साधना में कई तथ्यों का ज्ञान रखना जरूरी होता है । यहां मैं कुछ विशिष्ट तथ्य स्पष्ट कर रहा हूं जो कि समय-समय पर साधकों के लिए उपयोगी रहते हैम् । योनिसुद्राबन्ध
बायें पैर की एड़ी को गुदास्थान पर तथा दाहिने पैर को जननेन्द्रिय पर रखने से ‘योनिमुद्राबन्ध’ बनता है । साधना क्षेत्र में यह एक विशिष्ट आसन कहा जाता है ।
प्रणव किसे कहते हैं ?
प्रणव निम्न प्रकार से हैं-
वारबीज का प्रणव
कामबीज
शक्ति बीज, श्री बीज
"
11
प्रणव कहां लगाना चाहिए ?
। । । ।
ऐं
क्लीं
the
प्रणवाद्यं गृहस्थानां तच्छ्रन्यं निष्फलं भवेत् ।
आद्यन्तयोर्वनस्थानां यतीनां महतामपि ॥
।
गृहस्थों को चाहिए कि प्रत्येक मन्त्र से पूर्व ॐकार लगावें। बिना ॐ कार लगाये किया हुआ मन्त्र जप निष्फल होता है । वानप्रस्थ तथा सन्न्यासियों को चाहिए कि वे मन्त्र के आदि और अन्त में ‘ॐ’ प्रणव लगाकर जप करेम् ।
प्रणव कहां नहीं लगाना चाहिए ?
वाग्बीज – ऐं, कामबीज - क्लीं, शक्ति बीज - ह्रीं, तथा श्री बीज – श्रीं के पूर्व ‘ॐ’ लगाकर जप नहीं करना चाहिए ।
ॐकार कहां लगाना चाहिए ?
वैष्णवे प्रणवं दद्याच्छेवे शक्तिं नियोजयेत् । शक्तौ कामं गणेशं च रमा बीजं न्यसेत्पुरः ॥
सूर्ये चैव तदान्येषां तार्तोयं विनियोजयेत् ।
215
वैष्णव मन्त्रों में पहले ‘ॐ’, शिव मन्त्रों में पहले ‘ह्रीं’, शक्तिमन्त्रों में पहले ‘क्लीं’, सूर्य तथा अन्य देवताओं के मन्त्रों से पूर्व ‘ह्रीं’ तथा लक्ष्मी एवं गणेश मन्त्रों में पहले ‘श्रीं’ लगाकर जप करना चाहिए।
किस कर्म में क्या लगावें ?
वश्यात्कर्षणसन्तापे होमे स्वाहा प्रयोजयेत् । क्रोधोपशमने शान्ती पूजने च नमो वदेत् ॥ वौषट् सम्मोहनोद्दीपपुष्टि मृत्यु जयेषु च । कारं प्रीतिनाशे च छेदने मारणे तथा ॥ उच्चाटने च विद्वेषे तथाऽऽधि विकृतौ च फट् । विघ्नग्रह विनाशे च हुं फट्कारं प्रयोजयेत् ॥ मन्त्रोद्दीपनकार्ये च लाभालाभे वषट् स्मृतः । एवं कर्मानुरूपेण तत्तन्मन्त्रं प्रयोजयेत् ॥ नमोऽन्तमन्त्रे देवेशि न नमो योजयेद् बुधः ।
स्वाहान्तेऽपि तथा मन्त्रे न दद्याद् वह्नि वल्लभाम् ॥
अर्थात् वशीकरण कार्य में, आकर्षण, कर्म एवं यज्ञ कर्म में ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग होता है, क्रोध-शान्ति, शान्ति-कार्य एवं पूजनादि में ‘नमः’ शब्द का उल्लेख करना चाहिए ।
सम्मोहन, उद्दीपन, मृत्यु-जप, पुष्टिकायेम् आदि कार्यों में ‘वौषट्’ तथा परस्पर प्रेम-विच्छेद-छेदन, मारण आदि कार्यों में ‘हुङ्कार’ का प्रयोग करते हैम् ।
उच्चाटन, विद्वेष, एवं मानसिक विकारों के लिए ‘फट्’ एवं विघ्ननाश, तथा ग्रह कृत पीड़ा निवृत्ति के लिए होता है ।
किये जाने वाले कार्यों में ‘हुं फट्’ शब्द का प्रयोग
मन्त्र - उद्दीपन तथा लाभ-हानि के कार्यों में ‘वषट्’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए ।
इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस मन्त्र के अन्त में नमः शब्द हो, उसके साथ नमः शब्द नहीं लगाना चाहिए। इसी प्रकार जिस मन्त्र के पीछे ‘स्वाहा’ शब्द हो, उसके पीछे स्वाहा शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
मानसिक जप
अशुचिर्वाशुचिर्वापि गच्छंस्तिष्ठन् स्वपन्नपि । मन्त्रक शरणो विद्वान् मनसैवं समभ्यसेत् ॥ न दोषो मानसे जाये सर्वदेशेऽपि सर्वदा । नपनिष्ठो द्विजश्रेष्ठोऽखिलं यज्ञफलं लभेत् ॥
痔
216
जो साधक, व्यक्ति या विद्वान् निरन्तर मन्त्र जप करने का व्रत ग्रहण करता है, उसको सोते-जागते, उठते-फिरते, चलते-बैठते पवित्र अपवित्र अवस्था में देश-काल पात्र स्थान आदि का बिना विचार किये मन्त्र जप करते रहने का विधान है । उसे किसी प्रकार का कोई दोष नहीं लगता। ऐसे व्यक्ति समस्त यज्ञों के पुण्य फल के भागी होते हैम् ।
पूजा कब करे ?
