“अध्यात्म” शब्द अधि + आत्म -इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ है। __यह जगत् जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं १. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५. आकाश और ६. काल। इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिसे ‘आत्मा’ शब्द से भी कहा जाता है। शेष पाँचों द्रव्य अजीव हैं, जिन्हें अचेतन, जड़ और अनात्म शब्दों से भी व्यवहृत किया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और रूप गुणोंवाला होने से इन्द्रियों का विषय है। पर आकाश, काल, धर्म और अधर्म ये चार अजीव द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्पर्श, गन्ध, रस और रूप नहीं हैं। पर आगम और अनुमान से उनका अ सिद्ध है। हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है- शरीर और आत्मा शरीर अचेतन या जड़ है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-दृष्टा है। किन्तु वह स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द रूप नहीं है। अतः पाँचों इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह शरीर से भिन्न अपने पृथक् अस्तित्व को मानता है। यद्यपि जन्म में तो शरीर के साथ ही आया। पर मरण के समय यह स्पष्ट हो जाता है कि देह मात्र रह गयी, आत्मा पृथक् हो गया, चला गया। कल कहाँ चला गया? इस प्रश्न के पूर्व, कहाँ से आया था? यह प्रश्न भी खड़ा होता है। पर इतना तो सुनिश्चित है कि कहीं से आया था और कहीं चला गया। पर वह कौन-सा स्थान है, जहाँ से आता है और जहाँ जाता है? इसका विचार करने पर आप देखेंगे कि आना-जाना केवल मनुष्यों में नहीं है, पशुओं, पक्षियों में भी है। और तो क्या, कीट-पतंगों में भी है। इतना ही नहीं, वृक्ष आदि भी सजीव हैं, अतः वहाँ भी उनका अस्तित्व है। इस सारी प्रक्रिया से यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि जीव इन विविध योनियों से ही आता है और इन विविध योनियों में ही जाता है। प्रश्न हल हो गया क्यों आता है और क्यों उनमें जाता है? तो इसका उत्तर उसके कृत कर्म हैं। कर्मानुसार फलप्राप्ति स्वयं होती हुई देखी जाती है। इन कों की व्यवस्था जैनागम में बड़ी विशदता से निरूपित की गयी है। वे संख्यातीत हैं। प्राणियों में विचार और भाव भी संख्यातीत हैं, अतः कर्म भी संख्यातीत है, यह स्वयं सिद्ध है। __प्राणियों के जैसे विचार और भाव होंगे वैसे उनके कर्मों का आगमन होगा। प्राणियों के भावों में कुछ भाव प्रशस्त-उत्तम-सराहनीय हैं और कुछ अप्रशस्त-अधम-निन्दनीय हैं। इन शुभ और अशुभ भावों के अनुसार ही जीव के शुभ कर्म और अशुभ कर्म की व्यवस्था है। जो कभी अशुभ कर्म करता है वही समझदारी आने पर शुभ कर्म करने लगता है। १३६ जैनदर्शन में अध्यात्म इसी प्रकार जो शुभ कर्म करता है वह कभी कुसंगति से अशुभ कर्म भी करने लगता है। इन कर्मों के विविध फलों को देने वाला कौन है? इस प्रश्न का उत्तर है - “स्वयं करोति कर्मात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।” अर्थात् आत्मा स्वयं कर्म करता है और वह उसके फल को स्वयं प्राप्त करता है। यह प्रत्यक्ष है कि रास्ता देखकर न चलने वाला पुरुष सामने के पड़े पत्थर से ठोकर खा जाता है और गिर पड़ता है। उसके माथे में चोट स्वयं आ जाती है, कोई दूसरा