०९ जैन आचार-मीमांसा

प्राचीन भारत के इतिहास का अध्ययन करने वाले सभी अध्येता जानते हैं कि भारत में जो दो प्रमुख धारायें दीर्घकाल से अपना प्रभावशाली स्थान बनाये हुए हैं, वे हैं वैदिक और श्रमण। श्रमणधारा में यद्यपि जैन और बौद्ध-ये दोनों सम्मिलित माने जाते हैं, किन्तु इनमें जैन श्रमणधारा अत्यन्त प्राचीन काल से प्रवहमान है। विभिन्न काल खण्डों और क्षेत्रों में आहेत, व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्थ, जिन और जैन इत्यादि नाम-रूपों में सदा से विद्यमान और प्रभावक रही हैं। यह परम्परा सुदूर अतीत में जैनधर्म के आदिदेव एवं प्रथम तीर्थकर वृषभ या ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई। जैनधर्म जिन विशेषताओं के कारण सदा गरिमा मण्डित रहा है उनमें श्रम, संयम, साधना, त्याग, अहिंसा और वैराग्य जैसे आध्यात्मिक आदशों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। ___ जैनधर्म का आचारपक्ष आत्मानुलक्ष्यी है। “अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है-इस अवधारणा के आधार पर यहाँ परमात्म-पद की प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य को स्वयं अपना पुरुषार्थ करना पड़ता है, किसी दूसरे के या ईश्वर अथवा दैव के भरोसे नहीं। इसकी प्राप्ति स्वयं रत्नत्रयात्मक मार्ग पर चलकर ही सम्भव है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट आचार संहिता से ही सम्भव है। श्रावक (गृहस्थ) एवं श्रमण (मुनि अथवा अनगार)-इन दो रूपों में सुव्यवस्थित जैन आचारसंहिता की सुदृढ़ आधारशिला और इसकी अपनी विशेषताओं के कारण ही जैनधर्म की मजबूत जड़ों को आज तक कोई हिला नहीं सका। इसीलिए तो पद्मभूषण आचार्य पं० बलदेव उपाध्याय ने इस लेख के लेखक की सुप्रसिद्ध शोध कृति “मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन" की शुभाशंसा में ठीक ही लिखा है कि-“आचार” श्रमण संस्कृति के उद्बोधक जैनधर्म का मेरुदण्ड है। जिस प्रकार मेरुदण्ड देहयष्टि को पुष्ट एवं सुव्यवस्थित बनाने में सर्वथा कतकार्य है, उसी प्रकार आचार जैनधर्म को प्रष्ट तथा परिनिष्ठित करने में सर्वतोभावेन समर्थ है। पिच 1. जैनधर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध । श्रमणधर्म की नींव गृहस्थधर्म पर मजबूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। अतः प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है। यद्यपि श्रावक अर्थात् एक सद्गृहस्थ के आचार का कितना महत्त्व है? यह श्रावकाचार विषयक शताधिक बड़े-बड़े प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों की उपलब्धि से ही पता चल जाता है। इसी १८० जैनदर्शन दृष्टि से अतिसंक्षेप में यहाँ श्रावकाचार अर्थात् श्रावकों की सामान्य आचार पद्धति प्रस्तुत

१. श्रावकाचार : श्रावकों की आचार-पद्धति

हत जैन परम्परा में आचार के स्तर पर श्रावक और साधु-ये दो श्रेणियाँ हैं। श्रावक गृहस्थ होता है, उसे जीवन के संघर्ष में हर प्रकार का कार्य करना पड़ता है। जीविकोपार्जन के साथ ही आत्मोत्थान एवं समाजोत्थान के कार्य करने पड़ते हैं। अतः उसे ऐसे ही आचारगत नियमों आदि के पालन का विधान किया गया, जो व्यवहार्य हों। क्योंकि सिद्धान्तों की वास्तविकता क्रियात्मक जीवन में ही चरितार्थ हो सकती है। इसलिए श्रावकोचित आचार-विचार के प्रतिपादन और परिपालन का विधान श्रावकाचार की विशेषता है। ____वस्तुतः आध्यात्मिक विकास की पूर्णता में श्रावकाचार या गृहस्थधर्म पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म उत्तरार्ध है। क्योंकि श्रमणाचार की नींव गृहस्थधर्म पर मजबूत होती है। त्याग और भोग इन दोनों के समन्वय को दृष्टि में रखकर श्रावक आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है, इसीलिए समाज और देश के अभ्युत्थान में श्रावक की सीधी भूमिका प्रमुख होती है, वह समाज की रीढ़ है। यह एक श्रावकाचार आदर्श जीवन के उत्तरोत्तर विकास की जीवनशैली प्रदान करता है। श्रावकाचार के परिपालन हेत साधुवर्ग सदा से श्रावकों का प्रेरणास्रोत रहा है। वस्तुतः साधु राग-द्वेष से परे समाज का संरक्षक होता है, वह समाज हित में श्रावकों को छोटे-छोटे स्वार्थों के त्याग करने एवं समता भाव की शिक्षा देता है। । Ju

संस्कार और उनका महत्त्व

संस्कार शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि, धार्मिक कृत्य, संस्करण या परिष्करण की क्रिया, प्रभावशीलता, प्रत्यास्मरण का कारण, स्मरणशक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव अभिमंत्रण आदि अनेक अर्थों में होता है। सामान्यतः संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है अर्थात् संस्कार वे क्रियाएं एवं विधियाँ हैं जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने की आधिकारिक योग्यता प्रदान करती है। शुचिता का सन्निवेश मन का परिष्कार, धर्मार्थ-सदाचरण, शुद्धि-सन्निधान आदि ऐसी योग्यताएं हैं जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से प्राप्त होती हैं। संस्कार शब्द उन अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों को भी व्याप्त कर लेता है जो शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत आदि के अन्तर्गत आते हैं। स्मा इस प्रकार संस्कार शब्द के साथ अनेक अर्थों का योग हो गया है। व्यक्ति के जीवन की सम्पूर्ण शुभ और अशुभ प्रवृत्तियाँ उसके संस्कारों के अधीन हैं, जिनमें से कुछ को वह १५१ जैन आचार-मीमांसा पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ को इसी भव में संगति एवं शिक्षा आदि के प्रभाव से अर्जित करता है। इस प्रकार संस्कार शब्द का अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं से तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक एवं बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों से है, जिनसे वह सभ्य समाज का सदस्य हो सके। साधारणतः यह समझा जाता था कि सविधि किए गए संस्कारों के अनुष्ठान से सुसंस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है।

संस्कार से सम्बन्धित जैन साहित्य

जैन साहित्य में तीर्थंकर आदि तिरेसठ शलाका पुरुषों तथा अन्य महापुरुषों का जीवन वृत्त पढ़ते हैं तो उनके भी जन्म, विवाह, दीक्षा आदि संस्कारों का उल्लेख मिलता है, पर इनकी शास्त्रोक्त विधि का उल्लेख नहीं है। श्वेताम्बर जैन परम्परा की अपेक्षा दिगम्बर परम्परा में संस्कार सम्बन्धित साहित्य और इसकी परम्परा काफी प्राचीन लगती है। सर्वप्रथम संस्कारों से सम्बन्धित साहित्य जिनसेनाचार्य कृत “आदिपुराण” है जिसमें उन्होंने विस्तार से संस्कारों की चर्चा की है। इसी प्रकार “हरिवंशपुराण” आदि अनेक पुराणों, प्रतिष्ठाशास्त्रों एवं श्रावकाचार ग्रन्थों में भी संस्कार सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं। १५वीं शताब्दी में वर्धमानसूरिकृत “आचारदिनकर” नामक ग्रन्थ में ४० संस्कारों की चर्चा की गई। इससे पूर्व हरिभद्रसूरिकृत “पंचाशक प्रकरण” एवं पादलिप्ताचार्यकृत “निर्वाणकलिका” में संस्कारों की चर्चा मिलती है, लेकिन उनमें प्रायः यति के संस्कारों का ही उल्लेख है, गृहस्थ के संस्कारों की प्रायः उसमें कोई चर्चा नहीं मिलती है। इसी प्रकार मध्यकाल के संस्कारों से सम्बन्धित जिनप्रभसूरिकृत “विधिमार्गप्रपा", तिलकाचार्य विरचित “सामाचारी", श्रीमद् श्रीचन्द्राचार्य संकलित “सुबोधा-समाचारी" आदि ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, इनमें भी प्रायः यतियों के संस्कार एवं सामान्य संस्कारों का ही वर्णन मिलता है, गृहस्थ के मात्र व्रतारोपण-संस्कारों की चर्चा इन ग्रन्थों में मिलती है, शेष संस्कारों की कोई चर्चा नहीं है। नाम ।

संस्कारों की संख्या

या दिगम्बर परम्परा के पुराणों में संस्कार के लिए “क्रिया” शब्द का प्रयोग किया गया है। यह सत्य है कि संस्कार शब्द सामान्यतया धार्मिक विधि-विधान या क्रिया का ही सूचक है। दिगम्बर जैन परम्परा के आचार्य जिनसेन कृत “आदिपुराण” में विविध संस्कारों का उल्लेख करते हुए इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है। उसके अनुसार १. गर्भान्वय क्रियाएँ-५३, २. दीक्षान्वय क्रियाएँ-४८, और ३. कन्वय क्रियाएँ-७ हैं। इस प्रकार इसमें कुल मिलाकर १०८ संस्कारों तक की चर्चा है। श्वेताम्बर जैन परम्परा के वर्धमानसूरिकृत “आचारदिनकर" में संस्कारों की चर्चा करते हुए उनकी संख्या ४० बताई गई है, जिनमें से १६ संस्कार गृहस्थों के, १६ संस्कार यतियों के एवं ८ सामान्य संस्कार हैं।१८२ जैनदर्शन

आदिपुराण और उसमें प्रतिपादित संस्कार

संस्कार, वर्ण व्यवस्था आदि का विवेचन आचार्य जिनसेन ने महापुराण के प्रथम भाग अर्थात् आदिपुराण में विस्तार से किया है। वस्तुतः महापुराण के मुख्य दो खण्ड हैं (१) आदिपुराण और (२) उत्तरपुराण। सम्पूर्ण आदिपुराण के ४७ पर्यों में से ४२ पर्व पूर्ण तथा ४३वें पर्व के तीन श्लोक तक आठवीं-नवीं शती के भगवज्जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं और इसके अवशिष्ट पाँच पर्व तथा उत्तरपुराण की रचना जिनसेनाचार्य के बाद उनके प्रमुख शिष्य गुणभद्राचार्य के द्वारा की गई। ___ भारतीय पुराणकाल के सन्धिकाल की एक अनुपम रचना है, आदिपुराण। अतः यह न केवल पुराण ग्रन्थ है अपितु एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। वास्तव में आदिपुराण संस्कृत साहित्य का एक प्रशस्त ग्रन्थ है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न किया गया हो। यह एक पुराण, महाकाव्य, धर्मकथा, धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, आचारशास्त्र और कर्मयुग की आद्यव्यवस्था के आविष्कार का प्रदर्शक इतिहास भी है। सैंतालीस पर्यों के इस आदिपुराण में संस्कृत के ६७ प्रकार के छन्दों और १०६७६ पद्यों में रचित इस पुराण के अड़तीसवें (३८) पर्व के अन्तर्गत जैन परम्परा सम्मत विविध संस्कारों का विशेषकर षोडश संस्कारों का विधिपूर्वक वर्णन किया गया है। उत्तरपुराण के अन्तर्गत सोलह प्रकार के संस्कृत छन्दों में ७५७५ पद्यों की रचना की गयी है। इस प्रकार महापुराण की रचना सन् ८१५ से सन् ८७७ के मध्य में हुई एवं गुणभद्राचार्य ने ई० सन् ८६७ में इसी के उत्तरभाग रूप उत्तरपुराण की रचना की। काम एक गृहस्थ श्रावक को समाज की मुख्य धारा से अलग हुए बिना नैतिक, आदर्श और संस्कारित जीवन जीने के लिए आचार्य जिनसेन ने संस्कार पद्धति मुख्यतः तीन भागों में विभक्त की-(१) गर्भान्वय क्रिया, (२) दीक्षान्वय क्रिया, (३) क्रियान्वय क्रिया। (१) गर्भान्वय क्रिया-इसमें श्रावक या गृहस्थ की ५३ क्रियाओं (संस्कारों) का वर्णन है-वह इस प्रकार है : __(१) आधान क्रिया (संस्कार), (२) प्रीति क्रिया, (३) सुप्रीति, (४) धृति, (५) मोद, (६) प्रियोद्भव जातकर्म, (७) नामकर्म या नामकरण, (८) बहिर्यान, (E) निषद्या, (१०) अन्नप्राशन, (११) व्युष्टि (वर्षगांठ), (१२) केशवाय, (१३) लिपिसंख्यान, (१४) उपनीति (यज्ञोपवीत), (१५) व्रतावरण, (१६) विवाह, (१७) वर्णलाभ, (१८) कुलचर्या, (१६) गृहीशिता, (२०) प्रशान्ति, (२१) गृहत्याग, (२२) दीक्षाग्रहण, (२३) जिनरूपता, (२४) मौनाध्ययन, (२५) तीर्थकृद्भावना, (२६) गणोपग्रहण, (२७) स्वगुरुस्थानावाप्ति, (२८) निसंगत्वात्मभावना, (२६) योगनिर्वाणसम्प्राप्ति, (३०) योगनिर्वाणसाधन, (३१) इन्द्रोपपाद, (३२) इन्द्राभिषेक, (३३) इन्द्रविधिदान, (३४) सुखोदय, (३५) इन्द्रत्याग, (३६) अवतार, जैन आचार-मीमांसा १८३ (३७) हिरण्योत्कृष्टजन्मग्रहण, (३८) मन्दराभिषेक, (३६) गुरुपूजन, (४०) यौवराज्यक्रिया, (४१) स्वराज्यप्राप्ति, (४२) दिशांजय, (४३) चक्राभिषेक, (४४) साम्राज्य, (४५) निष्क्रान्त, (४६) योगसम्मह, (४७) आर्हन्त्य क्रिया, (४८) विहारक्रिया, (४६) योगत्याग, (५०) अग्रनिर्वृत्ति, तीन अन्य क्रिया (संस्कार) इस प्रकार गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त ५३ क्रियाओं (संस्कारों) का कथन किया गया है। २. दीक्षान्वय क्रिया - (१) अवतार, (२) वृत्तलाभ, (३) स्थानलाभ, (४) गणग्रह, (५) पूजाराध्य, (६) पुण्ययज्ञ, (७) दृढ़चर्या, (८) उपयोगिता, (६) उपनीति, (१०) व्रतचर्या, (११) व्रतावतरण, (१२) पाणिग्रहण, (१३) वर्णलाभ, (१४) कुलचर्या, (१५) गृहीशिता, (१६) प्रशान्तता, (१७) गृहत्याग, (१८) दीक्षाद्य, (१६) जिनरूपत्व, (२०) दीक्षान्वय।। ३. क्रियान्वय क्रिया के सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं, पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता । लाश मिली शाह साम्राज्यं पदमार्हन्त्यं, निर्वाणं चेति सप्तकम्।। (१) सज्जातित्व (सत्कुलत्व), (२) सद्गृहस्थता, (३) पारिव्रज्य, (४) सुरेन्द्रपदत्व, (५) साम्राज्यपद, (६) अर्हन्तपद, (७) निर्वाणपदप्राप्ति-ये सात क्रियान्वय क्रियाएँ हैं। धार्मिक एवं संस्कारित जीवन पद्धति के निर्माण में इन समस्त क्रियाओं का महत्व है। इन क्रियाओं (संस्कारों) में देव-शास्त्र-गुरु की पूजा भक्ति का यथायोग्य-विधान है।

प्रमुख सोलह संस्कार : स्वरूप और विधि

जिन संस्कारों से सुसंस्कृत मानव द्विज (संस्कारित श्रावक) कहा जाता है, वे संस्कार सोलह होते हैं - (१) आधान संस्कार, (२) प्रीति संस्कार, (३) सुप्रीति संस्कार, (४) धृति, (५) मोद, (६) जातकर्म, (७) नामकरण, (८) वहिर्यान, (E) निषद्या, (१०) अन्नप्राशन, (११) व्युष्टि, (१२) केशवाय अथवा चौलकर्म, (१३) लिपिसंख्यान, (१४) उपनीत, (१५) व्रताचरण, (१६) विवाह संस्कार। १. आधान संस्कार-पाणिग्रहण (विवाह) के बाद सौभाग्यवती नारियाँ उस स्त्री तथा उसके पति को मण्डप में लाकर वेदी के निकट बैठाती हैं। शुद्ध वस्त्र धारण कर संस्कार विधि इस प्रकार की जाती है -

