मन्त्र शब्द का मूल अर्थ है, ‘गुप्त परामर्श’ । श्रद्धा से जब मन्त्राक्षर अन्तर्दश में प्रवेश कर एक दिव्य आहिण्डन करते हैं, तब एक जीवन्त ज्वलन्त एवं जागरित रूप चमक उठता है, और यही दिव्य रूप साकार होकर सिद्धि में परिणित हो जाता है- मन्त्रे तीर्थे द्विजे दे वे देवज्ञे भेषजै गुरौ । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥
मन्त्र और सिद्धि परस्पर जुड़े हुए शब्द हैं, पर इसके लिये कई तथ्यों को ध्यान विधिवत् पालन न करने से इसमेम् असफलता मिलती है, फलस्वरूप अश्रद्धा उत्पन्न होती है, इसीलिए महर्षियों ने कहा है-
में रखते हुए उनका सम्यक् पालन आवश्यक है ।
एतद् गोप्यं महागोप्यं न देयं यस्य कस्यचित् ।
मन्त्र शब्द ही अपने आपमें सारगर्भित है, इस सम्बन्ध में स्पष्ट है—
मनमात् त्रायेत यस्मात्तस्मान्मन्त्रः प्रकीर्तितः’ अर्थात् ‘म’ कार से मनन और त्र कार से रक्षण अर्थात् जिन विचारों से या कार्यों से हमारे कार्य सिद्ध होम् उसे मन्त्र कहते हैं, मन से जब वर्णोच्चार का घर्षण होता है तब तक एक दिव्य ज्योति प्रगट होती है । और इसी से सफलता प्राप्त होती है ।
मान्त्रिकों के अनुसार निरन्तर मन्त्र जाप करते रहना ही सिद्धि है, ’ जपात्सिद्धिर्ज पात्सिद्धि:’ जपते ही चले जाओ निश्चय ही सफलता मिलेगी ।
मन्त्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है, इसीलिये उच्चस्तरीय साधक अपने योग्यतम शिष्य को श्यामा पीठिका में दीक्षित करते हैम् । जो साधक श्यामा पीठिका सिद्ध कर लेता है, वह निश्चय ही स्वयं मन्त्र रूप हो जाता है ।
मन्त्र शास्त्र में चार पीठिकाओं का उल्लेख है- १. श्मशान पीठ २. शव
पीठ - ३. अरण्य पीठ ४. श्यामा पीठ ।
१. श्मशान पीठ — कुछ ऐसे मन्त्र होते हैं, जो रात्रि में श्मशान में जाकर जपे जाते हैम् । ऐसे मन्त्रों को श्मशान पीठ कहा जाता है ।
२. शव पीठ - किसी मृत कलेवर के ऊपर बैठकर या उसके भीतर घुसकर मन्त्र जप साधना शव पीठ कहलाती है। तान्त्रिक साधना मेम् इसका विशेष महत्त्व है ।
३. अरण्य पीठिका - जहां लोगों का आवागमन न हो, कोलाहल से दूर
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जङ्गल में, किसी वृक्ष के नीचे या शून्य मन्दिर में मन्त्र जप को अरण्य पीठिका कहा जाता है ।
४. श्यामा पीठिका — यह सर्वाधिक कठिन पीठिका है, बिरला ही इस पीठिका से उत्तीर्ण हो सकता है । एकान्त स्थान में द्वार बन्द कक्ष या निर्जन स्थान में षोडश- वर्षीय नवयौवना सुन्दर स्त्री को वस्त्र रहित कर सम्मुख बिठाकर जो साधक बिना विचलित हुए पूर्ण एकात्म भाव से मन्त्र जप करे, उसे श्यामा पीठिका कहते हैम् ।
