०२ मन्त्र

गुफ

डि

हैफिक के न

क्योङ्कि

जीवन की मूलाधार साधना है और साधना का मूलाधार है ‘शब्द’, बिना शब्द के अर्थ की उत्पत्ति सम्भव नहीम् । इसलिए ‘वाक्’ और ‘अर्थ’ का सम्बन्ध ठीक वैसा ही है, जैसा कि ‘शिव’ और ‘शक्ति’ का ।

वागर्थाविव सम्पृवक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये ।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥

P

मां की गोद में बैठा हुआ शिशु जिस प्रकार से निर्द्वन्द्व रहता है उसी प्रकार शब्द की क्रोड में साधक निश्चिन्त रहता है, बिना शब्द ज्ञान के शब्द अर्थ और ध्वनि- महता के साधक का सारा प्रयोजन निष्फल रहता है । ज्ञान से ही इच्छा और इच्छा से ही क्रिया का प्रादुर्भाव होता है, अप्पय दीक्षित ने ‘आनन्द लहरी’ में स्पष्ट कहा है—

手館

शम्भोर्ज्ञान क्रियेच्छा बलकरण मनः शान्ति तेजश्शरीर स्वर्लोकागार दिव्यासन पर महिषी भोग्य वर्गादि रूपा

सर्वे रे ते रूपेता स्वयमपि च पर ब्रह्मणस्तस्य शक्ति :

सर्वाश्चर्ये क भूमिर्मुनिभिरभिनुता वेद तन्त्राभि युक्तम् ॥

स्पष्टतः शक्ति के मूल में शब्द ही विचरण करता है, जिसे तन्त्र क्षेत्र में मात्र- काशक्ति और तान्त्रोक्त निरूपण में ‘महा मन्त्र’ कहा जाता है, यह शब्द प्रस्फुट और गोपन दोनों ही प्रकार से उपयोगी है, ‘गुह्याति गुह्य गोप्तृत्वं’ के अनुसार मन-ही-मन

गोपनीय ढङ्ग से बिना उच्चारण किए मन्त्र जाप से ध्यान होता है और तब परमात्मा

की प्राप्ति होती है ।

स्वाध्यायाद्योग मासीत योगात् स्वाध्याय मामनेत् ।

स्वाध्याय योग सम्पत्या परमात्मा प्रकाशते ॥ ‘शिवसूत्र विमर्शनी’ में तो स्पष्ट कहा गया है कि उच्चारण किए जाने वाले मन्त्र ‘मन्त्र’ ही नहीं हैं-

‘उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्राश्चापि तद्विदु ।’ upay. स्पष्टतः जब तक मन्त्र में ‘जीवभूत अव्यय शक्ति’ का योग नहीं होता, तब तक

मन्त्र निष्फल होता है-

84

मन्त्राणा जीवभूता तु या स्मृता शक्ति ख्यया ।

तया हीना वरारोहे निष्फला शरदभ्रवत् ॥

यह जीवभूत अव्ययशक्ति प्रत्येक प्राणी में न्यूनाधिक रूप से विद्यमान है । इस अव्यय शक्ति के द्वारा ही मानव जीवन्तता और चेतनता प्राप्त करता है, इसी शक्ति के द्वारा वह गुणावगुण का बोध और अपनी स्थिति से ऊपर उठने की प्रक्रिया में रत रहता है, और इसी प्रक्रिया से वह जप, जप से ध्यान और ध्यान से परमात्मालीन होने में सफल होता है ।

मन्त्रोऽपि अन्तर्गुप्त भाषणात्मक परपरामर्श सतत्वेन

मनन त्राण धर्मा परतत्व प्राप्त्युपायः परमेशात्मैव ॥

स्वच्छन्दोद्योत, ११ पटल ।

परन्तु सकाम्य प्रयोग मन्त्रों का मूलाधार प्रस्फुटात्मक है, इस प्रकार से स्थूलतः मन्त्रों को दो रूपों में देखा जा सकता है। परमात्मलीन अथवा वर्चस्व तेजोद्भुत के लिए मन्त्र जप मन-ही-मन बिना प्रस्फुटन के होना चाहिए, जबकि ‘काम्य प्रयोगार्थ ’ मन्त्रों का उच्चाटन या प्रस्फुटन आवश्यक होता है ।

सामान्यतः वर्णों का विशेष संयोजन ही ‘मन्त्र’ है-

182 21E TO

मनन त्राण धर्माणां सर्वेषामेव वाच्यपाचकादि रूप वर्ण भट्टारकात्मनां मन्त्राणाम्

-परात्रशिका |

‘वर्ण’ अपने आपमें शक्ति रूप है, शक्तियों के ‘पूञ्जीभूत’ वर्णों से निर्मित होने के कारण मन्त्र स्वतः ही शक्तिमान और अचिन्त्य बन जाते हैं, इस प्रकार कई शक्तियों

के परस्पर गुम्फन से निर्मित मन्त्र ‘अजेय’ कहलाने में समर्थ होता है ।

वर्ण

मन्त्र और मन्त्र के स्वरूप को समझाने से पूर्व उसके आधार ‘वर्ण’ और उसके स्वरूप तथा उसमें निहित शक्ति स्वरूप को समझना आवश्यक है । शारदा तिलक के अनुसार-

अ- अष्टभुजा, स्वर्णं वर्ण, चतुर्मुख, कूर्मवाहन आ - श्वेतवर्ण, कमलासन, पाशहस्त, हस्तिवाहन

