[[अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणम् Source: EB]]
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॥ॐ श्री अर्हंनमः॥
सर्वतंत्रस्वतंत्र–शासनसम्राट्–सूरिचक्रचक्रवर्ति–जगद्गुरु–तपागच्छाधिपति–प्रौढप्रभावशालि–तीर्थराजश्रीकदम्बगिरिप्रभृतिप्रभूततीर्थो-द्धारक–शासनप्रभावक–भट्टारकाचार्यमहाराधिराजश्रीविजयनेमिसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमो नमः॥
॥श्रीअनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणम्॥
न्यायविशारद–न्यायाचार्य–निजप्रतिभाप्राग्भारोद्बोधितातीतपूर्वश्रुतकेवलिभगवत्–कूर्चालसरस्वती– पूर्वधरनिकटकालवर्तिचतु-श्चत्वारिंशदुत्तरचतुर्दशशतग्रन्थप्रासादसूत्रधारभगवत्–श्रीहरिभद्रसूरिपुङ्गवलघुबान्धवप्रभृतिविशदबिरूदावलीविभूषित–महामहोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिप्रणीतं श्रीजैनतर्केत्यपराभिधानम्॥
तच्चेदं राजनगर(अहम्मदावाद)स्थ श्रीजैन ग्रन्थप्रकाशकसभायाः कार्यवाहकश्रेष्ठि–ईश्वरदासमूलचन्द्रेण भावनगरस्थे प्रसिद्धे महोदयमुद्रणालये तदधिपतिश्रेष्ठि–गुलाबचंद्र लल्लुभाइद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम्॥
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वीर निर्वाण सं० २४६९ ] वैशाख शुक्ल ३ अक्षय्यतृतीया [ विक्रम मं० १९९९
॥श्री जैनग्रन्थप्रकाशकसभाप्रकाशितग्रन्थाः॥
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॥मुद्र्यमाणा मुद्रयिष्यमाणाश्च शासनप्रभावका ग्रन्थाः॥
| १ | ज्ञानार्णवः सटीकः, ज्ञानबिन्दुश्च |
| २ | वादमाला |
| ३ | उत्पादादिसिद्धिप्रकरणवृत्तिः |
| ४ | सम्मतितर्कसटीक द्वितीय भागः |
| ५ | प्रतिमाशतकवृहट्टीकाप्रभृतयः प्राप्तिस्थानं— शेठ ईश्वरदास मूलचंद, कीका भट्टनी पोल–अमदावाद. |
॥ॐ ह्रीँ श्री अर्हँ सकललब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमो नमः॥
॥श्रीअनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणे प्रकाशकीयं निवेदनम्॥
ए तो सुनिश्चित छे के आ पवित्र भारतवर्षमांआर्यावर्तना विद्वद्वृन्दविभूषित भूभागमांहाल पण अनेकविध साहित्यग्रन्थो उपलभ्यमान छे, परन्तु ते सर्वमां शिरोमणिभावने पामेलुं, बुद्धितत्त्वने खीलवनार, प्रज्ञाना नवनवोन्मेषने वधारनार, वस्तुना यथार्थ भावने— उपनिषद्विचारने—ऐदम्पर्यसारभूततत्त्वने—रहस्यम्वरूपने समजावनार, चौद अथवा अढार विद्यास्थानोमा ‘आन्वीक्षिकी विद्या’ ए नामथीअग्रणी स्थाने शोभनार अतीन्द्रिय पदार्थोना अस्तित्वने प्रकाशमांलावनार, निष्पक्ष बुद्धिमानोन सत्य वस्तुग्रहणमां परम साधन जो कोई पण साहित्य होय तो ते तर्कशास्त्र ज छे, जेनुं बीजुं नाम युक्तिवादशास्त्र पण कहीं शकाय आ युक्तिवादमां हेत्वाभास—जाति—निग्रहस्थान विगेरे पैकी कोई पण बाधक दोष लागु न पडतो होय ते खास तपासवानुं रहे छे. तर्कशास्त्रमां नैयायिक—वैशेषिक—मांख्य—वेदान्त—मीमांसक—बौद्धादिना अनेक दर्शनकारोए नानास्वरूपं ग्रन्थो गुंथ्या छे. परन्तु ते सर्व वस्तुना यथार्थ तत्त्वने बाध करनार एकान्त पक्षना ग्राहक होई परस्पर ध्वंसक कंटको ज तहोय तेम एक बीजामां कोईमां कोई अने कोईमां कोइ एम जुदा जुदा बाधक दोषोनो सद्भाव अवश्य रह्यो छे, ते ज कारण माटे छेवटे “तर्काप्रतिष्ठानात्” “पुराणं मानवो धर्मः” इत्यादि वाक्यो लग्वत्रा पड्या छे. पक्षपातरूपे नहि परन्तु श्री हरिभद्रमूरिपुङ्गव—आदि महापुरुषोनी जेम युक्तिसिद्ध परीक्षित सत्य स्वरूपनो ग्राह्यबुद्धिथी विचार करवामां आवे तो पदार्थमांरहेला परस्पर विरुद्ध धर्मोनो अपेक्षाभेदे समन्वय करावनार सर्वनयसमूहमय त्रिकालाबाध्य जैन तर्कग्रन्थो ज छे तेम कहेवुंते अतिशयोक्ति भर्युंनथी तेम सौजन्यवंत दरेक सहृदय पुरुषने जणाया विना रहेशे नहि.
ते जैन तर्कग्रन्थोपैकी आ एक ‘अनेकान्तव्यवस्था’ ग्रन्थ पण हे जेने पूज्य महर्षि ग्रन्थकार पोते ज ‘जैन तर्कग्रन्थ’ ए उपनामथी ओलखावे छे. अलभ्य नहि तो पण दुर्लभ्य तो स्वरेाज, तेवो आ ग्रन्थ सप्तनय—सप्तभङ्गी विगेरे जैनशासनना उपनिषद्—टोच भूत द्रव्यानुयोगना सुक्ष्मविचाराेने विस्तारथी स्पष्टीकरण करवापूर्वक जिज्ञासु भव्यजीवोना निर्मल बुद्धि आदर्शमां प्रतिविम्बित करवा परम तेजःपुञ्जरूप छे. ए तो सुविदित छेके आ महान् प्रभावक ग्रन्थनी रचना करनार विश्ववंद्य, विश्वविख्यात, सर्वानुयोगव्यापि—सर्वदर्शनानुवेध, कुशाग्र प्रज्ञा पीयूषपाथोधि, निजप्रतिभाप्राग्भारथी अतीतपूर्वश्रुतकेवलिभगवंतोनुं स्मरण करावनार, दाढी—मुछधारण करती साक्षात्सरस्वती, कृचालवेलनी जेम जटिलरूपे ओतप्रोत थयेल सरस्वतीस्वरूप कूचालसरस्वती बिरुदविभूषित, पूर्वघरभगवंतोनी विद्यमानताना निकटकालवर्ति विच्छिद्यमान पूर्वमहार्णवना निम्यन्दरूप १४४४ ग्रन्थप्रणेता सुगृहीतनामधेय भगवंत ‘श्रीहरिभद्रसूरिपुङ्गवना लघुबन्धु’ तरीके प्रख्याति पामेला. भारतभूमिभास्कर, सरस्वतीना घररूप काशीमां वादिपरिषद्ने जीतवाथी पंडितमंडलीए समर्पित न्यायविशारद—पदविभूषित अने त्यार पछी सो ग्रन्थो बनाववाधी न्यायाचार्य पदने धरनार, श्री भगवतीपंचमांगप्रभृतियोगोद्वहनथी प्राप्त थयेल गणिपद—पण्डितपदनाक्रमथीमहामहोपाध्याय नामान्तरे वाचक पदथी सुशोभित श्रीमान् यशोविजयजी गणिमहाराज छे. आ समर्थ ग्रन्थनी रचना करी तेमणे समग्र विश्व उपर अविस्मरणीय असीम उपकार कर्यो छे. जो के उपाध्यायजी भगवान् पोते पोतानी कृतिनो कोई कोई स्थले ग्रन्थना आदिभागमां अने बहुलताए अन्तिम भागमां स्वगुरुपरम्परानो परिचय आपी साक्षात्कार करावे छे, छतां जेम बहुलताए ग्रन्थावसानमां ‘विरह’ ए पद श्रीहरिभद्रसूरिभगवंतकृतग्रन्थोनुं सूचक छे तेम बहुलताए श्री उपाध्यायजी भगवंतना ग्रन्थाेना प्रारंभमां सरस्वतीनुं बीजक ‘ऍंकार’ पद सूचकचिह्नरूपं होय छे. कवित्व
अने वित्त्वनी अभिलाषा पूरवामां कल्पवृक्षतुल्य सरस्वतीनुं बीजक ऍंकारपद छेके जेनो अखंड प्रेमपूर्वक श्रेष्ठ जाप पोते गंगातटे कर्यो हतो, तेम ते ओश्रीना वचनो ज साक्षी पूरे छे. जुओ तेमना रचेला न्यायखंडनखंडखाद्य अपरनाम महावीरस्तवप्रकरणनो आद्य श्लोक— “ऍंकारजापवरमाप्य कवित्ववित्व—वाञ्छा सुरद्रुमुपगङ्गमभङ्गरङ्गम्॥ सूक्तैर्विकासिकुसुमैस्तव वीरशम्भो— रम्भोजयोश्चरणयोर्वितनोमि पूजाम्॥१॥” कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरप्रणीत परिशिष्टपर्ववणित श्री जंबुचरित्रनो गुर्जर भाषामांजाणे पद्यात्मक छायानुवाद ज न होय तेम रचेला जंबृस्वामिगमनी मंगल गाथाओमां पण ते ज भाव जणाव्यो छे. “शारदमात दया करी, आपो वचन तरंग॥ तुं तुठी मुझ उपरे. जाप करत उपगंग॥१॥ तर्क काव्यनो ते तदा, दीधो वर अभिराम॥ भाषा पण करी कल्पतरु, शास्वा सम परिणाम॥२॥ “ते जापना अविस्मरणार्थे ज जाणे होय नहि तेन सूचकचिह्न ऐँकारपद तेमणे पोताना अनेक ग्रन्थनी शरुआतमां मूक्युं छे. आ ग्रन्थमां पण ते ऐँकारपद शरुआतमां देखाय छे. आ ग्रन्थना प्रतिपृष्ठे विषयसूचिका करेली होवाथी अलग पृष्ठक्रमे विस्तृत विषयानुक्रमणिका बताववा आवश्यकता नथी छतां संक्षेपे ग्रन्थान्तर्गत विषयदर्शन बताव्युं छे. वस्तुतत्त्वनुं यथार्थ निष्टंकन अनेकान्तवाद मान्या सिवाय थई शकतुं नथी, जेम हरणीयाओने व्याघ्रमुख सुंघवुंअशक्य छे तेम नयलेशरूप परदर्शनना अनुयायीओने अनन्तनयपूर्ण अतिगंभीर अनेकान्तवादगर्भित श्रीजैनदर्शननो स्वल्प गंध लेवो पण शक्य नथी. शुं सूर्यप्रभा उपर खजुआ विगेरे प्रकाशकोनो च्हाय तेटलो प्रभासमूह भेगो थाय तो पण धसागे करी शंके स्वगे, जो के प्रतिपृष्ठे बनता सुधी ते ते पृष्ठमां आवतो विषय तेना उपान्त्य भागमां आपवा बनतो प्रयत्न कर्याेछेजेथी वांचनारनेसुगम पडे छतां संक्षिप्त विषयविभाग नीचे प्रमाणे छे.
आ अनेकान्तव्यवस्था ग्रन्थनां प्रथम अनेकान्तनुं व्यापक लक्षण बांधी, लक्षणान्तर्गत पदोनों विचार संक्षेपमां करी, तदन्तर्गत
आवती तत्त्वसंख्या संबंधी निष्कर्ष कर्यो छे. प्रसंगसंगतिथी नयोनुं अवतरण–उपक्रम लावी १८ मा पत्र सुधी नैगमनयनो विस्तारथी विचार कर्यो छे. तदन्तर्गत नैगमनयना एकान्तावलम्बि वैशेषिकदर्शन जेनुं बीजुं काणाद याने औलुक्यदर्शन छे अने उपलक्षणथी घणा विचारमां तेने अनुसरतुं न्यायदर्शन जेना बीजा नाम गौतमीय अगर योगदर्शन छे, तेनी प्रक्रिया देखाडवापूर्वक समीक्षा करी छे. त्यारबाद २७ मा पत्र सुधी संग्रहनय विचार विस्तारथी बतावीतदन्तर्गत एकान्तसंग्रहनयावलम्बि वेदान्तदर्शननी प्रक्रिया बताववा साथेसमीक्षा करी छे. तेपछीना ४० मा पत्र सुधी व्यवहारनयनो विस्तारथी स्पष्ट विचार देखाडी तदेकान्तग्राहि–सांख्यदर्शननी समीक्षा करी छे. अहीं विशेषता ए छे के बीजा ग्रन्थमां क्वचिदंशे एकान्तसंग्रहावलम्बि होवाथी सांख्यदर्शन संग्रहनयथी उत्पन्न थयेल बताव्युं छे, जेथी ग्रन्थकार महर्षि पोते ज “बौद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात्, सांख्यानां तत एव नैगमनयाद्योगश्च वैशेषिकः। शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैर्गुम्फिता, जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते॥१॥” (अध्यात्मसार) “अद्वैतवादिनां निखिलानि दर्शनानि सांख्यदर्शनं च तदाभासतया ज्ञेयानि” (सप्तभङ्गीनयप्रदीप) ए प्रमाणे लखे छे; ज्यारे आ ग्रन्थ तेमज अन्य ग्रन्थोमां व्यवहारनयमांथी पण सांख्यदर्शनोत्पत्ति बतावी छे, तेनी युक्ति तथा संवाद पाठ पण ग्रन्थकार पोते ज बतावे छे. द्रव्यार्थिकनयना शुद्ध–अशुद्ध बे विभागो पैकी शुद्धद्रव्यार्थिक संग्रहनय छे, तेना एकान्तावलम्बनथी वेदान्तदर्शननी प्रवृत्ति जणावी छे.
” जातं द्रव्यार्थिकाच्छुद्धा–दर्शनं ब्रह्मवादिनाम्। तत्रैके शब्दसन्मात्रं, चित्सन्मात्रंपरे जगुः॥१॥”
अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहारनय छे अने तेनुं एकान्तावलम्बि सांख्यदर्शन छे तेम जणावे छे.
“अशुद्धाद्व्यवहाराख्यात्, ततोऽभूत्सांख्यदर्शनम्। चेतनाचेतनद्रव्या–नन्तपर्यायदर्शकम्॥२॥”
आ ज विचारने युक्तिपुरःसर स्पष्ट शब्दोमां जणावे छे के—
“सांख्यशास्त्रं च नानात्म–व्यवस्थाव्यवहारकृत्। इत्येतावत्पुरुस्कृत्य, विवेकः सम्मतावयम्॥३॥”
आ बाबतमां वादिगजकेसरि तार्किककदम्बकोटीर–श्रीसिद्धसेन दिवाकरजी महाराज पोते रचेला दर्शनप्रभावक शास्त्र सम्मति महातर्क ग्रन्थमां दर्शावे छे के “जं काविलं दरिसणं, एयं दव्वट्ठियस्यवत्तव्वं॥ “विवरणकार स्पष्ट करे छे के “द्रव्यार्थिकपदमत्र व्यवहारलक्षणाशुद्धद्रव्यार्थिकपरं द्रष्टव्यं शुद्धद्रव्यार्थिकप्रकृतेः संग्रहनयरूपाया वेदान्तदर्शनोत्पत्तिमूलताया उक्तत्वात्” आरीते व्यवहारनयनुं विस्तारस्वरूप कह्या
पछी ५५ मा पत्र सुधी ऋजुसूत्रनयनो विस्तारथीविचार कर्यो छे. ऋजुसूत्रनयना एकान्तावलम्बि बौद्धदर्शननी समीक्षा करी छे. पर्यायार्थिक नयरूप वृक्षना मूलस्थानीय ऋजुसूत्रनयने गणी ते वृक्षमांथी नीकलती शाखा प्रशाखास्थाने शब्दनय, समभिरूढनय अने एवंभूतनयो छे तेम सम्मतिमहातर्कग्रन्थना पाठथी सिद्ध थता शब्दादि नयोनुं मूल भेदपणुं ऊडी जाय अने तेम मानता ‘सत्त मूलणया पण्णत्ता’ ए सूत्रविरोधापत्ति आवी पडे छे. ते शंकानुं अबाधित युक्तिपुरःसर घणी ज स्पष्टताथी निरसन कर्युंछे, तदन्तर्गत दिगम्बराभिमत मूल नयोनी नव संख्यामां युक्ति तथा सिद्धान्तवाघितपणुं विगेरे दोषो बतावी पूज्य ग्रन्थकार उपाध्यायजी महाराज विशेष जिज्ञासुओने पोते रचेला “आपभ्रांशिकप्रबन्ध” नामना ग्रन्थनी भलामण करे छे ते प्रबन्ध ग्रन्थ “दिक्पटकपटकुठार” नामनो दिगंबरोना सूत्रविरुद्ध विसंवादि चोयांशी बोलोना खण्डननो जेग्रन्थ बनाव्यो छे ते ज होवा संभव छे; कारण “दिक्पटकपटनाटकमपास्तमापभ्रांशिकप्रबन्धेऽस्माभिः” ए वाक्यथी ते ग्रन्थनो विषय बनाव्यो छे ते तेमां पूरेपूरो मलतो आवे छे तेमज भाषा पण अपभ्रंशने लगती ज छे. मात्र तेमां ‘आपत्रांशिक प्रबन्ध’ एवुं नाम न जणायाधी अमोए
संभव शब्द वापर्यो छे. कोई महाशय पासे उपाध्यायजीकृत आपभ्रांशिक प्रबन्ध अलग ग्रन्थ होय अगर जाणमां होय तो जणाववा अनुग्रह करशे. अमो तेओनो आभार मानीशुं. प्रस्तुत विचार माटे ते दिक्पटकपटकुठार ग्रन्थमां जणावे छे के “तत्त्वार्थसूत्रमां (दिगम्बरो पण जेने केटलाक सूत्रोना फेरफार साथेमान्य गणे छे) पण सात नयो कह्याछतां दिगंबर देवसेनीय नयचक्रमां द्रव्यार्थिक विगेरे नव नयो कई रीते इष्ट गण्या ते समजातुं नथी, जो के तत्त्वसंख्यामां आपेक्षिक सात–नव संख्याभेदो छे, परन्तु नय भेदो माटे सात–नव भिन्न संख्या कहेवामां तेवुं कोई कारण नथी, कदाच हटवादथीद्रव्यार्थ अने पर्यायार्थ नय ए बे भेदो अलग पाडी नव संख्या मानवी ज होय तो अर्पित–अनर्पित ए बेभेदो पण अलग करी शकाय छे अने ते रीते अगियार भेदो न मानवामां विनिगमक शुं छे? कदाच कहेशो के अर्पित–अनर्पित ए भेदो संग्रहव्यवहारमां अन्तर्गत करी शकाय छेमाटे अलग मानवामां काई कारण नथी तो नैगमादि त्रण अथवा चारमां द्रव्यार्थनो अने बाकीनामां पर्यायार्थनो पण अन्तर्भाव थइ शके छे अने पूर्वपुरुषोए ते करेलो पण छे छतां अलग गणवा तेमां हठवाद सिवाय बीजुं शुं कारण होई शके?, तेमज नयना अंशरूप उपनयो पण भिन्न होई शकता नथी. जो तम मानवामां आवे तो प्रमाणना अंशरूप उपप्रमाण पण मानवा जोइये” इत्यादि अनेक विचारो छे. ते पाठ नीचे प्रमाणे छे— “नवही नय नयचक्रमें, द्रव्यारथ मुख इट्ठ। तत्त्वारथमां सात है, देवसेन कहां दिट्ठ॥१॥ तत्त्व सात नव ज्युं कहे, त्यों नहि नयकी बात। एहुं विभक्त विभाग है, सो तो कारन जात॥२॥ जो हठते नव नय कहो, गहत द्रव्य परजाय। अप्पियणप्पियभेदतें, एकादश हुइ जाय॥३॥ जो संग्रह व्यवहार में, अप्पियणप्पिय इट्ठ। आदि अंत नयथोकमें, पञ्जवदव्वनिविट्ठ॥४॥ उपनय नयको अंश है, कहे विभिन्न कुवंश। उपप्रमाण माने नहीं, क्यों प्रमाणको अंश॥५॥”
इत्यादि पद्यो आपेला छे. आ विचारोनी अनन्तर सौत्रान्तिक–वैभाषिक–योगाचार अने माध्यमिक ए चारेय एकान्तरूपे सूक्ष्म–सूक्ष्मतर–सूक्ष्मतमादि विचारमां उतरेला बौद्धोना भेदोनुं टुंकाणमां मन्तव्य बतावी बौद्धमतना मूल कारणरूपे ऋजुसूत्र नय होवा छतां ते ते भेदनी कया कया नयथी उत्पत्ति थई छेतेनो पण विचार करवा साथे तेओना पूर्वपक्ष समाधानादिनो संक्षेप विचार करी विस्तार विचार माटे श्रीसम्मतितर्क तथा शास्त्रवार्त्तासमुच्चयवृत्ति स्याद्वादकल्पलतानी भलामण आपी छे.
ते पछीना ६५ मा पत्र सुधी शब्दादि त्रण नयोनुं विस्तारथी स्वरूप अने अवान्तर सप्तभंगी अर्थनय– शब्दनयाश्रित स्वरूप विगेरे अनेक विचारो दर्शाव्या छे. त्यार बाद ७४ मा पत्र सुधीमां सप्तभंगीना दरेक भंगोनुं विस्तारस्वरूप, नयोमां सप्तभंगीनो समवतार, तृतीय भंगनो लंबाण विचार, ते माटे १६ विकल्पो, पूज्य पूर्वधर श्रीमल्लवादि भगवंत विगेरे महापुरुषोए बतावेल सप्तभंगीना दरेक भंगोना प्रतिभंगो गणतां प्रथम भंगना ३, द्वितीय भंगना ३, तृतीय भंगना १०, चतुर्थ भंगना १०, पंचम भंगना १३०, षष्ठ भंगना १३० अने सप्तम भंगना १३० कुल संकलनाए मध्यम विचारथी ४१६ भंगो, वली तेना पण अवान्तर भंगोनी उत्तरोत्तर विचारणाए १४३६ संख्या अने सांयोगिक भंगादिनी गणतरीए कोटिशः संख्या थाय छे विगेरे दिग्दर्शन करावी ते भंगसंख्या जाणवानी जिज्ञासा उपजाववा साथेतेना विस्तार अवबोधने अंगे ते ते ग्रन्थोनी भलामण आप छे, आठमा विगेरे भंगो केम न थई शके? ते संबंधमां परवादिकृत शंकानुं युक्तिपुरःसर समाधान विगेरे अनेक विचारो बताव्या पछी ग्रन्थनी पूर्णता सुधीमां अनेकान्तात्मक वस्तु एज नय तथा प्रमाणनो विषय थई शके छे, व्यञ्जनपर्याय अने अर्धपर्यायनुं स्वरूप, द्रव्य गुणना भेदाभेद स्वरूपनुं व्यवस्थापन, त्रीजो गुणार्थिकनय सिद्ध थई शकतो नथी तेनुं घणी ज दलीलो साथे पारमर्ष पाठोना समन्वयपूर्वक खंडन कर्तुं छे. दिगंबरप्रक्रियानुसार सामान्य–
विशेष गुणसंख्या, सामान्य–विशेष स्वभावो, अनेकान्तंवादमां ज तेनुं यथार्थ घटवुं, द्रव्यार्थिकना १० भेदो, पर्यायार्थिकना ६ भेदो, नयोपनय भेद विचारो, नैगमना ३, संग्रहना २, व्यवहारना २, ऋजुसूत्रना २, शब्द–समभिरूढ–एवंभूत ए त्रणेना प्रत्येकना एक एक एम सर्व संकलनाए सर्व मली २८ भेदो, उपनयमां सद्भूत–असद्भूतव्यवहारना शुद्धाशुद्धादि–उपचरितानुपचरितादि भेदोनुं वर्णन, नयोपनयनी स्वभावोमां योजना विगेरे दिगंबरप्रक्रियानुं विस्तारस्वरूप बतावी दिशासूचनरूपे क्रमशः युक्ति पूर्वक खंडन कर्तुं छे. दिगंबर अमृतचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारवृत्तिमां आपेल पर्यायविचारोनी खंडनदिशा विगेरे प्रदर्शन करी, द्रव्यपर्यायोना एकान्तभेदवादि मतनुं पूर्वपक्ष निरूपणपूर्वक युक्तिपुरःसरखंडन, तेवी ज रीते एकान्त अभेदवादि मतनुं पण खंडन, एकान्त द्रव्यवादिमतनुं खंडन, अनेकान्तमां अनेकान्त स्वीकारतां घटाभावनो अभाव जेम घटस्वरूप छे तेम एकान्तपक्षापत्तिदोषनो तथा प्रमेयत्व विगेरे दृष्टान्तोथी अनवस्था विगेरे दोषोनो उद्धार तथा अनेकान्तनुं विश्वव्यापकत्व, सर्वदर्शनसम्मतत्व समर्थन घणा ज विस्तारथी करी अनेकान्तमाहात्म्य निरूपण करी अन्तिमोपदेश आप्यो छे.छेवटना ग्रन्थसमाप्ति प्रशस्ति पद्योमां सर्व दर्शनोए अनेकान्त स्वीकार्यो छे ते स्पष्ट करी आप्युं छे. आ ग्रन्थकारनी ग्रन्थग्रंथनशैलीमां अद्भुतता ए छे के दरेक दार्शनिक विचारो प्रायः ते ते दर्शननी प्रक्रिया स्पष्टतया विस्तारथी बताववापूर्वक ज तेनी समीक्षा (निरसन) करे छे. तेमज दरेक विचारो अबाधित युक्तिपुरःसर होवा छतां तेने संगत संवाद–साक्षिपाठो आप्या विना रहेता नथी. एक धर्मपरीक्षा वृत्ति जेवा ग्रन्थमां पण लगभग ५५० साढीपांचसो उपरान्त संवादपाठो मूक्या छे तेवीज रीते आ ग्रन्थमां पण पोणोसो उपरांत महाभाष्यना, ६० लगभग सम्मति महातर्क ग्रन्थना अने बीजा मली लगभग २५० अढीसो संवादपाठो मूकेला छे जेनी सूचिका पण आ साथे छे ते जोवा सुज्ञवाचकवर्गने प्रार्थना छे. वली विशेष
उपाध्यायजी भगवंतनी ग्रन्थसन्दर्भ शैलिमां विशिष्टता ए छे के–बहुलताए प्राचीन पूज्यतम पुरुषोना वचन तथा अर्थानुसरणने अवलंबीने ज ते प्रवर्ते छे तेमां रहेली अपूर्वता पूज्यपुरुषोना वचनोनो समन्वय आदि नवीनता विगेरे विकसित बुद्धि प्रतिभाशालिओनेज ते तरी आवे छे, वली तेवा प्रतिभाशालि पुरुषोना तीव्र क्षयोपशमानुसारे गुंथाएल ग्रन्थमालामां शब्द तथा अर्थानुसरण जेवुं कुदरते नैसर्गिक– साहजिक पण आवी शके छे तेथी ते पूज्यभगवंतनी अमाप प्रज्ञानुं माप करवा मथवुं–तेनी परीक्षामां ऊतरवंते आपणा जेवा पामरोनी बुद्धिनी कींमत अंकाववा जेवुं अने “प्रांशुलभ्ये फले मोहा–दुद्वाहुरिव वामनः” जेवी स्थिति सूचवनारुं छे.
आ श्री अनेकान्त व्यवस्था प्रकरण तेमज अमारा तरफथी बहार पडेला प्रायः घणा ग्रन्थोना संशोधनकार्यमां प्राच्य तथा नव्यन्यायनिष्णात, जगत्कर्तृत्ववादनिरासात्मक ‘जगत्कर्तृत्वमीमांसा’ ‘अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाविवृति’ तथा ‘धर्मपरीक्षा वृत्तिटिप्पण’ आदि ग्रन्थोना प्रणेता मुनिराजश्री शिवानन्दविजयजी महाराजश्रीए सहाय करी छे. जेमना ग्रन्थो पैकी नव्यन्यायशैलीए सिद्धान्तना संवाद पाठोयुक्त विद्वत्तापूर्ण धर्मपरीक्षा वृत्तिटिप्पण के जेनो अमुक भाग हालमां ज अमारा तरफथी बहार पडेल सटीक धर्मपरीक्षा ग्रन्थ साथेप्रकाशित थयो छे. संपूर्ण टिप्पण प्रकाशित करवा इच्छा छतां प्रेसनी अगवडता विगेरे कारणोए शेष भाग बहार पाडी शक्या नथी. आशा छे के–ते बाकीनो भाग पण बहार पाडवा भाग्यशालि बनीशुं. आ ग्रन्थ प्रकाशमां मूकतां अमोने घणो ज आनन्द थाय छेके जेनी हस्तलिखित अलभ्य प्रायः प्रतिओने लईने अनेक भव्यात्माओ जिज्ञासुओ छतां लाभ मेलवी शकता नहोता ते आ प्रकाशनथी लाभ लई तत्त्वज्ञान उपार्जी अनुक्रमे सिद्धिमुखना सत्पात्र बनशे.
शुभं भूयात् श्रीश्रमणसंघस्य
श्री जैनग्रन्थप्रकाशक सभा–अमदावाद.
॥श्रीगौतमस्वामिने नमः॥
॥श्रीअनेकान्तव्यवस्थाने अंगे किंचिद् वक्तव्य॥
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शास्त्रोमांकोई पण शास्त्र विशिष्ट ने कठीन होय तो ते तर्कशास्त्र छे. तर्कविद्या तीक्ष्णबुद्धिथी ग्रहण थाय छे. ते समजवा माटे एकाग्रता अने स्थिरतानी आवश्यकता रहे छे. तर्कविषयक लखाणमां बे पद्धति जोवामां आवे छे. एक विकल्पपरम्परानी गुंथणीथी जटिल अने बीजी अवच्छेदकावच्छिन्ननी अविच्छिन्नधाराथी गहन, आ बन्नेपद्धतिओ अनुक्रमे प्राचीन पद्धति अने नवीन पद्धति एवा अभिधानथी ओलखाय छे.
दरेक दर्शनने न्याय–तर्क–युक्तिनी आवश्यकता रहे छे. जनताने स्वाभिमत सिद्धान्त समजाववा माटे दलील जरूरी छे. दर्शनान्तरना विद्वानो साथेचर्चा आदि प्रसंगे ते ते समये प्रचलित न्याय पद्धति तथा विवेचन शैली जाणवी जोईए. नहिं तो स्वदर्शन— दर्शनान्तर समक्ष निर्बल अने फीक्कुं भासे छे. पंदरमी शताव्दीसुधी तर्कवादभां प्राचीन पद्धतिनी प्रबलता हती. लखवामां ने वादमां विकल्पजालनुं जोर विशेष जणातुं. आर्हतदर्शने ते पद्धतिमां मजबूत टक्कर झीली हती ने स्वसिद्धान्तो चोमेर फेलावी बीलकूल झांखा पडवा दीधा न हता. सोलमी शताब्दीथी नवीन पद्धतिनो प्रचार वधवा लाग्यो. न्यायदर्शनना विशिष्टग्रन्थ चिन्तामणिना कर्तागंगेशोपाध्याये नवीन पद्धतिनो प्रारंभ कर्यो. पक्षधर मिश्र— दीधितिकार रघुनाथशिरोमणि आदिए ते पद्धति विशेष प्रकाशमां मूकी, जगदीशभट्टाचार्य अने गदाधरभट्टाचार्यना समयमां ते पद्धतिनुं प्रभुत्व खूब जामी गयुं हतुं ते समये आर्हत दर्शनमां ते पद्धतिना परिचयनी जरूर हती. तेनो सारी रीते परिचय करी. विशद रीतिए लखवानो ने विवेचनमां मूकवानो यश न्यायविशारद न्यायाचार्य
उपाध्यायजी महाराजश्री यशोविजयजी महाराजने मले छे.
न्याय विचारोनुं पूर्ण अध्ययन करी न्यायनी बन्ने शैलीथी जैन दर्शनना सिद्धान्तो स्पष्टपणे निरूपवामां उपाध्यायजी महाराजे नवीन न्यायपद्धतिने आत्मसात् न करी होत तो जैनदर्शन बौद्धदर्शननी जेम पछातरही गयुं होत. आज आ पद्धतिमां पण जैनदर्शननी जे उन्नति देखाय छे ते न देखात. अनेकान्तव्यवस्था प्रकरण अथवा जैनतर्क ए एमनो प्राचीन अने नवीन पद्धतिना मिश्रणथीलखायेल न्यायनो ग्रन्थ छे. “जेम हरणीयुं बाघना मुखने सुंघवा पण समर्थ न थाय तेम अनन्तनयथी भरपूर अतिगंभीर जिनमत नयना अंशने जाणनारवडे सुंघवाने पण शक्य नथी. प्रमाण अने नयथी सिद्ध एवा जिनमतने दूषित करवा प्रयत्न करवो ए पोतानी बुद्धिनुं ज विडम्बन छे,
“ए प्रमाणे ग्रन्थना प्रारंभमां लखीस्याद्वाद प्रत्ये पोतानो अद्वितीय विश्वास ग्रन्थकार प्रकट करे छे. दरेक दर्शनो अनेकान्तवादमांथी छूटा पड्या छे ने एक अथवा बीजी रीतिए दरेक दर्शनोने अनेकान्तवाद अंगीकार करवो पडे छे ते विषय प्रधानतया सात नयनुं स्वरूप बतावता सचोटपणे उपाध्यायजी महाराजे प्रस्तुत ग्रन्थमां प्ररूप्यो छे. ते सम्बन्धि उपसंहारना सूक्तो नीचे प्रमाणे छे.
“दर्शितेयं यथाशास्त्रं, नैगमस्य नयस्य दिक्। कणादृष्टिहेतुः श्री–यशोविजयवाचकैः॥१॥ दर्शितेयं यथाशास्त्रं,सङ्ग्रहस्य नयस्य दिग्। वेदान्तराद्धान्तहेतु–र्यशोविजयवाचकैः॥२॥ दर्शितेयं यथाशास्त्रं, व्यवहारनयस्य दिग्। सांख्यसिद्धान्तहेतुः श्री–यशोविजयवाचकैः॥३॥ दर्शितेयं यथाशास्त्र–मृजुसूत्रनयस्य दिग्। बौद्धसिद्धान्तहेतुः श्री–यशोविजयवाचकैः॥४॥
आ ग्रन्थमां दरेक पृष्ठ पर आपेल विषयसूचनथीग्रन्थ वांचवाने अने विषयशोधन करवाने विशेष अनुकूलता छे.
जेमभाष्यकार**— जिनभद्रगणि क्षमाक्षमण,** संग्रहकार वाचकप्रवर उमास्वातिजी महाराज, महातार्किक श्री सिद्धसेनदिवाकर,
चौदसो चुम्मालीस ग्रन्थसूत्रण सूत्रधार श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज आदिनी उपर उपाध्यायजी महाराजने प्रेमभक्ति हती तेम कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज प्रत्ये पण सम्पूर्ण बहुमान अने भक्ति हता ए आ ग्रन्थमां आवता स्थले स्थले “तदुक्तं प्रभुश्री हेमचन्द्रसूरिभिः” वगेरे वचनोथी पूरवार थाय छे.
आ ग्रन्थ उपाध्यायजी महाराजनुं इतर दर्शनोमां पण केटलुंऊंडुंअवगाहन हतुं ते सिद्ध करतां ते ते दर्शनोना मौलिक श्रुति— स्मृति वगेरे ग्रन्थोथी लईने विवेचन पर्यन्तना सर्व ग्रन्थो तेओश्रीए अवलोक्यां हतां ने तेना विषय तेओश्रीने सारी रीते उपस्थित हताए समजावे छे.
आ ग्रन्थ वांचवाने अने समजवा माटे ते ते दर्शनोनो अने जैनदर्शननो सारो परिचय करवो आवश्यक छे.
उपाध्यायजी महाराजे सेंकडो ग्रन्थो गुंथ्या छे तेमांना केटलाएक ग्रन्थोना नाममात्रथी ज आपणे संतोष अनुभववानो छे. ‘अष्टसहस्री’ ग्रन्थनी एकज प्रति डॅकन कोलेजना पुस्तकसंग्रहमां छे तेम पूज्यपाद परमोपकारि प्रातःस्मरणीय सूरिचक्रचक्रवर्तिशासनसम्राट् सर्वतंत्रस्वतंत्र अमारा परमगुरु गुरुमहाराज श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराजश्रीना लक्ष्यमां आवता तेनी नकल करावी लेवा उपदेश आप्यो यावत् ते’श्रीजैनग्रन्थप्रकाशक सभा’ तरफथीप्रसिद्ध थतांआजे ते ग्रन्थनुं दर्शन करवा आपणे भाग्यशाली थया छीए, ते प्रमाणे आ प्रन्थनी पण एक वे प्रतिओ ज हस्तलिखित प्राप्त थती हती. आजे सद्भाग्ये तेनुं पण ‘श्री जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा’ तरफथी प्रकाशन थयुं एटले हवेथी आ ग्रन्थना नामथी ज नहिं पण साक्षात् ग्रन्थना दर्शन करी आनन्दमां अभिवृद्धि करीए एज—
लि० मुनि धुरन्धरविजय
॥ॐ अहं नमः॥
॥अनेकान्तव्यवस्थाग्रन्थान्तर्गतसाक्ष्यपाठानुक्रमणिका॥
—————————
[TABLE]
| गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम | गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम |
| सो चैव पज्जवट्ठिय– | विशेषा० भाष्य० | अनन्तधर्मात्मकमेव तत्व– | अन्ययोग० द्वात्रिं० |
| नणु भणियं पज्जाय– | विशेषा० भाष्य० | संगृहीतपिण्डार्थं | आगम |
| उपायभङ्गुराणं | विशेषा० भाष्य० | कुंभो भावाणन्नो | विशे०भाष्य |
| तब्भेयकप्पणाओ | विशेषा० भाष्य० | चूओ वणस्सइ च्चिय | " " |
| उप्पायभंगुरा जं, | विशेषा० भाष्य० | अस्त्यर्थः सर्वशब्दानां | वाक्यपदीय |
| बीयस्सदव्वमेत्तं | विशेषा० भाष्य० | घटादीनां न चाकारान् | वाक्यपदीय |
| आविब्भावतिरोभाव– | विशेषा० भाष्य० | वेदात्मशक्तिं स्वगुणैः | श्रुति |
| जं जं जे जे भावे | विशेषा० भाष्य० | अजामेकां लोहित– | श्रुति |
| जं जाहे जं भावं | विशेषा० भाष्य० | यः सर्वज्ञः स सर्ववित् | श्रुति |
| न सुवन्नादन्नंकुंडल– | विशेषा० भाष्य० | यः सर्वज्ञः स सर्ववित् | श्रुति |
| जइ वा दव्वादन्न | विशेषा० भाष्य० | एष सर्वेश्वरः | श्रुति |
| जइ पज्जवोवयारो | विशेषा० भाष्य० | शिवमद्वैतं चातुर्थं | श्रुति |
| दव्वपरिणाममित्तं | विशेषा० भाष्य० | विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि– | श्रुति |
| दव्वट्ठियणयपयड़ी | सम्मति | एतस्मादात्मन आकाशः | श्रुति |
| पुरुष एवेदं सर्वम् | श्रुति (वेद) | प्रविभक्तभुक् | श्रुति |
| ऊर्ध्वमूलमघःशास्त्रम् | गीता | जागरितस्थानो | श्रुति |
| स्वतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्ति– | अन्ययोग० द्वात्रिं० | सामानाधिकरण्यं च | श्रुति |
| गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम | गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम |
| फलव्याप्यत्वमेवास्य | श्रुति | माया सती चेद्द्वयतत्त्व– | अन्ययोग० द्वात्रिंशिका |
| न यावत्सममभ्यस्तौ | वसिष्ठवाक्य | सच्चिदानन्दरूपं | श्रुति |
| प्रतिपाद्यस्याद्वितीय | छान्दोग्योपनिषद् | जे एगं जाणइ | आचारांग |
| अद्वितीयवस्तुन | छान्दोग्योपनिषद् | सवियष्पणिव्वियप्पं | सम्मति |
| अद्वितीयवस्तुनो | छान्दोग्योपनिषद् | वच्चइ विणिच्छियन्थं | विशे० भाष्य० |
| आचार्यवान् पुरुषो | छान्दोग्योपनिषद् | यथा कटकशब्दार्थः | विशे० भाष्य० |
| येनाश्रुतं श्रुतं | छान्दोग्योपनिषद् | पज्जवणय बुक्कंतं | सम्मति |
| यथा सौम्यैकेन | छान्दोग्योपनिषद् | दव्बट्ठियोत्तितम्हा | सम्मति |
| दृशिस्वरूपं गगनोपमं | छान्दोग्योपनिषद् | दव्बट्ठियवत्तव्वं | सम्मति |
| यमनियमासनप्राणा | पातंजलयोगदर्शन | उपज्जंति वयंति य | सम्मति |
| लये संबोधयेच्चित्त | पातंजलयोगदर्शन | दव्वं पज्जवविजुयं | सम्मति |
| सचक्षुरचक्षुरिव | श्रुति | एए पुण संगहओ | सम्मति |
| बुद्धाद्वेतसतत्त्वस्य | श्रुति | ण य तइअेा अत्थि णअेा | सम्मति |
| उत्पन्नात्मावबोधस्य | श्रुति | जह एए तद्दअण्णे | सम्मति |
| न तस्य प्राणा उत्क्राम० | श्रुति | सव्वणयसमूहम्मि वि | सम्मति |
| अव्यावृत्ताननुगतं | वार्तिक | तम्हा सव्वेवि णया | सम्मति |
| न निरोधो न चोत्पत्ति | श्रुति | जहडणेगलक्खणगुणा | सम्मति |
| तस्याभिध्यानाद्योजनात् | श्रुति | तह णिययवायसुविणि– | सम्मति |
| गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम | गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम |
| जह पुण तेचेवमणी | सम्मति | लिङ्गलिङ्गिधियोरेवं | सांख्यकारिका |
| तह सव्वेणयवाया | सम्मति | चैतन्यं पुरुषस्य | सांख्यकारिका |
| लोइयपरिच्छियसुहो | सम्मति | पुरुषस्य दर्शनार्थे | सांख्यकारिका |
| इहग सनृहसिद्धो | सम्मति | तस्यैव व्यभिवारादौ | सांख्यकारिका |
| णिययपयणिज्जसच्चा | सम्मति | वत्सविवृद्धिनिमित्तं | सांख्यकारिका |
| सदेव सत्स्यात्सदिति | अन्ययाेग० द्वात्रिंशिका | उज्जुं ऋजुं सुयं नाणं | विशेषा० विशेषा० |
| जं काविलं दरिसणं | सम्मति | तम्हा णिययं संपई | विशेषा० विशेषा० |
| प्रकृतेर्महांँस्ततोऽहङ्कारः | सांख्यकारिका | पलालं न दहत्यग्नि– | विशेषा० विशेषा० |
| पञ्चविंशतितत्वज्ञो | सांख्यकारिका | क्वचित्तदपरिज्ञानं | विशेषा० विशेषा० |
| त्रिगुणमविवेकिविषयः | सांख्यकारिका | तत्रापूर्वार्थविज्ञानं | विशेषा० विशेषा० |
| हेतुमदनित्यमव्यापि | सांख्यकारिका | न हि स्मरणतो यत् प्राक् | श्लेाक ३ |
| असदकरणादुपादान– | सांख्यकारिका | इदानीन्तनमस्तित्वं | श्लेाक ३ |
| कार्यस्यैव नयोगाच्च | सांख्यकारिका | भावान्तरविनिर्मुक्ताे | श्लेाक ३ |
| भेदानां परिणामात् | सांख्यकारिका | कः शोभन वदन्नेवं | श्लेाक ३ |
| मूलप्रकृतिरविकृति– | सांख्यकारिका | अनष्टाज्जायते कार्यं | श्लेाक ३ |
| यदेव दधि तत्क्षीरं | सांख्यकारिका | यदि तुलान्तकयाे | श्लेाक ३ |
| न खदकरणादुपादान– | सांख्यकारिका | भावे ह्येवं विकल्पः स्यात् | श्लेाक ३ |
| अवधीनामनिप्पत्ते– | सांख्यकारिका | दृष्टस्तावदयं घटाेडत्र निपतन् | श्लेाक ३ |
| गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम | गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम |
| स्वभावोऽपि स तस्येत्थं | श्लेाक ३ | जं जं सण्णं भासइ | विशेषा०भाष्य |
| जातस्य च स्वभायस्य | सौगताः | वत्थुओ संकमणं | आवश्यकनिर्युक्ति |
| अदृष्टेऽर्थे विकल्पनमात्रम् | सौगताचार्यः | दव्वंपज्जाओ वा | विशेषा० भाष्य |
| ग्राह्यग्राहकसंवित्ति– | सौगताचार्यः | णहि सद्दंतरवच्चं | विशेषा० भाष्य |
| मूलनिमाणं पज्जव | सम्मति | घडकुडसद्दत्थाणं | विशेषा० भाष्य |
| सत्त मूलणया पन्नत्ता– | सूत्र | धणि भेआओ भेओ | विशेषा० भाष्य |
| सवणं सपइ स तेणं | विशेषा० भाध्य० | आगासे वखइत्ति य | विशेषा० भाष्य |
| इच्छइ विसेसियतरं | आवश्यकनिर्युक्ति | वत्युं वसइ सहावे | विशेषा० भाष्य |
| तं चिय रिउत्तमयं | विशेषा०भाष्य | णेगमववहाराणं | विशेषा० भाष्य |
| नामादओ न कुंभा | विशेषा० भाष्य | माणं प्रमाणमिट्ठं | विशेषा० भाष्य |
| जइ विगयाणुप्पन्ना | विशेषा० भाष्य | णहि पत्थाइ प्रमाणं | विशेषा० भाष्य |
| अहवा पच्चुप्पन्नो | विशेषा० भाष्य | पत्थादओ वि तक्कारणं ति | विशेषा० भाष्य |
| सब्भावासब्भावो | विशेषा० भाष्य | तक्कारणं ति वा जइ | विशेषा० भाष्य |
| एवं सत्तवियप्पो | सम्मति | देसी चेव य देसो | विशेषा० भाष्य |
| वत्थुविसेसओ वा. | विशेषा०भाष्य | एत्तो चेव समाणा | विशेषा० भाष्य |
| धणिभेयाओ मेओ | विशेषा० भाष्य | धडकारविवक्खाए | विशेषा० भाष्य |
| तो भावो च्चिय वत्थु | विशेषा० भाष्य | कुंभंमि वत्थुपज्जाय | विशेषा० भाष्य |
| विरोधिलिङ्गसङ्ख्यादि– | विशेषा० भाष्य | मृदादिभावैः परिणामवद्भि– | विशेषा० भाष्य |
| गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम | गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम |
| एवं जह सद्दत्थो | विशेषा० भाष्य० | पुरिसज्जायं तु पडुच्च | आगम |
| वंजणअत्थतदुभयं | आवश्यक निर्युक्ति | अत्थंतरभूएहि य | सम्मति |
| वंजणमत्थेणत्थं | विशेषा० भाष्य० | अह देसाेसब्भावे | सम्मति |
| सद्ववसादभिधेयं | विशेषा० भाष्य० | सब्भावे आइट्ठो | सम्मति |
| सद्दपरिणामओ जइ | विशेषा० भाष्य० | आइट्ठो सब्भावे | सम्मति |
| जइ वत्थुसंकमो वा | विशेषा० भाष्य० | सब्भावासब्भावे | सम्मति |
| एवं जीवं जीवो | विशेषा० भाष्य० | एवं सत्तवियप्पो | सम्मति |
| पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं | आचा० टी० | परपज्जवेहि विसरिस | सम्मति |
| तिक्काले चदुपाणा | द्रव्यसंग्रह | पच्चुप्पण्णंमिवि प– | सम्मति |
| एएहि दिट्ठिवाये | विशेषा० भाष्य० | द्रव्यकषाययोगा | प्रशमरति श्लाेक ६ |
| मग्गण गुणठाणेहिंय | द्रव्यसंग्रह | कोवं उप्पायन्तो | सम्मति |
| जह देसिच्चिय देसो | विशेषा० भाष्य० | रुवरसगन्धफासा | सम्मति |
| अह भिन्नो तस्स तओ | विशेषा० भाष्य० | दूरे ता अण्णत्तं | सम्मति |
| नो सद्दाेवि समत्तं | विशेषा० भाष्य० | दो उ णया भगवया | सम्मति |
| नीलुप्पलाइ सद्दा | विशेषा० भाष्य० | जं च पुण अरहया | सम्मति |
| तो वत्थुसकराई | विशेषा० भाष्य० | परिगमण पज्जाओं | सम्मति |
| जे वय णिज्जवियप्पा | विशेषा० भाष्य० | जंपंति अत्थिसमये | सम्मति |
| विभज्जवायं च विया– | सम्मति | गुणसद्दमंतरेणावि | सम्मति |
| गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम | गाथाऽऽद्यपादः | ग्रन्थनाम |
| जह दससु दसगुणंमि | सम्मति | सीसमईविप्फारण | सम्मति |
| गुणपर्यायवद्दव्यं | तत्त्वार्थ अ० ५ सू. ३७ | ण वि अत्थि अण्णवाओ | सम्मति |
| गुणाणमासओ दव्वं | उत्तराध्ययन | भयणा वि हु भइयव्वा | सम्मति |
| दव्वणामे गुणणामे | अनुयोगद्वार | रयणप्पभा सिय | सम्मति |
| नाणदेसणट्ठयाए | आगम | मूलक्षयकरीं प्राहु– | तार्किक |
| अण्णोण्णंपविसंता | आगम | णियमेण सद्दहंताे | सम्मति |
| अणंतेहिं वण्णपज्ज– | भगवती | अणभिग्गहियकुदिट्ठी | उत्तराध्ययने |
| अणुदुअणुपहिं | सम्मति | एगविह दुविह | नवतत्व |
| एगत्तं च पुहुत्तं च | उत्तराध्ययन | गइपरिणयं गई चेव | सम्मति |
| गुणपर्यायवद् द्रव्यं | तत्वार्थ अ० ५ सू. ३७ | गुणणिव्वत्तियसन्ना | सम्मति |
| पिउपुत्तणत्तुभाणिo | सम्मति | कुंभो ण जीवदवियं | सम्मति |
| जह संबंधविसिट्ठं | सम्मति | चरणकरणप्पहाणा | सम्मति |
| होज्जाहि दुगुणमहुरं | सम्मति | वयसमणधम्म | प्रवचनसाराेद्धार |
| भण्णइसंबंधवसा | सम्मति | पिंडविसोही समिई | प्रवचसारोद्धार |
| जुज्जइसंबंधवसा | सम्मति | मण्णई तमेव सच्चं | भगवती |
| भण्णइ विसमपरिणयं | सम्मति | तं सव्वणयविसुद्धं | आवश्यकनिर्युक्ति |
| दव्वस्सठिई जम्म | सम्मति | गुरु पारतंतनाणं | पंचाशक |
| दव्वत्थंतरभूया | सम्मति | गीयत्थो य विहारो | पंचाशक |
॥शुद्धिपत्रकम्॥
———————
| अशुद्धं | शुद्धं | अशुद्धं | शुद्धं |
| नारू | नादिरू | क्षया | दृष्टाक्षयाद |
| शाद | शाः; अ | च्च न | च्च |
| च्छद्व | च्छब्द | त्पू | त्, पू |
| त्यख्या | त्ख्या | वृतः | वृत्तेः |
| ति, ये | ति ये | रौक | रैक |
| गित्व | गिकत्व | कान्य | कस्य चान्य |
| प्रयो | प्रतियाे | त्यात् | त्वात् |
| ष्टभा | ष्टमभा | कत्वेद्व | कत्वद्व |
| ङ्गगा | ङ्गा | लम्भ | लभ्य |
| ङ्गाद्ध | ङ्गोद्ध | सङ्का | सङ्क्रा |
| निष्टा | निष्ठा | ननु | न तु |
| क्ते र | क्तेः, न चा | क्रिया क्ष | क्रियाक्ष |
शोधितेऽप्यस्मिन् प्रायः समाकृति प ष ब व घ ध इत्याद्यक्षरव्वत्यासादिका या काचिच्चेदशुद्धिः स्यात्स्वयं सा संशोध्याऽनाभोगादिगोचरा च क्षमाऽभ्यर्थ्यते।
॥अेाँअर्हँनमः॥
॥निजप्रज्ञावदातसंस्मारितातीतपूर्वश्रुतकेवलिभगवद्–न्यायविशारद–न्यायाचार्य–महोपाध्यायश्रीमद्–यशोविजयवाचकविरचितम्॥
॥जैनतर्केत्यपराभिधानं श्री अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरणम्॥
————————
ऐन्द्रस्तोमनतं नत्वा, वीतरागं स्वयम्भुवम्॥ अनेकान्तव्यवस्थायां, श्रमः कश्चिद्वितन्यते॥१॥
जिनमतमतिगम्भीरं, नयलवविद्भिः परैरनन्तनयम्॥ आघ्रातुमपि न शक्यं, हरिणेन व्याघ्रवदनमिव॥२॥
वस्तुधर्मो ह्यनेकान्तः, प्रमाणनयसाधितः॥ अज्ञात्वा दूषणं तस्य, निजवुद्धेर्विडम्बनम्॥३॥
अथ कोऽयमनेकान्तः?, उच्यते–तत्वेषु भावाभावादिशबलैकरूपत्वम्। कानि तत्त्वानीति चेत्, तत्रेदं तत्त्वार्थमहाशास्त्र सूत्रं (अ० १–४) “जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्”॥ जीवा औपशमिकादिभावान्विताः। अजीवा धर्मादयश्चत्वारोऽस्तिकायाः॥ आश्रूयते–गृह्यते यैः कर्म ते आश्रवाः, शुभाशुभकर्मादानहेतव इत्यर्थः॥वन्धो नामाश्रवात्तकर्मण आत्मना सह प्रकृत्यादिविशेषतः संयोगः॥ आश्रवनिरोधहेतुः संवरः॥ विपाकात् तपसो वा कर्मणां शाटो निर्जरा॥ सर्वोपाधिविशुद्धस्वात्मलाभो मोक्षः॥ “इत्येष सप्तविधोऽर्थस्तत्वम्। एते वा सप्तपदार्थास्तत्त्वानि” इति भाष्यकारः॥ (अ० १ सू०४) तत्त्वमित्यस्याऽव्युत्पत्तिपक्षे परमार्थ इत्यर्थः, व्युत्पत्तिपक्षे तु जीवादीनां या स्वसत्ता सा तत्त्वपदेनोच्यते। तस्याश्च प्रतिवस्तु यो भेदस्तमनादृत्यैकवचनम्, नैयायिकादिवत् तस्या अतिरिक्तत्वानभ्युपगमेन वस्तुधर्मतया प्रतिवस्तु भेदमभिप्रेत्य च भाष्ये
बहुवचनमपीति टीकाकृतः। वस्तुतः सकलज्ञानसाध्यैकप्रयोजनकत्वलक्षणमेकत्वं, लक्षणभेदज्ञानजनितपरस्परभेदज्ञानविषयत्वरूपं बहुत्वं चादायैकवचनबहुवचने सूत्रभाष्ययोर्बोध्ये॥ स्वाभाविकैकत्वबहुत्वयोर्नयभेदाश्रयणेन प्रकृतसमाधाने चोपयोगवन्तो जीवः उपयोगवन्तो जीवा इति प्रयोगयोरपि साधुत्वापत्तेः, उपदर्शितनीत्या तु बहुत्वावच्छेदेनैवैकत्वस्य क्लृप्तत्वात् करितुरगरथाः सेनेत्यादाविव बहुवचनावरुद्धे एकवचनावरुद्धस्योद्देश्य विधेयभावेनान्वयो नानुपपन्न इति दिक्॥
ननु कथं सप्तैव तत्त्वानि, पुण्यपापयोरप्यधिकयोः सत्त्वादिति चेत्, न, बन्ध एव तयोरन्तर्भावमभिप्रेत्य भेदेनानभिधानात्। हन्त तर्हि जीवाऽजीवास्तत्त्वमेतावदेव वाच्यं स्याद्, आश्रवादीनामपि पञ्चानां जीवाऽजीवयोरभिन्नत्वात्॥ तथाहि॥ आश्रवो मिथ्यादर्शनारूपः परिणामो जीवस्य, स च क आत्मानं पुद्गलांश्च विहाय। बन्धश्चात्मप्रदेशसंश्लिष्टकर्मपुद्गलात्मकः। संवरोडप्यात्मन एवाश्रवनिरोधलक्षणो देश सर्वनिवृत्तिपरिणामः। निर्जरा तु पार्थक्यापन्नजीवपुद्गलदशैव। मोक्षोऽपि समस्तकर्मरहित आत्मैवेति?, सत्यम्, इदमित्थमेव, किन्त्विदं शास्त्रं मुमुक्षुशिष्यप्रवृत्तये। साच मुक्ति–संसारयोः कारणयोर्भेदेनाभिधानं विना न स्यादिति। आश्रवो वन्धश्चेति द्वयं मुख्यं संसारकारणम्। संवरो निर्जरा चेति द्वयं मुख्यं मोक्षकारणमुपात्तम्। यत्तु मुख्यं प्रयोजनं मोक्षो यदर्था सर्वा प्रवृत्तिः, स कथं न प्रदर्श्येतेति युक्तं पञ्चानामप्युपादानम्। अथ हेयोपादेययोरेककारणाभिधानेनैव चरितार्थत्वे किं द्वयाभिधानेनेति चेत्, न, एककारणे ज्ञाते कारणान्तरजिज्ञासाया औत्सर्गिकत्वात्, कारणद्वयज्ञाने च मध्यमजिज्ञासापरिपूर्तेः, तथापि मोक्षस्योपादेयतयेव हेयतया संसारस्यापि पृथगभिधानं कार्यंस्यादिति चेत्, न, अनागतजन्माद्यभावरूपसंसारहानेः स्वातन्त्र्येणासाध्यतया तद्धेतूच्छेदे पुरुषव्यापाराभ्युपगमेन तद्धेत्वोरेवाभिधानात्, संसारहानेर्मो–
क्षस्वरूप एवानुप्रवेशान्मोक्षोपस्थितौ संसारस्य प्रतिपक्षत्वेनावश्योपस्थितिकतया पृथगभिधानस्यानतिप्रयोजनत्वाच्चेति सम्प्रदायपरिष्कारः। वस्तुतः संवरनिर्जरयोर्मोक्षे दण्डचक्रादिन्यायेन हेतुता, न तु तृणारणिमणिन्यायेनेति बोधयितुं द्वयाभिधानम्। बन्धपदेन संसारस्याश्रवस्य च तत्कारणतयाभिधानमित्ययं संसारनिवृत्तिमोक्षप्रवृत्तिप्रगुणः प्रघट्टक इत्यपि युक्तं पश्यामः। न चैवं सम्प्रदायातिक्रमः, अनेकनय समूहात्मकत्वाद् भगवत्प्रवचनस्येति सूक्ष्ममीक्षणीयम्॥
अत्र वैशेषिकाः—“सर्वत्र विभागवाक्ये न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदफलकत्वं सर्वसिद्धं तत्रोद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतावच्छेदकरूपेण विधेयतासमव्याप्तरूपेण वा विधेयस्य व्यापकत्वलाभो व्युत्पत्तिमर्यादयाऽवश्यं स्वीकर्तव्यः, अन्यथा वह्निमान् धूमवानित्यादौ द्रव्यत्वादिना धूमवदादिव्यापकत्वलाभप्रसङ्गात्, तदिह जीवाजीवेत्यादिवाक्ये चरमपदे तावदन्यतमत्वेन निरूढलक्षणास्वीकाराद् विधेयतावच्छेदकेनान्यथा च विधेयतासमव्याप्तेन जीवाजीवाद्यन्यतमत्वेन पदार्थव्यापकत्वलाभादाधिक्यं व्यवच्छिद्यताम्। यत्तु “विभाजकोपाधीनां मिथः साङ्कर्यरूपं न्यूनत्वमप्येतद्वाक्येनान्यतमत्वबलादेव व्यवच्छेद्यम्। न्यूनत्वे पृथिवीघटान्यतमत्ववत् तस्याऽसम्भवात्, घटभेदवृत्तित्वाद्यंशवैयर्थ्येन पृथिवीभेदवृत्तिद्वित्वादेः प्रतियोगिताऽनवच्छेदकत्वेन तदवछिन्नाऽभावाभावात्। तच्चात्रासम्भवीत्ययुक्तोऽयं विभाग” इत्याहुः। तन्न। भूतमूर्तान्यतमत्ववज्जीवाजीवाश्रवाद्यन्यतमत्वस्य जीवत्वाऽजीवत्वाभवत्वादिसाङ्कर्येऽपि सम्भवाञ्जीवत्वाजीवत्वाद्यसाङ्कर्यस्य च जातिसाङ्कर्यादिबाधकान्तरादेव सिद्धेः। इत्थमेव “प्रमाणप्रमेयेत्यादि” गौतमीयविभागसूत्रमप्युपपद्यते॥ अथैवं न्यूनत्वव्यवच्छेदाभिप्रायाभाषादीदृशविभागकरणेऽपि वस्तुतः पदार्थद्वित्वसिद्धौ भेदद्वयाभावमात्रस्य व्यापकतावच्छेदकत्वसम्भवादुक्तान्यतमत्वाव–
च्छिन्नव्यापकताबलादेव न्यूनत्वव्यवच्छेदो बलादापतेत्। तथा च महदासमञ्जस्यमिति चेत्, न, ‘तत्त्वं परमार्थ’ इति विवरणात् तत्त्वपदस्य मुमुक्षुप्रवृत्त्युपयुक्तज्ञानविषये रूढत्वात् तस्य च सप्तभ्यो न्यूनस्याभावादुक्तविभाजकोपाध्यवच्छिन्नभेदाभावसङ्खाव्याप्यसङ्ख्यायां व्यापकताऽवच्छेदकताऽवच्छेदकत्वपर्याप्त्यभावलक्षणन्यूनत्वव्यवच्छेदस्यावाधितत्वादिति दिक्॥
अत्र चादग्धदहनन्यायेन यावदप्राप्तं तावद्विधेयम्। अत एव “लोहितोष्णीषा ऋत्विजः प्रचरन्ती” त्यत्र ऋत्विक्प्रचरणस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वाल्लोहितोष्णीषत्वमात्रं विधेयम् “दघ्ना जुहोती” त्यत्र दघ्नः प्रत्यक्षसिद्धत्वात् करणत्वमात्रं विधेयमिति मीमांसानिष्णाताः सङ्गिरन्ते। अतो यस्य तत्त्वाधिगमस्तं प्रति जीवाद्यन्यतमस्य विधेयत्वं, यस्य च जीवाद्यन्यतमाधिगमस्तं प्रति तत्त्वस्य, यस्य चोभयानघिगमस्तं प्रत्युभयस्य विधेयत्वमित्यतिदेशेनाकरेव्यवस्थितम्॥ विशेषविधिनिषेधयोः शेषनिषेधविध्यभ्यनुज्ञाफलकत्वात्, सामान्यतोऽवगतानां विशेषतोऽभिघाने न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेदकत्वं व्युत्पत्तिसिद्धमित्यपरे॥ “सर्वत्र श्रुतादध्याहृताद्वैवकारादेव न्यूनाधिकसङ्ख्याव्यवच्छेद” इत्यपि केचित्॥ तदेवं जीवाजीवादीनि सप्तैव तत्त्वानीति व्यवस्थितम्। यदि चाऽभ्युदयहेतुतया पुण्यस्य तत्प्रतिपक्षतया पापस्यापि च पृथग् निरूपणमावश्यकं, तदाऽभ्युदयनिःश्रेयसहेतुप्रवृत्यनुकूलज्ञानविषयतया जीवाजीवादयो नवैव पदार्था निरूपणीया इति परममुनिसिद्धान्तसरणिः॥
अथ किमेतेषु भावाभावादिशबलैकरूपत्वं?, उच्यते– विषयतया भावाभावाद्याकारबुद्धिजनकपरिणाम-द्वयतादात्म्यापन्नजात्यन्तरैकधर्मित्वं, अस्ति ह्येकस्य जीवाजीवादेः स्वपरद्रव्यादिनिबन्धनो भावाभावादिरूपो द्विविधः परिणामो, यद्बलात् तत्रास्तिनास्तीतिप्रत्ययद्वैविध्यमुपजायते। एकपरिणामस्याप्युभयाकारप्रतीतिजनकैकशक्तिमत्त्वात् प्रत्ययद्वैविध्यमुपपत्स्यत इति चेत्?,
न, तथाप्यविनिगमेनोभयपरिणामवत्त्वसिद्धेः॥ सदंशः परानपेक्षप्रतीतिविषयत्वात् तात्त्विकः, असदंशस्तु विपर्ययान्नतथेत्यस्ति विनिगमकमिति चेत्, न, परापेक्षप्रतीतिविषयत्वस्याऽतात्त्विकत्वाव्याप्यत्वात्, संयोगविभागह्रस्वत्वदीर्घत्वादौ व्यभिचारात्। प्रतियोगिविशिष्टसंयोगादिव्यवहार एव परापेक्षा, न तु तद्ज्ञानमात्र इति चेत्, तदिदमभावेऽपि तुल्यम्॥ वस्तुतः केचिद्भावाः प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्याः, केचिन्न, इत्यत्र स्वभावविशेष एव शरणम्। कर्पूरशरावगन्धादौ तथास्वभावदर्शनात्, तद्वत्सदंशासदंशयोरपि नैकस्य तुच्छत्वमपरस्यातुच्छत्वं, तदिदमभिप्रेत्योक्तं प्रतीत्यमत्याधिकारे भाषारहस्येऽस्माभिः “ते हुंति परावेक्खा, वंजयमुहदंसिणोत्ति ण य तुच्छा॥ दिट्ठमिणं वेचित्तं, सरावकप्पूरगंधाणं॥३०॥” [ते भवन्ति परापेक्षा व्यञ्जकमुखदर्शिन इति न च तुच्छाः। दृष्टमिदं वैचित्र्यं शरावकर्पूरगन्धयोः॥] ति॥ शुद्धं भूतलमेव घटाभावव्यवहारविषय इति नाभावांशोऽधिक इति मीमांसकः, तन्न, शुद्धत्वस्याभाववत्त्वातिरिक्तस्यानिर्वचनेन कथञ्चिदभावपरिणामाधिक्यस्यावश्यकत्वात्, यादृशे भूतले परस्य घटाभाववत्त्वंतादृशत्वमेव मम शुद्धत्वमिति चेत्, न, अतिरिक्ताभाववादिभिर्नैर्यायिकादिभिर्भूतलत्वावच्छिन्न एव घटाभाववत्तास्वीकारेऽपि कालविशेषविशिष्टत्वस्य सम्बन्धतयाऽतिप्रसङ्गनिराकरणात्, अस्माकं तु कालविशेषविशिष्टत्वेनर्जुसूत्रनयादेशात् पूर्वावस्थातः कथञ्चिद्भिन्नस्य भूतलस्य घटाभावाऽऽधारत्वाऽभ्युपगमेनानुपपत्त्यभावात्, परस्य चैवमभ्युपगमेऽनेकान्तप्रवेशापत्तिः। किञ्च भावादेरनतिरेके दुरितध्वंसादेः परमेश्वरनमस्कारादिकार्यता न स्यात्, आत्मनि दुरितध्वंसस्यात्मस्वरूपत्वात्, तस्य च नित्यत्वेनाजन्यत्वात्, नित्यत्वेऽपि कथञ्चिदनित्यत्वाभ्युपगमेऽस्मत्पक्षप्रवेश इति यत्किञ्चिदेतदितिदिग्॥ अभावाभाववतोरेकान्तभेदोऽपि नैयायिकाद्यभिमतो न न्याय्यः,
एकान्तभेदे सम्बन्धानुपपत्तेः, विशेषणताया एकस्वरूपत्वेऽतिप्रसङ्गादुभयस्वरूपत्वे तादात्म्यपर्यवसानात्। एकदेशिनां तदतिरेकाभ्युपगमस्याप्यन्याय्यत्वात्, तत्रापि सम्बन्धान्तरान्वेषणायामनवस्थानात्, स्वरूपतस्तस्याः सम्बन्धत्वाभ्युपगमे चाभावाभाववत्स्वरूपयोरेव तादात्म्येन सम्बन्धत्वकल्पनौचित्यादिति दिग्॥ भावांशोऽपि न स्वलक्षणातिरिक्तः सकलव्यक्तिवृत्तितिर्यक्सामान्यात्मा प्रामाणिकः, देशेन तस्यैकव्यक्तिवृत्तित्वे सावयवत्वप्रसङ्गात्, कार्त्स्न्येनन च तथात्वे इतरव्यक्तीनां निःसामान्यत्वप्रसङ्गादिति बौद्धः, तन्न, नैयायिकादिवत् सर्वथाऽतिरिक्तसामान्याभ्युपगम एव तद्दोपावकाशात्, कथञ्चिद्वयावृत्तानामपि व्यक्तीनां कथञ्चिदनुगतत्वेन सामान्यभावाभ्युपगमे च तद्दाेषासंस्पर्शात्। तत्तदन्पक्षणवृत्तित्वयोर्विरोधादूर्ध्वतासामान्यात्मा भावो नास्तीति स एव‚ तदप्यसत्‚ स एवायमिति प्रत्यभिज्ञयैवोर्ध्वतासामान्यसिद्धेः, तत्तदन्यक्षणवृत्तित्वयोश्चित्रज्ञाने नीलाकारपीताकारयोरिवाऽविरोधात्॥ ज्ञानविषययोरतिरिक्तसम्बन्धानुपपत्तेर्ज्ञानाकार एव भावो न तु बाह्य इति तदेकदेशीयः, तदप्यसद, बाह्मार्थाभावे नियतव्यवहारादिविलोपप्रसङ्गाद्, वासनाविशेषेण तद्व्यवस्थोपपादनेऽपि तत्प्रबोधार्थं वाह्मार्थाभ्युपगमावश्यकत्वादिति दिग्॥ तदेवं व्यवस्थितं जीवाजीवादीनां विचित्रभावाभावादिशबलैकरूपत्वम्॥ अथैवं सर्वस्याऽनेकान्तत्वेन सर्वरूपत्वे कथं प्रतिनियतधर्मग्रह इति चेत्?, मतिज्ञानोपयोगे तत्तत्सामग्रीसव्यपेक्षक्षयोपशमविशेषात्‚ श्रुतज्ञानोपयोगे च नयविशेषादिति गृहाण॥ अत एवैकस्मिन्नेकत्वोद्वोधेऽयं गुरुरिति, अनेकत्वोद्बोधेचैते गुरव इति बोधः सङ्गच्छते। क्रमेणोभयोद्वोधेऽयं गुरव इति प्रयोगस्त्वेकत्वावरुद्धे बहुत्वान्वयस्य निराकाङ्क्षत्त्वादेव निरसनीयः, यत्र त्वनूद्यविधेयभावतात्पर्येण तथाऽन्वये न निराकाङ्क्षत्त्वं, तत्र भवत्येव नैममनयाभिप्रायात् तथाप्रयोगो, यथा “सभूभृदष्टावपि
लोकपाला” इत्यादि लौकिके, यथा च “एकग्रहणगृहीता असङ्ख्येयाः प्रदेशा जीव” इत्यादि लोकोत्तर इति स्मर्तव्यम्॥
अथ के ते नया यैः प्रतिनियतधर्मग्रह इति?, उच्यते, “नैगमसङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः॥” तत्र नैकैः प्रभूतैर्मानैर्महासामान्यावान्तरसामान्यविशेषज्ञानलक्षणैर्मिनोति भिमीते वा निरुक्तविधिना वर्णविपर्ययान्नैगमः। यद्वा गम्यतेऽनेनेति गमः— पन्थाः, नैके गमाः— पन्थानो यस्य स नैकगमः, निरुक्तविधिना ककारलोपान्नैगमः। अथवा लोकार्थनिबोधा निगमाः, तेषु भवः कुशलो वा नैगमः। अयं च महासामान्यादिषु त्रिषु क्रमेण सर्वाविशुद्धो विशुद्धाविशुद्धो विशुद्धश्चज्ञातव्यः। एवं प्रस्थकाद्युदाहरणेष्वपि सिद्धान्तसिद्धेषु भावनीयम्। एवं घटादिष्वपि कार्यकारणयोरवयवावयविनोरन्यप्रकारेण चोपचारानुपचाराभ्यामविशुद्ध–मध्यम–विशुद्धभेदा भावनीयाः। एतद्व्युत्पत्त्यर्थमेव प्रस्थकादिदृष्टान्तोपदेशादस्मिन् नये विशेषेभ्योऽन्यदेव सामान्यम्, अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्, सामान्याच्चान्य एव विशेषाः, व्यावृत्तिबुद्धिहेतुत्वात् एवमाश्रयादपि भिन्नमेव सामान्यम्, अन्यथा व्यक्तिवत् साधारण्यानुपपत्तेः, एवं तुल्याकृतिगुणक्रियैकप्रदेशनिर्गतागतपरमाणुषु योगिनां परस्परभेदबुद्धिहेतुरन्त्यविशेषोऽपि परमाणुभ्यो भिन्न एव,स्वस्मिन्नितरभेदबुद्धेः स्वातिरिक्तविशेषहेतुकत्वनियमाद् गोत्वादिसामान्यविशेषस्थले तथादर्शनादित्यवधेयम्॥ नन्वेवं द्रव्यार्थविषयं सामान्यं पर्यायार्थविषयं विशेषं चेच्छन्नैगमः साधुवदुभयनयावलम्बित्वेन सम्यग्दृष्टिः स्यादिति चेत्?, न, परस्परं वस्तुतश्च भिन्नसामान्यविशेषो- भयाभ्युपगन्तृत्वेनास्य कणादवन्मिथ्यादृष्टित्वात्। तदुक्तं (विशे०) महाभाष्ये संमतौ (३-४९) च— “दोहि वि णएहि णीयं, सत्थमुलूएण तहवि मिच्छत्तं॥ जंसविसयप्पहाण–त्तणेण अण्णोण्णणिरवेक्खा॥२१९५॥” अस्यार्थः— द्वाभ्यामपि द्रव्यास्तिकनय–पर्यायास्तिक–
