही है। पारमेश्वरसंहिता में इस परम्परा को सम्भवतः कुछ संक्षिप्त कर दिया गया है। यथा - सप्तमे पङ्कजे सर्गे प्राप्तो भगवतस्तथा।। विवस्वता ततः प्राप्तो मनुनेक्ष्वाकुणा ततः। इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः।।’ तदनुसार यह धर्म नारायण-विवस्वान्-मनु-इक्ष्वाकु की परम्परा से उपदिष्ट होता हुआ इस लोक में व्याप्त हो गया। पारमेश्वरसंहिता में प्रतिपादित ब्रह्मा के पंकज जन्म की शास्त्रोपदेश परम्परा का ही गीता में भी उल्लेख किया गया है। यथा -मा इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। का विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिये कि उपर्युक्त गीता-वचन में कहा गया योग शब्द किसी अन्य शास्त्र का वाचक है। पारमेश्वरसंहिता में पूर्वोक्त उपदेश परम्परा को बतलाने के पूर्व इस शास्त्र की योग-संज्ञा का भी निर्देश किया गया है १. पारमेश्वरसंहिता, १.४१-४२ २. गीता, ४.१ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य या की त्यात हि एष कार्तयुगो धर्मो निराशीः कर्मसंज्ञितः। माना ज्या विकास योगाख्यो योगधर्माख्यः शास्त्राख्यश्च समागमः। ज मा प्रवर्त्यते भगवता प्रथमे प्रथमे युगे।।’ इससे यह स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है कि भगवद्गीता पांचरात्र और भागवत धर्म का ही व्याख्यान ग्रन्थ है।

पांचरात्र साहित्य

पांचरात्र साहित्य का आयाम अत्यन्त विस्तृत है। पांचरात्र संहिता-ग्रन्थों में एक सौ आठ संहिता-ग्रन्थों की संख्या बतायी गयी है। सम्भवतः इसका कारण है एक सौ आठ की संख्या को परम्परा में शुभ माना जाना। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पांचरात्र संहिताओं की संख्या एक सौ आठ ही है। एक सौ आठ की संख्या घोषित करके वस्तुतः गिनायी जाने वाली संहिताओं की संख्या कभी उससे अधिक हो जाती है। सर्वप्रथम डॉ. ओटो श्राडर ने अनेक संहिताओं में गिनायी गयी संहिताओं के आधार पर उनकी वास्तविक संख्या को निर्धारित करने का प्रयास किया। उन्होंने कपिंजलसंहिता में गिनायी गयी १०६, पाद्मतन्त्र में गिनायी गयी ११२, विष्णुतन्त्र में गिनायी गयी १४१, हयशीर्षसंहिता में गिनायी गयी ३४, तथा अग्निपुराण में गिनायी गयी २५ संहिताओं के आधार पर एक विस्तृत सूची तैयार की है । तदनुसार पांचरात्र आगम-ग्रन्थों की संख्या २१० है। डॉ. श्राडर के अनुसार यदि अन्य उपलब्ध संहिताओं को इनमें सम्मिलित कर लिया जाय, तो यह संख्या २१५ हो जायगी। यदि उदाहृत और उल्लिखित संहिताओं को भी ले लिया जाय तो ६ संख्याओं की वृद्धि होकर यह संख्या २२४ तक पहुँच जायगी। मा डॉ. श्राडर के समान ही अड्यार पुस्तकालय से प्रकाशित लक्ष्मीतन्त्र के उपोद्घात में सम्पादक पण्डित वी. कृष्णमाचार्य ने पाद्मसंहिता, मार्कण्डेयसंहिता, कपिंजलसंहिता, भारद्वाजसंहिता, हयशीर्षसंहिता, विष्णुतन्त्र आदि में परिगणित सूचियों के आधार पर पांचरात्र संहिताओं के नामों की एक सूची तैयार की है। इस सूची में गिनायी गयी संहिताओं की संख्या २१६ है। यह संख्या पांचरात्ररक्षा इत्यादि ग्रन्थों में उल्लिखित नामों को भी सम्मिलित कर लेने पर बढ़ कर २२५ हो गयी है। मिटा दावा १. पारमेश्वरसंहिता, १.३५-३६ २. शतमेकमथाष्टौ च पुराणे कण्व शुश्रुम। नामधेयानि चैतेषां श्रूयतां कथ्यते मया।। (पाद्मसंहिता, ज्ञानपाद, १.६६) इत्येवमुक्तं तन्त्राणां शतमष्टोत्तरं मुने। (विश्वामित्रसंहिता, २.३३) ३. Introduction to Pancaratra and Ahirbudhnya-samhita, pp. 3-4 ४. वहीं, ५ ५. वहीं, पृ.६-१२ ६. लक्ष्मीतन्त्र, उपोद्घात, पृ. १०-१३ . जलाशमी प्रकार की ६० तन्त्रागम-खण्ड ____ प्रो. एच. डेनियम स्मिथ ने अपने ग्रन्थ “ए डिस्क्रिप्टिव बिब्लियोग्राफी आफ दि प्रिण्टेड टेक्स्ट्स आफ दि पांचरात्रागमाज्’ में सभी प्रकाशित पांचरात्र संहिताओं का अध्यायों के क्रम से विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। जिन संहिताओं में पांचरात्र-ग्रन्थों की नामावली प्राप्त होती है, उनकी सूची विवरण के बाद पृथक् से दे दी गई है। इन सूचियों को देखने से ज्ञात होता है कि डॉ. श्राडर तथा पण्डित वी. कृष्णमाचार्य किन्हीं कारणों से पुरुषोत्तमसंहिता तथा विश्वामित्रसंहिता में दी गयी सूचियों का उपयोग अपनी बृहत्सूची में नहीं कर सके हैं। यदि उन्होंने उपयोग किया होता, तो उनके द्वारा गिनायी गयी संहिताओं की संख्या में कुछ वृद्धि अवश्य हो गई होती। कम से कम दस संहिताएँ उनकी सूची में और जुड़ जाती। यदि किसी अन्य नाम से ये संहिताएँ उनकी सूची में सम्मिलित नहीं हुई हैं, तो निम्नलिखित ये दस नाम भी उस सूची में जुड़ जायेंगे १. अमृत विक छ - (विश्वामित्रसंहिता-सूची) का हि २. कल्कि