इ - पीतवर्ण, परशुधारिणी, कच्छप वाहन ई- श्वेतवर्ण, मौक्तिकं युक्ता, हंसवाहन उ-ऊ - कृष्णवर्ण, गदाधारी, काकवासन ऋ ॠ — रक्त वर्ण, पाश धारा, उष्ट्रवाहन लृ-ल-पुष्पवर्ण, वज्रधारी, कमलाहन

ए - श्यामवर्ण, हारभूषण, चक्रवाकवाहन ऐ-नवपुष्प वर्ण, शूलवज्रधारिणी, द्विपवाहन

PIB BI15

कितिहि

ओ - पीतवर्ण, सर्वगत, वृषभवाहन औ-तप्तकाञ्चन वर्ण, पाशधारी, व्याघ्रवाहन अं— कुङ्कुम्भ वर्ण, रक्तभूषण, रिपुनाशक अ: — द्विभुज, खरवाहन

क— नवकुङ्कुम्मवर्ण, शूलवज्रधारी, गजवाहन ख - कृष्णवर्ण, पाशतोमरहस्त-मेषवाहन ग—अरुण वर्ण, पाशअङ्कुश धारिणी, सर्पवाहन घ- कृष्ण वर्ण, गदाधारिणी, उष्ट्रवाहन

ङ - कृष्ण, वर्ण, काकवाहन

च - श्वेतवर्ण, कपर्दका भूषणादि मण्डित छ - श्वेतवर्ण, चतुर्भुज

ज-झ - श्वेतवर्ण, चतुर्बाहु

ञ - कृष्ण वर्ण, द्विभुज, काकवाहन

ट - द्विभुज, क्रौञ्चवाहन

ठ - उज्ज्वल वर्ण, द्विर्भुज, गजेन्द्र वाहन ड-अष्टबाहु, श्वेत कमलासन

ढ — ज्वलत् कान्तिवर्ण, दशबाहु, अजवाहन

ण - व्याघ्र वाहन, विस्तृत देह

त—कुङ्कुम्म वर्ण, चतुर्बाहु, स्वलङ्कृत थ-पीतवर्ण, चतुर्बाहु, वृषारुढ़ द - षडभुज, महिषवाहन ध - चतुर्बाहु, सिंहवाहन न - द्विभुज, काकवाहन प - विशभुज, वकवाहन फ-द्वयभुज, श्वेतवर्ण, सिंहवाहन ब- अरुणवर्ण, द्विभुज, हंसवाहन भ— त्रिहस्त, त्रिमुख, व्याघ्रवाहन म- चतुर्भुज, विषयुक्तसर्वत । य— धूम्रवर्ण, चतुर्मुख, मृगवाहन र - चतुर्भुज, मेषवाहन

ल - केशरवर्ण, चतुर्भुज, गजवाहन व - श्वेतवाहन, द्विवाहन, नक्रवाहन श - हेमवर्ण, कमलासन, द्विवर्ण स-स्वेतवर्ण, द्विभुज, हंसवाहन ष - कृष्णवर्ण, द्विभुज

FIRE

F

fie

85

17 at

86

ह - श्वेतवर्ण, त्रिबाहु

क्ष - दशबाहु, मणिप्रभावसदृश ।

मन्त्र साधना में वर्ण का महत्व सर्वोपरि है और वर्ण साधना हेतु उसमें स्थित शक्ति के स्वरूप, महिमा एवं मण्डल का ध्यान आवश्यक है ।

वर्ण प्रभाव

प्रत्येक वर्ण अपने आप मेम् एक निश्चित प्रभाव एवं सामर्थ्य लिए हुए है, जो कि इस प्रकार है-

अ - मृत्युबीज आ-आकर्षण बीज

इ- पुष्टि बीज

ई- आकर्षण बीज

उ- बलदायक

ऊ—— उच्चाटन युक्त ऋ - स्तम्भन बीज युक्त ऋ - मोहन बीज युक्त लृ - विद्वेषण बीज युक्त लू-उच्चाटन बीज

ए-वशीकरण युक्त ऐ — पुरुष वशीकरण युक्त ओ-लोकवशीकरण बीज ओ-राज वशीकरण बीज अं - पशु वश्य बीज

अ:- मृत्युनाशक क- विषबीज

ख-स्तम्भन बीज

ग- गणपति बीज

घ- स्तम्भन, मारण बीज

ड - आसुरी बीज

च - चन्द्र बीज

छ— मृत्युनाशक

ज - ब्रह्म बीज

झ - चन्द्र बीज

ञ - मोहन बीज

ट-क्षोभण बीज

ठ—चन्द्र बीज, घात बीज ड-गरुड़ बीज

शिव के र

ढ़ – कुबेर बीज ण -असुर बीज त—अष्ट बीज

१. गुरु बीज

५. योग बोज

२. शक्ति बीज

३. रमा बीज

६. तेजो बीज ७. शान्ति बीज

८. रक्षा बीज

87

४. काम बीज

थ-यम बीज

द- दुर्गा बीज

ध — सूर्य बीज

न—ज्वर नाशक बीज प - वरुण बीज फ— विष्णु बीज

ब- ब्रह्म बीज

भ- भद्रकाली बीज

म-रुद्र बीज

य - वायु बीज

र अग्नि बीज ल - इन्द्र बीज व- वरुण बीज श-लक्ष्मी बीज ष - सूर्य बीज

स- वाणी बीज

ह - आकाश बीज

क्ष - पृथ्वी बीज

ऊपर मैन्ने वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर में निहित बीज रूप को स्पष्ट किया, तान्त्रिक ग्रन्थों के अनुसार, किसी भी बीज का जप करना हो तो उस वर्ण पर आनु– नासिक चन्द्र बिन्दु लगाकर जप करने से ही सफलता एवं सिद्धि मिलती है— जैसे ‘ग’ गणपति का बीज है, अतः गणपति सिद्ध करने के लिए ‘ग’ बीज का जप करना ही श्रेयष्कर रहता है ।

