मुझे परम हर्ष है कि मेरे विभाग के भूतपूर्व प्राध्यापक डॉ० शिवशङ्कर अवस्थी ने जिस ’ मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य’ नामक शोध-प्रबन्ध को मेरे निर्देशन में प्रस्तुत किया वह ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हो रहा है । यह डॉ० अवस्थी के घोर परिश्रम, गम्भीर तथा व्यापक अध्ययन और दुरवगाह तन्त्रागमशास्त्र में प्रगाढ श्रद्धा का परिणाम है। इसके उत्कर्ष एवं वैशिष्ट्य से पूर्णतया परिचित होने के कारण मैं उन्हें प्रकाश में लाना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ ।
आगम तथा तन्त्र अतिप्राचीन रहस्यसङ्कुल, निगूढतम तथा परमाहित शास्त्र है-
‘आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतं च गिरिजानने ।
मतं च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते’ ॥
‘गुरुशिष्यपदे स्थित्वा स्वयं देवः सदाशिवः ।
प्रश्नोत्तरपदैर्वाक्यस्तन्त्रं
समवतारयत्’ ।
( महास्वच्छन्द )
यह मानना पड़ेगा कि तन्त्रागम पर इस प्रकार का कोई विशद ग्रन्थ हिन्दी में अब तक नहीं प्रकाशित हुआ था । मैंने ‘तन्त्रागम’ का प्रयोग इसलिये किया है कि इसमें प्रतिपादित सिद्धान्त, शैवागम तथा तन्त्र दोनों पर आधृत हैं ।
तन्त्र में प्रकाशविमर्शसामरस्यरूपिणी पराशक्ति के त्रिविध संकेतक वर्णित हैं - ( १ ) चक्रसंकेतक, ( २ ) मन्त्रसंकेतक तथा ( ३ ) पूजासंकेतक । इस ग्रन्थ में मुख्यतः मन्त्रसंकेतक का निरूपण किया गया है ।
सृष्टि के अव्यवहित पूर्व प्राणियों के विविध अदृष्टों के वश स्वान्तः संहृत, शिवशक्तिमय, मेयमिति मातृरूप, भेदाऽभेदतदुभयसामरस्यस्वरूप, प्रकाशविम- शऽपरपर्यायचिच्चैत्यात्मक, बाह्याभ्यन्तर- विविध विचित्र विश्व की सिसृक्षा से शुद्धनिर्विकल्पचित् और तदभिन्न पराशक्ति अर्थात् समस्तभूतान्तरात्मा, अनव-
( १२ )
}
च्छिन्ना, पराभट्टारिका महात्रिपुरसुन्दरी का ईक्षणात्मिका परावाक् ( विमर्श- शक्ति ) के रूप में प्रथम स्फुरण होता है ।
‘शिवशक्तिरिति ह्येकं तत्त्वमाहुर्मनीषिण: ।
( कामकलाविलास - चिद्वल्ली )
“शिवाऽभिन्ना पराशक्ति: सर्वकर्मशरीरिणी । वामादीच्छादिभेदेन मिथुनत्रयतां गता’ ॥
( स्वच्छन्दसङ्ग्रह )
‘न शिवेन विना देवी, न देव्या च विना शिवः । नानयोरन्तरं किविच्चन्द्रचन्द्रिकयोरिव ॥ ‘अन्योऽन्यलीन वपुषोरिह
चैत्यचित्योः’ ।
( मातृकाचक्रविवेक )
चिदानन्देच्छाज्ञानक्रियारूपा तथा कामेश्वराऽविनाभूता महात्रिपुरसुन्दरी
परमा कला परमकाम अर्थात् कामकला भी कही जाती है ।
‘कला विमर्शशक्तिः’ ।
‘तदुभयभूत कामेश्वराऽविनाभूता
कामकलेत्युच्यते’ ।
महात्रिपुरसुन्दरी
महात्रिपुरसुन्दरी बिन्दुसमष्टिरूपा
