०७ जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में

हिर कर्म-सिद्धान्त के विषय में जितनी युक्तियुक्त वैज्ञानिक सूक्ष्म विवेचना जैनधर्म में की गई है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। अनेकान्तवाद, अहिंसा आदि सिद्धान्तों की तरह कर्म-सिद्धान्त भी जैनधर्म का अपना विशेष महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। जैनदर्शन एवं आचार की समस्त महत्वपूर्ण मान्यतायें एवं धारणायें कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है। जैनधर्म की वैज्ञानिक धर्म के रूप में मान्यता या प्रसिद्धि में कर्म सिद्धान्त की वैज्ञानिकता एक प्रमुख कारण है। कर्म क्या है ? क्यों बंधते हैं ? बंधने के क्या-क्या कारण है ? जीव के साथ वे कब-तक रहते हैं ? क्या-क्या और किस प्रकार फल देते हैं ? उनसे मुक्ति कैसे प्राप्त होती है ? इन विविध प्रश्नों का समाधान जैनधर्म में सहजता से मिलता है। जैन कर्मसिद्धान्त इसलिए और भी महत्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से ईश्वरादि परकर्तृत्व या सृष्टिकर्तृत्व के भ्रम को तोड़कर प्रत्येक प्राणी को अपने पुरुषार्थ द्वारा उस अनन्त चतुष्टय (अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-बल और अनन्त-वीर्य) की प्राप्ति का मार्ग सहज और प्रशस्त किया है। वस्तुतः प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का स्वयं सष्टा, स्वर्ग-नरक का निर्माता और स्वयं ही बंधन और मोक्ष को प्राप्त करने वाला है। इसमें ईश्वर आदि किसी अन्य माध्यम को बीच में लाकर उसे कर्तृत्व मानना घोर मिथ्यात्व बतलाया गया है। इसीलिए “बुज्झिज्जत्ति उट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया"-आगम का यह वाक्य स्मरणीय है जिसमें कहा गया है कि बंधन को समझो और तोड़ो, तुम्हारी अनन्तशक्ति के समक्ष बन्धन की कोई हस्ती नहीं है। इसीलिए जैन एवं वेदान्त दर्शन का यही स्वर बार-बार याद आता है कि रे आत्मन् । तेरी मुक्ति तेरे ही हाथ में है, तू ही बन्धन करने वाला है और तू ही अपने को मुक्त करने वाला भी है स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते।। इसीलिए एक को दूसरों के सुख-दुःख, जीवन-मरण का कर्ता मानना अज्ञानता है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो फिर स्वयं कृत शुभाशुभ कर्म निष्फल सिद्ध होंगे। इस सन्दर्भ में आचार्य अमितगति का यह कथन स्मरणीय है स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।। निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन। विचारयन्नेवमनन्य मानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम्।। १४७ जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में 15 इस तरह जैन कर्मसिद्धान्त दैववाद नहीं अपितु अध्यात्मवाद है। क्योंकि इसमें दृश्यमान सभी अवस्थाओं को कर्मजन्य कहकर यह प्रतिपादन किया गया है कि “आत्मा अलग है और कर्मजन्य शरीर अलग हैं।" इस भेदविज्ञान का सर्वोच्च उपदेष्टा होने के कारण जैन कर्मसिद्धान्त अध्यात्मवाद का ही दूसरा नाम सिद्ध होता है। जो अस्त लाजिर जाता है। जबकि कि तिर

कर्म विषयक साहित्य

