०८ मन्त्र - स्वरूप-विचार तथा प्रकारभेद

उपायात्मक’ मन्त्रों के रूप में परमेश्वर ही स्फुरित होता है- यह कथन सर्वथा संगत है । इस तथ्य को लक्ष्य में रखकर ही कहा गया है कि वस्तुत: उच्चारण किये जानेवाले मन्त्र २, मन्त्र नहीं है । मन्त्रों की जीवभूत अव्यय- शक्ति ही मन्त्रपद वाच्य है । जिससे रहित मन्त्र शरदकाल के मेघ के सदृश निष्फल हो जाते हैं । यह अव्ययशक्ति स्वहृदयैक संवेद्यविमर्शशक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । कहते हैं मन्त्र वर्णात्मक नहीं, वे न तो पञ्चवदन और न दशभुज शरीरधारी ही हैं; विश्व विकल्प की पूर्वकोटि में जो नाद का उल्लास है वही मन्त्र है ।

मनन और त्राण – ये मन्त्र के दो धर्म हैं । परनाद अथवा परस्फुरणा का परामर्श ही मनन है । मनन, परशक्ति के महान् वैभव की अनुभूति है- १. मन्त्रोऽपि अन्तर्गुप्त भाषणात्मकपरपरामर्शसतत्त्वेन मननत्राणधर्मा परतत्व- प्राप्त्युपायः परमेशात्मैव । परमेश्वर एव हि उपेयपदवदुपायरूपतया स्फुरितः । स्वच्छन्दोद्योत, ११ पटल, पृ० १५

२. उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्राँश्चापि तद्विदुः ।

मन्त्राणां जीवभूता तु या स्मृता शक्तिरव्यया ।

तया हीना वरारोहे निष्फला शरदभ्रवत् ॥

शिवसूत्र विमर्शिनी, पृ० ४८

वर्णात्मको न मन्त्रो दशभुजदेहो न पञ्चवदनोऽपि ।

सङ्कल्पपूर्वकोटी नादोल्लासो भवेन्मत्रः । महार्थमञ्जरी, पृ० १०२ ३. ‘मननत्राणधर्माणो मन्त्रा:’ इति ह्याम्नायः तत्र मन्त्रानुसन्धातुः स्वेच्छा- मात्रेणोपाधिना ‘विभवः’ ‘सङ्कोच’ इति उपाधिद्वयमस्ति तयोर्विभवो नाम विश्वतदुत्तरोभयसामरस्ययुक्त्या अहम्भावभावनात्मा विकासः - यत्पारमैश्वर्य- मुच्यते । सङ्कोचश्च तद्विपर्ययात् अपूर्णत्वाभिमननं तत्पाशवमित्याख्यायते । एवं स्थिते तादृगात्मनि विकासे समुल्लसति तस्य च यन्मननं – उपर्युपरि - यथापरामर्शानुस्यूतिस्वभावश्चमत्कारः, तत्प्रकृतं यस्याः; तदुक्तरूपे सङ्कोचे प्रस्तुते त्राणं - ‘सङ्कोचोऽपि विचार्यमाणश्चिदात्मैक्येन प्रथमानत्वात् चिन्मय एव अन्यथा तु न किञ्चित् इति श्रीप्रत्यभिज्ञाहृदयमर्यादया तस्यापि सङ्कोचस्य

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मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकारभेद

१८६

उसके पारमैश्वर्य का उपभोग है । अपूर्णता अथवा सङ्कोचमय भेदात्मक संसार के प्रशमन को रक्षा अथवा त्राण कहते हैं । इस प्रकार शक्ति के वैभव या विकासदशा में मननयुक्त तथा सङ्कोच या सांसारिक अवस्था में त्राणमयी - विश्वरूप विकल्प को कवलित कर लेनेवाली अनुभूति ही मन्त्र है-

मननमयी निजविभवे निजसङ्कोचमये त्राणमयी ।

कवलितविश्वविकल्पा अनुभूतिः कापि मन्त्रशब्दार्थः ॥ ४८ ॥

महार्थमञ्जरी (संस्कृतच्छाया)

पूर्णाहन्ता’ अथवा परावागात्मक अनुभूति ही मन्त्र है । यह अनुभूति निरन्तर तथाविध मनन या अनुसन्धि से उत्पन्न होती है और तभी संसार को क्षीण करनेवाला त्राण भी बन पड़ता है अन्यथा नहीं । मन्त्र शब्द की यह व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म और व्यापक है । २ पूर्णाहन्ता ही महामन्त्र है जिसका शास्त्रों में मन्त्रवीर्यं अथवा मन्त्रोपनिषद् के नाम से उल्लेख किया गया है । यह मन्त्र, चित् शक्ति का स्वस्वभाव है । ‘चिच्छक्तेः स्वस्वभावो यः स मन्त्रः परिगीयते ॥ शिवसूत्रवार्तिक, द्वितीय प्रकाश ।

सामान्यतया वर्णसमुदायविशेष ही मन्त्र है । वर्णों अथवा वर्णभट्टारकों की शक्ति के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है । विविध शक्तियों के पुञ्जरूप वर्णों से निर्मित होने के कारण मन्त्र अचिन्त्य शक्तिशाली है, इसमें सन्देह का अवसर नहीं । मायाशक्ति अतर्क्य और दुर्वार है और इसको भी

वैश्वात्म्य प्रथानुप्रविष्टतानुसन्धानोत्पादनद्वारा स्वस्वभावभङ्गप्रसङ्गरूपचा कित्य व्यपोहनलक्षणं रक्षणं तन्मयी, हेतुद्वयेन वेद्यविक्षोभ सर्वग्रास विशृङ्खलोल्लासायानु- भूतिः स्वहृदयैक संवेद्या विमर्शशक्तिः सैव मन्त्रः ।

१. पूर्णाहन्तानुसन्ध्यात्मा स्फूर्जन् मननधर्मतः ।

महार्थमञ्जरी, पृ १०२

सौभाग्यभास्कर, पृ० ५२

संसारक्षयकृत्त्राणधर्मतो मन्त्र उच्यते ॥ मोचयन्ति च संसाराद्योजयन्ति परे शिवे ।। ७५ ।। मननत्राणधर्मित्वात्तेन मन्त्र इति स्मृताः ॥

