मन्त्र-तन्त्रादि में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि साधक दृढ़ चित्त, स्थिर मति और सहनशील हो, यही नहीम् अपितु वह कठोर कार्य करने मेम् उद्यत और सङ्कल्पित हो ।
प्रश्न उठता है, कि सैकड़ों प्रकार की साधनाएं हैं सैकड़ों प्रकार की पद्धतियाम् और दर्शन हैं, ऐसी स्थति में कौन-सी साधना किस व्यक्ति के लिए अनुकूल है, इसका निर्णय साधक नहीम् उसका गुरु कर पाता है, यजुर्वेद में स्पष्ट है-
सुषारथिरश्वा निव यन्मनुष्या
न्नेनीयतेऽभीशु भिर्व्वा जिन इवः ।
हत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं
तन्मे मनः शिव सङ्कल्पमस्तु ॥
जिस प्रकार रास के द्वारा उच्छृङ्खल घोड़ों का नियन्त्रण भी सारथी कर लेता है, वैसे ही मेरे मन का नियन्त्रण कल्याणकारी गुरु के द्वारा ही सम्भव है, क्योङ्कि वही शिव है, शिवत्व-पथ बताने का अधिकारी है ।
सफलता का मूल इस बात में निहित है, कि साधनाकाल में किन बिन्दुओं
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को ध्यान में रखा जाए, इसका सुन्दर सम्यक् उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में दिया है-
निर्भयता, अन्तःकरण की पवित्रता, ज्ञान में दृढ़-चित्तता, इन्द्रियों पर नियन्त्रण सम्यक् कर्म, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्यागवृत्ति, शान्त-स्व- भाव परनिन्दा त्याग, प्राणियों पर दयाभाव, लोभहीनता, मृदुलता, बुरे कार्यों के प्रति घृणा, चञ्चलता, का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शुद्ध-विचार, द्रोहहीनता और निरभि- मानता ही साधना में पूर्ण सफलता प्रदान करने में सहायक है ।
-गीता, अध्याय १६।१-३
साधना का अर्थ है, मन को पूर्णरूपेण एक भावना, एक लक्ष्य, एक बिन्दु पर लगा देना, इसके लिए ध्यान आवश्यक है ।
मन्त्र - अङ्ग
साधना में सफलता तभी मिल सकती है, जब हम उसके मर्म को, उसके मूल रहस्य को समझेम् । साधना का सीधा-सादा मर्म यह है, कि परमात्मा से भाव, भाव से नाम तथा नाम से संसार बना है, अतः विपरीत रूप से चलकर ही अर्थात् विश्व, विश्व से भाव तथा भाव से परमात्मा अर्थात् मन्त्र सिद्धि तक पहुञ्चा जा सकता है ।
भारद्वाज ने मन्त्र योग संहिता में मन्त्र योग के सोलह अङ्ग बताये हैं-
भवन्ति मन्त्र योगस्य षोडशाङ्गानि निश्चितम् ।
यथा सुधांशो जयन्ते कला : षोडश शोभनाः ॥ भक्ति शुद्धिश्चासनं च पञ्चागस्यापि सेवनम् । आचार धारणे द्विव्य देश सेवन मित्यपि ॥
प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः
यागो जपस्तथा ध्यानं समाधिश्चेति षोडश ॥
(१) भक्ति (२) शुद्धि (३) आसन (४) पञ्चाङ्ग सेवन (५) आचार (६) धारणा (७) दिव्यदेश सेवन (८) प्राणक्रिया (६) मुद्रा (१०) तर्पण (११) हवन (१२) बलि (१३) याग (१४) जप (१५) ध्यान (१६) समाधि ।
१. भक्ति-साधक को नवधाभक्ति का पूर्ण ज्ञान और क्रिया विचार, स्पष्ट रूप से होना चाहिए । नवधाभक्ति में निम्न प्रकार से भक्ति की जाती है-
