भारतीय धर्मग्रन्थों में “पुराण” शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम वेद माना है। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है। सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। माणिक वंशानुचरितान्येव पुराणं पंचलक्षणम्।। जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है। वैदिक परम्परा में पुराणों और उप-पुराणों का जैसा विभाग पाया जाता है वैसा जैन परम्परा में नहीं पाया जाता। परन्तु यहाँ जो भी पुराण-साहित्य विद्यमान है वह अपने ढंग का निराला है। जहाँ अन्य पुराणकार प्रायः इतिवृत्त की यथार्थता को सुरक्षित नहीं रख सके हैं वहाँ जैन पुराणकारों ने यथार्थता को अधिक सुरक्षित रखा है। इसीलिये आज के निष्पक्ष विद्वानों का यह स्पष्ट मत है कि प्राक्कालीन भारतीय संस्कृति को जानने के लिये जैन पुराणों से-उनके कथा ग्रन्थ से जो साहाय्य प्राप्त होता है, वह असामान्य है। __यहाँ कतिपय दिगम्बर जैन पुराणों और चरित्रों की सूची दी जा रही है, जिससे ज्ञात हो सकेगा कि वे कितने प्रकाश में आ गये हैं और कितने शास्त्र भण्डारों में अन्तर्निहित अर्थात् दबे पड़े हैं। नि ૨૨: ७०५ जैनदर्शन पुराण नाम कर्ता रचनाकाल १. पद्मपुराण - पद्म चरित । आचार्य रविषेण २. महापुराण - आदिपुराण आचार्य जिनसेन नौवीं शती ३. उत्तर पुराण गुणभद्र १०वीं शती अजित पुराण अरुणमणि १७१६ आदिपुराण (कन्नड़) कवि पंप आदिपुराण भट्टारक चन्द्रकीर्ति ___ १७वीं शती ७. आदिपुराण भट्टारक सकलकीर्ति १५वीं शती उत्तरपुराण भ० सकलकीर्ति १५वीं शती कर्णामृत पुराण केशवसेन १६०८ जयकुमार पुराण ब्र० कामराज १५५५ ११. चन्द्रप्रभपुराण कवि अगासदेव गि– वह भी १२. चामुण्ड पुराण (क०) चामुण्डराय श० सं० १५० १३. धर्मनाथ पुराण (क०) कवि बाहुबली १४. नेमिनाथ पुराण ब्र० नेमिदत्त १५७५ के लगभग १५. पद्मनाभपुराण भट्टारक शुभचन्द्र १७वीं शती १६. पउमचरिउ (अपभ्रंश) चतुर्मुख देव जिर हामा १७. पउमचरिउ स्वयंभूदेव १८. पद्मपुराण भ० सोमतेन १६. पद्मपुराण भ० धर्मकीर्ति १६५६ मा विराजका २०. पद्मपुराण (अपभ्रंश) कवि रइथू १५-१६ शती २१. पद्मपुराण शनि भ० चन्द्रकीर्ति १७वीं शती २२. पद्मपुराण मानी जो ब्रह्म जिनदास ।। १३-१६ शती २३. पाण्डव पुराण कि तमाशा भ० शुभचन्द्र प १६०८ का एक २४. पाण्डव पुराण (अपभ्रंश) - भ० यशकीर्ति वाई १४६७ मीनिक २५. पाण्डव पुराण की जान भ० श्रीभूषण इन १६५८ गि २६. पाण्डव पुराण वादिचन्द्र नाम लि २७. पार्श्वपुराण (अपभ्रंश) पद्मकीर्ति म २८. पार्श्वपुराण कवि रइधू १५-१६ शती २६. पार्श्वपुराण चन्द्रकीर्ति १६५४ १६५८ ६८ मा नि मा २२६ ६१० जैन पुराण साहित्य ३०. पार्श्वपुराण वादिचन्द्र ३१. महापुराण आचार्य मल्लिषेण ११०४ . ३२. महापुराण (अपभ्रंश) महाकवि पुष्पदन्त का – काम किया गया ३३. मल्लिनाथपुराण (क) नानी कवि नागचन्द्र ३४. पुराणसार श्रीचन्द्र ३५. महावीरपुराण (वर्धमान चरित) असग ६१० ३६. महावीर पुराण भ० सकलकीर्ति १५वीं शती ३७. मल्लिनाथ पुराण सकलकीर्ति १५वीं शती ३८. मुनिसुव्रत पुराण ब्रह्म कृष्णदास ३६. मुनिसुव्रत पुराण भ० सुरेन्द्रकीर्ति ४०. वागर्थसंग्रह पुराण कवि परमेष्ठी आ० जिनसेन के महापुराण से प्राक् ४१. शान्तिनाथ पुराण असग ४२. शान्तिनाथ पुराण भ० श्रीभूषण की १६५६ ४३. श्रीपुराण भ० गुणभद्र ४४. हरिवंशपुराण पुन्नाट संघीय जिनसेन श० सं० ७०५ ४५. हरिवंशपुराण (अपभ्रंश) लड़ स्वयंभूदेव ४६. हरिवंशपुराण तदैव मह चतुर्मुख देव ४७. हरिवंशपुराण तक कि ब्रह्म जिनदास पाल जि १५-१६ शती ।। ४८. हरिवंशपुराण तदैव विवि भ० यशःकीर्ति १५०७ ४६. हरिवंशपुराण भ० श्रुतकीर्ति १५५२ मा ५०. हरिवंशपुराण महाकवि रइधू कशा १५-१६ शती काम ५१. हरिवंशपुराण भ० धर्मकीर्ति १६७१ ५२. हरिवंशपुराण कवि रामचन्द्र १५६० के पूर्व __ इनके अतिरिक्त चरित-ग्रन्थ हैं, जिनकी संख्या पुराणों की संख्या से अधिक है और जिनमें वराङ्गचरित, जिनदत्तचरित, जम्बूस्वामीचरित, जसहर चरिउ, नागकुमार चरिउ, आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें रविषेण का पद्मपुराण, जिनसेन का महापुराण (आदिपुराण), गुणभद्र का उत्तर पुराण और पुन्नाट संघीय जिनसेन का हरिवंश पुराण विश्रुत और सर्वश्रेष्ठ पुराण माने जाते हैं, क्योंकि इनमें पुराण का पूर्ण लक्षण घटित होता है। इनकी रचना पुराण और काव्य दोनों की शैली से की गई है। २३० जैनदर्शन
(१) आदिपुराण
