प्रथम अध्याय
आगम और तन्त्र – ये दोनों शब्द सामान्यतया पर्याय रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं । दार्शनिकों की प्रस्थान परम्परा के अन्तर्गत प्रमाणों की परिगणना के प्रसङ्ग में आगम का आप्तोपदेश के रूप में न केवल उल्लेख हुआ है अपितु अनिवार्य स्वीकृति भी देखी जाती है । शास्त्रात्मक आगम और प्रकृत प्रबन्ध के आधारभूत आगम अथवा तन्त्र के बीच कोई मौलिक पार्थक्य है ऐसी बात नहीं । हाँ, सामान्य विशेषात्मकता का अन्तर अवश्य किया जा सकता है । ‘आगम’ की व्याख्या चार’ प्रकार से सम्भव है
१. आप्तोपदेशात्मक आगम ।
२. अनिबद्धप्रसिद्धि रूप आगम । ३. निबद्धप्रसिद्धि रूप आगम ।
४. प्रतिभात्मक आगम ।
सामान्य जनों की प्रज्ञा, मलिन मान्यताओं एवं पक्षपात से संवलित होने के कारण जनता के जीवन में प्रमाण रूप से उपारूढ़ नहीं होती है किन्तु वक्तव्य वस्तु का जिसे निर्बाध एवं पूर्ण बोध है उस आप्त के उपदेश की प्रामाणिकता के प्रति किसी को सन्देह नहीं होता । पृथक्-पृथक् प्रसिद्धियों के सम्बन्ध में पृकक् पृथक् आप्तता देखी जाती है । पाणिनि’ और वररुचि आदिकों की आप्तता
१. एवं प्रतिभारूपेण निबद्धानिबद्धप्रसिद्ध्यात्मना च त्रिविधमागमं प्रदर्श्य रूपान्तरमपि अस्य दर्शयति ‘अन्योऽपि’ इति । एतासु तिसृषु प्रसिद्धिषु प्रमाणा- न्तरमूलत्वं न अन्वेष्यम्, आप्तवादे तु तदन्वेषणीयमेव । आप्तिर्वक्तव्ये वस्तुन्यधि- गतिस्ततश्च वक्तव्यवस्त्वधिगतिः, सा विद्यते यस्य स आप्तः ।
}
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी, अ० २, वि० ३, पृ० १०२
२. तथा हि पाणिनिवररुचिप्रभृतेर्व्याकरणे, आप्तता प्रसिद्धा, न अक्षपादादेः । पुरुषासवादेन तु लोकाप्तवादपरिग्रहः - तदाह चरणाप्तवाद इति । अयं च आप्तवादः पूर्वोक्तमागमभेदं यथायोगं व्याख्यानादिद्वारेणानुगृह्णाति । तत एव सर्व आगम आप्तोपदेशशब्देन भगवत्पतञ्जलिप्रभृतिभिः संगृहीतः
ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृतिविमर्शिनी, अ० २, वि०३, पृ० १०३
४
व्याकरण में प्रसिद्ध है किन्तु अक्षपादादिकों की नहीं । ज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं में इस प्रकार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की आप्तता प्रसिद्ध है । यही चरणाप्तवाद अथवा शास्त्राप्तवाद है । पुरुषाप्त की व्याख्यागत उपलब्धियों को जब लोक में पूर्ण समादर प्राप्त हो जाता है तब पुरुषाप्तवाद ही लोकाप्तवाद के रूप में परिणत हो जाता है । ‘आगम’ शब्द के मूल में ‘परम्पराख्याति’ की प्रधानता है । आप्त इसीलिए आप्त ( प्राप्त ) है क्योंकि वह इस परम्परागत वस्तुतथ्य को, जो कालवश उच्छिन्न हो गया था, हृदयङ्गम करके जन-जीवन के बीच प्रकट करता है ।
प्रसिद्धि अथवा निरूढ़ि ही ‘परम्परा’ की उपनिषद् है जो ‘आगम’ की आख्या को उपलब्ध कर सकी है । यह प्रसिद्धि’ विशिष्ट वाक्यरचनाओं के रूप में निबद्ध अथवा महाजनों के अनुष्ठानों में अनिबद्ध रूप में देखी जाती है । इन सबका आदिम स्रोत है प्रतिभात्मक आगम अथवा परशक्ति या विमर्श—
प्रतिभानलक्षणा इयं शब्दभावनाख्य आगम एवेति ।
ई० प्र० वि० वि०, पृ० ९३
इसी का स्पष्टीकरण स्वच्छन्दतन्त्र में मिलता है
अदृष्टविग्रहात् शान्ताच्छिवात्परमकारणात् । ध्वनिरूपं विनिष्क्रान्तं शास्त्रं परमदुर्लभम् ॥ अमूर्ताद् गगनाद्यद्वन्निर्घातो जायते महान् । शान्तात्संविन्मयात् तद्वच्छब्दाख्यं शास्त्रम् ॥”
ई० प्र० विवृतिविमर्शिनी, पृ० ९७ में उद्धृत
‘आगमो ज्ञानमित्युक्तमनन्ताः शास्त्रकोटयः । ३४० ।
स्वच्छन्दतन्त्र, पटल ४
वस्तुतः परमेश्वर के रूप का पूर्णतया, अभेद रूप से विमर्शन करने वाली परशक्ति ही आगम है और उस तत्त्व का प्रतिपादक शब्द सन्दर्भ भी । आगम की यह परा कोटि है, भिन्न-भिन्न आगमों का उद्भव यहीं से होता है । समग्र
१. निबद्धः इति विशिष्टवाक्यरचनाभिः । ई० प्र० वि० वि०, पृ० १०० अनिबद्धापि इति -महाजनानुष्ठानशेषतयैव स्थिता । वही, पृ० १०१
२. आसमन्तात् गमयति अभेदेन विमृशति पारमेशं स्वरूपमिति कृत्वा परशक्तिरेवागमः तत्प्रतिपादकस्तु शब्दसन्दर्भः तदुपायत्वात् शास्त्रस्य ।
स्वच्छन्दोद्योत, पटल ४, पृ. २१४
१
विषय-प्रवेश
आगम अनादि हैं । जिसके हृदय में जिस सिद्धान्त की निरूढ़ि हो गई उसके लिए वही आगम है । ’ दृढ़ विमर्श रूपं शब्दनमागम:, आसमन्तादर्थं गमयतीति ( ई० प्र० वि० वि०, पृ० ८५, अ० २, वि० ३) । प्रतीति या ज्ञान विशेष की निरूढ़ि ही दृढ़ता है । दृढ़तापूर्वक विमर्श स्वाधिकृत आगम का अभ्यास है, जो उसे प्रतीति के अनुरूप बनाने में समर्थ होता है अर्थात् जो जैसा होने की भावना करता है वह वैसा ही हो जाता है । ‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषः ’ ( गीता, अ० १७, श्लोक ३ ) आदि से इसी बात को स्पष्ट किया गया है ।
મ
आगमों की भिन्नता नियत अधिकारी तथा देश, काल, दशा, सहकारी आदि के विचार से होती है ।
बौद्ध एवं कापिलादि आगमों की अनादिता में भी कोई सन्देह नहीं है । क्योंकि भावना के बल से प्राप्त क्षणिकता रूप विमर्श वाला व्यक्ति ही तो बुद्ध है । और उसे क्षणिकादि भावना का उपदेश देने वाला गुरु है पूर्व बुद्ध, उसका भी कोई अन्य उपदेष्टा है— इस प्रकार यह अनियतवक्तृता पारमेश्वर विमर्श या प्रतिभात्मक आगम में पर्यवसित हो जाती है । यही दशा चौबीस तत्त्वों की भावना से भावित कपिल की भी समझनी चाहिए । इसलिए सभी आगम
१. सर्वथा अनुमाने न आश्वासितव्यम् । अपि तु आगम एव, स च यो यस्य हृदये निरूढिमुपगतः स एव । ननु एवं यस्य न किञ्चिन्निरूढं, तस्य किम् । ननु एवं यस्य चक्षुषी न स्तः, तस्य किम् ?
