धवला टीका
__ आचार्य गुणधर कृत “कसाय-पाहुड” एवं आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत “षट्खण्डागम”-ये दो जैनधर्म के ऐसे विशाल एवं अमूल्य-सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध तीर्थंकर महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार शेष श्रुतज्ञान इससे पूर्व ही क्रमशः लुप्त व छिन्न-भिन्न हो गया था।’ द्वादशांग के अंतिम अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये ५ प्रभेद हैं। इनमें पूर्वगत नामक चतुर्थ प्रभेद के पुनः १४ भेद हैं। उनमें से द्वितीय भेद अग्रायणीय पूर्व से षटखण्डागम का उद्भव हुआ है। इस शौरसेनी प्राकृत भाषाबद्ध कर्मग्रन्थ की टीका का नाम धवला है। यह धवला टीका संस्कृत मिश्रित शौरसेनी प्राकृत भाषाबद्ध है। सम्प्रति दिगम्बर जैन परम्परा के कर्मग्रन्थों में धवलत्रय अर्थात् “धवल, जयधवल तथा महाधवल" का नाम सर्वोपरि है, जिनका सम्मिलित प्रमाण ७२००० + ६०,००० + ३०,००० = १६२,००० श्लोक प्रमाण हैं। इनका प्रकाशन हिन्दी अनुवाद सहित कुल १६+१६+७ = ३६ पुस्तकों में, जिनके कुल पृष्ठ १६,३४१ हैं, हुआ है। इस सानुवाद १६,३४१ पृष्ठ प्रमाण परमागम में जैनधर्म सम्मत विशाल व मौलिक कर्मसिद्धान्त का विवेचन है। इनमें सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि कृत षखण्डागम पर लिखित विशाल टीका धवला का यहाँ परिचय प्रस्तुत है। काम धवला टीका शक सं० ७३८ कार्तिक शुक्ला १३, ता०८-१०-८१६ ई० बुधवार को पूर्ण हुई थी। इसका प्रमाण ६०,००० श्लोक है। यह १६ भागों में तदनुसार ७०६७ पृष्ठों में २० वर्षों की दीर्घ अवधि (सन् १६३८ से १६५८) में प्रकाशित हुई है। या फिर इसके लेखक आचार्य वीरसेन स्वामी हैं। इनका जीवनकाल शक-संवत् ६६५ से ७४५ है। आपके गुरु ऐलाचार्य हैं। अथवा मतान्तर से आर्यनन्दि हैं। ये सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय आदि शास्त्रों में पारंगत मनीषी थे। आचार्य जिनसेन के शब्दों में “वीरसेन साक्षात् केवली के समान सकल विश्व के पारदर्शी थे। उनकी सर्वार्थगामिनी १. गो० क० प्रस्ता० पृ० ३ (ज्ञानपीठ) २. धवल ६/६, धवल १३/२०६ ३. धवल ६/१०, धवल १३/२५५-५६। ४. धवल पु० ६, पृष्ठ १०, धवल १३, पृ० ३५७-६८, धवल पु० १५, पृ०६ जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १५७ नैसर्गिकी प्रज्ञा को देखकर सर्वज्ञ की सत्ता में किसी मनीषी को शंका नहीं रही थी। विद्वान् लोग उनके ज्ञान-किरणों के प्रसाद को देखकर उन्हें प्रज्ञाश्रमणों में श्रेष्ठ आचार्य और श्रुतकेवली कहते थे। वे वृन्दारक, लोक-विज्ञ, वाचस्पतिवत् वाग्मी, सिद्धान्तोपनिबन्धकर्ता, उनकी धवला टीका भुवन-व्यापिनी है। वे शब्दब्रह्म गणधरमुनि, विश्वनिधि के द्रष्टा, सूक्ष्म वस्तु को जानने में साक्षात् सर्वज्ञ थे। इनके द्वारा रचित धवला टीका की भाषा प्राकृत-संस्कृत मिश्रित है। उदाहरणार्थ प्रथम पुस्तक में टीका का लगभग तृतीय भाग प्राकृत में है और शेष बहुभाग संस्कृत में है। इसमें उद्धृत पद्यों की संख्या २२१ में से १७ संस्कृत में तथा शेष प्राकृत में है। एवमेव आगे के भाग में भी जानना चाहिए। इस प्रकार संस्कृत-प्राकृत इन दोनों भाषाओं के मिश्रण से मणि-प्रवालन्यायानुसार यह रची गई है। इसकी प्राकृत भाषा शोरसैनी है, जिसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यों के ग्रन्थ पाये जाते हैं। ग्रन्थ की प्राकृत अत्यन्त परिमार्जित और प्रौढ़ है। संस्कृत भाषा भी अत्यन्त प्रौढ़, प्राञ्जल तथा न्यायशास्त्रों जैसी होकर भी कर्म-सिद्धान्त-प्ररूपक है।। ग्रन्थ की शैली सर्वत्र शंका उठाकर उसके समाधान करने की रही है। जैसे प्रथम पुस्तक में ही लगभग ६०० शंका समाधान है। टीका में आचार्य वीरसेन सूत्र-विरुद्ध व्याख्यान नहीं करते, परस्पर विरुद्ध दो सूत्रों में समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए दोनों के संग्रह का उपदेश देते हैं। कहीं विशेष आधारभूत सामग्री के सद्भाव में एक का ग्रहण तथा दूसरे का निषेध करने से भी नहीं चूके हैं। देशामर्शक सूत्रों का सुविस्तृत व्याख्यान करते हैं, किसी विवक्षित प्रकरण में प्रवाह्यमान-अप्रवाह्यमान उपदेश भी प्रदर्शित करते हैं। किन्हीं सूक्ष्म विषयों पर उपदेश के अभाव में प्रसंग-प्राप्त विषय की भी अप्ररूपणा करते हैं, तो कहीं उपदेश प्राप्त कर जान लेने की सम्प्रेरणा करते हैं। सर्वत्र विषय का विस्तार सहित न्याय आदि शैली से वर्णन इसमें उपलब्ध है। यह भारतीय वाङ्मय की अद्भुत कृति है। निजीक माह माना जा रहार माह में
विषय-परिचय
__षट्खण्डागम की यह धवला टीका १६ पुस्तकों में पूर्ण एवं प्रकाशित हुई है। छ: पुस्तकों में षट्रखण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की टीका निबद्ध है। प्रथम पुस्तक में गुणस्थानों और मार्गणास्थानों का विवरण है। द्वितीय पुस्तक में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति आदि २० प्ररुपणाओं द्वारा जीव की परीक्षा की गई है। तीसरी पुस्तक द्रव्य प्रमाणानुगम है, जिसमें ब्रह्माण्ड में व्याप्त सकल जीवों और उनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा गतियों में भी उनकी संख्याएं सविस्तार गणित शैली से सप्रमाण बताई है। चौथी १. धवल पु०६, पृ० ११, धवल १४, पृ० ३५६-६०। २. धवल पु०६, पृ० १२, धवल १३, पृ० ३६२। १५८ राम जैनदर्शन पट का पुस्तक क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम है। इसमें बताया है कि जीवों के निवास व विहार आदि संबन्धी कितना क्षेत्र (ब्रह्माण्ड में) होता है, तथा अतीत काल में विभिन्न गुणस्थानी व मार्गणस्थ जीव कितना क्षेत्र स्पर्श कर पाते हैं। वे विभिन्न गुणस्थानादि में एवं गति आदि में कितने काल तक रहते हैं ? पंचम पुस्तक अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व विषयक है। विवक्षित गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र जाकर पुनः उसी गुणस्थान में कितने समय बाद आना सम्भव है? यह मध्य की विरह-अवधि अन्तर कहलाती है। कमों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय, उदय आदि के निमित्त से जो परिणाम होते हैं उन्हें भाव कहते हैं। विभिन्न गुणस्थानादिक में जीवों की हीन अधिक संख्या की तुलना का कथन करना अल्पबहुत्व है। । छठी पुस्तक चूलिका स्वरूप है। इसमें १. प्रकृति-समुत्कीर्तन, २. स्थान-समुत्कीर्तन, ३-५. तीनदण्डक, ६. उत्कृष्ट स्थिति, ७. जघन्यस्थिति, ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति तथा ६. गति-आगति नामक ६ चूलिकाएं हैं।