__ आचार्य जिनसेन (६वीं शती) द्वारा प्रणीत आदि (प्रथम) तीर्थंकर ऋषभदेव तथा उनके सुयोग्य एवं विख्यात पुत्र भरत एवं बाहुबली के पुण्य चरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति तथा इतिहास के मूल स्रोतों एवं विकास क्रम को आलोकित करनेवाला अन्यत्र मह वपूर्ण पुराण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के जानने के लिये इसका अध्ययन अनिवार्य है। यह पुराण ग्रन्थ के साथ एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से यह धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सिद्धान्तशास्त्र और आर्षग्रन्थ भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादक होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव सभ्यता का विकास-क्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, धर्म विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गई है। संस्कृत एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिये यह मार्गदर्शक रहा है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में “तदुक्तं आर्षे” इन महत्त्वपूर्ण शब्दों के साथ उदाहरण देते हुए अपने ग्रन्थों की गरिमा वृद्धिंगत की है। वास्तव में आदिपुराण संस्कृत साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न हो। यह पुराण है, महाकाव्य है, धर्मशास्त्र है, राजनीतिशास्त्र है, आचार शास्त्र है और युग की आद्य व्यवस्था को बतलाने वाला महान् इतिहास है। ___ आचार्य जिनसेन ने इस ग्रन्थ को “महापुराण" नाम से रचने का संकल्प किया था। परन्तु असमय में जीवन समाप्त हो जाने से उनका वह संकल्प पूर्ण नहीं हो सका। यह आदिपुराण महापुराण का पूर्व भाग है। इससे इसका दूसरा नाम “पूर्वपुराण" भी प्रसिद्ध है। इसकी प्रारम्भ के ४२ पर्वो और ४३वें पर्व के ३ श्लोकों तक की रचना आयार्य जिनसेन के द्वारा हुई है। उनके द्वारा छोड़ा गया शेषभाग उनके प्रबुद्ध शिष्य आचार्य गुणभद्र के द्वारा रचा गया है, जो “उत्तर पुराण” नाम से प्रसिद्ध है।
पुराणकथा और कथानायक
महापुराण के कथा नायक मुख्यतया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ हैं और सामान्यतया त्रिषष्टिशलाका पुरुष हैं। २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ नारायण, ६ बलभद्र और ६ प्रतिनारायण ये ६३ शलाका पुरुष कहलाते हैं। इनमें से आदिपुराण में प्रथम तीर्थकर श्री वृषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का ही वर्णन है। अन्य शलाकापुरुषों का वर्णन गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराण में है। आचार्य जिनसेन ने जिस रीति से प्रथम तीर्थकर और भरत चक्रवर्ती का वर्णन किया है, यदि वह जीवित रहते और उसी रीति से अन्य कथानायकों का वर्णन करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों और काव्यों में महान् होता। जैन पुराण साहित्य २३१ भगवान् वृषभदेव इस अवसर्पिणी (अवनति) काल के २४ तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमि की रचना का प्रारम्भ होनेवाला था, उस सन्धि काल में अयोध्या के अन्तिम कुलकर-मनु श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ। आप जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धारी थे। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद जब बिना बोये उपजने वाली धान का उपजना भी बन्द हो गया तब लोग भूख-प्यास से व्याकुल हो श्री नाभिराज के पास पहुँचे। नाभिराज शरणागत लोगों को श्री वृषभदेव के पास ले गये। लोगों की करुणदशा देख उनकी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो गयी। उन्होंने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भी भरतक्षेत्र में असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प-इन षट्कर्मों का उपदेश कर उस युग की व्यवस्था को सुखदायक बनाया। पिता नाभिराज के आग्रह से उन्होंने कच्छ एवं महाकच्छ राजाओं की बहनों-यशस्वती और सुनन्दा के साथ विवाह किया। उन्हें यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री की प्राप्ति हुई और सुनन्दा से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री की उपलब्धि हुई। गार्हस्थ धर्म का निर्वाह किया। जीवन के अन्त में उन्होंने प्रव्रज्या-गृहत्याग कर तपस्या करते हुए कैवल्य प्राप्त किया तथा संसार-सागर से पार करनेवाला पारमार्थिक (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया। तृतीय काल में जब तीन वर्ष आठ माह और १५ दिन बाकी थे, तब कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया।
(२) उत्तरपुराण
