सन्त तुलसीदास ने मन्त्र की महिमा बताते हुए कहा है कि मन्त्र वर्णों की दृष्टि से भले ही छोटा दिखाई दे, पर उसकी शक्ति अतुलनीय है, उससे ब्रह्मा, विष्णु, शिव को भी वश में किया जा सकता है, जैसे मदोन्मत्त हाथी को एक छोटा-सा अङ्कुश वश में कर लेता है । मन्त्र का अर्थ है जो “मनन करने पर त्राण करे ।”
यास्क मुनि ने मन्त्र के बारे में वर्ण समूह है जिनका बार-बार मनन पूर्ति हो ।
कहा है- “मन्त्रो मननात्” अर्थात् मन्त्र वह किया जाय और जिससे इच्छित कार्य की
" पिङ्गलायत” में मन्त्र के बारे में बताया है कि यह समस्त बन्धनों को दूर कर त्राण देने वाला है-
कही है-
मननं विश्व विज्ञानं, त्राणं संसार बन्धनात् ।
यतः करोति संसिद्धिः मन्त्र इत्युच्यते तनः ॥
“रुद्रयामल” में भी लगभग इसी प्रकार की बात भगवान शङ्कर ने पार्वती को
मनन- त्राणनाच्चैव मद्रूपस्या व बोधनात् ।
मन्त्र इत्युच्यते सम्यगः मदधिष्ठानतः प्रिये ॥
अर्थात् - पार्वती । मनन व त्राण के द्वारा जो मेरे स्वरूप का ज्ञान कराने में समर्थ है, जिसमें स्थिरता एवं शक्ति है वही मन्त्र है ।
“ललितासहस्रनाम” में मन्त्र की परिभाषा स्पष्ट करते हुए भाष्यकार ने बताया है कि धर्म युक्त अमुसन्धान कर जो आत्मा में स्फुरण पैदा करने में समर्थ है, तथा जिसमें संसार को ऊञ्चा उठाने की शक्ति हो, वही मन्त्र है ।
इसके अतिरिक्त “गुप्तोपदेशतो मन्त्रः" गुरु द्वारा गुप्त उपदेश को मन्त्र कहते हैं, या मन्त्र “पुनर्भवति पठित सिद्धि” जो पठन करने से सिद्ध हो, वह मन्त्र है, आदि कई सूत्र समाज में प्रचलित हैम् ।
स्पष्टतः मन्त्र अपने आप में देवता है, अतः लौकिक एवं पारलौकिक सिद्धियोम् एवं सफलताओं के लिए इससे बढकर अन्य कोई साधन नहीम् ।
मन्त्रों के अधिष्ठाता देवता
जितने भी प्रकार के मन्त्र हैं, उन सभी मन्त्रों के निम्न में से कोई-न-कोई देवता होता है–
१. रुद्र
२. मङ्गल
४. गन्धर्व
५. यक्ष
३. गरुड़
६. रक्ष
७. भुजङ्ग
८. कीलर
६. पिशाच
१०. भूत
११. दैत्य
१२. इन्द्र
१३. सिद्ध
१४. विद्याधर
१५. असुर
मन्त्र सञ्ज्ञा
165
वर्णों की सङ्ख्या के अनुसार मन्त्रों की सञ्ज्ञा होती है जो कि इस प्रकार है-
एक वर्णात्मक मन्त्र को
दो
तीन
चार
पाञ्च
छः
सात
आठ
नौ
दस
एकादश
द्वादश त्रयोदश
चतुर्दश पञ्चदश षोडश
मन्त्र प्रयोग
"
"
"
14
"
"
39
"
11
"
"
99
12
"
"
"
मन्त्रच्छेद कार्यों में भेद
"
कर्तरी
सूची
मुद्गर
मुसल
क्रूर
श्रृखल कुकच
शूल
वज्र
शान्ति
परशु
चक्र
कुलिश
नाराच
भुशुण्डी पद्म
1
कर्तरी मन्त्र का प्रयोग होता है
सूची
भञ्जन
"
मुग्दर
शोषण
"
"
बन्धन
छेदन
"
घातकर्म
स्तम्भन
"
"
23
बन्धन
मुसल श्रृङ्खल
कुकच
शूल
वज्र
शान्ति
166
विद्वेष
33
समस्त कार्यों मेम्
उत्साह सैन्य भेद
मारण
शान्ति कार्य
रञ्जक
11
93
1
"
परशु चक्र
कुलिश
नाराच
भुशुण्डी
पद्म
चक्र
मन्त्र भेद
मन्त्र दो प्रकार के होते हैं-
१. पल्लव - जिस मन्त्र के आदि में नाम बोलना पड़ता है, उसे पल्लव मन्त्र कहते हैम् ।
यह मन्त्र मारण, संहारक कार्य, भूत प्रेत निवारण, उच्चाटन विद्वेषण आदि कायों में प्रयुक्त होता है ।
२. योजन- जिस मन्त्र के अन्त में नाम उच्चारण कर मन्त्र सम्पन्न किया जाता है, उसे योजन मन्त्र कहते हैम् ।
यह शान्ति, पुष्टि, वशीकरण, प्रायश्चित सम्मोहन, दीपन आदि कार्यों में प्रयुक्त होता है। स्तम्भन विद्वेषण आदि कार्यों में भी इसका प्रयोग किया जाता है।
३. रोध- नाम के पहले या मध्य में या अन्त में मन्त्र हो तो उसे ‘रोध’ सञ्ज्ञा से पुकारा जाता है ।
यह सम्मोहन कार्योम् एवं समस्त प्रकार की पीड़ा दूर करने में प्रयोग किया जाता है ।
जाता है ।
४. पर - नाम के प्रत्येक अक्षर के साथ मन्त्र सम्बन्धित हो, उसे ‘पर’ कहा
