०२ जैन संस्कृति : उद्भव और विकास

प्राग्वृत्त

हम यहाँ जैन संस्कृति के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। इस संस्कृति में धर्म, दर्शन, न्याय आदि का समावेश है। सर्वप्रथम जैनधर्म की चर्चा करेंगे। जैन धर्म भारत की आध्यात्मिक उर्वरा-भूमि में उत्पन्न हुआ, विकसित हुआ और समृद्ध हुआ है। यह भारतीय धर्म होते हुए भी वैदिक और बौद्ध दोनों भारतीय धर्मों से भिन्न है। इसके प्रवर्तक २४ तीर्थंकर हैं, जो वैदिक धर्म के २४ अवतारों तथा बौद्ध धर्म के २४ बुद्धों से भिन्न हैं। इन सभी का तत्त्व-निरूपण भी भिन्न भिन्न है। यह अवश्य है कि कितनी ही बातों में उनमें साम्य भी है, जो स्वाभाविक है, क्योंकि सदियों से ही नहीं, सहनाब्दियों से एक साथ रहनेवालों में एक दूसरे से प्रभावित होना और आदान-प्रदान करना बहुत संभव है।

जैनधर्म के आद्यप्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव

तीर्थ का अर्थ है जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए-पार किया जाए और वह है अहिंसा धर्म। उसका जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया, उन्हें तीर्थंकर कहा गया है। वे २४ माने गए हैं। जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार प्रसिद्ध है-ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्य, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्मनाथ, शांति, कुन्थु, अरह, मल्लिनाथ, मुनिसुब्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, और वर्धमान-महावीर।। है इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहदेव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है। युगारंभ में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृषि (खेती), मसि (लिखना-पढ़ना, शिक्षण), असि (रक्षा के हेतु तलवार, लाठी आदि चलाना), शिल्प, वाणिज्य (विभिन्न प्रकार का व्यापार करना) और सेवा - इन षट्कर्मों (जीवनवृत्तियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें “प्रजापति", माता के गर्भ में आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से “हिरण्यगर्भ१२, दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से “ऋषभ”, धर्म का प्रवर्तन १. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक २। २. जिनसेन, महापुराण, १२-६५, विमलसूरि-पउमचरियं, ३-६८।जैनदर्शन करने से “वृषभ”’, शरीर की अधिक ऊंचाई होने से “बृहद्देव” एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से “आदिनाथ"३ और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से “आदिब्रह्मा” कहा गया है। इनके पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें “नाभिसूनु” भी कहा गया है। इनकी माता का नाम मरुदेवी था। ये आसमुद्रान्त सारे भारत (वसुधा) के अधिपति थे-पृथ्वी का अन्य कोई शासक नहीं था। अन्त में विरक्त होकर व समग्र राजपाट को छोड़कर दीक्षापूर्वक दिगम्बर साधु हो गये थे। मोक्षमार्ग का प्रथम उपदेश देने से आद्य तीर्थकर (धर्मोपदेष्टा) के रूप में समग्र जैन साहित्य में मान्य हैं। - भरत इनके ज्येष्ठ पुत्र थे, जो उनके राज्य के उत्तराधिकारी तो हुए ही, प्रथम सम्राट भी थे और जिनके नाम पर हमारे राष्ट्र का नाम “भारत” पड़ा। श्रीमद्भागवत् पुराण (स्कन्ध-५ अध्याय-४) में कहा है “भगवान ऋषभदेव के अपनी कर्मभूमि अजनाभवर्ष में सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र महायोगी ‘भरत’ को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से लोक इसे “भारतवर्ष” कहने लगे -“येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति।" इसके पूर्व अपने इस भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर “अजनाभवर्ष” प्रसिद्ध था। वैदिक धर्म में भी ऋषभदेव को एक अवतार के रूप में माना गया है। “भागवत” में ‘अर्हन्’ राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। इसमें भरत आदि १०० पुत्रों का कथन जैनधर्म की तरह ही किया गया है। अन्त में वे दिगम्बर (नग्न) साधु होकर सारे भारत में विहार करने का भी उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।