श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पाद सेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्य मात्म निवेदनम् ॥
(१) श्रवण (२) कीर्तन (३) स्मरण (४) पाद सेवन (५) अर्वन (६) वन्दना
(७) सखाभाव (८) आत्मभावना ( 2 ) निवेदन ।
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यथा-
२. शुद्धि-शुद्धि के अनेक भेद हैं, जिसका साधनाकाल में ज्ञान जरूरी है,
दिक्शुद्धि (१) किस दिशा में मुख करके साधना करनी चाहिए ।
स्थान शुद्धि (२) किस प्रकार के स्थान पर बैठकर साधना करनी चाहिए । शरीर शुद्धि (३) स्नान कब किस प्रकार से करना चाहिए । मन शुद्धि (४) प्राणायाम आदि द्वारा ।
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आसन शुद्धि (५) किस साधना में किस प्रकार के आसन का उपयोग करना चाहिए ।
३. आसन - अलग-अलग मन्त्र साधनाओं मेम् अलग-अलग आसनों-पद्मासन, सिद्धासन आदि का उपयोग करना चाहिए, तभी पूर्ण लाभ होता है ।
४. पञ्चाङ्ग-सेवन—इष्ट सेवा, सहस्रनाम, स्तव, कवच और हृदयन्यास – ये पाञ्चों मिलकर पञ्चाङ्ग कहलाता है, कई साधनाओं मेम् इनका प्रयोग और उपयोग किया जाता है ।
५. आचार - जीवन में साधना हेतु उचित नियमों का तत्परता व दक्षता से पालन ही आचार कहलाता है ।
६. धारणा — मन को किसी विशेष बिन्दु पर लगाने एवं लीन करने को धारणा कहते हैम् ।
७. दिव्यदेश साधन —शरीर में सोलह दिव्यदेश हैं, जो कि मूर्धास्थान हृदय, कण्ठ, नाभि आदि हैं, इन स्थानों पर प्राणों को सञ्चरित कर साधना की जाती है ।
८. प्राणक्रिया — मन्त्र शास्त्र मेम् एवं साधना ग्रन्थों में प्राणायाम के अलावा शरीर स्थित अन्य स्थानों पर प्राण एकत्र कर साधना करना प्राण क्रिया कहलाता है :
६. मुद्रा - अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए दोनों हाथों से जो मुद्राएं बनाई जाती हैं. उनका साधना में विशेष महत्व है ।
१०. तर्पण – विशेष पदार्थ द्वारा इष्टदेव को समर्पण - तर्पण कहलाता है । ११. हवन - अग्नि में हविष्यान्न आहुति को हवन कहा जाता है ।
१२. बलि-बलि तीन प्रकार की होती है-
१. आत्म बलि-अहङ्कार आदि का त्याग
२. अन्तर्बलि - काम, क्रोधादि तथा इन्द्रियनिग्रह
३. बाह्य बलि-फलादि की बलि ।
१३. योग — योग के दो भेद हैं (१) अन्तर्योग (२) बहिर्योग
१४. जप— इष्ट के नामस्मरण को तथा सतत उच्चरित समान ध्वनि को जप कहा जाता है ।
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जप तीन प्रकार का होता है ।
१. वाचनिक
२. उपांशु
३. मानसिक
१५. ध्यान — मन के द्वारा इष्ट के रूप को आङ्खें बन्दकर देखने की क्रिया को ध्यान कहा जाता है ।
१६. समाधि- इष्ट के रूप का ध्यान करते-करते अपने आपको भूल जाने की स्थिति ही समाधि कहलाती है ।
साधक को चाहिए, कि किसी भी प्रकार की साधना मेम् उद्यत होने से पूर्व इन सोलह अङ्गों का सम्यक् पालन करना चाहिए ।साधना
साधना क्या है ?
