वैष्णव देवालय के अर्चकों की एक जाति-विशेष या सम्प्रदाय का नाम वैखानस है। इस सम्प्रदाय के लोग स्वयं ऐसा मानते हैं कि इनका जन्म देवालयों में अर्चक के रूप में कार्य सम्पादन के लिए हुआ है। इनकी सामान्य मान्यता है कि इनके लिए अर्चन के अलावा अन्य कोई कर्तव्य नहीं है। इनका अस्तित्व तथा व्यक्तित्व विष्णु-पूजा के लिए सर्वथा समर्पित है। आज भी व्यवहार में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश वैखानस वैष्णव अपनी जीविका पूर्ण रूप से देवालय अर्चन के द्वारा ही चलाते हैं। इनके सारे संस्कार तथा आध्यात्मिक एवं गृह-सम्बद्ध विविध क्रियाकलाप वैखानस-सूत्रों तथा शास्त्रों के अनुसार सम्पादित होते हैं। वैखानस वैष्णव देवालय आराधन के साथ-साथ श्रौत प्रक्रिया के अनुसार जीवन के सारे आध्यात्मिक क्रियाकलापों को सम्पादित करते हैं। इनके जीवन में अठारह संस्कार विहित हैं। परिस्थिति की अनुकूलता के अनुरूप २६ यागों के सम्पादन का विधान है। ये याग हैं – पाँच महायाग, सात पाक यज्ञ, सात हविष् याग तथा सात सोम याग’। वैखानस वैष्णव वैदिक मार्ग को सर्वोपरि मानते हैं, अतः वे अपने को शुद्ध रूप से वैदिक कहते हैं। ये अपने सभी अनुष्ठानों (दैनिक अथवा नैमित्तिक) में प्रमुख रूप से वैदिक मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। श्रीनिवास मखी (१०५० ई. ११०७ ई. के करीब) ने दशविधहेतुनिरूपण में वैखानस धर्म-ग्रन्थों तथा परम्पराओं के आधार पर वैखानसों की जिन विशेषताओं तथा स्वरूप का वर्णन किया है, उससे इस सम्प्रदाय के विषय में जो प्रकाश पड़ता है, उसमें अधोलिखित तथ्य हमारे समक्ष आते हैं - १. अखिलजगत्कारणभूतेन विखनसा प्रणीतत्वात् अर्थात्, यह धर्म-ग्रन्थ सम्पूर्ण विश्व के स्रष्टा विखनस् के अनुसार निर्मित है। २. सर्वसूत्राणामादिमत्त्वात्, अर्थात् वैखानसों के धर्मग्रन्थ सर्वप्रथम रचित सूत्र हैं जो कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं। ३. प्रधानादिकर्मसु श्रुतिमार्गानुसारित्वात्, वैखानस शास्त्र कर्मों में वैदिक परम्परा का अनुसरण करते हैं। अर्थात् सभी क्रिया तथा अनुष्ठानों में, यहाँ तक कि आचमन - में भी वैदिक मन्त्रों के प्रयोग का विधान करते हैं। जी ४. समन्त्रकसर्वक्रियात्वात्, सभी क्रियाएँ तथा अनुष्ठान निश्चित रूप से वैदिक मन्त्रों के साथ सम्पादित होते हैं। ५. निषेकादिसंस्कारत्वात्, जन्म से मरण तक के सभी संस्कार वैदिक मन्त्रों के साथ ही सम्पादित होते हैं। १. शैवागामों में तथा अन्यत्र भी गर्भाधान आदि ४८ संस्कारों का निरूपण मिलता है। उनमें पांच महायज्ञों के अतिरिक्त सात पाकसंस्था, सात हविःसंस्था और सात सोमसंस्थाओं का भी समावेश है। तन्त्रागम-खण्ड ६. अष्टादशशरीरसंस्कारात्मकत्वात्, वैखानस धर्म ग्रन्थ मानसिक तथा शारीरिक शुद्धि अठारह संस्कारों के द्वारा सम्पादित करते हैं। माना ७. साङ्गक्रियाकलापत्वात्, वैखानस कल्पसूत्र पूर्णरूपेण सभी क्रियाकलापों का वर्णन करते हैं। ये किसी दूसरे सूत्र की सहायता की अपेक्षा नहीं करते। ८. मन्वाद्यैः स्वीकृतित्वात्, मनु आदि स्मृतिकारों के द्वारा भी वैखानस शास्त्र (कल्पसूत्र) स्वीकृत रहा है। ६. अखिलजगदेककारणभूतश्रीनारायणैकपरत्वात्, ये वैखानस संसार के मुख्य कारण विष्णु की पूजा के प्रति समर्पित परिवार हैं। १०. तत्सूत्रोक्तधर्मानुष्ठानवतामेव भगवत्प्रियतमत्वोपपत्तेश्च, विष्णु ने स्वयं कहा है कि आम वैखानस मेरे अत्यन्त प्रिय हैं। वराहपुराण में भगवान् विष्णु ने कहा है REE PER अश्वत्थः कपिला गावस्तलसी विखना मनिः। __ चत्वारो मत्प्रिया राजन् तेषां वैखानसो वरः।। लिया सामान्य परिचयक्रम में जगत्स्रष्टा ब्रह्मा को विखनस् कहा गया है। पर विशेष अर्थ में स्वयं विष्णु का ही विखनस् होना निर्दिष्ट है। विखनस् के अनुयायी वैखानस कहे गये हैं। इस तरह वैखानस विखनस् की सन्तति माने गये हैं। इनका धार्मिक ग्रन्थ वैखानस शास्त्र तथा वैखानस सूत्र है। इस सम्प्रदाय के सदस्य इसी शास्त्र तथा सूत्र का अनुसरण करते हैं। आनन्दसंहिता के अनुसार मुनि विखनस् ने, जो ब्रह्मा थे, वैखानस सूत्रों का प्रणयन किया। यह वैखानस सूत्र यजुर्वेद की एक शाखा के अनुसार बनाया गया था आदिकाले तु भगवान् ब्रह्मा तु विखना मुनिः। क्रियाधिकार के अनुसार विखनस् विष्णु है विखना वै विष्णुः प्रोक्तः तज्जा वैखानसाः स्मृताः॥ विष्णुवंशजो विखना मुनीनां प्रथमो मुनिः। तेनोपदिष्टं यत् सूत्रं तत्सूत्रेषूत्तमं स्मृतम्।। कहा गया है कि विष्णु के पुत्र जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मा प्रथम ऋषि थे। उन्हें ही विखनस् के नाम से पुकारा गया था। मन का खनन कर धार्मिक ज्ञान का प्रवर्तन करने के कारण इस ऋषि का नाम विखनस् हुआ। महाभारत शान्तिपर्व में प्रजापति ब्रह्मा को ही विखनस् कहा गया है। वह एक ऋषि थे। उन्होंने हृदय का खनन (चिन्तन) किया और उसी के बल पर उन्होंने सम्पूर्ण शास्त्रों सपना कायदान किया जातका मामला वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय विशेषेणाखनद् यस्माद् भावनामुनिसृष्टये। तस्माद् विखनसो नाम स आसीदण्डजप्रियः।। स्रष्टुं स तु समुधुक्तो ब्रह्मयोनिमयः प्रभुः। खनित्वा चात्मनात्मानं धर्मादिगुणसंयुतम् ।। ध्यानमाविश्य योगेन ह्यासीद् विखनसो मुनिः। वेदवेदान्त तत्त्वमीमांसा का खनन करने के पश्चात् हरि ने यह वैखानसशास्त्र-ज्ञान प्राप्त किया। इसीलिये इसकी अन्वर्थ संज्ञा विखनस् हुई वेदान्ततत्त्वमीमांसाखननं कृतवान् हरिः। नाम्ना विखनसं चक्रे तत्पदान्वर्थयोगतः।। वेद के अर्थ का खनन तथा उसके विषय में प्रथमतः विचार करने के कारण विखनस् को प्रथम ऋषि के रूप में स्वीकारा गया। “खननाद्विखना मुनिः", “खननं तत्त्वमीमांसेत्याहुः”, “निगमार्थानां खननादिति नः श्रुतम्”। वेद के छिपे हुए अर्थों के खोदने और उसे मनुष्य के लिए उपलब्ध कराने के कारण विष्णु को विखनस् कहा गया और उनकी सन्ततियों ने उस ज्ञान का प्रचार तथा प्रसार किया, अतः उन्हें वैखानस कहा गया अन्तर्हितानां खननाद् वेदानां तु विशेषतः।। स विभुः प्रोच्यते सर्वैर्विखना ब्रह्मवादिभिः। वैखानसश्च भगवान् प्रोच्यते स पितामहः।। नृसिंहपुराण के अनुसार हमें दो ब्रह्माओं का परिचय प्राप्त होता है। एक ब्रह्मा विष्णु के मस्तिष्क से उत्पन्न हुए और उनका एक ही सिर था। उस ब्रह्मा को अग्रज कहा गया है। उन्होंने सूत्रों का प्रणयन किया। दूसरे ब्रह्मा विष्णु के नाभि-कमल से चतुर्मुखरूप में उत्पन्न हुए। इन्ही चतुर्मुख ब्रह्मा ने संसार की सृष्टि की। कहा गया है कि छः अवतारों के बाद प्रथम ब्रह्मा ही द्वितीय ब्रह्मा के रूप में आये। उसी प्रथम ब्रह्मा से ऋषि भृगु, मरीचि, अत्रि तथा कश्यप ने वैष्णव सम्प्रदाय का ज्ञान प्राप्त किया। यजुर्वेद के ‘अरुण केतुक’ प्रसंग में “आपो वा इदम् आसन्” कथनक्रम में ऋषियों के अनेक समूहों का निर्देश किया गया है। उसी समूह में अन्यतम वैखानस ऋषि का निर्देश देखते हैं। यहाँ कहा गया है कि ये सभी सृष्टि के तुरंत बाद ही उत्पन्न हुए थे। वैखानस शब्द की व्युत्पत्ति का आधार वैखानसों का सर्वथा सौम्य होना कहा है। कहा गया है कि ‘विखन’ शब्द वस्तुतः ‘विनख’ का वर्णव्यत्यय के बाद का परिवर्तित स्वरूप है। जिस तरह कश्यप शब्द के विषय में कहा गया है। कश्यप का मूल ‘पश्यक’ अर्थात् द्रष्टा था। वर्णव्यत्यय के पश्चात् ‘कश्यप’ रूप हुआ। ‘विखन’ शब्द में ख के साथ दो निषेधार्थक प्रत्यय की इतन्त्रागम-खण्ड माई हैं। ‘व’ का अर्थ इन्द्रिय होता है। ‘न-ख अर्थ होगा-जिसके पास इन्द्रिय न हो। विगत नख, विनख का अर्थ ऐसा व्यक्ति जिसके पास इन्द्रियां हों, अर्थात् सौम्येन्द्रियों वाला व्यक्ति। इस तरह विखनस् का अर्थ सौम्य इन्द्रिय युक्त व्यक्ति होगा। कहा भी है- “न विद्यन्ते खानि इन्द्रियाणि येषां ते न खाः। न नखा अनखाः। नद्धयेन सौम्येन्द्रियत्वं फलितम्" इति। महाभारत ने वैखानस ऋषियों को अत्यन्त शान्त, भावितात्मा तथा सात्त्विकाहारी बताया है जान-बांधलाई एते वैखानसानां तु ऋषीणां भावितात्मनाम्। कई वंशकर्तार उच्यन्ते सात्त्विकाहारभोजिनाम् ।। मिताली याप वैखानस ग्रन्थों के अनुसार इस सम्प्रदाय के लोगों के द्वारा अनुष्ठित आराधना तथा पूजा को सौम्य कहा गया है। जबकि पांचरात्राराधन को आग्नेय कहा गया है। इस तरह उपर्युक्त प्रकरण को देखने के बाद वैखानस के मूल शब्द विखनस् के अधोलिखित अर्थ हो सकते हैं- १. भगवान् विष्णु, २. विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न स्रष्टा ब्रह्मा, ३. विष्ण का मानसपुत्र, जिसे विष्णु ने स्वय पूजा का निर्देश किया था, ४. वैखानस मत तथा सम्प्रदाय का प्रचारक ऋषिविशेष, ५. अलौकिक ऋषि, जिन्होंने वैखानस सूत्रों का प्रणयन किया, तथा ६. वानप्रस्थ आश्रमी। प्रायः यही कारण है कि वैखानस सम्प्रदाय के लोग उक्त सभी पक्षों से सम्बद्ध रहे हैं। मुख्य रूप से वैखानस स्त्र का अनुसरण करने के कारण ये वैखानस अन्य सम्प्रदायों से भिन्न हैं। ये सूत्र पूर्णरूप से विष्णु के प्रति समर्पण की भावना रखते हैं। मूलतः ये सूत्र विष्णु के द्वारा विखनस् मुनि को समुपदिष्टाथे। कहा है विखनोमुनये पूर्व सूत्रं भगवतेरितम्। तस्माद् भगवतः सूत्रं लोके वैखानसं स्मृतम् ।। TOP TER U 1516 वैखानस सम्प्रदाय में विखनस् को आज भी व्यावहारिक रूप में भगवान् की तरह माना जाता है। इस सम्प्रदाय के लोग दैनिक भगवदाराधन के क्रम में ऋषि विखनस् की भी आराधना करते हैं। इन्हें विष्णु का रूप मानते हैं। श्री भगवदर्चाप्रकरण-अनुक्रमणिका के तीसरे काण्ड में श्री नसिंह वाजपेयी ने विखनस के स्वरूप का वर्णन करते हुए विखनस् को तपोनिष्ठ कहा है। यहाँ विखनस् को ब्रह्मदर्शी, विष्णुपूजा-विशारद, चतुर्भुज, कच्छप पर आसीन, हाथ में कमण्डलु धारण किया हुआ तथा अक्षमाला से सुशोभित बताया है। विखनस् का स्थान देवालय के गर्भगृह में ध्रुव बेर के दक्षिण भाग में होना कहा है। विखनस् के आराधन के लिये यहाँ मन्त्रों का भी निर्देश देखते हैं। एक स्थान में विखनस् की स्तुति करते हुए इन्हें विष्णु तथा लक्ष्मी का पुत्र कहा है- माशा सिला क्रमाला मास्क की कतर मामांग ER Firs नारायणः पिता यस्य यस्य माता हरिप्रिया DERE ARE PEN इजर माति भृग्वादिमुनयः शिष्यास्तस्मै विखनसे नमः।। । नमा कानात जानक SETTE TEST
TELE Tवैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय का विखनस् (ब्रह्म) ने किस प्रकार विष्णु से वैखानस-सूत्र प्राप्त किये, इस विषय में अत्रि ने अधोलिखित बातें कही हैं— सृष्टि के प्रारम्भ में विष्णु ने ब्रह्मा को वैदिक मार्ग से पूजा करने की विधि का अध्यापन किया। वह अध्यापित विषय सहस्र कोटि श्लोक रूप में अत्यन्त विस्तृत था। परन्तु वह विस्तृत भगवत् पूजनविधि-शास्त्र कालक्रम से समाप्त हो गया। तब ब्रह्मा गेरुआ वस्त्र धारण कर, जटीरूप में नैमिषारण्य गये और वहाँ कठोर तपस्या में लीन हो गये। ब्रह्मा ने अनेक वर्षों तक विष्णु का ध्यान किया और तपस्या के बल पर अर्चनविधिप्रतिपादक आगमशास्त्र प्राप्त किया । ब्रह्मा के द्वारा प्राप्त शास्त्र वहीं शास्त्र था, जो कि प्राचीन काल में विस्तारपूर्वक विष्णु के द्वारा अध्यापित था। (अपश्यदथ विष्णूक्तमागमं विस्तरात्तदा)। उसके बाद वह ब्रह्मा विखनस् के नाम से प्रसिद्ध हुए। वह एक महान् ऋषि के नाम से भी जाने गये। उन्होंने उस अत्यन्त विस्तृत शास्त्र का संक्षेप किया, जो शाणोल्लिखित रत्न की तरह था। विखनस् ने इस संक्षिप्त शास्त्र को मरीचि, अत्रि आदि अपने शिष्यों को पढ़ाया। ये शिष्यगण भी उच्चकोटि के ऋषि थे। यह संक्षिप्त शास्त्र डेढ़ कोटि श्लोक परिमित था। कहा है । जानिए किन समाजागा शाम-शान बामन ति निक धाता विखनसो नाम मरीच्यादींस्तु तान् मुनान्। अबोधयदिदं शास्त्रं सार्थकोटिप्रमाणतः।।म कि की STAR माँ पूर्वोक्त ऋषियों में मरीचि, अत्रि, भृगु तथा कश्यप ये चार प्रमुख थे। इन्हें विखनस् की सन्तति कहा गया है। ये वैखानस ऋषि के रूप में भी जाने जाते हैं। E F Ti का भृगु के प्रकीर्णाधिकार के अनुसार सृष्टि से पहले ब्रह्मा शयन के लिये गये थे। जगने के बाद उन्होंने संसार की रचना की इच्छा की। परन्तु तन्द्रा के कारण ब्रह्मा वेदों को भूल गये थे। सृष्टि के लिये वेद अत्यन्त आवश्यक थे। बिना वेदों के ही ब्रह्मा ने सृष्टि के लिये प्रयास किया, परन्तु वह व्यर्थ ही सिद्ध हुआ। ब्रह्मा ने वेदों को स्मृति-पथ पर लाने का भी बहुत प्रयास किया, पर वह भी संभव नहीं हुआ। अतः दुःखी तथा असहाय ब्रह्मा लम्बे समय तक विचार करते रहे और अन्ततः उन्होंने हृदय में भगवान् विष्णु का ध्यान किया तथा उनकी विधिवत् आराधना की। उपहार में ब्रह्मा ने विष्णु से वेदों की याचना की। विष्णु की आराधना के बाद ब्रह्मा का मस्तिष्क बिल्कुल साफ हो गया। ब्रह्मा के हृदय की व्याकुलता समाप्त हो गई। अब ब्रह्मा सभी शाखाओं के साथ वेदों का स्मरण करने में समर्थ थे। ब्रह्मा ने इस प्रसंग में भी एक तरह से हृदय का मन्थन (खनन) कर वेदों को प्राप्त किया, अतः इनका नाम विखनस् या वैखानस हुआ (अ. ३०.१६.७६)। उसके बाद ही ब्रह्मा सम्पूर्ण विश्व की रचना करने में समर्थ हुए। विश्वसृष्टि के पश्चात् ब्रह्मा ने दक्ष, भृगु, मरीचि आदि दस ऋषिओं को वैदिक ज्ञान प्रदान किया। यही ज्ञान-उपदेश वैखानस धर्मग्रन्थ या शास्त्र का आधार था। यह ज्ञानोपदेश ब्रह्मा के मानसपुत्रों के लिये भी उपदिष्ट हुआ था, इसीलिये उन्हें वैखानस कहा गया। इन ऋषियों ने मनुष्यों के कल्याण के हेतु श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र तथा धर्म-सूत्रों का प्रणयन किया। जिन ऋषियों ने सर्वप्रथम उन उपदेशों को सुना तन्त्रागम-खण्ड और व्यवहार में अनुसरण किया वे प्रथम वैखानस कहलाये। वैखानस अत्यन्त पावन शास्त्र कहा गया है। अत्यन्त सात पावनों में यह अन्यतम है अग्निर्वैखानसं शास्त्रं विष्णुर्वेदाश्च शाश्वताः। गायत्री वैष्णवा विप्राः सप्तैते बहु पावनाः।। (३०.७६) भृगु ने क्रियाधिकार के ३६वें अध्याय में वैखानस-विधि से अर्चन-व्यवस्था का विस्तार से विचार किया है। कहा गया है कि कल्प के आदि में विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा से ग्रस्त थे। ब्रह्मा विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए थे। ब्रह्मा चतुर्मुख थे। उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा ने विष्णु के विषय में चिन्तन किया। विष्णु ने ब्रह्मा को सम्पूर्ण सृष्टि तथा जन्तुओं के निर्माण का निर्देश किया। विष्णु ने सृष्टि में सहायता के हेतु ब्रह्मा को वैदिक ज्ञान भी प्रदान किया। उसकी सहायता से ब्रह्मा ने सारे संसार की रचना की। उन्होंने वैदिक ऋचाओं से विष्णु की पूजा की। ब्रह्मा ने अपने को परम सामर्थ्यशाली समझा और अनावश्यक मद से ग्रस्त हो गये। विष्णु ने उस मद से ब्रह्मा को मुक्त कराने के लिये मधु तथा कैटभ दो दैत्यों को उत्पन्न किया। इन दो दैत्यों ने ब्रह्मा का अपमान किया, साथ-साथ ब्रह्मा से वैदिक ज्ञान भी छीन लिया। छीना हुआ ज्ञान समुद्र की गहराई में छुपा दिया गया। ब्रह्मा अपनी शक्ति की समाप्ति देख अत्यन्त खिन्न हुए। साथ-साथ विष्णु आराधना के लिये वैदिक मन्त्रों की अनुपलब्धि से आश्चर्यान्वित भी हुए। ब्रह्मा ने विष्णु से सम्पर्क किया और विष्णु ने ब्रह्मा को द्वादशाक्षर या अष्टाक्षर मन्त्र से पांच दिनों तक पूजा करने की सलाह दी। यही पूजा की पंचरत्न-विधि कही गई। बाद में प्रसन्न होकर विष्णु ने एक विशाल मत्स्य का रूप धारण किया और गहरे समुद्र में जाकर मधु तथा कैटभ का वध किया। वेद को समुद्रतल से ऊपर लाकर ब्रह्मा को दिया। पुनः वेद प्राप्त कर ब्रह्मा अत्यन्त प्रसन्न हुए और वैदिक मन्त्रों से पुनः विष्णु की पूजा करने लगे। यह वैदिक विधि वैखानस-विधि थी। ब्रह्मा का मस्तिष्क पुनः विकृत हुआ और उसे रास्ते पर लाने के लिये विष्णु ने सोमक नामक राक्षस को उत्पन्न किया। उसने ब्रह्मा पर आक्रमण किया और उनसे वेद ले लिया। परेशान ब्रह्मा पुनः विष्णु के सम्पर्क में आये और विष्णु से पूछा कि वेद के बिना किस प्रकार उनकी (विष्णु की पूजा की जाय? इस बार विष्णु ने बताया कि बिना किसी मन्त्र के ही वे विष्णु की आराधना करें। पूजा की यह प्रक्रिया तान्त्रिक प्रक्रिया कही गई। इस प्रक्रिया को आग्नेय कहा गया है। विष्णु ने इस बार एक भयंकर वराह का रूप धारण किया और राक्षस सोमक की हत्या की। वेदों को लाकर ब्रह्मा को दिया। प्रसन्नचित्त ब्रह्मा पुनः वैदिक मार्ग से विष्णु की आराधना में प्रवृत्त हुए। इस तरह वैखानस प्रक्रिया से भगवदाराधन का क्रम अस्तित्व में आया। कहा है की विजय की पूजयामास विधिवत् पुनर्वेदोदिताध्वना। यद्वेदमन्त्रैः क्रियते तद्वैखानसमीरितम्।। वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय का आनन्दसंहिता के अनुसार विखनस् एक ऋषि थे। उन्होंने तोताद्रि में अनेक वर्षों तक भयंकर तपस्या की थी। उसके पश्चात् विखनस् हिमालय के बदरी क्षेत्र को चले गये। बदरी क्षेत्र में विखनस् विष्णु के अवतार नर तथा नारायण से मिले। वहाँ उन्होंने अपनी पत्नी योगमाया के साथ एक आश्रम की स्थापना की और कुछ समय के लिये व्यवस्थित हो गये। नर तथा नारायण ने विखनस को मानव के समक्ष वैदिक मार्ग से मूर्तिपूजा को प्रस्तुत करने का उपदेश किया। उसके अनुसार विखनस् ने घूम-घूम कर मूर्तिपूजा के विषय में ज्ञान-प्रसार प्रारंभ किया। कहा गया है कि इस क्रम में विखनस् ने न केवल अपने चार शिष्यों-ऋषि अत्रि, भृगु, मरीचि तथा कश्यप को ही नैमिषारण्य में वैखानस शास्त्र तथा सम्प्रदाय का उपदेश किया, अपितु अन्य पाँच ऋषियों को भी उसका उपदेश किया। ये पाँच ऋषि थे वशिष्ठ, अंगिरस्, पुलह, पुलस्त्य तथा क्रतु। र हामी जन्ट यह प्रसंग न केवल वैदिक मन्त्रों तथा वैखानस शास्त्र एवं वैखानस देवार्चन के पारस्परिक सम्बन्धों पर ही प्रकाश डालता है, अपितु यह उस परम्परागत जाति-विशेष की ओर भी इंगित करता है, जो ब्रह्मा की सन्तति थे और वैदिक मन्त्रों के द्वारा विष्णु की आराधना में संलग्न थे। हमने देखा है कि विष्णु ने स्वयं ही ब्रह्मा के लिये वेदों को उपलब्ध कराया, जो कि गहन अन्धकारमय जल में छुपे थे। इस तरह वैदिक ज्ञान का उद्धार स्वयं विष्णु ने किया, यह सिद्ध होता है। इसीलिये यह माना जाता है कि वस्तुतः विष्णु ही विखनस् थे। जिन लोगों ने विष्ण रूप विखनस के द्वारा उद्धत वेद के महत्त्व को स्वीकार किया. वे सभी वैखानस हैं। ऊपर निर्दिष्ट प्रसंग से यह भी प्रतीत होता है कि वैखानसों के पूर्वज ऋषि थे और वे विष्णु के स्वरूप के थे। उन्हें ऋषियों में प्रथम माना गया है। उन्होंने विष्णु के उपदेशों को सूत्र के रूप में उपस्थित किया, जो वैखानस सम्प्रदाय का आधार है। प्रकीर्णाधिकार आदि कुछ ग्रन्थों ने पाञ्चरात्र तथा वैखानस आगम के अर्चन में स्पष्ट रूप से भेद का निर्देश किया है। इनके अनुसार वैखानसागम शुद्ध रूप में वैदिक परम्परा का अनुसरण करता है, जबकि पाञ्चरात्र तान्त्रिक विचार-धारा का अनुगामी है। यह सम्प्रदाय गुरु तथा उसके द्वारा दी गई बाह्य दीक्षा को अधिक महत्त्व देता है। कहते हैं कि तान्त्रिक प्रक्रिया के अनुसार की जाने वाली पूजा-अर्चा लौकिक फल देने वाली होती है, जबकि वैखानस प्रक्रिया के अनुसार की जाने वाली पूजा सौम्य होती है और ऐहिक एवं आमुष्मिक फल देती है। मा वैखानस अपने को देवलकों से पृथक् मानते हैं। अपनी आजीविका चलाने के लिये वेतन लेकर जो वैष्णव आलय में पूजा करता है, उसे देवलक कहते हैं। देवलकों को सामाजिक दृष्टि से गर्हित कहते हुए वैखानसों ने उनकी निन्दा की है। वैखानस ग्रन्थों के अनुसार वैखानस अर्चकों को चाहे वे गृहार्चा में संलग्न हों या आलयार्चा में, उन्हें निश्चित रूप से साम्प्रदायिक तथा आध्यात्मिक शास्त्राध्ययन में संलग्न रहना चाहिए। उन्हें चरित्रवान्, सत्यभाषी, ईमानदार, बुद्धिमान् तथा यौगिक प्रक्रिया का जानकार होना चाहिए। PDF तन्त्रागम-खण्ड शायरी वैखानस को केवल भक्तिमूलक अर्चन ही स्वीकार करना चाहिये। अन्य किसी भी कारण से अर्चन करना स्वीकार नहीं करना चाहिये। क्रियाधिकार का कहना है FE के णी कई _ अध्यात्मगणसयुक्ता विप्रः स्वाध्यायसयुतः। घिहि माजी अध्यात्मगुणसयुक्ता विप्रः स्वाध्यायसयुतः। काला कि वृत्तवान् सत्यवादी च ज्ञानशीलश्च योगवितु।। गृहस्थो ब्रह्मचारी वा भक्त्या वार्चनमारभेत्।। गाउ नि की ला एक (क्र. अ. ६.२३-२४) जार आठ माह IF वैखानसों के आचार का सामान्य वर्णन करते हुए कहा गया है कि इन्हें सुबह में अर्चन तथा उससे सम्बद्ध क्रियाकलाप में कालयापन करना चाहिये। भोजनादि से निवृत्त होकर अपराहण में वेदवेदांग तथा सम्प्रदाय सम्बद्ध ग्रन्थों के स्वाध्याय में काल व्यतीत करना चाहिये। आचारविहीन वैखानस वैष्णवों की सारी क्रिया निष्फल होती है, अतः इन्हें सदाचारी तथा नैष्ठिक होना चाहिए। पाठ-असा विचलन दिक काला तमगा कि किसक कामंह विशिकीमा
सम्प्रदाय की वर्तमान स्थिति
