०४ विषय-सूची

प्रथम अध्याय : विषय-प्रवेश – आगम और तन्त्र

१-२२

आगम के चार व्याख्याभेद - आप्त का स्वरूप- -चरणाप्तवाद अथवा शास्त्राप्तवाद — लोकाप्तवाद — परम्पराख्याति और आगम- निबद्धप्रसिद्धि और अनिबद्धप्रसिद्धिरूप

आगम - आगमों की परा कोटि और उद्भव की अनादिता - आगमों की विभिन्नता के

निगम के नाम से ख्यात वेद भी आगम ही में आगम और स्मृति में एकता - आगम की

विवृति - शिव के मुख से

ज्ञान सम्बन्धी आगम की

आगम - प्रतिभात्मक

स्थान - समग्र आगमों कारण - - सामान्यतया है-भर्तृहरि के मत रहस्यमयता सम्बन्धी

निर्गत और गिरिजा के मुख में आगत

उपपत्ति - विशेष आगम साहित्य,

शुभागमपञ्चक तथा अट्ठाइस कामिकादि आगम - दश शिवागम अथवा द्वैतवादी तन्त्र - अट्ठारह रुद्रागम — द्वैताद्वैतवादी तन्त्र — ६४ अभेदवादी भैरव तन्त्र- नानार्थक

सार त्रिक- वेदत्रयी और तन्त्र सम्बन्धी

तन्त्र शब्द - तन्त्रों का

त्रिक- तन्त्रों का विष्णु- विभाग - एक सौ बानवे

क्रान्ता, रथक्रान्ता और अश्वक्रान्तात्मक तन्त्र - सौन्दर्यलहरी में चौंसठ तन्त्रों का सङ्केत – चौंसठ वर्ण या तन्त्र—वामकेश्वरतन्त्र तथा सेतुबन्ध आदि में उद्धृत चौंसठ तन्त्र - तन्त्रों की अवैदिकता के सम्बन्ध में लक्ष्मीक्षर का मत- तन्त्रों को अवैदिक कहना प्रलापमात्र : भास्करराय- - राजानक जयरथ द्वारा तन्त्रालोक में उद्धृत चौंसठ तन्त्रों तथा पूर्वोक्त तन्त्रों में साम्य का अभाव - तन्त्रों की निश्चित संख्या नहीं - शास्त्र वाचक तन्त्र शब्द का विशेष अर्थ में रूढ़ होने का कारण - तन्त्र शब्द की श्रोत्र सूत्र एवं वेदानुमत व्याख्याएँ - आगम - परम्परा प्राप्त प्रसिद्धि का निबन्धन —- तन्त्र - - बहुमुखी वितान - तन्त्रों में मन्त्रों की अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण साधनों के रूप में स्वीकृति - मन्त्रों के सङ्घटक वर्ण - आहत और अनाहत नाद का, शरीरसंस्था में सूक्ष्म संस्थान - पराची अव्याकृता वाक् या अपर प्रणव — परशब्दात्मक कुलकुण्डलिनी - शब्दात्मक शक्ति और अर्थात्मक शिव ही महामिथुन या दिव्यदम्पति हैं - वर्णों तथा उसके चरम स्वरूप

( २६ )

को मातृका कहने का रहस्य - वर्णों के रंग, रूप, महिमा, आयुध, वाहन, शक्ति, ऋषि छन्दादि सम्बन्धी सूचना - तन्त्रानुसार मन्त्रों एवं मातृकाओं के रहस्योद्घाटन की प्रतिश्रुति ।