88

तन्त्र ग्रन्थों में प्रत्येक वर्ण के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त है, प्रत्येक वर्ण का ध्यान, पूजार्चना आदि विधान स्पष्ट रूप से दिये हुए हैम् । स्थानाभाव के कारण प्रत्येक वर्ण का ध्यानादि देना सम्भव नहीं, फिर भी उदाहरणार्थ ‘अ’ वर्ण का ध्यान नीचे दे रहा हूं जिज्ञासु पाठक विस्तार से जानने के लिए तन्त्र ग्रन्थों का अवलोकन करें-

‘अ’ वर्ण का ध्यान

अ—कारं, वृत्तासनं, गजवाहनहेम, वमवर्ण, चन्दनगन्धाचितं लवण, स्वादुं जम्बू द्वीप - विस्तीर्ण चतुर्मुखं, अष्टबाहु, कृष्ण लोचनं, जटाजूट धारिणं, सित वर्ण, मौक्ति काभरणमतीव बलिनं, गम्भीरं, पुल्लिङ्ग ध्यायामि ।

विनियोग

ओम अस्य श्री अं-कार मन्त्रस्य, श्री महादेव देवता मार्कण्डेय ऋषि, अं बीजं, महाकाली शक्ति, चामुण्डा भुवनेशी महाविद्या, तामस गुणः मध्यमं स्वर, भू तत्वं ‘ब्र’ उत्कीलनं प्रवाहिनी मुद्रा, मम क्षेत्र आरोग्यामि वृद्धयर्थ श्री महादेव प्रसाद सिद्ध यर्थ व नमोयुत प्रणव वाग्बीज-स्व बीज लोम विलोम ‘अ-अं-अं’ पुटितोक्त मन्त्र जपे विनियोग ।’

ऋषयादिन्यास

श्री मार्कण्डेय ऋषये नमः सहस्रारे-शिरसी, भगवान श्री सदाशिव देवाय नमः द्वादशारे - हृदि ‘अ’ बीजाय नमः षडारे लिङ्गे, महाकाली शक्त्यै नमः दशारे नाभौ, चामुण्डा भुवनेशी महाविद्यायै नमः षोडशारे-कण्ठे, तामस गुणाय नमः अन्तरारे-मनीस मृत्यु गुणाय रसाय नमः चेतसि वाक् कर्मेन्द्रियाय नमः कर्मेन्द्रिये, मध्यम स्वराय नम कण्ठ मूले, भू तत्वाय नमः चतुरारे-गुदे, मारणकलायै नमः करतले, ‘ब्र’ उत्कीलनाय पादयो प्रवाहिनी मुद्रायै नमः सर्वाङ्गे

षडङ्गन्यास हृदयाय नमः शिरसे स्वाहा

शिखायै वषट् कवचाय हुम्

ओम नमो

करन्यास अङ्गुष्ठाभ्यां नमः

ऐं नमो

तर्जनीभ्यां नमः

श्री नमो

मध्यमाभ्यां नमः

नमो नमः

अं

कनिष्ठिकाभ्यां वौषट

‘ओम’

करतल करपृष्ठाभ्यां फट्

अस्त्राय फट्

IF HE TE IF

ध्यानं

किसी को कुछ

हि

PE

अनामिकाभ्यां हुं

नेत्रत्रयाय वौषट

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजत-गिरि-निभं चारुचन्द्रावतंसं

रत्नाकल्पोज्वलाङ्ग परशु मृगवरा भीति हस्तं प्रसन्नं89

मन्त्र ‘अँ’

पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममर-गणै र्व्याघ्र-वृति वसानं विश्वाद्यं विश्व वन्द्यं निखिल-भय हरं पञ्च वक्त्रं त्रिनेत्रं

fire

१००० जपात्सिद्धिः गुड़ तिल घृतेन दशांश होम ।

इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण का विनियोग, श्रेष्यादिन्यास करन्यास, षडङ्गन्यास ध्यानादि है, स्थानाभाव के कारण सब वर्णों को देना सम्भव नहीं है । पाठकों की जान- कारी के लिए एक ‘अ’ वर्ण का विनियोग स्पष्ट कर दिया है ।

