जैनदर्शन का वैशिष्ट्य
__भारतीय दर्शन के प्राचीन मूलशास्त्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यहाँ विभिन्न दार्शनिक मतों में शास्त्रार्थ एवं लेखन आदि के माध्यम से परस्पर खण्डन-मण्डन की समृद्ध परम्परायें रही हैं। तत्त्वानुशीलन की दृष्टि से सौहार्द भावपूर्वक इन परम्पराओं का प्रचलन स्वस्थ कहा जा सकता है, किन्तु जहाँ एक-दूसरे को नीचा दिखाने या अपमानित करने आदि के उद्देश्य से सम्पन्न इन परम्पराओं से विखण्डन की स्थितियाँ ही अधिक निर्मित होती हैं। ऐसे कार्यों के परिणाम भी अपने देश, समाज, साहित्य एवं संस्कृति-सभी को भुगतने पड़े। परस्पर दार्शनिक मतों के खण्डन-मण्डन पूर्ण वातावरण में चुनौतियों का मुकाबला करने और अपने स्वाभिमान की रक्षा हेतु अनेकान्तवादी जैन दार्शनिकों को भी इन परम्पराओं को अपनाना पड़ा, फिर भी आचार्य उमास्वामी, सिद्धसेन दिवाकर जैसे अनेक ऐसे आचार्य हुए, जिन्होंने समन्वय के सूत्रों की रक्षा अन्त तक की। और इसका प्रमुख कारण रहा, उनका अनेकान्तवादी चिन्तनधारा के प्रति अटल विश्वास। न जैनदर्शन की यही विशेषता रही कि उसने सत्यान्वेषण के द्वार कभी बन्द नहीं होने दिये और ऐसा करने हेतु किसी पुरुष विशेष को उसका अधिकार भी नहीं दिया, चाहे वह कितना ही बड़ा या ईश्वर ही क्यों न हो? तीर्थंकर महावीर की यह अमृतवाणी-“अप्पणा सच्चमेसेज्जा”-अर्थात सत्य की खोज तुम स्वयं करो-यह वचन बहुत महत्त्व रखता है। इस प्रकार के सूत्रों से युक्त स्वस्थ चिन्तनधाराओं ने जैनदर्शन को उत्कृष्ट वैज्ञानिक दर्शन की मान्यता का गौरव प्रदान किया। विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में भी सत्य की खोज के अधिकारों की स्वतन्त्रता है। यद्यपि जहाँ तक विज्ञान का प्रश्न है तो विज्ञान ने इस स्वतंत्रता का जहाँ सदुपयोग किया वहाँ आशातीत प्रगति और समृद्धि के द्वार उद्घाटित हुए, किन्तु जहाँ उसने इसका दुरुपयोग किया, वहाँ विनाश के भयावह परिणाम भी देखने को मिले। यही बात दर्शन के क्षेत्रों में भी लागू होती है। ईश्वर सृष्टि कर्तृत्ववादी, और वेद प्रामाण्यवादी दार्शनिकों के साथ ही श्रमण परम्परा के ही बौद्ध दार्शनिकों तथा जैनाचार्यों के मध्य भी परस्पर वाद-विवाद, शास्त्रार्थ और शास्त्रों के माध्यम से खण्डन-मण्डन बराबर होते रहे। वस्तुतः धर्म-दर्शन के क्षेत्र में परस्पर मतभेदों का होना स्वाभाविक एवं सामान्य माना जाना चाहिए था, किन्तु दुराग्रहवश जैनधर्म-दर्शन को नास्तिक दर्शन की कोटि में रख दिया गया। यद्यपि इन सब कारणों से जैन धर्म-दर्शन-संस्कृति, साहित्य और समाज को विभिन्न क्षेत्रों में जैनदर्शन में घोर उपेक्षा तथा अनेक संकटों का सामना करना पड़ा, किन्तु जैनधर्म-दर्शन और संस्कृति की अविरल धारा की अपनी विशिष्ट संयम साधना, सदाचरण तथा अपने शास्वत उदार सिद्धान्तों और समृद्ध परम्पराओं की मजबूत बुनियाद पर अटल विश्वास के कारण प्राचीन काल से ही भारत में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व में अपनी विशेष पहचान और महत्त्वपूर्ण स्थान आजतक बना है। है
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और परम्परा
एक वस्तुतः जैनधर्म दर्शन के अन्य नामों में आर्हत, निर्ग्रन्थ तथा श्रमण रूप से प्रचलित हैं। इसके अनुसार श्रमण की मुख्य विशेषतायें हैं-चित्तवृत्तिकी चंचलता, संकल्प-विकल्प और इष्टानिष्ट भावनाओं से विरत रहकर, उपशान्त रहना, समभाव पूर्वक स्व पर कल्याण करना। इन विशेषताओं से युक्त श्रमणों द्वारा प्रतिपादित, प्रतिष्ठापित और आचरित संस्कृति को श्रमण-संस्कृति कहा जाता है। यह संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण सदा से गरिमामण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्वपूर्ण स्थान है। इपनी इन विशेषताओं के कारण ही अपने देश में अनेक संस्कृतियों के सम्मिश्रण के बाद भी इस संस्कृति ने अपना पृथक् अस्तित्व अक्षुण्ण रखा। जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर युग निर्माता ऋषभदेव को श्रमण संस्कृति अर्थात् जैनधर्म का आद्य प्रवर्तक माना गया है। ऋषभदेव से लेकर तीर्थंकरों की जो परम्परा प्रारम्भ हुई, वह प्रागैतिहासिक काल में होने से उस समय की ऐतिहासिक स्थिति की जानकारी नहीं हो सकती, पर यह तो स्पष्ट है कि वह परम्परा श्रमण संस्कृति की वाहक थी, वैदिक संस्कृति का मूल स्रोत इससे नितान्त भिन्न था। यद्यपि दीर्घकाल से एक साथ रहने के कारण परस्पर आदान-प्रदान भी खूब होता रहा। वस्तुतः श्रमण संस्कृति अध्यात्म की पोषक है। इसीलिए श्रमण संस्कृति ने जहां चिन्तन के धरातल पर आत्मा, परमात्मा, कर्म-सिद्धान्त तथा मोक्ष आदि तत्त्वों को प्रधानता दी, वहीं वैदिक संस्कृति ने इनके साथ ही देवी-देवता, प्रकृति, गृह-जीवन की सफलता आदि को भी प्रमुख मान भौतिक कल्याण या इहलौकिक लक्ष्यों पर अधिक बल दिया है। यहीं से जैन संस्कृति की विशिष्टता का बिन्दु शुरू होता है। कर प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इसमें समृद्ध तथा प्राचीन जैन-धर्म और उसकी विशाल सांस्कृतिक परम्पराओं की विशेष उपेक्षा हुई है। जबकि यह श्रमण परम्परा विभिन्न कालखण्डों और क्षेत्रों में आर्हत्, व्रात्य, श्रमण, निर्ग्रन्थ, जिन तथा जैन इत्यादि नामों से सदा विद्यमान और विख्यात रही है। इतिहास में इसकी अनदेखी या इसे भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करने अथवा इसके उपेक्षित होने की सभी को पीड़ा होना भी स्वाभाविक है। ALLER सम्पादकीय आश्चर्य तब और भी अधिक होता है जब विभिन्न प्रमाणों, विशेषकर अनेक वैदिक पुराणों आदि से यह सिद्ध हो चुका है कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का “भारतवर्ष” नाम विख्यात हुआ। इतना ही नहीं, अपने भारत देश का इससे भी पूर्व प्राचीन “अजनाभवर्ष" नाम भी ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम से प्रसिद्ध था। किन्तु इस विषय में अनेक विद्वान् आज भी आग्रहवश विभिन्न भ्रान्त धारणायें बनाये हुए हैं। इसी तरह जैनधर्म के आद्य संस्थापक या प्रवर्तक के विषय में अनेक भ्रान्त धारणाएं पाठ्य तथा इतिहास पुस्तकों आदि तक में प्रचलित हैं। जबकि इसके आदि-संस्थापक अन्तिम तीर्थंकर महावीर नहीं अपितु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं, जो कि ऐतिहासिक महापुरुष सिद्ध हो चुके हैं। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान डॉ. हर्मन जैकोबी ने विभिन्न प्रमाणों से ऋषभदेव को जैनधर्म का संस्थापक सिद्ध किया। विश्वविख्यात विद्वान् डॉ. राधाकृष्णन ने भी अपने ग्रन्थ इण्डियन फिलॉसफी (भाग-एक, पृष्ठ-२८७) में जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करते हुए यजुर्वेद आदि वैदिक साहित्य में प्रयुक्त ऋषभदेव, अजितनाथ तथा अरिष्टनेमि-इन तीर्थकरों के नामों की ओर संकेत किया है। इन्होंने भी ऋषभदेव को जैनधर्म का संस्थापक माना और बतलाया कि श्रीमद्भागवत पुराण से भी इसका समर्थन होता है। इस तरह अब विद्वान यह स्वीकार करने लगे हैं कि वैदिक साहित्य में वातरसनामुनि, केशी, व्रात्य, पणि, यति, नाग आदि तथा ऋषभ आदि कुछ तीर्थंकरों के नामोल्लेख श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और मौलिकता के द्योतक हैं।
जैनधर्म-दर्शन नास्तिक नहीं है
भारतीय दर्शन का जब हम अध्ययन करते हैं, तब सामान्यतः कुछ आग्रही विद्वान् भारतीय धर्म-दर्शन का विभाजन ही आस्तिक धर्म-दर्शन के आधार पर करके चार्वाक एवं बौद्ध दर्शन के साथ ही जैनधर्म-दर्शन को “नास्तिक” दर्शन की श्रेणी में रख देते हैं। वस्तुतः धर्म-दर्शन का इस तरह विभाजन या भारतीय दर्शनों के विभाजन की यह विधि ही मिथ्या होने से नितान्त अज्ञान एवं आग्रहमूलक है। क्योंकि आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक और पुनर्जन्म आदि मान्यताओं में जो गहरा विश्वास रखता है, तथा जिसकी आधारभूत तात्त्विक मान्यतायें ही यही हैं, तब उसे नास्तिक कैसे माना जा सकता है ? क्योंकि ये ही तो आस्तिकता के आधारभूत गुण हैं। तब इस मान्यता और परिभाषा की कसौटी के अनुसार तो जैनधर्म-दर्शन जितना आस्तिकता की कसौटी पर खरा उतरता है, उतने तो आस्तिक कहलाने वाले धर्मदर्शन भी खरे नहीं उतरते हैं। तब जैनधर्म-दर्शन तो श्रेष्ठ “आस्तिक" धर्म-दर्शन सिद्ध होता है। अतः जैनधर्म-दर्शन को नास्तिक दर्शन की * श्रेणी में रखना नितान्त आग्रहपूर्ण होने से मिथ्या है, इस मिथ्या धारणा का निर्मूलन अब जैनदर्शन और भी अति आवश्यक है। आशा है कि भारतीय दार्शनिक इस दिशा में गंभीरतापूर्वक विचार कर इस भूल का परिमार्जन करेंगे।
ईश्वर कर्तृत्व का निषेध