अन्य तीर्थंकर

ऋषभदेव के पश्चात् द्वितीय अजितनाथ से लेकर इक्कीसवें नमिनाथ पर्यन्त तीर्थकर हुए, जिन्होंने ऋषभदेव की तरह अपने अपने समय में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। जैन पुराणों और अन्य जैन साहित्य में इनका सविशेष वर्णन है। ऋषभदेव के बाद और नमि के बीच में ऐसे समय भी आए, जब जैनधर्म का विच्छेद सा हो गया, जिसका पुनःस्थापन इन तीर्थंकरों ने किया और इससे ये तीर्थंकर अथवा धर्मप्रवर्तक कहे गए। ) ਬਲੀ ਨੂੰ ਜੇ ਬੰਕ ਨੂੰ ਕਿਸ ਸਿਸਨੂੰ ਸੜ - ਸ ਸ ਸ ਸ है लिन शिप का मि) मा निकै कमीशन

१. आ० समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक ५। २. मदनकीर्ति, शासनचतुस्त्रिंशिका, श्लोक ६, संपा० डॉ० दरबारी लाल कोठिया। ३-४. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक १, २५ । ५. आ० कुन्दकुन्द, चउवीस-तित्थयरभत्ति, गाथा ३, ४ तथा समन्तभद्र स्वयम्भूस्तोत्र। जैन संस्कृति : उद्भव और विकास

अरिष्टनेमि

२१वें तीर्थंकर नमि के पश्चात् २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि अथवा नेमिनाथ हुए। ये श्रीकृष्ण के बड़े ताऊ समुद्रविजय के तनय तथा उनके चचेरे भाई थे। ये बचपन से सात्विक, प्रतिभावान और बलशाली थे। इनके जीवन में एक घटना ऐसी घटी, जिसने उनके जीवन को ही मोड़ दिया। जब इनकी बारात जूनागढ़ पहुँची, तो नगर के बाहर एक बाड़े में घिरे हुए पशुओं के चीत्कार को इन्होंने सुना। सुनकर रथ के सारथी से इसका कारण पूछा। सारथी ने कहा - “महामान्य राजकुमार! बरात में जो मांसभक्षी राजा आए हैं उनके मांसभक्षण हेतु इन्हें मारा जावेगा।” इसे सुनते ही राजकुमार अनिष्टनेमि संसार से विरक्त हो गए और पशुओं को घेरे से मुक्त कराकर विवाह का त्याग करते हुए निकटवर्ती ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार पर्वत) पर चढ़ गए। वहाँ पहुँच कर समस्त वस्त्राभूषण त्यागकर दिगम्बर साधु हो गए। घोर तपस्या और ध्यान करके वीतराग-सर्वज्ञ बन गए। वर्षों तक जनसामान्य को अहिंसा तथा मोक्षमार्ग का उन्होंने उपदेश किया। अन्त में उसी ऊर्जयन्तगिरि से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर विघ्न विनाश के लिए इन्हें स्मरण किया गया है। अनेक इतिहासविद् विद्वानों ने इन्हें श्रीकृष्ण की तरह ऐतिहासिक महापुरुष मान लिया है।

पार्श्वनाथ

अरिष्टनेमि के एक हजार वर्ष बाद तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म वाराणसी में हुआ। इनके पिता राजा अश्वसेन और माता वामादेवी थीं। एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीडा के लिए गंगा के किनारे गये। जहाँ एक तापसी पंचाग्नितप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड़ जला रहा था। पार्श्व की पैनी दृष्टि उधर गयी और देखा कि उस लक्कड़ में एक नाग-नागिनी का जोड़ा है और जो अर्धमृतक-जल जाने से मरणासन्न अवस्था में है। कुमार पार्श्व ने यह बात तापसी से कही। तापसी झुंझलाकर बोला - “इसमें कहाँ नाग-नागिन है? और जब उस लक्कड़ को फाड़ा, उसमें मरणासन्न नाग-नागिनी को देखा। पार्श्व ने “णमोकारमंत्र” पढ़कर उस नाग-नागिनी के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुआ। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ की अधिकांश मूर्तियों के मस्तक पर जो फणामण्डल बना हुआ देखा जाता है वह धरणेन्द्र के फणामण्डल मण्डप का अंकन है, जिसे उसने कृतज्ञतावश योग-मग्न पार्श्वनाथ पर कमठ द्वारा किये गये उपसर्गों के निवारणार्थ अपनी विक्रिया से बनाया था। उपर्युक्त घटना से प्रतीत होता है कि पार्श्व के समय में कितनी मूढ़ताएं-अज्ञानताएं धर्म के नाम पर लोक में व्याप्त थीं। पार्श्वकुमार इसी निमित्त को पाकर विरक्त हो प्रव्रजित हो गये, न विवाह किया और न राज्य किया। कठोर तपस्या कर तीर्थकर केवली बन गये के ३४