नेत्रतन्त्र, ११ अधिकार

२. विद्याशरीरसत्ता मन्त्ररहस्यम् ।। ३ ।। शिवसूत्र, उन्मेष २ ।

विद्या पराद्वयप्रथा, शरीरं स्वरूपं, यस्य सः विद्याशरीरो भगवान् शब्द- राशिः, तस्य या सत्ता अशेषविश्वाभेदमयपूर्णाहंविमर्शनात्मा स्फुरत्ता

सा मन्त्राणां रहस्य उपनिषद् ।

विमशिनी, पृ० ५०

३. मननत्राणधर्माणां सर्वेषामेव वाच्यवाचकादिरूपवर्णभट्टारकात्मनां

परात्रिंशिका, पृ० २०९

मन्त्राणाम् ।

१६०

दूर करने में समर्थ मन्त्र, माया से भी अधिक शक्ति सम्पन्न है यह प्रतिपादित हो जाता है । "

ये मन्त्र नित्य होते हैं; किन्तु इनकी नित्यता त्रिकालाबाधित नहीं है । क्योंकि अज्ञान की निवृत्ति के साथ-साथ स्वस्वरूप से अतिरिक्त कोई देवता रह नहीं सकता और उस देवता का वाचकमन्त्र तब भी वर्तमान रहे यह सम्भव नहीं । देवता के सूक्ष्म शरीर ही मन्त्र हैं और ये देव शरीर अविद्या समकालिक है, अविद्या के निवृत्त होते ही ये भी निवृत्त हो जाते हैं ।

  • शिव-सूत्र- विमर्शनी में चित्त को मन्त्र कहा गया है । वस्तुतः चित् शक्ति, स्व पद से उतर कर सङ्कोच को अङ्गीकार कर के चित्त का रूप ग्रहण करती है । स्वातन्त्र्यात्मक स्वरूप की सड़कोचदशा ही चित्त है और विकास अवस्था ही चिति ।" चित्त जब बाह्य वेद्य समूह को उपसंहृत करके अन्तर्मुख

१. मन्त्राणामचिन्त्यशक्तिता ॥ ८ ॥

परशुराम कल्पसूत्र एतेन पूर्वोदितमाया अतर्क्या दुर्वारा, तथापि तन्निवारणे समर्थाः ततोऽय- धिकशक्तिकाः, मन्त्रेषु लीलया ज्ञानावरकाविद्या निर्क्स कत्वशक्तिरस्ति इति प्रतिपादितम् ।

२. वर्णात्मका: नित्याः शब्दाः ॥ ७ ॥

वही,

वही,

वर्णात्मकाः वर्णसमुदायरूपाः शब्दा मन्त्राः नित्या: मूलाविद्यासमसत्ताकाः । न तु कालत्रयाबाध्यत्वं अज्ञाननिवृत्तौ स्वस्वरूपातिरिक्तदेवतायाः तद्वाचकमन्त्राणां च असत्वात् । न च आनुपूर्वीविशेषविशिष्ट वेदादीनां नित्यत्वस्य एककल्प- स्थायित्वस्य वर्तितत्वेन अस्यापि तादृशत्वेन कथं ततोऽपि चिरस्थायित्वरूपं नित्यत्वमिति वाच्यम्, मन्त्राणां देवतासूक्ष्मशरीरत्वेन देवताशरीरस्य अविद्या -

समकालत्वात् ।

३. चित्तं मन्त्रः ॥ १ ॥

सौभाग्यसुधोदय, प्रथम खण्ड

तृतीय उन्मेष

४. चितिरेव चेतनपदादवरूडा चेत्थसङ्कोचिनी चित्तम् ॥ ५ ॥

प्रत्यभिज्ञाहृदय ५. चेत्यते विमृश्यते परं तत्त्वमनेन इति चित्तम्; पूर्ण स्फुरत्तास तत्व प्रासाद- प्रणवादिविमर्शरूपं संवेदनम् तदेव मन्त्रयते गुप्तम् अन्तरभेदेन विमृश्यते परमेश्वररूपं अनेन इति कृत्वा मन्त्रः । अतएव च परस्फुरतात्मकमनन- धर्मात्मता, भेदमय संसारप्रशमनात्मकत्राणधर्मता च अस्य निरुच्यते । अथ च मन्त्रदेवताविमर्शपरत्वेन प्राप्ततत्सामरस्यं आराधकचित्तमेव मन्त्रः, न तु विचित्र- वर्णसङ्घटनामात्रकम् ।

विमर्शिनी, पृ० ४७

मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकारभेद

१६१

होकर चिद्रूपता के साथ अभेद विमर्श सम्पादित करना है तो यही उसकी गुप्त मन्त्रणा है जिसके कारण उसे मन्त्र की अभिधा मिलती है । अतः मन्त्रदेवता के विमर्श में तत्पर तथा उस देवता के साथ जिसने सामरस्य प्राप्त कर लिया है ऐसा आराधक का चित्त ही मन्त्र है, केवल विचित्र वर्णसंघटना ही नहीं । इस प्रकार मन्त्र की अब तक त्रिधा व्याख्या हुई । मन्त्र का प्रथम पूर्णाहृन्तात्मक स्वरूप उसका चरमरूप है । इसीलिए उसको महामन्त्र की संज्ञा दी गई है । यही ’ गुरु वक्त्र अथवा शैवी’ मुख है । यह परमशिव की प्राप्ति का मुख्य द्वार है । शब्द की यह चरमावस्था है; इसके आगे शब्द नहीं रहता । इसीलिए कहा गया है-

“शब्दब्रह्मस्वरूपेयं शब्दातीतं तू जप्यते । "