- इनमें से प्रथम दो चूलिकाओं में कर्मप्रकृति (कों) के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा की है। सम्यक्त्व के सन्मुख जीव किन प्रकृतियों को बाँधता है, इसके स्पष्टीकरणार्थ तीन दण्डक रूप तीन चूलिकाएं हैं। कमों की उत्कृष्ट तथा जघन्यस्थिति छठी व सातवीं चूलिकाएं प्ररूपित करती हैं। प्रथम की ७ चूलिकाओं द्वारा कर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। शेष दो में क्रमशः कर्मवर्णनाधारित सम्यक्दर्शन-उत्पत्ति तथा जीवों की गति आगति सविस्तार वर्णित है। छठी पुस्तक के कर्मों का सविस्तार सभेद-प्रभेद वर्णन है, अतः प्रासंगिक जानकर किंचित् लिखा जाता है जैनदर्शन में कर्म के दो प्रकार कहे हैं-एक द्रव्यकर्म, दूसरा भावकर्म। यह कर्म एक संस्कार मात्र नहीं है, किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है। जो रागी, द्वेषी जीव की क्रिया का निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध व पानी की तरह वह जीव के साथ घुल-मिल जाता है। यह (द्रव्य कर्म) है तो भौतिक पदार्थ, किन्तु उसका कर्म नाम इसलिए रूढ़ हो गया कि वह जीव की मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ बँध जाता है। जहाँ अन्य दर्शन राग और द्वेष से आविष्ट जीव की क्रिया को कर्म ओर इस कर्म के क्षणिक होने से तज्जन्य संस्कार को स्थायी मानते हैं वहाँ जैन दर्शन का मत है कि रागद्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के द्वारा एक प्रकार का द्रव्य आत्मा के साथ आकृष्ट होता है और उसके जो रागद्वेषरूप परिणामों का निमित्त पाकर वह आत्मा के साथ बँध को प्राप्त हो जाता है। तथा कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को अच्छा या बुरा फल मिलने में हेतु होता है।' _जीव के राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप भाव (विकारी परिणाम) ही भावकर्म है। इनके निमित्त से उसी क्षण, नियत, सूक्ष्म (इन्द्रियों से अग्राह्य) पुद्गल परमाणु है १. धवल पु० ६, पृ० १३, धवल १३, पृ० ३६२। । १५६ जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ आत्मा के साथ संश्लेष को प्राप्त हो जाते हैं। यही संश्लेष को प्राप्त होने वाले परमाणु द्रव्यकर्म कहलाते हैं। ये शुभभावों के समय आत्मा के साथ बँधकर पुनः नियत काल तक टिक कर पृथक् होते समय आत्मा को शुभ फल देते हैं। तथा यदि ये ही कर्म अशुभ भावों के द्वारा बँधते हैं तो कालान्तर में पृथक् होते समय अशुभ फल देकर पृथक् होते हैं। प्रति समय अनन्त कर्म परमाणु बँधते हैं तथा अनन्त ही खिरते हैं। इ मल द्रव्यकर्म के मूल आठ भेद हैं -१. जो आत्मा के ज्ञान गुण का आवरण (प्रच्छादन) करता है वह ज्ञानावरणी कर्म है, २. जो दर्शन गुण को आवृत करता है वह दर्शनावरण कर्म है, ३. जो वेदन अर्थात् सुख या दुःख का अनुभवन किया जाता है वह वेदनीय कर्म है, ४. जो मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है, ५. जो भवधारण के प्रति जाता है वह आयु कर्म है, ६. जो नाना प्रकार की रचना निष्पन्न करता है वह नाम कर्म है, ७. जो उच्च व नीच कुल में ले जाता है वह गोत्र कर्म है, ८. जो दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्न करता है वह अन्तराय कर्म है।’ इन आठ कर्मों के भी भेद क्रमशः ५, ६, २, २८, ४, ६३, २, ५ हैं। इस तरह द्रव्यकर्म के कुल १४८ उत्तर भेद हो जाते हैं। ज्ञानावरण के ५ भेद - मतिज्ञानावरण, श्रुताज्ञावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण व केवलज्ञानावरण हैं। जो मतिज्ञान का आवरण करता है वह मतिज्ञानावरण कर्म है। इसी तरह श्रुतज्ञान आदि ज्ञानों के आवारक कर्म ज्ञातानावरण आदि नाम से अभिहित होते हैं। दर्शनावरण के ६ भेद हैं-चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शना० केवलदर्शना०, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि । चक्षुर्दर्शन का आच्छादक-आवारक कर्म चक्षुर्दर्शनावरण है इसी तरह आगे भी जानना चाहिए। निद्रा आदि ५ भी आत्मा के दर्शनगुण के घातक होने से दर्शनावरण के भेदों में परिगणित किए हैं। सुख तथा दुःख का वेदन कराने वाले क्रमशः साता व असाता नामक दो वेदनीय कर्म हैं। मा मोहनीय के २८ भेद हैं - ४ अनन्तानुबंधी, ४ अप्रत्याख्यानावरण, ४ प्रत्याख्यानावरण, ४ संज्वलन-ये १६ कषायें तथा हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद- ये ६ नोकषाय और मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व-ये तीन दर्शनमोह। इन २८ भेदों में से आदि के २५ भेद चारित्रगुण का घात करते हैं तथा अन्तिम तीन भेद आत्मा के सम्यक्त्व गुण को रोकते हैं। आयुकर्म के ४ भेद-नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव। नरक-आयुकर्म नरक को धारण करता है। इसी तरह तिर्यंच आदि भवों को धारण कराने वाले भवकर्म तिर्यंचायुकर्म आदि संज्ञा प्राप्त करते हैं। आयुकर्म जीव की स्वतंत्रता को रोकता तथा अवगाहनत्व गुण को घातता है। __नामकर्म के ६३ भेद हैं - गति ४, जाति ५, शरीर ५, शरीर-बंधन ५, शरीरसंघात ५, शरीर अंगोपांग ३, संहनन ६, संस्थान ६, वर्ण ५, गंध २, रस ५, स्पर्श ८, आनुपूर्वी १. धवल पु०६, पृ० १३, धवल १३, पृ० ३८७ । १६० जैनदर्शन में का ४, अगुरुलघु १, उपघात १, परघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, विहायोगति २, त्रस १, स्थावर १, बादर १, सूक्ष्म १, पर्याप्त १, अपर्याप्त १, प्रत्येक १, साधारण १, स्थिर १, अस्थिर १, शुभ १, अशुभ , सुभग १, दुर्भग १, सुस्वर १, दुःस्वर १, आदेय १, अनादेय १, यशःकीर्ति १, अयशःकीर्ति १, निर्माण १, व तीर्थकर १। यह नामकर्म अशरीरित्व (सूक्ष्मत्व) गुण का घात करता है। यह समाज गोत्रकर्म के दो भेद हैं - (१) जो उच्च गोत्र का कारक है वह उच्च गोत्र कर्म है तथा (२) जिस कर्म के उदय से जीवों के नीच गोत्र (गोत्र = कुल, वंश, संतान) होता है वह नीच गोत्र कर्म है। _ अन्तराय कर्म के ५ भेद हैं - जिस कर्म के उदय से दान देते हुए जीव के विघ्न होता है वह दानान्तराय कर्म है। इसी तरह लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य में विघ्नकारक कर्म लाभान्तराय आदि नामों से कहे जाते हैं। ___ गोत्रकर्म के अभाव में आत्मा का अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है तथा अन्तराय के अभाव में अनन्तवीर्य आदि ५ क्षायिकलब्धि भी प्रकट होती है। द इन कर्मों की विस्तृत परिभाषाएं प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध, उदय, स व आदि धवल आदि मूल ग्रन्थों से जानना चाहिए। म OF सातवीं पुस्तक में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड “क्षुद्रबन्ध” की टीका है, जिसमें संक्षेपतः कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है। भू आठवीं पुस्तक में बन्धस्वामित्वविचय नामक तृतीय खण्ड की टीका पूरी हुई है। इस पुस्तक में बताया गया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान व मार्गणास्थान में सम्भव है। इसी सन्दर्भ में निरन्तरबंधी, सान्तरबंधी, ध्रुवबंधी आदि प्रकृतियों का खुलासा किया गया है। नवम पुस्तक में वेदनाखण्ड सम्बन्धी कृतिअनुयोगद्वार की टीका है। आद्य ४४ मंगल सूत्रों की टीका में विभिन्न ज्ञानों की विशद प्ररूपणा है। फिर सूत्र ४५ से ग्रन्थान्त तक कृति अनुयोगद्वार का विभिन्न अनुयोग द्वारों से प्ररूपण है। दसवीं पुस्तक में वेदनानिक्षेप, नयविभाषणता, नामविधान तथा वेदना-द्रव्य-विधान अनुयोगद्वारों का सविस्तार विवेचन है। ग्यारहवीं पुस्तक में वेदना क्षेत्रविधान तथा कालविधान का विभिन्न अनुयोगद्वारों (अधिकारों) द्वारा वर्णन करके फिर दो चूलिकाओं द्वारा अरुचित अर्थ का प्ररूपण तथा प्ररूपित अर्थ का विशिष्ट खुलासा किया है। बारहवीं पुस्तक में वेदना भावविधान आदि १० १. धवल ६/१३, धवल १३/३८६ नमः २. धवल ७, पृ० १५, जीवकाण्ड। जीव प्रबोधिनी टीका ६८, त वार्थसार ८/३७-४०। ३. धवल पु०६ पृ० ७७-७८, पु०७, पृष्ठ १५ ४. धवल ६/७७-७८ । ५. धवल ७, पृष्ठ १५, जीवकाण्ड। जीव प्र० टीका ६८ तथा त वार्थसार ८/३७-४०। माना जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ अनुयोगद्वारों द्वारा गुणश्रेणि निर्जरा, अनुभाग-विषयक सूक्ष्मतम, विस्तृत तथा अन्यत्र अलभ्य ऐसी प्ररूपणाएँ की गई हैं। इस तरह वेदना अनुयोगद्वार के १६ अधिकार तीन पुस्तकों (१०, ११ व १२) में सटीक पूर्ण होते हैं। ५वें खण्ड की टीका पु० १३ व १४ में पूर्ण हुई है, जिसमें १३वीं पुस्तक में स्पर्श कर्म व प्रकृति अनुयोगद्वार हैं। स्पर्श अनुयोगद्वार का अवान्तर अधिकारों द्वारा विवेचन करके फिर कर्म अनुयोगद्वार का अकल्प्य १६ अनुयोगद्वारों द्वारा वर्णन करके तत्पश्चात् अन्त में प्रकृति अनुयोगद्वार में आठों कर्मों का सांगोपांग वर्णन किया है। चौदहवीं पुस्तक में बन्धन अनुयोगद्वार द्वारा बन्ध, बन्धक, बन्धनीय (जिसमें २४ वर्गणाओं तथा पंचशरीरों का प्ररूपण है) तथा बन्ध विधान (इसका प्ररूपण नहीं है, मात्र नाम निर्देश है) इन ४ की प्ररूपणा की है। अन्तिम दो पुस्तकों में सत्कर्मान्तर्गत शेष १८ अनुयोगद्वारों (निबन्धन, प्रक्रम आदि) की विस्तृत विवेचना की गई है। इस तरह १६ पुस्तकों में धवला टाका पूर्ण होता है। जाणिक पण