भूल के फलस्वरूप उसका माथा नहीं फोड़ता। सिद्ध है जीव कर्म स्वेच्छा से करता है, कोई कराता नहीं है। अतः फल भी स्वयं भोगता है, कोई देता नहीं है। अगर फल देने वाला अन्य है तो कर्म कराने वाला भी अन्य है, तब शुभ-अशुभ कर्म कराने वाला भी शुभ-अशुभ कर्म का जिम्मेदार है। फिर वह भी कर्म लिप्त होगा। अतः सिद्ध है कि परमात्मा मात्र ज्ञाता-दृष्टा है। _उपर्युक्त विचार गीता के पंचम अध्यायगत निम्न श्लोकों में भी पाये जाते हैं - न कर्तृत्त्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।। नादत्ते कस्यचिद् पापं न चैव सुकृतं विभुः।। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।। - गीता १४-१५ __गीता के इन पद्यों में कहा गया है कि विभु न लोक का कर्ता है और न उनके कर्मों की सृष्टि करता है। न ही उनके कर्मों का फल का संयोग कराता है - उन्हें कर्मफल देता है। यह सब स्वभाव से प्रवृत्त है। न वह किसी के पाप को ग्रहण करता है और न किसी के पुण्य को ही लेता है। अज्ञान से प्राणियों का ज्ञान आवृत है। इससे मोह के कारण वे ऐसा मानते हैं। वस्तुतः प्राणी स्वयं अपने कमों के कर्ता और स्वयं उनके फलभोक्ता हैं। गीता के इस उद्धरण से स्पष्ट है कि ज्ञानमार्ग का सिद्धान्त यही है। ईश्वर को भक्ति के कारण व्यवहार में कृतज्ञता के नाते अहंकार को दूर करने के लिए ही कर्ता कहा जाता है। पर वह ज्ञानमार्ग (परमार्थ) नहीं है। इस तरह अध्यात्म में जो परकर्तृत्व का निषेध किया जाता है उसे आचार्य कुन्दकुन्द एवं आ० अमृतचन्द्र ने बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है। उसका समर्थन उक्त प्रकार गीता से भी होता है। कुन्दकुन्द ने समयसार के आरम्भ में जहाँ सभी द्रव्यों के पृथक् पृथक् एकत्व को सिद्ध किया है वहाँ आत्मा के एकत्व-विभक्त का भी विशद प्ररूपण किया है। उनके प्रथम टीकाकार अमृतचन्द्र ने प्रौढ़ संस्कृत में निबद्ध अपनी गरिमापूर्ण “आत्मख्याति” टीका में जैसा उस आत्मा तथा अन्य द्रव्यों के एकत्व-विभक्त का निरूपण किया है, मनीषियों के लिए उसका एक उद्धरण दिया जाता है १४० जैनदर्शन “लोके ये यावन्तः केचनाप्यास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्व धर्मचक्रचुम्बिनोपि परस्परमचुम्बिनोऽत्यन्तप्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनाद- विनष्टानन्तव्यक्तित्वाट्टकोत्कीर्णा इव तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमापद्यन्ते प्रकारान्तरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः। एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति जीवाइवयस्य समयस्य बन्धकथाया एव विसंवादित्वापत्तेः कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेशस्थित्वमूलपरसमयोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यम्? अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते।" ___ इसका तात्पर्य यह है कि लोक में सभी पदार्थ निश्चय की दृष्टि से स्वभाव में रहते हुये ही शोभा पाते हैं, वे सब अपने अपने धर्मों (गुणों) में रहते हैं। पर द्रव्य का स्पर्श नहीं करते। कभी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते। परस्पर परिगमित नहीं होते। अन्यथा संकर आदि दोषों से युक्त होंगे। इस प्रकार सब द्रव्यों की स्वतंत्रता सिद्ध होती