पहले कहा जा चुका है कि महापुराण का पूर्वार्द्ध आदिपुराण तथा उत्तरपुराण उत्तर भाग है। उत्तरपुराण में द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक २३ तीर्थंकरों, भरत को छोड़कर शेष ११ चक्रवर्तियों, ६ बलभद्रों, ६ नारायणों और ६ प्रतिनारायणों का चरित्र चित्रण है। यह ४३ वें पर्व के चौथे श्लोक से लेकर ४७वें पर्व तक गुणभद्राचार्य के द्वारा रचित है। गुणभद्राचार्य ने प्रारम्भ में अपने गुरु जिनसेनाचार्य के प्रति जो श्रद्धा-सुमन प्रकट किये हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। आठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों को छोड़कर अन्य तीर्थकरों के चरित्र यद्यपि अत्यन्त संक्षेप में लिखे गये हैं, परन्तु वर्णन शैली की मधुरता से वह संक्षेप भी रुचिकर प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ में न केवल पौराणिक कथानक ही है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं, जिनमें सिद्धान्त की दृष्टि से सम्यग्दर्शनादि का और दार्शनिक दृष्टि से सृष्टि कर्तृत्व आदि विषयों का भी विशेष विवेचन हुआ है। हमारे ग इसकी रचना वङ्कापुर में हुई थी। यह वंकापुर स्व० पं० भुजबली शास्त्री के उल्लेखानुसार पूना, बेंगलूर रेलवे लाइन में हरिहर स्टेशन के समीप वर्ली हावेरी रेलवे२३२ जैनदर्शन जंक्शन से १५ मील पर धारवाड़ जिले में है। वहाँ शक संवत् ८१६ में गुणभद्राचार्य ने इसे पूरा किया थ। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने ६७ और उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य ने १६ संस्कृत छन्दों का प्रयोग किया है। ३२ अक्षर वाले अनुष्टुप् श्लोक की अपेक्षा आदिपुराण और उत्तरपुराण का ग्रन्थ परिमाण बीस हजार के लगभग है। उत्तरपुराण की प्रस्तावना में इसका परिमाण स्पष्ट किया है। यह कि आ शलाकापुरुषों के सिवाय उत्तर पुराण में लोकप्रिय जीवन्धर स्वामी का भी चरित्र दिया गया है। अन्त में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का वर्णन एवं महावीर स्वामी की शिष्य-परम्परा का भी वर्णन विशेष ज्ञातव्य है। कि उत्तरपुराण के भी सुसम्पादित एवं सानुवाद तीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके भी संपादक और अनुवादक डा० (पं०) पन्नालाल साहित्याचार्य सागर हैं. जो स्वयं इस लेख के लेखक हैं।
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय
ये दोनों ही आचार्य उस पञ्चस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पञ्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। गां जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर ४० हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। सिम का कि मोर । संस्कृत महाकाव्य जगत् में इनका यह “पार्वाभ्युदयमहाकाव्य" एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें समस्यापूर्ति के रूप में महाकवि कालिदास के समग्र मेघदूत को बड़ी कुशलता से समाहित करके २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र चित्रण किया गया है और अपनी विलक्षण प्रतिभा का दिग्दर्शन किया गया है। ____ पुराणजगत् में आचार्य जिनसेन का आदिपुराण और उनके साक्षात् शिष्य आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण-ये दोनों अत्यन्त प्रसिद्ध पुराण-ग्रन्थ हैं। गुणभद्र की अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों में आत्मानुशासन और जिनदत्तचरित्र विशेष उल्लेखनीय एवं विश्रुत हैं। जैन पुराण साहित्य २३३
हरिवंशपुराण
__आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन से भिन्न पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन का हरिवंश पुराण दिगम्बर सम्प्रदाय के कथा साहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखता है। यह विषय-विवेचना की अपेक्षा तो विशेषता रखता ही है, प्राचीनता की अपेक्षा भी संस्कृत कथाग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान ठहरता है। पहला रविषेणाचार्य का पद्मपुराण, दूसरा जटासिंहनन्दि का वरांगचरित और तीसरा जिनसेन का यह हरिवंशपुराण है। हरिवंशपुराण और महापुराण दोनों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि महापुराणकार ने हरिवंशपुराण को देखने के बाद उसकी रचना की है। हरिवंशपुराण में तीन लोकों का, संगीत का तथा व्रत विधान आदि का जो बीच-बीच में विराट वर्णन किया गया है उससे कथा के सौन्दर्य की हानि हुई है। इसलिये महापुराण में उन सबके विस्तृत वर्णन को छोड़कर प्रसंगोपात्त संक्षिप्त ही वर्णन किया गया है। काव्योचित भाषा तथा अलंकार की विच्छित्ति भी हरिवंश की अपेक्षा महापुराण में अत्यन्त परिष्कृत है।
हरिवंशपुराण का आधार
