०५ आधार

हमारा शरीर ईश्वर की सर्वोच्च कलाकृति है, जो जटिल है, पर गम्य है ।

योगीजन हो इस शरीर की मूल भावना एवं मूल रहस्य को समझने मेम् और वे ही देह स्थित चक्रोम् एवं रहस्यों को समझ सके हैं।

समर्थ हैं,

शून्यचक्र

33

108

हमारे प्राणमय कोष का मूलाधार सुषुम्ना नाड़ी है, जो सूक्ष्म, ज्ञानवाहक एवं गतिवाहक है । यह मेरुदण्ड के भीतर छिपी होने पर भी पूरे शरीर को आलोकित एवं ज्योत्स्नित करने में समर्थ है। जहां-जहां पर भी यह नाड़ी गुच्छों के रूप में बनती है, वह ‘चक्र’ के रूप में दिखाई देती है ।

आधारचक्र

वँ

सॅ

राँ

(१) मूलाधार चक्र

यह पृथ्वी तत्व प्रधान चक्र है, जो शुण्डाकृति के रूप में जामुनी रङ्ग-सा

दिखाई देता है । यह गुदा से ऊपर गणेश चक्र तक ‘अश्व पुच्छ्वत् दिखाई देता है, इसका दर्शन करना ही ‘यथार्थ दर्शन’ कहलाता है ।

(२) स्वाधिष्ठान चक्र

मूलाधार से लगभग चार अङ्गुल ऊपर मूत्राशय या गर्भाशय के मध्य मेम् अव- स्थित होता है, जिसका रङ्ग दूध से भरे स्वर्णिम कटोरे के समान होता है, अभ्यास के109

बाद इसमें से जो वाष्प निकलती है, वह मन और प्राणों को पूर्णतः तृप्ति देने में सहायक है । इसके दर्शन से ब्रह्मचर्य स्थिर एवं दृढ़ बनता है ।

स्वाधिष्ठानचक्र

वँ

M

यँ

(३) मणिपूर चक्र

कुछ साधक इसे ‘नाभि-चक्र’ भी कहते हैं, मेरुदण्ड के सामने नाभिश्रदेश में यह अवस्थित होता है। ‘नाभि’ एक ऐसा केन्द्रीय स्थान है, जहां से हजारों नाड़ियां चतुर्दिक निकलती हैं, और हजारों ही नाड़ियां यहाम् आकर समाहित होती हैं, जिससे नाड़ियों का एक चक्र-सा बन जाता है, जो कि रश्मियां निकलते होता है । इसका स्वरूप अग्निवत् होता है। गर्भस्थ बालक को

हुए सूर्य के समान प्राण ऊष्मा यहीं से

110

प्राप्त होती है । यहां पर ध्यान केन्द्रित करने से एक दिव्याभा दिखाई देती है, जिससे शरीर का अन्तरङ्ग पूरी तरह से ज्योत्स्नित हो जाता है। इसके अभ्यास से ही अन्तश्चेतना के उद्बोधन में पूरी-पूरी सहायता मिलती है ।

मणिपूरकचक्र

पँ

59%

(४) सूर्य चक्र

नाभि से कुछ ऊपर दाहिनी ओर जिगर के पास सूर्य चक्र की अवस्थिति है, जो कि अग्नितत्व प्रधान है, ध्यानस्थ होकर साधक जब इस चक्र से साक्षात्कार करता है तो भविष्यत् उसके सामने चित्रलिखित-सा स्पष्ट हो जाता है ।

O

रजोगुण से क्रियाशील चित्त, अहङ्कार और सूक्ष्म प्राण का परिणाम

सात्विक अवस्था में चित्त और अहङ्कार का परिणाम

112

चित्त में रजोगुण से क्षुभित हुए अहङ्कार का परिणाम

(५) चन्द्र चक्र

यह चक्र नाभि से ऊपर प्लीहा या तिल्ली के पास स्थित है, यह चन्द्र बिम्बवत् होता है, जीवन के समस्त भोजन को पाचक और मधुर बनाने में यह सहायक रहता है, इस चक्र के दर्शन योगीजन आत्मसाक्षात्कार के लिए करते हैम् ।

(६) अनाहत चक्र

113

योगीजन इसे ‘हत् चक्र’ भी कहते हैं। छाती में दोनों फुस्फुसों के पास इसकी अवस्थिति होती है । यह कनिष्ठिका की अग्र पौर के सदश्य अङ्गूरवत् होता है,