  • जैनदर्शन और जगह-जगह पदयात्रा करके लोक में फैली मूढ़ताओं को दूर किया तथा सम्यक् तप, ज्ञान का सम्यक् प्रचार किया। अन्त में बिहार प्रदेश में स्थित सम्मेद-शिखर पर्वत से, जिसे आज “पार्श्वनाथ हिल” कहा जाता है, तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मुक्ति-लाभ किया। इनकी ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं और उनके अस्तित्व को मान लिया गया है। प्रसिद्ध दार्शनिक सर राधाकृष्णन् ने भी अपने भारतीय दर्शन में इसे स्वीकार किया है।

तीर्थंकर वर्धमान महावीर

_पार्श्वनाथ से अढ़ाई-सौ वर्ष पश्चात् ईसा पूर्व ५२६ में जैनधर्म के अंतिम एवं २४वें तीर्थंकर महावीर हुए, जिन्हें जैन वाङ्मय में वर्द्धमान, वीर, अतिवीर और सन्मति-इन चार नामों से भी उल्लेखित किया गया है। इसके पिता वैशाली गणतंत्र के निकट स्थित कुण्डपुर (क्षत्रिय कुण्डग्राम) के नृपति सिद्धार्थ और माता त्रिशला थीं। त्रिशला का दूसरा नाम प्रियकारिणी भी था। यह वैशाली गणराज्य के नायक राजा चेटक की पुत्री और बिम्बसार अपरनाम राजा श्रेणिक की रानी चेलना की सगी बड़ी बहन थीं। उस समय के सभी राजघरानों से महावीर का निकट संबन्ध था, जिस प्रकार पार्श्वनाथ के समय में अनेक प्रकार की मूढ़ताएं (देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और गुरुमूढ़ता) लोक में व्याप्त थीं, उसी प्रकार महावीर के समय में धर्म के नाम पर नरमेध, गोमेध, अश्वमेध, अजमेध आदि हिंसापूर्ण यज्ञों की प्रचुरता थी तथा “याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसे वाक्यों से उनका समर्थन किया जाता था। महावीर ने इस स्थिति को देखकर उसे बदलने का निर्णय किया और भरी जवानी में ३० वर्ष की वय में ही राजमहल के सुखों का त्याग कर वे दिगम्बर मुद्राधारी साधु बन गए और मौनपूर्वक १२ वर्ष घोर तपस्या की। फलतः ४२ वर्ष की अवस्था में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ हो गए। _उन्होंने ३० वर्ष तक विहार करके उक्त हिंसापूर्ण यज्ञों का निषेध किया तथा अहिंसापूर्ण आत्मयज्ञ करने का उपदेश दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि नरमेध, मेध आदि यज्ञ बंद हो गए और लोगों के हृदय में अहिंसा को ही धर्म मानने के प्रति आस्था दृढ़ हो गई। वैदिक धर्म के महान् विद्वान् एवं वैदिक कर्मकाण्ड के कर्ता गौतम इन्द्रभूति और उनके महाविद्वान् १० भाई भी अहिंसा के प्रति आस्थावान बन गए। इतना ही नहीं, महावीर के पादमूल में पहुँच कर उनके शिष्य हो गए। इन्द्रभूति तो उनका प्रधान गणधर (प्रथम शिष्य) बन गया और महावीर के उपदेश को उन्होंने चहुँ ओर फैलाया। ध्यातव्य है कि पार्श्वनाथ की परम्परा के एक दिगम्बर साधु के दीक्षित और दीर्घकाल तक नग्न रहना, केशलुंचन करना, खड़े-खड़े आहार ग्रहण करना आदि दिगम्बर साधु चर्या को पालने वाले, किन्तु उसे बाद में कष्टदायी ज्ञातकर त्याग देने वाले तथा मध्यम मार्ग के प्रवर्तक गौतमबुद्ध ने भी महावीर के अहिंसा प्रचार में प्रबल सहयोग किया। “दीघनिकाय" जैन संस्कृति : उद्भव और विकास आदि बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर “णिग्गंथनातपुत्त” नाम से उनके सिद्धान्तों की चर्चा की गई है। आज वे ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में विश्रुत और सर्वमान्य हैं। जैनों की तीनों परम्पराओं में निगंथनातपुत्र वर्धमान को अंतिम और २४वां तीर्थकर माना जाता है। सभी अपने को उनका अनुयायी मानने में गौरव का अनुभव करते हैं। यह भी उल्लेख्य है कि ई० सन् १९७४-७५ में समग्र भारत और विश्व के अनेक देशों में उनकी पावन २५०० (पच्चीस सौ) वीं निर्वाण-कल्याणक तिथि पूरे वर्ष तक मनाई गई थी। साथ ही ई. सन् २००० में उनका २६०० वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव मनाया गया था जिसके समारोह भारत के सभी राज्यों एवं विदेशों में आयोजित हुए थे और जिनमें पूरे राष्ट्र ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की थीं। जैन परम्परा में आज उन्हीं का शासन विद्यमान है। अंत में उन्होंने पावा से मोक्ष प्राप्त किया।