  • सर्वप्रथम मंगलाचरण, मंगलाष्टक का पाठ, पुनः हस्तशुद्धि, भूमिशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, पात्रशुद्धि, मन्त्रस्नान, साकल्यशुद्धि, समिधाशुद्धि, होमकुण्ड शुद्धि, पुण्याहवाचन के कलश १. षोडशसंस्कार : सं० एवं प्र० जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, संस्कारप्रकरण। सं० नरेन्द्र कुमार जैन। नाम प र १८४ जैनदर्शन की स्थापना, दीपक प्रज्वलन, तिलककरण, रक्षासूत्रबन्धन, संकल्प करना, यन्त्र का अभिषेक, शान्तिधारा, गन्धोदक, वन्दन, इसके पूर्व अर्घसमर्पण, पूजन के प्रारम्भ में स्थापना, स्वस्तिवचान, इसके बाद देव-शास्त्र-गुरुपूजा, एवं सिद्धयन्त्र का पूजन करना चाहिए। अनन्तर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पति और धर्मपत्नी द्वारा विश्वशान्तिप्रदायक हवन पूर्वक यह क्रिया सम्पन्न की जाती है। बाय २. प्रीति-संस्कार-प्रीति संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाता है। प्रथम ही गर्भिणी स्त्री को तैल, उबटन आदि लगाकर स्नानपूर्वक वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत करें तथा शरीर पर चन्दन आदि का प्रयोग करें। इसके बाद प्रथम संस्कार की तरह हवन क्रिया करें। प्रतिष्ठाचार्य कलश के जल से दम्पती का सिंचन करें। पश्चात् त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव, इन तीनों मन्त्रों को पढ़कर दम्पती पर पुष्प (पीले चावल छिड़के) शान्ति पाठ-विसर्जन पाठ पढ़कर थाली में भी ये पुष्प क्षेपण करें। “ओं कं ठं व्हः पः असिआउसा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर पति गन्धोदक से गर्भिणी के शरीर का सिंचन करें, स्त्री अपने उदर पर गन्धोदक लगा सकती है। ३. सुप्रीति क्रिया-संस्कार-इसे सुप्रीति अथवा पुंसवन संस्कार क्रिया भी कहते हैं। यह संस्कार गर्भ के पाँचवें माह में किया जाता है। इसमें भी प्रीतिक्रिया के समान सौभाग्यवती स्त्रियाँ उस गर्भिणी को स्नान के बाद वस्त्राभूषणों से तथा चन्दन आदि से सुसज्जित कर मंगलकलश लेकर वेदी के समीप लाएं और स्वस्तिक पर मंगलकलश रखकर, लाल-वस्त्राच्छादित पाटे पर दम्पती को बैठा दें। इस समय घर पर सिन्दूर तथा अंजन (काजल) भी अवश्य लगाना चाहिए। प्रथम किया की तरह यथाविधि दर्शन, पूजन एवं हवन इसमें भी किया जाता है।
  • ४. धृति संस्कार-‘धृति’ को ‘सीमन्तोन्नयन’ अथवा सीमान्त क्रिया भी कहते हैं। इसको सातवें माह के शुभ दिन, नक्षत्र, योग, मुहूर्त आदि में करना चाहिए। इसमें प्रथम संस्कार के समान सब विधि कर लेना चाहिए। पश्चात् यन्त्र-पूजन एवं हवन करना चाहिए। इसके बाद सौभाग्यवती नारियाँ गर्भिणी के केशों में तीन माँग निकालें। नमक ५. मोद क्रिया-मोद-प्रमोद या हर्ष-ये एक ही अर्थवाले शब्द हैं। इस संस्कार में हर्षवर्धक ही सब कार्य किये जाते हैं। अतः इसको ‘मोद’ कहते हैं। गर्भ से नौवों माह में यह मोद क्रिया की जाती है। प्रथम संस्कार की तरह सब क्रिया करते हुए सिद्धयन्त्रपूजन और हवन करना चाहिए। अनन्तर प्रतिष्ठा-आचार्य गर्भिणी के मस्तक पर णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए ओं श्री आदि बीजाक्षर लिखना चाहिए। पीले चावलों (पुष्पों) की वर्षा मन्त्रपूर्वक करनी चाहिए। वस्त्र-आभूषण धारण कराने के साथ हस्त में कंकण सूत्र का बन्धन करना चाहिए। शान्ति-विसर्जन पाठ पढ़ते हुए पुष्पों की वर्षा करना जरूरी है। पश्चात् गर्भिणी को सरस भोजन करना चाहिए तथा आमन्त्रित सामाजिक बन्धुओं का यथायोग्य आदर-सत्कार करें। जैन आचार-मीमांसा १८५ ६. जात (जन्म) कर्म-पुत्र अथवा पुत्री का जन्म होते ही पिता अथवा कुटुम्ब के व्यक्तियों को उचित है कि वे श्रीजिनेन्द्र मन्दिर में तथा अपने दरवाजे पर मधुर वाद्य-बाजे बजवाएँ। भिक्षुक जनों को दान तथा पशु-पक्षियों को दाना आदि दें। बन्धु वर्गों को वस्त्र-आभूषण, श्रीफल आदि शुभ वस्तुओं को प्रदान करें। पश्चात् “ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रौं हूँ ह्रः नानानुजानुप्रजो भव भव अ सि आ उ सा स्वाहा” यह मन्त्र पढ़कर, पुत्र का मुख देखकर, घी, दूध और मिश्री मिलाकर, सोने की चमची अथवा सोने के किसी बर्तन से उसे पाँच बार पिलाएँ। पश्चात् नाल कटवाकर उसे किसी शुद्धभूमि में मोती, रत्न अथवा पीले चावलों के साथ प्रक्षिप्त करा देना चाहिए। ७. नामकरण संस्कार-पुत्रोत्पत्ति के बारहवें, सोलहवें, बीसवें या बत्तीसवें दिन नामकरण करना चाहिए। किसी कारण बत्तीसवें दिन तक भी नामकरण न हो सके तो जन्मदिन से वर्ष पर्यन्त इच्छानुकूल या राशि आदि के आधार पर शुभ नामकरण कर सकते हैं। पूर्व के संस्कारों के समान मण्डप, वेदी, कुण्ड आदि सामग्री तैयार करना चाहिए। पुत्र सहित दम्पती को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर वेदी के सामने बैठाना चाहिए। पुत्र माँ की गोद में रहे। धर्मपत्नी पति की दाहिनी ओर बैठे। मंगलकलश भी कुण्डों के पूर्व दिशा में दम्पती के सन्मख रखे। ८. बहिर्यान संस्कार-बहिर्यान का अर्थ बालक को घर से बाहर ले जाने का शुभारम्भ। यह संस्कार दूसरे, तीसरे अथवा चतुर्थ महीने में करना चाहिए। प्रथम बार घर से बाहर निकालने पर सर्वप्रथम समारोह पूर्वक बालक को मंदिर को जाकर जिनेन्द्रदेव का प्रथम दर्शन कराना चाहिए। अर्थात् जन्म से दूसरे, तीसरे अथवा चौथे महीने में बच्चे को घर से बाहर निकालकर प्रथम ही किसी चैत्यालय अथवा मन्दिर में ले जाकर श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन श्रीफल के साथ मंगलाष्टक पाठ आदि पढ़ते हुए करना चाहिए। फिर यहीं केशर से बच्चे के ललाट में तिलक लगाना आवश्यक है। यह क्रिया योग्य मुहूर्त अथवा शुक्लपक्ष एवं शुभ नक्षत्र में सम्पन्न होनी चाहिए। कि ६.निषद्या संस्कार-जन्म से पाँचवें मास में निषद्या वा उपवेशन विधि करना चाहिए। निषद्या वा उपवेशन का अर्थ है बिठाना अर्थात् पाँचवें मास में बालक को बिठाना चाहिए। प्रथम ही भूमि-शुद्धि, पूजन और हवन कर पंचबालयति तीर्थंकरों का पूजन करें। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर - इन पाँच बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों को कुमार या बालयति कहते हैं। __अनन्तर चावल, गेहूँ, उड़द, मूंद, तिल, जवा- इनसे रंगावली चौक (रंगोली) बनाकर उस पर एक वस्त्र बिछा दें। बालक को स्नान कराकर वस्त्रालंकारों से विभूषित करें। पश्चात् “ओं ह्रीं अहं अ सि आ उ सा नमः बालकं उपवेशयामि स्वाहा"- यह मन्त्र पढ़कर उस रंगावली पर बिछे वस्त्र पर उस बालक को पूर्व दिशा की ओर मुखकर पासन बिठाना १८६ जैनदर्शन चाहिए। अनन्तर बालक की आरती उतारकर प्रमुख जनों, विद्वानों आदि सभी का उसे आशीर्वाद प्रदान करावें। १०. अन्नप्राशन विधि या संस्कार-अन्नप्राशन का अर्थ है कि बालक को अन्न खिलाना। इसमें बालक को अन्न खिलाने का शुभारम्भ उस अन्न द्वारा बालक की पुष्टि होने के लिए यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार सातवें, आठवें अथवा नौवें मास में करना चाहिए। ११. व्युष्टि संस्कार-व्युष्टि का अर्थ वर्ष-वृद्धि अर्थात् प्रत्येक जन्म दिन के बाद उसमें एक-एक वर्ष की वृद्धि है। जिस दिन बालक का वर्ष पूर्ण हो उस दिन यह संस्कार करना चाहिए। इस संस्कार में कोई विशेष क्रिया नहीं है, केवल जन्मोत्सव मनाना है। यहाँ पर पूर्व के समान श्रीजिनेन्द्र देव की पूजा करें एवं हवन करें। नीचे लिखे मन्त्र को पढ़कर उस बालक पर पीले चावल (पुष्प) की वर्षा करें। मन्त्र - “उपनयन जन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव, मुनीन्द्रवर्षवर्धनभागी भव, सुरेन्द्रवर्षवर्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव। अनन्तर यथाशक्ति औषधि, शास्त्र, अभय और आहार - ये चार प्रकार के दान सुपात्रों को देकर इष्टजन तथा बन्धु-वर्गों को भोजनादि द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिए। १२. चौलकर्म अथवा केशवाय संस्कार- यह संस्कार पहले, तीसरे, पाँचवें अथवा सातवें वर्ष में करना उचित है। परन्तु यदि बालक की माता गर्भवती हो तो मुण्डन करना सर्वथा अनुचित है। माता के गर्भवती होने पर यदि मुण्डन किया जाएगा तो गर्भ पर अथवा उस बालक पर कोई विपत्ति सम्भव है। यदि बालक के पाँच वर्ष पूर्ण हो गये हों तो फिर माता का गर्भ पर किसी प्रकार का दोष नहीं कर सकता अर्थात् सातवें वर्ष में यदि माता गर्भवती भी हो तथापि बालक का विधिपूर्वक मुण्डन करा देना ही उचित है। १३. लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार-लिपि संख्यान संस्कार अर्थात् बालक को अक्षराभ्यास कराना। शास्त्रारम्भ यज्ञोपवीत के बाद होता है। लिपिसंख्यान संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए। ग्रन्थकारों का मत है - “प्राप्ते तु पंचमे वर्षे, विद्यारम्भं समाचरेत्।” अर्थात् पाँचवें वर्ष में विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिए। दिन तक ततोऽस्य पंचमे वर्षे, प्रथमाक्षरदर्शने। ज्ञेयः क्रियाविधिर्नाम्ना, लिपिसंख्यानसंग्रहः।। यथाविभवमत्रापि, ज्ञेयः पूजापरिच्छदः। उपाध्याय पदे चास्य, मतोऽधीती गृहव्रती।। १. षोडश संस्कार, पृ० ३८-जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता। जैन आचार-मीमांसा १८७ अर्थात् लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त अत्यावश्यक है। योग, वार, नक्षत्र- ये सब ही शुभ अर्थात् विद्यावृद्धिकर होने चाहिए। उपाध्याय (गुरु) को इस विषय का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।

शुभ मुहूर्त

ज्योतिषशास्त्र में प्रत्येक दिन का फल इस प्रकार है-गुरुवार को विद्यारम्भ करने से बुद्धि अत्यन्त प्रखर (तेज) होती है। बुधवार तथा शुक्रवार को बुद्धि शुद्ध होती और बढ़ती है। रविवार को विद्यारम्भ करने से आयु बढ़ती है। सोमवार को मूर्खता, मंगलवार को मरण और शनिवार को विद्यारम्भ करने से शरीर का क्षय होता है।

  • बालक के पाँचवें वर्ष में सूर्य के उत्तरायण होने पर विद्यारम्भ को कराना उत्तम है। मृग, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्प, आश्लेषा, मूल, हस्त, चित्रा, स्वाती, अश्विनी, पूर्वा, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, श्रवण, घनिष्ठा, शततारका - ये नक्षत्र शुभ हैं। इस प्रकार शुभ योग और लग्न आदि भी देखकर मुहूर्त निश्चित कर लेना चाहिए।

विधि

जिस दिन शुभ मुहूर्त निकले उस दिन प्रथम ही श्री जिनेन्द्रदेव, शास्त्र तथा गुरु की पूजा कर पूर्व के समान शान्ति हवन करें। अनन्तर बालक को स्नान कराकर वस्त्र, अलंकार पहनाते हुए चन्दन का तिलक लगाकर विद्यालय अथवा पाठशाला में ले जाएँ। शिक्षा देने वाले (शिक्षक) गुरु को वस्त्र, अलंकार, श्रीफल उपहारस्वरूप देकर बालक से करबद्ध पूर्वक गुरु की यथायोग्य विनयोपचार करावे। सुयोग्य उपाध्याय या गुरु स्वयं पूर्व दिशा की ओर मुखकर बैठे। बालक को अपने सामने पश्चिम दिशा की ओर मुख कराकर बिठाएँ और उसे धर्म, अर्थ, काम - इन तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने योग्य बनाने के लिए अक्षरारम्भ संस्कार प्रारम्भ करें। सर्वप्रथम उपाध्याय एक बड़े तख्ते पर अखण्ड चावलों को बिछाएँ और उस पर हाथ से - “ओं नमः सिद्धेभ्यः” यह मन्त्र लिखकर, “अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लु ल ए ऐ ओ औ अं अः" ये स्वर और “क ख ग घ ङ च छ ज झ’, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व श ष स ह"- ये व्यंजन लिखें। अनन्तर बालक के दोनों हाथों में सफेद पुष्प और अक्षत देकर लिखे हुए अक्षरों के समीप रखावे और फिर - “ओं नमो अर्हन्ते नमः सर्वज्ञाय सर्वभाषा-भाषित सकलपदार्थाय बालकं अक्षराभ्यासं कारयामि द्वादशांगश्रुतं भवतु भवतु ऐं ओं ह्रीं क्लीं स्वाहा” - यह मन्त्र पढ़कर उन लिखे हुए अक्षरों के समीप ही बालक के हाथ से ही वही “ओं नमः सिद्धेभ्यः” मन्त्र और अकार से हकार पर्यन्त अक्षर लिखाएँ। राम शाह र १८८ जैनदर्शन

  • १४. उपनीति संस्कार-इस उपनीति संस्कार को उपनयन एवं यज्ञोपवीत भी कहते हैं। इसका विधान है कि यह संस्कार ब्राह्मणों को गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रियों को ग्यारहवें वर्ष में और वैश्यों को बारहवें वर्ष में करना चाहिए। यदि किसी कारण नियत समय तक उपनयन विधान न हो सका तो ब्राह्मणों को सोलह वर्ष तक, क्षत्रियों को बाईस वर्ष तक और वैश्यों को चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेना उचित है। पूजा-प्रतिष्ठा, जप, हवन आदि करने के लिए इस संस्कार को आवश्यक बतलाया है। १५. व्रताचरण संस्कार-यज्ञोपवीत के पश्चात विद्याध्ययन करने का समय है, विद्याध्ययन करते समय कटिलिंग (कमर का चिह्न), ऊरुलिंग (जंघा का चिह्न), उरोलिंग (हृदयस्थल का चिह्न) और शिरोलिंग (शिर का चिह्न) धारण करना चाहिए। (१) कटिलिंग - इस विद्यार्थी का कटिलिंग त्रिगुणित मौजीबन्धन है जो कि पूर्वोक्त रत्नत्रय का विशुद्ध अंग और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का चिह्न है। (२) ऊरुलिंग - इस शिष्य का ऊरुलिंग धुली हुई सफेद धोती तथा लँगोट है जो कि जैनधर्मी जनों के पवित्र विशाल कुल को सूचित करती है। (३) उरोलिंग - इस विद्यार्थी के हृदय का चिह्न सात सूत्रों से बनाया हुआ यज्ञोपवीत है। यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानों का सूचक है। (४) शिरोलिंग - विद्यार्थी का शिरोलिंग शिर का मुण्डन कर शिखा (चोटी) सुरक्षित करना है। जो कि मन वचन काय की शुद्धता का सूचक है। जो यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात् नमस्कार मन्त्र को नौ बार पढ़कर इस विद्यार्थी को प्रथम ही उपासकाचार (श्रावकाचार) गुरुमुख से पढ़ना चाहिए। गुरुमुख से पढ़ने का अभिप्राय यह है कि श्रावकों की बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जो अनेक शास्त्रों से मन्थन करने से निकलती हैं, गुरुमुख से वे सहज ही प्राप्त हो सकते हैं। एक न १६. विवाह संस्कार-विवाह संस्कार सोलह संस्कारों में अन्तिम एवं मह वपूर्ण संस्कार है। सुयोग्य वर एवं कन्या के जीवन पर्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध सहयोग और दो हृदयों के अखण्ड मिलन या संगठन को विवाह कहते हैं। विवाह, विवहन, उद्वह, उद्वहन, पाणिग्रहण, पाणिपीडन - ये सब ही एकार्थवाची शब्द हैं। “विवहनं विवाहः" ऐसा व्याकरण से शब्द सिद्ध होता है। विवाह के पाँच अंग वाग्दानं च प्रदानं च, वरणं पाणिपीडनम्। सप्तपदीति पंचांगो, विवाहः परिकीर्तितः।। २ (१) वाग्दान (सगाई करना), (२) प्रदान (विधिपूर्वक कन्यादान), (३) वरण (माला द्वारा परस्पर स्वीकारना), (४) पाणिग्रहण (कन्या एवं वर का हाथ मिलाकर, उन हाथों पर जैन आचार-मीमांसा १८६ जलधारा छोड़ना), (५) सप्तपदी (देवपूजन के साथ सात प्रदक्षिणा (फेरा) करना) - ये विवाह के पाँच अंग आचार्यों ने कहे हैं।

श्रावक के तीन मनोरथ

वस्तुतः श्रावकधर्म श्रमण बनने का भी पूर्वाभ्यास है। अतः उस ओर अग्रसर होते हुए मोक्ष की ओर प्रस्थान करने के लिए प्रत्येक श्रावक को निरन्तर इन तीन मनोरथों का चिन्तन सदा करते रहना चाहिए - १. वह शुभ दिन कब आयेगा कि जब मैं अपने पास रहे हुए थोड़े या अधिक परिग्रह ____का त्याग करके इस बोझ से हल्का बनूँगा। २. वह आनन्दकारी घड़ी कब आवेगी जब मैं इस संसार से सर्वथा विरक्त होकर निर्ग्रन्थ दीक्षा पूर्वक अनगार (श्रमण) बनूँगा। ३. वह कल्याणकारी दिन कब आवेगा जब मैं समाधिमरण के लिए तत्पर होकर काल से जूझने के लिए प्रसन्नतापूर्वक अन्तिम सल्लेखना में लग जाऊंगा और क्रमशः आहारादि का सर्वथा त्याग करके पादपगमन सल्लेखना से (मृत्यु की इच्छा नहीं करता हुआ) धर्मध्यान पूर्वक देह छोडूंगा। श्रावक उक्त मनोरथों का चिन्तन करता हुआ और अपने अशुभ कर्मों की निर्जरा करता हुआ आत्मा को कर्म-भार से हल्की बनाता है। श्रावक के दैनिक षट्कर्म एवं व्रताचरण -वस्तुतः व्रताचरण की दृष्टि से साधु और श्रावक का धर्म समान है, अलग नहीं। क्योंकि जिस सदाचरण से साधु को दूषण का पाप लगता है, उसी से श्रावक को भी लगता है। इसीलिए साधुत्व और श्रावकत्व दोनों आगम की आज्ञा में हैं। दोनों में अन्तर केवल मात्रा की दृष्टि से है। आंशिक अर्थात् अणुवत रूप व्रताचरण श्रावकत्व है और महाव्रत रूप सम्पूर्ण व्रताचरण साधुत्व है। श्रावक के देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान - ये दैनिक षट्कर्म प्रमुख माने गये हैं। कहा भी है - देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने। श्रावकों के प्रमुख बारह व्रत -श्रावकाचार जिन प्रमुख बारह व्रतों के द्वारा धारण किया जाता है, वे हैं - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत।। (क) पांच अणुव्रत-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-इस तरह इन पांचों पापों के स्थूल अर्थात् अणुरूप में त्याग करने को पाँच अणुव्रत कहते हैं। १. अहिंसाणुव्रत-कषाय भाव पूर्वक मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदना कि १६० जैनदर्शन से त्रस जीवों को मारना स्थूल हिंसा कहलाती है। उसके त्याग करने वाले से प्रथम अहिंसाणुव्रत होता है। २. सत्याणुव्रत-जो जानबूझकर स्थूल झूठ को न तो आप बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है तथा न केवल असत्य ही किन्तु सत्य भी ऐसा नहीं बोलता जिससे सुनने वालों को पीड़ा पहुँचती हो वह सत्याणुव्रती कहलाता है। यहाँ स्थूल झूठ का अर्थ है वह मोटा झूठ जो राजदण्ड के योग्य हो तथा लौकिक दृष्टि में निंद्य हो, जिसमें विश्वास दिलाकर धोखा दिया जाता हो। ३. अचौर्याणुव्रत-बिना दिये पर-द्रव्य को चाहे वह कहीं रक्खा हो, गड़ा हो, या गिर गया हो या भूला हुआ हो, उसे लोभवश स्वयं न लेना और न दूसरों को देना यह तीसरा अचौर्याणुव्रत कहलाता है। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत-जो पाप के भय से (न कि मात्र राजादि के भय से) पर-स्त्रियों पर कुदृष्टि नहीं रखना या उनका स्वयं सेवन नहीं करना और न दूसरों को सेवन कराना अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष रखना स्वदारसंतोष अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रत है। ५. परिग्रह-परिणाम व्रत-धन-धान्य, वस्त्र, पात्र, आभूषण, मकान, खेत-जमीन, पशु आदि परिग्रहों का परिमाण, सीमा, निर्धारित करके उससे अधिक की इच्छा नहीं रखना परिग्रह परिमाणव्रत है। (ख) तीन गुणव्रत -दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत- ये तीन गुणव्रतों के नाम हैं। इनके धारण करने से अणुव्रत कई गुणे बढ़ जाते हैं अर्थात् उत्कर्षता प्राप्त करते हैं। इसलिये इनका नाम गुणव्रत है। १. दिग्वत- दिशाओं को मर्यादित करके जो पापों की निवृत्ति के अर्थ मरणपर्यन्त के लिए यह संकल्प करना कि-मैं दस दिशाओं में अमुक-अमुक दिशा में इतने-इतने क्षेत्र से बाहर नहीं जाऊँगा- इसे दिग्व्रत कहते हैं। यह मर्यादा प्रसिद्ध नदी, पर्वत, वन, देश, नगर और समुद्र को लक्ष्य करके की जाती है, तथा योजनों की गिनती से भी की जाती है। इस दिग्व्रत से मर्यादा के बाहर स्थूल-सूक्ष्म सभी तरह के पापों की निवृत्ति हो जाने के कारण अणुव्रत है, वे पंच महाव्रतों की परिणति को प्राप्त हो जाते हैं। २. अनर्थ-दण्डव्रत-मर्यादा के भीतर भी निरर्थक और अति अनर्थकारक पाप-योगों से बचते रहना अनर्थ दण्डव्रत कहलाता है। उसके पाँच भेद निम्न प्रकार है - (१) ऐसी बातें सुनाना जिससे सुनने वालों की प्रवृत्ति हिंसामय व्यापारों, आरंभों और

