व्याकरण शास्त्र के अनुसार ‘दर्शन’ शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि ‘दृश्यतेऽवलोक्यते पदार्थोऽनेनेति दर्शनम्’-जिसके द्वारा पदार्थ वस्तु स्वरूप देखा जाये जाना जाये वह दर्शन है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोषकारों ने इस शब्द का प्रयोग नेत्र, स्वप्न, बुद्धि, धर्म, दर्पण और शास्त्र इन छह अर्थों में किया है, क्योंकि इन छहों के द्वारा देखा जाता है। प्रकृत में वह बुद्धि (विचार) और उसे निबद्ध करने वाला शास्त्र इन दो अर्थों में विवक्षित है। इन दोनों के द्वारा जड़-चेतन, लोक-परलोक, कुशल-अकुशल (पुण्य-पाप), हेय-उपादेय, सूक्ष्म-स्थूल भूत-भावी आदि पदार्थों (विषयों) का गहराई से चिन्तन एवं निर्णय किया जाता है। जो चिन्तक जितनी गहराई और अपने ज्ञान की सीमाओं से उक्त पदार्थों का चिन्तन करेगा, उसका वह चिन्तन उसी प्रकार का होगा। यही कारण है कि तत्त्व-चिन्तकों के चिन्तनों और उनके द्वारा निबद्ध शास्त्रों में साम्य नहीं है। फलतः दर्शन एक न होकर अनेक हैं। पश्चिमी दर्शन, पूर्वी दर्शन, यूनानी दर्शन, भारतीय दर्शन जैसे भेदों में वे विभक्त हैं।
भारतीय दर्शन और उनका विभाजन
यहाँ सामान्यतया भारतीय दर्शनों और विशेषतया जैनदर्शन का विमर्श किया जायेगा। भारतीय दर्शन दो वर्गों में विभक्त है-१. वैदिक और २. अवैदिक। जो वेद के आधार पर स्थापित है अथवा जिनमें प्रायः वेद को प्रमाण मानकर तत्त्व का प्रतिपादन है वे वैदिक दर्शन कहे गये हैं और जो विशिष्ट व्यक्ति के अनुभव, तर्क और वचन को प्रमाण स्वीकार कर तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं वे अवैदिक दर्शन माने गये हैं। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त-ये छह वैदिक दर्शन कहे गये हैं, क्योंकि ये छह दर्शन वेद को अपना आधार मानते हैं तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक-ये तीन दर्शन विशिष्ट व्यक्ति (क्रमशः अर्हत्, सुगत और बृहस्पति) के अनुभव के आधार पर प्रतिपादित होने से अवैदिक दर्शन कहे गये हैं। यद्यपि न्यायदर्शन के प्रतिष्ठाता अक्षपाद, वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक कणाद, निरीश्वर सांख्य दर्शन के जन्मदाता कपिल और सेश्वर सांख्य (योग) दर्शन के संस्थापक पतञ्जलि भी व्यक्ति विशेष हैं और उनके द्वारा प्रतिष्ठित होने से ये चार वैदिक १. हीरावल्लभशास्त्री, प्राक्कथन, प्रमाण-प्रमेयकलिका, पृ. २४, १६६१। २. नेत्रे स्वप्ने बुद्धौ धर्म दर्पणे शास्त्रे च दर्शनशब्दः। - मेदिनीकोष। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ५६ दर्शन भी अवैदिक दर्शन ठहरते हैं तथापि इन दर्शनों पर मूल प्रभाव वेद का ही माना जाता है। इन पर उक्त ऋषियों का स्वतंत्र भाव से प्रभाव नहीं है, जैसा कि श्रौतेतर दर्शनों पर अर्हत्, बुद्ध और बृहस्पति का है। पिछली का नि उपोकांतिकात्मक उक्त वैदिक दर्शनों में सांख्य दर्शन और मीमांसा दर्शन दो-दो प्रशाखाओं में विभाजित है। सांख्य दर्शन की दो प्रशाखाएं हैं-१. सेश्वर सांख्य और २. निरीश्वर सांख्य। इनमें सेश्वर सांख्य योगदर्शन तथा निरीश्वर सांख्य प्रकृतिवादी दर्शन कहा जाता है। मीमांसा की भी दो प्रशाखाएं हैं -१. पूर्वमीमांसा और २. उत्तरमीमांसा। इनमें कर्मकाण्ड को पूर्वमीमांसा और ज्ञानकाण्ड (वेदान्त) को उत्तरमीमांसा कहा गया है। यद्यपि पूर्व मीमांसा में ज्ञान क्रियाओं-नित्य नैमित्तिक अनुष्ठानों का उपदेश होने से वह दर्शन न होकर केवल धर्म है। किन्तु प्रभाकर गुरु और कुमारिल भट्ट ने उसमें पदार्थ, द्रव्य, प्रमाण आदि दार्शनिक विषयों का समावेश कर उसे भी दर्शन का रूप दिया है। उसके बाद तो वह दो भिन्न दर्शनों प्रभाकर और भाट्ट के रूप में दार्शनिक क्षेत्र में उभर कर आयी और दर्शन कोटि में समाविष्ट हो गयी-उत्तरवर्ती टीकाकारों तथा अन्य दर्शनग्रन्थकारों ने इन्हें अपने मण्डन-खण्डन का विषय भी बना लिया है। TS यहाँ चिन्तनीय है कि ज्ञानकाण्ड मीमांसा का उत्तर भाग कैसे बना ? प्रतीत होता है कि श्रमणों-बौद्धों व आर्हतों के अहिंसा, दया, समता, त्याग, तप, समाधि (ध्यान) जैसे आध्यात्मिक तत्त्वों के प्रचार का मीमांसा (हिंसात्मक यज्ञादि अनुष्ठानों) पर प्रभाव पड़ा और जनता को विशेषतया प्रबुद्धजनों को सोचने का अवसर मिला तथा कर्मकाण्ड के विरुद्ध आत्म-विद्या की ओर उन्होंने कदम उठाया। फलतः वेदों- यज्ञादि क्रियाकाण्डों का अन्त - समापन होकर वेदान्त (आत्मविद्या) का व्यापक प्रचार हुआ और उपनिषदों की रचना की गयी जिनमें आत्म-विद्या का प्रभावक ढंग से प्रतिपादन किया गया। अतः उनमें प्रामाणिकता लाने के लिए वेदान्त (ज्ञान काण्ड) का मीमांसा का उत्तरभाग मान लिया गया। परन्तु क्रियाकाण्ड से ज्ञानकाण्ड का पूर्व-पश्चिम की तरह क्या सम्बन्ध? यथार्थ में ज्ञानकाण्ड आत्म-विद्या है जिसे माण्डूक्य (१/१/४१५) तथा छान्दोग्य उपनिषदों में परा (उत्कृष्ट) विद्या कहा गया है और जिसकी प्राप्ति क्षत्रियों से बतलाई गयी है। ये क्षत्रिय कौन थे ? ये थे क्षत्रियकुलोत्पन्न तीर्थकर, जो आत्म-विद्या की ही उपासना करते और उसी का उपदेश देते थे। इसी को प्रबुद्ध जनों ने उपनिषदों के रूप में ग्रथित किया तथा उसे मीमांसा का उत्तर भाग मान लिया गया। इन्हीं उपनिषदों में कर्मकाण्ड को अपरा विद्या बताया और उसकी प्राप्ति ब्राह्मणों से कही गयी है। इसका अंशतः समापन या अप्रभाव उसी ज्ञानपुञ्ज (आत्म-विद्या) से हुआ। प्रसिद्ध दार्शनिक राधाकृष्णन् ने लिखा है-२ ) ए १. माण्डक्य तथा छान्दोग्योपनिषद शाह न ल गार २. डॉ. राधाकृष्णन् भारतीयदर्शन पृ. २४३-२४४ सं. द्वितीय, १६६६। हाल पामवाली ६० पिसार राम जैनदर्शना का IN ‘उपनिषदों ने प्राचीन वैदिक क्रियाकाण्ड को ऊँचे आध्यात्मवाद से जोड़ने का प्रयत्न किया। किन्तु तत्कालीन पीढ़ी ने उसमें बिलकुल अभिरुचि नहीं दिखायी। फलतः उपनिषदों का ऊँचा अध्यात्मवाद लोकप्रिय नहीं हो सका। उसने पूरे समाज को कभी प्रभावित नहीं किया। एक ओर यह दशा थी, दूसरी ओर याज्ञिक धर्म अब भी बलशाली था। मनुष्य का मस्तिष्क नियमित क्रियाकाण्ड की परिधि में घूमा करता था। कुछ मंत्रों का उच्चारण किये बिना या कुछ विधि-नियमों का अनुष्ठान किये बिना कोई न जाग सकता था, न उठ सकता था, न बाल बनवा सकता था, न स्नान कर सकता था, न मुँह धो सकता था और न कुछ खा सकता था। यह वह समय था, जब एक क्षुद्र निष्फल धर्म ने कोरे मूढ़ विश्वासों और सारहीन वस्तुओं के द्वारा अपना कोष भर लिया था। किन्तु एक शुष्क और हृदयहीन दर्शन, जिसके पीछे अहंकार और अत्युक्तियों से पूर्ण एक शुष्क (विरस) और स्वमताभिमानी धर्म हो, विचारशील मनुष्यों को कभी भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता और न जनता को ही अधिक समय तक सन्तुष्ट रख सकता है। उपनिषदों का ब्रह्मवाद और वेदों का बहुदेवतावाद, उपनिषदों का आध्यात्मिक जीवन और वेदों का क्रियाकाण्ड, उपनिषदों का मोक्ष और संसार तथा वेदों का स्वर्ग और नरक, यह तर्कविरुद्ध संयोग अधिक दिनों तक नहीं चल सकता था। अतः पुनर्निर्माण की सख्त जरूरत थी। समय एक ऐसे धर्म की प्रतीक्षा कर रहा था, जो गम्भीर और अधिक अध्यात्मिक हो तथा मनुष्यों के साधारण जीवन में उतर सके या लाया जा सके। धर्म के सिद्धान्तों का उचित सम्मिश्रण करने के पहले यह आवश्यक था कि सिद्धान्तों के उस बनावटी सम्बन्ध को तोड़ डाला जाये, जिसमें लाकर उन्हें एक दूसरे के सर्वथा विरुद्ध स्थापित किया गया था। कि उपर्युक्त प्रतिपादन से ज्ञात होता है कि उपनिषदों से पूर्व वेदों का प्रायः सर्वत्र प्रभाव था। किन्तु जनता उनके क्रियाकाण्ड से ऊब गयी थी, अतएव उपनिषद् रचे गये। उन्होंने व्यापक तौर पर आत्मविद्या का प्रचार कर वेदों के प्रभाव को कम कर दिया। फलतः औपनिषद् ज्ञान ‘वेदान्त’ कहा जाने लगा। का यहाँ प्रश्न उठता है कि औपनिषद् ज्ञान आया कहाँ से और उसकी परम्परा क्या है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जब जनता की रुचि वैदिक क्रियाकाण्ड से हट गयी और उससे ऊब आ गयी तो नूतन परिवर्तन लाने की आवश्यकता प्रतीत हुई। अतः उन्होंने क्षत्रिय-श्रमणों से आध्यात्मिक-विद्या को प्राप्त किया तथा उसे उपनिषदों के रूप में ग्रथित किया। माण्डूक्य और छान्दोग्य उपनिषदों में स्पष्ट कहा गया है कि ‘विद्या दो प्रकार की होती है- १. परा और २. अपरा। जिस परा (उत्कृष्ट) आत्म-विद्या है और अपरा (जघन्य) कर्मकाण्ड विद्या। परा-विद्या की प्राप्ति क्षत्रियों से होती है व अपरा विद्या की प्राप्ति ब्राह्मणों से। ये क्षत्रिय परा विद्या के शिक्षक थे और थे तीर्थंकर, जो सदा आत्मविद्या से सम्पन्न और क्रियाकाण्ड से दूर रहते जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग थे। ये श्रमण कहे जाते थे और ‘ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तः’ (रत्नकरण्ड, श्लोक १०) रहते थे। उपनिषद् उपदेश तो अध्यात्म का देते थे किन्तु व्यवहार में आचरण क्रियाकाण्ड का ही होता था। फल यह हुआ कि कालान्तर में पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों अलग-अलग हो गये तथा उत्तरमीमांसा ‘वेदान्त’ दर्शन एवं पूर्व मीमांसा ‘मीमांसक’ दर्शन कहा जाने लगा। निजी ज मतार
आस्तिक और नास्तिक के रूप में दर्शनों का विभाजन
उक्त वैदिक और अवैदिक रूप में विभक्त भारतीय दर्शनों को आस्तिक और नास्तिक दर्शनों के रूप में भी विभाजित कर उनके कथन करने का प्रचलन है। इसके अनुसार उपर्युक्त छहों वैदिक दर्शन आस्तिक और तीनों-जैन, बौद्ध तथा चार्वाक-अवैदिक दर्शन नास्तिक कहे जाते हैं। पर इस विभाग का कोई मजबूत या सबल आधार प्राप्त नहीं है। ईश्वर को मानने या ना मानने के आधार पर यदि आस्तिक और नास्तिक माने जाएँ, तो निरीश्वरवादी सांख्य और मीमांसा (कर्मकाण्ड) - ये दोनों ईश्वर को स्वीकार न करने तथा ईश्वर का निषेध करके ब्रह्म को अंगीकार करने से वेदान्त- ये तीनों दर्शन नास्तिक दर्शन कहे जावेंगे तथा नास्तिक कहे जाने वाले जैन और बौद्ध ये दोनों दर्शन क्रमशः ‘अर्हत्’ और बुद्ध के रूप में ईश्वर को स्वीकार करने से नास्तिक दर्शन नहीं कहे जा सकेंगे। केवल एक चार्वाक दर्शन ही नास्तिक दर्शन कहा जायेगा, क्योंकि ‘बृहस्पति गुरु’ के सिवाय वह ईश्वर को न सृष्टिकर्ता और न उपास्य देवता स्वीकार करता है। वेद को प्रमाण मानना, न मानना भी आस्तिक-नास्तिक का आधार नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की मान्यता संकुचित दृष्टिकोण की द्योतक है। अन्यथा जो आगम या त्रिपिटक को मानता है वह आस्तिक है और जो उन्हें नहीं मानता वह नास्तिक है-ये भी आस्तिक और नास्तिक की परिभाषाएँ बतायी जा सकती हैं। अतः विनिगमनाविरह होने से आस्तिक-नास्तिक का यह आधार भी युक्त नहीं है। ____ ‘पाणिनीय व्याकरण के ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः’ (४/४/६०) इस सूत्र पर काशिका और महाभाष्य लिखने वाले टीकाकार क्रमशः कैय्यट और पतंजलि ने इसका अर्थ किया है कि जो परलोक (पुनर्जन्म-कर्मफल) को मानता है वह आस्तिक है और जो उसे नहीं मानता वह नास्तिक है। इन परिभाषाओं के आधार पर यदि आस्तिक और नास्तिक माना जाए तो जैन और बौद्ध भी आस्तिक दर्शन सिद्ध होते हैं, क्योंकि दोनों दर्शनों ने परलोक - पुनर्जन्म (नाना योनियों में पुनः जन्म) और उसके जनक शुभाशुभ कर्मों को ___ स्वीकार किया है। जैन दार्शनिक स्वामी समंतभद्र (ई. २री शती) ने लिखा है६२ FE जैनदर्शन कर (oral कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्थानुरूपतः। किन का उपायको व तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्य -शुद्धितः।। शनीय “नाना प्रकार की इच्छाओं आदि की उत्पत्ति अपने कर्मानुसार होती है और वह कर्म अच्छे, बुरे भावों तथा कार्यों से जीव के साथ बंध को प्राप्त होता है। ऐसे समस्त जीव दो प्रकार के हैं - १. शुद्ध (जिनमें शुद्ध होने की शक्ति की अभिव्यक्ति है) और २. अशुद्ध (जिनमें शुद्ध होने की शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं है)। काधिक
- इस तरह पाणिनि के अनुसार परलोक की मान्यता-अमान्यता के आधार पर केवल चार्वाकदर्शन नास्तिक तथा शेष सभी भारतीय दर्शन जिनमें जैन और बौद्ध भी हैं, आस्तिक दर्शन सिद्ध होते हैं। चार्वाक दर्शन न ईश्वर मानता है, न परलोक मानता है, न उसके जनक शुभाशुभ कर्मों को स्वीकार करता है और न उनके शुभाशुभ फल को ही अंगीकार करता है। ___ षड्दर्शनसमुच्चयकार हरिभद्र और उनके टीकाकार गुणरत्न ने भी जैन तथा बौद्ध दर्शनों को आस्तिक दर्शन कहा है और केवल चार्वाक दर्शन को नास्तिक दर्शन बतलाया है। वस्तुतः भारतीय दर्शनों में यह आस्तिक-नास्तिक विभाजन बहुत संकुचित प्रतीत होता है। इस प्रकार के विभाजन में हीनता और उच्चता या तिरस्कार और सम्मान का भाव प्रदर्शित होता है, जो ‘अहंभाव’ से प्रेरित है। अतः भारतीय दर्शनों का पूर्वोक्त वैदिक और अवैदिक दर्शन विभाग ही युक्त है। इसे दूसरे शब्दों में श्रमण और श्रमणेतर दर्शन विभाग भी कहा जा सकता है। इन विभागों में किसी दर्शन के प्रति न असम्मान-सम्मान का भाव है, न परनिंदा -आत्मप्रशंसा है और न संकुचित दृष्टिकोण है। ___ दर्शनों में जो भेद आया है उसका कारण हम पहले बता आए हैं कि चिंतकों के चिंतन, चिंतनशैली और ज्ञान की सीमाओं में अंतर पड़ने से उनमें भेद होना स्वाभाविक है। हम उनके प्रवर्तकों की नियत पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकते। हाँ, तत्त्व की गहराई में जाने के लिए ज्ञान की स्वच्छता, पूर्वाग्रहमुक्ति, रागद्वेषरहितता और तर्कदृष्टि का होना अनिवार्य है। इनमें न्यूनाधिकता होने पर उनकी तत्त्वप्ररूपणा में अन्तर होना संभव है और यही अन्तर दर्शनभेद का जनक है। यही कारण है कि उल्लिखित दर्शनों में मत-भिन्नता, समालोचन और परस्पर खण्डन उपलब्ध है। स्पष्ट है कि कणाद, अक्षपाद, कपिल आदि दर्शन प्रवर्तकों के तत्त्वज्ञान और तत्वप्ररूपण में पर्याप्त मतभेद और परस्पर समालोचना है। पर तीर्थंकर ऋषभादि महावीर पर्यन्त धर्मोपदेष्टाओं के तत्त्वज्ञान और तत्त्वोपदेश में मतभेद या परस्पर खण्डन दृष्टिगोचर नहीं होता। उदाहरण के लिए एक जीवतत्त्व को लें। उसे कोई अणु, कोई विभु और कोई समवाय सम्बन्ध से ज्ञान गुण वाला कहते हैं। किन्तु सभी ऋषभ आदि महावीर पर्यन्त तत्त्वोपदेष्टाओं ने उसे स्वशरीर -परिमाण (अणु-गुरुदेह पमाणो - द्रव्यसंग्रह गाथ १०) जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ६३ तथा स्वभावतः ज्ञान स्वरूप प्रतिपादित किया है। उनके स्याद्वाद, अनेकान्त, सप्तभंगी, कर्मवाद आदि अन्य सिद्धान्तों में भी परस्पर मतभेद नहीं है। और परस्पर में खण्डन या आलोचन है। दिगम्बर श्वेताम्बर और स्थानक तीनों परम्पराओं में अहिंसादि तत्त्वोपदेश में भी कोई दार्शनिक या तात्त्विक मतभेद नहीं है। तीनों ने एक स्वर से ऋषभादि महावीर पर्यन्त सभी (२४) तीर्थंकरों और उनके तत्त्वोपदेश को मान्य किया है, मात्र उनकी आचार पद्धति में भेद है। नामात महFREPRE कराकर _अतः सांख्ययोग, न्याय-वैशेषिक, मीमांसा (पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा) जैन, बौद्ध और चार्वाक-ये छह भारतीय दर्शन हैं। ये सभी दर्शन भारत में उत्पन्न हुए, और समृद्ध हुए हैं। ये भारत की बहुमूल्य विचार-सम्पदा हैं। षड्दर्शनसमुच्चयकार ने भी इन्हीं छह भारतीय दर्शनों का अपने षड्दर्शनसमुच्चय में निरूपण किया है। १३वीं शताब्दी में माधवाचार्य ने भी इन्हीं छह दर्शनों और उनसे उत्पन्न अवान्तरदर्शनों को मिलाकर सोलह दर्शनों का अपने ‘सर्व-दर्शन-संग्रह’ में कथन किया और उनके प्रतिपाद्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार भारतीय दर्शन विविध होते हुए भी अनुसंधान, समीक्षा और पदार्थविज्ञान के स्रोत होने से अनुसंधित्सुओं के लिए मह त्त्वपूर्ण है। उन्हें सुन्दर ‘गुलदस्ता’ कहा जाए, तो अत्युक्ति न होगी। वाणा शा वाम
जैनदर्शन और उसका उद्देश्य
सम्प्रति जैनदर्शन और उसके अंगों पर विमर्श किया जाता है। इससे जहाँ जैनदर्शन की तत्त्वप्ररूपणा अवगत होगी वहाँ यह भी ज्ञात होगा कि भारतीय संस्कृति एवं तत्त्वज्ञान को उसका क्या योगदान है ? पाई हामी मिला नित ‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने रागद्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह ‘जिन’ है। अर्हत्, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। हम पहले यह स्पष्ट कर आए हैं कि आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है। जैनदर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। लोक व्यवहार में हम देखते हैं कि मिट्टी की हांडी को भी जब खरीदा जाता है तो उसे सब ओर से ठोक-बजाकर ही लिया जाता है, फिर धर्म जैसी उभयलोक सुखप्रद आध्यात्मिक वस्तु को तो और विशेष रूप से देख-परख कर ही स्वीकार करना चाहिए। चाहिना PEEPISITES १. नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव द्रव्यसग्रह, गाथा १०। मला न स्माता आता 5 जैनदर्शन कि लागि वस्तुतः विचारपूर्वक स्वीकार किया गया आचार सत्य और सुखद होता है। आचार यदि धर्म-प्रासाद की नींव है तो विचार उसकी दर्शनरूप ईंटों से बनी दीवाल एवं छत है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति न्याय रूप उसके कपाट हैं। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। अतः जैन धर्म का जो आत्मोदय’ के साथ ‘सर्वोदय’-सबका कल्याण उद्दिष्ट है’ उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य है। जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहां तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है। छोटे से छोटे प्राणियों की रक्षा करने पर भी जैन दर्शन में पूरा जोर दिया गया है। जैन दर्शन उसका सयुक्तिक एवं विशद विवेचन प्रस्तुत करता है। जैन धर्म और जैन दर्शन अथवा जैन आचार और जैन विचार दोनों में अहिंसा का पालन अनिवार्यतः निदिष्ट है। ऐसी अहिंसा भी त्याज्य कही गई है, जो कायरता को उत्पन्न करती है तथा जो हिंसा तो नहीं कर रहा, किन्तु हिंसा का निरन्तर चिंतन कर रहा है उसे जैनधर्म में महाहिंसक कहा गया है। युद्ध में रत योद्धा और खेत को जोतने वाला कृषक राष्ट्ररक्षा और आत्मरक्षा के लिए विपुल हिंसा करते हुए भी अहिंसक माने गये हैं क्योंकि उनका ध्येय हिंसा करने का नहीं है, मात्र राष्ट्र समाज और आत्मरक्षा का है। एक मछुआ सुबह से शाम तक जाल डाले नदी के किनारे बैठा रहता है किन्तु उसके जाल में संयोग से एक भी मछली नहीं फँसती, फिर भी उसका चिन्तर हर समय हिंसा का रखने से उसे महाहिंसक कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि अहिंसा धर्म होते हुए भी उसे विचारगत होने से दर्शन भी माना गया है। तात्पर्य यह है कि आचारगत होने पर वह धर्म है और विचारगत होने पर वह दर्शन है। इसी से कई लेखकों ने ‘अहिंसादर्शन’ जैसे नामों से ग्रन्थ लिखे हैं। वास्तव में पहले अहिंसा विचार में आती है और पश्चात् वह इस क्रिया रूप परिणत होती है। यही बात हिंसा में है। वह भी पहले विचार में आती है, तत्पश्चात् क्रिया में उभरती है। इसी कारण अहिंसा को ‘परमब्रह्म’ कहकर उसे सर्वोच्च स्थान दिया गया है तथा हिंसा को निंद्य बताया गया है। आज म प शाही ग्राहक कि इस तरह जैनधर्म और जैनदर्शन दोनों का उद्देश्य तत्त्वज्ञान के सिवाय एक और है। वह है जीव को ‘शाश्वत सुखी बनाना’। उसका उपाय है संसार के बन्धनों और स्वयं १. “सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव - समन्तभद्र युक्त्यनु. का. ६१। क वि शिकि २. क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः परि मोमाज प्राद काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । का पालन कर दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि।। ३. आशाधर सागारथर्मामृत। - नित्यमंगल कामना। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग उपार्जित कर्मबन्धनों से छुटकारा पाना। यह व्यक्ति के पुरुषार्थ एवं विवेक पर निर्भर है। सबसे बड़ा बंधन है अपने राग, द्वेष, मोहि, अहंकार, छल, कपट, लोभ आदि आत्मविकार और उनका बाह्य कारण है पुद्गल कर्म जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ भेदों में विभक्त है। आत्मविकारों और ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों को दूर करने का साधन सम्यक्दर्शन (समीचीन श्रद्धा) सम्यक्ज्ञान (तत्त्व ज्ञान) और सम्यक् आचरण इन तीनों की समग्रता एवं सम्प्राप्ति है, जो पुरुषार्थ एवं विवेक से संभव है।
जैन दर्शन के प्रमुख अंग
१. द्रव्य-मीमांसा २. तत्त्व-मीमांसा ३. पदार्थ-मीमांसा ४. पंचास्तिकाय-मीमांसा ५. अनेकान्त- विमर्श ६. स्याद्वाद विमर्श ७. सप्तभंगी विमर्श
१. द्रव्य-मीमांसा