प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य देशी भाषाओं में कर्म आगमिक तथा आगमेतर विषयक जैन साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। आचारांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती सूत्र आदि अंग आगमों के साथ ही आचार्य गुणधर विरचित कसायपाहुडसुत्त तथा आचार्य वीरसेन स्वामी विरचित इसकी सोलह खण्डों में प्रकाशित बृहद् जयधवला नामक टीका, आ. पुष्पदन्त-भूतबलि विरचित षट्खण्डागम तथा इस पर आचार्य वीरसेन एवं जिनसेन स्वामी विरचित धवला टीका, पंचसंग्रह, मूलाचार का पर्याप्ति अधिकार, गोम्मटसार आदि अनेक महान् ग्रन्थ कर्म विषयक साहित्य में प्रमुख है। इस सन्दर्भ में विशेष जानकारी हेतु सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द शास्त्री द्वारा लिखित एवं श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी द्वारा प्रकाशित जैन साहित्य का इतिहास-प्रथम भाग विशेष दृष्टव्य है।

कर्मबंध और उसकी प्रक्रिया

मूलतः आत्मा की दो अवस्थायें हैं- बद्धदशा और मुक्तदशा। एक में बन्धन है तो दूसरी में मुक्ति। जगत् के कर्मबंध का और आत्मा के अशुद्ध भाव का एक विलक्षण ही सम्बन्ध है। आत्मा में बंध तो निजी विकल्पों के कारण होता है। यदि अन्तः भावों में राग-द्वेष की चिकनाई न हो तो बाह्य पदार्थों के रजकण उस पर चिपक नहीं सकते और न. उस आत्मा को मलिन ही कर सकते हैं। आचार्य अकलकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में उदाहरण देते हुए कहा है कि जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मद्य (शराब) रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों तथा मन, वचन, काय की क्रिया रूप योग के कारण कर्मरूप परिणमन होता है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयमेव कर्मरूप परिणमन करते हैं। कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने से जो अवस्था उत्पन्न होती है, उसे बंध कहते हैं। वस्तुतः प्रत्येक प्राणी की प्रवृत्ति के पीछे राग-द्वेष की वृत्ति काम करती है। यह प्रवृत्ति अपना एक संस्कार छोड़ जाती है। संस्कार से पुनः प्रवृत्ति एवं प्रवृत्ति से पुनः संस्कार निर्मित होते हैं। इस तरह यह सिलसिला बीज और वृक्ष की तरह सनातन-काल से चला आ रहा है। जीव और कर्मों का सम्बन्ध अनादि है या सादि ? इसके उत्तर में अचार्य पूज्यपाद हैं १४८ पत्रिी जैनदर्शन मालिक ने कहा है कि-जीव और कर्मों का अनादि सम्बन्ध भी है और सादि सम्बन्ध भी है। कार्य-कारण भाव की परम्परा की अपेक्षा अनादि सम्बन्ध है और विशेष की अपेक्षा सादि सम्बन्ध है। जैसे बीज और वृक्ष का सम्बन्ध। यद्यपि ये सम्बन्ध अनादि से चले आ रहे हैं किन्तु बीज के बिना वृक्ष नहीं होता और वृक्ष के बिना बीज नहीं होता। इस अपेक्षा से प्रत्येक बीज और वृक्ष सादि व सहेतुक हैं। इस प्रकार प्रत्येक कर्मबंध व जीव का विकारी परिणाम सहेतुक व सादि है, किन्तु संतान-परम्परा की अपेक्षा अनादि है। (सर्वार्थसिद्धि २/४१) उनका प्रायः सभी परलोकवादी दर्शनों की यह मान्यता है कि आत्मा जैसे अच्छे या बुरे कर्म करता है, तदनुसार ही उसमें अच्छा या बुरा संस्कार पड़ जाता है और उसे उसका अच्छा या बुरा फल भोगना पड़ता है। किन्तु जैनधर्म जहाँ अच्छे या बुरे संस्कार आत्मा में मानता है वहाँ सूक्ष्म कर्मपुद्गलों का उस आत्मा से बंध भी मानता है। उसकी मान्यता है कि इस लोक में सूक्ष्मकर्म पुद्गल स्कन्ध