तीर्थंकर-उपदेश : द्वादशांगश्रुत

__ इन २४ तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग-मोक्षमार्ग का नेता तीर्थप्रवर्तक-तीर्थकर कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार “तीर्थकर" नाम की एक पुण्य (प्रशस्त) कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है कि “बिना तीर्थकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना” अर्थात् बिना तीर्थकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है। (आप्तपरीक्षा, कारिका १६) इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिनशासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिनप्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध (ग्रथित) करते हैं। अतएव उसे प्रबंध एवं ग्रन्थ भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङ्मय में “गणधर" कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है। __ इनके द्वारा निबद्ध वह उपदेश द्वादशाङ्ग-अङ्गप्रविष्ट कहा जाता है। अंगप्रविष्ट के विषयक्रम से १२ भेद हैं जिनकी मूल ‘अंग आगम’ संज्ञा है। वे हैं:- १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृधर्मकथा, ७. उपासकाध्ययन, ८. अंतःकृत्दशांग, ६. अनुत्तरौपपादिकदशांग, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाकसूत्र और १२. दृष्टिवाद। १. ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये। मिल की धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः।। अकलंक, लघीयस्त्रय, १ २. विद्यानन्द, आप्तपरीक्षा, का० १६। या कि मानाय का ३६ on जैनदर्शन हो कि - इनमें अन्तिम १२वें दृष्टिवाद अंग के ५ भेद हैं-१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका। परिकर्म के ५, पूर्वगत के १४ और चूलिका के ५ भेद हैं। __परिकर्म के ५ भेद ये हैं -१. चन्द्रप्रज्ञप्ति, २. सूर्यप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, और ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (यह ५वें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति से भिन्न है)। पूर्वगत के १४ भेद इस प्रकार हैं -१. उत्पाद, २. आग्रायणीय, ३. वीर्यानुवाद, ४. अस्तिनास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६. सत्यप्रवाद, ७. आत्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद, ६. प्रत्याख्यान प्रवाद, १०. विद्यानुवाद, ११. कल्याणवाद, १२. प्राणावाय, १३. क्रियाविशाल और १४. लोकबिन्दुसार। चूलिका के ५ भेद हैं - १. जलगता, २. स्थलगता, ३. मायागता, ४. रूपगता और ५. आकाशगता। इनमें उनके नामानुसार विषयों का वर्णन है।’ अंगप्रविष्ट उपदेश गणधरों द्वारा निबद्ध किया जाता है। अंगबाह्य उपदेश उसके आधार से उनके शिष्यों-प्रशिष्यों (आचार्यों) द्वारा रचा जाता है। इससे वह अंगबाह्य कहा जाता है, किन्तु प्रामाणिकता की दृष्टि से दोनों ही प्रकार का श्रुत समान है, क्योंकि उसके उपदेष्टा भी परम्परा से तीर्थंकर ही माने जाते हैं। _ इस अंगबाह्य जिनोपदेश के १४ भेद हैं। वे इस प्रकार हैं हैं - १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवैकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ६. कल्पव्यवहार, १०. कल्पाकल्प्य, ११. महाकल्प, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक और १४. निषिद्धिका। इस अंगबाह्य श्रुत में श्रमणाचार का मुख्यतया वर्णन है। उत्तरकाल में अल्पमेधा के धारक उत्तरवर्ती आचार्य इसी श्रुत का आश्रय लेकर अपने विविध ग्रंथों की रचना करते हैं और उनके द्वारा उसी जिनोपदेश को जन-जन तक पहुंचाने का प्रशस्त प्रयास करते हैं तथा क्षेत्रीय भाषाओं में भी उसे ग्रथित करते हैं। इनका स्रोत (मूल) तीर्थकर-उपदेश होने से उन्हें भी प्रमाण माना जाता है।

