०१ प्रवेश

मन्त्र की अपने आप में पूर्ण और स्वतन्त्र सत्ता है । जीवन के पार्थिव अपार्थिव चेतन अचेतन, निष्क्रिय और सक्रिय जीवन में मन्त्र की सर्वोपरि महत्ता है । बिना मन्त्र के जीवन का अस्तित्व सम्भव ही नहीम् । वेदों में मन्त्र को सर्वोच्च सत्ता एवम् उन्हें ब्रह्म के समान माना है । हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित हो रहा है इसके मूल में मन्त्र की सत्ता विद्यमान है । यह बात अलग है कि हम उनके अस्तित्व को स्वीकार करें या न करेम् अथवा मन्त्र के महत्त्व को समझें या न समझें, परन्तु यह निश्चित है कि बिना मन्त्र के हमारे जीवन का कोई अस्तित्व नहीम् ।

मानव जो कुछ बोलता है वह अपने आप में शब्द है और जब शब्द का सम्बन्ध अर्थ से हो जाता है तो वह कल्याणमय बन जाता है । वे शब्द निरर्थक होते हैं जिनके मूल मेम् अर्थ विद्यमान नहीं रहता । कालिदास ने ‘वागर्थाविव’ कह कर इसी कथन की पुष्टि की है, परन्तु जिसके मूल मेम् अर्थ है वे शब्द ही सार्थक हैम् । ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योङ्कि जब शब्द को ब्रह्म कह दिया जाता है तब फिर प्रत्येक शब्द ब्रह्ममय बन जाता है । हम लौकिक व्यक्ति जिन शब्दों के अर्थ समझ लेते हैम् उन्हें सार्थक कहते हैं पर जिन शब्दों को हम नहीं समझ पाते वे वास्तव में ही इतने उच्च कोटि के होते हैं कि हमारी बुद्धि उन शब्दों के मूल तक नहीं पहुञ्च पाती और इसी लिए हम अपने अहं के वशीभूत होकर उन शब्दों को निष्क्रिय कह देते हैम् ।

में

कई बार हम देखते हैं कि उच्च कोटि के साधक का ध्यान टूटने पर उनके / मुंह से कई ऐसे शब्द निकल जाते हैं जिनका आपस कुछ भी सम्बन्ध या तारतम्य नहीं होता, तब हम आश्चर्यचकित से उनके मुंह की ओर ताकते रहते हैम् और फिर अपने मन को समझाकर शान्त कर लेते हैं कि स्वामी जी ने कुछ भी मुंह से कह दिया होगा ।

परन्तु वे ‘कुछ भी’ शब्द अपने आप मेम् अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योङ्कि उनका धरातल इतना ऊञ्चा होता है कि हम सामान्य मानव उस ऊञ्चाई तक पहुञ्च नहीं पाते या हमारी बुद्धि इतनी विकसित नहीं है कि हम उस ऊञ्चाई को समझ सकेम् ।

वास्तव में मानव के मुंह से जो भी शब्द निकलता है वह ‘मन्त्रमय’ होता है । जिन शब्दों के अर्थ समझ मेम् आते हैम् उन्हें बात चीत की सञ्ज्ञा से विभूषित कर देते हैं पर जो शब्द यों ही मुंह से निकल जाते हैं या जिन शब्दों के अर्थ हमारी समझ में

20

नहीम् आते उन शब्दों को हम व्यर्थ का मान लेते हैं, जबकि वास्तव में बात यह है कि जिन शब्दों के अर्थ समझ मेम् आते हैं, वे लौकिक शब्द या सामान्य शब्द कहे जा सकते हैं, इसके विपरीत जिन शब्दों का अर्थ या तारतम्य सामान्य व्यक्ति के समझ में नहीम् आता, वे शब्द वास्तव में ही अपना महत्त्व रखने वाले होते हैम् ।

मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि प्रत्येक वह शब्द जिसके मूल और अर्थ का रहस्य हम नहीं समझ पाते, वे उच्च कोटि के होते हैं परन्तु इस प्रकार के निश्चित लय और शब्दों से बन्धे हुए समूह को ‘मन्त्र’ कहा जा सकता है ।

मानव जब दूसरे से बात करता है तो वह मन्त्र ही है, क्योङ्कि एक निश्चित

लय और सीमा से बन्धे शब्दों के समूह पड़ता है, क्योङ्कि वह उन शब्दों के मूल के लिए एक भिखारी किसी सम्पन्न व्यक्ति के दरवाजे पर जाकर घर के स्वामी को यह कहता है कि ‘मैं भूखा हूं’ तो यह वाक्य मन्त्रमय है क्योङ्कि इन शब्दो का अर्थ प्रभाव गृह स्वामी के चित्त पर पड़ता है।

का प्रभाव सामने वाले के मन पर अवश्य और उसके अर्थ को समझता है । उदाहरण

एक व्यक्ति जा रहा है और एक भिखारी उससे याचना करता है पर वह उसे टरका देता है, परन्तु कुछ दूर जाने पर दूसरा भिखारी विगलित कण्ठ से बही वाक्य दोहराता है, जो कि पहले भिखारी ने कहे थे तो वह व्यक्ति द्रवित होकर उस भिखारी को कुछ-न-कुछ दे देता है ।

यहां पर दोनों भिखारियों ने एक ही शब्दों का प्रयोग किया है, परन्तु पहले भिखारी ने सामान्य तरीके से अपनी बात कही थी, जबकि दूसरे भिखारी ने उन्हीं वाक्यों को एक विशेष लय के साथ उच्चरित किया, जिसका प्रभाव उस व्यक्ति पर गहराई के साथ पड़ सका ।

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मन्त्र के प्रभाव में ध्वनि और लय का विशेष महत्त्व होता है, क्योङ्कि वह मन्त्र निरर्थक होता है, जिसके मूल में निश्चित लय या ध्वनि नहीं होती। इस प्रकार से वे शब्द निरर्थक कहे जा सकते हैं जिनके मूल मेम् अर्थ भले ही हो परन्तु यदि वे शब्द एक विशेष लय के साथ नहीं कहे जायें तो उनका प्रभाव सर्वथा नगण्य होता है ।

एक कवि सम्मेलन में जब हास्य रस का कवि मञ्च पर खड़ा होकर एक विशेष लय के साथ अपनी हास्य कविता सुनाता है तो दूर-दूर तक बैठे श्रोता खिलखिला पड़ते हैम् और हंसते-हंसते दोहरे हो जाते हैं, परन्तु इसके कुछ ही समय बाद या किसी अन्य अवसर पर इसी प्रकार के मच पर खडे होकर उसी हास्य कवि की बही कविता कोई अन्य पाठक पढ़ता है तो एक भी श्रोता नहीं हंस पाता ।

उन शब्दों को एक

यहां पर स्थान वही है, शब्द वही है, परन्तु एक व्यक्ति विशेष लय के साथ पढ़ता है जिससे उन शब्दों का प्रभाव दूर बैठे श्रोताओं के चित्त पर पड़ता है, परन्तु यदि वे ही शब्द बिना लय के साथ पढ़े जायें तो उनका प्रभाव बिल्कुल नहीं होता ।

21

इससे यह स्पष्ट है कि शब्द या उसके अर्थ मन्त्र शास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्व नहीं रखते, अपितु एक विशेष लय या ध्वनि महत्त्वपूर्ण प्रभाव रखती है । कवि ने जिन शब्दों का प्रयोग किया था वे शब्द एक दूसरे से जुड़े होने के कारण अर्थमय अवश्य थे, परन्तु उसके साथ कहने का एक विशेष ढङ्ग या लय महत्त्वपूर्ण था जिसका प्रभाव श्रोताओं पर पड़ा और वे दूर बैठे हुए भी खिलखिलाने या हंसने लगे ।

यदि मोटे रूप में कहा जाय तो यदि हास्य कविता का प्रभाव श्रोताओं के चित्त पर पड़ सकता है तो अन्य पङ्क्ति का भी प्रभाव पड़ सकता है, यदि उस पङ्क्ति को विशेष लय के साथ कहा जाय ।

मन्त्र का मूल यह ‘लय’ ही है, जो साधक एक निश्चित लय के साथ मन्त्र का उच्चारण करता है वह निश्चय ही सफलता प्राप्त कर लेता है, परन्तु यदि सीधे-साधे रूप मेम् उस मन्त्र का पठन किया जाए तो उसका प्रभाव नहीं होगा, क्योङ्कि उस शब्द या वाक्य के साथ लय का संयोग नहीं है ।

शब्दों की शक्ति अपने आप मेम् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गई है क्योङ्कि विज्ञान के अनुसार हम जो भी उच्चारण करते हैं वह ध्वनि पूरे ब्रह्माण्ड में फैल जाती है और वह युगों-युगों तक अक्षुण्ण बनीं रहती है । उदाहरण के लिये रेडियो पर जो भी भाषण या सङ्गीत सुनते हैं वह ध्वनि हजारों मील दूर से उच्चरित होती है, परन्तु हमारे पास रेडियो के रूप मेम् ऐसा साधन विद्यमान है जिससे कि हम उस ध्वनि को पकड़ पाते हैम् और तब हम उस व्यक्ति की आवाज सुनने में समर्थ हो जाते हैं जो कि हजारों मील दूर बैठा बोल रहा है ।

अतः शब्द की सीमा पड़ता हो यही सब कुछ नहीं है

अपार है, सामने बैठे व्यक्ति पर ही शब्द का प्रभाव अपितु हजारों मील दूर बैठे व्यक्ति के चित्त पर भी हम उन शब्दों के द्वारा एक निश्चित प्रभाव डालने में समर्थ हो सकते हैम् । उदाहरण के लिए यदि हास्य रस का कवि हजारों मील दूर बैठा विशेष लय के साथ कविता कविता को सुनें तब भी हम खिलखिला चित्त पर पड़ रहा है। फलस्वरूप उस

सुना रहा हो और हम रेडियो के द्वारा उस पड़ते हैं क्योङ्कि उस ध्वनि का प्रभाव हमारे

शब्द के द्वारा जो प्रभाव हम पर होना चाहिए वह होता है और इसीलिए हम हंसते हैम् । इसी प्रकार करुण रस की कविता सुनकर सुबकने लग जाते हैं, वीर रस सुनकर रोमाञ्च हो उठते हैम् और बीभत्स रस के द्वारा हम घोर घृणा से भर जाते हैम् ।

किसी शब्द की मूल ध्वनि क्या है, जिससे कि उसका निश्चित और स्थायी प्रभाव पड़ सके यह पुस्तक नहीं बता सकती । इसके लिए गुरु की आवश्यकता होती है, क्योङ्कि वही उच्चारण करके उस शब्द की मूल ध्वनि को समझा सकता है और जब हमें शब्द की मूल ध्वान का ज्ञान हो जाता है तो हम उसी लय के साथ उस शब्द का उच्चारण कर निश्चित प्रभाव डालने में समर्थ हो सकते हैम् ।

यहां पर ‘गुरु’ शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में नहीं कर रहा हूम् । गुरु वह होता है जिसे उस क्षेत्र का विशेष ज्ञान हो। अतः जो मन्त्र की व्याख्या. उसका उप-

22

योग, उसकी क्रिया, उसका अर्थ और उसकी ध्वनि समझा सके वही गुरु कहा जा सकता है ।

कई बार लोगों के मुंह से ऐसा सुनने मेम् आता है कि कलयुग में मन्त्र निरर्थक हो गए हैं, क्योङ्कि उनका प्रभाव नहीं होता या जिस प्रकार से ग्रन्थ में लिखा हुआ है उसी प्रकार से क्रिया करने पर भी उसका जो प्रभाव होना

पाता ।

चाहिए वह नहीं हो

इसी तथ्य पर पहुञ्चते

इससे लोगों की आस्था मन्त्र से हटने लगती है और वे हैं कि मन्त्र अपने आप में व्यर्थ हैं या मन्त्रों का प्रभाव नहीं हो पाता, परन्तु कारण कुछ और है, जैसा कि मैन्ने ऊपर बताया कि मन्त्र या शब्द अथवा उसका अर्थ अपने आप में

बहुत अधिक महत्त्व नहीं रखता, अपितु उसकी ध्वनि विशेष महत्त्व रखती है, और मन्त्र में जो चेतना मानी गई है, वह ‘ध्वनि’ ही है। यह ध्वनि पुस्तक के निर्जीव

। पृष्ठ नहीं बता सकते । इसके लिए गुरु की उपस्थिति अनिवार्य है क्योङ्कि वही मन्त्र और उसकी मूल ध्वनि उच्चारण करके समझा सकता है ।

अतः तब तक मन्त्र और मन्त्र जप निरर्थक है जब तक कि उसकी ध्वनि का ज्ञान हमें नहीं हो जाता। यही नहीम् अपितु आवश्यकता इस बात की है कि ठीक उसी रूप में ध्वनि उच्चारण होना चाहिए जो कि उस शब्द का मूल जीवन्त है । केवल मात्र उसी प्रकार से उच्चारण कर देना ही सब कुछ नहीं होता ।

मन्त्र की सत्ता अपने आप में सर्वोपरि है और इसका प्रभाव निश्चित और स्थायी होता है परन्तु दुख इस बात का है कि धीरे-धीरे हमारी वर्तमान पीढ़ी मन्त्र के महत्त्व को अस्वीकार करने लगी है, उसकी उपयोगिता से हम दूर हटने लगे हैं, हममेम् इतना धैर्य नहीं रह गया है कि हम सही गुरु की खोज कर सकेम् और उनके द्वारा मन्त्र की मूल ध्वनि को प्राप्त कर सकेम् ।

हमारा भारतवर्ष इस क्षेत्र में सर्वोपरि था, क्योङ्कि यहां के साधक और महर्षि अपने आप में मन्त्रमय थे, उनका पूरा जीवन मन्त्र और उनके रहस्य को समझने- सम- झाने में बीत जाता था । वे शिष्यों को अपने साथ रखकर उन्हें पुत्रवत स्नेह देते थे और उन्हें मन्त्र की मूल ध्वनि का ज्ञान कराते थे । यह परम्परा मौलिक रूप से बरा- बर आगे बढ़ती गयी, परन्तु मुगलकाल मेम् इस पद्धति का ह्रास हुआ और उस समय फारसी कलमा तथा इसी प्रकार के मन्त्रों का प्रचलन बढ़ा, फलस्वरूप मूल मन्त्र और उसके रहस्य को समझने वाले महर्षि कम होते गए। इसके बाद जो रहा सहा वैभव था वह अङ्ग्रेजों ने पूरी तरह से समाप्त कर दिया। यह विद्या ब्राह्मणों के पास पीढ़ी- दर-पीढ़ी चली आ रही थी, परन्तु जब ब्राह्मणों के पुत्रों ने अग्रेजों की गुलामी और नौकरी करनी शुरू कर दी तो वे उसी रङ्ग में रङ्ग कर चोटी और यज्ञोपवीत से हाथ धो बैठे और मन्त्र आदि विद्याओं को दकियानूसी कहने लगे ।

कुछ समय बाद बहुत ही कम साधक ऐसे रह गए, जिन्हें मन्त्रों का और उनकी ध्वनि का पूर्ण ज्ञान था। वे यह चाहते थे कि यह मौलिक परम्परा आगे भी जीवित

23

रहे, परन्तु उनके पास सर्वथा अयोग्य शिष्यों की ही भरमार बनी रही जो कि चमत्कार में तो विश्वास करते थे परन्तु परिश्रम करने से जी चुराते थे । जो एक ही दिन में मन्त्र मर्मज्ञ होना चाहते थे उनकी ध्वनि या उनके स्वरूप को समझने का परिश्रम करना नहीं चाहते थे । ऐसी स्थिति में गुरु किङ्कर्तव्यविमूढ़ बन गया कि इन शिष्यों को किस प्रकार से ज्ञान दिया जाय, क्योङ्कि गुरु ज्ञान तो देना चाहता था, पर योग्य शिष्यों का ही अभाव हो गया था और वे उस विद्या को प्राप्त करने में सर्वथा अयोग्य और असमर्थ दिखाई देने लगे ।

वर्तमान पीढ़ी ने मन्त्र को रटे रटाये तरीके से बोलने में ही पूर्णता समझ ली । आज भी ब्राह्मण के पुत्र को पन्द्रह, बीस, पचास मन्त्र अवश्य कण्ठस्थ होङ्गे परन्तु उसकी लय का उसे कतई ज्ञान नहीं होगा । पुस्तकों के माध्यम से जो कुछ देखा, आजीविका वृत्ति बनाने के लिए उन मन्त्रों को रट लिया और इस प्रकार से अपनी जीविकोपार्जन में सहायता प्राप्त कर ली। उनका मूल उद्देश्य पेट भरना रह गया । मन्त्र के मूलस्वरूप

के को समझने मेम् उनकी रुचि नहीं रही। इस प्रकार धीरे-धीरे इस विषय में जानकार कम होते गए, जिन महर्षियों को या साधकों को इनका ज्ञान था वह ज्ञान उनके साथ ही समाप्त हो गया । वे शिष्य की झोली में बहुत कुछ डालने के लिए लालायित थे परन्तु शिष्य की झोली ही जब फटी हुई थी तो गुरु क्या कर पाता ? साथ-ही-साथ शिष्य में धैर्य और परिश्रम करने की भावना ही नहीं थी, तब गुरु अपने ज्ञान को दे ही कैसे पाता ? और इस प्रकार मन्त्र को समझने वाले साधकों का अभाव होता गया ।

कुछ साधक अपने आपको समाज से तब अलग कर बैठे जब उन्होन्ने देखा कि हमारी उपयोगिता नहीं के बरबार रह गई है, मन्त्र या इनसे सम्बन्धित व्यक्तियों को निम्न स्तर से देखा जाने लगा है, समाज की भावना केवल मात्र यही रह गई है कि येन केन प्रकारेण धन सञ्चय किया जाय, इसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े । उनका सारा तन्त्र या कार्य केवल इसी बिन्दु पर केन्द्रित हो गया कि किस प्रकार से ज्यादा- से ज्यादा धन इकट्ठा किया जाय। ऐसी स्थिति मेम् उन साधकों ने अपने आपको समाज से अलग कर दिया और पहाड़ में दूर एकान्त स्थान मेम् अपनी साधना में रत हो गए, इस प्रकार उनका सम्पर्क समाज से टूट गया ।

ऐसी स्थिति में पूरा समाज दिग्भ्रमित हो गया है। वह मन्त्रों की महत्ता को स्वीकार करता है । वह चाहता है कि मन्त्रों को समझा जाय और उसका उपयोग जीवन को सुखमय बनाने के लिए किया जाय। इसके लिए वह साधुओं, सन्न्यासियों के चारोम् ओर चक्कर लगाता है, और वे नकली साधु या लम्बी-लम्बी जटाएं बढ़ाकर आङ्खों में ललाई लाकर इन्हें सब्ज बाग दिखाते रहते हैं कि तुम्हें मैं सब कुछ दे सकता हूं जबकि हकीकत मेम् उनके पास कुछ है ही नहीं। जब उनके पास कुछ है ही नहीं तो वह दूसरों को क्या दे पाएगा? उनके ठोकर खाने पर जब कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता, तब सामान्य मानव परेशान हो जाता है, मन्त्रों पर से उसका विश्वास डिगने लगा है तथा साधु और सन्न्यासियों पर उसकी अनास्था पैदा हो गई है ।

24

मन्त्र शास्त्र की दृष्टि से पिछले पाञ्च सौ वर्ष अन्धकार के ही थे, जिसमें धीरे- धीरे इस विद्या का लोप होता गया । एक समय ऐसा भी आया जबकि सही गुरु प्राप्त होना हिमालय पर चढ़ाई करने के समान हो गया। आज नकली साधु गुरु और सन्न्यासी तो गली कूचों में मिल जायेङ्गे, परन्तु इस क्षेत्र में सही जानकारी रखने वाला गुरु दस लाख मेम् एक या दो ही होङ्गे ।

जब प्रतिशत इतना कमजोर है तो सामान्य मानव के बस की बात नहीं रह गई है। जब भी वह इस प्रकार के लेख पढ़ता है या किसी साधु के चमत्कार की कहानियां सुनता है तो वह उस तरफ भागता है, परन्तु बदले मेम् उसे कुछ भी नहीं मिल पाता।

आजादी के बाद इस भयावह स्थिति पर भी विचार हुआ और यह आशङ्का बलवती हो गई कि यदि इसी प्रकार बना रहा तो एक समय ऐसा भी आ सकता है जबकि इस विद्या को जानने वाला एक भी व्यक्ति न रहे, अतः इस पर गहराई के साथ विचार किया गया और मैं यह देख रहा हूं कि पिछले दस वर्षों मेम् एक नई चेतना पैदा हो रही है जो कि लोगों का विश्वास पुनः मन्त्र पर स्थापित करने में सफल रही है। जिनका विश्वास पूरी तरह से डगमगा गया था, उन्हें सम्बल मिला है । सामान्य मानव को अब यह विश्वास होने लगा है कि यह विद्या पूरी तरह से लुप्त नहीं हो गई है, क्योङ्कि जिन लोगों ने इस विद्या को जीवन्त बनाए रखने के लिए प्रयत्न प्रारम्भ किए हैं वे समर्थ हैं, उन्हें मन्त्रों का गहराई के साथ ज्ञान है ।

मन्त्र को समझने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है, क्योङ्कि मन्त्र अपने आपमें पूर्ण नहीं है अपितु उसके साथ जो क्रिया-पद्धति है वह मिल कर एक पूर्ण मन्त्र का निर्माण करती है, जैसे आटा अपने आपमें पूर्ण रोटी नहीं है अपितु आटे के साथ जिस प्रकार से पूरी क्रिया करने पर रोटी का सकती है, उसी प्रकार जब तक मन्त्र और तक उससे पूरा लाभ नहीम् उठाया जा सकता ।

भूख शान्त हो

निर्माण होता है तभी उससे उसकी पद्धति का पूर्ण ज्ञान

नहीं होता तब

मुझे याद है कि कुछ वर्षों पूर्व केदारनाथ के पास एक साधु सम्मेलन हुआ

था, जिसमें मुख्य रूप से उन साधुओं, था जो इस क्षेत्र में पूर्ण जानकार थे। हुए थे, जो कि अपने आपमें बीतरागी थे, साधु थे, ऐसे व्यक्ति थे जो घर गृहस्थी से सर्वथा

मुक्त थे और जिनका पूरा जीवन मन्त्रों की शोध में ही व्यतीत हुआ था ।

साधकोम् एवं मन्त्र अध्येताओं को निमन्त्रण किया उसमें लगभग तीन सौ साधु महर्षि आदि इकट्ठे

उस सम्मेलन में मैं भी उपस्थित था और मेरे गुरु भाई डा० श्रीमाली जी भी उपस्थित थे। मेरा उपस्थित होने का मूल कारण यह देखना था कि अब तक मन्त्रों को जानने वाले कितने लोग शेष हैम् और वे इस विद्या को आगे बढ़ाने के लिए कितने अधिक प्रयत्नशील हैम् ।

पर सम्मेलन में बात यह सामने आई कि धीरे-धीरे मन्त्र और उसकी ध्वनि को सही रूप से समझने वाले लोग समाप्त हो रहे हैम् और जिनके पास यह विद्या है

25

भी वे पूरी तरह से समाज से कटे हुए हैं। उच्च विद्या से वञ्चित रह रहा है और वह

इस प्रकार हमारा समाज इस प्रकार की पागलों की तरह इधर-उधर भटक रहा है

परन्तु उसे सच्चा साधु या सच्चा मन्त्र मर्मज्ञ प्राप्त नहीं हो रहा है।

सम्मेलन की समाप्ति तक भी कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया। सबके मन मेम् एक ही दुख था कि योग्य शिष्यों की प्राप्ति नहीं हो रही है, जिन्हें यह ज्ञान दिया जा सके, साथ-ही-साथ यदि कोई शिष्य प्राप्त होता भी है तो वह परिश्रम करने से घबराता है और इस प्रकार का एकाकी जीवन जीने का अभ्यस्त न होने के कारण थोड़े समय बाद ही भाग खड़ा होता है ।

सम्मेलन मेम् उन मन्त्र मर्मज्ञों की मृत्यु पर भी दुख प्रगट किया गया जो पिछले दो वर्षों में मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इस प्रकार धीरे-धीरे मन्त्रों की वास्तविक ध्वनि और उसकी क्रिया को समझने वाले लोगों की समाप्ति हो रही थी और नये व्यक्ति तैयार नहीं हो रहे थे जो कि इस प्रकार की चेतना को और भारत की इस दुर्लभ विद्या को जीवित रख सकेम् ।

सम्मेलन का निर्णय लगभग यही था कि ऐसी स्थिति में कुछ भी नहीं किया जा सकता और जो कुछ हो रहा है, वह ठीक ही हो रहा है। यदि प्रभु को यही मञ्जूर है तो इसके आगे क्या किया जा सकता है ?

यह स्थिति एक प्रकार से कायरता की स्थिति थी। इस स्थिति को डा० श्रीमाली सहन नहीं कर सके । उन्होन्ने खड़े होकर कहा, कि सम्मेलन जो भी निर्णय ले रहा है, वह सही हो सकता है, परन्तु यह निर्णय पूर्णतः कायरता का निर्णय है, नपुंसकता का निर्णय है, हकीकत में देखा जाय तो यह वास्तविकता से भागने का निर्णय है । यदि सम्मेलन का यही निर्णय रहा तो भारतवर्ष के लिए यह अत्यन्त भयावह स्थिति होगी और वह दिन दूर नहीं होगा जबकि इस पृथ्वी से मन्त्र और उसकी ध्वनि हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी ।

आने वाली पीढ़ी हमें, और हमारे सम्मेलन को धिक्कारेगी कि कायरता के साथ सम्मेलन को समाप्त कर हमने अपने आपको मृत्यु के मुंह में डाल दिया । आने बाला समय हममें से किसी को भी क्षमा नहीं करेगा, आवश्यकता इस बात की है कि हम इस चुनौती को स्वीकार करेम् और एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करें जो कि इस प्रकार के ज्ञान से पूर्ण हो, जिनमें मन्त्रों को सीखने, समझने और उनके प्रयोग में रुचि लेने की ललक हो और जो पूर्ण रूप से मन्त्रों के प्रति समर्पित हों वे युवक आगे आवें या ऐसे युवकों की खोज की जाय जो कि इस प्रकार के कार्य के लिए पूर्णतः समर्थ होम् ।

भारतवर्ष की भूमि युवक ऐसे प्राप्त हो सकते हैं

नपुंसक नहीं है । साठ करोड़ जनता में कम-से-कम सौ जिन्हें परिश्रम करने की और मन्त्रों को जीवित बनाए रखने की रुचि हो और जो सारे सुखों को त्याग कर इस क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का होसला रखते होम् ।

26

अपनी बात को समाप्त करते हुए डा० श्रीमाली ने कहा कि मुझे दुख इस

बात का हो रहा है कि हम रचनात्मक भूमिका निभाने की अपेक्षा कायरता की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि आप सभी इस बात के लिए कृतसङ्कल्प हों तो ऐसी कोई बात नहीं है, परन्तु आपने भगवे वस्त्र धारण करके इस बात का निश्चय कर लिया है कि अब आपका समाज से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है, यह एक प्रकार से पलायन की भूमिका है, सङ्घर्ष से छुटकारा पाने का प्रयत्न है, कठिनाइयों से मुक्ति पाने की चाह है, आपके ये निर्णय किसी भी प्रकार से योग्य नहीं हैम् और इस सम्मेलन के उपयुक्त तो सर्वथा नहीं ही हैम् ।

मैम् इस बात के लिए भी दृढ़ सङ्कल्प हूं कि चाहे मुझे कितना ही त्याग करना पड़े या चाहे मैम् अकेला ही रह जाऊं फिर भी मैम् इसी प्रयत्न में बराबर लगा रहूङ्गा कि यह विद्या सर्वथा लोप न हो जाय और इस विद्या की पूर्णता में किसी प्रकार की न्यूनता न आवे ।

यह छोटा-सा वक्तव्य अपने आपमें चुनौतीपूर्ण था और एक प्रकार से उस पूरे सम्मेलन पर थप्पड़ की तरह था जिसने एक बार पुनः सही ढङ्ग से सोचने के लिए मजबूर कर दिया। सम्मेलन के अधिकांश मन्त्र मर्मज्ञ डा० श्रीमाली से परिचित थे और उनके कार्यों से तथा उनकी साधनाओं से तभी से परिचित थे जब वे गृहस्थ जीवन में नहीं थे । वे इस बात को जानते थे कि आज विश्व में मन्त्र के क्षेत्र में स्वामो सच्चिदानन्द जी से उच्चकोटि का व्यक्ति नहीं है, वे सही रूप में युग पुरुष हैं, और मन्त्र साधना आदि के क्षेत्र में सर्वोपरि हैम् । उनका ज्ञान हिमालय से भी महान है, मन्त्र के क्षेत्र मेम् और साधना के क्षेत्र मेम् उनकी महत्ता निर्विवाद रूप से सभी स्वीकार करते हैम् । डा० श्रीमाली इस प्रकार की महान विभूति के प्रमुख शिष्य हैं यह बात सभी को ज्ञात थी और वे सभी इस बात को अनुभव करते थे कि वास्तव मेम् उनका शिष्य होना ही अपने आप में पूर्णता है । इस प्रकार की चुनौती वही व्यक्तित्व दे सकता है, जिसमेम् आग हो या जिसमेम् इस विषय की पूर्णता हो ।

सम्मेलन के लगभग सभी साधु और महर्षि प्रसन्न थे कि जिस व्यक्ति ने इस चुनौती को सबके सामने रक्खा है, वह अपने आप मेम् एक सम्पूर्ण और समर्थ व्यक्तित्व है, मन्त्र के क्षेत्र मेम् आज भी उनकी राय को सबसे ऊञ्चा महत्त्व दिया जाता है। सम्मेलन के सभापति के रूप मेम् उनका नाम निर्विवाद रूप से लिया गया था और एक मत से उन्हें सभापति पद पर बिठाने का निर्णय लिया था, परन्तु यह उनकी ही विनम्रता थी कि उन्होन्ने अस्वीकार करते हुए सामान्य मन्त्र शास्त्री के रूप में ही भाग लेने का निश्चय किया था ।

