१२ मन्त्र संस्कार

जिस प्रकार विवाह से पूर्व भकूट, नाड़ी, गण आदि का मिलान किया जाता है उसी प्रकार मन्त्र-साधना से पूर्व साधक एवं मन्त्रो का परस्पर सम्बन्ध देख लिया जाता है कि साधक के लिए कौनसा मन्त्र उपयोगी रहेगा ।

तन्त्र ग्रन्थों में स्पष्ट निर्देश है कि प्रत्येक देवता की साधना से पूर्व साधक व देवता का परस्पर सम्बन्ध ‘कुलाकुल चक्र’ से देख लेना चाहिए। पर इसके साथ ही उन ग्रन्थों में यह भी निर्देश है कि दस महाविद्याएं, सिद्ध विद्याएं हैं, अतः उनकी साधना के लिए कुलाकुल चक्र देखने की कोई आवश्यकता नहीम् । दस महाविद्याएं हैं-

दस महाविद्याएं

१. काली

२. तारा ३. षोडशी ४ भुवनेश्वरी

५. धूमावती

६. छिन्नमस्ता ७. त्रिपुरभैरवी ८. बगला ६. मातङ्गी १० कमला इन महाविद्याओं को दो कुलों में बाण्टा जा सकता है-

१. काली कुल

२. श्री कुल

काली कुल मेम् इन दस महाविद्याओं में से काली, तारा, भुवनेश्वरी, छिन्न- मस्ता ये चार हैम् । इसके अलावा रक्तकाली, महिषमर्दिनी, त्रिपुरा, दुर्गा, प्रत्यङ्गिरा ये पाञ्च विद्याएं भी काली कुल में ही गिनी जाती हैम् ।

श्री कुल में त्रिपुरसुन्दरी (षोडशी) त्रिपुर भैरवी, बगला, कमला, धूमावती, मातङ्गी-ये छः दस महाविद्याओं में से हैं, इसके अलावा बाला, स्वप्नावती मधुमती- ये तीन विद्याएं श्री कुल में ही गिनी जाती हैम् ।

इस प्रकार ये अठारह सिद्ध विद्याएं हैम् ।

इसके अतिरिक्त महाभैरव, चण्डेश्वर, शूलपाणि, बटुक भैरव, नृसिंह, राम, कृष्ण, गोपाल, मार्तण्ड भैरव, बेताल, गणपति, उच्छिष्ट गणपति, श्मशान भैरवी, उन्मुखी, चण्डिका, लक्ष्मी, महालक्ष्मी, सरस्वती-आदि देवी-देवताएं हैं जिनकी साधना शीघ्र फलप्रद देखी गई है ।

शास्त्रों के अनुसार मात्र दस महाविद्याएं या कुल अठारह सिद्ध विद्याओं की साधना में कुलाकुल चक्र का विचार करने की आवश्यकता नहीं है । इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी देवी-देवता की साधना में कुलाकुल चक्र से निर्णय करके ही देवता की साधना प्रारम्भ करनी चाहिए।

कुलाकुल चक्र

इसमें पाञ्च तत्त्व हैं—- १. वायु २. अग्नि ३. भूमि ४. जल ५. आकाश ।

181

वायु

अग्नि

भूमि

जल

आकाश

४.

अ आ

इ ई

उ ऊ

ऋ ॠ

लृ लू

ख.

ल 15 5 1

अं

P

क्ष

देखने की विधि

इसको देखने की विधि यह है कि यदि साधक के नाम का पहला अक्षर और देवता के नाम का पहला अक्षर एक ही वर्ग का हो तो वह देवता अपने कुल का ही समझा जाना चाहिए। उस देवता की साधना पूर्ण सिद्धिप्रद होगी ।

इसी प्रकार मित्र वर्ग या मित्र कुल का देवता हो, तब भी सफलता मिलेगी । शत्रु कुल के देवता की साधना में सफलता मिलना सन्दिग्ध है, यों गुरु-कृपा की बात अलग है ।

मित्र - जल वर्ग + भूमि वर्ग

अग्नि वर्ग + वायु वर्ग

शत्रु – वायु वर्ग + भूमि वर्ग

अग्नि वर्ग + भूमि वर्ग

विशेष- आकाश वर्ग सभी वर्गों का मित्र है ।

राशि चक्र

कुलाकुल चक्र के बाद राशि चक्र का भी विचार साधक को कर लेना चाहिए। राशि चक्र इस प्रकार है-

१. मेष

२. वृषभ ३. मिथुन

अ, आ, इ, ई

उ, ऊ, ऋ

४. कर्क

५. सिंह

ऋ, लृ, ल ए, ऐ

ओ, औ

182

६. कन्या

७. तुला

अं, अः, श, ष, स, ह, ल, क्ष

क, ख, ग, घ, ङ

८. वृश्चिक

च, छ, ज, झ, ञ

६. धनु

१०. मकर

ट, ठ, ड, ढ, ण

त, थ, द, ध, न

११. कुम्भ

१२. मीन

प, फ, ब, भ, म

य, र, ल, व

ऊपर के राशि चक्र से साधक को अपनी और देवता की राशि निश्चित कर . फलाफल जान लेना चाहिए ।

फल

१. साधक की राशि से मन्त्र की राशि यदि ६, ८ या १२वीं हो तो मन्त्र उपयोगी नहीं है ।

२. यदि १, ५ या ध्वीं पड़े तो मित्र वर्ग है । ३. २, ६, १०वीं राशि हो तो मन्त्र हितकारी है । ३, ७, ११वीं राशि हो तो मन्त्र पुष्टिकर है । ४, ८, १२वीं राशि हो तो मत्युप्रद है ।

राशि चक्र के बाद नक्षत्र-चक्र का विचार कर लेना चाहिए।

नक्षत्र-चक्र

नक्षत्र

अक्षर

गण

१. अश्विनी २. भरणी

अ, आ

देव

नर

३. कृत्तिका

ई, उ, ऊ

राक्षस

४. रोहिणी

ऋ, ऋ, लृ, लृ

नर

५. मृगशिरा

६. आर्द्रा

PA

देव

नर

७. पुनर्वसु

ओ ओ

देव

८. पुष्य

देव

६. आश्लेषा

ख ग

राक्षस

१०. मघा

घ ङ

राक्षस

११. पूर्वा फाल्गुनी

नर

१२. उत्तरा फाल्गुनी

छ, ज

नर

१३. हस्त

झ ञ

देव

२४. चित्रा

ट, ठ

राक्षस

विधि

१५. स्वाति १६. विशाखा

ढ ण

१७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा

त थ द

44 64G

ध.

देव

राक्षस

183

१६. मूल

न प फ

२०. पूर्वाषाढ़ा

२१. उत्तराषाढ़ा

२२. श्रवण

२३. धनिष्ठा

२४. शतभिषा

२५. पूर्वा भाद्रपद

२६. उत्तरा भाद्रपद

२७. रेवती

य र

व श

ष, स, ह

लक्ष, अं, अः

1

ཝཱ སཱ ལཱ ཙྪཱ ཙྪཱ སྠཽ ལཾ རཱ བྷྲ བྷཱ ཝ

पहले अपना और मन्त्र का गण निश्चित कर लेना चाहिए, फिर देखें कि साधक के गण के लिए मन्त्र का कौनसा गण कैसा रहेगा ?

मानव गण के लिए—मानव गण—श्रेष्ठ

देव गण- -उत्तम

राक्षस गण- निकृष्ट

देव गण के लिए — देव गण–उत्तम

मानव गण—श्रेष्ठ

राक्षस गण - निकृष्ट

राक्षस गण के लिए—राक्षस गण—श्रेष्ठ

मानव गण- निकृष्ट

देव गण- निकृष्ट

इसके अतिरिक्त अपने नक्षत्र से मन्त्र नक्षत्र तक गिनें, यदि

१, १०, १६ हो तो

२, ११,२०,,,

"

३, १२, २१,, "

४, १३, २२,, "

५, १४, २३,

36

97

६, १५, २४,,, ७, १६, २५,, "

जन्म

सम्पत् विपत् क्षेम प्रत्यरि

साधक

वध

184

८, १७, २६ हो तो

मित्र

परम मित्र

६, १८, २७,,,"

इस प्रकार मन्त्र उपयोगी है, या नहीं, जान लेना चाहिए ।

अकडम चक्र

यह चक्र अ क ड म अक्षरों से प्रारम्भ होता है, इसलिए इसका नाम अकड‍

चक्र रखा गया है ।

अः ठ

अ रख

अं

द य

ट ब

प्रण ग

ऑ ञ फ क्ष

ई घ त ल

ओ झ

पह

उ ड

Rex

ध च द

थ व

ज न स ष

इस चक्र की गणना दक्षिणावर्त से होती है। साधक के नाम का अक्षर जिस

कोष्ठक में है, उससे मन्त्र के अक्षर वाले कोष्ठक तक गिनिये ।

यदि पहला प्रकोष्ठ हो तो

99

"

दूसरा

तीसरा

"

सिद्ध

साध्य

सुसिद्ध

"

चौथा

"

"

पाञ्चवां

33

"

"

छठा

"

6

सातवां

"

आठवां

39

शत्रु

"

नवां

39

दसवां

32

92

ग्यारहवां

33

32

बारहवां

19

"

ཡཱ ཝཱ སྠཽ ལླེ ཟ ཝཱ བྷྲ ཟླ ཝཱ

श्रेष्ठ

अनुकूल उत्तम

विपरीत, त्याज्य

श्रेष्ठ

अनुकूल

उत्तम

त्याज्य

श्रेष्ठ

अनुकूल

उत्तम

त्याज्य

.185

अकथह चक्र

इस चक्र का पहला कोष्ठक अ क थ ह से प्रारम्भ होता है, इसलिए इसका

नाम अकथह चक्र रखा गया है ।

अ क थ ह चक्र

अ क थ ह

उङ प

2 tis

आख द

च फ

ड ब

w 18

झ म

ढ श

लू ञ य

w.you

१०

११

१२

धन

ज भ

ग ध

छ व

१३

१५

१६

अः

अम्

त स

ठ ल

ण ष

टर

इसम नाम जिस कोष्ठक में हो उससे मन्त्र का अक्षर जिस कोष्टक तक हो,

वहां तक गिनिये, इसमें भी दक्षिणावर्त से गिनना चाहिए-

यदि पहला प्रकोष्ठ हो तो

सिद्ध

श्रेष्ठ

39

"

दूसरा

साध्य

अनुकूल

29

तीसरा

"

सुसिद्ध

उत्तम

"

चौथा

शत्रु

त्याज्य

36

"

पाञ्चवां

"

सिद्ध

श्रेष्ठ

"

19

छठा

साध्य

अनुकूल

"

सातवां

"

सुसिद्ध

उत्तम

"

आठवां

"

शत्रु

त्याज्य

186

"

सिद्ध

साध्य

22

सुसिद्ध

नौवां प्रकोष्ठ हो तो

"

31

दसवां

13

ग्यारहवां,

श्रेष्ठ

अनुकूल उत्तम

"

बारहवां

31

"

तेरहवां

"

चौदहवां

19

शत्रु

सिद्ध

साध्य

श्रेष्ठ

त्याज्य

अनुकूल

"

पन्द्रहवां

"

"

सोलहवां

“.