इस प्रकार के मन्त्रों का प्रयोग शान्ति कार्यों में होता है । ५. सम्पुट —— नाम से पूर्व अनुलोम तथा नाम के पर उसे सम्पुट कहते हैम् ।
अन्त में विलोम मन्त्र होने
इस प्रकार के मन्त्रों का प्रयोग कीलन स्तम्भन उच्चाटन आदि में किया जाता है ।
६. विदर्भ-मन्त्र के दो अक्षर फिर नाम के दो अक्षर फिर पुनः मन्त्र के दो अक्षर- इस क्रम से युक्त मन्त्र को ‘विदर्भ’ कहते हैम् ।
आकर्षण, वशीकरण आदि मेम् इसका प्रयोग होता है ।
मन्त्रों में ध्वनि प्रयोग
१. उच्चाटन विद्वेषण कार्यों में मन्त्र के अन्त में ‘हु’ शब्द का प्रयोग होता है ।
167
२. छेदन सम्बन्धित कार्यों में ‘फट्’
३. ग्रह शान्ति व अनिष्ट नाश हेतु ‘हुम्फट् ’ ४. पुष्टिकर्म, बोधन आदि कार्यों में ‘वौषट्’ ५. यज्ञ कार्यों में ‘स्वाहा’
६. पूजन कार्यों में ‘नमः’
७. शान्ति कार्यों में ‘स्वाहा’
८. वशीकरण, सम्मोहन आदि कार्यों में ‘स्वधा’ ९. विद्वेषण में ‘वषट्
१०. आकर्षण कार्यों में ‘हु’ ११. उच्चाटन में ‘वषट्’ १२. मारण कार्यों में ‘फट्’
षट् कार्यों मेम् आसन प्रयोग
१, पुष्टिकार्यों में ‘पद्मासन’ २. शान्ति कर्म में ‘स्वस्तिकासन’ ३. आकर्षण कार्यों में ‘कुक्कुटासन’ ४. उच्चाटन में ‘अर्द्धस्वस्तिकासन’ ५. स्तम्भन में ‘विकटासन’
६. वशीकरण में ‘भद्रासन’
तन्त्र कार्यो मेम् आसन प्रयोग
१. वशीकरण में ‘भेड़ या मेढ़े का आसन’
२. आकर्षण में ‘व्याघ्रासन’
३. उच्चाटन हेतु ‘उष्ट्रासन’
४. विद्वेषण में ‘घोड़े के चर्म का आसन’
५. मारण में ‘महिष चर्म आसन’
६. मोक्ष प्राप्ति हेतु ‘गज चर्मासन’
मन्त्र अनुष्ठान
हमारा जीवन मन्त्रमय है, जब तक हम सही तरीके से मन्त्रानुष्ठान के बारे मेम् उपकरण नहीं जुटाएङ्गे, तब तक सफलता प्राप्ति में काफी कुछ बाधाओं का सामना करना पड़ता है ।
मन्त्रानुष्ठान में सफलता प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष तथ्यों को स्मरण रखना चाहिए-
१. स्थान — मन्त्रानुष्ठान में स्थान का सर्वोपरि महत्त्व है, शुद्ध, सात्त्विक सरल एवं कोलाहल रहित स्थान ही मन्त्रानुष्ठान के लिए सर्वोपरि माना गया है,
168
सामान्यतः सिद्ध पीठ, नदीतट, गुफा पर्वत शिखर, तीर्थ, जङ्गल, उद्यान, तुलसी के पौधे के पास, बिल्ववृक्ष के नीचे या घर का एकान्त स्थान सर्व श्रेष्ठ है ।
योग संहिता में कहा गया है-
गोशाला वै गुरोर्गेहं देवायतन काननम् ।
पुष्य क्षेत्रं नदी तीरं सदा पूतं प्रकीर्तितम् ॥
(गौशाला, गुरु का घर, देव मन्दिर, बगीचा पुण्य क्षेत्र तथा नदी का किनारा सदा ही पवित्र कहे गए हैम् ।)
धात्री बिल्व समीपे च पर्वताग्रे गुहासुच ।
गङ्गायास्तु तटे वापि, कोटि कोटि गुणं भवेत् ॥
२. भोजन - - मन्त्रानुष्ठान में सफलता प्राप्त करने के लिए भोजन की शुचिता की ओर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
भोजन के तीन दोष हैं-
१. जाति दोष
२. आश्रय दोष
३. निमित्त दोष
१. जाति दोष – प्याज, लहसुन या अभक्ष्य पदार्थ जिस घर में बनते हैं, उस घर का अन्न तथा इस प्रकार के पदार्थ इसी श्रेणी मेम् आते हैम् ।
२. आश्रय दोष-सही एवं शुद्ध स्थान पर पदार्थ न रखे रहने से आश्रय दोष आ जाता है यथा शराब घर में रखा हुआ दूध आश्रय दोष त्याज्य है ।
युक्त
होने से
३. निमित्त दोष- शुद्ध स्थान पर, शुद्ध तरीके से बने हुए भोजन को भी यदि कुत्ता आदि स्पर्श कर लेता है तो वह निमित्त दोष की वजह से त्याज्य हो जाता है ।
साधक को चाहिए कि वह इन तीन दोषों से रहित भोजन का ही उपयोग करे । कीट युक्त अन्न, बासी भोजन, तथा तेल, नमक, उड़द, गाजर आदि का प्रयोग भी वर्जित है । इसी प्रकार कांस्य पात्र भी वर्जित माना गया है। भोजन कम करे, मेम् एक समय करे, तथा स्वाद के लिए नहीं करे, तभी साधक को अपने मन्त्रानुष्ठान सफलता मिल सकती है ।