धवला में अन्यान्य वैशिष्ट्य
गणित के क्षेत्र में धवला का मौलिक अवदान
_इसमें गणित संबन्धी करणसूत्र व गाथाएं ५४ पायी जाती हैं, जो लेखक के गणित विषयक गम्भीर ज्ञान की परिचायक हैं।’ उस जमाने (युग) में भी धवलाकार दाशमिक पद्धति से पूर्ण परिचित थे। इसमें बड़ी संख्याओं का भी बहुतायत से उपयोग हुआ है। धवला में जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्गमूल, घनमूल, संख्याओं का घात (वर्ग) आदि मौलिक प्रक्रियाओं का कथन उपलब्ध है। धवल का घातांक सिद्धान्त ५०० ई० पूर्व का है। वर्ग, घन, उत्तरोत्तरवर्ग (द्विरूपवर्गधारा में), उत्तरोत्तरघन, किसी संख्या का संख्यातुल्यघात निकालना, उत्तरोत्तरवर्गमूल, घनमूल, लोगरिथम (लघुरिक्थ), अर्द्धच्छेद, वर्गशलाका, त्रिकच्छेद, चतुर्थच्छेद, भिन्न, त्रैराशिक, अनंतवर्गीकरण, असंख्यात, संख्यात तथा इनके सुव्यवस्थित भेदों का निरूपण पु० ३, ४, १० में बहुतायत से देखने को मिलता है।
व्याकरण-शास्त्र
शब्दशास्त्र में लेखक की अबाध गति के धवला में अनेक उदाहरण हैं। शब्दों के निरुक्तार्थ प्रकट करते हुए उसे व्याकरणशास्त्र से सिद्ध किया गया है। उदाहरण के लिए १. देखो-धवल ६ पृष्ठ १ से २०१, धवल १३, पृ० २०५ से ३६२, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह आदि। २. षखण्डागम परिशीलन, भारतीय ज्ञानपीठ पृ० ३५३-३५४ । ३. देखो - धवल ३/६८, ३/६६, ३/१००।१६२ जैनदर्शन धवला १/8-१०, ३२-३४, ४२-४४, ४८, ५१, १३१ द्रष्टव्य है। समासों के प्रयोग हेतु धवला ३/४-७, १/६०-६१, १/१३३, धवल १२/२६०-६१ आदि तथा प्रत्यय प्रयोग हेतु धवल १३/२४३-३ आदि देखने योग्य हैं।
न्यायशास्त्र
न्यायशास्त्रीय पद्धति होने से धवला में अनेक न्यायोक्तियाँ भी मिलती हैं। यथा-धवल ३/२७-१३०, धवल पु० १ पृ० २८, २१६, २१८, २३७, २७०, धवल १/२००, २०५, १४०, ७२, १६६, धवल ३/१८, १२०, धवल १३, पृष्ठ २, ३०२, ३०७, ३१७ आदि। अन्य दर्शन के मत-उदाहरण (धवल ६/४६० आदि) तथा काव्य प्रतिभा एवं गद्य भाषालंकरण तो मूल ग्रन्थ देखने पर ही जान पड़ता है।
शास्त्रों के नामोल्लेख
__प्रमाण देते समय लेखक ने धवला में कषायपाहुड, आचारांग आदि २७ ग्रन्थों के नाम निर्देशपूर्वक उद्धरण दिये हैं तो वहीं पर पचासों ग्रन्थों की गाथाओं और गद्यांशों आदि को ग्रन्थनाम बिना भी उद्धृत किया है। कुल दोनों प्रकार के उद्धरण ७७५ हैं। द्वादशांग से निःसृत होने से यह ग्रन्थ प्रमाण है। साथ ही इसमें आचार्य परम्परागत व गुरूपदेश को ही मह व दिया है। (देखो - धवल ३/८८-८६, १६६-२००, ४/४०२-३, धवल १०/२१४-१५, ४४४, २७८, धवल १३/२२१-२२, धवल १३/३०६-१०, ३३७ आदि) तथा जहाँ उन्हें उपदेश अप्राप्त रहा वहाँ स्पष्ट कह दिया कि इस विषय में जानकर (यानि उपदेश प्राप्त कर) कहना चाहिए (देखो धवल ३/३३-३८, ५/११६-१६, धवल ६/१३१-३३, ३१८, धवल १३/३१५-१६ आदि) इन सबसे ग्रन्थ की प्रामाणिकता निर्बाध सिद्ध होती है।
प्राचीन दार्शनिकों के नामोल्लेख
धवल में १३७ दार्शनिकों के नाम आए हैं। यथा-अष्टपुत्र, आनन्द, ऋषिदास, औपमन्यव, कपिल, कंसाचार्य, कार्तिकेय, गोवर्धन, गौतम, चिलातपुत्र, जयपाल, जैमिनि, पिप्पलाद, वादरायण, विष्णु, वशिष्ठ आदि। १. धवला पु० ४, प्रस्ता० में “धवला का गणितशास्त्र नामक लेख। २. षट्खण्डागम परिशीलन पृष्ठ ५७२ ३. तदेव, पृ० ७४२ तदेव हैं जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ
तीर्थस्थानों, नगरों के नामोल्लेख
इसी तरह ४२ भौगोलिक स्थानों के नाम भी आए हैं। यथा आन्ध्र (धवल १/७७), अंकुलेश्वर (धवल १/६७), ऊर्जयन्त (धवल ६/१०२), ऋजुकूला नदी (धवल ६/१२४), चन्द्रगुफा (१/६७ आदि), जृम्भिकाग्राम (धवल ६/१२४), पाण्डुगिरि (धवल १/१६२), वैभार (धवल १/६२) सौराष्ट्र (धवल १/६७) आदि।’ इन उल्लेखों से तत्कालीन युग के स्थानों का अस्तित्व ज्ञात होता है।
जयधवल टीका
आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला की पूर्णता (शक सं० ७३८) के पश्चात् शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार्य गुणधर द्वारा विरचित कसायपाहुड (कषाय प्राभृत) की टीका जयधवला का कार्य आरंभ किया और जीवन के अंतिम सात वर्षों में उन्होंने उसका एक तिहाई भाग लिखा। तत्पश्चात् शक सं०७४५ में उनके दिवंगत होने पर शेष दो तिहाई भाग उनके योग्यतम शिष्य जिनसेनाचार्य (शक सं० ७०० से ७६०) ने पूरा किया। २१ वर्षों की सुदीर्घ ज्ञानसाधना की अवधि में यह लिखी जाकर शक सं० ७५६ में पूरी हुई। ___ आचार्य जिनसेन स्वामी ने सर्वप्रथम संस्कृत महाकाव्य पार्वाभ्युदय की रचना (शक सं० ७००) में की थी। इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति महापुराण है। उसके पूर्वभाग-आदिपुराण के ४२ सर्ग ही वे बना पाए थे और दिवंगत हो गए। शेष की पूर्ति इनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की। जिला P_जयधवल टीका का आरंभ वाटपुरग्राम (संभवतः बड़ौदा ) में चन्द्रप्रभुस्वामी के मंदिर में हुआ था। मूल ग्रन्थ “कषायपाहुड” है, जो गुणधराचार्य द्वारा २३३ प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। इस पर यतिवृषभाचार्य द्वारा चूर्णिसूत्र (संक्षिप्त सूत्रात्मक व्याख्यान) लिखे गये और इन दोनों पर आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने जयधवला व्याख्या लिखी। इस तरह जयधवला की १६ पुस्तकों में मूलग्रन्थ कषायपाहुड इस पर लिखित चूर्णिसूत्र और इसकी जयधवला टीका-ये तीनों ग्रंथ एक साथ प्रकाशित हैं। के जयधवला की भाषा भी धवला टीका की तरह मणिप्रवालन्याय से प्राकृत और संस्कृत मिश्रित है। जिनसेन ने स्वयं इसकी अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है १. तदेव, पृ० ८४० आदि २. जयधवला, पु०१ प्रस्ता० पृ० ७२ । ३. तदेव पु० १, पृ० ७३ । ४. जैन साहित्य का इति० पृ० २५४ । ५. कषायपाहुड का दूसरा नाम पेज्जदास पाहुड है, जिसका अर्थ राग-द्वेष प्राभत है ज०ध० पु०१, पृ० १८१ १६४ जैनदर्शन भी कि प्रायः प्राकृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया। मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोयं ग्रन्थविस्तरः।। (३७) जयधवला में दार्शनिक चर्चाएं और व्युत्पत्तियां तो संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। पर सैद्धान्तिक चर्चा प्राकृत में है। किंचित् ऐसे वाक्य भी मिलते हैं, जिनमें युगपत् दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है। जयधवल की संस्कृत और प्राकृत दोनो भाषाएं प्रसादगुण युक्त और प्रवाहपूर्ण तथा परिमार्जित हैं। दोनों भाषाओं पर टीकाकारों का प्रभुत्व है और इच्छानुसार उनका वे प्रयोग करते हैं। इस टीका का परिमाण ६० हजार श्लोकप्रमाण है। इसका हिन्दी अनुवाद वाराणसी में जैनागमों और सिद्धान्त के महान् मर्मज्ञ विद्वान सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्दजी शास्त्री ने तथा सम्पादनादि कार्य पं. कैलाश चंद जी शास्त्री ने किया है। इसका प्रकाशन १६ पुस्तकों में, जिनके कुल पृष्ठ ६४१५ हैं, जैन संघ चौरासी, मथुरा से हुआ है। इसके हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन में ४८ वर्ष (ई० १६४० से १९८८) लगे। का इसमें मात्र मोहनीय कर्म का ही वर्णन है। शेष सात कमों की प्ररूपणा इसमें नहीं की गयी। जैसा कि निम्न वाक्य से प्रकट है-“एत्थ कसायपाहुडे सेससन्तहं कम्माणं परूवणा णत्थि"-जयधवला, पुस्तक १, पृ० १६५, १३६, २३५ आदि।