  • ठगाई करने आदि में हो जाये, उसे पापोपदेश नामक प्रथम अनर्थदण्ड कहते हैं। (२) बिना प्रयोजन फरसा, तलवार, गैंती, फावड़ा, अग्नि, अन्य आयुध, विष, सांकल आदि हिंसाकारक पदार्थों का किसी को मांगने पर देना या दान करना हिंसा-दान नामक दूसरा अनर्थदण्ड है। १६१ जैन आचार-मीमांसा (३) द्वेषभाव से किसी के वध, बन्धन, छेद, क्लेशादि का चिंतन करना और रागभाव से परस्त्री आदि के रूप श्रृंगारादि का चिंतवन करना अपध्यान नामक तीसरा अनर्थदण्ड है। (४) जिन पुस्तकों के पढ़ने-सुनने से आरम्भ-परिग्रह में लालसा, दुःसाहस, मिथ्यात्व, रागद्वेष, मान, कामवासना आदि दुर्भाव पैदा होते हैं, उनका पढ़ना-सुनना चौथा दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड है। (५) व्यर्थ ही जमीन खुरचना-खोदना, जल को उछालना-छिड़कना, आग सुलगाना, पंखा करना, वनस्पति, वृक्ष आदि को तोड़ना-छेदन भेदन करना, सैर-सपाटा करना, हाथ-पैर हिलाना और कुत्ता-बिल्ली आदि हिंसक जीवों को पालना-यह सब प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है। ३. भोगोपभोग-परिमाणव्रत-जो एक बार भोगने में आये जैसे अशन, पान, विलेपनादि-वे भोग पदार्थ कहलाते हैं और जो बार-बार भोगने में आये जैसे वस्त्र, आभूषणादि वे उपभोग पदार्थ कहलाते हैं। इस प्रकार भोग और उपभोग दोनों ही प्रकार के पदार्थों में इन्द्रियों की विषयाशक्ति को घटाने के लिये चाहे वे प्रयोजनीय ही क्यों न हों तथापि उनकी संख्या का किसी नियत काल तक निर्धारित कर लेना कि इतने पदार्थ, इतने समय तक नहीं सेवन करूंगा या अमुक-अमुक पदार्थों का शीत ऋतु में ही अथवा ग्रीष्म ऋतु आदि में ही सेवन करूंगा, इस प्रकार निषेधमुख या विधिमुख दोनों ही तरह से नियम करना भोगोपभोग-परिमाणवत नामक तीसरा गुणव्रत है। पहले परिग्रह-परिमाणव्रत में जितनी वस्तुओं का परिमाण किया था, वह परिमाण इस व्रत में कुछ काल के लिये और भी कम हो जाता है जिससे उसके अणुव्रत वृद्धिंगत हो जाते हैं। माना (ग) चार शिक्षा-व्रत-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, और वैयावृत्य - ये चार शिक्षाव्रत हैं। इनसे महाव्रतों की ओर बढ़ने की शिक्षा मिलती है जिससे इनका नाम शिक्षाव्रत है। (9) देशावकाशिक व्रत - दिग्व्रत में यावज्जीवन के लिये जितने क्षेत्र का परिमाण (आने-जाने का) रक्खा था उसे गाँव, नदी आदि को लक्ष्य करके काल की मर्यादा से घटाते रहना, जैसे आज या इतने दिन-मास तक मैं अमुक नदी, खेत, गांव, घर आदि से आगे नहीं जाऊंगा - इसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं। यह व्रत नित्य रहता है यानी इस व्रत के धारी को एक बार क्षेत्र की मर्यादा जितने समय तक के लिये की है, उस समय के समाप्त होने पर फिर काल परिमाण से नई मर्यादा करते रहना आवश्यक है। इस व्रत में उतने काल तक के लिये मर्यादा के बाहर के क्षेत्र में व्रती सभी प्रकार के पापों से विरत हो जाते हैं। वह वहां की अपेक्षा महाव्रतों का साधक बन जाता है।१६२ जैनदर्शन (२) सामायिक व्रत - किसी विवक्षित अर्थात् निश्चित समय तक पाँचों पापों का सर्वथा त्यागकर काय वचन की प्रवृत्ति और मन की व्यग्रता को रोककर वन, मकान, आश्रम या चैत्यालय में जहाँ भी एकांत-निरूपद्रव स्थान हो वहाँ प्रसन्नचित्त होकर सब तरह के दुर्ध्यानों को छोड़ता हुआ एकाग्र मन से बैठकर या खड़े होकर परमात्मा की स्तुति-वंदना करना, उनके गुणों का स्मरण व बारह भावनाओं का चिंतन आदि शुभध्यान में लगे रहना सामायिक नाम शिक्षाव्रत कहलाता है। । ३. प्रोषधोपवास व्रत - एक मास में दो अष्टमी और दो चतुर्दशी-ऐसे चार पर्व-दिन माने जाते हैं। पर्वदिन से पूर्वोत्तर दिन में, मध्यान्ह में एक बार भोजन करके धारणा, पारणा करना और पर्व के दिन में सब प्रकार का भोजनपान छोड़कर आलस्यरहित होकर ध्यान, स्वाध्याय या उपदेश में उपयोग लगाना यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत कहलाता है, यह उपवास धर्मकामना से (संवर, निर्जरा के ध्येय से) किया जाना चाहिये न कि मंत्रसिद्धि, लंघन आदि के उद्देश्य से। प्रोषधोपवास के काल में पंचपापों का त्याग करने के साथ ही साथ श्रृंगार करना, सुगंध लगाना, पुष्पमाला पहनना, स्नान करना, अंजन लगाना, तम्बाखू सूंघना आदि नस्य, दांतों का मंजन, उद्योग-धंधा, नृत्य, गीत आदि को त्याग देना चाहिये और पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना चाहिये। या ४. वैयावृत्य व्रत-सम्यग्दर्शनादि गुणों के धारी, गृहत्यागी, निष्परिग्रही, निरारंभी साधु को केवल धर्मभावना से भक्ति पूर्वक यथाशक्ति आहार, औषध, समय के उपकरण और वसतिका प्रदान करके तथा गुणानुराग से उन संयमियों की जितनी भी सेवा अपने से बन सके, उतनी करके उनका कष्ट निवारण करना वैय्यावृत्य शिक्षा-व्रत है। निकाय सागारधर्मामृत (२/१६) में अष्ट मूलगुणों का प्रतिपादन करते हुए कहा है - मद्यपलमधुनिशाशनपञ्चफलीविरतिपंचकाप्तनुती । जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ।। २/१६ पर अर्थात् मद्य, मधु, रात्रिभोजन, पंचोदम्बरफल - इनका त्याग तथा देववंदना, जीवदया और जलगालन - ये आठ मूलगुण श्रावक के लिए आवश्यक हैं। शिक श्रावक की तिरेपन क्रियायें-श्रावकाचार ग्रन्थों में श्रावक की तिरेपन क्रियायें वर्णित हैं - आठ मुलगण, बारह व्रत, बारह तप, समता परिणाम (कषायों की मंदता), ग्यारह प्रतिमायें, चार प्रकार के दान, जल छानना, रात्रिभोजन त्याग, दर्शन, ज्ञान, चारित्र का यथाशक्ति पालन - इन तिरेपन कियाओं से श्रावक परम्परया मोक्ष का अधिकारी बनकर मनुष्य जीवन को सफल बनाता है। __एक गृहस्थ श्रावक को अहिंसा अणुव्रत के पालन के प्रसंग में सर्वप्रथम जैनाचार्यों ने चार प्रकार की हिंसा का प्रतिपादन किया है - संकल्पी, आरम्भी, विरोधी और उद्योगी। जैन आचार-मीमांसा १६३ इनमें से सभी प्रकार की हिंसाओं से यथासम्भव बचने का विधान है। किन्तु संकल्पपूर्वक किया गया प्राणीवध (संकल्पी हिंसा) के पूर्णतः त्याग का विधान श्रावक को अनिवार्य रूप से करना होता है।

हिंसा के चार भेद

(१) संकल्पी हिंसा - जानबूझकर, संकल्प करके किसी को सताना, कष्ट पहुँचाना अथवा उसके प्राणों का घात करना संकल्पी हिंसा है। प्रत्येक श्रावक को इस प्रकार की हिंसा का सर्वथा त्याग आवश्यक है। (२) विरोधी हिंसा - धर्म, समाज, व्यक्ति, परिवार और राष्ट्र-इनकी अस्मिता पर कोई आक्रमण करता है, तो उनकी रक्षार्थ अर्थात् अत्याचारियों से स्व-धन-जन की रक्षा करने में जो हिंसा हो जाती है, वह विरोधी हिंसा है। (३) आरम्भी हिंसा - गृहस्थ द्वारा घर-गृहस्थी के विविध कार्यों के करने में जो हिंसा हो जाती है, उसे आरम्भी हिंसा कहते हैं। उद्योगी हिंसा - गृहस्थ द्वारा अपने आश्रितों के पालन-पोषण हेतु अत्यावश्यक आजीविका तथा यथायोग्य उद्योग-धन्धे या व्यवसाय के सम्पादन में सावधानी के बावजूद जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी हिंसा है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि प्रत्येक श्रावक का यह भी प्रमुख कर्तव्य है कि वह अपनी आजीविका हेतु ऐसे कार्यों या साधनों का चयन करे, जो हिंसक, लोकनिंदक और धर्म, परम्परा या कुल आदि के विरुद्ध न हों।

श्रावक धर्म : विकास के सोपान

श्रावकाचार के परिपालन से जिस आदर्श जीवन शैली का विकास होता है, उससे उत्तरोत्तर जीवन के विकास की दिशा प्राप्त होती है, इसी विकास को जैन परम्परा में श्रावक की निम्नलिखित एकादश (ग्यारह) प्रतिमाओं में परिभाषित किया गया है श्रावक की एकादश प्रतिमायें-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त-विरत, रात्रिभुक्ति-त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ-त्याग, परिग्रह-त्याग, अनुमति-त्याग और उद्दिष्ट-त्याग - ये एकादश प्रतिमायें श्रावक के उत्तरोत्तर नैतिक एवं चारित्रिक विकास की परिचायक हैं। साथ ही ये श्रमण जीवन में प्रवेश एवं उसकी उपलब्धि हेतु मंगल प्रवेश-द्वार है। जिनपर क्रमशः आरोहरण करता हुआ वह श्रावक श्रमण की अन्तर्यात्रा का आत्म-पुरुषार्थ भी प्राप्त कर लेता है। १. दर्शन प्रतिमा - इस प्रतिमा का धारी श्रावक अपने सम्यक् दर्शन में पच्चीस दोष नहीं लगाता हुआ अष्टांग सम्यक्-दर्शन की आराधना करता है। पञ्चपरमेष्ठी के चरण १६४ का जैनदर्शन कमल में ही श्रद्धा रखता है, अष्टमूलगुण का धारक होता है, अर्थात् मदिरा, मांस और मधु- इन तीन मकारों और बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर - इन पाँच उदम्बर फलों का सर्वथा त्यागी होता है। सप्त व्यसन का भूलकर भी सेवन नहीं करता। इस प्रतिमा का पालन करने वाला श्रावक दृढ़ चित्त निर्भय होता है, यदि कोई परीषह या कष्ट उस पर आ पड़ता है तो अपने नियम की प्रतिज्ञा से डिगता नहीं। निदान-शल्य अर्थात् इहलोक सम्बन्धी यश सुख; संपत्ति या परलोग सम्बन्धी शुभगति की वांछा से रहित होकर वैराग्य भावना का ही चिंतवन किया करता है। अभक्ष्य और अन्याय को अत्यन्त अनर्थ का कारण जानकर त्याग करता है। संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होता है। माया, मिथ्या और निदान तीनों शल्यों से रहित होकर सम्यक्-दर्शन का निरतिचार पालन करता है। २. व्रत प्रतिमा - पूर्वोक्त बारह व्रतों का पालन करना। इस प्रतिमा का पालन करने वाला पाँच अणुव्रतों का अतिचार रहित पालन करता है और उनके सहायक तीन गुणव्रत, और चार शिक्षाव्रत अर्थात् सप्त शीलव्रतों का भी निर्दोष पालन करता है। व्रत प्रतिमा का धारक श्रावक दृढ़चित्त, समभाव संयुक्त और ज्ञानवान् होता है। ३. सामायिक प्रतिमा - इस प्रतिमा का धारी श्रावक नियमपूर्वक सबेरे, दोपहर, और सन्ध्या समय प्रतिदिन तीन बार विधिपूर्वक निरतिचार सामायिक (जाप्य, ध्यान, स्वाध्याय आदि) किया करता है। सामायिक में कम से कम समय अन्तर्मुहूर्त अर्थात् ४८ मिनट अवश्य लगाना चाहिये। ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा - इस प्रतिमा का धारी श्रावक धर्मध्यान में लीन होकर, प्रत्येक महीने की दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, चारों ही पर्व के दिनों में, अपनी शक्ति को न छिपा कर, नियमपूर्वक निरतिचार प्रोषधोपवास किया करता है। PEER ५. सचित्तत्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा का धारी श्रावक कंद-मूलफल, शाक, कोंपल, जमीकन्द, फूल, बीज आदि पदार्थों को कच्चे नहीं खाता है। जिह्वा इन्द्रिय के विषय को जीतने के आशय से गर्म या प्रासुक पानी पीता है। सचित्त पदार्थ का भक्षण नहीं करता है। सचित्त को अचित्त बनाने की विधि यह है -शोमीट किया सुक्कं पक्कं तत्तं अंविल लवणे हिं मिस्सियं दव्वं । जं जंतेण या छिएणं तं सव्वं फासुयं भणियं ।। गार अर्थात् सुखाया हुआ, पकाया हुआ, तपाया हुआ, खटाई और नमक से मिला हुआ तथा जो यंत्र से छिन्न-भिन्न किया हुआ, अर्थात् शोधा हुआ ऐसा सब हरितकाय प्रासुक अर्थात् जीवरहित अचित्त होता है। पा, ६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा का धारी सम्यक्दृष्टि श्रावक रात्रि को न तो स्वयं ही किसी प्रकार का जलपान व भोजन करता है और न ही दूसरे को कराता जैन आचार-मीमांसा १६५ है। खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय -इन चारों ही प्रकार के आहार का रात्रि के समय सर्वथा त्यागी होता है। इसमें दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनट सूर्यास्त से पहले तक व ४८ मिनट सूर्योदय होने पर भोजन-पान करना। रात्रि को भोजन सम्बन्धी आरम्भ भी नहीं करना तथा पूर्ण सन्तोष रखना आवश्यक है। ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा - जो ज्ञानी सम्यक्दृष्टि श्रावक, समस्त ही चार प्रकार की स्त्री-देवांगना, मनुष्यणी, तिर्यंचनी और चित्राम-आदिकरूप स्त्री की अभिलाषा मन, वचन, काय से नहीं करता है, वही ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारक कहा जाता है। इस प्रतिमा का धारक अपनी स्त्री के भोग का भी त्यागी रहता है। ८. आरम्भ-त्याग प्रतिमा - जो श्रावक गृहकार्य, नौकरी चाकरी, खेती, व्यापार आदि से विरक्त हो जाता है अर्थात् इन सबका त्याग कर देता है, वह आरम्भत्याग प्रतिमा का धारी कहलाता है। इस प्रतिमा के धारी को यदि अपना पुत्र आदिक या अन्य कोई सुश्रावक भोजन के लिये बुलावे तो वह वहाँ भी भोजन न करे । परन्तु इस प्रतिमा को धारण करने वाला अभिषेक, दान, पूजा आदि का पालन करता है। लिक्विार ६. परिग्रह-त्याग प्रतिमा - जो ज्ञानी सम्यक्दृष्टि श्रावक अंतरंग और बाह्य दोनों प्रकार के परिग्रह को पाप का कारण जान हर्ष भाव के साथ त्याग करता है वही परिग्रहत्याग प्रतिमा का धारी कहलाता है। प्रतिमाधारी श्रावक अपने लिये कुछ आवश्यक वस्त्रादि रखकर धर्मशाला, आश्रम आदि में ठहरता है और भक्ति से बुलाये जाने पर जो मिले सन्तोष पूर्वक भोजन कर लेता है। गिाए १०. अनुमति-त्याग प्रतिमा - जो खेती, व्यापार आदि आरम्भ, धन-धान्य आदि परिग्रह और विवाह आदि इहलोक सम्बन्धी कार्य को पाप का मूल कारण जानकर इनमें अपनी सम्मति नहीं देता, वह ममत्व रहित पुरुष अनुमति त्याग प्रतिमा को धारण करने वाला कहलाता है। इस प्रतिमा का धारक घर में भी, बाहर - चैत्यालय, मठ, मन्दिर में भी रहता है। भोजन के लिये यदि कोई घर का या और कोई श्रावक बुलाने के लिये आता है, तो जीम आता है, ऐसा नहीं कहता कि हमारे लिये अमुक भोज्य वस्तु तैयार कर दीजिये। 1 ११. उद्दिष्ट-त्याग प्रतिमा - जो सम्यकदृष्टि श्रावक घर को छोड़ मठ, मण्डप या वसतिका में जाकर रहता है, गुरु के पास व्रत धारणकर तपश्चरण करता है, अनेक घरों से प्राप्त हुई भिक्षा का भोजन करता है और कोपीन मात्र खण्ड-वस्त्र धारण करता है, वह उद्दिष्टत्याग प्रतिमा का धारण करने वाला उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। इस प्रतिमा में अपने - निमित्त बनाये हुए भोजन का त्याग किया जाता है। जो भोजन गृहस्थ ने अपने कुटुम्ब के लिये बनाया हो, उसी में से भिक्षा द्वारा भक्ति से दिये जाने पर ग्रहण कर लिया जाता है। १६६