  • (विश्वामित्रसंहिता-सूची) दिल ३. कुशल
  • (पुरुषोत्तमसंहिता-सूची)जाम कि गिर जियाने ४. चान्द्रमसा - (विश्वामित्रसंहिता-सूची) निधि ५. दशोत्तर मिनाह - (पुरुषोत्तमसंहिता-सूची)मा पनि ६. पावन जियायः १४ - (पुरुषोत्तमसंहिता-सूची) शिशिनी कामगार ७. रुद्र/रौद्राख्य स - या (विश्वामित्रसंहिता-सूची) पाणी ८. विष्णुपूर्व (विश्वामित्रसंहिता-सूची) ६. सत्त्व/सत्त्वाख्या (पुरुषोत्तमसंहिता-विश्वामित्रसंहिता-सूचियाँ) 1१०. साम्बर शत्र i(विश्वामित्रसंहिता-सूची)कला इस प्रकार पांचरात्र-आगम-ग्रन्थों की जिस संख्या तक हम पहुँचते हैं, उसे अन्तिम नहीं समझना चाहिये। जैसे-जैसे अप्रकाशित पांचरात्र-संहिताएँ प्रकाश में आयेंगी, वैसे-वैसे इस संख्या में वृद्धि होने की पर्याप्त सम्भावना है। का आशा काणे

पांचरात्र शास्त्र के भेद

पांचरात्र संहिताओं में समग्र पांचरात्र शास्त्र का अनेक प्रकार से विभाजन किया गया है। बाद में पांचरात्ररक्षा आदि ग्रन्थों में उन पर समुचित विचार भी किया गया है। यहाँ पर उन विभाजनों पर स्वल्प प्रकाश डालना उपयोगी होगा।

(क) वक्तृभेद से पांचरात्र शास्त्र का विभाजन-

वक्ता अथवा उपदेशक के आधार पर विभाजन करते हुए पांचरात्र शास्त्र के तीन प्रकार बताये गये हैं- १. दिव्य, २. मुनिभाषित तथा ३. पौरुष। ईश्वरसंहिता तथा पारमेश्वरसंहिता में यह विषय विशेष रूप से प्रतिपादित हुआ है। 9. A Descriptive Bibliography of the Printed texts of the Pancaratragamas, pp. 275-276, 383-384 २. तत्र वै त्रिविधं वाक्यं दिव्यं च मुनिभाषितम्। पौरुषं चारविन्दाक्ष तद्भेदमवधारय।। (सात्वतसंहिता, २२.५२-५३) 1904 ६१ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य

१. दिव्य-

मूल वेद के अनुसार भगवान् वासुदेव ने अनुष्टुप् छन्द में जिस शास्त्र का उपदेश किया, उसे दिव्य शास्त्र कहते हैं। अथवा जिस रूप में भगवान् वासुदेव ने उपदेश किया है, उसी रूप में ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र आदि देवताओं द्वारा उपदिष्ट अथवा प्रवर्तित शास्त्र को दिव्य शास्त्र कहते हैं। यथा वासुदेवेन यत्प्रोक्तं शास्त्रं भगवता स्वयम्। अनुष्टुप्छन्दोबन्धेन समासव्यासभेदतः।। तथैव ब्रह्मरुद्रेन्द्रप्रमुखैश्च प्रवर्तितम्। म काकी । लोकेष्वपि च दिव्येषु तद्दिव्यं मुनिसत्तमाः।।’ इस दिव्य कोटि के अन्तर्गत तीन पांचरात्र सहिताएँ गिनायी गयी है १. सात्वतसंहिता, २. पौष्करसंहिता तथा ३. जयाख्यसंहिता। यथा - मूलवेदानुसारेण छन्दसाऽऽनुष्टुभेन च। सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्येत्येवमादिकम् ।। ਨਜ਼ दिव्यं सच्छास्त्रजालं तद्……….. REATE कामा सिकाइमाचार अजीत अथवाज निकाल सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्यं च तथैव च। कि एवमादीनि शास्त्राणि दिव्यानीत्यवधारय।। शन जाति यद्यपि उपर्युदाहृत ईश्वरसंहिता के उद्धरण में “जयाख्येत्येवमादिकम्” पद तथा पारमेश्वरसंहिता के उद्धरण में आया हुआ “तथैव च” पद से ऐसा प्रतीत होता है कि इस कोटि में और संहिताएँ भी आ सकती हैं, तथापि सत्य यही है कि दिव्य कोटि में सात्वत, पौष्कर और जयाख्य इन तीन संहिताओं के अतिरिक्त और कोई संहिता नहीं आ सकी है। अतः पांचरात्र सम्प्रदाय में ये तीन संहिताएँ ही सर्वाधिक प्रामाणिक हैं। ये ही तीन संहिताएँ रत्नत्रय के नाम से प्रसिद्ध हैं। निमी काकार

२.मुनिभाषित-

ब्रह्मा, रुद्र आदि देवताओं के द्वारा तथा अन्य ऋषियों के द्वारा जिस शास्त्र की स्वयं रचना की जाती है, उस शास्त्र को मुनिभाषित कहा जाता है। पारमेश्वरसंहिता के शब्दों में पिर मानक १. ईश्वरसंहिता, १.५४-५५, तथा पारमेश्वरसंहिता, १०.३३६-३३७ २. ईश्वरसंहिता, १.५०-५१ ३. पारमेश्वरसंहिता, १०.३७६-३७७

in म तन्त्रागम-खण्डमा (६२ तिआना ब्रह्मर ब्रह्मरुद्रमुखैर्देवैर्ऋषिभिश्च तपोधनैः। विकी र स्वयं प्रणीतं यच्छास्त्रं तद्विद्धि मुनिभाषितम् ।।’ की पुनः इस मुनिभाषित संज्ञक पांचरात्र शास्त्र के गुणों के भेद से तीन अवान्तर भेद होते हैं- १. सात्त्विक, २. राजस और ३. तामस “एतत्तु त्रिविधं विद्धि सात्त्विकादिविभेदतः"२

