साधना के क्षेत्र में एकान्ततः अनभिज्ञ के लिए भी सबसे सरल एवं सहज साधन है शब्द । माँ की गोद में बैठा हुआ भोला शिशु जैसे निर्द्वन्द्व रहता है, शब्द की शरण में आया हुआ साधक, उसी प्रकार संसार - जलधि की महोर्मियों से क्रीडा करता हुआ भी विश्राम लाभ करता है । शब्द, पराम्बा, जगज्जननी का प्रतिरूप है और उद्गत अर्थ शिवरूप । जिस प्रकार शब्द, अर्थ का आधार है वैसे ही शक्ति, शिव का दिव्यासन । शब्दरूपी शक्ति का अञ्चल पकड़े बिना अर्थरूपी शिव का बोध असम्भव है । गायत्री मन्त्र में इसी लिए सविता के तेज के ध्यान करने की बात कही गई है, साक्षात् सविता की नहीं । तेज, वहाँ शक्ति का वाचक है । शम्भु के ज्ञान, इच्छा, क्रिया आदि को शक्तिरूप समझना चाहिए । अप्पयदीक्षित ने आनन्दलहरी में कहा है
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शम्भोर्ज्ञानक्रियेच्छा बलकरण मनःशान्तितेजश्शरीर-
स्वर्लोकागारदिव्यासन वरमहिषीभोग्यवर्गादिरूपा । सर्वरेतैरुपेता स्वयमपि च परब्रह्मणस्तस्य शक्तिः,
सर्वाश्चर्यैकभूमिर्मुनिभिरभिनुता वेदतन्त्राभियुक्तैः ॥
लक्ष्मीनाराणय, राधाकृष्ण, सीताराम, पार्वतीशङ्कर आदि आख्याओं में शक्ति का जो पहले नाम लिया जाता है उसका यही रहस्य है । बोध के सोपान में शक्ति आदिम पर्व है; बिना उसका आश्रय लिए आगे बढ़ना शक्य नहीं । अद्वैतवेदान्ती संक्षेपशारीरककार ने भी माना है कि उपासना की भूमिका में चित् शक्ति को विस्मृत करके नहीं चला जा सकता :-
चिच्छक्तिः परमेश्वरस्य विमला चैतन्यमेवोच्यते,
सत्यैवास्य जडापरा भगवतः शक्तिस्त्वविद्यात्मिका । संसर्गाच्च मिथस्तयोर्भगवतः शक्त्योर्जगज्जायतेऽ-
सच्छक्त्या सविकारया भगवतश्चिच्छक्तिरुद्रिच्यते ॥ इत्येवं कथयन्ति केचिदपरे श्रद्धालवस्तत्पुनः,
कस्याश्चिद्भुवि सम्मतं च विदुषां नेष्टं तु भूम्यन्तरे । कर्मोपास्तिविधानभूमिषु तथा तत्सम्मतं, निर्गुणे-
तत्त्वे तत्परवेदवाक्यविषये त्वालोचिते नेष्यते ॥ २२८। ३अ० । शब्द और अर्थ के सदृश शिव और शक्ति में अभेद, भेदाभेद तथा भेद
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तीनों सम्भव हैं । शक्ति को कदाचित् धर्म, कभी धर्मी और किसी अवस्था में उभयरूप माना गया है ।
श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणाभियुक्तसूक्तिप्रमाण्यात् सकल चिदचित्प्रप- महाविभूतिरूपा महासंविदानन्दसत्ता देशकालादिपरिच्छेदशून्या स्वाभाविकी परमशक्तिः परब्रह्मणः शिवस्य स्वरूपञ्च गुणश्च भवति ।
–आनन्दलहरी - चन्द्रिका ।
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शब्द, अर्थ की महिमा को पूर्णतया व्यक्त नहीं कर सकता किन्तु अपने में निगूढ उसके अपार वैभव को इङ्गित तो करता ही है । उसी प्रकार अगणित कुन्द - कलियों की मालाओं से मण्डित नीलाम्बरा यामिनी, उषा की अरुण आभा से अठखेलियाँ करता हुआ विविध रंग- रूपमय राशि राशि पुष्प- सम्भार, गगनाङ्गनाओं की ग्रीवा से टूट कर गिरी हुई मरकत मणियों की माला के सदृश धरती पर फैला हुआ दुर्वाकुरों का हरित जाल, सहकार - मञ्जरी के मादक गन्ध से उन्मत्त कोकिल का कल- कूजन, आकाश में निर्बन्ध अवलम्बित अमृतफल से झरती हुई