है तथापि संसारी प्राणी कर्मबन्ध की स्थिति में विसंवाद को प्राप्त होता है। इस विसंवाद का मूल उसका कर्म प्रदेशों में स्थित होना है और इसका भी मूल परसमय है जिससे वह दो द्रव्यरूप प्रतीत होता है। पर ऐसा नहीं है। अतः जीव द्रव्य में अन्य द्रव्यों की तरह एकत्व ही सिद्ध होता है। कर्म पुद्गल के भिन्न होने पर जीव अपने स्वभाव के रूप में प्रकट होता है। यही उसकी शुद्धता का प्रमाण है। यह अवस्था उसकी शुद्ध अवस्था है, तब उसे शुद्धात्मा-परमात्मा की संज्ञा से अभिहित करते हैं। यदि शुद्धता-एकत्वरूप उसका स्वभाव न हो, तो कर्मबन्ध दूर होने पर उसका एकत्व प्रकट कैसे होता। आचार्य अमृतचन्द्र जीव के निज स्वभाव का प्रतिपादन करते हुए स्पष्ट कहते हैं - __“इदं तु नित्यव्यक्ततयान्तः प्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सहै की क्रियमाणत्वादत्यन्ततिरोभूतं सत् स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न कदाचिदपि श्रुतपूर्वं न कदाचिदपि परिचितपूर्वं न कदाचिदपि अनुभूतपूर्व च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वम् । अत एकत्वस्य न सुलभत्वम्।” ___ आत्मैकत्व सदा स्पष्टतया अन्तःप्रकाशमान होता हुआ भी कषायचक्र के साथ एकरूप हो जाने के कारण तिरोभूत रहता है, स्वयं का ज्ञान न रहने और जिन्हें उसका ज्ञान है उनका सम्पर्क न करने से न कभी उसे सुना, न कभी परिचय किया और न अनुभव किया। फलतः वह आत्मैकत्व निर्मल विवेक के आलोक से दूर रहा। अतः वह सुलभ नहीं हो सका। उसे ही आ० कुन्दकुन्द ने समयसार के द्वारा और आ० अमृतचन्द्र ने इसकी प्रौढ़ संस्कृत-टीका आत्मख्याति द्वारा बताया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि “जीव” नाम का द्रव्य सब द्रव्यों से भिन्न, स्वतन्त्र और ज्ञान-दर्शन स्वभाव को लिए हुए है। वह अनन्त गुणों एवं अनन्त शक्तियों का भण्डार है। सब द्रव्यों से आत्मद्रव्य का सर्वाधिक महत्व है। जैनदर्शन में अध्यात्म १४१ अध्यात्म ग्रन्थों में उसकी सत्ता, उसके गुण और उसकी अवस्थाएं आदि का बड़ा सूक्ष्म प्रतिपादन किया है। हम अपनी भूलवश पर द्रव्य को खासकर पुद्गल द्रव्य को अपना समझते हैं और उन्हें सुखसाधन मानकर उनमें राग करते हैं और विरोधी में द्वेष करते हैं। पर को अपना मानने का ही रोग राग-द्वेष-मोह है। जब तक यह भ्रम रहेगा, जीव सुखी न होगा। सुख तो ज्ञान-दर्शन की तरह उसका स्वभाव है और स्वभाव परसे नहीं आता और आता हो, तो वह स्वभाव नहीं होगा। जीव का पर पदार्थों के साथ संयोग उसका बन्धन है और वही संसार है। पाँचों इन्द्रियाँ जहाँ ज्ञान का साधन हैं वहीं वे विषयों में राग-द्वेष की भी साधन बनती हैं। ज्ञानी जीव इतना समझ ले और पर संसर्ग छोड़ने की ओर गति करे तो उसका परसे बन्धन (संयोग) छूटना ही उसकी मुक्ति है। जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं है, देह, द्रविण आदि में ही निजात्म मानता है तब तक वह अध्यात्म की भाषा में वह “बहिरात्मा" है। पर वही जब पर से भिन्न पर द्रव्यों से भिन्न, पर के गुणों से भिन्न और पर की अवस्थाओं से भिन्न तथा अपनी आत्मा के निज स्वरूप, निज गुणों और निज पर्यायों से अभिन्न एक रूप स्वीकार करता है तब उसकी “अन्तरात्मा” संज्ञा हो जाती है और इस सिद्धान्त के अनुसार व “अन्तरात्मा” परसे अपना सम्पूर्णतया राग-द्वेषादि हटा लेता - उनसे रहित हो जाता है, तब वह उस सबसे रहित “परमात्मा” कहा जाता है। आत्म-दर्शन ही परमात्मा बनने की सीढ़ी है । 