सुसिद्ध शत्रु

उत्तम

त्याज्य

ऋणी-वनी चक्र

रुद्रयामल तन्त्र मेम् ऋणी-धनी-चक्र दिया हुआ है, इसमेम् ऊपर की पङ्क्ति में मन्त्र वर्णों के अङ्क हैं, तथा सबसे नीचे की पङ्क्ति में साधक वर्णों के अङ्क हैं, बीच की चार पङ्क्तियों मेम् अक्षर हैम् ।

पहले मन्त्र के स्वर व व्यञ्जन अलग-अलग कर उससे सम्बन्धित अङ्क जोड़ लें, इसी प्रकार साधक के नाम के भी व्यञ्जन व स्वर के अङ्क जोड लें व दोनों मेम् अलग-

अलग आठ का भाग दें

1

ऋणी-धनी-चक्र

w

w

hy

Yor

mr

al

ए ऐ ओ ओ

अं

५.

क ख ग

Ю

ho

ब भ

‘२

ङ च छ ज झ

द ध

bo

२ ५

mr

अ.

प फ

ल व श ष सह

२ १

Do

187

शेष में यदि मन्त्र का अङ्क अधिक हो तो वह ऋणो तथा कम बचे तो धनी होगा ।

ऋणी मन्त्र से शीघ्र सिद्धि मिलती है, बराबर हो तो भी सफलता रहती है, धनी मन्त्र से सिद्धि एवं सफलता में विलम्ब होता है । यदि शेष शून्य बचे तो मृत्युकारक फल ही समझना चाहिए ।

ग्रन्थों में कुछ मन्त्रों के बारे में छूट भी दी है, कि उन मन्त्रों के लिए ऋणी, धनी या अन्य चक्र शोधन की जरूरत नहीम् । वे स्वयं सिद्ध होते हैं, तथा उनको कोई भी साधक सिद्ध कर सफलता प्राप्त कर सकता है ।

स्वप्नलब्धे स्त्रिया दत्ते मालामन्त्रे च त्र्यक्षरे । वैदिकेषु च सर्वेषु सिद्धादिन्नैव शोधयेत् ॥ हंसस्याष्टाक्षरस्यापि तथा पञ्चाक्षरस्य च । एकद्वित्र्यादि बीजस्य सिद्धादीन्नैव शोधयेत् ॥ अर्थात् १ - जो मन्त्र स्वप्न में प्राप्त हुआ हो

२- जिस मन्त्र को देने वाली कोई स्त्री साधक हो ३ – जो मन्त्र बीस अक्षरों से बड़ा हो ४ – जिस मन्त्र में तीन हजार अक्षर हों

५ – समस्त वैदिक मन्त्र

६ - हंस मन्त्र

७- अष्टाक्षर मन्त्र

८- पञ्चाक्षर मन्त्र

ε- एक बीज मन्त्र युक्त १० – दो बीज मन्त्र युक्त

११ – तीन बीज मन्त्र युक्त

इसके अतिरिक्त निम्न प्रकार के मन्त्रों के लिए भी ऋणी धनी आदि विचार करने की आवश्यकता नहीं :

१ - श्रीकृष्ण से सम्बन्धित कोई भी मन्त्र

२ - गोपाल मन्त्र

कुछ शास्त्रों ने अपना यह दृढ़ मत व्यक्त किया है कि भावना और श्रद्धा की बात अलग है, अन्यथा प्रत्येक प्रकार के मन्त्र की साधना से पूर्व उसके बारे मेम् उप- युक्त प्रकार से विचार कर ही लेना चाहिए ।

मन्त्र ग्रहण करते समय शुभ मास, पक्ष, तिथि, वार आदि पर भी विचार कर लेना चाहिए ।

मास

१ - मन्त्र ग्रहण हेतु वैशाख, श्रावण, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, माघ

फाल्गुन मास उत्तम हैम् ।

और

188

पक्ष

तिथि

वार

२ - गोपाल मन्त्र या श्रीकृष्ण से सम्बन्धित मन्त्र के लिए चैत्र मास

ज्यादा उपयुक्त है ।

३ - आषाढ़ में लक्ष्मी मन्त्र के अलावा अन्य मन्त्र लिए जा सकते हैम् । ३ - लक्ष्मी मन्त्र एवं श्री मन्त्र के लिए कार्तिक एवं मार्गशीर्ष मास

ज्यादा उचित हैम् ।

५ — तन्त्रोक्त मन्त्रों के लिए माघ एवं फाल्गुन मास विशेष शुभ हैम् ।

६ – मल मास प्रत्येक प्रकार के मन्त्रों के लिए वर्जित है ।

१. दीक्षा किसी भी पक्ष में ली जा सकती है ।

२. मन्त्र प्रारम्भ शुक्ल पक्ष में किया जाना चाहिए ।

३. कुछ विद्वानों ने कृष्ण पक्ष की पञ्चमी तक मन्त्र प्रयोग के लिए शुभ

माना है ।

४. केवल मोक्ष-प्राप्ति हेतु मन्त्रों के लिए कृष्णपक्ष शुभ है, अन्य सभी प्रकार

के मन्त्रों के लिए शुक्ल पक्ष ही लेना चाहिए ।

१. मन्त्र प्रयोग या साधना के लिए द्वितिया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, दशमी,

एकादशी, द्वादशी और पूर्णिमा को शुभ माना है ।

२. चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी प्रत्येक प्रकार के मन्त्र के लिए त्याज्य है । ३. अक्षय तृतीया, नाग पञ्चमी, जन्माष्टमी, दुर्गाष्टमी, कार्तिक कृष्ण त्रयो-

दशी, चतुर्दशी, एवम् आमवस्या ग्राह्य है ।

शनि, मङ्गल एवं रविवार के अलावा अन्य सभी वार साधना प्रारम्भ करने के लिए शुभ हैम् ।

नक्षत्र

अश्विनी रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, स्वाति, अनुराधा मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती ये सभी नक्षत्र उपयुक्त हैम् ।

योग

प्रीति, आयुष्मान्, सौभाग्य, शोभन, धृति, वृद्धि, ध्रुव, सुकर्मा, साध्य, हर्षण, वरीयान, शिव, सिद्धि और इन्द्र योग उपयुक्त हैम् ।

करण

बव, बालव, कौलव, तैतिल, वनिज करण सफलतादायक हैम् ।लग्न

189

वृष, सिंह, कन्या और मीन लग्न मन्त्र-साधना के लिए उपयुक्त हैं। विष्णु मन्त्र में, मेष, वृश्चिक, सिंह और कुम्भ लग्न लें तो ज्यादा उचित रहता है ।

शक्ति-दीक्षा में या शक्ति से सम्बन्धित मन्त्र-साधना में मिथुन, कन्या, धन, तथा मीन लग्न शुभ रहता है।

शिव मन्त्र-साधना में मेष, कर्क, तुला और मकर लग्न उचित है ।

मत्र - स्थान

बिल्व

आसन

वृक्ष

मन्त्र-साधना के लिए गौशाला, गुरु-गृह, देव- मन्दिर वन, बगीचा, नदी-तीर, के समीप, पर्वत के ऊपर, गुफा के अन्दर तथा गङ्गा तट सर्वाधिक उपयुक्त हैम् ।

मन्त्र - साधना में किस प्रकार का आसन प्रयोग किया जाना चाहिए, इसका उल्लेख मैं यथास्थान कर चुका हूम् । शिवगीता के अनुसार कम्बलासन पर बैठकर मन्त्र जप करने से समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं, काले मृगचर्म पर बैठकर जप करने से मुक्ति लाभ होता है, व्याघ्रचर्म पर जप करने से मोक्ष प्राप्ति होती है, कुशासन पर जप करने से ज्ञान प्राप्त होता है, पत्तों से बनाये हुए आसन पर जप करने से दीर्घायु प्राप्त होती है, पत्थर के आसन पर जप करने से दुःख प्राप्त होता है’ काष्ठ के आसन पर जप करने से रोग-प्राप्ति होती है, वस्त्रासन पर जप करने से स्त्री प्राप्त होती है, तृणासन पर जप करने से यश की हानि, बांस के आसन से दरिद्रता तथा भूमि पर बैठकर मन्त्र जप करने से साधना में सफलता प्राप्त नहीं

होती ।

मन्त्र चयन करते समय पूरी सावधानी एवं सतर्कता बरतनी जरूरी है, क्योङ्कि दूषित मन्त्र प्रयोग से किसी भी प्रकार की कोई सफलता नहीं मिलती । मन्त्र जप करते समय हमारी भावनाएं, हमारे विचार भी शुद्ध एवं परिष्कृत होने चाहिए :

मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भैषजे गुरौ ।

यादृशी, भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादशी ॥

अर्थात् मन्त्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषधि तथा गुरु में जिसकी

जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि मिलती है ।

१. वस्त्रासने तु दारिद्र्य पाषाणे व्याधिपीडनम् ।

190

मन्त्रभेद

अक्षरों के आधार पर भी मन्त्रों के भेद होते हैं- १. एक अक्षर वाले मन्त्र को ‘पिण्ड’ कहते हैं

