ब्रह्म के दो रूप हैं । एक शब्दब्रह्म और दूसरा अर्थब्रह्म । अपनी चरम अवस्था में ये एक, अखण्डरूप में वर्तमान रहते हैं । शक्ति और शक्तिमान् सदृश इनमें अविनाभाव सम्बन्ध है । शब्दब्रह्म को अपरप्रणव और अर्थब्रह्म को परप्रणव के नाम से भी कहा जाता है । तान्त्रिकों के मत में यह सृष्टि पर- ब्रह्म (परमशिव, चितितत्त्व ) का परिणाम ’ है । परिणत होते हुए भी ब्रह्म में किसी प्रकार का विकार नहीं होता । मूलतः सृष्टि दो प्रकार की ही होती है- १. शब्दमय और २. अर्थमय । चक्र और देहमय सृष्टियों का भी उल्लेख मिलता है किन्तु देह ब्रह्माण्ड की ही लघु प्रतिकृति है । और चक्र उन दोनों का आधारभूत सूक्ष्म ठाठ अथवा तन्त्र, जिस पर स्थूलता का वैभवविलास दृष्टि- गोचर होता है । जिस प्रकार लोहमय सूक्ष्मगृह के ऊपर स्थूलगृह का निर्माण किया जाता है ठीक वैसे ही चक्रमयी सृष्टि तथा पिण्ड एवं ब्रह्माण्ड की सृष्टि समझनी चाहिए।
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शब्दार्थमय द्विविध सृष्टि का बीज अंकुर और उनकी छाया के समान, एक साथ ही उद्भव और अभिवर्द्धन होता है । छाया के दर्शन से वृक्ष की अनुमिति अनुभवसिद्ध है । छाया में वृक्षों के सदृश आकृतिमता और वृक्ष के बिना उसकी अनुपपत्ति ये दोनों बातें प्रत्यक्ष हैं। वैसे ही शब्द, अर्थ के बिना सम्भव नहीं । इसलिए कालिदास ने कहा है- वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ - प्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ ५ ॥ रघुवंश, १ सर्ग
याहमित्युदितवाक् परा च सा यः प्रकाशलुलितात्मविग्रहः । यौ मिथः समुदिताविहोन्मुखो तो षडध्वपितरौ श्रये शिवौ ॥ ६ ॥
चिद्गगनचन्द्रिका, प्रथमविमर्श
शब्द और अर्थरूप सृष्टि के ज्ञान का जनक मन है । वह शब्द को श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण करता है, अर्थ को कहीं साक्षात् और कहीं नेत्रादि के द्वारा । उपर्युक्त दोनों सृष्टियाँ स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भेद से चार-चार प्रकार की हैं । श्रोत्र और मन भी अर्थ के ही अन्तर्गत हैं अतः वे भी
१. द्रष्टव्य वरिवस्या रहस्य, द्वितीय पृ० ४७ अंश,
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चार प्रकार के हैं । स्थूल श्रोत्र के द्वारा, स्थूल शब्दश्रवण से, स्थूल अर्थ का स्थूल मन से ज्ञान होता है । सूक्ष्म श्रोत्र द्वारा, सूक्ष्म शब्द के श्रवण से, सूक्ष्म अर्थ का सूक्ष्म मन से ज्ञान इत्यादि समझना चाहिए। श्रोत्र और मन की सूक्ष्मता शास्त्राभ्यास तथा योगाभ्यास की पटुता से सम्पन्न होती है । ‘निवि- चारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसाद: ।’ समाधिपाद ४७ सू० ‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ।’ सू० ४८ समाधि० । - योगशास्त्र के इन सूत्रों में मन की विशारदता का स्पष्ट संकेत मिलता है चत्वारि’ वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति । (ऋ० २।३।२२ ।) इस श्रुति द्वारा शब्दों का चातुविंध्य प्रमाणित है ।
मूलभूत, सूक्ष्मरूप
समस्त सृष्टिचक्र का मूल, बिन्दु के नाम से अभिहित किया गया है । यह आख्या वस्तुतः आकारहीन ब्रह्म के सृष्टिरूप यन्त्र की रचना के अनुरूप ही है । अपार संसार के विविधभावी स्थूल आकार-प्रकारों को अपने में सूक्ष्म- रूप से समेटे हुए अवाङ्मनसगोचर परतत्व सर्वप्रथम बिन्दु के रूप में ही आकलित होता है । शब्दातीत पर तत्व की ही संज्ञा महाबिन्दु है जिसे अनिर्देश्य, अग्राह्य, अशब्द आदि निषेधों द्वारा कहा जाता है । सत्य तो यह है कि सृष्टिद्वय का
विशेषात्मक होने के कारण अभिन्न शब्दार्थरूप परब्रह्म को ही विद्वान् शब्दब्रह्म आदि पदों से निर्दिष्ट करते हैं । वह प्रकाशस्वरूप है । ‘घटादि स्फुरित होते हैं’ इत्यादि प्रतीतियाँ पदार्थमात्र में ‘स्फुरणा’ नामक वस्तुविशेष का तत्तत्पदार्थों से अभेदानुभव सिद्ध करती हैं । प्रकाश में ‘स्फुरणात्मक’ तत्त्व स्वीकार करना होगा। क्योंकि प्रकाश स्फुरित होता है । यह प्रतीति होती है । यह स्फुरणा ही शक्ति है । प्रकाश और स्फुरणा इनकी सम्मिलित रूप में संसार की कारणता मानी जाती है । अतः जहाँ कहीं भी शुद्धशिव अथवा शुद्धशक्ति की जगज्जनकता कही गई हो वहाँ उभयात्मक ही समझना चाहिए । प्रकाश ‘अकार’ का स्वरूप है और वाच्य भी । तथा स्फुरणा, ‘हंकार’ रूप है तथा उसकी वाच्य भी । ये ‘अ’ और ‘हं’ सूक्ष्मतम परावाक् रूप हैं ! परा, पश्यन्ती आदि सृष्टि के मूलभूत, बीज स्थानीय, बिन्दु विशेष के ये दोनों व्यक्ताव्यक्त विलक्षण रूप से वाचक हैं । उस बिन्दु के भी जनक परब्रह्म के अव्यक्त शून्यस्वरूप ये दोनों वाचक हैं ।
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१. वाणी या शब्द के चार रूप हैं उन्हें शब्द ब्रह्मवित् योगिगण ही जानते
हैं । उनमें तीन परा, पश्यन्ती और मध्यमा - मूलाधार नाभि और हृदयरूप गुहा में निहित हैं । वैखरीसंज्ञक चौथी वाणी को ही लोग अपने व्यवहार का विषय बनाते हैं ।
आगम समुच्चय- २
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इनके शून्यरूप अर्थात् कलनातीत होने के कारण ही ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ ( तै० उ० २ - ४ ) इत्यादि श्रुतियों द्वारा उसकी अवाच्यता कही गई है ।
अहं यह एक अद्वैततत्त्व है । इसमें अकार सम्पूर्ण वर्णों का अग्रगामी प्रकाशात्मक परमशिव है । हकार चरम वर्णरूप विमर्श तत्त्व है । इन दोनों का सामरस्य ‘पराहन्ता’ में स्फुट होता है-
अहमित्येकमद्वैतं
यत्प्रकाशात्मविभ्रमः ।
अकारः सर्ववर्णाग्रियः प्रकाशः परमः शिवः ॥
हकारोन्त्यः कलारूपो विमर्शाख्यः प्रकीर्तितः ।
अनयोः सामरस्यं यत्परस्मिन्नहमि स्फुटम् ॥
वरिवस्यारहस्य, पृ० ४९ में उद्धृत
श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है- ‘अक्षराणामकारोस्मि ।’
शून्याकाराद्विसर्गान्ताद्विन्दुप्रस्पन्द संविदः ।
प्रकाशपरमार्थत्वात् स्फुरत्तालहरीयुतात् ।
प्रसृतं विश्वलहरीस्थानं मातृत्रयात्मकम् ॥ ११ ॥
विसर्गान्त अथवा
योगिनीहृदय के अनुसार शून्याकार – शून्य मात्र स्वरूप षोडशस्वरान्त्य से बिन्दुविशेष की उत्पत्ति होती है । विसर्ग अव्यक्त हकार के सदृश है ‘अतः ’ उसमें अकार भी सन्निविष्ट है । यहाँ शून्याकार शब्द से अकार और हकार ही निर्दिष्ट हुए हैं। निराकार न कहकर शून्याकार कहने से अकार की एक बिन्दुरूपता और विसर्गरूप हकार का दो बिन्दुमय स्वरूप ध्वनित होता है । विसर्गपद द्वारा सोलहवें ‘अ’ इस स्वर का बोध हो जाता है पुनः ‘अन्त’ पद की योजना विमर्शानुबद्ध प्रकाशात्मक अर्थ के लिए प्रयुक्त जान पड़ती है । हकार से अनुबद्ध अकार अर्थात् शक्तिरूप धर्म से अनुबद्ध शिवरूप धर्मी यही विसर्गान्ति का वास्तविक अर्थ है ।
स्फुरत्तात्मक लहरी से युक्त, पारमार्थिक प्रकाशरूप उस अहमात्मक बिन्दु से इच्छा, ज्ञान, क्रियास्वरूप मातृत्रयात्मक अनन्त सृष्टि उद्भूत हुई है । प्रकृतशास्त्र के अनुकूल निम्नाङ्कित सृष्टि क्रम को दृष्टि में रखना संगत होगा । जैसे सूर्य के अभिमुख दर्पण में, अन्तः प्रविष्ट किरणों द्वारा दोनों ओर से प्राप्त किरणों के सम्मेलन से, भित्ति पर तेजोबिन्दुविशेष प्रादुर्भूत होता है वैसे ही प्राणियों के अदृष्टवश अपने में उपसंहृत विश्व की रचना की इच्छा से प्रकाशरूप ब्रह्म, अपनी शक्ति को देखने के लिए अभिमुख होकर उसके अन्त- राल में तेजरूप से प्रविष्ट होकर शुक्लबिन्दु का रूप ग्रहण करता है ।
म० मा०
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अनन्तर उस बिन्दु में रक्तरूप शक्ति प्रविष्ट होती है जिससे संमिश्रित बिन्दु कुछ अभिवृद्ध होता है । वही ‘हार्घ’ कलारूप पदार्थविशेष के रूप में परिचित होता है । वह बिन्दु, समष्टिरूप में एक तथा स्फुट शिव-शक्ति-सामरस्य नामक अग्नीषोमात्मक काम, ‘रवि’ आदि शब्दों द्वारा व्यवहृत होता है । व्यष्टिरूप में तो वे दो ही रहते हैं । शुक्लबिन्दु चन्द्र और रक्तबिन्दु ही अग्नि है । इस बिन्दुद्वय को विसर्ग भी कहते हैं । सूर्य का रात्रि को अग्नि में तथा अमावस्या को चन्द्र में प्रवेश करना श्रुति सिद्ध है अतः समष्टिबिन्दु को रवि की संज्ञा देना सङ्गत ही है । इस प्रकार - ( १ ) काम नामक बिन्दु, (२) विसर्ग और (३) हार्घकला - इन तीन’ अवयवों से युक्त एक अखण्डपदार्थ अण् आदि प्रत्याहार के सदृश कामकला के नाम से अभिहित हुआ है । यही सम्पूर्ण सृष्टि का बीज है । इसीलिए अकार और हकार के मध्य में समस्त वर्णों का पाठ हो जाता है । ळ वर्ण ल से अभिन्न है । तथा ‘क्ष’ क ष का संयुक्त रूप है अतः ‘अहं’ से वह भी बहिर्गत नहीं है । कामकला का मूलभूत ब्रह्म ही तुरीय ( चतुर्थ ) बिन्दु है । चतुर्थ बिन्दुरूप एवं शून्य स्वरूप अकार तथा हकार से उत्पन्न कामकला को व्यक्ताव्यक्तविलक्षण ‘अहं’ पद द्वारा बोधित करते हैं । अकार-हकारोभयात्मकता तथा शिवशक्तिद्वयरूपता ही ‘अहं’ इस पद का तात्पर्यार्थ है । यही कारण है कि तज्जन्य सूक्ष्म से लेकर स्थूलपर्यन्त अखिल सृष्टि ‘अहं’ पद की वाध्य मानी जाती है ।
जैसे उदुम्बर ( गूलर ) पद के वाच्य बीज से जनित परस्पर विलक्षण, पर्ण काष्ठ, कुसुम, फल, कीट आदि में - ’ उदुम्बरपर्ण’ ‘उदुम्बरकृमि:’ इन रूपों में उदुम्बरता का ही व्यवहार होता है वैसे ही अहं पद का भी । ‘ब्रह्मवा इदमग्र आसीत्, तदात्मानमेवा वेदहं ब्रह्मास्मीति’ इस बृहदारण्यक में, ‘त्वां वा अहं वै त्वम्’ इस ऐतरेय में, ‘कस्त्वमित्यहमिति होवाच त्वं मेवेदं सर्वं तस्मादहमिति सर्वाभिधानम् ।’ आदि तापनीय प्रभृति उपनिषदों में ‘अहं’ पद पाणिनि ने भी अस्मद् शब्द की सर्वनामता श्रुतियों में तो ‘तद्वा एतद् ब्रह्माद्वयं आदि से
की सर्ववाचकता उल्लिखित है
घोषित की है। इतना ही नहीं
।
ब्रह्मस्वरूप बताकर ‘हंस’ ‘सोहं’ द्वारा पूर्णाहम्भावभावनात्मक उपासना का विधान किया गया है । ‘कादिमत’ में - ’ योनिमुद्रा का बन्धन, मन्त्रों में वीर्य की योजना तथा आदिम और अन्त्य का ज्ञान करानेवाला ही गुरु है’ ऐसा कहा गया है । आदिम का अर्थ है ‘अकार’ और अन्त्य का ‘हकार’ इनका
१. काम नामक बिन्दु - संमिश्रित बिन्दु । विसर्ग = शोण और सित बिन्दुद्वय । हार्घकला - अभिवृद्ध रूप ।
आगम समुच्चय–२
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समाहार ही ‘अहं’ है । यहाँ इतरेतरद्वन्द्व का परित्याग करके समाहारद्वन्द्व का स्वीकार बिन्दुलाभ के लिए ही है ।
छान्दोग्य में कहा गया है :-
