अन्तश्चेतना साधन में पालन योग्य नियम
नारद पुराण, जाबाल दर्शनोपनिषद आदि ग्रन्थों में साधक के लिए अष्टाङ्ग पालन का आदेश दिया है, और इसे आवश्यक बताया है-
अष्टाङ्ग
१. यम
१. यम २. नियम
३. आसन
४. प्राणायाम
५. प्रत्याहार
६. धारणा
७. ध्यान
८. समाधि
इसमें से पहली तीन स्थूल क्रियाएं हैं तथा बाकी सूक्ष्म क्रियाएं कहलाती हैं-
‘पातञ्जल योग सूत्र’ में बताया है कि अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहा यमाः ।’
अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह इन पाञ्चों को ‘यम’ कहते हैम् ।
(क) अहिंसा - मन, वचन व कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का दुःख न देना ही अहिंसा है ।
(ख) सत्य — प्रत्येक प्राणी के हित में झूठ न बोलने की क्रिया को ही सत्य कहते हैम् । मुण्डकोपनिषद में सत्य की महिमा वर्णन करते हुए कहा है-
‘सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः सत्येन लभ्यस्तप । ‘साष आत्मा’ अर्थात् प्रारम्भ में भले ही कष्ट, बाधा या परेशानियों का सामना करना पड़े, पर अन्त में विजय सत्य की ही होती है ।
(ग) अस्तेय - मन, वचन, कर्म से दूसरे के द्रव्य की न तो इच्छा करना और न अनधिकृत रूप से प्राप्त करना अस्तेय कहलाता है ।
कर्मणा मनसा वाचा परद्रव्येषु निःस्पृह । अस्तेयमिति सम्प्रोक्तमृषिभिस्तत्व दशभिः ॥
- याज्ञवल्क्य संहिता
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(घ) ब्रह्मचर्य-व्यास ने कहा-ब्रह्मचर्य गुप्तेन्द्रिय स्थोपस्थस्य संयमः ।" अर्थात् गुप्तेन्द्रिय से प्राप्त सभी प्रकार के सुखों को त्यागना ही ब्रह्मचर्य है । ‘दक्ष संहिता’ में मैथुन आठ प्रकार के बताये हैं-
१. स्मरण - ( प्रिया या सुन्दर स्त्री का स्मरण करना) । २. कीर्तन - (प्रिया की बातों को रसपूर्वक वर्णन करना) ।
३. हंसी मजाक - ( किसी भी स्त्री से हंसी मजाक करना) ।
४ राग दर्शन – (किसी पर स्त्री को मोहयुक्त लोलुप दृष्टि से देखना ) ।
५. एकान्त में वार्तालाप - (पर स्त्री से एकान्त निर्जन स्थान में बातचीत
करना) ।
६. सङ्कल्प - ( पर स्त्री से रति निवेदन करना) ।
७. मैथुन - प्रयत्न - ( सम्भोग के लिए उद्यत होना या प्रयत्न करना) ।
मैथुन - ( पर स्त्री के साथ प्रत्यक्ष मैथुन करना) ।
साधक को इन आठों प्रकार के
अनुसार अपनी पत्नी से उचित समय में
मैथुन से बचना चाहिए। घेरण्ड संहिता के मैथुन करने से ब्रह्मचर्य खण्डित नहीं होता ।
(ङ) अपरिग्रह - अपने लिए सभी प्रकार के सुख, भोग, धन, सम्पदा आदि का त्याग अपरिग्रह कहलाता है ।
पातञ्जली योग में भी उपरोक्त ‘यम’ निर्देश दिये हैं। पर श्रीमद्भागवत में श्री व्यास जी ने यम के बारह प्रकार बताये हैं :
१. अहिंसा
२. सत्य
३. अस्तेय
४. असङ्ग
५. लज्जा
६. अपरिग्रह
७. आस्तिकता
८. ब्रह्मचर्य
६. मौन
१०. स्थिरता
११. क्षमा
१२. अभय
इसका पालन ‘यम’ नियम पालन करना है
२. नियम