२. दो अक्षर वाले मन्त्र को ‘कर्तरी’ कहते हैं

काम क

३. तीन अक्षर से नौ अक्षरों तक के मन्त्र को ‘बीज’ कहते हैम् । ४. दस अक्षर से बीस अक्षर तक के मन्त्र को ‘मन्त्र’ सञ्ज्ञा से विभूषित करते हैम् ।

५. बीस से अधिक अक्षरों वाले मन्त्र को ‘माला’ मन्त्र कहते हैम् । तन्त्रों में कहा गया है-

रिविधो हि मन्त्रः कूटरूपोऽकूट रूपश्च ।

संयुक्तः कूट इति व्यवह्रियते उत्तरोऽकूट इति ॥

अर्थात् मन्त्र दो प्रकार के होते हैं—कूट और अकूट । जिस मन्त्र मेम् अनेक वर्णं परस्पर संयुक्त हों, वह कूट मन्त्र तथा जिसमें सामान्य वर्ण-योजना हो, वह अकूट मन्त्र कहलाता है ।

‘प्रयोगसार तन्त्र’ में मन्त्रों के भेद बतलाते हुए कहा गया है—

बहुवर्णास्तु ये मन्त्रा माला मन्त्रास्तु ते स्मृता । नवाक्षरान्ता ये मन्त्रा बीजमन्त्रा प्रकीर्तिताः ॥ पुनविंशति-वर्णान्ता मन्त्रा मन्त्रास्तथोदिताः । ततोऽधिकाक्षरा मन्त्रा मालामन्त्रा इति स्मृताः ॥

अर्थात् अनेक अक्षरों वाले जो मन्त्र हैं, वे मालामन्त्र कहे जाते हैं, नौ अक्षर तक के जो मन्त्र हैं, वे बीजमन्त्र हैम् । बीस अक्षरों तक के मन्त्र ‘मन्त्र’ कहलाते हैं, और इनसे अधिक अक्षर वाले मन्त्र मालामन्त्र कहलाते हैम् ।

पुरुष-स्त्री मन्त्र

१. जिस मन्त्र के अन्त में ‘वषट्’ या ‘फट्’ शब्द आता है उसे ‘पुंल्लिङ्ग मन्त्र’ या ‘पुरुष मन्त्र’ कहते हैम् ।

२. जिसके अन्त में ‘वौषट्’ या स्वाहा शब्द आता है वे स्त्रीलिङ्गी मन्त्र कहे जाते हैम् ।

३. जिन मन्त्रों के अन्त में नमः आए, उन्हें नपुंसक मन्त्र कहते हैम् ।

जिस मन्त्र का अधिष्ठाता देवता ‘पुरुष’ हो, उसको ‘मन्त्र’ तथा जिस मन्त्र की अधिष्ठात्री देवी हो उसे ‘विद्या’ कहा जाता है ।

191

मन्त्र के दोष

मन्त्र के कुल पचास दोष होते हैं, जिनकी जानकारी साधक को होनी चाहिए। जो साधक बिना मन्त्र - दोष को जाने साधना करता है, उसे सफलता एवं सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।’

मन्त्रों के निम्नलिखित पचास दोष हैं-

१. छिन्न

१८. हृतवीर्य

२. रुद्ध

१६. हीन

३. शक्तिहीन

२०. प्रध्वस्त

४. पराङ, मुख

२१. बाल

५. बधिर

२२. कुमार

६. नेत्रहीन

२३. युवा

३५. धूमित

३६. आलिङ्गित ३७. मोहित ३८. क्षुधार्त ३९. अतिदृप्त

४०. अङ्गहीन

७. कीलित

२४. प्रौढ़

४१. अतिक्रुद्ध

८. स्तम्भित

६. दग्ध

१०. स्रस्त ११. भीत

२५. वृद्ध २६. निस्त्रिश

१२. मलिन

१३. तिरस्कृत

१४. भेदित

३०. कूट ३१. निश्शङ्क

१५. सुषुप्त

३२. सत्वहीन

१६. मदोन्मत्त

३३. केकर

२७. निर्बीज २५. सिद्धिहीन

२६. मन्द

४२. अतिक्रूर ४३. सव्रीड ४४. शान्तमानस

४५. स्थानभ्रष्ट ४६. विकल ४७. निःस्नेह ४८. अति वृद्ध ४६. पीड़ित

५०. दण्ड

१७. मूच्छित

३४. बीजहीन

मन्त्रों के संस्कार

भगवान शिव के डमरू - निनाद से लगभग सात करोड़ मन्त्रों की उत्पत्ति हुई है । कालान्तर में धीरे-धीरे उन मन्त्रों मेम् ऊपर लिखे दोषों में से कई दोष आते गए । आज कोई भी मन्त्र किसी-न-किसी प्रकार के दोष से ग्रस्त है । इन दोषों की निवृत्ति के लिए ‘मन्त्र’ के दस संस्कार करने आवश्यक हैं-

जननं दीपनं पश्चाद् बोधनं ताडनस्तथा । अथाभिषेको विमलीकरणाऽप्यायने

१. दोषानिमानविज्ञाय यो मन्त्रान् भजते जड़ः ।

सिद्धिर्न जायते तस्य कल्प कोटि शतैरपि ॥

पुनः ।

192

जीवनं तर्पणं गुप्तिर्दर्शता मन्त्रसंस्क्रिया ।

स्पष्टतः १. जनन २. दीपन ३. बोधन ४. ताडन ५. अभिषेक ६. विमली- करण ७. जीवन ८. तर्पण ६. गोपन और १०. आप्यायन—ये दस संस्कार हैं, जो किसी भी मन्त्र को सिद्ध करने से पूर्व आवश्यक हैम् ।

१. जनन-मन्त्र के दस सस्कारों में ‘जनन’ संस्कार सबसे पहला और प्रमुख है । भोजपत्र पर गोरोचन, कुङ्कुम्म, चन्दन से पूर्व की ओर मुंह कर आसन पर बैठने के बाद त्रिकोण बनावे तथा उन तीनों कोणों में छः-छः रेखाएं खीञ्चे। इस प्रकार ४६ त्रिकोण कोष्ठ बन जायेङ्गे । उनमेम् ईशान कोण से मातृका वर्ण लिखे, उनका पूजन करे, फिर प्रत्येक वर्ण का उद्धार करते हुए उसे अलग भोजपत्र पर लिखे, तथा मन्त्र से सम्पृक्त करे । ऐसा करने से मन्त्र का ‘जनन’ संस्कार सम्पन्न होगा ।

संस्कार करने के बाद मन्त्र को जल में विसर्जित कर देम् ।

जनन संस्कार

उ.

वा.

no

31

21

te

ho

p

10

ड.

24

நீ

प. द

फ्र

ल ल

नै. औ

अः

M31

ho

ऋ पू.

के

ए अ.

दि.

२. दीपन — दीपन के लिए ‘हंस’ मन्त्र का सम्पुट देना पड़ता है । हंस मन्त्र का सम्पुट देकर एक हजार जप करने से मन्त्र दीपन होता है। उदाहरणार्थ ‘शिवाय नमः’

193

मन्त्र को दीपन करना हो तो ‘हंसः शिवाय नमः सोऽहम्’ मन्त्र का एक हजार जप करने से मन्त्र दीपन हो जायेगा ।

३. बोधन - मन्त्र का बोधन संस्कार करने के लिए ‘हृ’ बीज का सम्पुट देकर पाञ्च हजार मन्त्र जप करना पड़ता है, उदाहरणार्थ ‘हृ शिवाय नमः हृ’ ।

४. ताडन — ताडन संस्कार के लिए ‘फट्’ सम्पुट देकर एक हजार जप करना चाहिए। उदाहरणार्थ ‘फट् शिवाय नमः फट्’ ।

५. अभिषेक — मन्त्र का अभिषेक संस्कार करने के लिए ‘भोजपत्र’ पर मन्त्र लिखकर ‘रों हंसः ओं’ मन्त्र से जल को अभिमन्त्रित कर इस जल से पीपल के पत्ते से मन्त्र का अभिषेक करे ।

६. विमलीकरण — ॐ त्रों वषट्’ मन्त्र को सम्पुटित कर एक हजार बार मन्त्र का जप किया जाय । तो मूल मन्त्र का विमलीकरण होता है । यथा ‘ॐ त्रों वषट् शिवाय नमः वषट् त्रों ॐ ।

७. जीवन - ‘स्वधा वषट्’ मन्त्र के सम्पुट से मूल मन्त्र का एक हजार जप करने से मन्त्र का जीवन संस्कार होता है । यथा ‘स्वधा वषट् शिवाय नमः वषट् स्वधा’ । ८. तर्पण - दूध, जल तथा घी को मिलाकर मूल मन्त्र से सौ बार तर्पण करने को ही तर्पण संस्कार कहा जाता है ।

६. गोपन - ‘ह्रीं’ बीज सम्पुट कर मूल मन्त्र का एक हजार जप करने से गोपन संस्कार होता है । यथा ‘ह्रीं शिवाय नमः ह्रीं’ ।

१०. आप्यायन – ‘ह्रौं बीज सम्पुटित कर मूल मन्त्र का एक हजार जप करने से आप्यायन संस्कार होता है । यथा ‘ह्रौं शिवाय नमः ह्रौं’ |

इस प्रकार साधक को चाहिए कि वह दस संस्कार करने के बाद ही उस मन्त्र का प्रयोग करे, जिससे पूर्ण सफलता मिल सके ।

मन्त्र दोष

मन्त्र संस्कार करने के साथ-साथ मुख्य आठ दोषों पर भी साधक को ध्यान रखना चाहिए, क्योङ्कि यदि इन अष्ट दोषों का परिमार्जन नहीं करते हैं, तो मन्त्र सिद्ध होने में कठिनाई होती है । ये आठ दोष हैं–