प्रपञ्चसार में प्रत्येक वर्ण उसके रुद्र, शक्ति रूप, विष्णु एवं शक्ति का स्पष्ट

उल्लेख है-

वर्णों के देवता, शक्ति रूप एवं शक्ति

वर्ण

रुद्र

शक्तिरूप

विष्णु

शक्ति

श्रीकण्ठ

पूर्णोदरी

केशव

कीर्ति

अनन्त

विरजा

नारायण

कान्ति

सूक्ष्म

शात्मली

माधव

तुष्टि

त्रिमूर्ति

लोलाक्षी

गोविन्द

पुष्टि

अमरेश्वर

वर्तुलाक्षी

विष्णु

धृति

अर्धीश

दीर्घघोणा

मधुसूदन क्षान्ति

भावमूर्ति

सुदीर्घमुखी

त्रिविक्रम

क्रिया

तिथि

गोमुखी

वामन

दया

लृ

स्थाणु

दीर्घ जिह्वा

श्रीधर मेधा

हर

कुण्डोदरी

ह्रिषिकेश हर्षा

झिन्टीश

ऊर्ध्वकेशी

पद्नाभ श्रद्धा

भौतिक

विकृतमुखी

दामोदर

लज्जा

सद्योजात

ज्वालामुखी

वासुदेव

लक्ष्मी

अनुग्रहेश्वर

उल्कामुखी

सङ्कर्षण

सरस्वती

अम्

अक्रूर

श्रीमुखी

प्रद्युम्न

प्रीति

अः

महासेन

विद्यामुखी

अनिरुद्ध

रति

क्रोधीश

महाकाली

चक्री

जया

चण्डेश

सरस्वती

गदी

दुर्गा

पञ्चान्तक

गौरी

शार्ङ्ग

प्रभा

शिवोत्तम

त्रैलोक्यविद्या

खड्गी सत्या

एक रूद्र

मन्त्र शक्ति

शङ्खी

चण्डा

90

IP 10 15 5 10 111 to 1 bf हि

कूर्य

मात्मशक्ति

हली

वाणी

एक नेत्र

भूत माता

मुषली

विलासिनी

चतुरानन

लम्बोदरी

शूली

विरजा

अजेश

द्राविणी

पाशी

विजया

शर्व

नागरी

अङ्कुशी

विश्वा

सोमेश्वर

बैखरी

मुकुन्द

वित्तदा

लाङ्गली

मञ्जरी

नन्दज

सुतन्दा

दारुक

रूपिणी

नन्दी

स्मृति

अर्धनारीश्वर

वीरिणी

नर

ऋद्धि

उमाकान्त

कोटरी

नरकजित

समृद्धि

आषाढ़ी

पूतना

हरि

शुद्धि

दण्डी

भद्रकाली

कृष्ण

भुक्ति

अद्रि

योगिनी

सत्य

मुक्ति

मीन

शङ्खिनी

सात्वत

मति

मेष

गर्जिनी

शौरि

क्षमा

लोहित शिखी

कालरात्रि

शूर

रमा

कुब्जिनी

जनार्दन

उमा

छगलण्ड

कर्पादनी

भूधर

क्लेदिनी

द्विरण्ड

महावज्र

विश्वमूर्ति

क्लिन्ना

महाकाल

जया

वैकुण्ठ

वसुदा

कपाली

सुमुखेश्वरी

पुरुषोत्तम

वसुधा

भुजगेश

रेवती

बली

परा

पिनाकी

माधवी

बलानुज

परायणा

खड्गीश

वारुणी

बाल

सूक्ष्मा

वक

वायवी

वृषघ्न

सन्ध्या

भृगु

सहजा

सिंह

प्रभा

श्वेत

रक्षोविदारिणी

वृष

प्रज्ञा

he 18 रु

नकुली

लक्ष्मी

वराह

निशा

शिव

व्यापिनी

विमल

अमोघा

क्ष

संवर्तक

माया

नृसिंह

विद्युता

‘क्ष’ अर्थात् अनन्ता अक्षमाला का सुमेरू माना गया है, इस प्रकार उपरोक्त

पचास मातृकाएं ही मन्त्र की आधारभूता हैम् ।

वास्तविक रूप में देखा जाय तो प्रत्येक वर्ण

अपने आप में समग्र ‘मन्त्र’ है,

अतः इस वर्ण का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन मन्त्र अध्येताओं के लिए आवश्यक है । इसीलिए

आगे प्रत्येक वर्ण का ऋषि, छन्द, देवतादि स्पष्ट कर रहा हूम् ।

वर्ण

अ, आ

इ, ई

ऋषि

छन्द

अर्जुन्यायन भार्गव

मध्या

प्रतिष्ठा

उ ऊ ऋ

अग्निवेश्य

सप्रतिष्ठा

ऋ लृ ल ए

गौतम

गायत्री

ऐ ओ

लोहित्यायन

अनुष्टुप

औ अं

वशिष्ठ

वृहति

अः

माण्डव्य

दण्डक

मौद्गायन

पङ्क्तिम

ख ग घ ङ

अज

त्रिष्टुप

योग्यायन

जगती

गोपाल्यायन

अति जगती

नषक

शक्वरी

अज

काश्यप

शुनक

सौमनस्य

शक्वरी

अतिशक्वरी

अष्टि

अत्यष्टि

कारण

धृति

ढ ण

माण्डव्य

अतिधृति

त थ द ध

साङ कृत्यायन

कृति

न प फ

कात्यायन

प्रकृति

दाक्षायण

व्याघ्रायण

आकृति

विकृति

शाण्डिल्य

सङ कृति

य र

काण्डिल्य

अतिकृति

दाण्ड्यायन

उत्कृति

जातायन

दण्डक

सष ह

लाट्यायन

दण्डक

जय

दण्डक

माण्डव्य

दण्डक

91

ळ, क्ष

आश्चर्य होता है कि मन्त्र प्रणेता ऋषियों ने मन्त्र - मूल वर्णों का विवेचन कितनी सूक्ष्मता से किया है, तान्त्रिक ग्रन्थों में वर्णों का ग्रहों-नक्षत्रों से व्यापक सम्बन्ध स्थिर किया है, प्रत्येक वर्ण का एक अधिष्ठाता ग्रह है प्रपञ्चसार मेम् इसका उल्लेख - स्पष्ट है-