‘अहं’ एवाधस्तात् ‘अहं’ उपरिष्टात् ‘अहं’ पश्चात् ‘अहं’ पुरस्तात् ‘अहं’ दक्षिणतोऽहं उत्तरतः ‘अहं’ एवेदं सर्वम् । ७, २५. १
अर्थात् नीचे, ऊपर, पीछे, सम्मुख, दक्षिण और उत्तर ‘अहं’ ही व्याप्त है । यही नहीं सम्पूर्ण प्रपञ्च अहं स्वरूप ही है ।
स्व और पर को प्रकाशित करनेवाला विश्वात्मारूप प्रकाश ही एक ‘अहं’ पद द्वारा कहा गया है
स्वपरावभासनक्षम आत्मा विश्वस्य यः प्रकाशोऽसौ । अहमिति स एक उक्तोऽहन्ता स्थितिरीदृशी तस्य ॥
विरूपाक्षपञ्चाशिका
इस प्रकार ‘अहं’ पदार्थ का, जैसे ‘अहं’ पद वाचक है वैसे ही उत्तमपुरुष एकवचन भी । पूर्वोक्त ‘अहं’ बिन्दु में, यद्यपि अकार और हकाररूप अवयव नहीं दिखाई देते किन्तु शास्त्र- प्रामाण्य से उनका सूक्ष्मरूप वहाँ रहता है यह स्वीकार करना ही चाहिए । हार्घकला के योग से उसमें दीर्घता ( उच्छूनता ) भी सम्पन्न होती है अतः चतुर्थ स्वर का, कामकला के रूप में मन्त्ररहस्यवेत्ता- गण प्रतिपादन करते हैं ।
“कामकला’ में पहले तुरीयबिन्दु उसके नीचे काम नामक बिन्दु, उसके नीचे विसर्गाख्य बिन्दुद्वय और उससे नीचे हार्द्ध कला - ऐसी स्थिति है ।” तुरीय
१. मध्यबिन्दु विसर्गान्तः समास्थानमये परे ।
कुटिलारूपके तस्याः प्रतिरूपं वियत्कले ॥ २१ ॥
नित्याषोडशिकार्णव वि० ७
सेतुबन्ध में वर्णित ’ कामकला’ का उक्त स्वरूप दीपिकाकार अमृतानन्द योगी के द्वारा स्वीकृत स्वरूप से ही भिन्न नहीं है अपितु स्वयं भास्करराय ने “बिन्दुं सङ्कल्प्य वक्त्रं तु - ( नित्या षो० विश्राम १ श्लोक २०१ ) " की व्याख्या करते हुए इसे भिन्न रूप में दिखाया है: - “ऊर्ध्वं कामाख्यो बिन्दुरेकः तदधोग्नीषोमात्मकबिन्दुद्वितयरूपोऽन्यः । तदधो हकारार्धरूपः कलाख्यस्तृतीयः तदिदं प्रत्याहारन्यायेन काम कलेत्युच्यते”
सेतुबन्ध ।
" मध्यबिन्दुः ऊर्ध्वबिन्दुः अकारहकारसामरस्यरूपः कामाख्यः । तदुक्तं कामकलाविलासे – बिन्दुरहङ्कारात्मा रविरेतन्मिथुनसमरसाकारः । कामः कमनीयतया ।”
- दीपिका, पृ० ८५-८६
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और विसर्ग के मध्य में रहनेवाला ‘काम’ ही मध्यबिन्दु है । काम और विसर्ग के अन्तर्गत चैतन्यरूप से अकार और हकार अवस्थित हैं यहाँ ये बैखरीरूप नहीं, किन्तु पर अथवा परा मातृकारूप शून्याकारसदृश वर्तमान है । ये अकार और हकारात्मक अक्षर कुटिलात्मक हैं । वक्रा वामा - सृष्टि जननी ही कुटिला है । अथवा इसे अकुल और कुल कुण्डलिनी समझना चाहिए । काम और विसर्ग अथवा अकार और हकार कुण्डलिनी के प्रतिबिम्ब- रूप हैं । अतः कुण्डलिनी से अभिन्न अकार और हकाररूपता सिद्ध होती है । अर्थ और शब्द ये परब्रह्म के दो रूप हैं अतः ये दोनों अक्षर, शिवशक्ति या अकुल कुण्डलिनी के रूपान्तर मात्र हैं । और इस प्रकार कामकला भी अकार तथा हकार की एकस्वरूप है ।
उपर्युक्त विवरण को लक्ष्य करके वरिवस्यारहस्य में कहा गया है—
‘अहकारी शिवशक्ती शन्याकारों परस्पराश्लिष्टौ । स्फुरणप्रकाशरूपावपनिषदुक्तं
परं ब्रह्म ॥ ६६ ॥
विश्वसिसृक्षावशतः स्वार्थी शक्ति विलोकयत्ब्रह्म ।
बिन्दूभवति तमिन्दुं प्रविशति शक्तिस्तु रक्तबिन्दुतया ॥७०॥ एतत्पिण्डद्वितयं विसर्गसंज्ञ हकारचैतन्यम् । मिश्रस्तु तत्समष्टिः कामाख्यो रविरकारचेतन्यम् ॥ ७१ ॥ एषाहम्पदतुर्यं स्वरकामकलादिशब्दनिर्देश्या ।
वागर्थसृष्टिबीजं तेनाहन्तामयं विश्वम् ॥ ७२ ॥
वस्तुत: ’ अक्षरमात्र में ध्वन्यंश और वर्णांश विद्यमान रहता है । इसीलिए तारत्व ( उच्चस्वरता) आदि ध्वनिधर्म वर्णों में अनुभूत होते हैं। वर्णों में विद्यमान ध्वनि ही सम्पूर्ण वर्णों का जनक नादतत्त्व है । नाद सर्वप्रथम परा- स्वरूप होकर मूलाधार से उठता है । पुनः मणिपुर और अनाहत चक्रों में आकर प्राण और मन से संयुक्त होकर पश्यन्ती और मध्यमा के रूप में परिणत हो जाता है । अनन्तर कण्ठ में आकर वही वैखरीरूप वर्णात्मकता को ग्रहण करता है । समस्त वर्णों के कारणस्वरूप उस नाद में वर्णराशि सूक्ष्मरूप में विद्यमान रहती हैं जैसे बीज में फल और पुष्प आदि । पूर्वार्द्ध और अपरार्द्ध
" मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो-
हराधं ध्यायेद्यो हरमहिषि, ते मन्मथकलाम् " ( १९ सौ० ल० )
में भी इससे भिन्नता लक्षित होती है । वस्तुतः ऊपर जिसे तुरीयबिन्दु कहा गया है वह अतितुर्यतत्त्व है ।
१. द्रष्टव्य ‘सेतुबन्ध’, पृ० २३२
आगम समुच्चय - २
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इस रूप में द्विधा विभक्त बीजरूप एक ही सम्पुट में जैसे विविध अवयवों वाला सम्पूर्ण वृक्ष छिपा रहता है । वैसे ही अकार- हकाररूप में द्विधा भिन्न नाद ब्रह्म में समस्त वर्णात्मक लौकिक वैदिक प्रपञ्च निहित रहता है । इसी को दृष्टि में रखकर पहले कहा गया है कि अकार और हकार के बीच में समग्र वर्णराशि निहित है ।
•
पूर्वोक्त अहन्तामय त्रिबिन्दु तत्त्व-स्वरूप वर्णात्मा कामकला, त्रिगुणात्मक त्रिकोणरूप में परिणत होकर जगज्जननी बनती है-
एवं कामकलात्मा त्रिविन्दुतत्त्वस्वरूपवर्णमयी । सेयं त्रिकोणरूपं याता त्रिगुणस्वरूपिणी माता ॥
मिश्र, शुक्ल और रक्तात्मक त्रिबिन्दुमय, सिघाड़े के त्रिकोण है जिसे प्रणव अथवा ओङ्कार भी कहा जाता है-
बिन्दुत्रयात्मकं स्वात्मशृंगार्ट विद्धि सुन्दरम् ।
मिश्रं शुक्लं च रक्तं च पुराणं प्रणवात्मकम् ॥
२५ ॥
कामकलाविलास आकार का सुन्दर
कामकलाविलास, पृ० २९
प्रणव के दो भेद हैं । गायत्रीमन्त्र के चतुर्थचरण – ‘परोरजसे साव- दोम्’ की व्याख्या करते हुए भास्करराय’ ने लिखा है :
‘रज से परे अर्थात् गुणत्रय से अतीत, निर्मल प्रणव अथवा परतत्त्व दो प्रकार का है । एक शब्दात्मक और दूसरा शब्दातीत अथवा अव्यपदेश्य’ ।
अर्थात् शब्दशक्ति की मर्यादा से द्वारा बोधित हो । इसीलिए एक और
जिसका बोध न हो सके किन्तु लक्षणा
श्रुति उसे दुर्बोध्य कहती है- ‘यतो वाचो निवर्तन्ते’ और दूसरी ओर ‘वेर्दश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’ द्वारा उसे बोध- गम्य बताती है ।
कामकलाक्षर बिन्दुत्रयात्मक है और तीनों बिन्दु सूर्य, सोम और अग्निरूप है । सोम, सूर्य और अग्नि की अकार, उकार और मकार से एकरूपता सम्पूर्ण
१. रजसः परं परोरजसे - रजोऽतीतम् । निर्मलमिति निर्गुणमिति वार्थः । रजः शब्दस्य धूलीवाचकत्ववद् गुणत्रयोपलक्षकत्वसम्भवात् । सावदोमित्यस्य सवदोsवादश्च यः प्रणवः । वक्तुं शक्यो वक्तुमशक्यश्चेत्यर्थः । शब्दैः शक्तिमर्या दया न बोध्यः शक्यतावच्छेदकधर्ममात्रस्य परतत्त्वे विरहात् । लक्षणया तु बोध्यः सत्यज्ञानादिपदशक्य विशिष्टतादात्म्य सम्बन्धशालित्वात् ।
वरिवस्याप्रकाश, पृ० ३९
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आगमों में प्रसिद्ध है । इस प्रकार समग्र त्रिकात्मक संसार कामकलाक्षर अथवा प्रणव में ही विश्रान्त है ‘त्रिपुरामहिमस्तोत्र’ के आठवें श्लोक की व्याख्या करते हुए नित्यानन्द’ ने इसे स्पष्ट किया है । पुष्पदन्त ने जहाँ शिवमहिम्नस्तोत्र में संसार के आधारभूत - वेदत्रयी, अवस्थात्रय, त्रिभुवन, सुरत्रय आदि त्रिकों को प्रणव के वर्णों से ही उद्भूत बताया है वहीं शक्तिमहिमस्तोत्र में देशिकेन्द्र दुर्वासा ने इच्छा, ज्ञान, क्रिया, वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, सूर्य, सोम, अग्नि, लोकत्रय, पीठत्रय, लिङ्गत्रय, कालत्रय, वेदत्रय, वह्नित्रय, स्वर- त्रय एवं सम्पूर्ण विश्व की प्रणव से अभिन्न र कामकला अथवा त्रिपुरसुन्दरी से उत्पत्ति की सूचना दी है-
त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरानकारा-
द्य वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति ।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ।
समस्तं व्यस्तं त्वां शरणव गृणात्योमिति पदम् ॥ २७ ॥
आद्यैरग्निरवीन्दुबिम्ब निलयं रम्बत्रिलिङ्कात्मभि-
मिश्रारक्तसितप्रभैरनुपमैर्युष्मत्पदैस्तैस्त्रिभिः ॥
स्वात्मोत्पादितकाललोक निगमावस्थामरादित्रयै-
रुद्भूतं त्रिपुरेति नाम कलयेद्यस्ते स धन्यो बुधः ॥ १८ ॥
म० स्तो०
क्रोधभट्टारक ( श० म० स्तोत्र )
रुद्रयामल में ‘उमा’ नाम शक्ति को भी ॐ से अभिन्न कहा गया है । वस्तुतः उमा, ओङ्कार और कुण्डलिनी भी एक ही तत्व है । “उमेति परमाशक्तिः
१. कामकलाक्षरस्य बिन्दुत्रयात्मकत्वेन बिन्दुत्रयस्य सूर्य सोमाग्नित्वेन, सोमसूर्याग्नीनामका रोकारमकारात्मता सर्वत्रागमेषु दृष्टेत्येतत्सर्वं त्रिकात्मकं कामकलाक्षरे विश्रान्तमिति प्रणवेनापि कामकलाक्षरमेव गीयते इति तात्पर्यम् ॥
त्रिपुरामहिमस्तोत्र टीका, पृ० ९
( काव्यमालान्तर्गत )
२. आद्य जाप्यतमार्थवाचकतया रूढः स्वरः पश्ञ्चमः, सर्वोत्कृष्टतमार्थवाचकतया, वर्णः पवर्गान्तिकः । वक्तृत्वेन महाविभूतिसरणिस्त्वाधारगो हृद्गतो,
भ्रूमध्य स्थित इत्यतः प्रणवता ते गीयते चागमः ॥ १९ ॥
त्रिपुरामहिमस्तोत्र टीका
पूर्वभावमुपेयुषी । शिवानन्ता मदद्रवा ॥
आगम समच्चय- २
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अध्युष्टवलयाकारा प्रणवत्वमुपागता । अकाररूपिण्यजरा शक्तिस्तोत्र की टीका में उद्धृत, पृ० १७ रहस्यवेत्तागण उमा’ को देवी प्रणव की संज्ञा प्रदान करते हैं । लिङ्ग पुराण में परमशिव ने भगवती के प्रति कहा है - “मेरे प्रणव में अ, उ, और म अवस्थित है । तुम्हारे प्रणव में क्रमशः उकार, मकार और अकार की स्थिति है । महावाशिष्ठ में भी भगवती को इसी लिए उमा कहा गया है क्योंकि ओङ्कार सार-शक्ति रूप है । सम्पूर्ण प्राणियों की समस्त बुद्धियाँ जब सो जाती हैं अथवा प्रबुद्धदशा के वर्तमान रहने पर भी, हृत्पुण्डरीक के अन्त- र्गत दहराकाशरूपी शिव के शिर में अकारादि मात्रात्रयशून्य प्रणवनादभागी शब्दब्रह्मात्मक अनाहतनादरूप में जो इन्दुकला वर्तमान रहती है वही उमा है । इस ज्योतिर्मय अमात्र इन्दुकला के सम्बन्ध में ही कहा गया है-
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“अर्द्ध मात्रात्मक नादः श्रूयते लिङ्गमूर्द्धनि ॥”
अर्द्धमानास्थिता नित्या यातुच्चार्या विशेषतः ।”
वायवीयसंहिता
दुर्गासप्तशती
तुरीय तत्त्वात्मक यह हैमवती उमा ही अतितुर्य तत्त्व का दिनिर्देश करती है ! प्रणव की सुप्रसिद्ध अकार, उकार, मकार, विन्दु और नाद इन कलाओं का स्वच्छन्दतन्त्र में पच प्रणव के नाम से उल्लेख किया गया है । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव इनके देवता हैं । उपर्युक्त कलाओं को क्रमशः ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म के नाम से भी निर्देश २ करते हैं ।