क्या जपकाल में या अनुष्ठान-काल में नित्य पूजा होनी आवश्यक है ? इसके लिए शास्त्रोक्त विधान है-
एकदा वा भवेत्पूजा न जपेत् पूजनं विना ।
जपान्ते वा भवेत्पूजा पूजान्ते वा जपेन्मनुम् ।।
जप या अनुष्ठान में प्रतिदिन एक बार देवता या इष्टदेव का पूजन आवश्यक है । बिना पूजन के जप करना निषिद्ध है । यह पूजन जपकाल के प्रारम्भ या जपकाल के अन्त में हो सकता है ।
पञ्चशुद्धि - जपकाल से पूर्व आत्मशुद्धि, स्थान-शुद्धि, मन्त्रशुद्धि, द्रव्यशुद्धि और देवशुद्धि आवश्यक है ।
जपकाल में निषेध
आलस्यं जम्भणं निद्रां क्षुतं निष्ठीवनं भयम् । नीचाङ्गस्पर्शनं कोपं जपकाले विवर्जयेत् ॥ व्यग्रताssलस्य निष्ठीव क्रोध पादप्रसारणम् ।
अन्यभाषां मृषां चैव जपकाले त्यजेत्सुधी ॥
साधक को चाहिए कि जपकाल मेम् आलस्य, जम्भाई, निद्रा, छीङ्क, थूक, भय, गुप्ताङ्ग-स्पर्श, क्रोध करना, पांव फैलाना, दूसरों से वार्तालाप, असत्य भाषण, तथा जप मन्त्र के अलावा अन्य शब्दों का प्रयोग करना निषिद्ध है ।
जपकाल में पवित्री धारण
जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृ तर्पणे ।
अशून्यं तु करं कुर्यात्सुवर्ण रजतैः कुशैः ॥
जप, होम, दान, स्वाध्याय और पितृ-तर्पण कार्य में सुवर्ण, रजत या कुशा किसी एक को हाथ में धारण करे । ।
जपसङ्ख्या साधन
नाक्षतेः
हस्तपर्वे व न धान्यैर्न च पुष्पकैः ।
न चन्दनम् त्तिकया जपसङ्ख्यां तु कारयेत् ॥
चन्दनैमृत्तिकया
217
हाथ की उङ्गलियों के पर्व, अक्षत, धान्य, पुष्प, चन्दन अथवा मृत्तिका से जप
सङ्ख्या की गणना नहीं करनी चाहिए ।
स्तोत्र पाठ
न मानसं पठेत्स्तोत्रं
वाचिकं तु प्रशस्यते ।
कण्ठतः पाठाभावे तु
पुस्तकोपरि वाचयेत् ॥ नाब्राह्मणलिपि पठेत् ।
न स्वयं लिखितं स्तोत्रं
स्तोत्र पाठ मानसिक न हो, उच्चरित होना चाहिए। मुख से सुमधुर स्वर मेम् उच्चारण करना चाहिए। स्तोत्र कण्ठस्थ न हो तो पुस्तक सामने रखकर पाठ करे । अपने हाथ से लिखे, या ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य किसी वर्ण के हाथ से लिखे स्तोत्रों का पाठ भी नहीं करना चाहिए ।
देव-स्पर्श
स्त्रीणामनुपनीतानां शूद्राणां च
नराधिप ।
स्पर्शने नाधिकारोऽस्ति विष्णोर्वा शङ्करस्य च ॥
अर्थात् स्त्रियां, बिना यज्ञोपवीत धारण किया हुआ ब्राह्मण एवं शुद्र भगवान शङ्कर एवं विष्णु भगवान की मूर्ति को स्पर्श न करे, उनके लिए पूर्णतः निषेध है । घर में मूर्ति
अङ्गुष्ठपर्वादारभ्य वितस्तिं यावदेव तु ।
गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यतं बुधम् ॥ एका मूर्ति नं पूज्येत गृहिणा स्वेष्टमिच्छता । अनेक मूर्ति सम्पन्नः सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥ गृहे लिङ्गद्वयं नार्च्य गणेश त्रितयं तथा । शङ्ख द्वयं तथा सूर्यो नाच्र्यो शक्तित्रयं तथा ॥ द्वे चक्रे द्वारकायाश्च शालग्राम शिलाद्वयम् । तेषां तु पूजने नैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही ॥ खण्डितं स्फुटितं व्यङ्ङ्ग संस्पृष्टं कुष्ठरोगिणा । पतितं दुष्ट भूम्यादौ न देवं
पूजयेद् बुधः ॥
घर में जो भी प्रतिमा हो वह अङ्गुष्ठ के आकार से लेकर वितस्ता आकार तक की ही हो। गृहस्थों को चाहिए कि वे एक ही देवता की पूजा न करें, अपितु पूजा- गृह में कई देवताओं की तस्वीरें या मूर्तियां होम् । घर में दो शिवलिङ्ग, दो शङ्ख, दो सूर्य, दो शालिग्राम शिला, दो द्वारिका चक्र, तीन गणेश, तीन शक्ति मूर्ति न होम् और न पूजा करे । इस प्रकार मूर्तियां होने से व पूजन से उद्वेग-प्राप्ति होती हैम् ।
टूटी-फूटी मूर्तियां, कुष्ठ रोगियों से स्पर्शित, तथा भूमि पर पड़ी मूर्तियों का पूजन कदापि न करे ।
218
पुष्प
बिल्वस्य खदिरस्यैव तथा धात्रीदलस्य च । तमालस्य च पत्रस्य छिन्नभिन्ने न दुष्यतः । तुलसी सर्वदा शुद्धा तथा बिल्वदलानि च । बिल्वपत्रं च मामाध्यं तमालामलकी दलम् ॥ कटवारं तुलसी चैव पद्मं च मुनि पुष्पकम् । एतत्पर्युषितं न स्याद् यच्चान्यत्कलिकात्मकम् ॥
बिल्वपत्र, खदिर, तमाल, आंवला के पत्ते टूटे-फूटे, छिन्न जीर्ण होने पर भी दूषित नहीं कहलाते । तुलसीदल तथा बिल्वपत्र सदा शुद्ध रहते हैं, तथा यदि एक बार चढ़ाया हुआ हो तो भी पुनः प्रयोग में लिया जा सकता है। बिल्वपत्र, कुन्द, तमाल, आंवला, श्वेत कमल, तुलसी, कमल और कलिकाएं कभी बासी नहीं होतीम् ।