जिस प्रकार सेनसंघीय जिनसेन के महापुराण का आधार परमेष्ठी कवि का “वागर्थसंग्रह” पुराण है, उसी प्रकार हरिवंश का आधार भी कुछ-न-कुछ अवश्य रहा होगा। हरिवंश के कर्ता जिनसेन ने प्रकृत ग्रन्थ के अन्तिम सर्ग में भगवान् महावीर से लेकर ६८३ वर्ष तक की और उसके बाद अपने समय तक की विस्तृत अविच्छिन्न परम्परा की लेखा दी है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इनके गुरु कीर्तिषेण थे और संभवतया हरिवंश की कथावस्तु उन्हें उनसे प्राप्त हुई होगी। का वर्णनशैली को देखते हुए ऐसा लगता है कि जिनसेन ने रविषेण के पद्मपुराण को अच्छी तरह देखा है। पद्यमय ग्रन्थों में गद्य का उपयोग अन्यत्र देखने में नहीं आया। परन्तु जिस प्रकार रविषेण ने पद्मपुराण में वृत्तानुबन्धी गद्य का उपयोग किया है उसी प्रकार जिनसेन ने भी हरिवंश के ४६वें नेमि जिनेन्द्र का स्तवन करते हुए वृत्तानुबन्धीगद्य का उपयोग किया है। हरिवंश का लोकविभाग एवं शलाकापुरुषों का वर्णन आचार्य यतिवृषभ की “तिलोयपण्णत्ती” से मेल खाता है। द्वादशांग का वर्णन तत्त्वार्थवार्तिक के अनुरूप है, संगीत का वर्णन भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से अनुप्राणित है और तत्त्वों का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि के अनुकूल है। इससे जान पड़ता है कि आचार्य जिनसेन ने उन सब ग्रन्थों का अच्छी तरह आलेख किया है। तत्तत् प्रकरणों में दिये गये तुलनात्मक टिप्पणों से उक्त बात का निर्णय सुगम है। हाँ, क्रमविधान, समवसरण तथा जिनेन्द्र विहार किससे अनुप्राणित है, यह निर्णय मैं नहीं कर सका। में २३४ जैनदर्शन
हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन
हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेन पुन्नाट संघ के थे। ये महापुराण के कर्ता जिनसेन से भिन्न हैं। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण और दादा गुरु का नाम जिनसेन था। महापुराण के कर्ता जिनसेन के गुरु वीरसेन और दादा गुरु आर्यनन्दी थे। पुन्नाट कर्णाटक का प्राचीन नाम है। इसलिये इस देश के मुनि संघ का नाम पुन्नाट संघ था। जिनसेन के जन्म स्थान, माता-पिता तथा प्रारम्भिक जीवन के कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है। गृहविरत पुरुष के लिये इन सबके उल्लेख की आवश्यकता भी नहीं है।
हरिवंशपुराण का रचना स्थान और समय
हरिवंशपुराण की रचना का प्रारम्भ वर्धमानपुर में हुआ और समाप्ति दोस्तटिका के शान्तिनाथ जिनालय में हुई। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का प्रसिद्ध शहर वडवाण जान पड़ता है। वडवाण से गिरिनगर को जानेवाले मार्ग में “दोत्ताडि” स्थान है। वही “दोस्ताडिका” है। हरिवंशपुराण के ६६वें सर्ग के ५२ और ५३ श्लोक में कहा गया है कि शक-संवत् ७०५ में, जब कि उत्तर दिशा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व की अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम की वीर जयवराह रक्षा करता था तब अनेक कल्याणों अथवा पुर के पार्श्वजिनालय में जो कि नन्नराज वसति के नाम से प्रसिद्ध था, यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया और पीछे चलकर दोस्तटिका की प्रजा के द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त शान्तिजिनेन्द्र के शान्तिपूर्ण गृह मन्दिर में रचा गया।
हरिवंशपुराण की कथावस्तु
- हरिवंशपुराण में पुन्नाट संघीय जिनसेनाचार्य प्रधान रूप से बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् का चरित्र लिखना चाहते थे। परन्तु प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी इसमें लिखे गये हैं। भगवान नेमिनाथ का जीवन आदर्श त्याग का जीवन है। वे हरिवंश-गगन के प्रकाशमान सूर्य थे। भगवान् नेमिनाथ के साथ उनके वंशज नारायण और बलभद्र पद के धारक श्रीकृष्ण तथा बलराम के भी कौतुकी वह चरित इसमें अंकित है। पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित इसमें बड़ी सुन्दरता के साथ अंकित किया गया है। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का चरित्र भी इसमें अपना पृथक् स्थान रखता है और बड़ा मार्मिक है।
४. पद्मपुराण