१. अतएवास्य पदस्य देवीप्रणव इति संज्ञेति रहस्यविदः । उक्तं च लैङ्ग भगवतीं प्रति परमशिवेनैव – अकारोकारमकाराः मदीये प्रणवे स्थिताः । ‘उकारं च मकारं च अकारं च क्रमेरितम् । त्वदीयं प्रणवं विद्धि त्रिमात्रं प्लुत- मुत्तममिति’ । ‘महावाशिष्ठेऽपि - ओङ्कारसारशक्तित्वादुमेति परिकीर्तिता’ ।
सौभा० भा०, पृ० १३५
२. अकारवकारश्व मकारश्च तृतीयकः ।
वर्णत्रयमिदं प्रोक्तं ब्रह्माद्याः देवतास्त्रयः ।। २३ ।। बिन्दुनादसमायोगादीश्वरश्च सदाशिवः ।
एते वै प्रणवाः पञ्च हंसः प्राणयुतः सदा ।। २४ ।। हृस्वं दीर्घं प्लुतं सूक्ष्ममतिसूक्ष्मं परं शिवम् ॥ ४ प्रणवं पश्ञ्चधा ज्ञात्वाभित्वा मोक्षो न संशयः ॥
स्वच्छन्दतन्त्र, पटल ६५६
प्रणव सम्पूर्ण प्राणियों का प्राण है, इसी के द्वारा जीवन प्रतिष्ठित रहता है । अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्धचन्द्र, रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी, समना और उन्मना, अपनी इन बारह कलाओं से ओङ्कार, पृथिवी से लेकर शिव पर्यन्त समस्त तत्त्वों और भुवनों को आकलित करता है । इसी प्रकार ‘ओम् इत्येतदक्षरमिदं सर्वम्’ यह निगमोक्ति वास्तविकता को ही व्यक्त करती है –
प्रणवः प्राणिनां प्राणो जीवनं सम्प्रतिष्ठिम् ।
गृह्णाति प्रणवः सर्व कलाभिः कलयेच्छिवम् ॥
नेत्रतन्त्र, अधि० १२
अकारश्च उकारश्च मकारी बिन्दुरेव च ।
अर्द्धचन्द्रो निरोधी च नादो नादान्त एव च ॥ २२५ ॥ कौण्डिलो व्यापिनी शक्ति: समनेकादशी स्मृता ।
उन्मना च ततोऽतीता तदतीतं निरामयम् ॥ २२६ ॥
स्वच्छन्द ०, पटल ४
समनापर्यन्त पाशजाल का विस्तार माना जाता है । इसको पार करके उन्मना में अवस्थिति हो मोक्षप्राप्ति का द्वार है-
समनान्तं वरारोहे पाशजालमनन्तकम् ।
कारणः षड्भिराकान्तं मन्त्रस्थं हेयलक्षणम् ॥ ४३२ ॥
स्वच्छन्द ०, पटल ४
“ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः " शिवमहिम्न के इस स्तोत्र की व्याख्या करते हुए मधुसूदन सरस्वती ने लिखा है- “ध्वनीनां चाणुत्वाणुतरत्वाणुत- मत्वादिकं गुरूपदेशादधिगन्तव्यम् ॥”
वस्तुतः ओङ्कारगत अणुतर ध्वनियाँ उपर्युक्त बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी आदि ही हैं । महायोगी भास्करराय’ ने लिखा है कि बिन्दु, अर्द्धचन्द्र आदि नव कलाएँ सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम काल द्वारा उच्चरित ध्वनिविशेष अथवा वर्णविशेष है । ककारादि के सदृश स्पष्ट उच्चारण न होने पर भी “त्रिः षष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः । अनुस्वारो विसर्गव ।” इस पाणिनीय शिक्षा के अनुसार जैसे अनुस्वारादि को वर्ण माना जाता है वैसे ही इन्हें भी वर्ण मानने में कोई अनौचित्य नहीं । योगिनीहृदय आदि में नाद की
१. विन्द्वादयो नवापि सूक्ष्मसूक्ष्मतर सूक्ष्मतम कालैरुच्चार्या ध्वनिविशेषाः वर्णविशेषा वा ।
वरिवस्या० प्रकाश, पृ० १०
आगम समुच्चय-२
५७
अक्षरत्व सम्बन्धी मान्यता प्रायः देखी जाती है । इसी आधार पर पञ्चदशाक्षरी विद्या को, प्रथम, द्वितीय और तृतीय कूटों को मिलाकर अट्ठावन वर्णों की संहति’ रूप में स्वीकार किया जाता है ।
बिन्दु से लेकर उन्मना पर्यन्त नव कलाओं की समुदित रूप में ‘नाद’ यह संज्ञा है । भास्करराय का कहना है कि वस्तुतः बिन्दु से रहित आठ कलाओं की ही नाद - यह आख्या है -
विन्द्वादोनां नवानां तु समष्टिर्नाद उच्यते ॥ १३ ॥
प्रथम अंश, वरिवस्यारहस्य
यद्यपि बिन्दु विनिर्मुक्तानां अष्टानामेव नादसंज्ञा मन्त्रशास्त्रे, तथापि व्यवहारसौकर्याय तत्सहितानामेव सात्र कृतेति ध्येयम् ।
वरि० २० प्रकाश टीका, पृ० ११-१२
बिन्दु की आधी मात्रा मानी जाती है । अर्द्धचन्द्र और रोधिनी आदि में पूर्व- ध्वनि की आधी-आधी मात्रा समझना चाहिए । अर्द्धचन्द्र से अर्द्धकाल रोधिनी में और रोधिनी का अर्द्धकाल नाद में इस प्रकार क्रमशः उत्तरोत्तरकाल में सूक्ष्मता आती जाती है ।
कालपरमाणु ही लव है । कमलपत्रों को, नीचे ऊपर रक्खे हुए, एक साथ ही सुई से भेदन करने पर प्रत्येक दल में जितना काल लगता है उसी की संज्ञा लव है । कहा जाता है इससे सूक्ष्मकाल की उपलब्धि नहीं होती । दो सौ छप्पन लवों की एक मात्रा होती है । बिन्दु का उच्चारणकाल एक सौ अट्ठाइस लव है । अर्द्धचन्द्र का चौसठ, रोधिनी का बत्तीस, नाद को सोलह, नादान्त का आठ, शक्ति का चार, व्यापिका का दो और समना का एक लव होता है । उन्मना सर्वथा कालहीन है । यहाँ क्षण से लेकर पराद्धन्तिकाल, निवृत्ति से लेकर शान्त्यतीतादि कलाएँ, प्राणचार, भुवन और देवताओं की गति नहीं है । इसको गुरुवक्त्र अथवा परमशिव की प्राप्ति का द्वार बताया गया है । इससे आगे अनामय परतत्त्व की स्थिति है -
हेयाध्वानमधः कुर्वन् रेचयेत्तं दरानने ॥ १२७५ ॥
यावत्सा समना शक्तिः तद्ध्वं चोन्मना स्मृता ।
नात्र कालः कलाश्चाशे न तत्त्वं न च देवताः ।। १२७६ ॥
सुनिर्वाणं परं शुद्धं गुरुवक्त्रं तदुच्यते ।
तदतीतं वरारोहे परं तत्त्वमनामयम् ॥ १२७७ ॥
१. द्रष्टव्य वरिवस्या० प्रकाश, पृ० ११
स्वच्छन्द०, पटल १०
५८
योगिनीहृदय के अनुसार उन्मना भी कालात्मक है ।
"
" शक्तयादीनां तु मात्रांशी मनोन्मन्यास्तथोन्मनी ॥ ३४ ॥ नित्याषोडशिकार्णव के इस इलोक की व्याख्या करते हुए सेतुबन्ध’ में भास्करराय ने कहा है कि मनोन्मनी अर्थात् समना के सदृश उन्मना का भी काल एकलवात्मक ही है । पुनः समना में भेद क्या होगा इसका उत्तर देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है कि आकृति से सूक्ष्म होने के कारण विद्यमान भी काल उन्मना में दुर्लक्ष्य रहता है यही उसका परत्व है । इस प्रकार -
देशकालानवच्छिन्नं तदूर्ध्वं परमं महत् ।
निसर्गसुन्दरं तत्तु परानन्दविघूर्णितम् ॥ ३५ ॥
}
६ विश्राम, नि० उन्मना से परे देश काल से विहीन, निसर्ग सुन्दर शिवशक्ति सामरस्यात्मक परानन्द से व्याप्त महाबिन्दुरूप अतिदुयं तत्व की कालहीनता का कथन सङ्गत हो जाता है ।
वस्तुतः स्वच्छन्दतन्त्र में भी उन्मनान्त में ऊर्ध्वमुन्मनसो यत्र तत्र कालो न विद्यते ।।
ही कालहीनता मानी गई है । ३११ । पटल ११ उन्मन्यन्ते परे योज्यो न कालस्तत्र विद्यते ॥ २८६॥ पटल ४
पीछे उद्धृत स्वच्छन्दतन्त्र की संगति भी निम्नांकित रूप से सम्भव है । क्रमात्मक कार्यकारणादि सम्बन्धी तथा अक्रमात्मक - चित्र और ज्ञानादि सम्बन्धी सम्पूर्ण कलनाभास का साम्य - प्रकर्षापकर्षशून्यता ही काल है । " स कालः साम्संज्ञश्च जन्ममृत्युमयापहः " ( स्वच्छन्द, ११ पटल, श्लोक ३०९) यह काल उन्मना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इसी को काली नामक पराशक्ति भी कहते हैं-
क्रमाक्रमात्मा कालश्च पर: संविदि वर्तते ।
काली नाम पराशक्तिः संव देवस्य गीयते ॥ ७ ॥
तन्त्रा०, आ० ६ व्याकरणागम में कहा गया है कि शब्दब्रह्म काल शक्ति का आश्रय लेकर
१. मनोन्मनीति समनाया एव संज्ञान्तरम् । यथा समनायाः कालः तथै- वोन्मनीकाल इत्यर्थः । एकलवात्मक एव काल इति यावत् । समनातोऽस्याः रूपकालकलामानमिति तत्तु समनात आकृत्या सूक्ष्मत्वाद्विद्यमानोऽपि कालो दुर्लक्ष्य इत्येवं परम् ।
सेतुबन्ध, पृ० २०८
२. अध्याहितकलां यस्य कालशक्तिमुपाश्रिताः
जन्मादयो विकाराः षड् भावभेदस्य योनयः ।। ३ ।।
आगम समच्चय - २
५६
नाना जन्मादि विकारों का जनक बनाता है । सर्वबीज शब्दब्रह्म इस शक्ति द्वारा भोक्ता, भोग्य और भोगरूप में प्रसृत होता है । यह कालशक्ति ही स्वातन्त्र्यशक्ति है ।
‘एवम कालकलितमपि तत्त्वमनादिनिधनं कालाख्यस्वतन्त्रशक्ति विनिवेशित- प्रतिबन्धाभ्यनुज्ञावशाज्जन्मादिभाव विकाराभिधीयमानपौर्वापयं चकास्ति ।’
पृ० ९०, बनारस सं० सीरीज हेलाराजकृत वाक्यपदीय टीका, काण्ड ३
स्वतन्त्रकालशक्ति अनादिनिधन एवं काल की कलना से रहित शब्दब्रह्म में जन्मादि समस्त पौर्वापर्यरूप क्रम को अवभासित करती है । इसकी अनुज्ञा से पदार्थों का आविर्भाव तथा प्रतिबन्ध से तिरोभाव होता है । यह उन्मना ही कालशक्ति, स्वातन्त्र्य और परावाणी है ऐसा तान्त्रिकों का मत है ।
“तेन उन्मनोरूपेण मया पश्चदशकालाभिमानिनी सम्यगभेदेन ज्ञायत इत्यर्थः । लवत्रुटिकला काष्ठानिमेषमात्रानाडिका मुहूर्ताहोरात्रमास संवत्सरयुग- कल्प महाकल्पपरार्द्धकालपर्वाणि अकारोकारमकारबिन्दु कलानिरोधिकानाद- नादान्तशक्तित्र्यापिनी व्योमरूपान्तनादान् आश्रिता समनीलक्षणप्रणवमात्रासु, मूलाधारमारभ्या द्वादशान्तं व्यवस्थितासु, सञ्चिन्त्य क्रमेण संहृत्य, अकाल- कलितायां उन्मन्यां व्यवतिष्ठेतेत्यर्थः !
पद्मपादाचार्य कृत प्रपश्वसारत० टीका, पृ० १५-१६ ।
प्रयोग क्रमदीपिकाकार’ ने काल के दो भेद किए हैं। एक परकाल और दूसरा अपरकाल । उनका कथन है कि अपरकाल ही उन्मनी है । उन्मनी शक्ति और उसके लव आदि कार्यों की अध्यक्ष ही परकालात्मा है । वस्तुतः
एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा ।
भोक्तृभोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः ॥ ४ ॥
वाक्यपदीय, आगमकाण्ड
।
१. परकालचिद्रूपस्योपाधिरपरकालानाद्यन्तस्वभावादिसकलकार्यकालमूल- भूतोन्मनीशक्तिरेव । तस्यास्तदीयलवादिकार्याणां चाध्यक्षभूतः परकालात्मा । पञ्चदशकालाभिमानिनीत्यपरकालक्षणोन्मनीरूपा प्रकृतिः । अत्र शिरोरेखाल- वाद्यभिमानिन्याः उन्मन्याः स्वात्मभूतपरकालचिद्रूपेणैकताभिधानात् तथाविधो योगोऽप्युक्तो भवति । सा तु कालात्मनेत्युन्मन्याः स्वोपाधेरपि साक्षी परः कालः कालेनैवं प्रचोद्यत इति तद्विशिष्ट एव परः काल इति भेद: ।
आ० समिति स० प्रयोगक्रमदीपिका पृ० ४०९-४११
६०
वे मानते हैं कि साक्षी अथवा चरमतत्त्व परकालात्मा चिद्रूप है, कुण्डलिनी- रूप उन्मनीशक्ति उसकी अपनी उपाधि है । वस्तुतः ऐसा स्वीकार करने पर भी सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं आता । हाँ दृष्टिभेद अवश्य है ।
काल का द्विधात्व आचार्य पद्मपाद को भी अभिमत है -
सेव स्वां वेत्ति परमा तस्याः नान्योस्ति चेदिता ।
सा तु कालात्मना सम्यक मयेव ज्ञायते सदा ।। २८ ।।
प्रथम पटल
कहा है– जानती है ।
प्रपञ्चसार के उपर्युक्त श्लोक की व्याख्या करते हुए उन्होंने परमा - साक्षिलक्षण पराप्रकृति ही स्वसम्बन्ध अपराशक्ति को और वह - लव से लेकर परार्द्ध पर्यन्त पन्द्रह कालपर्वों की अभिमानिनी अपरा कालशक्ति मुझे उन्मनीरूप काल के द्वारा अभेदरूप से जानी जाती है-
सैव परमा साक्षिलक्षणा परा प्रकृतिः पूर्वोक्ता स्वसंवेद्यस्वरूपा स्वां स्वसम्बन्धिनीम् अपरां शक्तिम् वेत्ति । पृ० १२ । कालस्यापरस्य पश्चदशधा भिन्नस्यापि आत्मा कालात्मा । पृ० १५, प्रपश्वसारविवरण ।