जैसा कि कई बार उल्लेख किया जा चुका है, कि साधक को योग्य गुरु के सान्निध्य में ही साधना करनी चाहिए, गुरु का आत्मदान और शिष्य का आत्मसमर्पण इन दो धाराओं के मिलन से ही सिद्धि प्राप्त होती है, प्रत्येक व्यक्ति के लिये प्रत्येक इष्ट फलप्रद नहीं होता, और न प्रत्येक मन्त्र ही शीघ्र साध्य होता है । अतः यह गुरु के द्वारा ही ज्ञात हो सकता है, कि कौनसा मन्त्र अमुक साधक के लिए उपयुक्त है और कौन से इष्टदेव की साधना शीघ्र शुभ फलप्रद है ।
दीक्षा
गुरु दीक्षा देता है— ज्ञान सिद्धि एवं शक्ति का दान तथा अज्ञान, पाप एवं दारिद्रय का नाश ही ‘दीक्षा’ है । चाहे कितना ही समय बीत जाय, परन्तु जब तक दीक्षा प्राप्त नहीं होती, तब तक सिद्धि का मार्ग सही रूप में प्रशस्त नहीं होता ।
दीक्षा एक तेजपुञ्ज है, जिससे साधक के मन में निहित अज्ञान एवम् अविद्या का नाश होता है, उसके शरीर की अशुद्धियां समाप्त होती हैं तथा गुरु के द्वारा ज्ञान सञ्चार एवम् आत्मदान की प्रक्रिया होती है ।
दीक्षा के तीन भेद हैं- १. शाक्ती २. शाम्भवी और ३. मान्त्री ।
कुण्डलिनी जाग्रत कर उसे ब्रह्मनाड़ी में से होकर परम शिव में मिला लेने को ही शाक्ती दीक्षा कहा जाता है ।
श्री गुरुदेव अपनी प्रसन्नता के क्षणों में दृष्टि अथवा स्पर्श से शिष्य को स्वयंवत् कर देने की क्रिया को हो शाम्भवी दीक्षा कहा गया है ।
मन्त्रोपदेश के द्वारा गुरु जो ज्ञान देता है, उसे मान्त्री दीक्षा कहते हैम् ।
सभी साधक शक्तिपात् के पात्र नहीं होते, मान्त्री दीक्षा से ही वे इसके अधि- कारी होते हैम् ।
शारदा पटेल ग्रन्थ में दीक्षा के चार भेद बताये हैं-
१. क्रियावती- इसमें कर्मकाण्ड का पूरा उपयोग होता है ।
२. वर्णमयी - यह न्यासरूप है, वर्णों का अनुलोम विलोम गति से शिष्य के शरीर में समस्त वर्णों का सञ्चार करने की क्रिया को वर्णमयी दीक्षा कहा गया है ।
३. कलावती - मानव शरीर में पाञ्च शक्तियां हैम् ।
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(१) पैर के तलवे से जानु पर्यन्त, (२) जानु से नाभिपर्यन्त, (३) नाभि से कण्ठ पर्यन्त
(४) कण्ठ से ललाट पर्यन्त
(५) ललाट से शिखापर्यन्त
निवृत्ति शक्ति प्रतिष्ठाशक्ति विद्या शक्ति
शान्ति शक्ति
शान्त्यतीत कला शक्ति
गुरु एक शक्ति को दूसरी शक्ति में समाहित कर शिष्य को शिवरूप कर देते हैं, इसी को कलावती दीक्षा कहा गया है ।
४. वेधमयी - षट्चक्र भेदन ही वेधमयी दोक्षा कही जाती है । जब गुरु कृपा कर शक्तिपात् के द्वारा शिष्य का षट् चक्र भेदन कर लेते हैं तो उसे वेधमयी दीक्षा कहा जाता है ।
५. पञ्चायतनी दीक्षा—उपरोक्त चार प्रकार की दीक्षाओं के अतिरिक्त यह दीक्षा भी प्रचलित है, इसमें शक्ति, विष्णु, शिव, सूर्य और गणेश – इन पाञ्चों में से एक को प्रधान मान कर उसे बीच में स्थापित कर अन्य चारों देवताओं को चतुर्दिक स्थापित कर पूजा एवं साधना करा कर दीक्षा दी जाती है ।