३. अन्य तथ्य
१. स्त्री संसर्ग, स्त्री-चर्चा वर्जित है, वह स्थान भी छोड़ दे, जहां स्त्री रहती हो । स्व पत्ना के साथ रह सकता है, पर सम्भोग वर्जित है ।
२. उबटन, तेल क्षौर छोड़ दे ।
३. दिन मेम् एक बार भोजन करे, तथा बिना भोग लगाए भोजन न करे । ४. नित्य स्नान, सन्ध्या, नित्यकर्म हो ।169
५. अपवित्र हाथ, बिना स्नान किए, नग्नावस्था, या सिर पर वस्त्र रखकर मन्त्र साधना न करे ।
६. जपकाल में बातचीत न करे ।
७. जपकाल में बातचीत आवश्यक हो तो कर ले, पर फिर पुनः आचमन अङ्गन्यास करके ही जप प्रारम्भ करे ।
८. जप करते समय मल, मूत्र विसर्जन-वेग हो, तो इस वेग को रोके नहीं, क्योङ्कि रोकने से मन्त्र चिन्तन न होकर मल-मूत्र चिन्तन ही रहेगा, अतः मल-मूत्र विसर्जन कर स्नान कर आचमन अङ्गन्यास करके ही पुनः मन्त्र जप प्रारम्भ करे ।
९. जप करते समय – आलस्य, जम्भाई, नीन्द, छीङ्क, थूकना, भय, गुप्तेन्द्रिय- स्पर्श, क्रोध तथा बातचीत पूर्णतः वर्जित है ।
रिक
१०. मन्त्र जप करते समय निम्न तथ्यों पर विचार रखना चाहिए-
१. मन्त्र जप न तो जल्दी हो और न अत्यन्त धीमी गति से हो । २. मन्त्र को गाकर न जपे ।
३. मन्त्र जपते समय सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ़ना, मन्त्र का अर्थ न
जानना, भूल जाना भी उचित नहीम् ।
४. प्रथम दिन जितना जप किया जाय, नित्य उतना ही करे, जप सङ्ख्या
घटाना-बढ़ाना उचित नहीम् ।
११. मन्त्र सिद्धि हेतु निम्न नियमों का दृढ़ता से पालन करना उचित है-
१. भूमि शयन
२. ब्रह्मचर्य
३. गुरु-सत्सङ्ग, गुरु सेवा
४. मौन
५. त्रिकाल स्नान
६. पाप कर्म त्याग
७. नित्य पूजा ८. नित्य दान
६. देव प्रार्थना १०. नैमित्तक पूजा ११. इष्ट साधना १२. जप निष्ठा
१२. मन्त्र साधना काल में स्त्री, शुद्ध एवं पतित के साथ वार्ता न करे । १३. अनुष्ठान काल में यदि मरण-शौच या जनन शौच हो जाय तो भी
अनुष्ठान कार्य न छोड़े ।
१४. उबटन, इत्र, पुष्प आदि एव चर्म पादुका का प्रयोग न करे ।
१५. अपने आसन व भूमिशय्या पर अन्य किसी को भी बैठने न दे ।
170
१६. एक वस्त्र या बहुत अधिक वस्त्र पहिन कर मन्त्र जप न करे । १७. खाते समय या सोकर उठते ही जप नहीं करना चाहिए । १८. भूख से पीड़ित होने पर जप छोड़ दे ।
१६. पैर फैलाकर जप करना वर्जित है ।
मानस जप
मानस जप मेम् उपरोक्त कोई भी नियम लागू नहीं होते-
मन्त्रक शरणो विद्वान् मनसैव सदाभ्यसेत् अथुचिर्वा शुचिर्वापी गच्छस्तिष्ठन् स्वपन्नपि । न दोषो मानसे जाप्ये सर्व देशे ऽपि सर्वदा ।
अर्थात् मन्त्र के रहस्य को जानने वाला साधक, जो कि मन्त्रनिष्ठ ही हो गया हो, उसे मानस जप करते समय कोई दोष व्याप्त नहीं होता । वह उठते बैठते, सोते जागते, पवित्र अपवित्र अवस्था में भी जप चालू रख सकता है ।
जप तीन प्रकार के होते हैं :
१. उपांशु जप - उपांशु जप वह कहलाता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ एवं होण्ठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि साधक के कानों तक ही सीमित रहती है, दूसरा नहीं
सुन सकता ।
२. वाचिक जप - वह कहलाता है, जिसका स्पष्ट उच्चारण हो ।
३. मानस जप - इसमें होण्ठ या जीभ नहीं हिलती, अपितु मन्त्रार्थ का चिन्तन करते हुए मन से ही मन्त्र की बार-बार आवृत्ति होती है । मन्त्र सिद्धि
मन्त्र को सिद्ध करने के दो उपाय है—१. जात सूतक निवृत्ति २. मृत सूतक निवृत्ति ।
१. जात सूतक निवृत्ति — इसके लिए जप के प्रारम्भ से एक सौ आठ बार ॐ कार से पुटित करके इष्ट मन्त्र का जप करना चाहिए ।
फिर योनिमुद्रा अनुष्ठान करे
।
२. मृत सूतक निवृत्ति — इसके लिये भूत लिपि विधान करे । भूत लिपि विधान निम्न प्रकार से है :
अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ ह य ल व र ङ क ख घ ग ञ च छ झ जण ट उढ ड न त थ द म प फ भब श ष स (उसके बाद इष्ट मन्त्र उच्चारण; फिर) स षश बभ फप म द ध थ त न ड ढ ठ ट ण ज झ छ च ञ ग घ ख क ङ र व ल य ह औ ओ ऐ ए लृ ऋ उ इअ ।
171
नियम
१. इस प्रकार नित्य एक हजार जप एक महीने तक करने से ही मन्त्र जाग- रित होता है ।
२. पूर्व में तीन प्राणायाम और अन्त में भी तीन प्राणायाम करने चाहिए । ३. प्राणायाम का नियम यह है कि चार मन्त्र से पूरक, सोलह मन्त्र से कुम्भक और आठ मन्त्र से रेचक करना चाहिए ।
४. जप पूरा होने पर मानसिक रूप से उसे इष्ट देवता के दाहिने हाथ में समर्पित कर लेना चाहिए। यदि देवी इष्ट स्वरूप हो तो उसके बायें हाथ में समर्पित
करना चाहिए ।
५. प्रतिदिन अनुष्ठान के अन्त में जप का दशांश हवन, हवन का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश अभिषेक और यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन हो ।
६. यदि नियम सङ्ख्या पाञ्च का पालन किसी वजह से सम्भव न हो सके तो जितना होम हुआ है, उससे चौगुना जप ब्राह्मण को, छः गुना क्षत्रिय को तथा आठ
गुना वेश्य को करना चाहिए ।
७. अनुष्ठान के पाञ्च अङ्ग होते हैं
(१) जप
(४) अभिषेक
(२) होम
(३) तर्पण
(५) ब्राह्मण भोजन
यदि होम तर्पण अभिषेक न हो तो ब्राह्मण या गुरु के आशीर्वाद मात्र से भी ये कार्य सम्पन्न माने जा सकते हैम् ।
८. स्त्रियों को होम-तर्पणादि की आवश्यकता नहीं है, केवल जप मात्र से ही उन्हें सफलता मिल जाती है ।
६. अनुष्ठान पूर्ण होने पर प्रत्येक विधि से गुरु को सन्तुष्ट एवं प्रसन्न करे । मन्त्र साधना की गोपनीयत
मन्त्र साधनादि को पूर्णतः गोपनीय रखना चाहिए। ऐसा शास्त्रों में बार-बार उल्लेख है -
गोपनीयं
गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः । त्वयापि गापित्वयं हि न देयं यस्य कस्यचित् ।
साधना ज्योतिष परिप्रेक्ष्य में
मन्त्र साधन से पूर्व साधक के जन्म कालीन ग्रहों के अध्ययन से भी यह ज्ञात कर लेना चाहिए कि साधक किस प्रकार की उपासना में सफल होगा ।
जन्म कुण्डली में नवम भाव से ही उपासना का ज्ञान होता है । अपने अनुभव के आधार पर इस सम्बन्ध में कुछ तथ्य स्पष्ट कर रहा हूं :
१. यदि जन्म कुण्डली में वृहस्पति, मङ्गल एवं बुध साथ हो या परस्पर दृष्टि हो तो वह व्यक्ति साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है ।
172
२. गुरु बुध दोनों ही नवम भाव में हो तो वह ब्रह्म साक्षात्कार कर सकने में सफल होता है ।
३. सूर्य उच्च का होकर लग्नेश के साथ हो तो वह श्रेष्ठ साधक होता है । ४. यदि लग्नेश पर गुरु की दृष्टि हो तो वह स्वयं मन्त्र स्वरूप हो जाता है, मन्त्र उसके हाथों में खेलते हैम् ।
५. यदि दशमेश दशम स्थान में हो तो वह व्यक्ति साकार उपासक होता है । ६. दशमेश शनि के साथ हो तो वह व्यक्ति तामसी उपासक होता है । ७. अष्टम भाव में राहू हो तो जातक अद्भुत मन्त्र-साधक तान्त्रिक होता है । पर ऐसा व्यक्ति अपने आपको गोपनीय बनाये रखता है ।
८. दशमेश का शुक्र. या चन्द्रमा से सम्बन्ध हो तो वह दूसरों की सहायता से उपासना-साधना में सफलता प्राप्त करता है ।
६. यदि पञ्चम स्थान में सूर्य हो, या सूर्य की दृष्टि हो तो वह शक्ति उपा- सना में पूर्ण सफलता प्राप्त करता है ।
१०. यदि पञ्चम एवं नवम भाव में शुभ बली ग्रह हों तो वह व्यक्ति सगुणो- पासक होता है ।
११. नवम भाव में मङ्गल हो या मङ्गल की दृष्टि हो तो वह शिवाराधना में सफलता पा सकता है ।
१२. यदि नवम स्थान में शनि हो तो जातक साधु बनता है। यदि ऐसा शनि स्वराशि या उच्च राशि का हो तो व्यक्ति वृद्धावस्था में विश्व प्रसिद्ध सन्न्यासी होता है ।