ज्ञातव्य है कि जहाँ वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा सांख्य और बौद्ध दर्शनों में क्रमशः तत्त्व और आर्यसत्यों का कथन किया गया है, वेदान्त दर्शन में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और चार्वाक दर्शन में भूततत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैनदर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है। जानकी मि जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना जरूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। Tha तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन है उन्हें तत्त्व कहा गया है। समान AM १. त्रैकाल्यं द्रव्यषटकं नवपदसहितं जीवषटकाय - लेश्या:. पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान-चारित्रभेदाः। इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमर्हभिरीशैः प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः।। - स्तवनसंकलन। (अ) अष्टपाहुड, दंसणपाहुड, गा. १६।। जैनदर्शन हैं _ भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि ‘अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थः’ मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अतः उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। का अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो ‘अस्ति’ और ‘काय’ दोनों है। ‘अस्ति’ का अर्थ ‘है’ है और ‘काय’ का अर्थ ‘बहुप्रदेशी’ है अर्थात् जो द्रव्य है’ होकर कायवाले - बहुप्रदेशी हैं, वे ‘अस्तिकाय’ हैं।’ ऐसे पाँच ही द्रव्य हैं- १. पुद्गल, २. धर्म, ३. अधर्म, ४. आकाश और ५. जीव, ६. कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है। . ___ इस तरह जैनदर्शन में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ और अस्तिकाय के रूप में वस्तु-व्यवस्था का निर्देश है। आगे हम इन्हीं का विशेष कथन करते हैं। (अ) द्रव्य का स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द और गृद्धपिच्छर ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत् है वह द्रव्य है और सत् वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। शिका क इससे स्पष्ट है कि स्वर्णघट घट-मुकुट पर्यायों (अवस्थाओं) की अपेक्षा विनाश और उत्पाद शील है तथा दोनों पर्यायों में विद्यमान रहने से ध्रुव है। इस प्रकार वह त्रिलक्षण-(उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त) होने से सत् है और सत् ही द्रव्य (वस्तु) का लक्षण है। इसी तरह प्रत्येक सत् प्रतिसमय परिणमनशील होने से उत्पाद व्यय और ध्रौव्य को लिए हुए हैं। ऐसा कोई सत् नहीं जो न उत्पन्न हो, न विनष्ट हो और न ध्रुव हो। तथा ऐसा भी कोई सत नहीं, जो मात्र उत्पन्न होता हो या मात्र विनष्ट होता हो या मात्र ध्रुव रहता हो। उत्पत्ति के साथ विनाश और स्थिति का, विनाश के साथ उत्पत्ति और स्थिति का तथा स्थिति के साथ उत्पत्ति और विनाश का सदैव अविनाभाव रहता है। इतना ही विशेष है कि १. पंचास्तिकाय, गा. ४-५ द्रव्य सं. गा. २४। २. पंचास्तिकाय, गा. १०। ३. त.सू.५-२६, ३०॥ ४. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। समन्तभद्र, आप्तमी. का ५६ आया जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ६७ पूर्व पर्याय की अपेक्षा विनाश, उत्तर पर्याय की अपेक्षा उत्पाद और द्रव्य (सत्) की अपेक्षा पूर्वोत्तर पर्यायों में विद्यमानता रहती है। अतएव जैन दर्शन में द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों के सुमेल को माना गया है। 5 द्रव्य का दूसरा लक्षण यह है कि जिसमें गुण और पर्याय दोनों पाये जायें-वह द्रव्य है। उदाहरणार्थ एक आम्रफल को लें- वह जब खट्टे रस से मीठे रस रूप या हरे रूप से पीले रूप को प्राप्त करता है तो उसमें रूप-रसार्दिगुण और रूपान्तर -रसान्तर रूप अवस्थाएँ दोनों उपलब्ध होती हैं ‘द्रवन्ति गुणपर्यायान्’ या ‘द्रूयन्ते गुणपर्यायैः’ अर्थात् जो गुण-पर्यायों को प्राप्त करते हैं अथवा उनके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं- उन्हें द्रव्य कहते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय दोनों हों, ऐसा कोई सत् या द्रव्य नहीं, जिसमें गुण और पर्याय न हों। __(आ) द्रव्य के भेद र मूलतः द्रव्य के दो भेद हैं-२ १. जीव और २. अजीब। चेतन को जीव और अचेतन को अजीव द्रव्य कहा गया है। तात्पर्य यह कि जिसमें चेतना पायी जाती है वह जीव द्रव्य है और जिसमें चेतना नहीं है वह अजीवद्रव्य है। चेतना का अर्थ है जिसके द्वारा जाना और देखा जाए और इसलिए उसके दो भेद कहे हैं-१. ज्ञान चेतना और २. दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है-३ ‘साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्’ आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है। इनका विशेष कथन आगे किया जावेगा। अनारमा दाग (5 (इ) जीवद्रव्य और उसके भेद ना जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है -१. संसारी और २. मुक्त। संसारीजीव वे हैं, जो संसार में जन्म-मरण - व्याधि आदि के चक्र में फंसे हुए हैं। ये नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तथा जैसा उनका कर्मविपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं। ये दो तरह के हैं’ -१. त्रस और २. स्थावर। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रियके भेद से त्रसजीव चार १. गुणपर्ययवद् द्रव्यम्’-त. मू. ५-३८ । २. द्रव्यसं. गा.१, त.सू. ५-१, २, ३। ३. सर्वार्थसिद्धि २-६। ४. त.सू. २-१०, पंचास्तिकाय, गा. १०६ । ५. त.सू. २-१२। ६८ म जैनदर्शन प्रकार के हैं। दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं:- १. संज्ञी, २. असंज्ञी। जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हो। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचों के भी तीन भेद हैं-१. जलचर (जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि।) २. थलचर (जमीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि) और ३. नभचर (आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी)। जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय (स्पर्श बोध कराने वाली इंद्रिय) पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं। ये पांच प्रकार के होते है। -१. पृथ्वी-कायिक, २. जलकायिक, ३. अग्निकायिक, ४. वायुकायिक और ५. वनस्पतिकायिक। इनमें वनस्पतिकायिक और . जलकायिक जीवों में आज विज्ञान ने भी चेतना स्वीकार कर ली है। पृथ्वी और जल के संसर्ग से नाना वनस्पतियों और नाना अनाजों के उत्पन्न होने से पृथ्वी भी जीव हैं। जल डालने से अग्नि बुझ जाती है या उस पर कोई आवरण कर देने से वह बुझ जाती है तथा वायु का आगमन रुक जाने पर प्राणसंधारण संभव नहीं होता। अतः इन्हें भी वैज्ञानिकों को प्रयोग करके देखना चाहिए। उनमें भी सूक्ष्मचेतना पाई जाती है। शादी काला मुक्तजीव वे कहे गए हैं जो संसार के बंधनों और दुःखों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैनदर्शन में ऐसे जीवों को ‘परम-आत्मा’ परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं- १. सकल परमात्मा (आप्त), और २. निकल परमात्मा (सिद्ध)। जिनका कुछ कल (अघातिया कर्म रूप मल) अवशेष है वे सकल परमात्मा (जीवन मुक्त ईश्वर) हैं। जिनका वह कल (अघाति कर्ममल) दूर हो जाता है वे (निः निर्गतः-निष्कान्तः कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते) निकल परमात्मा (सिद्ध परमेष्ठी) है। समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा (का. ४ से ७) में ऐसे परमात्मा की सयुक्तिक सिद्धि की है और कहा है कि जिस विशिष्ट जीव के दोष । और आवरण सर्वथा दूर हो जाते हैं वह परमात्मा हो जाता है। जीव की यह उत्कृष्ट अवस्था उसके त्याग, सहिष्णुता, ज्ञानोपलब्धि, तपस्या आदि से प्राप्त होती है। इस प्रकार जा (ई) अजीवद्रव्य और उसके भेद बिल का नाम किसी मित्र - अ हम पहले कह आए हैं कि चेतना-रहित द्रव्य अजीवद्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे-काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं: १. वही २-१४। २. त.सू. २-११, २४ । ३. तत्त्वार्थसूत्र २-१३, २२। द्रव्यसं. गा. ११। ४. द्रव्यसं., गा. १४, त.सू. १०-१,-२, ३। ५. त.सू. ५-१, २, ४, द्रव्यसं. गा. १५। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ६६ १. पुद्गल, २. धर्म, ३. अधर्म, ४. आकाश और ५. काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं। १.पुद्गल’ - जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। ___ यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं। रूप पांच प्रकार का है-काला, पीला, नील, लाल और सफेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षुःइन्द्रिय से होता है। रस भी पांच तरह का है-खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है। गन्ध दो प्रकार का है-सुगन्ध और दुर्गन्ध । इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है। स्पर्श के आठ भेद हैं-कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यों से नहीं। अतः पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है। किसान का शब्द पौद्गलिक है। उसका श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण होता है। इसे वैशेषिक दर्शन की तरह जैन दर्शनों में आकाश का गुण नहीं माना गया और न सांख्य दर्शन की तरह उसे आकाश की जनक शब्द तन्मात्रारूप कहा गया है, क्योंकि शब्द का प्रतिरोध, कर्ण पूरण, खुले श्रोत्र द्वारा ग्रहण, बन्द श्रोत से अग्रहण आदि होता है। इसके अतिरिक्त शब्द को मशीन द्वारा ग्रहण करके उसके केसैट आदि भी तैयार किये जाते हैं और पुनः पुनः उन्हें सुना जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि शब्द पुद्गल है। बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, विविध आकार, छाया, धूप अन्धेरा, चांदनी, भेद (टुकड़ा) - ये सब पुद्गल की ही अवस्थाएं हैं। जैनदर्शन में पुद्गल द्रव्य का बहुत सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन किया गया है। शब्द रूप परिणत होने वाली भाषा वर्गणा, शरीर आदि रूप होने वाली आहार वर्गणा, शुभाशुभ कर्म रूप अथवा ज्ञानावरणादि कर्म रूप परिणमन करने वाली कार्माणवर्गणा आदि पुद्गल के २३ भेदों का आगम-ग्रन्थों में बड़ा सूक्ष्म वर्णन किया गया है, जो अन्यत्र कम लभ्य १. त.सू. ५-५, द्रव्यसं. गा. १५, १६ । २. द्रव्यसं. गा. १५, त.सू. ५-२३। ३. त.सू. ५-१६; द्रव्यसं. गा. १६ । ४. द्रव्यसं. १६ त.सू. ५-२४। ५. नेमिचन्द्र सि.च. गोम्मटसार, जी.का.। ७० का जैनदर्शन के है। अणुबम, उद्रजन बम, दूरभाष, आकाशवाणी, दूरदर्शन, वायुयान, प्रक्षेपास्त्र आदि इसी पुद्गल द्रव्य का विकास है। २. धर्म-द्रव्य-यह द्रव्य’ गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य ‘तिलेषु तैलम्’ की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं। ३. अधर्म द्रव्य-यह धर्म द्रव्य से विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) में सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिक को ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं। और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं। ४. आकाश-द्रव्य -यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अतः सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है१. लोकाकाश और २. आलोकाकाश। जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश है। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है। यद्यपि यह अमूर्तिक (रूपादिरहित) है इसलिए यह इन्द्रियग्राह्य नहीं है। तथापि आगम और अनुमान से उसका अस्तित्व सिद्ध है। ५. कालद्रव्य -यह द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन, मामा REE १. द्रव्य सं. गा. १७. त.स. १-१७. पंचास्ति. १५ २. द्रव्यसंग्रह गा. १८, त.सू. ५-१७ पंचास्ति गा. ८६ । ३. पंचास्ति, गा. ८८, ८६, द्रव्यसं. गा. १७, १८॥ ४. द्रव्यं सं. गा. १६, त.सू. ५-१८, पंचास्ति. गा. ६०। ५. पंचास्ति गा. ६१, द्रव्यसं. गा. २०। ६. पंचास्ति गा. १००, द्रव्य सं. गा. २१, २२। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ७१ ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है-१. निश्चय काल और २. व्यवहारकाल। जो द्रव्यों की वर्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है। तात्पर्य यह कि जिसकी सहायता से द्रव्यों में वर्तना (अस्तित्व) है वह परमार्थ काल है। यह सभी द्रव्यों के अस्तित्वमें उसी प्रकार अप्रेरक निमित्त है जिस प्रकार गति स्थिति और अवगाह में क्रमशः धर्म, अधर्म और आकाश अप्रेरक निमित्त है। सब द्रव्यों की वर्तना (अस्तित्व) का उपादान कारण वे स्वयं हैं और निमित्त यह काल है। कालद्रव्य को सभी भारतीय आस्तिक दर्शनों में स्वीकार किया गया है। किन्तु जैन दर्शन में उसे एक-एक अणुरूप और असंख्यात माना गया है।’ कहा गया है कि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक अणु रूप काल द्रव्य अवस्थित हैं और इस तरह काल द्रव्य असंख्यात हैं तथा समग्र लोकाकाश में रहकर व गतिकर जीवों, पुद्गलों, धर्म, अधर्म और आकाश-इन द्रव्यों के परिणमनों में सामान्य निमित्त होते हैं। ये कालाणु रत्नों की राशि के समान एक-दूसरे में प्रवेश न करते हुए अमिलित रूप में अवस्थित हैं। कार किड को 5 दि कि किसाशायी
तत्त्व मीमांसा
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजनभूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। ‘तस्य भावः तत्त्वम्’ अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है। जैनदर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अतः इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है। १. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा। मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर १. द्रव्य संग्रह गाथा २२। २. श्रोतव्यःश्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतवः ।। ३. कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. ४, ५, ६, ७।૭૨ जनदशन अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङक से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन (आत्म विद्या की ओर लगाव) अपूर्व है। ___ इसके लिए तीर्थकरों ने सात तत्त्वों की श्रद्धा, निष्ठा, आस्था पर अधिक बल दिया गया है। उन्होंने कहा है कि प्रत्येक भव्य (योग्यता की अभिव्यक्ति से सम्पन्न) जीव इन सात तत्त्वों का श्रद्धान करके आत्महित के मार्ग में आ सकता है। वह संसार के बंधनों को तोड़कर परमात्मा बन सकता है। उन्होंने उन तत्वों का निर्देश भी किया, जो आज गुरु-परम्परा या शास्त्रपरम्परा से हमें प्राप्त है। आचार्य गृद्धपिच्छ ने’ २ तत्त्वार्थसूत्र में, जो ‘अर्हत् प्रवचन’ के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं-१. जीव, २. अजीव, ३. आस्त्रव, ४. बंध, ५. संवर, ६. निर्जरा और ७. मोक्ष। इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है किला जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। इनके संयोग से आस्रव और बंध तथा उनके वियोग से संवर, निर्जरा और मोक्ष इस प्रकार ये ५ तत्त्व निष्पन्न होते हैं। ये पांचों उनके अशुद्ध और शुद्ध परिणाम हैं। बंध और आस्रव दोनों अशुद्ध भाव हैं। बंध का कारण आस्रव है और ये दोनों संसार के कारण हैं। किन्तु संवर, निर्जरा और मोक्ष शुद्ध भाव है। मोक्ष जीव का पूर्णतया शुद्ध स्वभाव है और संवर एवं निर्जरा उसकी प्राप्ति के साधन (उपाय) हैं। जब तक संवर और निर्जरा का आश्रय नहीं लिया जायेगा तब तक जीव को मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव शाश्वत चिदानंद रूप मुक्ति की प्राप्ति के लिए न केवल मोक्ष त त्त्व के अस्तित्व की श्रद्धा करना और उसे समझना आवश्यक है, अपितु उसके साधक तत्त्व-संवर और निर्जरा तथा बाधक तत्त्व-बंध और आस्रव तत्त्व के अस्तित्व की श्रद्धा भी करना और उन्हें समझना अनिवार्य हैं। इन पांचों भावों के अतिरिक्त उनके आश्रयभूत मूल भाववान् जीव और अजीव (कर्म-पुद्गल) के अस्तित्व की भी श्रद्धा करना और उन्हें समझना उतना ही जरूरी है। अतएव जैन दर्शन में इन सात तत्त्वों का प्रतिपादन विस्तृत किया गया है और उनका उतना ही और वैसा ही महत्त्व है जितना और जैसा महत्त्व बौद्ध दर्शन में चतुरार्यसत्यों का है। १. जीव तत्त्व - यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है - १. गृद्धपिच्छ, त.सू. १-२, ४, द्र.सं. गा. २८। २. गृद्धपिच्छ, त.सू. १-२, ४, द्र.सं. गा. २८। ३. द्र.सं.गा. ३, ४, ५; त.सू. २-८, ६; पंचास्ति, गा. ४०, ४१, ४२। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग १. ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और २. दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग)। विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है। ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं - १. मति, २. श्रुत, ३. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते है। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह १. सम्यक् मतिज्ञान, २. सम्यक् श्रुतवान, ३. सम्यक् अवधिज्ञान, ४. मिथ्यामतिज्ञान, ५. मिथ्याश्रुतज्ञान ६. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), ७. मनःपर्ययज्ञान और ८. केवल ज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक् ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं। _____दर्शन चेतना के चार भेद हैं’-१. चक्षुर्दर्शन, २. अचक्षुर्दर्शन, ३. अवधिदर्शन और ४. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। उल्लेखनीय है कि अल्पज्ञों को दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है और वह क्रमशः होता है। इसका कारण उनके आवरण का क्षयोपशम (उदयाभावी क्षय-अनुदय) क्रमशः होता है, किन्तु सर्वज्ञ को केवलदर्शन और केवलज्ञान दोनों एक साथ होते हैं, उनमें क्रम नहीं होता, क्योंकि उनके दर्शन और ज्ञान के आवरणों (प्रतिबंधकों) का अभाव युगपत् होता है। केवली जिस समय देखता है उसी समय जानता भी है जब जानता है तो उसी समय देखता भी है। श्वेताम्बर परम्परा उनके क्रम को स्वीकार करती है। पर दोनों के आवारक कर्मों (दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों) का अभाव एक साथ मानती है। ऐसी स्थिति में केवलदर्शन और केवलज्ञान दोनों एक साथ ही होंगे। इसके संबंध में जैन दर्शन ग्रंथों में विशेषचर्चा है। सिद्धसेन ने दोनों को अभिन्न सिद्ध किया है। प्रलय हो १. पंचास्ति गा. ४२, स.सि. २-६; द्रव्यसं. गा. ४। २. स.सि. २-६; द्रव्यसं. गा. ४४; नियम. गा. १६०। ३. त.सू., १-३१, ३२॥ जैनदर्शन ज्ञातव्य है कि दर्शनचेतना और ज्ञानचेतना में अन्तर यह है कि दर्शनचेतना वस्तु के नामोल्लेख पूर्वक उसके किसी आकार विशेष को ग्रहण नहीं करती, जबकि ज्ञानचेतना वस्तु के विशेषों को अन्तर्जल्प या बहिर्जल्पपूर्वक ग्रहण करती है। अतएव दर्शन को निराकार अथवा निर्विकल्पक और ज्ञान को साकार अथवा सविकल्पक कहा गया है। पहले आठ ज्ञानों में आरम्भ के तीन ज्ञानों को सम्यक् और मिथ्या दोनों बताया गया है। उसका कारण आधारभेद है। जब वे सम्यग्दृष्टि के होते हैं तब से सम्यक् ज्ञान कहे जाते हैं और जब मिथ्यादृष्टि (यथार्थदृष्टि से शून्य) के होते हैं तो वे मिथ्याज्ञान माने जाते हैं। उदाहरणार्थ उन्मत्त पुरुष को लें। ____ उन्मत्त पुरुष जैसे विकृत मस्तिष्क के कारण भार्या को कभी माता और कभी भार्या कहता या जानता है। अथवा जैसे शराबी उलटा सीधा कहता या जानता है। वही स्थिति इन तीन (मति, श्रुत और अवधि) ज्ञानों की हैं जब ये मिथ्यादृष्टि के होते हैं तो वह मिथ्यात्व के कारण सत्-असत् का भेद न कर इन ज्ञानों से स्वेच्छापूर्वक उपलब्धि करता है। किन्तु जब ये ही ज्ञान सम्यग्दृष्टि के होते हैं तो वह इन ज्ञानों से वस्तु को सही जानता है। तात्पर्य यह कि आधार के भेद से इन तीन ज्ञानों को सम्यक् और मिथ्या दोनों प्रकार का माना गया है। ज्ञातव्य है कि सत्योन्मुखी दृष्टि सम्यग्दर्शन है और असत्योन्मुखी दृष्टि मिथ्यादर्शन। ध्यान रहे मनःपर्यय और केवल- ये दोनों ज्ञान सत्योन्मुखी दृष्टि वाले सम्यग्दृष्टि संयमी योगी के ही होते हैं। अतः ये दोनों ज्ञान सम्यक् ही होते हैं, मिथ्या नहीं। ____यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टिसे तीन प्रकार का है’। अर्थात् इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। जैसा कि हम पहले संकेत कर आये हैं। वे हैं - १. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा, और ३. परमात्मा। जब तक जीव स्व के साथ देहादिक का ममत्व सम्बन्ध रखता है, उनके मिलने और बिछुड़ने पर हर्ष एवं विषाद करता है तथा उन्हीं में आसक्त रहता है तब तक वह बहिरात्मा अथवा मिथ्यादृष्टि कहलाता है। इसी को मूढ़ात्मा कहा गया है। यही बहिरात्मा स्वतः अथवा किसी सम्यग् उपदेष्टा के उपदेशकों को सुनकर स्वको स्व और पर (देहादिक) को पर जान लेता है और पर के संग से अपने को उसी प्रकार दूर रखता है जिस प्रकार कमल जल से भिन्न रहता है, उन देहादिक पर में आसक्त नहीं होता, तो वह अन्तरात्मा कहा जाता है। गीता में सम्भवतः ऐसे ही अन्तरात्मा को ‘स्थितप्रज्ञ’ कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है-१. जघन्य, २. मध्यम और ३. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्व (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं १. कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. ४, ५, ६, ७। २. दौलतराम छह-ढाला ३-४, ५, ६। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में ‘अविरत-सम्यग्दृष्टि’ कहा जाता है। तथा जिसने सम्यक्त्व के साथ आंशिक संयमी जीवन बिताना आरम्भ कर दिया है, घर में रहता है, पर अनासक्त भाव से, हिंसा आदि पांच पापों को जिसने स्थूल रूप से छोड़ दिया है, सदाचार और न्यायपूर्वक सभी (सामाजिक पारिवारिक एवं राष्ट्रीय) कर्तव्यों का पालन करता हुआ मर्यादित जीवन बिताता है, सेवा, व्यापार, उद्योग आदि जीवन वृत्तियों में सन्तोषपूर्वक न्यायनिष्ठा रखता है वह मध्यम अन्तरात्मा है। इसी को श्रावक या उपासक भी कहा गया है। यह अपनी शक्त्यनुसार विषय वासनाओं एवं बाह्य वस्तुओं से विरत होता हुआ वहाँ तक विरत हो जाता है जब वह मात्र कोपीन धारण करने योग्य बन जाता है। वह अपने में सहिष्णुता, प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आदि गुणों को निरन्तर के अभ्यास से प्राप्त करता है। और जब वह अपने को निर्ग्रम योग्य बना लेता है कि वह कोपीन भी छोड़कर दिगम्बर हो जाता है तो वह उत्तम अन्तरात्मा है। इसी को साधु मुनि, ऋषि, अनगार योगी, यति आदि कहा जाता है। मग आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- ‘ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते। यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (निःश्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है। वे अनन्त हैं और उनमें अनन्त मुक्त जीव और मिलने पर भी वे अनन्त ही रहेंगे। उनमें वृद्धि होने पर वह राशि अनन्त ही कही जावेगी। अनन्त में अनन्त जोड़ने, अनन्त घटाने, अनन्त का गुणा या भाग करने पर भी वह राशि अनन्त ही रहेगी। शून्य में शून्य जोड़ने, घटाने गुणा करने या भाग देने पर भी जैसे शून्य ही रहता है। 2 गुणस्थान-उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमो में निरूपित हैं। जिन्हें ‘गुणस्थान’ (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं-१. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. अविरत, ५. देशविरत, ६. सर्वविरत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ६. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्त मोह, १२. क्षीण मोह, १३. सयोग केवली और १४. अयोग केवली। इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान १. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. १४ । २. वही, गा. १३। श जैनदर्शन
