[[उपनिषद्भाष्यम् (द्वितीयो भागः) Source: EB]]
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| MUNDAKOPANISHAD BHASHY |
| MUNDAKA 1 |
| MUNDAKA 2 |
| MUNDAKA 3 |
| MANDUKYOPANISHAT HARIKA HASHYA |
| AHARAYOPANISHAD BHASHY A |
| Chapter 1 |
| Chapter 2 |
| Chapter 3 |
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| सर्वकर्मणा प्राथम्यादपरविद्याविषयभूताग्निहोत्रप्रदर्शनम् | २१ |
| यथोक्तकारिणा यजमानाना सूर्यरश्मिद्वारे द्रलाकप्राप्ति कथनम् | २३ |
| ज्ञानरहितस्य कर्मणोऽसारफलत्वप्रदर्शनपुरसर कर्मिणा निदा | २४ |
| सगुणब्रह्मज्ञानसहिताश्रमकर्मिणा फल संसारगोचरमेवेति प्रर्दशनम् | २७ |
| विरक्तस्यैव ब्रह्मविद्यायामधिकार इति प्रदर्शनम् | २८ |
| द्वितीय मुण्डकम् | ३१-५६ |
| प्रथमः खण्डः | ३३-४३ |
| उत्तरखण्डस्य तात्पर्यमुक्त्या अक्षरस्य जीवोत्पत्तिप्रलवनिमित्तत्वमुपाधिप्रयुक्तमेवेति तात्पर्यवर्णनम् | ३३ |
| अक्षरस्याप्राणादिमत्त्वप्रदर्शनम् | ३५ |
| अक्षरस्य सर्वं प्रति कारणत्व प्रदर्श्य कस्मिन्नु भगवो विज्ञात इति प्रश्नस्योत्तरप्रदर्शनम् | ३६ |
| द्वितीय खण्डः | ४४-५५ |
| सकृदुपदेशमात्रेणाद्वितीय ब्रह्म सम्यक्प्रतिपत्तुमशक्तस्य ददानोपायप्रदर्शनम् | ४४ |
| परमात्मज्ञानस्य फलवचनम् | ५२ |
| ज्योतिषा ज्योतिरिति पूर्वमुक्तस्य प्रपञ्चनम् | ५३ |
| निगमनस्थानीयेन मात्रेण पूर्वाक्तस्यार्थस्योपसहार | ५५ |
| तृतीय मुण्डकम् | ५७–८२ |
| प्रथमः खण्डः | ५९-७० |
| वृत्तानुवादपूर्वक प्रकृतखण्डतात्पर्यमुक्त्वा परमार्थवस्त्व वधारणम् | ५९ |
| ब्रह्मवरिष्ठस्वरूपोपयास | ६३ |
| सम्यग्ज्ञान सहकारिसाधनविधानम् | ६५ |
| असाधारणतदुपलब्धिसाधना तरविधानम् | ६७ |
| विदुष सर्वात्मत्वादेव सर्वावाप्तिलक्षणफलप्रदर्शनम् | ६९ |
| द्वितीयः खण्डः | ७१–८१ |
| कामत्यागस्य प्रधानसाधनत्वेन मुमुक्षु प्रति प्रदर्शनम् | ७२ |
| अभेदानुसधानलक्षणप्रार्थन व्यतिरिक्त श्रवणादिभिरात्मनो लभ्यत्वकथनम् | ७३ |
| माण्डूक्योपनिषत्कारिकाभाष्यम् | |
| आगमप्रकरणम् | ८८-१२१ |
| विधिमुखेन निषेधमुखेन च वस्तुप्रतिपादनपरमङ्गलरचना | ८७ |
| विषयप्रयोजनाद्यनुब धोपन्यासमुखेन प्रकरणचतुष्टयस्य प्रत्येकमसकीर्णप्रमेयसूचनम् | ८८ |
| ओंकारस्य सर्वात्मत्वप्रतिपादनम् | ८९ |
| वृत्तानुवादपूर्वकमुत्तरवाक्यस्य सफल तात्पर्यवर्णनम् | ९१ |
| निरवयवस्य ब्रह्मण काल्पनिकमुपायोपेयभूत पादच तुष्टयमविरुद्धमित्यभिप्रेत्याद्यपादव्युत्पादनम् | ९२ |
| द्वितीयपादव्युत्पादनम् | ९४ |
| तृतीयपादव्युत्पादनम् | ९५ |
| प्राज्ञत्यातर्यामिणा सहाभेद गृहीत्वा सर्वेश्वरत्वादिवि शेषान्तरप्रदर्शनम् | ९६ |
| माण्डूक्योपनिषदर्थाविष्करणपराणा श्लोकानामर्थविवरणम् | ९७ |
| तुरीयपादव्युत्पादनम् | १०३ |
| नात प्रशत्वादिश्रुत्युक्तार्थविवरणपरश्लोकानामर्थविवरणम् | १०८ |
| वैतथ्यप्रकरणम् | १२२-१४३ |
| पूर्वोत्तरप्रकरणयो पौर्वापर्यप्रदर्शनपुर सर द्वैतस्य वैतथ्यप्रतिपादनाय दृष्टातसिद्धयथ वृद्धसमतिप्रदर्शनम् | १२२ |
| वैतथ्यमेव साधयितु पञ्चावयववाक्योपयास | १२४ |
| साध्यवैकल्यमाशङ्क्य तत्परिहार | १२६ |
| सर्वमिध्यात्वे प्रमात्रादियवहारानुपपत्तिमाशङ्कय तत्परिहार | १२८ |
| जीवकल्पनानिमित्तस्य सदृष्टा त निरूपणम् | १३१ |
| युक्त्या प्रसाधिते मिथ्यात्वे वेदातप्रमाणप्रदर्शनम् | १३५ |
| प्रकरणार्थोपसहरणपूर्वक द्वैतस्यावस्तुत्वादुत्पत्त्याद्यसभव प्रदर्शनम् | १३६ |
| अद्वैतप्रकरणम् | १४३-१३९ |
| श्रुत्यनुग्रहाततर्कावष्टम्भादन्यद्वैत व्यवस्थापयितुमुपास्योपासकभेददृष्ट्यपवदनम् | १४४ |
| जीवभेदप्रतीतेर्गौणत्वमादाय जीवसृष्टिश्रुतिविरोध परिहार | १४६ |
| अद्वैतस्य जी प्रलयश्रुत्यविरोधसमर्थनम् | १४७ |
| अद्वैतस्य यवस्थानुपपत्त्या विरोधमाशङ्कय तत्परिहार | १४७ |
| कर्मज्ञानकाण्डवाक्यविरोधे ज्ञानकाण्डवाक्यार्थस्यैकत्वस्यैव सामञ्जस्यनिर्धारणम् | १५५ |
| उपासनाविध्यनुपपत्तिविरोधपरिहार | १५८ |
| स्वयूथ्यपक्षमनुभाष्य तद्दूषणम् | १६७ |
| अविक्रिये ब्रह्मणि हानोपादानयोरस भवप्रदर्शनपुर सर तो वक्ष्यामीत्युपत्रा तस्योपसहार | १७३ |
| मनोनिग्रहोपायप्रदर्शनम् | १७६ |
| शास्त्रयुक्तिभ्या निर्धारितस्यार्थस्योपसहार | १७८ |
| अलातशान्तिप्रकरणम् | १८०-२३० |
| उपयुक्तार्थमनूद्य प्रकरणतात्पर्यप्रदर्शनम् | १८० |
| अद्वैतदर्शनस्या विवादत्वविशदीकरणाय द्वैतिना विवादोपन्यास | १८२ |
| हेतुफलयो कार्यकारणभावप्रतिषेध | १८७ |
| आत्मन ससारमोक्षयो परमार्थसद्भाववादिना दोषो पयास | १९७ |
| भूतदशनोपसहार | २०४ |
| स्वप्रक्रिययात्मतत्ववधारयितुमवस्थात्रयोप यास | २२२ |
| ऐतरेयोपनिषद्भाष्यम् | |
| प्रथमोऽध्याय | २३७-२६८ |
| कर्मकाण्डाथ सक्षेपेणानूय केवलात्मपरतयोपनिषद्वि वरणम् | २३९ |
| समुच्चयबादिमतोपन्यासस्तत्खण्डन च | २४० |
| इन्द्रियाणा तदभिमानिदेवताना च सृष्टिमुक्त्वा क्षुत्पि पासयो सृष्टिकथनम् | २५५ |
| भोग्यसृष्टिप्रक्रम | २६० |
| द्वितीयोऽध्याय | २६९-२८४ |
| विवक्षितार्थसिद्धये विस्तरेण विचारोप यास | २७१ |
| तृतीयोऽध्यायः | २८५-२९४ |
| ब्रह्मात्मविद फलप्रदर्शनम् | २०३ |
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Gourishunker Ganeriwula.
॥ मुण्डकोपनिषत् ॥
श्रीमच्छकरभगवत्पादविरचितेन
भाष्येण सहिता ॥
^(——————)
*
^(——————)
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ह्मा देवानाम्’ इत्याद्याथर्वणोपनिषत्। अस्याश्च विद्यासप्रदायकर्तृपारम्पर्यलक्षण सबन्धमादावेवाह स्वयमेव स्तुत्यर्थम्—एव हि महद्भिपरमपुरुषार्थसाधनत्वेन गुरुणायासेन लब्धाविद्येति। श्रोतृबुद्धिप्ररोचनाय विद्यामहीकरोति, स्तुत्या प्ररोचिताया हि विद्याया सादरा
प्रवर्तेरन्निति। प्रयोजनेन तु विद्याया साध्यसाधनलक्षण सबन्धमुत्तरत्र वक्ष्यति ‘भिद्यते हृदयग्रन्थि’ इत्यादिना। अत्र चापरशब्दवाच्याया ऋग्वेदादिलक्षणाया विधि प्रतिषेधमात्रपराया विद्याया संसारकारणाविद्यादिदोषनि वर्तकत्व नास्तीति स्वयमेवोक्त्वा परापरेति विद्याभेदकरणपूर्वकम् ‘अविद्यायामन्तरे वर्तमाना’ इत्यादिना, तथा परप्राप्तिसाधन सर्वसाधनसाध्यविषयवैराग्यपूर्वक गुरुप्रसादलभ्या ब्रह्मविद्यामाह ‘परीक्ष्य लोकान्’ इत्यादिना। प्रयोजन चासकृद्ब्रवीति ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ इति ‘परामृता परिमुच्यन्ति सर्वे’ इति च। ज्ञानमात्रे यद्यपि सर्वाश्रमिणामधिकार, तथापि सन्यासनिष्ठैव ब्रह्मविद्या मोक्षसाधन न कर्मसहितेति ‘भैक्षचर्या चरन्त’ ‘सन्यासयोगात्’ इति च ब्रुवन्दर्शयति। विद्याकर्मविरोधाच्च। न हि ब्रह्मात्मैकत्वदर्शनेन सह कर्म स्वप्नेऽपि संपादयितु शक्यम्, विद्याया कालविशेषाभावादनियतनिमित्तत्वाच्च कालसकोचानुपपत्ते। यत्तु गृहस्थेषु ब्रह्मविद्यासप्रदायकतृत्वादि लिङ्ग न तत्स्थित न्याय बाधितुमुत्सहते, न हि विधिशतेनापि तम प्रकाशयोरेकत्र सद्भाव शक्यते कर्तुम्, किमुत लिङ्गै केवलैरिति। एवमुक्तसबन्धप्रयोजनाया उप-
निषदोऽल्पग्रन्थ विवरणमारभ्यते। य इमा ब्रह्मविद्यामुपयन्त्यात्मभावेन श्रद्धाभक्तिपुर सरा सन्त, तेषां गर्भजन्मजरारोगाद्यनर्थपूग निशातयति पर वा ब्रह्म गमयत्यविद्यादिसंसारकारण वा अत्यन्तमवसादयति विनाशयतीत्युपनिषत्, उपनिपूर्वस्य सदेरेवमर्थस्मरणात्॥
ब्रह्मा देवानां प्रथमः सबभूव
विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्या सर्वविद्याप्रतिष्ठा-
मथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह॥ १॥
ब्रह्मा परिबृढो महान् धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यै सर्वानन्यानतिशेत इति, देवानां द्योतनवतामि द्रादीना प्रथम गुणै प्रधान सन्, प्रथम अग्रे वा सबभूव अभिव्यक्त सम्यक् स्वातन्त्र्येणेत्यभिप्राय। न तथा यथा धर्माधर्मवशात्ससारिणोऽन्ये जायन्ते, ‘योऽसावतीन्द्रियोऽग्राह्य’ इत्यादिस्मृते। विश्वस्य सर्वस्य जगत कर्ता उत्पादयिता, भुवनस्य उत्पन्नस्य गोप्ता पालयितेति विशेषण ब्रह्मणो विद्यास्तुतये। स एव प्रख्यातमहत्त्वो ब्रह्मा ब्रह्मविद्या ब्रह्मण परमात्मना विद्या ब्रह्मविद्याम् ‘येनाक्षर पुरुष वेद सत्यम्’ इति विशेषणात्।
परमात्मविषया हि सा। ब्रह्मणा वाग्रजेनोक्तेति ब्रह्मविद्या। ता ब्रह्मविद्याम्, सर्वविद्याप्रतिष्ठा सर्वविद्याभिव्यक्तिहेतुत्वात्सर्वविद्याश्रयामित्यर्थ, सर्वविद्यावेद्य वा वस्त्वनयैव ज्ञायतइति, ‘येनाश्रुत श्रुत भवति अमत मतमविज्ञात विज्ञातम्’ इति श्रुते। सर्वविद्याप्रतिष्ठामिति च स्तौति विद्याम्। अथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय ज्येष्ठश्चासौ पुत्रश्च, अनेकेषु ब्रह्मण सृष्टिप्रकारेष्वन्यतमस्य सृष्टिप्रकारस्य प्रमुखे पूर्वम् अथर्वा सृष्ट इति ज्येष्ठ, तस्मै ज्येष्ठपुत्राय प्राह प्रोक्तवान्॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा-
थर्वा ता पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह
भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम्॥ २॥
याम् एताम् अथर्वणे प्रवदेत प्रावदद्ब्रह्मविद्या ब्रह्मा, तामेव ब्रह्मण प्राप्ताम् अथर्वा पुरा पूर्वम्, उवाच उक्तवान् अङ्गिरे अङ्गीर्नाम्नेब्रह्मविद्याम्। स चाङ्गी भारद्वजाय भरद्वाजगोत्राय सत्यवहाय सत्यवहनाम्ने प्राहप्रोक्तवान्। भारद्वाज अङ्गिरसे स्वशिष्याय पुत्राय वा परावरा परस्मात्परस्मादवरेणावरेण प्राप्तेति परावरा परावरसर्वविद्या-
विषयव्याप्तेर्वा, ता परावरामङ्गिरसे प्राहेत्यनुषङ्ग॥
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरस विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिद विज्ञात भवतीति॥
शौनक शुनकस्यापत्य महाशाल महागृहस्थ अङ्गिरस भारद्वाजशिष्यमाचार्यं विधिवत् यथाशास्त्रमित्येतत्, उपसन्न उपगत सन् पप्रच्छ पृष्टवान्। शौनकाङ्गिरसो सबन्धादर्वाग्विधिवद्विशेषणाभावादुपसदनविधे पूर्वेषामनियम इति गम्यते। मर्यादाकरणार्थं विशेषणम्। मध्यदीपिकान्यायार्थं वा विशेषणम्, अस्मदादिष्वप्युपसदनविधेरिष्टत्वात्। किमित्याह—कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते, नु इति वितर्के, भगव हे भगवन्, सर्वंयदिद विज्ञेय विज्ञात विशेषेण ज्ञातमवगत भवतीति ‘एकस्मिन्विज्ञाते सर्वविद्भवति’ इति शिष्टप्रवाद श्रुतवाञ्शौनक तद्विशेष विज्ञातुकाम सन्कस्मिन्निति वितर्कयन्पप्रच्छ। अथवा, लोकसामान्यदृष्ट्या ज्ञात्वैव पप्रच्छ। सन्ति हि लोके सुवर्णादिशकलभेदा सुवर्णत्वाद्येकत्वविज्ञानेन विज्ञायमानालौकिकै, तथा किं न्वस्ति सर्वस्य जगद्भेदस्यैक कारणम्, यत्रैकस्मिन्विज्ञाते सर्वं विज्ञात भवतीति। नन्वविदिते हि
कस्मिन्निति प्रश्नोऽनुपपन्न, किमस्ति तदिति तदा प्रश्नो युक्त, सिद्धे ह्यस्तित्वे कस्मिन्निति स्यात्, यथा कस्मिन्निधेयमिति। न, अक्षरबाहुल्यादायासभीरुत्वात्प्रश्न सभवत्येव—किं न्वस्ति तद्यस्मिन्नेकस्मिन्विज्ञात सर्ववित्स्यादिति॥
** तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति हस्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च॥ ४॥**
तस्मै शौनकाय स अङ्गिरा ह किल उवाच उक्तवान्। किमिति, उच्यते—द्वे विद्ये वेदितव्ये ज्ञातव्ये इति। एव ह स्म किल यत् ब्रह्मविद वेदार्थाभिज्ञा परमार्थदर्शिन वदन्ति। के त इत्याह—परा च परमात्मविद्या, अपरा च धर्माधर्मसाधनतत्फलविषया। ननु कस्मिन्विदिते सर्वविद्भवतीति शौनकेन पृष्टम्, तस्मिन्वक्तव्येऽपृष्टमाहाङ्गिरा—द्वे विद्ये इत्यादि। नैष दोष, क्रमापेक्षत्वात्प्रतिवचनस्य। अपरा हि विद्या अविद्या, सा निराकर्तव्या तद्विषये हि अविदिते न किंचित्तत्त्वतो विदित स्यादिति, ‘निराकृत्य हि पूर्वपक्ष’ पश्चात्सिद्धान्तो वक्तव्यो भवति’ इति न्यायात्॥
तत्रापरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो-
ऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरण निरुक्त छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते॥५॥
तत्र का अपरेत्युच्यते—ऋग्वेदो यजुर्वेद सामवेदोऽथर्ववेद इत्येते चत्वारो वेदा। शिक्षा कल्पो व्याकरण निरुक्त छन्दो ज्योतिषम् इत्यङ्गानि षट्, एषा अपरा विद्योक्ता। अथ इदानीम् इयं परा विद्योच्यते यया तत् वक्ष्यमाणविशेषणम् अक्षरम् अधिगम्यते प्राप्यते, अधिपूर्वस्य गमे प्रायश प्राप्त्यर्थत्वात्, न च परप्राप्तेरवगमार्थस्य च भेदोऽस्ति, अविद्याया अपाय एव हि परप्राप्तिर्नार्थान्तरम्। ननु ऋग्वेदादिबाह्या तर्हि सा कथ परा विद्या स्यात् मोक्षसाधन च। ‘या वेदबाह्या स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टय’ इति हि स्मरन्ति। कुदृष्टित्वान्निष्फलत्वादनादेया स्यात्, उपनिषदा च ऋग्वेदादिबाह्यत्वं स्यात्। ऋग्वेदादित्वे तु पृथक्करणमनर्थकम् अथ परेति। न, वेद्यविषयविज्ञानस्य विवक्षितत्वात्। उपनिषद्वेद्याक्षरविषय हि विज्ञानमिह परा विद्येति प्राधान्येन विवक्षितम् नोपनिषच्छब्दराशि। वेदशब्दन तु सर्वत्र शब्दराशिर्विवक्षित। शब्दराश्यधिगमेऽपि यत्ना-
न्तरमन्तरेण गुर्वभिगमनादिलक्षण वैराग्य च नाक्षराधिगम सभवतीति पृथक्करण ब्रह्मविद्याया अथ परा विद्येति॥
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्ण-
मचक्षुःश्रोत्र तदपाणिपादम्।
नित्य विभु सर्वगत सुसूक्ष्म
तदव्यय यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीरा॥
यथा विधिविषये कर्त्राद्यनेककारकोपसहारद्वारेण वाक्यार्थज्ञानकालादन्यत्रानुष्ठेयोऽर्थोऽस्त्यग्निहोत्रादिलक्षण, न त थेह परविद्याविषये वाक्यार्थज्ञानसमकाल एव तु पर्यवसितो भवति, केवलशब्दप्रकाशितार्थज्ञानमात्रनिष्ठाव्यतिरिक्ताभावात्। तस्मादिह परा विद्या सविशेषणेनाक्षरेण विशिनष्टि—यत्तदद्रेश्यमित्यादिना। वक्ष्यमाण बुद्धौ सहृत्य सिद्धवत्परामृशति—यत्तदिति। अद्रेश्यम् अदृश्य सर्वेषा बुद्धीन्द्रियाणामगम्यमित्येतत्। दृशेर्बहि प्रवृत्तस्य पञ्चेन्द्रियद्वारकत्वात्। अग्राह्यकर्मेन्द्रियाविषयमित्येतत्। अगोत्रम्, गोत्रमन्वयो मूलमित्यनर्थान्तरम्। अगोत्रम् अनन्वयमित्यर्थ। न हि तस्य मूलमस्ति येनान्वित स्यात्। वर्ण्यन्त इति वर्णा द्रव्यधर्मा स्थूलत्वादय शुक्लत्वादयो वा। अवि
द्यमाना वर्णा यस्य तत् अवर्णम् अक्षरम्। अचक्षु श्रोत्र चक्षुश्च श्रोत्र च नामरूपविषये करणे सर्वजन्तूनाम्, ते अविद्यमाने यस्य तदचक्षु श्रोत्रम्। ‘य सर्वज्ञ सर्ववित्’ इति चेतनावत्त्वविशेषणात्प्राप्त संसारिणामिव चक्षु श्रोत्रादिभि करणैरर्थसाधकत्वम्, तदिह अचक्षु श्रोत्रमिति वार्यते, ‘पश्यत्यचक्षु स शृणोत्यकर्ण’ इत्यादिदर्शनात्। किंच, तत् अपाणिपाद कर्मेन्द्रियरहितमित्येतत्। यत एवम् अग्राह्यमग्राहक च अतो नित्यमविनाशि। विभु विविध ब्रह्मादिस्थावरान्तप्राणिभेदैर्भवतीति विभुम्। सर्वगत व्यापकमाकाशवत्सुसूक्ष्मम्। शब्दादिस्थूलत्वकारणरहितत्वात्। शब्दादयो ह्याकाशवाय्वादीनामुत्तरोत्तरस्थूलत्वकारणानि, तदभावात्सुसूक्ष्मम्, किंच, तत् अव्ययम् उक्तधर्मत्वादेव न व्येतीत्यव्ययम्। न ह्यनङ्गस्य स्वाङ्गापचयलक्षणो व्यय संभवति शरीरस्येव। नापि कोशापचयलक्षणो व्यय संभवति राज्ञ इव। नापि गुणद्वारको व्यय संभवति, अगुणत्वात्सर्वात्मकत्वाच्च। यत् एवलक्षण भूतयोनि भूतानां कारण पृथिवीव स्थावरजङ्गमानां परिपश्यन्ति सर्वत आत्मभूत सर्वस्य अक्षरं पश्यन्ति धीरा धीमन्तो विवेकिन। ईदृशमक्षर यया विद्यया अधिगम्यते सा परा विद्येति समुदायार्थ॥
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सभवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि
तथाक्षरात्संभवतीह विश्वम्॥७॥
भूतयोनिरक्षरमित्युक्तम्। तत्कथं भूतयोनित्वमित्युच्यते दृष्टान्तै—यथा लोके प्रसिद्ध ऊर्णनाभि लूताकीट किंचित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहि प्रसारयति पुनस्तानेव गृह्णते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति यथा च पृथिव्याम् ओषधय, व्रीह्यादिस्थावराणीत्यर्थस्वात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति सभवन्ति, यथा च सत विद्यमानाज्जीवत पुरुषात् केशलोमान केशाश्च लोमानि च सभवन्ति विलक्षणानि। यथैते दृष्टान्ता तथा विलक्षण सलक्षण च निमित्तान्तरानपेक्षाद्यथोक्तलक्षणात् अक्षरात् संभवति समुत्पद्यते इह संसारमण्डल विश्व समस्त जगत्। अनेकदृष्टान्तोपादान तु सुखावबोधनार्थम्॥
तपसा चीयते ब्रह्म
ततोऽन्नमभिजायते।
अन्नात्प्राणो मनः सत्य
लोका कर्मसु चामृतम्॥८॥
यद्ब्रह्मण उत्पद्यमान विश्व तदनेन क्रमेणोत्पद्यते, न युगपद्वदरमुष्टिप्रक्षेपवदिति क्रमनियमविवक्षार्थोऽयं मन्त्रः आरभ्यते— तपसा ज्ञानेन उत्पत्तिविधिज्ञतया भूतयोन्यक्षर ब्रह्म चीयते उपचीयते उत्पादयिष्यदिदं जगत् अङ्कुरमिव बीजमुच्छूनता गच्छति पुत्रमिव पिता हर्षेण। एव सर्वज्ञतया सृष्टिस्थितिसहारशक्तिविज्ञानवत्तयोपचितात् तत ब्रह्मण अन्नम् अद्यते भुज्यत इत्यन्नमव्याकृत साधारण कारण संसारिणा व्याचिकीर्षितावस्थारूपेण अभिजायते उत्पद्यते। ततश्च अव्याकृताद्व्याचिकीर्षितावस्थात् अन्नात् प्राण हिरण्यगर्भो ब्रह्मणो ज्ञानक्रियाशक्त्यधिष्ठितो जगत्साधारणोऽविद्याकामकर्मभूतसमुदायबीजाङ्कुरो जगदात्मा अभिजायत इत्यनुषङ्ग। तस्माच्च प्राणात् मन मनआख्य सकल्पविकल्पसंशयनिर्णयाद्यात्मकमभिजायते। ततोऽपि संकल्पाद्यात्मकान्मनस सत्य सत्याख्यमाकाशादिभूतपञ्चकमभिजायते। तस्मात्सत्याख्याद्भूतपञ्चकादण्डक्रमेण सप्त लोका भूरादय। तेषु मनुष्यादिप्राणिवर्णाश्रमक्रमेण कर्माणि। कर्मसु च निमित्तभूतेषु अमृत कर्मज फलम्। यावत्कर्माणि कल्पकोटिशतैरपि
न विनश्यन्ति तावत्फल न विनश्यतीत्यमृतम्॥
यः सर्वज्ञ सर्ववि-
द्यस्य ज्ञानमय तप।
तस्मादेतद्ब्रह्म नाम
रूपमन्न च जायते॥९॥
इति प्रथममुण्डके प्रथमः खण्ड॥
उक्तमेवार्थमुपसजिहीर्षुर्मन्त्रा वक्ष्यमाणाथमाह—य उक्तलक्षणोऽक्षराख्य सर्वज्ञ सामान्येन सर्वं जानातीति सवज्ञ। विशेषेण सर्व वेत्तीति सर्ववित्। यस्य ज्ञानमय ज्ञानविकारमेव सार्वज्ञ्यलक्षण तप अनायासलक्षणम्, तस्मात् यथोक्तात्सर्वज्ञात् एतत् उक्त कार्यलक्षण ब्रह्म हिरण्यगर्भाख्य जायते। किंच, नाम असौ देवदत्तो यज्ञदत्त इत्यादिलक्षणम्, रूपम् इदं शुक्लं नीलमित्यादि, अन्न च व्रीहियवादिलक्ष जायते पूर्वमन्त्रोक्तक्रमेणेत्यविरोधो द्रष्टव्य॥
इति प्रथममुण्डके प्रथमखण्डभाष्यम्॥
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द्वितीय खण्डः॥
तदेतत्सत्य मन्त्रेषु कर्माणि कवयो यान्यपश्य
स्तानि त्रेताया बहुधा सततानि।
तान्याचरथ नियत सत्यकामा
एष व पन्थाः सुकृतस्य लोके॥१॥
साङ्गा वेदा अपरा विद्योक्ता ‘ऋग्वेदो यजुर्वेद’ इत्यादिना। ‘यत्तदद्रेश्यम्’ इत्यादिना ‘नामरूपमन्न च जायते’ इत्यन्तेन ग्रन्थेनोक्तलक्षणमक्षर यया विद्ययाधिगम्यत इति सा परा विद्या सविशेषणोक्ता। अत परमनयोर्विद्ययोर्विषयौ विवक्तव्यौ संसारमोक्षावित्युत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते। तत्रापरविद्याविषय कर्त्रादिसाधनक्रियाफलभेदरूप संसारोऽनादिरनन्तो दुःखस्वरूपत्वाद्धातव्य प्रत्येक शरीरिभि सामस्त्येन नदीस्रोतोवदविच्छेदरूपसबन्ध तदुपशमलक्षणो मोक्ष परविद्याविषयोऽनाद्यनन्तोऽजरोऽमरोऽमृतोऽभय शुद्ध प्रसन्न स्वात्मप्रतिष्ठालक्षण परमानन्दोऽद्वय इति। पूर्वं तावदपरविद्याया विषयप्रदर्शनार्थमारम्भ। तद्दर्शने हि तन्निर्वेदोपपत्ति। तथा च वक्ष्यति— ‘परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्’