जैनधर्म-दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसने ईश्वर की अपेक्षा प्रत्येक जीव और उसके आत्म-स्वातंत्र्य को प्रमुखता दी और कहा कि प्रत्येक जीव में स्वयं ईश्वर या परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। इसे किसी ईश्वर या अदृश्य शक्ति की नहीं है। आध्यात्मिक दृष्टि से प्रत्येक आत्मा की उन्नति उसके पुरुषार्थ पर निर्भर करती है। ईश्वर तो एक आत्मिक आदर्श है, जो राग-द्वेष रहित परम वीतरागी है, जो पूर्ण शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त कर मोक्ष में स्थित है। उनकी पूजा-भक्ति भी सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु उनके गुणों के ग्राहक बनकर, उन जैसे बनकर अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए की जाती है। हाँ यह बात जरूर है कि जिस तरह पेड़ के नीचे जाने पर व्यक्ति को उस पेड़ की छाया स्वतः मिल जाती है, माँगी नहीं जाती, उसी प्रकार पवित्र भावों से प्रभु की शरण या भक्ति स्तवन आदि से सुख रूपी शीतलता की प्राप्ति स्वतः हो जाती है, उनसे इनकी आकांक्षा या याचना करना तो अज्ञान ही कहा जाएगा। जैनदर्शन पुरुष विशेष (ईश्वर) में विश्वास नहीं करता अपितु प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति का उद्घोष करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से जीव स्वयं ही अपना प्रभु (ईश्वर) है, अन्य कोई नहीं। अतः प्रत्येक जीव को अपना आत्म-विकास स्वयं ही अपने पुरुषार्थ से करना है, अन्य के आश्रय या दया से नहीं। क्योंकि स्वयं के सुख-दुख या मुक्ति में किसी बाहरी ईश्वर का कर्तृत्व या हस्तक्षेप जैनधर्म नहीं मानता। जैनधर्म ने मनुष्य के भाग्य को ईश्वर और देवों के हाथ से निकालकर स्वयं मनुष्य के ही हाथ में रखा है। तीर्थकरों ने ईश्वर कर्तृत्व विषयक मान्यता के विरूद्ध क्रान्ति करते हुए कहा था कि प्रत्येक आत्मा (जीव) अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, कोई ईश्वर आदि बाहरी शक्ति न तो उसे कुछ दे सकती है और न ही उसके पाप या अपराध आदि माफ कर सकती है। वह जैसा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा। उसके दुःखों से मुक्ति का उपाय क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों एवं राग-द्वेष आदि (दोषों) से पूर्णतः मुक्त होना है। कोई यह पूछ सकता है कि जैन धर्म के अनुयायी भी तो तीर्थंकरों की पूजा-भक्ति आदि रूप उपासना करते हैं, तब क्या इसमें कर्तृत्व भावना नहीं छिपी? किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि जैनधर्म में मूलतः तीर्थंकरों से सांसारिक सुख की चाह या अन्य कोई इच्छापूर्ति हेतु उपासना की परम्परा नहीं है, अपितु उपासना का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि उनके सम्पादकीय आदरों पर चलकर, उनसे प्रेरणा ग्रहण कर तथा अपना पुरुषार्थ जगाकर वैसी संयम साधना करके कषायमुक्त होकर उन जैसा बनने का प्रयत्न करें। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के मंगलाचरण में आचार्य उमास्वामी (ईसा की प्रथम शती) ने कहा भी है- चार मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। विमान कि ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद् गुणलब्धये।। अर्थात् जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेदन (खण्डन) करने वाले हैं, समस्त पदार्थो के ज्ञाता सर्वज्ञ हैं-ऐसे वीतरागी पवित्र सर्वज्ञ (जिनेन्द्रदेव) को, उनके इन गुणों की प्राप्ति के लिए, मैं उन्हें नमन करता हूँ। इस तरह देखते हैं कि आराधक की भक्ति और श्रद्धा में कर्तृत्वबुद्धि नहीं, अपितु सामने विराजमान आराध्य तीर्थंकर भगवान् के उन गुणों के प्रति भक्ति है, जिन गुणों के कारण व्यक्ति पूज्य या आराध्य बना है, ताकि उन गुणों से प्रेरणा प्राप्तकर अपने आत्मा में भी उन गुणों का विकास करके एक दिन वह स्वयं भी आराध्य के समान बन सके। जो धर्म को सर्वशक्तिमान मानकर कर्तृत्व भाव से ईश्वर, अवतार, देवी, देवता या भगवान् के किसी रूप की मूर्ति बनाकर अराधना करते हैं, उनके यहाँ मूर्ति-पूजा का उद्देश्य उनके गुणों की पूजा नहीं, अपितु अपनी भक्ति-पूजा से उन्हें प्रसन्न करके उनका अनुग्रह प्राप्त करना या अपनी कोई सांसारिक इच्छा या मनोकामना पूर्ति करना है। जबकि जैनधर्म में आदर्श की पूजा का समर्थक होने से यहाँ मूर्ति पूजा के द्वारा मूर्तिमान के गुणों की पूजा का विधान है। इसलिए जिन-मार्ग (जैनधर्म) प्रकाश का मार्ग है। प्रकाशधर्मी होने के कारण जीव को सम्यग्दर्शन (सच्चा श्रद्धान) होने पर वह सच्चा ज्ञान प्राप्त करता है, तत्पश्चात् उसकी धार्मिक-आध्यात्मिक क्रियायें। इस तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय द्वारा आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग-प्रशस्त किया है। चिन्तनधारा : वस्तुतः जैनदर्शन का आचार-विचार आत्मानुलक्ष्यी है। “अप्पा सो परमप्पा” आत्मा ही परमात्मा है-यह अध्यात्म की मूल मान्यता है। आत्मवादी जैनदर्शन ने परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए वीतरागता को ही प्रमुखता दी है। जैनदर्शन के अनुसार राग-द्वेष ही संसार का और वीतरागता ही मुक्ति (मोक्ष) का मार्ग है, जो कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की एकरूपता से प्राप्त होता है। अध्यात्म के धरातल पर जीवन का चरम विकास श्रमण-संस्कृति का अन्तिम लक्ष्य सच्चे सुख की प्राप्ति है। यह सुख आत्म स्वातंत्र्य से ही संभव है। कर्मबन्धन युक्त संसारी जीव इसकी पहचान नहीं कर पाता। वह इन्द्रियजन्य सुखों को वास्तविक सुख मान लेता है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति को इस भेद-विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निःश्रेयस् के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करती है। जैनदर्शन ला इसलिए निःश्रेयस् की प्राप्ति रत्नत्रयात्मक मार्ग पर चलकर सम्भव है। सम्यक्-दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अपनी समग्रता में इस मोक्षमार्ग का निर्माण करते हैं। प्राचीन काल से लेकर श्रमणधरा के प्रत्येक महान् साधकों ने सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में इस रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का अनुसरण किया और अपनी साधना की उपलब्धियों के अनन्तर इसी मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया। इससे जो आचार-संहिता निर्मित हुई, वह श्रमण परम्परा की एक समग्र “आचार-संहिता" बनी, जिसमें सामान्य गृहस्थ (श्रावक) एवं इसके बाद श्रमण (साधु) के संयमी जीवन से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक की साधना और उसके अनुरूप आचार-सम्बन्धी नियम-उपनियम आदि का विधान किया गया है। आध्यात्मिक विकास के लिए आचार की प्रथम सीढ़ी सम्मत्तं, सम्मादिट्टि या सम्यग्दर्शन है। बिना इसके ज्ञान विकास का साधन नहीं हो सकता और संयम साधना भी सम्यक् नहीं हो सकती। इसीलिए श्रावक और श्रमण दोनों के लिए सम्यग्दर्शन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसके बाद ज्ञान स्वतः विकासोन्मुखी हो जाता है। किन्तु ज्ञान की समग्रता साधना के बिना सम्भव नहीं। इसीलिए “णाणस्स सारं आयारो" तथा “चरित्तं खलु धम्मो” कहकर आचार या चारित्र, संयम एवं तपश्चरण को विशेष रूप से आवश्यक माना गया है। सम्यग्दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति आचारमार्ग में प्रवृत्त होने के लिए क्रमशः श्रावक एवं श्रमण के आचार को स्वीकार करता है अथवा सामर्थ्य के अनुसार श्रमणधर्म स्वीकार कर लेता है। श्रावक और श्रमण के आचार का स्वतन्त्र रूप से विस्तृत विवेचन करके जैन मनीषियों ने जीवन के समग्र विकास के लिए स्वतंत्र रूप से आचार संहिताओं का निर्माण किया है। विभिन्न युगों में देश-काल और परिस्थितियों के अनुकूल नियमोपनियमों में विकास भी हुआ है, तथापि सम्यक्चारित्र का मूल लक्ष्य आध्यात्मिक विकास करते हुए मुक्ति प्राप्त करना ही रहा है। तत्त्व विवेचन : भारतीय दर्शनों में प्रायः दर्शनों का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। इसके लिए सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों में किसी न किसी रूप में तत्त्व स्वीकार किये गये हैं। बिना तात्त्विक चिन्तन के कोई भी दर्शन अधूरा ही है। उपनिषद् का तत्त्वज्ञान आत्मदर्शन पर विशेष बल देता है। क्योंकि उसी आत्मदर्शन से प्रत्येक मानव का सर्वोच्च साध्य मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। किन्तु तथागत बुद्ध ने इसी आत्मदर्शन को संसार का मूल कारण माना है। उन्होंने निर्वाण के लिए चिकित्साशास्र की तरह दुःख, दुःख समुदय, दुःखनिरोध और मार्ग-इन चार आर्यसत्यों का उपदेश दिया। उनके अनुसार आत्मदृष्टि का नाशकर नैरात्म्य भावना से दुःखनिरोध होता है। जैनदर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-मोक्ष प्राप्ति के इन तीन साधनों को रत्नत्रय कहा गया। ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन हैं। जीव, अजीव आदि तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। सामान्य विशेष रूप से इन तत्त्वों का अधिगम करना सम्यग्ज्ञान है तथा राग-द्वेष आदि दोषों सम्पादकीय का परिहार करना सम्यक् चारित्र है। इस रत्नत्रय में सर्वाधिक महत्त्व सम्यग्दर्शन का इसलिए है कि इसे मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। सम्यग्दर्शन का सामान्य अर्थ है तत्त्वार्थ का सच्चा श्रद्धान्। वस्तुतः मोक्षमार्ग में तत्त्वार्थ का सच्चा श्रद्धान्। वस्तुतः मोक्षमार्ग में तत्त्वज्ञान से अधिक उसमें सम्यक् आस्था उपयोगी है और यही आस्था या श्रद्धान धर्म की वह भूमि है, जिस पर शील (सदाचार) का महावृक्ष उत्पन्न होता है। यथार्थ श्रद्धान के अभाव में ज्ञान भी कार्यकारी नहीं हो सकता। अतः ज्ञान को हितावह बनाने का कार्य सम्यग्दर्शन ही करता है। - जब जैनदर्शन में तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन के रूप में परिभाषित किया गया, तब यह जानना स्वाभाविक है कि ये तत्त्व कौन है? जैनदर्शन में सात तत्त्वों का विवेचन किया गया है, वे हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंघ, संवर, निर्जरा और मोक्ष। इनमें पुण्य, पाप के संयोजन से ये ही नवपदार्थ कहे जाते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल-ये छह द्रव्य भी इन्हीं के अन्तर्गत आ जाते हैं। इन सात तत्त्वों में मोक्ष अन्तिम तत्त्व है। इसके सम्बन्ध में यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि मोक्ष प्राप्ति क्यों आवश्यक है ? जिसकी प्राप्ति के लिए जीव उपलब्ध सांसारिक सुखों का परित्याग करके स्वेच्छा से संयम साधना के कष्ट झेलता है ? इसका उत्तर भी स्पष्ट है कि जीव अपने स्वातन्त्र्य के स्वरूप का भान किये बिना और उसके सुखद रूप की झांकी पाये बिना, केवल परतन्त्रता तोड़ने के लिए वह उत्साह और सन्नद्धता नहीं आ सकती, जिसके बल पर मुमुक्ष तपस्या और साधना के घोर कष्टों को स्वेच्छा से झेलता है। अतः उस आधारभूत आत्मा के मूल स्वरूप का ज्ञान मुमुक्षु को सर्वप्रथम होना ही चाहिए, जो कि कर्मों के आवरण से आबद्ध है और जिसे छूटना है। इसीलिए तीर्थकर महावीर ने इन तत्त्वों के साथ ही साथ उस जीव तत्त्व का ज्ञान करना भी आवश्यक बताया, जिस जीव को यह संसार होता है और जो बन्धन काटकर मोक्ष पाना चाहता है। हम ____बंध दो वस्तुओं का होता है। अतः जिस अजीव के सम्पर्क में इसकी विभाव परिणति हो रही है और जिसमें राग-द्वेष करने के कारण उसकी धारा चल रही है और जिन कर्म-पुद्गलों से बद्ध होने के कारण यह जीव स्व-स्वरूप से च्युत है, उस अजीव तत्त्व का ज्ञान भी आवश्यक है। इस तरह जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व मुमुक्षु के लिए सर्वप्रथम जानना आवश्यक है। दशवैकालिक (४/१२) में कहा भी है कि जो नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा? अतः संयम का स्वरूप - जानने के लिए जीवादि तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक है। है १० जैनदर्शन