भरे हुए हैं, जो इस जीव की कायिक, वाचनिक या मानसिक प्रवृत्ति रूप योग से आकृष्ट होकर स्वतः आत्मा से बद्ध हो जाते हैं और आत्मा में वर्तमान कषाय के अनुसार उनमें स्थिति और अनुभाग पड़ जाता है। जब वे कर्म अपनी स्थिति पूरी होने पर उदय में आते हैं तो अच्छा या बुरा फल देते हैं। इस प्रकार जीव पूर्वबद्ध कर्म के उदय से क्रोधादि कषाय करता है और उससे नवीन कर्म का बंध करता कर्मबन्ध के चार भेद हैं - १. कर्मों में ज्ञान आदि गुणों को घातने, सुख-दुःखादि देने का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबंध है। २. कर्म बंधने पर जितने समय तक आत्मा के साथ बद्ध रहेंगे, उस समय की मर्यादा का नाम स्थितिबंध है। ३. कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दे उस फलदान की शक्ति का पड़ना अनुभागबन्ध है। ४. कर्म परमाणुओं की संख्या के परिणाम को प्रदेशबंध कहते हैं। __इनमें प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से होते हैं तथा स्थितिबंध और अनुभागबंध कषाय से होते हैं। योग जितना तीव्र या मन्द होता है, तदनुसार ही पौद्गलिक कर्मस्कन्ध आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। जैसे हवा जितनी तेज, मन्द चलती है, तदनुसार ही धूल उड़ती है । इसी तरह क्रोध, मान, माया, लोभ- जैसे तीव्र या मन्द होते हैं, तदनुसार ही कर्म पुद्गलों में तीव्र या मन्द स्थिति और अनुभाग पड़ता है। इस तरह योग और कषाय बंध के कारण है। इनमें भी कषाय ही संसार की जड़ है। क्योंकि कषायों के बिना कर्म परमाणु आत्मा में टिकते नहीं हैं। जबकि आत्मा में चुम्बक की तरह एक आकर्षण शक्ति होती है, जो संसार में सर्वत्र पाये जाने वाले सूक्ष्म कार्माण स्कन्धों को अपनी ओर खींचा करती है। आत्मा की इस आकर्षण शक्ति को ही “योग" कहा जाता है। इस तरह कर्म पुद्गलों का खिंच आकर आत्मा से सम्बन्ध करना और उनमें स्वभाव का पड़ना यह जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में १४६ कर्मयोग (मन, वचन, कायरूप क्रिया) से होता है। यदि वे कर्म पुद्गल किसी के ज्ञान में बाधा डालने वाली क्रिया से खिचे हैं तो उनमें ज्ञान गुण को आवृत (ढकने) करने का स्वभाव पड़ेगा। और यदि रागादि कषायों से खिंचे हैं तो चारित्र के नष्ट करने का स्वभाव पड़ेगा।

अष्टविध कर्म

__जिस तरह खाया हुआ अन्न अपने आप रक्त, मांस, मज्जा, हड्डी आदि के रूप में बदल जाता है, उसी तरह से आत्मा के साथ संबंधित “कर्म" भी तरह-तरह के भेदों में बदल जाते हैं। जिन्हें हम ज्ञानवरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय - इन आठ भेदों या नामों से पुकारते हैं। और ये कर्म ही विभिन्न रूप में आत्मा के साथ संबंधित होकर मनुष्यों में और समस्त जीवधारियों में हीनाधिकता पैदा किया करते हैं। ये आठ कर्म ही आत्मा के निर्मल स्वरूप को किसी न किसी प्रकार धूमिल बनाते रहते हैं। इसीलिए इन आठ कर्मों का अपने-अपने स्वभाव के अनुसार नामकरण भी हैं। इनमें आत्मा के गुणों का घात करने के कारण ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय - ये चारों “घातिया” कर्म कहलाते हैं। क्योंकि आत्म विकास में ये विशेष बाधक होते हैं। शेष चार कर्म- वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र- ये चारों “अघातिया” कर्म कहलाते हैं। इनमें चार “घातिया" कर्म के नाश से सर्वज्ञता से समलंकृत आत्मा निज स्वरूप में लीन रहती हुई अरहंत पद प्राप्त करती है, जबकि घातिया, अघातिया समस्त कर्मों के पूरी तरह क्षय हो जाने पर पूर्ण विशुद्धि रूप “सिद्ध” स्वरूप की प्राप्ति होती है।

नामकर्म और इसका वैशिष्टय