‘आत्मनः स्फुरणं पश्येद् यदा सा परमा कला ।
अम्बिका रूपमापन्ना परा वाक् समुदीरिता’ ॥
का० क० वि०
उपर्युक्त स्फुरण विविक्तशिवशक्तिरूपता या पृथगवभासमानप्रकाशविमर्श-
रूपता की प्रथमावस्था है ।
‘काम्यते अभिलष्यते स्वात्मत्वेन परमार्थविद्भिर्महद्भिर्योगिभिरिति कामः’ । अर्थात् जिसे परमार्थविद् महायोगी स्वात्मा के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं वही प्रकाश काम है ।
‘यत्ते कल्याणतमं तत्ते पश्यामि, योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि’ ।
( उपनिषद् )
अन्तर्गभितसमस्तवर्णकदम्बका वर्ण-कला-पद-मन्त्र-तत्त्वभुवनात्मक समस्त- प्रपञ्चजनयित्री पराशक्ति ही स्वरूपभूत इच्छा से विश्व का अपने से बाह्य सा उद्गिरण या उन्मीलन तथा पुनः अपने में ही निगिरण अर्थात् निमीलन कर लेती है । उद्गिरण चैत्यस्वरूप-विस्फुरण अथवा विविधविश्वभेदविजृम्भण
( १३ )
है और निगिरण चैत्यस्वरूपनिगूहन अथवा चिद्गगनविश्रान्ति है । उद्गिरण आयास तथा आकुलता है और निगिरण विश्रान्ति तथा निराकुलता है; क्योंकि विमर्श संसरणस्वभाव है और प्रकाश विश्रमणस्वभाव ।
‘विचित्रविश्वोद्वमनानुचर्वण क्रियातदुन्मेषसम्भ्रमा विमर्शशक्तिः ।’
( मा० च० वि० )
‘स्वेच्छयैव जगत्सर्वं निगिरत्युद्गरत्यपि ’ । ( आज्ञावतार ) ‘संसारविश्रम जुषोः - संसरणस्वभावो विमर्शो विश्रमणस्वभावः प्रकाशः’ ।
( मा० च० वि० )
G
परशिवस्वरूप प्रकाश जब प्रपञ्च के अनुसन्धान अथवा उन्मीलन की इच्छा से अपने में ही विश्रान्त, परा-प्रकृति- माया - अविद्या आदि पदों से व्यवह्रियमाण, जगद्बीजभूत विमर्श को परमार्थतः अपने में ही कायम रखते हुए भी बाह्य सा विसर्जन करता है तब विमर्श ‘विसृज्यते इति विसर्ग : ’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार विसर्ग कहलाता है । पुनः वही शिवरूप प्रकाश जब प्रपञ्च के संहार अर्थात् निगिरण की इच्छा से प्रकृति को अपने में निमीलित करने लगता है तब प्रकाश ’ विन्द्यतेऽविच्छिद्यत इति बिन्दु:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार बिन्दु कहलाता है ।
सर्वप्रथम सृष्टिक्रम में नित्यनिष्यन्दमानसुखबोधसुधास्वरूप, परमानन्द- सन्दोहप्रमोदभरनिर्भर, निर्मल, निर्विकल्प, निरुपमपद शुद्धचित् का निरवधि- काऽकृत्रिम सच्चिदानन्दस्वरूपिणी इच्छाज्ञानक्रियामूलस्रोतस्विनी पराशक्ति में दर्पणवत् प्रतिफलन होने पर और तत्फलस्वरूप स्वस्वरूपविमर्श सम्बन्ध के अभिव्यक्त हो जाने पर महाबिन्दु ( निखिलविश्वमूल परमेश्वर) का ‘पूर्णोऽहम्’ इत्येवंरूप उन्मेष होता है यह महात्रिपुरसुन्दरी का अद्वितीय तथा अनुपम विलास है । तब अखिल वेदादिशब्दोत्पादक परमेश्वर, (चित्तत्त्व अर्थात् प्रकाश ) स्वात्मभूत निखिलप्रपञ्चनिलयात्मक विमर्शशक्ति में अनुप्रवेश करता है और उसके फलस्वरूप बिन्दुभाव को प्राप्त करता है । तदनन्तर वह विमर्शशक्ति भी स्वान्तर्गत प्रकाशमय बिन्दु में अनुप्रवेश करती है और उसके फलस्वरूप बिन्दु के उच्छून हो जाने पर उस बिन्दु से समस्ततत्त्वगर्भिणी तेजोमयी नीवारचावल की नोक के समान सूक्ष्म नादात्मिका अर्थात् नाद के रूप में आविर्भूत होती है । सारांश यह कि प्रकाश के विमर्शशक्ति में अनुप्रवेश से बिन्दु का और विमशक्ति का उस बिन्दु में अनुप्रवेश से नाद का उन्मीलन होता है । इस प्रकार बिन्दु- नादस्वरूप प्रकाश-विमर्श से ‘अहम्’ इत्याकारक स्वरूप निष्पन्न होता है ।
( १४ )
‘अकार: सर्ववर्णाग्रयः प्रकाशः परमः शिवः । हकारोन्त्यः कलारूपो विमर्शाख्यः प्रकीर्तितः ॥
उभयोः सामरस्यं यत्परस्मिन्नहमि स्फुहम्,
ज्ञानक्रियोन्मुखहकारमयाऽद्वयेच्छा,
( सङ्केत पद्धति )
विश्रान्तिरन्तर्बहिर्मुखविश्रमात्मा ।
कूटाक्षरात्मतनुरेष शिवः सुषुप्ति - विश्रान्तिरेव सविकल्पकलाल्पगन्धा’ ॥
( मा० च० वि० )
‘येयमपरिच्छिन्नज्ञानक्रियात्मक सदाशिवेश्वर स्वरूपज्ञानक्रिययोरधिष्ठात्री ज्ञानक्रिययोः कूटस्थत्वलक्षणेन तदधिष्ठातृत्वेने च्छाव्यपदेशविषया इच्जास्वरूपिणी शक्तिः ॥ ( मा० च० वि० )
‘वन्दे तामहमक्षय्यामकाराक्षररूपिणीम् ’ ।
( वा० त० )
तदनुसार अकार प्रकाशस्वरूप शिवतत्त्व का और हकार विमर्श स्वरूप शक्तितत्त्व का वाचक है । इन दोनों ( शिवशक्त्यात्मक प्रकाशविमर्शद्वय ) से और इन दोनों में ही समस्त विश्व का उन्मीलन तथा निमीलन होता है । सारांश यह है कि - ’ अन्तर्गभितसमस्तवर्ण कदम्बकाऽहङ्काररूपप्रकाशविमर्श सम्पात’ से ही शब्दार्थात्मक सर्वप्रपञ्च का विकास होता है । यह मौलिक तन्त्रसिद्धान्त है । ज्ञानक्रियारूप अन्योऽन्याविनाभूत शिवशक्ति के सतत अविच्छिन्न अन्योऽन्या-
नुराग
के कारण दोनों अन्योऽन्यस्वभाव से उपरक्तस्वभाव रहते हैं । ज्ञान प्रकाश- रूप होने से शिवस्वरूप है और क्रिया विमर्श रूप होने से शक्तिस्वरूप है । इच्छा प्रकाशविमर्शसामरस्यस्वरूप है, अतएव शिवशक्तिसामरस्वरूप है ।
उद्गिरण भेदसंसार या प्रवृत्तिसंसार से सम्बन्ध रखता है और निगिरण अभेदसंसार या निवृत्तिसंसार से । पहला पशुसंसार ( जीवसंसार) और दूसरा शिवसंसार भी कहा जाता है और इन दोनों में व्याप्त तथा दोनों का आधार- भूत भेदाभेदरूप तीसरा संसार है, जो शिवशक्तिसामरस्यात्मक माना जाता है । प्रवृत्तिनिवृत्तिस्पन्दद्वयभित्तिभूत निष्पन्दमहातत्त्वरूप सामरस्यपद शाश्वत है । प्रत्येक संसार की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं : ( १ ) इच्छा, ( २ ज्ञान और ( ३ ) क्रिया । इच्छा बीजावस्था है, जहाँ से संसार का प्रारम्भ होता है; ज्ञान ईषदुदभेदावस्था है, जहाँ उसका कुछ विकास हो जाता है; क्रिया पूर्णसमुच्छ्रयावस्था या पूर्णस्फारावस्था है, जहाँ उसका सर्वतोभावेन