संस्कृत-साहित्य, सागर के समान विशाल है। जिस प्रकार सागर के भीतर अगणित रत्न विद्यमान हैं उसी प्रकार संस्कृत साहित्य सागर में पुराण, काव्य, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, दर्शन, नाटक, ज्योतिष और आयुर्वेद आदि रत्न विद्यमान हैं। प्राचीन संस्कृत-साहित्य जैन पुराण साहित्य २३५ में ऐसा कोई विषय नहीं है, जिस पर किसी ने कुछ न लिखा हो। वैदिक संस्कृत साहित्य तो विशालतम है ही, परन्तु जैन संस्कृत-साहित्य भी उसके अनुपात में अल्प प्रमाण होने पर भी उच्च कोटि का है। जैन साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें वस्तु स्वरूप का वर्णन काल्पनिक नहीं है और इसीलिये वह प्राणी मात्र का कल्याणकारी है। AMA
रामकथा-साहित्य
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इतने अधिक लोकप्रिय हुए हैं कि उनका वर्णन न केवल भारतीय-साहित्य में हुआ है अपितु भारतेतर देशों के साहित्य में भी सम्मान के साथ हुआ है। भारतीय साहित्य में जैन, वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी वह समान रूप से उपलब्ध है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओं एवं प्रान्तीय विविध भाषाओं में इसके ऊपर उच्च कोटि के ग्रन्थ विद्यमान हैं। इस पर पुराण, काव्य-महाकाव्य, नाटक-उपनाटक आदि भी अच्छी संख्या में उपलब्ध हैं। जिस किसी लेखक ने रामकथा का आश्रय लिया उसके नीरस वचनों में भी रामकथा ने जान डाल दी।
जैन रामकथा के दो रूप
जैन साहित्य में रामकथा की दो धाराएँ उपलब्ध हैं-एक विमलसूरि के प्राकृत “पउमचरिय" और रविषेण के संस्कृत पद्मचरित की तथा दूसरी गुणभद्र के “उत्तरपुराण” की। यहाँ हम वीर निर्वाण संवत् १२०४ अथवा विक्रम संवत् ७३४ में रविषेणाचार्य के द्वारा विरचित पद्मपुराण (पद्मचरित) की चर्चा कर रहे हैं। ध्यातव्य है कि जैन परम्परा में मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मान्यता त्रेसठ शलाकापुरुषों में है। उनका एक नाम पद्म भी था। जैनपुराणों एवं चरित काव्यों में यही नाम अधिक प्रचलित रहा है। जैन काव्यकारों ने राम का चरित्र पउमचरिउ, पउमचरियं, पद्मपुराण, पदमचरित आदि अनेक नामों से अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं में प्रस्तुत किया है। __ आचार्य रविषेण का प्रस्तुत पद्मपुराण संस्कृत के सर्वोत्कृष्ट चरित प्रधान महाकाव्यों में परिगणित है। पुराण होकर भी काव्यकला, मनोविश्लेषण, चरित्रचित्रण आदि में यह इतना अद्भुत है कि इसकी तुलना अन्य किसी पुराण से नहीं की जा सकती। काव्य लालित्य इसमें इतना है कि कवि भी अन्तर्वाणी के रूप में मानस-हिम-कन्दरा से विस्तृत यह काव्यधारा मानो साक्षात् मन्दाकिनी ही है। ____ विषयवस्तु की दृष्टि से कवि ने मुख्य कथानक के साथ-साथ विद्याधर लोक, अंजनापवनंजय, सुकुमाल, सुकौशल आदि राम समकालीन महापुरुषों का भी चित्रण किया है। उससे इसकी रोचकता इतनी बढ़ गई है कि एक बार पढ़ना प्रारम्भ कर छोड़ने की इच्छा नहीं होगी। पद्मचरित में वर्णित कथा निम्नांकित छह विभागों में विभाजित की गई २३६ जैनदर्शन है-१. विद्याधर काण्ड, २. राक्षस तथा वानर वंश का वर्णन, ३. राम और सीता का जन्म तथा विवाह, ४. वनभ्रमण, ५. सीता हरण और खोज, ५. युद्ध और ६. उत्तरचरित। इनका संक्षिप्त कथासार इस प्रकार है।
१. विद्याधर काण्ड
राजा श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी ने प्रारम्भ में विद्याधर, लोक, राक्षस वंश, वानर वंश और रावण की वंशावली का वर्णन किया है। राक्षसवंश के राजा रत्नश्रवा और केकसी के चार संतानें थीं -१. रावण, २. कुम्भकरण, ३. चन्द्रनखा और ४. विभीषण। जब रत्नश्रवा ने पहले-पहल रावण को देखा तो शिशु रावण के हार में रावण के दस शिर प्रतिबिम्बित दिखे। इसलिये उसका दशानन या दशग्रीव नाम रखा गया । अपने मौसेरे भाई का विभव देखकर रावण आदि भाई विद्याएँ सिद्ध करने के लिए जाते हैं और रावण अनेक विद्याएँ सिद्ध कर लौटता है। इसके बाद रावण मन्दोदरी आदि कन्याओं के साथ विवाह करता है और दिग्विजय में इन्द्रादि अनेक राजाओं को परास्त करता है। इस दिग्विजय-वर्णन में इन्द्र, यम, वरुण आदि देवता न होकर साधारण विद्याधर राजा थे। विजययात्रा में रावण ने नलकूबर की स्त्री का प्रेम प्रस्ताव ठुकराकर अपने आपको बहुत ऊँचे उठाया और केवली भगवान् जिनेन्द्र का उपदेश सुनकर प्रतिज्ञा करता है कि मैं उस पर नारी का उपभोग नहीं करूँगा, जो मुझे स्वयं नहीं चाहेगी। रावण इन्द्र का अहंकार चूर करता है। बालि का अहंकार रावण के आक्रमण से वैराग्य रूप में परिणत हो जाता है जिससे बालि विरक्त होकर दिगम्बरी दीक्षा ले लेता है और रावण-सुग्रीव को राजा बना देता है। हनुमान की यथार्थ उत्पत्ति और बाल-चेष्टायें सबको चकित कर देती है। हनुमान रावण की ओर से वरुण के विरुद्ध युद्ध करके चन्द्रबखा की पुत्री अनंगकुसुमा के साथ विवाह करता है। खरदूषण रावण की बहिन चन्द्रनखा से विवाह करता है। आगे दोनों से शम्बूक की उत्पत्ति होती है।