इत्यादिना। न ह्यप्रदर्शिते परीक्षोपपद्यत इति तत्प्रदर्शयन्नाह—तदेतत् सत्यम् अवितथम्। किं तत्? मन्त्रेषु ऋग्वेदाद्याख्येषु कर्माणि अग्निहोत्रादीनि मन्त्रैरेव प्रकाशितानि कवयः मेधाविनो वसिष्ठादय यानि अपश्यन् दृष्टवन्त। यत्तदेतत्सत्यमेकान्तपुरुषार्थसाधनत्वात्, तानि च वेद विहितानि ऋषिदृष्टानि कर्माणि त्रेताया त्रयीसयोगलक्षणाया हौत्राध्वर्यवौद्गात्रप्रकारायामधिकरणभूताया बहुधा बहुप्रकार सततानि सप्रवृत्तानि कर्मिभि क्रियमाणानि त्रेताया वा युगे प्रायश प्रवृत्तानि, अतो यूय तानि आचरथ निर्वर्तयत नियत नित्य सत्यकामा यथाभूतकर्मफलकामा सन्त। एष व युष्माक पन्था मार्ग सुकृतस्य स्वयं निर्वर्तितस्य कर्मण लोके फलनिमित्त लोक्यते दृश्यते भुज्यत इति कर्मफल लोक उच्यते। तदर्थं तत्प्राप्तये एष मार्ग इत्यर्थ। यान्येतान्यग्निहोत्रादीनि त्रय्या विहितानि कर्माणि, तान्येष पन्था अवश्यफलप्राप्तिसाधनमित्यर्थः॥
यदा लेलायते ह्यर्चिः
समिद्धे हव्यवाहने।
तदाज्यभागावन्तरे-
णाहुतीः प्रतिपादयेत्॥२ ॥
तत्राग्निहोत्रमेव तावत्प्रथम प्रदर्शनार्थमुच्यते, सर्वकर्मणा प्राथम्यात्। तत्कथम् ? यदैव इन्धनैरभ्याहितै सम्यगिद्धे समिद्धे दीप्ते हव्यवाहने लेलायते चलति अर्चि, तदा तस्मिन्काले लेलायमाने चलत्यर्चिषि आज्यभागौ आज्यभागयो अन्तरेण मध्ये आवापस्थाने आहुती प्रतिपादयेत् प्रक्षिपेत् देवतामुद्दिश्य। अनेकाह प्रयोगापेक्षया आहुतीरिति बहुवचनम्। एष सम्यगाहुतिप्रक्षेपादिलक्षण कर्ममार्गो लोकप्राप्तये पन्था। तस्य च सम्यक्करण दुष्करम्, विपत्तयस्त्वनेका भवन्ति॥
यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमास-
मचातुर्मास्यमनाग्र्यणमतिथिवर्जित च।
अहुतमवैश्वदेवमविधिना हुत-
मासप्तमास्तस्य लोकान्हिनस्ति॥ ३॥
कथम् ? यस्य अग्निहोत्रण अग्निहोत्रम् अदर्शं दर्शाख्येन कर्मणा वर्जितम्। अग्निहोत्रभिरवश्यकर्तव्यत्वाहर्शस्य। अग्निहोत्रसबन्ध्यग्निहोत्रविशेषणमिव भवति। तद क्रियमाणमित्येतत्। तथा अपौर्णमासम् इत्यादिष्वप्यग्निहोत्रविशेषणत्वं द्रष्टव्यम्। अग्निहोत्राङ्गत्वस्याविशिष्टत्वात्। अपौर्णमास पौर्णमासकर्मवर्जितम्। अचातुर्मास्य चातुर्मा
स्वकर्मवर्जितम्। अनाग्रयणम् आग्रयण शरदादिषु कर्तव्यम्, तच्च न क्रियते यस्य तत्तथा। अतिथिवर्जित च अतिथिपूजन चाहन्यहन्यक्रियमाण यस्य। स्वयं सम्यगग्निहोत्रकाले अहुतम्। अदर्शादिवत् अवैश्वदेव वैश्वदेवकर्मवर्जितम्। हूयमानमप्यविधिना हुतम् अयथाहुतमित्येतत्। एव दुःसपादितमसपादितमग्निहोत्राद्युपलक्षित कर्म किं करोतीत्युच्यते—आसप्तमान् सप्तमसहितान् तस्य कर्तुर्लोकान् हिनस्ति हिनस्तीव आयासमात्रफलत्वात्। सम्यक् क्रियमाणेषु हि कर्मसु कर्मपरिणामानुरूप्येण भूरादय सत्यान्ता सप्त लोका फल प्राप्तव्यम्। ते लोका एवभूतेनाग्निहोत्रादिकर्मणा त्वप्राप्यत्वाद्धिंस्यन्त इव, आयासमात्र त्वव्यभिचारीत्यतो हिनस्तीत्युच्यते। पिण्डदानाद्यनुग्रहेण वा सबध्यमाना पितृपितामहप्रपितामहा पुत्रपौत्रप्रपौत्रा स्वात्मोपकारा सप्त लोका उक्तप्रकारेणाग्निहोत्रादिना न भवन्तीति हिंस्यन्त इत्युच्यते॥
काली कराली च मनोजवा च
सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी
लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ ४ ॥
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधू-
म्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना दह नस्य जिह्वा। काल्याद्या विश्वरुच्यन्ता लेलायमाना अग्नेर्हविराहुतिग्रसनार्था एता किल सप्त जिह्वा॥
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु
यथाकाल चाहुतयो ह्याददायन्।
त नयन्त्येता सूर्यस्य रश्मयो
यत्र देवाना पतिरेकोऽधिवासः॥ ५॥
एतेषु अग्निजिह्वाभेदेषु य अग्निहोत्री चरते कर्माचरत्यग्निहोत्रादिक भ्राजमानेषु दीप्यमानेषु। यथाकाल च यस्य कर्मणो य कालस्त कालमनतिक्रम्य यथाकाल यजमानम् आददायन् आददाना आहुतय त नयन्ति प्रापयन्ति। एता आहुतयो या इमा अनेन निर्वर्तिता सूर्यस्य रश्मय भूत्वा, रश्मिद्वारैरित्यर्थ। यत्र यस्मिन्स्वर्गे देवाना पति इन्द्र एक सर्वानुपरि अधि वसतीति अधिवास॥
एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः
सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमान वहन्ति।
प्रिया वाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य
एष व पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः॥
कथं सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमान वहन्तीत्युच्यत—एहि एहि इति आह्वयन्त्य त यजमानम् आहुतय सुवर्चस दीप्तिमत्य, किंच, प्रियाम् इष्टा वाच स्तुत्यादिलक्षणाम् अभिवदन्त्य उच्चारयन्त्य अर्चयन्त्य पूजयन्त्यश्च एष व युष्माकं पुण्य सुकृत ब्रह्मलोक फलरूप, इत्थं प्रिया वाचम् अभिवदन्त्यो वह तीत्यर्थ। ब्रह्मलाक स्वर्ग प्रकरणात्॥
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा
अष्टादशोक्तमवर येषु कर्म।
एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा
जरामृत्यु तेपुनरेवापि यन्ति॥ ७॥
एतच्च ज्ञानरहित कर्मैतावत्फलमविद्याकामकर्मकार्यम् अतोऽसार दुःखमूलमिति निन्द्यते—प्लवा विनाशिन इत्यर्थः। हि यस्मात् एते अदृढा अस्थिरा यज्ञरूपा यज्ञस्य रूपाणि यज्ञरूपा यज्ञनिर्वर्तका अष्टादश अष्टादशसंख्याका षोडशर्त्विज पत्नी यजमानश्चेत्यष्टादश। एतदाश्रय कर्म उक्त कथित शास्त्रेण येषु अष्टादशसु अवर केवल ज्ञानवर्जित कर्म। अतस्तेषामवरकर्माश्रयाणामष्टादशानामदृढतया प्लवत्वात्प्लवते सह फलेन तत्साध्य कर्म, कुण्डविनाशादिव क्षीरदध्यादीना तत्स्थाना नाश, यत एवम् एतत् कर्म श्रेय श्रेय साधन-
मिति ये अभिनन्दन्ति अभिहृष्यन्ति अविवेकिन मूढा, अत ते जरा च मृत्यु च जरामृत्यु कचित्काल स्वर्गे स्थित्वा पुनरेव अपि यन्ति भूयोऽपि गच्छन्ति॥
अविद्यायामन्तरे वर्तमाना
स्वय धीराः पण्डितंमन्यमाना।
जङ्घन्यमाना परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा॥८॥
किंच, अविद्यायाम् अन्तरे मध्ये वर्तमाना अविवेकप्राया स्वयं वयमेव धीरा धीमन्त पण्डिता विदितवेदितश्चेति मन्यमाना आत्मान सभावयन्त, ते च जङ्घन्यमाना जरारोगाद्यनेकानर्थव्रातैर्हन्यमाना भृश पीड्यमाना परियन्ति विभ्रमन्ति मूढा। दर्शनवर्जितत्वात् अन्धेनैव अचक्षुष्केणैव नीयमाना प्रदर्श्यमानमार्गा, यथा लोके अन्धा चक्षूरहिता गर्तकण्टकादौ पतन्ति तद्वत्॥
अविद्यायां बहुधा वर्तमाना
वय कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बाला।
यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागा
त्तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते॥९॥
किंच, अविद्याया बहुधा बहुप्रकार वर्तमाना वयमेव
कृतार्था कृतप्रयोजना इति एवम् अभिमन्यन्ति अभिमन्यन्ते अभिमान कुर्वन्ति बाला अज्ञानिन। यत् यस्मादेव कर्मिण न प्रवेदयन्ति तत्त्वं न जानन्ति रागात् कर्मफलरागाभिभवनिमित्तम्, तेन कारणेन आतुरा दुःखार्ता सन्त क्षीणलोका क्षीणकर्मफला स्वर्गलोकात् च्यवन्ते॥
इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठ
नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वे-
म लोक हीनतर वा विशन्ति॥१०॥
इष्टापूर्तम् इष्ट यागादि श्रौत कर्म पूर्त स्मार्त वापीकूप तडागादिकर्म मन्यमाना एतदवातिशयेन पुरुषार्थसाधन वरिष्ठ प्रधानमिति चिन्तयन्त, अन्यत् आत्मज्ञानाख्य श्रेय साधन न वेदयन्ते न जानन्ति प्रमूढा पुत्रपशुबान्धवादिषु प्रमत्ततया मूढा, ते च नाकस्य स्वर्गस्य पृष्ठे उपरिस्थाने सुकृते भोगायतने अनुभूत्वा अनुभूय कर्मफल पुन इम लोक मानुषम् अस्मात् हीनतर वा तिर्यङ्नरकादिलक्षणं यथाकर्मशेष विशन्ति॥
तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये
शान्ता विद्वासो भैक्षचर्या चरन्त।
सूर्यद्वारेण ते विरजा प्रयान्ति
यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा॥११॥
ये पुनस्तद्विपरीतज्ञानयुक्ता वानप्रस्था सन्यासिनश्च, तप श्रद्धे हि तप स्वाश्रमविहित कर्म, श्रद्धा हिरण्यगर्भादिविषयाविद्या, ते तप श्रद्धे उपवसन्ति सेवन्तेऽरण्ये वर्तमाना सन्त। शान्ता उपरतकरणग्रामा। विद्वांस गृहस्थाश्च ज्ञानप्रधाना इत्यर्थ। भैक्षचर्या चरन्त परिग्रहाभावादुपवसन्त्यरण्ये इति संबन्ध। सूर्यद्वारेण सूर्योपलक्षितेनोत्तरेण पथा ते विरजा विरजस, क्षीणपुण्यपापकर्माण सन्त इत्यर्थः। प्रयान्ति प्रकर्षेण यान्ति यत्र यस्मिन्सत्यलोकादौ अमृत स पुरुष प्रथमजो हिरण्यगर्भ हि अव्ययात्मा अव्ययस्वभावो यावत्संसारस्थायी। एतदन्तास्तु संसार गतयोऽपरविद्यागम्या। नन्वेत मोक्षमिच्छन्ति केचित्। न, ‘इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामा’‘ते सर्वग सर्वत प्राप्य धीरा युक्तात्मान सर्वमेवाविशन्ति’ इत्यादि श्रुतिभ्य, अप्रकरणाच्च। अपरविद्याप्रकरणे हि प्रवृत्ते न ह्यकस्मान्मोक्षप्रसङ्गोऽस्ति। विरजस्त्व त्वापेक्षिकम्। समस्तमपरविद्याकार्य साध्यसाधनलक्षण क्रियाकारकफलभेदभिन्न द्वैतम् एतावदेव यद्धिरण्यगर्भप्राप्त्यवसानम्। तथा च म
नुनोक्त स्थावराधा संसारगतिमनुक्रामता—‘ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तमेव च। उत्तमा सात्त्विकीमेता गतिमाहुर्मनीषिण’ इति॥
परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो
निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छे-
त्समित्पाणिः श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठम्॥
अथेदानीमस्मात्साध्यसाधनरूपात्सर्वस्मात्संसाराद्विरक्तस्य परस्या विद्यायामधिकारप्रदर्शनार्थमिदमुच्यते—परीक्ष्य यदेतदृग्वेदाद्यपरविद्याविषय स्वाभाविकाविद्याकामकर्मदोषवत्पुरुषानुष्ठेयमविद्यादिदोषवन्तमेव पुरुष प्रति विहितत्वात्तदनुष्ठानकार्यभूताश्च लोका ये दक्षिणोत्तरमार्गलक्षणाफलभूता, ये च विहिताकरणप्रतिषेधातिक्रमदोषसाध्या नर कतिर्यक्प्रेतलक्षणा, तानेतान्परीक्ष्य प्रत्यक्षानुमानोपमानागमै सर्वतो याथात्म्येनावधार्यं लोकान् संसारगतिभूतानव्यक्तादिस्थावरान्तान्व्याकृताव्याकृतलक्षणान्बीजाङ्कुरवदितरेतरोत्पत्तिनिमित्ताननेकानर्थशतसहस्रसकुलान्कदलीगर्भवदसारान्मायामरीच्युदकगन्धर्वनगराकारस्वप्नजलबुद्बुदफेनसमान्प्रतिक्षणप्रध्वंसान्पृष्ठत कृत्वा विद्याकामदोषप्रवर्तितकर्म
चितान्धर्माधर्मनिर्वर्तितानित्येतत्। ब्राह्मण, ब्राह्मणस्यैव विशेषतोऽधिकार सर्वत्यागेन ब्रह्मविद्यायामिति ब्राह्मणग्रहणम्। परीक्ष्य लोकान्किंकुर्यादित्युच्यते—निर्वेदम्, निष्पूर्वंविदिरत्र वैराग्यार्थे, वैराग्यम् आयात् कुर्यादित्येतत्। स वैराग्यप्रकार प्रदर्श्यते—इह संसारे नास्ति कश्चिदपि अकृत पदार्थ। सर्वं एव हि लोका कर्मचिता कर्म कृतत्वाच्चानित्या। न नित्य किंचिदस्तीत्यभिप्राय। सर्वं तु कर्मानित्यस्यैव साधनम्। यस्माच्चतुर्विधमेव हि सर्वं कर्म कार्यम्—उत्पाद्यमाप्य विकार्यंसंस्कार्य वा। नात पर कर्मणो विषयोऽस्ति। अहं च नित्येनामृतेनाभयेन कूटस्थेनाचलेनध्रुवेणार्थेनार्थी, न तद्विपरीतेन। अत किं कृतेन कर्मणा आयासबहुलेनानर्थसाधनेन इत्येव निर्विण्णोऽभयं शिवमकृत नित्यं पदं यत्, तद्विज्ञानार्थं विशेषेणाधिगमार्थं स निर्विण्णो ब्राह्मण गुरुमेव आचार्यं शमदमादिसंपन्नम् अभिगच्छेत्। शास्त्रज्ञोऽपि स्वातन्त्र्येण ब्रह्मज्ञानान्वेषण न कुर्यादित्येतद्गुरुमेवेत्यवधारणफलम्। समित्पाणि समिद्भार गृहीतहस्त श्रोत्रियम् अध्ययनश्रुतार्थसंपन्न ब्रह्मनिष्ठ हित्वा सर्वकर्माणि केवलेऽद्वये ब्रह्मणि निष्ठा यस्य सोऽयं ब्रह्मनिष्ठ, जपनिष्ठस्तपोनिष्ठ इति यद्वत्। न हि कर्मिणो ब्रह्म-
निष्ठता संभवति, कर्मात्मज्ञानयोर्विरोधात्। स त गुरु विधिवदुपसन्न प्रसाद्य पृच्छेदक्षर पुरुष सत्यम्॥
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्य-
क्प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
येनाक्षर पुरुष वेद सत्य
प्रोवाच ता तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्॥
तस्मै स विद्वान् गुरुर्ब्रह्मवित्, उपसन्नाय उपगताय। सम्यक् यथाशास्त्रमित्येतत्। प्रशान्तचित्ताय उपरतदर्पादिदोषाय। शमान्विताय बाह्यन्द्रियोपरमेण च युक्ताय, सर्वती विरक्तायेत्येतत्। येन विज्ञानेन यया विद्यया च परया अक्षरम् अद्रेश्यादिविशेषण तदेवाक्षर पुरुषशब्दवाच्य पूर्णत्वात्पुरि शयनाच्च, सत्यं तदेव परमाथस्वाभाव्यादव्ययम्, अक्षर चाक्षरणादक्षतत्वादक्षयत्वाच्च, वेद विजानाति ता ब्रह्मविद्या तत्त्वत यथावत् प्रोवाच प्रब्रूयादित्यर्थः। आचार्यस्याप्ययमेव नियमो यन्न्यायप्राप्तसच्छिष्यनिस्तारणमविद्यामहोदधे॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्द -
भगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
मुण्डकोपनिषद्भाष्ये प्रथम मुण्डक समाप्तम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-17318403418547854.png"/>
द्वितीय मुण्डकम्॥
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पर<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-17318404994560123.png"/>
विद्याया सर्वंकार्यमुक्तम्। स च ससारो यत्सारो यस्मान्मूलादक्षरात्संभवति यस्मिंश्च प्रलीयते, तदक्षरं पुरुषाख्य सत्यम्। यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिद विज्ञात भवति, तत्परस्या ब्रह्मविद्याया विषय। स वक्तव्य इत्युत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते—
तदेतत्सत्य यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गा
सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपा।
तथाक्षराद्विविधाः सोम्य भावा
प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति॥ १॥
यदपरविद्याविषय कर्मफललक्षणम्, सत्य तदापेक्षिकम्। इदं तु परविद्याविषयम्, परमार्थसल्लक्षणत्वात्। तदेतत् सत्यं यथाभूत विद्याविषयम्, अविद्याविषयत्वाच्च अनृतमितरत्।
अत्यन्तपराक्षत्वात्कथं नाम प्रत्यक्षवत्सत्यमक्षर प्रतिपद्येरन्निति दृष्टान्तमाह—यथा सुदीप्तात् सुष्ठु दीप्तादिद्धात् पावकात् अग्ने विस्फुलिङ्गा अरग्यवयवा सहस्रश अनेकश प्रभवन्ते निर्गच्छन्ति सरूपा अग्निसलक्षणा एव, तथा उक्तलक्षणात् अक्षरात् विविधा नानादेहोपाधिभेदमनुविधीयमानत्वाद्विविधा हे सोम्य, भावा जीवा आकाशादिवद्धटादिपरिच्छिन्ना सुषिरभेदा घटाद्युपाधि प्रभेदमनु भवन्ति एव नानानामरूपकृतदेहोपाधिप्रभव मनु प्रजायन्ते तत्र चैव तस्मिन्नेव चाक्षरे अपियन्ति देहो पाधिविलयमनु विलीयन्ते घटादिविलयमन्विव सुषिरभेदा। यथाकाशस्य सुषिरभेदोत्पत्तिप्रलयनिमित्तत्व घटाद्युपाधिकृतमेव, तद्वदक्षरस्यापि नामरूपकृतदेहोपाधिनिमित्तमेव जीवोत्पत्तिप्रलयनिमित्तत्वम्॥
दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः
सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो
ह्यक्षरात्परतः परं॥ २॥
नामरूपबीजभूतादव्याकृताख्यात्स्वविकारापेक्षया पराद-
क्षरात्पर यत्सर्वोपाधिभेदवर्जितमक्षरस्यैव स्वरूपमाकाशस्येव सर्वमूर्तिवर्जित नेति नेतीत्यादिविशेषण विवक्षन्नाह—दिव्यद्योतनवान् स्वयज्योतिष्ट्वात्। दिवि वा स्वात्मनि भव अलौकिका वा। हि यस्मात् अमूर्त सर्वमूर्तिवर्जित, पुरुष पूर्ण पुरिशयो वा, सबाह्याभ्यन्तर सह बाह्याभ्यन्तरेण वर्तत इति। अज न जायते कुतश्चित् स्वतोऽजस्य जन्मनिमित्तस्य चाभावात्, यथा जलबुद्बुदादेर्वाय्वादि, यथा नभ सुषिरभेदानां घटादि। सर्वभावविकाराणां जनिमूलत्वात् तत्प्रतिषेधेन सर्वे प्रतिषिद्धा भवन्ति। सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज अतोऽजरोऽमृतोऽक्षरो ध्रुवोऽभय इत्यर्थ। यद्यपि देहाद्युपाधिभेददृष्टिभेदेषु सप्राणं समना सेन्द्रिय सविषय इव प्रत्यवभासते तलमलादिमदिवाकाशम्, तथापि तु स्वत परमार्थस्वरूपदृष्टीनाम अप्राण अविद्यमान क्रियाशक्तिभेदवान् चलनात्मको वायुर्यस्मिन्नसौ अप्राण। तथा अमना अनेकज्ञानशक्तिभेदवत्संकल्पाद्यात्मक मनोऽप्यविद्यमान यस्मिन्सोऽयममना। अप्राणो ह्यमनाश्चेति प्राणादिवायुभेदा कर्मेन्द्रियाणि तद्विषयाश्च तथा बुद्धिमनसी बुद्धीन्द्रियाणि तद्विषयाश्च प्रतिषिद्धा वेदितव्या, यथा श्रुत्यन्तरे ध्यायतीव लेलायतीवेति। यस्माच्चैव प्रति-
षिद्धोपाधिद्वयस्तस्मात् शुभ्र शुद्ध। अतोऽक्षरान्नामरूपबीजोपाधिलक्षितस्वरूपात् सवकायकरणबीजत्वेनोपलक्ष्यमाणत्वात्पर तत्त्व तदुपाधिलक्षणमव्याकृताख्यमक्षर सर्वविकारेभ्यस्तस्मात्परतोऽक्षरात्पर निरुपाधिक पुरुष इत्यर्थ। यस्मिंस्तदाकाशारयमक्षर सव्यवहारविषयमोत च प्रोत च। कथं पुनरप्राणादिमत्त्व तस्येत्युच्यते। यदि हि प्राणादयं प्रागुत्पत्ते पुरुष इव स्वेनात्मना सन्ति, तदा पुरुषस्य प्राणादिना विद्यमानेन प्राणादिमत्त्व स्यात्, न तु ते प्राणादय प्रागुत्पत्ते सन्ति। अत प्राणादिमान्पर पुरुष, यथानुत्पन्ने पुत्रे अपुत्रो दवदत्त॥
एतस्माज्जायते प्राणो
मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
स्व वायुर्ज्योतिरापः
पृथिवी विश्वस्य धारिणी॥३॥
कथं ते न सन्ति प्राणादय इति, उच्यते—यस्मात् एतस्मादेव पुरुषान्नात्मरूपबीजोपाधिलक्षितात् जायते उत्पद्यतेऽविद्याविषयो विकारभूतो नामधेयोऽनृतात्मक प्राण, ‘वाचारम्भण विकारो नामधेयम्’ ‘अनृतम्’ इति
श्रुत्यन्तरात्। न हि तेनाविधाविषयेणानृतेन प्राणेन सप्राणत्वं परस्य स्यादपुत्रस्य स्वप्नदृष्टेनेव पुत्रेण सपुत्रत्वम्। एव मन सर्वाणि चेन्द्रियाणि विषयाश्चैतस्मादेव जायन्ते। तस्मात्सिद्धस्य निरुपचरितमप्राणादिमत्त्वमित्यर्थ। यथा च प्रागुत्पत्ते परमार्थतोऽसन्तस्तथा प्रलीनाश्चेति द्रष्टव्या। यथाकरणानि मनश्चेन्द्रियाणि च, तथा शरीरविषयकारणानि भूतानि खम् आकाशम्, वायु बाह्य आवहादिभेद, ज्योति अग्नि, आप उदकम् पृथिवी धरित्री विश्वस्य सर्वस्य धारिणी, एतानि च शब्दस्पर्शरूपरसगन्धोत्तरोत्तरगुणानि पूर्वपूर्वगुणसहितान्येतस्मादेव जायते॥
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ
दिश श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः।
वायु प्राणो हृदय विश्वमस्य
पद्भ्यापृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा॥
संक्षेपत परविद्याविषयमक्षर निर्विशेष पुरुष सत्यम् ‘दिव्यो ह्यमूर्त’ इत्यादिना मन्त्रेणोक्त्वा, पुनस्तदेव सविशेष विस्तरेण वक्तव्यमिति प्रववृते, संक्षेपविस्तरोक्तो हि पदार्थ सुखाधिगम्यो भवति सूत्रभाष्योक्तिवदिति। यो हि प्रथमजात्प्राणाद्धिरण्यगर्भाज्जायतेऽण्डस्यान्तर्विराट्,