साधना का अर्थ है प्रयत्न करना, सतत चेष्टारत रहना, अपने उद्देश्य की ओर बढ़ते रहना, और लक्ष्य या सफलता को प्राप्त कर लेना ही ‘सिद्धि’ कहलाती है ।
साधना प्रारम्भ करने से पूर्व अपना उद्देश्य स्थिर कर लेना चाहिए अतः १. साधना के लिए—उत्तम अधिष्ठान निश्चित करना चाहिए ।
२. साधना के लिए—-सावधानी रखनी चाहिए ।
३. साधना के लिए उपयुक्त उपकरण होने चाहिए
४. साधना के लिए— उत्तम पथप्रदर्शक होना चाहिए ।
क्योङ्कि साधना-पथ छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण है, उस पर प्रत्येक पग सावधानीपूर्वक रखना चाहिए-
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति
साधना के केन्द्र
साधक को चाहिए कि वह सर्वप्रथम अपने स्वरूप, अपनी आत्मा और अपनी देह को पहचाने । मनुष्य को जो बाह्यरूप दिखाई देता है, वह तो मात्र अन्नमय कोष है, स्थूल है, विकारों से युक्त है, इनको पार कर जब अन्दर प्रवेश करते हैं, वहीं से साधना के केन्द्र दृष्टिगोचर होते हैं— अन्नमय कोष से नीचे स्नायु जाल है, या दूसरे शब्दों में मानव कोष है, जिससे यह स्थूल शरीर सञ्चालित होता है । इस स्नायु जाल से ही जीवन की धाराएं प्रवाहित होती है, इससे परे प्राणमय कोष है, जिसे आनन्दमय कोष भी कहा जाता है, इस कोष से सम्पर्कित होने पर ही मन आनन्द सागर में डूबने-उतरने लगता है, अतः सच्ची साधना के लिए मन, बुद्धि और हृदय को स्पर्शित करना जरूरी है, और इसके लिए ‘ऊर्ध्व गति’ से अर्थात् नीचे से ऊपर की ओर बढ़ना चाहिए।
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साधना के अङ्ग
साधना के पाञ्च प्रधान अङ्ग है-
१. अधिकार
३. गुरु दीक्षा
२. विश्वास
४. सम्प्रदाय
५. मन्त्र देवता
साधकों के कृत्य
प्रत्येक कार्य के कुछ नियम होते हैं, जिन पर चलकर ही व्यक्ति सफलता प्राप्त कर सकता है, सर्वप्रथम साधक को ‘अष्ट पाश’ से मुक्त होना चाहिए। कुला- र्णव तन्त्र के अनुसार ‘अष्टपाश’ निम्न प्रकार से है-
घृणा लज्जा भयं शङ्का जुगुप्सा चेति पञ्चमी
कुलं शीलं तथा जाति रष्टौ पाशाः प्रकीर्तित ॥
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अर्थात् घृणा, लज्जा, भय, शङ्का, जुगुप्सा, कुल-शील तथा जाति के बन्धन ‘अष्टपाश’ कहलाते हैं, इनसे मुक्त होने पर ही साधक साधना के योग्य बनता है ।
निद्रा त्याग
कर्त्तव्य है, कि वह ब्रह्म
प्रत्येक साधक के लिए यह प्रथम और अनिवार्य मुहूर्त में जग जाए, रात्रि का चतुर्थ भाग अमृतमय होता है, यही वह समय होता है, जब साधक अपने बहिर्मन को अन्तर्मन में प्रवेश दे सकता है, इस प्रकार के कार्य के लिए यह सर्वथा उपयुक्त समय कहलाता है ।
स्नान
स्नान करे, यह
शुद्ध जल से अधोवस्त्र पहनकर स्नान करे, साधनाकाल में यथा सम्भव तेल साबुन आदि का प्रयोग न करे, तथा नदी, तालाब आदि के किनारे सम्भव न हो तो पात्र माञ्जकर घर पर ही स्नान करे-
सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानाञ्च प्रजनम | वैश्वदेव तथा तिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ।
कि
स्नान ब्रह्ममुहूर्त में ही करने का विधान है, विष्णु पुराण में ब्रह्ममुहूर्त के बारे
में कहा है-
पच प च उषः कालः सप्त पन्या रणोदय । अष्ट पच भवेत्प्रातः स्ततः सूर्योदय स्मृतः ॥ रात्रे पश्चिम यामस्य मुहूर्तो यस्तृतीयक । सब्राह्म इति विज्ञेयो विहितः स प्रबोधनेः ॥