उपलब्ध श्रुत

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का श्रुत तीर्थंकर अजित तक, अजित का सम्भव तक और सम्भव का अभिनंदन तक, इस तरह पूर्व तीर्थकर का श्रुत उत्तरवर्ती अगले तीर्थंकर तक । १. अकलंक, तत्त्वार्थवार्तिक, १-२०। २. वीरसेन, धवलाटीका, पुस्तक १, पृ० १०८-११२, जय ध० प्र० पृ०६३-१२२ । मारी ३. अकलंक, तत्त्वार्थवार्तिक १-२०-१२, पृ० ७२, भा० ज्ञा० संस्क० १६४४ । कार ४. वही, १-२०-१३, पृ० ७८ । जैन संस्कृति : उद्भव और विकास रहा। तेइसवें तीर्थकर पार्श्व का द्वादशांग श्रुत तब तक रहा, जब तक महावीर तीर्थकर (धर्मोपदेष्टा) नहीं हुए। आज जो आंशिक द्वादशांग श्रुत उपलब्ध है वह अंतिम २४ वें तीर्थंकर महावीर से संबद्ध है। अन्य सभी तीर्थंकरों का श्रुत लेखबद्ध न होने तथा स्मृतिधारकों के न रहने से नष्ट हो चुका है। वर्द्धमान महावीर का द्वादशांग श्रुत भी पूरा उपलब्ध नहीं है। प्रारम्भ में वह आचार्य-शिष्य परम्परा में स्मृति के आधार पर विद्यमान रहा। उत्तर काल में स्मृतिधारकों की स्मृति मन्द पड़ जाने पर उसे निबद्ध किया गया। त दिगम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान में जो श्रुत उपलब्ध हैं वह १२वें अंग दृष्टिवाद का कुछ अंग हैं, जो धरसेनाचार्य को आचार्य परम्परा से प्राप्त था और जिसे उनके शिष्य आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त ने उनसे प्राप्त कर षट्खण्डागम नामक आगम ग्रन्थ में लेखबद्ध किया। शेष ११ अंग और १२खें अंग का बहुभाग नष्ट हो चुका है। शक श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आचार्य क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणी के नायकत्व में तीसरी और अन्तिम बलभी वाचना में संकलित ११ अंग मौजूद हैं, जिन्हें दिगम्बर परम्परा में मान्य नहीं किया गया। श्वेताम्बर परम्परा १२वें अंग दृष्टिवाद का समग्र रूप में विच्छेद स्वीकार करती है। जबकि दिगम्बर परम्परा कसायपाहुड और षट्खण्डागम-इन दो आगम ग्रन्थों के आधार पर इस दृष्टिवाद का कुछ ज्ञान वर्तमान में उपलब्ध मानती है, शेष प्रथम से लेकर ग्यारहवें अंग तक सभी का लोप मानती है। कि के आवश्यक है कि दोनों परम्पराओं के अवशेष श्रुत का तटस्थभाव से अध्ययन करें और महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकालें, जिनकी संभावना है और हम सभी मिलकर जैन संघ एवं जैनश्रुत को अखंड बनाएं।