१३. जन्म कुण्डली में सूर्य बली हो तो शक्ति उपासना करनी चाहिए । १४. चन्द्रमा बली हो तामसी उपासना में सफलता मिलती है । १५. मङ्गल बली हो तो शिव उपासना से मनोरथ प्राप्त करता १६. बुध प्रबल हो तो तन्त्र साधना में सफलता प्राप्त करता है । १७. गुरु श्रेष्ठ हो तो साकार ब्रह्म उपासना से ख्याति मिलती है । १८. शुक्र बलवान हो तो मन्त्र साधना में पूर्णता प्राप्त होती है ।
१६. शनि बलवान हो तो जातक जातक सिद्ध उपासक होकर विख्यात होता है, ऐसा जातक तन्त्र एवं मन्त्र दोनों में ही सफलता प्राप्त करता है ।
२०. यदि लग्न या चन्द्रमा पर शनि की दृष्टि हो तो जातक सफल साधक बन सकता है ।
२१. यदि चन्द्रमा नवम भाव में हो और उस पर किसी भी ग्रह की दृष्टि न हो तो वह व्यक्ति निश्चय ही सन्न्यासी बन कर सफलता प्राप्त करता है ।
२२. दशम भाव में तीन ग्रह बलवान हों, वे उच्च के हों, तो निश्चय ही जातक साधना मेम् उन्नति प्राप्त करता है ।
173
२३. दशम भाव का स्वामी सप्तम भाव में हो तो व्यक्ति तान्त्रिक क्षेत्र में सफलताएं प्राप्त करता है ।
२४. दशम भाव मेम् उच्च राशि के बुध पर गुरु की दृष्टि हो तो जातक जीवन्मुक्त हो जाता है ।
२५. बलवान नवमेश गुरु या शुक्र के साथ हो तो व्यक्ति निश्चय ही साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है ।
२६. यदि दशमेश दो शुभ ग्रहों के बीच में हो तो जातक को साधना में सम्मान मिलता है ।
२७. यदि वृषभ का चन्द्र गुरु-शुक्र के साथ केन्द्र में हो तो व्यक्ति उपासना क्षेत्र मेम् उन्नति करता है ।
२८. दशमेश लग्नेश का परस्पर स्थान परिवर्तन योग यदि जन्म कुण्डली में हो तो व्यक्ति निश्चय ही सिद्ध बनता है ।
२९. यदि सभी ग्रह चन्द्र और गुरु के बीच हों तो व्यक्ति तान्त्रिक क्षेत्र की अपेक्षा मन्त्रानुष्ठान में विशेष सफलता प्राप्त कर सकता है ।
३०. यदि केन्द्र और त्रिकोण में सभी ग्रह हों तो जातक प्रयत्न कर साधना क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है ।
इसके अतिरिक्त भी कई योग होते हैं। पर मैन्ने केवल उन कुछ योगों का वर्णन किया है जिसके आधार पर यह ज्ञात हो सकता है कि साधक के लिए कौन- सी साधना उपयुक्त रहेगी ।
साधना प्रारम्भ में शुभ-समय ज्ञान
शुभ समय में यदि कार्य प्रारम्भ किया जाय तो निश्चय ही सफलता मिल सकती है। कुछ शुभ समय स्पष्ट कर रहा हूम् ।
गुरु पुष्य
यदि
गुरुवार को
पुष्य नक्षत्र हो, तो पूर्ण सिद्धि योग बनता है । गुरौ पुष्य समायोगे सिद्ध योगः प्रकीर्तितः
सिध्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि, इति सिध्यः, पुष्यन्ति अस्मिन् सर्वाणि कार्याणि इति पुष्यः ।
रवि
पुष्य
पुष्य पर कृतं हन्ति न तु पुष्यकृतं परः
अपि द्वादश चन्द्र पुष्यः सर्वार्थ साधकः ।
भी इस प्रकार के कार्यों में शुभ है ।
वराह मिहिर ने साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए बारह महीनों में
174
प्रत्येक दिन के कुछ कालांश को अद्वितीय मान कर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, और बताया है कि यदि इस समय में साधना प्रारम्भ की जाय, तो निस्सन्देह सफलता प्राप्त होती है ।
पाठकों की जानकारी हेतु वराह मिहिर निर्देशित विजय काल नीचे की पङ्क्तियों में स्पष्ट कर रहा हूं
मास चैत्र, वैशाख, श्रावण, भाद्रपद, माघ, फाल्गुन इन छः महीनों में निम्न समय निर्विवाद रूप से स्वयं सिद्ध काल है ।
वार
रविवार
स्टैण्डर्ड समय
प्रातः ६ से ६-४८ तक
रात्रि ६-४८ से ७-३६
रात्रि ३-३६ से ४-२४
सोमवार
रात्रि
७-३६ से ९-१२ तक
मङ्गलवार
रात्रि
७-३६ से ९-१२ तक
रात्रि
३-३६ सें ४-२४ तक
बुधवार
दिन
३-३६ से ४-२४ तक
रात्रि
-१२ से १०-४५ तक
गुरुवार
रात्रि
७-३६ से ९-१२ तक
शुक्रवार
रात्रि
१-१२ से ३-३६ तक
शनिवार