सात्त्विक मुनिभाषित-

पुण्डरीकाक्ष भगवान् वासुदेव से यथास्थित अर्थ को जानकर उस अर्थ के बोधक जिस शास्त्र की रचना की जाती है, उसे सात्त्विक मुनिभाषित शास्त्र कहते हैं - विज्ञाय पुण्डरीकाक्षादर्थजालं यथास्थितम्। तद्वोधकं प्रणीतं यच्छास्त्रं तत् सात्त्विकं स्मृतम् ।। वेदान्तदेशिक ने पांचरात्ररक्षा संज्ञक अपने ग्रन्थ में ईश्वरसंहिता, भारद्वाजसंहिता, सौमन्तसंहिता, पारमेश्वरसंहिता, वैहायससंहिता, चित्रशिखण्डिसंहिता तथा जयोत्तरसंहिता को सात्त्विक मुनिभाषित शास्त्र की कोटि में परिगणित किया है।

राजस मुनिभाषित-

भगवान् वासुदेव से एकदेश को सुनकर अन्य भाग का अपने योग की महिमा से संकलन करके ब्रह्मा आदि अथवा ऋषियों के द्वारा अपनी बुद्धि से उन्मीलित अर्थ के बोधक जिस शास्त्र की रचना की जाती है, उसे राजस मुनिभाषित की कोटि में रखा जाता है। यथा की र तस्माज्ज्ञातेऽर्थजाते तु किञ्चित् समवलम्ब्य च।। काजकिनि स्वबुद्ध्युन्मीलितस्यैव ह्यर्थजातस्य बोधकम्। ग्राहक जिति यत् प्रणीतं द्विजश्रेष्ठ! तथा विज्ञाय तत्त्वतः।। चाशन गट पारि ग्रन्थविस्तरसंयुक्तं शास्त्रं सर्वेश्वरेश्वरात। तत्संक्षेपप्रसादेन स्वविकल्पविजृम्भणैः।। विमा कायम ब्रह्मादिभिः प्रणीतं यत् तथा तदृषिभिद्धिज।। काशी जायक ब्रह्मादिभ्यः परिश्रुत्य तत्संक्षेपात्मना पुनः। न सिट स्वविकल्पात् प्रणीतं यत् तत्सर्वं विद्धि राजसम् ।।५।। १. पा.सं., १०.३३८; ईश्वरसंहिता, १.५६ २. वहीं, १०.३३६; ईश्वरसंहिता, १.५७ ३. वहीं, १०.३३६-३४०, ईश्वरसंहिता, ५७-५८ तथा-“मुनिभाषितस्य त्रैविध्यं प्रस्तुत्य, साक्षाद् भगवतः श्रुतार्थमात्रनिबन्धनरूपं शास्त्रं सात्त्विकम्” (पांचरात्ररक्षा, पृ. १०७)। ४. पांचरात्ररक्षा, पृ. १०७ ५. पारमेश्वरसंहिता, १०.३४०-३४४; ईश्वरसंहिता, १.५५-६२ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य इसके आधार पर वेदान्तदेशिक ने राजस मुनिभाषित का लक्षण इन शब्दों में प्रतिपादित किया है “भगवतः श्रुतमेकदेशं स्वयोगमहिमसिद्धं चाऽशेष संकलय्य ब्रह्मादिभिस्तच्छिष्यैश्च प्रणीतं शास्त्रं राजसम्”।’

  • वेदान्तदेशिक ने इस कोटि में सनत्कुमारसंहिता, पद्मोद्भवसंहिता, शातातपसंहिता, तेजोद्रविणसंहिता और मायावैभविकसंहिता की परिगणना की है। राजस मुनिभाषित शास्त्र के पुनः १. पंचरात्र और २. वैखानस ये दो भेद बताये गये हैं। २
तामस मुनिभाषित-

ईश्वर द्वारा उपदिष्ट अर्थ से निरपेक्ष केवल सत्त्वयोग के द्वारा ब्रह्मा आदि अथवा ऋषिगण जिस शास्त्र की रचना करते हैं, उसे तामस मुनिभाषित शास्त्र कहते हैं। यथा “केवलात् स्वविकल्पोक्तैः कृतं यत् तामसं तु तत् ।“३ वेदान्तदेशिक ने तामस मुनिभाषित शास्त्र का लक्षण इन शब्दों में प्रस्तुत किया है “केवलसत्त्वयोगविकल्पोत्थैरथैः कृतं शास्त्रं तामसम्..।“४ इस कोटि के अन्तर्गत वेदान्तदेशिक ने पंचप्रश्नसंहिता, शुकप्रश्नसंहिता तथा तत्त्वसागरसंहिता का स्थान निर्धारित किया है। इन तीनों मुनिभाषित शास्त्रों की क्रमशः उत्कृष्ट, मध्यम तथा अधम संज्ञा भी होती ठिीचशमार