विषय परिचय
मूलग्रन्थ का नाम कसायपाहुड (कषायप्राभृत) है। इसका दूसरा नाम “पेज्जदोसपाहुड" है। “प्रेज्ज” अर्थात् प्रेय का अर्थ है ‘राग’ और ‘दोस’ अर्थात् द्वेष का अर्थ है शत्रुभाव (शत्रुता)। सारा जगत् इन दोनों से व्याप्त है। इन्हीं दोनों का वर्णन इसमें किया गया है। वीरसेन और जिनसेन ने इसका और इस पर यतिवृषभाचार्य द्वारा लिखे गये चूर्णिसूत्रों का स्पष्टीकरण करने के लिए अपनी यह विशाल टीका जयधवला लिखी है। कि इसमें १५ अधिकार हैं। वे इस प्रकार हैं : १. प्रेय-द्वेष-विभक्ति, २. स्थितिविभक्ति, ३. अनुभाग विभक्ति, ४. बन्धक, ५. संक्रम, ६. वेदक, ७. उपयोग, ८. चतुःस्थान, ६. व्यंजन, १०. दर्शनमोह की उपशामना, ११. दर्शनमोह की क्षपणा, १२. देशविरति, १३. संयम, १४. चारित्रमोह की उपशमना और १५. चारित्रमोह की क्षपणा। इन अधिकारों के निरूपण के पश्चात् पश्चिमस्कन्ध नामक एक पृथक् अधिकार का भी वर्णन किया गया है। इनका विषय संक्षेप में यहाँ दिया जाता है।
०१. पेज्जदोस विभक्ति
इस अधिकार का यह नाम मूल ग्रन्थ के द्वितीय नाम पेज्जदासपाहुड की अपेक्षा से रखा गया है। इसी से इसमें राग और द्वेष का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। अतएव जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १६५ उदय की अपेक्षा मोह का इसमें वर्णन है। चार कषायों में क्रोध और मान द्वेष रूप हैं और माया एवं लोभ प्रेय (राग) रूप हैं। इस अधिकार में इनका बड़ा सूक्ष्म वर्णन है। विशेषता यह है कि यह अधिकार पुस्तक १ में पूर्ण हुआ है और न्यायशास्त्र की शैली से इसे खूब पुष्ट किया गया है।
०२. स्थिति विभक्ति
। इसमें मोहनीय कर्म की प्रकृति और स्थिति इन दो का वर्णन है। जब मोहनीय कर्म नामक जड़ पुद्गलों का आत्मा के साथ चिपकना-बंधना-एकमेकपना या संश्लेष सम्बन्ध होता है तब वे कर्म परमाणु आत्मा के साथ कुछ समय टिक कर फिर फल देकर, तथा फलदान के समय आत्मा को विमूढ़ (विमोहित), रागी, द्वेषी आदि रूप परिणत करके आत्मा से अलग हो जाते हैं। इस मोहनीय कर्म का जो उक्त प्रकार का विमोहित करने रूप स्वभाव है, वह ‘प्रकृति’ कहलाता है तथा जितने समय वह आत्मा के साथ रहता है वह ‘स्थिति’ कहा जाता है, उसकी फलदानशक्ति ‘अनुभाग’ कहलाती है तथा उस कर्म के परमाणुओं की संख्या ‘प्रदेश’ कहलाती है। प्रकृत अधिकार में प्रकृति और स्थिति का विस्तृत, सांगोपांग एवं मौलिक प्ररूपण है, जो पुस्तक २, ३ व ४ इन तीन में पूरा हुआ है।
०३. अनुभाग विभक्ति
इसके दो भेद हैं - १. मूल प्रकृति अनुभागविभक्ति और २. उत्तरप्रकृति अनुभाग विभक्ति। इन मूल प्रकृतियों के अनुभाग और उत्तरप्रकृतियों के अनुभाग का पुस्तक ५ में विस्तृत वर्णन है।
प्रदेश विभक्ति
इसके भी दो भेद हैं - १. मूल और २. उत्तर। मूल प्रकृति प्रदेश विभक्ति और उत्तर प्रकृति प्रदेश विभक्ति इन दोनों अधिकारों में क्रमशः मूल और उत्तर कर्म प्रकृतियों के प्रदेशों की संख्या वर्णित है। यह अधिकार पुस्तक ६ व ७ में समाप्त हुआ है। किस स्थिति में स्थित प्रदेश - कर्म परमाणु उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य एवं अयोग्य हैं, इसका निरूपण इस अधिकार में सूक्ष्मतम व आश्चर्यजनक किया गया है। इसके साथ ही उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त, जघन्य स्थिति को प्राप्त आदि प्रदेशों का भी वर्णन इस अधिकार में है।
०४. बन्धक
_इसके दो भेद हैं - १. बन्ध और २. संक्रम। मिथ्यादर्शन, कषाय आदि के कारण कर्म रूप होने के योग्य कार्मणपुद्गलस्कन्धों का जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह जैनदर्शन सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद कहे गये हैं। इनका इस अधिकार में वर्णन है। यह अधिकार पुस्तक ८ व ६ में पूरा हुआ है।
०५. संक्रम
_ बंधे हुए कर्मों का जीवन के अच्छे-बुरे परिणामों के अनुसार यथायोग्य अवान्तर भेदों में संक्रान्त (अन्य कर्मरूप परिवर्तित) होना संक्रम कहलाता है। इसके प्रकृतिसंक्रम, स्थिति संक्रम, अनुभागसंक्रम, और प्रदेशसंक्रम ये चार भेद हैं। किस प्रकृति का किस प्रकृति रूप होना और किस रूप न होना प्रकृतिसंक्रम है। जैसे सातावेदनीय का असातावेदनीय रूप होना। मिथ्यात्वकर्म का क्रोधादि कषायरूप न होना। इसी तरह स्थितिसंक्रम आदि तीन के सम्बन्ध में भी बताया गया है। इस प्रकार इस अधिकार में संक्रम का सांगोपांग वर्णन किया गया है, जो पुस्तक ८ व ६ में उपलब्ध है।
०६. वेदक
इस अधिकार में मोहनीय कर्म के उदय व उदीरणा का वर्णन है। अपने समय पर कर्म का फल देने को उदय कहते हैं तथा उपाय विशेष से असमय में ही कर्म का पहले फल देना उदीरणा है। यतः दोनों ही अवस्थाओं में कर्मफल का वेदन (अनुभव) होता है। अतः उदय और उदीरणा दोनों ही वेदक संज्ञा है।’ यह अधिकार पुस्तक १० व ११ में समाप्त हुआ है।
७. उपयोग
इस अधिकार में क्रोधादि कषायों के उपयोग का स्वरूप वर्णित है। एक जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है। किस जीव के कौन-सी कषाय बार-बार उदय में आती है, एक भव में एक कषाय का उदय कितनी बार होता है, एक कषाय का उदय कितने भवों तक रहता है, आदि विवेचन विशदतया इस अधिकार में किया गया है। यह अधिकार पुस्तक १२ में पृ० १ से १४७ तक प्रकाशित है।
०८. चतुःसंस्थान
घातिकमों की शक्ति की अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैलरूप ४ स्थानों का विभाग करके उन्हें क्रमशः एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान कहा गया है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के उन ४-४ स्थानों का वर्णन है। जैसे-पर्वत, १. जयधवल, पु० १०, पृष्ठ २। जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १६७ पृथ्वी, रेत तथा पानी में खींची गई लकीरों के समान क्रोध ४ प्रकार का होता है। पर्वतशिला पर पड़ी लकीर किसी कारण से उत्पन्न होकर फिर कभी मिटती नहीं है वैसे ही जीव का अन्य जीव पर हुआ क्रोध का संस्कार इस भव में नहीं मिटता तथा जन्मान्तर में भी वह क्रोध उसके साथ में जाता है, ऐसा क्रोध पर्वतशिला सदृश कहलाता है। ग्रीष्मकाल में पृथ्वी पर हुई लकीर पृथ्वी का रस क्षय होने से वह बन जाती है, पुनः वर्षाकाल में जल के प्रवाह से वह मिट जाती है। इसी तरह जो क्रोध चिरकाल तक रहकर भी पुनः किसी दूसरे निमित्त से या गुरु उपदेश से उपशांत हो जाता है वह पृथ्वी सदृश क्रोध कहलाता है। रेत में खींची गई रेखा हवा आदि से मिट जाती है। वैसे ही जो क्रोध मंदरूप से उत्पन्न होकर गुरु उपदेश रूप पवन से नष्ट हो जाता है वह रेतसदृश क्रोध है। जल में लगड़ी आदि से खींची गई रेखा जैसे बिना उपाय से उसी समय मिट जाती है वैसे ही जो क्षणिक क्रोध उत्पन्न होकर मिट जाता है वह जलसदृश कहलाता है। इसी तरह मान, माया और लोभ भी ४-४ प्रकार के होते हैं। इन सबका विवेचन इस अधिकार में विस्तारपूर्वक किया गया है। यह अधिकार पुस्तक १२, पृष्ठ १४६ से १८३ में समाप्त हुआ है।