सभी ने एक प्रकार से हर्षध्वनि की और उनकी अभ्यर्थना करते हुए एक मत से प्रस्ताव पास किया कि आज के युग में परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द के प्रमुख शिष्य डा० श्रीमाली मन्त्र के क्षेत्र में निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व है और एक प्रकार से उन्हें मन्त्र पुरुष कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।

27

सम्मेलन को प्रसन्नता है कि उन्होन्ने इस गम्भीरता को समझा है और इस विद्या को समाज से जोड़ने में रुचि ली है, सम्मेलन को विश्वास है कि यह विद्या भारतवर्ष से लोप नहीं हो सकेगी। और आने वाली पीढ़ियां डा० श्रीमाली की आभारी रहेङ्गी कि उनके प्रयत्नों से मन्त्रों की मूल ध्वनि और उनकी क्रिया जीवित रह सकी है।

इस प्रस्ताव के साथ ही सम्मेलन समाप्त हो गया ।

डा० श्रीमाली को मैं तब से जानता हूं जब वे यायावर जीवन में थे । वे गृहस्थ होते हुए भी पूर्णतः साधु थे और उन्होन्ने गृहस्थ के अनन्य पथ को इसीलिए छोड़ दिया था जिससे कि उन साधुओम् और महर्षियों के सम्पर्क मेम् आ कर उस ज्ञान को प्राप्त किया जा सके, जो कि वास्तव मेम् उच्चकोटि का है और जिस ज्ञान की वजह से ही भारत पूरे विश्व में सम्मानित है ।

इस प्रकार के साधु जीवन के रूप में लगभग सत्रह वर्ष रहे और इन वर्षों मेम् उन्होन्ने जो कुछ प्राप्त किया वह भारत और विश्व से छिपा हुआ नहीं है । इन वर्षों में वे उन सभी लोगों के सम्पर्क मेम् आए जिनके पास इस प्रकार का थोड़ा बहुत भी ज्ञान था । वे कई साधुओं के पास रहे और उनसे उन सभी प्रकार की विद्याओं को सीखने का प्रयत्न किया जो कि वास्तव में ही दुर्लभ थी और यह उनका सौभाग्य था कि उन्हेम् इस प्रकार के साधु मिलते गए जो कि वास्तव मेम् अपने क्षेत्र मेम् उच्चकोटि के थे ।

• सबसे बड़ी उपलब्धि परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी की शिष्यता प्राप्त करना है । जो साधना के क्षेत्र में हैं वे परमहंस के नाम से परिचित हैम् और वे ही इस बात को अनुभव कर सकते हैं कि उन तक पहुञ्चना ही हिमालय को लाङ्घने के बरा- बर है या जीवन मेम् उनके दर्शन उच्चकोटि का पुण्य माना जाता है, तब उनसे शिष्यत्व प्राप्त कर लेना अपने आपमेम् उच्चकोटि का भाग्य है । विश्व में मात्र तीन ही शिष्य. उनके माने जाते हैं जिनको उन्होन्ने विधिवत दीक्षा दी है।

यह बात इसका प्रमाण है कि डा० श्रीमाली ने इस स्तर को प्राप्त करने के लिए कितना अधिक प्रयत्न किया होगा, कितना कष्ट उठाया होगा और इस स्तर को प्राप्त करने के लिए कितना कठोर सङ्घर्ष किया होगा ? सुना है कि स्वामी सच्चिदा- नन्द जी हजार से भी ज्यादा आयु के हैम् और वे किसी को शिष्य बनाते ही नहीं, क्यों- कि उनकी शिष्य बनाने की परीक्षा इतनी कड़ी और कठोर है कि उस परीक्षा को पास करना सामान्य जीवन में सम्भव ही नहीं है, आज भी साधक मन्त्र या साधना कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व मन-ही-मन स्वामी सच्चिदानन्द जी का स्मरण करते हैं जिससे कि वे अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होकर सहायक हो सकेम् ।

पिछले हजार वर्षों में केवल तीन शिष्य बनाना ही इस बात का प्रमाण है कि उनका चयन कितना कठिन है और किस प्रकार से वे उनकी परीक्षा लेते हैं। साधना के क्षेत्र मेम् उनका शिष्य होना ही अपने आपमें पूर्णता माना जाता है, मेरे कथन की गम्भीरता केवल वे व्यक्ति समझ सकते हैं जो कि साधना क्षेत्र में हैं या इस प्रकार की “क्रिया से परिचित हैम् ।

28

डा० श्रीमाली का जीवन एक ही कार्य को पूर्णता देने के लिए नहीं बना है, कई बार मैम् आश्चर्यचकित रह जाता हूं कि एक ही व्यक्तित्व इतने अधिक कार्यों का बोझ किस प्रकार से सम्भाल लेता है ? किसी एक विद्या लिए ही जब पूरा जीवन खप जाता है तो किस प्रकार से पूर्णता प्राप्त की है । और उन सभी विद्याओं में वे उस आपमेम् अन्यतम है।

में पूर्णता प्राप्त करने के उन्होन्ने कई विद्याओं में स्तर पर हैं जो कि अपने

ज्योतिष के क्षेत्र मेम् उनकी महत्ता निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती है। इस क्षेत्र मेम् उन्होन्ने उन सभी आयामों को पूर्णता दी है जो कि इस से सम्बन्धित है। सामु- द्रिक शास्त्र, अङ्क शास्त्र, मुखाकृति विज्ञान आदि क्षेत्र मेम् उन्होन्ने ग्रन्थों की रचना की हैं, तथा ज्योतिष के गणित और फलित पक्ष मेम् उनकी मान्यता पूरे भारतवर्ष में निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती है ।

इसके अलावा आयुर्वेद का उन्हेम् अन्यतम ज्ञान है, यद्यपि इस विद्या से अभी सामान्य जन परिचित नहीं है, परन्तु उन्होन्ने इस क्षेत्र में जो कुछ प्राप्त किया है वह अपने आप मेम् अन्यतम है । तन्त्र के क्षेत्र मेम् उनकी महत्ता को सभी स्वीकार करते हैं, मन्त्र के क्षेत्र में स्वामी सच्चिदानन्द जी का शिष्य होना ही इस बात का प्रमाण है कि वे इस क्षेत्र में सर्वोपरि हैं, और वह सम्मेलन इस बात को अनुभव कर रहा था कि पूरे सम्मेलन मेम् उपस्थित साधुओं का ज्ञान भी उस अकेले व्यक्तित्व के ज्ञान से न्यून है, क्योङ्कि उन्हें सभी प्रकार के मन्त्रों का पूर्ण ज्ञान है और उसकी मूल ध्वनि तथा क्रिया का विधिवत अभ्यास है ।

वे मूलतः सरल गृहस्थ हैं, और गृहस्थ जीवन को भी कुशलता के साथ सञ्चालन कर रहे हैं। पूरे दिन जिस प्रकार से वे ब्यस्त रहते हैम् उसको अनुभव करके आज भी मैं सोचने के लिए बाध्य हो जाता हूं कि ऐसी कौन-सी जीवट शक्ति है, जो कि उन्हेम् इतना श्रम करने के लिए उत्साहित करती रहती है ।

डॉ० श्रीमाली से मेरा परिचय एक संयोग के रूप में ही हुआ था । यद्यपि आयु में मैम् उनसे चार-पाञ्च वर्ष बड़ा हूं परन्तु ज्ञान के क्षेत्र मेम् उनकी महत्ता को निर्विवाद रूप से स्वीकार करता हूम् ।

मेरा उनका परिचय एक संयोग ही था और मैं सोचता हूं कि यह संयोग मेरे लिए अत्यन्त सुखदायक रहा है, उस समय भी मैं साधु जीवन में था और आज भी मैं साधु जीवन में ही हूं। बचपन से ही मैन्ने यह निश्चय कर लिया था कि मुझे विवाह नहीं करना है और अपना सारा जीवन योग्य गुरु की खोज में बिता देना है जिसके सान्निध्य में बैठकर मैं ज्ञान के उन आयामों को स्पर्श कर सकूं जो कि अपने आप मेम् उच्चतर रहे हैम् ।

मैम् अपने जीवन मेम् एक जगह बहुत कम टिका हूं, भटका ज्यादा हूं, और इसी भटकते हुए जीवन में जो भी अनुभव हुए हैं वे अपने आप मेम् अलग हैं। परन्तु मैम् इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैम् अपने जीवन में जितना और जो कुछ प्राप्त करना29

चाहता था वह प्राप्त नहीं कर पाया हूं, जबकि मेरे जीवन का लक्ष्य मन्त्र-तन्त्र के क्षेत्र मेम् उच्च भावभूमि को स्पर्श करना था ।

उस समय मैं बद्रीनाथ से पन्द्रह किलो मीटर दूर भृकुण्डी आश्रम में था और वहां स्वामी प्रवृज्यानन्द जी के सान्निध्य में मन्त्र साधना सीख रहा था। उनके पास रहते हुए मुझे लगभग तीन बर्ष हो चुके थे और मैं यह अनुभव कर रहा था कि स्वामी प्रवृज्यानन्दजी मन्त्र के क्षेत्र में सिद्धहस्त हैम् और उन्हें सैकड़ों प्रकार के मन्त्र तथा उनकी क्रिया का ज्ञान है ।

उन्हीं दिनों की बोत है एक दिन प्रातःकाल जब मैं स्नान कर वापस लौट रहा था तो मुझे आश्रम के बाहर एक युवक साधु दिखाई दिया जो कि अत्यन्त ही आकर्षक और प्रथम बार में ही हृदय पर गहरी छाप छोड़ देने वाला व्यक्तित्व लिये हुए था । सामान के नाम पर उसके पास कुछ नहीं था, शरीर पर मात्र भगवे वस्त्र धारण किए हुए था ।

परन्तु उसकी आङ्खों मेम् एक विशेष प्रकार की लपक थी। कुछ ऐसा लग रहा था जैसे उसकी आङ्खों मेम् एक अतृप्त प्यास हो, एक ऐसी इच्छा हो जो कि अभी तक शान्त नहीं हुई हो । जीवन को एक विशेष ढङ्ग से जीने की चाह हो । कुल मिलाकर उसका व्यक्तित्व अपने आप मेम् आकर्षक था और ऐसा लग रहा था जैसे यह व्यक्तित्व अपने आप मेम् एक सशक्त अभिव्यक्ति है जिसके रोम-रोम से महानता स्पष्टतः अनुभव हो रही थी ।

मैं जब कुटिया के पास पहुञ्चा तो वे एकटक खड़े मुझे आते हुए देख रहे थे । मैं जब पास पहुञ्चा तो उन्होन्ने शान्त गम्भीर स्वर से प्रश्न किया कि क्या स्वामी प्रवृज्यानन्द जी का आश्रम यही है ?

मैन्ने स्वीकृति में गर्दन हिलाई तो उन्होन्ने दूसरा प्रश्न किया कि क्या स्वामीजी कुटिया के अन्दर विद्यमान हैम् और क्या मैम् उनसे इस समय भेण्ट कर सकता हूं ?

मैन्ने जब उनका नाम पूछा तो उन्होन्ने दार्शनिक भाव से उत्तर दिया कि मिट्टी के एक कण को किसी भी नाम से पुकारा जाय इससे उस मिट्टी के कण में कोई अन्तर नहीम् आता । मेरा जीवन भी इस ज्ञान के क्षेत्र में मिट्टी के कण के समान है, इसलिए इसको किसी विशेष सञ्ज्ञा से सम्बोधित करना आवश्यक नहीं है, यों यदि आप चाहें तो मुझे नारायण के नाम से सम्बोधित कर सकते हैम् ।

पहली बार मेम् उनके उत्तर ने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ी। मैन्ने अनुभव किया कि यह व्यक्तित्व आयु में भले ही कम हो परन्तु इसके अन्दर ज्ञान की गरिमा है, वह अपने आप मेम् उच्चतर है क्योङ्कि इसकी वाणी मेम् एक विशेष चुम्बकीय शक्ति है, इसकी बातचीत मेम् एक विशेष लोच है जिससे सामने वाले व्यक्ति को प्रभावित किया जा सकता है, इसके सारे शरीर मेम् एक ऐसा आकर्षण है जिसे बार-बार देखने को जी चाहता है और बातचीत के बाद ऐसा लगता है कि जैसे इससे बार-बार मिला जाय,

30

बातें की जायेम् और इनके पास ज्ञान का जो भी सागर है, उसमेम् अवगाहन किया

जाए ।

मैन्ने अन्दर जाकर स्वामी जी को नवागन्तुक के आने की सूचना दी तो उन्होन्ने अन्दर आने की स्वीकृति दे दी । मैन्ने नवागन्तुक को स्वामी जी के मन्तव्य से परिचित कराया तो वे कुटिया के भीतर आकर स्वामी जी के सामने बैठ गये ।

स्वामीजी ने जब उन्हेम् अपना परिचय और आने का कारण पूछा तो नवा- गन्तुक ने मुंह से कुछ भी न कहकर योग मुद्राओं से अपनी सारी बात स्पष्ट की और अपना नाम, अपना उद्देश्य और अपने आने का कारण योग मुद्राओं के माध्यम से ही व्यक्त किया । जब नवागन्तुक ने अपनी सारी स्थिति स्पष्ट कर दी तो स्वामी जी की आङ्खों मेम् एक आश्चर्यजनक हर्ष की लहर दौड़ गई। उन्हें यह विश्वास हो गया कि आने वाला व्यक्ति सामान्य साधु नहीं है अपितु एक उच्च भावभूमि पर खड़ा हुआ व्यक्तित्व है जिसने साधना के क्षेत्र में काफी ऊञ्चे स्तर को स्पर्श किया है, क्योङ्कि इस प्रकार की योग मुद्राओं के माध्यम से अभिव्यक्ति वही दे सकता है जो कि साधना के क्षेत्र मेम् उच्च धरातल पर स्थित हो और जिसकी कुण्डलिनी पूर्ण रूप से जागृत हो । स्वामी जी ने पास बैठे हुए नवागन्तुक को अपने पास खीञ्चकर सीने से भीञ्च लिया, उनकी आङ्खों से हर्ष के आंसू बह निकले और विगलित कण्ठ से कहा कि मैं जिस प्रकार के व्यक्तित्व की कल्पना करता था या मेरे मन में जिस प्रकार के साधक से मिलने की चाह थी तुम ठीक वैसे ही हो । निश्चय ही तुमने साधना के क्षेत्र में बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त किया है और मैम् इस समय अपने तीसरे नेत्र से जो कुछ देख रहा हूं, वह अपने आप मेम् अन्यतम है ।

इस पूरी क्रिया में मैम् आश्चर्यचकित होकर उन दोनों को देख रहा था। मैं स्वामी जी के पास लगभग तीन वर्ष से था परन्तु यह पहला अवसर था जब मैन्ने अनुभव किया कि बिना जबान के भी बात हो सकती है, और इस प्रकार की बातचीत वही कर सकता है जो कि इस क्षेत्र में श्रेष्ठ स्तर पर पहुञ्चा हुआ हो ।

मैन्ने देखा कि आयु में मुझसे छोटे होते हुए भी यह जो आया है, वह ज्ञान के क्षेत्र में मुझसे काफी ऊञ्चे स्तर पर है क्योङ्कि स्वामी जी से योग मुद्राओं के माध्यम से बातचीत वही कर सकता है जो कि अपने आप में कुछ महत्त्व रखता हो ।

जब स्वामी जी कुछ स्थिर चित्त हुए तो उन्होन्ने बताया कि इस नारायण के आते ही मुझे अपनी विशेष इन्द्रिय या विशेष साधना से यह आभास हो गया कि यह मन्त्र के क्षेत्र में जिज्ञासु अवश्य है परन्तु साधना के क्षेत्र में विशेष स्तर पर है । यह ऐसा व्यक्तित्व है जिसे यदि मन्त्र साधना का ज्ञान कराया जाय तो यह पूर्ण क्षमता के साथ स्वीकार कर सकता है ।

इसके साथ-ही-साथ उन्होन्ने भविष्यवाणी भी की कि यह व्यक्तित्व अपने आप मेम् अद्भुत और विशेष महिमामण्डित है, क्योङ्कि आने वाला समय इसका है । यह अपने कार्यों से अपने विचारों से पूरे देश मेम् एक नई क्रान्ति लाने में समर्थ हो सकेगा । और

31

यही एक ऐसा व्यक्तित्व है जिसके द्वारा भारतवर्ष की मूल्यवान विद्याएं पुनर्जीवित हो सकेङ्गी । यह व्यक्तित्व अपने लेखन से उन विद्याओं को युगों-युगों तक जिन्दा रखने में समर्थ हो सकेगा और उन सभी विद्याओं में यह अग्रगण्य माना जाएगा ।

उन्होन्ने यह भी भविष्यवाणी की थी कि मैम् इस व्यक्तित्व में बहुत ऊञ्ची साधना पद्धति और ज्ञान के अत्यन्त उच्च क्षेत्र को देख रहा हूं। मैं देख रहा हूं कि निकट भविष्य में ही इसको ऐसा गुरु मिलने वाला है जो विश्व में सर्वोपरि है और जिसका शिष्य होना ही अपने आप में गौरवशाली घटना होगी। आने वाला समय इस व्यक्तित्व का है और अपने जीवन में यह ऐसा कार्य कर सकेगा जिससे आने वाली पीढ़ियाम् इसकी ऋणी रहेङ्गी ।

मैं यह सब आश्चर्यचकित होकर सुन रहा था । कुटिया के बाहर जब इस व्यक्तित्व को देखा था तो मैन्ने इसे एक सामान्य व्यक्तित्व या साधारण साधु समझा था जो कि भटकता हुआ इधर आ गया हो, परन्तु अब जबकि मैम् अपने गुरु के मुंह से इस प्रकार की भविष्यवाणी सुन रहा था तो मेरा सिर स्वयं ही इस व्यक्तित्व के सामने मन-ही-मन झुक गया ।

स्वामी जी के स्थिरचित्त होते ही नारायण ने विनम्रतापूर्वक कहाकि आप जो मेरे बारे में कह रहे हैं यह मेरे लिए आशीर्वाद के रूप में है । इस समय तो मैम् एक सामान्य रजकण ही हूं परन्तु यदि आप जैसे महर्षि का मुझ पर आशीर्वाद रहा तो निश्चय ही मैम् आपकी वाणी को और आपके आशीर्वाद को सत्य सिद्ध करके दिखाने का प्रयत्न करूङ्गा ।

इस समय मैम् आपके सामने एक बालक की तरह उपस्थित हुआ हूम् और मैन्ने यह अनुभव किया है तथा वायवो साधना के माध्यम से ज्ञात किया है कि मन्त्र के क्षेत्र मेम् आप एक महान विभूति हैं, मन्त्रों की मूल भावना को आपने सञ्जो कर रखा है। मैम् इस ज्ञान में से यदि कुछ पाने का अधिकारी हूं तो मैम् आपसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे उन मन्त्रों का ज्ञान दें जो अब तक दुर्लभ रहे हैं। मुझे उन स्वरों को तथा मन्त्र की ध्वनि को समझाने का विचार करें जो कि अपने आप में मूल रूप से रही है, मैम् आपके सान्निध्य में कुछ समय बिताने का इच्छुक हूम् और आपके चरणों में बैठकर ज्यादा-से-ज्यादा सीखने की इच्छा रखता हूम् ।

मैन्ने देखा कि महान् व्यक्तित्व होते हुए भी इनमें घमण्ड का नाम निशान तक नहीं था । इसके मुंह से जो भी बात निकल रही थी उसमें कहीं से भी कृत्रिमता नहीं थी, उसके सारे वाक्य हृदय से निकले हुए थे इसलिए सीधे प्रभाव डालने में समर्थ थे ।

स्वामी जीने कहा यह मेरा सौभाग्य है कि तुम मेरे पास रहने की इच्छा प्रकट कर रहे हो, अब यदि मृत्यु भी आ जाएगी तो मुझे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहेगी, क्योङ्कि मैं स्वयम् इस प्रकार के शिष्य की खोज में था जिसे मैम् अपना सारा ज्ञान दे सकूं, अपने हृदय

हृदय के अमृत सिञ्चन से उसे आप्लावित कर सकूम् । अब मुझे निश्चिन्त होकर रहना है, क्योङ्कि अभी तक मैम् इस चिन्ता में था कि मेरे पास जो ज्ञान है वह

32

मैं किस प्रकार से कहां देकर जाऊम् । ऐसा कोई योग्य शिष्य मुझे नहीं मिल सका था जिसे पाकर मैं पूर्णरूप आश्वस्त हो सकूम् । आज तुम्हें पाकर मैम् अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूं, क्योङ्कि मेरी वायवी साधना यह कह रही है कि यही वह व्यक्तित्व है जो मेरे ज्ञान को आगे के समय मेम् अक्षुण्ण रख सकेगा। यही व्यक्तित्व मन्त्रों के मूल रहस्य को समाज के सामने स्पष्टता के साथ प्रदर्शित कर सकेगा, अतः तुम्हें पाकर वास्तव में मैं निश्चिन्तता अनुभव कर रहा हूं। तुम यहां सानन्द रहो और मैम् अपने सारे ज्ञान को तुम्हारे हृदय मेम् उण्डेलने के लिए उत्सुक

स्वामीजी ने मुझे पास की कुटिया में नवागन्तुक के

रहने आदि की व्यवस्था ही प्रार्थी है परन्तु तन्त्र, आयुर्वेद, साधना आदि के क्षेत्र मेम् अत्यन्त ही उच्च धरातल पर स्थित है, अतः इससे यदि तुम कुछ प्राप्त कर सकोगे तो यह तुम्हारा सौभाग्य ही होगा ।

के लिए आज्ञा दी और कहा कि यह मन्त्र के क्षेत्र में भले

बातचीत समाप्त करते-करते स्वामी जी उठ खड़े

हुए । वे मध्याह्न स्नान के लिए नदी तट पर जाने के लिए उद्यत थे । मैं नवागन्तुक को लेकर पास वाली कुटिया मेम् आ गया और उनके रहने आदि की व्यवस्था में जुट गय

लगभग दो महीने उसी आश्रम में मुझे श्रीमाली जी के साथ रहने का सौभाग्य मिला और मैन्ने देखा कि इस व्यक्तित्व में सीखने की जितनी चाह है उतनी शायद ही किसी व्यक्ति में हो । परिश्रम करने की अपूर्व क्षमता है और प्रत्येक क्षण का उपयोग करने की भावना इनके मन में बराबर बनी रही है ।

इतना होते हुए भी सुविधा के नाम पर कोई विशेष इच्छा इनके मन में नहीं थी। मैन्ने जब पहली ही रात बिस्तर का प्रबन्ध किया तो मुझे बताया कि मैन्ने बिस्तर पर सोना छोड़ दिया है और मात्र घास के पुआल पर ही सोता हूं, शाम को जब वे नदी से स्नान करके वापस लौटे तो अपने साथ कुछ घास काटकर लेते आये थे और वही उस कुटिया मेम् एक तरफ कोने में बिछा दी जो कि उनका बिस्तर

बन गया था।

उनकी दिनचर्यां निश्चित बन्धी हुई थी । प्रातः तीन बजे के लगभग वे उठ जाते और स्नान आदि से निवृत्त होकर अपनी व्यक्तित्व साधना में रत हो जाते, लगभग छः बजे अपनी दैनिक पूजा सन्ध्या आदि से निवृत्त होकर गुरु की कुटिया में पहुञ्च जाते और उस समय जबकि गुरु स्वामी प्रवृज्यानन्द जी नदी तट पर प्रातः सन्ध्या में व्यस्त होते, तब तक यह वक्तित्व उनकी कुटिया को अपने हाथों से साफ करता और पानी से उसे धोकर पवित्र - सा बना देता, इसके साथ-ही-साथ गुरु के कपड़ों को भी साफ करने का उपक्रम करना प्रातःकालीन नियम-सा बन गया था ।

लगभग आठ बजे से मन्त्र दीक्षा प्रारम्भ हुई और पहली ही बार मेम् उनको जो कुछ बताया गया उसे पूर्ण क्षमता के साथ स्वीकार कर लिया। जहां तक मुझे याद है दूसरी बार बताने की आवश्यकता उन्हें कभी नहीं रहीम् । मन्त्रों को सिद्ध करने की उनकी चाह चरम सीमा पर थी और जब तक मेन्त्र सिद्ध नहीं हो जाता

33

तब तक न तो उन्हें भूख की चिन्ता रहती और न विश्राम की आवश्यकता ही अनुभव होती । उनको एक ही धुन लग जाती कि जैसे भी हो, इस मन्त्र को पूर्णता के साथ सिद्ध करना है तथा सिद्ध करने के बाद जब उसे प्रयोगात्मक रूप से सफल देखते तभी उन्हें निश्चितता होती । मन्त्रों के प्रति इतना समर्पण भाव मैन्ने पहली बार देखा था ।

उस एक महीने में ही उनकी कार्य पद्धति को देखकर मैम् आश्चर्यचकित था, उनके जीवन का ध्येय केवल मात्र गुरु-सेवा और मन्त्र-साधना ही रह गया था । मन्त्र-साधना के बाद जो भी अवसर मिलता वह गुरु-सेवा में ही व्यतीत होता, क्यो के श्रीमाली जी के अनुसार गुरु-सेवा ही मन्त्र की पूर्णता में सहायक है । जब तक हृदय

का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता तब तक मन्त्र में पूर्णता सम्भव ही नहीं है ।

से

गुरु

एक बार चर्चा के दौरान डा० श्रीमाली ने बताया था कि मुझे गुरु-सेवा करने मेम् अपूर्व आनन्द की प्राप्ति होती है । जब मैं गुरु चरणों को अपनी जङ्घा पर रखकर सहलाता हूं तो मुझे ऐसा अनुभव होता है जैसे मैं साक्षात् अपने इष्ट की साधना कर रहा हूं, उस समय किसी प्रकार का व्याघात मुझे सहन नहीं होता । मेरे लिए गुरु सेवा से बढ़कर और कोई आनन्द की बात नहीं है, मैं चाहे कितना ही थक जाऊं परन्तु यदि मुझे कुछ क्षण ही सही गुरु के चरण दबाने को मिल जायं तो मेरी सारी थकावट दूर हो जाती है और मैम् अपने हृदय मेम् एक विशेष प्रकार का आनन्द, जोश और उमङ्ग अनुभव करने लग जाता हूम् ।

गुरु के प्रति ऐसी निष्ठा, मैन्ने पहली बार देखी थी । यद्यपि मैं लगभग तीन वर्षों से उस आश्रम में था । परन्तु तब मैन्ने पहली बार अनुभव किया कि गुरु-सेवा में मैं कितना अनाड़ी हूम् । मैन्ने केवल मात्र गुरु के कार्य को ही पूर्ण सेवा मान ली थी, जबकि श्रीमाली जी उमङ्ग के साथ और हृदय के आनन्द के साथ गुरु-सेवा को अपने जीवन का एक अङ्ग मान रहे थे । उन्हेम् इस प्रकार के कार्य मेम् एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती थी जो कि उस समय उनके चेहरे से स्पष्ट झलकती थी । ऐसी एकनिष्ठता होने पर गुरु किस प्रकार से न्यूनता बरत सकता है ?

श्रीमाली जी अपनी धुन के पक्के हैं। एक बार वे जिस निश्चय को कर लेते हैम् उसे जब तक पूरा नहीं कर लेते उनके मन में चैन नहीम् आता । उस आश्रम में भी मैन्ने उनके इसी व्यक्तित्व के दर्शन किए थे। मैं दिन भर मन्त्र साधना सीखता था, परन्तु रात को दस-ग्यारह बजे के लगभग थक कर सो जाता था, परन्तु उस समय भी मैं श्रीमाली जी को एक ही आसन पर स्थिरचित्त बैठे हुए देखता और जब प्रातःकाल तीन बजे मेरी आङ्ख खुलती तब भी उन्हेम् उसी आसन पर उसी प्रकार से स्थिरचित्त एक ही आसन पर बैठे हुए देखता । दूसरे दिन भी उनके चेहरे पर किसी प्रकार की थकावट के चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होते । मैं सोचता कि इस व्यक्तित्व मेम् ऐसी कौन-सी जीवट शक्ति है, जिसके बल पर इस व्यक्ति को इतना

.