स तत्त्वान्तरितत्त्वेन लक्ष्यमाणोऽप्येतस्मादेव पुरुषाज्जायत एतन्मयश्चेत्येतदर्थमाह, त च विशिनष्टि—अग्नि द्युलोक, ‘असौ वाव लोको गौतमाग्नि’ इति श्रुते। मूर्धा यस्योत्तमाङ्ग शिर, चक्षुषी चन्द्रश्च सूर्यश्चेति चन्द्रसूर्यौ, यस्येति सर्वत्रानुषङ्ग कर्तव्य अस्येत्यस्य पदस्य वक्ष्यमाणस्य यस्येति विपरिणामं कृत्वा। दिश श्रोत्रे यस्य। वाक् विवृताश्च उद्घाटिता प्रसिद्धा वेदा यस्य। वायु प्राणो यस्य। हृदयम् अन्त करण विश्व समस्त जगत् अस्य यस्येत्येतत्। सर्वं ह्यन्त करणविकारमेव जगत्, मनस्येव सुषुप्ते प्रलयदर्शनात्, जागरितेऽपि तत एवाग्निविस्फुलिङ्गवद्विप्रतिष्ठानात्। यस्य च पद्भ्या जाता पृथिवी, एष देवो विष्णुरनन्त प्रथमशरीरी त्रैलोक्यदेहोपाधि सर्वेषां भूतानामन्तरात्मा। स हि सर्वभूतेषु द्रष्टा श्रोता मन्ता विज्ञाता सर्वकरणात्मा॥
पञ्चाग्निद्वारेण च या संसरन्ति प्रजा, ता अपि तस्मादेव पुरुषात्प्रजायन्त इत्युक्यते—
तस्मादग्निः समिधो यस्य सूर्य
सोमात्पर्जन्य ओषधयः पृथिव्याम्।
पुमान्रेतः सिञ्चति योषितायां
बह्वीः प्रजाः पुरुषात्संप्रसूताः॥५॥
तस्मात् परस्मात्पुरुषात् प्रजावस्थानविशेषरूप अग्नि। स विशेष्यते—समिधो यस्य सूर्य, समिध इव समिध, सूर्येण हि द्युलोक समिध्यते। ततो हि द्युलोकाग्नेर्निष्पन्नात् सोमात् पर्जन्य द्वितीयोऽग्नि संभवति। तस्माच्च पर्जन्यात् ओषधय पृथिव्या संभवन्ति। ओषधिभ्यः पुरुषाग्नौ हुताभ्यः उपादानभूताभ्य पुमानग्निरेत सिञ्चति योषिताया योषिति योषाग्नौ स्त्रियामिति। एव क्रमेण बह्वीबह्व्य प्रजा ब्राह्मणाद्या पुरुषात् परस्मात् सप्रसूता समुत्पन्ना॥
तस्मादृच साम यजूँषि दीक्षा
यज्ञाश्च सर्वे ऋतवो दक्षिणाश्च।
संवत्सरश्च यजमानश्च लोका
सोमो यत्र पवते यत्र सूर्य॥६॥
किंच, कर्मसाधनानि फलानि च तस्मादेवेत्याह—कथम् ? तस्मात् पुरुषात् ऋच नियताक्षरपादावसाना गायत्र्यादिच्छन्दोविशिष्टा मन्त्रा,साम पाञ्चभक्तिक साप्तभक्तिक च स्तोभादिगीतिविशिष्टम्, यजूषि अनियताक्षरपादावसानानि वाक्यरूपाणि, एव त्रिविधा मन्त्रा। दीक्षा मौञ्ज्यादिलक्षणा कर्तृनियमविशेषा। यज्ञाश्च सर्वे अग्निहोत्रादय।
क्रतव सयूपा। दक्षिणाश्च एकगवाद्या अपरिमितसर्वस्वान्ता। संवत्सरश्च काल कर्माङ्गभूत। यजमानश्च कर्ता। लोका तस्य कर्मफलभूता, ते विशेष्यन्ते—सोम यत्र येषु लोकेषु पर्वते पुनाति लोकान् यत्र च येषु सूर्यस्तपति। ते च दक्षिणायनात्तरायणमार्गद्वयगम्या विद्वदविद्वत्कर्तृफलभूता॥
तस्माच्च देवा बहुधा संप्रसूता
साध्या मनुष्याः पशवो वयासि।
प्राणापानौ व्रीहियवौ तपश्च
श्रद्धा सत्य ब्रह्मचर्यं विधिश्च॥७॥
तस्माच्च पुरुषात्कर्माङ्गभूता देवा बहुधा वस्वातिगणभेदेन संप्रसूता सम्यक् प्रसूता—साध्या देवविशेषा, मनुष्या कर्माधिकृता, पशव ग्राम्यारण्या, वयासि पक्षिण जीवन च मनुष्यादीनां प्राणापानौ, व्रीहियवौ हविरर्थौ, तपश्च कर्माङ्ग पुरुषसंस्कारलक्षण स्वतन्त्र च फलसाधनम् श्रद्धा यत्पूर्वक सर्वपुरुषार्थसाधनप्रयोगश्चित्तप्रसाद आस्तिक्यबुद्धि, तथा सत्यम् अनृतवर्जन यथाभूतार्थवचन चापीडाकरम्, ब्रह्मचर्यं मैथुनासमाचार, विधिश्चइतिकर्तव्यता॥
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मा-
त्सप्तार्चिष समिधः सप्त होमाः।
सप्तेमे लोका येषु चरन्ति प्राणा
गुहाशया निहिता सप्त सप्त॥८॥
किंच, सप्त शीर्षण्या प्राणा तस्मादेव पुरुषात् प्रभवन्ति। तेषां सप्त अर्चिष दीप्तय स्वस्वविषयावद्योतनानि। तथा सप्त समिध सप्त विषया, विषयैर्हि समिध्यन्ते प्राणा। सप्त होमा तद्विषयविज्ञानानि, ‘यदस्य विज्ञान तज्जुहोति’ इति श्रुत्यन्तरात्। किंच, सप्त इमे लोका इन्द्रियस्थानानि, येषु चरन्ति संचरन्ति प्राणा इति विशेषणात्। प्राणा यषु चरन्तीति प्राणाना विशेषणमिद प्राणापानादिनिवृत्यर्थम्। गुहाया शरीरे हृदये वा स्वापकाले शेरत इति गुहाशया। निहिता स्थापिता धात्रा सप्त सप्त प्रतिप्राणिभेदम्। यानि च आत्मयाजिना विदुषा कर्माणि कर्मफलानि चाविदुषा च कर्माणि तत्साधनानि कर्मफलानि च सर्वं चैतत्परस्मादेव पुरुषात्सर्वज्ञात्प्रसूतमिति प्रकरणार्थ॥
अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वे-
ऽस्मात्स्यन्दन्ते सिन्धवः सर्वरूपाः।
अतश्च सर्वा ओषधयो रसश्च
येनैष भूतैस्तिष्ठते ह्यन्तरात्मा॥९॥
अत पुरुषात् समुद्रा सर्वे क्षाराद्या। गिरयश्च हिमवदादय अस्मादेव पुरुषात् सर्वे। स्यन्दन्ते स्रवन्ति गङ्गाद्या सिन्धव नद्य सर्वरूपा बहुरूपा। अस्मादेव पुरुषात् सर्वा ओषधय व्रीहियवाद्या। रसश्च मधुरादि षड्विध, येन रसेन भूतै पश्चभि स्थूलै परिवेष्टित तिष्ठते तिष्ठति हि अन्तरात्मा लिङ्ग सूक्ष्म शरीरम्। तद्ध्यन्तराले शरीरस्यात्मनश्चात्मवद्वर्तत इत्यन्तरात्मा॥
पुरुष एवेद विश्व कर्म
तपो ब्रह्म परामृतम्।
एतद्योवेद निहित गुहाया
सोऽविद्याग्रन्थि विकिरतीह सोम्य॥
इति द्वितीयमुण्डके प्रथम खण्ड॥
एव पुरुषात्सर्वमिद सप्रसूतम्। अतो वाचारम्भण विकारो नामधेयमनृत पुरुष इत्येव सत्यम्, अत पुरुष एव इद विश्व सर्वम्। न विश्व नाम पुरुषादन्यत्किंचिदस्ति। अ-
तो यदुक्त तदेवेदमभिहितम् ‘कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिद विज्ञात भवति’ इति, एतस्मिन्हि परस्मिन्नात्मनि सर्व कारणे पुरुषे विज्ञाते, पुरुष एवेद विश्व नान्यदस्तीति विज्ञात भवतीति। किं पुनरिद विश्वमित्युच्यते—कर्म अग्निहोत्रादिलक्षणम्, तप ज्ञान तत्कृत फलमन्यदेव तावद्धीद सर्वम्, तच्च एतद्ब्रह्मण कार्यम्, तस्मात्सर्व ब्रह्म परामृत परममृतमहमेवेति यो वेद निहित स्थित गुहाया हृदि सर्वप्राणिनाम्, स एव विज्ञानात् अविद्याग्रन्थिं ग्रन्थिमिव दृढीभूतामविद्यावासना विकिरति विक्षिपति विनाशयति इह जीवन्नेव, न मृत सन् हे सोम्य प्रियदर्शन॥
इति द्वितीयमुण्डके प्रथमखण्डभाष्यम्॥
द्वितीय खण्डः॥
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आवि सनिहित गुहाचर नाम
महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्।
एजत्प्राणनिमिषच्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्य
पर विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम्॥१॥
अरूप सदक्षर केन प्रकारेण विज्ञेयमित्युच्यते—आविप्रकाश सनिहितम्, वागाद्युपाधिभि—ज्वलति भ्राजतीति श्रुत्यन्तरात्–शब्दादीनुपलभमानवदवभासत, दर्शनश्रवणमननविज्ञानाद्युपाधिधर्मैराविर्भूत सल्लक्ष्यते हृदि सर्वप्राणिनाम्। यदेतदाविभूत ब्रह्म संनिहित सम्यक् स्थित हृदि, तत् गुहाचर नाम गुहाया चरतीति दर्शनश्रवणादिप्रकारैर्गुहाचरमिति प्रख्यातम्।महत् सर्वमहत्त्वात् पद पद्यते सर्वेणति, सर्वपदार्थास्पदत्वात्। कथं तन्महत्पदमित्युच्यते? यत अत्र अस्मिन्ब्रह्मणि एतत्सर्वं समर्पित सप्रवेशित रथनाभाविवारा— एजत् चलत्पक्ष्यादि, प्राणत् प्राणितीति प्राणापानादिमन्मनुष्यपश्वादि, निमिषच्च यन्निमेषादिक्रियावत् यच्चानिमिषत्,
च-शब्दात् समस्तमेतदत्रैव ब्रह्मणि समर्पितम्। एतत् यदा स्पद सर्वंजानथ हे शिष्या, अवगच्छत तदात्मभूत भवताम्, सदसन् सदसत्स्वरूप सदसतोर्मूर्तामूर्तयो स्थूलसूक्ष्मयो, तद्व्यतिरेकेणाभावात्। वरण्य वरणीयम्, तदेव हि सर्वस्य नित्यत्वात्प्रार्थनीयम्, पर व्यतिरिक्त विज्ञानात्प्रजानामिति व्यवहितेन संबन्ध, यल्लौकिकविज्ञानागोचरमित्यर्थ। यत् वरिष्ठ वरतम सर्वपदार्थेषु वरेषु, तद्ध्येक ब्रह्म अतिशयेन वर सर्वदोषरहितत्वात्॥
यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च
यस्मि᳴ल्लोका निहिता लोकिनश्च।
तदेतदक्षर ब्रह्म
स प्राणस्तदु वाङ्मन।
तदेतत्सत्य तदमृतं
तद्वेद्धव्य सोम्य विद्धि॥२॥
किंच, यत् अर्चिमत् दीप्तिमत्, तद्दीप्त्या ह्यादित्यादि दीप्यत इति दीप्तिमद्ब्रह्मा।किंच, यत् अणुभ्य श्यामाकादिभ्योऽपि अणु च सूक्ष्मम्। च शब्दात्स्थूलेभ्योऽप्यतिशयेन स्थूल पृथिव्यादिभ्य। यस्मिन् लोका भूरादय निहिता स्थिता,
ये च लोकिन लोकनिवासिन मनुष्यादय, चैतन्याश्रया हि सर्वे प्रसिद्धा, तदतत् सर्वाश्रयम् अक्षर ब्रह्म स प्राण तदु वाङ्मन वाक्च मनश्च सर्वाणि च करणानि तदु अन्तश्चैतन्यम्, चैतन्याश्रयो हि प्राणेन्द्रियादिसर्वसंघात, ‘प्राणस्य प्राणम्’ इति श्रुत्यन्तरात्। यत्प्राणादीनामन्तश्चैतन्यमक्षरं तदेतत् सत्यम् अवितथम्, अत अमृतम् अविनाशि तत् वेद्धव्य मनसा ताडयितव्यम्। तस्मिन्मनस समाधान कर्तव्यमित्यर्थ। यस्मादेव हे सोम्य, विद्धि अक्षरे चेत समाधत्स्व॥
धनुर्गृहीत्वौपनिषद महास्त्र
शर ह्य᳘पासानिशित सदधीत।
आयम्य तद्भावगतेन चेतसा
लक्ष्य तदेवाक्षर सोम्य विद्धि॥३॥
कथं वेद्धव्यमिति, उच्यते—धनु इष्वासन गृहीत्वा आदाय औपनिषदम् उपनिषत्सु भव प्रसिद्ध महास्त्र महच्चतदस्त्र च महास्त्र धनु, तस्मिन् शरम्, किंविशिष्टमित्याह—उपासानिशित सतताभिध्यानेन तनूकृतम्, संस्कृतमित्येतत्, सदधीत सधान कुर्यात्। सधाय व आयम्य आकृष्य सेन्द्रियमन्तकरण स्वविषयाद्विनिवर्त्य लक्ष्य एवावर्जित कृत्वे-
त्यर्थ। न हि हस्तेनेव धनुष आयमनमिह संभवति। तद्भावगतेन तस्मिन्ब्रह्मण्यक्षरे लक्ष्ये भावना भाव तद्गतेन चेतसा, लक्ष्य तदेव यथोक्तलक्षणम् अक्षर सोम्य, विद्धि॥
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा
ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्य
शरवत्तन्मयो भवेत्॥४॥
यदुक्त धनुरादि, तदुच्यते—प्रणव ओंकार धनु। यथा इष्वासन लक्ष्ये शरस्य प्रवेशकारणम्, तथा आत्मशरस्याक्षरे लक्ष्ये प्रवेशकारणमोकार। प्रणवेन ह्यभ्यस्यमानेन सत्क्रियमाणस्तदालम्बनोऽप्रतिबन्धेनाक्षरेऽवतिष्ठते। यथा धनुषा अस्त इषुर्लक्ष्ये। अत प्रणवो धनुरिव धनु। शरो ह्यात्मा उपाधिलक्षण पर एव जले सूर्यादिवदिह प्रविष्टो देहे सर्वबौद्धप्रत्ययसाक्षितया, स शर इव स्वात्मन्येवार्पितोऽक्षरे ब्रह्मणि, अत ब्रह्म तत् लक्ष्यमुच्यते लक्ष्य इव मन समाधित्सुभिरात्मभावेन लक्ष्यमाणत्वात्। तत्रैव सति अप्रमत्तेन बाह्यविषयोपलब्धितृष्णाप्रमादवर्जितेन सर्वतो विरक्तेन जितेन्द्रियेणैकाग्रचित्तेन वेद्धव्य ब्रह्म लक्ष्यम्। ततस्तद्वेधनादूर्ध्वं
शरवत् तन्मय भवेत्, यथा शरस्य लक्ष्यैकात्मत्व फल भवति, तथा देहाद्यात्मताप्रत्ययतिरस्करणेनाभरैकात्मत्व फलमापादयेदित्यर्थ॥
यस्मिन्द्यौ पृथिवी चान्तरिक्ष-
मोत मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैक जानथ आत्मान-
मन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतु॥
अक्षरस्यैव दुर्लक्ष्यत्वात्पुन पुनर्वचन सुलक्षणार्थम्। यस्मिन् अक्षरे पुरुषे द्यौ पृथिवी च अन्तरिक्ष च ओत समर्पित मनश्च सह प्राणै करणैअन्यै सर्वै, तमेव सर्वाश्रयमेकमद्वितीय जानथ जानीत हे शिष्या। आत्मान प्रत्यक्स्वरूप युष्माकं सर्वप्राणिना च ज्ञात्वा च अन्या वाच अपरविद्यारूपा विमुञ्चथ विमुञ्चत परित्यजत। तत्प्रकाश्य च सर्वंकर्म संसाधनम्। यत अमृतस्य एष सेतु, एतदात्मज्ञानममृतस्यामृतत्वस्य मोक्षस्य प्राप्तये सेतुरिव सेतु, संसारमहोदधेरुत्तरणहेतुत्वात्, तथा च श्रुत्यन्तरम्—‘तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य पन्था विद्यतेऽयनाय’ इति॥
अरा इव रथनाभौ सहता यत्र नाड्यः
स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः।
ओमित्येव ध्यायथ आत्मान
स्वस्ति वः पाराय तमस परस्तात्॥६॥
किंच, अरा इव यथा रथनाभौ समपिता अरा, एव सहता सप्रविष्टा यत्र यस्मिन्हृदये सर्वतो देहव्यापिन्य नाड्य, तस्मिन्हृदये बुद्धिप्रत्ययसाक्षिभूत स एष प्रकृत आत्मा अन्त मध्ये चरते चरति वर्तते। पश्यन् शृण्वन्मन्वानो विजानन् बहुधा अनेकधा क्रोधहर्षादिप्रत्ययैर्जायमान इव जायमान अन्त करणोपाध्यनुविधायित्वात्, वदन्ति हि लौकिका हृष्टो जात क्रुद्धो जात इति। तमात्मानम् ओमित्येवम् ओंकारालम्बना सन्त यथोक्तकल्पनया ध्यायथ चिन्तयत। उक्त च वक्तव्य शिष्येभ्य आचार्येण जानता। शिष्याश्च ब्रह्मविद्याविविदिषुत्वान्निवृत्तकर्माणो मोक्षपथे प्रवृत्ता। तेषांनिर्विघ्नतया ब्रह्मप्राप्तिमाशास्त्याचार्य—स्वस्ति निर्विघ्नमस्तु व युष्माक पाराय परकूलाय, कस्य ? अविद्यातमस परस्तात्, अविद्यारहितब्रह्मात्मस्वरूपगमनायेत्यर्थ॥
य सर्वज्ञः सर्ववि-
द्यस्यैष महिमा भुवि।
दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष
व्योमन्यात्मा प्रतिष्ठित॥७॥
योऽसौ तमस परस्तात्संसारमहोदधिं तीर्त्वा गन्तव्य परविद्याविषय, स कस्मिन्वर्तत इत्याह—य सर्वज्ञ सर्ववित व्यारयात। त पुनर्विशिनष्टि—यस्यैष प्रसिद्धो महिमा विभूति। कोऽसौ महिमा ? यस्येमे द्यावापृथिव्यौ शासने विधृते तिष्ठत, सूर्याचन्द्रमसौ यस्य शासनेऽलातचक्रवदजस्र भ्रमत, यस्य शासने सरित सागराश्चस्वगोचर नातिक्रामन्ति तथा स्थावर जङ्गम च यस्यशासने नियतम्, तथा ऋतवोऽयने अब्दाश्च यस्य शासन नातिक्रामन्ति, तथा कर्तार कर्माणि फल च यच्छासनात्स्व स्व काल नातिवर्तन्ते स एष महिमा, भुवि लोके यस्य स एष सर्वज्ञ एवमहिमा देव। दिव्ये द्योत नवति सर्वबौद्धप्रत्ययकृतद्योतने ब्रह्मपुरे। ब्रह्मणो ह्यत्र चैतन्यस्वरूपेण नित्याभिव्यक्तत्वात्, ब्रह्मण पुर हृदयपुण्डरीक तस्मिन्यद्व्योम, तस्मिन्व्योमनि आकाशे हृत्पुण्डरीकमध्यस्थे प्रतिष्ठित इवोपलभ्यते, न ह्याकाशवत्सर्वगतस्य गतिरागति प्रतिष्ठा वान्यथा सभवति॥
मनोमय प्राणशरीरनेता
प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदय संनिधाय।
तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा
आनन्दरूपममृत यद्विभाति॥८॥
स ह्यात्मा तत्रस्थो मनोवृत्तिभिरेव विभाव्यत इति मनोमय, मनउपाधित्वात्। प्राणशरीरनेता प्राणश्च तच्छरीर च तत्प्राणशरीर तस्याय नेता। अस्मात्स्थूलाच्छरीराच्छरीरान्तर सूक्ष्म प्रति प्रतिष्ठित अवस्थित अन्ने भुज्यमानान्नविपरिणामे प्रतिदिनमुपचीयमाने अपचीयमाने च पिण्डरूपेऽन्ने हृदय बुद्धि पुण्डरीकच्छिद्रे संनिधाय समवस्थाप्य, हृदयावस्थानमेव ह्यात्मन स्थिति, न ह्यात्मन स्थितिरन्ने, तत् आत्मतत्त्व विज्ञानेन विशिष्टेन शास्त्राचार्योपदेशजनितेन ज्ञानेन शमदमध्यानसर्वत्यागवैराग्योद्भूतेन परिपश्यन्ति सर्वत पूर्णं पश्यन्ति उपलभन्ते धीरा विवेकिन। आनन्दरूप सर्वानर्थदुःखायासप्रहीण सुखरूपम् अमृत यद्विभाति विशेषेण स्वात्मन्येव भाति सर्वदा॥
भिद्यते हृदयग्रन्थि-
श्छिद्यन्ते सर्वसशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि
तस्मिन्दृष्टे परावरे॥९॥
अस्य परमात्मज्ञानस्य फलमिदमभिधीयते—हृदयग्रन्थि अविद्यावासनामयो बुद्ध्याश्रय काम, ‘कामायेऽस्य हृदि श्रिता’ इति श्रुत्यन्तरात्। हृदयाश्रयोऽसौ, नात्माश्रय। भिद्यते भेद विनाशमुपयाति। छिद्यन्ते सर्वे ज्ञेयविषया संशया लौकिकानाम् आ मरणात् गङ्गास्रोतोवत्प्रवृत्ता विच्छेदमायान्ति। अस्य विच्छिन्नसंशयस्य निवृत्ताविद्यस्य यानि विज्ञानोत्पत्ते प्राक्कृतानि जन्मान्तरे चाप्रवृत्तफलानि ज्ञानोत्पत्तिसहभावीनि च क्षीयन्ते कर्माणि, न त्वेत ज्जन्मारम्भकाणि, प्रवृत्तफलत्वात्। तस्मिन् सर्वज्ञेऽसंसारिणि परावरे पर च कारणात्मना अवर च कार्यात्मना तस्मिन्परावरे साक्षादहमस्मीति दृष्टे, संसारकारणोच्छेदान्मुच्यत इत्यर्थः॥
हिरण्मये परे कोशे
विरज ब्रह्म निष्कलम्।
तच्छुभ्र ज्योतिषा ज्योति-
स्तद्यदात्मविदो विदुः॥१०॥
उक्तस्यैवार्थस्य संक्षेपाभिधायका उत्तरे मन्त्रास्त्रयोऽपि—हिरण्मये ज्योतिर्मये बुद्धिविज्ञानप्रकाशे परे कोशे कोश इवासे। आत्मस्वरूपोपलब्धिस्थानत्वात्पर तत्सर्वाभ्यन्तरत्वात्, तस्मिन् विरजम् अविद्याद्यशेषदोषरजोमलवर्जित ब्रह्म सर्वमहत्त्वात्सर्वात्मत्वाच्च निष्कल निर्गता कला यस्मात्तन्निष्कल निरवयवमित्यर्थ। यस्माद्विरज निष्कल च अत तच्छुभ्र शुद्ध ज्योतिषा सर्वप्रकाशात्मनामग्न्यादीनामपि तज्ज्योति अवभासकम्। अग्न्यादीनामपि ज्योतिष्ट्वमन्तर्गतब्रह्मात्मचैतन्यज्योतिर्निमित्तमित्यर्थ। तद्धि पर ज्योतिर्यद यानवभास्यमात्मज्योति, तत् यत् आत्मविद आत्मान स्व शब्दादिविषयबुद्धिप्रत्ययसाक्षिण ये विवेकिनो विदु विजानन्ति, ते आत्मविद तद्विदु, आत्मप्रत्ययानुसारिण। यस्मात्पर ज्योतिस्तस्मात्त एव तद्विदु, नेतरे बाह्यार्थप्रत्ययानुसारिण॥
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारक
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व
तस्य भासा सर्वमिद विभाति॥ ११ ॥
कथं तत् ‘ज्योतिषा ज्योति’ इति, उच्यते—न तत्र तस्मि
न्स्वात्मभूते ब्रह्मणि सर्वावभासकोऽपि सूर्या भाति, तद्ब्रह्म न प्रकाशयतीत्यर्थ। स हि तस्यैव भासा सर्वमन्यदनात्मजात प्रकाशयति, न तु तस्य स्वत प्रकाशनसामर्थ्यम्। तथा न चन्द्रतारकम्, न तु इमा विद्युत भान्ति कुतोऽयमग्नि अस्मद्गोचर। किं बहुना यदिद जगद्भाति, तत्तमेव परमेश्वर स्वतो भारूपत्वात् भान्त दीप्यमानम् अनुभाति अनुदीप्यते। यथा जलमुल्मुकादि वा अग्निसंयोगादग्निं दहन्तमनुदहति, न स्वत, तद्वत्तस्यैव भासा दीप्त्या सर्वमिद सूर्यादि जगद्विभाति। यत एव तदेव ब्रह्म भाति च विभाति च कार्यगतेन विविधेन भासा, अतस्तस्य ब्रह्मणो भारूपत्व स्वतोऽवगम्यते। न हि स्वतोऽविद्यमान भासनमन्यस्य कर्तुं शक्नोति। घटादीनामन्यावभासकत्वादर्शनात् भारूपाणा चादित्यादीना तद्दर्शनात्॥
ब्रह्मैवेदममृत पुरस्ता-
द्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्मदक्षिणतश्चोत्तरेण।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं
ब्रह्मैवेदं विश्वमिद वरिष्ठम्॥१२॥
इति द्वितीयमुण्डके द्वितीयः खण्ड॥
यत्तज्ज्योतिषा ज्योतिर्ब्रह्म, तदेव सत्यम्, सर्वं तद्विकार वाचारम्भण विकारो नामधेयमात्रमनृतमितरदित्येतमर्थं विस्तरेण हेतुत प्रतिपादित निगमनस्थानीयेन मन्त्रेण पुनरुप संहरति—ब्रह्मैव उक्तलक्षणम्, इदं यत् पुरस्तात् अग्रेऽब्रह्येवाविद्यादृष्टीना प्रत्यवभासमान तथा पश्चाद्ब्रह्म तथा दक्षिणतश्च तथा उत्तरेण तथैवाधस्तात् ऊर्ध्वं च सर्वतोऽन्यदिव कार्याकारेण प्रसृत प्रगत नामरूपवदवभासमानम्। किं बहुना, ब्रह्मैवेद विश्व समस्तमिदं जगत् वरिष्ठ वरतमम्। अब्रह्मप्रत्यय सर्वोऽविद्यामात्रो रज्ज्वामिव सर्पप्रत्यय। ब्रह्मै वैक परमार्थसत्यमिति वेदानुशासनम्॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्द
भगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
मुण्डकोपनिषद्भाष्ये द्वितीय मुण्डक समाप्तम्॥
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तृतीयं मुण्डकम्॥
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*
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रा विद्योक्ता यया तदक्षर पुरुषाख्य सत्यमधिगम्यते। यदधिगमे हृदयग्रन्थ्यादिसंसारकारणस्यात्यन्तिको विनाश स्यात्, तद्दर्शनोपायश्च योगो धनुराद्युपादानकल्पनयोक्त। अथेदानीं तत्सहकारीणि सत्यादिसाधनानि वक्तव्यानीति तदर्थ उत्तर ग्रन्थारम्भ। प्राधान्येन तत्त्वनिर्धारण च प्रकारान्तरेण क्रियते। अत्यन्तदुरवगाहत्वात्कृतमपि तत्र सूत्रभूतो मन्त्र परमार्थवस्त्ववधारणार्थमुपन्यस्यते—
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समान वृक्ष परिषस्वजाते।
तयोरन्य पिप्पल स्वाद्वत्ति
अनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति॥१॥
द्वा द्वौ, सुपर्णा सुपर्णौशोभनपतनौ सुपर्णौ, पक्षि
