०७ मुद्रा

सर्व सिद्धयं व्याघ्र चर्म, ज्ञान सिद्धयं मृगाजिनम् ।

वस्त्रासनं रोग हरं वेत्र जं श्री विवर्धनम् ॥

मुदं करोति देवानां

द्रावय

त्यसुरांस्तथा ।

मोदनाद् द्रावणाच्यैव मुद्र ेति परिकीर्तिता ॥

अर्थात् देवताओं को हर्ष तथा असुरों का विनाश करने के कारण इसका नाम मुद्रा पड़ा ।

यहां पर साधकों की जानकारी के लिए मुद्राओं की भी सङ्क्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहा हूं क्योङ्कि साधना में सफलता पाने के लिए इनका उपयोग बेजोड़ माना जाता है—

ब्रह्मदार मुख सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत् ॥

— हठयोग प्रदीपिका

शक्ति चालन मुद्रयं सर्व शक्ति प्रदायिनी

  • शिव संहिता

“बिना मुद्राओं के किसी भी प्रकार की साधना सफल नहीं होती” — घेरण्ड संहिता

उपरोक्त दो तीन उद्धरणों से ही मुद्राओं की विशेषता का बोध हो जाता है ।

हाथ की उङ्गलियों, मुट्ठियाम् और करतल आदि के जोड़ने, मोड़ने, खोलने व बन्द करने से ही समस्त प्रकार की मुद्राएं बन जाती हैम् ।

नित्य पूजा मुद्राएं

१. प्रार्थना

४. कुम्भ

२. अङ्कुश

५. तत्व

३. कुन्त

उपरोक्त पाञ्च मुद्राएं प्रत्येक साधक को दैनिक स्नानादि के समय करनी

चाहिए-

124

सन्ध्या मुद्राएं

सन्ध्याकाल की चौबीस मुद्राएं हैं-

१. सम्मुखी

२. सम्पुटी

३. वितत

४. विस्तृत

५. द्विमुखी

६. त्रिमुखी

७. चतुर्मुखी

८. पञ्चमुखी

६. षणमुखी

१०. अधोमुखी

११. व्यापक

१२. आञ्जलिक

זה

सुमुखम्

विस्तृतम्

f

त्रिमुखम्

शुभ

इस कि उकार

Th

सम्पुटम्

द्विमुखम्

विततम

१३. शकट

१४. यम पाश

१६. सन्मुखोन्मुखा

१७. प्रलय

१६. मत्स्य

२०. कूर्म

१५. ग्रथित

१८. मुष्टिक

२१. वाराह

२२. सिंहाक्रान्त

२३. महाक्रान्त

२४. मुद्गर

चतुर्मुखम्

पञ्चमुखम्

षण्मुखम्

श्रद्योमुखम्

व्यापकाञ्जलिकम्

15 11

शकटम

125

126

अङ्गन्यास-मुद्राएम्

अङ्गन्यास की छः मुद्रिकाएं होती है—

१. हृदय

४. कवच

२. शिर ५. नेत्र

३. शिखा

६. फट्

यमपाशम्

प्रन्थितम्

उन्मुखोन्मुखम्

प्रलम्बम्

मुष्टि

मत्स्यः

करन्यास मुद्राएं

करन्यास की भी छः मुद्राएं होती हैं-

१. तर्जनी

४. कनिष्ठका

२. मध्यमा

५. अङ्गुष्ठ

३. अनामिका ६. फट्

कूर्मः

वराहकम्

सिंहक्रान्तम्

महाक्रान्तम्

मुद्गरः .