पूर्वोक्त जैन कर्मसिद्धान्त के विशेष सन्दर्भ में ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में छठे “नामकर्म” को इसलिए इस निबंध में विशेष सन्दर्भित किया जा रहा है चूँकि उपर्युक्त आठ कर्मों में इस नामकर्म का अनेक दृष्टियों से विशेष महत्त्व है। आज संसार में अनन्तानन्त प्रकार के जीवों में जो विविधता, समानता, चित्र-विचित्रता, आकार-प्रकार, उनका अपना-अपना स्वभाव, स्पर्श, गन्ध, यश-अपयश आदि दिखालाई देता है, वह सब इसी नामकर्मोदय की महिमा है न कि किसी ईश्वर विशेष की। परकर्तृत्व के भ्रम को तोड़ने में यही कर्म विशेष कार्य करता है। चौरासी लाख योनियों में जीव की अनन्त आकृतियाँ हैं। इन सबके निर्माण का कार्य यह नामकर्म ही करता है। इसी से शरीर और उसके अंगोपांग आदि की रचना होती है। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार इस नामकर्म के उदय से हमारा शरीर और उसके अंगोपांगों का निर्माण * भी होता है। सुन्दर, विकृत, छोटा, बड़ा शरीर आदि सब तदनुरूप शुभाशुभ नामकर्म के उदय से बनते हैं। १५० कि जैनदर्शन: इस प्रकार विश्व की विचित्रता में नामकर्म रूपी चितेरे की कला अभिव्यक्ति होती है न कि ईश्वरादि किसी अन्य विशेष की। इसीलिए तो जिनसेनाचार्य ने कहा है- 17 विधिः स्रष्टा विधाता च दैवकर्म पुराकृतम्। ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः।। महापुराण ३७/४ का ति.

नामकर्म का स्वरूप

नामकर्म के विशेष विवेचन के पूर्व सर्वप्रथम उसका स्वरूप जान लेना भी आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण। अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वासुरं कुणदि।। प्रवचनसार ११७॥ अर्थात् नामसंज्ञावाला कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देवरूप करता है। धवला टीका (६/१,६ तथा १०/१३/३) में कहा है- जो नाना प्रकार की रचना निर्वृत्त करता है वह नामकर्म है।’ शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कार्यों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं वे “नाम” इस संज्ञा वाले होते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (६/१, ६ तथा १०/१३/३) में बतलाया है कि आत्मा का नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति (स्वभाव) है, जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है, वह “नामकर्म" है। इस नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ तथा तैरानवे उत्तर प्रकृतियाँ हैं। इनका विश्लेषण आगे किया जायेगा। इनमें शरीर नामकर्म के अन्तर्गत शरीर के पाँच भेदों का निरूपण विशेष दृष्टव्य है। वस्तुतः औदारिक या वैक्रियिक शरीर योग्य कर्म वर्गणाओं को ग्रहण करना-यही जन्म का प्रारम्भ है। कर्मों के ही उदय से वह जीव बिना चाहे हुए मरण करके दूसरी पर्याय में उत्पन्न होता है। वहाँ वर्गणाओं का ग्रहण नामकर्म के उदय से स्वयमेव होता रहता है। ये वर्गणायें स्वयं ही पर्याप्ति, निर्माण, अंगोपांग आदि के उदय से औदारिक या