प्रपञ्चसारविवरण और प्रयोगक्रमदीपिका की कालसम्बन्धी विवेचना में अन्तर पूर्णतया स्पष्ट है । पूर्वोक्त बिन्दु, अर्द्धचन्द्र आदि कलाओं का सन्निवेश न केवल प्रणव में किन्तु देह और श्रीचक्र में भी पाया जाता है । वस्तुतः प्रवण की कलाएँ सम्पूर्ण शरीर में ( पिण्ड में ) विभक्त रहती है अतः इसे ( प्रवण को ) पिण्डमन्त्र भी कहा जाता है । सारे पिण्ड में व्याप्त रहने पर भी हृदयदेश में विशेष रूप से ओकार ध्वनित होता है’-
ओमिति स्फुरदुरस्यनाहतं गर्भगुम्फित समस्तवाङ्मयम् ।
दध्वनीति हृदि यत्परं पदं तत्सदक्षरमुपास्महे महः ॥ पृ० ३७
शिवोपाध्यायकृत विज्ञान भैरव विवृति ।
दीप के सदृश वृत्ताकारबिन्दु, ललाटदेश में अवस्थित रहता है । बिन्दु से ऊपर अर्द्धचन्द्र का स्थान है। इसका आकार तथा कान्ति स्वानुरूप ही है ।
१. पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थूलवर्णक्रमेण तु ।
न्दु बिन्दुनादान्तः शून्योच्चाराद्भवेच्छिवः ॥ ४२ ॥
२. द्रष्टव्य वरिवस्यारहस्य, प्र० अंश
विज्ञान भैरव तन्त्र ।
इसके अतिरिक्त वामकेश्वरतन्त्रान्तर्गत नित्याषोडशिकार्णव, ६ ठा
विश्राम, श्लोक २८ से ३५ तक ।
आगम समुच्चय - २
६१
इसके आगे त्रिकोणाकृति रोधिनी, चन्द्रिकासदृश कान्ति से शोभायमान रहती है । रोधिनी से परे नाद की स्थिति है जो दो बिन्दुओं के मध्य में पद्मरागमणि के समान मृदु और सूक्ष्म दण्डवत् भासित होता है । नादोत्तर नादान्त अव- स्थित है । इसका आकार वामभाग में बिन्दु तथा ऊपर और दक्षिणहल के समान प्रतीत होता है। इसकी आभा तड़ित के समान उज्ज्वल होती है । जिसमें दो तिरछे बिन्दु हों और बामस्थ बिन्दु से एक रेखा निकल रही हो और दक्षिणबिन्दु शिरा रहित हो तो वही शक्ति का आकार है । बिन्दु से निकलता हुआ त्रिकोण ही व्यापिका की आकृति है । कध्वं और अधोभागस्थ बिन्दुद्वय से संयुक्त रेखाकृति समना कही गई है तथा ऊर्ध्वबिन्दु से हीन वही उन्मना है । इन तीनों की कान्ति द्वादश सूर्यो की समष्टि के सदृश होती है । सबसे परे महाबिन्दु की अवस्थिति है ।
१
वस्तुतः परविमर्शमयी, अहन्तैकरस, पारमेश्वरी स्वातन्त्र्यशक्ति ही
१. वस्तुतो ह्यन्मनाख्यैव परविमर्शमयी पारमेश्वरी स्वातन्त्र्यशक्तिरहन्ते- करा स्वरूपगोपनक्रीड़ा सदाशिवानाश्रितपदात्मक सर्वभावाभाससूत्रणभित्ति- कल्पसमनारूपतया स्फुरति । स्वच्छ० उद्योत, पृ० ६, पटल ११
सा शक्ति: परमा सूक्ष्मा उन्मना शिवरूपिणी । अस्तित्वमात्रमात्मानं क्षोभ्यं क्षोभयते यदा ॥ ६० ॥ समनासौ विनिर्दिष्टा शक्तिः सर्वाध्ववर्तिनी । कोडीकरोति या विश्वं संहृत्य सृजते पुनः ॥ ६१ ॥
कुण्डला या
महाशक्तिस्तृतीयाप्युपचर्यते ।
ध्वनिरूपां यदा स्फोटस्त्वदृष्टाच्छिवविग्रहात् ॥ ६२ ॥
प्रसरत्यतिवेगेन
ध्वनिनापूरयञ्जगत् ।
स नादी देवदेवेशः
प्रोक्तश्चैव सदाशिवः ।। ६३ ।।
ध्वनिरध्वगतो यत्र विश्राम्यत्यनिरोधत: ।
निरोधिनीति विख्याता सर्वदेव निरोधिका ।। ६४ ।
निरुद्धस्थ महेशत्वमहिमा न प्रवर्तते ।
।
असंख्यातास्तु कोट्यो वै मन्त्राणां तत्र संस्थिताः ॥ ६५ ॥ लभन्ते तत्प्रविष्टा वै स बिन्दुश्चेश्वरः स्मृतः । यदा शिवामृतं मूनि पतति सृष्टिकारणम् ॥ ६६ ॥ आप्यायस्तु भवेत्तेन सार्द्धचन्द्र इतिस्मृतः । संहारः सर्वभूतानां सृष्टिकारणमेव च ।। ६७ ॥ मकारो ह्यत्र वै रुद्रो वर्णसंघट्ट उत्तमः ।
यदा स्थिति च लभते स्वोन्मुखं सृष्टिकारणम् ॥ ६८ ॥
६२
उन्मना है । यही शक्ति अपने रूप को छिपाने के खेल की इच्छा से, सदाशिव अनाश्रित पदात्मक सम्पूर्ण भावाभासों की भित्तिरूप, अशेष मन्तव्य - मनन- मात्रात्मक समना के नाम से स्फुरित होती है । यह समना व्योमरूप है । इससे शून्यनामक व्यापिनीशक्ति उदित होती है । व्यापिनी से ही प्रसुप्त भुजंगाकार कुण्डलाख्य महाशक्ति का जन्म होता है । इसकी स्पर्श संज्ञा है ! इसके अनन्तर आकृतिहीन, दृष्टृरूप, परनादात्मक प्रकाशानन्दघन शिव से स्फोटात्मक शब्दब्रह्म अपनी ध्वनि से (अनुरणन द्वारा ) सारे जगत् को भरता हुआ अत्यन्त वेग से फैलता है । इस नाद को देवदेवेश सदाशिव कहा जाता है उपर्युक्त परनादात्मक शिव को परमेश्वरी परावाक्रूप उन्मना ही समझना चाहिए । इसमें वर्तमान घण्टासदृश अनुरण ही नादान्त है। इसके अनन्तर निरोधिनी का स्थान है जहाँ अनाहत नादात्मा सदाशिव विश्राम करते हैं । यहाँ बड़े-बड़े देवताओं का प्रवेश भी अत्यन्त दुष्कर है । अनन्तर वादात्मक- शिव का सदाशिव सम्बन्धी, स्फुट इदन्ताभासात्मक (सृष्टिवीर्यरूप) अमृत का उन्मेष होता है इसी का नाम अर्द्धचन्द्र है । अर्द्धचन्द्र से नीचे पूर्णचन्द्राकार, ज्ञानशक्तिप्रधान, नादपरामर्श को अपने उदर में लिए हुए, सम्पूर्ण स्रष्टव्य वेद्य वर्ग से अविभक्त, क्रियाशक्त्यात्मा ईश्वररूप बिन्दु का प्रादुर्भाव होता है । इसकी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान मानी गई है । यही सृष्टि और संहार का कारण है । इसके पश्चात् बिन्दु, वर्णों के विश्रान्तिस्थान मकार के रूप में उद्भूत होता है । इसका अधिष्ठाता रुद्र है । माया, कला, विद्या, राग, काल, नियति और पुरुष इसी मकार के अन्तर्गत हैं । प्रमेयप्रधान सृष्टि का कारण- रूप बिन्दु मकारात्मक मन्त्रावयवस्वरूप लाभ करके जव प्रमाण रूप स्व संवित् की ओर उन्मुख होकर स्थिति लाभ करता है तब प्रतिष्ठा- कला के अन्तर्गत उकार का रूप ग्रहण करता है । इसे साक्षात् विष्णु के रूप में जाना जाता है । इससे नीचे अकाराख्य परमधाम है जहाँ कमलासन ब्रह्मा जी शोभित रहते हैं । यहाँ आकर प्रणव की निष्पत्ति होती है । पृथिवीपर्यन्त तत्त्वसृष्टि का यहाँ उल्लेख किया गया है । उपर्युक्त अणुध्वनियों की पारिवारिक अन्य कलाओं का भी निर्देश मिलता है ।
प्रतिष्ठाख्य उकारस्तु विष्णुः साक्षाद्भवत्यसौ ।
निवृत्तिस्तु यदा सर्वं निष्पन्नं प्रणवं विभुः ॥ ६९ ॥
अकाराख्यं परं धाम ब्रह्मा स कमलासनः ।
मन्त्र सृष्टिर्भवेदेषा
शिवस्य परमात्मनः ॥ ७० ॥
}
नेत्रतन्त्र, अधिकार २१
आगम समुच्चय- २
६३
पैर के अंगूठे से लेकर हृदयपर्यन्त अकार का मार्ग है। इसमें अनन्त भुवनात्मक प्रपञ्च विद्यमान रहता है । ब्रह्मदैवत्य, सद्योजातरूप अकार अपनी सिद्धि, ऋद्धि, द्युति, लक्ष्मी, मेधा, कान्ति, धुति और स्वधा - इन आठ कलाओं में संयुक्त होकर सम्पूर्ण प्राणियों में आकलित होता है । पृथिवी से लेकर प्रधानपर्यन्त तत्त्वों की यहाँ व्याप्ति है ।
उकारात्मक वामदेव कलाएँ निम्नांकित हैं
रजा, रक्षा, रति, पाल्या, काम्या, तृष्णा, मति, क्रिया, वृद्धि, माया, नाड़ी, भ्रामणी और मोहिनी । हृदय से कण्ठ तक वैष्णवांश में इनकी अव- स्थिति है । पुरुषतत्त्व का यहाँ सङ्कलन होता है ।
तम, मोहा, क्षुधा, निद्रा, मृत्यु, माया, भया, जरा ये उकारात्मक अघोर कलाएँ हैं । कण्ठ से लेकर तालुपर्यन्त रुद्रांश में इनकी स्थिति है । यहाँ नियति से मायापर्यन्त तत्त्वों का परिगणन किया जाता है ।
निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति ये तत्पुरुष कलाएँ हैं । इनका स्थान
भ्रूमध्य है । ये बिन्दुरूप ईश्वरतत्त्व में स्थित हैं ।
१. अकारं ब्रह्मदैवत्यं हृदयं यावदध्वनि ॥ २५ ॥
कलाष्टकेन संयुक्तं कलयेत् सर्वजन्तुषु । सिद्धिर्ऋद्धिद्युतिर्लक्ष्मीर्मेधा कान्तिधृतिः स्वधा ॥ २६ ॥ सद्यो ब्रह्मकला एताः पश्चिमं व्याप्य संस्थिताः ।
रजा रक्षा रतिः पाल्या काम्या तृष्णा मति क्रिया ।। २७ ।। वृद्धिर्माया ( वृद्धिकाया ) च नाडी च भ्रामणी मोहनी तथा । वामदेवकला ह्येता वैष्णवांशे व्यवस्थिता ॥ २८ ॥
कण्ठान्तयावत् तद्व्याप्तमापो व्याप्य स्थितास्त्विमाः ॥
नेत्रतन्त्र, अधिकार २२
२. तमो मोहा क्षुधा निद्रा मृत्युर्माया भया जरा ।। २९ ।।
अघोरस्य कला ह्येता रौद्रांशे तु व्यवस्थिताः । ताल्वन्तयावत्तद्व्याप्तं तेजसी व्याप्तिरुत्तमा ।। ३० ।।
३. निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च विद्या शान्तिस्तथैव च ।
पुरुषस्य कला होता ईश्वरे तु व्यवस्थिताः ।। ३१ ।। वाय्वावरणमाश्रित्य विन्द्वन्तं यावदुज्ज्वलाः ।
૬૪
तारा’, सुतारा, तरणी, तारयन्ती, सुतारिणी, ये ईशान कलाएँ हैं । सदाशिवात्मक नादतत्त्व से इनका सम्बन्ध है । यहाँ तक ईशानादि पञ्चब्रह्म तथा व्योमादि पञ्चभूतात्मक स्थूलाध्वा कहा जाता है ।
अर्द्धचन्द्र की कलाएँ निम्नांकित हैं-
ज्योत्स्ना, ज्योत्स्नावती, सुप्रभा, विमला और शिवा ।
रुन्धनी, रोधनी, रौद्री ज्ञानबोधा, तमोपहा ये निरोधिका कलाएँ हैं । नादकलाएँ - इन्धिका, दीपिका, रोचिका, मोचिका ।
नादान्त की — ऊर्ध्वगा नामक एक ही कला है ।
सूक्ष्मा, सुसूक्ष्मा, अमृता, अमृतसम्भवा और व्यापिनी ये शक्ति कलाएँ है । व्यापिनी, व्योमरूपा, अनन्ता और अनाथा - ये व्यापिनी की कलाएँ कही गई हैं ।
समना से सम्बद्ध कलाएँ - सर्वज्ञा, सर्वगा, दुर्गा, सवना, स्पृहणा, और धृति ।
१. तारा, सुतारा, तरणी, तारयन्ती, सुतारणी ॥ ३३ ॥
द्वादशान्तपदारूढ़ा तुर्यान्तास्तु कलाः स्मृताः । ईशानस्य कला ह्येताः पञ्च वै कारणात्मिकाः ॥ ३४ ॥ स्थूलस्त्वेवं समाख्यातो ह्यध्वा वै ब्रह्मभूतजः । सूक्ष्मं चैवमतो वक्ष्ये ह्यध्वानं तु यथास्थितम् ।। ३५ ।।
नेत्रतन्त्र, अधिकार २२
२. ज्योत्स्ना ज्योत्स्नावती चैव सुप्रभा विमला शिवा ।
अर्द्धचन्द्रकला ह्येताः सर्वज्ञपदसंस्थिताः ।। ३७ ।। रुन्धनी रोधनी रौद्री ज्ञानबोधा तमोपहा । निरोधिकाकला ह्येताः सर्वदेव निरोधिकाः ।। ३९ ।। इन्धिका दीपिका चैव रोचिका मोचिका तथा ।। ४० ।। ऊर्ध्वगामिन्य इत्येताः कला नादसमुद्भवाः ॥ ४१ ॥ सूक्ष्मा चैव सुसूक्ष्मा च ह्यमृतामृतसम्भवा ।। ४२ ।। व्यापिनी चैव विख्याता शक्तितत्त्वसमाश्रिताः ।
X
X
व्यापिनी व्योमरूपा च ह्यनन्तानाथ संज्ञिता ।
X
अनाश्रिता महेशानि व्यापिन्यास्तु कलाः स्मृताः । सर्वज्ञा सर्वगा दुर्गा सवना स्पृहणा धृतिः ॥ ४५ ॥ समना चेति विख्याता एताः शिवकलाः स्मृताः ॥
नेत्रतन्त्र, अधिकार २२ ।
आगम समुच्चय–२
६५
अर्द्धचन्द्र से लेकर उन्मनापर्यन्त सम्पूर्ण ध्वनि वर्ग ‘नाद’ शब्द के द्वारा बोधित होता है ऐसा पीछे कहा जा चुका है । यही पुष्पदन्त द्वारा उल्लिखित अखण्डचैतन्यात्मक ज्योतिर्मय तुरीय धाम है जो अणु ध्वनियों से व्याप्त रहता है - ‘तुरीयं ते धामध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः ॥ ( शि० म० २७ )
‘तोर्णविकृति सर्वविकारातीतं तुरीयं अवस्थात्रयाभिमानिविलक्षणं तव धाम स्वरूपं अखण्डचैतन्यात्मकम् । तवेति राहोः शिर इतिवदुपचारेण षष्ठी । अणु- भिर्ध्वनिभिरवरुन्धानं स्वत उच्चारयितुमशक्यैरर्द्धमात्रायाः प्लुतोच्चारणवशेन निष्पाद्यमानैः सूक्ष्मशब्देरवबोधं कुर्वत् प्रापयत् । समुदायशक्तया बोधयदिति यावत् । अर्धमात्राया एकत्वेऽपि ध्वनिभिरिति बहुवचनं प्लुतोच्चारणे चिरकाल- मनुवृत्तायास्तस्याः अनेकध्वनिरूपत्वान्न विरुद्धम् ।’