दीप पूजा
घृतदीपो दक्षिणे स्यात्तैलदीपस्तु वामतः । सितवतयुतो दक्षे रक्तवतिस्तु वामतः ॥ (दक्ष वाम भागौ देव्या एव)
ऐं ह्रीं श्रीं दीपदेवि महादेवी शुभं भवतु मे सदा । यावत्पूजा समाप्तिः
स्यात्तावत्प्रज्वल सुस्थिरा ॥ वस्तुतः मन्त्र शास्त्र विधान अत्यन्त सावधानी एवं सतर्कता के साथ गुरु आज्ञा से ही उसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है ।
पुस्तक से मन्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए
षट् कर्म
दुष्कर एवं जटिल है । यदि साधक पूरी विधानपूर्वक कार्य करता है, तो निश्चय
पुस्तके लिखितान् मन्त्रानवलोक्य जपेत् तु यः । स जीवन्नेव चाण्डालो मतः श्वा चाभिजायते ॥
(१) शान्ति कर्म (२) वशीकरण (३) स्तम्भन (४) विद्वेषण (५) उच्चाटन
और (६) मारण – ये षट् कर्म कहलाते हैम् ।
घट-कर्म-देवता एवं दिशा
कर्म
देवता
दिशा
१. शान्ति कर्म
रति
ईशान
२. वशीकरण
वाणी
उत्तर
३. स्तम्भन
रमा
पूर्व219
कर्म
४. विद्वेषण
५. उच्चाटन
६. मारण
षट् कर्मों के लिए काल
देवता
दिशा
ज्येष्ठा
नैऋत्य
दुर्गा
वायुकोण
भद्रकाली
अग्निकोण
वशीकरण दिन के पूर्व भाग में, विद्वेषण तथा उच्चाटन दिन के मध्य भाग में, शान्ति और पुष्टिकर्म दिन के अन्तिम भाग में, तथा मारण कर्म सन्ध्याकाल में किया जाना चाहिए ।
षट्कर्म दैनिक ऋतु
दिन का पूर्व भाग वसन्त ऋतु कहलाता है । मध्याह्न ग्रीष्म, पराह्नकाल वर्षा, सन्ध्याकाल शीत, आधी रात शरत् तथा उषाकाल हेमन्त ऋतु कहलाती है ।
शान्तिकर्म में हेमन्त ऋतु, वशीकरण कार्य में वसन्त, स्तम्भन में शिशिर, विद्वेषण में ग्रीष्म, उच्चाटन में वर्षा तथा मारण कर्म में शरद् ऋतु शुभ फलन्दायक है । षट् कर्म : तिथि- वार-नक्षत्र - लग्नादि
षट् कर्मों के लिए सम्बन्धित तिथि-वारादि शुभ हैम् । अतः सम्बन्धित कार्य यदि इन संयोगों में या अधिकाधिक संयोगों में प्रारम्भ किया जाए तो शीघ्र फलदायक
होता है ।
क्रम कर्म
तिथि
वार
नक्षत्र
काल
लग्न
१. शान्तिकर्म
२,३,५,७
बुध
ज्येष्ठा
दिन का
मेष
गुरु
शेष भाग
कन्या
शुक्र
धनु
सोम
२. पुष्टि कर्म
४,६,८
सोम
अनुराधा दिन का
मेष
६,१०,१३
गुरु
शेष भाग
कन्या
३. आकर्षण कर्म
१,६,१०,११,३० रवि
स्वाति
दिन का
शुक्र
पूर्व भाग
४. विद्वेषण कर्म
१५
रवि
मृगशिरा दिन का
शनि
मध्य
भाग
५. उच्चाटन कर्म
६, ८, १४
शनि
अश्विनी दिन का
मध्य भाग
६. मारण कर्म
८,१४,३०
रवि
मघा
सन्ध्या
मेष
मङ्गल
ཝཱ སྠཽལླཱ ཤྲཱ ྂ ྂ བཱ ཡྻ
शनि
220
मन्त्रों के अधिष्ठाता देवता
विद्वानों के अनुसार- १. रुद्र २. मङ्गल ३. गरुड़ ४. गन्धर्व ५. यक्ष ६. रक्ष ७. भुजङ्ग ८. किन्नर ९. पिशाच १०. भूत ११. दैत्य १२. इन्द्र १३. सिद्ध १४. विद्याधर १५. असुर — ये पन्द्रह देवता सभी प्रकार के मन्त्रों के अधिष्ठाता देवताओं में से हैम् ।
पल्लव मन्त्र
जिस मन्त्र के आदि में नाम की योजना हो, उसे पल्लव मन्त्र कहते हैम् । मारण, संहार, भूत-निवारण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि कार्यों में पल्लव मन्त्र का प्रयोग ही होता है ।
योजन मन्त्र
जिस मन्त्र के अन्त में नाम की योजना हो, उसको योजन मन्त्र कहते हैम् । शान्ति, पुष्टि, वशीकरण, मोहन, दीपन आदि कार्यों मेम् इस प्रकार के मन्त्र का ही प्रयोग होता है ।
रोध मन्त्र
नाम के प्रथम, मध्य या अन्त में मन्त्र प्रयोग किया जाय तो उसे रोध मन्त्र कहते हैम् । ज्वर, ग्रह. विष आदि की शान्ति के लिए इसी प्रकार के मन्त्र का प्रयोग होता है ।
पर मन्त्र
नाम के एक-एक अक्षर के पीछे मन्त्र होने से उसको परनाम मन्त्र कहते हैम् । शान्ति कर्म मेम् इसका प्रयोग होता है ।
सम्पुट मन्त्र
नाम के प्रथम अनुलोम और अन्त में मन्त्र होने पर उसे सम्म्पुट मन्त्र कहते हैम् । इस प्रकार के मन्त्र का प्रयोग कीलन कार्य में होता है ।
विदर्भ मन्त्र
मन्त्र के दो-दो अक्षर और साध्य नाम के दो-दो अक्षर क्रमानुसार उच्चारण करने पर विदर्भ मन्त्र कहलाता है । वशीकरण आकर्षण आदि मेम् इसका प्रयोग होता है ।
हुं फट् प्रयोग