-34

परिश्रम करने पर भी थकावट नहीम् आयी और हर समय अपने आपको तरोताजा बनाए रखती है ।

मैन्ने अनुभव किया था कि उनमें सीखने की विशेष चाह है, उनका मुख्य जोर इस बात पर था कि मन्त्र की मूल आत्मा को और उसके रहस्य को समझा जाय । मैन्ने उन्हें कभी भी डायरी पर या पन्नों पर कुछ अङ्कित करते एक बार सुनकर ही मन्त्र पूरी तरह से याद रहता था और जिस प्रकार से उसके रहस्य को बताते थे उसी प्रकार से वे में संलग्न हो जाते थे । मैन्ने देखा कि वे प्रत्येक क्षण को पूर्ण तन्मयता के साथ जीते हैम् । उस क्षण का उपयोग करने की कला का उन्हें ज्ञान है ।

हुए नहीं देखा । उन्हें स्वामी प्रवृज्यानन्द जी उस मन्त्र की साधना

जितना और जो कुछ प्राप्त स्मरण है उन तीन महीनों में

मन्त्र साधना में लगे रहते

उस आश्रम में डा० श्रीमाली लगभग तीन महीने तक रहे । यद्यपि पहले वे मात्र दो महीने ही रहने के लिए आए थे, परन्तु स्वामी जी के आग्रह पर वे एक महीने और रुक गये और इन तीन महीनों मेम् उन्होन्ने किया वह अपने आप मेम् अन्यतम है। जहां तक मुझे उन्होन्ने एक भी क्षण व्यर्थ नहीं खोया था । प्रत्येक क्षण और गुरु मुंह से मन्त्र की मूल ध्वनि को समझ कर उसी ध्वनि को जीवन्त बनाने का उपक्रम करते । मैं देखता कि जब श्रीमाली जी उसी मूल रूप से उच्चारण करते तो स्वामी जी का चेहरा खिल उठता के दौरान उन्होन्ने कहा कि इस मूल ध्वनि को पकड़ना ही कठिन पर सरस्वती की विशेष कृपा है, जिससे कि यह पहली ही बार को आत्मसात कर पुनः दोहरा देता है ।

ध्वनि को वास्तविक

कई बार बातचीत है, परन्तु नारायण मेम् उस मूल ध्वनि

इन तीन महीनों में लगभग सभी प्रकार के मन्त्रों को उन्होन्ने सीखा और उनकी क्रिया पद्धति का ज्ञान प्राप्त किया। यही नहीम् अपितु क्रियात्मक रूप से भी उन्होन्ने उन मन्त्रों की साधना सम्पन्न कर उन्हें वास्तविक कसौटी पर कसकर अनुभव भी किया।

तीन महीने के बाद एक दिन प्रातः स्वामी जी ने कहा कि मेरे पास जो कुछ भी ज्ञान था वह मैं तुम्हें दे चुका हूं, मुझे अब निश्चिन्तता प्राप्त हो गई है, क्योङ्कि मेरे पास जो भी ज्ञान था वह मैं तुम्हें पूर्णता के साथ दे सका हूम् और इससे भी ज्यादा प्रसन्नता इस बात की है कि तुमने पूर्ण क्षमता के साथ उस ज्ञान को ग्रहण किया । अब मैं यदि मृत्यु को भी प्राप्त करता हूं तो मेरे मन में किसी प्रकार का विषाद या दुख नहीं रहेगा - और कहते-कहते स्वामी जी की आङ्खें भीग गयीम् ।

स्वामी जी ने कहा कि आज सोमवार है, गुरुवार को मैं तुम्हें मन्त्र दीक्षा दूङ्गा और उसी दिन चाहो तो तुम प्रस्थान कर सकते हो, क्योङ्कि आने वाला समय तुम्हेम् एक विशेष महिमा मण्डित व्यक्तित्व से मिलायेगा । एक ऐसा गुरु तुम्हें प्राप्त होगा जिसके दर्शन ही साधकों को दुर्लभ हैं, जो इस समय समस्त साधकोम् और महर्षियों के सिरमौर हैं, ऐसे स्वामी सच्चिदानन्द तुम्हें गुरु रूप में प्राप्त हो सकेङ्गे, जिनका

35

शिष्यत्व प्राप्त करना ही अपने आप में महत्त्वपूर्ण घटना होगी ।

गुरुवार के दिन श्रीमाली जी नित्य क्रिया से निवृत्त होकर पूर्ण समर्पण भाव से गुरु के चरणों में जाकर बैठ गए। गुरु ने उन्हें मन्त्र दीक्षा देने की तैयारी कर ली । यह दीक्षा इस बात की सूचक थी कि स्वामी जी ने अपना उत्तराधिकारी निश्चित कर लिया है, क्योङ्कि उनके ज्ञान की पूर्णता को इसी शिष्य ने प्राप्त किया है, एक प्रकार से यह व्यक्तित्व गुरु का ही अंशभूत बन गया है ।

साधना के क्षेत्र में दीक्षा का तात्पर्य यह है कि गुरु के पास जो कुछ था वह पूरी तरह से दिया जा चुका है और जिस प्रकार से ज्ञान दिया गया है उसी प्रकार से शिष्य ने ग्रहण भी कर लिया है, अतः गुरु इस बात के लिए निश्चिन्त हैं कि उनका ज्ञान शिष्य ने पूर्णता के साथ स्वीकार कर लिया है ।

मुझसे पहले ही स्वामी जी के पास कई शिष्य आये होङ्गे और मैं भी लगभग तीन वर्षों से उनके सान्निध्य में था, परन्तु दीक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे या मुझसे पूर्व आने वाले शिष्यों को प्राप्त नहीं हुआ था, क्योङ्कि इस प्रकार की दीक्षा गुरु अपने जीवन में केवल एक शिष्य को ही देता है और यह दीक्षा भी उसी शिष्य को दी जाती है जिसके प्रति गुरु निश्चिन्त होता है कि उसके पास जो भी और जितना भी ज्ञान था वह शिष्य ने प्राप्त कर लिया है और आने वाले समय में वह इस ज्ञान को आगे बढ़ाने में समर्थ हो सकेगा। यह दीक्षा इस बातकी सूचक होती है कि वह शिष्य उस गुरु का अंशभूत बन गया है और गुरु ने पूर्व मेम् अपने गुरु से जो विशेष अध्यात्म बल प्राप्त किया है उसी को आगे प्रवृहित कर लिया है । यह दीक्षा इस बात की भी सूचक होती है कि गुरु उस शिष्य के ज्ञान से और उसके व्यक्तित्व से पूर्णतः सन्तुष्ट है । मन्त्र के क्षेत्र में स्वामी प्रवृज्यानन्द जी का नाम आदर के साथ लिया जाता है और जो मन्त्र-मर्मज्ञ हैं या जो मन्त्र के अध्येता हैम् उनके लिए यह नाम अपरिचित नहीं है । एक प्रकार से देखा जाय तो मन्त्र का पर्याय ही स्वामी प्रवृज्यानन्द को माना

। जाता है । अत: उनके द्वारा किसी को दीक्षा दिया जाना एक युगान्तकारी घटना माना जाता है ।

कई शिष्यों ने इस प्रकार की आशा सञ्जोयी थी कि उन्हें गुरु के द्वारा दीक्षा प्राप्त हो सकेगी। यदि असत्य न कहूं तो मुझे भी यह आशा थी कि सम्भवत: मैम् इस महिमा से मण्डित हो सकूङ्गा और मैं स्वामी प्रवृज्यानन्द द्वारा दीक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूङ्गा, परन्तु यदि तुलना की दृष्टि से देखा जाय तो मैं बेहिचक यह स्वीकार करने के लिए तैयार हूं कि डा० श्रीमाली का व्यक्तित्व मुझसे महान था और वर्तमान में भी महान है । उन्होन्ने उन तीन महीनों में ही जो कुछ प्राप्त किय था वह मैं तीन वर्षों में भी प्राप्त नहीं कर सका था । मन्त्र के प्रति जो समर्पण भा उनके हृदय में है वह शब्दों से परे है, इसलिए वास्तव में ही वे स्वामी प्रवृज्यानन्द द्वारा दीक्षित होने के अधिकारी थे ।

1

प्रातः स्वामी जी स्नान आदि से निवृत्त होकर विशेष साधना के द्वारा उस

36

कुटिया में ही पूजन सामग्री प्राप्त की और साधना के द्वारा सूर्य मन्त्र से अग्नि प्रज्व- लित कर सूर्य विज्ञान की महत्ता को स्वीकार किया कि सूर्य की किरणों के माध्यम से किसी भी पदार्थ की रचना और प्राप्ति सम्भव है । उस स्थान पर स्वामी प्रवृज्यानन्द जी ने पूजन की समस्त सामग्री सूर्य किरणों से ही प्राप्त की थी ।

बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि डा० श्रीमाली सूर्य सिद्धान्त और सूर्य विज्ञान के अन्यतम अध्येता हैम् और इस प्रकार की साधना में वे सर्वोपरि हैं। उन्होन्ने सूर्य विज्ञान को विशेष आयाम दिये हैं जिसके माध्यम से किसी भी प्रकार की रचना या किसी भी प्रकार के पदार्थ परिवर्तन का ज्ञान उन्हें प्राप्त है ।

स्वामी जी ने विशेष मन्त्रों के द्वारा श्रीमाली जी को अभिसिञ्चित किया, मन्त्रों के द्वारा ही उन्होन्ने वरुण का आह्वान किया और स्नान कराया, कुवेर के द्वारा वस्त्र प्राप्त किये और इस प्रकार मन्त्रों के द्वारा ही सारी भौतिक सामग्री प्राप्त की ।

तत्पश्चात् चन्दन की लेखनी से अष्टगन्ध के द्वारा श्रीमालीजी की जीभ पर सरस्वती के मूल मन्त्र और उसके बीज मन्त्र को अङ्कित किया और मूल ध्वनि के साथ उसमें प्राण स्पन्दित किये। यह कार्य मेरे लिए सर्वथा नवीन था, परन्तु बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि इस प्रकार से सरस्वती को स्थायी रूप से गले में स्थायित्व दे दिया जाता है जिससे प्रत्येक मन्त्र कण्ठस्थ रहता है और उन्हें विशेष वाक्सिद्धि प्राप्त हो

जाती है ।

निश्चय ही डा० श्रीमाली जी सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें विश्ववन्द्य स्वामी प्रवृज्यानन्द जी से मन्त्र दीक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।

है,

यह एक विशेष साधना है जिसे गुरु जीवन में मात्र एक शिष्य को ही दे सकता इससे गुरु के समस्त ज्ञान को वह स्वतः ही प्राप्त कर लेता है, साथ ही साथ उसे एक विशेष सिद्धि प्राप्त हो जाती है जिससे वह धारा प्रवाह रूप से घण्टों किसी भी विषय पर बोल सकता है। वह जो भी पढ़ता है उसे स्वतः ही कण्ठस्थ हो जाता है और एक बार जो कण्ठस्थ हो जाता है वह अमिट बन जाता है । उसके गले में सरस्वती विराजमान होती है, फलस्वरूप उसे विशेष वाक्सिद्धि प्राप्त होती है जिसके बल पर

वह

जो कुछ भी कहता है वह भविष्य में सत्य बन जाता है ।

दीक्षा की समाप्ति अत्यन्त भाव-विह्वल थी । दीक्षा प्राप्त करने के बाद डा० श्रीमाली जी ने अपने पूर्ण शरीर को समर्पित भाव से गुरु चरणों मेम् अर्पित कर दिया । उनकी आङ्खों से अश्रु प्रवाहित थे । उन्होन्ने कहा आप गुरु हैं, महान हैम् और मैम् आपके सामने अत्यन्त ही तुच्छ पद रज हूं, परन्तु आपने मुझे जो ज्ञान और महत्ता दी है उसके उपलक्ष में मैं कुछ भी देने में समर्थ नहीं हूं। मेरे पास तो केवल मात्र यह शरीर है, अतः दसोम् इन्द्रियों के साथ मैम् अपने शरीर को ही समर्पित करता हूम् ।

स्वामी जी ने आनन्द के अश्रुओं के साथ अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया । हिचकियों के साथ उन्होने कहा कि आज मैम् अपने आपको धन्य मानता हूं कि तुम्हारे जैसा योग्य शिष्य मुझे प्राप्त हो सका है, जिसे मैम् अपना पूर्ण ज्ञान दे सका हूम् ।

37

आज मैम् अपने आप को अत्यन्त हल्का अनुभव करने लगता हूम् । मेरा आशीर्वाद प्रत्येक क्षण तुम्हारे साथ रहेगा। मैन्ने तुम्हें जो भी मन्त्र साधना दी है उसे आगे की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित बनाने का प्रयत्न करना, जिससे कि यह विद्या समाप्त न हो जाय । यही गुरु दक्षिणा है और यही याचना है, यदि तुम ऐसा कर सकोगे तो मैम् अपने आपको सौभाग्यशाली समझूङ्गा ।

सारा वातावरण एक विशेष आनन्दमिश्रित विषाद से आप्लावित था। मेरे लिए यह अप्रतिम दृश्य था, गुरु के लिए आनन्द का क्षण था और शिष्य के लिए यह विशेष अनुभूति थी ।

वहां से जब डा० श्रीमाली विदा हुए तो पूरा वातावरण आंसुओं से तर था, मैन्ने पूर्व में ही गुरु जी से अनुमति ले ली थी कि मैं भी अब बिदा लेना चाहता हूं क्योङ्कि मेरा विचार अब यहां से ऊब गया था। मैं चाहता था कि कुछ समय श्रीमाली जी के साथ में रहूम् और यदि उनसे ज्ञान न भी मिल सके तब भी उनके कार्यों से प्रेरणा लू ।

मैन्ने गुरु जी से अनुमति लेकर श्रीमाली जी से भी निवेदन किया था कि मैं कुछ समय उनके साथ रहना चाहता हूं, तो उन्होन्ने कहा था मेरा जीवन निश्चित जीवन नहीं है, इसलिए मैं नहीं कह सकता कि मेरा अगला पड़ाव कहां होगा और बहू स्थान कितना सुरक्षित है, या वहां पर क्या कुछ उपलब्ध हो सकेगा ? इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी यदि तुम मेरे साथ चलने को उत्सुक ही हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु चलने से पूर्व गुरु जी से प्रसन्नता के साथ अनुमति ले ली है तो उन्होन्ने साथ चलने की स्वीकृति दे दी ।

गुरु जी के यहां से विदा होने के बाद लगभग चार महीने मैं श्रीमाली जी क साथ रहा, परन्तु इन चार महीनों में मैन्ने जो कुछ देखा वह अपने आप मेम् आश्चर्य- जनक होते हुए भी अविश्वसनीय है, परन्तु मैम् इन सारी घटनाओं का साक्षी हूम् और जब मैन्ने साधु जीवन स्वीकार कर ही लिया है तो मुझे झूठ बोलने की आदत नहीं है । समाज की मैं परवाह नहीं करता, ऐसी स्थिति मेम् ऊञ्चे-से-ऊञ्चे व्यक्तित्व की आलोचना करने से भी मैं नहीं घबराता । जो भी बात देखता हूं वही बात कहता हूं, और इस प्रकार की बात अधिकतर कटु सत्य होने के कारण कड़वी होती है, इसलिए साधु समाज मुझसे डरा-डरा सा रहता है, परन्तु मैन्ने अपने जीवन में कभी भी हिच- किचाहट महसूस नहीं की, कभी भी सही बात कहने से विचलित नहीं हुआ, और मुंह पर कठोर से कठोर बात कहने में भी परवाह नहीं की, फिर भले ही मेरे सामने चाहे गुरु भी क्यों न हो यदि उनमें भी छिद्र देखता हूं तो उनके मुंह के सामने ही सही बात कह देता हूं फिर भले ही परिणाम कुछ भी हो ।

भृकुण्डी आश्रम से विदा होकर हम दोनों बद्रीनाथ आये और यहां पर बिरला धर्मशाला में विश्राम किया। यहां पर लगभग एक सप्ताह तक हम रहे । वहां पर रहने का मुख्य उद्देश्य भगवान बद्रीनाथ के दर्शन करना था, और गङ्गा के मूल स्रोत मेम् अव-

38

गाहन करके मन मस्तिष्क और देह को निर्मल करना था । यहां पर भी श्रीमाली जी अपने ही ध्यान पूजन, साधना आदि में लगे रहते, उनका अधिकांश समय या तो गङ्गा तट पर व्यतीत होता या बद्रीनाथ के भव्य विग्रह के सामने विगलित कण्ठ से प्रार्थना में व्यतीत होता ।

एक सप्ताह के बाद जब यहां से मन ऊब गया तो श्रीमाली जी ने कहा, अब आगे का जीवन ज्यादा कठिन है । यदि तुम कठिन जीवन जीने के अभ्यस्त नहीं हो तो अभी से साथ छोड़ देना उचित रहेगा ।

जो

मैन्ने कहा, मैम् इतना कमजोर नहीं हूम् और यदि कहीं से कमजोर बनूँगा भी तो आपका सम्बल साथ में होने के कारण मुझे किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं रहेगी ।

बद्रीनाथ से नीचे की तरफ उतर कर हमने केदारनाथ का रास्ता चुना, कि पगडण्डी से है, सीधी सड़क घूमकर जाती है, अतः उससे पैदल जाने में काफी लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है, परन्तु वहां से एक छोटा और सुगम रास्ता भी है जो कि पहाड़ को पार करके जाता है, अतः कम चलना पड़ता है, परन्तु यह रास्ता प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है, क्योङ्कि इस रास्ते की चढ़ाई सीधी और दुर्गम है तथा पग-पग पर खतरों को पार करना पड़ता है।

मैन्ने जब पूछा कि कुछ समय ज्यादा ही लगता यदि सीधा रास्ता लें तो उचित नहीं रहेगा ? इस पर श्रीमाली जी ने जवाब दिया कि सीधे रास्ते पर तो प्रत्येक चल सकता है परन्तु यदि साधना पथ पर कुछ करना है तो उसके लिए शरीर को तैयार भी रखना पड़ेगा, शरीर को जितनी ही ज्यादा सुविधायें देङ्गे उस पर से नियन्त्रण उतना ही हटता जायगा ।

इसलिए साधक को चाहिए कि वह हमेशा चुनौतीपूर्ण रास्तों को ही स्वीकार करे और कठिन से कठिन जीवन जीने का अभ्यस्त बने । इससे शरीर में लोच बनी रहेगी और वह पूरी तरह से हमारे नियन्त्रण में रहेगा। साथ-ही-साथ इस प्रकार के

रास्ते से प्रकृति के जो निर्मल दृश्य देखने को मिलते हैं वे अपने आप मेम् अदभुत होते. हैम् इस प्रकार की प्रकृति के साथ जीवन जीना अपने आप में जीवन का सही उपयोग करना है ।

यह रास्ता पगडण्डी से है और इस रास्ते का उपयोग अधिकतर वहां के स्था- नीय निवासी ही करते हैं, परन्तु उनमें से भी शायद ही किसी ने इस पूरे रास्ते का उपयोग किया हो। वे एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए ही इस प्रकार की पगडण्डी का उपयोग करते हैं, जबकि हमने बद्रीनाथ से केदारनाथ जाने के पूरे रास्ते को इस पगडण्डी के द्वारा नापने का निर्णय लिया था ।

मार्ग में प्रकृति के अदभुत और आश्चर्यजनक दश्य से ऐसा लगता था जैसे प्रकृति हमारे चारोम् ओर बिखरी हुई हो और प्रत्येक क्षण हमसे बातचीत करने के लिए लालायित हो । ढेरों पहाड़ी पुष्प पगडण्डी के दोनों तरफ खिले हुए थे । इस प्रकार के पुष्प पहली बार मैम् अपने जीवन में देख रहा था । चलते-चलते जब भी मैं थक जाता39

तो मेरी चाल अपने आप कह देती और इस तथ्य को अनुभव करके श्रीमाली जी स्वयं किसी हरे भरे मैदान को देखकर उस पर लेट जाते और कुछ ही क्षणों में प्रकृति की गोद में लेटने से सारी थकावट दूर हो जाती और हम पुनः आगे चलने के लिए तैयार हो जाते ।

जहां पर भी साञ्झ होती, वहीं रुक जाते और आसपास जो भी गांव होता उस गांव में विश्राम कर लेते। मैन्ने उस समय भी यह अनुभव किया था कि श्रीमाली जी को सम्भवत: भूख-प्यास की चिन्ता कम ही रहती है, परन्तु फिर भी मेरी इच्छा को ध्यान में रखते हुए कहीं से आटे की व्यवस्था कर अपने हाथों से भोजन पकाने का उपक्रम करते और इस बात का पूरा ध्यान रखते कि कहीं मैं भूखा न रह जाऊं या मुझे किसी प्रकार का कष्ट न हो ।

कई बार मैं सोचता कि मेरे साथ रहने से श्रीमाली जी को बन्धन ही हो गया है, पहले उनको अपनी स्वयं की ही चिन्ता थी, परन्तु अब उन्हेम् अपने साथ मेरी भी चिन्ता करनी पड़ती है । मैन्ने यह भी अनुभव किया कि उन्हेम् अपने लिए कम-से कम चिन्ता है। दिन भर चलने के बावजूद भी उनके शरीर पर या चेहरे पर थकावट के कोई भी चिह्न नहीं रहते, जबकि मैं थककर पस्त हो जाता । सीधे मैदान की यात्रा इतनी कठिन नहीं होती, उसमें तो सीधे चलना ही पड़ता है, परन्तु पहाड़ की यह बढ़ाई कमर को दोहरी कर लेती और सांस धौङ्कनी की तरह चलने लगती । ऐसा लगता जैसे पैरों में मन-मन के पत्थर बान्ध दिये हों, सारा शरीर पसीने से चिपचिपा उठता, परन्तु जब मैम् आगे नजर दौड़ाता तो श्रीमाली जी उसी मस्ती मेम् आगे चलते दिखाई देते । मैं विशेष प्रयत्न कर दौड़कर उनके साथ होता तो देखता कि उनके चेहरे पर एक विशेष प्रकार का ओज है और होठों पर किसी संस्कृत कवि के पद्य की कड़ी गुनगुना रही है ।

मैन्ने एक-दो बार पूछा कि दादा ! आपको चलने में कष्ट नहीं होता तो उन्होन्ने कहा कि मन को नियन्त्रण करने के बाद इस प्रकार की समस्या सामने नहीम् आती। यह भी अपने आप मेम् एक विशेष साधना है और जब वह साधना सम्पन्न हो जाएगी तो भूख-प्यास थकावट आदि की चिन्ता नहीं

पौधे

रहेगी ।

1STSP

मार्ग में सैकड़ों प्रकार की वनस्पतियां पगडण्डी के दोनोम् ओर दिखाई देते थे, जिसमें प्रत्येक पौधा दूसरे से भिन्न था। मुझे यह जानकर आश्चर्य हो रहा था कि श्रीमालीजी को अधिकांश पौधों का ज्ञान था और वे रुककर उस पौधे के बारे में मुझे बताते । यह जानकारी देते कि इस पौधे का क्या नाम है, संस्कृत मेम् इस प्रकार के पौधे को क्या कहते हैम् और मानव जीवन मेम् इसका क्या उपयोग है ? प्रत्येक पौधा अपनी एक विशिष्टता लिए हुए था । प्रकृति के प्रत्येक पौधे का निर्माण मानव-जीवन को सुखमय बनाने के लिए तथा उसे निरोग रखने के लिए किया है, आवश्यकता इस बात की है कि हम उस पौधे के गुण-धर्म से परिचित होम् और उसका लाभ उठा सकेम् । मुझे सैकड़ों प्रकार के पौधों से परिचय उन्हीं दिनों हआ और आज जब मैं

40

साधु समाज में तथा सामाजिक जीवन में प्रसिद्ध चिकित्सक के रूप में जाना जाता हूं तो इसका प्रारम्भ उन्हीं दिनों हुआ था ।

आज भी मेरी चिकित्सा का आधार ये ही पौधे हैं, क्योङ्कि मैन्ने उस समय भी अपनी डायरी मेम् उन पौधों के नमूने एकत्र कर लिए थे और जब रात को विश्राम करते तो मैं प्रत्येक पौधे के बारे में फिर से जानकारी प्राप्त करता । किस प्रकार की बीमारी में किस पौधे का किस प्रकार से उपयोग होता है, इसकी जानकारी प्राप्त कर डायरी में नोट कर लेता ।

सम्भव है ।

वास्तव में प्रकृति महान् है आज इस सभ्यता तक पहुञ्चने के बाद भी मानव पूर्णतः प्रकृति से अनभिज्ञ है, इसी वजह से मानव परेशान, दुखी और बीमार है, जिस दिन मानव को प्रकृति के इस गुण का पूरी तरह से पता चल जायेगा, उस दिन बीमारी इस संसार से समाप्त हो जायेगी, क्योकि प्रत्येक प्रकार की बीमारी की चिकित्सा इन जड़ी-बूटियों के माध्यम से

अब भी मैं साल में तीन महीने इन्हीं पहाड़ों में चक्कर लगाता हूम् और इस प्रकार के पौधों के बीज और पत्तों को एकत्र कर ले जाता हूं तथा उनसे औषधि निर्माण करके बाण्टता हूं। मैन्ने जिस बीमारी की भी चिकित्सा की है उसमें पूरी तरह से सफल हुआ हूम् और इसका पूरा श्रेय श्रीमाली जी को ही है, क्योङ्कि उन्हीं की वजह से मैम् उन पौधों से परिचित हो सका था और उनके उपयोग की जानकारी प्राप्त कर

सका था ।

बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच लगभग आधा रास्ता पार करने के बाद एक जलाशय दिखाई देता है, इसे इन्द्र सरोवर कहते हैं। वहां की भाषा मेम् इसे ‘इन्दस’ कहते हैम् । सम्भवतः यह शब्द इन्द्र सरोवर का अपभ्रंश है, जहां तक मेरी जानकारी है, इस प्रकार के जलाशय की बहुत ही कम लोगों को जानकारी है । इस सरोवर से लगभग एक किलो मीटर दूर ‘धुन्धुआ’ ग्राम है, जिसमें मुश्किल से दस- बारह घर हैम् । यहां के लोग अत्यन्त सीधे-सादे निष्कपट और सरल प्रकृति के हैं तथा वे इस जलाशय को देवता की तरह मानतें हैम् ।

पहाड़ों के बीच इतने बड़े जलाशय की कल्पना ही आश्चर्यजनक है । यह जलाशय लगभग एक किलोमीटर लम्बा तथा आधा किलोमीटर चौड़ा है । इसका पानी स्वच्छ दर्पण की तरह चमकता है, जिसमेम् अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देता है ।

जलाशय के चारों तरफ अत्यन्त घना जङ्गल है जिसमें जङ्गली भालू अधिक- तर दिखाई देते हैं, ये भालू पहाड़ों में काफी ऊञ्चाई पर पाये जाते हैम् और बहुत क्रोधी चालाक और खूङ्ख्वार होते हैं, इसके अतिरिक्त यह घना जङ्गल देखते ही आनन्द मिश्रित भय का सञ्चार करता है, क्योङ्कि कहीं-कहीं पर तो सूर्य की किरणें भी पृथ्वी का स्पर्श नहीं कर पातीम् ।

कुछ समय तक जलाशय के किनारे विश्राम किया और जलाशय के स्वच्छ

41

जल में स्नान कर अपने आपको तरो-ताजा अनुभव किया । जब मैं स्नान कर बाहर निकला तो कुछ ही दूरी पर मुझे दो

ही दूरी पर मुझे दो भालू जीभ लपलपाते हुए दिखाई दिये । मैन्ने भालुओं को इतने निकट से पहली बार देखा था, अतः मन्त्र जप करना भूल गया और श्रीमाली जी की तरफ ताका, वे भी स्नान कर बाहर आ रहे थे । उन्होन्ने कहा इसमें भय की कोई बात नहीं है। यदि तुम्हारे मन में भय का सञ्चार नहीं होगा या इन्हें भगा देने या मार देने का विचार नहीम् आयेगा तो ये भालु या जङ्गली पशु तुम्हारा कुछ भी अहित नहीं करेङ्गे, जिस प्रकार से ये आये हैम् उसी प्रकार से वापस चले जायेङ्गे ।

हमारा भय ही हमें समाप्त करता है। जब किसी जङ्गली पशु को देखते हैं तो पहली बार भय का सञ्चार होता है और दूसरे ही क्षण हम उस पशु को मारने या समाप्त करने की बात सोचते हैं, यही विचार सामने आने वाले पशु करता है और जब इस विचार का आघात पशु के मस्तिष्क में होता है

पुनः

अपनी रक्षा के लिए आक्रमण का निर्णय कर लेता है और आक्रमण की तैयारी में जुट जाता है ।

पर आघात

तो वह भी

यदि पशु को देखने के बाद हमारे मन में किसी प्रकार का भय या आक्रमण की भावना नहीम् आती तो ऐसी विचार तरङ्ग बनती ही नहीं, जो कि पशु के मन या मस्तिष्क को आन्दोलित कर उसके मन में भी आक्रमण की भावना भर दे ।

इस प्रकार मानव यदि पशु के द्वारा मारा जाता है तो उससे पूर्व वह स्वयम् अपने भय से या जरूरत से ज्यादा बुद्धि उपयोग करने के कारण मारा जाता है ।

मैन्ने अपने मन को शान्त किया। अपने मन-मस्तिष्क से इस विचार को ही निकाल दिया कि सामने वाले पशु मेरा संहार कर सकते हैं। कुछ समय बाद भालू वहां से मुड़कर पुनः जङ्गल में खो गये ।

दो घण्टे सन्ध्या वन्दन आदि से निवृत्त होकर जब मैन्ने चलने का उपक्रम किया तो श्रीमाली जी ने कहा कि कुछ समय इसी जलाशय के तट पर रहकर साधना के कुछ चरण यहीं पर सम्पन्न करेङ्गे, अतः कुछ दिन अगर तुम साथ रहना चाहो तो यहीं रहना होगा ।

मैन्ने उन्हें याद दिलाया कि आपने तो केदारनाथ तक चलने का निश्चय किया था, फिर एकाएक यहीं पर रुकने का निश्चय कैसे हो गया ? तो उन्होन्ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, इतना ही कहा कि लगभग पन्द्रह-बीस दिन यहां रहना है और यही वह स्थान है जहां कुछ साधनाएं सही तरीके से सम्पन्न हो सकती हैम् ।

मैं

कुछ भी समझ नहीं पा रहा था, मैं सोच रहा था । इस स्थान को ही क्यों चुना गया है। इस स्थान के चारों तरफ खतरे ही खतरे हैं। पिछले गांव में यह सुनने को मिला था कि इस जङ्गल में जरूरत से ज्यादा पहाड़ी अजगर और सर्प रहते हैं जोकि अत्यन्त विषैले होते हैं तथा कुछ सर्प तो सोते हुए मनुष्य की छाती पर बैठ कर उसकी सांस को पी लेते हैम् अर्थात् अपना मुंह मनुष्य के नथनों से सटा लेते हैं

42

जिससे मनुष्य सांस नहीं ले पाता और कुछ ही क्षणों में घुटकर मर जाता है । मैन्ने यह भी सुना था कि ये अजगर विशाल होते हैम् और एक ही बार में मानव की हड्डियों को चरमरा देते हैम् ।

एक प्रकार से चारों तरफ असुरक्षा ही थी, फिर ऐसे स्थान पर रहने का क्या प्रयोजन था, परन्तु साधक की गति साधक ही जान सकता है, मेरे बस की बात नहीं थी । मैं श्रीमाली जी का साथ भी छोड़ना नहीं चाहता था, अतः अनमने भाव से ही सही, मैन्ने उनके साथ ही रहने का निश्चय कर लिया ।

मैन्ने एक-आध बार दबी जबान से इन खतरों के प्रति बात भी की, परन्तु सुनकर भी उन्होन्ने अनुसुना कर दिया ।

सन्ध्या पूजन आदि करते-करते शाम के लगभग चार बज गए थे। मुझे जोरों से भूख लग आई थी । मेरे चेहरे से उन्होन्ने इस बात की जानकारी ले ली कि मैं यहां पर अनमने भाव से ही ठहरा हूम् और भूख भी लग आई है । वे कुछ दूर जाकर एक पौधे की कुछ पत्तियां ले आये । इस पौधे को वहां की स्थानीय भाषा में ‘हुन्दुस’ कहते हैं। इसकी पत्तियां पतली और चार डङ्गल लम्बी होती हैं तथा इसके किनारे कटे हुए होते हैम् ।

मुझे आठ-दस पत्तियां देते हुए उन्होन्ने कहा कि इन पत्तियों को धीरे-धीरे चबा लो, तुम्हारी भूख-प्यास शान्त हो जाएगी और एक बार आठ-दस पत्तियां चबाने से लगभग एक सप्ताह तक भूख प्यास शौच आदि की शङ्का नहीं रहेगी ।

मैन्ने उन पत्तियों के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की तो उन्होन्ने बताया कि इस पौधे के कई उपयोग हैं, परन्तु पहाड़ में साधना करने वाले साधकों को प्रकृति की तरफ से यह विशेष वरदान है, क्योङ्कि पौधा पहाड़ों पर प्रचुरता से प्राप्त हो जाता है और इस पौधे में विशेषकर इसकी पत्तियों में यह विशेष गुण होता है कि एक बार आठ-दस पत्तियां चबा लेने पर लगभग एक सप्ताह तक भूख नहीं लगती, साथ-ही- साथ न प्यास की शङ्का होती है। इस प्रकार एक सप्ताह तक साधक एक ही आसन पर बैठकर भली प्रकार से साधना कर सकता है, क्योङ्कि इस अवधि मेम् उसे किसी प्रकार की भूख-प्यास आदि की चिन्ता नहीं रहती ।

उन्होन्ने बताया कि यह गुण हरी पत्तियों में ही सम्भव है । यदि इन पत्तियों को सुखाकर उपयोग किया जाए तो इस प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं होता ।

मैन्ने उस पौधे को भली प्रकार से पहिचाना। बातचीत में मुझे ज्ञात हुआ कि इस पौधे की जड़-तना, पत्तियां-पुष्प आदि सभी का उपयोग है और इस पौधे को यदि सर्वश्रेष्ठ पौधा कहा जाय तो विशेष अत्युक्ति नहीं होगी ।

रात्रि को मैन्ने धुन्धुआ ग्राम में जाकर विश्राम करने का प्रस्ताव रखा तो श्रीमाली जी ने स्वीकार कर लिया। रात्रि को गांव मेम् एक सज्जन व्यक्ति के घर विश्राम किया, प्रातः पुनः जलाशय के तट पर आ गए।

प्रातःकालीन स्नान सन्ध्या आदि से निवृत्त होकर श्रीमाली जी मन्त्र प्रयोग

43

के लिए तैयार हो गए। उन्होन्ने जलाशय के तट पर पत्थरों से एक वेदिका बनाई और उस पर आसन लगाकर बैठ गए। उन्होन्ने मुझे भी अपने पास बैठने के लिए कहा और सावधान किया कि जब तक मैं न कहूं तुम्हेम् इस आसन से सरकना नहीं है ।

मैम् आश्चर्यचकित सा पास में बैठ गया। मैं देखना चाहता था कि क्या होने वाला है ? यहां पर कौन-सा विशेष प्रयोग किया जा रहा है और यदि विशेष प्रयोग है तो इसी स्थान का चुनाव क्यों किया गया है ?