}
मधुसूदनी टीका
आचार्य पद्मपाद ने प्रपश्वसारविवरण में प्रणवान्तर्गत निम्नांकित सात मात्राभेदों का उल्लेख किया है - अकार’, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शक्ति और शान्त । इनके विराट्, हिरण्यगर्भ कारणगुण, समान्यगुण, बीज, गुणाभाव और गुणसाक्षी ये वाच्य हैं। इन्हीं में क्रमशः स्थूलत्व, सूक्ष्मत्व, कारणत्व, समत्व, बीजत्व, निर्विशेषत्व और साक्षित्व का दर्शन किया जाता है । प्रपञ्च सारतन्त्र के प्रणव पटल में आचार्य संकेत किया है ।
ર
शङ्कर ने इन सात भेदों का
निश्चल २ परावारूप प्रणवात्मक कुण्डलिनीशक्ति ही प्रकृति है । पश्यन्ती आदि इसी की विकृतियाँ हैं । प्रणव, उच्चारण से पूर्व पूर्ण संविदात्मक परप्रणवरूप में स्थित रहता है; पश्चात् ज्वाला प्रवाहरूप शब्दभेदों को पार करता हुआ अभिव्यक्त होता है । ज्योतिलिङ्गाकार चिदग्निरूप यह प्रणव भ्रमर के सदृश गुञ्जन करता हुआ मूलाधार से सुषुम्नामार्ग में प्रवेश करता है । क्रमशः अकारादि वाचकों और ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव शक्ति तथा पररूपात्मक सात भेदों से शान्तावधि उपसंहृत होकर मूर्द्धदेश
१. द्रष्टव्य प्रपञ्चसारतन्त्र- विवरण, प्रथम पटल, पृ० १५ २. आदी तारः प्रकृतिविकृतिप्रोत्थितोऽसौ च मूला- धारादारादलिविरुतिराविश्य सोषुम्नमार्गम् । आद्यैः शान्तावधिभिरनुगो मात्रया सप्तभेदैः शुद्धो मूर्द्धावधिपरिगतः शाश्वतोऽन्तर्बहिश्च ॥ ५ ॥
५ म० मा०
प्रपञ्चसारतन्त्र, ३० वाँ पटल६६
अथवा द्वादशान्त में ज्योतिर्मात्ररूप में अन्दर और बाहर-
विद्यमान होता है ।
• शाश्वत रूप से
पूर्वोक्त द्वादश कलाओं और सप्त मात्राओं में कोई विरोध नहीं है । पञ्चीकरण और त्रिवृत्करण के सदृश चाहिए। वस्तुत: यह क्रम सप्त व्याहृतियों को किया हुआ जान पड़ता है । सहस्रारयुक्त षट्चक्रों
मिलता है-
यहाँ एक दूसरे में
अन्तर्भाव कर लेना
दृष्टि में रख कर का भी इससे संकेत
अकारो भूरुकारस्तु भुवो मार्णः स्वरोरितः ॥ ११ ॥ बिन्दुर्महस्तथा नादो जनः शक्तिस्तपः स्मृतम् ॥ शान्तं सत्यमिति प्रोक्तं यत्स्यात् परतरं पदम् ॥ १२ ॥
प्र० सा० त०, ३० पटल
शारदातिलकतन्त्र’ के प्रथम पटल के अन्त में निम्नाङ्कित अवरोह क्रम का उल्लेख मिलता है । शब्दब्रह्ममयी कुण्डलिनी से शक्ति का जन्म होता है । शक्ति से ध्वनि, ध्वनि से नाद, नाद से निरोधिका, निरोधिका से अर्द्धेन्दु, पुनः बिन्दु, बिन्दु से परा, पश्यन्ती आदि का जन्म होता है ।
राघवभट्ट ने गूढार्थदीपिकाकार को उद्धृत करते हुए कहा है कि मूल कारण शब्द को, उन्मुखीकरणावस्था ही शक्ति है । इसको पुनः स्पष्ट करते हुए उन्होंने निर्देश किया है कि सत्त्वप्रविष्ट चित्शक्तिवाच्य परमाकाशावस्था ही शक्ति है । वही सत्त्वप्रविष्ट रजोनुविद्ध अक्षरावस्था ध्वनि है । वही तमोनुविद्ध शब्दवाच्य अव्यक्तावस्था नाद कहलाती है । उसी को तम की प्रचुरता के कारण निरोधिका कहते हैं । सत्त्वप्राचुर्य के कारण उसे ही अर्द्धन्दु कहा जाता है । उभयसंयोग ही बिन्दु है । यही बिन्दु स्थानान्तरगत होकर
१. सा प्रसूते कुण्डलिनी शब्दब्रह्ममयी विभुः
शक्ति ततो ध्वनिस्तस्मान्नादस्तस्मान्निरोधिका ।। १०८ ॥ ततोर्द्धन्दुस्ततो बिन्दुस्तस्मादासीत् परा ततः ।
पश्यन्ती मध्यमा वाचि वैखरीशब्दजन्मभूः । इच्छाज्ञानक्रियात्मासी तेजोरूपा गुणात्मिका ।। १०९ ।। क्रमेणानेन सृजति कुण्डली वर्णमालिकाम् । अकारादिसकारान्तां द्विचत्वारिशदात्मिकाम् ॥ ११० ॥
शारदाति० त०, प्रथम पटल
आगम समुच्चय- २
६७
परादि रूप ग्रहण करता है । राघवभट्ट ने लिखा है “अयं च क्रमो ग्रन्थकृता सर्वशेषे उक्तोऽपि एकाद्यक्ष रोत्पत्तावप्यनुसन्धेयः । "
पदार्थादर्श, पृ० ५९ प्रथम पटल
उपर्युक्त क्रम भी, मूल शब्दतत्त्व से लेकर वर्णमालापर्यन्त विकास का द्योतक है । इससे पूर्व जिन अणुध्वनि सम्बन्धी स्तरों का उल्लेख किया गया था उनका इस क्रम में संकोच कर दिया गया है । कुण्डलिनी ही उन्मना है नाद के अन्तर्गत शक्ति और नादान्त का भी समावेश है इस प्रकार इस क्रम में भी कोई विरोध नहीं ।
बिन्दु के अनन्तर परा की उत्पत्ति सम्बन्धी उक्ति आपाततः विरोधजनक है । कुण्डलिनी और परा को असकृत् ’ एक कहा गया है कुण्डलिनी के मध्य में ज्योतिमात्र, सूक्ष्म, परा की अवस्थिति है । राघवभट्ट स्वयं अज्ञातकर्तृ क ग्रन्थ को उद्धृत करते हुए कहते हैं-
" सूक्ष्मा कुण्डलिनीमध्ये ज्योतिर्मात्रात्मरूपिणी ।
अश्रोत्रविषया
तस्यादुद्गच्छत्यूर्ध्वगामिनी ॥ "
पदार्थादर्श, पृ० ६०
सूक्ष्मा शब्द यहाँ परा का ही बोधक है। सार्द्धत्रिवलयाकारा कुण्डलिनी और सार्द्धमात्रिक प्रणव एक ही है-
“अध्युष्टवलयाकारा प्रणवत्वमुपागता
शक्तिमहिम्नस्तोत्र टीका, पृ० १७
क्रोधभट्टारक दुर्वासा भी इसका समर्थन करते हैं । मूलधार से भी नीचे वाग्भवाकार त्रिकोण में समष्टिकुण्डलिनी का निवास है । मूलाधार में अग्नि-
१. सैषा परावाग्लक्षणा कुण्डलिनी । तस्यास्तिस्रोऽवस्थाः पश्यन्त्याद्याः
ता एव इह परपरापरापरकुण्डलिन्य उक्ताः ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४०६
परापश्यन्त्यात्मिकाहि शक्तिरध्यात्मवर्तिनी कुण्डलिनी । सामान्यशक्तिः
कुण्डलिनी तस्याः विशेषांशा विन्द्वादिसमन्विताः शक्तय इत्येवमुक्तम् ।
प्रयोगक्रमदीपिका, प० ५८१
२. आद्य जाप्यतमार्थवाचकतया रुढ़ः स्वरः पञ्चमः सर्वोत्कृष्टतमार्थवाचकतया वर्णः पवर्गान्तिकः । वक्तृत्वेन महाविभूतिसरणिस्त्वाधारगो हृद्गतो भ्रूमध्यस्थित इत्यतः प्रणवता ते गीते चागमैः ॥ १९ ॥
त्रिपुरामहिम्नस्तोत्र
६८
कुण्डलिनी हृदय में सूर्यकुण्डलिनी और भूमध्य में सोमकुण्डलिनी की स्थिति है । वस्तुतः इससे समष्टिप्रणव तथा अकार, उकार और मकार का ही बोध होता’ है । परमादित्यस्तोत्र में कहा गया है कि - “परमादित्य प्राणिमात्र के अन्दर शब्दात्मक ओङ्कार अथवा प्रणव के रूप में निनदित होता रहता है और उससे तन्मात्रात्मक शब्द को गर्भ में लिए हुए परा का जन्म होता है”
“ओमित्यन्तर्नदति नियतं यः प्रतिप्राणि शब्दो
वाणी यस्मात् प्रभवति परा शब्दतन्मात्रगर्भा ।” प्राणापानौ वहति च समौ यो भिथोग्रामसक्तौ । देहस्थं तं सपदि परमादित्यमाद्यं प्रपद्ये ॥ ३ ॥
साम्बपञ्चाशिका
यहाँ भी परा की उत्पत्ति सम्बन्धी चर्चा की गयी है । भास्करराय ने लिखा है कि शब्दब्रह्मरूप बीज की उच्छूनतावस्था ही परा है, स्फुटितावस्था पश्यन्ती, मुकुलित अव्यक्त, दलद्वयावस्था मध्यमा और सम्यक् विकसित अवस्था ही वैखरी है । इस प्रकार जन्म की बात औपचारिक अधिक है । वस्तुभेद वहाँ नहीं कहा जा सकता-
" तत्र शब्दब्रह्मरूपस्य बोजस्योच्छूनतावस्था परा स्फुटितावस्था परयन्ती, मुकुलिताव्यक्तं दलद्वयं मध्यमा । सम्यग् विकासेन प्रसृतं मिथः संसृष्टमूलं दलद्वयं वैखरी ।”
सौभाग्यभास्कर, पृ० ३३
परिपक्व, कर्मों के आकारवाली माया से विशिष्ट ब्रह्म ही अव्यक्तपद द्वारा बोधित होता है । और इसी लिए उसकी उत्पत्ति का स्मरण किया गया है- " तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम । " जगद्रूप अंकुर का कन्द होने के कारण उसे ही कारण बिन्दु कहते हैं । इसी को लक्ष्य में रखकर प्रपञ्चसार- तन्त्र में कहा गया है - “विचिकीर्षुर्घनीभूता सा चिदभ्येति बिन्दुताम् " ४१ ( प्र० सा०, प्रथम पटल ) बिन्दु से क्रमशः कार्य बिन्दु, नाद और बीज यह त्रिक उत्पन्न होता है । यही त्रिक क्रम से पर, सूक्ष्म और स्थूल पदों से कहा जाता है । चिदंशात्मक, चित् और अचित् अंश से मिश्रित तथा अचित् अंशात्मक इनके क्रमशः रूप है-
१. चतुविधतनुं अग्निसूर्य सोमसमष्टिरूपेण, अग्निकुण्डलिनी मूलाधारे । सूर्यकुण्डलिनी हृदये, सोमकुण्डलिनी भ्रूमध्ये, समष्टिकुण्डलिनी मूला- धाराधोगतवाग्भवाकारत्रिकोणे ।
नित्यानन्द कृत श० महिम्नस्तोत्र, व्याख्या, पू० ६
आगम समुच्चय-२
कालेन भिद्यामनस्तु स विन्दुर्भवति त्रिधा । स्थूलसूक्ष्मपरत्वेन तस्य त्रैविध्यमिष्यते ॥ ४२ ॥ स विन्दुनादबीजत्वभेदेन च निगद्यते ।
६८
प्रपञ्च सा० तन्त्र, प्रथम पटल
कारणबिन्दु, कार्यबिन्दु, नाद और बीज इनके अधिदैवत, अव्यक्त, ईश्वर, हिरण्यगर्भ और विराट् शान्ता, वामा, ज्येष्ठा, रौद्री; अम्बिका, इच्छा, ज्ञान और क्रिया । निम्नाङ्कित पीठ ही अधिभूत है – कामरूप, पूर्णगिरि, जालन्धर तथा उड्याण । ‘नित्याहृदय’ में इसे स्पष्ट किया गया है । शक्ति ( परा ), पिण्डमन्त्र ( प्रणव ), तथा कुण्डली आदि शब्दों द्वारा बोध्य कारणबिन्दु ही अध्यात्म है । इसी के सम्बन्ध में कहा गया है-
या मात्रा ‘त्रपुसीलता तनुलसत्तन्तु स्थितिस्पद्धनी
वाग्बीजे प्रथमे स्थिता तव सदा तां सन्महे ते वयम् । शक्ति: कुण्डलिनीति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमा ।
ज्ञात्वेत्थं न पुनविशन्ति जननीगर्भेऽर्भकत्वं नराः ॥ २ ॥
पञ्चस्तवी अधिभूत, अधिदैव, और अध्यात्म रूपों से अविभक्त कारणबिन्दु, जब कार्यबिन्दु आदि त्रिक को उत्पन्न करने के लिए उन्मुख होकर भेद को प्राप्त होता है उसी दशा में वहाँ अव्यक्त शब्दब्रह्मात्मक रव उत्पन्न होता है- विन्दोस्तस्माद् भिद्यमानादव्यक्तात्मा रवोऽभवत् ।
स रवः श्रुतिसम्पन्नः शब्दब्रह्मेति गीयते ॥ ४४ ॥
प्रपञ्च० तन्त्र, प्रथम पटल
उपर्युक्त रव कारणबिन्दु से कोई अतिरिक्त पदार्थ नहीं है ।
कारण-
बिन्दु से तादात्म्यापन्न यह रव सर्वगत होने पर भी व्यञ्जक प्रयत्न से संस्कृत वायु द्वारा प्राणियों के मूलाधार में व्यक्त होता है-
देहेऽपि मूलाधारेऽस्मिन् समुदेति समीरणः ॥ विवक्षोरिच्छयोत्थेन प्रयत्नेन सुसंस्कृतः ॥
स व्यञ्जयति तत्रैव शब्दब्रह्मापि सवंगम् ॥
सौभाग्यभास्कर, पृ० ९९
कारणबिन्द्वात्मक २ यह अभिव्यक्त शब्दब्रह्म, स्वप्रतिष्ठ रहने पर निष्पन्द
रहता है और यही परावाक् है ।
१. ककड़ी अथवा खीरा की लता ।
२. तदिदं कारणविन्द्वात्मकमभिव्यक्तं शब्दब्रह्म स्वप्रतिष्ठतया निष्पन्दं
तदेव च परा वागित्युच्यते ।
सौभाग्यभास्कर, पृ० ९९
७०
धनीभूत ब्रह्म से पहले प्रकृति और इससे भी पूर्व परतत्त्व की अवस्थिति रहती है । प्रकृति तथा माया का तन्त्रसम्मत स्वरूप आगे चलकर स्पष्ट किया जायगा । आचार्य शंकर प्रपञ्श्वसारतन्त्र में कहते हैं कि-
सा तत्त्वसंज्ञा चिन्मात्रा ज्योतिषः सन्निधेस्तदा । विचिकीर्षुर्घनीभूता क्वचिदभ्येति बिन्दुताम् ॥ ४१ ॥
