०६ मातृकावर्ण-विकास

शब्द के स्थूल सूक्ष्मादि रूपों एवं स्वरूप की चर्चा करने के अनन्तर यह आवश्यक ही नहीं अवसर प्राप्त भी है कि शब्द वाचक वर्ण और वाच्य - सृष्टि के सम्बन्ध में प्रचलित, उन अनेक विसंवादी सिद्धान्तों की आलोचना कर ली जाय, जिससे तत्त्वबोध के लिए एक अभिजात भूमिका की स्थापना हो सके ।

दर्शनों की परम्परा में सामान्य रूप से निम्नांकित वादों का आश्रय लिया जाता रहा है :-

१. परिणामवाद ।

२. विवर्तवाद ।

३. प्रतिबिम्बवाद अथवा आभासवाद ।

प्राचीन ग्रन्थों के सम्यक् आलोचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उपर्युक्त वादों के प्रति विचारकों का उतना आग्रह नहीं था जैसा परवर्ती काल में दृष्टिगोचर होता है । मूलभूत दार्शनिक सूत्रों के भाष्यों में तत्तत् मतों की स्थापना में ये वाद आधार ही बन गये हैं । यही नहीं इनमें परस्पर एकान्त भेद का भी अन्वेषण कर लिया गया । प्राक्तन विचारक इनका उपयोग दृष्टान्त रूप में सामान्यतया ही करते थे । विवर्त और परिणाम उनके लिए पर्यायरूप में स्वीकृत थे और आभास अथवा प्रतिबिम्ब भी एक प्रकार की परिणति ही रही है, यह सब अग्रिम समीक्षा से अनुपद ही स्पष्ट होगा ।

एक रूप का तिरोभाव और रूपान्तर का आविर्भाव ही परिणाम है । दधि, दूध का परिणाम या विक्रिया है ऐसी दार्शनिकों की मान्यता है । असत्य रूप में निर्भास ही विवर्त है । शुक्ति में रजत का अवभास इसका उदाहरण है । परिणाम, जहाँ उपादान के समान सत्ता वाला होता है वहीं विवर्त अधिष्ठान से विषम सत्ता रखता है । परिणाम और विवर्त में यह भेदप्रथा परवर्ती दार्शनिकों की विलक्षण उपलब्धि है । वाक्यपदीय में भर्तृहरि ने दोनों

१. परिणामे तु रूपान्तरं तिरोभवति, रूपान्तरं च प्रादुर्भवतीत्युक्तम् ।

ई० प्रत्यभिज्ञाविवृति वि०, पृ० ८ अ १ वि० १

२. विवर्तो हि असत्यरूप निर्भासात्मेत्युक्तम् ।

अभिनवगुप्त ई० प्र० वि० वि०, पृ० ८

भातृका वर्ण विकास

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शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है । वे कहते हैं – “यह विश्व शब्द का ही परिणाम है, ऐसा आम्नायवेत्ताओं का कथन है, सर्वप्रथम यह जगत् छन्दों से ही विवृत्त अथवा परिणत हुआ ।” इससे स्पष्ट ज्ञात होता है ग्रन्थकार को विवर्त और परिणाम में भेद अभिप्रेत नहीं है । तत्त्वसंग्रह के रचयिता शान्त- रक्षित ने भी आगम काण्ड की ‘विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यत:’ इस प्रथम कारिका के विवर्त शब्द का परिणाम शब्द के द्वारा ही अनुवाद किया है । विवर्त का परिणाम से कोई भिन्न अर्थ हो सकता है ऐसा भवभूति को भी पता नहीं था अन्यथा वे विवर्त पद का प्रयोग तरङ्गादि जलविकार के रूप में न करते ।

महायोगी भास्करराय को विश्वसृष्टि के सम्बन्ध में परिणामवाद ही अभीष्ट है । किन्तु वह परिणाम प्रकृत परिणाम से भिन्न है। मिट्टी और उसके परिणाम रूप घट में जैसे कोई भेद नहीं वैसे ही ब्रह्म और जगत् में अत्यन्त अभेद है । ब्रह्म सत्य है तो जगत् भी सत्य है । वस्तुत: भेदमात्र ही मिथ्या है, इसे स्वीकार कर लेने पर सम्पूर्ण अद्वैत श्रुतियों का निर्वाह हो जाता है ।

" वस्तुतस्तु जगतो ब्रह्मपरिणामकत्वं स्वीकुर्वतां तान्त्रिकाणां मते जगतः सत्यत्वमेव मृद्घटयोरिव ब्रह्मजगतोरत्यन्ताभेदेन ब्रह्मणः सत्यत्वेन जगतोपि सत्यत्वावश्यम्भावात् भेदमात्रस्य मिथ्यात्वस्वीकारेणाद्वैतश्रुती- नामखिलानां निर्वाहः । भेदस्य मिथ्यात्वादेव सम्बन्धोऽपि मिथ्यैव ॥"

१. इनके मत में विवर्त की परिभाषा —

भेदघटिताधाराधेयभाव-

सौभाग्यभास्कर, पृ० १५१

‘एकस्य तत्त्वादप्रच्युतस्य भेदानुकारेणासत्यविभक्तान्यरूपोपग्राहिता विवर्तः । स्वप्नप्रतिभासवत् ।’

  • स्वोपज्ञ वृत्ति, कारिका १ ब्र० का०

२. शब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदो विदुः । छन्दोभ्य एव प्रथममेतद्विश्वं व्यवर्तत ॥ १२० ॥

३. नाशोत्पादासमालीढं ब्रह्म शब्दमयं च तत् । यत्तस्य परिणामोऽयं भावग्रामः प्रतीयते ॥

४. एको रसः करुण एव निमित्तभेदाद्-

भिन्नः पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्तान् ॥ आवर्त बुद्बुदतरङ्गमयान्विकारा-

नम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समस्तम् ॥ ४७॥

वा० प०, प्र० का०

तत्व संग्रह

उत्तररामचरित, तृ० अंक

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वरिवस्यारहस्य’ में ‘वाचारम्भणं विकार:’ ( छा० उ० ६, १.४ ) ‘आत्मकृतेः परिणामात् ’ ( ब्रह्मसू०१, ४,२६ ) आदि श्रुति तथा सूत्र को उद्धृत करते हुए श्रुति तथा व्यास के मत में भी परिणाम ही अभीष्ट है ऐसा उन्होंने प्रतिपादित किया है । यही नहीं उक्त सूत्र को विवर्तवाद के अनुसार व्याख्या करने वाले आचार्य शङ्कर ने भी “मनस्त्वं व्योम त्वं मरुदसि मरुत्सारथि - रसि त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां नहि परम् । त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन निभृषे ।” ३५ । सौन्दर्यलहरी के इस श्लोक द्वारा स्वाभिमत परिणामवाद ही स्फुटित किया गया है ।

1

श्री रामानुज, २ निम्बार्क, वल्लभ, भास्कर, श्रीपति, श्रीकण्ठ आदि आचार्यों

1

१. सर्वप्रमाणमूर्द्धन्यया श्रुत्या तदनुसारितन्त्रश्चाद्वैते कथिते तद्विरुद्धत्वेन भासमानः कार्यकारणयोर्भेदांश एव कल्पित आस्तां न पुनः सर्वोऽपि प्रपञ्चः ।

वरिवस्यारहस्य, पृ० ५-६

भगवता व्यासेनापि ‘प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात् ’ ( ब्र० सू० १.४. १३ ) इत्यस्मिन्नधिकरणे एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञां मृद्घटन खनिकृन्तनादि- दृष्टान्तम् ‘बहु स्यां प्रजायेय ’ ( तै० उ०२. ७) इत्यभिध्योपदेशादिकं चानुसन्दधानेन परिणामवाद एवाभिप्रेतः कण्ठरेवेणोक्तश्च ‘आत्मकृतेः परिणामात्’ इति सूत्रे ।

परिणामस्वाभाव्यात्, नात्रोपदिश्यमानस्य परिणामस्य परस्मिन् ब्रह्मणि दोषावहत्वं स्वभाव: प्रत्युत निरङ्कुशैश्वर्यावहत्वमेवेत्यभिप्रायः । - श्रीभाष्य

२. परिणमते कार्याकारेणेति । अविकृतमेव परिणमते सुवर्णम् । सर्वाणि च तैजसानि । वृद्धेश्वालौकित्वात् ब्रह्मकारणत्व एव घटते । पूर्वावस्थान्यथा- भावस्तु कार्यश्रुत्यनुरोधादङ्गीकर्तव्यः । १।४।२६

  • वल्लभाचार्य : अणुभाष्य सर्वज्ञं सर्वशक्ति ब्रह्म स्वशक्तिविक्षेपेण जगदाकारं स्वात्मानं परिणमय्य अव्याकृतेन स्वरूपेण शक्तिमता कृतिमता परिणतमेव भवति । १।४।१७

  • निम्बार्काचार्य : वेदान्तपारिजात

परमात्मा स्वयमात्मानं कार्यत्वेन परिणमयामासेत्यर्थः । शक्तिविक्षेपं कृतवान् । अनन्ता हि तस्य शक्तयोऽचिन्त्याश्च । भास्कराचार्य १।४।२६

चेतनाचेतनात्मकप्रपञ्चाकारेण परिणामात् । ननु दधिक्षीरन्यायवत् स्व- स्वरूपपरित्यागपूर्वकरूपान्तरप्राप्तिरेव परिणाम: । नित्यशुद्धस्य महेश्वरस्य परिणामित्वेन स्वस्वरूपनाशित्वं विकारगुणप्रसङ्गव स्यादिति चेन्न, निमित्तभू- तस्योपादानत्वेऽपि न विकारादिस्पर्शः । १।४।२७

  • श्रीपतिपण्डित : श्रीकरभाष्य

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को भी परिणामवाद ही अभिप्रेत है । किन्तु यह परिणाम अविकृत अथवा अपूर्व कहा जाता है । अभिन्ननिमित्तोपादान ब्रह्म में, विश्व रूप में परिणत होने पर भी विक्रिया नहीं आती ।

वामकेश्वर’ तन्त्र में शक्ति के परिणाम का उल्लेख है । यद्यपि राजानक जयरथ ने ‘परिणतायां’ का अर्थ ‘विद्यमानाया’ किया है किन्तु यह समुचित नहीं कहा जा सकता । तान्त्रिक प्रवर भास्करराय ने वहाँ परिणामात्मक अर्थ ही ग्रहण किया है । तन्त्रों में ‘परिणाम’ का प्रयोग किसी निश्चित वाद के रूप में किया नहीं जान पड़ता । भास्करराय के मत में तान्त्रिक परिणामवादी ही ठहरते हैं ।

तीसरा वाद है आभास अथवा प्रतिबिम्बवाद । यद्यपि अन्य दर्शनों में इसका उपयोग किया गया है, किन्तु तन्त्रों तथा तदनुयायी अद्वैत परम्परा में यह विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है । आभास की चर्चा काश्मीरिक शिवाद्वयवाद में बहुधा उपलब्ध होती है । विश्व के सम्पूर्ण जड़-चेतन पदार्थ आभास रूप हैं ।" निर्मल दर्पण में प्रतिबिम्बित जैसे भूमि जल आदि परस्पर भिन्न-भिन्न रूप आकार विशेष, दर्पण से अनतिरिक्त होने पर भी अतिरिक्त के सदृश भासित होते हैं वैसे ही अद्वितीय चित् तत्त्व में सम्पूर्ण विश्व वृत्तियां प्रति-

हन्त कारणविकाररूपो हि परिणामः पूर्वरूपपरित्यागेन रूपान्तरापत्तिः परिणाम इति कथं परमेश्वरोऽनर्थधर्मात् परिभूयत इति चेत् सत्यम्, यथा निमित्तस्य प्रकृतित्वेपि यथा न विकारादिस्पर्शः तथा परिणामः सम्भवति

१।४।२७ ।

  • श्रीकण्ठभाष्य

१. तस्यां परिणतायां तु न कश्चित्पर इष्यते ॥ ५ ॥

वामकेश्वरीमतम्, ४ पटल ।

२. तच्च दृश्यं तत्परिणाम एव, ‘तस्यां परिणतायां……’

इति वामकेश्वरतन्त्रात् ।

वरिवस्यारहस्य, पृ० ५

३. तस्मिश्चिद्दर्पणे स्फारे समस्ता वस्तुदृष्टयः । इमास्ता: प्रतिबिम्बन्ति सरसीव तटद्रुमाः ।’

सांख्यप्रचवनभाष्य

४. आभासरूपा एव जडचेतनपदार्थाः ।

ई० प्र० वि० ३।२1१

५. निर्मले मकुरे यद्वद्भान्ति भूमिजलादयः ।

अमिश्रास्तद्वदेकस्मिश्चिन्नाथे विश्ववृत्तयः ॥ ४ ॥ आ० ३ तं० आ०

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बिम्बित होती हैं ।" स्वच्छ दर्पणादि का ही यह प्रभाव है जिससे वस्तु, अवस्तु से विलक्षण आभासमात्रसार - प्रतिबिम्ब के नाम से प्रतिभासित होती है । जैसे भगवान् के द्वारा दर्पणादि में आभास मात्र जिनका सार है ऐसे पदार्थ, अवभासित किए जाते हैं वैसे ही संवित्तत्व रूप भित्ति में विश्व भासित होता है । संवित् से परे उसका कोई बाह्य रूप नहीं है इसी बोध को संर्वाद्धत करने के लिए प्रतिबिम्ब विधि का आश्रय लिया जाता है । इस प्रकार भासनसारता ही प्रतिबिम्बता है, प्रतिबिम्ब से परे आभास और कुछ नहीं है ।

