०९ पूजा

सङ्क्षेप व विस्तार में कई पूजा भेद हैं चौसठ, अठारह, सोलह, दस, पाञ्च

अठारह उपचार

१. आसन

२. स्वागत

३. पाद्य

४. अर्ध्य

५. आचमनीय

६. स्नान

७. वस्त्र

६. भूषण

१०. गन्ध

११. पुष्प

८. यज्ञोपवीत १२. धूप

१३. दीप

१४. नैवेद्य

१५. दर्पण

१६. मात्य

१७. अनुलेपन

१८. नमस्कार ।

सोलह (षोडशोपचार)

१. पाद्य

२. अर्ध्य

३. आचमनीय

४. स्नान

५. वस्त्र

६. आभूषण

  1. धूप

१०. दीप

७. गन्ध ११. नैवेद्य

८. पुष्प १२. आचमन

१३. ताम्बूल

१४. स्तवपाठ

१५. तर्पण

१६. नमस्कार ।

दसोपचार

१. पाद्य

५. आचमनीय ६. दीप

२. अर्ध्य ६. गन्ध

३. आचमन

७. पुष्प

४. मधुपर्क ८. धूप

१० नैवेद्य ।

पञ्चोपचार

१. गन्ध

४. दोप

२. पुष्प ५. नैवेद्य ।

३. धूप

सामान्य पूजा विधि

दिशा रक्ष करना-

हाथ में सरसों लेकर दिग्रक्षा करे—

150

ये

ॐ अपसर्पन्तु ये भूता ये भूता भुविसंस्थिता । भूता विघ्नकर्त्तारस्ते गच्छन्तु शिवाज्ञया ॥ अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा सर्वतो दिशम् । सर्वेषामवरोधेन

पञ्चगव्य से भूमि शुद्ध करे

पञ्चगव्य प्रमाण

पूजा कर्म समारभे ॥

पञ्च गव्य : गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सपि कुशोदकं पञ्च गव्य मिदं प्रोक्तम्महापातक

गोशकृदद्विगुणं मत्रं दुग्धं दद्याच्चतुर्गुणम घृतं चाष्ट गुणं चैव पेञ्चगव्ये तपादधि ॥

शास्त्रों में पाञ्च प्रकार से पूजा विधान है :

नाशनम

१. अभिगमन — देवता के स्थान को लीप कर शुद्ध करना, साफ करना, निर्माल्य हटाना आदि अभिगमन के अन्तर्गत आता है ।

२. उपादान —गन्ध पुष्प धूप, दीप आदि पूजा सामग्री का सङ्ग्रह उपादान कहलाता है ।

३. योग — आत्मरूप से इष्टदेव को भावना करना योग कहलाता है ।

४. स्वाध्याय -मन्त्र जप, स्तोत्र, पाठ, गुण, नाम, लीला आदि का कीर्तन करना स्वाध्याय कहलाता है ।

५. इज्या — उपचारों के द्वारा अपने आराध्यदेव की पूजा करने को ही इज्या कहते हैम् ।

उपरोक्त पाञ्च प्रकार की पूजा का शास्त्रों में विशेष महत्व है । इन्हें क्रमश: साष्टि, सामीप्य, सालोक्य, सायुज्य और सारूप्य भी कहा जाता है ।

माला : संस्कार

शास्त्रों में माला को प्रमुखता प्रदान की है, विशेष महत्त्व है। माला तीन प्रकार की होती है। (३) मणिमाला ।

कर माला

क्योङ्कि प्रभु नाम जप मेम् इसका (१) कर माला. (२) वर्णमाला,

जो जप उङ्गलियों पर किया जाता है, वह कर माला जप कहा जाता है । यह भी दो प्रकार का होता है, एक तो उङ्गलियों से गिनना और दूसरा उङ्गलियों के पर्वों से गिनना । शास्त्रोक्त दूसरा प्रकार ही उचित माना जाता है ।

नियमानुसार पहले अनामिका के मध्य भाग से नीचे की ओर चले, फिर कनिष्ठा के मूल से अग्रभाग तक। इसके बाद अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग

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होकर तर्जनी के मूल तक गिने । इस प्रकार से अनामिका के दो, कनिष्ठा का के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा का एक और तर्जनी के तीन पर्व कुल दस सङ्ख्या होती है ।

साधारणतः कर माला का यही क्रम है, पर अनुष्ठान भेद से इसमें भी अन्तर रहता है । एक दो उदाहरण पर्याप्त होङ्गे-