बन्धन, उच्चाटन विद्वेषण कार्यों में ‘हं’ शब्द का प्रयोग होता है, छेदन में ‘फट् ‘, अरिष्ट ग्रह शान्ति में ‘हुं फट्’, पुष्टि, शान्ति कार्यों में ‘वौषट्’, होम कार्यों में ‘स्वाहा’ तथा अर्चन-पूजन आदि में ‘नमः’ शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
221
स्त्री, पुरुष, नपुंसक मन्त्र
जिन मन्त्रों के अन्त में ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग होता है वे स्त्री सञ्ज्ञक कह- लाते हैम् । जिनके अन्त में नमः शब्द होता है वे नपुंसक तथा जिनके अन्त में ‘हुं फट् ’ रहता है उन्हें पुरुष सञ्ज्ञक मन्त्र कहते हैम् ।
वशीकरण, शान्ति, अभिचार आदि कार्यों में पुरुष मन्त्र, क्षुद्र कार्यों में स्त्री मन्त्र तथा अन्य कार्यों में नपुंसक मन्त्रों का प्रयोग होता है
षट्कर्म आसन
TEPT FTER
पुष्टि कर्म में पद्मासन का प्रयोग होना चाहिए, शान्तिकर्म में स्वस्तिकासन, आकर्षण कार्यों में कुक्कुटासन, उच्चाटन में स्वस्तिकासन, मारण में पाष्णिकासन तथा स्तम्भ कार्यों में विकटासन का प्रयोग करना चाहिए।
षट् मुद्रा
शान्ति कार्यों में पद्म मुद्रा, वशीकरण में पाश मुद्रा व गदा मुद्रा, विद्वेषण में मुसल मुद्रा, स्तम्भन में गदा मुद्रा, उच्चाटन में वज्र मुद्रा तथा मारण कर्म में खङ्ग मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ।
शास्त्रों के अनुसार कार्य करते समय यदि सम्बन्धित मुद्रा का प्रयोग करें, तो कार्य में निश्चित सफलता मिलती है ।
घट देव ध्यान
शान्ति, पुष्टि, वशीकरण व आकर्षण कार्यों मेम् अतीव सुन्दरी, रमणीवत् देवी का ध्यान - चिन्तन करना चाहिए। मारण कार्यों में शवारूढ़ देवता का ध्यान किया जाता है ।
षट् कार्य कुम्भ
शान्ति कार्यों में स्वर्ण या चान्दी या ताम्बे का कुम्भ प्रयोग करना चाहिए। अभिचार कार्यों में लोहे का, उत्साद में काञ्च निर्मित कुम्भ, मोहन कार्यों में पीतल तथा उच्चाटन कार्यों में मिट्टी के कुम्भ का प्रयोग करना चाहिए। ताम्बे के कम्भ से प्रत्येक प्रकार के कार्य में सफलता मिलती है ।
माला - निर्णय
उङ्गलियों के बीच में छिद्र करे । जप एक निश्चित
माला जपते समय उङ्गलियां परस्पर मिली रहें। या झिर्री न रहे। साथ ही सुमेरु को उलाङ्घकर भी जप न निर्धारित सङ्ख्या के अनुसार करे। माला युक्त हाथ हृदय के चाहिए। अक्षत (चावल) हस्तपर्व, धान्य, चन्दन या मिट्टी के द्वारा जप-सङ्ख्या की गणना नहीं करनी चाहिए ।
पास कपड़े से ढका रहना
222
माला-विचार
हृदये हस्तमारोप्य तिर्यक्कृत्वा
कराङ्गुली । जपेत्सदा ॥
आच्छाद्य वाससा हस्तौ दक्षिणेन नाक्षतैर्हस्तपर्वा न धान्यैर्न च पुष्पकैः ।
न चन्दनम् त्तिकया जप सङ्ख्यां तु कारयेत् ॥
।
- मन्त्र विद्या
किसी भी प्रकार की पूजा में पद्म बीज या कमल गट्ठे की माला का प्रयोग हो सकता है ।
निम्न पदार्थों से माला बनाई जा सकती है, पर एक ही माला में दो पदार्थों का मिश्रण नहीं होना चाहिए ।
१. रुद्राक्ष, २. शङ्ख ३. कमल गट्ठे ४. जियापोता ५. मोती ६. स्फटिक ७. मणि ८. रत्न ६. स्वर्ण १०. मूङ्गा ११. चान्दी और १२. कुशमूल ।
‘मुण्डमाला तन्त्र’ के अनुसार मनुष्य की उङ्गली की हड्डियों से माला बनाकर जप करने से समस्त प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति होती है ।
शत्रु-नाश
।
शत्रु नाश कार्यों के लिए कमलगट्टे की माला, पापनाश के लिए कुशमूल की माला, पुत्र-प्राप्ति के लिए जियापोता की माला, इच्छित फल-प्राप्ति के लिए चान्दी के टुकड़ों की माला, धन-प्राप्ति के लिए मूङ्गे की माला का प्रयोग होना चाहिए ।
भोग व मोक्ष के लिए रक्त चन्दन की माला का भी विधान है ।
विष्णु मन्त्र जपने में तुलसी की माला, गणेश - साधना के लिए गजदन्त-माला, त्रिपुरा मन्त्र जप में रुद्राक्ष माला, तारा-साधना में शङ्खमाला का प्रयोग करना चाहिए ।
अर्थ-साधना हेतु सत्ताईस मणियों की माला, मारण कार्यों में पन्द्रह मणियों की, काम सिद्धि के लिए चौवन (५४) मणियों की तथा समस्त कामना की पूर्ति के लिए एक सौ आठ मणियों की माला का प्रयोग करना चाहिए।
जपाङ्गुली विचार
शान्ति, पुष्टि, स्तम्भन, वशीकरण आदि कार्यों मेम् अङ्गूठे के अग्रभाग से माला चलानी चाहिए । आकर्षण कार्यों के लिए अङ्गूठे व अनामिका के सहयोग से माला फेरनी चाहिए । विद्वेषण मेम् अङ्गूठे व तर्जनी तथा मारण कार्यों मेम् अङ्गूठे व कनिष्ठिका उङ्गली का प्रयोग करना चाहिए ।