‘भासनसारतैव हि प्रतिबिम्बता…।’ ‘इह अवभासनसारमेवप्रतिबिम्बतत्त्वम् '

यथोक्तं श्रीतन्त्रालोके :-

न देशो नो रूपं न च समययोगो न परिमा ।

न चान्योन्यासङ्गो न च तदपहानिनं घनता । न चावस्तुत्वं स्यान्न च किमपि सारं निजमिति । ध्रुवं मोहः शाम्येदिति निरदिशद्दपंणविधिः ॥

इसका कोई देश भी

ई० प्र० वि० वि०, पृ० १६८

दर्पण से अतिरिक्त प्रतिबिम्ब की स्वतन्त्र सत्ता नहीं अतः दर्पण से पृथक् नहीं है । प्रतिबिम्ब काठिन्यात्मक मूर्ति नहीं कहा जा सकता अन्यथा इसका दर्पण से पृथक् देश होता । क्योंकि एक हो नभोदेश के मूर्त दर्पण द्वारा आक्रान्त होने पर वही देश मूर्तान्तर से नहीं आक्रान्त हो सकता । दो मूर्तियां समान नभोदेश में अवस्थित हों यह विरोधी बात है । अतः प्रतिबिम्ब में ‘घनता’ न होने से इसका कोई रूप भी नहीं है । रूप किसी

१. स्वच्छस्य दर्पणादेरेवैष प्रभावो यद्वस्तु अवस्तुविलक्षणमाभासमात्र सारं प्रतिबिम्बं नामेदं प्रतिभासते इति, तेन भगवता यथा दर्पणादी आभासमात्रसारा एव भावा अवभास्यन्ते तथा संवित्तावपीति न बहीरूपत्वेनैषां सत्वमस्तीति बोधं वर्धयितुं बाह्यार्थाभिनिवेशिनामेतदुपदिष्टम् । अतः सर्वमेवेदमाभासमात्र- सारमेवेति न बाह्येऽर्थेभिनिवेष्टव्यम् येन द्वैतमोहः शाम्येत् ।

राजानक जयरथ–तन्त्रा० विवेक, पृ० २९-३० २. देवस्य द्योतनात्मनश्चित्तत्वस्य तादृशे विश्वप्रतिबिम्बने, ज्ञानक्रियाद्याः शक्तयो निमित्तं भवन्तु । शक्तयश्च - स्वातन्त्र्यशक्तिमात्रपरमार्था एव इति निजैश्वर्यमात्रादेव अस्य स्वात्मनि विश्वाकारधारित्वम् - इति पिण्डार्थः । यदुक्तं श्री प्रत्यभिज्ञाकृता – ’ तत्र त्वर्पकादुपाधेस्तदाकारत्वं चित्तत्वस्य तु निजैश्वर्यात् ।’

तन्त्रालोक विवेक, ३ आ०, पृ० ७२

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मूर्त वस्तु में ही सम्भव है । काल से भी इसका सम्बन्ध नहीं, क्योंकि कालयोग किसी पूर्वापरभावी की अपेक्षा से पृथक् सत्ता वाले पदार्थ में ही देखा जाता है । प्रतिबिम्ब की तो दर्पण से पृथक् कोई सत्ता ही नहीं है । यही कारण है कि इसमें परिमाण भी उपलब्ध नहीं । परिमाण धन पदार्थ में होता है । यदि कथञ्चित् परिमाण स्वीकार भी किया जाय तो महाकार पर्वतादिकों की सीमित दर्पण में प्रतिसङ्क्रान्ति सिद्ध नहीं की जा सकती ।

दर्पण के अन्तर्गत अनेक पदार्थों के, साथ ही प्रतिभासित होने पर भी परस्पर निविड़ रूप से वास्तविक संश्लेष नहीं होता । और संपूर्ण पदार्थों के परस्पर विविक्त रूप से भासित होने के कारण अन्योन्यासङ्ग की सर्वथा हानि कहना भी उचित नहीं ।

जो वस्तु भासित हो रही है, उसे सर्वथा अवस्तु घोषित करना बुद्धिमानी नहीं । किन्तु आभास या प्रतिबिम्बमात्रसार होने के कारण उसमें वस्तुत्व के साधक स्वल्पमात्र निजी तथ्यात्मक रूप का सम्भव कहाँ ?

एवभासाभासमात्र सारं प्रतिबिम्ब सतत्त्वं बाह्यार्थवादिनो निश्चितमेव द्वैत- प्रथात्मकं सङ्कुचितं ज्ञानं शाम्यतामित्येतदथं दर्पणविधिः – फुड्यादिवैलक्षण्येन प्रतिबिम्ब सहिष्णुवस्तुप्रकारो निरदिशत् निर्दिष्टवान् । एवं च सत्ययमर्थः प्रदर्शितो भवति - यद्विश्वमिदं संविदि दपर्णप्रतिबिम्बन्यायेन अवस्थितं न तु तदतिरिक्ततया बहीरूपत्वं न वस्तु सदिति न तत्राभिनिवेष्टव्यमिति ।

तन्त्रालोक - विवेक, आ० ३, पृ० ३२ इस प्रकार परिणाम, विवर्त एवं आभासवाद की चर्चा हुई । सत्य तो यह है कि इन तीनों वादों में एक न एक अरुचि विद्यमान है । यही दृष्टि में रखकर आचार्य अभिनवगुप्त ने सर्ववादमूर्द्धन्यभूत स्वातन्त्र्यवाद की उद्भावना की । परिणाम में रूपान्तर का तिरोधान और रूपान्तर का आविर्भाव निश्चय ही विकार की दिशा की ओर इङ्गित करता है । विवर्त में निर्भासित होना और असत्य भी होना, वादसम्बन्धी न्यूनता का परिचायक है ।

“आभासनमा ईवत् सङ्कोचेन भासनं प्रकाशना ।”

ई० प्र० वि० वि०, पृ० १४१, २ अ० २ वि० किञ्चित् सङ्कुचित रूप से प्रकाशन ही आभास है । आभास अथवा प्रतिबिम्ब में स्वच्छतामात्र का संवेदन होता है। यहां वैसे संवेदन को समर्पित करने वाले तत्त्वान्तर की आवश्यकता का अन्वेषण अपरिहार्य है । जो अधिक न होकर भी अधिक रूप में भासित हो वही स्वच्छता’ है । इस प्रकार आभास या

१. अनधिकस्यापि अधिकस्य इव भासनं स्वच्छभाव उच्यते दर्पणस्य इव ।

१० म० मा०१४६

प्रतिबिम्बवाद में भी त्रुटि पाई जाती है । इसी को लक्ष्य में रखकर आचार्य अभिनवगुप्त ने चौथे स्वातन्त्र्यवाद का अन्वेषण किया ।

स्वातन्त्र्यवाद में उपर्युक्त कोई भी दोष सम्भव नहीं । स्वातन्त्र्य परमात्मा की पराशक्ति है ।

यह शक्ति परमशिव से सर्वथा अभिन्न है । आनन्द इसका दूसरा नाम है । अतिदुर्घटकारित्व ही परमात्मा का ऐश्वर्य है - यह स्वातन्त्र्य से भिन्न नहीं । अपने स्वातन्त्र्य या ऐश्वर्य से परमेश्वर अनन्त रूपों में स्फुरित होता हुआ भी स्वरूपतः अखण्ड ही रहता है । परमात्मा की इच्छा का अनभिहत प्रसार ही उसका स्वातन्त्र्य है । सृष्टि के सम्बन्ध में सर्वथा निर्दुष्ट एवं रमणीय वाद यदि कोई हो सकता है तो स्वातन्त्र्यवाद ही । परमेश्वर के अतर्क्यं परमैश्वर्य के विषय में किसी प्रकार की अरुचि सम्भव नहीं-

एतदेव स्वातन्त्र्यं यदतिदुर्घटकारित्वम् ।

ई० प्र० वि० वि०, ११, पृ० १०७

स हि प्राकारगृह हस्त्यश्वपुरुषघटकुम्भकारभेदैतद्गतावयवावयविभावाधारा- धेयभावकार्यकारणभावप्रभृतिभिश्च व्यवहारनिवहैः मनाङ्मात्रमपि स्वरूपान- धिकैरपि अतिरिक्तैरिव च यत् निर्भासते तदेवं स्वच्छ इति उच्यते ।

ई० प्र० वि० वि०, अ० १ वि०, पृ० ६१

१. विवर्तो हि असत्यरूपनिर्भासात्मेत्युक्तम् । निर्भासते च असत्यं चेति कथमिति तु न चिन्तितम् । परिणामे तु रूपान्तरं तिरोभवति, रूपान्तरं च प्रादुर्भवतीत्युक्तम् । प्रकाशस्य तु रूपान्तराभावात् तत्तिरोधाने स्यादान्ध्यम् । अप्रकाशश्च प्रादुर्भवन् नैव प्रकाशेत इति उभयथापि सुप्तं जगत् स्यादिति न पर्यालोचितम् । प्रतिबिम्बवादे च स्वच्छतामात्रं संवेदनस्य, न स्वातन्त्र्यमिति तत्समर्पकवस्त्वन्तरपर्येषणा कर्तव्या । अविद्या च अनिर्वाच्या वैचित्र्यं च आधत्ते इति व्याहतम् । पारमेश्वरी शक्तिरेव इयमिति तु हृदयावर्जकः क्रमः । तस्मा- दनपह्नवनीयः प्रकाशविमर्शात्मा संवित्स्वभावः परमशिवो भगवान् स्वातन्त्र्या- देव रुद्रादिस्थावरान्तप्रमातृरूपतया नीलसुखादिप्रमेयरूपतया च अनतिरिक्तयापि अतिरिक्तया इव स्वरूपानाच्छादिकया संविद्रूपनान्तरीयकस्वातन्त्र्य महिम्ना प्रकाशते इत्ययं स्वातन्त्र्यवाद: प्रोन्मीलितः ।

ई० प्र०वि० वि०, १ अ० १ वि०, पृ० ८९ स्वातन्त्र्यम्, स्वात्मविश्रान्तिस्वभावाह्लादप्राधान्यात् । तन्त्रसार १ आ०, पृ० ६

२. आनन्द: स्वातन्त्र्यं आनन्दशक्ति:–

ऐश्वर्यमेव आनन्दः पूर्णता ।

ई० प्र० वि० वि० १ ० ५ वि०, पू० १९८

मातृका वर्ण विकास

स्वातन्त्र्यं च नाम यथेच्छं तत्र इच्छाप्रसरस्य अविघातः ।

वही, पृ० ८२

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जिसे परमात्मा का ऐश्वर्य अथवा स्वातन्त्र्य कहा जाता है वही नित्य उदित परा वाक् है । तत्त्वज्ञ इसी को विमर्शात्मा चिति के नाम से जानते हैं । यह शब्दतत्त्व सृष्टि के प्रसार की आदि कोटि है और सृष्टि-सङ्कोच दशा में चरम कोटि । इससे परे शब्दातीत अवस्था है जिसे परमशिव कहते हैं । इस अवस्था में स्वातन्त्र्य अथवा विमर्श अविभक्त या अन्तर्लीन रहता है-

“चिद्रपाह्लादपरमो निर्विभागः परस्तदा ।”

चितिः प्रत्यवमर्शात्मा परावाक् स्वरसोदिता ।

शिवदृष्टि ४, प्र० आ०

स्वातन्त्र्यमेतन्मुख्यं तदैश्वयं परमात्मनः ।। १।४५

ई० प्र० विमशिनी । यहाँ इतना अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि स्वातन्त्र्यवाद और आभासवाद एक ही नहीं है जैसा कि कुछ लोगों ने समझ लिया है । आभास - वस्तुवाद,

अथवा दर्पणविधि शिवाद्वयशासन में

आभाससारवस्तुवाद

१. कश्मीर शैविज्म :-

दि डाक्ट्रिन ऑफ रेगार्डिंग आभास ऐज दि प्रासेस ऑफ मैनिफेस्टेशन इज़ काल्ड आभासवाद आर आभासपरमार्थवाद एण्ड आलसो स्वातन्त्र्यवाद; फार इन्स्टैन्स इन स्पन्दसन्दोह ।

पाद टिप्पणी, पृ० ५४

निम्नोद्धृत स्पन्दसन्दोह तथा ऊपर वर्णित अभिनवगुप्त के आभास सम्बन्धी वचनों की तुलना कीजिए-

“यदि आभास परमार्थानुसारेण तथाभासपरमार्थस्य शङ्करस्वभावाभिन्नस्य जगतः तथाभासनमयावेव विनाशोदयो इष्येते, आभासयितरि भगवति भेदशङ्कास्पदम् – स्पन्दसन्दोह, पृ० ४ ।

1

२. वेदान्त में, पचपादिका विवरणकार प्रकाशात्मयति तथा अप्पय्य दीक्षित प्रतिबिम्ब और आभास को एक मानते हैं तथा वार्तिककार सुरेश्वरा- चार्य के मत में दोनों भिन्न हैं । प्रतिबिम्बवादसम्बन्धी भेद और अभेदात्मक दो पक्षों का उल्लेख करते हुए आचार्यों ने कहा है-

न बिम्बादन्यत्वेन प्रतिबिम्बं नाम दर्पणगतमवभासते किन्तु बिम्बमेव दर्पणादविविक्तं प्रतिभासते ।