( १५ )
सर्वविध अर्थात् पूर्ण विकास हो जाता है । अवस्थाओं के नाम सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत हैं और ये सभी त्रिविध संसार के सन्दर्भ में इच्छा - ज्ञान-क्रियारूप हैं। प्रत्येक के तीन भाग हैं : ( १ ) जड, (२) अजड और ( ३ ) जडाsजड । तन्त्र - शास्त्र में जडता व्याप्यत्व है, अजडता व्यापकत्व और जडाऽजडता व्याप्तिसामरस्य है । निम्नलिखित प्रकोष्ठों से तीनों संसारों की त्रिविध अव- स्थाओं का विवरण स्पष्ट होगा :-
भेद - संसार ( पशु-संसार )
सुषुप्ति इच्छा
( वीजावस्था या प्रारम्भ-
पद )
जाग्रत् = इच्छा
स्वप्न
=
- ज्ञान
( अल्पविकासावस्था
या मध्यपद )
जाग्रत् = क्रिया
( पूर्ण विकासावस्था या
चरमपद )
अभेद - संसार ( शिव - संसार )
स्वप्न ज्ञान
सुषुप्ति = क्रिया
द्विविध भेदाभेद-संसार ( शिवशक्त्यात्मकभेदाऽभेदसामरस्य-संसार)
(क) भेदोल्वण जाग्रत् =
इच्छा ( वह जडाऽजड-
भाग, जिसमें भेद उल्वण
हो )
(ख) अभेदोल्वण सुषुप्तिः
=
सुषुप्ति = ज्ञान ( वह जडाऽजडभाग, जिसमें भेद किञ्चि- न्मात्र अभेदातिशायी हो )
स्वप्न = क्रिया ( वह जडाऽजडभाग, जिसमें अभेद और भेद समरस हो जायँ )
जाग्रत् ज्ञान
इच्छा ( वह जडाऽजडभाग, ( वह जडाऽजडभाग,
स्वप्न - क्रिया
( वह जडाऽजडभाग,
जिसमें अभेद उल्वण
जिसमें अभेद किश्चि-
जिसमें भेद और अभेद
हो )
मात्र भेदातिशायी
हो )
समरस हो जायँ )
मूल से ही सृष्टि के दो भाग क्रमशः अधिकाऽधिक विविक्त विलसित होते : शब्द ( वाचक तत्त्व ) और अर्थ ( वाच्य तत्त्व ) । पारमार्थिक अवस्था में ये दोनों सामरस्यापन्न, अभिन्न, अखण्ड और एक तत्त्व हैं । जो संसारकलङ्का- स्पृष्ट, शुद्धान्तर्मुख विश्रमस्वभाव परमशिव है वही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी निरवधिकाऽकृत्रिमाऽविविक्तेच्छाज्ञानक्रियात्मिका महात्रिपुरसुन्दरी है; जो
( १६ )
निर्विकल्प चित् है वही परा शक्ति है । किन्तु उपर्युक्त प्रथम स्फुरण से ही विसर्गभूमि में उन दोनों का क्रमशः अधिकाधिक पृथक्तया भान होने लगता है और यह पार्थक्य उद्गिरणावस्था या संसारदशा में चरम सीमा तक पहुँच जाता है और निगरणावस्था में बिन्दुभूमि में क्रमश: भेद निलीन होने लगता है और शिवपद में अभेद चरमसीमा तक पहुँच जाता है ।
‘परमशिव एव प्रकाशविमर्शात्मना निजावंशौ विभज्य कामेश्वरः कामे- श्वरी भूत्वा
। ( सङ्केतपद्धति )
1