F में वह ‘परमात्मा’ संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर ‘सिद्ध’ हो जाता है। मिलन हिं इस तरह जीव का स्थायी एवं अन्तिम पड़ाव यही ‘सिद्ध’ स्थान है जहां उसकी उसकी आध्यात्मिक यात्रा या विकास पूरा हो जाता है। यहाँ हम हिन्दी के सुप्रसिद्ध जैन कवि दौलतराम का एक पद्य उद्धृत कर रहे हैं संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये। अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये।। निज माहिं लोक अलोक-गुण-परजाय प्रतिबिम्बित भये। है व रहि हैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परिणये।। । कार कार 10२. अजीव तत्त्व-यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुतः जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने ‘भेत्तारं कर्मभूभृताम्’ पद के द्वारा ‘कर्मभूभृत्’ कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि, सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं। उनका विशेष कथन बन्धतत्त्व के विवेचन में किया जायेगा। ____३. आस्रव तत्त्व-जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है। १. भावास्रव और २. द्रव्यात्रव। आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्रव के अनेक भेद हैं -१. मिथ्यात्व २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय और ५. योग। इनमें मिथ्यात्व के ५, अविरति के ५, प्रमाद के १५, कषाय के ४ और योग के ३ कुल ३२ भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्रव है। इसके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। १. वही, गा. २६, ३०। २. वही, गा. ३२, ३३। ७७ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ४. बन्ध तत्त्व-आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधे वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं। ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं। वे हैं- १. प्रकृति, २. स्थिति, ३. अनुभाग और ४. प्रदेश। इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाग कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त से होते हैं। मा प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, जैसे-नीम का कडुवा गन्ने का मीठा स्वभाव है वैसे ही ज्ञानावरण रूप हुए पुद्गल कर्मों का ज्ञान को रोकना, दर्शनावरण रूप हुए कर्मपुद्गलों का दर्शन को रोकना, वेदनीय का सुख-दुःख की वेदना कैराना, मोहनीय का आत्मस्वरूप को विकृत कर पर में इष्टानिष्ट की बुद्धि पैदा कराना, आयु का मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच (पशु) पर्याय में नियतकाल तक स्थित रखना, नामकर्म का अनेक अवस्थाओं आकारों आदि में शरीर को उत्पन्न करना, गोत्र का ऊँच-नीचपना पैदा करना और अन्तरायकर्म का स्वभाव दानादिक में बाधा पहुंचाता है। यही प्रकृतिबन्ध है। ____ जितने कर्मप्रदेश जिनकी संख्या अनंत होती है, एक साथ आत्मा में आते और आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप में अवस्थित होते हैं, यह प्रदेश बन्ध है। वे कर्म प्रदेश जितने काल (मर्यादा) तक ठहरते हैं, वह स्थितिबंध है। वे कर्मप्रदेश मन्द, तीव्र भाव से अपना फल देते हैं, यह अनभाग बन्ध है। ये चारों बंध आत्मा को तब तक बांधे रहते हैं जब तक वह तीव्र और महापुरुषार्थ उस बंधन को तोड़ने के लिए नहीं करता। ५. संवरतत्त्व-आस्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।’ कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे - सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कों को आत्मा में आने नहीं देते। यदि ६. निर्जरा तत्त्व-ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है। जो कर्म अपना फल देकर चला जाता है वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा १. गृद्धपिच्छ, स.सू. ६-१; द्रव्यसं. गा. ३४, ३५। २. द्रव्य सं. गा. ३६; त.सू. ६-३, १६, २०॥ ७८ में आया जैनदर्शनमा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात् उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है। कई दिर ७. मोक्ष तत्त्व-यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।’ यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा ‘सिद्ध’ हो जाता है। मामला था ये सात तत्त्व हैं जो मुमुक्षु के लिए सबसे पहले श्रद्धातव्य हैं और उसके बाद प्रमाण और नयों से विज्ञातव्य है।
पदार्थ मीमांसा
कि उक्त सात तत्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं। इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा १०८) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यकूदर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायुः, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायुः, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है। ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (४७) पाप-प्रकृतियां ही हैं। असत.स. १०-२.३. द्रव्य सं. गा. ३७।गाजी मामा का जाना मानव २. जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ।। - पंचास्ति.,गा. १०८। ३. द्रव्य सं. गा. २८ । ‘इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्।। ४. त.सू.१-४। ५. त.सू. ८-२५, २६। ७६ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग यहाँ एक और उल्लेखनीय बात है। वह यह कि कुन्दकुन्द के नौ पदार्थों में जीव और अजीव के बाद पुण्य और पाप तथा उनके पश्चात आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इस प्रकार क्रम दिया गया है जबकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में जीव, अजीव, आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष यह क्रम रखा है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने क्रम तो तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार रखा है और पुण्य और पाप का कथन भी उन्हीं के अनुसार किया है। किन्तु तत्त्वों की अपेक्षा पदार्थों का उनका निरूपण कुन्दकुन्द की दृष्टि का आभारी है। इसे अपनी-अपनी विवेचना शैली अथवा कथन करने की विवक्षा समझना चाहिए। किसी तत्त्व या पदार्थ को आगे-पीछे रखने में कोई सैद्धान्तिक अन्तर नहीं आता। यह तथ्य है कि जिन्होंने तत्त्वों का कथन किया है उन्होंने पदार्थों का नहीं और जिन्होंने पदार्थों का प्रतिपादन किया उन्होंने अलग से तत्त्वों का निरूपण नहीं किया। जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं।
पंचास्तिकाय-मीमांसा
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं क्योंकि ये हैं’ इससे इन्हें ‘अस्ति’ ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये ‘काय’ हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य ‘अस्ति’ और ‘काय’ दोनों होने से ‘अस्तिकाय’ कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य ‘अस्ति’ सत्तावान होते हुए भी ‘काय’ (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें ‘अस्तिकाय’ कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय। ____काल द्रव्य और अन्य द्रव्यों में इसी वैलक्षण्य को दिखाने के लिए पंचास्तिकायों का द्रव्यों से पृथक् प्रतिपादन किया गया है। कालद्रव्य को असंख्यात अणुरूप और उन्हें लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर अवस्थित क्यों माना गया, इस संबंध में हमने अन्यत्र विचार किया है। जैन दार्शनिकों में ‘अग्रणी’ आचार्य कुन्दकुन्द ने इन पंचास्तिकायों का निरूपण एक स्वतंत्र ‘पंचत्थिसंगहसुत्त’ (पंचास्तिकाय सूत्र) ग्रन्थ द्वारा किया है। इससे उसका महत्त्व स्पष्ट है। ਕ ਖ ਗ ਦਾ ਗੋਤ १. द्रव्य सं. गा. २३, २४, २। २. वही, गा. २२ का हिन्दी रूपान्तर पृ. १०५, १०६ वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी। हा मन जैनदर्शन की
अनेकान्त-विमर्श
‘अनेकान्त’ जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आ. सिद्धसेन ने कहा है कि लोगों के उस अद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते हैं कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण है और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षुः (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलतः उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। ___ वस्तु अनेकान्त-स्वरूप है यह बतलाने के लिए सिद्धसेन अपनी चतुर्थ द्वात्रिंशिका में एक उदाहरण के माध्यम से कहते हैं कि जिस प्रकार समस्त नदियाँ समुद्र में सम्मिलित हैं उसी तरह समस्त एकान्त दृष्टियां अनेकान्त में मिली हैं। परन्तु जैसे पृथक्-पृथक् नदियों में समुद्र नहीं देखा जाता वैसे ही पृथक्-पृथक् एकान्तों में अनेकान्त उपलब्ध नहीं होता। जहाँ एक एकान्त दूसरे एकान्त का निषेध एवं तिरस्कार करता है वहाँ अनेकान्त सब एकान्तों को गले लगाता-अपनाता है- उनका निषेध या तिरस्कार नहीं करता और इस तरह उनके अस्तित्व को स्थिर रखता है। यह अनेकान्त की सबसे बड़ी विशेषता है। यह अनेकान्त उन एकान्तों का समूह है, जो अमृत स्वादु हैं, भगवान् है, जिनवचन है, सापेक्ष १. जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ। चा राजाराम तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स।। - सिद्धसेन। जयमक नि । आज परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध - सिन्धुरविधानम्। सकल-नय-विलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। - अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लो. १। एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम् । एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते।। - समन्तभद्र, युक्त्यनुशासन कारिका ५१ ४. उदधाविव सर्वसिन्धव, समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः। न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरि तस्विवो दधिः।। - द्वात्रिंशिका ४-५। निक १ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग है और समताधारकों के लिए प्रशमसुख एवं सम्यग्ज्ञान का जनक है वह सबका कल्याण करे। यह अनेकान्त की कितनी उच्च दृष्टि है, जो सबके कल्याण का उद्घोष करता है, इससे उसकी उदारता और त्याग स्पष्ट प्रकट होता है।
अनेकान्त का स्वरूप
विचारणीय है कि वह अनेकान्त क्या है ? अनेकान्त पद में दो शब्द हैं जिनसे वह बना है। एक है ‘अनेक’ और दूसरा है ‘अन्त’। ‘अनेक’ का अर्थ है नाना और ‘अन्त’ का अर्थ है धर्म। जिसमें नाना धर्म हों या जो नाना धर्मात्मक हो वह अनेकान्त है। यद्यपि ‘अन्त’ शब्द के समाप्ति, विनाश, छोर, धर्म आदि अनेक अर्थ हैं, कि यहाँ ‘धर्म’ अर्थ विवक्षित है। विश्व की समस्त वस्तुएँ नाना धर्मों को लिए हुए हैं, इसलिए सब अनेकान्त हैं। वस्तु की यह अनेकान्त रूपता उसमें स्वयं है-आरोपित या काल्पनिक या अविद्या या माया कल्पित नहीं है। एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा एकान्त स्वरूप हो। यह लोक, जो हमारे व आपके प्रत्यक्ष गोचर है, चर-अचर अथवा चेतन-अचेतन जैसे परस्पर-विरुद्ध दो द्रव्यों का समुदाय है। वह सत् सामान्य की अपेक्षा एक होता हुआ भी परस्पर विरोधी दो द्रव्यों की अपेक्षा, जो यथार्थ है, अनेक भी है और इस तरह वह अनेकान्त बना बैठा है। चेतन और अचेतन ये दोनों द्रव्य भी स्वयं अनेकान्त स्वरूप हैं। चेतनद्रव्य में हर्ष, विषाद, सुख, दुःख इन क्रमवर्ती परिणामों और चेतना आदि सहवर्ती गुणों की अपेक्षा नानात्व और स्वयं अपनी अपेक्षा एकत्व दोनों धर्म विद्यमान हैं। - इसी तरह अजीव द्रव्य भी है। मान लीजिए कि हम एक भवन में बैठे हुए हैं। वह भवन क्या एक है ? नहीं, वह भी एक और अनेक दोनों रूप हैं। भवन-सामान्य की अपेक्षा वह एक है, लम्बाई-चौड़ाई में स्थित दो-दो दीवालों की अपेक्षा वह अनेक भी तो हैं और इस तरह वह भी अनेकान्त को अपने में समाये हुए है। दूर न जाइए, जिस पानी को पीकर हम अपने प्राणों की रक्षा करते हैं इससे वह अमृत कहा जाता है और वही पानी तैरते समय गुटका लग जाने पर घातक भी है। अतः वह विषसंज्ञा को भी प्राप्त है। कौन नहीं जानता कि अग्नि कितनी उपकारक है। वह हमारे भोजन बनाने आदि में सहायक होती है और वही अग्नि किसी मकान में लग जाने पर कितनी संहारक बन जाती है। इस तरह उसमें पाचकत्व, दाहकत्व जैसे परस्पर विरोधी अनेक धर्मों को हम देखते ही हैं। आहे जो भोजन भूखे का प्राणरक्षक होता है वही भोजन अजीर्ण वाले अथवा टायफाइड वाले रुग्ण व्यक्ति के लिए विष है। मकान, किताब, कपड़ा, सभा, संघ, समिति, परिषद, १. भई मिच्छादसण-समूह मइयस्स अभिसारस्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्ग सुहाहिगम्मस्स।। -सिद्धसेन, सन्मतिसूत्र, तृतीय काण्ड८२ जैनदर्शन देश आदि ये सब अनेकान्त ही तो हैं। अकेली ईंटों चूने, गारे का नाम मकान नहीं है। उनके मिलाप का नाम ‘मकान’ है। एक-एक पन्ना किताब नहीं है, नाना पन्नों के समूह का नाम किताब है। आतान या वितान रूप एक-एक सूत का नाम कपड़ा नहीं है, ताने-बाने रूप अनेक सूतों के संयोग का नाम कपड़ा है। एक व्यक्ति को कोई सभा, संघ, समिति, परिषद नहीं कहता, व्यक्तियों के समुदाय को ही सभा, संघ, समिति आदि कहा जाता हैं। एक-एक व्यक्ति मिलकर जाति और अनेक जातियाँ मिलकर देश बनते हैं। इस भाग या उस भाग का नाम दीवाल नहीं है, दोनों मिलकर दीवाल हैं। इस तट या उस तट का नाम नदी नहीं है, परस्पर विरुद्ध दोनों तटों का नाम नदी है। जो एक व्यक्ति है वह किसी का मित्र है, किसी का अमित्र है, किसी का पिता है, किसी का पुत्र है, किसी का मामा है, वि का भानजा है आदि अनेक संबंधों से बंधा हुआ है। इससे वह एक होकर भी अनेक है। इस तरह वह एक अनेक होता हुआ अनेकान्त बना हुआ है। यह देवदत्त को बुलाने पर देवदत्त आता है, यज्ञदत्त आदि नहीं। अतएव देवदत्त अपनी अपेक्षा से है और यज्ञदत्तादि की अपेक्षा से नहीं है और इस तरह वह भी परस्परविरुद्ध अस्तित्व-नास्तित्व धर्मों को अपने में समाये हुए है। उसमें केवल अस्तित्व धर्म माना जाये, नास्तित्व धर्म न माना जाये तो जैसे देवदत्त को बुलाने पर वह आता है, उसी प्रकार यज्ञदत्तादि को भी आ जाना चाहिए, क्योंकि उनका उसमें निषेध नहीं है। किन्तु जब उसमें उनकी अपेक्षा नास्तित्व धर्म स्वीकार किया जाता है तो यज्ञदत्तादि का देवदत्त में अभाव होने से वे नहीं आते। अतः देवदत्त स्वद्रव्य, क्षेत्र-काल, भाव की अपेक्षा अस्तित्वधर्म वाला है। और यज्ञदत्तादि परचतुष्टय की अपेक्षा कथाचित् नास्तित्व धर्मवाला भी है। इस प्रकार वह भी अनेकान्त रूप हैं। सिट जहाजा आह एक शिक्षक ने बोर्ड पर लकीर खींचकर छात्रों से कहा कि इस लकीर को छोटी करो, पर उसे मिटाना नहीं। सब छात्र असमंजस में पड़ गए कि बिना मिटाये वह छोटी कैसे हो । सकती है। एक चतुर छात्र उठा और शिक्षक के हाथ से चाक लेकर उस बोर्ड के पास पहुँचा और धीरे से उस लकीर के नीचे बड़ी लकीर खींच दी, वह लकीर छोटी हो गई, सब छात्र आश्चर्यचकित रह गए। अब शिक्षक ने सबसे कहा कि इसे बड़ी बनाओ पर उसमें वृद्धि नहीं करना, फिर लड़के असमंजस में पड़ गए और सोचने लगे कि उस लकीर में वृद्धि किये बिना वह बड़ी कैसे हो सकती है। पुनः वही चतुर छात्र बोर्ड के पास गया और उस लकीर को बढ़ाये बिना उसके नीचे उसने छोटी लकीर खींच दी। अब वह लकीर सबको बड़ी दिखाई देने लगी। इस उदाहरण से इतना ही बतलाना इष्ट है कि उस लकीर में लघुत्व और दीर्घत्व ये परस्पर विरुद्ध दोनों धर्म स्वरूपतः विद्यमान हैं और उसके ऊपर तथा नीचे खींची गई लकीरों से उसमें छोटेपन और बड़ेपन का अपेक्षा से व्यवहार हुआ। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरुद्ध दो -दो धर्म विद्यमान हैं। यही अनेकान्त हैं। एक उदाहरण और दिया जाता है। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग किसी स्थान पर चार जन्मांध विद्यमान थे। वहाँ से एक हाथी के निकलने की उन्होंने आवाज सुनी और चारों के चारों दौड़कर हाथी से लिपट गये। किसी ने उसके पैर पकड़ लिये, किसी ने उसकी पूँछ पकड़ी, किसी ने उसकी छाती पकड़ी और किसी ने उसकी सूंढ हाथों में ले ली और सबके सब चिल्लाने लगे। जिसने पैर पकड़े थे, उसने कहा कि हाथी खंभे जैसा होता है। दूसरा बोला, जिसने उसकी पूंछ पकड़ी थी कि हाथी मूसल जैसा होता है। तीसरे ने कहा जिसने उसकी छाती पकड़ी थी कि हाथी दीवाल सरीखा होता है और चौथा बोला, जिसने उसकी सूंड पकड़ी थी कि हाथी तो रस्सा जैसा होता है। तुम सबका कहना गलत है। इस प्रकार चारों जन्मांध अपनी-अपनी बात पर दृढ़ रहकर परस्पर विवाद करने लगे। कोई दृष्टि संपन्न समझदार व्यक्ति अकस्मात् वहाँ आ पहुँचा। उसने सबकी बात को सुना। उस दृष्टि संपन्न व्यक्ति ने उन्हें समझाया और कहा कि आप सबका कहना सही है। सबको मिलादो, तो हाथी का स्वरूप बन जायेगा। आप लोग उसके एक-एक अंग को पूरा हाथी मान रहे हैं, जो यथार्थ नहीं है। सब अंगों का समुच्चय ही हाथी है। सभी जन्मांधों ने अपनी गल्ती को स्वीकार किया तथा उस दृष्टि सम्पन्न महानुभाव को धन्यवाद दिया। लिम
- अनेकान्त वस्तुतः वह विशाल समुद्र है, जिसमें अनन्त बिन्दुएँ समायी हुई हैं। परस्पर-विरुद्ध दो धर्मों के अनन्त युगल उसमें विद्यमान हैं, जिनके आश्रय से उसमें अनन्त सप्तभंगियाँ भी समाविष्ट है। सत्व, असत्त्व, उभय, अवक्तव्यत्व, सत्त्वावक्तव्यत्व, असत्त्वावक्तव्यत्व, और सत्त्वा सत्त्वावक्तव्यत्व- ये सात धर्म वस्तु में स्वभावतः हैं। इसी प्रकार एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्म युगलों से होने वाली अनन्त सप्तभंगियाँ वस्तु में योजित होती हैं। अनेकान्त में विरोध वैयधिकरण्य, संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और अभाव-ये वादियों द्वारा उद्भावित किये जाने वाले आठ दोष भी नहीं हैं। सभी धर्म अपनी-अपनी अपेक्षाओं (विवक्षाओं) से हैं, अतः विरोधादि के होने की सम्भावना नहीं है। जिस अपेक्षा से वस्तु में सत्त्वादि माने जाते हैं उसी अपेक्षा से असत्त्वादि मानने पर विरोधादि हो सकते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है। स्वचतुष्टय से सत्त्वादि और परचतुष्टय से असत्त्वादि माने गये हैं। म यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि जब जैनदर्शन में ‘सर्व क्षणिकम्’ इस बौद्ध मान्यता की तरह ‘सर्व अनेकान्तात्मकम्’ की मान्यता है, तो अनेकान्त भी स्वयं एक वस्तु है, उसे भी अनेकान्त रूप होना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि अनेकान्त भी कथंचित् अनेकान्तरूप है। प्रमाण का विषय होने से वह अनेकान्त है तथा नय का विषय होने से १. अकलंक, तत्त्वार्थ वार्तिक १-६-६। मामा मामाका ८४ र जैनदर्शन वह सापेक्ष एकान्त भी है और इस प्रकार अनेकान्त अनेकान्त और एकान्त दोनों रूप होने से अनेकान्त भी है। प्रसिद्ध जैन दार्शनिक समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है- शिम जिला अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः। साविकट निकाला अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात्।। स्वयम्भूस्तोत्र, श्लो. १०६ । मा अनेकान्त के भेद-यह अनेकान्त दो प्रकार का है-१. सम्यगनेकान्त और २. मिथ्या अनेकान्त। परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है’ निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है-१. सम्यक् एकान्त और २. मिथ्या एकान्त । सापेक्ष एकान्त सम्यक् एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्राहक है। अतः वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। जयप आज अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं। १. सहानेकान्त और २. क्रमानेकान्त। एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक वादीभसिंह हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं-सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेत स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। और तो क्या, सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है। वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में ‘द्रव्यम् द्रव्यम्’ इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और ‘द्रव्यम् न गुणः, न कर्म’ आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध १. समन्तभद्र, आप्तमी., का. १०७। कई दिन त फलाही २. विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ५-३८-२। ३. एकस्य हेतोः साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्वा’-त.वा. १-६-१३। ४. ‘केचित्तावदाहुः-सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तषां प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोधः। के ८५ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग सामान्य-विशेष रूप माना गया है। चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है। अतः अनेकान्त तो वस्तु है, उसे कैसे नकारा जा सकता है।