शक्ति अनुष्ठान

अनामिका के दो पर्व, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का अग्रभाग एक, मध्यमा के तीन और तर्जनी का एक मूल पर्व इस प्रकार दस की सङ्ख्या होती है ।

लक्ष्मी अनुष्ठान

मध्यमा का मूल एक, अनामिका का मूल एक, कनिष्ठिका के तीन, अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग एक-एक और तर्जनी के तीन, इस प्रकार दस की सङ्ख्या पूरी होती है ।

नियम : करमाला करते समय उङ्गलियाम् अलग-अलग न रहें बल्कि एक दूसरे के पास परस्पर जुड़ी रहेम् ।

-हथेली अन्दर की तरफ थोड़ी सी मुड़ी रहे ।

——मेरु का उल्लङ्घन न करें। मध्यमा के दो पर्व मेरु कहलाते हैम् ।

-पर्वों की सन्धि का स्पर्श निषिद्ध है ।

-हाथ को हृदय के सामने उङ्गलियों को कुछ टेढी कर तथा वस्त्र से ढककर

ही जप करना चाहिए ।

— दस की सङ्ख्या का स्मरण रखने के लिए लाख (लक्ष) सिन्दूर और गौ के सूखे कण्डे को चूर्ण कर इन सबके मिश्रण से गोलियां बनाकर उनको

वर्णमाला

गणना के समय प्रयुक्त करना चाहिए ।

-अक्षत, उङ्गली, पुष्प, चन्दन या मिट्टी-कङ्कड़ आदि का प्रयोग दशकों के

गणना हेतु प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

इसका प्रयोग अन्तर्जप में तो होता ही है बहिर्जप में भी किया जा सकता है । वर्णमाला का तात्पर्य है अक्षरों के द्वारा सङ्ख्या करना । इसके जप करने का विधान यह है कि पहले वर्णमाला का एक अक्षर बिन्दु लगाकर उच्चारण करे, फिर मन्त्र का, इस क्रम से-

अ वर्ग के

१६

क वर्ग से प वर्ग तक य वर्ग से ह वर्ग तक

२५

पुनः एक लकार

५०

Is a

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इस प्रकार पचास की सङ्ख्या हो जाने पर फिर लकार से लौटकर अकरा तक आने पर पचास और हो जायेङ्गे, इस प्रकार सौ की सङ्ख्या पूरी हो जायेगी ।

‘क्ष’ को सुमेरु माना जाता है अतः इसका उल्लङ्घन निषिद्ध है ।

‘त्र’ और ‘ज्ञ’ स्वतन्त्र अक्षर नहीं हैम् अपितु ये संयुक्ताक्षर हैम् । अतः इनकी गणना नहीं होती ।

इस गणना में सात वर्ग न होकर आठ वर्ग होते हैं। आठवां वर्ग ‘शकार’ से प्रारम्भ होता है । इसके द्वारा ‘अं कं चं टं तं पं यं शं’ यह गणना करके आठ बार और जप करना चाहिए ।

इस प्रकार जप की सङ्ख्या १०८ हो जाती है ।

ये अक्षर माला के मणि हैं, इनका मूल सूत्र कुण्डलिनी शक्ति है जो कि मूलाधार से आज्ञा चक्र तक सूत्र रूप में विद्यमान है, इस प्रकार यह जप आरोह- अवरोह अर्थात् ऊपर से नीचे तथा पुनः नीचे से ऊपर होता है ।

इस प्रकार किया हुआ जप पूर्ण एवं शीघ्र सिद्धिप्रद होता है ।

मणिमाला

जिन साधकों को ज्यादा जप करना हो, उन्हें मणिमाला का प्रयोग करना चाहिए । मणियों से पिरोई होने के कारण ही यह मणिमाला कहलाती है । यह माला कई पदार्थों से बनी हुई होती हैं। मणि रत्न, रुद्राक्ष, तुलसी, शङ्ख, कमल-बीज, जीव-पुत्रक चान्दी, चन्दन, कुशमूल, स्फटिक, मोती आदि पदार्थों की मालाएं सामान्यतः देखी जाती हैं। सामान्यतः वैष्णवों के लिए तुलसी तथा स्मार्त शैव आदि के लिए रुद्राक्ष की माला सर्वोत्तम मानी गई है । इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक पदार्थ की माला में दूसरे पदार्थ का प्रयोग न हो ।