2 “नाहं भवामि परेषां नामपरे सन्ति।” - इस सूक्ति के अनुसार जब जानता है कि मैं पर का संबन्धी नहीं हूँ और पर मेरे कोई संबन्धी नहीं है। स्त्री, पुत्र, पौत्र, भाई, भगिनी आदि संबन्ध देह के हैं, आत्मा के नहीं। वे आत्माएं जन्मान्तर से आकर अपने किये हुये शुभ-अशुभ कर्म के अनुसार नाना योनियों में जन्म लेते हैं। किसी संयोगवश उनका जन्म हमारी देह के संयोग से हुआ तो वह हमारा पुत्र माना गया और मैं उसका पिता। पुत्री हुई तो वह पुत्री और दोनों वे भाई-बहिन कहे गये। जिसके उदर से जन्मे वह माता कही गयी। पत्नी तो प्रत्यक्ष सर्वथा भिन्न वस्तु है। हमने उससे विवाह कर शारीरिक संबन्ध स्थापित किया है। इस विवाह के पूर्व हमारा उससे या उसके परिवार से कोई संबन्ध न था, न उसका हमसे कोई सम्बन्ध था। जब सांसारिक माने जानेवाले संबन्ध ही न थे तब आत्मा के संबन्धों का प्रश्न ही नहीं है। यह अध्यात्म की दृष्टि है। किन्तु लोक व्यवहार को नकारा नहीं जा सकता। वह है, पर कर्मबन्ध की दृष्टि से वह है, जो जीव के साथ अनादि से चला आ रहा है। ____ यदि बालक-बालिका के परिवार में कोई रिश्ता पहले से हो तो वहाँ विवाह मान्य नहीं होगा। तो कहना चाहिये कि जिन दोनों का परस्पर लौकिक पारलौकिक देह या आत्मा का कोई संबन्ध न हो, उनकी सगे पति-पत्नी की मान्यता वर्तमान देह के संबन्ध की मान्यता है जो अब प्रारम्भ है और समाज ने उसे मान्यता दी है। पुत्रादि संबन्ध तो उसके१४२ जैनदर्शन हो बाद के हैं। सारे ही संबन्धों का हेतु देह-सम्बन्ध है। इसलिये कहना चाहिये कि जिसे हम “आत्मज” कहते हैं वह “आत्मज” नहीं, “देहज” ही हैं। _देहज सम्बन्ध को आत्मज संबन्ध मानकर ही हमारे संसार के सब व्यवहार चले हैं। उनके संयोग-वियोग से हमारा सुख-दुःख है। इसी देह के सुख साधन बाह्य जड़ पदार्थों का संचय-रक्षण भी इसी मान्यता पर चलता है। मैंने गृहस्थी बनाई, मैंने मकान बनाया, सम्पत्ति अर्जित की, प्रतिष्ठा प्राप्त की। यह सब मेरा वैभव है, यह सब मान्यता कल्पित ही चली है। एक जन्म से संबन्धित है, पर जन्म से नहीं, शरीर प्रत्येक जन्म के भिन्न भिन्न हैं तो परिवार भी उस शरीर से भिन्न भिन्न होगा। इस तरह अनेक योनियों में जन्म धारण कर हमने नया परिवार बनाया, नई नई गृहस्थी बनाई, नए नए साधन बनाए, पर अन्त में देह ने साथ छोड़ा तो सब संबन्ध समाप्त हो गये। प्राणी यह समझ ले कि आत्मा अमर है, शरीर मरता है। दोनों का एक जन्मी सम्बन्ध था, सदा से नहीं। सदा को नहीं। जब जन्म सन्तान का होता है अर्थात् नया जीव शरीर धारण करता है तब हम प्रसन्न होते हैं। उससे राग होता है। बड़ी-बड़ी आशाएं जन्म से ही हम लगा लेते हैं। ज्योतिषी से उसकी जन्म कुंडली बनवाते हैं। किसलिये कि उसका भावी जीवन कैसा है, सुख-दुःख क्या है। माता-पिता परिवार जन के लिये अनुकूल प्रतिकूल क्या है। जन्म के साथ मरण अनिवार्य है। ज्योतिषी जन्म-कुंडली नहीं बनाता। म जन्म तो हो गया, अब तो उसके बाद जीवन और उसके अनिवार्य अन्त का प्रश्न है। वही हल करना है। तब कहना चाहिये कि वह “मरण-कुंडली” बनाता है। यह बताता है कि इसकी इतनी आयु है। हम भी संतोष करते हैं कि अच्छी आयु है, वहीं यह भी जानते हैं कि इस आय के पश्चात मरण ही है। यह जन्म-मरण का संबन्ध अनादि से ही इस जीव के साथ है। शुभाशुभ कर्म करता है। फलस्वरूप शुभ-अशुभ गति में जाता है। वहाँ उस जीवन मरण में सांसारिक सुख-दुःख अपने मोह राग द्वेष के अनुसार करता है। इस चक्र से निकल नहीं पाता। यदि निकल जाय तो वही मुक्ति है। र