92

वर्ग

स्वर वर्ग

क वर्ग

च वर्म

ि

ट वर्ग

त वर्ग

प वर्ग

य वर्ग

इसी प्रकार राशि वर्णों का उल्लेख भी है—

वर्ग

अ, आ इ ई

उ ऊ ऋ

ऋ लृ ल ए ऐ

ओ ओ

अम् अः श स ष ह, ळ

क ख ग घ ङ

मिथुन

ཝཱ སྨཱ ླ , བྷཱ ཝཱ ཝཱ སྠཱ,

मङ्गल

སྨཱ སྠཽ ཝཱཨཱ ཝཱ སྠཽ ཝཱ, ླ

राशि

मेष

च छ ज झ ञ

ट ठ ड ढ ण

त थ द ध न

प फ ब भ म

य र ल व क्ष

वृश्चिक धनु

मकर

कुम्भ

मीन

तन्त्र ग्रन्थों में वर्णों से सम्बन्धित उनके नक्षत्रों को भी स्पष्ट किया है, जो कि

निम्न प्रकार से हैं :-

वर्ण

नक्षत्र

अ आ

अश्विनी

furur

भरणी

ई उ ऊ

कृत्तिका

ऋ ऋ लृ लृ

रोहिणी

मृगशिरा

आर्द्रा

ओ ओ

पुष्य

पुनर्वसु

ख ग

घ ङ

10

छ ज

आश्लेषा

मघा

पूर्वा फाल्गुणी उत्तराफाल्गुनी

हस्त

93

ट ठ

चित्रा

ढ ण

स्वाती

विशाखा

त थ द

अनुराधा

ज्येष्ठा

न प फ

मूल

पूर्वाषाढ़ा

15 डि

उत्तराषाढ़ा

श्रवण

य्र र

व श

सष ह क्ष

अम् अ: ग ळ

धनिष्ठा

ि

शतभिषा

पूर्वाभाद्रपद

उत्तराभाद्रपद

रेवती

मन्त्र साधकों को वर्णों के भूतात्मक वर्गीकरण को भी ध्यान में रखना चाहिए। जिस प्रकार मानवों में मित्रता- शत्रुता होती है, उसी प्रकार वर्णों में भी होता है । अतः मन्त्र ग्रहण, मन्त्र दीक्षा, मन्त्र जप एवं मन्त्र साधना करते समय साधक एवं मन्त्र का आदि वर्ण मत्रीभाव युक्त है या शत्रुभाव युक्त ।

वर्ण वर्गीकरण इस प्रकार है :

वायु वर्ग-

अग्निवर्ग- भूमि वर्ग- जल वर्ग-

व्योम वर्ग-

अ, आ, ए, क, च, ट, त, प, य, ष

इ, ई, ऐ, ख, छ, ठ, थ, फ, र, क्ष

उ, ऊ, अ, ग, ज, ड, द, ब, ल, ळ ऋ, ॠ, ओ, ध, झ, ढ़, घ, भ, व, स

लृ, लृ, क्ष, ङ, ञ, ण न, म, श, ह

मन्त्री भाव पृथ्वी वर्ग + जल वर्ग

अग्नि वर्ग + वायु वर्ग

IN TERIER

पृथ्वी वर्ग + जल वर्ग

94

शत्रु भाव

जल वर्ग + अग्नि वर्ग

  1. B

साधक को चाहिए कि वह उसी मन्त्र का चयन करे जो उसके नाम के आद्य वर्ण से मैत्रीवत् वर्ण मन्त्र हो ।

वस्तुतः वर्ण केवल ध्वनि ही नहीं है अपितु उसके मूल में पूर्ण शक्ति तत्व विद्यमान है, ज्ञान-विज्ञान एवं समस्त विद्याओं की कुञ्जी एकमात्र वर्ण ही है, यह सारा ब्रह्माण्ड इन वर्णों के अधीन है, अतः वर्ण को आत्मसात् करने से ही मन्त्र आत्मसात् सम्भव है ।

मन्त्र

महाकवि दण्डी ने मन्त्र की महत्ता स्पष्ट करते हुए कहा है-

इदमन्धं तमः कृत्स्नं जायेत भुवन त्रयम् ।

यदि शब्दालय ज्योति रा संसारान्न दीप्यते ॥

यदि शब्द रूपी ज्योति सृष्टि के आरम्भ से ही न होती, तो ये तीनों लोक आज तक पूर्ण अन्धकार में ही डूबे रहते ।

वर्णों के समूह से मन्त्र का निर्माण होता है, ऊपर जैसा कि देखा जा चुका है कि प्रत्येक वर्ण का अपना एक अलग अस्तित्व है, और अपने आप मेम् असीम शक्ति समेटे हुए है, तो उन वर्णो से पुञ्जीभूत मन्त्र में कितनी अधिक शक्ति एवं क्षमता होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है ।

मन्त्र की दो स्थितियां होती हैं, (१) गोपन एवं (२) स्फुट । कुछ विद्वानों का विचार है कि उच्चारण से मन्त्र की शक्ति समाप्त हो जाती है, उनका तर्क है कि मन्त्र और साधक की अव्यय शक्ति का योग होना आवश्यक है, अव्यय शक्ति प्रत्येक मानव की वह निधि है, जो उसे जीवन्तता दिये हुए है, अव्यय शक्ति एवं मन्त्र के गोपन घोष से ही कार्य सिद्धि होती है, ‘शिवसूत्र विमर्षिनी’ के अनुसार तो उच्चारण किये जाने वाले मन्त्र ‘मन्त्र’ कहलाने के अधिकारी ही नहीं हैं-

उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्राञ्चापि तद्विदु ।

‘महार्थ मञ्जरी’ के अनुसार भी मनन योग्य शब्द ध्वनि ही मन्त्र है । ‘मनन त्राण धर्माण्णो मन्त्रा ।’ मनन से ही पराशक्ति का अभ्युदय और उसका वैभव प्रकाशवान होता है, और इस पराशक्ति से ओतप्रोत शब्द समूह ही ‘मन्त्र’ पद के अधिकारी हैं-