द्वितीय अध्याय : आगम समुच्चय- १

२३-४६

सांसारिक पदार्थों की शब्दानुविद्धता – जागरावस्थागत वाग्व्यवहार ही शब्द की स्थूल दशा है— तान्त्रिकों के मत में चेतन तत्त्व के पाँच स्तर - शब्द की चार अवस्थाएँ - अतिदुर्य तत्व, परब्रह्म और परमशिव की एकता-जागरावस्था गत शब्द के सघोष - वाचिक और अघोषात्मक उपांशु रूप दो भेद - स्थूल शब्द ही वैखरी वाणी है – वैखरी शब्द की व्याख्या - वैखरी के तीन भेद - वैखरी; स्फुट क्रियाशक्ति - वैखरी अथवा रौद्री शक्ति– वैखरी वाणी में प्रकाशांश तथा विमर्शांश का निरूपण - वैखरी वाक् या बीज – वैखरी की उत्पत्ति - विराट् पुरुष अथवा वैखरी – कामकलाविलास में वैखरी का विवेचन - पञ्चदशाक्षर - राशिमयी वैखरी - भास्करराय के मत में देवी के स्थूलतर, स्थूल, सूक्ष्मतम सूक्ष्मतर, सूक्ष्म और पर रूप - पश्ञ्चदशाक्षरी विद्या ही सूक्ष्म रूप है - पञ्चदशाक्षरी विद्या के स्वरूप और उद्धार की चर्चा — पञ्चदशा- क्षरी विद्या में पचास वर्णों का समाहार - आचार्य पुण्यानन्द के अनुसार वैखरी का पञ्चदशाक्षरमयी होने में सनकादि संहिताओं का प्रमाण - मध्यमावाणी अथवा वैखरी वर्णों का वासनात्मक सूक्ष्म रूप — हिरण्यगर्भ ही मध्यमा वाक् है - मध्यमा की तान्त्रिकी संज्ञा नाद - मध्यमा की उत्पत्ति - प्रकाशांश और विमर्शाश का निरूपण – मध्यमा की सङ्घटक शक्तियाँ - मध्यमा शब्द की व्युत्पत्ति :- पद्मपादाचार्य का मत - भास्करराय और पद्मपाद का नाद-बिन्दु सम्बन्धी मतभेद - समन्वय - कार्यात्मक नाद-बिन्दु तथा कारणात्मक नादबिन्दु के सम्बन्ध में राघव भट्ट का साक्ष्य — मध्यमा के दो भेद - नव नादमय सूक्ष्म - नवर्गात्मक स्थूल- स्वच्छन्दतन्त्र में निरूपित नव नाद - धर्मशिवाचार्य की ‘पद्धति’ के अनुसार नादों की व्याख्या – मध्यमा के पुनः तीन भेद - ‘शिवदृष्टि’ के अनुसार मध्यमा - व्याकरणागम और मध्यमा वाणी - ज्ञानशक्ति एवं मध्यमा वाक् पश्यन्ती वाक् और ईश्वर तत्त्व की एकता - कार्यबिन्दु और पश्यन्ती वाणी – पश्यन्ती का

( २७ )

प्रभव पश्यन्ती में प्रकाशांश और विमशश - पश्यन्ती का सङ्घटक शक्तियाँ - ईक्षण और पश्यन्ती - व्युत्पत्ति और पर्याय - भास्करराय तथा राजानक जयरथ का मत — पश्यन्ती के तीन भेद - पुण्यराज और पश्यन्ती वाणी - व्याकरणागम में अनादिनिधन शब्दब्रह्म या पश्यन्ती - आचार्य सोमानन्दपाद का मत — पश्यन्ती, महापश्यन्ती तथा परम महापश्यन्ती - इच्छाशक्ति या पश्यन्ती – आचार्य अभिनवगुप्त और सोमानन्द में मतभेद – समन्वय - परावाणी की चरम अवस्था - परा और वाक् शब्द की व्याख्या – परावाणी अथवा स्वातन्त्र्य – अन्यनिरपेक्षता, स्वरसवाहिता अथवा आनन्द, स्वातन्त्र्य, ऐश्वर्य और चैतन्य - परम शिव का परमन्त्रात्मक विमर्मरूप हृदय और परा वाणी की एकता- मालिनी शक्ति और परावाक् – अव्यक्तसंज्ञक तुरीय तत्त्व ही परावाणी है - परा अथवा कारण-बिन्दु - इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्ति का समुच्चित रूप विमर्शाश - आचार्य पद्मपाद