नयाभ्यां, नीतं–समर्थितं, शास्त्रमुलकेन–वैशेषिकदर्शनाद्यप्रवर्तकेन, तथापि तन्मिथ्यात्वमेव, यद् यस्मात्, ताविति शेषः। तौ वैशेषिकदर्शनप्रवर्तकौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकौ नयौ, स्वविषयप्रधानत्वेन सावधारणस्वविषयावगाहित्वेन, अन्योन्यनिरपेक्षौ इतरांशापलापिनौ, जैनाभिमतौ तु तौ स्याच्छद्बलाञ्छितत्वेन परस्परसापेक्षत्वान्न मिथ्यारूपाविति भावः॥
ननु यदि द्रव्यपर्यायोभयविषयावगाही नैगमस्तदाद्यास्त्रयो द्रव्यार्थिकाः, अन्त्याश्चत्वारः पर्यायार्थिका इति सिद्धसेनाचार्याणाम्, आद्याश्चत्वारो द्रव्यार्थिका अन्त्यास्त्रयः पर्यायार्थिका इति जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादानां च विभागवचनं व्याहन्येत, नैगमस्योभयान्तःपातित्वेन पर्यायार्थिकाधिक्यात्, न चोभयविषयकत्वेऽपि द्रव्यांशे प्राधान्येनास्य द्रव्यार्थिकत्वमेवेति वाच्यम्। पर्यायांशेऽपि क्वचिदस्य प्राधान्यदर्शनात्, त्रिविधो ह्ययमाकरादावुदाह्रियते, धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन विवक्षणात्, तत्र “सच्चैतन्यमात्मनी"त्याद्यो भेदः, अत्र चैतन्याख्यस्य धर्मस्य विशेष्यत्वेन प्राधान्यात्, सत्ताख्यधर्मस्य तु विशेषणत्वेनोपसर्जनभावात् १॥ “वस्तुपर्यायवद्द्रव्य"मिति द्वितीयो मेदः, वस्त्वाख्यधर्मिणो विशेष्यत्वेन प्राधान्यात्, पर्यायवद्द्रव्यस्य तु विशेषणत्वेनोपसर्जनभावात् २॥ “क्षणमेकं सुखी विषयाऽऽसक्तो जीवः” इति तृतीयो भेदः, अत्र विषयासक्तजीवाख्यधर्मिणो विशेष्यत्वेन मुख्यत्वात्, सुखलक्षणधर्मस्य तु विशेषणत्वेनोपसर्जनत्वात् ३॥ इत्थं चात्र धर्मप्राधान्ये पर्यायप्राधान्यात् पर्यायार्थिकत्वमपि दुर्निवारमिति चेत्?, सत्यम्, द्रव्यपर्यायोभयग्राहित्वेऽपि नैगमस्याधिकृतवस्तुनि द्रव्यपर्यायान्यतरात्मकत्वजिज्ञासायां द्रव्यांशाप्रतिक्षेपेणैव द्रव्यार्थिकत्वनिर्धारणात्, अन्यथा सामान्यरूपस्यास्य सङ्ग्रहे विशेषरूपस्य च व्यवहारेऽन्तर्भावपक्षे व्यवहारस्यापि द्रव्यार्थिकतायाश्चिन्त्यत्वापत्तेः, निर्णीते च स्वस्वान्यविषयप्रतिक्षेपेणैव द्रव्यपर्या-
यग्राहिणोर्द्रव्यार्थिकत्व–पर्यायार्थिकत्वे निर्युक्तिभाष्यादौ। तदाह सामायिकमाश्रित्य एतच्चिन्तायां भगवान् भद्रबाहुः—(आव० नि०) “जीवो गुणपडिवन्नो, णयस्स दव्वट्ठियस्स सामइयं॥ सो चेव पञ्जवट्ठिय–नयस्स जीवस्स एस गुणो॥२६४३॥” अस्यार्थः— द्रव्यमेवार्थो यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थिकस्तस्य नयस्य मतेन, जीव आत्मा, गुणप्रतिपन्नः सामायिकम्, न तु समतागुणरूपः पर्यायः। अस्य मते गुणाः खल्वौपचारिकत्वात् “आदावन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत् तथा” इत्यादिन्यायाद् द्रव्यव्यतिरेकेण तेषामनुपलम्भाच्चासन्त एव। कथं तर्हि घटादिद्रव्ये रूपादिगुणप्रतीतिरिति चेद्?, भ्रान्तैव, चित्रे निम्नोन्नतप्रतीतिवदिति दिग्॥ स एव सामायिकादिर्गुणः, पर्याय एवार्थोयस्य न तु द्रव्यं स पर्यायार्थिकनयस्तस्य मते परमार्थतोऽस्ति, न तु जीवद्रव्यं, यस्माज्जीवस्यैष गुणो जीवगुण इति षष्ठीतत्पुरुषसमासोऽयं, स चोत्तरपदप्रधानः, यथा तैलस्य धारा तैलधारेति। न चात्र धाराऽतिरिक्तं किमपि तैलमस्ति, एवं ज्ञानादिगुणातिरिक्तं जीवद्रव्यमपि नास्तीति पर्यायार्थिकाभिप्रायः॥ अत्र भाष्यम्॥ इच्छइ जं दव्वनओ, दव्वं तच्चमुवयारओ य गुणे॥सामइयगुणविसिट्ठो, तो जीवो तस्स सामइअं॥२६४४॥ पञ्जाओच्चिय वत्थुंतच्चं दव्वंच तदुवयाराओ॥ पञ्जवणयस्सजम्हा, सामइयं तेण पञ्जाओ॥२६४५॥” प्रायः स्पष्टे॥ नवरं तदुपचारादिति तेषु पूर्वापरीभृतपर्यायेषूपचरणमुपचारः सांवृती कल्पना, ततो व्यवह्रियते, न तु परमार्थतो द्रव्यमस्तीत्यर्थः॥ एतदेव पर्यायार्थिकमतं युक्त्या समर्थयति भाष्यकृत्— “पञ्जायनयमयमिणं, पञ्जायत्थंतरं कओ दव्वं॥उवलंभव्ववहारा–भावाओ खरविसाणं व॥२६४६॥ जह रुवाइविसिट्ठो, न घडो सव्वप्पमाणविरहाओ॥ तह नाणाइविसिट्ठाे, को जीवो णामऽणक्खेओ? ॥२६४७॥” नास्ति परपरिकल्पितं द्रव्यं पर्यायेभ्योऽर्थान्तरत्वात् खरविषाणवत्। यद्वा नास्ति पर-
परिकल्पितं द्रव्यं पर्यायेभ्यो भेदेनानुपलभ्यमानत्वांद् व्यवहारेऽप्रयुज्यमानत्वाद् वा खरविषाणवदिति प्रयोगः॥ यथा वा रूप–रस–गन्ध–स्पर्शेभ्यो विशिष्टो भिन्नाेघटो नास्ति, प्रमाणैर्ग्रहणाभावात् स्वरविषाणवत्, तथाऽनाख्येयः पर्यायविरहेण सर्वोपाख्यारहितो, ज्ञानादिभ्यो विशिष्टो–व्यतिरिक्तः को नाम जीवो, नास्ति कश्चनाप्यसाविति भावः। उक्तप्रयोगेषु धर्मिदृष्टान्ताद्यसिद्धिर्नाशङ्कनीया, विकल्पसिद्धानां तेषां साम्प्रदायिकैरभ्युपगमात्। स च विकल्पोऽखण्डालीकव्यवहारनिर्वाहकाऽसत्यख्यातिरूपः, खण्डशः प्रसिद्धपदार्थयोरलीकसम्बन्धव्यवहारनियामकाहार्यशाब्दभ्रमलक्षणान्यथाख्यातिरूपो वेत्यन्यदेतत्॥ द्वितीयपक्षेऽन्यत्र सत एवान्यत्रारोप इति द्रव्यस्य सत्त्वप्रसक्तिरिति चेत्, न, सभागक्षणसन्ततिरूपद्रव्यपदार्थे पर्यायात् पृथक्त्वभ्रमोत्तरं–पर्याये तत्सम्बन्धोपचारेणापि तत्सत्त्वासिद्धेरिति दिग्॥ एतदेव पर्यायार्थिकमतं (आवश्यक) निर्युक्तिकृदपि समर्थयन्नाह— “उप्पञ्जंति वियंति य, परिणमंति य गुणा ण दव्वाइं॥ दव्वप्पभवा य गुणा, ण गुणप्पभवाइंदव्वाइं॥२६४८॥ अस्यार्थः– उत्पद्यन्ते व्ययन्ते उत्पादव्ययावच्छिन्नस्वभावेन च परिणमन्ते, द्वितीयचकारस्यैवकारार्थस्य गुणा इत्यनन्तरं सम्बन्धाद् गुणा एव पर्याया एव, न तु द्रव्याणि अतस्त एव सन्ति, पत्रनीलरक्ततादिवत्, न तु द्रव्याणि, उत्पादव्ययपरिणामरहितत्वाद् बन्ध्यासुतादिवदित्यर्थः। किञ्च द्रव्यात् प्रभवो येषां ते द्रव्यप्रभवा गुणा नेत्यत्र विश्रामः, ततो द्रव्यप्रभवा इत्यनन्तरं चकारस्याप्यर्थस्य व्यवहितसम्बन्धान्नकारस्य चाऽऽवृत्तिकरणात् नापि गुणप्रभवाणि द्रव्याणि भवन्तीत्यर्थसिद्धेर्न कारणत्वं नापि कार्यत्वं द्रव्याणामित्यसन्त्येव तानीत्युत्तरदलार्थः। अथवा द्रव्यप्रभवाश्च गुणा न भवन्ति, गुणप्रभवाणि तु द्रव्याणि भवन्ति, पूर्वापरीभावेन प्रतीत्य समुत्पादसमुत्पन्ने गुणसमुदाये द्रव्योपचारप्रवृत्तेः, तस्मात् सांवृतकार्यरूपापेक्षयाऽसांवृतकारण-
रूपस्यैवाभ्यर्हितत्वाद् गुण एव सामायिकमिति निर्युक्तिगाथार्थः॥ एतदेव भाष्यकृदाह– (विशेषावश्यकभाष्य) “उप्पायविगत(म)परिणा–मओ गुणा पत्तनीलयाइव्व॥ संति न उ दव्वमिट्ठं, तव्विरहाओ खपुप्फंव॥२६४९॥ ते जप्यभवा जं वा, तप्पभवं होञ्जहोञ्जतो दव्वं॥ णय तं ते चेय जओ, परोप्परप्पच्चयप्पभवा॥२६५०॥” एकदेशिमतमुत्थापयति– “आहाऽवक्खाणमिदं, इच्छइ दव्वमिह पञ्जवणओवि॥ किंतच्चंतविभिन्ने, मन्नइ सो दव्वपज्जाए॥२६५१॥ उप्पायाइसहावा, पञ्जाया जं च सासयं दव्वं॥ ते तप्पभवा ण तयं, तप्पभवं तेण ते भिन्ना॥२६५२॥ जीवस्स य सामइअं, पञ्जाओ तेण तं तओ भिन्नं॥इच्छइ पञ्जायणओ, वक्खाणमिणं जहत्थंति॥२६५३॥” आह कश्चिद् व्याख्यात्राभासः— ननु पर्यायार्थिकनयमते यदिदं सर्वथा द्रव्याभावव्याख्यानं भवद्भिः कृतं तदयुक्तमेव, यत इह पर्यायनयोऽपि द्रव्यमिच्छत्येव, किन्तु परस्परमत्यन्तभिन्नावेव द्रव्यपर्यायावसौ मन्यते, न पुनः कथञ्चिदेव, इत्येतावता सिद्धान्तादस्य भेद इति॥ कुतः पुनरस्य द्रव्यपर्याययोरत्यन्तं भेद इति, आह, यद् यस्मादुत्पादव्ययपरिणामस्वभावाः पर्यायाः, शाश्वतं नित्यं, पुनर्द्रव्यं, किञ्चते गुणास्तत्प्रभवा द्रव्यलब्धात्मलाभाः, न पुनस्तद्रव्यं तत्प्रभवं गुणेभ्यो लब्धात्मस्वरूपं, तेन ते द्रव्यपर्याया भिन्नाः॥ यस्माच्च जीवस्य शाश्वतस्य, तद्व्यतिरिक्तं सामायिकं पर्यायः, तेन तत् सामायिकं, ततो जीवाद्, भिन्नमत्यन्तव्यतिरिक्तं, इच्छति पर्यायनयः, अतो मदीयं व्याख्यानमिदं यथार्थंघटमानकं, पर्यायार्थिकाभिमतद्रव्यपर्यायात्यन्तभेदव्याप्यवैधर्म्यज्ञानपरतया “उप्पञ्जंति वियंति ये" त्यादिनिर्युक्तिगाथाया न्याय्यत्वादिति निर्गलितार्थः॥ एतन्मतमपाकुर्वन् स्वव्याख्यानं समर्थयन्नाह— “जइ पञ्जायनउ च्चिय, सम्मन्नइद्रोवि दव्वपञ्जाए॥ दव्वट्ठिओ किमट्ठं, जइ व मई दोवि जमभिन्ने॥२६५४॥
इच्छइ सो तेणोभय–मुभयग्गाहे वि सह पिहब्भूअं॥ मिच्छत्तमिहेगंता–देगत्तण्णत्तगाहाओ॥२६५५॥ एगत्ते नणु दव्वं, गुणोत्ति पञ्जायवयणमित्तमियं॥ तम्हा तं दव्वंवा, गुणो व दव्वाट्ठिअग्गाहो॥२६५६॥ जइभिन्नोभयगाही, पञ्जायनओ तदेगपक्खंमि॥ अविरुद्धं चेव तयं, किमओ दव्वट्ठियनएण॥२६५७॥ तम्हा किं सामहअं, हवेज्जदव्वंगुणोत्ति चिंतेयं॥ दव्वट्ठियस्स दव्वं, गुणो य तं पञ्जवणयस्स॥२६५८॥ इहरा जीवाणन्नं, दव्वनयस्सेयरस्स भिन्नं ति॥ उभयनओभयगाहे, घडेज्जणेक्केक्कगाहंमि॥२६५९॥" व्याख्या— यदि भोः, पर्यायनय एव द्रव्यपर्यायौ द्वावपि सम्मन्यते–अभ्युपगच्छति, तर्हि द्रव्यार्थिकः किमर्थं ‘द्रव्यपरिकल्पना त्वयेष्यत’ इति शेषः। पर्यायनयाभ्युपगमेनापि द्रव्यस्य सिद्धत्वादिति भावः॥ यदि चैवम्भूता मतिः स्यात् परस्य, द्वावपि द्रव्यपर्यायौ, यद् यस्माद् अभिन्नौ परस्परात्म(रमे)कत्वमापन्नौ॥ इच्छति स द्रव्यार्थिकनय इति सम्बन्धः। तेन कारणेनेदमुभयं द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयं, उभयग्राहेऽपि सतिप्रत्येकमुभयाभ्युपगमेऽपि सति, पृथग्भूतं भिन्नं, एकेनोभयोरत्यन्तमभेदाभ्युपगमादन्येन चाऽत्यन्तभेदाभ्युपगमादित्यर्थः। तथा प्रत्येकमुभयग्रहेऽप्युभयं मिथ्यात्वमेकान्तादेकान्तेन प्रत्येकमेकत्वान्यत्वग्रहात्॥ तत्रोच्यते–ननु द्रव्यपर्याययोरेकत्वे त्वदभिप्रायतो द्रव्यार्थिकेनेष्यमाणे द्रव्यं गुण इति ध्वनिद्वयमिदमेकार्थवाचकत्वादिन्द्रपुरन्दरादिध्वनिवत् पर्यायवचनमात्रमेव स्यात्, तस्मात् सामायिकं द्रव्यं वा गुणो वेति द्रव्यार्थिकनयग्रहः स्यात्, न पुनस्तद्द्रव्यमेवेति तद्ग्रहो भवेत्, न चैवमिष्यते, द्रव्यार्थिकनयमतेन द्रव्यरूपस्यैव तस्य प्रसिद्धेरिति॥ तथा, यदि भिन्नोभयग्राही पर्यायनयस्त्वयेष्यते, तदैकपक्षे एकद्रव्यांशग्रहवेलायाम्, अविरुद्धमेव तत् सामायिकं, द्रव्यत्वेनेति शेषः। अतः किं द्रव्यार्थिकनयेनोपन्यस्तेन॥
तदर्थस्यान्यत एव सिद्धेः, अनन्यलभ्यस्यैव विषयस्य नयान्तरकल्पकत्वात्॥ तस्मात् किं द्रव्यं गुणो वा सामायिकमितीयं चिन्ता प्रस्तुता, अस्यां चिन्तायामुच्यते— द्रव्यार्थिकनयस्याभिप्रायेण द्रव्यं, पर्यायार्थिकनयस्य मतेन गुणश्च, तत् सामायिकमित्येव व्याख्यानं श्रेयः॥ इतरथाऽन्यथा पुनर्द्रव्यार्थिकस्य जीवादनन्यत् सामायिकं, इतरस्य तु पर्यायार्थिकस्य, जीवाद् भिन्नं तद्, इत्येवं व्याख्यायमानं प्रागुक्तयुक्त्या, न घटेतेति शेषः॥ कथं पुनर्घटेत इत्याह— उभयनयस्योभयोर्नययोर्मिलितयोरुभयग्राहे प्रत्येकोपनीतैकैकविषय- समावेशेनाभ्युपगम्यमाने सर्वं घटेत, न त्वेकैकग्राहे, एकैकस्योभयविषयकत्वाभ्युपगमे, एवं हि मिलनस्याधिकविषयानुपनायकत्वेनानतिप्रयोजनत्वादित्यर्थः॥ स्यादेतत्, प्रत्येकमेकैकविषयत्वेऽप्युभयोर्मिलनस्य स्यात्कारलाञ्छनेन सम्यक्त्वापादनमेव प्रयोजनं तत्प्रत्येकमुभयविषयकत्वाभ्युपगमेऽपि निष्प्रत्यूहं तत्र मते स्याद्गुणविशिष्टजीव एव सामायिकम्, स्याञ्जीवगुण एव सामायिकमिति मिलिताभिलापवन्मम मते स्याञ्जीत्राभिन्नगुण एवसामायिकं स्याञ्जीवभिन्नगुण एव सामायिकमिति मिलिताभिलापस्यापि सम्भवान्, न चैवं भङ्गद्वयेऽपि द्रव्यप्राधान्याऽलाभः, स्याञ्जीवाभिन्नगुण एवेत्यादेः स्याद्गुणाभिन्नजीव एवेत्यादेरपिसमानसंवित्संवेद्यतया लाभाम्युपगमात्॥ किं च मम मते’जीवो गुणप्रतिपन्न इति निर्युक्तिप्रतीके गुणाभिन्न इत्यर्थे साम्मुख्यम्, तवमते तु गुणानामौत्प्रेक्षिकत्वेन शुक्तौ रजतारोपस्थले शुक्तौ रजतस्येव जीवे गुणानां वैज्ञानिकसम्बन्धस्यैवाभ्युपगमेन गुणनिरूपितवैज्ञानिकसम्बन्धवानित्यर्थो वाच्य इत्यसाम्मुख्यम्। ननु मम मते द्रव्यास्तिकपक्षे द्रव्यगुणपदयोरर्थाभेदेन पर्यायत्वापत्याद्रव्यं गुणो वेत्येकतरनिर्धारणानुपपत्तिः, तव मते द्रव्यार्थिकपक्षे गुणस्येव मम मते द्रव्यार्थिकपक्षे द्रव्यगुणयोरभेदस्य वास्तवत्वेऽपि गुणे द्रव्यभेदस्यौत्प्रेक्षिकस्याङ्गी-
कारेण तमादाय द्रव्यगुणपदयोः पर्यायत्वापत्त्युद्धारादिति चेत्, मैवम् सामायिके द्रव्यगुणत्वान्यतरव्याप्यशुद्धधर्मप्रकारकजिज्ञासायां तादृशविशिष्टधर्मप्रकारकबोधजनकनयशब्दप्रयोगस्यासङ्गतत्वापत्तेर्दुरुद्धरत्वात्, न हि कोऽयमिति घटजिज्ञासायां चैत्रावलोकित- मैत्रनिर्मितघटोऽयमित्यनुन्मत्तः प्रयुङ्क्ते॥ अथ सामायिकपदात् सामायिकोपस्थितौ तत्र द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक-नयान्यतरप्रकारप्रकारकज्ञानस्येष्टसाधनत्वज्ञानात्, तथैव जिज्ञासया तथैव प्रश्नात्, तथैव प्रतिवचनरूपनयशब्दप्रयोगो नानुपपन्न इति चेत्, न, वक्त्रभिप्रायरूपनयपक्षेऽन्योन्याश्रयात्। एवं सति सामायिके द्रव्यपर्यायात्मकत्वस्याद्वादान् तत्कुक्षिप्रविष्टतद्भेदाभेदस्याद्वादस्यान-तिरिक्तत्वप्रसङ्गाच्च। न चेष्टापत्तिः, तत्र द्रव्यपर्यायात्मकत्वस्याद्वादसिद्धावपि तद्भेदाभेदस्याद्वादोत्थापनमूलाकाङ्क्षाव्युपरमाऽभावादिति दिग्॥ अथ यदुक्तं— “सो चेव पञ्जवट्ठिय–नयस्स जीवस्स एस गुणो त्ति”। एतदवष्टभ्य परः प्राह—“नणु भणियं पञ्जाय-ट्ठियस्स जीवस्सएसहि गुणोत्ति॥ छट्ठीए तओ दव्वं, सो तं च गुणो तओ भिन्नो॥२६६०॥” व्या०ननु सो चेवेत्यादिनिर्युक्तिगाथोत्तरार्धे भणितं पर्यायार्थिकनयमतेन जीवस्यैष सामायिकलक्षणो, गुण इति। हि–र्यस्मात्, षष्ठ्या षष्ठीनिर्देशादवसीयते, ततः स जीवो, द्रव्यं तच्च सामायिकं, गुणः स च सामायिकगुणः, ततो, जीवद्रव्याद्, भिन्न इति पर्यायनयमते भिन्नद्रव्यपर्यायोभयसद्भावस्य श्रौतत्वान्मदीयमेव व्याख्यानं श्रेय इति परस्याकूतम्॥ अत्रोत्तरमाह—“उप्पायभंगुराणं, पइक्खणं जो गुणाण संताणो॥दव्वाेवयारमेत्तं, जइ कीरइ तम्मि तन्नाम॥२६६१॥ तब्मेयकप्पणाओ, तं तस्स गुणोत्ति होउ सामइयं॥पत्तस्स नीलया जह, तस्संताणोदियत्थमिया॥२६६२॥” व्या० ननु पर्यायार्थिकमते वास्तवं द्रव्यं त्वयेष्यते कल्पितं वा, यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तो ‘जइ पञ्जायनओच्चिये’ (गाथा २६५४) त्यादिनोक्तोत्तर-
त्वात्। अथ द्वितीयः, तत्रोच्यते– उत्पादभङ्गुराणां प्रतिक्षणमुत्पादव्ययगुणयोगिनं, गुणानां यः संन्तानः समागसन्ततावनवरतप्रवृत्तिस्तस्मिन् यदि समानबुद्ध्यभिधानहेतुत्वेन निबन्धनेन द्रव्योपचारमात्रं क्रियते षष्ठीवादिना भवता, तदा तन्नाम नामेत्यभ्युपगमे मन्यामहे तदित्यर्थः, न हि कल्पितद्रव्यसद्भावो वास्तवंद्रव्याभावं विरुणद्धि, ततश्च तद्भेदकल्पनात्तेन कल्पितद्रव्येणसह भेदकल्पनात्, तत् सामायिकं, तस्य कल्पितजीवद्रव्यस्य गुणो भवतु, को निवारयिता?, यथा पत्रस्य गुणसमुदायव्यतिरिक्तस्य कल्पितस्य, तत्सन्ताने तस्मिन्नेव उदितोत्पन्ना, अस्तमिता च विनष्टा, नीलता गुणो व्यवह्रियते, तथा प्रकृतकल्पनायामपि व्यवहर्तृृणां न बाधकम्। आशूत्पत्तिदोषेणक्षणिकगुणसन्ताने भेदाऽग्रहादभेदेनाऽध्यवसिते तत्र द्रव्यप्रवृत्तेरित्यर्थः। न च वक्तव्यं’देवदत्तस्य गावः’ इत्यादौ वास्तवएव सम्बन्धिद्वये षष्ठीदर्शनान्नोत्कोपपत्तिरिति, ‘राहोःशिरः, शिलापुत्रकस्य शरीरम्’ इत्यादिभिर्व्यभिचारात्॥ ननु गुणसन्तानयोर्घटतत्स्वरूपवद् भेदकल्पनैव न सम्भवति, तन्निबन्धनधर्माभावात्, षष्ठी चाभेदार्थिकैव, घटस्य स्वरूपमित्यत्रेव। न चैवं घटस्य स्वरूपमितिवद् घटस्य घट इति प्रयोगापत्तिः, ‘अप्रयोगादेवाप्रयोग’ इतिन्यायेन तदनापत्तेः। समानविशेष्यत्वप्रत्यासत्त्याघटादिनिरूपितषष्ट्यर्थाभेदप्रकारकशाब्दबोधे स्वरूपादिपदजन्यपदार्थोपस्थितेर्हेतुत्वान्न तदापत्तिरितिन्यायमार्गः। तथा च कथं कल्पितस्यापि गुणव्यतिरेकिणो द्रव्यस्य सद्भावइत्याशङ्कायां भेदकल्पनानिबन्धनंधर्मभेदमुपदिदर्शयिषुराह— “उप्पायभङ्गुरा जं, गुणा य न य सोत्ति ते य तप्पभवा॥ न य सो तप्पभवोत्ति य, जुञ्जइ तं तदुवयाराओ॥२६६३॥” व्या०यत्– यस्माद्, उत्पादभङ्गुरा गुणाः, न चासौ सन्तान उत्पादभङ्गुरः, तस्य प्रवाहनित्यतया स्थितत्वादित्येको गुणसन्तानयोर्धर्मभेदः, तथा, ते समायिकादयो नीलता-
दयो वा गुणाः, तत्रैव सन्ताने प्रभवः उत्पत्तिर्येषांते तथा, न पुनरसौसन्तानः, तत्प्रभवो गुणेभ्यो लब्घात्मलाभः, तस्य गुणसादृस्यनिबन्धनत्वात् , तथा च कारणमेव सन्तानः, न कार्यं, कार्यमेव च गुणाः, न कारणमित्येष द्वितीयो गुणसन्तानयोर्धर्मभेदः, इति युज्यते तज्जीवद्रव्यं, तदुपचारात्तत्र गुणसन्ताने गुणेभ्यो भेदकल्पनात्॥ तदेवंपर्यायार्थिकनयमतं युक्तितः समर्थितम्॥ अथ द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायंदिदर्शयिषुराह— “बीयस्स दव्वमेत्तं, णत्थि तदत्थंतरं गुणो णाम॥ सामन्नावत्थाणा-ऽभावाओ खरविसाणं व॥२६६५॥ आविब्भावतिरोभा-वमेत्तपरिणामिदव्वमेवेयम्॥ णित्थंबहुरूवं चिय, णडोव्ववेसंतरावण्णो॥२६६६॥”व्या० द्वितीयस्य द्रव्यार्थिकनयस्य सर्वंसुवर्णरजतादिकंद्रव्यमात्रमेवास्ति, गुणस्तु रक्तत्वश्वेतत्वादिकस्तदर्थान्तरभूतो नास्ति, तस्य सामान्यरूपतयाऽवस्थानाभावात् स्वरविषाणवत्, तथाहि आविर्भावः कुण्डलादिरूपेणाभिव्यक्तिः, तिरोभावश्च मुद्रिकादिरुपेणानभिव्यक्तिः, तावेव तन्मात्रं, तेन परिणन्तुं-प्रवर्तितुं शीलं यस्यतत् तथा। द्रव्यमेवेदं सुवर्णादिकमस्ति, न तु तदतिरिक्ता गुणाः। किम्भूतं द्रव्यम्?, नित्यम–अविचलितखभावं, बहुरूपंच कङ्कणा–ऽङ्गद–कुण्डल–मुद्रिकादिबहुपरिणामं, राम–रावण–भीमा–ऽर्जुनादिसम्बन्धीनि बेषान्तराण्यापन्नो नट इव॥ द्रव्यार्थिकस्य समर्थनार्थंनिर्युक्तिकृदप्याह— “जं जंजे जे भावे, परिणमइ पओगवीससादव्वं॥ तेतह जाणाइजिणो, अपञ्जवे जाणणा णत्थि॥२६६७॥” व्या० पओगवीससत्ति लुप्तविभक्तिको निर्देशः, प्रयोगः ‘चेतनावतो व्यापारः’, विस्रसा ‘स्वभावः’, ताभ्यां यान् यान् भावान् कृष्णत्व–रक्तत्व–पीतत्व–शुल्कत्वादीन्, यद् यद् द्रव्यं घटा–ऽभ्रधनुरादि, परिणमति–आत्मसात् कुरुते। प्रयोगविस्रसाद्रव्यमित्येकसमासस्वीकारे तु प्रयोगविस्रसानिष्पन्नद्रव्यमित्यर्थे द्रव्यपदस्य
व्यक्तिवचनत्वेन तदुभयनिष्पन्नमिश्रद्रव्यस्यैव सङ्ग्रहः स्यात्, न प्रायोगिकवैस्रसिका (कयोः) जातिवचनत्वे च जातेरनिष्पन्नत्वेन बाधइत्यालोच्य प्रयोगविस्रसाभ्यामिति व्याख्यातम्। तथा च यान् यान् भावानिति कर्मवीप्सामहिम्नावामदक्षिणहस्ताभ्यां यं यं गृह्णातीत्यत्रेव प्रत्येककरणान्वयतात्पर्यान्नानुपपत्तिरिति ध्येयम्। तंतहत्ति वीप्साप्रधानत्वान्निर्देशस्य तत्तत्तथातथा तेन तेन रूपेण परिणमद्द्रव्यमेव, जानाति जिनः केवली, न पुनस्तदतिरिक्तान् पर्यायानिति भावः, तेषामुत्प्रेक्षामात्रेणैव सत्वात्। न ह्युत्फणविफणकुण्डलिताद्यदवस्थासु सर्पादिद्रव्यस्य स्वरूपव्यतिरिक्तः कोऽपि पर्यायः, सर्वावस्थाऽविचलितस्वरूपस्य सर्पादिद्रव्यस्यैव संलक्षणात्। यदि पर्याया न विद्यन्ते तदा कथमुच्यतेयान् यान्भावान् परिणमत इत्यत आह—अपर्याये–पर्यायरहिते वस्तुनि, ‘जाणण’ त्ति केवल्यादीनां परिज्ञा, नास्ति, ज्ञानविषयतयोत्प्रेक्षामात्रेणैव तत्पर्यायाः सन्ति, न तु द्रव्यव्यतिरेकिणः, अतो द्रव्यान्यसत्त्वाभावादसन्त एव पर्यायाः, द्रव्यमेव च परमार्थसदित्यर्थः॥
ननु द्रव्यान्यसत्त्वाभावाद्यदि पर्यायाणामसत्त्वंतदा द्रव्यस्याप्यसत्त्वंस्यात्, न हि द्रव्येऽपि द्रव्यान्यसत्ता द्रव्यार्थिकेनाभ्युपगम्यते, किन्तु द्रव्यात्मिकैव, कालवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपमसत्त्वंतु परिभाष्यमाणमपि न मौलं सत्त्वंविरूणद्धीति चेत्, न। अविचलितैकस्वभावत्वेन सत्सदिति व्यवहारविषयतया द्रव्यमेव हि मौलं सत्त्वं, तदभावाच्चपर्यायाणामसत्त्वमित्यर्थात्, तर्ह्यसत्यपर्यायांशेतदवगाहिकेवलज्ञानस्य भ्रान्तत्वं स्यादिति चेत्, न, तदुपहितद्रव्यस्यैव तेन ग्रहणाभ्युपगमेन तदंशेऽभ्रान्तत्वात्। न चोपहितानुपहितभेदेऽपि द्रव्यभेदापत्तिः, घटपटाकाशाभेदवत् तदभावात्, न चासतोऽनुपधायकत्वं, प्रतिसूर्यस्य जलोपधायकृत्ववदविरोधात्, केवलिना केवलज्ञानोपयोगे प्राधान्येनाऽबिषयीक्रियमाण-
त्वमेव वा द्रव्यार्थिकमते पर्यायाणामसत्त्वम्, न चेदं परिभाषामात्रं, निश्चयतः केवलज्ञानस्यैव पदार्थसत्तायां प्रमाणत्वात्। छाद्मस्थिकज्ञानानां संवादादिना व्यवहारत एव प्रमाण्याभिमानादिति दिग्॥ उक्तमेव प्रकृतगाथार्थंभाष्यकृद्विवृणोति— “जं जाहे जं भावं, परिणमइतयं तयातओणन्नं॥ परिणइमेत्तविसिट्ठं, दव्वं चिय जाणइजिर्णिदो॥२६६८॥” व्या०इह यद् घटेन्द्रधनुरादिद्रव्यं, यदा–यस्मिन् काले, यं रक्त–श्वेतादिकं, भावं परिणमति तत् तदा ततः पर्यायादनन्यद्द्रव्यमेव, परिणतिमात्रविशिष्टं वस्तुतोऽविचलितस्वभावं जानाति॥ कुण्डलादिकमिव संस्थानविशेषविशिष्टंसुवर्णं कुण्डलादिपर्यायासत्त्वेकथं तद्व्यपदेश इति जिज्ञासायामाह—“न सुवन्नादन्नं कुं–डलाइतं चेव तं तमागारं। पत्तं तव्ववएसं, लहइसरुवादभिन्नंपि॥२६६९॥” व्या०न सुवर्णादन्यत् कुण्डलादिकमभ्युपगच्छामः, किन्तु तदेव सुवर्णमेव, तं तं कुण्डलादिरूपं, आकारंप्राप्तं तद्व्यपदेशं कुण्डलादिव्यपदेशं लभते, स्वरूपात्पूर्वावस्थाभाविन उत्तरावस्थायां, अभिन्नमपि तत्तद्विशिष्टाकारनिबन्धनत्वान्न निर्निबन्धनस्तद्व्यपदेशः, न च विशिष्टभेदः शुद्धाभेदप्रतिबन्धीति भावः॥ एवमपि यदि गुणानामन्यत्वमिष्यते तत्राह— “जइवा दव्वादन्ने, गुणादओ नूणसप्पएसत्तं॥ होञ्जव रुवाईणं, विभिन्नदेसोवलंभोवि॥२६७०॥“व्या०यदि पुनर्द्रव्याद्रूपादयो गुणा आदिशब्दान्नवपुराणादयश्च पर्यायाः,अन्ये व्यतिरेकिण इष्यन्ते, तदा
नूनं
निश्चितंगुणादीनांस्वप्रदेशत्वमापद्यते, द्रव्यप्रदेशाहि गुणादय इष्यन्ते, द्रव्यभेदाभ्युपगमे च तेषामनन्यशरणानां स्वप्रदेशत्वमेव स्यात्, न चैतदृृष्टमिष्टं वा, गुणादीनांसदैव पारतन्त्र्येण परप्रदेशत्वस्यैव न्याय्यत्वात्। किं चैवं रूपदीनां विभिन्नदेशोपलम्भोऽपि स्यात्, ‘यद् यतो भिन्नं तत्ततो भिन्नदेश
उपलभ्यत ’ इतिव्याप्तेः, उपष्टम्भकभागेन व्यभिचार इति चेत्, न, परिणामाभेदवादे तस्यापीतरभागाभिन्नत्वादिति भावः॥ अथोपचारतो यदि पर्याया अप्यभ्युपगम्यन्ते तदा सिद्धसाध्यतेति दर्शयन्नाह— “जह पञ्जावोवयारो, लय–प्पयासपरिणाममित्तस्स॥ कीरइ तन्नाम ण सो, दव्वादत्थंतरब्भूओ॥२६७१॥” व्या० लयस्तिरोभावो दर्शनायोग्यं रूपमिति यावत्, प्रकाश आविर्भावो दर्शनयोग्यं रूपमिति यावत्, ताभ्यां यः परिणामः स एव तन्मात्रं, तत्र यदि तत्तद्विशेषबुद्ध्यभिधाननिमित्तत्वेन पर्यायोपचारः क्रियते तन्नाम मन्यामहे तदित्यर्थः, केवलं नासौ पर्यायो वास्तवः कोऽपि द्रव्यादर्थान्तरभूत इत्येतदेव भुजमुत्क्षिप्य ब्रूमः॥ ननु यदि न वास्तवः पर्यायः किन्तु कल्पितस्तदा खरशृङ्गस्याप्यसौ कुतो न भवति? कल्पनामात्रस्य तत्रापि सुकरत्वादित्यत आह—“दव्वपरिणाममित्तं, पञ्जाओ सो य ण स्वरसिंगस्य॥ तदपज्जवं ण णज्जइ, जं नाणं णेयविसयंति॥२६७२॥” व्या० कालविशेषादिविशिष्टो द्रव्यपरिणाम एव द्रव्यपरिणाममात्रं पर्यायो नान्यः। स च न द्रव्याद् भिन्नः, तथाऽनुपलम्भात्, नाप्यसौ खरशृङ्गस्य, द्रव्यपरिणामत्वात्पर्यायस्य, स्वरविषाणस्य चाद्रव्यत्वात्, अत एव तत्खरशृङ्गं, अपर्यवमित्यद्रव्यं सन्न ज्ञायते केवलिना। यतो ज्ञानं ज्ञेयविषयं ज्ञेयं च न खरगृङ्गम्, अपर्यवत्वेनाद्रव्यत्वात्, अत एवोक्तं निर्युक्तिकृता ‘अपञ्जवे जाणणा णत्थि’ त्ति। ज्ञेयत्वाभावव्याप्याद्रव्यत्वव्याप्यधर्मप्रदर्शनपरमेतत्, पर्यायनये उत्पादव्ययभागित्वमेव सत्वं, द्रव्यनयेऽविचलितैकस्वभावत्वं, सिद्धान्ते तु त्रैलक्षण्यमिति सिद्धान्तमाश्रित्य ततोऽपर्याये परिज्ञा नास्ति तस्मादुभयात्मकं वस्तु, केवलिना तथाऽवगतत्वादिति हरिभद्राचार्या निगमयामासुः॥ तदेवं द्रव्यार्थिकः पर्यायं प्रतिक्षिपति पर्यायर्थिकस्तु द्रव्यमिति द्रव्यांशप्रतिक्षेपान्नैगमो द्रव्यार्थिक इति व्यवस्थितम्॥ न च तथा तञ्जातीयेन पर्या-
याप्रतिक्षेपात्पर्यायार्थिकत्वमपि स्यादिति वाच्यम्, ‘यञ्जात्यवच्छेदेन द्रव्याप्रतिक्षेपित्वं तज्जातीयस्य तन्नयत्वम्’ इत्येवं परिभाषणात्॥ वस्तुतः क्षणिकत्वादिविशेषणशुद्धपर्यायं नैगमो नाभ्युपगच्छत्येव। किञ्चित्कालस्थाय्यशुद्धतदभ्युपगमस्तु सत्तामहासामान्यरूपद्रव्यांशस्य घटादिसत्तारूपविशेषप्रस्तारमूलतयाऽशुद्धद्रव्याभ्युपगम एव पर्यवस्यतीति न पर्यायार्थत्वं तस्य, अत एव सामान्यविशेषविषयभेदेन सङ्ग्रहव्यवहारयोरेवान्तर्भावेन शुद्धाशुद्धद्रव्यास्तिकोऽयमिष्यत इति॥ “दव्वट्ठियनयपयडी, सुद्धा संगहपरूवणाविसओ॥ पडिरूवे पुण वयण-त्थणिच्छओ तस्स ववहारो॥४॥” (कांड १)त्ति सम्मतिगाथायां पृथग् नोदाहृतः। अस्या अर्थः “द्रव्यास्तिकनयस्य प्रकृतिः स्वभावः, शुद्धा विशेषासंस्पर्शवती, संग्रहस्याभेदग्राहिनयस्य, या प्ररूपणा प्ररूप्यतेऽनयेति कृत्वाऽभिधायकपदसंहतिस्तस्या विषयः, उपचारात्तदेकविषयेत्यर्थः। प्रतिरूपं प्रतिबिम्बं घटादिनाऽशुद्धद्रव्येण सङ्कीर्णा सत्तेतियावत्। तत्र, पुनस्तस्य द्रव्यास्तिकस्य, यो वचनार्थनिश्चयो निवृत्तिप्रवृत्त्युपेक्षालक्षणव्यवहारसम्पादकशब्दार्थनिर्णयः, स व्यवहारः, प्रतिरूपं सङ्कीर्णा सत्ता, पुनःशब्देन प्रकृतिः स्मार्यते, वचनं व्यवहारसम्पादकः शब्दः, घट इति विभक्तरूपतयाऽस्तीत्यविभक्तात्मतया प्रतीयमानस्तदर्थः, तस्य निर्गतः पृथग्भूतः, चयः परिच्छेदः, तथा च तस्य द्रव्यार्थिकस्य सङ्कीर्णसत्ताप्रकृतिर्वचनार्थनिश्चयो व्यवहार” इति टीकानुगतार्थः॥ अत्र नैगमो न पृथग् जगृहे सङ्ग्रहव्यवहारविषयातिरिक्ततद्विषयासिद्धेरिति। येषां तु मते पृथक् नैगमनयो विद्यते ते प्रतिपत्तृभेदान्नानातदभिप्रायं वर्णयन्ति। यतः केचिदाहुः “पुरुष एवेदं सर्वं” इत्यादि। यदाश्रित्योक्तं— “ऊर्ध्वमूलमधःशाख-मश्वत्थं प्राहुरव्ययम्॥ छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं वेद स वेदवित्॥” (गीता अ० १५) पुरुषोऽप्येकत्वनानात्वभेदात्कैश्चिदभ्युपगतो द्वेधा। नानात्वेऽपि
तस्य कर्तृत्वाकर्तृत्वभेदः परैराश्रितः, कर्तृत्वेऽपि सर्वगतेतरभेदः। असर्वगतत्वेऽपि शरीरव्याप्त्यव्याप्तिभ्यां भेदः। व्यापित्वेऽपि मूर्तेतरविकल्पाद् भेद एव॥ अपरैस्तु प्रधानकारणकं जगदभ्युपगतम्, तत्रापि कैश्चित्सेश्वरनिरीश्वरभेदोऽभ्युपगतः, अन्यैस्तु परमाणुप्रभवमभ्युपगतं जगत्। तत्रापि सेश्वरनिरीश्वरभेदाद् भेदोऽभ्युपगत एव। सेश्वरपक्षेऽपि स्वकृतकर्मसापेक्षत्वानपेक्षत्वाभ्यां तदवस्थ एव भेदाभ्युपगमः। कैश्चित्स्वभावकालयदृच्छादिवादाः समाश्रिताः तेष्वपि सापेक्षत्वानपेक्षत्वाभ्युपगमाद् भेदव्यवस्थाऽभ्युपगतैव॥ तथा कारणं नित्यं कार्यमनित्यमित्यपि द्वैतं कैश्चिदभ्युपगतम्। तत्रापि कार्यं स्वरूपं नियमेन त्यजति न वा इत्ययमपि भेदाभ्युपगमः। एवं मूर्तैरेव मूर्तंमारभ्यते, अमूर्तैरमूर्तंमूर्तैर-मूर्तम्, अमूर्तैर्मूर्तं इत्याद्यनेकधा निगमार्थः संमतिवृत्तौ व्यवस्थितः॥ एतन्नयमालम्ब्य वैशेषिकदर्शनं प्रवृत्तं, तन्मते “द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाख्याः षडेव पदार्थाः” तत्र द्रव्याणि पृथिव्यादीनि नवैव, गुणा रूपादयश्चतुर्विंशतिरेव, कर्मोत्क्षेपणादि पञ्चविधमेव, सामान्यं परम्, अपरम्, परापरं चेति त्रिविधं, विशेषो नित्यद्रव्यवृत्तयोऽनन्ता एव, समवायस्त्वेक एवेत्यादि निरपेक्षतया सामान्यविशेषाभ्यां बहुधा प्रपञ्चितं, तच्चायुक्तम्। नव द्रव्याणि चतुर्विंशतिर्गुणा इत्यादि–स्ववचनानुराेधेनैव संख्याया अतिरिक्तत्वात्, न च द्रव्य–गुणादिषु संख्याप्रतीतौ सम्बन्धांशेऽपि बैलक्षण्यमनुभूयते, येन द्रव्ये समवायेन तत्प्रतीतिर्गुणादौ तु संयुक्त [स्वाश्रय] समवायादिनेति वक्तुं शक्यते। किञ्च शक्तिरप्यतिरिच्यते मण्यादिसमवहितेन वह्निना दाहवारणाय मण्यादिसमवधानेन कुण्ठनीयाया नाश्याया वा दाहानुकूलाया वह्निनिष्ठायाः शक्तेः स्वीकार्यत्वात्। न चोत्तेजकाभावविशिष्टमण्याद्यभावस्यैव दाहहेतुत्वेन तत्र दाहवारणा–
च्छक्तिकल्पनावैयर्थ्यं। न चैवं गौरवं, तत्रांपि तदभावस्य शक्त्यादिहेतुत्वस्वीकाराद्, वस्तुतो रूपादिध्वंसात्मकदाहे तद्धेतुत्वे गौरवान्मण्यादियुक्ते तृणादौ वह्न्याद्युत्पत्तेर्वारणीयाच्च विजातीयवह्नावेवोत्तेजकाभावविशिष्टमण्याद्यभावो हेतुः स्वजन्यवह्नेरेव स्वस्मिन् दाहजनकत्वान्मण्यादियुक्ते न दाह इति वाच्यम्, अपरिदृश्यमानानुद्भूतरूपविलक्षणवह्नेस्तञ्जनकाऽदृष्टविशेषादेश्च कल्पनायां गौरवाद्दाहजनकशक्तिकल्पनाया एव न्याय्यत्वात् मण्यादिसमवधानापगमानन्तरं शक्त्युत्पत्तिस्त्वप्रतिबद्धस्वकारणादेवेत्याकरे व्यवस्थितम्॥ अप्रतिबद्धत्वं च मण्यादिसमवधानापगमकालविशेषविशिष्टत्वं कालविशेषस्य सम्बन्घघटकत्वं च यथा त्वयाऽभावीयविशेषणताविशेषादौ वाच्यं तथाऽस्माभिः कारणपरिणामविशेष इति युक्तमुत्पश्यामः॥ किञ्च तृणादिजन्यवह्नौ वैजात्यस्यानानुभविकत्वात्तज्जन्यतावच्छेदकवैजात्यत्रयादिकल्पनातस्तृणादौ जनकतावच्छेदकैकशक्तिकल्पनैव लघीयसी। तृणनिर्मथनादितो वह्नयनुत्पादस्तु तृणफूत्कारादिसमवधानस्याप्येकशक्तिमत्वेन हेतुत्वात्, किञ्च व्रीह्यादिजनननियामकोऽपि शक्तिविशेषोऽवश्यं कल्पनीयः। अन्यथा व्रीहिवापे व्रीह्यादीनामापरमाण्वन्तभङ्गे व्रीह्यारम्भकपरमाणुभिर्व्रीहय एव जन्यन्त इति नियमो न स्यात्, तैरपि कदाचिद्यवारम्भात्। न च पाकजविलक्षणरूपरसादिविशिष्टपरमाणूनां यवाद्यारम्भकत्वान्नोक्तनियमानुपपत्तिः, यत्र पाकजा न विशेषास्तत्र जलादौ क्वचिदुद्भूतं रूपादिकं क्वचिन्नेत्यत्र नियामकाभावात्तदनुकूलशक्तेरवश्यं स्वीकार्यत्वात्, न च तव शक्तिविशेषप्रयोजनकाददृष्टविशेषादेवोद्भूतरूपादिसम्भवः। परिणामवादे तथा तथा परिणतस्वकारणादेव शक्त्युत्पत्तेरभ्युपगमात्तत्रादृष्टविशेषहेतुत्वाकल्पनात्। न चादृष्टे पापपुण्यरूपे साङ्कर्यादनुगतविशेषसम्भवः। न चावयवोद्भूतरूपादिकमेवावयव्युद्भूतरूपादिजनकमिति नोक्तनियमानुपपत्तिः,
योग्यायोग्यजलारम्भकपरमाणु भेदाभ्युपगमे गौरवाद्वाय्वाद्याकृष्टसुरभिभागाद्यारब्धतायाश्चम्पकादावनुपपत्तेश्च। न चेष्टापत्तिः। एवं सति गृह्यमाणकर्पूरादिभागानां कर्पूराद्यनारम्भकाणामपगमाभ्युपगमे कर्पूरादेर्वाय्वादिनाऽप्रक्षयप्रसङ्गादिति दिग्॥ वैशिष्ट्यमप्यतिरिच्यते, जलादौ वह्न्याद्यभावप्रमायाः सम्बन्धनियतत्वादभावस्य संयोगादिबाधादतिरिक्तसम्बन्धसिद्धेः। न च स्वरूपसम्बन्धेनैव तत्प्रमासम्भवान्नवैशिष्ट्यसिद्धिरतिरिक्तवैशिष्ट्यप्रमायामपि तथैव वाच्यत्वादिति वाच्यम्। समवायोच्छेदप्रसङ्गात्। न च गुणगुण्यादिस्वरूपद्वये सम्बन्धत्वमतिरिक्तसमवाये वेत्यत्र विनिगमकाभावेनापि तत्सिद्धिः, न चैवं प्रकृते, अभावस्यानुगतत्वेन तस्यैव सम्बन्धत्वादिति वाच्यम्, एवमपि जातिव्यक्तिस्थले समवायोच्छेदप्रसङ्गात्। न च समवायेन जन्यभावत्व संयोगत्वाद्यवच्छिन्ने द्रव्यत्वादिना हेतुत्वात् समवायसिद्धिः, न च स्वरूपेण तत्सम्भवः, स्वरूपाणामानन्त्येनगौरवात्कालिकादिस्वरूपेण स्पन्दादेरपि जन्यभाववत्वाच्चेति वाच्यम्। तथापि कालिकविशेषणतादिभिन्नपदार्थमात्राधारतानियामकसम्बन्धस्यैव सिद्धौ तस्यैव वैशिष्ट्यभिधानत्वात्तेन जन्यभावादेः कार्यत्वोक्तौ दोषाभावात्। न च प्रतियोगितया घटादिसमवेतनाशे स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन घटादिनाशस्य हेतुत्वात् समवायसिद्धिः, स्वप्रतियाेगिवृत्तित्वेन हेतुत्वे घटादिवृत्तिध्वंसध्वंसापत्तेरिति वाच्यम्। तवापि जात्यादौ तदापत्तेर्महाप्रलयावृत्तित्वेन सच्चेन वा प्रतियोगिनो हेतुत्वधौव्ये ममापि ध्वंसे तदनापत्तेः। न च स्वप्रतियोगिसमवायिकारणत्वेन कालावच्छिन्न स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन वा नाशक-त्वस्वीकारान्मम न जात्यादौ तदापत्तिरिति वाच्यम्। सम्बन्धमध्ये समवायिकारणत्व कालावच्छिन्नत्वप्रवेशापेक्षया लाघवात्सत्त्वनिवेशस्यैवौचित्येन मत्पक्ष एव दोषाभावात्। न च घटादिसमवेतनाशमात्रे न घटादिनाशो हेतुः, घटादिकालीन तद्वृत्ति-
क्रियासंयोगविभागवेगद्वित्वादिनाशे व्यभिचारात्ं, किन्तु प्रतियोगितया स्वप्रतियोगिसमवेतत्वस्वाधिकरणत्वोभयसम्बन्धेन नाशवन्नाशत्वावच्छिन्न एव स्वप्रतियोगिसमवेतत्वेन नाशत्वावच्छिन्नस्य हेतुत्वान्न जात्यादेर्नाशापत्तिः, परस्य तु ध्वंसध्वंसापत्तिर्दुर्वारेति वाच्यम्। स्वाधिकरणत्वस्थाने कालिकसम्बन्धेन स्ववृत्तित्वस्य सम्बन्धमध्यनिवेशे दोषाभावात्प्रतियोगिनो विशिष्य हेतुत्वेन ध्वंसध्वंसानापत्तेश्च। किञ्च रूपाभावान्यमहद्वृत्तिचाक्षुषे चक्षुःसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवद्वैशिष्ट्यस्य हेतुत्वात्तत्सिद्धिः। न चैवमपि महत्त्वाभावरूपाभावयोश्चाक्षुषे कार्यकारणभावद्वयान्तरावश्यकत्वे रूपाभावान्यद्रव्यवृत्यभावचाक्षुषे चक्षुःसंयुक्तोद्भूतरूपवद्विशेषणता महत्त्वाभावान्यद्रव्यवृत्यभाव चाक्षुषे चक्षुःसंयुक्त महत्ववद्विशेषणता, महत्समवेतचाक्षुषे चक्षुःसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवत्समवायो हेतुरिति कल्पनाया एव युक्तत्वमिति वाच्यम्। कार्यतावच्छेदके चरमाभावत्वाप्रवेशे द्वितीये च द्रव्यभेदप्रवेशे प्रथमद्वितीयाभ्यामेव निर्वाहेन तृतीयकार्यकारणभावाकल्पनेन वैशिष्ट्यवादिनो लाघवात्। न चैवं तवपार्थिवाणुघ्राणमात्रेन्द्रियसन्निकर्षे पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षतापत्तिः, तवापि तन्मात्रसन्निकर्षाज्जलत्वाभावादिप्रत्यक्षतापत्तेः। एतद्भिया च त्वया रूपाभावप्रत्यक्षे चक्षुः संयुक्तमहत्त्ववद्विशेषणता, महत्त्वाभावचाक्षुषे चक्षुःसंयुक्तोद्भूतरूपवद्विशेषणता, रूपमहत्ववद्वृत्ते रूपाभावमहत्त्वाभावभिन्नस्याऽभावस्य चाक्षुपे चक्षुःसंयुक्तमहदुद्भूतरूपवद्विशेषणता हेतुरित्यभावप्रत्यक्ष एव त्रयं वाच्यम्। भात्रप्रत्यक्षे चान्यत्। तथा च तृतीये कार्यतावच्छेदकेऽभावत्वाप्रवेशे भावप्रत्यक्षेऽपि वैशिष्ट्यवादिनो निर्वाहः॥ एवंच चक्षुःसंयुक्तसमवायादेरप्य स्वीकाराल्लाघवमिति चक्षुरप्राप्यकारित्वे द्रव्यचाक्षुपेऽपि चक्षुराभिमुख्यमेव नियामकमिति गुणादिचाक्षुषेऽपि तदेव नियामकं युक्तमिति सन्निकर्षमात्रान्यथासिद्धिकारकं तदप्यतिरिच्यत इति मदेकपरिशीलितो
लतादिविदितः पन्थाः॥ द्रव्यजात्यन्यचाक्षुषे महदुद्भूतरूपवद्भिन्नसमवेतत्वेन प्रतिबन्धकत्वात्समवायसिद्धिरित्यन्ये। जात्यन्यत्वस्थाने नित्यान्यत्वनिवेशान्नेदं युक्तमित्यपरे। द्रव्यजात्यन्यत्वस्थाने द्रव्यान्यसत्त्वनिवेशेऽपि न क्षतिरित्यपि बोध्यम्॥
सादृश्यमप्यतिरिच्यते तद्भिन्नत्वे सति तद्वृत्तिधर्मत्वेन तद्बुद्धेरनुपपत्तेरुत्कर्षापकर्षादिवत्तस्य वैलक्षण्येनैवानुभवात्॥ कारणत्वमप्यतिरिच्यते अनन्यथासिद्धत्वे सति नियतपूर्ववर्त्तिताया अतत्त्वात्॥ तथाहि, अनन्यथासिद्धत्वमन्यथासिद्धभिन्नत्वम्॥ अन्यथासिद्धं च पञ्चविधम्। तत्र ‘येन सहैव यस्य यं प्रति पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तदाद्यं’, यथा दण्डादिना सहैव दण्डरूपादेर्घटादिकं प्रति पूर्ववर्तित्व ग्रहाद्दण्डरूपादिकं, दण्डादिनात्र साहित्यं पूर्ववर्तित्वग्रहे विशेष्यतावच्छेदकत्वं, रूपादावेव पूर्ववर्तित्वग्रहाद्विशेष्यत्वमित्यन्ये॥ अत्र येन पृथगन्वयव्यतिरेकवता यस्य तद्रहितस्येति वाच्यम्। तेन दण्डत्वादिना दण्डादेर्नान्यथासिद्धिः, न वा दण्डसंयोगादेर्दण्डादिना, सत्यपि दण्डादौ विना तत्संयोगादिकं कार्यव्यतिरेकात्तस्य पृथगन्वयादिमत्त्वात्॥ न चैवं दण्डादेरपि पृथगन्वयादिमत्त्वादेव न दण्डत्वादिनाऽन्यथासिद्धिरिति, येन पृथगन्वयादिमतेति व्यर्थम्॥ स्वाश्रयसंयोगेन सति दण्डत्वादौ दण्डादिव्यतिरेकासिद्धेर्दण्डादेरतथात्वात्॥ न चैवं सति दण्डसंयोगादौ दण्डादिव्यतिरेकाद् घटादिव्यतिरेकासिद्धेर्दण्डादेः पृथगन्वयाद्यभावात् येन पृथगन्वयादिमतेत्यत एव दण्डसंयोगादेरनन्यथासिद्धौ तद्रहितस्येति व्यर्थमिति वाच्यम्। चक्षुःकपालादिना तत्संयोगान्यथासिद्धिवारणार्थं तदुपादानात्, तत्संयोगे सत्यपि चक्षुः– कपालादिनाशकाले तद्व्यतिरेके कार्यव्यतिरेकाच्चक्षुःकपालादेः पृथगन्वयादिमत्त्वात्॥ नन्वेवमपि दण्डादेर्दण्डत्वादित इव दण्डरूपादेरपि पृथगन्वयाद्यभावात् कथं तेन तद्रूपान्यथासिद्धिरिति चेत्, न, पृथगित्यादेस्तदन्वयव्यतिरेकाऽनियतान्वयव्य-
तिरेकशालित्वं नार्थः, किन्तु तदन्वयाद्यघटितान्वर्यादिमत्त्वंइत्थं च दण्डदण्डत्वयोर्न मिथस्तथात्वं दण्डत्वतत्समवायदण्ड- संयोगादीनामुभयशरीरघटकत्वात् दण्डादेस्तु तद्रूपादेस्तथात्वं दण्डाद्यन्वयस्य तद्रूपाद्यन्वयघटकतत्समवायाघटितत्वात्, न तु दण्डरूपादेर्दण्डादितः, तद्रूपाद्यन्वयस्य तदन्वयघटितत्वात् चक्षुःकपालादेरन्वयः कालिकतादात्म्यादितस्तत्संयोगस्य तु समवायत इति मिथस्तत्त्वमेवेत्यदोषात्॥ न चैवं विनापि दण्डादिज्ञानं रूपत्वादिना दण्डरूपादौ घटादिपूर्ववर्तित्वग्रहसम्भवाद्रूपत्वादिना तद्धेतुत्वापत्तिः। प्रत्यक्षेण ग्रहे नियमोक्तौ च द्व्यणुकादिकं प्रति परमाण्वादिना तद्रूपादेरन्यथासिद्ध्यनापत्तिः, नियमाविवक्षायां तु वैपरीत्यमपि स्यादिति वाच्यम्॥पूर्ववर्तित्वमित्यस्यान्वयव्यतिरेकित्वमित्यर्थात्, न च तदतिप्रसक्तेन रूपत्वादिना सुग्रहमिति॥१॥‘अन्यं प्रति पूर्ववर्त्तित्वे ज्ञात एव यं प्रति यस्य पूर्ववर्तित्वं गृह्यते तद्द्वितीयम्’, यथाकाशस्य शब्दं प्रति पूर्ववर्तित्वे ज्ञात एव ज्ञानघटादिकं प्रति तद्ग्रहादाकाशो ज्ञानघटादौ। न च शब्दाश्रयत्वेनान्यथासिद्धत्वमाद्येनैवेति किमनेनेति वाच्यम्, अष्टद्रव्यान्यत्वादिना तथात्वायैतदुक्तेः, शब्दस्य घटादिकं प्रति पृथगन्वयव्यतिरेकरहिततया तेन प्राक्तनान्यथासिद्धेर्दुर्वचत्वाच्च॥ ननु शब्दो द्रव्याश्रितो गुणत्वादित्याद्यनुमानाच्छब्दाश्रयत्वादिनोपस्थिते आकाशे विनापि शब्दपूर्ववृत्तित्वग्रहं ज्ञानघटादिपूर्ववर्तित्वग्रहसम्भव इति चेत्, न शब्दो द्रव्यहेतुको जन्यगुणत्वादित्याद्यनुमानादेव कार्यकारणभावलक्षणानुकूलतर्कप्रयुक्तात्तत्सिद्धेः। न चैवं संयोगविभागादावप्याकाशस्याहेतुत्वापत्तिः, द्रव्यत्वेन तद्धेतुत्वसम्भवात्॥अत एवाधारत्वेन कालदिशोःकार्यसामान्यहेतुत्वं निष्प्रत्यूहम्। विनापि कालिकपरत्वादिपूर्ववर्तित्वग्रहमाधारत्वेन पूर्ववर्तित्वग्रहसम्भवात्॥ न चैवं विभुत्वेनाकाशस्यापि कार्यसामान्यहेतुत्वं स्यात्, आत्मत्वव्यापकविभुत्वेनान्यथासिद्धेः। न च स्वर्गादिपूर्ववर्तित्वेन
गृहीत एव यागादावपूर्वपूर्ववर्तित्वग्रहाद् यागादिकमपूर्वादावन्यथासिद्धम्, अन्यं प्रति पूर्ववर्तित्वानुपपादकं यस्य पूर्ववर्तित्वं गृह्णत इत्यर्थात्, वस्तुतोऽन्यं प्रति पूर्ववर्त्तित्वग्रहनियतो यं प्रति यद्धर्मावच्छिन्नस्य पूर्ववर्तित्वग्रहस्तं प्रति तद्धर्मावच्छिन्नमन्यथासिद्धमित्यर्थात्, यागादेः सुखहेतुतया विहितत्वेनापूर्वं प्रत्यन्यथासिद्धत्वेऽपि यागत्वादिना हेतुत्वं निष्प्रत्यूहम्, आकाशस्यापि ज्ञानघटादौ शब्दजनकत्वेनैवैतदन्यथासिद्धत्वं, शब्दाश्रयत्वेन त्वन्यत्र क्लृप्तेत्यादिनैव, न चैवं मननव्यापारकश्रवणत्वभ्रमिजनकत्वादिना जनकत्वानुपपत्तिः, अन्यं प्रति पूर्ववर्तित्व एवेत्यत्र फलाननुगुणमन्यं प्रतीति वाच्यत्वात्।
दीधितिकृतस्तु फलाननुगुणमन्यं प्रतीति न वाच्यम्। अत एव परामर्शजनकत्वेन तद्व्याप्तिज्ञानानां न कारणत्वमेतदन्यथासिद्धेः। न चैवंभ्रमिजनकत्वलक्षणदृढत्वेन दण्डे घटहेतुत्वं न स्यात्, इष्टत्वात्, दण्डत्वेनैव तत्त्वात्, क्वचिद्घटानुत्पादस्य भ्रमिरूपद्वाराऽभावेन सम्भवात्, क्षुद्रचक्रभ्रमिसमर्थान्महाचक्रसहिताद् दण्डाद्धटानुत्पत्तौ तथैव वाच्यत्वादित्याहुः॥२॥‘अन्यत्र क्लृप्तनियतपूर्ववर्तिन एव कार्यसम्भवे तत्सहभूतं तृतीयम्’ यथा गन्धं प्रत्यन्यत्रक्लृप्तपूर्ववर्तिताकगन्धप्रागभावेन तत्सहभूतरूपप्रागभावादि पाकजगन्धं प्रत्यन्यथासिद्धं, यथा वा घटान्तरं प्रति क्लृप्तपूर्ववर्तिताकदण्डादिजातीयेन तत्सहभूतं तद्रासभादिकं तद्घटादौ, दण्डादिना चक्रादेर्मिथोऽन्यथासिद्धिवारणायोक्तं कार्यसम्भव इति। न च पञ्चम्यर्थहेतुत्वप्रवेशे आत्माश्रयः, पृथगन्वयव्यतिरेकराहित्ये सत्यन्यत्रक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिताकसहभूतमित्यर्थस्य वाच्यत्वात्, हन्तैवं रूपप्रागभावेनैव गन्धप्रागभावः किं नान्यथासिद्धः पृथगन्वयव्यतिरेकसाहित्यराहित्ययोरुभयत्र तौल्यात्। मैवम्। अन्यत्रक्लृप्तेत्यस्यावश्यक्लृप्तेत्यर्थकरणात्, अवश्यक्लृप्तश्चगन्धप्रागभाव एव, गन्धरूपप्रतियोग्युपस्थितौ शीघ्रोपस्थितिलाघवात् इत एव मह-
त्त्वस्यान्यत्रक्लृप्तत्वाभावेऽप्यनेकद्रव्यवत्वं द्रव्यचाक्षुषादौ तेनान्यथासिद्धं, महत्त्वस्य शरीरलाघवेनावश्यकत्वात्, अत एव च व्यापकधर्मावच्छिन्नस्य व्याप्यधर्मावच्छिन्नेनान्यथासिद्धिः, कारणाल्पत्वलाघवात्। न चैवं सम्बन्धलाघवाद्दण्डादिनाऽऽवश्यकेन दण्डरूपादेरित एवान्यथासिद्धौ प्रथमवैयर्थ्यं, तल्लाघवकृतावश्यकत्वस्यात्राप्रवेशात्॥३॥‘यमादायैव यस्यान्वयव्यतिरेकौ गृह्येते तेन तदन्यथासिद्धमिति चतुर्थम्,’ यथा घटम्प्रति दण्डेन दण्डत्वम्, आद्येऽवच्छेदकेनावच्छेद्यस्यात्र चावच्छेद्येनावच्छेदकस्यान्यथासिद्धिरिति भेदः॥४॥‘स्वजन्यस्य यं प्रति पूर्ववर्तित्वे ज्ञाते स्वस्य तत्त्वंज्ञायते तं प्रति स्वमन्यथासिद्धमिति पञ्चमं’॥यथा घटं प्रति कुलालेन तत्पिता, घटं प्रत्यस्य साक्षादहेतुत्वेन कुलाले घटजनकत्वं ज्ञात्वैव तद्द्द्वारा तस्य पूर्वभावग्रहात्॥ तदुक्तं मणिकृता—**‘‘यत्र जन्यस्य पूर्वभावं ज्ञात्वा जनकस्य तद्ग्रहस्तत्र जन्येन जनकमन्यथासिद्धं, यत्र तु जनकस्य पूर्वभावं ज्ञात्वा जन्यस्य तद्ग्रहस्तत्र तद्द्वारा जनकत्वं यागस्येवापूर्वद्वारेति”॥**न चायमाद्येन सङ्गृह्यते, भ्रमिजनकत्वादिना हेतुत्वरक्षायै तत्र यस्येति यत्पदार्थे येनेति यत्पदार्थनियतपूर्ववर्तिभिन्नस्येति विशेषणध्रौव्यात्। नापि द्वितीयेन, तत्र फलाननुगुणं प्रतीति वाच्यत्वादिति दिग्॥५॥ तृतीयचतुर्थ्योरभेदात्पञ्चम्याश्च द्वितीयस्यामन्तर्भावात्त्रिधैवान्यथासिद्धिरिति केचित्। परे त्वेकैवान्यथासिद्धिरवश्यक्लृप्तेत्याद्या, नानाविधलाघवकृतावश्य- कत्वप्रपञ्चार्थमन्याभिधानमित्याहुः॥ अथ कपालादेर्द्रव्यत्वादिनाऽन्यथासिद्धत्वात्कपालत्वादिनापि हेतुत्वं न स्यादिति चेत्, न। अन्यथासिद्ध्यनिरूपकनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकरूपवत्त्वं तत्त्वमित्यदोषात्। धूमाद्यनुपधायकवह्न्यदिसाधारण्यायावच्छेदकरूपनिवेशः॥ धूमादौ रासभादेर्धूमध्वं- सादेश्चहेतुत्ववारणाय नियतपूर्ववर्तीति नियमतोऽव्यवहितपूर्वकालवर्तीत्यर्थः। न च धूमाव्यवहितपूर्वकाले क्वचिद्रासभादेरपि सत्त्वादे-
तद्रासभाद्यव्यावर्तकं, तद्रासभत्वादिना रासभादिव्यावर्तकत्वेनास्य सफलत्वात्, रासभत्वादिना त्वन्यथासिद्धेरेवाहेतुत्वात्॥ न च तद्रासभत्वादिनापि तत एवाहेतुत्वं, तद्धूमादिकं प्रति तद्विरुद्धदिक्कालतद्रासभादेस्तत्कारणासहभूतत्वेन यथोक्तान्यथासिद्ध्यभावात्, विशेष्यभागसाफल्याय नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकेन येन कारणत्वाव्यवहारस्तद्रूपेणैवान्यथासिद्धेर्वाच्यत्वाच्च। यद्वा दैशिकव्यापकतावच्छेदकत्वमपि नियतपूर्ववर्तिनावच्छेदकविशेषणं, इत्थं च दैशिकव्यापकताशालितत्तद्धूमादेर्मिथो हेतुत्ववारणाय कालिकव्यापकत्वनिवेशः॥अत एव दैशिककालिकव्यापकताद्वयगर्भमेकमेव कारणत्वमिति वदन्ति। वस्तुतो धूमत्वाद्याश्रया यावन्तः प्रत्येकं तत्तदव्यवहितपूर्वकालावच्छेदेन तत्तदधिकरणे विशेषणतया वर्तमानस्याभावस्य कारणतावच्छेदकतत्तत्सम्बन्धावच्छिन्न-प्रतियोगिता नवच्छेदकरूपवत्त्वं तत्, तत्तद्द्रव्ये तत्तच्चरमसंयोगस्य चाक्षुपादौ चक्षुरादेश्चकालिकेनैव हेतुत्वेऽपि तत्तत्कार्याधिकरणे स्थूलकाले तत्तत्कार्याव्यवहितप्राक्कालावच्छेदेन वर्तमानत्वमभावस्य सुलभं, तेन तत्कार्याधिकरणक्षणे तदसत्त्वेऽपि न क्षतिः॥न च तत्तद्धूमाद्यधिकरणावच्छेदेन तत्तदव्यवहितपूर्वकाले विशेषणतयेत्यादिकमप्यस्त्विति व्यापकताद्वयगर्भत्वमत्राप्यावश्यकं, तयोरैक्यात् कार्यतावच्छेदकसम्बन्धेन कार्यस्य व्यापकतायाः कारणताघटकत्वौचित्याच्च॥ न चास्तु धूमादेः कार्यमात्रस्य कालिकेनापि कार्यत्वं विनिगमनाभावात्, यदधिकरणावच्छेदेन काले कारणं तदधिकरणे कार्यमित्यतोऽपि देशनियमसम्भवादिति वाच्यम्। तादात्म्येन तन्तुसम्बन्धितन्त्ववच्छेदेन काले तन्त्वभावात्तन्तौ पटानुत्पत्तिप्रसङ्गात्। अत्र धूमत्वावच्छिन्नाव्यवहितपूर्वत्वमसिद्धम्। नहि ‘धृमप्रागभावाधिकरणत्वे सति धूमप्रागभावाधिकरणसमयप्रागभावानधिकरणसमयत्वलक्षणं’ धूमत्वावच्छिन्नाव्यवहितपूर्वत्वं सम्भाव्येतापि, सर्वस्यैव समयस्य यत्किञ्चिद्धूमप्रागभावाधिकरणसमयप्रागभावा-
धिकरणतया तदन्यत्वाभावात्, तद्धर्माश्रययत्किञ्चिदव्यवहितपूर्वत्वगर्भनियमोऽपि नोपादेयः, द्रव्यत्वजन्यद्रव्यत्वाद्यवच्छिन्नं प्रत्यपि कपालादिना हेतुतापत्तेरिति धूमत्वाद्याश्रया यावन्तः प्रत्येकं तत्तदव्यवहितपूर्वकालावच्छेदेनेत्युक्तम्। अत एव कार्यमात्रवृत्तिधर्मस्यैव कार्यतावच्छेदकत्वमिति प्राचीनगाथापि सङ्गच्छते। अथात्र शिखराद्यवच्छेदेन वह्न्यभावसत्त्वादव्याप्तिः। प्रतियोगिव्यधिकरणत्वनिवेशे तु धूमध्वंसातिव्याप्तिरिति चेत्, न, देशानवच्छिन्नविशेषणतया वर्तमानत्वस्य वाच्यत्वात्। न च वह्न्यभावः पर्वतादौ देशानवच्छिन्न- विशेषणतया वर्तते। वृत्त्यानियामकसम्बन्धस्य प्रतियोगितानवच्छेदकत्वे तु तत्तत्कार्याव्यव- हितपूर्वकालावच्छिन्नतत्तत्कारणतावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतियोगिव्यधिकरणत्वं निवेश्यम्। अतो न यागादेः स्वजन्यापूर्वसम्बन्धेन हेतुत्वं दुर्घटं न वा धूमध्वंसेऽतिव्याप्तिः न वा प्रागुक्तरीत्यापि धूमसंयोगाभावेऽतिव्याप्त्यनिवृत्तिः, धूमावयवसंयोगाभावे त्वाद्यान्यथासिद्धेरिव नातिव्याप्तिरिति बोध्यम्। इत्थं च कालिकेन यत्र कारणत्वं तत्र तत्तत्कार्याव्यवहितप्राक्कालत्वव्यापकतावच्छेदकरूपवत्त्वमेव तत्। यदि च द्विकपालघटादौ तत्संयोगस्य विनिगमनाविरहात्कालिकेन दैशिकेन च कारणत्वं तदा तत्रैकैकव्यापकतागर्भमेकैकमेव कारणत्वं तत्रैव व्यापकताद्वयगर्भमेकं कारणत्वम्॥धूमत्वाद्याश्रया यावन्तः प्रत्येकं तत्तदव्यवहितपूर्वकालावच्छेदेन तत्तदधिकरणे तत्तत्सम्बन्धेन सम्बन्धिवृत्तिरूपवत्त्वमेव वा तत् यावत्साधनाश्रयाश्रितत्वस्य व्यापकतारूपत्वात्। कालिकेन कारणमपि प्राक्कालावच्छेदेन कार्याधिकरणस्थूलकालसम्बन्धि, यागादिकं च स्वजन्यापूर्वसम्बन्धेन तथा। तादृशसम्बन्धिवृत्तिधर्मस्वव्यापारान्यतरवत्त्वंवाच्यमित्यन्ये। न चाव्यवहितत्वांशत्यागेन तत्तत्पूर्वसमयावच्छेदेनेत्येतावदेवोच्यताम्, अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन कार्यवति यदभावो ज्ञायते तत्र
कारणताबुद्ध्यनुदयेन तन्निवेशात्। अथेदृशकारणत्वग्रहेऽस्तु व्यतिरेकव्यभिचारज्ञानं विरोधि, अन्वयव्यभिचारज्ञानं तु कुत इति चेत्, अवश्यकल्प्येत्याद्यन्यथासिद्विज्ञानप्रयोजकत्वात्। समूहान्वयव्यतिरेकाभ्यां समूहे कारणत्वग्रहे तदितरगृहीततत्कार्यकारणताक-समूहसत्त्वेतद्व्यतिरेकेऽवश्यं कार्यव्यतिरेकस्तावत्समूहसत्त्वेतत्सत्त्वेचावश्यं तत्कार्यसत्त्वमित्यन्वयव्यतिरेकयोर्ग्रहो विशिष्य तत्कारणत्वग्राहकः, तयोर्ग्रहे चान्वयव्यतिरेकव्यभिचारज्ञानं विरोधीत्यप्याहुः॥ अत्र येन सहेत्यादिकमयुक्तं, येन पृथगन्वयादिमता यस्य तद्रहितस्येत्युक्तौ नियमादिप्रवेशवैकल्यात् पृथगन्वयादिमतेत्यादेरनुग
तानतिप्रसक्तस्य दुर्वचत्वाच्च॥ अन्यं प्रतीत्यादिकमप्ययुक्तम्, ईश्वरज्ञानादेः क्षित्यादिपूर्ववर्तित्वेन गृहीतस्यैव घटादिपूर्ववर्तित्वग्रहाद् घटादावन्यथासिद्ध्यापत्तेः। क्षित्यादिपूर्ववर्तित्वग्रहादेव कार्यमात्रे तद्धेतुत्वसिद्धिरिति चेत्, तथापि शब्दसाक्षात्कारे गगनस्यान्यथासिद्ध्यापत्तिः॥इन्द्रियत्वेन तत्र हेतुत्वग्रहाददोष इति चेत्, न, तथापि श्रावणत्वावच्छिन्ने श्रोत्रत्वेनाहेतुत्वप्रसङ्गात्। अवश्यकल्प्येत्यादिकमप्यावश्यकत्वस्य दुर्वचत्वान्न युक्तम्। न चान्यथासिद्ध्यनिरूपकनियतपूर्ववर्तिताकरूपवत्त्वं हेतुत्त्वं, तत्रान्यथासिद्ध्यनिरूपकत्वं च येन नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकेन कारणत्वं न व्यवह्रियते तत्तद्भेदसमूहस्तावदन्यतमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक एक एव भेदो वा कारणतायां निविशत इति नाननुगमदोषो न वान्यथासिद्धिनिरूपकेण कारणत्वभ्रमानुपपत्तिरिति वाच्यम्॥उक्तभेदसमूहे प्रतियोगिकोटावुदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यां विनिगमनाविरहात् प्रतियोग्यविशेषिताऽखण्डभेदाभ्युपगमे च सर्वत्राखण्डाभाववत एवाऽखण्डाभावस्यैव वा हेतुत्वं स्यादिति बहु विप्लवेत। किञ्चैवं विशेष्यभागोऽपि वैयर्थ्यमाप्नुयादकारणभेदस्यैवाखण्डस्य कारणतालक्षणत्वसम्भवात्। तस्मादिष्टसाधनत्वादि-ज्ञानकारणतावच्छेदक-
तयातिरिक्तमेव कारणत्वम्। न चोक्तकारणताया विषयिताविशेषावच्छेद्यत्वसम्भवः, विषय विशेषासिद्धौ विषयिताविशेषासिद्धेः, अन्यथा साकारवादप्रसङ्गात्। कारणत्वत्वेनानुगतं च तत्कारणपदशक्यतावच्छेदकं, ग्राहकं च तस्य क्वचिदन्वयव्यतिरेकसहितप्रत्यक्षागमादिकम्। न चैवं व्यभिचारग्रहेऽपि तद्ग्रहप्रसङ्गः, कारणत्वाद्यभावव्याप्यादितयैव व्यभिचारग्रहस्य विरोधित्वात्तदग्रहे व्यभिचारग्रहेऽपि कारणताग्रहस्येष्टत्वात्। न चैवं कारणताप्रत्यक्षं प्रत्यन्वयव्यतिरेकग्रहस्य हेतुत्वे मानाभावः, सत्यपि दण्डेन्द्रियसन्निकर्षे विनाऽन्वयव्यतिरेकग्रहं कारणत्वप्रत्यक्षानुदयात्तद्धेतुत्वसिद्धेः। यदि च तत्रापि कारणत्वं गृह्यत एव, न तु निश्चीयते, संशयसामग्रीसत्त्वादिति विभाव्यते, तदोक्तरीत्या प्रतिबन्धकस्य व्यभिचारग्रहस्य निवारकतया तदुपयोगः। एतेनानन्यथासिद्धेत्यादेर्व्यञ्जकतया ज्ञानस्यावश्यकत्वादतिरिक्तकारणत्वकल्पने गौरवमित्यपास्तम्, अनतिरिक्तत्वेप्यतिरिक्तत्वभ्रमे तत्रोक्तव्यञ्जकताकल्पनावश्यकत्वादतिरिक्तकारणताकल्पनकाले उक्तगौरवानुपस्थितेश्चेति दिग्॥ यत्तु दण्डत्वादिकमेव कारणत्वं, तस्यैव घटादिकार्यसम्बन्धितया ग्रहेऽनन्यथासिद्धेत्यादेर्व्यञ्जकत्वमिति पक्षघरमिश्रमतं, तत्तुच्छम्, एवं हि दण्डत्वादेः स्वरूपतो निरवधित्वे कार्यापेक्षया च सावधित्वे शबलवस्त्वभ्युपगमप्रसङ्गात्। व्यवहारे सावधित्वं स्वरूपतस्तु निरवधित्वमिति नायं दोष इति चेत्, न, व्यवहर्तव्याविशेषे व्यवहाराविशेषात्, अन्यथा केवलभूतलज्ञानादेव प्रतियोगिज्ञानादिनाऽभावव्यवहारसमर्थको मीमांसक एव विजयेत। किञ्चैवं घटवद्दण्डत्ववान् दण्ड इति ज्ञानात् दण्डो घटकारणमिति व्यवहारापत्तिः, अनन्यथासिद्धेत्यादिज्ञानजनिततादृशज्ञानत्वेन तादृशव्यवहारहेतुत्वे च गौरवं, घटकारणतात्वेन तज्ज्ञानस्योक्तव्यवहारहेतुत्वे च कारणतात्वमधिकमभ्युपगन्तव्यं स्यात्। किञ्चैवं दण्डत्वादिस्वरूपाया दण्डादिनिष्ठकारणताया अनुग-