वाचकपक्ष में विश्व का उन्मेष मातृका के रूप में और वाच्यपक्ष में षट्त्रिंशत्तत्त्व के रूप में होता है । प्रत्येक वर्ण मन्त्र तथा शक्ति होने के कारण ‘मातृका’ पद से व्यवहृत होता है । यह विमर्शशक्ति माता का परिच्छिन्न अवभास है ।
‘सर्वे वर्णात्मका मन्त्राः, ते च शक्त्यात्मका: प्रिये । शक्तिस्तु मातृका ज्ञेया, सा च शेया शिवात्मिका ॥
( श्रीतन्त्रसद्भाव )
‘वर्णः कला पदं तत्त्वं मन्त्रा भुवनमेव च । इत्यध्वषट्कं देवि, भाति त्वयि चिदात्मनि ॥
( का० क० वि० )
‘या सा तु मातृका लोके परतेजः समन्विता ।
तया व्याप्तमिदं
सर्वमाब्रह्मभुवनान्तरम्’ ॥
मातृकाएँ तथा उनके वाच्य तत्त्वों ( विश्व - पदार्थों ) का विवरण संक्षेपतः
निम्नलिखित प्रकार से दिया जा सकता है।
( १ ) मातृकाचक्र विवेक के अनुसार स्वरवर्ण- मन्त्रतत्त्वप्रदर्शकप्रकोष्ठ -
अ, इ, उ, ऋ, लृ विसर्ग-
पदविषयक
स्थात्रय ।
सुषुप्त्याद्यव
अ, इ, ऋ, लृ = बिन्दुपद- विषयक सुषुप्त्याद्यवस्थात्रय । ओ-बिन्दुप्रमाता का अन्त:-
ए-विसर्गप्रमाता का अन्तः संसार ( स्वप्न ) ।
संसार ( स्वप्न ) ।
ऐ - विसर्गप्रमाता का बाह्य-
संसार ( जाग्रत् ) ।
अः=विसर्गप्रमाता ।
ए - विसर्गप्रमाण । ऐ- विसर्गप्रमेय ।
- विन्दुप्रमाता का विश्र०
—
मण- संसार ( जाग्रत् ) ।
अं-बिन्दुप्रमाता ।
ओ-बिन्दु प्रमाण ।
औ = बिन्दुप्रमेय ।
अ:, इ, ऋ, उ, लृ, अं= विस- गोदिविन्दन्तवर्णषट्क : शिव- जीवात्मक बिन्दु विसर्ग-साम- रस्यरूप महाशक्ति सामरस्य-
पद ।
सारांश यह कि स्वरवर्णं विश्वबीजभूत कलाव्यञ्जक हैं ।
( १७ )
( २ ) व्यञ्जनवर्ण-मन्त्र-तत्त्वप्रदर्शक प्रकोष्ठ -
ईषत्सङ्कोच भूमि अ, इ, उ, ऋ, लृ = ये पाँच वर्ण विसर्गव्याप्ति की दशा में ईषत्सङ्कोच को प्राप्त कर अन्तःस्थ हो जाते हैं :-
( सूक्ष्म ) भूत
य= वायु, सर्वकर्तृत्व कञ्चुक शक्तिसङ्कोच रूप - कला । यही मायातत्त्व का अधि-ष्ठान भी कहा जाता है ।
र - अग्नि, सर्वज्ञत्वशक्ति- सङ्कोचरूप - अविद्या ।
ल - पृथ्वी, पूर्णत्वशक्ति- सङ्कोचरूप - राग ।
व= सलिल, नित्यत्वशक्ति- सङ्कोचरूप- काल ।
ळ = आकाश, व्यापकत्व - शक्तिसङ्कोचरूप - नियति । पूर्णसङ्कोच भूमि।
अ, इ, उ, ऋ, लृ -ये ही विसर्गव्याप्ति की दशा में पूर्ण सङ्कोच को प्राप्त कर कवर्गा दिपञ्चक हो जाते हैं:-
(स्थूल) भूत
।
सङ्कोचत्यागभूमि
अ, इ, उ, ऋ, लृ - के बिन्दु- व्याप्ति की दशा में ईषत्पूर्ण- त्वरूप श, ष, स, ह ।
श-शुद्धि विद्या ( चवर्ग का ईषत्पूर्णत्वरूप ) (इन्द्रियैका-
कवर्ग - पृथ्वी, जल, तेज, । त्म्यानुभवरूप ) ।
वायु,
आकाश ।
चवर्ग — गन्ध, रस, रूप,
स्पर्श, शब्द ।
टवर्ग-कर्मेन्द्रियवर्ग:- पायु,
उपस्थ, पाणी, पादौ, वाक् । तवर्ग — ज्ञानेन्द्रियवर्ग:- घ्राण, जिह्वा, चक्षु, स्वक्,
श्रोत्र ।