परावाणी - परा में प्रकाश और

और परावाक् - राघवभट्ट का मत - वाणी के पश्च और सप्त पाद - परावाणी ही प्रकृति है : लक्ष्मीधर का मत - गुणों की साम्यावस्था या परा - वैषम्यावस्था अथवा पश्यन्ती - शुद्ध और अशुद्ध प्रकृति - गुणों के विविध रूप - व्यासभाष्य का मत – मूल- महाप्रकृति अथवा परावाक् — व्याकरणागम में सूक्ष्म शब्द या परा प्रकृति - तन्त्रमत में प्रतिभा ही परावाक् है— अतितुर्य तत्व का आद्यस्पन्द या प्रतिभा — दक्क्रियाशक्तिमयी प्रतिभा — प्रतिभा और परप्रतिभा — भट्टभास्कर का मत - अखण्ड और स्फोट — व्याकरणगम - प्रतिभा के

वाक्यार्थ रूप प्रतिभा

सम्बन्ध में विविध

विचार : - हेलाराज, भट्टचन्द्रानन और उत्पलाचार्य - प्रतिभा, परा वाणी या विमर्श शक्ति - साहित्यशास्त्र में प्रतिभा, विमर्शाख्य स्वातन्त्र्यरूप प्रतिभा अथवा परा वाणी ही प्रकात्मक परमशिव की शक्ति है ।

तृतीय अध्याय : आगम समुच्चय- २

४७-८४

ब्रह्म के दो रूप - शब्दब्रह्म और अर्थब्रह्म - अपरप्रणव और परप्रणव - तान्त्रिकों का सृष्टि सम्बन्धी वाद-परिणामवाद - द्विविध सृष्टि - चक्र तथा देहमयी सृष्टि — शब्द और अर्थ का अविनाभाव – चतुर्विध शब्द तथा चतुविध अर्थ - सृष्टिचक्र का

( २८ )

मूल - बिन्दु - महाबिन्दु - प्रकाश और स्फुरणा- दोनों की सम्मि लित जगत्कारणता - प्रकाश ‘अकार’ स्फुरणा तथा ‘हकार ’ – दोनों का सामरस्य ‘अहं’ अथवा पराहन्ता - योगिनीहृदय के अनुसार सृष्टिक्रम — स्फुरत्तात्मक लहरी से युक्त पारमार्थिक प्रकाश रूप अहमात्मक बिन्दु - शुक्ल, रक्त और मिश्र बिन्दु - हार्धकला - काम या रवि – कामकला या सृष्टि-बीज - कामकला और अहं की सर्वव्यापकता और सर्वनामता - चतुर्थ स्वर या कामकला - सेतुबन्ध के अनुसार कामकला का स्वरूप - तुरीय बिन्दु, काम नामक बिन्दु, विसर्गात्मक बिन्दुद्वय और हार्ध कला – दीपिकाकार अमृता- नन्द योगी, कामकलाविलास तथा सौन्दर्यलहरी से मतभेद - समन्वय — अकार, हकार, शिव, शक्ति – अकुल, कुण्डलिनी – अकार, हकार और नाद तत्व - अहन्तामय त्रिविन्दु - कामकला या त्रिकोण - त्रिबिन्दु - त्रिकोण अथवा प्रणव या ओङ्कार - गायत्री- मन्त्र के चतुर्थ चरण में प्रणव का द्वैविध्य - प्रणव और कामकलाक्षर की एकता - क्रोधभट्टारक और पुष्पदन्त का मत - - उमा और ओङ्कार - उमा ही कुण्डलिनी है - देवीप्रणव — अमात्र अथवा