हमने देखा है कि वैखानस वैष्णवों की एक शाखा-विशेष है। इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध लोग आंध्रप्रदेश, कर्णाटक तथा तमिलनाडु प्रदेशों के गाँवों तथा शहरों में फैले हुए हैं। इस तरह वैखानस-वैष्णव मुख्यरूप से दक्षिण भारत में फैले रहते हुए भी केरल तथा कर्णाटक के पश्चिम समुद्रतट पर नहीं मिलते। सामान्यतः वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय के लोग कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मण हैं। इस सम्प्रदाय के लोग उक्त तीन प्रदेशों में बसे रहने के बावजूद परस्पर समान रीतिरिवाजों तथा परम्पराओं से बंधे हए हैं। ॐ माला व्यापार साल I यह सम्प्रदाय निःसन्देह एक प्राचीन सम्प्रदाय है और पूर्ण रूप से वैदिक परम्परा से सम्बद्ध है। यद्यपि वर्तमान काल में वैखानसों को श्रीवैष्णवों के अन्तर्गत ही समझा जाता है, फिर भी वैखानस वैष्णवों ने श्रीवैष्णवों से अलग अपनी कुछ खास विशेषताओं तथा पहचानों को सुरक्षित रखा हुआ है। यह विशेषता तथा पहचान वैखनसों को श्रीवैष्णवों से अलग करने के प्रबल हेतु हैं। इन दोनों में परस्पर भेद के मुख्य कारण हैं— इनके परम्परागत रीति-रिवाज, व्यवहार तथा कुछ दार्शनिक सिद्धान्त। अर्थात् वैखानस वैष्णवों के पारम्परिक रीति-रिवाज तथा व्यवहार श्रीवैष्णवों से भिन्न हैं। ये वैखानस वैष्णव आचार्य रामानुज को अथवा प्राचीन आलवारों को अपनी गुरु-परम्परा में नहीं मानते। अतः वैखानस लोग मन्दिरों में उनकी पूजा भी नहीं करते। ये पूजा के समय श्रीवैष्णवों की तरह तमिल प्रबन्धों का पाठ भी नहीं करते। वैखानस वैष्णव आचार्य श्रीनिवास मखी ने (१०५८ ई.-११०७ वि.), जिनकी चर्चा पहले भी हुई है, ब्रह्मसूत्र पर ‘लक्ष्मीविशिष्टाद्वैत’ भाष्य भी लिखा है। यह भाष्य मुख्यरूप से वैखानस वैष्णव सिद्धान्त के आधार पर लिखा गया है। है वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय यद्यपि इसमें विशिष्टाद्वैत शब्द का प्रयोग हुआ है, तथापि दार्शनिक तथा धार्मिक उभय दृष्टि से यह भाष्य आचार्य रामानुज के श्रीभाष्य के सिद्धान्तों से भिन्न है। श्रीनिवास मखी ने भाष्य के नाम की व्याख्या करते हुए कहा है- “लक्ष्मीविशिष्टनारायणोऽद्वैतं यत्र मते तल्लक्ष्मीविशिष्टाद्वैतम्”। पलाया कि गायकी लिया की छवि आय वैखानस वैष्णव सिद्धान्त के अनुसार केवल समर्पण एवं भक्ति ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, अपितु भक्तिपूर्वक समूर्त-अर्चन सर्वोपरि साधना या आराधना है। इस सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्मविद्या की उपासना की अपेक्षा भक्तिपूर्वक किया गया मूर्ति-आराधन उत्तम है, अर्थात् वैखानस वैष्णव सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्मज्ञान से अधिक मूर्तिपूजा का महत्त्व स्वीकारा गया है। यह श्रीनिवास मखी की मान्यता है। SITE र वस्तुतः वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय नाथमुनि (८२४-६२४ ई.=८८१-६८१ वि.), यामुनाचार्य (१०३८ ई.=१०६५ वि.) तथा रामानुजाचार्य (१०१७-११३७ ई. =१०७४-११६४ वि.) से भी, जिन्होंने विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त की स्थापना तथा व्याख्या की थी, प्राचीन प्रमुख स्वतन्त्र धार्मिक सम्प्रदाय माना गया है। इस सम्प्रदाय के अनुसार अर्चन प्रायः उन देवालयों में सम्पादित होता था, जहां आलवारों ने वैष्णव आन्दोलन चलाये थे। कहते हैं कि नाथमुनि ने भी उसी वैष्णव आन्दोलन को स्वीकारा तथा आगे बढ़ाया था। आलवारों के तमिल भक्तिगीतों में भी मूर्तिपूजा को अत्यन्त सराहा गया है और उत्तम कहा गया है। इस क्रम से यह मानना कि वैखानस वैष्णवों ने विष्णु की मूर्तिपूजा की परम्परा का प्रारंभ किया था, युक्त ही होगा। विष्णु निश्चित रूप से एक वैदिक देवता हैं। इसलिये यह आश्चर्यजनक नहीं है कि प्राचीन तीर्थस्थलों, जैसे- तिरुमला-तिरुपति, महाबलिपुरम्, श्रीकाकुलम्, अमरावती, वेदाद्रि, धर्मावरम्, चोल सिंहापुरम्, विजयनगरम्, तिरुचिलापल्ली, रामनाथपुरम्, पीठापुरम्, काकीनाडा, विनुकोण्डा, खाद्रि, उत्तरमेरुर, तांजाबूर, तिरुकुरुनगुडी, मदुराई, दर्भशयनम्, कोण्डाविकु, नेल्लुर, तिरुमसाई, सेंजि, वेल्लूर, वेंकटगिरि तथा कारवेठीनगर के विष्णु मन्दिरों में आज भी वैखानसागम ग्रन्थों के अनुसार भगवदर्चनादि सम्पादित होते हैं। यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि कुछ मन्दिर जो आचार्य रामानुज तथा आलवारों से सम्बद्ध रहे हैं, उनमें भी वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध वैष्णव लोग अर्चक के पद पर कार्यरत हैं। ऐसे देवालयों में भी पेरम्बूदूर, पूनामलई, वानमामलई, अलहारकोइल तथा तिरुवालि-तिरुनगरी आदि के मन्दिरों को देखा जा सकता है। यह इसलिये आश्चर्यजनक है, क्योंकि • रामानुजाचार्य पाञ्चरात्रागम के पक्षधर थे। ठिण्डारी सर्वविदित स्पष्ट तथ्य यह है कि वैखानस वैष्णव-मन्दिरों में पूजा के प्रसंग में शुद्धरूप से वैदिक मन्त्रों का प्रयोग होता है। वैखानस वैष्णव आलय-आराधन के क्रम में तमिल प्रबन्धों का प्रयोग या गायन नहीं करते। वैखानस वैष्णव वैदिक अनुष्ठानों से लगाव रखते हैं और वे अग्नि-आराधना पर भी जोर देते हैं। इस सम्प्रदाय में गृहार्चा तथा आलयार्चा उभयत्र अग्नि-आराधन का विधान है, जैसाकि तैत्तिरीय ब्राह्मण ग्रन्थों में विहित है। कहा गया है कि ऋषि विखनस् ने न केवल गृहस्थों के धार्मिक कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों का १० प तन्त्रागम-खण्ड वर्णन करते हुए अपने कल्पसूत्र की रचना की, बल्कि उन्होंने चार प्रमुख शिष्यों (मरीचि, अत्रि, भृगु तथा कश्यप) को दैविक सूत्रों का भी उपदेश किया, जिनमें मुख्यरूप से मूर्तिपूजा का विधान कहा गया है। इन दैविक सूत्रों में वैखानस वैष्णवों के लिये गृह तथा देवालय में उभयत्र वैदिक अनुष्ठानों तथा मूर्तिपूजा का समान रूप से विधान किया गया है। उनके अनुसार गृह तथा देवालय में दोनों जगह अग्नि-आराधन के साथ-साथ मूर्तिपूजा एक दूसरे के पूरक हैं। चां शैव तथा पाञ्चरात्रागमिकों के मत में ऐसी बात नहीं है। इनके अनुसार आगमिक प्रक्रिया वैदिक प्रक्रिया की व्यावहारिकता की शिथिलता के बाद समय की आवश्यक मांग थी। आगम शब्द का प्रयोग निगम से जो वेद का पर्यायवाचक शब्द है, अलग भेद प्रदर्शनार्थ किया जाता रहा है। सामान्य रूप से हम देखते हैं कि वैखानस वैष्णव ग्रन्थ अपने साथ आगम शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे इन ग्रन्थों को भगवच्छास्त्र के नाम से उल्लिखित करते हैं। कुछ लोगों की मान्यता है कि आधुनिक काल में पाञ्चरात्रागम तथा शैवागम आदि से भिन्नता दर्शाने के लिये ही वैखानस के साथ आगम शब्द प्रयुक्त होने लगा है, वस्तुतः यह शास्त्र अपने को आगम न कहकर भगवच्छास्त्र कहता रहा है। लम वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय का वैदिकत्व प्राचीन स्मृतिकारों को भी मान्य था। बौधायन का कहना है- “शास्त्रपरिग्रहः सर्वेषां वैखानसानाम्” (बौधायन धर्मसूत्र. ३.३.१७) । वैखानसों के मत में मूर्तिपूजा वैदिक-आराधन (अग्नि-आराधन) का विकल्प नहीं था, अपितु उनके मत में मूर्तिपूजा अपने आपमें वैदिक-आराधन ही था। इसीलिये सूत्र कहता है “तस्मादग्नौ नित्यहोमान्ते विष्णुनित्यार्चा गृहे देवायतने भक्त्या भगवन्तं नारायणमर्चयेत्’ । इसीलिये श्रीमद्भागवत ने भी तीन प्रकार के यज्ञों का निर्देश करते हुए कहा है- “त्रिविधो मख उच्यते” (११.२७.७)। अर्थात् यज्ञ तीन तरह के हैं। १. वैदिक २. तान्त्रिक तथा ३. मिश्र। ‘वैदिक’ शब्द की व्याख्या करते हुए श्रीमद्भागवत के सुबोधिनी-व्याख्याकार वल्लभ ने कहा है- वैदिक अर्थात् वैखानस। तान्त्रिक से प्रायः पांचरात्र तथा मिश्र से नामकीर्तन आदि कहा गया होगा। श्रीमद्भागवत में अन्यत्र भी आराधना के दो मार्गों ‘वैदिक’ तथा ‘तान्त्रिक’ का निर्देश किया गया है। व्याख्याकार वीरराघव के अनुसार “उभाभ्याम्, अर्थाद् वेदपाञ्चरात्राभ्याम्” इस कथन से भी वैखानस सम्प्रदाय का वैदिकत्व स्पष्ट है। विष्णुपुराणस्थ श्लोक यज्वभिर्यज्ञपुरुषो वासुदेवश्च सात्वतैः। वेदान्तवेदिभिर्विष्णुः प्रोच्यते यो नतोऽस्मि तम्।। की व्याख्या के क्रम में श्रीनिवास मखी ने ‘वेदान्तवेदिन्’ का अर्थ ‘वैखानस’ कहा है। मखी ने ‘वेदविद्’ अर्थात् वैखानस के भी दो भेदों का निर्देश किया है। एक अमूर्त आराधक, अर्थात् केवल वैदिक याग सम्पादक वैखानस तथा दूसरे वैसे वैखानस जो समूर्ताराधन में विश्वास रखने वाले थे। अर्थात् वैखानसों का एक सम्प्रदाय केवल वेदविहित श्रौत-याग में वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय विश्वास रखता था और उसी का अनुष्ठान करता था, जबकि वैखानसों का एक ऐसा भी समूह था, जो विष्णुमूर्ति की आराधना में संलग्न था। निगम
साकार और निराकार आराधन
भृगु ने खिलाधिकार में साकार तथा निराकार के रूप में दो प्रकार के आराधनों का निर्देश किया है। इन दोनों में साकार-आराधन होने के कारण प्रतिमा या मूर्ति आराधन को श्रेष्ठ कहा गया है। इस प्रसंग में आराधन के लिये स्थण्डिल, जल, सूर्यमण्डल तथा आराधक का स्वयं हृदयस्थल आधार के रूप में स्वीकृत हुए हैं। सभी आराधनों में मूर्ति आराधन को श्रेष्ठ इसलिये कहा गया है, क्योंकि इसमें भक्ति का योग होता है। साथ-साथ अग्नि में होम आदि का भी विधान होता है। खिलाधिकार में भृगु का कहना है साकारं च निराकारं भवत्याराधनं द्विधा। प्रतिमाराधनं श्रेष्ठं साकारमभिधीयते।। स्थण्डिले सलिले वापि हृदये सूर्यमण्डले। । आराधनं निराकारं तयोः साकारमुत्तमम्।। संसाराश्रमनिष्ठानां पुरुषाणां विजानताम्। इह चामुत्र च हितं यथेष्टफलदायकम्।। सकलं सर्वसम्पूर्ण साकारमभिधीयते। चक्षुषोः प्रीतिजननं मनसो हृदयस्य च।। यथोपयोगशक्यत्वात् कर्तुं पूजां सुमादिभिः। अभीक्ष्णदर्शनौचित्यात् सौलभ्येन विशेषतः।। विशेषभक्तिहेतुत्वात् प्रतिमाराधनं वरम्। 552ी (अ. २० श्लो. १६-२३) समूर्ताराधन सामान्य जनों के लिये भी अति अनुकूल है, जब कि अमूर्ताराधन, अर्थात् श्रौत यागादिरूप आराधन सामान्य जनों के लिये अत्यन्त कठिन ही नहीं, असंभव भी कहा गया है। अमूर्ताराधन क्रम में आराधनार्थ मन को स्थिर करने के लिये किसी भी आधार के न होने से वह अत्यन्त कठिन कहा गया है। यही कारण है कि वैखानस लोग अमूर्त आराधन की अपेक्षा समूत्राधन की ओर अधिक उन्मुख हुए। ये वैखानस वैदिक श्रौत-सूत्रों की अपेक्षा इस मूर्ति-आराधन को अवश्य ही अधिक महत्त्व देते हैं। यद्यपि इनकी भावना वैदिक यज्ञ से आलयाराधन की ओर स्थानान्तरित होकर समूर्ताराधन में प्रवृत्त हुई है, फिर भी इन्होंने वैदिक याज्ञिक प्रक्रिया से सर्वथा संबन्धविच्छेद नहीं किया। इस सम्प्रदाय के अनुसार मूर्ति-आराधन को भी यज्ञ ही समझा जाता है। यज्ञ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी इसके अनुरूप है। यजन का अर्थ संगति, देवपूजन कहा गया है। अजीर तन्त्रागम-खण्ड जारी वैखानस आचार्यों के मत में अनेक प्रकार के यज्ञों में मूर्त्याराधनात्मक यज्ञ का संस्थापन यजमान के अभाव में भी प्रवर्तित होते रहने के कारण अन्य यज्ञों से पृथक् तथा उत्तम कहा गया है। यज्ञाधिकार कहता है - तदर्चनं द्विधा प्रोक्तममूर्तं च समूर्तकम्। त अग्नौ हुतममूर्त स्यात समूर्त बेरपूजनम् ।। लगानी FELLITE IF अमर्त यजमानस्य यभावे च विनश्यति। ता किशो TSH “अच्छिन्नं शाश्वतं नित्यं प्रतिमाराधनं वरम।। नगर क ति कोहलियापागा। माधम क जाणार शा:-बारा काहि गरि कति मिट तक (अ. १., श्लो. १०-११) मा कर कहते हैं कि अग्निष्टोमादि वैदिक यज्ञ केवल यजमान अथवा उसकी सन्तति को स्वर्ग-आदि फल देते हैं, परन्तु देवालय में समूर्त-अर्चन अथवा आराधन के हेतु किया गया मूर्तिस्थापन स्थापक, अर्चक तथा मन्दिर में पूजाहेतु जाने वाले सभी लोगों के लिये फलदायक होता है। सामान्यतः वैदिक यज्ञों का अलग-अलग फलकीर्तन किया गया है, जो केवल यज्ञ करने वाले यजमान को ही प्राप्त होता है, दूसरों को उसका लाभ नहीं होता। परन्तु आलय में मूर्ति आराधन सभी भक्ताराधकों के लिये सर्वकामप्रद कहा गया है। प्रकीर्णाधिकार कहता मकानागाणाका नाममा स्थापितां प्रतिमां विष्णोः सम्यक् सम्पूज्य मानवः। यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोत्यसंशयम्।। यथा हि ज्वलनो वहिस्तमोहानिं तदर्थिनाम् । शीतहानि तदन्येषां स्वेदं स्वेदाभिलाषिणाम् ।। करोति क्षुधितानां च भोज्यं पाकक्रिया शिखी। तथैव कामान् भूतेशः स ददाति यथेप्सितम्।। (5-38 .जिट कल्पद्रुमादिव हरेर्यदिष्टं तदवाप्यते। मा ती कमा लिाध की कि (अ. ३५, श्लो. २३-२६) समर SEPERTS E Tots SE 1971 SFF B FSTTIE E STE TE PISTS हिसिकी शिीत
वैदिक एवं वैखानस-आराधना की तुलना
वैखानस आगम में निर्दिष्ट विषयों को देखने से वैदिक याग तथा मूर्तिपूजा के क्रम में वर्णित प्रक्रिया में सामान्यतः अत्यन्त साम्य दिखता है। जैसे- वैदिक याग के लिये गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियों का निर्देश किया गया है, उसी के समान वैखानसों के द्वारा विहित मूर्ति आराधन के लिये ध्रुव-बेर, कौतुक बेर तथा उत्सव-बेर का विधान किया गया प्रतीत होता है। ‘गार्हपत्य’ अग्नि एक विशेष स्थान पर स्थापित रहती है। उसे सब तरह से सर्वदा सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता है। यह अग्नि अचल होती है। वैखानस वैष्णव देवालय में गार्हपत्य-अग्नि का प्रतीक ‘ध्रुव-बेर’ वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय गर्भगृह में आराधनार्थ स्थापित होता है। यह मूर्ति अचल होती है, इसे दूसरी जगह नहीं ले जाया जाता। ‘आहवनीय अग्नि’ का, जो गार्हपत्य अग्नि से लिया गया होता है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर हवन के लिये ले जाने के लिये अनुमत होता है, प्रतिनिधि कौतुक- बेर है। इस आगम के अनुसार कौतुक-बेर में शक्ति का आवाहन मूल-बेर से किया जाता है और यह बेर नित्यार्चन के लिये प्रयोग में लाया जाता है। यह मूल-बेर की तरह अचल नहीं होता। तीसरी अग्नि दक्षिणाग्नि का प्रतिनिधित्व उत्सव-बेर करता है। इस बेर में उत्सव तथा किसी भी विशिष्ट अवसर पर पूजा-अर्चा का विधान है। इस प्रकार वैदिक अग्नि-आराधन तथा समूर्ताराधन की समानता को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैदिक अमूर्ताराधन का स्थानान्तरण आगमिक समूर्ताराधन के रूप में हुआ है। वैखानस आगम में वैदिक प्रक्रिया का स्पष्ट अनुकरण किया गया प्रतीत होता है। विचारकों की मान्यता है कि उपर्युक्त क्रम से वैदिक यज्ञ-प्रक्रिया के आधार पर मूर्ति आराधन या देवालयार्चा का स्वरूप स्थिर हुआ। मूर्ति-आराधन का प्राचीन वैदिक यज्ञ या श्रौत आराधन के अनुरूप होने के कारण भी यज्ञं कहा जाना स्वीकृत हुआ है। इस प्रसंग में प्राचीन श्रौत-यज्ञ के विस्तार के अनुरूप आलय मूर्ति-आराधन की समानता स्पष्ट देखी जा सकती है। जैसे श्रौतकर्म में गृहस्थों के लिये विहित दैनिक ‘अग्निहोत्र परिचर्या’ के स्थान में आलय में प्रतिदिन नैत्यिक आराधन का विधान वैखानस आगम ग्रन्थों में विस्तार से विहित है। श्रौतयाग के ‘दर्शपौर्णमास’ तथा ‘आग्रयण’ की तरह समूर्ताराधन-क्रम में क्रमश: ‘पञ्चपर्वार्चन’ तथा ‘चातुर्मास्यार्चन’ का विधान देखते हैं। श्रौत-प्रक्रिया में ‘सोमयाग’ अनेक दिनों तक चलने वाला यज्ञ अत्यन्त धूमधाम से सम्पन्न किया जाता था, उसी तरह देवालय में मूर्ति आराधन-क्रम में ‘कालोत्सव’ या ‘ब्रह्मोत्सव’ नौ दिनों तक अत्यन्त उत्साहपूर्वक धूमधाम से सम्पन्न किया जाता है। इसी तरह श्रौत-प्रक्रिया की ‘पञ्चाग्नि’ के अनुरूप इस आगमिक मूर्ति-आराधन में ‘पंचबेरों’ का विधान स्पष्ट दिखता है। जिस प्रकार पञ्चाग्नि के अन्तर्गत १. सभ्याग्नि, २. आहवनीयाग्नि ३. अन्वाहार्याग्नि, ४. गार्हपत्याग्नि तथा ५. आवसथ्याग्नि का निर्देश किया गया है, उसी प्रकार वैखानसों ने आराधन क्रम में १. विष्णु, २. पुरुष, ३. सत्य, ४. अच्युत तथा ५. अनिरुद्ध इन पाँच देवों का विधान कहा है। इन्हें पञ्चमूर्ति कहते हैं। साथ ही आराधनार्थ पञ्चबेर १. ध्रुव, २. कौतुक, ३. स्नपन, ४. उत्सव तथा ५. बलि बेरों का निर्देश भी सर्वत्र वैखानसागम ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। इसके अलावा यहाँ वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध ग्रन्थों में श्रौत-प्रक्रिया में प्रयुक्त अनेक विशिष्ट शब्दों को भी उसी रूप में स्वीकार किया गया है। जैसे दीक्षा, ऋत्विक्, हविष्, त्रिसवन (त्रिकाल-अर्चन), परिक्रमा या प्रदक्षिणा, अवभृथ (स्नान-विशेष) आदि शब्द वैखानस आगमिक प्रक्रिया में हुबहू उसी तरह प्रयुक्त हैं, जैसे श्रौत-प्रक्रिया में। इस तरह यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्रौत प्रक्रिया का अमूर्ताराधन क्रम ही वैखानस सम्प्रदाय में समूर्ताराधन के रूप में प्रवर्तित तथा व्यवहृत है। ये सब बातें वैखानसागम के वैदिकत्व में प्रबल प्रमाण हैं। फल की कि का नाम लगानी गतिमि १४ कितन्त्रागम-खण्ड नामक बिना
ऐतिहासिक पर्यवेक्षण
वैखानस सम्प्रदाय के उपर्युक्त स्वरूप को देखने के बाद इसके ऐतिहासिक पक्ष पर कुछ विचार करना प्रासंगिक होगा। प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह सम्प्रदाय एक अतिप्राचीन सम्प्रदाय प्रतीत होता है। वैखानस ऋषियों का निर्देश ऋग्वेद (८. ७०.३ तथा ६.६६), शुक्लयजुर्वेद (८.३८), सामब्राह्मण (ताण्ड्य १४.४.७ तथा १४.८. २८) एवं तैत्तिरीयसंहिता (७.१.४.३) में देखते हैं। यहाँ इनके सिद्धान्त-निर्देश के साथ-साथ इनकी जीवन-प्रणाली के विषय में भी प्रकाश डाला गया है। सामविधान ब्राह्मण में वैखानसों को ऋषि कहा गया है। सायणाचार्य ने ‘वेदार्थप्रकाश’ तथा भरत स्वामी ने ‘पदार्थमात्रवृत्ति’ टीका में “वैखानसाः शतसंख्याका मन्त्रदृश ऋषयः” (सामविधानब्राह्मण १ प्रपा. अनुवाक १-७) ऐसा अर्थ किया है। ताण्ड्य ब्राह्मण में ‘वैखानस साम’ यह नाम किस प्रकार हुआ, यह बताया गया है। यहाँ ‘वैखानसाः’ ऐसा बहुवचन निर्देश देखते हैं। व्याख्याकारों ने वैखानस का अर्थ विखनस् का पुत्र कहा है। यहाँ कहा गया है कि वैखानस इन्द्र के अत्यन्त ‘प्रिय थे। एक बार दुष्ट असुरों ने उन ऋषियों को मार डाला। देवताओं ने इन्द्र से पूछा वैखानस कहाँ है? इन्द्र ने देवताओं को वैखानसों के अन्वेषण का आदेश दिया। बहत खोजने तथा प्रयास के बाद भी देवता-समूह वैखानस को खोजने में सफल नहीं हुए। बाद में इन्द्र ने स्वयं ही वैखानस का अन्वेषण करते हुए उसके छिन्न-भिन्न शरीर को प्राप्त किया। फिर एक साम-विशेष से वैखानस के छिन्न-भिन्न शरीर को जोड़ा और उसमें प्राण डाला। उसके बाद वैखानस ऋषि लोग पहले की तरह जीवित हो गये। उसी समय से उस साम का नाम ‘वैखानस साम’ हो गया। इस प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है कि विखनस् से उत्पन्न ये वैखानस ऋषियों में समादृत थे। इस ब्राह्मण में अन्य दो स्थलों में भी वैखानस शब्द का प्रयोग सामविशेष के अर्थ में प्रयुक्त है (१४.६.२६, तथा १०.११.१०)। मा उपनिषदों में भी वैखानस की चर्चा हुई है। सीतोपनिषद् में वैखानस का अर्थ ‘मतविशेष’ कहा गया है। इस उपनिषद् में वेदादि की संख्या आदि प्रतिपादित कर बाद में कहा गया है वैखानसमतं तस्मिन्नादौ प्रत्यक्षदर्शनम्। या सगशाला स्मर्यते मुनिभिर्नित्यं वैखानसमतः परम्।। ही इस श्लोक की व्याख्या करते हुए उपनिषद्ब्रह्ममुनि ने कहा है- “सूत्राण्यपि चतुर्वेदार्थरूपाणीत्याह—वैखानसमिति। यद्वैखानसमुनिना सूत्रितं तत् प्रत्यक्षदर्शनम्, चतुर्वेदार्थसारस्य सूत्रितत्वात्। सर्वे मुनयः सर्वं वैखानससूत्रजातं लब्ध्वा ततः परं तैर्मुनिभिर्नित्यं सूत्रजातं स्मृतिजातं च स्मर्यते क्रियते कृतमित्यर्थः” (सीतोपनिषद् २६)। इस उपनिषदत्प्रसंग से वैखानससूत्र तथा उस मत का सर्वापेक्षया अत्युत्कृष्टत्व तथा प्रथमोद्भवत्व सिद्ध होता है। इस उपनिषद् के अनुसार अन्य सभी सूत्र-स्मृति आदि वैखानससूत्र के अनुगामी हैं। सीतोपनिषत् में ही एक स्थान पर वैखानस का विष्णु रूप होना कहा है कीवैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय वैखानस-ऋषेः पूर्वं विष्णोर्वाणी समुद्भवेत्। त्रयीरूपेण संकल्प्य इत्थं देही विजृम्भते।। संख्यारूपेण संकल्प्य वैखानस-ऋषेः पुरा। उदितो मादृशः पूर्वं तादृशं शृणु मेऽखिलम्। शश्वद् ब्रह्ममयं रूपं क्रियाशक्तिरुदाहृता।। इसकी व्याख्या करते हुए उपनिषद्योगी का कहना है- “पुरा हरिमुखोदितनाद एव कृत्स्नवेदशास्त्राकृतिर्भूत्वा ततो ब्रह्मभावमेत्य ब्रह्मैव भवतीत्याह—वैखानस इति। स्वानन्यभावमापन्ने वैखानसहृदये प्रत्यगभिन्नब्रह्मभावम् ऋषति गच्छतीति वैखानस ऋषिर्विष्णुः, तस्य विष्णोः…” (सीतोपनिषद् ३१-३३) इत्यादि। इस कथन से वैखानस का विष्णु होना स्पष्ट ही स्वीकृत है। परन्तु सीतोपनिषत् की प्राचीनता तथा प्रामाणिकता अवश्य विचारणीय है। नारदपरिव्राजकोपनिषद् के अनुसार वैखानस ब्रह्मचर्य आदि चार आश्रमों में अन्यतम आश्रम के रूप में स्वीकृत है (३.२.३३)। आथर्वणीय आश्रमोपनिषत् में आश्रमों के विभागप्रदर्शन-क्रम में वैखानसों का चार आश्रमों में एक आश्रम होना निर्दिष्ट है। यहाँ वैखानस वानप्रस्थ का पर्यायवाची माना गया है। (आश्रमोपनिषत, ३)। बोधायन धर्मसूत्र में चार आश्रमों का परिगणन किया गया है। उनमें अन्यतम आश्रम वानप्रस्थ-आश्रम के विवरण के प्रसंग में बोधायन का कहना है कि वैखानस वन में फल मूलभोजी तपःशील सवनों में जलस्पर्श करते हुए श्रामणकाग्नि आधानपूर्वक होम करने वाला, अग्राम्यभोजी, देव-पितृ-भूत-मनुष्य-ऋषि पूजक, सर्वातिथि, प्रतिषिद्ध भोज्य पदार्थ को भी ग्रहण करने वाला, फाल से जोती हुई जमीन से उत्पन्न अन्न को खाने वाला, ग्रामप्रवेश न करने वाला, जटा धारण करने वाला, चीर तथा अजिन वस्त्रधारी होता है। बोधायन धर्म सूत्र में अत्यन्त विस्तार से वैखानसों के भेद तथा उपभेदों का इस प्रकार निर्देश है मिला हक माया निशाना सालिक छाला कि इन ਜਿਸ਼ ਬ ਲ समयका ਸਲੇ ਨਾਲ ਹੀ ਸੰਭਵ = ਸਨ , नीला आली गागा ਜੀਵ निति के कीट तन्त्रागम-खण्ड की pषि
वैखानस वानप्रस्थ