३. पौरुष-

केवल मनुष्यों के द्वारा अपनी बुद्धि से जिस शास्त्र की रचना की जाती है, उसे पौरुष शास्त्र कहते हैं। यथा “केवलं मनुजैर्यत्तु कृतं तत् पौरुषं भवेत्"६ इस प्रकार के शास्त्र में ईश्वर के द्वारा उपदिष्ट शास्त्र के विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादन की बहुत सम्भावना रहती है। अतः पौरुष शास्त्र का वही अंश ग्राह्य होता है, जो ईश्वर के द्वारा उपदिष्ट दिव्य शास्त्र का विरोधी न हो। यथा AD १. पांचरात्ररक्षा, पृ. १०७ २. पारमेश्वरसंहिता, १०.३४४; ईश्वरसंहिता, १.६२ यानी ३. पारमेश्वरसंहिता, १०.३४५; “केवलं स्वविकल्पोक्तैः कृतं यत्तामसं स्मृतम्” (ईश्वरसंहिता, १.६३)। ४. पांचरात्ररक्षा, पृ. १०७ वक उनकतामा ५. “मुनिभाषितेषु त्रिषु शास्त्रेषत्कृष्टमध्यमाधमसंज्ञानिर्दिष्टेषु…..” (वहीं, पृ. १०७)। यातायात ६. पारमेश्वरसंहिता, १०.३४५; ईश्वरसंहिता, १.६३ लावायी की जानकात तन्त्रागम-खण्ड - केवलं पौरुषे वाक्ये तद् ग्राह्यमविरोधि यत्। केवलं तद्विधानेन न कुर्यात् स्थापनादिकम् ।।’ इस वक्तृ-भेद से किये गये विभाजन का अभिप्राय यह है कि पांचरात्र शास्त्र का मौलिक अंश तो वही है, जिसका उपदेश स्वयं भगवान् ने किया है। अतः सर्वाधिक प्रामाणिक वही भाग है। शेष भाग, जो मूल शास्त्र से जिस मात्रा में सन्निकट है, उतनी ही मात्रा में वह प्रामाणिक और मान्य है। जिस मात्रा और अंश में वह मूल शास्त्र से दूर है, उतनी ही मात्रा और उतने ही अंश में वह अप्रामाणिक और अमान्य होगा। ईश्वर के द्वारा मूल रूप में उपदिष्ट शास्त्र को ही दिव्यशास्त्र कहा गया है। अतः पांचरात्र सम्प्रदाय में सर्वाधिक प्रामाणिक और सम्मान्य दिव्य शास्त्र ही है

  • पांचरात्र शास्त्र के इस विभाजन को एक ही दृष्टि में इस रूप में देखा जा सकता

पांचरात्र शास्त्र (तालिका)

दिव्य मुनिभाषित पौरुष । कामविजय १. सात्वत २. पौष्कर सात्त्विक राजसजनोकि तामसमाना ३. जयाख्य : १. ईश्वरसंहिता १. सनत्कुमारसंहिता र १. पंचप्रश्नसंहिता २. भारद्वाजसंहिता २. पद्मोद्भवसंहिता २. शुकप्रश्नसंहिता ३. सौमन्तवीसंहिता ३. सत्या/शातातपसंहिता । ३. तत्त्वसागरसंहिता लित आR 585 ४. पारमेश्वरसंहिता ४. तेजोद्रविण ५. वैहायसीसंहिता २ ५. मायावैभविक : कि ६. चित्रशिखण्डिसंहिता पाया जायल ७. जयोत्तरसंहिता उत आलावा तितकासा कि जिला की सीमा के १. पांचरात्ररक्षा, १०८ २. ईश्वरसंहिता, १.६४-६५ ३. (पारमेश्वरसंहिता, १०.३७६-३८२) तथा- “सात्वतपौष्करजयाख्यादीनि शास्त्राणि दिव्यानि, ईश्वरभारद्वाजसौमन्तवपारमेश्वरचित्रशिखण्डिसंहिताजयोत्तरादीनि सात्त्विकानि, सनत्कुमारपद्मोद्भवशातातपतेजोद्रविणमायावैभविकादीनि राजसानि, पञ्चप्रश्नशुकप्रश्नतत्त्वसागरादीनि तामसानि” इति….” (पांचरात्ररक्षा, पृ. १०७)। शिशिर६५ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य