अर्द्धमात्र इन्दुकला और हैमवती उमा - पञ्चप्रणव - अकार से लेकर उन्मना पर्यन्त प्रणव की बारह कलाएँ – पाश जाल की अवधि और समना - मधुसूदन सरस्वती द्वारा उक्त अणु, अणुतर और अणुतम ध्वनियाँ - ओङ्कार गत अणुध्वनियाँ और बिन्दु, अर्द्धेन्दु तथा रोधिनी आदि – बिन्दु आदि कलाओं के सम्बन्ध में भास्कर- राय का मत -नव कलाएँ और नाद – कलाओं की काल-गणना- उन्मना की कालहीनता - स्वच्छन्दतन्त्र का मत - उन्मना अथवा गुरुवक्त्र - उन्मना की कालात्मकता के सम्बन्ध में योगिनीहृदय और सेतुबन्ध का मत समन्वय - उन्मना अथवा काली नामक परा शक्ति - व्याकरणागम-सम्मत कालशक्ति, स्वातन्त्र्य या परा वाणी की एकता - काल के दो भेद - अपर काल और उन्मनी शक्ति- साक्षी, चिद्रूप, परकालात्मा - काल का द्विधात्व और आचार्य पद्मपाद - लवादि- पञ्चदश-कार्यात्मक कालपर्वाभिमानिनी अपरा काल शक्ति - बिन्दु आदि प्रणव कलाओं की आकृतियाँ - उन्मना से लेकर अकार पर्यन्त प्रणव कलाओं से व्याप्त ब्रह्माण्ड और पिण्डाण्ड सृष्टि - सद्योजातादि - पञ्चब्रह्म-रूप अकारादि कलाओं की अणुतर कलाएँ - अर्द्धन्दु से उन्मना पर्यन्त पुष्पदन्तोक्त तुरीय धाम

( २९ )

और अणुध्वनियाँ - अर्द्धमात्रा के अन्तर्गत अनेक ध्वनियों के औचित्य का प्रतिपादन - प्रणव के सात मात्राभेद और उनके वाच्य- प्रणवात्मक कुण्डलिनी शक्ति और प्रकृति - विकृतियाँ - द्वादश कलाओं एवं सप्तमात्राओं में समन्वय – शारदा तिलकतन्त्र के अनुसार शब्दावरोहक्रम - क्रमागत ‘शक्ति’ आदि शब्दों की निरुक्ति — क्या परा की उत्पत्ति होती है ? सार्द्धत्रिवलयाकारा कुण्डलिनी और सार्द्धत्रिमात्रिक प्रणव- समष्टिकुण्डलिनी, अग्निकुण्डलिनी, सूर्य- कुण्डलिनी और सोमकुण्डलिनी - परा के जन्म की बात औप- चारिक - कारणबिन्दु – कार्यबिन्दु - नाद - बीज - इनके अधिदेव, अधिभूत, और अध्यात्म - अव्यक्त शब्दब्रह्मात्मक रव - कारणबिन्दु से इसकी अभिन्नता - परतत्त्व, पराकृति और घनीभूत ब्रह्म- घनीभाव या उच्छूनावस्था, विचिकीर्षा और बिन्दु का स्वरूप- निर्देश – माया, माया की शक्ति अविद्या और कर्म का निरूपण- सामान्य और विशेषात्मक प्राणि-कर्मसंस्कार - सम्पूर्ण या कृत्स्ना पराप्रकृति - पराप्रकृति रूप बिन्दु के अन्तराल में घटित होने वाला क्रम - त्रिधा विभज्यमान प्रकृति या कारणबिन्दु - रवात्मक शब्दब्रह्म का निरूपण – व्याकरणागम - समस्त परा प्रकृति का स्वरूप - परा प्रकृति और सांख्योक्त प्रकृति में भेद - परा और अपरा प्रकृति, पर और अपर पुरुष, पर और अपर काल का मेल ही मूलमहाप्रकृति है - प्रपञ्चसार तन्त्रोक्त परा - प्रकृति — हकाराक्षर का वैचित्र्य - हकारात्मक मन्त्रदेवता के पाँच प्रकार — अकार और हकार के वाचकांश और वाच्यांश – परपुरुषादि का निरूपण - वेदान्त सम्मत माया - तन्त्र सम्मत माया - महामाया, योगमाया, आत्ममाया- -आत्ममाया या परा शक्ति - यही महामन्त्रात्मक मातृका शक्ति है ।