  • जैनदर्शन कर इस प्रतिमा के दो भेद हैं: (१) क्षुल्लक - जो एक खण्ड चादर व एक कौपीन या लंगोट रखते हैं, मोर पंख की पीछी और एक कमण्डल रखते हैं। अभ्यास हेतु केशलुंचन करते या कैंची आदि से बाल उतरवा भी लेते हैं, गृहस्थ के यहां बैठकर कटोरा आदि में एकबार भोजन करते हैं। (२) ऐलक - जो केवल एक लंगोटी रखते हैं, मुनि की क्रियाओं का अभ्यास करते हैं। गृहस्थ के यहां खड़े होकर हाथ में ही भोजन करें। स्वयं मस्तक, दाढ़ी और मूंछ के केशों का हाथ से तुंचन (केशलुंचन) करते हैं। कि इस तरह जब इस जीव के अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव हो जाता है, तो यह जीव पांचवें गुणस्थान में पदारोहण करता है, और उस गुणस्थान सम्बन्धी प्रतिज्ञाओं का निरतिचार पालन करता है। इस गुणस्थान में ही प्रत्याख्यानावरण कषाय के तीव्र-मन्द भेदों की अपेक्षा ग्यारह प्रतिमारूप श्रावक के एकादश चारित्र के भेद किये गये हैं। जैसे-जैसे कषायें मन्द होती जाती हैं, वैसे-वैसे अगली-अगली प्रतिमा की प्रतिज्ञा होती चली जाती है। इन प्रतिज्ञाओं में आत्मध्यान का अभ्यास बढ़ाया जाता है और इससे जीव की धीरे-धीरे आत्मोन्नति होती चली जाती है। नि यदि जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव हो जाता है तो वह दीक्षा पूर्वक मुनि पद को ग्रहण कर अपनी आत्मा का अधिक कल्याण करता है। यदि मुनि पद को ग्रहण करने की शक्ति तथा योग्यता अपने में नहीं देखता तो श्रावक के धर्म का ही पालन करता हुआ मरणान्त समय में आराधना सहित होकर एकाग्रचित्त कर, पंच परमेष्ठी का ही ध्यान करते हुए सल्लेखना पूर्वक अपने प्राणों का त्याग करता है, और विशेष पुण्य का बन्धकर शुभगति को प्राप्त होता है। वह यहाँ विशेष यह है कि पहली प्रतिमा से छठी प्रतिमा तक पालन करने वाला जघन्य श्रावक कहलाता है, सप्तम, अष्टम एवं नवम प्रतिमा का धारक मध्यम श्रावक और दसवीं ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। जो भव्य मुनिधर्म के पालन में असमर्थ हैं, उन्हें योग्य है कि अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थ धर्म का निर्दोष पालन करें और अपने जीवन को सफल बनावें। क्योंकि इन एकादश प्रतिमाओं तक श्रावक धर्म की सीमा है। इससे आगे श्रमणाचार शुरू होता है। इन प्रतिमाओं के विषय में विशेष यह समझना चाहिये कि जो जिस प्रतिमा का धारी होता है, उसे उससे नीचे की सब प्रतिमाओं के आचार का पालन करना आवश्यक होता है। आयु के अन्त में सभी तरह के श्रावकों को सल्लेखना, संथारा अर्थात् समाधिमरणपूर्वक सम्पूर्ण श्रावकाचार पालन की सार्थकता हो जाती है।

चारित्रपाहुड

पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थों के कर्ता प्रथम शताब्दी १६७ जैन आचार-मीमांसा के महान् आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित अष्टपाहुड के अन्तर्गत चारित्रपाहुड शौरसेनी प्राकृत भाषा की ४५ गाथाओं में निबद्ध है, जिसमें उन्होंने संक्षेप में आरम्भ की २६ गाथाओं में श्रावक और बाद की १६ गाथाओं में श्रमण इन दोनों के आचार को प्रमुखता से प्रस्तुत किया है। चारित्र पाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा संक्षेप में श्रावकाचार का गागर में सागर की तरह प्रतिपादन हुआ है। रयणसार - इस ग्रन्थ में श्रावकाचार सम्बन्धी स्फुट प्रतिपादन मिलता है। इसे कुछ विद्वान् आ० कुन्दकुन्द की कृति मानते हैं, तो कुछ नहीं। इसके बाद के श्रावकाचार विषयक प्रमुख संस्कृत-ग्रन्थ इस प्रकार हैं - - १. रत्नमाला - शिवकोटि वि० २री शती २. पद्मचरित - आ० रविषेण वि० वीं शती ३. वराङ्चरित (१२खें सर्ग) जटासिंहनन्दी वि० ८-६वीं शती - ४. हरिवंशपुराण (५८ सर्ग) आ० जिनसेन प्रथम (वि० वीं शती के मध्य) ५. महापुराण (३८, ३६, १६०वाँ पर्व, आ० जिनसेन || (६वीं शती उत्तरार्ध) ६. पुरुषार्थसिद्धशुपाय - अमृतचन्द्राचार्य (१०वीं शती) ७. उपासकाध्ययन : सोमदेव सूरि (वि० १०१६) .. ८. अमितगति श्रावकाचार (१४ परिच्छेद) (वि० की ११वीं शती का उत्तरार्ध) ६. चारित्रसार-चामुण्डराय (मुनि और श्रावकाचार विषयक) वि० की १० शती पूर्वार्ध १०. वसुनन्दि श्रावकाचार (प्राकृत) ११. सागारधर्मामृत - पं० आशाधर (१३ शती) १२. धर्मसंग्रह (धर्म कथाओं के माध्यम से श्रावकाचार) पं० मेधावी - वि० १६वीं शती १३. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (२४ परिच्छेद, २८८० श्लोक) भ० सकलकीर्ति (१५वीं शती) १४. गुणभूषण श्रावकाचार (समय अज्ञात) १५. धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार (ब्रह्म नेमिदत्त वि० १६वीं उत्तरार्ध) १६. लाटी संहिता (११वीं प्रतिमा को ऐलक और क्षुल्लक कहा) राजमल्ल, १७वीं शती। १७. उमास्वामी श्रावकाचार (लेखक समय अस्पष्ट) १८. पूज्यपाद श्रावकाचार ( वय नाम जापान १६. व्रतसार (२२ श्लोक) ( ) २०. व्रतोद्योतन श्रावकाचार - अभ्रदेव (वि० १६वीं शती) २१. श्रावकाचार सारोद्धार (पद्मनन्दि वि० १४वीं शती पूर्वार्ध) २२. भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन (श्री जिनदेव वि० १६वीं शती)। - २३. पंचविंशतिकागत श्रावकाचार (पद्मनंदि) वि० १२वीं शती) २४. संस्कृत भावसंग्रह (वामदेव समय अज्ञात) १६८ जैनदर्शन २५. पुरुषार्थानुशासनगत श्रावकाचार (६ अवसर-परिच्छेद) पं० गोविन्द (वि० १६वीं शती) २६. कुन्दकुन्द श्रावकाचार (लेखक एवं समय अस्पष्ट) २७. श्रावकधर्मविधि - जिनेश्वर (जिनपतिसूरि के शिष्य) वि० सं० १३०३ मादक २८. श्राद्धगुणश्रेणिसंग्रह - जिनमण्डनगणी वि० सं० १४१८ २६. धर्मरत्नकरण्डक - वर्धमानसूरि वि० सं० ११७२ ३०. श्राद्धविधि - रत्नशेखरसूरि, विधिकौमुदी नामक स्वोपज्ञवृत्ति सहित, वि० सं० १५०६ इनके अतिरिक्त श्रावकाचार विषयक संस्कृत के कुछ प्रमुख श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत है फैट लिन

तत्त्वार्थसूत्र

आचार्य उमास्वामी द्वारा संस्कृत भाषा के इस प्रथम जैनसूत्र ग्रन्थ में निबद्ध श्रावकधर्म का वर्णन सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। यह ग्रंथ दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों में समान रूप से मान्य है। उमास्वामि का समय विक्रम की प्रथम शती का अन्तिम चरण और दूसरी शती का पूर्वार्ध माना जाता है।

रत्नकरण्डक श्रावकाचार

विक्रम की दूसरी शताब्दी के प्रखर तार्किक, जैनन्याय के आद्य प्रणेता आचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा सरलतम संस्कृत भाषा में रचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार इस विषयक प्रथम स्वतंत्र कृति मानी जाती है। श्रावकधर्म पिपासु एवं जिज्ञासु जनों के लिए यह सचमुच में रत्नों का पिटारा ही है, उन्होंने सम्यग्दर्शन को श्रावकधर्म का एकमात्र आधार मानते हुए उसकी महिमा का विशेष प्रतिपादन यहाँ किया है। मामा नन्धिार

रत्नमाला

रत्नमाला के कर्ता विक्रम की दूसरी शती के आचार्य शिवकोटि ने इस ग्रन्थ में रत्नत्रय धर्म की महत्ता बतलाते हुए श्रावकधर्म का ही प्रमुखता से वर्णन किया है। सर्वप्रथम सम्यक्त्व की महिमा बताकर वीतरागी देव, सत्यप्रतिपादित शास्त्र और निरारम्भी दिगम्बर गुरु के आह्वान करने को सम्यक्त्व कहा है। आगे बताया है कि प्रकाम, संवेगादिवान्, तत्त्वनिश्चयवान् मनुष्य जन्म-जरातीत मोक्ष पदवी को प्राप्त करता है। पश्चात् १२ व्रतों का उल्लेख कर दिग्व्रत, अनर्थदण्ड विरति और भोगोपभोगसंख्यान- ये तीन गुणव्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि-पूजन और मारणान्तिकी सल्लेखना-ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं। १६६ है जैन आचार-मीमांसा

कार्तिकेयानुप्रेक्षागत श्रावकाचार

दूसरी-तीसरी शताब्दी के सुप्रसिद्ध आचार्य कुमारस्वामी कार्तिकेय द्वारा लिखित इस ग्रन्थ में अनित्य, अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) के विवेचन प्रसंग में धर्मानुप्रेक्षा के अन्तर्गत श्रावक-धर्म का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यह प्राकृत भाषा में है। इसमें प्रतिपादित श्रावक की एकादश प्रतिमाओं का स्वरूप-विवेचन काफी महत्त्वपूर्ण है।

पद्मचरित

आचार्य रविषेण विक्रम की आठवीं शती के पूर्वार्ध में हुए हैं। यद्यपि संस्कृत के इस महाकाव्यमय ग्रन्थ में राम और इनसे संबन्धित महापुरुषों का चरित्र चित्रण किया है। प्रसंगतः उन्होंने इसके चौदहवें पर्व में श्रावकधर्म का विस्तृत एवं अच्छा वर्णन किया है। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के रूप में श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन ग्रन्थकार ने किया है। अन्त में मद्य, मांस, मधु, द्यूत, रात्रिभोजन और वेश्यागमन-इन सबके त्याग का विधान भी रोचक तरीके से किया है। न जाने का मार ਨੇ ਸਾਨੂੰ ਵੀ ਡਰ ਨਲੀ ਨੂੰ ਝ

वराङ्गचरित

आठवीं शती के आचार्य जटासिंहनन्दि ने संस्कृत के इस महत्त्वपूर्ण चरित महाकाव्य में राजकुमार वरांग का चरित्र-चित्रण प्रस्तुत किया है। प्रसंगतः प्रस्तुत ग्रन्थ के पन्द्रहवें सर्ग के प्रारम्भ में श्रावकधर्म का वर्णन करते हुए इस दयामयी धर्म से सुख की प्राप्ति बताकर उसके धारण की प्रेरणा की है तथा गृहस्थों को दुःखों से छूटने के लिए व्रत, शील, तप, दान, संयम और अर्हत्पूजन करने का विधान किया गया है। श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन करते हुए अहिंसाणुव्रत की सामयिक परिभाषा देते हुए आचार्य जटासिंहनन्दि कहते हैं कि “देवता की प्रीति के लिए, अतिथि के आहार के लिए, मंत्र साधना के लिए, औषधि के बनाने के लिए और भय के प्रतिकार तक के लिए भी प्राणी हिंसा नहीं करना अहिंसाणुव्रत कहलाता है।

हरिवंश पुराण

विक्रम की आठवीं शताब्दी के आचार्य जिनसेन प्रथम ने अपने हरिवंशपुराण के ५.वें सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के अनुसार ही किया है। इसके साथ ही पाँचों पापों का स्वरूप-वर्णन भी सुन्दर तरीके से किया है। गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों के भेद भी बताये गये हैं। के २०० जैनदर्शन

महापुराण

का नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महापुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ने इसके ३८, ३६ और ४० पर्व में क्रियाकाण्ड एवं ब्राह्मणों की सृष्टि का विशद निरूपण किया है। गर्भान्वयी क्रियाओं के ५३ भेदों का विस्तृत वर्णन ३त्वें पर्व में किया गया है। दीक्षान्वयी क्रियाओं का वर्णन ३८वें पर्व में किया गया है। सज्जातित्व, सद्गृहित्व, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, आर्हन्त्य और निवृत्ति (मुक्ति प्राप्ति) रूप सात परम स्थानों का भी वर्णन ३६वें पर्व में किया गया है।

पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय

दसवीं शताब्दी में अमृतचन्द्राचार्य रचित इस ग्रन्थ के अनुसार जब यह चिदात्मा पुरुष अचल चैतन्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह परम पुरुषार्थरूप मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। इस मुक्ति की प्राप्ति का उपाय बतलाते हुए उन्होंने सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है। उन्होंने श्रावकाचार प्रधान इस ग्रन्थ में बताया है कि किस प्रकार एक मनुष्य हिंसा करता है और अनेक मनुष्य उस हिंसा फल प्राप्त करने को मजबूर होते है। अनेकजन हिंसा करते हैं और एक व्यक्ति को उस हिंसा का फल भोगना पड़ता है। किसी को अल्प हिंसा महाफल देती है और किसी की महाहिंसा अल्पफल को देती है। इस प्रकार नाना विकल्पों द्वारा हिंसा-अहिंसा का उपयोगी, व्यावहारिक और महत्त्वपूर्ण विवेचन उपलब्ध जैन वाङ्मय में अपनी समता नहीं रखता। ग्रन्थकार ने हिंसा-अहिंसा का अति सूक्ष्म स्वरूप बताते हुए कहा है कि अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।। ४४॥ अर्थात् रागादि भावों का प्रकट न होना अहिंसा है तथा उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्ति होना हिंसा कहलाती है। यही जैन सिद्धान्त का सार है। शार

उपासकाध्ययन

_ वि० सं० १०१६ के पूर्व हुए आचार्य सोमदेवसूरि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘यशस्तिलक चम्पू’ में धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा कि जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति हो, वह धर्म है। गृहस्थ का धर्म प्रवृत्ति रूप है और मुनि का धर्म निवृत्ति रूप होता है। सोमदेव ने आप्त, आगम और पदार्थों के त्रिमूढ़तादि दोषों से विमुक्त और अष्ट अंगों से संयुक्त श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। जैन आचार-मीमांसा २०१ पूजन के प्रकरण में आ० सोमदेव ने दो विधियों का वर्णन किया है - एक तदाकार मूर्तिपूजन विधि, दूसरी अतदाकार सांकल्पिक पूजनविधि। सामायिक के प्रातः, मध्यान्ह और सायं - इन तीनों काल (समय) का सुन्दर वर्णन करते हुए कहते हैं कि - प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्याहसन्निधिरयं मुनिमाननेन। - सायन्नोऽपि समयो मम देव यायान्नित्यं त्वदाचरणकीर्तनकामितेन।। ५२६

अमितगति श्रावकाचार

विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आचार्य अमितगति अपने श्रावकाचार में १४ परिच्छेदों द्वारा श्रावक धर्म का बहुत विस्तार के साथ वर्णन किया है। प्रथम परिच्छेद में धर्म का माहात्म्य, दूसरे में मिथ्यात्व की अहितकारिता और सम्यक्त्व की हितकारिता, तीसरे में सप्ततत्त्व, चौथे में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि और ईश्वर-सृष्टिकर्तृत्व का खंडन किया गया है। अन्तिम तीन परिच्छेदों में क्रमशः शील, द्वादश तप और बारह भावनाओं का वर्णन है।

चारित्रसार ग्रन्थगत-श्रावकाचार

चारित्रसार नामक संस्कृत गद्य ग्रंथ में मुनिधर्म के साथ ही ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक धर्म का वर्णन किया गया है। दर्शनप्रतिमा का वर्णन करते हुए एक प्राचीन पद्य उद्धृत करके बताया गया है कि सम्यक्त्व संसार-सागर में निर्वाण-द्वीप को जानेवाले भव्य सार्थवाह के जहाज का कर्णधार है। इस प्रतिमाधारी को सप्त-भयों से मुक्त और अष्ट अंगों से सहित होना चाहिए। अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का भी वर्णन किया गया है। अन्त में मारणान्तिकी सल्लेखना का वर्णन किया गया है। 2इस ग्रन्थ के कर्ता श्री चामुण्डराय विक्रम की दसवीं शती के पूर्वार्ध में हुए हैं। ये महाराज मारसिंह द्वितीय के प्रधानमंत्री थे। चामुण्डराय द्वारा ही श्रवणवेलगोला (कर्नाटक) में ५७ फुट ऊँची विशाल एवं भव्य विश्वप्रसिद्ध गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति की स्थापना कराई थी।

वसुनन्दि-श्रावकाचार

आचार्य वसुनन्दि ने ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावक धर्म का वर्णन किया है। यद्यपि यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में है किन्तु आपके द्वारा संस्कृत भाषा में अनेक टीका एवं मौलिक ग्रन्थों की रचना हुई है। इसमें उन्होंने सर्वप्रथम दार्शनिक श्रावक को सप्त व्यसनों का त्याग आवश्यक बताकर व्यसनों के दुष्फल का विस्तार से वर्णन किया है। बारह व्रतों के२०२ जैनदर्शन और ग्यारह प्रतिमाओं का भी बड़े रोचक तरीके से इसमें वर्णन किया है। आचार्य वसुनन्दि विक्रम की बारहवीं शती के पूर्वार्ध में हुए हैं।