जप - दिशा
वशीकरण कार्यों में पूर्व की ओर मुंह करके जप करना चाहिए। मारणादि कार्यों में दक्षिण की ओर, धनागम के लिए पश्चिमाभिमुख तथा आयु, शान्ति, पुष्टि आदि कार्यों मेम् उत्तर की ओर मुंह करके जप करना चाहिए ।
223
जप-विचार
१. वाचिक जप-जप करते समय मन्त्र यदि दूसरा पुरुष सुन सके तो वह
वाचिक जप कहलाता है ।
२. उपांशु जप – जप करते समय मन्त्र यदि अपने आपको ही सुनाई दे तो
वह उपांशु जप कहा जाता है ।
३. मानसिक जप जप करते समय यदि जीभ व होण्ठ न हिलें तथा मन ही मन ध्यान करते हुए यदि जप किया जाय, तो वह मानसिक जप कह- लाता है ।
मारण आदि कार्यों में वाचिक जप, शान्ति एवं पुष्टि कार्यों मेम् उपांशु तथा मोक्ष - साधना में मानसिक जप करना चाहिए।
षट्कर्म होमकुण्ड
शान्ति, पुष्टि आदि कार्यों में पूर्वमुख बैठकर जप करना चाहिए। आकर्षण कार्य मेम् उत्तर की ओर मुंह करके वायुकोणस्थ कुण्ड में हवन करे । विद्वेषण में नैऋत्य कोण की ओर मुंह करके वायु कोणस्थ कुण्ड में हवन करे । उच्चाटन कर्म मेम् अग्निकोण की ओर मुंह करके वायुकोणस्थ कुण्ड में हवन करे। मारण में दक्षिण की ओर मुंह करके दक्षिण दिशा स्थित कुण्ड में हवन करे । ग्रह भूत निवारण में वायुकोण की ओर मुंह करके षट्कोण कुण्ड में हवन करे तथा वशीकरण कार्यों में त्रिकोण कुण्ड में हवन करे ।
षट्कर्म हवन-सामग्री
शान्ति कर्म में पीपल के पत्ते, गिलोय, घी आदि का प्रयोग किया जाता है । पुष्टि कार्यों में बेलपत्र, चमेली के फूल व घी, स्त्री-प्राप्ति के लिए कमल तथा दारिद्रय- नाथ के लिए दही व घी से आहुति दी जाती है । यदि कोई घृत, बिल्व व तिलों से लाख आहुतियां दें, तो उसे महालक्ष्मी प्राप्त होती है, आकर्षण कार्यों में पलाश के फूलों से या सेन्धा नमक से यज्ञ किया जाता है । वशीकरण में चमेली के फूल, आकर्षण में कनेर के फूल, उच्चाटन में कपास के बीज तथा मारण कार्यों में धतूरे के बीजों से आहुति दी जाती है ।
अग्निजिह्वा
राजसी - पद्मरागा, सुवर्णा, भद्रलोहिता, श्वेता, धूमिनी, करालिका । तामसी — विश्वमूर्ति, स्फूलिङ्गिनी, धूम्रवर्णा, मनोजवा, लोहिता, कराला,
काली ।
सात्विक — हिरण्या, गगना, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा, श्रतिरिक्ता । काम्य कर्म में राजसी जिह्वा का आवाहन करना चाहिए। मारणादि क्रूर
224
कार्यों में तामसी जिह्वा का स्मरण किया जाता है। योग कर्म में सात्विक जिह्वा को बुलाया जाता है ।
आकर्षण कार्यों में हिरण्या नामक जिह्वा का आवाहन होता है, स्तम्भन कार्य में ‘गगना’, विद्वेषण में ‘रक्ता’, मारणादि में ‘कृष्णा’, शान्ति कार्यों में ‘सुप्रभा’, उच्चाटन में ‘अतिरक्ता’ तथा अर्थलाभ के लिए ‘बहुरूपा’ नामक जिह्वा का आवाहन कर आहुति देनी चाहिए ।
अग्नि नाम
शान्ति कार्यों में ‘वरदा’ नामक अग्नि का आवाहन करना चाहिए, पूर्णाहुति में ‘मृडा’, पुष्टिकार्यों में ‘बलद’ अभिचार कार्यों में ‘क्रोध’, वशीकरण में ‘कामद’, बलि दान में ‘चूडक’, लक्ष होम में ‘वह्नि’ नामक अग्नि का आवाहन करना चाहिए ।
त्रक - स्त्रव
ये दोनों यज्ञ में काम आते हैम् । स्रुक छत्तीस उङ्गल लम्बा तथा श्रुव चौबीस अङ्गुल लम्बा होना चाहिए। इनका मुंह सात अङ्गुल, कण्ठ एक अङ्गुल होना चाहिए ।
स्रक या स्रुव सोना, चान्दी, ताम्बा, लोहा, कुचले की लकड़ी, नागेन्द्र लता, चन्दन, खैर, पीपल, आम, चम्पा या पलाश की लकड़ी का बनावे ।
षट् त्रिशदङ्गुला सुक्रस्याच्चतुविशाङ्गुलाल वः ।
मुखं कण्ठं तथा वेदीं सप्त चैकाष्टभिः क्रमात् ॥
सुवर्णरूप्यताम्रै व
स्त्र क्त्र वौदारुजावपि ।
आयसीयौ वा त्रक्त्र वौ कारस्करमयावपि । नागेन्द्रलतयोविद्यात्क्षद्रुकर्मणि संस्थितौ । चन्दन खदिराश्वत्थप्लक्षचूत
विकङ्कता ।
चम्पामलकसारश्च पलाशाश्चेति दारवः ॥
मन्त्र प्रारम्भ लग्न
स्थिरं लग्नं विष्णुमन्त्रे शिवमन्त्रे चरं ध्रुवम् ।
द्विस्वभावगतं लग्नं
शक्तिमन्त्रे प्रशस्यते ॥
अर्थात् विष्णुमन्त्र स्थिर लग्न में, शिवमन्त्र पर लग्न में तथा शक्तिमन्त्र
द्विस्वभाव लग्न में ग्रहण करना चाहिए ।
मन्त्र जप के लिए ब्राह्मण कैसे हों ?