तत्वोक्तावपि घटसमवेतनाशादिकार्यनिरूपितघटनाशादिकारणतायाः कथमनुगतत्वं, घटनाशत्वस्याऽनुगतस्याभावात्, तत्राप्यखण्डोपाधिनानुगमस्वीकारे व्यक्तीनामेव कथञ्चिदनुगतत्वं स्वीक्रियताम्, एकस्यैव वस्तुनो व्यावृत्तिबुद्ध्यपेक्षया व्यावृत्तत्वस्यानुवृत्तिबुद्ध्यपेक्षया चानुगतत्वस्य सम्भवात्। विषयमेदं विना बुद्धिभेदो नोपपद्यत इति चेत्, कारणत्वकार्यत्वयोरपि तुल्यमेतत्, तस्मात्त्यज्यतां वाऽतिरिक्तसामान्यविशेषवादः, स्वीक्रियतां वा कारणत्वकार्यत्वादिकमप्यतिरिक्तमिति दुरुत्तरा प्रतिवन्दिनदी, तदिदभिप्रेत्योक्तं प्रभुश्रीहेमसूरिभिः,—“स्वतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः॥ परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद्, द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति॥४॥" इति। यत्त्वेवं कारणत्वादेरतिरिक्तत्वेऽनुगतव्याप्त्यादिव्यवहारा- द्व्याप्त्यादिकमप्यतिरिच्यत इति परैरुद्घष्यते तदुक्तप्रतिबन्दीवादिनामस्माकं न दोषाय। यदपि नियतपूर्ववर्तितावच्छेदकदण्डत्वादिकमेव कारणत्वम्, अन्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदकत्वं तु दण्डत्वादिपरिचायकमेवेति कैश्चिदभ्युपगम्यते, तदप्यसत्, नियमस्य नानाविधतया क्वचिदपि कारणताननुगमप्रसङ्गात् निरुक्तान्यथासिद्धिनिरूपकतावच्छेदकत्वज्ञाने कारणत्वाव्यवहारात्तदनवच्छेदकत्व-स्याप्यवश्यं निवेश्यत्वाच्च। यदि च व्यापारादिव्यवहारवच्छब्दमात्रादेवानुगतकारणतादिव्यवहारः, तदा न किञ्चिल्लक्षणमर्थतोऽनुगतं स्याद्भेदनयचिन्तायां शब्दानुगम एव पर्यवसानात्, तस्मान्नामनिक्षेपे शब्दानुगमो भावनिक्षेपे त्वर्थानुगमोऽवश्यमाश्रयणीय इति दिग्॥ तथा कुण्डे बदरमित्यादौ सप्तमीप्रतिपाद्यमाधारत्वमप्यतिरिच्यते, संयोगमात्रस्य तदर्थत्वे बदरे कुण्डमित्यस्याप्यापत्तेः, अथ तत्तदाधारादिस्वरूपैवाधारता, कुण्डादिस्वरूपमेवबदराद्याधारो न तु बदरादिकं कुण्डादेरित्यत्र प्रतीतिरेव मानम्, न चैवं कुण्डे बदराधारत्वप्रतीतिर्न स्यात्, कुण्डस्वरूपस्याधारत्वस्य कुण्डवृत्तित्वे
कुण्डे कुण्डमित्यपि स्यादिति वाच्यम्। आधारतात्वेन कुण्डस्यापि कुण्डवृत्तित्वात्, न तु कुण्डत्वेन तथैवप्रतीतेरिति चेत्, न, आधारतायाः कुण्डस्वरूपत्वे आधारतात्वस्यापि कुण्डत्वानतिरिक्तत्वात्, तदतिरिक्तत्वे च किमपराद्धमाधारतया, येन सापि नातिरिच्येत। किञ्चैवंपाकरक्ततादशायामपि घटे इदानीं सश्याम इति बुद्धेः प्रमात्वप्रसङ्गः, घटरूपायाः श्यामाधारताया एतत्कालवृत्तित्वात्। इदानीं श्याम इति बुद्धावेतत्कालावच्छिन्नं यच्छ्यामत्वं तदाधारत्वविषयीकरणान्न प्रामाण्यमिति चेत्, न, तथापि तत्रेदानीं न रक्त इति धियः प्रमात्वप्रसङ्गस्य दुर्निवारत्वात्, एतत्कालावच्छिन्नरक्तत्वाभावाधारताया अप्येतद्भटस्वरूपत्वात्, अन्यथा श्यामवादशायामिह न रक्तत्वमिति प्रतीतेरनुपपत्तेः। न च तत्कालविशिष्टघटादेः श्यामत्वाद्याधारतारूपत्वाभ्युपगमान्न दोष इति वाच्यम्, विशिष्टस्यानतिरिक्तत्वात्, अन्यथा क्षणभेदप्रसङ्गात्। एतेन ‘बदरादिप्रतियोगित्वविशिष्टसंयोगादिरेव बदराद्याधारता, रूपाद्याधारता तु तत्तत्समवाय एव, तन्नानात्वकल्पनाया एवातिरिक्ताधारत्वकल्पनातो लघुत्वात्, अत एव चक्षुःसंयुक्तघटादिसमवायान्न पटत्वादेः प्रत्यक्षतेति’ कल्पनमप्यपास्तम्। विशिष्टसंयोगादेरनतिरेकात्॥ किञ्चैवं कुण्डादिप्रतियोगिकसंयोगमात्रेण बदरादौ कुण्डादिप्रकारकबुद्धौ सत्यां बदरादौ कुण्डादिकं नेति धीर्जायमाना नोपपद्येत, अतिरिक्ताधारतापक्षे तूक्तप्रतीतेराधारत्वासंसर्गकत्वादेव न विपरीतधीविरोधित्वमिति न दोषः। तत्र तत्सम्बन्धवत्त्वे कथमाधारतया तदभाव इति चेत्, तत्र तद्वृत्तितानियामकसम्बन्धस्यैव तत्र तद्वत्तानियामकत्वादिति संक्षेपः। प्रतियोगित्वमप्यतिरिच्यते, दण्डाभावादेः प्रतियोगित्वस्य दण्डादिस्वरूपत्वे गौरवात्, संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटाभावादिप्रयोगित्वस्य घटादिरूपत्वे समवायसम्बन्धावच्छिन्नघटाभावादावप्युक्तप्रतियोगिताकत्वप्रसङ्गाच्च। यत्तु स्वाभावाभावत्वं स्वस्य प्रतियो-
गित्वं भवति हि घटाभावस्याभावत्वं घट इति घटस्य घटाभावप्रतियोगित्वमिति, तन्न। गगनादेर्गगनाभावाभावत्वे मानाभावाद्गगनादेः प्रतियोगित्वानापत्तेः। स्वस्याभावेत्यत्र षष्ठ्यर्थप्रतियोगित्वानिरूपणाच्च॥ विषयताप्यतिरिच्यते। तथाहि। न विषयरूपा सा, ज्ञानेनातीतो घट इदानीं गृह्यतेऽतीतो घट इदानीं स्फुरतीत्यादिप्रत्ययाप्रामाण्यापत्तेः, विषयरूपाया विषयताया एतत्कालावृत्तित्वात्। अत एव न विषयज्ञानोभयरूपा, नापि ज्ञानमात्ररूपा, घटपटावित्यादिज्ञानस्य भ्रमत्वापत्तेस्तद्ज्ञानरूपाया विषयताया घटत्वाद्यभाववत्पटादिनिष्ठत्वात्। कपालं समवायेन षटवद्भूतलं संयोगेन घटवदिति ज्ञानस्यापि कपालादौ संयोगादिना घटादिनिर्णयत्वापत्तेश्च। किञ्च यदि ज्ञानं स्वरूपेण घटादिसम्बद्धमिति घटादिव्यवहारमाधत्ते, तदा स्वाधिकरणकाला- दिव्यवहारमप्यादध्यात्कालादिनापि सह स्वरूपेण सम्बद्धत्वात्। कालाद्यतिरिक्तेन सह सम्बद्धमेव तत्तद्व्यवहाराधायकं तथास्वाभाव्यादिति चेत्, तर्ह्ययमस्य स्वभावः कालाद्यतिरिक्तत्वाग्रहे दुर्ग्रह इति न कदापि नियतविषयव्यवहारमादध्यात्॥ एवमन्येऽपि धर्मा यथा यथा भेददृशा विचार्यन्ते तथा तथा भिद्यन्ते, अभेददृशा तु विचार्यमाणान भेदमनुभवन्तीति भिन्नाभिन्नानन्तधर्मात्मकं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा वस्तुसत्तानुपपत्तेः, नहि घटादिरैकान्तिकस्वरूपः कश्चिदनुभूयते किन्त्वनुवृत्तिव्यावृत्तिद्वाराऽनन्तस्वपरपर्यायक्रोडीकृत इति॥ तदिदमुक्तं प्रभुश्रीहेमसूरिभिः—“अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम्॥इति प्रमाणान्यपि ते कुवादि-कुरङ्गसन्त्रासनसिंहनादाः॥२२॥” इति॥ ततः षडेव पदार्था इत्यन्ययोगव्यवच्छेदोऽनुपपन्नः॥ अयोगव्यवच्छेदोऽपि यथाऽत्रानुपपन्नस्तथा “दोहिं वि णएहिं णीयं" इत्यादिगाथाव्याख्यानावसरे सम्मतिवृत्तावेव प्रतिपादितमिति तत एव विशेषोऽवधारणीयः। इत्थं च वैशेषिकदर्शननिर्लोठने नैयायिकदर्शनमपि
निर्लोठितं द्रष्टव्यम्। प्रायः समानत्वाद् द्वयोरिति किमतिविस्तरेण?॥
दर्शितेयं यथाशास्त्रं, नैगमस्य नयस्य दिक्॥ कणाददृष्टिहेतुः श्री–यशोविजयवाचकैः॥१॥
“सङ्ग्रहणं सामान्यरूपतया सर्ववस्तूनामाक्रोडनं सङ्ग्रहः”। सङ्गृह्णाति सामान्यरूपतया सर्वमिति वा सङ्ग्रहः। ‘सङ्गृहीतपिण्डार्थं सङ्ग्रहवचनं’ इत्यागमः। अस्यार्थः–सङ्गृहीतः सामान्याभिमुख्येन गृहीतः पिण्डित एकजातिमानीतो, यद्वा सङ्गृहीतोऽनुगमविषयीकृतः पिण्डितो निराकृतपराभिमतव्यतिरेको, यद्वा सङ्गृहीतः सत्ताख्यमहासामान्यभावमापन्नः पिण्डितश्च परापरसामान्यभावमापन्नोऽर्थो यस्य तत्तथा, सङ्ग्रहवचनम्, अन्तःक्रोडीकृतसर्वविशेषस्य सामान्यस्यैव तेनाभ्युपगमात्, सदित्येवं भणिते सर्वत्र भुवनत्रयान्तर्गते वस्तुनि बुद्धेरनुधावनात्, अध्यक्षस्यापि विध्यंश एव प्रवृत्तेर्निषेधस्य तदुत्तरकालं कल्पनाविषयत्वात् सन्मात्रस्यैव शब्दस्याध्यक्षस्य वा विषयत्वेन तात्त्विकत्वाद्भेदप्रतिभासस्तु भेदप्रतिपादकागमोपहितान्तःकरणानां तिमिरोपप्लुतदृशामे- कशशलाञ्छनमण्डलस्यानेकत्वावभासवदसत्य एव। घटपटादीनां हि भावान्यत्वे खरविषाणप्रख्यत्वं, तदनन्यत्वे च सामान्यैकपरिशेष एव न्याय्य इति। यन्महाभाष्यकृत्—“कुंभो भावाणन्नो, जइतो भावो अहन्नहाऽभावो॥एवं षडादओ वि हु, भावाणन्नत्ति तम्मत्तं॥२२०८॥ चूओ वणस्सइ च्चिय, मूलाइगुणोत्तितस्समूहोव्व। गुम्मादओ वि एवं सव्वे न वणस्सविसिट्टा॥२२१०॥” अत एव यत्र विशेषक्रिया न श्रूयते तत्र ‘अस्ति भवतीत्यादिका’ प्रयुज्यते इति शाब्दिकाः। सत्तायाः सर्वपदार्थाव्यभिचारात्, यदेव च सर्वाव्यभिचारिरूपं तदेव पारमार्थिकं यच्च व्यभिचारि तत्प्रबुद्धवासनाविशेषनान्तरीयकोपस्थितिकमप्यपारमार्थिकम्। तदाहुरेतन्नयानुयायिनः (वाक्यपदीये)—“अस्त्यर्थः सर्वश-
ब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम्॥ अपूर्वदेवताशब्दैः, समं प्राहुर्गवादिषु॥१२१॥ घटादीनां न चाकारान् प्रत्याय(प)यति वाचकः॥ वस्तुमात्रनिवेशित्वा–चद्गतिर्नान्तरीयकैः॥१२२॥” इति। एतन्नयमाश्रित्य चिदानन्दैकरससदद्वैतप्रतिपादकं वेदान्तदर्शनमुद्भूतं, तन्मते हि सच्चिदानन्दाद्वयं ब्रह्मैव वस्तु, अज्ञानादिसकलजडसमूहोऽवस्तु।अज्ञानं तु सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधिभावात्मकमहमज्ञ इत्यनुभवात् “वेदात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढां” इत्यादिश्रुतेश्च सिद्धम्, इदमज्ञानं समष्टिव्यष्ट्यभिप्रायेणैकमनेकमिति व्यवह्रियते। तथाहि वृक्षेषु वनमितिवज्जलेषु जलाशय इतिवच्च समष्ट्यभिप्रायेण नानात्वेन भासमानानामपि जीवगतानामज्ञानानामैक्यव्यपदेशः “अजामेकाम्” इत्यादिश्रुतेः। इयं समष्टिरुत्कृष्टोपाधितया विशुद्धसत्त्वप्रधाना, तदुपहितं चैतन्यं सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वसर्वनियन्तृत्वादिगुणकदम्बकमव्यक्तं सदन्तर्यामि जगत्कारणमीश्वर इति च व्यपदिश्यते, सकलाज्ञानावभासकत्वात् “यः सर्वज्ञः स सर्वविद्” इतिश्रुतेः,अस्येयं समष्टिः सकलकारणत्वात्कारणशरीरम्, आनन्दप्रचुरत्वात्कोशवदाच्छादकत्वाच्चानन्दमयकोशः, सर्वोपरमलक्षणत्वात्सुषुप्तिः, अत एव स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चलयस्थानमित्यप्युच्यते। यथा च वनस्य व्यष्ट्यभिप्रायेण वृक्षा इति जलाशयस्य वा जलानीति अनेकत्वेन व्यपदेशस्तथाऽज्ञानस्यापि व्यष्ट्यभिप्रायेणानेकत्वव्यपदेशः “इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते” इत्यादिश्रुतेः। अत्र व्यस्त समस्तव्यापित्वेन व्यष्टिसमष्टिताव्यपदेशः। इयं व्यष्टिर्निकृष्टोपाधितया मलिनसत्त्वप्रधाना, तदुपहितं चैतन्यमल्पज्ञत्वानीश्वरत्वादिगुणकमज्ञ इत्युच्यते, एकाज्ञानावभासकत्वादस्पष्टोपाधितयाऽनतिप्रकाशत्वादस्य प्राज्ञत्वम्, अस्यापीयमहङ्कारादिकारणत्वात्कारणशरीरम्, आनन्दप्रचुरत्वादेव हेतोरानन्दमयकोशः, सर्वोपरमात्सुषुप्तिः, स्थूलसूक्ष्मशरीरलयस्थानमिति चोच्यते। अनयोर्व्यष्टि-
समष्ट्योर्वनवृक्षयोरिव जलाशयजलयोरिव वाऽभेदः, एतदुपहितयोरीश्वरप्राज्ञयोरपि वनवृक्षावच्छिन्नाकाशयोरिव जलाशयजलगत-प्रतिविम्बाकाशयोरिव वाऽभेदः “एष सर्वेश्वर" इतिश्रुतेः, वनतदवच्छिन्नाकाशयोर्जलाशयतद्गतप्रतिविम्बाकाशयोर्वाऽऽधारा-नुपहिताकाशवदनयोरज्ञानतदुपहितचैतन्ययोराधारभूतं यदनुपहितचैतन्यं तत्तुरीयमित्युच्यते “शिवमद्वैतं चातुर्थं मन्यन्त” इति श्रुतेः। इदमेव तुरीयं शुद्धं चैतन्यमज्ञानादितदुपहितचैतन्याभ्यामविविक्तं सत् ‘सर्वं ब्रह्मैव’ इत्यादेः ‘तत्त्वमसि’ इत्यादेर्वा महावाक्यस्य वाच्यं, विविक्तं सल्लक्ष्यमिति चोच्यते। अस्याज्ञानस्यावरणविक्षेपनामकमस्ति शक्तिद्वयं, तत्रावरणशक्तेरल्पस्यापि मेघस्यानेकयोजना- यतादित्यमण्डलस्यालोकयितुर्नयनपिधायकतयेव परिच्छिन्नस्याप्यज्ञानस्यापरिच्छिन्नसंसार्यात्मनोऽवलोकयितृबुद्धिविधायकतयाच्छादने सामर्थ्यम्। तदुक्तं घनदृष्टिरिति। अनयाऽऽवृतस्यात्मनः कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखित्वादि सम्भाव्येत स्वाज्ञानेनावृताया रज्जोरिव सर्पत्वम्। विक्षेपशक्तिस्तु रज्ज्वज्ञानं यथा स्वावृतरज्जौ सर्पादिकमुत्पादयति एवमज्ञानमपि स्वावृतात्मनि गगनादिप्रपञ्चमुत्पादयति येन तादृशसामर्थ्यम्। तदुक्तं—“विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि–ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत्॥” इति ॥ शक्तिद्वयवदज्ञानोपहितचैतन्यं स्वप्रधानतया निमित्तं स्वोपाधिप्रधानतया चोपादानं भवति, यथा लूता तन्तुकार्यं प्रति स्वप्रधानतया निमित्तं स्वशरीरप्रधानतया चोपादानम्। ततस्तमःप्रधानशक्तिमदज्ञानोपहितचैतन्यादाकाशं, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यःपृथिवी चोत्पद्यते, “एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः” इत्यादिश्रुतेः। एतेषु जाड्याधिक्यदर्शनादेतत्कारणस्य तमःप्राधान्यं सत्त्वरजस्तमांस्यपि कारणगुणक्रमेणैतेष्वाका- शादिषुत्पद्यन्ते, एतान्येव पञ्चभूतानि तन्मात्राण्यपञ्चीकृतानि चोच्यन्ते, एतेभ्यः सूक्ष्मशरीराणि स्थूलभूतानि चोत्प-
द्यन्ते, सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशावयवानि लिङ्गशरीराणि, अवयवा ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं बुद्धिमनसी कर्मेन्द्रियपश्चकं वायुपश्चकं चेति। ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानि, एतान्याकाशादीनां सात्त्विकांशेभ्यो व्यस्तेभ्यः पृथक् पृथगुत्पद्यन्ते। वुद्धिर्निश्चयात्मिकान्तःकरणवृत्तिः। सङ्कल्पविकल्पात्मिका सा मनः। एतयोरेव चित्ताहङ्कारयोरन्तर्भावः। एते च गगनादिगत-सात्त्विकांशेभ्यो मिलितेभ्य उत्पद्येते। एषां प्रकाशात्मकत्वात्सात्त्विकांशकार्यत्वम्, इयं बुद्धिर्ज्ञानेन्द्रियैः सहिता सती विज्ञानमयकोशो भवति। अयं कर्तृत्वभोक्तृत्वाभिमानित्वेन लोकद्वयगामी व्यावहारिको जीव इत्युच्यते। मनस्तु कर्मेन्द्रियैः सह मनोमयकोशः। कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थानि। एतान्याकाशादीनां रजोंशेभ्यो व्यस्तेभ्यः पृथक्पृथगुत्पद्यन्ते। वायवः प्राणापानोदानसमानव्यानाः, एते चाकाशादिगतरजोंशेभ्यो मिलितेभ्य उत्पद्यन्ते। इदं प्राणादिपञ्चकं कर्मेन्द्रियसहितं प्राणमयकोश उच्यते। अस्य क्रियात्मकत्वेन रजोंऽशकार्यत्वम्, एषु कोशेषु विज्ञानमयो ज्ञानशक्तिमान् कर्तृरूपः, मनोमय इच्छाशक्तिमान् करणरूपः, प्राणमयः क्रियाशक्तिमान् कार्यरूप इत्येवमेतेषां योग्यत्वेनायं विभागः॥ एतत्कोशत्रयं मिलितं सूक्ष्मशरीरमुच्यते, अत्राप्यखिलसूक्ष्मशरीरमेकबुद्धिविषयतया वनवज्जलाशयवद्वा समष्टिः। अनेकबुद्धिविषयतया वृक्षवज्जलवद्वा व्यष्टिरित्युच्यते। यतः समष्ट्युपहितं चैतन्यं सूत्रात्मा हिरण्यगर्भः प्राण इति चोच्यते। सर्वत्रानुस्यूतत्वात् ज्ञानक्रियाशक्तिमदुपहितत्वाच्च अस्यैषा समष्टिः। स्थूलप्रपञ्चापेक्षया सूक्ष्मत्वात् सूक्ष्मशरीरं विज्ञानमयादिकोशत्रयं जाग्रद्वासनामयत्वात् स्वप्नोऽत एव स्थूलप्रपञ्चलयस्थानमित्युच्यते॥एतद्व्यष्टयुपहितं चैतन्यं तैजस उच्यते, तेजोमयान्तःकरणोपहितत्वात्, अस्यापीयं व्यष्टिः स्थूलशरीरापेक्षया सूक्ष्मत्वादिहेतोरेव सूक्ष्मशरीरं विज्ञानमयादिकोशत्रयं जाग्रद्वासनामयत्वा-
त्स्वप्नः स्थूलशरीरलयस्थानमिति। एतौ सूत्रात्मतैजसाविदानीं मनोवृत्तिभिः सूक्ष्मविषयाननुभवतः “प्रविविक्तभुक् तैजस” इति श्रुतेः। अत्रापि व्यष्टिसमष्ट्योस्तदुपहितसूत्रात्मतैजस योर्वनवृक्षवत्तदवच्छिन्नाकाशवच्च जलाशयजलवत्तत्प्रतिविम्बिताकाशवच्चाभेदः। एवं सूक्ष्मशरीरोत्पत्तिः स्थूलभूतानि च पञ्चीकृतानि। पश्चीकरणं त्वाकाशादिपञ्चकमेकैकं द्विधा विभज्य समन्तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान् पञ्चभागान् प्रत्येकं चतुर्धा समं विभज्य तेषां चतुर्णां चतुर्णां भागानां स्वस्वद्वितीयभागपरित्यागेन भागान्तरेषु संयोजनं, त्रिवृत्करणश्रुतेः पञ्चीकरणस्याप्युपलक्षणत्वात् नास्याप्रामाण्यं पञ्चानां पञ्चात्मकत्वे तुल्येऽपि स्वार्धभागेतराष्ट्रमा गाभ्यां वैशिष्ट्यात्तद्व्यपदेश इत्याकाशादीनां नियतव्यपदेशव्यवस्था। तदानीमाकाशे शब्दोऽभिव्यज्यते, वायौ शब्दस्पर्शौ, अग्नौ शब्दस्पर्शरूपाणि, अप्सु शब्दस्पर्शरूपरसाः, पृथिव्यां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः, एतेभ्यः पञ्चीकृतेभ्यः चतुर्दशानां लोकानां तदन्तर्गतानां स्थूलशरीराणां चोत्पत्तिः। शरीराणि मनुष्यपक्षियूकावृक्षादीनां जरायुजाण्डजस्वेदजोद्भिज्जाख्यानि। अत्रापि चतुर्विधस्थूलशरीरमेकानेकबुद्धिविषयतया वनवज्जलाशयवद्वा समष्टिर्वृक्षवज्जलवद्वा व्यष्टिरपि भवति। एतत्समष्ट्युपहितं चैतन्यं सर्वनरामिमानित्वाद् विविधं राजमानत्वाच्च वैश्वानर इति विराडिति चोच्यते। अस्यैषा स्थूलशरीरमन्नविकारत्वादन्नमयकोशः स्थूलभोगायतनत्वाज्जागरश्च व्यपदिश्यते। एतद्व्यष्ट्युपहितं चैतन्यं विश्व इत्युच्यते सूक्ष्मशरीरमपरित्यज्य स्थूलशरीरप्रविष्टत्वात्, अस्याप्येषा स्थूलशरीरमन्नविकारत्वादिहेतोरन्नमयकोशो जाग्रदित्युच्यते। तदेतौ विश्ववैश्वानरौ दिग्वातार्कवरुणाश्विभिः क्रमान्नियन्त्रितेन श्रोत्रादीन्द्रियपञ्चकेन क्रमाच्छब्दस्पर्शरूपरसगन्धानग्नी-न्द्रोपेन्द्रयमप्रजापतिभिः क्रमान्नियन्त्रितेन वागादीन्द्रियपञ्चकेन क्रमाद्वचनादानगमनविसर्गानन्दांश्चन्द्राच्युतचतुर्मुखशङ्करैः क्रमान्निय-न्त्रितेन मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्ताख्येना-
न्तरिन्द्रियचतुष्केण क्रमात्सङ्कल्पनिश्चयाहङ्कार्यचित्तांश्च स्थूलविषयाननुभवतः॥“जागरितस्थानो बहिः प्राज्ञ” इत्यादिश्रुतेः॥ अत्राप्यनयोः स्थूलव्यष्टिसमष्ट्योस्तदुपहितयोर्विश्ववैश्वानरयोश्च वनवृक्षवत्तदवच्छिन्नाकाशाकाशवच्च जलाशयजलवत्तद्गतप्रतिविम्बाकाशाकाशवच्च पूर्ववदभेदः॥ एवं पञ्चीकृतेभ्यो भूतेभ्यः स्थूलप्रपञ्चोत्पत्तिः। एषां स्थूलसूक्ष्मकारणप्रपश्चानामपि समष्टिरेको महान् प्रपञ्चो भवति॥ यथाऽवान्तरवनानामपि समष्टिरेकं महद्वनं, यथा वाऽवान्तरजलाशयानामेको महान् जलाशयः समष्टिः, एतदुपहितं वैश्वानरादीश्वरपर्यन्तं चैतन्यमप्यवान्तरवनावच्छिन्नाकाशवदवान्तरजलाशयप्रतिविम्बाकाशवच्चैकमेव अयमर्था- ध्यारोपः। एवं प्रत्यगात्मनि चार्वाकाद्यभिमतः स्थूलशरीराद्यध्यारोपोपि द्रष्टव्यः। अथापवादो नाम रज्जुविवर्तसर्पस्य रज्जुमात्रत्ववद्वस्तुविवर्तस्यावस्तुनोऽज्ञानादेः प्रपञ्चस्य वस्तुमात्रत्वम्। तथाहि भोगायतनचतुर्विधशरीरभोग्यरूपान्नादि–तदाश्रयचतुर्दशभुवनतदाश्रयब्रह्माण्डादि सर्वं कारणीभूतपञ्चीकृतभूतमात्रं भवति, शब्दादिविषयसहितानि पञ्चीकृतभूतजातानि सूक्ष्मशरीरजातं चेत्येतत्सर्वं कारणरूपापञ्चीकृतभूतमात्रं भवति, एतानि सत्त्वादिगुणसहितानि अपञ्चीकृतान्युत्पत्तिव्युत्क्रमेणैतत्कारणभूताज्ञानोपहितचैतन्यमात्रं भवति, एतदज्ञानमज्ञानोपहितचैतन्यं चेश्वरादिकमेतदाधारभूतानुपहितचैतन्यतुरीयब्रह्मसमापन्नं भवति। आभ्यामध्यारोपापवादाभ्यां तत्त्वंपदार्थावपि शोधितौ स्तः। अज्ञानादिसमष्टितदुपहितसर्वज्ञत्वादिविशिष्टचैतन्यतदनुपहितचैतन्यलक्षणत्रयस्य तप्तायः- पिण्डवदेकत्वेनावभासमानस्य तत्पदवाच्यार्थत्वात्, अज्ञानादिव्यष्टितदुपहितासर्वज्ञत्वादिविशिष्टचैतन्यतदुपहित चैतन्यलक्षणत्रयस्य च प्राग्वदेकीभूतस्य त्वंपदवाच्यार्थत्वात्, एतदुपहिताधारानुपहितप्रत्यगानन्दतुरीयचैतन्यस्य च तत्त्वंपदलक्ष्यार्थत्वात्॥अत्र तत्त्वमसीतिवाक्यं सम्बन्धत्रयेणाखण्डार्थं बोधयति।
सम्बन्धत्रयं नाम पदयोः सामानाधिकरण्यं, पदार्थयोर्विशेषणविशेष्यभावः, प्रत्यगात्मलक्षणयोर्लक्ष्यलक्षणभावश्चेति।
तदुक्तं “सामानाधिकरण्यं च, विशेषणविशेष्यता॥ लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः, पदार्थप्रत्यगात्मनाम्॥१॥” इति। तत्र सामानाधिकरण्यसम्बन्धस्तावद् यथा—सोऽयं देवदत्त इति वाक्ये तत्कालविशिष्टदेवदत्तवाचकसशब्दस्यैतत्कालविशिष्टवाचकार्य-शब्दस्य चैकस्मिन् पिण्डे तात्पर्यसम्बन्धः॥तथा तत्त्वमसीतिवाक्ये परोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यवाचकतत्पदस्यापरोक्षत्वादिविशिष्ट-चैतन्यवाचकत्वंपदस्य चैकस्मिन्नर्थे तात्पर्यसम्बन्धः॥विशेषणविशेष्यभावस्तु यथा तत्र वाक्ये सशब्दार्थतत्कालविशिष्टदेवदत्तस्यायं-पदार्थैतत्कालविशिष्टदेवदत्तस्य चान्योन्यभेदव्यावर्तकतया, तथात्रापि वाक्ये तत्पदार्थपरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य त्वंपदार्थापरोक्षत्वादि-विशिष्टचैतन्यस्य चान्योन्यभेदव्यावर्तकतया द्रष्टव्यः॥ लक्ष्यलक्षणसम्बन्धस्तु यथा तत्र सशब्दायंशब्दयोस्तदर्थयोर्वा विरुद्धतत्कालैतत्कालविशिष्टत्वपरित्यागेनाविरुद्धदेवदत्तेन सह लक्ष्यलक्षणभावस्तथात्रापि तत्त्वंपदयोस्तदर्थयोर्वा परोक्षत्वापरोक्षत्वादि-विशिष्टत्वपरित्यागेनाविरुद्धचैतन्येन सह लक्ष्यलक्षणभावः, इयमेव भागलक्षणेत्युच्यते। अस्मिन्वाक्ये नीलमुत्पलमिति वाक्य इव वाक्यार्थो न सङ्गच्छते। तत्र गुणद्रव्यवाचिनोर्नीलोत्पलपदयोः शुक्लपटादिव्यावर्तकतयान्योन्य विशेषणविशेष्यभावसंसर्गस्यान्यतरविशिष्टान्यतरस्य तदैक्यस्य वा वाक्यार्थत्वोपपत्तावप्यत्र तत्पदार्थपरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यत्वंपदार्थापरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्ययोरन्योन्यव्यावर्तकतयावि- शेषणविशेष्यभावसंसर्गस्य विशिष्टैक्यस्य वा प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधेन वाक्यार्थत्वानुपपत्तेः, तदिह लक्षणाऽऽवश्यकी, सा च गङ्गायां घोष इत्यत्रेव न जहती, तत्र गङ्गाघोषयोराधाराधेयभावानुपपत्त्यावाक्यार्थवाधात्तंपरित्यज्य तत्सम्बन्धितीरलक्षणाया युक्तत्वेऽप्यत्र परोक्षापरोक्षचैतन्यैकत्वस्य वाक्यार्थस्य भागमात्रे
विरोधादविरुद्धभागपरित्यागेनान्यलक्षणाया अयुक्तत्वात्। न च गङ्गापदं स्वार्थपरित्यागेन तीरपदार्थमिव प्रकृते तत्पदं त्वंपदं वा स्वार्थपरित्यागेन त्वंपदार्थं तत्पदार्थं वा लक्षयत्विति कुतो न जहल्लक्षणेति वाच्यम्। तत्र तीरपदाश्रवणेन तदर्थाप्रतीतौ लक्षणया तत्प्रतीत्यपेक्षायामपि प्रकृते तत्त्वंपदयोः श्रूयमाणत्वेन तदर्थप्रतीतौ लक्षणया पुनरन्यतरपदेनान्यतरपदार्थप्रतीत्यपेक्षाभावात्। नापि शोणो धावतीतिवदजहल्लक्षणाप्यत्र सम्भवति, तत्र शोणगुणगमनलक्षणस्य वाक्यार्थस्य विरुद्धत्वात्तदपरित्यागेन तदाश्रयाश्वादिलक्षणया विरोधपरिहारसम्भवेऽप्यत्र परोक्षत्वापरोक्षत्वविशिष्टचैतन्यैकत्वस्य विरुद्धत्वात्तदपरित्यागेन तत्सम्बन्धियत्किञ्चिदर्थलक्षणायामपि विरोधापरिहारात्। न च तत्पदं त्वंपदं वा स्ववाच्यार्थविरुद्धांशं परित्यज्यांशान्तरसहितं तत्पदार्थं त्वंपदार्थं वा लक्षयतु कुतः प्रकारान्तरेण भागलक्षणाङ्गीकार इति वाच्यम्। एकेन पदेन स्वार्थान्तरोभयलक्षणाया असम्भवात् पदान्तरेण तदर्थप्रतीतेर्लक्षणया पुनः प्रतीत्यपेक्षाया अभावाच्च। तस्माद्यथा सोऽयं देवदत्त इति तदर्थो वा तत्कालैतत्कालविशिष्टदेवदत्तलक्षणस्य वाक्यार्थम्यांशे विरोधाद्विरुद्धतत्कालै तत्कालविशिष्टांशं परित्यज्याविरुद्धदेवदत्तांशमात्रं लक्षयति, तथा तत्त्वमसीति वाक्यं तदर्थो वा परोक्षत्वापरोक्षत्व-विशिष्टचैतन्यैक्यलक्षणस्य वाक्यार्थस्यांशे विरुद्धत्वाद्विरुद्धं परोक्षत्वापरोक्षत्वांशं परित्यज्याविरुद्धं चिदंशमात्रं लक्षयतीत्यभ्युपेयम्। एवं तत्त्वमसीतिवाक्यार्थे बोधितेऽहं ब्रह्मास्मीतिवाक्यादधिकारिणोऽहं नित्यशुद्धबुद्धमुक्त सत्यस्वभावपरमानन्दाद्वयं ब्रह्मास्मीत्यखण्डा-काराकारिता चित्तवृतिरुदेति सा तु चित्प्रतिविम्वसहिता सती प्रत्यगभिन्नमज्ञातं परब्रह्म विषयीकृत्य तद्गताज्ञानमेव बाधते, तदा पटकारणतन्तुदाहे पटदाहवदखिलकारणेऽज्ञाने बाधिते तत्कार्यस्याखिलस्य बाधितत्वात्तदन्तर्भूताऽखण्डाकारकारिता चित्तवृत्तिरपि बाधिता
भवति। तत्प्रतिविम्बितं चैतन्यमप्यादित्यप्रभया तदवभासनासमर्थदीपप्रभावत्स्वयंप्रकाशमानप्रत्यगभिन्नपरब्रह्मावभासनानर्हतया तेनाभिभूतं सत् स्वोपाधिभूताखण्डवृत्तेर्बाधितत्वाद्दर्पणाभावे मुखप्रतिविम्बस्य मुखमात्रत्ववत् प्रत्यगभिन्नं परब्रह्ममात्रं भवति, एवं सति “मनसैवानुद्रष्टव्यं” “यन्मनसा न मनुते” इत्यनयोरविरोधः। वृत्तिव्याप्यत्वाङ्गीकारेण फलव्याप्यत्वप्रतिषेधात्। तदुक्तम—“फलव्याप्यत्वमेवास्य, शास्त्रकृद्भिर्निवारितम्॥ ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय, वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता॥१॥” इति, “स्वयं प्रकाशमानत्वा–न्नाभास उपपद्यते॥” इति च। घटादिजडपदा- र्थाकाराकारितचित्तवृत्तिस्तदज्ञातघटादिविषयीकरणेन तदज्ञाननिरसनपुरःसरं स्वगतचिदाभासेन जडं घटादिकमपि भासयति दीपप्रभामण्डलमिव तमःस्थं घटादिकं विषयीकृत्य तद्गततमोनिरसनपूर्वं स्वप्रभया घटादिकमित्यस्ति विशेषः। एतदखण्डचिदेकाकारवृत्तेः शमादिगुणानां चाभ्यासादेव स्वरूपविश्रान्तिर्भवति, न तु सकृज्ज्ञानमात्रात्। तदुक्तं वसिष्ठेन–“न यावत्सममभ्यस्तौ, ज्ञानसत्पुरुषक्रमौ। एकोऽपि नैतयोस्तावत् पुरुषस्येह सिध्यति॥१॥” ‘इति यावद् यावदन्तर्मुखः सन्नाऽऽत्मतत्त्वं पश्यति, तावत्तावच्छमादिमान्न भवति,’ ‘यावद्यावदन्तर्मुखः सन् शमादिमान् भवति तावत्तावदात्मतत्त्वमीक्षत’ इत्यनुभवसिद्ध- त्वान्निर्विकल्पचिदेकाकारान्तः- करणवृत्त्यावृत्तिलक्षणज्ञानाभ्यासेन सहैव सत्पुरुषक्रमसंज्ञितं शमाद्युपेतात्मविचारमावर्तयेदित्येतदर्थः। शमादयः “शमदमोपरतितितिक्षासमाधानश्रद्धाः" तत्र शमः श्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यो मनोविनिग्रहः॥१॥दमो बाह्येन्द्रियाणां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यो निवर्तनम्॥२॥उपरतिर्विहितानां कर्मणां समाधिव्याक्षेपकत्वे विधिना परित्यागः॥३॥ तितिक्षा शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता॥४॥निगृहीतस्य मनसः श्रवणादौ तदनुगुणविषये च समाधिः समाधानं॥५॥गुरुवेदा-
दिवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा॥६॥अथ क आत्मविचारः?, उच्यते—श्रवणमनननिदिध्यासनसमाध्यनुष्ठानानि॥ श्रवणं नाम षड्भिर्लिङ्गैरशेषवेदान्तानामद्वितीयवस्तुनि तात्पर्यावधारणम्। लिङ्गानि तु ‘उपक्रमोपसंहाराऽभ्यासाऽपूर्वताफलाऽर्थवादोपपत्त्याख्यानि।’ प्रकरणप्रतिपाद्यस्य तदाद्यन्तयोरुपपादनमुपक्रमोपसंहारौ, यथा–छान्दोग्ये षष्ठे प्रकरणे “प्रतिपाद्यस्याद्वितीयवस्तुन एकमेवाद्वितीयमित्यादावेतदात्म्यमित्यन्ते च प्रतिपादनम्"॥१॥ प्रकरणप्रतिपाद्यस्य तन्मध्ये पौनःपुन्येन प्रतिपादनमभ्यासः, यथा तत्रैव “अद्वितीयवस्तुनस्तत्त्वमसीति नवकृत्वः प्रतिपादनम्॥२॥प्रकरणप्रतिपाद्यस्य प्रमाणान्तराविषयीकरणमपूर्वत्वम्, यथा तत्रैव “अद्वितीयवस्तुनो मानान्तराविषयीकरणम्”॥३॥ फलं तु प्रकरणप्रतिपाद्यार्थज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य वा तत्र श्रूयमाणं प्रयोजनं, यथा तत्र “आचार्यवान्पुरुषो वेद तस्य तावदेव चिरं यावन्न विमोक्षे(क्ष्ये) अथ च सम्पत्स्ये” इति, अद्वितीयवस्तुज्ञानस्य तत्प्राप्तिः प्रयोजनं श्रूयते॥४॥ प्रकरणप्रतिपाद्यस्य प्रशंसनमर्थवादः, यथा—तत्र “येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम्” इत्यद्वितीयवस्तुप्रशंसनम्॥५॥ प्रकरणप्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र श्रूयमाणा युक्तिरुपपत्तिः, यथा—“तत्र यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्” इत्यादावद्वितीयवस्तुसाधने विकारस्य वाचारम्भणमात्रत्वं युक्तिः श्रूयते॥६॥मननं तु श्रुतस्याद्वितीयवस्तुनो वेदान्तानुगुणयुक्तिभिरनवरतमनुचिन्तनम्॥विजातीयदेहादिप्रत्ययतिरस्कारेणाद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययप्रवाहो निदिध्यासनम्॥ समाधिर्द्विविधः सविकल्पको निर्विकल्पकथ। आद्यो ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयानपेक्षतयाऽद्वितीये वस्तुनि तदाकारकारितायावृत्तेरवस्थानं, मृन्मयगजादिभानेऽपि मृज्ज्ञानवद् द्वैतभानेऽप्यद्वैतवस्तुभानाम्युपगमः। तदुक्तमभिनीय—“दृशि-
स्वरूपं गगनोपमं वरं, सत्तद्विभातं त्वजमेकमक्षरम्।अलेपकं सर्वगतं यदद्वयं तदेव चाहं सततं विमुक्तः॥१॥” इति॥ अन्त्यस्तु ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयापेक्षयाऽद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारिताया वृत्तेरतितरामेकीभावेनावस्थानं, तदा जलाकाराकारितलवणानवभासे जलमात्रावभासवदद्वितीयवस्त्वाकाराकारितचित्तवृत्त्यनवभासेऽद्वितीयवस्तुमात्रमवभासते, ततश्चास्य सुषुप्तेर्नाभेदः, उभयत्र वृत्त्यमाने समानेऽपि तद्वृत्तिसद्भावासद्भावमात्रेण तयोर्भेदोपपत्तेः। अस्याङ्गानि “यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः (पातं. २अ.)–॥२९॥” “तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥१॥३०॥” “शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥२॥३२॥” पद्मकस्वस्तिकादी**न्यासनानि॥**३॥रेचककुम्भकपूरकाः प्राणायामाः॥४॥ इन्द्रियाणां स्वविषयेभ्यो निवर्तनं प्रत्याहारः॥५॥ अद्वितीयवस्तुन्यन्तरिन्द्रियधारणं धारणा॥६॥ तत्रैव विच्छिद्य विच्छिद्यान्तरिन्द्रियवृत्तिप्रवाहो ध्यानम्॥७॥ समाधिस्तु सविकल्प एव, अस्य निर्विकल्पकस्याङ्गिनो लय–विक्षेपकषाय–रसास्वादलक्षणाश्चत्वारो विघ्ना भवन्ति, लयस्तावदखण्डवस्त्वनवलम्बनेन चित्तवृत्तेर्निद्रा॥ तदवलम्बनेन चित्तवृत्तेरन्यावलम्बनं विक्षेपः॥ लयविक्षेपाभावेऽपि चित्तवृत्ते रागादिवासनया स्तब्धीभावादखण्डवस्त्ववलम्बनं कषायः॥ समाध्यारम्भसमये व्युत्थाने वा सविकल्पकानन्दास्वादनं रसास्वादः॥ एतद्विघ्नचतुष्टयरहितं चित्तं निर्वातदीपवदचलं सदखण्डचैतन्यमात्रं यदाऽवतिष्ठते तदा निर्विकल्पसमाधिरित्युच्यते॥८॥
तदुक्तम् “लये सम्बोधयेश्चित्तं, विक्षेपं शमयेत्पुनः। सकषायं विजानीयात् समाध्याप्तं न चालयेत्॥१॥ नास्वादयेद्रसं तत्र, निःसङ्गप्रज्ञया भवेत्”॥ इति। “यथा दीपो निवातस्थो, नेङ्गते सोपमा स्मृता॥” इति च।
उक्तस्वस्वरूपाखण्डब्रह्मज्ञानेन तदज्ञानबाधनद्वारा तत्कार्यसञ्चितकर्मसंशयविपर्ययादीनामपि बाधितत्वादखिलसम्बन्धरहितो व्युत्थानसमये मांसशोणितमूत्रपुरीषादिभाजनेन शरीरेणाध्यादिभाजनेनेन्द्रियेणाशनीयापिपासाशोकमोह भाजनेनान्तःकरणेन पूर्वपूर्ववासनया क्रियमाणानि भुञ्जानोऽपि च ज्ञानाविरुद्धारब्धफलानि पश्यन्नपि न पश्यतीन्द्रजालवत्, सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्ण” इत्यादि श्रुतेः, ईदृशश्च ब्रह्मणो जीवन्मुक्त इत्युच्यते। अस्य ज्ञानात्पूर्व विद्यमानानामाहारविहारादीनामनुवृत्तिवच्छुभ-वासनानामेवानुवृत्तिर्भवति, शुभाशुभयोरौदास्यं वा। तदुक्तं—**“बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य, यथेष्टाचरणं यदि॥ शुनां तत्त्वदृशां चैव, को भेदोऽशुचिभक्षणे॥१॥”**इति, तदानीममानित्वादीनि ज्ञानसाधनान्यद्वेष्टृत्वादयः सद्गुणाश्चाऽलङ्कारवदनुवर्तन्ते। तदुक्तम्—”उत्पन्नात्मावबोधस्य, अद्वेष्टृत्वादयो गुणाः॥ अशेषतो भवन्त्यस्य, न तु साधनरूपिणः॥१॥” इति॥ किं बहुना?अयं देहमात्रामात्रार्थी सुखदुःखलक्षणान्यारब्धफलान्यनुभवन्नन्तःकरणाभासादीनामवभासकः संस्तदवसाने प्रत्यगानन्दपरब्रह्मणि प्राणे लीनेऽज्ञानतत्कार्यसंस्काराणामपि विनाशात्परं कैवल्यमानन्दैकरसं अखिलभेदप्रतिभासरहितमखण्डं ब्रह्मावतिष्ठते “न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते विमुक्तश्च विमुच्यते” इति श्रुतेरिति॥
तदिदमखिलमिन्द्रजालम्। इत्थं ब्रह्माद्वैताभ्युपगमे बन्धमोक्षव्यवस्थाया एवानुपपत्तेः, बुद्धिप्रतिविम्बितं चैतन्यं जीव इति प्रतिविम्बवादे बुद्धिप्रतिविम्बस्य बन्धपदार्थस्य बुद्धिनिवृत्तौ दर्पणाभावे मुखस्येव शुद्धस्य चैतन्यस्य मोक्षपदार्थस्य च वक्तुमशक्यत्वात्, एकदर्पणाभावेऽपि दर्पणान्तरसन्निधौ मुख इवैकबुद्ध्यभावेऽपि बुद्ध्यन्तरसन्निधौ यावत्प्रतिविम्बाभावलक्षणायाः शुद्धश्चैतन्येऽसम्भवात्, यत्किञ्चित्प्रतिविम्बाभावस्य चातिप्रसञ्जकत्वात्, तद्बुद्धिप्रतिविम्बसामान्याभाव-
स्य चैतन्ये तञ्जीवमुक्ततोपगमेऽपि तत्रांशिकबन्धमोक्षोभयलक्षणप्रसङ्गेन निरंशत्वव्याघातात्। एतेन बुद्ध्युपहितस्तत्तादात्म्यापन्नस्वचिदाभासाविवेकादात्मैव जीव इत्याभासवादेऽपि केवलचैतन्यस्यैवाभासद्वारावबद्धत्वं तन्निवृत्तौ च मुक्तत्वं, अज्ञानाश्रयभूतं चैतन्यं जीव इत्यवच्छेदवादे चाज्ञानमेव भिन्नभिन्नं बन्धस्तन्निवृत्तिरेव च मोक्ष इत्यप्यपाकृतं द्रष्टव्यम्। एकचिदाभासाज्ञाननिवृत्तावप्यन्यतत्सत्वेन ब्रह्मण्यांशिकबन्धमोक्षोभयापत्तेरनुद्धारात्। अज्ञानप्रतिविम्बितं तदुपहितं वा चैतन्यं जीव इत्येकजीववादाख्यः प्राचां दृष्टिसृष्टिवादस्तु सर्वमुक्तिं विनैकमुक्त्यसिद्धेस्तदर्थमुमुक्षुप्रवृत्त्युच्छेदादेव दूरापास्तः। अथ व्यावहारिकमांशिकबद्धमुक्तोभयस्वरूपं पारमार्थिकं सहजमुक्तनिरंशब्रह्मस्वरूपं न विरुणद्धीति चेत्, किं नाम पारमार्थिकं सहजमुक्तत्वं?, प्रपञ्चसम्बन्धाभाव इति चेत्, सोयमभाव आत्मनो भिन्नोऽभिन्नो वा?, आद्ये द्वैतापत्तेब्रह्मणोऽसिद्धिप्रसङ्गः। तदुक्तं वार्त्तिके—“अव्यावृत्ताननुगतं, वस्तु ब्रह्मेति भण्यते॥ ब्रह्मार्थो दुर्लभोऽत्र स्याद्, द्वितीये सति वस्तुनि॥१॥” इति॥अन्त्ये च भावाभावशवलैकरूपं ब्रह्म स्यात्, ब्रह्मभाव एव प्रपञ्चाभावस्तदभाव एव च ब्रह्मभाव इत्येकतरस्य विनिगन्तुमशक्यत्वाच्छ्रुतेरप्यनुवृत्त्यंश इत्र व्यावृत्त्यंशेऽप्युपलम्भादिति स्याद्वादकक्षाप्रवेशः। किश्च सहजमुक्तत्वे ब्रह्मणो मुमुक्षूपदेशानर्थक्यं, अब्रह्मणो हि नोपदेशो जडत्वादसत्त्वाच्च, ब्रह्मणस्तु मुक्तत्वं स्वतःसिद्धं, जीवस्याविद्यानिवृत्तिरपि भेदाभेदविकल्पासहत्वान्न फलमिति कस्य कः किमुपदिशेत्?॥ अथ परमार्थतो नास्त्येवोपदेशफलं—“न निरोधो नचोत्पत्ति–र्न बाधो न च साधकः॥ न मुमुक्षुर्न वै मुक्त, इत्येषा परमार्थता॥१॥” इतिश्रुतेः। प्रतीतितस्तु फलमस्त्येवाविद्यानिवृत्तिरात्मानात्मा वेत्यादिविकल्पेन कस्याप्यर्थस्याख्यातुमशक्यत्वेऽप्युपदेश-फलस्य निर्विकल्पस्वरूपबोधस्या- ऽसम्प्रज्ञात-
समाधिसिद्धस्य प्रत्याख्यातुमशक्यत्वादिति, तदपेक्षया नोपदेशवैफल्यमिति चेत्, न, अविशिष्टप्रतीतेः स्वतः पुरुषार्थत्वाभावे तद्विषयब्रह्मणश्चाजन्यत्वेनोपदेशवैफल्यानुद्धारात्। किं च निर्विकल्पचिदेकाकारवृत्तिविषयत्वमपि ब्रह्मणो विषयताया भिन्नाभिन्नत्वविचारे दुर्घटम्।ब्रह्माकारत्वमेव ब्रह्मविषयत्वमिति चेत्, तस्याकारस्य वृत्तितादात्म्ये ब्रह्मणि कः सम्बन्धः?, ब्रह्मतादात्म्ये च वृत्तौ कः सम्बन्ध? इति विचार्यताम्। विचारासहे निर्विकल्पकसम्बन्धे को विचार इति चेत, अविचारितरमणीयस्वेच्छामात्रशरणानां मुग्धानामयं पक्षः, न तु परीक्षाक्षमाणाम्। अथ तत्त्वतो ब्रह्मासम्बन्धेऽपि निर्विकल्पकवृत्तेरज्ञाननिवर्तकत्वादेव ब्रह्मणि प्रामाण्यमिति चेत्, न, प्रामाण्ये सत्यज्ञाननिवर्तकत्वमज्ञाननिवर्तकत्वे च सति प्रामाण्यमित्यन्योन्याश्रयात्, स्वविषयप्रमात्वेनैवाविद्यानिवर्तकत्वान्निर्विकल्पस्य (तत्त्वमसीति) महावाक्या- र्थज्ञानस्यैवाबाधितविषयतया प्रमात्वेन तथात्वं, प्रत्यक्षादीनां तु बाधितविषयतया भ्रमत्वाद् व्यवहारसामर्थ्येन प्रामाण्याभिमानेऽपि न तथात्वमिति वेदान्तसिद्धान्तान्निर्विकल्पवृत्तिब्रह्मणोः सत्यसम्बन्धाभावे सर्वमेव विलूनशीर्णं स्यादिति मन्तव्यम्॥ अथास्तु महावाक्यजनिर्विकल्पके ब्रह्मण औपरागिक एव सम्बन्धः, प्रामाण्यं च द्वैतानवगाहित्वेनैव, अत एव घटादिद्वैतज्ञानस्याप्यज्ञाते सन्मात्रांशेऽद्वैतेऽज्ञातज्ञापकतया प्रामाण्याभ्युपगमेऽपि द्वैतावगाहितयाऽप्रामाण्यादेव नाज्ञाननिवर्तकत्वमिति चेत्, तत्किं द्वैतानवगाह्यद्वैतज्ञानत्वेनाज्ञाननिवर्तकत्वं?, ओमिति चेत्, सुषुप्तावतिप्रसङ्गः। महावाक्यजन्यतादृशज्ञानत्वेनाज्ञाननिवर्तकत्वमिति चेत्, न। स्ववासनामात्रशरणत्वात्, महावाक्यजन्यत्वनिवेशे द्वैतानवगाहित्वविशेषणवैयर्थ्यात्, विनापि विचारमापाततः सकृदाकर्णित-महावाक्यार्थज्ञानादज्ञाननिवृत्तिप्रसङ्गाच्च। वेदान्तजन्यनिर्विक- ल्पात्मकसाक्षात्कारस्य स्वतः प्रामाण्येऽपि वादिविप्रतिपत्तिजसंशयप्रतिबन्धे-
नाज्ञाननिवर्तकत्वासामर्थ्याद्विचारोऽप्यपेक्ष्यत इति चेत्?, तत्किं महावाक्यार्थज्ञानस्याज्ञाननिवर्तकतावच्छेदककोटौ वादिविप्रतिपत्तिज-संशयाभावकूटो निवेशनीयः, उत विचारपूर्वकत्वं?, आद्ये विप्रतिपत्त्यनुपस्थितावादित एवाज्ञाननिवृत्तिप्रसङ्गः, द्वितीये च विचाराणामननुगतत्वादननुगमः। अथ द्वैतज्ञानोपमर्दकयुक्तित्वेन विचाराणामनुगमः, अत एव **“फलवत्सन्निधावफलं तदङ्गम्”**इतिन्यायाद्धमसिद्धा अपि भिन्नभिन्ना जीवेश्वरविभागादिप्रक्रियाः शास्त्रेणानूद्यन्ते, तदनुवादपूर्वं द्वैतोपमर्दकयुक्त्यवतारेण प्रधानीभूतात्मतत्त्वसिद्धिसम्भवादिति चेत्, न, तथापि द्वैतज्ञानोपमर्दकयुक्त्युपबृंहितत्वं सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन द्वैताभावव्याप्यधर्मवत्ताज्ञानवैशिष्ट्यरूपं वाच्यम्, अन्यथातिप्रसङ्गात्, तच्च निर्धर्मके ब्रह्मणि न सम्भवतीत्यनुपपत्तेः, द्वैतज्ञानोपमर्दकयुक्त्युपवृंहितमहावाक्यार्थज्ञानत्वेन महावाक्यार्थज्ञानोपबृंहकतादृशयुक्तित्वेन वाऽज्ञाननिवर्तकत्वमितिविनिगमनाविरहाच्च। “**तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावाद्भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः”**इति श्रुतिरेव विचारपूर्वकमहावाक्यार्थजात्मसाक्षात्कारस्य साक्षादज्ञाननिवर्तकत्वं विनिगमयतीति चेत्, तर्हि तामेवपरिपृच्छ, कथं मायां मिथ्यात्वेन निवृत्तामपि ज्ञानेन निवर्तयमि? कथं वा प्रपञ्चवैचित्र्ये प्रवर्तयसि? कथं वा न जानामीति साक्षिप्रतीतिसिद्धाज्ञानशब्दवाच्यां तां ज्ञानस्य नित्यतया तदभावानुपपत्तेर्धर्मि- प्रतियोगिज्ञानाज्ञानाभ्यां च व्याघातापत्तेर्भावरूपामप्यनिर्वाच्यशब्देनापह्नोषि?, ज्ञानविरोधित्वेन भावत्वात् तात्त्विकरूपापेक्षया चाभावत्वादनिर्वाच्यत्वं न्यायायातमिति चेत, न, एवं ह्युभयरूपताया एव न्यायायातत्वात्, विरोधस्य समष्टिव्यष्ट्यभिप्रायेणैकत्रैकत्वानेकत्वयोरिवापेक्षाभेदेनैव परिहारात्, व्यावहारिकातिरिक्तसमष्टिस्वीकारे च चरमत्वाभिमततत्तत्समष्ट्यन्तर्भावेन क्लृप्तेषु यावत्सु समष्ट्यन्तरस्वीकारापत्तावनवस्थादौ-
स्थ्याद् व्यवहारस्यैवोच्छेदप्रसङ्गात् इत्थं चैकशब्देनोभयधर्मोपरक्तविवक्षायामनिर्वाच्यत्वमपि सप्तभङ्गीमहावाक्यस्थं सङ्गच्छते, सर्वथाऽनिर्वाच्यत्वे तु शशविषाणप्रख्यत्वमिति किं न विचारयसि?। तदिदमुक्तं प्रभुश्रीहेमसूरिभिः—
“**माया सती चेद् द्वयतत्त्वसिद्धि—रथाऽसती हन्त कुतः प्रपञ्चः॥ मायैव चेदर्थसहा च तत्किं, माता च वन्ध्या च भवेत्परेषाम्॥१३॥”**इति, कथं च ज्ञानस्य निर्धर्मकत्वनित्यत्वाद्यभिप्रैषि?, भेदेनाऽभेदेन वा धर्मधर्मिभावानुपपत्तेः, ज्ञानानित्यत्वपक्षे तद्व्यक्तिभेदध्वंसप्रागभाव-समवायज्ञानत्वजात्याद्यभ्युपगमे गौरवादेकत्वाभ्युपगमे चातिलाघवात् घटज्ञानं पटज्ञानमित्युपाधिमेदपुरस्कारेणैव ज्ञानभेदप्रतीतेः, वस्तुतस्तु ज्ञानं ज्ञानमित्येकरूपावगमात्तदुत्पत्तिविनाशप्रतीत्योश्चावश्यकल्प्यविषयसम्बन्धविषयतयाप्युपपत्तेः उपाधिपरामर्शमन्तरेण स्वत एव घटान्तराद् घटान्तरस्य भेदप्रतीतेस्तत्प्रतिवन्दिग्रहासम्भवादन्यथाऽऽकाशकालदिशामपि नानात्वापत्तिरित्यादियुक्तेरिति चेत्, न, एकैकविलक्षणजात्यन्तरात्मकभेदाभेदसम्बन्धेन धर्मधर्मिभावोपपत्तेः, तद्व्यक्तिभेदादिकल्पनापेक्षया तदभावकल्पनपुरःसरमेकत्वाभ्युपगम एव विपरीतगौरवात्सप्रतियोगिकपदार्थस्योपाधिभेदपुरस्कारेणैववास्तवभेदतिरोधानेऽभावादेरपि एकत्वापत्तेः सम्बन्धिविनिर्मोकेण ज्ञानं ज्ञानमित्यनुगतप्रतीत्यादिना तदैक्ये रूपं रूपमित्याद्यनुगतप्रतीत्यादिना रूपादेरप्यैक्यसिद्धिप्रसङ्गात्तद्भेदस्यापि घटरूपं पटरूपमित्याद्युपाधिपुरस्कारेणैव प्रतीयमानत्वात्। किं चैवंसत्सदित्यनुगतप्रतीत्या सदद्वैतं सिध्यतु, न तु ज्ञानाद्वैतम्। “अथ सच्चिदानन्दरूपं ब्रह्म” इति श्रुत्या सदद्वैतं चिदानन्दब्रह्मैकरसमेव सिध्यतीति चेत्, तर्हि सत्त्वचित्त्वानन्दत्वब्रह्मत्वरूपधर्मचतुष्टययोगान्निर्धर्मकत्वव्याघातः। सदाद्यात्मकमपि निर्विकल्पकदृष्ट्यैकमेव स्यादिति चेत्, सर्वात्मकमपि तदेकरूपं किं न स्यात्, एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञानादतीतानाग-
तानामपि द्रव्यार्थतया ध्रौव्याविगानात्। इत्थं हि “जे एगं जाणइत्ति” पारमेश्वरवचनानुसारितापि सङ्गच्छत इति तत्त्वदृष्ट्या विचारणीयम्॥ यदपि सोऽयं देवदत्तइति वाक्ये तत्कालविशिष्टैतत्कालविशिष्टयोरभेदस्य विरोधाद्विशेषणविशेष्यभावानुपपत्तेः शुद्धदेवदत्तव्यक्तौ लक्षणा स्वीकर्तव्येत्येतद्दृष्टान्तबलेन तत्त्वमसीतिवाक्येऽपि परोक्षत्वविशिष्टचैतन्यरूपतत्पदार्थस्य प्रत्यक्षत्वविशिष्टचैतन्यरूपत्वंपदार्थेन सहाभेदविरोधादखण्डब्रह्मणि जहदजहल्लक्षणा स्वीक्रियत इति निरूपितम्, तदपि तुच्छम्॥ सोऽयं देवदत्त इति वाक्ये लक्षणाभ्युपगमे बीजाभावात् तत्तेदन्ताविशिष्टयोर्भेदाभेदस्य सार्वजनीनत्वेन विरोधाभावात्, न हि प्रत्यक्षसिद्धेऽर्थे विरोधोनाम, अन्यथा चित्ररूपचित्रज्ञानादावपि नानारूपसमावेशबाधेनाखण्डांशलक्षणास्वीकारापत्तेः॥ प्रतीतिबलात्तत्राप्यखण्डांशे लक्षणा स्वीक्रियत एवेति चेत्, तर्हि द्रव्यनयदृष्ट्याऽखण्डप्रतिभासवत्पर्यायनयदृष्ट्या सखण्डप्रतिभासोऽपि सार्वजनीनो न ह्यवयवव्यतिरिक्तोऽवयवी कश्चिदनुभूयते इत्यखण्डवाचकपदस्य सखण्डांश एव किं न लक्षणा स्वीक्रियते?, न ह्येका प्रतीतिः स्वगृहकुटुम्बिनी अन्या च परगृहकुटुम्बिनीति त्वदिच्छामात्रं प्रामाणिकैरनुरोत्स्यते, उभयप्रतीत्यनुरोधे चोभयात्मकमेव वस्तु जिनेश्वरशिष्यीभूय विभाव्यताम्॥ तदिदमभिप्रेत्योक्तं भगवता सम्मतिकृता—**“सवियप्पणिव्वियप्पं, इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं॥ सवियप्पमेव वा णि-च्छयणएण ण स णिच्छिओ समए॥१-३५॥”**सखण्डाकारप्रतीतिविषयत्वं सविकल्पत्वम्, अखण्डाकारप्रतीतिविषयत्वं च निर्विकल्पत्वं, ततः प्रमाणमार्गेण सखण्डाखण्डोभयरूपत्वमेव वस्तुनो व्यवस्थितं, इत्थं चाखण्डैकरूपं ब्रह्म प्रतिपादयन् वेदो निश्चयनयमेवालम्बत इति विचारणीयम्। किं च शुद्धब्रह्मणि शक्यसम्बन्धरूपा बोध्यसम्बन्धरूपा वा लक्षणापि न सङ्गच्छते, तात्त्विकेऽर्थेऽनिर्वचनीय-
संसर्गस्य युक्त्यसहत्वात्, न च देवदत्तव्यक्ताविवाखण्डब्रह्मणि तात्पर्यसम्बन्धोऽपि पदानां सङ्गच्छते, तथाऽनधिगतेऽर्थे तात्पर्यानुपपत्तेः, तात्पर्यात्तथाधिगमे चान्योन्याश्रयः, प्रत्यक्षादखण्डानुभवस्त्वनुभवकलहग्रस्त इति न किञ्चिदेतत् तस्मात्तत्त्वमसीतिवाक्यं केवलज्ञानादिपरिणतिविशिष्टपरमात्मरूपतत्पदार्थेन सह सम्यग्दर्शनादिपरिणतिविशिष्टान्तरात्मरूपत्वंपदार्थस्य भेदाभेदतात्पर्येण समाधेयं सम्यग्दृष्टिभिः, इत्थमेव जीवात्मपरमात्मसमापत्तिसम्भवात्, ‘पुरुष एवेदं सर्वम्,’ इत्यादीनि च वेदान्तवाक्यानि पुरुषस्तुतिपराणि, जात्यादिमदत्यागहेतोरद्वैतभावनाफलानि द्रष्टव्यानि, अन्यथा “द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परं चापरं च" इत्यादिद्वैतप्रतिपादकश्रुतिसहस्रविरोधप्रसङ्गगात्॥ वेदवाक्यानि हि “कानिचिद्विधिपराणि, कानिचिदर्थवादपराणि, कानिचित्त्वनुवादपराणि”। तत्र ‘अत्राग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम’ इत्यादीनि विधिपराणि, अर्थवादस्तु स्तुतिनिन्दाभेदाद् द्विधा, तत्र ‘एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोतीत्यादिः स्तुत्यर्थयादो, विधित्वे शेषाग्निहोत्राद्यनुष्ठानवैयर्थ्यापत्तेः॥ “एष वः प्रथमो यज्ञो योऽग्निष्टोमः, योऽनेनानिष्ट्वाऽन्येन यजते स गर्तमभ्यपतेत्”, एष पशुमेधादीनां प्रथमकरणनिन्दार्थवादः॥“द्वादशमासाः संवत्सरः, अग्निरुष्णः, अग्निर्हिमस्य भेषजम्” इत्यादीनि वाक्यान्यनुवादप्रधानानि, लोकप्रसिद्धस्यैवार्थस्य तेष्वनुवादादिति, तस्मादद्वैतपराणि वेदवचनानि स्तुत्यर्थवादप्रधानानि द्रष्टव्यानीति महाभाष्यवृत्तौ व्यवस्थितम्। अत एव विधिशेषत्वाद्वेदान्तानां स्वार्थे न प्रामाण्यमिति मीमांसका अपि सङ्गिरन्ते। न च विधिशेषत्वमेषामसिद्धं, अर्थवादाधिकरणन्यायेन तत्सिद्धेः, न च स्वतः प्रयोजनवदर्थाप्रतिपादकानां ‘वायुर्वै क्षेपिष्ठ’ इत्येवमादीनां स्वाध्यायविधिग्रहणान्यथानुपपत्त्या प्रयोजनवदर्थपरत्वे कल्पनीये शब्दभावनेतिकर्तव्यतां-
शसाकांक्षस्य विधेः सम्प्रदानभूतदेवतास्तुतिद्वारेण तदंशपूरकत्वात् नष्टाश्वदग्धरथन्यायेन तदुभयैकवाक्यतेति तत्र निर्णीतत्वाद, वेदान्तवाक्यानां च परमानन्दप्राप्तिरूपप्रयोजनवद् ब्रह्मार्थप्रतिपादकानां निराकाङ्क्षतया वैषम्येन न शेषत्वसम्भावनेति वाच्यम्। कर्मविधीनां वेदान्तानाञ्च विषयविप्रतिषेधेनान्यतरशेषत्वधौव्ये प्रत्यक्षादिवाधितविषयतया वेदान्तानामेव शेषत्वौचित्यात्, ‘तमेवं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन’ इत्यादिश्रुतेः कर्मविधी नामेवान्तःकरणशुद्धिद्वारा विविदिषार्थतया शेषत्वमिति कश्चित् तन्न, तत्र यज्ञपदेन ‘यज्ञानां जपयज्ञोहम्’ इति वचनाद्गायत्रीजपादेरेव निरवद्यस्य ग्रहणात्, हिंसात्मकयागेषु मुमुक्षोरनधिकारात् प्रतिपदोक्तफलत्यागेन विविदिषार्थतया सावद्यकर्मणोऽप्यधिकाराभ्युपगमे मुमुक्षोः ‘श्येनेनाभिचरन्यजेत’ इत्यादिश्रुतेः श्येनयागादावप्यधिकारप्रसङ्गादित्यादि सांख्याचार्यैरेव निर्णीतमिति किमिति प्रसक्तानुप्रसक्त्या?। विस्तरार्थिना वैतद्विषयेऽस्मत्कृतस्याद्वादकल्पलता द्रष्टव्या॥सङ्ग्रहनयविचारः सम्पूर्णः॥
दर्शितेयं यथाशास्त्रं, सङ्ग्रहस्य नयस्य दिग्॥ वेदान्तदृष्टा(राद्वा)न्तहेतु—र्यशोविजयवाचकैः॥२॥
व्यवहरणं व्यवहारः, व्यवहरतीति वा व्यवहारः, विशेषतोऽवह्रियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति वा व्यवहारः, अयमुपचारबहुलो लोकव्यवहारपरः—“वच्चइ विणिच्छियत्थं, ववहारी सव्वदवेसु॥ त्ति” सूत्रम्। व्यवहारः सर्वद्रव्येषु विचार्य विशेषानेव सत्त्वेन व्यवस्थापयतीत्येतदर्थः, इत्थं ह्यसौ विचारयति—ननु सदिति यदुच्यते तद् घटपटादिविशेषेभ्यः किमन्यन्नाम, वार्तामात्रप्रसिद्धं सामान्यमनुपलम्भान्नास्त्येव। ननु अनुपलम्भमात्रं नाभावग्राहकम्, आकाशादावतिप्रसङ्गात्, किन्तु योग्यानुपलम्भस्तथा, योग्यत्वं च प्रतियोगितद्व्याप्येतरयावत्प्रतियोग्युपलम्भकसमवधानं, तच्चात्र नास्त्येव, सामान्य-
ग्राहकद्रव्योपयोगाभावात्, तत्सत्त्वेच सामान्यानुपलम्भस्यैवासिद्धेरिति चेत्, न। जलाहरणव्रणपिण्डीप्रदानादिव्यवहारस्य घटनिम्बपत्रादिविशेषैरेव क्रियमाणस्य दर्शनेन सामान्यस्य व्यवहारानिर्वाहकत्वेन द्रव्योपयोगेन तद्ग्रहेऽपि तस्य दोषजन्यज्ञानतयायथा भ्रमत्वेन ततो वस्त्वसिद्धेः। एतेन यदुच्यते सङ्ग्रहवादिना"यथाकटकशब्दार्थः, पृथक्त्वार्हो न काश्चनात्॥न हेम कटकात्तद्व–जगच्छन्दार्थतावरे॥१॥" इति॥तदपास्तम्। अत्र हि न हेम कटकादिति–हेम कटकात् पृथक्त्वार्ह नेति, नेत्यर्थः। स चायुक्तो, हेमसामान्यस्य यावत्कटकाङ्गदादिविशेषपार्थक्यासिद्धेः, शाखादियावदवयवभिन्नवृक्षाद्यूर्ध्वतासामान्यस्येव यावद्व्यक्तिभिन्न-तिर्यक्सामान्यानुपलब्धेः यद्वोक्तसूत्रस्य अधिकश्चयो निश्चयो यथाधिको दाघो निदाघः, स च निश्चयोऽत्र सामान्यं, तदभावो विनिश्चयः, तत्तदर्थं व्यवहारनयो व्रजति सामान्याभावार्थं यतत इत्यर्थः। ननु सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषं गृह्णता व्यवहारेण सामान्यमपि सम्भृतसामग्रीकतया ग्राह्यमेव, सूक्ष्मसूक्ष्मतरपर्यायनयत्यक्तस्यार्थस्य द्रव्यार्थिकविषयत्वात्। तदुक्तं सम्मतौ—“पञ्जवणयवुक्कंतं, वत्थू दव्वट्ठियस्स वत्तव्वं(वयणिज्जं)॥जावदविओवओगो, अपच्छिमवियप्पनिद्ययणो॥१-८॥” त्ति अत्र न विद्येने पश्चिमे विकल्पनिर्वचने सविकल्पकधीव्यवहारलक्षणे यत्र स तथा सङ्ग्रहावसान इति यावत्, ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्तेः, ईदृशो यावद्द्रव्योपयोगः प्रवर्तते तावद्द्रव्यार्थिकस्य वचनीयं वस्तु, तच्च पर्यायनयेन वि विशेषेण, उदृर्ध्वं, क्रान्तमेव विषयीकृतमेव पर्यायानाक्रान्तसत्तायां मानाभावादित्येकोऽर्थः॥ यद्वा यद्वस्तु सूक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमादिबुद्धिना पर्यायनयेन स्थूलरूपं त्यजता व्युत्क्रान्तं गृहीत्वा मुक्तं किमिदं मृत्सामान्यं यद्घटादिविशेषान्यबुद्धिविषयी भवेदित्येवमाकारेण यावच्छुक्लरूपतमोऽन्त्यो विशेषस्तावत्तत्सर्वं द्रव्यार्थिकस्य वच-
नीयं। यतो यावदपश्चिमविकल्पनिर्वचनोऽन्त्यो विशेषस्तावद्द्रव्योपयोगः प्रवर्तत इति द्वितीयोऽर्थः। अत एव द्रव्यपर्यायविषयताभ्यां तदितराविषयतया वा न शुद्धजातीयद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकभावव्यवस्था, किन्तूपसर्जनीकृतान्यार्थप्रधानीकृतस्वार्थविषयतयानेकान्तानुप्रवेशादेव। तदुक्तं—“दव्वट्विओत्ति तम्हा, णत्थि णओ णियमसुद्धजाईओ॥ ण य पज्जवट्विओणाम, कोइ भयणाइ उ विसेसो॥१-९॥” भजनोपसर्जनप्रधानभावावगाहना, तथा(या) च कथं वस्तुगत्या सामान्यविषयस्य व्यवहारस्य तदभावाऽर्थंयत्न इति चेत्, न हि सार्वजनीनो नयान्तरार्थप्रतिभासो नयान्तरेण बाध्यते, किन्तु तदप्रामाण्यं विषयीक्रियत इति ज्ञानप्रामाण्यसंशयादर्थसंशय इव तदप्रामाण्यनिश्चयात्तदर्थाभावनिश्चय इति सामान्यनयाप्रामाण्यनिश्चयप्रयुक्ततदभावनिश्चयत्वमेव तदभावार्थयत्नपरत्वमिति न कोऽपि दोषः। तदिदमुक्तं महावादिना—“दव्वट्ठियवत्तव्वं, अवत्थुणियमेण होइ पज्जाए (पज्जवणयस्स)॥तह पज्जववत्थुमव–त्थमेव—त्थुमेव दव्वट्वियणयस्स॥१-१०॥” अवस्त्वितरनयप्राधान्योपस्थितिजनिततन्नयाप्रामाण्यनिश्चयकृताऽवस्तुत्वनिश्चयविषयः, तथा चैतदभ्युच्चयार्थमुक्तं–“उप्पञ्जंति च(व)यंति अ, भावा णियमेण पज्जवणस्स॥दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पण्णमविणट्वं॥१-११॥" नन्वेवं सङ्ग्रहव्यवहारयोरवधारणांशे द्वयोरपि मिथ्यात्वं स्यात् सामान्यविशेषान्यतराभाववद्विशेष्यकत्वाभाववत्यन्यतरस्मिँस्तदभाववद्विशेष्यकत्वावगाहित्वादिति चेत्, स्यादेव उत्पादस्थितिभङ्गाः समुदिता हि द्रव्यलक्षणं, न तु प्रत्येकम् एकैकविनिर्मोकेण द्रव्याप्रतीतेरिति प्रत्येकलक्षणग्राहिणौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकौमूलनयाविह हि मिथ्यादृष्टी, न चास्ति तृतीयः कश्चिन्नय इति द्वयोर्मूलनययोरेव यदि परस्परात्यागरूपविशेषेण भज्यमानयोरेव सम्यक्त्वहेतुता, न तु निरपेक्षग्राहिणोः, तदा कैवप्रत्याशा निरपेक्षग्राहिणां मूलनया-