६. क्रम दीक्षा - शास्त्रों में क्रम दीक्षा का भी उल्लेख है, इसमें चिन्तन एवं गुरु-शिष्य सेवा सहयोग बना रहता है, बढ़ता है, एवं गुरु अपने शिष्य को धीरे-धीरे
आत्मवत् बना लेते हैम् ।
दीक्षा हो जाने पर गुरु कुछ मर्यादाओं को स्पष्ट करता है, जिनका पालन शिष्य के लिए उचित रहता है। नारद पाञ्चरात्र मेम् इस प्रकार की कुछ मर्यादाओं का उल्लेख है-
स्व मन्त्रो नोपर्देष्टव्यो वक्तव्यश्च न संसदि । गोपनीये तथा शास्त्रं रक्षणीयं शरीरवत् ॥ वैष्णवानां पराभक्तिराचार्याणां विशेषतः ।
• पूजनं च यथा शक्ति तानापन्नांश्च रक्षयेत् ॥ प्राप्त मायतानाद्विष्णोः शिरसा प्रणतो वहेत् । निक्षिपेदम्भसि ततो न पतेद वनौ यथा ॥ सोमसूर्यान्तरस्थं च गवाश्वत्थाग्निमध्यगम् । भावयेह वतं
विष्णुं गुरु विप्रशरीरगम ॥ प्रदक्षिणे प्रयाणं च प्रदाने च विशेषतः । प्रभाते च प्रवासे च स्वन्मन्त्रं बहुशः स्मरेत् ॥ स्वप्ने वाक्षि समक्षं वा आश्चर्य
अकस्माद् यदि जायेत न ख्यातव्यं
मति हर्षदम ।
गुरोविना ॥
अर्थात् गुरु द्वारा जो मन्त्र दिया गया है, उसे अन्य किसी को भी न बताना.
न सभा में कहना चाहिए। अपनी पूजा विधि भी किसी को नहीं बतानी चाहिए और
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इससे सम्बन्धित शास्त्र की रक्षा शरीरवत् करनी चाहिए। वैष्णवों तथा आचार्यों के प्रति सम्मान प्रगट करना, उनकी पूजा करना तथा आपत्तिग्रस्त होने पर उनकी सेवा सुश्रुषा करनी चाहिए। भगवान के मन्दिर से जो पुष्पादि प्राप्त हों, उसे सिर पर रखना चाहिए, जमीन पर न गिरावे और किसी कूप या जलाशय में विसर्जित कर दे । सूर्य, चन्द्र, गौ, पीपल, अग्नि, ब्राह्मण और गुरु मेम् अपने इष्टदेव के दर्शन करे, तथा यात्रा काल में, प्रवास में प्रातः सायम् ईश्वर का बार-बार स्मरण करे । स्वप्न में या जाग्रतावस्था में कोई चमत्कार या अलौकिक दृश्य दीख जाय, तो उसे किसी अन्य को न कहकर मात्र अपने गुरुदेव समक्ष ही व्यक्त करे ।
के
पालन करता हुआ जो शिष्य गुरु- सेवा में
गुरु-सेवा
इस प्रकार सभी मर्यादाओं का लीन रहता है, वह निश्चय ही सफलता पाता है ।
भूत शुद्धि
वशिष्ठ संहिता में स्पष्ट रूप से कहा है, कि बिना भूत शुद्धि के किसी भी प्रकार की कोई भी साधना सफल नहीं हो पाती। भूत शुद्धि का तात्पर्य है— शरीरस्थ मलिन भूतों की भस्म कर नवीन दिव्य भूतों का निर्माण करना है, जिससे कि शरीर
पवित्र होकर साधना के दिव्यालोक से प्रकाशित हो सके ।
भूत शुद्धि का क्रम इस प्रकार है-