श्रीमाली जी ने कुछ समय तक मन्त्रोच्चारण घण्टा व्यतीत हो गया, दोपहर के लगभग दो बजे वे भी अपने स्थान से उठकर जाने के लिए कहा ।

किया । इस प्रकार लगभग एक अपने आसन से उठे और मुझे

हम दोनों पास ही एक पेड़ की छाया में जाकर बैठ गए। श्रीमालीजी ने कहा कि मुझे सङ्केत मिला है कि यहीं पर कुछ विशेष साधना सम्पन्न होगी और इस स्थान का चुनाव भी अज्ञात सङ्केत ने ही दिया है। हो सकता है, आने वाले समय में तुम्हें कुछ अप्रत्याशित देखने को मिले । यदि तुम भयभीत न हो तो यहां रुक सकते हो अन्यथा तुम्हें धुन्धुआ ग्राम में जाकर कुछ दिन रहना चाहिए। मैम् आज की रात्रि और आगे के दिनों मेम् इसी जलाशय के तट पर विश्राम करूङ्गा और रात्रि को भी यहीं पर

रहूङ्गा ।

मैन्ने श्रीमालीजी के साथ ही रहने का निश्चय कर लिया। यद्यपि मेरा मन कई प्रकार की आशङ्काओं से भरा हुआ था, परन्तु मैं घबराकर भागने वाला व्यक्ति नहीं था । मैम् उन क्रियाओं को देखना चाहता था जो कि श्रीमाली जी के कथनानुसार उनके द्वारा सम्पादित होने वाली थीं। मैं देखना चाहता था कि किस प्रकार के मन्त्र होते हैं, और उन मन्त्रों के द्वारा किस प्रकार से सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैम् ।

मेरी जिज्ञासा पर श्रीमाली जी ने बताया कि कई प्रकार के मन्त्र होते हैं जिनमें वेदोक्त मन्त्र, सर्वविदित हैम् । इनके द्वारा भी अभीष्ट सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, वर्षा कराना, अग्नि प्रज्वलित करना और अन्य सैकड़ों प्रकार के कार्य वेदोक्त मन्त्रों से भी सम्भव हैं, परन्तु उनमें ध्वनि का विशेष महत्त्व है, और जब तक उन वेदोक्त मन्त्रों की ध्वनि का विशेष ज्ञान नहीं होता तब तक वे मन्त्र निरर्थक होते हैम् ।

मैन्ने पिछले तीन वर्षों में स्वामी प्रवृज्यानन्द जी के आश्रम में का भी अध्ययन किया था और उनका जोर भी इस बात पर था कि ही साथ उसकी ध्वनि पर विशेष ध्यान देना चाहिए, तभी उन मन्त्रों से पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। मैन्ने वहां रहकर ध्वनि विज्ञान पर भी अम्यास किया था, अतः मैन्ने अपनी बात को उनके सामने रखा और बताया कि मैन्ने किस प्रकार से उन मन्त्रों के ध्वनि ज्ञान का अभ्यास किया है।

वेदोक्त मन्त्रों

मन्त्रों के साथ-

श्रीमाली जी ने बातचीत में बताया कि वेदोक्त मन्त्रों के अलावा सैकड़ों प्रकार के अन्य मन्त्र भी होते हैं, जिनमें साबर मन्त्र विशेष उल्लेखनीय है। कलयुग मेम् इन मन्त्रों का प्रभाव तुरन्त, निश्चित और पूर्ण रूप से होता है। इन मन्त्रों में तन्त्र और मन्त्र

44

का परस्पर संयोजन होता है जिससे इन मन्त्रों में विशेष प्रभाव आ जाता है साबर मन्त्रों के द्वारा सभी प्रकार के कार्य भली प्रकार से सम्पन्न किए जा सकते हैं, क्योङ्कि इन मन्त्रों मेम् एक विशेष प्रभाव होता है और उस प्रभाव के फलस्वरूप ही कार्य में तुरन्त सफलता प्राप्त होती है । इन मन्त्रों की भाषा में फारसी तथा संस्कृत शब्दों का समायोजन होता है । इस प्रकार से इन दोनों पद्धतियों के सम्मिश्रण से इन मन्त्रों का निर्माण हुआ है । परन्तु इस प्रकार के मन्त्र सिद्ध करने में विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है, क्योङ्कि इन मन्त्रों पर फारसी प्रभाव और मुसलमानी प्रभाव विशेष रूप से है । इन मन्त्रों को सिद्ध करते समय माध्यम की भी आवश्यकता होती है, और साधक के साथ-ही-साथ योगिनी या साधिका की आवश्यकता भी अनुभव की जाती है ।

कई मन्त्र तो ऐसे हैं जिनमें साधिका का उपस्थित होना अत्यन्त आवश्यक है क्योङ्कि बिना उसके मन्त्र सिद्धि में सफलता सन्दिग्ध मानी जाती है ।

इस प्रकार के माध्यम को योगिनी कहा जाता है और इसके लिए विशेष प्रकार से चयन होता है, अलग-अलग मन्त्रों के लिए अलग-अलग प्रकार की योगिनियों का उल्लेख है, परन्तु इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि योगिनियां मन्त्र पूत होम् और उनमें विशेष जीवट शक्ति हो ।

साधक और योगिनी का सम्बन्ध गुरु शिष्य का सम्बन्ध होता है । एक बार चर्चा के दौरान श्रीमाली जी ने बताया था कि इन योगिनियों के चयन में जहां सावधानी बरतनी पड़ती है, वहां साथ-ही-साथ संयम का भी विशेष महत्त्व होता है । यदि साधक किसी भी क्षण संयम से हट जाता है या कामातुर हो जाता है तो उसकी साधना खण्डित हो जाती है और उस प्रभाव को स्वयं ही झेलना पड़ता है, फलस्वरूप कई बार इससे साधक की मृत्यु भी हो जाती है ।

योगिनी का चयन पन्द्रह वर्ष की अवस्था से अट्ठाइस वर्ष की अवस्था के बीच होता है। कुछ साधनाओं मेम् अक्षत यौवना साधिका या योगिनी का सहारा लिया जाता है और कुछ साधनाओं मेम् इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता ।

साबर मन्त्र अपने आप में सरल हैं। इनका उच्चारण सुगम है परन्तु इनमें से कई मन्त्र श्मशान में सिद्ध करने के जबकि श्मशान में ही सिद्ध किये जायें।

को आवश्यकता अनुभव की जाती है

लिए होते हैम् और वे तभी सफलता देते हैं कुछ मन्त्रों को सिद्ध करने के लिए मृत देह

कुछ मन्त्रों की सिद्धि में योगिनी का सहारा

लिया जाता है और अधिकांश मन्त्र अरण्य में सिद्ध किये जाते हैम् ।

तीन बजे श्रीमाली जी पुनः उसी आसन पर जाकर बैठ गये और मुझे भी अपने पास बिठा लिया। उनका ध्येय पिछले कुछ समय में जो साबर मन्त्र सीखे थे उनका प्रयोग करना था और यह देखना था कि उनमें कितनी सफलता प्राप्त की जा सकती है ?

लगभग पाञ्च बजे अकस्मात् कहीं से साधु प्रकट हुआ । उसे साधु न कहकर

45

अघोरी कहा जाय तो ज्यादा उपयुक्त रहेगा। लम्बा चौड़ा शरीर, सिर पर लम्बी और उलझी हुई जटाएं, बड़े-बड़े नेत्र, हाथोम् और पांवों के नाखून बढ़ े हुए, पूरे शरीर पर किसी प्रकार का कोई वस्त्र नहीं था, आङ्खों मेम् एक विशेष चमक दिखाई देती थी, जो कि नरभक्षी पिशाचों या व्याघ्र में ही देखी जा सकती है ।

श्रीमाली जी अपने आसन पर उसी

प्रकार बैठे रहे । वह अघोरी झूमता-सा आकर श्रीमाली जी के सामने बैठ गया ऐसा लग रहा था जैसे उसे विवशता के साथ बुलाया गया हो । उसके चेहरे से और हाव-भाव से कठोरता प्रकट हो रही थी । श्रीमाली जी आङ्खें बन्द किये बराबर मन्त्र जप में संलग्न थे । मैम् अन्दर-ही- अन्दर थोड़ा भयभीत भी हो गया था कि न मालूम यह जङ्गली राक्षस कौन है ? मैन्ने यह भी सुना था कि इधर के पहाड़ों में कुछ आदिम जातियाम् इस प्रकार की भी हैं जो सर्वथा नग्न रहती हैम् और नरभक्षी हैं, अकेले-दुकेले मनुष्य या स्त्री को देखकर ये उस पर झपट पड़ते हैम् और मार कर खा जाते हैम् ।

मैं चिन्तित इस बात के लिए था कि कहीं यह नरभक्षी न हो और यदि इसने आक्रमण कर दिया तो हम दोनों मिलकर भी इसका सामना नहीं कर सकेङ्गे ।

मैं बराबर उस पर नजर जमाये हुए था। यदि श्रीमाली जी ने मुझे हर हालत में बैठे रहने की आज्ञा न दी होती तो मैं निश्चय ही वहां से भाग खड़ा होता, परन्तु मैम् उनकी आज्ञा से बन्धा हुआ था, अतः मैम् उसी प्रकार आसन पर बैठा रहा ।

शाम के लगभग आठ बज गये । आकाश में चन्द्रमा निकल आया था । उस दिन सम्भवतः पूर्णिमा थी, अतः पृथ्वी पर पूरा प्रकाश बिखरा हुआ था । तारों की रोशनी से एक विशेष प्रकार का माहौल बन गया था । अभी तक श्रीमाली जी अपने आसन पर डटे हुए थे और सामने वह नरभक्षी भी बैठा हुआ था। थोड़े-थोड़े समय बाद वह जीभ बाहर निकाल कर लपलपाता, तब उसकी आङ्खों मेम् एक विशेष चमक सी पैदा हो जाती । ऐसा लग रहा था जैसे सामने दो-दो शिकारों को देखकर उसके हृदय में विशेष प्रसन्नता व्याप्त हो रही हो ।

लगभग आठ बजे श्रीमाली जी ने आङ्ख खोलीम् और जब उस अघोरी को सामने बैठे हुए देखा तो उनके चेहरे पर हास्य की क्षीण रेखा उभर आई । चन्द्रमा के उस प्रकाश में भी मैं श्रीमाली जी के चेहरे की प्रत्येक रेखा भली प्रकार से देख रहा था ।

कि

कुछ मिनटों का मौन रहा, तब उस अघोरी ने बांस के फटे स्वर से

पूछा मुझे यहां पर क्यों बुलाया गया है ? मैं भूखा हूम् और मैम् अपनी भूख अभी तुरन्त शान्त करना चाहता हूम् ।

फिर मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा कि इसको पहले कभी नहीं देखा । मैं सोचता हूं कि क्षुधा शान्त करने के लिए यह उपयुक्त है ।

उसकी बात सुनकर मैम् अन्दर से काम्प उठा । मेरा रोम रोम खड़ा हो गया ।

46

ऐसा लगा कि अब शिकारी झपटने ही वाला है । मैं तुरन्त अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और स्वतः ही मेरे पांव दो कदम पीछे हट गये ।

मुझे भयभीत देखकर वह अघोरी जोरों से खिलखिला पड़ा । मानो कह रहा हो कि इस प्रकार उठने और पीछे हटने से कुछ भी नहीं होगा । मुझे भूख शान्त करनी ही है, परन्तु जब मैन्ने उसकी हंसी में श्रीमाली जी की हंसी को भी सम्मिलित देखा तो मैम् आश्चर्य के साथ रुक गया ।

श्रीमाली जी ने सङ्केत से पुनः मुझे अपने पास बुलाया और परिचय करवाया । परिचय के दौरान ज्ञात हुआ कि श्रीमाली जी इसके साथ लगभग चार महीने रह चुके हैम् और एक अघोरी गुरु के द्वारा कुछ विशेष मन्त्र दोनों ने ही साथ-साथ सीखे थे, अतः श्रीमाली जी ने साधना के द्वारा इसको भी यहां बुला लिया था जिससे कि दोनों मिलकर उन साबर मन्त्रों को पूर्ण रूप से सिद्ध कर सकेम् ।

श्रीमाली जी के बताने पर भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह व्यक्ति किसी के पास रहा होगा और इसने साबर मन्त्रों का अध्ययन किया होगा । मेरी आशङ्का को देखकर श्रीमाली जी उठकर उसके पास जाकर बैठ गये और मुझे भी बुलाकर उसके दूसरी तरफ बिठा दिया। उसके शरीर से दुर्गन्ध-सी आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वर्षों से उसने स्नान न किया हो ।

उस रात्रि को हम तीनों वहीं जलाशय के निकट ही सोये । यद्यपि मैं श्रीमाली जी के पार्श्व में सोया था फिर भी भयभीत था । कुछ ही क्षणों बाद श्रीमाली जी नीन्द मेम् आ गए, परन्तु मेरी आङ्खों में नीन्द नहीं थी । मैं सारी रात चौकन्ना-सा जागता रहा, मेरे मन से अभी तक भय नहीं गया था और मैम् इस बात से चिन्तित था कि न मालूम यह अघोरी कब मेरा सफाया कर दे ।

प्रातःकाल लगभग तीन बजे श्रीमाली जी उठ खड़े हुए। इससे पूर्व ही वह अघोरी जाग कर जलाशय के पानी में घुस गया था। उसे तैरते हुए देखना भी एक सुखद आश्चर्य था । ऐसा लग रहा था जैसे कोई रीछ तालाब में घुसा हुआ हो ।

1

श्रीमाली जी स्नान कर प्रातःकालीन सन्ध्यावन्दन आदि कार्यों में लग गये थे । मैं भी स्नान कर नित्य पूजा हेतु एक ओर बैठ गया, परन्तु उस दिन मेरा ध्यान पूजा में नहीं लग सका। मैं ज्योंही ध्यान लगाने का प्रयत्न करता, दूसरे ही क्षण मेरा मन उचट जाता और दृष्टि उस रीछ पर पड़ जाती। वह अभी तक उस जलाशय में गेण्डे की तरह तैर रहा था ।

लगभग प्रातः सात वजे श्रीमाली जी प्रातःकालीन नित्य नैमित्तिक कार्य से निवृत्त हुए । मैम् इससे पूर्व ही सन्ध्या आदि से निवृत्त हो गया था, परन्तु वह अघोरी. अभी तक पानी में था । कभी वह तैरता हुआ बहुत दूर निकल जाता और कभी मुर्दे. के समान तैरता हुआ पुनः तट तक आ जाता। ऐसा लग रहा था जैसे पानी से उसे विशेष प्रेम हो ।

लगभग साढ़े सात बजे वह पानी से बाहर निकला और किनारे पर आकर

47

एक पत्थर पर बैठ गया, सारे शरीर से पानी की धारायें बह रही थीम् । परन्तु उसे इसका कुछ भी एहसास नहीं था। मैं बराबर उसे कौतुहल के साथ देख रहा था । परन्तु मैम् अभी तक यह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि यह व्यक्ति मन्त्र साधना में है, और श्रीमाली जी ने चार महीने इस पशु के साथ बिताये हैम् ।

कुछ क्षणों बाद वह उस पत्थर पर ही चित्त लेट गया और आङ्खें बन्द कर कुछ देर गुनगुनाता रहा। मैम् उसके मुंह से निकलने वाले शब्दों को समझ नहीं पा रहा था, परन्तु ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी मन्त्र साधना में रत हो ।

साढ़े आठ बजे वह अचानक हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और श्रीमाली जी की ओर देखकर पूछा कि क्या मैं चला जाऊं ? श्रीमाली जी ने कहा कि तुम्हें साबर मन्त्रों को सिद्ध तो करना ही है। अच्छा होगा यदि उस निश्चित स्थान पर जाकर सिद्ध करने लगो, मैं शीघ्र ही वहीं पर तुमसे भेण्ट करूङ्गा ।

वह सीधा उठ खड़ा हुआ और लगभग दस या पन्द्रह कदम चलने के

बिना कुछ कहे एक तरफ को रवाना हो गया । बाद वह पुनः लौटा और पास आकर बोला, आज मैं यहीं पर रहूङ्गा, दो तीन दिन के बाद जाऊङ्गा, तब तक मैं श्यामा साधना यहीं सम्पन्न कर लूङ्गा ।

श्रीमाली जी ने स्वीकृति दे दी और वह पुनः जलाशय में घुस गया ।

उस समय पहली बार मुझे साबर मन्त्रों की महत्ता ज्ञात हुई । जब श्रीमाली जी ने अगला प्रयोग प्रारम्भ किया । उन्होन्ने साबर मन्त्रों के बारे में मुझे विस्तार से बताया और यह भी जानकारी दी कि किस प्रकार से इन मन्त्रों के माध्यम से असम्भव कार्यों को भी सम्भव किया जा सकता है। उन्होन्ने कुछ मन्त्रों को सिद्ध करने की विधि भी मुझे समझाई ।

लगभग बारह बजे वह अघोरी पानी से बाहर निकला और एक शिला पर बैठकर मन्त्र जप चालू किया। इस समय वह जोर-जोर से मन्त्र पढ़ रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई कलमा पढ़ रहा हो ।

कुछ ही क्षणों बाद हवा में चलता हुआ एक लकड़ी का टुकड़ा आता दिखाई दिया, जिसके सिरे पर एक पोटली बन्धी हुई थीं। यह लकड़ी का टुकड़ा लगभग पाञ्च फीट लम्बा और ऊपर से थोड़ा सा मुड़ा हुआ था । मुड़े हुए स्थान पर कपड़े से बन्धी हुई एक पोटली थी और वह डण्डा स्वतः ही चलता हुआ या यों कहें कि हवा में बहता हुआ उस अघोरी के पास आकर रुक गया ।

पोटली और डण्डे को देखकर अघोरी ने चार छः गालियां हवा मेम् उछालीम् । उन गालियों के बोलने के लहजे से ज्ञात हुआ कि यह व्यक्ति उत्तर प्रदेश या बिहार का निवासी होना चाहिए, क्योङ्कि वह संस्कृत और हिन्दी मेम् ऐसी गालियाम् उछाल रहा था जिसे सभ्य भाषा में बोलना या लिखना सम्भव नहीं है ।

उसने झपट कर उस डण्डे को पकड़ लिया और उस पर से पोटली खोल दी । पोटली मेम् अत्यन्त स्वादिष्ट भोजन था । ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी किसी ने

48

भोजन पकाकर भेजा हो । भोजन में दो प्रकार के साग और गेहूं की रोटियां थीं, ही हलवे की सुगन्ध भी दूर बैठे हुए अनुभव हो रही थी ।

सोथ

उस भोजन को पत्थर पर रखकर उसने फिर आठ-दस गालियां दीम् । गालियों की भाषा से ऐसा लग रहा था जैसे कि वह किसी स्त्री को गालियां दे रहा हो और कम भोजन भेजने पर नाराज हो । उसने चीखकर आदेश भी दिया कि इससे चार गुना भोजन और लेकर आ, ये जो दो बाप तेरे बैठे हुए हैम् इन्हें कौन खिलाएगा ?

मैन्ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि वह

डण्डा आज्ञापालक सेवक की तरह पुनः

हवा में तैरता हुआ एक तरफ को निकल गया । अघोरी ने उस भोजन को मेरे और श्रीमाली जी के सामने लाकर रख दिया और कहा कि पहले आप लोग भोजन कर लें, मेरे लिए अभी भोजन आ रहा है ।

मेरे लिए यह आश्चर्यचकित था कि इस घनघोर जङ्गल मेम् इस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन कहां से लाया गया है। इस तरफ गेहूं की खेती होती नहीं है फिर गेहूं की रोटियां कहां से तैयार की गई हैं ? यह भी स्पष्ट था कि भोजन को पके हुए ज्यादा समय नहीं बीता है, क्योङ्कि अभी तक भी हलवे में से सुगन्ध और भाप निकल रही थी ।

श्रीमाली जी ने कहा, पहले तू खा ले क्योङ्कि तेरा पेट बड़ा है, अगर तू भूखा रह गया तो फिर गालियां देगा ।

परन्तु वह इसी बात पर अड़ा रहा कि पहले श्रीमाली जी खायेङ्गे, तभी वह भोजन करेगा । उसे श्रीमाली जी की अपेक्षा मेरी चिन्ता विशेष रूप से थी । उसकी आङ्खों मेम् उस समय ठीक वैसी ही करुणा व्याप्त थी जैसी करुणा पुत्र को भोजन कराते समय मां की आङ्खों में होती है । मैम् उसके बदले हुए व्यवहार को आश्चर्यचकित होकर देख रहा था, जिसे मैं भयानक और नरपिशाच समझ रहा था उसके सीने में भी हृदय है, यह पहली बार मैन्ने अनुभव किया। मैन्ने यह भी अनुभव किया कि इसकी आङ्खों में भी ममता, स्नेह, औरं प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था ।

यद्यपि मुझे भूख नहीं थी, क्योङ्कि मैं दो दिन पूर्व ही पौधे की पत्तियां चबा चुका था, जिससे कि मेरी भूख प्यास शान्त हो गई थी । परन्तु श्रीमाली जी के अनु- रोध पर मैन्ने वह भोजन करना प्रारम्भ किया। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन पहली बार वहां खाया था और उसके बाद आज तक मुझे वापस उस प्रकार का स्वादिष्ट भोजन प्राप्त नहीं हो सका है ।

कुछ ही क्षणों बाद वह लकड़ी का डण्डा पुनः उसी प्रकार से आता हुआ दिखाई दिया । इस बार उसके सिरे पर बहुत बड़ी पोटली बन्धी हुई थी और उस पोटली में लगभग पहले की अपेक्षा तिगुना खाना विद्यमान था ।

अघोरी ने झपट कर उस पोटली को खोल दिया और बिना किसी को कहे- सुने खाने में जुट गया । कुछ ही क्षणों मेम् उसने वह पूरा खाना उदरस्थ कर लिया ।

मेरे लिए यह सब कौतुहल था । यद्यपि मैन्ने स्वामी प्रवृज्यानन्द जी से वेदोक्त49

और साबर मन्त्रों की दीक्षा ली थी, और दोनों ही प्रकार के मन्त्रों का अध्ययन किया था परन्तु उन्हें क्रियात्मक रूप से परीक्षण करने का सौभाग्य नहीं मिला था। यहां पर पहली बार मैम् उन साबर मन्त्रों का क्रियात्मक पक्ष देख रहा था और मैम् अनुभव कर रहा था कि मन्त्रों के माध्यम से जङ्गल में भी मङ्गल मनाया जा सकता है ।

रात्रि को विश्राम के समय बातचीत के दौरान ज्ञात

हुआ कि वह गोरखपुर जिले का रहने वाला था और उसका नाम शङ्कर सहाय था । वह गोरखपुर के प्रसिद्ध मन्दिर गोरखनाथ के मन्दिर में भी कुछ समय साधना के लिए रहा था । परन्तु वहां से उसका मन उचट गया था ।

उसके बाद वह आठ-दस वर्षों के लिए नेपाल चला गया था और वहीं पर दक्षिण काली के मन्दिर के पास लगभग छः वर्ष तक रहकर तन्त्र साधना का ज्ञान प्राप्त किया था । इसके बाद भी जब उसकी इच्छा शान्त नहीं हुई तो उसने विशिष्ट मन्त्रों की खोज में पूरे हिमालय को छान मारा, और इसी दौरान एक प्रसिद्ध अघोरी गुरु के पास श्रीमाली जी से भेण्ट हुई थी, वहीं पर इन दोनों ने लगभग छः महीने तक रहकर विशिष्ट अघोर विद्याओम् और साबर विद्याओं का अध्ययन किया था ।

और मरते

छः महीने बाद जब गुरु का शरीर शान्त होने लगा तो गुरु ने कहा कि मेरे पास जो विशिष्ट विद्याएं हैं वे विद्याएं मैं तुम दोनों को देना चाहता हूं, समय उस गुरु ने कुछ ऐसी विशेष साबर विद्याए इन दोनों शिष्यों को जो कि तान्त्रिक-मान्त्रिक क्षेत्र में सर्वोपरि कही जाती हैम् ।

लिखाई थीं

वे विद्याएं तो इन दोनों ने गुरु के चरणों में बैठकर सीख ली थीं, परन्तु उन विद्याओं को क्रियात्मक रूप से परीक्षण करने का अवसर प्राप्त नहीं हो सका था, क्यों कि इसके तुरन्त बाद ही वृद्ध गुरु का शरीर शान्त हो गया था ।

गुरु ने ही यह बताया था कि यदि इस सरोवर के तट पर इन विद्याओं का परीक्षण प्रयोग सिद्ध किया जाए तो ज्यादा अनुकूल रहेगा। अतः उसके बाद दोनों शिष्य अलग-अलग भागों पर बढ़ गए थे । वहां से रवाना होने के कुछ समय बाद श्रीमाली जी स्वामी प्रवृज्यानन्द जी के आश्रम में पहुञ्चे थे, जहां पर उनसे मेरी भेण्ट हुई थी ।

वहां से केदारनाथ जाते समय मार्ग मेम् उस सरोवर को देखकर उन साबर विद्याओं को परीक्षण करने का अवसर अनुभव कर श्रीमाली जी ने साधना के द्वारा ही इस गुरु भाई को भी बुला लिया था जिससे कि दोनों मिलकर उन विद्याओं को सिद्ध कर सकेम् ।

अघोरी चाहता था कि दोनोम् अलग-अलग स्थानों पर बैठकर मन्त्र सिद्ध करें। वह जलाशय के उस किनारे पर बैठकर मन्त्र सिद्ध करना चाहता था, इसीलिए वह श्रीमाली जी के पास से रवाना हो गया था, परन्तु फिर कुछ सोचकर रुक गया था ।

बातचीत में मुझे पता लगा कि ऊपर से देखने में यह चाहे कितना ही कठोर क्यों न हो, परन्तु अन्दर से यह अत्यन्त ही कोमल और मधुर है । यद्यपि पिछले तीन

50

वर्षों से इसने पूरे शरीर के कपड़े त्याग दिए थे और योगिनी साधना में विशेष सफलता प्राप्त की थी।

दूसरे या तीसरे दिन बातचीत के दौरान अघोरी ने स्वीकार किया था कि यद्यपि मैं योगिनी साधना मेम् और कृत्या साधना मेम् अपने आप को काफी अच्छे स्तर पर मानता हूं, परन्तु हकीकत में देखा जाय तो इस क्षेत्र में भी श्रीमाली जी का ज्ञान मुझसे बढ़कर है । यह अलग बात है कि वे सौम्य हैं, और जरा-जरा सी बात पर उछलते उफनते नहीम् । उनके साथ रहने पर भी यह ज्ञात नहीं होता कि इनमेम् इतना अधिक ज्ञान है, परन्तु मैं लगभग छः महीने इनके साथ रहा हूम् और मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैन्ने आज तक जो साधनाएं सिद्ध की हैं वे साधनाएं तो श्रीमाली जी कई वर्षों पूर्व सिद्ध कर चुके हैं। जब वे मुझे पहली बार मिले थे तब भी वे चौंसठ योगिनी साधना में निष्णात थे । कृत्या साधना में यदि उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।