नहीं
मास - ज्येष्ठ-आषाढ़
वार
स्टेण्डर्ड समय
रविवार
दिन
३-३६ से ४-२४ तक
रात्रि
४-२४ से ६-०० तक
सोमवार
रात्रि
२-४८ से ३-३६ तक
मङ्गलवार
रात्रि
५- १२ से ६०० तक
बुधवार
प्रातः
गुरुवार
शुक्रवार
रात्रि
६-४५० से ८ २४ तक
नहीं
१०-४८ से ११-३६ तक
शनिवार
प्रातः
६-०० से ६-४८ तक
रात्रि
८-२४ से ६-१२ तक
वार
रविवार
नहीं
सोमवार
प्रातः
दिन
मङ्गलवार
दिन
मास आश्विन, कार्तिक, मार्गशीष, पौष
स्टेण्डर्ड समय
६-१२ से १०-४८ तक ३-३६ से ६-०० तक १२-२४ से २-४८ तक
बुधवार
दिन
६-४८ से ८-२४ तक
गुरुवार
सायं
५-१२ से ६-०० तक
शुक्रवार
सायं
४-२४ से ६-०० तक
रात्रि
१-१२ से २०० तक
शनिवार
सायं
५- १२ से ६०० तक
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उपरोक्त समय स्वयंसिद्ध है, अद्भुत सफलतादायक है, इसमें न चन्द्रबल न
ग्रह बल न अन्य योग देखने की जरूरत है, मिहिराचार्य ने कहा है
न तिथि र्न नक्षत्रं न योगं करणं तथा शिवस्थाज्ञा समादाय देवकार्यं विचितयेत् न वारादि ग्रहाश्चैव व्यतिपातौ न विष्टि च दिक्शूलं चन्द्रमा नैव तथा पञ्चाग दर्शनम ॥ महेन्द्रो विजयो नित्यं -।
अब मन्त्र संस्कार से पूर्व मैं सिद्धियां, न्यास आदि के बारे में सङ्क्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहा हूं :
सिद्धियां
सिद्धियां मुख्यतः आठ मानी गई हैं, जिन्हें प्राप्त करने के लिए मन्त्र प्रयोग, अनुष्ठान साधनादि की जाती है।
१. अणिमा- इस सिद्धि से देह को अत्यन्त छोटा लघु बनाया जा सकता है, सीताजी की खोज में लङ्का में प्रवेश करते समय हनुमान ने इसी सिद्धि से अपनी देह को
लघु रूप दिया था ।
२. महिमा - इस सिद्धि से देह को वृहद आकार दिया जा सकता है, तथा अपनी देह को पर्वत के समान विशाल बना सकते हैं। समुद्रोल्लङ्घन करते समय हनुमान ने अपने शरीर को पर्वताकार इसी सिद्धि से बनाया था ।
३. लघिमा — इस दृष्टि से शरीर को कुसुमवत् हल्का बनाकर हवा में तैरने में सक्षम हो सकते हैम् ।
४. प्राप्ति - इन्द्रियों को नियन्त्रण करने तथा उन्हें मनोनुकूल बनाने मेम् इस सिद्धि का सहयोग ही रहता है ।
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५. प्राकाम्य — इस सिद्धि के माध्यम से परलोकगत विषयों को. चाक्षुष ज्ञान हो सकता है ।
६. ईशिता-माया को प्रेरित करना इसी शक्ति के द्वारा ही सम्भव है ।
७. वशिता अपने आपको माया छल प्रपञ्च काम क्रोधादि से निर्लिप्त बनाने मेम् इसी सिद्धि का प्रयोग किया जाता है ।
८. ख्याति — सांसारिक योग, ऐश्वर्य, धन मान, पद प्रतिष्ठा आदि तुरन्त दिलाने में यह शक्ति कार्य करती है ।
इसके अतिरिक्त दस सिद्धियाम् और हैं, जो ‘गौण’ कहलाती हैं, पर उनका भी विशेष महत्त्व है ।
गौण सिद्धियाम्
।
१. अनूमि– भूख, प्यास शौक, मोह, जरा, मृत्यु — इन छः बाधाओं से मुक्ति इस साधना के माध्यम से हो सकती है ।
२. दूर श्रवण सिद्धि - इस सिद्धि के माध्यम से साधक अपने स्थान पर बैठा- बैठा कितनी ही दूर होने वाली बातचीत को शब्दश: सुन सकता है ।
३. दूरदर्शन सिद्धि - इस सिद्धि के माध्यम से
विश्व में कहीं पर भी किसी भी प्रकार की घटती हुई घटनाओं को अपने ही स्थान पर बैठे-बैठे देखा जा सकता है, जैसे सञ्जय ने सैकड़ों मील दूर बैठकर भी महाभारत युद्ध को चाक्षुष देख लिया
था ।
४. मनो जव सिद्धि – मनोवेग से सशरीर कहीं पर भी पहुञ्च सकने की साधना को ‘मनो जव सिद्धि कहते हैम् ।
५. कामरूप सिद्धि — इस बालक वृद्ध युवा जैसा शरीर बना
सिद्धि के द्वारा साधक चाहे तो अपने शरीर को सकता है ।
६. परकाय प्रवेश - अपने शरीर से निकलकर दूसरे की काया में प्रवेश करने की सिद्धि को परकाय प्रवेश कहते हैम् ।