}
1
ई० प्र० वि० वि० अ० २, वि० ३, पृ० ९६ २. प्रतीतेनिरूढिदृढता । शब्दनरूपत्वं विमर्शनं यदान्तरं चित्स्वभावस्य अन्तरङ्गं रूपं प्रत्यक्षादेरपि जीवितकल्पं तेन यद्विमृष्टं तत्तथैव भवति इति नात्र विवादो यथा गरुड़ एवं अहं क्रीडामि पन्नगैर्विषममृतीकरोमि इति । तथा च आहु:—- ‘आत्मानं यादृशं योऽत्र भावयेत्तादृशो ह्यसौ ।’ ‘आत्मानं यादृशं वेद देवा एनं तथा विदुः ।’ इति च । ततः स एव विमर्श आगम इति उच्यते मुख्यतया, तदुपयोगितया तु उपचारेण तज्जनकोऽपि शब्दराशि: ।
ई० प्र० वि० वि०, अ० २, वि० ३, पृ० ९६
३. सर्व एव हि आगमो नियताधिकारिदेशकालदशा सहकारिप्रभृतीनामृश्य विधिनिषेधादिविमर्शमयः । ततश्च कश्चित् पुरुषः कश्विदेव देवसिद्धाद्यन्यतम- करणीयोचितविमर्श स्वात्मसंयोजनेन विमृशन् भगवता सृष्टः, अन्यस्तु अन्यं विमर्शमिति । दृढनिरूढिरेव च तत्तदधिकारिलक्षणं मुख्यमिति दर्शितं श्रुत्यैव- ‘यश्चैनमेवं वेद’ इति, ‘विद्वान् यजेत् इति’ । तदर्थमेव च उक्तं - श्रद्धामयोऽयं पुरुषः इत्यादि ।
वही, पृ० ८५६
अनादि ’ हैं । वेद २, शैव-वैष्णव आदि आगमों का जो विमृश्यमान अर्थ अनुष्ठान द्वारा प्रसिद्ध है वह अमुक के द्वारा उक्त है, व्यक्ति विशेष के द्वारा उत्पादित है, इस काल से लेकर ही प्रवृत्त हुआ है - इस प्रकार परिच्छिन्न नहीं किया जा सकता । वहाँ अनवच्छिन्न प्रकाशधर्मक परमेश्वर ही विमर्श रूप से विद्यमान रहता है अतः अनादिता भी अबाधित है । कठ आदिकों, भार्गव, मतङ्गप्रमुखों एवं नारद प्रभृति द्वारा प्रसिद्ध अनादि अनुष्ठान ही, समास एवं व्यास रूप में उपकल्पित वाक्य-योजनाओं द्वारा शब्दरूप में निबद्ध 3 किया जाता है ।
वेद भी एक प्रकार का आगम ही है जो सम्पूर्ण आगमों का अविसंवादी है-
नुमस्त्वां ऋग्यजुःसाम्नां शक्रतः परतः परम् । यस्य वेदात्मिक ज्ञेयमहो
गम्भीरसुन्दरी ॥
स्तवचिन्तामणि ६९
इच्छादि तीनों शक्तियों से युक्त, ऋगादि वेदों की शुक्र अथवा वीर्य या सार रूप तीनों वाणियों से परे, परशक्तिरूप आनन्दधाम है। उससे भी परे, समस्त शक्तियों की प्रतिष्ठा रूप परम शक्ति का विश्राम पद है; जिसकी गाम्भीर्य और सौन्दर्य की अतिशय रूप आज्ञा है - अध्यात्म, अधिभूत और अधिदेवादि सहस्त्रों विषयों से सगर्भ वेदागम ।
४
१. न हि बुद्धो नाम नियतः कश्चित् अपि तु भावनाबलप्रतिलब्धक्षणिकादि- दृढविमर्श: । तस्य क्षणिकादिभावनोपदेशी गुरुः पूर्वबुद्धः तस्यापि अन्य :- इति क्रमेण अनियतवक्तृकत्वात् पारमेश्वरविमर्शमयतैव वस्तुतः । एवं चतुवशिति तत्वभावभावनाभावितः कपिलो मन्तव्यः अत एव सर्वागमा अनादय एव ।
- ई० प्र० वि० वि०, पृ० ९७
२. वेदशैव वैष्णवादीनां हि योऽर्थो विमृश्यमान: परस्परानुष्ठानेन प्रसिद्धः, सोऽनेनैव उक्तः, अनेनैव उत्पादितः, अमुष्मात् कालादारभ्यैव प्रवृत्त इति न अवच्छेद भागिति अनवच्छिन्नप्रकाशधर्मो विमर्शात्मा परमेश्वर एवेति अनादि- त्वमेव तत्र ।
वही, पृ० ९२
३. द्रष्टव्य ई० प्र० वि० वि०, पृ० ९२
४. ऋगादीनां शुक्रं सारं वीर्यं वाक्त्रयं पूर्वं व्याख्यातमिच्छादिशक्तित्रयमयं ततो यत्परं परशक्त्यात्मकमानन्दधाम, ततः परं समस्तशक्तिप्रतिष्ठारूपपरम- शक्तिविश्रान्तिधाम; तत् नुमः । अहो इति गाम्भीर्यस्य सौन्दर्यस्य च अतिशयं द्योतयन् अध्यात्माधिभूताधिदेवादिविषयार्थं सहस्रगर्भत्वमाचक्षाणः सर्वागमावि - संवादितां वेदागमस्य आह ।
ई० प्र० वि० वि०, पृ० ९९
विषय-प्रवेश
वेद सामान्यता निगम के नाम से विख्यात है । शब्दब्रह्मविद् महावैया- करण भर्तृहरि ने कहा है – कोई भी आगमों को अकर्तृक नहीं मानता । त्रयी अर्थात् वेद ही आगमों का मूल है । पूर्वागमों के उच्छिन्न हो जाने पर वेद में ही बीज रूप से सन्निविष्ट रहने के कारण उन्हीं के आधार पर आगमान्तरों का निबन्धन किया जाता है । अत: उनकी ( आगमों की ) भी प्रवाह से अनादिता ’ सिद्ध होती है-
न जात्वकर्तृकं कश्चिदागमं बीजं सर्वागमापाये त्रय्येवादौ
प्रतिपद्यते । व्यवस्थिता ॥ १३४ ॥
वाक्यपदीय, प्र० का०
पूर्वोक्त विवेचना द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि आगम का ‘परम्परा प्राप्त’ ही मौलिक अर्थ है । परम्परा का भी स्रोत वेद या निगम है । भर्तृहरि के मत में आगम और स्मृति में कोई अन्तर नहीं । आगम की रहस्यमयता के सम्बन्ध में निम्नांकित विवरण अधिक उपादेय होगा :
निगम अथवा वेद में सूर्य मुख्य है। सूर्य को त्रयी
- वेदत्रय का रूप ही बताया गया है । आगम में वही बिन्दु, प्रकृति अथवा
शब्दब्रह्म के रूप में प्रसिद्ध है । शब्दब्रह्म के वाच्य तत्त्व सदाशिव अथवा पञ्चमुख महेश्वर को वैदिक ‘आदित्य’ में देखा जा सकता है । छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है-
आदित्य देवमधु है, द्युलोक उसका तिरछा बांस है, अन्तरिक्ष मधुमक्षि-
१. तानि पूर्वागमेषु विच्छिन्नेषु अन्येषु प्रणेतृषु आगमान्तरानुसन्धाने बीज - वदवतिष्ठन्ते । तान्येव बीजान्यासाद्य पुनः प्रणेतृभिरागमा निबध्यन्ते इति प्रवाहानादित्वं सिद्धमिति नागमा आप्रमाणमिति भावः ।
वाक्यपदीय टीका, पृ० ५१-५२
२. साधुत्वज्ञानविषया सैषा व्याकरणस्मृतिः । १४३ ब्रह्मकाण्ड ( वा०प०) यः पतञ्जलिशिष्येभ्यो भ्रष्टो व्याकरणागमः ४८८ द्वि० का० ( वा० प० ) स्मृतो ह्यर्थः पारम्पर्यादविच्छेदेन पुनः पुनर्निबध्यत इति अनादिरागममूला चेयमपि स्मृतिः ।
वा० प० टीका, प्र० का०, पृ० ५५
३. संषा त्रयी एव विद्या तपति । शतपथ ब्रा० १०।५।२।२
४. असौ वा आदित्यो देवमधु, तस्य द्यौरेव तिरश्चीन वंशोऽन्तरीक्षम् अपूपः मरीचयः पुत्राः ।