(ख) सिद्धान्तभेद से पांचरात्र शास्त्र का विभाजन-

प्रतिपाद्य विषय अथवा सिद्धान्त के भेद से भी पांचरात्र शास्त्र का विभाजन किया गया है। ईश्वरसंहिता, पारमेश्वरसंहिता, हयग्रीवसंहिता तथा कालोत्तरसंहिता आदि पांचरात्र-ग्रन्थों में इस दृष्टि से इस शास्त्र के चार भेद बताये गये हैं। ईश्वरसंहिता के शब्दों में चतुर्धा भेदभिन्नोऽयं पाञ्चरात्राख्य आगमः। पूर्वमागमसिद्धान्तं द्वितीयं मन्त्रसंज्ञितम् ।। तृतीयं तन्त्रमित्युक्तमन्यत्तन्त्रान्तरं भवेत्।। ____ अर्थात् पांचरात्र आगम के चार भेद हैं- १. आगमसिद्धान्त, २. मन्त्रसिद्धान्त, ३. तन्त्रसिद्धान्त तथा ४. तन्त्रान्तरसिद्धान्त। पारमेश्वरसंहिता में भी प्रायः इसी शब्दावली में इन चार भेदों का प्रतिपादन किया गया है । यद्यपि इन चारों भेदों के अन्तर्गत आने वाले विषयों का भी इन संहिताओं में पर्याप्त वर्णन हुआ है, तथापि वेदान्तदेशिक ने पांचरात्ररक्षा में पौष्करसंहिता में वर्णित विषयों को उदाहृत करते हुए प्रधानता दी है। सम्भवतः दिव्य शास्त्र होने के कारण पौष्करसंहिता का कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होना इसका कारण है। __ पौष्करसंहिता के अनुसार जिसमें वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध इन चार व्यूहों की कर्तव्य मानकर उपासना की जाती है, जो क्रमागत ब्राह्मणों के द्वारा प्राप्त हो, जिसमें नाना व्यूहों समेत द्वादश मूर्तियों, अन्य मूर्तियों, प्रादुर्भावगण, प्रादुर्भावान्तरगण, लक्ष्मी आदि, दिक्पालों सहित शंख, चक्र, गरुड़ और अस्त्रों का वर्णन हो, उसे आगमसिद्धान्त कहते हैं। द्वितीय मन्त्रसिद्धान्त के विषय में कहा गया है कि यह शास्त्र सब प्रकार से फलों को प्रदान करने वाला है। इसके अन्तर्गत चतुर्मूर्ति के अतिरिक्त अन्य की उपासना का वर्णन होता है। जिस शास्त्र में मन्त्र से भगवद्रूप की उपासना का वर्णन होता है, जो श्री १. ईश्वरसंहिता, २१.५६०-५६१ २. पारमेश्वरसंहिता, १६.५२२-५२३ तथा— “अनेकभेदभिन्नं च पञ्चरात्राख्यमागमम्। पूर्वमागमसिद्धान्तं मन्त्राख्यं तदनन्तरम् ।। तन्त्रं तन्त्रान्तरं चेति चतुर्धा परिकीर्तितम्” (पांचरात्ररक्षा, पृ. १०४)। यह ३. ईश्वरसंहिता, २१.५६१-५८१; पारमेश्वरसंहिता, १६.५२४-५४३ STEP BF ४. कर्तव्यत्वेन वै यत्र चातुरात्म्यमुपास्यते। क्रमागतैः स्वसंज्ञाभिर्ब्राह्मणैरागमं तु तत।। विद्धि सिद्धान्तसंज्ञं च तत्पूर्वमथ पौष्कर। नानाव्यूहसमेतं च मूर्तिद्वादशकं हि तत्।। तथा मूर्त्यन्तरयुतं प्रादुर्भावगणं हि यत। प्रादुर्भावान्तरयुतं धुतं हृत्पदमपर्वके।। लक्ष्म्यादिशङ्खचक्राख्यगारुत्म्यसदिगीश्वरैः। सगणैरस्त्रनिष्ठैश्च तद्विद्धि कमलोदव।। (पौष्करसंहिता से पांचरात्ररक्षा, पृ. ६६ पर उदाहृत) ५. मन्त्रसिद्धान्तसंज्ञं च शास्त्रं सर्वफलप्रदम्। विना मूर्तिचतुष्केण यत्रान्यदुपचर्यते।। (पा.र., पृ. ६६) ६६ तन्त्रागम-खण्ड आदि कान्ताव्यूह के वर्णन से युक्त होता है तथा जो विग्रह सहित भिन्न-भिन्न आभरणों और अस्त्रों से आवृत होता है, उस शास्त्र को तन्त्रसिद्धान्त कहते हैं । चतुर्थ तन्त्रान्तर सिद्धान्त में अधिकारी की क्षमता के अनुसार परिवार-देवताओं के साथ अथवा इनके बिना दो-तीन अथवा चार व्यूहों का योग से ध्यान करना वर्णित होता है। हयग्रीवसंहिता में इन चारों सिद्धान्तों के फलों को बताते हुए कहा गया है आगमाख्यं हि सिद्धान्तं सन्मोक्षैकफलप्रदम्।। मन्त्रसंज्ञं हि सिद्धान्तं सिद्धिमोक्षप्रदं नृणाम्।। तन्त्रसंज्ञं हि सिद्धान्तं चतुर्वर्गफलप्रदम्। तन्त्रान्तरं तु सिद्धान्तं वाञ्छितार्थफलप्रदम् ।। अर्थात् आगमसिद्धान्त मोक्ष नामक फल को देने वाला होता है, मन्त्रसिद्धान्त सिद्धि और मोक्ष का प्रदाता होता है, तन्त्रसिद्धान्त से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी फलों की प्राप्ति होती है तथा तन्त्रान्तरसिद्धान्त से वांछितार्थ रूपी फल की प्राप्ति होती है। शाम श्रीकरसंहिता के आधार पर वेदान्तदेशिक इन चारों भेदों की दूसरी संज्ञाओं की सूचना देते हैं। तदनुसार आगमसिद्धान्त की वेदसिद्धान्त, मन्त्रसिद्धान्त की दिव्यसिद्धान्त, तन्त्रसिद्धान्त की तन्त्रसिद्धान्त तथा तन्त्रान्तरसिद्धान्त की पुराणसिद्धान्त संज्ञाएँ होती हैं । इसी प्रकार कालोत्तरसंहिता में इन चारों भेदों की अन्य संज्ञाओं का उल्लेख किया गया है। तदनुसार आगमसिद्धान्त की स्वयंव्यक्त, मन्त्रसिद्धान्त की दिव्य, तन्त्रसिद्धान्त की सैद्ध तथा तन्त्रान्तरसिद्धान्त की आर्ष संज्ञाएँ होती हैं। यथा चतुर्था भेदभिन्नं च स्वयंव्यक्तादिभेदतः। स्वयंव्यक्तं हि सिद्धान्तमागमाख्यं पुरोदितम् ।। तिमाह व मन्त्रसिद्धान्तसंज्ञं यत्तदिव्यं परिकीर्तितम् । तन्त्रसंज्ञं हि यच्छास्त्रं तत्सैद्धं समुदाहृतम् ।। तन्त्रान्तरं च यत्प्रोक्तमार्षं तु तदुदाहृतम् । १. मन्त्रेण भगवद्रूपं केवलं वाङ्गसंवृतम् । युक्तं श्रियादिकेनैव कान्ताव्यूहेन पौष्कर।। भिन्नैराभरणैरस्त्रैरावृतं च सविग्रहैः। आमाणात तन्त्रसंज्ञं हि तच्छास्त्रं परिज्ञेयं हि चाब्जज।। (पां.र., पृ. ६६ नितीन जिला के मुख्यानुवृत्तिभेदेन यत्र सिंहादयस्तु वै। राजार- PSIS: चतास्त्रद्वयादिकनव योगनाभ्यथितन तु।। समय मिसनमाणमा मत संवृताः परिवारेण स्वेन स्वेनोत्थितास्तु वा। यच्छक्त्याराधितं सर्व सिद्धि तन्त्रान्तरं तु तत्।। (पां.र., पृ. ६६ ३. पां.र., पृ. ६६ ४. “श्रीकरसंहितायां प्रागुक्तस्यैव सिद्धान्तचतुष्टयस्य वेदसिद्धान्तो दिव्यसिद्धान्तस्तन्त्रसिद्धान्तः पुराणसिद्धान्त इति प्रागुक्तादूरविप्रकृष्टैमिभेदैविभागमुक्त्वा….” (पां.र., पृ. १०४)। ५. पां.र., पृ. १०४ । पांचरात्र-परम्परा और साहित्य ६७ इस प्रकार सिद्धान्त भेद से पांचरात्रशास्त्र के चातुर्विध्य की विभिन्न संज्ञाओं को इस रूप में समझा जा सकता है - १. आगम सिद्धान्त वेद सिद्धान्त स्वयंव्यक्त सिद्धान्त २. मन्त्र सिद्धान्त दिव्य सिद्धान्त दिव्य सिद्धान्त ३. तन्त्र सिद्धान्त तन्त्र सिद्धान्त सैद्ध सिद्धान्त ४. तन्त्रान्तर सिद्धान्त पुराण सिद्धान्त आर्ष सिद्धान्त