७. स्वच्छन्दमरण-मृत्यु के वश में न रहकर अपनी इच्छा से शुभ समय पर मृत्यु प्राप्त करने की सिद्धि को स्वच्छन्दमरण सिद्धि कहते हैम् । भीष्म की कथा इस सम्बन्ध में विख्यात है ।
८. देवक्रीडानु दर्शन- स्वर्ग में देवता जो क्रीड़ा करते हैं, उसे देख सकना और तदनुरूप क्रीड़ाएं करने की सिद्धि को देवक्रीड़ानुदर्शन कहते हैम् ।
६. यथासङ्कल्प संसिद्धि- जो मन में निश्चय हो जाय, वह कार्य तुरन्त हो जाय, किसी को कुछ कह दे, कहते ही वह हो जाय, जो वस्तु प्राप्त करनी हो इच्छा करते ही प्राप्त हो जाय, इस प्रकार की सिद्धि को यथासङ्कल्प संसिद्धि कहते हैम् ।
१०. अप्रतिहतगति — इस सिद्धि से साधक कहीं भी आ जा सकता है, उसके
लिए कुछ भी असम्भव नहीं होता ।
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क्षुद्र सिद्धियां
क्षुद्र सिद्धियां पाञ्च कही जाती हैम् । यद्यपि इन्हें क्षुद्र सिद्धियां कहा गया है, पर आज के युग मेम् इनका काफी महत्व है ।
१. त्रिकालज्ञता—इसके माध्यम से किसी देश, जाति या व्यक्ति का भूत, भविष्य, वर्तमान जाना जा सकता है ।
२: अद्वन्द्वता — सर्दी-गर्मी वर्षा आदि विभिन्न ऋतुओं को अपने अनुकूल बनाना या अपने रहने के स्थान के चतुर्दिक् एक-सा मौसम बनाये रखना इसी सिद्धि के द्वारा सम्भव है ।
३. परचित्ताज्ञभिज्ञता — दूसरों के मन का हाल जानना, या उसके मन मेम् उठते हुए विचारों को पकड़ लेने की क्षमता प्राप्त करने की साधना को ‘परचित्ताज्ञ- भिज्ञता’ के नाम से जाना जाता है ।
४. प्रतिष्टम्भ - शरीर पर जहर, आग, वायु, सूर्य, ताप आदि का कोई असर न होना ।
५. अपराजय- वाद-विवाद, युद्ध आदि में सर्वदा अपराजित रहकर विजय प्राप्त करना इसी साधना के माध्यम से सम्भव है ।
ऊपर मैन्ने कुछ साधनाओम् एवं सिद्धियों का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त भी कई ऐसी साधनाएं हैं जिनके द्वारा आश्चर्यजनक सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं। ये सभी सिद्धियां गुरुकृपा या गुरु-शक्ति अर्थात् शक्तिपात के माध्यम से ही सम्भव हैम् ।
दो प्रकार से सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं
१. गुरु
के सान्निध्य में रहकर, उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करके उनके आदेशानुसार साधना में प्रवृत्त होकर सिद्धि प्राप्त करना ।
२. या जब गुरु कृपा हो, तो वह सिद्धि रूप गुरु ‘शक्तिपात’ के द्वारा बिना साधना के शिष्य को सिद्ध बना लेते हैम् ।
रहा हूं :
यहां मैं साधकों की जानकारी के लिए शक्तिपात पर कुछ प्रकाश डाल
शक्तिपात
है—
शङ्कराचार्य ने ‘विवेक चूड़ामणि’ में गुरु को ईश्वर का ही प्रतिरूप बताया
अद्वैतानन्दपूर्णाय व्यास शङ्कर रूपिणे ।
नमोऽस्तु वासुदेवाय गुरवे सर्वसाक्षिणे ॥
यह मानव-जीवन कई योनियों में भटकने के बाद प्राप्त होता है। मानव-जीवन में भी श्रेष्ठ कर्मों से ‘पुरुष’ जीवन प्राप्त होता है। इस पुरुष जीवन में भी श्रेष्ठता ‘विप्रता’ है। इससे भी आगे ‘वैदिक धर्म मार्ग चरता’ है जिसके बाद विद्वत्ता है । विव से आत्मविवेक प्राप्त होता है और इसी आत्मविवेक से ‘अहं ब्रह्मास्मि’ पद प्राप्त कर
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मोक्ष - लाभ होता है । इस सारे रास्ते में केवल गुरु ही पथ-प्रदर्शक बन सकता है।
सद्गुरोः सम्प्रसादेस्य प्रतिबन्धक्षयस्ततः । दुर्भावनातिरस्काराद्विज्ञानं मुक्तिदं क्षणात् ॥
इस प्रकार सिद्धिदाता गुरु की कृपा उनकी अनन्य सेवा से ही सम्भव है ।
अयं गुरुप्रसादस्तत्तोषात्प्राप्यो न चान्यथा ।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेव्यया ॥
वसिष्ठ ने श्रीराम को स्पष्ट शब्दों में बताया था कि शक्तिपात केवल कृपा से ही सम्भव है और गुरु-कृपा शिष्य द्वारा सेवा से ही प्राप्त हो सकती है ।