१. सर्व प्रथम स्नानादि कर अपने आसन पर बैठ, और ऐसा विचार मन में लावे, कि मेरे चारों तरफ अग्नि-पुञ्ज है, जिसे पार कर कोई पाप निकट नहीम् आ सकता । इस हेतु आसन के चारोम् ओर अग्निबीज ‘रं’ का उच्चारण करता हुआ जल छिड़के ।
२. फिर सङ्कल्प - भूत शुद्धि-सङ्कल्प करे— ॐ अद्यत्यादि देवपूजा कार्य सिद्धयर्थं भूत शुद्धाद्यहं करिष्ये’
करे ।
३. फिर कुण्डलिनी का चिन्तन करे, और उसे उद्बुद्ध करने का प्रयास
४. फिर स्वशरीर में पैर के तलवे से तालु तक जो पृथिवीमण्डल है, उसका ध्यान करे ।
१. पैर के तलवे से जङ्घा तक पृथ्वीमण्डल, चौकोर पीतरङ्ग का है, इसे ऊं हां ब्रह्मणे पृथिव्याधिपतये निवृत्ति कलात्मने हुं फट् स्वाहा — मन्त्र से जल में विसर्जित करे ।
२. जङ्घा से नाभिपर्यन्त अर्द्धचन्द्राकार श्वेत वर्णं जल मण्डल है । इसे ‘ॐ ह्रीं वैष्णवे जलाधिपतये प्रतिष्ठा कलात्मने हूं कट् स्वाहा, मन्त्र से अग्नि में विसर्जित कर देना चाहिए।
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३. नाभि से हृदय तक त्रिकोणात्मक अग्निमण्डल है, इसे ‘ऊं हृ रुद्राय तेजो ऽधिपतये विद्याकलात्मने हुं फट् स्वाहा, मन्त्र से वायुमण्डल में विलीन करे देना चाहिए ।
४. हृदय से भू मण्डल तक गोलाकार वायु मण्डल है, जिसे ‘ॐ’ हृ* ईशानाय वायव्याधिपतये शान्ति कलात्मने स्वाहा, मन्त्र से आकाश मण्डल में विलीन कर देना चाहिए ।
५. भ्रूमध्य से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त आकाश मण्डल है, इसे ऊं हैं सदाशिवाय आकाशाधिपतये शान्त्यतीत कलात्मने हुं फट् स्वाहा — मन्त्र से अहङ्कार में विलीन कर दे, फिर अहङ्कार को महत्तत्व में, तथा महत्तत्व को प्रकृति में विलीन कर देना चाहिए, और प्रकृति को नित्य शुद्ध बुद्ध स्वरूप परमात्मा में विलीन कर देना चाहिए ।
इसके पश्चात् पाप पुरुष का शोषण करने के लिए ‘ॐ’ शरीरस्यान्तर्यामी ऋषिः सत्यं देवता प्रकृति पुरुष प्रछन्द्वः पाप पुरुष शोषणे विनियोगः विनियोग करे ।
भूत शुद्धि साधना की सफलता के लिए परम आवश्यक है, मेरे गुरु भ्राता ने किसी महात्मा से प्राप्त कर एक और प्रकार भूत शुद्धि का बताया था, जो कि प्रभावपूर्ण एवं पूर्ण समर्थ है ।
इस भूत शुद्धि में पाञ्च मन्त्र हैं-
१. ॐ भूत शृङ्गाटात् शिरः सुषुम्णापथेन जीव शिवं परम शिव पदे योज
यामि स्वाहा ।
२. ॐ यं लिङ्ग शरीरं शोषय स्वाहा ।
३. ॐ रं सङ्कोच शरीरं दह दह स्वाहा ।
४. ॐ परम शिव सुषुम्नापथेन मूल शृङ्गाट्म उल्लस उल्लस, ज्वल ज्वल,
प्रज्वल प्रज्वल, सोऽहं हंसः स्वाहा ।
५. ॐ भ्रं भूत दह दह स्वाहा ।
उपरोक्त मन्त्रों की भावना समझते हुए आवृत्ति करनी चाहिए । यदि कुछ दिनों तक इसका अभ्यास किया जाता है, तो विचित्र तरह से अनुभव प्राप्त होते हैं, तथा आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त होती हैम् ।
मन्त्र की महिमा