- प्रस्तुत मूल ग्रन्थ प्रवचन परीक्षा के लेखक विद्वान् ने सर्वज्ञ की सत्ता न मानने वाले मीमांसा दर्शन के इस मत का खण्डन किया है। उत्तरपक्ष के रूप में सर्वज्ञसिद्धि हेतु इन्होंने विक्रम की ११वीं शती के महाकवि जैनाचार्य वीरनन्दि विरचित “चन्द्रप्रभचरितम्” नामक महाकाव्य के द्वितीय सर्ग में प्ररूपित “तत्त्व संसिद्धिः” विषयक तेरह पद्यों को अपने मत के समर्थन में उद्धृत किये हैं। (देखिए मूलग्रन्थ के पृष्ठ २१-२२ पर) वस्तुतः वैदिक दर्शनों में सर्वज्ञता के विषय में दो पक्ष हैं। इनमें मीमांसक सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार नहीं करते, जबकि अन्य सभी वैदिक दर्शन इसे स्वीकार करते हैं। श्रमण परम्परा के अनीश्वरवादी जैन, बौद्ध और सांख्य भी सर्वज्ञ की सत्ता मानते हैं। वैदिक दर्शनों में मीमांसक को छोड़कर ईश्वर को जगत् की उत्पत्ति में निमित्तकारण मानने वाले जीव को उसके कर्मों का फल देने वाले, उसी के अनुग्रह से ऋषियों द्वारा वेद को अवतार मानने वाले अन्य सभी दर्शन ईश्वरवादी हैं। अतः समस्त कारकों का ज्ञान होने के कारण वे ईश्वर में सर्वज्ञता को भी अनादि अनन्त मानते हैं। किन्तु मुक्त होते ही उनका समस्त ज्ञान जाता रहता है। अतः ईश्वर मुक्तात्माओं में विलक्षण है। इधर अनीश्वरवादी दर्शनों में बौद्ध अनात्मवादी दर्शन है। सांख्यदर्शन ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानता है, अतः उनके अनुसार पुरुष और प्रकृति का सम्बन्ध छूटते ही मुक्तात्मा ज्ञानशून्य हो जाता है। किन्तु इन सभी दर्शनों में एक मात्र जैनदर्शन ही ऐसा दर्शन है जो मुक्त हो जाने पर भी जीव की सर्वज्ञता स्वीकार करता है। क्योंकि जैनदर्शन चैतन्य आत्मा को को शाश्वत अनन्त ज्ञान, दर्शन, बल और सुख रूप अनन्त-चतुष्टय से परिपूर्ण मानता है। आत्मा के ये स्वाभाविक गुण प्रत्येक जीव में विद्यमान हैं, किन्तु अज्ञान और मिथ्यात्वादि के कारण संसार-अवस्था में कर्मों के आवरण से वे आवृत्त (ढके) होने से वे पूर्णतः प्रकट नहीं हो पाते। किन्तु जब कोई आत्मा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय पूर्वक जैसे-जैसे उत्कृष्ट संयम, तप, ध्यान और योग की साधना करता जाता है, वैसे-वैसे उसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-इन चारी घातिया कर्मों का आवरण दूर हो जाता है और उसके ये स्वाभाविक गुण पूर्ण प्रकाशमान अर्थात् प्रकट हो जाते हैं और वह केवल ज्ञान प्राप्त करके पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ एवं वीतरागी बन जाता है। ऐसा सर्वज्ञ ही दूसरे सभी सांसारिक जीवों को मोक्ष मार्ग के उपदेष्टा होने का अधिकारी है। ऐसा होने पर उसके उपदेशों में अज्ञानजन्य और राग-द्वेषजन्य असत्यता का पूर्णतः अभाव हो जाता है। इसीलिए तीसरी शताब्दी के प्रखर आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है आप्तेनोछिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।। ५॥ सम्पादकीय ११ अर्थात् आप्त को नियम से वीतरागी, सर्वज्ञ और आगम का उपदेष्टा होना चाहिए, इसके बिना आप्तता (सर्वज्ञता) हो ही नहीं सकती। ___इस तरह जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। किन्तु मीमांसक जीव, अजीव, पुण्य, पाप और सुख-दुःख स्वीकार करके भी मोक्ष के विषय में विवाद करते हैं और मोक्ष के सद्भाव को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं विEि - घृष्यमाणो यथाङ्गारः शुक्लतां नैति जातुचित्। विशुद्धयति कुतश्चित्तं तथा।। (यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य आ. सोमदेवसूरिकृत, भाग-२५०) गट माया अर्थात् जैसे घिस गया कोयला कभी सफेद नहीं हो सकता वैसे ही स्वभाव से मलिन मन भी कैसे शुद्ध हो सकता है ? और मन की शद्धि के बिना आत्मशुद्धि नहीं हो सकती और आत्मशुद्धि के बिना मोक्ष भी नहीं हो सकता-इसी दृष्टि से प्रस्तुत प्रवचन परीक्षा ग्रन्थ में ग्रान्थकार ने आ. वीरनन्दि के चन्द्रप्रभचरित के इस विषयक विवेचन को उद्धृत करते हुए मीमांसकों के मोक्षाभाव को पूर्वपक्ष मानकर उसका खण्डन किया है गया है। _____ वे कहते हैं कि मोक्षाभाव रूप मीमांसकों की यह विप्रतिपत्ति उचित नहीं है, इसमें अनुमान प्रमाण से बाधा आती है। क्योंकि जैनदर्शन में ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म माने गये हैं और इन आठ कर्मों के क्षय को मोक्ष कहा है, जो कि अनुमान प्रमाण से सिद्ध है। अनुमान के आधार पर किसी विशिष्ट पुरुष में समस्त आवरणों का क्षय हुए बिना उसमें सर्वज्ञता नहीं हो सकती। इसी के आगे ग्रन्थकार सर्वज्ञसिद्धि के प्रसंग में कहते हैं कि कर्म को देखकर उसके कारणों का सद्भाव मान लेना अनिवार्य होता है। अतः यहाँ सर्वज्ञता कार्य है और समसत कर्मों का क्षय उसका कारण है। सर्वज्ञता का बाधक कोई प्रमाण नहीं हैं, अतः सर्वज्ञता को असिद्ध नहीं ठहराया जा सकता। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थ का सद्भाव या असद्भाव सिद्ध नहीं हो सकता, अतः चाक्षुष प्रत्यक्ष सर्वज्ञ का बाधक नहीं हो सकता। पूर्वपक्ष-यहाँ पूर्वपक्ष के रूप में पुनः मीमांसक शंका करते हैं कि व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि वह पुरुष है, जैसे कोई राहगीर। इस अनुमान से बाधा आने के कारण सर्वज्ञता का सद्भाव कैसे मान लें?
- उत्तरपक्ष-इस शंका का समाधन जैनाचार्य देते हुए कहते हैं कि जिस तरह पुरुषत्व के रहते हुए भी किसी व्यक्ति में समस्त वेदों के अर्थज्ञान का अतिशय प्रकट हो जाता है,जैनदर्शन अतः मीमांसकों की यह आशंका व्यर्थ है। इसी प्रकार उपमान एवं अर्थापत्ति प्रमाण तथा पौरुषेय आगम से भी सर्वज्ञता के अभाव की सिद्धि सम्भव नहीं है। अभाव प्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करना सम्भव नहीं, क्योंकि जिसे एक बार देख लिया जाये उसी का अभाव सिद्ध किया जा सकता है। सर्वज्ञ चक्षुगोचर ही नहीं है, उसे देखा नहीं, तब उसका अभाव कैसे सिद्ध हो सकेगा? इस तरह सर्वज्ञता सिद्ध हो जोने पर मोक्ष भी अपने आप सिद्ध हो जाता है। अन्तिम तत्त्व मोक्ष सिद्ध होने पर जीव, अजीव, आस्रव, बन्धु, संवर एवं निर्जरा-इन तत्त्वों की भी संसिद्धि सहज ही हो जाती है। प्रमाण और नय-प्रवचनपरीक्षाकार ने (पृष्ठ-३५ पर) आचार्य अकलंकदेव (ईसा की आठवीं शती) कृत लघीयस्रय की निम्नलिखित कारिका भी उद्धृत की है सर्वज्ञाय निरस्तबाधकधिये स्याद्वादिने ते नम स्तान् प्रत्यक्षमलक्षयन् स्वमतमभ्यस्याप्यनेकान्तभाक्। तत्त्वं शक्यपरीक्षणं सकलवित्रैकान्तवादी ततः, प्रेक्षावानकलङ्क याति शरणं त्वामेव वीरं जिनम् ।। ५० ।। चूँकि जैनदर्शन में प्रमाण और नय से जीवादि तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान होता है, अतः एकान्तवादी बौद्ध आदि अपने मत का अभ्यास करके प्रत्यक्ष से ग्राह्य और परीक्षा करने के लिए भी शक्य अनेकान्तात्मक तत्त्व की ओर लक्ष्य नहीं करते। अतः तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले ऐसे एकान्तवादी सर्वज्ञ नहीं हो सकते। इसलिए विचारशील निर्दोष परीक्षकजन वीर जिनेन्द्र की ही शरण में जाते हैं। अतः दोष और आवरण से रहित सर्वज्ञाता, ज्ञानवान् तथा स्याद्वादी आपके लिए हमारा नमन है। यूनिट जैन दर्शन में सत्ता की परिभाषा उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक रूप से की गई तथा पदार्थ के यथार्थज्ञान के लिए प्रमाण के साथ ही “नय” जैसे मौलिक विषय की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया तथा स्याद्वाद और अनेकान्तवाद रूप बुद्धि एवं वचनशैली का प्रतिपादन करते हुए, बड़े ही दावे के साथ यह भी कहा कि पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु। स युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।। सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचंद शास्त्री ने अपनी कृति “जैनन्याय” (भूमिका पृष्ठ-५-६) में ठीक ही लिखा है कि-जैनदर्शन प्रमाण और नय से वस्तु की सिद्धि मानता है। स्व-पर प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। यह ज्ञान आत्मा का स्वरूप है, अतः उसे आत्मा शब्द से भी सम्पादकीय कहते हैं। अनन्त धर्मवाली वस्तु के किसी एक धर्म को जानने ज्ञान को “नय” कहते हैं। इसके दो भेद हैं। जो नय वस्तु को केवल द्रव्य की मुख्यता से ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं तथा जो नय वस्तु की पर्याय की मुख्यता से ग्रहण करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। इस तरह नय, स्याद्वाद या अनेकान्तवाद जैनदर्शन की मौलिक देन है, इसीलिए अन्य दर्शनों में इनकी ध्वनि सुनाई