र्थप्रज्ञापनामात्रव्यापृतानां विशिष्टांशाधिगममात्रेण भेदभाजामुत्तरनयानां प्रामाण्ये इति। यद्वादी–“दव्वंपज्जवविजुयं, दव्वविजुत्ता य पज्जवाणत्थि॥उप्पायट्विइभंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं॥१-१२॥ एए पुण संगहओ, पाडिक्कमलक्खणं दुवेह्णंपि॥तम्हा मिच्छद्दिट्ठी, पत्तेयं दोवि मूलणया॥१३॥ ण य तइओ अस्थि णओ, ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुष्णं। जेण दुवे एगंता, विभज्जमाणा अणेगंतो॥१४॥ जह एए तह अण्णे, पत्तेअं दुष्णया णया सव्वे॥हंदि हु मूलणयाणं, पण्णवणे वावडा तेवि॥१५॥ सव्वणयसमूहम्मि वि, णत्थि णओ उभयवायपण्णवओ॥मूलनयाणं(ण उ)आणं, पत्तेयविसेसियं विंति॥१६॥”
नन्वेवं सर्वेऽपि नयवादा मिथ्या, स्वपक्षेणैव प्रतिहतत्वाच्चौरवाक्यवदित्यनुमानात्सर्वेषामेव नयानां मिथ्यादृष्टित्वे तत्समु दायेऽपि सम्यक्त्वं न स्यादिति चेत्, न, अन्योन्यनिश्रितत्वेन समुदाये सम्यक्त्वसम्भवात्। आह च—“तम्हा सव्वेविणया, मिच्छद्दिट्ठी सपक्खपडिवन्ना (बद्धा)॥अण्णुण्णणिस्सिया पुण, हवंति सम्मत्तसब्भावा॥१-२१॥“सम्यक्त्वस्य यथावस्थितप्रत्ययस्य, भावयन्तीति भावाः, सन्तो भावाः सद्भावाः अवन्ध्यकारणानीत्यर्थः। ज्ञानात्मकनयपक्षे सम्यक्त्वसद्भावाः सम्यक्त्वस्वभावा इति वार्थः। प्रत्येकं मिथ्यावधारणानामन्यनिश्रितसमुदायेपि कथं सम्यक्त्वं, स्वगोचरापरित्यागेन तत्रापि तेषां विषयान्तराप्रवृत्तेरिति चेत्॥ अत्र सम्मतिवृत्तिकृतः। प्रत्येकमप्यपेक्षितेतरांशस्वविषयग्राहकतयैव मन्तो नयास्तद्व्यतिरिक्तरूपतया त्वसन्त इति सतां सत्समुदाये सम्यक्त्वे न कश्चिद्दोषः। नन्वितरेतरविषयापरित्यागवृत्तीनां कथं ज्ञानानां समुदायः सम्भवति?येन तत्र सम्यक्त्वमभ्युपगम्येत, अनुक्तोपालम्भ एषः। न ह्येकदानेकज्ञानोत्पादतस्तेषां समुदायो विवक्षितः, अपि त्वपरित्यक्तेतररूपविषयाध्यवसाय एव समुदायः, अन्योन्यनिश्रिता इत्यनेनाप्ययमेवार्थः
प्रतिपादितः। न हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यामत्यन्तपृथग्भूताभ्यामङ्गुलिद्वयसंयोगवदुभयवादोऽपरः प्रारब्ध इत्याहुः॥
अत्रेदं भनाग्मीमांसामहे—ननु विशिष्टैकाध्यवसायस्य समुदायार्थत्वे द्वित्वविशिष्टावग्रहादिजनितघटपटोभयसमूहालम्बनव- त्सकलनयार्थसमूहावम्बनमेकं प्रमाणज्ञानं प्राप्नोति, तच्चायुक्तम्, क्रमिकनयवाक्यैः समूहालम्बनैकप्रमाणज्ञानजननायोगात्, सकलनयार्थवाचकस्य च वाक्यस्याप्येकस्य सप्तभङ्गया निषेत्स्यमानत्वात्, न च परेषामवयववाक्यार्थज्ञानजन्यन्यायवाक्यार्थज्ञानव- दस्माकमपि क्रमिकनयवाक्यार्थज्ञानजन्यमहावाक्यार्थज्ञानरूपप्रमाणात्मकैकाध्यवसायोपपत्तिरिति वाच्यम्। न्यायवाक्यस्थलेपि प्रतीत्यसमुत्पादेनैकैकजनितखण्डवाक्यार्थज्ञानसमुदायस्यैव महावाक्यार्थज्ञानत्वेनास्माभिरभ्युपगमात्, शबलाध्यवसायान्यथानुपपत्त्यापरमतस्यायुक्तत्वात्, अन्यथाङ्गुलिद्वयसंयोगस्थानीयोभयवादारम्भप्रसङ्गाच्च। किं चेयं कल्पना रत्नावलीदृष्टान्तेन नयप्रमाणात्मकैकचैतन्योपपादकसम्मतिवचनविरुद्धत्वादेवानुपादेया। एवं हि तत्— “जहऽणेगलक्खणगुणा, वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता॥रयणावलिववएसं, ण लहंति महग्घ(त्थ)मुल्लावि॥१-२२॥” यथानेकप्रकारा विषघातहेतुत्वादीनि लक्षणानि नीलत्वादयश्च गुणा येषां ते वैडूर्यादयो मणयः पृथग्भूता रत्नावलीव्यपदेशं न लभन्ते महार्थमूल्या अपि॥ “तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णुण्णपक्खणिरवेक्खा।सम्मद्दंसणसद्दं, सव्वेवि णया ण पाविंति॥१-२३॥” तथा प्रमाणावस्थायामितरसव्यपेक्षस्वविषयपरिच्छेदकाले वा स्वविषयपरिच्छेदकत्वेन सुविनिश्चिता अप्यन्योन्यनिरपेक्षाः प्रमाणमित्याख्यां सर्वेऽपि नया न प्राप्नुवन्ति, निजे वा (च इतर) निरपेक्षसामान्यादिवादे सुविनिश्चिता अपि हेतुप्रदर्शनकुशला अपि, अन्योन्यपक्षनिरपेक्षत्वात्सम्यग्दर्शनशब्दं सुनया इत्येवं रूपं, सर्वेऽपि सङ्ग्रहादयो
नया न प्राप्नुवन्ति॥ “जह पुण ते चेवमणी, जहागुणविसेसभागपडिबद्धा॥ रयणावलित्ति भण्णइ, जहेंति पाडेक्कसण्णाओ॥१-२४॥” यथा पुनस्त एव मणयो यथागुणविशेषपरिपाट्या प्रतिबद्धा रत्नावलीति भण्यन्ते, प्रत्येकाभिधानानि च त्यजन्ति रत्नानुविद्धतया रत्नावल्यास्तदनुविद्धतया च रत्नानां प्रतीतेः, रत्नीयसन्निवेशविशेषस्य तद्विशिष्टरत्नानां वा रत्नावलीशब्दवाच्यत्वाद्विशिष्टानामविशिष्टवाचकशब्दावाच्यत्वाद्विशिष्टाविशिष्टयोः कथञ्चिद्भेदस्य प्रातीतिकत्वात्॥ “तह सव्वेणयवाया, जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा॥ सम्मद्दंसणमद्दं, लहंति ण विसेससण्णाओ॥१-२५॥” तथा सर्वे नयवादा यथानुरूपविनियुक्तवक्तव्याः यथेतिवीप्सार्थे, यद् यदनुरूपं तत्र तत्र विनियुक्तं वक्तव्यमुपचारात्तद्वाचकः शब्दो येषां ते तथा, सम्यग्दर्शनं प्रमाणमित्याख्यां लभन्ते, न विशेषसंज्ञाः पृथग्भूताभिधानानि, अजहद्वृत्त्यैकोपयोगत्वविशिष्टकाङ्क्षसकलनयवाक्यजनितनयज्ञानानां तादृशनयज्ञानीया- ऽजहद्वृत्त्यैकोपयोगस्य वा प्रमाणशब्दवाच्यत्वाद्विशिष्टनयात्मकस्यापि प्रमाणचैतन्यस्य शुद्धनयशब्दवाच्यत्वात् नन्ववग्रहादिचतुष्टयात्मकमतिज्ञानोपयोगव-त्साकाङ्क्षसकलनयवाक्यजनितनयप्रमाणात्मकचैतन्यस्याध्यक्षसिद्धत्वात्तत्ररत्नावलीदृष्टान्तोपादानं व्यर्थमिति चेत्, न, एकानेकात्मकोपयोगे स्वसंवेदनसिद्धेऽपि वादिविप्रतिपत्तिजसंशयनिरासेन निश्चयदार्ढ्यार्थं तदुपपादनात्॥ तदाह—“लोइय परिच्छयसुहो, णिच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य॥ अह पष्णवणाविसओत्ति, तेण वीसत्थमुवणीओ॥१-२६॥” लौकिकपरीक्षकाणां व्युत्पत्तिविकलतद्युक्तप्राणिनां सुखः सुखप्रतिपत्त्युपायः, निश्चयवचनस्यैकानेकात्मकनिश्चयवाक्यस्य प्रतिपत्तिमार्गः प्रामाण्यप्रदर्शकः, अथेत्यवधारणे, प्रज्ञापनाविषयः प्रकृतनिदर्शनवाक्यविषयो रत्नावलीदृष्टान्त इति,
तेन कारणेन, विश्वस्तं निःशङ्कं यथा ज्ञायते तथा, ज्ञापयितुं इति शेषः। उपनीत उपदर्शितः। न चावल्यवस्थातः प्रागुत्तरकाले च रत्नानां नियतोपलम्भात्प्रमाणावस्थायाश्च प्रागुत्तरकालं नयानां तदभावादुदाहरणवैषम्यमिति वाच्यम्। प्रमाणस्यैकाने कात्मकोपपत्तिमात्रार्थमा-वल्यवस्थोदाहरणोपादानात्, सर्वथासाम्ये दृष्टान्तदार्शन्तिकभावानुपपत्तेः। रत्नादिकारणेष्वावल्यादिकार्यं सदेवेति साङ्ख्यः, तेषामेवानेन रूपेण व्यवस्थितत्वात्तदव्यतिरिक्तं विकारमात्रं कार्यं परिणमत एवेति सांख्यविशेषः। न खलु कार्यं कारणे प्रागुत्पत्तेर्विद्यते, न वा कारणं कार्यरूपेण परिणमते, किन्तु तत्र पृथग्भूतमेव कार्यं सामग्रीत उत्पद्यते इति वैशेषिकादयः। न कार्यं कारणं वास्ति द्रव्यमात्रमेव तत्त्वमित्यपरे॥ इति नानाविधाभिप्रायवदेकान्तवादिमते दृष्टान्तस्य साध्यसमतेत्यत आह—“इहरा समूहसिद्धो, परिणामकओव्व जो जहिं अत्थो॥ते तं वणतं तं चे—व त्ति णियमेण मिच्छत्तं॥१-२७॥” इनरथोक्तप्रकारानभ्युपगमे, समूहसिद्धो रत्नावल्यादिः, परिणामकृतो वा क्षीरादिषु दध्यादिर्यः, यत्रार्थः सर्वस्यैव परमाणुसमूहपरिणामोभयकृतत्वेऽपि विकल्पाभिधानं लौकिकव्यवहारापेक्षया, ते रत्नादयः, तदेवावल्यादिकमेव, तद्दध्यादिकं न तदेव न क्षीरादिकमेवेति, नियमेन मिथ्यात्वं, सत्कार्यवादे कारणव्यापारवैफल्यप्रसङ्गात्, असत्कार्यवादे च क्षीरादिकमेव दध्यादित्वेन परिणतमिति व्यवहारविलोपप्रसङ्गात् सदसत्कार्याभ्युपगमे च तिर्यक्प्रचयेनैवोर्ध्वताप्रचयेनापि सामूहिकव्यवहारक्षमकार्यसम्भवादात्मद्रव्यानुस्यूतनयप्रमाणा- त्मकचैतन्यमप्रत्यूहमिति भावः॥ एतदेवाह–“णिययवयणिज्जसच्चा, सव्वणया परवियालणे मोहा॥ते पुण ण दिट्ठसमओ, विभयइ सच्चे व अलिए वा॥१-२८॥“निजकवचनीये स्वांशे परिच्छेद्ये, सत्याः सम्यग्ज्ञानरूपाः, सर्व एव नयाः सङ्ग्रहादयः परविचालने
परविषयोत्खनने, मुह्यन्तीति मोहा मिथ्याप्रत्ययाः, परविषयस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुं अशक्यत्वात्, तदभावे स्वविषयस्याप्यव्यवस्थितेः, तस्मात्तानेव नयान् पुनः शब्दस्यावधारणार्थत्वाद्, दृष्टसमयो निर्णीताने कान्ततत्त्वः, सत्यान्वाऽलीकान्वा न विभजते, अपि तु प्रमाणावस्थायां सापेक्षतया स्यादस्त्येव द्रव्यार्थत इत्यादिरीत्या नयविषयं विभजेतेत्यर्थः। तस्मान्नयप्रमाणात्मकमेकरूपमेवात्मस्वरूपं व्यवस्थितं, तत्र कथं विशिष्टैकाध्यवसायलक्षणसमुदायार्थत्वोपपत्तिरिति चेत्, सत्यम्, अपरित्यक्तेतररूपविषयाध्यवसाय एव समुदाय इत्यत्रैकत्वस्याविवक्षितत्वादपरित्यक्तेतररूपविषयत्वस्यैव समुदायार्थस्य नयप्रमाणसाधारणस्याभिप्रेतत्वात्सकलनयज्ञानं प्रमाणं, तदेकदेशग्राहका इतराप्रतिक्षेपिणो नयाः, तत्प्रतिक्षेपिणश्च दुर्नया इति त्रैविध्यव्यवस्थानात्, तथा च स्तुतिकारः (श्रीहेमसूरिः) “सदेव सत्स्यात्सदिति त्रिधार्थो, मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः॥ यथार्थदर्शी तु नयप्रमाण–पथेन दुर्नीतिपथं त्वमास्थ॥२८॥” इति॥किमतिविस्तरेण?॥ ननु तथापि विसामान्यार्थयत्नो व्यवहारनयस्यानुपपन्नः, इतरार्थप्रतिक्षेपे नयत्वायोगादिति चेत्, सत्यं, दुर्नयावस्थायामेव तदुपपत्तेः, अथवा परेषां प्रमाणानुग्राहकतर्कस्येव विसामान्यार्थयत्नस्यात्र स्वार्थदार्ढ्यायेवापेक्षा, न त्वितरांशप्रतिक्षेपमुख्योद्देशेन तादृशोद्देशस्यैव च दुर्नयत्वप्रयोजकत्वमिति न कश्चिद्दोष इत्यादि निर्णीतं नयरहस्यादावस्माभिः। अथवा ‘वच्चइ’ इत्यादेर्लोकव्यवहारो विनिश्चयस्तदर्थं व्रजति व्यवहार इत्यर्थः तथाहि॥निश्चयनयमतेन भ्रमरादेः पञ्चवर्णद्विगन्धपञ्चरसाऽष्टस्पर्शवत्त्वेसत्यपि यत्र कृष्णवर्णादौ जनपदस्य निश्चयो भवति तमेवार्थं व्यवहारनयः स्थापयति, न तु सम्मतमप्यन्यं, तथैव लोकयात्रानिर्वाहात्, न चैवं भ्रमरो न श्वेत इत्याद्यध्यक्षशाब्दयोरतस्मिंस्तद्ग्राहकत्वेन लौकिकप्रामाण्यमपि न स्यादिति शङ्कनीयम्, न श्वेत
इत्याद्यध्यक्षस्योद्भूततया श्वेताद्यभावविषयकत्वोपगमात् तादृशशब्दस्थले च भावसत्यता ग्राहकव्युत्पत्तिमहिम्ना श्वेतादि- पदानामुद्भूतश्वेतादिपरत्वग्रहेण दोषाभावादिति दिग्॥ अस्मान्नादेकान्तनित्यचेतनाचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकं सांख्यदर्शनमुत्पन्नम्। यद्वादी “जं काविलं दरिसणं, एयं दवट्वियस्स वत्तव्वं” ति॥द्रव्यार्थिकपदमत्र व्यवहारलक्षणाशुद्धद्रव्यार्थिकपरं द्रष्टव्यम्, शुद्धद्रव्यार्थिकप्रकृतेः सङ्ग्रहनयरूपाया वेदान्तदर्शनोत्पत्तिमूलताया उक्तत्वात्। तस्य चेयं प्रक्रिया—“महदादिकार्यग्रामजनकाशेषशक्तिप्रचितात् प्रधानादेव कार्यभेदाः प्रवर्तन्ते, तच्च सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थालक्षणं, ततः प्रथमं बुद्धिरुत्पद्यते, बुद्धेरहङ्कारः, अहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकानि इन्द्रियाणि चैकादशोत्पद्यन्ते, तत्र श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणलक्षणानि बुद्धीन्द्रियाणि पञ्च, वाक्पाणिपादपायूपस्थसंज्ञानि कर्मेन्द्रियाणि च पञ्च, एकादशंच मन इति, पञ्चभ्यस्तन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतानि, शब्दादाकाशः, स्पर्शाद्वायुः, रूपात्तेजः, रसादापः, गन्धात्पृथिवीति,” तदुक्तमीश्वरकृष्णेन (सांख्यकारिका)—“प्रकृतेर्महांस्ततोऽह–ङ्कारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः॥तस्मादपि षोडशकात्, पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि॥२२॥” अत्र च महानिति बुद्ध्यभिधानं, वुद्धिश्च घटः पट इत्याद्यध्यवसायलक्षणा, अहङ्कारस्त्वहं सुभगोऽहं दर्शनीय इत्याद्याकारः, मनस्तु सङ्कल्पलक्षणं, यथा कस्यचिद्वटोर्ग्रामान्तरे भोजनमस्तीति गृण्वतः सङ्कल्पः स्यात् यास्यामि किं तत्र दधि स्यादुतस्विद्दुग्धमिति, तदयं बुद्ध्यहङ्कारमनसां भेदो मन्तव्यः, महदादयः २३ प्रधानपुरुषौचेति पञ्चविंशतिस्तत्त्वानि, यज्ज्ञानमात्रादेव सर्वेषां मुक्तिः, न तु वर्णाश्रमोचिताचारस्याप्यपेक्षा। तदुक्तम्—“पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र य(त)त्राश्रमे रतः॥ जटी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः॥१॥ इति॥” महदादयश्च प्रधानात्प्रवर्तमाना न कारणाद-
त्यन्तमेदिनो भवन्ति बौद्धाद्यभिमता इव कार्यभेदाः, किन्तु त्रैगुण्यादिना प्रधानात्मान एव, तथाहि—यथा प्रधानं त्रिगुणात्मकं तथा बुद्ध्यहङ्कारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मकं व्यक्तमपि त्रिगुणात्मकं कृष्णादितन्त्वारब्धपटादेः कृष्णादित्वस्यैवोपलम्भेन कारणगुणानुरूपगुणस्यैव कार्यस्य सिद्धेः। किञ्च ‘इमे सत्त्वादयो गुणा इदं च महदादि व्यक्तम्’ इति न शक्यते विवेक्तुं, किन्तु ये गुणास्तद् व्यक्तं यद् व्यक्तं ते गुणा इत्यविवेक्येवोभयं तथोभयमप्यविशेषतो विषयो भोग्यस्वभावत्वात्, सर्वपुरुषाणामविशेषेण भोग्यत्वात्, पण्यस्त्रीवद्, अचेतनं च सुखदुःखमोहावेदकत्वात्, प्रसवधर्मि च यतः प्रधानं बुद्धिं सामान्यं च जनयति, माप्यहङ्कारं, सोऽपि तन्मात्राणीन्द्रियाणि च तन्मात्राणि च महाभूतानि जनयन्तीति तस्मात्त्रैगुण्यादिना तद्रूपा एवकार्यभेदाः प्रवर्तन्ते। यथोक्तम्(सांख्यकारिका)—“त्रिगुणमविवेकिविषयः, सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मिं। व्यक्तं तथा प्रधानं, तद्विपरीतस्तथा च पुमान्॥११॥ इति।” अथ यदि तद्रूपा एव कार्यभेदाः कथं शास्त्रे व्यक्ताव्यक्तयोर्वैलक्षण्योपवर्णनं “हेतुमदनित्यमव्यापि, सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम्॥ सावयवं परतन्त्रं, व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम्”॥१०॥ इति क्रियमाणं शोभेत?। अत्र ह्ययमर्थः—हेतुमत्कारणवद् व्यक्तमेव, बुद्ध्यादीनामेव प्रधानादिहेतुमत्त्वात् नत्वेवमव्यक्तं कुतश्चित् यतोऽनित्यम्, अन्यतो हेतुमत्त्वाऽसिद्धेरेतद्धेत्वभिधानमिति न पौनरुक्त्यम्, तथा प्रधानपुरुषौयथा विभ्रुत्वेन व्याप्त्या वर्तेते इति तौ व्यापिनौ, नैवं व्यक्तमिति तदव्यापि, यथा च संसारकाले बुद्ध्यहङ्कारेन्द्रियसंयुक्तं सूक्ष्मशरीराश्रितं व्यक्तं संसारि, नैवमव्यक्तं, तस्य विभुत्वेन सक्रियन्वायोगात्, बुद्ध्यहङ्कारादिभेदेन चानेकविधं व्यक्तमुपलभ्यते, नाव्यक्तं, तस्यैकस्यैव सतस्त्रैलोक्यकारणत्वात्, आश्रितं च व्यक्तं यद् यत्रोत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात्,
तानीति, ततस्तत्कारणमेकमेष्टव्यं परिमितत्वेनोपलभ्यमानघटादेरिवमृदादि, तदेव प्रधानं॥१॥ तथा भेदानां समन्वयात्कारणजात्यनुवृत्तिदर्शनात्, यज्जातिसमन्वितं हि यदुपलभ्यते तत्तन्मयकारणसम्भूतं यथा घटशरावादयो मृज्जात्यन्विता मृदात्मककारणसम्भूताः, सुखदुःखमोहादिजातिसमन्वितं चेदं व्यक्तमुपलभ्यते, प्रसादतापदैन्यादिकार्योपलब्धेः तथाहि, प्रसादलाघवाभिष्वङ्गाद्धर्षप्रीतयः सत्त्वस्य कार्यं, सुखमिति न सत्त्वमेवोच्यते, तापशोपभेदस्तम्भोद्वेगा रजसः कार्यं, रजश्च दुःखं, दैन्यावरणसादनावध्वंसबीभत्सगौरवाणि तमसः कार्यं, तनश्च मोहशब्देनोच्यते, एषां च महदादीनां सर्वेषां प्रसादतापदैन्यादिकार्यमुपलभ्यत इति सुखदुःखमोहानां त्रयाणामेते सन्निवेशविशेषा इत्यवसीयते, तेन सिद्धमेतेषां प्रसादादिकार्यतः सुखाद्यन्वितत्वं, तदन्वयाच्च तन्मयप्रकृतिसम्भूतत्वमिति प्रधानसिद्धिः॥२॥ तथेह लोके यो यस्मिन्नर्थे प्रवर्तते स तत्र शक्तो यथा तन्तुवायः पटकरणे, अतो व्यक्तोत्पादनार्थं प्रवर्तमानं किञ्चित्कारणं शक्तिमदेष्टव्यं, तदेव प्रधानमिति शक्तितः प्रधानसिद्धिः॥३॥तथेहलोके कार्यकारणयोर्विभागो दृष्टः, तद्यथा—मृत्पिण्डः कारणं घटः कार्यं,
…च मृत्पिण्डाद्विभक्तः, तथाहि, घटो मधूकपयसां धारणसमर्थो न मृत्पिण्डः, एवमिदं महदादिकार्यमपि विभक्तमुपलभ्यमानं प्रधानं कारणं साधयतीति॥४॥तथा वैश्वरूप्यं नाम त्रयो लोकाः, तदविभागात्प्रधानसिद्धिः, तथाहि, प्रलयकाले पञ्च भूतानि पञ्चसु तन्मात्रेष्वविभागं गच्छन्ति, तन्मात्राणीन्द्रियाणि चाहङ्कारे, अहङ्कारस्तु बुद्धौ, बुद्धिः प्रधान इति। अविभागोऽविवेको, यथा क्षीरावस्थायामन्यत्क्षीरमन्यद्दधीति विवेको न शक्योऽभिधातुं, तद्वत्प्रलयकाले ‘इदं व्यक्तमिदमव्यक्तम्’ इति विवेकोऽशक्यक्रिय इति मन्यामहेऽस्ति प्रधानं यत्र महदादिलिङ्गमविभागं गच्छतीति, सत्त्वरजस्तमोलक्षणसामान्यमेकमचेतनं द्रव्यमनेकं व चेतनं द्रव्य-
मर्थोऽस्तीत्यशुद्धद्रव्यार्थिको व्यवहारनयः साङ्ख्यदर्शनरूपः प्रवृत्तः। सोऽयं मिथ्या, विचारासहत्वात्। तथाहि—प्रधानादेव महदादिकार्यभेदाः प्रवर्तन्त इति यदुक्तं, तत्र यदि महदादयः कार्यविशेषाः प्रधानस्वभावा एव, कथमेषां कार्यतया ततः प्रवृत्तिर्युक्ता, न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तं तत्तस्य कार्यं कारणं वेति व्यपदेष्टुं युक्तं, कार्यकारणयोर्भिन्नलक्षणत्वात्, इत्थं च यदीश्वरकृष्णेनोच्यते– “मूलप्रकृतिरविकृति–महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त॥ षोडशकश्च विकारो, न प्रक्रतिर्न विकृतिः पुरुषः॥३॥” इति, तत्सर्वमिदमिन्द्रजालं, सर्वेषां परस्परमव्यतिरेकात्कार्यत्वकारणत्वान्यतरस्यैव प्रसङ्गात्, अन्यापेक्षत्वात्कार्यकारणभावस्यापेक्षणीय-रूपान्तराभावान्पुरुषवदप्रकृतिविकृतित्वप्रसङ्गाद्वा, अन्यथा पुरुषस्यापि प्रकृतिविकृतिव्यपदेशप्रसक्तेः, तत्सुष्ठुपहस्यते कापिलाचार्योऽसत्कार्यवादिभिः। “यदेव दधि तत्क्षीरं, यत्क्षीरं तदधीति च॥ वदता विन्ध्यवासित्वं, व्यापितं विन्ध्यवासिना॥१॥” इति। हेतुमत्त्वादिधर्मयुक्तव्यक्तविपरीतमव्यक्तमित्येतदपि बालप्रलापानुकारि, न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तस्वभावं तत्ततो विपरीतं युक्तम्, भेदव्यवहारोच्छेदप्रमङ्गात्, सत्त्वरजस्तमसां चैतन्यानानपि च परस्परभेदाभ्युपगमस्य निर्निमित्तत्वापत्तेः, अभेदेऽपि परस्परवैपरीत्यसम्भवान्, अपि चान्वयव्यतिरेकाभावादपि प्रधानादिभ्यो महदाद्युत्पत्तिक्रमोऽप्रामाणिकः। किञ्च नित्यस्य क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधादप्यसावयुक्तः। अथ नास्माभिरपूर्वस्वभावो- त्पत्त्याकार्यकारणभावोऽभ्युपगम्यते, यद्रूपभेदादसौ विरुध्येत, किन्तु प्रधानं महदादिरूपेण परिणतिमुपगच्छति सर्पः कुण्डलादिरूपेणेवेति प्रधानं महदादिकारणमिति व्यपदिश्यते, महदादयस्तु तत्परिणामरूपत्वात् कार्यव्यपदेशमासादयन्ति न च परिणामोऽभेदेऽपि विरोधमनुभवति, एकवस्त्वधिष्ठानत्वात्तस्येति, असम्यगेतत्; परिणामा-
सिद्धेः, तथा ह्यसौ पूर्वरूपप्रच्युतेस्तदप्रच्युतेर्वेति कल्पनाद्वयं, तत्र यद्यप्रच्युतेरिति पक्षः, तदाऽवस्थासाङ्कर्याद् वृद्धाद्यवस्थायामपि युवत्वाद्यवस्थोपलब्धिप्रसङ्गः, अथ प्रच्युतेरितिपक्षः, तदा पूर्वस्वभावान्तरं निरुद्धमपरं चोत्पन्नं स्थिरं किश्चित् स्थितमिति न कस्यचित्परिणामः सिध्येत्। अपि च तस्यैवान्यथाभावः परिणामो भवद्भिर्वर्ण्यते स च एकदेशेन सर्वात्मना वा?, न तावदेकदेशेन, एकस्यैकदेशासम्भवात्। नापि सर्वात्मना पूर्वपदार्थविनाशेन पदार्थान्तरोत्पादप्रसङ्गात्, अतो न नित्यैकान्ते तव तस्यैवान्यथात्वं युक्तम्, तस्य स्वभावान्तरोत्पादनिबन्धनत्वात्। व्यवस्थितस्य धर्मिणोधर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरप्रादुर्भावलक्षणः परिणामोऽभ्युपगम्यते, न तु स्वभावान्यथात्वं, क्रमिको भयधर्मैकस्वभावस्य वस्तुनोऽव्याहतत्वादिति चेत्, असदेतत्, यतः प्रच्यवमान उत्पद्यमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा धर्मिण्यवस्थिते तस्य तिरोभावाविर्भावासम्भवात्। तथाहि, यस्मिन्वर्तमाने यो व्यावर्तते स ततो भिन्नो, यथा घटेऽनुवर्तमाने ततो व्यावर्तमानः पटः, व्यावर्तते च धर्मिण्यनुवर्तमानेऽपि आविर्भावतिरोभावासङ्गी धर्मकलाप इति कथमसौ ततो न भिद्यत इति, ततो धर्मी तदवस्थ एवेति कथं परिणतो नाम॥ न ह्यर्थान्तरभूतयोः कटपट्योरुत्पादविनाशाभ्यामचलितरूपस्य घटादेः परिणामो भवति, अतिप्रसङ्गात्, अन्यथा चैतन्यमपि परिणामि स्यात्। तत्सम्बद्धयोर्धर्मयोरुत्पादविनाशाभ्यां तस्य परिणामोऽभ्युपगम्यते, नान्यस्य, चैतन्यसम्बद्धस्तु न कोऽपि धर्म उत्पादविनाशयोगी, कूटस्थनित्यत्वश्रुतेस्तस्य निर्धर्मकत्वाभ्युपगमादिति नातिप्रसङ्ग इति चेत्, न, तथापि धर्मिभिन्नसम्बन्धाभ्युपगमे तस्यापि सम्बन्धान्तरगवेषणायामनिष्टापातात्, तदभिन्नसम्बन्धाभ्युपगमे चार्थान्तरवादक्षतेः न च व्यतिरिक्तधर्मान्तरोत्पादविनाशाभ्यां परिणामः सांख्यैर्व्यवस्थापितः, किन्तु यत्रा-
त्मभूतैकस्वभावानुवृत्तिरवस्थाभेदश्चतत्रैव तद्व्यवस्था कृता, न च धर्मिणः सकाशाद्धर्मयोर्व्यतिरेके सत्येकस्वभावानुवृत्तिरस्ति, यतो धर्म्येव तयोरेक आत्मा स च व्यतिरिक्त इति, न च निरुध्यमानोत्पद्यमानधर्मद्वयव्यतिरिक्तो धर्मी उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृग्गोचरमवतरति कस्यचिदिति तादृशोऽसद्व्यवहारविषयतैव। अथानर्थान्तरभूत इति पक्षः कक्षीक्रियते, तथाप्येकस्माद्धर्मिस्वरूपादव्यति रिक्तत्वात्तिरोभावाविर्भाववतोर्धर्म योरप्येकत्वं धर्मिस्वरूपवदिति केन रूपेण धर्मी परिणतः स्याद्धर्माभ्यां च धर्मिणोऽनन्यत्वात्तस्य निवृत्तिप्रादुर्भावौ स्यातामिति नैकस्य कस्यचित्परिणामित्वं सिद्धयेत्, उभयजननैकस्वभावत्वं च कथञ्चित् प्रागभावप्रध्वंसात्मक वस्तुसत्ताभ्युपगन्तृस्याद्वादिमत एव शोभत इति न परिणामवशादपि सांख्यानां कार्यकारणव्यवहारः सङ्गच्छते॥ यच्चासत्कार्यवादेऽसदकरणादित्यादिदूषणमभ्यधायि तत्सत्कार्यवादेऽपि तुल्यं, तथाहि, सत्कार्यवादिनामपि शक्यमिदमित्थमभिधातुं “न सदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात्॥शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च सत्कार्यम्॥१॥” इति, अत्र च न सत्कार्यमिति व्यवहितेन सम्बन्धो विधातव्यः, तत्र सदकरणादित्याद्यो हेतुः, यदि हि दुग्धादिषु दध्यादीनि कार्याणि रसवीर्यविपाकादिना विभक्तेन रूपेण सन्ति, मध्यावस्थावत्तदा तेषां किमपरं रूपमुत्पाद्यमवशिष्यते यत्तैर्जन्यं स्यात् नहि विद्यमानमेव कारणायत्तोत्पत्तिकं भवति प्रकृतिचैतन्यरूपवत्, ततः सतः करणासम्भवान्न सत्कार्यमित्यर्थः, प्रयोगश्च—यत्सर्वात्मना कारणे सन्न तत्केनचिज्जन्यं यथा प्रकृतिश्चैतन्यं वा तदेव वा मध्यावस्थायां कार्य, सच्च सर्वात्मना परमतेन क्षीरादौ दध्यादीति व्यापक विरुद्धोपलब्धिप्रसङ्गः, न च हेतोरनैकान्तिकता, अनुत्पाद्यातिशयस्यापि जन्यत्वे सर्वेषां जन्यत्वप्रसक्तेरनभिव्यक्तरूपेण सतोऽप्यभिव्यक्ताद्यतिशयोत्पादनद्वारा सामग्रीजन्य-
त्वसम्भवात्, अभिव्यक्तादिरूपेण सविशेषणे च हेतावुपादीयमानेऽसिद्धता, न ह्यस्माभिरभिव्यक्तादिरूपेणाप्युत्पत्तेः प्राक्कार्यमिष्यते सत् किं तर्हि शक्तिरूपेण, निर्विशेषणे तु तस्मिन्नुपादीयमानेऽनैकान्तिकता प्रतीयादिति वाऽभिव्यक्त्यादिलक्षणातिशयोत्पादनमुखेन सर्वस्य सर्वकार्यत्वप्रसङ्गस्य निरवकाशत्वादिति वाच्यम्, अभिव्यक्त्यादिलक्षणस्यातिशयस्यापि प्राक्सवे उक्तहेतावसिद्धतादूषणाभावात् प्रागसत्त्वेतु सत्कार्यवादक्षतेः, तत् स्थितमेतत् सदकरणान्न सत्कार्यम्॥१॥ तथा सत्कार्यवादे साध्यस्याभावादुपादानग्रहणमप्यनुपपन्नं स्यात्, तत्साध्यफलवाञ्छयैव प्रेक्षावद्भिरुपादानपरिग्रहात्॥२॥नियतादेव च क्षीरादेर्दध्यादीनामुद्भव इत्येतदप्यनुपपन्नं स्यात् साध्यस्यासम्भवादेव, यतः सर्वस्मात्सम्भवाभाव एवनियताज्जन्मेत्युच्यते तच्च सत्कार्यवादे दुर्वचं, सति सम्भवे सर्वस्माद्भावापत्तेरनिवारणात् असति च सर्वस्मादिति वचनस्यनैरर्थक्यात॥३॥ तथा शक्तस्य शक्यकरणादित्येतदपि साध्याभावादेवायुक्तं, यदि हि किञ्चित्केनचिदभिनिवर्त्येत, तदा निर्वर्तकस्य शक्तिर्व्यवस्थाप्येत, निर्वर्त्यस्य च कारणं सिद्धिमध्यासीत नान्यथेति॥४॥कारणभावोऽपि भावानां साध्याभावादेव सत्कार्यवादे न युक्तः॥५॥न चैतदिष्टमिति न सत्कार्यं कारणावस्थायामिति प्रसङ्गविपर्ययः पञ्चस्वपि प्रसङ्गसाधनेषु योज्यः। अपि च सर्वमेव साधनं स्वविषये प्रवर्तमानं द्वयं विदधाति स्वप्रमेयार्थविषये उत्पद्यमानौ संशयविपर्यासौ वा निवर्तयति, स्वसाध्यविषयं वा निश्चयमुपजनयतीति न चैतत्सत्कार्यवादे युक्त्या सङ्गच्छते, संशयविपर्यासयोश्चैतन्यस्वरूपत्वे नित्यत्वेन साधनव्यापारान्निवृत्त्ययोगात्, बुद्धिमनः स्वरूपत्वेपि तयोर्नित्यत्वेन तद्दोषानुद्धारात्, मनसो नित्यत्वेऽपि तद्वृत्तिरूपसंशयविपर्यासयोरनित्यत्वाभ्युपगमे वाऽनेकान्तप्रवेशात् निश्चयोत्पत्तेरपि साधनादसम्भवात्, तस्याः
सर्वदावस्थितत्वात्, अन्यथा सत्कार्यप्रतिज्ञाहानेरिति साधनप्रयोगनैष्फल्यमेव सांख्यदर्शने। प्रागनभिव्यक्तो निश्चयः पश्चात्साधनेभ्योऽभिव्यक्तिमासादयतीत्यभिव्यक्त्यर्थं साधनप्रयोगसाफल्यमिति चेत्, न स्वभावातिशयोत्पत्तिलक्षणायास्तद्विषयज्ञान-लक्षणायास्तदुपलम्भकावारकापगमलक्षणाया वाभिव्यक्तेः प्राक् सत्वेन साधनप्रयोगवैफल्यानुद्धारात्, असत्त्वेच सत्कार्यवादक्षतेः, एतेन ‘अभिव्यक्त्यतिरिक्तस्यैव कार्यस्य प्राक्कारणे सत्त्वमित्यभिव्यञ्जकतया साधनप्रयोगस्य न वैफल्यं, दण्डादीनां च घटादौ न कारकत्वं ज्ञापकत्वं वा तद्व्यवहारथ तत्र वासनाविशेषादेव, विलक्षणसंस्थानावच्छेदेन चक्षुः-संयोगादेरेव च घटाद्यभिव्यञ्जकत्वं तदभावादेव न प्राग् घटाद्युपलम्भ’ इत्युच्छृङ्ग्वलसांख्यमतमपि निरस्त, चक्षुःसंयोगविशेषादेरपि प्राक्सत्त्वेघटाद्युपलम्भप्रसङ्गात्, असत्त्वेच प्रतिज्ञाहानेः। न च चक्षुःसंयोगादेरप्यभिव्यक्तत्त्यैव व्यञ्जकत्वोपगमान्नायं दोषः, अभिव्यक्तत्वं हि ज्ञातत्वं न च चक्षुःसंयोगादेर्ज्ञातस्य व्यञ्जकत्वं, किन्तु स्वरूपसत इति यत्किञ्चिदेतत्। कालविशेषवैशिष्ट्यमेवाभिव्यक्तिरिति चेत्, सा तर्हि व्यञ्जकतावच्छेदिका मृद्द्रव्य एवं कल्पनीया, चैत्रादिभेदेनानन्तचक्षुःसंयोगादौ तत्कल्पने गौरवात् तथा च मृद्द्रव्येऽनभिव्यक्तद्रव्यात्मना घटसत्त्वमभिव्यक्तपर्यायात्मना च घटासत्त्वमिति स्याद्वाद एव विजयत इति सूक्ष्मदृशा निभालनीयम्॥ अथ असत्कार्यवादिनः कारणतां प्रति नियताः शक्तयो न घटन्ते, कार्यात्मकानामवधीनामनिष्पत्तेः न ह्यवधिमन्तरेणावधिमतः सद्भावः सम्भवतीनि प्रतिनियतशक्तिकुक्षिप्रविष्टत्वादेव कारणेषु कार्यसत्त्वमावश्यकम्॥ तदुक्तम्—“अवधीनामनिष्पत्ते–र्नियतास्ते न शक्तयः॥ सत्त्वेच नियमस्तासां युक्तः सावधिको ननु॥१॥” इतिचेत्, न, अवधीनामनिष्पत्तौ क्षीरस्य दध्युत्पादने शक्तिरिति व्यपदेशा-
सम्भवेप्यनारोपितं सर्वोपाधिनिरपेक्षं प्रतिनियतकार्यजनकं यद्वस्तुस्वरूपं यदनन्तरं पूर्वमदृष्टं वस्त्वन्तरं प्रादुर्भवदृश्यते तत्प्रतिषेधस्य कर्तुमशक्यत्वात्। न च शब्दविकल्पानां यत्र व्यावृत्तिस्तत्र वस्तुस्वभावोऽपि व्यावर्तते, यतो व्यापकस्वभावः कारणं वा व्यावर्तमानं स्वव्याप्यं स्वकार्यं वाऽऽदाय व्यावर्तते इति युक्तं, तयोस्ताभ्यां प्रतिबन्धात् न च पयसो दध्नि शक्तिरित्यादिव्यपदेशो विकल्पो वा भावानां व्यापकस्वभावः कारणं वा येनासौ निवर्तमानो वस्तुस्वभावं निवर्तयेत्, व्यपदेशविकल्पा हि न वस्तुस्वभावायत्ताः, किन्तु यदृच्छाजन्मानः, एकत्रैवशब्दादौ नित्यानित्यादिरूपेण वादिनां नानाविकल्पप्रवृत्तेः। एवमपि यद्यवधिनिरूपितत्वं शक्तौ तदभेदपर्यवसितमिति तत्कुक्षिप्रविष्टत्वमवधीनां स्वीक्रियते, तदा घटाभावः पटाभाव इत्यादिव्यवहारानुरोधेन घटादीनामभावकुक्षिप्रविष्टत्वादभावे घटादिसत्त्वमपि प्रसज्येत, चैतन्यं जडभिन्नमित्याद्यनुरोधाञ्चैतन्येपि च जडसत्त्वमासज्येत, तथा च महदासमञ्जस्यमितिदिग्॥ किञ्च सत्कार्यवादे बन्धमोक्षाभावोऽपि सांख्यानामासज्यते, प्रधानपुरुषयोः कैवल्योपलम्भलक्षणतत्त्वज्ञानोत्पत्तौ ह्यपवर्गस्तैरिष्यते, तत्त्वज्ञानं च सर्वदा व्यवस्थितमेवेति सर्व एव देहिनोऽपावृताः स्युः, मिथ्याज्ञानवशाच्च तैर्बन्ध इष्यते, तस्य च सर्वदा व्यवस्थितत्वात्सर्वेषां बद्धत्वमिति कुतो मोक्षः। नित्यमुक्त एवात्मा कण्ठगतचामीकरन्यायेनाप्राप्तिभ्रमादेव तदर्थं प्रवृत्तिरित्यपि दुर्वचनं, प्राप्तेः सत्त्वेऽप्राप्तिभ्रमायोगात्, असत्त्वे चानुत्पत्तेः। यदपि भेदानामन्वयदर्शनात्प्रधानास्तित्वमुक्तं, तत्रापि हेतोरसिद्धत्वं पर्यायास्तिकनयानुसारिण उद्भावयन्ति, तथा हि, नहि शब्दादिलक्षणं व्यक्तं सुखाद्यन्वितं सिद्धं, सुखादीनां ज्ञानरूपत्वात्, शब्दादीनां च तद्रूपविकलत्वात्, न च सुखादीनां ज्ञानरूपत्वमसिद्धं, स्वसंवेदनरूपतया स्पष्टमनुभूयमानत्वात्तत्त्वसिद्धेः, तथाहि, स्पष्टेयं
सुखादीनां प्रीतिपरितापादिरूपेण शब्दादिविषयसन्निधाने प्रकाशान्तरनिरपेक्षा प्रकाशात्मिका स्वसंवित्तिः, यच्च प्रकाशान्तरनिरपेक्षं सातादिरूपतया स्वयं सिद्धिमवतरति तद् ज्ञानं, संवेदनं, चैतन्यं, सुखमित्यादिभिः पर्यायशब्दैरभिधीयते, न च सुखादीनामन्येन संवेदनेन वेदनादनुभूयमानता, तत्संवेदनस्यासातादिरूपताप्रसक्तेः, नहि योगजप्रत्यासत्त्यऽनुमानादिना वा परकीयसुखादिसंवेदने सातादिरूपता दृष्टा। भोगाख्यलौकिकमानससाक्षात्कारेणानुभवादनुभूयमानता सुखादेः, न तु स्वयंवेदनादनुभृतिरूपतेत्यपि वार्तं, चन्दनादिस्पर्शनसामग्रीकाले सुखादिमानसानुपपत्तेर्मानसमा मय्याः सर्वतो दुर्बलत्वात्, तत्र भोगान्यत्वनिवेशे गौरवात् भोगत्वावच्छिन्नं प्रति वैजात्येन मुखदुःखयोरेव हेतुत्वे भोगाख्यमानसे चन्दनादिभानानुपपत्तेः चन्दनादिमान एव विलक्षणे भोगत्वकल्पनौचित्यात् इदं चन्दनमिति वहिर्मुखाकारेण चन्दनादिभानेऽपि चन्दनीयंसुखमिदं जातमित्यन्तर्मुखाकारेण सुखस्यापि तत्क्षणमेवानुभवात्, अतिरिक्ततज्ज्ञानतत्सामग्रादिकल्पने गौरवात्। एतेन ‘मानसत्वावच्छिन्नं प्रति मानसान्यज्ञानमामग्य्राःप्रतिबन्धकतायां वैजात्येन सुखदुः दुःखयोरुत्तेजकत्वमेवास्तु’ इत्यपि निरस्तम्। तदुत्तेजकत्वकल्पनायामपि गौरवाद, वैजात्येन सुखदुःखयोर्वा तत्रोत्तेजकत्वं मनःसंयोगविशेषादेर्वेति विनिगमनाविरहाच्चेति नव्यबौद्धसिद्धान्तस्यैवोद्धतत्वात्। किञ्च शब्दादीनां सुखादिरूपत्वे भावनावशेन मद्याङ्गनादिषु कामुकादीनां, करभादीनां च कण्टकादिषु प्रतिनियताः प्रीत्यादयो न प्रादुर्भवेयुः, किन्तु प्रत्येकं चित्रा संवित्प्रसज्येत। अथ यद्यपि त्रयात्मकं वस्तु तथाप्यदृष्टादिसहकारिवशात् किञ्चिदेव कस्यचिद्रूपमाभाति न सर्वं सर्वस्येति चेत्, न, तदाकारशून्यत्वादवस्त्वालम्बनप्रतीतिप्रसक्तेः, तथाहि, त्र्याकारं तद्वस्त्वेकाकारं च संविदा संवेद्यत इति। न च यथा प्रत्यक्षेण
गृहीतेऽपि सर्वात्मना वस्तुन्यभ्यासादिवशात्क्वचिदेव क्षणिकत्वादौ निश्चयोत्पत्तिर्न सर्वत्र, तद्वददृष्टादिबलादेकाकारा संविदुदेष्यतीत्यभिधातुं क्षमं, क्षणिकादिविकल्पस्यापि परमार्थतो वस्तुविषयत्वानभ्युपगमात्, वस्तुनो विकल्पागोचरत्वात्परम्परया वस्तुप्रतिबन्धात्तथाविधवत्प्राप्तिहेतुतया तु तस्य प्रामाण्यमिष्टम्, उक्तं च—“लिङ्गलिङ्गिधियोरेवं, पारम्पर्येण वस्तुनि॥प्रतिबन्धात्तदाभास –शून्ययोरप्यबन्धनम्॥१॥” इति॥परैस्तु परमार्थत एव वस्तुविषयत्वमिष्टं प्रीत्यादिप्रतिपत्तीनां, अन्यथा सुखाद्यात्मनां शब्दादीनामनुभवात् सुखाद्यनुभवख्यातिरित्येतदभिधानमसङ्गतं स्यात्, सुखादिसंविदां च सविकल्पकत्वान्न किञ्चिदनिश्चितं रूपमस्तीति सर्वात्मनाऽनुभवख्यातिप्रसक्तिः। यदि च त्रिगुणात्मकत्वं शब्दादीनां ततः प्रीत्यादिप्रतिपत्तिप्रतिनियमाय पुरुषविशेषेऽदृष्टविशेषस्य तन्नियामकत्वं दुःखादिधीप्रतिबन्धकत्वं च कल्पनीयम्, तदा दशाविशेषे प्रीतिधीस्थले परितापधीर्न स्यात्प्राक्तनाक्षयाऽपूर्वाष्टोत्पत्तिसामग्य्रभावाद्दशाविशेषस्यैवोत्तेजकत्वे तु तस्यैव सर्वत्र हेतुत्वसम्भवात्कालैककारणपरिशेषापत्तिरदृष्टे पुण्यपापरूपे साङ्कर्याज्जातिरूपविशेषासम्भवश्चेति यत्किञ्चिदेतत्॥ यदपि प्रसादतापदैन्याद्युपलम्भात्सुखाद्यन्वितत्वं सिद्धं शब्दादीनामित्यभिहितं तदप्यनैकान्तिकं, तथाहि योगिनां प्रकृतिव्यतिरिक्तं पुरुषं भावयतां तमालम्ब्य प्रकर्षप्राप्तयोगानां प्रसादः प्रादुर्भवति प्रीतिश्च, अप्राप्तयोगानां तु द्रुततरमपश्यतामुद्वेग आविर्भवति, जडमतीनां च प्रकृत्यावरणं, न च परैः पुरुषस्त्रिगुणात्मकोऽभीष्ट इति। न च सङ्कल्पात्प्रीत्यादीनि प्रादुर्भवन्ति न पुरुषादिति वाच्यम्। शब्दादिष्वप्यस्य समानत्वात् तस्मात् समन्वयादित्यसिद्धो हेतुरनैकान्तिकश्च, प्रधानान्वयस्य क्वचिदप्यसिद्धेर्यदात्मकं कारणं तदात्मकं कार्यमित्यस्यापि दुर्वचत्वात्, व्यक्ताव्यक्तयोः स्वयमेव भेदप्रतिपादनात्,
विरुद्धश्च, अनित्यानेकरूपेण कार्येण तादृशस्यैव प्रधानस्य सिद्धेः। अनेनैव न्यायेनान्येऽपि हेतवो निरसनीयाः। न हि प्रधानाख्यस्य हेतोरभावेन परिमाणादीनां विरोधः सिद्धः, तथाहि, यदि तावत्कारणमात्रस्यास्तित्वं साध्यते, तदा सिद्धसाध्यता, न ह्यस्माकं कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पादोऽभीष्टो, न च कारणमात्रस्य प्रधानमिति नामकरणे किञ्चिदस्माकं हीयते॥अथ प्रेक्षावत्कारणमस्ति यद् व्यक्तं नियतपरिमाणमुत्पादयति शक्तितश्च प्रवर्तत इति, तदयुक्तं, अनैकान्तिकत्वात्, प्रेक्षावत्कारणं विनापि स्वहेतु सामर्थ्यात्प्रतिनियतपरिमाणादियुक्तस्योत्पत्त्याविरोधात्। न च प्रधानं प्रेक्षावत्कारणं युक्तम्, अचेतनत्वात्तस्य, शक्तितः प्रवृत्तेरित्यनेन च किमप्यतिरिक्तशक्तिमत्कारणं साध्यते, आहोस्विद् व्यतिरिक्तानेकशक्तिसम्बन्धितदेकत्वादिधर्मकलापाध्यासितं, नाद्यः, सिद्धसाधनात्कारणमात्रस्य ततः सिद्ध्यभ्युपगमात्॥ द्वितीये हेतोरनैकान्तिकता, तथाभूतेन क्वचिदप्यन्यथासिद्धेः न च विभिन्नशक्तियोगात्कस्यचित् क्वचित्प्रवृत्तिर्दृष्टा, स्वात्मभूतत्वाच्छक्तीनाम्। कारणकार्यविभागोऽप्यभेदैकान्तेऽयुक्त एव॥ पर्यायनये निरन्वयविनाशाच्च सर्वभावानां क्वचिदपि लयासिद्धेरविभागाद्वैश्वरूप्यस्येत्ययमपि हेतुरसिद्धः, लयो हि भवन् पूर्वस्वभावापगमे वा भवेदनपगमे वा, आद्ये निरन्वयनाशो, द्वितीये लयानुपपत्तिः, अविकलस्वरूपस्य लयोपगमेऽतिप्रसङ्गादिति दिग्॥ यदपि “प्रधानविकारबुद्धिव्यतिरिक्तं चैतन्यमात्मनो रूपं ते कल्पयन्ति,चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्” इत्यागमात्, पुरुषश्च शुभाशुभकर्मफलस्य प्रधानोपनीतस्य भोक्ता, न तु कर्ता, सकलजगत्परिणतिरूपायाः प्रकृतेरेव कर्तृत्वोपगमादिति वदन्ति,प्रमाणयन्ति चात्र ‘यत् सङ्घातरूपं वस्तु तत्परार्थं,’ यथा शयनासनाभ्यङ्गादि, सङ्घातरूपाश्च चक्षुरादय इति स्वभावहेतुः, यश्चासौ परः स आत्मेति सामर्थ्यात्सिद्धमिति,” अत्र
‘चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्’ इत्यादिवदता चैतन्यं नित्यैकरूपं प्रतिज्ञातं तच्चाध्यक्षविरुद्धं, रूपादिसंविदः स्फुटं संवित्त्याभिन्नस्वरूपावगमात् एकरूपत्वे चात्मनोऽनेकविधार्थस्य भोक्तृत्वाभ्युपगमो विरुध्येत, अभोक्त्रवस्थाव्यतिरिक्तत्वाद्भोक्त्र-वस्थायाः, न च दिदृक्षायोगादविरोधो, दिदृक्षाशुश्रूषादीनामुत्पादे आत्मनोऽप्युत्पादप्रसङ्गात्, तदव्यतिरेकात्तासां, व्यतिरेके च तस्य ता इति सम्बन्धानुपपत्तेः, उपकारस्य तन्निबन्धनस्याभावात्, भावे वा तत्रापि भेदाभेदविकल्पकृतदोषानुद्धारात्। किश्च कर्तृत्वभोक्तृत्वयोः सामानाधिकरण्यनियमात्कर्तृत्वाभावे भोक्तृत्वमपि तस्य न युक्तं, न ह्यकृतस्य कर्मणः फलं कश्चिदुपभुङ्क्ते, अकृताभ्यागमप्रसङ्गात्, न च पुरुषस्य कर्माकर्तृत्वेऽपि प्रकृतिरस्याभिलपषितमर्थमुपनयतीत्यमौ भोक्ता भवति, यतो नासावप्यचेतना सती शुभाशुभकर्मणां कर्त्री युक्ता, येन कर्मफलं पुरुषस्य सम्पादयेत्। अथ यथा पङ्ग्वन्धयोः परस्परसम्बन्धात्प्रवृत्तिस्तथा महदादिलिङ्गं चेतनपुरुषसम्बन्धाच्चेतनावदिव धर्मादिकार्येष्वध्यवसायं करोतीत्यदोष एवायम्, उक्तं च (सांख्यकारिका) “पुरुषस्य दर्शनार्थं, कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य॥पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि, संयोगस्तत्कृतः सर्गः॥२१॥” इति चेत्, न सर्गस्योभयजत्वे संयोगादिवद् द्विष्ठत्वेन नैमित्तिकद्रवत्वादिस्थानीयत्वेऽपि तं प्रति निमित्तत्वेनात्मनोऽप्रकृतिविकृतित्वभङ्गापत्तेः। किञ्च यदि प्रकृतिरकृतस्यापि कर्मणोऽतात्त्विकसंयोगेनापि फलमभिलषितमुपनयति, तदा सर्वदा सर्वस्य पुंसोऽभिलषितार्थसिद्धिः किमिति न स्यात्?। न च तत्कारणस्य धर्मस्याभावान्न सा स्यादिति वाच्यम्, धर्मधर्मस्यापि प्रकृतिकार्यतया तदुत्पादनद्वारोक्तप्रसङ्गानुद्धारात्। किञ्च यद्यभिलषितं फलं प्रकृतिरुपनयति तदा नानिष्टं प्रयच्छेत्, न हि कश्चिदनिष्टमभिलषति॥किश्च उपनयतु नाम प्रकृतिः फलं, तथापि भोक्तृत्वं पुंसोऽयुक्तम्, अविका-
रित्वात्, न हि सुखदुःखादिबलादपरितापादिरूपविकारमनुपनीयमानस्य भोक्तृत्वमाकाशवत्सङ्गतम्॥ अथ न विकारापत्त्यात्मनो भोक्तृत्वमिष्टं, किं तर्हि बुद्ध्यध्यवसितस्यार्थस्य प्रतिबिम्बोदयन्यायेन सञ्चेतनात्, तथाहि, बुद्धिदर्पणसङ्क्रान्तमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य, न तु विकारापत्तिः, न च पुरुषे प्रतिबिम्बमात्रसङ्क्रान्तावपि स्वरूपं प्रच्युतिमेति दर्पणवदविचलितस्वरूपत्वादिति चेत्, ननु प्रतिबिम्बसङ्क्रमामम्भवात्तदधिष्ठानत्वमेव सः, तथा च भोक्तृत्वव्यवहारानुरोधा-त्प्रातिभासिकभोक्तृत्ववत्कर्तृत्वव्यवहारानुरोधात्प्रातिभासिकं कर्तृत्वमप्यात्मनि किं न स्वीक्रियते। किञ्चैवमात्मनि भ्रान्तभोक्तृत्वादिकल्पनापेक्षयाऽभ्रान्ततत्कल्पनायामेव लाघवाद्यौचित्यं किं न बुध्यसे?, पङ्ग्वन्धदृष्टान्तोऽप्यत्र तदा शोभेत, यदि वैषम्यं न स्यात्, अस्ति च तत्, तथाहि, अन्धो यद्यपि मार्गं नोपलभते तथापि पङ्गोर्विवक्षामसौ वेत्ति चेतनावत्त्वात्, न चैवं प्रधानं पुरुषविवक्षामधिगच्छतीत्यभ्युपगम्यते, तथा सति भोक्तुत्वमपि तस्य प्रसज्येत, करणज्ञस्य भोक्तृत्वाविरोधात्, न च बुद्धिव्यतिरिक्तं चैतन्यं प्रमाणसिद्धमिति कः परश्चिद्रूप आत्मा। यदपि चिद्रूपाद् बुद्धेर्भेदप्रसाधनाय परैरनुमानमुपन्यस्यते, यद् यदुत्पत्तिमत्त्वनाशित्वादिधर्मयोगि तत्तदचेतनं यथा रमादयः, तथा च बुद्धिरिति स्वभावहेतुरिति, तत्रापि वक्तव्यं, किमिदं स्वतन्त्रसाधनमाहोस्वित्प्रसङ्गसाधनम्, आद्येऽन्यतरासिद्धो हेतुः, यथाविधमुत्पत्तिमत्त्वमपूर्वोन्पादलक्षणं, नाशित्वं च निरन्वयविनाशात्मकं प्रसिद्धं बौद्धस्य, न तथाविधं साङ्ख्यस्य, तयोराविर्भावतिरोभावरूपत्वेन तेनाङ्गीकारात्, यथा च साङ्ख्यस्य तौ प्रसिद्धौ न तथा बौद्धस्येति, न च शब्दमात्रसिद्धावनुगतहेतुसिद्धिः, तदिदमुक्तं—“तस्यैव व्यभिचारादौ शब्देऽप्यव्यभिचारिणि॥ दोषवत्साधनं ज्ञेयं, वस्तुनो वस्तु-
सिद्धितः॥१॥” इति॥द्वितीये साध्यविपर्यये बाधकप्रमाणादर्शनादनैकान्तिकता, न ह्यत्र प्रतिबन्धोऽस्ति चेतनस्योत्पादनाशाभ्यां न भवितव्यमिति। यदपि कल्पितं “वत्सविवृद्धिनिमित्तं, क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य॥पुरुषविमोक्षनिमित्तं, तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य॥५७॥” इति तदपि न सम्यग्, यतः क्षीरमपि न स्वातन्त्र्येण वत्सविवृद्धिं चेतस्याधाय प्रवर्तते, किं तर्हि क्वाचित्केभ्यः स्वहेतुभ्यः प्रतिनियतेभ्यः समुत्पत्तिमासादयति, तच्च लब्धात्मलाभं वत्सविवृद्धिनिमित्ततामुपयातीत्यचेतनमपि प्रवर्तत इति व्यपदिश्यते, न चैवं प्रधानस्य कादाचित्का प्रवृत्तिर्युक्ता नित्यत्वात्, कादाचित्कसहकारिसमवधानस्याप्यनागन्तुकस्वशक्तिनिमित्तत्वादेकमुक्तौ सर्वमुक्तिप्रसङ्गात्, अन्यथैतद्वैषम्यनिर्वाहकप्रतिनियतात्मव्यापाराभ्युपगमप्रसङ्गात्, तत्तत्काले तत्तत्पुरुषस्य मोक्षसम्पादकतत्तत्सहकारिचक्रसमवधायकानन्तशक्तिमत्प्रधानाभ्युपगमे च तत्तत्क्षणोत्तरकार्ये तत्तत्क्षणस्यैव हेतुत्वावश्यकत्वात्कालैककारणपरिशेषादेव, किमन्तर्गडुना प्रधानेनेति द्वात्रिंशिकाप्रकरणादावभिहितमस्माभिः॥ यदपि परार्थाश्चक्षुरादय इत्युक्तं, तत्राप्याधेयातिशयो वा परः साध्यत्वेनाभिप्रेतः१, यद्वाऽविकार्यनाधेयातिशयश्च२, आहोस्वित्सामान्येन चक्षुरादीनां पारार्थ्यमात्रं साध्यत्वेनाभिप्रेतम्३ इति विकल्पत्रयम्, नाद्यः, सिद्धसाधनात्, अस्माभिरपि चक्षुरादीनां विज्ञानोपकारित्वेनाभ्युपगमात्॥ न द्वितीयः, विरुद्धत्वात्, साध्यविपर्ययेण दृष्टान्तहेत्वोर्व्याप्तत्वेन प्रतीतेः॥अविकारिण्युपकारस्याशक्यक्रियत्वेन पारार्थ्यायोगाच्च न तृतीयो, यथाकथञ्चित्पारार्थ्यस्य सर्वैरभ्युपगमात्। न च चित्तमपि साध्यधर्मित्वेनोपात्तमिति तदपरस्य परस्य साध्ये प्रवेशान्न सिद्धसाधनम्, अपरस्याविकारिण उपकार्यत्वासम्भवात्, चक्षुरूपालोकमनस्काराणामपरचक्षुरादिकदम्बकोपकारित्वस्यैव न्याय्यत्वाद्विज्ञातस्य चानेक-
कारणकृतोपकाराध्यासितस्य संहतत्वं कल्पितमविरुद्धमेवेति न किश्चिद्विचार्यमाणं साङ्ख्यदर्शने चारिमाणमश्चतीति दिग्॥
दर्शितेयं यथाशास्त्रं, व्यवहारनयस्य दिग्॥ साङ्ख्यसिद्धान्तहेतुः श्री–यशोविजयवाचकैः॥१॥
ऋजु अवक्रं श्रुतं ज्ञानमस्य ऋजुश्रुतः। यद्वा ऋज्ववक्रं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः॥ यद्भाष्यकृत्—**“उज्जुं ऋजुं सुयं ना–णमुज्जुसुयमस्स सोयमुज्जुसुओ॥सुत्तयइ वा जमुज्जुं, वत्थुंतेणुज्जुसुत्तोत्ति॥२२२२॥”**व्या० ऋजुत्वं चैतदभ्युपगतवस्तुनोऽवर्तमानपरकीयनिषेधेन प्रत्युत्पन्नत्वं, अतीतमनागतं परकीयं च वस्त्वेतन्मते वक्रं, प्रयोजनाकर्तृत्वेन परधनवत्तस्यासत्त्वात्, स्वार्थक्रियाकारित्वस्यैव स्वसत्तालक्षणत्वात्, अत एव व्यवहारनयवादिनं प्रत्ययमेवं पर्यनुयुङ्क्ते, यदि व्यवहारानुपयोगादनुपलम्भाच्च सङ्ग्रहनयसम्मतं सामान्यं त्वं नाभ्युपगच्छसि तदा तत एव हेतुद्वयाद् गतमेष्यत्परकीयं च वस्तु माभ्युपगमः, नहि तैः कश्चिद्व्यवहारः क्रियते, उपलब्धिविषयीभूयते वा, वासनाविशेषजनितो व्यवहारस्तु सामान्येऽप्यतिप्रसज्यत इति, तस्माद् यत्स्वकीयं साम्प्रतकालीनं च तद्वस्तु, लिङ्गसङ्ख्यादिभेदेऽपि तटस्तटीतटमित्यादौ, गुरुर्गुरवः, आपो जलं, दाराः कलत्रमित्यादौ च विपरिणतनानापर्यायशब्दवाच्यं निक्षेपचतुष्टयाक्रान्तमप्येकमेव स्वीकुरुते ऋजुमूत्रनयः, न तु शब्दनयवद्भावरूपैकनिक्षेपाक्रान्तलिङ्गसङ्ख्याभिन्नपर्यायशब्दावाच्यं च। तदाह भाष्यकृत्–“तम्हा णिययं संपइ–कालीणं लिङ्गत्रयणभिन्नंपि। नामादिभेयविहियं, पडिवज्जइवत्थुमुज्जुसुओत्ति॥२२२६॥व्या० अस्मान्नयात्परपर्यायासंस्पर्शिन्येकपर्याये वचनं विच्छिन्दद्वौद्धदर्शनं प्रवृत्तम्, तथा च तदनुसारिणः पठन्ति “पलालं न दहत्यग्नि—र्दह्यते न गिरिः क्वचित्॥ नासंयतः प्रव्रजति, भव्यजीवो न सिद्ध्यति॥१॥” पलालपर्यायस्याग्निसद्भावपर्यायादत्यन्तभिन्न-
त्वात्, यः पलालो नासौ दह्यते, यश्च भस्मभावमनुभवति नासौ पलालपर्यायमनुभवति, एवमग्रेऽपि द्रष्टव्यम्। न चैवं व्यवहारबाधः, सर्वत्र नये क्वचिदेशे तद्बाधात्। ननु क्षणक्षयसिद्धावेवं युक्तं, तत्रैव च प्रमाणं न पश्यामः, तथाहि—न तावदध्यक्षं क्षणक्षयितामवगच्छत्प्रतीयते, परैरभ्युपगम्यते वा, यतः परैरन्त्यक्षणदर्शिनामेव प्रत्यक्षतः क्षणिकताया निश्चयतः प्रकल्प्यते भ्रान्तिकरणसद्भावान्न प्राक, उक्तं च “क्वचित्तदपरिज्ञानं सदृशापरसम्भवात्॥भ्रान्तेरपश्यतो भेदं, मायागोलकभेदवत्॥१॥” इति। नाप्यनुमानात्तन्निश्चयः, क्षणिकत्वाभ्युपगमे तदङ्गपक्षधर्मत्वादेरेव निश्चेतुमशक्यत्वात्, सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्रहोपायाभावाच्च, विकल्पस्याप्रमाणत्वेन तदग्राहकत्वात्, निर्विकल्पेन च तत्संस्पर्शस्यापि कर्तुमशक्यत्वात् न चान्यद् बौद्धानां प्रमाणमस्ति प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षाच्च भावानां स्थैर्यप्रतिपत्तिः क्षणिकत्वबाधिका, न च प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं, “तत्रापूर्वार्थविज्ञानं, निश्चितं बाधवर्जितम्॥ अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम्॥१॥” इति प्रमाणलक्षणयोगात्, न च स्मृतिपूर्वकत्वात्स एवायमिति प्रत्यभिज्ञानुसन्धानस्य प्रत्यक्षत्वमयुक्तमिति वाच्यम्, सत्सम्प्रयोगजत्वेन स्मरणपश्चाद्भाविनोऽध्यक्षजप्रत्ययस्य लोकप्रत्यक्षत्वेन प्रसिद्धत्वात् उक्तं च॥ “न हि स्मरणतो यत्प्राक्, तत्प्रत्यक्षमितीदृशम्॥वचनं राजकीयं वा, लौकिकं वापि विद्यते॥१॥ न चापि स्मरणात्पश्चा—दिन्द्रियस्य प्रवर्तनम्॥ वार्यते केनचिन्नापि, तत्तदानीं प्रदुष्यति॥२॥तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् प्रागूर्ध्वं वापि यत्स्मृतेः॥ विज्ञानं जायते, सर्वं प्रत्यक्षमिति गम्यताम्॥३॥” इति॥अनेकदेशकालावस्थासमन्वितं सामान्यं द्रव्यादिकं च वस्त्वस्याः प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयस्वभावः॥ उक्तं च “इदानीन्तनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम्॥” इति। न च पूर्वापरकालसम्बन्धिद्रव्यस्यैकत्वात्कालस्य चातीन्द्रि-
यत्वान्न प्रमेयातिरेक इति वाच्यम्। तथापि प्रत्यभिज्ञातार्थे सन्देहाभावेन तत्प्रामाण्यसिद्धेः, विषयातिरेकस्येव सन्देहापाकरणस्याऽपि प्रामाण्यनिबन्धत्वात्, न च सविकल्पमेव प्रत्यभिज्ञानं, अविकल्पस्यापि तस्य दर्शनात् प्रथमप्रत्ययाभिन्नविषयाकाराऽत्रुट्यद्रूपार्थग्राह्म- विकल्पस्यैकत्वप्रत्यभिज्ञानत्वात्, यथा ह्यर्थसंसर्गानुसारिणोऽनुभवादुपजातान्नीलविकल्पान्नीलानुभवः सौगतैर्व्यवस्थाप्यते तथा पूर्वदृष्टं पश्यामीत्युल्लेखवतोऽनुसन्धानविकल्पादत्रुट्यद्रूपशब्दाद्यनुभवः किं न व्यवस्थाप्येत, अक्षव्यापारानन्तरत्वस्योभयत्राविशेषात्पूर्वदृष्टताज्ञानस्य पूर्वदर्शनं विनाऽसम्भवात्तद्विना पौर्वापर्येऽक्षजप्रत्ययप्रवृत्तेरभावान्न प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यमिति चेत् न, पूर्वदृष्टमित्युल्लेखमन्तरेणापि पौर्वापर्येदृगवतारात्, अन्यथाऽत्रुट्यदुपनिश्चयानुपपत्तेः, ततो निर्विकल्पकस्य सवि कल्पकस्य वा स्थैर्यग्राहिणः प्रत्यभिज्ञानस्य प्रमाणाबाधितत्वात् क्षणक्षयस्य नाभ्युपगमार्हत्वम्॥किञ्च विनाशस्य सहेतुकत्वात्तद्धेत्वभावादेव क्षयिणामपि भावानां कियत्कालं स्थैर्यमनाबाधम्। न च विनाशस्य सहेतुकत्वमसिद्धं, दण्डेन घटो भग्नः, अग्निना काष्ठं दग्धमित्याद्यनुभवस्य सार्वजनीनत्वात्। न चावस्तुत्वाद्विनाशस्य न कार्यत्वं, यथा हि नोपलम्भव्यावृत्तिरेवानुपलम्भः परेषां, किं तु विवक्षितोपलम्भादन्यः पर्युदासवृत्त्योपलम्भ एव, तथा नाशोऽपि भावान्तरविनिर्मुक्तो भाव एवेति तस्य कार्यत्वाविरोधात्॥उक्तं च—“भावान्तरविनिर्मुक्तो, भावोऽत्रानुपलम्भवत्॥ अभावः सम्मतस्तस्य, हेतोः किं न समुद्भवः?॥१॥” इति॥ अत्रोच्यते—यदुक्तं क्षणक्षयसिद्धौ नाध्यक्षं प्रवर्तत इति, तदयुक्तम्, पूर्वापरक्षणसमन्वयस्याध्यक्षाविषयत्वे मध्यमक्षणसत्त्वमेव गृह्णता प्रत्यक्षेण कालान्तरस्थितिविपर्यासलक्षणभेदपरिच्छेदात्। न च कालान्तरसमन्वयमधिगन्तुमक्षममध्यक्षं न तदुद्भासयतीति सन्देह एव तत्र युक्तो नासत्त्वमिति वाच्यम्। कालान्तरस्थायि-
स्वस्य कदाचिदप्यनवगतौ सन्देहाभावात् सदृशापरापरक्षणोत्पत्तिदोषादन्त्यक्षणादर्शिनां क्षणिकत्वनिश्चयो विकल्पात्मको नेष्यते, निर्विकल्पकं तु क्षणिकतायां सदैव प्रमाणभावमाविभर्ति क्षणिकत्वप्रकारकाध्यवसायजनकतया समनन्तरप्रत्ययस्येव तत्प्रयोजकतया पूर्वपूर्वतरक्षणज्ञानानामपि प्रामाण्याव्याघातात्, स्वविषयविषयकत्वस्योभयत्राविशेषात्, व्यवहारसाधनाय विप्रतिपत्तिनिरासाय च तत्रानुमानमाद्रियत एव। क्षणिकत्वपक्षेऽप्यनुमानसामग्रीसम्पत्तौ पक्षधर्मत्वादिना निश्चितस्य हेतोः स्वसाध्यप्रतिबिम्बजननक्षमत्वात्सविकल्पकत्वेऽपि तस्य परम्परया वस्तुप्रतिबन्धेन प्रामाण्यात्। अनुमानं च क्षणिकतायां ‘यत्सत्तत्क्षणिकमेव’ ‘सन्ति च द्वादशायतनानीति’। ननु क्षणिकत्वस्य प्रत्यक्षेणानिश्चयात्कथं हेतुसाध्ययोस्तादात्म्याविनाभावग्रहः, न च कृतका विनाशं प्रत्यनपेक्षत्वात्तद्भावनियता यतो भावाइत्यनुमानसिद्धं तत्तादात्म्यम्, निर्हेतुकत्वेऽपि नाशस्य यदैव घटादयो नाशमनुभवन्तः प्रतीयन्ते तदैव तेषामसौ निर्हेतुकः स्यान्नान्यदेति कथं क्षणविशरारुता कृतकत्वेऽपि भावानाम्, एकक्षणस्थायित्वस्वभावेनोत्पत्तेर्भावानां प्रागपि विनाशसङ्गतिरिति चेत्, न, अनेकक्षणस्थायित्वस्वभावेन स्वहेतुभ्य उत्पत्तेरप्युक्तौ बाधकाभावात् न च यदि क्वचित्कदाचिद्विनाशो भवेत्तदा तत्कालद्रव्यापेक्षत्वादन्यानपेक्षत्वहानिः, विनाशहेत्वनपेक्षत्वेनान्यानपेक्षताया अहानेः, अन्यथा द्वितीयेऽपि क्षणे विनाशो न स्यात्तत्कालाद्यपेक्षत्वात्, न च क्रमयौगपद्याभ्यां सामर्थ्यलक्षणं सत्त्वं व्याप्तं क्रमाक्रमनिवृत्तौ च नित्यात्सत्त्वंनिवर्तमानं क्षणिकेष्वेवावतिष्ठत इत्यपि वक्तुं युक्तम्, क्षणिकत्वे क्रमाक्रमप्रतिपत्तेरेवासम्भवात्, पूर्वोत्तरकालभाव्यन्यतरप्रतिपत्तृभ्यां तदितरासंस्पर्शात्, यो हि पूर्ववस्तुप्रतीत्यनन्तरमपरस्य ग्राहकः स क्रमग्राही भवेत्, तथा चाक्षणिकत्वं बलादापतति, बौद्धस्य च काल एव ना-