सामान्याद्वा सुपर्णौ, सयुजा सयुजौ सहैव सर्वदा युक्तौ, सखाया सखायौ समानारयानौ समानाभिव्यक्तिकारणौ, एवभूतौ सन्तौ समानम् अविशेषमुपलब्ध्यधिष्ठानतया, एक वृक्ष वृक्षमिवोच्छेदसामान्याच्छरीर वृक्ष परिषस्वजाते परिष्वक्तवन्तौ। सुपर्णाविवैक वृक्ष फलोपभोगार्थम्। अयं हि वृक्ष ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाखोऽश्वत्थोऽव्यक्तमूलप्रभव क्षेत्रसज्ञक सर्व प्राणिकर्मफलाश्रय, त परिष्वक्तवन्तौ सुपर्णाविव अविद्याकामकर्मवासनाश्रयलिङ्गोपाध्यात्मेश्वरौ। तयो परिष्वक्तयो अन्य एक क्षेत्रज्ञो लिङ्गोपाधिवृक्षमाश्रित पिप्पल कर्मनिष्पन्न सुखदुःखलक्षण फल स्वादु अनेकविचित्रवेदनास्वादरूप स्वादु अत्ति भक्षयत्युपभुङ्क्ते अविवेकत। अनश्नन् अन्य इतर ईश्वरो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव सर्वज्ञ सत्त्वोपाधिरीश्वरो नाश्नाति। प्रेरयता ह्यसावुभयोर्भोज्यभोक्रोर्नित्यसाक्षित्वसत्तामात्रेण। स तु अनश्नन् अन्य अभिचाकशीति पश्यत्येव केवलम्। दर्शनमात्र हि तस्य प्रेरयितृत्व राजवत्॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नो-
ऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीश-
मस्य महिमानमिति वीतशोक॥२॥
तत्रैव सति समाने वृक्षे यथोक्ते शरीरे पुरुष भोक्ता जीवोऽविद्याकामकर्मफलरागादिगुरुभाराक्रान्तोऽलाबुरिव सा मुद्रे जले निमग्न निश्चयेन देहात्मभावमापन्नोऽयमेवाहममुष्य पुत्रोऽस्य नप्ता कृश स्थूलो गुणवान्निर्गुण सुखी दुःखीत्येव प्रत्ययो नास्त्यन्योऽस्मादिति जायते म्रियते सयुज्यते वियुज्य ते च संबन्धिबान्धवै, अत अनीशया, न कस्यचित्समर्थोऽह पुत्रो मम विनष्टो मृता मे भार्या किं मे जीवितेनेत्येव दीनभावोऽनीशा, तया शोचति सतप्यते मुह्यमान अनेकै रनर्थप्रकारैरविवेकितया अन्तश्चिन्तामापद्यमान स एव प्रेततिर्यङ्मनुष्यादियोनिष्वाजवजवीभावमापन्न कदाचिदनेकजन्मसु शुद्धधर्मसचितनिमित्तत केनचित्परमकारुणिकेन दर्शितयोगमार्ग अहिंसासत्यब्रह्मचर्यसर्वत्यागशमदमादिसंपन्न समाहितात्मा सन् जुष्ट सेवितमनेकैर्योगमार्गौकर्मिभिश्च यदा यस्मिन्काले पश्यति ध्यायमान अन्य वृक्षोपाधिलक्षणाद्विलक्षणम् ईशम् असंसारिणमशनायापिपासाशोकमोहजरामृत्य्वतीतमीश सर्वस्य जगतोऽयमहमस्म्यात्मा सर्वस्य सम सर्वभूतस्थो नेतरोऽविद्याजनितोपाधिपरिच्छिन्नो मायात्मेति महिमान विभूतिं च जगद्रूपमस्यैव मम परमेश्वरस्य इति
यदैव द्रष्टा, तदा वीतशोक भवति सर्वस्माच्छोकसागराद्विप्रमुच्यते, कृतकृत्यो भवतीत्यर्थ॥
यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं
कर्तारमीश पुरुष ब्रह्मयोनिम्।
तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय
निरञ्जन परम साम्यमुपैति॥३॥
अन्योऽपि मन्त्र इममेवार्थमाह सविस्तरम्—यदा यस्मिन्काले पश्य पश्यतीति विद्वान् साधक इत्यर्थ। पश्यते पश्यति पूर्ववत्, रुक्मवर्ण स्वयज्योति स्वभाव रुक्मस्येव वा ज्योतिरस्याविनाशि, कतार सर्वस्य जगत ईश पुरुष ब्रह्मयोनिं ब्रह्म च तद्योनिश्चासौ ब्रह्मयोनिस्त ब्रह्मयोनिं ब्रह्मणो वा अपरस्य योनिं स यदा चैव पश्यति, तदा स विद्वान्पश्य पुण्यपाप बन्धनभूते कर्मणी समूले विधूय निरस्य दग्ध्वा निरञ्जन निर्लेपो विगतक्लेश परम प्रकृष्ट निरतिशय साम्य समतामद्वयलक्षणाम्, द्वैतविषयाणि साम्यान्यत अर्वाञ्च्येव, अतोऽद्वयलक्षणमेतत् परम साम्यमुपैति प्रतिपद्यते॥
प्राणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति
विजानन्विद्वान्भवते नातिवादी।
आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावा-
नेष ब्रह्मविदा वरिष्ठः॥४॥
किंच, योऽय प्राणस्य प्राणपर ईश्वर हि एष प्रकृत सर्वभूतै सर्वैर्भूतै ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तै, इत्थभूतलक्षणा तृतीया। सर्वभूतस्थ सर्वात्मा सन्नित्यर्थ। विभाति विविध दीप्यते। एव सर्वभूतस्थ य साक्षादात्मभावेनायमहमस्मीति विजानन् विद्वान् वाक्यार्थज्ञानमात्रेण न भवते न भवतीत्येतत्। किम्? अतिवादी अतीत्य सर्वानन्यान्वदितु शील मस्येत्यतिवादी। यस्त्वेव साक्षादात्मान प्राणस्य प्राण विद्वान्, सोऽतिवादी न भवतीत्यर्थ। सर्व यदा आत्मैव नान्यदस्तीति दृष्टम्, तदा किं ह्यसावतीत्य वदेत्। यस्य त्वपरमन्यद्दृष्टमस्ति, स तदतीत्य वदति। अयं तु विद्वान्नात्मनोऽन्यत्पश्यति, नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति। अता नातिवदति। किंच, आत्मक्रीड आत्मन्येव क्रीडा क्रीडन यस्य नान्यत्र पुत्रदारादिषु, स आत्मक्रीड। तथा आत्मरति आत्मन्येव रती रमण प्रीतिर्यस्य, स आत्मरति। क्रीडा बाह्यसाधनसापेक्षा, रतिस्तु साधननिरपेक्षा बाह्य-
विषयप्रीतिमात्रमिति विशेष। तथा क्रियावान् ज्ञानध्यानवैराग्यादिक्रिया यस्य सोऽयं क्रियवान्। समासपाठे आत्मरतिरेव क्रियास्य विद्यत इति बहुव्रीहिमतुबर्थयोरन्यतरोऽतिरिच्यते। केचित्त्वग्निहोत्रादिकर्मब्रह्मविद्ययो समुच्चयार्थमिच्छन्ति। तच्चैष ब्रह्मविदा वरिष्ठ इत्यनेन मुख्यार्थवचनेन विरुध्यते। न हि बाह्यक्रियावानात्मक्रीड आत्मरतिश्च भवितु शक्त। कश्चित्क्वचिद्बाह्यक्रियाविनिवृत्तो ह्यात्मक्रीडो भवति बाह्यक्रियात्मक्रीडयोर्विरोधात्। न हि तम प्रकाशयोयुगपदेकत्र स्थिति संभवति। तस्मादसत्प्रलपितमेवैतदनेन ज्ञानकर्मसमुच्चयप्रतिपादनम्। ‘अन्या वाचो विमुञ्चथ’ ‘सन्यासयोगात्’ इत्यादिश्रुतिभ्यश्च। तस्मादयमेवेह क्रियावान्यो ज्ञानध्यानादिक्रियावानसभिन्नार्यमर्याद सन्यासी। य एवलक्षणो नातिवाद्यात्मक्रीड आत्मरति क्रियावान्ब्रह्मनिष्ठ, स ब्रह्मविदा सर्वेषां वरिष्ठ प्रधान॥
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्।
अन्त शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो
य पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः५॥
अधुना सत्यादीनि भिक्षो सम्यग्ज्ञानसहकारीणि साधनानि विधीयन्ते निवृत्तिप्रधानानि—सत्येन अनृतत्यागेन मृषावदनत्यागेन लभ्य प्राप्तव्य। किंच, तपसा हीन्द्रियमनएकाग्रतया। ‘मनसश्चेन्द्रियाणां च ह्यैकाग्र्य परम् तप’ इति स्मरणात्। तद्ध्यनुकूलमात्मदर्शनाभिमुखीभावात्परम साधन तपो नेतरच्चान्द्रायणादि। एष आत्मा लभ्य इत्यनुषङ्ग सर्वत्र। सम्यग्ज्ञानेन यथाभूतात्मदर्शनेन ब्रह्मचर्येण मैथुनासमाचारेण। नित्य सर्वदा, नित्य सत्येन नित्य तपसा नित्य सम्यग्ज्ञानेनेति सर्वत्र नित्यशब्दोऽन्तर्दीपिकान्यायेनानुषक्तव्य। वक्ष्यति च ‘न येषु जिह्यमनृत न माया च’ इति। क्वासावात्मा य एतै साधनैर्लभ्य इत्युच्यते—अन्त शरीरेऽन्तर्मध्ये शरीरस्य पुण्डरीकाकाशे ज्योतिर्मयो हि रुक्मवर्ण शुभ्र शुद्धो यमात्मान पश्यन्ति उपलभन्ते यतय यतनशीला सन्यासिन क्षीणदोषा क्षीणक्रोधादिचित्तमला, स आत्मा नित्य सत्यादिसाधनै सन्यासिभिर्लभ्यत इत्यर्थ। न कादाचित्कै सत्यादिभिर्लभ्यते। सत्यादिसाधनस्तुत्यर्थोऽयमर्थवाद॥
सत्यमेव जयते नानुत
सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत्सत्यस्य परम निधानम्॥६॥
सत्यमेव सत्यवानेव जयते जयति, नानृत नानृतवादीत्यर्थ। न हि सत्यानृतयो केवलयो पुरुषानाश्रितयो जय पराजयो वा सभवति। प्रसिद्ध लोके सत्यवादिनानृतवाद्यभिभूयते न विपर्यय, अत सिद्ध सत्यस्य बलवत्साधनत्वम्। किंच, शास्त्रतोऽप्यवगम्यते सत्यस्य साधनातिशयत्वम्। कथम् ? सत्येन यथाभूतवादव्यवस्थया पन्था देवयानारय विततो विस्तीर्ण सातत्येन प्रवृत्त। येन पथा हि अक्रमन्ति आक्रमन्ते ऋषय दर्शनवन्त कुहकमायाशाठ्याहकारदम्भानृतवर्जिता ह्याप्तकामा विगततृष्णा सर्वतो यत्र यस्मिन्, तत्परमार्थतत्त्व सत्यस्य उत्तमसाधनस्य संबन्धि साध्य परम प्रकृष्ट निधान पुरुषार्थरूपेण निधीयत इति निधान वर्तते। तत्र च येन पथा आक्रमन्ति, स सत्येन वितत इति पूर्वेण संबन्ध॥
बृहच्च तद्दिव्यमचिन्त्यरूप
सूक्ष्माच्च तत्सूक्ष्मतर विभाति।
दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च
पश्यत्स्विहैव निहित गुहायाम्॥७॥
किं तत्किंधर्मक च तदित्युच्यते—बृहत् महच्चतत् प्रकृत ब्रह्म सत्यादिसाधनेन सर्वतो व्याप्तत्वात्। दिव्य स्वयप्रभमनिन्द्रियगोचरम् अत एव न चिन्तयितु शक्यतेऽस्य रूपमिति अचिन्त्यरूपम्। सूक्ष्मादाकाशादेरपि तत्सूक्ष्मतरम्, निरतिशय हि सौक्ष्म्यमस्य सर्वकारणत्वात्, विभाति विविधमादित्यचन्द्राद्याकारेण भाति दीप्यते। किंच, दूरात् विप्रकृष्टाद्देशात्सुदूरे विप्रकृष्टतरे देशे वर्ततऽविदुषामत्यन्तागम्यत्वात्तद्ब्रह्म। इह देहे अन्तिके समीपं च, विदुषामात्मत्वात्। सर्वान्तरत्वाच्चाकाशस्याप्यन्तरश्रुते। इह पश्यत्सु चेतनावत्स्वित्येतत्, निहित स्थित दर्शनादिक्रियावत्त्वेनयोगिभिर्लक्ष्यमाणम्। क्व ? गुहाया बुद्धिलक्षणायाम्। तत्र हि निगूढ लक्ष्यते विद्वद्भि। तथाप्यविद्यया संवृत सन्न लक्ष्यते तत्रस्थमेवाविद्वद्भि॥
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा
नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्व-
स्ततस्तु त पश्यते निष्कल ध्यायमानः॥
पुनरप्यसाधारण तदुपलब्धिसाधनमुच्यते— यस्मात् न
चक्षुषा गृह्यते केनचिदप्यरूपत्वात् नापि गृह्यते वाचा अनभिधेयत्वात् न चान्यैर्देवै इतरेन्द्रियै। तपस सर्वप्राप्तिसाधनत्वेऽपि न तपसा गृह्यते। तथा वैदिकेनाग्निहोत्रादिकर्मणा प्रसिद्धमहत्त्वेनापि न गृह्यते। किं पुनस्तस्य ग्रहणे साधनमित्याह-ज्ञानप्रसादेवआत्मावबोधनसमर्थमपि स्वभावेन सर्वप्राणिना ज्ञान बाह्यविषयरागादिदोषकलुषितमप्रससन्नमशुद्ध सन्नावबोधयति नित्यसंनिहितमप्यात्मतत्त्व मलावनद्धमिवादर्शम्, विलुलितमिव सलिलम्। तद्यदेन्द्रियविषयसंसर्गजनितरागादिमलकालुष्यापनयनादादर्शसलिलादिवत्प्रसादित स्वच्छ शान्तमवतिष्ठते, तदा ज्ञानस्य प्रसाद स्यात्। तेन ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्व विशुद्धान्त करण योग्यो ब्रह्म द्रष्टु यस्मात्, तत तस्मात्तु तमात्मान पश्यते पश्यति उपलभते निष्कल सर्वावयवभेदवर्जित ध्यायमान सत्यादिसाधनवानुपसंहृतकरण एकाग्रेण मनसा ध्यायमान चिन्तयन्॥
एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो
यस्मिन्प्राणः पञ्चधा सविवेश।
प्राणैश्चित्तं सर्वमोत प्रजानां
यस्मिन्विशुद्धे विभवत्येष आत्मा॥९॥
यमात्मानमेव पश्यति, एष अणु सूक्ष्म आत्मा चेतसा विशुद्धज्ञानेन केवलेन वेदितव्य।क्वासौ ? यस्मिन् शरीरे प्राण वायु पञ्चधा प्राणापानादिभेदेन सविवेश सम्यक् प्रविष्ट, तस्मिन्नेव शरीरे हृदये चेतसा ज्ञेय इत्यर्थ। कीदृशेन चेतसा वेदितव्य इत्याह—प्राणै सहेन्द्रियै चित्त सर्वमन्तकरण प्रजानाम् आत व्याप्त येन क्षीरमिव स्नेहेन, काष्टमिव चाग्निना। सर्वंहि प्रजानामन्त करण चतनावत्प्रसिद्ध लोके। यस्मिंश्च चित्ते क्लेशादिमलवियुक्ते शुद्धे विभवति, एष उक्त आत्मा विशेषेण स्वेनात्मना विभवति आत्मान प्रकाशयती इत्यर्थ॥
य य लोक मनसा सविभाति
विशुद्धसत्त्वः कामयते याश्च कामान्।
त त लोक जयते तांश्च कामां-
स्तस्मादात्मज्ञ ह्यर्चयेद्भूतिकाम॥१०॥
इति तृतीयमुण्डके प्रथम खण्ड॥
य एवमुक्तलक्षण सर्वात्मानमात्मत्वेन प्रतिपन्नस्तस्य सर्वात्मत्वादव सर्वावाप्तिलक्षण फलमाह—य य लोक पित्रादिलक्षण मनसा सविभाति संकल्पयति मह्यमन्यस्मै वा भ-
वेतिति, विशुद्धसत्त्व क्षीणक्लेश आत्मविन्निर्मलान्त करण कामयते याश्च कामान् प्रार्थयते भोगान्, त त लोक जयते प्राप्नोति ताश्च कामान्सकल्पितान्भोगान्। तस्माद्विदुष सत्यसंकल्पत्वादात्मज्ञमात्मज्ञानेन विशुद्धान्त करण ह्यर्चयेत्पूजयेत्पादप्रक्षालनशुश्रूषानमस्कारादिभि भूतिकाम विभूतिमिच्छु। तत पूजार्ह एवासौ॥
इति तृतीयमुण्डके प्रथमखण्डभाष्यम्॥
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द्वितीय खण्ड॥
-
*
स वेदैतत्परम ब्रह्म धाम
यत्र विश्व निहित भाति शुभ्रम्।
उपासते पुरुष ये ह्यकामा-
स्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः॥१॥
यस्मात् स वेद जानाति एतत् यथोक्तलक्षण ब्रह्म परम प्रकृष्ट धाम सर्वकामाणामाश्रयमास्पदम्, यत्र यस्मिन्ब्रह्मणि धाम्निविश्व समस्त जगत् निहितम् अर्पितम्, यच्च स्वेन ज्योतिषा भाति शुभ्र शुद्धम्, तमप्येवविधमात्मज्ञ पुरुष ये हि अकामा विभूतितृष्णावर्जिता मुमुक्षव सन्त उपासते परमिव देवम्, ते शुक्र नृबीज यदेतत्प्रसिद्ध शरीरोपादानकारणम् अतिवर्तन्ति अतिगच्छन्ति धीरा बुद्धिमन्त, न पुनर्योनिं प्रसर्पन्ति। ‘न पुन क्व रतिं करोति’ इति श्रुते। अतस्त पूजयेदित्यभिप्राय॥
कामान्यः कामयते मन्यमानः
स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु
इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामा॥
मुमुक्षो कामत्याग एव प्रधान साधनमित्येतद्दर्शयति—कामान् य दृष्टादृष्टेष्टविषयान् कामयते मन्यमान तद्गुणाश्चिन्तयान प्रार्थयते, स तै कामभि कामैर्धर्माधर्मप्रवृत्तिहेतुभिर्विषयेच्छारूपै सह जायते, तत्र तत्र, यत्र यत्र विषयप्राप्तिनिमित्त कामा कर्मसु पुरुष नियोजयन्ति, तत्र तत्र तेषु विषयेषु तैरेव कामैर्वेष्टितो जायते। यस्तु परमार्थतत्त्वविज्ञानात्पर्याप्तकाम आत्मकामत्वेन परि समन्तत आप्ता कामा यस्य, तस्य पर्याप्तकामस्य कृतात्मन अविद्यालक्षणादपररूपादपनीय स्वेन परेण रूपेण कृत आत्मा विद्यया यस्य, तस्य कृतात्मनस्तु इहैव तिष्ठत्येव शरीरे सर्वे धर्माधर्मप्रवृत्तिहेतव प्रविलीयन्ति प्रविलीयन्ते विलयमुपयान्ति, नश्यन्तीत्यर्थ। कामा तज्जन्महेतुविनाशान्न जायन्त इत्यभिप्राय॥
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू स्वाम्॥
यद्येव सर्वलाभात्परम आत्मलाभ, तल्लाभाय प्रवचनादय उपाया बाहुल्येन कर्तव्या इति प्राप्ते, इदमुच्यते—य अयमात्मा व्याख्यात, यस्य लाभ पर पुरुषार्थ, नासौ वेदशास्त्राध्ययनबाहुल्येन प्रवचनेन लभ्य। तथा न मेधया ग्रन्थार्थधारणशक्त्या, न बहुना श्रुतेन नापि भूयसा श्रवणेनेत्यर्थ। केन तर्हि लभ्य इति उच्यते—यमेव परमात्मानमेव एष विद्वान् वृणुते प्राप्तुमिच्छति, तेन वरणेन एष पर आत्मा लभ्य, नान्येन साधनान्तरेण, नित्यलब्धस्वभावत्वात्। कीदृशोऽसौ विदुष आत्मलाभ इति, उच्यते—तस्य एष आत्मा अविद्यासछन्ना स्वा परा तनू स्वात्मतत्त्व स्वरूपं विवृणुते प्रकाशयति, प्रकाश इव घटादिर्विद्याया सत्यामाविर्भवतीत्यर्थ। तस्मादन्यत्यागेनात्मप्रार्थनैव आत्मलाभसाधनमित्यर्थ॥
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो
न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात्।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वा-
स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्म धाम॥
आत्मप्रार्थनासहायभूतान्येतानि च साधनानि बलाप्रमादतपासि लिङ्गयुक्तानि सन्याससहितानि। यस्मात् न अयमात्मा बलहीनेन बलप्रहीणेनात्मनिष्ठाजनितवीर्यहीनेन लभ्य, नापि लौकिकपुत्रपश्वादिविषयासङ्गनिमित्तात्प्रमादात्, तथा तपसा वापि अलिङ्गात् लिङ्गरहितात्। तपोऽत्र ज्ञानम्, लिङ्ग सन्यास, सन्यासरहिताज्ज्ञानान्न लभ्यत इत्यर्थ। एतै उपायै बलाप्रमादसन्यासज्ञानैयतते तत्पर सन्प्रयतते यस्तु विद्वान्विवेकी आत्मवित्, तस्य विदुष एष आत्मा विशते सप्रविशति ब्रह्म धाम॥
सप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः
कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः।
ते सर्वग सर्वतः प्राप्य धीरा
युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति॥५॥
कथं ब्रह्म विशत इति उच्यते—सप्राप्य समवगम्य एनम् आत्मानम् ऋषय दर्शनवन्त तेनैव ज्ञानेन तृप्ता, नबा-
ह्येन तृप्तिसाधनेन शरीरोपचयकारणेन। कृतात्मान परमात्मस्वरूपेणैव निष्पन्नात्मान सन्त। वीतरागा विगतरागादिदोषा। प्रशान्ता उपरतेन्द्रिया। ते एवभूता सर्वग सर्वव्यापिनम् आकाशवत् सर्वत सर्वत्र प्राप्य, नोपाधिपरिच्छिन्नेनैकदेशेन किं तर्हि, तद्ब्रह्मैवाद्वयमात्मत्वेन प्रतिपद्य धीरा अत्यन्तविवेकिन युक्तात्मानो नित्यसमाहितस्वभावा सर्वमेव समस्त शरीरपातकालेऽपि आविशन्ति भिन्नघटाकाशवदविद्याकृतोपाधिपरिच्छेद जहति। एव ब्रह्मविदो ब्रह्मधाम प्रविशन्ति॥
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः
सन्यासंयोगाद्यतय शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले
परामृता परिमुच्यन्ति सर्वे॥६॥
किंच, वेदान्तजनित विज्ञान वेदान्तविज्ञान तस्यार्थ पर आत्मा विज्ञेय, सोऽर्थ सुनिश्चितो येषां ते वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्था। ते च सन्यासयोगात् सर्वकर्मपरित्यागलक्षणयोगात्केवलब्रह्मनिष्ठास्वरूपाद्योगात् यतय यतनशीला शुद्धसत्त्वा शुद्ध सत्त्व येषां सन्यासयोगात्, ते शुद्धसत्त्वा। ते ब्र-
ह्यलोकेषु, संसारिणा ये मरणकालास्ते अपरान्तकाला, तानपेक्ष्य मुमुक्षूणा ससारावसाने देहपरित्यागकाल परान्तकाल तस्मिन् परान्तकाले साधकाना बहुत्वाद्ब्रह्मैव लोको ब्रह्मलोक एकोऽप्यनेकवद्दृश्यते प्राप्यते च। अतो बहुवचन ब्रह्मलोकेष्विति, ब्रह्मणीत्यर्थ। परामृता परम् अमृतम् अमरणधर्मक ब्रह्म आत्मभूत येषां ते परामृता जीवन्त एव ब्रह्मभूता, परामृता सन्त परिमुच्यन्ति परि समन्तात्प्रदीपनिर्वाणवद्भिन्नघटाकाशवच्च निवृत्तिमुपयान्ति परिमुच्यन्ति परिसमन्तान्मुच्यन्ते सर्वे, न देशान्तर गन्तव्यमपेक्षन्ते। ‘शकुनीनामिवाकाशे जले वारिचरस्य वा। पद यथा न दृश्येत तथा ज्ञानवता गति’ ‘अनध्वगा अध्वसु पारयिष्णव’ इति श्रुतिस्मृतिभ्याम्, देशपरिच्छिन्ना हि गति संसारविषयैव, परिच्छिन्नसाधनसाध्यत्वात्। ब्रह्म तु समस्तत्वान्न देशपरिच्छेदेन गन्तव्यम्। यदि हि देशपरिच्छिन्न ब्रह्म स्यात्, मूर्तद्रव्यवदाद्यन्तवदन्याश्रित सावयवमनित्य कृतक व स्यात्। न त्वेवविध ब्रह्म भवितुमर्हति। अतस्तत्प्राप्तिश्च नैव देशपरिच्छिन्ना भवितु युक्ता॥
गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा
देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा
परेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति॥७॥
अपि च, अविद्यादिसंसारबन्धापनयनमेव मोक्षमिच्छन्ति ब्रह्मविद, न तु कार्यभूतम्। किंच, मोक्षकाले या देहारम्भिका कला प्राणाद्या, ता स्वा प्रतिष्ठा गता स्व स्व कारण गता भवन्तीत्यर्थ। प्रतिष्ठा इति द्वितीयाबहुवचनम्। पञ्चदश पञ्चदशसंख्याका या अन्त्यप्रश्नपरिपठिता प्रसिद्धा, देवाश्च देहाश्रयाश्चक्षुरादिकरणस्था सर्वे प्रतिदेवतास्वादित्यादिषु गता भवन्तीत्यर्थ। यानि च मुमुक्षुणा कृतानि कर्माण्यप्रवृत्तफलानि, प्रवृत्तफलानामुपभोगेनैव क्षीणत्वात्। विज्ञानमयश्चात्मा अविद्याकृतबुद्ध्याद्युपाधिमात्मत्वेन गत्वा जलादिषु सूर्यादिप्रतिबिम्बवदिह प्रविष्टो देहभेदेषु कर्मणा तत्फलार्थत्वात्सह तेनैव विज्ञानमयेनात्मना, अतो विज्ञानमयो विज्ञानप्राय। त एते कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा उपाध्यपनये सति परे अव्यये अनन्तेऽक्षये ब्रह्मणि आकाशकल्पेऽजेऽजरेऽमृतेऽभयेऽपूर्वेऽनपरेऽनन्तरेऽबाह्येऽद्वये शिवे शान्ते सर्वे एकीभवन्ति अविशेषता गच्छन्ति एकत्वमापद्यन्ते जलाद्याधारापनय इव सू-
र्यादिप्रतिबिम्बा सूर्ये, घटाद्यपनय इवाकाशे घटाद्याकाशा॥
यथा नद्य स्यन्दमानाः समुद्रे-
ऽस्त गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्त
परात्पर पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८॥
किंच, यथा नद्य गङ्गाद्या स्यन्दमाना गच्छन्त्य समुद्रे समुद्र प्राप्य अस्तम् अदर्शनमविशेषात्मभाव गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति नाम च रूप च नामरूपे विहाय हित्वा, तथा अविद्याकृतनामरूपात् विमुक्त सन् विद्वान् परात् अक्षरात्पूर्वोक्तात्पर दिव्य पुरुष यथोक्तलक्षणम् उपैति उपगच्छति॥
स यो ह वै तत्परम ब्रह्म वेद
ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति।
तरति शोक तरति पाप्मान
गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥९॥
ननु श्रेयस्यनेके विघ्ना प्रसिद्धा, अत क्लेशानामन्यतमनान्येन वा देवादिना च विघ्नितो ब्रह्मविदप्यन्या गतिं मृतो
गच्छति न ब्रह्मैव, न, विद्ययैव सर्वप्रतिबन्धस्यापनीतत्वात्। अविद्याप्रतिबन्धमात्रो हि मोक्षो नान्यप्रतिबन्ध, नित्यत्वादात्मभूतत्वाच्च। तस्मात् स य कश्चित् ह वै लोके तत् परम ब्रह्म वेद साक्षादहमेवास्मीति जानाति, स नान्या गतिं गच्छति। देवैरपि तस्य ब्रह्मप्राप्तिं प्रति विघ्नो न शक्यते कर्तुम्, आत्मा ह्येषा स भवति। तस्माद्ब्रह्म विद्वान् ब्रह्मैव भवति। किंच, न अस्य विदुष अब्रह्मवित् कुले भवति, किंच, तरति शोकम् अनेकेष्टवैकल्यनिमित्त मानस संताप जीवन्नेवातिक्रान्तो भवति। तरति पाप्मान धर्माधर्मारय गुहाग्रन्थिभ्य हृदयाविद्याग्रन्थिभ्य विमुक्त सन् मृत भवतीत्युक्तमेव ‘भिद्यते हृदयग्रन्थि’ इत्यादि॥
तदेतदृचाभ्युक्तम्—
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठा
स्वयं जुह्वत एकर्षि श्रद्धयन्त।
तेषामेवैता ब्रह्मविद्या वदेत
शिरोव्रत विधिवद्यैस्तु चीर्णम्॥१०॥
अथेदानीं ब्रह्मविद्यासंप्रदानविध्युपप्रदर्शनेनोपसंहारः क्रियते—तदेतत् विद्यासप्रदानविधानम् ऋचा मन्त्रेण अभ्यु-
क्तम् अभिप्रकाशितम्। क्रियावन्त यथोक्तकर्मानुष्ठानयुक्ता। श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठा अपरस्मिन्ब्रह्मण्यभियुक्ता पर ब्रह्म बुभुत्सव स्वयम् एकर्षिम् एकर्षिनामानमग्निं जुह्वते जुह्वति श्रद्धयन्त श्रद्दधाना सन्त ये, तेषामेव संस्कृतात्मना पात्रभूतानाम् एता ब्रह्मविद्या वदेत ब्रूयात् शिरोव्रत शिरस्यग्निधारणलक्षणम्। यथा आथर्वणाना वेदव्रत प्रसिद्धम्। यैस्तु यैश्च तत् चीर्णं विधिवत् यथाविधान तेषामेव वदेत॥
** तदेतत्सत्यमृषिरङ्गिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते। नम परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः॥११॥**
तदेतत् अक्षर पुरुष सत्यम् ऋषि अङ्गिरा नाम पुरा पूर्वं शौनकाय विधिवदुपसन्नाय पृष्टवते उवाच। तद्वदन्योऽपि तथैव श्रेयोर्थिने मुमुक्षवे मोक्षार्थं विधिवदुपसन्नाय ब्रूयादित्यर्थ। न एतत् ग्रन्थरूपम् अचीर्णव्रत अचरितव्रतोऽपि अधीते न पठति, चीर्णव्रतस्य हि विद्या फलाय संस्कृता भवतीति। समाप्ता ब्रह्मविद्या, सा येभ्यो ब्रह्मादिभ्य पारम्पर्यक्रमेण संप्राप्ता, तेभ्यो नम परमऋषिभ्य। परम
ब्रह्म साक्षाद्दृष्टवन्तो ये ब्रह्मादयोऽवगतवन्तश्च, ते परमर्षय तेभ्यो भूयोऽपि नम। द्विर्वचनमत्यादरार्थं मुण्डकसमात्यर्थं च॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्द-
भगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
मुण्डकोपनिषद्भाष्य संपूर्णम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1732379692Screenshot(92"/>.png)
| <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1732379898102.png"/> |
[TABLE]
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1732675207Screenshot(97"/>.png)
सगौडपादीयकारिका
॥ माण्डूक्योपनिषत्॥
श्रीमच्छकरभगवत्पादविरचितेन
भाष्येण सहिता॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1732675235Screenshot(96"/>.png)
प्रज्ञानांशुप्रतानै स्थिरचरनिकरव्यापिभिर्व्याप्य लोका
भुक्त्वा भोगान्स्थविष्ठान्पुनरपि धिषणोद्भासितान्कामजयान्
पीत्वा सर्वान्विशेषान्स्वपिति मधुरभुङ्मयया भोजयन्नो
मायासंख्यातुरीय परममृतमज ब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि॥१॥
यो विश्वात्मा विधिजविषयान्प्राश्य भोगान्स्थविष्ठा
न्पश्चाच्चान्यान्स्वमतिविभवाग्ज्योतिषा स्वेन सूक्ष्मान्।
सर्वानेतान्पुनरपि शनै स्वात्मनि स्थापयित्वा
हित्वा सर्वाविशेषान्विगतगुणगण पात्वसौ नस्तुरीय॥२॥
आगमप्रकरणम्॥
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मित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानम्। वेदान्तार्थसारसंग्रहभूतमिदं प्रकरणचतुष्टयम् ओमित्येतदक्षरमित्यादि आरभ्यते। अत एव न पृथक् संबन्धाभिधेयप्रयोजनानि वक्तव्यानि। यान्येव तु वेदान्ते संबन्धाभिधेयप्रयोजनानि, तान्येवेहापि भवितुमर्हन्ति, तथापि प्रकरणव्याचिरयासुना संक्षेपतो वक्तव्यानीति मन्यन्ते व्याख्यातार। तत्र प्रयोजनवत्साधनाभिव्यञ्जकत्वेनाभिधेयसंबद्ध शास्त्र पारम्पर्येण विशिष्टसबन्धाभिधेयप्रयोजनवद्भवति। किं पुनस्तत्प्रयोजनमिति, उच्यते—रोगार्तस्येव रोगनिवृत्तौ स्वस्थता, तथा दुःखात्मकस्यात्मनो द्वैतप्रपञ्चोपशमे स्वस्थता, अद्वैतभाव प्रयोजनम्। द्वैतप्रपञ्चस्य चाविद्याकृतत्वाद्विद्यया तदुपशम स्यादिति ब्रह्मविद्याप्रकाशनाय अस्यारम्भ क्रियते। ‘यत्र हि द्वैतमिव भवति’ ‘यत्र वान्यदिव स्यात्तत्रान्योऽन्य-
त्पश्येदन्योऽन्यद्विजानीयात्’ ‘यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन क पश्येत्तत्केन क विजानीयात्’ इत्यादिश्रुतिभ्योऽस्यार्थस्य सिद्धि। तत्र तावदोंकारनिर्णयाय प्रथम प्रकरणमागमप्रधानमात्मतत्त्वप्रतिपत्त्युपायभूतम्। यस्य द्वैतप्रपञ्चस्योपशमे अद्वैतप्रतिपत्ति रज्ज्वामिव सर्पादिविकल्पोपशमे रज्जुतत्त्वप्रतिपत्ति, तस्य द्वैतस्य हेतुतो वैतथ्यप्रतिपादनाय द्वितीय प्रकरणम्। तथा अद्वैतस्यापि वैतथ्यप्रसङ्गप्राप्तौ, युक्तितस्तथात्वप्रतिपादनाय तृतीय प्रकरणम्। अद्वैतस्य तथात्वप्रतिपत्तिविपक्षभूतानि यानि वादान्तराण्यवैदिकानि सन्ति, तेषामन्योन्यविरोधित्वादतथार्थत्वेन तदुपपत्तिभिरेव निराकरणाय चतुर्थं प्रकरणम्॥
** ओमित्येतदक्षरमिद≍सर्व तस्योपव्याख्यान भूत भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव। यच्चान्यत्त्रिकालातीत तदप्योंकार एव॥१॥**
कथं पुनरोंकारनिर्णय आत्मतत्त्वप्रतिपत्त्युपायत्व प्रतिपद्यत इति, उच्यते—‘ओमित्येतत्’ ‘एतदालम्बनम्’ ‘एतद्वैसत्यकाम पर चापर च ब्रह्म यदोंकार। तस्माद्विद्वानेतेनै
वायतनेनैकतरमन्वेति’ ‘ओमित्यात्मान युञ्जीत’ ‘ओमिति ब्रह्म’ ‘ओकार एवेद सर्वम्’ इत्यादिश्रुतिभ्य। रज्ज्वादिरिव सर्पादिविकल्पस्यास्पदमद्वय आत्मा परमार्थत सन्प्राणादिविकल्पस्यास्पद यथा, तथा सर्वोऽपि वाक्प्रपञ्च प्राणाद्यात्मविकल्पविषय ओकार एव। स चात्मस्वरूपमेव, तदभिधायकत्वात्। ओकारविकारशब्दाभिधेयश्चसर्व प्राणादिरात्मविकल्प अभिधानव्यतिरेकेण नास्ति, ‘वाचारम्भण विकारो नामधेयम्’ ‘तदस्येदं वाचा तन्त्या नामभिर्दामभि सर्व सितम्, सर्व हीद नामनि’ इत्यादिश्रुतिभ्यः। अत आह—ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वमिति। यदिदम् अर्थजातमभिधेयभूतम्, तस्य अभिधानाव्यतिरेकात्, अभिधानभेदस्य च ओकाराव्यतिरेकात् ओंकार एवेद सर्वम्। पर च ब्रह्म अभिधानाभिधेयोपायपूर्वकमवगम्यत इत्योंकार एव। तस्य एतस्य परापरब्रह्मरूपस्याक्षरस्य ओमित्येतस्य उपव्याख्यानम्, ब्रह्मप्रतिपत्त्युपायत्वाद्ब्रह्मसमीपतया विस्पष्ट प्रकथनमुपव्याख्यानम्, प्रस्तुत वेदितव्यमिति वाक्यशेष। भूत भवत् भविष्यत् इति कालत्रयपरिच्छेद्य यत्, तदपि ओंकार एव, उक्तन्यायत। यच्च अन्यत् त्रिकालातीत कार्याधिगम्य कालापरिच्छेद्यमव्याकृतादि, तदपि ओंकार एव॥
सर्व≍ ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्॥२॥
अभिधानाभिधेययोरेकत्वेऽपि अभिधानप्राधान्येन निर्देश कृत ‘ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वम्’ इत्यादि। अभिधानप्राधान्येन निर्दिष्टस्य पुनरभिधेयप्राधान्येन निर्देश अभिधानाभिधेययोरेकत्वप्रतिपत्त्यर्थ। इतरथा हि अभिधानतन्त्राभिधेयप्रतिपत्तिरिति अभिधेयस्याभिधानत्वं गौणमित्याशङ्का स्यात्। एकत्वप्रतिपत्तेश्च प्रयोजनमभिधानाभिधेययो— एकेनैव प्रयत्नेन युगपत्प्रविलापयस्तद्विलक्षण ब्रह्म प्रतिपद्येतेति। तथा च वक्ष्यति—‘पादा मात्रा मात्राश्च पादा’ इति। तदाह—सर्वंह्येतद्ब्रह्मेति। सर्वं यदुक्तमोंकारमात्रमिति, तदेतत् ब्रह्म। तच्च ब्रह्म परोक्षाभिहित प्रत्यक्षतो विशेषेण निर्दिशति—अयमात्मा ब्रह्मेति। अयम् इति चतुष्पात्त्वेन प्रविभज्यमान प्रत्यगात्मतयाभिनयेन निर्दिशति अयमात्मेति। सोऽयमात्मा ओंकाराभिधेय परापरत्वेन व्यवस्थित चतुष्पात् कार्षापणवत्, न गौरिव। त्रयाणा विश्वादीना पूर्वपूर्वप्रविलापनेन तुरीयस्य प्रतिपत्तिरिति करणसाधन पादशब्द, तुरीयस्य तु पद्यत इति कर्मसाधन पादशब्द॥
जागरितस्थानो बहिःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः॥३॥
कथं चतुष्पात्त्वमित्याह—जागरितस्थान इति। जागरित स्थानमस्येति जागरितस्थान, बहि प्रज्ञ स्वात्मव्यतिरिक्ते विषये प्रज्ञा यस्य स बहि प्रज्ञ, बहिर्विषयेव प्रज्ञा यस्याविद्याकृतावभासत इत्यर्थ। तथा सप्त अङ्गान्यस्य, ‘तस्य ह वा एतस्यात्मनो वैश्वानरस्य मूर्धैव सुतेजाश्चक्षुर्विश्वरूप प्राण पृथग्वर्त्मात्मा सदेहो बहुलो वस्तिरेव रयि पृथिव्येव पादौ’ इत्यग्निहोत्राहुतिकल्पनाशेषत्वेनाग्निर्मुखत्वेनाहवनीय उक्त इत्येव सप्ताङ्गानि यस्य, स सप्ताङ्ग। तथा एकोनविंशतिर्मुखान्यस्य, बुद्धीन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियाणि च दश, वायवश्च प्राणादय पञ्च, मनो बुद्धिरहंकारश्चित्तमिति, मुखानीव मुखानि तानि, उपलब्धिद्वाराणीत्यर्थ। स एवविशिष्टो वैश्वानर यथोक्तैर्द्वारैशब्दादीन्स्थूलान्विषयान्भुङ्क्तइति स्थूलभुक्। विश्वेषा नराणामनेकधा सुखादिनयनाद्विश्वानर, यद्वा विश्वश्चसौ नरश्चेति विश्वानर, विश्वानर एव वैश्वानर, सर्वपिण्डात्मानन्यत्वात्, स प्रथम पाद। एतत्पूर्वकत्वादुत्तरपादाधिगमस्य प्राथम्यमस्य। कथम् ‘अयमात्मा ब्रह्म’
इति प्रत्यगात्मनोऽस्य चतुष्पात्त्वे प्रकृते द्युलोकादीना मूर्धाद्यङ्गत्वमिति ? नैष दोष, सर्वस्य प्रपञ्चस्य साधिदैविकस्य अनेनात्मना चतुष्पात्त्वस्य विवक्षितत्वात्। एव च सति सर्वप्रपञ्चोपशमे अद्वैतसिद्धि। सर्वभूतस्थश्च आत्मा एको दृष्ट स्यात्, सर्वभूतानि चात्मनि। ‘यस्तु सर्वाणि भूतानि’ इत्यादिश्रुत्यर्थश्चैवमुपसहृत स्यात्, अन्यथा हिस्वदेहपरिच्छिन्न एव प्रत्यगात्मा साख्यादिभिरिव दृष्ट स्यात्, तथा च सति अद्वैतमिति श्रुतिकृतो विशेषो न स्यात्, सारयादिदर्शनेनाविशेषात्। इष्यते च सर्वोपनिषदा सर्वात्मैक्यप्रतिपादकत्वम्, ततो युक्तमेवास्य आध्यात्मिकस्य पिण्डात्मनो द्युलोकाद्यङ्गत्वेन विराडात्मनाधिदैविकेनैकत्वमित्यभिप्रेत्य सप्ताङ्गत्ववचनम्। ‘मूर्धा ते व्यपतिष्यत्’ इत्यादिलिङ्गदर्शनाच्च। विराजैकत्वमुपलक्षणार्थ हिरण्यगर्भाव्याकृतात्मनो। उक्त चैतन्मधुब्राह्मणे—‘यश्चायमस्या पृथिव्या तेजोमयोऽमृतमय पुरुषो यश्चायमध्यात्मम्’ इत्यादि। सुषुप्ताव्याकृतयोस्त्वेकत्व सिद्धमेव, निर्विशेषत्वात्। एव च सत्येतत्सिद्ध भविष्यति— सर्वद्वैतोपशमे चाद्वैतमिति॥
स्वमस्थानोऽन्तःप्रज्ञ सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखःप्रविविक्तभुक्तैजसो द्विती-
यः पाद॥४॥
स्वप्न स्थानमस्य तैजसस्येति स्वप्नस्थान। जाग्रत्प्रज्ञा अनेकसाधना बहिर्विषयेवापभासमाना मन स्पन्दनमात्रा सती तथाभूत संस्कार मनस्याधत्ते, तन्मन तथा संस्कृत चित्रित इव पटो बाह्यसाधनानपेक्षमविद्याकामकर्मभि प्रेर्यमाण जाग्रद्वदवभासते। तथा चोक्तम्— ‘अस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय’ इत्यादि। तथा ‘परे देवे मनस्येकीभवति’ इति प्रस्तुत्य ‘अत्रैष देव स्वप्ने महिमानमनुभवति’ इत्याथर्वणे। इन्द्रियापेक्षया अन्तस्थत्वान्मनस तद्वासनारूपा च स्वप्ने प्रज्ञा यस्येति अत प्रज्ञ, विषय शून्याया यज्ञाया केवलप्रकाशस्वरूपाया विषयित्वेन भवतीति तैजस। विश्वस्य सविषयत्वेन प्रज्ञाया स्थूलया भोज्यत्वम्, इह पुन केवला वासनामात्र प्रज्ञा भोज्येति प्रविविक्तो भोग इति। समानमन्यत्। द्वितीय पाद तैजस॥
** यत्र सुप्तो न कचन काम कामयते न कचन स्वप्न पश्यति तत्सुषुप्तम्। सुषुप्त स्थान एकीभूत प्रज्ञानघन एवानन्दम-**
** यो ह्यानन्दभुक्चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीय पाद॥५॥**
दर्शनादर्शनवृत्त्यो स्वापस्य तुल्यत्वात्सुषुप्तग्रहणार्थं यत्र सुप्त इत्यादिविशेषणम्। अथवा, त्रिष्वपि स्थानेषु तत्त्वाप्रतिबोधलक्षण स्वापोऽविशिष्ट इति पूर्वाभ्या सुषुप्त विभजते—यत्र यस्मिन्स्थाने काले वा सुप्तो न कचन काम कामयते न कचन स्वप्न पश्यति। न हि सुषुप्ते पूर्वयोरिवान्यथाग्रहणलक्षण स्वप्नदर्शन कामो वा कश्चन विद्यते। तदेतत्सुषुप्त स्थानमस्येति सुषुप्तस्थान। स्थानद्वयप्रविभक्त मन स्पन्दित द्वैतजात तथा रूपापरित्यागेनाविवेकापन्न नैशतमोग्रस्तमिवाह सप्रपञ्चमेकीभूतमित्युच्यते। अत एव स्वप्नजाग्रन्मन स्पन्दनानि प्रज्ञानानि घनीभूतानीव, सेयमवस्था अविवेकरूपत्वात्प्रज्ञानघन उच्यते। यथा रात्रौ नैशेन तमसा अविभज्यमान सर्व घनमिव, तद्वत्प्रज्ञानघन एव। एवशब्दान्न जात्यन्तर प्रज्ञानव्यतिरेकणास्तीत्यर्थ। मनसो विषयविषय्याकारस्पन्द नायासदुःखाभावात् आनदमय आनन्दप्राय, नानन्द एव, अनात्यन्तिकत्वात्। यथा लोके निरायास स्थित सुख्यानन्दभुगुच्यते। अत्यन्तानायासरूपा हीय स्थितिरनेनात्मनानुभूयत इत्यान दभुक्, ‘एषोऽस्य परम आनन्द’
इति श्रुते। स्वप्नादिप्रतिबोध चेत प्रति द्वारीभूतत्वात् चेतोमुख, बोधलक्षण वा चेतो द्वार मुखमस्य स्वप्नाद्यागमन प्रतीति चेतोमुख। भूतभविष्यज्ज्ञातृत्व सर्वविषयज्ञातृत्वमस्यैवेति प्राज्ञ। सुषुप्तोऽपि हि भूतपूर्वगत्या प्राज्ञ उच्यते। अथवा, प्रज्ञप्तिमात्रमस्यैव असाधारण रूपमिति प्राज्ञ, इतरयोर्विशिष्टमपि विज्ञानमस्तीति। सोऽयं प्राज्ञस्तृतीय पाद॥
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्॥६॥
एष हि स्वरूपावस्थ सर्वेश्वर साधिदैविकस्य भेदजा तस्य सर्वस्य ईश्वर ईशिता, नैतस्माज्जात्यन्तरभूतोऽन्येषामिव, ‘प्राणबन्धन हि सोम्य मन’ इति श्रुते। अयमेव हि सर्वस्य सर्वभेदावस्थो ज्ञातेति एष सर्वज्ञ। अत एव एष अन्तर्यामी, अन्तरनुप्रविश्य सर्वेषां भूतानां यमयिता नियन्ताप्येष एव। अत एव यथोक्त सभेद जगत्प्रसूयत इति एष योनि सर्वस्य। यत एवम्, प्रभवश्चाप्ययश्च प्रभवाप्ययौ हि भूतानामेष एव॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति—
बहि प्रज्ञो विभुर्विश्वोह्यन्त प्रज्ञस्तु तैजसः।
घनप्रज्ञस्तथा प्राज्ञ एक एव त्रिधा स्थित॥१॥
अत्र एतस्मिन्यथोक्तेऽर्थे एते श्लोका भवन्ति—बहि प्रज्ञ इति। पर्यायेण त्रिस्थानत्वात् सोऽहमिति स्मृत्या प्रतिसंधानाच्च स्थानत्रयव्यतिरिक्तत्वमेकत्व शुद्धत्वमसङ्गत्व च सिद्धमित्यभिप्राय, महामत्स्यादिदृष्टान्तश्रुते॥
दक्षिणाक्षिमुखे विश्वो मनस्यन्तस्तु तैजस।
आकाशे च हृदि प्राज्ञस्त्रिधा देहे व्यवस्थितः॥२॥
जागरितावस्थायामेव विश्वादीना त्रयाणामनुभवप्रदर्शनार्थोऽयं श्लोक—दक्षिणाक्षीति। दक्षिणमक्ष्येव मुखम्, तस्मिन्प्राधान्येन द्रष्टा स्थूलाना विश्व अनुभूयते, ‘इन्धो ह वै नामैष योऽय दक्षिणेऽक्षन्पुरुष’ इति श्रुते। इन्धो दीप्तिगुणो वैश्वानर आदित्यान्तर्गतो वैराज आत्मा चक्षुषि च द्रष्टैक। नन्वन्यो हिरण्यगर्भ, क्षेत्रज्ञो दक्षिणेऽक्षिण्यक्ष्णोर्नियन्ता द्रष्टा चान्यो देहस्वामी, न स्वतो भेदानभ्युपगमात्’ एको देव सर्वभूतेषु गूढ’ इति श्रुते, ‘क्षेत्रज्ञ चापि मा विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत’ ‘अविभक्त च भू-
तेषु विभक्तमिव च स्थितम्’ इति स्मृतेश्च, सवेषु करणेष्वविशेषेष्वपि दक्षिणाक्षिण्युपलब्धिपाटवदर्शनात्तत्र विशेषेण निर्देशोऽस्य विश्वस्य। दक्षिणाक्षिगतो दृष्ट्वा रूप निमीलिताक्षस्तदेव स्मरन्मनस्यन्त स्वप्न इव तदेव वासनारूपाभिव्यक्त पश्यति। यथा तत्र तथा स्वप्ने, अत मनसि अन्तस्तु तैजसोऽपि विश्व एव। आकाश च हृदि स्मरणाख्यव्यापारोप रमे प्राज्ञ एकीभूतो घनप्रज्ञ एव भवति, मनोव्यापाराभावात्। दर्शनस्मरणे एव हि मन स्पन्दितम्, तदभावे हृद्येवाविशेषेण प्राणात्मनावस्थानम्, ‘प्राणो ह्येवैतान्सर्वान्सवृङ्क्ते’ इति श्रुत। तैजस हिरण्यगर्भ, मन स्थत्वात्, ‘लिङ्गभन’ ‘मनोमयोऽय पुरुष’ इत्यादिश्रुतिभ्य। ननु, व्याकृत जाण सुषुप्ते, तदात्मकानि करणानि भवन्ति, कथम व्याकृतता ? नैष दोष, अव्याकृतस्य देशकालविशेषाभावात्। यद्यपि प्राणाभिमाने सति व्याकृततैव प्राणस्य, तथापि पिण्डपरिच्छिन्नविशेषाभिमाननिरोध प्राणे भवतीत्यव्याकृत एव प्राण सुषुप्ते परिच्छिन्नाभिमानवताम्। यथा प्राणलये परिच्छिन्नाभिमानिना प्राणोऽव्याकृत, तथा प्राणाभिमानिनोऽप्यविशेषापत्तावव्याकृतता समाना, प्रसवबीजात्मकत्वं च। तदध्यक्षश्चैकोऽव्याकृतावस्थ। परिच्छिन्नाभिमा
निनामध्यक्षाणा च तनैकत्वमिति पूर्वोक्त विशेषणमेकीभूत प्रज्ञानघन इत्याद्युपपन्नम्। तस्मिन्नेतास्मन्नुक्तहेतुसत्त्वाच्च। कथ प्राणशब्दत्वमव्याकृतस्य ? ‘प्राणबन्धन हि सोम्य मन’ इति श्रुते। ननु, तत्र ‘सदेव सोम्य’ इति प्रकृत सद्ब्रह्म प्राणशब्दवाच्यम्, नैष दोष, बीजात्मकत्वाभ्युपगमात्सत्। यद्यपि सद्ब्रह्म प्राणशब्दवाच्य तत्र, तथापि जीवप्रसवबीजात्मकत्वमपरित्यज्यैव प्राणशब्दत्व सत सच्छब्दवाच्यता च। यदि हि निर्बीजरूप विवक्षित ब्रह्माभविष्यत् ‘नेति नेति’ यतो वाचो निवर्तन्ते’ ‘अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’ इत्यवक्ष्यत्, ‘न सत्तन्नासदुच्यते’ इति स्मृते। निर्बीजतयैव चेत्, सति प्रलीनाना सपन्नाना सुषुप्तिप्रलययो पुनरुत्थानानुपपत्ति स्यात्, मुक्ताना च पुनरुत्पत्तिप्रसङ्ग, बीजाभावाविशेषात्, ज्ञानदाह्यबीजाभाव च ज्ञानानर्थक्यप्रसङ्ग, तस्मात्सबीजत्वाभ्युपगमेनैव सत प्राणत्वव्यपदेश, सर्वश्रुतिषु च कारणत्वव्यपदेश। अत एव ‘अक्षरात्परत पर’ सबाह्याभ्यन्तरा ह्यज’ ‘यतो वाचो निवर्तन्ते’ ‘नेति नेति’ इत्यादिना बीजत्वापनयनेन व्यपदेश। तामबीजावस्था तस्यैव प्राज्ञशब्दवाच्यस्य तुरीयत्वेन देहादिसंबन्धजाग्रदादिरहिता पारमार्थिकीं पृथग्वक्ष्यति।
बीजावस्थापि ‘न किंचिदवेदिषम्’ इत्युत्थितस्य प्रत्ययदर्शनाद्देहेऽनुभूयत एवेति त्रिधा देहे व्यवस्थित इत्युच्यते॥
विश्वो हि स्थूलभूड् नित्य तैजस प्रविविक्तभुक।
आनन्दभुक्तथा प्राज्ञस्त्रिधा भोग निबोधत॥३॥
स्थूल तर्पयते विश्व प्रविविक्त तु तैजसम्।
आनन्दश्च तथा प्राज्ञत्रिधा तृप्तिं निबोधत॥४॥
उक्तार्थौहि श्लोकौ॥
त्रिषु धामसु यद्भोज्य भोक्ता यश्च प्रकीर्तितः।
वेदैतदुभय यस्तु स भुञ्जानो न लिप्यते॥५॥
त्रिषु धामसु जाग्रदादिषु स्थूलप्रविविक्तानन्दारय यद्भोज्यमेक त्रिधाभूतम्, यश्च विश्वतैजसप्राज्ञारयो भोक्तैक ‘सोऽहम्’ इत्येकत्वेन प्रतिसधानात् द्रष्टृत्वाविशेषाच्च प्रकीर्तित, या वेद एतदुभय भोज्यभोक्तृतया अनेकधा भिन्नम्, स भुञ्जान न लिप्यते, भोज्यस्य सर्वस्यैकभोक्तृ भोज्यत्वात्। न हि यस्य यो विषय, स तेन हीयते वर्धते वा। न ह्यग्नि स्वविषय दग्ध्वा काष्ठादि, तद्वत्॥
प्रभवः सर्वभावाना सतामिति विनिश्चयः।
सर्वं जनयति प्राणश्चेतोंशून्पुरुष पृथक्॥६॥