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अर्थात् सूर्योदय से ५८ घटी पूर्व उषाकाल, ५६ घटी पहले अरुणोदय, ५५ घटी पहले प्रातःकाल और फिर सूर्योदय होता है। रात के पिछले पहर अर्थात् सूर्योदय से ५६ से ५८ घड़ी पूर्व का काल ब्रह्ममुहूर्त कहा जाता है।
तन्त्र ग्रन्थों में तो इस काल को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। इस काल मेम् उठकर स्नान करने से, स्वास्थ्य, आयु, बुद्धि, लक्ष्मी और सौन्दर्य की वृद्धि होती है ।
वर्ण कीर्ति मत लक्ष्मीं स्वास्थ्य मायुश्च विदति। ब्राह्मे मुहुर्ते सञ्जाग्रच्छियं वा पङ्कजं यथा ॥
स्नान से पूर्व तीर्थों का आवाहन करें-
स्नान दोष निवारण
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती । नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेस्मिन्सन्निधिकुरु ॥ विष्णु पादाब्ज सम्भूते गङ्गे त्रिपाथ गामिनी । धर्म द्रवति विख्याते पापं मे हर जाह्नवी ॥
यन्मया दूषितं तोयं मलै शरीर सम्भवम् । तस्य पापस्य शुद्धयर्थ यक्षमाणं तर्पयाम्यहम् ॥
स्नान करने के बाद वहीं पर जल से देवर्षि तर्पण करें-
ॐ ब्रह्मदयो देवास्तृप्यन्ताम्
ॐ भूर्वेवास्तृष्यन्ताम्
ॐ भुवर्देवास्तृप्यन्ताम्
ॐ स्वर्देवास्तृप्यन्ताम्
ॐ सनकादि मनुष्यास्तृप्यन्ताम्
ॐ कव्य वाङमयो देव पितरस्तृप्यन्ताम्
ॐ भूर्भुवः स्वतः पितरस्तृप्यन्ताम्
E
ॐ अस्मिन् पित् पितामह प्रपितामहास्तृप्यन्ताम् ।
हमार
ॐ अस्मिन् मातामह, प्रमालामह वृद्ध प्रमातामहस्तृप्यन्ताम् ।
फिर अन्त मेम् एक अञ्जली भरकर छोड़ें-
अग्निदग्धाश्च ये जीवन येप्यदग्धाक्लेमम ।
भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्तायान्तु परागतिम् ॥
जल से बाहर आकर यज्ञोपवित धारण करें, नूतन वस्त्र पहनेम् ।
यज्ञोपवित धारण विनियोग
ॐ यज्ञोपवित मन्त्रस्य परमेष्ठि ऋषिः लिङ्गोक्ता देवता त्रिष्टुप्छन्द यज्ञोपवित धारणे विनियोग ।।
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यज्ञोपवित धारण मन्त्र
ॐ यज्ञोपवित परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तान आयुष्यमग्रस्यं प्रतिमु च शुभं यज्ञोपवीतं बलमस्तुतेजः ॥
जीर्ण यज्ञोपवित त्याग मन्त्र
आसन
एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्मत्वं धारितं मया ।
जीर्णत्वात् परित्यागो गच्छ सूत्र । यथासुखम् ।।
स्नानादि से निवृत्त होकर साधक को पूर्वाभिमुख होकर आसन पर बैठना चाहिए । मन्त्र सिद्ध एवं साधना मेम् आसन का विशेष महत्त्व है ।
आसन पूजा
हाथ में जल लेकर-
ॐ अस्य श्री आसन महामन्त्रस्य - पृथिव्या मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मो देवता आसने विनियोगः ।
पृथ्वीत्वया घृता लोका देवित्वं विष्णुना घृता ।
त्वं च धारय मा देवि पवित्रं कुरू चासनम् ॥ योगासनाय नमः
वीरासनाय नमः
शरासनाय नमः
ॐ ह्रीं क्लीम् आधार शक्ति कमलासनाय नमः
इस प्रकार कहकर आसन पर अक्षत विकर्ण करेम् ।
आसन सैकड़ों प्रकार के होते हैं, जिसमें कुशासन, वस्त्रासन, आदि प्रमुख हैम् । ऊन, कम्बल और मृगछाला सभी प्रकार की साधनाओं में शुभ है—
काम्यार्थ कम्बलं चैव श्रेष्ठं च रक्त कम्बलम् ।
।
कुशासने मन्त्र सिद्धि-नत्र कार्या विचारण ॥
-ब्रह्माण्ड पुराण