स्तीति कथं तस्य क्रमग्रहः, भिन्नकालवस्तुग्रहाभावे चानेकवस्तुरूप एव क्रमः, स च नित्यस्यापि क्रमिककार्यकर्तृत्वे न विरुध्यते, कालाभावेन तत्सङ्करदोषाभावात्, अत्र केचित्प्रतिविदधति, प्रत्यक्षसिद्धे एव क्रमयौगपद्ये, तथाहि, सहभावो भावानां यौगपद्यं, क्रमस्तु पूर्वापरभावः, स च क्रमिणामभिन्न एकप्रतिभासश्च तत्प्रतिभासःअथैकप्रतिभासानन्तरमपरस्य प्रतिभासः क्रमप्रतिभासो न त्वेकस्यैवातिप्रसङ्गात् एवमेतत्, किन्तु यदैकप्रतिभासो जातोऽपरश्च जायते तदा प्राक्तने यौगपद्यप्रतिमास प्रसक्तिरानन्तर्याभावात् तस्मात् क्रमिणोः पूर्वापरज्ञानाभ्यां ग्रहणे तदभिन्नः क्रमोऽपि गृहीत एव, केवलं पूर्वानुभूतपदार्थादित संस्कारप्रबोधादिदमस्मादनन्तरमुत्पन्नमित्यादिविकल्पप्रादुर्भावे क्रमो गृहीत इति व्यवस्थाप्यने, क्रमि गोर्ग्रहेऽपि कथञ्चिदानुपूर्व्या विकल्पानुपपत्तौ क्रमग्रहव्यवस्थापनायोगात्, अत एव क्रमिणामेकग्रहेऽपि न क्रमग्रहो व्यवस्थाप्यते, अपि च कथं कालाभ्युपगमवादिनोऽपि क्रमग्रहः, सर्वकार्याणामेककालत्वात् न च भिन्नभिन्नकालोपाधिक्रमात्कार्यक्रमो युक्तः, कालस्याभिन्नत्वेनाभ्युपगमात्तद्योगात्तदुपाधीनां क्रमानुपपत्तेः, कालोपाध्यन्तरक्रमापेक्षतत्क्रमाभ्युपगमे चानवस्थानात्, स्वरूपेण तत्क्रमाभ्युपगमे च बहूनामसहायानां कार्याणामेव स्वरूपतः क्रमः किं न भवेत्? अस्माकं तु लोकसिद्धकालतत्क्रमाभ्युपगमान्न दोषः, तस्माद् घटादिः पदार्थोऽर्थक्रियाकारी क्रमाक्रमाभ्यांप्रत्यक्षसिद्धः, तस्यैककार्यकरणं प्रति यत्सामर्थ्यं तत्तदैव, न पूर्वं न पश्चात्, तत्कार्याभावात्, सामर्थ्यं तु ततोऽव्यतिरिक्तमेव, उत्तरकार्योत्पत्तावप्येवं द्रष्टव्यमिति सामर्थ्यभेदेन पदार्थभेदात्कथं न क्षणिकत्वं यथा च दृष्टेषु घटादिषु क्षणिकत्वव्याप्तमर्थक्रियाकारित्वरूपं सत्त्वं सिद्धं, तथाऽदृष्टेष्वपि सिद्ध्यत्यविशेषादिति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिमवगत्य यत्र यत्र सत्त्वं निश्ची-
यते तत्र तत्र क्षणिकत्वानुमानं प्रवर्तयन्ति विद्वांसः, हेतुसाध्ययोस्तादात्म्यप्रतिबन्धनिश्चयादिति स्थितम्। न च सत्त्वेसत्यप्यक्षणिकत्वस्यैव माम्राज्यात्(ज्यम्)॥अथ प्रथमक्षणे जन्मैव न स्थितिः, द्वितीये स्थितिरेव न जन्म, एवमपि क्षणिकत्वं प्रसक्तं जन्मजन्मिनोः स्थितिस्थितिमतोश्चाभेदादिति। परे तु सत्त्वलक्षणस्य हेतोस्तादात्म्यरूपः प्रतिबन्धो विपर्यये बाधकप्रमाणनिबन्धन इत्येवं वर्णयन्ति। यत्र क्रमयौगपद्यायोगो न तत्रार्थक्रियासामर्थ्यलक्षणं सत्त्वमित्यक्षणिकाद् व्यावर्तमानस्य क्षणिकत्वस्य क्षणिकेष्वेवावस्थानात्। अथ कथमर्थक्रियासामर्थ्यनिवृत्तिः क्रमयौगपद्यनिवृत्तिनिमित्तेति चेत्, तयोस्तद्व्यापकत्वात्। अथात्राऽपि यदि व्याप्यव्यापकभावो बाधकान्तरनिबन्धनस्तदा तत्रापि बाधकान्तरान्वेषणायामनवस्थेति चेत्, न, क्रमयौगपद्याभ्यां सामर्थ्यस्य व्याप्तेः प्रकारान्तरासम्भवतो निश्चयेनानवस्थाभावात्, प्रकारान्तरासम्भवश्च प्रत्यक्षेणैत्र निश्चीयते, क्रमेण यौगपद्येन वा घटादीनां स्वकार्यमुत्पादयतामध्यक्षेणावलम्बने इतररूपविवेकभानात्तदनन्तरं क्रमभावि तत्कार्यं नाक्रम इति विकल्पद्वयप्रवृत्तः, नीलाद्यनुभवोत्तरमनीलादिव्यवच्छेद- विकल्पोदयात्तस्याऽनीलादिव्यवच्छेदावगाहित्ववत् क्रमप्रतीतावक्रमव्यवच्छेदविकल्पोदयात्तस्याक्रमव्यवच्छेदावगाहित्वस्य न्यायप्राप्तत्वात्॥ अथ कथं क्रमयौगपद्यायोगोऽक्षणिकेषु भावेषु, उच्यते, न तावदक्षणिकाः क्रमेणार्थक्रियाकारिणः, कारकस्वभावस्य प्रागेव सन्निधानात्प्रथमक्षण एव द्वितीयादिक्षणभाविसकलकार्यकरणप्रसक्तेः। न च सहकारिक्रमात्कार्यक्रम इति वक्तव्यं, यतः सहकारिणः किं विशेषाऽऽधायकत्वेन तथा व्यपदिश्यन्ते, आहोस्विदेकार्थप्रतिनियताश्चक्षुरादय इवाक्षेपकारिणः स्वविज्ञानेन?।नाद्यः, तज्जनितविशेषस्यार्थान्तरत्वात्तेनाकारकस्वभावाप्रच्यावनात् नापि द्वितीयः, नित्यानामेककार्यप्रतिनियमलक्षणसहकारित्वसम्भवेपि प्राक्प-
श्चात्पृथग्भावसम्भवात् सहैव कुर्वन्तीति सहकारित्वनियमस्यानुक्तिसम्भवात् साहित्येऽपि प्राक्तनाकारकस्वभावानिवृत्तेः, प्रागेव कारकस्वभावत्वे च न कदाचित्तत्क्रियाविरदिरिति कुत एकार्थक्रियाप्रतिनियमस्वरूपमक्षणिकानां सहकारित्वम्?॥ कार्यस्य सामग्रीजन्यतया तस्याश्चापरापरप्रत्यययोगरूपतया प्रत्येकं तत्क्रियास्वभावत्वेऽप्यनुत्पत्तिरिति चेत्, व्याहतमेतत्, समुदितस्य कार्यजननस्वभावत्वे केवलस्य तज्जनननस्वभावत्वासिद्धेः॥ किञ्च प्रत्येकातिरिक्तसमुदाये प्रमाणाभावात् प्रत्येकमनुत्पादकत्वे समुदायस्याप्यनुत्पादकत्वम्॥अथ प्रत्येकं कारणानां स्वरूपयोग्यतैव, फलोपहितकारणतायां त्वेकैकस्य कारणस्येतरकारणसाहित्यमप्यवच्छेदकमिति न दोष इति चेत्, इतरकारणसाहित्यमपि यद्येकैककारणस्य कार्योपधानस्वभावानुप्रविष्टं तदानुपनमन्त्यपि तानि गलेपादिकया गृहीत्वा प्रतिक्षणं कार्यं कुर्यात्॥ अथ कारणे हेत्वन्तरोपनिपातेन कार्यजननस्वभाव उत्पद्यत इति केवलस्य न जनकत्वं न च सहकारिसहितासहितावस्थयोरस्य स्वभावभेदः, प्रत्ययान्तरापेक्षस्वकार्यजननस्वभावतायाः सर्वदा भावादिति चेत्, न, प्रत्ययान्तरसत्त्वेऽपि ह्यस्य स्वरूपेणैव कार्यकारिता, तच्च प्रागप्यस्ति, प्रत्ययान्तरापेक्षायाश्च ततो लभ्यस्यात्मातिशयस्याभावादसम्भव इति केवल एव कार्यं किं न कुर्यात्, अकुर्वश्चकेवलः सहितावस्थायां च कुर्वन् कथं न भिन्नस्वभावो भवेत्, तन्नाऽक्षणिकस्य क्रमेणार्थक्रिया सम्भवतीति न क्रमयोगः। यौगपद्यमपि तस्यासङ्गतं, द्वितीयादिक्षणेषु तावत एव कार्यकलापस्योदयप्रसङ्गा-द्धेतोस्तज्जननस्वभावस्याप्रच्युतेः सन्निहितसकलकारणानां चानुदयोऽयुक्तः, प्रथमक्षणेऽपि तद्भावापत्तेरिति क्रमयौगपद्यायोगादक्षणिकानामर्थ-क्रियासामर्थ्यविरहलक्षणमसत्त्वमायातमिति सत्त्वलक्षणः स्वभावहेतुः क्षणिकतायां बाधकप्रमाणबलान्निश्चिततादात्म्यः कथं न गमकः। अथाक्ष-
णिकानामिव क्षणक्षयिणामप्यर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणं सत्त्वमनुपपन्नमेव, क्रमायोगस्य तत्राऽपि तदवस्थत्वात्, यौगपद्यस्य च प्रत्यक्षेणैवबाधात्, न च विशिष्टहेतुक्रमादेव कार्यक्रमस्तेष्वेकत्वाभिमानश्च सादृश्यादिति वाच्यम्, प्रतिक्षणोदयं बिभ्राणेषु हेतुषु परस्परतो विशेषाधानस्यैव दुर्वचत्वात् प्रत्ययजनितविशेषस्य स्वोत्पत्तेः प्राक् पश्चाद्वाऽसम्भवात्, प्राक्तेषामेवासत्त्वात्, पश्चादप्युपहितानुपहितक्षणाविवेकेन तत्स्वरूपस्य तस्याकार्यत्वात्, अतिरिक्तस्य च सम्बन्धाभावादिति न सहकारिभिरुपकारः, ततो निर्विशेषाणां क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वलक्षणं न सत्त्वम्॥ तदुक्तम्—“कः शोभेतवदन्नेवं, यदि न स्यादह्रीकता॥अज्ञता वा यतः सर्वं, क्षणिकेष्वपि तत्समम्॥१॥ विशेषहेतवस्तेषां, प्रत्यया न कथञ्चन॥नित्यानामिव युज्यन्ते, क्षणानामविवेकतः॥२॥ क्रमेण युगपच्चैव, यतस्तेऽर्थक्रियाकृतः॥न भवन्ति ततस्तेषां, व्यर्थः क्षणिकताश्रमः॥३॥” इति, तदयं सत्ताहेतुरसाधारणानैकान्तिक इति चेत्, असदेतत्, सहकारिजनितस्य कारणगतविशेषस्यासम्भवेन निर्विशेषत्वेऽपि ‘सामग्र्याःकार्यजनकत्वमिति’ प्रवादात् समग्राणां प्रत्येकमितरेतरसहकारिणां स्वस्वविशिष्टक्षणान्तरारम्भकत्वात्तदनन्तरमपि तथैव तदारम्भसम्भवात्सविशेषत्वाम्युपगमे बाधकाभावात्। असमर्थात् समर्थक्षणोत्पत्तौ सहकारिसमवधानप्रयोज्यो विशेषो न स्यात्तथा च प्रागपि स्यादिति चेत्, न असमर्थक्षणे समर्थक्षणकुर्वद्रूपत्वाख्योयो विशेषस्तत्र सहकारिसमवधाननियतताया एव तत्प्रयोज्याया अभ्युपगमे दोषाभावात्। युक्तं चैतत्, कारणस्यैव कार्योत्पत्तिव्याप्यत्वे लाघवात्, त्वया तु स्वेतरकारण विशिष्टकारणत्वेन कार्योत्पत्तिव्याप्यत्वं स्वीकर्तव्यमिति गौरवम्। तस्मात्क्षणिकानामेवार्थक्रियासामर्थ्यलक्षणं सत्त्वं सम्भवतीति नासाधारणानैकान्तिकता। अथ क्षणिकक्षित्याद्यनेककारणजनितं कार्यमेकं
न स्यात्, अनेककारणजनितस्यैकत्वासिद्धेरिति चेत्, एकमेकं करोतीति कुतोऽवगतं, तद्भावे तद्भावादिति चेत्, समानमेतदनेकत्र, तथा ह्येकमङ्करादिकार्यमङ्गीकृत्य विशिष्टक्षणान्तरोत्पादनलक्षणेनातिशयाघानेन क्षित्यादीनां प्रवृत्तिः, तत्र स्वहेतुपरिणामोपात्तधर्माण-स्तदवस्थां प्राप्तास्तस्यैवैकस्य जनने समर्था नान्यस्येति नापरं तज्जनयन्ति, न वा नैकोद्भूतं तदनेकमासज्यते, यतो न कारणमेव कार्यं भवतीत्येतदस्माभिरभ्युपेयते, येनानेकपरिणतेरनेकरूपत्वात्कार्यस्याप्यनेकत्वं प्राप्यते, किन्तु केषुचित् सत्स्वपूर्वमेव किञ्चित्प्रादुर्भवति, तद्भाव एव भावात्तत्कार्यमुच्यते इति नानेकताप्रसङ्गः। यदि तु तेषु सर्वेषु अभिन्नंरूपं किञ्चिज्जनकं स्यात्तदा तदेकतरस्थितावपि कार्यजननं स्यात्, न स्याद्वाऽन्यसन्निधावपि। सामग्रीमाश्रित्य कारण मेदात्कार्यभेदः स्यादिति चेत्, अयमस्माकमप्यभ्युपगम एव। स्थिरपक्षेऽपि हि सामग्रीत्वमेकं दुर्वचं, इतरकारणविशिष्टापरकारणस्य सामग्रीत्वेऽननुगमाद्वैशिष्ट्यस्यापि तत्सम्बन्धरूपस्या-ननुगतत्वादिति कल्पितैकत्वानामेव सकलकारणानां सामग्रीत्वं वाच्यं, तद्वदस्थिरपक्षेऽप्येकक्षणोत्पन्नानां कुर्वद्रूपत्वजात्यैकीकृत्य कल्पितानां कारणानां यदि सामग्रीत्वं कल्प्यते तदा को वा सामग्रीभेद इति। एतेन ‘क्षणिकानामेव हेतुत्वे तत्क्षणोत्पन्नानामुदासीनानामपि हेतुत्वं स्याद्’ इति निरस्तम्, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां सादृश्यानुसारेणैव कार्यकारणभावव्यवहारात्तन्निश्चयानुसारेणैव तच्छक्त्यनुभवकल्पनात् प्रतिनियतहेतुहेतुमद्भावस्यैव प्रामाणिकत्वात्। अथासतोऽजनकत्वान्न क्षणविशरारोः कार्यप्रसव इति चेत्, न, अनभ्युपगमात्कार्यकाले सत्त्वस्य कारणतायामप्रयोजकत्वात्,कुर्वद्रूपत्वस्यैव तथात्वात् तथाप्यविनष्टाद् द्वितीयक्षणव्यापारसमावेशवर्तिनः कार्यप्रसवाभ्युपगमे क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्ग इति चेत्, न, द्वितीयक्षणप्रतीक्षाव्यतिरेकेणापि स्वमहिम्ना कार्यकरणप्रवृत्त्यभ्युपगमात्, अन्यथा द्वितीयक्षण- भाविव्यापारज-
ननेऽप्यपरव्यापारसमावेशव्यतिरेकेणाप्रवृत्तेः, तत्रापि चापरव्यापारसमावेशकल्पनायामनवस्थानात्, अपरव्यापारनिरपेक्षाणामेवै-कव्यापारनिर्वर्तकत्वाभ्युपगमे किमपराद्धं कार्येण, येनाद्यव्यापारं विनैव न तज्जन्यत इति, न च व्यापारमन्तरेणार्थक्रिया नोपपत्तिमती, व्यापारेणैव व्यभिचारादिति भावनीयम्। अथानष्टात्कारणादुपजायमाने कार्ये कार्यकारणयोः सहभावप्रसक्तिः,
नष्टाच्च कारणात्कार्योत्पत्त्यभ्युपगमे तृतीयक्षणे तत्प्रसङ्गः, तथा हि प्रथमे क्षणे कारणसत्ता, द्वितीये तद्विनाशः, तृतीये च कार्योत्पत्तिरिति चेत्, न, यथैव कारणविनाशस्तत्सत्तापूर्वको न नष्टाद्भवति तथा तत्समानकालं कार्यमप्यनष्टात्कारणाद्भविष्यतीति दोषाभावात्। एवं विनाशोऽपि हेतुमान् स्यादिति चेत्, न, नीरूपत्वेन तत्र हेतुव्यापाराभावात्तदुपन्यासस्यात्र व्यवधायककालासम्भवप्रदर्शनार्थत्वात् ततो द्वितीयक्षणे कारणं नष्टं कार्यं चोपजायत इति कुतस्तयोः सहभावप्रसक्तिः। तदुक्तम्—“अनष्टाज्जायते कार्यं, हेतुश्चान्योऽपि तत्क्षणम्॥क्षणिकत्वात्स्वभावेन, तेन नास्ति सहस्थितिः॥१॥” इति॥अत्र चाविद्धकर्णोद्योतकरादिभिर्यदुक्तं “यदि तुलान्तकयोर्नमनोन्नमनवत्कार्योत्पत्तिकाल एव कारणविनाशस्तदा कार्यकारणभावो न भवेत्, यतः कारणस्य विनाशः कारणोत्पाद एव ‘उत्पाद एव विनाश’ इति वचनात् एवं च कारणेन सह कार्यमुत्पन्नमिति प्राप्तं, यदि च स एव नाशः प्रथमेऽपि क्षणे न सत्ता भावस्य स्यात्, तदैव विनाशात्, भावस्यैव विनाशत्वे सर्वदा भावस्य सत्त्वमसत्त्वं वा स्यात्, अन्यथा क्षणोत्तरं तन्नाशाभ्युपमस्याप्रामाणिकत्वप्राप्तेः। अथ कारणोत्पादात्कारणविनाशो भिन्नस्तदा कृतकत्वस्वभावत्वमनित्यत्वस्य न भवेत्, उत्पादनाशयोस्तादात्म्यप्रतिबन्ध एव तस्य वक्तुं शक्यत्वात् व्यतिरिक्ते च नाशे समुत्पन्ने न भावस्य निवृत्तिरिति कथं क्षणिकत्वमिति” तन्निरस्तम्। यतो द्विविधो विनाशः सांव्यवहार्यस्तात्त्वि-
कश्च, आ
यो भावनिवृत्तिरूप एव, द्वितीयश्चभावः, तत्र कारणनिवृत्तिरूपोऽभावो लोकप्रतीत एव नायं भावस्वभाव इष्यते, नापि कारणोत्पादादभिन्नो भिन्नो वा, नीरूपत्वात्, भेदाभेदप्रतिषेध एव केवलमस्य क्रियते, तदुक्तम्—“भावे ह्येव विकल्पः स्या–द्विधेर्वस्त्वनुरोधतः॥” इति। तेन ‘व्यतिरिक्ते नाशे जाते क्षणरूपस्य भावस्यानिवृत्तिः,’ इत्यपास्तं यतश्च द्वितीयक्षणोत्पत्तिकाल एव प्रथमक्षणनिवृत्तिस्तेनैकक्षणस्थायी भावो विनाशशब्देनोच्यते, अयं च भावरूपत्वात्तात्त्विकः साधनस्वभाव एव विनाशः कार्योत्पत्तिकाले च निवर्तत इति कार्यभिन्नकालभावी॥न च सर्वकालमस्य सद्भावः, भावस्यासत्त्वात्। यद्वा ‘विनाशोऽस्य स विनाशी’ इति व्युत्पत्तेरविनाशिव्यावृत्तो भाव एव नाश उच्यत इति। यदपि च प्रत्यभिज्ञायाः क्षणिकत्वानुमानबाधकत्वमुक्तं, तदप्यसत्, अनिश्चितप्रामाण्याया अस्या बाधकत्वानुपपत्तेः न च क्षणिकत्वानुमानप्रामाण्येऽस्या अप्रामाण्यनिश्चयोऽस्या अप्रामाण्ये च क्षणिकत्वानुमानप्रामाण्यमित्यन्योन्याश्रयदोषोपनिपातः, यतो न क्षणिकत्वानुमानप्रामाण्यं प्रत्यभिज्ञाऽप्रामाण्याधीनं, अपि तु विपर्ययबाधकप्रमाणाऽऽहितस्वसाध्यप्रतिबन्धनिश्चयाधीनमिति। किञ्चायमित्युल्लेखवद्वर्तमानकालकार्यजनकं स्वभावं वस्तुनः परामृशति, स एवेत्युल्लेस्ववच्च प्राक्तनं तदजनकं स्वभावमिति विरुद्धोभयस्वभावावगाहित्वात्कथं प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणम् अपि च क्षणविशरारुषु भावेषु सदृशापरापरोत्पत्यादिविप्रलम्भतोरुपजायमानं तद्दुष्टकारणारब्धत्वादेवाप्रमाणम्। अपि च लूनपुनरुदितकेशादिष्वेकत्वा-भावेऽप्यस्य प्रवर्तमानस्य दर्शनात्कृतः स्वविषमव्यवस्थापकत्वम्। किञ्चसत्सम्प्रयोगजत्वमपि प्रत्यभिज्ञानस्यासिद्धं, बहिरवस्थिततदेतत्कालसंस्पर्श्येकार्थेन्द्रियसम्प्रयोगासिद्धेः। यदप्येतत् प्रत्यभिज्ञानं देशादिभिन्नसामान्यालम्बनमित्युक्तं, तदप्यसङ्गतम्, सामान्यादेरपि
भिन्नस्य तद्विषयस्याभावात्। भावेऽपि भूयः प्रमाणगोचरीकृते तत्र प्रवर्तमानस्य प्रत्यभिज्ञानस्यानधिगतार्थाधिगन्तृत्वायोगात्। भिन्नाभिन्नालम्बनत्वेऽपि च प्रत्यभिज्ञानस्य न प्रामाण्यं, अपूर्वप्रमेयाभावात् न हि देशादयस्तत्र प्रत्यभिज्ञायन्ते, प्रागदर्शनात्तेषां पूर्वोपलब्धे तु सामान्यादौ न प्रमेयाधिक्यम्। न च पूर्वप्रसिद्धमेवाग्न्यादिसामान्यं देशादिविशिष्टतयाधिगच्छतोऽनुमानस्य यथा न प्रामाण्यव्याहतिस्तथा प्रागुपलब्धमेवसामान्यादि देशादिविशिष्टतया प्रतिपद्यमानस्यापूर्वप्रमेयसङ्गतेर्नप्रामाण्यक्षतिरिति वक्तव्यम्, द्वितीयप्रत्यक्षत एव तत्सिद्धेः प्रत्यभिज्ञानस्यापूर्वप्रमेयायोगात्, न हि सोऽयमित्युल्लेखद्वयाक्रान्तं प्रत्यभिज्ञानविषयद्वयं प्रत्यक्षद्वयगोचरादतिरिक्तमिति। न च यथा वस्तुस्वरूपग्राहिणाऽध्यक्षेण तदव्यतिरिक्ते क्षणक्षयेऽधिगतेऽपि तन्निश्चिन्वानाऽनुमितिः समारोपव्यवच्छेदकतयैव प्रमाणं, तथा प्रत्यभिज्ञा दर्शनद्वयगृहीतेऽप्यर्थे समारोपव्यवच्छेदकत्वादेव प्रमाणमिति वाच्यम्, दर्शनद्वयेनैव समारोपव्यवच्छेदसिद्धेः समारोपव्यवच्छेदविषया चेयं कुतः प्रत्यक्षतां स्वातन्त्र्येण प्रमाणतां वाऽऽस्कन्देत्। यदपि ‘प्रमेयातिरेकाभावेऽपि सन्देहापाकरणात्प्रमाणं प्रत्यभिज्ञा’ इत्यभ्यधायि, तदप्यापातरमणीयं स्मृतेरपि किमिदं मया दृष्टमुत नेति संशयव्यवच्छेदेन दृष्टमेवेत्युपजायमानायाः प्रमाणताप्रमुक्तेः॥अपि चालोचनाज्ञानानन्तरं सविकल्पकप्रत्यक्षाभ्युपगमात्कालान्तरादिभावोऽपि तत एव निश्चित इति कुतः सन्देहो यदपाकरणाय प्रत्यभिज्ञादरो युज्यते, न हि निश्चितमनिश्चितं नाम, तस्मात्प्रमेयाधिक्यमेव प्रामाण्यनिबन्धनं, न तु संशयापाकरणमपि तथावक्तुं युक्तम्॥ यत्तु—“इदानीन्तनमस्तित्वं, न हि पूर्वधिया गतम्॥” इत्युक्तं, तद् युक्तमेव, इदानीन्तनास्तित्वस्य प्राक्कालीनास्तित्वतो भेदात्, अन्यथा प्राक्तनविकल्पबुद्ध्या वस्त्वव्यतिरेकीदानीन्तनास्तित्वस्य कथम-
ग्रहणम्। यैस्तु निर्विकल्पकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानं प्रमाणतयाभ्युपगतं तेषां तदुत्तरकालभाविसविकल्पकादयो घटादिविषयाः प्रमेयातिरेकाभावात्कथं प्रमाणतामश्नुवीरन्, न हि निर्विकल्पकसविकल्पकयोरन्तराले सन्देहसम्भवोऽपि येन तदपाकरणेनापि प्रामाण्यं व्यवतिष्ठेत। किञ्च पूर्वापरसंवेदनाधिगतभावैकत्वग्राहकं प्रत्यभिज्ञानं कथमध्यक्षस्वरूपं, प्रथमसंविदोऽसत्यास्तत्र ग्रहणासम्भवात्, अन्यथा भाविसमयादिग्रहणस्यापि प्रसङ्गात्, भाविकालाद्यग्र
हेऽपि तत्सम्बन्धिरूपग्रहाभ्युपगमे आद्यमृद्दर्शनवेलायामेव त्रैकाल्यस्पर्शिस्थासकुशूलादिसकलव्यक्तिग्रहणप्रसङ्गात्। यदेवोत्तरकालं परामृश्यते तदेव भाविज्ञानविषयीभावस्तु प्रागवगम्यत इति नियमकल्पनान्न दोष इति चेत्, न तत्त्वं यदि दृश्यमानस्य पूर्वदेशादिपरिगतत्वं तदा पूर्वदेशाद्यसन्निधाने तत्प्रतिभासासम्भवात्, प्रातिभासिकसन्निधानाभ्युपगमेऽपि तद्वर्तमानतापत्तेः, नहि तद्दर्शनप्रतिभासमन्तरेणान्या वर्तमानता नीलादीनामपि तथापि पूर्वरूपत्वाप्रच्यवे वर्तमानव्यवहारोच्छेदग्रसक्तेः॥ यदि च दृष्टतेवदृश्यमानस्य तत्त्वं तदापि तस्याः साम्प्रतिकदर्शने प्रतिभानाभ्युपगमे वर्तमानतापत्तेः पूर्वापरदृगवगतैकत्वक्षतेः। पूर्वदृशि तद्भानाभ्युपगमे च तस्याः प्रच्युतौ तद्ग्राह्यताया अपि प्रच्युतत्वान्। न च पूर्वदृष्टताऽप्रतिपत्तावपि पूर्वदृष्टरूपप्रतीतेर्न दोषो, विशेषणाप्रतीतौ विशिष्टाप्रतीतेः, न हि नीलताऽप्रतिपत्तौ नीलोऽर्थोऽधिगतो भवति, यदि च प्राग्दर्शनगोचरोऽर्थो वर्तमानदृशि तत्स्वाभाव्यादेव प्रतिभाति, तदा पूर्वदृग्गोचरसकलपदार्थप्रतिभासनप्रसङ्गः। अथाभेदस्य नियामकत्वम्, न, नीलादेर्भिन्नस्यापि वर्तमानदर्शने प्रतिभासनात् पूर्वदृष्टस्य वर्तमानदृशि सन्निधानेन प्रतिभासनान्नाऽतिप्रसङ्ग इति चेत्, न, अप्रतिभासेन सन्निधौ सर्वत्रातिप्रसङ्गात् प्रतिभासेन च सन्निधावितरेतराश्रयात्। एतेन ‘पूर्वदृष्टस्याप्रच्युतेर्वर्तमानदृशि भा-
नम्’ इत्यपास्तं, तदप्रच्युतौ प्रमाणाभावात्, तदवगाहिदर्शनस्यैव तत्र प्रमाणत्वेऽन्योन्याभयात् पूर्वदृष्टस्याप्रच्युतौ प्रवर्तमानं दर्शनं प्रमाणं सिद्ध्यति, तत्प्रामाण्यसिद्धौ च पूर्वदृष्टस्याप्रच्युतिरिति। न च परिस्फुटप्रतिभासबलादेवेयं वर्तमानदृक्प्रमाणं, कामशोकाद्युपप्लुतविशददृशोऽपि प्रमाणताप्रसक्तेः। न च विसंवादात्साऽप्रमाणमियं तु विपर्ययात्प्रमाणं, यतः संवाददृशोऽपि पूर्वदृष्टार्थग्राहित्वेन प्रामाण्यं वाच्यं न संवादान्तरेण, अनिष्ठापातात् पूर्वदृष्टार्थग्राहित्वं च दुर्निरूपं, पूर्वोत्तरज्ञानयोरेकरूपपरिच्छेदे एकतरपरिशेषात् ज्ञानद्वयावभासिरूपस्य चोभयाप्रतिभासेऽप्रतिभासात्, अन्यथा सकलातीतज्ञानावभासिरूपप्रतिभासप्रसक्तेः॥ किञ्चयः स इत्याकारयोरन्योन्यानुप्रवेशेन भाने परोक्षापरोक्षरूपमेकं ज्ञानं स्यात्, अन्योन्याननुप्रवेशेन च भाने प्रतिभासद्वयं परस्परविविक्तमायातमिति प्रतिभासस्याऽपि भेद एव ध्रुवः। न चात्रुट्यद्रूपतया प्रतिभासात्प्रतिभासस्यैकत्वमेव, यतो विद्युदादिष्वपि पूर्वरूपाप्रतिभासनं यदि त्रुट्यद्रूपत्वमङ्गीक्रियते, तर्हि पूर्वदृष्टाप्रतिभासनं वर्तमानदृशः स्तम्भादावस्तीति कथं न त्रुट्यद्रूप एवायं प्रतिभासः स्तम्भादिभेदं विधातुं प्रगल्भताम्। अथ ग्राह्यस्याविरतमुपलब्धिरत्रुट्यद्रूपता, विद्युदादौ त्ववभासस्य विरतिरित्यत्रुट्यद्रूपता न युक्तेति चेत्, न, अविरतोपलब्धिरपि किं तस्याहोस्विदन्यस्येति वक्तव्यम्, यद्यन्यस्य कथमेकत्वम्, अथ तस्यैव, सा न सिद्धा, न हि पूर्वदृष्टस्य पुनरुपलब्धिरित्यद्याऽपि सिद्धम्। यदपि पूर्वदृष्टं पश्यामीति व्यवसायबलान्निर्विकल्पकं दर्शनं पूर्वापरैकत्वग्राहीत्यभ्युपगम्यते, तदप्ययुक्तं, व्यवसायमात्रानुसारेण ग्राहकदर्शनाव्यवस्थापनात्, प्रतिभासानुसारेणैव व्यवसायव्यवस्थापनात्, अन्यथाऽश्वविकल्पनसमये गोदर्शनाभ्युपगमानुपपत्तेः। प्रतिभासश्च निरस्तपूर्वापरभावो वर्तमानाऽऽरूढ एव परिस्फुटः। न च पूर्वापरदर्शनप्रतिभासिस्वरूपद्वयव्यतिरिक्तं नीलादि यदुभयत्रैकं भासेतेत्य-
प्रतिभासमाने नित्यत्वसाधने न कापि क्षतिः, प्रतिभासस्यैवानित्यत्वसाघनान्नाध्यवसायवशादध्यक्षग्रहणव्यवस्थेत्येके। अपरे तु मन्यन्ते यद्यपि नीलाध्यवसायान्नीलदर्शनस्य तद्ग्राहकत्वं व्यवस्थाप्यते तथापि लूनपुनर्जातकेशादिषु पूर्वदृष्टं पश्यामीत्यध्यवसायाद् व्यभिचारेण न तस्य तद्रूपार्थग्राह्यनुभवव्यवस्थापकत्वम्, न च विच्छेदाभिज्ञैस्तत्र भेदग्रहणान्माभूदभेदग्राहितानुभवस्य, अत्र तु नैवमिति वैषम्यमिति वाच्यम्, अवगतविच्छेदानामपि प्रमातृृणां समानवर्णसंस्थानप्रमाणेषु केशादिषु तदन्येषामिव प्रत्यक्षेण भेदनिश्चयाभावात्, आनुमानिकभेदनिश्चयस्य चात्राऽपि साम्यात्। न च विकल्पवशादनुभवस्य विषयव्यवस्था सङ्गच्छते, अन्यथापि विकल्पसम्भवात् शङ्काऽनिवृत्तेः। न च बाधकप्रामाणभावाच्छङ्काभावः, बाधकप्रमाणस्य विपर्ययोपस्थापन एव सामर्थ्यात्, शङ्कायाः कोटिद्वयोपस्थितिविशेषादर्शनमूलत्वात् तन्नैकत्वाध्यवसायिविकल्पबलान्निर्विकल्पप्रत्य- भिज्ञाकल्पनं युक्तिमत्॥यदपि कैश्चिदुच्यते निर्विकल्पकं ज्ञानमेकत्वग्राहि, तदनन्तरभाविसविकल्पकं च प्रमाणमिति, तदपि प्रतिविहितमेव, निर्विकल्पकेनैकत्वापरिच्छेदात्, स्वरूपप्रतिभासस्य निर्विकल्पकलक्षणत्वात्, स्वरूपस्य च सन्निहितस्यैव भानात्, असन्निहिते च स्मृतेरेव प्रवृत्तेः, विस्मृतस्य प्राग्दृष्टस्याप्यप्रत्यभिज्ञानात्, स्मृतिविकलेन्द्रियजप्रतिभासस्य च निर्विकल्पकत्वाद। सविकल्पकप्रत्यभिज्ञानमपि भ्रान्तमेव, असद्भूततत्ताविषयत्वात्, तस्याः सद्भूतत्वे प्रथमदर्शनेऽपि भानप्रसङ्गात्। न च स्मृतिसहिताया दृशस्तत्त्वे व्यापारादयमदोषः, अविषये स्मृतिसाहित्यस्याप्यप्रयोजकत्वात्, अन्यथोत्पलचाक्षुषं गन्धस्मृतिसहायं गन्धमपि गृह्णीयात्। यद्येवं कथमक्षव्यापारानन्तरं प्रत्यभिज्ञोदय इति चेत्, पुरो व्यवस्थितदर्शने पूर्वदृष्टे स्मृतेरुदयात्, दुरव्यवस्थितचन्दनाद्यर्थदर्शनाद् गन्धस्मृतेः सुर
श्चि
चन्दनमिति प्रतिपत्तिवत्। लोचनाविषयत्वाद्गन्धंस्य तद्विशिष्टचन्दनप्रतिपत्तिस्तद्गतरूपदर्शनाल्लिङ्गप्रभवेति चेत्, प्रकृतेऽपि वर्तमानदर्शनात्पूर्वकालाद्यनुस्मरणात्तद्विशिष्टपुरोव्यवस्थितार्थप्रतिपत्तिरानुमानिकीति तुल्यम्। किञ्च सोऽयमिति पूर्वदृष्टार्थस्मृतिवर्तमानदृशोर्भेदाग्रहादेव व्यवहारोऽन्यथा परोक्षापरोक्षाकारौकज्ञानविरोधात्, ‘स इत्युल्लेखे’ स्मृतेरेव ‘अयमित्पुल्लेखे’ च दर्शनस्यैव हेतुत्वात्। न च तत्तैवेदन्ता, संस्कारजन्यतज्ज्ञाने च स इत्यभिलाषःप्रात्यक्षिकतज्ज्ञाने चायमित्युभयहेतुसमाजात्सोऽयमिति प्रत्यभिज्ञाकारोपपत्तिरिति भवानन्दादिकृत समाधानमपि युक्तम् सोऽयमित्याकारयोः परस्परानुप्रवेशप्रसङ्गात्, तथा च कदाचित्स इत्येवोल्लिख्येत, कदाचिच्चायमित्येव, न तु सोऽयमिति नियतोल्लेखः स्यात्। प्रत्यभिज्ञाया उभयाकारावगाहित्वनियमादुभयोल्लेखनियम इति चेत्, तर्हि विषयविशेषं विना धीव्यवहारविशेषाभ्युपगमे साकारज्ञानवादप्रसङ्ग इति यत्किञ्चिदेतत्। एतेन ‘स एवायमिति व्यवहारैकत्वादेकत्वम्’ इत्यपास्तं, यतो व्यवहारो ज्ञानं, अभिधानं, प्रवृत्तिर्वा, यदि ज्ञानं, तर्हि तन्निर्विकल्पकं, स्मृतिः, कल्पना वा, यदि निर्विकल्पकं, तत्पूर्वापरकालभाविभिन्नमेवैककालमपि पूर्वापरार्थप्रतिभासभेदाद्भिन्नम्, अथ स्मृतिः, साऽपि दर्शनाद्भिन्ना कथं तदेकत्वं साधयेत्?। न चोभयदर्शनविषयविषयकत्वात्तदर्थैकत्वमेव स्मृत्या साध्यत इत्यभिप्रेतं, मिथोऽननुप्रविष्टाकार भेदावगाहिन्यास्तस्यास्तदसाधकत्वात्। न च कल्पनाप्येकास्ति, स इत्ययमिति च कल्पनाभेदाद्॥अभिधानमपि स इत्ययमिति च भिन्नं भिन्नार्थं च प्रतिभाति, एकार्थत्वे पर्यायताप्रसक्तेः। तत्तेदन्ताख्याखण्डोपाधिरूपशक्यतावच्छेदकभेदाद्द्रव्यघटपदयोरिव न पर्यायत्वमिति चेत्, न, अन्यूनानतिरिक्ततयैकार्थवृत्तित्वेन पर्यायत्वाप्रच्यवात्, अन्यथा कम्बुग्रीवादिमद्—घटपदयोरपि
पर्यायत्वानापत्तेः। प्रवृत्तिस्तु क्रियारूपत्वात्पूर्वापरभाविनी भिन्नैवेति कुतो व्यवहारैकत्वादप्येकत्वम्। तेन निर्विकल्पकस्य सविकल्पकस्य वा प्रत्यभिज्ञानस्य प्रामाण्यासिद्धेर्न प्रत्यक्षविरोधमनुभवन्ति क्षणिकवादिनः। यच्च विनाशस्य सहेतुकत्वात्तद्धेत्वभावादेव कियत्कालं स्थैर्यमित्युक्तं, तदप्यसत्, विनाशस्य सहेतुकताया एवासिद्धेः, तथा हि इन्धनादीनामग्निसंयोगावस्थायां त्रितयमुपलभ्यते तदेवेन्धनादि, कश्चिद्विकारोऽङ्गारादिः, तुच्छरूपश्चाभावः कल्पनाज्ञानप्रतिभासी, तत्राग्न्यादीनां क्व व्यापार इति वक्तव्यं, न तावदिन्धनादिजन्मनि, स्वहेतुत एव तेषामुत्पत्तेः, नाप्यङ्गारादौ विवादाभावात् किन्त्वग्न्यादिभ्योऽङ्गाराद्युत्पत्ताविन्धनादेरनिवृत्तत्वात्तथैवोपलब्ध्यादिप्रसङ्गः न चाङ्गारादिभ्यः काष्ठादेर्नाशान्नायं दोषः, ततो वस्तुरूपापरध्वंसोपगमेऽपि काष्टादेस्तदवस्थत्वात्॥ काष्ठनाशोपलब्धेः काष्ठोपलब्धिप्रतिबन्धकत्वात्तदनुपलब्धिरिति चेत्, न, अतिरिक्तकाष्ठनाशस्यैवानुपलब्धेः तदिदमुच्यते—‘दृष्टस्तावदयं घटोऽत्र निपतन् दृष्टस्तथा मुद्गरो, दृष्टा कर्परसंहतिः परमतोऽभावो न दृष्टोऽपरः। तेनाभाव इति श्रुतिः क्व निहिता किं वाऽत्र तत्कारणं, स्वाधीना कलशस्य केवलमियं दृष्टा कपालावली॥१॥’ इति॥अथ काष्ठादेरङ्गारादिकमेव ध्वंसो नापर इति ततो नोपलब्ध्यादिप्रसङ्ग इति चेत्, काष्ठादेरङ्गारादिकमेव ध्वंसो नापर इत्यत्र किं निबन्धनं, तस्मिन्मति तन्निवृत्तिरिति चेत्, न, तुच्छस्वभावनिवृत्त्यनङ्गीकरणेऽङ्गारादिभावेऽङ्गारादिभावात्काष्ठादेरङ्गारादिकमेव ध्वंस इति वाक्यार्थः स्यात् स च स्वात्मनि क्रियाविरोधादसङ्गतः। अव्यक्तस्वात्मरूपविकारान्तरं ध्वंस इत्यप्यनुद्धोष्यं, बुद्ध्यादीनामात्मरूपविकारापत्तौप्रमाणाभावात्, प्रदीपादेश्चाव्यक्तरूपस्य विकारस्य कार्यविशेषादर्शनेनासिद्धेः। तन्न भावान्तरं प्रध्वंसाभावः, भावान्तरस्य च प्रध्वं-
सत्वे तद्विनाशाद् घटाद्युन्मजनप्रसङ्गः, घटप्रागंभावतत्प्रध्वंसानाधारकालस्य घटाधारत्वव्याप्यत्वात् न च कपालादेर्भावरूपतैव ध्वस्ता नाभावात्मकतेति नायं दोषः, धर्मिप्रच्यवे धर्मप्रच्यवान्निराश्रयधर्मावस्थानायोगात्। कपालादिकार्यपरम्परायामेव घटध्वंसत्वस्वीकारान्न दोष इति चेत्, न, एवं सति घटध्वंसत्वस्य व्यासज्ज्यवृत्तित्वे यावदाश्रयभानं विनाऽभानप्रसङ्गात्, प्रत्येकं वृत्तित्वे च नानात्वेनाननुगमप्रसङ्गात्, तन्नानात्वस्य प्रतीतिबाधितत्वाच्च। एतेन ‘कपालादिरूपस्य घटध्वंसस्याप्यऽस्तु ध्वंसः, न चैवं घटोन्मज्जनप्रसङ्गः, घटध्वंसध्वंसादिपरम्परानाधारकालत्वस्य घटाधारत्वव्याप्यत्वाद्’ इत्यप्यपास्तं, गौरवात्, घटध्वंसो ध्वस्त इत्यादिप्रतीत्यभावाच्च, तन्न कपालादिरूपं भावान्तरं घटादेर्ध्वंसः, नवा तत्र कारकव्यापारसम्भवः, क्रियाप्रतिषेधमात्रप्राप्तेः, अकारकस्य च हेतुमत्त्वाभ्युपगमो विरोधाघ्रातत्वादेव न श्रद्धेयः हेतुमत्त्वेवाऽभावस्य कार्यत्वादभावरूपताप्रच्युतिः, ‘भवनधर्मा हि भावः’ अङ्कुरादेरपि भावशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं नापरमुपलभ्यते, तच्चेदभावेऽस्ति कथं न भाव इति?।अर्थक्रियासामर्थ्यं भावशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं तच्चाभावे नास्तीति चेत्, न, सर्वसामर्थ्यविकलस्य प्रतीतिविषयत्वायोगात्, प्रतीतिजनकत्वे सर्वसामर्थ्यायोगासिद्धेः। अथ यथा घटपटादीनां भेदः प्रतिनियतज्ञानविषयतया, तथा भावाभावयोः कार्यत्वाविशेषेऽपि सदसत्प्रतीतिविषयतया भेदः सेत्स्यतीति चेत्, न, असत्प्रत्ययविषयतया शशशृङ्गादिवत्कार्यताया अप्यस्य दूरोत्सारणात्। अथ स्वहेतुभावे भावादस्य कार्यता, कथं न सत्प्रत्ययविषयता, यो हि भवतीति प्रतीयते स सन्नित्यपि प्रतीयते, न ह्यस्ति-भवति-सद्भाव इत्यादिशब्दानां कश्चिदर्थमेदो विद्वद्भिरिष्यते। अभावात्मकतयैवासौ भवतीत्यदोष इति चेत्, न, व्याहतत्वात्, न भवतीति ह्यभाव उच्यते स कथं भवतीति?। स्वग्रा-
हिणि ज्ञाने प्रतिनियतेन रूपेणाप्रतिभासनादभाव इत्येतदपि न वक्तव्यम्, अत्यन्तपरोक्षचक्षुरादीनामप्यभावत्वापत्तेः। किञ्च यद्यभावरूपो विनाशो हेतुमांस्तदा हेतुभेदात्तद्भेदप्रसङ्गो, न चायमनुभूयतेऽग्न्यभिघातादिहेतुभेदेऽपि घटनाशभेदाननुभवात् तस्मादहेतुरेवायं निःस्वभावस्तुच्छोऽभ्युपगन्तव्यः, अग्निसंयोगादयस्तु काष्ठादिष्वङ्गारादिकमेव जनयन्ति काष्ठादयश्च स्वरसत एव निरुध्यन्त इत्यनवद्यम्, लोकश्चाकिञ्चिद्रूपतामेव नाशस्य प्रतिपद्यते, तत्त्वमपि चाऽसतोऽकिश्चिद्रूपतैव, यतोऽवैपरीत्यं तत्त्वमुच्यते, न चैतद्विपरीतं यदकिश्चिद्रूपो ध्वंस इति। किञ्च स्वभावतो भावानां नश्वरत्वेऽपरव्यापारवैफल्यात्, अनश्वरत्वे च सत्स्वभावस्यान्यथाकर्तुमशक्यत्वाद्व्यर्थो नाशहेतुः। अथ स्वहेतुभिर्नियतकालस्वभावः पदार्थो जनित इति नोत्पादानन्तरमेव विनंष्टुमुत्सहत इति चेत्, तर्हि तस्मिन्नेव स्वभावे व्यवस्थितः कथमन्तेऽपि विनश्येत्, तथा चान्तेऽन्ते तावत्तावत्कालस्थायिस्वभावानपगमे सदा स्थास्नुरेव स्यात्। तत्स्वभावापरावृत्तावकिञ्चित्करैर्मुद्गरादिभिस्तन्नाशायोगात्॥न च भवतामप्यकिञ्चित्करमपि मुद्गरादिकमपेक्ष्य कथं प्रवाहो निवर्तत इति वाच्यम्, यतो न विशरारुक्षणव्यावृत्तोऽपरः प्रवाहो विद्यते, यो निवर्तमानोऽकिञ्चित्करं मुद्गरादिकमपेक्षत इति प्रतिजानीमहे, किन्तु परस्परविविक्ताः पूर्वापरक्षणा एव प्रवाहः, ते च स्वरसत एव निरुध्यन्त इति न क्वचिदकिञ्चित्करापेक्षा निवृत्तिः, केवलं मुद्गरादिना रहिता सामग्र्यविभक्तं कार्यं सम्पादयति, तत्सन्निधाने तु विभक्तं कार्यान्तरं जनयतीति विशेषो, नतु मुद्गरादयः कारणसामर्थ्यं खण्डयन्तीति, अतो यदुक्तं—“स्वभावोऽपि स तस्येत्थं, येनापेक्ष्य निवर्तते॥विरोधिनं यथान्येषां प्रवाहो मुद्गरादिकम्॥१॥ इति,” तदपि प्रतिक्षिप्तं द्रष्टव्यम्॥ अथायं विकल्पः सर्वगतत्वादसारः, तथा ह्युत्पादेऽप्येवं शक्यत एव वक्तुं स्वभा-
वतो द्युत्पत्तिस्वभावस्य न किञ्चिदुत्पत्तिहेतुभिः, तत्स्वभावतयैव समुत्पादात्, अनुत्पत्तिस्वभावस्य तु व्यर्था उत्पत्तिहेतवः, तद्भावान्यथात्वस्य कर्तुमशक्यत्वात्, मैवं, यतो यद्यभूत्वा भवनलक्षणोत्पत्तिस्वभावहेतोरकिञ्चित्करत्वं, तदा इष्टापत्तिरेव। अथोत्पत्तौ स्वभाव आभिमुख्यलक्षणो यस्य सन्निहितकारणकलापानन्तरभाविनस्तस्य व्यर्थत्वमभिधातुमभिप्रेतं, तदसन्निहिततथाभूतकारणवशात्तथा व्यपदेशहेतोर्व्यर्थता युक्ताऽनुत्पत्तिस्वभावहेतुवैफल्यं चाभीष्टमेव, न ह्युत्पत्तिहेतवोऽभावान् भावीकुर्वन्ति। नन्वेवं कथमुत्पद्यतेऽसदितीष्यते, कारणानन्तरं यः सद्भावः स प्रागसन्नित्ययमत्रार्थो, न पुनरभावो भावत्वमापद्यत इति, हन्त यद्येवं तर्हि तु को भावस्य विनाश उत्पादोऽपि तथैवास्तु भावधर्मत्वाविशेषात्, नैवं, यतो न नाम विनाशोऽन्य एव कश्चिदुदयापवर्गिणो भावात्, भावश्चस्वहेतोरेव तथाभूत उत्पन्नो न कश्चिद्धर्मोस्यानिमित्तः, केवलं तमस्य स्वभावं पश्यन्नपि मन्दबुद्धिर्न विवेचयति, दर्शनपाटवाभावात् यदा तु विसदृशः कपालादिक्षणः प्रत्ययान्तरोपनिपातादुत्पद्यते, तदा भ्रान्तिकारणविगमात्प्रत्यक्षनिबन्धनः क्षणक्षयनिश्चय उत्पद्यते, अनुमानतस्तु विदुषः प्रागपि भवत्येव, यथा विषयरूपदर्शनेऽप्यतत्कारिपदार्थसाधर्म्यविप्रलब्धौ न कारणशक्तिंनिश्चिनोति प्राक्, पश्चाच्च विकारदर्शनात्तन्निश्चयो, न च शक्तिशक्तिमतोर्भेद इति, उक्तं च सौगतैः “जातस्य च स्वभावस्य विनश्वरत्वेऽन्यानपेक्षणमात्रेण निर्हेतुको नाश उच्यते” इति॥स्थितमेतत् प्रत्यक्षतोऽनुमानतश्च सर्वभावानां क्षणिकत्वमिति। एतच्च द्रव्यार्थिकनिःक्षेपविचारे सम्मतावेव यथा दूषितं तथैव किश्चित्संक्षिप्य विविच्य लिख्यते, तत्र क्षणक्षयित्वे यदध्यक्षं प्रमाणमुक्तं, तदसत् स्थिरस्थूररूपाणामेव घटादीनां प्रतिभासात्, न चान्यादृग्भूतार्थप्रतिभासोऽन्यादृग्भूतार्थव्यवस्थापकोऽतिप्रसङ्गात्। न च सदृशापरापरोत्प- त्तिदोषादत्र यथानुभवं न विकल्पो-
त्पत्तिः, नीलादिष्वप्येवमनाश्वासप्रसङ्गात्, यथाहि परमार्थतोऽसदृशा अपि सदृशविकल्पोत्पादकदर्शनहेतवो भावाः सदृशव्यवहारभाजस्तथा स्वयमनीलादिस्वभावा अपि नीलादिविकल्पोत्पादकदर्शननिमित्ततया नीलादिव्यवहारभावत्वं प्रपत्स्यन्त इति शङ्कापिशाचीप्रचारस्य दुर्निवारत्वात्। निश्चयानुरूपेणैव च प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यम्, अन्यथा दानहिंसाविरतिचेतसामपि स्वर्गप्रापणशक्तेरध्यक्षत एवावगतेर्न तत्र विप्रतिपत्तिरिति तद्व्युदासार्थमनुमानप्रवर्तनं शास्त्रविरचनं वा सौगतानां वैयर्थ्यमनुभवेत्। निश्चयश्च संहृतसकलविकल्पावस्थायामश्वविकल्पनसमय एव च प्रणिधानानन्तरं पुरोव्यवस्थितस्य गवादेः स्थिरस्थूररूपस्यैवेति कथं क्षणिकत्वेऽध्यक्षं प्रमाणम्। नाप्यनुमानात्तन्निश्चयः, तत्राध्यक्षाऽप्रवृत्तावनुमानस्याप्यनवतारात्, तथाह्यध्यक्षाधिगतमविनाभावमाश्रित्य पक्षधर्मतावगमबलादनुमानमुदयमासादयतीति, अध्यक्षानवगते तु विषये स्वर्गादाविवाध्यवसायफलस्यानुमानस्य प्रवृत्तिरेव सौगतैरभ्युपगता, तथा च तदाचार्यः॥ “अदृष्टेऽर्थे विकल्पनमात्रम्” इति, किञ्चस्थायितावगाहिप्रत्यभिज्ञानाधितत्वादेव क्षणिकत्वे नानुमानं प्रमाणं साधीयः। न च लूनपुनर्जातकेशादिष्वेकत्वप्रत्यभिज्ञोदयान्नासावेकत्वे प्रमाणम्, एवं सति कामलोपहतदृशां धवलिमानमाबिभ्राणेषु पीतदर्शनमुदेतीति वास्तवपीतेष्वपि तन्न प्रमाणताभासादयेत्, दोषगुणप्रभवत्वविशेषस्तूभयोः समानः। लूनपुनर्जातनखकेशादिषु भेदाभेदाध्यवसायादुभयतैवास्तु, स्तम्भादिषु तु विशददर्शनावभासिषु क्षणक्षयविकला स्थायिता प्रतिभातीति तेषां स्थिररूपतैवास्त्वित्यन्ये। न च परिच्छिद्यमानस्य वस्तुनः पूर्वकालवापि प्रत्यभिज्ञया निश्चेयेत्यवस्तुधर्मग्राहकत्वात्तदप्रामाण्यं, पूर्वकालीनस्य पूर्वकालीनत्वेन ग्रहेऽवस्तुधर्मग्राहकत्वाभावात्। न च सन्निहितविषयबलादुत्पत्त्याऽविचारकेणाध्यक्षेण पूर्वकालसम्बन्धित्वं परामर्ष्टुमशक्यम्, असन्निहितस्याप्यतीतकालत्वस्य
सन्निहितविषयप्रत्यासत्तिमहिम्नाऽध्यक्षेण निश्चयाविरोधात् यथान्त्यसङ्घयेयग्रहणकाले शतमिति प्रतीतिः क्रमगृहीतानपि संख्येयान्निश्चिन्वाना न विरुध्यते। न चैषाऽनिन्द्रियजा, इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानात्। नाप्यनर्थजा, सन्निहितान्त्यसङ्ख्येयजन्यत्वात्। न चैकावभासिनी, एकप्रतिपत्तिसमये शतमित्यप्रतीतेः, अन्यथा प्रथमव्यक्तिप्रतिभाससमय एव तत्प्रसङ्गात्। न वाऽप्रमाणं, बाधकाभावात्, घटाद्यध्यक्षेण तुल्यत्वादिति। न चात्र सङ्ख्येयानां विद्यमानता प्रत्यभिज्ञायां पूर्वकालतायास्त्वविद्यमानतेत्यस्ति विशेषः। पूर्वावगतयत्किञ्चित्सङ्ख्येयविगमेऽपि शतप्रतीतेः। न च वर्तमानकालावच्छिन्नस्यावर्तमानकालावच्छिन्नेन सह समावेशानुपपत्तेस्तत्ते- दन्ताविशिष्टैकत्वग्राहिणः प्रत्यभिज्ञानस्याप्रामाण्यमिति वाच्यम्, छत्रकुण्डलाद्यवच्छिन्नस्य देवदत्तादेरिवपरस्परविरुद्धकालावच्छिन्नस्याप्येकत्वाविरोधेन तदप्रामाण्यासिद्धेः। न च देवदत्तादेः सहभाव्यनेकविशेषणावच्छिन्नत्वादेकत्वमविरुद्धं, तदभावनियतभावलक्षणस्य विरोधस्य सहसम्भविनामभावात्, प्रकृते तु प्रागुक्तविरोधशालिविशेषणद्वय विशिष्टस्य नैकत्वं न्याय्यमिति वाच्यम्, एकप्रतिभासबलादेवैकत्वसिद्धेः, अन्यथा नीलसंवेदनस्यापि स्थूलाकारावभासिनो विरुद्धदिकसम्बन्धात्प्रतिपरमाणु भेदप्रसक्तेः तदवयवानामपि दिक्षषट्कयोगाद्भेदापत्तितोऽनवस्थाप्रसक्तेः प्रतिभासविरतिलक्षणा शून्यता स्यादिति सर्वव्यवहारविलोपः। अथवा तदेवेदमिति ज्ञानस्यानिन्द्रियजस्यालिङ्गजस्यापि बाधरहितत्वेन प्रामाण्यमवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथैवंजातीयस्य कस्यापि प्रामाण्यानभ्युपगमेऽक्षजस्य सन्निहितार्थमात्रग्राहित्वेन लिङ्गजस्य चानवस्थाप्रसक्तितः सकलपदार्थाक्षेपेण प्रतिबन्धग्राहकत्वायोगादनुमानप्रवृत्तेरभाव इति कुतस्तदेकप्रमाणकक्षणिकत्वादिधर्मसिद्धिः सौगतानाम्, न हि ते नैयायिकादय इव सामान्यप्रत्यासत्तिं
सर्वाक्षेपेण प्रतिबन्धग्राहिकामभ्युपगच्छंन्ति। यैरपि सामान्यप्रत्यासत्तिरभ्युपेया, तेषामपि ज्ञातस्य सामान्यस्य सामान्यज्ञानस्य वा प्रत्यासत्तित्वे वह्नित्वसामान्यप्रत्यासत्त्याकथञ्चिद् यावद्वह्निमानसम्भवेपि वह्निमन्वादेर्वह्निसंयोगादिरूपस्य सामान्यत्वाभावेन तत्प्रत्यासत्त्यायावद्वह्निमदादिभानानुपपत्तिः। न च तत्राऽपि स्वाश्रयादिसम्बन्धेन वह्नित्वादिकमेव प्रत्यासत्तिः, न चैवं समवायेन वह्नित्वप्रकारकज्ञानादपि वह्निमतां प्रत्यक्षापत्तिः, परम्परासम्बन्धेन वह्नित्वप्रकारकज्ञानस्यैव तद्धेतुत्वात्, न चैवं वह्निमदितिज्ञानानन्तरं तन्न स्यात्, प्रकारीभूतस्य वह्नेः संसर्गतयापि भाने बाधकाभावात्, अत एव ‘विशेषणविधया जनकज्ञाने प्रकारीभृतस्यैव संसर्गत्वे जन्यज्ञानेऽपि तथात्वमितरथा तूभयत्रैवप्रकारतानाक्रान्तमेव संसर्गत्वमिति, सर्वत्र वह्नित्वेनैव वह्निमतां भानं स्यादिति ‘कुचोद्यमपास्तमिति वाच्यं तथाप्यभाववदादिप्रत्यक्षस्थले सामान्यप्रत्यासत्तिताया वक्तुमशक्यत्वात्, तत्राप्यभावत्वादेरखण्डोपाधेः सामान्यत्वस्वीकारे च तेनैव जात्युच्छेदाद्दत्तस्तस्यै जलाञ्जलिः। किञ्च परम्परासम्बन्धेन वह्नित्वादिप्रकारकज्ञानं विनापि साक्षात्सम्बन्धेन वह्निमत्त्वादिप्रकारकज्ञानादपि यावद्वह्निमदादिप्रत्यक्षानुभवस्य सार्वजनीनत्वाद्वह्निमत्त्वादेरपि सामान्यत्वं ध्रुवम्, साक्षात्सम्बन्धेन वह्निमत्त्वप्रकारके परम्परासम्बन्धेन वह्नित्वप्रकारकत्वमावश्यकमिति चेत्, तर्हि जातिप्रकारके जातित्वप्रकारकत्वमावश्यकमिति जातिमदादिप्रत्यक्षे जातित्वादेः प्रत्यासत्तित्वं स्यात्, तच्चायुक्तमिति, वह्निमत्त्वादेर्जातिमत्त्वादेश्चसामान्यत्वे ध्रुवे च वह्निमदादेरेव जातिमदादेरेव च सामान्यत्वकल्पने लाघवं, सखण्डाखण्डसम्भिन्नैकस्वभावस्य वस्तुनः प्रामाणिकत्वात्, तथा च धूमादेर्धूमसामान्यत्वेन ज्ञाने यावद्धूमज्ञानमनक्षजमलिङ्गजं सर्वोपसंहारेण प्रतिबन्धग्राहकमूहप्रमाणाख्यमवश्यमभ्युपेयमिति किमप्रकृतेन॥ विवेचितमिदमन्यत्र।
यच्च ‘नित्यात्क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणा सत्ता निवर्तमाना क्षणिकेष्वेवावतिष्ठत’ इत्याद्युक्तं, तदसत्, क्रमेण कार्यजननेऽपि जनकत्वाजनकत्वस्वभावभेदस्य वस्तुभेदासाधकत्वेन तन्नित्यत्वाप्रच्यवात्, यतः क्रमोपेतकार्योपलम्भाद्धेतो- र्जनकाजनकस्वभावभेदं कल्पनाऽध्यवस्यति, न च तत्प्रदर्शितस्वभावभेदाद्भावा भिद्यन्ते, अन्यथा कल्पना भावानामेकत्व- मध्यध्यवस्यतीति नित्यतापि तेषां भवेत्, यदि चोदितानुदितप्रयोजनापेक्षः कल्पनारोपितोऽपि जनकाजनकस्वभावभेदो भावानामभ्युपगन्तव्यस्तदा स्वपरोत्पाद्यकार्यापेक्षया क्षणेऽपि कल्पनारोपितो जनकाजनकस्वभावभेदः स्यादभेदप्रतिभासेन कल्पनाबाधस्तूभयत्र तुल्यः, नानाकार्यजनकैकस्वभावस्यानुभवसिद्धस्य वस्तुनः प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात्॥
किश्च यदि नाम क्रमयौगपद्याभ्यां नित्यादर्थक्रिया व्यावृत्ता तथापि न ततः क्षणक्षयसिद्धिः, अक्षणिकेभ्य इव क्षणिकेभ्योऽप्यस्या व्यावृत्तत्वात्, यतः क्षणिका अपि कार्यं केवला एकमुत्पादयन्ति उताऽनेकं समुदिता अपि तदेकमनेकं वा, न तावदेकमुत्पादयन्ति, अदर्शनात्, अनभ्युपगमाच्च, एकस्मादेवाग्नेरिन्धनविकारधूमभस्माद्यनेककार्यदर्शनात्, “न वै किञ्चिदेकं जनकम्” इत्यभ्युपगमाच्च, नाप्येकमनेकोत्पादकं, सामग्र्याएव जनकत्वाभ्युपगमात्, अनेकस्मात्कार्योत्पत्त्युपलब्धेश्च, नाप्यनेकमेकोत्पादकम्, अनेकस्मादुपजायमानस्य कार्यस्य नानात्वस्य न्यायप्राप्तत्वात् इष्यते च सौत्रान्तिकवैभाषिकाभ्यां सञ्चितेभ्यः परमाणुभ्यः सञ्चितानामेव तेषामुत्पत्तिः, सञ्चितपरमाणुव्यतिरेकेण भिन्नस्य वस्तुनोऽनभ्युपगमात्, संवृत्यैकस्य घटादेश्चाजन्यत्वात्, ज्ञानमपि विषयालोकमनस्कारादिसामग्रीप्रभवं नैकं युक्तं, नापि तदेकरूपमभ्युपगम्यते, अन्तरहङ्कारास्पदसुखादिरूपस्य बहिश्च तद्विपरीतस्य ग्राह्यग्राहकाकारोभयरूपस्य तस्य संवेदनात्। अथायमनयोर्भेदाव-
भासो भिन्नयोरिव न पुनर्भिन्नयोरेव, तदुक्तम् “ग्राह्यग्राहकसंवित्ति—भेदवानिव लक्ष्यत” इति॥ नैतदेवं, बाह्यार्थवादत्यागप्रसक्तेः। न च ग्राह्यग्राहकाकारयोः सांवृतत्वं, ग्राहकाकारस्य बोधरूपतया समनन्तरप्रत्ययजनितत्वेन ग्राह्याकारस्य च विषयार्पितत्वेन कारणान्वयव्यतिरेकानुविधायितयाऽसांवृतत्वात्। न च निराकारमभिन्नस्वभावमेकसामग्रीजन्यं ज्ञानं सम्भवति, परमते निराकारस्य विषयाग्राहित्वात् तस्मान्नैकमनेकजन्यमिति स्थितम्॥नापि पूर्वसामग्रीत उत्तरा सामग्री प्रभवतीति बौद्धसिद्धान्तमनुरुध्याऽनेकमनेकमुत्पादयतीति वक्तुं युक्तं, रूपज्ञानादीनां ज्ञानरूपादिजन्यत्वेन ज्ञानरूपादित्वापत्तेः। न चावान्तरकारणविशेषात्कार्यविशेषः, तथाहि चक्षूरूपालोकमनस्कारादिषु विज्ञानादिकार्योत्पादकेषु मनस्कारो विज्ञानमुपादानत्वेन जनयति, शेषकार्याणि सहकारित्वेन, एवं रूपादिकमपि रूपादिकमुपादानत्वेन, शेषाणि सहकारित्वेनेत्यवान्तरसामग्रीभेदेन तज्जन्मनां स्वभावभेद इति वाच्यं, मनस्कारादीनां ज्ञानादौ येन रूपेण जनकत्वं तेनैव चक्षुरादिजनकत्वे चक्षुरादीनां ज्ञानादित्वापत्तेः कार्ये सकलस्वगतविशेषाधायकत्वस्योपादानलक्षणत्वात्, रूपान्तरेण च मनस्कारादीनां चक्षुरादिजनकत्वे कथं न स्वभावभेदः॥ उपादान-सहकारिशक्तिभेदेऽपि स्वसंविद्येकत्वेनावभासनान्मनस्कारस्यैकत्वमिति चेत्, नन्वेवभक्षणिकस्यापि तदतत्कालभाविकार्यजनकत्वस्वभावभेदेपि प्रत्यक्षेणैकत्वेन प्रतिभासनात्कथं नैकत्वम्। उपादानत्वसहकारित्वे जनकत्वविशेषरूपे कार्यभेदेन जनकत्वाजनकत्वरूपे वा न विरुद्धे इति चेत्, तदतत्कार्यजनकत्वेऽपि तथा न विरोत्स्येते इति तुल्यम्।अन्त्यावस्थायां सर्वेषां प्रत्येकम-भिमतकार्यजनकत्वमन्यसन्निधिस्तु स्वहेतुप्रत्ययसामर्थ्योपनीतावर्जनीयसन्निधिर्नोपालम्भमर्हतीत्येकैक- स्यैवोत्पादकत्वं युक्तमित्यपि नापेशलं वचः, अन्वयिद्रव्या-
भावे मनस्कारस्यैवान्त्यक्षणस्थस्य चक्षुर्विज्ञानं प्रत्युपादानत्वं न रूपादेरित्यत्र विनिगमकाभावात्, व्यावहारिकान्वयव्यतिरेकदर्शनस्य मनस्कारादाविव रूपादावपि तुल्यत्वात्। एतेन ‘कुर्वद्रूपत्वेनैव हेतुत्वं कारणत्वेनैव च कार्योत्पत्तिव्याप्यत्वम्’ इत्यपास्तं, कुर्वद्रूपत्वस्य जातिरूपस्यानभ्युपगमात्, अतद्व्यावृत्तिरूपस्य चैकैकक्षणग्रहणविनिर्मोकाभ्यां विनिगमनाविरहात् कुर्वद्रूपत्वस्य कार्यौकगम्यतया कार्योत्पत्तेः प्राणिष्टसाधनताज्ञानाधीनप्रवृत्त्यनुपपत्तेः, जातिप्रतिनियतकार्यकारणभावाभावेऽवह्नेरपि धूमसम्भावनया प्रसिद्धानुमानस्याप्युच्छेदापत्तेः तस्मात्क्षणिकेभ्योऽप्यर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणं सत्त्वं निवर्तमानं श्रावणत्ववदसाधारणानैकान्तिकतामास्कन्ददसाधकम्। किञ्चार्थक्रियालक्षणं यत्सत्त्वं हेतुरुच्यते, तत्र किमर्थक्रियातः सत्त्वं भावानामुत सत्त्वादर्थक्रिया, आद्ये प्रागसत्त्वप्रसङ्गः, अन्त्ये च स्वरूपत्त्वमायातम्। किञ्चार्थक्रियाया भावानां सत्त्वनियामकत्वे तस्या अपि सत्त्वानियामिकयाऽपरार्थक्रियया भवितव्यं, तस्या अप्यपरयेत्यनवस्थानात् स्वरूपसत्त्वमेव भावानामवश्यमभ्युपेयं, तच्च न क्षणिकत्वव्याप्यमिति नानुमानात् क्षणिकत्वसिद्धिः। यदपि ‘निर्हेतुको ध्वंसः पदार्थोदयानन्तरभावीति तेषां क्षणिकत्वमुच्यते,’ तदप्यसत्, निर्हेतुकस्याऽपि ध्वंसस्य मुद्गरादिव्यापारानन्तरमुपलब्धेस्तदैव तत्सद्भावाभ्युपगमस्य युक्तत्वात्। न च मुद्गरादिव्यापारानन्तरमस्य दर्शनात् प्रागपि सद्भावकल्पनं, प्रागदर्शनादग्रेऽप्यभावस्य सुवचत्वात्। कारणान्तरमनपेक्षमाणो ध्वंसो भावसत्तामात्रानुबन्धीति प्रतिक्षणध्वंससिद्धिरिति चेत्, न, सत्तायां क्षणिकत्वासिद्धौ क्षणिकसत्तानुबन्धित्वस्य नाशे वक्तुमशक्यत्वात्, अनेकक्षणस्थितिकसत्तानुबन्धित्वोक्तौ चानेकक्षणस्थितिकसत्तानुभवानन्तरमेव भावेन नंष्टव्यमिति॥किश्च निर्हेतुकत्वे ध्वंसस्य प्रथमक्षण एव तद्भावप्रसक्तिः स्यान्नोदयानन्तरं, न हि
निर्हेतुकस्य क्वाचित्कत्वं कादाचित्कत्वं वा युक्तं, व्याघातात्। न च भावहेतुरेव तत्प्रच्युतिहेतुरतिरिक्तहेत्वभावाच्च निर्हेतुकत्वं पदार्थाभावे च कृतस्तत्प्रच्युतिरिति प्रथमक्षण एव न ध्वंस इति वाच्यं, भावप्रभववेलायां तत्प्रच्युतेरनुत्पत्तौ भावहेतुरेव तद्धेतुरित्यस्य वक्तुमशक्यत्वात्, भावोत्पादनद्वारा भावहेतुस्तद्धेतुर्भावोऽपि वा तद्धेतुः प्रतियोगितद्धेत्वितरहेत्वनपेक्षत्वमेव निर्हेतुकत्वमिति तु यादृच्छिकपरिभाषामात्रं, मुद्गरादिव्यापारानन्तरमेव तत्र तद्धेतुकत्वस्य प्रमाणतो व्यवस्थितेः, अन्यत्राऽपि कार्यकारणभावेऽन्वयव्यतिरेकयोरेव नियामकत्वात्। किञ्च परैरपि मुद्गरादीनां विरोधित्वं व्यवस्थापयद्भिः ‘गलेपादुका’ न्यायेन नाशकारणत्वमवश्यमभ्युपेयं, तथाहि न ते कणभुगादय इव कार्यकारणभावात् पृथग्विरोधाख्यं सम्बन्धमभ्युपेयं (पयन्ति), किन्तु घटक्षणो मुद्गरादिकं विनाशकारणत्वेन प्रसिद्धमपेक्ष्य समानक्षणान्तरोत्पादनेऽसमर्थं क्षणान्तरमुत्पादयति, तदपि तदपेक्षमपरमसमर्थक्षणान्तरं तदप्युत्तरं तदपेक्षमसमर्थतमं यावद्धटसन्ततेर्निवृत्तिः, एवमन्यत्रापि विरोधित्वं प्रतिपादयन्ति, तथा चासमर्थक्षणान्तरजनकस्य क्षणस्य मुद्गरादेः कश्चित्सामर्थ्यविघातोभ्युपगन्तव्य एव, अन्यथा समर्थक्षणान्तरजननस्वभावात्ततो मुद्गरादिसन्निधानेऽप्यसमर्थक्षणानारम्भप्रसङ्गात्॥न च स्वहेतुतोऽसमर्थजननस्वभावस्य तस्योत्पत्तेर्नायं दोषः, प्रथमक्षण एव सन्तत्युच्छेदप्रसक्तेः॥मुद्गरादिसन्निधानसहभाविनः स्वहेतुत एवासमर्थक्षण उत्पद्यत इति चेत्, न, मुद्गरादिना प्राक्तनशक्त्यनाशने तत्सन्निधित्रैयर्थ्यात्। न चाकिञ्चित्करस्यापि मुद्गरादेः स्वहेतुसन्निधिबलायात्त्वाचत्समवहितत्वस्य घटक्षणेऽसमर्थक्षणान्तरजननकाले नोपालम्भविषयतेति वाच्यं, एवं सत्युदासीन समवधानस्याप्रयोजकत्वेन केवलस्यैव घटक्षणस्य विलक्षणक्षणान्तरोत्पादकत्वप्रसङ्गात्। किञ्चैवं विलक्षणसन्तत्युत्पादे प्राक्तनसन्तानोच्छेदे वा मुद्गरा-
देरन्वयस्य व्यतिरेकान्यथासिद्धेस्तद्व्यापारानन्तरमपि घटादेरनुपलब्धिर्न भवेत्। तदा तस्य न स्वरूपप्रच्युतिरुत्पद्यते किन्तु तस्यैकक्षणावस्थायित्वेन तदाऽभवनमिति नोपालम्भ इति चेत्, न, यतः स्वरूपादप्रच्युतस्य नाभवनं नाम किञ्चित्, अन्यथा तस्य सत्त्वान्तरमभ्युपगतं स्यात्। अथ स एव न भवति नतु तस्यापरमत्त्वं, ननु तदेवेदं पुनारूपाभवनमभिधीयते, तत्र च तदेवोत्तरं, तस्माद्विनाशहेतुव्यापारानन्तरं पदार्थस्यासद्व्यवहारं विदधता तद्व्यतिरिक्तानन्तरग्रहणमभ्युपगन्तव्यं, न तु तदग्रहणमात्रं, अन्यथा तस्याभावानिश्चयात्कल्पादिव्यवहितस्यापि सद्व्यवहारनिषेध एव स्यान्नासद्व्यवहार प्रवृत्तिः। न चार्थान्तरनाशानभ्युपगमे शत्रुमित्रक्षयजन्यसुखदुःखाद्यनुभवोऽपि सङ्गच्छते, न चाभावस्य भवितृत्वे भावरूपता, भवितृत्वाविशेषेऽपि घटपटयोरिव विलक्षणप्रत्ययविषयत्वेन भावाभावयोर्भेदसिद्धेः। अथ कपालोत्पत्तिकाले घटविनाशानस्युपगमे स्वभावत एवाविनश्वरस्य घटस्य परतोऽपि नाशासम्भवात् कपालोत्पत्तिप्राक्क्षणपर्यन्तस्थायित्वस्वभावकल्पने तस्य नाशकसन्निधावप्यनुवृत्तेः कौटस्थ्यप्रसङ्गात्तद्बाधे क्षणिकत्वमेव युक्तमिति चेत्, न, एकक्षणस्थायित्वस्वभावस्येवानेकक्षणस्थायित्वस्वभावस्यापि विवक्षितकालान्तरमनुवृत्त्यभ्युपगमे बाधकाभावात्, अन्यथैकैकक्षणस्थायित्वस्वभावानुवृत्त्यापि परस्य कल्पान्तरस्थायितापत्तेर्वज्रलेपत्वात्। विनाशहेतुपक्षनिक्षिप्तश्च विकल्पो भावोत्पत्तावपि समानः, तथाहि उत्पत्तिहेतुः स्वभावत एवोत्पित्सुं भावमुत्पादयति, उतानुत्पित्सुं प्रथमे विफलता तद्धेतोः, द्वितीये तु वियत्कुसुमादेरप्युत्पादनप्रसङ्गः। स्वहेतुसन्निधेरेवोत्पित्सोरुत्पादनाभ्युपगमे विनाशहेतुसन्निधाने विनश्वरस्वभावं तद्धेतुर्विनाशयतीत्यपि तुल्यन्यायात्किं नाभ्युपगम्यते, स्वयमेव विनश्वरस्य विनाशहेतुकृतोपकाराभावेन तञ्जन्यनाशव्यपदेशाभावो हि स्वयमेवोत्पित्सोरुत्पत्तिहेतु-
कृतोपकाराभावेन तज्जन्योत्पत्तिव्यदेशाभावतुल्ययोगक्षेमः। स्वकारणादुत्पत्तिरात्मलाभो यस्य स स्वोत्पत्तिधर्मा तं यदि स्वहेतुर्नोत्पादयेत्तदा विरुद्धमभिधानं स्यादित्यपि विनाशकारणाद्विनाश आत्मप्रच्युतिलक्षणो धर्मो यस्य तं यदि विनाशहेतुर्न विनाशयेत्तदा विरुद्धमभिधानमित्यनेन समानम्, येषां च न घटनिवृत्तिः कपालस्वरूपादन्या, तेषां कथं न कपालहेतुर्घटध्वंसहेतुर्भवेत्। अथ कथं कपाललक्षणस्य वस्त्वन्तरस्य प्रादुर्भावे घटो विनष्ट इति व्यपदिश्यते, मुद्गरादिहेतुसन्निधिमहिम्ना घटस्यैव कपालभावात्। कथं घटो विनष्टः स एवान्यथा भवतीति चेत्, नन्वसत् कथं भवतीति समानम्। अथ प्राग्घटादिकमसत्यद्भवत्युत्पत्तिसमय इत्यविरुद्धं, ननु प्राग्घटः सन् विनाशहेतुसन्निधौ कपालीभवतीत्यविरुद्धमेव। कथं तस्यैव तदन्यत्वमिति चेत्, यथा संवेदनस्य नीलाद्याकारभेदः तथा स्वरूपेणानेकमनेकं भवन्न विरोत्स्यते। इत्थं च निवृत्तिः कारणस्य कार्यात्मना परिणतिरेवाभिधीयते, तथा च घटप्रच्युतेः कपालंस्वरूपत्वे कुतः क्षणिकत्वमिति संक्षेपः॥
अयं चर्जुसूत्रनयः पर्यायनयतरोर्मूलं, शब्दादीनामेतच्छास्वारूपत्वात्, तदुक्तं सम्मतौ—“मूलनिमाणं पञ्जव णयस्स उज्जुसुअवयणविच्छेदो॥तस्स उ सद्दाईया, साहपसाहा सुहुमभेया॥१-५॥” अस्यार्थः—मूलनिर्माणं मूलाधारः, पर्यायनयस्य ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो लक्षणया प्रतिक्षणविवेचनेन विच्छिद्यमानवचनफलीभूतऋजुसूत्राख्यो नयबोधः, तस्य ऋजुसूत्रतरोः, तुरवधारणार्थः, तेन तस्यैव न द्रव्यार्थिकस्य, शब्दादयः शब्दप्राधान्येनार्थोपसर्जनत्वेन प्रतीतिजनकाःशब्दसमभिरूढैवम्भूताख्यास्त्रयो नयाः, शाखाप्रशाखा इव स्थूलसूक्ष्मतरदर्शित्वात् सूक्ष्मो भेदो येषां ते तथा, यथा हि तरोः स्थूलाः शाखाःसूक्ष्मास्तत्प्रशाखाअतिसूक्ष्मसूक्ष्मतास्तत्प्रतिशाखाः, एवं ऋजुसूत्रतरोः स्थूलसूक्ष्ममूक्ष्मतरशाखाप्रशाखा-