पचमान अपचमान नाचिनीक गायक तिमिशिवाजी महतित जाति विगामजानाजमा नामक जमाना कि किशालकांकि सड | सोरण्यक वैषिक कन्दमूलभक्षगए फलभक्ष शाकभक्ष प र समाजमानामा परिणाम में एक प्रशार माधान पिक उन्नमंजक पत्राशिन् । मुखेनादयिन् तोयाहार वायुभक्ष तिचा की कमर पानी प्राधा-फा जिक मागोमाशा पोमणमा जारी गरि कि क इन्द्रावसिक्त निगा गतवरत जह प जिरिलिहाजाकीक मार-किन रैतावसिक्त जिला जू बाज जित करणार या (बोधायन धर्मसूत्र १.११.४.१६) गौतम धर्मसूत्र के अनुसार भी चार आश्रमों में अन्तिम आश्रम वैखानस आश्रम है। हरदत्त ने मिताक्षरा में लिखा है- “वैखानसो वानप्रस्थः, वैखानसप्रोक्तेन मार्गेण वर्तत इति”। अन्य स्थलों में वैखानस को तृतीय आश्रम तथा भिक्षु को चतुर्थ आश्रम कहा है। वैखानसों के कृत्यनिरूपण के क्रम में गौतम ने सूत्र लिखा हैं – “वैखानसो वने मूलफलाशी तपश्शीलः” (३.३५)। पुनः कहा है— “श्रामणकेनाग्निमाधाय” (३.२६)। यहाँ श्रामणक पद वैखानस शास्त्र का पर्यायवाची शब्द कहा गया है। हरदत्त ने मिताक्षरा वृत्ति में लिखा है श्रामणकं नाम वैखानसं शास्त्रम्। गौतम ने अत्यन्त विस्तार के साथ इस आश्रम के कृत्य आदि का वर्णन किया है। इस प्रसंग को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैखानस किसी प्राचीन ऋषि का नाम था। उस ऋषि के द्वारा विरचित शास्त्र के अनुसार वैखानस सम्प्रदाय के लोगों के आचार-विचार प्रवर्तित होते थे। १७ वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय । मनु ने अपनी स्मृति में वैखानसों की चर्चा की है। यहाँ वैखानस को प्रतिष्ठित स्मृतिकारों की श्रेणियों में गिनाया गया है। इन्हें आश्रमवासी कहा है और इनके विशिष्ट दर्शन का भी निर्देश किया गया है। मनुस्मृति के व्याख्याकार कुल्लूक भट्ट के अनुसार वैखानसों का अपना एक आदर्श सिद्धान्त था- “वैखानसो वानप्रस्थः, तद्धर्मप्रतिपादकशास्त्रदर्शनं स्थितः” (मनुस्मृति, ६.२१)। ऐसा प्रतीत होता है कि वैखानसों की श्रामणाग्नि याज्ञिक प्रक्रिया संभवतः मूर्तिपूजा से संबद्ध तत्त्वों से युक्त थी। यह विशिष्ट तत्त्व वैखानसों को बालखिल्य तथा वातरसन वानप्रस्थों से अलग करता है। उपर्युक्त धर्मसूत्र तथा स्मृति-सन्दर्भो के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि वैखानस एक आश्रम विशेष था। इस आश्रम के सदस्यों के लिये वैखानसोक्त शास्त्र के अनुसार आचार का विधान था। इससे यह तो स्पष्ट है कि यह वैखानस सम्प्रदाय धर्म-सूत्र तथा स्मृति-ग्रन्थों के प्रणयन काल से पूर्व भी प्रतिष्ठित था। ____आदिकाव्य वाल्मीकिरामायण के किष्किन्धाकाण्ड में तीन स्थानों में हम वैखानस का उल्लेख देखते हैं। इन स्थलों के अनुशीलन से स्पष्ट है कि वैखानस वन में निवास करने वाले तपःशील ऋषियों का नाम था। (वा. रा. कि. काण्ड ४०, २८, ४३, ३१, ३३)। श्रीमद्भागवत महापुराण में भी वैखानस की चर्चा देखते हैं। यहाँ वैखानस ऋषि-विशेष के रूप में ही निर्दिष्ट है (३.११.४३. ४.२३.४)। अनशासनपर्व के एक स्थल में विविध ऋषियों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। यहाँ कहा गया है कि भगवान शिव के यज्ञ में आई देवांगनाओं को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया। ब्रह्मा ने स्वयं ही उस वीर्य का अग्नि में होम किया। उससे चर तथा अचर जगत् की उत्पत्ति हुई। उसी होम के भस्म से भृगु आदि ऋषियों का प्रादुर्भाव हुआ। उनमें एक ऋषि वैखानस भी थे। इस प्रसंग के अनुसार वैखानस जन्मजात ऋषि है, न कि चार आश्रमों में अन्यतम आश्रमविशेष। महाभारत के वनपर्व (६.१६, ११४-१५), (४५.८) और शान्तिपर्व (२०.६, २६.६) में भी वैखानसों की चर्चा हुई है। इन स्थलों में सामान्यतः वैखानस को ऋषि के रूप में ही निर्दिष्ट किया गया है। विष्णुपुराण (३.१०.१५, ४.३.१) के, मत्स्यपुराण (२४.५०.५, ६०.३६-३७) के तथा ब्रह्माण्डपुराण (१.२.२७, एवं २.३२.३५) के स्थलों में भी वैखानसों का उल्लेख है। इन पौराणिक स्थलों में वैखानस चार आश्रमों में अन्यतम तृतीय आश्रम का बोधक है। एक वर्णन के अनुसार वैखानसों का सपत्नीक होना भी देखते हैं। उपर्युक्त वर्णन से वैखानसों के स्वरूप का जो परिचय सुलभ होता है, इसके आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि यह वैखानस सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन है। कालक्रम से इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा है। वैखानसों का वर्तमान स्वरूप जो हमारे समक्ष है, वह किस प्रकार हुआ, इस विषय पर विचार करने पर हम अनुमान कर सकते हैं कि वन में तृतीय आश्रम के रूप में सपत्नीक निवास करने वाले वैखानस वानप्रस्थ किसी न किसी रूप में समूर्ताराधन में अवश्य संलग्न थे। यह समूर्ताराधना तपश्चर्या के साथ-साथ १८ तन्त्रागम-खण्ड चलती रही होगी। समय की गति के साथ आश्रम-व्यवस्था में शिथिलता तथा परिवर्तन के कारण प्राचीन काल से चली आ रही वैखानसों की धार्मिक अनुष्ठान-प्रक्रिया में परिवर्तन हुआ होगा और उत्तर काल में देवालय मूर्ति-आराधन तथा गृह-मूर्ति-आराधन के रूप में उस परम्परा को प्रवर्तित किया जाने लगा होगा और वहीं प्राचीन वैखानस-परम्परा का परिवर्तित स्वरूप हमारे समक्ष वर्तमान वैखानस सम्प्रदाय के रूप में विद्यमान है। इस विचार के आधार पर यह कहना असंगत नहीं होगा कि वैखानस सम्प्रदाय अत्यन्त प्राचीन सम्प्रदाय है और कालकम से इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा है।
वैखानस तथा पांचरात्रागम का साम्य-वैषम्य
वैखानस तथा पांचरात्र इन दोनों आगमों का संबन्ध वैष्णव सम्प्रदाय से है। इन दोनों आगमों में मुख्यरूप में वैष्णव-देवताओं के आराधन की सम्पूर्ण प्रक्रिया तथा वैष्णवों के आचार सम्बद्ध विषय विस्तृत रूप से प्रतिपादित हुए हैं। इन दोनों आगमों के ग्रन्थों के प्रास्ताविक प्रारंभिक भाग के अवलोकन से इनके उद्देश्य भी सामान्यतः समान प्रतीत होते हैं। वैखानस-आगम समूर्त अर्चन के माध्यम से वैष्णवों के लिये भुक्ति तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। ठीक उसी तरह पांचरात्रागम भी समूर्त अर्चन के द्वारा भक्तों को ऐहिक तथा आमुष्मिक उभयविध अभीष्ट लाभ प्रदान करता है। उभयत्र आगमों में समूर्त आराधन के साथ-साथ अग्नि में हवन का विधान भी समान रूप से देखते हैं। सामान्यतः उभयत्र साम्य दृष्टिगोचर होते हुए भी आन्तरिक दृष्टि से अनेक भेद हैं। प्रस्तुत प्रकरण में हम वैखानस तथा पांचरात्र वैष्णवागम के परस्पर समानता तथा असमानता वाले स्थलों के संक्षिप्त विवेचन का प्रयास करेंगे। ___ वैखानस तथा पांचरात्र दोनों आगम-शास्त्र ग्रन्थों के अवतरण तथा प्रवक्ताओं के क्रम में भेद है। वैखानस-आगम के मुख्य प्रवक्ता तथा प्रवर्तक भगवान विखनस कहे गये हैं। विखनस् के प्रवचन को उपदेश के रूप में वसिष्ठ, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, मरीचि, अत्रि, भृगु तथा कश्यप ऋषियों ने ग्रहण किया और आगे चलकर इन ऋषियों ने विस्तृत वैखानस शास्त्र का प्रवचन पूर्वक विस्तार किया। ईश्वरसंहिता ने पांचरात्रागम वाङ्मय को दिव्य तथा मुनिभाषित रूप में दो प्रकार का बताया है। इसके अनुसार भगवान् वासुदेव ने मूलवेदानुसार सात्वत, पौष्कर तथा जयाख्य इन तीन दिव्य शास्त्रों का उपदेश संकर्षण को दिया। बाद में संकर्षण ने लोक में इन दिव्य शास्त्रों का प्रवर्तन किया। मोक्ष का एक मात्र उपाय होने के कारण यह शास्त्र ऐकान्तिक शास्त्र के नाम से जाना गया। शाण्डिल्य ने महती तपस्या के पश्चात् द्वापरयुग के अन्त तथा कलियुग के आदि में भगवान संकर्षण से एकायन शास्त्र प्राप्त किया। पुनः शाण्डिल्य ने सुमन्तु, जैमिनि, भृगु, औपगायन तथा मौंजायन ऋषियों को यह शास्त्र पढ़ाया। यही शास्त्र मुनिभाषित शास्त्र कहा गया है। पांचरात्रागम वाङ्मय को अन्यान्य आधार पर भी कुछ भागों में बांटा गया है। आकार, परिमाण तथा विस्तार की दृष्टि से पांचरात्रागम वैखानस आगम से अत्यन्त विस्तृत तथा विपुल कलेवरयुक्त १६ C वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय वैखानस आगम को वैदिक तथा पांचरात्रागम को तान्त्रिक कहा गया है। आनन्दसंहिता कहती है- “वैखानसं पाञ्चरात्रं वैदिकं तान्त्रिक क्रमात्” (५.१३)। इन दोनों को क्रमशः सौम्य तथा आग्नेय भी कहा गया है। खिलाधिकार के ४१ वें अध्याय में लिखा है विष्णोस्तन्त्रं द्विधा प्रोक्तं सौम्यमाग्नेयमित्यपि। सौम्यं वैखानसं प्रोक्तमाग्नेयं पाञ्चरात्रकम्।। सौम्याग्नेये तथा प्रोक्ते शास्त्रे वैदिकतान्त्रिके।। १-२॥ लिम इस प्रसंग में वैखानस तथा पांचरात्रागम ग्रन्थों के आलोचन से वैखानस आगम का पूर्ण वैदिकत्व तथा पांचरात्रागम का अंशतः वैदिकत्व होना स्पष्ट प्रतीत होता है। पांचरात्र में तान्त्रिक तत्त्व भी सहज उपलब्ध होते हैं। इसीलिए पांचरात्र को मिश्र कहा गया है। आनन्दसंहिता कहती है । निगमस्तान्त्रिको मिश्रस्त्रिविधः प्रोक्त आगमः। h निगमः विखनःप्रोक्तो मिश्रो भागवतः स्मृतः।। ८.२३। 5 वैखानस तथा पांचरात्रागमों की विविध क्रियाओं में अनेक अवसरों पर मन्त्रों के प्रयोग का निर्देश हुआ है। अच्छी तरह अवलोकन के बाद हम देखते हैं कि वैखानसागम-प्रक्रिया में अर्चा आदि विविध व्यावहारिक अवसरों पर केवल वैदिक मन्त्रों अथवा यथावसर अष्टाक्षरादि वैष्णव मन्त्रों का ही प्रयोग किया गया है। परन्तु पांचरात्रागमिक प्रक्रिया में तत्तदवसरों पर वैदिक मन्त्रों के प्रयोग के साथ-साथ अनेक आगमिक तथा तान्त्रिक मन्त्रों का भी प्रयोग किया गया है। पांचरात्रागम के अनेक ग्रन्थों ने मन्त्रों की आधारभूत मातृकाओं तथा उसके आधार पर विविध मन्त्रोद्धार की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया है। नारदीयसंहिता के ग्यारहवें अध्याय में नमः, स्वाहा, स्वधा, वौषट्, हुं तथा फट् इन छ: जातियों का निर्देश किया गया है। इन जातियों के साथ प्रयुक्त मन्त्र पृथक्-पृथक् प्रयोजनों के साधक कहे गए हैं। इस संहिता के अनुसार विसर्जनीयान्त मन्त्र-प्रयोग सर्वशत्रुविनाशक होता है। मारण तथा उच्चाटन के लिये हुंकारान्त तथा फडन्त मन्त्रप्रयोग निर्दिष्ट हैं। वौषडन्त प्रयोग वधकारक कहे गए हैं। नमः तथा प्रणवान्त मन्त्र शान्ति, भोग एवं सुखप्रदायक होते हैं। अनुस्वार तथा मकारान्त मन्त्र विषनाशक होते हैं। हुंफट् तारयुक्त मन्त्र यक्ष तथा राक्षसों के नाशक कहे गये हैं। हुंकारादि फडन्त मन्त्र वश्य कर्म में पूजित होते हैं। हुंकारान्त फडन्तमन्त्र को राजमारणसाधक कहा गया है। हुंकारादि हुंकारान्त मन्त्र परचक्रनिवारक होते हैं। फडादि फडन्त मन्त्र देववशीकारण में प्रयुक्त होते हैं। प्रणवादि प्रणवान्त मन्त्र सर्वकर्मसाधक कहे गये हैं (सनत्कुमार सं. ब्रह्म. ११.६.१४)। इन मन्त्रों को सामान्यतः तान्त्रिक मन्त्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यह २० र तन्त्रागम-खण्ड र
- पांचरात्रागम के अनुसार मन्त्र सामान्यतः तीन तरह के होते हैं- १. सौम्य, २. आग्नेय तथा ३. सौम्याग्नेय। इन तीनों का वर्णन सनत्कुमारसंहिता के शिवरात्र प्रकरण के द्वितीय अध्याय में देखा जा सकता है। यहाँ मन्त्रों के सौम्यीकरण तथा आग्नेयीकरण की प्रक्रिया भी निर्दिष्ट है। कहा गया है कि आग्नेय मन्त्र यदि नमस्कारान्त हो, तो वह सौम्य मन्त्र हो जाता है। सौम्य मन्त्र के अन्त में यदि फटकार हुंकार या स्वाहाकार का प्रयोग होता है, तो वह सौम्य मन्त्र आग्नेय मन्त्र हो जाता है। सनत्कुमारसंहिता ने बीज मन्त्र तथा अंग मन्त्रों का भी स्पष्ट वर्णन किया है। एक __इस तरह हम देखते हैं कि मन्त्रों का जैसा विस्तृत विवेचन पांचरात्रागम ग्रन्थों में है, वैसा वैखानसागम में नहीं है। वैखानसागम में जहाँ वैदिक मन्त्रों के साथ-साथ अष्टाक्षर, द्वादशाक्षर आदि मन्त्रों का प्रयोग किया है, वहाँ पांचरात्रागम संप्रदाय में वैदिक मन्त्रों के साथ सौम्य, आग्नेय तथा सौम्याग्नेय मन्त्र का भी, जिसे हम आगमिक मन्त्र कह सकते हैं, प्रयोग किया गया है। पांचरात्र प्रक्रिया में इन मन्त्रों के आगे हुंफट् आदि से युक्त तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग भी बहुत दृष्टिगोचर होता है। वैखानसागम ग्रन्थों में हुंफट आदि से युक्त तान्त्रिक मन्त्रों का प्रयोग कहीं भी नहीं देखा जाता। इस तरह मन्त्र की दृष्टि से वैखानस तथा पांचरात्रागमों में सामान्यतः साम्य नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि से विचार करने पर दोनों आगमों में स्पष्ट भेद परिलक्षित होता है। इस भेद के आधार पर वैखानसागम को वैदिक तथा पांचरात्रागम को तान्त्रिक कहना युक्तियुक्त ही होगा। मा वैखानसागम ग्रन्थों में मुद्राओं का विवेचन या वर्णन हम नहीं देखते, जब कि पांचरात्रागम ग्रन्थों में मुद्रा एक प्रमुख विषय के रूप में स्वीकृत है। पांचरात्रागम के अनेक ग्रन्थों में इसका विस्तृत विवेचन देखा जा सकता है। “पाञ्चरात्रागम” नामक ग्रन्थ के पृष्ठ ३४६ से ३६५ तक इन मुद्राओं के नाम संदर्भ-ग्रन्थों के नामोल्लेखपूर्वक देखे जा सकते हैं। इस ग्रन्थ में पाञ्चरात्रिक मुद्राओं से सम्बद्ध एक स्वतन्त्र अध्याय में पाञ्चरात्रिक मुद्रा से सम्बद्ध सभी विषयों का विशिष्ट विवेचन किया गया है। इस प्रकार पांचरात्रिक तथा वैखानस सम्प्रदायों के व्यावहारिक पक्ष में यह भेद स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि पांचरात्र सम्प्रदाय से सम्बद्ध वैष्णव भगवदाराधनादि प्रसंग में तत्तदवसरों पर मुद्राओं का प्रदर्शन कर भगवदाराधन सम्बद्ध विविध क्रियाकलापों को पूर्ण करते हैं, जबकि वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध वैष्णव मुद्रासम्बद्ध ऐसा कुछ भी व्यवहार नहीं करते। अर्थात् वास्तविकता यह है कि पाञ्चरात्रिक आराधना-प्रक्रिया में मुद्रा एक आवश्यक तथा अपरिहार्य विषय है, जबकि वैखानस वैष्णवों की आराधना-प्रक्रिया में मुद्रा की कहीं कोई चर्चा भी नहीं है। इस प्रकार इन दोनों वैष्णव आगमों में यह भी एक महत्त्वपूर्ण भेद कहा जा सकता है।
- वैखानस तथा पाञ्चरात्रागम के व्यावहारिक पक्षों की तुलना के क्रम में दोनों सम्प्रदायों की दीक्षा-प्रक्रिया एक महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में हमारे समक्ष आती है। अनेक भारतीय सम्प्रदायों में दीक्षा एक महत्त्वपूर्ण संस्कार है। दीक्षा की प्रक्रिया वैखानस तथा पाञ्चरात्र दोनों ही वैष्णव आगमों में विहित है। परन्तु वैखानस वैष्णवों की दीक्षा-प्रक्रिया तथा पाञ्चरात्र वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय २१ वैष्णवों की दीक्षा-प्रक्रिया में बहुत अन्तर है। वैखानस वैष्णवों के लिये गर्भ-दीक्षा का विधान किया गया है। परन्तु पाञ्चरात्रागम सम्प्रदाय में इससे सर्वथा भिन्न प्रकार की दीक्षा-प्रक्रिया का वर्णन है। इन दोनों सम्प्रदायों की दीक्षा में महान् भेद है। वैखानस वाङ्मय में वर्णित दीक्षा-प्रक्रिया अन्य सभी सम्प्रदायों की दीक्षा-प्रक्रिया से सर्वथा भिन्न तथा विलक्षण है। वैखानस-वैष्णव अन्य सम्प्रदायों की तरह गुरु से दीक्षा ग्रहण नहीं करता, अपितु उसकी दीक्षा साक्षात् विष्णु से ही होती है। ये वैष्णव गर्भ में ही दीक्षित होते हैं और गर्भ वैष्णव कहे जाते हैं। अतः जन्म के बाद में दीक्षा ग्रहण की आवश्यकता नहीं होती। वैखानस-आगम से सम्बद्ध वैष्णवों के लिये एक विशिष्ट संस्कार का विधान किया गया है। इस संस्कार को गर्भचक्र संस्कार की संज्ञा दी गई है। इस संस्कार को ‘विष्णुबलि’ के नाम से भी जाना जाता है। वैष्णव जब माता के गर्भ में अवस्थित रहता है, तभी आठवें मास में यह संस्कार सम्पन्न होता है। इस का उल्लेख वैखानसस्मार्तसूत्र (३.१३.११५) तथा क्रियाधिकार (३६.४२) में स्पष्ट देखा जा सकता है। इस संस्कार का उद्देश्य गर्भस्थ शिशु की रक्षा तथा उसे परम वैष्णव बनाना है। यह संस्कार सीमन्तोन्नयन संस्कार के साथ सम्पादित होता है। इस संस्कार के क्रम में हवन आदि के पश्चात् गर्भवती महिला को याज्ञिक पायस पान कराया जाता है। पान करने से पूर्व ही पायस में विष्णु-चक्र को डुबोया जाता है। इस सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार इस संस्कार के प्रसंग में भगवान् विष्णु स्वयं ही गर्भस्थ शिशु की बाँह पर शंख-चक्र की छाप लगाते हैं। इस तरह शिशु वैष्णव रूप में उत्पन्न होता है। गर्भदीक्षा सम्पन्न वैखानस वैष्णव जन्मना अर्चक के अधिकार से सम्पन्न होता है। परन्तु पांचरात्रिक वैष्णवों की दीक्षा वैखानसीय दीक्षा की तरह नहीं होती। इनकी दीक्षा-प्रक्रिया का गर्भ से कोई सम्बन्ध नहीं होता। पांचरात्रागम ग्रन्थों में किये गये वर्णन के अनुसार पांचरात्रिक दीक्षा-प्रक्रिया वैदिक श्रौत सम्बद्ध दीक्षा का अनुकरण जैसी प्रतीत होती है। इस सम्प्रदाय का अपना प्रभाव तो इस पांचरात्रिक दीक्षा पर है ही। सर्वविदित तथ्य है कि वैदिक याग अनुष्ठान से पूर्व यजमान को अपरिहार्य रूप से दीक्षित किया जाता है। उसी तरह पांचरात्रिक वैष्णवों के लिये भी दीक्षा ग्रहण के पश्चात् ही समूर्तार्चन, अर्थात् आलयादि अर्चन एवं वैष्णव कर्म में अधिकार मिलता है। जिस प्रकार श्रौत दीक्षा विविध क्रियाकलापों के अनुष्ठान का समुच्चय है, उसी तरह पांचरात्र वैष्णव दीक्षा भी अनेक क्रियाकलापों का समूह है। दीक्षा को वस्तुतः गुरु में व्यवस्थित होना कहा गया है। कहा गया है कि पुण्योदय के पश्चात् ही दीक्षाग्रहण की इच्छा उदित होती है। पापियों को दीक्षालाभ की इच्छा नहीं होती। श्रौत दीक्षा की तरह ही पांचरात्रिक दीक्षा की भी प्रमुख विशेषता निम्नलिखितरूप में कही जा सकती है—१. धार्मिक आनन्दातिरेक की उपलब्धि, २. देवत्वापादन, ३. गूढ संस्कारक्रम-जन्मान्तरापादन, ४. परिशोधन, ५. शक्तिसंपात के द्वारा शक्तिसंपादन। गौतमीय तन्त्र के अनुसार- “ददाति दिव्यभावं च क्षिणुयात् पापसन्ततिम्” यह दीक्षा का प्रयोजन है। अर्थात् दीक्षा पापों से मुक्त कराकर जीव को निर्वाण देती है। ૨૨ तन्त्रागम-खण्ड पाद्मसंहिता (चर्यापाद.२.२७-२८) के अनुसार पाशबद्ध पशुओं को बन्धनमुक्त कराने का साधन दीक्षा है। अतः दीक्षा के बिना हम मुक्ति की कल्पना नहीं कर सकते। दीक्षाक्रम में तत्त्वहोमादि द्वारा शुद्ध-देह शिष्य निर्वाणाख्य पद को प्राप्त करता है। इस प्रसंग में पशुपाशबन्धविमुक्त वैष्णव पुनः पशुत्व, अर्थात् संसारबन्धन में नहीं बंधता। दीक्षा के द्वारा वैष्णव में देवत्वापादन होता है, अर्थात् दीक्षाप्राप्ति के पश्चात् दीक्षित वैष्णव वासुदेव के समान हो जाता है। यह कार्य दीक्षाप्रक्रिया में गुरु के द्वारा शिष्य के ऊपर विष्णुहस्त प्रदान के द्वारा सम्पादित होता है। शिष्य की भौतिक शुद्धता के सम्पादनार्थ उसका दहन, आप्यायन, सृष्टि तथा संहृति भी की जाती है। इसका मुख्य प्रयोजन दैहिक तथा आत्मिक शुचित्व संपादन ही है। नारदीयसंहिता (६.३४४) में कहा है- “जीवन्मुक्तः स विज्ञेयो विष्णुहस्ते समर्पिते"। अर्थात् गुरु के द्वारा विष्णुहस्त प्रदान के पश्चात् वैष्णव जीवन्मुक्त हो जाता है। जयाख्यसंहिता ने प्रमुख तथा अवान्तर रूप में अनेक प्रकार के दीक्षा-भेदों का निर्देश किया है- (१६.५४-६१)। दीक्षा के क्रम में पांचरात्रागम-ग्रन्थों में दीक्षार्थ आवश्यक तत्त्व-मण्डल के निर्देश-प्रसंग में मण्डल-कल्पन तथा मण्डलार्चनविधि का भी स्पष्ट वर्णन किया है। प्रायः सभी पांचरात्रिक संहिता-ग्रन्थों में यह विषय वर्णित है, पर पौष्करसंहिता में इस विषय का अत्यन्त विस्तार से वर्णन मिलता है। पांचरात्रिक दीक्षा में शिष्य के शोधन हेतु षडध्वशोधन की प्रक्रिया का भी विस्तार से निर्देश किया गया है। अत्यन्त संक्षेप में कहा जा सकता है कि पांचरात्र वैष्णवों की दीक्षा वैष्णवों को देवत्वापादन, जीवन्मुक्तता तथा वैष्णवकर्म-सम्पादन का अधिकार प्रदान करती है। पर इसकी प्रक्रिया मूलतः श्रौत दीक्षा प्रक्रिया से प्रभावित तथा वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा-प्रक्रिया से सर्वथा भिन्न है। यह दीक्षा-संस्कार भी अन्यान्य कई विषयों की तरह पांचरात्र तथा वैखानस वैष्णवागम में परस्पर भेद का एक प्रमुख उदाहरण कहा जा सकता है। हा विविध भारतीय दर्शनों के परम पुरुषार्थ मोक्ष की तरह वैखानस तथा पांचरात्र उभय वैष्णवागमों ने भी अपने ढंग से मोक्षस्वरूप आदि का वर्णन किया है। आगे की पंक्तियों में हम इन दोनों आगमों में वर्णित मोक्ष के स्वरूपादि के विवेचन का प्रयास कर दोनों की तुलना करेंगे। इन वैखानसागम ग्रन्थ ‘विमानार्चनकल्प’ में मरीचि ने “संसारबन्धनवासनामुक्तिर्मोक्षः" के रूप में संसारबन्धन की वासना से मुक्ति को मोक्ष कहा है। यह मोक्ष समाराधन के अनुरूप चार प्रकार का कहा गया है। अर्थात् मरीचि के अनुसार मोक्ष के स्वरूप में तारतम्य है। मुक्त जीव अपनी समाराधना के अनुरूप १. सालोक्य, २. सामीप्य, ३. सारूप्य तथा ४. सायुज्य रूप मोक्ष में से किसी एक को प्राप्त करता है। इन चारों में क्रमशः सालोल्य में आमोद, सामीप्य में प्रमोद, सारूप्य में सम्मोद तथा सायुज्य में वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। इन्हीं स्थानविशेषों की प्राप्ति वैखानस संमत मोक्ष है। यह मोक्ष नारायण की आराधना से ही संभव है। समाराधन चार तरह से होता है- १. जप, २. हुत, ३. अर्चना तथा वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय ४. ध्यान। वैखानसों के अनुसार इन चारों में अर्चना-समाराधन सर्वार्थसाधक कहा गया है। वैखानस-आगम के अनुसार संक्षेप में यही मोक्ष का स्वरूप है। मा वैखानस सम्प्रदाय संमत मोक्ष के स्वरूप को देखने के बाद अब हम संक्षेप में पांचरात्रागम सम्मत मोक्ष के विषय में विचार करेंगे। पांचरात्र आगमग्रन्थ अहिर्बुध्न्यसंहिता तथा लक्ष्मीतन्त्र ने अप्राकृत देशविशेषप्राप्तिपूर्वक परिपूर्ण ब्रह्मानन्दानुभव को मोक्ष कहा है। पांचरात्रागम के इस प्रसंग में जयाख्यसंहिता कहती है कि अनादि वासनायुक्त जीव के सभी कर्मों की निवृत्ति से स्वाभाविक ज्ञान का विकासलाभ होने के बाद ब्रह्म की समापत्ति ही मोक्ष है। यह मोक्ष अपुनर्भव रूप है (४.५१-५२)। पांचरात्रागम के अनेक ग्रन्थों में परोक्षरूप से मोक्ष तथा उसकी प्राप्ति के उपाय का निर्देश देखा जा सकता है। इन ग्रन्थों में लक्ष्मीतन्त्र (अ. ७ तथा १७), अहिर्बुध्न्यसंहिता का छठा अध्याय, विष्णु तन्त्र : (१.१०१-११४ २.१०५), विष्णुतिलकसंहिता (२.११७), पाद्मसंहिता (ज्ञानपाद ४.५, ५. ३-६;), परमसंहिता (१.६३) आदि द्रष्टव्य हैं। कुछ सामान्य भेद के साथ सर्वत्र भक्ति के द्वारा परमात्मज्ञान को मोक्ष कहा गया है। ज्ञान के पश्चात् माया की निवृत्ति होना निर्दिष्ट है। इस प्रक्रिया में भगवत्कृपा को कारण माना गया है। लक्ष्मीतन्त्रवर्णित मोक्षप्रक्रिया इस प्रकार है- लक्ष्मी की अनुग्रहात्मिका शक्ति के द्वारा क्लेशरहित जीव परब्रह्म को प्राप्त करता है। तिरोधान शक्ति से तिरोहित अविद्या से समाविद्ध संसार-सागर के मध्य सहयोग तथा विझोगजन्य क्लेशों से दुःखी जीव करुणा के कारण श्री के द्वारा देखे जाते हैं। उस समीक्षण के बल पर जीव पाप से निवृत्त तथा दुःख से वर्जित हो जाते हैं। इसे अनुग्रह कहा जाता है। इसके पश्चात् स्वच्छ अन्तःकरण वाला जीव कर्मसाम्य को प्राप्त कर शुद्धकर्माश्रित वेदान्तज्ञानसम्पन्न सात्वत ज्ञान से लक्ष्मीनारायणात्मक परब्रह्म को प्राप्त करता है। इसी ग्रन्थ में आगे कहा गया है कि शुद्धविद्या के सम्बन्ध से संकोच का त्याग करता हुआ जीव बन्धमुक्त हो जाता है। इससे यह प्रतीत होता है कि लक्ष्मीतन्त्र के अनुसार शुद्धविद्या ही मोक्ष का कारण है। अविद्या पर्यन्त देवीस्वरूप ही संकोच है। जब यह जीव शुद्धविद्या के संयोग से संकोच का त्याग करता है और प्रद्योदित होता है, तब सर्वतोभावेन मुक्तबन्ध हो जाता है। इस तरह ज्ञानक्रिया -संयोग से जीव सर्ववित् तथा सर्वकृत् (कृतकृत्य) हो जाता है (लक्ष्मीतन्त्र अ. १३)। अहिर्बुध्न्यसंहिता ने मोक्ष के उपाय के रूप में सांख्य तथा योग में अशक्त पुरुष के लिये सर्वत्यागरूप न्यासयोग को मोक्ष का उपाय कहा है। यही न्यासयोग प्रपत्ति, प्रपदन, शरणागति आदि पदों से अभिहित है। भगवान में सर्वसमर्पणभाव ही शरणागति कही गई है। मोक्षोपाय कर्म, सांख्य तथा योग का विस्तृत वर्णन लक्ष्मीतन्त्र के पन्द्रहवें तथा सोलहवें अध्यायों में द्रष्टव्य है। विस्तारभय के कारण इसकी चर्चा यहाँ संभव नहीं है।