तस्य ये प्राञ्चो रश्मयः ता एवास्य प्राच्यो मधुनाड्यः ।
छा० उ०, ३19
ऋच एव मधुकृतः, ऋग्वेद एव पुष्पं ता अमृता आपः । ३।२
अथ येऽस्य दक्षिणा रश्मयस्ता एवास्य दक्षिणा मधुनाड्यः यजूंष्येव मधु-
कृतो यजुर्वेद एव पुष्पम् ।
३।२।१
ሪ
काओं का छत्ता है, किरणें बच्चे हैं । आदित्य के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं की किरणों से क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं इतिहास पुराणात्मक पुष्प रस प्रवाहित होता है । ऊर्ध्वगत रश्मियों से गुह्य आदेशात्मक मधुकर एवं ब्रह्म (प्रणव) तत्त्वात्मक पुष्प का रस प्रवाहित होता है । आदित्य के पूर्वादि मुखों को अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम और ब्रह्मा के नाम से कहा गया है। ये अग्नि आदि सदाशिव के सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव, अघोर और ईशान ’ मुख हैं । आदित्य अथवा सदाशिव के ईशानात्मक ऊर्ध्वमुख से निर्गत गुह्य आदेश ही आगम है । यही बात स्वच्छन्द तन्त्र में भी कही गई है–
मन्त्राख्यं तु महाज्ञानमीशानात्तु विनिर्गतम् ॥४५॥
पटल ११
सद्योजातस्तु ऋग्वेदो वामदेवो यजुःस्मृतः । अघोरः सामवेदस्तु पुरुषोऽथर्व उच्यते ॥ ४२ ॥
ईशानश्च सुरश्रेष्ठः सर्वविद्यात्मकः स्मृतः ॥ ४३ ॥
पटल ११
साम्बपञ्चाशिका के सातवें तथा आठवें श्लोक में भी पूर्वोक्त विवृति का
संकेत निम्नांकित रूप में मिलता है.
–
सूर्यमण्डल में बिन्दु-
हृदय में ब्रह्माकार में अर्चिरादि पथ द्वारा
‘त्रिगुणवपु, सर्वज्ञ, अव्याकृत, जगत्कारणरूप जिस रूप शब्दब्रह्म सन्निविष्ट है । तथा जो उत्तम योगियों के परिणत बुद्धि वृत्ति के लिए, और मध्यम योगियों को ब्रह्मलोक पर्यन्त निर्वाण मार्ग के रूप में शोभित होता है, वेदत्रयी का आधार-
अथ येऽस्य प्रत्यञ्चो रश्मयः ता एवास्य प्रतीच्यो मधुनाड्यः सामान्येव मधुकृतः सामवेद एव पुष्पम् ।
अथ येऽस्योदञ्चो रश्मयः ता एवास्योदीच्यो मधुनाड्योऽथर्वाङ्गिरस एव मधुकृत: इतिहासपुराणं पुष्पम् । अथ येऽस्योर्वा रश्मयः ता एवास्योर्ध्वा
धुनायो गुह्या एवादेशा मधुकृतः ब्रह्मैव पुष्पम् ता अमृता आप ।
तद्यत् प्रथमं अमृतं तद् वसव उपजीव्यन्ति अग्निना मुखेन । अथ द्वितीयममृतं तद्रुद्रा उपजीव्यन्ति इन्द्रेण मुखेन । अथ यत् तृतीयममृतं तदादित्या उपजीव्यन्ति वरुणेन मुखेन । अथ यच्चतुर्थममृतं तन्मरुत उपजीव्यन्ति सोमेन मुखेन । अथ यत्पञ्चमममृतं तत्साध्या उपजीव्यन्ति ब्रह्मणा मुखेन ।
- छा० उ०, अ० ३, ख १-१०
–
१. द्रष्टव्य – ‘दि ऋग्वेदिक कल्चर आफ दि प्रिहिस्टारिक इण्डस '
- द्वि०
• ग्रन्थ, प० ११०
८
विषय-प्रवेश
भूत प्रणव ही जिसका सूक्ष्म मण्डल है, सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण में इन्द्रियों से अग्राह्य अतिसूक्ष्म रूप में वर्तमान तथा बाह्य आकाश में स्थूल और व्यापक रूप में अवस्थित उस सूर्यमण्डल की, अविद्या नाश के लिए, मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।’
‘देवगण, पितर तथा मनुष्यों द्वारा प्रतिदिन उपभुक्त होकर क्षीण चन्द्रमा, जिसमें प्रवेश करके पूर्णता लाभ करता है, तथा जिस मधुमय आदित्य में वेद, मधु मक्षिकाओं’ के सदृश शोभित होते हैं मैं उसी सूर्यमण्डल के मध्य में स्थित अमित आनन्दरूप अमृत के शरणापत्र होता हूँ ।’
वस्तुतः महेश्वर के वक्त्र से निर्गत, एवं गिरिजा के मुख में आगत ज्ञान को ‘आगम’ कहने में भी कोई अनुपपत्ति नहीं है । सदाशिव रूपी सूर्य के ऊ मुख से ज्ञान अहर्निश निर्गत हो रहा है । उसको ग्रहण करने के लिए तदनुरूप शक्ति की आवश्यकता होती है । यह गिरिजाख्य शक्ति किसी भाग्यशाली व्यक्ति के अन्तःकरण में जागरूक होकर उस ज्ञान-धारा को आत्मसात् करती है । अनन्तर उसी व्यक्ति को निमित्त बनाकर यह शक्ति उस माहेश्वर ज्ञान को वाक्यों में निबद्ध करती है । इस प्रकार का निबन्धन ही लोक में आगम के नाम से ख्यात होता है ।
भिन्न-भिन्न शास्त्रों के अतिरिक्त ‘आगम’ शब्द एक विशेष साहित्य के अर्थ में रूढ़ हो गया है । इस साहित्य में शुभागम पञ्चक तथा अट्ठाइस कामिक
१. यत्रारूढं त्रिगुणवपुषि ब्रह्म तबिन्दुरूपं
योगीन्द्राणां यदपि परमं भाति निर्वाणमार्गः । त्रय्याधारः प्रणव इति यन्मण्डलं चण्डरश्मे- रन्तः सूक्ष्मं बहिरपि बृहन्मुक्तये तत् प्रपद्ये ॥७॥ यस्मिन् सोमः सुरपितृनरैरन्वहं पीयमानः क्षीणः क्षीणः प्रविशति यतो वर्धते चापि भूयः । यस्मिन् वेदा मधुनि सरघाकारवद्भान्ति चाग्रे तच्चण्डांशोरमृतममितं मण्डलस्थं प्रपद्ये ॥ ८॥
२. आगतः शिववक्त्रेभ्यो गतश्च गिरिजानने । मग्नश्च हृदयाम्भोजे तस्मादागम उच्यते ।।
-साम्बपञ्चाशिका
- रुद्रयामल, वाचस्पत्यम्, में उद्धृत, पृ० ६१६
१०
आदि आगम प्रसिद्ध हैं । समय, मिश्र और कौल नामक तान्त्रिक मार्गों में शुभागम पञ्चक का स्थान समयमार्ग’ के अन्तर्गत है ।
}
१. वासिष्ठसंहिता, २ सनकसंहिता, ३. शुकसंहिता ४ सनन्दनसंहिता, ५. सनत्कुमारसंहिता - ये ही शुभागम के नाम से प्रसिद्ध हैं । आजकल ये ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं । सौन्दर्यलहरी के टीकाकार लक्ष्मीधर तथा भास्करराय ने इनको बहुशः उद्धृत किया है। इन संहिताओं में - षोडश नित्याओं, चक्रविद्या अथवा चन्द्रकलाविद्या एवं श्रीचक्र तथा षट्चक्रों का व्यापक वर्णन किया गया है । चन्द्रकला विद्या के अन्तर्गत वर्णमाला का भी रहस्यमय वर्णन मिलता है । समय मत की जानकारी के लिए - ’ तवाधारे मूले सह समयया लास्यपरया’ इस आनन्दलहरी के इकतालिसवें श्लोक की लक्ष्मीधरा व्याख्या देखना चाहिए । इसके अतिरिक्त ‘समयाचारतत्परा’ इस ललितासहस्रनाम के ८८ वें श्लोक पर सौभाग्यभास्कर द्रष्टव्य है । अट्ठाइस आगम निम्नांकित हैं -