द्वितीय रूप है आराधक का चित्तात्मक मन्त्र और तृतीय वर्णभट्टारकात्मक ।

यह विश्व ग्राहक और ग्राह्य इन दो अंशों में विभक्त है । ग्राहक ही चित्शक्ति का अहमंश है और ग्राह्य इदमंश । प्रमातृता अहमंश में और प्रमेयता इदमंश में विद्यमान रहती है । चैतन्य ( चित्, चिति ) ही परम- प्रमाता है । और चित्त या जीव अवम प्रमाता । चैतन्य के संकोच की जहाँ काष्ठा प्राप्ति है वही जीव अथवा संकुचित - प्रमाता अथवा सकल - प्रमाता के नाम से कहा जाता है । इससे ऊर्ध्वदेश में प्रलयाकल - प्रमाताओं की अवस्थिति है । ये प्रमातृगण प्रलयदशा में माया में अवस्थित रहते हैं । इनसे परे विज्ञानाकल या विज्ञानकेवली प्रमाता है जो क्रमशः मन्त्र, मन्त्रेश्वर अथवा विद्येश्वर और मन्त्रमहेश्वर के नाम से उल्लिखित हुए हैं । मन्त्र शुद्धविद्या तत्त्व में, मन्त्रेश्वर ईश्वरतत्त्व में और मन्त्र महेश्वर सदाशिवतत्त्व में विद्यमान रहते हैं । छत्तीस तत्त्वमय विश्व के शुद्ध अध्वा और अशुद्ध अध्वात्मक दो विभाग हैं । माया से लेकर पृथ्वीतत्त्वपर्यन्त समग्र तत्त्व- समुदाय अशुद्ध अध्वा के अन्तर्गत है और शुद्धविद्या से लेकर शिव पर्यन्त शुद्ध अध्वा कहा

१. यावत्सा समनाशक्तिः तदूर्ध्वं चोन्मना । स्मृता ।

नात्र कालः कलाश्चारो न तत्त्वं न च देवताः ।। १२७६ ॥ सुनिर्वाणं परं शुद्धं गुरुवक्त्रं तदुच्यते ।

तदतीतं वरारोहे परं तत्त्वमनामयम् ॥ १२७७ ॥

२. शैवीमुखमिहोच्यते ।

इयं दशा ।

स्वच्छन्द ०, १० पटल विज्ञानभैरवतन्त्र, श्लोक २०

  • मनो मननमात्ररूपमपि तत्र न क्रमते; न सम्भवति अपितु मन्त्ररूपैव

स्व० उद्योत, पू० ५५६

१६२

जाता है । सकल और प्रलयाकल नामक प्रमातृ-वर्ग अशुद्ध

विज्ञानकेवली शुद्ध अध्वा के अन्तर्गत आते हैं । शुद्ध अध्वा में और अशुद्ध अध्वा में चित्संकोच - प्राधान्य है ।

अध्वा में और चित्प्राधान्य है

१ विज्ञानाकल नामक आत्मायें मायिक और कार्म मलों से मुक्त होती है। उनमें केवल आणव मल ही शेष रहता है । आणव मल के परिपाकगत तारतम्य के कारण ही उनमें उत्कर्षापकर्ष देखा जाता है । उत्कृष्ट विज्ञान- केवली आत्मा सदाशिवतत्त्व में निवास करते हैं । इन्हें ही मन्त्रमहेश्वर कहा जाता है । ईश्वरतत्त्व में मन्त्रेश्वरगण रहते हैं जो संख्या में आठ हैं, भूतानु-

ग्रह

के कार्य में ये मुख्य कर्ता माने जाते हैं । ये मन्त्रों द्वारा प्राणियों पर अनु- ग्रह कराते हैं । अतः मन्त्र जीवोद्धाररूप व्यापार में साधन का कार्य करते हैं । मन्त्र’ नामक प्रमातृगण संख्या में सात करोड़ हैं । सम्पूर्ण रोगों को दूर करने शिवशक्ति से युक्त, त्रिनेत्र तथा

के कारण इन्हें रुद्र भी कहा जाता है। 8 शिवशक्ति से

चन्द्रमौलि ये मन्त्रगण शुद्धविद्यातत्व से ही उत्पन्न होते हैं और प्राणियों के भोग- मोक्षरूप अनुग्रह में तत्पर रहते हैं ।

“त्रिधा भिन्न विज्ञानाकलों को स्वच्छन्दतन्त्र में आत्मा, अन्तरात्मा,

१. उत्तीर्ण मायाम्बुधयो

भग्नकर्ममहार्गलाः ।

अप्राप्तशिवधामान: त्रिधा विज्ञानकेवलाः ॥

२. अनन्तश्चैव सूक्ष्मश्च तथा चैव शिवोत्तमः ।। ११६१ ।।

एकत्र करुद्रौ च त्रिनेत्रश्च प्रकीर्तितः ।

श्रीकण्ठश्च शिखण्डी च ज्ञेया विद्येश्वराः क्रमात् ।। ११६२ ।।

३. विद्याया: पुनरीश्वरः ।

स्वच्छन्द०, पटल १०

ज्ञानशक्तिकराग्रेण स्वेच्छया परमेश्वरः ॥ ५४ ॥ सप्तकोटीस्तु मन्त्राणां सृजेत् ज्ञानक्रियात्मिकाः । ते च सादाख्यपर्यन्ते पार्थिवाद्ये तु सुव्रते ।। ५५ ।। अनुग्रहं प्रकुर्वन्ति देहिनां भुवने स्थिताः । शिवशक्तिसमाविष्टास्त्रिनेत्राश्चन्द्रमौलयः ॥ ५६ ॥

वही, ११ पटल

४. रुद्राः सर्वरुद्राविणो मन्त्राः । स्वच्छन्दोद्योत, ११ पटल, पृ० ४१ ५. भूतभावविनिर्मुक्तस्तत्त्वधर्म कलोज्झितः ॥ ८७ ॥

मलधर्मैकयुक्तात्मा मायाधर्मतिरस्कृतः ।

निरात्मा तु तदा ज्ञेयः

I

स्वच्छन्द ०, ११ पटल

यतो मायायाः पूर्वोक्तशक्तिरूपायाः, न तु तत्त्वात्मनः धर्मेण अख्यात्मात्मना

मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकारभेद

१६३

बाह्यात्मा, निरात्मा और परमात्मा का उल्लेख करते हुए निरात्मा के नाम से कहा गया है । स्थूल सूक्ष्म आदि भूतों, बुद्धिधर्मरूप भावों, पुरुषतत्त्वात्मक धर्म तथा कलादि कञ्चुकों से रहित, अपूर्णमन्यतारूप आणव’ मल से युक्त विज्ञानाकल प्रमाता ही निरात्मा है ।

उपर्युक्त विवरण से मन्त्र एक ऐसे देवगण रूप में प्रतीत होते हैं जिनका उपयोग परमेश्वर अशुद्ध अध्वागत जीवों के उद्धार करने के लिए करते हैं ।