नहीं देती। अनेकान्तवाद के दो फलितवाद हैं १. सप्तभंगीवाद और २. नयवाद। ये सब जैनदर्शन की मौलिक विशेषतायें हैं। जैन आचार्यों ने इनके निरूपण और विवेचन में प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश इन प्राचीन भाषाओं में बड़े-बड़े अनेक मूल ग्रन्थ लिखे हैं और अनेकान्तवाद के बल से ही अन्य दार्शनिकों का निराकरण और खण्डन किया है। जब बादरायण जैसे सूत्रकारों ने उसके खण्डन में सूत्र रचे और उन सूत्रों के भाष्यकारों ने अपने भष्यों में स्याद्वाद का खण्डन किया तथा वसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मकीर्ति और शान्तरक्षित जैसे बड़े-बड़े प्रभावशाली बौद्ध विद्वानों ने भी अनेकान्तवाद की आलोचना की तो जैन विद्वानों ने भी उनका डटकर सामना किया और उसके संरक्षण के लिए शास्त्रार्थ भी किये। इस संघर्ष के फलस्वरूप जहाँ एक ओर अनेकान्त का तर्कपूर्ण विकास हुआ वहाँ दूसरी ओर उसका प्रभाव भी विरोधी दार्शनिकों पर पड़ा। ____दक्षिण भारत में जैनाचार्यों का मीमांसक तथा वेदान्तियों के बीच में जो विवाद हुए उसका असर मीमांसादर्शन तथा वेदान्त पर पड़ा। मीमांसक कुमारिल भट्ट ने अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक में जैनाचार्य समन्तभद्र की शैली और शब्दों में तत्त्व को त्रयात्मक बतलाया है तथा रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद के विरुद्ध विशिष्टाद्वैत का निरूपण करते समय अनेकान्त दृष्टि का ही उपयोग किया है। इस तरह यदि अन्तरशास्त्रीय दृष्टि से गहन अध्ययन किया जाए तो भारतीय दर्शन इसके शास्त्रों और अनेक मौलिक विचारों के विकास में जैनाचार्यों का महनीय योगदान है। प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन जैन आगमों में तो जैनदर्शन के अनेक सूत्र बीज रूप में दिखलाई देते ही हैं, साथ ही ईसा की प्रथम शती से ही इन्हीं आगमिक सूत्रग्रन्थों के आधार पर जैन न्यायविद्या को विकसित करते हुए संस्कृत भाषा में इस विषयक शताधिक मौलिक और विशाल टीका ग्रन्थों की रचना करके जैनाचार्यों ने संस्कृत वाङ्मय की श्रीवृद्धि की है। जैनदर्शन के क्षेत्र में इस प्रकार के लेखन की परम्परा बीसवीं सदी के अंत तक अबाध रूप में जारी रही। आचारधर्म : आध्यात्मिक उन्नति के लिए जैनधर्म का आचारपक्ष बहुत ही उत्कृष्ट मार्ग है जो रत्नत्रय में सम्यक्चारित्र के रूप में प्रतिष्ठित है। तृतीय शती के जैनाचार्य स्वामी १४ F जैनदर्शन समन्तभद्र ने धर्म की परिभाषा बतलाई है कि “संसार-दुःखतः सत्त्वान् यो धरति उत्तमे सुखे सः धर्मः” अर्थात् जो जीवों को सांसारिक दुःखों से निकालकर उत्तम सुख प्रदान करे वही धर्म है। मेरा विश्वास है कि धर्म का आविर्भाव सर्वकल्याण की भावना से ही हुआ था। किसी भी धर्म का उद्देश्य किसी को कष्ट पहुँचाना नहीं है। धर्म से तात्पर्य किसी विशिष्ट नाम अथवा रूढ़िग्रस्त धर्म से नहीं, अपितु एक ऐसे सार्वभौम धर्म से है, जो शाश्वत है।
- इसलिए जैनधर्म में चारित्र या आचार की विशेष महत्ता है। चारित्र कैसा होना चाहिए? इसका स्वरूप हमें पाँच व्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में मिलता है। जैनपरम्परा में साधु या श्रमण जब इन व्रतों को पूर्णरूप से धारण करते हैं, तो ये पाँच व्रत महाव्रत कहे जाते हैं और साधुओं को महाव्रती कहा जाता है, तथा जब कोई गृहस्थ इन्हीं व्रतों को अपनी-अपनी क्षमता और सीमाओं के अनुसार अल्प या अणु रूप में ग्रहण करता है तो उसे श्रावक या अणव्रती कहा जाता है तथा उसके इन व्रतों को ‘अणुव्रत’ कहते हैं। आध्यात्मिक विकास की पूर्णता में श्रावक या गृहस्थ धर्म पूर्वार्ध है और श्रमणधर्म या मुनिधर्म उत्तरार्ध है। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थधर्म पर मजबूत होती है। त्याग और भोग इन दोनों को श्रावक समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होते रहते हैं। इसलिए समाज के अभ्युत्थान में श्रावक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह समाज की रीढ़ है। समन्तभद्राचार्य ने अपने ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ नामक ग्रन्थ में जहाँ दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत-इन तीन गुणव्रतों के माध्यम से ‘स्वच्छ समाज निर्माण’ के मादण्ड बतलाये-वहीं, १. देशावकाशिक (मर्यादित देश, क्षेत्र या स्थान में निर्धारित समय तक रहना), २. सामायिक (समताभावधारण करके पापों का निश्चित समय तक त्याग), ३. प्रोषधोपवास (पर्व आदि में चतुर्विध आहार का त्याग) तथा ४. वैयावृत्य (सेवा)-ये चार शिक्षाव्रत ‘वैयक्तिक विकास’ के चार बिन्दु बतलाये हैं। पूर्वोक्त तीन गुणव्रतों में दिग्व्रत द्वारा सार्वभौम अनाक्रमण वृत्ति को स्वीकार किया गया है। जैनधर्म में मूर्छा अर्थात् आसक्ति को परिग्रह (मूर्छा परिग्रहः-तत्त्वार्थसूत्र ७/१७) कहा है और इसके त्याग को अपरिग्रह। इसका आधार प्राप्त सम्पदा या सामग्री का समविभाजन। “असंविभागी न हु तस्स मोक्खो” उक्ति के अनुसार समविभाजन के बिना तो किसी जीव की मुक्ति भी संभव नहीं है। इसमें सामाजिक और आर्थिक समानता का तत्त्व निहित है। गृहस्थधर्म में अपरिग्रह व्रत का अर्थ यह है कि किसी कार्य में जहाँ सीमित साधनों से काम चल जाता है, वहाँ अमर्यादित और अनावश्यक साधनों को जुटाना मूर्खता है। सम्पादकीय १५ जहाँ जरूरत से ज्यादा संग्रह होगा, वहाँ शोषण और विषमता होगी, क्योंकि संग्रह के लिए सहजीवियों का शोषण, उत्पीड़न और अनैतिक मार्ग अपनाया जाता है। अतः तीर्थकर महावीर ने अपरिग्रह के सिद्धान्त को अधिक महत्व दिया और श्रावक के अपरिग्रह अणुव्रत को ‘परिग्रह-परिमाण व्रत’ नाम दिया। श्रमण और श्रावक के इस आचारमार्ग या धर्म से प्रभावित होकर जर्मन विद्वान् हर्मन जैकोबी ने कहा था कि-“जैनधर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमें श्रावक और श्रमण दोनों को एक ही तीर्थ (Religious Order) में स्थान मिलता है। यह जैनधर्म की मौलिकता ही नहीं, अपितु इसकी प्राणशक्ति है, जिसके कारण इतने विरोध को झेलते हुए भी जैनधर्म ने अपना अस्तित्व कभी नहीं खोया। अहिंसा की व्यावहारिकता : यह सत्य है कि प्रायः सभी स्वस्थ चिन्तनधारायें “अहिंसा” को केन्द्र में रखकर प्रसारित होती हैं। क्योंकि यह पहले की कह चुके हैं कि जैनधर्म मूलतः अहिंसा प्रधान धर्म है और इसके सभी तीर्थंकरों ने अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में ही अपने समस्त उपदेश दिये। इनमें इतिहास प्रसिद्ध प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव. बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि, तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर का नाम अहिंसक क्रान्ति को प्रभावी बनाने में विशेष उल्लेखनीय है। जैनधर्म में “अहिंसा” सिद्धान्त का जितना विस्तृत, सूक्ष्म और गहन विवेचन किया गया है, उतना ही उसे व्यावहारिक धरातल भी प्रदान किया गया है। व्यवहार में कायिक, वाचिक और मानसिक रूप से यह अहिंसा-तत्त्व आत्मिक रूप मे परिणत हो जाता है। इसीलिए जैनाचार्यों ने विचार किया है कि यह “अहिंसा” सिद्धान्त इतना जटिल या गहन न बनकर रह जाये कि इसका व्यावहारिक प्रयोग ही कठिन हो जाए। प्रत्येक व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन अहिंसा से ओतप्रोत बन सके, ऐसी व्यावहारिक अहिंसा का भी उन्होंने प्रतिपादन किया, क्योंकि धर्म का आत्मभूत लक्षण अहिंसा ही है। इसके बिना धर्म की कल्पना व्यर्थ है। आचार्य समन्तभद्र ने कहा भी है, “अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्”। इसलिए चाहे श्रमण हो या श्रावक, सभी का यह कर्तव्य है कि वह अपनी स्थिति के अनुसार अहिंसा की मर्यादा में चले, क्योंकि एक गृहस्थ श्रावक के लिए अहिंसा की एक मर्यादा है, उससे अधिक की अपेक्षा करना भी अहिंसा का अतिवाद ही कहलायेगा और ऐसी स्थिति में वह अहिंसा अव्यवहारिक बनकर रह जायेगी। इतना ही नहीं, मान लीजिए किसी बालक के पेट में कृमि (कीड़े) हो गये हैं, तो उनसे मुक्त होने के लिए जैनधर्म यह कभी नहीं कहता कि उसे औषधि नहीं देनी चाहिए, क्योंकि औषधि देने से जो कृमि मरेंगे, उस हिंसा में प्रमत्तयोग नहीं होगा, क्योंकि औषधि देने वाले चिकित्सक का उद्देश्य और अभिप्राय बालक की जीवनरक्षा का है, न कि कृमि मारना। इसी जैनदर्शन प्रकार राजा का भी यह धर्म कदापि नहीं है कि वह पापियों को तथा दुराचारियों को प्राणदण्ड न देवें, अथवा शत्रु पर चढ़ाई न करें और वहां पर अस्त्र-शस्त्र न चलावें। इसमें धर्म किसी प्रकार बाधक नहीं बनता, क्योंकि राजा जो दण्ड देता है अथवा जो लड़ाई में हिंसा करनी पड़ती है, उसका सदाचार की प्रवृत्ति और प्रजा एवं देश रक्षा करने का उद्देश्य रहता है, न कि जीवघात करने का। इसलिए राष्ट्र की उन्नति के लिए अहिंसा धर्म को अपायकारक बतलाना बड़ी भारी भूल है। पानी छानने से भी जन्तुशास्त्र के नियमानुसार वह पूर्णतः जीवराशि रहित तो नहीं होता, पर यह कहकर जो जैनियों का पानी व्यर्थ बतला देते हैं, वह भी अज्ञान तो है ही, उन्हें इस जीवरक्षा के कार्य से हतोत्साहित करना भी है। __अहिंसा का व्यावहारिक स्वरूप : सभी तीर्थंकरों तथा उनकी परम्परा के आचार्यों ने अहिंसा का स्पष्ट और वयावहारिक स्वरूप रखा। इसके स्वरूप के विषय में कोई भ्रम न रहे, अतः उन्होंने पहले हिंसा का स्वरूप बतलाया कि ‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा’ (तत्त्वार्थसूत्र ७/१३) अर्थात् प्रमाद के योग से किसी भी जीव (प्राणों) का घात या वध करना हिंसा है। इस हिंसा का त्याग ही अहिंसा है। उन्होंने कहा-“क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चार कषायों तथा राग आदि भावों से युक्त प्रवृत्ति ही प्रमाद है और इस प्रमाद से युक्त मन-वचन-काय की किसी भी