।
१. अयं शुभागमपञ्चकनिरूपितो मार्गः वशिष्ठसनक शुकसनन्दन सनत्कुमार:- पञ्चभिः मुनिभिः प्रदर्शितः । अयनेव समयाचार इति व्यवह्रियते ।
- सौन्दर्यलहरी के ३१ वें श्लोक की लक्ष्मीधर कृत टीका
२. शरीरपक्षेऽपि कामिकागमे -
‘कामिकं पादकमलं योगजं गुल्फयोर्युगम् । पादद्वयाङ्गुलीरूपे कारणप्रसृताह्वये । अजिता जानुनोर्युग्मं दीप्तमूरुद्वयं विभोः । पृष्ठभागेऽशुमानस्य नाभिः श्रीसुप्रभेदकम् । विजयं जठरं प्राहुनिःश्वासं हृदयात्मकम् । स्वायम्भुवं स्तनद्वन्द्वमनलं वीरागमः कण्ठदेशो रुरुतन्त्रं
मुकुटं मुकुटं तन्त्रं बाहवो
लोचनत्रयम् ।
श्रुतिद्वयम् ॥
विमलागमः ।
चन्द्रज्ञानमुरः प्रोक्तं बिम्बं वदनपङ्कजम् । प्रोद्गीततन्त्रं रसना ललितं गण्डयोर्युगम् । सिद्धं ललाटफलकं सन्तानं कुण्डलद्वयम् । किरणं रत्नभूषा स्याद्वातुलं वसनात्मकम् । अङ्गोपाङ्गानि रोमाणि तन्त्राण्यन्यापि कृत्स्नशः । एवं तन्त्रात्मकं रूपं महादेव्या विचिन्तयेत् ।
- सौभाग्यभास्कर, पृ० ६८
विषय-प्रवेश
११
१. कामिक, २. योगज, ३. कारण, ४. प्रसृतागम, ५. अजितागम, ६. दीप्तागम, ७. अंशुमानागम, ८. सुप्रभेदागम, ९. विजयागम, १०. निःश्वासा- गम ११. स्वायम्भुवागम, १२ अनलागम, १३. वीरागम, १४. रौरवागम, १५. मुकुटागम, १६. विमलागम, १७. चन्द्रज्ञानागम, १८. बिम्बागम, १९. प्रोद्गीत, २०. ललितागम, २१. सिद्धागम, २२. सन्तानागम, २३, किरणा- गम, २४. वातुलागम । २५. सूक्ष्म, २६. सहस्र, २७. सर्वोत्तर, २८. परमेश्वर ।
कामिकागम में प्रारम्भिक चौबीस आगमों का ही उल्लेख है । किन्तु इनके अतिरिक्त अन्य भी आगम थे- इस बात का भी संकेत वहीं मिल जाता है । अप्पय दीक्षित’ ने ‘शिवार्चन चन्द्रिका’ में अट्ठाइस आगमों की श्लोक संख्या का वर्णन किया है । इससे इनकी संख्या का अट्ठाइस होना निश्चित प्रतीत होता है । इन आगम ग्रन्थों में विविध ज्ञान-विज्ञानात्मक सामग्री के अतिरिक्त ऐहिक एवं पारलौकिक अभ्युदय तथा निःश्रेयस के उपायों का वर्णन किया गया है । वाचस्पति मिश्र ने सम्भवतः इसी को लक्ष्य में रखकर तत्त्व- वैशारदी में कहा है- “आगच्छन्ति बुद्धिमारोहन्ति यस्मादभ्युदयनिःश्रेयसोपायाः स आगमः " ।
आचार्य अभिनवगुप्त ने तन्त्रलोक के प्रथम आह्निक में भी पूर्वोक्त अट्ठाइस आगमों का उल्लेख किया है-
दशाष्टादशवस्वष्टभिन्नं यच्छासनं विभोः ।
तत्सारं त्रिकशास्त्रं हि तत्सारं मालिनीमतम् ॥ १८ ॥
अर्थात् दश शिवागम, अट्ठारह रुद्रागम तथा चौसठ भैरव तन्त्रों के रूप में विभक्त परमेश्वर के शासन का सार ही त्रिकशास्त्र है; और उसका भी सारभूत मालिनीमत कहा जाता है ।
राजानकर जयरथ ने, इसी श्लोक की टीका करते हुए श्रीकण्ठी नामक
१. द्रष्टव्य भास्करी, तृतीय भाग, पृ० ७ की भूमिका - डा० के०सी०पाण्डेय २. एतच्च श्रीश्रीकण्ठ्यामभिधानपूर्वं विस्तरत उक्तं, तद्यथा-
‘स्रोतस्यूर्ध्व भवेज्ज्ञानं शिवरुद्राभिधं द्विधा ।
कामजं योगजं, चिन्त्यं मौकुटं चांशुमत्पुनः । दीप्त….
…. न्तरं पुनः । शिवभेदाः समाख्याता रुद्रभेदास्त्विमाञ्छृणु । विजयं चैव निःश्वासं मद्गीतं पारमेश्वरम् । मुखबिम्बं च सिद्धं च सन्तानं नारसिंहकम् ।
१२
किसी पुरातन ग्रन्थ से आठ द्वैतवादी, अट्ठारह द्वैताद्वैतवादी, एवं चौसठ अद्वैतवादी तन्त्रों को उद्धृत किया है ।
तन्त्र शब्द का प्रयोग आयुर्वेद, मीमांसा, तथा सांख्यादि शास्त्रों के अर्थ में भी हुआ है । ’ ब्रह्मयामल’ के-
तन्त्रकृत्तन्त्रसम्पूज्या तन्त्रेशी तन्त्रसम्मता ।
तन्त्रेशा तन्त्रवित्तन्त्रसाध्या तन्त्रस्वरूपिणी ॥
इस श्लोक से ‘तन्त्र” के विविध अर्थों का संकेत मिलता है । वस्तुतः भावी विश्व की रूप रेखा जहाँ बनती है - तानी जाती है वह सूक्ष्मकृति सम्पन्न अभेद का रूप वस्तु-तत्त्व ही तन्त्र है : अनन्तर वही वस्तुतत्त्व, जब कुछ पूर्व दशा से उन्मिषित होता है तब भेद और अभेद रूप को प्राप्त करके भावी प्रसार अथवा फैलाव का मध्यावस्थात्मक ठाठ या तन्त्र कहलाता है और भेदात्मक पूर्ण प्रसार तो तन्त्र है ही । इस प्रकार तन्त्र की त्रिधा स्थिति ही सम्भव है । इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर कहा गया है-
तन्त्रं जज्ञे रुद्रशिवभैरवास्यमिदं त्रिधा ।
वस्तुतो हि त्रिधंवेयं ज्ञानसत्ता विजृम्भते ।
भेदेन
भेदाभेदेन
तथैवाभेदभागिना ।
तन्त्रालोक टीका, प्र० आ०, प०४५
भैरव अभेद दशा है, रुद्र भेदाभेद दशा और शिव भेद दशा है । पीछे कहा गया है कि त्रिक ही तन्त्रों का सार है । यही बात वेद के लिए भी प्रसिद्ध है । ऋक्, यजुः और साम यह त्रयी वेद का सार है । यजुः अभेदावस्था है
२
चन्द्राशुं वीरभद्रं च आग्नेयं च स्वयम्भुवम् । विसरं रौरवाः पञ्च विमलं किरणं तथा । ललितं सौरभेयं च तन्त्राण्याहुर्महेश्वरि । अष्टाविंशतिरित्येवमूर्ध्वस्रोतो विनिर्गताः ॥
१. तन्त्र शब्द के भिन्न भिन्न अर्थ - १. कुटुम्बभरणादिकृत्य, २. सिद्धान्त, ३. औषधि, ४. प्रधान, ५. परिच्छद, ६. वेदशाखाभेद, ७. हेतु, ८. उभयार्थ क प्रयोग, ९. इतिकर्तव्यता, १०. तन्तुवाय, ११. राष्ट्र, १२. परच्छन्दानुगमन, १३. स्वराष्ट्र चिन्ता, १४. प्रबन्ध, १५. शपथ, १६. घन, १७. गृह, १८. वयन- साधन, १९. कुल, २०. शिवादिशास्त्रभेद ।
२. स वा एषा वाक् त्रेधा विहिता ऋचो, वागसौ स आदित्यः । मण्डलमेवर्चः,
..