सता विद्यमानाना स्वेन अविद्याकृतनामरूपमायास्वरूपेण सर्वभावाना विश्वतैजसप्राज्ञभेदाना प्रभवः उत्पत्ति। वक्ष्यति च—‘वन्ध्यापुत्रो न तत्त्वेन मायया वापि—जायते’ इति। यदि ह्यसतामेव जन्म स्यात्, ब्रह्मणोऽव्यवहार्यस्य ग्रहणद्वाराभावादसत्त्वप्रसङ्ग। दृष्ट च रज्जुसर्पादीनामविद्याकृतमायाबीजोत्पन्नाना रज्ज्वाद्यात्मना सत्त्वम्। न हि निरास्पदा रज्जुसर्पमृगतृष्णिकादय क्वचिदुपलभ्यन्ते केनचित्। यथा रज्ज्वा प्राक्सर्पोत्पत्ते रज्ज्वात्मना सर्प सन्नेवासीत्, एव सर्वभावानामुत्पत्ते प्राक्प्राणबीजात्मनैव सत्त्वमिति। श्रुतिरपि वक्ति ‘ब्रह्मैवेदम्’ ‘आत्मैवेदमग्र आसीत्’ इति। अत सर्वंजनयति प्राण चेतोशून् अशव इव रवेश्चिदात्मकस्य पुरुषस्य चेतोरूपा जलार्कसमा प्राज्ञतैजसविश्वभेदेन देवमनुष्यतिर्यगादिदेहभेदेषु विभाव्यमानाश्चेतोशवो ये, तान् पुरुष पृथक् सृजति विषयभावविलक्षणानग्निविस्फुलिङ्गवत्सलक्षणान् जलार्कवच्च जीवलक्षणास्त्वितरान्सर्वभावान् प्राणो बीजात्मा जनयति, ‘यथोर्णनाभि’ ‘यथाग्ने क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा’ इत्यादिश्रुते॥
विभूतिं प्रसव त्वन्ये मन्यन्ते सृष्टिचिन्तका।
स्वप्नमायासरूपेति सृष्टिरन्यैर्विकल्पिता॥७॥
विभूतिर्विस्तार ईश्वरस्य सृष्टिरिति सृष्टिचिन्तका मन्यन्ते, न तु परमार्थचिन्तकाना सृष्टावादर इत्यर्थ, ‘इन्द्रो मायाभि पुरुरूप ईयते’ इति श्रुते। न हि मायाविन सूत्रमाकाशे निक्षिप्य तेन सायुधमारुह्य चक्षुर्गोचरतामतीत्य युद्धेन खण्डशश्छिन्न पतित पुनरुत्थित च पश्यता तत्कृत मायादिसतत्त्वचिन्तायामादरो भवति। तथैवाय मायाविन सूत्रप्रसारणसम सुषुप्तस्वप्नादिविकास, तदारूढमायाविसमश्च तत्स्थप्राज्ञतैजसादि, सूत्रतदारूढाभ्यामन्य परमार्थमायावी। स एव भूमिष्ठो मायाच्छन्न अदृश्यमान एव स्थितो यथा, तथा तुरीयाख्य परमार्थतत्त्वम्। अतस्तच्चिन्तायामेवादरो मुमुक्षूणामार्याणाम्, न निष्प्रयोजनाया सृष्टावादर इत्यत सृष्टिचिन्तकानामेवैते विकल्पा इत्याह— स्वप्नमायासरूपेति। स्वप्नसरूपा मायासरूपा चेति॥
इच्छामात्र प्रभो सृष्टिरिति सृष्टौ विनिश्चिता।
कालात्प्रसूतिं भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तका॥८॥
इच्छामात्र प्रभो सत्यसंकल्पत्वात् सृष्टि घटादीनां संकल्पनामात्रम्, न संकल्पनातिरिक्तम्। कालादेव सृष्टिरिति केचित्॥
भोगार्थ सृष्टिरित्यन्ये क्रीडार्थमिति चापरे।
देवस्यैष स्वभावोऽयमाप्तकामस्य का स्पृहा॥९॥
इति।
भोगार्थम्, क्रीडार्थमिति च अन्ये सृष्टि मन्यन्ते। अनयो पक्षयोर्दूषण देवस्यैष स्वभावोऽयमिति देवस्य स्वभावपक्षमाश्रित्य सर्वेषां वा पक्षाणाम्—आप्तकामस्य का स्पृहेति। न हि रज्ज्वादीनामविद्यास्वभावव्यतिरेकेण सर्पाद्याभासत्वे कारण शक्य वक्तुम्॥
** नान्त प्रज्ञ नबहिःप्रज्ञ नोभयतःप्रज्ञ नप्रज्ञानघन नप्रज्ञ नाप्रज्ञम्। अदृश्यमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसार प्रपञ्चोपशम शान्त शिवमद्वैत चतुर्थ मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः॥७॥**
चतुर्थ पाद क्रमप्राप्तो वक्तव्य इत्याह—नान्त प्रज्ञमित्यादिना। सवशब्दप्रवृत्तिनिमित्तशून्यत्वात्तस्य शब्दानभिधेयत्वमिति विशेषप्रतिषेधेनैव तुरीय निर्दिदिक्षति। शून्यमेव तर्हि, तन्न, मिथ्याविकल्पस्य निर्निमित्तत्वानुपपत्ते, न
हि रजतसर्पपुरुषमृगतृष्णिकादिविकल्पा शुक्तिकारज्जुस्थाणूषरादिव्यतिरेकेण अवस्त्वास्पदा शक्या कल्पयितुम्। एव तर्हि प्राणादिसर्वविकल्पास्पदत्वात्तुरीयस्य शब्दवाच्यत्वमिति न प्रतिषेधै प्रत्याय्यत्वमुदकाधारादेरिवघटादे, न, प्राणादिविकल्पस्यावस्तुत्वाच्छुक्तिकादिष्विव रजतादे, न हि सदसतो संबन्ध शब्दप्रवृत्तिनिमित्तभाक्, अवस्तुत्वात् नापि प्रमाणान्तरविषयत्व स्वरूपेण गवादिवत्, आत्मनो निरुपाधिकत्वात् गवादिवन्नापि जातिमत्त्वम्, अद्वितीयत्वेन सामान्यविशेषाभावात्, नापि क्रियावत्त्वपाचकादिवत्, अविक्रियत्वात्, नापि गुणवत्त्व नीलादिवत्, निर्गुणत्वात्, अतो नाभिधानेन निर्देशमर्हति। शशविषाणादिसमत्वान्निरर्थकत्व तर्हि, न, आत्मत्वावगमे तुरीयस्या नात्मतृष्णाव्यावृत्तिहेतुत्वात् शुक्तिकावगम इव रजततृष्णाया, न हि तुरीयस्यात्मत्वावगमे सति अविद्यातृष्णादिदोषाणां संभवोऽस्ति, न च तुरीयस्यात्मत्वानवगमे कारणमस्ति, सर्वोपनिषदा तादर्थ्येनोपक्षयात्—‘तत्त्वमसि’ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ ‘तत्सत्य स आत्मा’ ‘यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म’ ‘सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज’ ‘आत्मैवेद सर्वम्’ इत्यादीनाम्। सोऽयमात्मा परमार्थापरमार्थरूपश्चतुष्पादित्युक्त। तस्यापरमार्थरूपमविद्या
कृत रज्जुसर्पादिसममुक्त पादत्रयलक्षण बीजाङ्कुरस्थानीयम्। अथेदानीमबीजात्मक परमार्थस्वरूप रज्जुस्थानीय सर्पादिस्थानीयोक्तस्थानत्रयनिराकरणेनाह—ना त प्रज्ञमित्यादिना। नन्वात्मनश्चतुष्पात्त्व प्रतिज्ञाय पादत्रयकथनेनैव चतुर्थस्यान्त प्रज्ञादिभ्योऽन्यत्वे सिद्धे ‘नान्त प्रज्ञम्’ इत्यादिप्रतिषेधोऽनर्थक, न, सर्पादिविकल्पप्रतिषेधेनैव रज्जुस्वरूपप्रतिपत्तिवत्त्र्यवस्थस्यैवात्मनस्तुरीयत्वेन प्रतिपिपादयिषितत्वात्, ‘तत्त्वमसि’ इतिवत्। यदि हि त्र्यवस्थात्मविलक्षण तुरीयमन्यत्, तत्प्रतिपत्तिद्वाराभावात् शास्त्रोपदे शानर्थक्य शून्यतापत्तिर्वा। रज्जुरिव सर्पादिभिर्विकल्प्यमाना स्थानत्रयेऽप्यात्मैक एव अन्त प्रज्ञादित्वेन विकल्प्यते यदा, तदा अन्त प्रज्ञादित्वप्रतिषेधविज्ञानप्रमाणसमकालमेव आत्मन्यनर्थप्रपञ्चनिवृत्तिलक्षण फल परिसमाप्तमिति तुरीयाधिगमे प्रमाणान्तर साधनान्तर वा न मृग्यम्, रज्जुसर्पविवेकसमकाल इव रज्ज्वा सर्पनिवृत्तिफले सति रज्ज्वधिगमस्य। येषा पुनस्तमोपनयनव्यतिरेकेण घटाधिगमे प्रमाण व्याप्रियते, तेषा छेद्यावयवसंबन्धवियोगव्यतिरेकेण अन्यतरावयवेऽपि च्छिदिर्व्याप्रियत इत्युक्त स्यात्। यदा पुनर्घटतमसोर्विवेककरणे प्रवृत्त प्रमाणमनुपादित्सिततमो
निवृत्तिफलावसान छिदिरिवच्छेद्यावयवसंबन्धविवेककरण प्रवृत्ता तदवयवद्वैधीभावफलावसाना, तदा नान्तरीयक घटविज्ञान न प्रमाणफलम्। न च तद्वदप्यात्मन्यध्यारोपितान्त प्रज्ञत्वादिविवेककरणे प्रवृत्तस्य प्रतिषेधविज्ञानप्रमाणस्य अनुपादित्सितान्त प्रज्ञत्वादिनिवृत्तिव्यतिरेकेण तुरीये व्यापारोपपत्ति, अन्त प्रज्ञत्वादिनिवृत्तिसमकालमेव प्रमातृत्वादिभेदनिवृत्ते। तथा च वक्ष्यति—‘ज्ञाते द्वैत न विद्यते’ इति। ज्ञानस्य द्वैतनिवृत्तिक्षणव्यतिरेकेण क्षणान्तरानवस्थानात्, अवस्थाने वा अनवस्थाप्रसङ्गाद्द्वैतानिवृत्ति, तस्मात्प्रतिषेधविज्ञानप्रमाणव्यापारसमकालैव आत्मन्यध्यारोपितान्त प्रज्ञत्वाद्यनर्थनिवृत्तिरिति सिद्धम्। नान्त प्रज्ञमिति तैजसप्रतिषेध, नबहि प्रज्ञमिति विश्वप्रतिषेध, नोभयत प्रज्ञमिति जागरितस्वप्नयोरन्तरालावस्थाप्रतिषेध, नप्रज्ञानघनमिति सुषुप्तावस्थाप्रतिषेध,बीजभावाविवेकस्वरूपत्वात्, नप्रज्ञमिति युगपत्सर्वविषयज्ञातृत्वप्रतिषेध, नाप्रज्ञामित्यचैतन्यप्रतिषेध। कथं पुनरन्त प्रज्ञत्वादीनामात्मनि गम्यमानाना रज्ज्वादौ सर्पादिवत्प्रतिषेधादसत्त्व गम्यत इति, उच्यते, ज्ञस्वरूपाविशेषेऽपि इतरेतरव्यभिचारादसत्यत्व रज्ज्वादाविव सर्पधारादिविकल्पभेद
वत्, सर्वत्राव्यभिचाराज्ज्ञस्वरूपस्य सत्यत्वम्। सुषुप्ते व्यभिचरतीति चेत्, न, सुषुप्तस्यानुभूयमानत्वात्, ‘न हि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यते’ इति श्रुते, अत एव अदृश्यम्। यस्माददृश्यम्, तस्मादव्यवहार्यम्। अग्राह्य कर्मेन्द्रियै। अलक्षणम् अलिङ्गमित्येतत्, अननुमेयमित्यर्थ। अत एव अचिन्त्यम्। अत एव अव्यपदेश्य शब्दै। एकात्मप्रत्ययसार जाग्रदादिस्थानेषु एक एवायमात्मा इत्यव्यभिचारी य प्रत्यय, तेनानुसरणीयम्, अथवा, एक आत्मप्रत्यय सार प्रमाण यस्य तुरीयस्याधिगमे, तत्तुरीयमेकात्मप्रत्ययसारम्, ‘आत्मेत्येवोपासीत’ इति श्रुते। अन्त प्रज्ञत्वादिस्थानिधर्मप्रतिषेध कृत। प्रपञ्चोपशममिति जाग्रदादिस्थानधर्माभाव उच्यते। अत एव शान्तम् अविक्रियम्, शिव यत अद्वैत भेदविकल्परहित चतुर्थं तुरीय मन्यन्ते, प्रतीयमानपादत्रयरूपवैलक्षण्यात्। स आत्मा स विज्ञेय इति। प्रतीयमानसर्पदण्डभूच्छिद्रादिव्यतिरिक्ता यथा रज्जु, तथा ‘तत्त्वमसि’ इत्यादिवाक्यार्थ आत्मा ‘अदृष्टो द्रष्टा’ ‘न हि द्रष्टुदृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ इत्यादिभिरुक्तो य, स विज्ञेय इति भूतपूर्वगत्या। ज्ञाते द्वैताभाव॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति—
निवृत्ते सर्वदुःखानामीशान प्रभुरव्यय।
अद्वैत सर्वभावाना देवस्तुर्यो विभुः स्मृत॥१०॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति। प्राज्ञतैजसविश्वलक्षणाना सर्वदुःखाना निवृत्ते ईशान तुरीय आत्मा। ईशान इत्यस्य पदस्य व्यारयान प्रभुरिति, दुःखनिवृत्तिं प्रति प्रभुर्भवतीत्यर्थ, तद्विज्ञाननिमित्तत्वाद्दुःखनिवृत्ते। अव्यय न व्येति, स्वरूपान्न व्यभिचरति न च्यवत इत्येतत्। कुत ? यस्मात् अद्वैत, सर्वभावानाम्—सर्पादीनां रज्जुरद्वया सत्या च, एव तुरीय, न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ इति श्रुते–अतो रज्जुसर्पवन्मृषात्वात्। स एष देव द्योतनात् तुर्य चतुर्थ विभु व्यापी स्मृत॥
कार्यकारणबद्धौ ताविषयेते विश्वतैजसौ।
प्राज्ञः कारणबद्धस्तु द्वौ तौ तुर्ये न सिध्यत॥
विश्वादीना सामान्यविशेषभावो निरूप्यते तुययाथात्म्यावधारणार्थम्—कार्यं क्रियत इति फलभाव, कारण करोतीति बीजभाव। तत्त्वाग्रहणान्यथाग्रहणाभ्यां बीजफलभावाभ्या तौ यथोक्तौ विश्वतैजसौ बद्धौ सगृहीतौ इष्येते। प्राज्ञस्तु बीजभावेनैव बद्ध। तत्त्वाप्रतिबोधमात्रमेव हि बीज
प्राज्ञत्वे निमित्तम्। तत द्वौ तौ बीजफलभावौ तत्त्वाग्रहणान्यथाग्रहणे तुरीये न सिध्यत न विद्येते, न सभवत इत्यर्थ॥
नात्मान न पर चैव न सत्य नापि चानृतम्।
प्राज्ञः किंचन सवेत्ति तुर्यतत्सर्वदृक्सदा॥१२॥
कथं पुनः कारणबद्धत्व प्राज्ञस्य तुरीये वा तत्त्वाग्रहणान्यथाग्रहणलक्षणौ बन्धौ न सिध्यत इति? यस्मात्—आत्मानम्, विलक्षणम्, अविद्याबीजप्रसूत वेद्य बाह्य द्वैतम्—प्राज्ञो न किंचन सवेत्ति, यथा विश्वतैजसौ, ततश्चासौ तत्त्वाग्रहणेन तमसा अन्यथाग्रहणबीजभूतेन बद्धो भवति। यस्मात्तुर्यं तत्सर्वदृक्सदा तुरीयादन्यस्याभावात् सर्वदा सदैव भवति, सर्वंच तद्दृक्चेति सर्वदृक्, तस्मान्न तत्त्वाग्रहणलक्षण बीजम्। तत्र तत्प्रसूतस्यान्यथाग्रहणस्याप्यत एवाभाव। न हि सवितरि सदाप्रकाशात्मके तद्विरुद्धमप्रकाशनमन्यथाप्रकाशन वा संभवति, ‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ इति श्रुते। अथवा, जाग्रत्स्वप्नयो सर्वभूतावस्था सर्ववस्तुदृगाभासस्तुरीय एवेति सर्वदृक्सदा, ‘नान्यदतोऽस्ति द्रष्टृ’ इत्यादिश्रुते॥
द्वैतस्याग्रहण तुल्यमुभयो प्राज्ञतुर्ययोः।
बीजनिद्रायुतःप्राज्ञः सा च तुर्ये न विद्यते॥१३॥
निमित्तान्तरप्राप्ताशङ्कानिवृत्त्यर्थोऽयं श्लोकः—कथं द्वैताग्रहणस्य तुल्यत्व कारणबद्धत्व प्राज्ञस्यैव, न तुरीयस्येति प्राप्ता आशङ्का निवर्त्यते, यस्मात् बीजनिद्रायुत, तत्त्वाप्रतिबोधो निद्रा, सैव च विशेषप्रतिबोधप्रसवस्य बीजम्, सा बीजनिद्रा, तया युत प्राज्ञ। सदासर्वतक्स्वभावत्वात्तत्त्वाप्रतिबोधलक्षणा बीजनिद्रा तुर्ये न विद्यते, अतो न कारणबन्धस्तस्मिन्नित्यभिप्राय॥
स्वप्ननिद्रायुतावाद्यौ प्राज्ञस्त्वस्वप्ननिद्रया।
न निद्रा नैव च स्वप्न तुर्ये पश्यन्ति निश्चिता॥
स्वप्न अन्यथाग्रहण सर्प इव रज्ज्वाम्, निद्रोक्ता तत्त्वा प्रतिबाधलक्षण तम इति, ताभ्या स्वप्ननिद्राभ्यां युतौ विश्वतैजसौ, अतस्तौ कार्यकारणबद्धावित्युक्तौ। प्राज्ञस्तु स्वप्नवर्जितया केवलयैव निद्रया युत इति कारणबद्ध इत्युक्तम्। नोभय पश्यन्ति तुरीय निश्चिता ब्रह्मविद इत्यथ, विरुद्धत्वात्सवितरीव तम। अतो न कार्यकारणबद्ध इत्युक्त स्तरीय॥
अन्यथा गृह्णतः स्वप्नो निद्रा तत्त्वमजानतः।
विपर्यासे तयोः क्षीणे तुरीय पदमश्नुते॥१५॥
कदा तुरीये निश्चितो भवतीत्युच्यते— स्वप्नजागरितयो अन्यथा रज्ज्वा सर्पवत् गृह्णत तत्त्व स्वप्नो भवति, निद्रा तत्त्वमजानत तिसृष्ववस्थासु तुल्या। स्वप्ननिद्रयोस्तुल्यत्वाद्विश्वतैजसयोरेकराशित्वम्। अ यथाग्रहणप्राधान्याच्च गुणभूता निद्रेति तस्मिन्विपर्यास स्वप्न। तृतीये तु स्थाने तत्त्वाग्रहणलक्षणा निद्रैव केवला विपर्यास। अत तयो कार्यकारणस्थानयो अन्यथाग्रहणतत्त्वाग्रहणलक्षणविपर्यासे कार्यकारणबन्धरूप परमार्थतत्त्वप्रतिबोधत क्षीणे तुरीय पदमश्नुते, तदा उभयलक्षण बन्धन तत्रापश्यस्तुरीये निश्चितो भवतीत्यर्थ॥
अनादिमायया सुप्तो यदा जीव प्रबुध्यते।
अजमनिद्रमस्वप्नमद्वैन बुध्यते तदा॥१६॥
योऽयं संसारी जीव, स उभयलक्षणेन तत्त्वाप्रतिबोधरूपेण बीजात्मना, अन्यथाग्रहणलक्षणेन चानादिकालप्रवृत्तेन मायालक्षणेन स्वपेन, ममाय पिता पुत्रोऽयं नप्ता क्षेत्र गृह पशव, अहमेषा स्वामी सुखी दुःखी क्षयितोऽहमनेन वर्धितश्चानेन इत्येवप्रकारान्स्वप्नान् स्थानद्वयेऽपि पश्यन्सुप्त, यदा वेदान्तार्थतत्त्वाभिज्ञेन परमकारुणिकेन गुरुणा ‘नास्येव त्वं हेतुफलात्मक, किंतु तत्त्वमसि’ इति प्रति-
बोध्यमान, तदैव प्रतिबुध्यते। कथम्? नास्मिन्बाह्यमाभ्यन्तर वा जन्मादिभावविकारोऽस्ति, अत अजम् ‘सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज’ इति श्रते, सर्वभावविकारवर्जितमित्यर्थ। यस्माज्जन्मादिकारणभूतम्, नास्मिन्नविद्यातमोबीज निद्रा विद्यत इति अनिद्रम्, अनिद्र हि तत्तुरीयम्, अत एव अस्वप्नम्, तन्निमित्तत्वादन्यथाग्रहणस्य। यस्माच्च अनिद्रमस्वप्नम्, तस्मादजम् अद्वैत तुरीयमात्मान बुध्यते तदा॥
प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशयः।
मायामात्रमिद द्वैतमद्वैत परमार्थत॥१७॥
प्रपञ्चनिवृत्त्या चेत्प्रतिबुध्यते, अनिवृत्ते प्रपञ्चे कथमद्वैतमिति, उच्यते। सत्यमेव स्यात्प्रपञ्चो यदि विद्येत, रज्ज्वा सर्प इव कल्पितत्वान्न तु स विद्यते। विद्यमानश्चेत् निवर्तेत, न सशयः। न हि रज्ज्वा भ्रान्तिबुद्ध्या कल्पित सर्पो विद्यमान सन्विवकतो निवृत्त, न च माया , मायाविना प्रयुक्ता तद्दर्शिना चक्षुर्बन्धापगमे विद्यमाना सती निवृत्ता, तथेद प्रपञ्चाख्य मायामात्र द्वैतम्, रज्जुवन्मायाविवच्च अद्वैत परमार्थत, तस्मान्न कश्चित्प्रपञ्च प्रवृत्तो निवृत्तो वास्तीत्यभिप्राय॥
विकल्पो विनिवर्तेत कल्पितो यदि केनचित्।
उपदेशादय वादो ज्ञाते द्वैत न विद्यते॥१८॥
ननु शास्ता शास्त्र शिष्य इत्यय विकल्प कथं निवृत्त इति, उच्यते—विकल्पो विनिवर्तेत यदि केनचित्कल्पित स्यात्। यथा अयं प्रपञ्चा मायारज्जुसर्पवत्, तथा अयं शिष्यादिभेदविकल्पोऽपि प्राक्प्रतिबाधादेवोपदेशनिमित्त, अत उपदेशाद्य वाद— शिष्य शास्ता शास्त्रमिति। उपदश कार्ये तु ज्ञाने निर्वृत्ते ज्ञाते परमार्थतत्त्वे, द्वैत न विद्यते॥
सोऽयमात्माध्यक्षरमोकारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति॥८॥
अभिधेयप्राधान्येन ओंकारश्चतुष्पादात्मति व्याख्यातो य, सोऽयम् आत्मा अध्यक्षरम् अक्षरमधिकृत्य अभिधानप्राधान्येन वर्ण्यमानोऽध्यक्षरम्। किं पुनस्तदक्षरमित्याह—ओंकार। सोऽयमोंकार पादश प्रविभज्यमान, अधिमात्र मात्रामधिकृत्य वर्तत इत्यधिमात्रम्। कथम् ?आत्मनो ये पादा, ते ओंकारस्य मात्रा। कास्ता ? अकार उकारो मकार इति॥
जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकारः प्रथमा मात्राप्तेरादिमत्त्वाद्वाप्नोति ह वै सर्वान्कामानादिश्च भवति य एव वेद॥९॥
तत्र विशेषनियम क्रियते— जागरितस्थान वैश्वानर य, स ओकारस्य अकार प्रथमा मात्रा। केन सामान्येनत्याह—आप्ते, आप्तिर्व्याप्ति, अकारेण सर्वा वाग्व्याप्ता, ‘अकारो वै सर्वा वाक्’ इति श्रुते। तथा वैश्वानरेण जगत्, ‘तस्य ह वा एतस्यात्मना वैश्वानरस्य मूर्धैव सुतजा’ इत्यादिश्रुत। आभधानाभिधययोरकत्व चावापाम। आतिरम्य विद्यत् इत्यादिमत, यथैव आदिमदकारारयमक्षरम्, तथा वैश्वानर, तस्माद्वा सामान्यादकारत्व वैश्वानरस्य।तदेकत्वविद फलमाह—आप्नोति ह वै सर्वा कामान्, आदि प्रथमञ्च भवति महताम्, य एव वेद, यथोक्तमेकत्व वेदेत्यर्थ॥
स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीया मात्रोत्कर्षादुभयत्वाद्वोत्कर्षति ह वै ज्ञानसतति समानश्च भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति य एव वेद॥१०॥
स्वप्नस्थान तैजस य, स ओंकारस्य उकार द्वितीया मात्रा। केन सामान्येनेत्याह—उत्कर्षात्, अकारादुत्कृष्ट इव ह्युकार तथा तैजसो विश्वात्। उभयत्वाद्वा, अकारमकारयोर्मध्यस्थ उकार तथा विश्वप्राज्ञयोमध्ये तैजस, अत उभयभाक्त्वसामान्यात्। विद्वत्फलमुच्यते—उत्कषति ह वै ज्ञानसततिं विज्ञानसततिं वर्धयतीत्यर्थ, समान तुल्यश्च मित्रपक्षस्येव शत्रुपक्षाणामप्यप्रद्वेष्यो भवति, अब्रह्मविच्च अस्य कुले न भवति, य एव वेद॥
सुषुप्तस्थानः प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा मितेरपीतेर्वा मिनोति ह वा इदँ सर्वमपीतिश्च भवति य एव वेद॥११॥
सुषुप्तस्थान प्राज्ञ य, स ओंकारस्य मकार तृतीया मात्रा। केन सामान्येनेत्याह— सामान्यमिदमत्र– मिते, मितिर्मानम् मीयेते इव हि विश्वतैजसौ प्राज्ञेन प्रलयोत्पत्त्यो प्रवेशनिर्गमाभ्या प्रस्थेनेव यवा, तथा ओंकारसमाप्तौपुन प्रयागे च प्रविश्य निगच्छत इव अकारोकारौ मकार। अपीतेर्वा, अपीतिरप्यय एकीभाव, ओंकारोच्चारणे हि अन्त्येऽक्षरे एकीभूताविव अकारोकारौ, तथा वि
श्वतैजसौ सुषुप्तकाले प्राज्ञे। अतो वा सामान्यादेकत्व प्राज्ञमकारयो। विद्वत्फलमाह—मिनोति ह वै इदं सर्वम्, जगद्याथात्म्य जानातीत्यर्थ, अपीतिश्च जगत्कारणात्मा च भव तीत्यथ। अत्रावान्तरफलवचन प्रधानसाधनस्तुत्यर्थम्॥
अत्रै श्लोका भवन्ति—
विश्वस्यात्वविवक्षायामादिसामान्यमुत्कटम्।
मात्रासंप्रतिपत्तौ स्यादाप्तिसामान्यमेव च॥१९॥
अत्र एते श्लोकाः भवन्ति। विश्वस्य अत्वम् अकारमात्रत्वं यदा विवक्ष्यते तदा आदित्वसामान्यम् उक्तन्यायेन उत्कटम् उद्भूत दृश्यत इत्यर्थ। अत्वविवक्षायामित्यस्य व्यारयानम्— मात्रसप्रतिपत्तौ इति। विश्वस्य अकारमात्रत्वं यदासंप्रतिपद्यते इत्यर्थ। आप्तिसमान्यमेव च, उत्कटमित्यनुवर्तते च-शब्दात्॥
तैजसस्योत्वविज्ञान उत्कर्षो दृश्यते स्फुटम्।
मात्रासंप्रतिपत्तौ स्यादुभयत्वं तथाविधम्॥२०॥
तेजसस्य उत्वविज्ञाने उकारत्वविवक्षायाम् उत्कर्षो दृश्यते स्फुटस्पष्टमित्यर्थ। उभयत्वं च स्फुटमेवेति। पूर्ववत्सर्वम्॥
मकारभावे प्राज्ञस्य मानसामान्यमुत्कटम्।
मात्रासप्रतिपत्तौ तु लयसामान्यमेव च॥२१॥
मकारत्वे प्राज्ञस्य मितिलयावुत्कृष्टे सामान्ये इत्यर्थ॥
त्रिषु धामसु यस्तुल्य सामान्य वेत्ति निश्चित।
स पूज्य सर्वभूतानां वन्द्यश्चैव महामुनि॥२२॥
यथोक्तस्थानत्रये य तुल्यमुक्त सामान्य वेत्ति, एवमेवैतदिति निश्चित सन स पूज्य वन्द्यश्च ब्रह्मवित् लोकेभवति॥
अकारो नयते विश्वमुकारश्चापि तैजसम्।
मकारश्च पुन प्राज्ञ नामात्रे विद्यते गति॥२३॥
** इति**
यथोक्तैसामान्यै आत्मपादाना मात्राभि सह एकत्व कृत्वा यथोक्तोंकार प्रतिपद्यते यो ध्यायी, तम् अकार नयते विश्व प्रापयति। अकारालम्बनमोंकार विद्वान्वैश्वानरो भवतीत्यर्थ। तथा उकार तैजसम्, मकारश्चापि पुन प्राज्ञम्, च शब्दान्नयत इत्यनुवर्तते। क्षीणे तु मकारे बीजभावक्षयात् अमात्रे ओंकारे गति न विद्यते क्वचिदित्यर्थ॥
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्य प्रपञ्चोपशम शिवोऽद्वैत एवमोकार आत्मैव सविशत्यात्मनात्मान य एव वेद॥१२॥