(ग) गुणभेद से पांचरात्र शास्त्र का विभाजन

केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति में नारायणसंहिता की एक हस्तलिखित प्रति (संख्या ५७६) संरक्षित है। डॉ. राघवप्रसाद चौधरी ने अपने ग्रन्थ “पांचरात्रागम” में उक्त नारायणसंहिता में सत्त्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों के आधार पर किये गये पांचरात्र संहिताओं के एक नये वर्गीकरण का वर्णन किया है। पूर्वोक्त वक्तृभेद से पांचरात्र शास्त्र के विभाजन में मुनिभाषित कोटि में गुणों के आधार पर संहिताओं को विभक्त किया गया है, किन्तु नारायणसंहिता में समग्र पांचरात्र शास्त्र को गुणों के आधार पर विभक्त किया गया है। डॉ. चौधरी द्वारा दी गई सूचना के अनुसार नारायणसंहिता में सात्त्विक आदि विभागों के केवल नाम निर्देश किये गये हैं। इन तीनों के कहीं लक्षण नहीं बताये गये हैं। पांचरात्र शास्त्र की १०८ संहिताओं को सात्त्विक, राजस और तामस शीर्षकों के अन्तर्गत छत्तीस-छत्तीस संख्या में विभक्त कर दिया गया है। यद्यपि यह संख्या केवल शब्दतः कही गयी है। तीनों में किसी भी विभाग में गिनायी संहिताओं की संख्या छत्तीस नहीं है। तीनों शीर्षकों में विभक्त की गयी संहिताओं की सूची इस प्रकार है सात्त्विक तामस पौष्कर पाद्म शातातपसंहिता पाद्मोद्भव त्रैलोक्यविजयसंहिता विष्णुसिद्धान्त मायावैभव विष्णुसंहिता हारीत नलकूबर पुष्टितन्त्र वैहिगेन्द्र त्रैलोक्यमोहन शौनकीय प्रश्नाख्य विष्वक्सेन संवादसंहिता (पाँच संहिताएँ) सत्यसंहिता ७. ईश्वरसंहिताय ७. शुकसंहिता विश्वसंहिता नारायणसंहिता इन्द्रसंहिता महाप्रश्नसंहिता आत्रेयसंहिता ६. याज्ञवल्क्यसंहिता o s श्रीकर in os no i w x si w ( ल १. “गुणभेद से पांचरात्र शास्त्र का विभाजन” इसी ग्रन्थ के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। ६८ मी तन्त्रागम-खण्ड मार १२. काश्यपसंहिता १७. १७. १८. २०. २१. १०. श्रीसंहिता १०. वाशिष्ठसंहिता १०. गौतमसंहिता ११. सनन्दसंहिता ११. द्राविडसंहिता ११. पुलस्त्यसंहिता का परमसंहिता १२. वैहायससंहिता १२. दक्षसंहिता १३. पुरुषसंहिता १३. भार्गवसंहिता १३. अर्थकप्राप्ति १४. पुरुषोत्तमसंहिता १४. हारीतसंहिता १४. सांख्यसंहिता १५. महासनत्कुमार- १५. ताण्डवसंहिता १५. दत्तात्रेयसंहिता संहिता १६. बृहन्नारदीयसंहिता १६. संकर्षणसंहिता १६. अनन्तसंहिता प्रद्युम्नसंहिता पैगलसंहिता भागवतसंहिता १८. वामनसंहिता १८. मार्कण्डेयसंहिता जयाख्यसंहिता १६. शार्वसंहिता ____१६. कात्यायनसंहिता तत्वसारसंहिता २०. पाराशर्यसंहिता २०. वाल्मीकिसंहिता विष्णुवैभविकसंहिता २१. जाबालिसंहिता २१. बोधायनसंहिता मामी को मा २२. अहिर्बुध्न्यसंहिता २२. याम्यसंहिता सील किमान २३. उपेन्द्रसंहिता २३. नारायणसंहिता मिराज ज क २४. योगिहृदयसंहिता २४. बार्हस्पत्यसंहिता पर २५. आदिराममिहिर- २५. कपिलसंहिता बाट संहिता २६. वाराहमिहिरसंहिता २६. जैमिनिसंहिता योगसंहिता २७. जयोत्तरसंहिता २८. नारदीयसंहिता २८. कौमारमयसंहिता Sणयान २६. वारिणसंहिता २६. मारीचसंहिता ३०. भारद्वाजसंहिता ३०. तैजससंहिता ३१. नारसिंहसंहिता ३१. उशनस्संहिता ३२. कार्णाम्बरसंहिता ३२. हिरण्यगर्भसंहिता ३३. राघवसंहिता कि जो