…
अचिः सामानि पुरुषो यजूंषि ।
— वाचस्पत्यम्, पृ० ३२२५ यजूंषि सामानि । सा या सा
Į
शतपथ ब्रा० १०
विषय-प्रवेश
१३
ऋक् भेदाभेदावस्था है और साम भेदावस्था । सूर्य के रूप में त्रयी तप रही है । सूर्य के अन्तराल में अधिष्ठाता रूप से विद्यमान पुरुष यजुः है, मण्डल ऋक् है, और साम है सूर्य की त्रिभुवनव्यापी रश्मिमाला ।
सूर्य’ रूपी सदाशिव गुरु और शिष्य - शिव और पार्वती के रूप में तन्त्र की अवतारणा कर रहे हैं । विष्णुक्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्तात्मक त्रिधा भेदों में विभक्त होकर तन्त्र प्रसृत हो रहा है। स्पष्ट है कि यह विभाजन यजुः, ऋक् और साम अथवा पुरुष, पिण्ड और रश्मि प्रसार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । यही भेद, भेदाभेद और अभेदात्मक तन्त्रों की ‘उपनिषद्’ है । एक ही वस्तु किस प्रकार भिन्न-भिन्न तथा भिन्न अवस्था ग्रहण करती है इसी का निरूपण विविध तन्त्रों द्वारा किया जाता है । और इस प्रक्रिया में कोई असामञ्जस्य भी नहीं ।
विष्णुक्रान्तादिक्रमों से सम्बद्ध चौसठ चौसठ तन्त्रों के तीन वर्ग हैं ।
१. सिद्धीश्वर २. कालीतन्त्र
विष्णुक्रान्ता वर्ग के तन्त्र ग्रन्थ-
७. देव्यागम
८. उत्तर ९. श्रीक्रम
१३. सिद्धिसारस्वत
१४. वाराही
३. कुलार्णव ४. ज्ञानार्णव
१५. योगिनी
१०. सिद्धियामल
१६. गणेशविमर्शिनी
५. नीलतन्त्र
६. फेत्कारी
११. मत्स्य सूक्त १२. सिद्धसार
१७. नित्यातन्त्र
१८. शिवागम
१. गुरुशिष्यपदे स्थित्वा स्वयं देवः सदाशिवः ।
पूर्वोत्तरपदेर्वाक्यैस्तन्त्रं समवतारयत् ।। परात्रिशिकाविवरण, पृ० १२
२. असौ वा आदित्य एष रथः ।
सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रम् ।
शतप० ९।४।१।१५
ऋ० २, अस्यवा० सूक्त
- The extent of the ‘Tantra Shastra’ may in a small degree be made apparent by a reference to the groups (of 64 Tantras each) which have been assigned to the regions known as ‘Vishnu-Kranta, Ratha-Kranta and Ashva-Kranta’. The follo- wing tantras are assigned by the #fafa to the several regions though there are differences of opinion as regards particular Tantras.
– तन्त्राभिधान की भूमिका – आर्थर अवलन
૪
१९. चामुण्डा
२०. मुण्डमाला २१. हंसमहेश्वर २२. निरुत्तर
३५. वृहद् श्रीक्रम
३६. गवाक्ष
५०. दैवप्रकाश
५१. कामाख्या
३७. सुकुमुदिनी
५२. कामधेनु
४१. भैरवी
२३. कुलप्रकाश २४. देवीकल्प २५. गन्धर्व
३८. विशुद्धेश्वर
३९. मालिनीविजय
४०. समयाचार
५३. कुमारी
५४. भूतडामर
५५. यामल
५६. ब्रह्मयामल
२६. क्रियासार २७. निबन्ध
४२. योगिनीहृदय
५७. विश्वसार
४३. भैरव
५८. महाकाल
२८. स्वतन्त्र २९. सम्मोहन
४६. तन्त्रान्तर
४४. सनत्कुमार
५९. कुलोड्डीश
४५. योनि
६०. कुलामृत ६१. कुब्जिका
३०. तन्त्रराज ३१. ललिता
४७. नवरत्नेश्वर
६२. यन्त्रचिन्तामणि
३२. राधा ३३. मालिनी
४८. कुलचूडामणि
६३. कालीविलास
४९. भावचूडामणि
६४. मायातन्त्र ।
३४. रुद्रयामल
रथक्रान्तावर्गीय तन्त्र-
१. चिन्मय
२. मत्स्य सूक्त ३. महिषमदिनी
४. मातृकोदय
१७. वृहद्योनि
३३. योगस्वरोदय
१८. ब्रह्मज्ञान
१९. गरुड
३४. यक्षिणीतन्त्र
३५. स्वरोदय
२०. वर्णविलास
५. हंसमहेश्वर ६. मेरु
२१. बालाविलास
७. महानील
८. महानिर्वाण
२४. पञ्चदशी
९. भूतडामर १०. देवडामर
११. बीज चिन्तामणि
१२. एकजटा १३. वासुदेव रहस्य १४. वृहद्गौतमीय
३६. ज्ञानभैरव
३७. आकाशभैरव
२२. पुरश्चरणचन्द्रिका ३८. राजराजेश्वरी
२३. पुरश्चरणरसोल्लास ३९. रेवती
२५. पिच्छिला
२६. प्रपश्ञ्चसार २७. परमेश्वर
२८. नवरत्नेश्वर
२९. नारदीय
३०. नागार्जुन
१५. वर्णोद्धृति
३१. योगसार
१६. छायानील
३२. दक्षिणामूर्ति
४०. सारस
४१. इन्द्रजाल
४२. कृकलासदीपिका ४३. कङ्कालमालिनी ४४. कालोत्तम
४५. यक्षडामर ४६. सरस्वती
४७. शारदा
४८. शक्तिसङ्गम
४९. शक्तिकागम सर्वस्व
५०. सम्मोहिनी
५१. इन्द्रजाल
५२. चीनाचार
५५. षोढ़ा
५६. महालक्ष्मी ५७. कैवल्य
विषय-प्रवेश
६०. कृतिसार
६१. कालभैरव ६२. उड्डामरेश्वर
५८. कुलसद्भाव
६३. महाकाल
५३. षडाम्नाय ५४. करालभैरव
५९. सिद्धितद्धरि
१. भूतशुद्धि
२. गुप्तदीक्षा
२४. शम्बर
अश्वक्रान्ता वर्ग से सम्बद्ध तन्त्र-
२३. शिवार्चन
६४. भूतभैरव ।
४४. कामरत्न
४५. गोपलीलामृत
३. वृहत्सार
२५. शूलिनी
४६. ब्रह्माण्ड
४. तत्त्वसार ५. वर्णसार ६. क्रियासार
२६. महामालिनी २७. मोक्ष
४७. चीन
४८. महानिरुत्तर
२८. बृहन्मालिनी
४९. भूतेश्वरी
७. गुप्ततन्त्र
२९. महामोक्ष
५०. गायत्री
८. गुप्तसार
३०. बृहन्मोक्ष
९. बृहत्तोडल
३१. गोपीतन्त्र
५१. विशुद्धेश्वर ५२. योगार्णव
१०. वृहन्निर्वाण
३२. भूतलिपि
५३. भेरुण्डा
११. वृहत्कङ्कालिनी
३३. कामिनी
५४. मन्त्रचिन्तामणि
१२. सिद्धातन्त्र
३४. मोहिनी
५५. यन्त्रचूडामणि
१३. कालतन्त्र
३५. मोहन
५६. विद्युल्लता
१४. शिवतन्त्र
३६. समीरण
५७. भुवनेश्वरी
१५. सारात्सार
३७. कामकेशर
५८. लीलावती
१६. गौरीतन्त्र १७. योगतन्त्र
३८. महावीर
५९. वृहच्चीन
३९. चूडामणि
१८. धर्मकतन्त्र
४०. गुर्वर्चन
६०. कुरञ्ज
६१. जय राधामाधव
१९. तत्त्वचिन्तामणि
४१. गोप्य
६२. उज्जासक
२०. बिन्दुतत्त्व
४२. तीक्ष्ण
६३. धूमावती
२१. महायोगिनी
६४. शिव ।
२२. वृहयोगिनी
१५
४३. मङ्गला
आचार्य शङ्कर ने सौन्दर्यलहरी’ में तन्त्रों की चौंसठ संख्या का उल्लेख
१. चतुःषष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसन्धाय भुवनं