- संसार यदि दुःख रूप है तो मुक्ति में उस दुःख से छुटकारा है। यही सुख है वह “अन्तरात्मा” प्राप्त कर परमात्मा बनता है। __ अन्तरात्मा को ही सम्यक्दृष्टि कहा गया है। संसार परिभ्रमण की क्रिया तब तक न छूटेगी जब तक हम उस प्रक्रिया के यथार्थ कारणों को न जानेंगे। मार्ग का निर्णय करने वाला ही उस मार्ग पर चल कर मंजिल को प्राप्त करता है, जिसने मार्ग का निर्णय नहीं किया, उसकी यात्रा उसे मंजिल तक नहीं पहुँचायेगी। अतः संसार की यथार्थ प्रक्रिया को जानना ही तत्त्वज्ञान है। तत्त्वज्ञानी ही मार्ग और मंजिल का यथार्थ निर्णय कर सकता है। जैनदर्शन में अध्यात्म १४३ इस अध्यात्मदृष्टि का निर्णय और उसकी प्राप्ति का मार्ग जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने बताया है और उनके कथन के आन्तरिक रहस्य को आचार्य अमृतचन्द्र ने सर्वप्रथम खोला है। उनकी समयसार की संस्कृत टीका प्रौढ़ और प्राञ्जल है। गद्यमय टीका के अन्त में एक-एक पद्य प्रत्येक अध्याय के अन्त में तथा कहीं मध्य में भी “भवन" के कलश स्वरूप या टीका के अमृत के कलश (टीका) रूप में लिखा है, जिसमें टीका का निचोड़ है। “लघुतत्त्वस्फोट” नामक स्तुतिपरक संस्कृत काव्यमय उनकी दूसरी उत्कृष्ट रचना भी हैं और जो प्रकाशित है। आत्मा के स्वकर्तृत्व एवं पर के अकर्तृत्व की घोषणा आचार्य अमृतचन्द्र ने जोरदार शब्दों में की है। वे लिखते हैं कि प्रत्येक द्रव्य नियम से परिवर्तनशील हैं। अपने परिवर्तन का वह स्वयं कर्ता है। कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का यथार्थ कर्ता नहीं होता है, मात्र निमित्त कारण हो भी जाता है। __कार्य की उत्पत्ति में दो कारण माने जाते हैं- (१) उपादान और (२) निमित्त। निमित्त कारण वह होता है जो उस उपादान का सहयोगी होता है, पर कारक नहीं। यदि प्रत्येक द्रव्य के परिवर्तन में पर द्रव्य को कर्ता माना जाये तो वह परिवर्तन स्वाधीन न होगा, किन्तु पराधीन हो जायेगी और ऐसी स्थिति में द्रव्य की स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी। इस सिद्धान्त के अनुसार जीव द्रव्य की संसार से मुक्ति पराधीन हो जायेगी, जब कि मुक्ति स्वाधीनता का नाम है या ऐसा कहिए कि पराधीनता से छूटने का नाम ही मुक्ति है। __संसार में जीवन का बंधन यद्यपि पर के साथ है, पर उस बंधन में अपराध उस जीव का स्वयं का है। वह निज के स्वरूप को न जानने की भूल से पर को अपनाता है और वहीं उसका बंधन है। और यह बंधन ही संसार है। इस बंधन से छटने के लिये जब उसे अपनी भूल का ज्ञान होता है, तो वह उस मार्ग से विरक्त होता है। सारांश यह है कि संसारी आत्मा अपने विकारी भावों के कारण कर्म से बंधा है और अपने आत्मज्ञान रूप अविकारी भाव से ही कर्मबंधन से मुक्त होता है। पर संसारी और मक्ति दोनों अवस्था में अपने उन उन भावों का कर्ता वह स्वयं है. अन्य कोई नहीं। ज्ञानी ज्ञान भाव का कर्ता है और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कर्त्ता है। समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने यही लिखा है– यं करोति भावमात्मा कर्ता सो भवति तस्य भावस्य। ज्ञानिनस्तुज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः।। (संस्कृत छाया) १२६ ।। ___ अर्थात् जो आत्मा जिस समय जिस भाव को करता है उस समय उस भाव का कर्ता वही है। ज्ञानी का भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी का भाव अज्ञानमय होता है। . १४४ जैनदर्शन आचार्य अमृतचन्द्र भी लिखते हैं - ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ।। ६७ ।। कर्ता और कर्म के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत् कर्म। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।। ५।। जो पदार्थ परिवर्तित होता है वह अपनी परिणति का स्वयं कर्ता है और वह परिणमन उसका कर्म है और परिणति ही उसकी क्रिया हैं। ये तीनों वस्तुतः एक ही वस्तु में अभिन्न रूप में ही हैं, भिन्न रूप में नहीं। एकः परिणमति सदा परिणामो जायते ते सदैकस्य। एकस्य परिणतिः स्यात् अनेकमप्येकमेव यतः।। ५२ ।। द्रव्य अकेला ही निरन्तर परिणमन करता है वह परिणमन भी उस एक द्रव्य में ही पाया जाता है और परिणति क्रिया उसी एक में ही होती है इसलिये सिद्ध है कर्ता, कर्म, क्रिया अनेक होकर भी एक सत्तात्मक है। तात्पर्य यह है कि हम अपने परिणमन के कर्ता स्वयं हैं दूसरे के परिणमन के कर्ता नहीं हैं। आगे चलकर आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं “आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः। तद्भतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तत् किं ज्ञानधनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मनः।।५।। अर्थात् संसारी प्राणियों की अनादि काल से ही ऐसी दौड़ लग रही है कि मैं पर को ऐसा कर लूँ। यह मोही अज्ञानी पुरुषों का मिथ्या अहंकार है। जब तक यह टूट न हो तब तक उसका कर्म बंध नहीं छूटता। इसीलिये वह दुःखी होता है और बंधन में पड़ता है। इसी को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने यह सिद्धांत स्थापित किया है कि - आत्मभावान करोत्यात्मा परभावान् सदा परः। आत्मैव हयात्मनो भावाः परस्य पर एव ते।।५६।। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा अपने ही भावों का कर्ता है और परद्रव्यों के भावों का (परिवर्तनों का) कर्ता परद्रव्य ही है। आत्मभाव आत्मा ही है। १४५ जैनदर्शन में अध्यात्म इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि परकर्तृत्व पदार्थ में स्वतः नहीं। किन्तु अपने परिणमन के कर्तृत्व में पर्याय स्वतंत्र है। इन उद्धरणों से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अपने बंधन का अधिकारी यह प्राणी स्वयं है तथा अपनी मुक्ति का अधिकारी भी वह स्वयं है। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र आदि ने सब द्रव्यों की स्वतंत्रता की घोषणा कर प्रत्येक व्यक्ति के पुरुषार्थ को जगाया है। इस प्रकार जैन दर्शन में अध्यात्म की परिभाषा है। इसका विशद विवेचन आचार्य कुन्दकुन्द और उनके समर्थ टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों में किया गया है। लाव किया कि मि पर नकल मालि
मा गिमार सागर किन तिमी का मामा पानी पानी जोली प्रजातिका शानदार सामाजिक विकलो गाज