पक्षपादिका विवरण, १० २८५

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बाह्यवाद’ का प्रतिरोधी बनकर आया है । सिद्धान्ततः स्वीकृत स्वातन्त्र्यवाद ही है । उद्धृत ईश्वरप्रत्यभिज्ञा की उपर्युक्त कारिका से स्पष्ट है कि प्रस्तुत वर्ण-विकास से स्वातन्त्र्य का कितना सम्बन्ध है । अतः प्रकृत प्रसङ्ग में भी स्वातन्त्र्यवाद को ही अङ्गीकार करके चलना समुचित होगा ।

अन्तर्लीनविमर्श, अतएव निष्कल, तत्त्वातीत, परमशिव ही विश्व के

मूल

में उत्तीर्ण रूप से वर्तमान रहते हैं । विश्व - विकास के प्रति उन्मुखता या स्फुरत्ता ही, प्रकाशकस्वभाव परमशिव के स्वकीय रश्मिपुञ्ज से निर्मित, निर्मल विमर्शात्मक दर्पण है । इस विमर्शमय आदर्श में प्रतिफलित परमशिव को सर्वप्रथम ‘अहं’ बोध होता है । यह ‘अहं’ वाचकों - अकारादि वर्णों और वाच्यों - तत्तत्पदार्थों से पूर्ण विश्व - के विकासरूप सोपान का प्रथम पर्व है । छत्तीस तत्त्वमय समस्त भुवनमण्डल को मयूराण्डरसन्याय से कवलिल किये हुए इस ‘अहं’ - पूर्णाहन्ता को शिवशक्तिरूप दिव्य दम्पति के सामरस्य के

नन्वेवं प्रतिबिम्बभ्रमस्थलेऽपि ग्रीवास्थमुखातिरेकेण दर्पणे मुखाभासोत्पत्ति-

रुपेया स्यात् ।

ני

सिद्धान्तलेशसंग्रह, पृ० ३०८ - ३०९

( क ) तथा च बिम्बप्रतिबिम्बयोरभेदपक्षे ।

( ख ) शुक्तिरजतादिवत् साक्षिभास्यप्रतिबिम्बाध्यासोत्पत्तिपक्षे तु… ।

सिद्धान्तलेश की कृष्णानन्दतीर्थ- व्याख्या, पृ० ३११ जीव और ईश्वरसम्बन्धी मतों की चर्चा करते हुए अद्वैतसिद्धि की व्याख्या लघुचन्द्रिका में ब्रह्मानन्द ने कहा है—

क - तथा च बिम्बप्रतिबिम्बचितोः ईशजीवत्वपक्षे शुद्धचिदेव तदुभयानुगता साक्षिणी जगदुपादानम् ।

ख- - अविद्याप्रतिबिम्बमनः प्रतिबिम्बयो : ईशजीवत्वे तु अविद्याबिम्बत्वो- पहिता चित् तथा ।

ग- अविद्यामनोगत चिदाभासयोरीशजीवत्वे त्वीश एव तथा ।

तत्र आद्यः पक्षो विवरणकृतः । द्वितीयः संक्षेपशारीरककृतः । तृतीयः वार्तिककृतः । वाचस्पतिमते तु जीव एव तथा, तस्यैवाविद्याविषयत्वोपहिते ईशे तादात्म्येनानुगतत्वात् ।

गोडब्रह्मानन्दी, पृ० ४८३

१. तदवश्य समर्थनीयेऽस्मिन् आभासवस्तुवाद एव शरणम्, न बाह्यवादः ।

ई० प्र० वि० वि०, पू० १८, २ अ० १धि०

मातृका - वर्ण-विकास

१४६

नाम से कहा जाता है । यह अहन्ता ’ अपने गर्भ में, पचास वर्णों को प्रत्याहार- न्याय से समेटे रहती है । ‘अहं’ में ‘अकार’ अनुत्तर नामक शिव का बोधक है और ‘हकार’ विसर्ग शक्ति का वाचक है । इन दोनों का समुदित रूप ही एकपदागमा विद्यारे (प्रणव) है । इसे ही श्रुति में एकाक्षरा वाक् अथवा ‘एक

वर्ण’ कहा गया है ।

“एकाक्षरा वै वाक्”

वै

ताण्डय० ब्रा० ४/४/३

“एको वर्णों बहुधा शक्तियोगात् वर्णाननेकान् निहितार्थो दधाति । "

कामकलाविलास, टी० पृ० ८

तान्त्रिकों ने इस ‘अहन्ता’ रूप महाबिन्दु में अवस्थित सित, शोण और मिश्र इन त्रिबिन्दुओं का निर्देश किया है । विमर्श रक्तबिन्दु है और प्रकाश

१. सकलभुवनोदय स्थितिलयमयलीलाविनोदनोद्युक्तः ।

अन्तर्लनविमर्शः पातु महेश: प्रकाशमात्रतनुः ॥ १ ॥

परशिवरविकरनिकरे प्रतिफलति विमर्शदर्पणे विशदे । प्रतिरुचिरुचिरे कुण्ड्ये चित्तमये निविशते महाबिन्दुः ॥ ४ ॥

कामकला०

काम०

लोकेऽपि सूर्याभिमुखस्थितदर्पणतले सूर्यकिरणत्रतिफलनानन्तरं निकटगत- कुड्ये सूर्य किरणप्रतिहत तेजोबिन्दुः प्रत्यक्षं प्रपद्यते, तद्वत् प्रकाशरूपपरमेश्वरस्य दर्पणवत् स्वरूपविमर्शसम्बन्धे जाते तदानीं तत्र महाबिन्दुः ‘पूर्णोऽहं’ इत्येवंरूपः परमेश्वरोऽवभासते इत्यर्थः ।

कामकला०, टी०, पृ० ७

चित्तमयोऽहङ्कारः सुव्यक्ताहार्णसमरसाकारः ।

शिवशक्तिमिथुन पिण्डः कवलीकृतभुवनमण्डलो जयति ॥ ५ ॥

प्रत्याहारन्यायेन अन्तर्गभितसमस्तवर्ण कदम्ब काहङ्काररूप प्रकाशविमर्श-

सम्पुटादेव शब्दार्थात्मक सर्वप्रपञ्चविकासो भवति ।

२. सत्या विशुद्धिस्तत्रोक्ता विद्यवैकपदागमा ।

युक्ता प्रणवरूपेण सर्ववादाविरोधिनी ॥ ९ ॥

का०, पृ० ८

वाक्यपदीय, ब्रह्मकाण्ड

३. सितशोणबिन्दुयुगलं विविक्तशिवशक्तिसङ्कुचत्प्रसरम् । वागर्थसृष्टिहेतुः परस्परानुप्रविष्टविस्पष्टम् ॥ ६ ॥

१५०

शुक्लबिन्दु । इन दोनों बिन्दुओं का समरस भाव ही मिश्रबिन्दु या सूर्य है । इस सूर्य का परमात्मा या काम के नाम से निर्देश किया गया है । इस प्रकार “अग्नीषोमात्मक विमर्श (कला) शक्ति और तदुभयात्मक काम से अविनाभूत” बिन्दुसमष्टि को त्रिपुरसुन्दरी अथवा कामकला कहते हैं । यह पूर्णाहन्ता रूपिणी कामकला ही पर- मातृका शक्ति है । यहाँ समुदित रूप में विद्यमान रहती है । मातृका, ज्ञानात्मक मध्यमा मातृका, और क्रियात्मक वैखरी मातृका का प्रादुर्भाव होता है ।

इच्छा, ज्ञान और क्रिया इसी से इच्छात्मक पश्यन्ती

ब्रह्माण्ड में जो त्रिपुरसुन्दरी अथवा परमातृका है वही पिण्डाण्ड में कुण्ड- लिनी है । यह पूर्वोक्त ‘आहोपुरुषिका’ अथवा अहन्ता से भिन्न नहीं है । इस ‘अहं’ में भावी सम्पूर्ण शब्द और अर्थ सृष्टि युगपत् सूक्ष्म रूप में घनीभूत होकर आ ठहरती है । यहाँ यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि वर्णात्मक शब्दों और उनके वाच्यात्मक सदाशिव से लेकर प्रकृति - पुरुष तथा पृथ्वीपर्यंन्त अर्थो का एक साथ ही प्रादुर्भाव होता है ।

बिन्दुरहङ्कारात्मा रवि रेतन्मिथुनसमरसाकारः ।

कामः कमनीयतया कला च दहनेन्दुविग्रहौ बिन्दू ॥ ७ ॥

बिन्दु : सितरक्तस्वरूपः अहङ्कारात्मा अन्तर्गभितसमस्तवर्ण राशिः अनुत्तर- स्फाररूपाहङ्कारः आत्मा तादात्म्यस्वरूपं यस्य सः । अतएव एतन्मिथुनसमर- साकार एतयो अकारहकारवाच्ययोः प्रकाशविमर्शयोः मिथुनं द्वन्द्वं, तस्य दिव्य- दम्पतिरूपस्य मिथुनस्य समरस: परस्परानुप्रवेशरूपं आनुकूल्यं तदेव आकार: स्वरूपं यस्य सः । एवं भूतो रविः सितशोणबिन्दुसमरसीभूतो मिश्रबिन्दुरित्यर्थः ।

अग्नीषोमरूपिणी विमर्शशक्तिः तदुभयभूतकामेश्वराविनाभूता महात्रिपुर- सुन्दरी बिन्दुसमष्टिरूपा कामकला इति उच्यते । अयमत्र निष्कर्षः - स्वान्तर्ग- तानन्ताक्षर राशिमहामन्त्रवीर्य पूर्णाहन्तारूपिणी प्रकाशानन्दसारा बिन्दुत्रय समष्टि- रूपलिप्यक्षररूपिणी कामकला नाम महात्रिपुरसुन्दरी मातृका परमयोगिभिः महामाहेश्वरैरनिशं अनुस्मर्तव्या इति ।

कामकला०, टी० पृ० ११

१. बेहरियाणाम किया णाणमयी होल मलमा वाआ ।

इच्छा उण पंखती सक्षमं समरशा वत्ती ॥। ४९ ।।

महार्थमञ्जरी

[ वैखरी नाम क्रिया ज्ञानमयी भवति मध्यमा वाक् । इच्छा पुनः पश्यन्ती सूक्ष्मा समरसा वृत्तिः ॥ ]

(छाया)

मातृका वर्ण-विकास

१५१

पर’ परामर्शशाली, शुभ्रप्रकाशात्मा, अनाहत और आहत शब्द से उत्तीर्ण अकुल, अनुत्तर, शिव ही ‘अकार’ है । इसे चित् शक्ति कहते हैं ।

अनुत्तर अकुल शिव अपनी कोलिकी परा शक्ति के साथ अवियुक्त रूप से विद्यमान रहते हैं । इनका परस्पर उन्मुखीभाव ही यामल अथवा संघट्ट है जिससे आनन्द का उद्भव होता है । यह आनन्द ही ‘आकार’ है ।

पूर्वोक्त संघट्ट में चित् शक्ति की प्रधानता रहती है । उस समय पर - प्रमाता का जो विश्व - विसर्गात्मक परामर्श है, वही इच्छा शक्ति है । यही ‘इकार’ है । इसका स्वरूप आद्यस्पन्दात्मक, बहिरोन्मुखतामय, स्रष्टव्य तत्त्वों से अनारूषित इच्छामात्र है ।

१. अकुलस्यास्य देवस्य कुलप्रथनशालिनी ।

कोलिकी सा परा शक्तिरवियुक्तो यया प्रभुः ॥ ६७ ॥

तन्त्रालोक, तृ० आ०

इह खलु पूर्णः शिवशक्त्यादिप्रतिनियतव्यपदेशासहिष्णुः अनाख्यः परपरा- मर्शात्मा अनुत्तरः प्रकाश एव परं तत्त्वं, स एव च स्वस्वातन्त्र्याद्विश्वमविभास- यिषुः प्रथमं शिवशक्तिरूपतां स्वात्मन्यवभासयति । - सोपि हि देवः - ‘नास्यो- च्चारयिता कश्चित् प्रतिहन्ता न विद्यते । स्वयमुच्चरते देवि प्रणिनामुरसि स्थित: ।’ इत्याद्युक्तस्वरूपादनाहतात् स्थानकरणाभिघातोत्त्याच्च हतात् शुद्धात् उत्तीर्णत्वेन परपरामर्शशालिसितताप्रकाशात्मतया सर्वदेव द्योतमानः ।

तन्त्रा० विवेक, पृ० ७६

तयोर्यद्यामलं रूपं स सङ्घट्ट इति स्मृतः ।

आनन्दशक्तिः सैवोक्ता यतो विश्वं विसृज्यते ॥

तन्त्रा ० ६८ ।

अकुलकौलिकीशब्दव्यपदेश्ययोः शिवशक्त्योः, सङ्घट्ट इति सम्यक् घट्टनं चलनं स्पन्दरूपता स्वात्मोच्छलत्ता इत्यर्थः, अतश्च प्रकाशविमर्शात्मनोः अनुत्तरयोरेव सङ्घट्टादानन्दशक्त्यात्मनो द्वितीयवर्णस्य उदयः ।

२. सङ्घट्टेऽस्मिंश्चिदात्मत्वाद्यत्तत्प्रत्यवमर्शनम् ॥ ७१ ॥

इच्छाशक्तिरघोराणां शक्तीनां सा परा प्रभुः ॥

त० वि०, पृ० ८१

" आनन्दो ब्रह्मणो रूपम् इत्याद्युक्त्या चितः प्राधान्यात् योऽयं परस्य प्रमातुः सिसृक्षात्मा परामर्श उदेति सेयमिच्छाख्या शक्तिः । प्रकृतेऽपि अनेन तृतीयवर्णोदय उक्तः । सा च इच्छाशक्तिः - आद्यस्पन्दात्मिका बहिरोन्मुख्यमा- त्ररूपिणी स्रष्टव्यानारूषितेच्छामात्ररूपा वा स्यात् तत्तदीषणीयविषयारूषणया प्रक्षोभात्मप्रयत्नरूपतां श्रयन्ती बहीरूपतया ऐश्वर्यं भजमाना वा इत्यस्या द्वैधम् ।