प्रवृत्ति या क्रिया के ,रा अपने या दूसरे के द्रव्य अथवा भाव प्राणों का घात करने या कष्ट पहुँचाने को “हिंसा” कहते हैं और इससे विरत रहना “अहिंसा” है। मूलतः हिंसा-अहिंसा प्रत्येक व्यक्ति के भावों पर निर्भर है। इसके अनुसार जो कोई अहिंसा का सार्वभौम अर्थात् मन-वचन और काय तथा कृत (स्वयं न करना), कारित (दूसरे से न कराना) और अनुमोदना (उस हिंसा का समर्थन न करने) से पूर्णतः पालन करता है, उसके लिए अहिंसा “महाव्रत” रूप होती है, जिनका पालन श्रमण अर्थात् मुनि करते हैं और इस अहिंसा व्रत का जब कोई गृहस्थ व्यक्ति अणु या छोटे या देश रूप में पालन करता है तब वह “श्रावक” कहलाता है और उसकी यही अहिंसा “अणुव्रत" रूप कहलाती है। वस्तुतः एक गृहस्थ के लिए अहिंसा व्रत को अधिक व्यावहारिक बनाने हेतु हिंसा का विभाजन चार भागों या रूपों में किया, ताकि एक गृहस्थ अपने धर्म, समाज, कुटुम्ब, राष्ट्र आदि के प्रति उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों से विमुख न रहे और अपने श्रावक-धर्म का अच्छी तरह पालन करता हुआ क्रमशः विकास करते हुए इस अणुव्रत तक की यात्रा पूर्ण क अपने आत्मकल्याण के उद्देश्य को प्राप्त करे। हिंसा के चार भेद इस प्रकार हैं (9) संकल्पी हिंसा-जानबूझकर, संकल्प करके किसी को सताना, कष्ट पहुँचाना अथवा उसके प्राणों का घात करना संकल्पी हिंसा है। प्रत्येक श्रावक को इस प्रकार की हिंसा का सर्वथा त्याग आवश्यक है। सम्पादकीय (२) विरोधी हिंसा-धर्म, समाज और राष्ट्र-इनकी अस्मिता पर कोई आक्रमण करता है, * तो उनकी रक्षार्थ अर्थात् अत्याचारियों से स्व-धन-जन की रक्षा करने में जो हिंसा की हो जाती है, वह विरोधी हिंसा है। और (३) आरम्भी हिंसा-गृहस्थ द्वारा घर-गृहस्थी के विविध कार्यों के करने में जो हिंसा हो जाती है, उसे आरम्भी हिंसा कहते हैं। या (४) उद्योगी हिंसा-गृहस्थ द्वारा अपने आश्रितों के पालन-पोषण हेतु अत्यावश्यक आजीविका तथा यथा योग्य उद्योग धन्धे या व्यवसाय के सम्पादन में सावधानी के बावजूद जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी हिंसा है। यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि प्रत्येक श्रावक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपनी अजीविका हेतु ऐसे कार्यों या साधनों का चयन करें। जो हिंसक, लोकनिंदक और धर्मविरुद्ध न हों। मगर अहिंसा अणुव्रत का भी शुद्धता से पालन करने वालों के लिए जिन पाँच दोषों या अतिचारों का त्याग अनिवार्य बतलाया गया है, वे इस प्रकार हैं (१) बन्ध-त्रस जीवों को पीड़ादायक कठिन बंधन में बाँधना, कैद या पिंजरे आदि में बन्द करके रखना। जैसे-पशु-पक्षियों आदि किसी भी मूक, असहाय निपराधी जीवों को बलात् पिंजरे तथा अन्य प्रकार के बन्धनों में रखना। (२) वध-किसी भी प्राणी को लाठी, डण्डा, कोड़ा, पत्थर आदि से मारना, पीटना, दुःख देना। (३) छविच्छेद-किसी भी प्राणियों आदि के अंग-भंग करना, नाक-कान छेदना, उन्हें विरूप कर देना। (४) अतिभार-पशुओं या मजदूरों आदि पर उनके सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना, या उन्हें ढोने (वहन करने) के लिए बाध्य करना। कर (५) अन्न-पान-निरोध-पशुओं या अन्य किसी भी प्राणियों का किसी भी कारण से भोजन, पानी, वेतन रोक देना या इनकी जीवनोपयोगी आवश्यकताओं का (भले ही कुछ समय के लिए सही) रोक देला, अन्नपान निरोध है। इन पाँच अतिचारों (दोषा) से अहिंसा अणुव्रत में दूषण लगतः है।
वैचारिक अहिंसा और अनेकान्तवाद
अहिंसा को जीवन व्यवहार में लाने एवं उसके पालन करने के लिए वैचारिक मतभेदों को दूर करने का मार्ग जैनधर्म में “अनेकान्त" सिद्धान्त द्वारा प्रतिपादित किया गया। १८ जैनदर्शन अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो वस्तुतत्त्व विषयक वैज्ञानिक अनुभव पर आधारित है, जो व्यक्ति को उदार एवं सम्यक्-दृष्टि प्रदान करता है। अनेकान्तवाद की यह व्यवस्था है कि प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण-धर्म होते हैं। उनके अनेक पहलू होते हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्ति, - भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से उसका वर्णन करते हैं, क्योंकि सत्य किसी व्यक्ति या धर्म की बपौती नहीं है। सबकी बात सहिष्णुतापूर्वक सुनो और जिस दृष्टिकोण से वह कही गयी है उसे उसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करना चाहिए। हमारे बड़े-से-बड़े विरोधी की बात भी किसी न किसी दृष्टिकोण से सही हो सकती है। उदारतापूर्वक समन्वय-बुद्धि से उस बात को सुनने और उस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त होने पर कदाग्रह, हठवाद, पक्षपात आदि के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती। समस्त पारस्परिक विवाद एवं झगड़े समाप्त करने का यह अमोघ उपाय है, क्योंकि अनेकान्तवाद के अनुसार परस्परविरोधी प्रतीत होने वाले दो सापेक्षिक सत्य, अपेक्षा भेद से सत्य हो सकते हैं। इसी यथार्थ को स्वीकार करते ही परस्पर संघर्ष और विवाद का कोई मुद्दा ही नहीं रह जाता। अनेकान्त विचारधारा वाला व्यक्ति जो कथन करता है, वह स्याद्वाद पद्धति से करता है। “ही” के स्थान में “भी" का प्रयोग करता है। अपनी बात ही सम्पूर्ण सत्य है और अन्य सबका मत सर्वथा असत्य है-ऐसा एकान्त दावा वह नहीं करता। इस प्रकार सहिष्णुता पूर्ण उदार समन्वय बुद्धि, पारस्परिक शान्ति की विधायक है। इसका प्रयोग मात्र दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं, अपितु सामाजिक, राजनैतिक तथा लौकिक जीवन के भी प्रत्येक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है और उसके द्वारा शांति का सम्प्रसारण होगा ही। इसीलिए जैनधर्म के इस सापेक्षिक अनेकान्त सिद्धान्त को वैचारिक और व्यावहारिक अहिंसा कहें तो अत्युक्ति न होगी। वैचारिक हिंसा, शारीरिक हिंसा से कम नहीं होती अपितु वह तो अधिक भयावह होती है। ज्यादातर देखा जाता है कि वैचारिक हिंसा शारीरिक हिंसा का निमित्त बन जाती है। इसीलिए “अनेकान्त" सिद्धान्त द्वारा वैचारिक हिंसा का समाधान संभव है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्त-धर्म (गुण) और पर्याये होती हैं, उन्हें देखने-समझने के लिए भी उतने ही दृष्टिकोण चाहिए। आग्रहवश किसी एक ही दृष्टि से वस्तु के सत्य को देखने का अर्थ है, मात्र अपने स्वीकृत सिद्धान्त का समर्थन और दूसरों की स्वीकृतियों का खंडन। इसी तरह के दुराग्रह ही वैचारिक हिंसा के जन्मदाता होते हैं। वैचारिक जगत् का अनेकान्त दर्शन ही नैतिक जगत में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप धारण करता है। जैसा कि कहा गया है कि जैनधर्म में अहिंसा का स्थान सर्वोपरि है और जैनधर्म और अहिंसा एक दूसरे के पर्यायवाची माने जाते हैं। अनेकान्त सिद्धान्त ने भी वैचारिक क्षेत्रों में फैली हिंसा को रोकने का कार्य किया है। तीर्थंकर महावीर के युग में भी तीन सौ तिरेसठ (३६३) मत प्रचलित थे। आज की तरह ये सभी अपने-अपने वचनों, कथनों और मतों सम्पादकीय १६ को ही सही तथा दूसरों को मिथ्या कहकर परस्पर कलह में लिप्त रहते थे। तीर्थकर महावीर ने अनेकान्त दृष्टि का बल देकर चिंतन की एक सुव्यवस्थित एवं स्वस्थ परम्परा का सूत्रपात करके वस्तु की पूर्णता को जानने की एक नई दृष्टि प्रदान की। अनेकान्त चिंतन, संकीर्णताओं की कटीली झाड़ियों को एक सुन्दर उद्यान में बदलने की प्रक्रिया है। वस्तुतः दुनिया के देश और मनुष्यों के बीच की अधिकांश समस्यायें, असम्मान, बैर, अविश्वास और आग्रह की समस्यायें हैं। इसका समाधान अनेकान्त की इस भावना में ढूँढा जा सकता है कि-हम एक दूसरे की भावनाओं की कद्र करें। छ का सर्वोदय की भावना-तीर्थंकर महावीर ने अनेकान्त सिद्धान्त के फलितार्थ के रूप में “सर्वोदय” की भावना मानव के हृदय में स्थायीभाव के रूप में विद्यमान होने की बात कही। इसीलिए उनके धर्मतीर्थ को भी “सर्वोदय तीर्थ" कहा जाता है, जिसमें मात्र मानव ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण लोक के छोटे-बड़े सभी जीवों को निर्भयता से जीने और अपना पूर्ण विकास करने का सुअवसर उपलब्ध है। सर्वोदय का अर्थ ही है “सभी का उदय” अर्थात् सभी को आध्यात्मिक और भौतिक सभी प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति का समान अवसर प्राप्त होना।