वैक्रियिक शरीर के आकार परिणमन कर जाती है। जैसे- जीव के अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर लोक में सर्वत्र फैली हुई कार्मण वर्गणायें स्वयं ही अपने-अपने स्वभावनानुसार ज्ञानावरणादि पूर्वोक्त आठ कर्मस्थ परिणमन कर जाती है। इसी तरह नामकर्म तथा गोत्रकर्म के उदय से भिन्न-भिन्न जाति की वर्गणायें स्वयं ही अनेक प्रकार के देव, नारकी, मनुष्य, तिर्यचों के शरीर के आकार रूप परिणमन कर जाती है। इस तरह यह शरीर आत्मा का कोई कारण या कार्य नहीं है, कर्मों का ही कार्य है। १. जैन साहित्य का इतिहास प्रथम भग पृ. ३८ २. तदैव र काली 1 दि हैं इ जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में P2 कार्माण शरीर का निर्माण सूक्ष्म बीज रूप अदृश्य वर्गणायें ही करती हैं। जैसे महान् वटवृक्ष का अत्यन्त छोटा बीज या महासागर का एक बूंद जल वृक्ष अथवा सागर की सारी प्रकृति, गुण, ढांचा आदि अपने भीतर आत्मसात किये हुए रहता है, वैसे ही ये बीज कार्माण वर्गणायें भी अलग-अलग उन सभी विभिन्न रासायनिक संगठनों की प्रतिनिधि स्वरूप उनके विभिन्न गुण-प्रभाव से युक्त रहती हैं। इन्हीं बीज रूप कार्मण वर्गणाओं द्वारा परिचालित या प्रेरित हमारे मन, वचन और शरीर (इन्द्रियों) द्वारा होने वाले सभी कार्य या कर्म होते हैं। इस तरह हमारे सभी कर्मों का उद्गम स्थान ये आतंरिक रासायनिक संगठन रूप वर्गणायें (मालीक्यूलस) ही हैं। ___ अब यहाँ “नामकर्म" की बयालीस प्रकृतियों का स्वरूप देवेचन प्रस्तुत है -

नामकर्म और उसकी प्रकृतियाँ

नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ हैं। इन्हें पिण्ड प्रकृतियाँ भी कहते हैं। ये इस प्रकार हैं- गति, जाति, शरीर, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, अंगोपांग, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरूलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर, अयशस्कीर्ति, सुस्वर, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थकरत्व’ । ये बयालीस प्रकृतियाँ ही नामकर्म के भेद (प्रकार) कहे जाते हैं। इनका विवेचन प्रस्तुत है १. गति नामकर्म-गति, भव, संसार- ये पर्यायवाची शब्द हैं। जिसके उदय से आत्मा भवान्तर को गमन करता है वह गति नामकर्म है। यदि वह कर्म न हो तो जीव गति रहित हो जायेगा। इसी गति नामकर्म के उदय से जीव में रहने से आयु कर्म की स्थिति रहती है और शरीर आदि कर्म उदय को प्राप्त होते हैं। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति - ये इसके चार भेद हैं। जिन कर्मस्कन्धों के उदय से आत्मा को नरक, तिर्यच आदि भव प्राप्त होते हैं, उनसे युक्त जीवों को उन-उन गतियों में नरक-गति, तिर्यकगति आदि संज्ञायें प्राप्त होती हैं। जि । २. जाति नामकर्म-जिन कर्मस्कन्धों से सदृशता प्राप्त होती है, जीवों के उस सदृश परिणाम को जाति कहते हैं। अर्थात् उन गतियों में अत्यभिचारी सादृश से एकीभूत स्वभाव (एकरूपता) का नाम जाति है। यदि जाति नामकर्म न हो तो खटमल-खटमल के समान, बिच्छू-बिच्छू के समान इसी प्रकार अन्य सभी सामान्यतः एक जैसे नहीं हो सकते। जाति १. मूलाचार १२/१६३-१६६ तत्वार्धसूत्र ८/११ मारी माफी नाणी २. गतिर्भवः संसारः मूलाधार टीका १२/६३ ३. जातिर्जीवानां सदृशः परिणाम - वही१५२ उन पर जैनदर्शन कि के पांच भेद