मननमयी निज विभवे निजसङ्कोच मये त्राणमयी ।

कवलित विश्व विकल्पा अनुभूतिः कापि मन्त्र शब्दार्थः ॥

महार्थ मञ्जरी ॥ ४८ ॥

95

‘शिवसूत्र विमर्षिनी’ में ‘चित्तं मन्त्र’ कह कर चित्त को ही मन्त्र कहा है, चित्त जब बाह्य संस्कारों से कटकर अन्तर्मुख हो जाता है, और अभेदावस्था को प्राप्त कर जब मन्त्र - सम्पृक्त होता है तभी मन्त्र दिव्य बनता है, और तभी उस मन्त्र में निहित देवता से साधक के चित्त का पूर्ण तादात्म्य होता है, और इस प्रकार की अवस्था हो जाने पर मन्त्र के रहस्य और उसमें निहित शक्ति हस्तामलकवत् होकर पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है

ऐसे मन्त्र न तो काल से बाधित होते हैं, न स्थान से, उनकी गति सर्वत्र होती है, वे पूर्ण सफलता देने में पूर्ण सहायक होते हैम् ।

सारांशतः गोपन रूप मेम् आत्म तत्व से वेष्टित शब्द समूह ‘मन्त्र’ ध्वान से ही कार्य सिद्धि होती है।

अब प्रश्न उठता है, कि क्या मन्त्रों को ध्वनि रूप में जपना चाहिए, मोटे रूप में कहा जाय, तो क्या मन्त्रों को मन-ही-मन बिना होण्ठ हिलाये जपना चाहिए या उनका उच्चारण करना चाहिए ।

‘विज्ञान भैरव तन्त्र’ में मन्त्रों की दो अवस्थाएं बताई हैं, चित्त युक्त मन्त्र और ध्वनि युक्त मन्त्र । पहले प्रकार के मन्त्र वे मन्त्र हैं, जिनका उच्चारण चित्त संस्कारित कर मन-ही-मन जप कर घोष उत्पन्न करना पड़ता है, सीधे सादे शब्दों में कहा जाय, तो मन्त्र मन-ही-मन जपना चाहिए, दूसरे प्रकार के मन्त्र शब्दातीत हों, अर्थात् उच्चरित हों, और होठों के बाहर उच्चरित होकर वायुमण्डल में ध्वनित होम् ।

और दूसरा ग्राह्य है,

.

यह विश्व दो रूपों में विभक्त है, जिसमेम् एक ग्राहक मानव मन से अनुप्राणन ही ग्राहक है और विश्व के ओर छोर ग्राह्य, अतः ग्राहक और ग्राह्य का जब तक पूर्ण सम्पर्क नहीं हो जाता, तब तक मनोरथ सिद्धि भी सम्भव नहीम् । ग्राहक और ग्राह्य में सम्पर्क का आधार केवल मात्र ध्वनि ही है, जो होठों से स्फुरित होकर पूरे वायुमण्डल में फैल जाती है ।

विज्ञान के अनुसार मानव जो भी शब्द उच्चारण करता है, वह पूरे विश्व के वायुमण्डल में तैर जाता है, उदाहरणार्थ रेडियो में किसी भी स्टेशन पर जो गीत की पङ्क्ति या भाषण का अंश बोला जाता है, वह उसी समय पूरे वायुमण्डल में फैल जाता है और सात समुद्र पार किसी देश का श्रोता भी यदि चाहे तो अपने रेडियो के माध्यम से उस गीत की पङ्क्ति या भाषण का अंश सुन सकता है, आवश्यकता केवल इस बात की है, कि रेडियो में सुई उस ’ फ्रीक्वेन्सी’ पर लगाने की जानकारी हो ठीक इसी प्रकार हम जो भी शब्द या ध्वनि उच्चरित करते हैं, वह समस्त. विश्व में फैल जरूर गया है, आवश्यकता है उस ग्राह्यता की, जो उस ध्वनि को सुन सके ।

यह भी सच है, कि यह ध्वनि कभी भी मिटती नहीं। आज से हजार माल पहले भी यदि कोई ध्वनि उच्चरित हई थी, तो वह आज भी वायुमण्डल में ज्यों की

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त्यों व्याप्त है, आवश्यकता है, उस ‘फ्रीक्वेन्सी’ की जिसके माध्यम से हम उस ध्वनि को सुन सकेम् । ऊञ्चे साधक आज भी महाभारत कालीन ध्वनियों को सुनाने में समर्थ हैम् ।

वैज्ञानिकों के अनुसार ध्वनि के माध्यम से असम्भव-से-असम्भव काया को भी सभ्भव किया जा सकता है, परन्तु यह एक विशिष्ट ध्वनि हो । डा० फ्रिस्टलोव ने ध्वनि कम्पनों से शरीरस्थित परमाणुओं में कम्पन पैदा कर दिखाया है, और इस कम्पन से शारीरिक रोगों को ध्वनि के माध्यम से दूर करने में सफलता मिली है ।