‘जापकाश्च द्विजाः शुद्धाः कुलीना ऋजवस्तथा । स्नान-सन्ध्यारता नित्यं शौचाचारपरायणाः ।
श्रोत्रियाः सत्यवादश्च वेदशास्त्रार्थ कोविदाः ।
श्रक्रोधना पुराणज्ञा
सततं ब्रह्मचारिणः ॥
त्याज्य ब्राह्मण
देवध्यानरता नित्यं प्रसन्नमनसः सदा ।
इत्यादि गुण सम्पन्ना जापकाः मन्त्र सिद्धिदाः ॥
व्यसनी, वामन, खल्वाट, कुब्जक, कुनखी, शठ, चपल, अधिकाङ्ग, हीनाङ्ग, पापी, कुटिल, व्याधित, तार्किक, वाद्धिक, काकस्वर, बकवृत्तिक, गुरुद्वेषी, द्विजातिनिन्दक, वृषलीपति, साहसिक, अशुचि, पण्यरङ्गोपजीवी, नास्तिक, क्लीव, धर्मवृत-विवर्जित, परदाररत, निर्घृणी, दुर्हृदय, अतिकृष्ण, अतिगौर, केकराक्ष, कातर, जड़, पशुशास्त्ररत, कुण्ड, गोलक, स्वयम्भू, शवश्राद्धभुक्, लम्बोष्ठक, भग्नवक्र, शिशु, अतिवृद्ध, बधिर, कपिलाङ्ग, व्यङ्ग, गर्पित, स्तब्ध, कलिप्रिय, परापवादरत, पिशुन, असंस्कृत, दीन, दुश्चर्मा, सालस्य (आलस्ययुक्त) अतिस्थूल, अतिकृश, विषग्रन्थोपजीवी, अभिशस्त, निष्ठीवन शील, कुवृत्तिक, कुष्ठी, काण, गारुडी, म्लेच्छदेश वासी, मांसभक्षी, तन्त्र- शास्त्र विद्वेषक, पुराणनिन्दक, प्रतिमानिन्दक, सन्ध्योपासन रहित, अनेक कार्य युक्त, रोगी ।
-अनुष्ठान प्रकाश
जप करते समय मुंह किधर हो ?
तत्पूर्वाभिमुखो वश्यं दक्षिणे चाभिचारिकम् । पश्चिमे धनदं विद्यादुत्तरे शान्तिदं भवेत् ॥
निषिद्ध आसन
वंशासने
धरण्याम्
आसन
तु दारिद्र्य पाषाणे व्याधिसम्भवः ।
दुःखसम्भूतिदौर्भाग्यं
छिद्रदारुजे ।
तृणे धन यशो हानि पल्लवे चित्तविभ्रमः ॥
तल कम्बल वस्त्राणि पट्ट व्याघ्र मृगाजिनम् । कल्पयेदासनं धीमान्सौभाग्य ज्ञान सिद्धिदम् ॥ कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मासाप्तिव्याघ्रचर्मणि । बस्ताजिने व्याधिनाशः कम्बले दुःखमोचनम् ॥ अभिचारे नील वर्णं रक्तं वश्यादि कर्म्मणि । शान्ति के कम्बलः प्रोक्तः सर्वस्मिन्नपि कम्बलः ॥ स्यात्पौष्टिके च कौशेयं शान्तिके वेत्रविष्टरम् । धवले शान्तिकं मोक्षः सर्वार्थश्चित्र कम्बले ॥
- पुरश्चरण दीपिका
226
सर्वसिद्धौ व्याघ्रचर्म ज्ञानसिद्धौ मृगासनम् ।
वस्त्रासनं रोगहरं
वेत्रजं श्रीविवर्धनम् ॥
कौशेयं पौष्टिकं प्रोक्तं कम्बलं दुःखमोचनम् ।
स्तम्भने गज चर्म स्यान्मारणे
माहिषं तथा ॥
वश्यकर्मणि ।
मेवी चर्म तथोच्चाटे खाङ्गिनं
विद्वेषे जाम्बुकं प्रोक्तं भवेद्गोचर्म शान्तिके ॥
— पुरश्चरण चन्द्रिका
माला
जो व्यक्ति असंस्कारित माला का प्रयोग करता है, वह सभी प्रकार से हानि
उठाता है '
माला-संस्कार
अप्रतिष्ठित मालाभिर्मन्त्रं जपति यो नरः । सर्वं तद्विफलं विद्यात् क्रुद्धा भवति देवता ॥
नो अश्वत्थ या नौ पीपल के पत्ते पद्म आकार में बिछा दे । उसके बीच में माला रख दे। फिर पञ्चगव्य से स्नान कराकर पुनः शुद्ध पानी से धो ले। फिर चन्दन अगर व कपूर बराबर लेकर घिसकर माला व सुमेरु पर लगावे तथा निम्न मन्त्र से प्राण-प्रतिष्ठा करे-
ॐ अस्य श्री प्राणप्रतिष्ठा मन्त्रस्य प्रजेश पद्मजा ऋषयः, ऋक् जुसामानि- छन्दांसि । प्राण शक्तिर्देवता । श्रां बीजम् । ह्रीं शक्ति । क्रौं कीलकम् । प्राणस्थापने विनियोगः ।
माला वस्त्र से श्राच्छादित ?