१. विभिन्न देवताओं के लिए विभिन्न पदार्थों की माला का प्रयोग शीघ्र फलप्रद होता है ।

२. अलग-अलग कार्यों या अनुष्ठान आदि के लिए भी अलग-अलग पदार्थों की माला प्रयोग की जानी चाहिए ।

३. माला के मनके एक जैसे हों, उनमें छोटे बड़े न होम् ।

४. माला में १०८ मनके हों, सुमेरु अलग से हो ।

५. माला में जो धागा प्रयोग में लिया जाय वह कुंवारी ब्राह्मण कन्या से कातकर बनाया हुआ प्रयोग में लिया जाय ।

६. रुद्राक्ष के दानों को पिरोते समय उसके मुंह और पुच्छ का ध्यान रखें, मुंह कुछ ऊपर उठा होता है । अतः माला बनाते समय मुंह से मुंह जुड़ा हो, तथा पुच्छ से पुच्छ ।

७. वशीकरण में लाल, शान्ति कार्यों में श्वेत, ऐश्वर्य, सम्पदा आदि के लिए रेशमी सूत का प्रयोग करना चाहिए ।

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८. दो दानों के बीच में गाण्ठ लगाई भी जा सकती है, और नहीं भी लगाई जा सकती है, दोनों ही मान्य हैम् ।

६. स्वर्ण-तार या रजत-तार से भी माला गून्थी जा सकती है ।

१०. सुमेरु के पास गाण्ठ तीन फेरे की अथवा ढाई फेरे की लगानी चाहिए । ११. प्रत्येक दाना पिरोते समय इष्ट मन्त्र का जाप या ॐ ध्वनि का सतत उच्चारण करते रहना चाहिए ।

माला संस्कार

जब माला तैयार हो जाय, तब उसका संस्कार होना चाहिए । सर्वप्रथम पीपल के नौ पत्तों को भूमि पर एक बीच में तथा शेष आठ पत्तों को चतुर्दिक इस प्रकार से रखें, कि वह अष्टदल-सा बन जाय, फिर बीच वाले पत्ते पर माला रखेम् और ‘अम् आम् इत्यादि सं हं’ पर्यन्त समस्त स्वर व्यञ्जन का आनुनासिक उच्चारण कर पञ्चगव्य से माला प्रक्षालन करे, तथा सद्योजात मन्त्र पढ़कर उसे जल से धो ले—

ॐ सद्यो जातं प्रपद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः

भवे भवे नाति भवे भवस्य मां भवोद्भवाय नमः ॥

फिर वामदेव मन्त्र से चन्दन लेपन करे ।

फिर अघोर मन्त्र से

ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्र ेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कल विकरणाय नमो बलविकरणाय नमः ।

बलाय नमो बल प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः

धूपदान दे

ॐ अघोरेभ्यो ऽथोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्व शर्वेभ्या नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥

फिर एक-एक दाने पर सौ-सौ बार ईशान मन्त्र का जप करे-

ॐ ईशानः सर्व विद्यानामीश्वर: सर्वभूतानां ब्रह्माधिपति ब्रह्मणोऽधिपति ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदा शिवोम ॥

फिर माला मेम् अपने इष्ट देवता की प्राण प्रतिष्ठा कर प्रार्थना करे-

माले माले महामाले सर्व तत्व स्वरूपिणी चतुर्वस्त्वयो- न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धि दाभवः ॥

सावधानियाँ

हिलावे ।

१. कभी भी जप या माला फेरते समय न तो स्वयं हिले और न माला

२. माला फेरते समय आवाज न हो ।

३. इस बात का ध्यान रखें कि माला हाथ से गिरे नहीं।

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४. यदि धागा घिस जाय, तो शुभ दिन को पुनः नया धागा डाल देम् । ५. माला फेरते समय उसे तर्जनी का स्पर्श न हो ।

माला-चयन

काली तन्त्र के अनुसार शङ्खमाला से सौगुना फल मिलता है प्रवाल से सहस्र, स्फटिक से दस सहस्र, मुक्तक से लाख, कमल बीजों की माला से दस लाख, कुशा- मूल-माला से सौ करोड़ तथा रुद्राक्ष से अनन्त कोटि फल मिलता है ।