- पांचरात्र ग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि भगवदाराधन कर्मसहकृत लक्ष्मीनारायणात्मक ज्ञानरूप ब्रह्मज्ञान ही मोक्ष है। जहाँ तक चैखानसों के मोक्ष का प्रश्न है, वह पांचरात्रिकों के मोक्ष के समान नहीं है। तत्तल्लोकों की प्राप्ति को विमानार्चनकल्प ने २४ तन्त्रागम-खण्ड मोक्ष कहा है, यह हम ऊपर देख चुके हैं। यहाँ संसारबन्धनवासना से मुक्ति-स्वरूप मोक्ष उभयत्र आगम में प्रायः समान ही है। साथ-साथ भगवदाराधन का मोक्ष में हेतु होना भी दोनों सम्प्रदायों में समान है। पांचरात्र ग्रन्थों में सालोक्य आदि का निर्देश प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होता। साथ ही पांचरात्रागम में आमोद, प्रमोद, सम्मोद तथा वैकुण्ठ का निर्देश भी नहीं देखते। पांचरात्रागम में मोक्ष विषय का जिस विस्तार से हमने ऊपर विवेचन देखा है, उसकी तुलना में वैखानसागम में वर्णित मोक्ष विषय अत्यन्त संक्षिप्त है। इस तरह मोक्ष के स्वरूप में दोनों आगमों के अनुरूप सर्वथा साम्य नहीं कहा जा सकता। सामान्यतः दोनों आगमों में इस विषय में सामान्य साम्य के साथ भेद भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। पांचरात्रागम के अनेक ग्रन्थों ने इस विषय का विशद विवेचन किया है, जब कि वैखानस आगम के मात्र एक ग्रन्थ विमानार्चनकल्प में ही मोक्ष का अत्यन्त संक्षिप्त वर्णन दृष्टिगोचर होता है। _ वैखानस तथा पांचरात्र दोनों ही वैष्णवागमों में योग की चर्चा है। वैखानस आगम में केवल एक ग्रन्थ विमानार्चनकल्प के पांच पटलों में योग का वर्णन देखते हैं, जबकि पांचरात्रागम के अनेक ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार के साथ यह विषय वर्णित है। पांचरात्रागम की पाद्मसंहिता में पाँच अध्यायों को योगपाद के रूप में, चार पादों में अन्यतम पाद की तरह स्वीकार कर विस्तार से योग विषय का प्रतिपादन किया है। नारदीयसंहिता ने पंचकालप्रक्रिया के अन्तर्गत अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय तथा योग कालों के अन्तर्गत पाँच कालों में से एक योग काल के रूप में योगविषय को स्वीकार कर इस विषय का सामान्य विस्तार से वर्णन किया है। नारदीयसंहिता कहती है— “यदा भागवतश्रेष्ठो योगं योगी च योगवित्। स योगकालो विज्ञेयः…..।।" अर्थात् पांचरात्रिक वैष्णवों के आचारनिरूपण क्रम को पाँच भागों में विभक्त काल के अन्तिम काल को योग काल कहा है। इसके बाद नारदीयसंहिता ने अन्य पांचरात्रागम ग्रन्थों की तरह योग के सामान्य स्वरूप का तथा अवान्तर भेदों का वर्णन किया है। पाद्मसंहिता के अनुसार योगयुक्त को निःश्रेयस प्राप्त होता है, अर्थात् योग का प्रयोजन निःश्रेयस की प्राप्ति है। (यो. पा. १.१)। श्रीप्रश्नसंहिता ने सर्वातीत निरंजनरूप परब्रह्म की उपलब्धि का साधक योग को कहा है। मोक्षकामी के लिये योग का विशद तथा सम्यक् ज्ञान अपेक्षित है। विष्णुतिलकसंहिता ने व्याकुल मन की विषयों से निवृत्ति को योग कहा है। यह योगसूत्र के योगलक्षण के समीप कहा जा सकता है। “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” (१.२) कहते हुए भगवान् पतंजलि ने भी विषयों से निवृत्त कर चित्त को एक स्थान में स्थिर करने को ही योग की संज्ञा दी है। इस प्रसंग में वैखानसों के योगलक्षण को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि योग के अर्थ के विषय में वैखानसों का मत पाद्म तथा श्रीप्रश्नसंहिता के समीप ही है। विमानार्चनकल्प कहता है “जीवात्मपरमात्मनोोगो योग इत्यामनन्ति’। अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का योग ही योग है। इस तरह योग के द्वारा जीव परमात्मा को प्राप्त करता है। यही परमात्मोपलब्धि मोक्ष है। ऊपर निर्दिष्ट पाद्म तथा श्रीप्रश्नसंहिता भी योग से निःश्रेयस की प्राप्ति का निर्देश करती हैं। इस तरह पांचरात्रागम तथा वैखानस-आगम के मत में योग के लक्षण तथावैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय उद्देश्य में बहुत भेद नहीं कहा जा सकता। कुछ अवान्तर भेदों के निर्देश के बाद भी पांचरात्र तथा वैखानस आगम प्रधान रूप से अष्टांग योग को ही स्वीकार करते हैं। नारदीयसंहिता ने यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के रूप में योग के आठ अंगों का निदेश किया है। विमानार्चनकल्प में भी ये ही आठ अंग निर्दिष्ट हैं। पुनः यम, नियम आदि के भेद भी सामान्यतः दोनों वैष्णवागमों में समान ही कहे जा सकते हैं। _ध्यान के विषय में पांचरात्र तथा वैखानसागम मतों में भेद दृष्टिगोचर होता है। वैखानस मत में ध्यान निष्कल तथा सकल रूप में दो तरह के कहे गए हैं। पर पांचरात्र मत में वैसा नहीं है। यहाँ सकल वासुदेव स्वरूप का ध्यान विहित है। वैखानसों ने निष्कल ध्यान को अत्यन्त कठिन कहा है। इसके अन्तर्गत परमात्मा को सर्वव्यापी मान कर उसका ध्यान कहा है। सकल ध्यान निर्गुण तथा सगुण भेद से दो प्रकार का होता है। इन दोनों का यहाँ विस्तार से वर्णन किया गया है। सगुण ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन मरीचि ने विमानार्चनकल्प में किया है। यहाँ अन्त में नारायणमूर्ति का ध्यान विहित है। पांचरात्रागम ग्रन्थों में ऐसे ध्यानभेदों का निर्देश हम नहीं देखते। व समाधि का स्वरूप प्रायः पांचरात्र तथा वैखानस दोनों में समान है। पाद्म-संहिता कहती है है जीवात्मनः परस्यापि यदैक्यमुभयोरपि। समाधिः स तु विज्ञेयः साध्वर्थानां प्रसाधकः।। (यो. पा. ५.१७)। मरीचि ने विमानार्चनकल्प में कहा है- “जीवात्मपरमात्मनोः समावस्था समाधिः” (पटल. १००)। इस तरह इन दोनों संप्रदायों के अनुसार जीवात्मा तथा परमात्मा का ऐक्य ही उभयत्र समाधि है। उपर्युक्त सन्दर्भ को देखने से स्पष्ट है कि योग के विषय में अत्यन्त सामान्य अन्तर होते हुए भी महान् साम्य है। उपर्युक्त विषयों के अलावा इन दोनों वैष्णव संप्रदायों के व्यावहारिक पक्ष में परस्पर वैषम्य है। जैसे कि पांचरात्र सम्प्रदाय सम्बद्ध वैष्णव श्रीरामानुजाचार्य तथा आलवारों को गुरुपरम्परा में मानते हैं और मन्दिरों में उनकी पूजा-आराधना करते हैं। जब कि वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध वैष्णव श्रीरामानुजाचार्य तथा प्राचीन आलवारों को उस प्रकार नहीं मानते तथा पांचरात्रिकों की तरह उनकी पूजा तथा आराधना भी नहीं करते। पांचरात्रिक वैष्णव मन्दिरों में पूजा के अवसर पर तमिल प्रबन्धों का भी पारायण करते हैं, परन्तु वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बद्ध आराधक भगवदाराधन-क्रम में तमिल प्रबन्धों का पाठ नहीं करते। पांचरात्र संप्रदाय से सम्बद्ध वैष्णव प्रधानतया श्रीभाष्य को प्रमुख आकर ग्रन्थ मानकर उसका अनुवर्तन करते हैं। परन्तु वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध वैष्णव श्रीभाष्य को प्रमुखता न देकर लक्ष्मी-विशिष्टाद्वैतभाष्य का अनुसरण करते हैं। व्यावहारिक रूप में यह Pतन्त्रागम-खण्ड एक महत्त्वपूर्ण भिन्नता कही जा सकती है, दोनों वैष्णव सम्प्रदायों में। व्यावहारिक दृष्टि से पांचरात्रिक वैष्णवों की संख्या तथा प्रसार वैखानसों की अपेक्षा अधिक है। पांचरात्र आगम ने वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध को चतुर्वृह कहा है। वैखानस आगम में पांच मूर्तियों की चर्चा की गई है। ये पांच मूर्तियां इस तरह कही गई है- “विष्णु-पुरुष-सत्य-अच्युत-अनिरुद्धाः पुरुषोत्तमस्य पञ्च मूर्तयः”। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पांचरात्र तथा वैखानस ये दोनों वैष्णव-सम्प्रदाय होते हुए भी दोनों सर्वथा नाम से ही भिन्न नहीं हैं, अपितु अनेक अर्थों में परस्पर भिन्न हैं। इस विषय के विस्तृत विवेचन के लिये यहाँ अवसर न रहने के कारण संक्षेप में कुछ विषयों का ही तुलनात्मक विवेचन किया गया है।
वैखानस आगम-साहित्य
यद्यपि संस्कृत साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों में वैष्णवागम, विशेष रूप से वैखानसागम की विस्तारपूर्वक चर्चा नहीं हुई है, फिर भी वैखानस वैष्णवागम का प्रकाशित तथा अप्रकाशित साहित्य हमें उपलब्ध होता है। वस्तुतः क्रिया-दर्शन प्रधान इस वैष्णवागम के विषय भारतीय वैष्णव जनों के दैनन्दिन क्रियाकलापों के साथ प्रवहमान हैं। सामान्यतः इस वैष्णवागम का सम्पूर्ण साहित्य आज व्यवस्थित रूप में उपलब्ध नहीं है, फिर भी इस आगम के उपलब्ध ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर इसके विपुल साहित्य की चर्चा देखने में आती है। यह बात पांचरात्र तथा वैखानस उभय वैष्णवागमों के सम्बन्ध में समान है। वैखानसागम के साहित्य की चर्चा के प्रसंग में इस आगम के विविध ग्रन्थों में उपलब्ध वैखानसागम ग्रन्थों की सूचियों की विवेचना के आधार पर कुछ ठोस तथ्य हमारे समक्ष आते हैं और अनायास ही इस आगम-साहित्य की विपुलता का ज्ञान होता है। यह साहित्य कहीं भी एकत्र उपलब्ध नहीं है। फिर भी देश तथा विदेश के पुस्तकालयों तथा वैयक्तिक मातृका-संग्रहों में वैखानस-आगम से सम्बद्ध कुछ साहित्य उपलब्ध है। इस आगमिक साहित्य का बहुत बड़ा अंश इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध आलय-अर्चकों के पास आज भी सुरक्षित है। वे इसे अत्यन्त गोपनीय तथा पवित्र मानकर न तो सामान्य जनों के लिये प्रकाशित करना चाहते हैं और न किसी को देना चाहते हैं। फिर भी भारत तथा विदेश में इस आगम-साहित्य के कुछ ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है, पर यह प्रकाशन यथेष्ट नहीं कहा जा सकता। इस दिशा में अभी भी अन्वेषण तथा प्रकाशन के प्रयास की आवश्यकता है। विशेष रूप से उपलब्ध ग्रन्थों तथा मातृकाओं के आधार पर इस साहित्य के ग्रन्थों के समालोचनात्मक संस्करण के प्रकाशन की नितान्त आवश्यकता है। पर विवश न प्रकृत संदर्भ में वैखानसागम के विविध ग्रन्थों में रचयिताओं के अनुरूप ग्रन्थों की संख्या, परिमाण, उनके उपलब्ध अंश, उनके मुद्रित तथा अमुद्रित ग्रन्थों के विवेचन के साथ वर्तमान स्थिति तथा केवल नाममात्र से चर्चित ग्रन्थों की स्थिति. इन सभी विषयों पर विचार वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय २७ करना आवश्यक है। अतः इस विषय पर विचार किया जायगा। सामान्य रूप से यह विचार इस आगम के ग्रन्थों में उपलब्ध इस साहित्य की चर्चा के आधार पर होगा। मी वैखानस-आगम के ग्रन्थ गद्य तथा पद्य उभय रूप में उपलब्ध हैं। जैसे ‘विमानार्चनकल्प’ तथा “कश्यपज्ञानकाण्ड” ये दोनों ग्रन्थ गद्यरूप में लिखे गये हैं। वैखानस-आगम के अन्य उपलब्ध ग्रन्थ, जैसे ‘समूर्तार्चनाधिकरणम्’, ‘क्रियाधिकार’ आदि ग्रन्थ पद्यरूप में लिखे गये हैं। वैखानस-आगम में वर्णित विषयों को देखकर कहा जा सकता है कि जीवन से सम्बद्ध धार्मिक तथा आध्यात्मिक विषयों का वर्णन ही इस आगम का मुख्य प्रतिपाद्य है। पौष्करसंहिता के अनुसार आगम का लक्षण इसके परिमाण के आधार पर निर्दिष्ट है। संहिता कहती है नियामक लक्षाधिकैस्तु बहुभिः सहस्रेस्तु शतान्वितैः। सार्थकोटित्रयान्तं च तच्च तन्त्राख्यमागमम् ।। लागातार अर्थात् आगम एक लाख ‘ग्रन्थ’ से कम नहीं होना चाहिये। एक ‘ग्रन्थ’ से ३२ अक्षरों से युक्त अनुष्टुप् छन्द का बोध होता है। आगम एक करोड़ पचास लाख ‘ग्रन्थ’ से अधिक नहीं होता। सामान्यतः इस परिमाण को दृष्टिगत रखकर ही वैखानस आगम के अनेक ग्रन्थों ने इस आगम-साहित्य के विस्तार का वर्णन किया है। __ जैसा कि “वैखानस सम्प्रदाय-सामान्य परिचय” के विवेचन क्रम में हमने देखा है, विखनस् ने जो स्वयं भगवान् विष्णु के अवतार हुए हैं, अपने अनेक शिष्यों में से प्रमुख चार शिष्यों-भृगु, कश्यप, अत्रि तथा मरीचि को इस वैखानस शास्त्र एवं सिद्धान्त का उपदेश किया था। इन्हीं चार ऋषियों ने विखनस् से गृहीत सिद्धान्तों के आधार पर वैखानसागम ग्रन्थों का प्रणयन किया। इस क्रम में सामान्य रूप से अत्रि ने तन्त्रात्मक, भृगु ने अधिकारात्मक, कश्यप ने काण्डात्मक तथा मरीचि ने संहितात्मक वैखानसागम ग्रन्थों का प्रणयन किया। एक स्थान में वैखानस-आगम-ग्रन्थ प्रणेताओं में अंगिरस् का नाम भी निर्दिष्ट है। उनके द्वारा प्रणीत ग्रन्थों के नाम भी निर्दिष्ट हैं। परन्तु उनका एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यह अंगिरस् कदाचित् मरीचि का नामान्तर हो, ऐसा संदर्भ परिशीलन से अनुमान किया जा सकता है। शुद ज वैखानसागम ग्रन्थों में चार स्थानों से तत्तद् ऋषियों के द्वारा विरचित वैखानसागम ग्रन्थों की सूची दी गई है। जैसे- प्रथम ‘विमानार्चनकल्प’ में (पटल-१०१), द्वितीय ‘आनन्दसंहिता’ में (अ. १६ श्लो. ४०-४८)। ये दोनों सूचियां मरीचि के द्वारा विरचित ग्रन्थों में हैं। अतः इनको मरीचि की सूची कहा जा सकता है। वैखानसागम ग्रन्थों की तीसरी सूची भृगु विरचित ‘यज्ञाधिकार’ में उपलब्ध है। (यज्ञाधिकार अ. ५१, श्लो. १३-२६)। चौथी सूची अत्रि विनिर्मित ‘समूर्चिनाधिकरणम्’ में निर्दिष्ट है। परन्तु यह सूची अत्रि के २८ व तन्त्रागम-खण्ड ख. द्वारा विरचित समूर्तार्चनाधिकरण के परिशिष्ट भाग में प्रदर्शित है। (अनुबन्ध-‘क’, अध्याय-४, श्लोक-२६-३४)। एक सर्वप्रथम हम यहाँ मरीचि के द्वारा निर्दिष्ट ‘विमानार्चनकल्प’ की प्रथम सूची के अनुशीलन का प्रयास करेंगे। क. इस सूची के अनुसार अत्रि ने ८८ सहस्र ‘ग्रन्थात्मक तन्त्रान्त’ चार ग्रन्थों की रचना की। ये हैं- १. पूर्वतन्त्र, २. आत्रेयतन्त्र, ३. विष्णुतन्त्र तथा ४. उत्तरतन्त्र। यहाँ ८८ सहस्र ‘ग्रन्थ’ से ८८ सहस्र अनुष्टुप् श्लोक का अर्थ समझना चाहिये। मरीचि की इस सूची के अनुसार भृगु निर्मित ग्रन्थों का विवरण अधोलिखित है। इसके अनुसार भृगु ने १३ ग्रन्थों की रचना की। जिनमें दो तन्त्रान्त तथा ग्यारह अधिकारान्त ग्रन्थ हैं। सब मिलाकर १३ ग्रन्थों में भृगु ने ८८ सहस्र श्लोकों का निर्माण किया। इन १३ ग्रन्थों के नाम निम्नलिखित है-१. खिलतन्त्र, २. पुरातन्त्र, ३. वासाधिकार, ४. चित्राधिकार, ५. मानाधिकार, ६. क्रियाधिकार, ७. अर्चाधिकार, ८. यज्ञाधिकार, ६. वर्णाधिकार, १०. प्रकीर्णाधिकार, ११. प्रतिगृह्याधिकार, १२. निरुक्ताधिकार तथा १३. खिलाधिकार। इस सूची के अनुसार काश्यप ने एक लाख चौरासी हजार ग्रन्थ प्रमाण काण्डान्त तीन ग्रन्थों की रचना की। उनके नाम हैं- १. सत्यकाण्ड, २. तर्ककाण्ड तथा ३. ज्ञानकाण्ड। इस सूची में मरीचि ने अपने द्वारा विरचित ग्रन्थों का भी निर्देश किया है। इसके अनुसार मरीचि ने एक लाख चौरासी हजार ‘ग्रन्थात्मक’ संहितान्त आठ ग्रन्थों की रचना की। इनके नाम हैं- १. जयसंहिता, २. आनन्दसंहिता, ३. संज्ञानसंहिता, ४. वीरसंहिता, ५. विजयसंहिता, ६. विजितसंहिता, ७. विमलसंहिता तथा ८. ज्ञान संहिता। इस प्रकार मरीचि ने अपने ‘विमानार्चनकल्प’ में दी गई सूची में उपर्युक्त पचार ऋषियों के द्वारा विरचित कुल २८ ग्रन्थों का निर्देश किया है। मरीचि की दूसरी वैखानसागम ग्रन्थों की सूची उनके द्वारा विरचित दूसरे ग्रन्थ ‘आनन्दसंहिता’ में उपलब्ध है। इस सूची में भी मरीचि ने चार ऋषियों द्वारा रचे गये ग्रन्थों का विवरण दिया है। इसके अनुसार मरीचि के द्वारा विरचित ग्रन्थ अधोलिखित हैं क. १. जयसंहिता, २. आनन्दसंहिता, ३. संज्ञानसंहिता, ४. वीरसंहिता, ५. विजयसंहिता, शः ६. विजितसंहिता, ७. विमलसंहिता तथा ८. कल्पसंहिता। इन आठ संहिता-ग्रन्थों में ‘ग्रन्थ’ संख्या एक लाख चौरासी हजार होना कहा गया है। इस सूची के अनुसार भृगु ने कुल दस ग्रन्थों की रचना की। इनकी ‘ग्रन्थ-संख्या’ चौंसठ हजार कही गई है। इनके नाम अधोलिखित हैं—१. खिल, २. खिलाधिकार, ३. पुराधिकरणम्, ४. वासाधिकरणम्, ५. अर्चनाधिकरणम्, ६. मानाधिकरणम्, घ. वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय ७. क्रियाधिकार, ८. निरुक्ताधिकार, ६. प्रकीर्णाधिकार तथा १०. यज्ञाधिकार। ग. मरीचि की इस दूसरी सूची के अनुसार अत्रि ने चार तन्त्रान्त ग्रन्थों की रचना की थी। इन चारों ग्रन्थों में अठासी सहस्र ‘ग्रन्थ’ थे। इनके नाम अधोलिखित हैं १. पूर्वतन्त्र, २. विष्णुतन्त्र, ३. उत्तरतन्त्र तथा ४. महातन्त्र। घ. इस सूची में कश्यप द्वारा निर्मित चौंसठ सहस्र ‘ग्रन्थ’ युक्त काण्डान्त तीन ग्रन्थों का निर्देश किया गया है। ये ग्रन्थ हैं—१. सत्यकाण्ड, २. कर्मकाण्ड तथा ३. ज्ञानकाण्ड। इस तरह मरीचि ने अपनी ‘आनन्दसंहिता’ में दी गई सूची में उपर्युक्त चार ऋषियों द्वारा विरचित कुल २५ ग्रन्थों का निर्देश किया है। वैखानस आगम ग्रन्थों की तीसरी सूची अत्रि के समूर्तार्चनाधिकरण’ में उपलब्ध है। इस सूची में भी उपर्युक्त चारों ऋषियों के द्वारा विरचित वैखानसागम ग्रन्थों का उल्लेख देखते हैं। इस सूची में निर्दिष्ट विवरण अधोलिखित है क. इस सूची के अनुसार अत्रि ने तन्त्रान्त ८८ सहस्र ‘ग्रन्थ’ प्रमाण चार ग्रन्थों की रचना की थी। वे हैं- १. पाद्मतन्त्र, २. उत्तर तन्त्र, ३. विष्णुतन्त्र, तथा ४. आत्रेयतन्त्र। ख. इस सूची में अंगिरस् विरचित सात ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। इनकी ‘ग्रन्थ’ संख्या आदि का उल्लेख यहाँ नहीं दिखता। अंगिरस् विरचित ग्रन्थों के नाम अधोलिखित हैं- १. अनन्तसंहिता, २. परसंहिता, ३. ज्ञानसंहिता, ४. जयसंहिता, ५. वीरसंहिता, ६. सत्यसंहिता तथा ७. ज्ञानसंहिता। अत्रि की इस सूची में काश्यप के द्वारा विरचित पाँच ग्रन्थों का उल्लेख देखते हैं। ये सभी काण्डान्त हैं और इनकी ‘ग्रन्थ’ संख्या सोलह हजार कही गई है। ये ग्रन्थ जा हैं- १. सन्तानकाण्ड, २. काश्यपकाण्ड, ३. सत्यकाण्ड, ४. तर्ककाण्ड तथा ५. ज्ञानकाण्ड । घ. अत्रि की इस सूची में भृगु के द्वारा विरचित आठ ग्रन्थों का निर्देश किया गया है। __ इनकी ‘ग्रन्थ’ संख्या चौंसठ हजार कही गई है। इन आठ ग्रन्थों के नाम अधोलिखित हैं- १. खिल, २. खिलाधिकार, ३. पुरातन्त्र, ४. वासाधिकार, ५. चित्राधिकार, ६. क्रियाधिकार, ७. मानाधिकार तथा ८. प्रतिगृह्याधिकार। इस तरह अत्रि विरचित समूर्तार्चनाधिकरण में निर्दिष्ट वैखानसागम ग्रन्थों की कुल संख्या २४ देखते हैं। इस सूची के सम्यक् अवलोकन से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ प्रकृत सन्दर्भ से सम्बद्ध कुछ ग्रन्थ-भाग ग्रन्थपात के कारण उपलब्ध नहीं है। यहाँ भृगु के ग्रन्थों का नामोल्लेखपूर्वक परिगणन तो किया गया है, पर भृगु का नामोल्लेख नहीं हुआ है। इस सूची में एक अन्य विचित्र बात यह है कि मरीचि की जगह अंगिरस् का नाम निर्देश किया गया है। छ । शिशित करण्यापार ३० तन्त्रागम-खण्ड वैखानस आगम ग्रन्थों की चौथी सूची भृगु विरचित यज्ञाधिकार में उपलब्ध है। इस सूची में भृगु विरचित ग्यारह ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। उन ग्रन्थों का क्रम निम्नलिखित है क. १. खिल, २. क्रियाधिकार, ३. वासाधिकार, ४. मानाधिकार, ५. निरुक्ताधिकार, तक । ६. प्रकीर्णाधिकार, ७. अर्चनाधिकार, ८. यज्ञाधिकार, ६. वर्णाधिकार, १०. पुरातन्त्र 1 तथा ११. उत्तरतन्त्र। ख. इस सूची में मरीचि विरचित ग्यारह ग्रन्थ कहे गये हैं। जी ग. यहाँ अत्रि विरचित ग्रन्थों की संख्या भी ग्यारह कही गई है। घ. इस सूची के अनुसार काश्यप ने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी। उपर्युक्त ऋषियों के द्वारा विरचित ग्रन्थों में ‘ग्रन्थों’ की कुल संख्या का भी इस सूची में पृथक्-पृथक् निर्देश किया गया है। इसके अनुसार १. मरीचि ने एक लाख ‘ग्रन्थों’ की रचना की, २. भृगु के ‘ग्रन्थों’ की संख्या आधा लाख बताई गयी है। ३. अत्रि के ‘ग्रन्थों’ की संख्या पच्चीस हजार कही गई है। ४. कश्यप विरचित ‘ग्रन्थों की संख्या बारह हजार पाँच सौ निर्दिष्ट है। __ उपर्युक्त सामान्य परिगणनात्मक निर्देश के पश्चात् भृगु ने अपने यज्ञाधिकार की सूची में प्रत्येक ऋषि के ग्रन्थों का नामनिर्देशपूर्वक परिगणन किया है। इस क्रम में प्रत्येक ग्रन्थ की ‘ग्रन्थ’ संख्या