परात्रिशिकाविवरण का मत विज्ञानाकलों के सम्बन्ध में कुछ भिन्न है । वहाँ कहा गया है कि माया से ऊर्ध्व और शुद्धविद्या से अधः महामाया विद्यमान है । इस महामायातत्त्व में ही विज्ञानाकलों की स्थिति है । इस प्रकार मन्त्रादि, विज्ञानाकलों से भिन्न होंगे ।

3 स्पन्दशास्त्र का मत है कि मन्त्र, चित्शक्ति का आधार लेकर सर्वज्ञत्व आदि बल से समन्वित होकर अनुग्रहरूप स्वाधिकार में प्रवृत्त होते हैं । उनका कोई आकार - विशेष नहीं होता । वे प्राणियों की इन्द्रियों के समान होते हैं । जब आराधक का चित्त आराध्य में लीन होता है तभी वे शिवात्मक, माया- कालुष्य से रहित मन्त्र भी वहीं चित्शक्ति में समाविष्ट हो जाते हैं ।

रूपेण तिरस्कृतः सङ्कुचिताभासीकृतः । एवं भूतो निरात्मा, आत्मनः पूर्वोक्त- पाशशतवलितात् पुंस्त्वलक्षणात् स्वभावात् निष्क्रान्तः परमेशशास्त्रदृशा अभ्यस्त - मायापुंस्तत्त्वविवेकज्ञानो विज्ञानाकल इत्यर्थः । यदुक्तं श्री पूर्वे

तत्रविज्ञान केवल: । मलैकयुक्त: ………

मायीयम् ।

“।१।२३ ।

स्वच्छन्दोद्योत, ११ पटल, पृ० ६२

१. मल अख्यात्यात्मकः आणवः, शुभादिवासनात्मकं कर्म, कलादिकं तु स्वच्छन्दोद्योत, ११ पटल, पृ० ४५ २. तथाहि मायातत्त्वस्य उपरि विद्यातत्त्वाधश्च अवश्यं तत्त्वान्तरेण भवितव्यम् - यत्र विज्ञानाकलानां स्थितिः । यथोक्तम् - मायोर्वे शुद्धविद्याधः सन्ति विज्ञान केवलाः ।

परात्रिंशिका, पृ० ११७

३. तदाक्रम्य बलं मन्त्राः सर्वज्ञबलशालिनः ।

प्रवर्तन्तेऽधिकाराय करणानीव देहिनाम् ।। २६ ।। तत्रैव सम्प्रलीयन्ते शान्तरूपा निरञ्जना: । सहाराधकचित्तेन तेन ते शिवधर्मिणः ॥ २७ ॥

१३ म० मा०

स्पन्दकारिका, द्वि० निःष्यन्द ।

१६४

’ नेत्रतन्त्र में देवी ने परमेश्वर से मन्त्र के सम्बन्ध में निम्नांकित प्रश्न किये हैं, जिनके उत्तरों द्वारा मन्त्र-विज्ञान पर समुचित प्रकाश पड़ता है ।

१. मन्त्रों की आत्मा क्या है ? अर्थात् शम्भु, शक्ति और अणु इनमें से मन्त्रों का अधिष्ठाता कौन है ?

२. मन्त्रों का स्वरूप कैसा है ? वे आकारवान् हैं अथवा निराकार ?

३. कोई दृष्टान्त जिससे मन्त्रों की तुलना की जा सके ? लोक में निरा- कार कर्ता नहीं दिखाई देते; कुम्भकार के सदृश साकार भी कर्ता सब कुछ नहीं रच सकते ।

४. मन्त्रों का सामर्थ्य ?

५. यदि वे भोग, मोक्ष और दोष प्रशमनरूप सामर्थ्य रखते हैं तो किस प्रकार ? निराकार व्योम के सदृश उनमें शक्तता सम्भव नहीं । आकृतिमान् व्यक्ति में आंशिकता और मलिनता होती है अतः अस्वतन्त्र होने पर उसकी शक्ति कैसी ?

६. मन्त्र किसके द्वारा प्रेरित होते हैं ?

प्रथम प्रश्न सतर्कता के साथ प्रस्तुत करते हुए देवी ने जिज्ञासा की है कि- यदि मन्त्र शिवात्मक है तो उनकी व्यापकता और शून्यता में सन्देह नहीं । अतः क्रिया करणहीन मन्त्रों में कर्तृता कैसे सिद्ध हो सकती है ? और अमूर्त होने के कारण उनमें कर्तृ ता का उपपादन नहीं किया जा सकता क्योंकि बिना शरीर के कोई कार्य नहीं कर सकता ।

१. मन्त्राः किमात्मकाः देव किस्वरूपाश्च कीदृशाः ।

कि प्रभावाः कथं शक्ताः केन वा सम्प्रचोदिताः ॥ १ ॥

एकविंश अधिकार शिवात्मकास्तु चेद्देव व्यापकाः शून्यरूपिणः । क्रियाकरणहीनत्वात् कथं तेषां हि कर्तृता ॥ २ ॥ २. अमूर्तत्वात्कथं तेषां कर्तृत्वं चोपपद्यते ।

विग्रहेण बिना कार्यं कः करोति वद प्रभो ॥ ३ ॥ न दृष्टो ह्यशरीरस्य व्यापारः परमेश्वर । शरीरिणो यतो बन्धः कथं बद्धस्य कर्तृता ॥ ४ ॥ एवं शिवात्मका मन्त्राः कथं सिद्धयन्ति वस्तुतः ॥ ५ ॥ अथ चेच्छक्तिरूपास्ते कस्य शक्तिस्तु कीदृशी । शक्तिः किं कारणं देव कार्यं तस्याश्च कीदृशम् ॥ ६ ॥ यावन्न शक्तिमान् कश्चित् कस्य शक्तिविधीयते । स्वतन्त्रा न प्रसिध्येत्त विना सिद्धेन केनचित् ॥ ७ ॥

मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकारभेद

१६५

यदि मन्त्रों को शरीरी माना जाय तो जो स्वयं मलिन अस्वतन्त्र और बंधा हुआ है वह दूसरे का क्या उद्धार करेगा ? कर्ता शक्तिहीन हो ऐसा उचित नहीं । इस प्रकार मन्त्र शिवात्मक है, यह कथन सिद्ध नहीं होता ।