त० वि०, पृ० ८४

१५२

यही " शक्ति स्रष्टव्य विषयों से संनिकृष्ट होकर प्रक्षुब्धात्मक बनती हुई बाह्यरूप को धारण करके ईशितृ कहलाती है । अघोरादि नाना शक्तियों के रूप में जो बाह्य अवभासन है वही इसका ऐश्वर्य है । यही ‘ईकार’ है ।

अपने अन्तर्गत विजिज्ञास्य रूप से इष्ट विश्व का उन्मेष ही ज्ञान शक्ति है । यह उन्मेष ‘उकार’ है । परापररूप घोरात्मक शक्तियों की यह जननी है ।

इच्छा शक्ति के सदृश ज्ञान शक्ति भी शेयर के आधिक्य और अनाधिक्य को लेकर दो प्रकार की है । ज्ञेय के अनाधिक्य से सम्बद्ध स्वरूप का निर्णय ऊपर किया जा चुका है। ज्ञान की अपेक्षा ज्ञेय रूप अंश अधिक उद्रिक्त होता है अर्थात् नील, सुख आदि रूपों में क्षुब्ध होकर ज्ञेय जब बलवत्तर हो जाता है उस समय ज्ञान, ज्ञानमात्र रूप में न्यून या अपूर्णतया आभासित होता है । यह ऊनता या सङ्कोचाधिगम ही ‘ऊकार’ है ।

संविन्मात्र की ऊनता का आभासन जब रूढ़ होता - प्ररोहयुक्त होता है तो उसी को नील, सुखाद्यात्मक ज्ञेय वर्ग की स्थिति का प्रारम्भ कहा जाता है । किन्तु यह उसकी साक्षात् स्थिति नहीं है । साक्षात् स्थिति तो क्रिया शक्ति में जाकर होती है । विबोध या ज्ञानरूपी समुद्र का नाना आकार धारण करना ही रूढ़ि है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान से अतिरिक्त कोई ज्ञेय नहीं है किन्तु वही उन रूपों में स्फुरित होता है । यही भेद-सन्दर्भ का बीज

१. सैव प्रक्षुब्धरूपा चेदीशितृ सम्प्रजायते ॥ ७२ ॥

तदा घोराः परा देव्यो जाताः शैवाध्वदैशिकाः ॥ स्वात्मप्रत्यवमर्शो यः प्रागभूदेकवीरकः ॥ ७३ ॥ ज्ञातव्य विश्वोन्मेषात्मा ज्ञानशक्तितया स्थितः । इयं परापरादेवी घोरां या मातृमण्डलीम् ॥ ७४ ॥ सृजत्यविरतं शुद्धाशुद्ध मार्गैकदीपिकाम् ॥

२. ज्ञेयांश : प्रोन्मिषन्क्षोमे यदेति बलवत्त्वतः ।। ७५ ।।

ऊनताभासनं संविन्मात्रत्वे जायते तदा ।

रूढं तज्ज्ञेयवर्गस्य स्थितिप्रारम्भ उच्यते ॥ ७६ ॥ रूढिरेषा विबोधाब्धेश्चित्राकारपरिग्रहः ।

इदं तद्भ ेदसन्दर्भबीजं चिन्वन्ति योगिनः ॥ ७७ ॥

इह खलु एतदेव परविमर्शात्ममुख्यं परामर्शषट्कं यतः परस्परं प्रमेयेण वा

सङ्घट्टे सति निखिलपरामर्शोदयः ।

विवेक, पृ० ८८

मातृका - वर्ण-विकास

१५३

है जिसे योगी लोग जानते हैं । ये छ: वर्ण ( परामर्श षट्क ) ही निखिल परामर्शो ( वर्णों ) के जनक है ।

स्वराणां षट्कमेवेह मूलं स्याद्वर्णसन्ततौ ॥

तन्त्रा० १८४ श्लोक

अक्षुभित’ और क्षुभित रूप दो प्रकार की इच्छाशक्ति इष्यमाण से समापन्न होकर ही ‘इ’ और ‘ई’ रूप में व्यक्त हुई थी । वह समापत्ति और क्षोभ स्फुट रूप में नहीं हुआ था । प्रकाश और स्तम्भस्वभाव ज्वलन और धरात्मक - ‘र’ और ‘ल’ श्रुतियाँ जब इष्यमाण होकर द्विविध इच्छाशक्ति से स्थिरता के साथ स्फुट रूप से समापन्न होती है तो चार नपुंसक वर्णों का जन्म होता है । यहाँ ‘र’ और ‘ल’ श्रुतिमात्र प्रतीत होते हैं; इनकी स्थिति व्यञ्जनवत् नहीं होती । जैसे विद्युत् क्षणिक होने के कारण अचिर काल तक ही भासित होती है वैसे ही यहाँ इष्यमाण भी छाया रूप में भासित होता है । इसीलिए यहाँ वर्ण की श्रुति मात्र होती है साक्षात् वर्ण की उत्पत्ति नहीं । वर्ण की श्रुति, वर्ण नहीं है । इसीलिए नरसिंह के समान ऋ ॠ और लुलू ये चारो वर्ण उभय छाया ग्रहण करने के कारण षण्ढ वर्ण कहे जाते हैं :-

ऋ, ऋ, लृ, लृ, चतुष्कं च नपुंसकगणस्तथा ।

6

तन्त्रालो० विवे०, पृ० ९०, तृ० आ०

इस प्रकार ज्वलनशक्ति से विभिन्न अक्षुब्ध इच्छाशक्ति ही ‘ऋ’ और क्षुब्ध इच्छाशक्ति ‘ऋ’ है । धराशक्ति से उपरक्त अक्षुब्ध इच्छाशक्ति ‘लू’ और क्षुब्ध इच्छाशक्ति ‘ल’ है ।

जिस प्रकार इच्छाशक्ति का इष्यमाण के साथ तादात्म्य घटित होने से परामर्शान्तर अथवा अन्य वर्ण का उदय होता है वैसे ही ज्ञान की ज्ञेय समापत्ति

१. इच्छाशक्तिद्विरूपोक्ता क्षुभिताक्षुभिता च या ।

इष्यमाणं हि सा वस्तु द्वैरूप्येणात्मनि श्रयेत् ॥ ७८ ॥

अचिरद्युतिभासिन्या

इष्यमाणसमापत्तिः

शक्त्या ज्वलनरूपया

स्थैर्येणाथ धरात्मना ॥ ७९ ॥

तन्त्रालोक, तृ० आ०

२. तेन अक्षुब्धा ज्वलनशक्त्या च्छुरिता इच्छा ‘ऋ’ क्षुब्धा तु ‘ऋ’; एवं

धराशक्त्या च्छुरिता ‘ल ल इति ।

३. उन्मेषशक्तावस्त्येतज्ज्ञेयं यद्यपि भूयसा ।

विवेक, पृ० ९०

तथापि विभवस्थानं सा न तु प्राच्यजन्मभूः ॥ ८० ॥

तन्त्रा० तृ० आ०

१५४

से वर्णान्तर की उत्पत्ति होनी चाहिए । किन्तु वस्तुतः वैसा नहीं होता । यद्यपि ज्ञानशक्ति में ज्वलनादि नाना ज्ञेय विद्यमान रहते हैं तथापि ज्ञानशक्ति को इच्छाशक्ति के सदृश उत्पत्तिभूमि नहीं माना जाता किन्तु वह विभव ( अभिव्यक्ति ) स्थान है । इच्छाशक्ति में इष्ममाण रूप से उत्पन्न भाव समूह, ज्ञानशक्ति में अभिव्यक्त होता है और क्रियाशक्ति में उसका वाह्य- रूप से परिस्फुरण होता है । इसलिए ज्ञानशक्ति में ज्ञेय की अपूर्वतया उत्पत्ति नहीं होती । और इसी कारण उसके साथ समापन्न होने से परामर्श ( वर्ण ) की उत्पत्ति भी नहीं होती । अतः इच्छाशक्ति में इष्यमाण की अपूर्व उत्पति होने के कारण ही ऐसा कहा गया है । यद्यपि परासंवित् सम्पूर्ण भावों की जन्म भूमि है किन्तु वहाँ वह भाव संविन्मात्र रूप में अवस्थित रहता है ।

इच्छा शक्ति जन्य चारों षण्ढवर्ण स्वात्ममात्र में विश्रान्त होने के कारण अमृतात्मक कहे गये हैं । स्वरों के बीच में आ जाने के कारण उन्हें बीज नहीं है । क्योंकि उनमें प्रक्षोभकता नहीं

बीज कहा जाता है वस्तुतः वे हैं । अपने में ही विश्रान्त होने से ये क्षोभान्तर को उल्लसित नहीं कर सकते । योनि वर्ग में भी ये नहीं आ सकते क्योंकि क्षोभ का आधार योनि है और क्षोभकता ही बीज ।

वस्तुतः संवित् शक्ति का रूप क्षोभक है । वह क्षुब्ध होती है- बहिर्भा- वोन्मुख ज्ञेय समूह को धारण करती है और क्षुब्ध करती भी है- ज्ञेय समूह

यद्यपि ज्ञानशक्तावतज्ज्वलनाद्यात्म ज्ञेयं भूयसा विद्यते तथापि सा ज्ञान- शक्तिः ज्ञेयस्य विभवस्थानं, न तु प्राच्येच्छाशक्तिलक्षणा जन्मभूः – इच्छाशक्ति- वन्नेयमुत्पत्तिस्थानमित्यर्थः, इच्छाशक्ती खल इष्यमाणात्मतया उत्पन्नस्य सतौ भावजातस्य ज्ञानशक्तावभिव्यक्तिः, यस्य क्रियाशक्ती बहीरूपतया परि- स्फुरणम् । अतो ज्ञानशक्तौ ज्ञेयस्य नापूर्वतया उत्पाद; इति न तत्र तत्समापत्त्या परामर्शान्तरोदयः । तेनेच्छाशक्ता विष्यमाणस्यापूर्वतयोत्पादादेवमभिधानम् । यद्यपि सर्वभावनिर्भरत्वात्परस्यामपि संविदि सर्वे भावा: सम्भवन्ति तथापि तत्र तेषां संविन्मात्रतयावस्थानम् ।

त० वि०, पृ० ९१

१. इच्छाशक्तेरतः प्राहुश्चातूरूप्यं परामृतम् ।

क्षोभान्तरस्यासद्भावान्नेदं बीजं च कस्यचित् ॥ ८१ ॥ प्रक्षोभकत्वं बीजत्वं क्षोभाधारश्च योनिता । क्षोभकं संविदो रूपं क्षुभ्यति क्षोभयत्यपि ॥ ८२ ॥ प्रकृतं ब्रूमहे नेदं बीजं वर्णचतुष्टयम् । नापि योनिर्यतो नैतत्क्षोभाधारत्वमृच्छति ॥ ९१ ॥

तन्त्रा०

M

मातृका वर्ण-विकास

१५५

को बाह्य रूप से अवभासित भी करती है ।” क्षोम ज्ञेय का धर्म है; और क्षोभणा — उसका बाह्य अवभासन । ईषणीय समस्त भाव -समूह-रूप विश्व जिसमें एकात्म रूप से वर्तमान है, वह सर्वभाव निर्मर, अद्वितीय संवित्, बीजांश या कारणविशेष है । ग्राह्य ग्राहकात्मक विश्व की भेद रूप से अवभासन की इच्छा से उसका सम्बन्ध ही क्षोभ है । बहिर्भाव की ओर अनुन्मुख अतएव उदासीन देह- नीलादि भाव वर्ग का, औदासीन्य दूर करके जो बहिर्भावात्मक उन्मुखता का अवभासन है वही क्षोभणा है । चर्याक्रम में, बीज के विसर्ग के लिए उद्यत पुरुष स्वयं क्षुब्ध होता है, प्रमदा को भी क्षुब्ध करता है, ऐसा कहा है । जिससे एकात्मता प्राप्त करके परप्रमाता की इच्छा कृतार्थ होती है वही क्षोभाधार है । वहाँ कादि वर्ण और इदन्ता द्वारा विमृष्यमाण - देह

नीलादि भाव वर्ग ही क्षोभाधार या योनि कहे गये हैं ।

ईषणादि संवेदनों का जो अविभक्त पारमार्थिक संवित् रूप — पारमेश्वर स्वरूप है वही अन्तःस्थ विश्व को स्वेच्छा से बाह्य रूप में प्रकट करता है । इसीलिए उसे बीज कहते हैं । उसी के योग में स्वरों में बीजता मानी जाती है । उपर्युक्त वर्णचतुष्टय न तो बीज है और न क्षोभाधार या योनि ।

अनुत्तर, इच्छा, ईशन, उन्मेष और ऊनता ये वर्ण-पञ्चक परस्पर मिश्रित होकर भी नाना वर्ण रूप धारण करते हैं ।

१. क्षोभः स्याज्ज्ञेयधर्मत्वं क्षोभणा तद्बहिष्कृतिः ।

अन्तःस्थविश्वाभिन्नैकबीजांशविसिसृक्षुता ॥ ८३ ॥ क्षोभोऽतदिच्छे तत्वेच्छाभासनं क्षोभणां विदुः ॥