तीसरे दिन प्रातःकाल जब मेरी आङ्ख खुलीं तो मैन्ने देखा कि अघोरी वहां से जा चुका था। मैन्ने श्रीमाली जी से इस सम्बन्ध में पूछा तो पता चला कि प्रातः दो बजे ही वह यहां से रवाना हो गया था और इसी जलाशय के दूसरे किनारे पर बैठकर सारी अघोर साधनाओं को सिद्ध कर रहा है। यदि समय और अवसर रहा तो कुछ कार्य सम्पादन कर हम भी उस तरफ जायेङ्गे ।

इसके बाद हम उस जलाशय के निकट लगभग एक सप्ताह तक और रहे और

इस बीच श्रीमाली जी ने वेदोक्त मन्त्रों का भी

तो इन वेदोक्त मन्त्रों में भी बहुत सत्यता है

परीक्षण किया । हकीकत में देखा जाए

और यदि इनका सही ढङ्ग से विधान

किया जाए तो इसका फल भी तुरन्त और निश्चित होता है ।

यजुर्वेद में विशेष रूप से इस प्रकार के मन्त्रों की प्रचुरता है। इसमें भी कृष्ण और यजुर्वेद शुक्ल यजुर्वेद दो अलग-अलग शाखाएं हैं जिसमें शुक्ल यजुर्वेद इस प्रकार के मन्त्रों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसमें विशेष कर ऐसे मन्त्रों का विधान है जिसके माध्यम से देवताओं का आह्वान किया जा सकता है और कार्य सम्पन्न किया जाता है ।

एक रात्रि को बहुत जोरों का तूफान आया। उस क्षेत्र मेम् इस प्रकार के तूफान कम ही आते हैं, परन्तु उस दिन का जो तूफान था वह वास्तव में ही शरीर को हिला देने वाला था । उस समय श्रीमाली जी उसी पत्थर की शिला पर बैठकर साधनारत थे । तूफान से इस कदर वर्षा हो रही थी कि देखते-देखते छः इञ्च बर्फ चारों तरफ जम गई । जब उन्होन्ने आङ्ख खोली तो उन्होन्ने मुझे शीत से ठिठुरते हुए देखा और उन्होन्ने मेघ आह्वान कर वायु मन्त्र प्रयोग किया, जिससे आकाश में छाए हुए बादल चारों तरफ बिखर गए और कुछ ही क्षणों मेम् आकाश बिलकुल साफ हो गया। अब तक मैन्ने मन्त्रों के बारे में यह अनुभव किया था या अपने गुरु स्वामी प्रवृज्यानन्द जी से सुना था

51

कि यदि सही प्रकार से मन्त्र ध्वनि प्रगट की जाय तो मनोवाञ्छित कार्य सिद्धि निश्चित रूप से सम्भव है ।

आज मैन्ने इस बात का अनुभव भी किया, क्योङ्कि वायु आह्वान से जोरों से वायु चलने लगी । फलस्वरूप आकाश में बादलों का जो घटाटोप था वह दूर हो गया और आकाश बादल रहित होकर निर्मल दिखाई देने लगा ।

इन सात दिनों में श्रीमाली जी ने अधिकतर वेदोक्त मन्त्रों का परीक्षण किया, साथ-ही-साथ मुझे भी इसके बारे में समझाते रहे कि किस प्रकार से इन मन्त्रों का आह्वान किया जाता है, मन्त्रों को चैतन्य करने के लिए क्या किया जाता है ? मन्त्र चैतन्य करने के बाद उसका दीपन और मार्जन किस प्रकार होता है ? तब जाकर मन्त्र निर्मल होता है ।

इसके बाद जिस देवता का मन्त्र है, उस देवता का आह्वान मन-ही-मन करते हुए मन्त्र की मूल ध्वनि के साथ उसका आह्वान किया जाता है जिससे वह देवता आकर कार्य सम्पादन करता है ।

वरुण, इन्द्र, अग्नि, पवन आदि मन्त्रों के परीक्षण भी वहां पर किए गए और इन समस्त मन्त्रों की उपयोगिता मेरे सामने भली प्रकार से स्पष्ट हो गई ।

एक दिन अवसर देखकर मैन्ने प्रश्न किया कि ये परीक्षण किसी भी शहर या गांव में भी हो सकते हैं, फिर इसके लिए इस सुनसान स्थान को ही क्यों चुना गया है

। इस पर श्रीमाली जी ने उत्तर दिया कि यहां पर केवल वेदोक्त मन्त्रों का परीक्षण ही नहीं था अपितु कुछ साबर मन्त्रों का भी परीक्षण अध्ययन करना था इसीलिए इस स्थान को चुना गया था ।

इसके अतिरिक्त यह स्थान साबर मन्त्रों की सिद्धि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है, कहते हैं गुरु गोरखनाथ ने इसी जलाशय के तट पर विशेष साधना सम्पन्न की थी । अघोरी इस समय जिस स्थान पर बैठा है, उसी स्थान पर बैठकर कई वर्षों पूर्व गुरु गोरखनाथ ने पूर्ण सिद्धि प्राप्त की थी !

मैं साबर मन्त्रों की सिद्धि से पूर्व वेदोक्त मन्त्रों का परीक्षण कर लेना चाहता था, इसी वजह से जलाशय के इस तट पर बैठा हूं। इसके बाद उस अघोरी के साथ बैठकर कुछ साबर मन्त्रों का भी परीक्षण करेङ्गे ।

उन्होन्ने बताया कि साबर मन्त्र और वेदोक्त मन्त्रों का अलग-अलग विधान है, इसलिए दोनों को एक ही स्थान पर सिद्ध नहीं किया जाना चाहिए। साबर मन्त्र अपने आप में तलवार की तरह होते हैं यदि उसमें थोड़ी भी त्रुटि रह जाती है तो वे मन्त्र साधक का ही सत्यानाश कर डालते हैं, अतः इस प्रकार के मन्त्रों का प्रयोग और परीक्षण अत्यन्त सावधानी के साथ करना चाहिए और जब तक आप अपने मन में निश्चित नहीं हों, तब तक इस प्रकार के परीक्षण नहीं करने चाहिए ।

हमारे समाज मेम् इस प्रकार के मन्त्र हेय दृष्टि से देखे जाने लगे हैं, परन्तु वास्तव में देखा जाय तो इन मन्त्रों का भी सामाजिक जीवन में महत्त्व है। आवश्यकता

52

इस बात की है कि प्रयोगकर्ता इन मन्त्रों का प्रयोग किस प्रकार से और किस उद्देश्य के लिए करता है ? यदि इस प्रकार के मन्त्रों का प्रयोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए या गलत कार्यों के लिए करता है तो इस प्रकार का कार्य उचित नहीं कहा जा सकता । यही नहीम् अपितु साबर मन्त्रों में यह विधान है कि यदि उन मन्त्रों का प्रयोग केवल मात्र स्वार्थ के लिए ही किया जाता रहेगा तो निश्चय ही प्रयोगकर्ता का अहित होगा ।

एक डॉक्टर को विष प्रयोग और सर्जरी के ज्ञान के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान में भी महारत हासिल है तो वह इस प्रकार के प्रयोग करते समय सावधानी बरतेगा । यह आवश्यक नहीं है कि उसे विष-प्रयोग का ज्ञान है तो वह प्रत्येक को विष देता रहेगा। कई बार हलका-सा विष स्वास्थ्य लाभ के लिए भी आवश्यक माना गया है। कई रोगों में सर्प विष की थोड़ी-सी मात्रा दी जाती है जिससे कि वह रोग समाप्त हो सके। यह सब कुछ प्रयोगकर्त्ता के दिमाग पर निर्भर हैं, और वही इसका निर्णय करता है कि कब किस प्रकार की औषधि का प्रयोग करना है ।

ठीक यही स्थिति मन्त्र के बारे में है । एक साधक को

सौम्य मन्त्रों का ज्ञान है का भी ज्ञान है तो यह

साथ-ही-साथ उसे वाममार्गी साधना का और साबर मन्त्रोम् आवश्यक नहीं है कि वह इस प्रकार के मन्त्रों का प्रयोग समाज के अहित के लिए करेगा। यह तो उसके लिए गौरव की बात है, कि उसे सभी प्रकार के मन्त्रों का पूर्ण ज्ञान है, और वह काल तथा प्रकृति के अनुसार मन्त्रों का चयन करता है तथा उसके अनुसार कार्य सिद्धि में सफलता प्राप्त करता है ।

इसके लिए प्रयोगकर्त्ता में जरूरत से ज्यादा धैर्य की आवश्यकता होती है, क्योङ्कि उतावली उसके लिए कठिनाइयां पैदा कर सकती है, अतः साधक को चाहिए कि वह किसी अन्य व्यक्ति के उकसाने में न आवे और वह चाहे कितना ही प्रिय और निकट का व्यक्ति हो फिर भी प्रयोग करते समय तटस्थ होकर निर्णय लें कि क्या इस प्रकार का कार्य मेरे लिए उचित है और इस प्रकार के कार्य से सामने वाले व्यक्ति को व्यर्थ में नुकसान तो नहीं हो जायगा ।

साबर मन्त्रों का विधान अपने आप में पूर्णतः अलग है उसमें वाममार्गी साधना का विशेष महत्त्व है । परन्तु इस साधना में भी मद्य, मांस आदि वर्जित हैम् । यह तो साधकों ने अपने स्वार्थ के लिए इस प्रकार के पदार्थों का उपयोग उचित माना है जब कि पूरी साधना मेम् ऐसा कहीं पर भी उल्लेख नहीं है कि इस प्रकार के पदार्थों का प्रयोग आवश्यक हो ।

साबर मन्त्र जब सिद्ध किये जायं तब वेदोक्त मन्त्रों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। कई बार तो साबर मन्त्रों की सिद्धि काल में पूजन या गायत्री जप भी निषिद्ध माना गया है, यदि इस समय गायत्री जप किया जाता है तो साबर मन्त्र सिद्ध होते ही नहीं, और कई बार विपरीत परिणाम भी भुगतने पड़ जाते हैम् ।

एक व्यक्ति पानी में नीम्बू डाल कर सिकञ्जी बनाकर पीता है और शाम को

9556

53

वह दूध का गिलास भी पीता है ये दोनों ही पदार्थ उसके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हैं, परन्तु इन दोनों पदार्थों को मिलाकर पीना स्वास्थ्य के लिए किसी भी दृष्टि से अनुकूल नहीं कहा जा सकता, क्योङ्कि नीम्बू का रस मिलते ही दूध फट जायेगा, फलस्वरूप दूध का जो लाभ मानव को मिलना चाहिए वह नहीं मिल पायेगा, इसी प्रकार साबर मन्त्र और वेदोक्त मन्त्र दोनोम् अलग-अलग हैम् और दोनों ही अलग-अलग प्रकार से सिद्ध किये जाते हैं पर दोनों कार्य एक ही स्थान पर मिलकर सम्पन्न नहीं किए जा सकते ।

इस तट पर लगभग आठ दिन बीत चुके थे और इन आठ दिनों में मन्त्रों का जो व्यावहारिक अनुभव प्राप्त किया था वह पिछले तीन वर्षों में भी प्राप्त नहीं हो सका था । गुरु स्वामी प्रवृज्यानन्द जी के आश्रम में रहकर मैन्ने मन्त्र सीखे थे और उनकी विधि भी समझी थी परन्तु इन आठ दिनों में मैन्ने यह अनुभव किया कि वह सीखना अपने आप में बहुत अधिक महत्त्व नहीं रखता क्योङ्कि जब प्रयोग करते हैं तो कई प्रकार की नई बाधाएम् उपस्थित होती हैं, और उन बाधाओं का निराकरण सीखे हुए तरीके से सम्भव नहीं होता, इसके लिए तो गुरु की उपस्थिति अनिवार्य ही कही जा सकती है, क्योङ्कि उस समय वही मार्गदर्शन कर सकता है।

इस तट पर मैन्ने भी कई मन्त्रों के प्रयोग सिद्ध किये और प्रत्येक प्रयोग में नवीन बाधाएम् अनुभव कीं जो कि पहले प्रकार की बाधा से सर्वथा विपरीत थीं, परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि आज के युग में भी मन्त्रों की महत्ता सर्वोपरि है और मन्त्रों के माध्यम से ही आज के जीवन को ज्यादा सरल और सुखमय बनाया जा सकता है। वेदोक्त मन्त्रों के प्रयोग परीक्षण की समाप्ति के बाद हम दोनोम् एक बार धुन्धुआ गांव में भी हो आए, और वहां से उस तट की ओर चल दिए जहाम् अघोरी वाममार्गी साधना या साबर मन्त्रों की सिद्धि सम्पन्न कर रहा था ।

मार्ग में श्रीमाली जी ने बताया कि साबर मन्त्रां की सिद्धि अपने आप मेम् अलग तरीके से होती है । अब तक तुमने साबर मन्त्रों का ज्ञान अवश्य प्राप्त किया है। परन्तु इनकी सिद्धि के लिए विशेष साहस की आवश्यकता होती है, साथ-ही-साथ यह परीक्षण सर्वथा नवीन प्रकार से सम्पन्न होते हैं।

सायङ्काल के लगभग हम जलाशय के उस तट पर पहुञ्च गए, जहां पर कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने बैठकर बारह वर्ष तक विशेष मन्त्रों की साधना सम्पन्न की थी और उनमें विशेष सफलता प्राप्त भी थी ।

शाम के लगभग चार बजे थे, किनारे से लगभग बीस फीट दूर एक पत्थर पर वह अघोरी सर्वथा नग्न बैठा हुआ था । उसके सामने कुछ पदार्थ रक्खे हुए थे, उन पदार्थों को मैं नहीं पहिचान सका, परन्तु वे पदार्थ सम्भवतः पास के गांव से ही प्राप्त किए होङ्गे । उस समय अघोरी सूर्य की तरफ मुंह करके कुछ विशेष मन्त्रों का उच्चारण कर रहा था । उच्चारण से ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई बादल धीरे-धीरे गड़गड़ा रहा हो ।

54

कुछ समय बाद ही उसने मुंह नीचे किया और आङ्खें खोलीं तब तक हम उसके पास खड़े रहे, सम्भवतः हमें खड़े हुए तीन-चार मिनट ही बीते थे। उसने ज्यों ही हमको देखा तो उछल कर खड़ा हो गया और अपनी दोनों बाहों में श्रीमाली जी को भर लिया, अपने हाथों से उठाकर उसने उस पत्थर की शिला पर उन्हें बिठा दिया और स्वयं भी उसी स्थान पर पास में बैठ गया ।

पिछले सप्ताह मेम् उसने किस प्रकार से साबर मन्त्रों की साधना की थी, और किस प्रकार से उसे सफलता मिली थी, उसका विवरण वह दे रहा था। बात करते समय उसके चेहरे पर रह-रहकर एक विशेष चमक उठतो, उससे लगता कि वह अपने उद्देश्य में सफलता पा सका है ।

मुश्किल से आधा घण्टा बीता होगा कि सामने घने जङ्गल से एक स्त्री आती हुई दिखाई दी, जो कि सर्वथा नग्न थी और उसके घने लम्बे बाल पूरे शरीर पर, विशेष कर पीठ पर फैले हुए थे, उसके सिन्दूर के विशेष चिह्न बने

हुए थे ।

नग्न होते हुए भी उसकी आङ्खों में किसी प्रकार की लज्जा या सङ्कोच नहीं था । वह उसी उन्मुक्त भाव से आकर अघोरी के पास बैठ गयी और आश्चर्य से हम दोनों की ओर देखती रही ।

लगभग तीन या चार मिनट वह हमें ताकती रही, पर ये चार मिनट भी अपने आप में भयानक थे, क्योङ्कि उसकी आङ्खों में कुछ ऐसा तेज था जो कि कटार की तरह सीधे कलेजे में चुभ रहा था। मैं दो मिनट से ज्याद अपनी आङ्खेम् उसकी आङ्खों से न मिला सका और मजबूर होकर अपनी आखों को नीचे कर लेना पड़ा।

साबर साधना में कहा जाता है कि आङ्खों के माध्यम से ही सामने वाले व्यक्ति को सम्मोहित किया जाता है। इसमें वही सफल हो सकता है जो ज्यादा समय तक अपनी आङ्खों को स्थिर रख सके और सामने वाले की आङ्खों मेम् आङ्खें डालकर ताक सके। पहले जो अपनी आङ्खें नीची कर लेता है वह कमजोर माना जाता है और उस पर नियन्त्रण करना सम्भव हो सकता है ।

मैम् इस तथ्य को अच्छी तरह से जानता था । इसीलिए उसकी आङ्खों मेम् आङ्खें डालकर ताकता रहा था, परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि उसकी आङ्खों मेम् एक विशेष चमक थी जो जहर से ओत प्रोत सी लग रही थी जो कि मेरी आङ्खों से हृदय में जाकर पूरे शरीर को शून्य कर रही थी । मैं दो मिनट से ज्यादा उसकी आङ्खों में ताकता न रह सका और एक प्रकार से अपनी पराजय स्वीकार करता हुआ अपनी आङ्खें नीचे कर लीम् ।

मैन्ने पहली बार अपने आपको पहिचाना। मैन्ने अनुभव किया कि अभी मैम् अनाड़ी और कमजोर हूं। इस प्रकार के कार्यों मेम् और मन्त्र साधना में विशेष दम-खम की आवश्यकता होती है, और वह दम-खम अभी तक मुझमें नहीम् आ सका है ।

किसी आश्रम में रहकर कुछ सीख लेना अलग बात है, और प्रयोग के रूप मेम् उसका परीक्षण करना सर्वथा विपरीत कार्य है । मुझे अपने आपको तैयार करना है

55

और जब मैं पूरे शरीर को तथा तन मन को इस प्रकार की साधना के लिए तैयार कर सकूङ्गा, तभी इस साधना में सफलता प्राप्त कर सकूङ्गा ।

मुझे आङ्खें नीचे करती देख वह स्त्री हंस दी, मानो कह रही हो कि क्या इसी दम-खम से मेरी आङ्खों में ताक रहे थे ?

वह अधोरी श्रीमाली जी से बातचीत में तल्लीन था । उसने बताया कि उसने किस प्रकार से साबर मन्त्रों की सिद्धि की है और किन-किन मन्त्रों की सिद्धि में क्या क्या बाधायेम् आई हैं ? दो तीन मन्त्रों की सिद्धि में वह असफल भी रहा था । उनका उल्लेख भी वह विशेष रूप से कर रहा था ।

बातचीत की समाप्ति के बाद वह उस स्त्री की तरफ मुखातिब हुआ और उसे कुछ आज्ञा दी जिसे पूरा करने के लिए वह झूमती हुई घने जङ्गल की ओर निकल गयी ।

अघोरी ने उस भैरवी के बारे में बताया कि पिछले दो वर्षों से वह उस भैरवी से परिचित है और सर्वप्रथम इसका परिचय नेपाल में दक्षिण काली मन्दिर के पास हुआ था । यह स्वयं वाममार्गी साधना में निष्णात है और विशेष साधनाओं में सफलतायें भी प्राप्त की हैम् ।

उस भैरवी का जीवन भी अपने आपमेम् एक अलग राम कहानी है । बचपन में ही उसकी शादी हो गयी थी। शादी के समय उसकी आयु मात्र नौ वर्ष की थी। शादी के तीन महीने बाद ही उसके पति की मृत्यु हो गई तो घर के लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि बहू डायन है और इसने आते ही अपने पति को खा लिया !

फिर भी वह इस गम को झेलती रही, और परिवार वालों के व्यङ्ग्य बाण सहन करती रही । दिन भर उससे पशु की तरह काम लिया जाता और रात्रि को रूखा सूखा

उसके सामने डाल दिया जाता, फिर भी वह अपने थी । उसने सोचा था कि यदि मेरे भाग्य मेम् इस प्रकार के दुख

मुझे इन दुखों को झेलना ही है ।

भाग्य पर टिकी हुई

ही लिखे हुए हैं तो

कई बार उसे लकड़ियों से पीटा गया। एक बार तो देवर ने जलती हुई लकड़ी से पूरी पीठ पर जगह-जगह दाग दिया। इसी प्रकार सीने पर भी जलती हुई लकड़ी के निशान बना दिये । यह चिल्लाती रही तथा वे पशु इसे दागते रहे ।

उस कोठरी में यह सारी रात तड़फती रही, परन्तु इसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। दूसरे दिन पूरे गांव में यह चर्चा थी कि बहू ने खुद अपने हाथों से अपने शरीर को दाग दिया है, और कुछ तान्त्रिक प्रयोग कर रही है, जिससे पूरा गांव समाप्त हो जाएगा ।

दोपहर को गांव वालों ने मिलकर इस स्त्री को अपने गांव से बाहर खदेड़ दिया । शाम को लोक लज्जा के भय से यह स्त्री पुनः गांव मेम् आई और घर के बाहर चबूतरे पर लेटी रही। पूरा शरीर जलने से दर्द हो रहा था परन्तु फिर भी यह अपनी कुल मर्यादा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। पीहर मेम् इसके कोई था नहीम् ।

56

एक सौतेली मां थी जिसने विवाह के अवसर पर ही स्पष्ट रूप से कह दिया था कि अब भविष्य मेम् इस तरफ तूने पांव रखे तो तेरे पांव काट कर फेङ्क दिए जायेङ्गे ।

दूसरे दिन प्रातःकाल जब ससुराल वालों ने बाहर चबूतरे पर उसे कराहते हुए देखा तो आग बबूला हो गए और दो भाइयों ने मिलकर उसे घसीटकर बेहोशी की

हालत में गांव के बाहर जङ्गल में फेङ्क दिया। यह स्थान दक्षिण काली के मन्दिर के पास ही था ।

यह मन्दिर पूरे विश्व में तान्त्रिक कार्यों के लिए प्रसिद्ध रहा है और इसे सिद्ध पीठ कहा जाता है। संसार के उच्चकोटि के तान्त्रिकों की यह अभिलाषा रहती है कि वह एक बार इस मूर्ति के दर्शन करेम् और इसके प्राङ्गण में बैठकर कुछ साधना करेम् । संयोगवश एक तान्त्रिक उस मार्ग से निकला तो उसकी दृष्टि मार्ग के किनारे पड़ी इस स्त्री पर पड़ी जो कि बेहोशी की हालत में रह-रहकर कराह रही थी। वह रुक गया, पानी लाकर इसके मुंह पर छिड़का, तो इसे होश आया, परन्तु उस समय भी वह इतनी अधिक भयभीत थी कि मुंह से बोल नहीं निकल रहे थे ।

तान्त्रिक ने इस युवती को ले जाकर दक्षिण काली के प्राङ्गण में बिठा दिया और स्वयं काली का ध्यान करने लगा, । ध्यान मेम् उसे आदेश हुआ कि यह युवती सामान्य युवती नहीं है। इसका जन्म एक विशेष उद्देश्य के लिए हुआ है, आगे चलकर तान्त्रिक क्षेत्र में यह विशेष भैरवी बन सकेगी और तन्त्र के उच्च स्तर की साधनाओं में सफलता प्राप्त कर सकेगी।

ध्यान मेम् उसे यह भी आदेश हुआ कि भविष्य मेम् इस युवती को तुम्हेम् अपने साथ रखना है, इससे तुम्हारी साधना में भी सफलता मिलेगी और आने वाले समय में तुम विशेष ऊञ्चाई तक पहुञ्च सकोगे ।

वह साधु, यही अघोरी था और वह युवती यही भैरवी थी ।

दक्षिण काली से अघोरी उस युवती को लेकर गोरखनाथ मन्दिर आया और वहां के जङ्गलों में कुछ साधनायें सम्पन्न कीं। वहां से कामाक्षा के दर्शनों के लिए गया। वहां पर अघोरी को अवधूत अघोरी खरपरानन्द मिले जो कि वाममार्गी साधना मेम् अत्यन्त उच्चकोटि के माने जाते हैम् । उनके साथ लगभग तीन वर्षों तक ये दोनों रहे और वहां पर इस युवती का संस्कार हुआ और इसे भैरवी बनाया गया ।

साधक के लिए भैरवी का स्वरूप ‘मां’ के सदृश होता है। इस प्रकार के सम्बन्धों में किसी भी प्रकार का विकार बीच में नहीम् आता । साधना मेम् और साधना के बाद भी यदि परस्पर विकार आ जाता है तो दोनों की साधनाएं खण्डित हो जाती हैम् और वे स्वयं ही समाप्त हो जाते हैम् ।

यद्यपि इस प्रकार की साधनाओं के बाद वस्त्र का विशेष महत्त्व नहीं होता, यह अलग बात है कि समाज में जाते समय वस्त्रों का प्रयोग मर्यादा अनुकूल है, परन्तु वस्त्रों का प्रयोग साधना काल में निषेध माना जाता है, क्योङ्कि तन्त्र की उच्च क्रियाओं में शरीर और वासना का महत्त्व समाप्त हो जाता है। शरीर ही एक प्रकार से साधना

57

स्थल बन जाता है, अतः शरीर को साधना स्थल के रूप में देखना तो सम्भव होता है, परन्तु वासना की दृष्टि से नहीं देखा जाता, या यों कहा जाय कि उसकी वासनात्मक दृष्टि ही समाप्त हो जाती है ।

श्रीमाली जी का इस अघोरी से परिचय अवधूत खरपरानन्द के आश्रम में ही हुआ था । उस समय तक इस अघोरी को वहाम् आये एक वर्ष हो चुका था और तभी अकस्मात् उस आश्रम मेम् इन दोनों की भेण्ट हुई। इससे पूर्व भी अवधूत खरपरानन्द जी के साथ श्रीमाली जी तीन चार महीने रहे थे, और कुछ विशेष साधनाएं भी सम्पन्न की थीम् ।

और

धीरे-धीरे इन दोनों ने अवधूत स्वामी जी से कुछ तान्त्रिक साधनाएं सीखीं कुछ विशेष साधनाओं में सफलता भी प्राप्त की ।

अभी पीछे कुछ समय पूर्व जब इन दोनों का मिलन हुआ तो निश्चय किया गया कि

गुरु गोरखनाथ की सिद्ध स्थली पर बैठकर कुछ साधनाओं का परीक्षण किया जाना उचित रहेगा, और इस प्रकार वह अघोरी इस जलाशय के तट पर आया था । अभी बातचीत चल रही थी कि वह भैरबी पुनः झूमती हुई आती दिखाई दी । ऐसा लग रहा था जैसे साधना से उसका सारा शरीर सुगठित हो गया हो, पूरे शरीर से एक विशेष प्रकार की क्रान्ति निसृत हो रही थी, पूरा शरीर एक विशेष आभा से दमक रहा था, चेहरे से यौवन का उन्माद स्पष्ट दिखाई दे रहा था, काले और लम्बे बाल उसकी पूरी पीठ को ढके हुए थे, पर इसके अलावा उसके पूरे शरीर पर किसी प्रकार का कोई वस्त्र नहीं था, और न उसके मन में किसी प्रकार का कोई सङ्कोच या हिचक दिखाई दे रही थी ।

उसके हाथों मेम् एक छोटी-सी पोटली थी । पता नहीम् उसमें क्या था, परन्तु, उसने पोटली लाकर अघोरी के हाथों में दे दी, और दूसरे ही क्षण झुककर श्रीमाली जी के पांवों को पकड़ लिया।

बातचीत के दौरान कई प्रकार की बातें होती रहीं। यह निश्चय हुआ कि शेष साधनाएं कल प्रातः काल से प्रारम्भ की जाएङ्गी। अब तक साञ्झ ढल गयी थी, सूर्य

पश्चिम मेम् अस्त हो रहा था, जिसकी लालिमा पूरे आकाश में

फैल गयी थी। चारों

तरफ एक विशेष प्रकार का बाताबरण बन गया था। वह दृश्य, वह वातावरण वही अनुभव कर सकता है जिसने उस दृश्य को अपनी आङ्खों से देखा हो ।

रात्रि को वहीं पत्थरों पर सोने का उपक्रम किया गया। इससे पूर्व अघोरी ने उसी विधि से भोजन मङ्गवाया जिसे तीनों ने छक कर खाया ।

हुए

1

रात्रि को मुझे रात भर नीन्द नहीम् आई, जबकि वे तीनों गहरी नीन्द में सोये थे । मैम् अपने आपको कमजोर अनुभव कर रहा था और महसूस कर रहा था कि ज्ञान का क्षेत्र अपने आप मेम् असीम और अनन्त है, जिसकी थाह पाना सम्भव नहीं है, मैम् अभी तक इस ज्ञान के समुद्र में से एक बून्द से ज्यादा प्राप्त नहीं कर सका हूं, पर

58

इस एक बून्द के बल पर ही मैम् अपने आपको बहुत ऊञ्चे स्तर का समझने लग गया

था ।

जिस समय स्वामी प्रवृज्यानन्द जी के आश्रम में श्रीमाली जी आए थे, तो एक सामान्य व्यक्ति की तरह दिखाई दे रहे थे। ऐसा ज्ञात ही नहीं हो रहा था कि इससे इन्होन्ने तन्त्र मन्त्र के क्षेत्र में विशेष सफलता प्राप्त कर ली है और साधना के उस स्तर पर हैं, जिसे सामान्य रूप से स्पर्श करना ही अपने आप में कठिन माना जाता है ।

मैम् उस समय भी अपने आपको श्रेष्ठ मान रहा था और मुझमें गर्व की मात्रा कुछ विशेष रूप से ही थी, पर मैन्ने अनुभव किया कि श्रीमालीजी के मन में न तो ज्ञान का अहं है और न ही प्रदर्शन की प्रवृति । वे अपने आपको सामान्य मानव ही माने हैं, और किसी भी प्रकार से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करते ।

हुए

उन्होन्ने जिस प्रकार से इन तीन चार महीनों में स्वामी जी की सेवा की थी, वैसी सेवा मैं तीन वर्षों में भी नहीं कर सका था। यही नहीम् अपितु उनकी सेवा के बाद मेरे कार्य भी वे निपटा लेते थे और मेरी प्रशंसा करते रहते थे। एक दो बार तो हास्य के क्षणों मेम् उन्होन्ने कहा भी था कि तुम मुझसे श्रेष्ठ हो, क्योङ्कि इतने बड़े स्वामी जी के आश्रम में तुम मुझसे पहले आए हो, इसलिए तुम बड़े गुरु भाई के अधिकारी हो, मुझे तो तुमसे भी बहुत कुछ सीखना है ।

और मैम् उस दिन भी अपने अहं के नशे में चूर रहा था। उस समय भी मैम् इस व्यक्ति की श्रेष्ठता को नहीं समझ सका था कि इसमें ज्ञान का अथाह सागर है, यद्यपि मेरे पास छोटी सी बून्द है और वह बून्द बार-बार उछल रही है जबकि यह सागर पूर्णतः गम्भीर और शान्त है । स्वामी जी ने पहले ही दिन अपनी अनुभवी आङ्खों से यह भाम्प लिया था कि यह व्यक्तित्व अपने आपमेम् अन्यतम है, इसीलिए तो उन्होन्ने रवाना होते समय कहा था कि यह व्यक्तित्व अपने आपमेम् अन्यतम है। आज के युग में मन्त्र तन्त्र या भारत की प्राचीन विद्याओं में जो अश्रद्धा उत्पन्न हुई है अथवा इस प्रकार की विद्याओं में जो न्यूनता आई है उसे यही व्यक्तित्व दूर कर सकेगा और एक बार पुनः इन लुप्त विद्याओं को पुनर्जीवित कर समाज में स्थापित कर सकेगा ।

मैं दीक्षा पाने की इच्छा मन में सञ्जोये हुए था, परन्तु मैन्ने स्वयं यह अनुभव किया कि वास्तव में ही मैम् उसके काबिल नहीं था । यद्यपि मुझे एक क्षण के लिए दुख अवश्य हुआ था और यह विचार करने के लिए बाध्य भी हुआ था कि इन तीन वर्षों का फल क्या मुझे इसी रूप में मिला है ? कि मात्र तीन चार महीनों में ही एक व्यक्ति साथ रहकर दीक्षा प्राप्त कर ले ।..