स्थितस्तत्तत्सिद्धिप्रसवपरतन्त्रो पशुपतिः ।
पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिलपुरुषार्थे कघटना
स्वतन्त्रं ते तन्त्रं क्षितितलमवातीतरदिदम् ॥ सौन्दर्यलहरी, श्लोक ३११६
किया है टीकाकार लक्ष्मीधर ने वहीं चौंसठ तन्त्र ग्रन्थों का विवरण भी प्रस्तुत किया है। चौंसठ संख्या रहस्यमय है । सम्भव है संख्या शम्भु’ द्वारा अभिमत चौंसठ वर्णों की निर्देशिका हो । वर्णों को भी तन्त्र कहने में कोई अनौचित्य नहीं, क्योंकि उन्हीं के द्वारा सम्पूर्ण वाङ्मय का वितान ताना जाता है ।
लक्ष्मीधर ने चतुःशती नामक ग्रन्थ से चौंसठ तन्त्रों को उद्धृत किया । चतुःशती, वामकेश्वरतन्त्र के ही प्राथमिक ४ सौ श्लोकों को कहते हैं । उत्तरचतुःशती सुन्दरी अथवा योगिनी हृदय है । दोनों को मिलाकर नित्या - षोडशिकार्णव की आख्या दी गई है । वामकेश्वरतन्त्र, सेतुबन्ध, कुलचूडामणि- तन्त्र तथा लक्ष्मीधर के अनुसार चौंसठ तन्त्र-
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M
१. महामायातन्त्र ( कुलचूडामणि - मायोत्तरतन्त्र), २. शम्बरतन्त्र ( कुल- चूडामणि – महासारस्वत ), ३. योगिनी, ४. जालशम्बर, ५. तत्त्वशम्बर, ६. भैरवाष्टक ( कुछ लोगों के मत में - १. असिताङ्ग, २. रुरु, ३. चण्ड, ४. क्रोध, ५. उन्मत्त, ६. कपाली, ७. भीषण, ८. संहार - ये आठ पृथक् तन्त्र है ) ७. बहुरूपाष्टक - ब्राह्मी, ८. माहेश्वरी, ९. कौमारी, १०. वैष्णवी, ११. वाराही, १२. माहेन्द्री १३. चामुण्डा, १४. शिवदूती – यामलाष्टक, १५. ब्रह्मयामल, १६. विष्णुयामल १७. रुद्रयामल, १८. लक्ष्मीयामल, १९. उमायामल, २०. स्कन्दयामल, २१. गणेशयामल, २२. जयद्रथयामल, २३, चन्द्रज्ञान, २४. वासुकि ( लक्ष्मीधर - मालिनी ), २५. महासम्मोहन ( लक्ष्मी- धर ने संख्या १ में महामायाशम्बर और २ में योगिनीजालशम्बर को रक्खा है, सम्भवतः उन्होंने लक्ष्मण नामक टीकाकार का अनुसरण किया है । भास्कर- राय ने ऋजुविमर्शिनी को प्रायः तथा अर्थरत्नावली को कहीं-कहीं अपना आदर्श बनाया है ऐसा प्रतीत होता है । ), २६. महोच्छुष्म, २७. वातुल, २८. वातुलोत्तर, २९. हृद्भेद, ३०. तन्त्रभेद, ३१. गुह्यतन्त्र, ३२. कामिक, ३३. कलावाद, ३४. कलासार, ३५. कुब्जिकामत,
,
१. त्रिषष्टिः चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः
पाणिनीय शिक्षा
२. सर्वः शब्दः १३ । सर्वार्थ: १४ । नित्य: १५ । तन्त्रः १६ ।
पूर्वपाणिनीयसूत्र
३. ऋजुविमशिन्यामुक्तम् — श्रीवामकेश्वरं नाम शास्त्रं तन्त्रं प्रकाशते ।
मध्ये शास्त्रस्य तस्यास्ति नित्याषोडशिकार्णवः ॥
तत्र च द्वे चतुःशत्याविति -
सेतुबन्ध, पृ० ७
विषय-प्रवेश
१७
३६. तन्त्रोत्तर, ३७. वीणातन्त्र, ३८ त्रोतल, ३९ त्रोतलोत्तर. ४० पञ्चामृत, ४१. रूपभेद, ४२. भूतोड्डामर, ४३. कुलसार, ४४ कुलोड्डीश, ४५. कुल- चूड़ामणि, ४६. सर्वज्ञानोत्तर, ४७ महाकालीमत ४८. महालक्ष्मीमत, ४९. सिद्धयोगेश्वरीमत, ५०. कुरूपिकामत, ५१. देवरूपिकामत, ५२. सर्ववीर- मत, ५३. विमलामत, ५४. पूर्वाम्नाय ५५. पश्चिमाम्नाय ५६. दक्षिणाम्नाय, ५७. उत्तराम्नाय, ५८. निरुत्तर, ५९. वैशेषिक, ६०. ज्ञानार्णव, ६१. वीरावलि, ६२. अरुणेश, ६३. मोहिनीश, ६४. विशुद्धेश्वर । ( लक्ष्मीधर के अनुसार- २६ वामजुष्ट तथा महादेव भी एक पृथक् तन्त्र है । गौरीकान्त ने दोनों को दो पृथक् तन्त्र माना है किन्तु भास्कर राय महादेव को सम्बोधन मात्र मानते हैं ।)
}
लक्ष्मीधर ने पूर्वोक्त तन्त्रों को अवैदिक बताते हुए इन्हें हेय कोटि में रक्खा है। उनका कहना है कि ये तन्त्र ऐहिक सिद्धि मात्र परक हैं । यद्यपि उन्होंने अपनी टीका में तन्त्रों के विषयों का भी उल्लेख किया है, किन्तु प्रतीत होता है उन्हें उपर्युक्त समस्त तन्त्रों के देखने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था ।
भास्करराय का मत ठीक इसके विपरीत है ।
एवमेतानि शास्त्राणि तथान्यान्यपि कोटिशः ।
भवतोक्तानि मे देव सर्वज्ञानमयानि च ।। २२ ।१ वि०
वामकेश्वर तन्त्र के इस श्लोक की व्याख्या में उन्होंने कहा है कि– “महामाया से लेकर विशुद्धेश्वर पर्यन्त चौसठ तन्त्रात्मकशास्त्र वेदरूप हैं । क्योंकि उन्हें उपनिषद् का शेष भाग कहा जाता है । तन्त्रों को शास्त्र कहने में कोई विवाद नहीं है क्योंकि वे वेद के समान ही भगवदाज्ञारूप हैं । परशुराम ने भी अपने कल्पसूत्र में पञ्चाम्नायों को परमार्थसार रूप माना है । ऐसी स्थिति में सौन्दर्यलहरी की व्याख्या में किसी के द्वारा तन्त्रों को अवैदिक कहना प्रलाप मात्र है । अतः उसकी उपेक्षा ही करना चाहिए ।"
।
„२
राजानक जयरथ ने तन्त्रालोक के प्रथम आह्निक गत अट्ठारहवें श्लोक की टीका करते हुए तन्त्रों को उद्धृत किया है । पूर्वोक्त तन्त्रों के साथ इनका साम्य नहीं के तुल्य है ।
१. द्रष्टव्य - नित्याषोडशिकार्णव तथा सेतुबन्ध, विश्राम १ ।
२. एतानि महामायादिविशुद्धेश्वरान्तानि चतुःषष्टिस्तन्त्राणि । शास्त्राणि वेदरूपाणि । तन्त्राणामुपनिषच्छेषत्वात् ।……
भगवान् परशुरामोप्याह - पञ्चाम्नायान्परमार्थसाररूपान् प्रणिनायेति । एवं स्थिते यत्सौन्दर्यलहरीव्याख्याने केनचित्प्रलपितमिमानि तन्त्राण्यवैदिकानी- त्यादि तत्प्रतारकभ्रान्तान्यतरजल्पितत्वादुपेक्ष्यम् । सेतुबन्ध, वि० १, पृ० २४
२ म० मा०
१८
(१) भैरव तन्त्र -
१. स्वच्छन्द '
२. भैरव
३. चण्ड
१.