तन्त्रा०

चर्याक्रमे हि बीजं सिसृक्षुः पुमान् स्वयं क्षुभ्यति प्रमदां तु क्षोभयति इति । इह चैतदतिरहस्यत्वाद् अप्रस्तुतत्वाच्च न प्रपञ्चितम् यथोपयोगमूह्यत एव केवलम् ॥

विवेक, पृ० ९४

}

२. संविदामीषणादीनामनुद्भिन्न विशेषकम् ।। ८५ ।।

यज्ज्ञेयमात्रं तद्बीजं यद्योगाद्बीजता स्वरे । ३. इत्थं प्रागुदितं यत्तत् पञ्चकं तत्परस्परम् ।। ९२ ।।

उच्छल द्विविधाकारमन्योऽन्यव्यतिमिश्रणात् । योऽनुत्तरः परः स्पन्दो यश्चानन्दः समुच्छलन् ।। ९३ ।। ताविच्छोन्मेषसंङ्घट्टाद् गच्छतोऽतिविचित्रताम् ।

अनुत्तरानन्दचिती इच्छाशक्ती नियोजिते ॥ ९४ ॥

त्रिकोणमिति तत्प्राहुर्विसर्गामोदसुन्दरम् ॥

त्रिकोणमेकादशमं वह्निगेहं च योनिकम् ।

तन्त्रालोक

शृङ्गाटं चैव एकारं नामभिः परिकीर्तितम् ॥ विवेक, पृ० १०३१५६

अनुत्तर – ‘अ’, आनन्द - ‘आ’ इच्छा – ‘इ’ और उन्मेष – ‘उ’ से मिल- कर ‘ए’ और ‘ओ’ बन जाते हैं । चित् और आनन्द को विकल्प से इच्छा से नियुक्त करने पर जो ‘ए’ रूप बनता है उसको त्रिकोण, वह्निगृह, योनि और शृङ्गाट के नाम से कहा जाता है ।

‘अनुत्तर - अकार और आनन्द - आकार का संयुक्त - दीर्घ रूप आकार है; यह रौद्री आदि शक्तित्रितयमय होने के कारण त्रिकोण रूप है । इस त्रिकोणात्मक आकार के साथ त्रिकोणात्मक ऐकार के की निष्पत्ति होती है ।

योग से षडर ‘ऐकार’

इसी प्रकार ‘अ’ अथवा ‘आ’ के साथ उन्मेष – उ का योग होने से ‘ओ’ और ‘अ’, ‘आ’ और ‘ओ’ के योग से ‘ओकार’ का रूप अभिव्यक्त होता है । उपर्युक्त चारो सन्ध्यक्षर क्रमशः क्रियाशक्ति के अस्फुट, स्फुट, स्फुटतर और स्कूटतम रूप है ।

अनुत्तर और आनन्द के साथ इच्छा और उन्मेष के संयोग से जन्य रूपों के सदृश ईशन और ऊनता द्वारा वर्णान्तर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि वैसा क्षोभ घटित होने पर भी ‘एकार’ और ‘ओकार’ रूप वर्ण ही होंगे । उनकी अन्यथा स्थिति नहीं होगी ।

२ ‘ओ’ कार रूप चौदहवें परामर्श ( वर्ण ) में इच्छा, ज्ञान और क्रिया ये तीनों शक्तियाँ स्फुट रूप से वर्तमान रहती हैं अतः श्रीपूर्वशास्त्र में इसे त्रिशूल वर्ण के नाम से कहा गया है ।

१. अनुत्तरानन्दशक्ती तत्र रूढिमुपागते ॥ ९५ ॥

त्रिकोणद्वित्वयोगेन व्रजतः षडरस्थितम् ।

तत्र त्रिकोणेऽपि यदा अनुत्तरानन्दो रूढि ‘वृद्धिरेचि’ इति सन्धिक्रमेण प्ररोहं प्राप्ती, तदा अनुत्तरस्य पूर्वोक्तनीत्या रौद्रयादिशक्तित्रयमयत्वेन आनन्दस्यापि तत्स्फारमात्र सारत्वेन त्रिकोणरूपत्वाद् आकारकारलक्षणत्रिकोणद्वययोगेन

षडरां षट्कोणां स्थिति व्रजत, ऐकाररूपतामवभासयते इति ।

जय रथ व्याख्या, पृ० १०५

त एवोन्मेषयोगेऽपि पुनस्तन्मयतां गते ॥ ९६ ॥ क्रियाशक्तेः स्फुटं रूपमभिव्यङ्क्तः परस्परम् ॥ इच्छोन्मेषगतः क्षोभो यः प्रोक्तस्तद्गतेरपि ॥ ९७ ॥ ते एव शक्ती ताद्रूप्यभागिन्यौ नान्यथा स्थिते । २. अस्मिंश्चतुर्दशे धाम्नि स्फुरीभूतत्रिशक्तिके ॥ १०४ ॥

त्रिशूलत्वमतः प्राह शास्ता श्रीपूर्वशासने ॥

तन्त्रालोक, तृ० आ०

मातृका वर्ण विकास

१५७

अनुत्तर शक्ति अपने स्वातन्त्र्य से ग्राह्य ग्राहक रूप भावसमूहात्मक ज्ञेय का आकलन करती हैं- इयत्तया परिच्छिन्न करती है । इस परिच्छेद द्वारा स्वरूप गोपनात्मक कालुष्य अथवा सङ्कोच का अवलम्बन करके अपने प्रकाशात्मक शरीर को सर्वसंवेद्य बनाती हुई भी बिन्दु रूप में - परप्रकाशात्मक स्वरूप से अप्रच्युत रूप में विद्यमान रहती है ।

अत्रानुत्तरशक्तिः सा स्वं वपुः प्रकटस्थितम् ।

कुर्वन्त्यपि ज्ञेयकलाकालुष्याबिन्दुरूपिणी ॥ ११० ॥

तन्त्र०

तात्पर्य यह है कि परसंवित् अथवा अनुत्तरशक्ति के क्रियाशक्ति पर्यन्त विचित्र रूप में स्फुरित होने पर भी उसके स्वरूप का लोप नहीं होता । इच्छा और ज्ञानरूप तथाविध उपाधियों का त्याग करके अभेद सत्ता में आरूढ होकर चिन्मय पुरुषरूप वेदनात्मक बिन्दुरूप में अवशिष्ट अनुत्तर शक्ति, ‘अं’ का रूप ग्रहण करती है ।

‘एवमिच्छाज्ञाने अनुत्तरस्वरूपानुप्रवेशेन प्राप्तोपचये पश्चात् परित्यज्य तथा- विधोपाधिपरिस्पन्दसत्तामभेदसत्तारोहण चिन्मयपुरुषतत्वस तत्त्ववेद नारूप बिन्दु- मात्रावशेषेण वपुषा तथानुत्तरपदलीने अमिति ।

पराविशिका, पृ० १७६

ह्लाद, तीक्ष्णता, और दाहकता से अवच्छिन्न, प्रमाण प्रमेय और परिमित- प्रमातृ रूप सोम, सूर्य और अग्नि की आश्रयभूत क्रियाशक्ति के भिन्न-भिन्न रूपों में परिस्फुरित होने पर भी उपाधिशून्य, पूर्ण, परप्रकाश, विदिक्रिया में स्वतन्त्र, परप्रमातृ रूप परमेश्वर शिव ही बिन्दु के नाम से कहे जाते हैं-

उदितायां क्रियाशक्तौ सोमसूर्याग्निधामनि ।

अविभागः प्रकाशो यः स बिन्दुः परमो हि नः ।। १११ ॥

अत्र प्रकाशमात्रं यत्स्थिते धामत्रये सति ॥ १३३ ॥ उक्तं बिन्दुतया शास्त्रे शिवबिन्दुरसौ मतः ॥

यह केवल आचार्य अभिनव की स्वोपज्ञतामात्र है ऐसी बात नहीं । ‘तत्व- रक्षाविधान’ नामक ग्रन्थ में स्वयं परमेश्वर ने -हृदय, भ्रूमध्य, द्वादशान्त- स्थानों में विश्रान्तिभेद से नर, शक्ति शिवात्मक, इच्छाद्यात्मक तथा शिवतत्त्व, विद्यातत्त्व और आत्मतत्त्व के रूप में वेदयिता परप्रकाशरूप बिन्दु ही विश्व के अवभासन की इच्छा से प्रस्फुरित होता है - ऐसा कहा है । इतना होने पर भी यह स्वरूप- च्युत नहीं होता । इसीलिए इस बिन्दु को, संसाराब्धि से पार वैचित्र्य के रूप में उल्लसित होने पर भी संविन्मात्र रूप

उतारने और नाना

शुद्ध होने के कारण विमलतारक के नाम से कहा गया है-

१५८

तत्त्वरक्षाविधाने च तदुक्तं परमेशिना । हृत्पद्ममण्डलान्तःस्थो नरशक्तिशिवात्मकः ॥। ११२ । ।

लयभेदेन बिन्दुविमलतारकः ॥

बोद्धव्यो

तन्त्रा०

यह शिवबिन्दु, सम्पूर्ण प्राणियों में नादात्मक शब्द के रूप में विद्यमान रहता है । अपने से अभिन्न विश्व का परामर्श करने वाला परावाग्रूप विमर्श ही शब्द है । सब भूतों में ‘जीवकला’ के रूप में स्फुरित होने के कारण उसे ‘नाद’ कहते हैं । यह ‘ह’ कार की अद्धर्धिरूप अमाकला के नाम से विख्यात है । इसे ‘अस्वर’ कहा जाता है । यही ‘अकार’ है जो सम्पूर्ण वर्णों में अन्तर्यामी रूप से अवस्थित रहता है -‘अकारः सर्ववर्णानामन्तर्यामितया स्थितः ।’ विवेक, पृ० १२०

वह बिन्दु अधः और ऊर्ध्व विभागों में अनुत्तर से शूलबीज पर्यन्त अथवा हकार पर्यन्त प्राणन रूप से स्थित रहता है; या सूर्यचन्द्रात्मक प्राणा- पान के प्रवाह रूप से अवस्थान करता है । वही ‘परा जीवकला’ है ।

योऽसौ नादात्मकः शब्दः सर्वप्राणिष्ववस्थितः ॥ ११३ ॥

अध

ऊर्ध्वविभागेन निष्क्रियेणावतिष्ठते ॥

तन्त्रालोक, तृ० आ०

ऊपर विश्व वैचित्र्य के रूप में तथा वर्णों के रूप में स्फुरित, बिन्दु को स्वरूप का निर्देश किया गया है। दोनों दशाओं में उसके स्वरूप की अक्षु- णता की बात कही गई है । यहाँ वर्णमाला में उसे शक्तिमत्परामर्श ( वर्ण ) समझना चाहिए। क्योंकि आगे विसर्ग की चर्चा करते हुए उसको - विसर्ग को शक्तिप्रधान परामर्श कहा जायगा ।

एक बात और विचारणीय है । बिन्दु और मकार में क्या अन्तर है; वे दोनों एक हैं या पृथक् ? वस्तुतः जैसे षण्ढ वर्ण और विसर्ग के आश्रित रेफ, लकार और हकार, वैसी श्रुतिमात्र धारण करने पर भी रेफादि से भिन्न हैं वैसे ही बिन्दु भी मकार से भिन्न है । जैसे इकार, रेफांश की छाया से प्रति- च्छायित होकर स्वरान्तर का रूप ग्रहण करता है वैसे ही अस्वर, अनुत्तर, ‘मकार’ और ‘हकार’ श्रुतिमात्र से बिन्दु और

प्रकाशात्मा ( अकार ) चित् शक्यात्मक आदि वर्ण, के लेशस्वरूप उपाधि का अवलम्बन करके वैसी ही विसर्ग इन दो रूपों में विभक्त होकर परामर्शान्तर ( वर्णान्तर ) का स्वरूप ग्रहण करता है, अनुत्तररूप प्रकाश अपने स्वातन्त्र्य से स्वरूप को छिपाकर शक्तिदशा को आभासित करके संकुचित प्रभातृरूपता को प्रकाशित करता है। अतएव इस अकार का — ’ अकारश्च हकारश्च द्वावेतावेकत: स्थिती’ इस उक्ति से तथा - ‘हकाररूप शक्ति के साथ मकाररूप नर, हृदय में स्थित है’ - ‘हकाररूपया शक्त्या मकारो ना हृवि स्थितः - इस

मातृका-वर्ण- बिकास

१५६

उक्ति द्वारा संकुचित प्रमातात्मक मकार के साथ तादात्म्य घटित होता है-

मकारादन्य एवायं तच्छायामात्रवृद्यथा ॥ १३६ ॥ रलहा षण्ढवे सवर्णरूपत्वसंस्थिताः ।

इकार एव रेफांशच्छाययान्यो यथा स्वरः ॥ १३५ ॥ तथैव महलेशादः सोऽन्यो द्वेधास्वरोऽपि सन् ॥

तन्त्रा०, तृ० आ०

अनुत्तर प्रकाशात्मक आदि वर्ण के अन्तर्गत कौलिकी या परा नामक शक्ति विद्यमान रहती है । यही परप्रमाता के साथ ऐक्य रूप से वर्तमान विमर्शात्मा विसिसृक्षा है । यह निश्चित रूप से बाह्य उन्मुखतात्मक क्षोभ के कारण विसर्ग का रूप ग्रहण करती है; इसी के द्वारा आनन्द के उदय से लेकर क्रियाशक्ति पर्यन्त वर्णों का विकास होता है-