काली तन्त्र के ही अनुसार श्मशान स्थित धतूरे की माला श्रेष्ठ है, मनुष्य की उङ्गली की हड्डियों से निर्मित माला के जाप से समस्त कामनाएं सिद्ध होती हैं शत्रुनाश के लिए कमलगट्टे की माला, पापनाश हेतु कुशमूल की माला, पुत्र प्राप्ति हेतु जीवा पोता, तथा ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए मूङ्गे की माला का प्रयोग करना चाहिए ।

गौतमीय तन्त्र में बताया है कि अर्थ प्राप्ति के लिए तीस सर्व कामना सिद्धि के लिए सत्ताईस मनकों की माला, मारण मणियों की माला का प्रयोग होना चाहिए ।

हेरण्ड तन्त्र के अनुसार स्तम्भन वशीकरण आदि कार्यों में से माला जपनी चाहिए, आकर्षण मेम् अङ्गूठा व तर्जनी, मारण में का प्रयोग उचित है ।

मणकों की माला,

कार्यों में पन्द्रह

अङ्गूठे के अग्रभाग

अङ्गूठा व कनिष्ठा

वशीकरण कार्यों में पूर्व दिशा की ओर मुंह करके जप करना चाहिए । भारण में दक्षिण, धन प्राप्ति के लिए पश्चिम तथा समस्त शुभ कार्यों में पूर्व की ओर मुंह करके जप करना चाहिए ।

पुष्प

है -

पूजन कार्यों में पुष्प प्रयोग का भी विशेष महत्त्व है । कुलार्णव तन्त्र में कहा

पुष्य संवर्धनाच्चापि पापौध परिहारतः ।

पुष्कलार्थ प्रदानाच्च पुष्प मित्यभिधीयते ॥

अर्थात् पुष्प को चढ़ाने, पापों को नाश करने एवं श्रेष्ठ शुभ फल प्रदान करने के कारण ही इसे ‘पुष्प’ कहा जाता है। देवता लोग न रत्नों से प्रसन्न होते हैं, न भूषणादि से, वे पुष्पों से ही प्रसन्न रहते हैं—

त्याज्य पुष्प

पुष्पैर्देवाः प्रसीदन्ति पुष्पे देवाश्च संस्थिताः । न रत्नैर्न सुवर्णेन न वित्तेन च भूरिणा ॥

पुष्पं च कृमिसम्भिन्नं विशीर्णं भग्नमुद्गतम सकेशं मूषिकोद्धूतं यत्नेन परिवर्जयेत् ।

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याचितं परकीयं च तथा पर्युषितं च यत् अन्त्यस्पृष्टं पदास्पृष्टं यत्नेन परिवर्जयेत् । उग्र ग्रन्धं न दातव्यं त्वन्यदेव गृहोद्भवम् ।

स्वयं पतित पुष्पाणि त्वजेदुपहितानि च ।

अर्थात् अशुद्ध, बासी, कीड़ों से खाये हुए टूटे-फूटे, जमीन पर गिरे तथा

के पुष्प पाञ्च दिनों तक बासी नहीं होते। साथ ही बिल्वपत्र, पान एवं तुलसी के टूटे-फूटे जीर्ण पत्र एवं पुष्प भी चढ़ाये जा सकते हैम् ।

दूसरों से माङ्गे हुए या चुराए हुए पुष्प त्याज्य हैं पर कमल एवं कुमुद

सावधानियां

१. दिन को बारह बजे के बाद पुष्प तोड़ना वर्जित है ।

२. भगवान शङ्कर को केतकी या कुन्द पुष्प, विष्णुपर धतूरा, देवी पर आक के फूल तथा सूर्य को तगर का फूल भूलकर भी न चढ़ावेम् ।

३. लक्ष्मी को कमल का पुष्प सर्वाधिक प्रिय है ।

४. विष्णु को तुलसी, मालती, गुलाब, कनेर, चम्पा एवं कमल के धिक प्रिय हैम् ।

पुष्प सर्वा-

५. पुष्प हमेशा सीधा चढ़ाना चाहिए, उलट करके नहीं पर बिल्वपत्र उलट करके चढ़ाया जा सकता है । पुष्पाञ्जलि में यदि उलटे पुष्प भी चढ़ जायं तो कोई दोष नहीम् ।

पुष्पाञ्जलौ न तद्दोषः मधौमुखम्

बिल्वपत्र

६. श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय तुलसी पत्र ही है ।

७. देवताओं पर केवल चम्पा की कली ही चढ़ाई जा सकती है । अन्य कोई भी कली या अर्ध विकसित पुष्प नहीं चढ़ाना चाहिए ।