स्याद्वाद-विमर्श
पूर्वोक्त अनेकान्त में कौन धर्म किस अपेक्षा से है, इसे बताने वाला अथवा उनकी व्यवस्था करने वाला स्याद्बाद है। स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है-उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि ‘सकृदुच्चरित शब्दः एकमेवार्थं गमयति’ इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। वचन की ऐसी ही सामर्थ्य है। किन्तु ‘स्यात्’ पूर्वक बोला गया वचन अपने अर्थ को कहता हुआ उसमें विद्यमान अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता, उनकी मौन स्वीकृति करता है। हाँ, जिसे वह कहता है वह प्रधान हो जाता है और शेष गौण। आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि जो विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है और अविवक्षित गौण। इस प्रकार स्याद्वाद वचन में अनेकान्त सुव्यवस्थित रहता है। पर जमकर मार लिटर
स्याद्वाद : जैनदर्शन का एक मौलिक सिद्धान्त
___ स्याद्वाद जैन दर्शन का एक मौलिक एवं विशिष्ट सिद्धान्त है। ‘स्याद्वाद’ पद ‘स्यात्’ और ‘वाद’ इन दो शब्दों से बना है। प्रकृत में ‘स्यात्’ शब्द अव्यय-निपात है, क्रिया या प्रश्नादिरूप नहीं है। इसका अर्थ कथंचित्, किंचित्, किसी अपेक्षा कोई एक दृष्टि, कोई एक धर्म की विवक्षा, कोई एक ओर है और ‘वाद’ शब्द का अर्थ है मान्यता, कथन अथवा वचन। जो स्यात् (कथंचित्) का कथन करने वाला अथवा प्रतिपादित करने वाला है, वह स्याद्वाद है। तात्पर्य यह है कि जो विरोधी धर्म का निराकरण न करता हुआ अपेक्षा से ५. अपरे मन्यन्ते-अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्ध्यभिधानलक्षणः सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेषः सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. १-६-१४। २. समन्तभद्र, आप्तमी. का १०४ ८६ जैनदर्शन विवक्षित का प्रतिपादन करता है वह स्याद्वाद है। कथंचित् वाद, किंचित्वाद, अपेक्षावाद आदि नामों से भी उसका बोध किया जा सकता है। वक्ता अपने अभिप्राय को यदि एक ही वस्तुधर्म को लिये हुए प्रकट करता है तो उससे सही निर्णय नहीं हो सकता और यदि ‘स्यात्’ पूर्वक वह अपने अभिप्राय को प्रकट करता है तो वह वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन करता है क्योंकि वस्तु में कोई भी धर्म ऐकान्तिक नहीं है। सत्त्व-असत्व का-नित्यत्व-अनित्यत्व का, एकत्व-अनेकत्व का और वक्तव्यत्व-अवक्तव्यत्व का नियम से अविनाभावी है। वे एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहते। हाँ, एक की विवक्षा होने पर उसकी प्रधानता और दूसरे की अविवक्षा होने पर उसकी गौणता हो जायेगी, पर वे धर्म उसमें रहेंगे सभी, क्योंकि वस्तु एक धर्मा नहीं है, अनंत धर्मा है। समन्तभद्र ने’ ने इसे बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है। अतः प्रत्येक वक्ता जब कोई बात कहता है तो वह स्याद्वाद की भाषा में कहता है। भले ही वह अपने वचनों के साथ ‘स्यात्’ शब्द बोले या न बोले। जाद
स्याद्वाद का सार्वत्रिक उपयोग
लौकिक या पारलौकिक कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिसमें स्याद्वाद का उपयोग न किया जाता हो। दैनिक जीवन के व्यवहार से संबद्ध टोपी, कुर्ता, धोती आदि के वाचक जितने शब्द या संकेत किये जाते हैं वे उनका विधान करते हुए इतर का भी निषेध करते हैं। ‘टोपी लाओ’, ‘दही लाओ’ आदि कहने पर लाने वाला टोपी या दही लाता है, अन्य चीज नहीं। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि वाक्य चाहे विधिवाचक हो और चाहे निषेधवाचक। वे अपने विरोधी का भी बोध कराते हैं। सभी वचन विवक्षित अभिप्रायों को प्रकट करने के साथ ही अविवक्षित अभिप्रायों की भी गौण रूप से सूचना करते हैं। यह बात दूसरी है कि उन्हें कहते या सुनते समय उन गौण अभिप्रायों की ओर वक्ता या श्रोता का ध्यान न जाये, क्योंकि उनका प्रयोजन विवक्षित अभिप्राय से संपन्न हो जाता है, पर यह बात नहीं कि वे अविवक्षित अभिप्राय उसके साथ न रहते हों। स्याद्वाद वचन इसी ऐकान्तिकता का निषेध कर उसके वाच्य को अनेकान्त रूप बतलाता है। इस प्रकार वाचक और वाच्य दोनों अनेकान्त स्वरूप हैं। इसी प्रकार ज्ञान और ज्ञेय ये भी अनेकान्त रूप हैं। ज्ञान जानता है इसलिए ज्ञापक है और स्वयं जाना जाता है इससे वह ज्ञेय है और इस तरह ज्ञान और ज्ञेय दोनों रूप होने से ज्ञान अनेकान्तमय है। तथा ज्ञेय जाना जाता है इससे वह ज्ञेय है और चेतना धार आत्मरूप होने से वह ज्ञान भी है और इस तरह ज्ञेय भी ज्ञेय और ज्ञान दोनों होने से अनेकान्त बना बैठा है। हेमचन्द्र के १. समन्तभद्र, स्वयम्भू का. १०४, १०५ । २. समन्तभद्र आप्तमी. का. १०६, ११०, १११, ११२, ११३। । ६७ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग शब्दों में ‘आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वाद मुद्रानतिभेदि वस्तु।’ दीपक से लेकर आकाश पर्यंत सभी वस्तुएँ एक से स्वभाववाली हैं और सब स्याद्वादमुद्रा से अंकित हैं उसका उल्लंघन करने वाली एक भी वस्तु नहीं है। जान पिस पानी
स्याद्वाद और अनेकान्तवाद
कुछ विद्वान् स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों को एक समझते हैं। पर ऐसा नहीं है। इन दोनों में उसी तरह का अन्तर है जिस तरह का प्रमाणवाद और प्रमेयवाद या ज्ञानवाद और ज्ञेयवाद में है। वस्तुतः स्याद्वाद व्यवस्थापक है और अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य है अथवा स्याद्वाद वाचक (प्रतिपादक-अभिधायक) है और अनेकान्तवाद वाच्य (प्रतिपाद्य-अभिधेय) है। दोनों स्वतंत्र हैं। एक वचन है तो दूसरा उसके द्वारा कहा जाने वाला वाच्य है। दोनों में वाचक-वाच्य, अभिधायक-अभिधेय अथवा प्रतिपादक-प्रतिपाद्य संबंध है। जैसे- शब्द और अर्थ, प्रमाण और प्रमेय अथवा ज्ञान और ज्ञेय में संबंध है। इस तरह दोनों में बड़ा अंतर है, दोनों ही भिन्नार्थक हैं। _ ‘अनेकान्तवाद’ पद में तीन शब्द हैं- अनेक, अन्त, वाद। अनेक का अर्थ नाना है और अन्त का अर्थ उसके नानार्थक होते हुए भी प्रकृत में धर्म विवक्षित है और वाद का अर्थ मान्यता अथवा कथन है। पूरे पद का अर्थ हुआ नानाधर्मात्मक वस्तु की मान्यता अथवा उसका कथन। इस तरह नाना धर्मात्मक वस्तु का नाम अनेकान्त और उसके स्वीकार का नाम अनेकान्तवाद है। उसमें कौन धर्म किस अपेक्षा से व्यवस्थित है, इसकी व्यवस्था स्याद्वाद करता है। एक ही धर्म को या एक धर्मात्मक ही वस्तु को स्वीकार करना एकान्तवाद है। इसके स्वीकार में जो सबसे बड़ा दोष है, वह यह है कि वस्तु का केवल एक-एक ही धर्म मानने पर उसके दूसरे समग्र धर्मों का तिरस्कार हो जाता है और उनके तिरस्कृत होने पर उनका इष्ट वह धर्म भी नहीं रह सकता, क्योंकि उसका उनके साथ अविनाभाव संबंध है। किन्तु स्याद्वाद के स्वीकार में विवक्षित धर्म मुख्य और अविवक्षित शेष पर्प गौण होते हैं- उनका तिरस्कार या लोप नहीं होता। का अतएव यदि अविकल पूरी वस्तु को देखना चाहते हैं तो उन सभी एकान्तवादों को स्वीकार करना चाहिए, जिनके सापेक्ष समुच्चय को अनेकान्त स्वीकार करने से वस्तु की व्यवस्था बनती है, जिसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है। अतः अनेकान्तरूप वस्तु की मान्यता अनेकान्तवाद और उस अनेकांत का ‘स्यात्’ (कथंचित्) के वचन द्वारा निरूपण करना स्याद्वाद है। यही अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में अन्तर है। इस संबंध में बीसवीं शती के पं. बलदेव उपाध्याय, राहुल सांकृत्यायन जैसे कुछ - दार्शनिक विद्वानों को भी भ्रम हुआ और उन्होंने स्याद्वाद को संजयबेलट्ठिपुत्त का १. समन्तभद्र आप्तमी का. १०७, १०८। जानकात लिकि ८८ जैनदर्शन अनिश्चिततावाद बतलाने की कोशिश की है। इन विद्वानों का उत्तर हमने विस्तार से अन्यत्र दिया है। यहां हम इतना ही कहना चाहते हैं कि संजय के अनिश्चततावाद में जहाँ पूरा अनिश्चय भरा हुआ है वहाँ स्याद्वाद में प्रत्येक पक्ष (धर्म) तत्तत् अपेक्षाओं से सुनिश्चित है। संभवतः इन विद्वानों को ‘स्याद्वाद’ में स्थित ‘स्यात्’ शब्द को लेकर संशय हुआ जान पड़ता है। पर स्मरण रहे कि ‘स्याद्वाद’ पद में आगत ‘स्यात्’ शब्द अव्ययनिपात है, जो कथंचित् एक अपेक्षा, एकदृष्टि का बोधक है और है एक कथ्य धर्म का वाचक और शेष अकथ्य धर्मों के अस्तित्व का द्योतक। ‘निपातवाचकाद्योतकाश्च भवन्ति’ इस नियम के अनुसार निपातों को वाचक और द्योतक दोनों माना गया है। यहाँ ध्यातव्य है कि जैनागमों में प्रयुक्त ‘सिया’ अथवा ‘सिय’ प्राकृत शब्द का संस्कृत में अनूदित ‘स्यात्’ शब्द है, जिसका कथंचित् अर्थ है और जो बतलाता है कि एक अपेक्षा से वस्तु इस प्रकार की ही है। __७. सप्तभंगी विमर्शः-प्रत्येक वस्तु में भाव-अभाव, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, वक्तव्य-अवक्तव्य आदि परस्पर विरुद्ध अनंत धर्मयुगल भरे पड़े हैं। वक्ता इन अनंतधर्मयुगलों का कथन सात प्रकार से करता है, क्योंकि प्रत्येक धर्म युगल धर्मसप्तक को लिए है। वे सात धर्म सात वाक्यों के द्वारा अभिहित होते हैं। इन्हीं सात वाक्यों के समुदाय का नाम सप्तभंगी है। अथवा उन अभिधेयभूत सात धर्मों का समुच्चय सप्तभंगी है। ये सात वाक्य उत्तरवाक्य हैं। प्रश्नकर्ता सात प्रश्न करता है। उसके सात प्रश्नों का कारण उसकी सात संदेह है। और इन सात संदेहों का कारण प्रत्येक धर्मयुगल को लेकर वस्तु में रहने वाले सात धर्म हैं।” उदाहरण के लिए भाव-अभाव युगल की अपेक्षा वे सात धर्म (भंग) इस प्रकार हैं-१. सत्त्व, २. असत्त्व, ३. उभय, ४. अवक्तव्यत्व (अनुभय), ५. सत्त्वावक्तव्यत्व, ६. असत्वावक्तव्यत्व, और ७. सत्त्वासत्त्वावक्तव्यत्व। इन सात से न कम हैं और न ज्यादा। इन सात में तीन (सत्त्व, असत्त्व, अवक्तव्यत्व) मूलभूत हैं। तीन (उभय, सत्वावक्तव्यत्व और असत्वावक्तव्य) द्विसंयोगी हैं और एक (सत्त्वासत्वावक्तव्यत्व) त्रिसंयोगी है। जैसे-नमक, मिर्च और खटाई-ये तीन मूल स्वाद है। और इन तीनों के द्विसंयोगी स्वाद तीन तथा त्रिसंयोगी स्वाद एक, कुल सात स्वाद बनते हैं, न कम न अधिक। इस सप्तभंगी की योजना इस प्रकार की जाती है- १. घट है ? कथंचित् घट है ही’, अपने स्वरूप की अपेक्षा। २. घट नहीं है ? कथंचित् घट ‘नहीं ही है’, पटादि पररूप की अपेक्षा। ३. घट है - नहीं (उभय) है ? कथंचित् घट है - नहीं (उभय) ही है’। १. अभिनव धर्मभूषण, न्यायदीपिका, तृतीय प्रकाश, पृ. १२७। २. अष्टस. पृ. १२५, १२६ । । ३. अकलंकदेव त.वा. १-६; डॉ. दरबारीलाल कोठिया अभिनन्दन- ग्रन्थ पृ. १६ भी द्रष्टव्य है ८६ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग क्रम से विवक्षित दोनों (स्वरूप पररूप) की अपेक्षाओं से। ४. घट अवक्तव्य है ? कथंचित घट ‘अवक्तव्य ही है’ एक साथ विवक्षित स्वरूप - पररूप दोनों अपेक्षाओं से कहा न जा सकने से। मिट ५. घट सदवक्तव्य है? कथंचित घट है - अवक्तव्य’ ही है’, स्वरूप और स्वरूप पररूप दोनों की सम्मिलित अपेक्षाओं से कहा न जा सकने से) ६. घट असदवक्तव्य है ? कथंचित घट ‘नहीं - अवक्तव्य ही है’, पररूप और स्वरूप पररूप दोनों की सम्मिलित अपेक्षाओं से कहा न जा सकने से। ७. घट सदसदवक्तव्य है? कथंचित घट ‘है-नहीं - अवक्तव्य ही है’, क्रम से विवक्षित स्वरूप-पररूप दोनों और युगपत विवक्षित स्वरूप पररूप दोनों की अपेक्षाओं से कहा न जा सकने से। यहाँ सातों उत्तरवाक्यों में जो प्रश्नपूर्वक उत्तर दिये गये हैं, उनमें वह धर्म घट में निश्चित है, संदिग्ध नहीं, यह प्रत्येक वाक्य के साथ प्रयुक्त ‘ही’ शब्द से, जो संस्कृत भाषा के ‘एवकार’ का अर्थ है, स्पष्ट है तथा यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्येक वाक्य के द्वारा प्रतिपादित प्रत्येक धर्म का प्रयोजन अलग-अलग है। पहले धर्म का प्रयोजन स्वरूप चतुष्टय से घट के अस्तित्व को, दूसरे धर्म का प्रयोजन पर रूप चतुष्टय से उसके नास्तित्व को, तीसरे धर्म का प्रयोजन स्व पर चतुष्टय से उसके क्रम से विवक्षित दोनों को, चौथे धर्म का प्रयोजन एक साथ दोनों को कह न सकने से उसके अवक्तव्यपने को, पाँचवें धर्म का प्रयोजन नास्तित्व सहित अवक्तव्यपने को और सातवें धर्म का प्रयोजन अस्तित्व-नास्तित्व सहित अवक्तव्यपने को बताना है। यह भी ध्यातव्य है कि जो धर्म विवक्षित होता है वह मुख्य होता है और अविवक्षित शेष अन्य सभी धर्म गौण हो जाते हैं। उदाहरण के लिए प्रथम भंग को लें। उसमें ‘है’ धर्म कहा जाता है अतएव वह मुख्य है और ‘नहीं है’ आदि शेष धर्म विवक्षित न होने से उसके अंग हैं- गौण हैं। इसी प्रकार दूसरे भंग में ‘नहीं है’ धर्म विवक्षित है और ‘है’ आदि शेष धर्म अविवक्षित हैं और अविवक्षित होने से ‘है’ आदि शेष धर्म उसके अंग हैं- गौण हैं। इसी तरह आगे के पाँच भंगों में भी मुख्य और गौण की व्यवस्था है और इस तरह सातों भंगों (धर्मों अथवा उत्तरवाक्यों) की सार्थकता है। इस संदर्भ में आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसागत निम्न कारिकाएँ द्रष्टव्य हैं कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत्। तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा।। १४।। सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्। न तो कि असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते।। १५॥ FO हा- या जैनदर्शन हो कि क्रमार्पितद्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः। दिन का पल का अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगाः स्वहेतुतः।। १६॥ धर्मे धर्मेन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मणः। ती अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता।। २२।। एक बात और स्मरण रखने की है। वह यह कि उल्लिखित सप्तभंगी के प्रत्येक वाक्य में ‘ही’ (एवकार) का प्रयोग भी अभिमत है।’ भले ही वक्ता उसका प्रयोग करे या न करे। उसका अभिप्राय उसे अवश्य स्वीकृत रहता है। उदाहरण के लिए किसी (वक्ता) ने किसी से दही लाने के लिए कहा कि ‘दध्यानय’-दही लाओ। तो इस वाक्य में ‘ही’ (एवकार) का प्रयोग नहीं है किन्तु वक्ता का अभिप्राय दही ही लाने का रहता है, दूध आदि का नहीं और लाने वाला भी उसके अभिप्राय को समझ लेता है और दही ही लाता है, दूध आदि नहीं। __तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इस सप्तभंगी में प्रत्येक वाक्य के साथ प्रयुक्त ‘स्यात’ शब्द के द्वारा वस्तु में विवक्षित धर्म के सिवाय शेष सभी धर्म मौन रूप से घोतित किये जाते हैं, वह धर्म यह न मान बैठे कि वही संपूर्ण वस्तु का स्वामी है, उसी प्रकार ‘ही’ (एवकार) शब्द का प्रयोग यह बतलाया है कि वह धर्म वस्तु में उस उपेक्षा से निश्चित ही है। अतः वस्तु की सही व्यवस्था और सही जानकारी के लिए ‘स्यात्’ और ‘एव’ दोनों शब्द सप्तभंगी के प्रत्येक वाक्य में स्वीकृत हैं। उक्त सत्त्व-असत्त्व (है-नहीं) की सप्तभंगी की तरह एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्म युगलों में भी सप्तभंगी की योजना होती है और इस तरह वस्तु में समाये हुए अनन्त धर्म युगलों में अनन्त सप्तभंगियाँ भी जैन दर्शन में इष्ट हैं। बट का बीज कितना लघु होता है किन्तु वह बट वृक्ष की अनगिनत शाखाओं, उपशाखाओं, टहनियों, जरों, पत्तों, फलों, बीजों, गुच्छों, बरों आदि को उत्पन्न करने की असंख्य शक्तियाँ अपने में समाये हुए है। संजीवनी बटी में कितनी चीजें मिली हुई रहती हैं। पर है वह जरा-सी। अतः घटादि प्रत्येक वस्तु में एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि के अनन्त परस्पर-विरुद्ध धर्म-युगल विद्यमान हैं और उनके आश्रय से होने वाली अनन्त सप्तभंगियाँ भी उसमें रह रही हैं। प्रसिद्ध जैन दार्शनिक विद्यानन्द कहते हैं कि ‘अनंतानामपि सप्तभंगीनामिष्टत्वात्, ….।’ वस्तु में अनन्त भी सप्तभंगियाँ इष्ट हैं। १. आ. विद्यानन्द, अष्टस. पृ. १२७। हम किसी २. समन्तभद्र, आप्तमी. का. २३। मोजमाती जमा ३. अष्टस., पृ. १२५। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ।
अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी : भेद-विमर्श
विवेच्य है कि अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी इन तीनों में अन्तर क्या है ? इसका संक्षेप में उत्तर यह है कि अनेकान्त वस्तु है, वाच्य है, स्याद्वाद उसका व्यवस्थापक है, वाचक है और सप्तभंगी स्याद्वाद के कथन का साधन है। स्याद्वाद जब अनेकान्त रूप वस्तु का कथन करता है तो सप्तभंगी के माध्यम से करता है। इसका आश्रय लिए बिना वह उसका निरूपण नहीं कर सकता। इसे और स्पष्ट यों समझें कि स्याद्वाद स्याद्वादी वक्ता का वचन है, अनेकान्त उसके द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ है और सप्तभंगी उसके प्रतिपादन की शैली, पद्धति या प्रक्रिया है। यतः सप्तभंगी में सात भंगों (उत्तरवाक्यों अथवा धर्मों) का समुच्चय है। इसलिए उसे सप्तभंगी (सप्तानां भंगानां समाहारः सप्तभंगी) कहा गया है। वे सात भंग वही हैं, जिनका एक घट के उदाहरण द्वारा पहले उल्लेख किया जा चुका है। उनका निबद्ध रूप में सर्वप्रथम प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा १४) में उपलब्ध है।’ इन सात भंगों को विकास कब, कैसे हुआ ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसका एक समाधान तो यह है कि जैन दर्शन में वचन स्याद्वाद रूप, वाच्य अनेकान्त रूप और प्रतिपादन शैली सप्तभंगी रूप सदा से मान्य है और इसी से सभी तीर्थंकरों को स्याद्वादी तथा उनके उपदेश सप्तभंगनय (अनेकान्त) कहा गया है। अतः उनमें विकास की संभावना या कल्पना नहीं की जा सकती। दूसरा समाधान यह है कि षट्खंडागम, भगवती सूत्र आदि दिगम्बर-श्वेताम्बर आगम साहित्य का पर्यालोचन करने पर ज्ञात होता है कि उस समय दो भंग प्रतिपादन शैली में प्रचलित थे। एक विधि प्रदर्शक और दूसरा निषेध प्रदर्शक अथवा नित्यत्व प्रतिपादक और अनित्यत्व प्रतिपादक। इन दो विरोधी भंगों द्वारा जीवादि पदार्थों का कथन किया जाता था। इसके पश्चात् कौन भंग और कब इन दो भंगों में सम्मलित हुआ, इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द के उक्त प्रतिपादन से ज्ञात होता है कि उनसे पूर्व उक्त दो भंगों में पाँच भंग और मिलाकर सात भंगों से जीवादि द्रव्यों को कथन किया जाता रहा। कुन्दकुन्द ने उन्हें स्पष्ट रूप में अपना कर और द्रव्य को सप्तभंग (सात धर्म) रूप कहकर उसका सात विवक्षाओं से निरूपण किया है। कि प्राकृत भाषा में निबद्ध उनके वे सात भंग इस प्रकार हैं-३ १. सिय अत्थि दव्वं (कथंचित् द्रव्य है), २. सिय णत्थि दव्वं (कथंचित् द्रव्य नहीं है), ३. सिय उहयं दव्यं (कथंचित् द्रव्य उभह है- है और नहीं है), ४. सिय अव्वत्तव्वं दव्वं (कथंचित् द्रव्य १. पंचास्तिकाय, गा. १४।। २. षखण्डागम (१1१७६, पृ. १, पृ. २१६, भगवती (७, २, २७३) आदि। ३. पंचास्तिकाय. गा. १४॥- जैनदर्शन अवक्तव्य है), ५. सिय अत्थि अव्वत्तव्वं दव्वं (कथंचित् द्रव्य है- अवक्तव्य है), ६. सिय णत्थि अव्वत्तव्यं दव्वं (कथंचित् द्रव्य नहीं है-अवक्तव्य है), ७. सिय अत्थिणत्थि अव्वत्तव्वं दव्वं (कथंचित् द्रव्य है-नहीं है- अवक्तव्य है)। _तात्पर्य यह है कि उस आगम-युग में भी सप्तभंगनय (सप्तभंगी) द्वारा वस्तु (जीवादि द्रव्यों) का कथन किया जाता रहा। स्वामी समन्तभद्र ने उसे दर्शन के क्षेत्र में लाकर उसका जो विकास, प्रचार एवं विस्तार किया वह असाधारण है। उन्होंने एक-एक एकान्तवाद में दोष प्रदर्शित कर इस सप्तभंगी के द्वारा उनका समन्वय किया’ और उन सभी को उन्होंने वस्तु का स्वरूप स्वीकार किया तथा स्याद्वाद-वचन को वाचक और अनेकान्त रूप वस्तु को उसका वाच्य बतला कर तत्त्व-व्यवस्था सिद्ध की है। ____उनके बाद तो सभी उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों-सिद्धसेन, पूज्यपाद, श्रीदत्त, पात्रस्वामी, अकलक, हरिभद्र, कुमारनन्दि, बृहदनन्तवीर्य, विद्यानन्द, वादीभ सिंह, वादिराज, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, लघु अनन्तवीर्य, अभयदेव, हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि ने अपनी संस्कृत भाषा में लिखित दार्शनिक कृतियों में उनका पूर्णतया अनुगमन किया और उनका समर्थन किया है। आ समन्तभद्र की ‘आप्त-मीमांसा’, जिसे ‘स्याद्वाद-मीमांसा’ कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर ‘अष्टशती’ (आप्त मीमांसा-विवृति) और विद्यानन्द ने उसी पर ‘अष्टसहस्री (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है। दाद रिजातो याक
न्याय और उसके अङ्ग
न्यायविद्या