धर्म, दर्शन और न्याय

उक्त श्रुत में तीर्थंकर महावीर ने जहाँ धर्म का उपदेश दिया वहाँ दर्शन और न्याय का भी उपदेश दिया है। इन तीनों में भेद करते हुए उन्होंने बताया कि मुख्यतया आचार का नाम धर्म है। धर्म का जिन विचारों द्वारा समर्थन एवं संपोषण किया जाता है, वे विचार दर्शन हैं और धर्म के संपोषण के लिए प्रस्तुत विचारों को युक्ति-प्रतियुक्ति, खंडन-मंडन, प्रश्न-उत्तर एवं शंका-समाधानपूर्वक दृढ़ करना न्याय प्रमाणशास्त्र है। Pइन तीनों के पार्थक्य को समझने के लिए हम यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। सब जीवों पर दया करो, किसी जीव की हिंसा न करो अथवा सत्य बोलो, असत्य मत बोलो आदि विधि और निषेधरूप आचार का नाम धर्म है। जब इसमें “क्यों" का सवाल उठता है तो उसके समर्थन में कहा जाता है कि जीवों पर दया करना कर्तव्य है, गुण (अच्छा) १. वीरसेन, जयधवला, पु० १, पृ० २५, धवला, पुस्तक १, पृ० ६६, गो० जी० ३६७ । २. वीरसेन, धवला, पु० १, प्रस्तावना पृ० ७१, जयध० पृ० ८७। वि. १. वीरसे ३८ जैनदर्शन है, पुण्य है और इससे सुख मिलता है। किन्तु जीवों की हिंसा करना अकर्तव्य है, दोष है, पाप है और उससे दुःख मिलता है। इसी तहर सत्य बोलना कर्तव्य है, गुण है, पुण्य है और उससे सुख मिलता है। * इस प्रकार के विचार दर्शन कहे जाते हैं और जब इन विचारों को दृढ़ करने के लिए यों कहा जाता है कि यदि अहिंसा जीव का स्वभाव न माना जाए तो कोई भी जीव जीवित नहीं रह सकता, सब सबके भक्षक या घातक हो जाएंगे। परिवार में, देश में और विश्व के राष्ट्रों में अनवरत हिंसा रहने पर शान्ति और सुख कभी उपलब्ध नहीं हो सकेंगे। इसी प्रकार सत्य बोलना मनुष्य का स्वभाव न माना जाए तो संसार में अविश्वास छा जाएगा और लेन-देन आदि के सारे लोक-व्यवहार लुप्त हो जाएंगे और वे अविश्वसनीय बन जावेंगे। इस तरह धर्म के समर्थन में प्रस्तुत विचार रूप दर्शन को दृढ़ करना न्याय (यक्ति या प्रमाणशास्त्र) है। को तात्पर्य यह है कि धर्म जहाँ सदाचार के विधान और असदाचार के निषेध के रूप हैं वहाँ दर्शन उनमें कर्त्तव्याकर्त्तव्य, पुण्यापुण्य और सुख-दुःख का विवेक जागृत करता है तथा न्याय दर्शन रूप विचारों को हेतुपूर्वक मस्तिष्क में बिठा देता है। वस्तुतः न्यायशास्त्र से दर्शनशास्त्र को जो दृढ़ता मिलती है वह स्थायी, विवेकयुक्त और निर्णयात्मक होती है। यही कारण है कि सभी भारतीय (जैन, बौद्ध और वैदिक) धर्मों में दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्र का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया गया है तथा दोनों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इतना ही नहीं, उन पर बल देते हुए इन्हें विकसित एवं समृद्ध किया गया है।