इति माण्डूक्योपनिषत्समाप्ता॥
अमात्र मात्रा यस्य न सन्ति, स अमात्र ओंकार चतुर्थ तुरीय आत्मैव केवल अभिधानाभिधेयरूपयोर्वाङ्मनसयो क्षीणत्वात् अव्यवहार्य, प्रपञ्चोपशम शिव अद्वैत सवृत्त एव यथोक्तविज्ञानवता प्रयुक्त ओकारस्त्रिमात्रस्त्रिपाद आत्मैव, सविशति आत्मना स्वेनैव स्व पारमार्थिकमात्मानम्, य एवं वेद, परमार्थदर्शनात् ब्रह्मवित् तृतीय बीजभाव दग्ध्वा आत्मानं प्रविष्ट इति न पुनर्जायते, तुरीयस्याबीजत्वात्। न हि रज्जुसर्पयोर्विवेके रज्ज्वा प्रविष्ट सर्प बुद्धिसंस्कारात्पुन पूर्ववत्तद्विवेकिनामुत्थास्यति। मन्दमध्यमधिया तु प्रतिपन्नसाधकभावाना सन्मार्गगामिना सन्यासिना मात्राणां पादानां च क्लप्तसामान्यविदा यथावदुपास्यमान ओंकारो ब्रह्मप्रतिपत्तये आलम्बनीभवति। तथा च वक्ष्यति—‘आश्रमास्त्रविधा’ इत्यादि॥
अत्रैते श्लोका भवन्ति—
ओंकार पादशो विद्यात्पादा मात्रा न संशय।
ओंकारं पादशो ज्ञात्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्॥२४॥
पूर्ववदत्रैते श्लोकाः भवन्ति। यथोक्तै सामान्यै पादा एवमात्रा, मात्राश्च पादा, तस्मात् ओंकार पादश विद्यात् इत्यर्थ। एवमोकारे ज्ञाते दृष्टार्थमदृष्टार्थ वा न किंचिदपि प्रयोजन चिन्तयेत्, कृतार्थत्वादित्यर्थ॥
युञ्जीत प्रणवे चेत प्रणवो ब्रह्म निर्भयम्।
प्रणवे नित्ययुक्तस्य न भय विद्यते क्वचित्॥२५॥
युञ्जीत समादध्यात् यथाव्याख्याते परमार्थरूपे प्रणवे चेत् मन, यस्मात्प्रणव ब्रह्म निर्भयम्, न हि तत्र सदायुक्तस्य भय विद्यते क्वचित्, ‘विद्वान्न विभेति कुतश्चन’ इति श्रुते॥
प्रणवो ह्यपर ब्रह्म प्रणवश्व पर स्मृतः।
अपूर्वोऽनन्तरोऽबाह्योऽनपरः प्रणवोऽव्यय॥२६॥
परापरे ब्रह्मणी प्रणव, परमाथत क्षीणेषु मात्रापादेषु पर एवात्मा ब्रह्म इति, न पूर्वं कारणमस्य विद्यत इत्यपूर्व, नास्य अन्तर भिन्नजातीय किंचिद्विद्यत इति अनन्तर, तथा
बाह्यमन्यत् न विद्यत इत्यबाह्य, अपर कार्यमस्य न विद्यत इत्यनपर, सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज सैन्धवधनवत्प्रज्ञानघन इत्यर्थ॥
सर्वस्य प्रणवो ह्यादिर्मध्यमन्तस्तथैव च।
एव हि प्रणव ज्ञात्वा व्यश्नुते तदनन्तरम्॥२७॥
आदिमध्यान्ता उत्पत्तिस्थितिप्रलया सर्वस्य प्रणव एव। मायाहस्तिरज्जुसर्पमृगतृष्णिकास्वप्नादिवदुत्पद्यमानस्य वियदादिप्रपञ्चस्य यथा मायाव्यादय, एव हि प्रणवमात्मान मायाव्यादिस्थानीय ज्ञात्वा तत्क्षणादेव तदात्मभाव व्यश्नुत इत्यर्थ॥
प्रणव हीश्वर विद्यात्सर्वस्य हृदये स्थितम्।
सर्वव्यापिनमोकारं मत्वा धीरो न शोचति॥२८॥
सर्वस्य प्राणिजातस्य स्मृतिप्रत्ययास्पदे हृदये स्थितमीश्वर प्रणव विद्यात् सर्वव्यापिन व्योमवत् ओकारमात्मानमसंसारिण धीर धीमान्बुद्धिमान् आत्मतत्त्व मत्वा ज्ञात्वा न शोचति, शोकनिमित्तानुपपत्ते, ‘तरति शोकमात्मवित्’ इत्यादिश्रुतिभ्य॥
अमात्रोऽनन्तमात्रश्च द्वैतस्योपशम शिव।
ओंकारो विदितो येन स मुनिर्नेतरो जनः॥२९॥
अमात्र तुरीय ओंकार, मीयते अनयेति मात्रा परिच्छित्ति, सा अनन्ता यस्य स अनन्तमात्र नैतावत्त्वमस्य परिच्छेत्तु शक्यत इत्यर्थ। सर्वद्वैतोपशमत्वादेव शिव। ओंकारो यथाव्यारयातो विदितो येन, स एव परमार्थतत्त्वस्य मननान्मुनि, नेतरो जन शास्त्रविदपीत्यर्थ॥
इति प्रथममागमप्रकरण संपूर्णम्॥
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वैतथ्यप्रकरणम्॥
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वैतथ्य सर्वभावाना स्वप्न आहुर्मनीषिण।
अन्त स्थानात्तु भावाना सवृत्तत्वेन हेतुना॥१॥
ज्ञाते द्वैत न विद्यते’ इत्युक्तम् ‘एकमेवाद्वितीयम् इत्यादिश्रुतिभ्य। आगममात्र तत्। तत्र उपपत्त्यापि द्वैतस्य वैतथ्य शक्यतेऽवधारयितुमिति द्वितीय प्रकरणमारभ्यते—वैतभ्यमित्यादिना। वितथस्य भावा वैतथ्यम, असत्यत्वमित्यर्थ। कस्य ? सर्वेषां बाह्याध्यात्मिकाना भावाना पदार्थाना स्वप्ने उपलभ्यमानानाम्, आहु कथयन्ति मनीषिण प्रमाणकुशला। वैतथ्ये हेतुमाह—अन्त स्थानात्, अन्त शरीरस्य मध्ये स्थान येषाम्, तत्र हि भावा उपलभ्यन्ते पर्वतहस्त्यादय, न बहि शरीरात्, तस्मात् ते वितथा भवितुमर्हन्ति। ननु अपवरकाद्यन्तरुपलभ्यमानैर्घटादिभिरनैकान्तिको हेतुरित्याशङ्क्याह—सवृत्तत्वेन हतुनेति। अन्त सवृतस्थानादित्यर्थ। न ह्यन्त सवृते देहान्तर्नाडीषु पर्वतहस्त्यादीनां सभवोऽस्ति, न हि देहे पर्वतोऽस्ति॥
अदीर्घत्वच्च कालस्य गत्वा देहान्न पश्यति।
प्रतिबुद्धश्च वै सर्वस्तस्मिन्देशे न विद्यते॥२॥
स्वप्नदृश्याना भावानामन्त सवृतस्थानमित्येतदसिद्धम्, यस्मात्प्राच्येषु सुप्त उदक्षु स्वप्नापश्यन्निव दृश्यत इत्येतदाशङ्क्याह— न देहाद्बहिर्देशान्तरं गत्वा स्वप्नान्पश्यति, यस्मात्सुतमात्र एव देहदेशाद्योजनशतान्तरिते मासमात्रप्राप्ये देशे स्वप्नान्पश्यन्निव दृश्यते, न च तद्देशप्राप्ते रागमनस्य च दीर्घ कालोऽस्ति, अत अदीर्घत्वाच्च कालस्य न स्वप्नदृग्देशान्तर गच्छति। किंच, प्रतिबुद्धश्च वै सर्व स्वप्नदृक् स्वप्नदर्शनदेशे न विद्यते। यदि च स्वप्न देशान्तरं गच्छेत्, यस्मिदेशे स्वप्नान्पश्येत्, तत्रैव प्रतिबुध्येत। न चैतदस्ति। रात्रौ सुप्त अहनीव भावान्पश्यति, बहुभि संगतो भवति, यैश्चसगत स तैर्गृह्येत, न च गृह्यत, गृहीतश्चेत्त्वामद्य तत्रोपलब्धवन्तो वयमिति ब्रूयु, न चैतदस्ति। तस्मान्न देशान्तर गच्छति स्वप्ने॥
अभावश्च रथादीना श्रूयते न्यायपूर्वकम्।
वैतथ्यतेन वै प्राप्त स्वप्न आहु प्रकाशितम्॥३॥
इतश्च स्वप्नदृश्या भावा वित्तथा, यतअभावश्च
रथादीना स्वप्नदृश्याना श्रूयते, न्यायपूर्वक युक्तित श्रुतौ ‘न तत्र रथा’ इत्यत्र। तेन अन्त स्थानसवृतत्वादि हेतुना प्राप्त वैतग्य तदनुवादिन्या श्रुत्या स्वप्ने स्वयज्योतिष्ट्वप्रतिपादनपरया प्रकाशितमाहु ब्रह्मविद॥
अन्त स्थानात्तु भेदाना तस्माज्जागरिने स्मृतम्।
यथा तत्र तथा स्वप्ने सवृतत्वेन भिद्यते॥४॥
जाग्रद्दृश्याना भावाना वैतथ्यमिति प्रतिज्ञा। दृश्यत्वादिति हेतु। स्वप्नदृश्यभाववदिति दृष्टान्त। यथा तत्र स्वप्ने वश्याना भावाना वैतथ्यम्, तथा जागरितेऽपि दृश्यत्वमविशिष्टमिति हेतूपनय। तस्माज्जागरितेऽपि वैतथ्य स्मृतमिति निगमनम्। अन्त स्थानात्सवृतत्वेन च स्वप्नदृश्याना भावाना जाग्रद्दृश्येभ्यो भेद। दृश्यत्वमसत्यत्व चाविशिष्टमुभयत्र॥
स्वप्नजागरिते स्थाने ह्येकमाहुर्मनीषिण।
भेदानां हि समत्वेन प्रसिद्धेनैव हेतुना॥५॥
प्रसिद्धेनैव भेदाना ग्राह्यत्वेन हेतुना समत्वेन स्वप्नजागरितस्थानयोरेकत्वमाहुर्विवेकिन इति पूर्वप्रमाणसिद्धस्यैव फलम्॥
आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।
वितथै सदृशा सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः॥६॥
इतश्च वैतथ्य जाग्रद्दृश्याना भेदानाम् आद्यन्तयोरभावात्, यदादावन्ते च नास्ति वस्तु मृगतृष्णिकादि, तन्मध्येऽपि नास्तीति निश्चित लोके, तथेमे जाग्रद्दृश्या भेदा आद्यन्तयोरभावात् वितथैरेव मृगतृष्णिकादिभि सदृशत्वाद्वितथा एव, तथापि अवितथा इव लक्षिता मूढैरनात्मविद्भिः॥
सप्रयोजनता तेषां स्वप्ने विप्रतिपद्यते।
तस्मदाद्यन्तवत्त्वेन मिथ्यैव खलु ते स्मृता॥७॥
स्वप्नदृश्यवज्जागरितदृश्यानामप्यसत्त्वमिति यदुक्तम्, तदयुक्तम्, यस्माज्जाग्रद्दृश्या अन्नपानवाहनादय क्षुत्पिपासा दिनिवृतिं कुर्वन्तो गमनागमनादि कार्यं च सप्रयोजना दृष्टा। न तु स्वप्नदृश्याना तदस्ति। तस्मात्स्वप्नदृश्यवज्जाग्रद्दृश्यानामसत्त्व मनोरथमात्रमिति। तन्न। कस्मात्? यस्माद्या संप्रयोजनता दृष्टा अन्नपानादीनाम्, सा स्वप्ने विप्रतिपद्यते। जागरिते हि भुक्त्वा पीत्वा च तृप्तो विनि वर्तिततृट् सुप्तमात्र एव क्षुत्पिपासाद्यार्तमहोरात्रोपोषितमभुक्तवन्तमात्मान मन्यते, यथा स्वप्ने भुक्त्वा पीत्वाच अ
तृप्तोत्थित तथा। तस्माज्जाग्रद्दृश्याना स्पप्ने विप्रतिपत्ति दृष्टा। अतो मन्यामहे तेषामाप्यसत्त्व स्वप्नदृश्यवदनाशङ्कनीयमिति। तस्मादाद्यन्तवत्त्वमुभयत्र समानमिति मिथ्यैव खलु ते स्मृता॥
अपूर्व स्थानिधर्मो हि यथा स्वर्गनिवासिनाम्।
तानय प्रेक्षते गत्वा यथेवेह सुशिक्षितः॥८॥
स्वप्नजाग्रद्भेदयो समत्वाज्जाग्रद्भेदानामसत्त्वमिति यदुक्तम्, तदसत्। कस्मात् ?दृष्टान्तस्यसिद्धत्वात्। कथम् ? न हि जाग्रदृश्या ये, ते भग्न स्वप्न दृश्यन्त। किं तर्हि ? अपूर्व स्वप्ने पश्यति चतुरन् गजमारूढाऽष्टभुजमात्मानम्। अन्यदप्येवप्रकारमपूर्व पश्यति स्वप्ने। तन्नान्येनामता सममिति सदेव। अता नष्टान्तोऽसिद्ध। तस्मात्स्वप्नवज्जागरितस्यासत्त्वमित्ययुक्तम्। तन्न। स्वप्ने दृष्टपूर्वं यन्मन्यसे, न तत्स्वत सिद्धम्। कि तर्हि ? अपूर्व स्थायिधर्मो हि, स्थानिनो द्रष्टुरेव हि स्वप्नस्थानवतो धर्म, यथा स्वर्गनिवासिनामिन्द्रादीना सहस्रक्षत्वादि, तथा स्वप्नवशोऽपूर्वोऽयं धर्म, न स्वत सिद्धो द्रष्टु स्वरूपवत्। तान् एवप्रकारानपूर्वान्स्वचित्तविकल्पान् अयं स्थानी य स्वप्नदृक्स्वप्नस्थान गत्वा प्रेक्षते। यथैव इह लोके सुशिक्षितदेशान्त-
रमार्गस्तेन मार्गेण देशान्तर गत्वा पदार्थान्पश्यति, तद्वत्। तस्माद्यथा स्थानिधर्माणा रज्जुसर्पमगतृष्णिकादी नामसत्त्वम्, तथा स्वप्नदृश्यानामप्यपूर्वाणा स्थानिधर्मत्वमेवेत्यसत्त्वम्, अतो न स्वप्नदृष्टान्तस्यासिद्धत्वम्॥
स्वप्नवृत्तावपि त्वन्तश्चेतसा कल्पित त्वसत्।
बहिश्चेतो गृहीत सद्दृष्ट वैतथ्यमेतयो॥९॥
अपूर्वत्वाशङ्का निराकृत्य स्वप्नदृष्टान्तस्य पुन स्वप्नतुल्यता जाग्रद्भेदाना प्रपञ्चयन्नाह— स्वप्नवृत्तावपि स्वप्नस्थानेऽपि अन्तश्चेतसा मनोरथसंकल्पितमसत्, संकल्पानन्तरसमकालमेवादर्शनात्। तत्रैव स्वप्न बहिश्चतसा गृहीत चक्षुरादिद्वारणोपलब्ध घटादि सदित्येवमसत्यमिति निश्चितेऽपि सदसद्विभागो दृष्ट। उभयोरप्यन्तर्बहिश्चेत कल्पितयोर्वैतथ्यमेव दृष्टम्॥
जाग्रद्वृत्तावपि त्वन्तश्चेतसा कल्पित त्वसत्।
बहिश्चेतोगृहीतसद्युक्त वैतथ्यमेतयो॥१०॥
सदसतोर्वैतथ्य युक्तम्,अन्ततर्बहिश्चेत कल्पितत्वाविशेषादिति। व्यारयातमन्यत्॥
उभयोरपि वैतथ्य भेदाना स्थानयोर्यदि।
क एतान्बुध्यते भेदान्को वै तेषां विकल्पक॥११॥
चोदक आह— स्वप्नजाग्रत्स्थानयोर्भेदाना यदि वैतथ्यम्, क एतानन्तर्बहिश्चेत कल्पितान्बुध्यते। को वै तेषां विकल्पक, स्मृतिज्ञानयो क आलम्बनमित्यभिप्राय, न चेन्निरात्मवाद इष्ट॥
कल्पयत्यात्मनात्मानमात्मा देव स्वमायया।
स एव बुध्यते भेदानिति वेदान्तनिश्चयः॥१२॥
स्वयंस्वमायया स्वमात्मानमात्मा देव आत्मन्येव वक्ष्यमाण भेदाकार कल्पयति रज्ज्वादाविव सर्पादीन्, स्वयमेव च तान्बुध्यते भेदान्, तद्वदेवेत्येव वेदान्तनिश्चय। नान्योऽस्ति ज्ञानस्मृत्याश्रय। न च निरास्पदे एव ज्ञानस्मृती वैनाशिकानामिवेत्यभिप्राय॥
विकरोत्यपरान्भावानन्तश्चित्ते व्यवस्थितान्।
नियताश्च बहिश्चित एव कल्पयते प्रभुः॥१३॥
संकल्पयन्केन प्रकारेण कल्पयतीत्युच्यते—विकरोति नाना करोति अपरान् लौकिकान्भावान् पदार्थाञ्शब्दा
दीनन्याश्च अन्तश्चित्ते वासनारूपेण व्यवस्थितानव्याकृतान् नियताश्च पृथिव्यादीननियताश्च कल्पनाकालान् बहिश्चित्त सन्, तथा अन्तश्चित्तो मनोरथादिलक्षणानित्येव कल्पयति, प्रभु ईश्वर, आत्मेत्यर्थ॥
चित्तकाला हि येऽन्तस्तु द्वयकालाश्च ये बहि।
कल्पिता एव ते सर्वे विशेषो नान्यहेतुक॥१४॥
स्वप्नवच्चित्तपरिकल्पित सर्वमित्येतदाशङ्क्यते— यस्माच्चित्तपरिकल्पितैर्मनोरथादिलक्षणैश्चित्तपरिच्छेद्यैर्वैलक्षण्य बाह्यानामन्योन्यपरिच्छेद्यत्वमिति, सा न युक्ताशङ्का। चित्तकाला हि येऽन्तस्तु चित्तपरिच्छेद्या, नान्यश्चित्तकालव्यतिरेकेण परिच्छेदक कालो येषाम्, ते चित्तकाला, कल्पनाकाल एवोपलभ्यन्त इत्यर्थ। द्वयकालाश्च भेदकाला अन्योन्यपरिच्छेद्या, यथा आगोदोहनमास्ते यावदास्ते तावद्गादोग्ध, यावद्गा दोग्धि तावदास्ते, तावानयमे तावान्स इति परस्परपरिच्छेद्यपरिच्छेदकत्वं बाह्यानां भेदानाम्, ते द्वयकाला। अन्तश्चित्तकाला बाह्याश्च द्वयकाला कल्पिता एव ते सर्वे। न बाह्यो द्वयकालत्वविशेष कल्पितत्वव्यतिरेकेणान्यहेतुक। अत्रापि हि स्वप्नदृष्टान्तो भवत्येव॥
अव्यक्ता एव येऽन्तस्तु स्फुटा एव च ये बहि।
कल्पिता एव ते सर्वे विशेषस्त्विन्द्रियान्तरे॥१५॥
यदपि अन्तरव्यक्तत्व भावाना मनोवासनामात्राभिव्यक्ताना स्फुटत्व वा बहिश्चक्षुरादीन्द्रियान्तरे विशेष, नासौ भेदानामस्तित्वकृत, स्वप्नेऽपि तथा दर्शनात्। किं तर्हि? इन्द्रियान्तरकृत एव। अत कल्पिता एव जाग्रद्भावा अपि स्वप्नभाववदिति सिद्धम्॥
जीव कल्पयते पूर्व ततो भावान्पृथग्विधान्।
बाह्यानाध्यात्मिकाश्चैव यथाविद्यस्तथास्मृति॥१६॥
बाह्याध्यात्मिकाना भावानामितरेतरनिमित्तनैमित्तिकतया कल्पनाया किं मूलमित्युच्यते— जीव हेतुफलात्मकम् ‘अह करोमि, मम सुखदुःखे’ इत्येवलक्षणम्। अनेवलक्षण एव शुद्ध आत्मनि रज्ज्वामिव सर्प कल्पयते पूर्वम्। ततस्तादर्थ्येन क्रियाकारकफलभेदेन प्राणादीन्नानाविधान्भावान्बाह्यानाध्यात्मिकाश्चैव कल्पयते। तत्र कल्पनाया को हेतुरित्युच्यते— योऽसौ स्वयं कल्पितो जीव सर्वकल्पनायामधिकृत, स यथाविद्य यादृशी विद्या विज्ञानमस्येति यथाविद्य, तथाविधैव स्मृतिस्तस्येति तथास्मृतिर्भवति स इति। अतो हेतु-
कल्पनाविज्ञानात्फलविज्ञानम्, ततो हेतुफलस्मृति, ततस्तद्विज्ञानम्, तत तदर्थक्रियाकारकतत्फलभेदविज्ञानानि, तेभ्यस्तत्स्मृति, तत्स्मृतेश्च पुनस्तद्विज्ञानानि इत्येव बाह्यानाध्यात्मिकाश्च इतरेतरनिमित्तनैमित्तिकभावेनानेकधा कल्पयते॥
अनिश्चिता यथा रज्जुरन्धकारे विकल्पिता।
सर्पधारादिभिर्भावैस्तद्वादात्मा विकल्पित॥१७॥
तत्र जीवकल्पना सर्वकल्पनामूलमित्युक्तम्, सैव जीवकल्पना किंनिमित्तेति दृष्टान्तन प्रतिपादयति—यथा लोके स्वेन रूपेण अनिश्चिता अनवधारिता एवमेवेति रज्जु मन्दान्धकारे किं सर्प उदकधारा दण्ड इति वा अनेकधा विकल्पिता भवति पूर्वं स्वरूपानिश्चयनिमित्तम्। यदि हि पूर्वमेव रज्जु स्वरूपेण निश्चिता स्यात्, न सर्पादिविकल्पोऽभविष्यत्, यथा स्वहस्ताङ्गुल्यादिषु, एष दृष्टान्त। तद्वद्धेतुफलादिसंसारधर्मानर्थविलक्षणतया स्वेन विशुद्धविज्ञप्तिमात्रसत्ताद्वयरूपेणानिश्चितत्वाज्जीवप्राणाद्यनन्तभावभेदैरात्मा विकल्पित इत्येष सर्वोपनिषदा सिद्धान्त॥
निश्चिताया यथा रज्ज्वा विकल्पो विनिवर्तते।
रज्जुरेवेति चाद्वैत तद्वदात्मविनिश्चयः॥१८॥
रज्जुरेवति निश्चये सर्पादिविकल्पनिवृत्तौ रज्जुरेवति चाद्वैत यथा, तथा नेति नेतीति सर्वसंसारधर्मशून्यप्रतिपादकशास्त्र जनितविज्ञानसूर्यालोककृतात्मविनिश्चय ‘आत्मैवेद सर्वमपूर्वाऽनपरोऽनन्तराऽबाह्य सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजोऽजरोऽमृतोऽभय एक एवाद्वय’ इति॥
प्राणादिभिरनन्तेस्तु भावैरेतैर्विकल्पित।
मायैषा तस्य देवस्य ययाय मोहित स्वयम्॥
यदि आत्मैक एवेति निश्चय, कथं प्राणादिभिरनन्तैभावैरेर्तेसंसारलक्षणैर्विकल्पित इति? उच्यते शृणु—मायैषा तस्यात्मनो देवस्य। यथा मायाविना विहिता माया गगनमतिविमल कुसुमितै सपलाशैस्तरुभिराकीर्णमिव करोति, तथा इयमपि देवस्य माया, यया अयं स्वयमपि माहित इव माहितो भवति। ‘मम माया दुरत्यया’ इत्युक्तम्॥
प्राण इति प्राणविदो भूतानीति च तद्विद।
गुणा इति गुणविदस्तत्त्वानीति च तद्विदः॥२०॥
पादा इति पादविदो विषया इति तद्विद।
लोका इति लोकविदो देवा इति च तद्विद॥२१॥
वेद इति वेदविदो यज्ञा इति च तद्विद।
भोक्तेति च भोक्तृविदो भोज्यमिति च तद्विद॥
सूक्ष्म इति सूक्ष्मविदः स्थूल इति च तद्विद।
मूर्त इति मूर्तविदोऽमूर्त इति च तद्विद॥२३॥
काल इति कालविदो दिश इति च तद्विदः।
वादा इति वादविदो भुवनानीति तद्विद॥२४॥
मन इति मनोविदो बुद्धिरिति च तद्विद।
चित्तमिति चित्तविदो धर्माधर्मौ च तद्विद॥२५॥
पञ्चविंशक इत्येके पड्विंश इति चापरे।
एकत्रिंशक इत्याहुरनन्त इति चापरे॥२६॥
लोकॉल्लोकविद प्राहुराश्रमा इति तद्विदः।
स्त्रीपुनपुसक लैङ्गाः परापरमथापरे॥२७॥
सृष्टिरिति सृष्टिविदो लय इति च तद्विद।
स्थितिरिति स्थितिविद सर्वे चेह तु सर्वदा॥२८॥
प्राण प्राज्ञो बीजात्मा, तत्कार्यभेदा हीतरे स्थित्यन्ता।
अन्य च सर्वं लौकिका सर्वप्राणिपरिकल्पिता भेदा रज्ज्वामिव सर्पादय। तच्छून्ये आत्मन्यात्मस्वरूपानिश्चय हेतोरविद्यया कल्पिता इति पिण्डितोऽर्थ। प्राणादिश्लोकानां प्रत्येक पदार्थव्यारयाने फल्गुप्रयोजनत्वात्सिद्धपदार्थत्वाच्च यत्नो न कृत॥
य भाव दर्शयेद्यस्य त भाव स तु पश्यति।
त चावति स भूत्वासौ तद्ग्रह समुर्पेति तम्॥२९॥
किं बहुना ? प्राणादीनामन्यतममुक्तमनुक्तं वा अन्य य भाव पदार्थं दर्शयेद्यस्याचार्योऽन्यो वा आप्त इदमेव तत्त्वमिति, स त भावमात्मभूत पश्यत्ययमहमिति वा ममेति वा, त च द्रष्टार स भावोऽवति, यो दर्शितो भाव, असौ स भूत्वा रक्षति, स्वेनात्मना सर्वतो निरुणद्धि। तस्मिन्ग्रहस्तद्ग्रहस्तदभिनिवेश इदमेव तत्त्वमिति स त ग्रहीतारमुपैति, तस्यात्मभाव निर्गच्छतीत्यर्थ॥
एतैरेषोऽपृथग्भावै पृथगेवेति लक्षित।
एव यो वेद तत्त्वेन कल्पयेत्सोऽविशङ्कित॥३०॥
एतै प्राणादिभि आत्मनोऽपृथग्भूतैरपृथग्भावै एष आत्मा रज्जुरिव सर्पादिविकल्पनारूपै पृथगेवेति लक्षित
अभिलक्षित निश्चित मूढैरित्यर्थ। विवेकिना तु रज्ज्वामिव कल्पिता सर्पादयो नात्मव्यतिरेकेण प्राणादय सन्तीत्यभिप्राय, ‘इदं सर्वं यदयमात्मा’ इति श्रुते। एवमात्मव्यतिरेकेणासत्त्व रज्जुसर्पवदात्मनि कल्पितानामात्मान च केवल निर्विकल्प यो वेद तत्त्वेन श्रुतितो युक्तितश्च, स अविशङ्कितो वेदार्थं विभागत कल्पयेत् कल्पयतीत्यर्थ— इदमेवपर वाक्यम् अदोऽन्यपरम् इति। न ह्यनध्यात्मविद्वेदान्ज्ञातु शक्नोति तत्त्वत, ‘न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलमुपाश्नुते’ इति हि मानव वचनम्॥
स्वप्नमाये यथा दृष्टे गन्धर्वनगर यथा।
तथा विश्वमिद दृष्ट वेदान्तेषु विचक्षणै॥३१॥
यदेतद्द्वैतस्यासत्त्वमुक्त युक्तित, तदेतद्वेदान्तप्रमाणावगतमित्याह— स्वप्नश्च माया च स्वप्नमाये असद्वस्त्वात्मिके सत्यौ सद्वस्त्वात्मिके इव लक्ष्येते अविवेकिभि। यथा च प्रसारितपुण्यापणगृहप्रासादस्त्रीपुजनपदव्यवहाराकीर्णमिव गन्धर्वनगर दृश्यमानमेव सत् अकस्मादभावता गत दृष्टम्, यथा च स्वप्नमाये दृष्टे असद्रूपे, तथा विश्वमिदं द्वैत समस्तमसद्दृष्टम्। क्वेत्याह— वेदान्तेषु, ‘नेह नानास्ति किंचन’ ‘इन्द्रो मायाभि’ ‘आत्मैवेदमग्र आसीत्’ ‘ब्रह्मैवेदमग्र
आसीत्’ ‘द्वितीयाद्वै भय भवति’ ‘न तु तद्द्वितीयमस्ति’ ‘यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्’ इत्यादिषु, विचक्षणै निपुणतरवस्तुदर्शिभि पण्डितैरित्यर्थ, ‘तम श्वभ्रनिभ दृष्ट वर्ष बुद्बुदसनिभम्। नाशप्राय सुखाद्धीन नाशोत्तरमभावगम्’ इति व्यासस्मृते॥
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥३२॥
प्रकरणार्थोपसहारार्थोऽयं श्लोकः— यदा वितथ द्वैतम आत्मैवैक परमार्थत सन्, तदा इद निष्पन्न भवति—सर्वोऽयं लौकिको वैदिकश्च व्यवहारोऽविद्याविषय एवेति। तदा न निरोध, निरोधन निरोध प्रलय, उत्पत्ति जननम्, बद्ध ससारी जीव, साधक साधनवान्मोक्षस्य, मुमुक्षु मोचनार्थी, मुक्त विमुक्तबन्ध। उत्पत्तिप्रलययोरभा वाद्बद्धादयो न सन्तीत्यषा परमार्थता। कथमुत्पत्तिप्रलययोरभाव इति, उच्यते—द्वैतस्यासत्त्वात्। ‘यत्र हि द्वैतमिव भवति’ ‘य इह नानेव पश्यति’ ‘आत्मैवेद सर्वम्’ ‘ब्रह्मै वेद सर्वम्’ ‘एकमेवाद्वितीयम्’ ‘इदं सर्वंयदयमात्मा’ इत्यादिनानाश्रुतिभ्यो द्वैतस्यासत्त्व सिद्धम्। सतो ह्युत्पत्ति प्रलयो वा स्यात्, नासत शशविषाणादे। नाप्यद्वैतमुत्प-