१. अभक्ति, २. अक्षर-भ्रान्ति, ३. लुप्त, ४. छिन्न, ५. ह्रस्व, ६. दीर्घ,

७. कथन, ८. स्वप्न कथन ।

१. अभक्ति-मन्त्र अपने आप में देवता स्वरूप है, अतः एक-एक मन्त्र के उच्चारण मेम् आनन्द का अनुभव कीजिए । जो प्रत्येक मन्त्र में परमानन्द का अनुभव करते हैं, उन्हें शीघ्र सफलता मिलती है । जो साधक मन्त्र को केवल अक्षरोम् एवं वर्णों

194

का समूह समझते हैं, या अपने मन्त्र को अन्य किसी मन्त्र से हीन, ओछा या अयुक्त मानते हैं, उन्हें सफलता मिलने में सन्देह रहता है । अतः मन्त्र के साथ भक्ति, लगाव, प्रेम या अपनत्व रहना चाहिए।

२. अक्षर-भ्रान्ति — प्रमाद से, भ्रम से या अन्य किसी भी कारण से मन्त्र मेम् एक-दो अक्षर बढ़ या घट जाते हैम् । ऐसी स्थिति को ‘अक्षर-भ्रान्ति’ कहा जाता है । ऐसी स्थिति आने पर गुरु से या गुरु-पुत्र से पुनः मन्त्र ग्रहण करना चाहिए ।

३. लुप्त-मन्त्र में किसी अक्षर या वर्ण का कम हो जाना ‘लुप्त’ दोष कहलाता है । ऐसा होने पर भी साधक को पुनः मन्त्र ग्रहण करना चाहिए ।

४. छिन्न- जब मन्त्र के संयुक्ताक्षरों में से कोई वर्ण छूट जाता है या भूल जाते हैं, तब छिन्न दोष होता है । इसके लिए भी पुनः मन्त्र ग्रहण करना चाहिए ।

५. ह्रस्व-दीर्घ वर्ण के स्थान पर ह्रस्व उच्चारण करना ‘ह्रस्व’ दोष कह- लाता है । गुरुमुख से सुनकर ही इस दोष को दूर करना सम्भव है ।

६. दीर्घ - ह्रस्व वर्ण के स्थान पर दीर्घ उच्चारण करना ‘दीर्घ दोष’ कह- लाता है । इसको भी गुरुमुख से सुनकर ही ठीक किया जा सकता है ।

७. कथन - जाग्रत अवस्था मेम् अपने मन्त्र को किसी अन्य को कह देना, बता देना या सुना देना कथन दोष कहलाता है। इस दोष के निवारणार्थ साधक को चाहिए कि वह अपना दोष गुरुदेव को बता दे । वे जो प्रायश्चित निर्धारित करें, उसे स्वीकार करे तभी इस दोष का मार्जन हो सकता है ।

८. स्वप्न- कथन – स्वप्न मेम् अपने मन्त्र को कह देना ‘स्वप्न’ दोष कहलाता है । इसका निराकरण भी गुरु चरणों में निवेदन कर प्रायश्चित सहन करने से होता है ।

साधक को चाहिए कि वह इन आठ दोषों से बचे, तभी उसे साधना में सिद्धि एवं सफलता प्राप्त हो सकती है ।

कूर्म - चक्र

मन्त्र-साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए कूर्म चक्र का विधान है । जिस स्थान, क्षेत्र, नगर या घर में साधक मन्त्र-साधना करना चाहे, उस स्थान के नौ समान भाग कर कूर्म चक्र अङ्कित करे । इसके मध्य भाग में ‘स्वर तथा पूर्वादि क्रम से व्यञ्जन लिखे, ईशान कोण में ‘ल’ क्ष लिखे ।

अब जिस स्थान या नगर का जो आदि अक्षर कूर्मचक्र में जहां पड़े, उस स्थान को मुख समझना चाहिए, उसके दोनोम् ओर के दो कोष्ठक भुजाएं, फिर दोनोम् ओर के दो कोष्ठक कुक्षि, फिर दोनोम् ओर के दो कोष्ठक पैर तथा शेष भाग पूञ्छ सम- झनी चाहिए। साधक को चाहिए कि वह मुख भाग पर बैठकर साधना करे । मुख भाग पर बैठकर साधना करने से सिद्धि लाभ, भुजा मेम् अल्प जीवन, कुक्षि मेम् असफ- लना, पैरों में परेशानियां तथा पूञ्छ में वध आदि की सम्भावना रहती है ।

कूर्मचक्र

195

लक्ष

क ख ग घ ङ०

अम् अ अ: आ

शषसह औ

harcha mi

ए लू म

ऐ लृ ऋ

य र

लव

चद्द जञ

3

टठडढशा

पफबभम

तथद धन,

गमन्त्र-जप-अं

मन्त्र जप के कुल चौबीस अङ्ग हैं, जिनका पालन प्रत्येक साधक को करना

चाहिए :

196

१. मन्त्र

४. मन्त्रार्थ

७. इष्ट ध्यान

१०. कवच सेतु १३. योनि मुद्रा १६. प्राणायाम

१६. दीपन

२. मन्त्रशिखा

५. मन्त्र भावना

८. कुल्लुका ११. निर्वाण

३. मन्त्रचैतन्य

६. गुरु ध्यान ६. महासेतु

१२. बन्धन

१५. अङ्गन्यास

१४. करन्यास

१७. मुखशुद्धि

१८. प्राण योग

२०. सूतक द्वय मोक्षण

२१. मध्य दृष्टि

२४. कीलन - उत्कीलन

२२. अनुलोम-विलोम २३. पुरश्चरण

वर्ण मातृका

वास्तव में जिस साधक को उपर्युक्त मन्त्र जप अङ्गों का ज्ञान नहीं होता, या इसका सम्यक् पालन नहीं करता, उसे सिद्धि मिलना सम्भव नहीम् । मन्त्र जप अङ्ग पर सङ्क्षिप्त में प्रकाश आगे की पङ्क्तियों में डाल रहा हूम् ।

१. मन्त्र-मन्त्र प्राप्त करने से पूर्व या मन्त्र का चुनाव करने से पूर्व १. कुला- कुल-चक्र, २. राशि चक्र, ३. नक्षत्र चक्र, ४. अकडम चक्र, ५. अकथह चक्र तथा ६. ऋणी-धनी चक्र से देखकर ही निर्णय करना चाहिए कि वह मन्त्र साधक के लिए उपयुक्त है या अनुपयुक्त । सिद्धिप्रद है या असिद्धिप्रद । इस प्रकार का निर्णय होने के बाद ही गुरु-सम्मति एवं गुरु-आज्ञा से मन्त्र का चुनाव करे, साथ ही जिस साधना में रत होना चाहे, उस साधना से सम्बन्धित देवी-देवता के वारे में भी गुरु के सान्निध्य में बैठकर पूरा विचार कर लेना चाहिए ।

२. मन्त्रशिखा – जब मन्त्र का निर्णय हो जाय तो कूर्म चक्र से स्थान का चयन करना, तथा इसके साथ-ही-साथ, साधना प्रारम्भ करने का मूहूर्त ज्ञात करना ‘मन्त्रशिखा’ कहलाता है । इसमें पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए कि ‘मन्त्र-साधना’ विजय-मुहूर्त’ में प्रारम्भ की जानी चाहिए, जिससे कि त्वरित एवं पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो सके ।

३. मन्त्रचैतन्य – सामान्यतः प्रत्येक मन्त्र सुप्त अथवा सुषुप्त अवस्था में होता है, अतः साधना प्रारम्भ करने से पूर्व मन्त्र का चैतन्य कर लेना चाहिए ।

मन्त्र चैतन्य करने के कई तरीके हैं, जिनमें से कुछ सुगम उपाय स्पष्ट कर रहा हूं-

१. मन्त्र से पहले काम बीज (क्लीं) श्री बीज (श्री) और शक्ति बीज (हीं) एवम् अकार से हकार तक समस्त स्वर वर्णों को बोले, फिर मन्त्र का उच्चारण करे, तथा पुनः इसे अनुलोम करे । इस प्रकार इस मूल विद्या का १०८ बार उच्चारण करे, तो मन्त्र चैतन्य हो जाता है । उदाहरणार्थं ‘नमः शिवाय’ मन्त्र को चैतन्य करना है, तो ॐ क्लीं श्रीं ह्रीम् अम् आं (आदि स्वर तथा) कं खं हं (व्यञ्जन) तथा फिर मन्त्र वोलकर इसको विपरीत रूप में पढ़े ।

197

२. बहिः स्थित तथा अन्तःस्थित द्वादश कलात्मक सूर्य में गुरु का ध्यान कर मूल मन्त्र का १०८ बार उच्चारण करे, तो मन्त्र चैतन्य हो जाता है ।

३. यदि मन्त्र को ‘ई’ से सम्पुटित करके जप किया जाय, तो मन्त्र चैतन्य हो जाता है ।

४. मन्त्रार्थ - मन्त्र साधारण शब्द या शब्दों का समूह नहीं है, अपितु इसमेम् एक विशेष निहित शक्ति को समझना साधक के लिए आवश्यक होता है । यह इष्ट देवता से अलग होता हुआ भी अभिन्न है । साधक को चाहिए कि वह मन्त्र के प्रत्येक अक्षर एवं शब्द के रहस्य को, उसके अर्थ को, उसमें निहित शक्ति को समझे । आगे की पङ्क्तियों में कुछ बीज मन्त्र, और उसमें निहित शक्ति-स्वरूप को तथा उसके रहस्य को स्पष्ट करता हूं

क्रीं-

इसमें चार स्वर व्यञ्जन शामिल हैं-

ईकार

अनुस्वार

काली

ब्रह्म

महामाया

दुःखहरण

इस प्रकार ‘क्रीं’ बीज का अर्थ हुआ-ब्रह्म-शक्ति सम्पन्न महामाया काली

मेरे दुःखों का हरण करे ।

श्रीं-

इसमें चार स्वर व्यञ्जन शामिल हैं-

अनुस्वार

महालक्ष्मी

धन-ऐश्वर्य

तुष्टि

दुःखहरण

नाद का तात्पर्य विश्वमाता। इस प्रकार ‘श्रीं’ बीज का अर्थ है-धन-ऐश्वर्य- सम्पत्ति, तृष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी मेरे दुःखों का नाश करे ।