अर्थात् कामना सिद्धि के लिए कम्बल का और विशेषकर लाल कम्बल का आसन शुभ माना गया है । मन्त्र सिद्धि के लिए कुशासन श्रेष्ठ है । बिना आसन के किसी भी प्रकार की की गई साधना निष्फल जाती है ।
पञ्चरात्र संहिता में बताया है कि बांस के आसन पर दरिद्रता, पत्थर के आसन पर बीमारी, भूमि पर दुःख, छिद्र वाले लकड़ी के तख्ते पर दुर्भाग्य, घास के आसन पर लक्ष्मीनाश तथा पत्तों के आसन पर चित्त भ्रम रहता है-
和
143
बशासने तु दारिद्रयं पाषाणे व्याधि सम्भवः घरण्यां दुःख सम्भूति दौर्भाग्यं छिद्रि दारूजे तृणे धनः यशो हानि पल्लवे चित्तविभ्रम ।।
किस कार्य के लिए किस आसन का प्रयोग हो
कमलासनम् ।
गाजिने ॥
प्रतिवर्द्धनम् । सर्वसिद्धिवम् ॥
एकं सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं व्याघ्रजिने सर्वसिद्धिर्ज्ञान सिद्धिर्म वस्त्रासनं रोगहरं वेत्रजं कौशेयं पुष्टिदं पोक्तं कम्बलं शुक्लं वा यदि वा कृष्ण विशेषाद्रवत कम्बलम् । मेषासनं तु वश्यार्थ माकृष्टौ व्याघ्रचर्म च । शान्तौ मृगाजिनं शस्तं मोषार्थं व्याघ्रचर्म च । गोचर्म स्तम्भने देवी बजि चोच्चाटने तथा
(विद्वेषे श्वानचर्म च) मारणे माहिषं चर्म कर्मोदिष्टं समाचरेत्
सर्व कामार्थदं देवि
कुशासनं कम्बलं वा
दुःखदारिद्रयनाशं
पट्टवस्त्रासनं तथा ।
सर्वकर्मसु पूजितम् ॥
तु
काष्ठपाषाणजासनम् ।
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अब आसन विधान कहते हैम् । पूजन कर्म में सिद्धाजन अथवा कमलासन प्रशंस- नीय हैम् । व्याघ्रचर्म के आसन पर जप करने से सर्वसिद्धि, मृगचर्म पर पूजन करने से ज्ञान प्राप्ति, और वस्त्रासन पर पूजन करने से रोग दूर होता है । वेत्र के आसन पर जप करने से प्रीति की वृद्धि होती है । कुश के आसन पर जप करने से पुष्टि और कम्बल के आसन पर जप करने से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है । शुक्ल अथवा कृष्ण इन दोनों प्रकार के कम्बलों से लाल कम्बल श्रेष्ठ है । वश्यकर्म में मेष आसन, आकर्षण कर्म व्याघ्रचर्म का आसन । स्तम्भन में गोचर्म का आसन, उच्चाटन मेम् अश्व- चर्म का आसन, विद्वेषण में श्वान चर्म का आसन, मारण कर्म में महिषी के चर्म का आसन ग्रहण करे। हे देवि ! रेशमी वस्त्र का आसन सर्व कामनाओं का देने वाला है । कुशासन अथवा कमलासन सर्वकर्मों में पूजनीय है । काठ तथा पाषाण का आसन दुःख और दारिद्रयनाशक है ।
१. कामना सिद्धि के लिए
२. धन प्राप्ति के लिए ३. आरोग्य लाभ के लिए
४. सम्मोहन के लिए ५. शत्रुनाश के लिए
६. सफलता के लिए
ऊनी वस्त्र का आसन रेशम का आसन
कुशासन कृष्ण मृग चर्म
व्याघ्रासन
हिरण के चर्म का आसन
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७. अचल सम्पत्ति के लिए
८. सन्तान कामना के लिए
६. वैभव सम्पदा सुखयोग हेतु
१०. पत्नी या पति सुख के लिए
११. भाग्योदय के लिए
१२. मारण मोहन, उच्चाटन के लिए
१३. उच्चाटन के लिए
सिंह चर्म कुशासन मणि आसन ऊर्णासन
रेशम का आसन
अजासन
बिडालासन
१४. बान प्राप्ति के लिए
१५. मोष लाभ के लिए
दिशा विचार
कुश का आसन
वस्त्रासन
अलग-अलग साधनाओम् एवं मन्त्र प्रयोग मेम् अलग-अलग दिशाओं की ओर मुंह करके बैठने का विधान है । अपनी मरजी से किसी भी दिशा की ओर मुंह करके बैठने से लाभ होने की सम्भावना कम रहती है, अतः साधक को दिशा ज्ञान भी पूर्ण रूप से रहना चाहिए ।
प्रातःकालीन सन्ध्या, उपासना, सङ्कल्प आदि पूर्व दिशा की ओर मुंह करके ही करने चाहिए, क्योङ्कि देवताओं को दिशा पूर्व ही है ।