सागारधर्मामृत

इस ग्रन्थ के कर्ता पं० आशाधर जी तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुए सरस्वती पुत्र हैं। इन्होंने मुनिधर्म के लिए अनगार-धर्मामृत लिखा तथा सागारधर्मामृत नामक पूरा का पूरा ग्रन्थ श्रावकों के लिए ही लिखा है। इसमें श्रावक के कर्त्तव्यों का एक अंश भी नहीं छूट पाया है। यह ग्रन्थ श्रावकों के लिए अमूल्य अनुपम निधि है। ग्रन्थकार ने इसमें श्रावक के कर्त्तव्यों का अच्छा विवेचन कर “गागर में सागर” कहावत को चरितार्थ किया है।

धर्मसंग्रह

इस ग्रन्थ के कर्ता पं० मेधावी कवि विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं। प्रस्तुत श्रावकाचार का प्रारम्भ कथा-ग्रन्थों के समान मगध देश तथा इसके नरेश श्रेणिक के वर्णन से किया गया है और इसी वर्णन में प्रथम अधिकार समाप्त हुआ है। दूसरे अधिकार में वनपाल द्वारा भ० महावीर के विपुलाचल पर पधारने की सूचना मिलने पर राजा श्रेणिक का भगवान् की वन्दना को जाने का और उनके समवशरण का विस्तृत वर्णन है। तीसरे अधिकार में राजा श्रेणिक का भगवान् महावीर की वन्दना-स्तुति करके मनुष्यों के लिए निर्धारित के कोठे में बैठना और उपदेश सुनकर व्रत नियमों आदि के विषय में पूछने पर गौतम गणधर द्वारा धर्म का उपदेश प्रारम्भ किया गया है। मन तर इनके आगे के अधिकारों में सम्यक्त्व और उसके महत्त्व का वर्णन है। दर्शन प्रतिमा का वर्णन, अष्टमूलगुणों का निरूपण तथा काक-मांस त्यागी खदिरसार का कथानक है। गुणव्रत, शिक्षाव्रत, ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन, समिति, चार आश्रमों का इज्या, वार्तादि षटकमों का. पूजन के छह प्रकारों आदि का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सल्लेखना का भी विवेचन किया गया है। सूतक-पातक का अच्छा वर्णन भी इस ग्रन्थ में मिलता है।

प्रश्नोत्तर श्रावकाचार

पंद्रहवीं शती के विद्वान् भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा रचित श्रावकाचार की श्लोक संख्या २८८० है। यह सभी श्रावकाचारों में बड़ा है। इसके २४ परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में धर्म की महत्ता, दूसरे में सम्यग्दर्शन और उसके विषयभूत सप्त-तत्त्वों एवं पुण्य-पाप का विस्तृत वर्णन, तीसरे में सत्यार्थ देव, गुरु, धर्म और कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का विस्तृत वर्णन है। चौथे परिच्छेद से लेकर दशवें परिच्छेद में सम्यक्त्व के आठों अंगों में प्रसिद्ध पुरुषों के कथानक दिये गये हैं। ग्यारहवें परिच्छेद में सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन है। जैन आचार-मीमांसा २०३ बारहवें परिच्छेद में अष्टमूलगुण, सप्तव्यसन, हिंसा के दोषों और अहिंसा के गुणों का वर्णन कर अहिंसाणुव्रत में प्रसिद्ध मातंग का और हिंसा-पाप में प्रसिद्ध धनश्री का कथानक दिया गया है। इसी प्रकार तेरहवें परिच्छेद से लेकर सोलहवें परिच्छेद तक सत्यादि चारों अणुव्रतों का वर्णन और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के तथा असत्यादि पापों में प्रसिद्ध पुरुषों के कथानक दिये गये हैं। ___ सत्रहवें परिच्छेद में तीन गुणव्रतों का वर्णन है। अठारहवें परिच्छेद में देशावकाशिक और सामायिक शिक्षाव्रत का तथा उसके ३२ दोषों का विस्तृत विवेचन है। उन्नीसवें परिच्छेद में प्रोषधोपवास का और बीसवें परिच्छेद में अतिथि-संविभाग का विस्तार से वर्णन किया गया है। इक्कीसवें परिच्छेद में आहारादि चारों दानों में प्रसिद्ध व्यक्तियों के कथानक हैं। बाईसवें परिच्छेद में समाधिमरण का विस्तृत निरूपण कर तीसरी, चौथी, पांचवीं और छठी प्रतिमा का वर्णन कर रात्रिभोजन के दोषों का वर्णन किया गया है। तेईसवें परिच्छेद में आठवीं, नवमी प्रतिमा का स्वरूप वर्णन है। चौबीसवें परिच्छेद में दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा का वर्णन करके अन्त में छह आवश्यकों का निरूपण किया गया है। न

गुणभूषण श्रावकाचार

ग्रन्थकार श्रीगुणभूषण ने प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम उद्देश में मनुष्यभव और सद्धर्म की प्राप्ति दुर्लभ बताकर सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश दिया गया है तथा सम्यक्त्व के अंगों और भेदों का और उसकी महिमा का वर्णन किया गया है। दूसरे उद्देश में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताकर मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञानों का वर्णन किया गया है। तीसरे उद्देश में चारित्र का स्वरूप बताकर विकल चारित्र का वर्णन ग्यारह प्रतिमाओं के आश्रय से किया गया है। इसी के अन्त में विनय, वैयावृत्य, पूजन और ध्यान के प्रकारों का भी वर्णन है। इसी ग्रन्थ में सात तत्त्वों, श्रावक के १२ व्रतों, ११ प्रतिमाओं, पिण्डस्थ आदि ध्यानों का अच्छा वर्णन किया गया है।

धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार

_इस ग्रन्थ में पाँच अधिकार हैं। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताकर उसके आठ अंगों का, २५ दोषों का और सम्यक्त्व के भेदों का वर्णन है। दूसरे अधिकार में सम्यग्ज्ञान और चारों अनुयोगों का स्वरूप बताकर द्वादशांग श्रुत के पदों की संख्या का वर्णन है। तीसरे में आठ मूलगुणों का, चौथे में बारह व्रतों का वर्णनकर मंत्र-जाप जिनबिम्ब और जिनालय के निर्माण का फल बताकर ११ प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। पांचवें अधिकार में सल्लेखना का वर्णन किया है। इसके ग्रन्थकर्ता श्री ब्रह्मनेमिदत्त भट्टारक विक्रम की सोलहवीं शती के उत्तरार्ध में हुए हैं। २०४ जैनदर्शन

लाटीसंहिता

श्रावकाचार विषयक प्रमुख ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लाटीसंहिता में ७ सर्ग हैं। उनमें प्रथम सर्ग में वैराट नगर, अकबर बादशाह, काष्ठासंघी भट्टारक वंश और उनके वंशधरों द्वारा बनाये गये जिनालय आदि का विस्तृत वर्णन है। द्वितीय सर्ग में अष्ट मूलगुणों के धारण करने और सप्त व्यसनों के त्याग का वर्णन है। तीसरे सर्ग में सम्यग्दर्शन का सामान्य स्वरूप भी बहुत सूक्ष्म एवं गहन गाम्भीर्य से वर्णन किया गया है। चतुर्थ सर्ग में सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का, पंचम सर्ग में अहिंसाणुव्रत का, षष्ठ सर्ग में शेष चार अणुव्रतों, गुणव्रत-शिक्षाव्रत के भेदों और सल्लेखना का वर्णन है। सप्तम सर्ग में सामायिकादि शेष प्रतिमाओं और द्वादश तपों का निरूपण किया गया है। ग्यारहवीं प्रतिमा वाले को प्रस्तुत ग्रन्थ में “क्षुल्लक” और “ऐलक” कहा है।

उमास्वामी श्रावकाचार

काचार माह इस श्रावकाचार में अध्याय विभाग नहीं है। प्रारम्भ में धर्म का स्वरूप बताकर सम्यक्त्व का सांगोपांग वर्णन है। पुनः देवपूजादि श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में विभिन्न परिमाण वाले जिनबिम्ब के पूजने के शुभ-अशुभ फल का वर्णन है तथा इक्कीस प्रकार वाला पूजन, पंचामृताभिषेक, गुरूपास्ति आदि शेष आवश्यक, १२ तप और दान का विस्तृत वर्णन है। तत्पश्चात् सम्यग्ज्ञान का वर्णन कर सम्यक् चारित्र के विकल भेदरूप श्रावक के आठ मूलगुणों, बारह उत्तरव्रतों का, सल्लेखना का विवेचन करते हुए सप्त-व्यसनों के त्याग का उपदेश किया गया है।

पूज्यपाद-श्रावकाचार

उमास्वामी श्रावकाचार की तरह इस ग्रन्थ के लेखक भी कोई परवर्ती भट्टारक ही प्रतीत होते हैं, जिन्होंने आचार्य पूज्यपाद के नाम से इस ग्रन्थ की रचना की है। प्रस्तुत ग्रंथ में भी अधिकार विभाग नहीं है। श्लोक संख्या १०३ है। प्रारम्भ में सम्यक्त्व का स्वरूप और माहात्म्य बताकर आठ मूलगुणों का वर्णन है। श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण करके सप्त व्यसनों के त्याग और कन्दमूलादि अभक्ष्य पदार्थों का निषेध किया गया है। तत्पश्चात् मौन के गुण बताकर आहारादि चार प्रकार के दान के फल का विस्तृत वर्णन है। जिनबिम्ब के निर्माण, जिनपूजन और पर्व के दिनों में उपवास करने की प्रेरणा दी

व्रतसार

नाममा कमी परवर्ती अज्ञात कर्तृक प्रस्तुत श्रावकाचार लघुकाय है। इसमें मात्र बाईस श्लोक हैं। जैन आचार-मीमांसा २०५ इसमें मुख्यतः सुख, दुःख, मार्ग, संग्राम आदि में सर्वत्र पंचनमस्कार मंत्र के पाठ करते रहने का उपदेश देकर यात्रा, पूजा, प्रतिष्ठा करने और जीर्ण चैत्य चैत्यालयादि के उद्धार की प्रेरणा की गयी है।

व्रतोद्योतन श्रावकाचार

श्री अभ्रदेव द्वारा वि० सं० १५५६ से १५६३ के मध्य ५४२ संस्कृत पद्यों में रचित इस श्रावकाचार में भी कोई अध्याय विभाग नहीं किया गया है। सम्यक्त्व के आठ अंगों, रत्नत्रय और क्षमादि दस धर्मों का वर्णन कर आत्मा के अस्तित्व की भी सिद्धि की गई है। ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व का निराकरण करके जैन मान्यता प्रतिष्ठित की गई है। अन्त में मिथ्यात्व आदि कर्म-बन्ध के कारणों का वर्णन कर अहिंसादि व्रतों के अतिचारों, व्रतों की भावनाओं, सामायिक और वन्दना के बत्तीस-बत्तीस भेदों का वर्णन कर सम्यग्दर्शन की महिमा का निरूपण किया गया है।

श्रावकाचार सारोद्धार

भट्टारक पद्मनन्दि विरचित प्रस्तुत ग्रंथ में सम्यक्त्व के अष्टांगों, आठ मूलगुणों का वर्णन करते हुए मद्य, मांसादि के सेवन जनित दोषों का विस्तृत वर्णन है। ग्रन्थकार पद्मनन्दि विक्रम की चौदहवीं शती के पूर्वार्ध में हुए हैं। अ गर

भव्यधर्मोपदेश-उपासकाध्ययन

विक्रम की १६वीं शती के पं० श्री जिनदेव द्वारा रचित इस श्रावकाचार में छह परिच्छेद हैं। ग्यारह प्रतिमाओं का निर्देशकर सर्वप्रथम दर्शन प्रतिमा का निरूपण किया है। इस प्रतिमाधारी को निर्दोष अष्ट-अंग युक्त सम्यग्दर्शन धारण करने के साथ अष्टमूलगुणों का पालन, रात्रि-भोजन और सप्त व्यसन का त्याग आवश्यक बताया गया है। दूसरे परिच्छेद में जीवादिक तत्त्वों का वर्णन किया गया है। तीसरे परिच्छेद में जीवतत्त्व का आयु, शरीर-अवगाहना, कुल, योनि आदि के द्वारा विस्तृत विवेचन किया गया है। चौथे परिच्छेद में व्रत-प्रतिमा के अन्तर्गत श्रावक के बारह व्रतों का और सल्लेखना का संक्षिप्त वर्णन है। पाँचवें परिच्छेद में सामायिक प्रतिमा के वर्णन के साथ ध्यान-पद्धति का वर्णन है। छठे परिच्छेद में प्रोषध प्रतिमा का विस्तार से और शेष प्रतिमाओं का संक्षेप में वर्णन किया गया है।

पद्मनन्दि पंचविंशतिका ग्रन्थगत-श्रावकाचार

प्रस्तुत ग्रन्थ बारहवीं शती के आचार्य पद्मनन्दि द्वारा रचित है। इसमें गृहस्थ के देवपूजादि षट्कर्तव्यों का वर्णन करते हुए सामायिक की सिद्धि के लिए सप्तव्यसनों का त्याग आवश्यक बताया गया है। २०६ जैनदर्शन

भावसंग्रह

दसवीं सदी के आ० देवसेन ने प्राकृत भाषा में भावसंग्रह ग्रन्थ में अन्य सैद्धान्तिक विषयों के साथ ही श्रावकधर्म का भी विवेचन किया है किन्तु चौदहवीं शती के आसपास पं० वामदेव ने संस्कृत भावसंग्रह नाम से प्रसिद्ध प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावकधर्म का वर्णन किया गया है। अतिथिसंविभाग व्रत का वर्णन दाता, पात्र, दान विधि और देय वस्तु के साथ विस्तार से किया गया है।

पुरुषार्थानुशासनगत श्रावकाचार

पं० गोविन्द द्वारा रचित पुरुषार्थानुशासन में अध्याय या परिच्छेद के स्थान पर “अवसर" शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके प्रथम अवसर में चारों पुरुषार्थों की विशेषताओं का दिग्दर्शन है और दूसरे में पुराणों के समान राजा श्रेणिक भगवान महावीर के वन्दनार्थ जाने और “मनुष्य जन्म की सार्थकता के लिए किस प्रकार का आचरण करना चाहिए”? इस प्रकार का प्रश्न पूछने पर गौतम गणधर द्वारा पुरुषार्थों के वर्णन रूप कथा सम्बन्ध का वर्णन है। तीसरे अवसर में धर्म, पुरुषार्थ का स्वरूप, फल और श्रावक धर्म बताकर ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावकाचार का वर्णन, सभी व्रतों और शीलों में सम्यग्दर्शन की प्रधानता, देव-शास्त्र, गुरु और धर्म का स्वरूप, सम्यक्त्व का स्वरूप और भेदों का वर्णन, आठ अंगों, २५ दोषों का वर्णन आदि है। चौथे अवसर में आठ मूलगुणों, सप्तव्यसनों, रात्रिभोजन की निन्दा और पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और भोगोपभोग एवं अतिथि संविभाग- इन दो शिक्षाव्रतों का वर्णन व्रतप्रतिमा के अन्तर्गत है। पाँचवें अवसर में सामायिक प्रतिमा, सामायिक स्वरूप, पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत धर्मध्यान का विस्तृत वर्णन किया गया है। छठे अवसर में चौथी प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक का सुन्दर, विशद वर्णन किया गया है। अन्त में समाधिमरण का निरूपण कर किया गया है। ग्रन्थकार का समय विक्रम की सोलहवीं शती का पूर्वार्ध है। ALL

कुन्दकुन्द श्रावकाचार

यह ग्रन्थ भी पूर्ववर्ती श्रावकाचार विषयक ग्रन्थों के आधार पर किसी परवर्ती विद्वान् द्वारा कुन्दकुन्दाचार्य के नाम से लिखा गया है। ग्रंथकार ने इसमें श्रावक के कर्त्तव्यों के अन्तर्गत जिनमंदिर निर्माण, मूर्ति स्थापना, पूजन, खेती आदि का विशद वर्णन किया है। इस ग्रन्थ की हस्तलिखित पाण्डुलिपि में, व्याबर (राजस्थान) स्थित सरस्वती भवन में सुरक्षित है। आगला-कारा कोसीन जीए

श्रावक धर्म-प्रदीप

बीसवीं सदी के आचार्य कुन्थुसागर द्वारा रचित संस्कृत के इस ग्रन्थ में श्रावक धर्म का सांगोपांग विवेचन किया गया है। जैन आचार-मीमांसा ૨૦૭ यहाँ मुख्यतः दिगम्बर जैन परम्परा के संस्कृत ग्रन्थों का परिचय प्रस्तुत किया गया। यद्यपि श्रावकाचार के विषय में कोई विशेष साम्प्रदायिक मतभेद नहीं है, दोनों परम्पराओं में आचारगत समानतायें लगभग समान हैं। फिर भी श्वेताम्बर जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत श्रावकाचार विषयक कुछ प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है -

श्रावक प्रज्ञप्ति

“श्रावक प्रज्ञप्ति” नामक प्राकृत भाषा का ४०३ गाथाओं का ग्रन्थ है। इसके रचयिता वाचक उमास्वाति माने जाते हैं। इसकी टीका सुप्रसिद्ध आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने की है। इस ग्रन्थ के आरम्भ में श्रावक शब्द की जो व्याख्या की गई है उसमें कहा गया है कि ‘जो सम्यग्दृष्टि साधुओं के पास उत्कृष्ट समाचारी श्रवण करता है, उसे ‘श्रावक’ कहा जाता है’ अर्थात् ‘श्रावक’ शब्द का सम्बन्ध धर्म-श्रवण पर मुख्यतः आधारित है।

धर्मबिन्दु

इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य हरिभद्र सूरि हैं, जिन्होंने ‘धर्म बिन्दु’ नामक इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के दो भागों में साधु एवं श्रावक धर्म की अच्छी विवेचना की है। श्रावक बनने से पहले पैंतीस मार्गानुसारी गुणों की आवश्यकता होती है। इसका सर्वप्रथम निरूपण करके आचार्य हरिभद्र ने इसमें श्रावक के जीवन-व्यवहार की स्वच्छ भूमिका तैयार कर दी है। कम

श्रावकधर्म विधि प्रकरण

पडाको शुशार आचार्य हरिभद्रसूरि का श्रावकाचार सम्बन्धी यह स्वतंत्र ग्रन्थ है। इसमें केवल १२० प्राकृत गाथाएं हैं। इसकी संस्कृत टीका मानदेवसूरि ने की है। प्रारम्भ में श्रावक शब्द का अन्वयर्थ बताते हुए लिखा है - : परलोगहियं सम्मं, जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो ।। नाम किया अइतिव्व कम्म बिगमा, सक्कोसो सावगो एत्थ ।।२।। के यह ग्रन्थ टीका के साथ श्री आत्मानंद सभा, भावनगर से सं० १६८० में प्रकाशित हुआ है। इसका सम्पादन आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी के गुरु मुनि चतुरविजयजी ने किया है। काम का निभा राणा