पवर्ग - प्रकृति, अहंक्रिया, बुद्धि, मन, पुरुष ।
मन के सङ्कल्प से विस- जित होने के कारण मन का ही विलास समस्त ज्ञेयसङ्घात है। बुद्धि के ही व्यापार से प्रवर्तित होने के कारण बुद्धि काही विलास समस्त कार्य- सङ्घात है । मन तथा बुद्धि क्रमशः ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मे न्द्रिय के आन्तर (सम्पिण्डित)
रूप हैं वैसे ही जैसे बरफ
जल का ।
= ईश्वर ( क्रियाशक्ति वि- लासपद ) ( टवर्ग का ईषत्पू-
त्वरूप ) ।
स-सदाशिव ( ज्ञानशक्ति- विलासपद ) ( तवर्ग का ईषत्पूर्ण स्वरूप ) ।
इ-विमर्श रूप शक्ति (कवर्ग का ईषत्पूर्णत्वरूप ) अवि- च्छिन्नविश्रान्तिमयदेद्दात्मसा-
मरस्यस्वरूप ।
इस प्रकार करणत्रयस्थानीय चवर्ग - टवर्ग-तवर्गरूप श-ष- स का इकार में ही निमज्जन हो जाता है। शुद्धविद्या दशा का अन्तर्भाव ईश्वरदशा में, ईश्वरदशा का अन्तर्भाव सदा-
शिवदशा में, तथा सदाशिव- दशा का अन्तर्भाव शक्तिदशा में हो जाने पर संविदुदय अर्थात् त्यक्तसङ्कोच बिन्दु का आविर्भाव हो जाता है ।
सजीव ।
क्ष-पर- शम्भु ।
इन्हीं मातृकाओं तथा मन्त्रों का विशद विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया । अतः इस पर अधिक लिखना अनावश्यक है । केवल ‘बन्ध’ और ‘मोक्ष’ का पर्यवसित स्वरूप थोड़े शब्दों में नीचे दिया जाता है ।
विविधविलासमय विश्व, सुषुप्तिदशा में विश्रान्तितत्वनिलीन विमर्श के गर्भ में स्वयं भी निलीन रहकर भेदसंसार में विमर्श के गर्भ से आन्तर ( मन
२ म० भू०
( १८ )
और बुद्धि ) और तद्विलासस्वरूप बाह्य इन्द्रियों ( ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय ) के द्वारा विनिस्सृत तथा स्फुटस्वरूप होता है । भेदसंसार का ज्यों-ज्यों प्रसार बढ़ता जाता है त्यों-त्यों विश्व का उन्मीलन तथा इदमंश का समुच्छ्रय अधिकाधिक होता जाता है । ठीक इसके विपरीत अभेद संसार में विश्व का निमीलन और ज्यों-ज्यों विश्रान्त्यात्मक अभेद व्यापक होता जाता है त्यों-त्यों अहमंश का समुच्छ्रय होता जाता है । अतएव भेदसंसार को प्रवृत्तिसंसार और अभेदसंसार को निवृत्तिसंसार भी कहा जाता है । इदमंशसमुच्छ्रय या इदन्तौल्वण्य का तात्पर्य है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु के लिये ‘यह’, ‘यह’ शब्द का प्रयोग होता है, क्योंकि वह अनात्मा अर्थात् चित् ( प्रकाश ) से पृथक् तथा भिन्न चैत्य के रूप में भासित होता है । दूसरे शब्दों में सभी पदार्थ इदम्प्रत्ययगोचर या इदमाकारप्रतीतिविषय भासित होते हैं और ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि चैत्यविस्फूर्तिकाल में चित् के व्याप्य अन्तर्गभित एवं चैत्याकाराकारित भासित होते रहने के कारण इदमंश समुच्छ्रित हो