प्राची हि देवानां दिक्
-शतपथ ब्राह्मण
वशीकरण आदि तान्त्रिक क्रियाओं के लिए भी पूर्व दिशा की ओर मुंह करके
ही बैठना उचित है ।
जपेत्पूर्व मुखं वश्ये
सन्ध्या काल में जो भी कार्य किए जाये, पश्चिमाभिमुख होकर करने चाहिए । उडीस तन्त्र में बताया है कि लक्ष्मी से सम्बन्धित सभी कार्य एवम् अनुष्ठान पश्चिम की ओर मुंह करके करने चाहिए ।
पितृ कार्य, श्राद्ध आदि कार्य दक्षिण मुख होकर करना चाहिए। अथर्ववेद में दक्षिण दिशा पितरों की दिशा कहीं है ।
योगाभ्यास । सरस्वती-साधना, तप आदि कार्य उत्तर दिशा की ओर मुंह करके करने चाहिए।’
१. समस्त देव कार्य — पूर्व की ओर मुंह करके
२. समस्त पितृ कार्य — दक्षिण की ओर मुंह करके
३. आत्मानुष्ठान, तप, स्वाध्याय, सरस्वती साधना आदि उत्तर की ओर मुंह करके करना चाहिए ।
४. सन्ध्या एवं रात्रिकाल में जो भी कार्य या अनुष्ठान सम्पन्न किए जाए वे पश्चिम की ओर मुंह करके करने चाहिए ।
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स्नानं दानं तपो होमो देवता पितृ कर्म च
तत्सर्वं निष्फलं याति ललाटे तिलकं बिना ।
वस्त्र धारणोपरान्त उत्तर की ओर मुंह करके ललाट पर तिलक लगाना चाहिए। श्वेत चन्दन, रक्त चन्दन, गोपी चन्दन, कुङ्कुम, मृत्रिका विल्वपत्र भस्म आदि कई पदार्थों से साधक तिलक लगाते हैम् । ब्राह्मण यदि बिना तिलक के सन्ध्या तर्पण करता है, तो वह सर्वथा निष्फल जाता है ।
एक ही साधक को ऊर्ध्व पुण्ड्र या त्रिपुण्ड्र नहीं लगाना चाहिए। इन दोनों में से एक तिलक ही करना चाहिए-
ऊर्ध्व पुण्ड्र मृदाघार्य भस्मना तु त्रिपुण्ड्रकम्
उभयं चन्दने नैव हृभ्यङ्गोत्सव रात्रिषु ॥
अर्थात् मृत्तिका से ऊर्ध्वपुण्ड्र तथा भस्म से त्रिपुण्ड्र करना चाहिए । चन्दन रे. दोनों प्रकार के तिलक किये जा सकते हैम् ।
ललाट के मध्यभाग में दोनों भौंहां से कुछ ऊपर ललाट बिन्दु कहलाता है, इसी स्थान पर तिलक लगाना चाहिए ।
अब प्रश्न उठता है, कि किस उङ्गली से तिलक लगाना चाहिए-
अनामिका शान्ति दोक्ता मध्य मायुष्करी भवेत् ।
अङ्गुष्ठः पुष्टिदः प्रोक्तः तर्जनी मोक्षदायिनी ॥
अर्थात् अनामिका उङ्गली से तिलक करने से शान्ति मिलती है, मध्यमा से तिलक करने पर आयु बढ़ती है, अङ्गूठे से तिलक करना पुष्टिदायक माना गया है, तथा तर्जनी उङ्गली से तिलक करने पर मोक्ष प्राप्त होता है ।
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विष्णु संहिता के अनुसार देव कार्य मेम् अनामिका, पितृ कार्य में मध्यमा, ऋषि कार्य में कनिष्ठिका तथा तान्त्रिक कार्यों में प्रथमा उङ्गली का प्रयोग करना
चाहिए ।
अलग-अलग कार्यों के लिए तान्त्रिक ग्रन्थों मेम् अलग-अलग तिलक पदार्थों की
ओर सङ्केत किया गया है-
विष्णु आदि देवताओं की पूजा
में
पीत चन्दन
गणपति पूजन में
हरिद्रा चन्दन
पितृ कार्यों में
शिव पूजा मेम्
ऋषि पूजा में
रक्त चन्दन
भस्म
श्वेत चन्दन
मानव पूजा में
लक्ष्मी पूजा में
तान्त्रिक कार्यों में
केशर, चन्दन
केसर
सिन्दूर
ध्यान रहे, शिव पूजा या उपासना में कुङ्कुम्म का सर्वथा निषेध है ।
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तिलक किन-किन अङ्गों पर
सिर, ललाट, कण्ठ, हृदय, दोनों बाहु, दोनों बाहुमूल, नाभि, पीठ और दोनों बगल में - इस प्रकार वारह स्थानों पर तिलक करने का विधान है ।