प्रथम पटल
चिन्मात्र १ – अक्षरशब्दोक्त ( परप्रणवात्मक ) तत्त्वसंज्ञक अर्थात् परमार्थिकतत्त्व से अविभक्त, पराप्रकृति तत्त्वात्मकता अन्तर्मुखता को न छोड़ती हुई किञ्चित् बहिर्मुखता के साथ सृष्ट्युन्मुख कर्मों से अविभक्त, तरङ्गों की मूलभूत सूक्ष्मवायु से व्याप्त समुद्र के ऊर्ध्वगमन के सदृश, बिन्दुरूपात्मक किञ्चित् स्थूलता को प्राप्त होती है । परिपक्व कर्मों के साथ अभेदात्मकता ही घनीभाव है । तत्त्वात्मिका प्रकृति के अन्तर्गत वर्तमान कर्मों की एक ‘अपूर्वात्मक’
१. चिन्मात्रं यद्देवतातत्त्वमक्षरशब्दोक्तं परप्रकृतिपुरुषकालविकल्पलक्षण- मेतत्तदिह तत्त्वमित्युक्तम् ।… देवतातत्त्वं परं ब्रह्मेत्यादिपदैरनुपचारतस्तस्या अपि सह गृहीतेति भावः ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४११
२. सा प्रकृतिः तत्त्वस्य पारमार्थिकस्य संज्ञेव संज्ञा यस्याः तदविभक्तत्वात् सा तथोक्ता । सा तत्त्वात्मकतां अन्तर्मुखताम् अपरित्यज्यैव क्वचिदेशे बिन्दुतां किञ्चिद्बहिर्मुखतया सृष्ट्युन्मुखकर्माविभक्ततया तरङ्गमूलभूतसूक्ष्मवायुव्याप्त- समुद्रवलनवत् किञ्चित् स्थौल्यं प्राप्नोतीत्यर्थः । परिपक्वकर्माभेदाद्धनीभावः । तदर्थ व्यापारो विचिकीर्षा । बिन्दुः कर्माभिन्नं रूपम् ।
पद्मपादकृत प्रपञ्चसा० वि०, प्रथम पटल, पृ० १६ तत्त्वात्मिकाया अपि प्रकृतेः स्वगतकर्मणामपूर्वावस्थातः परिपक्वावस्थायां भेदात्तदविभक्ततया वर्तनमवस्थानम् । स इह घनीभाव इत्यर्थः । तदर्थमिति निरतिशय सूक्ष्मेच्छाज्ञानक्रियालक्षणोऽयं व्यापारोभिप्रेतः । यद्यपि प्रकृतेः स्वातन्त्र्यावस्थेयं बिम्बादिशक्तिपर्यन्ता ततः परमेवेच्छादिशक्त्यवस्थाः । किन्तु तत्रापि अवान्तरावस्थासमीक्षायां तदुचितेच्छाद्युपपत्तिरिति । प्रकृतेरेव प्रलया वस्थातो यत्परिपक्वदशानन्तरं सृष्ट्युन्मुखकर्मभिभिन्नं ( सम्भिन्नं ) स्वाकार- निरूप्यं रूपं सोऽसौ बिन्दुः । परिपक्वैरेव कर्मभिभिद्यमानं रूपं घनीभावः इति भेद: ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४१२
एवं परस्मादुत्पन्नस्य प्रकृतितत्त्वस्योत्तरसृष्टिनिर्वाहार्थं इच्छासत्त्वादिरूपता - पद्मपादाचार्यकृत विवरण, पृ० १६
माह कालेनेति ।
आगम समच्चय- २
७१
अवस्था होती है और दूसरी परिपक्वावस्था । ये दोनों अवस्थाएँ परस्पर भिन्न हैं । प्रकृति की घनावस्था या उच्छून दशा वह है जिसमें प्रकृति पूर्वोक्त अपूर्वा - वस्था को छोड़ परिपक्व दशा में अविभक्तरूप से स्थित हो । घनीभाव के लिए जो व्यापार होता है वही विचिकीर्षा है । यह व्यापार अत्यन्त सूक्ष्म इच्छा, ज्ञान और क्रियात्मक होता है । यद्यपि बिम्ब से शक्तिपर्यन्त प्रकृति की यह स्वातन्त्र्यात्मक अवस्था ही है इसके अनन्तर इच्छा ज्ञानादि शक्तियों की अवस्था आती है तथापि इस दशा में भी तदुचित अत्यन्त सूक्ष्म इच्छादि शक्तियाँ रहती ही हैं ।
कर्माभिन्न रूप ही बिन्दु है । प्रकृति का ही, प्रलयावस्था से जो परिपक्व - दशा के अनन्तर सृष्ट्युन्मुख कर्मों से अभिन्न, स्व आकार से ही निरूपित रूप है वही बिन्दु है । केवल पक्व कर्मों से ही सम्बद्धरूपता घनीभाव है । बिन्दु और घनीभाव में यही अन्तर है ।
परतत्त्व से उत्पन्न प्रकृति ( बिन्दु ) तत्त्व, इच्छा, ज्ञान और क्रिया तथा सत्त्व, रज और तमो रूप है । इच्छादि शक्तियों द्वारा उत्तर सर्ग में भिन्न-भिन्न विकृतियों का प्रसार होता है और सत्त्वादि द्वारा शान्त, घोर, मूढ़ादि वैचित्र्य का संयोग होता है ।
अपर काल से अन्वित, शक्ति का नियन्त्रण करने वाले ईश्वराख्य पर काल द्वारा सम्बद्ध होते हुए भी विभज्यमान प्रकृतिरूप बिन्दुतत्त्व उपर्युक्त तीन रूपों को ग्रहण करता है । यहाँ काल से चिद्रूप ईश्वर अभिप्रेत ’ है । चिद्रूप के सम्बन्ध से हीन अचिद्रूप ज्ञानादि रूपता सम्भव नहीं है । अतः सम्बन्ध
२
१. कालस्येश्वरस्य चिद्रूपत्वात् एवमुक्तः । प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४१२ २. भिद्यमानः सम्बध्यमानः विभज्यमानश्च । नहि चित्सम्बन्धं विना चिद्रूपस्य ज्ञानादिरूपत्वं सम्भवति । इच्छादीनामेकैकस्य मायातच्छक्तितद्गत- प्राणिकर्मविषयभेदेन त्रिरूपतामाह ।
पद्मपादाचार्यकृत विवरण, प्रथम पटल, पृ० १६
तस्याः स्वान्तर्गतं स्वेशितृकालप्रयोज्यं स्वकल्पिततदीयत्रिमूर्ति हिरण्य- गर्भाद्यखिलचेतनांशेषु नानात्वादिप्रत्ययकरमवान्तरशक्तिमात्रं माया ।… मायाया अप्यन्तर्गतं तेषां परिच्छिन्नस्वरूपतादिप्रत्ययकरम विद्यालक्षणमवान्तरशक्तिमात्र- मिह शक्तिः । माया त्वनयैव स्वकीयकार्यं तेषां संसारित्वलक्षणं विधत्ते इति तस्याः शक्तिरियमिष्यते । तस्याः शक्तेरप्यन्तर्गतं तत्तद्गतप्राणिनां प्राक्तनभवो- पार्जितं कर्मजातं तदिह कर्म । न च केवलस्य कर्मणोऽवस्थानमिति तत्समवायी मलिनोऽचिदशोप्यभ्युपेयते । यच्छेवप्रक्रियायां प्रकृतितत्त्वं व्यपदिश्यत इति । किश्व मायातच्छक्त्योरपि किञ्चित्कर्माभ्युपेयते तद्व्यतिरेकेण तयोरभिव्यक्ती
७२
होते हुए भी विभाग का विलक्षण संघटन ऊपर कहा गया है । इच्छादिक भी प्रत्येक माया, माया की शक्ति और तद्गत प्राणि कर्म के भेद से तीन प्रकार की होती है । इस प्रकार नव भेद हुए ।
पराप्रकृति के गर्भ में विद्यमान इच्छाशक्ति के अन्तर्गत स्व ईशितृ काल द्वारा प्रयोज्य, स्व कल्पित त्रिमूर्ति तथा हिरण्यगर्भ आदि अखिल चेतनांशों में नानात्व सम्बन्धी प्रतीति उत्पन्न कराने वाली, अवान्तर शक्तिमात्र ही माया है । माया के भी अन्तर्गत पूर्वोक्त चेतनों को और परिच्छिन्न रूप प्रदान करने वाली अविद्या नामक अवान्तर शक्ति ही माया की शक्ति है । इसी के द्वारा माया, संसारित्वलक्षण अपना कार्य करती है । इसीलिए यह माया की शक्ति कही जाती है । इस शक्ति के अन्तर्गत, प्राणियों के प्राक्तन जन्म में उपार्जित कर्म समूह ही कर्म है । केवल कर्म मात्र स्वतः उपस्थित नहीं रह सकते अतः उनका समवायी, मलिन अचित् अंश भी स्वीकार्य होना चाहिए। यह मलिन अचित् अंश शिवाद्वयवाद में प्रकृतितत्त्व के नाम से कहा गया है । यह पूर्वोक्त परा प्रकृति का स्थूलांश मात्र है ।
माया और उसकी शक्तियों के भी कुछ कर्म मानने होंगे । अन्यथा माया और उसकी शक्ति की अभिव्यक्ति में कौन निमित्त होगा ?
सम्पूर्ण चेतनों के अपने-अपने कर्मों के अपूर्व ( कर्म संस्कार ) परिपाका - वस्था में सामान्य और विशेष इन दो रूपों को ग्रहण करते हैं । सामान्यांश से प्रकृति आदि की उत्पत्ति होती है और विशेषांश से भोग्य और भोगायतनों का निर्माण होता है । सामान्य - अपूर्व, विशुद्धतर, विशुद्ध, मिश्र और मलिन भेदों में विभक्त होकर प्रकृति, माया, अविद्या और अपरप्रकृति का समवायी बनता है । इस प्रकार मायादिकों की भी विचिकीर्षा, घनीभाव और बिन्दुता ये तीन अवस्थाएँ समान रूप में होती हैं। बिन्दु अवस्था को प्राप्त, स्व स्व आकार निरूपित, मायादिकों से संवलित सम्पूर्ण ( परा ) प्रकृति बिन्दु ’ अवस्था का लाभ करने के पश्चात् त्रिधा विभक्त होती है ।
निमित्तोपयोगात् इति । तत्र सकलचेतनानां यानि, स्वानि स्वानि कर्मापूर्वाणि तानि परिपाकावस्थायां सामान्यविशेषरूपेण द्विधा भिद्यन्ते । तत्र सामान्यांशेन प्रकृत्याद्युत्पत्तिविशेषांशै निज निजभोग्य भोगायतनाद्युत्पत्तिः । सामान्यं च विशुद्ध- तरविशुद्धमिश्रमलिनतया भिन्नं प्रकृतिमायादिसमवायि भवतीति विभागः ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४१२ १. ततश्च मायादीनामपि विचिकीर्षुर्घनीभूता क्वचिदभ्येति विन्दुतामित्य- वस्थात्रयं समानमेव च । तथा च मायादिष्वपि विन्द्ववस्थामापन्नेषु स्वस्वा-
आगम समुच्चय- २
७३
वस्तुतः पराप्रकृति में सर्वप्रथम इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्तियाँ निर्विषय रूप से अभिव्यक्त होती हैं । अनन्तर जब वे माया को विषय बना कर प्रवृत्त होती है तब क्रिया की व्यापार पर्यन्त वेला में स्वोचित, सृष्ठ्यन्मुख कर्मों से अविभक्त स्वाकारनिरूपित माया का जन्म होती है । इसके पश्चात् वे इच्छादिक शक्तियाँ जब माया की शक्ति को विषय बनाकर प्रवृत्त होती हैं तब पूर्वोक्त रीति से अविद्या की उत्पत्ति होती है । अनन्तर जब वे तदन्तर्गत कर्म को विषय बनाकर प्रवृत्त होती हैं तो उनके योग्य मलिन अचिदंश के योग से कर्मों की उत्पत्ति होती है । यही क्रम बिन्दुरूप पराप्रकृति के अन्तराल में घटित होता है ।
यह बिन्दु (कारण) रूप प्रकृति, पर, सूक्ष्म तथा स्थूल अथवा बिन्दु ( कार्य ) नाद और बीज के रूप में त्रिधा विभक्त होती है
कालेन भिद्यमानस्तु स बिन्दुर्भवति त्रिधा ।
स्थूलसूक्ष्मपरत्वेन तस्य त्रैविध्य मिष्यते ॥ ४२ ॥
बिन्दुनादबीजत्ववेदेन
स
च निगद्यते ।
इसी कार्य बिन्दु, नाद और बीज का पहले पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी के रूप में उल्लेख किया जा चुका है । चित्प्रधान काल लक्षण ईश्वर ही कार्य बिन्दु है । पराप्रकृति का चिन्मिश्र पुरुषाख्य रूप ही नादर है । अचिदंश ही बीज कहा जाता है । यह स्थूल प्रकृति रूप होता है ।
पूर्वोक्त कारणात्मक बिन्दु से अव्यक्तात्मक रव हुआ जिसे श्रुति संपन्न लोग शब्दब्रह्म कहते हैं । आचार्य पद्मपाद ने लिखा है - यह बिन्दु परमपुरुष रूप है उससे बीजरूप उक्त प्रकृति से सम्बन्ध होने पर उभयाभेदलक्षण, देदीप्यमान- निरावरण चिन्मय परापश्यन्त्यात्मक रव हुआ । यही कुण्डली आदि शब्दों द्वारा कहा जाता है
कारनिरूप्येषु सत्सु कृत्स्नापि प्रकृतिः विन्द्ववस्थां प्राप्ता सम्पद्यत इति ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४१२
१. प्रकृतेस्तावन्निविषयतयैव प्रथममिच्छादीनामभिव्यक्तिः । ततस्तासां मायाविषयतया प्रवृत्तो क्रियाव्यापारपर्यन्तवेलायां माया स्वोचितसृष्ट्युन्मुख- कर्माविभक्ततया स्वाकारनिरूप्योत्पन्ना भवति । ततस्तासां तदीयशक्ति- विषयतया प्रवृत्तावेवं तदुत्पत्तिः । ततश्च तासां तदन्तर्गतकर्मविषयतया प्रवृत्तौ तदुचितमलिना चिदशयोगतस्तदुत्पत्तिरिति क्रमोऽवबोद्धव्यः । वही पृ० ४१२ २. बिन्दुरीश्वरः नादस्तस्याश्चिन्मिश्रं रूपं पुरुषाख्यम् । बीजमचिदंश: ।
प्रपञ्चसारविवरण, प्रथम पटल, पृ० १७
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“बिन्दुरुक्तः परमपुरुष एव तस्माद्बीजरूपयोक्तया प्रकृत्या सम्बध्यमानात् उभयाभेदलक्षणो देदीप्यमानः परापश्यन्त्यात्मको रवोऽभवत् । स एव च कुण्ड- ल्यादिशब्दैरभिलप्यते ॥ "
प्रपञ्चसारविवरण, पृ० १७, प्रथम पटल
प्रयोगक्रमदीपिकाकार की उक्ति है कि परा नित्य है उसकी उत्पत्ति कैसी ? वस्तुतः परा की सम्भावना मात्र की जाती है और पश्यन्ती की उत्पत्ति होती है-