४. क्रोध
५. उन्मत्त भैरव ६. असिताङ्ग
७. महोच्छुष्म ८. कपालीश
भैरवं यामलं चैव मताख्यं मङ्गलं तथा । चक्राष्टकं शिखाष्टकं बहुरूपं च सप्तमम् ॥ वागीशं चाष्टमं प्रोक्तमित्यष्टो वीरवन्दिते । एतत् सदाशिवं चक्रं कथयामि समासतः ॥ स्वच्छन्दो भैरवश्चण्ड : क्रोध उन्मत्त भैरवः । असिताङ्गो महोच्छुष्मः कपालीशस्तथैव च ॥ एते स्वच्छन्दरूपास्तु बहुरूपेण भाषिताः । ब्रह्मयामलमित्युक्तं विष्णुयामलकं तथा ॥ स्वच्छन्दश्च रुरुश्चैव षष्ठं चाथर्वणं
सप्तमं रुद्रमित्युक्तं वैतालं चाष्टमं
अतः परं महादेवि मतभेदा
स्मृतम् ।
स्मृतम् ॥
छृणुष्व मे ।
रक्ताख्यं लम्पटाख्यं च मतं लक्ष्म्यास्तथैव च ॥ पञ्चमं चालिका चैव पिङ्गलाद्यं च षष्टकम् । उत्फुल्लकं मतं चान्यद्विश्वाद्यं चाष्टमं स्मृतम् ॥ चण्डभेदा: स्मृता ह्येते भैरवे वीरवन्दिते । भैरवी प्रथमा प्रोक्ता पिचुतन्त्रसमुद्भवा ॥ सा द्विधा भेदतः ख्याता तृतीया तत उच्यते । ब्राह्मी कला चतुर्थी तु विजयाख्या च पञ्चमी ॥ चन्द्राख्या चैव षष्ठी तु मङ्गला सर्वमङ्गला । क्रोधेशेन तु भाषितः ॥
एष मङ्गलभेदोऽयं प्रथमं मन्त्रचक्रं तु वर्णचक्रं
तृतीयं शक्तिचक्रं तु कलाचक्रं
द्वितीयकम् ।
चतुर्थकम् ॥
पञ्चमं बिन्दुचक्रं तु षष्ठं वै
नादसंज्ञकम् ।
।
सप्तमं गुह्यचक्रं च खचक्रं चाष्टमं
एष वै चक्रभेदोऽयमसिताङ्ग ेन
अन्धकं रुरुभेदं च अजाख्यं मूलसंज्ञकम् ॥
स्मृतम् ॥
भाषितः ।
वर्णभष्टं विडङ्गञ्च ज्वालिनं
मातृरोदनम् ।
कीर्तिताः परमेशेन रुरुणा
परमेश्वरि ॥
(२) यामल तन्त्र
९. ब्रह्मयामल
विषय-प्रवेश
१२. रुरु
१५. रुद्र
१३.
१६. वैताल
१०. विष्णुयामल
११. स्वच्छन्द
(३) मत-
१४. आथर्वण
१७. रक्त
१८. लम्पट
१९. लक्ष्मीमत
(४) मङ्गलतन्त्र-
२०. मत
२१. चालिका २२. पिङ्गला
२३. उत्फुल्लक
२४. विश्वाद्य
२५. पिचुभैरवी
२६. तन्त्रभैरवी
२७. ब्राह्मी
(५) चक्राष्टक-
३३. मन्त्रचक्र
३४. वर्णचक्र
२८. कला
२९. विजया
३०. चन्द्रा
३१. मङ्गला ३२. सर्वमङ्गला
३६. कलाचक्र
३९. गुह्यचक्र
३७. बिन्दुचक्र
४०. खचक्र
३५. शक्तिचक्र
(६) बहुरूप-
३८. नादचक्र
४१. अन्धक ४२. रुरुभेद
४३. अज
४४. मूल ४५. वर्णभण्ट ४६. विडङ्ग
४७. ज्वालिन ४८. मातृरोदन
१६
भैरवी चित्रिका चैव हंसाख्या च कदम्बिका । हृल्लेखा चन्द्रलेखा च विद्युल्लेखा च विद्युमान् ॥ एते वागीशभेदास्तु कपालीशेन भाषिताः । भैरवी व शिखा प्रोक्ता वीणा चैव द्वितीयका ॥
तु वीणामणिस्तृतीया तु सम्मोहं तु चतुर्थकम् । पञ्चमं डामरं नाम षष्ठं चैवाप्यथर्वकम् ॥ कबन्धं सप्तमं ख्यातम् शिरश्छेदोऽष्टमः स्मृतः । एते देवि शिखाभेदा उन्मत्तेन च भाषिताः ॥ एतत्सादाशिवं चक्रमष्टाष्टकविभेदतः ॥
तंत्र टीका, पृ० ४२-४३, प्र० आ०
२०
(७) वागीश-
४९. भैरवी
५२. कदम्बिका
५०. चित्रिका
५३. हृल्लेखा
५५. विद्युल्लेखा ५६. विद्युमान्
५१. हंसा
५४. चन्द्रलेखा
(८) शिखाष्टक-
५७. भैरवी
६०. सम्मोह
६३. कबन्ध
५८. वीणा
६१. डामर
६४. शिरश्छेद
५९. वीणामणि
६२. अथर्वक
पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट है कि तन्त्रों की संख्या निश्चित नहीं है ।
तन्त्र, सामान्य शास्त्रवाचक होकर भी विशेष तान्त्रिक ग्रंथों के अर्थ में ही क्यों रूढ़ हो गया, इसका उत्तर भी खोज लेना कठिन नहीं है । विविध क्रियाकलाप, उपासना, योग तथा देवताओं के यांत्रिक, मांत्रिक एवं पुरुषविध आदि स्वरूपों के एकत्र विस्तृत समावेश को लेकर ही सम्भवतः इन ग्रन्थों के
सम्बन्ध में तंत्र यह आख्या प्ररूढ़ हो गई । "
कहा गया है - कर्मात्मक अङ्गों
आश्वलायन एवं कात्यायन श्रौत सूत्रों में की संहति ही तन्त्र है, अर्थात् आरात् उपकारक कर्मों का सकृत् ’ अनुष्ठान ही
तन्त्र के नाम से कहा जाता है ।
दर्शपूर्णमासौ तु पूर्व व्याख्यास्यामः तन्त्रस्य तत्राम्नातत्वात् । १।१।३
तन्त्रमङ्गसंहतिः कर्काचार्य
आश्वलायन श्रौतसूत्र ।
कर्मणां युगपद्भावः तन्त्रम् १७७६ कात्यायन श्रौतसूत्र
यत्र प्रधानकर्मणां युगपद्भावः सह प्रयोगः तत्र आरादुपकारकाणां अङ्गानां तन्त्रं सकृदनुष्ठानं भवति । न प्रतिप्रधानं पृथक्-पृथक्, यदि सकृत्कृतं बहूनां उपकरोति
उपकरोति तत्तन्त्रमित्युच्यते । यथा बहूनां मध्ये कृतः प्रदीपः ।
– कर्काचार्य
यजुर्वेद में तन्त्रायी शब्द का आदित्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है । कालचक्र ही तन्त्र है उस तन्त्र में वर्तमान आदित्य को ही तन्त्रायी कहा जाता है ।
१. अनेकोद्देश से सकृत्प्रयोग के अर्थ में तंत्र का प्रयोग याज्ञवल्क्य स्मृति में भी मिलता है : :- “द्वौ दैवे प्राक् त्रयः पित्र्ये उदगेकैकमेव वा । मातामहानाम- प्येवं तन्त्रं वा वैश्वदैविकम् । याज्ञ० । पितृश्राद्धे मातामहश्राद्धे च वैश्वदैविकं तन्त्रेण कार्यमिति । मिताक्षरा ।