- आचार्य समन्तभद्र स्वामी के युक्त्यानुशासन (श्लोक ६१) में तीर्थंकर महावीर के इस अनेकान्तात्मक तीर्थ को “सर्वोदय तीर्थ" के रूप में प्रतिपादित करते हुए सर्वोदय की सर्वप्रथम अवधारणा प्रस्तुत करते हुए कहा कि सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। ने सर्वाऽऽपदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।। गए नि का हे वीर जिनेन्द्र ! आपका तीर्थ मुख्य और गौण की अपेक्षा समस्त धर्मों (अपेक्षाओं) की व्यवस्था से युक्त है। और वह सम्पूर्ण आपदाओं का अन्त करने वाला और स्वयं अंत रहित (अविनाशी) सर्वोदय रूप है। सर्वोदय तीर्थ का यह भी सन्देश है कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है। तीर्थंकर महावीर ने वस्तु के जिस अनेकान्तात्मक सर्वोदय स्वरूप को प्रतिपादित किया उसमें वस्तु स्वातन्त्र्य को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। उन्होंने कहा कि विश्व का प्रत्येक द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र एवं अपने परिणमन का कर्ता-हर्ता स्वयं है, कोई दूसरा नहीं। समानता और सुख का स्रोत : समता-समता के जीवन की विषमताओं में संतुलन बना रहता है और जीवन में संतुलन बहुत आवश्यक है, क्योंकि इसके बिगड़ने से जीवन नौका ही डगमगा जायेगी। वीतरागता ही समभाव का सर्वोच्च शिखर है। समभाव की वृद्धि से सुखवृद्धि का एक चामत्कारिक प्रयोग सफल होता है। क्योंकि प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभावी हर हाल में खुश रहता है। २० जैनदर्शन जैनधर्म की मान्यता है कि संसार में किसी को सुख दुख देने वाला न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। प्रत्येक जीव की जो पापमय परिणति है, वही दुःख देने वाली है, अहितकारी है और वही उसकी शत्रु है। सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित्र रूप जो परिणति है, वही सुख देने वाली है, वही मित्र है, वही हितकारी है। अपने बांधे हुए शुभाशुभ कर्म ही सुख-दुःख के कारण हैं। अन्यों को कारण मानना समझना अज्ञानता है, मिथ्या है। जो व्यक्ति उपर्युक्त तथ्य पर निश्चयपूर्वक श्रद्धा करता है, निश्चय ही वही सच्चा सुख प्रदान करता है। क्योंकि इस मान्यता से वह सुख-दुःख आने पर समता भाव रखता है। इन समता के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ-इन चार भावनाओं का प्रतिपादन करते हुए जैनधर्म में कहा गया है कि प्राणी सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। गुम हो माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव !।। अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति मेरा मैत्री भाव हो, गुणवान् व्यक्तियों को देखकर मेरे हृदय में प्रमोद (उल्लास) की भावना जाग्रत हो तथा कष्ट या दुःखी प्राणियों के प्रति मेरे मन में सदा करुणाभाव हो, साथ ही विरोधी जीवों के प्रति मेरे मन में मध्यस्थ भाव हो। इन्हीं चार भावनाओं को हम इस प्रकार समझ सकते हैं - १. मैत्री भावना-सब प्राणियों के प्रति मित्रता और प्रेम की भावना रखना ही मैत्री है। इसमें भाईचारा और इससे भी बढ़कर विश्वबंधुत्व की भावना छिपी है। संसार के सभी प्राणी सुखी रहें, स्वस्थ रहें - यह हमारी सनातन कामना रही है। समस्त विश्व । को एक घोंसले के रूप में देखना हमारे तीर्थंकरों एवं आचार्यों की शाश्वत भावना कांट रही है। इसके अन्तर्गत “मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे” इस प्रकार की मंगल कामना प्रत्येक जीव के हृदय में रहना चाहिए। वह २. प्रमोद भावना-जो अपने से अधिक उन्नत, गुणवान, ज्ञानवान अथवा गौरवशाली हो, उसकी सेवा-स्तुति करना और उन्हें देखकर आनन्द का अनुभव करना ही प्रमोद 20 भावना है। दूसरों के अच्छे और महान कार्यों की सराहना उनकी चर्या का अभिन्न अंग ही नहीं, अपितु किसी भद्र पुरुष का आवश्यक गुण भी माना जाता है। ऐसा का न करने वाले को असभ्य तक कहा जाता है। सभ्य का अपराध क्षमा करना भी इसी के अन्तर्गत आता है। इसमें भी क्षमा याचना की तथा कभी भी प्रमाद या किसी के प्रति असत् प्रवृत्ति होने पर तुरन्त क्षमा याचना कर लेना क्रमशः वक्ता और श्रोता की शालीनता तथा क्षमा भावना को व्यक्त करता है। इसके अन्तर्गत “गुणी जनों को देखकर हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवें" की भावना सदा मन में होनी चाहिए। सम्पादकीय २१ ३. कारुण्य भावना-दीन-दुखियों के प्रति करुणा की भावना रखना, उसे सुख पहुँचाना ही करुणा है। समाज में सत्य, अहिंसा, दया, सहयोग आदि मानव मूल्यों की तरह करुणा भी महत्वपूर्ण है। यह करुणा मात्र मनुष्यों तक ही नहीं, अपितु संसार के छोटे-बड़े सभी जीवों के प्रति होना आवश्यक है। ४. माध्यस्थ भावना-जो अपने विरोधी या द्वेषी, शत्रु या विपरीत बुद्धि या वृत्तिवाले हो उसके प्रति क्रोध आदि न करके, तटस्थता का भाव रखना माध्यस्थ भावना है। प्रकारांत से यह क्षमा रूपी जीवनमूल्य का पर्याय है। इसे हम अहिंसा का ही एक मग अग मान सकते हैं। पावर पामर गिरि शामली जैनधर्म में गुणों की पूजा की जाती है किसी व्यक्ति विशेष की नहीं, इसका सप्रमाण उदाहरण जैनधर्म का अनादि निधन “णमोकार महामंत्र" है। जो इस प्रकार है शाह णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, निशावर किती । हजार णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं। माना ज मिनोफ इस मंत्र की साधना से अनेक दुःखों से छुटकारा मिलता है और सुख की प्राप्ति होती है। आश्चर्य यह है कि आज इच्छाओं की पूर्ति में ही अज्ञानी सुख की खोज करता है। आशा रूपी गड्ढा प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है। अनन्त जन्मों में इसकी पूर्ति सम्भव नहीं हो पायी। इसलिए आत्मानुशासन में गुणभद्राचार्य ने कहा है - जामती शिलाई है UP005 आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन् विश्वमणूपमम्। एक कि किती मार राणा श्री कस्य किं कियदायाति वृथा ते विषयैषिणा॥ है णास्र तट लाई इसलिए जिस मार्ग से इच्छाओं पर संयम पाया जा सके, इंद्रिय-संयम किया जा सके, ऐसा मार्ग ही जिनशासन जैनधर्म है। इसको धारण करने से निराकुलता रूपी शान्ति एवं सुख की प्राप्ति होती है। । जैन आगम साहित्य और उसकी परम्परा - प्राकृत भाषा में निबद्ध जैन आगम साहित्य विशाल है। आज यह प्रमुख रूप से अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत भाषाओं में उपलब्ध है। इन दोनों भाषाओं का यह आगम साहित्य प्रमुख रूप में जैन धर्म की दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्पराओं में उपलब्ध है। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा मान्य उपलब्ध अर्धमागधी आगम साहित्य को दिगम्बर जैन परम्परा मान्य नहीं करती। दिगम्बर परम्परा यह मानती है कि आगे उल्लिखित आगम साहित्य लुप्त हो चुका है। मात्र बारहवें दृष्टिवाद अंग का कुछ अंश कसायपाहुड और षट्खण्डागम के रूप में उपलब्ध होता है। किन्तु बारह अंग आगमों और चौदह पूर्व आगम शास्त्रों का विस्तृत विषय परिचय एवं२२ जैनदर्शन विवरण के उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। प्रस्तुत प्रवचन परीक्षा में भी इन आगमों का विषय परिचय और परिमाण आदि का विवरण विशेष उल्लेखनीय है। अतः उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - गोम्मटसार जीवकाण्ड (गाथा ३३४) में आचार्य नेमिचंद सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है ROTESTFEFATEHP पण्णंवणिज्जाभावा अणंतभागो टु अणभिलप्पाणं पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।। अनभिलप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण श्रुत में निबद्ध हैं। अर्थात् जो केवलज्ञान के द्वारा जाने जाते हैं ऐसे पदार्थ अनन्तानन्त हैं किन्तु वचन के द्वारा निरूपण नहीं किया जा सकता है, इस तरह जिनका वचन के द्वारा निरूपण हो सके ऐसे पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय भाव है। जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं, उनका अनन्तवां भाग श्रुत में निबद्ध है। बुद्धि आदि ऋद्धियों के धनी गणाधरों ने अर्हन्त सर्वज्ञदेवरूपी हिमालय से निकली वचनरूपी गंगा के अर्थरूपी निर्मल जल से प्रक्षालित अन्तःकरण द्वारा समस्त श्रुत को ग्रन्थ रूप से निबद्ध कर भव्यात्माओं का अनुपम उपकार किया है। कि “केवलणाणदिवायर" केवलज्ञान रूपी सूर्य जिनके भासमान हो चुका है ऐसे अर्हन्त सर्वज्ञदेवरूपी हिमाचल पर्वत से निकली हुई वचनरूपी गंगा के अर्थरूपी जल से प्रक्षालित है अन्तःकरण जिनका, ऐसे बुद्धि आदि ऋद्धियों के अधीन गणधरों ने जिनवचन रूप मोतियों की श्रुत रूप माला गूंथी। समस्त श्रुत के अक्षर १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ बीस अंक प्रमाण हैं। ये अपुनरुक्त अक्षर श्रुत के हैं। इस मूल वर्ण राशि में मध्यम पद के अक्षर १६३४८३०७८८८ से भाग देने पर जो लब्ध आया श्रुत की अप्रविष्ट संज्ञा हुई, शेष जितने अक्षर रहे - वे अंगबाह्य कहलाये। आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थप्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम्। तत्त्वार्थवार्तिक १/२०/६३।। अर्थात् आरातीय आचार्यकृत अंग अर्थ के आधार से रचे गये अंग बाह्य हैं। श्रुत अर्थ के ज्ञाता गणधर देव के शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्प आयु बुद्धिवाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अङ्गबाह्य हैं। दिगम्बर मान्यता के अनुसार वर्तमान में ग्यारह अंग, चौदह पूर्व की उपलब्धि नहीं है। जितना भी श्रुत उपलब्ध है अंग बाह्य है। वह हमारे लिए पूजनीय, वन्दनीय, मननीय और चिन्तनीय है। क्योंकि श्रुतज्ञान स्व-पर उपकारी ज्ञान है। श्रुतज्ञान का माहात्म्य बतलाते हुए कहा गया है - सम्पादकीय सुदकेवलं च णाणं, दोण्णि वि सरिसाणि होति बोहादो। सुदणाण तु परोक्खं, पच्चक्खं केवलं गाणं ।। गोम्मटसार जी.