अनाहतचक्र

THE

No

off

5

जीवात्मा का निवास इसी चक्र में माना गया है, साधक जब इसमें प्रवेश करता है तो साक्षात् ब्रह्म के दर्शन हो जाते हैम् और वह एक अनिवर्चनीय आनन्द में ख जाता है ।

(७) विशुद्ध चक्र

यह चक्र हृदय के ऊपर कण्ठ प्रदेश में स्थित होता है। इसके कमलवत् मालह दल होते हैम् । जब साधक अपनी साधना के बलपर इस चक्र में प्रवेश करता है तब

114

विशुदास्यचक्र

भौ

अं

५५

ल्ह

वह दिव्य श्रुत-सा बन जाता है. मन स्थिर हो जाता है, भूख-प्यास समाप्त हो जाती है ।

(१८) आज्ञा व

यह ललाट भाग के भूमध्य में स्थित होता है, तथा सर्वोपरि चक्र माना गया है। जब साधक इस चक्र में प्रवेश करता है, तो ‘दीपशिखावत्’ ज्योति उसके सामने स्पष्ट होती है, यह दिव्य दृष्टि सम्पन्न चक्र’ कहलाता है। साधक जब यहां तक पहुञ्चता है. दूरदेश पदार्थ घटनाएम् आदि देख सकने में समर्थ होता है, और लाकिक भाषा मेम् उसे दिव्य नेत्र की होती है, कुछ साधक इसे आज्ञा

115

चक्र भी कहते हैं, शिव के तीसरे नेत्र की अवस्थिति इसी आज्ञा चक्र के मध्य मानी गई है । साधकों के अनुसार जब आज्ञा चक्र तक साधक की अवस्थिति हो जाती है, तब संसार की समस्त शक्तियाम् उसके पास स्वतः हो जाती हैं। क्योङ्कि वह जो कुछ

भी सोचता है, या आज्ञा देता है,

वह कार्य तुरन्त सम्पन्न हो जाता है। शिव का ‘मदन - दहन’ इस कथन का ज्वलन्त साक्ष्य है । आज्ञा चक्र में प्रवेश करने के बाद ही साधक ‘सहस्रार चक्र’ में प्रवेश पा सकता है ।

आज्ञा चक्र

The

कबीर के ‘अष्टचत्रा नवद्वारा’ के कथन में ये ही अष्टचक्र हैं, जिन्हें साधन करने पर साधक ब्रह्मत्व प्राप्त करने में समर्थ हो पाता है ।

(६) सहस्रार चक्र

साधक लोग इसे ‘ब्रह्मरन्ध्र’ भी कहते हैं। यह भृकुटि से लगभग तीन इञ्च ऊपर सिर के मध्य में ज्योतिपिण्ड के समान हं है । यह ज्योतिर्पिण्ड हजारों किरणों से ज्योतित दिखाई देता है, इसीलिए इसे सहस्रार चक्र कहा जाता है ।

जो योगी या साधक सहस्रार चक्र भेदन कर लेता है, वह लौकिक कार्यों से ऊपर उठ जाता है । भूख, प्यास, रोग, शोक, जरा-मरण का भय उसे नहीं व्यापता ।

अष्टसिद्धियों नवनिधियों का स्वामी होते हुए ‘ब्रह्मवत्’ हो जाता है ।

वह

116

तामस् अवस्था में चित्त और अहङ्कार का परिणाम

योग्य गुरु के सान्निध्य में कोई भी दृढ़ चित्त साधक धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ, सुषुम्ना को जाग्रत कर कुण्डलिनी जागरण में समर्थ हो सकता है, और फिर चक्र भेदन के बाद विशिष्ट योगी या साधक बन सकता है ।

परन्तु इस प्रकार की साधना के पूर्व कुछ विशिष्ट नियमों का पालन उसे दृढ़तापूर्वक करना चाहिए, जिससे वह अपने उद्देश्य में सफलता पा सके । यद्यपि ये नियम पढ़ने मेम् अत्यन्त सामान्य से लगते हैं, परन्तु साधक जब इनका पालन करने लगता है, तब कई कठिनाइयाम् अनुभव होती हैं, अतः साधक को सफलता पाने के लिए अधोलिखित नियमों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए-

117

राजस् अवस्था में चित्त और अहङ्कार का परिणाम

118

संहस्त्रदलपा सहस्त्राचक्र

द्विदलपद्म

षोडशदलपट्टा

द्वादशदलपदा

बादलपद्म

षट्दलपद्म

चतुर्दलपा

आज्ञाचक्र

विशुद्धाख्यचक्र

अनाहतचक्र

मणिपूरकचक्र

स्वाधिष्ठानचक्र

आधारचक्र