परन्तु आज जब मैं तटस्थ होकर सोचता हूं तो मुझे उनके विवेक पर श्रद्धा आ रही है। वास्तव में ही स्वामी जी ने योग्य पात्र का चुनाव किया था, वेदोक्त मन्त्रों में भी यह व्यक्तित्व मुझसे बहुत कुछ आगे बढ़ा हुआ है । इस आश्रम मेम् आने से पूर्व59

भी इस व्यक्तित्व ने मन्त्रों का गहन अध्ययन किया था और परीक्षण की कसौटी पर कसकर उसे पूर्णता दी थी।

अघोरी के कार्यों से मैं चमत्कृत था । मैं देख रहा था कि उसका पूरा जीवन तान्त्रिक कार्यों में ही व्यतीत हुआ है, विशेष करके साबर मन्त्रों में वह सिद्धहस्त है, परन्तु बातचीत के दौरान उसने भी स्वीकार किया कि इस व्यक्तित्व के सामने मैं कुछ भी नहीं हूम् । यदि तुलना की जाय तो मैम् इसके सामने कहीं पर भी किसी भी प्रकार से टिकता नहीं हूं, यह अलग बात है कि मैं पूर्ण रूप से तान्त्रिक लगता हूं परन्तु ज्ञान के क्षेत्र में मैम् आज भी इस व्यक्तित्व को गुरु मानने के लिए बाध्य हूम् और यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है ।

भैरवी ने भी इस व्यक्तित्व के चरण छूकर इस मान्यता को स्पष्ट कर दिया था कि यह व्यक्तित्व इस क्षेत्र में भी महान है । यह अलग बात है कि इसमें प्रदर्शन की भावना नहीं है और यह पूर्णतः शान्त बना रहता है ।

भैरवी की पूर्ण श्रद्धा और सम्मान अघोरी से भी ज्यादा इस व्यक्तित्व के चरणों में थी, ऐसा मुझे अनुभव हुआ ।

दूसरे दिन प्रातः से ही भैरवी अपनी साधना में रत थी। जब मैम् उठा उस समय अघोरी तालाब में मुर्दे की तरह तैर रहा था और दूर एक वृक्ष के तले श्रीमाली जी अपनी साधना में रत थे। मैं भैरवी के बारे में विशेषकर उसकी साधना के बारे में जानना चाहता था, क्योङ्कि मुझे यह भैरवी रहस्यमयी लगती थी । और मुझे ऐसा लग रहा था कि यह वाम मार्गी साधना में कुछ विशेष साधनाओं से सम्पन्न है ।

दोपहर को भैरवी से बातचीत करने का मौका मिला। तब ज्ञात हुआ कि भैरवी ने कई प्रकार की साधनाएं सम्पन्न की हैम् और वह जल गमन तथा वायु गमन प्रक्रिया में भी सिद्धहस्त है । ये दोनों तान्त्रिक क्षेत्र मेम् उच्च कोटि की क्रियाएं कही जाती हैं, कामाक्षा भूमि में ही इन साधनाओं को उसने सीखा था, । उसने बातचीत में बताया था कि उच्चकोटि की साधनाओं को सीखने में श्रीमाली जी का विशेष सहयोग रहा है ।

उसने बताया कि वाममार्गी साधना हैय या निम्न स्तर की नहीं है । यह अलग बात है कि इसका प्रयोग निम्न कार्यों के लिए किया जाय । उसकी एक ही आकाङ्क्षा थी कि वह प्राणकल्प क्रिया सीखना चाहती थी। इसके लिए वह पूरे भारतवर्ष में भटक चुकी थी । परन्तु ऐसा कोई सिद्ध पुरुष नहीं मिला था जो कि उसे यह विद्या सिखा दे । इस विद्या में प्राणों को एक देह से दूसरे देह में स्थानान्तरित किया जा सकता है । प्राचीन काल मेम् इस प्रकार की विद्या जानने वाले सैकड़ों सिद्ध थे, परन्तु धीरे- धीरे यह विद्या लोप होती गई। कहा जाता है कि स्वामी शङ्कराचार्य ने गृहस्थ धर्म का ज्ञान राजा की देह में प्रवेश करके ही किया था। दूसरे शब्दों मेम् इसे ‘पर काया प्रवेश’ कहा जाता है ।

उसने बातचीत को रहस्यमयी बनाते हुए बताया कि मेरे जीवन का अन्तिम

60

लक्ष्य यह ‘परकाया प्रवेश’ ज्ञान प्राप्त करना है। जहां तक मुझे ज्ञान है नेपाल और पूरे भारत में मात्र दो या तीन व्यक्ति हैं जिन्हें यह परकाया प्रवेश का ज्ञान पूर्ण रूप से है ।

इस क्रिया को सिखाने वाले बहुत ही कम हैम् और उसने अत्यन्त ही धीमे फुस- फुसाहट के स्वर में बताया कि श्रीमाली जी भी इस क्रिया को भली प्रकार से जानते हैम् । यह पता उसे कामाक्षा में चला था । कामाक्षा मन्दिर के मुख्य पुजारी से उसने अपनी याचना बताई थी, तब उसने धीमे स्वर में बताया था कि इस विद्या को जानने वाले भारतवर्ष में तीन व्यक्तित्व हैम् एक धार्मिक सन्त हैम् और तीसरे

के

जिसमेम् एक त्रिजटा अघोरी है, दूसरे वाराणसी श्रीमाली जी हैम् ।

उसने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैन्ने दो तीन बार सङ्केत से श्रीमाली जी से निवेदन किया कि वे इस ज्ञान को मुझे दें, परन्तु अभी तक उनकी तरफ से किसी प्रकार की स्वीकृति या सङ्केत नहीं मिल सका । यदि यह विद्या मुझे अपने जीवन में नहीं मिली तो मैम् अपने जीवन को व्यर्थ समझङ्गी । इस विद्या को प्राप्त करने के लिए मैम् ऊञ्चा बलिदान करने के लिए भी तैयार हूम् ।

स्वामी प्रवृज्यानन्द जी के आश्रम में मैन्ने इस विद्या के बारे में सुना था । उन्होन्ने ही यह बताया था कि इसमें साधक अपने प्राणों को किसी मृत शरीर में डालकर उस मृतक से मनचाहा कार्य लिया जा सकता है, साथ-ही-साथ यदि साधक का शरीर जर्जर हो जाय तब भी वह दूसरे किसी मृतक शरीर का सहारा लेकर लम्बी उम्र प्राप्त कर सकता है ।

स्वामी जी ने इस रहस्य को बताते हुए कहा कि यह साधना सर्वोच्च साधना कही जाती है और सौभाग्य से ही इस प्रकार का ज्ञान देने वाले गुरु मिल सकते हैं, इसमें साधक अपने शरीर को सुरक्षित स्थान में रखकर अपने प्राणों को निकाल दूसरे शरीर में प्रवेश ले लेता है और उस शरीर से मन चाहा कार्य सम्पन्न कर पुनः अपने पूर्व शरीर में प्रवेश करने में समर्थ हो सकता है ।

उन्होन्ने भी बताया था कि यद्यपि मैं मन्त्र के क्षेत्र में सिद्धहस्त साधक माना जाता हूं परन्तु प्रयत्न करने पर भी इस विद्या को प्राप्त नहीं कर सका हूम् ।

आज जब भैरवी के मुंह से परकाया प्रवेश की चर्चा सुनी तो स्वामी जी के मुंह से निकले हुए शब्द याद हो आये। मैम् आश्चर्यचकित था कि पिछले समय से जो कुछ रहस्य मेरी आङ्खों के सामने घटित हो रहे थे, वे वास्तव में ही आश्चर्यजनक थे ।

मैन्ने भैरवी से प्रश्न किया, क्या तुम्हें विश्वास है कि तुम इस श्रेष्ठतम ज्ञान को प्राप्त कर सकोगी ? उसने विश्वासपूर्वक उत्तर दिया कि यह मेरे जीवन का लक्ष्य है, मैम् एक वर्ष तक और प्रतीक्षा करूङ्गी। यदि इस एक वर्ष मेम् इस ज्ञान को प्राप्त न कर सकी तो मैम् अपने प्राणों को विसर्जित कर दूङ्गी। यह कहते-कहते उसकी आङ्खों मेम् एक विशेष लपक और दृढ़ निश्चय झलक गया ।

मैन्ने मन में सोचा कि इस प्रकार के दृढ़ निश्चय वाले व्यक्ति ही कुछ करके

61

दिखा सकते हैं, इनके सहारे ही इस प्रकार की उच्च विद्याएं टिकी हुई हैम् और यदि इस प्रकार के जोखिमपूर्ण कार्यों में ये साधक नहीं लगते तो उस प्रकार की विद्याएं भारतवर्ष से कभी की समाप्त हो जातीम् ।

दूसरे या तीसरे दिन भैरवी ने कोई साधना नहीं की और वह तालाब में शवासन में तैरती रही। लगभग दोपहर के एक बज गये तब भी उसके शरीर में किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी । मध्याह्न सन्ध्या से जब श्रीमाली जी उठे और उन्होन्ने उसे जलाशय में देखा तो अघोरी से पूछा कि क्या बात है ? यह भैरवी तालाब मेम् अब तक क्या कर रही है ?

सङ्कोच के मारे अघोरी ने कुछ नहीं कहा, परन्तु पूर्व योजनानुसार मैन्ने श्रीमाली जी से निवेदन किया कि भैरवी ने यह निश्चय कर लिया है कि या तो आप उसे परकाया प्रवेश का रहस्य समझायेङ्गे अन्यथा वह इसी प्रकार शवासन से अपने प्राणों को समाप्त कर देगी ।

तालाब मेम् उतरने से पूर्व भैरवी ने मुझे भाई शब्द से सम्बोधित किया था और कहा था कि जब मेरे बारे में श्रीमाली जी पूछें तो मेरे निश्चय को उनके सामने दोहरा देना, और मैन्ने उसी योजना के अनुसार भैरवी की बात को श्रीमाली जी के कानों तक पहुञ्चा दिया था ।

प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त न होने

श्रीमाली जी चुप रहे, अपनी किसी भी दी और मध्याह्न सन्ध्या के बाद वे पुनः अपनी साधना में जुट गये । सन्ध्या हो गई, धीरे-धीरे रात गहरी होने लगी, आकाश में चन्द्रमा उग आया और सारा आकाश तारों से भर गया, परन्तु भैरवी अभी तक उसी प्रकार पानी पर लेटी हुई थी ।

लगभग दस बजे साधना से निवृत्त होकर भोजन किया । भोजन के अवसर पर भी इस पर कोई चर्चा नहीं हुई । अघोरी ने इस सम्बन्ध में बात छेड़नी चाही पर श्रीमाली जा ने बात टाल दी ।

मुझे सारी रात नीन्द नहीम् आई । दूसरे दिन प्रातः काल मैन्ने देखा कि भैरवी उसी प्रकार पानी पर तैर रही थी। वह दिन भी इसी प्रकार बीत गया। शाम को मैन्ने पुनः निवेदन किया कि भैरवी मेरी बहिन है, क्योङ्कि उसने मुझे भाई शब्द से सम्बो- धित किया है अतः यदि वह खाना नहीं खाती तो मैं भी आज खाना नहीं खाऊङ्गा ।

श्रीमाली जी सम्भवतः क्रोध में थे । उन्होन्ने कहा कि यह कोई तरीका ज्ञान सीखने का नहीं है । इसकी अपेक्षा विनम्रता ज्यादा प्रभावपूर्ण होती है । ज्ञान के क्षेत्र में हठ, दम्भ और हड़ताल का कोई विशेष महत्त्व नहीं होता । यदि इस प्रकार से भैरवी इस ज्ञान को सीखना चाहती है तो अपने पूरे जीवन में भी नहीं सीख पायेगी। मैम् इस प्रकार से न तो अपने जीवन में झुका हूम् और न भविष्य में झुक सकूङ्गा ।

सम्भवतः हमारी बातचीत को भैरवी सुन रही थी। वह तुरन्त पानी से बाहर निकल आई और क्षमा माङ्गने के स्वर में बोली कि मैं पत्थर को या पहाड़ को तो झुका सकती हूं परन्तु इस व्यक्ति को झुकाना मेरे बस की बात नहीं है ।

62

वह प्रणिपात ढङ्ग से लेटी हुई थी। उसने निवेदन किया कि यदि मैम् इस विद्या को सीखने योग्य हूं तो आप कृपया इसका ज्ञान मुझे दें, यह मेरे जीवन की सर्वोच्च अभिलाषा है और आपने एक वर्ष पूर्व कामाक्षा मन्दिर में वायदा किया था कि यदि मैं जलगमन और वायुगमन प्रक्रिया सिद्ध कर लूङ्गी तो आप मुझे यह विद्या सिखा देङ्गे ।

इस एक वर्ष में मैन्ने साधना क्षेत्र में कितनी कठिनाइयां झेली हैं, यह मैं ही जानती हूं, परन्तु यह मेरा दृढ़ निश्चय था कि दोनों साधनाएम् इसी एक वर्ष में सिद्ध करनी है और आज मैम् आपके सामने हूम् । आप स्वयं मेरी परीक्षा ले सकते हैं कि मैन्ने इन दोनों साधनाओं को पूर्णता के साथ सिद्ध किया है या नहीं ?

श्रीमाली जी ने बताया कि इस प्रकार का दम्भ साधक के लिए

उचित नहीं है । यद्यपि तुमने जो रास्ता चुना था उसके द्वारा तो यह साधना नहीं सीख सकती थी पर (मेरी तरफ इशारा करके उन्होन्ने कहा कि) इसने तेरी सिफारिश की है अतः मैं तुझे इस विद्या को सिखा दूङ्गा ।

दूसरे दिन प्रातःकाल जब मेरी आङ्ख खुली तो पत्थर की शिला पर मेरे लिए सन्देश था कि मैम् इसी स्थान पर तीन दिन रहूं या धुन्धुआ ग्राम में जाकर विश्राम करू, तीन दिन बाद मिलना सम्भव हो सकेगा ।

सन्देश के अलावा वहां पर कोई नहीं था ।

श्रीमाली जी, अघोरी और भैरवी वहां से रात्रि को ही जा चुके थे। मैन्ने अनुमान लगाया कि निश्चय ही भैरवी को परकाया प्रवेश ज्ञान देने के लिए प्रस्थान किया गया है । अभी तक मैम् इस क्रिया के लिए उपयुक्त पात्र नहीं हूम् इसलिए मुझे अलग रखा गया है ।

मैन्ने तीन दिन वहीं पर रहने का निश्चय किया । यद्यपि सर्वथा अकेले रहते हुए मन में भय का सञ्चार हो रहा था । परन्तु फिर भी यह मेरी परीक्षा थी और मुझे इस परीक्षा में सही रूप से उतरना था । मैन्ने इन तीन दिनों मेम् अधूरी साधना को पूरा करने का निश्चय किया ।

ये तीन दिन मेरे लिए तीन वर्ष के बराबर थे । प्रत्येक क्षण मेरा ध्यान टूट जाता और मैं चाहते हुए भी ध्यान एकान नहीं कर पाता । रात्रि को मैं सर्वथा अकेला भयभीत-सा पड़ा रहता। कई प्रकार के स्वप्न मुझे चारों तरफ से घेरे रहते, मैम् उसी स्थान पर डटा रहा और जिस साधना को पूरा कर रहा था उसमें परन्तु पूर्णता प्राप्त की ।

@

चौथे रोज मध्याह्न के लगभग ये तीनों पुनः आते दिखाई दिए। भैरवी के चेहरे पर एक विशेष प्रकार की आभा लपक रही थी। मैन्ने अनुमान लगाया कि भैरवी अपने उद्देश्य में सफलता पा चुकी है । मैन्ने एकान्त होने पर भैरवी को बधाई दी तो उसने कहा कि यह तुम्हारी वजह से सम्भव हो सका है । श्रीमाली जी के मन में तुम्हारे प्रति स्नेह, आदर और ममत्व है और इसीलिए उन्होन्ने मुझे इस ज्ञान को दिया है।

मुझे ज्ञात हुआ कि अघोरी अभी तक उस लक्ष्य तक नहीं पहुञ्च सका है, जिस

63

तक भैरवी पहुञ्चने में समर्थ हो सकी है। इतना होने पर भी अघोरी के प्रकार की पराजय या हताशा की भावना नहीं थी ।

हृदय

में किसी

श्रीमाली जी ने मुझे साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए बधाई दी और कहा कि अब हमेम् इस स्थान को छोड़ देना है। जो कुछ साधना सम्पन्न करनी थी वह की जा चुकी है, अब ज्यादा समय यहां पर व्यतीत नहीं किया जा सकता ।

उसी दिन लगभग तीन बजे हमने वह स्थान छोड़ दिया। भैरवी और अघोरी उसी स्थान पर टिके रहे । सम्भवतः वे कुछ दिन और वहां रहकर विशेष साधना सम्पन्न करना चाहते थे ।

विदाई के क्षण भी कितने कारुणिक होते हैं। अघोरी की आङ्खों से आंसू छलछला रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे पहाड़ के बीच में से कोई छोटा-सा सोता फूटकर निकला हो । भैरवी साष्टाङ्ग श्रीमाली जी के पांवों में पड़ी हुई थी और अपने आंसुओं से उनके पांवों को भिगोती जा रही थी तथा साथ ही अपने बालों से उनके पांवों को पोञ्छती भी जा रही थी। मैन्ने पहली बार श्रीमाली जी की आङ्खें डबडबाई हुई देखीं, सम्भवतः वे प्रयत्न करके अपनी आङ्खों से निकलते आंसुओं को रोक रहे थे ।

मैं सुबकियां ले रहा था। मुझे पता नहीं था कि इस थोड़े समय में परस्पर इतनी अधिक अन्तरङ्गता और स्नेह हो जाएगा । वास्तव में वे क्षण मेरे लिए अत्यन्त ही बोझिल हो गए थे ।

भैरवी ने सुबकियां लेते हुए कहा कि मैन्ने अपने जीवन को समाप्त कर देने का निश्चय कर लिया था, आपने मेरे जीवन को बचा लिया है। यह सर्वोच्च ज्ञान देकर मेरे ऊपर आपने जो उपकार किया है उसके बदले में देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, भविष्य में जब तक मेरी सांसें गतिशील हैं तब तक यह शरीर, मन और प्राण आपके चरणों मेम् अर्पित है ।

श्रीमाली जी और मैं वहां से बिदा हो गए। कुछ दूर चलते और जब मुड़कर देखते तो वे दोनोम् उसी प्रकार रोते हुए दिखाई देते ।

भव्य विग्रह के

लगभग दो दिन हम रहे और जी भरकर

वहां से मैं श्रीमाली जी के साथ केदारनाथ आया । भगवान शिव का यह ज्योतिलिङ्ग अत्यन्त प्रसिद्ध है और प्रति वर्ष हजारों लाखों भक्त इस दर्शन करने के लिए आते हैं। यहां पर भगवान शिव के दर्शन किए। पहली बार यहां पर रुद्राष्टाध्याय के मन्त्रों को सञ्जीवन किया और उन्हें सिद्ध किया । वास्तव में रुद्राष्टाध्यायी अपने आप में महत्त्वपूर्ण मन्त्र सङ्ग्रह है और यदि इन मन्त्रों को चैतन्य किया जाए तो निश्चय ही ओढरदानी शिव प्रसन्न होकर मनोवाञ्छित वरदान देने में समर्थ होते हैम् ।

यहां से पैदल ही ऋषिकेश होते हुए हरिद्वार पहुञ्चे। यहां पर लगभग एक सप्ताह रुके । इस यात्रा में श्रीमाली जी से जो कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ वह वास्तव में ही मेरे जीवन की निधि है, और आज साधक-समाज में मेरा जो स्थान है उसका आधार ये ही दिन हैं जबकि मैं कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सका था ।

64

कहते हैं कि बहते हुए पानी और रमते हुए जोगी का कोई ठौर ठिकाना नहीं होता, कि कब वह किस तरफ मुड़ जाएगा । मुझे यह आभास हो गया था कि यहां पर मुझे श्रीमाली जी से बिछुड़ना पड़ेगा और वास्तव मेम् ऐसा हुआ

भी ।

पर तुम्हारा साथ उचित और इस अवधि में तुमसे मुझे लम्बे समय तक स्मरण

एक दिन उन्होन्ने मुझसे कहा कि अब मैं किसी गोपनीय स्थान पर जा रहा हूं जहां कि मुझे विशेष साधना सम्पन्न करनी है और वहां नहीं रहेगा, फिर भी पिछले कुछ महीने हम साथ रहे हैं जो स्नेह और सहयोग प्राप्त हुआ है, वह वास्तव में ही

रहेगा ।

मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था । मेरी इच्छा तो यह थी कि जीवन का शेष भाग इनके चरणों में ही व्यतीत कर दूम् और जो कुछ भी प्राप्त हो सके प्राप्त करूं, परन्तु उनकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य थी अतः बेमन से मुझे को स्वीकार करना पड़ा ।

उनकी आज्ञा

मैन्ने एक दिन दबी जबान से प्रार्थना भी की कि मैं कुछ समय और आपके साथ रहना चाहता हूम् । मैम् एक प्रकार से आपका गुरु भाई हूं, अतः इतना अधिकार तो मेरा है ही, कि मैम् अपने मन की बात आपको कह सकूम् ।

उन्होन्ने बताया कि मैम् अब मात्र दो वर्ष ही इस साधु जीवन में रहूङ्गा, उसके बाद पुनः गृहस्थ जीवन में लौट जाऊङ्गा, तब यदि तुम्हारे लिए सम्भव हो तो वहीं पर मुझे मिलना और मुझे अपने घर का पता दे दिया ।

एक दिन प्रातः काल उन्होन्ने मुझसे विदा ली, । मैं धड़कते हृदय तथा डबडबाई आङ्खों से उन्हें जाते हुए देखता रहा ।

श्रीमाली जी से बिछुड़ने के बाद कुछ दिनों तक तो मैं किङ्कर्त्तव्यविमूढ़ रहा । मुझे चारों तरफ सूना-सूना लग रहा था, पर कुछ दिनों बाद मैन्ने अपने आपको संयत किया और अपने जीवन की मूल धारणा को समझने का प्रयत्न किया ।

मेरे जीवन का मूल आधार मन्त्र साधना ही थी और मेरा उद्देश्य इस क्षेत्र में पूर्णता प्राप्त करना था। संयोग से लगभग पन्द्रह दिन बाद ही मुझे मन्त्र के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट साधक स्वामी विबुधानन्द जी मिल गए और उनके साथ मैं हरिद्वार से आगे बढ़ गया ।

स्वामी विबुधानन्द जी मन्त्र के व्यक्तित्व हैम् । यह मेरा सौभाग्य था कि आ गया, या यों कहा जाय कि उन्होन्ने ही होगी ।

क्षेत्र में पूरे विद्वत् समाज में सम्माननीय मैं हरिद्वार मेम् अचानक ही उनके सम्पर्क में मुझे अपनी तरफ खीञ्चा तो अत्युक्ति नहीं

चरणों में बैठकर मन्त्रों का विशेष ज्ञान सम्पन्न कीम् । हिमालय में स्थित उनका

आगे का पूरा एक वर्ष मैन्ने उनके प्राप्त किया और उच्च कोटि की साधनाएं कैलाश आश्रम साधुओं, सन्न्यासियोम् और योगियों के लिए आदर्श स्थल कहा जाता है । मैं समझता हूं जो कुछ होता है नियति की इच्छा के अनुरूप ही होता है। मैन्ने

65

उस एक वर्ष में जो कुछ प्राप्त किया वह अन्यतम था । स्वामी जी ने ज्ञान देने में किसी प्रकार की कृपणता नहीं दिखाई । श्रीमाली जी के सम्पर्क मेम् आने से मैं श्रम की महत्ता को पहचान चुका था, अतः मैं भूख, प्यास, नीन्द आदि सब कुछ भुलाकर पूरी तरह से साधना कार्यों में संलग्न हो गया ।

यह मेरा सौभाग्य था कि योगी समाज विशेषकर मन्त्र विद्वत्परिषद ने मुझे अध्यक्ष बनाया और मेरे कार्यो को सम्मान दिया । ये पङ्क्तियां मैं दम्भ या अहं के वशी- भूत होकर नहीं लिख रहा हूं, अपितु मेरे जीवन निर्माण में जिन लोगों का योगदान रहा है, उन्हें श्रद्धा से स्मरण कर रहा हूम् ।

स्वामी जी ने अपना अन्त समय निकट समझकर मुझे अपना उत्तराधिकारी बनाया और विद्वत्परिषद से इसकी पुष्टि कराकर अपने शरीर को शान्त कर लिया, उनका शरीर शान्त होने से मैम् एक बार पुनः अनाथ हो गया । मुझे फिर ऐसा लगा जैसे चारोम् ओर सूना-सूना-सा हो, परन्तु अब मेरे ऊपर कैलाश आश्रम का भार था और मुझे उसी क्षमता के साथ उसे सञ्चालित रखना था ।

लगभग तीन या चार वर्ष बाद मुझे साधना के द्वारा ज्ञात हुआ कि मुझे श्रीमाली जी बुला रहे हैं। मैं बिना कुछ भी विलम्ब किए उनके निवास स्थान जोधपुर पहुञ्च गया। अब तक वे साधु जीवन छोड़ चुके थे और पुनः गृहस्थ जीवन प्राप्त कर लिया था । साधु जीवन मेम् आने से पूर्व वे गृहस्थ थे और इस अन्तराल के बाद एक बार वे गृहस्थ बन गये थे ।

परन्तु मुझे ऐसा लगा कि वे मुझे ज्ञात हुआ कि उनके गुरु

मैं लगभग पन्द्रह दिन तक उनके साथ रहा, गृहस्थ होते हुए भी पूर्णतः वीतरागी हैम् । बातचीत से परमहंस स्वामी सच्चिदानन्द जी ने आज्ञा दी थी कि पुनः गृहस्थ जीवन भोगा जाए और इस जीवन में रहकर जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया है उसे समाज को वाण्टा

जाय ।

स्वामी जी की यह मान्यता है कि जब तक यह ज्ञान समाज को समर्पित नहीं होगा तब तक ऐसा ज्ञान योगियों या साधुओं के पास ही रहेगा । आवश्यकता इस बात की है कि इस ज्ञान को पुनः समाज में वितरित किया जाए और ऐसे युवकों का चयन किया जाए जो वास्तव में ही इस क्षेत्र में रुचि लेने वाले होम् ।

हमेशा-हमेशा के हिमालय के

मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि उन्हेम् एक निश्चित अवधि दी गई और बताया गया है कि तुम्हेम् इतने वर्ष ही गृहस्थ जीवन भोगना है। इसके बाद पुनः लिए साधु जीवन स्वीकार कर लेना है और आगे का पूरा जीवन अञ्चलों में ही व्यतीत करना है ।

है

स्वामी जी की आज्ञा थी कि पुस्तकों के माध्यम से ही इस में वितरित किया जा सकता है । समाज अभी उस स्तर पर नहीं के उच्च ज्ञान को समझ सके । उन्हें सामान्य ज्ञान देने की जरूरत है,

मुदूर

ज्ञान को समाज

कि वह साधना

जिससे उनकी इसके प्रति रुचि जागृत हो और वह इस क्षेत्र को समझें, साथ-ही-साथ ज्योतिष

66

कर्मकाण्ड, तन्त्र, मन्त्र, आयुर्वेद आदि ज्ञान से सम्बन्धित अल्पमोली पुस्तकें लिखी जायं जिनके माध्यम से समाज इस प्रकार के ज्ञान से परिचित हो सके

1

बातचीत के दौरान श्रीमाली जी ने कहा कि मेरी इच्छा है कि मैम् इस प्रकार के ज्ञान से सम्बन्धित ग्रन्थ लिखूं, परन्तु मेरे जीवन की सार्थकता तो तभी मानी जाएगी जबकि मैं कुछ सजीव ग्रन्थों की रचना कर सकूम् । सजीव ग्रन्थों से उनका तात्पर्य कुछ ऐसे शिष्य तैयार करना है जो कि इस क्षेत्र में रुचि लेने वाले होम् ।

श्रीमाली जी चाहते हैं कि, पूरी तरह से वे अपने ज्ञान को अपने शिष्यों में वितरित कर देम् । यदि वे अपने जीवन में दस-पन्द्रह पूर्ण शिष्य तैयार कर सके तो यह देश और समाज के लिए बहुत बड़ा योगदान होगा ।

उन्हीं दिनों मैन्ने श्रीमाली जी से निवेदन किया था कि वे मन्त्र शास्त्र से सम्बन्धित कोई ऐसा ग्रन्थ लिखें जिसमें सैद्धान्तिक पक्ष का पूर्ण रूप से विवेचन हो, क्योङ्कि इस प्रकार के ग्रन्थ का सर्वथा अभाव है और इस सम्बन्ध में जो कुछ भी थोड़े बहुत ग्रन्थ दिखाई देते हैं, वे प्रामाणिक नहीं हैं। उन्होने परन्तु मैं समझ रहा था कि उनका जीवन जरूरत से ज्यादा व्यस्त है, अनुरोध की कितनी रक्षा कर सकेङ्गे ?