चतुर्थ अध्याय : मातृका के विविध स्वरूप और मातृका - वर्ण ८५-११३

वर्णात्मक मातृका - वर्णमालात्मक मातृका - वर्णमालात्मक मातृका के चार भेद - बिन्दुयुक्त मातृका अथवा सर्वज्ञताकरी विद्या - ब्रह्मराशि या केवलमातृका - वर्णमाला - अक्षमाला या मातृका - मुनिवर्यभागुरि - मातृका वर्ण क्रम के प्रवर्तक - जीव- गोस्वामी का मत - माहेश्वर वर्णमाला से भेद - विलोममातृका, वहिर्मातृका तथा अन्तर्मातृका – पचास या इक्यावन वर्णमातृकाएँ-

Į

-( ३० )

वर्णमाला, स्थूलमातृका या वैखरी वाक् वैखरी शब्द के विविध निर्वचन - सूक्ष्म मातृका अथवा मध्यमा वाक्-परा, पश्यन्ती अथवा सुसूक्ष्म मातृका - भासुरानन्दनाथ और चतुविध मातृका- मातृका का पर रूप - सूतसंहिता का मत – तात्पर्यदीपिका और परमातृका - वाच्यवाचकात्मक जगत् की जननी भगवती

S

पर मातृका - मातृका या अज्ञात माता - अक्रमा मातृका – सक्रमा मातृका - ज्ञानाधारमातृका - पशुमाता मातृका - मातृका शक्ति का विलास ही विश्व है - पराहन्ता, विमर्शशक्ति, ललिता भट्टारिका अथवा मातृका — मातृका शब्द की व्युत्पत्ति विसर्ग शक्ति और मातृका - आनन्द, सार, हृदय कालकर्षिणी आदि मातृका के पर्याय- पराशक्तिरूप प्रतिभा और मातृका – विसर्ग शक्ति और सहृदयता — कुण्डलिनी अथवा मातृका - शुद्धविद्या अथवा मातृका - वागीश्वरी अथवा मातृका - अहं और इदं का सामानाधिकरण्य अथवा शुद्ध विद्या - कामकला, महात्रिपुरसुन्दरी या मातृका – गणेश- ग्रह नक्षत्रादि-रूप मातृका – देश क्रम और कालक्रम की उत्पादिका मातृका – षडध्वजननी मातृका — त्रिपुरा अम्बिका अथवा मातृका - इच्छा, ज्ञान और क्रियात्मक त्रिकोण अथवा जन्माधार की हेतु मातृका - अकार तथा हकार की प्रत्याहारात्मक अहन्ता या मातृका - नववर्ग - सप्तमातृकाएँ - स्वरूप अष्टमातृकाएँ - अष्टवर्ग और देवता - वर्ग-शक्तियों के तीन भेद ——- घोरादि भेदों का निरूपण - पर आदि भेदों के साथ एकता - अष्टकेश्वरी - योगिनी और ब्राह्मी आदि मातृकाएँ - योगिनीहृदय के अनुसार अष्टमातृ- काओं का स्वरूप — मातृकावर्ण और क्रम-वर्णों के बीज और योनि के दो भेद – स्वरों और व्यञ्जनों की शिव और शक्तिरूपता - मातृका क्रम ही सिद्धा और पूर्वमालिनी के नाम से ख्यात है - भिन्नयोनि मालिनी अथवा उत्तर मालिनी शक्ति- मालिनी वर्ण क्रम- रुद्र

वर्ण-क्रम

और शक्तियों की माला अथवा मालिनी - मातृका – चक्र अथवा मातृका कलाएँ – मातृका वर्णों के देवी, रश्मि आदि अभिधान – वर्णों की अग्नीषोमात्मकता - बीज और स्वर - स्वर शब्द का निर्वचन - योनि और व्यञ्जन – व्यञ्जनों के दो भेद - स्पर्श और व्यापक - सौम्य, सौर और आग्नेय

और नपुंसक वर्ण – शिव और शक्तिमय का विवरण ।

वर्ण - पुरुष, स्त्री स्वर - बहिर्मातृका

( ३१ )