जेट विमान के तीव्र ध्वनि कम्पन से मकान में दरार पड़ जाती हैं, अतः ध्वनि की

महत्ता निर्विवाद है ।

मन्त्र उच्चारण से भी एक विशिष्ट ध्वनि कम्पन बनता है, जो तुरन्त ईथर में मिलकर पूरे विश्व के वायुमण्डल में व्याप्त हो जाता है, उदाहरणार्थ सूर्य से सम्बन्धित. कोई मन्त्र है, तो उसके उच्चारण से एक विशेष ध्वनि कम्पन बनता है और वे कम्पन ऊपर उठते हुए ‘ईथर’ के माध्यम से कुछ ही क्षणों में सूर्य तक पहुञ्च कर लौट आते हैं, लौटते समय उन कम्पनों में सूर्य की सूक्ष्म शक्ति, तेजस्विता एवं प्राणवत्ता विद्यमान रहती है, जो पुनः साधक के शरीर से टकरा कर उसमेम् उन गुणों का प्रभुत्व बढ़ा देती है, इस प्रकार सूर्य मन्त्र के उच्चारण से सूर्य से सम्बन्धित प्राणवत्ता साधक को प्राप्त हो जाती है ।

मन्त्रों की आत्मा

कम

मन्त्र को समझने के लिए यह आवश्यक है कि यह जान लिया जाय, कि मन्त्र की आत्मा क्या है, क्या मन्त्र शिव है ? क्या शक्ति है ? या अणु-परमाणु है ?

किसी भी तत्व में शिव, शक्ति और अणु इन तीनों का समावेश जरूरी है, बिना इन तीनों के किसी पदार्थ या तत्व की कल्पना नहीं की जा सकती । यह सम्पूर्ण विश्व इन तीनों तत्वों से प्रतिष्ठित है, अतः ‘मन्त्र’ में भी इन तीनों तत्वों का उचित सामञ्जस्यपूर्ण अस्तित्व होता है ।

शिव निरापद है, और शक्ति सानन्द । इन दोनों का पार्थक्य सम्भव नहीं, शिव, शक्ति के माध्यम से ही सृष्टि स्थिति संहार आदि कृत्य करते हैं, और इन कृत्यों का आधार आत्मा ही होती है, इस प्रकार शिव, शक्ति और आत्मा ये तीन ही तत्व सर्वोपरि हैं, और इन तीनों तत्वों के उचित प्रमुदित रूप को ही ‘मन्त्र’ कहा जाता है ।

मन्त्र अपने आपमें शक्तिशाली तेजयुक्त एवं शिवत्व की अभिव्यक्ति देने में समर्थ है । शिव और शक्ति के उचित सामञ्जस्य के कारण ही मन्त्र भोग और मोक्ष दोनों ही गतियां देने में समर्थ है ।

यहां पर मन्त्र स्तोत्र में भी भेद समझ लेना चाहिए, स्तोत्र केवल मात्र किसी

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देवता की स्तुति या प्रार्थना होती है जो किसी भी प्रकार के शब्दों में सम्भव है, अर्थात् यदि स्तोत्र में निहित शब्दों को बदल भी दें तो कोई अन्तर नहीं पड़ता, पर मन्त्र में निहित शब्दों को बदलने की तो बात दूर रही, उसके अनुस्वार आदि में भी अन्तर नहीं किया जा सकता, यही नहीम् अपितु उसमें समान धर्मा या समान अर्थबोधक शब्द को बदल कर रख देना भी ग्राह्य नहीम् ।

प्रार्थना स्तुति या स्तोत्र मेम् एक ही भाव भिन्न-भिन्न शब्दों में प्रस्तुत किया जा सकता है, पर मन्त्र मेम् ऐसा सम्भव नहीं, यह मूलभूत अन्तर है ।

यहाम् एक और प्रश्न उभरता है, कि यदि स्तोत्र के शब्दों को नहीं बदलें, तो क्या वह मन्त्र का स्थान ग्रहण कर सकता है ?

मानव स्थूलतः दो मनों में विभक्त है, एक उसका आन्तरिक मन है, और दूसरा बाह्य । कई बार किसी गलत कार्य को करते समय इन दोनों मनों में परस्पर सङ्घर्ष हो जाता है, आन्तरिक मन ऐसे कार्य को गलत कहता है जब कि बाह्य मन ऐसे कार्य को करने की स्वीकृति दे देता है। मानव का आभ्यन्तरिक मन ईश्वर

की ही प्रतिकृति है, और विशिष्ट साधु-सन्तों का यह आभ्यन्तरिक मन अत्यधिक प्रबल होता है ।

जब ऐसे महर्षि या सन्त अपने आभ्यन्तरिक मन के संयोग से कोई स्तुति या स्तोत्र का पाठ नियमित करते हैं, तो वह स्तुति भी ‘मन्त्र’ का रूप धारण कर लेती है, कालान्तर में वह स्तुति भी उतनी ही फलप्रद बन जाती है, जितना कि मन्त्र । हनुमान चालीसा या ‘कनकधारा स्तोत्र’ इसी प्रकार से मन्त्र के रूप में प्रयुक्त होते हैं, और साधक के कार्य में मन्त्रवत् सफलता भी देते हैम् ।

मन्त्र स्वरूप

क्या मन्त्र सशरीर है या निराकार ? मन्त्र का स्वरूप कैसा है ?