८. भगवान विष्णु को धतूरा, पाटल, जुही, जपा, कचनार, अशोक, आक, नीम आदि पुष्प भूल कर भी नहीं चढ़ाने चाहिए । आक पर रखकर पुष्पों को चढ़ाना भी दोषयुक्त है

अर्क पुष्पाणि वर्ज्यानि अर्क पत्र स्थितानि च

पद्म पुराण के अनुसार

भगवान विष्णु की पूजा में मास भेद भी दर्शित है—

चैत्र में— कमल, चम्पा से विष्णु पूजा करे ।

बैशाख - केतकी ।

ज्येष्ठ- सभी पुष्प ।

आषाढ़ – कनेर, कदम्व, कमल ।

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श्रावण – अलसीपुष्प, दूर्वादल ।

भाद्रपद – चम्पा, श्वेत पुष्प, कमल (केतकी पुष्प इस मास में वर्जित है ।) आश्विन - जूही, चमेली ।

कार्तिक — कमल-पुष्प, मौलश्री, चम्पा ।

मार्गशीर्ष - बकुल पुष्प ।

पौष -तुलसीदल ।

माघ - विविध पुष्प ।

फाल्गुन- वासन्तिक पुष्प ।

शास्त्रों में कई स्थानों पर भगवान विष्णु की पूजा सुवर्ण-पुष्प से करने का विधान है। सुवर्ण-पुष्प का अर्थ चम्पक या चम्पा ही है । जिसने जीवन मेम् एक बार भी सुवर्ण पुष्प से भगवान विष्णु का पूजन नहीं किया, उसका जन्म ही व्यर्थ है ।

जप

साधनादि में जप का विशेष महत्त्व बताया गया है, भगवान ने स्वयं ‘यज्ञाना जप यज्ञो स्मि’ कहकर जप की महत्ता बताई है । जप कार्य में भी कुछ नियम होते हैं, उनका विधिपूर्वक पालन करना चाहिए-

१. जप से पूर्व ब्राह्मण को शिखा वन्धन करना चाहिए— बिना शिखा में गाण्ठ दिये जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।

सदो पवीतिना भाव्यं सदा बद्ध शिखेन च ।

विशिखो व्युपवीततश्च् यत् करोति न तत् कृतम् ॥

२. ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार जप करते समय आसन बिछा होना चाहिए । ध्यान रहे कि आसन फटा हुआ, जीर्ण या छिद्रयुक्त न हो । मात्र भूमि पर बैठकर जप करने से दुख की प्राप्ति होती है। बांस के आसन पर दरिद्रता, पत्थर के आसन पर रोग, काष्ठ पर दुर्भाग्य, तृणासन पर यश-नाश तथा पत्तों के आसन पर बैठकर जप करने से चित्त उद्विग्नता की प्राप्ति ही होती है ।

काम्यार्थं कम्बलं चैव श्रेष्ठं च रक्त

कुशासने मन्त्रसिद्धिर्नात्र कार्या

कम्बलम् । विचारणा ।

३. जप करते समय पैर फैलाने नहीं चाहिए, वीच-बीच में बातें करना, नाखून कुतरना या नाखून काटना, धागा तोड़ना, चावलों या सुपारियों को हिलाना, गर्दन घुमाना, बाल बान्धना, शरीर हिलाना वर्ण्य है ।

४. बिना सङ्ख्या के जप करने से भी फल नाश होता है, अङ्गिरा स्मृति के अनुसार - बिना दम्भ के धार्मिक कार्य, बिना जल के दान एवं बिना गणना के जप निष्फल होते हैं-

1

बिना दमश्च यत्कृत्यं यच्चदानं विनोदकम् असङ्ख्यया तु यज्जप्तं तत्सर्वं निष्फलं भवेत् ॥

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५. प्रातः काल में नाभि, मध्याह्न में हृदय और सन्ध्याकाल में नासिका के समीप हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

६. जप का फल घर में बैठकर करने से एक गुना, गौशाला में सौ गुना, तीर्थ में हजार गुना, पर्वत पर दस हजार गुना, नदी तट पर लाख गुना, देवालय में ‘करोड़ गुना तथा शिव सामीप्य मेम् अनन्त गुना फल मिलता है ।