ह्रौं

यह प्रसाद बीज है । इसका तात्पर्य है—

ह औ

अनुस्वार

शिव

सदाशिव

दुखः हरण

इस प्रकार ‘ह्रौं’ बीज का अर्थ हुआ-शिव तथा सदाशिव कृपा कर मेरे

दुःखों का हरण करेम् ।

198

अनुस्वार

दुर्गा

रक्षा

करना

ह्रीं-

तात्पर्य - मां दुर्गे ! मेरी रक्षा करो । यह दुर्गा बीज है ।

यह शक्ति बीज अथया माया बीज है । इसमें ह = शिव, र = प्रकृति, ई = महामाया, नाद = विश्वमाता, बिन्दु = दुःख हर्ता । इस प्रकार इस माया बीज का तात्पर्य हुआ— शिवयुक्त विश्वमाता मेरे दुःखों का हरण करे ।

ऐं-

यह सरस्वती बीज है-

अनुस्वार

सरस्वती

दुःखहरण

इस बीज का तात्पर्य हुआ— हे मां सरस्वती ! मेरे दुःखों का अर्थात् अविद्या

का नाश कर ।

क्लीं-

इसे काम बीज कहते हैं-

गं

हूं-

कृष्ण अथवा काम

इन्द्र

तुष्टिभाव

सुखदाता

अनुस्वार

इसका तात्पर्य हुआ— कामदेव रूप श्रीकृष्ण मुझे सुख-सौभाग्य देम् ।

यह गणपति बीज है-

अनुस्वार

गणेश दुःखहर्ता

दूर

करेम् ।

इसका तात्पर्य हुआ, श्री गणेश मेरे विघ्नों को, दुःखों को

he hs

शिव

भैरव

अनुस्वार

दुःखहर्ता199

इसे कूर्च बीज कहते हैम् । इसका तात्पर्य है असुर-संहारक शिव मेरे दुःखों का

नाश करेम् ।

ग्लौं-

स्त्रीं-

बिन्दु

गणेश

व्यापक रूप

तेज

दुःखहरण

व्यापक रूप विघ्नहर्ता गणेश अपने तेज से मेरे दुःखों का नाश करेम् ।

ई बिन्दु

दुर्गा

तारण

मुक्ति

महामाया

दुःखहर्ता

दुर्गा मुक्तिदाता, दुःखहर्ता, भवसागर-तारिणी महामाया मेरे दुःखों का नाश

करे ।

क्षौं-

क्ष

बिन्दु

नृसिंह

ब्रह्म

ऊर्ध्वकेशी

दुःखहरण

यह नृसिंह बीज है । इसका तात्पर्य है, ऊर्ध्वकेशी ब्रह्मस्वरूप नृसिंह भगवान

मेरे दुःखों को दूर

करे ।

वं-

बिन्दु

अमृत दुःखहर्ता

‘हे अमृतस्वरूप सागर, मेरे दुःखों को दूर कर ।

इसी प्रकार कई ‘बीज’ हैं, जो कि प्रत्येक अपने आपमें मन्त्र स्वरूप ही है ।

कुछ और ‘बीज’ नीचे स्पष्ट कर रहा हूं—

शं

安裝

फ्र

शङ्कर बीज

हनुमत् बीज

काली बीज

200

…….

विष्णु बीज आकाश बीज अग्नि बीज

जल बीज

पृथ्वी बीज

ज्ञान बीज

भैरव बीज

भ्रं

वस्तुतः प्रत्येक शब्द अपने आप में मन्त्र है, जिसका एक निश्चित अर्थ है । निश्चित स्वरूप एवं शक्ति है। भगवान शङ्कर ने कहा है-

ध्यानेन परमेशानि यद्रूपं समुपस्थितम् ।

तदेव परमेशानि मन्त्रार्थं विद्धि पार्वती ॥

अर्थात् जब साधक सहस्रार चक्र में पहुञ्चकर ब्रह्मस्वरूप का ध्यान करते-करते जब स्वयं मन्त्र स्वरूप या तादात्म्य रूप हो जाता है, उस समय जो गुञ्जन उसके हृदय- स्थल में होता है, वही मन्त्रार्थ है ।

५. मन्त्र - भावना - मन्त्र अपने आप में सर्वशक्तिमान एवं पूर्ण सफलता लिए हुए होता है । जब तक साधक मन्त्र भावना की विधि नहीं जानता, उसे सफलता नहीं मिल पाती ।

मन्त्र- भावना विधि दो प्रकार से है-

पहली विधि - जिस मन्त्र का जाप करना हो उसके प्रारम्भ मेम् और अन्त में ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं’ का सम्पुट देकर एक हजार मन्त्र जप करे तो मन्त्र-भावना प्रबल होती है ।

दूसरी विधि - जिस हजार जप नदी या तालाब में

मन्त्र-भावना सिद्ध होती है ।

मन्न्त्र का जप साधक करना चाहे, उस मन्त्र का एक रहकर उस मन्त्र से पूर्व ‘ॐ’ प्रणव देकर जप करे तो

तारा तन्त्र में मन्त्र-भावना के लिए एक श्रेष्ठ विधि दी है । इसके अनुसार सर्वप्रथम साधक को पञ्चगव्य के तीन आचमन लेने चाहिए। इसके बाद किसी आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाय, तथा आसन के चारोम् ओर पारे की लकीर खीञ्च ले । फिर ॐ प्रणव के साथ मन्त्र के एक हजार जप करे । जब तक जप पूर्ण न हो जाय तब तक उठे नहीं, और न आसन बदले । ऐसा करने पर मन्त्र-भावना पूर्णतः सिद्ध होती है ।

६. गुरु-ध्यान-साधना का श्रीगणेश गुरु से ही होता है—क्योङ्कि साधक को पग-पग पर कठिनाइयाम् आती हैं, और इन कठिनाइयों का निराकरण एकमात्र गुरु ही कर सकता है— इसलिए साधना क्षेत्र में गुरु तथा इष्टदेव में कोई अन्तर नहीं माना है–

201

सार-

यथा देवे तथा मन्त्रे यथा मन्त्रे तथा गुरौ । यथा गुरौ तथा स्वात्मन्येवं भक्तिक्रमः स्मृतः ॥

‘सुन्दरी तापिनी’ में बताया है-

यथा घटश्च कलशः कुम्भश्चैकार्थवाचकाः । तथा मन्त्रो देवता च गुरुश्चैकार्थवाचकाः ॥ साधना-ग्रन्थों में शिव और गुरु को एक ही माना है। निर्वाण तन्त्र के अनु-

शिरः पद्म महादेवस्तथैव परमो गुरुः । तत्समो नास्ति देवेशि पूज्यो हि भुवनत्रये तदर्श चिन्तयेद्देवि बाह्ये गुरु चतुष्टयम् ॥

काली विलास तन्त्र में बताया है—

गुरुपूजां विना देवी स्वेष्टपूजां करोति यः ।

मन्त्रस्य तस्य तेजांसि हरते भैरवः स्वयम् ॥

साधना-ग्रन्थो में गुरु का ध्यान दृष्टव्य है–

निज शिरसि श्वेत वर्णं सहस्रदलकमल कणिकान्तर्गत चन्द्रमण्डलोपरि स्वगुरुं शुक्लवर्णं शुक्लालङ्कारभूषितं ज्ञानानन्दमुदितमानसं सच्चिदानन्दविग्रहं चतुर्भुजं ज्ञानमुद्रापुस्तक वराभयकरं त्रिनयनं प्रसन्नवदनेक्षणं सर्व देवदेवं वामाङ्गे वामहस्तघृत लीलाकमलया रक्तवसना भरणया स्वप्रियया दक्षभुजेनालिङ्गित परम शिवस्वरूपं शान्तं सुप्रसन्नं ध्यात्वा तच्चरणकमलयुगल विगलदमृतधारया स्वात्मानं प्लुतं विभाव्य मनसोपचारैराराध्यः ।

श्री गुरोचन तन्त्र में गुरु-स्तवन प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है-

ॐ श्री नाथादि गुरुत्रयं गणपतिं पीठत्रयं भैरवम् । सिद्धौघं बटुकत्रयं पदयुगं

पदयुगं दूतिक्रमं मण्डलम् ॥ वीरानष्ट चतुष्क षष्टि नवकं वीरावलि पञ्चकम् । श्रीमन्मालिनी मन्त्र राज सहितं बन्दे गुरोर्मण्डलम् ॥

यों गुरु के सम्बन्ध में कई पद मिलते हैं–

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुः साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

ध्यानमूलं गुरोः मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् । मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ॥ न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्सम्पूज्यते गुरुः ॥

202

नमामि सद्गुरु शान्तं प्रत्यक्षं शिवरूपिणम् । गिरसा यज्ञपीठस्थं तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ त्वं पिता त्वं च मे नाता त्वं बन्धुस्त्वम् च देवता । त्वं मोक्षप्राप्ति हेतुश्च तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् । द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादि लक्ष्यम् ॥ एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी साक्षिभूतम् । भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरुं तन्नमामि ॥ शिवाय गुरवे सच्चिदानन्दमूर्तये । निष्प्रपञ्चाय शान्ताय निरालम्बाय तेजसे ॥

ॐ नमः

इसीलिए शङ्कराचार्य ने गुरु को साधना-क्रम की धुरी तथा जीवन की सर्वोच्च सफलता बताया है । तीनों लोकों में ज्ञानदाता गुरु की उपमा किसी भी अन्य तत्त्व से

देनी व्यर्थ है । गुरु की उपमा यदि पारस से दें, लोहे को सोना ही बना सकता है, पारस नहीं। ही बना लेता है—

दृष्टान्तो नैव

तब भी व्यर्थ है । क्योङ्कि पारस तो परन्तु गुरु तो शिष्य को अपने समान

दृष्टस्त्रिभुवनजठरे

सद्गुरोर्ज्ञानदातुः ।

स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्यः स नयाति यदहो स्वर्णतामश्मसारम् । न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरणयुगे सद्गुरुः स्वीय शिष्ये । स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरुपमसस्तेन वा लौकिकोऽपि ॥ तन्त्रसार में तो मात्र दो पङ्क्तियों में ही गुरु ध्यान बता दिया है-

गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गति ।

शिवे रुष्टे गुरु त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चनः ॥

७. इष्ट ध्यान — गुरुध्यान के बाद साधक को अपने इष्टदेव का ध्यान करना चाहिए। इष्ट की मूर्ति अपने सामने स्थापित करे, उसकी षोडशोपचार पूजा करे, तथा साधना की सफलता हेतु उनसे निवेदन करे ।

८. कुल्लुका - सरस्वती तन्त्र में बताया है कि मन्त्रजप से पूर्व साधक को उस मन्त्र की ‘कुल्लुका’ का ज्ञान होना परमावश्यक है । मन्त्रजप से पूर्व उस मन्त्र की कुल्लुका अपने सिर में स्थापित कर लेनी चाहिए, अर्थात् मूर्द्धा मेम् उसका न्यास कर लेना चाहिए। कुछ मन्त्रों की कुल्लुका मैं नीचे स्पष्ट कर रहा हूं—

काली मन्त्र की कुल्लुका

तारा

छिन्नमस्ता

33

वज्रवैरोचनी भैरवी

17

33

ॐ हं स्त्रीं ह्रीं फट्

ॐ ह्रीं श्रीं हूं

ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीम् ऐं ह्रीं ह्रीं स्वाहा

ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीम् ऐं ह्रीं ह्रीं स्वींहा हूं

ॐ ह स रै हस

203

त्रिपुरसुन्दरी की कुल्लुका

भद्रा

भुवनेश्वरी विष्णु

मातङ्गी

धूमावती

"

"

"

33

षोडशी

"

लक्ष्मी सरस्वती अन्नपूर्णा शिव

"

"

"

"

ऐं क्लीं ह्रीं त्रिपुरे भगवति स्वाहा ॐ क्लीं क्लीं हूं

ॐ ह्रीं

ॐ नमो नारायणाय

ॐ ह्रीं ॐ स्त्रीं

ॐ श्री

ॐ ऐं

ॐ क्लीं

ॐ ह्रौं

ॐ फौं

ॐ ह्रीं श्रीं श्रीं ह्रीं

ॐ ॐ श्रीं

17

हनुमान

33

वरदा अष्टलक्ष्म्यै

33

ज्ञानेश्वरी

"

ॐ ज्ञं

वाग्देवी

"

अनङ्ग

ॐ ज्र भ्रं ज्ञ

"

ॐ सम्

इसके अतिरिक्त अन्य देवताओं की कुल्लुका उनके स्वयं के मन्त्र ही हैम् ।

६. महासेतु- साधना-पक्ष में जप कार्य से पूर्व महासेतु का जप किया जाता है। इस महासेतु जप से प्रत्येक समय में प्रत्येक स्थिति में जप किया जा सकता है, जिससे उसे पूर्ण सफलता प्राप्त होती है । महासेतु का जप कण्ठस्थित विशुद्ध चक्र में करना चाहिए ।

कालिका का महासेतु

क्रीं

त्रिपुरसुन्दरी

"

ह्रीं

"

तारा

हूं

षोडशी

"

स्त्रीम्

अन्नपूर्णा

33

अं

S.

लक्ष्मी

"

श्रीम्

इसके अतिरिक्त अन्य सभी देवताओं का महासेतु ‘स्त्री’ है ।

१०. कवच सेतु कुछ साधक इसे ‘मन्त्रसेतु’ भी कहते हैं। जप प्रारम्भ करने

से पूर्व हृदय में मन्त्रसेतु का जप करना चाहिए।

‘प्रणव’ ही है । ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के लिए प्रणव, लिए ‘ह्रीं’ कवच सेतु है ।

प्रधानतः मन्त्रों का कवच सेतु

वैश्यों के लिए फट् तथा शूद्रों के

जप प्रारम्भ करने से पूर्व हृदय में कवच सेतु जप एक सहस्र करना चाहिए।

204

११. निर्वाण -मन्त्र- निर्वाण हेतु सर्वप्रथम साधक को प्रणव करना चाहिए। तत्पश्चात् अ आ दि स्वर तथा क ख आदि व्यञ्जन पढ़े और फिर मूल मन्त्र पढ़े फिर ऐं। बाद में विलोम गति से व्यञ्जन तथा स्वर उच्चारण कर प्रणव करे । इस प्रकार का जप मणिपुर चक्र में करना चाहिए ।

इस प्रकार निर्वाण विधि सम्पन्न होती है ।

१२. बन्धन — इसमें मूल मन्त्र के चतुर्दिक् बन्धन दिया जाता है, जिससे कि अन्य किसी भी प्रकार की विपरीत बाधा या आसुरी शक्तियो का प्रवेश न हो ।

अलग-अलग मन्त्र-जप मेम् अलग-अलग रूप से बन्धन है ।

त्रिपुरसुन्दरी

श्रीं ॐ ॐ श्रीं

तारा

ॐ श्रीं ॐ

दुर्गा बगलामुखी

क्रीं ॐ क्रीम्

ऐं ह्रीं ह्रीम् ऐं

मातङ्गी

ॐ ऐं ॐ

लक्ष्मी

ॐ श्रीं श्रीं श्रीं ॐ

धनदा

ॐ श्रीं

श्रीं ॐ

गणेश

ॐ गं गं गं ॐ

विष्णु

ॐ श्रीम्

अन्य देवताओं के मन्त्र जप से पूर्व ॐ श्रीं’ का एक हजार जप ही बन्धन है, उपर जो बन्धन मन्त्र है, इनका भी मूल मन्त्र से पूर्व एक हजार जप आवश्यक है ।

१३. योनिमुद्रा — दोनों हाथों को परस्पर एक-दूसरे के विपरीत जोड़े। अङ्गूठा अङ्गूठे से, कनिष्ठिका कनिष्ठिका से, अनामिका अनामिका से जुड़े तथा बायें हाथ की मध्यमा दाहिने हाथ की तर्जनी से तथा दाहिने हाथ की मध्यमा बायें की तर्जनी से जुड़े ।

इस प्रकार की क्रिया को ‘योनिमुद्रा’ कहा जाता है ।

मूल मन्त्र जप से पूर्व योनिमुद्रा कर सीधा बैठकर मूल मन्त्र का मात्र एक सौ आठ बार उच्चारण करे ।

१४. करन्यास —— प्रत्येक प्रकार की साधना में करन्यास अपना-अपना अलग होता है, जो कि सम्बन्धित ग्रन्थों से या गुरु से समझा जा सकता है ।

१५. अङ्गन्यास-जिस प्रकार प्रत्येक साधना का करन्यास अलग-अलग होता है उसी प्रकार अङ्गन्यास भी सबका अलग-अलग होता है ।

१६. प्राणायाम - साधना के प्रारम्भ करने से पूर्व रेचक कुम्भक कर लेना चाहिए। इसमें दो मूल मन्त्र का रेचक, चार मूल मन्त्र का स्थिरीकरण तथा दो मूल मन्त्र का कुम्भक या विनियोजन कर लेना चाहिए ।

१७. मुखशुद्धि - साधना क्षेत्र में कहा गया है कि मन्त्र सिद्ध करने से पूर्व

205

मुख शोधन कर लेना परमावश्यक है, क्योङ्कि सामान्य रूप से हमारी जिह्वा अशुद्ध होती है, और अशुद्ध जिह्वा के द्वारा जप करने से हानि ही होती है। शास्त्रों के अनुसार जीभ पर भोजन का मल, असत्य भाषण का मल, कलह का मल आदि कई प्रकार के मल चिपके रहते हैम् । जब तक उनका परिमार्जन नहीं कर लिया जाता, जीभ शुद्ध नहीं होतो । अतः इसकी शुद्धता के लिए मुखशुद्धि कर लेना आवश्यक माना गया है । जिस देवता का मन्त्र जप करना हो उससे सम्बन्धित मुखशोधन मन्त्र का दस बार जप कर लेना चाहिए-

त्रिपुरसुन्दरी

तारा

श्रीं ॐ श्रीं ॐ श्रीं ॐ

ह्रीं ह्र

ह्रीं

श्यामा

क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्रीं क्रीं क्रीं

दुर्गा

ऐम् ऐम् ऐं

बगलामुखी

ऐं ह्रीम् ऐं

मातङ्गी

ऐं ॐ ऐं

लक्ष्मी

श्रीं

ॐ गं

गणेश

विष्णु

ॐ ह्र

अन्य सभी देवताओं के मूल मन्त्रों के मुख-शोधन हेतु ॐकार का दस बार जप करना चाहिए ।

१८. प्राण योग- बिना प्राण योग के मन्त्र सिद्ध नहीं हो पाता, क्योङ्कि जिस प्रकार प्राणयुक्त शरीर ही सचेष्ट एवं सक्रिय होता है, उसी प्रकार प्राण योग युक्त मन्त्र ही सिद्धि प्रदाता होता है ।

इसकी विधि केवल मात्र

इतनी ही है कि मन्त्र से पूर्व और पश्चात् माया बीज अर्थात् ‘ह्रीं’ से सम्पुटित कर मन्त्र का सात बार जप कर लेना चाहिए ।

१६. दीपन-जिस प्रकार दीपक जलाने से घर प्रकाशवान हो जाता है, उसी प्रकार दीपन या दीपनी क्रिया से मन्त्र प्रकाशवान होकर त्वरित सफलता देने में सहायक हो जाता है ।

इसकी विधि यह है कि मन्त्र जप प्रारम्भ करने से पूर्व मन्त्र को प्रणव से पुटित करके सात बार जप कर लेना चाहिए जिससे मन्त्र दीपित हो जाता है ।

२०. सूतक द्वय मोक्षण - १. मृत्यु सूतक और जन्म सूतक

२. प्रातः सूतक और सायं सूतक

३. नारी सूतक और पत्नी सूतक ४. विचार सूतक और चिन्तन सूतक ५. गृहस्थ सूतक और सन्न्यास सूतक