का भी साथ-साथ उल्लेख किया है। भृगुप्रोक्त ग्रन्थों में १. खिल, २. पुरातन्त्र, ३. मानाधिकार, तथा ४. अर्चाधिकरण इन चार ग्रन्थों में प्रत्येक में छः हजार ‘ग्रन्थ’ हैं। इसके बाद ५. वर्णाधिकार, ६. निरुक्ताधिकरण तथा ७. प्रकीर्णाधिकरण इन तीन ग्रन्थों में से प्रत्येक की ‘ग्रन्थ’ संख्या दो-दो हजार है। ८. यज्ञाधिकार में तीन हजार ‘ग्रन्थ’ कहे गये हैं। इस ग्रन्थ की अध्याय संख्या इक्यावन है। ६. वासाधिकार के इक्यावन अध्यायों में चौंसठ हजार ‘ग्रन्थ’ होना कहा गया है। १०. क्रियाधिकरण की ‘ग्रन्थ’ संख्या नौ हजार कही गई है। आन वजी यज्ञाधिकार में भृगुनिर्मित ग्रन्थों के प्रथम निर्दिष्ट क्रम तथा द्वितीय निर्दिष्ट क्रम में ग्रन्थों की संख्या के विषय में समानता नहीं है, बल्कि दोनों क्रमों में परस्पर विरोध है। जैसे प्रथम क्रम में भृगु के द्वारा विरचित ग्यारह ग्रन्थों का निर्देश देखते हैं, जबकि द्वितीय क्रम में, जहाँ भृगु के ‘ग्रन्थों’ का परिमाण बताया गया है, केवल दस ग्रन्थों का ही नामोल्लेख देखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले क्रम में जो उत्तर तन्त्र नामक ग्रन्थ है, वह भृगु की पृथक् कोई रचना न होकर उसकी सभी रचनाओं की सारभूत-संकलनात्मक एक रचना है। अर्थात् उत्तरतन्त्र भृगु की पृथक् स्वतन्त्र रचना नहीं है। इसीलिये दूसरे क्रम में इसे अलग से नहीं गिनाया या दिखाया गया। का मार भृगु की पुस्तक यज्ञाधिकार में निर्दिष्ट सूची में मरीचि-विरचित ग्रन्थों के विवेचन क्रम में भृगु ने पहले तो केवल यह कहा है कि मरीचि ने ग्यारह ग्रन्थों की रचना की। पुनः नामोल्लेखपूर्वक अधोलिखित मरीचि के ग्रन्थों का निर्देश देखते हैं- १. खिलतन्त्र, वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय २. क्रियाधिकार, ३. पुरातन्त्र, ४. अर्चनातन्त्र, ५. वासाधिकार, ६. मानाधिकार, ७. यज्ञाधिकार, ८. प्रकीर्णाधिकार, ६. निरुक्ताधिकार तथा १०. वर्णाधिकार। अर्थात् यहाँ नामोल्लेखपूर्वक मात्र ये ग्रन्थ ही मरीचि विरचित निर्दिष्ट हैं। इनमें प्रत्येक ग्रन्थ का परिमाण आठ हजार ‘ग्रन्थ’ कहा गया है। अतः इसके अनुसार कहा जा सकता है कि भृगु के अनुसार मरीचि ने दस पुस्तकों में ८०००० (अस्सी हजार) ‘ग्रन्थों’ की रचना की। का भृगु ने अपनी इस सूची में अत्रि-निर्मित ग्रन्थों की संख्या ग्यारह बताई है। पुनः उनका विवरण देते हुये केवल चार ग्रन्थों का ही नामनिर्देश किया है। इसके अनुसार अत्रि ने १. वासाधिकार, २. यज्ञाधिकार, ३. खिलाधिकार, तथा ४. अर्चाधिकार इन चार ग्रन्थों की रचना की। इनमें प्रथम तीन ग्रन्थों में प्रत्येक की ‘ग्रन्थ’ संख्या पाँच-पाँच हजार कही गई है। अन्तिम अर्चाधिकार की ‘ग्रन्थ’ संख्या चार हजार बताई गई है। भृगु ने कश्यप की पुस्तकों की संख्या पाँच बताते हुए उनका विवरण अधोलिखित रूप में दिया है। इसके अनुसार कश्यप ने १. अर्चाधिकरण, २. वासाधिकरण, ३. खिल, ४. क्रियाधिकरण तथा ५. उत्तरकल्प की रचना की। इनमें प्रथम तीन ग्रन्थों की ‘ग्रन्थ’ संख्या दो-दो हजार कही गई है। अर्थात् तीनों में छः हजार ‘ग्रन्थ’ हैं। चतुर्थ पुस्तक ‘क्रियाधिकरण’ में दो हजार पाँच सौ ‘ग्रन्थ’ हैं। पाँचवीं पुस्तक उत्तरकल्प में चार हजार ‘ग्रन्थ’ होना कहा गया है। को ऊपर हमने वैखानसागम ग्रन्थों में उपलब्ध चार ग्रन्थ-सूचियों को उनके निर्माता तथा ग्रन्थनामनिर्देश पूर्वक दिये गये विवरण को देखा। अब इन चार सूचियों के आधार पर एक-एक ऋषि के द्वारा विरचित ग्रन्थों का विश्लेषण पूर्वक वैखानस आगम के उपलब्ध तथा अनुपलब्ध साहित्य सम्पदा के विषय में विचार करने का प्रयास करेंगे। र सर्वप्रथम मरीचि विरचित ग्रन्थों का विवेचन करते हुए हम देखते हैं कि मरीचि ने स्वयं स्वविरचित ग्रन्थों की दो सूचियाँ दी हैं। ये दोनों ग्रन्थ क्रमशः विमानार्चनकल्प तथा आनन्दसंहिता हैं। इन दोनों सूचियों में मरीचि ने स्वनिर्मित आठ ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इन दोनों में सात ग्रन्थ समान दीखते हैं। केवल एक ग्रन्थ के विषय में समानता नहीं है। जैसे कि विमानार्जनकल्प ने ‘ज्ञानसंहिता’ का उल्लेख किया है, जबकि आनन्दसंहिता ने ‘कल्पसंहिता’ का निर्देश किया है। इस प्रकार दोनों सूचियों में मरीचि निर्मित ग्रन्थों के विषय में बहुत बड़ा अन्तर नहीं देखते। कार __ जैसा कि हमने ऊपर देखा है, अत्रि ने अपने समूर्ताचनाधिकरण की सूची में मरीचि का वैखानस आगम के ग्रन्थकार के रूप में निर्देश नहीं किया है। अत्रि ने यहाँ ग्रन्थकर्ता के रूप में अंगिरस् का नामोल्लेख किया है। यहाँ अंगिरस् के द्वारा विरचित ग्रन्थों की सूची में कुछ वे ही ग्रन्थ हैं, जो विमानार्चनकल्प तथा आनन्दसंहिता की सूचियों में मरीचि के द्वारा विरचित बताये गये हैं। जैसे-१. वीरसंहिता, २.जयसंहिता तथा ३. ज्ञानसंहिता। ये तीन ग्रन्थ मरीचि तथा अत्रि की सूचियों में समान रूप से उल्लिखित हैं। इनके अतिरिक्त मरीचि ३२ GIRT तन्त्रागम-खण्ड की सूची में निर्दिष्ट आनन्दसंहिता ही कदाचित् अत्रि की सूची में ‘अनन्तसंहिता’ हो। प्रतिलिपिकारों की असावधानी से ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि अत्रि के द्वारा निर्दिष्ट अंगिरा कदाचित् मरीचि का ही नामान्तर हो। ऐसी कल्पना इसलिये युक्तियुक्त कही जा सकती है कि अंगिरस् का कहीं भी वैखानस शास्त्रकर्ता के रूप में उल्लेख नहीं है। केवल अत्रि ने ही अंगिरस् का वैखानस शास्त्रकार के रूप में निर्देश किया है। जहाँ तक मरीचि के वैखानस शास्त्रकर्तृत्व का प्रश्न है, यह अनेक स्थलों में अनेक आचार्यों के द्वारा स्वीकृत है। इसलिये अत्रि के द्वारा निर्दिष्ट अंगिरस् मरीचि ही हैं, यह कहना अयुक्त नहीं होगा। भृगु के यज्ञाधिकार में निर्दिष्ट सूची में मरीचि के द्वारा विरचित ग्यारह ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। इन ग्यारह ग्रन्थों में केवल ‘विमानार्चनकल्प’ ही मरीचि की सूची के समान है। अन्य दस ग्रन्थ मरीचि की सूची में निर्दिष्ट ग्रन्थों से भिन्न ही हैं। इन दस ग्रन्थों को मरीचि ने रचा, यह अन्यत्र कहीं भी नहीं कहा गया है। Pइस प्रकार चारों सूचियों में निर्दिष्ट मरीचि के ग्रन्थों के विवेचन के पश्चात् मरीचि विरचित तेईस ग्रन्थों का संकेत मिलता है। परन्तु वर्तमान काल में केवल ‘विमानार्जनकल्प’ (सम्पादकद्वय- ब. र. च. भट्टाचार्य, सेतुमाधवाचार्य, चेन्नपुरी, मद्रास, सन् १६२६ देवनागरी लिपि) तथा ‘आनन्दसंहिता’ (ईगापालयम्- १६२४ तेलगु लिपि) ये दो ग्रन्थ ही हमारे समक्ष उपलब्ध हैं। विमानार्चनकल्प का अच्छा संस्करण भी प्रकाशित हुआ है। आनन्दसंहिता की एक मातृका मद्रास ओरियण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी में उपलब्ध है। इस ग्रन्थ की एक दूसरी मातृका लाहौर विश्वविद्यालय (पाकिस्तान) में थी, ऐसा कैटलागस् कैटलागरम् के द्वारा ज्ञात होता है। विमानार्चनकल्प’ १०१ पटलों में गद्यमय भाषा में लिखित वैखानस आगम का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ पूर्ण है। इस पुस्तक में इस आगम से सम्बद्ध प्रायः सभी विषय प्रतिपादित हैं। जिसमें ज्ञान (दर्शन), क्रिया (मूर्तिकला, वास्तुकला आदि से सम्बद्ध विषय), चर्या (पूजा, उत्सव, स्नपन आदि से सम्बद्ध विषय) तथा योग से सम्बद्ध विषयों की विस्तार से चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ का संस्करण सामान्यतः ठीक है, फिर भी उपलब्ध मातकाओं के आधार पर इसका समालोचनात्मक संस्करण प्रकाशित होना अपेक्षित है। ‘आनन्दसंहिता’ मरीचि की उपलब्ध दूसरी रचना २० अध्यायों तथा प्रायः ७८५२ श्लोकों में तेलगु लिपि में प्रकाशित हुई थी। शाम 100 मरीचि विरचित एक ग्रन्थ ‘आदिसंहिता’ की मातृका उपलब्ध है। अभी तक उसका प्रकाशन नहीं हो सका है। इस संहिता में वैखानसागम सम्बद्ध विषयों की अपेक्षा कुछ पौराणिक विषय ही अधिक हैं। यह ग्रन्थ अत्यन्त संक्षिप्त, अर्थात् दस अध्यायों में विरचित हैं। लेखक ने १६६६-६७ ई. के आसपास इस मातृका को तिरुपति क्षेत्र में श्री आर. पार्थसारथि भट्टाचार्य के पास देखा था। है वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय ३३ भृगु विरचित ग्रन्थों के विचार-प्रसंग में हम देखते हैं कि मरीचि ने अपनी दोनों सूचियों में, अर्थात् विमानार्चनकल्प तथा आनन्दसंहिता में क्रमशः भृगु विरचित तेरह तथा दस ग्रन्थों का निर्देश किया है। दोनों में निर्दिष्ट दस ग्रन्थ समान हैं। इस तरह मरीचि के अनुसार भृगु विरचित तेरह ग्रन्थ कहे जा सकते हैं। अत्रि ने समूर्तार्चनाधिकरण में निर्दिष्ट अपनी सूची में भृगु के नाम-निर्देश के बिना ही उसके द्वारा विरचित आठ ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है। यहाँ निर्दिष्ट भृगु के आठों ग्रन्थ विमानार्चनकल्प में उल्लिखित भृगु के ग्रन्थों के समान हैं। अत्रि की सूची में एक ग्रन्थ ‘प्रतिग्रहाधिकार’ नाम से उल्लिखित है। इसके विषय में ऐसा प्रतीत होता है कि विमानार्चन—कल्प में निर्दिष्ट ‘प्रतिगृह्याधिकार’ का ही लेखन अनवधानता के कारण अत्रि की सूची में ‘प्रतिग्रहाधिकार’ नामोल्लेख हो गया होगा। भृगु ने स्वयं ‘यज्ञाधिकार’ में स्वविरचित ग्यारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है। यहाँ निर्दिष्ट भृगु के सभी ग्रन्थ मरीचि के ‘विमानार्चनकल्प’ की सूची के समान हैं। मरीचि ने अपनी सूची में केवल भृगुप्रोक्त सर्वसंहितासारभूत ‘उत्तरतन्त्र’ का उल्लेख नहीं किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि भृगु के अनुसार भी ‘उत्तरतन्त्र’ कोई अपूर्व स्वतन्त्र रचना नहीं है, अपित इनके सभी ग्रन्थों का सारभत एक संकलनात्मक ग्रन्थ है। यही कारण है कि अन्यत्र और कहीं भी उत्तरतन्त्र का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। या इस तरह चारों सूचियों के विवेचन के पश्चात् हम देखते हैं कि भृगुविरचित सम्पूर्ण ग्रन्थों की संख्या चौदह होती है। इसके अन्तर्गत ‘उत्तरतन्त्र’ भी परिगणित है। इन भृगुविरचित ग्रन्थों में चार ग्रन्थ मुद्रित एवं प्रकाशित हैं। तीन मातृका रूप में उपलब्ध हैं। इन मातृकाओं में दो प्रायः पूर्ण तथा एक अपूर्ण हैं। इनमें बहशः ग्रन्थपात दष्टिगोचर होता है। इन ग्रन्थों के अलावा अन्य चार ग्रन्थों के कुछ-कुछ अंश अलग-अलग उपलब्ध हैं। जैसे- मुद्रित तथा प्रकाशित ग्रन्थ १. क्रियाधिकार तथा २. खिलाधिकार क्रमशः १६५३ तथा १६६३ ई. में देवनागरी लिपि में तिरुमलै-तिरुपति देवस्थानम्, तिरुपति (आंध्रप्रदेश) द्वारा प्रकाशित हैं। ३. ‘प्रकीर्णाधिकार’ शैलेन्द्रनाथ एण्ड सन्स, मद्रास, हिन्दू रत्नाकर और गोपालकृष्ण मुद्रणालय, मैलापुर, मद्रास से १६२६ ई. में प्रकाशित है। इसकी लिपि तेलगु है। ४. ‘यज्ञाधिकार’ का मुद्रण तथा प्रकाशन १६३१ ई. तेलुगु लिपि में डॉ. डी. रंगाचार्य द्वारा हिन्दू रत्नाकर प्रेस मद्रास से हुआ था। भृगु के १. अर्चनाधिकार, २. वासाधिकार तथा ३. निरुक्ताधिकार की मातृकाएं स्वर्गीय श्री आर. पार्थसारथी भट्टाचार्य के पास तिरुमलै (तिरुपति) में उपलब्ध थीं। १. मानाधिकार, २. चित्राधिकार, ३. वर्णाधिकार तथा ४. पुरातन्त्र की मातृकाएं आंशिक रूप में यत्र तत्र उपलब्ध हैं। इस तरह पूर्ण तथा अंशतः उपलब्ध भृगु के कुल ग्रन्थों की संख्या ग्यारह हुई। अवशिष्ट तीन ग्रन्थ अब तक अनुपलब्ध हैं। भृगु के उपलब्ध ग्रन्थ प्रायः तन्त्रागम-खण्ड पद्यात्मक हैं। वर्णाधिकार का कुछ अंश गद्यरूप में उपलब्ध है। विषय विवेचन की दृष्टि से सामान्यतः इन ग्रन्थों में भी विमानार्चनकल्प के समान ही विषय प्रतिपादित हैं। के अत्रि विरचित ग्रन्थों के विषय में विचार करने पर हम पाते हैं कि मरीचि ने अपनी दोनों सूचियों, अर्थात् विमानार्चनकल्प तथा आनन्दसंहिता में अत्रि के चार ग्रन्थों का निर्देश किया है। दोनों सूचियों में निर्दिष्ट ग्रन्थ सामान्यतः समान हैं। क्रम में पूर्वापरभाव तथा सामान्य रूप से नामभेद अवश्य दृष्टिगोचर होता है। जैसे- आनन्दसंहिता में निर्दिष्ट ‘महातन्त्रविमानार्चनकल्प’ आत्रेय तन्त्र के नाम से उल्लिखित हैं। अत्रि की स्वयं की सूची में समूतोर्चनाधिकरण में स्वविरचित चार ग्रन्थों का उल्लेख है। इन चार ग्रन्थों में दो ग्रन्थ मरीचि की सूची के समान हैं। दो अन्य ग्रन्थ मरीचि के ग्रन्थों की अपेक्षा भिन्न हैं। अत्रि के ग्रन्थों की सबसे विस्तृत सूची भृगु के यज्ञाधिकार में देखने को मिलती है। इस सूची के अनुसार अत्रि विरचित छः ग्रन्थ थे। इन छः ग्रन्थों में से केवल उत्तरतन्त्राख्य समूर्तार्चनाधिकरण ही पूर्व निर्दिष्ट सूचियों में दृष्टिगोचर होता है। अन्य पाँचों ग्रन्थ पूर्वोक्त सूची में निर्दिष्ट ग्रन्थों की अपेक्षा भिन्न हैं। इस प्रकार अनुशीलन करने पर अत्रि के कुल ग्यारह ग्रन्थों का उल्लेख हमें प्राप्त होता है। परन्तु वर्तमान में हमारे समक्ष अत्रि का केवल एक ग्रन्थ ‘समूर्चिनाधिकरण’ (तिरुमलै-तिरुपति देवस्थानम्, तिरुपति द्वारा १६४३ ई. में देवनागरी लिपि में मुद्रित तथा प्रकाशित) उपलब्ध है। अत्रि के निरुक्ताधिकरण का कुछ अंश उपलब्ध है। इनके अलावा अत्रि के अवशिष्ट अन्य नौ ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। प कश्यप विरचित ग्रन्थों के विचार-प्रसंग में हम देखते हैं कि मरीचि ने अपने विमानार्चनकल्प की सूची में कश्यप विरचित तीन ग्रन्थों का उल्लेख किया है। इसी तरह मरीचि ने अपनी दूसरी रचना आनन्दसंहिता में भी कश्यप द्वारा विरचित तीन ग्रन्थों का नामोल्लेखपूर्वक निर्देश किया है। मरीचि की इन दोनों सूचियों में संख्या की दृष्टि से कश्यप-ग्रन्थों की समानता होते हुए भी नाम की दृष्टि से साम्य नहीं है। जैसे कि विमानार्चनकल्प की सूची में ‘तर्ककाण्ड’ का उल्लेख है, जबकि आनन्दसंहिता की सूची में तर्ककाण्ड के बजाय कर्मकाण्ड का निर्देश देखते हैं। इस प्रकार विचार करने पर हम देखते हैं कि मरीचि के अनुसार कश्यप के द्वारा चार ग्रन्थों की रचना की गई थी। भृगु ने अपने ग्रन्थ यज्ञाधिकार की सूची में कश्यप विरचित पांच ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भुग की सूची में कश्यप विरचित सारे ग्रन्थ पूर्वोक्त सूचियों से भिन्न हैं। अत्रि की समूर्तार्चनाधिकरण की सूची में कश्यप विरचित पाँच ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भृगु की सूची में कश्यप विरचित सारे ग्रन्थ पूर्वोक्त सूचियों से भिन्न हैं। अत्रि की समूर्तार्चनाधिकरण की सूची के अनुसार कश्यप के द्वारा पांच ग्रन्थ रचे गये थे। इन पांच ग्रन्थों में तीन पूर्व सूचियों में भी निर्दिष्ट हैं। दो ग्रन्थ पूर्व ग्रन्थों की अपेक्षा भिन्न हैं। सब मिलाकर कश्यप के ग्रन्थों की संख्या ग्यारह होती है। इन ग्यारह ग्रन्थों में केवल एक पुस्तक ‘ज्ञानकाण्ड’ ही मुद्रित तथा प्रकाशित है (सं. आर. पार्थसारथी भट्टाचार्य, प्रकाशक-तिरुमला तिरुपति देवस्थानम्,वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय तिरुपति-१६६०)। इस पुस्तक का एक अत्यन्त ही उच्चकोटि का समालोचनात्मक संस्करण अंग्रेजी अनुवाद के साथ नीदरलैंड के निवासी भारतीय विद्या के विद्वान् श्री टी. गान्द्रियान ने ३४१ पृष्ठों में ‘कश्यपाज् बुक आफ विज्डम” के नाम से १६६५ ई. में हालैण्ड से प्रकाशित कराया था। यह संस्करण वस्तुतः एक आदर्श संस्करण कहा जा सकता है। इसके अनुरूप वैखानस आगम के अन्य ग्रन्थों के संस्करणों की आवश्यकता है। यह ग्रन्थ गद्यमय एक सौ साठ अध्यायों में लिखा गया है। इसमें वैखानस आगम के अधिकांश विषय अत्यन्त संक्षेप में लिखे गये हैं। कश्यप के अन्य अवशिष्ट ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। जिला पहले कहा गया है कि वैखानस आगम के कुछ ग्रन्थों के केवल कुछ अंश ही उपलब्ध है। ये अंश ‘भृगुसंहिता’ नामक मातृका (१. मद्रास गवर्नमेंट ओरियंटल मैन्युस्क्रिप्ट, लाइब्रेरी, मद्रास, सं. आर. १३१४ तथा २. श्री वेंकटेश्वर ओरियंटल इंस्टीट्यूट, तिरुपति, मातृका सं. ७१६६ | तथा ।।) में उपलब्ध हैं। इस ग्रन्थ को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ भृगु विरचित ग्रन्थों के विषयों का एक संकलन है। इसके आलोचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इस संकलनात्मक भृगुसंहिता में उपलब्ध भृगु के ग्रन्थों के अलावा कुछ अधिक विषय भी उपलब्ध है। जैसे कि भृगु के उपलंब्ध ‘निरुक्ताधिकार’ की मातृका में मात्र छत्तीस अध्याय उपलब्ध हैं, परन्तु भृगु की इस संकलनात्मक मातृका रूप ‘भृगुसंहिता’ में ‘कृतिकादीपोत्सवविधिः’ विषय उनतीस श्लोकों में वर्णित है। इसके अन्त में लिखा है- “इति निरुक्ताधिकारे मासोत्सवविधौ कृत्तिकामासोत्सवविधिर्नाम अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः” (म. ग. ओ. म. लाईब्रेरी मद्रास, आर. १३१४, पृ. १०७)। इस प्रमाण से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उपलब्ध निरुक्ताधिकार अपूर्ण है। इसी तरह वर्णाधिकारस्थ कुछ अंश (बारह पंक्तियां) भी इस ‘भृगुसंहिता’ में उपलब्ध हैं। यहाँ अन्त में लिखा है— “इति श्रीमद्वैखानसे वैदिके भार्गवसंहितायां वर्णाधिकारे चलनप्रतिष्ठाविधिर्नाम अष्टाविंशोऽध्यायः" (पूर्वोक्त मातृका, पृ. सं. १२-१३)। इस संग्रहात्मक ग्रन्थ में ‘पुरातन्त्र’ के तैंतालीस श्लोक उपलब्ध हैं। अन्त में निर्देश है- “इति श्रीवैखानसे भृगुप्रोक्तायां संहितायां पुरातन्त्रे दीपदण्डप्रतिष्ठाविधिर्नाम षट्पञ्चाशदध्यायः” (पूर्वोक्त मातृका, पृ. सं. १६-२०)। इस सहिता के सत्रहवें अध्याय का भी कुछ अंश इस संग्रह में संगृहीत है। इस संकलनात्मक ‘भृगुसंहिता’ में ‘मानाधिकार’ का एक अंश उद्धृत करते हुए पुष्पिका में लिखा है- “इति वैखानसे उत्तरतन्त्रे भृगुप्रोक्तायां मानाधिकारे प्रतिष्ठाद्रव्यप्रमाणविधिर्नाम षण्णवत्यध्यायः”। यह अध्याय एक सौ अठाइस श्लोकों का है। (द्रष्टव्य—श्री वें. ओ. रि. इंस्टीट्यूट तिरुपति, मा. सं. ४५३७)। भृगु के चित्राधिकार का भी एक अंश इस संग्रहात्मक ग्रन्थ में उपलब्ध है। (श्री वे. ओ. रि. इंस्टीट्यूट, तिरुपति मा. सं. १७६६ )। भृगु के सर्वसंहितासारभूत ‘उत्तरतन्त्र’ का भी कुछ अंश इस संग्रह में प्राप्त है (पूर्वोक्त मातृका, पृ. सं.५०४-५१०)। इस मातृका में ‘निद्राबिम्बलक्षण’, ‘हनुमत्प्रतिष्ठा’ इत्यादि विषय भी उल्लिखित हैं। इस संग्रह में अन्य भी कुछ विषय संगृहीत हैं, पर ये विषय कहाँ से लिये गये हैं, इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है। ३६ कातन्त्रागम-खण्डमा कि इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट चार सूचियों में उल्लिखित वैखानसागम संहिताओं की समीक्षा के बाद हम देखते हैं कि वैखानस आगम के कुल साठ ग्रन्थों की रचना का उल्लेख मिलता है। इनमें पूर्ण या अपूर्ण रूप में उपलब्ध ग्रन्थों की संख्या सत्रह है। इन सत्रह ग्रन्थों में आठ मुद्रित तथा दो अमुद्रित ग्रन्थ प्रायः पूर्ण हैं। अवशिष्ट सात अमुद्रित ग्रन्थों के केवल कुछ अंश उपलब्ध हैं। अन्य सभी वैखानसागम ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। उनके अन्वेषण की आवश्यकता है। उपलब्ध ग्रन्थों के समालोचनात्मक संस्करण के साथ-साथ इस शास्त्र से सम्बद्ध विषयों का गवेषणात्मक, तुलनात्मक तथा आलोचनात्मक अनुशीलन नितान्त अपेक्षित है।
टीका, व्याख्यान एवं पद्धति ग्रन्थ
वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बद्ध साहित्य की चर्चा के प्रसंग में उपर्युक्त मरीचि आदि चार ऋषियों के द्वारा विरचित ग्रन्थों के अतिरिक्त इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध कुछ अन्य ग्रन्थों की चर्चा भी अनिवार्य है। इनकी चर्चा के बिना इस प्रकरण को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। इसके अन्तर्गत वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय के मन्दिरों में सम्पादित होने वाले विविध अर्चना आदि अनुष्ठानों को सुविधापूर्वक सम्पन्न करने के लिए तत्तत् पद्धतियों की चर्चा के साथ सम्प्रदाय से सम्बद्ध कुछ पुस्तकों की टीका तथा व्याख्यात्मक उपलब्ध रचनाओं की चर्चा भी अपेक्षित है। आगे इसी तरह की वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बद्ध रचनाओं की चर्चा का प्रयास होगा। का हमने पहले देखा है कि आगमिक प्रक्रिया सामान्यतः श्रौत प्रक्रिया के अनुकरण की तरह प्रवृत्त तथा व्यवहार में विद्यमान है। श्रौत प्रक्रिया में श्रौत यागों का विधान श्रौतसूत्रों के द्वारा प्रवर्तित होता है। सनातन धर्मानुयायी गृहस्थों के सारे संस्कार, गर्भाधान से और्ध्वदेहिक कर्म तक गृह्यसूत्रों के द्वारा नियन्त्रित तथा प्रवर्तित होते हैं। परन्तु व्यवहार में गृह्यसूत्रों के आधार पर विरचित विविध पद्धतियों के अनुसार उपनयन, विवाहादि संस्कार सम्पादित कराये जाते हैं। जैसा कि पूर्व में कहा गया है, वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध लोगों के विविध संस्कारों तथा गृहार्चा या आलयार्चा का मार्गनिर्देश ‘वैखानस गृह्यसूत्र’ में किया गया है। तन्मलक वैखानसागम ग्रन्थों में वैखानसों के आचार-विचार तथा व्यवहार का निरूपण किया गया है। अतः यह स्वाभाविक है कि वैखानस-सम्प्रदायस्थ वैष्णवों के द्वारा सम्पादित होने वाले गृहार्चा तथा आलयार्चा के लिये भी इन वैखानसागम ग्रन्थों पर आधारित विविध पद्धति-ग्रन्थों की रचना हुई है। ये पद्धतियां भी इस आगम साहित्य की अंग हैं। इन पद्धतियों की संख्या निश्चित रूप से अधिक हो सकती है, परन्तु ऐसी रचनायें सार्वजनिक रूप से प्रकाश में न होकर वैखानस सम्प्रदाय सम्बद्ध आलयों के पास अभी भी सुरक्षित हो सकती हैं। यही कारण है कि वैखानसागमाधृत बहुसंख्यक पद्धतियां हमें उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी जो उपलब्ध हैं, उनका निर्देश निम्नलिखित रूप में किया जा रहा है। वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय पद्धतियों के रचयिताओं में श्रीनृसिंह वाजपेययाजी का नाम प्रमुख कहा जा सकता है। इनकी रचनाओं का विवरण इस प्रकार है १. प्रतिष्ठाविधिदर्पण-इसके प्रथम भाग में श्रीनृसिंह वाजपेययाजी ने आलयार्चा विषयों शाम का विस्तार से स्पष्ट वर्णन किया है। इसका प्रकाशन १६४८ ई. में मद्रास से तेलुगु मजा लिपि में हुआ था। इस पुस्तक का सम्पादन स्वर्गीय श्री आर. पार्थसारथी भट्टाचार्य पल ने किया था। इस पुस्तक में मुख्य रूप से आलयनिर्माण, आलयभेद, आलय की प्रतिष्ठा, प्रतिमाप्रतिष्ठा, दैनन्दिन अर्चनाविधि, नित्यार्चन के लिये अपेक्षित विविध उपादान द्रव्य, पूजा तथा प्रतिष्ठा आदि के अवसर में प्रयुक्त होने वाले वैदिक मन्त्रों के प्रयोग की प्रक्रिया का विस्तार से स्पष्ट वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में आगे उत्सवादि विविध नैमित्तिक अर्चन तथा आराधन की प्रक्रिया के साथ-साथ तत्तत् अवसरों पर अपेक्षित विविध प्रायश्चित्त विधियों की प्रक्रिया वर्णित है। भगवदर्चा-प्रकरण-इसकी रचना भी श्रीनृसिंह वाजपेययाजी ने की है। इस ग्रन्थ में भगवान् के नित्यार्चन मात्र से सम्बद्ध विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ३. ब्रह्मोत्सवानुक्रमणिका-इस पद्धति रूप ग्रन्थ का प्रणयन श्री वाजपेययाजी ने ही किया था। इस ग्रन्थ में याजी ने आलयस्थ देवता के ब्रह्मोत्सव की प्रक्रिया का विधिवत् सांगोपांग वर्णन किया है। इसमें अंकुरार्पण आदि उत्सवांग अच्छी तरह वर्णित हैं। कहा जाता है कि श्री याजी ने इसी प्रकार संप्रोक्षण तथा प्रायश्चित्त से सम्बद्ध पद्धतियों की भी रचना की थी। - अर्चनानवनीत-श्री केशवाचार्य ने वैखानसागम ग्रन्थों के आधार पर भगवदर्चन में सहायक पद्धति ग्रन्थ ‘अर्चनानवनीत’ की रचना की थी। इस पद्धति ग्रन्थ में भगवदाराधन के हर पक्ष से सम्बद्ध विषयों का स्पष्ट तथा विस्तृत वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में भी अर्चनादि क्रम में प्रयुक्त होने वाले वैदिक मन्त्रों तथा सम्प्रदाय सम्बद्ध मन्त्रों के वर्णन के साथ-साथ अर्चना के लिए उपयोगी उपादान द्रव्यों का विवरण भी दिया गया है। कहा ५. प्रयोगवृत्ति-श्री सुन्दरराज ने वैखानससूत्र को आधार मानकर ‘प्रयोगवृत्ति’ नामक प्रयोगात्मक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में व्यावहारिक प्रयोगों को लिखने का प्रयास हुआ है। इन उपर्युक्त पद्धति रूप ग्रन्थों के अलावा वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध व्याख्यात्मक ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। न हमने पूर्व के पृष्ठों में श्री निवास मखी का उल्लेख देखा है। श्री निवास मखी वैखानस सम्प्रदाय के विद्वान् चिन्तक तथा विचारक रचनाकार थे। इन्होंने इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। इनके अधिकतर ग्रन्थ व्याख्यारूप में उपलब्ध हैं। श्री मखी ३८ की तन्त्रागम-खण्ड मन अत्यन्त प्रसिद्ध वैखानस वैष्णव क्षेत्र तिरुमला के प्रसिद्ध वेंकटेश्वर भगवान् के मन्दिर के समाहित अर्चक थे। इनकी रचनायें हैं ६. वैखानसगृह्यसूत्र तात्पर्यचिन्तामणि-व्याख्या-श्रीनिवास मखी ने वैखानस-गृह्यसूत्र पर व्याख्यात्मक ग्रन्थ ‘तात्पर्यचिन्तामणि’ की रचना की। इस ग्रन्थ में वैखानस सम्प्रदाय से सम्बद्ध लोगों के आचार-विचार तथा संस्कारों से सम्बद्ध विषयों को बड़ी स्पष्टता से लिखा गया है। इस पुस्तक का सम्पादन श्री आर. पार्थसारथी भट्टाचार्य ने किया था और १६६७ ई. में तिरुमला-तिरुपति देवस्थानम्, तिरुपति से इसका प्रकाशन हिनी हुआ था। यह पुस्तक दो भागों में प्रकाशित है। इस प्रसंग में यह द्रष्टव्य है कि वैखानससूत्र को आधार मानकर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। इनमें श्रीसंजीव याजी, श्रीवरदराज सूरी, श्रीभास्कर भट्ट तथा श्रीकोदण्डराम याजी की टीकाओं की सूचना है। इनका प्रकाशित रूप हमारे समक्ष आना है। जहाँ तक इन रचनाओं तथा रचनाकारों के काल का प्रश्न है, इस दिशा में अभी भी प्रकाश की अपेक्षा है। इस विषय में हम अभी अन्धकार में ही हैं। वैखानसमहिमामजरी-यह ग्रन्थ वैखानस कल्पसूत्र की व्याख्या है। इसकी रचना श्रीनिवास मखी ने की थी। इस ग्रन्थ में प्रधान रूप से वैखानस कल्पसूत्र की महिमा तथा महत्त्व का वर्णन किया गया है। श्रीनिवास मखी की रचनाएं हिन्दू रत्नाकर प्रेस, मद्रास से तेलुगु लिपि में १६१३ ई. से पूर्व प्रकाशित हुई थी। आनन्दसंहिताटीका-हमने पहले मरीचि के द्वारा विरचित आनन्दसंहिता का उल्लेख देखा है। श्री भट्टार पार्थसारथी आचार्य ने उक्त आनन्दसंहिता पर टीका लिखी थी। मूल ग्रन्थ के साथ इस टीका का प्रकाशन १६२४ ई. में ईगापलेम (आंध्र प्रदेश) से हुआ था। ८. बादरायणसूत्रवृत्ति-श्री केशवाचार्य ने बादरायण के ब्रह्मसूत्र की वृत्ति लिखी थी। यह वृत्ति ब्रह्मसूत्र के वैखानस सम्प्रदाय सम्मत लक्ष्मीविशिष्टाद्वैतभाष्य के सिद्धान्त के अनुरूप लिखी गई थी। १०. कश्यपाज़ बुक आफ विजुडम-इस पुस्तक के लेखक नीदरलैंड के श्री टी. गान्द्रियान हैं। सामान्य रूप से यह पुस्तक कश्यप के द्वारा विरचित ‘ज्ञानकाण्ड’ का अंग्रेजी अनुवाद है। परन्तु यह अनुवाद सर्वथा असामान्य तथा अन्य अनुवादों से भिन्न है। अनुवादक ने सभी विशेष स्थलों पर विषय से सम्बद्ध विविध ग्रन्थों के उद्धरणों को उपस्थापित कर ग्रन्थ की विशिष्ट व्याख्या कर दी है। वस्तुतः श्री गान्द्रियान का यह व्याख्यात्मक अनुवाद एक श्लाघ्य, अतः सब तरह से अनुकरणीय सारस्वत अनुष्ठान है। 3E वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय नि यहाँ संक्षेप में वैखानस आगम से सम्बद्ध साहित्यिकी सम्पदा की चर्चा की गई। परन्तु इस आगम से सम्बद्ध पद्धतिपरक ग्रन्थों की संख्या अधिक हो सकती है। यह पद्धत्यात्मक साहित्य मुख्य रूप से वैखानस सम्प्रदाय के अर्चकों के निजी संग्रहों में यत्र तत्र देवालयों में उपलब्ध हो सकता है। ये ग्रन्थ उनके व्यावहारिक उपयोग में सहायक होते हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि योजनाबद्ध रूप से वैखानस वैष्णवों से सम्पर्क स्थापित किया जाय तथा इस साहित्य के संकलन तथा प्रकाशन का प्रयत्न किया जाय।
वैखानसागम संमत दर्शन
वैखानस वैष्णव सम्प्रदाय मुख्यरूप से क्रियाप्रधान धार्मिक परम्परा से सम्बद्ध रहा है। इस सम्प्रदाय का अपना अत्यन्त पृथक् स्वतन्त्र विस्तृत एवं विशिष्ट दार्शनिक दृष्टिकोण एकत्र हमें उपलब्ध नहीं होता। फिर भी उस आगम के विवेचन से इसके कुछ दार्शनिक विचार हमारे समक्ष अवश्य आते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि इस सम्प्रदाय का सम्बन्ध धर्म तथा दर्शन दोनों से रहा है। यह विषय स्मृतिकारों को भी अनुमत था। मनुस्मृति के यशस्वी टीकाकार कुल्लूक भट्ट ने वैखानसों के धर्म तथा दर्शन दोनों की चर्चा की है। उन्होंने कहा है- “वैखानसो वानप्रस्थो तद्धर्मप्रतिपादकशास्त्रदर्शने स्थितः” (मनस्मृति ६.२१)। म न ही पत्र श्रीनिवास मखी ने शारीरकसूत्र के वेदान्तिक प्रस्थान की व्याख्या में वैदिक तत्त्वों के साथ वैखानस की सम्बद्धता तथा मूर्तिपूजा की मान्यता रूप वैखानस दर्शन का निर्देश किया है। मखी के द्वारा विरचित लक्ष्मीविशिष्टाद्वैतभाष्य तथा कुछ अन्य वैखानसागम ग्रन्थों के आधार पर वैखानस आगम दर्शन के विषय में विचार किया गया है। विमानार्चनकल्प के अन्त में इस विषय को कुछ विस्तार से देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य वैखानसागम ग्रन्थों में भी इस सम्प्रदाय से सम्बद्ध दार्शनिक एवं तात्त्विक विषयों पर प्रसंगानुसार यत्र-तत्र विचार किया गया है। इन सबके परिप्रेक्ष में वैखानस आगमस्थ तात्त्विक, अर्थात् दार्शनिक विषयों के विवेचन का यहाँ प्रयास होगा। नामा पाई
परब्रह्म नारायण (विष्णु वासुदेव)-
मरीचि के विमानार्चनकल्प के पचासीवें पटल के प्रारंभ में वर्णित विषय को देखने से पष्ट होता है कि भगवान् विखनस ने चरित, (चर्या) क्रिया, ज्ञान तथा योगयुक्त पूजा-मार्गों में क्रिया तथा चरित (चर्या) को विस्तार से प्रतिपादित किया था। अन्य दो ज्ञान तथा योग का वर्णन संक्षेप से किया था। तदनुरूप मरीचि ने भी ज्ञान तथा योग का जो वस्तुतः दर्शनप्रधान विषय हैं, वर्णन संक्षेप से ही किया है। ऋषियों ने उस भगवत्तत्त्व ज्ञानयोग को मरीचि से सुनने की इच्छा की और मरीचि से उसे प्रतिपादित करने को कहा। मरीचि ने “तत्त्वोपदेशविधिं वक्ष्ये” यह कहते हुए वैखानस आगम शास्त्र के दार्शनिक विषयों का उपदेश किया है। मरीचि ने कहा है-गतस्य भावस्तत्त्वम्"। यहाँ तस्य से तात्पर्य परब्रह्म से है। वह परब्रह्म नारायण है। श्रुति कहती ४० आमनी तन्त्रागम-खण्ड समका है- “तत्त्वं नारायणः परः"। उस नारायण को जानना ही ज्ञान है। उसको जानने वाला ब्रह्मविद् कहलाता है। इसलिये परमात्मा ज्ञातव्य है। जीवात्मा ज्ञाता है। श्रुतियां ज्ञानमय हैं। ऐसा ब्रह्मविदों का मानना है। इस प्रकरण में हम नारायण ब्रह्म के स्वरूप, सृष्टि-क्रम, जीव तथा मोक्ष आदि कुछ प्रधान दार्शनिक विषयों का वैखानस अनुमत स्वरूप देखने का प्रयास करेंगे। प्रत वैखानस आगम में विष्णु वासुदेव को ही परम तत्त्व (ब्रह्म) स्वरूप में अंगीकार किया गया है। विमानार्चनकल्प ने परमात्मा विष्णु को सर्वाधार, सनातन, अप्रमेय, अचिन्त्य, निर्गुण तथा निष्कल कहा है। वह परमात्मा तिल में तेल, पुष्प में गन्ध, फल में रस तथा काष्ठ में अग्नि की तरह सर्वव्यापक कहा गया है। विमानार्चनकल्प ने ही एक दूसरे स्थल पर परमात्मतत्त्व को सकल, शाश्वत तथा अशरीरी होते हुए भी सर्वभूतस्थित, अतिसूक्ष्म, अनिर्देश्य, अतिमात्र, अतीन्द्रिय, अव्यय, प्रकृतिमूल, अनादिनिधन, अखिल . जगत् सृष्टिस्थितिलयकारण, अप्रमेय तथा सत्तामात्र कहा है। . F-
समूर्त एवं अमूर्त परम तत्त्व-
इस आगम ने ब्रह्म के मूर्त तथा अमूर्त ये दो तत्त्व कहे हैं। सभी भूतों में क्षर तथा अक्षर ये दो तत्त्व अवस्थित हैं। अक्षर तत्त्व ब्रह्मस्वरूप तथा क्षरतत्त्व सम्पूर्ण जगत् है। भगवदाराधन-प्रसंग में इन दोनों तत्त्वों का वर्णन दृष्टिगोचर होता है। विमानार्चनकल्प तथा खिलाधिकार का कहना है कि जिस तरह सर्वत्र अवस्थित वह्नि अरणि में मन्थन के बाद ही प्रकट होती है, उसी तरह जगत् में सर्वत्र व्याप्त विष्णु (परमात्मा) ध्यानरूप मन्थन से कुम्भ अथवा भक्तों के हृदय में सन्निहित होता है। खिलाधिकार के अनुसार परमात्मा निःसंग, चित्स्वभाव, अयोनिज, निरौपम्य, निगूढ़ात्मा, काष्ठ में अग्नि की तरह वर्तमान, एक, व्यापी, सुविशुद्ध, निर्गुण, प्रकृति से परे, जन्म तथा वृद्धि आदि से रहित, आत्मस्वरूप, सर्वग तथा अव्यय स्वरूप है। ये सभी रूप परमात्मा के अमूर्त रूप हैं। क्रियाधिकारस्थ वर्णन के अनुसार हृदयस्थपद्मकोशप्रतीकाश विश्वायतन में अग्नि- शिखा के मध्य ध्यान के द्वारा परमात्मा के सूक्ष्म अव्यय रूप को देखा जा सकता है। वह परमात्मा निवात दीर्घार्चि की तरह, आकाश में विद्युल्लेखा की तरह विराजमान है। वही ईश्वर आत्मज्योति अक्षर तथा पुरुष नाम से अभिहित है। यह शद्धात्मक ब्रह्म अक्षर कहा गया है। यही विष्णु निर्मल, निर्गुण, नित्य, अक्षर, सर्वकारणभूत, निष्कल, सकल तथा तेजोभासुरभासित कहा गया है। म आनन्दसंहिता ने हरि, अर्थात् नारायण को देवताओं का परमदेव, पति, परमेश्वर, विश्वात्मेश्वर, शाश्वत शिव, अच्युत, परब्रह्म परमात्मा तथा पर अव्यय बताया है। वह एक ही पुरुष ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, अक्षर तथा परम स्वराट् कहा गया है। यह परमात्म तत्त्व अणु से भी अणु तथा महत् से भी महान् है और गुहा में अवस्थित है। वह तत्त्व हरि, देव, जगत्स्रष्टा, अखिलपाता, सर्वहर्ता, त्रिगुणाश्रय, नित्यनिर्गुण, अतीन्द्रिय है। यह विष्णु वेदमूर्ति, लोकमूर्ति, तथा भूतमूर्ति के रूप में त्रयीमय तथा तेजोमूर्ति, पुण्यमूर्ति, यजुर्मूर्ति, चिन्मय, वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय ४१ आनन्दमूर्ति, सन्मूर्ति, अमूर्तिमान्, विश्वचक्षु, विश्वमुख, विश्वात्मा, विश्ववेत्ता, विश्वगर्भ, अजर, अमर, विश्वेन्द्रियगुणाभास एवं विश्वेन्द्रियविवर्जित कहा गया है। उस परमात्मतत्त्व में सब है, उसी से सब निर्गत है, अतः वह सर्वमय तथा सर्वग है। यही परमात्मतत्त्व परं धाम, परं ज्योति, गुणातीत, गुहाशय, ज्ञानज्ञेयज्ञातृहीन, विज्ञानबहुल, अक्षर, जाग्रत्-स्वप्न सुषुप्त्यादि में, तुरीयावस्था में अवस्थित, अन्तःप्रज्ञ, बहिःप्रज्ञ तथा प्रज्ञाप्रज्ञ के रूप में निर्दिष्ट है। वैखानस भासरूप ब्रह्म हृदयाकाश गोचर हृदयपद्माग्निशिखामध्य ज्वलनयुक्त कनकप्रभा के समान निवात परिसर में दीपार्चि की तरह तथा आकाश में विद्युल्लेखा की तरह ज्ञानज्ञेय सुसंवेद्य कहा गया है। वह परमात्मतत्त्व सत्य, एकाक्षर, सदसदुपकारक आकारमय, नित्य-अनन्त परम निष्कल रूप में वर्णित है। यह अनन्तानन्द चैतन्य तेजःस्वरूप अरूप की तरह रहता है। ब्रह्म क्षीर में घी, अरणि में अग्नि की तरह जगत् में रहता है। ज्ञानदीप प्रकाशक सबका आधारभूत ब्रह्म पुराण पुरुषोत्तम नाम से अभिहित है। यह विष्णु सर्वेश्वर श्रीमान् सभी कारणों का कारणभूत कहा गया है। जिस पर प्रायः सभी वैखानस आगम ग्रन्थों में वैष्णवों के परम आराध्य परमतत्त्व स्वरूप नारायण विष्णु उपर्युक्त नामस्वरूपादि से उसी रूप में वर्णित हैं। संक्षेप में उपर्युक्त विष्णुतत्त्व के ऊपर विचार तथा विश्लेषण के पश्चात् हम इस तथ्यपूर्ण निर्णय पर पहुँचते हैं कि वैखानस आगम का वासुदेवाख्य परमतत्त्व विष्णु औपनिषदिक ब्रह्मतत्त्व के समान प्रतीत होता है। कठोपनिषद् वर्णित ब्रह्मतत्व के साथ इसकी तुलना की जा सकती है। इस आगम के कुछ ग्रन्थों में वर्णित परमतत्त्व पुरुषसूक्त आदि वैदिक सूक्तों में निर्दिष्ट परमतत्त्व के समान दिखता है। जैसे– “विश्वतश्चक्षुः, विश्वतोमुखम्’ आदि। विमानार्चनकल्प ने मूर्त तथा अमूर्त रूप में परमतत्त्व को दो तरह का बताते हुए इसी आधार पर भगवदाराधन को भी दो तरह का बताया है। यागकर्म में अग्नि में हवन रूप आराधन, अर्थात् अर्चन को अमूर्ताराधन तथा मन्दिर आदि में प्रतिमा में सम्पादित किये जाने वाले आराधन या अर्चन को समूर्तार्चन कहा गया है। हमने अब तक परमतत्त्व, अर्थात् परमात्मा के जिन रूपों का वर्णन देखा है, वे अमूर्त परमात्मतत्त्व के रूप में स्वीकृत किये जाने चाहिये। वैखानस-आगम ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर वासुदेवात्मक परमतत्त्व को समूर्त रूप में भी स्वीकारा गया है। आगे की पंक्तियों में उसी मूर्त तत्त्व के विषय में विचार किया जायगा। FL खिलाधिकार के सत्रहवें अध्याय में भगवत्प्रतिष्ठा विषय का प्रतिपादन करते हुए विमानार्चनकल्प की तरह अमूर्त तथा समूर्त दो तरह के परमतत्त्व का निर्देश किया गया है। यहाँ कहा गया है कि जिस तरह एक विशुद्ध स्फटिक मणि सोपाधिक उपरागवश विविध रूप में दृष्टिगोचर होता है, उसी तरह से सनातन एकमात्र विष्णु ही प्रादुर्भाव (मत्स्य, कूर्म) आदि विविध रूपों को धारण कर अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। जिस तरह अग्नि इन्धन से प्रज्वलित होकर विशाल रूप में प्रकाशित होकर सबके समक्ष प्रकट होता है, उसी तरह है ४२ PFतन्त्रागम-खण्ड सर्वग विष्णु ध्यानरूप इन्धन के द्वारा आकाश या अन्य रूपों को स्वीकार करता है, अर्थात् निर्गुण विष्णु ही कुछ लोगों के मत में सगुण के रूप में कल्पित होता है। विमानार्चनकल्प भी ध्येयत्व संकल्प निर्देश पूर्वक परमात्मतत्त्व के सगुण रूप को प्रतिपादित करता है। कहा गया है कि जिस तरह भेदरहित एक ही वायु वेणु-रन्ध्र के भेद के कारण षड्ज आदि स्वरों के रूप में अनेक तरह का हो जाता है, उसी तरह एक ही व्यापी ब्रह्म अनेकविध देवताओं के रूप में प्रतीत होने लगता है। जिस तरह आकाश में पक्षियों का, जल में जलचरों का पदचिह्न दृष्टिपथ में नहीं आता, उसी तरह सर्वत्र स्थित ब्रह्म भी सबमें नहीं देखा जा सकता, केवल तत्त्वविद् ज्ञानी ही उसे जान पाते हैं। जिस तरह एक ही आकाश को लोग नील, पीत आदि अनेक वर्गों का समझते हैं, उसी तरह भ्रान्त-चित्त जन ब्रह्म को अनेक तरह का मानते तथा वर्णन करते हैं। वस्ततः यही क्रम सगण तथा साकार नारायण ब्रह्म के अनेक तरह का मानने तथा ध्यान करने में कारण है। खिलाधिकार के अनुसार ब्रह्म में ही यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है। इस तरह वैखानस आगम का मानना है कि ब्रह्म को चराचरात्मक जगत् के रूप में मूर्त रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये। कहा गया है कि क्षर तथा अक्षर रूप विष्णु सम्पूर्ण जगत् का पोषण करता है। समय
नारायण के चार रूप-
नारायण के पुरुष, सत्य, अच्युत तथा अनिरुद्ध इन चार रूपों के भेद का कारण बताते हुए कहा गया है कि परमात्मा जब सम्पूर्ण गुणों से युक्त होता है, तब वह पुरुष, तीन पादगुणों से युक्त होने पर सत्य, दो पाद अर्थात् अर्धांश गुणों से युक्त होने पर अच्युत तथा एक पादांश गुणों से युक्त होने पर अनिरुद्ध रूप में जाना जाता है। वस्तुतः गुणों के तारतम्य के बिना परमात्मा नारायण एक ही है। यह चार भेद ठीक उसी तरह के हैं, जिस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों का तथा भूर्भुवः स्वः तथा महः लोकों का भेद होता है। ये भेद भी वास्तव में गुणों के आधार पर ही होते हैं। इसका अन्य उदाहरण बताते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार एक ही अग्नि आहवनीय, अन्वाहार्य, गार्हपत्य तथा आवसथ्य चार कुण्डों के भिन्न होने के कारण चार प्रकार का होता है। उसी प्रकार एक ही पुरुष के पुरुष, सत्य, अच्युत तथा अनिरुद्ध ये चार भेद यथाक्रम कान्ति, पुष्टि, सुख तथा इष्टार्थ दायक हैं। ये चार श्रौतप्रिय श्रुतिग्राह्य वैदिकों के लिये वरदायक, ब्रह्मप्रिय परब्रह्म, ब्रह्मण्यप्रिय, ब्रह्मण्याराधित परब्रह्मप्राप्ति के लिये प्रशस्त कहे गये हैं। फ आनन्दसंहिता के अनुसार यद्यपि स्थावर तथा जंगम रूप यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुमय है, फिर भी इस जगत् में उस विष्णु के अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं। ये अनेक रूप उस परमात्मा विष्णु ने अर्चावतार के रूप में भक्तों के पाप विनाश के लिये स्वीकार किये
आभूषण एवं अस्त्र-
कुछ अन्य तात्त्विक विषयों की चर्चा के प्रसंग में हरि, अर्थात् विष्णु के द्वारा धारण किये गये आभूषणों एवं अस्त्रों के साथ नारायण के स्वरूप का वर्णन द्रष्टव्य है। इस क्रम में कौस्तुभ मणि को जगत् से निर्लेप, अगुण, अमल, सुरूप आत्मरूप वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय कहा है। संस्थानवर श्रीवत्स को प्रधानरूप तथा गदा को बुद्धितत्त्वरूप बताया गया है। भूतों तथा इन्द्रियों को क्रमशः भगवान् का शंख तथा शागि कहा गया है। अत्यन्त त्वरित गतिशील वायु तथा मन को विष्णु के हाथ में स्थित चक्र का स्वरूप बताया गया है। सर्वभूत कारणरूप पांच तत्त्वों को भगवान् की पंचवर्णात्मक वैजयन्ती माला कहा गया है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँच कर्मेन्द्रियों को विष्णु का सिर कहा गया है। भगवान् की अतिनिर्मल असि विद्यामय ज्ञानरूप में स्वीकृत है। रूपवर्जित भगवान् का भूषण-संस्थान अविद्या रूप में स्वीकार किया गया है। उसकी माया मानवों के श्रेयस् के लिये निर्दिष्ट है।
शब्दमूर्ति विष्णु-
कला, काष्ठा, निमेष, दिन, ऋतु, अयन तथा हायन ये सब कालरूप विष्णु के ही स्वरूप हैं। देव, मनुष्य तथा पशु आदि भूत पदार्थ भगवान् के मूर्तिधर रूप हैं। ऋग्, यजुषु, साम तथा अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, उपवेद, वेदान्त सभी वेदांग, मनु आदि की स्मृतियां, अशेष शास्त्र अनुवाक आदि, सभी काव्यालाप आदि, अखिल गीतिका आदि शब्द मूर्तिधर भगवान् विष्णु के शरीर हैं । इस तरह परमतत्त्व नारायण कालस्वरूप, लोकमूर्तिधर, शब्दमूर्तिधर आदि के रूप में स्वीकृत हैं, अर्थात् जगत् में विद्यमान सभी मूर्त ‘पदार्थ’ उस परमतत्त्व नारायण ब्रह्म के शरीररूप हैं। देहशुद्धि आदि के क्रम में गुरु उपर्युक्त विषयों की अपने में भावना करता हुआ स्वयं को नारायणरूप अनुभव करता है। इस प्रकरण के अनुशीलन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जागतिक सभी पदार्थ विष्णु के अन्दर ही समाहित हैं, ऐसा वैखानस आगम का मन्तव्य है। इस विषय के विवेचन से कहा जा सकता है कि वैखानस आगम में स्वीकृत नारायण, अर्थात् वासुदेव विष्णु परमार्थतः निर्गुण तथा सगुण उभयविध स्वीकृत है, अर्थात् सकल, सगुण नारायण अद्वैत वेदान्त सम्प्रदाय के द्वारा स्वीकृत ब्रह्म की तरह निष्कल तथा निर्गुण भी है।
परमतत्त्व का ध्यान-