जाता है और इसे ही इदन्तौल्वण्य कहा जाता है । पुनः चिद्व्याप्तिपद में जब विश्व विमर्शगर्भ में निमीलित हो जाता है और समस्त चैत्य चिदेकरस हो जाता है तब इदन्ताप्रतीति-विषयापहार के फलस्वरूप इदन्ताप्रतीति स्तिमित हो जाती है और इस अभेदसंसार में अहमंश समुच्छ्रित हो जाता है और इसे ही अहन्तौल्वण्य कहा जाता है । यहाँ यह अन्तर उल्लेखनीय है कि चैत्यव्याप्तिपद में भी चित्, चैत्य के साथ भिन्नरस ही बना रहता है किन्तु चैत्य, चिद्व्याप्ति- पद में चिदेकरस हो जाता है ।
यह ध्यान में रखने की बात है कि बिन्दु का स्वभाव अविभेद या अभेद और विसर्ग का स्वभाव विभेद या भेद है । भेदपद में अर्थात् जडस्पन्दानुभव- काल में विश्रान्ति और अजडस्पन्द का व्यावृत्तिविषयतया अर्थात् विपरीतार्थ- तया और अभेदपद में अर्थात् अजडस्पन्दानुभवकाल में विसर्ग और जडस्पन्द का भी उसी तरह अर्थात् व्यावृत्तिविषयतया अनुभव होता है । सामरस्यपद में निष्पन्दता दोनों के ही व्यावृत्तिविषयतया भासित होती रहती है । यही है विमर्शशक्ति की ‘माया’ शब्द से व्यवहृत विपरीतप्रतीतिरूप विमोहशक्ति । वस्तुतः भेद, अभेद तथा सामरस्य परावानूपा विमर्शरूपिणी पराशक्ति के ही क्रमशः इदमंशसमुच्छ्य प्रयुक्त, अहमंशसमुच्छ्रयप्रयुक्त तथा उभयांशसाम्यप्रयुक्त स्वस्वरूपभूत तीन भाग हैं । तदनुसार एक ही विमर्शशक्ति अपने इदमंश- समुच्छ्रय से जीव के बन्ध का और अहमंशसमुच्छ्रय से मोक्ष का कारण होती है । वही इदन्तौल्वण्य के रूप में भासमान माया और अहन्तौल्वण्य के रूप में भासमान विद्या भी कही जाती है ।
( १९ )
‘बध्नाति चेयमिदमंशसमुच्छ्रयेण, जन्तून् विमोचयति चोन्नमिताहमंशात्’ । ‘सर्वत्र वस्तुनि इदमाकारप्रतीतौ देहमात्रे चाऽहमाकारप्रतीतो सैवोच्छ्रितेद- न्ताप्रतीतिबन्धः इदन्ताप्रतीत्यन्यथाभावेन सर्वत्राऽहन्ताप्रतीत्यौत्वण्यमेव च
मोक्षः’ । ( मा० च० वि० )
परमार्थतः यह भागत्रयकरण औपचारिक है, क्योंकि प्रत्येक में परस्पर सभी सन्निविष्ट हैं और प्रवृत्तिनिवृत्तिस्पन्दद्वयभित्तिभूत निष्पन्दभूत महातत्त्व शाश्वत है ।
इस प्रसङ्ग में एक प्रश्न उठ सकता है कि जीव का संसार भेदसंसार और ( जडस्पन्दात्मक ) प्रवृत्तिसंसार है और शिव का संसार अभेदसंसार और ( अजडस्पन्दात्मक ) निवृत्तिसंसार है तथा प्रवृत्तिरूप बन्ध भेदसंसार एवं जीव से सम्बद्ध है और निवृत्तिरूप मोक्ष अभेदसंसार एवं शिव से सम्बद्ध है तो बन्ध और मोक्ष का वैयधिकरण्य क्यों नहीं हो जाता ? क्योंकि बद्ध जीव है और मुक्त शिव है । इसका समाधान यह है कि प्रवृत्तिकर्ता जीव जब निवृत्तिपथ ग्रहण करता है, तो शिव कहा जाता है अर्थात् शिव प्रवृत्तिपद में जीवशब्द से व्यवहृत होता है और निवृत्तिपद में शिव शब्द से । जीव और शिव में कोई पारमार्थिक भेद नहीं, केवल दशाभेद से भेद की प्रतीति होती है । यह भेद - प्रतीति उपर्युक्त विपरीतप्रतीतिरूप विमोहशक्ति का फल है । इसके अपाकरण से पारमार्थिकभाव अनावृत हो जाता है ।