इस प्रकार पाञ्च प्रकार से विभिन्न ‘सूतक द्वय’ होता है, जिससे प्रत्येक मानव

206

को स्पर्श दोष लगता है । इन सूतकों की निवृत्ति के लिए अकारादि स्वर तथा व्यञ्जन से पूर्व ॐ का सम्पुट लगाने के बाद मन्त्र जप किया जाता है तो सूतक द्वय दोष नहीं लगता । इस प्रकार ॐ सम्पुटित स्वर व्यञ्जन का उच्चारण तीन वार करना चाहिए ।

२१. मध्य दृष्टि - मध्य दृष्टि साधक के लिए आवश्यक है। इसके लिए मन्त्र को ‘यं’ बीज द्वारा मथित करना चाहिए। इसके लिए मूल मन्त्र के प्रत्येक अक्षर के आगे-पीछे ‘यं’ बीज लगाकर पाञ्च बार जप करने से मध्य दृष्टि प्राप्त होती है, जो कि साधना की सफलता के लिए परमावश्यक है ।

२२. अनुलोम-विलोम वर्ण मातृका - इसमें प्रथम स्वर एवं व्यञ्जन का असे ह तक उच्चारण कर पुनः ‘ह’ से विलोम गति से ‘अ’ अक्षर तक पहुञ्चे । इस प्रकार एक क्रम पूरा होता है । जप से पूर्व तीन बार इस क्रिया को करने से मन्त्र का प्रत्येक अक्षर सिद्ध हो जाता है, जिससे मन्त्रसिद्धि में पूर्ण सफलता रहती है ।

२३. पुरश्चरण- प्रत्येक साधना की सफलता के लिए शास्त्रों में परश्चरण विधान स्पष्ट किया हुआ है ।

पुरश्चरण जप ऐसे स्थान पर बैठकर करना चाहिए, जहां चित्त को शान्ति एवम् एकाग्रता मिल सके । जङ्गल, नदी-तट, गुरुगृह, पर्वत-शिखर, तुलसीकानन आदि इस कार्य के लिए उत्तम स्थल हैम् । यदि घर में या ग्राम में पुरश्चरण करने का विचार हो तो कूर्म-चक्र से स्थान निश्चित कर उस स्थान पर बैठकर जप करना चाहिए ।

भोजन- पुरश्चरणकाल में मूङ्ग, तिल, जौ, अन्न, मटर, गौ-दुग्ध, दही, घी, शक्कर आदि ऐसी वस्तुओं का ही प्रयोग करना चाहिए जो हेमन्त ऋतु मेम् उत्पन्न होती होम् ।

भोजन में निषिद्ध वस्तुएं- पुरश्चरण काल में कुछ वस्तुओं का निषेध है, जिनका प्रयोग यथासम्भव नहीं करना चाहिए।

नमक, मांस, मदिरा, गाजर, कांसी का बर्तन, मसूर, अरहर, घृत रहित भोजन, कीटयुक्त धान्य, चना, बासी भोजन ।

मैथुन, रसिक वार्तालाप, शहद, असत्य भाषण, कुटिलता, उबटन, बाल बनवाना आदि बातें निषिद्ध हैम् ।

पुरश्चरण करते समय निम्नलिखित बातों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए ।

१. भूमि शैया — पुरश्चरण काल में साधक को कुश या कम्बल बिछाकर भूमि शैया का प्रयोग करना चाहिए ।

२. ब्रह्मचर्य - ऐसे सभी कार्य, प्रसङ्ग या वार्तालापों से दूर रहना चाहिए जिससे कामोद्दीपन होता हो ।

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३. मौन-साधना काल में साधक को मौन धारण करना चाहिए, जिससे वह कटु शब्द दोष, मिथ्या दोष आदि से बच सके ।

४. गुरु सेवा - पुरश्चरण काल में यदि साधक को गुरु सेवा का अवसर मिलता है, तो यह उसके लिए अत्यन्त सौभाग्यदायक ही कहा जाएगा ।

५. स्नान-साधना एवं पुरश्चरण काल में साधक को दोनों समय स्नान कर शरीर को पवित्र रखना चाहिए ।

६. पूजा – पुरश्चरण काल में साधक को नित्य पूजा अवश्य करते रहना चाहिए।

७. दान — पूजा के बाद यथाशक्ति दान करना शुभ है । वस्तुतः साधना-काल में या से शुद्ध एवं सात्विक रहना चाहिए।

स्मरण रखने चाहिए-

पुरश्चरण काल में साधक को मन, वचन, कर्म साधक को सदैव भगवान शङ्कर के ये शब्द

“जिनकी जिह्वा परान्न से जल गई है, जिनके हाथ प्रतिग्रह से जले हुए हैम् और जिनका मन परस्त्री के स्मरण से जलता रहता है, उन्हें भला मन्त्रसिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ?”

२४. कीलन - उत्कीलन- भगवान आशुतोष ने सभी मन्त्रों को कीलित इस- लिए कर दिया था, जिससे कि मन्त्रों का दुरुपयोग न हो। ऐसी अवस्था में जबकि मन्त्र कीलित है, बन्द है, आबद्ध है, तब सिद्धिदायक कैसे बन सकता है जब तक कि उसका उत्कीलन न किया जाय। सभी मन्त्रों की अलग-अलग उत्कीलन विधि है, जो कि गुरु कृपा से ही प्राप्त हो सकती है ।

मुझे एक उच्चस्तरीय सन्न्यासी से ‘सर्व यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र - उत्कीलन’ विधि ज्ञात हुई है । इससे किसी भी प्रकार के मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र का उत्कीलन किया जा सकता है । साधकों के लाभार्थ वह ‘सर्व यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रोत्कीलन’ विधि नीचे दे रहा हूं-

सर्व यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रोत्कीलन प्रारम्भ

पार्वत्युवाच

देवेश परमानन्द

भक्तानामभयप्रद ।

आगमा निगमाश्चैव बीजं बीजोदयस्तथा ॥ १ ॥

समुदायेन बीजानां मन्त्रो मन्त्रस्य संहिता । ऋषिच्छन्दादिकं भेदो वैदिकं यामिलादिकम् ॥२॥

धर्मोऽधर्मस्तथा ज्ञानं विज्ञानं च विकल्पनम् । निर्विकल्प विभागेन तथा षट्कर्म सिद्धये ॥३॥

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शिव उवाच

भुक्ति मुक्ति प्रकारश्च सर्व प्राप्तं प्रसादतः । कीलनं सर्वमन्त्राणां शंसयद् हृदये वचः ॥४॥ इति श्रुत्वा शिवानाथः पार्वत्या वचनं शुभम् । उवाच परया प्रीत्या मन्त्रोत्कीलनकं शिवाम् ||५||

वरानने हि सर्वस्थ व्यक्ताव्यक्तस्य वस्तुनः । साक्षीभूय त्वमेवासि जगतस्तु मनोस्तथा ॥ ६ ॥ त्वया पृष्टं वरारोहे तद्वक्ष्याम्युत्कीलनम् । उद्दीपनं हि मन्त्रस्य सर्वस्योत्कीलनं भवेत् ॥७॥ पुरा तव मया भद्र े समाकर्षण वश्यजा । मन्त्राणां कीलिता सिद्धिः सर्वे ते सप्तकोटयः ॥८॥ तवानुग्रहप्रीतत्वात्सिद्धिस्तेषां

फलप्रदा ।

येनोपायेन भवति तं स्तोत्रं कथयाम्यहम् ॥६॥ श्रणु भद्रोऽत्र सततमावाभ्यामखिलं जगत् । तस्य सिद्धिर्भवेत्तिष्ठ मया घेषां प्रभावकम् ॥ १०॥ अन्नं पानं हि सौभाग्यं दत्तं तुभ्यं मया शिवे । सञ्जीवनं च मन्त्राणां तथा दत्तुं पुनध्रुवम् ॥११॥

यस्य स्मरण मात्रेण पाठेन जपतोऽपि वा ।

अकीला अखिला मन्त्रा सत्यं सत्यं न संशयः ॥ १२ ॥

ॐ अस्य श्री सर्व यन्त्र तन्त्र मन्त्राणाम् उत्कीलन मन्त्रस्तोत्रस्य मूल प्रकृतिऋ षिर्जगतीच्छन्दः, निरञ्जनो देवता, क्लीं बीजं, ह्रीं शक्तिः, हः लौ कीलकं, सप्तकोटि मन्त्र- यन्त्र-तन्त्र कोलकानां सञ्जीवन सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

अङ्गन्यास

مد

मूल

प्रकृति ऋषये नमः शिरसि ।

ॐ जगतीच्छदसे नमः मुखे । ॐ निरञ्जन देवतायै नमः हृदि । ॐ क्लीं बीजाय नमः गुह्यम् ।

ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयोः ।

ماني

हः लौं कीलकाय नमः सर्वाङ्ग ।209

करन्यास

ॐ हाम् अगुष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः ।

ि (35)

ह्र मध्यमाभ्यां नमः ।

(1)

हृ. अनामिकाभ्यां नमः ।

हृदयन्यास

ध्यान

ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रौं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

ॐ ह्रां हृदये नमः ।

ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा ।

ॐ ह्र शिखायै वषट् ।

ह्र कवचाय हुम् ।

ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।

ॐ ह्रः अस्त्राय फट् ।

मूल मन्त्र

ब्रह्म स्वरूपममलं च निरञ्जनं तं

ज्योतिः प्रकाशमनिशं महतो महान्तम् । कारुण्यरूपमतिबोधकरं प्रसन्नं

दिव्यं स्मरामि सततं मनुजावनाय ॥१॥

एवं ध्यात्वा स्मरेन्नित्यं तस्य सिद्धिस्तु सर्वदा :

वाञ्छितं फलमाप्नोति मन्त्रसञ्जीवनं ध्रुवम् ॥२॥

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं सर्व मन्त्र-तन्त्र यन्त्रादिनाम् उत्कीलनं कुरु कुरु

स्वाहा ॥

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रा षट् पञ्चाक्षराणामुत्कीलय उत्कीलय स्वाहा ॥ ॐ जूं सर्व मन्त्र-तन्त्र - यन्त्राणां सञ्जीवनं कुरु कुरु स्वाहा ॥ ॐ ह्रीं जूम् अम् आम् इम् ईम् उम् ऊम् ऋ ं ॠ ल ल एम् ऐम् ओम् औम् अम् अः कं खं गं घं ङं चं छं जं ञं

टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं

210

यं रं लं वं ॐ सोहं हं सो हं

सं गं (११ बार )

शंसं षं हं क्षं (११ बार ) ॐ

सोहं हं सो यं

मात्राक्षराणां सर्वम् उत्कीलनं कुरु स्वाहा । जूं सों हं हंसः ॐ ॐ (११ बार) ॐ हं जूं हं

(११ बार) लं (११ बार) ॐ (११ बार ) यं

(११ बार) ॐ ह्रीं जूं सर्व मन्त्र तन्त्र यन्त्रस्तोत्र कवचादीनां सञ्जीवय सञ्जीवनं कुरु

कुरु स्वाहा ॥ ॐ सो हं हंसः जूं सञ्जीवनं स्वाहा ॥

ॐ ह्रीं मन्त्राक्षराणाम् उत्कीलय उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा ।

ॐ ॐ प्रणवरूपाय

अम् आं परमरूपिणे ।

इम् ईं शक्तिस्वरूपाय उम् ऊं

तेजोमयाय च ॥१॥

ऋ ॠ’ रञ्जित दीप्ताय लूं लं स्थूल स्वरूपिणे ।

एम् ऐं बाचां विलासाय ओम् औम् अम् अः शिवाय च ॥२॥

कं खं

कमलनेत्राय गं घं

गरुडगामिने ।

ङं चं श्री चन्द्रभालाय छं जं जयकराय ते ॥३॥

भं टं ठं जयकर्त्रे डं ढं णं तं पराय च ।

थं दं धं नं नमस्तस्मै पं फं यन्त्रमयाय च ॥४॥

बं भं मं बलवीर्याय यं रं लं यशसे नमः ।

वंशं षं बहुवादाय सं हं लं क्षं स्वरूपिणे ॥५॥

दिशामादित्यरूपाय तेजसे

अनन्ताय अनन्ताय नमस्तस्मै

मातृकायाः प्रकाशायै तुभ्यं तस्यै प्राणेशाय क्षीणदार्य सं सञ्जीव

निरञ्जनस्य देवस्य नामकर्म

रूपधारिणे ।

नमो नमः ॥६॥

नमो नमः ।

नमो नमः ॥७॥

विधानतः ।

त्वया ध्यातं च शक्त्या च तेन सञ्जायते जगत् ॥८॥ स्तुताहमचिरं ध्यात्वा मायाया ध्वंस हेतवे । सन्तुष्टा भार्गवाया हं यशस्वी जायते हि सः ॥ ६ ॥

ब्रह्माणं चेतयन्ती विविध सुरनरांस्तर्पयन्ती प्रमोदाद् ध्यानेनोद्दीपयन्ती निगम जपमनुं षट्पदं प्रेरयन्ती । सर्वान् देवान् जयन्ती दितिसुक्ष्मनी साप्यहङ्कार मूर्ति- स्तुभ्यं तस्मै च जाप्यं स्मररचितमनुं मोचयेशाप जालात् ॥१०॥

इदं श्री त्रिपुरस्तोत्रं पठेद् भक्त्या तु यो नरः । सर्वान् कामानवाप्नोति सर्वशापाद् विमुच्यते ॥

हि ॥ इति सर्व यन्त्र-मन्त्र तन्त्रत्रोत्कीलनं सम्पूर्णम् ॥

मन्त्र-सिद्धि के उपाय

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श्रद्धा-विधि के साथ मन्त्र-साधना या अनुष्ठान करने पर भी सफलता न मिले, तो उसे पुनः करना चाहिए। बार-बार करने पर भी यदि इच्छित सफलता प्राप्त न हो, तो निम्नलिखित सात उपायों में से कोई एक उपाय करना चाहिए। एक साथ ही सातोम् उपाय करना निषिद्ध है । यदि एक उपाय करने पर भी मन्त्र- सिद्धि न हो तो उससे अगला उपाय करना चाहिए— इससे निश्चय ही सफलता प्राप्त हो सकेगी।

पहला उपाय -भ्रामण : इस क्रिया में भूर्जपत्र पर वायु बीज ‘यं’ तथा मन्त्र का एक अक्षर फिर ‘यं’ तथा मन्त्र का दूसरा अक्षर - इस प्रकार पूरा मन्त्र ‘यं’ वायु- बीज से ग्रथित करे । भूर्जपत्र पर कर्पूर, कुङ्कुम्म, खस और चन्दन को मिलाकर उस लेप या स्याही से लिखे । जब मन्त्र पूरा लिख दिया जाय तो उसका षोडशोपचार से पूजन करे। ऐसा करके यदि मन्त्र अनुष्ठान किया जाय, तो निश्चय ही मन्त्र सिद्ध होता है ।

दूसरा उपाय—रोधन : वाग् बीज ‘ऐं’ के द्वारा मन्त्र को सम्पुटित करके एक सहस्र मन्त्र जप किया जाय, तो मन्त्र-साधना में पूर्ण सफलता एवं सिद्धि मिलती है ।

तीसरा उपाय -वश्य : अलक्तक, रक्त चन्दन, कुट, धतूरे का बीज और मैनसिल इन पाञ्चों चीजों को बराबर भाग में मिलाकर भोजपत्र पर मूल मन्त्र लिख- कर उसे गले में धारण करे तो सम्बन्धित साधना में सफलता मिलती है।.

चौथा उपाय-पीडन : अधरोत्तर योग से मन्त्र जप कर अधरोत्तर देवी की पूजा करे । इसके पश्चात् अकवन के दूध से भूर्जपत्र पर मन्त्र लिखकर उसे बायें पैर के नीचे दबाकर मूल मन्त्र से १०८ आहुतियां दे तो निश्चय ही साधना में सफलता मिलती है ।

पाञ्चवाम् उपाय- पोषण : भोजपत्र पर गाय के दूध से मन्त्र लिखकर उसे “दाहिनी भुजा पर बान्धे, तथा मूल मन्त्र के ‘स्त्रीं’ शब्द का सम्पुट देकर एक सहस्र मन्त्र

जप करे, तो सम्बन्धित साधना में पूर्ण सफलता मिलती है ।

छठा उपाय - शोषण : यज्ञ की भस्म से भोजपत्र पर मन्त्र लिखकर उसे दाहिनी भुजा पर बान्धे तथा ‘यं’ बीज द्वारा मूल मन्त्र को सम्पुटित कर एक सहस्र जप करे तो साधना में निश्चय ही सफलता मिलती है ।

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सातवाम् उपाय- दाहन : मन्त्र के प्रत्येक अक्षर के साथ अग्नि बीज ‘रं’ का सम्पुट देकर एक सहस्र जप करे, साथ ही पलास-बीज के तेल से भोजपत्र पर मन्त्र लिखकर कन्धे पर धारण करे तो निश्चय ही साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त होती है ।

शान्तिपाठ

कभी-कभी अनुष्ठान में, या मन्त्र जप में कुछ ऐसी बाधाएम् आ जाती हैं, जिनका निराकरण नहीं दिखाई देता । ऐसी स्थिति में साधक को निम्न शान्तिपाठ एक बार या ग्यारह बार करना चाहिए। इससे निश्चय ही विघ्न शान्त होते हैं, तथा अनुष्ठान- कार्य में बाधा नहीम् आती ।

॥ शान्ति - स्तोत्रम् ॥

नश्यन्तु नश्यन्तु प्रेतकुष्माण्डा नश्यन्तु दूषका नराः । साधकानां शिवाः सन्तु आम्नाय परिपालिनाम् ॥१॥

जयन्ति मातरः सर्वा जयन्ति योगिनी गणाः । जयन्ति सिद्ध डाकिन्यो जयन्ति गुरु पङ्क्तयः ॥ २॥ जयन्ति साधकाः सर्वे विशुद्धाः साधकाश्च ये । समयाचार सम्पन्ना जयन्ति पूजका नराः ॥३॥ नन्दन्तु चाणिमासिद्धा नन्दन्तु कुलपालकाः ।

कम कर सक

इन्द्राद्या देवता सर्वे तृप्यन्तु

वास्तु देवतः ॥४॥

चन्द्रसूर्यादयो देवास्तृप्यन्तु मम नक्षत्राणि ग्रहाः योगाः करणा

भक्तितः ।

राशयश्च ये ॥ ५॥

सर्वे ते सुखिनो यान्तु सर्पा नश्यन्तु पक्षिणः । पशवस्तुरगाश्चैव पर्वताः कन्दरा गुहाः ॥६॥ ऋषयो ब्राह्मणाः सर्वे शान्ति फुर्वन्तु सर्वदा । स्तुता मे विदिताः सन्तु सिद्धास्तिष्ठन्तु पूजकाः ॥७॥

ये ये पाप वियस्सुदूषणरतामन्निन्दकाः पूजने । वेदाचार विमर्व नेष्ट ह्रदया भ्रष्टाश्च ये साधकाः ॥

दृष्ट्वा चक्रमपूर्वमन्दहृदया ये कौलिका दूषका- स्ते ते यान्तु विनाशमत्र समये श्री भैरवस्याज्ञया ॥८॥

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एक

द्वेष्टारः साधकानां च सदैवाम्नाय दूषकाः । डाकिनीनां मुखे यान्तु तृप्तास्तत्पिशितै स्तुताः ॥६॥

ये वा शक्तिपरायणाः शिवपरा ये वैष्णवाः साधवः । सर्वस्मादखिले सुराधिपमजं सेव्यं सुरं सन्ततम् ॥ शक्तिं विष्णुधिया शिवं च सुधिया श्रीकृष्ण बुद्ध्या च ये । सेवन्ते त्रिपुरं त्वभेदमतयो गच्छन्तु मोक्षन्तु ते ॥१०॥

शत्रवो नाशमायान्तु मम निन्दाकराश्च ये । द्वेष्टारः साधकानां च ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ॥ ११॥ तत्परं पठेत् स्तोत्रमानन्दस्तोत्रमुत्तमम् ।

सर्वसिद्धि

भवेत्तस्य

सर्वलाभो प्रणाश्यति ॥ १२॥

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