अस्यान्तविसिसृक्षास या प्रोक्ता कौलिकी परा ॥ १३६ ॥

सेव क्षोभवशादेति विसर्गात्मकतां ध्रुवम् ॥

त्रिशिरोभैरवशास्त्र में अमा नामक कला के स्वरूप और उसके विकास सम्बन्धी विचार के अवसर पर स्वयं परमेश्वर ने भगवती से कहा है कि प्रमातृ और प्रमेयात्मक विश्व के सृष्टि संहार- विभ्रम, विसर्गमात्र स्वरूप ही है ।” और वहीं पर विसर्ग के तीन रूपों की चर्चा की गई है - १. पर २. अपर और ३. परापर । हकार अपर विसर्ग है; स्वरूपस्थ विसर्जनीय शब्द वाच्य

जो दो बिन्दु है - वह परापर विसर्ग है

परविसर्ग को ही सप्तदशी कला के अन्तःकरण प्रभृति सोलह कलाओं

नाम से कहा गया है । ’ षोडशकल पुरुष में, को आप्लावित करती हुई यह नित्योदित, अनस्तमित, चिन्मात्रस्वभाव अमृता कला के नाम से कही जाती है । हकार का अर्धार्धरूप यह अमाख्य सप्तदशी कला, कोलिकी और परा शब्दों द्वारा बोध्य है । यही आनन्दात्मक परविसर्ग, बहिर्भावरूप औन्मुख्य से विरहित अतः विसर्गहीन प्रसुप्तभुजगाकार स्वात्म - मात्र विश्रान्त, परासंविद्रूप शक्तिकुण्डलिनी शब्द द्वारा व्यपदिष्ट होती है । और विसर्ग के बहिर्भावरूप उन्मुखतात्मक आदि कोटि या प्रान्तदेश में प्राण- कुण्डलिका कही जाती है, जैसा कि कहा है- " प्राक् संवित् प्राणे परिणता ।” पुनः प्रत्यावृत्ति के क्रम में अन्तर्भावोन्मुखतात्मक अन्तकोटिरूप प्रान्त में स्वात्म - विश्रान्त, परसंवित्रूप ग्रहण करके ‘परा कुण्डलिनी’ कही जाती है । इस प्रकार यही संविन्मात्ररूप सप्तदशी कला शिवव्योम, परब्रह्म, शुद्धात्म- स्थान आदि नामों द्वारा निर्दिष्ट की जाती है-

१. पुरुषे षोडशकले तामाहुरमृतां कलाम् ।

विवेक, पू० १४१

१६०

उक्तं च त्रिशिरःशास्त्रे कलाव्याप्त्यन्तचर्चने ॥ १३७ ॥ कला सप्तदशी तस्मादमृताकाररूपिणी । परापरस्वस्वरूपबिन्दु गत्या विसर्पिता ।। १३८ ।। प्रकाश्यं सर्ववस्तूनां विसर्गरहिता तु सा ।

शक्तिकुण्डलिका चंव प्राणकुण्डलिका तथा ॥ १३६ ॥

विसर्गप्रान्तदेशे तु पराकुण्डलिनीति च ।

शिवव्योमेति परमं ब्रह्मात्मस्थानमुच्यते ॥ १४० ॥

विसर्गमात्रं नाथस्य सृष्टिसंहारविभ्रमाः ॥

अखण्ड परा संवित् स्वयं, स्वात्मा में जो स्वात्मक्षेप करती है यही सृष्टि स्थिति और संहाररूप वैसगिकी स्थिति है । अनन्यापेक्ष, पूर्ण, परा संवित् रूप विसर्ग ही कादि- हान्त वर्णों के रूप में परिस्फुरित होती है ।

यह विसर्ग स्थूल होकर ‘हकार’ वर्ण का रूप ग्रहण करती है जिसका हंस, प्राण, व्यञ्जन, स्पर्श आदि नामों से उल्लेख किया जाता है- ‘स्वात्मनः स्वात्मनि स्वात्मक्षेपो वैसगिकी स्थितिः ॥ १४१ ॥ विसर्ग एवमुत्सृष्ट आश्यानत्वमुपागतः ।

हंसः प्राणो व्यञ्जनं च स्पर्शश्च परिभाष्यते ॥ १४२ ॥

सम्पूर्ण विश्व शक्तियों से व्याप्त है और महेश्वर ही शक्तिमान् हैं । ‘शक्तयोऽस्य जगत्कृत्स्नं शक्तिमांस्तु महेश्वर:’ इस उक्ति द्वारा यह स्पष्ट है । पर, अनुत्तरप्रकाश का स्वशक्तिस्फार ही विश्व है फिर ‘विसर्गमात्रं नाथस्य सृष्टिसंहारविभ्रमाः’ की अन्ययोक्ति कैसी ? वस्तुतः अनुत्तर परधाम, अकुल शब्द द्वारा बोध्य है । और अनुत्तरनाथ की जो कौलिकी शक्ति है वही विसर्ग है अतः कोई विरोध नहीं ।

अनुत्तरं परं धाम तदेवाकुलमुच्यते ।

विसर्गस्तस्य नाथस्य कौलिको शक्तिरुच्यते ॥ १४३ ॥

इस कौलिकी शक्ति की विसर्गता - विसृष्टिरूप क्रिया की कर्तृता इसी बात में है कि वह आनन्द, इच्छा आदि के क्रम से, भिन्नावभासरूप क्रिया- शक्ति पर्यन्त उन उन परामर्शो ( वर्णों ) के वैचित्र्य के रूप में स्फुरित होती है इसीलिए जिसमें वर्णों का विभाग स्पष्ट नहीं है अर्थात् नादमात्रात्मक विसर्ग को कुलगुह्वरशास्त्र में कामतत्त्व ( अप्रतिहत इच्छा ) के नाम से कहा गया है-

विसर्गता च संवास्या यदानन्दोदयक्रमात् ।

स्पष्टीभूतक्रियाशक्तिपर्यन्ता प्रोच्छल त्स्थितिः ॥ १४४ ॥

मातृका वर्ण विकास

अत एव विसर्गोयमव्यक्तहकलात्मकः ।

कामतत्त्वमिति श्रीमत्कुलगुह्वर उच्यते ॥ १४६ ॥

१६१

इस कामतत्त्वात्मक विसर्ग में चित्त को समाहित करके जगत को एक साथ ही वश में किया जा सकता है । यह विसर्ग अक्षर है - नित्य उदित रहने के कारण इसके प्राच्यस्वरूप की प्रच्युति नहीं होती ।" इसका न तो कोई उच्चारण करने वाला है और न प्रतिहन्ता; यह विसर्गरूप देव प्राणियों के हृदयदेश में स्वतः उच्चरित होता रहता है, इसीलिए इसे अनिच्छ और अव्यक्त कहा जाता है । यह ध्वनि रूप, सतत उदित, नादमात्र स्वभाव है । इतना होने पर भी उपभोग के अवसर पर रतिसुख की समापत्ति से सम्बद्ध विवशता के कारण कान्ता के कण्ठ से ‘हा हा’ के रूप में स्वभावतः अभिव्यक्त हो उठता है-

यत्तदक्षरमव्यक्तकान्ताकण्ठे व्यवस्थितम् । ध्वनिरूपमनिच्छं तु ध्यानधारणवर्जितम् ॥

तत्र चित्तं समाधाय वशयेद्युगपज्जगत् ।

जिस प्रकार विसर्ग का ही स्थूल रूप ‘ह’ है वैसे ही अनुत्तर ( अ ) इच्छा इ) आदि स्वर ही ‘क’ से लेकर ‘स’ पर्यन्त व्यञ्जनों के रूप में अवभासित होते हैं ।

अतएव विसर्गस्य हंसे यद्वत् स्फुटा स्थितिः ॥ १४८ ॥

तद्वत्सानुत्तरादीनां कादिसान्ततया स्थितिः ॥ तं० तृ० आ०

3 अनुत्तर से पञ्चवर्णात्मक कवर्ग की उत्पत्ति होती है । अनुत्तर यद्यपि

१. नास्योच्चारयिता कश्चित् प्रतिहन्ता न विद्यते । स्वयमुच्चरते देवः प्राणिनामुरसि स्थितः ॥

२. नादाख्यं तत्परं बीजं सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ यत्तदक्षरमक्षोभ्यं प्रियाकण्ठोदितं परम् । सहजं नाद इत्युक्तं तत्त्वं नित्योदितो जपः ॥ नित्यानन्दरसास्वादाद्वाहेति गलकोदरे । स्वयम्भूः सुखदोच्चारः कामतत्त्वस्य वेदकः । अतिसौख्य समावेशविवशीकृतचेतसः । अविच्छिन्नं जपन्त्येनमङ्गनासङ्गमोत्सवे ।

विवेक, पृ० १४९ वही, पृ० १४९

३. अनुत्तरात्कवर्गस्य सूतिः पञ्चात्मनः स्फुटम् ।। १४९ ।।

पञ्चशक्त्यात्मता वेश एकैकत्र यथा स्फुट: ॥

११ म० प्रा०

तन्त्रा ० तु० भा०

१६२

चित् शक्ति प्रधान है तथापि उसमें आनन्द, ज्ञान, इच्छा और क्रिया ये शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं । अतः उससे जनित कवर्ग भी पञ्चात्मक है ।

स्वरूपस्थ अर्थात् इष्यमाण से अनारूषित अक्षुब्ध इच्छाशक्ति से पञ्च- शक्त्यात्मक चवर्ग की उत्पत्ति होती है । वर्ग के पांचों वर्णों में क्रमशः चिदादि शक्तियाँ प्रस्फुटित होती हैं ।

अक्षुब्ध और क्षुब्धात्मक अर्थात् ऋकार और लकारात्मक विविध इच्छा शक्ति से टवर्ग और तवर्ग की उत्पत्ति होती है ।

उन्मेष से पवर्ग उदित होता है । यहीं तक विश्व की स्थिति है ’ ।

इच्छाशक्तेः स्वस्वरूप संस्थाया एकरूपतः ॥ १५० ॥

चवर्गः पश्वशक्त्यात्मा क्रमप्रस्फुटतात्मकः ।

या तक्ता ज्ञेयकालष्य भाविक्षप्रचरयोगतः ॥ १५१ ॥ द्विरूपायास्ततो जातं टताद्यं वर्गयुग्मकम् ।

उन्मेषात् पादिवर्गस्तु यतो विश्वं समाप्यते ॥

तन्त्रा० तृ० आ०

क से लेकर म पर्यन्त २५ वर्ण स्पर्श कहे जाते हैं । ये वर्ण पृथ्वी से लेकर पुरुष पर्यन्त २५ तत्त्वों के प्राकृतिक वाचक हैं । स्फुटरूप से ज्ञेय होने के कारण इतने में ही विश्व के समाप्ति की सूचकता की बात ऊपर कही गई है । यद्यपि इनसे परे अन्य तत्त्व भी विद्यमान हैं किन्तु उनको ज्ञाता के अन्तरङ्ग मान कर स्थूल ज्ञेयात्मक विश्व के अन्तर्गत नहीं लिया गया । ये इन्द्रियों से स्पृश्य हैं अतः इन्हें स्पर्श कहा जाता है । ‘कादयो मावसानाः स्पर्शाः ।’ यह वाचक वर्णों के अभिप्राय से कहा गया है । वाच्य पृथिव्यादि से श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है :

‘मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।

आगमापायिनोऽनित्यास्ताँस्तितिक्षस्व भारत ॥ १५।२।

’ मात्रा अर्थात् इन्द्रियों द्वारा जिनका स्पर्श किया जाता है वे भौतिक पदार्थ आगम और अपाययुक्त हैं ।

१. अकुलात् पञ्चशक्त्यात्मा द्वितीयो वर्ग उत्थितः । अनारूषितरूपाया इच्छायाश्च ततः परः । वह्निक्षमाजुषस्तस्याष्टताद्यं च

पादिरुन्मेषतो जात इति स्पर्शाः

द्वयं ततः ।

प्रकीर्तिताः ॥

विवेक, पृ० १५४

गीतार्थं संग्रह ।

२. मात्राभिरिन्द्रियरेषां स्पर्शो न तु साक्षात्परमात्मनः ।

मातृका वर्ण-विकास

१६३

ऊपर इन्द्रिय और पुरुष को भी ज्ञेय कहा गया है । वस्तुतः पुरुष तो प्रमाता है और इन्द्रियाँ हैं करण अतः ये दोनों ज्ञेय कोटि में कैसे आ सकते हैं ? उपर्युक्त कथन शून्यप्रमाता ( प्रलयदशा में मायावस्थित जीव ) आदि के अभि- प्राय से है अतः इसमें कोई दोष नहीं-

――

ज्ञेयरूपमिदं पञ्चविंशत्यन्तं यतः स्फुटम् ।

ज्ञेयत्वात्स्फुटतः प्रोक्तमेतावत्स्पर्शरूपकम् ॥ १५३ ॥

)

तन्त्रा०

अत्र च पुंसः प्रमातृत्वेऽपि करणानां च करणत्वादेव प्रमाणत्वेऽपि यज्ज्ञेयत्व- मुक्तं तच्छून्यादिप्रमात्रन्तराभिप्रायेण ॥

तन्त्रालोकविवेक, पृ० १५६

क्षुभित और अक्षुभित इच्छाशक्ति, जब विजातीय, चिद्रूप शक्त्यंश अनुत्तर की ओर उन्मुख होती है तभी यकार के रूप में उसका स्फुरण होता है ।

द्विविध इच्छाशक्ति का तेज और धरा के साथ जो ऋ, ल रूप तादात्म्य है वह जब अनुत्तरात्मक विजातीय के प्रति उन्मुख होता है तो ‘र’ और ‘ल’ की उत्पत्ति होती है ।