२. राम और सीता विवाह
___ इस प्रकरण में दशरथ तथा जनक की वंशावली के बाद प्रारंभ में दशरथ की तीन पत्नियों का उल्लेख है - १. कौशल्या, २. सुमित्रा और ३. सुप्रभा। एक दिन रावण को किसी से विदित हुआ कि मेरी मृत्यु राजा दशरथ और जनक की संतानों से होगी। तब रावण ने अपने भाई विभीषण को इनका वध करने के लिये भेजा। पर विभीषण के आने के पहले ही नारद ने इन दोनों राजाओं को सचेत कर दिया, जिससे वे अपने महलों में अपने शरीर के अनुरूप पुतले छोड़कर बाहर निकल जाते हैं। विभीषण पुतलों को ही जैन पुराण साहित्य २३७ सचमुच का राजा समझ मारकर तथा शिर को लवण समुद्र में फेंक हमेशा के लिये निश्चिन्त हो जाता है। परदेश भ्रमण के समय राजा दशरथ कैकयी के स्वयंवर में पहुंचते हैं। कैकयी दशरथ के गले में माला डालती है, इस पर अन्य राजा बिगड़ उठते हैं। फलस्वरूप उनके साथ दशरथ का युद्ध होता है।
- कैकयी वीरांगना थी, इसलिये स्वयं दशरथ का रथ चलाती थी। राजा दशरथ अपने पराक्रम और कैकयी की चातुरी से युद्ध में विजयी होते हैं तथा अयोध्या में वापस आकर राज्य करने लगते हैं। कैकयी की चतुराई से प्रसन्न होकर राजा दशरथ ने उसे मनचाहा वर माँगने को कहा और उसके वर को राज्यभाण्डार में सुरक्षित करा दिया। कैकयी समेत राजा दशरथ की चार रानियाँ हो जाती हैं। उनसे उनके चार पुत्र हुए। कौशल्या से राम, इन्हीं का दूसरा नाम पद्म था, सुमित्रा से लक्ष्मण, कैकयी से भरत और सुप्रभा से शत्रुघ्न ।
- राजा जनक की विदेहा रानी के एक पुत्री सीता और एक पुत्र भामण्डल हुआ। उत्पन्न होते ही प्रसूति गृह से एक पूर्वभव का बैरी भामण्डल का अपहरण कर लेता है। अपहरण के बाद भामण्डल एक विद्याधर को प्राप्त होता है। उसी के यहाँ उसका लालन-पालन होता है। नारद की कृपा से सीता का चित्रपट देखकर भामण्डल का उसके प्रति अनुराग बढ़ता है। छल से जनक को विद्याधर लोक में बुलाया जाता है। भामण्डल के पिता विद्याधर के आग्रह करने पर भी जनक भामण्डल के लिये पुत्री देना स्वीकार नहीं करता है क्योंकि वह पहले राजा दशरथ के पुत्र राम को देना स्वीकृत कर चुका था। निदान विद्याधर ने शर्त रखी कि यदि राम यह वज्रावर्त धनुष चढ़ा देते हैं तो सीता उन्हें प्राप्त होगी, अन्यथा हम अपने पुत्र के लिये बलात् छीन लेंगे। विवश होकर जनक ने यह शर्त स्वीकृत कर ली। स्वयंवर हुआ और राम ने उस धनुष को चढ़ा दिया। सीता के साथ राम का विवाह हुआ। दशरथ संसार से विरक्त हो जब राम को राज्य देने लगे तब कैकयी ने राजभाण्डार में सुरक्षित वर माँगकर भरत को राज्य देने की मांग की। यह सुनकर राम, लक्ष्मण और सीता के साथ दक्षिण दिशा की ओर चले गये। बीच में उन्होंने कितने ही भ्रष्ट राजाओं का उद्धार किया। कैकयी और भरत वन में जाकर राम से वापिस चलने का अनुरोध करते हैं, पर सब व्यर्थ होता है।
३. वनभ्रमण
इसमें राम-लक्ष्मण के अनेक युद्धों का वर्णन है। कहीं वज्रकर्ण को सिंहोदर के चक से बचाते हैं तो वालखिल्य को म्लेच्छ राजा के कारागृह से उन्मुक्त कराते हैं। कभी नर्तकी का रूप रखकर भरत के विरोध में खड़े हुए राजा अतिवीर्य का मानमर्दन करते हैं। इसी बीच में लक्ष्मण जगह-जगह राजकन्याओं के साथ विवाह करते हैं। दण्डक वन में वास करते हैं, मुनियों को आहार देते हैं तथा जटायु से संपर्क प्राप्त करते हैं। दि २३८ जैनदर्शन
४. सीता-हरण और खोज
चन्द्रनखा तथा खरदूषण का पुत्र शम्बूक सूर्यहास खड्ग की सिद्धि के लिये बारह वर्ष तक बांस के भिड़े में बैठकर तपस्या करता है। उसकी साधना स्वरूप उसे खड्ग प्रकट हुआ। लक्ष्मण संयोगवश वहाँ पहुँचते हैं और शम्बूक के पहले ही उस खड्ग को हाथ में लेकर उसकी परीक्षा करने के लिये उसी बांस के भिड़े पर चलाते हैं जिसमें शम्बूक बैठा था, फलतः शम्बूक मर हाता है। जब चन्द्रनखा भोजन देने के लिये उसके पास आयी तब उसकी मृत्यु देख बहुत विलाप करती है। निदान, वह राम-लक्ष्मण को देख उन पर मोहित होकर प्रेम प्रस्ताव करती है। पर जब उसे सफलता नहीं मिली तब वापस लौट पति से पुत्र के मरने का समाचार सुनाती है। खरदूषण के साथ लक्ष्मण का युद्ध होता है। खरदूषण के आह्वान पर रावण भी उसकी सहायता के लिये आता है। बीच में सीता को देख मोहित होता है और उसके अपहरण का उपाय सोचता है। वह