भूतराक्षसवेतालाः
सिद्धगन्धर्वचारणाः ।
हरन्ति प्रकटं यस्मात्तस्माद् गुप्तं जपेत्सुधिः ॥
वस्त्रेणाच्छादित करं दक्षिणं यः सदा जपेत् ।
तस्य स्यात्सफलं जाप्यं तद्धीनमफलं स्मृतम् ॥
जप नियम ( त्याज्य कार्य)
स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य भाषणम् । सङ्कल्पोऽध्यवशायश्च क्रिया निवृत्तिरेव च ॥ एतन्मैथुनमष्टां प्रवदन्ति मनीषिणः । कौटिल्यं क्षौरमभ्यङ्गमनिवेदित भोजनम् ॥ असङ्कल्पित कृत्यं च
कृत्यं च वर्जयेन्मर्दनादिकम् । स्नायाच्च पञ्च गव्येन केवलामलकेन वा ॥
पञ्चामृत
व्यग्रताऽलस्य निष्ठीव क्रोध पाद प्रसारणम् । अन्य भाषान्त्यजेक्षे च जपकाले त्यजेत्सुधिः ॥ स्त्रीशूद्रभाषणं निन्दां ताम्बूलं शयनं दिवा । प्रतिग्रहं नृत्यगीते कौटिल्यं
वर्जयेत्सदा ॥
— मन्त्र महोदधि
गव्यमाज्यं दधि क्षीर माक्षिकं शर्करान्वितम् । एकत्र मिलितं ज्ञेयं दिव्यं पञ्चामृतं परम् ॥
गन्ध अङ्गुली विचार
227
देवताओं को अनामिका से, पितरों के लिए मध्यमा से, तथा ऋषियों को अङ्गुष्ठ एवम् अनामिका से तिलक करना चाहिए ।
अष्टगन्ध
चन्दन, अगर, कपूर, कचूर, कुङ्कुम्म, गोरोचन, जटामांसी तथा रक्त चन्दन- ये आठों चीजें बराबर लेकर घिसने से अष्टगन्ध बनता है ।
वयं पदार्थ
चन्दनागुरुकर्पूरं चौर कुङ्कुम्म रोचना । जटामांसी कपियुताः शक्तेिर्गन्धाष्टकं विदुः ॥
विष्णु को अक्षत, गणपति को तुलसी, देवी को दूर्वा, सूर्य को बिल्वपत्र तथा विष्णु को अर्क पुष्प भूलकर भी नहीं चढ़ाना चाहिए ।
शङ्कर को मालती पुष्प भी चढ़ाना वर्ज्य है ।
धूप-दीप-स्थान
गन्ध, पुष्प तथा भूषण देवता के सामने रखने चाहिए । इसी प्रकार दीपक देवता के दक्षिण भाग में तथा धूप या अगरबत्ती वाम भाग में रखनी चाहिए। नैवेद्य दक्षिण भाग में ही रखा जाता है।
नैवेद्य
शिव के सामने रखा नैवेद्य लिया जा सकता है, पर शिवलिङ्ग पर चढ़ा फल, पुष्प नैवेद्यादि सर्वथा त्याज्य है ।
साष्टाङ्ग नमस्कार
उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा । पदभ्यां कराम्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टाङ्ग उच्यते ॥
228
नवधा भक्ति
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं
सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
प्रदक्षिणा विचार
चण्डी के मन्दिर मेम् एक प्रदक्षिणा दी जानी चाहिए। इसी प्रकार सूर्य की सात, गणपति की तीन, विष्णु की चार तथा शिव की साढ़े तीन प्रदक्षिणा होती हैम् । कुछ शास्त्रों में शिव की आधी प्रदक्षिणा ही कही है—
एका चण्ड्या रवेः सप्त तिस्रः कार्य्या विनायके । हरेश्चतत्र कर्तव्याः शिवस्यार्द्धा प्रदक्षिणाः ॥
यज्ञ काष्ठ विचार
अग्नि
पिप्पलः ।
अर्क पलाशः खदिरस्त्वपामार्गोऽथ उदुम्बर: शमी दूर्वा कुशाश्च समिधस्त्विमाः ॥
उत्तमो श्ररणीजन्योऽग्निर्मध्यमः सूर्यकान्तजः : उत्तम श्रोत्रियागारान्मध्यमः स्वगृहादि जः ॥
कर्म विशेष मेम् अग्नि नाम
पावको लौकिके ह्यग्निः प्रथमः सम्प्रकीर्तितः । अग्निस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते ॥ ततः पुंसवने ज्ञेयः पावमानास्तथैव च । सीमन्ते मङ्गलो नाम प्रबलो जातकर्मणि ॥ नाम्नि वै पार्थिवो ह्यग्निः प्राशने तु शुचि स्मृतः । सभ्यो नाम स चौले तु व्रतादेशे समुद्भवः ॥ गोदाने सूर्यनामाग्निविवाहे योजको मतः । श्रावसथ्येद्विजो ज्ञेयो वैश्वदेवे तु रुक्मकः ॥ प्रायश्चित्तं विटश्चैव पाकयज्ञेषु पावकः । देवानां हव्यवाहश्च पितॄणां कव्य वाहनः ॥ शान्तिके वरदः प्रोक्तः पौष्टिके बलवर्धनः । पूर्णाहुत्यां मृडो नाम क्रोधाग्निश्चाभिचारके ॥ वश्यार्थी कामदो नाम वनदाहे तु दूषकः । कुक्षौ तु जाठरो ज्ञेयः क्रव्यादौ मृतदाहके ॥
-PPहुताशनः । ब्राह्मणः स्मृतः ॥
वह्निनामा लक्षहोमे कोटि होमे वृषोत्सर्गेऽध्वरो नाम शुचये समुद्र बाडवो हग्निः
ब्रह्म वं गार्हपत्यश्च ईश्वरो
क्षये संवर्तकस्तथा ।
विष्णुराहवनीयः स्यादग्निहोत्रे ज्ञात्वैवमग्नि नामानि गृहकर्म