पल्लवम्

127

128

जीवन्यास मुद्राएं १. बीज

४. नाद

२. लेलिहा३. त्रिखण्डा ५. बिन्दु

६. सौभाग्य

सरभिः

ज्ञानम्

वैराग्यम्

शङ्ख

योनिः

पङ्कजन्देवोपासना की मुद्राएं

१. आवाहन

४. अवगुण्ठन

२. स्थापन

५. धेनुमुद्रा

३. सन्निद्ध ६. सरली

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भोजन मुद्रा १. प्राणाहुति ४. उदानाहुति

लिङ्गम्

निर्वाणम्

२. अपानाहुति ५. समानाहुटि

३. व्यानाहुति

पञ्चदेव मुद्राएं

१. शङ्ख २. घण्टा

१५. हयग्रीव

१६. धनुष

२६. खट्वाङ्ग ३०. अभय

३. चक्र

१७. बाण

३१. कपाल

४. गदा

१८. परशु

३२. डमरु

५. पद्म

१६. जगत

३३. दन्त

६. वंशी

२०. काम

३४. पाश

७. कौस्तुभ

२१. मत्स्य

३५. अङ्कुश

८. श्रीवत्स

२२. कूर्म

३६. विघ्न

६. वनमाला

२३. लिङ्ग

१०. ज्ञान

२४. योनि

३७. परशु ३८. मोदक

११. बिल्व

२५. त्रिशूज

३६. बीजपुर

१२. गरुड़

२६. अक्ष

४०. पद्म

१३. नारसिंही

२७. वर

१४. वाराह

२८. मग

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शक्ति मुद्राएं

१. पाश २. अङ्कुश

३. वर

४. अभय

५. धनुष

६. बाण ७. खड्ग

८ चर्म

६. मूसल

१०. दुर्ग

महाकाली मुद्राएं

२. मुण्ड

१. महायोनि महालक्ष्मी मुद्राएं

१. पङ्कज

४. व्याख्यान

तारा मुद्राएं

३. भूतिनी

२. अक्षमाला

३. वीणा

५. पुस्तक

१. योनि

२. भूतनी

३. बीज

४. धूमिनि

५. लेलिहा

त्रिपुरा मुद्राएं

१. सर्व विक्षोभ कारिणी

२. सर्व विद्राविणी

३. सर्वाकर्षणी

४. सर्व वश्यकरी

५. उन्मादिनी

६. महाङ्कुश

७. खेचरी

८. बीज

६. योनि

भुवनेश्वरी मुद्राएं

१ पाश

५. पुस्तक

२. अङ्कुश

३. वर

४. अभय

६. ज्ञान

७. बीज

८. योनि

यहां मैन्ने केवल मुद्राओं के नाम परिगणन ही किए हैं। योग्य गुरु के सान्निध्य

में साधकों को चाहिए कि वे जानकारी प्राप्त करेम् ।

कुण्डलिनी जागरण में मात्र तीन मुद्राएं ही ज्यादा उपयोगी हैं-

२. योनि

१. शक्ति चालिनी

३. खेचरी

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१. शक्ति चालिनी मुद्रा — सर्वप्रथम साधक सिद्धासन से बैठ जाए, तथा दोनोम् एड़ियों को मूलाधार से लगावे, तथा ठोड़ी को हृदय से लगाकर जोरों से श्वास- प्रवास करे, इससे मणिपुर चक्र पर दबाव पड़ेगा, तथा साथ ही गुदा सङ्कोचन - खोलन करे । फलस्वरूप मलाधार की अपान वायु का दबाव प्राण वायु पर होगा और इससे कुण्डलिनी जागरण होगी। यही शक्ति चालिनी मुद्रा कहलाती है ।

२. योनि मुद्रा — सिद्धासन पर बैठकर नौ द्वारों को बन्द करें, दोनोम् अङ्गूठों से दोनों कानों को, दोनों तर्जनी उङ्गलियों से दोनों नेत्रों को, दोनों मध्यमाओं से दोनों नासिका छिद्रों को गुदा व लिङ्ग को दोनोम् एड़ियों से अवरुद्ध करें, फिर कौए की चोञ्च के समान जीभ कर श्वास अन्दर खीञ्चें तथा दोनों कनिष्ठका उङ्गलियों से दोनों होठों को बन्द कर दें, फिर कुभक विरोचन कर षटचक्र में कुण्डलिनी ध्यान करेम् और ‘हूं’ मन्त्र का मानसिक जाप करें, इससे सुप्त कुण्डलिनी का निश्चय ही जागरण होता है । ३. खेचरी मुद्रा - जीभ को काफी बाहर निकाल फिर मोड़कर मुंह के भीतर नासिका के नीचे छिद्र को स्पर्श करें, दोनों नेत्रों को भृकुटि के मध्य में स्थापित करेम् । यह मुद्रा सर्वाधिक कठिन एवं दुष्कर है। इसके अभ्यास से योगी हृदय की गति को नियन्त्रित कर अखण्ड समाधिक या इच्छानुसार समाधि में रत हो सकता है ।