पांचरात्र शास्त्र की रत्नसंहिताएँ

पांचरात्र परम्परा में कुछ संहिताओं को रत्नसंहिता कह कर सम्मान प्रदान किया गया है। संहिताओं की प्रामाणिकता, गुणवत्ता और महत्ता की दृष्टि से उन्हें रत्न कह कर विशिष्ट अथवा अतिविशिष्ट श्रेणी में रखा गया है। इस दृष्टि से संहिता ग्रन्थों में कहीं रत्नत्रय, कहीं पंच या षड्रत्न और कहीं नवरत्नों की चर्चा प्राप्त होती है। २७. पांचरात्र-परम्परा और साहित्य रत्नत्रय-विपुल पांचरात्र साहित्य में तीन संहिताएँ ऐसी बताई गई हैं, जिनकी सर्वाधिक महत्ता और प्रामाणिकता है। वस्तुतः पांचरात्र शास्त्र के आदिप्रवर्तक भगवान् नारायण माने गये हैं। अतः पांचरात्र साहित्य के विपुल होने पर भी जो संहिताएँ साक्षात् भगवान् के मुख से उपदिष्ट हुई हैं, वही मूल पांचरात्र शास्त्र है। साक्षात् भगवान् के मुख से उपदिष्ट होने वाली तीन ही संहिताएँ हैं- १. सात्वतसंहिता, २. पौष्करसंहिता और ३. जयाख्यसंहिता। जयाख्यसंहिता में रत्नत्रय के तीनों रत्नों का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है - सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्यं तन्त्रमुत्तमम्। रत्नत्रयमिदं साक्षाद् भगवद्वक्त्रनिःसृतम् ।। यही बात जयाख्यसंहिता का उदाहरण देते हुए वेदान्तदेशिक ने पांचरात्ररक्षा में इन शब्दों में कही है यो “यथोक्तं साक्षाद् भगवन्मुखोद्गततया रत्नत्रयमिति प्रसिद्धेषु जयाख्यसात्वतपौष्करेषु जयाख्यायाम्” । _ यही कारण है कि तीन संहिताएँ दिव्य कोटि में रखी गयी हैं और ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक हैं। यथा– मूलवेदानुसारेण छन्दसाऽऽनुष्टुभेन च। सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्येत्येवमादिकम्।। दिव्यं सच्छास्त्रजालं तदुक्त्वा………..। अथवा अतो दिव्यातू परतरं नास्ति शास्त्रं मुनीश्वराः। सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्यं च तथैव च।। ५ इस प्रकार स्पष्ट है कि दिव्य स्थान प्राप्त करने वाली पांचरात्र संहिताएँ ही रत्नत्रय संज्ञा से अभिहित हुई हैं। ___ पंचरत्न-रत्नभूत संहिताओं की एक अन्य सूची पाद्मसंहिता में प्रस्तुत की गई है। इस सूची में पाँच संहिताएँ गिनाई गई हैं, जो पाद्मसंहिता के शब्दों में इस प्रकार है जन १. पाञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायणः स्वयम्। (महाभारत, शान्ति. ३४६.६७) २. जयाख्यसंहिता, १, अधिकः पाठः, पृ. ८ ३. पांचरात्ररक्षा, पृ. १०ESISE BREGIRL Blameliante ४. ईश्वरसंहिता, १.५०-५१; पारमेश्वरसंहिता, १०.३७६-३७७ Satyas ५. वहीं, १.६४ । r asa omai १०० तन्त्रागम-खण्ड तन्त्राणां चैव रत्नानि पञ्चाहुः परमर्षयः।।। पामं सनत्कुमारं च तथा परमसंहिता।। तर ती पद्मोद्भवं च माहेन्द्रं कण्वतन्त्रामृतानि च।। गिर गवामान कुछ विद्वानों का कहना है कि इन पंक्तियों में छह रत्न गिनाये गये हैं १. पाद्मसंहिता, २. सनत्कुमारसंहिता, ३. परमसंहिता, ४. पद्मोद्भवसंहिता, ५. माहेन्द्रसंहिता, तथा ६. काण्वसंहिता। उनका कहना है कि पंचरत्न की प्रतिज्ञा करके छह रत्नों को गिनाना निश्चित रूप से एक विसंगति है। या तो यहाँ पञ्च के स्थान पर षट् पाठ हो अथवा गिनाई गई छह संहिताओं में से कोई एक न गिनी जाय, तभी यह विसंगति दूर हो सकती है। डॉ. राघवप्रसाद चौधरी का कहना है कि पाद्यसंहिता छह रत्नों को स्वीकार करती हैं। __ डॉ. डैनियल स्मिथ पद्मोद्भव तथा माहेन्द्र को एक ही रत्न मान कर पंचरत्नों की संख्या की विसंगति को दूर करते हैं। वास्तव में ये दोनों ही कथन भ्रामक हैं, क्योंकि यहाँ पाँच ही संहिताओं के नाम दिये गये हैं और कहा गया है कि ये पाँचों संहिताएँ काण्वतन्त्र की अमृतभूत हैं। यह बताया जा चुका है कि पांचरात्र शास्त्र का शुक्ल यजुर्वेद की काण्व शाखा से विशेष सम्बन्ध माना गया है। नवरत्न-विष्णुतन्त्र में रत्नभूत पांचरात्र संहिताओं की एक और सूची उपलब्ध होती है। इसके अनुसार मन्त्रसिद्धान्त मार्ग में नवरत्न प्रसिद्ध हैं। विष्णुतन्त्र में नवरत्नों का परिगणन इन शब्दों में किया गया है मन्त्रसिद्धान्तमार्गेषु नवरत्नं प्रसिद्धकम्। एतदुक्तप्रकारेण वक्ष्यामि कमलासन।।। पाद्मतन्त्रं तु प्रथमं द्वितीयं विष्णुतन्त्रकम्। कापिञ्जलं तृतीयं स्याच्चतुर्थं ब्रह्मसंहिता।। मार्कण्डेयं पञ्चमं तु षष्ठं श्रीधरसंहिता। सप्तमं परमं तत्रं भारद्वाजं तथाष्टमम् ।। श्रेष्ठं नारायणं तन्त्रं नवरत्नमुदीरितम्। तत्मा का देना दामन १. पाद्मसंहिता, चर्या., ३३.२०४-२०५ च भागमा जिक २. पांचरात्रागम, पृ. २५ ‘The Following Samhitas are also listed in Padma Samhita (Car” XXXiii:203b-204) Where they are Described As the 5 Most Precious Gems (Pancaratana) 1. Padma Tantra, 2. Sanatkumara Tantra, 3. Parama Tantra, op 4. Padmodbhava Tantra=Mahendra Tantra, 5 Kanva Tantra. ४. विष्णुतन्त्र, ब्रह्मोत्सवाध्याय (परमसंहिता, प्रस्तावना, पृ. ३६-४० पर उदाहृत)। १०१ पांचरात्र-परम्परा और साहित्य यहाँ परिगणित नवरत्नों की सूची इस प्रकार है—१. पाद्मतन्त्र, २. विष्णुतन्त्र, ३. कापिञ्जलसंहिता, ४. ब्रह्मसंहिता, ५. मार्कण्डेयसंहिता, ६. श्रीधरसंहिता, ७. परमतन्त्र, ८. भारद्वाजसंहिता तथा ६. नारायणतन्त्र।