अग्नि सप्त जिह्वा नाम
दक्षिणस्तथा ॥
त्र्योग्नयः ।
समाचरेत् ॥
— प्रयोग रत्न
१. काली
२. कराली
४. सुलोहिता ७. विश्वरुचि ।
५. धूम्रवर्णा
३. मनोजवा ६. स्फुलिङ्गिनी
होम में वर्ज्य समिधाएं
229
अग्निस्वरूप
विशीर्णा द्विदला ह्रस्वा वक्रा स्थूला कृशा द्विधा । कृमि विद्धा च दीर्घा च निस्त्वक्च परिवर्जिता ॥
अधोमुख ऊर्ध्वपादः प्राङ्मुखो हव्यवाहनः । तिष्ठत्येव स्वभावेन आहुतिः कुत्र दीयते ॥
अग्निसम्मुख
सपवित्राम्बु हस्तेन वह्न ेः कुर्यात्प्रदक्षिणाम् । हव्यवाट् सलिलं दृष्ट्वा बिभेति सम्मुखो भवेत् ॥
शाकल्य प्रमाण
सर्वदा ।
पूर्णाहुति विचार
वह्नि चैतन्य मन्त्र
समाः ॥
तिलास्तु द्विगुणाः प्रोक्ता यवेभ्यश्चैव अन्ये सौगन्धिकाः स्निग्धा गुग्गुलादि यवं श्रायुक्षयं यवाधिक्यं यवसाम्यं सर्व काम समृद्ध्यर्थं तिलाधिक्यं सदैव हि ॥
धनक्षयम् ।
विवाहादि क्रियायां च शालायां वास्तुपूजने । नित्य होमे वृषोत्सर्गे न पूर्णाहुतिमाचरेत् ॥
ह. वह्नि चैतन्याय नमः ।
230
मन्त्र पल्लव
वशीकरण में वषट् उच्चाटन में फट्
द्वेष में हूं मारण में खं
स्तम्भन में टम्
आकर्षण में वौषट्
सम्पत्ति-प्राप्ति में नमः
पुष्टि में स्वाहा
मन्त्र- कीलन
शिवेन कीलिता विद्या…
मन्त्र - उत्कीलन
भूर्जपत्रे भ्रष्टगन्धेन भ्रष्टोत्तरशतं मूलं विल्लिख्य पञ्चोपचारः सम्पूज्य ब्राह्मणान् भोजयेत् । ततस्तान्नपात्रे जलमापर्यं प्रत्येकं क्षिपेत् श्रथवा नद्यादौ क्षिपेत् । उत्कीलनं भवति ॥
मन्त्र सिद्धि-साधन
प्रथम
विश्वास
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ
पञ्चम
षष्ठ
श्रद्धा
गुरु भक्ति
समता
इन्द्रिय - निग्रह
अल्प आहार
मन्त्र जप समय में छीङ्क दोष परिहार
मन्त्र जपते समय यदि छीङ्क, आलस्य, जम्भाई अधोवायु आदि हो तो प्राणायाम
करने से या सूर्य दर्शन से दोष परिहार हो जाता है ।
मन्त्र सिद्ध लक्षण
चित्त प्रसादो मनसश्च तुष्टिरल्पाशिता स्वप्न पराङ्मुखत्वम् । स्वप्ने प्रपापक्व फलं भवन्ति सिद्धस्य चिह्नानि भवन्ति सद्यः ॥
ज्योति पश्यति सर्वत्र शरीरं वा प्रकाशयुक् । निजं शरीरमथवा देवतामयमेव हि ॥
भैरवी तन्त्र
-नारद पञ्चरात्र
षोडशोपचार
पाद्यार्थ्याचमनीयं च स्नानं वसन भूषणे । गन्ध पुष्प धूप दीप नैवेद्याचमनं तथा ।। ताम्बूलमचं नस्तोत्रं तर्पणं च नमस्क्रियाम् । प्रयोजयेत्प्रपूजायामुपचारांस्तु
षोडश ॥
पचोपचार
गंवं पुष्पं तथा धूपं दीपं नैबेद्यमेव च । श्रखण्ड फलमासाद्य कैवल्यं लभते ध्रुवम् ॥
सर्वमान्य गुरु ध्यान
श्रानन्दमानन्दकरं प्रसन्नं ज्ञानस्वरूपं निजबोध रूपम् ।
231
योगीन्द्रमीड्यं भवरोग वैद्यं श्रीमद् गुरुं नित्यमहं भजामि ॥
षष्ठाक्षर गणेश मन्त्र
गणेश विनियोग
वक्रतुण्डाय हूम्
अस्य श्री गणेश मन्त्रस्य भार्गव ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, विघ्नेशो देवता, वं बीजं शक्तिर्ममाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोगः ॥
गणेश ध्यान
चतुर्भुजं रक्ततनुं त्रिनेत्रं पाशाङ्कुशौ मोदक पात्र बन्तौ । करन्दधानं सरसीरुहत्थमुन्मत्तमुच्छिष्ट गणेशमीड्ये ॥
गायत्री स्वरूप
तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्र ऋषि, सविता देवता, गायत्री छन्द, वायव्य बीजस्, चतुर्थ शक्तिः, पञ्चविशति व्यञ्जनानि कीलकम्, चतुर्थ पदम्, प्रणवो मुखम्, ब्रह्मा शरः, विष्णु हृदयम्, रुद्रः कवचम्, परमात्मा शरीरम्, श्वेत वर्णा, शाङ्ख्यायनस गोत्रा, षट् स्वराः, सरस्वती जिह्वा, पिङ्गाक्षी त्रिपदा गायत्री, अशेष पाप क्षयार्थे जपे विनियोगः ।
गायत्री विनियोग
अस्य श्री ब्रह्मशापविमोचनमन्त्रस्य, ब्रह्मा ऋषि, भुक्ति-मुक्तिप्रदा, ब्रह्म शाप विमोचनी, गायत्री शक्तिर्देवता, गायत्री छन्द, ब्रह्म शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः । शिखा कहां-कहां बान्धनी चाहिए ?
स्नाने दाने जपे होने सन्ध्यायां देवतार्चने ।
शिखाग्रन्थिं विना कर्म न कुर्याद्वं कदाचन ॥
STEVER