‘नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्यायः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस १. आप्तमीमांसा, का १४, १५, १६, २२।। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूंकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अतः इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। न्यायविद्या को ‘अमृत’ भी कहा गया है। इसका कारण यह कि जिस प्रकार ‘अमृत’ अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है। इसी से सभी दर्शनों में इस विद्या के अध्ययन को बड़ा महत्व दिया है और इसका प्रतिपादन एवं विशेष विवेचन किया गया है। आगमों में न्याय-विद्या जैनागमों में इस विद्या का अधिक महत्त्व प्रदर्शित किया गया है। उसके बिना तत्त्वज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ बतलायी गई है। अतएव मूल जैनागम के द्वादशांग जैनश्रुत के ‘दृष्टिवाद’ नामक १२वें अंग में इसका मुख्यतया एवं विस्तार से प्रतिपादन है। आज जो उसका कुछ अंश प्राप्त है उसमें हमें इस विद्या का निरूपण मिलता है। षट्खंडागम में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम ‘हेतुवाद’ भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। स्थानांगसूत्र (३३८) में ‘हेतु’ शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं-१. प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। २. हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं १. विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप) २. विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप) १. ‘प्रमाणनयैरधिगमः’- त.सू. १-१६ । २. ‘न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।’ - अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. २, २ श्लो.। षट्ख. ५१५५१, शोलापुर संस्करण, १६६५। ४. ‘अथवा हेऊ चउबिहे पन्नत्ते तं जहा-पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउबिहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अस्थि सो हेऊ, अस्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ पत्थि तं णत्थि सो हेऊ।’ -स्थानांग स्.-पृ. ३०६-३१०, ३३८ । ६४ का जैनदर्शन ३. निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप) तामा ४. निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप) भर इन्हें हम क्रमशः निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं १. विधिसाधक विधिरूप’ अविरुद्धोपलब्धि २. विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि । ३. निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि ४. निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि र इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं १. अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं। २. इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है। ३. यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है। ४. यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। अनुयोगसूत्र में अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है। इस का
प्रमाण और नय
हम पहले तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन कर आये हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है। यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- १. उपेय और २. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है। १. धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. ६५-६६ दिल्ली संस्करण। २. माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख ३/५७-५८ । ३. डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. २४ का टिप्पण नं. ३। ४. वही. पृ. २५ व उसके टिप्पण। र ५. वही, पृ. ५८, ५६। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ६५ । उपाय तत्त्व दो तरह का है- १. कारक, २. ज्ञापक। कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात् कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- १. उपादान और २. निमित्त (सहकारी)। उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। न्यायदर्शन में इन दो कारणों के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। _____ ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-’ (‘प्रमाण और ‘नय)। प्रस्तुत में ये ही दोनों विवेच्य हैं। जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार प्रथमतः प्रमाण का विचार किया जाता है।
१. प्रमाण-विमर्श
प्रमाण का प्रयोजन
मनुष्य इतर प्राणियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान् और विचारशील है। अतः उसके लिए आवश्यक है कि उसे इष्टानिष्ट अथवा ज्ञातव्य वस्तुओं का ज्ञान अभ्रान्त हो। प्रमाण की जिज्ञासा मनुष्य में संभवतः इसी से जागृत हुई होगी। यही कारण है कि प्रमाण की मीमांसा न केवल अध्यात्मप्रधान भारत के मनीषियों द्वारा ही की गई है अपितु विश्व के सभी विचारकों एवं दार्शनिकों ने भी की है। आचार्य ‘माणिक्यनंदि’ प्रमाण का प्रयोजन बतलाते हुए लिखते हैं कि प्रमाण से पदार्थों का सम्यक्ज्ञान और सम्यक्प्राप्ति होती है, पर प्रमाणाभास से नहीं। आचार्य विद्यानंद ने भी प्रमाणपरीक्षा (पृष्ठ २८) में यही कहा है। प्रमाण का स्वरूप ‘प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रमाण वह है जिसके द्वारा वस्तु प्रमित हो, सही रूप में जानी जाये। प्रश्न है कि वह क्या है, जिसके द्वारा वस्तु की सही जानकारी होती है ? इस पर सभी प्रमाण शास्त्रियों ने विचार किया है। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद् ने कहा है कि निर्दोष ‘ज्ञान’ विद्या (प्रमाण) है। उसी से यथार्थ एवं सही जानकारी होती है। गौतम अक्षपाद के न्यायसूत्र में प्रमाण का लक्षण उपलब्ध नहीं है। पर उनके भाष्यकार वात्स्यायन ने अवश्य उपलब्धि-साधन (प्रमाकरण) को प्रमाण सूचित १. वही पृ. ५८ का मूल व टिप्पण १; ‘प्रमाणनयैरधिगमः’-त. सू. १-६ ‘प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः पदार्थः सम्यगधिगम्यन्ते।’- न्या.दी. पृ. २, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण। २. ‘प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्ययः। ‘परीक्षामु. श्लो. १ ३. ‘अदुष्टं विद्या’-वैशे. सू. ६२।१२। ४. न्याय झ. ११३। BE जैनदर्शन किया। किया है। उद्योतकर, जयन्तभट्ट आदि नैयायिकों ने वात्स्यायन का ही अनुसरण किया है और उपलब्धि साधनरूप प्रमाकरण को प्रमाणलक्षण स्वीकृत किया है। पर उदयनाचार्य ने यथार्थानुभाव को प्रमाण कहा है। ज्ञात होता है। कि अनुभूति को प्रमाण मानने वाले मीमांसक प्रभाकर का यह उन पर प्रभाव है, क्योंकि उदयन के पूर्व न्याय दर्शन में प्रमाणलक्षण में ‘अनुभव’ पद-का प्रवेश उपलब्ध नहीं होता। उनके पश्चात् तो विश्वनाथ, केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट प्रभृति नैयायिकों ने अनुभव घटित ही प्रमाण लक्षण किया है। । मीमांसक-मनीषी कुमारिलभट्टने अपूर्वार्थ विषयक ज्ञान को, जो निश्चित हो, बाध-विवर्जित हो, निर्दोष इन्द्रियादि कारणों से उत्पन्न हो और लोक सम्मत हो, प्रमाण माना है। उत्तरवर्ती सभी भाट्ट मीमांसकों ने उनके इस प्रमाणलक्षण को मान्यता दी है। प्रभाकर ने अनुभूति को प्रमाण कहा है और उनके अनुवर्ती शालिकानाथ आदि ने उसका समर्थन किया है। सांख्य दर्शन में ईश्वरकृष्ण आदि सांख्यविद्वानों ने इन्द्रियवृत्ति-इन्द्रिय व्यापार को प्रमाण माना है। त बौद्धदर्शन में बौद्धन्याय के प्रतिष्ठाता दिग्नाग ने अज्ञातार्थ के ज्ञापक को प्रमाण कहा है। धर्मकीर्ति ने” इसमें ‘अविसंवादि’ पद और जोड़कर उसे परिष्कृत किया है। तत्त्वसंग्रहकार शान्त रक्षितने२ सारूप्य-तदाकारता और योग्यता को प्रमाण का लक्षण बतलाया, जो एक प्रकार से दिग्नाग और धर्मकीर्ति के प्रमाणलक्षणों का ही फलितार्थ है। इस तरह बौद्धदर्शन में स्वसंवेदी, अज्ञातार्थज्ञापक, अविसंवादि तदाकार ज्ञान को प्रमाण स्वीकार किया गया। Pose) गणार नाका शाजा । शिर मामामाल १. न्याय वा. ११३, पृ. ५। ITS सागमा गिनिए’ २. ‘प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणापार्थाभिधायिनः प्रमाण शब्दात् प्रमाकरणं प्रमाणवगम्यते।’ -न्यायमं पृ. १. २५ नोट या चित्र पर जित ३. न्यायकुसु. ४।१। - ४. सिद्धन्तम. का. ५१ मतल वायला ५. तर्कभा., पृ. १४। शाम कृष्ण का काम मिला लिम ६. तर्क संग्रह, पृ. ३२। मशिनी नामजी TEST ७. जैन तर्कशा. अनु. वि; पृ. ६१, वीरसेवामन्दिरट्रस्ट संस्करण, वाराणसी। ८. ‘अनुभूतिश्च नः प्रमाणम्। बृहती १११५ । जीवनका ६. सांख्य का. २८ टकको निगरी विकासापा- शाला समान १०. अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम्- प्र.स., का ३ मामाकमा भावना ११. प्रमाणवा. २१। १२. तत्त्वसं; का १३४४॥ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ६७ का
जैनन्याय में प्रमाण का स्वरूप
प्रमाण का लक्षण हमें प्रथमतः आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध होता है। उन्होंने’ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इन आगमोक्त पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान कहकर उन्हें प्रमाण बतलाया है और उन्हें दो भेदों में विभक्त किया है। प्रथम के दो ज्ञानों को परोक्ष और शेष तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष निरूपित किया है। उनके इस निरूपण से कई महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। एक तो यह कि आगम में जो पाँच ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल) सम्यग्ज्ञान के रूप में वर्णित हैं, उन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रकार ने सम्यग्ज्ञान बतलाया है। दूसरा तथ्य यह कि वह सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण का स्वरूप है। तीसरा तथ्य यह कि उसके दो ही भेद हैं, उनसे ज्यादा नहीं। हा वे हैं-१. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । चौथा तथ्य यह है कि उक्त पाँच ज्ञानों में आदि के दो ज्ञान परोक्ष हैं और अन्य ‘तीन’ ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। वे दो ज्ञान हैं-मति और श्रुत तथा तीन ज्ञान हैं-अवधि, मनःपर्यय और केवल। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार प्रमाण वह है जो सच्चाज्ञान है और वे उक्त पाँचज्ञान हैं। उन्हीं से यथार्थ ‘प्रतिपत्ति’ संभव है। आ. गृद्धपिच्छ के बाद स्वामी समन्तभद्र’ कहते हैं कि जो ज्ञान अपना और पर का अवभास कराये वह प्रमाण है। जो केवल अपना या केवल पर का अवभास कराता है वह ज्ञान प्रमाण कोटि में सम्मिलित नहीं है। प्रमाणकोटि में वही ज्ञान समाविष्ट हो सकता है जो अपने को जानने के साथ पर को और पर को जानने के साथ अपने को भी जानता है और तभी उसमें संपूर्णता आती है। न्यायावतारकार सिद्धसेन ने समन्तभद्र के उक्त लक्षण को अपनाते हुए उसमें एक विशेषण और दिया है वह है ‘बाधविवर्जित’ । किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार के ‘सम्यक्’ पद के द्वारा वह गतार्थ हो जाता है। यद्यपि ‘स्वरूपस्य स्वतो गते’, ‘स्वरूपाधिगतेःपरम्’, आदि प्रतिपादनों द्वारा विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध प्रमाण को स्वसंवेदी स्वीकार करते हैं। तथा ‘अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणम्'६ ‘अज्ञातार्थप्रकाशो वा आदि कथनों द्वारा सौत्रान्तिक (बहिराद्वैतवादी) बौद्ध उसे केवल १. त.सू. १-६, १०, ११, १२। २. स्वयम्भू. का. ६३। न्यायाव, का. १॥ ४. धर्मकीर्ति, प्र.वा. २।४। ५. वही, २५ ६. दिङ्नाग, प्रमाणसमु. (स्वोप. वृत्ति) का. १। ७. धर्मकीर्ति प्रमाणवा. २।५। ६८ है कि जैनदर्शन . 5 पर-संवेदी मानते हैं। पर किसी भी तार्किक ने प्रमाण को स्व और पर दोनों का एक साथ प्रकाशक नहीं माना! जैन तार्किकों ने ही प्रमाण को स्व और पर दोनों का एक साथ ज्ञापक स्वीकार किया है। उनका मन्तव्य है कि ज्ञान एक चमचमाता हीरा अथवा ज्योतिपुंज दीपक है, जो अपने को प्रकाशित करता हुआ उसी काल में योग्य बाह्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है अतः स्वपर प्रकाशक यथार्थज्ञान ही प्रमाण है। सर्वार्थसिद्धिकार अ. पूज्यपाद’ की विशेषता यह है कि उन्होंने स्वपर प्रकाशक यथार्थज्ञान को प्रमाण मानते हुए सन्निकर्ष और इन्द्रिय को प्रमाण मानने वालों की मान्यताओं की समीक्षा भी की है। उनका कहना है कि सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने पर सूक्ष्म, व्यवहित और दूर के पदार्थों के साथ इन्द्रियों का संबंध संभव न होने से उनका ज्ञान नहीं हो सकता। फलतः सर्वज्ञता का अभाव हो जायेगा। इसके सिवाय चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी है। उसका पदार्थ के साथ सन्निकर्ष न होने से वह अव्याप्त भी है। चक्षु बिना सन्निकर्ष के ज्ञान कराती है। 15 एन अकलंक, विद्यानंद और माणिक्यनंदि’ ने गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र और पूज्यपाद द्वारा स्वीकृत एवं समर्थित स्वार्थ व्यवसायी सम्यग्ज्ञान को प्रमाण लक्षण स्वीकार करने के साथ ही अर्थ के विशेष रूप में ‘अनधिगत’ अथवा ‘अपूर्व’ या ‘अगृहीतग्राही’ पद को उसमें और जोड़कर ‘स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक’ ज्ञान को प्रमाण कहा है और यही प्रमाण लक्षण जैनदर्शन में अधिक प्रतिष्ठित है। हेमचन्द्र ने अवश्य इस लक्षण से पृथक प्रमाण लक्षण प्रस्तुत किया है। उसमें न ‘स्व’ पद है और न ‘अपूर्व’ जैसा पद है। दोनों को उन्होंने अनावश्यक बतलाया है। मात्र आचार्य गृद्धपिच्छोक्त सम्यग्ज्ञान की तरह सम्यक् अर्थ निर्णय को उन्होंने प्रमाण कहा है। अभिनवधर्मभूषण ने विद्यानंद और माणिक्यनंदि का पूरा अनुगमन किया है। इस विवेचन से इतना स्पष्ट है कि सम्यक् ज्ञान को एक स्वर से सभी जैन दार्शनिकों ने प्रमाण माना है। सन्निकर्ष, इन्द्रिय, इन्द्रियवृत्ति, कारकसाकल्य, ज्ञातृव्यापार आदि को अज्ञान निवर्तक न होने से प्रमाण स्वीकार नहीं किया। इसका कारण यह है कि ये सब स्वयं अज्ञान रूप हैं, अज्ञान का निवर्तक निश्चय ही उसका विरोधी ज्ञान रूप होना चाहिए, १. स.सि. १।१०। २. वही १।१६। ३. अष्टश., आप्तमीमांसा., का. ३६, १०० ४. प्रमाण परीक्षा पृ. १ से २८, वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट संस्करण, वाराणसी, १९७७ ५. परीक्षा मुख १/१ ६. ‘सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्’। -प्र.मी. १/१/२ ७. न्या.दी., पृ. ६, १२, १३ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग जैसे अन्धकार का निवर्त्तक उसका विरोधी प्रकाश स्पष्टतया देखा जाता है और अज्ञान-विरोधी ज्ञान ही है। अतः सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। ਜੋ ਕਿ ਹੁਣ ਦੇ
प्रमाण-भेद
उपर्युक्त प्रमाण कितने प्रकार का संभव है और उसके भेदों का सर्वप्रथम प्रतिपादन करने वाली परम्परा कौन है ? इस सम्बन्ध में तर्क ग्रन्थों का आलोडन करने पर ज्ञात होता है कि वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने’ प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है,२ अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द) इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की है। साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। । वैशेषिकों की तरह बौद्धों ने भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने और 2 १. वैशेषिक सूत्र १०/१/३ ताजा शिव मध्यम २. सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. ३ ३. न्यायसू. २/२/१, २ ४. प्रश.भा., पृ. १०६-१११ ५. वैशे.सू. १०/१/३ ६. दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. २, पृ. ४ ७. सांख्य का. ४ ८. न्याय सू. १/१/३ माजी १०० र जैनदर्शन अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- १. भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और २. प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।
जैनन्याय में प्रमाण-भेद
जैनन्याय में प्रमाण के कितने और कौन से भेद माने गये हैं, इसका विचार किया जाता है-श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र’ और स्थानांग सूत्र में चार प्रमाणों का उल्लेख है-१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान और ४. आगम। स्थानांग सूत्र में व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। संभव है सिद्धसेन और हरिभद्र के तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कथन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमशः चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। . दिगम्बर परम्परा के षटखंडागम में मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक् और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक् और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक् कहे गये हैं वे सम्यक् परिच्छित्ति १. शावरभा. १/१/५ २. जैमिनेः षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिनः। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयोः।। -प्रमेयर. २/२ का टि. ३. भ.सू. ५/३/१६१-१६२, ४. स्था. ३३८, ५. स्था. १८५ ६. न्यायाव. का ८ ७. अनेका.ज.प.टी. पृ. १४२, २१५ ८. आगम युग का जैन दर्शन पृ. १३६ से १३८ ६. भूतबली.पुष्पदन्त, षट्खण्डा. १/१/१५ तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. ७१ व इसका नं. ५ टिप्प. १०. नियमसार गा. १०, ११, १२, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार १०१ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट हैं।’ इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार के निम्न प्रतिपादन से भी होती है ‘मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानिज्ञानम्’। ‘तत्प्रमाणे’। ‘मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।’ एल्गु नामक -तत्त्वार्थसूत्र १-६, १०, ३१। झापट ____ इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। पर इतर दर्शनों के लिए यह अलौकिक जैसी थी, क्योंकि अन्य दर्शनों के प्रमाण-निरूपण के साथ उसका मेल नहीं खाता था। अतः ऐसे प्रयत्न की आवश्यकता थी कि आगम का भी समन्वय हो जाये और अन्य दर्शनों के प्रमाण निरूपण के साथ उसका मेल भी बैठ जाये। इस दिशा में सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्रकर ने उक्त समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि जो मति आदि ५ ज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान वर्णित है वह प्रमाण है और उसके दो भेद हैं- १. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । अर्थात् आगम में जिन पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान कहा गया है वे ही प्रमाण हैं। उनमें मति और श्रुत ये दो ज्ञान पर सापेक्ष होने से परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल- ये तीन ज्ञान पर परसापेक्ष न होने एवं आत्म मात्र की अपेक्षा से होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण हैं तथा मति, श्रुत और अवधि- ये तीन ज्ञान मिथ्यात्व के साथ रहने पर मिथ्या परिच्छित्ति कराने से विपर्यय (मिथ्याज्ञान-प्रमाणाभास) भी हैं। शासकी 1 आचार्य गृद्धपिच्छ का यह प्रमाणद्वय विभाग इतना विचार युक्त और कौशल्यपूर्ण हुआ कि प्रमाणों का वैविध्य एवं आनन्त्य भी इन्हीं दो में समाविष्ट हो जाता है। उन्होंने अति संक्षेप में मति, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) को भी प्रमाणान्तर होने का संकेत करके उन्हें मतिज्ञान बतलाते हुए उनका परोक्ष प्रमाण में समावेश किया, क्योंकि ये सभी ज्ञान, इन्द्रिय, मन आदि परसापेक्ष हैं। वैशेषिकों और १. यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। -वैशे.सू. ६/२/७, ८, १० से १३ तथा १०/१/३ २. त.सू. १/६, १० ३. वही, १/६, १०, ११, १२, ४. वही, १/१४,१०२ अ अ - जैनदर्शन कि नाम बौद्धों ने भी प्रमाण के दो भेद स्वीकार किये हैं, जैसा कि हम पहले देख आये हैं। पर वे प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो भेद हैं तथा उन में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का समावेश संभव नहीं है। ___ अतएव गृद्धपिच्छ ने इस प्रमाणद्वय को स्वीकार न कर परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप प्रमाणद्वय का व्यापक विभाग प्रतिष्ठित किया। उत्तरवर्ती जैन तार्किकों के लिए उनका यह विभाग आधार सिद्ध हुआ। पूज्यपाद’ ने न्यायदर्शन आदि में पृथक् प्रमाण के रूप में स्वीकृत उपमान, अर्थापत्ति और आगम आदि का परसापेक्ष होने से परोक्ष में ही अन्तर्भाव किया और सूत्रकार के प्रमाणद्वय का समर्थन किया है। अकलंक’ ने भी उन्हें के प्रमाणद्वय की संपुष्टि की। साथ ही उन्होंने नए आलोक में परोक्ष-प्रत्यक्ष की परिभाषाओं और उनके भेदों का भी बहुत स्पष्टता के साथ प्रतिपादन किया है। परोक्ष प्रमाण की स्पष्ट संख्या हमें सर्वप्रथम उनके तर्क ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। इतना ही नहीं, उनकी परिभाषायें भी उन्होंने दी हैं। ज्ञात होता है कि गृद्धपिच्छ और अकलंक जो प्रमाण निरूपण की दिशा प्रदर्शित की, उसी पर विद्यानंद, माणिक्यनंदि, हेमचंद्र और धर्मभूषण आदि जैन तार्किक चले हैं। साथ ही उनके कथन को पल्लवित एवं विस्तृत किया है। __ गृद्धपिच्छ के उपर्युक्त प्रमाणद्वय विभाग से कुछ भिन्न प्रमाणद्वय का प्रतिपादन भी हमें जैन दर्शन में उपलब्ध होता है, वह है स्वामी समन्तभद्र का। स्वामी समन्तभद्र ने कहा है कि तत्त्वज्ञान प्रमाण है और वह दो प्रकार का है-१. युगपत्प्रतिभासि और २. क्रमप्रतिभासि। एक साथ सर्व परिच्छेदि तत्त्वज्ञान यगपत्प्रतिभासि और क्रमशः अल्प परिच्छेदि तत्त्वज्ञान क्रमप्रतिभासि अर्थात् क्रम भावी ज्ञान है। सर्वज्ञ का तत्त्वज्ञान युगपत्प्रतिभासि है और अल्पज्ञों का क्रमप्रतिभासि । प्रमाण भेदों की इन दोनों विचारणाओं में वस्तुभूत कोई अन्तर नहीं है। आचार्य गृद्धपिच्छ का निरूपण जहाँ ज्ञान कारणों की सापेक्षता और निरपेक्षता पर आधृत है वहाँ आचार्य समन्तभद्र का प्रतिपादन प्रतिपत्ताओं (सर्वज्ञ और अल्पज्ञ) को होने वाले विषयाधिगम के अक्रम और क्रम पर निर्भर है। छद्मस्थ प्रतिपत्ताओं को ज्ञेयों का क्रम से होने वाला ज्ञान क्रमभावि और सर्वज्ञ प्रतिपत्ताओं को युगपत् होने वाला अक्रमभावि प्रमाण है। पर इस विभाग की अपेक्षा गृद्धपिच्छ का परोक्ष-प्रत्यक्ष प्रमाणद्वय विभाग अधिक प्रसिद्ध और तार्किकों द्वारा अनुसृत हुआ है। आम PLE १. स.सि. १/११ कोटी कि न माप कि भारत की २. लघीय. १/३ तथा स्वोपज्ञवृत्ति १/३, काप कोटी ३. वही, १/११ तथा ३/६१ वरमा मात्र भाई की किरात ४. प्र.प. पृ. २८, अनुच्छेद ६५, वाराणसी संस्करण १६७७ म ५. परीक्षा मुख ३/१, २, न्याय दी. पृ. २३, संपादक. डा. कोठिया ६. प्र.मी. १/१/६ तथा १/२/१, २ ७. आप्त मीमांसा का. १०१ १०३ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग इतना स्मरण रहे कि समन्तभद्र के प्रमाणद्वय विभाग में जहाँ अक्रमभावि प्रमाणमात्र केवल (केवल ज्ञान) है और क्रमभावि प्रमाण मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय से चारों ज्ञान अभिप्रेत हैं वहाँ गृद्धपिच्छ के परोक्ष और प्रत्यक्ष-इन दो प्रमाण भेदों में परोक्ष-मति और श्रुत ये दो ज्ञान तथा प्रत्यक्ष- अवधि, मनःपर्यय और केवल- ये तीन ज्ञान इष्ट हैं।