का. ३६६ ।। अर्थात् ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान व केवल ज्ञान दोनों ही सदृश हैं। परन्तु दोनों में अन्तर यही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। जिस तरह श्रुतज्ञान द्रव्य और पर्यायों को जानता है उसी तरह केवल ज्ञान भी सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता है। विशेषता इतनी है कि केवल ज्ञान निरावरण होने से समस्त पदार्थों को उनके सम्पूर्ण गुण व पर्यायों को स्पष्ट रूप से विषय करता है, जबकि श्रुतज्ञान आवरण सहित होने से अस्पष्ट रूप से विषय करता है। श्रुतज्ञान पिता है, केवलज्ञान पुत्र है। ____ सम्यग्दृष्टि सम्पूर्ण द्वादशांग की श्रद्धा निर्दोष रूप से करता है। यदि एक अक्षर की श्रद्धा न करे और पूरे श्रुत की श्रद्धा भी करे तो सम्यक्त्व दूषित हो जाता है। अंगप्रविष्ट श्रुत आचारंग आदि बारह अंगों रूप हैं। बारह अंगों के नाम व वर्णित विषय इस प्रकार हैं यहाँ प्रवचनपरीक्षा में प्रतिपादित द्वादशाङ्ग आगमों का क्रमशः परिचय प्रस्तुत है आचाराङ्ग-आचाराङ्ग में आठ प्रकार की शुद्धि, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप श्रमण चर्या का प्रतिपादन है। इसमें पदों की संख्या १८००० है। (एक-एक पद का प्रमाण मध्यम पद के अक्षर रूप हैं) सूत्रकृताङ्ग - इस अंग में ज्ञान, विनय, प्रज्ञापना, कल्प्य-अकल्प्य, छेदोपस्थापना आदि व्यवहार धर्म की क्रियाओं का निरूपण है। इसमें ३६००० पद हैं। ३. स्थानाङ्ग-इसमें अर्थों के एक-एक, दो-दो आदि अनेक आश्रय रूप से पदार्थों का कथन किया जाता है। इसमें पदों की संख्या ४२००० है। पर ४. समवायाङ्ग-समवायाङ्ग में सर्वपदार्थों की समानता रूप से समवाय का विचार किया गया है। वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है। जैसे धर्म-अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के तुल्य असंख्यात प्रदेश होने से इन्हें द्रव्यरूप समवाय कहा जाता है। जम्बूद्वीप सर्वार्थसिद्धि, अप्रतिष्ठान नरक, नन्दीश्वर द्वीप की वापिका ये सब एक लाख योजन विस्तार वाले होने से इनका क्षेत्र की दृष्टि से समवाय है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दोनों दस कोड़ा-कोड़ी प्रमाण होने से इनका काल की दृष्टि से समवाय है। क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चरित्र-ये सब अनन्त विशुद्ध रूप से भाव समवाय वाले हैं। इसमें कुल पद १६४००० हैं। माता 70000९EST जैनदर्शन ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग - इस अंग में “जीव है या नहीं" इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का उत्तर निरूपण है। इसके पदों की संख्या २२८००० है। ६. ज्ञातृधर्मकथांग-इस अंग में अनेक आख्यान और उपाख्यानों का वर्णन है। पदों की संख्या ५५६००० है। ७. उपासकाध्ययनाङ्ग-यहाँ श्रावक धर्म का विशेष रूप से विवेचन किया गया है। पदों की संख्या ११७०००० है। अन्तकृद्दशाङ्ग-संसार का अन्त जिन्होंने कर दिया है, वे अन्तकृत हैं-जैसे वर्द्धमान तीर्थकर के तीर्थ में नेमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, निष्कम्बल, पाल और अम्बष्ठपुत्र-ये दस मुनि घोरोपसर्ग सहन करके सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर अन्तकृतकेवली हुए। उसी प्रकार ऋषभादि तेईस तीर्थंकरों के समय में दस-दस मुनि घोरोपसर्ग सहन करके अन्तकृतकेवली हुए हैं। उन दस मुनियों का विवरण जिसमें है उसको अन्तकृद्दशांग कहते हैं अथवा अन्तःकृतों की दशा अन्तःकृत दशा, उसमें अर्हद् आचार्य होने की विधि तथा सिद्ध होने वालों की अन्तिम विधि का वर्णन है। इस अंग में २३२८००० पद हैं। - अनुत्तरौपपादिकदशांग-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर हैं। उन अनुत्तरों में उत्पन्न होने वालों को अनुत्तरौपपादिक कहते हैं। भगवान महावीर के समय में ऋषिदास, वान्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र-ये दस मुनि घोर उपसर्ग सहन करके विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिन्द्रि में उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभादि तेईस तीर्थङ्करों के समय में अन्य-अन्य दस-दस मुनिराज दारुण उपसर्ग सहन कर विजयादि अनुत्तरों में उत्पन्न हुए। उन अनुत्तरौपपादिक की दशा का वर्णन जिसमें पाया जाता है उस अंग का नाम: अनुत्तरौपपादिक दशा है। इसमें विजयादि अनुत्तर विमानों की आयु, विक्रिय, क्षेत्र आदि का वर्णन है। इसकी पद संख्या ६२४४०० है। १०. प्रश्नव्याकरणाङ्ग-इस अंग में युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप-विक्षेप रूप प्रश्नों का उत्तर है तथा उसमें सभी लोकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया गया है। पद संख्या ६३१६०० है। ११. विपाक सूत्राङ्ग-इस अंग में पुण्य और पाप के विपाक का विचार (कथन) है। पद संख्या १८४००००० है।
सम्पादकीय २५ है १२. दृष्टिवाद अंग-इसमें ३६३ कुवादियों के मतों के निरूपण पूर्वक खण्डन पाया जाता है। क्रियावादियों के १८० भेद, अक्रियावादियों के ८४ भेद, अज्ञानवादियों के ६७ तथा वैनयिकों के ३२ भेद हैं। इसमें कुल पद १०८६८५६००५ हैं। दृष्टिवाद अंग के पांच भेद हैं-१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत, ५. चूलिका। पूर्वगत के १४ भेद हैं -उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबन्दुसार। इनका परिचय इस प्रकार है १. उत्पादपूर्व-जीव, पुद्गल, काल आदि की जिस काल में, जिस क्षेत्र में पर्याय से उत्पत्ति होती है उन सबका वर्णन करने वाला यह उत्पादपूर्व है। पद संख्या ६६ लाख मानी जाती है। २. अग्रायणी-जिसमें क्रियावादी की प्रक्रिया अग्रणी के समान अंगादि तथा स्वसमय के विषय का विवेचन किया गया वह अग्रायणी पूर्व है। पद संख्या १ करोड़ मान्य है। ३. वीर्यवाद-इसमें छद्मस्य और केवलियों की शक्ति, सुरेन्द्र, असुरेन्द्र आदि की ऋद्धि वा नरेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव आदि के सामर्थ्य और द्रव्यों के समीचीन लक्षणादि का वर्णन है। पदसंख्या ७० लाख मान्य है। ४. अस्तिनास्तिप्रवाद-इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश-इन पाँच अस्तिकायों और नयों का अस्ति-नास्ति रूप अनेक पर्यायों का विवेचन हैं पद संख्या ६० लाख मान्य है। ५. ज्ञानप्रवाद-जिसमें प्रादुर्भाव विषयों के आयतन स्वरूप ज्ञानियों के पांच ज्ञानों का और अज्ञानियों के विषयों के आयतन इन्द्रियों का विभाग किया जाता है, वह ज्ञानप्रवाद है। पदसंख्या १ कम १ करोड़ मान्य है। ६. सत्यप्रवाद-जिसमें वाग्गुप्ति, वचन संस्कार के कारण, वचन प्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, वक्ता के अनेक प्रकार मृषाभिधान और दस प्रकार के सत्य के सद्भाव का वर्णन है, वह सत्यप्रवाद है। पद संख्या १ करोड़ छ: मान्य है। सीमा ७. आत्मप्रवाद-इसमें आत्मा के अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, कर्तृत्व, । भोक्तृत्व आदि धर्म और षट्जीवनिकाय के भेदों का निरूपण है। पद संख्या २६ करोड़ मान्य है। मत पनि पा लिया जीजा साली ૨૬ जैनदर्शन ८. कर्मप्रवाद-जिसमें कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा, उपशम आदि दशाओं का तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट आदि स्थिति का तथा प्रदेश समूहों का वर्णन किया जाता है वह कर्मप्रवाद पूर्व है। पद संख्या १ कम ८० लाख मान्य है। प्रत्याख्यान पूर्व-इसमें व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्प, उपसर्ग, आचार, आराधना, विशुद्धि का उपक्रम आदि व मुनियों के आचरण का कारण तथा परिमित अपरिमित द्रव्य के प्रत्याख्यान आदि का वर्णन है। पद संख्या ८४ लाख मान्य है। १०. विद्यानुवाद-इसमें समस्त विद्याएँ, आठ महानिमित्त, उनका विषय, रज्जु राशिविधि, श्रेणी, क्षेत्र, लोक प्रतिष्ठा, समुद्घात आदि का विवेचन है। पद १ कम १० लाख मान्य है। ११. कल्याणवाद-जिसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारागणों का गमनक्षेत्र, उपपादक्षेत्र, शकुन आदि का वर्णन है तथा अर्हत्, कामदेव, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि का एवं गर्भ, जन्म, तप, केवल ज्ञान एवं मोक्ष इन पंच कल्याणकों का वर्णन है, वह कल्याणपूर्व कहलाता है। इसमें २६ करोड़ पद मान्य हैं। १२. प्राणवादपूर्व-कायचिकित्सा आदि आठ अंग, आयुर्वेद, भूतिकर्म, जांगुलिप्रक्रम, प्राणापान के विभाग का इसमें विस्तार से वर्णन है। पद संख्या १३ करोड़ मान्य है। १३. क्रियाविशालपूर्व-लेखनक्रिया आदि पुरुषों की ७२ कलाओं का, स्त्रियों की ६४ कलाओं का तथा शिल्प काव्य गुण दोष, छन्द, क्रिया का फल व उसके भोक्ता आदि का इसमें विस्तारपूर्वक वर्णन है। पदसंख्या ६-करोड़ मान्य है। १४. लोकबिन्दुसार-आठ प्रकार का व्यवहार, चार बीजराशि, परिकर्म आदि गणित तथा सारी श्रुतसम्पत्ति का वर्णन जिसमें है वह लोकबिन्दुसार है। पद संख्या १२ १/२ (साढ़े बारह) मान्य है। सम्पूर्ण द्वादशाङ्ग के पदों की संख्या ११२८३५८००५ (एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच है।)।
भारतीय न्यायविद्या के विकास में जैनाचार्यों का योगदान
इस यथार्थता को सभी स्वीकार करते हैं कि न्यायशास्त्र ही वह प्रमुख माध्यम है, जिसके द्वारा दर्शनशास्त्र को दूसरों तक पहुँचाया जा सकता है। विचार-सम्प्रेषण का माध्यम न्यायविद्या या तर्कशास्त्र का बन जाना भारतीय दार्शनिकों की महान् उपलब्धि थी। सम्पादकीय २७ भारतीय दर्शनों से भिन्न होकर न्यायशास्त्र एक स्वतंत्र नये प्रस्थान के रूप में विकसित हो सका, जिसे “भारतीय तर्कशास्त्र” के नाम से भी सम्बोधित किया गया। यह एक वास्तविकता है, क्योंकि अपने-अपने दर्शन के विकास हेतु, साथ ही प्रतिपक्षी को अपने मत से प्रभावित करने के लिए सभी दार्शनिकों के लिए इस तर्कशास्त्र का मह व भी स्वीकार करना पड़ा। इन्हीं भारतीय दर्शनों के विवेचन के फलस्वरूप जिस वाद या प्रणाली का प्रारम्भ हुआ, उसका सर्वोत्कृष्ट विकास भारतीय न्यायशास्त्र या प्रमाणमीमांसा है। प्राचीन शास्त्रों में “आन्वीक्षिकी" नाम से इसका उल्लेख मिलता है। वर्तमान में इसे तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र, हेतुविद्या और प्रमाणशास्त्र नामों से जाना जाता है।