पञ्चम अध्याय : मातृकाओं के वर्ण-रूप, स्वरूप, अभिरूप, महिमा, ११४-१३९

कला, देवता, शक्ति, ऋषि और छन्द

वर्णों की निर्मलता और उनका क्षरण – वर्णों के रंग सनत्कु

मार संहिता मत – अन्य तन्त्रों के अनुसार वर्णों के रंग - कामधेनु- तन्त्रानुमत वर्णों का स्वरूप - पचास वर्ण या युवतियाँ - वर्णों की मूर्ति और महिमा - सनत्कुमारसंहिता में वर्णित महिमा - सोलह स्वर और चान्द्रकलाएँ - स्पर्शयुग्म द्वादश सौरकलाएँ- दश आग्नेय कलाएँ – प्रणव की पाँच कलाएँ तथा उनसे उत्पन्न पचास वर्ण और उनके नाम - वर्णों के देवता और शक्तियाँ - वर्णों के ऋषि और छन्द ।

षष्ठ अध्याय : मातृका वर्ण-विकास

J

१४०-१७१

सृष्टि सम्बन्धी प्रचलित मतवाद - परिणाम, विवर्त, प्रति- बिम्ब एवं आभासवाद - परवर्ती दार्शनिकों का वादों के प्रति आग्रह - परिणाम एवं विवर्त - भर्तृहरि, शान्तरक्षित तथा भवभूति सम्मत परिणाम या विवर्त - तन्त्रसम्मत परिणाम - श्रुति, ब्रह्मसूत्र तथा शङ्कर को भी तन्त्रसम्मत परिणामवाद ही अभिमत है—- रामानुज, निम्बार्क, बल्लभ आदि आचार्यों का अविकृतपरिणाम- वाद- तान्त्रिकों को परिणामवाद ही अभीष्ट है – आभासवाद और प्रतिबिम्बवाद की एकता - स्वरूप विवेचन - परिणाम, विवर्त एवं आभासवाद में त्रुटियाँ - स्वातन्त्र्यवाद - आभासवस्तुवाद, आभाससार- वस्तुवाद अथवा दर्पणविधि बाह्यवाद की प्रतिरोधी मात्र - क्या स्वातन्त्र्यवाद और आभासवाद एक है- क्षेमराज का आभासपर- मार्थवाद और अभिनवगुप्त के आभासवाद की तुलना (टिप्पणी) – उत्तीर्ण तत्त्व - स्फुरत्ता या विमर्शात्मक दर्पण - अहं, पूर्णाहन्ता या शिवशक्तिसामरस्य - एकपदागमा विद्या, एकाक्षरा वाक् अथवा एकवर्ण - ‘अहं’ से वर्णों और उनके सदाशिवादि अर्थों की युगपत् उत्पत्तिका निरूपण — अनुत्तर शिव अथवा ‘अकार’ का चित् शक्ति - यामल या ‘आकार’ अथवा आनन्दशक्ति - विश्व विसर्गात्मक परामर्श, इच्छाशक्ति अथवा ‘हकार’ - ईशित अथवा ईकार- उन्मेष, ज्ञानशक्ति अथवा उकार - ऊनता या ऊकार - परामर्श-षट्क ही समस्त वर्णों का जनक है - प्रकाश तथा स्तम्भ - स्वभाव ज्वलन और धरात्मक ‘र’ और ‘ल’ श्रुतियों का क्षुब्ध और अक्षुब्ध

( ३२ )

इच्छा शक्तियों के साथ समापत्ति और षण्ढ वर्णों का जन्म - ज्ञानशक्ति, उत्पत्ति-भूमि नहीं किन्तु अभिव्यक्ति - भूमि - षण्ढ वर्णों में बीज और योनित्व का अभाव - क्षोभ और क्षोभणा- रादि वर्ण- पञ्चक से ए, ऐ और ओ, औ की उत्पत्ति - एकारादि क्रमशः क्रियाशक्ति के अस्फुट, स्फुट, स्फुटतर तथा