मुख्य रूप से चार बन्ध होते हैं :

१. मूल बन्ध

२. जालन्धर बन्ध

३. उड्डीयान बन्ध

४. महा बन्ध

बन्ध

ऊपर मैन्ने चार बन्धों का विवरण दिया है, जो इस प्रकार हैं

१. मूल बन्ध-गुदा व लिङ्ग प्रदेश को दोनोम् एड़ियों से दबाकर दोनों के मार्ग को अवरुद्ध करे, इससे अपानवायु ऊपर उठती है, और वह प्राण वायु से टकराती है, फलस्वरूप सुषुम्ना जागरण या कुण्डलिनी जागरण में सहायता मिलती है ।

२. जालन्धर बन्ध— कण्ठ को सिकोड़कर ठोड़ी को सीने से लगावे । इससे पूरे शरीर की नाड़ियां कस जाती हैं, फलस्वरूप इडा पिङ्गला नाड़ियां स्तम्भित होकर प्राणवायु की ओर प्रवाहित होती हैम् ।

३. उड्डीयान बन्ध— दोनों जङ्घाओं को मोड़कर दोनों पैरों के तलुए परस्पर मिलाएं तथा पेट को अन्दर खीञ्चकर पीठ से चिपकायेम् और फिर प्राणायाम साधन करें, इससे नाभि के ऊपर व नीचे दबाव पड़ेगा, फलस्वरूप प्राणवायु सुषुम्ना की ओर बहती है, और सुषुम्ना जाग्रत होती है ।

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४. महाबन्ध— उड्डीयान बन्ध करते समय यदि कुम्भक प्राणायाम किया जाय, तो महाबन्ध होता है ।

ऊपर मैन्ने साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए मुद्राओं व बन्धों का सङ्क्षिप्त विवरण दिया है, ये सब किसी योग्य गुरु के सान्निध्य में रहकर ही सीखे जा सकते हैम् ।

प्राणयामि

याज्ञवल्क्य ने प्राणायाम की महिमा वर्णित करते हुए कहा है

प्राणायाम पराः सर्वे प्राणायाम परायणाः ।

प्राणायामं विशुद्धा ये ते यान्ति परमां गतिम् ॥

मानव देह का आधारभूत, नाड़ियां व उसमें बहने वाला शुद्ध रक्त है, इन नाड़ियों का मञ्जन व रक्त का शोधन प्राणायाम के माध्यम से ही सम्भव है । प्राणायाम के द्वारा ही श्वास स्पन्दन सुषुम्ना में प्रवेश कराया जाता है, जिससे शरीर के समस्त विकार दूर हो जाते हैं तथा शरीर किसी भी प्रकार की साधना के लिए तैयार हो जाता है ।

योग सूत्र में बताया है कि श्वास प्रश्वास गति को अवरोधन करना ही प्राणा- याम है ।

प्राणायाम के तीन भाग मुख्य हैं-

१. रेचक – प्रश्वास ( अन्दर से बाहर निकलने वाला श्वास) को नासिका छिद्रों से अत्यन्त धीरे-धीरे बाहर निकालने की क्रिया को रेचक कहते हैम् ।

२. पूरक — शुद्ध वायु को नासिक छिद्रों से धीरे-धीरे अन्दर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैम् ।