मधु चन्द्रिका, किसी कुशल शिल्पी की लौह- लेखनी के सङ्केत द्वारा कठोर शिलाखण्ड के अन्तराल से अभिव्यक्त प्रस्तर- कुमारी, एवं साहित्य सङ्गीत मानवादि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द के असंख्य रूपों में, अर्थब्रह्म शिव के अमित ऐश्वर्य को अंशतः अभिव्यक्त करती हुई शब्दब्रह्म- रूपिणी महाशक्ति थकती नहीं है । महामति व्यास ने कहा था- ‘वनलता- स्तरव आत्मनि विष्णुं व्यञ्जयन्त इव पुष्पफलाढ्याः ।’ सम्पूर्ण चराचर जगत् की क्षण-क्षण परिणति के बहाने - ‘यह नहीं है’ ‘यह नहीं है’ इस प्रकार विश्व की चरम महनीयता एवं नित्यत्व का निषेध करती हुई महामाया, इस हिरण्यमय आवरण के पीछे वर्तमान अमर सत्ता, चेतना एवं आनन्दमय महो- द्गम की ओर सङ्केत करती रहती है ।
यह समस्त जगत् वेदों की भाषा में अग्निषोमात्मक है और तन्त्रों की वाणी में शिव-शक्तिमय । दोनों संज्ञाओं में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है । इस जगत् को सर्वथा हेय और अपदार्थ समझ कर केवल आँख मूँद कर अस्वीकार नहीं किया जा सकता । हम जिस अधिकार को लेकर संसार की भूमिका पर उतरते हैं उसका निर्वाह परमावश्यक है । किन्तु वह अधिकार कैसे चरितार्थं हो यही मूल प्रश्न है । पुराणों में ‘इह लोके सुखं भुक्त्वा अन्ते ब्रह्मपुरं व्रजेत्’ की जो बात कही है उसी का सङ्केत ‘भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव’ के रूप में तन्त्रों में मिलता है । यही पूर्णाङ्ग जीवन का आदर्श है । इस प्रकार की जीवनयात्रा जगत् के तात्विक स्वरूप को जाने बिना कैसे सम्भव है ? ज्ञान
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के उपायों की, यहाँ गिनती नहीं है; किन्तु हमारे लिए सहज सुलभ है, शब्द, जिसे तन्त्रों की भाषा में मातृकाशक्ति अथवा महामन्त्र कहते हैं । ध्यान की सहकारिता से मन्त्र जप के द्वारा जन्म-जन्मान्तर का कलुष क्षालित हो जाता है और आत्मा अपने प्राकृत रूप में निखर उठती है और तब जगत् एवं जीवन-यापन की सर्वसुखद, निरामय तथा सर्वतोभद्र प्रणाली को जान लेना
दुष्कर नहीं रह जाता श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया है
‘ध्यान निर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत् । '
योगसूत्र के व्यासभाष्य में एक प्राचीन गाथा उद्धृत है
स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत् । परमात्मा प्रकाशते ॥
स्वाध्याययोगसम्पत्त्या
अर्थात् जप से ध्यानस्थ हो तथा ध्यान से जप का अभ्यास करे; इस प्रकार जप और योग के सम्पादन से परमात्मा प्रकाशित हो उठता है ।
परमात्मसूर्य के पूर्णरूप से उद्भासित होने की पूर्वसूचना के रूप में पुराणी युवती आदिम उषा या प्रतिभा का हृदयदेश में आविर्भाव होता है । और तब उस प्रातिभ बोध के उज्ज्वल आलोक में तत्त्वातत्त्व कुछ भी अगोचर नहीं रह जाता । प्राचीन काल में, ऋषियों द्वारा परमात्म प्रकाशन के लिए जिस ध्यान और मन्थन की प्रक्रिया का प्रवर्तन किया गया था, पुराणों में तन्त्रों में उसकी पूर्ण स्वीकृति देखी जाती है ।