इसी प्रकार दो रूपों वाली उन्मेषशक्ति जब वैजात्यशक्ति अथवा अनुत्तर के साथ संहित होती है तो ‘वकार’ का प्रादुर्भाव होता है । यह ‘व’ सृष्टिसारा- त्मक जल का वर्षण करने वाला है-

इच्छाशक्तिश्च या द्वेधा क्षुभिताक्षुभितत्वत: ।

सा विजातीयशक्त्यंशप्रोन्मुखी याति यात्मताम् ॥ १५४ ॥

शीघ्रतरोपात्तज्ञेयकालुष्यरूषिता

संव

विजातीयोन्मुखत्वेन रत्वं लत्वं च गच्छति ॥ १५५ ॥ तद्वदुन्मेषशक्तिद्विरूपा

वैजात्यशक्तिगा ।

वकारत्वं प्रपद्येत सृष्टिसार प्रवर्षकम् ॥ १५६ ॥

कारण-भेद से कार्य-भेद देखा जाता है । यकारादि के प्रादुर्भाव में इच्छा और अनुत्तर का संघट्ट कारण है। ऐसा ही संघट्ट पिछले ‘ए’ आदि की उत्पत्ति में भी कारण बन चुका है । ऐसी स्थिति में यकारादि-भेद कैसे सिद्ध होगा यह शंका संगत है । किन्तु वास्तव में उपाधि-भेद से कार्य-भेद बनता है । अनुत्तर और आनन्द के साथ इच्छा की सन्धिदशा में संस्कारात्मक वेग ही उपाधि का कार्य करता है इसलिए यहाँ यकारात्मक वायुबीज का उद्भव सम्भव हो जाता है ।

१६४

इसी प्रकार भास्वरता लक्षण धर्म और स्थिरतात्मक धर्मं को उपरञ्जक के रूप में अवलम्बन करके इच्छाशक्ति वह्निबीजरूप रेफात्मकता और धरा - बीज लकारात्मकता को आभासित करती है ।

इच्छा और उन्मेष के अन्तः - अमेद से अवस्थित होने के कारण तथा स्व अर्थात् प्रमाता-रूप आत्मा के साथ ऐक्य रूप में वर्तमान होने से ‘य, र, ल, व’ को अन्तःस्थ कहते हैं -

इच्छेवानुत्तरानन्दयाता शीघ्रत्वयोगतः ।

वायुरित्युच्यते वह्निर्भासनात्स्थैर्यतो घरा ।। १५७ ॥ इदं चतुष्कमन्तःस्थमत एव निगद्यते ।

इच्छाद्यन्तर्गतत्वेन स्वसमाप्तौ च संस्थिते ॥ १५८ ॥

इच्छाशक्ति के तीन रूप हैं - १. अनुन्मिषित, २. उन्मीलत् और ३. प्रोन्मीलित । स्रष्टव्य’ से विप्रकृष्ट अथवा अनारूषित, इच्छामात्र, शुद्ध इच्छा- शक्ति ‘इकार’ को अनुन्मिषित कहते हैं । शीघ्ररूप स्रष्टव्य से आरूषित ( तादात्म्यापन ) इच्छाशक्ति ही ‘ऋकार’ है, यह उन्मीलत् रूप होती है । स्थैर्यात्मक स्रष्टव्य से अभिन्न इच्छाशक्ति लकार है, इसे प्रोन्मीलित कहते हैं । यह त्रिविध इच्छाशक्ति अर्थात् ‘इ’ ‘ऋ’ और ‘लू’ स्वातन्त्र्यरूप ऊष्मा अथवा स्वात्म तेज द्वारा बाह्यरूप में उल्लासित होने पर ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ इन तीन रूपों में स्फुरित होती है । ‘ह’ कार विसर्ग का ही स्थूल रूप है, यह पहले कहा जा चुका है—

इच्छा या कर्मणा होना या चष्टश्येन रूषिता ॥ १६२ ॥ शीघ्रस्थैर्यप्रभिन्नेन त्रिधाभावमुपागता ।

अनुन्मिषतमुन्मीलत्प्रोन्मीलितमिति स्थितम् ॥ १६३ ॥ इष्यमाणं त्रिर्धतस्यां ताद्रव्यस्यापरिच्युतेः ।

तदेव स्वोष्मणा स्वात्मस्वातन्त्र्यप्रेरणात्मना ॥ १६४ ॥ बहिर्भाव्य स्फुटं क्षिप्तं शषसत्रितयं स्थितम् ॥ एतद्वर्णचतुष्कस्य स्वोष्मणाभासनावशात् ।

ऊष्मेति कथितं नाम भैरवेणामलात्मना ॥

‘स’ वर्ण में सम्पूर्ण विश्व स्फुट रूप से प्रकाशित होता है । योगी लोग

१. ’ तत्सा केवलमिच्छामात्ररूपा स्रष्टव्यस्य विप्रकृष्टा ।’

पृ० १६३ विवेक में उद्धृत - प्रत्यभिज्ञाशास्त्र

२, सार्णेनाण्डत्रयं व्याप्तम् । वही

मातृका - वर्ण-विकास

१६५

इसे अमृत अथवा परधाम कहते हैं ।’ सोम, अमृतनाथ, सुधासार, सुधानिवि षड्रसाधार आदि नामों से ‘स’ कार का बोध होता है । क्षोभ के आदि, अन्त और विरामदशा में सीत्कार, सुख, सद्भावात्मक, समावेशरूप समाधि आदि आनन्द स्थानों में उसी परामृतरूप सकार की अभिव्यक्ति होती है ।

करणवर्ग या इन्द्रियों की क्षोभ दशा में जो आनन्द होता है वह सीत्कार से अभिव्यक्त होता है । क्षोभ का अन्त होने पर जब करणवर्ग स्वात्ममात्र में विश्रान्त होता है तो परसामरस्यात्मक सौख्य- समावेश घटित होता है । इसके पश्चात् वहीं दृढ़ता के साथ समाविष्ट होने पर ‘सद्’ ब्रह्म सम्बन्धी समाधि का प्रादुर्भाव होता है । यही अविभक्त परब्रह्म है। गीता में ॐ तत् सत् द्वारा त्रिविध ब्रह्म की चर्चा की गई है । यह तृतीय ब्रह्म ही ‘सकार’ है ।

तत एव सकारेऽस्मिन् स्फुटं विश्वं प्रकाशते ।। १६५ ।।

अमृतं च परं धाम योगिनस्तत्प्रचक्षते ।

क्षोभाद्यन्तविरामेषु तदेव च परामृतम् ॥ १६६ ॥ सीत्कारसुखसद्भाव समावेशसमाधिषु ।

तदेव ब्रह्म परममविभक्तं प्रचक्षते ॥ १६७ ॥

यहाँ यह शंका अवश्य होती है कि पहले ‘ऋ ऌ’ को षण्ढ वर्ण कहा गया है और उनके द्वारा टवर्गादि के जन्म की भी बात कही गई । यह कैसे सम्भव है ?

वस्तुतः षण्ढ वर्णगत इच्छाशक्ति ही अन्तः स्थित- अभिन्न रूप से वर्तमान वर्गादि को बाह्य रूप में उल्लसित करती है । षण्ढ वर्णगत चिर और क्षिप्र- स्वभाव रूषणा ( तादात्म्य ) का हेतु जो एषितव्य है, वह वर्णान्तरों का जनक नहीं है । उस ज्ञेय या एषितव्य से कालुष्य मात्र उत्पन्न होता है यही इसकी चरितार्थता है । यह कार्यान्तर के उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है ।

,

कालुष्य अथवा उसका निमित्त एषितव्य इस इच्छाशक्ति का शरीर रूप है । प्रकाशकस्वभाव इच्छाशक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं, यही अभिप्राय । इष्यमाण का इच्छा से मेल ही षण्ढता है इसी लिये इन्हें समुदायात्मक कहा जाता है । इसमें न क्षोभकता होती है और न क्षोभाधारता । ’ नन्वत्र षण्ढ - वर्णेभ्यो जन्मोक्तं तेन षण्ढता ।’

१. सोमं चामृतनाधं च सुधासारं सुधानिधिम् । सकारं षड्रसाधारं नामभिः परिकीर्तितम् ।

विवेक, पृ० १६४

२. ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः । श्रीमद्भगवद्गीता ३. तृतीयं ब्रह्म सुश्रोणि । १० । परात्रिशिका ।१६६

कथं स्यादितिचेमो नात्र षण्ढस्य सोतता ॥ १७५ ॥ तथाहि तत्रगा यासाविच्छाशक्तिरुदीरिता ।

सैव सते स्वकर्तव्यमन्तःस्थं स्वष्टरूपकम् ॥ १७६ ॥ यत्त्वत्र रूषणाहेतुरेषितव्यं स्थितं ततः ।

भागान्न प्रसवस्तज्जं कालुष्यं तद्वपुश्च तत् ॥ १७७ ॥ ज्ञेयारूषणया युक्तं समुदायात्मकं विदुः ।

षण्ढं क्षोभकताक्षोभधामत्वाभावयोगतः ॥ १७८ ॥

उपर्युक्त ‘क’ से लेकर ‘ह’ पर्यन्त समस्त वर्ण क्षोभाधार अथवा योनि कहे जाते हैं । योनि का योनि से भी योग होने पर क्षोभान्तर की उत्पत्ति होती है । अनुत्तर और विसर्ग के सारभूत ककार और सकार के संघट्ट से ‘क्ष’ कार का जन्म होता है । यह निखिल वर्णों का समाहारक कूट’ बीज है । मातृका का तत्त्व युगपत् इसी वर्ण में प्रदर्शित हुआ है । इस वर्ण को लेकर ही वर्णों की पचास संख्या पूर्ण होती है-

कादिहान्तमिदं प्राहुः क्षोभाधारतया बुधाः ।

योनिरूपेण तस्यापि योगे क्षोभान्तरं व्रजेत् ॥ १८० ॥

तन्निदर्शनयोगेन पञ्चाशत्तमवर्णता ॥

तन्त्रालोक, तृ० आ

पूर्वोक्त वर्णसमूह पहले स्वरमय ही था; उदय के पूर्व स्वरों में ही

१. तदियत्पर्यन्तं यन्मातृकायास्तत्त्वं तदेव ककारसकारप्रत्याहारेण अनुत्तर- विसर्गसङ्घट्टसारेण कूटबीजेन प्रदर्शितमन्ते, इत्यलं रहस्यप्रकटनेन ।

शिवसूत्रविमर्शिनी, द्वि० उन्मेष, पृ० ६३

२. इत्थं यद्वर्णजातं त्वत् सर्वं स्वरमयं पुरा ॥ १८३ ।

व्यक्तियोगाद्वयञ्जनं तत्स्वरप्राणं यतः किल ॥ स्वराणां षट्कमेवेह मूलं स्याद्वर्णसन्ततौ ॥ १८४ ॥ षड्देवतास्तु ता एव ये मुख्याः सूर्यरश्मयः । सौराणामेव रश्मीनामन्तश्चान्द्रकला यतः ॥ १८५ ॥

अतोऽत्र दीर्घत्रितयं स्फुटं चान्द्रमसं वपुः ।

चन्द्रश्च नाम नैवान्यो भोग्यं भोक्तुश्च नापरम् ।। १८६ ।।

भोक्तैव भोग्यभावेन द्वैविध्यात् संब्यवस्थितः ।

घटस्य नहि भोग्यत्वं स्वं वपुर्मातृगं हि तत् ॥ १८७ ॥ अतो मातरि या रूढिः सास्य भोग्यत्वमुच्यते ॥

तं० तृ० आ०

मातृका - वर्ण-विकास

१६७

शक्ति रूप से अवस्थित था । पश्चात् बाह्य रूप में अभिव्यक्त होकर व्यञ्जन के रूप में ख्यात हुआ । व्यञ्जनदशा में भी स्वर से

अनुप्राणित रहता है । इस प्रकार व्यञ्जन वर्णों का मूल कारण स्वर ही है । स्वरों में भी आदिम इ, ई, उ, ऊ ) ही सम्पूर्ण वर्ण सन्तान के जनक हैं । वे ही जिन्हें सूर्य की दहनी, पचनी, धूम्रा, कर्षिणी, वर्षिणी और रसाख्य रश्मियों के नाम से लोग जानते हैं ।

छह ( अ, आ,

छह देवता हैं

सौररश्मियों के अन्तर्गत चान्द्रकलायें भी विद्यमान रहती हैं । अतः आ, ई, और ऊ इन तीन दीर्घ स्वरों को चान्द्रवपु ही समझना चाहिये । चन्द्र, से अतिरिक्त नहीं है । चन्द्र भोग्य है और सूर्य भोक्ता । भोक्ता और भोग्य में वास्तविक अन्तर नहीं । भोक्ता ही भोग्यरूप में स्फुरित होता है । घटादि की ज्ञेयता उसका आत्मीय धर्म नहीं है किन्तु वह ज्ञाता का ही धर्म है । अतः घटादि की जो ज्ञाता में विश्रान्ति है वही ज्ञेय है ।

‘अनुत्तर – अकारात्मक पररूप ही अपनी आत्मा में भोक्तृ - भोग्य भाव को आभासित करके परस्पर उन्मुख होकर संघट्टरूप प्राप्त करके भोग्य कहा

जाता है । अत: दो

अकारों का संघट्ट ही आकाररूप भोग्य है । इसी प्रकार इच्छादिक में भी समझना चाहिए ।

वस्तुतः अनुत्तर- अकार ही पारमार्थिक भोक्ता है । इच्छादिकों में स्वापेक्षया भोक्तृत्व है अनुत्तर की अपेक्षा से तो वे भोग्य ही हैं । भोक्ता रूप अनुत्तर की प्रधानता से सन्ध्यक्षरों का उदय होता है । अन्तःस्थों में अनुत्तर गुणीभूत होता है और इच्छादि प्रधान ।