‘जीव एव प्रवृत्तिकर्त्ता निवृत्तिमङ्गीकुर्वन् शिव इत्युच्यते, शिवो वा प्रवृत्तिपदे जीवशब्देन व्यवहृतः पुनर्निर्वृत्तिपदे शिवशब्दव्यवहारं प्राप्नोति । न तु जीवशिवयोः पारमार्थिको भेदः अपि तु दशाभेदेनैव भेद इत्येकार्थता । एतदुभयपर्याययोः तयोः प्रकाशविमर्शयोरेवमेकार्थताऽनुसन्धेया ।
( मा० च० वि० )
दूसरा प्रश्न यह है कि अहमंशसमुच्छ्रय सुषुप्ति में भी होता है – तो सुषु- प्त्यवस्था और मोक्षदशा में क्या अन्तर है ? इसका समाधान यह है कि सुषुप्त्यवस्था में अहमंशसमुच्छ्रय होने पर भी इदमंश स्तिमितदशा में या अन्तर्लीनावस्था में इस प्रकार बना रहता है कि भेदपद में पुनः उसका पूर्ववत् प्ररोह होता रहता है । किन्तु मोक्षपूर्वक्षण में इदमंश इस प्रकार विप्लुष्ट हो जाता है कि उसका पुनः प्ररोह नहीं होता ।
अन्ततः यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि तन्त्रागम के अनुसार निराकुला- नन्दस्वरूप- शिवजीवैक्यात्मक - त्रिपुरसुन्दरीभाव में अवस्थान ही मोक्ष है( २० )
( निराकुलानन्दस्वरूप - शिवजीवैक्यात्मक- त्रिपुरसुन्दरीभावाऽवस्थानमेव मोक्ष- पदार्थः पर्यवस्यति ) ।
इतने विवेचन के बाद मैं पुनः डॉ० अवस्थी के इस ग्रन्थ की श्लाघा करता हूँ । इसमें मातृकाओं के वर्ण, रूप, स्वरूप, अभिरूप, महिमा, कला, देवता, शक्ति, ऋषि और छन्द वर्णों के साथ तिथि, ग्रह, नक्षत्र, राशि आदि का सम्बन्ध; प्राणाचार एवं प्राणीय काल तथा जपसंख्या की वैज्ञानिकता; परा प्रकृति का सङ्घटनात्मक स्वरूप, परकाल, अपरकाल, परपुरुष, अपरपुरुष तथा अपरा प्रकृति; अणु ध्वनियाँ आदि की मार्मिक व्याख्या की गई है । इसमें चतुष्पदी वाक् का विशद विवेचन किया गया है; ग्रन्थकार ने प्रसङ्गतः सप्तपदी एवं पञ्चपदी वाक् का भी निरूपण किया है इसमें कामकलाक्षर, कुण्डलिनी और ओङ्कार की एकता का सुन्दर स्पष्टीकरण है; द्वादश कलाओं का मार्मिक निरूपण है; परावाणी, प्रतिभा या विमर्शशक्ति तथा स्वातन्त्र्यशक्ति आदि का भी विस्तृत विचार है । इस प्रकार यह ग्रन्थ बहुत उपादेय तथा लाभकारी है ।
।
निस्सन्देह इस ग्रन्थ से तन्त्रानुरागी पाठकों का बड़ा उपकार होगा ।
प्रोफेसर तथा अध्यक्ष,
संस्कृत विभाग, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर ।
वीरमणिप्रसाद उपाध्याय
( एम. ए., बी. एल., डी. लिट्., साहित्याचार्य)
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