- भारतीय न्यायशास्त्र के विकास में जिन प्रमुख तीन दार्शनिक-परम्पराओं का नाम विशेषता के साथ लिया जाता है उनमें न्याय-वैशेषिक, बौद्ध तथा जैन मुख्य हैं। यहाँ जैन न्यायविद्या के योगदान की संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है। _ वैसे भी भारतीय इतिहास में समस्त भारतीय विद्याओं के विकास में जैनाचार्यों का जिनता अधिक योगदान है, तदनुसार उसका मूल्यांकन और सम्पूर्ण भारतीय इतिहास ग्रन्थों में उनका उल्लेख न के बराबर है। धर्म-दर्शन-न्याय, संस्कृति, साहित्य, व्याकरण, छन्द-कोश-ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, भूगोल-खगोल आदि विविध विषयों पर जैनाचार्यों द्वारा लिखित एक से बढ़कर एक बेजोड़ शास्त्र विभिन्न प्राचीन भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं, किन्तु इनके योगदान की उपेक्षा चिन्ता का विषय है। __भारतीय न्यायविद्या और इनके शास्त्रों के विकास में जैनाचार्यों का महनीय योगदान है। प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राचीन जैन आगमों में तो जैन न्यायविद्या के सूत्र बीज रूप में दिखलाई पड़ते ही हैं साथ ही ईसा की प्रथम शती से ही इन्हीं आगमिक सूत्रों के आधार पर जैन न्यायविद्या को विकसित करते हुए संस्कृत भाषा में जैन न्यायशास्त्रों का लेखन प्रारम्भ करके बीसवीं शती तक भारतीय न्यायविद्या के विकास में महनीय योगदान करते हुए संस्कृत वाङ्मय की तो श्रीवृद्धि की ही है, साथ ही न्यायविद्या की नवीन विधा नव्यन्याय जैसी जटिल शैली में भी अनुपम जैन न्यायशास्त्रों की रचना करके जैनन्याय विधा को चरम विकास के स्थान तक पहुँचाया। इसीलिए आ० लघुअनन्तवीर्य ने प्रमेयरत्नमाला में इस न्यायविद्या को “अमृत" कहा है। विकास की दृष्टि से जैन न्याय तीन युगों में विभक्त है - (१) आगम युग का जैन न्याय, (२) दर्शन युग का जैनन्याय, (३) प्रमाण-व्यवस्था युग का जैन न्याय।
- इनमें प्रथम युग जैनधर्म के अन्तिम एवं चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के अस्तित्वकाल ईसापूर्व ५६६ से ५२७ तक का है। अतः यहाँ से लेकर ईसा की प्रथम शती तक का काल २८ जैनदर्शन आगम युग है। द्वितीय युग ईसा की प्रथम शती के उत्तरार्ध से लेकर सातवीं-आठवीं शती तक का काल दर्शन युग का जैनन्याय है। तथा तृतीय काल ईसा की आठवीं शती से लेकर बीसवीं शती तक का काल प्रमाण-व्यवस्था युग का जैन न्याय है। वस्तुतः जैनदर्शन ने अपने को न्याय विद्या तक ही सीमित नहीं रखा, अपितु ज्ञानात्मक चिंतन के लिए कुछ ऐसे सिद्धान्त स्थापित किये हैं, जिनका प्रयोजन वस्तु के स्वरूप पर विशाल दृष्टि से विचार करना तथा संकुचित दृष्टि का निषेध करना है। इसी उद्देश्य से सत्ता की परिभाषा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक रूप से की गई तथा पदार्थ के यथार्थज्ञान के लिए प्रमाण के अतिरिक्त नय की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया तथा स्याद्वाद और अनेकान्तवाद रूप बुद्धि एवं वचनशैली का प्रतिपादन करते हुए, यह भी बड़े दावे के साथ कहा कि पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः।। म जैनन्याय नामक अपने ग्रन्थ में पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने ठीक ही लिखा है। वास्तविकता यह है कि जैन-धर्मदर्शन न तो ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानता है और न ही वेद के प्रामाण्य को स्वीकार करता है। यहाँ न तो ईश्वर कर्तृत्व या सांसारिक कामनाओं की पूर्ति हेतु ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रलोभन है, न ही मोक्ष प्राप्ति से संयम साधना में किसी प्रकार की छूट है। इसीलिए वैदिक दार्शनिक जब दर्शनों का विभाजन आस्तिक और नास्तिक के रूप में करते हैं, तब अपने को आस्तिक और जैनदर्शन को नास्तिक दर्शनों की कोटि में रख देते हैं। यह तो एक पक्षीय निर्णय और विभाजन हो गया। यदि दर्शन जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में भी इसी तरह की मनमानी चलने लगे तो सभी एक दूसरे को नास्तिक सिद्ध करने लगेंगे। और तब तो हम या कोई भी कह सकते हैं कि जो हमारे आगमों, धर्मशास्त्रों और देवों को माने वह आस्तिक, जो इन्हें न माने वह नास्तिक है। Pाज यद्यपि गणधरों द्वारा ग्रथित आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग ग्रन्थ जिनमें भगवान महावीर के उपदेश संकलित थे, दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से लुप्त हैं किन्तु वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर परम्परा में अर्धमागधी प्राकृत आगमों में पर्याप्त मात्रा में जैनदर्शन के सभी तत्व मूलरूपमें विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त आगमिक व्याख्याओं तथा मूल सूत्रों आदि में तो जैन दर्शन के विकास की स्पष्ट झलक देखी जा सकती है। यह कहना भी अत्युक्ति न होगी कि अधिकांश व्याख्या साहित्य दार्शनिक त वों की विवेचनाओं से भरा हुआ है। किन्तु जैन न्याय विद्या के स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रणयन आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर के समय से ही हुआ। इसके पूर्व जैन न्याय के स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रायः सम्पादकीय २६ हैं अभाव था। विक्रम की तीसरी शती के वेदान्त दर्शन के आचार्य वादरायण ने ब्रह्मसूत्र (दो/२/३३) स्याद्वाद सिद्धान्त का विरोध दिखाने का प्रयत्न किया है। इससे जैन न्याय की प्राचीनता का पता चलता है। ना जैन आगम सूत्रों में स्थान-स्थान पर न्याय के प्राणीभूत अंगों का उल्लेख मिलता है। उनके आधार पर जैन विचार पद्धति की रूपलेखा और मौलिकता सहज समझी जा सकती है। इन्हीं के आधार पर जैनन्याय साहित्य को संस्कृत भाषा साहित्य के माध्यम से जिन प्रमुख जैनाचार्यों ने प्रमुखता से उसका विकास एवं समृद्ध करने में योगदान किया, उनमें प्रमुख हैं-आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी, समन्तभद्र स्वामी, सिद्धसेन दिवाकर, देवनन्दि पूज्यपाद, पात्रकेसरी, भट्ट अकलंकदेव, हरिभद्रसूरि, वादीभसिंह, बृहद् अनन्तवीर्य, विद्यानन्द स्वामी, कुमारनंदि, अनन्तवीर्य, देवसेन, माणिक्यनन्दि, वादिराज प्रभाचन्द, अभयदेवसूरि, लघुअनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, भावसेन-त्रैविद्य, अभयचन्द्र, मल्लिषेण, अभिनव धर्मभूषणयति, शान्तिवर्णी, नरेन्द्रसेन भट्टारक, चारूकीर्ति भट्टारक, विमलदास, अजितसेन, उपाध्याय-यशोविजयगणि आदि प्रमुख हैं। मा इन सभी प्रमुख आचार्यों ने जैन न्यायविद्या के श्रेष्ठ ग्रन्थों का प्रणयन करके इस साहित्य को समृद्ध करने में अपना महनीय योगदान किया है। इतना ही नहीं, इस विद्या का बीच में समाप्तप्रायः पठन-पाठन को विकास की गति आगे बढ़ाते हुए बीसवीं शती के जिन विद्वानों का भी महान योगदान है, उनमें प्रमुख हैं-न्यायदिवाकर पं० पन्नालाल जी, पं० गोपालदास वरैया, न्यायाचार्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी, पं० माणिकचंद जी कौन्देय, पं० सुखलाल जी संघवी, पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य, पं० दलसुख भाई मालवणिया, पं० कैलाशचंद शास्त्री, न्यायाचार्य डा० दरबारीलाल कोठिया आदि। लि. “संस्कृत वाङ्मय का बृहद् इतिहास” योजना के अन्तर्गत जैन बौद्ध चार्वाक दर्शन के इस बारहवें खण्ड के लिये सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व. पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय जैसे महामनीषी की अध्यक्षता में आयोजित अनेक बैठकों में इसके सम्पादक श्रद्धेय गुरुवर्य स्व. डॉ. दरबारी लाल जी कोठिया के साथ मुझे भी सम्मिलित होने और मार्गदर्शन प्राप्ति के अवसर मिले। आ. कोठिया जी का स्थायी निवास वाराणसी से बीना हो जाने के बाद आ. कोठिया जी के सुझाव के नुसार अनुसार आचार्य जी ने इसके सम्पादन का कार्य मुझे सम्हला दिया। डॉ. कोठिया जी ने अधिकांश निबंधों का सम्पादन भी कर दिया था। इस बीच उनके दिवंगत हो जाने के बाद मुझे उनका पूरा उत्तरदायित्व सम्हालना पड़ा। इस ग्रन्थ में संग्रहीत सभी निबंध लेखक विद्वानों के प्रति विशेष आभार और धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। सभी विद्वानों ने अपने निबंधों में विवेच्य विषय का काफी अच्छा और सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। जैनधर्म-दर्शन और इसके संस्कृत साहित्य से सम्बन्धित प्रायः सभी प्रमुख विधाओं के सम्मिलित हो जाने से इस प्रकार की एक साथ, एक ग्रन्थ में इतनी विपुल और ३० जैनदर्शन विविध सामग्री अब तक देखने में नहीं आई। इस दृष्टि से जैनधर्म-दर्शन और साहित्य का यह एक महत्त्वपूर्ण उपयोगी सन्दर्भ ग्रन्थ सिद्ध होगा-ऐसी आशा और कामना है। प्रस्तुत खण्ड के प्रकाशन के अवसर पर श्रद्धेय पद्मभूषण स्व. आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय जी, पद्मभूषण स्व. प्रो. विद्या निवास मिश्र जी एवं गुरुवर्य स्व. डॉ. दरबारी लाल जी कोठिया का पुण्यस्मरण करना अपना प्रथम और पुनीत कर्त्तव्य समझता हूँ। इन्हीं के मंगल आशीष, यथोचित मार्गदर्शन, बहुमूल्य सुझावों एवं स्नेहपूर्ण प्रेरणाओं से इस ग्रन्थ को इस अच्छे रूप में प्रस्तुत करने में बहुत सहयोग प्राप्त हुआ है। इस योजना के वर्तमान अध्यक्ष प्रो. श्रीनिवास जी रथ, उज्जैन, संस्थान के निदेशक डॉ. पी.के. पाण्डेय एवं सह निदेशक बंधुवर डॉ. चन्द्रकान्त द्विवेदी जी के भरपूर सहयोग के प्रति विशेष आभार व्यक्त करता हूँ। अन्य उन विद्वानों, सन्दर्भित ग्रन्थ-लेखकों, अन्यान्य प्रकाशक संस्थानों और मित्रों के प्रति हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिनसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में किञ्चित् भी सहयोग प्राप्त हुआ है। आशा है कि इस ग्रन्थ के अध्ययन से जहाँ जिज्ञासु पाठकों को लाभ होगा, वहीं अनुसंधित्सुओं को भारतीय शास्त्रों के अध्ययन-अनुसंधान की दिशा में जैनधर्म-दर्शन और साहित्य को सन्दर्भित करने और इसके मूल शास्त्रों के अध्ययन-अनुसंधान की प्रेरणा भी प्राप्त होगी। मेरा ऐसा मानना है कि वैदिक और श्रमण-इन प्राचीन दोनों धाराओं के सम्मिलित अध्ययन के बिना सम्पूर्ण भारतीय साहित्य और संस्कृति का अध्ययन अधूरा है। इत्यलम्। इ तिहास की मक लाना का मामला या विनीत तीर्थंकर ऋषभदेव निर्वाण दिवस फोलो माता प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी माघ कृष्ण १४, वीर निर्वाण सं. २५३३ रन आचार्य एवं अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग दिनांक १८ जनवरी २००६ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ਕਿ p ਓ ਸ਼ ਸ਼ ਸ਼ ਸ ਲ ਸ ਸ ਚ ਹੀ ਲੀਨ , Pਨੇ ਆ ਬਾਲ ਰਸ ਸਣ ਇਸ ਨੂੰ ਕੁਝ ਓ ਸੀਸ ਗੰ ਜ