वस्तुतः मन्त्र सशरीर नहीं है क्योङ्कि शरीर वाले प्राणियों में मलिनता की विद्यमानता अवश्यम्भावी है, और मन्त्रों में दूषितता सम्मव नहीं, अतः मन्त्र मूलतः निराकार होते हुए भी सामर्थ्यवान एवं सवेग है, और अपने अतुल वेग के द्वारा ही साधक एवं सम्बन्धित देवता के बीच सफल मध्यस्थता का कार्य करते हैम् ।

उदाहरणार्थ एक साधक यज्ञ करते समय इन्द्र को आहुति देता है, इन्द्र-मन्त्र के माध्यम से उर्मियाम् ईथर में मिलकर इन्द्र से स्पर्शित होती हैम् । इन उर्मियों के साथ होता है हविष्य, साधक या यज्ञकर्ता की गन्ध, भावनाएं, इच्छाएं, साथ ही यज्ञ कराने वाले का ज्ञान एवं प्रबल व्यक्तित्व । जब ये उर्मियाम् इन्द्र से टकराती हैं, तो वे भावनाएं, इच्छाएम् एवं हविष्य-गन्ध उसे समर्पित होती हैं, तथा लौटते समय वे उर्मियां लाती हैम् इन्द्र की तेजस्विता, दृढ़ता एवम् आशीर्वाद, जो कि पुनः लौट कर यज्ञकर्ता के

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स्थूल शरीर से टकराती हैं, और यज्ञकर्ता के शरीर प्राण मेम् इन्द्र की वह तेजस्विता, दृढ़ता देती है । इस प्रकार अशरीर होते हुए भी सशरीरवत् मन्त्र यज्ञकर्ता एवं सम्बन्धित देवता के बीच सफल मध्यस्थ का कार्य करता है ।

मन्त्र - सामर्थ्य

मन्त्रों में सामर्थ्य किससे प्राप्त होती है, क्या साधक से ? क्या सम्बन्धित देवता से ? या क्या वे स्वतः ही शक्तिमान होते हैं ?

जिस समय साधक-आसन पर बैठता है, उस समय वह सामान्य मानव न रहकर उसके कुछ ऊपर उठ जाता है, जैसा कि मैं बता चुका हूं कि मानव के दो मन होते हैम् अन्तर्मन और बाह्यमन, या दूसरे शब्दों में कहें तो अन्तश्चेतना और बाह्य चेतना ।

बाह्य चेतना स्थूल होती है, जिसके द्वारा हम जीवन के क्रिया कलाप करते हैं। भूख, प्यास: क्रोध, मोह आदि इसी बाह्य चेतना के रूप होते हैं, अन्तश्चेतना का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होता

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अन्तश्चेतना मानव की मूल शक्ति होती है, जो सर्वथा शुद्ध निष्पाप एवं निर्मुक्त होती है, इस अन्तश्चेतना की शक्ति अद्भुत होती है, और इसके माध्यम से वे सभी कार्य सम्भव हैं, जो प्रत्यक्षतः असम्भव या कठिन लगते हैम् ।

अन्तश्चेतना किसी में कम और किसी मेम् अधिक जाग्रत रहती है । जो शुद्ध सात्विक हैं, उनकी अन्तश्चेतना अपेक्षाकृत ज्यादा सक्रिय एवं सजग रहती है, जब साधक किसी मन्त्र का जाप करने को उद्यत होता है, तब यह अन्तश्चेतना ही उसके लिए सर्वाधिक सहायक होती है; इस अन्तश्चेतना के साथ साधक का मन्त्र जब आप्लावित होता है, तब मन्त्र सजग एवं प्राणवान बनकर फलप्रद बन जाता है, अतः मन्त्रों में सामर्थ्य कहीं बाहर से नहीम् अपितु उसके भीतर से ही आती है ।

यहां पर अन्तश्चेतना के बारे में भी थोड़ा-सा प्रकाश डाल दूम् । पृथ्वी पर जितने भी प्राणी हैं, उन सब मेम् अन्तश्चेतना विद्यमान है। व्यक्तियों में यह अन्तश्चेतना कुछ ज्यादा सक्रिय होती है, फिर भी सभी मानवों में यह बराबर सक्रिय नहीं होती, अपितु किसी में ज्यादा, किसी में कम और किसी में बहुत ही कम सक्रिय होती है । जिस व्यक्ति में जितनी ही ज्यादा यह अन्तश्चेतना जाग्रत या सक्रिय होती है, मानवता की दृष्टि से वह व्यक्ति उतना ही ज्यादा ऊञ्चे स्तर का होता है ।

व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से या प्रयत्नों से अपनी अन्तश्चेतना को ज्यादा-से- ज्यादा सक्रिय एवं सजग कर सकता है। इसके लिए साधक को चाहिए कि वह नित्य कुछ समय के लिए अभ्यास करे, शान्त, कालाहल से दूर, स्वस्थ वातावरण में साधक को पद्मासन में बैठकर ध्यान को एकाग्र करने का प्रयत्न करे । ध्यान कितना एकाग्र है, यह इससे जाना जा सकता है कि ध्यानस्थ होने पर उसे बाहरी शोर तो99

सुनाई नहीं देता ? यदि पत्ता खड़कने की आवाज था चिड़िया की चहचहाहट कानों में पड़ती है, तो समझना चाहिए कि अभी ध्यान एकाग्र नहीं हुआ ।

अन्तश्चेतना या अन्तर्मन व्यापक है, और यह क्षणांश में ही पूरे विश्व के सौ चक्कर लगा सकने में समर्थ होता है। इस अन्तश्चेतना की व्यापकता से ही सन्त या साधु सैकड़ों मील दूर की घटनाओं को प्रत्यक्षतः देख सकते हैं, यह अन्तश्चेतना कालातीत है, इसीलिये साधक भविष्य को सही-सही पहचान सकने में समर्थ होता है ।

वस्तुतः हमारे साधना क्षेत्र की आधारभूता यह अन्तश्चेतना ही है, जिसके उत्थान से और उपयोग से मन्त्र में चैतन्यता दे सकने में समर्थ हो सकते हैम् ।

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