मेरे कथन को

स्वीकृति दी, अतः वे मेरे

‘मैं लगभग पन्द्रह दिन रहा और इन पन्द्रह दिनों मेम् उनके द्वारा जो स्नेह मिला वह वास्तव में ही मेरे लिए अन्यतम है ।

इसके बाद पुनः दूसरी बार जोधपुर जाने का अवसर मुझे छः वर्ष बाद मिला । इन छः वर्षों में बहुत कुछ परिवर्तन हो चुका था । श्रीमाली जी एक पूर्ण गृहस्थ के रूप में दिखाई दे रहे थे । यद्यपि इससे पूर्व वे पति-पत्नी दोनों कैलाश आश्रम आ चुके थे और वहाम् एक सप्ताह तक मेरा आतिथ्य स्वीकार कर चुके थे, अतः धीरे-धीरे अन्त- रङ्गता बढ़ती जा रही थी ।

परन्तु इस बार जब मैं छः वर्षों के बाद वहाम् आया तो मैन्ने यहां पर एक बिल्कुल नवीन रूप देखा। उनके जीवन का आधार मन्त्र साधना ही थी और आगे का पूरा जीवन इसी क्षेत्र में व्यतीत करने का निश्चय किया हुआ था ।

मैन्ने यहां देखा कि ने मन्त्रों के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट रखने के लिए पूर्ण प्रयत्नशील हैम् । वेदोक्त मन्त्रों का मूल आधार ध्वनि है, और साथ-ही-साथ कर्मकाण्ड मे इनका गहरा सम्बन्ध होता है ।

इन दिनोम् उन्होन्ने यज्ञ पर विशेष शोध की थी और उन्होन्ने इस मान्यता की पुष्टि की है कि यज्ञ हमारे सामाजिक जीवन का मुख्य आधार होना चाहिए ।

उन्होन्ने स्पष्ट किया कि मन्त्रों का विशेष लाभ यज्ञों के माध्यम से ही लिया जा सकता है । यह बात अलग है कि यह पद्धति जितनी आसान और सुगम दिखाई देती है. उतनी आसान नहीं है, परन्तु फिर भी इस पद्धति का जिस प्रकार से और जितना विकास होना चाहिए भारतवर्ष मेम् उतना विकास नहीं हो पाया है, और वे इस कार्य के लिए बराबर प्रयत्नशील थे ।

67

कर्मकाण्ड या यज्ञ पद्धति एक स्वतन्त्र और पूर्ण विज्ञान है । भारतवर्ष में यह विज्ञान बहुत ऊञ्चे स्तर पर विकसित हो चुका है, परन्तु अब धीरे-धीरे इसमें ह्रास आने लग गया है, क्योङ्कि नयी पीढ़ी इस प्रकार के कार्यों को ढोङ्ग, ढकोसला, अन्धविश्वास और पाखण्ड समझने लगी है, जबकि ये सारे वक्तव्य उनकी हीन मनोवृत्ति और क्षीण बुद्धि के परिचायक हैम् ।

जैसा कि मैन्ने बताया कर्मकाण्ड एक स्वतन्त्र विद्या है, जिसका सीधा सम्बन्ध वेदोक्त मन्त्रों से है, परन्तु इसमें जरूरत से ज्यादा जटिलता है और जब तक उन जटिलताओं को और रहस्यों को नहीं समझा जाएगा तब तक इस प्रकार के कार्यों में पूर्णता आना सम्भव नहीं है ।

इसमें छोटी-से-छोटी बात का निश्चित प्रमाण है, प्रत्येक बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है, यज्ञ की जो वेदी बनती है, उसके कितने खण्ड होने चाहिए ? प्रत्येक खण्ड कितना चौड़ा होना चाहिए, उस वेदी के लिए किस प्रकार की मिट्टी का उपयोग किया जाना चाहिए, वेदी के सबसे ऊपर का आधार कितना लम्बा-चौड़ा होना चाहिए, तथा वह आधार कूर्मपृष्ठीय हो या समतल हो, यज्ञ की वेदी का मुंह किस तरफ होना चाहिए, उस पर जो अग्नि प्रज्ज्वलित की जाय उसका क्या नाम है, किस प्रकार से उसका आह्वान किया जाना चाहिए, इसके लिए किस प्रकार के मन्त्रों का विधान है, यज्ञ में कौन-कौन-सी सामग्री का उपयोग होना चाहिए, किस कार्य के लिए किस प्रकार का यज्ञ हो । प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग हवन सामग्री का परिमाण शास्त्रों में निर्देशित हैं, कितने तिल, जौ, आदि का योग होना चाहिए इस प्रकार की सैकड़ों जटिलताएं हैम् और जब तक इन सारी जटिलताओं का ज्ञान नहीं होता तब तक यज्ञ में पूर्णता और सफलता प्राप्त नहीं हो पाती ।

मुझे आश्चर्य है कि कर्मकाण्ड के क्षेत्र में भी श्रीमाली जी सिद्धहस्त हैम् और इस क्षेत्र मेम् उनके कार्य या उनकी मान्यता को पण्डित समाज प्रामाणिकता देता है । जब भी इस प्रकार की कोई गुत्थी उलझ जाती है, तब श्रीमाली जी से ही सम्पर्क स्थापित किया जाता है और वे जो आधार या मान्यता प्रदान करते हैं, वह विद्वत् समाज में प्रामाणिक माना जाता है ।

इस बार मुझे लगभग एक महीने तक उनके साथ रहने का अवसर मिला और मैन्ने देखा कि उन्होन्ने इस क्षेत्र में जितना और जो कुछ कार्य किया है वह अपने आप मेम् आश्चर्यजनक है ।

इस एक महीने में संयोगवश मुझे दो-तीन विशेष यज्ञों में भाग लेना पड़ा जो कि श्रीमाली जी द्वारा सञ्चालित थे । मैन्ने देखा कि वे यज्ञों के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से कार्य कर रहे हैम् । यज्ञ प्रारम्भ करने से पूर्व छोटी-से-छोटी बात का भी वे ध्यान रखते हैम् और प्रत्येक कार्य के पीछे शास्त्रोक्त आधार होता है

मुझे विजय यज्ञ में भाग लेने का अवसर मिला, जिसमें मुझे कुछ नवीन अनु- भूतियां हुई । यह यज्ञ एक विशेष कार्य के लिए सम्पन्न किया जा रहा था। एक सज्जन

68

चुनाव में पूर्ण सफलता प्राप्त करना चाहते थे और इसके लिए वे मन में सशङ्कित थे कि यदि चुनाव में पूर्ण सफलता प्राप्त न कर सका तो प्रतिष्ठा में बहुत बड़ा आघात लगेगा । फलस्वरूप उन्होन्ने पण्डितजी के निर्देशन में विजय यज्ञ सम्पन्न करवा करके ही चुनाव में भाग लेने का निश्चय किया ।

इस यज्ञ में सौ पण्डितों की आवश्यकता थी। श्रीमाली जी चाहते थे कि पूर्ण शुद्ध उच्चारण वाले पण्डितों को ही इस यज्ञ में भाग लेने दिया जाय, अतः उन्होन्ने यज्ञ से उन पण्डितों की परीक्षा लेने का निश्चय किया। इसका तात्पर्य केवल मात्र यही था शुद्ध उच्चारण वाले पण्डित ही भाग लें, जिससे कि कार्य में निश्चित सफलता प्राप्त हो सके ।

कि

‘इसके लिए केवल मात्र उतना ही विधान रखा गया, कि प्रत्येक पण्डित से एक या दो मन्त्रों का उच्चारण करने के लिए कहा जाता और इसी से यह निर्णय हो जाता कि उनका उच्चारण कितना प्रामाणिक है ?

इसमें मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला। इस प्रतियोगिता में लगभग तीन हजार पण्डितों ने भाग लिया, क्योङ्कि श्रीमाली जी ने यह घोषणा कर दी थी कि इस यज्ञ में जो पण्डित भाग ले सकेङ्गे उन्हें सामान्य नियम से पाञ्च गुनी ज्यादा दक्षिणा दी जायगी और उन्हेम् अन्य कई सुविधाएं भी प्राप्त हो सकेङ्गी।

इस स्वार्थ से प्रेरित होकर के भी कई पण्डितों ने भाग लिया। ये सभी पण्डित अपने क्षेत्र में विद्वान् माने जाते हैं, परन्तु मुझे दुख इस बात का हुआ कि इस पूरी प्रतियोगिता में मात्र बयालीस पण्डित ही सफल हो सके, जिनका उच्चारण शुद्ध था या श्रीमाली जी के शब्दों में जो यज्ञ में भाग लेने के अधिकारी थे ।

पण्डितों का ही चयन होना हमारी

इस पर भी जो पण्डित चुने गए थे,

तीन हजार पण्डितों में मात्र बयालीस वर्तमान व्यवस्था पर कितना बड़ा आघात है। उनसे मात्र उच्चारण ज्ञान ही प्रामाणिक माना गया था। यह अलग बात है कि यज्ञ के मूल सिद्धान्तों को वे कितने समझते थे । जहां तक मैं समझता हूं कि यदि यज्ञ की बारीकियों को लेकर चुनाव किया जाय तो दो या तीन पण्डित ही सफल हो पाते ।

शेष पण्डित भी अपनी जीविकोपार्जन तो करते ही हैं, सभी पण्डित समर्थ हैं, अपने-अपने क्षेत्र में मान्यता प्राप्त हैं, यजमान उनसे कार्य करवाकर सन्तुष्टि अनुभव करते हैं, और पण्डित कार्य करके अपने कार्य की इतिश्री मान लेते हैं, परन्तु इसमें सफलता कितनी मिलती होगी यह विचारणीय बात है, क्योङ्कि यज्ञ और मन्त्र का मूल आधार ही ध्वनि है, स्पष्ट और शुद्ध उच्चारण है और यदि उनका उच्चारण ही दोषयुक्त है तो फिर कार्य में सफलता किस प्रकार से सम्भव है ।

बातचीत करने पर श्रीमाली जी बहुत ही निराश नजर आ रहे थे । उनको दुःख इस बात का था कि यदि वर्तमान समय में भी पण्डितों का इस प्रकार से अकाल अनु- भव किया जा रहा है तो आने वाले समय में क्या स्थिति होगी, यह कल्पना की जा राजती है, क्योङ्कि नयी पीढ़ी इस प्रकार के कार्यों में रुचि नहीं ले रही है, और इस69

प्रकार के कार्यों को अनुकूल नहीं समझ रही है ।

समाज ने यह कार्य ब्राह्मण वर्ग को सौम्पा था, पर आने वाली पीढ़ी या ब्राह्मणों के पुत्र नौकरी करने में ज्यादा गौरव अनुभव करने लगे हैं, तथा अपने पूर्वजों की थाती को सम्भालने मेम् अक्षमता अनुभव करने लगे हैम् । उनकी रुचि ही इस प्रकार के कार्यों में नहीं रही है, फिर यह विज्ञान किस प्रकार से जीवित रह सकेगा और आने वाली पीढ़ियों को हम यह ज्ञान किस प्रकार से दे सकेङ्गे ।

सम्भवतः उसी समय श्रीमाली जी ने निर्णय ले लिया कि एक ऐसा प्रतिष्ठान प्रारम्भ करना चाहिए जहां पर इस प्रकार के ज्ञान को प्रामाणिकता के साथ दिया जा सके। यह आवश्यकं नहीं है कि यह ज्ञान केवल ब्राह्मण पुत्र ही सीखे, कोई भी योग्य युवक या व्यक्ति इस ज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर सकता है । आवश्यकता इस बात की है कि उसमें प्रतिभा हो, और उसमेम् इस प्रकार के ज्ञान को सीखने की इच्छा बल- वती हो ।

इसके बाद उन्होन्ने केन्द्र के अन्तर्गत इस प्रकार की व्यवस्था प्रारम्भ की। उनके निर्देशन में कुछ योग्य युवक तैयार हो रहे हैं जो कि आने वाले समय मेम् इस ज्ञान को जीवित रख सकेङ्गे और समाज में फैला सकेङ्गे ।

यह हमारी अज्ञानता है कि यज्ञ के माध्यम से खाद्य पदार्थों का नाश होता है या इन पदार्थों की बर्बादी होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो यज्ञ का निश्चय प्रभाव है क्योङ्कि यज्ञ में जो सामग्री अग्नि को भेण्ट चढ़ाई जाती है, उसका एक निश्चित अनुपात होता है, और उस अनुपात से विशेष प्रकार का धुंआ वायु मण्डल में वितरित होता है जिसका प्रभाव जन-मानस पर अनुकूल रूप से पड़ता है ।

इसके साथ-ही-साथ मन्त्रों का विशेष प्रभाव निश्चित है। मन्त्रों के माध्यम से वे कार्य भली प्रकार से सम्पन्न किए जा सकते हैं जो कि सामान्य रूप से असम्भव माने जाते हैम् ।

उस विजय यज्ञ मेम् एक पण्डित के रूप में मैन्ने भी भाग लिया था और मैन्ने देखा कि वास्तव में ही यज्ञ विधान एक जटिल क्रिया है, जिसमें प्रत्येक कार्य के लिए निश्चित विधान बने हुए हैं। कोई भी कार्य इच्छा से सम्बन्धित नहीं है, श्रीमाली जी के निर्देशन में सही रूप में तथा व्यवस्थित रूप में कार्य सम्पन्न होता है । उनकी धारणा अर्थोपार्जन नहीं है अपितु उनकी इच्छा और भावना यह है कि यह विज्ञान पुनः समाज में मान्यता प्राप्त कर सके, लोगों की आस्था इस विज्ञान के प्रति हो, वे इसके महत्त्व को समझेम् और अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए पूर्वजों द्वारा निर्दिष्ट इस प्रकार के कार्यों का या उपायों का उपयोग करेम् ।

यह यज्ञ लगभग इक्कीस दिन तक चला। से कार्य सम्पन्न किया जाता था, प्रत्येक दिन का कार्य भिन्न था, जो लोग यह मान बैठे हैं कि यज्ञ मात्र

प्रत्येक दिन एक निश्चित तरीके पहले दिन के कार्य की अपेक्षा अग्नि में पदार्थों को जलाना

ही है, वे भयङ्कर भूल में हैं। वास्तविक्ता तो यह है कि यह कार्य अत्यन्त जटिल

70

1

है । यदि इसका सही प्रकार से उपयोग किया जाए तो निश्चय ही हमारा जीवन ज्यादा सुखमय बन सकता है ।

उनकी प्रेरणा से मैन्ने कैलाश आश्रम में भी इस प्रकार के विद्यार्थियों का चयन किया है जो कि कर्मकाण्ड और यज्ञ पद्धति को सीखने में रुचि लेते हों, और इस लुप्त विद्या को समाज में पुनः प्रतिस्थापित करने में योगदान देने मेम् उत्सुक हाम् ।

विजय यज्ञ के अलावा शास्त्रों में कई प्रकार के यज्ञों का विधान है और प्रत्येक यज्ञ पहले यज्ञ से भिन्न हैम् । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक यज्ञ की परि- पाटी, उसका विधान, उसकी शैली आदि सब कुछ भिन्न हैम् ।

निश्चित रूप से सन्तान प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए विजय यज्ञ, घर में सुख-शान्ति और प्रसन्नता का वातावरण बनाये रखने के लिए शान्ति यज्ञ, इस प्रकार के सैकडों प्रकार के यज्ञों का विधान है और यदि इन यज्ञों को सुयोग्य पण्डितों के निर्देशन में सम्पन्न किया जाय तो निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है ।

उन्होन्ने बातचीत के दौरान बताया कि वेदोक्त मन्त्रों का मुख्य उपयोग जहाम् आत्मकल्याण है वहीं समाज को सुखमय बनाने के लिए भी इनका बहुत बड़ा योगदान है । उनकी इच्छा है कि इन समस्त मन्त्रों का सङ्ग्रह भली प्रकार से किया जाय और आज के

युग के परिवेश के अनुसार उनका चयन करके समाज के सामने सरल विधि से रखा जाय तो समाज इसका ज्यादा लाभ उठा सकता है ।

उन्होन्ने बताया कि कर्मकाण्ड से सम्बन्धित जितने भी ग्रन्थ हैं वे सब संस्कृत में हैं फलस्वरूप सामान्य जनमानस उनसे लाभ नहीम् उठा पा रहा है । आवश्यकता इस बात की है कि इन सारी जटिलताओं को सुबोध और सरल शैली में लिखा जाय तो समाज के लिए ज्यादा उपयोगी हो सकता है ।

जैसा कि मैन्ने अनुभव किया है श्रीमाली जी मूलतः साधु हैम् और सम्भवतः साधु जीवन ही उन्हें ज्यादा रुचिकर है । यह अलग बात है कि उनका विवाह अत्यन्त छोटी अवस्था में हो गया था, फलस्वरूप चाहते न चाहते हुए भी उन्हें गृहस्थ जीवन में बन्धना पड़ा । भविष्य मेम् उन्होन्ने पुनः गृहस्थ में जाने की इच्छा नहीं रखी थी, परन्तु जब उनके गुरु ने आदेश दिया कि समाज का कल्याण समाज में रहकर ही सम्भव है, समाज विशृङ्खलित इसलिए हो गया है कि समाज को उपदेश देने वाले साधु तो हैम् । पर वे साधु अपने आपको समाज से एकाकार नहीं कर पाये । उन्होन्ने अपने आपको अलग-अलग समझा, फलस्वरूप उनमेम् और समाज मेम् एक खाई-सी बराबर बनी रही ।

मैन्ने श्रीमाली जी के ही एक गुरु भाई से सुना था कि जब गुरु ने उनकी अन्तिम इच्छा पूछी थी तो उन्होन्ने कहा था कि मैं पुनः गृहस्थ में नहीं जाना चाहता । मैं लगभग बीस वर्ष इस साधु जीवन में बिता चुका हूम् और मुझे यह जीवन ज्यादा अनुकूल तथा सुखमय लग रहा है, मैम् अपना शेष जीवन इसी प्रकार व्यतीत करना चाहता हूम् ।

इस पर गुरु दो क्षण मौन रहे और फिर कहा कि तुम्हेम् एकबार पुनः गृहस्थ

71

जीवन में जाना ही है, क्योङ्कि तुमने जो कुछ ज्ञान प्राप्त किया है, वह तुम्हारे स्वयं के लिए नहीं है, अपितु उसे समाज में वितरित करना और इस प्रकार के ज्ञान से परि- चित कराना है, इसके लिए समाज में घुल मिलकर कार्य करने से ही कार्य सम्पन्न हो सकेगा ।

तुम्हारा जन्म एक विशेष उद्देश्य के लिए हुआ है। अपने लिए तो प्रत्येक व्यक्ति जीवित रहता ही है, जो समाज के लिए जीवित रहे और समाज के लिए अपनी इच्छाओं का बलिदान करे। वही जीवन सार्थक कहा जाता है। यद्यपि तुमने अपनी इच्छा साधु जीवन में रहने की प्रकट की है, परन्तु फिर भी तुम्हेम् एक निश्चित अवधि तक गृहस्थ में ही रहना है, और गृहस्थ में रहकर इस प्रकार के ज्ञान को समाज में फैलाना है, इसके बाद ही तुम्हें पुनः सन्न्यास जीवन मेम् आना है।

मैन्ने उन्हें साधु जीवन में भी देखा है और गृहस्थ जीवन में भी देख रहा हूँ, मुझे इन दोनों जीवन में कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता । साधु जीवन में मैम् उनके साथ लगभग छः सात महीने रहा हूम् और इस अवधि में मैन्ने देखा है कि उनका ध्येय एकमात्र इस प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करना है, जो कि भारतवर्ष से लुप्त होता जा रहा है ।

परिश्रम करने की उनमेम् अद्भुत क्षमता है । पता नहीम् उन्हें भूख, प्यास आदि लगती भी है या नहीं, मैं नहीं कह सकता । साधु जीवन में भी उन्हेम् अपने शरीर की चिन्ता कम थी, इसकी अपेक्ष, उन्हें गुरु सेवा करने में प्रसन्नता विशेष होती थी। जिस दिन वे गुरु सेवा नहीं कर पाते, या अवसर नहीं मिलता तो वे उदास और खिन्न से प्रतीत होते । गुरु के चरणों को दबाना, उनके शरीर की मालिश करना, उनके कपड़ों को धोना और उनकी छोटी-से-छोटी सुख-सुविधा का ध्यान रखना उनका परम उद्देश्य रहता था । वे इसके लिए बराबर सचेत रहते थे कि उनकी वजह से गुरु को कोई असुविधा न हो जाय ।

I

उस अवधि में भी मैन्ने उन्हें बिना किसी बिछौने के जमीन पर या पत्थर की शिला पर निश्चित सोते हुए देखा है । सोते समय किसी प्रकार की असुविधा उन्होन्ने अनुभव नहीं की । उन्होन्ने हमेशा एक ही बात कही कि साधु के लिए सबसे अच्छा बिछौना पृथ्वी और ओढ़ने के लिए तारों भरी चादर सबसे अधिक उपयोगी होती है । आज जब मैम् उन्हें गृहस्थ जीवन में देखता हूं तब भी उनका स्वभाव उतना ही निर्मल और निष्कपट है। गृहस्थ जीवन में भी वे अपनी सुख-सुविधा का कम ध्यान रखते हैं, अपितु इस बात के लिए ज्यादा सचेत रहते हैं कि उनकी वजह से किसी को कष्ट न हो या कोई असुविधा अनुभव न करे ।

आज वे पूर्ण और सक्षम गृहस्थ हैं, उनके पास सभी प्रकार की भौतिक सुवि- धाएं हैं, परन्तु फिर भी वे इन भौतिक सुविधाओं के बीच भी अपने आपको निर्लिप्त बनाए रखते हैम् । मखमल के बिछौने पर भी उन्हें वैसी ही नीन्द आती है जैसी कि साधु जीवन में पत्थर की शिला पर आती थी। पिछली बार जब वे कैलाश आश्रम मेम् आये

72

तो मैन्ने उनके सोने के लिए कोमल शैया की व्यवस्था की, तो उन्होन्ने कहा कि इस प्रकार तो काफी सो चुका हूं, अब मैं पुनः पृथ्वी और पत्थर पर ही सोना चाहता हूं, अतः मेरे बहुत आग्रह के बावजूद भी उतनी ही निश्चिन्तता के साथ एक पत्थर की शिला पर सो गए थे

उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य यही है कि भारतवर्ष की इन प्राचीन विद्याओं को सही ढङ्ग से समाज में स्थापित किया जाय ओर इस प्रकार के युवकों की खोज की जाय जो कि ये विद्याएं सीख सकेम् और आगे के जीवन मेम् उन्हें गतिशील बनाए रख

सकेम् ।

इसके लिए उन्होन्ने ‘भारतीय ज्योतिष अध्ययन अनुसन्धान केन्द्र’ की भी स्था- पना की है, जिसके माध्यम से उन्होन्ने इस प्रकार के ज्ञान को समाज मेम् और देश में वितरित करने का निश्चय किया है ।

इसके माध्यम से कई प्रकार के कार्य सम्पन्न होते हैम् । इस संस्था का ध्येय यही है कि समाज इस प्रकार के ज्ञान से परिचित हो सके और उन्हें विश्वास आ सके कि ये समस्त विद्याएम् और विज्ञान अपने आप में पूर्णतः प्रामाणिक तथा सही हैम् ।

मुख्य रूप से निम्न विभाग इसके द्वारा सञ्चालित हैं-

१. ज्योतिष विभाग

इसमें पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति से जन्मपत्री की रचना और भविष्यफल स्पष्ट किया जाता है । जन्मपत्री या हाथ की रेखाओं के माध्यम से पूरे जीवन का भविष्य- फल स्पष्ट करके भेजने की व्यवस्था की गयी है। ये हाथ के चित्र स्याही से या फोटो- ग्राफ से तैयार कर भेजे जा सकते हैम् ।

२. प्रकाशन विभाग

यह एक महत्त्वपूर्ण विभाग है। इसके माध्यम से पुस्तकों का प्रकाशन मुख्य रूप से होता है । आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के ज्ञान की सही पुस्तकों का लेखन हो और उन्हें विधिवत् रूप से प्रकाशित किया जाय । अभी तक श्रीमाली जी ने छोटी पुस्तकों का लेखन इसलिए किया है जिससे कि सामान्य व्यक्ति इस प्रकार की पुस्तकों को खरीद कर लाभ उठा सके । अधिकतर पुस्तकें दूसरे प्रकाशनों से प्रकाशित हुई हैं, उनका विचार केन्द्र के निर्देशन में भी बड़े ग्रन्थ प्रकाशित करना है । ३. अध्ययन विभाग

इसके माध्यम से ऐसे युवकों को तैयार करना है जो कि भारतवर्ष की इन प्राचीन विद्याओं में रुचि लेने वाले होम् और वे व्यावहारिक रूप मेम् उन विद्याओं को सीख सकें, उन्होन्ने प्रयत्न इस बात का किया है कि इस प्रकार के विद्यार्थियों से किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाय, अपितु यथासम्भव उन्हें सहायता दी जाय, जिससे कि वे इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकेम् ।

73

प्रसन्नता की बात यह है कि कुछ युवक इस क्षेत्र में रुचि लेने लगे हैम् और श्रीमाली जी के निर्देशन मेम् उन्होन्ने विशेष सफलताएं भी प्राप्त की हैं। साधना क्षेत्र मेम् उन्होन्ने जो कुछ प्राप्त किया है, उससे ऐसी आशा होने लगी है कि निकट भविष्य में यह विज्ञान पुनः समाज में प्रचलित हो सकेगा और समाज इस की उपयोगिता को समझ सकेगा ।

परन्तु इसके चयन में बहुत अधिक सावधानी बरतनी आवश्यक है, क्योङ्कि प्रत्येक युवक इस प्रकार की साधना सीखने के लिए उत्सुक है। वे इस उद्देश्य से आते भी हैं परन्तु उनमें धैर्य का अभाव होता है । कुछ क्षणों की बातचीत से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किस क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है ?