१. अनुत्तरं परामृश्यपरामर्श कभावतः ॥ १८८ ।। सङ्घट्टरूपतां प्राप्तं भोग्यमिच्छादिकं तथा । अनुत्तरानन्दभुवामिच्छाद्ये भोग्यतां गते ॥ १८९ ॥

सन्ध्यक्षराणामुदयो भोक्तृरूपं च कथ्यते ।

अनुत्तरानन्दमयो देवो भोक्तैव कथ्यते ॥ १९० ॥

इच्छादिकं भोग्यमेव तत एवास्य शक्तिता ।

भोग्यं भोक्तरि लीनं चेद् भोक्ता तद्वस्तुतः स्फुटः ।। १९१ ॥

अतः षण्णां त्रिकं सारं चिदित्युन्मेषणात्मकम् ।

तदेव त्रितयं प्राहुभैरवस्य परं महः ।। १९२ ॥

तत्त्रिकं परमेशस्य पूर्णा शक्तिः प्रगीयते ॥

तन्त्रालोक, तृ० आ०

/

१६८

आनन्द यद्यपि भोग्य है तथापि अनुत्तर से अभिन्न होने पर वह भी भोक्ता कहा जाता है । इच्छादिक तो भोग्य ही हैं । उनमें पारमार्थिक भोक्तृता नहीं है और इसीलिए उन्हें शक्ति कहा जाता है । भोग्य के भोक्ता में लीन होने पर भोक्ता ही शेष रहता है । भोक्ता का प्रसार ही भोग्य है । आ, ई और ऊ ये दीर्घात्मक भोग्य - त्रितय अ, इ और उ में जब विश्रान्त हो जाते हैं तो चित्, इच्छा और उन्मेष ये तीन ही सारभूत वर्ण शेष रहते हैं । अतः छः स्वरों में अकार, इकार और उकार का त्रिक ही प्रधान है । यह त्रिक भैरव का शाक्त तेज है, इसी पूर्ण संघटित त्रिक को परमेश की पूर्णा ‘स्वातन्त्र्य नामक शक्ति कहा गया है । इस त्रिक द्वारा ही समस्त विश्व प्रसूत होता है । इसे स्वच्छन्द- शास्त्र में शैवी मुख कहा गया है । स्वातन्त्र्य शक्तिरूप इस त्रिक के सहारे ही अनवच्छिन्नस्वभाव, पूर्ण, शक्तिमद्रूप परमात्मा का लाभ होता है ।

२ निरंश प्रकाशात्मा पर भैरव ही विभाग के आभासन की इच्छा से तीन मुख्य शक्तियों के रूप में प्रतीत होता है । अकार ही अनुत्तरा पराशक्ति है । इ-इच्छा परापरा और उ-उन्मेषात्मक ज्ञानशक्ति अपरा कही जाती है । इन्हीं के क्षोभ से छः संवित् ( अ, आ, इ, ई, उ, ऊ ) शक्तियों का उदय होता है । इन छः शक्तियों के साथ क्रियाशक्ति का योग होने पर बारह संवित्तियां प्रकट होती हैं जिनमें सारा विश्व समाप्ति लाभ करता है । षण्ढ वर्णों को छोड़कर शेष बारह स्वरों को ही यहां द्वादश संवित्ति समझना चाहिए । देवदेव परभैरव का यही मुख्य शक्ति चक्र है । कलना, परामर्श, क्षेप, विसर्ग, संहार और गणना, ज्ञान इन अर्थों के वाचक होने के कारण इन द्वादश स्वरों को कालिका भी कहा जाता है । त्रिकसारशास्त्र में कहा गया है कि द्वादश योगिनीगणों से आवृत भैरवात्मक परा एकाक्षरा की अर्चना करनी चाहिए ।

१. तेनाक्षिप्तं यतो विश्वमतोऽस्मिन् समुपासते । १९३ ॥

विश्वशक्ताववच्छेदवन्ध्ये जातमुपासनम् ॥

X

X

X

२. विभागाभासनायां च मुख्यास्तिस्त्रोऽत्रशक्तयः ।। २४८ ।।

अनुत्तरा परेच्छा च परापरतया स्थिता । उन्मेषशक्तिर्ज्ञानाख्या त्वपरेति निगद्यते ।। २४९ ।। क्षोभरूपात् पुनस्तासामुक्ताः षट्संविदोऽमलाः । आसामेव समावेशात् क्रियाशक्तितयोदितात् ।। २५० ॥ संविदो द्वादश प्रोक्ता यासु सर्वं समाप्यते । एतावद्देवदेवस्य मुख्यं तच्छक्तिचक्रकम् ॥। २५१ ॥ एतावता देवदेवः पूर्णशक्तिः स भैरवः ।

मातृका वर्ण विकास

१६६

इन्हीं द्वादश योगिनी - कालिकाओं अथवा स्वरों द्वारा चौसठ वर्णों से

शक्ति चक्र का निर्माण होता है-

युक्त

परामर्शात्मकत्वेन

विसर्गाक्षेपयोगतः

।। २५२ ॥

इयत्ताकलनाज्ज्ञानात्ताः प्रोक्ताः कालिकाः क्वचित् ॥

श्रीसारशास्त्रे चाप्युक्तं मध्य एकाक्षरां पराम् ॥ २५३ ॥

पूजयेद् भैरवात्माख्यां योगिनोद्वादशावृताम् ।

ताभ्य एव चतुःषष्टिपर्यन्तं शक्तिचक्रकम् ।। २५४ ॥ तन्त्रसम्मत ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त पचास वर्ण या आमर्शो से पूर्ण शक्तिमान्, विमशत्मा महेश्वर एक ही है । पचास से अतिरिक्त इन्हीं वर्णों के संयोग वियोग से जन्य अन्य शक्तियाँ इसी में अवस्थित हैं ।

आमृश्य से शून्य, एक आमर्श स्वभावशाली, पचास वर्णों को एक अखण्ड रूप से सङ्कलित करके जिसे शब्दराशि कहा जाता है वही भैरव है । आमृश्य की छाया के योग से वही शक्ति अथवा मातृका कही जाती है । ‘नववर्गों में विभक्त, शब्दराशि के पारस्परिक मेल से भिन्न योनिस्वरूप, उसी को मालिनी कहा जाता है। एक-एक आमर्श - वर्ण की रूढ़ि से वही पचास रूपों में देखी जाती है ।

१. या सा शक्तिर्जगद्धातुः कथितासमवायिनी ।

इच्छात्वं तस्य सादेवि सिसृक्षोः प्रतिपद्यते ॥ ५ ॥ सैकापि सत्यनेकत्वं यथा गच्छति तच्छृणु । एवमेतदिति ज्ञेयं नान्यथेति सुनिश्चितम् ॥ ६ ॥ ज्ञापयन्ती जगत्यत्र ज्ञानशक्तिर्निगद्यते ।

एवं भूतमिदं वस्तु भवत्विति यदा पुनः ॥ ७ ॥ जाता तदैव तत्तद्वत्कुर्वत्यत्र क्रियोच्यते । एवं सैषा द्विरूपापि पुनर्भेदैरनेकताम् ॥ ८ ॥ अथोपाधिवशाद्याति चिन्तामणिरिवेश्वरी । तत्र तावत्समापन्ना मातृभावं विभिद्यते ।। ९ ।। द्विधा च नवधा चैव पञ्चाशद्वा च मालिनी । बीजयोन्यात्मकाद्भ ेदाद् द्विधाबीजं स्वरा मता ॥ १० ॥ कादिभिश्च स्मृता योनिर्नवधा वर्गभेदतः । प्रतिवर्णविभेदेन शतार्द्धकिरणोज्ज्वला ॥ ११ ॥

बीजमंत्रशिवः

शक्तिर्योनिरित्यभिधीयते ।

वाचकत्वेन सर्वापि शम्भो शक्तिश्च शस्यते ॥ १२ ॥

मालिनीविजयोत्तरतन्त्र, तृ० अधिकार

१७०

एवं पञ्चाशदामर्श पूर्णशक्तिर्महेश्वरः ॥ १६६ ॥ विमर्शात्मक एवान्याः शक्तयोऽत्रैव निष्ठिता ॥ एकामर्शस्वभावत्वे शब्दराशि: स भैरवः । आमश्यच्छायया योगात् संव शक्तिश्च मातका ॥ १६८ ॥ सा शब्द राशिसङ्घट्टान्नियोनिस्तु मालिनी । प्राग्वनवतयामशत्पृथग्वर्गस्वरूपिणी ॥ १६६ ॥ एकैकामर्श रूढौ तु सैव पञ्चाशदात्मिका ॥

तन्त्रालोक

पूर्वोक्त रीति से नादात्मक हकाररूप शक्ति से अनुविद्ध- तादात्म्यापन्न’, अकार-हकारात्म परामर्शस्वभाव, परमेश्वर, अनुत्तर शिव ही, पचास वर्णों में अनुत्तर- विसर्गात्मक माता-पिता के रूप में स्फुरित हो रहे है ? ।

हकारपर्यन्त स्थूल रूप से प्रस्फुरित अनुत्तर, परमेश्वर की यह विसर्गशक्ति लौट कर निखिल वाच्य वाचक जगत् को अंक में लेकर शिवबिन्दु के रूप में निर्विभाग, परप्रकाशस्वभाव, अनुत्तरात्मता का आश्रय लेती है- ‘अहं’ के रूप में अवस्थित होती है ।

अनुत्तर- विसर्गात्मक शिवशक्ति का अद्वय सामरस्य ही ‘अहं’ है। वहां शिव और शक्ति का पृथक् पृथक् परामर्श नहीं होता । यह अहन्ता स्वात्ममात्र- स्फुरत्ता रूप होती है । ‘प्रकाशस्यात्मविश्रान्तिरहम्भावो हि कीर्तित: ( अजड़- प्रभातृसिद्धि, २२ श्लोक ) ।

अनुत्तर अर्थात् अकार से लेकर - ‘ह’ पर्यन्त शक्तिरूप जो वर्णों का प्रसार

१. अकारश्च हकारश्च द्वावैतावेकतः स्थितौ ।

विभक्तिर्नानयोरस्ति

मरुताम्बरयोरिव ।

विवेक, पृ० १०३

२. इत्थं नादानुवेधेन परामर्श स्वभावकः ॥ २०० ॥

शिवो मातापितृत्वेन कर्ता विश्वत्र संस्थितः ।

विसर्ग एव शाक्तोऽयं शिवबिन्दुतया पुनः ।। २०१ ।। गर्भीकृतानन्तविश्वः श्रयतेऽनुत्तरात्मताम् ।

अनुत्तरविसर्गात्मशिवशक्त्यद्वयात्मनि ॥ २०३ ॥ परामर्शो निर्भरत्वादहमित्युच्यते विभोः ।

अनुत्तराद्या प्रसृतिहन्ता शक्तिस्वरूपिणी ॥ २०४ ॥ प्रत्याहृताशेषविश्वाऽनुत्तरे सा निलीयते ।

तदिदं विश्वमन्तःस्थं शक्ती साऽनुत्तरे परे ॥ २०५ ॥

तन्त्रालोक

मातृका-वर्ण-विकास

१७१

  • आनन्द से लेकर अमृत बीज पर्यन्त अशेष विश्व को गर्भ में लेकर वह स्फुरत्ता, प्रकाशात्मा अनुत्तर में विलीन हो जाती है ।

विश्व शक्ति में अवस्थित है और शक्ति पर - अनुत्तरतत्त्व में । सम्पूर्ण विश्व शक्तिमय है अतः शक्त्येकात्मक है और शक्ति का उदय तथा विश्राम शिव में ही होता है । इसलिए अनुत्तर विभु के साथ शक्ति का, आद्यन्तयोग द्वारा ‘अहन्ता’ के रूप में सम्पुटीकरण उचित है ।

अनुत्तरात्मक परसंवित् द्वारा ही ‘ह’ कलात्मक विश्व भासित हो रहा है । यह तय ही संघटित होकर भैरव का एक - अखण्ड अहमात्मक पर रूप है । अ, है, और बिन्दु यही त्रितय है-

तत्तस्यामिति यत्सत्यं विभुना सम्पुटीकृतिः ।

तेन श्रीत्रीशिकाशास्त्रे शक्तेः सम्पुटिताकृतिः ॥ २०६ ॥ संवित्तौ भाति यद्विश्वं तत्रापि खलु संविदा ।

तदेतत्त्रितयं द्वन्द्वयोगात्सङ्गातां गतम् ॥ २०७ ॥

एकमेव परं रूपं भैरवस्याहमात्मकम् ॥

तन्त्रालोक, तृ० आह्निक

इस प्रकार सम्पूर्ण वर्णों का विकास अहन्ता द्वारा होता है और ‘अहं’ ही उनके विश्राम का स्थान है ।

महाशक्ति महाकाली के कण्ठ में मुण्डों की माला का वर्णन मिलता है । ‘निरूतरतन्त्र’ तथा ‘कामधेनुतन्त्र’ में कहा गया है कि यह मुण्डमाला पचास वर्णों की माला के अतिरिक्त और कुछ नहीं है-

पञ्चाशद्वर्णमुण्डालीगलद्रुधिरचचिताम् ।

निरुत्तरतन्त्र ।

ममकण्ठे स्थितं बीजं पञ्चाशद्वर्णमद्भुतम् ।

कामधेनुतन्त्र

कर्पूरादिस्तोत्र की टिप्पणी में उद्धृत, पृ० १२