खिलाधिकार में परमतत्त्व के विविध रूपों के ध्यान के वर्णन के प्रसंग में भगवान् के अस्त्र के रूप में माया तथा अविद्या का भी उल्लेख हम देखते हैं। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैखानस सम्प्रदाय के आचार्यों ने माया तथा अविद्या को भी स्वीकार किया है, परन्तु वहां इन दोनों के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन दृष्टिगोचर नहीं होता। विष्णु नारायण निर्गुण तथा निर्विकारी रहते हुए किस तरह सगुण होता है? पुनः सर्वव्यापी ब्रह्म का किस तरह एक स्थल में आवाहन होता है? ये प्रश्न सामान्य रूप में उपस्थित होते हैं। इनके उत्तर में कहा गया है कि मन्त्रों के द्वारा आवाहित परमात्मा प्रतिमा में, स्थण्डिल में, कूर्च में तथा कुम्भ में स्थित होता है। इन स्थलों में स्थित नारायण भक्तों पर अनग्रह करता है और उनकी पजा स्वीकार करता है। इनमें पोक्त व्यवहार सिद्ध अरणि में मन्थन के द्वारा अग्नि प्रकट होने वाला उदाहरण प्रस्तुत किया गया है । इस क्रम में सर्वव्यापी वायु का व्यजन के द्वारा प्रकट होने वाला उदाहरण प्रस्तुत करते हुए १. विष्णुपुराण (१.२२.७६, ८३-८५) से तुलनीय। २. सात्वतसंहिता (२५.१२१) से तुलनीय। ४४ जीतन्त्रागम-खण्डन कहा गया है कि सर्वव्यापी नारायण ब्रह्म भी आवाहन के बाद भक्तों के हृदय-प्रदेश तथा प्रतिमा आदि में प्रत्यक्ष उपस्थित होता है। इससे पूर्वोक्त संदेहास्पद प्रश्नों का अवसर समाप्त हो जाता है। जो इस तरह वैखानस आगम-ग्रन्थों में उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर नारायण ब्रह्म का जो स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वह अद्वैत वेदान्त-सम्प्रदाय के द्वारा स्वीकृत सर्वथा निर्गुण निष्कल शुद्ध एक तथा चित्स्वरूप ब्रह्म के समान नहीं है, वैखानसों का नारायण ब्रह्म रामानुजाचार्य द्वारा स्वीकृत तथा व्यवस्थित रूप से प्रचारित विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त में प्रतिपादित चिदचिद्विशिष्ट अद्वैत रूप ब्रह्म की तरह भी नहीं है। नारायण ब्रह्म इन दोनों से विलक्षण तथा अलग ही प्रतीत होता है। प्रतिष्ठा तथा अर्चा आदि व्यावहारिक क्रिया-कलाप के सम्पादन-सौकर्य के लिये वैखानस आगम नारायण ब्रह्म को सगुण तथा सकल रूप में स्वीकार करता है। अन्यथा आलय अर्चा-प्रक्रिया की प्रवृत्ति में महती बाधा हो सकती थी। परन्तु परमार्थतः इनके मत में नारायण निष्कल तथा निर्गुण है। किन
विष्णु की विभूतियां-
विष्णु की प्रधान विभूति श्री है। वह नित्या, आद्यन्तरहिता, अव्यक्तरूपिणी, प्रमाणसाधारणभूता, विष्णु के संकल्प के अनुरूप नित्यानन्दमयी, मूलप्रकृतिस्वरूपा शक्ति है। उससे भिन्न प्रकृत्यंशभूता पौष्णी, उससे भिन्न स्त्रियां तदात्मिका माया प्रकृति तथा मायी विष्णु है। प्रकृति तथा पुरुष ये दोनों अनादि हैं। इन्हीं दोनों से लोकप्रवृत्ति होती है। सभी विकार गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। कार्य-कारण-कर्तृत्व में प्रकृति को हेतु कहा गया है। पुरुष सुख-दुःखों के भोक्तृत्व में हेतु है। प्रकृतिस्थ पुरुष प्रकृतिज गुणों का भोक्ता होता AD प्रकृति दो तरह की है— चेतन तथा अचेतन। अचेतन प्रकृति के अन्तर्गत पंचभूत, मन, बुद्धि एवं अहंकार ये आठ आते हैं। चेतन प्रकृति जीवभूत है। उसी तरह प्रकृति के साथ संश्लिष्ट पुरुष, प्रकृतिस्थ जीवात्मा क्षेत्रज्ञ बहुत हैं। इन्हें भी नित्य कहा गया है और अनादि अविद्या संचित पुण्य-पाप के फल को भोगने के लिये बहुविध देहों में प्रवेश कर उन-उन रूपों में शुभ-अशुभ कर्म करते हुए तदनुरूप फल के अनुसार पुनः पुनः देह-धारण करते रहते हैं। इस प्रकार सारांश रूप में कह सकते हैं कि वैखानस आगम ने विष्णु या नारायण को सर्वापेक्षया परमतत्त्व स्वीकार कर, उसको सकल तथा निष्कल कहते हुए विष्णु की विभूति श्री को मूलप्रकृति रूप शक्ति कहा है। तदनन्तर चेतन तथा अचेतन रूप में प्रकृति के भी दो रूप कहे गये हैं। पंचभूत आदि आठ तत्त्वों को अचेतन प्रकृति तथा पुरुष एवं जीवात्मा को चेतन प्रकृति के अन्तर्गत माना है। मरीचि ने इस प्रसंग में इनकी उत्पत्ति का कारण भी बताया है। इन प्राथमिक तत्त्वों के वर्णन के बाद मरीचि ने वैखानस आगम सम्मत सृष्टि-प्रक्रिया का भी वर्णन किया है। १. प्रपंचसार (१.२१) से तुलनीय ।वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय
सृष्टिप्रक्रिया-
तदनुसार परमात्मा नारायण से हिरण्यमय अण्ड की उत्पत्ति होती है। उस अण्ड के अन्तर्गत विद्यमान सभी अण्डों के ऊपर सनातन अचिन्त्य देवों से भी अनभिलक्ष्य नित्य शुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव पुरुषों के द्वारा अनुभूयमान वैष्णवाण्ड की स्थिति वर्णित है। उसमें चार तरह के विष्णुलोक कहे गये हैं- १. आमोद, २. संमोद, ३. प्रमोद तथा ४. वैकुण्ठ। ये चार यथाक्रम एक-एक के ऊपर हैं। उस स्वर्णमय प्राकारयुक्त गोपुर -तोरण शत-सहस्र सरिताओं से प्रभासमान दिव्यलोक में सहस्र सूर्यों के समान हेममय द्वादशतल विमान वाला, नित्यज्ञान-क्रिया-ऐश्वर्य से सम्पन्न ब्रह्मादि देवऋषि तथा नित्य परिजनों से युक्त मन्दिर है। उस मन्दिर (व्योमानिल) में परमात्मा स्वसंकल्प से देवी तथा भूषण आयुधों से सुशोभित विष्णु आमोद में, महाविष्णु प्रमोद में, सदाविष्णु संमोद में तथा सर्वव्यापी नारायण वैकुण्ठ में आसीन होते हैं। यह सृष्टि-क्रम शुद्ध सृष्टि-क्रम कहा जा सकता है। यद्यपि मरीचि ने अथवा अन्य किसी भी वैखानसागम ग्रन्थकार ने शुद्ध तथा अशुद्ध सृष्टि की बात नहीं कही है, फिर भी उपर्युक्त सृष्टि के स्वरूप से यह सामान्य सृष्टि का स्वरूप परिलक्षित नहीं होता। पांचरात्रागम ग्रन्थों के पर्यालोचन से उक्त दो तरह की सृष्टि स्पष्ट प्रतीत होती है। उसी के आधार पर यहाँ भी दो तरह की सृष्टि की कल्पना करना असंगत नहीं होगा, क्योंकि विमानार्चनकल्प के आगे के वर्णन से शुद्धेतर सृष्टि का अनुमान सहज संभव है। इस ग्रन्थ के अठासीवें पटल में देहोत्पत्ति वर्णन से पूर्व सामान्य सृष्टि की चर्चा की गई है। सतासीवें पटल में उपर्युक्त वैष्णवाण्ड आदि के वर्णन के पश्चात् कहा गया है कि सभी जीवों की सृष्टि की इच्छा से भूतों का सर्जन किया गया। आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ और उससे भी आगे औपनिषदिक प्रक्रिया से भूतों तक की सृष्टि वर्णित है। यहाँ कहा गया है कि एक समय प्रलयकाल में अनन्तशायी नारायण के नाभिकमल में उद्भूत भगवदंश चतुर्मुख ब्रह्मा सम्पूर्ण जगत् का सर्जन करते हैं। इसके बाद विमानार्चनकल्प में देहोत्पत्ति-प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रसंग में वैखानस आगम सम्मत अनेक दार्शनिक विषय वर्णित हैं। अतः उसका वर्णन अप्रासंगिक नहीं होगा। र कहा गया है कि औषधियों से अन्न उत्पन्न होता है। अन्न मूत्र-पुरीष तथा पुरुष-शुक्र एवं स्त्री-शोणित (रज) के रूप में तीन तरह से परिणत होता है। शुक्र तथा शोणित क्षीर में घृत की तरह सर्वव्यापिनी माया शक्ति होती है। पुरुष के बीजमूल में संचित शुक्र तथा स्त्री के कुचमूल में संचित शोणित संयोगकाल में दैवयोग से वायु के द्वारा गर्भालय में प्रवेश करता है। गर्भालयस्थ शुक्र तथा शोणित एक रात में कलिल रूप में, दो रात में बुद्बुद रूप में, तीसरी रात में मांसल रूप में, चौथी रात में पेशलरूप में, पाँचवीं रात में घन रूप में, छठी रात में व्यूहरूप में, सातवीं रात में बद्ध रूप में, आठवीं रात में सुकुमाररूप में, नवीं रात में यावनरूप में और दसवीं रात में वयस रूप में परिवर्तित, अर्थात् विकसित होते हैं। अर्धमास में अण्डाकृति, महीने में शरीराकृति, दो महीने में शिर-बाहु-प्रदेशाकृति, तीसरे महीने में जठर तथा कटिप्रदेशाकृति, चौथे महीने में पाणिपादद्वयाकृति, पाँचवें मास में तन्त्रागम-खण्ड रोमाकृति, षष्ठ मास में अस्थिसंघाताकृति तथा सप्तम मास में जीवप्रकाशस्वरूप विकसित होते हुए आठवें मास में देह का निर्माण होता है तथा नवें मास में उसका प्रचलन होता है। तदनन्तर वह जन्म लेता है। शरीर में स्नायु, मज्जा तथा अस्थि रेतोमय, त्वक्, रक्त तथा मांस शोणितमय कहे गये हैं। षट्कोश विकृत त्वक्, रक्त, मांस मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र ये क्रम से अन्तर्भूत, अर्थात् एकांशीभूत सात धातु हैं। यह गात्र सप्तधातुमय कहा गया है। शुक्र के आधिक्य से पुरुष, शोणित की अधिकता से स्त्री तथा दोनों की तुल्य मात्रा रहने से नपुंसक की उत्पत्ति होती है। स्त्री या पुरुष दोनों में से एक के अनुसार वर्ण होता है। साथ
पचीस तत्त्व-
शरीर में पृथिवी आदि महाभूतों के समवाय का वर्णन अधोलिखित रूप में किया गया है- शरीरस्थ कठिन भाग पृथिवी, द्रव भाग अंभस् तथा उष्ण भाग तेजस् हैं। संचरणशील अनिल है। छिद्ररूप श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियां आकाश हैं। इस क्रम में श्रोत्र से आकाश, वायु से स्पर्श, अग्नि से चक्षु, अप् से जिह्वा तथा पृथिवी से घ्राण का संबन्ध कहा गया है। इसी तरह इन्द्रियों के यथाक्रम से शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध विषय कहे गये हैं। वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ ये पाँच महाभूतों में उत्पन्न कर्मेन्द्रियां हैं। वचन, आदान, गमन, विसर्ग तथा आनन्द ये पाँच क्रमशः कर्मेन्द्रियों के विषय हैं। पृथिवी आदि चार महाभूतों से क्रमशः मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त ये चार अन्तःकरण उत्पन्न होते हैं। मन आदि चारों के क्रमशः संकल्प-विकल्प, अध्यवसाय, अनात्मा में आत्मबोध तथा अनुभूतार्थ स्मरण विषय हैं। मन का स्थान गले के अन्दर, बुद्धि का वदन में, अहंकार का हृदय में तथा चित्त का स्थान नाभि में कहा गया है। कि जो अस्थि, चर्म, रोम, नाड़ी तथा मांस पृथिवी के अंश हैं। मूत्र, श्लेष्मा, रक्त, शुक्र, मेद तथा स्वेद अप के अंश हैं। क्षुत्, तृष्णा, निद्रा, आलस्य, मोह तथा मैथुन अग्नि के अंश हैं। प्रचरण, विलेखन, उन्मीलन तथा मीलन ये वायु के अंश हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा भय ये आकाश के अंश हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध ये पाँच पृथिवी के गुण कहे गये हैं। शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस ये चार गुण अप के हैं। शब्द, स्पर्श तथा रूप ये तीन गुण अग्नि के कहे गये हैं। शब्द तथा स्पर्श वे दो गुण वायु के तथा केवल एक शब्द गुण आकाश का कहा गया है। वह गो सात्त्विक, राजस तथा तामस ये तीन गुण कहे गये हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, कल्पना, अक्रोध, शुश्रूषा, शौच, संतोष, आस्तिक्य तथा आर्जव ये सात्त्विक के लक्षण हैं। अहंकर्ता, अहंवक्ता, अहंभोक्ता इत्यादि अभिमान गुण राजस के लक्षण हैं। निद्रा, आलस्य, मोह, मैथुन तथा स्तेय कर्म तामस के लक्षण कहे गये हैं। सात्त्विक का स्थान ऊर्ध्व, राजस का स्थान मध्य तथा तामस का स्थान अधः कहा गया है। सम्यक् ज्ञान को सात्त्विक, धर्म-ज्ञान राजस तथा तिमिरान्ध तामस बताया गया है। +5 जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तथा तुरीय ये चार अवस्थाएं हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियां तथा अन्तःकरणचतुष्टय के साथ चतुर्दश करणों से युक्त अवस्था को जाग्रदवस्था का शाजाप शाकमाइक का नाम वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय कहते हैं। अन्तःकरणचतुष्टय युक्त स्वप्नावस्था तथा चित्तमात्र एक करण युक्त सुषुप्ति अवस्था कही गई है। परमात्मा तथा जीवात्मा के मध्य जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। वह जीवात्मा क्षेत्रज्ञ पुरुष पञ्चमहाभूत देहेन्द्रियभूत गुणों तथा करण-चतुष्टय इन सबके साथ पञ्चविंशात्मक होता है। इसलिये देह भी पञ्चविंशात्मक माना गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वैखानस आगम सिद्धान्त के अनुसार पंचविंशति तत्त्व स्वीकृत हैं और ये ही तत्त्व सामान्य सृष्टि के आधारभूत कारण हैं। परन्तु यह विषय अत्यन्त स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं है, फिर भी सामान्य रूप से वैखानस संमत सृष्टि-प्रक्रिया उपर्युक्त ही है। या
देहोत्पत्ति-
विमानार्चनकल्प ने उपर्युक्त विविध तत्त्वों की सृष्टि के साथ देह की सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन कर “अथातो देहलक्षणं वक्ष्ये” इस प्रतिज्ञा के साथ देह के अन्दर विद्यमान तत्तत् अंगों का वर्णन किया है और साथ ही उससे सम्बद्ध कुछ ऐसे विषयों का भी निर्देश किया है, जिसका सम्बन्ध अष्टांग योग के छठे अंग ध्यान से हो सकता है। इस प्रसंग में वर्णित होने के कारण उन विषयों का विवेचन यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा। अतः अब यहाँ देहलक्षणकथन-क्रम में देह का मान, प्राण का मान, गुदा, देह मध्य, वहाँ के देव, नाभिस्थान, नाभिस्थ द्वादशार चक्र, कुण्डलिनी शक्ति, हृदयस्थ सूर्यमण्डल, नासाग्रस्थ चन्द्रमण्डल उनमें स्थित मूर्ति, मुक्तिद्वार, हृत्पद्मस्थ भगवद्ध्यानविधि आदि विषयों का विवेचन करने का प्रयास होगा। मरीचि के अनुसार व्यक्ति का देह उसकी अंगुली से छियानवें अंगुल प्रमाण का होता है। उससे बारह अंगुल अधिक प्रमाण वाला प्राण प्राणायाम के द्वारा समान होता है। शरीर में गुदा से दो अंगुल ऊपर देहमध्य कहा गया है। देहमध्य में हेम की आभा से युक्त त्रिकोण वह्निमण्डल होता है। उसके बीच बिन्दुनाद के साथ रेफबीज जलता है। उसके मध्य मण्डल पुरुष यज्ञमूर्ति का स्थान है। वह यज्ञमूर्ति पिंगलाभ, द्विशीर्ष, चतुःशृंग, षपणेत्र तथा सप्तहस्त है। उसके दक्षिण हाथों में अभय मुद्रा, स्रक्, शक्ति, खड्ग तथा वाम हाथों में वरद, रूप, उक् तथा खेटक का होना निर्दिष्ट है। यह यज्ञ-मूर्ति त्रिपाद पीताम्बरधारी श्रीवत्सांककिरीटकेयूरहारादि सर्वाभरण भूषित है। इस मूर्ति के वाम तथा दक्षिण भाग में क्रमशः स्वधा तथा स्वाहा का स्थान वर्णित है। इसके अलावा यह मूर्ति सभी देवताओं से परिवृत होती है। मानव ___ रेफबीज से नौ अंगुल ऊपर कन्द का स्थान निर्दिष्ट है। यह चतुरंगुलोत्सेधायाम युक्त त्वगादि सप्त धातु विभूषित अण्डाकृति होता है। कन्द मध्य नाभि में द्वादशारयुक्त चक्र होता है। उस चक्र में पुण्य तथा पाप से प्रचोदित तन्तुपंजरमध्यस्थ लूतिका (मकड़ी) की तरह प्राणारूढ़ जीव प्रवर्तित होता है। शिक्षा सामना नाभि से ऊपर उसके तिर्यक् भाग में नीचे से ऊपर की ओर जाती हुई अष्ट प्रकृतिक अष्टधा कुटिला नागरूपा विद्याधुन्मुख ऊर्ध्व द्वार को अवरुद्ध कर कन्द के पार्श्वभाग में स्थित कुण्डली के रूप की तरह सर्पफणामणिमण्डलश्री से युक्त कुण्डलिनी शक्ति अपने फण से ब्रह्मरुद्राख्य सुषुम्ना नाड़ीरन्ध्र को छिपाकर स्थित है। प्रता ४८ तन्त्रागम-खण्ड नाभि से वितस्ति मात्र ऊपर हृदय कहा गया है। उसमें सभी प्रतिष्ठित हैं। हृदय में अर्कबिम्ब है। उसमें सकारबीजान्वित सहस्रज्वालायुक्त ज्योति जलती है। उसके मध्य मण्डलमूर्ति विष्णुमूर्ति तरुणादित्य प्रकाश की तरह हेममय हिरण्यश्मश्रु, केशनखयुक्त, पीताम्बरधारी, श्रीवत्सांक, चतुर्भुजशंखचक्रधर, अभय तथा कटि अवलम्बित हस्त, रक्ता स्यनेत्रपाणिपाद, सौम्यसुप्रसन्नमुख, किरीटकेयूरहार कटिप्रलम्बयज्ञोपवीतादि सर्वाभरण भूषित, सृष्टि, स्थिति और अन्त के कारण दोनों देवियों तथा पार्षदों के साथ स्थित हैं। _ हृदय से ऊपर नासाग्र में शुद्ध स्फटिक के प्रकाश के समान चन्द्रबिम्ब में ऋकारबीजान्वित अमृतस्रावयुक्त श्वेत प्रकाश के मध्य मण्डलपुरुष नारायणमूर्ति का ध्यान कहा गया है। नारायणमूर्ति का स्वरूप शुद्ध स्फटिक की तरह प्रकाशमान पीताम्बरधारी श्रीवत्सांक चतुर्भुज शंखचक्रधारी अभय तथा कट्यवलम्बित हस्त पद्मोदरदलाभनेत्र रक्तास्यपाणिपाद किरीटकेयूरहारादि सर्वाभरण भूषित है। स्मेरमुख परिषद् तथा दोनों देवियों के साथ नारायण की मूर्ति ध्यानयोग्य है। का नासाग्र स्थित चन्द्रबिम्ब के ऊपर मूर्धा में सुषुम्ना के आगे मुक्ति द्वार कहा गया है। उसमें अधोमुख ऊर्ध्वमूल रूप में शिरःपद्म की स्थिति बताई गयी है। इस पद्म में सोलह दल हैं। पद्म के मध्य में सहस्र अमृतधाराओं से आप्लावित मण्डलपुरुष वासुदेव का ध्यान विहित है। उसके बाद कन्द से उठा हुआ द्वादशांगुलप्रमाण, सुज्ञाननालवाला, अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व तथा वशित्व इन आठ दलों से युक्त, प्रकृत्यात्मक कर्णिका से उपेत, विद्यारूप केसर से संयुक्त, अधोमुख हृदयकमल है। यह हृदय-कमल प्राणायाम के द्वारा विकसित होकर ऊर्ध्वमुख होता है। उसके अन्दर कर्णिका के मध्य जलता हुआ विश्वतोमुख विश्वार्चि नाम वाला महाग्नि आपादतल मस्तक सारे शरीर को संतप्त करता है। उसके बीच पीताभ नीवारशूक की तरह पतली वह्निशिखा के मध्य प्रज्वलित ज्योतीरूप, स्वसंकल्प से तप्त, जाम्बूनद प्रभा वाला पीताम्बरधारी पद्माक्ष रक्तास्यपाणिपाद, चतुर्भुज, शङ्खचक्रधारी उभयकट्यवलम्बित हस्तश्रीवत्सांक सुप्रसन्न शुचिस्मित सर्वाभरणभूषित परमात्मा विद्यमान है। परमात्मा के दक्षिण तथा वाम भाग में श्री तथा भूमि (विभूति-माया) तथा परिषद् देवों की स्थिति का ध्यान विहित है। कहा गया है कि जिज्ञासु व्यक्ति उक्त स्वरूप विष्णु को ध्यानयोग-ज्ञानचक्षु के द्वारा देखने का प्रयास करता है। र वैखानस वैष्णव उपर्युक्त क्रम से विश्वव्यापी तेजोभासुर विष्णु को ध्यानमथन के द्वारा आविर्भत कर भक्ति के द्वारा विष्ण के सकल रूप का संकल्प कर आवाहन पूर्वक अर्चन सम्पादित करता है। इन वैष्णवों के अनुसार यह कार्य श्रुतिसंमत कहा गया है। इसलिये द्विजों के द्वारा प्रतिदिन विष्णु का ही अर्चन किया जाना चाहिये।। ऊपर वैखानस आगम संमत परमतत्त्व, सष्टि-प्रक्रिया तथा उसके कारणभूत तत्त्व शरीरोत्पत्ति का वर्णन किया गया। इस वर्णन के पश्चात् इस आगम के मत में निरूपित जीवतत्त्व तथा मोक्ष का स्वरूप देखने का प्रयास होगा। वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय
जीव का स्वरूप-
मरीचि ने जीव के स्वरूप का निर्देश करते हुए निम्न बातें कही हैं। यहाँ जीवात्मा शब्द का व्यवहार किया गया है। जीवात्मा अंजन की आभा वाला, नित्य शुद्ध बुद्ध निर्विकार तथा अणु प्रमाण कहा गया है। इस आगम के मत में जीवात्मा सर्वग है। यह देह में प्रविष्ट होकर शुभाशुभ कर्म सम्पादित करता है। मरीचि ने इसी क्रम में वैखानस आगम संमत कर्म एवं उसके फल का भी वर्णन किया है। कर्म दो तरह के कहे गये हैं- १. ऐहिक तथा २. आमुष्मिक। ऐहिक कर्म के अन्तर्गत भोजन, आच्छादन, स्थानगमन, आसन, शयन आदि का समावेश कहा गया है। आमुष्मिक के अन्तर्गत अहिंसा, दान, धर्म, परोपकार तथा भगवदाराधनादि पाप-पुण्य सम्बद्ध सभी कर्म आते हैं। जीव भाग्यवश देहावसान के पश्चात् स्वकर्मानुरूप परलोक प्राप्त कर तत्तत् कर्मों का फल भोगने के अनन्तर फल के क्षीण होने पर उन लोकों से निवृत्त होकर आकाश में प्रवेश करता है। आकाश में प्रविष्ट जीव वायु होकर अग्नि में प्रवेश करता है। धूम बनकर अग्नि से अप् में, अप रूप अभ्र में प्रविष्ट होता है। अभ्र रूप जीव वर्षा के रूप में पृथिवी पर आता है। यहाँ भमि से औषधियों एवं वनस्पतियों में प्रवेश करता है। औषधियों से अन्न में प्रविष्ट होकर अन्न से शुक्र तथा शोणित के रूप में परिणत होता है। इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। शुक्र तथा शोणित रूप को प्राप्त जीव स्वविषयक योनि में प्रवेश कर प्रतिदिन उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त करता है। इस तरह क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञों के परस्पर सम्बन्ध से अनन्त संसार स्थावरजंगम, नर, मृग, पशु-पक्षी, जरायुज, अण्डज, स्वेदज, तथा उद्भिज्ज भेद से जीव अनेक होते हैं। गर्भस्थ जीव देह धारण कर जन्म प्राप्त करता है। तत्पश्चात् मायामय पाशबद्ध होकर भगवान् की माया से विमोहित होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है। पुनः योनिद्वार से निष्क्रमण कर पाप योनियों को प्राप्त करता है। फिर स्वर्गनरक-फल जनक कर्मों में प्रवृत्त होता है और आगे उसके अनुरूप जन्मलाभ करता है। वैखानसों के अनुसार इस जन्ममरण रूप आगमन तथा गमन प्रयुक्त कष्ट से छुटकारा पाने के लिये केवल सगुण नारायण की उपासना ही मार्ग है। मुक्ति-प्रक्रिया का निर्देश करते हुए कहा गया है कि भक्तवत्सल होने के कारण नारायण अपने उपासकों को अनुग्रहपूर्वक स्वमाया से मुक्त करता है। मायामुक्त आत्मा सम्यक् ज्ञान में प्रवेश करता है। उसके बाद आश्रम-धर्मयुक्त जीव भगवदाराधन में संलग्न होता है। नारायण के आराधन में तत्पर संसारार्णवनिमग्न जीवात्मा परमात्मा नारायण का दर्शन करता है। नारायण जीवात्मा को अपुनरावृत्ति प्रदान कर प्रसादित करता है। अपुनरावृत्त प्रसादित जीव कृतकृत्य हो जाता है।
चतुर्विध मोक्षपद-
मरीचि ने मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहा है कि संसारबन्ध वासना से मुक्ति ही मोक्ष है। समाराधन-विशेष के अनुरूप चार प्रकार के पदों के रूप में मोक्ष प्राप्त होता है। वे चार पद हैं- १. सालोक्य, २. सामीप्य, ३. सारूप्य तथा ५० तन्त्रागम-खण्ड यानी ४. सायुज्य। सालोक्य में आमोद की प्राप्ति, सामीप्य में प्रमोद की प्राप्ति, सारूप्य में संमोद की प्राप्ति तथा सायुज्य में वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। इन सबकी प्राप्ति ही वैखानस संमत मोक्ष है और वह नारायण की आराधना के बिना संभव नहीं है।
चतुर्विध समाराधन-
जहाँ तक नारायण के समाराधन का प्रश्न है, उस पर विचार करते हुए कहा गया है कि समाराधन के क्रम में भगवत्समाश्रयण चार तरह से होता है १. जप, २. हत, ३. अर्चना, तथा ४. ध्यान। भगवद्ध्यान पूर्वक सावित्री, वैष्णवी ऋचा अथवा अष्टाक्षर मन्त्र का अभ्यास जप समाराधन कहा गया है। अग्निहोत्र आदि होम में जो हवन होता है, वह हुत-आराधन के नाम से जाना जाता है। गृह अथवा देवालय में वैदिक मार्गानुरूप प्रतिमादि में जो आराधन किया जाता है, वह अर्चनाराधन कहा जाता है। निष्कल तथा सकल विभाग को समझ कर अष्टांग योगमार्ग से जीवात्मा के द्वारा परमात्मा के चिन्तन को ध्यान कहते हैं। इन चार आराधनों में वैखानसंमत अर्चनाराधन सर्वार्थसाधक माना गया है। वैखानस आगम ग्रन्थों में वर्णित विषयों के आधार पर उपर्युक्त दर्शन सम्बद्ध विषय हमारे समक्ष आते हैं। वैखानस आगम साहित्य के प्रत्येक ग्रन्थ में वर्णित दार्शनिक विषयों का तलस्पर्शी अन्वेषण तथा वर्णन अभी भी अपेक्षित है। है
वैखानसागम का क्रियासम्बद्ध विषय