यदि शक्ति को मन्त्रों की आत्मा माना जाय तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वह शक्ति किसकी है और उसका स्वभाव कैसा है ? उसके सहकारी कारण और कार्य के स्वरूप का भी निर्देश करना होगा । जब तक शक्तिमान् न हो तो वह शक्ति किसकी कही जायगी ? मन्त्र केवल शक्तिरूप हैं शैव तेज का उनमें स्पर्श नहीं है, यह कहना भ्रम मात्र है । क्योंकि बिना प्रसिद्ध अग्नि आदि धर्मी के दाहकत्व आदि में नहीं देखे जाते, अतः स्वतन्त्र शक्ति सम्भव नहीं ।

‘यदि मन्त्रों को आणव - विग्रहाकार माना जाय तो वे भी जीव के सदृश मलिन होंगे और मलिन दूसरे को कैसे निर्मल बना सकता है । आगमों में कहा गया है तीनों – शिव, शक्ति और अणु तत्त्वों के बिना किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं, अतः इस विषय में युक्तियुक्त उपपत्ति अपेक्षित है । अनुभव में तो यही आया है कि मन्त्रों में आर्तिनिवारण, सिद्धि तथा मुक्ति आदि सामर्थ्य वर्तमान रहता है । वे सुरों तथा असुरों से अपराजेय हैं । वे सर्वप्रद, सर्वत्रगामी तथा शिवस्वरूप है ।

भगवान् का उत्तर निम्नांकित है-

बिना तीनों तत्त्वों के किसी वस्तु और मन्त्र की सम्भावना नहीं । तत्त्व से हीन होकर यह सम्पूर्ण जगत् भी अपनी सत्ता को सिद्ध नहीं कर सकता ।

शक्तिरूपास्तु ते मन्त्राः केवलास्तु विपर्ययः ॥

१. अथ चेदावणा मन्त्रा विग्रहाकाररूपिणः ।। ९ ।। आत्मस्वरूपा विख्याता मलिना बलिनो नहि । मलिनो मलिनस्यैव प्रक्षालयति कस्य कः ॥ १० ॥ न सिद्धा ह्याणवा मन्त्रा केवलाः परमेश्वर ।

तत्त्वत्रयं विनास्तित्वं विरुद्धं वस्तुसन्ततेः ॥ ११ ॥ दृश्यन्ते बलिनो मन्त्राः अप्रधृष्याः सुरासुरैः । सर्वानुग्राहकत्वेन सर्वदाः सर्वगाः शिवाः ॥ २. तत्त्वत्रयं विना वस्तु मन्त्रो वक्तुं न युज्यते ॥ १६ ॥ शिवात्मका: शक्तिरूपा ज्ञेया मन्त्रास्तथाणवाः । तत्त्वत्रयविभागेन वर्तन्ते ह्यमितौजसः ।। १९ ॥

नेत्रतन्त्र

नेत्रतन्त्र१६६

जो

कुछ

दिखाई देता है तीन तत्त्वों से निर्मित है। अतः मन्त्र शिव, शक्ति और अणु स्वरूप हैं; वे अमित सामर्थ्यशाली हैं ।

परतत्त्व सर्वात्मक, शुद्ध, अनादि कारण, ध्रुव आदि अनेक गुण-गणों का आश्रय है । अग्नि की ऊष्मा के सदृश उस शिवतत्त्व की एक पराशक्ति है जो उससे सर्वथा अभिन्न है । शक्ति को सानन्द और शिव को निरानन्द कहा जाता है क्योंकि निःशेष रूप से महासामरस्य विश्रान्त्यात्मक आनन्द उसमें वर्तमान रहता है । शिव’ एक है और उसकी शाश्वती शक्ति भी एक ही है; वह शिव से अभिन्न और अद्वैत रूप में अवस्थित रहती है । शिव की सर्व- शक्तिमत्ता ही उसकी शक्ति है जिसके द्वारा वह सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान और अनुग्रहरूप पञ्चकृत्य करता रहता है । 2 आणव मल से संकुचित अणु रूप आत्मा अनन्त है। ये परमेश की परा इच्छा द्वारा अनुगृहीत हैं अर्थात् चित्प्रकाशस्वरूप हैं । इस प्रकार शिव, शक्ति और आत्मा ये तीन ही श्रेष्ठ तत्व हैं । 3 पूर्णकाम शिव अपनी उसी स्वातन्त्र्यात्मक शक्ति द्वारा चराचर जगत् की रचना करते हैं । शक्ति सबका उपादान कारण है ।

इस प्रकार मन्त्र त्रितत्त्वज हैं । शिव, शक्ति और आत्मा इनके समुदित

१. एक : शिवस्तथैका तु शक्तिरेव हि शाश्वती ।

अभिन्नाद्वैतसंस्थाना सैवैका समुदायिनी ॥ ३४ ॥

यत्तस्य सर्वशक्तित्वं सा

शक्तिरुपचर्यते ।

तया तु कुरुते सृष्टि स्थिति संहृतिमेव च ॥ ४२ ॥ करोति भगवान् सर्व तिरोभाव मनुग्रहम् ॥

२. आत्माणको ह्यनन्ताश्च मलेनैव निरोधिताः ॥

नेत्रतन्त्र, २१ अधिकार

४६ ॥

तेऽनुगृहीताः परया परमेशस्य चेच्छया । शिवः शक्तिस्तथात्मा च त्रितत्त्वं चेत्यनुत्तमम् ॥ ४७ ॥ ३. अकामतः सृजेत् सर्वं शक्त्या सर्वं चराचरम् ॥ ५६ ॥

एवमुक्तेन विधिना मन्त्राः सर्वे त्रितत्वजाः । शिवाख्याः शक्तिरूपाश्च तथैवात्मस्वरूपकाः ॥ ५७ ॥ त्रिस्वभावा समुद्दिष्टा: सर्वत्र बलशालिन । भवन्ति सर्वदाः सर्वे सर्वगाः सर्वरूपिणः ।। ५८ ।। एवमाद्याः स्मता मन्त्राः सर्वे ह्यमिततेजसः । अधिकारं प्रकुर्वन्ति सर्वस्य जगतः प्रिये ॥ ७४ ॥