प्रतिशाखारूपा अशुद्धशुद्धशुद्धतराः शब्दसमभिरूढैवम्भूताख्यास्त्रयो नया द्रष्टव्याः॥तथा हि ऋजुसूत्राभ्युपगतं क्षणमात्रावस्थितिवस्तु लिङ्गादिभेदाद्भिन्नंशब्दो वृक्षाच्छाखामिव सूक्ष्ममभिमन्यते, समभिरूढः शब्दाभिमतं वस्तु सञ्ज्ञाभेदादपि भिद्यमानं शाखातः प्रशाखामिवसूक्ष्मतरमध्यवस्यति, तदेव समभिरूढाभिमतं वस्तु एवम्भूतः क्रियाभेदाद्भिन्नंप्रशाखातः प्रतिशाखामिव सूक्ष्मतममधिगच्छतीति॥ एतच्च ऋजुसूत्रपदव्युत्पत्तिनिमित्तं प्रत्युत्पन्नग्राहित्वं पर्यायनयत्वमात्रपर्यवसन्नमभिप्रेत्य द्रष्टव्यम्॥ यद्वा विशेषणभेदाप्रयुक्तऋजुसूत्रविषयप्रतियोगिकभेदानाधारप्रतीतिविषयकत्वमिह शब्दादीना- मृजुसूत्रभेदत्वं परिभाष्यते, न ह्येवं व्यवहारस्य सङ्ग्रहभेदत्वं प्रसज्यते, विशेषणभेदाप्रयुक्तसामान्यलक्षणसङ्ग्रहविषयप्रतियोगिकभेदाधारविशेषविषयत्वात्तस्य। शब्दभिन्नत्वे सति प्रत्युत्पन्नग्राहित्वं लक्षणमभिप्रेत्य तु न शब्दादीनामृजुसूत्रभेदत्वं, अन्यथा नयविभाजकोपाधिव्याप्यविभाजकोपाधिमत्त्वेन नयप्रभेदत्वापत्तेः—“सत्त मूलणया पण्णत्ता” इति सूत्रव्याकोपप्रसङ्गात् न चान्यथाऽपि नयविभाजकोपाधिरूपद्रव्यार्थिकत्व- पर्यायार्थिकत्वव्याप्यसङ्ग्रहत्वऋजुसूत्रत्वादिकमादाय सङ्ग्रहर्जुसूत्रादीनां नयप्रभेदत्वं दुर्निवारं, द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वयोः प्रकृतविभागप्रयोजकविभाजकोपाधित्वाभावेन तददोषादिति स्मर्तव्यं, अत एव नव नया द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकोनैगमःसङ्ग्रहोव्यवहारऋजुसूत्रः शब्दः समभिरूढएवम्भूतेश्चत्येकविभाग-करणलम्पटदिक्पटकपटमपास्तमापभ्रांशिकप्रबन्धेऽस्माभिः। एवं हि द्रव्यार्थिकत्वपर्यायार्थिकत्वाभ्यां सामान्यतो नयविभागं कृत्वा सङ्ग्रहर्जुसूत्रादीनां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकभेदानामेवानुपदमुपदर्शनेन विभक्तविभागः कृतः स्यात्, नत्वेकविभागः, सङ्ग्रहर्जुसूत्राद्यन्तर्भावशीलयोर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोः पृथग्विभागस्य कर्तुमशक्यत्वात्,
अन्यथाऽर्पितानर्पितभेदद्वयाधिक्येनैकादशधापि किं न नयविभागो देवानांप्रियस्याभिमतः स्यात्?, न च पञ्चनथाइत्येक आदेशः सप्तेत्यन्य इतिवत्सप्त नया इत्येकः आदेशो नवेत्यन्य इत्यस्मदभिप्रेतमिति साम्प्रतं, भिन्नविषयाणां शब्दादीनां त्रयाणां शब्दत्वेनैक्यं स्वातन्त्र्यं चाभिप्रेत्य पञ्चसप्तादेशभेदद्वयसम्भवेऽपि प्रकृते विषयभेदाभावेन तदसम्भवात्, न च सप्तधा नवधा च तत्त्वविभागवन्नयविभागोऽपि तथा नानुपपन्न इति वक्तुं युक्तं, तत्र केवलनिःश्रेयसोपयोग्यभ्युदयसंवलि- ततदुपयोगिबोधलक्षणप्रयोजनभेदेन विभागद्वैविध्यसम्भवेऽपि प्रकृते प्रयोजनभेदाभावेनानुयोगद्वारस्था- नाङ्गतत्त्वार्थमहाशास्त्राद्यभिहितं सप्तधानयविभागमुल्लङ्घ्य नवधा तत्करणस्य सूत्राशातनाकलङ्कितत्वादिति दिग्॥अयं च सर्वोऽपि ऋजुसूत्रवचनविस्तारो बाह्मार्थाभ्युपगमपरो द्रष्टव्यः। यद्वा ऋजु बाह्यापेक्षया ग्राहकसंवित्तिभेदविकलमविभागं बुद्धिस्वरूपमकुटिलं, सूत्रयतीतिऋजुसूत्रः शुद्धपयार्यास्तिको, यद्वा सर्वधर्मविरहशुन्यतेत्यभ्युपगमपरः शुद्धतरपर्यायास्तिकावलम्बी ऋजुसूत्रो व्यवस्थितः, अथवा सौत्रान्तिकवैभाषिकौ बाह्यार्थमाश्रितौ यथाक्रममृजुसूत्रशब्दौ वैभाषिकेण नित्यानित्यशब्दवाच्यस्य पुद्गलस्याभ्युपगमाच्छब्दनये तस्यानुप्रवेशः॥बाह्यार्थप्रतिक्षेपेण विज्ञानमात्राभ्युपगमपरः समभिरूढो योगाचारः। एकानेकधर्मविकलतया विज्ञानमात्रस्याप्यभाव इत्येवमभ्युपगमपर एवम्भूदो माध्यमिक इति सम्मनिवृत्तौ व्यवस्थितम्, तत्पूर्वपक्षसमाधानादिकमपि तत एवावसेयं विस्तरभयान्नेह विलिख्यते, नवीनतर्कस्पृहयालुभिश्चात्रार्थे मत्कृतस्याद्वादकल्पलता परिशीलनीया॥ ऋजुसूत्रनयविचारः सम्पूर्णः॥
** “दर्शितेयं यथाशास्त्र—मृजुसूत्रनयस्य दिक्॥बौद्धसिद्धान्तहेतुः श्री—यशोविजयवाचकैः॥१॥”**
‘शप आक्रोशे’ शपनमाह्वानमिति शब्दः, शंपत्याह्वयतीति वा शब्दः, शप्यते वाऽऽहूयते वस्त्वनेनेति शब्दः। तस्य शब्दस्य यो वाच्योऽर्थस्तत्प्रधानत्वान्नयोऽपि शब्दः, उपचारात्, यथा कृतकत्वादित्यादिकः पञ्चम्यन्तशब्दोऽपि हेतुः। अर्थरूपं हि कृतकत्वमनित्यत्वगमकत्वान्मुख्यतया हेतुरुच्यते, उपचारात्तु तद्वाचकः शब्दः, तद्वदिहापि द्रष्टव्यं। उक्तं च महाभाष्य कृता। “सवणं सपइ स तेणं, व सप्पए वत्थुिंजं तओ सद्दो॥ तस्मत्थपरिग्गहओ, नओ वि सद्दोत्ति हेउ व्व॥२२२७॥” शब्दवाच्यार्थपरिग्रहप्राधान्यं॥ “इच्छइ विसेसियतरं, पच्चुप्पन्नो नओ सद्दो” ॥२१८४॥ त्ति नियुक्तिदलं, तत्र भाष्यं—“तं चिय रिउसुत्तमयं, पच्चुप्पन्नं विसेसिययरं सो ॥ इच्छइ भावघडंचिय, जं न उ नामादिए तिन्नि॥२२२८॥“तदेव ऋजुसूत्रनयमतंऋजुसूत्रनयाभ्युपगतं प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं वस्त्विच्छत्यसौ शब्दनयः कीदृशं विशेषिततरं, कुत इदं ज्ञायते, यद् यस्मात् पृथुबुघ्नोदराद्याकारकलितं मृन्मयं जलाहरणादिक्रियाक्षमं प्रसिद्धवटरूपं भावघटमेवेच्छत्यसौ, न तु शेषान्नामस्थापनाद्रव्यरूपांस्त्रीन् घटानिति, शब्दार्थप्रधानो ह्येष नयः, शब्दार्थश्च प्रकृते ‘घट चेष्टायाम्’ इति धात्वर्थलक्षणो भावघट एव युज्यते, न नामादिष्विति निक्षेपचतुष्टयाभ्युपगमपरादृजुसूत्राद्विशेषिततरं वस्त्विच्छत्यसौ, एकस्यैव भावघटस्यानेनोपगमात्॥नामादिघटनिराकरणे प्रमाणमाह—“नामादओ न कुम्भा, तक्कज्जाकरणओ पडाइ व्व॥ पच्चक्खविरोहाओ, तल्लिंगाभावओ वा वि॥२२२९॥“नामस्थापनाद्रव्यरूपाः कुम्भा न भवन्ति, जलाहरणादितत्कार्याऽकरणात्, पटादिवत्, तथा प्रत्यक्षविरोधात् घटलिङ्गादर्शनाच्च, अघटरूपास्ते प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्त इति प्रत्यक्षविरोधः, जलाहरणादिघटलिङ्गं च तेषु न दृश्यते ततोऽनुमानविरोधोऽपीति कथं ते नामादिघटा घटव्यपदेशभाजो भवेयुः?। घटपदान्नामादि-
घटोपस्थितेरस्खलिताया दर्शनात्तत्र तत्पदशक्तेरव्याहतत्वात् स्वारसिकघटपदप्रयोगलक्षणो व्यपदेशस्तेषु न विरुध्यत इति चेत्, न, अन्तरङ्गप्रत्यासत्त्या घटभाव एव घटपदशक्तेरभ्युपगमात्, नामादिषु तत्पदप्रयोगस्यास्वारसिकत्वादिति दिग्॥
ऋजुसूत्रशिक्षणार्थमाह–”**जइ विगयाणुप्पन्ना, पओअणाभावओ न ते कुम्भा। नामादओ किमिट्ठा, पओअणाभावओ कुम्भा॥२२३०॥”**यदि विगता अनुत्पन्नाश्चतव हे ऋजुसूत्र! कुम्भा नेष्टाः, प्रयोजनाभावात्, तर्हि नामादयोऽपि कुम्भाः किमिष्टाः, प्रयोजनाभावस्य समानत्वात्, न खलु तैरपि कुम्भप्रयोजनं किमपि विधीयते, वासनाविशेषोत्थापितप्रतीत्यादिप्रयोजनं तु शशविषाणादेरिवन सत्त्वसाधकमिति भावः। तदेवमृजुसूत्राच्छब्दनयस्य विशेषिततरत्वमुक्तम्॥
अथ प्रकारान्तरेण तदाह— “अहवा पच्चुप्पन्नो, रिउसुत्तस्साविसेमिओ चेव॥कुम्भो विसेसिययरो, सब्भावाईहिं सद्दस्स॥२२३१॥ सब्भावासब्भावो–भयप्पिओ स–परपज्जओ–भयओ॥कुम्भा–ऽकुम्भा–ऽवत्त–व्वोभयरूवाइमेओ सो॥२२३२॥“अथवा प्रत्युत्पन्न ऋजुसूत्रस्याविशेषित एव सामान्येन कुम्भोऽभिप्रेतः, शब्दनयस्य तु स एव सद्भावादिभिर्विशेषितरोऽभिमत इत्येवमनयोर्भेदः, तथाहि, स्वपर्यायैः परपर्यायैरुभयपर्यायैर्वाऽर्पितो विशेषितः, कुम्भाकुम्भाऽवक्तव्योभयरूपादिमेदो भवति–सप्तभङ्गीं प्रतिपद्यत इत्यर्थः, तद्यथा—ऊर्ध्वग्रीवाकपालकुक्षिबुघ्नादिभिः स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितो विशेषितः कुम्भः कुम्भो भण्यते, ‘सन् घट’ इति प्रथमभङ्गो भवतीत्यर्थः॥१॥तथा पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिभिः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितो विशेषितोऽकुम्भो भवति, सर्वस्यापि घटस्य परपर्यायैरसत्त्वविवक्षायाम्, ‘असन् घट’ इति द्वितीयो भङ्गोभवतीत्यर्थः॥२॥तथा सर्वोऽपि घटः स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यामर्पितः ‘अवक्तव्यो’ भवति, स्वपरपर्यायस-
त्त्वासत्त्वाभ्यमेकेन केनाप्यसाङ्केतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपद्वक्तुमशक्यत्वात् इति तृतीयो भङ्गः॥३॥ एते त्रयः सकलादेशाः। अथ चत्वारो विकलादेशाः प्रोच्यन्ते, तत्रैकस्मिन् देशे स्वपर्यायसत्त्वेनान्यत्र तु देशे परपर्यायाऽसत्त्वेन विवक्षितो घटः ‘संश्चासंश्च’ भवति, घटोऽघटश्च भवतीत्यर्थः इति चतुर्थो भङ्गः॥४॥ तथैकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितोऽन्यत्र तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदसाङ्केतिकेनैकेन शब्देन वक्तुमिष्टः कुम्भः ‘संश्चावक्तव्यश्च’ भवति, घटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्य घटत्वाद्देशे चाऽवक्तव्यत्वात् इति पञ्चमो भङ्गः॥५॥ तथैकदेशे परपर्यायैरसद्भावेनार्पितोऽन्यस्मिंस्तु देशे स्वपरपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदसाङ्केतिकेनैकेन शब्देन वक्तुमिष्टः कुम्भः ‘असंश्चाऽवक्तव्यश्च’ भवति, अघटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्याघटत्वाद्देशे चावक्तव्यत्यात् इति षष्ठो भङ्गः॥६॥ तथैकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः सद्भावेनान्यस्मिंस्तु परपर्यायैरसद्भावेनान्यस्मिंस्तु स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदेकेनाऽसाङ्केतिक्रेन शब्देन वक्तुमिष्टः कुम्भः ‘संश्चासंश्चावक्तव्यश्च’ भवति, घटोऽघटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः **इति सप्तमोभङ्गः॥**७॥ इह च कुम्भाकुम्भेत्यादिना गाथार्धेन षड् भङ्गाः साक्षादुपात्ताः, सप्तमस्त्वादिशब्दात्, तद्यथा—कुम्भः १, अकुम्भः २, अवक्तव्यः ३, उभयत्ति संश्चासंश्चेत्युभयं ४, सन्नवक्तव्य इत्युभयं ५, तथाऽसन्नवक्तव्य इत्युभयं ६, आदिशब्दसङ्गृहीतस्तु सप्तमः सन्नऽसन्नवक्तव्य इति ७॥ अत्रोमयपदस्य समभिव्याहृतपदार्थैकत्वेद्वय- प्रकारकबुद्धिविषये शक्तावपि समभिव्याहारत्रैविध्यात्त्रिरावृत्त्या त्रिविधोभयबोध इति न्यायमार्गः॥ तदेवं स्याद्वाददृष्टं सप्तभेदं घटादिकमर्थं यथाविवक्षमेकेन केनापि भङ्गकेन विशेषिततरमसौ शब्दनयः प्रतिपद्यते, पर्यायनयत्वादृजुसूत्राद्विशेषिततरवस्तुग्राहित्वाच्च। स्याद्वादिनस्तु
सम्पूर्णसप्तभङ्ग्यात्मकमपि प्रतिपद्यन्त इति विशेषावश्यकवृत्तावुक्तम्॥तत्रेदं विचार्यते, ननु किमियं सप्तभङ्गी–अर्थनयाश्रिता उत शब्दनयाश्रिता, आद्ये तदेकतरभङ्गविशेषणेन कथमृजुसूत्राच्छब्दस्य विशेषिततरत्वं, अर्थनयाश्रितभङ्गस्य शब्दनयाविशेषत्वात्, उभयेषां विषयविभागस्य दूरान्तरत्वात्,तथाहि, एतदर्थनयमतं, यद्यपि शब्दार्थौसामान्येन स्तः, तथाऽपि तदाकारानुविधायिनी तदध्यवसायेन तत्राविसंवादात्संवित्प्रमाणत्वेन गीयते, प्रमाणे स्वाकारार्पकश्चार्थ एव, साक्षात्परम्परया वा नियतान्वयव्यतिरेकशालित्वान्, न तु शब्दोऽतथात्वादिति तस्य न प्रमेयत्वं न चाध्यक्षसंविदि कदापि शब्दसंसृष्टोऽर्थः प्रतिभासते, तथाऽननुभवान्, यदि च वस्तुसन्निधावपि तन्नामानुस्मृतिं विनार्थस्यानुपलब्धिरिष्यते, तदार्थसन्निधेरभिधानस्य स्मृतावेवोपक्षीणशक्तिकत्वात्कदापीन्द्रिय- बुद्धिजनकत्वं न स्यात्, यदि च स्वाभिधानविशेषणापेक्षमेव चक्षुरादिप्रतिपत्तिः स्वार्थमवगमयतीति परस्य निबन्धः, तदाऽस्तङ्गतेयमिन्द्रियप्रभवार्थाधिगतिः, तन्नामस्मृत्यादेरसम्भवात्, तथाहि यत्रार्थे प्राक्शब्दप्रतिपत्तिरभूत्पुनस्तदर्थवीक्षणे तत्सङ्केतितशब्दस्मृतिर्भवेदिति वक्तुं युक्तं, अन्यथातिप्रसङ्गात्, न चानभिलापार्थाप्रतिपत्तौ पूर्वप्रतिपन्नमभिलाषमपि स्मरेत्, अर्थदर्शनरूपसंस्कारोद्बोधकाभावात्, अस्मरंश्च शब्दविशेषंन वाच्यवाचकभावसम्बन्धेनार्थे योजयेत्, अयोजयंश्च न तेन विशिष्टमर्थमवगच्छेदित्यायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः, तस्मात्स्वाभिधान स्मृतिनिरपेक्षस्यार्थस्य स्वत एव चक्षुरादिप्रत्ययं प्रत्युपयोगित्वमेष्टव्यमित्यर्थ एव तत्त्वमिति। शब्दनयास्तु सङ्गिरन्ते कारणस्यापि विषयस्यावगाहनेनोपलम्भमाना प्रतिपत्तिर्न तावत्प्रमाणं यावदध्यवसायो न भवेत्, स चाध्यवसायो विकल्पात्मा तदभिधानस्मृतिं विना नोत्पद्यत इति सर्वव्यवहारेषु शब्दसम्बन्धः प्रधाननिबन्धनं, प्रत्यक्षस्यापि तज्जन्माध्यवसायविकल्पविक-
लस्य बहिरन्तर्वा प्रतिक्षणपरिणामप्रतिपत्ताविव प्रमाणतानुपपत्तेः, अविसंवादलक्षणत्वात्प्रमाणानां प्रतिक्षणपरिणामांशेऽप्य- ध्यक्षप्रामाण्याभ्युपगमे च प्रमाणान्तरदर्शने यत्नान्तरकरणं ग्रान्थिकानामपार्थकं स्यात्, ततः प्रमाणव्यवस्थानिबन्धनं तन्नामस्मृतिव्यवसाययोजनमर्थप्राधान्यमपहस्तयतीति शब्द एव सर्वत्र प्रमाणादिव्यवहारे प्रधानं कारणमिति। द्वितीयविकल्पे च ऋजुसूत्राभिमतार्थपर्यायाविषयत्वेनाशुद्धव्यञ्जनपर्यायग्राहिणः कुतः शब्दस्य तस्माद्विशेषिततरार्थत्वं न हि तदविषयविषयकत्वं विशेषिततरशब्दार्थः, किन्तु शुद्धतरतद्विषयविषयकत्वमिति। न च ऋजुसूत्राभिमतं सत्त्वमुपमृद्यासत्त्वाख्यद्विती- यभङ्गार्थोपग्रहाच्छब्दस्यर्जुसूत्राद्विशेषिततरत्वं वक्तुं युक्तम् इत्थं ऋजुसूत्राभिमतं सत्त्वमुपमृद्यासत्त्वग्रहणव्यापृतस्य व्यवहारस्यापि ततो विशेषिततरार्थत्वापत्तेर्विशेषकभङ्गानिर्धारकवचनानुपपत्तेश्चेति चेत्, अत्रेदमाभाति यद्यपि सम्मनौ—
“एवं सत्तविअप्पो, वयणपहो होइ अत्थपञ्जाए॥
वंजणपज्जाओ पुण, सवियप्पो णिव्वियप्पो य॥१-४१॥” त्ति गाथयाऽर्थपर्यायाश्रिता सप्तभङ्गी सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रैर्व्यञ्जनपर्यायाश्रिता च शब्दसमभिरूढैवम्भूतैः सूचिता, तथाप्येतत्प्रकारद्वयाभिधानमर्थव्यञ्जनसाधारणपर्याय- सामान्याश्रितसप्तभङ्ग्या अप्युपलक्षणं, सा च स्वपरपर्यायाणां क्रमयुगपद्विवक्षावशान्नयद्वयेनाऽशुद्धशुद्धशुद्धतरपर्यायविवक्षया च नयत्रयेणापि सम्भवतीति ऋजुसूत्रशब्दप्रयुक्तसप्तभङ्ग्या द्वितीयादिना व्यवहारर्जुसूत्रशब्दप्रयुक्तायां च तस्यां तृतीयादिना भङ्गेनर्जुसूत्राच्छब्दस्य विशेषिततरार्थत्वं युक्तं, न चैवं ऋजुसूत्रकृतसत्तापेक्षयाऽसत्ताग्राहिणो व्यवहारस्यापि ततो विशेषिततरार्थत्वप्रसङ्गदूषणामुद्धारः, सम्प्रदायाविरुद्धभङ्गविषयीभूतेनार्थेन विशेषिततरत्वस्याभि
धित्सितत्वात्, सम्प्रदायश्चोत्तरोत्तरभङ्गप्रवृत्तावुत्तरोत्तरनयावलम्बनेनैव दृष्टो नान्यथेति न कश्चिद्दोष इति विभावनीयं सुधीभिः॥
अथवा लिङ्गवचने समाश्रित्य विशेषिततरं वस्त्विच्छति शब्दनय इति दर्शयन्नाह भाष्यकृत्—“वत्थुमविसेसओ वा, जं भिन्नाभिन्नलिङ्गवयणंपि॥ इच्छइरिउसुत्तनओ, विसेसियतरं तयं (नयो) सद्दो॥२२३३॥” व्याख्या—वा इत्यथवा, भिन्नाभिन्नलिङ्गवचनमप्यविशेषतो यद्वस्त्विच्छति ऋजुसूत्रनयस्तद्विशेषिततरमिच्छति शब्दनयः॥कुत इत्याह—“धणिभेयाओ भेओ, स्थी–पुंलिङ्गाभिहाणवच्चाणं॥ पडकुंभाणं व जओ, तेणाभिन्नत्थमिट्ठंतं॥२२३४॥“यतो यस्मात्कारणात् स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाभिधानवाच्यानामर्थानां तटादीनां भेद एव, न पुनरेकत्वं, तटीत्यभिधानस्य भिन्नोऽर्थो वाच्यः, तट इत्यभिधानस्य त्वन्यः, तटमित्यभिधानस्य चापरः, कुतः?, ध्वनिभेदात्, तथा, गुरुर्गुरव इत्याद्येकवचनबहुवचनादिवाच्यानामर्थानां ध्वनिभेदादेव भेदः। केषामिव?इत्याह पटकुम्भादिध्वनिभेदात्पटकुम्भाद्यर्थानामिव। तेन तस्मात्कारणात्, तल्लिङ्गं वचनं वाऽभिन्नार्थमेवेष्टं यादृशो ध्वनिस्तादृश एवार्थो द्रष्टव्य(ऽस्पेष्ट) इत्यर्थः। अन्यलिङ्गवृत्तेस्तु शब्दस्य नान्यलिङ्गवाच्यमिच्छत्यसौ, नाप्यन्यवचनवृत्तेः शब्दस्यान्यवचनवाच्यं वस्त्वभिधेयमिच्छत्येष इति भावः॥ उक्तमेवार्थमुपसंहृत्य दर्शयति—“तो भावो च्चिय वत्थुं,विसेसियमभिन्नलिं–गवयणं व॥बहुपज्जायं पि भयं, सद्दत्थवसेण सद्दस्स॥२२३५॥”ततस्तस्मात्कारणान्नामादिनिक्षेपेषु भाव एव वस्त्वित्यसाविच्छति, तदपि प्रागुक्तरीत्या सद्भावादिभिर्विशेषितं अभिन्नलिङ्गवचनं चाभ्युपैति स्ववाचकध्वनिनाऽ(नीनाम)भिन्ने लिङ्गवचने यस्य समानाधिकरणध्वनेरर्शाद्यचा वाच्यवाचकभावसम्बन्धेन तन्निरूपिततादात्म्येन वा तद्वदित्यर्थः। समभिरूढेन सहास्य मतभेदं दर्शयतिबहुपर्यायमपि इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादिनानापर्यायवाच्यमध्येकमिन्द्रादिकं वस्तु शब्दस्येन्द्रादेरिन्दनादिको योऽर्थ-
स्तद्वशेन शब्दनयस्य मनमभिप्रेतं, इन्दनशकनपूर्दारणादीनामर्थानामेकस्मिन्निन्द्रादिके वस्तुनि समावेशसम्भवात्, समभिरूढस्तु नैवं मन्यत इति स्फुटीभविष्यतीत्ययमनयोर्भेदः। अत्राभिन्नलिङ्गवचनमिति यदुक्तं तदभिन्नकारकाद्युपलक्षणं, कारकादिभेदेनाप्यनेकार्थ- भेदाभ्युपगमात्, तथाहि—यथा ऋजुसूत्रनयमत एव ‘अग्निष्टोमयाजी पुत्रस्य जनिता’ इत्ययुक्तम्, अतीतानागतयोः सम्बन्धाभावात्, तथा शब्दनयमतेऽन्यकारकयुक्तं यत्तदेवापरकारकसम्बन्धं नानुभवतीत्यधिकरणं चेद्, ग्रामोऽधिकरणाभिधानविभक्तिवाच्य एव न कर्माभिधानविभक्त्यभिधेय इति ‘ग्राममधिशेते’ इति प्रयोगोऽनुपन्नः,तथा पुरुषभेदेऽपि नैकं वस्त्विति ‘एहि मन्ये रथेन यास्यमि न हि यास्यसि यातस्ते पिता’ इति च प्रयोगो न युक्तः, अपि तु ‘एहि मन्यसे यथाहं रथेन याम्यामि’ इत्येवं परभावेनैतन्निर्देष्टव्यं। एवमुपग्रहणभेदेऽपि विरमतीत्यादिर्न युक्तः, आत्मार्थतया हि विरमत इत्यस्यैव प्रयोगस्य सङ्गतेः, न चैवं लोकशास्त्रविलोपः, सर्वत्रैव नयमने तद्विलोपस्य समानत्वादिति सम्मनिवृत्तौ व्यवस्थितम्। वस्तुतो ‘ग्राममधिशेते’ इत्यादी ग्रामोत्तरद्वितीयादिपदादधिकरणत्वादि-प्रकारकप्रतीत्यर्थमधिकरणत्वादिविशिष्टे लक्षणैव स्वीकार्या, तन्निरूढत्वज्ञापनार्थमेव विशेषानुशासनमिति न कोऽपि दोषः। एतेन “विरोधिलिङ्गसंख्यादि–भेदाद्भिन्नस्वभावताम्॥तस्यैव मन्यमानोऽयं, शब्दः प्रत्यवतिष्ठते॥१॥” इत्यत्र लिङ्गसंख्यादिशब्दार्थो व्याख्यातः॥इति शब्दनयः॥ एकामेव संज्ञां समभिरोहतीति समभिरूढः, आह च भाष्यकृत्—
“जं जं सण्णभासइ, तं तं चिय समभिरोहए जम्हा॥सण्णंतरत्थविमुहो, तओ णओ समभिरूढत्ति॥२२३६॥” यां यां संज्ञां घट इत्यादिरूपां भाषते तां तामेव यस्मात्संज्ञान्तरार्थविमुखः कुटकुम्भादिशब्दवाच्यार्थनिरपेक्षः
समभिरोहति तत्तद्वाच्यार्थविषयत्वेन प्रमाणीकरोति, ततस्तस्मान्नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढो नयः, यो घटशब्दवाच्योऽर्थस्तं कुटकुम्भादिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसावित्यर्थः। “वत्थूओ सङ्क्रमणं होइ, अवत्थू नए समभिरूढे॥२१८५॥” इति निर्युक्तिदलं, एतद्व्याचिख्यासुराह भाष्यकृत्—**“दव्वंपज्जाओ वा, वत्थुंवयणंतराभिधेयं जं॥ न तदन्नवत्थुभावं, सङ्कमए सङ्करो मा भू॥२२३७॥ण हि सद्दंतरवच्चं, वत्थूंसद्दंतरत्थतामेइ॥ संसय–विवज्ज–एगत्त, सङ्कराइप्पसङ्गाओ॥२२३८॥”**द्रव्यं कुटादि, पर्यायस्तु तद्गतो वर्णादिस्तल्लक्षणं यत्कुटादिवचनान्तराभिधेयं वस्तु न तदन्यवस्तुभावं घटशब्दाभिधेयं वस्तुभावं सङ्क्रामति, कुत इत्याह, वस्तुनो वस्त्वन्तरसङ्कामे माभूत्सङ्करादिदोष इति। एतदेव भावयति, न हि शब्दान्तरवाच्यं वस्तु शब्दान्तरवाच्यार्थनामेति, संशयविपर्ययैकत्वसङ्करातिप्रसङ्गेभ्यः॥तथाहि॥घटादौ पटाद्यर्थसङ्क्रमे किमयं घटः पटादिर्वेति संशयः स्याद्, विपर्ययो वा घटादावपि पटादिनिश्चयात्, पटादौ वा घटाद्यध्यवमायादेकत्वं वा घटपटाद्यर्थानां प्राप्नुयात्, सङ्करः सङ्कीर्णरूपता वा मेचकमणिवत्, अतिप्रसङ्गो वा पटाद्यर्थिनो घटादौ प्रवृत्तिलक्षणः स्यात्॥ एवं ‘घट चेष्टायां’ घटनाद् घटः, ‘कुट कौटिल्ये’ कुटनात्कुटः, तथा ‘उभ-उम्भ पूरणे’ कुम्भनात् कुस्थितिपूरणात् कुम्भ इति, भिन्नाः सर्वेऽपि घटकुटादिपदार्थाः। ततश्च घटाद्यर्थे कुटादिशब्दप्रयोगे वस्तुनो वस्त्वन्तरसङ्क्रान्तौसंशयादिदोषोपनिपात इति॥घटकुटादिपदार्थानामभेदे बाधकप्रमाणमुक्त्वा भेदसाधकप्रमाणमाह—
“घडकुडसद्दत्थाणं, जुत्तो मेओऽभिहाणमेआओ॥घडपडसद्दत्थाण व, तओ न पज्जायवयणं ति॥२२३९॥”
घटकुटकुम्भादिशब्दवाच्यानामर्थानां भेद एव परस्परं युक्त इति प्रतिज्ञा, अभिधानभेदाद्वाचकध्वनिमे-
दादिति हेतुः, घटपटस्तम्भादिशब्दवाच्यानामिवार्थानामिति दृष्टान्तः, इत्थं चैतदभिप्रायेण घटादिपदस्य कुटकुम्भकलशादिकं पर्यायवचनं नास्त्येवैकत्रानेकशब्दप्रवृत्यनभ्युपगमादिति भावः। शब्दनयशिक्षणार्थमाह—“धणिमेयाओमेओ–ऽणुमओ जइलिङ्गवयणभिन्नाणं॥घडपडवच्चाणं पि व, घडकूडवच्चाण किमणिट्ठो॥२२४०॥”हन्त? यदि लिङ्गवचनभिन्नानां घटपटस्तम्भादिवाच्यानामिवार्थानां ध्वनिभेदाद्भेदस्तवानुमतः तर्हि घटकुटकुम्भकलशादिशब्दवाच्यानामर्थानां किमिति भेदो नेष्टः, ध्वनिभेदस्यात्रापि समानत्वात्। किञ्च विभिन्नलिङ्गवचनादिशब्दवाच्यत्वमर्थभेदं न प्रयोजकं, गौरवान्, किन्तु विभिन्नशब्दवाच्यत्वं लाघवात्। न च नानार्थकैकशब्दवाच्यानामप्यर्थानां यथा नामेदस्तथा भिन्नशब्दवाच्यानामपि न भेदो भविष्यतीत्याशङ्कनीयं, यतो विभिन्नशब्दवाच्यत्वस्यार्थभेदप्रयोजकत्वं न तद्व्यापकत्वं, येन नानार्थस्थले ‘व्यापकाभावाद् व्याप्याभाव’ आपादयितुं शक्येत, किन्तु तद्व्याप्यत्वं, न च ‘व्याप्याभावाद् व्यापकाभाव’ आपादयितुं शक्यते तप्तायोगोलके व्यभिचारात्, तस्मान्नानार्थस्थले शब्दभेदाद्भेदाभावेऽपि लक्षणस्वरूपादिभेदाद्भेदोऽव्याहतः, न ह्यर्थभेदे एकमेव प्रतिनियतं प्रयोजकं, भिन्नशब्दवाच्यतया तु भिन्नकालवृत्तितयेवार्थभेदो ध्रुव इति बलादस्मत्पथवर्तित्वं भवतोप्यापतितम्॥वसतिप्रस्थकादिविचारेऽप्यस्य पूर्वनयेभ्यो भेद इति दर्शयन्नाह—“आगासे वसइत्ति य, भणिए भणइ किह अन्नमन्नस्मि॥मोत्तूणायसहावं, वसेज्ज वत्थुंविहम्मस्मि॥२२४१॥वत्थुंवसइसहावे, सत्ताओ चेयणा व जीवंमि॥न विलक्खणत्तणाओ, भिन्ने छायातवे चैव॥२२४२॥” क्वासौ साध्वादिर्वसतीति पृष्टे लोकग्रामनगरवसत्यादौ वसतीति नैगमादिनयवादिनो वदन्ति। ऋजुसूत्रनयवादी तु वदति यत्रावगाढस्तत्रा-
काशखण्डे वसति, ततश्च ऋजुसूत्रेणैवं भणिते भणति समभिरूढो नन्वात्मस्वभावं मुक्त्वा कथमन्यद्वस्त्वन्यस्मिन् विधर्मके आत्मविलक्षणे वसेत्, न कथञ्चित्, सम्बन्धाभावादसम्बद्धस्य चाधारत्वानुपपत्तेरित्यर्थः॥ तर्हि क्व वसतीत्याह—सर्वमेव वस्त्वात्मस्वभावे वसति, सत्त्वात्, जीवे चेतनावद्। भिन्ने त्वात्मविलक्षणस्वरूपे वस्तुनि न वसति यथा छायाऽऽतपे। यद्यप्येष त्रयाणामपि शब्दनयानामविशेषेणाभिप्रायः सूत्रे व्यावर्णितस्तथा च सङ्गृह्याऽभ्यधीष्महि—“णेगमववहाराणां वसही लोयाइणिलयकोणंता॥संथारगावगाहग–णहप्पएसायगा तिन्हं॥१॥” तिण्हंति क्रमेण सङ्ग्रहर्जुसूत्रशब्दाख्यानां त्रयाणां नयानामित्यर्थः। तथापि शब्दसमभिरूढैवम्भूतेषु ज्ञानात्मप्रदेशतदाकारज्ञाननिराकारज्ञानसामान्यभेदादानत्मस्वभावभेदेन यदि विशेष उच्यते तदैवैतद्विषये मिथो विशेषो घटेतेति सूक्ष्ममीक्षणीयम्। अभेदे कथमाधाराधेयभावः, भेद एव कुण्डबदरादीनां तद्दर्शनादिति तु न शङ्कनीयं, अभेदेऽपि घटाभावे घटो नास्तीत्याद्याधाराधेयभावोल्लेखिप्रतीतिदर्शनात्, भेदे तत्प्रयोगस्तूपचारात्समर्थनीय इति दिक्॥प्रस्थकविचारमधिकृत्याह—”
**माणं पमाणमिट्ठं, नाणसहावो सजीवओऽणन्नो॥किह पत्थयाइभावं, वएज्ज मुत्ताइरूवं सो॥२२४३॥ण हि पत्थाइपमाणं, घडोव्वभुविचेयणाइविरहाओ॥केवलमिवतण्णाणं, पमाणमिट्ठंपरिच्छेओ॥२२४४॥”**इह यन्मानं तत्प्रमाणमेवेष्टं, प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कृत्वा, प्रमाणं च परिच्छेदात्मकं जीवस्वभाव एव स च जीवादनन्य इति कथं मूर्त्तादिस्वभावमादिशब्दादचेतनस्वभावं प्रस्थकादिस्वभावं व्रजेदसौ, येन नैगमादयः काष्ठमयं प्रस्थकादिकं मानमिच्छन्तः शोमेरन्निति। तर्हि शब्दनयानां किं प्रमाणं प्रस्थकादि किंवा न प्रमाणमित्याह–न हि नैव काष्ठघटितं प्रस्थकादि प्र-
माणं, चेतनादिरहितत्वात्, घटपटलोष्ठादिवत्, किन्तु तस्य प्रस्थकस्य ज्ञानं तदुपयोगस्तत्परिच्छेदः प्रमाणं ज्ञानमिष्टं, तेनैव तत्त्वतः प्रमीयमाणत्वात्। परिच्छेया इति पाठान्तरं वा तेनैव परिच्छेदात्, केवलज्ञानवत्, तस्मात्प्रस्थकज्ञानमेव प्रस्थक इति स्थितम्॥अत्र परमतमाशङ्क्य परिहरन्नाह—“पत्यादओवि तक्कारणंति, माणं मई न तं तेसु॥ जमसंतेसुबुद्धी, कासइसंतेसु वि न बुद्धी॥२२४५॥ तक्कारणं ति वा जइ, पमाणमिट्ठंतओ पमेयं वि॥ सव्वंपमाणमेवं, किमप्पमाणं पमाणं वा॥२२४६॥” प्रस्थादयोपि मानमिति प्रतिज्ञा, तत्कारणत्वात् प्रस्थकज्ञानकारणत्वात्, यथा नड्वलोदकं पादरोग इत्यादि, इत्येवम्भूता परस्य मतिःस्यात्, तदेतन्न, यतस्तेषु प्रस्थकादिष्वसत्स्वपि कस्यापि धान्यराश्यवलोकनमात्रेणापि कलनशक्तिसम्पन्नस्याऽतिशयज्ञानिनो वा प्रस्थकपरिच्छेदवुद्धिरुपजायते, कस्यापि पुनर्नालिकेरद्वीपाद्यायातस्य सत्स्वपि तेषु प्रस्थकपरिच्छेदबुद्धिर्न सम्पद्यते इत्यनेकान्तिका एव काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रस्थकज्ञानजनने, इति कथं तत्कारणत्वात्ते प्रस्थकादिमानरूपा भवेयुः?।यदि वा प्रस्थकज्ञानकारणतामात्रेणापि काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रमाणज्ञानकारणत्वात् प्रमाणमिष्टास्तदा दधिभक्षणादीनामपि परम्परया तत्कारणानां प्रमाणत्वं स्यादिति प्रमेयप्रमाणसाङ्कर्याद्विशीर्णा प्रमाणाप्रमाणव्यवस्था। एतेन ‘प्रस्थकत्वप्रकारकालौकिकधान्यचाक्षुषेस्वावच्छिन्नचक्षुःसंयोगसम्बन्धेन प्रस्थकस्य हेतुत्वमिति’ नव्यतर्कोऽप्यपास्तः, अनेनाऽपि प्रकारेण प्रस्थकस्य प्रमाणत्वेप्रमाणप्रमेयसाङ्कर्यदोषानुद्धारात्, ज्ञाने प्रस्थकत्वप्रकारकत्वस्य प्रस्थकाकारत्वपर्यवसन्नत्वेन तद्भिन्नप्रस्थके प्रमाणाभावश्च, प्रस्थकज्ञानात्पूर्वं हि न प्रस्थकसिद्धिः, तद्ज्ञानकाले च तदेव प्रस्थकाकारत्वेनानुभूयत इति किमपरमप्रामाणिकं बाह्यं प्रस्थकादीति। यद्यप्यत्रापि
प्रस्थकज्ञानमेव प्रस्थकप्रमाणमिति त्रयाणामपि शब्दनथानामविशिष्टमेव मतं गीयते, तथापि बाह्यप्रस्थकार्पितस्वाभाविक- सत्यप्रस्थकाकारोपप्लवोपस्थापितासत्यप्रस्थकाकारग्राह्मग्राह- कताविनिर्मुक्तमध्यमसंवित्स्वरूपज्ञानभेदे-नैषां विषयभेदः सूक्ष्ममीक्षणीयः। तथा पश्चानां धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलास्तिकायानां देशप्रदेशकल्पनायामप्यस्य नयस्य मते षष्ठीसमासादि नेष्टं, किं तर्हि देशी चासौ देशश्चेत्यादिकर्मधारय एवेति सयुक्तिकमाह—**“देसी चैव य देसो, णो वत्थुंवा न वत्थुणो भिन्नो॥ भिन्नो व न तस्स तओ, तस्स व जइ तो न सोभिन्नो॥२२४७॥ एत्तो चेवसमाणा–हिगरणया जुञ्जए पयाणं पि॥ नीलुप्पलाइयाणं, न रायपुरिसाइसंसग्गो॥२२४८॥”**व्याख्या–धर्मास्तिकायादिको देश्येव हि देशो न पुनस्तस्माद् घटादिवाघरट्टोऽत्यन्तभिन्नं स्वतन्त्रं वस्तु देशः। अथ न स्वतन्त्रं वस्तु देशः, किन्तु तत्सम्बन्धित्वादस्वतन्त्रोऽपि देशिनो भिन्नो देश इति चेत्, तत्राह—न च (वा) देशिलक्षणाद्वस्तुनो भिन्नोऽसौ देशः, अथ भिन्नस्तस्मादिष्यतेऽसौ, तर्हि, अन्यस्याऽन्येन विन्ध्येन हिमवदादेरिवसम्बन्धायोगान्न तस्य देशिनस्तकोऽसौ देशः, यदि पुनस्तस्य देशिनः सम्बन्धी देशोऽभ्युपगम्यते तर्हि घटादेः स्वस्वरूपवन्न स देशस्तस्माद्देशिनो भिन्नः, किन्तु तदात्मक एवेति॥ अत एव विशेषणविशेष्यभूतानां सर्वेषामपि पदानां समानाधिकरणता कर्मधारय एव समासो युज्यत इत्यर्थः, यथा नीलोत्पलादीनां, उपलक्षणं चेदं धवस्वदिरपलाशा इत्यादिर्द्वन्द्वोप्येतन्मतेनानुपपन्नः, ‘परस्परानन्वितनानापदार्थकसमासत्वस्यैव’ द्वन्द्वलक्षणत्वात्, अभेदेनान्वयस्य भेदेनान्वयस्य च तुल्ययोगक्षेमत्वात्, न तु राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इति षष्ठ्यादिसमासः एतन्मते युज्यते, यतो भिन्नानाम
न्योन्यं संसर्गः सम्बन्धो न घटते, तथाहि सम्बद्धवस्तुद्वयात्सम्बन्धो भिन्नोऽभिन्नो वा, यदि भिन्नः, तर्हि
“सम्बद्धवस्तुद्वयाद्भिन्नं तृतीयमेव वस्तु तत्स्यात्, न तु सम्बन्ध इति कथं तद्वशात्पष्ठ्यादिविभक्तिः, न हि विन्ध्यहिमवदादिभ्यो भिन्नो घटादिस्तत्सम्बन्धो भण्यते, नापि तद्वशात्तेषां षष्ठ्यादिविभक्तिः प्रवर्तते, अथ सम्बद्धवस्तुद्वयादभिन्नः सम्बन्धः, तर्हि नासौ षष्ठ्यादिप्रयोगहेतुः, सम्बद्धवस्तुद्वयादव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत्। ननु तत्स्वरूपमित्यत्रै(त्रे)वाभेदे षष्ठीप्रयोग इति विपरीताभिधानमिदमिति चेत्नात्र तत्पुरुषः, कर्मधारयस्यैवाश्रयणात्। तस्य स्वरूपमिति षष्ठीप्रयोगोऽप्यविभागेन दृश्यत इति चेत्, न समभिरूढनयमतावलम्बिभिरस्य प्रयोगस्य विगीतत्वात् भेदोपचारेण वाऽत्र षष्ठीसमर्थनात्। अत एवात्र—भेदे कथं षष्ठीति बाधमपि प्रदर्शयन्ति सूक्ष्मेक्षिणः, इत्थं च द्वन्द्वकर्मधारयातिरिक्तसमाससमर्थनमेतन्मत उपचारेणैवेति बोध्यम्। अपरमपि समभिरूढनयाभिप्रायभेदं दर्शयन्नाह—“घडकारविवक्खाएकत्तुरणत्थंतरं जओ किरिया॥न तदत्थंतरभूए, समवाओ तो मओ तीसे ॥२२४९॥कुम्भंमि बन्धुपज्जाय–सङ्कराइप्पसङ्गदोसाओ
॥
जो जेण जं च(व) कुरुए, तेण विभिन्नं तयं सव्वं॥
२२९०॥
” घटं करोतीति घटकार इत्यस्यां विवक्षायां प्ररूपणायां, यतो यस्मात्तस्य घटकर्तुरनर्थान्तरमव्यतिरिक्ता घटकरणक्रिया, कर्तर्येव घटकारे तस्याः समवायात्, तोत्ति तस्मान्न तदर्थान्तरभूते कर्तृव्यतिरिक्ते, कुम्भे घटे, तस्याः समवायः संश्लेषो, मतः, कुतः?, **वस्तुपर्यायसङ्करादिदोषप्रसङ्गात्,**कर्तृगतक्रियायाः कर्मण्यपि समवायाभ्युपगमे वस्तुपर्यायाणां विभिन्नवस्तुधर्माणां परस्परं सङ्करः सङ्कीर्णत्वमेकत्वं वा स्यादिति। ततश्च यः कुम्भकारादिः, येन क्रियाविशेषेण, यत्कुम्भादिकं, कुरुते, तेन क्रियाविशेषेण, तत्क्रियारूपतयेत्यर्थः, सर्वं तत् कर्तृकर्माद्यभिन्नं स्यात्, तस्मात्कर्तृगतक्रियाया न कर्मणि सङ्क्रमः, किन्तु कुर्वन् कारकः, कुम्भनादिभ्य एव कुम्भादय इति मन्यते
समभिरूद्रः॥अयमस्मिन्विषयेऽन्यकारकसम्बद्धेऽन्यकारकानन्वयित्वाभ्युगमपरं शब्दं प्रति प्रत्यवतिष्ठते, नन्वेवमन्यपदार्थे- ऽन्यपदार्थानन्वयित्वमेव लाघवादभ्युपगम्यतामिति, नन्वेवं कुलाले घटकार इति प्रयोगोऽनुपपन्नः स्यादिति चेत्, बाह्मघटाभिप्रायेणानुपपन्नः स्यादेव भावघटाभिप्रायेण तु न स्यात्, घटपरिणामित्वान्मृदादिद्रव्यमेव हि घटकारशब्दार्थः, घटाकाराध्यवसायादिपरिणामित्वात्, कुलालादिस्तु तत्कार एवाभिमानिकसम्बन्धेन केवलं बाह्यघटादिकारित्वं कुलालादावभ्युपयन्ति व्यवहारमूढाः। तदिदमभिप्रेत्यावोचाम—“मृदादिभावैः परिणामवद्भिः कुम्भादिभावाञ्जनितानवेत्य॥तेषामगृह्णन्परिणामिभावं, बाह्यं करोमीत्यभिमन्यते कः॥१॥”अत एवैतन्नये परगतस्य दानहरणादेर्नास्त्येव सद्भावः, स्वगतं तत्फलं तु स्वगतदानहरणाद्यध्यवसाय- विशेषादेवेति विवेचितमन्यत्र॥ अयं पुनरिहशब्दसमभिरूढयोरवान्तरविशेषोऽनुसन्धेयः, यदाद्येन बाह्यवस्तुसन्निधापितस्तदाकाराध्यवसायः फलक्षमोऽभ्युपेयः, द्वितीयेन तु वासनाविशेषमात्रोत्थापित इति॥ इत्थमेव नैगमनये जीवाजीवयोर्हिंसा, सङ्ग्रहव्यवहारयोः षट्स्वेव कायेषु ऋजुसूत्रे प्रतिजीवं भिन्नभिन्ना सा, शब्दनये तु स्वपरिणामविशेषरूपैव सेत्यादि नयविचारे शब्दसमभिरूढयोर्भावहिंसाद्याश्रित्य विषयभेदः सङ्गच्छते, एवम्भूतस्तु क्रियाकालान्यकालम्पर्शिपदार्थप्रतिक्षेपादेव विशिष्यत इति न तत्र युक्त्यन्तरं मृग्यं, युक्त्यन्तरान्वेषणे वा तस्य माध्यमिकमतपर्यवसानमपि न दुर्लभमिति सङ्क्षेपः॥ ‘पदार्थव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाकालव्यापकपदार्थसत्ताभ्युपगमपर एवम्भूतः’। आह च भाष्यकारः—“एवं जह सद्दत्थो, सन्तो भूओ तह तयन्नहाऽभूओ। तेणेवम्भूयणओ सद्दत्थपरो विसेसेणं’॥२२५१॥” एवं यथा ‘घट चेष्टायाम्’ इत्यादिरूपेण शब्दार्थो व्यवस्थितः, तहत्तितथैव यो वर्तते घटादिकोऽर्थः
स एव सन् भूतो विद्यमानः, अथ यस्तु, अन्यथा शब्दार्थोल्लङ्घनेन वर्तते स तत्त्वतो घटाद्यर्थोऽपि न भवति, किन्तु अभूतोऽविद्यमानः। येनैवं मन्यते, तेन कारणेन, शब्दनयसमभिरूढनयाम्यां सकाशाद, एवम्भूतनयो विशेषेण शब्दार्थतत्परः। अयं हि योषिन्मस्तकारूढं जलाहरणादिक्रियानिमित्तं घटमानमेव घटं मन्यते, न तु स्वगृहकोणादिव्यवस्थितं, अचेष्टनाद्, इत्येवंविशेषतः शब्दार्थतत्परोऽयमिति भावः॥ “वंजणअत्थतदुभयं, एवंभूओ विसेसेइ॥२१८५॥”त्ति नियुक्तिदलं तद् व्याचष्टे भाष्यकृत्– “वंजणमत्थेणत्थं, च वंजणेणोभयं विसेसेइ॥ जह घडसद्दं चैट्ठा—वया तहा तं पि तेणेव॥२२५२॥” व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं वाचकः शब्दो घटादिस्तं चेष्टावतैतद्वाच्येनार्थेन विशिनष्टि, स एव घटशब्दो यश्चेष्टावन्तमर्थं प्रतिपादयति, नान्यः, इत्येवं शब्दमर्थेन नैयत्ये व्यवस्थापयतीत्यर्थः, तथा, अर्थमप्युक्तलक्षणं अभिहितरूपेण व्यञ्जनेन विशेषयति, चेष्टापि सैव या घटशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धा योषिन्मस्तकारूढस्य घटस्य जलाहरणादिक्रियारूपा, न तु स्थानमरणक्रियात्मिकेत्येवमर्थं शब्देन नैयत्ये स्थापयतीत्यर्थः इत्येवमुभयं विशेषयति, एतदेवाह–’जह घडसद्दं’ इत्यादि। इदमत्र हृदयं–यदा योषिन्मस्तकारूढश्चेष्टावानर्थो घटशब्देनोच्यते तदा स घटलक्षणोऽर्थः, स च तद्वाचको घटशब्दः, अन्यदा तु वस्त्वन्तरस्येव तच्चेष्टाभावादऽघटत्वं घटध्वनेश्चावाचकत्वमिति। एतदेव प्रमाणतः समर्थयन्नाह—“सद्दवसादभिधेयं, तप्यच्चयओ पईव–कुंभो व्व। संसयविवज्जएग—त्तसङ्कगइप्यसङ्गाओ॥२२५३॥” यथाभिधायकः शब्दस्तथाभिधेयं प्रतिपत्तव्यमिति प्रतिज्ञा, तत्प्रत्ययत एव ततः प्रत्ययसम्भूतेरिति हेतुः, प्रदीपवत् कुम्भवद्वेति दृष्टान्तः, विपर्यये बाधकमाह–संशयेत्यादि, इदमुक्तं भवति, प्रदीपशब्देन प्रकाशवानेवार्थोऽभिधीयते, अन्यथा संशयादयः प्रसज्येरन् तथाहि, यदि
दीपनक्रियाविकलोऽपि दीपस्तर्हि दीपशब्देन प्रकाशवानर्थोऽभिहितः किं वाऽप्रकाशकोप्यन्धोपलादिरिति संशयः, अ
..पलादिरेवानेनाभिहितो न दीप इति विपर्ययः, तथा, दीप इत्युक्तेऽप्यन्धोपलादेरन्धोपलादावप्युक्ते दीपस्यच प्रत्ययात्पदार्थानामेकत्वं साङ्कर्यं वा स्यादेवमतिप्रसङ्गोऽपीति “शब्दवशादेवाभिधेयमभिधेयवशाच्च शब्द” इति प्रतिपत्तव्यम्॥ समभिरूढनयं शिक्षयन्नाऽऽह—“सद्दपरिणामओ जइ, घडकूडसद्दत्थभेयपडिवत्ती॥ तो णिच्चेट्ठोवि कहं, धडसद्दत्थो धडोऽभिमओ ॥२२५४॥” यदि शब्दपरिणामतः शब्दभेदात् घटकुटकुम्भादिपर्यायशब्दानामर्थभेदप्रतिपत्तिः ततस्तर्हि, निश्चेष्टोऽपि घटशब्दाभिधेयोऽर्थः कथं, घटोऽभिमतः, ‘घटनाद् घट’ इति शब्दार्थाभावादिति॥किञ्च**“जइ वत्थुसङ्कमो वा–ऽनिट्ठोचेट्ठावओ य सङ्केती॥ तो न हि निच्चिट्ठतया, जुत्ता हाणीव समयस्स॥२२५५॥”** वाऽथवा युक्त्यन्तरमुच्यते हन्त! यदि ‘वत्थूओ सङ्कमणं होइअवत्थू’ इत्यादिवचनात्तव वस्तुसङ्क्रमोऽनिष्टोऽनभिमनस्तर्हि चेष्टावतोऽपि भावघटस्य निश्चेष्टतयेति, कोऽर्थः, चेष्टाविकले द्रव्यघटे घटशब्दण्वृत्तितः सङ्क्रमणं सङ्क्रान्तिर्न हि नैव युक्ता, अथ चेष्टावतोऽपि निश्चेष्टेऽर्थे सङ्कान्तिरिष्यते, तर्हि समयहानिर्भवतो ‘बत्थूओ सङ्क्रमणं’ इत्यादिस्वप्रतिज्ञाक्षतिरित्यर्थः। अपरमप्यस्य मतभेदं दर्शयन्नाह–”एवं जीवं जीवो, संसारी पाणधारणाणुभवो॥सिद्धो पुण अजीवो, जीवणपरिणामरहिओ त्ति॥२२५६॥” जीवति **“पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः॥ प्राणा दशैतेभगवद्भिरुक्ता–स्तेषां वियोगीकरणं च हिंसा॥१॥”**इत्यादिवचनप्रसिद्धान् दशविधप्राणान्धरतीति शब्दार्थवशाज्जीवन्नेव दशविधप्राणधारणं कुर्वन्नेवास्य नयस्य मतेन जीव उच्यते, स च नारकादिः संसार्येव भवति, सिद्धस्त्वेतन्नयमतेन जीवोऽसुमान् प्राणीत्यादिशब्दैर्न व्यपदेश्यः,
जीवनादिपरिणामरहित इति कृत्वा शब्दार्थाभावात्, किं तर्हि ‘सत्तायोगात्सत्त्वः’ ‘अतति तांस्तान् ज्ञानदर्शनसुखादिपर्यायान् गच्छतीत्यात्मा’ इत्यादिभिरेव शब्दैर्व्यपदेश्य इति। इत्थं च यदुच्यते बोटिकवृद्धेन (द्रव्यसङ्ग्रहे) “तिक्काले च दुपाणा, इंदियबलमाउप्राणपाणो य॥ववहारा सो जीवो, णिच्छयदो दुचेदणा जस्म॥१॥” त्ति, तन्निजकपोलतल्पशयालुविरुद्धकल्पनया शिष्यव्यामोहनमात्रम्, अशुद्धनयविवेचनं शुद्धनयस्याप्यर्प्यमाणस्य प्रसिद्धार्थपुरस्कारेणोल्लेखस्यैव साम्प्रदायिकत्वात्, एवम्भूतनयमते ‘जीव प्राणधारणे’ इति धात्वर्थायोगेन शुद्धचेतनाद्वयवतोपि सिद्धस्य जीवपदार्थतया वक्तुमशक्यत्वात्, धात्वर्थ एव भावनिःक्षेपोपग्रहे च योषिन्मस्तकारूढो जलाहरणादिक्रियां कुर्वन्नपि घटो घटपदार्थो न स्यात्, किन्तु भावघटनयानुपयोग इत्येवम्भूतस्य प्रसिद्धोदाहरणमपि विलूनशीर्णं स्यात्। अथ शब्दार्थोभयविशेषणप्रधानत्वादेवम्भूतस्य व्यावहारिकशब्दार्थोपग्रहेणैवप्रसिद्धोदाहरणव्याघातो नैश्चयिकतदुपग्रहे च तद्व्याघातो न दोषाय नयान्तरार्थव्याघातपुरःसरमेव नयान्तरप्रवृत्तेरिति निश्चयोपजीविनिश्चयेन सिद्धस्यैव जीवत्वं न संसारिण इत्यस्मन्मतमदुष्टमिति चेत्, न, तथापि व्यवहारोपजीविनिश्चयेन शब्दार्थोपदर्शनं विना निश्चयोपजीविनिश्चयेन शब्दार्थोपदर्शनस्य क्रमभङ्गदोषावहत्वात्। अथ ‘विचित्रा सूत्राणां कृतिराचार्यस्य’ इति निश्चयोपजीविनिश्चयप्रदर्शनेच्छयैवास्मद्ग्रन्थकारप्रवृत्तेरयमदोष इति चेत्, न, ग्रन्थकर्तुरिच्छावैचित्र्यस्यापि सम्प्रदायानतिवर्तित्वात्, सम्प्रदायश्चादौ व्यवहारस्यैव तदनन्तरं नयपरिकर्मितमतेः कस्यचिद्बुद्धिविस्फारणार्थं व्यवहारोपजीविनिश्चयस्य तदनन्तरमेव च भृशतरं नयविस्तरावगाहनावदातमतिं शिष्यं प्रति निश्चयोपजीविनिश्चयस्य प्रदर्शनं प्रसिद्धम्, इति किमादावेव देवानांप्रियस्य ‘सूचीमुखे मुसलप्रवेशनकल्पेन’ निश्चयोपजीविनिश्चयप्रदर्शन-
व्यापारेण, सिद्धान्ते ह्यादिदेशना व्यवहाराश्रितैव प्रत्यपादि, तस्या एव कर्म–कर्मफल–कर्तृ–भोक्त्रादिव्यवस्थोपपादकत्वेन सम्यग्दर्शनमूलत्वात्, न तु निश्चयदेशना, तस्या एतद्वैपरीत्येन मुग्धजनहृदये नास्तिक्यवासनाधानद्वारा मिथ्यादर्शनमूलत्वात् प्रतिपादितं चैतद्व्यवहारभाष्ये, समर्थितं च गुरुतत्त्वविनिश्चयं स्वोपज्ञं विवृण्वद्भिरस्माभिः, अत एव सिद्धान्ते लोकोपकाराय क्वचित् क्वचिदाद्यनयत्रयदेशनैवोपनिबद्धा, न तूत्तरनयचतुष्टयप्ररूपणा, तस्या अपरिणत्यतिपरिणत्याधायकतया प्राच्यदशायामहितत्वात्, अङ्गोपाङ्गादिपारदृश्वनां परिणतजिनप्रवचनोपनिषदां दृष्टिवादाध्ययने तु सर्वनयानुयोगो विहित एव, तान्प्रति तस्य हितकारणत्वात्, तदाह श्रुतकेवली—“एएहिं दिट्ठिवाए, परूवणा सुत्तअत्थकहणा य॥ इह पुण अणब्भुवगमो, अहिगारो तीहि ओसण्णं॥२२७५॥” ति॥ अथ ‘कालत्रये प्राणचतुष्टयधारी यः स व्यवहारतो जीव’ इति व्युत्पाद्य ‘यस्य द्वे चेतने सनिश्चयतो जीव’ इति वाग्भङ्ग्या कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्यार्थिकलक्षणनिश्चयेन सिद्धसंसारिणामविशेषेण जीवत्वव्युत्पादने न क्रमभङ्गादिदोषलेशोऽपीति चेत्, न तेन सर्वेषां सामान्यतो जीवत्वेसिद्धे यस्येति विशेषोपग्रहानुपपत्तेः, न हि शुद्धनयमतेएकः शुद्ध एकश्चाशुद्धोऽस्ति, अत एव “मगगणगुणठाणेहि य, चउदसहिं हवंति तह असुद्धणया॥ विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥१३॥” (द्रव्यसङ्ग्रहे) इति परेणैवाग्रे प्रतिपादितम्, अस्मत्प्रावचनिका अपि च सामायिकन्यविचारे स्वजात्या शुद्धस्य सर्वस्यैवात्मनः सामायिकरूपतां
संङ्ग्रहनयापेक्षया प्रतिपादयन्तीत्यन्यत्र विस्तरः। यदपि देशदेशिनोरेकत्वं समर्थयता देशी चासौ देशश्चेत्याद्युक्तं समभिरूढेन, तदपि सममिरूढनयमते न युक्तमिति दर्शयन्नाह—“जइ देसि च्चिय देसो, पत्ता पज्जायवयणपडिवत्ती॥पुणरुत्तमाणत्थय, वत्थुसङ्कमो वा ण
चेट्ठंते॥२२५७॥” यदि वेश्येव देशः, देशो वा देशी तदानयोर्वृक्षः पादप इत्यादीनामिव पर्यायवचनतैव प्राप्ता, ततश्च यथा वृक्षः पादप इत्येकार्थशब्दप्रयोगे पौनरुक्त्यं तथा देशिदेशशब्दप्रयोगेऽपि स्यात्, तथा एकेनापि द्वितीयशब्दार्थस्य प्रतिपादितत्वाद् द्वितीयशब्दप्रयोगस्यानर्थक्यं च स्यात्, तथा, देशस्य देशिनि, देशिनश्च देशे तिरोधानाद्वस्तुसङ्क्रमोऽपि भवेत्, न चेदं तवेष्टं तस्मान्न देशदेशिनोरेकत्वमिति। भेदपक्षस्तु तयोस्त्वयापि निराकृत एव॥ अथाभेदपक्षोक्तदूषणमिया पुनस्तमङ्गीकरिष्यमि तत्राह—“अह भिन्नो तस्स तओ, ण होइ ण य वत्थुसङ्कमभयाओ॥देसी चेव य देसो, न वा पएसी परसोति॥२२५८॥”अथ भिन्नो देशिनो देशः, तर्हि प्राक् त्वदुक्तयुक्तेरेव, तस्य देशिनस्तकोऽसौदेशो न भवतीति स्मर्यतामिदं न च वस्तुसङ्कमादिदोषभयाद्देश्येव देशोऽभ्युपगन्तव्य इत्यनन्तरमेवोक्तम् एवं प्रदेशी प्रदेश इत्यपि नैष्टव्यं समानदोषत्वात् तस्मान देशिमात्रं देशमात्रं वा, किन्त्वखण्डं वस्त्वभ्युपगन्तव्यं, न तु देशप्रदेशकल्पना कार्या तयोर्भेदेऽभेदे च यथोक्तदोषसम्भवात्, अत एतन्मने कर्मधारयोऽपि पदानां न भवति, सर्वस्यापि वस्तुनः प्रत्येकमखण्डरूपत्वात्॥ अथ देशप्रतिपादनार्थं नोदेशीति प्रयोगः क्रियते एकदेशवचनश्च नोशब्दो देशिन एकदेशभूत एव देशो न पुनस्तद्व्यतिरिक्त इत्यर्थप्रतिपादक इति चेत्, तदप्ययुक्तमित्याह—“नोसद्दोवि समत्तं, देसं व भणिज्ज जइ समत्तं तो॥ तस्स पओमोऽणत्थी, अह देसो तो ण सो वत्थुं॥२२५९॥” नो देशीति प्रयोगे योऽयं नोशब्दः स किं समस्तं देशिलक्षणं वस्तु वदेत्, अथवा तद्देशमेव ब्रूयात्, यद्याद्यः पक्षः, तदा नोशब्दस्य प्रयोगोऽनर्थकः, केवलाद्देशिशब्दादेव समस्तवस्तुप्रतीतेः, अथ देशो नोशन्देनोच्यते, ततो नासौ वस्तु, देशिनो भेदा-
भेदाभ्यामनुपपत्तेरुक्तत्वात्॥ नीलोत्पलादिसमासश्चद्वयोः पदयोरेकाधिकरणतायां भवति, द्वयोश्चैकमधिकरणं नास्ति, अनन्तरमेव निषिद्धत्वादिति कर्मधारयसमासोऽपि न युक्त इति दर्शयन्नाह—“नीलुप्पलाइसद्दा–ऽहिगरणमेगं च जं मयं तत्थ॥ नणु पुणरुत्ताऽणत्थय–समयविषाया पुहुत्तं वा॥२२६०॥” नीलोत्पलादिशब्दानां यदेकमधिकरणमतिक्रान्तनयस्य सम्मतं तत्र ननु पौनरुक्त्यानर्थक्यसमयविघातलक्षणा दोषा उक्ता एवेति न कर्मधारयः, अथ पौनरुक्त्यादिदोषा नेष्यन्ते, तर्हि नीलोत्पलादिशब्दाभिधेयस्यार्थस्य पृथक्त्वं भेदः प्राप्नोतीत्यतोऽपि तुल्याधिकरणताऽभावान्न कर्मधारयः॥ तस्मात् किं स्थितमित्याह॥ “तो वत्थुसङ्कराइ–प्पसङ्गओ सव्वमेव पडिपुन्नं॥वत्थुंसेसमवत्थुंविलक्खणं स्वरविसाणं व॥२२६१॥“तस्माद्वस्तुसाङ्कर्यादिदोषप्रसङ्गतः, सर्वं धर्मास्तिकायादिकं, सम्पूर्णं देशदेशिकल्पनारहितमखण्डं वस्तु, एतस्मात्तु विलक्षणं देशदेशिकल्पनान्वितमवस्तु, युक्तिविकलत्वात्, स्वरविषाणवदिति॥ नन्वेवं नीलघट इत्यादिसमासान्नीलो घट इत्यादिवाक्याच्च शाब्दबोधो न स्यादिति चेत् गृहीतैवम्भूतनयव्युत्पत्तीनां न स्यादेव, अन्येषां तु भवन्नयं भ्रमरूपतां नातिक्रामतीति गृहाण। समभिरूढेन ह्येकपदार्थे भेदसम्बन्धेनेतरपदार्थान्वयाभावव्याप्यत्वं स्वीक्रियते, मया तु सम्बन्धमात्रेणेतरपदार्थान्वयाभावव्याप्यत्वमिति लाघवं, तस्मान्नीलघट इत्यादौ ‘नीलीभवनान्नीलो’ ‘घटनाद्धट’ इत्यादिक्रियाद्वयाऽसमावेशादनन्वय एव, गुणादिवाचिनः शब्दास्त्वेतन्नये न सन्त्येव, सर्वेषामेव व्युत्पत्यर्थपर्यालोचनायां क्रियाशब्दत्वात्, क्रियाशब्दयोरपि च भिन्नयोः परस्परमनन्वय एव, नीलघटादिविशृङ्खलपदोपस्थित्यनन्तरं तत्संसर्गबोधश्च मानसोत्प्रेक्षामात्रं, तथैव च सर्वो व्यवहारः, यदि च नीलो घट इत्यादेरखण्डनीलघटादिवाक्यार्थबोधः शाब्द एवानुभवसिद्ध-
स्तदा वाक्यार्थस्याखण्डत्वादखण्डवस्तुबोधाय वाक्ये लक्षणैव स्वीकर्तव्या, यथा वेदान्तिनां ‘सोऽयं देवदत्त’इत्यादौ ‘तस्वमसि’ इत्यादौ च, सा च न शक्यसम्बन्धरूपा पदद्वयात्मकवाक्यशक्ययोः सम्बन्धानभ्युपगमात्, किन्तु तात्पर्यानुपपत्तिसध्रीचीनाखण्डवस्तुविषय- कशाब्दबोधजनकशक्तिविशेषस्वभावा, वाक्यस्फोटाभ्युपगमे तु तत एवाभिव्यक्ताखण्डादखण्डवस्तुबोधो नानुपपन्न इति रहस्यम्॥अनेकान्ततत्त्वव्यवस्थायां सप्तनयविचारः सम्पूर्णः॥
समर्थिता इति श्रीम–द्यशोविजयवाचकैः॥ श्रीसिद्धान्तानुसारेण, नयाः शब्दादयस्त्रयः॥१॥
एते च नयाः प्रत्यक्षादिस्थलेऽऽजहद्वृत्त्यैकोपयोगरूपतया सापेक्षाः प्रमाणतामास्कन्दन्ति, शब्दस्थले च साकाङ्क्षखण्डवाक्यजसप्तभङ्ग्यात्मकमहावाक्यरूपाः प्रमाणं, न निरपेक्षाः, तदुक्तं सम्मतौ॥ “जे वयणिञ्जवियप्पा, संजुज्जंतेसु होंति एएसु॥ साससमयपण्णवणा, तित्थयराऽसायणा अण्णा॥१-५३॥ ये वचनीयस्याभिधेयस्य, विकल्पास्तत्प्रतिपादका अभिधानभेदाः, संयुज्यमानयोरन्योन्यसम्बद्धयोर्भवन्ति, अनयोर्द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयवाक्ययोः, ते च ‘कथञ्चिन्नित्य आत्मा’ ‘कथञ्चिदनित्य’ इत्येवमादयः॥ सैषा, स्वसमयस्य तत्त्वार्थस्य, प्रज्ञापना निदर्शना, अन्यानिरपेक्षनयप्ररूपणा तीर्थकरस्याशातना अधिक्षेपः, तत्प्ररूपणोत्तीर्णत्वात्, ‘**उत्सर्गतः स्याद्वाददेशनाया एव तीर्थकरेण विहितत्वाद्’’**विभज्जवायं च वियागरिज्जा’ इत्याद्यागमवचनोपलम्भात्॥ पुरुषविशेषमपेक्ष्यापवादतस्त्वेकनयदेशनायामपि न दोषः, तदाह सम्मतौ–पुरिसज्जायं तु पडु-च्च जाणओ पन्नवेज्ज अन्नयरं॥परिकम्मणाणिमित्तं, ठाएहि सो विसेसं पि॥१-५४॥पुरुषजातंप्रतिपन्नद्रव्यपर्यायान्यतरस्वरूपं श्रोतारं प्रतीत्य आश्रित्य, ज्ञकः स्याद्वा-
दविद्, प्रज्ञापयेदन्यतरदज्ञातं, परिकर्मनिमित्तं, अज्ञातांशसंस्कारपाटवार्थ, ततः परिकर्मितमतये स्थापयिष्यत्यसौस्याद्वादविशेषमपि परस्पराऽविनिर्भागरूपं, ततश्चेयमेकनयदेशनापि भावतः स्याद्वाददेशनैवेति फलितम्। अतः स्याद्वाददेशनाया एव परिणतजिनप्रवचनानामभ्यर्हितत्वात्तद्वाक्यं सप्तभङ्ग्यात्मकमुपदर्श्यते—स्यादस्त्येव घटः १, स्यान्नास्त्येव २, स्यादवक्तव्य एत्र ३, स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव ४, स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्य एव ५, स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्य एव ६, स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्य एव ७ चेति॥ तत्रासत्त्वोपसर्जनसत्त्वविवक्षायां प्रथमो भङ्गः १, सत्त्वोपसर्जनामत्त्वविवक्षायां द्वितीयः २, युगपदुभयविवक्षायां तृतीयः ३। द्वयोर्धर्मयोः प्राधान्येन गुणभावेन वा प्रतिपादने कस्यापि वचसः सामर्थ्याभावान्, तथाहि न तावत्समासवचनं तत्प्रतिपादकं, समासषट्के बहुव्रीहेग्न्यपदार्थप्रधानत्वात्, प्रकृतं चोभयप्राधान्यविवक्षणात्, अव्ययीभावस्य चात्रार्थेऽप्रवृत्तेः द्वन्द्वस्य चोभयपदप्राधान्येऽपि द्रव्यवृत्तेः प्रकृतार्थाप्रतिपादकत्वाद्, गुणवृत्तेरपि द्रव्याश्रितगुणप्रतिपादकत्वात् द्रव्यमन्तरेण गुणानां तिष्ठतीत्यादिक्रियाधारत्वासम्भवात्, तस्या द्रव्याश्रितत्वाद् एवञ्च प्रधानभूतयोर्गुणयोरप्रतिपत्तेः, तत्पुरुषस्याप्युत्तरपदार्थप्रधानत्वाद्, द्विगोः संख्यावाचिपूर्वपदत्वात् कर्मधारयस्यापि गुणाधारद्रव्यविषयत्वात् न च ममामान्तरसद्भावो, येन युगपद् गुणद्वयं प्रधानभावेन समासपदवाच्यं स्यात्, अथ द्रव्यान्वयव्यवधानेन क्रियान्वयित्वरूपप्राधान्यं प्रथमद्वितीयभङ्गयोरतिप्रसक्तं, उत्कटतात्पर्यविषय- त्वरूपप्राधान्यग्रहणे च प्रकृते द्वन्द्व कर्मधारययोरपि प्राधान्येन गुणद्वयवाचकतायां न क्षतिरिति चेन् न, द्वन्द्वे द्विवचनाद्भेदोपस्थितौ निरवयवप्रतीतिव्याघातः, कर्मधारये च विशेष्यतयाऽभ्यर्हितत्वेन द्रव्य एवोत्कटतात्पर्यमित्याशयाद्।
अत एव न वाक्यमपि तथाभूतगुणद्वयप्रतिपादकं सम्भवति, तस्य वृत्त्यसम्भिन्नाऽर्थत्वात् न च केवलं पदं वाक्यं वा लोकप्रसिद्धं, तस्यापि परस्परापेक्षद्रव्यादिविषयतया तथाभूतार्थप्रतिपादकत्वायोगात् न च तौ सदिति शतृशानचयोरिसाङ्केतिकपदवाच्यत्वं, विकल्पप्रभवशब्दवाच्यत्वप्रसक्तेः, विकल्पानां च युगपदप्रवृत्तेर्नैकदा तयोस्तद्वाच्यतासम्भवः, च समूहालम्बनविकल्पमादाय नायं दोषः तादृशविकल्पप्रभवपदानां बुद्धिविशेषविषयतावच्छेदकत्वोपलक्षितनानाशक्यतावच्छेदकत्वेन परमार्थतो नानार्थस्थानीयत्वात्, तेभ्यः प्रकरणादिनियन्त्रितप्रतिनियतैकार्थबोधस्यैवैकदा सम्भवात्। न च येषां वैकल्पिकपदानां मिलितोभयबोधकस्वाभाव्यं तान्यादाय नाऽवाच्यत्वमिति वाच्यम्, सदसदुभयसाङ्केतिकपदस्य पुष्पदन्तादिवद्वित्वविश्रान्तत्वेनैकत्वावच्छिन्ने द्वित्वावच्छिन्नान्वयस्य निराकाङ्क्षत्वादेवावाच्यत्वसिद्धेः, अत एव वस्त्वादिपदानि जैनैः सदसदुभयात्मकैकजात्यन्तरे सङ्केत्यन्ते, ननु सदसतोरित्यवधेयम्, वस्तुत एकपदजनितप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविशेष्यताकशाब्दबोधाविषयत्वेनावक्तव्यत्वं प्रकृतेऽव्याहतं, अत एव कर्मधारयाख्यं सामासिकमेकपदमादायापि न दोषस्वञ्जन्यबोधे उभयनिरूपितैकविशेष्यताभ्युपगमेन यथोक्तावाच्यत्वाक्षतेरिति दिक्॥ननु च घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्ते विधिरूपेऽसम्बद्ध एव तत्र पटाद्यर्थान्तरप्रतिषेध इति चेत्, न, पटादेस्तत्राभावाभावे घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य घटत्वस्यैवासिद्धेः, शब्दानां चार्थज्ञापकत्वं न कारकत्वमिति तथाभूतार्थप्रकाशनं तथाभूतेनैव शब्देन विधेयमिति नासम्बद्धस्तत्र पटाद्यर्थप्रतिषेधः, तथापि ‘स्वद्रव्यादिना सन्नेव’ इत्यत एव समानसंवित्संवेद्यतया परद्रव्यादिनाऽसत्त्वलाभसम्भवात्तद्बोधनाय द्वितीयभङ्गप्रयोगोऽनर्थक इति चेत्, न, समानसंवित्संवेद्यताया मानसबोध एव तन्त्रत्वात् ’ शाब्दी ह्याकारक्षा शब्देनैव पूर्यते’
इति न्यायात्परद्रव्यादिनाऽसत्त्वंशब्देन बोधयितुं द्वितीयभङ्गोपन्यासमार्थक्यात्॥ अथवा सर्वं सर्वात्मकमिति सांख्यमतव्यवच्छेदार्थमर्थान्तरप्रतिषेधो विधीयते, तत्र तस्य प्रतीत्यभावात्॥१॥ यद्वा नामस्थापनाद्रव्यभावभिन्नेषु विधित्सिताविधित्तप्रकारेण प्रथमद्वितीयौ भङ्गौ, तत्प्रकाराभ्यां युगपदवाच्यः, तथाभिधेयपरिणामरहितत्वात्तस्य यतो यद्यऽविधित्सितरूपेणापि घटः स्यात् प्रतिनियतनामादिभेदव्यवहाराभावप्रसक्तिः, तथा च विधित्सितस्यापि नात्मलाभ इति सर्वाभाव एव भवेत्, तथा यदि विधित्सितप्रकारेणाप्यघटः स्यात् तदा तन्निबन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरेव एकपक्षाभ्युपगमेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभाव इत्यवाच्यः। रूपान्तरेण विधित्सारूपान्तरावच्छिन्नसत्तां न विरुणद्धि रूपवत्त्वेन घटविधित्सायामपि रसवत्त्वेन तत्सत्ताया अनपायादिति चेत्, न, गुणात्मकसत्ताया गुणरूपत्वेऽपि व्यावहारिक्यास्तस्यास्तदभिधेयपरिणामपर्यवसितत्वेन विधित्सानुसारित्वात्, एवमग्रेऽप्याक्षेपपरिहारौ द्रष्टव्यौ॥२॥अथवा स्वीकृतप्रतिनियतप्रकारे तत्रैव नामादिके यः संस्थानादिस्तत्स्वरूपेण घटः, इतरेण चाघटइति प्रथमद्वितीयौ॥ ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तेरवाच्यः, विवश्चितसंस्थानादिनेव यदीतरेणापि घटः स्यात्तदैकस्य सर्वघटात्मकत्वप्रसक्तिः, अथ विवक्षितेनाप्यघटः, पटादाविव घटार्थिनस्तत्राप्यप्रवृत्तिप्रसक्तिः, एकान्ताभ्युपगमेऽपि तथाभूतस्य प्रमाणाविषयत्वतोऽसत्त्वादवाच्यः॥३॥यदि वा स्वीकृतप्रतिनियतसंस्थानादौ मध्यावस्था निजं रूपं, कुशलकपालादिलक्षणे पूर्वोत्तरावस्थे अर्थान्तररूपं, ताभ्यां सदसत्त्वात् प्रथमद्वितीयौ, युगपत्ताभ्यामभिधातुमसामर्थ्यादवाच्यलक्षणस्तृतीयो भङ्गः, तथाहि, मध्यावस्थावदितरावस्थाभ्यामपि यदि घटः स्यात्तदा तस्यानाद्यनन्तत्वप्रसक्तिः, अथ मध्यावस्थारूपेणाप्यघटः सर्वदा घटाभावप्रसक्तिः, एकान्तरूपत्वेप्ययमेव प्रसङ्ग इत्य-