हैं- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इनके लक्षण इस प्रकार हैं - जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में पैदा हो अर्थात एकेन्द्रिय शरीर धारण करे उसे एकेन्द्रिय जाति नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार द्वीन्द्रियादि का स्वरूप बनता है। _३. शरीरनामकर्म-जिसके उदय से आत्मा के लिए शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। यह कर्म आत्मा को आधार या आश्रय प्रदान करता है। क्योंकि कहा है कि “यदि शरीर-नामकर्म न स्यादात्मा विमुक्तः स्यात्’ अर्थात् यदि यह कर्म न हो तो आत्मा मुक्त हो जाय। इसके भी पांच भेद हैं - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्माण शरीर। जिसके उदय से जीव के द्वारा ग्रहण किये गये आहार वर्गणा रूप पुद्गलस्कन्ध रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा और शुक्र स्वभाव से परिणत होकर औदारिक शरीर रूप हो जाते हैं उसका नाम औदारिक शरीर है। इसी प्रकार अन्य भेदों का स्वरूप बनता है। ४. बन्धन नामकर्म-शरीर नामकर्म के उदय से जो आहार-वर्गणारूप पुद्गल स्कन्ध ग्रहण किये उन पुद्गलस्कन्धों का परस्पर संश्लेष सम्बन्ध जिस कर्म के उदय से हो उसे बंधन-नामकर्म कहते हैं। यदि यह कर्म न हो तो यह शरीर बालू द्वारा बनाये हुए पुरुष के शरीर की तरह हो जाय। इसके भी औदारिक, वैक्रियिक शरीर, बन्धन आदि पांच भेद हैं। ५. संघात नामकर्म-जिसके उदय से औदारिक शरीर, छिद्ररहित परस्पर प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाह रूप एकत्व प्राप्त हो उसे संघात नामकर्म कहते हैं इसके भी औदारिक-शरीर संघात आदि पांच भेद हैं। ६. संस्थान नामकर्म-जिसके उदय से औदारिक आदि शरीर के आकार की रचना हो वह संस्थान नामकर्म है। इसके छह भेद हैं- समचतुरस्र, न्यग्नेधपरिमण्डल, स्वाति कुष्जक, वामन और हुंडक (विषम आकार) संस्थान। ७. संहनन नामकर्म-जिसके उदय से हड्डियों की संधि में बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। इसके छह भेद हैं। १. वर्षभनाराच, २. वज्रनाराच, ३. नाराच, ४. अर्द्धनाराच, ५. कीलक और ६. असंप्राप्तासृपाटिका संहनन' ६. अंगोपांग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अंग और उपांगों की स्पष्ट रचना हो वह अंगोपांग नामकर्म है। इसके तीन भेद हैं- औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर, अंगोपांग –SE १. मूलाचारवृत्ति १२/१६३ २. मूलाचारवृत्ति १२/१६३ ३. मूलाचारवृत्ति १२/१६३ ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड हिन्दी टीका (आर्यिका आदिमती जी) पृ. २६ ५. मूलाचारवृत्ति १२/१६४ ६. मूलाचारवृत्ति १२/१६४ मा जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में १५३ ६. वर्ण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में कृष्ण, नील, रक्त, हरित और शक्ल - ये वर्ण (रंग या रूप) उत्पन्न हों वह वर्ण नामकर्म है। इन ५ वर्गों से ही इसके पांच भेद बनते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गलों में कृष्णता प्राप्त होती है वह कृष्णवर्ण नामकर्म है। इसी तरह अन्य हैं। १०. रस नामकर्म-इसके उदय से शरीर में जाति के अनुसार जैसे नीबू, नीम आदि में प्रतिनियत तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस उत्पन्न होते हैं। यही इस नामकर्म के पांच भेद हैं। सर ११. गन्ध नामकर्म-जिसके उदय से जीव के शरीर में उसकी जाति के अनुसार गन्ध उत्पन्न हो वह गन्ध नामकर्म है। इसके दो भेद हैं- सुगन्ध और दुर्गन्ध। हि १२. स्पर्श नामकर्म-जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के शरीर में उसकी जाति के अनुरूप स्पर्श उत्पन्न हो। जैसे सभी उत्पल, कमल आदि में प्रतिनियत स्पर्श देखा जाता है। इसके आठ भेद हैं- कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, सूक्ष, शीत और उष्ण। १३. आनुपूर्वी नामकर्म-जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में पूर्वशरीर (मरण से पहले के शरीर) का आकार रहे उसका नाम आनुपूर्वी है। इस कर्म का अभाव नहीं कहा जा सकता क्योंकि विग्रहगति में उस अवस्था के लिए निश्चित आकार उपलब्ध होता है और उत्तम शरीर ग्रहण करने के प्रति गमन की उपलब्धि भी पायी जाती है। इसके चार भेद हैं- नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गति., मनुष्यगति., देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व। ____१४. अगुरुलघु नामकर्म-जिसके उदय से यह जीव अनन्तानन्त पुद्गलों से पूर्ण होकर भी लोहपिण्ड की तरह गुरु (भारी) होकर न तो नीचे गिरे और रुई के समान हल्का होकर ऊपर भी न जाय उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं। __१५. उपघात नामकर्म-“उपेत्य घातः उपघातः" अर्थात् पास आकर घात होना उपघात है। जिस कर्म के उदय से अपने द्वारा ही किये गये गलपाश आदि बंधन और पर्वत से गिराना आदि निमित्तों से अपना घात हो जाता है वह उपघात नामकर्म है। अथवा जो कर्म जीवको अपने ही पीड़ा में कारणभूत बड़े-बड़े सींग, उदर आदि अवयवों को रचना है वह उपघात है। १६. परघात नामकर्म-जिसके उदय से दूसरे का घात करने वाले अंगोपांग हो उसे परघात नामकर्म कहते हैं। जैसे बिच्छू की पूंछ आदि। १७. उच्छ्रवास-जिसके उदय से जीव को श्वासोच्छवास हो। १८. आतप-जिसके उदय से जीव का शरीर आतप अर्थात् उसमें अन्य को संतप्त १. मूलाचारवृत्ति १२/१६४ मा गत महिनामा ग १५४ का अवा जैनदर्शन मिति तो करने वाला प्रकाश उत्पन्न होता है वह आतप है। जैसे सूर्य आदि में होने वाले पृथ्वी कायिक आदि में ऐसा तापकारी प्रकाश दिखता है। १६. उद्योत-जिसके उदय से जीव के शरीर में उद्योत (शीतलता देने वाला प्रकाश) उत्पन्न होता है वह उद्योत नामकर्म है। जैसे चन्द्रमा, नक्षत्र, विमानों और जुगनू आदि जीवों के शरीरों में उद्योत होता है। २०. विहायोगति-जिसके उदय से आकाश में गमन हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं। इसके प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो भेद हैं। आम २१. त्रस नामकर्म-जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक जीवों में उत्पन्न हो, उसे त्रस नामकर्म कहते हैं। २२. स्थावर (स्थूल)-जिसके उदय से एकेन्द्रिय जीवों (स्थावर कायों) में उत्पन्न हो वह स्थावर नामकर्म है। २३. बादर (स्थूल)-जिसके उदय से दूसरे को रोकने वाला तथा दूसरे से रुकने वाला स्थूल शरीर प्राप्त हो उसे बादर शरीर नामकर्म कहते हैं। मिलाकर २४. सूक्ष्म नामकर्म-जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो, जो न किसी को रोक सकता हो और न किसी से रोका जा सकता हो, उसे सूक्ष्म शरीर