परिपक्कमला ये तानुत्सादन हेतु शक्तिपातेन ।
यो जयति परे तत्वे स दीक्षयाचार्य मूर्तिस्थः ॥
गुरु-
और इस शक्तिपात के द्वारा ही शिष्य को अलभ्य सिद्धियाम् एवं मुक्ति प्राप्त
हो सकती है ।
शक्तिपातेन संयुक्ता विद्या वेदान्त वाक्यजा ।
यदा यस्य तदा यस्य विमुक्तिर्नात्र संशयः ॥
वस्तुतः सद्गुरु अपनी करुणा के वशीभूत होकर शिष्य की सेवा से प्रसन्न हो ‘शक्तिपात’ के द्वारा उसे ‘स्वयंवत्’ बना लेते हैम् । श्री शङ्कराचार्य ने इस सम्बन्ध में ‘शतश्लोकी’ के प्रारम्भ में ही एक सुन्दर वर्णन किया है–
दृष्टान्तो नैव
दृष्टस्त्रिभुवनजठरे दृष्टस्त्रिभुवनजठरे
सद्गुरोर्ज्ञानदातुः । स्पर्शश्चेत्तत्र कल्प्यः स नयति यदहो स्वर्णतामश्मसारम् ॥
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरणयुगे सद्गुरुः स्वीय शिष्ये । स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरुपमस्तेन वा लौकिकोऽपि ॥
अर्थात् इस त्रिभुवन में गुरु की उपमा देने लायक कोई दृष्टान्त नहीं है । गुरु का पारस की उपमा भी नहीं दी जा सकती, क्योङ्कि पारस तो मात्र सोना ही बनाता है, उस वस्तु को पारस नहीं बना सकता; परन्तु सद्गुरु तो अपने शिष्य को स्वयं के समान ही बना लेता है।
शक्तिपात करते समय गुरु अपने पास जो साधना एवं सिद्धियों का समुद्र है, वह शिष्य मेम् उण्डेल देता है और शिष्य मेम् ऐसी क्षमता पैदा कर लेता है कि उसमेम् उन सिद्धियों को समाहित करने की शक्ति आ जाय ।
शक्तिपात करते समय गुरु जब शिष्य को अपने गले लगाता है तब उसके शरीर में कम्पन होने लग जाता है, आनन्द के अतिरेक से आंसू बहने लग जाते हैं, पसीना छूट जाता है, सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठता है, तथा शिष्य एक अनिर्बञ्च- नीय प्रकाश से भर जाता है ।
देहपातस्तथा
कम्पः
परमानन्द हर्षणे । स्वेदी रोमाञ्च इत्येतच्छक्तिपातस्य लक्षणम. ॥179
कुलार्णव तन्त्र में तीन प्रकार की दीक्षाओं का वर्णन है—
१. स्पर्श - दीक्षा
यथा पक्षी स्वपक्षाम्यां शिशून् संवर्धयैच्छनैः । स्पर्शदीक्षोपदेशस्तु तादृशः कथित प्रिये ॥
जिस प्रकार पक्षी अपने छोटे-छोटे (उड़ने मेम् अशक्य) बच्चों का लालन-पालन करता है, उसी प्रकार स्पर्श दीक्षा से गुरु अपने शिष्य को योग्य बनाता है ।
२. दृग्दीक्षा
स्वापत्यानि यथा कर्मी वीक्षणेनैव पोषयेत् ।
दृग्दीक्षाख्योपदेशस्तु तादृशः कथित प्रिये ॥
जिस प्रकार कछवी अपनी दृष्टि मात्र से बच्चों का पालन-पोषण करती है, ठीक उसी प्रकार की दृग्दीक्षा होती है ।
३. ध्यान- दीक्षा
यथा मत्सी स्वतनयान् ध्यानमात्रेण पोषयेत् । वेधदीक्षोपदेशस्तु मनसः स्यात्तथाविधः ||
।
जिस प्रकार मछली केवल ध्यानमात्र से अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है, उसी प्रकार गुरु उस दीक्षा के माध्यम से शिष्य को योग्य बनाता है ।
चाहे शिष्य निरक्षर हो, चाहे उसे आसन-प्राणायाम आदि का ज्ञान न हो, पर शक्तिपात के बाद ये सब क्रियाएम् अनायास ही होने लग जाती हैम् । कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है और वह स्वयं गुरुवत् बन जाता है ।
जिस प्रकार जलता हुआ दीपक किसी दूसरे दीपक को जलाकर उसमेम् ऐसी क्षमता पैदा कर लेता है, कि वह दीपक अन्य दीपकों को भी जला सके, ठीक इसी प्रकार गुरु अपनी सिद्धि शिष्य में समाहित कर उसे इस योग्य बना लेता है कि वह दूसरों को शक्तिपात कर सके ।
शक्तिपात करते समय गुरु दया भावना से प्रेरित होकर (शुद्धचित्त शिष्य के सिर पर ) अपने दाहिने हाथ में शिव-शक्ति तथा बायें हाथ में गुरु-शक्ति भरकर रख देता है और ऐसा करते ही शक्तिपात हो जाता है ।
वस्तुतः विशिष्ट योगी साधु गुरु ही ऐसी कृपा करने में समर्थ होते हैम् ।