३. कुम्भक - श्वास जो कि बाहर से नासिका छिद्रों द्वारा शरीर के अन्दर लिया है इसे भरपूर लेकर अन्दर ही रोके रखने को कुम्भक कहते हैं।

योग ग्रन्थों में कुम्भक के आठ भेद बताये हैं-

१. सूर्य भेटी

४. शीतला

७. मूर्च्छा

२. उज्जयी

५. भस्त्रिका

८. प्लाविनी

३. शीतकरी

६. भ्रामरी

यहां हमेम् इन भेदों को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, योग्य सान्निध्य मेम् इन भेदों का विधिवत् अभ्यास किया जा सकता है ।

प्रत्याहार

‘ब्राह्मणोपनिषद’ में प्रत्याहार की विवेचना करते हुए बताया है—

‘विषयेभ्य इन्द्रियार्थेभ्यो मनो निरोधनं प्रत्याहार’

गुरु

के

133

अपनी समस्त इन्द्रियों को विषय वासना से विरत कर स्वस्थ चित्त होना ही प्रत्याहार कहलाता है ।

योग सूत्र में लिखा है-

धारणा

देश वर्धाश्चत्तस्य धारणा

चित्त को एकाग्र कर किसी एक चक्र में पाञ्च घड़ी तक स्थिर रखने की क्रिया को ‘धारणा’ कहते हैम् ।

वास्तव में देखा जाए, तो जब तक षट चक्र वेधन पूर्ण रूप से नहीं हो जाता, तब तक चित्त एक चक्र पर स्थिर रह ही नहीं सकता, अतः षट् चक्र वेधन ही प्रकारान्तर से ‘धारणा’ है। ‘लय योग संहिता’ ने इसी बात की पुष्टि की है-

ज्योतिषा मन्त्र नादाभ्यां षट् चक्राणांहि, भेदनम - धारणा’

ध्यान

चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं, योग सूत्र में बताया है—

‘तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम्’

ध्यान तीन प्रकार का होता है-

१. स्थूल ध्यान —अपने इष्टदेव का सगुण ध्यान स्थूल ध्यान कहलाता है । २. ज्योतिर्ध्यान - परमात्मा स्वरूप कुण्डलिनी का ध्यान ही ज्योतिर्ध्यान कहलाता है ।

३. सूक्ष्मध्यान — कुण्डलिनी जाग्रत कर षट् चक्र त्रेधन करता हुआ सहस्रार चक्र में लीन होने को ही सूक्ष्मध्यान कहते हैम् । ऐसा योगी समस्त जाग्रतं प्रपञ्चों से विनिर्मुक्त होकर परमात्मा में लीन हो जाता है, ऐसे साधक को अनायास ही अष्ट- सिद्धियां प्राप्त रहती हैं।

अष्ट सिद्धियाम्

अमर कोश मेम् अष्ट सिद्धियां निम्न प्रकार से बताई हैं-

अणिमा महिमा चैव गरिमा लघिमा तथा ।

प्राप्तिः प्राकाम्य मीशित्वं वशित्वश्चाष्ट सिद्धयः ॥

१. अणिमा - अपने शरीर को अणुवत लघु कर देना । २. महिमा - शरीर को इच्छानुसार बड़ा करना ।

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३. लघिमा —शरीर को वायु से भी हल्का कर देना, जिससे वह उड़ सके, और

इच्छित स्थान पर वायु-वेग से पहुञ्च सके ।

४. गरिमा — शरीर को पर्वत के समान बना देना ।

५. प्राप्ति-सङ्कल्प मात्र से ही किसी पदार्थ को प्राप्त कर लेना

६. प्राकाम्य - अपने शरीर को इच्छानुसार सुन्दर स्वस्थ व तरुण बनाये रखना । ७. वशित्व — पञ्चभूतों व विश्व के सभी प्राणियों को वश में कर लेना ।

८. ईशित्व — विश्व में पाये जाने वाले पदार्थों को नाना रूपों में बदल देना, या ईश्वर-