२. तन्त्रायिणे नमः । अध्याय ३८, कं० १२
विषय-प्रवेश
२१
“तन्त्रे कालचके एति निरन्तरं गच्छति तन्त्राय तस्मै आदित्याय नमोsस्तु । एष वै तन्त्रायो य एष तपत्येष होमॉल्लो कॉस्तन्त्रमिवानुसञ्च- रति” । १४।२।२।२२ इति श्रुतेः ।
- वेददीप
उन्नीसवें अध्याय की अस्सीवों कण्डिका में भूषणविशेष वस्त्र तथा यज्ञ के अर्थ में भी तन्त्र’ शब्द का प्रयोग मिलता है ।
ऋग्वेद, दसवाँ मण्डल, इखत्तर सूक्त की नवीं ऋचा में ‘वाक्प्रपञ्च’ २ अथवा ‘ताने बाने’ के अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त हुआ है ।
इस प्रकार आगम शब्द में जहाँ परम्परा प्राप्त प्रसिद्ध के निबन्ध का बोध होता है वहीं तंत्र द्वारा उसके बहुमुखी वितान का निर्देश भी ।
तांत्रिक ग्रंथों में अनंत ऐहिक कामनाओं एवं निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए मन्त्रों को अनिवार्य तथा महत्वपूर्ण साधन के रूप में स्वीकार किया गया है । मंत्रों में निहित इस महनीयता के पीछे कौन-सी शक्ति कार्य करती है इसका सम्पूर्ण विज्ञान तंत्रों में ही पाया जाता है । मंत्र-विज्ञान की यथार्थता का आकलन न कर पाने के कारण ही सामान्य जनों की,
3
मंत्रों के सम्बन्ध में उदासीनता एवं उपहासपरता स्वाभाविक है । मंत्रों की सङ्घटना, वर्णों के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं । अतः मन्त्रों के स्वरूप की आलोचना में वर्णों की उपेक्षा करके आगे बढ़ना सम्भव नहीं । वर्ण ३ पृथक् रूप में तथा वर्णमाला अपने समुदितरूप में मंत्रस्वरूप ही है ऐसी तंत्रों की मान्यता है । मनुष्यों ने व्यवहार सौकर्य के लिए वर्णों की कल्पना की अथवा उनका कोई नित्य वैज्ञानिक स्वरूप है - इस विवाद के लिए तंत्रों में स्थान ही नहीं है । मनुष्य की आकृति या शरीर नामक संस्था में जन्म से ही वर्णों की सूक्ष्म संस्थिति रहती है । तथा इन वर्णों - आहत ध्वनियों के समाहारक अनाहत नाद अथवा प्रणव का सतत घोष भी वहीं होता रहता है । ये समस्त वर्ण उसी एकाक्षर रविरूप अव्याकृता वाक् से क्षरित होते हैं । यह अव्याकृता वाक् पराची अपर प्रणव- रूप है । यह गतिशील जीवन स्पन्दन है । इससे परे परप्रणवरूप पर-
१. सीसेन तन्त्रं मनसा मनीषिण ऊर्णासूत्रेण कवयो वयन्ति । अश्विना यज्ञं सविता सरस्वतीन्द्रस्य रूपं वरुणो भिषज्यन् ।
- माध्यन्दिनसंहिता
२. इमे ये नार्वाङ् न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः ।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञया ॥ - ऋग्वेद ३. सर्वेऽपि वर्णाः केवलाः संयुक्ताः समुदिता अपि सर्वार्थसाधका मंत्रा एवेति ।
प्रयोगक्रमदीपिका (प्रपञ्चसारतंत्रटीका), तृ० पटल
२२
शब्दात्मक कुण्डलिनी की स्थिर घनावस्था है जो जीवन का मूल है । वर्ण रश्मियों के सहारे अपर प्रणवात्मक पराग्वर्ती अव्याकृता वाक् में निमग्न होकर – रवि मण्डल को भेद कर - साधकगण परशब्दरूप कुलकुण्डलिनी शक्ति की महामञ्जूषा को उद्घाटित करके धन्य हो जाते हैं ।
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मूल या परशब्द ही महाशक्ति है जो अगणित अर्थों के समाहारात्मा ब्रह या भूमा को अपने अन्तःस्तर में छिपाये रहती है । यह शब्दात्मक शक्ति और अर्थात्मक शिव ही महामिथुन या दिव्यदम्पति हैं जिनके द्वारा विविध वैचित्र्य- मय विश्व एवं शरीर संस्थाओं का अहरह निर्माण होता रहता है । शब्द, रूपों - अर्थों का महाअयन है, यह वह कामगवी है जिसकी शरण में आकर
पुनः परमुखापेक्षी नहीं होना पड़ता । प्राणों के प्ररूढ़ मल को क्षालित करके ये वर्णरश्मियाँ उसके स्वाभाविक शक्ति स्रोत को उद्घाटित कर देती हैं जिससे प्राणी का सहज समृद्धि सम्भार उन्मिषित हो उठता है । तन्त्रों में वर्णों एवं उनके चरम स्वरूप को मातृका कहने का यही रहस्य है कि वे अज्ञात दशा में प्राणी को, वाचकशब्दानुवेध द्वारा शोक-स्मय - हर्ष - राग आदि रूप धारण करके वन्धन में डालती है और ज्ञात होने पर यही सिद्धमाता का कार्य करती हैं ।
प्रत्येक वर्ण का अपना रंग, रूप, आयुध, वाहन, शक्ति, ऋषि, छन्द आदि होते हैं । वर्णों की आकृति का विस्तार हजारों और करोड़ों योजनों की सीमा में पाया जाता है । यह विस्तार अतिरञ्जित तथा काल्पनिक नहीं है । वर्ण के अन्तराल में अवस्थित पुरुष अथवा देवता, उसका पिण्ड अथवा मूर्ति तथा मण्डल सम्बन्धी विस्तृत सीमा का योजनों में आकलन विज्ञान- सम्मत है । ऐसे शक्तिशाली वर्णभट्टारकों तथा उनसे सङ्घटित मन्त्रों के ऐश्वर्य के प्रति अनास्था अज्ञानमूलक है । प्रकृत प्रबन्ध में तन्त्रों की पूर्वोक्त परम्परा के आधार पर मन्त्रों और मातृकाओं के रहस्योद्घाटन का प्रयास किया जायगा ।