सत्त्वादेवावाच्यः॥४॥ अथवा तस्मिन्नेवमध्यावस्थास्वरूपे वर्तमानाऽवर्तमानक्षणरूपतया सदसत्त्वात् प्रथमद्वितीयभङ्गौ, ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तेरवाच्यलक्षणस्तृतीयः, तथा हि यदि वर्तमानक्षणवत् पूर्वोत्तरक्षणयोरपि घटः स्यात्तर्हि वर्तमानक्षणमात्रमेवासौ स्यात्, पूर्वोत्तरयोर्वर्तमानताप्राप्तेः न च वर्तमानक्षणमात्रमपि पूर्वोत्तरापेक्षस्य तदभावेऽभावात्, अथातीतानागतक्षणवद्वर्तमानक्षणरूपतयाप्यघटः एवं सति सर्वदा तस्याभावप्रसक्तिः, एकान्तपक्षेऽप्ययमेव दोष इत्यभावादेवावाच्यः॥५॥यद्वा क्षणपरिणतिरूपे घटे लोचनजप्रतिपत्तिविषयत्वाविषयत्वाभ्यां सदसत्त्वात् प्रथमद्वितीयौ भङ्गौ, ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यः, तथाहि, लोचनजन्यप्रतिपत्तिविषयत्वेनेव यदीन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि घटस्स्यात्तर्हि, इन्द्रियान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः, इन्द्रियसङ्करप्रसक्तिश्च। अथेन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनेव चक्षुर्जप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न घटस्तर्हितस्याऽरूपत्वप्रसक्तिः, एकान्तवादेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभावादवाच्य एव॥६॥अथवा लोचनजप्रतिपत्तिविषये तस्मिन्नेव घटशब्दवाच्यता निजं रूपं, कुटशब्दाभिधेयत्वमर्थान्तरभूतं रूपं, ताभ्यां सदसत्त्वात्प्रथमद्वितीयौ, युगपत्ताभ्यामभिधातुमिष्टोऽवाच्यः, यदि घटशब्दवाच्यत्वेनेव कुटशब्दवाच्यत्वेनापि घटस्तर्हि त्रिजगत एकशब्दवाच्यताप्रसक्तिः, घटस्य वाऽशेषपटादिशब्दवाच्यत्वप्रसक्तिरिति घटशब्दवाच्यत्वप्रतिपत्तौ समस्ततद्वाचकशब्दप्रतिपत्तिप्रसङ्गश्च, अर्थे वाच्यतायाः शब्दे वाचकतायाश्च समानसंवित्संवेद्यत्वात्, तथा घटशब्देनापि यद्यवाच्यः स्यात्तर्हि घटशब्दोच्चारणवैयर्थ्यप्रसक्तिः, एकान्ताभ्युपगमेऽपि घटस्यैवासत्त्वात्सङ्केतद्वारेणापि न तद्वाचकः कश्चिच्छब्द इत्यवाच्य एव॥७॥ अथवा घटशब्दाभिधेये तत्रैव घटे हेयोपादेयान्तरङ्गवहिरङ्गोपयोगानुपयोगरूपतया सदसत्त्वात्प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगपदादिष्टोऽ-
वाच्यः, यदि हि हेयबहिरङ्गानर्थक्रियाकार्यऽसन्निहितरूपेणाप्यर्थक्रिया क्षमादिरूपेणेव घटः स्यात्तर्हि पटादीनामपि घटत्वप्रसक्तिः, तद्वद् यद्युपादेयादिरूपेणाप्यघटः स्यात्तदाऽन्तरङ्गस्य वक्तृश्रोतुगतहेतुफलभूतघटाकारावबोधकविकल्पोपयोगस्याप्यभावे घटस्याप्यभावप्रसङ्ग इत्यवाच्यः, एकान्ताभ्युपगमेऽयमेव प्रसङ्ग इत्यवाच्यः॥८॥अथवा तत्रैवोपयोगेऽभिमतार्थावबोधक- त्वानभिमतार्थानवबोधकत्वतः सदसत्त्वात्प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगपदादिष्टोऽवाच्यो, विवक्षितार्थप्रतिपादकत्वेनेवेतरेणापि यदि घटः स्यात्तर्हि प्रतिनियतोपयोगाभावः, तथाऽभ्युपगमे विविक्तरूपोपयोगप्रतिपत्तिर्न भवेत्, तदुपयोगरूपेणापि यद्यघटो भवेत्तदा सर्वाभावोऽविशेषप्रसङ्गो वा, न चैवं, तथाऽप्रतीतेः, एकान्तपक्षेऽप्ययमेवप्रसङ्ग इत्यवाच्यः॥९॥अथवा सत्त्वमर्थान्तरभूतं साधारणत्वात्, निजं घटत्वमसाधारणत्वात्, ताभ्यां प्रथमद्वितीयौ, अभेदेन ताभ्यां निर्दिष्टो घटोऽवक्तव्यो भवति, तथा हि, यदि सत्त्वमनूद्य घटत्वं विधीयते तदा सत्त्वस्यघटत्वेन व्याप्तेर्घटस्य सर्वगतत्वप्रसङ्गः, तथाऽभ्युपगमे प्रतिभासबाधा व्यवहारविलोपश्च तथाऽसत्त्वमप्यनूद्य यदि घटत्वं विधीयते तदा प्रागभावादिचतुष्कस्य घटत्वेन व्याप्तेर्घटत्वप्रसङ्गः। अथ घटत्वमनूद्य सदसत्त्वे विधीयेते तदा घटत्वं यत्तदेव सदसत्त्वे इति घटमात्रं ते प्रसज्येयातां, तथा च पटादीनां प्रागभावादीनां चाभावप्रसक्तिरिति प्राक्तनन्यायेन विशेषणविशेष्यलोपात् सन् घट इत्येवमप्यवक्तव्योऽसन्घट इत्येवमप्यवक्तव्यो न चैनत्ततोऽवाच्यः, अनेकान्तपक्षे तु कथञ्चिदवाच्यो, न तु सर्वथा, अभेदवादकृततद्दोषस्यभेदवादेन परिहारादिति न कश्चिद्दोषः, न चाभेदैकान्तेऽपि घटत्वमनूद्य सत्त्वासत्त्वयोः समवायविशेषणताभ्यां विधानान्नायं दोष इति वाच्यं, अतिरिक्तसमवायविशेषणतयोर्मानाभावेन भेदैकान्तस्यैवाऽवाच्यत्वादिति दिग्॥१०॥ यद्वा व्यञ्जनपर्यायोऽर्थान्तरभूतस्तदतद्विषयत्वात्तस्य, घटार्थपर्यायस्त्वन्यत्रा-
वृत्तेर्निजः, ताभ्यां प्रथमद्वितीयौ, अभेदेन ताभ्यां निर्देशेऽवक्तव्यो, यतोऽत्रापि यदि व्यञ्जनमनूद्य घटार्थपर्यायविधिस्तदा तस्याशेषघटात्मकताप्रसक्तिरिति भेदनिबन्धनतद्व्यवहारविलोपः, अथार्थपर्यायमनूद्य व्यञ्जनपर्यायविधिस्तदा प्रसिद्धविशेषानुवादेन घटत्वसामान्यविधानात्तस्याकार्यत्वम्, एवं च घटस्याभावादवाच्यः, अनेकान्तपक्षे तु युगपदभिधातुमशक्यत्वात्कथश्चिदवाच्यः॥११॥ यद्वा सत्त्वमर्थान्तरभूतं, तस्य विशेषवदेकत्वादनन्वयिरूपता, अत एव न तद्वाच्यमन्त्यषिशेषवत्, अन्त्यविशेषस्तु निजः, सोप्यवाच्योऽनन्वयात्, प्रत्येकावक्तव्याभ्यां ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः, अनेकान्तपक्षे तु कथश्चिदवक्तव्यः॥१२॥ अथवा सन्द्रुतरूपाः सत्त्वादयो घटः सन्द्रुतं रूपं प्रतिनियतार्थक्रियाकारितावच्छेदिका ऐक्यपरिणतिरित्यत्र दर्शनेऽर्थान्तरभृताः सत्त्वादयो, निजं सन्द्रुतरूपं, ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः, यतः सन्द्रुतरूपस्य सत्त्वरजस्तमस्तु सत्त्वेसत्त्वरजस्तमसामभावप्रसक्तिस्तेषां परस्परवैलक्षण्येनैव सत्त्वादित्वात्, सन्दुतरूपत्वे च वैलक्षण्याभावादभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः, असत्त्वेत्वसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः, न चैवमभ्युपगम्यते, अभ्युपगमेऽपि विशेषणाभावादवाच्यः, तत्काले सन्दुतरूपत्वान्न विशेषणाभाव इति चेत्, कालभेदेनापि सदसद्रूपसमावेशेऽनेकान्तप्रवेशात्। प्राक् शक्त्यैव सन्द्रुतरूपमस्ति न च तथा तत्सत्त्वादिवैलक्षण्यव्याहन्तु, व्यक्त्या तु घटसामग्री त एव तत्स्यादिति न दोष इति चेत्, न, व्यक्तेरपि सदसद्विकल्पग्रासात्। अथ नैयायिकादीनां यथा घटसत्त्वेभूतले सतोऽपि घटाभावस्य, न सम्बन्धः, किन्तु तदपसारणदशायामेव तत्कालावच्छिन्नस्वरूपात्मा सः, तथा ममापि सन्दुतरूपस्य प्राक्सत्त्वेऽपि तत्कालावच्छिन्नस्वरूपात्मा न सम्बन्धो, घटसामग्रीसम्पत्तौ च सम्बन्धलाभाद् व्यवहारसिद्धिरिति चेत्, न, उभयोरपि वादिनोर्यथोक्तसम्बन्धस्याऽनेकान्तं विनाऽवाच्यत्वादिति दिक्॥१३॥ अथवा रूपादयो ह्यर्थान्तरभूता असंहृतरूपत्वं सामूहिकप्रत्ययग्राह्यं
निजं, ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यो यथा ह्यरूपादिव्यावृत्तरूपादयस्ते, एवञ्च रूपादीनां घटनावाच्याऽरूपत्वादित्वात् घटस्य, हि परस्परविलक्षणबुद्धिग्राह्या रूपादय एकानेकात्मकप्रत्ययग्राह्माऽरूपादिरूपघटतां प्रतिपद्यन्ते, विशेष्यलोपादवाच्यः, अथाप्यरूपा रूपादयः, नन्वेवमपि रूपादय एव न भवन्तीति तेषामभावे केऽसंहृतरूपतया विशेष्याः येनासंहृतरूपा रूपादयो घटो भवेदित्येवमप्यवाच्यः, अनेकान्तवादे च कथञ्चिदवाच्यः॥१४॥ यदि वा रूपादयोऽर्थान्तरभृताः, मतुवर्थो निजः, ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः, रूपाद्यात्मकैकाकारावभासप्रत्ययविषयव्यतिरेकेणापररूपसम्बन्धानवगतेर्विशेष्याभावाद्रूपा दिमान् घट इत्यवाच्यः, न चैकाकारप्रतिभासग्राह्यव्यतिरेकेणापररूपादिप्रतिभास इति विशेषणाभावादप्यवाच्यः, अनेकान्ते तु कथञ्चिदवाच्यः॥१५॥अथवा बाह्योऽर्थान्तरभूतः, उपयोगस्तु निजः, ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः तथाहि य उपयोगः स घट इति यद्युच्येत तर्ह्युपयोगमात्रकमेव घट इति सर्वोपयोगस्य घटत्वप्रसक्तिरिति प्रतिनियतस्वरूपाभावादवाच्यः, अथ यो घटः स उपयोग इत्युच्येत तथाप्युपयोगस्यार्थत्वप्रसक्तिरित्युप-योगाभावे घटस्याप्यभावः ततश्च कथं नाऽवाच्यः॥१६॥
तदिदमभिप्रेत्योक्तं सम्मतौ—“अत्थंतरभूएहि य, णियएहि य दोहि समयमाईहिं। वयणविसेसाईअं, दव्वमवृत्तद्वयं पडइ॥१-३६॥“अस्यार्थः—अर्थान्तरभूतैर्निजकैश्च पर्यायैः क्रमेण स्यात् सन् स्यादसन्निति द्वौ भङ्गौ भवत इति शेषः। द्वाभ्यां चादिभ्यां प्रागुक्ताभ्यां प्रकाराभ्यां समकं युगपद्विवक्षितमिति शेषः, द्रव्यं वचनविशेषातीतं सत्तथाविधवचनवाच्यताऽनापन्नं सद्, अवक्तव्यकं पततितृतीयभङ्गविषयनामास्कन्दतीति। अत्र च निजार्थान्तरपर्यायैरनेकान्तोपजीविनैगमव्यवहारविशुद्धतारतम्योपदर्शक-वसतिदृष्टान्तनीत्यायथाक्रमसङ्कुचद्भिः क्रमेण युगपच्चादिष्टैरुपदर्शितेषु षोडशस्ववक्तव्यवि-
कल्पेषु मध्ये एकादशसु त्रयोऽपि भङ्गाः सम्भवन्ति, द्वादशादिषु पञ्चसु च स्वतन्त्रैकान्ते नयार्पितैस्तैः प्रत्येकं समुदाये च सर्वथाऽवक्तव्यत्वभङ्ग एवोत्तिष्ठते, स च बाधितः सन् कथञ्चिदवक्तव्यत्वे पर्यवस्यति, तस्य कथञ्चित्त्वं च भङ्गद्वयाधीनं, इत्थं च त्रयाणां भङ्गानां क्रमाभिधानमेव सम्प्रदायसिद्धमिति। व्युत्पत्तिमहिम्ना तनोऽपि स्याद्वादविदुषो भङ्गत्रयनम्भव इति विवेकः, इत्थं च यत्पशुपालेनोक्तं—“सर्वत्रानेकान्ताभ्युपगमे ‘सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च।’ इतिवचनमैवानुपपन्नं, स्वपररूपयोरप्यनिर्धारणादिति,” तदपास्तं द्रष्टव्यं पूर्वं नयविशेषेण स्वपररूपयोः सङ्कोचविकासावुपजीव्य तदनुसारेणैव सप्तभङ्गीप्रवृत्तेः, अवच्छिन्नमप्रतिपक्षधर्मद्वयाभिधानस्थले एकान्ततोऽवच्छेदकनिर्णयस्य तवाप्यभावात् इदानीं गोष्ठे गौर्नतु वाजिशालायामित्यादौ शुद्धगोष्ठादेरप्यवच्छेदकत्वस्य निर्णेतुमशक्यत्वात् इह कोण गोष्ठे गौर्नापरकोणे इति प्रतिसन्धानेएतत्कोणावच्छिन्नगोष्ठस्यैतत्कोणस्य वा तथात्वसम्भवादवच्छेदकावच्छेदकस्याऽवच्छेदकसङ्कोचस्य वाऽपरिस्फूर्तौशुद्धावच्छेदकपुरस्कारेण तत्परिस्फूर्तौतु सावच्छिन्नप्रकृतावच्छेदकपुरस्कारेणैव प्रतिनियतदेशदेशावच्छेदेन वा निर्णयस्त्वावयोः समानः, देशदेशस्य नावच्छेदकत्वमिति तु नीलपीनकपालिकास्थकपालसमवेतघटनीलप्रत्यक्षान्यथानुपपत्त्यापरेण वक्तुमशक्यं, तत्र नीलकपालिकावच्छिन्नचक्षुःसंयुक्तसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतयैव घटे नीलप्रत्यक्षोपपादनात्, इयांस्तु विशेषः, यत्परेषां देशदेशस्यावच्छेदकत्वं स्वाभाविकसम्बन्धविशेषेण, अस्माकं तु वैज्ञानिकसम्बन्धविशेषेण, तत्र परेषां परम्परासम्बन्धेन गोष्ठकोणस्य साक्षात्सम्बन्धेन च कोणावच्छिन्नगोष्ठस्य गवावच्छेदकत्वमिति कोणे गौर्न तु गोष्ठे इति सूक्ष्मेक्षिकानुपपत्तिः, अस्माकं तु मध्यमनैगमभेदकृतवैज्ञानिकसम्बन्धेन गोष्ठकोण एव तथात्वं न तु गोष्ठ इति तदुप-
पत्तिः, न च कोणे गौर्न तु गोष्ठ इति सूक्ष्मेक्षिका न भवत्येव, किन्तु न तु सम्पूर्णगोष्ठ इत्येव, सा च यावत्कोणेषु गवावच्छेदकतावच्छेदकत्वपर्याप्त्यभावमवगाहत इति परेषामपि नानुपपत्तिरिति वाच्यम्, एवं सति सम्पूर्णकोणेऽपि तदभावात्कोणे गोष्ठे गौरित्यस्याप्यनुपपत्तेर्नयविशेषकृतसम्बन्धं विना न विचित्रप्रतीत्युपपत्तिरित्यधिकं नयरहस्यादौ॥
एते च त्रयो भङ्गा गुणप्रधानभावेन सकलधर्मात्मकैकवस्तुप्रतिपादकाः सन्तः सकलादेशाः स्यात्कारपदलाञ्छिते तद्वाक्याद्विवक्षाकृतप्रधानभावसदाद्येकधर्मात्मकस्यापेक्षिता पराशेषधर्मक्रोडीकृतस्यवाक्यार्थस्य प्रतीतेः। विवक्षाविरचितद्वित्रिधर्मानुरक्तस्य स्यात्कारपदसंसूचितसकलधर्मस्वभावस्य धर्मिणो वाक्यार्थस्य प्रतिपादका वक्ष्यमाणास्तु चत्वारो विकलादेशा इतिकेचित्सङ्गिरन्ते॥ते चेमे स्यादस्तिनास्ति च घट इति प्रथमो विकलादेशः॥१॥स्यादस्त्यवक्तव्यश्च घट इति द्वितीयः॥२॥स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्चघट इति तृतीयः॥३॥ स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति चतुर्थः४॥ तत्र वस्तुनो देशो यदैकः सत्त्वेऽपरश्चासत्त्वेआदिश्यते तदा प्रथमो विकलादेशः॥आह च—“अह देसी सब्भावे, देसोऽसब्भावपञ्जवे णियओ॥तं दवियमत्थि णत्थिय, आएसविसेसियं जम्हा॥१-३७॥” अस्यार्थः—यदा देशोवस्तुनोऽवयवः, सद्भावेऽस्तित्वे, नियतः सन्नेवायमित्येवं निश्चितः, अपरश्च देशोऽसद्भावपर्याये नास्तित्व एव नियतोऽसन्नेवायमित्यवगतः, अवयवेभ्योऽवयविनः कथञ्चिदभेदादवयवधर्मैस्तस्यापि तथा व्यपदेशो, यथा ‘कुण्ठोदेवदत्त इति’ ततोऽवयवसत्त्वासत्त्वाभ्यामवयव्यपि सदसन् सम्भवति, ततस्तद्द्रव्यमस्ति च नास्ति चेति भवति, आदेशेन उभयप्रधानावयवभागेन विशेषितंयस्मात्॥ तथाहि, यवयवेन विशिष्टधर्मेण आदिश्यते तदस्ति च नास्ति च भवति, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्विभक्तो
हि घटोऽस्ति परद्रव्यादिरूपेण च स एव नास्तीति। आद्ययोरपि भङ्गयोः स्वद्रव्यपरद्रव्याभ्यां विभज्यत एव घट इति तत्समुदायात्कोऽस्य विशेष इति चेत्, न, तत्रास्तित्वनास्तित्वावच्छेदकद्वारा विभागेऽप्यवयवद्वारा विभागाभावात्, अत्र तु तद्द्वारा विभागेन विशेषात्। तद्द्वारा विभागकरण एव किं वीजमिति चेत्?, सावयवनिरवयवात्मकवस्तुनस्तथाप्रतिपत्तिजन- कमावयवनिरवयवत्वशबलैकस्वरूपवाक्यत्वेन प्रामा- ण्यरक्षार्थमिति दिक्॥४॥एकस्य देशस्य सत्त्वेनाऽपरस्य च युगपदुभयथादेशे द्वितीयो विकलादेशः। आह च—“सब्भावे आइट्ठो, देसो देसो य उभयहा जस्स॥तं अत्थिअवत्तव्वंच होइ दवियं विअप्पवसा॥१-३८॥” अस्यार्थः–सद्भावेऽस्तित्वे, यस्य घटादेर्धर्मिणः, देशो धर्मः, आदिष्टोऽवक्तव्यानुविद्धः स्वभावे, अन्यथा तदसत्त्वात्, न ह्यपरधर्माऽप्रविभक्ततामन्तरेण विवक्षितधर्मास्तित्वमस्य सम्भवति, स्वरविषाणादेरिव, तस्यैवापरो देश उभयथास्तित्वनास्तित्वप्रकाराभ्यामेकदैव विवक्षितोऽस्तित्वानुविद्ध एवावक्तव्यस्वभावे, अन्यथा तदसत्त्वप्रसक्तेः, न ह्यस्तित्वाभावे उभयाविभक्तता शशशृङ्गादेरिवतस्य सम्भविनी, प्रथमतृतीयकेवलभङ्गव्युदासस्तथाविवक्षावशादत्र कृतोऽत्र द्रष्टव्यः, तत्र प्रथमतृतीययोर्भङ्गयोः परस्पराविशेषणीभूतयोः प्रतिपाद्येनाधिगन्तुमिष्टत्वात्, प्रतिपादकेनापि तथैव विवक्षितत्वाद्, अत्र तु तद्विपर्ययादनन्तधर्मात्मकस्य धर्मिणः प्रतिपाद्यानुरोधेन तथाभूतधर्माक्रान्तत्वेन वक्तुमिष्टत्वात्तद्द्रव्यमस्ति चावक्तव्यं च भवति,तद्धर्मविकल्पवशाद्धर्मयोस्तथापरिणतयोस्तथा व्यपदेशे धर्म्यपि तद्द्वारेण तथैव हि व्यपदिश्यते, अत्रेदमवधेयं परस्परविशेषणीभूतयोरस्तित्वावक्तव्यत्वयोरत्र न विवक्षा, चैत्रो रक्तदण्डवानितित्रत् स्यादस्त्यवक्तव्यश्च घट इत्यतोऽस्तित्वविशिष्टाऽवक्तव्यत्ववान् घट इत्यबोधात्, किन्तु चकार-
बलाद् ‘एकत्र द्वयम्’ इति न्यायेन विदेशे दण्डी कुण्डली चेत्यत्र चैत्रे दण्डकुण्डलयोरिवप्रकृतेघटेऽस्तित्वाऽवक्तव्यत्वयोः परस्पराऽविशेषणीभृतयोरेव भानात्। एकत्र द्वयमाने द्वयोः सामानाधिकरण्येन वैशिष्ट्यमप्यौत्सर्गिकं भास
त इति चेत्, तर्हि सम्भूयभङ्गद्वयजनितबोधेऽपि तद्भानमावश्यकमिति कस्ततो विशेषः। वस्तुतो मिलिताभ्यां प्रथमतृतीयाभ्यामस्तित्वविशिष्टे घटेऽवक्तव्यवैशिष्ट्यज्ञानं सुकरं, द्वितीयमिलनस्यापि ‘अधिकं प्रविष्टं(ष्टे) न तु तद्धानिः’ इति न्यायेनादुष्टत्वात्, प्रकृते तु ‘एकत्र द्वयम्’ इति न्यायेनापि न बाधो देशेऽसत्त्वस्य देशेऽवक्तव्यत्वस्य च विवक्षणादिति विपरीतो विशेषः, परस्परविशेषणीभूतयोरेकवाक्येन बोध्यत्वप्रकारकतात्पर्यविषयतया तु विशेषो न भङ्गान्तरनिमित्तं फलाविशेषात्, अन्यथा विशेषणविशेष्यभाव कामचारस्यापि तथात्वप्रसङ्गात्, तथापि देशविशेषितपरस्परविशेषणविशेष्यभावेनात्र विशेषो द्रष्टव्यः, प्रकृतेऽस्त्यवक्तव्यपदयोर्देशास्तित्व-विशिष्टदेशावक्तव्यत्वविशिष्टयोरेव तात्पर्यानुपपत्त्यालक्षणास्वीकारात् तयोश्च तादात्म्येन वैशिष्ट्यवाधस्यैतद्भङ्गफलत्वात्, अयमेव परस्परानुवेधार्थोऽपि द्रष्टव्यः, चतुर्थभङ्गेऽप्युभयप्रधानावयवभागेनैव विशेषोपदेशादत्राग्नेऽपि तस्यैव विशेषस्याऽविशिष्टत्वादिति दिग्॥५॥देशेऽसत्त्वस्य देशे च युगपदुभयोर्विवक्षणे षष्ठः, आह च—“आइट्ठोऽसब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स॥तं णत्थि अवत्तव्वं,च होइ दवियं वियप्पवसा॥१-३९॥” अस्यार्थः—यस्य वस्तुनो, देशोऽसत्त्वे आदिष्टोऽसन्नेवायमित्यवक्तव्यानुविद्धो विवक्षितोऽपरश्चासदनुविद्धः, उभयथा सदसत्त्वाभ्यामादिष्टस्तदा तद्रव्यं नास्ति चावक्तव्यं च भवतिविकल्पवशात्, तद्व्यपदेश्यावयवाभेदोपचारात् द्रव्यस्यापि तद्व्यपदेशासादनात्, देशानुपरक्तद्वितीयतृतीयभङ्गव्युदासेनायं षष्ठो भङ्गः प्रवर्तते॥६॥ देशेऽस्तित्वस्य देशे नास्तित्वस्य देशे च युग-
पदुभयोर्विवक्षायां सप्तमः॥आह च—“सब्भावासब्भावे, देसो देसो य उभयहा जस्स॥तं अत्थिणत्थि अवत्त–व्वयं च दवियं विअप्पवसा॥१-४०॥” अस्यार्थः, यस्य देशिनो, देशोऽवयवो, देशो धर्मो वा, सद्भावे सत्त्वेनियतोऽपरस्त्वसद्भावेऽसत्त्वे, तृतीयस्तुभयथेत्येवं देशानां सदसदवक्तव्यव्यपदेशात्तदपि द्रव्यमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च भवति विकल्पवशात्, तथाभूतविशेषणाध्यासितस्य द्रव्यस्यानेन प्रतिपादनादपरभङ्गव्युदानः। एते च परस्पररूपापेक्षया सप्तभङ्ग्यात्मकाः प्रत्येकं स्वार्थं प्रतिपादयन्ति नान्यथेति प्रत्येकं तत्समुदायो वा सप्तभङ्गात्मकः प्रतिपाद्यमपि तथाभूतं दर्शयतीति सम्प्रदायविदो वदन्ति॥ तत्र जिज्ञासितसप्तधर्मात्मिकताप्रतिपादकत्वपर्याप्त्यधिकरणमहावाक्यत्वरूपसप्तभङ्गीत्वं समुदाय एव निरुक्तप्रतिपादकत्वाधिकरणवाक्यत्वरूपं च तत्प्रत्येकमपीति विवेकः, अतएव स्यात्पदलाञ्छनविवक्षितधर्मावधारकत्वेन स्वार्थमात्रप्रतिपादनप्रवणत्वेतच द्विधा सुनयत्वमुदाहरन्ति, आद्यं सप्तभङ्ग्यात्मकमहावाक्यैकवाक्यतापन्नवाक्ये, अन्त्यं चोदासीनं धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाकारिणि, इत्थं च स्यादस्तीत्यादि प्रमाणम्, अस्त्येवेत्यादि दुर्नयः, अस्तीत्यादिकः सुनयः, न तु स व्यवहाराङ्गं स्यादस्त्येवेत्यादिस्तु सुनय एवं व्यवहारकारणं, स्वपरानुवृत्तव्यावृत्तवस्तुविषयप्रवर्त्तकवाक्यस्य व्यवहारकारणत्वादिति ग्रन्थकृतो विवेचयन्ति। अत्र सप्तभङ्ग्यामाद्यभङ्गकस्त्रिधा द्वितीयोऽपि त्रिधा, तृतीयो दशधा, चतुर्थोपि दशधैव, पञ्चमादयस्तु त्रिंशदधिकशतपरिमाणाः प्रत्येकं श्रीमन्मल्लवादिप्रभृतिभिर्दर्शिताः॥
पुनश्च षट्विंशदधिकचतुर्दशशतपरिमाणास्त एव च व्द्यादिसंयोगकल्पनया कोटिशो भवन्तीत्यभिहितं तैरेवेति तद्विस्तरस्तद्ग्रन्धादेवावसेयः॥ अथानन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्य सप्तधा कल्पनेऽष्टमनवमविकल्पयोः कल्पनमपि
किं न क्रियत इति चेत्?, न, तत्परिकल्पननिमित्ताभावात्, तथाहि, न तावत्सावयवात्मकमन्योन्यनिमित्तकं तत्परिकल्पयितुं युक्तं, चतुर्थादिवचनविकल्पेषु तस्यान्तर्भाविप्रसक्तेः, नापि निरवयवात्मकमन्योन्यनिमित्तकं तत्परिकल्पनामर्हति प्रथमादिष्वन्तर्भावप्रसक्तेः न च गत्यन्तरमस्तीति नाष्टमभङ्गकल्पना युक्ता। किं चासौ क्रमेण वा तद्धर्मद्वयं प्रतिपादयेद्यौगपद्येनवा, प्रथमपक्षे गुणप्रधानभावेन तत्प्रतिपादने प्रथमद्वितीययोरन्तर्भावः, प्रधानभावेन तत्प्रतिपादने चतुर्थे, यौगपद्येन तत्प्रतिपादने तृतीये, भङ्गकसंयोगेन भङ्गान्तरकल्पनायां प्रथमद्वितीयसंयोगे चतुर्थ एवं प्रसज्यते, प्रथमतृतीयसंयोगात्पश्ञ्चमः, द्वितीय तृतीय संयोगात्षष्ठःप्रथमद्वितीयतृतीयसंयोगात्सप्तमः प्रथमचतुर्थादिसंयोगकल्पना तु पौनरुक्त्यभयादनुन्थानोपहता। न च देशिदेशभेदेन धर्मिभेदादपौनरुक्त्यं, प्रथमचतुर्थसमाजादेतादृशप्रतीतिसिद्धौ तत्संयोगस्य निराकाङ्क्षत्वान्न, तस्मान्न कथञ्चिदष्टमभङ्गसम्भव इति नाधिक्यं, न चावक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्यां तृतीयभङ्गस्य प्रथमभङ्गाद्वक्तव्यत्वसप्तभङ्ग्यां च द्वितीयभङ्गादविशेषान्न्यूनत्वमपि शङ्कनीयं तत्रांशांशग्राहकधर्मेणावक्तव्यत्ववक्तव्यत्वयोरेव प्रथमद्वितीयभङ्गार्थत्वादंशावक्तव्यत्ववक्तव्यत्वतद्विपर्ययाभ्यामवक्तव्यस्यैव तृतीयभङ्गार्थत्वादिति दिग्। इत्थमुक्तन्यायेन वस्तुप्रतिपादने सप्तविध एव वचनमार्गइति स्थितम्। अत्रैवं नयविभागमुपदिशन्ति श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादाः–”एवं सत्तवियप्पो, वयणपहो होइअत्थपञ्जाए॥वंजणपञ्जाए पुणःसवियप्पो णिव्वियप्पो य॥१-४१॥” अस्यार्थः एवमनन्तरोक्तप्रकारेण, सप्तविकल्पः सप्तभेदः, वचनपथो भवत्यर्थपर्यायेऽर्थनये सङ्ग्रहव्यवहारजुसूत्रलक्षणे, सप्ताप्यनन्तरोक्ता भङ्गका भवन्ति॥ तत्र प्रथमो भङ्गः सङ्ग्रहे सामान्यग्राहिणि, नास्तीत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः सङ्ग्रहव्यवहारयोः
पञ्चमः सङ्ग्रर्जुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहारर्जुसूत्रयोः, सप्तमः सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रेष्विति विभागः॥अत्र यद्धर्मप्रकारकः सङ्ग्रहाख्यो बोधः प्रथमभङ्गफलत्वेनाभिमतस्तद्धर्माभावप्रकारको व्यवहाराख्यबोध एव द्वितीयभङ्गफलत्वेनैष्टव्यः, तेन स्याद्घटः स्यान्नीलघट इत्यादिसामान्यविशेषसङ्ग्रव्यवहाराभ्यां न सप्तभङ्गीप्रवृत्तिरित्यवधेयम्॥ अथ तृतीयभङ्गस्य ऋजुसूत्रनिमित्ततायांकिं बीजं युगपत्सत्त्वासत्त्वाभ्यामादिष्टं हि सङ्ग्रहव्यवहारावप्यवक्तव्यमेव ब्रूतः, सङ्ग्रहव्यवहारौ युगपदुभयथाऽऽदिशत एव, नेति चेत्, ऋजुसूत्रोऽपि कथं तथाऽऽदिष्टुं प्रगल्भतां, मध्यमक्षणरूपायाः सत्तायास्तेनाप्यभ्युपगमात्। सङ्ग्रहाभिमतयावत्सजातीयविशेषानुवृत्त-सामान्यानभ्युपगमादृजुसूत्रेणावक्तव्यत्वभङ्ग उत्थाप्यत इति चेत्, सोऽयं प्रत्येकावक्तव्यत्वकृतोऽवक्तव्यत्वभङ्गः, तदुत्थापने च सङ्ग्रहोपि समर्थः, ऋजुसूत्राभिमतमध्यमक्षणरूपसत्तानभ्युपगन्त्रा तेनापि तदुत्थापनस्य सुकरत्वादितिचेत्,
अत्रेदमाभाति—सङ्ग्रहव्यवहारौ युगपन्नोभयथादेष्टुं प्रगल्भेते, स्वानभिमतांशादेशेऽनिष्टसाधनत्वप्रतिसन्धानात्, ऋजुसूत्रस्य तु वर्तमानपर्याय- मात्रग्राहिणस्तिर्यगूर्ध्वतास्पदाधारांशान्यतररूपसामान्यान्यापोहरूपविशेषौ च सांवृतावेवेति तदपेक्षया युगपदुभयथाऽऽहार्यतदादेशसम्भवादवक्तव्यभङ्गोत्थानमनाबाधम्, न चैवमपि तञ्जनितबोधस्य प्रसङ्गरूपत्वाद्विपर्ययपर्यवसाने सङ्ग्रहव्यवहारान्यतरसाम्राज्यमिति वाच्यं, विषयाबाधे कूटलिङ्गजानुमितेरिव प्रकृतभङ्गजबोधस्य प्रमात्वेन विपर्ययपर्यवसानकदर्थनानवकाशाद्॥अधिकं **बहुश्रुता विदन्ति।**व्यञ्जनपर्याये शब्दनये पुनः सविकल्पः प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात्, द्वितीयतृतीययोनिर्विकल्पकश्च, द्रव्यार्थात्सामान्वलक्षणान्निर्गतस्य पर्यायरूपस्य विकल्पस्याभिधायकत्वात्तयोः समभिरूढस्य पर्यायभेदभिन्नार्थत्वात्, एवम्भूतस्यापि
विवक्षितक्रियाकालार्थत्वात्, तथा च घटो नाम घटवाचकयावच्छन्दवाच्यः शब्दनयेऽस्त्येव, समभिरूढैवम्भूतयोर्नास्त्येवेति द्वौ भङ्गौ लभ्येते, लिङ्गसंज्ञाक्रियाभेदेन भिन्नस्यैकशब्दावाच्यत्वाच्छब्दादिषु तृतीयः, प्रथमद्वितीयसंयोगे चतुर्थः, तेष्वेव चानभिधेयसंयोगे पञ्चमषष्ठसप्तमा वचनमार्गा भवन्ति॥ अथवाऽन्यथास्याः व्याख्यातात्पर्यं, अर्थनय एव सप्त भङ्गाः॥
शब्दादिषु तु त्रिषु नयेषु प्रथमद्वितीयावेव भङ्गौ॥ “यो ह्यर्थमाश्रित्य वक्तृस्थः सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्राख्यः प्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्धनयः,”अर्थवशेन तदुत्पत्तेरर्थं प्रधानतयाऽसौव्यवस्थापयतीति कृत्वा, शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति, तत्प्रयोगस्य परार्थत्वात्। “यस्तु श्रोतरि शब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्दसमभिरूढैवम्भूताख्यः प्रत्ययस्तस्य शब्दः प्रधानं तद्वशेन तदुत्पत्तेः, अर्थस्तूपसर्जनं तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात्स शब्दनय” उच्यते, तत्र वचनमार्गः सविकल्पकनिर्विकल्पतया द्विविधः, सविकल्पं सामान्यं, निर्विकल्पः पर्यायः, तदभिधानाद्वचनमपि तथा व्यपदिश्यते, तत्र शब्दसमभिरूढौसंज्ञाक्रियाभेदेऽप्यभिन्नमर्थं प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः, एवम्भूतस्तु क्रियाभेदाद्भिन्नमेवार्थं तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गरूपस्तद्वचनमार्गः, अवक्तव्यभङ्गस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव यतः ‘श्रोत्रभिप्रायो व्यञ्जननयः’, स च शब्दश्रवणादर्थं प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात्, अवक्तव्यं तु शब्दाभावविषय इति नावक्तव्यभङ्गको व्यञ्जनपर्याये सम्भवतीत्यभिप्रायवता व्यञ्जनपर्याये तु सविकल्पकनिर्विकल्पौ प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावभिहितावाचार्येणेति टीकाकृतो व्याचक्षते। अत्र वक्तरि यत्सप्तभङ्ग्यर्थज्ञानं तन्मानसोत्प्रेक्षोपनीतपदार्थसंसर्गभानरूपं, श्रोतरि तु शाब्दमेव तत् सम्भवति, अवक्तव्यं तु न शब्दविषयः किन्तु शब्दाभावविषय इति यद्व्यञ्जननयतात्पर्यमुन्नीतं तत्कथं सङ्गच्छते?, शब्दाभावस्या-
प्रमाणत्वेन कस्याप्यर्थस्य तदविषयत्वात् कथञ्चिन्मते शब्दानुपलब्धेः शब्दाभावविषयप्रमाणत्वेऽपि तां विना तद्विषयं बिलक्षणं ज्ञानं माजनि, अवक्तव्यपदाद्वक्तव्यत्वाभावविषयशाब्दबोधोत्पतौ किं बाधकं, न हि भावविषयक एव शाब्दबोधो भवति, न त्वभावविषयक इत्यत्र प्रमाणमस्ति, पदज्ञानादिकार्यतावच्छेदककोटौ भावशान्दत्वप्रवेशे गौरवात्, घटो नास्तीत्यादेर्घटाभावादिबोधस्य सार्वजनीनत्वाच्च। तत्रापि नञ उपसर्गवद्द्योतकतया तात्पर्यग्राहकत्वमात्रमेव घटपदस्य घटप्रतियोगिके लक्षणाध्रौव्येऽभावान्तर्भावेनैव तस्यायुक्तत्वादिति चेत्, न न नघट इत्यत्रैकस्माद् घटपदाद् घटत्वघटाभावाभावत्वाभ्यामेकदा शक्तिलक्षणाभ्यां बोधासम्भवेन नञः पृथक्शक्तिकल्पनावश्यकत्वाद्, द्योतकत्वपक्षेऽपि घटो नास्तीत्यादिवाक्यरीत्यैव स्यादवक्तव्यो घट इत्यतोऽवक्तव्यत्ववोधाप्रतिरोधाच्च, तस्मान्नायं प्राञ्जलः पन्थाः, किं तु कथञ्चिदवक्तव्यत्वमिह ‘एकपदजन्यप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविषयकशाब्दबोधाविषयत्वम्’ तद्बोधनं त्वर्थनये मानसोत्प्रेक्षोपस्थितखण्डशः प्रसिद्धपदार्थासंग्रहमात्रात्कथञ्चित्संसर्गग्रहाद्वा सम्भवति, व्यञ्जननये तु तन सम्भवति “असतो णत्थि णिसेहो” इत्यादि भाष्यकृद्वचनादुक्तविशिष्टप्रतियोगिनोऽसिद्ध्यातदभावस्याप्यसिद्धत्वात्पदार्थमर्यादया वाक्यार्थमर्यादया वा बोधयितुमशक्यत्वात्। न च स्यात्पदसमभिव्याहृतावक्तव्यपदात्प्रकृते खण्डशःशक्त्या बोधः सम्भवति, एकपदार्थयोः परस्परमन्वयबोधस्याव्युत्पन्नत्वात्, अन्यथा हरिपदादुपस्थितयोः सिंहकृष्णयोराधाराधेयभावसम्बन्धेनान्वयबोधप्रसङ्गादितिसूक्ष्मेक्षिकामनुसरता व्यञ्जननयेन प्रकृते नञ्व्यत्यासादेकपदाजनितप्रातिस्विकधर्मद्वयावच्छिन्नविषयकशाब्दबोधविषयत्वं स्यादवक्तव्यत्वं वाच्यं, तच्च भङ्गद्वयार्थमादाय पर्यवस्यतीति व्यञ्जननये द्वावेव भङ्गाविति व्याख्यातृतात्पर्यं सुष्ठु घटामटाट्यते॥देश-
कृतश्चतुर्भङ्ग(ताश्चत्वारो भङ्गा)स्तु व्यञ्जननयेन शुद्धेन देश्यतिरिक्तदेशाभावादेव नोद्भावनाई(र्हा) इति विभावनीयं सुधीभिः॥
इति बुधहितहेतोर्दर्शिताः सप्त भङ्गा, जिनवचनसमुद्रोत्तुङ्गगङ्गातरङ्गाः॥
दलितकुनयवादं निर्विशेषं मया श्री–नयविजयगुरूणां प्राप्य पूर्णप्रसादम्॥१॥
तदेवं सप्तभङ्गीमङ्गीकुर्वाणमनेकान्तात्मकमेव वस्तु नयप्रमाणात्मकचैतन्यगोचरः, सदृशासदृशपर्यायाभ्यामेकान्तसदसद्विलक्षणस्य जात्यन्तरात्मकस्यैव घटादेरनुभूयमानत्वात्, येऽपि सदृशपर्यायास्तेऽपि सद्द्रव्यपृथिव्यादिवचनप्रतिपाद्या व्यञ्जनपर्यायाः, न तु ऋजुसूत्राभिमता अर्थपर्यायाः, अन्योन्यव्यावृत्तवस्तुस्वलक्षणग्राहकत्वात्तस्य। न च सामान्यमात्रस्य न शब्दवाच्यत्वं, शब्दादप्रवृत्तिप्रसक्तेः, सामान्यस्यार्थक्रियाऽक्षमत्वात्, सामान्यप्रतिपादनद्वारा लक्षणयाऽनुमानतो वाऽर्थक्रियाक्षमस्य विशेषस्य प्रतिपत्तेश्च क्रमप्रतिपत्तेरसंवेदनेन वक्तुमशक्यत्वात् नापि विशेषाणां शब्दवाच्यत्वमानन्त्यात्सङ्केतासम्भवात्, किन्तु भयात्मकं वस्तु गुणप्रधानभावेन शब्दवाच्यं, तच्चार्थपर्यायरूपमेवेति कुतस्तद्विलक्षणव्यञ्जनपर्यायसिद्धिर्यदपेक्षया सत्त्वमुच्येतेति शङ्कनीयम् केषुचिदेवार्थधर्मेषु शब्दवाच्यतापरिणत्यभ्युपगमादाख्यातुमशक्यत्वेऽपि प्रत्याख्यातुमशक्यानां माधुर्यविशेषादीनां बहूनामर्थधर्माणामनुमवसिद्धत्वान्, अत एव “प्रज्ञापनीया भावा अप्रज्ञापनीयानामनन्तभाग एव” इति सिद्धान्तव्यवस्था, तेनार्थपर्यायवैलक्षण्यं व्यञ्जनपर्यायेषु नाप्रामाणिकम्, अवश्यं चैतदभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथाऽदृष्टदशरथादीनामिदानीन्तनानां तदीयार्थपर्यायापरिज्ञानाद्दशरथादिपदाच्छाब्दबोधो न स्यादित्यधिकमनेकान्तवादप्रवेशे॥
ततः सदृशव्यञ्जनपर्यायैरेव सर्वमस्ति न त्वन्यैरित्ययमनेकान्त एव व्यवस्थितः, तदिदमुक्तं “परपञ्जवेहिं विसरि–सगमेहिं
णियमेण णिच्चमवि णत्थि॥सरिसेहि वि बंजणओ, अत्थि, ण पुण अत्थपञ्जाए॥३-५॥” विसदृशगमैर्विजातीयज्ञानग्राह्यैः।
नन्वेवमपि प्रत्युत्पन्नपर्यायेणास्तित्वनियमेऽप्येकान्तवादापत्तिरिति चेत्, अत्राहुः—“पच्चुप्पण्णंमि वि प-ञ्जयंमि भयणागइंपडइ दव्वं॥ जं एगगुणाईया, अणंतकप्पा गम(गुण)विसेसा॥३-६॥“प्रत्युत्पन्नेऽपि वर्तमानेऽपि पर्याये, स्वपररूपतया सदसदात्मिकां मध्योर्ध्वादिरूपेण च भेदाभेदात्मिकां भजनागतिं विकल्पपद्धतिं, पतत्यासादयति, द्रव्यं, यद्यस्मात्कारणाद्, एकगुणकृष्णत्वादयोऽनन्तकल्पा अनन्तप्रकारास्तत्र गुणविशेषाः, तेषां च मध्ये केनचिदेव गुणविशेषेण युक्तं तत्, तथाहि, कृष्णं द्रव्यं तद्द्रव्यान्तरेण तुल्यमधिकमूनं वा भवेत्, प्रकारान्तराभावात्, प्रथमपक्षे सर्वथातुल्यत्वे तदेकत्वापत्तिः तथा च नीलनीलतरादिप्रतीतिबाधः, उत्तरपक्षयोः सङ्ख्येयादिभागगुणवृद्धिहानिभ्यां षट्स्थानकप्रतिपत्तिरवश्यम्भाविनीति प्रत्युत्पन्नपर्यायेणापि भजनाऽवाधितैव॥स्यादेतत्, पुद्गलद्रव्यस्य तादृग्भूताऽपरपुद्गलद्रव्यापेक्षयाऽनेकान्तरूपता युक्ता, प्रत्युत्पन्ने चात्मद्रव्यपर्याये कथमनेकान्तरूपता युक्ता, मैवं, आत्मपर्यायस्यापि ज्ञानादेस्तत्तद्ग्राह्यार्थापेक्षयाऽनेकान्तरूपतायाः पुद्गलवदविरोधात्,अनेनैव हि न्यायेन सिद्धेष्वपि त्रैलक्षण्यं व्यवतिष्ठते, तथा द्रव्यकषायादिभेदादप्यात्मनः पुद्गलवदनेकान्तरूपता सिद्धान्तसिद्धैव॥ तथा च वाचकमुख्यः (प्रशमरति) “द्रव्यं कषाययोगा–वुपयोगी ज्ञानदर्शने चैव॥ चारित्रं वीर्यं चेत्य–ष्टविधा मार्गणा तस्य॥१९९॥जीवाजीवानां द्र–व्यात्मा सकषायिणां कषायात्मा॥योगः सयोगिनां पुन–रुपयोगः सर्वजीवानाम्॥२००॥ज्ञानं सम्यग्दृष्टे–दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम्॥ चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम्॥२०१॥ द्रव्यात्मेत्युपचारः, सर्वद्रव्येषु नयविशेषेण॥आत्मादेशादात्मा, भवत्यनात्मा परादेशात्॥२०२॥ एवं
संयोगाल्पब–हुत्वाद्यैर्नैकशः स परिमृग्यः॥ जीवस्यैतत्सर्वं स्वतत्त्वमिह लक्षणैर्दृष्टम्॥२०३॥” इति॥ प्रकारान्तरेणाप्यात्मनो- ऽनेकान्तरूपतामुपपादयति सम्मतिकारः–
“कोवं उप्पायन्तो, पुरिसो जीव
स्यकारओ होइ॥ तत्तो विभइव्वो, परंमि सयमेव मइयव्वो॥३-७॥” कोपं कोपपरिणतिम्, उत्पादयन् पुरुषः, जीवस्य परभवप्रादुर्भावपरिणतिविशिष्टस्य, कारको निर्वर्तको भवति, तन्निमित्तिकर्मण उपादानात्, कोपपरिणाममापद्यमानश्च पुरुषः, ततः परभवजीवाद्, विभजनीयो भिन्नो व्यवस्थापनीयः, कार्यकारणयोर्मृत्पिण्डघटवत्कथञ्चिद्भेदान्, अन्यथा कार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात्। ‘वीतरागजन्मादर्शन’ न्यायेनैकत्वेन सिद्धस्य जीवस्य कथं भवभेदेन भेद इति चेत्?, मृद्द्रव्यतयैकत्वेन सिद्धस्य मृत्पिण्डघटभावाभ्यामपि कथं भेदो, न हि मृत्पिण्डघटभावाभ्यां मृद इव देवमनुजभावाभ्यां जीवस्य वैलक्षण्यमप्रामाणिकमिति विभावनीयम्। न चासौ ततो भिन्न एव, यतः, परस्मिन्भवे, स्वयमेव पुरुषो, भजनीय आत्मरूपतयाऽभेदेन व्यवस्थापनीयो,घटाद्याकारपरिणतमृद्द्रव्यवदित्यनेकान्तः॥यद्वा कोपपरिणतिमन्यस्मिन् जीवे उत्पादयन् पुरुषः कारको भवति, ततोऽसौकोपकारकत्वेन विभजनीयः कोपपरिणतियोग्ये जीवे कारकोऽन्यत्राकारक इति॥ अथ द्रव्यगुणानां भेदाऽभेदानेकान्तममृष्यमाणानां मनमुत्थापयति—“रूवरसगंधफासा, असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा॥तम्हा दव्वाणुगया, गुणत्ति ने केइ इच्छंति॥३८॥“रूपरसगन्धस्पर्शा असमानग्रहणलक्षणा यस्मात्ततो द्रव्याश्रिता गुणास्तद्भिन्ना एवेति केचन वैशेषिकाद्याः स्वयृथ्या वा सिद्धान्ताऽनभिज्ञा अभ्युपगच्छन्ति। तथा हि गुणा द्रव्याद्भिन्ना भिन्नप्रमाणग्राह्यत्वाद्भिन्नलक्षणत्वाच्च, स्तम्भात्कुम्भवत्। न चासिद्धौ हेतू, द्रव्यस्य ‘यमहमद्राक्षं तमेव स्पृशामि’ इत्यनुसन्धानाध्य(द्द्व्य)- क्षग्राह्यत्वाद्, रूपादीनां च प्रतिनियतेन्द्रियप्रभवप्र-
त्ययावसेयत्वाद्, ‘दार्शनं स्पार्शनं च द्रव्यम्’ इत्याद्यभिधानादसमानग्रहणता द्रव्यगुणयोः सिद्धा। तथा विभिन्नलक्षणत्वमपि “क्रियावद्गुणवत्समवायिकारणं वा द्रव्यम्” “द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा” इत्यादिवचनात्सिद्धम। **एतन्मतं परिजिहीर्षुराह—“दूरे ता अण्णत्तं, गुणमद्दे चेवताव पारिच्छं। किं पञ्जवाहिए होञ्ज, पञ्जवे वा वि गुणसण्णा॥३-९॥”**दूरे तावद् गुणगुणिनोरेकान्तेनान्यत्वं, असम्भावनीयमिति यावत्, गुणात्मकद्रव्यप्रत्ययबाधितत्वादेकान्तेन गुणगुणिभेदस्य। न च समवायनिमित्तोऽयमभेदप्रत्ययः तत्र प्रमाणाभावात् न चैकत्वप्रत्ययस्य प्रागुक्तानुमानबाधा, एकत्वप्रत्ययाध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वेनैकशाखा- प्रभवत्वानुमानस्येव तस्य कालात्ययापदिष्टत्वात् ततो गुणगुणिनोरेकान्तान्यत्वस्यासम्भवाद्, गुणशब्द एवं तावत्पारीक्ष्यमस्ति किं पर्यायादधिके गुणसंज्ञा गुणशब्दः प्रवर्तते किं वा पर्याय एव भवेत्, पर्यायानन्यत्वे कथञ्चिद्द्रव्यात्मकत्वमेवेत्यभिप्रायः। यदि च पर्यायादन्यो गुणः स्यात्तदा पर्यायार्थिकवद् गुणार्थोऽपि नयः स्यादित्य **निष्टापत्तिमाह—“दो उ गया भगवया, दव्वट्ठियपञ्जवट्ठिया नियया॥ एत्तो य गुणविसेसे, गुणट्ठियणओ वि जुञ्जंतो॥३-१०॥”**द्वावेव मूलनयौ, भगवताद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिको नियमितावितःपर्यायादधिके, गुणविशेषे ग्राह्ये सति, त
द्ग्राहको गुणास्तिकनयोऽपि नियमि(मयि)तुं, युज्यमानकः स्याद्, अन्यथाऽव्यापकत्वं नयानां भवेत्॥ न च भगवताऽसावुक्त इत्याह—“जं च पुण अरहया, तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं॥पञ्जवसण्णा णियया, वागरिया तेण पञ्जाया॥३-११॥
यत् पुनर्भगवता तस्मिँस्तस्मिन्सूत्रे ‘वण्णपञ्जवेहिं’ इत्यादिना, पर्यायसंज्ञा नियमिता वर्णादिषु गौतमादिभ्यो व्याकृता, ततः पर्याया एव वर्णादयो न गुणा इत्यभिप्रायः॥अथ तत्र गुण एव पर्यायशब्देनोक्तः किं न स्यादित्या-
दिशङ्कायामाह—“परिगमणं पञ्जाओ, अणेगकरणं गुणत्ति तुल्लत्था॥ तहवि ण गुणत्ति भण्णइ, पञ्जवणयदेसणा जम्हा॥३-१२॥ परि समन्तात्सहभाविभिः क्रमभाविभिश्च भेदैर्वस्तुनः परिणतस्य गमनं परिच्छेदो यः स पर्यायो, विषयविषयिणोरभेदादनेकरूपतया वस्तुनः करणं ‘करोतेर्ज्ञानार्थत्वात्’ ज्ञानं, विषयविषयिणोरभेदादेव गुणो ‘गुण्यते पृथक्क्रियतेऽनेन’ इति धात्वर्थानुसाराद्, इति व्युत्पत्तिनिमित्तमपेक्ष्य, तुल्यौ(ल्यार्थौ) गुणपर्यायशब्दौ तथापि गुणा इति पर्याया न भण्यन्ते, पर्यायविशेषवाचकस्य गुणशब्दस्य पर्यायसामान्योक्तावप्रवृत्तेः न च गुणशब्दस्य पर्यायसामान्य एव शक्तिः कल्पनीया, यस्मात् पर्यायनयद्वारेणैव भगवता देशना कृता, न तु गुणार्थिकनयद्वारा, अतो व्युत्पत्तिनिमित्ततौल्येऽपि गुणपर्यायशब्दयोः सामान्यविशेषभावापन्नप्रवृत्तिनिमित्तभेदान्न पर्यायत्वमिति। ननु पर्यायशब्दः क्रमभाविधर्मवाचक एव, गुणशब्दश्चसहभाविधर्मवाचक एव, तथा च गुणाः पर्यायेभ्योऽतिरिच्यन्ते पर्यायातिरिक्तगुणाभिधानान्यथानुपपत्त्याच गुणार्थिकनयोऽपि भगवताऽर्थादुपदिष्ट एवेत्याशङ्कते—“जंपंति अत्थिसमए, एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो॥ रूवाइयपरिणामो, भण्णइ तम्हा गुणविसेसो॥३-१३॥” जल्पन्ति द्रव्यगुणान्यत्ववादिनो, अस्ति विद्यत एव सिद्धान्ते ‘एगगुणकालए दुगुणकालए’ इत्यादिः रूपादौ व्यपदेशः, तस्माद्रूपादिपरिणामो गुणविशेष एवेत्यस्ति गुणार्थिकोऽपि नय उपदिष्टश्च भगवतेति। अत्राह सिद्धान्तवादी—“गुणसद्दमन्तरेणा–वि तं तु पञ्जवविसेससंखाणं॥सिज्झइ णवरं संखा–णमत्थधम्मो न उ गुणोति॥३- १४॥” तत्तु प्रागुक्तं वचनं, गुणशब्दमन्तरेणापि रूपाद्यभिधायकगुणशब्दं विनापि, पर्यायविशेषसंख्यानं पर्याय विशेषसंख्यावाचकं, सिध्यति, न त्वतिरिक्तगुणगुणार्थिकनयप्रतिपादनपरं तत्र गुणशब्दस्यैतावताऽधिको न्यूनो वा भाव इति
गणितशास्त्रधर्मवचनत्वादिति भावः। दृष्टान्तद्वारेणामुमर्थं दृढीकर्तुमाह—“जह दससु दसगुणंमि य, एगंमि दसत्तणं समं चैव॥अहियंमि वि गुणसद्दे, तहेव एयं पि दट्ठवं॥३-१५॥ यथा दशसु द्रव्येषु, एकस्मिन् वा द्रव्ये दशगुणिते गुणशब्दातिरेकेऽपि, दशत्वं सममेव तथैर्वैतदपि न भिद्यते परमाणुरेकगुणकृष्णादिरित्येकादिशब्दाधिकगुणशब्देनापि तदधिकार्थाप्रतिपादनादिति द्रष्टव्यम्। न चैवं गुणानां पर्यायानतिरेके वाचकचक्रवर्निसृत्रं “गुणपर्यायवद्द्रव्यं” इति विरुध्यते, युगपदयुगपद्भाविपर्यायविशेषप्रतिपादनार्थत्वात्तस्य, सहभाविधर्मवाचकगुणशब्दसमभिव्याहृतस्य पर्यायशब्दस्य धर्ममात्रवाचकस्यापि ‘गोबलीवर्द’न्यायेन तदतिरिक्तधर्मप्रतिपादकत्वे दोषाभावात् न हि काल्पनिको गुणपर्याययोर्भेदो वास्तवं तदभेदं विरुणद्धि, कल्पनाबीजं च तत्र तत्र प्रदेशे व्युत्पत्तिविशेषाधानमेव॥अत एव—गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा॥लक्खणं पञ्जवाणं तु, उभओअस्सिया भवे॥६॥इत्याद्युत्तराध्ययन(अ०२८) वचनं ‘दव्वनामे गुणनामे पञ्जवणामे’ इत्याद्यनुयोगद्वारवचनं च शिष्यव्युत्पत्तिविशेषाय काल्पनिकगुणपर्यायभेदाभिधानपरमेव, स्वाभाविकतद्भेदाभिधानपरत्वे तु गुणार्थिकन्यप्रसङ्गात्। न च—‘नाणदंसणट्ठयाए दुवे अहं’ इत्याद्यागम एव गुणार्थिकप्रतिपादक इति शङ्काशेषो(लेशो)ऽपि विधेयः, अनेकीकरणस्य पर्यायार्थगोचरत्वादस्येति दिक्। इत्थं च यद्दिगम्बरैः परिभाष्यते “गुण्यन्ते पृथक्क्रियन्ते द्रव्यं द्रव्या(न्तरा)द्यैस्ते गुणाः, तेषु चास्तित्वं १ वस्तुत्वं २ द्रव्यत्वं ३ प्रमेयत्वं ४ अगुरुलघुत्वं ५ प्रदेशत्वं ६ चेतनत्वं ७ अचेतनत्वं ८ मूर्तत्वं ९ अमूर्तत्वं १० चेति द्रव्याणां दश सामान्यगुणाः। प्रत्येकमष्टावष्टौ सर्वेषाम्॥
ज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्पर्श- रसगन्धवर्णगतिहेतुत्वस्थितिहेतुत्वाऽवगाहनाहेतुत्ववर्तनाहेतुत्वचेतनत्वाऽचेतनत्वमूर्तत्वाऽमूर्तत्वलक्षणाः षोडश विशेषगुणाः। प्र-
त्येकं जीवपुद्गलयोः षट् षट्, इतरेषां च प्रत्येकं त्रयस्त्रयो गुणा, अन्तस्थाश्चत्वारः स्वजात्यपेक्षया सामान्यगुणा विजात्यपेक्षया विशेषगुणाः, तत्रास्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वं १॥वस्तुनो भावो वस्तुत्वं सामान्यविशेषरूपत्वं २॥ द्रव्यस्य भावो द्रव्यत्वं, निजनिजप्रदेशसमूहैरखण्डवृत्त्यास्वभावविभावगुणपर्यायान्द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवदिति द्रव्यं ३॥प्रमेयस्य भावः प्रमेयत्वं, प्रमाणेन परिच्छेद्यं रूपं प्रमेयं ४॥गुरुलाघवाभावोऽगुरुलघुत्वं, सूक्ष्मा अवाग्गोचराः प्रतिक्षणं विवर्तमाना आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः ५॥“सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते॥ आज्ञासिद्धं हि तद् ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिनाः॥१॥”प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं अविभागिषुद्गलपरमाणुनावष्टब्धत्वम् ६॥चेतनस्य भावश्चेतनत्वं, चैतन्यमनुभवनम् ७॥श्लोकः–“चैतन्यमनुभूतिः स्या–त्मा क्रियारूपमेव च॥ क्रिया मनोवचःकायै-रन्विता वर्तते ध्रूवम्१॥” अचेतनस्य भावोऽचेतनत्वम्, अचैतन्यमननुभवनं ८॥मूर्तस्य भावो मूर्तत्वंरूपादिसन्निवेशः ९॥ अमूर्तस्य भावोऽमूर्तत्वं रूपादिरहितत्वम् १०॥ज्ञानादयः प्रतीताः॥स्वस्य भावाः स्वभावास्ते चैकविंशतिः, तत्र अस्तिस्वभावो नास्तिस्वभावो नित्यस्वभावोऽनित्यस्वभाव एकस्वभावोऽनेकस्वभावः भेदस्वभावोऽभेदस्वभावः भव्यस्वभावोऽभव्यस्वभावः परमस्वभाव इति द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावाः, ‘चेतनस्वभावोऽचेतनस्वभावः मूर्तस्वभावोऽमूर्तस्वभावः एकप्रदेशस्वभावोऽनेकप्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः शुद्धस्वभावोऽशुद्धस्वभाव उपचरितस्वभावः इत्येते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः, एते**जीवपुद्गलयोरेकविंशतिः॥**चेतनस्वभावमूर्तस्वभावविभावस्वभावाऽशुद्धस्वभावैकप्रदेशस्वभावान्विना धर्मादित्रयस्य षोडश॥बहुप्रदेशं विना कालस्य पञ्चदश॥श्लोकः—“एकविंशतिभावाः स्यु–र्जीवषुद्गलयोर्मताः॥ धर्मादीनां षोडश स्युः, काले
पञ्चदश स्मृताः॥१॥” स्वभावलाभादच्युतत्वादस्तिस्वभावः १॥ पररूपेणाभावान्नास्तिस्वभावः २॥ निजनिजनानापर्यायेषु तदेवेदं द्रव्यमिति प्रतीतेर्नित्यस्वभावः ३॥ तस्याप्यनेकपर्यायपरिणामित्वादनित्यस्वभावः ४॥ स्वभावानामेकाधारत्वादेकस्वभावः ५॥ एकस्याप्यनेकस्वभावोपलम्भादनेकस्वभावः ६॥ गुणगुण्यादिसंज्ञादिभेदाद्भेदस्वभावः ७॥ गुणगुण्याद्येकस्वभावादभेदस्वभावः ८॥ भाविकाले पररूपाकारभवनाद्भव्यस्वभावः ९॥ कालत्रयेऽपि पररूपाकाराभवनादभव्यस्वभावः १०॥उक्तं च—“अण्णोण्णंपविसंता, दिंता ओगासमण्णमण्णस्स॥ मेलन्ता वि य णिच्चं, सगसगभावं ण विजर्हति॥१॥” पारिणामिकभावप्रधानत्वेन परमस्वभावः ११॥ चेतनस्वभावादिचतुष्टयं ४ गुणपाठमध्य एव व्याख्यातम् १५॥ एकप्रदेशस्वभावोऽखण्डवृत्त्याऽवस्थितिः१६॥ अनेकप्रदेशस्वभावः सखण्डवृत्त्यावस्थानम् १७॥ स्वभावादन्यथाभवनं विभावः १८॥ शुद्धस्वभावोऽन्यामिश्रणेन केवलस्वभावः १९॥ अशुद्धस्तद्विपरीतः २०॥ स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचारादुपचरितस्वभावः २१॥ स द्वेधा कर्मजस्वाभाविकभेदात्, आद्यो यथा—जीवस्य मूर्तत्वमचेतनत्वं च द्वितीयो यथा—सिद्धात्मनां परज्ञता परदर्शकत्वं च॥ एवमितरेषां द्रव्याणामुपचारो यथासम्भवं ज्ञेयः॥एते स्वभावा अनेकान्तवाद एवं घटन्ते, एकान्तस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तथाहि, सर्वथैकान्तेन सद्रूपस्य न नियतार्थव्यवस्था, सङ्करादिदोषप्रसङ्गात् १, एकान्तेनासद्रूपस्याऽपि न नियतार्थव्यवस्था, सकलशून्यतापत्तेः २, सर्वथा नित्यत्वेऽप्येकरूपस्य नानाविधार्थक्रियाकारित्वाभावस्तदभावे द्रव्यस्याप्यभावः ३, सर्वथाऽनित्यपक्षेऽपि निरन्वयत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावस्तदभावे द्रव्यस्याप्यभावः ४, एकान्तेनैकस्वरूपत्वे विशेषाभावस्तदभावे सामान्यस्याप्यभावः ५।यतः–“निर्विशेषं हि सामान्यं,भवेत्स्वरविषाणवत्॥ सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि॥१॥” एकान्तेनानेक-
स्वभावपक्षेऽपि द्रव्याभावो निराधारत्वाद् ६, भेदैकान्तपक्षेऽपि विशेषस्वभावानां निराधारत्वादर्थक्रियाकारित्वाभावस्तदभावे द्रव्यस्याप्यभावः ७, अभेदैकान्तपक्षेऽपि सर्वेषामेकत्वं, तथा च प्रतिनियतार्थक्रियाकारित्वाभावस्तदभावे द्रव्यस्याप्यभावः ८, एकान्तेन भव्यस्वभावाभ्युपगमे द्रव्यस्य द्रव्यान्तरत्वप्रसङ्गात्सङ्करव्यतिकरविरोधवैयधिकरण्यानवस्थासंशयाप्रतिपत्त्यभावदोषानुषङ्गः ९॥सर्वथाऽभव्यस्वभावाभ्युपगमेऽपि शून्यताप्रमङ्गः १०, स्वभावैकान्ते संसाराभावः, विभावैकान्ते मोक्षाभावः ११, सर्वथा चैतन्यस्वभावाभ्युपगमे सर्वेषामात्मनां शुद्धज्ञानंचैतन्यावाप्तिप्रसङ्गेन ध्यानध्येयज्ञानज्ञेयगुरुशिष्याद्यभावः १२, अचैतन्येकान्तेऽपि सकलचैतन्योच्छेदाञ्जडत्वापत्तिः १३, एकान्तेन मूर्तस्वभावाभ्युपगमे आत्मनो न मोक्षावाप्तिः १४, अमूर्तैकान्नेऽपि संसारविलोपापत्तिः १५, एकप्रदेशस्यैकान्तेनाखण्डपरिपूर्णस्यात्मनोऽनेककार्यकारित्वहानिः १६, सर्वथाऽनेकप्रदेशत्वेऽपि तस्य नार्थक्रियाकारित्वं स्वस्वभावशून्यताप्रसङ्गात्१७, शुद्धैकान्तस्वभावे चात्मनो न कर्ममलकलङ्कावलेपः, सर्वथा निरञ्जनत्वात् १८, अशुद्धैकान्तस्वभावेऽप्यात्मनो न कदाचिदपि शुद्धस्वभावप्रसङ्गः स्यात्, तन्मयत्वात् १९, उपचरितैकान्तपक्षेपि नात्मज्ञता सम्भवति, नियमितपक्षत्वात् २०, तथात्मनोऽनुपचरितैकान्तपक्षेपि परज्ञाना(ज्ञता)दीनां विरोधः स्यात् २१॥ अत्र नयोपनययोजना कर्तव्येतितद्भेदा उच्यन्ते, द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिको नैगमाद्याश्च सप्तेति नव नयाः, नयानां समीपे उपनयास्ते त्रयः, सद्भूतव्यवहारोऽसद्भूतव्यवहार उपचरितासद्भूतव्यवहारचेति, तत्र द्रव्यार्थिको दशधा, आद्यः कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिकः, यथा संमारिजीवः सिद्धसदृशशुद्धात्मा १॥ द्वितीय उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकः शुद्धद्रव्यार्थिको, यथा द्रव्यं नित्यं २॥ तृतीयो भेदकल्पनानिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिको, यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद्द्रव्यमभिन्नं ३॥चतुर्थः कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्या-
र्थिको, यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा ४॥ पञ्चम उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको, यथैकस्मिन् समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं५॥ षष्ठो भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको, यथात्मनो दर्शनज्ञानादयो गुणाः ६॥सप्तमोऽन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको, यथा गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यं ७॥ अष्टमः स्वद्रव्यादिग्राहको द्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यस्ति ८॥नवमः परद्रव्यादिग्राहको द्रव्यार्थिको, यथा परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति ९॥ परमस्वभावग्राहको द्रव्यार्थिको दशमो, यथा ज्ञानस्वरूप आत्मा, अत्रानेकस्वभावानां मध्ये ज्ञानाख्यः परमस्वभावो गृहीतः १०॥ इति द्रव्यार्थिक भेदाः॥१०॥
**अथ पर्यायार्थिकस्य षड् भेदाः॥**आद्योऽनादिनित्यपर्यायार्थिकः, यथा पुलपर्यायो मेर्वादिर्नित्यः १ ॥११॥ द्वितीयः सादिनित्यपर्यायार्थिकः, यथा सिद्धपर्यायो नित्यः २॥१२॥तृतीयः सत्तागौणत्वेनोत्पादव्ययग्राहकोऽनित्यशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा समयं समयं प्रति पर्याया विनाशिनः ३ ॥१३॥चतुर्थः सत्तासापेक्षोनित्याशुद्धपर्यायार्थिकः, यथैकस्मिन् समये त्रयात्मकः पर्यायः ४॥१४॥ पञ्चमः कर्मोपाधिनिरपेक्षो नित्यशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा संसारी सिद्धसदृक् शुद्धात्मा ५॥१५॥षष्ठः कर्मोपाधिसापेक्षो नित्याशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा संसारिणामुत्पत्तिमरणे स्तः ६॥ इति॥१६॥ नैगमस्त्रेधा, भूतभाविवर्तमानकालभेदात्, अतीतेवर्तमानारोपणं यत्र स भूतनैगमः, यथाऽद्य दीपोत्सवपर्वणि वर्धमानस्वामिनो मोक्षं गताः १ ॥१७॥ भाविनि भूतवत्कथनं यत्र स भाविनैगमः यथार्हन्सिद्ध एव २ ॥१८॥ कर्तुमारब्धमीपन्निष्पन्नमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमः, यथा ओदनः पच्यते ३॥ इति ॥१९॥ सङ्ग्रहो द्विविधः, सामान्यविशेषभेदात्, आद्यो यथा द्रव्याणि सर्वाण्यविरोधीनि १ ॥२०॥द्वितीयो यथा सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः २॥ इति ॥२१॥ व्यवहारोप्येतद्भेदको द्विविधः, आद्यो
यथा जीवाजीवाः॥२२॥ द्वितीयो यथा जीवाः संसारिणो मुक्ताश्च॥२३॥ इति॥ ऋजुसूत्रः स्थूलसूक्ष्म मेदाद् द्विधा, आद्यो यथा मनुष्यादिपर्यायास्तदायुः प्रमाणकालं तिष्ठन्ति॥२४॥ द्वितीयो यथा एकसमयावस्थायी पर्यायः॥२५॥ इति शब्दादयस्त्रयः प्रत्येकमेकैकभेदाः॥२६-२७-२८॥इति सर्वेऽप्यष्टाविंशतिनिर्नय भेदाः॥
उपनयेषु एकवस्तु भेदविषयः मद्भूतव्यवहारः, स च शुद्धाशुद्धभेदाद्विविधः, आद्यः शुद्धगुणगुणिशुद्ध पर्याय पर्यायभेदकथनं, यथा केवलज्ञानादयो जीवस्य। द्वितीयोऽशुद्धगुणगुण्यादिभेदकथनं यथा मतिज्ञानादयो जीवस्य॥ असद्भूतव्यवहार उपचरितस्य पृथकथनादनुपचरितो गृह्यने, स च संश्लेषसहितवस्तु सम्बन्धविषयः स्वजातिविजात्युभयविषयभेदेन त्रिविधः, आद्यो यथा परमाणुबहुप्रदेशीति कथनं॥ द्वितीयो यथा मूर्त्तंमतिज्ञानं यतो मूर्त्तद्रव्येण जनितम्॥ तृतीयो यथा ज्ञेये जीवेऽजीवे च ज्ञानमिति कथनं, तस्योभयनिष्ठत्वात्॥ असद्भूतव्यवहार एवोपचारस्तत उपचारानन्तरं य उपचारः क्रियते स संश्लेषरहितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरिता सद्भूतव्यवहारः, सोऽपि स्वजातिविजात्युभयविषयभेदेन त्रिविधः, आद्यो यथा पुत्रदारादि मम। द्वितीयो यथा वस्त्राऽऽभरण हेमरजतादि मम। तृतीयो यथा दुर्गदेशगज्यादि मम॥
एते नयोपनयभेदा यथासम्भवं स्वभावेषु योज्यन्ते, स्वद्रव्यादिग्राहकेणास्तिस्वभावः १, परद्रव्यादिग्राहकेण नास्तिस्वभावः २, उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहकेण नित्यस्वभावः ३, केनचित्पर्यायार्थिकेणानित्यस्वभावः ४, भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभावः ५, अन्वयद्रव्यार्थिकेनैकस्याप्यनेकद्रव्यस्वभावत्वं ६, सद्भूतव्यवहारेण गुणगुण्यादिभिर्भेदस्वभावः ७, भेदकल्पनानिरपेक्षेण गुणगुण्यादिभिरभेदस्वभावः ८, परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभावाः ९-१०-११, शुद्धाशुद्धपरमभा-.