विद्या बल से जान लेता है कि लक्ष्मण ने राम को सहायतार्थ बुलाने के लिये सिंहनाद का संकेत बनाया है। अतः रावण प्रपंचपूर्ण सिंहनाद से राम को लक्ष्मण के पास भेज देता है और सीता को अकेली देख हर ले जाता है। सीता हरण के बाद राम बहुत दुःखी होते हैं। सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता होती है। एक साहसगति नाम का विद्याधर सुग्रीव का मायामय रूप बनाकर सुग्रीव की पत्नी तथा राज्य पर अधिकार करना चाहता है। राम उसे मारते हैं, जिससे सुगीव अपनी पत्नी और राज्य पाकर राम का भक्त हो जाता है। सुग्रीव की आज्ञा से विद्याधर सीता की खोज करते हैं। रत्नजटी विद्याधर ने बताया कि सीता का हरण रावण ने किया है। रावण बड़ा बलवान था इसलिये सुग्रीव आदि विद्याधर उससे मुंह करने के लिये पीछे हटते हैं। पर उन्हें अनन्तवीर्य केवली की वचन याद आते हैं कि जो कोई कोटिशिला को उठावेगा उसी के हाथ से रावण का मरण होगा। लक्ष्मण ने कोटिशिला उठाकर अपनी परीक्षा दी, जिससे सुग्रीव आदि को विश्वास हो गया। तब सबके सब वानरवंशी विद्याधर रावण के विरुद्ध राम के पक्ष में खड़े हो गये। पवनंजय के पुत्र हनुमान राम का संवाद लेकर सीता के पास जाते हैं और सीता का संदेश लाकर राम के पास आते हैं।
५. युद्ध
___ सुग्रीव आदि विद्याधरों की सहायता से राम की रामरूप सेना लंका पहुँचती है। रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करता है। हनुमान आदि उसकी विद्यासिद्धि में बाधा डालने का प्रयत्न करते हैं। पर रावण अपनी दृढ़ता से विचलित नहीं होता और विद्या सिद्ध कर ही उठता है। विभीषण से रावण का संघर्ष होता है। फलतः विभीषण रावण का साथ छोड़कर राम से आ मिलता है। राम, विभीषण को लंका का राजा बनाने का संकल्प करते हैं। दोनों जैन पुराण साहित्य २३६ ओर से घमासान युद्ध होता है। लक्ष्मण को शक्ति लगती है पर विशल्या के स्नान जल से वह ठीक हो जाता है। विशल्या के साथ लक्ष्मण का अनुराग दृढ़ होता है। अन्त में रावण लक्ष्मण पर चक्क चलाता है पर वह प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मण के हाथ में आ जाता है और लक्ष्मण उसी चक्र से रावण का काम समाप्त करते हैं। लक्ष्मण प्रतिनारायण रावण का वध कर नारायण के रूप में प्रकट होते हैं।
६. उत्तरचरित
राम और लक्ष्मण तथा सीता लंका से अयोध्या लौट आते हैं। राम अयोध्या में राज्य करने लगते हैं। भरत विरक्त हो दीक्षा ले लेते हैं। शत्रुघ्न मथुरा के राजा हो जाते हैं। लोकापवाद से त्रस्त होकर राम गर्भवती सीता को वन में छुड़वा देते हैं। सीता राजा वज्रजंघ के आश्रम में रहती हैं। वहीं उसके लवण और अंकुश नामक दो पुत्र उत्पन्न होते हैं। बड़े होने पर लवण और अंकुश राम लक्ष्मण से युद्ध करते हैं। अन्त में नारद के निवेदन पर पिता-पुत्रों में मिलाप होता है। हनुमान तथा सुग्रीव आदि के कहने पर राम सीता को बुलाते हैं। ___ सीता अग्नि-परीक्षा देती है और उसके बाद दीक्षा ग्रहणकर आर्यिका हो जाती है। तथा सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र होती है। किसी दिन दो देव नारायण और बलभद्र का स्नेह परखने के लिये आते हैं और झूठमूठ ही लक्ष्मण से कहते हैं राम का देहान्त हो गया। उनकी बात सुनते ही लक्ष्मण की मृत्यु हो जाती है। भाई के स्नेह से विवश हो राम छह माह तक लक्ष्मण का शव लिये फिरते हैं। अन्त में कृतान्त सेनापति का जीव जो देव हुआ था, उसकी चेष्टा से वस्तुस्थिति को समझ लक्ष्मण की अन्त्येष्टि करते हैं और स्वयं तपश्चर्या कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
रविषेणाचार्य
पद्मपुराण के रचयिता आचार्य रविषेण हैं, इन्होंने अपने किसी संघ या गण, गच्छ का कोई उल्लेख नहीं किया और न स्थानादि की ही चर्चा की है। परन्तु सेनान्त नाम से अनुमान होता है कि सम्भवतः ये सेन संघ के होंगे। इनकी गुरु परम्परा के पूरे नाम इन्द्रसेन, दिवाकरसेन, आर्हत्सेन, और लक्ष्मणसेन है। इन्होंने इसी पद्मपुराण के १२३वें पर्व के १६वें श्लोक के उत्तरार्ध में अपनी गुरु परम्परा का समुल्लेख इस प्रकार किया है - आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनि स्तस्मात्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तुस्मृतः।। ___ अर्थात् इन्द्रगुरु के दिवाकर यति, दिवाकरयति के अर्हन्मुनि, अर्हन्मुनि के लक्ष्मणसेन और लक्ष्मणसेन का यह मैं रविषेण शिष्य हुआ। २४० जैनदर्शन ग्रन्थ समाप्ति का उल्लेख १२८वें पर्व के १८१वें श्लोक में इस प्रकार किया गया है द्विशताभ्यधिके