  • अनुत्त-

स्फुटतम रूप - निरूपण – बिन्दु,

शक्तिप्रधान

परामर्श

औकार-बिन्दु-स्वरूप का

त्रिशूलवर्ण या शक्तिमत्प्रधान

परामर्श - विसर्ग,

( वर्ण ) – विन्दु और मकार में अन्तर - विमर्शात्मक विसिसृक्षा अथवा विसर्ग - विसर्ग के तीन रूप – विसर्ग के विविध नाम- वर्गों की वर्णपञ्चकता - अनुत्तर से कवर्ग का जन्म - अक्षुब्ध इच्छा शक्ति से चवर्ग की उत्पत्ति - अक्षुब्ध और क्षुब्धात्मक इच्छा शक्ति से टवर्ग और तवर्ग का उद्भव - उन्मेष से पवर्ग का उदय - पचीस वर्णों की स्पर्शता - अन्तःस्थों की उत्पत्ति का निरूपण – ‘अन्तःस्थ’ का अभिप्राय – ऊष्मा और ऊष्म वर्ण - सकार के विविध अभिधान - षण्ढ वर्णों में उत्पादकता कैसे ? कूटबीज या क्षकार स्वरषट्क या सूर्य- कलाएँ - दीर्घ स्वर और चान्द्रकलाएँ — सूर्य-चन्द्र, भोक्ता और भोग्य - वर्णों में भोक्तृ-भोग्य भाव - वर्णत्रयी - पर, परापर और अपर शक्तियाँ या त्रिक् द्वादश संवित्तियाँ – योगिनी या कलाएँ – शब्दराशि या भैरव - शाक्त विसर्ग का ‘अहं’ में अवस्थान - अहन्ता से वर्णों का उदय और उसी में लय – मुण्डमाला या वर्णमाला ।

सप्तम अध्याय : मातृका - वर्ण-रूप वाचक और उनके वाच्य० १७२ - १८७

वाचकों और वाच्यों का युगपत्प्रादुर्भाव – अनन्यापेक्षिता– शिवप्रधान वाच्य विश्व - शक्तिप्रधान वाचक विश्व - परात्रिंशका के अनुसार वाचक और उनके वाच्य - स्पर्श वर्ण और पचीस तत्त्व- य से क्ष तक वर्ण समुदाय तथा ‘राग’ से शक्तिपर्यन्त तत्त्व- स्वर वर्ण और शिव तिथि या स्वर - तिथियाँ और प्राणचार - प्राण की स्थिति, उदय और अस्त - छत्तीस अंगुलात्मक प्राणवाह- शरीरगत दिन और रात्रि - प्राणापान अथवा सूर्य-चन्द्र – प्राणीय प्रहर - सायं और प्रातः सन्ध्या - प्रभात – क्षण और त्रुटि की परिभाषा - प्राणपथ और सोलह त्रुटियाँ - अपान पथ में भी सोलह त्रुटियाँ - मास – पन्द्रह त्रुटियाँ और तिथि - तिथि, स्वर, तथा

( ३३ )

विसर्ग या षोडशी कला – हृदय से द्वादशान्त पर्यन्त प्राणचार के बीच वर्णों का उदय – पर, सूक्ष्म और स्थूल वर्णोदय-परतर, पर- तम सूक्ष्मसूक्ष्म तथा सूक्ष्मस्थूल वर्णोदय - वर्णों का उदय अयत्नज होता है - स्वच्छन्दतन्त्र के अनुसार बाह्य काष्ठात्मक काल और आध्यात्मिक अहोरात्र - आध्यात्मिक मास - वर्ष – साठ संवत्सर - इक्कीस हजार छः सौ प्राणचार और जप संख्या - वर्ण और ग्रह, राशि तथा नक्षत्र — वर्णों का पञ्चभूतात्मक विभाजन - पञ्चभूत और चित्रलिपियों - वर्णों का नवधा पाञ्चभौतिक वर्गीकरण - वर्ण; ज्ञान-विज्ञान की कुञ्जी ।

