पिछले अध्याय मेम् अन्तश्चेतना के बारे में विवरण आया है, और जैसा कि हम पढ़ चुके हैं, इस अन्तश्चेतना से अनुप्राणित होकर ही मन्त्र फलप्रद, समर्थ एवं सिद्ध होता है, इस प्रकार मन्त्र का आधार यह अन्तश्चेतना ही है, अतः इसके बारे में थोड़ा और विचार कर लेना आवश्यक है ।
मानव शरीर इतना रहस्यमय है, कि सैकड़ों-हजारों वर्षों से वैज्ञानिक, चिकित्सक, योगी-साधक इसके रहस्य को समझने का प्रयत्न कर रहे हैं, पर अभी तक इस रहस्य का शतांश भी ज्ञात नहीं हो सका है, फिर भी मानव का यह प्रयत्न रहा है, कि वह अधिक-से-अधिक इसके बारे में जाने, और अपने ज्ञान का अनुभव अगली पीढी को दे ।
सूक्ष्मतः मानव मन दो हिस्सों में विभक्त है, एक है उसका अन्तर्मन और दूसरा वाह्य मन या दूसरे शब्दों मेम् अन्तश्चेतना और बहिर्चेतना । इसमेम् अन्तश्चेतना सर्वदा सक्रिय शुद्ध एवं निर्मल बनी रहती है । मानव जो भी झूठ छल, फरेब आदि कार्य करता है, उसकी प्रेरणा में बहिर्चेतना हो सकती है, अन्तश्चेतना नहीं, क्योङ्कि अन्तश्चेतना मानव को विशुद्ध मानव और उसमें देवत्व बनाये रखने में सहायक होती है ।
बाह्य चेतना या बहिर्चेतना किसी दूसरे प्रभाव मेम् आ सकती है, उस पर अज्ञान, घमण्ड, काम, क्रोध मोहादि का मोटा पर्दा भी पड़ सकता है, और यह बहिर्चे- तना आदमी को उसके सामाजिक मूल्यों से भी नीचे धकेल सकती है, परन्तु अन्तश्चे- तना इन सबसे परे निर्मुक्त रहती है, उस पर न तो किसी भी प्रकार के विकारों का पर्दा पड़ता है और न वह बहकावे मेम् आती है, क्योङ्कि उसमें’ पूर्णतः देवत्व बना रहता है । यह अन्तश्चेतना ही मानव को सही अर्थों में मानव बनाये रखती है, और उसे देवत्व-सुधा पिलाने में सहायक होती है ।
योगी, ध्यानी, ऋषि, साधु सन्त आदि अपने लक्ष्य को या ब्रह्मत्व को प्राप्त करने के लिए इसी अन्तश्चेतना का विकास करने में लगे रहते हैं. और इसके विकास से ही वे अपने लक्ष्य को पा सकते हैम् ।
अन्तश्चेतना को विकसित एवं नियन्त्रित करने के लिए आसन, आधार और प्राणायाम का अभ्यास आवश्यक है, जिनके सतत उपयोग से इस कार्य में सफलता मिल सकती है ।