वत् शक्तिमान बनना ।

समाधि

मन और आत्मा का एकरूप हो जाना ही समाधि कहलाता है हठयोग प्रदीपिका में कहा है-

तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्म परमात्मनोः ।

प्रनष्ट सर्व सङ्कल्पः समाधिः सोऽभिघीयते ॥

उपरोक्त ‘अष्टाङ्ग’ पालन प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है, इसमें दक्ष होने से ही साधक अपनी किसी भी प्रकार की साधना में सफल हो पाता है ।

प्रारम्भ में मैन्ने अन्तश्चेतना जाग्रत करने की बात कही थी, यह अन्तश्चेतना जागरण ही प्रत्येक साधना की सफलता की कुञ्जी है, उपरोक्त ‘अष्टाङ्ग’ इस अन्तश्चे- तना जागरण में विशेष सहायक रहता है ।

अन्तश्चेतना जागरण

शान्त निर्विकल्प भाव से शुद्ध आसन पर बैठ जाय, आसन दो इञ्च मोटा और आरामदायक हो ।

सर्व सिद्धये व्याघ्र चर्म ज्ञान सिद्धये मृगाजिनम् ।

वस्त्रासनं रोगहरं वेत्र जं श्री विवर्धनम् ॥

प्राणायाम के द्वारा मन को शान्त करने का प्रयास कीजिए, और फिर धीरे धीरे अपने मन के भीतर झाङ्कने का प्रयास कीजिए। धीरे-धीरे अभ्यास से ऐसी स्थिति बनेगी, कि बाहर का कोलाहल धीमे सुनाई देगा, फिर और धीमा होगा, और एक क्षण ऐसा भी आएगा कि बाहर का कोलाहल सुनाई देना बिल्कुल बन्द हो जाएगा । अगर आपके पास खड़ा कोई व्यक्ति चिल्लाएगा, तब भी आपको सुनाई न दे, तब आप समझें कि अब आप अन्तश्चेतना को स्पर्श करने की स्थिति मेम् आ गए हैम् ।

इसके बाद आप और भी अन्तर्मुख बनें, और किसी ऐसे मकान को देखने का

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प्रयत्न करें, जो पहले कभी देख चुके हों। आपके नेत्रों के सामने (यद्यपि आङ्खें बन्द होङ्गी) वह मकान टेलीविजन की तरह स्पष्ट हो जाएगा, फिर आप उस मकान के अन्दर कमरों में देखने का प्रयास करें, धीरे-धीरे एक विचित्र रहस्य आपके सामने उजागर होने लगेगा, आप देखेङ्गे, कि उस कमरे में हलचल है, कमरे की प्रत्येक वस्तु स्पष्ट दिखाई देने लगेगी, उसमें बैठे सभी प्राणी दिखाई देङ्गे, यही नहीम् अपितु वे सारी घटनाएं भी स्पष्ट दिखाई देङ्गी, जो उस मकान मेम् उस समय घट रही होङ्गी ।

यह अन्तश्चेतना की गति है, जो क्षणांश में ही सैकड़ों हजारों मील दूर स्थित किसी घटना को प्रत्यक्षतः देख पाती है, इस अन्तश्चेतना से ही हम सब कुछ इसी प्रकार देख पाते हैं जिस प्रकार कि हमारे सामने कोई नाटक चल रहा हो ।

परम पूज्य गुरुदेव का यह कथन कितना अक्षरशः सत्य है, कि ‘अन्तश्चेतना’ काल एवं गति से परे है । इसके माध्यम से हजारों मील दूर स्थित घटना को देख पाते हैं, और हजारों वर्ष पूर्व की ध्वनियां सुन पाते हैं—चाहें तो महाभारत कालीन युद्ध, श्रीकृष्ण का अर्जुन को गीता का उपदेश आदि देख भी सकते हैं, तथा उन्हीं मूल ध्वनियों को सुन भी सकते हैम् ।

वस्तुतः किसी भी साधक के लिए अन्तश्चेतना जाग्रत करना सफलता का प्रथम और दृढ़ चरण है ।

दृढ़