मूले बिन्दोस्तस्मादित्यत्र कालेन भिद्यमानस्त्विद्याद्युक्तो भेदोऽभिप्रेतः । अवश्यं पश्यन्त्यात्मक एव । परा वाग्रूपस्य तु नित्यत्वेनोत्पत्त्ययोगात् इति । … परायाः सम्भवमात्रं पश्यन्त्या स्तुत्पत्तिरिति ज्ञेयम् ॥
प्र० क्र० दी०, पृ० ४१४-४१५ ‘बैन्दवतत्त्व रूप शब्दब्रह्म से भी ऊपर तत्त्वसंज्ञा नामक परावाक् है और उससे परे साक्षी संज्ञक तत्त्व है जो स्वसंवेद्य होने के कारण अवाच्य है । परावाक् नामक ( तत्त्वसंज्ञाय्य ) शक्ति भी साक्षी रूप तत्त्व से अभिन्न होने के कारण अथवा तत्त्व से पृथक् उसका कोई स्वरूप ही नहीं हो सकता अतः वह भी अवाच्य है । शब्द ( श्रोत्रग्राह्य ) के उच्चारण काल में उसके साक्षी रूप में अवस्थित बिन्द्वात्मक अवगम्य अर्थ ही शब्दब्रह्म है ऐसा तत्ववेत्ताओं का कहना है । बिन्द्वात्मक प्रकाशात्मकता से रहित इतर स्थूल शब्दात्मक रव को शब्दब्रह्म नहीं कहा जा सकता । शब्दब्रह्म में शब्दत्व और ब्रह्मत्व दोनों अपेक्षित हैं । शब्द में वर्तमान प्रकाशक अंश शब्द का उपनिषद् या रहस्य है । और निरतिशय सूक्ष्मतया व्यापित्व ही ब्रह्मत्व है-
शब्दब्रह्मापि यत्प्रोक्तं तदुद्देश्यः प्रवत्यंते ।
अतः परमवाच्यं हि स्वसंवेद्यस्वरूपतः ॥ ६१ ॥ शब्दब्रह्मेति शब्दावगम्यमथं विदुर्बुधाः ॥
स्वतोऽर्थानवबोधत्वात् प्रोक्तो नैतादृशो रवः ॥ ६२ ॥
प्रपञ्वसारतन्त्र, प्रथम पटल
१. ननु बैन्दवतत्त्वरूपशब्दब्रह्मणोऽपि ऊर्ध्वं परावाग्रूपायाः तत्त्वसंज्ञायाः तत्साक्षिणः तत्त्वस्य चोद्देशनं याथार्थ्योपदेशनमकृत्वा किमिति शब्दब्रह्मोद्देशः क्रियत इति तयोरुद्देष्टुमशक्तत्वात् इत्याह अतः परमिति । आत्मा स्वसंवेद्यत्वेन अवाच्यः शक्तेरपि तदभिन्नत्वात् तद्व्यतिरेकेणाभावाद्वा अवाच्यत्वमेव ।
प्रपश्वसारविवरण, प्रथम पटल, पृ० २२
आगम समच्चय- २
७५
इह तावन्मुख्यतया शब्दत्वं ब्रह्मत्वं चैषितव्यम् शब्दे हि प्रकाश- कांशो रहस्यमुपनिषद्भूतं भवति तत्र स्थूलस्य रवस्यास्ति । ब्रह्मत्वं च निरतिशयसूक्ष्मतया व्यापित्वं तदपि नास्ति ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४२३
वह शब्द द्वारा अवगम्य अर्थ रूप शब्दब्रह्म सम्पूर्ण उत्पन्न पञ्चीकृत लोकादिक में कारण रूप से अनुस्यूत रहता है । अनन्तर प्राणियों के शरीर में वैखरी के अतिरिक्त सङ्कल्प, विकल्प, निश्चय एवं विमर्शनात्मक अर्थों के रूप में आविर्भूत होता है-
स तु सर्वत्र संस्कृतो जाते भूताकरे पुनः ।
आविर्भवति देहेषु प्राणिनामर्थविस्तृतः ॥ ६३ ॥
प्रपञ्चसारतन्त्र, प्रथम पटल
पूर्वोक्त तत्त्वसंज्ञाख्य’ शक्ति, परावाक् तथा उसकी अर्थस्वरूप है । विचि- कीर्षा, घनीभाव, इच्छा-ज्ञान-क्रिया, सत्व रज-तम से युक्त प्रकृति तत्व, पश्यन्ती एवं उसकी अर्थस्वरूप है । महत्, अहङ्कार, तन्मात्र, उभयेन्द्रियाँ, मध्यमात्मक और उसकी अर्थात्मिका है । पञ्चीकृत व्यष्टि और समष्टि, वैखरी तथा उसकी अर्थ रूप है ।
उपर्युक्त सम्पूर्ण विवृति प्रपञ्चसारतन्त्र, विवरण तथा प्रयोगक्रमदीपिका के अनुसार प्रस्तुत की गयी है । शारदातिलकतन्त्र में भी इसी पद्धति का प्रायः
। अनुसरण किया गया है २ ।
१. तत्र तत्त्वसंज्ञा परावाक्तदर्थ रूपिणी, प्रकृतितत्त्वान्तं पश्यन्तीतदर्थात्मकम्, इन्द्रियान्तं मध्यमातदर्थात्मकम्, पञ्चीकृतं वैखरीतदर्थात्मकमित्यवगन्तव्यम् ।
प्रपश्वसारविवरण, प्रथम पटल, पृ० २२
२. निर्गुणः सगुणश्चेति शिवो ज्ञेयः सनातनः । निर्गुणः प्रकृतेरन्यः सगुणः सकलः स्मृतः ॥ ६ ॥ सच्चिदानन्दविभवात् सकलात्परमेश्वरात् । आसीच्छक्तिस्ततो नादो नादादिबन्दुसमुद्भवः ॥ ७ ॥ परशक्तिमयः साक्षात् त्रिधासौ भिद्यते पुनः । बिन्दुर्नादो बीजमिति तस्य भेदा: समीरिताः ॥ ८ ॥ बिन्दु: शिवात्मको बीजं शक्तिर्नादस्तयोमिथः । समवायः समाख्यातः सर्वागमविशारदैः ॥ ९ ॥
रौद्री बिन्दस्ततो नादाज्ज्येष्ठा बीजादजायत । वामा ताभ्यः समुत्पन्ना रुद्रब्रह्मरमाधिपाः ॥ १० ॥७६
व्याकरणागम का अभिमत है कि कुण्डल, कटक, रुचक’, स्वस्तिक आदि आकारों के उपसंहृत होने पर सुवर्ण ही जैसे सत्य ठहरता है वैसे अनन्त विकार समूह के नष्ट हो जाने पर सब के अन्त में अवस्थित अनपायी ब्रह्मरूप ही सत्य और नित्य है । व्यवहार में जातियों की भी आपेक्षिक नित्यता मानी जाती है । यथा व्यक्ति के नष्ट होने पर गोत्वादि जाति ही नित्य रूप से वर्तमान रहती है । गोत्व और अश्वत्व आदि जाति भेद दूर होकर पृथिवीत्वादि में समाविष्ट हो जाता है । पृथिवी और जलत्व आदि जातियाँ भी समस्त नामों की प्रतीति कराने वाली वस्तुत्वसंज्ञक जाति में उपसंहृत होती है । वस्तुत्त्व
सञ्ज्ञानेच्छा क्रियात्मानो वह्नीन्द्वर्कस्वरूपिणः । भिद्यमानात्परादिवन्दोरव्यक्तात्मा रवोऽभवत् ॥ ११ ॥ शब्दब्रह्मेति तं प्राहुः सर्वागमविशारदाः ।
शब्दब्रह्मेति शब्दार्थं शब्दमित्यपरे जगुः ॥ १२ ॥
नहि तेषां तयोः
शारदाति ० तन्त्र, प्रथम पटल
सिद्धिर्जडत्वादुभयोरपि ।
चैतन्यं सर्वभूतानां शब्दब्रह्मेति मे मतिः ।। १३ ।।
तत्प्राप्य कुण्डलीरूपं प्राणिनां देहमध्यगम् ।
वर्णात्मनाविर्भवति
गद्यपद्यादिभेदतः ॥ १४ ॥
अथ बिन्द्वात्मनः शम्भोः कालबन्धोः कलात्मनः ।
अजायत जगत्साक्षी सर्वव्यापी सदाशिवः ।। १५ ।।
शारदाति० तन्त्र, प्रथम पटल
१. तत्र रुचकाद्याकारोपमर्देन सुवर्णमित्येव सत्यम् । एवमनन्तविकार- ग्रामापाये सर्वान्तेऽवतिषुमानमनपायि ब्रह्मरूपं सत्यं तदेव च भावतो नित्यम् । आपेक्ष्यं तु जात्यादीनां सर्वव्यवहारे नित्यत्वमुच्यते । तथा हि… व्यक्त्यपाये जातिरवतिष्ठमाना गोत्वादिका नित्या । तत्राप्यश्वत्वादिभेदत्यागे पृथिवीत्येव सत्यम् । तत्राप्यप्त्वादिभेदापाये वस्त्वित्येव सत्यं सर्वनामप्रत्याययम् । तत्रापि संविद्रूपस्यानपायिनोनुगमादविषयाकारविवेके तदेव पारमार्थिकं सत्यमिति नेति नेतीत्युपासीतेति भावनया चोद्यते । संविच्च पश्यन्तीरूपा परावाक् शब्दब्रह्म- मयीति ब्रह्मतत्त्वं शब्दात्पारमार्थिकाल भिद्यते । विवर्तदशायां तु वैखर्यात्मना भेदः । तत्र च तदेव नित्यं जात्यादिरूपेण शब्दवाच्यम् । तत्रान्तरे उपादान- विश्रान्त्या वाचकत्वस्य व्यवस्थापनात् स्वरूपान्तर्गतस्यार्थस्य वाच्यत्वात् वाच्यवाचकयोरविभागः सिद्ध इति प्रथमकाण्डे निर्णीतम् ॥
हेलाराजकृत वा०प० पदप्रकाश, द्रव्यसमुद्देश, पृ० ९१
आगम समुच्चय–२
७७
’ में भी अनपायी संवितरूपता का दर्शन किया जाता है । यह अविषयाकार विवेकात्मक संवितरूपता ही पारमार्थिक सत्य है । इसी को ‘नेति नेति’ द्वारा उपासनीय कहा गया है। यह संवित् पश्यन्ती रूप परावाक् है । शब्द- ब्रह्ममयी यह संवित् ही ब्रह्मतत्त्व है जो परमार्थिक शब्दतत्त्व से भिन्न नहीं । इस अन्त्य संवित रूप ब्रह्म को ही आगमवेत्ताओं ने सत्य सर्वाविकारानुयायी, प्रशांत कल्लोल, चिदेकघन पराप्रकृति’ के नाम से कहा है-
सत्यमाकृतिसंहारे
यदन्ते व्यवतिष्ठते ।
तन्नित्यं शब्दवाच्यं तच्छब्दतत्त्वं न भिद्यते ॥ ११ ॥
विकारापगमे सत्यं सुवणं
कुण्डले यथा ।
विकारापगमे सत्यं तथाहुः
प्रकृति पराम् ॥ १५ ॥
वाक्यपदीय, तृ० काण्ड, द्रव्यसमुद्देश
स्पष्ट है कि पूर्वोक्त प्रकृति सांख्य सम्मत प्रकृति से भिन्न है । तांत्रिकों के यहाँ भी प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म और चिद्रूप है । यह निश्चल, परावाक् रूप प्रणवात्मक कुण्डलिनी शक्ति है । सांख्यसम्मत प्रकृति, इसी का स्थूलांश है-
“प्रकृतिः निश्चला परावानूपिणी परप्रणवात्मिका कुण्डलिनीशक्ति: “.
प्रपश्ञ्वसारतन्त्र- विवरण, पटल ३०, पृ० ३१८ " अत्र मच्छब्देन स्वसंवेद्यस्वरूपा सेत्युक्ता परा प्रकृतिः गृह्यते ।”
प्र० क्र० दी०,
पृ० ४००
“प्रकृतिरिहापरोपलक्षिता परा विवक्षिता ।”
वही, पृ० ४०३
तन्त्रानुमत प्रकृति में प्रकृति पुरुष और काल अपने दोनों भेदों के साथ सम्मिलित रहते हैं । परा और अपरा प्रकृति पर तथा अपर पुरुष, पर एवं
।
}
१. रुचकस्वस्तिककुण्डलादय विकाराः परस्परोपमर्देन भवन्तोऽस्थिर- प्रत्ययविषयाः, सुवर्णमित्येव तु समन्वयिविज्ञानादवसेयं सत्यत्वम् । एवमभेदा- न्तरविवक्षायां तेज इत्येव सत्यम् । तत्राप्यभेदस्तत्कारणमित्यन्त्या परा प्रकृतिः सत्या सर्वविकारानुयायिनी प्रशान्तकल्लोला चिदेकघना ब्रह्मेत्याग- मविदः । तदुक्तं पृथिवीधाती कि सत्यं विकल्पः, विकल्पे किं सत्यं विज्ञानं, विज्ञाने किं सत्यं ॐ क्षथ तद्ब्रह्मेति’ । हेलाराज जातिसमुद्देश, पृ० २९
२. प्रकृतिपुरुषकाला : द्विविधाः परापरभेदेन । ‘विचिकीर्षुः ’ ‘स्वसंवेद्यस्व- रूपा’ या ‘युष्मानपि ’ ‘बहुना किं परं सः ’ ’ पुंसा तु कालात्मना ’ ‘लवादिप्रल- यान्त’ इत्यादिवाक्यविशेषात् ।
प्रपञ्चसारविवरण, पृ० ११, प्रथम पटल
७८
अपर काल ये मिलकर मूलमहाप्रकृति का निर्माण करते हैं । प्रपञ्चसारतन्त्र के अनुसार परा प्रकृति का रूप निम्नांकित है–
स्वामिन् प्रसीद विश्वेश के वयं केन भाविताः ।
कि मूला: कि क्रियाः सर्वमस्मभ्यं वक्तुमर्हसि ॥ १६॥ इति पृष्टं परं ज्योतिरुवाच प्रमिताक्षरम् ।
ययमक्षरसम्भूताः
सृष्टिस्थित्यन्तहेतवः ॥ १७ ॥
तैरेव विकृति यातास्तेषु वो जायते लयः ।
इति तस्य वचः श्रुत्वा तमपृच्छत् सरोजभूः ॥ १८ ॥ अक्षरं नाम कि नाथ कुतो जातं किमात्मकम् ।
इति पृष्टो
हरिस्तेन सरोजोदरयोनिना ॥ १६ ॥
मूलार्ण मर्णविकृतीविकृतेविकृतीरपि ।
तत्प्रभिन्नानि मन्त्राणि प्रयोगांश्च पृथग्विधान् ॥ २० ॥
वैदिकांस्तान्त्रिकांश्चापि
सर्वानित्यमुवाच ह ।
प्रकृतिः पुरुषश्चैव नित्यौ कालश्च सत्तम ॥ २१ ॥ अणोरणीयसी स्थूलात् स्थूला व्याप्तचराचरा । आदित्येन्द्वग्नितेजोमद् यद्यत्तत्तन्मयी विभुः ॥ २२ ॥
न श्वेतरक्तपीतादिर्वर्णे निर्धार्य
चोच्यते ।
न गुणेषु न भूतेषु विशेषेण
व्यवस्थिता ॥ २३ ॥
अन्तरान्तर्बहिश्चैव देहिनां
देहपूरणी ।
स्वसंवेद्यस्वरूपा सा दृश्या देशिकदर्शितः ॥ २४ ॥
यथाकाशस्तमो वापि लब्धा या नोपलभ्यते ।
पुत्रपुंसकयोस्तुल्याप्यङ्गनासु विशिष्यते ।। २५ ।। प्रधानमिति यामाहुर्या शक्तिरिति कथ्यते ।
या युष्मानपि मां
नित्यमवष्टभ्यातिवर्तते ॥ २६ ॥
साहं यूयं तथैवान्यद् यद्वेद्यं तत्तु सा स्मृता । प्रलये व्याप्यते तस्यां चराचरमिदं जगत् ॥ २७ ॥ सैव स्वां वेत्ति परमा तस्या नान्योऽस्ति चेदिता ।
सा तु कालात्मना सम्यक् मयैव ज्ञायते सदा ॥ २८ ॥
प्रथम पटल
स्वयम्भू ब्रह्मा ने परतत्त्व से जिज्ञासा की - ‘हम समस्त देवगण नित्य हैं
अथवा अनित्य; हमारा स्वरूप क्या है ? किस निमित्त उत्पन्न किये गये हैं । हम लोगों का उपादान क्या है; हम उत्पन्न हुए हैं’ ?