अष्टम अध्याय : मन्त्र : स्वरूप विचार तथा प्रकार-भेद १८८-२०२

उपायात्मक मन्त्रों के रूप में परमेश्वर का स्फुरण - मन्त्रों में वर्तमान अव्यय शक्ति - मनन और त्राण – परावागात्मक अनुभूति ही मन्त्र है - मन्त्रवीर्य या मन्त्रोपनिषद्, मन्त्रवर्ण समुदाया- त्मक मन्त्रों में माया से प्रबल शक्ति का उपपादन — मन्त्रों की नित्यता का स्वरूप विवेचन - चित्त ही मन्त्र है; शिवसूत्र का मत - चित्त का निरूपण – मन्त्रों की त्रिधा व्याख्या - १. पूर्णाहन्तात्मक मन्त्र, २. आराधक का चित्तात्मक मन्त्र तथा ३. वर्णात्मक मन्त्र ग्राह्य और ग्राहक – प्रमेयांश और प्रमात्रंश – परमप्रमाता और अवम प्रमाता — सकल, प्रलयाकल और विज्ञानाकलात्मक प्रमातृगण – विज्ञानाकल अथवा मन्त्र, मन्त्रेश्वर और मन्त्रमहेश्वर - शुद्ध और अशुद्ध अध्वा - विज्ञानाकलों का शुद्ध अध्वा से सम्बन्ध - विज्ञानाकलों का स्वरूप और स्थान — मन्त्र महेश्वर - आठ मन्त्रेश्वर- सात करोड़ मन्त्र - मन्त्र या रुद्र - विज्ञानाकलों के सम्बन्ध में स्वच्छन्दतन्त्र का मत - परात्रिशिका का मत - स्पन्दशास्त्र और मन्त्र - नेत्रतन्त्र में मन्त्र सम्बन्धी प्रश्नोत्तर - प्रश्न- मन्त्रों की आत्मा या अधिष्ठाता - मन्त्रों का स्वरूप : आकार या निराकार - तुलनात्मक दृष्टान्त — मन्त्रों का सामर्थ्य – मन्त्रों का प्रेरक कौन ?- उत्तर – मन्त्रः — त्रितत्त्वज - मन्त्रों में शिवत्व और शक्तित्व का निरूपण – मन्त्रों में वाच्य और वाचक शक्तियाँ- मन्त्र और प्रार्थना - स्तुतियाँ - गुणकीर्तन और आशी :- गुणकीर्तन या देवता के स्वरूप की ख्याति – आशी : या सामर्थ्य -मन्त्र अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आमन्त्रक - मन्त्रों के भेद - पुं, स्त्री, ३ म० भ०

नपुंसक – सिद्ध, साध्य,

और माला - सात्विक,

( ३४

)

सुसिद्ध और अरि - पिण्ड, कर्तरी वीज

राजस और तामस - साबर और डामर

मन्त्र - मन्त्रों के अन्य सत्तावन भेद - मन्त्रों के संस्कार - ऋणी और धनी मन्त्र ।

उपसंहार :-

२०२ - २०८

तन्त्रसम्मत मन्त्रविज्ञान तथा वैदिक मन्त्र - विद्या में साध्य

का निरूपण – जप और नाद या देवता के सतत अनुसन्धान से मन्त्र

J

देवता की प्रसन्नता ।

परिशिष्ट - १ : रहस्यमयी तान्त्रिक स्तुतियों का संग्रह -

२०९ - २६८

त्रिपुरसुन्दरीमहिम्न स्तोत्र, परशम्भुमहिम्न स्तव, सुभगोदय-

स्तुति, पञ्चस्तवी : - (१) लघुस्तुति, (२) घटस्तव, (३) चर्चास्तुति,

( ४ ) अम्बास्तुति, ( ५ ) सकलजननीस्तव ।

परिशिष्ट २ : नन्दिकेश्वरकाशिका ।

२६९-२७५

परिशिष्ट ३ : वर्णोद्धारतन्त्रोक्त मातृकाओं की ध्यान सम्बन्धी

आकृतियाँ ।

२७६-२८२

परिशिष्ट ४ : मातृकाओं पर ऐतिहासिक दृष्टि ।

२८३ - २८८

उद्धृत सहायक ग्रन्थों की सूची ।

अनुद्धृत सहायक ग्रन्थों की सूची ।

ग्रन्थकार-परिचयः ।

२८९ - ३९२

२९३ - २९४

२९५-२९६

मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य