परोक्ष-प्रमाण
माणका आगम-परम्परानुसार प्रमाण का प्रथम भेद परोक्ष है और दूसरा भेद प्रत्यक्ष है तथा न्यायशास्त्र की’ दृष्टि से प्रमाण का पहला भेद प्रत्यक्ष है और दूसरा भेद परोक्ष है। यह अन्तर इसलिए हुआ कि भारतीय दर्शनों में प्रमाण-भेदों का आरम्भ प्रत्यक्ष से हुआ है और वह सर्व प्रसिद्ध है। हम इन दोनों दृष्टियों से प्रमाण-भेदों का विवेचन करेंगे। सर्वप्रथम आगम-दृष्टि प्रस्तुत कर रहे हैं तत्त्वार्थसूत्रकार ने आगमोक्त पाँच ज्ञानों को प्रमाण कहा है, जैसा कि हम देख चुके हैं और उन ज्ञानों को दो प्रमाणों में विभक्त किया है। आदि के दो ज्ञानों को परोक्ष और शेष तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा है। परोक्ष की परिभाषा देते हुए उनके आद्य टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दि (वि.सं. की छठी शती) ने लिखा है कि ‘पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य समाज तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते।’ -सर्वार्थसिद्धि १-११, पृ. १०१। यहाँ ‘परोक्ष’ पद में स्थित ‘पर’ शब्द से इन्द्रियों, मन और प्रकाश तथा उपदेश आदि बाह्य निमित्तों का ग्रहण विवक्षित है। उनकी सहायता तथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण इन कर्मों के क्षयोपशम (ईषद् अभाव) रूप अन्तरंग निमित्त दोनों से आत्मा के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं, अतएव वे परोक्ष कहे जाते हैं। तात्पर्य यह कि पर की अपेक्षा रखने से ये दोनों (मति एवं श्रुत) ज्ञान परोक्ष हैं। इस परिभाषा के अनुसार इन्द्रियजन्य और मनोजन्य ज्ञान, जिन्हें इतर दर्शनों में क्रमशः इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष कहा गया है, परोक्ष हैं। यद्यपि उन्हें जैनदर्शन में भी लोक मान्यतानुसार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है। किन्तु परसापेक्ष होने से वे हैं परोक्ष ही। स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति आदि ज्ञान भी पर सापेक्ष होने से परोक्ष में ही परिगणित हैं। यदि परसापेक्ष होने वाले और भी ज्ञान हों, तो वे सब परोक्षान्तर्गत ही हैं। इस प्रकार परोक्ष का क्षेत्र बहुत विस्तृत और व्यापक है।” १. प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्य-संव्यवहारतः। परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः।। -अकलक, लघीयस्त्रय १-३ २. त.सू. १-६, १०, ११, १२ * १०४ ____- जैनदर्शन मौसम
तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं’ - १. स्मृति, २. प्रत्यभिज्ञान, ३. तर्क, ४. अनुमान और ५. आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है। फिर भी लोक के साथ समन्वय करने के लिए तार्किक दृष्टि से उनका और आगे कहे जाने वाले प्रत्यक्ष भेदों का निरूपण सरलता से अवगत हो जायेगा। १. स्मृति- पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा ‘वह’ इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अतः स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। १३ २. प्रत्यभिज्ञान- अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते है। जैसे- ‘यह वही देवदत्त है, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। जैसे सीप में चाँदी का, रस्सी में सर्प का होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान प्रत्यक्षाभास है। यह नहीं कि एक के अप्रमाण होने पर सभी को अप्रमाण माना जाय। यह ज्ञान को सुपरीक्षा करके देखना चाहिए। __३. तर्क- जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। इसके होने पर ही यह होता है’, यह अन्वय है और ‘इसके न होने पर यह नहीं होता’, यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- ‘अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता’ इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक् अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। १. माणिक्यनन्दि, प.मु. ३-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १० २. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. ३६ व पृ. ४२, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी ३. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. ४२, ४३, ४४; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी १०५ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग तात्पर्य यह है कि अनुमान के अव्यवहित पूर्व आवश्यक व्याप्ति का ज्ञान इसी तर्क प्रमाण से होता है। वह न प्रमाण के विषय का परिशोधक है और न प्रमाण सम्पोषक। जैसा कि वैशेषिक-नैयायिक मानते हैं। वह स्वतंत्र प्रमाण है। उसके विषय (एकमात्र व्याप्ति) का निश्चय न प्रत्यक्ष से संभव है, क्योंकि वह केवल वर्तमान का ज्ञाषक है और व्याप्ति समस्त देश-काल विषयिणी होती है- वह प्रत्यक्ष से गृहीत नहीं हो सकती। न अनुमान से उसका ग्रहण संभव है, क्योंकि उसी अनुमान से उसका निश्चय मानने पर अन्योन्याश्रय तथा अन्य अनुमान से उसका ज्ञान मानने पर अनवस्था दोष आते हैं। अतः व्याप्ति-निर्णायक एकमात्र तर्क प्रमाण है। ध्यान रहे, यह व्याप्ति अविनाभाव, अन्यथानुपपन्नत्व, अन्यथानुपपत्ति रूप है, वैशेषिकों और बौद्धों के त्रैरूप्य या नैयायिकों के पांचरूप्य रूप नहीं है, क्योंकि त्रैरूप्य और पांचरूप्य दोनों मैत्री तनय जैसे असद् हेतुओं में भी पाये जाने से व्यभिचारी हैं और कृत्तिकोदय आदि सद् हेतुओं में न रहने से अव्यापक हैं। अतः अविनाभाव या अन्यथानुपन्नत्व रूप ही व्याप्ति है और उसका निश्चायक तर्क प्रमाण है।’ ५. अनुमान- निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है। जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।
अनुमान के अङ्गः -साध्य और साधन
__इस अनुमान के मुख्य घटक (अङ्ग) दो हैं- १. साध्य और २. साधन। साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रेत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। अकलंकदेव ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है या साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्। कारक जालना साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वतः।। न्यायविनिश्चय २-१७२ साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं १. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. ४४, ४५; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी २. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. ४५, ४६, ४७, ४८, ४६; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी है १०६ जैनदर्शन सिंह है ‘साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः। -परीक्षामुखसूत्र ३-१५ साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। इसी प्रकार वादिराज भी प्रतिपादन करते हैं ___ ‘साधनं साध्याविनाभावनियमनिर्णयैकलक्षणं लिंगम्। साध्य के साथ आविनाभाव नियम का निर्णय ही जिसका एकमात्र लक्षण है वह लिंग अर्थात् साधन है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनन्याय में अविनाभाव के निश्चय से युक्त साधन है। त्रैरूप्य (पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षाद्व्यावृत्ति) तथा पांचरूप्य (उपर्युक्त तीन और अबाधित विषयत्व एवं असत्प्रतिपक्षत्व) से युक्त साधन नहीं है। कारण कि ‘वह श्याम है, क्योंकि मैत्री का पुत्र है, अन्य पुत्रों की तरह’ इस अनुमानाभास में प्रयुक्त ‘मैत्री का पुत्र’ साधन में त्रैरूप्य और पांचरूप्य दोनों हैं, पर वह व्यभिचारी ही होने से साध्य का गमक नहीं है। इसी से कहा गया है AL अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।हामिल नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।। अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम्। नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पंचभिः कृतम्।। -प्रमाण परीक्षा पृ. ४६ स्मरण रहे कि अन्यथानुपपन्नत्व और अन्यथानुपपत्ति ये दोनों अविनाभाव रूप व्याप्ति के ही पर्याय नाम हैं।
अविनाभाव-भेद
अविनाभाव दो प्रकार का है’ -१. सहभाव नियम और क्रमभाव नियम। जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अतः दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। १. माणिक्यनन्दि, प.मु. ३-१६, १७, १६ मा १०७ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग जो पूर्वोत्तरचारी और कार्य-कारण होते हैं उनमें क्रमभावनियम अविनाभाव होता है। जैसे कृत्तिका का उदय और शकट का उदय कृत्तिका का उदय पूर्वचर है और शकट का उदय उत्तरचर। दोनों में क्रमभावनियम अविनाभाव है। इसी से कृत्तिका के उदय से शकटोदय का अनुमान होता है। धूम और अग्नि में कार्य-कारणभाव है। धूम कार्य है और अग्नि कारण। इनमें भी क्रमभावनियम अविनाभाव है। अतः धूम से अग्नि का अनुमान होता है। वाट किन कि कई बार महिनामा
हेतु-भेद
जाए इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने ‘जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार’ ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अतः उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के ‘परीक्षामुख’ के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है। I माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं १. उपलब्धि और २. अनुपलब्धि। तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के १. अविरुद्धोपलब्धि और २. विरुद्धोपलब्धि तथा अनुपलब्धि के- १. अविरुद्धानुपलब्धि और २. विरुद्धानुपलब्धि इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं अविरुद्धोपलब्धि छह- १. व्याप्य, २. कार्य, ३. कारण, ४. पूर्वचर, ५. उत्तरचर और ६. सहचर। कि डीट गोग विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- १. विरुद्ध व्याप्य, २. विरुद्ध कार्य, ३. विरुद्ध कारण, ४. विरुद्ध पूर्वचर, ५. विरुद्ध उत्तरचर और ६. विरुद्ध-सहचर। अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा ७ प्रकार की कही है-१. अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, २. अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, ३. अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, ४. अविरुद्धकारणानुपलब्धि, ५. अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, ६. अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और ७. अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- १. विरुद्धकार्यानुपलब्धि, २. विरुद्धकारणानुपलब्धि और ३. विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। __इस तरह माणिक्यनन्दि ने ६ + ६ + ७ = २२ हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है। १. माणिक्यनन्दि, प.मु. ३-५७ ५८, ५६, ६५ से ७६ तक वह १०८ जैनदर्शन आचार्य प्रभाचन्द ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में और लघुअनन्तवीर्य ने प्रमेयरत्नमाला में उनका समर्थन एवं विशद व्याख्यान किया है। अन्य जैन तार्किकों’ द्वारा किया गया हेतुभेदों का विवेचन हमने छोड़ दिया है। पाठक उन्हें ‘जैन तर्क शास्त्र में अनुमान-विचार’ नामक मेरे ग्रन्थ से अवगत करे।
अनुमान के अवयव
अनुमान के सर्वाङ्गीण विचार के हेतु उसके अवयवों का कथन भी आवश्यक है। किन्तु हम उनका विस्तार न कर संक्षेप में प्रतिपादन करेंगे। का गृद्धपिच्छ ने सर्वप्रथम ‘अभिनिबोध’ शब्द के द्वारा अनुमान का ग्रहण किया और उसके तीन अवयवों की सूचना है। वे हैं- १. प्रतिज्ञा, २. हेतु और ३. दृष्टान्त। उन्होंने इन तीन के द्वारा मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन की सिद्धि की है। समन्तभद्र ने भी इन्हीं तीन अवयवों से आप्तमीमांसा (का. ६, १७, १८, २७ आदि) में सर्वज्ञ और अनेकान्त सिद्धि की है। सिद्धसेन ने भी इन तीन अवयवों का ही प्रतिपादन किया है। पर अकलंक और उनके अनुवर्ती विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, देवसूरि, हेमचन्द्र, धर्मभूषण, यशोविजय आदि ने पक्ष (प्रतिज्ञा) और हेतु-ये दो ही अवयव स्वीकार किये और दृष्टान्तादि अन्य अवयवों को अनावश्यक बतलाया है। स्मरण रहे कि दो अवयवों का प्रयोग व्युत्पन्न प्रतिपाद्य की दृष्टि से अभिहित है। किन्तु अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की अपेक्षा से तो दृष्टान्तादि अन्य अवयवों का भी प्रयोग स्वीकृत है। देवसूरि, हेमचन्द और यशोविजय ने भद्रबाहु कथित पाँच शुद्धियों को भी अनुमान वाक्य में समावेश किया है और पंचावयवों सहित दशावयवों का समर्थन किया है। कुमारनन्दि ने" तो प्रतिपाद्यों के अनुसार अवयवों के प्रयोग का निर्देश किया है। १. विद्यानन्द (प्रमाण परीक्षा), प्रभाचन्द्र (प्रमेयकमलमार्तण्ड) आदि) मा २. त.सू. १०-५, ६, ७ ३. न्यायावतार, का. १३ तथा १४, १७, १८, १६ ४. न्याय वि.का. ३८१, अकलंकग्रन्थश्रय ५. प्र.प., पृ. ४७, वी.ट्र., वाराणसी संस्करण, १६७७। प.परी. पृ. ५ ६. परी.मु. ३-३७ . ७. प्र.न.त. ३-२८ र निकाला ८. प्र.मी. २/१/६, पृ. ५२ ६. न्या.दी., पृ. ७२, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा संस्करण, १६४५ १०. भद्रबाहु, दशवै.नियु.गा. ४७, ५० ११. पत्र परीक्षा, पृ. ५, वीर से.मं.ट्र, वाराणसी संस्करण जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग १०६ अनुमान दोष-विमर्श करने की । अब देखना है कि अनुमान से क्या दोष हो सकते हैं और वे कितने संभव हैं ? स्पष्ट है कि अनुमान का गहन मुख्यतया दो अगों पर निर्भर है-१. साधन और २. साध्य (पक्ष)। अतएव दोष भी साधनगत और साध्यगत दो ही प्रकार के हो सकते है और उन्हें क्रमशः साधनाभास और साध्याभास (पक्षाभास) नाम दिया जा सकता है। साधन अनुमान-प्रासाद का वह प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है, जिस पर उसका भव्य भवन निर्मित होता है। यदि प्रधान स्तम्भ निर्बल हो तो प्रासाद किसी क्षण क्षतिग्रस्त एवं धराशायी हो सकता है। संभवतः इसी से गौतम अक्षपाद ने साध्यगत दोषों का विचार न कर मात्र साधनगत दोषों का विचार किया है और उन्हें अवयवों की तरह सोलह पदार्थों के अन्तर्गत हेत्वाभास नाम से स्वतंत्र पदार्थ का प्रदान किया है। इससे गौतम की दृष्टि में उनकी अनुमान में प्रमुख प्रतिबन्धकता प्रकट होती है। उन्होंने उन साधनगत दोषों को, जिन्हें हेत्वाभास के नाम से उल्लिखित किया गया है, पाँच बतलाया है। वे हैं- १. सव्यभिचार, २. विरुद्ध, ३. प्रकरणसम, ४. साध्यसम और ५. कालातीत। हेत्वाभासों की पाँच संख्या संभवत: हेत के पाँच रूपों के अभाव पर आधारित जान पडती है। यद्यपि हेत के पाँच रूपों का निर्देश गौतम के न्यायसूत्र में उपलब्ध नहीं है। पर उसके व्याख्याकार उद्योतकर प्रभृति ने उनका उल्लेख किया है। [ वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक कणाद ने अप्रसिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध- ये तीन हेत्वाभास प्रतिपादित किये हैं। उनके भाष्यकार प्रशस्तपाद ने काश्यप (कणाद) की दो कारिकाएँ उद्धृत करके पहली द्वारा हेतु के तीन रूपों तथा दूसरी द्वारा उनके अभाव से उक्त तीन हेत्वाभासों का कथन किया है। प्रशस्तपाद ने बारह निदर्शनों और उतने ही निदर्शनाभासों के निरूपण के साथ पाँच प्रतिज्ञाभासों (पक्षाभासों) का भी प्रतिपादन किया है। बौद्धदर्शन के न्याय प्रवेश में अनुमान दोषों पर विचार करते हुए पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास इन तीन प्रकार के अनुमान दोषों का कथन है। इनका विस्तार भी उसमें प्राप्त है। १. न्याय सू. १/२१४ - २. न्यायवा. १/२/४, पृ. १६३ तथा न्यायकलिका. पृ. १४, न्या.मं. पृ. १०१ ३. वैशे.सू. ३/१/१५ ४. प्रशस्त.भा. पृ. १०० ५. प्रशस्त.भा. पृ. १२२, १२३ ६. वही, पृ. ११५ ७. न्यायप्र. पृ. २-७ ८. वही, पृ. २ से ७ ११० जा जैनदर्शन जोडा है जैन परम्परा में भी अनुमान दोषों पर चिन्तन किया गया है। न्यायावतार में पक्षादि तीन के वचन को परार्थानुमान कहकर उसके दोष भी तीन बतलायें हैं-’ १. पक्षाभास, २. हेत्वाभास और ३. दृष्टान्ताभास। पक्षाभास के सिद्ध और बाधित ये दो भेद दिखाकर बाधित के प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधि, लोकबाधित और स्ववचनबाधित- ये चार भेद गिनाये हैं। असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक तीन हेत्वाभासों तथा छह साधर्म्य और छह वैधर्म्य कुल बारह दृष्टान्ताभासों का भी कथन किया है। कि ध्यातव्य है कि साध्यविकल, साधनविकल और उभयविकल- ये तीन साधर्म्य दृष्टान्ताभास तथा साध्याव्यावृत्त, साधनाव्यावृत्त और उभयाव्यात्त- ये तीन वैधादृष्टान्ताभास तो प्रशस्तपादभाष्य और न्यायप्रवेश जैसे ही हैं। किन्तु सन्दिग्ध-साध्य, सन्दिग्ध-साधन और सन्दिग्धोभय- ये तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्धसाध्यव्यावृत्ति, सन्दिग्धसाधनव्यावृत्ति और सन्दिग्धोभयव्यावृत्ति- ये तीन वैधादृष्टान्ताभास बिल्कुल नये हैं- न प्रशस्तपादभाष्य में हैं और न न्यायप्रवेश में। एक प्रशस्तपादभाष्य में आश्रयासिद्ध, अननुगत और विपरीतानुगत ये तीन साधर्म्य तथा आश्रयसिद्ध, अव्यावृत्त और विपरीतव्यावृत्त ये तीन वैधर्म्यनिदर्शनाभास वर्णित हैं और न्यायप्रवेश में अनन्वय तथा विपरीतान्वय- ये दो साधर्म्य और अव्यतिरेक तथा विपरीत व्यतिरेक ये दो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास उपलब्ध हैं। पर हाँ, धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु में उनका प्रतिपादन मिलता है। धर्मकीर्ति ने सन्दिग्धसाध्यादि उक्त तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभासों और सन्दिग्धव्यतिरेकादि तीन वैधHदृष्टान्ताभासों का स्पष्ट निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त धर्मकीर्ति ने न्याय प्रवेशगत अनन्वय, विपरीतान्वय, अव्यतिरेक और विपरीत व्यतिरेक इन चार (२+२ = ४) साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्ताभासों को अपनाते हुए अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक- इन दो नये दृष्टान्ताभासों को और सम्मिलित करके नव-नव साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्ताभास प्रतिपादित किये हैं।
- अकलंक ने पक्षाभास के उक्त सिद्ध और बाधित दो भेदों के अतिरिक्त अनिष्ट नामक तीसरा पक्षाभास भी वर्णित किया है। वस्तुतः जब साध्य शक्य (अबाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और असिद्ध होता है तो उसके दोष (साध्याभास) भी बाधित, अनिष्ट और सिद्ध तीन प्रकार के होना चाहिए। हेत्वाभासों के सम्बन्ध में उनका मत है कि जैनन्याय में हेतु न त्रिरूप है और न पाँच रूप, किन्तु एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) रूप है। अतः १. न्यायवतार, कारि. १३, २१, २५ २. न्यायविनि.का. १७२, २६६, ३६५, ३६६, ३७०, ३८१ ३. न्यायवि.का. १-१०१, १०२, २-१६७ २-२०२। प्रमाणसं. ४८, ४६ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग १११ उसके अभाव में हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर। असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक आदि उसी के विस्तार हैं। दृष्टान्त के विषय में उनका कहना है कि वह सर्वत्र (सभी अनुमान प्रयोगों में) आवश्यक नहीं है- ‘शकट का एक मुहूर्त बाद उदय होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय हो रहा है’, ‘कल मंगल होगा, क्योंकि आज सोमवार हैं’, ‘सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं, क्योंकि वे परिणामी हैं’, अथवा ‘सभी वस्तुएँ अनेकान्तात्मक हैं, क्योंकि वे सत् हैं’ आदि अनुमान प्रयोगों में कोई दृष्टान्त नहीं है, फिर भी वे साध्य साधक हैं। अकलंक यह भी कहते हैं कि यदि वह अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की अपेक्षा आवश्यक हो तो उसे कहा जाये और उसमें यदि साध्य विकलादि दोष हो तो उन्हें भी कहना चाहिए। माणिक्यनन्दि, देवसूरि, हेमचन्द्र आदि जैन तार्किकों ने प्रायः अकलंक और सिद्धसेन (न्यायावतारकार) का ही अनुसरण किया है।
- इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन न्यायशास्त्र में अनुमान का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया है। अन्य प्रमाणों की अपेक्षा इसका परिवार भी बृहद् है, यह भी हमें ज्ञात हो जाता है। ५. आगम (श्रुत)- शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- ‘मेरु आदिक हैं’ शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है। शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।
प्रत्यक्ष प्रमाण-विमर्श