नेत्रतन्त्र, २१ अधिकार

मन्त्र : स्वरूप - विचार तथा प्रकारभेद

१६७

रूप को ही मन्त्र की संज्ञा दी जाती है ।” ये मन्त्र अमित तेजधारी, संसार से मोचन और शिवत्व की अभिव्यक्तिरूप अधिकार वाले होते हैं । मनन और त्राणधर्मा ये मन्त्र नित्य अनुग्रह करने वाले, शिव और शक्ति के प्रभाव से सम्पन्न भोग और मोक्ष के दाता हैं । सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता ही उनका शिवत्व है और सर्वकतृता शक्तित्व ।

प्रत्येक मन्त्र में वाच्य और वाचक नामक दो शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं । वाच्यशक्ति मन्त्र की आत्मा अथवा सूक्ष्म शक्ति है । इसे ज्योतिर्मयी कहा जाता है । मन्त्र का वर्णानुपूर्वीमय स्थूल रूप ही मन्त्रमय वाचक देवता है । जिसके जागरण के बिना वाच्य का बोध नहीं हो सकता । शब्दब्रह्म ही परावा अथवा अखण्ड अद्वयशक्ति है और वाच्यवाचकात्मक मन्त्र उसी के एक संकुचित स्फुरणमात्र । शब्दब्रह्म रूप अपरब्रह्म का अतिक्रमण करने पर शब्दातीत परब्रह्म की पदवी प्राप्त की जा सकती है ।

मन्त्र और प्रार्थना में कहाँ तक साम्य और वैषम्य है इसका भी विवेचन आवश्यक है । इसमें सन्देह नहीं कि मन्त्र में वर्णों और पदों की आनुपूर्वी नियत रहती है और प्रार्थना में आनुपूर्वी वही रहे ऐसा नियम नहीं है । एक ही आशय भिन्न-भिन्न पदों द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है ओर किया जाता है । प्रार्थना और मन्त्र में यह आधारभूत वैषम्य है । यहाँ यह प्रश्न अवश्य उपस्थित होता है कि यदि प्रार्थना की आनुपूर्वी भी नियत हो तो वह मन्त्र बन सकती है या नहीं ? सत्य तो यह है कि समस्त वर्ण मन्त्रस्वरूप ही हैं और उनसे निर्मित पद मन्त्र नहीं होंगे यह नहीं कहा जा सकता । अतः नियत आनुपूर्वी से सम्पन्न प्रार्थना भी कालान्तर में मन्त्र पदवी प्राप्त कर सकती है इसमें कोई बाधा नहीं । कालान्तर का प्रयोग इसलिए समीचीन है क्योंकि उस प्रार्थना में नाना साधकों की प्रबुद्ध चेतना का आधान आवश्यक है । अथवा एक ही उत्कृष्ट कोटि के साधक की प्रबल तपश्चर्या से वह प्रार्थना जीवन्त हो गई हो तो दूसरों के लिए वह मन्त्र का कार्य करेगी इसमें संशय नहीं । पौराणिक स्तुतियों एवं सन्तों द्वारा रचित आधुनिक रचनाओं का जनता द्वारा निरन्तर पाठ किये जाने के मूल में यही तथ्य निहित है और सफलता प्रदान करने वाली अनुभूति भी इसकी साक्षी है ।

स्तुतियों में अंशतः गुण-कीर्तन और अंशतः आशी: या कामनाओं का सन्निवेश हो सकता है और होता है । कुछ स्तोत्र ऐसे भी सम्भव हैं जिनमें केवल गुण - कीर्तन हो । इसीलिए कभी कभी स्तुति और प्रार्थना में अन्तर भी

१. द्रष्टव्य ‘गारलैण्ड आफ लेटर्स’, पृ० १४५

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देखा जाता है । सन्तों की रचनाओं में भी ऐसा ही है । शास्त्रीय अथवा परम्पराप्राप्त मन्त्रों में भी ठीक ऐसी ही बात है ।

मन्त्रात्मक शब्द में दो प्रकार के अर्थ देखे जाते हैं - एक तो देवता और दूसरा गुण-कीर्तन या आशीः । ये दोनों अर्थ वस्तुतः भिन्न नहीं हैं । जहाँ तक गुणकीर्तन का सम्बन्ध है वह तो देवता के स्वरूप की ही ख्याति है । और आशीः या प्रार्थना उसके सामर्थ्य का बोधक है । इस प्रकार मन्त्र के दोनों वाच्यार्थी में कोई पार्थक्य नहीं है ।

कुछ

लोग मन्त्र का अर्थ ‘आमन्त्रण’ करने के पक्ष में हैं । आमन्त्रण से तात्पर्य है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आमन्त्रण । मन्त्र प्रबुद्ध होने पर उपर्युक्त चतुर्वर्ग को निकट लाने में समर्थ होता है । मन्त्र - प्रबोधन अथवा मन्त्र- चैतन्य किये बिना मन्त्र का सामर्थ्य प्रकट नहीं होता । साधक की अपनी शक्ति सक्रिय होकर मन्त्रशक्ति को जप के द्वारा प्रबुद्ध करती है । जीवगत या जैवी शक्ति मन्त्रशक्ति अथवा देवीशक्ति से मिलकर एकाकार हो जाती है और तब उसके द्वारा साधक की कामनाओं की पूर्ति होती है ।

मन्त्र अनेक प्रकार के होते हैं ।

भेद है मूलमन्त्र अथवा महामन्त्र ।

उनकी नाना जातियाँ हैं । सबसे पहला

इतर मन्त्र इसी के गर्भ से जन्म लेते हैं;

यही कारण है कि उसे उपर्युक्त आख्यायें प्रदान की गई हैं । अन्य भेद निम्नांकित हैं

१. पुं मन्त्र, स्त्री मन्त्र, नपुंसक मन्त्र ।

२. सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध, अरिमन्त्र ।

३. पिण्ड, कर्तरी, बीज, मालामन्त्र । ४. सात्विक, राजस, तामस ।

५. साबर, डामर ।

पुं मन्त्र उन्हें कहते हैं जिनका देवता पुरुष होता है ।” पुरुष देवता के मन्त्र सौर होते हैं, और स्त्री देवता से सम्बन्ध रखने वाले सौम्य । जिन मन्त्रों का देवता स्त्री होता है उन्हें ‘विद्या’ कहते हैं । सामान्यतया तो सभी को मन्त्र ही कहा जाता है। कुछ सम्प्रदायविद्, जिन मन्त्रों के अन्त में ‘हूँ’