षट्स्थान प्रकरण

११वीं शताब्दी के आचार्य जिनेश्वर सूरि जी ने ‘षट्रस्थान प्रकरण’ नामक १०४ प्राकृत गाथाओं का ग्रन्थ बनाया जिसका अपर नाम “श्रावक वक्तव्यता” है। इसमें चर्चित छः स्थान ये हैं - २०८ जैनदर्शन (१) व्रत परिकर्मत्व (२) शीलवत्व । मामा शि. (३) गुणवत्व वि पाश (४) ऋजु व्यवहार पाने का किया (५) गुरु सुश्रूषा - FIRS (६) प्रवचन कौशल्य। मना कर इन छह स्थान गुणों से विभूषित श्रावक उत्कृष्ट होता है। इन छह स्थानों के भी अनुक्रम से ४, ६, ५, ४, ३ और ६ भेद किये गये हैं। इस ग्रन्थ पर अभयदेवसूरिजी ने १६३८ श्लोक परिमित संस्कृत भाष्य भी लिखा है।

श्राद्धदिन-कृत्यसूत्र

१४वीं शताब्दी के आचार्य देवेन्द्रसूरि रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ “श्राद्धदिन कृत्यसूत्र” ३४३ गाथाओं में मूल ग्रन्थ है। इस पर १२८२० श्लोक परिमित संस्कृत टीका देवेन्द्रसूरि ने लिखी है। इसका गुजराती भाषान्तर श्री जैनधर्म प्रचारक सभा, भावनगर से सं० १९८६ में प्रकाशित हुआ। यह २८ द्वारों में विभक्त है।

श्रावकधर्म विधि

इन खरतर गच्छ के द्वितीय जिनेश्वर सूरि ने सं० १३१३ में पालनपुर में संस्कृत भाषा में ‘श्रावक धर्म विधि’ नामक २४२ श्लोकों का यह ग्रन्थ बनाया, जिसकी विस्तृत संस्कृत टीका उपाध्याय लक्ष्मीतिलक ने सं० १३१७ में जालोर में की। इस टीका का परिमाण १५१३३ श्लोकों का है। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सटीक ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है।

श्राद्धगुण विवरण

१५वीं शताब्दी के तपागच्छीय जिनमंडन गणि ने ‘श्राद्ध गुण विवरण’ नामक ग्रन्थ की रचना सं० १४६८ में की। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ‘श्रावक’ शब्द की व्युत्पत्ति दी है फिर मार्गानुसारी के ३५ गुणों को समझाने के लिए भिन्न प्रकार की कथाएं भी दी गई हैं। ये पैंतीस गुण इस प्रकार हैं - १. न्याय सम्पन्न वैभव, २. शिष्टाचार की प्रशंसा, ३. कुल एवं शील की समानता वाले उच्च गोत्र के व्यक्ति के साथ विवाह, ४. पापभीरूता, ५. प्रचलित देशाचार का पालन, ६. राजा आदि की निन्दा से अलिप्तता, ७. योग्य निवास स्थान में द्वार वाला मकान, ८. सत्संग, ६. माता पिता का पूजन, १०. उपद्रव वाले स्थान का त्याग, ११. निन्द्य प्रवृत्तियों से अलिप्तता, १२. अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार व्यय करने की प्रवृत्ति, १३. सम्पत्ति के अनुसार वेशभूषा, १४. बुद्धि के शुश्रूषा आदि आठ गुणों से युक्तता, १५. प्रतिदिन धर्म का श्रवण, १६. अजीर्णता होने पर भोजन का त्याग, १७. भूख लगने पर प्रकृति के अनुकूल भोजन, १८. धर्म, अर्थ और काम का परस्पर बाधारहित सेवन, १६. अतिथि, जैन आचार-मीमांसा २०६ साधु एवं दीनजन की यथायोग्य सेवा, २०. सर्वदा कदाग्रह से मुक्ति, २१. गुण में पक्षपात, २२. प्रतिविद्ध देश एवं काल की क्रिया का त्याग, २३. स्वावलम्ब का परामर्श, २४. व्रतधारी और ज्ञानवृद्ध जनों की पूजा, २५. पोष्यजनों का यथायोग्य पोषण, २६. दीर्घदर्शिता, २७. विशेषज्ञता अर्थात् अच्छे-बुरे का विवेक, २८. कृतज्ञता, २६. लोकप्रियता, ३०. लज्जालुता, ३१. कृपालुता, ३२. सौम्य आकार, ३३. परोपकार करने में तत्परता, ३४. अंतरंग क्रोध, मानादि छः शत्रुओं के परिहार के लिए उद्युक्तता और ३५. जितेन्द्रियता।

श्राद्धविधि

__ आचार्य रत्नशेखर सूरि ने ‘श्राद्ध विधि’ नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की, जिसकी उन्होंने ‘विधि-कौमुदी’ नामक संस्कृत वृत्ति सं० १५०६ मे रची। इस वृत्ति का परिमाण ६७६१ श्लोकों का है। टीका में अनेक कथाएँ दी गई हैं। प्रारम्भ में श्रावक धर्म की योग्यता प्राप्त करने के लिए चार गुणों को आवश्यक बताया है- १. भद्र प्रवृत्ति, २. विशेष निपुण मति, ३. न्यायमार्गीय वृत्ति और ४. दृढ़ निज प्रतिज्ञा स्थिति। __ इस ग्रन्थ के छः द्वार हैं - दिन कृत्य, रात्रि कृत्य, पर्व कृत्य, चातुर्मासिक कृत्य, वर्ष कृत्य और जन्म कृत्य। श्रावक के योग्य २१ गुणों का भी तीन गाथाओं में विवरण दिया है जो इस प्रकार है - __१. भक्षुद्र, २. स्वरूपवान, ३. प्रकृति सौम्य, ४. लोकप्रिय, ५. अक्रूर, ६. भीरू, ७. असठ, ८. अरूशिष्य, ६. लज्जालु, १०. दयालु, ११. मध्यस्थ, १२. गुणरागी, १३. सत्कथा, १४. सुपक्ष युक्त, १५. सुदीर्घदर्शी, १६. विशेषज्ञ, १७. वृद्धानुगो, १८. विनीत, १६. कृतज्ञ, २०. परहितकारी और २१. लुब्ध लक्ष।

२. श्रमणाचार

श्रमणधारा भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रवहमान है। पुरातात्विक, भाषावैज्ञानिक एवं साहित्यिक अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान अब यह स्वीकृत करने लगे हैं कि अति प्राचीन काल में भारत में जो संस्कृति थी, वह श्रमण या आर्हत्-संस्कृति होनी चाहिए। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैनधर्म के आदिदेव तीर्थकर वृषभ या ऋषभ द्वारा प्रवर्तित हुई। श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्वपूर्ण स्थान है। अपनी इन विशेषताओं के कारण ही अनेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण के बाद भी इस संस्कृति ने अपना पृथक् अस्तित्व अक्षुण्ण रखा। वि २१० जैनदर्शन

श्रमणाचार विषयक साहित्य

भारत की अनेक प्राचीन भाषाओं- अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश आदि में निबद्ध श्रमणाचार विषयक विपुल वाङ्मय उपलब्ध है। जैन परम्परा के अनुसार यह श्रमणधारा प्राचीन काल में ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई और ईसा पूर्व छठी शताब्दी में इसे वर्द्धमान महावीर ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। उनके बाद अनेक महान् आचार्यों द्वारा यह धारा निरन्तर प्रवर्तित होती आ रही है। इन आत्मदर्शियों के गहन चिन्तन-मनन और स्वानुभव से जो विशाल वाङ्मय उद्भूत हुआ, वह आज भी हमें पथप्रदर्शन का कार्य कर रहा है। वस्तुतः तीर्थकर महावीर से जो ज्ञान-गंगा प्रस्फुटित हुई, वह श्रुतज्ञान, गणधरों, आचार्यों, उपाध्यायों एवं बहुश्रुत श्रमणों के माध्यम से अब तक चला आ रहा है। यही श्रुतज्ञान आगम के रूप में विद्यमान है। जैन परम्परा की दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों धाराओं में श्रमणाचार विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य शिवार्यकृत भगवई आराहणा, वट्टकेर कृत मूलाचार, आचार्य कुन्दकुन्द कृत पवयणसार, अट्ठपाहुड और रयणसार, स्वामी कार्तिकेय कृत कत्तिगेयाण्णुवेक्खा, चामुण्डराय कृत चारित्रसार, वीरनन्दि कृत आचारसार, देवसेनसूरि कृत आराधनासार एवं भावसंग्रह, पं० आशाधर कृत अनगारधर्मामृत, सकलकीर्तिकृत मूलाचार प्रदीपक इत्यादि श्रमणाचार विषयक प्राकृत-संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं के ग्रन्थ उपलब्ध हैं। ___ इसी तरह श्वेताम्बर परम्परा में आयारंग, सूयगडंग, आउरपच्चक्खाण, मरणसमाही, निसीह, ववहार, उत्तरज्झयण, दसवेयालिय, आवस्सय, आवस्सयणिज्जुत्ति इत्यादि ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त अनेक आचार्यों तथा विद्वानों द्वारा रचित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड तथा मराठी आदि भाषाओं में रचित श्रमणाचार विषयक अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

श्रमणों की आचार-संहिता

आचार शब्द के तीन अर्थ हैं-आचरण, व्यवहार और आसेवन। सामान्यतः सिद्धान्तों, आदर्शों और विधि-विधानों का व्यावहारिक अथवा क्रियात्मक पक्ष आचार कहा जाता है। सभी जैन तीर्थंकरों तथा उनकी परम्परा के अनेकानेक श्रमणों ने स्वयं आचार की साधना द्वारा भव-भ्रमण के दुःखों से सदा के लिए मुक्ति पायी साथ ही मुमुक्षु जीवों को दुःख निवृत्ति का सच्चा मार्ग बताया। श्रमण होने का इच्छुक सर्वप्रथम बंधुवर्ग से पूछता और विदा मांगता है। तब बड़ों से, पुत्र तथा स्त्री से विमुक्त होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों को अंगीकार करता है। और सभी प्रकार के परिग्रहों १. आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुब्रह्मत्तपुत्तेहिं । आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ।। प्रवचनसार ३/२ २११ जैन आचार-मीमांसा से मुक्त अपरिग्रही बनकर, स्नेह से रहित, शरीर संस्कार का सर्वथा के लिए त्याग कर आचार्य द्वारा “यथाजात" (नग्न) रूप धारण कर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को अपने साथ लेकर चलता है। मुनि के लिए श्वेताम्बर जैन परम्परा में दीक्षा के बाद निर्धारित वस्त्र-पात्र आदि का विधान है। जिन मूलगुणों को धारण कर साधक श्रमणधर्म (आचारमार्ग) स्वीकार करता है उनका विवेचन आगे प्रस्तुत है।

मूलगुण

श्रमणाचार का प्रारम्भ मूलगुणों से होता है। आध्यात्मिक विकास के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपनी आचार-संहिता के अन्तर्गत जिन गुणों को धारण करके जीवन पर्यन्त पूर्ण निष्ठा से पालन करने का संकल्प ग्रहण करता है, उन गुणों को “मूलगुण” कहा जाता है। वृक्ष की मूल (जड़ या बीज) की तरह ये गुण भी श्रमणाचार के लिये मूलाधार है। इसीलिए श्रमणों के प्रमुख या प्रधान आचरण होने से इनकी मूलगुण संज्ञा है। इन मूलगुणों की निर्धारित अट्ठाईस संख्या इस प्रकार है - बा किक “पंच य महब्बयाई समिदीओ पंच जिणवरुद्दिट्ठा। SER२-९ पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोचो।। अच्वेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघसणं चेव । IS FEIGSTE FAPPE ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु” काकोडा कीही जिजि) र () फन मही १. पाँच महाव्रत : हिंसा विरति (अहिंसा), सत्य, अदत्तपरिवर्जन (अचौर्य), ब्रह्मचर्य वि और संगविमुक्ति (अपरिग्रह)३ मा क फ्री प्रकार - २. पाँच समिति : ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान और प्रतिष्ठापनिकालना ति ३. पाँच इन्द्रियनिग्रह । चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श-इन पाँच इन्द्रियों का निग्रह लाजा हि काश्मि ई ४. छह आवश्यक : समता (सामायिक), स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और का विसर्ग (कायोत्सर्ग) कोकास पाठ काबीजाम किणार विनती का १. मूलाचार EYESIBा कि जीति शिजीशमा कालिका २. मूलाचार १/२-३, प्रवचनसार ३/८-६ ३. हिंसा विरदी सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च । संग विमुत्ती य तहा महब्बया पंच पण्णत्ता ।। वही १/४ . ४५ माचार ४. इरिया भासा एसण णिक्खेवादाणमेव समिदीओ। गायक शिक्षण व पिणास जी म.६ PINE मायभार पदिठावणिया य तहा उच्चारादीण पंचविहा। वही 420 का वही १/१६ यशज-फकीकी मिशीगावकरी ६. समदा थवो य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव। मामीशा - मणकाजागाजार पोको ४ पच्चक्खाण दिसायो करणीयावासया छप्पिानावही समय निकुनाकार२१२ जय जैनदर्शन ५. सात अन्य मूलगुण : लोच (केशलोच), आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थितभोजन और एकभक्त। का उपर्युक्त मूलगुण श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। सम्पूर्ण मुनिधर्म इन अट्ठाईस मूलगुणों से सिद्ध होता है। इनमें लेशमात्र की न्यूनता साधक को श्रमणधर्म से च्युत बना देती है, क्योंकि श्रमण के लिए आत्मोत्कर्ष हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही श्रेयस्कर होता है। शरीर चला जाए, यह उसे सहर्ष स्वीकार होता है, पर साधना या संयमाचरण में जरा भी आँच आये, यह किसी भी अवस्था में उसे स्वीकार्य नहीं। जीवन के जिस क्षण मुमुक्षु श्रमणधर्म स्वीकार करते हैं, उस क्षण वे “सावज्जकरणजोगं सव्वं तिविहेण तियरणविसुद्धं वज्जंति" अर्थात् सभी प्रकार के सावद्य (दोष युक्त) क्रिया रूप योगों का मन, वचन, काय तथा करने, कराने और अनुमोदन से सदा के लिए त्याग कर देते हैं। मूलगुणों के पालन की इसलिए भी महत्ता है, क्योंकि जो श्रमण इन मूलगुणों को छेदकर (उल्लंघन कर) “वृक्षमूल” आदि बाह्ययोग करता है, मूलगुण विहीन उस साधु के सभी योग किसी काम के नहीं। मात्र बाह्ययोगों से कर्मों का क्षय सम्भव नहीं होता।

१-५, महाव्रत

उपर्युक्त अट्ठाईस मूलगुणों में सर्वप्रथम पंच महाव्रत का उल्लेख है। व्रत से तात्पर्य हिंसा, अनृत (झूठ), स्तेय (चोरी), अब्रह्म तथा परिग्रह - इन पाँच पापों से विरति (निवृत्ति) होना। विरति अर्थात् जानकर और प्राप्त करके इन कार्यों को न करना। प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह भी व्रत है। अथवा यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है - इस प्रकार नियम करना भी व्रत है। इस प्रकार हिंसा आदि पाँच पापों के दोषों को जानकर आत्मोत्कर्ष के उद्देश्य से इनके त्याग का इनसे विरति की प्रतिज्ञा लेकर पुनः कभी उनका सेवन न करने को व्रत कहते हैं। अकरण, निवृत्ति, उपरम और विरति - ये सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं। मा हिंसादिक पाँच असत्प्रवृत्तियों का त्याग व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार तो कर सकता है, किन्तु सभी प्राणी इनका सार्वत्रिक और सार्वकालिक त्याग एक समान नहीं कर सकते। अतः इन असत्प्रवृत्तियों से एकदेश निवृत्ति को अणुव्रत, और सर्वदेश निवृत्ति को १. मूलाचार ६/३४ २. मूलं छित्ता सपणो णो गिण्हादी य बाहिरं जोगं । बाहिरजोगा सब्वे मूलविहूणस्स किं करिस्संति ।। मूलाचार १०/२७ ३. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् - तत्त्वार्थसूत्र ७/१ ४. विरति म ज्ञात्वाभ्युपेत्याकरणम् - तत्त्वार्थाधिगम भाष्य ७-१ ५. व्रतमधिसन्धिकृतो नियमः, इदं कर्तव्यमिदं न कर्त्तव्यमिति। सर्वार्थसिद्धि ७-१ जैन आचार-मीमांसा २१३ महाव्रत कहा जाता है। वस्तुतः व्रत अपने आप में अणु या महत् नहीं होते। ये विशेषण तो व्रत के साथ पालन करने वाले ही क्षमता या सामर्थ्य के कारण लगते हैं। जहाँ साधक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच व्रतों के समग्र पालन की क्षमता में अपने को पूर्ण समर्थ नहीं पाता अथवा महाव्रतों के धारण की क्षमता लाने हेतु अभ्यास की दृष्टि से इनका एकदेश पालन करता है, तो उसके ये व्रत अणुव्रत तथा वह अणुव्रती श्रावक (गृहस्थ) कहलाता है। तथा जब मुमुक्षु साधक अपने आत्मबल से इन व्रतों के धारण और निरतिचार पालन में समग्र रूप में पूर्ण समर्थ हो जाता है, तब उसके वही व्रत महाव्रत कहे जाते हैं तथा वह महाव्रती श्रमण, मुनि या अनगार कहलाता है।

६-१०, समिति

श्रमण के मूलगुणों में महाव्रतों के बाद चारित्र एवं संयम की प्रवृत्ति हेतु ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान एवं प्रतिष्ठापनिका-इन पाँच समितियों का क्रम है।’ महाव्रतमूलक सम्पूर्ण श्रमणाचार का व्यवहार इनके द्वारा संचालित होता है। इन्हीं के आधार पर महाव्रतों का निर्विघ्न पालन सम्भव है। क्योंकि ये समितियाँ महाव्रतों तथा सम्पूर्ण आचार की परिपोषक प्रणालियां हैं। अहिंसा आदि महाव्रतों के रक्षार्थ गमनागमन, भाषण, आहार ग्रहण, वस्तुओं के उठाने रखने, मलमूत्र विसर्जन आदि क्रियाओं में प्रमादरहित सम्यक् प्रवृत्ति के द्वारा जीवों की रक्षा करना तथा सदा उनके रक्षण की भावना रखना समिति है। जीवों से भरे इस संसार में समितिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाला श्रमण हिंसा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे स्नेहगुण युक्त कमल-पत्र पानी से। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा भी है - जीव मरे या जीये, अयत्नाचारी को हिंसा का दोष अवश्य लगता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है उसको बाय हिंसा मात्र से कर्मबन्ध नहीं होता। वस्तुतः ये पाँचों समितियाँ चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्तिपरक होती हैं। इन समितियों में प्रवृत्ति से सर्वत्र एवं सर्वदा गुणों की प्राप्ति तथा हिंसा आदि पापों से निवृत्ति होती है।