अब हम प्रमाण के दूसरे भेद प्रत्यक्ष का निरूपण करेंगे - आगम दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्रकार और उनके व्याख्याकारों ने प्रत्यक्ष उसे कहा है जो आत्मा मात्र की अपेक्षा लेकर उत्पन्न होता है तथा इन्द्रियों, मन तथा उपदेश, आलोकादि की अपेक्षा नहीं करता। किन्तु लोक में इन्द्रियों तथा मन से होने वाले ज्ञानों को क्रमशः hd १. वही, २-२११ २. वादिराज द्वारा विवृत अभिप्राय; न्यायवि.वि. १/२११ ३. परी.मु. ३-६६, १००, १०१ ४. त.सू. १-१२, सर्वो.सि. १-१२। (व्याख्या)। प्र.प. पृ. ३८, अनु. ६०११२ जैनदर्शन इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय (मानस) प्रत्यक्ष माना गया है। इस लोक-मान्यता के साथ जैन दर्शन की उक्त मान्यता का सुमेल बिठाने के लिए अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष का लक्षण ‘विशद ज्ञान’ कहा है और उसके दो भेद बतलाये- १. मुख्य प्रत्यक्ष और २. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । मुख्य प्रत्यक्ष तो वही है, जो मात्र आत्मा की अपेक्षा से होता है और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष वह है जो इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होता है। ये दोनों प्रत्यक्ष विषयाधिगम में विशद (निर्मल) होते हैं। अन्तर इनमें यही है कि मुख्य प्रत्यक्ष पूर्णतया विशद होता है और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष एकदेश (अंश रूप में) निर्मल होता है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के मूलतः चार भेद हैं-२ १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा। किसी पदार्थ को देखने के बाद जो उसका सामान्य ग्रहण होता है वह अवग्रह है। उदाहरण के लिए पूरा दृश्यमान पदार्थ को देखते ही ऐसा जानना कि ‘यह मनुष्य है’। उसे विशेष जानने की आकांक्षा करना ईहा है। जैसे उस मनुष्य के कुछ समीप आने पर ऐसा ज्ञान होना कि ‘इसे दाक्षिणात्य होना चाहिए।’ यद्यपि ईहा इच्छा है किन्तु उसमें ज्ञान मिला हुआ रहता है और वह मिलित ज्ञान ईहा ज्ञान है। उस पदार्थ का निश्चय होना अवाय है। जैसे उसके वेष-भूषा, भाषा आदि से यह निश्चय होना कि ‘यह मनुष्य दाक्षिणात्य ही है। उस निश्चित पदार्थ के अविस्मरण में जो कारण है वह धारणा है। इस ज्ञान को संस्कार भी कहते हैं। यह ज्ञान इतना मजबूत होता है कि कालान्तर में भी उसकी स्मृति हो जाती है। जैसे कालान्तर में भी उस दाक्षिणात्य मनुष्य जिसके कारण स्मरण आता है। ये चारों ज्ञान इन्द्रियों और मनपूर्वक होते हैं तथा बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, निःसृत, अनिःसृत, उक्त, अनुक्त, ध्रुव और अध्रुव-इन बारह प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करते हैं। अतः ४ x १२ = ४८ x ५ = २४०; १ x १२ = १२ x ४ = ४८; १ x ४ x १२ = ४८ = ३३६ इसके भेद हैं। तात्पर्य यह कि अवग्रह आदि चारों ज्ञान बहु आदि बारह प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करने से उनका उनसे गुणा करने पर अड़तालीस होते हैं और ये अड़तालीस ज्ञान स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों से होते हैं, अतः अड़तालीस पाँच से गुणा किये जाने पर दो सौ चालीस भेद हो जाते हैं। अतः अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का है १. अर्थावग्रह और २. व्यंजनावग्रह। ये उपर्युक्त भेद अर्थावग्रह की अपेक्षाये हैं। व्यंजनावग्रह बहु आदि बारह पदार्थों को विषय करता है और वह प्राप्यकारी स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों से ही होता है, अप्राप्यकारी चक्षु और मन से नहीं होता। अतः इसके एक से बारह और बारह का चार से गुणा करने पर अड़तालीस भेद होते हैं। १. लघीयस्तव, १-३। परीक्षा मुख २-११ २. विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा पृ. ३८, ३६, ४० जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ११३ 3 इस प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा से दो सौ चालीस और अड़तालीस दोनों का जोड़ करने पर दो सौ अठासी भेद इन्द्रिय प्रत्यक्ष के है तथा केवल मन से उत्पन्न होने वाले अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के- अवग्रह आदि का वह आदि से गुणा करने पर (४ x १२ = ४८) अड़तालीस भेद है। इस तरह सांव्यवहारिक (इन्द्रिय और अनिन्द्रिय) प्रत्यक्ष के कुल तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद वर्णित हैं। इन भेदों में जैन तार्किकों का गहरा चिन्तन दृष्टिगोचर होता है। नाथामिकता काशन मान मुख्य प्रत्यक्ष दूसरा प्रत्यक्ष है।’ इसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। इस प्रत्यक्ष में अंशमात्र भी परावलम्बन (इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की अपेक्षा) नहीं है। मात्र आत्मा की अपेक्षा है। इसी से इसे मुख्य अथवा पारमार्थिक या अतीन्द्रिय कहा गया है। अशा इसके दो भेद हैं- १. विकल-मुख्यप्रत्यक्ष और २. सकल-मुख्यप्रत्यक्ष। जो केवल मूर्त (पुद्गल और शरीरादि पुद्गल से सम्बद्ध जीव) मात्र को विषय करता है, अमूर्त (शुद्ध जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य) को नहीं वह विकल मुख्य प्रत्यक्ष है तथा जो मूर्त और अमूर्त सभी पदार्थों को ग्रहण करता है वह सकल मुख्य प्रत्यक्ष है। यह पूर्ण निरावरण होता है। विषय को जानने में ये विकल और सकल दोनों प्रत्यक्ष पूर्ण विशद होते हैं। इसी से इन दोनों को मुख्य प्रत्यक्ष कहा गया है। उनमें जो भेद है वह सकल (मूर्त-अमूर्त) और विकल (मात्र मूर्त) को विषय करने से है। विशदता दोनों में एक सी है। विकल मुख्य प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-१. अवधि और २. मनःपर्यय । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर इन्द्रिय और मन की सहायता लिए बिना मात्र रूपी (मूर्त) द्रव्य को विषय करता है वह अवधिज्ञान है। इसके तीन भेद हैं-१. देशावधि, २. परमावधि और ३. सर्वावधि। देशावधि चारों (मनुष्य, पशु, देव और नारक) जातियों में हो सकता है। परन्तु शेष दोनों अवधि संयमी-योगी को ही प्राप्त होते हैं। अन्य प्रकार से भी इसके भेदों को निरूपण किया गया है। वे हैं-१. भवप्रत्यय और २. गुणप्रत्यय । जिसमें मुख्यतया भव-पर्याय ही निमित्त हो वह भवप्रत्यय है। यह देवों और नारकियों को उस भव ही प्राप्त हो जाता है। इसीलिए इसे भवप्रत्यय कहा गया है। उसकी प्राप्ति के लिए उन्हें कोई तपश्चरण, संयम, त्याग आदि नहीं करना पड़ता। दूसरा अवधि गुणप्रत्यय है, जो मुख्यतया क्षयोपशम (गुणविशेष) से उत्पन्न होता है। इससे इसे ‘क्षयोपशमनिमित्त’ संज्ञा से भी अभिहित किया गया है। हर में ध्यातव्य है कि यह अवधिज्ञान क्षयोपशम अवधिज्ञानावरण के ईषद् अभाव में प्रकट होता है। इस अवधिज्ञान के छह भेद हैं-१. अनुगामी, २. अननुगामी, ३. वर्द्धमान, ४. हीयमान, ५. अवस्थित और ६. अनवस्थित । जो अवधिज्ञान उसके स्वामी के अन्य क्षेत्र या अन्य भव में जाने पर उसके साथ जाता है वह अनुगामी है जो अपने स्वामी के साथ १. प्रमाण परीक्षा, पु. ४०.४१ साहायला ११४ बमा जैनदर्शन निरः । अन्य क्षेत्र या अन्य भव में नहीं जाता-उसी क्षेत्र में या उसी भव में छूट जाता है वह अननुगामी है। जो उत्पन्न होने के बाद परिणामों की विशुद्धि से बढ़ता रहता है वह वर्द्धमान है, जो उत्पन्न होने के पश्चात् परिणामों के संक्लेश से घटता जाता है वह हीयमान है। जो एक-सा रहे- न बढ़े-न घटे वह अवस्थित है और जो घटे-बढ़े वह अनवस्थित है। सप्रतिपात और अप्रतिपात के भेद से दो प्रकार का भी अवधिज्ञान कहा गया है। छूट जाने वाला सप्रतिपात और नहीं छूटने वाला अप्रतिपात अवधिज्ञान है। 187 मनःपर्यय वह ज्ञान है, जिससे ऋषि-योगी दूसरे के मन में चिन्तित, अर्धचिन्तित अथवा अचिन्तित अर्थ को जानता है। इसके दो भेद हैं- १. ऋजुमति और २. विपुलमति। जो व्यक्ति के सरल मन में चिन्तित पदार्थ को जानता है वह ऋजुमति मनःपर्यय है और जो व्यक्ति के सरल एवं वक्र (कुटिल) मन में चिन्तित, अर्धचिन्तित या अचिन्तित पदार्थ को ज्ञात कर लेता है वह विपुलमति मनःपर्यय है। उपर्युक्त परमावधि, सर्वावधि और यह मनः पर्यय तीनों ज्ञान ऋद्धि विशेष हैं, जो योगियों को उनके कठोर संयम एवं दुर्धर तपश्चरण और ध्यान से प्राप्त होते हैं। _मुख्यप्रत्यक्ष का द्वितीय भेद सकल प्रत्यक्ष है। वह ऐसा अद्वितीय ज्ञान है, जिसके साथ अन्य कोई ज्ञान नहीं रहता और जो सादि-अनन्त है। यह समस्त पदार्थों, द्रव्यों और उनकी भूत-भविष्यद्-वर्तमान (त्रैकालिक) अनन्त पर्यायों को जानता है। इस ज्ञान का कोई भी विषय अज्ञेय नहीं रहता। यह समस्त घाति कर्मों (ज्ञान के अवरोधक ज्ञानावरण, दर्शन के निरोधक दर्शनावरण, अनन्त सुखरोधक मोहनीय और अनन्तवीर्य के अवरोधक अन्तराय-इन चार कर्मावरणों) के अशेष क्षय से आत्मा में प्रकट होता है। इसका एक ही भेद है। वह है अचिन्त्य-महिमाशाली केवलज्ञान। इसके होने पर आत्मा सकल परमात्मा और सकलज्ञ (आप्त सर्वज्ञ) हो जाता है। शरीर से मुक्त आत्मा निकल परमात्मा (सिद्ध) कहा जाता है। इस प्रकार जैन तार्किकों ने परोक्ष और प्रत्यक्ष दोनों प्रमाणों अतिसूक्ष्म और विस्तृत कथन किया है। अब न्याय का द्वितीय अङ्ग नय का संक्षेप में निरूपण किया जाता है
२. नय-विमर्श किया
नय-स्वरूप- अभिनव धर्मभूषण ने न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि ‘प्रमाण-नयात्मको न्यायः’-प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य १. प्रमाण परीक्षा, पृ. ४१ २. न्यायदीपिका, पृ. ५, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, १६४५ मा जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ११५ गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे ‘महाशास्त्र’ कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- ‘प्रमाणनयैरधिगमः’ -(त.सू. १-६)। वस्तुतः जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। प्रमाण का विवेचन किया जा चुका है। सम्प्रति नय विवेच्य है। प्रमाण के द्वारा गृहीत पदार्थ के अंशों को जो ग्रहण करता है वह नय है। यों प्रमाण और नय दोनों सम्यग्ज्ञान हैं। उनमें अन्तर यही है कि प्रमाण जहाँ वस्तु को अखण्ड रूप में ग्रहण करता है वहाँ नय उसे सखण्ड-एक-एक खण्ड (अंश) के रूप में ग्रहण करता है। वस्तु अनेकान्त रूप-द्रव्य पर्यायात्मक, सामान्य विशेषात्मक, भेदाभेदात्मक, एक नेकात्मक, सदसदात्मक, नित्यानित्यात्मक आदि है। उसका जो अन्वयी- समस्त पर्यायों, विशेषों आदि में व्याप्त होकर रहने वाला-रूप है वह द्रव्य, सामान्य, अभेद, एक, सत्, नित्य है और उसको जो व्यतिरेकी-आने-जाने वाला-रूप है वह पर्याय, विशेष, भेद, अनेक, असत् (व्यावृत्ति), अनित्य है। ज्ञाता या वक्ता की दृष्टि (अभिप्राय) जब द्रव्य, सामान्य, अभेद, एक, सत्, नित्य को जानने या कहने की होती है तब वह दृष्टि द्रव्यार्थिक नय (द्रव्यमेवार्थो विषये यस्यास्ति स द्रव्यार्थिक इति) है। और जब उनकी दृष्टि पर्याय, विशेष, भेद, अनेक, असत्, अनित्य को जानने या कहने की रहती है तब वह दृष्टि पर्यायार्थिक नय (पर्याय एवार्थो प्रयोजनं यस्यास्त्यसौ पर्यायार्थिक इति)’ कही जाती है। __नय-भेद-उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं-२ १. द्रव्यार्थिक और २. पर्यायार्थिक। इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं-३ १. नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार। तथा पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं-४ १. ऋजुसूत्र, २. शब्द, ३. समभिरूढ़ और ४. एवम्भूत। फिर नवी १. नैगम नय-जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें ‘सुख’ धर्म की प्रधानता और ‘जीव’ धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें ‘जीव’ धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और ‘सुख’ धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है। जैसे कोई रोटी बनाने की सामग्री तैयार कर रहा या जुटा रहा था। किसी ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि ‘रोटी बना IPE १. प्रमेयर. ६/७४/, टि.६ ३. वही, दि. ७ २. प्रमेयरत्नमाला ६/७४, पृ. २०६, सं. १६२८ ३. वही, ६/७४ ४. वही, पृ. २०७। ११६ नाम पर जैनदर्शन मिली कि रहा हूँ। तो उस समय वह रोटी तो नहीं बना रहा है, किन्तु संकल्प है। इस प्रकार संकल्पग्राही वह नय नैगम नय है। यदि यह नय धर्मी या एक धर्ममात्र का ग्रहण करता है तो अविनाभावी अन्य धर्मों या धर्मी का लोप हो जाने से नैगमाभास है। २. संग्रह नय-जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ ‘सन्मात्र’ को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे ‘सत्’ कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा ‘सत्’ कहने पर ‘चेतन, अचेतन’ विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। ३. व्यवहार नय-संग्रहनय से ग्रहण किये ‘सत्’ में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत ‘सत्’ द्रव्य है या पर्याय है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है। ४. ऋजुसूत्र नय-भूत और भविष्यत् पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्राभास है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत् की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। ५. शब्द नय-जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे ‘नक्तं निशा’ दोनों पर्यायवाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। ‘नक्तं’ शब्द नंपुसक लिंग है और ‘निशा’ शब्द स्त्रीलिंग है। ‘शब्दभेदातु ध्रुवोऽर्थभेदः’ यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास है। ६. समभिरूढ़ नय-जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरुढ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।’ विधामा हाल ७. एवंभूत नय-जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय है। जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का काल्पनिक व्यवहार करना एवंभूतनयाभास है। ये नय आरम्भ से लेकर अन्तिम तक सूक्ष्म-सूक्ष्म विषय ग्राहक हैं और अन्तिम से लेकर प्रथम तक स्थूल-स्थूल विषय-ग्राही हैं। इन नयों के भी भेदों निरूपण जैनदर्शन ग्रन्थों में उपलब्ध है। अनेक लेखकों ने तो स्वतंत्र रूप से नयचक्र, द्वादशारनयचक्र, आलाप पद्धति आदि नामों से ‘नय’ विषय पर रचनाएँ लिखी हैं। १. ‘तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवय॑म् श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च। -सर्वार्थसिद्धि १-६, भा.ज्ञा. संस्करण जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ११७ एक दूसरी तरह से नयों का प्रतिपादन पाया जाता है। वह है-निश्चय और व्यवहार। इन दोनों नयों से मुख्यतया अध्यात्म का विवेचन किया जाता है। सद्भूत अवस्था अथवा असंयुक्त अवस्था का प्रतिपादक जो नय है वह निश्चय नय कहा जाता है और जो असद्भूत अथवा संयुक्त (उपचार) का निरूपण करने वाला नय है वह व्यवहार नय है। इन्हें क्रमशः परमार्थ और अपरमार्थ भी कहते हैं।
नय प्रमाण है या अप्रमाण?
यहाँ नय के विषय में एक प्रश्न उठता है कि नय प्रमाण है या अप्रमाण ? यदि प्रमाण है, तो उसे प्रमाण से पृथक् कहने की क्या आवश्यकता है ? अन्य दर्शनों की भांति एकमात्र प्रमाण को ही अर्थाधिगमोपाय बताना पर्याप्त है ? यदि अप्रमाण है तो उसकी चर्चा करना नितान्त अनावश्यक है, क्योंकि उससे यथार्थ प्रतिपत्ति होना दुष्कर है ?क शिष्य वापर कि इस प्रश्न पर जैन तार्किकों ने गम्भीरता से विचार किया है और कहा है कि वास्तव में नय न प्रमाण है और न अप्रमाण अपितु प्रमाणैकदेश-श्रुतज्ञान है। पूज्यपाद ने कहा है कि ‘प्रमाण दो प्रकार का है-१. स्वार्थ और २. परार्थ । मति, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये चार ज्ञान स्वार्थ (स्वप्रतिपत्ति कारक) हैं और श्रुत स्वार्थ तथा परार्थ दोनों है। ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ है और वचनात्मक श्रुत परार्थ (परप्रतिपत्ति कारक) है। इसी श्रुत के भेद नय है।’ जब ज्ञाता या वक्ता ज्ञान द्वारा या वचनों द्वारा पदार्थ में अंश कल्पना करके उसे ग्रहण करता है तो उसका वह ज्ञान अथवा वचन नय कहा जाता है और जब पदार्थ में अंश कल्पना किये बिना वह उसे समग्ररूपों ग्रहण करता है, तब उसका वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है। प्रमाण और नय में यही भेद है। सापेक्ष अंश-प्रतिपत्ति का एकमात्र साधन नय है। ___ तात्पर्य यह कि अंशी- वस्तु को प्रमाण मतिज्ञानादि से जानकर अनन्तर किसी एक अंश - धर्म-अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय कहा गया है। _ विद्यानन्द’ १६८ (‘प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणार्थाभिधायिनः प्रमाणशब्दात् प्रमाकरणं प्रमाणमवगम्यते। - न्यायम् पृ.-२५) एक उदाहरण के माध्यम से कहते हैं कि ‘जिस प्रकार समुद्र से लाया गया घड़ा भर पानी न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रैकदेश (समुद्रांश) है। उसे समुद्र मानने पर शेष सारा पानी असमुद्र कहा जायेगा अथवा समुद्र बहुत्वकी कल्पना करना पड़ेगी। यदि उसे असमुद्र कहा जाय, तो शेषांशों को भी असमुद्र कहा जायगा। फलतः समुद्र का व्यवहार समाप्त हो जायेगा। इतना ही नहीं, कोई समुद्र का ज्ञाता या वक्ता भी नहीं रहेगा। अतः समुद्र से लाया हुआ घड़ा भर पानी जैसे समुद्रैक देश है, उसी प्रकार नय न प्रमाण है, न अप्रमाण, अपितु प्रमाणैकदेश है। लोक का समस्त व्यवहार प्रायः उसी पर आधृत है। १. ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम्। तद्विकल्पा नयाः। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ११८ से १२३ ११८ जैनदर्शनामा - सपना
वाद-विद्या
मध्य युग
दार्शनिक एवं तार्किक मध्ययुग काफी लम्बा और संघर्षशील रहा है। ईसवी दूसरी तीसरी शती से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक एक हजार वर्ष का काल ऐसा रहा है, जब वैदिक और बौद्धदर्शन शास्त्रार्थ के अखाड़े बन गये थे। दोनों का प्रयत्न था कि वे अपने दर्शन की श्रेष्ठता एवं उपादेयता सिद्ध करें तथा दूसरे दर्शन की हीनता एवं हेयता साबित करें। फलतः स्वस्थ वाद चर्चा के स्थानों छलादि प्रयोग की दूषित चर्चा होने लगी और तत्त्व-संरक्षण के लिए वाद के अलावा जल्प, वितण्डा, छल, जाति, निग्रह स्थान जैसे असद् उपायों का आलम्बन लिया जाने लगा। इतना ही नहीं, उन्हें सूत्रबद्ध करके शास्त्र का रूप भी दिया गया। न्यायदर्शन में जिन प्रमाण आदि १६ पदार्थों के तत्त्वज्ञान को निःश्रेयस की प्राप्ति का उपाय प्ररूपित किया है, उनमें वितण्डा, छल, जाति, निग्रह स्थान आदि का भी समावेश है। का बौद्धदर्शन में भी वाद-चर्चा को स्वीकार किया गया है और उसका विवेचन करने के लिए बौद्ध तार्किकों ने ‘वादन्याय’ जैसे ग्रन्थों की रचना की है। पर वितण्डा, छल, जाति आदि को नहीं माना और न न्यायदर्शन की तरह २२ निग्रह स्थानों का वर्णन किया है। मात्र उनसे भिन्न दो निग्रह स्थानों का उन्होंने प्रतिपादन किया है, वे हैं-’ १. असाधनाङ्ग-वचन जो साधन (सिद्ध) के अङ्ग हैं उनका कथन न करना अथवा जो साधन के अङ्ग नहीं हैं उनका कथन करना) तथा २. अदोषोदावन (दोषों का उद्भावन न करना अथवा जो दोष नहीं हैं उनका उद्भावन करना) पहला निग्रह-स्थान वादी और दूसरा निग्रह स्थान प्रतिवादी की अपेक्षा से है। इन दो-से ही उन की पराजय हो जाती है। जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा इतर दर्शनों से भिन्न है। जहाँ ये दर्शन एकान्तवादी हैं वहाँ जैन दर्शन अनेकान्तवादी है। उस पर प्रायः अन्य सभी दर्शनों के प्रहार हुए हैं। पर जैन दर्शन अहिंसक एवं स्याद्वादी विचारधारा से च्युत नहीं हुआ और संयम के साथ उन प्रहारों का उसने निवारण किया है। महावादी स्वामी समन्तभद्र ने चारों दिशाओं में स्थित नगरों की वादशालाओं में पहुँच कर तथा भेरी वजाकर वादियों के साथ शास्त्रार्थ किये और उनमें विजय प्राप्त की। ६३ वादियों के विजेता और ‘जल्पनिर्णय’ वादग्रन्थ के कर्ता श्रीदत्त १. धर्मकीर्ति, वादन्याय, पृ. ६७, ६८ तथा पत्र-परीक्षा, पृ. ११, वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, १६७१ पूर्वं पाटलिपत्रमध्यनगरे भेरी मया ताड़िता, पश्चान्मालवसिन्धु-ठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्।। -श्रवणवेलगोल, शिलालेख नं. ५४ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग ११६ ने’ अनेक शास्त्रार्थ किये। महान्यायवादी अकलङदेव ने भी ‘सिद्धिविनिश्चय’ में ‘जल्पसिद्धि’ नाम से एक शास्त्रार्थ विषयक पूरा अध्याय लिखा है। कुमारनन्दि भट्टारक ने भी, जिन्हें ‘वादन्याय-विचक्षण’ कहा गया है। धर्म के बाद न्याय की तरह ‘वादन्याय’ ग्रन्थ लिखा है। किन्तु वह श्रीदत्त के ‘जल्पनिर्णय’ की तरह आज उपलब्ध नहीं है। विद्यानन्द की सूक्ष्म एवं गहरी दृष्टि न केवल तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं अष्टसहस्री में वादचर्चा के विशद आकलन की ओर गयी, किन्तु स्वतंत्र रूप से ‘पत्र-परीक्षा’ के सृजन की ओर भी गयी। वस्तुतः यह युग की मांग थी।
कथा का आरम्भ
को कि मानव को अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए विचार और शब्द का सहारा लेना पड़ता है। जब वह स्वयं कुछ सोचता है तो विचारोन्मुख होता है और जब वह दूसरे को अपना अभिप्राय प्रकट करना चाहता है तो शब्द का उच्चारण करता है। इन्हीं दो से कथा का आविर्भाव हुआ है। कथा का अर्थ है कहानी अथवा चर्चा । कथाकार, जो सुविज्ञ होता है, सुनने के इच्छुक व्यक्तियों (बच्चों आदि) को जब कल्पित अथवा यथार्थ किसी राजा-रानी की जीवनी सुनाता या कहता है, तो उनकी वह जीवनी, कहानी, चर्चा या कथा कही जाती है। ऐसी कथाएँ छोटी और रसीली होती हैं। बच्चे या जनसामान्य उन्हें बड़े चाव से सुनते हैं। जब सुनने वालों की जिज्ञासा और बढ़ती है तो उन्हें लम्बी ज्ञान परक कहानियाँ सुनाई जाती हैं। वे ही कहानियाँ बोध कथाएँ कही जाती हैं, जिनमें प्रश्नोत्तर एवं विषयपरक ज्ञान रहता है। इन कथाओं से बुद्धि का विकास तो होता ही है, निर्णय करने की शक्ति भी प्रकट होती है। हित-अहित उपादेय-अनुपादेय का विचार भी जागृत होता है। प्रतीत होता है कि ऐसी कथाएँ ही दार्शनिक कथाओं का परम्परया मूल रही हैं। क मा मा
दार्शनिक कथाएँ