वैखानस आगम ग्रन्थों में देवालयनिर्माण, मूर्तिकल्पन तथा भगवदाराधन के क्रम में उपयोगार्ह विविध पात्रादि कल्पन की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस वर्णनप्रसंग में वास्तुशास्त्र तथा शिल्पशास्त्रीय अपेक्षित तकनीकी विषय भी अत्यन्त बारीकी से निर्दिष्ट हैं। आलय तथा मूर्तिकल्पन से सम्बद्ध प्रायः समस्त विषय यथास्थान वर्णित हैं। इन विषयों को कुछ वैष्णव आगम ग्रन्थों ने क्रियासम्बद्ध विषय के रूप में स्वीकार किया है। अतः यहाँ हमने भी इन विषयों को क्रियासम्बद्ध विषय कहना उपयुक्त समझा है। एक
देवालय कल्पन-
क्रियासम्बद्ध विषयों के अन्तर्गत मुख्य रूप से देवालयकल्पन के लिये अपेक्षित भूमिसंचय, उसका शोधन, प्रथमेष्टका (नींव की ईंट) के वर्णन से आरंभ कर विमानमसूरक (गुम्बद के ऊपर स्थित सूक्ष्म कलश) तक, आलय में संलग्न एक-एक ईंट आदि के कल्पन तथा व्यवस्थापन-क्रम से आलय (मन्दिर) निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया का वर्णन, जो उत्कृष्ट वास्तुशास्त्रीय विषय है, उपलब्ध है। आलयकल्पनप्रक्रिया-वर्णन के क्रम में वैखानस आगम ग्रन्थों ने ग्राम-विन्यास का भी बहुत स्पष्ट तथा अच्छा वर्णन किया है। इसके अन्तर्गत नगर, ग्राम, पट्टन तथा अग्रहार आदि के लक्षण कहे गये हैं। जैसे विमानार्चनकल्प के तीसरे पटल में ग्रामादि वास्तु-भेद का वर्णन किया है। वहाँ वास्तु के नौ भेद कहे गये हैं। वे हैं- १. ग्राम, २. अग्रहार, ३. नगर, ४. पत्तन, ५. खर्वट, ६. कुटिक, ७. सेनामुख, ८. राजधानी तथा ६. शिबिका। इनके लक्षणों का भी निर्देश किया वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय गया है। जैसे- भृत्यों के साथ विप्रों के आवास को ग्राम तथा मुख्य रूप से विप्रों के आवास को अग्रहार कहा गया है। अनेक जनसंबाधित अनेक शिल्पी क्रेता-विक्रेताओं से अधिष्ठित सर्वदेवतासंयुक्त स्थान को नगर कहते हैं। द्वीपान्तर्गत द्रव्य क्रयविक्रय करने वालों से अधिष्ठित स्थान को पत्तन कहा जाता है। नगर तथा पत्तन इन दोनों के मिले रूप को खर्वट कहा गया है। सपरिवारक एक ग्रामणीक कुटिक होता है। सभी वर्गों से समाकीर्ण राजा के गृह से समायुक्त स्थान सेनामुख के नाम से जाना जाता है। चतुरंग समाकीर्ण नृप तथा उसके भृत्यों से युक्त स्थान को राजधानी कहा गया है। नृप तथा सेनापति के निवेश को शिबिर कहते हैं। इस तरह के लक्षण अन्य वैखानस आगम-ग्रन्थों में भी वर्णित हैं। ही विमानार्चनकल्प तथा अन्य वैखानस आगम ग्रन्थों में ग्राम आदि के विन्यास के वर्णन के प्रसंग में उनके स्वरूप तथा विविध भेदों का निर्देश देखते हैं। जैसे- दण्डक, करिदण्डक, नील, अनिलेश, अनलपुच्छ, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, पद्मवीथिक, अनलवीथिक, प्रकीर्णक तथा उत्कीर्णक आदि अनेक ग्राम-स्वरूपों का स्पष्ट निर्देश इन ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। ग्रामादि में देवालय, विद्यालय, औषधालय तथा राजप्रासाद आदि के निर्माण के लिये निर्धारित स्थान आदि का भी स्पष्ट तथा विस्तार से वर्णन किया गया है। वैखानस आगम ग्रन्थों में अनेक प्रकार के विमानों (आलय) के लक्षणों का निर्देश करते हुए उनके स्वरूप का भी उल्लेख किया गया है। जैसे खिलाधिकार के छठे अध्याय में नलीनक, प्रलीनक, श्रियःस्थान, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, श्रीवृत्त, पर्वताकृतिक, महापद्म, नन्दीविशाल, दिशाश्र, पूर्वरङ्ग विशाल, एकपाद, गणिकाशाला, कुबेरच्छन्द, वापी, प्रकृति, तोय, उत्पलपत्र, सिंहच्छन्द, सोमच्छन्द, मेनाकार, शालीकरण, कर्णिकाकार, श्रियोलंकार, कुंभाकृति, गोधामुख, पिच्छावतंसक, चतुःस्फुट, हस्त्याकार, नागच्छन्द, वृषभच्छन्द तथा कूटाकार विमानों के लक्षण का वर्णन किया गया है। किटक अधिगृहीत भूमि में देवालयकल्पन से पूर्व उस भूमि का कर्षण तथा शोधन किया जाता है। भूमिकर्षण के बाद अंकुरार्पण का विधान है। कर्षण भी प्रथम तथा द्वितीय क्रम से दो बार विहित है। इसके द्वारा मुख्य रूप से भूमि का संशोधन करना उद्देश्य होता है। इस तरह कर्षण तथा अंकुरार्पण के द्वारा संशोधित भूमि आलयनिर्माण के लिये तैयार होती है। इस प्रक्रिया का अत्यन्त ही विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत गाय के द्वारा अंकुरार्पण क्रम में बोये हुए पौधों का चराया जाना भी कहा है। इस प्रक्रिया में विविध मन्त्रों का तत्तत्स्थान में प्रयोग निर्दिष्ट है। शुद्ध संशोधित भूमि में वास्तुदेव की पूजा आदि के लिये वास्तुपद कल्पन तथा निर्धारित पदों में तत्तत् देवताओं का अर्चन-स्थान आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। वास्तुदेव की पूजा आलय-निर्माण का अत्यन्त आवश्यक अंग है। वास्तुदेवपूजित भूमि में प्रथमेष्टका न्यास के साथ आलय-निर्माण आरंभ होता है। इसकी प्रक्रिया भी अत्यन्त विस्तृत है। इष्टका न्यास के बाद गर्भ-प्रक्षेपण का अवसर आता है। इसे गर्भन्यास के नाम से भी जाना जाता है। गर्भन्यास के लिये सामान्य रूप में में तन्त्रागम-खण्ड शाई अधोलिखित स्थान कहे गये हैं— भूमि, पट्टिका, मस्तक, कूटकोष्ठान्तर, प्राकार, गोपुर तथा पाकालय या स्नपनालय। 5 मरीचि ने विमानार्चनकल्प में नागर, वेसर तथा द्राविड़ भेद से सामान्यतः तीन तरह के देवालयों का स्वरूप बताया है। नागर के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि इसे आरंभ से स्तृपिकान्त चतुरस्र होना चाहिये। वेसर देवालय वृत्तस्वरूप या प्रस्तरान्त समचतुरस्र और उसके ऊपर वृत्त ग्रीवा वाला होता है। मरीचि ने द्राविड़ आलय का स्वरूपए स्पष्ट नहीं बताया। खिलाधिकार में उपर्युक्त तीन विमानों की चर्चा नहीं देखते। वैखानस आगम ग्रन्थों में आलय के आरंभ से अन्त तक के विविध अंगों का स्वरूप-कथनपूर्वक लक्षण बताया गया है। मरीचि ने विमानार्चनकल्प के आठवें पटल में आठ प्रकार के अधिष्ठानों का पृथक्-पृथक् स्वरूप बताया है। इस क्रम में शान्तिक, पौष्टिक, जयद, अद्भुत, सार्वकामिक आदि एकतल विमान का विस्तार से वर्णन किया गया है। मरीचि ने गर्भगृह, मुखमण्डप, कवाट, प्रस्तर, ग्रीवा, शिखर, नासिका तथा स्थूपी आदि विमानांगों का विस्तार से स्वरूप बताया है। विमानार्चनकल्प के दसवें पटल में द्वितल आदि अष्टतलान्त विविध तलों वाले देवालयों के स्वरूप का वर्णन किया है। आगे के पटल में विमानार्चनकल्प ने प्राकार, गोपुर, परिवारालय तथा परिवार देवताओं के स्थान आदि विषयों का स्पष्ट वर्णन किया है। माना जाता देवालयकल्पन से पूर्व बालालय अथवा तरुणालय-निर्माण की व्यवस्था अनेक वैखानस आगम-ग्रन्थों में देखते हैं। मरीचि ने विमानार्चनकल्प के चतुर्थ तथा पंचम पटलों में इस विषय का वर्णन किया है। बालालय से तात्पर्य एक ऐसे अस्थायी देवालय कल्पन से है, जो कि स्थायी देवालय-कल्पन होने तक भगवान् की पूजा-अर्चा चलाने के लिये निर्मित होता है। यजमान यदि अशक्त हो और बालालय बनाने का उसमें सामर्थ्य न हो, तो बिना बालालय के भी देवालय का निर्माण अनुमत है। मरीचि ने बालालय निर्माण के लिये देश, स्थान, प्रमाण, उपादान द्रव्य आदि विषयों का विवेचन किया है। इस प्रसंग में बालालय में अर्चनार्थ बालवेर-कल्पन से सम्बद्ध सारे विषय भी विस्तार के साथ निर्दिष्ट हैं। देवालय-निर्माण की प्रक्रिया के साथ-साथ आलय के प्रथम, द्वितीय आदि आवरण के विधान के वर्णन को भी यहां देखा जा सकता है। इस क्रम में देवालय के अन्तर्गत बनाये जाने वाले मण्डपों की निर्माण-प्रक्रिया का भी निर्देश किया गया है। ये मण्डप तीन प्रकार के कहे गये हैं। जिनमें श्रीवत्स मण्डप को उत्तम, स्वस्तिक मण्डप को मध्यम तथा पद्मक मण्डप को अधम कहा गया है। भृगु ने इन मण्डपों का लक्षण भी स्पष्ट रूप में बताया
प्रतिमानिर्माण-
क्रियासम्बद्ध विषयों के अन्तर्गत प्रतिमा (बेर) निर्माण आदि प्रक्रियाओं का अत्यन्त विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इस क्रम में प्रतिमाओं के विविध भेद, विविध उपादान द्रव्य, उनके निर्माण की विधि आदि शिल्पशास्त्रीय विषयों का विस्तार से वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय वर्णन मिलता है। यद्यपि मुख्य रूप से यह विषय शिल्पशास्त्र से सम्बन्ध रखता है, फिर भी समूर्ताराधनपरक वैखानस आगम में मूर्ति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, अतः मूर्तिकला से सम्बद्ध सारे विषयों का यहां विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। र सामान्यतः अवस्थिति के आधार पर प्रतिमा तीन प्रकार की कही गई है। १. आसीन. २.स्थानक तथा ३.शयान। आसीन मर्ति वह मर्ति होती है, जो विविध आसनों में बैठी हुई निर्मित होती है। स्थानक से तात्पर्य ऐसी मूर्तियों से है, जो खड़े रूप में कल्पित होती है। शयान प्रतिमा सर्वत्र शयन, अर्थात् लेटी हुई निर्मित होती है। खिलाधिकार ने बारहवें अध्याय में इनकी चर्चा की है। यहां स्थानक, आसीन तथा शयान का लक्षण निर्देश करते हुए इनके अवान्तर भेदों का भी वर्णन किया गया है। स्थानक के भेदों को बताते हुए योगस्थानक, भोगस्थानक तथा वीरस्थानक के रूप में स्थानकों के तीन प्रकार वर्णित हैं। उसी प्रकार आसीन का भी योगासीन, भोगासीन तथा वीरासीन के रूप में तीन तरह का स्वरूप बताया गया है। शयन बेर भी योग, भोग तथा वीर के आधार पर तीन प्रकार का होता है। नगि । आराधन-क्रम के अनुसार भी प्रतिमाओं के अनेक भेद वर्णित हैं। जैसे— १. ध्रुवबेर, २. कौतुकबेर, ३. बलिबेर ४. उत्सवबेर तथा ५. स्नपनबेर । ध्रुवबेर वह प्रतिमा लोती है, जो स्थायी रूप से एक ही स्थान पर स्थापित होती है। उसमें भगवच्छक्तिप्रतिष्ठा के पश्चात् सामान्य रूप से आवाहन तथा विसर्जन का अवसर नहीं आता। उसकी स्थापना गर्भगृह के मध्य ब्रह्मस्थान में होती है। कौतुकबेर में नित्याराधन की प्रक्रिया सम्पादित होती है। बलिबेर का उपयोग भगवदाराधन के पश्चात् बलिप्रदान के लिये किया जाता है। यहां बलि से पशु आदि की हिंसारूप बलि नहीं समझना चाहिये। यहां अन्न को ही बलि मानकर बलिप्रक्रिया सम्पादित होती है। उत्सवबेर का उपयोग नित्य तथा नैमित्तक उत्सवों के अवसर पर किया जाता है। उत्सव के क्रम में उत्सवबेर में विशिष्ट आराधन तथा वीधि-भ्रमण आदि के प्रसंग में उसका उपयोग होता है। स्नपनबेर का उपयोग उत्सव तथा अन्य विशिष्ट अवसरों में भगवत्-स्नपन के लिये किया जाता है। यद्यपि यह विषय अत्यन्त विस्तारपूर्वक वर्णित है, फिर भी इन बेरों के संक्षेप में ये ही उपयोग बताये गये हैं। जन प्रतिमाओं के भेद-क्रम में चित्र, चित्रार्ध तथा चित्राभास के रूप में तीन तरह के ध्रुवबेर कहे गये हैं। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा अधम कहा गया है। विमानार्चनकल्प, समूर्तार्चनाधिकरण तथा काश्यप-ज्ञानकाण्ड में यह विषय अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रतिपादित है। यहां हमें इन तीनों के स्पष्ट लक्षण आदि मिलते हैं। सर्वावयवपूर्ण मानोन्मानप्रमाणलक्षणयुक्त बेर चित्रबेर कहा गया है। जिस बेर का सर्वांग आधा दृष्टिगोचर हो, वह अर्थ चित्रबेर कहा जाता है। पट, कुड्य आदि पर लिखा गया चित्राभास के नाम से पुकारा जाता है। चित्राभास भी चल तथा अचल भेद से दो प्रकार का कहा गया है। भित्ति पर लिखा गया चित्राभास अचल तथा पटादि पर लिखा गया चित्राभास चल कहा गया है। कीमतन्त्रागम-खण्डता
तालमान और अंगुलमान-
वैखानस आगम के ग्रन्थों में बेर से सम्बद्ध मान का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत दस, नौ, अष्ट, सप्त, षट्, चतुः, त्रि तालों के पृथक्-पृथक् वर्णन मिलते हैं। तालमान के अलावा अंगुलमान आदि प्राचीन भारतीय मानों का स्पष्ट वर्णन दृष्टिगोचर होता है। प्रतिमानिर्माण के क्रम में इन मानों का उपयोग अत्यन्त आवश्यक होता है। इसी के आधार पर प्रतिमा के एक-एक अंग का मान निर्धारित कर मनोहारी प्रतिमा का निर्माण संभव हो पाता है। इसके अभाव में आकर्षक शास्त्रसंमत प्रतिमा-कल्पन सर्वथा असंभव है। अतः इस आगम के प्रतिपाद्य विषयों में मान का विशेष । महत्त्व कहा गया है। मित
उपादान द्रव्य-
विविध वैखानस आगम-ग्रन्थों में प्रतिमा-निर्माण के लिये अपेक्षित आवश्यक उपादान द्रव्यों का अतिविस्तार से वर्णन किया गया है। प्रकीर्णाधिकार में शैलजं रत्नजं चैव धातुजं दारवं तथा । मृण्मयं स्यात् तथैवेति पञ्चधा बेरमुच्यते ।। - कहते हुए प्रतिमोपादान द्रव्य के रूप में शिला, रत्न, धातु, दारु तथा मृत् ये पांच उपादान द्रव्य बताये गये हैं। पुनः शिला के चार, रत्न के सात, धातु के आठ, दारु के सोलह तथा मृत् के दो आन्तरिक भेद कहे गये हैं। शिलाएं वारुणी, माहेन्द्री, आग्नेयी तथा वायवी भेद से चार प्रकार की कही गई हैं। लिंग के आधार पर पुंलिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक रूप में शिला के तीन भेद कहे गये है। विमानार्चनकल्प ने गिरिजा, भूमिजा तथा वारिजा के रूप में पुनः शिला के तीन भेद बताये हैं। इन विविध भेदों के साथ प्रतिमा-निर्माण के लिये कुछ ग्राह्य तथा कुछ वर्ण्य शिलायें बताई गई हैं। उपर्युक्त विविध शिलाओं के लक्षण आदि का वर्णन भी हम वैखानस आगम ग्रन्थों में देखते हैं। सात रत्नों के अन्तर्गत माणिक्य, प्रवाल, वैडूर्य, स्फटिक, मरतक, पुष्पराग तथा नील का परिगणन किया गया है। आठ धातुओं के अन्तर्गत आने वाले द्रव्य हैं- हेम, रूप्य, ताम्र, कांस्य, आरकूट, आयस, सीस तथा त्रपु। इन उपादान द्रव्यों में एक-एक के द्वारा निर्मित प्रतिमा का पृथक्-पृथक् फल बताया गया है। सोलह प्रकार की दारुओं में देवदारु, शमीवृक्ष, पिप्पल, चन्दन, असन, खदिर, बकुल, शंखिवातन, मयूर, पद्म, डुण्डूक, कर्णिकार, निम्ब, कांजनिक, प्लक्ष तथा उदुम्बर का परिगणन किया गया है। मृत् पक्व तथा अपक्व के भेद से दो प्रकार की कही गई है। इस प्रसंग में बेर-विशेष के लिये ग्राह्य उपादान द्रव्य-विशेष का भी निर्धारण किया गया है। जैसे प्रकीर्णाधिकार के अनुसार रत्नों के द्वारा केवल कौतुक बेरों का ही निर्माण विहित है। ध्रुवबेर के लिये ताम्र, शिला तथा दारु को ग्राह्य उपादान - द्रव्य कहा गया है। पक्षान्तर में मृत् के द्वारा भी ध्रुवबेर का निर्माण विहित है। जागा
प्रतिमानिर्माण की विधि-
उपर्युक्त विषयों के अलावा वैखानस आगम ग्रन्थों में प्रतिमाओं के निर्माण की विधियां भी वर्णित हैं। इसके अन्तर्गत मधूच्छिष्ट-क्रिया तथावैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय प्रलम्बफलक आदि विधियों का विस्तार से निर्देश देखा जा सकता है। विषय-विस्तार-भय के कारण इन विषयों का यहाँ पूर्ण विवरण देना संभव नहीं है। कार कायली लिया | मूर्तिनिर्माण-क्रम में देव-प्रतिमाओं की कल्पन-प्रक्रिया के साथ तत्तद् देवियों के स्वरूप तथा उनकी प्रतिमाओं के निर्माण की प्रक्रिया का भी यथास्थान स्पष्ट तथा विस्तृत वर्णन किया गया है। देवियों के रूपादि देवों के अनुरूप पृथक्-पृथक् कहे गये हैं। वैखानस आगम ग्रन्थों में ध्रुवकौतुक आदि बेरों के पीठों के स्वरूप आदि के साथ उनके निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन भी किया गया है। साथ ही प्रतिमाओं के प्रभामण्डल-निर्माण की विधि को भी स्पष्ट रूप से बताया गया है। की जान जा
अर्चनोपयोगी पात्र आदि-
प्रतिमा-निर्माण से सम्बद्ध विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के पश्चात् विमानार्चनकल्प ने भगवदर्चनोपयोगी पात्र आदि के निर्माण की प्रक्रिया का विस्तार पूर्वक निर्देश किया है। इन पात्रों में मुख्य रूप से आवाहनपात्र, पाद्य-आचमनोदकपात्र, पुष्पपात्र, गन्धपात्र, धूपपात्र, दीपपात्र, घण्टापात्र, महाघण्टापात्र, अर्घ्यपात्र, हविष्पात्र, पानीयपात्र, ताम्बूलपात्र, दर्वी, त्रिपादिका, पादोदकपात्र, आचमनपात्र, गण्डिका, सहस्रधारापात्र, शंखनिधि, पद्मनिधि, दीपाधारपात्र, दीपाधारप्रतिमा, दीपमाला, करदीपपात्र, नीराजनपात्र, दर्पण, पादुका, जलद्रोणी, यवनिका, तरंग, स्तम्भवेष्टन, वितान, ध्वज, पताका, छत्र, पिच्छ, जिनच्छत्र, वर्षच्छत्र, चामरदण्ड, मयूरव्यजनदण्ड, क्षौमादिव्यजन, शिबिका, रथ, खट्वा, उपधान, पुष्पफलक, आसनविष्टर, स्नानविष्टर, भेरिका, कर्बिकाफलक, उलूखल, मुसल, दात्र, पेषणीयन्त्रिका आदि का विस्तारपूर्वक मान, प्रमाण, स्वरूप, उपादानद्रव्य तथा निर्माण की प्रक्रिया का विवरण दिया गया है। इनके विवरण के पश्चात् भगवद् आभरण जैसे मुकुट आदि अनेकविध आभूषणों के कल्पन की चर्चा की गई है। ६ मा उपर्युक्त क्रम से वैखानस आगम ग्रन्थों ने आलय अथवा गृहपूजा के लिये अपेक्षित । सभी पात्र आदि के निर्माण की प्रक्रिया का स्पष्ट तथा विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। HIER TEEB F कि जिगह माना कि
वैखानसागम का चर्यासम्बद्ध विषय
चर्या से वैष्णवागम ग्रन्थों में सामान्यतः ऐसे विषय विवक्षित हैं, जिन्हें हम साधारणतः रूपूजा-अर्चा तथा अनुष्ठान के रूप में जानते हैं। इस तरह की पूजा-अर्चा का अवसर आलयार्चा या गृहार्चा उभयत्र सर्वदा आता ही रहता है। जैसे आलय-निर्माणार्थ भूमि संशोधन तथा अंकुरार्पण-क्रम में विविध देवताओं का अर्चन चर्या के अन्तर्गत आ सकता - है। उसके पश्चात् आलय-निर्माण से पूर्व वास्तुपुरुष तथा उससे सम्बद्ध देवताओं की पूजा-अर्चा का विषय भी चर्यान्तर्गत है। आलय-निर्माण के क्रम में इष्टका न्यास तथा तलादि न्यास पूजा-अर्चा के साथ ही सम्पादित होते हैं। प्रतिमा की आलय में प्रतिष्ठा तथा उससे पूर्व की जाने वाली अक्ष्युन्मोचन तथा अधिवासादि क्रिया के साथ विविध पूजा-अर्चा की प्रक्रिया से सम्बद्ध है। ये सभी चर्या के अन्तर्गत हैं।
चर्या-
आलय में भगवत्प्रतिष्ठा के अनन्तर अनवरत चलने वाली भगवत् आराधन प्रक्रिया को मुख्य रूप से चर्या का विषय कहा जा सकता है। इसके अन्तर्गत प्रथम नित्यार्चन को लिया जा सकता है। द्वितीय क्रम में विविध नैमित्तिकार्चनों को स्वीकार किया जा सकता है। अर्चक प्रातःकाल स्नानादि नित्य कृत्य से निवृत्त होकर भगवदालय-द्वार का उद्घाटन करता है और देवाराधन की क्रियाओं में लग जाता है। इस प्रसंग में वह स्थानक आदि मूर्तियों पर पुष्पन्यास, कौतुकबेर में आवाहन, मधुपर्क निवेदन, प्रणामाञ्जलि निवेदन आदि करता हुआ पूजा सम्पादित करता है। ये पूजायें षोडशोपचारादि रूप में अनेकविध कही गई हैं। इसके अन्तर्गत बहुविध अन्यान्य विषय भी वर्णित हैं। जैसे अर्चनार्ह पुष्प, हविष्, महाहविष्, षड्विधहविष्-लक्षण, ग्राह्य तथा वर्ण्य हविष् आदि। इस क्रम में एकबेरार्चन, नवविध अर्चन तथा अर्चन का उत्तम, मध्यम एवं अधमादि स्वरूप भी वर्णित है। इस तरह प्रातःकाल से रात्रि पर्यन्त भगवान् की शयनक्रिया सम्पादित होने से सम्बद्ध सम्पूर्ण अर्चनविषय नित्यार्चन के अन्तर्गत स्वीकार्य हैं। वागण उपर्युक्त नैत्यिक अर्चन के अलावा नैमित्तिक अर्चन के अनेक अवसर निर्दिष्ट हैं। इसे विशेष पूजा-अर्चा-विधान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इस प्रसंग में विमानार्चन कल्प तथा अन्यान्य वैखानस आगम ग्रन्थों ने विविध विशिष्ट अर्चनों का निर्देश किया है। जैसे—१. मार्गशीर्ष द्वादशी पूजा, २. चैत्रमास पूजा, ३. माघमास पूजा, ४. पुनर्वसु पूजा, ५. फाल्गुनमास पूजा, ६. उत्तराफाल्गुनी पूजा, ७. लक्ष्मी पूजा, ८. चैत्रमास पूजा, ६. वैशाखमास पूजा, १०. रेवतीनक्षत्र में महादेवी सहित देवपूजा, ११. विशाखा पूजा, १२. जेष्ठमास पूजा, १३. आषाढमास पूजा, १४. श्रावणमास पूजा, १५. प्रौष्ठपद पूजा, १६. आश्वयुजमास पूजा, १७. कार्तिकमास पूजा, १८. कृत्तिका दीपोत्सव तथा विविध विशिष्ट अवसरों पर सम्पादित होने वाली उत्तम, मध्यम तथा अधम स्नपन विधियां, ब्रह्मोत्सव तथा उसके अन्तर्गत आने वाले विविध उत्सव, उत्सव काल, उत्सवारंभ में सम्पादित होने वाली क्रियाएं, उत्सवाधिदेव, उत्सवांग होम, पुष्पयाग आदि विशेष अर्चनों में होने वाले सभी प्रधान तथा अप्रधान पूजाविषय नैमित्तिकार्चन के अन्तर्गत आते हैं। इन सभी पूजा-अर्चाओं को चर्या के अन्तर्गत स्वीकार किया जा सकता है। उपर्युक्त पूजाप्रधान क्रियाओं के अलावा सभी वैखानस आगम ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक अनेकविध प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है। प्रायश्चित्त भी पूजा-अर्चा के माध्यम से ही सम्पन्न होते हैं। अर्थात् देवालय-कल्पन से प्रारंभ कर नित्यार्चन तथा नैमित्तिकार्चन के सम्पादन के प्रसंग में ज्ञात या अज्ञात रूप से हुए दोषों, अर्थात् अर्चनादि क्रियाओं में हुई न्यूनताओं के परिमार्जन के लिये प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। ये दोष भूसंग्रह, अंकुरार्पण, भूशोधन, आलयनिर्माणसम्बद्ध तत्तत्-क्रियाओं, आलयनिर्माणार्थ स्वीकृत विविध उपादान द्रव्यों, बिम्बकल्पन एवं उससे सम्बद्ध अनेकविध उपादान द्रव्यादि में हुई अनवस्थाओं से सम्बद्ध हो सकते हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण नैत्यिक तथा नैमित्तिक वैखानस सम्प्रदाय : सामान्य परिचय पूजन-अर्चन एवं उत्सवादि में हुई न्यूनताओं तथा अव्यवस्थाओं से हुए दोषों के परिमार्जन के लिये भी दोष के अनुरूप विस्तारपूर्वक प्रायश्चित्तों का विधान चर्या के अन्तर्गत आ सकता है। यह प्रायश्चित्त विषय निश्चित रूप से श्रौतयाग-प्रक्रिया में प्रायश्चित्तों से प्रभावित कहा जा सकता है। जिसका का अत्यन्त संक्षेप में यही वैखानस-आगम में प्रतिपादित विषयों का स्वरूप है। प्रकृत संदर्भ में विस्तारभय से इनका वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर भी वैखानस आगम के विषयों के जिज्ञासु व्यक्ति के लिये उक्त वर्णन यथेष्ट कहा जा सकता है।। नया साप्पोबार शासक निजी माजी निकाला गया यह हमारा कामी किमडी, सहक शाम पाणवायुनाम मिल का विजन पर मन आदि गाव कि भारतीय सजी कि कसा सोनीटरियाका दिन को निशानामा बागवानी मिलाकर विगत का किनारय निकपीस निजि विवाद का मा पर काम किया विशमा गणतनामा जिया समधाम का नाम विना विभाग ਝ ਨੀ # 51 ਕਰਵਾਕ ਇਨਸ E # पचिव शान के नागारमामाच्या मशागद नवी वाम
- पलाती गयी पिनास तानका ति पानी बहन शि हिनिल शिना भी