०९. व्यंजन
___ इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची शब्दों को बताया गया हे। यह अधिकार पुस्तक १२ पृ० १८४ से १६२ तक है।
१०. दर्शनमोहोपशामना
इसमें दर्शनमोहनीय कर्म की उपशामना का वर्णन है। यह पुस्तक १२, पृष्ठ १६३ से ३२८ तक है। ११ दर्शनमोहनीयक्षपणा __इसमें दर्शनमोहनीयकर्म का जीव किस तरह नाश करता है इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जीव को दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने में कुल अन्तर्मुहूर्त काल ही लगता है। पर उसकी तैयारी में दीर्घकाल लगता है। दर्शनमोह की क्षपणा करनेवाला मनुष्य (जीव द्रव्य से पुरुष) एक भव में अथवा अधिक से अधिक आगामी तीन भवों में अवश्य मुक्ति पा लेता है। यह अधिकार पुस्तक १३ पृष्ठ १ से १०३ में वर्णित है।
१२. देशविरत
इस अधिकार में देशसंयमी अर्थात् संयमासंयमी (पंचम गुणस्थान) का वर्णन है। यह अधिकार पुस्तक १३, पृष्ठ १०५ से १५६ में पूरा हुआ है। है है १६८ कला जैनदर्शन
१३. संयम
बाल विहान संयम को संयमलब्धि के रूप में वर्णित किया गया है। यह जिस जीव को प्राप्त होती है वह बाहर से नियम से दिगम्बर (नग्न) होता है तथा अन्दर आत्मा में उसके मात्र संज्वलनकषायों का ही उदय शेष रहता है। शेष तीन चौकड़ियों का नहीं। संयमासंयम लब्धि से ज्यादा यह संयमलब्धि मुमुक्षु के लिए अनिवार्य रूप में उपादेय है। यह अधिकार पुस्तक १३, पृष्ठ १५७ से १८७ तक है।
१४. चारित्रमोहोपशामना
यह अधिकार में चारित्रमोह की २१ प्रकृतियों की उपशामना का विविध प्रकार से प्ररूपण किया गया है, जो अन्यत्र अलभ्य है। यह अधिकार पुस्तक १३, पृष्ठ १८६ से ३२४ तथा पुस्तक १४, पृष्ठ १ से १४५ में समाप्त है।
१५. चारित्रमोहक्षपणा
__यह अधिकार बहुत विस्तृत है। यह पुस्तक १४, पृष्ठ १४७ से ३७२ तथा पुस्तक १५ पूर्ण और पुस्तक १६ पृष्ठ १ से १३८ में समाप्त हुआ है। इसमें क्षपक श्रेणी का बहुत अच्छा एवं विशद् विवेचन किया गया है। इसके बाद पुस्तक १६ पृष्ठ १३६ से १४४ में क्षपणा-अधिकार-चूलिका है, इमें क्षपणा संबन्धी विशिष्ट विवेचन है। इसके उपरान्त पुस्तक १६, पृष्ठ १४६ से १६५ में पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार है। उसमें जयधवलाकार ने चार अघातियाकों (आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय) के क्षय का विधान किया है। 3 of । इस प्रकार यह जयधवला टीका वीरसेन और उनके शिष्य जिनसेन इन दो आचार्यों द्वारा संपन्न हुई है। बीस हजार आचार्य वीरसेन द्वारा और ४० हजार आचार्य जिनसेन द्वारा कुल ६० हजार श्लोक प्रमित यह टीका है।
गोम्मटपंजिका
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (१०वीं शती) द्वारा प्राकृत भाषा में लिखित गोम्मटसार पर सर्वप्रथम लिखी गई यह एक संस्कृत पंजिका टीका है। इसका उल्लेख उत्तरवर्ती आचार्य अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोधिनी टीका में किया है। इस पंजिका की एकमात्र उपलब्ध प्रति (सं० १५६०) पं० परमानन्द जी शास्त्री के पास रही। इस टीका का प्रमाण पाँच हजार श्लोक है। इस प्रति में कुल पत्र ६८ हैं। भाषा प्राकृत मिश्रित संस्कृत है। दोनों ही भाषाएं बड़ी प्रांजल और सरल हैं। इसके रचयिता गिरिकीर्ति हैं। इस टीका १. मन्दप्रबोधिनी गाथा ६३। २. पयडी सील सहावो-प्रकृतिः शीलउ -स्वभावः इत्येकार्थ……गो० पं० दरकार जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १६६ के अन्त में टीकाकार ने इसे गोम्मटपंजिका अथवा गोम्मटसार टिप्पण ये दो नाम दिए हैं। इसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड की गाथाओं के विशिष्ट शब्दों और विषमपदों का अर्थ दिया गया है, कहीं कहीं व्याख्या भी संक्षिप्त में दी गई है। यह पंजिका सभी गाथाओं पर नहीं है। इसमें अनेक स्थानों पर सैद्धान्तिक बातों का अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है और इसके लिए पंजिकाकार ने अन्य ग्रंथकारों के उल्लेख भी उद्धृत किए हैं। यह पंजिका शक सं० १०१६ (वि० सं० ११५१) में बनी है। विशेषता यह है कि टीकाकार ने इसमें अपनी गुरु परम्परा भी दी है। यथा-श्रुतकीर्ति, मेघचन्द्र, चन्द्रकीर्ति और गिरिकीर्ति। प्रतीत होता है कि अभयचन्द्राचार्य ने अपनी मन्दप्रबोधिनी टीका में इसे आधार बनाया है। अनेक स्थानों पर इसका उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि मन्दप्रबोधिनी टीका से यह गोम्मट पंजिका प्राचीन है। प्राकृत पदों का संस्कृत में स्पष्टीकरण करना इस पंजिका की विशेषता है।
मन्दप्रबोधिनी
शौरसेनी प्राकृत भाषा में आ० नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं - एक जीवकाण्ड और दूसरा कर्मकाण्ड। जीवकाण्ड में ७३४ और कर्मकाण्ड में ६७२ शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में ४ टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं - १. गोम्मटपंजिका, २ मन्दप्रबोधिनी, ३. कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, ४. संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड
__गोम्मटसार के जीवकाण्ड में ७३४ गाथाओं द्वारा ६ अधिकारों में १. गुणस्थान, २. जीवसमास, ३. पर्याप्ति, ४. प्राण, ५. संज्ञा, ६. मार्गणा, ७. उपयोग, ८. अन्तर्भाव तथा ६. आलाप - इन विषयों का विशद् विवेचन किया गया है। यहाँ प्रस्तुत है इसमें प्रतिपादित इन सैद्धान्तिक विषयों का संक्षिप्त परिचय १७०
- जैनदर्शन
गुणस्थान
यह गुणों की अपेक्षा जीव जैसी-जैसी अपनी उन्नति के स्थान प्राप्त करता जाता है वैसे-वैसे उसके उन स्थानों को गुणस्थान संज्ञा दी गई है। वे १४ भेदों में विभक्त हैं - १. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन-सम्यग्दृष्टि, ३. मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४. असंयतसम्यग्दृष्टि, ५. संयतासंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ६. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसांपराय, ११. उपशांतकषाय, १२. क्षीणकषाय, १३. सयोगकेवली, १४. अयोगकेवली। __इन गुणस्थानों में जीव के आध्यात्मिक विकास का हमें दर्शन होता है। जहाँ प्रथम गुणस्थान में जीव की दृष्टि मिथ्या रहती है वहाँ दूसरे गुणस्थान में ऐसी दृष्टि का उल्लेख है जिसमें सम्यक्त्व से पतन और मिथ्यात्व की ओर उन्मुखता पायी जाती है। तीसरे गुणस्थान में जीव की श्रद्धा सम्यक् और मिथ्या दोनों रूप मिली जुली पाई जाती है। जैसे दही और गुड़ के मिलने पर जो खटमिट्ठा स्वाद प्राप्त होता है। चौथे गुणस्थान में जीव की श्रद्धा समीचीन हो जाती है पर संयम की ओर लगाव नहीं होता। पाँचवें गुणस्थान में जीव का लगाव कुछ संयम की ओर और कुछ असंयम की ओर रहता है। छठे गुणस्थान में पूर्ण संयम प्राप्त कर लेने पर भी जीव कुछ प्रमादयुक्त रहता है। सातवें गुणस्थान में उसका वह प्रमाद भी दूर हो जाता है और अप्रमत्तसंयत कहा जाने लगता है। आठवें गुणस्थान में उस जीव के ऐसे अपूर्व परिणाम होते हैं, जो उससे पूर्व प्राप्त नहीं हुए थे, अतएव इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है। नवें गुणस्थान में जीव को ऐसे विशुद्ध परिणाम प्राप्त होते हैं जो निवृत्त नहीं होते, उत्तरोत्तर उनमें निर्मलता आती ही रहती है। दसवें गुणस्थान में जीव की कषाय स्थूल से अत्यंत सूक्ष्म रूप धारणकर लेती है इसलिए उसे सूक्ष्मसांपराय कहा गया है। ग्यारहवें गुणस्थान में क्रोध, मान, माया और लोभ सभी प्रकार की कषायों का उपशमन हो जाता है इसलिए उसे उपशांत कषाय कहा जाता है। बारहवें गुणस्थान में उस जीव की वे कषायें पूर्णतया क्षीण हो जाती हैं और क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ संज्ञा को वह प्राप्त कर लेता है। तेरहवें गुणस्थान में ऐसा प्रकट हो जाता है कि जिसमें इन्द्रिय और मन की कोई सहायता नहीं होती और उस ज्ञान द्वारा त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती सूक्ष्म एवं स्थूल सभी प्रकार के पदार्थों को वह जीव जानने लगता है। पर हाँ, योग मौजूद रहने से उसे सयोगकेवली कहा जाता है। चौदहवें गुणस्थान में उस केवली का वह योग भी नही रहता और अयोगकेवली कहा जाता है। अयोगकेवली अन्तर्मुहूर्त बाद पूर्णतया संसार बंधन से मुक्त होकर शाश्वतमोक्ष को प्राप्तकर लेता है। इस तरह जीव के आध्यात्मिक विकास के ये १४ सोपान हैं, जिन्हें जैन सिद्धान्त में “चौदह गुणस्थान’ नाम से अभिहित किया गया है। १७१ जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ
जीव समास
जहाँ-जहाँ जीवों का स्थान है अर्थात् निवास है उसे जीवसमास कहा गया है। ये १४ हैं। इन्द्रिय की अपेक्षा जीव ५ प्रकार के हैं : १. स्पर्शनइन्द्रिय वाले, २. स्पर्शन और रसना वाले, ३. स्पर्शन, रसना और घ्राणवाले, ४. स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु वाले तथा ५. स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्रइन्द्रिय वाले। इनमें ५ इन्द्रिय वाले जीव दो प्रकार के हैं, मन सहित और मन रहित। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीव भी बादर, और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। इस तरह जीवों के ३ + २ + २ = ७ भेद हैं ये ७ प्रकार के जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं। इन सबको मिलाने पर १४ जीवसमास कहे गए हैं।
पर्याप्ति
__आहारवर्गणा के परमाणुओं को खल और रस भाग रूप परिणमाने की शक्ति-विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। ये ६ हैं-आहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनापान पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति तथा मनःपर्याप्ति। इन पर्याप्तियों की पूर्णता को पर्याप्तक और अपूर्णता को अपर्याप्तक कहा जाता है।
प्राण
जिनके संयोग होने पर जीव को जीवित और वियोग होने पर मृत कहा जाता है वे प्राण कहे जाते हैं। ये १० हैं -५ इन्द्रियाँ तथा कायबल, वचनबल, मनोबल, श्वासोच्छ्वास, व आयु। ho ht JH
संज्ञा
आहार आदि की वांछा को संज्ञा कहते हैं। इसके ४ भेद हैं -आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। ये चारों संज्ञाएं जगत् के समस्त प्राणियों में पाई जाती है।
मार्गणा
जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहा गया है। ये १४ प्रकार की हैं-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, आहार। इनका विवेचन आगम ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक किया गया है, अतएव यहाँ इनका विस्तार न कर नाम से संकेतमात्र किया गया है।
उपयोग
जीव के चेतनागुण को उपयोग कहा गया है। यह चेतनागुण दो प्रकार का है में१७२ म जैनदर्शन सामान्य अर्थात् निराकार, विशेष अर्थात् साकार। निराकार उपयोग को दर्शनोपयोग और विशेष उपयोग को ज्ञानोपयोग कहा गया है।
अन्तर्भाव
इस अधिकार में यह बताया गया है कि किस किस मार्गणा में कौन कौन गुणस्थान होते हैं। जैसे नरकगति में आदि के चार गुणस्थान ही होते हैं। इसी तरह शेष तीन गतियों और अन्य १३ मार्गणाओं में भी गुणस्थानों के अस्तित्व का प्ररूपण किया गया है।
आलाप
_ इसमें तीन आलापों का वर्णन है। गुणस्थान, मार्गणा और पर्याप्ति। आलाप का अर्थ है गुणस्थानों में मार्गणाओं, मार्गणाओं में गुणस्थानों और पर्याप्तियों में गुणस्थान और मार्गणा की चर्चा करना। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि जीव का भ्रमण लोक में अनेकों बार और अनेकों स्थानों पर होता रहता है। इस भ्रमण की निवृत्ति का उपाय एकमात्र तत्त्वज्ञान है। यह गोम्मटसार के प्रथम भाग जीवकाण्ड पर लिखी गई मन्दप्रबोधिनी टीका का संक्षिप्त परिचय है, जो संस्कृत में निबद्ध है और जिसकी भाषा प्रसादगुण युक्त एवं प्रवाहपूर्ण है।
गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड
अब कर्मकाण्ड का, जो गोम्मटसार का ही दूसरा भाग है, संक्षेप में परिचय दिया जाता है। इसमें निम्न ६ अधिकार हैं
०१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन
इस अधिकार में ज्ञानावरणादि मूल-प्रकृतियों और उनके उत्तरभेदों का कथन किया गया है। इसी में उन प्रकृतियों को घाति और अघाति कमों में विभाजित करके घाति कों को भी दो भेदों में रखा गया है-सर्वघाति और देशघाति तथा इन्हीं सब कर्मों को पुण्य और पाप प्रकृतियों में विभाजित किया गया है। साथ ही विपाक (फलदान) की अपेक्षा उनके चार भेद हैं। वे हैं -पुद्गल विपाकी, भव विपाकी, क्षेत्र विपाकी और जीव विपाकी। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जिस जिस कर्म के उदय में जो जो बाह्य वस्तु निमित्त होती है उस उस वस्तु को उस उस प्रकृति का नोकर्म कहा गया है। अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोधिनी टीका में इन सबका संस्कृत भाषा के माध्यम से बहुत विशद् विवेचन किया है।
०२. बन्धोदय-सत्वाधिकार
इस अधिकार में कर्मों के बन्ध, उदय और सत्व का विवेचन किया गया है। बंध के ४ भेद हैं - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य। ये चारों भेद भी आदि, अनादि, जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १७३ ध्रुव और अध्रुव के रूप में वर्णित किए गए हैं। यह विवेचन आठों कमों की १४८ प्रकृतियों को लेकर किया गया है। कर्मबन्ध के विषय में इतना सूक्ष्म निरूपण हमें अन्यत्र अलभ्य है। इसी तरह उदय और सत्व का भी वर्णन किया गया है। किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध, बन्धविच्छेद और अबंध होता है, इसी प्रकार किसी गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का उदय, उदयविच्छेद और अनुदय होता है तथा किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का सत्व, सत्वविच्छेद और असत्व रहता है इन सबका भी सूक्ष्मतम विवेचन किया गया है।
०३. सत्वस्थान भंगाधिकार
इसमें सत्वस्थानों को भंगों के साथ प्ररूपित किया गया है। पिछले अधिकार के अन्त में जो सत्वस्थान का कथन किया है वह आयु के बंध और अबंध का भेद न करके किया गया है तथा इस अधिकार में भंगों के साथ उनका प्ररूपण है। यह प्ररूपण सूक्ष्म तो है ही लेकिन आत्मा को विशुद्ध बनाने के लिए उसका भी जानना आवश्यक है।
०४. त्रिचूलिका अधिकार