चन्दन लगाने का मन्त्र
कान्ति, लक्ष्मी धृति, सौख्यं सौभाग्यमतुलं ममः । ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ॥
भस्म लगाने का मन्त्र
त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपश्य त्र्यायुषम् । यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम् ॥
- यजुर्वेद ३६२
तिलक करने का सामान्य मन्त्र
केशवानन्त गोविन्द वाराह पुरुषोत्तम ।
पुण्यं यशस्य मायुष्यं तिलकं में प्रसीदतु ॥
सन्ध्या
किसी भी वर्ण या किसी भी प्रकार के साधक को अपने गुरु की आज्ञा से
मन्ध्या करनी चाहिए ।
सन्ध्या में मुख्यतः दस क्रियाएं होती हैं-
१. आसन शुद्धि
• २. मार्जन
३. आचमन
४. प्राणायाम
५. अघमर्षण
६. अर्घ्यदान ।
७. सूर्योपस्थान
८. न्यास
६. ध्यान
१०. जप
सन्ध्या का अर्थ है सम + ध्यै + अन + आप, ‘ध्यै’ धातु का अर्थ है ध्यान करना, अतः सन्ध्या का तात्पर्य हुआ तन मन एवं वाणी से ईश्वर-स्वरूप होना । वेद में स्पष्ट कहा है-
अहरहः सन्ध्यामुपासित
अर्थात् नित्य सन्ध्या करनी चाहिए ।
सन्ध्या कब करे
उत्तमो
तारकोपेता मध्यमा लुप्त तारका क नष्टा सूर्य सहिता प्रातः सन्ध्या त्रिधा स्मृता ॥
— देवी भागवत
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अर्थात् प्रातःकाल की सन्ध्या ताराओं के रहते की जानी चाहिए, यह उत्तम है । तारे छिप जाने पर की जाने वाली सन्ध्या मध्यम तथा सूर्योदय के बाद की जाने वाली सन्ध्या कनिष्ट कहलाती है । इसी प्रकार साञ्झ की सन्ध्या सूर्यास्त से तीन घटी पहले की जाय तो उत्तम, ताराओं के निकलने से पूर्व मध्यम तथा ताराओं के छा जाने पर की जाने वाली सन्ध्या कनिष्ट मानी जाती है ।
उत्तमा सूर्य सहिता, मध्यमा लुप्त सूर्पका ।
कनिष्ठा तारकोपेता सायं सन्ध्या त्रिधास्मृता ॥
— देवी भागवत
सन्ध्या स्थान
गृहेषु प्राकृती सन्ध्या गोष्ठे शतगुणास्मृता ।
नदीषु शतसाहस्री अनन्ता शिव सन्निधौ ॥
यदि सन्ध्या प्रयोग घर में किया जाता है, तो वह सामान्य है, गोशाला में सौ गुना, नदी तट पर लाख गुना और शिव मन्दिर मेम् अनन्त गुना फल मिलता है ।
सन्ध्या में प्रातःकाल ब्राह्मी का, मध्याह्न में वैष्णवी का, तथा सायङ्काल शाम्भवी का ध्यान करना चाहिए। तान्त्रिक साधना मेम् अपनी-अपनी ‘इष्ट गायत्री’ का ही जप होता हैं, सब की गायत्री अलग-अलग है, यहां कुछ का उल्लेख कर रहा हूम् ।
१. विष्णु गायत्री त्रैलोक्य मोहनाय विदमहे कामदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात् २. नारायण गायत्री नारायणाय विदमहे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु प्रचोदयात् ३. नृसिंह गायत्री वज्र नरवाय विदमहे नीक्ष्णदंष्ट्राय धीमहि तन्नो नृसिंहप्रचोदयात् ४. राम गायत्री दाशरथाय विदमहे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो राम प्रचोदयात् ५. शिव गायत्री तत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र प्रचोदयात्
६. गणेश गायत्री तत्पुरुषाय विदमहे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ७. शक्ति गायत्री सर्व सम्मोहिन्यै विदमहे विश्व जनन्यै धीमहि तन्नः शक्ति प्रचोदयात् ८. लक्ष्मी गायत्री महालक्ष्म्यै विदमहे सहाश्रियै धीमहि तन्नः श्री प्रचोदयात् ६. सरस्वती गायत्री वाग्देव्यै विदमहे कामराजाय थीमहि तन्नः देवी प्रचोदयात् १०. गोपाल गायत्री कृष्णाय विदमहे दामोदराय धीमहि तन्नः विष्णु प्रचोदयात् ११. सूर्य गायत्री आदित्याय विदमहे मार्तण्डाय धीमहि तन्नः सूर्य प्रचोदयात्