पातञ्जल योग दर्शन में पाञ्च नियम बताये हैम् ।
१. शौच
२. सन्तोष
३. तप
४. स्वाध्याय
५. ईश्वर शरणागति ।
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१. शौच - शरीर की बाह्य तथा अन्तःकरण की शुद्धि को ही शौच कहते हैम् । बाह्य शुद्धि से तात्पर्य स्नान, मल विसर्जन आदि तथा अन्तः शुद्धि का तात्पर्य चित्त- एकाग्रता, इन्द्रिय- दमन आदि है ।
२. सन्तोष - हर परिस्थिति में सन्तुष्ट रह, जीवन निर्वाह के अतिरिक्त किसी भी पदार्थ की इच्छा न रखते हुए जीवन व्यतीत करने को ही सन्तोष कहते हैम् ।
३. तप-वर्ण, देश, काल तथा योग्यतानुसार स्वधर्म का पालन करते हुए व्रत, पूजा आदि के द्वारा भूख-प्यास नियन्त्रण सर्दी, गर्मी आदि द्वन्द्वों को सहन करने की कला ही तप कहलाती है ।
४. स्वाध्याय - अपने इष्ट से साक्षात्कार, मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र आदि का यथेष्ट ज्ञान एवं विविध धर्मशास्त्रों की जानकारी ही स्वाध्याय कहलाता है ।
५. ईश्वर शरणागति — मन, वचन कर्म से ईश्वर के प्रति समर्पित रहकर
स्वधर्म पालन को ईश्वर शरणागति कहा गया है ।
हठयोग प्रदीपिका में ‘नियम’ के दस भेद बताये हैं :
१. तप
२. सन्तोष
३. आस्तिकता
६. शुभ श्रवण
७. बुद्धि
८. मति
६. जप
१०. यज्ञ
४. दान
५. ईश्वराराधन
वस्तुतः मन्त्र साधना में पूर्ण सफलता के लिए यम-नियम का दृढ़ता से पालन करना आवश्यक है ।
३. आसन
साधक जब अपनी साधना में रत रहता है, तब एक विशेष प्रकार की शक्ति का सञ्चार उसके शरीर में होता है । उस समय यदि वह पृथ्वी पर बैठा होता है तो वह शक्ति पृथ्वी में समा जाती है, अतः साधक को चाहिए कि वह उचित आसन का प्रयोग करे ।
आसन ऐसा होना चाहिए जिस पर सुविधापूर्वक निश्चल भाव से बैठा जा सके । आसन कम-से-कम दो या ढाई इञ्च मोटा होना चाहिए ।
घेरण्ड संहिता में ८४ प्रकार के आसनों का उल्लेख है पर उनमें ३२ आसन ज्यादा लाभदायक हैं, जो अलग-अलग साधनाओं मेम् अलग-अलग रूप मेम् उपयोगी हैम् ।
१. सिद्धासन
३. भद्रासन
५. स्वास्तिकासन
७. सिहासन
६. वीरान
२. पद्मासन
४. मुक्तासन ६. वज्रासन
८. गौमुखासन
१०. धनुरासन
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११. मृतासन १३. मत्स्यासन
१५. गोरक्षासन
१७. उत्कुटासन १६. मयूरासन
२१. कूर्मासन
चिक २३. मण्डूकसना
१२. गुप्तासन
१४. मत्स्येन्द्रासन
१६. उत्तासन १५. सङ्कटासन २०. कुक्कुटासन २२. उत्तुङ्गासन २४. वृक्षासन
२७. वृषासन
२५. उत्तान मण्डूकासन
२६. गरुड़ासन
२८. शलभासन
३०. उष्ट्रासन
३२. योगासन
२६. मकरासन
३१. भुजङ्गासन
साधना के लिए ऋषियों के मत से चार आसन ही अनुकूल एवम् उचित हैं,
जो कि निम्न हैं-
१. स्वस्तिकासन
२. समासन ३. सिद्धासन
४. पद्मासन
इन चारों प्रकार के आसनों का विवरण पीछे के पृष्ठों में दिया जा चुका है । ‘कुण्डलिनी योग’ के अनुसार बैठने के लिए मृगासन, व्याघ्रासन आदि का भी उपयोग किया जा सकता है ।