इस अधिकार में ३ चूलिकाएँ हैं-नवप्रश्नचूलिका, पंचभागहारचूलिका, दशकरण चूलिका। प्रथम चूलिका में किन किन प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति के पहले ही बन्ध व्युच्छिी होती है इत्यादि ६ प्रश्नों को उठाकर उनका समाधान किया गया है। दूसरी चूलिका में उद्वेलना, विध्यात, अधः प्रवृत्त, गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण - इनका निरूपण है। तृतीय दसकरण चूलिका में कर्मों की दस अवस्थाओं का स्वरूप बताया गया है।
- कर्मों की १० अवस्थाएँ इस प्रकार हैं - (१) कर्म परमाणुओं का आत्मा के साथ संबद्ध होना बन्ध है। (२) कर्म की स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को उत्कर्षण कहते हैं। (३) आत्मा से बद्ध कर्म की स्थिति तथा अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहा गया है। (४) बंधने के बाद कर्मों के सत्ता में रहने को सत्व कहते हैं। (५) समय पूरा होने पर कर्म का अपना फल देना उदय है। (६) नियत समय से पूर्व फलदान को उदीरणा कहते हैं। (७) एक कर्म का इतर सजातीय कर्मरूप परिणाम आना संक्रमण है। (८) कर्म का उदय में आने के अयोग्य होना उपशम है। (E) कर्म में उदय व संक्रम दोनों का युगपत् न होना निधत्ति है। (१०) कर्म में और उत्कर्षण, अपकर्षण, उदय व संक्रम का न हो सकना निकाचित है।
०५. बन्धोदय सत्त्वयुक्तस्थान समुत्कीर्तन
एक जीव के एक समय में जितनी प्रकृतियों का बंध, उदय और सत्व संभव है उनके समूह का नाम स्थान है। इस अधिकार में पहले आठों मूलकों और बाद में प्रत्येक कर्म १७४ HEARCHASETTEERASTRPRETA मार जैनदर्शन-ति की उत्तर प्रकृतियों को लेकर बंधस्थानों, उदयस्थानों और सत्वस्थानों का प्ररूपण है।
०६. प्रत्ययाधिकार
कि इसमें कर्मबन्ध के कारणों का वर्णन है। मूल कारण मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग हैं। इनके भी निम्न उत्तर भेद कहे गए हैं- मिथ्यात्व के ५, अविरति के १२, कषाय के २५ और योग के १५-ये सब मिलाकर ५७ होते हैं। इन्हीं मूल ४ और उत्तर ५७ प्रत्ययों (बंधकारणों) का कथन गुणस्थानों में किया गया है कि किस गुणस्थान में बंध के कितने प्रत्ययकारण होते हैं। इसी तरह इनके भंगों का भी कथन है।
०७. भावचूलिका
इसमें औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक भावों का तथा उनके भेदों का कथन करके गुणस्थानों में उनके स्वसंयोगी और परसंयोगी भंगों का कथन किया गया है।
०८. त्रिकरणचूलिका अधिकार
___ इस अधिकार में अधःकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण-इन तीन करणों का स्वरूप वर्णित है। करण का अर्थ है जीव के परिणाम, जो प्रति समय बदलते रहते हैं।
०९. कर्मस्थितिरचना अधिकार
इसमें बताया गया है कि प्रति समय बँधने वाले कर्म प्रदेश आठ या सात प्रकृतियों में विभाजित हो जाते हैं। प्रत्येक को प्राप्त कर्मनिषकों की रचना उसकी स्थिति प्रमाण (मात्र आबाधा काल को छोड़कर) हो जाती है। फिर आबाधा काल समाप्त होने पर वे कर्मनिषेक उदय काल में प्रति समय एक-एक निषेक के रूप में खिरने प्रारंभ हो जाते हैं। उनकी रचना को ही कर्मस्थिति रचना कहते हैं। यह वर्णन बहुत सूक्ष्म किन्तु हृदयग्राही है। ___ इस प्रकार मन्दप्रबोधिनी टीका अपूर्ण होती हुई भी सार्थक नाम वाली है। मन्दों (मन्द बुद्धि वालों) को भी वह कर्मसिद्धान्त को जानने और उसमें प्रवेश करने में पूरी तरह सक्षम है। टीका के अवलोकन से टीकाकार का कर्मसिद्धान्त विषयक ज्ञान अपूर्व एवं गंभीर प्रकट होता है। इसकी संस्कृत बड़ी सरल है विशेष कठिन नहीं है। नीजी की
गोम्मटसार-जीवतत्त्वप्रदीपिका
___ यह टीका केशववर्णी द्वारा रचित है। उन्होंने इसे संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओं में लिखा है। जैसे वीरसेन स्वामी ने अपनी संस्कृत प्राकृत मिश्रित धवलटीका द्वारा षट्खंडागम के रहस्यों का उद्घाटन किया है उसी प्रकार केशववर्णी ने भी अपनी इस जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १७५ जीवतत्त्वप्रदीपिका द्वारा जीवकाण्ड के रहस्यों का उद्घाटन कन्नड़मिश्रित संस्कृत में किया है। केशववर्णी की गणित में अबाध गति थी इसमें जो करणसूत्र उन्होंने दिए हैं वे उनके लौकिक और अलौकिक गणित के ज्ञान को प्रकट करते हैं। इन्होंने अलौकिक गणित संबन्धी एक स्वतंत्र ही अधिकार इसमें दिया है, जो त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसार के आधार पर लिखा गया मालूम होता है। आचार्य अकलंक के लघीयस्त्रय और आचार्य विद्यानंद की आप्तपरीक्षा आदि ग्रंथों के विपुल प्रमाण इसमें उन्होंने दिए हैं। यह टीका कन्नड़ में होते हुए भी संस्कृत बहुल है। इससे प्रतीत होता है कि जैन आचार्यों में दक्षिण में अपनी भाषा के सिवाय संस्कृत भाषा के प्रति भी विशेष अनुराग रहा है।
जीवतत्त्वप्रदीपिका
यह नेमिचन्द्रकृत चतुर्थ टीका है। तीसरी टीका की तरह इसका नाम भी जीवतत्त्वप्रदीपिका है। यह केशववर्णी की कर्नाटकवृत्ति में लिखी गई संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका का ही संस्कृत रूपान्तर है। इसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से भिन्न और उत्तरवर्ती नेमिचन्द्र हैं। ये नेमिचन्द्र ज्ञानभूषण के शिष्य थे। गोम्मटसार के अच्छे ज्ञाता थे। इनका कन्नड़ तथा संस्कृत दोनों पर समान अधिकार है। यदि इन्होंने केशववर्णी की टीका को संस्कृत रूप नहीं दिया होता तो पं० टोडरमल जी हिन्दी में लिखी गई अपनी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नहीं लिख पाते। ये नेमिचन्द्र गणित के भी विशेषज्ञ थे। इन्होंने अलौकिक गणिसंख्यात, असंख्यात, अनंत, श्रेणि, जगत्प्रवर, घनलोक आदि राशियों को अंकसंदृष्टि के द्वारा स्पष्ट किया है। इन्होंने जीव तथा कर्मविषयक प्रत्येक चर्चित बिन्दु का सुन्दर विश्लेषण किया है। इनकी शैली स्पष्ट और संस्कृतपरिमार्जित है। टीका में दुरूहता या संदिग्धता नहीं है। न ही अनावश्यक विषय का विस्तार किया है। टीका में संस्कृत तथा प्राकृत के लगभग १०० पद्य उद्धृत हैं। आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा, विद्यानंद की आप्तपरीक्षा, सोमदेव के यशस्तिलक, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र के त्रिलोकसार, पं० आशाधर के अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थों से उक्त पद्यों को लिया गया है। यह टीका ई० १६वीं शताब्दी की रचित है।
लब्धिसार-क्षपणासार टीका
मूलग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में है और उसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। इस पर उत्तरवर्ती किसी अन्य नेमिचन्द्र नाम के आचार्य द्वारा संस्कृत में यह टीका लिखी गई है। यह लिखते हुए प्रमोद होता है कि आचार्य ने प्राकृत ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों १७६
- जैनदर्शनही की विवेचना संस्कृत भाषा में की है। मुख्यतया जीव में मोक्ष की पात्रता सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर ही मानी गयी है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिजीव ही मोक्ष प्राप्त करता है, और सम्यग्दर्शन होने के बाद वह सम्यक्चारित्र की ओर आकर्षित होता है। अतः सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र की लब्धि अर्थात् प्राप्त होना जीव का लक्ष्य है। इसी से ग्रंथ का नाम लब्धिसार रखा गया है। इन दोनों का इस टीका में विशद् वर्णन किया गया है। इसमें उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व के वर्णन के बाद चारित्रलब्धि का कथन किया गया है। इसकी प्राप्ति के लिए चारित्रमोह की क्षपणा की विवेचना इसमें बहुत अच्छी की गई है। नेमिचन्द्र की यह वृत्ति संदृष्टि, चित्र आदि से सहित है। यह न अतिक्लिष्ट है न अति सरल। इसकी संस्कृत भाषा प्रसादगुण युक्त है।