साधकों के दिशा-निर्देश के लिए भगवान शङ्कराचार्य ने साधना-पञ्चक एक पाञ्च श्लोकों का ग्रन्थ रचा है-
वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां
तेनेशस्य विधीतता मपचितिः काम्ये मतिस्त्यज्यताम् । पापौघः परिधूयतां भव सुखे दोषोऽनुसन्धीयता । मात्मेच्छा व्यवसीयतां निज गृहा चूर्ण विनिर्गम्यताम्
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नित्य वेदाध्ययन करो तथा वेद निहित कर्म करो, साथ ही काम्य कर्मों को छोड़ दो, समस्त पाप पञ्ज का नाश करते हुए सांसारिक सुखों में दोष देखो, परमात्मा में चित्त लगाते हुए अपने घर का यथासम्भव त्याग कर दो ।
सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढ़ाघीयतां शान्त्यादिः परिचीयतां दृढ़ तरं कर्माशुसन्त्यज्यताम् । सद्विद्वानुप सृज्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां ब्रह्म काक्षर मर्थ्यतां श्रुति शिरो वाक्यं समा कर्ण्यताम् ॥ सत्पुरुषों का सङ्ग करो, तथा भगवान में दृढ़ अनुराग पैदा करो, शम दम आदि का पालन करते हुए काम्य कर्मों को छोड़ दो, सच्चे साधुओं के पास ब्रह्म को पहचानने का अभ्यास करो ।
वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुति शिरः पक्षः समाश्रीयतां दुस्तर्कात्सु विरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनु सङ्घीयर्ताम् । ब्रह्मास्मीति विभाव्यता महरह गर्वः परि त्यज्यतां- देहेऽहं मति रुज्यतां बुध जनै र्वाद परि त्यज्यताम ॥३॥
वेदान्त एवम् उपनिषदों का आश्रय लो, कुतर्क से दूर रह कर श्रुति सम्मत मुक्तियों का अनुसन्धान करो। “मैं ब्रह्म हूं” — ऐसी भावना भरो, अहं का त्याग करो तथा बुद्धिमानों के साथ रहो ।
भूख
शुद्वयाधिश्चचिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात्प्राप्तेन सन्तुष्यताम् । शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यता मौदासीन्यमभीप्स्यतां जन कृपा नैष्ठुर्य मुत्सृज्यताम ॥४॥
को व्याधि समझो, तथा भिक्षान्न से ही उदरपोषण करो, देव कृपा से जो मिल जाय, उसी से सन्तुष्ट रहो, सर्दी गर्मी सहन करने की शक्ति रखो, झूठ मत बोलो तथा अन्य लोगों पर कृपा व कठोरता दोनों को ही छोड़ दो '
एकान्ते सुखमास्यतां पटतरे चेतः समाधीयतां पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम् प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिवलान्नाप्युत्तरः श्लिष्यतां
प्रारब्धं त्विह भुज्यता मथ पर ब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥५॥
एकान्त में शान्ति से बैठ परात्पर ब्रह्म में चित्त को लगाओ । सर्वत्र पूर्णब्रह्म का अनुभव करो, भावी कर्मों से असङ्ग रहो, तथा पूर्व कर्मों को ईश्वर से बान्ध दो, तथा स्वयं को ब्रह्मवत् बना लो
वस्तुतः शङ्कराचार्य ने जो कुछ कहा है, वह मूलतः सन्यासियों को सामने रखकर कहा है, पर ये नियम सभी साधकों के लिए उपयोगी हैं, एवं मन्त्र-तन्त्र साधना काल मेम् इनका प्रयोग सफलता देने में सहायक रहता है ।पूजा
साधना काल में कई बार पूजा विधान करना पड़ता है, यहां मैं सङ्क्षेप में पूजा विधि लिख रहा हूं, जोकि किसी भी सगुण इष्ट पूजा में सहायक है ।
आदि ।