समासहने समतीतेउर्द्धचतुर्थवर्षयुक्ते। जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धे चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ।। १८१।। अर्थात् जिनसूर्य भगवान् महावीर के निर्वाण होने के बाद १२०३ वर्ष ६ माह बीत जाने पर पद्ममुनि का यह चरित निबद्ध हुआ। अर्थात् इसकी रचना विक्रम संवत् ७३४ में हुई है। उत्तरवर्ती उद्योतनसूरि (वि० सं० ८३५), वरांगचरित के कर्ता जटिलमुनि (जटासिंहनन्दि) वि० सं० ८वीं शती ने रविषेण का स्मरण किया है। इसी प्रकार हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन (वि० सं० ८४०) ने भी हरिवंशपुराण में इनका विशेष स्मरण किया है। पद्मपुराण के आधार की चर्चा करते हुए रविषेण ने प्रथम पर्व के ४१-४२वें श्लोक में इस प्रकार उल्लेख किया है : साह वर्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थी गणेश्वरम्। माना कि इन्द्रभूतिं परिप्राप्तः सुधर्म धारिणीभवम् ।। १४१।। प्रेभवं क्रमतः कीर्तिं ततोऽनुत्तरवाग्मिनम्। लिखितं तस्य संप्राप्य खेर्यत्नोऽयमुद्गतः।। १४२॥ अर्थात् श्री वर्धमान नामक गौतम गणधर द्वारा कहा हुआ यह अर्थ (रामचरित) इन्द्रमुनि नामक गौतम गणधर से प्राप्त हुआ, फिर धारिणी के पुत्र सुधर्माचार्य को, फिर प्रभव को और फिर अनुत्तर वाग्म्मीश्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर आचार्य को प्राप्त हुआ। तदनन्तर उनका लिखा प्राप्त कर यह रविषेण का प्रयत्न प्रकट हुआ है। ____ ग्रन्थान्त में १२३६वें पर्व के १६६वें श्लोक में भी इन्होंने इसी प्रकार का उल्लेख किया निर्दिष्टं सकलैनतेन भुवनैः श्रीवर्धमानेन यत् तत्त्वं वासवभूतिना निगदितं जम्बोः प्रशिष्याय तत्। शिष्येणोत्तर वाग्मिना प्रकटितं पद्मस्य वृत्तं मुनेः कति रामना श्रेयः साधुसमाधिवृद्धिकरणं सर्वोत्तमं मङ्गलाम् ।। १६६॥ अर्थात् समस्त संसार के द्वारा नमस्कृत श्री वर्धमान जिनेन्द्र ने पद्ममुनि का जो चरित्र कहा था वही इन्द्रभूति गौतम गणधर ने सुधर्मा और जम्बू स्वामी के लिये कहा। वही आगे चलकर उनके शिष्य उत्तरवाग्मी-श्रेष्ठवक्ता श्रीकीर्तिधर मुनि के द्वारा प्रकट हुआ। पद्ममुनि का यह चरित कल्याण तथा साधुसमाधि की वृद्धि का कारण है और सर्वोत्तम मंगलरूप है। जैन पुराण साहित्य २४१
५. शान्तिनाथ पुराण
शान्ति-पुराण असगकवि की श्रेष्ठ एवं महत्त्वपूर्ण रचना है। इसके १६ सर्गों में सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ का पावन चरित्र अंकित किया गया है। प्रारम्भ में बारह सगों में उनके पूर्वभवों का वर्णन है। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि खान से निकला स्वर्ण पाषाण कितनी आंच सहकर खरा सोना बनता है। विदेह क्षेत्रस्थ वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी का राजा स्तिमित सागर अन्त में शान्तिनाथ तीर्थकर होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ। शान्तिनाथ तीर्थंकर, चक्रवर्ती और कामदेव इन तीन पदों के धारक थे। इनका जीवन चरित वैराग्यवर्धक एवं शान्तिदायक है। ____ असग कवि ने अपनी प्रथम रचना वर्धमान-चरित के बाद इस शान्तिपुराण की रचना की थी। जैसा कि ग्रन्थान्त में दी हुई प्रशस्ति के ७वें श्लोक से प्रकट होता है चरितं विरचय्य सन्मतीय सदलंकारविचित्रवृत्तबन्धम्। स पुराणमिदं व्ययत्त शान्तेरसगः साधुजनप्रमोहशान्त्यै।। कविवर असग ने वि० सं० ६१० में अपना महावीरचरित रचा था और उसके पश्चात् शान्तिनाथपुराण लिखा है। ऐसा प्रशस्ति से स्पष्ट अवगत होता है।
ਜਿਸ ਸ ਇਸ ਜ਼ਿਲ੍ਹਾ ਇਕ ਸ , ਲਾਲ ਝੜਜੀ ਜਥਾ ਵੀ ਹੈ ਜ ਦਾ ਹਰ ਲ ਭ ਜੀਵ ਨੂੰ ਨਿਊ ਇp T & ਸਿਲ ਹੀ ਜਾਣ ਦੇ ਕਾਰਨ ਵੀ ਸਿਰ ਲੈ ਚ ਕਿਰਨ ਚ ਨਿਕਲਣ ਲਈ ਇਸ ( ਲ ਲ ਲਾ ਬ Bਸ ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ
- ਜੋ ਇਸ
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- पुरस्कार, संस्कृत संस्थान द्वारा, वेमन शर्मा एवं विशिष्ट सम्मान आदि। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन आदि में विशिष्ट व्याख्यान, वार्ताएं। शताधिक शोध निबन्ध प्रकाशित, अमेरिका जापान थाईलैण्ड, श्रीलंका नेपाल आदि देशों की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक यात्रायें। अभिधम्मत्थसंगहो (पालि) विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि (महायान ग्रन्थ) अभिसमयालंकारवृत्तिः स्फुटार्थाः, रत्नावली, त्रिस्वभावनिर्देश बोधिचर्यावतार, बौद्धसिद्धान्तसार जैसे ३६ ग्रन्थों का लेखन सम्पादन।
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