क्षपणासार (संस्कृत)
इसमें एकमात्र संस्कृत में ही दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों की क्षपणा का ही विवेचन है।
पंचसंग्रहटीका
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ प्राकृत भाषा में है। इस पर तीन संस्कृत-टीकाएँ हैं। १. श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रहटीका, २. आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, ३. सुमतिकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या १२४३ है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग ७०० श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग २००० श्लोक प्रमाण है। यह ५ प्रकरणों का संग्रह है। वे ५ प्रकरण निम्न प्रकार हैं - १. जीवसमास, २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३. कर्मस्तव, ४. शतक और ५. सप्ततिका। इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग २५०० श्लोक प्रमाण है। तथा समतिकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। ___ इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए।
कर्म-प्रकृति
यह अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की एक लघु किन्तु मह वपूर्ण, प्रवाहमय शैलीयुक्त संस्कृत गद्य में लिखी गई कृति है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि जैन मनीषियों ने प्राकृत है है जैन कर्म-सिद्धान्त के प्रमुख ग्रन्थ १७७ भाषा में ग्रथित सिद्धान्तों को संस्कृत भाषा में विवेचित किया और उसके प्रति हार्दिक अनुराग व्यक्त किया है।
कर्म-विपाक
इसके कर्ता सकलकीर्ति (१४वीं शताब्दी) ने कर्मों के अनुकूल-प्रतिकूल आदि फलोदय का इसमें संस्कृत में अच्छा विवेचन किया है।
सिद्धान्तसार-भाष्य
आचार्य जिनचन्द्र रचित प्राकृतभाषाबद्ध सिद्धान्तसार नामक मूलग्रन्थ आचार्य पर ज्ञानभूषण ने संस्कृत में यह व्याख्या लिखी है। इसे भाष्य के नाम से उल्लेखित किया गया है। इस व्याख्या में १४ मार्गणाओं, १४ जीवसमासों आदि का कथन किया गया है। इसकी संस्कृत अत्यन्त सरल और विशद है।
कर्म-प्रकृति-भाष्य
कर्मप्रकृति एक प्राकृत भाषा में निबद्ध नेमिचन्द्र सैद्धांतिक की रचना है। इसमें कुल १६२ गाथाएँ हैं। ये गाथाएँ ग्रन्थकार ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड से संकलित की हैं। इसमें प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थितिबंध अधिकार, अनुभाग बंधाधिकार और प्रत्ययाधिकार ये ४ प्रकरण हैं। इन चारों प्रकरणों के नामानुसार उनका इसमें संकलनकार ने वर्णन किया है। इस पर भट्टारक ज्ञानभूषण एवं सुमतिकीर्ति ने संस्कृत में व्याख्या लिखी है और उसे कर्मप्रकृतिभाष्य नाम दिया है। ध्यातव्य है कि भट्टारक ज्ञानभूषण सुमतिकीर्ति के गुरु थे और सुमतिकीर्ति उनके शिष्य। यह टीका सरल संस्कृत में रचित है इसका रचनाकाल वि० सं० १६वीं शती का चरमचरण तथा १७वीं का प्रथम चरण है। इन्हीं ने पूर्वोक्त सिद्धान्तसार-भाष्य भी रचा था।
त्रिभंगी टीका
आग्नवत्रिभंगी, बंधत्रिभंगी, उदयत्रिभंगी और सत्त्वत्रिभंगी-इन ४ त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर संस्कृत में टीका की है। आम्रवत्रिभंगी ६३ गाथा प्रमाण है। इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। बंधत्रिभंगी ४४ गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। उदयत्रिभंगी ७३ गाथा प्रमाण है और उसके निर्माता नेमिचन्द्र हैं। सत्त्व त्रिभंगी ३५ गाथा प्रमाण है और उसके कर्ता भी नेमिचन्द्र हैं। इन चारों पर सोमदेव ने संस्कृत में व्याख्याएँ लिखी हैं। ये सोमदेव, यशस्तित्वक चम्पू काव्य के कर्ता प्रसिद्ध सोमदेव से भिन्न और १६वीं, १७वीं शताब्दी के एक भट्टारक विद्वान् हैं। इनकी संस्कृत भाषा बहुत स्खलित प्रतीत होती है। उन्होंने अपनी इस त्रिभंगी चतुष्टय पर लिखी गई टीका की भाषा को “लाटीय भाषा” कहा है। टीका में सोमदेव ने कमों के आनव, बंध, उदय १७८ वाय जैनदर्शन मा । और सत्वविषय का कथन किया है, जो सामान्य जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी है। हाल
भावसंग्रह
आचार्य देवसेन ने प्राकृत में एक भावसंग्रह लिखा है। उसी का यह संस्कृत अनुवाद है। दोनों ग्रन्थों को आमने सामने रखकर देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह संस्कृत भावसंग्रह प्राकृतभावसंग्रह का शब्द न होकर अर्थशः भावानुवाद है। रचना अनुष्टुप् छन्द में है। इसके कर्ता अथवा रूपान्तरकार भटटारक लक्ष्मीचंद्र के शिष्य पंडित वामदेव हैं। प्राकृत और संस्कृत दोनों भावसंग्रहों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर उनमें कई बातों में वैशिष्ट्य भी दिखाई देता है। नो उदाहरण के लिए पंचम गुणस्थान का कथन करते हुए संस्कृत भाव संग्रह में ११ प्रतिमाओं का भी कथन है, जो मूल प्राकृतभावसंग्रह में नहीं है। प्राकृतभावसंग्रह में जिन चरणों में चंदनलेप का कथन है वह संस्कृत भावसंग्रह में नहीं है। देवपूजा, गुरु उपासना आदि षट्कमों का संस्कृत भावसंग्रह में कथन है। प्राकृत भावसंग्रह में उनका कथन नहीं है, आदि। इस संस्कृत भावसंग्रह में कुल श्लोक ७८२ हैं, रचना साधारण है। इसमें गीता के उद्धरण भी कई स्थलों पर दिए गए हैं। कई सैद्धान्तिक विषयों का खंडन-मंडन भी उपलब्ध है। जैसे-नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त, वैनयिकवाद, केवलीभुक्ति, स्त्रीमोक्ष, सग्रंथमोक्ष आदि की समीक्षा करके अपने पक्ष को प्रस्तुत किया गया है।
निष्कर्ष
__इस प्रकार उपलब्ध शौरसेनी प्राकृत एवं संस्कृतभाषा निबद्ध कर्मसाहित्य के ग्रन्थों का परिचयात्मक इतिहास लिखा गया, इनमें दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रंथों का ही परिचय दिया जा सका। श्वेताम्बर परम्परा में भी कर्म ग्रन्थ आदि के रूप में कर्मसिद्धान्त विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध है। इस तरह हम मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि जैन मनीषियों ने कर्मसाहित्य को ही संस्कृत भाषा में नहीं लिखा अपितु सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, काव्य आदि विषयों का विवेचन भी लोकप्रिय संस्कृत भाषा में निरूपण किया है या यों कहना चाहिए कि इन विषयों का निरूपण संस्कृत में ही किया गया है। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसूत्र (गृद्धपिच्छाचार्य), तत्त्वार्थसार (अमृतचन्द्र), तत्त्वार्थवार्तिक (अकलंकदेव), तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरसूरि), तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-भाष्य (विद्यानन्द), अष्टसहनी (विद्यानंद), पत्रपरीक्षा (विद्यानंद), सत्यशासनपरीक्षा (आ० विद्यानन्द), तत्त्वार्थभाष्य (उमास्वाति), तत्त्वार्थवृत्ति (सिद्धर्षिगणी) आदि सहनों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही लिखे गये हैं। जैन परम्परा का संस्कृत वाङ्मय विशाल और अटूट है। और यह सच है कि कोई भी भाषा, जब वह लोकप्रिय हो जाती है, तब वह सभी के लिए आदरणीय एवं ग्राह्य हो जाती है।