११-१५, इन्द्रिय निग्रह

इन्द्र शब्द आत्मा का पर्यायवाची है। आत्मा के चिन्ह अर्थात् आत्मा के सद्भाव की सिद्धि में कारणभूत अथवा जो जीव के अर्थ-(पदार्थ) ज्ञान में निमित्त बने उसे इन्द्रिय कहते १. इरियाभासा एसण णिक्खेवादाणमेव समिदीओ। पदिठावणिया य तहा उच्चारादीण पंचविहा।। मूलाचार १/१० २. मूलाचार ५/१२६-१३२. ३. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीसु।। प्रवचनसार ३१७ २१४ जैनदर्शन हैं। प्रत्यक्ष में जो अपने-अपने विषय का स्वतंत्र आधिपत्य करती हैं, उन्हें भी इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियाँ पाँच हैं - चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श। ये पाँचों इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति कराके आत्मा को राग-द्वेष युक्त करती है। अतः इनको विषय-प्रवृत्ति की ओर से रोकना इन्द्रिय निग्रह है। ये पांचों इन्द्रियाँ अपने नामों के अनुसार अपने नियत विषयों में प्रवृत्ति करती हैं। जैसे स्पर्शेन्द्रिय स्पर्श द्वारा पदार्थ को जानती है। रसनेन्द्रिय का विषय स्वाद, घ्राण का विषय गन्ध, चक्षु का विषय देखना तथा श्रोत्र का विषय सुनना है।’ इन्द्रियों के इन विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया है - (१) काम रूप विषय। (२) भोग रूप विषय।। रस और स्पर्श कामरूप विषय हैं तथा गन्ध, रूप और शब्द भोग रूप विषय हैं।’ इन्हीं इन्द्रियों की स्वछन्द प्रवृत्ति का अवरोध निग्रह कहलाता है। अर्थात् इन इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों की प्रवृत्ति रोकना इन्द्रिय-निग्रह है। जैसे उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़ों के लगाम के द्वारा निग्रह किया जाता है, वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना (तप, ज्ञान और विनय) के द्वारा इन्द्रिय रूपी अश्वों का विषय रूपी उन्मार्ग से निग्रह किया जाता है। जो श्रमण जल से भिन्न कमल के सदृश इन्द्रिय-विषयों की प्रवृत्ति में लिप्त नहीं होता वह संसार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।

  • इस तरह इन्द्रियों के शब्दादि जितने विषय हैं सभी में अनासक्त रहना अथवा मन में उन विषयों के प्रति मनोज्ञता-अमनोज्ञता उत्पन्न न करना श्रमण का कर्तव्य है। वस्तुतः इन्द्रिय निग्रह का यह अर्थ नहीं है कि इन्द्रियों की अपने-अपने विषयों की ग्रहण-शक्ति समाप्त कर दें या रोक दें अपितु मन में इन्द्रिय विषयों के प्रति उत्पन्न राग-द्वेष युक्त भाव का नियमन करना इन्द्रिय-निग्रह है। कहा भी है जैसे कछुवा संकट की स्थिति में अपने अंगों का समाहरण कर लेता है, वैसे ही श्रमण को भी संयम द्वारा इन्द्रिय विषयों की प्रवृत्ति का संयमन कर लेना चाहिए। क्योंकि जिनकी इन्द्रियों की प्रवृत्ति सांसारिक क्षणिक विषयों की ओर है, वह आत्मतत्त्व रूपी अमृत कभी प्राप्त नहीं कर सकता। जो सारी इन्द्रियों की ॐ #ug १. सर्वार्थसिद्धि १/१४ २. धवला १/१/१/४/१३५EERS sp ३. मूलाचार १/१६ ४. वही ५/१०२, तत्त्वार्थसूत्र २/२० ५. वही १२/६७ ६. स्वेच्छाप्रवृत्तिः निर्वत, निग्रहः सर्वार्थसिद्धि ६/४ मूलाचार १/१६ ८. भगवती आराधना गाथा १०३७ सो की विनर शिव ६.. उत्तराध्ययन ३२/६६ षा १० मतकतांग संयक्त निकायमा लामा जैन आचार-मीमांसा २१५ शक्ति को आत्मतत्त्व रूप अमृत के दर्शन में लगा देता है वह सच्चे अर्थों में अमृतमय इन्द्रियजयी बन जाता है।

१६-२१, षड्-आवश्यक

सामान्यतः “अवश" का अर्थ अकाम, अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतंत्र’, रागद्वेषादि से रहित, इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है। तथा इन गुणों से यक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्य करणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। मूलाचारकार के अनुसार जो रागद्वेषादि के वश में नहीं उस (अवश) का आचरण या कर्म आवश्यक है। कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार में कहा है - जो अन्य के वश नहीं है, वह अवश, उस अवश का कार्य आवश्यक है। ऐसा आवश्यक कर्मों का विनाशक, योग एवं निर्वाण का मार्ग होता है। अनगारधर्मामृत में आवश्यक शब्द की दो तरह से निरुक्ति बताई गयी है-जो इन्द्रियों के वश्य (अधीन) नहीं है, ऐसे अवश्य-जितेन्द्रिय साधु का अहोरात्रिक अवश्यकरणीय कार्य आवश्यक है। अथवा जो वश्य-स्वाधीन नहीं है, अर्थात् रोगादिक से पीड़ित होने पर भी जिन (कायों) का अहोरात्रिक करना अनिवार्य हो वह आवश्यक है। अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि श्रमण और श्रावक जिस विधि को अहर्निश अवश्यकरणीय समझते हैं उसे आवश्यक कहते हैं। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार अवश्य करने योग्य सद्गुणों का आधार आत्मा को दुर्गुणों से हटाकर सद्गुणों के आधीन करने वाला, आत्मा को ज्ञानादि गुणों से आवासित, अनुरंजित अथवा आच्छादित करने वाला आवश्यक कहलाता है। आवश्यक छह प्रकार के हैं - १. समता (सामायिक); २. स्तव (चतुर्विंशति तीर्थकर स्तव); ३. वंदना; ४. प्रतिक्रमण-प्रमादपूर्वक किये गये दोषों का निराकरण; ५. प्रत्याख्यान आगामी कालीन दोषों का निराकरण तथा ६. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)। आगमों में इनका विवेचन नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन छह के आलम्बन से किया जाता है।

शेष सात मूलगुण

  • इस तरह श्रमण के २८ मूलगुणों में से पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियनिग्रह तथा छह आवश्यक - इन सबको मिलाकर इक्कीस मूलगुणों के साथ ही शेष सात मूलगुण इस प्रकार हैं। १. पाइअसद्दमहण्णवो पृ० ८३ २. ण वसो अवसो अवसस्य कम्ममावासगं ति बोधव्वा । मूलाचार ७-१४ी किन का ३. नियमसार-१४१ ४. अनगारधर्मामृत - ८/१६ पक्षमतावान व परियार ५. अनुयोगद्वारसूत्र २८, गाथा २ माता दिगण विभागाला पिकार पाहण्ट ६. मूलाचार १.२२, ७.१५ २१६ जैनदर्शन

२२-लोच

लका श्रमण के अट्ठाईस मूलगुणों में लोच बाईसवाँ मूलगुण है। जिसका अर्थ है हाथ से नोचकर केश निकालना। लोक प्रचलित अर्थ में इसे ही केशलुंचन कहते हैं। वस्तुतः लोच शब्द लुंच धातु से बनकर अपनयन अर्थात् निकालना या दूर करना अर्थ में प्रयुक्त होता है। केशलोच अपने आप में कष्ट-सहिष्णुता की उच्च कसौटी के और श्रमणों के पूर्ण संयमी जीवन का प्रतीक है। चूंकि केशों का बढ़ना स्वाभाविक है किन्तु नाई या उस्तरे, कैंची आदि के बिना हाथों से ही उन्हें उखाड़कर निकालना श्रमण के स्ववीर्य, श्रामण्य तथा पूर्ण अपरिग्रही होने का प्रतीक है। इससे अपने शरीर के प्रति ममत्व का निराकरण तथा सर्वोत्कृष्ट तप का आचरण होता है। दीनता, याचना, परिग्रह और अपमान आदि दोषों के प्रसंगों से भी स्वतः बचा जा सकता है। सभी तीर्थकरों ने प्रव्रज्या ग्रहण करते समय अपने हाथों से पंचमुष्ठि लोच किया था।

२३-अचेलकत्व

__सामान्यतः “चेल” शब्द का अर्थ वस्त्र होता है। किन्तु श्रमणाचार के प्रसंग में यह शब्द सम्पूर्ण परिग्रहों का उपलक्षण है। अतः चेल के परिहार से सम्पूर्ण परिग्रह का परिहार हो जाता है। इस दृष्टि से वस्त्राभूषणादि समस्त परिग्रहों का त्याग और स्वाभाविक यथाजात नग्न-(निर्ग्रन्थ) वेश धारण करना अचेलकत्व है। किन्तु श्वेताम्बर जैन परम्परानुसार इसका अर्थ अल्प चेल (वस्त्र) मुनि का वेष है अतः इनके साधु निर्धारित वस्त्र धारण करते और पात्र रखते हैं।

२४-अस्नान

जित निमा जलस्नान, अभ्यंग स्नान और उबटन त्याग तथा नख, केश, दन्त, ओष्ठ, कान, नाक, मुँह, आँख, भौंह तथा हाथ-पैर इन सबके संस्कार का त्याग अस्नान नामक प्रकृष्ट मूलगुण है। वस्तुतः आत्मदर्शी श्रमण तो आत्मा की पवित्रता से स्वयं पवित्र होते हैं, अतः उन्हें बाह्य स्नान से प्रयोजन ही क्या? आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार-वृत्ति में कहा है कि श्रमण को स्नान से नहीं अपितु व्रतों से पवित्र होना चाहिए। यदि व्रतरहित प्राणी १. मूलाचार वृत्ति १/२६ २. मूलाचार वृत्ति १०/१७ माशामक या निकि ३. वही १/३०, १०/१८ ण्हाणादिवज्जणेण य विलित्तजल्लमलसेदसव्वंगं । अण्हाणं घोरगुणं संजमदुगपालयं मुणिणो ।। मूलाचार १/३१ मा ५. अनगारधर्मामृत ६/६८ जैन आचार-मीमांसा २१७ जलावगाहनादि से पवित्र हो जाते तो मत्स्य, मगर आदि जल-जन्तु तथा अन्य सामान्य प्राणी भी पवित्र हो जाते किन्तु ये कभी भी उससे पवित्रता को प्राप्त नहीं होते। अतः व्रत, संयम-नियम ही पवित्रता के कारण हैं। इन्हीं सब कारणों से श्रमण को स्नान आदि संस्कारों से सर्वथा विरत रहने तथा आत्मस्वरूप की प्राप्ति में उपयोग लगाए रखने के लिए अस्नान मूलगुण का विधान अनिवार्य माना है।

२५-क्षितिशयन

पाएका र काका __सामान्यतः पर्यङ्क, विस्तर आदि का सर्वथा वर्जन करके शुद्ध (प्रासुक) जमीन, पाषाण या काष्ठफलक पर शयन करना क्षितिशयन है। मूलाचार में कहा है - आत्मप्रमाण, असंस्तरित, एकान्त, प्रासुक भूमि में, धनुर्दण्डाकार मुद्रा में, एक करवट में शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है।

२६- अदन्तघर्षण

शरीर विषयक संस्कार श्रमण को निषिद्ध कहे गये हैं। अतः अंगुली, नख, दातौन, कलि (तृणविशेष), पत्थर और छाल - इन सबके द्वारा तथा इनके ही समान अन्य साधनों के द्वारा दाँतों का मज्जन न करना अदन्तघर्षण मूलगुण है। इसका उद्देश्य इन्द्रिय-संयम का पालन तथा शरीर के प्रति अनासक्त भाव में वृद्धि करना है।

२७- स्थित-भोजन

शुद्ध-भूमि में दीवाल, स्तम्भादि के आश्रयरहित समपाद खड़े होकर अपने हाथों को ही पात्र बनाकर आहार ग्रहण करना स्थित-भोजन है। प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम के पालन हेतु जब तक श्रमण के हाथ-पैर चलते हैं अर्थात् शरीर में सामर्थ्य है, तब तक खड़े होकर पाणि-पात्र में आहार ग्रहण करना चाहिए अन्य विशेष पात्रों में नहीं। १. मूलाचारवृत्ति १/३१ मार र २. फासुयभूमिपएसे अप्पमसंथारिदम्हि पच्छण्णे। दंडंधणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण।। मूलाचार १/३२ ३. अंगुलिणहावलेहणिकलीहिं पासाणछल्लियादीहिं। - वही १/३३ मामी ४. अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइविवज्जणेण समपायं । तदार मीना पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम || - वही १/३४ जाता । मूलाचार वृत्ति १/३४ २१८ जैनदर्शन

२८- एकभक्त

__ सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी व्यतीत होने के बाद तथा सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पूर्व तक दिन में एक बार एक बेला में आहार ग्रहण कर लेना एकभक्त मूलगुण है।’

प्राकृतिक एवं सहज जीवन के प्रतीक हैं ये मूलगुण

लोच से लेकर एकभक्त तक के शेष सात मूलगुण श्रमण के बाह्य चिन्ह माने जाते हैं। अन्तरंग कषाय मल की विशुद्धि के लिए एक बाह्य क्रियाओं (आचरण) की शुद्धता का भी महत्वपूर्ण स्थान है। अतः यह गुण जीवन की सहजता, स्वाभाविकता के प्रतीक हैं। श्रमण को प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने, अपने को और अपने शरीर को कष्टसहिष्णु बनाने तथा लोकलज्जा और लोकभय से ऊपर उठने के लिए ये महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान करते हैं। बाह्य जीवन में असुन्दर की भी सर्वात्मभावेन स्वीकृति इनसे सधती है। इन गुणों से युक्त जीवन भी अपने आप में उत्कृष्ट एवं कठिन तपश्चर्या का प्रतीक है। इनके माध्यम से कष्टसहिष्णुता, चारित्र पालन, गतिशीलता प्राप्त होती रहती है। इन गुणों से श्रमण को प्रतिपल भेद-विज्ञान की यह प्रतीति होती रहती है कि यह शरीर आत्मा से भिन्न है और इसे सुविधावादिता की अपेक्षा जितना सहज रखा जायेगा आत्मोपलब्धि में उतनी ही वृद्धि होती रहेगी। उपर्युक्त अट्ठाईस मुलगणों के पालन से श्रमण की आवश्यकतायें अत्यन्त सीमित हो जाती हैं। इनका अप्रमत्त भाव से पालन करके श्रमण जगत्पूज्य होकर अक्षय-सुख (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है। मूलाचारप्रदीप में कहा है - ये सर्वोत्कृष्ट और सारभूत हैं तथा जिनेन्द्रदेव ने इनको तपश्चरण आदि महायोगों का आधारभूत कहा है। समस्त उत्तरगुणों की प्राप्ति के लिए ये गुण मूल रूप हैं। जिस प्रकार मूलरहित वृक्षों पर कभी फल नहीं लग सकते, उसी प्रकार मूलगुणों से रहित समस्त उत्तरगुण भी कभी फल नहीं दे सकते। फिर भी उत्तरगुण प्राप्त करने के लिए जो मूलगुणों का त्याग कर देते हैं वे अपने हाथ की अंगुलियों की रक्षा के लिए अपना मस्तक काट देते हैं। अतः इन समस्त मूलगुणों का पूर्ण प्रयत्न के साथ सर्वत्र एवं सर्वदा पालन करना अभीष्ट है। जब इन मूलगुणों के पालन में शरीर अशक्त हो जाए अर्थात् जब जंघाबल (पैरों से चलने-फिरने और खड़े होने आदि की शक्ति) क्षीण हो जाए, अंजुलिपुट में आये हुए आहार को स्वयं प्रमुख तक न ले जा सके, आँखें कमजोर हो जाएं, उनसे सूक्ष्म वस्तु दिखाई न दे और न । १. उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥ मूलाचार १/३५ की जाय २. मता बहिः क्रियाशुद्धिरनतर्मलविशुद्धये - भगवती आराधना संस्कृत पद्य १३६६ उजागर ३. मूलाचार प्रदीप ४/३१२-३१६ ६५P मराजार २१६ जैन आचार-मीमांसा भोजन का शोधन किया जा सके तथा श्रोतेन्द्रिय की शक्ति क्षीण हो जाए, तब श्रमण को भक्तप्रत्याख्यान (अनुक्रम से आहार त्याग करना तथा कषाय को कृश करते हुए समाधिमरण को प्राप्त होना) धारण कर लेना चाहिए, किन्तु ग्रहण किये हुए व्रतों में शिथिलता कदापि न लाना चाहिए।’

उत्तरगुण

___ श्रमण के जिन अट्ठाईस मूलगुणों का विवेचन ऊपर किया गया है उनके उत्तरवर्ती पालन योग्य बारह तप, बाईस परीषह, बारह भावनायें, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और बल - ये पाँच आचार, उत्तम-क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य - ये दस धर्म तथा योगादि अनेक गुण हैं, जिन्हें उत्तरगुण कहते हैं। इनके माध्यम से श्रमण आत्मध्यान और तपश्चरण करके आध्यात्मिक विकास की शक्ति प्राप्त करता है तथा गुणस्थान प्रणाली में कर्मक्षय करता हुआ निर्वाण पद को प्राप्त करता है।

आहार, विहार और व्यवहार

एक ओर जहाँ मूलगुण एवं उत्तरगुण सम्पूर्ण श्रामण्य की कसौटी बनकर उनकी संयम-यात्रा के लक्ष्य को प्राप्त कराने में अपना महत्वपूर्ण योग करते हैं, वहीं आहार, विहार और व्यवहार-ये चर्यायें उनके बाह्य जीवन, सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं अन्यान्य उन सभी कार्यों को विशुद्धता एवं समग्रता प्रदान करती हैं जिनका सीधा सम्बन्ध आत्मोत्कर्ष में सहयोग तथा सच्चे श्रामण्य की पहचान से है। देश, काल, श्रम, क्षम (सहन शक्ति) और उपधि (शरीरादि रूप परिग्रह) को अच्छी तरह जानकर श्रमण आहार एवं विहार में प्रवृत्त होता है। यद्यपि इसमें भी उसे अल्प-कर्मबंध होता है। किन्तु इतना अवश्य है कि श्रमण चाहे बालक हो अथवा वृद्ध अथवा तपस्या या मार्ग (पैदल आवागमन) के श्रम से खिन्न (थका हुआ), अथवा रोगादि से पीड़ित, वह अपने योग्य उस प्रकार की चर्या का आचरण कर सकता है, जिसमें “मूल संयम” का घात (हानि) न हो। इसीलिये इस लोक से निरपेक्ष, परलोक की आकांक्षा एवं आन्तरिक कषाय से रहित होकर “युक्त-आहार-विहार” होना चाहिए। क्योंकि श्रमण का चारित्र, तपश्चरण एवं संयम आदि का अच्छी तरह से पालन १. चक्खु व दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुब्बलं जस्स । जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थो विहरदुं वा ।। भगवती आराधना-७३ २. आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥ प्रवचनसार- ३/३१ जनामा चालक ३. बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा गिलाणो वा । कि । शो Ep विमा भाग 3 चरियं चरउ सजोग्गं मूलच्छेदं जधा ण हवदि।। - वही ३/३० ३ ..तिप्पणी । ४. वही ३/२६ । तर १४ माघ । चिकित M aing २२० जैनदर्शन उसकी आहार-चर्या की विशुद्धता पर निर्भर है। इसी तरह समितिपूर्वक विशुद्ध विहारचर्या द्वारा भी वह श्रमण रत्नत्रय प्राप्ति का अभ्यास, शास्त्रकौशल एवं समाधिमरण के योग्य क्षेत्र तथा जन-जन के कल्याण की भावना रूप लक्ष्य को सहज ही प्राप्त कर लेता है तथा आहार-विहार एवं बाह्य जीवन के विविध व्यवहार-कार्यों या क्रियाओं में विवेक रखकर स्व-पर कल्याण में सदा प्रवृत्त बने रहते हैं।