कारण द्वारा हमलोग
किस व्यापार के लिए
आगम समुच्चय - २
सम्पूर्ण प्रश्नों के उत्तर में परज्योति परमेश्वर ने
‘प्रमिताक्षर " प्रकृति, पुरुष, काल तथा ‘ह’ कार इनके
७६
कहा कि तुम लोग
समुदित रूप अक्षर तत्त्व से उत्पन्न हुए हो । सृष्टि, स्थिति और अन्त ही तुम्हारा कार्य है । प्रकृति आदि से तुम्हारी उत्पत्ति एवं उन्हीं में लय होता है। ह्रीं अथवा प्रणवात्मक मूलवर्ण २ तथा उसकी स्वरात्मक विकृतियाँ, स्वर रूप विकारों की भी ‘क’ से लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त विक्रियाएँ उन वर्णों से निष्पन्न अनेक मन्त्र तथा वैदिक और तांत्रिक नानाविध प्रयोग में ‘ह’ इस वर्ण के अतिरिक्त और कुछ नहीं । ‘ह’ यह वर्ण अकार और हकारात्मक है । प्रत्याहार की रीति से ‘अ’ और ‘ह’ इन आदिम और अन्त्य ‘अह’ स्वरूप दोनों वर्णों में नाद और अकार, बुद्धि तथा प्राण, ज्ञान तथा क्रियाशक्ति, प्रकाश और विमर्श, चित् और आनन्द रूप से सम्पूर्ण वर्णों का अनुगमन होने से समस्त शब्दार्थ- समष्ट्यात्मक परावाग् उ रूपता सिद्ध है । इस प्रकार उन दोनों वर्णों के सर्वा- त्मस्वरूप होने के कारण उनमें प्रकृति, पुरुष और कालात्मता एवं नित्यता भी समझना चाहिए । वस्तुतः हकार वर्णमात्र नहीं है वह सम्पूर्ण मातृका ही है । यही वर्णान्तरों से हकार की विशेषता है और यही परावाक् भी है । यह हकारात्मिका मन्त्रदेवता स्थूल, सूक्ष्म, कारण, सामान्य और साक्षी रूप से पाँच प्रकार का है । पूर्वोक्त नाद, बुद्धि, ज्ञानशक्ति, विमर्श और चित् ये अकार
१. प्रकर्षेण मीयते ज्ञायते, मिनोति जानाति प्रमिनोति परिच्छिनत्तीति क्रमेण प्रकृतिपुरुष कालाः प्रमिताः । प्रमितानां वाचकमक्षरं तदभिन्नं प्रमिता- क्षरं परा वाक् । सतत्त्वहकारमित्यर्थः ।
प्रपञ्चसारविवरण, प्रथम पटल, पृ० १० २. मूलाशब्देन प्रणवो वा विवक्षितः । तदुक्तं – मूलार्णमिति - प्रणवशक्ति- वाचकपक्षाविति ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ३९७
३. हकारी हि अकारहका रात्मा । तयोश्राद्यन्ताक्षरयोः प्रत्याहार ग्रहण- न्यायेन गृहीतेतरवर्णयोः नादाकाररूपेण बुद्धिप्राणरूपेण ज्ञानक्रियाशक्तिरूपेण वा सर्ववर्णाद्यनुगमात् सर्वशब्दार्थ समष्ट्यात्मकपरावागात्मत्वेन सर्वात्मत्वात् प्रकृति- पुरुषकालात्मत्वं नित्यत्वं चावगन्तव्यम् ।
प्रपञ्श्वसारविवरण, पृ० १०-११
४. हकारात्मिकाया मन्त्रदेवतायाः स्थूलसूक्ष्मादिपञ्चविधात्मकत्वात् तदनु- रोधेनायं वाच्यवाचकपञ्चकोपन्यासः । नादबुद्धिज्ञानशक्तिविमर्श चितोका रहका- रयोः स्थूलाद्यंशेषु क्रमेण वाचकांशा इतरे वाच्यांशा इत्यवसेयम् ।
८०
और हकार के अन्तर्गत स्थल सूक्ष्म पञ्चकात्मक वाचकांश है । अकार, प्राण, क्रियाशक्ति, प्रकाश और आनन्द ये वाच्यांश हैं ।
ऊपर वाचकात्मक अक्षरतत्त्व की चर्चा हुई । वाच्यात्मक अक्षरतत्त्व में परापररूप से द्विधा भिन्न पुरुष, प्रकृति और काल आते हैं । यह अक्षर प्रकृति, अणु, मध्य और स्थूल चराचर में व्याप्त है । आदित्यादि’ ज्योतियों, श्वेत रक्त आदि विषयों, सत्त्वादि गुणों, स्थूल भूतों तथा इन्द्रिय अन्तःकरण,
}
प्राण एवं सप्तधातुओं में ओत-प्रोत है । देशिकों द्वारा दिखाए गये उपायों द्वारा अपर प्रकृति की साक्षीस्वरूप इस निर्विशेष प्रकृति का ज्ञान होता है । इस स्वात्मप्रत्यक्ष रूप पराप्रकृति के उपलब्ध हो जाने पर आकाश अर्थात् सम्पूर्ण कार्य वर्ग और तम - कारणात्मक जड़ रूप अपरा प्रकृति ये नहीं दिखाई देते । यह प्रकृति, पुरुष और नपुंसक में समान तथा स्त्रियों में प्रसवधर्मी होने के कारण विशेष रूप से देखी जाती है । जिसे प्रधान और शक्ति शब्द के द्वारा कहा जाता है; जो मुझसे व्याप्त होकर जगत् कारणभूत तुम लोगों को भी ग्रास कर जाती है वह मैं हूँ; तुम लोग भी उसी में कार्य रूप से कल्पित हो । समग्र चराचर जगत एवं अणु आदि अखिल पदार्थ उसी के रूप हैं ।
सर्वेश्वर ही आद्य पुरुष है, वह अपने ज्ञातृत्व के अङ्ग रूप अचिदंश से विशिष्ट रहता है । याथात्म्य रूप से उसके स्वरूप का निरूपण करने पर तद्- और स्वसंवेद्यात्मकता एवं उसके द्वारा वेद्य अचिद्रप
गत सारभूत चिद्रूपता
उसमें चिद्रूप ही
की उपलब्धि होती है । स्वरूप अचित् रूप अपर पुरुष कहा गया है ।
परपुरुष है । उसके प्रतिबिम्ब- सर्वेश्वर में अपर पुरुषता भी विद्यमान रहती है । पर पुरुष अपर पुरुष का साक्षी है । अपर पुरुषांश रहता है ।
ब्रह्मादिकों में भी
" प्रलय दशा में प्रणवात्मिका परा प्रकृति में सम्पूर्ण वाच्यवाचकात्मक
१. अधिज्योतिषमधिविषयमधिगुणमधिभूतमध्यात्मं च क्रमेण व्याप्तिमाह आदित्येत्यादिना ।
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ३९८ २. प्रथितं त्रयमकारादित्रयेणाति । ततो बिन्दुकलानिरोधिका रूपमन- आदिकं निबिड तेजोरूपमत्ति । ततो नादनादान्तरूपां प्रमामत्तीति प्रधानम् ।
प्र० सा० त० विवरण, पृ० १४
३. सर्वेश्वरस्तावदाद्यः पुरुषः स च निजवेदितृत्वाङ्गभूताचि दंशविशिष्ट एव । तत्स्वरूपे च याथात्म्यतो निरूप्यमाणे तद्गतं सारभूतं चिद्रूपं स्वसंवे- द्यलक्षणं तद्वेद्यमचिद्रूपं चावसीयते । तत्र चिद्रूपमिह परः पुरुषः । तत्प्रतिबिम्ब- लक्षणमचिद्रूपमपरः पुरुषः । सर्वेश्वरे चापरपुरुषसद्भावेऽपि तस्य साक्षितयैवेह विवक्षितत्वात् ब्रह्मादिष्वेव परपुरुषांशो दर्शयितव्यः ।
प्र० क्र० दीपिका, पृ० ४००
आगम समुच्चय - २
८१
चराचर जगत् उपसंहृत होता है । पूर्वोक्त स्वसंवेद्य रूप वही परम साक्षि लक्षण परा प्रकृति अपनी अपरा शक्ति को जानती है ।”
" उस समय बुद्धि आदि अन्य ज्ञाताओं की उपस्थिति नहीं रहती । वह प्रकृति मुझ कालात्मा - ज्ञानात्मा द्वारा सम्यक् - साक्षीरूप से अव्यवहिततया, तीनों कालों में जानी जाती है ।”
पूर्वोक्त समग्र विवृति को लक्ष्य में रखकर आचार्य शङ्कर ने तृतीय पटल के अन्त में कहा है-
पूर्वोक्ताबिन्दुमात्रात् स्वयमथ रवतन्मात्रतामभ्युपेता-
कारादीन् द्वयष्टकादीनपि तदनुगतान् पञ्चविशत्तथैव ।
।
यादीन् संयुक्तधातूनपि गुणसहितैः पञ्चभूतैश्च ताभि- स्तन्मात्राभिर्व्यतीत्य प्रकृतिरथ हसंज्ञा भवेद्वयाप्य विश्वम् ॥ ७५ ॥
प्रपञ्चसारतन्त्र
निस्तरङ्ग तत्त्वसंज्ञाख्य प्रकृति’ स्वयं ही बिन्दुतत्त्व द्वारा रवतन्मात्रता अर्थात् शब्दब्रह्मात्मकता को प्राप्त होकर अकारादि सोलह स्वरों तथा तदनुगत ककारादि पचीस व्यञ्जनों एवं गुण सहित तन्मात्राओं से युक्त पश्च- भूतों के साथ यकारादि संयुक्त धातुओं का रूप ग्रहण करती है । अनन्तर वाच्य- वाचकात्मक उभयविध सम्पूर्ण कार्यपरम्परा को अपने स्वरूप में उपसंहृत करके विश्व अर्थात् सर्वात्मक ब्रह्म के साथ अभिन्न होकर ‘ह’ वर्ण जिसका वाचक है ऐसी हसंज्ञाख्य प्रकृति ही शेष रहती है । इसी के सम्बन्ध में कहा गया है-
ર
जिसका ज्ञान हो जाने पर सम्पूर्ण पूर्वजन्मार्जित शुभ, अशुभ और मिश्र कर्मों का बन्धन छूट जाता है तथा साधक, विष्णु के परमपद – चिदानन्दैकरस, अमृत, अभय, परब्रह्म परदेवतादिपदवाच्य स्थान को प्राप्त कर लेता है उसी सकल चराचर जगत की आत्मस्वरूप, चिन्मात्र, पराप्रकृति,
१. क्रियाशक्तिप्रधानायाः
प्रकृते बिन्दुरूपिण्या:
शब्दशब्दार्थकारणम् ।
शब्दब्रह्माभवत्परम् ॥
पदार्थादर्श में उद्धृत, पृ० १९
२. विश्वस्य जगतो हलक्षणादुत्पत्तिः तत्र स्थितिः तस्मिन्नेव च प्रलय इत्येतत्तावदेवं व्यवस्थितम् । तथा च सत्यस्य प्रकृतस्य परावात्तदर्थात्मकस्य हस्याक्षरस्य शक्तित्वमिष्यत इति तदक्षरार्थः ।
६ म० मा०
प्रयोगक्रमदीपिका, पृ० ४६१, चतुर्थ पटल
८२
हृल्लेखा का सामान्य एवं विशेष रूप में जप एवं अर्चन करना चाहिए-
यां ज्ञात्वा सकलमपास्य कर्मबन्धं
तद्विष्णोः परमपदं प्रयाति लोकः ।
तामेतां त्रिजगति जन्तुजीवभूतां
हृल्लेखां जपत च नित्यमचयीत ॥ ७६ ॥
प्रपञ्चसार०, पटल ४
परा प्रकृतिसम्बन्धी विशेषविवरण ‘प्रकृति स्तोत्र’ नामक मनोरम स्तुति में किया गया है । यह सम्पूर्ण स्तोत्र इसी शोध-ग्रन्थ के परिशिष्ट में उद्धृत है । प्रपञ्चसारतन्त्र तथा शारदातिलकतन्त्र के मङ्गलाचरण २ श्लोक तथा उनकी व्याख्या भी प्रकृति सम्बन्धी ज्ञान के लिए द्रष्टव्य है ।
काश्मीरिक शिवाद्वयवाद में प्रकृति निम्नस्तरीयतत्त्व है उससे ऊपर माया तत्त्व की अवस्थिति है । शक्तितत्त्व उससे कहीं श्रेष्ठ है । यह सब होते हुए भी तन्त्रों में प्रकृति और माया को सर्वोच्च शक्ति के पर्यायरूप में स्वीकार किया गया है । प्रकृति के रूपों एवं स्वरूप की चर्चा ऊपर की जा चुकी है ।
वेदान्त के अनुसार माया, चिद्रूप परब्रह्म की अनिर्वचनीय शक्ति है ! वह
१. हुल्लेखा का सामान्यस्वरूप परसंविन्मय परा प्रकृति है और विशेष ‘ह्रीं’ के नाम से उल्लिखित हुआ है । द्रष्टव्य प्रपञ्वसारतन्त्र, एकादश पटल ।
२. अकचटतपयाद्यैः सप्तभिर्वर्णवर्गे-
विरचितमुखबाहापादमध्याख्यहुत्का । सकलजगदधीशा शाश्वता विश्वयोनि- वितरतु परिशुद्धि चेतसः शारदा वः ।। १ ।।
नित्यानन्दवपुनिरन्तर गलत्पञ्चाशदर्णैः क्रमाद्
प्रपञ्चसारतन्त्र, प्रथम पटल
व्याप्तं येन चराचरात्मकमिदं शब्दार्थरूपं जगत् ।
शब्दब्रह्म यदूचिरे सुकृतिनश्चैतन्यमन्तर्गतं
तद्वोऽव्यादनिशं शशाङ्कसदनं वाचामधीशं महः ॥ १ ॥
शारदातिलकतन्त्र
३. औपनिषदानां पक्षस्तु परस्य चिद्रूपस्य ब्रह्मण: शक्तिर्मायाख्या । सा
I
च जडैव । सैव च जगतः परिणाम्युपादानम् । परं ब्रह्म तु विवर्तोपादानम् । अत एव जगतोऽपि मायिकत्वात् जडत्वं मिथ्यात्वं च । अद्वैतश्रुतयस्तु पारमार्थिक- व्यक्तिरेकं वेत्येवम्पराः । सर्वं ब्रह्मेति सामानाधिकरण्यं तु बाधायामित्यादिः ।
आगम समुच्चय- २
८३
मायातत्त्व जड तथा जगत् का परिणामी उपादान है । परब्रह्म विवर्तोपादान है । अत: संसार मायिक होने के कारण जड और मिथ्या है ।
तान्त्रिकों के मत में परचित्तत्त्व में अवस्थित चित्शक्ति ही अनन्त रूप होने के कारण माया के नाम से कही जाती है । उसका परिणाम ही प्रपञ्च है अतः वह भी चिद्रूप ही है और सत्य भी !
शास्त्रों में माया, महामाया, योगमाया, आत्मामाया’ आदि शब्द मिलते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि माया ? अपर शक्ति है, महामाया भेदाभेदनिष्ठ ज्ञान
२
तान्त्रिकाणां पक्षस्तु – परचिन्निष्ठा या चिच्छक्तिरौपनिषदानामपि सम्मता संवानन्तरूपत्वान्मायेत्युच्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते । माया चाविद्या च स्वयमेव भवतीत्यादि श्रुतेः । तत्परिणाम एव प्रपञ्चः । अत एव च चिद्रूपः । चिद्विलासः प्रपञ्चोऽयमिति ज्ञानवाशिष्ठात् । अत एव च सत्योऽपि । सर्वं ब्रह्मेति सामानाधिकरण्यस्यात्यन्ताभेद एव स्वारस्यात् । नचाद्वैतश्रुतिविरोधः । विरोधा- पादकस्यैकस्य भेदस्यैव मिथ्यात्वाङ्गीकारादित्यादिः । प्रकृतिश्च प्रतिज्ञा- दृष्टान्तानुपरोधात् । आत्मकृतेः परिणामात् । ’ ’ तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्य’ इत्यादि वैयासिकसूत्राणामप्यस्मिन्नेवार्थे स्वरप्स इति स्पष्टमेव ।
सेतुबन्ध, पृ० १३५
१. यत आत्ममायया योगप्रज्ञया स्वस्वातन्त्र्यशक्त्या, न कर्मभिः ।
अभिनवगुप्तकृत गीतार्थसंग्रह, अ० ४, श्लोक ८
२. स्वतन्त्रस्य तगवतो या परमभूमाविच्छा ऐश्वर्यशक्तिरुच्यते, सैव श्री- सदाशिवेश्वरदशायां परापरभुवि प्रसृत्य विभागेन ज्ञानं क्रिया च इति भेदा- भेदनिष्ठेन वपुषा विजृम्भते, अपरभूमौ तु ते एव भेदपर्यवसिते मायाशक्तित्वेन निरूप्येते इति । ई० प्र० वि० वि०, अ० १ वि० ६, पृ० २९४-९५
स्वातन्त्र्यात्मिका तावदिच्छेव भगवतः शक्तिः । सा तु कृत्यभेदेन बहुधा उपचर्यते । तत्र यथाप्ररूढस्फुटास्फुटे दन्ताप्रकाशने सदाशिवेश्वरता ज्ञानक्रिया- शक्तिरूपा, चिन्मात्रग्राहकत्वेऽपि इदन्ताप्ररूढौ क्रियाशक्तिशेषरूपैव महामाया विद्येशशक्तिः ग्राह्यग्राहकविपर्यासे पशुप्रमातृषु मायाशक्तिः ।
ई० प्र० वि० वि०, अ० ३, वि० १, पृ० २७७
प्रकाशो हि स्वस्वभावभूतं स्वात्मविश्रान्तं पराप्रकृतिस्वातन्त्र्यमायाविद्या-
दिशब्द राग भिकैर्व्यवह्रियमाणं जगद्बीजभूतं विमर्शम् ।
मातृकाचक्रविवेक, प्र० ख०, का० ९ की टीका ।
८४
क्रियात्मक परापरशक्ति है और आत्ममाया अथवा योगमाया स्वातन्त्र्यात्मक इच्छा अथवा ऐश्वर्यमयी पराशक्ति है । माया को पराशक्ति के रूप में तान्त्रिक परम्परा में उपचारत: ग्रहण किया जाता है । यह पराशक्ति ही महामन्त्ररूप मातृकाशक्ति है । मातृका के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन अगले अध्यायों में किया जायगा ।