रत्नत्रय, व्याख्यान संहिताएँ और सम्बद्ध दिव्यदेश

इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण पांचरात्र साहित्य में रत्नत्रय के रूप में प्रसिद्ध सात्वत, पौष्कर और जयाख्य संहिताएँ सर्वाधिक प्रामाणिक, प्रतिष्ठित और पूज्य हैं। अन्य पांचरात्र संहिताएँ इन्हीं की व्याख्या और उपबृंहण रूप मानी गयी हैं। वन जयाख्यसंहिता के अनुसार एक सौ आठ पांचरात्र संहिताओं में पारमेश्वरसंहिता पौष्करसंहिता के अर्थ की विवृति के लिये उसकी व्याख्या के रूप में अवतरित हुई है, ईश्वरसंहिता सात्वतसंहिता के विवृति के लिये है तथा पाद्मसंहिता जयाख्यसंहिता की व्याख्यानरूप है। यथा - तन्त्रेऽप्यष्टोत्तरशते पारमेश्वरसंहिता। शिव पौष्करार्थविवृत्यर्था व्याख्यारूपाऽवतारिता।। सात्वतस्य विवृत्यर्थमीश्वरं तन्त्रमुत्तमम्। जयाख्यस्याऽस्य तन्त्रस्य व्याख्यानं पाद्ममुच्यते।। जिस प्रकार पांचरात्र संहिताओं की संख्या एक सौ आठ बताई गई है, उसी प्रकार भगवद्व्यक्ति क्षेत्रों की संख्या भी १०८ ही प्रसिद्ध है। जिस प्रकार समस्त १०८ संहिताओं में तीन संहिताएँ ‘रत्न’ संज्ञा से महिमान्वित हैं, उसी प्रकार समस्त १०८ भगवद्व्यक्ति क्षेत्रों अथवा दिव्य देशों में चार दिव्य स्थान प्रसिद्ध हैं— १. श्रीरंगम्, २. वेंकटाद्रि (तिरुपति), ३. हस्तिशैल तथा ४. नारायणाद्रि (मेलकोटे)। जैसे कि भगवद्व्यक्तिदेशेषु स्वयंव्यक्तेषु भूतले।। अष्टोत्तरशते मुख्यं रत्नभूतं चतुष्टयम्। श्रीरङ्गं वेङ्कटाद्रिश्च हस्तिशैलस्ततः परम्।। ततो नारायणाद्रिश्च दिव्यस्थानचतुष्टयम् ।। १. अन्यान्यानि तु तन्त्राणि भगवन्मुखनिर्गतम् । सारं समुपजीव्यैव समासव्यासधारणैः । व्याख्योपबृंहणन्यायाद् व्यापितानि तथा तथा।। (जयाख्यसंहिता, १, अधिकः पाठः, श्लो.४-५ पृ. ८)। २. वहीं, श्लो. ६-८ ३. वहीं श्लो. ८-१० तथा क्षेत्रेष्येतेषु योगीन्द्राः सारभूतं चतुष्टयम् ।। श्रीरंग वेङ्कटाद्रिश्च हस्तिशैलस्त्वनन्तरम्। ततो नारायणाद्रिश्च मम धर्मचतुष्टयम् ।। (ईश्वरसंहिता, २०.१११-११२) १०२ तन्त्रागम-खण्ड इन चार दिव्य स्थानों में वेंकटाद्रि, अर्थात् तिरुपति में वैखानस आगम के अनुसार आराधना होती है। उसको छोड़कर शेष तीन स्थान श्रीरंगम्, हस्तिशैल तथा यादवाद्रि को दिव्य देशों में रत्नत्रय माना गया है। दिव्य देशों में रत्नत्रय (श्रीरंगम्, हस्तिशैल, तथा मेलकोटे) में संहिताओं में रत्नत्रय (पौष्कर, जयाख्य और सात्वत संहिता) के अनुसार आराधना होती है - वेङ्कटाद्रिं विनाऽन्येषु देवदेवस्य धामसु। भ रत्नेषु त्रिषु रत्नानि त्रीणि तन्त्राण्युपासते।। यादवाद्रि (मेलकोटे) में सात्वतसंहिता के अनुसार, श्रीरंगम् में पौष्करसंहिता के अनुसार, तथा हस्तशैल में जयाख्यसंहिता के अनुसार आराधन-क्रम प्रचलित है। ईश्वर संहिता के शब्दों में सात्वतं पौष्करं चैव जयाख्यं च तथैव च। एतत्तन्त्रत्रयोक्तेन विधिना यादवाचले। श्रीरङ्गे हस्तिशैले च क्रमात् सम्पूज्यते हरिः।। जयाख्यसंहिता यही बात अधिक स्पष्ट शब्दों में कहती है सात्वतं यदुशैलेन्द्रे श्रीरङ्गे पौष्करं तथा। का हस्तिशैले जयाख्यं च साम्राज्यमधितिष्ठति।। रत्नत्रय के समान इनकी व्याख्यान-संहिताओं का भी इन तीन स्वयंव्यक्त क्षेत्रों से सम्बन्ध है। इस प्रकार हस्तिशैल में पाद्मसंहिता, श्रीरंगम् में पारमेश्वरसंहिता, तथा यादवाद्रि (मेलकोटे) में ईश्वरसंहिता के अनुसार आराधना होती है। जयाख्यसंहिता का कथन है पाद्यतन्त्रं हस्तिशैले श्रीरङ्गे पारमेश्वरम। ईश्वरं यादवाद्रौ च कार्यकारि प्रचार्यते।। ऊपर प्रपंचित अर्थ का प्रथम दृष्ट्या अवबोध निम्न प्रकार से सुकर होगा रत्नत्रय व्याख्यान-संहिताएँ दिव्यदेश सात्वतसंहिता ईश्वरसंहिता यादवाद्रि (मेलकोटे) पौष्करसंहिता पारमेश्वरसंहिता ३. जयाख्यसंहिता पाद्मसंहिता हस्तिशैल श्रीरङ्गम् १. ज.सं., श्लो. १०-११ २. ई.सं.१.६४, ६७ ३. जयाख्यसंहिता, १, (अधिकः पाठः) श्लो. १२-१३, पृ. ८) ४. वहीं, श्लो. १३-१४ व