३. आर्यिकाओं की आचार-पद्धति

चतुर्विध संघ में आर्यिकाओं का स्थान

मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ में ‘आर्यिका’ का दूसरा स्थान है। श्वेताम्बर जैन परम्परा के प्राचीन आगमों में भी यद्यपि इन्हें अज्जा, आर्या, आर्यिका कहा है, किन्तु इस परम्परा में प्रायः “साध्वी" शब्द का ज्यादा प्रयोग हुआ है। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तथा इनकी उत्तरवर्ती परम्परा में आर्यिका संघ की एक व्यवस्थित आचार पद्धति एवं उनका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। सभी तीर्थंकरों के समय में और वर्तमान काल में मुनियों की अपेक्षा आर्यिकाओं की संख्या काफी अधिक रही है। श्रमण संस्कृति के उन्नयन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की सभी सराहना करते हैं। नए का

आर्यिका के लिए प्रयुक्त शब्द

वर्तमान समय में सामान्यतः दिगम्बर परम्परा में महाव्रत आदि धारण करने वाली दीक्षित स्त्री को ‘आर्यिका’ तथा श्वेताम्बर परम्परा में इन्हें ‘साध्वी’ कहा जाता है। दिगम्बर प्राचीन शास्त्रों में इनके लिए आर्यिका,’ आर्या, विरती, संयती, संयता,’ श्रमणी, आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। प्रधान आर्यिका को ‘गणिनी तथा संयम, साधना एवं दीक्षा में ज्येष्ठ वृद्धा आर्यिका को स्थविरा (थेरी) कहा गया है। १. भगवती आराधना ३६६ तथा वि. टीका ४२६ २. मूलाचार ४/१७७, १८४, १८७, १६१, १६६ सुत्तपाहुड २२ ३. वही, ४/१८०, १०/६१ सामा न हाय कि विपिन ४. मूलाचार वृत्ति ४/१७७ ५. त्यक्ताशेष गृहस्थवेषरचना मंदोदरी संयता। पद्मपुराण न गिर जाकिर ६. श्रीमती श्रमणी पार्श्वे बभूवुः परमार्थिका। वही गणिणी……मूलाचार ४११७८, १६२, गणिनी महत्तरिकां-वही वृत्ति ४१७८, १६२ या का ८. थेरीहिं सहंतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा। मूलाचार ४/१६४ २२१ जैन आचार-मीमांसा

आर्यिकाओं का वेष

आर्यिकायें निर्विकार, श्वेत, निर्मल वस्त्र एवं वेष धारण करने वाली तथा पूरी तरह से शरीर-संस्कार (साज-शृंगार आदि) से रहित होती है। उनका आचरण सदा अपने धर्म, कुल, कीर्ति एवं दीक्षा के अनुरूप निर्दोष होता है।’ वसुनन्दी के अनुसार- आर्यिकाओं के वस्त्र, वेष और शरीर आदि विकृति से रहित, स्वाभाविक-सात्त्विक होते हैं। आर्यिकायें क्षमा, मार्दव, आर्य, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य-ये दस धर्म, माता-पिता का कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या का पूर्णता से पालन करती हैं। ___ सुत्तपाहुड तथा इसकी श्रुतसागरीय टीका में तीन प्रकार के वेष (लिंग) का कथन है १. मुनि, २. ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक-ऐलक एवं क्षुल्लक तथा ३. आर्यिका कहा है। इनमें तीसरा लिंग (वेष) स्त्री (आर्यिका) का है। इसे धारण करने वाली स्त्री दिन में एक बार आहार ग्रहण करती है। वह आर्यिका भी हो तो नीचे से ऊपर तक एक ही वस्त्र धारण करे तथा वस्त्रावरण युक्त अवस्था में ही आहार ग्रहण करे। ___ वस्तुतः स्त्रियों में उत्कृष्ट वेष को धारण करने वाली आर्यिका और क्षुल्लिका-ये दो होती हैं। दोनों ही दिन में एक बार आहार लेती हैं। आर्यिका मात्र एक वस्त्र तथा क्षुल्लिका एक साड़ी के सिवाय ओढ़ने के लिए एक चादर भी रखती है। भोजन करते समय एक सफेद साड़ी रखकर ही दोनों आहार करती हैं। अर्थात् आर्यिका के पास तो एक साड़ी है पर क्षुल्लिका एक साड़ी सहित किन्तु चादर रहित होकर आहार करती है। भगवती आराधना में भी क्षुल्लिका का उल्लेख मिलता है।’

आर्यिकाओं की वसतिका

’ राजपथ मुख्यमार्ग, धर्मशाला और तीन-चार रास्तों के संगम स्थल पर आर्यिकाओं को नहीं ठहरना चाहिए। खुले स्थान पर तथा बिना फाटक वाले स्थान पर भी नहीं रहना चाहिए। जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ साधुओं को नहीं रहना चाहिए किन्तु साध्वियाँ रह सकती हैं। १. मूलाचार ४/६० १२. मूलाचार वृत्ति ४/१६० २. सुत्तपाहुड १०, २१, २२ ३. लिंग इत्थीणं हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालस्मि। अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ।। सुत्तपाहुड २२ ला जितना ४. सुत्तपाहुड श्रुतसागरीय टीका २२ वी का मामला ५. खुड्डा या खुड्डियाओ …. भ.आ. ३६६ ६. बृहत्कल्प भाष्य उ. १/२, २/११, २ राम ७. बृहत्कल्प सूत्र प्रथम उद्देश्य प्रतिबद्धशय्यासूत्र (जै.सा.का.वृ.इति. भाग २, पृ. २४१)२२२ मा जैनदर्शन __वसतिकाओं में आयिकायें मात्सर्यभाव छोड़कर एक दूसरे के अनुकूल तथा एक दूसरे के रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर रहती हैं। रोष, बैर और मायाचार जैसे विकारों से रहित, लज्जा, मर्यादा और उभयकुल-पितृकुल, पतिकुल अथवा गुरुकुल के अनुरूप आचरण (क्रियाओं) द्वारा अपने चारित्र की रक्षा करती हुई रहती हैं। आर्यिकाओं में भय, रोष आदि दोषों का सर्वथा अभाव होता है। ज्ञानार्णव में कहा है शम, शील और संयम से युक्त अपने वंश में तिलक के समान, श्रुत तथा सत्य से समन्वित ये नारियाँ (आर्यिकायें) धन्य हैं।

समाचार : विहित एवं निषिद्ध

चरणानुयोग विषय जैन साहित्य में श्रमण और आर्यिकाओं दोनों के समाचार आदि प्रायः समान रूप से प्रतिपादित हैं। मूलाचारकार ने इनके समाचार के विषय में कहा है कि आर्यिकायें अध्ययन, पुनरावृत्ति (पाठ करने) श्रवण-मनन, कथन, अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन, तप, विनय तथा संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास रूप उपयोग में सतत तत्पर रहती हैं तथा मन, वचन और कायरूप योग के शुभ अनुष्ठान से सदा युक्त रहती हुई अपनी दैनिक चर्या पूर्ण करती है। किसी प्रयोजन के बिना परगृह चाहे वह श्रमणों की ही वसतिका क्यों न हो या गृहस्थों का घर हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है। यदि भिक्षा प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती हैं, अकेले नहीं। स्व-पर स्थानों में दुःखार्त को देखकर रोना, अश्रुमोचन, स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य) कराना, भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरम्भ अर्थात् जीवघात की कारणभूत क्रियायें आर्यिकायें पूर्णतः निषिद्ध हैं। संयतों के पैरों में मालिश करना, उनका प्रक्षालन करना, गीत गाना आदि कार्य उन्हें पूर्णतः निषिद्ध है। असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और लेख-ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार की आरम्भ क्रियायें हैं। पानी लाना, १. अण्णोणणणुकूलाओ अण्णोण्णाहिरक्खणाभिजुत्ताओ। गयरोवसेरमायासलज्जमज्जादकिरियाओ।। मूलाचार ४/१५८ २. ज्ञानार्णव १२/५७ ३. हिस्ट्री आफ जैन मोनासिज्म, पृ. ४७३ ४. मूलाचार ४/१८६ ५. ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे। गणिणीमापुच्छित्ता संज्ञाडेणेव गछेज्ज।। मूलाचार ४/१६२ . ६. रोदणपहावणभोयजपयणं सुत्तं च छबिहारंभे। विरदाण पादमक्खण धोवणगेयं च ण य कुज्जा।। - मूलाचार ४/१६३ मा ७. असिमषिकृषि वाणिज्यशिल्पलेखक्रियाप्रारम्भास्तान् जीवघातहेतून। -मूलाचार वृत्ति ४/१६३ जनाए ४ जैन आचार-मीमांसा २२३ पानी छानना, (छेण), घर को साफ करके कूड़ा कचरा उठाना, फेंकना, गोबर से लीपना, झाडू लगाना और दीवालां को साफ करना-ये जीवघात करने वाली छह प्रकार की आरंभ क्रियायें भी आर्यिकायें नहीं करतीं।’ मूलाचार दूतकर्म आदि कार्य भी इन्हें निषिद्ध हैं। श्वेताम्बर परम्परा के गच्छाचारपइन्ना नामक प्रकीर्णक ग्रंथ में कहा है- जो आर्यिका गृहस्थी सम्बन्धी कार्य जैसे-सीना, बुनना, कढ़ाई आदि कार्यों को और अपनी या दूसरे की तेल मालिश आदि कार्य करती हैं वह आर्यिका नहीं हो सकती। जिस गच्छ में आर्यिका गृहस्थ सम्बन्धी जकार, मकार, आदि रूप शासन की अवहेलना सूचक शब्द बोलती हैं वह वेश-विडम्बनी तथा अपनी आत्मा को चतुर्गति में घुमाने वाली है।

आहारार्थ गमन विधि

आहारार्थ अर्थात् भिक्षा चर्या के लिए वे आर्यिकायें तीन, पाँच अथवा सात की संख्या में स्थविरा (वृद्धा) आर्यिका के साथ मिलकर उनका अनुगमन करती हुई तथा परस्पर एक दूसरे के रक्षण (सँभाल) का भाव रखती हुई ईर्ष्या समितिपूर्वक आहारार्थ निकलती हैं। देव वन्दना आदि कार्यों के लिए भी उपर्युक्त विधि से गमन करना चाहिए। आर्यिकायें दिन में एक बार सविधि बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं। गच्छाचार पइन्ना में कहा है - कार्यवश लघु आर्या मुख्य आर्या के पीछे रहकर अर्थात् स्थविरा के पीछे बैठकर श्रमण-प्रमुख के साथ सहज, सरल और निर्विकार वाक्यों द्वारा मृदु वचन बोले तो वही वास्तविक गच्छ कहलाता है। मा

स्वाध्याय सम्बन्धी विधान

मुनि और आर्यिका आदि सभी के लिए स्वाध्याय आवश्यक होता है। वट्टेकर ने स्वाध्याय के विषय में आर्यिकाओं के लिए लिखा है कि गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली तथा अभिन्नदशपूर्वधर- इनके द्वारा कथित सूत्रग्रंथ, अंगग्रंथ- इन सबका अस्वाध्यायकाल में अध्ययन मन्दबुद्धि के श्रमणों और आर्यिका समूह के लिए निषिद्ध है। अन्य मुनिश्वरों को भी द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि की शुद्धि के बिना उपर्युक्त सूत्रग्रंथ पढ़ना निषिद्ध है। किन्तु इन सूत्रग्रंथों के अतिरिक्त आराधनानियुक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान, E R १. कुन्द. मूलाचार ४/७४, २. गच्छाचार पइन्ना ११३, ३. वही ११० ४. तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ। थेरीहिं सहंतराि भिक्खाय समोदरन्ति सदा।। मूलाचार ४/१६४ ५. वही वृत्ति ६. सुत्तपाहुड श्रुतसागरीय टीका २२ तथा दौलत क्रियाकोश ७. गच्छाचार पइन्ना, १२१-१३० २२४ जैनदर्शन आवश्यक तथा धर्मकथा सम्बन्धी ग्रंथों को एवं ऐसे ही अन्यान्य ग्रंथों को आर्यिका आदि सभी अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकती हैं।’

वंदना-विनय संबंधी व्यवहार

_ आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों की वन्दना विधि के विषय में कहा गया है कि आर्यिकाओं को आचार्य की वन्दना पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय की वन्दना छह हाथ दूर से एवं साधु की वन्दना सात हाथ दूर से गवासन पूर्वक बैठकर ही करनी चाहिए। यहाँ सूरि (आचार्य), अध्यापक (उपाध्याय) एवं साधु शब्द ने यह भी सूचित होता है कि आचार्य से पांच हाथ दूर से ही आलोचना एवं वन्दना करना चाहिए। उपाध्याय से छह हाथ दूर बैठकर अध्ययन करना चाहिए एवं सात हाथ दूर से साधु की वन्दना, स्तुति आदि कार्य करना चाहिए, अन्य प्रकार से नहीं। यह क्रमभेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से हो जाता है। मोक्षपाहुड (गाथा १२) की टीका के अनुसार श्रमण और आर्यिका के बीच परस्पर वन्दना उपयुक्त तो नहीं है, किन्तु यदि आर्यिकायें वंदना करें तो श्रमण को उनके लिए “समाधिरस्तु" या “कर्मक्षयोऽस्तु” कहना चाहिए। श्रावक जब इनकी वन्दना करता है तो उन्हें सादर “वन्दामि” शब्द बोलता है।

आर्यिका और श्रमण संघ : परस्पर सम्बन्धों की मर्यादा

आचार्य विषयक जैन आगम साहित्य में श्रमण संघ को निर्दोष एवं सदा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अनेक दृष्टियों से स्त्रियों के संसर्ग से, चाहे वह आर्यिकाभले ही हो, दूर रहने का विधान है। यही कारण है कि श्रमण संघ आरम्भ से अर्थात् प्राचीनकाल से आज तक बिना किसी बाधा या अपवाद के अपनी अक्षुण्णता बनाये हुए है। गड कि श्रमणों और आर्यिकाओं का सम्बन्ध (परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। यदि आवश्यक हुआ तो कुछ आर्यिकायें एकसाथ मिलकर श्रमण से धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन शंका-समाधान आदि कार्य कर सकती हैं, अकेले नहीं। अकेले श्रमण और आर्यिका को परस्पर बातचीत तक का निषेध है। कहा भी है कि तरुण श्रमण किसी भी तरुणी आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा-वार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम विराधना इन पाप के हेतुभूत पांच दोषों से दूषित होगा। १. मूलाचार पइन्ना १२६-१३० २. पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊण ज्जाओ गवासणेणेव वंदति।। - मूलाचार ४/१६५ वृत्ति सहित ३. मूलाचार ४/१७६ वृत्ति सहित । जैन आचार-मीमांसा २२५ अध्ययन या शंका-समाधान आदि धार्मिक कार्य के लिए आर्यिकायें या स्त्रियाँ यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करना चाहिए किन्तु कदाचित धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है।’ एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे। यदि कोई आर्यिका अपनी पुस्तक अर्थात् गणिनी के साथ या उसे आगे करके कोई प्रश्न पूछे तब अकेले श्रमण उसका उत्तर दे सकता है अर्थात् मार्ग-प्रभावना की इच्छा रखते हुए प्रश्नोत्तरों आदि का प्रतिपादन करना चाहिए, अन्यथा नहीं। ___ आर्यिकाओं की वसतिका में श्रमणों को नहीं जाना, ठहरना चाहिए, वहीं क्षणमात्र या कुछ समय तक की (अल्पकालिक) क्रियायें भी नहीं करनी चाहिए। अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा-ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियायें पूर्णतः निषिद्ध हैं। वृद्ध, तपस्वी, बहुश्रुत और जनमान्य (प्रामाणिक) श्रमण भी यदि आर्याजन (आर्यिका आदि) से संसर्ग रखता है तो वह लोकापवाद का भागी (लोगों की निंदा का स्थान) बन जाता है। आर्यिकाओं के उपाश्रय में ठहरने वाला श्रमण लोकापवाद रूप व्यवहार-निन्दा तथा व्रतभंग रूप परमार्थ-निन्दा इन दोनों को प्राप्त होता है। इस प्रकार साधु को केवल आर्याजनों के संसर्ग से ही दूर नहीं रहना चाहिए किन्तु अन्य भी जो-जो वस्तु साधु को परतन्त्र करती है उस-उस वस्तु का त्याग करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। उसके त्याग से उसका संयम दृढ़ होगा। क्योंकि बाह्य वस्तु के निमित्त से होने वाला असंयम उस वस्तु के त्याग से ही सम्भव होता है।

आर्यिकाओं के गणधर

आर्यिकाओं के गणधर (आचार्य आदि विशेष) को निम्नलिखित गुणों से सम्पन्न माना गया है। प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्नी (धर्म और धर्मफल में अतिशय उत्साहवाला), अवद्य १. वही ४/१७७ वृत्ति सहित २. तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु। गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्वं । वही ४/१७६ वृत्ति सहित ३. मूलाचार ४/१८०, १०/६१ वृत्ति सहित, ४. वही, ३३१, ५. मूलाचार १०/६२ ६. भगवती आराधना गाथा ३३४, ३३८, २२६ जैनदर्शन (पाप) भीरू, परिशुद्ध (शुद्ध आचरण वाले), संग्रह (दीक्षा, उपदेश आदि द्वारा शिष्यों के ग्रहण-संग्रह ) और अनुग्रह में कुशल, सतत् सारक्षण (पापक्रियाओं से सर्वथा निवृत्ति) से युक्त, गंभीर, दुर्घष (स्थिर चित्त एवं निर्भय अन्तःकरण युक्त), मितभाषी, अल्पकौतुकयुक्त, चिरप्रवर्जित और गृहीतार्थ (तत्त्वों के ज्ञाता) आदि गुणों से युक्त आर्यिकाओं के मर्यादा उपदेशक गणधर (आचार्य) होते हैं।’ १. मूलाचार ४/१८३, १८४, बृहत्कल्प भाष्य २०५०