नामकर्म कहते हैं। २५. पर्याप्ति-जिसके उदय से आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन-इन छह पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्ति नामकर्म है। ये ही इसके छह भेद हैं। २६. अपर्याप्ति-उपर्युक्त पर्याप्तियों की पूर्णता का न होना अपर्यापि त है। २७. प्रत्येक शरीर नामकर्म-जिसके उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते हैं। २८. साधारण शरीर नामकर्म-जिसके उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हों, उसे साधारण-शरीर नामकर्म कहते हैं। __२६. स्थिर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर की धातुएं (रस, रूधिर, मांस, मेद, मज्जा, हड्डी और शुक्र) इन सात धातुओं की स्थिरता होती है वह स्थिर नामकर्म है। __३०. अस्थिर-जिसके उदय से इन धातुओं में उत्तरोत्तर अस्थिर रूप परिणमन होता जाता है वह अस्थिर नामकर्म है। __३१. शुभनामकर्म-जिसके उदय से शरीर के अंगों और उपांगों में रमणीयता (सुन्दरता) आती है वह शुभ नामकर्म है। ३२. अशुभनामकर्म-जिसके उदय से शरीर के अवयव अमनोज्ञ हों उसे अशुभनाम कर्म कहते हैं। ३३-३४. सुभग, दुर्भगनामकर्म-जिसके उदय से स्त्री-पुरुष या अन्य जीवों में हैं १५५ जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में परस्पर प्रीति उत्पन्न हो उसे सुभग नामकर्म तथा रूपादि गुणों से युक्त होते हुए भी लोगों के जिसके उदय से अप्रीतिकर प्रतीत होता है उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं। ३५-३६. आदेय, अनादेय नामकर्म-जिसके उदय से आदेय-प्रभा सहित शरीर हो वह आदेय तथा निष्प्रभ शरीर हो वह अनादेय नामकर्म है। ३७-३८. सुस्वर, दुस्वर नामकर्म-जिसके उदय से शोभन (मधुर) स्वर हो वह सुस्वर तथा अमनोज्ञ स्वर होता है वह दुःस्वर नामकर्म है। ३६-४०. यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति नामकर्म-जिसके उदय से जीव की प्रशंसा हो वह यशःकीर्ति तथा निप्दा हो वह अयशः कीर्ति नामकर्म है। _____४१. निमान (निर्माण) नामकर्म-निश्चित मान (माप) को निमान कहते हैं। इसके दो भेद हैं - प्रमाण और स्थान। जिस कर्म के उदय से अंगोपांगों की रचना यथाप्रमाण और यथास्थान हो उसे निमान या निर्माण नामकर्म कहते हैं। ४२. तीर्थंकर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से तीन लोकों में पूज्य परम आर्हन्त्य पद प्राप्त होता है वह परमोत्कृष्ट तीर्थकर नामकर्म है। __इस प्रकार ये नामकर्म की ४२ पिण्ड प्रकृतियाँ हैं। इन्हीं में एक-एक की अपेक्षा इनके ६३ भेद हैं। इनमें अन्तिम तीर्थकर नामकर्म का आस्रव दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का विधान है। यद्यपि ये एक साथ सभी सोलह भावनायें आवश्यक नहीं है। किन्तु एक दर्शनविशुद्धि अति आवश्यक होती है। दो से लेकर सोलह कारणों के विकास से भी तीर्थकर नामकर्म का बंध होता है। माना इस प्रकार नामकर्म की बयालीस प्रकृतियों तथा उत्तरभेद रूप तेरानवें प्रकृतियों के स्वरूप विवेचन से स्पष्ट है कि यह नामकर्म कितना व्यापक, सूक्ष्म और अति संवेदनशील कर्म है। आधुनिक विज्ञान में जहाँ नित-नवीन प्रयोग हो रहे हैं, वहीं इस नामकर्म की महत्ता और भी बढ़ जाती है। नामकर्मोदय से प्रत्येक जीव की अपनी-अपनी विशेष पहचान वाला स्पर्श, गन्ध, स्वर आदि होते हैं।