साधना का क्षेत्र अपने आप मेम् अत्यन्त कठिन है। इसके लिए बहुत अधिक धैर्य तथा परिश्रम की आवश्यकता है । इस सम्बन्ध मेम् उनकी धारणा पूर्णतः स्पष्ट है । मैन्ने कैलाश आश्रम में समय मिलने पर उनसे इस विषय पर चर्चा की थी। वहां पर जो छात्र तथा युवक साधना क्षेत्र में रुचि ले रहे थे, उनके सामने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए श्रीमाली जी ने जो कुछ कहा था वह वास्तव में ही इस प्रकार के युवकों के लिए एक मार्गदर्शन है ।

उन्होन्ने बताया था कि साधना कार्य इतना आसान नहीं है जितना कि आसान समझ लिया गया है । केवल मात्र दो चार आसन या नाक बन्द कर ध्यान लगा लेने से ही साधना सम्पन्न नहीं हो जाती, इसके लिए बहुत अधिक कठिन परिश्रम की आव- श्यकता होती है ।

यह ज्ञान पुस्तकों के माध्यम से प्राप्त नहीं होता। इसके लिए योग्य गुरु के निर्देशन की परम आवश्यकता है। वह गुरु ही इस क्षेत्र में सफलता दे सकता है और आगे बढ़ने के लिए रास्ता प्रशस्त कर सकता है ।

गुरु

और शिष्य का सम्बन्ध संसार का सबसे पवित्र और मधुर सम्बन्ध है । इसमें दोनों ही एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना रखते हैम् । जब तक मन में स्वार्थ होता है तब तक न तो गुरु अपने शिष्य को कुछ दे सकता है और न शिष्य ही गुरु कुछ प्राप्त कर सकता है, क्योङ्कि जब तक मन में स्वार्थ की भावना होगी तब तक एक दूसरे के हृदय परस्पर जुड़ नहीं पाऐङ्गे, और जब तक ऐसा नहीं होता ज्ञान की प्राप्ति सम्भव ही नहीं है ।

से

गुरु ज्ञान देकर शिष्य की सेवा करता है, उसके बदले में वह पूर्ण आस्था और विश्वास चाहता है। बिना आस्था और विश्वास के साधना क्षेत्र में सफलता मिलना

कुछ

दे सम्भव नहीं होता, क्योङ्कि इसके मूल में यह विश्वास काम करता है कि मैं जो रहा हूम् इसके प्रति उसकी आस्था है और इस आस्था को यह आगे के जीवन में बराबर बनाए रख सकेगा ।

इसके लिए योग्य पात्र का चुनाव अत्यन्त आवश्यक है, क्योङ्कि कमजोर या

74

दुर्बल चित्त वाला शिष्य जहां स्वयं का अहित करता है, वहीं दूसरी ओर प्रतिष्ठा को भी ठेस पहुञ्चाता है ।

गुरु की

इसके लिए यह आवश्यक है कि गुरु किसी युवक का चुनाव करते समय अपने तरीके से उसकी परीक्षा ले, शास्त्रों मेम् इसके लिए कई प्रकार की परीक्षाओं का विधान है।

१. जो युवक शिष्य बनना चाहे वह सेवाभावी हो, उसके मन में मानवीय मूल्य पूर्णरूप से विद्यमान हों, शिष्य सेवा करता रहे, परन्तु काफी समय बीतने पर भी साधना के बारे में गुरु एक भी शब्द न कहे और इस प्रकार की चर्चा चलने पर उसे टरकाता रहे, इतना होने पर भी उसकी सेवा में या भावना में किसी प्रकार की कोई न्यूनता न आवे तो यह समझ लेना चाहिए कि धैर्य का अभाव नहीं है ।

२. कई बार शिष्य को ऐसा कार्य सोम्प दिया जाता है जो कि सामन्यतः उसके बस की बात नहीं होती, फिर भी वह उस कार्य को भली प्रकार से सम्पादित कर लेता है, तो यह समझ लेना चाहिए कि गुरु के प्रति उसकी आस्था है और यह आस्था आगे के जीवन में बनी रह सकती है ।

३. परिश्रम की भावना शिष्य का मूल गुण है । यदि वह काम चोर है या परिश्रम से मुंह चुराता है’ तो निश्चय ही वह आगे के जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर पाएगा। इस बात का ध्यान रखा जाय कि वह केवल प्रदर्शन तो नहीं कर रहा है, कई बार शिष्य गुरु के सामने तो परिश्रमी बनने का ढोङ्ग करता है, परन्तु आङ्ख की ओट होने पर परिश्रम नहीं करता, ऐसा युवक स्वार्थी और प्रदर्शन प्रिय कहा जायेगा । साधना के क्षेत्र में वह विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर पाएगा ।

४. कई बार शिष्य जो इच्छा प्रगट करे, उस कार्य को जान बूझकर नहीं करे, उदाहरण के लिए यदि शिष्य इच्छा प्रगट करे कि अमुक कार्य मेरा हो जाय तो अत्यन्त अनुकूल रहेगा, पर इसकी परीक्षा के लिए उस कार्य को सम्पन्नता में विलम्ब करे और विलम्ब के बाद भी शिष्य के मन में किसी प्रकार का विपरीत विचार न आवे तो योग्य शिष्य समझना चाहिए ।

जहां तक शिष्य का प्रश्न है, उसमें पुरुष या स्त्री में कोई भेद नहीं होता । यह अलग बात है कि समाज को ध्यान में रखकर कार्य सम्पन्न किया जाना चाहिए, शास्त्रों में कहा गया है कि अत्यन्त गोपनीयता सन्देह को जन्म देती है, अतः ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिए जो कि समाज के सन्देह का कारण बन सके ।

गुरु के लिए सभी शिष्य समान होते हैं। उसके मन में किसी प्रकार का कोई भेद भाव नहीं होता । यह अलग बात है कि शिष्य कितनी सार्थकता दे सकता है । इस प्रकार के कार्य में शिष्य को ही आगे बढ़कर कार्य सम्पन्न करना चाहिए और गुरु को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि मैम् इस कार्य के लिए सर्वथा योग्य हूम् और आगे के जीवन में भी एक सच्चा तथा योग्य शिष्य सिद्ध हो सकूङ्गा ।

गुरु तो अपना ज्ञान प्रत्येक शिष्य को देने के लिए आतुर होता ही है, परन्तु

75

वह यह भी तो देखता है कि सामने वाला शिष्य इस ज्ञान को प्राप्त करने में सक्षम भी है या नहीम् । जिस झोली में ज्ञान डाला जा रहा है, वह झोली अपने आप में मजबूत है, उसमें कहीं पर कोई छिद्र तो नहीं है ।

शिष्य की सबसे बड़ी विशेषता यही होती है कि गुरु के प्रति उसकी आस्था अपने आप में पूर्णतः बलवान और प्रबल हो । जीवन मेम् एक बार ही गुरु का चयन होता है जो शिष्य बार-बार गुरु बदलता है, वह निकृष्ट है और अयोग्य ही कहा जा सकता है, क्योङ्कि जिसे स्वयम् अपने आप पर आस्था नहीं होती वह आगे के जीवन में भी क्या कर पाएगा ?

इसलिए शिष्य में धैर्य और विश्वास का सबसे बड़ा महत्त्व होता है । समय अपने आप में कोई किशेषता नहीं रखता । यह आवश्यक नहीं कि पाञ्च वर्ष तक सेवा करने वाला शिष्य ज्यादा योग्य है, और जिसने एक वर्ष सेवा की है, वह उसकी अपेक्षा

न्यून

है ? आवश्यकता यह देखने की है कि उस सेवा के पीछे उसकी कैसी भावना रही है, और उसकी आस्था अपने आप में कितनी बलवान बनी रही है ?

उन्होन्ने उदाहरण देते हुए बताया कि मेरे शिष्यों मेम् अधिकांश शिष्य गृहस्थ

हैम् । गृहस्थ धर्म को भली भान्ति सञ्चालित करते हैं। मेरा तो कहना ही यह है कि गृहस्थ के कार्यों में भाग लेने के बाद यदि समय बचे तभी उसको साधना कार्य में समय देना चाहिए क्योकि उसके जीवन का आधार गृहस्थ है और गृहस्थ में पूर्णता देना उसका पहला कर्त्तव्य है ।

एक उदाहरण देते हुए उन्होन्ने बताया कि एक शिष्य की वे परीक्षा ले रहे थे या यों कहा जाय कि वह परीक्षा काल में था। एक बार वह मिलने के लिये आया और

कुछ दिनों बाद वापिस जाने की जिद्द की । गुरुजी ने उसे बताया कि आज जाना उचित नहीं है, यदि तुम कल चले जाओ तो ज्यादा उचित रहेगा ।

गया ।

दूसरे दिन भी रुकने के लिए कहा, परन्तु नहीं माना और वह रवाना हो

बस से रवाना होने के बाद आगे उसकी बस का एक्सीडेन्ट हो गया । बस में बैठे हुए बाइस यात्रियों में से लगभग दस यात्री उसी स्थान पर समाप्त हो गए। वह बच गया, परन्तु उसके सिर पर काफी चोट और नाक से भी खून बहने लगा । इतना होने पर भी उसके मन में गुरु के प्रति किसी प्रकार का आक्रोश नहीं था। उसकी धारणा उस समय भी यही बनी रही कि यह मेरी गलती थी जिससे कि मना करने के बावजूद मैं रवाना हो गया ।

घर जाने के बाद लगभग दो महीने तक उन्हेम् अस्पताल में रहना पड़ा, परन्तु फिर भी गुरु के प्रति उसकी आस्था में किसी प्रकार की कोई न्यूनता नहीम् आई, अपितु उनके प्रति उसकी धारणा पहले से ज्यादा दृढ़ और बलवान ही बनी रही ।

अस्पताल में भी गुरु उन्हें देखने के लिए एक बार भी नहीं गए। वे केवल यह

76

देखना चाहते थे कि इतना सब कुछ होने के बावजूद भी क्या इसकी आस्था पूर्ववत बनी रहती है या उसमें कुछ न्यूनता आती है ?

सामान्य मानव ऐसी स्थिति में यही सोचता है कि यह गुरु कैसा है, जिसे यह भी ज्ञात नहीं हो सका कि बस में यात्रा करने पर दुर्घटना हो जाएगी और मुझे इतनी ज्यादा चोट लगेगी, या ऐसी भयङ्कर दुर्घटना होने पर भी गुरु एक बार भी मुझे देखने या सम्भालने के लिए नहीम् आए हैं, उन्हें मेरी परवाह ही कहां है, वे तो अपने स्वार्थ में रत हैं, और अपने स्वार्थ साधन के लिए ही गुरु बने हुए हैम् ।

परन्तु उस व्यक्ति के मन मेम् इस प्रकार की कोई भावना पैदा नहीं हुई । वह यही सोचता रहा कि यह मेरी ही गलती है कि उनके आदेश के बिना मैं यात्रा के लिए रवाना हो गया या मैन्ने हठ करके यात्रा प्रारम्भ की ।

इसके अलावा सम्भवतः इसमें भी मेरा कोई हित ही होगा। उनकी माया को वे ही जानें। यदि हम ही उन रहस्यों को समझने लग जायें तो फिर हम शिष्य ही क्यों रहते, गुरु ही क्यों न बन जाते ।

आज वही शिष्य स्वामी जी का अत्यन्त प्रिय शिष्य है, और साधना क्षेत्र में बहुत ऊञ्चे स्तर पर है, जबकि अन्य शिष्य उससे पहले से गुरु के पास ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, पर अभी उस ऊञ्चाई पर नहीं पहुञ्च पाए हैं, जिस ऊञ्चाई पर वह व्यक्ति पहुञ्च सका है ।

इसका मूल कारण आस्था का बलवान होना है, जिसकी आस्था जितनी ही ज्यादा बलवती होगी वह उतना ही ज्यादा सफल हो सकेगा। कुछ पाठकों को इसमें ढोङ्ग और पाखण्ड की गन्ध आ सकती है, परन्तु वास्तविकता यही है कि वह गुरु अपने शिष्य को प्रत्येक प्रकार से ठोक बजाकर देख लें कि इसमें कहीं पर कच्चापन तो नहीं है । जब गुरु अपने मन में पूरी तरह से आश्वस्त हो जाय तभी उसे साधना पथ पर अग्रसर करे ।

क्योङ्कि ऐसा ही शिष्य ऊञ्चे स्तर पर पहुञ्च सकता है जिसके मन में साहस होता है, गुरु के प्रति पूर्ण आस्था होती है, और उस आस्था को बनाए रखने के लिए समाज से सङ्घर्ष करने की क्षमता होती है, जिसमें यह क्षमता नहीं होगी वह आगे चलकर कमजोर ही रहेगा ।

हमारा समाज सड़ा गला स्वार्थी और दकियानूसी है। उसका ध्येय मात्र स्वार्थ साधन ही है । जब वह किसी को किसी विशेष क्षेत्र मेम् आगे बढ़ते देखता है तो उसे पग-पग पर परेशान करने लगता है, उसके जीवन में बाधायें पैदा करता है, और उसके परिवार मेम् असन्तोष पैदा करने की कोशिश करता है । इतने विरोध और सङ्घर्ष को सहन करने के बाद भी जो गुरु के प्रति आस्था बनाए रखता है, वास्तव में वही व्यक्ति अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है ।

श्रीमाली जी में भी मैन्ने इसी प्रकार की आस्था के दर्शन किये हैम् । गृहस्थ के क्षण उन्हें गुरु के चरणों का ध्यान

कार्यों मेम् इतने अधिक व्यस्त रहते हुए भी हर

77

बराबर बना रहता है। एक बार बातचीत मेम् उन्होन्ने कहा भी था कि यदि गुरु मुझे एक क्षण के लिए भी यह सङ्केत दे दें कि मैं यह सब कुछ छोड़-छाड़कर उनके चरणों में पहुञ्च जाऊं तो मैम् एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करूङ्गा, चाहे पूरा समाज मेरा विरोधी बन जाय या मेरा परिवार कितनी ही परेशानियां पैदा कर दे । मैम् एक क्षण भी विलम्ब सहन नहीं कर पाऊङ्गा ।

मैन्ने उनके जीवन को जरूरत से ज्यादा व व्यस्त देखा है । उनके दिन का अधिकांश समय साधना में या लोगों से बातचीत में व्यतीत होता है । उठकर अपनी दैनिक क्रिया से निवृत्त हो वे साधना में बैठ जाते हैं बजे तक वे पूजा-पाठ साधना आदि में संलग्न रहते हैम् ।

प्रातः तीन बजे और प्रात: आठ

रहस्य की बात यह है कि प्रातः पाञ्च बजे से सात बजे तक वे साधना में संलग्न होकर प्रत्येक शिष्य से अप्रत्यक्ष रूप से सम्पर्क स्थापित करते हैं, । वे साधना में बैठे-बैठे प्रत्येक शिष्य को देख लेते हैं कि वह क्या कर रहा है या उसकी जीवन- चर्या किस प्रकार चल रही है या उसके परिवार में क्या कठिनाइयां हैं ? उसके बाद यथासम्भव वे उन कठिनाइयों को बिना उसे सूचित किए दूर करने का प्रयत्न करते रहते हैम् ।

इस अवधि में यदि कोई शिष्य अपनी बात कहता है तो पण्डितजी पूरी तरह से उस बात को सुनते हैं, क्योङ्कि उस समय पण्डितजी सीधे जुड़े हुए रहते हैम् । शिष्य की जो भी भावना या इच्छा हो, वह इस समय पण्डितजी को स्मरण कर व्यक्त कर देनी चाहिए जिससे कि उस तथ्य को या उस भावना को सुन सकेम् और उसका समाधान दे सकेम् ।

अच्छे स्तर पर पहुञ्चे हुए शिष्य तो श्रीमाली जी से टेलीपेथी के माध्यम से भी सम्पर्क स्थापित कर लेते हैम् और साधना के लिए निर्देश प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जो इस स्तर पर नहीं पहुञ्चे हुए होते हैम् उनको भी यह ज्ञान होता है कि पाञ्च से सात बजे के बीच श्रीमाली जी पूरी तरह से हमारे सम्पर्क में होते हैं, अत: इस समय

जो हम

भी कहेङ्गे, उसे वे भली प्रकार से सुन सकेङ्गे और हमारी समस्याओं का कुछ समाधान कर सकेङ्गे ।

आठ बजे के बाद वे अपने कार्यालय में बैठ जाते हैं, इस समय तक बाहर से काफी लोग मिलने के लिये आ जाते हैं, जिनमें से कई लोग अपनी समस्याओं को लेकर उनके सामने आते हैम् । कुछ लोग अपने भविष्य को जानने के लिए प्रस्तुत होते हैं, इसमें प्रत्येक वर्ग के और प्रत्येक श्रेणी के लोग होते हैम् । श्रीमाली जी के मन म इनके प्रति किसी प्रकार का कोई भेद भाव नहीं होता । सभी से वे प्रसन्नतापूर्वक मिलते हैम् और यथासम्भव उनकी समस्याओं का समाधान करते हैम् ।

लगभग बारह बजे वे भोजन करते हैम् । इस समय घर के सदस्य उपस्थित होते हैम् और वे व्यक्ति भी उसमेम् उपस्थित होते हैं जो कि श्रीमाली जी के घर पर ही ठहरे हुए होते हैम् । इनमेम् उनके शिष्य और प्रिय व्यक्ति होते हैं। इस समय इतना

78

समय मिल जाता है कि परस्पर बातचीत कर सकेम् और उनसे मार्ग-निर्देशन प्राप्त कर सकेम् ।

इसके बाद लगभग एक घण्टा विश्राम करते हैम् और बाद में दो घण्टे तक पुस्तक-लेखन कार्य होता है। शाम को पुनः उतनी ही भीड़ इकट्ठी हो जाती है कि जो अपनी समस्याएं लेकर उपस्थित होते हैम् । श्रीमाली जी को आयुर्वेद का ज्ञान होने के कारण इस प्रकार के लोगों का भी जमघट लगा रहता है जो विभिन्न रोगों से पीड़ित होते हैम् और जिनके रोगों का समाधान अन्य कहीं पर भी सम्भव नहीं होता ।

इस प्रकार के कार्यों में रात्रि के लगभग दस बज जाते हैं तब जाकर उन्हें कहीं विश्राम करने का अवसर मिलता है और लगभग साढ़े दस बजे घर के सभी प्राणियों के साथ उनका भोजन होता है । ये क्षण वास्तव में ही आनन्ददायक होते हैं, जबकि मनोरञ्जन के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति की समस्या का समाधान होता है और प्रत्येक को मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है ।

इसके बाद वे शयनकक्ष में चले जाते हैम् । कुछ घण्टे नीन्द लेने के बाद वे पुनः रात्रिकालीन साधना में बैठ जाते हैम् । इसके बाद पुनः उन्हें तीन बजे स्नान आदि कार्यों में लिप्त होते हुए ही देखा जाता है ।

यह ईश्वर ही जाने कि वे कब सोते हैम् और कब उठ जाते हैं ?

मैन्ने उन्हें मन्त्र और मन्त्र संस्कार के लिए प्रामाणिक पुस्तक लिखने का आग्रह किया था । उन्होन्ने मुझे आश्वासन दिया था कि मैम् इस प्रकार की वृहद रचना अवश्य करूङ्गा ।

इस ग्रन्थ का लेखन बहुत पहले से प्रारम्भ हो गया था, परन्तु धीरे-धीरे इसमें व्यवधान आता गया । इसका मूल कारण श्रीमाली जी के पास समय की कमी थी, अतः धीरे-धीरे इस पुस्तक का लेखन होता गया । बाद में यह निश्चय किया गया कि मन्त्र रहस्य ग्रन्थ चार भागों में लिखा जाय । पहले भाग में मन्त्रों का सैद्धान्तिक पक्ष हो क्योङ्कि मन्त्रों के बारे में तो फिर भी थोड़ा-बहुत ज्ञान लोगों को है, परन्तु उसके सैद्धान्तिक पक्ष के बारे में लोग सर्वथा अनभिज्ञ हैं, अतः इस बात की आवश्यकता है कि मन्त्र के बारे में सूक्ष्म ज्ञान दिया जाय जिससे कि साधक मन्त्र साधना में सफलत प्राप्त कर सके ।

शेष तीन भागों मेम् उन अज्ञात और लुप्त मन्त्रों का प्रकाशन किया जाय जो कि अभी तक कहीं पर प्राप्त नहीं हैं, और जो गुरु के पास ही मौलिक रूप से बने रहे या जो मन्त्र हस्तलिखित पुस्तकों में ही प्राप्य हैम् ।

पहला भाग शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है, और शेष तीनों भाग भी एक साथ प्रकाशित करने की योजना है जिसमें मन्त्र और उसके सूक्ष्म तथ्यों का विवेचन

होगा, ये तीनों ग्रन्थ भी अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैम् ।

जैसा कि पूर्व मेम् उल्लेख किया जा चुका है,

ध्वनि है, क्योङ्कि मन्त्र मूल रूप से ध्वन्यात्मक ही है

मन्त्रों का मूल आधार उसकी

अतः जो कुछ भी प्रभाव होता79

है वह शब्दों का न होकर उसकी ध्वनि का होता है ।

इसके लिये श्रीमाली जी ने कुछ विशेष मन्त्रों की टेप तैयार की है । ये मन्त्र मूल ध्वनि के साथ उच्चरित हैं, जिसकी वजह से ध्वनि का ज्ञान साधक भली प्रकार कर सकता है ।

इससे सबसे बड़ा लाभ यह हो गया है कि वे मन्त्र और उसकी मूल ध्वनि पूर्ण रूप से सुरक्षित हो सकी है। अब साधक गृहस्थ के कार्यों में लिप्त होते हुए भी अपने उच्चारण दोष को उन टैपों के माध्यम से ठीक कर सकता है ।

वास्तव में ही मन्त्र की शक्ति अपने आप मेम् अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आवश्यकता इस बात की है कि इन मन्त्रों का वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए और इस बात का पता लगाना चाहिए कि हमारे महर्षियों ने जिस प्रकार से मन्त्रों की रचना की है उसके पीछे क्या वैज्ञानिक आधार है, और किस प्रकार से हम उन मन्त्रों का उपयोग कर सकते हैं ?

साथ-ही-साथ उन ध्वनियों को भी सुरक्षित रखने की है जो कि मन्त्रों की विशिष्ट ध्वनियां हैं। टेप या अन्य वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से इन ध्वनियों को सुरक्षित रखा जाना चाहिए, जिससे कि आने वाली पीढ़ियाम् इसका लाभ उठा सकेम् ।

हमारे जीवन की पूर्णता में मन्त्रों का सबसे अधिक महत्त्व है । जीवन में जो भी अभाव है वे मन्त्र साधना से पूरे किए जा सकते हैम् । उन मन्त्रों का वैज्ञानिक वर्गीकरण और वैज्ञानिक अध्ययन आवश्यक है ।

इस क्षेत्र में भारतीय ज्योतिष अध्ययन अनुसन्धान केन्द्र मेम् एक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ किया है और इनका सारा प्रयत्न इस बात पर है कि समस्त मन्त्रों का वैज्ञानिक ढङ्ग से विवेचन और सरल भाषा में स्पष्ट हो कि किस प्रकार से उन मन्त्रों का उपयोग किया जा सकता है और किस प्रकार से हम इन मन्त्रों से लाभ उठा सकते हैं ?

हमारे शास्त्र पुराण आदि इस बात के साक्षी हैं कि विशेष यज्ञों द्वारा वे अपने कार्यों को सिद्ध करने में समर्थ होते थे । राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ के माध्यम से राम, लक्ष्मण, भरत, शशुघ्न जैसे वीर पुत्र प्राप्त किये। इसी प्रकार सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने के लिए अश्वमेघ यज्ञों का प्रचलन था, जिसके माध्यम से वे पूर्ण विजय प्राप्त करने में समर्थ हो पाते थे ।

ऋषियों ने सैकड़ों प्रकार के यज्ञों का विधान निश्चित किया है और यदि उस विज्ञान को सही ढङ्ग से समझ कर यज्ञ किए जाएं तो निश्चय ही उनसे आज का समाज लाभ उठा सकता है ।

डा० श्रीमाली शीघ्र ही ‘यज्ञोलोजी’ पुस्तक लिखने का विचार कर रहे हैं। यज्ञ के मूल स्वरूप को और उसके विधान को प्रामाणिक रूप से स्पष्ट करने का विचार है । हमारा भारतीय समाज यज्ञों पर अवलम्बित रहा है । यज्ञों के द्वारा

80

उन्होन्ने अपने चरित्र का निर्माण किया है और समाज को सत्य मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। हजारों वर्षों से यज्ञों की महत्ता निर्विवाद रूप से प्रामाणिक मानी जाती रही है ।

आज के वैज्ञानिक युग में भी यह सिद्ध हो चुका है कि जिस घर में नित्य हवन होता है उसके घर में बीमारी नहीं के बराबर आती है । कई व्यक्ति अपने घर में नित्य हवन करते हैम् । इसके लिए छोटा सा ताम्र पात्र बनाया जाता है और उसमें तिल, जौ, घी आदि का सम्मिश्रण कर विशेष हवन सम्पन्न किया जाता है और उन मन्त्रों का उच्चारण होता है जो कि घर की सुख शान्ति और आर्थिक समृद्धि के लिए कामनायुक्त होम् ।

पश्चिम के वैज्ञानिकों ने भी यज्ञों की महत्ता को समझा है और उन्होन्ने इस बात को माना है कि यज्ञों के द्वारा घर के वातावरण को कीटाणुमुक्त बनाये रखने में बहुत अधिक सहायता मिलती है ।

यज्ञों का मन्त्रों से गहरा सम्बन्ध है । प्रत्येक यज्ञ के लिए अलग-अलग मन्त्रों का प्रावधान है। प्रत्येक यज्ञ के लिए अलग प्रकार की आहुति-सामग्री आदि का विवेचन कर्मकाण्ड के अन्तर्गत निर्दिष्ट है ।

मन्त्रों के शब्द परस्पर इस प्रकार से सङ्गुम्फित होते हैं कि उनके उच्चारण से एक विशेष प्रकार की ध्वनि का निर्माण होता है, वह ध्वनि विशेष प्रकार से वातावरण को प्रभावित करती है। विज्ञान इस बात का साक्षी है कि जेट विमान से उड़ने से जो ध्वनि बनती है उससे वातावरण मेम् एक विशेष प्रकार का कम्पन होता है, जो कि बड़े से बड़े मकान को तोड़ने में सहायक हो जाता है, इसीलिए एयरोड्राम के आसपास ऊञ्चे मकान नहीं बनाये जाते ।

पिछले तीस वर्षों से मैं बराबर मन्त्रों पर शोध करता आ रहा हूम् । मैन्ने यह अनुभव किया है कि मन्त्रों का महत्त्व और उसका उपयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, यदि सही प्रकार से मन्त्र साधना की जाय तो उससे असम्भव कार्यों को भी सम्भव किया जा सकता है । मैन्ने इसके लिए वैज्ञानिक प्रयोग किए हैम् और उन सभी प्रयोगों में मुझे सफलता प्राप्त हुई है ।

कैलाश आश्रम में मैन्ने मन्त्रों पर विशेष कार्य किया है, परन्तु मैम् आज भी ईमानदारी के साथ इस बात को स्वीकार करता हूं कि मेरा यह तीस वर्षों का कार्य श्रीमाली जी के एक वर्ष के कार्य से लघु ही माना जा सकता है ।

यद्यपि मैं साधु समाज के विद्वत्परिषद के अन्तर्गत मन्त्र विज्ञान संस्थान का अध्यक्ष हूं, परन्तु सही रूप में देखा जाय तो इसके सही अधिकारी डा० श्रीमाली हैं, यह उनकी महानता है कि उन्होन्ने इस पद पर पहुञ्चाने में मेरा नाम प्रस्तावित किया । यद्यपि मैम् एक प्रकार से उनका गुरु भाई हूं। हम दोनों ने ही गुरु के चरणों में बैठकर मन्त्रों का अध्ययन किया है, परन्तु मैं जानता हूं कि उनका ज्ञान जहां समुद्र के समान है वहां मैम् और मेरा ज्ञान मात्र बिन्दुवत् है । अतः किसी भी प्रकार से मैं

81

गुरु भाई कहलाने का अधिकारी नहीं हूम् । सही रूप में देखा जाय तो उनके शिष्य भी मुझसे मन्त्र के क्षेत्र में ज्यादा जानते होङ्गे ।

यह अलग बात है कि डा० श्रीमाली प्रदर्शन भीरु हैम् । वे अपने आपको लुप्त रखकर ही कार्य करने में विश्वास करते हैम् । वे अपने कार्यों को न तो बढ़ा चढ़ाकर बताते हैम् और न अपने कार्यों का प्रचार ही करते हैम् । उनके जीवन का एकमात्र ध्येय ही यह रह गया है कि चुपचाप ठोस कार्य करते रहना चाहिए। जीवन में कार्य की ही महत्ता है ।

यदि उनके ज्ञान का शतांश भी किसी के पास होता तो वह अपने आपको भारत का ही नहीं विश्व का सर्वश्रेष्ठ साधक मानता और प्रचार के माध्यम से दस पन्द्रह हजार शिष्यों की भीड़ इकट्ठी कर लेता, परन्तु डा० श्रीमाली इसके सर्वथा अपवाद हैम् । उनका एक ही ध्येय है कि जितना ही ज्यादा प्रचार होगा उतना ही ज्यादा लोगों में घुलना मिलना पड़ेगा, फलस्वरूप ठोस कार्य करने के लिए बहुत ही कम समय मिल पायेगा, इसलिए यथासम्भव अपने आपको बचाये रखें तो ज्यादा उचित रहेगा ।

वेशभूषा और बातचीत में भी हमेशा सामान्य बने रहते हैं। पहली बार मिलने पर ऐसा प्रतीत ही नहीं होता कि यह व्यक्ति अपने आप मेम् एक पूरी संस्था है और साधना क्षेत्र मेम् इतने ऊञ्चे स्तर पर है, कि जिसकी सामान्य रूप से कल्पना ही नहीं की जा सकती। बातचीत में भी वे अपने आपको हमेशा बचाये रखते हैम् ।

इस पुस्तक की भूमिका लिखने का मैम् अधिकारी नहीं हूम् । यह मेरा सौभाग्य है कि उन्होन्ने मुझे कुछ पङ्क्तियां लिखने की स्वीकृति दी । यद्यपि मेरे पास उनके जीवन के सैकड़ों संस्मरण हैम् । जो कुछ समय साथ रहने का मुझे मिला है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि सही रूप में हम अभी तक उनका मूल्याङ्कन नहीं कर सके हैं, आने वाला समय ही इस बात का साक्षी होगा कि उन्होन्ने इस थोड़े से समय में हमारी पीढ़ी को जो कुछ दिया है, वह अपने आप मेम् अवर्णनीय है ।

भारत की इन शाश्वत गोपनीय और प्राचीन विद्याओं को जिस कठिनाई के साथ उन्होन्ने प्राप्त किया है, वह अपने आप में कल्पनीय है । जीवन का बहुमूल्य समय उन्होन्ने अभावों, कष्टोम् और बाधाओं के साथ व्यतीत किया है, जिस जीवन मेम् आराम लेना चाहिए वह जीवन उन्होन्ने जङ्गलों में व्यतीत किया है । साधु सन्न्यासियों के साथ बिताया है, और उनसे बून्द-बून्द करके जो ज्ञान प्राप्त किया है उसे समुद्र के समान सञ्जोकर हमारे सामने प्रस्तुत किया है ।

आज भी उनका प्रत्येक क्षण समाज के कल्याण के लिए व्यतीत हो रहा है, हकीकत में देखा जाय तो उनका व्यक्तिगत समय या व्यक्तिगत क्षण रहे ही नहीं हैम् । उनका तो पूरा जीवन और जीवन के प्रत्येक सांस समाज के लिए समर्पित है ।

82

उन्होन्ने अपने जीवन का मूल ध्येय ही समाज मेम् इन विद्याओं को स्थापित करने में लगा दिया है ।

आज तो वे हमारे बीच हैं, परन्तु पूर्व योजनानुसार जब वे सन्न्यास ग्रहण कर लेङ्गे, तब उनसे मिलना ही हमारे लिए दुर्लभ हो जायगा । उस समय हम उनकी महत्ता को समझ सकेङ्गे, तभी उनके कार्यों का आङ्कलन हो सकेगा और तभी हम अनुभव कर सकेङ्गे कि इस व्यक्तित्व की उपस्थिति हमारे लिए कितनी अधिक उपयोगी है, किस प्रकार से हम इस व्यक्तित्व के सम्पर्क मेम् आकर अपने जीवन को ऊञ्चा उठा सकते हैम् । मैम् इस विराट व्यक्तित्व के सामने नतमस्तक हूम् । इन पङ्क्तियों के माध्यम से मैन्ने जो कुछ भावनाएं व्यक्त की हैं वे उन भावनाओं की शतांश भी नहीं हैं जो कि मेरे मन में हैम् ।

आने वाला समय और भावी युग इस व्यक्तित्व का सही मूल्याङ्कन कर सकेगा, तभी हमारी पीढ़ी यह गौरव अनुभव कर सकेगी कि हमारे बीच एक ऐसा व्यक्तित्व भी बना रहा है जिसने भारत की प्राचीन विद्याओं को नवीन परिवेश में सबके सामने रखकर विश्व में भारत का मस्तक ऊञ्चा कर हमारी पीढ़ी को गौरवान्वित किया है ।

—बेताल भट्ट

FR

प्र