वग्राहकेण चेतनस्वभावो जीवस्य असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभावः १२, परमभावग्राहकेण कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभावः, जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाऽचेतनस्वभावः १३, परमभावग्राहकेण कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभावः, जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्तस्वभावः १४, परमभावग्राहकेण पुद्गलं विहायेतरेषाममूर्तस्वभावः, पुद्गलस्योपचारादपि नास्त्यमूर्तत्वं, मुख्यार्थाबाधे सति तथाव्यवहाराभावात्, एवं सति पुद्गलस्यैकविंशतितमो भावो न लभ्येतेति पुद्गलाणोः परोक्षप्रमाणा- पेक्षयाऽसद्भूतव्यवहारेणोपचारेणामूर्तत्वं स्वीकर्तव्यं १५, परमभावग्राहकेण कालपुद्गलाणूनामेकप्रदेशस्वभावत्वं, भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां च धर्माधर्माकाशजीवानामखण्डत्वादेकप्रदेशत्वं १६, भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वं पुद्गलाणोरुपचारतो नानाप्रदेशत्वं न च कालाणोः स्निग्धरुक्षत्वाभावात्। अरूक्षत्वाच्चाणोरमूर्तकालस्य चैकविंशतितमो भावो न स्यात्, परोक्षप्रमाणापेक्षयासद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं १७। पुद्गलस्य शुद्धाशुद्धद्रव्यार्थिकेन विभावस्वभावत्वं १८, शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभावः१९, अशुद्धद्रव्यार्थिकेनाशुद्धस्वभावः २०, उपचरितस्वभावश्चासद्भूतव्यवहारेणेति २१॥
गुणविकाराः पर्यायाः, ते द्वेधा स्वभावविभावभेदात् स्वभावपर्यायाः षड् वृद्धिरूपाः षट् च हानिरूपा इति द्वादश॥ विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्याया जीवस्य नरनारकादयः १, स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाश्चरमशरीरात् किञ्चिन्न्यूनसिद्धपर्यायाः २, विभावगुणव्यञ्जनपर्याया मत्यादयः ३, स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याया अनन्तचतुष्टयरूपा जीवस्य ४, पुद्गलस्य तु द्व्यणुकादयो विभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः ५, रसरसान्तरगन्धगन्धान्तरादयो विभावगुणव्यञ्जनपर्यायाः ६, अविभागिपुद्गलपरमाणवः स्वभावद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः ७, वर्णगन्धरसैकैकाविरुद्धस्पर्शद्वयं च स्वभावगुणव्यञ्जन पर्याया ८॥इति॥[अनाद्यनिधने
द्रव्ये, स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम्॥ उन्मञ्जन्ति निमञ्जन्ति, जल(कूल)कल्लोल वञ्जले॥१॥ धर्माधर्मनमःकाला, अर्थपर्यायगोचराः॥ व्यञ्जनेन तु सम्बद्धौ द्वावन्यौ जीवपुद्गलौ॥२॥” इति पर्यायाधिकारः॥’’] इति। तदेतत्स्वकपोलकल्पनामात्रं वातूलतरलार्कतूलतुल्यं, गुणानामेव पर्यायानतिरेके गुणस्वभावभेदकल्पनायां प्रमाणाभावात्, सहभावित्वक्रमभावित्वभेदविवक्षया गुणपर्यायभेदोक्तिसम्भवेऽपि सहभाविनामपि धर्माणामानन्त्यात् यथोक्तेयत्ताक्षतेः, द्रव्यव्यवस्थाहेतोश्चोपयोगादिगुणानां यथासूत्रं प्रत्येकमेव ग्रहणौचित्यात्, स्थूलव्यवहारेण यथोक्तसङ्ख्यग्रहणेऽपि प्रमेयत्ववदभिधेयत्वादेरपि त्यागे बीजाभावात्। किञ्च द्रव्यत्वं यदि गुणः, पर्यायत्वं कुतो न गुणो, द्वयोस्तुल्याश्रयत्वात्एवं सामान्यत्वविशेषत्वादावपि पर्यनुयोगो विधेयः। वस्तुत्वकुक्षावेव सामान्यविशेषप्रवेशान्न तदाधिक्यमिति चेत् वस्तुत्वं यथा सामान्यविशेषात्मकत्वं तथा द्रव्यपर्यायात्मकत्वमपि किं न स्यात्, जात्यन्तरात्मके हि वस्तुनि प्रामाणिकसर्वधर्मात्मकत्वं सुवचमेव॥ किञ्चस्वभावा अपि गुणपर्यायातिरिक्ताः के नाम, ये पृथगुद्दिष्टाः, धर्मापेक्षया स्वभावा गुणा न भवन्तीति ते पृथगुद्दिष्टा इति चेत्, तत्किंविध्येकनियमितस्वभावा धर्मा गुणा विधिप्रतिषेधान्यतरनियन्त्रितधर्माः स्वभावा इति भवतोऽभिप्रायः, ओमिति चेत्, तर्हि चैतन्याचैतन्यमूर्तत्वाऽमूर्तत्वादीनां कथं गुणमध्ये परिगणनयापि स्वभावनययोजनिकाभिहिता, सापि न सर्वा सिद्धान्तानुपानिनी, अन्वयद्रव्यार्थिकेनानेकस्वभावत्वयोजनस्याघटमानत्वात् प्रतीत्यसमुत्पादसमुत्पन्नानेकधर्मस्वभावत्वस्य पर्यायार्थिकेनैव ग्रहणात्, तन्मत एव क्रमिकनानाधर्मग्राहिप्रत्यक्षानन्तरं तेष्वनेकत्वविकल्पोत्पादेन तथाव्यपदेशसम्भवात्, धर्मिण एकत्वप्रतीत्यर्थं तत्रान्वयद्रव्यार्थिकोऽपेक्षणीय इति चेत्, न, पत्रस्य नीलता तैलस्य धारेत्यादाविवधर्मिण एकत्वम्याप्यौपचारिकस्य पर्यायार्थि-
केनाश्रयणात्। एवं सति एकत्वसापेक्षानेकत्वग्राहकोऽशुद्धपर्यायार्थिकोऽप्यतिरिच्येतेति चेत्, अतिरिच्यतां नाम नास्माकमनुपपत्तिः, न हि वयं भवानिव दशमेदमेव द्रव्यार्थिकं षड्भेदमेव च पर्यायार्थिकं प्रसिद्धनयविलक्षण भेदमभ्युपगच्छामः, किन्तु यथासम्भवं यथानुभवं च शुद्धान्द्रव्यार्थिक भेदान् सङ्ग्रहे शुद्धान् पर्यायार्थिक भेदांश्चर्जुसूत्रेऽशुद्धांश्च तान् व्यवहारेऽन्तर्भावयामः, ततश्च न कमपि दोषमासादयामः। यदि चानुपचरितैकस्वभावधर्मिण्यन्वयद्रव्यार्थिकेणैवानेकस्वभावो गृह्यते इत्यभिमानः, तदाऽनुपचरितस्यैव प्राधान्यादेकस्वभाव एवायातः। तथापि आधारांशोर्ध्वता सामान्यांशभेदाद् ग्राहकग्राह्यभेद इति चेत्, तर्हि तिर्यक्सामान्यार्थिकेन ग्राहकेण ग्राह्यस्तिर्यक्सामान्यस्वभावोऽप्यधिकः कल्प्यतामिति॥“परिगमणं पञ्जाओ, अणेगकरणं गुणति तुल्लत्था॥३-१२॥” इत्यादिसम्मतिमहातर्कवचनानुसारेणानेकस्वभावत्वं पर्यायार्थिकेनैव ग्राह्यमिति प्रतिपत्तव्यमिति किमल्पीयसि क्षोदेन॥ ‘परमभावग्राहकेण कालपुद्गलाणूनामेकप्रदेशस्वभावत्वं भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां चेत्यादि’ यदुक्तं, तदपि चिन्त्यम्, भेदकल्पनानिरपेक्षशुद्धद्रव्यार्थिकेन नानाप्रदेशस्वभावस्याप्येकप्रदेशस्वभावव्यवस्थितौ ‘धर्मादीनां षोडश स्युः,’ इत्यस्य व्याघातात्, कथायामत्र नयद्वयावतारेऽपि परमार्थचिन्तायां परमभावग्राहकेणैवेकप्रदेशस्वभावग्रहणे च जीवपुद्गलयोरेकविंशतिरित्यस्य व्याघातात्, न हि जीवः कालपुद्गलाणुवत्कदाप्येकप्रदेशः सम्भवति, क्षेत्रतोऽप्यस्यासङ्ख्येयप्रदेशावगाहनस्वाभाव्यात्। अणूनामेकप्रदेशस्वभावत्वं वास्तवमेव तदतिरिक्तपुद्गलजीवानां तु सङ्कोचविकामप्रयुक्तच्छेद भेदाप्रतियोगिप्रदेशत्वलक्षणं पारिभाषिकमेव तदिति नातिप्रसङ्गः इति चेत्, तर्हि तद्ग्रहः प्रदेशार्थनयेनैव, न तु भेदकल्पन निरपेक्षेण। तथा च सोमिलप्रश्ने भगवद्वचनं “पएसट्टयाए अक्खये अहं, अव्वए अहं ति”॥कथं
च ‘भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम्’ इति वदंस्तन्निरपेक्षेणैकप्रदेशस्वभावत्वमपि नाभ्युपेयाः ९, देशप्रदेशकल्पनारहितमखण्डैकस्वभावत्वलक्षणमेकप्रदेशस्वभावत्वं च द्रव्यार्थिकेन वदते ते कृतान्तः कथं न कुप्येत्, शुद्धपर्यायार्थिकैवम्भूतनयमत एवं प्रदेशदृष्टान्ते तादृशवस्तुग्रहणस्यानुयोगद्वारादिषु व्यवस्थापनात्। अखण्डवस्तुग्राहित्वे सत्येवम्भूतस्य द्रव्यार्थिकत्वं बलादापतेदिति चेत्, तत्किं दिक्पटडिम्भ? कृतान्तेन सह योद्धुमुद्यतोऽसि?, न जानीषे सर्वतो बलवता तेन स्वप्रतिकूलवर्तिनः कस्य बलं न भग्नं, धर्मास्तिकायादिप्रदेशानां देशप्रदेशादिकल्पनाराहित्येनैकग्रहणगृहीतत्वमेव तन्मतेऽखण्डत्वं, स्वलक्षण विलक्षण घटादिपरमाणुष्विव पुञ्जत्वमिति न पर्यायार्थिकत्वभङ्गो न वा द्रव्यार्थिकत्वापत्तिरिति निःशङ्कं प्रतिपद्यस्व। एवमन्यदपि चिन्त्यमुपयुज्य चिन्तनीयम्। गुणविकाराः पर्याया इत्युद्दिश्य द्रव्यपर्यायानपि तन्मध्ये विभजता देवानांप्रियेणोद्देशविभागविरोध एव किं न ज्ञातः। न च पर्यायाणां गुणविकारत्वं सूत्रसिद्धम्, अपि तु ‘अणंतेहिं वण्णपञ्जवेहिं अणंतेहिं गंध-रस-फास-संठाणपञ्जवेहिं अणंतेहिं गुरुअलहुअपञ्जवेहिं अणतेहिं अगुरुलहुअपजवेहिं इत्यादिसूत्रपाठदर्शनाद् गुणरूपत्वमेव तेषां सिद्धनिति किमुत्सूत्रविस्पन्दितेन। किञ्चकिं नाम गुणत्रिकारत्वं, किं गुणोपादेयत्वं १, उत गुणाव्यवहितोत्तरक्षणपजायमानत्वं २, आहोस्विद्गुणजातीयत्वे सति कार्यत्वं ३, किं वोत्कर्षापकर्षशालिगुणपरिणामत्वं ४, यद्वा द्रव्यक्षेत्रादिमनि नकृतबैलक्षण्यशालिगुणपरिणामत्वं ५, नाद्यः गुणोपादेयपर्यायाप्रसिद्धेः, गुणस्य पर्यायोपादानत्वे द्रव्योच्छेदप्रसङ्गात्। द्रव्यं गुणपर्यायोभयोपादानं गुणास्तु पर्यायाणामेवोपादानानीति न द्रव्यमुच्छेत्स्यत इति चेत्, न, एकस्योभयोपादानत्वे विरोधाभावादतिरिक्तोपादानकल्पने गौरवस्यैव बाधकत्वात्, अन्यथा केवलपर्यायोपादानवत्केलगुणोपादानमपि किञ्चित्कल्पनीयं स्यात् १।
न द्वितीयः, गुणस्य द्रव्यवदविचलितैकस्वभावत्वे तदव्यवहितोत्तरक्षणाप्रसिद्धेः न च तदव्यवहितोत्तरक्षणोपजायमानत्वेन तद्विकारत्वं च वक्तुमपि शक्यं, घटाव्यवहितोत्तरक्षणोपजायमानस्य पटादेर्घटविकारत्वव्यवहारप्रसङ्गात्। न च तृतीयः, शुद्धात्मद्रव्यव्यञ्जनपर्याये शुद्धपुद्गलद्रव्यव्यञ्जनपर्याये च गुणजातीयत्वाभावात् ३। नापि तुरीयः, अनन्तचतुष्टयादिस्वभावगुण व्यञ्जनपर्यायाणां स्वरूपेणोत्कर्षापकर्षशालित्वाभावात् ४। नापि पञ्चमः, द्रव्यपरिणामे गुणपरिणामत्वायोगेन द्रव्यपर्यायासङ्ग्रहात्, गुणपदपरित्यागेनैव लक्षणकरणौचित्यात् ५॥ गुणा एव हि पर्यायाः, ते च द्रव्यस्यैवावस्थाविशेषाः, अत एव केवलज्ञानात्मकपर्यायोऽपि षष्टिवर्षायुषस्त्रिंशद्वर्षीयराज्यपर्यायसदृशः सम्मतौप्रतिपादितः तेन द्रव्यगुणपर्याययोर्जात्या भेदाभिधानमयुक्तम्। एतेन “पर्यायाश्चतुर्विधाः, समानजातीयद्रव्यपर्याया द्व्यणुकाणुकादयः १, विजातीयद्रव्यपर्यायाः मनुजादयः २, स्वभावगुणपर्यायाः केवलज्ञानादयो ३, विभावगुणपर्यायाश्च मत्यादय ४” इति प्रवचनसारवृत्तौ पर्यायविभागं कुर्वन्नमृतचन्द्रोऽप्यपास्तः, द्रव्यगुणपर्याययोर्जात्या भेदाभावात्, केवलज्ञानादिपर्यायाणां सादिनित्यानामपि भवस्थसिद्धद्रव्यावस्थाभेदेनैव वैलक्षण्यस्य त्रैलक्षण्यस्य शास्त्रे व्यवस्थापनात्। किञ्चास्मिन्विभागे विभागजपर्यायः परमाण्वादिः कुत्रान्तर्भावनीयः, न चासौ पर्यायो नास्त्येवेत्याशङ्कनीयम्, “अणु–दुअणुएहिं, दव्वे आरद्धे तिअणुयं ति ववएसो॥ तत्तो य पुण विभत्तो, अणुत्ति जाओ अणू होइ॥३-३९॥” इत्यादिग्रन्थेन सम्मतौ तद्व्यवस्थापनात्। “एगत्तं च पुहुत्तं च, संखा संठाणमेव य॥संयोगो य, विभागो य पञ्जवाणं तु लक्खणं॥१३॥” इति (उत्तराध्ययन अ०२८) पारमर्षे एकत्वपृथक्त्वादीनां पर्यायलक्षणानां व्यक्त्या परिगणितानां परमाणुपर्यायव्यवस्थापकत्वात्, अत एव धर्मास्तिका-
यादीनामप्येकत्विकोत्पादमपेक्ष्य शुद्धपर्यायाणामिव परसंयोगजपर्यायाणामशुद्धानामपि सत्त्वं ध्रुवं– “आगासाइआणं, तिष्णं परपच्चओऽणियमा॥३-३३॥” इति सम्मतिप्रतीकेऽनिवमादित्यकारप्रश्लेषेण व्याख्यानेऽस्याभिप्रायस्यैव लाभात्। इत्थञ्चाशुद्धस्वभावोऽपि धर्मादिषु स्यात्कारसंवलितः किं नोपदिश्यते?, धर्मादिषु परमंयोगज्ञाःपर्याया उपचरिता एव न त्वशुद्धा इति चेत्, आत्मनि मनुजादयः पर्याया अप्यसद्भूता एवन त्वशुद्धा इति शब्दमात्रेण किं नापलापः क्रियते?, शेषाशुद्धस्वभावकार्यस्य विभावस्वभावादेव सम्भवादिति द्रव्यपर्यायातिरिक्तगुणस्वभावप्रक्रिया देगम्बरी न विचारसहेति दिग्। ननु पर्यायातिरिक्तगुणाभावेऽपि युगपदयुगपद्भाविपर्यायविशेषप्रतिपिपादयिषया वाचकमुख्यानां “गुणपर्यायवद्द्रव्यम्” इतित ०५-३७ सूत्रप्रणयनस्ययुक्तत्वेऽपि मतुब्योगाद्द्रव्यपर्याययोर्भेदापत्तिरिति चेत्, न, नित्ययोगे मतुपो विधानात्, यथाहि एकस्यैव पुरुषस्य पितृपुत्रादिसम्बन्धविशेषेण पुत्रादिनानारूपत्वं तथैकस्यैव द्रव्यस्य चक्षूरसनादिग्राह्यतयारूपरसादिपरिणतिभेद इति न द्रव्यगुणयोरन्यत्वं, आह च महामतिः—“पिउपुत्तणत्तुभाणि–ञ्जभाऊणं एगपुरिससंबन्धो॥ण य सो एगस्स पिय–त्ति सेसवाणं पिया होइ॥३-१७॥ जह सम्बन्धविसिट्ठो, सो पुरिसोपुरिसभावणिरइसओ॥ तह दव्वमिंदियगयं, रूवाइविसेसणं लहइ॥३-१८॥” पितृपुत्रनप्तृभागिनेयभ्रातृभिर्य एकस्य पुरुषस्य सम्बन्धः तेनासावेक एव पित्रादिव्यपदेशमासादयति, न चासावेकस्य पिता पुत्रः संवृत्त इति शेषाणामपि पिता भवति, यथा प्रदर्शितसम्बन्धविशिष्टः पित्रादिव्यपदेशमाश्रित्यासौ पुरुषरूपतया निरतिशयोऽपि संस्तथा द्रव्यमपि घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्रसम्बन्धमवाप्य गन्धरसरूपस्पर्शशब्दव्यपदेशमात्रं लभते द्रव्यस्वरूपेणाविशिष्टमपि, न हि शक्रेन्द्रादिशब्द-
भेदाद्गीर्वाणनाथस्येव रूपादिशब्दभेदाद्वस्तुभेदो युक्तः, न चैवं पित्रादिवद् घटादेरपि मावधिकत्वप्रसङ्गः, पित्रादिव्यवहारस्येव रूपादिव्यवहारस्य सावधिकत्वेऽपि वस्तुनोऽतथात्वात्। न च चक्षुर्ग्राह्यताविशिष्टद्रव्यस्य रूपादित्वे ग्राह्यतायाः शक्तिरूपायाः अतीन्द्रियत्वेन रूपाद्यतीन्द्रियतापत्तिः, विशेषणाप्रत्यक्षत्वेऽपि विशेष्यविधया तत्प्रत्यक्षत्वसम्भवाच्छक्तिभेदाच्च न चाक्षुपादिज्ञानसङ्कर इति दिग्॥ नन्वेवं द्रव्याद्वैतैकान्तसिद्धेः कथञ्चिद्भेदाभेदवादो द्रव्यगुणयोरघटमानः स्यादिति चेत्, न, रूपादीनां गुणभेदेन व्यवहारोपपत्तावपि द्रव्याविशेषेऽपि तद्विशेषदर्शनेन भेदस्यापि सम्भवात्, आह च—“होञ्जाहि दुगुणमहुरं, अणंतगुणकालयं तु जं दव्वं॥ण उ डहरओ महल्लो, व होइ सम्बन्धओ पुरिसो॥३-१९॥” यदि नामाम्लादिद्रव्यमेव रसनसम्बन्धाद्रस इति व्यपदेशमात्रमासादयेत्, द्विगुणमधुरं रसनतो कुतो भवेत्, तथा नयनसम्बन्धाद्यदि नाम कृष्णमिति भवेदनन्तगुणकृष्णं तत्कुतः स्यात्, वैषम्यभेदावगतेर्नयनादिसम्बन्धमात्रादसम्भवात्, तथा पुत्रादिसम्बन्धद्वारेण पित्रादिरेव पुरुषो भवेन्न त्वल्पो महान्वेति युक्तः, विशेषप्रतिपत्तेरुपचरितत्वे मिथ्यात्वे वा सामान्यप्रतिपत्तावपि तथाप्रसक्तेरिति भावः॥अत्राहैकान्ताऽभेदवादी—“भण्णइ सम्बन्धवसा, जइ सम्बन्धित्तणं अनुमयं ते। नणु सम्बन्धविसेसे, सम्बन्धिविसेसणं सिद्धं॥३-२०॥” सम्बन्धसामान्यवशाद्यदि सम्बन्धित्वसामान्यमनुमतं तव, ननु सम्बन्धविशेषद्वारेण सम्बन्धिविशेषोऽपि किं नाभ्युपगम्यते?॥सिद्धान्तवाद्याह—”जुञ्जइ सम्बन्धवसा, सम्बन्धिविसेसणं ण उण एयं॥ नय(रस)णाइ विसेसकओ, रूवा(रसा)इविसेसपरिणामो॥३-२१॥” सम्बन्धविशेषाद् युज्यते सम्बन्धिविशेषो, यथा दण्डादिसम्बन्धविशेषजनितसम्बन्धविशेषसमासादितपुरुषादिसम्बन्धिविशेषोऽवगतः, द्रव्याद्वैतवा-
दिनस्तु न सम्बन्धिविशेषो नापि सम्बन्धविशेषः सङ्गच्छत इति कुतो रसनादिविशेषसम्बन्धजनितो रसादिविशेषपरिणामः?॥ नन्वनेकान्तवादिनोऽपि रूपरसादेरनन्तगुणद्विगुणादिवैषम्यपरिणतिः कथमुपपन्नेत्याशङ्कायामाह—“भण्णइ विसमपरिणयं (ई) कह एवं होहिइ त्ति उवणीयं॥ तं होइ परणिमित्तं, णव त्ति णत्थित्थ एगंतो॥३-२२॥” शीतोष्णस्पर्शवदेकत्रैकदा विरोधाद्भण्यते एकत्राम्रफलादौ विषमपरिणतिः कथं भवतीति परेण प्रेरिते, उपनीतं प्रदर्शितमाप्तेन–**तद्वैषम्यं भवति परनिमित्तं–**द्रव्यक्षेत्रकालभावानां सहकारिणां वैचित्र्यात्तदाम्रादिवस्तु विषमरूपतया परिणमतीति वैषम्यं परनिमित्तमित्यर्थः, न च परनिमित्तमेवेत्यत्राप्येकान्तोऽस्ति, स्वरूपस्यापि तत्र कथञ्चिन्निमित्तत्वाद्, अन्यथा द्विगुणरसादीनां देशनियमानुपपत्तेः, विरोधश्चकालभेदेन देशभेदेन वा निरसनीयः, न चैकत्रैव प्रदेशे द्विगुणरसादित्वे एकगुणरसादिद्वयसमावेशाद्विरोधः सम्भावनीयः, एकैकगुणापेक्षया द्विगुणपर्यायवतो रसस्य प्रत्येकातिरिक्तत्वेनाविरोधात्, अत एव परापेक्षया षट्स्थानपतितत्वमप्यविरुद्धं, आपेक्षिकधर्मयोर्ह्रस्वत्वदीर्घत्वयोरिव विरोधासिद्धेरिति दिग्॥ तन्न द्रव्याद्वैतैकान्तः सम्भवी॥अथ द्रव्यगुणयोर्भेदैकान्तवादिनो द्रव्यगुणलक्षणानुपपत्तिमुद्भावयन्ति– “दव्वस्स ठिई जम्मवि–गमा य गुणलक्खणं ति वत्तव्वं॥ एवं सह केवलिणो, जुञ्जइ तं णो उ दवियस्स॥३-२३॥” द्रव्यस्य लक्षणं स्थितिः, जन्मविगमौ लक्षणं गुणानामेवं सति केवलिनो युज्यत एतल्लक्षणं, तत्र किल केवलात्मना स्थित एव चेतनाचेतनरूपा अन्येऽर्था ज्ञेयभावेनोत्पद्यन्ते, अज्ञेयरूपतया च नश्यन्ति, न तु द्रव्यस्याण्ववादेर्लक्षणमिदं युज्यते, न ह्यणौ रूपादयो जायन्ते अत्यन्तभिन्नत्वाद् गव्यश्वादिवत्, अथवा केवलिनोऽपि सकलज्ञेयग्राहिणो नैतल्लक्षणं युज्यते, न चापि द्रव्यस्याचेतनस्य, गुणगुणिनोरत्यन्तभेदेऽसत्त्वापत्तेरसतोश्च खरविषाणादेरिव लक्षणासम्भवादिति
द्रव्यार्थान्तरभूतगुणवादिनः। अत्रोत्तरं—“दव्वत्थंतरभूया, मुत्तामुत्ता य (व) ते गुणा होज्जा॥जइ मुत्ता परमाणू, णत्थि अमुत्तेसु अग्गहणं॥ ३-२४॥” द्रव्यार्थान्तरभूता गुणा मूर्ता अमूर्ता वा भवेयुः, यदि मूर्ताः न तर्हि परमाणवो भवन्ति, मूर्तिमद्रूपाद्याधारत्वाद्, अनेकप्रादेशिकस्कन्धवत्, अथामूर्ताः, अग्रहणं तेषां अमूर्तत्वादाकाशवत्। ततो द्रव्यगुणयोः कथञ्चिद्भेदाभेदावभ्युपगमनीयौ, अन्यथा प्रतीतिविरोधात्, तथाहि द्रव्यगुणयोर्यथाक्रममेकानेकप्रत्ययावसेयत्वात्कथञ्चिद्भेदः प्रतीयते, कथञ्चिदभेदोऽपि रूपाद्यात्मना द्रव्यस्वरूपस्य रूपादीनां च द्रव्यात्मकतया प्रतीतेः, अन्यथा तदभावापत्तेः, एतच्च विवक्षामात्रेणोच्यतेऽन्यथा जात्यन्तरात्मके वस्तुनि भेदाभेदादन्यतरकथाया एवासम्भवात् न हि चित्रं वस्तु नीलपीताद्यन्यतरतया कथ्यते चर्च्यते वा, एकतरजिज्ञासया केवलं तथा प्रतीयत इति एतदाह—“सीममईविष्फारण–मेत्तत्थोयं कओ समुल्लावो॥इहरा कहामुहं चैव, णत्थि एवं ससमयम्मि॥३-२५॥” शिष्यबुद्धिविकासनमात्रार्थोऽयं कृतः प्रबन्धः, इतरथा कथैवैपा नास्ति स्वसिद्धान्ते, ‘किमेने गुणा गुणिनो भिन्ना आहोस्विदभिन्नाः? इति,’ अनेकान्तात्मकत्वात्सकलवस्तुनः। एवंरूपे च वस्तुतत्त्वेऽन्यथारूपं तत्प्रतिपादयन्तो मिथ्यावादिनो भवन्तीत्याह—“ण वि अत्थि अण्णवाओ, ण वि ताव्वाओ जिणोवएसम्भि॥ तं चैव य मण्णता, अत्रमण्णंता ण याणंति॥३-२६॥“नैवास्त्यन्यवादो गुणगुणिनोर्नाप्यनन्यवादो जिनोपदेशे द्वादशाङ्गे प्रवचने, सर्वत्र कथञ्चिदित्याश्रयणात्, तदेवान्यदेवेति वा मन्यमाना मननीयमेवावमन्यमाना वादिनोऽभ्युपगतविषयावज्ञाविधायित्वादज्ञा भवन्ति, अभ्युपगमनीयवस्त्वस्तित्वप्रतिपादकोपायनिमित्तापरिज्ञानान्मृषावादिवदिति तात्पर्यार्थः। ततोऽनेकान्तवाद एव व्यवस्थितः॥ ननु सर्वत्राऽनेकान्त इति नियमेऽनेकान्तेऽ
प्यनेकान्तादेकान्तप्रसक्तिरिति चेत्, अत्र वदन्ति—“भयणा वि हु भइयव्वा, जह भयणा भयइसव्वदव्वाइं।एवं भयणाणियमो वि, होइ समयाविरोहेणः॥३-२७॥” यथा भजनाऽनेकान्तो भजते–सर्ववस्तृनि तदेतत्स्वभावतया ज्ञापयति, तथा भजनाप्यनेकान्तोऽपि, भजनीया—अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इतीष्टमस्माकं इति नयप्रमाणापेक्षयैकान्तश्चानेकान्तश्चेत्येवमसौ ज्ञापनीयः, तथाहि नित्यानित्यादिशबलैकस्वरूपे वस्तुनि नित्यत्वानित्यत्वाद्येकतरधर्मावच्छेदकावच्छेदेनैकतरधर्मात्मकत्वमुभयावच्छेदेन वोभयात्मकत्वं तथा नित्यानित्यत्वादिसप्तधर्मात्मकत्वप्रतिपादकतापर्याप्त्यधिकरणेऽनेकान्तमहावाक्येऽपि सकलनयवाक्यावच्छेदेनोक्तरूपमनेकान्तात्मकत्वं प्रत्येकनयवाक्यावच्छेदेन चैकान्तात्मकत्वं न दुर्वचमिति भावः। एतदेवाह एवमुक्तरीत्या, भजनाऽनेकान्तः सम्भवति, नियमश्चैकान्तश्च समयस्य सिद्धान्तस्य—“रयणप्पभा सिय सामया सिय असासया” –इत्येवमनेकान्तप्रतिपादकस्य– “दव्वट्ठयाए सासया पञ्जवट्ठयाए असासया”—इत्येवं चैकान्ताभिधायकस्याविरोधेन। न चैवमव्यापकोऽनेकान्तवादः स्यात्पदसंसूचितानेकान्तगर्भस्यैवैकान्तस्वभावत्वादनेकान्तस्यापि स्यात्कारलाञ्छनैकान्तगर्भस्यानेकान्तस्वभावत्वात्। न चानवस्था देशकार्त्स्न्याभ्यामवयवावयविरूपस्य वस्तुन इव स्याद्वादस्याप्येकान्तानेकान्तात्मकस्यैव प्रमाणादेव प्रतीतेः, भिन्नैकान्ताऽनेकान्तावलम्बनेऽप्यस्या ज्ञप्तिविरोधित्वाभावात्स्वसामग्रीमहिम्ना तादृशस्यैवोत्पत्तेर्मिथोऽनपेक्षणादुत्पत्तिविरोधिताया अपि वक्तुमशक्यत्वात्, न चोत्पत्तिज्ञप्त्यन्यतराप्रतिबन्धिकाप्यनवस्था दूषणं, यत्तार्किकाः—“मूलक्षयकरीं प्राहु–रनवस्थां हि दूषणम्॥” इति, न चेदेवं तदा प्रमेयत्वे प्रमेयत्वाद्युपगमेऽप्यनवस्थादोषो दुर्निवारः स्यात्, यद्वा यथा नैयायिकादीनां ‘घटाभावोऽतिरिक्त एव, तदभावश्च
घट एव, तृतीयाभावश्चाद्य एव, चतुर्थश्च द्वितीय एव’ इत्यादिरीत्या नानवस्था तथाऽस्माकं अनेकान्तः १, अनेकान्तानेकान्त एकान्तः २, तदनेकान्त आद्य एव तदनेकान्तश्च द्वितीय एवेति तृतीयचतुर्थाद्यनेकान्तानामाद्यद्वितीययोरेव पर्यवसानात्काऽनवस्था नाम। एकान्तनियामकस्वपररूपयोरनवस्थानादेकान्तगर्भानेकान्तस्य परिज्ञातुमशक्यत्वाज्झप्तिप्रति- बन्धिकैवेयमनवस्थेति कश्चित् तन्न, इत्थमपि ‘गुडशुण्ठी’ न्यायेनानवच्छिन्नानेकान्ते दोषाभावात्। सावच्छिन्नानेकान्तवादेऽपि सूक्ष्मावच्छेदकजिज्ञासोपरम एवानेकान्तप्रयोगा- न्तरपरिश्रमोपरमेऽनवस्थानवकाशादिति दिग्॥ नन्वनेकान्तस्य व्यापकत्वे ‘षड् जीवनिकायास्तद्घाते चाधर्म’ इत्यत्राप्यनेकान्तः स्यादिति चेत्, अत्राहुः॥ “णियमेण सद्दहंतो, छक्काए भावओ ण सद्दहइ॥हंदी अपञ्जवेसु वि, सद्दहणा होइ अविभत्ता ॥३-२८॥” नियमेनावधारणेन षडेवैते जीवाः कायाश्चेत्येवं श्रद्दधानः ष
ट्टायान्भावतः परमार्थतो न श्रद्धत्ते जीवराश्यपेक्षया तेषामेकत्वात्कायानामपि पुद्गलतयैकत्वात्, जीवपुद्गलप्रदेशानां परस्पराऽविनिर्भागवृत्तित्वाञ्जीवप्रदेशानां स्यादजीवत्वं प्रत्येकं प्राधान्यविवक्षया स्यादनिकायत्वं, सूत्रविहितन्यायेन प्रवृत्तस्याप्रमत्तस्य न हिंसेति, तद्धातेऽपि स्यादधर्म इति न भावसम्यग्दृष्टिरसौ, द्रव्यसम्यग्दृष्टिस्तु स्यादेवान्यदर्शनासद्ग्रहनिवृत्त्या जिनवचनरुचिस्वभावस्य संक्षेपसम्यक्त्वलक्षणत्वात्, तथा च पारमर्षं (उत्तरा० अ० २८) “अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरुइत्ति होइ णायव्वो॥अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेसु॥२६॥ त्ति” ततोऽपर्यायेष्वपि न विद्यन्तेऽर्चिर्मुर्मुरादयो विवक्षितपर्याया येषु पुद्गलेषु तेष्वप्यविभक्तश्रद्धानं यत्तदपि भावत एव भवेदर्चिष्मानयं भावो भूतो भावी वेति, न हि भूतभाविपर्यायोपरक्तवाक्यं द्रव्यतः सत्यं भवति, ‘सविशेषेण’ इति न्यायाद् भूतभाविपर्यायध्वंसप्रागभावावगाहित्वात्, तत्र द्रव्यतः सत्यत्वमिति चेत्,
न, तथापि धर्मांशे द्रव्यतोऽविभक्तस्यापि धर्म्यंशे विभक्तस्य प्रत्ययस्य भावत एव सम्भवात्, तन्नात्राप्यव्यापकोऽनेकान्तवादः॥
वस्तुतो नियमेन षट् कायान् श्रद्दधद्भावतोन सम्यग्दृष्टिरित्यत्रैव हेतुरयं हन्दि यतः, अपर्यायेषु एकादिप्रकाररहितेषु षट्सु कार्येषु श्रद्धाऽविभक्ता भवतिस्याद्वादज्ञानपरिसमाप्याकाङ्क्षापरिपूर्त्याऽविश्रान्ता भवति—“एगविहदुविहतिविहा”–इत्यादिप्ररूपणयैव तद्विश्रान्तिसम्भवादित्ययमर्थोऽनुभवसम्मुखीन इति ध्येयम्। नन्वनेकान्तस्य व्यापकत्वे गच्छति तिष्ठतीत्यत्राप्यनेकान्तः स्यादिति चेत्, स्यादेवेत्याह—“गइपरिणयं गई चेवकेइ णियमेण दवियमिच्छंति॥ तं पि य उड्ढगईअं, तहा गई अण्णहा अगई॥३-२९॥” गतिक्रियापरिणतं द्रव्यं गतिमदेवेति केचिन्मन्यन्ते, तदपि गतिक्रियापरिणतं जीवद्रव्यं सर्वतो गमनायोगादृर्ध्वादिप्रतिनियतदिग्गतिकं तैर्वादिभिरभ्युपगन्तव्यं, एवं च तत्तथाप्रतिनियतदिग्गमनेन गतिमदन्यथा चाऽगतिमदेव, अन्यथापि यदि गतिमत्स्यात् तदाऽभिप्रेत-देशप्राप्तिवदनभिप्रेतदेशप्राप्तिरपि तस्य भवेदित्यनुपलभ्यमानयुगपद्विरुद्धोभयदेशप्राप्ति- प्रसक्तिरित्यत्राप्यनेकान्तो नाव्यापकः, अभिप्रेतगतिरेव तत्रानभिप्रेतागतिरिति चेत्, न, अनभिप्रेतगत्यभावाभावे प्रतिनियतगतिभावस्यैवाभावात्, तत्सद्भावे च तदवस्थोऽनेकान्तः। ननु गतिमदेवेत्येकान्तेन गतिसामान्यवति गतिसामान्याभावो निषिध्यते स च गतिविशेषाभावेन नापोद्यने, नहि विशेषाभाव एव सामान्याभाव इति कोऽयमनेकान्त इति चेत्, न, गतिसामान्यवत्यपि गतिविशेषाभावेन भावाभावोभयरूपतासमावेशादेवानेकान्तसाम्राज्यात्। न च विशेषाभावेभ्यः सामान्याभावोऽपि सर्वथातिरिक्तः, किन्तु यावद्विशेषाभावाधिकरणावच्छेदेनातिरिक्तो यत्किञ्चिद्विशेषाभावाधिकरणावच्छेदेन चानतिरिक्त इति गतिसामान्यवति विशेषरूपेण तत्सामा-
न्याभावोऽपि न दुर्लभः। गतिमति गतित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावनिषेधान्नैकान्तव्याघात इति चेत्, न, सामान्यरूपेण विशेषाभावमादायेत्थमपि वक्तुमशक्यत्वात्, गतित्वावच्छिन्नमतिसामान्यनिष्ठप्रतियोगिताकाभावेन सह गतिसामान्यविरोधकान्त एवेति चेन् न, सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्याधिकरणविशेषावच्छेदेनैव सम्भवात् तत्तदधिकरणान्तर्भावेन विरोधाविरोधयोरप्यनेकान्तस्यैव साम्राज्यात्। यदि च सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावोऽतिरिक्त एव तदा द्रव्यविशेषे रूपं न तु द्रव्यसामान्य इति प्रतीत्या सामान्यावच्छिन्नाधिकरणताकोऽप्यभावोऽतिरिक्तोऽभ्युपगन्तव्यः, तस्मादभावस्य सामान्याधिकरणकत्वस्य सामान्यप्रतियोगिकत्वस्य स्वतः सामान्यविशेषभावस्य चानेकान्तक्रोडीकृतत्वाद्भावाभावयोर्विरोधाविरोधावपि तादृशा वेवेत्यभिप्रायात्। एतेन ‘भावाभावसामान्ययोरेव विरोधकल्पनाभेदाभेदाद्यनेकान्तसमावेशोऽप्रामाणिकः’ इत्यपास्तं, विरोधस्यापि विशेषविश्रान्तत्वेन यथानुभवं गुणगुण्यादिभेदाभेदाद्य विरोधकल्पन एव लाघवादित्यधिकं मत्कृतनयरहस्ये। स्यादेतद्, दहनाद्दहनः पचनात्पचन इत्यत्राप्यनेकान्ते दहनादावदहनादिविरुद्धरूपस्य सम्भवात् स्वरूपाभावप्रसङ्गस्तत्राह—“गुणनिव्वत्तियसण्णा, एवं दहणादओ वि दट्ठव्वा॥जं तु जहापडिसिद्धं, दव्वमदव्वं तहा होइ॥३-३०॥” गुणेन दहनादिना निर्वर्तिता उत्पादिता संज्ञा येषां तेऽपि दहनपचनादयः, एवमेवानेकान्तात्मका द्रष्टव्याः, तथा हि दाहपरिणामयोग्यं तृणादिकं दहतीति दहनः, तदपरिणतिस्वभावं त्वात्माकाशाप्राप्तवज्राण्यादिकं न दहतीत्यदहनः, तेन यद्द्रव्यं यथा दहनरूपतया प्रतिषिद्धं तद्द्रव्यमदहनादिकं, तथा भजनाप्रकारेण स्याद्दहनः स्यान्नेति भवति, ततो नाव्याप्यऽनेकान्तः। तथाऽदहन इत्यत्राप्यनेकान्तः, तथाहि यदुदकद्रव्यं दह-
नरूपेण प्रतिषिद्धं दहनो न भवतीत्यवहन इति भवति तदपि न सर्वथाऽदहनद्रव्यं भवति, पृथिव्यादेरदहनरूपाद् व्यावृत्तत्वात्, अन्यथा दहनव्यतिरिक्तभूतैकत्वप्रसङ्ग इत्यनेकान्त एव, दहनव्यावृत्तस्य तदतद्रव्यत्वात्। नन्वेवं तदतद्द्रव्यत्वाञ्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं अजीवद्रव्यं च जीवद्रव्यं स्यात् इत्याशङ्कायामाह—
“कुंभो ण जीवदवियं, जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति॥तम्हा दोवि अदवियं, अण्णोण्णविसेसिया होंति १॥३-३१॥“कुम्भो जीवद्रव्यं न भवति, जीवोऽपि न भवति घट द्रव्यं तस्माद्द्वावप्यद्रव्यमन्योन्यविशेषितौ परस्पराभावात्मकौ, यतोऽयमभिप्रायः जीवद्रव्यं कुम्भादेरजीवद्रव्याद्, व्यावृत्तमव्यावृत्तं वा, प्रथमपक्षे स्वरूपापेक्षया जीवो जीवद्रव्यं कुम्भाद्यजीवद्रव्यापेक्षया तु न जीवद्रव्य मित्युभयरूपत्वादनेकान्त एव। द्वितीयविकल्पे तु सर्वस्य सर्वात्मकत्वापत्तेः, प्रतिनियतरूपाभावतस्तयोरभावः खरविपाणवत्, ततः सर्वमनेकान्तात्मकम्, अन्यथा प्रतिनियतरूपतानुपपत्तेरिति व्यवस्थितम् “अनेकान्तव्यवस्थितिश्रद्धैव भावतः सम्यक्त्वम्”, तद्विकलानामुत्कृष्टचारिवानुष्ठानस्यापि तथाविधफलाभावात्, तदुक्तं वादिगजकेसरिणा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेण—“चरणकरणफप्पहाणा, ससमयपरसमयमुक्कवावारा॥चरणकरणस्स सारं, णिच्छयसुद्धं ण याणंति॥३-६७॥” चरणं श्रमणधर्मः “वयसमणधम्मसंजम–वेयावच्चंच बंभगुत्तीओ॥नाणाइतियं तवकोहणिग्गहाई चरणमेयं॥१॥ इति वचनात्। व्रतानि हिंसाविरमणादीनि पञ्च, श्रमणधर्मः क्षान्त्यादिर्दशधा, संयमः पञ्चाश्रवविरमणादिः सप्तदेशभेदः, वैयावृत्त्यं दशधाऽऽचार्याराधनादि, ब्रह्मगुप्तयो नव वसत्यादयः, ज्ञानादित्रितयं ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तपो द्वादशधाऽनशनादि, क्रोधाविकषायषोडशकस्य निग्रहश्चेत्यष्टधा चरणम्॥ करणं
पिण्डविशुद्धयादि “पिंडविसोही समिई, भावणपडिमा य इंद्रियनिरोहो।पडिलेहणगुत्तीओ, अभिग्गहा चैव करणं तु॥१॥” इति वचनात्। तत्र पिण्डविशुद्धित्रिकोटिपरिशुद्धिराहारस्य, समितिरीर्यासमित्यादिः पञ्चधा, भावना अनित्यत्वादिका द्वादश, प्रतिमा मासादिका द्वादश भिक्षूणां दर्शनादिका एकादशोपासकानाम्, इन्द्रियनिरोधश्चक्षुरादिकरणपञ्चकसंयमः, प्रतिलेखनं मुखवस्त्रिकाद्युपकरण- प्रत्युपेक्षणमनेकविधं, गुप्तिर्मनोवाक्कायसंवरणलक्षणा त्रिधा, अभिग्रहा वसतिप्रमार्जनादयोऽनेकविधाः। एतयोश्चरणकरणयोः प्रधानास्तदनुष्ठानतत्पराः, स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापाराः—अयं स्वसमयोऽनेकान्तात्मकवस्तुस्वरूपप्ररूपणाद्, अयं च परसमयः केवलनयाभिप्रायप्रतिपादनादित्येतस्मिन् परिज्ञानेऽनादृताः, अनेकान्तात्मकवस्तुतत्त्वंयथावदनवबुध्यमानास्तदितरव्यवच्छेदेनेति यावत्, चरणकरणयोः सारं फलं, निश्चयशुद्धं निश्चयश्च तच्छुद्धं च ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकं, निष्कलङ्कं न जानन्ति नानुभवन्ति, ज्ञानदर्शनचारित्रात्मक कारणप्रभवत्वात्तस्य, कारणाऽभावे च कार्यस्यासम्भवात्, अन्यथा तस्यः निर्हेतुकत्वापत्तेः, करणचरणयोश्च चारित्रात्मकत्वात्, द्रव्यपर्यायात्मकजीवादितत्त्वावगमस्वभावरुच्य भावेऽभावात्, अथवा चरणकरणयोः सारं निश्चयेन शुद्धं सम्यग्दर्शनं ते न जानन्ति, न हि यथावस्थित वस्तु तच्चावबोधमन्तरेण तद्रुचिः, न च स्वसमयपरसमयतात्पर्यार्थानवगमे तदवबोधो बोटिकादेरिवसम्भवी। अथ जीवादिद्रव्यार्थ पर्यायार्थापरिज्ञानेऽपि यदर्हद्भिरुक्तं तदेवैकं सत्यमित्येतावतैव सम्यग्दर्शनसद्भावः—“भण्णइ तमेव सच्चं णिस्संकं जं जिणेहिं पण्णत्तं”—इत्याद्यागमप्रामाण्यात्, न, स्वसमयपरसमयपरमार्थानभिज्ञैर्निरावरणज्ञान- दर्शनात्मकजिनस्वरूपाज्ञानवद्भिस्तदभिहितभावानां सामान्यरूपतयाप्यन्यव्यवच्छेदेन सत्यस्वरूपत्वेन ज्ञातुमशक्यत्वादवि-
भक्तसर्वज्ञश्रद्धानस्य चापुनर्बन्धकादिसम्भवित्वेन सम्यग्दर्शनानियामकत्वात्, नन्वेवमागमविरोधः, सामायिकमात्रपदविन्माषतुषादेर्यथोक्तचारित्रिणस्तस्य मुक्तिप्रतिपादनात्, सकलशास्त्रार्थज्ञताविकलस्य व्रताद्याचरणनैरर्थक्यापत्तेश्च, तत्साध्यफलानवाप्तेः, न च यथोपदर्शितचरणकरणे सम्यग्दर्शनवैकल्ये सम्भवतो ज्ञानादित्रितयस्यापि तत्र पाठादिति, मैवम्, ये यथोदितचरणकरण- प्ररूपणासेवनद्वारेण प्रधानादाचार्यात्स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापारा न भवन्तीति नञोऽत्र सम्बन्धात् ते–चरणकरणसारं निश्चयशुद्धं जानन्त्येव, गुर्वाज्ञया प्रवृत्तेः, चरणगुणस्थितस्य साधोः सर्वनयविशुद्धतयाभ्युपगमात्, “तं सव्वणयविसुद्धं"इत्याद्यागमप्रामाण्यात्। अगीतार्थस्यापि गीतार्थनिश्रितस्य तत्पारतन्त्र्यस्यैव फलतो ज्ञानदर्शनलक्षणत्वात्। आह च हरिभद्राचार्यः(पंचाशके) “गुरुपारतंतनाणं, सद्दहणं एयसंगयं चेव। एत्तो उ चरित्तीणं, मासतुसाईण निद्दिट्ठिं॥११–७॥ त्ति”गीतार्थाऽनिश्रिताऽगीतार्थस्य स्वतन्त्रचरणकरणप्रवृत्तस्य व्रताद्यनुष्ठानवैफल्यं त्वभ्युपगम्यत एव—“गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थमीसि(निस्सि)ओ भणिओ॥[इत्तो तइयविहारो, नाणुन्नाओ जिणवरेहि॥]” इत्याद्यागमप्रामाण्यात्। तदेवं व्याख्यानद्वयेनानेकान्ततत्त्वविदुषस्तदाज्ञापरस्य वा महाव्रतधारिणश्चारित्रसाफल्यं, नान्यस्येति व्यवस्थितमिति मोक्षार्थिभिः पुरुषसिंहैरनेकान्ततत्त्वपरिज्ञानाय भूयानुद्यमो विधेयः॥
॥इति श्रीजैनतर्केत्यपराभिधानं श्रीअनेकान्ततत्त्वव्यवस्थाप्रकरणं सम्पूर्णम् ॥
॥अथ श्री–अनेकान्तवादस्य विश्वव्यापकत्वरूपमाहात्म्यप्रदर्शयित्री प्रशस्तिः॥
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बिना ये लोकानामपि न घटते संव्यवहृतिः, समर्थां नैवार्थानधिगमयितुं शब्दरचना॥
वितण्डाचाण्डाली स्पृशति च विवादव्यसनिनं, नमस्तस्मै कस्मैचिदनिशमनेकान्तमहसे॥१॥
कथायां लुप्यन्ते वियति वत तारा इव रवौ, नयाः सर्वे दीप्ता अपि समुदिते यत्र सहसा॥
उदासीने त्वब्धविव जलतरङ्गा बहुविधाः, समन्ताल्लीयन्ते श्रयत तमनेकान्तमनिशम्॥२॥
अनेकान्तं वादं यदि सकलनिर्वाहकुशलं, मतानि स्पर्धन्ते नयलवसमुत्थानि बहुधा॥
तदा किं नो भावी बहुलकलिकौतूहलवशाद्, घटानां निर्मातुस्त्रिभुवनविधातुश्च कलहः॥३॥
मिथो द्राग् युध्यन्ते महिषसदृशा ये परनयाः, प्रयातारः खेदं त इह बहुधा जर्जरतराः॥
अनेकान्तो द्रष्टा पुनरवनिपालः प्रकृतितः, परावृत्तिं नैभ्यो व्रजति परिपूर्णाभिलषितः॥४॥
विरुद्वैः सत्त्वाद्यैरिह बहुगुणैर्गुम्फिततनुं, प्रधानं यो वाञ्छत्यखिलजगतः सर्गनिपुणम्॥
अनेकान्तं सांख्यः स कथमवमन्येत विलसेत्, प्रमाणाक्षक्रीडारसिकहृदयश्चेत्परिषदि॥५॥
अयद्धं तत्त्वेन व्यवहृतिवशाद्बद्धमुपयन् परं ब्रह्म व्यष्ट्या जगदपि समष्ट्या च विविधम्॥
तपस्वी वेदान्ती वदतु वदनेनाद्वयकथा–मनेकान्तं कान्तं स्मरति हृदयेन त्वविकलम्॥६॥
प्रमाणं नीलादौ क्षणपरिचयादौ च न तथा, वदन्नेकं ज्ञानं सुगततनयश्चित्रमपि च॥
अनेकान्तं स्वान्ते स्मरति यदि नो तन्निजमत–ग्रहावेशक्लेशः क्षपयति तदीयं गुणगणम्॥७॥
घटे चित्रं रूपं पृथगपि च नीलादिकमपि ब्रुवाणौहेतुं वाप्यजनकमपीष्टान्यविधया॥
अनेकान्तं छेत्तुंबत कथमुभौ योगकणभुक्–तनूजौ स्वारूढद्रुमविटपतुल्यं प्रभवतः॥८॥
परोक्षं मेयांशे किमपि म(मि)तिमात्रंशविषयेऽ–परोक्षं चैकं यः प्रभणति गुरुर्ज्ञानमवशः॥
परोपि द्वैरूप्यं जगति कलयन् जैमिनिसुतः, कुतः स्याद्वादं यस्स्पृहयति न रुच्यार्थविमुखः॥९॥
न यन्नाम ब्रुते समयविगमह्रीपरवशा, हृदातु स्नेहं न त्यजति विपुलं यद्गुणकृतम्॥
अनेकान्तस्याग्रे कलितविनया मौनरचना–दिदानीं सञ्जाता ननु नववधूर्वादिपरिषत्॥१०॥
स्मिताक्षीणां मुक्तौ सकलविदि भुक्तौ च न भजे–न्मुनीन्दृनां धर्मोपकरणविधौ चापि भजनम्॥
विहस्तो दिग्वासा यदि मदिरयेवावृतमतिः, प्रसिद्धैः सिद्धान्तैस्तदहह महद्वैरमुदयेत्॥११॥
क्रियायां ज्ञाने च व्यवहृतिविधौ निश्चयपदे–ऽपवादे चोत्सर्गे कलितमिलितापेक्षणसु(मु)ग्वैः॥
हतैकान्तध्वान्तं मतमिदमनेकान्तमहसा, पवित्रं जैनेन्द्रं जयति सितवस्त्रैर्यतिवृषैः॥१२॥
इमं ग्रन्धं कृत्वा विषयविषविक्षेपकलुषं, फलं नान्यद् याचे किमपि भवभूतिप्रभृतिकम्॥
इहामुत्रापि स्तान्मम मतिरनेकान्तविषये, ध्रुवेत्येतद् याचे तदिदमनुयाचध्वमपरे॥१३॥
सुरिश्रीविजयादिदेवसुगुरोः पट्टाम्बराहर्मणौ,
सूरिश्रीविजयादिसिंहसुगुरौ शक्रासनं मेजुषि॥
सुरिश्रीविजयप्रमे श्रितवति प्राज्यं च राज्यं कृतो,
ग्रन्थोऽयं वितनोतु कोविदकुलेमोदं विनोदं तथा॥१॥
वाचकपरिपत्तिलक- श्रीमत्कल्याणविजयगणिशिष्याः॥
श्रीलाभविजयविषुधा, अभवन्विद्यावतां धुर्याः॥२॥
श्रीजीतविजयविबुधा-स्तेषां शिष्यास्तपागणप्रथिताः॥
तेषां सतीर्थमुख्याः, श्रीनयविजयाभिधां विबुधाः॥३॥
तत्पादपद्ममधुपः, श्रीपद्मविजयानुजः।
सत्तर्कमकरोदेनं, यशोविजयबाचकः॥४॥
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॥इति जगद्गुरुविरुदधारकभट्टारकश्रीहीरविजयसूरिपुरन्दरशिष्यमुख्यषट्तर्कीविशारदमहोपाध्याय-
श्रीकल्याणविजयगणिशिष्यतिलकपण्डितश्रीलाभविजयगणिशिष्यकोटीरपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यालङ्कारपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकेण पण्डितश्रीपद्मविजयगणि-
सहोदरेणोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिना विरचितोऽनेकान्तव्यवस्थाभिधानः
श्रीजैनतर्कग्रन्थः सम्पूर्णः॥
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प्रत्यक्षरं निरूप्यास्यं, ग्रन्थमानं विनिश्चितम्॥ त्रिसहस्री त्रिशती च, सप्तपञ्चाशदुत्तरा॥१॥
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