मुद्रा

७. शिथिलता, प्रमाद, मोह, क्रोध, आलस्य और निद्रा —ये जप काल के शत्रु हैम् ।

मुद करोति देवानां द्रावयत्यसरांस्तथा । मोदनाद् द्रावणाच्यैव मुद्रेति परिकीर्तिता ॥

अर्थात् देवताओं को हर्ष तथा असुरों का विनाश करने के कारण इसका नाम मुद्रा पड़ा ।

साधकों के लिए मुद्राओं का ज्ञान आवश्यक है । क्योङ्कि इनसे समस्त देवताओं का मोद होता है । पापों का नाश होता है तथा प्रत्येक कार्य में सिद्धि एवं सफलता मिलती है-

मोदनात्सर्वदेवानां

द्रावणात्पाप संहते ।

तस्मान्मद्रेति सा ख्याता सर्व कामार्थ साधिनी ॥

गायत्री जाप में चौबीस मुद्राओं का प्रदर्शन आवश्यक है, बिना इनके जप, साधना एवं सिद्धि असम्भव है ।

चतुविशति मद्राश्च गायत्र्यादों प्रदर्शयेत् ।

वृथा

मन्त्र जपश्चैव स्नानं भोजन मेव च । यज्ञश्च निष्फलस्तेषां होमो देवार्चनं वृथा । तस्मान्मुद्रा सदा ज्ञेया विद्वद्भिर्यत्रमास्थितै ॥

चौबीस मुद्राएं

१. सुमुख

२. सम्पुट

३. वितत

४. विस्तृत

५. द्विमुख

६. त्रिमुख

७. चतुर्मुख

८. पञ्चमुख

६. षण्मुख १३. यमपाश

१०. अधोमुख

११. व्यापकाञ्जलि

१२. शकट

१४. ग्रथित

१५. सन्मुखोन्मुख

१६. प्रलम्ब

१७. मुष्टिक

१८. मत्स्य.

१६. कूर्म

२०. वराह

२१. सिंहाक्रान्त २२. महाक्रान्त

अन्त की आठ मुद्राएं निम्न हैं-

२३. मुद्गर

२४. पल्लव

१. सुरभि

२. ज्ञान

३. वैराग्य

४. योनि

५. शङ्ख

६. पङ्कज

७. लिङ्ग

८. निर्वाण

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विस्तार भय से यहां मात्र जानकारी ही दे रहा हूम् । जो साधक इसमें रुचि रखते हों, वे योग्य गुरु के सान्निध्य मेम् इन मुद्राओं को सीखकर लाभ उठा सकते हैम् ।

विशिष्ट मुद्राएं

योग शास्त्र में यों तो असङ्ख्य मुद्राओं का उल्लेख है, परन्तु उनमें प्रधान दस मुद्राएं ही हैं, घेरण्ड संहिता ३।६५ में बताया है कि जो साधक इन मुद्राओं का अभ्यास करता है, वह न तो वृद्ध होता है, और न ही उसकी मृत्यु होती है, इतना ही नहीम् अपितु उसको अग्नि, जल और वायुभय भी नहीं रहता ।

प्रधान मुद्राएं

१. मूलबन्ध

२. उड्डीयान बन्ध

३. जालन्धर बन्ध

४. महाबन्ध

५. महावेध

६. महामुद्रा

७. विपरीतकरणी

८. वज्रोली

६. खेचरी

१०. शक्तिचालिनी

ये दस मुद्राएं ही श्रेष्ठ हैं, इनके तुल्य संसार में न कुछ है और न कुछ होगा । इनमें से प्रत्येक मुद्रा सिद्धिप्रद है, बिना इन्हें सिद्ध किए कोई साधक सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता ।

एतत्समुद्रा दशकं न भूतं न भविष्यति ।

एकैकाम्यासने सिद्धिः सिद्धो भवति नान्यथा ॥

घेरण्ड संहिता में ‘शक्तिचालिनी मुद्रा’ को सर्वश्रेष्ठ बताया है—

मुद्रेयपरमा गोप्या जरामरण नाशिनी ।

तस्मादभ्यासनं कुर्याद्योगिभिः, सिद्धिकीक्षिभिः ॥

साधकों को चाहिए कि वे मुद्राओं, आसनोम् आदि का सम्यक ज्ञान किसी योग्य गुरु के निर्देशन में लें, तत्पश्चात् ही उनके सान्निध्य में प्रयोग कर सिद्धि प्राप्त करेम् ।