PIREE न्यायवार्त्तिककार उद्योतकर ने दार्शनिक कथाएँ तीन प्रकार की कही हैं- १. वाद, २. जल्प और ३. वितण्डा। वे यह भी कहते हैं कि यह कोई नियम नहीं है कि वे कथाएँ १. द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्व-प्रातिभगोचरम्। त्रिषष्टेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये।। -तत्त्वार्थश्लो.१-३३, श्लो. ४५, पृ. २८० २. सिद्धेवात्राकलकस्य महतो न्यायवेदिनः। -वही, पृ. २७७ । ३. कुमारनन्दिनश्चाहुर्वादन्यायविचक्षणाः।। -वही, श्लोक ३७, पृ.२८० चाकार मिल कर ४. ‘तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निमदित्वान्। तदाह-’ -पत्र-परीक्षा, पृ. ५, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट संस्क., १६७१ - - ५. तिस्रः कथा भवन्ति वादो जल्पो वितण्डेति। नायं कथाः-नियमः, किं तर्हि ? विचारवस्तुनियमः यद्वस्तुविचार्यते तत् त्रेधा विचार्यते। तत्र विचारो वादोजल्पो वितण्डेति। तत्र गुर्वादिभिः सहवादः । विजिगीषुणा सह जल्पवितण्डे। -न्यायवा. १-२-१ १२० म जैनदर्शन कि कई तीन ही होती हैं। पर हाँ, वस्तु का विचार तीन प्रकार से होता है। गुरु आदि के साथ होने वाली कथा ‘वाद’ है और विजिगीषु के साथ जाने वाली कथा ‘जल्प’ एवं वितण्डा हैं। न्याय सूत्रकार ने इन तीनों के एक-एक सूत्र द्वारा लक्षण दिये हैं।’ उन्होंने कहा है कि जो कथा प्रमाण और तर्क दोनों से साधन और दूषणपूर्वक की जाती है, सिद्धान्त के अविरुद्ध होती है, पंचावयवों से युक्त होती है और जिसमें पक्ष (वादी) तथा प्रतिपक्ष (प्रतिवादी) का स्वीकार होता है वह ‘वाद’ है। जिसमें उक्त प्रमाण व तर्क से साधन और दूषण के साथ छल, जाति और निग्रह स्थान इन तीन का भी प्रयोग होता है वह ‘जल्प’ है तथा जिसमें प्रतिवादी अपना कोई भी पक्ष स्थापित नहीं करता- केवल वादी जो पक्ष स्थापित करता है उसका वह छलादि से खण्डन करता है वह ‘वितण्डा’ है। इनमें जल्प और वितण्डा की आवश्यकता पर बल देते हुए न्याय सूत्रकार कहते हैं कि जैसे खेत में बोये गये बीजों और उनके अंकुरों की रक्षा करने के लिए काँटेदार बारी (बाड़) का घेराव लगाया जाता है उसी प्रकार तत्त्वज्ञान की सुरक्षा के लिए जल्प और वितण्डा-ये दो कथाएँ भी आवश्यक हैं। का जशी न्यायसार के कर्ता ने कथा का लक्षण देते हुए उसके दो भेद बतलाये हैं। उन्होंने कहा है कि वादी और प्रतिवादी जब पक्ष और प्रतिपक्ष को स्वीकार कर वस्तु-विचार करते हैं तो उनका वह विचार कथा है। उसके दो भेद हैं-१. वीतरागकथा और २. विजिगीषुकथा। जिसमें वीतराग (तत्त्वजिज्ञासु शिष्य या विद्वान्) वीतराग (तत्त्वज्ञ गुरु या विद्वान्) के साथ तत्त्वनिर्णय के लिए साधन और दूषणपूर्वक चर्चा करते हैं तो उसे वीतरागकथा कहते हैं। उसी को ‘वाद’ संज्ञा से भी कहा जाता है। जिसमें विजिगीषु-विजिगीषु के साथ लाभ, पूजा ख्याति की इच्छा रखता हुआ जय-पराजय के लिए प्रवृत्त होता है तो वह विजिगीषुकथा है। इसी को जल्प और वितण्डा नाम से भी कहा गया है। मीट की। ____ हम पहले कह आये हैं कि बौद्धदर्शन मात्र वाद कथा को स्वीकार करता है और वह विजिगीषुओं में मानता है। जल्प, वितण्डा, छलादि को तो वह असद्ववस्थारूप कहकर उनका निषेध करता है। विजिगीषु के लिए सयुक्तियों से ही स्वपक्ष की स्थापना और परपक्ष का निराकरण करना उचित बतलाता है। मायाजावा १. न्याय सू. १-२-१, २, ३ २. न्याय सू. ४-२-५० ‘वादिप्रतिवादिनोः पक्षपतिपक्षपरिग्रहः कथा। सा द्विविधा- वीतरागकथा विजिगीषुकथाचेति। यत्र वीतरागो वीतरागेणैव सह तत्त्वनिर्णयार्थ साधनोपालम्भौ करोति सा वीतरागकथा वादसंज्ञया । उच्यते। यत्र विजिगीषुः विजिगीषुणा सह लाभ-पूजा-ख्यातिकामः जयपराजयार्थं प्रवर्तते सात विजिगीषुकथा। विजिगीषुकथा जल्पवितण्डासंज्ञयोक्ता। -न्यायसार पृ. १, १६ मा पर मार ‘न्यायवादिनमपि वादेषु असद्वयवस्थोपन्यासैः शठा निगृह्णन्ति तन्निषेधार्थमिदमारम्भ्यते। ही -धर्मकीर्ति, वादन्याय, पृ.१। ‘तस्माज्जिगीषता स्वपक्षश्च स्थापनीयः परपक्षश्च निराकर्त्तव्यः। -वही, पृ. २ जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग १२१ छि वैशेषिकदर्शन न्यायदर्शन का समानजातीय है। यद्यपि वैशेषिक सूत्र में’ उपर्युक्त कथाओं का प्रतिपादन नहीं है। पर उसके टीकाकार व्योमशिव ने व्योमवती में, श्रीधर ने कंदली में और उदयनाचार्य ने किरणवली में बौद्ध सिद्धान्तों का न्यायदर्शन की तरह ‘वाद’, ‘जल्प’ और ‘वितण्डा’ तीनों कथाओं द्वारा खण्डन करने का निर्देश किया है। किन्तु उतना विस्तार उनका उनमें नहीं हैं, जितना न्यायदर्शन में पाया जाता है। बिना विध सांख्य और वेदान्त इन दोनों दर्शनों में भी उनका प्रतिपादन उपलब्ध नहीं होता। प्रतीत होता है कि ये दोनों दर्शन प्रकृति और ब्रह्म तत्त्व के निरूपण में ही तत्पर रहे हैं। अतः वे वादादि कथाओं से दूर रहे जान पड़ते हैं। स वित्तीय कि मि कि मीमांसा दर्शन मूलतः कर्मकाण्ड (क्रियाशास्त्र) है। उसे दर्शन का रूप तो सातवीं शताब्दी में हुए कुमारिल भट्ट और प्रभाकर ने अपनी रचनाओं (मीमांसा श्लोकवार्तिक और बृहती आदि टीका ग्रन्थों) में दिया है और खण्डन-मण्डन भी किया है। किन्तु वादादि कथाओं से वे भी दूर रहे हैं। फिर भी वे कम-बढ़ रूप में शास्त्रार्थों को करते रहे हैं। पर उनका इस विषय का स्वतंत्र कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। मुख्य मुठभेड़ तो न्यायदर्शन और बौद्धदर्शन की रही है और इसलिये आज इस विषय का साहित्य इनका उपलब्ध होता है।
जैनदर्शन में कथा-मान्यता
__ जैनदर्शन की परम्परा अहिंसा और सम्यग्ज्ञान के प्रचार एवं प्रसार की रही है। अतएव इन दोनों के दायरे में इस दर्शन ने विचार प्रस्तुत किये हैं और इसके लिए जैन दार्शनिकों ने भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक पदयात्रायें की और अहिंसा तथा सम्यग्ज्ञान का सन्देश पहुँचाया और आवश्यक हुआ तो वादियों के साथ वाद भी किये। पर जल्प और वितण्डा कथाएँ नहीं की। कहीं जल्पकथा करनी पड़ी तो उसमें छलादि का प्रयोग नहीं किया। केवल प्रमाण और तर्क से स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का निरसन प्रस्तुत किया। उन्होंने सभी प्रकार की (आचार और विचार विषयक) हिंसा से विरत रहकर शारीरिक अहिंसा के साथ वाचिक और मानसिक अहिंसा का सदा ध्यान रखा है। अतएव उन्होंने मौखिक और लिखित शास्त्रार्थों में वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे असद् उपायों का अवलम्बन नहीं लिया और न उनका समर्थन किया। प्रत्युत उन्हें हेय (वर्य) बतलाकर उनकी सयुक्तिक मीमांसा की है।’ १. वैशेषिकसूत्र १-१-१ से १०-२-६ सीतामा फस मनाने का २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, तत्त्वार्थाधिगमभेद, १-३३, पृ. २८३ से ३१०। JPET१२२ व जैनदर्शन उन्होंने स्पष्ट कहा कि वादकथा में विजिगीषु (वादी और प्रतिवादी) को सम्यक् हेतुओं से स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण दोनों करना चाहिए।’ इतना मात्र ही उन्हें आवश्यक है। यहाँ तक कि बौद्ध दर्शन में वाद कथा में अभिप्रेत असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन ये दो निग्रहस्थान भी नहीं कहना चाहिए। वादी यदि सभा में अपने पक्ष का साधन (सिद्धि) कर देता है तो वही प्रतिवादी का निग्रह है। तथा प्रतिवादी वादी के पक्ष को दषित कर देता है और वादी उसका परिहार नहीं करता तो वह वादी का निग्रह है। भले ही वादी या प्रतिवादी अपने पक्ष को सिद्ध करके चुप हो जायें या कुछ बोलें, तब भी असाधनाङगवचन से अथवा अदोषोदभावन से क्रमशः प्रतिवादी वादी को या वादी प्रतिवादी को पराजित नहीं कर सकता। पराजय के लिए वादी को स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष का निराकरण तथा प्रतिवादी को वादी के पक्ष में दूषण देना और स्वपक्षसिद्धि करना आवश्यक है। शिक्षा म यहाँ ध्यातव्य है कि जैन तार्किकों न जल्पकथा को माना अवश्य है किन्तु उसे वादकथा के नामान्तर रूप में माना है। उसमें छलादि का प्रयोग उन्हें अमान्य है। मात्र प्रमाण और तर्क से स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष का निराकरण ही उन्हें अभीष्ट है। __श्री दत्त ने ‘जल्पनिर्णय’ नाम से जो वादग्रन्थ लिखा है, उसमें ‘जल्प’ शब्द को उन्होंने वाद के अर्थ में ही प्रयुक्त किया है और उसके तात्त्विक एवं प्रातिभ ये दो भेद कहे हैं।’ अकलकदेव ने भी ‘सिद्धिविनिश्चय’ में एक प्रस्ताव ‘जल्पसिद्धि’ संज्ञक रखा है और उसमें जल्पका लक्षण देते हुए उसकी स्वोपज्ञवृत्ति में जल्प वादं विदुः शब्दों द्वारा जल्प को वादार्थक स्वीकार किया है। व्याख्याकार अनन्तवीर्य ने भी उसकी व्याख्या में जल्प और वाद में अभेद बतलाते हुए लिखा है- ‘तन्न जल्पाद अन्यो वाद इति मन्यते (ग्रन्थकारः। अर्थात् जल्प से भिन्न वाद नहीं है - दोनों एकार्थक हैं, यह ग्रन्थकार (अकलङ्क) को मान्य हैं।’ १. ‘विजिगीषुणोभयं कर्त्तव्यं स्वपरपक्षसाधनदूषणम्’…..निराकृतावस्थापितविपक्षस्वपक्षयोरेव जयेतरख्यवस्था नान्यथा। तदुक्तं - स्वपक्ष - सिद्विरेकस्यनिग्रहोऽन्यस्य वादिनः। की नासाधनाङ्गवचनं नादोषोद्रभावनं द्वयोः।। - अष्ट. स. पृ. ७ का ‘सभ्यप्रत्यायनं तस्य सिद्धिः स्याद्वादिनोऽथवा ‘प्रतिवादिन इत्येष निग्रहोऽन्यस्य तु।। वादिनः स्वपक्षप्रत्यायनं सभायां स्वपक्षसिद्धिः, प्रतिवादिनः स एव निग्रहः, प्रतिवादिनोऽयवा स्वपक्षसिद्धिदिनो निग्रह इत्येतत्प्रेययम् ।। - त. श्लो. १-३३-६१ ३. द्विप्रकारं जगी जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम्। त्रिषष्ठे दिनां जेताश्रीदत्तो जल्पनिर्णये।। - त. श्लोक. १-३३, पृ. २८०। ४. समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्गं विदुर्बुधाः। पक्ष निर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना।। - स्वेप सि.वि. ५-२, पृ. ३१३ दिन तक ५. वही, ५-२, पृ. ३१२। जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग १२३ व्याख्याकार आगे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं - ‘अथवा कथम्भूतं जल्पं वादं विदुः। यहाँ भी वे जल्पक अर्थवाद ही करते हैं। विद्यानन्द ने भी श्रीदत्त व अकलक के कथनों को उद्धृत करके उनका समर्थन किया है। इससे प्रकट है कि वे भी जल्प और वाद को पर्यायशब्द मानते हैं। विद्यानन्द ने वाद अथवा जल्पके दो भेद किये हैं। -१. वीतरागवाद और २. आभिमानिकवाद। वीतरागवाद तत्त्वजिज्ञासुओं में होता है। उसके दो अंग हैं - १. वादी (उत्तरदाता) और २. प्रतिवादी (प्रश्नकर्ता) अथवा गुरु और शिष्य या तत्व जिज्ञासु राग-द्वेषरहित विद्वान् आभिमानिकवाद जिगीषुओं में होता है और उसके चार अंग हैं - १. वादी, २. प्रतिवादी, ३. सभापति और ४. प्राश्निक। इस आभिमानिकवाद के भी दो भेद हैं - १. तात्त्विकवाद और २. प्रातिभवाद। तात्त्विकवाद में स्वपक्षसिद्धि करके सम्यक ज्ञान का प्रसार करना अभिप्रेत रहता है। विद्यानन्द ने अकलङ्कदेव को उदाहृत करके कहा है कि उन्होंने तात्त्विकवाद में ‘जय’ कही है और बतलाया है कि वादी और प्रतिवादी में जो अपने पथ की सिद्धि करे और प्रतिपक्ष का निराकरण करे उसकी जय और दूसरे की पराजय होती है। विद्यानन्द’ इसे स्पष्ट करते हुए कहते है। कि यतः शास्त्रीय अर्थ की विचारणा स्वपक्षसिद्धि पर्यन्त होती है। जैसे लौकिक अर्थों (मामलों) का विचार तब तक चलता है जब तक उनका निर्णय नहीं होता। न्यायालय अथवा परस्पर बातचीत के द्वारा यथार्थता का निर्णय हो जाने पर वाद (विवाद) समाप्त हो जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनदर्शन में वाद अथवा छलादिशून्य जल्पकथा विजिगीषुओं में पायी गयी है। अभिनव धर्मभूषण ने भी कथा के दो भेद बतलाये हैं हैं १. किं तत् जल्पं विदुः ? इत्याह - समर्थवचनम्। अथवा कथम्भूतं जल्पं वादं विदुः ? इत्याह समर्थवचन्। तेन “छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः।” (न्यायसू. १-२-२) इति निरस्तम् छलादीनाम् असमर्थवचनत्वात्।’ सि.वि.टी. ५-२, पृ. ३१२ । २. तत्त्वार्थश्लोक १-३३ तत्त्वार्थाधिगमभेद, पृ. २७७ से २८०। ३. वही, पृ. २७७ से २८१ ४. तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलकैः कथितो जयः। ___ स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः।। - त. श्लो. वा. १-३३, ४६, तत्त्वार्थधिः, पृ. २८१। ५. स्वपक्षसिद्धिपर्यन्ता शास्त्रीयार्थविचारणा। । वस्त्वाश्रयत्वतो यद्ल्लौकिकार्थविचारणा।। ४७।। वही, पृ. २८१। कि ‘तथाहि -वादिप्रतिवादनोः स्वमतस्थापनार्थ जयपराजयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग्व्यापारो। विजिगीषुकथा। गुरुशिष्याणां विशिष्टविदुषां वा रागद्वेषरहितानां तत्त्वनिर्णयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्तमानो वाग-व्यापारो वीतरागकथा। -न्यायदीपिका, तृतीय प्रकाश, पृ. ७८, ८०। डा. दरबारी लाल कोठिया संपादित १२४ जैनदर्शन १. वीतरागकथा और २. विजीगीषुकथा। गुरु-शिष्यों में अथवा रागद्वेषरहित विशिष्ट विद्वानों में तत्त्वनिर्णय के लिए परस्पर में जो चर्चा होती है वह वीतरागकथा है। तथा वादी और प्रतिवादी में अपने मत की स्थापना के लिये जय-पराजय तक परस्पर जो वचनव्यवहार होता है वह विजिगीषुकथा है। इसे ही ‘वाद’ या ‘जल्प’ कथा कहा जाता है। नैयायिक वीतरागकथा को ‘वाद’ कहते हैं। पर वास्तव में लोक में कोई गुरु-शिष्य में होने वाली तत्त्वचर्चा को ‘वाद’ नहीं कहते। गुरु-शिष्य की तत्त्वचर्चा को ‘वाद’ कहना मात्र पारिभाषिक है।
जय-पराजयव्यवस्था
नि यद्यपि ऊपर कथाओं की चर्चा के प्रसङ्ग से आंशिक रूप में जय-पराजय की चर्चा भी आ चुकी है। फिर भी यहाँ विशद मीमांसा की जाती है। न्यायदर्शन का मत है कि तत्त्वज्ञान के संरक्षण के लिए इतरवादियों के साथ वादकथा की अपेक्षा ‘जल्प’ और वितण्डा कथाएं करना आवश्यक हैं, क्योंकि वे सीधे तरीके से मानने को तैयार नहीं होते। उक्ति है कि ‘सीधी अंगुलियों से घी नहीं निकलता’- उसके लिए उन्हें टेढ़ा करना पड़ता है। परन्तु उनकी यह उक्ति और तत्त्वसंरक्षण के लिये दिया गया पूर्वोक्त कांटेदार बारीके घेराव का उदाहरण युक्त प्रतीत नहीं होते, क्योंकि सम्यक् साध्य की सिद्धि के लिए सम्यक् साधन का ही होना अनिवार्य है। वितण्डा, छल, जाति और निग्रह स्थान ये तत्त्व ज्ञान के जो अभ्युदय और निःश्रेयस का कारण माना गया है, साधन नहीं हैं- साधनाभास है। उसके सम्यक् साधन तो प्रमाण और तर्क ही हैं, जो परप्रतिपत्तिकारक परार्थानुमान के अवयव - प्रतिज्ञा (पक्ष) और हेतुरूप हैं। ये सही हों तो तत्त्वज्ञान होता है, अन्यथा नहीं। विजिगीषु के लिए तत्त्व-सिद्धि में प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अनुमान के अवयव पर्याप्त हैं। वस्तुतः तत्त्वज्ञान अथवा सम्यकज्ञान हमें दी माध्यमों से होता है-एक वीतराग कथा के द्वारा, दूसरे विजिगीषुकथा के द्वारा। वीतरागकथा तत्त्वजिज्ञासा से होती है और उसके करने वाले वीतराग (रागद्वेष या हठाग्रहशून्य व्यक्ति) होते हैं तथा दोनों चाहते हैं कि तत्त्व (वस्तुस्वरूप) समझा जाये। उनकी यह मानसिक स्वच्छता उन्हें ही नहीं, तत्त्वचर्चा को सुनने वाले अन्य जनों के लिए भी बड़ी रुचिवर्धक एवं उपकारक होती है। तत्त्व का निर्णय उन्हें सुखद और विपुल आनन्ददायक होता है। अतः वीतरागकथा में जय-पराजय का प्रश्न नहीं आता।’ ___ यद्यपि न्यायदर्शन के ग्रन्थकार इस कथा को ‘वाद’ कथा भी कहते हैं। पर उसे ‘वाद’ कथा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें पात्र तत्त्वनिर्णय ही विवक्षित होताहै और १. जयपराजयाभिप्रायरहिता तत्त्वजिज्ञासया क्रियमाणा तत्त्वचर्चा वीतरागकथा - न्या. दी.टि.पृ. ८०। २. ‘गुर्वादिभिः सहः वादः……गुर्वा सह वादोपदेशात् यस्मादयं तत्त्ववुभुत्सुर्गुविभिः सह त्रिविधं (अनाधिगततत्त्वाबोधम् संशयनिवृत्तिं अनध्यवसिताभ्यनुज्ञानम् फलमाकांक्षन् वादं करोति।’ न्या. वा.पृ. १४६) जैन दर्शन और उसके प्रमुख अङ्ग १२५ ‘वाद’ में जय पराजय अभिप्रेत होता है। अतः विजिगीषुकथा को ही ‘वाद’ कहना युक्त है’ वीतराग कथा को नहीं। यह हम पहले भी कह आये हैं। हाँ, वीतराग कथा में दो से अधिक पांच अथवा दश तक अनुमानावयव प्रयुक्त किया जा सकते हैं। माना जा विजिगीषुकथा के प्रवर्तक दो भिन्न दर्शनों के विद्वान होते हैं जिन्हें वादी और प्रतिवादी कहा जाता है और जो पक्ष-प्रतिपक्ष में विभक्त रहते हैं। जो अपने पक्ष को साधन (प्रमाण व तर्क) द्वारा प्रस्तुत करता है वह वादी और जो उसके पक्ष में साधन द्वारा दूषण उद्भावित करता है वह प्रतिवादी माना गया है। दोनों को दोनों के सिद्धान्तों का वेत्ता कहे अर्थ का गृहीता, प्रतिभादि गुणसम्पन्न और तत्त्वनिर्णयकारी होना चाहिए। ऐसा होने पर ही उन्हें विजिगीष कथा करने का अधिकार है, अन्यथा नहीं। इस कथा के वादी और प्रतिवादी के अलावा दो अङ्ग और हैं वे हैं सभापति और प्राश्निक (सदस्य)। इन दोनों को भी उभयसिद्धान्तविद् आदि होना आवश्यक है। अकलङ्कदेव स्पष्ट कहते हैं कि समर्थ (साधन) वचन को विज्ञों ने जल्प-वाद कहा है और उसके चार (वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और सभापति) अंग प्रतिपादित किये हैं। यह पक्ष-निर्णय तक होता है। और इसका फल (प्रयोजन) सम्यग्ज्ञान की प्रभावना (प्रकाशन) है। यथा- था “समर्थवचनं जल्पं चतुरङ्गं विदुर्बुधाः। यति मात्र पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना।” सिद्धिविनिश्चय ५-२। EP । विद्यानन्द भी अकलङ्कदेव का समर्थन करते हुए उसे उक्त चार अगों वाला ही बतलाते हैं। वे यह भी कहते है। कि उक्त चार में एक की भी कमी रहने पर ‘वाद’ प्रवृत्त नहीं होता। अष्टशती में अकलङ्कदेव ने और अष्टसहस्त्री में विद्यानन्द ने वादी और प्रतिवादी में होने वाली विजिगीषु कथा में जय-पराजय की विस्तृत चर्चा करते हुए उसकी व्यवस्था की है। कहा है कि वादी और प्रतिवादी दोनों विजिगीषु होते हैं। वादी को अपने पक्ष की सिद्धि और प्रतिवादी के पक्ष का निराकरण करना चाहिए। ऐसा होने पर उसकी जय और प्रतिवादी की पराजय होती है और यदि प्रतिवादी वादी का पक्ष दूषित करके अपने पक्ष की सिद्धि करता है तो वादी की पराजय और उसकी जय व्यवस्थित होती है। जय के लिये १. ‘केचिद्वीतरागकथा वाद इति कथयन्ति। तत्पारिभाषिकमेव । न हि लोके गुरुशिष्यादिवाग्व्यापारे वादव्यवहारः। विजिगीयुवाग्व्यवहार एव वादत्वप्रसिद्धेः। यथा स्वामिसमन्तभद्राचार्यैः सर्वे सर्वथैकान्तवादिनो वादे जिता इति।’ २. पत्र परीक्षा पृ. २०, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १६६६। ३. त. श्लोक. तत्त्वार्थाधिगमभेद १-३३, पृ. २८०। ४. ततो नाभिमानिकोऽपि वादो द्व्यं एव वीतरागवादवदिति शक्यं वक्तुम् चतुर्षामंगानामन्यतमस्याप्यणयेऽर्था परिसमाप्तेरित्युक्तप्रायम् । एवमाभिमानिको वादो जिगीषतोर्द्विविधः।’ त. श्लो. पृ. २८०। १२६ मा जैनदर्शन की दोनों को स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष का निराकरण आवश्यक है। स्वपक्ष की’ हो जाने पर भी ये परपक्ष का निराकरण और परपक्ष का निराकरण कर देने पर स्वपक्ष की सिद्धि वादी अथवा प्रतिवादी की जय प्राप्ति में प्रतिबन्धक नहीं है। जय के लिए उन्हें दोनों करना चाहिए। उसमें न छलादि प्रदर्शन आवश्यक है और न बौद्धाभिमत दो निग्रह स्थान प्रदर्शन माणिक्यनन्दि भी इसी दिशा में प्रतिपादन करते हैं प वादी अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए यदि प्रमाण प्रस्तुत करता है और प्रतिवादी उसमें कोई दूषण उद्भावित करता है तथा वादी उसका परिहार कर देता है तो वादी का प्रमाण साधन है -उसकी जय है और प्रतिवादी के लिए वह दूषण है- उसकी पराजय है। और यदि वादी भूल आदि किसी कारण से प्रमाणाभास बोलता है तथा प्रतिवादी उसे प्रमाणाभास सिद्ध कर देता है और वादी उसका परिहार नहीं करता तो वादी के लिए वह साधनाभास है-उसकी पराजय है और प्रतिवादी के लिए वह भूषण है- उसकी जय है। मन जय-पराजय की इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि वादी हो चाहे प्रतिवादी, दोनों को वादकथा में सावधान रहकर निर्दोष-सम्यक साधन से अपने पक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण करने से ही जय की प्राप्ति होती है, अन्यथा पराजय होता है। ध्यान रहे, दोनों की एक साथ न जय हो सकती है और न पराजय, क्योंकि दो विरोधी पक्षों में एक का ही साधन सत्य और दूसरे का असत्य होगा। यदि दोनों के साधन असत्य होते हैं तो दोनों ही जय के अधिकारी नहीं हैं। फलतः वाद असफल अवस्था में ही समाप्त हो जाता है। उसमें पराजय का भी प्रश्न नहीं उठता। वास्तव में तात्त्विक वाद स्वाभिप्रेत पक्ष की सिद्धि तक ही होता है, उभय पक्ष की सिद्धि पर्यन्त नहीं, क्योंकि परस्पर विरुद्ध उभय-सिद्धि सम्भव नहीं है। पहले आभिमानिकवाद के दो भेदों में तात्त्विकवाद के साथ दूसरे प्रातिभवाद का भी उल्लेख किया गया है। विद्यानन्द उसके सम्बन्ध में लिखते हैं कि जो प्रतिभा के आधार पर वाक् प्रवृत्ति की जाये और जिसमें अपनी प्रतिज्ञा को छोड़ दिया जाये वह प्रातिभवाद है। उसमें प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान होता है। जैसे लोक में जुआ आदि में झूठ बोलकर या छलकर जुआड़ी जय पा लेता है उसी प्रकार शास्त्रों (सिद्धान्तों) के विषय में इस प्रातिभवाद में दूसरे को छल-कपट आदि के द्वारा विजित कर लिया जाता है। किन्तु यह वाद होने से ग्राह्य नहीं है, उपेक्षणीय है। १. स्वपक्षसिद्धौ कृतायामपि परपक्षनिराकरणं तस्मिन्ना स्वपक्षसाधनभिधानं न वादिप्रतिवादिनोर्जय प्रतिवन्धकमिति प्रतिपादितं बोद्धव्यम्। - अष्टस. पृ. ८३। ‘किमेव वादिना कर्तव्यामिति, चेत् विजिगीषुणोभयं कर्त्तव्य स्वपरपक्षसाधन दूषणम्। … निराकृतावस्थापितविपक्ष स्वपक्षयोरेव जयेतख्यवस्था नान्यथा। - अष्टश. अष्टस. पृ. ६७। ३. ‘प्रमाणतदाभासी दुष्टतयोद्भाविती परिहतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतादाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च। परीक्षामुख ६-७३ ४. तत्त्वार्थश्लोक तत्त्वार्थाधिगमभेद, १-३३, पृ. ३१०। कि