मन्त्रों वर्णों की रहस्यमयता के प्रति सहज औत्सुक्य मुझे संस्कारतः प्राप्त रहा है । इस विषय पर शोध के लिए गोरखपुर विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृति प्राप्त होने पर मेरी तत्सम्बन्धी उत्सुकता को और बल मिला। फलतः इस ग्रन्थ का प्रणयन हुआ, जो कि अब प्रकाश में आ रहा है । तन्त्रों के नानाविध सम्प्रदायों एवं रहस्यों के मर्मज्ञ मनीषी, अखण्ड महायोगी विश्वविख्यात दार्श- निक, महामहोपाध्याय, पद्मविभूषण डॉ गोपीनाथ कविराज जी इस शोध- ग्रन्थ के परीक्षक रहे हैं और उन्होंने इसकी भूमिका-लिखने का भी कष्ट उठाया है; एतदर्थ मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ । लखनऊ विश्वविद्यालय के भूतपूर्व संस्कृतविभागाध्यक्ष, शैवदर्शन-विशेषतः काश्मीर शैवदर्शन के अन्तर्गत प्रत्यभिज्ञा, क्रम एवं कौल सम्प्रदायों के इतिहास, विषय वैचित्र्य तथा मार्मिक- ताओं के एकमात्र गवेषणापरायण विद्वान्, डॉ० कान्तिचन्द्र पाण्डेय भी इस ग्रन्थ के परीक्षक थे और इसकी प्रशंसा की थी अतः उनके प्रति भी कृतज्ञता - ज्ञापन मेरा कर्तव्य है । गोरखपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष, तन्त्रान्तर्गत मन्त्रसङ्केत, चक्रसङ्केत एवं पूजासङ्केत के मर्मज्ञ, वेदान्तवित् आदरणीय डॉ० वीरमणिप्रसाद उपाध्याय, एम. ए. बी. एल., डी. लिट्.,
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साहित्याचार्य मेरे निर्देशक एवं परीक्षक थे अतः मैं उनका भी अत्यन्त उपकृत हूँ । उन्होंने इस ग्रन्थ का संक्षिप्त एवं सारगर्भित आमुख लिखने की भी कृपा की है इसके लिए मैं उनके प्रति श्रद्धावनत हूँ ।
विशेष सतर्क रहने पर भी ग्रन्थ में यत्र तत्र मुद्रण सम्बन्धी त्रुटियों का रह जाना असम्भव नहीं है, जिज्ञासु पाठकगण उन्हें सरलता से सुधार लेंगे ऐसी आशा है । ( हाँ, पृष्ठ १५८ की पच्चीसवीं पंक्ति के मध्य से लेकर ३२वीं पङ्क्ति में समाप्त होने वाले, वाक्य को इस प्रकार पढ़ें- ’ जैसे इकार, रेफांश छाया से प्रतिच्छायित होकर स्वरान्तर का रूप ग्रहण करता है वैसे ही अस्वर अनुत्तर, प्रकाशात्मा ( अकार ) चित्शक्त्यात्मक आदिवर्ण, ‘मकार’ और ‘हकार’ के लेशस्वरूप उपाधि का अवलम्बन करके, वैसी श्रुतिमात्र से बिन्दु और विसर्ग- इन दो रूपों में विभक्त होकर परामर्शान्तिर ( वर्णान्तर ) का स्वरूप ग्रहण करता है - अनुत्तररूप प्रकाश, अपने स्वातन्त्र्य से, स्वरूप को छिपाकर शक्तिदशा को आभासित करके, सङ्कुचित प्रमातृरूपता की प्रकाशित करता है ।’
ग्रन्थ के आवरण पृष्ठ पर दिए गये चित्र की कल्पना सौन्दर्यलहरी के निम्नाङ्कित श्लोक के आधार पर समझना चाहिए
समुन्मीलत्सं विकमलमकरन्दै कर सिकं
भजे हंसद्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम् । यदालापादष्टादशगुणित विद्यापरिणति-
दादत्ते दोषाद् गुणमखिलमद्भ्यः पय इव ।।
ग्रन्थ की सज्जा एवं सुन्दर प्रकाशन के लिए ‘चौखम्बा संस्कृत सीरीज’ तथा ‘चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी’ के व्यवस्थापक महोदय धन्यवाद के पात्र हैं । अन्त में मेरा इतना ही वक्तव्य है कि :
सम्भूय मातृकाभिर्महनीयाभिर्मनोविनोदाय । व्यरचि ग्रन्थोऽशेषः लेशो न पुनर्ममेह सम्भाव्यः ॥
- शिवशङ्कर अवस्थो