१. सौराः पुं देवता मन्त्रास्ते च मन्त्राः प्रकीर्तिताः । सौम्याः स्त्रीदेवतास्तद्वद्विद्यास्ते इति विश्रुताः ॥

प्रयोगसार, शारदातिलक की राघवी टीका, पृ० ७९

२. पुंस्त्रीनपुंसकात्मानो मन्त्राः सर्वे समीरिताः ।

मन्त्राः पुंदेवता ज्ञेया विद्याः स्त्रीदेवताः स्मृताः ।। ५८ ।।

शारदा तिलकतन्त्र, २ पटल

और ‘फट्’ रहता है,

समाप्ति होती है, उसे

मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकारभेद

१६६

उन्हें पुं मन्त्र और दो ‘ठ’ इस वर्ण से जिस मन्त्र की स्त्री मन्त्र कहते हैं । इसके अतिरिक्त ‘नमः’ से समाप्त

होने वाले मन्त्र नपुंसक हैं ।’ प्रयोगसार का मत इससे कुछ भिन्न है । वहाँ ’ वषट्’ और ‘फट्’ से समाप्त होने वाले मन्त्रों को पुरुष, ‘वौषट्’ और ‘स्वाहा’ से स्त्री तथा ‘हुं’ ‘नमः’ से समाप्त होने वालों को नपुंसक कहा गया है ।

सिद्धमन्त्र बान्धव, साध्य सेवक, सुसिद्ध पोषक और अरिमन्त्र घातक कहे गये हैं । कौन-सा मन्त्र सिद्ध है और कौन साध्य इसका निर्णय साधक के नाम के आदि वर्ण तथा राशि चक्र के निर्दिष्ट वर्णों की अनुकूलता और प्रतिकूलता से जाना जाता है। इसका विस्तृत विवरण शारदा तिलकतन्त्र के द्वितीय पटल और तन्त्रराजतन्त्र में उपलब्ध है ।

3 जिन मन्त्रों में केवल एक ही अक्षर होता है उन्हें पिण्ड मन्त्र कहते हैं,

दो अक्षरों वाले कर्तरी कहलाते हैं । मन्त्र; और दश से बीस वर्ण पर्यन्त ऊपर संख्या वालों को मालामन्त्र कहते हैं । ये अपरिमित है, इनके भेदों की गणना नहीं की जा सकती ।

तीन वर्णों से लेकर नो वर्णों तक बीज

मन्त्र के ही नाम से कहे जाते हैं । इससे

साबरमन्त्रों की चर्चा प्रायः की जाती है । सुप्रसिद्ध तन्त्रों में ‘योगिनी जालशम्बरम्’ नामक एक ग्रन्थ था । सम्भव है शम्बर का ही अपभ्रंश रूप साबर हो । साबरमन्त्रों का शास्त्रीय रूप क्या था, नहीं कहा जा सकता ।

पुं मन्त्रा हुम्फडन्ताः स्युद्विठान्ताश्च स्त्रियो मताः ।

नपुंसका नमोऽताः स्युरित्युक्ता मनवस्त्रिधा ।। ५९ ।।

शारदातिलकतन्त्र, २ पटल

१. वषट्फडन्ताः पुंलिङ्गा वौषट्स्वाहान्तगाः स्त्रियः । नपुंसका हुंनमोऽता इति मन्त्रास्त्रिधा स्मृताः ॥

राघवभट्टीया, पृ० ८०

२. सिद्धार्णा बान्धवाः प्रोक्ताः साध्यास्ते सेवकाः स्मृताः ।

सुसिद्धा: पोषका ज्ञेयाः शत्रवो घातका मताः ॥ १३१ ॥

शारदा०, द्वितीय पटल

३. तदुक्तं नित्यातन्त्रे -

मन्त्रा एकाक्षरा: पिण्डाः कर्तर्यो द्वयक्षरा मताः । वर्णत्रयं समारभ्य नववर्णावधि बीजकाः ॥ ततो दशार्णमारभ्य यावद्विशतिमन्त्रकाः ।

तत ऊध्वं गता मालास्तासु भेदो न विद्यते ॥

सौभाग्यभास्कर, पृ० ९

२००

·

विख्यात सन्त तुलसीदास ने रामचरितमानस में इनके उमा महेश्वर द्वारा रचे जाने का उल्लेख किया है और साथ ही यह भी कहा है कि यद्यपि इन मन्त्रों के अक्षर बेमेल और अर्थहीन होते हैं फिर भी इनका प्रभाव देखा जाता है । '

डामरमन्त्र तत्काल सिद्धि प्रदान करते हैं । किन्तु उनका फल स्थायी नहीं होता । ये मन्त्र केवल चमत्कार दिखाने के काम आते हैं ।

इसके अतिरिक्त मन्त्रों के निम्नांकित अन्य भेद भी होते हैं—

१. छिन्न

२. रुद्ध

१३. तिरस्कृत

१४. भेदित

२५. निस्त्रिशक

२६. निर्वीज

३. शक्तिहीन

१५. सुषुप्त

२७. सिद्धिहीन

४. पराङ्मुख ५. उदीरित

१६. मदोन्मत्त

१७. मूच्छित

२८. मन्द

२९. कूट

६. बधिर

१८. हृतवीर्य

३०. निरंश

७. नेत्रहीन

१९. हीन

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८. कीलित ९. स्तम्भित

२०. प्रध्वस्त

२१. बालक

१०. दग्ध ११. भीत

२२. कुमार

१२. मलिन

२३. युवा २४. प्रोढ़

३१. सत्त्वहीन ३२. केकर

३३. बीजहीन ३४. धूमित ३५. आलिङ्गित ३६. मोहित

३७. क्षुधातुर

१. कलि विलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मन्त्र जाल जिन सिरजा ।

अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रकट प्रभाव महेस प्रतापू ॥

रामचरितमानस

२. छिन्नो रुद्धः शक्तिहीनः पराङ्मुख उदीरितः ॥ ६४ ॥

बधिरो नेत्रहीनश्च कीलितः स्तम्भितस्तथा ।

दग्धस्रस्तश्च भीतश्च मलिनश्च तिरस्कृतः ।। ६५ ।।

भेदितश्च सुषुप्तश्च मदोन्मत्तश्च मूच्छितः । हृतवीर्यश्च हीनश्च प्रध्वस्तो बालकः पुनः ॥ ६६ ॥

कुमारस्तु युवा प्रौढ़ो वृद्धो निस्त्रिंशकस्तथा । निर्वीज: सिद्धिहीनश्च मन्दः कूटस्तथा पुनः ॥ ६७ ॥ निरंशः सत्त्वहीनश्च केकरो बीजहीनकः । धूमितालिङ्गितौ स्यातां मोहितश्च क्षुधातुरः ॥ ॥ ६८ ॥

शारदातिलक, २ पटल

३८. ‘अतिदृप्त ३९. अङ्गहीन

४६. विकल

मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकारभेद

४५. स्थानभ्रष्ट

५२. दारित

५३. मूल

४०. अतिक्रुद्ध

४७. अतिवृद्ध

५४. नग्न

४१. समीरित

४८. निःस्नेह

५५. भुजङ्गम

४२. अतिक्रूर

४९. पीड़ित

५६. शून्य

५०. मीलित

५७. हत

२०१

४३. सव्रीड

४४. शान्तमानस

५१. विपक्ष स्थ

इनके सम्बन्ध में पृथक् पृथक् विवरण शारदातिलकतन्त्र के द्वितीय पटल में देखना चाहिए । दूषित मन्त्रों के शोधन की भी अत्यन्त आवश्यकता होती है । किन्तु यह शोधन काम्य कर्मों में ही अपरिहार्य माना गया है, मुक्त्यर्थ इनमें संस्कार की आवश्यकता नहीं समझी जाती । मन्त्रों के दश प्रकार के संस्कार प्रसिद्ध हैं-

१. जनन २. जीवन

३. ताड़न

४. बोधन

५. अभिषेक

६. विमलीकरण

जनन –मातृकावर्णों के मध्य से

७. आप्यायन

८. तर्पण

९. दीपन

१०. गुप्ति

मन्त्र का उद्धार ही जनन है । इसमें शुभ

पीठ आदि में कुङ्कुम अथवा रोचना द्वारा मातृका - कमल की रचना

१. अतिदृप्तोऽङ्गहीनश्च अतिक्रुद्धः समीरितः ।

अतिक्रूरश्च सव्रीडः शान्तमानस एव च ॥ ६९ ॥

स्थानभ्रष्टश्च विकलः सोऽतिवृद्धः प्रकीर्तितः ।

निस्नेहः पीडितश्चापि

11

शारदातिलक, २ पटल ।

दोषा

शा० ति० टीका, पृ० ९५, २ पटल ।

आदिशब्दात् मीलितविपक्षस्थदारितमूकनग्नभुजङ्गमशून्यहतादयो

ज्ञेयाः ।

२. काम्यकर्म स्वित्यनेन मुक्त्यर्थं मन्त्रजपे एतद्दोषाभावाद्दशसंस्कारा अपि

न कर्तव्या ।

शारदातिलक टीका, पृ० ९४

३. मन्त्राणां दश संस्काराः कथ्यन्ते सिद्धिदायिनः ।

जननं जीवनं पश्चात् ताडनं बोधनं तथा ।। ११२ ।। अथाभिषेको विमलीकरणाप्यायने पुनः ।

तर्पणं दीपनं गुप्तिर्दर्शता मन्त्रसंस्क्रियाः ॥ ११३ ॥

वही

२०२

करके देय मन्त्र के एक-एक अक्षर का मातृकाब्ज से उद्धार किया जाता है ।

जीवन - मन्त्र वर्णों को प्रणव से अन्तरित करके जप करना ही जीवन है । इस

प्रकार मन्त्र की सो आवृत्ति करनी चाहिए । पिङ्गला मत में इसे

जीवन न कह कर ‘बीजन’ की संज्ञा दी गई है । प्रणव ही बीज है अत: उसके द्वारा अन्तरिक्ष मन्त्र बीजित कहा जाता है ।

ताड़न - मन्त्र वर्णों को भूर्जपत्र पर लिख कर चन्दन के जल से वायु बीज

( यं ) का उच्चारण करते हुए सौ बार ताड़न करना चाहिए । बोधन — लिखित मन्त्र को करवीर ( कनेर ) के पुष्पों द्वारा वह्निबीज का

उच्चारण करते हुए ताड़न करना ही बोधन है ।

अभिषेक - भूर्जपत्र पर लिखे हुए मन्त्र को एक सौ आठ बार पिप्पल के प्रवाल से अभिषिक्त करना ही अभिषेक है । मत- विशेष में अभिषेक की संख्या मन्त्रों के वर्णों के अनुसार समझनी चाहिए ।

विमलीकरण - ज्योतिर्मन्त्र ( प्रणव ) के द्वारा मन में चिन्तित मन्त्र के सहज,

आगन्तुक और मायीय मलों को जलाना विमलीकरण है । आप्यायन- - कुशोदक द्वारा एक सौ आठ बार मन्त्र का प्रोक्षण आप्यायन कहा

जाता है ।

तर्पण - देय मन्त्र का जल द्वारा एक सौ आठ बार तर्पण ही तर्पण है । दीपन - तार, माया और रमा बीज से मन्त्र को युक्त करना दीपन कह-

लाता है ।

गोपन - जपे जाने वाले मन्त्र को अप्रकाशित करना ही गोपन है ।

मन्त्र ऋणी और धनी भी होते हैं । रुद्रयामल की प्रक्रियानुसार वर्ण चक्र से उनके ऋणी अथवा धनी होने का निर्णय किया जाता है । ऋणीमन्त्र ही उत्तम होते हैं; उनसे शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है ।

विगत पृष्ठों में मातृकाओं एवं मन्त्र सम्बन्धी जो व्यापक चर्चा की गई है उससे अचिन्त्य प्रभाव मन्त्रों की आकृति प्रकृति तथा रहस्य हृदयङ्गम हो सकेगा, ऐसी आशा है ।