द्यते प्रलीयते वा। अद्वैत च, उत्पत्तिप्रलयवच्चेति विप्रतिषिद्धम्। यस्तु पुनर्द्वैतसव्यवहार, स रज्जुसर्पवदात्मनि प्राणादिलक्षण कल्पित इत्युक्तम्, न हि मनोविकल्पनाया रज्जुसर्पादिलक्षणाया रज्ज्वा प्रलय उत्पत्तिर्वा न च मनसि रज्जुसर्पस्योत्पत्ति प्रलयो वा, न चोभयतो वा। तथा मानसत्वाविशेषाद्द्वैतस्य। न हि नियते मनसि सुषुप्ते वा द्वैत गृह्यते, अतो मनोविकल्पनामात्र द्वैतमिति सिद्धम्। तस्मात्सूक्तम्—द्वैतस्यासत्त्वान्निरोधाद्यभाव परमार्थतेति। यद्येव द्वैताभावे शास्त्रव्यापार, नाद्वैते, विरोधात्, तथा च सत्यद्वैतस्य वस्तुत्वे प्रमाणाभावाच्छून्यवादप्रसङ्ग, द्वैतस्य चाभावात् न, रज्जुवत्सर्पादिकल्पनाया निरास्पदत्वेऽनुपपत्तिरिति प्रत्युक्तमेतत्कथमुज्जीवयसीति, आह—रज्जुरपि सर्पविकल्पस्यास्पदभूता कल्पितैवेति दृष्टान्तानुपपत्ति, न, विकल्पनाक्षये अविकल्पितस्याविकल्पितत्वादेव सत्त्वोपपत्ते, रज्जुसर्पवदसत्त्वमिति चेत्, न एकान्तेनाविकल्पितत्वात् अविकल्पितरज्ज्वशवत्प्राक्सर्पाभावविज्ञानात्, विकल्पयितुश्च प्राग्विकल्पनोत्पत्ते सिद्धत्वाभ्युपगमादेवासत्त्वानुपपत्ति। कथं पुन स्वरूपे व्यापाराभावे शास्त्रस्य द्वैतविज्ञाननिवर्तकत्वम्? नैष दोष, रज्ज्वा सर्पादि
वदात्मनि द्वैतस्याविद्याध्यस्तत्वात् कथं सुरयह दुखी मूढो जातो मृतो जीर्णो देहवान् पश्यामि व्यक्ताव्यक्त कर्ता फली संयुक्तो वियुक्त क्षीणो वृद्धोऽह ममैत इत्येवमादय सर्वे आत्मन्यध्यारोप्यन्ते। आत्मा एतेष्वनुगत, सर्वत्राव्यभिचारात्, यथा सर्पधारादिभेदेषु रज्जु। यदा चैव विशेष्यस्वरूपप्रत्ययस्यसिद्धत्वान्न कर्तव्यत्वं शास्त्रेण। अकृतकर्तृ च शास्त्र कृतानुकारित्वे अप्रमाणम्। अविद्याध्यारोपितसुखित्वादिविशेषप्रतिबन्धादेवात्मन स्वरूपेणानवस्थानम्, स्वरूपावस्थान च श्रेय इति सुखित्वादिनिवर्तक शास्त्रमात्मन्यसुखित्वादिप्रत्ययकरणेन नेति नेत्यस्थूलादिवाक्यै, आत्मस्वरूपवदसुखित्वादिरपि सुखित्वादिभेदेषु नानुवृत्ताऽस्ति धर्म। यद्यनुवृत्त स्यात्, नाध्यारोप्येत सुखित्वादिलक्षणो विशेष, यथोष्णत्वगुणविशेषवत्यग्नौ शीतता, तस्मान्निर्विशेष एवात्मनि सुखित्वादयो विशेषा कल्पिता। यत्त्वसुखित्वादिशास्त्रमात्मन, तत्सुखित्वादिविशेषनिवृत्त्यर्थमेवेति सिद्धम्। ‘सिद्ध तु निवर्तकत्वात्’ इत्यागमविदा सूत्रम्।
भावैरसद्भिरेवायमद्वयेन च कल्पित।
भावा अप्यद्वयेनैव तस्मादद्वयता शिवा॥३३॥
पूर्वश्लोकार्थस्य हेतुमाह—यथा रज्ज्वामसद्भि सर्पधारादिभि अद्वयेन च रज्जुद्रव्येण सता भय सर्प इति धारेय दण्डोऽयमिति वा रज्जुद्रव्यमेव कल्प्यते, एव प्राणादिभिरनन्तै असद्भिरेव अविद्यमानै, न परमार्थत। न ह्यप्रचलिते मनसि कश्चिद्भाव उपलक्षयितु शक्यते केनचित्, न चात्मन प्रचलनमस्ति। प्रचलितस्यैवोपलभ्यमाना भावा न परमार्थत सन्त कल्पयितु शक्या। अत असद्भिरेव प्राणादिभिर्भावैरद्वयेन च परमार्थसता आत्मना रज्जुवत्सर्वविकल्पास्पदभूतेन अय स्वयमेवात्मा कल्पित सदैकस्वभावोऽपि सन्। ते चापि प्राणादिभावा अद्वयेनैव सता आत्मना विकल्पिता, न हि निरास्पदा काचित्कल्पना उपपद्यते, अत सर्वकल्पनास्पदत्वात्स्वेनात्मना अद्वयस्य अव्यभिचारात् कल्पनावस्थायामपि अद्वयता शिवा, कल्पना एव त्वशिवा, रज्जुसर्पादिवत्त्रासादिकारिण्यो हि ता। अद्वयता अभया, अत सैव शिवा॥
नात्मभावेन नानेद न स्वेनापि कथचन।
न पृथड्नापृथक्किंचिदिति तत्त्वविदो विदु॥३४ ॥
कुतश्चाद्वयता शिवा ? नानाभूत प्रथक्त्वम् अन्यस्य अन्यस्मात् यत्र दृष्टम्, तत्राशिव भवेत्। न ह्यत्राद्वये परमा-
र्थसत्यात्मनि प्राणादिसंसारजातमिद जगत् आत्मभावेन परमार्थस्वरूपेण निरूप्यमाण नाना वस्त्वन्तरभूत भवति, यथा रज्जुस्वरूपेण प्रकाशेन निरूप्यमाणो न नानाभूत कल्पित सर्पोऽस्ति, तद्वत्। नापि स्वेन प्राणाद्यात्मना इदं विद्यते कदाचिदपि, रज्जुसर्पवत्कल्पितत्वादेव। तथा अन्योन्यं न पृथक् प्राणादि वस्तु यथा अश्वान्महिष पृथग्विद्यते, एवम्। अत असत्त्वात् नापि अपृथक् विद्यतेऽन्योन्य परेण वा किंचिदिति। एव परमार्थतत्त्वविदो ब्राह्मणा विदु। अत अशिवहेतुत्वाभावादद्वयतैव शिवेत्यभिप्राय॥
वीतरागभयक्रोधैर्मुनिभिर्वेदपारगै।
निर्विकल्पो ह्यय दृष्ट प्रपञ्चोपशमोऽद्वय॥३५ ॥
तदेतत्सम्यग्दर्शन स्तूयते—विगतरागभयक्राधादिसर्व दोषै सर्वदा मुनिभि मननशीलैर्विवेकिभि वेदपारगै अवगतवेदान्तार्थतत्त्वैर्ज्ञानिभि निर्विकल्प सर्वविकल्पशून्य अयम् आत्मा दृष्ट उपलब्धो वेदान्तार्थतत्परै, प्रपञ्चोपशम, प्रपञ्चो द्वैतभेदविस्तार, तस्योपशमोऽभावो यस्मिन्, स आत्मा प्रपञ्चोपशम, अत एव अद्वय विगतदोषैरेव पण्डितैर्वेदान्तार्थतत्परै सन्यासिभि अयमात्मा द्रष्टुं शक्य,
नान्यै रागादिकलुषितचेतोभि स्वपक्षपातिदर्शनैस्तार्किकादिभिरित्यभिप्राय॥
तस्मादेव विदित्वैनमद्वैते योजयेत्स्मृतिम्।
अद्वैत समनुप्राप्य जडवल्लोकमाचरेत्॥३६॥
यस्मात्सर्वानर्थोपशमरूपत्वाद्द्वय शिवमभयम्, अत एव विदित्वैनम् अद्वैते स्मृति योजयेत्, अद्वैतावगमायैव स्मृति कुर्यादित्यर्थः। तच्च अद्वैतम् अवगम्य ‘अहमस्मि पर ब्रह्म’ इति विदित्वा अशनायाद्यतीत साक्षादपरोक्षादजमात्मान सर्वलोकव्यवहारातीत जडवत् लोकमाचरेत् अप्रख्यापयन्नात्मानमहमेवविध इत्यभिप्राय॥
निःस्तुतिर्निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च।
चलाचलनिकेतश्च यतिर्यादृच्छिको भवेत्॥३७॥
कया चर्यया लोकमाचरेदिति, आह—स्तुतिनमस्कारादिसर्वकर्मविवर्जित त्यक्तसर्वबाह्यैषण प्रतिपन्नपरमहसपारिव्राज्य इत्यभिप्राय, ‘एत वै तमात्मान विदित्वा’ इत्यादिश्रुते, ‘तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा’इत्यादिस्मृतेश्च। चल शरीरम्, प्रतिक्षणमन्यथाभावात्, अचलम् आत्म-
तत्त्वम्। यदा कदाचिद्भोजनादिसव्यवहारनिमित्तमाकाशवद चल स्वरूपमात्मतत्त्वम् आत्मनो निकेतमाश्रयमात्मस्थिति विस्मृत्य अहमिति मन्यते यदा, तदा चलो देहो निकेतो यस्य सोऽयमेव चलाचलनिकेतो विद्वान्न पुनर्बाह्यविषयाश्रय। स च यादृच्छिको भवेत्, यतच्च्छाप्राप्तकौपीनाच्छादनग्रासमात्रदेहस्थितिरित्यथ॥
तत्त्वमाध्यात्मिक दृष्ट्वा तत्त्वदृष्ट्वा तु बाह्यत।
तत्त्वीभूतस्तदारामस्तत्त्वादप्रच्युतो भवेत्॥३८॥
बाह्य पृथिव्यादि तत्त्वमाध्यात्मिक च देहादिलक्षण रज्जुसर्पादिवत्स्वप्नमायादिवच्च असत्, ‘वाचारम्भण विकारो नामधेयम्’ इत्यादिश्रुते। आत्मा च सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजोऽपूर्वोऽनपरोऽनन्तरोऽबाह्य कृत्स्न तथा आकाशवत्सर्व गत सूक्ष्मोऽचलो निर्गुणो निष्कलो निष्क्रिय ‘तत्सत्य स आत्मा तत्त्वमसि’ इति श्रुते, इत्येव तत्त्व दृष्ट्वा तत्त्वीभूतस्तदारामो न बाह्यरमण, यथा अतत्त्वदर्शी कश्चित्तमात्मत्वेन प्रतिपन्नश्चित्तचलनमनु चलितमात्मान मन्यमान तत्त्वाच्चलित देहादिभूतमात्मान कदाचिन्मन्यते प्रच्युतोऽहमात्मतत्त्वादिदानीमिति, समाहिते तु मनसि कदाचित्तत्त्वभूत प्रसन्नमात्मान मन्यते इदानीमस्मि तत्त्वीभूत इति,
न तथा आत्मविद्भवेत्, आत्मन एकरूपत्वात्, स्वरूपप्रत्त्य वनासभवाच्च। सदैव ब्रह्मास्मीत्यप्रच्युतो भवेत्तत्त्वात्, सदा अप्रच्युतात्मतत्त्वदर्शनो भवेदित्यभिप्राय, ‘शुनि चैव श्वपाके च’ ‘सम सर्वेषु भूतेषु’ इत्यादिस्मृते॥
इति द्वितीय वैतथ्यप्रकरण सपूणम्॥
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अद्वैतप्रकरणम्॥
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उपासनाश्रितो धर्मो जाते ब्रह्मणि वर्तते।
प्रागुत्पत्तेरज सर्व तेनासौ कृपण स्मृत॥१॥
ओंकारनिणय उक्त प्रपञ्चोपशम शिवोऽद्वैत आत्मेति प्रतिज्ञामात्रेण, ‘ज्ञाते द्वैत न विद्यते’ इति च। तत्र द्वैताभावस्तु वैतथ्यप्रकरणेन स्वप्नमायागन्धर्वनगरादिदृष्टान्तैर्दृश्यत्वाद्यन्तवत्त्वादिहेतुभिस्तकेण च प्रतिपादित। अद्वैत किमागममात्रण प्रतिपत्तव्यम्, आहोस्वित्तर्केणापीत्यत आह—शक्यते तर्केणापि ज्ञातुम्, तत्कथमित्यद्वैतप्रकरणमारभ्यते। उपास्योपासनादिभेदजात सर्वं वितथम, केवलश्चात्मा अद्वय परमाथ इति स्थितमतीते प्रकरणे, यत उपासनाश्रित उपासनामात्मनो मोक्षसाधनत्वेन गत उपासकोऽह ममोपास्य ब्रह्म। तदुपासन कृत्वा जाते ब्रह्मणी दानीं वर्तमान अज ब्रह्म शरीरपातादूर्ध्वं प्रतिपत्स्ये प्रागुत्पत्तेश्चाजमिद सर्वमह च। यदात्मकोऽह प्रागुत्पत्तेरिदानी जातो जाते ब्रह्मणि च वर्तमान उपासनया पुनस्तदेव प्रति-
पत्म्ये इत्येवमुपासनाश्रितो धर्म साधक येनैव क्षुद्रब्रह्मवित्, तेनासौ कारणेन कृपणो दीनोऽल्पक स्मृतो नित्याजब्रह्मदर्शिभिर्महात्मभिरित्यभिप्राय,‘यद्वाचानभ्युदित येन वागभ्युद्यते। तदव ब्रह्मत्व विद्धि नेद यदिदमुपासते’ इत्यादिश्रुतेस्तलवकाराणाम्॥
अतो वक्ष्याम्यकार्पण्यमजाति समता गतम्।
यथा न जायते किंचिज्जायमान समन्तत॥२॥
सबाह्याभ्यन्तरमजमात्मान प्रतिपत्तुमशक्नुवन् अविद्यया दीनमात्मान मन्यमान जातोऽह जाते ब्रह्मणि वर्ते तदुपासनाश्रित सन्ब्रह्म प्रतिपत्स्ये इत्येव प्रतिपन्न कृपणो भवति यस्मात्, अतो वक्ष्यामि अकार्पण्यम् अकृपणभाव मज ब्रह्म। तद्धि कार्पण्यास्पदम्, ‘यत्रान्योऽन्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पम्’ ‘मर्त्यंतत्’ ‘वाचारम्भण विकारो नामधेयम्’ इत्यादिश्रुतिभ्य। तद्विपरीत सबाह्याभ्यन्तरमजमकार्पण्य भूमाख्य ब्रह्म, यत्प्राप्याविद्याकृतसर्वकार्पण्यनिवृत्ति, तदकार्पण्य वक्ष्यामीत्यर्थ। तत् अजाति अविद्यमाना जातिरस्य। समता गत सर्वसाम्य गतम्, कस्मात् ? अवयववैषम्याभावात्। यद्धि सावयव
वस्तु, तदवयववैषम्य गच्छज्जायत इत्युच्यते, इद तु निरवयवत्वात्समता गतमिति न कैश्चिदवयवै स्फुटति, अत अजाति अकार्पण्य समन्तत समन्तात्, यथा न जायते किंचित् अल्पमपि न स्फुटति रज्जुसर्पवदविद्याकृतदृष्टया जायमान येन प्रकारेण न जायते सर्वत अजमेव ब्रह्म भवति, तथा त प्रकार शृण्वित्यर्थ॥
आत्मा ह्याकाशवज्जीवैर्घटाकाशैरिवोदित।
घटादिवच्च सघातैर्जातावेतन्निदर्शनम्॥३॥
अजाति ब्रह्माकार्पण्य वक्ष्यामीति प्रतिज्ञातम्, तत्सिद्ध्यर्थं हेतु दृष्टान्त च वक्ष्यामीत्याह—आत्मा पर हि यस्मात् आकाशवत् सूक्ष्मो निरवयव सर्वगत आकाशवदुक्त जीवै क्षेत्रज्ञै घटाकाशैरिव घटाकाशतुल्यै उदित उक्त, स एव आकाशसम पर आत्मा। अथवा घटाकाशैर्यथा आकाश उदित उत्पन्न तथा परो जीवात्मभिरुत्पन्न, जीवात्मना परस्मादात्मन उत्पत्तिर्या श्रूयते वेदान्तेषु, सा महाकाशाद्घटाकाशोत्पत्तिसमा, न परमार्थत इत्यभिप्राय। तस्मादेवाकाशाद्घटादय संघाता यथा उत्पद्यन्ते, एवमाकाशस्थानीयात्परमात्मन पृथिव्यादिभूतसंघाता आध्यात्मि-
काश्च कार्यकरणलक्षणा रज्जुसर्पवद्विकल्पिता जायन्ते, अत उच्यते—घटादिवच्च सघातैरुदित इति। यदा मन्दबुद्धिप्रतिपिपादयिषया श्रुत्या आत्मनो जातिरुच्यते जीवादीनाम्, तदा जातावुपगम्यमानायाम् एतत् निदर्शन दृष्टान्त यथोदिताकाशवदित्यादि॥
घटादिषु प्रलीनेषु घटाकाशादयो यथा।
आकाशे सप्रलीयन्ते तद्वज्जीवा इहात्मनि॥४॥
यथा घटाद्युत्पत्त्या घटाकाशाद्युत्पत्ति, यथा च घटादिप्रलयेन घटाकाशादिप्रलय, तद्वद्देहादिसघातोत्पत्त्या जीवोत्पत्ति तत्प्रलयेन च जीवानाम् इह आत्मनि प्रलय, न स्वत इत्यर्थ॥
यथैकस्मिन्घटाकाशे रजोधूमादिभिर्युते।
न सर्वे सप्रयुज्यन्ते तद्वज्जीवाः सुखादिभिः॥५॥
सर्वदेहेष्वात्मैकत्वे एकस्मिन् जननमरणसुखदुःखादिमत्यात्मनि सर्वात्मना तत्सबन्ध क्रियाफलसाकर्यं च स्यादिति ये त्वाहुर्द्वैतिन, तान्प्रतीदमुच्यते—यथा एकस्मिन् घटाकाशे रजोधूमादिभि युते सयुक्ते, न सर्वे घटाकाशादय तद्रजोधूमादिभि सयुज्यन्ते, तद्वत् जीवा सुखादिभि। ननु,
एक एवात्मा, बाढम्, ननु न श्रुत त्वया आकाशवत्सर्व सघातेष्वक एवात्मेति ? यद्येक एवात्मा, तर्हि सवत्र सुखी दुःखी च स्यात्, न चेद सारयस्य चोद्य सभवति, न हि साख्य आत्मन सुखदुःखातिमत्त्वमिच्छति, बुद्धिसमवायाभ्युपगमात्सुखदुःखादीनाम्, न चोपलब्धिस्वरूपस्यात्मनो भेदकल्पनाया प्रमाणमस्ति। भेदाभावे प्रधानस्य पारार्थ्यानुपपत्तिरिति चेत्, न, प्रधानकृतस्यार्थस्यात्मन्यसमवायात्, यदि हि प्रधानकृतो बन्धो मोक्षो वा अर्थ पुरुषेषु भेदन समवैति, तत प्रधानस्य पारार्थ्यामात्मैकत्वे नोपपद्यत इति युक्ता पुरुषभेदकल्पना, न च सारयैर्बन्धोमोक्षो वाथ पुरुषसमवेतोऽभ्युपगम्यत, निर्विशेषाश्च चेतनमात्रा आत्मानोऽभ्युपगम्यन्ते, अत पुरुषसत्तामात्रप्रयुक्तमव प्रधानस्य पारार्थ्यसिद्धम्, न तु पुरुषभदप्रयुक्तमिति, अत पुरुषभेदकल्पनाया च प्रधानस्य पारार्थ्य हेतु, न चान्यत्पुरुषभेदकल्पनाया प्रमाणमम्ति साख्यानाम्। परसत्तामामात्रमेव चैतन्निमित्तीकृत्य स्वय बध्यते मुच्यते च प्रधानम्, परश्चोपलब्धिमात्रसत्तास्वरूपेण प्रधानप्रवृत्तौ हेतु, न केनचिद्विशेषेणेति, केवलमूढतयैव पुरुषभेदकल्पना वेदार्थपरित्यागश्च। ये त्वाहुर्वैशेषिकादय इच्छादय आत्मसमवायिन
इति, तदप्यसत्, स्मृतिहेतूना सस्काराणामप्रदेशवत्यात्मन्यसमवायात्, आत्ममन सयोगाच्च स्मृत्युत्पत्ते स्मृतिनियमानुपपत्ति, युगपद्वा सर्वस्मृत्युत्पत्तिप्रसङ्ग। न च भिन्नजातीयाना स्पर्शादिहीनानामात्मना मनआदिभि सबन्धो युक्त। न च द्रव्याद्रूपान्या गुणा कर्मसामान्यविशेषसमवाया वा भिन्ना सन्ति। परेषा यदि ह्यत्यन्तभिन्ना एव द्रव्यात्स्यु इच्छादयश्चात्मन, तथा सति द्रव्येण तेषा सबन्धानुपपत्ति। अयुतसिद्धाना समवायलक्षण सबन्धो न विरुध्यत इति चेत्, न, इच्छादिभ्याऽनित्येभ्य आत्मनो नित्यस्य पूर्वसिद्धत्वान्नायुतसिद्धत्वोपपत्ति। आत्मना अयुतसिद्धत्वे च इन्छादीनामात्मगतमहत्त्ववन्नित्यत्वप्रसङ्ग। स चानिष्ट, आत्मनोऽनिर्मोक्षप्रसङ्गात। समवायस्य च द्रव्यादन्यत्वे सति द्रव्येण स बन्धान्तर वाच्यम्, यथा द्रव्यगुणयो। समवायो नित्यसबन्ध एवेति न वाच्यमिति चेत्, तथा सति समवायसबन्धवता नित्यसबन्धप्रसङ्गात्पृथक्त्वानुपपत्ति। अत्यन्तपृथक्त्वे च द्रव्यादीना स्पर्शवदस्पर्शद्रव्ययोरिव षष्ठ्यर्थानुपपत्ति। इच्छाद्युपजनापायचद्गुणवत्त्वेच आत्मनोऽनित्यत्वप्रसङ्ग। देहफलादिवत्सावयवत्व विक्रियावत्व च देहादिवदेवेति दोषावपरिहार्यौ। यथा त्वाकाशस्य अविद्याध्यारोपितघटाद्यु
काश घनरजोधूमादिमलै मलिन मलवत्, न गगन याथात्म्यविवेकवताम्, तथा भवति आत्मा परोऽपि— यो विज्ञाता प्रत्यक्—क्लेशकर्मफलमलैर्मलिन अबुद्धाना प्रत्यगात्मविवेकरहितानाम्, नात्मविवेकवताम्। न ह्यूषरदेश तृड्वत्प्राण्यध्यारोपितोदकफेनतरङ्गादिमान, तथा नात्मा अबुधारोपितकेशादिमलै मलिनो भवतीत्यर्थ॥
मरणे सभवे चैव गत्यागमनयोरपि।
स्थितौ सर्वशरीरेषु चाकाशेनाविलक्षण॥९॥
पुनरप्युक्तमेवार्थ प्रपञ्चयति—घटाकाशजन्मनाशगमनागमनस्थितिवत्सर्वशरीरेष्वात्मनो जन्ममरणादिराकाशेनाविलक्षण प्रत्येतव्य इत्यर्थ॥
सघाता स्वप्नवत्सर्व आत्ममायाविसर्जिता।
आधिक्ये सर्वसाम्ये वा नोपपत्तिर्हि विद्यते॥१०॥
घटादिस्थानीयास्तु देहादिसघाता स्वप्नदृश्यदेहादिवन्मायाविकृतदेहादिवच्च आत्ममायाविसर्जिता, आत्मनो माया अविद्या, तथा प्रत्युपस्थापिता, न परमार्थत सन्तीत्यर्थ। यदि आधिक्यमधिकभाव तिर्यग्देहाद्यपेक्षया देवादिकार्य-
करणसघातानाम्, यदि वा सर्वेषा समतैव तेषा न ह्युपपत्तिसभव, सभवप्रतिपादको हेतु न विद्यते नास्ति, हि यस्मात् तस्मादविद्याकृता एव, न परमार्थत सन्तीत्यर्थ॥
रसादयो हि ये कोशा व्याख्यातास्तैत्तिरीयके।
तेषामात्मा परो जीव स्वयथा सप्रकाशित॥११॥
उत्पत्त्यादिवर्जितस्याद्वयस्यास्यात्मतत्त्वस्य श्रुतिप्रमाणकत्वप्रदर्शनार्थ वाक्यान्युपयस्यन्ते—रसादय अन्नरसमय प्राणमय इत्येवमादय कोशाइव कोशा अस्यादे, उत्तरोत्तरापेक्षया बहिर्भावात्पूर्वपूर्वस्य व्याख्याता विस्पष्टमाख्याता तैत्तिरीयके तैत्तिरीयकशाखोपनिषद्वल्लयाम, तेषा कोशानामात्मा येनात्मना पञ्चापि कोशा आत्मवन्तोऽन्तरतमेन। स हि सर्वेषा जीवननिमित्तत्वाज्जीव। कोऽसावित्याह—पर एवात्मा य पूर्वम् सत्य ज्ञानमनन्त ब्रह्मइति प्रकृत, यस्मादात्मन स्वप्नमायादिवदाकाशादिक्रमेण रसादय कोशलक्षणा सघाता आत्ममायाविसर्जिता इत्युक्तम्। स आत्मा अस्माभि यथा स्व तथेति सप्रकाशित ‘आत्मा ह्याकाशवत्’ इत्यादिश्लोकै। न तार्किकपरिकल्पितात्मवत्पुरुषबुद्धिप्रमाणगम्य इत्यभिप्राय॥
द्वयोर्द्वयोर्मधुज्ञाने पर ब्रह्म प्रकाशितम्।
पृथिव्यामुदरे चैव यथाकाश प्रकाशित॥१२॥
किंच, अधिदैवतमध्यात्म च तेजोमयोऽमृतमय पुरुष पृथिव्याद्यन्तर्गतो यो विज्ञाता पर एवात्मा ब्रह्म सर्वमिति द्वयोर्द्वयो आद्वैतक्षयात् पर ब्रह्म प्रकाशितम्, क्वेत्याह—ब्रह्मविद्याख्य मधु अमृतम्, अमृतत्व मोदनहेतुत्वात्, तद्विज्ञायते यस्मिन्निति मधुज्ञान मधुब्राह्मणम्, तस्मिन्नित्यर्थ। किमिवेत्याह—पृथिव्याम् उदरे चैव यथा एक आकाश अनुमानेन प्रकाशित लोके, तद्वदित्यर्थ॥
जीवात्मनोरनन्यत्वमभेदेन प्रशस्यते।
नानात्व निन्द्यते यच्च तदेव हि समञ्जसम्॥१३॥
यद्युक्तित श्रुतितश्च निर्धारित जीवस्य परस्य चात्मनोऽनन्यत्वम् अभेदेन प्रशस्यते स्तूयते शास्त्रेण व्यासादिभिश्च यश्च सर्वप्राणिसाधारण स्वाभाविक शास्त्रबहिर्मुखै कुतार्किकैर्विरचित नानात्वदर्शन निन्द्यते, ‘न तु तद्द्वितीयमस्ति’ ‘द्वितीयाद्वै भय भवति’ ‘उदरमन्तर कुरुते, अथ तस्य भय भवति’ ‘इद सर्वंयदयमात्मा’ ‘मृत्यो स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति’ इत्येवमादिवाक्यैरन्यै-
श्च ब्रह्मविद्भियच्चैतत्, तदेव हि समञ्जसम् ऋज्ववबोध न्याय्यमित्यर्थ। यास्तु तार्किकपरिकल्पिता कुदृष्टय, ता अनृज्व्यो निरूप्यमाणा न घटना प्राञ्चन्तीत्यभिप्राय॥
जीवात्मनो पृथक्त्व यत्प्रागुत्पत्ते प्रकीर्तितम्।
भविष्यद्वृत्त्या गौण तन्मुख्यत्व हि न युज्यते॥१४॥
ननु श्रुत्यापि जीवपरमात्मनो पृथक्त्व यत् प्रागुत्पत्ते उत्पत्त्यर्थोपनिषद्वाक्येभ्य पूर्व प्रकीर्तित कर्मकाण्डे अनेकश कामभेदत इदकाम अदकाम इति, परश्च’स दाधार पृथिवीं द्याम्’ इत्यादिमन्त्रवर्णै, तत्र कथ कर्मज्ञानकाण्डवाक्यविरोधे ज्ञानकाण्डवाक्यार्थस्यैवैकत्वस्य सामञ्जस्य मवधार्यत इति। अत्रोच्यते—‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’ ‘यथाग्ने क्षुद्रा विस्फुलिङ्गा’ तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश सभूत’ ‘तदैक्षत तत्तेजोऽसृजत’ इत्याद्युत्पत्त्यथापनिषद्वाक्येभ्य प्राक्पृथक्त्व कर्मकाण्डे प्रकीर्तित यत्, तन्न परमार्थत। किं तर्हि ? गौणम्, महाकाशघटाकाशादिभेदवत् यथा ओदन पचतीति भविष्यद्वृत्त्या, तद्वत्। न हि भेदवाक्याना कदाचिदपि मुख्यभेदार्थकत्वमुपपद्यते, स्वाभाविकाविद्यावत्प्राणिभेददृष्ट्यनुवादित्वादात्मभे-
दवाक्यानाम्। इह च उपनिषत्सु उत्पत्तिप्रलयादिवाक्यैर्जीवपरात्मनोरेकत्वमेव प्रतिपिपादयिषितम् ‘तत्त्वमसि’ ‘अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद’ इत्यादिभि अत उपनिषत्स्वेकत्व श्रुत्या प्रतिपिपादयिषित भविष्यतीति भाविनीमिव वृत्तिमाश्रित्य लोके भेददृष्ट्यनुवादो गौण एवेत्यभिप्राय। अथवा, ‘तदैक्षत’ ‘तत्तेजोऽसृजत’ इत्याद्युत्पत्ते प्राक् ‘एकमेवाद्वितीयम्’ इत्येकत्व प्रकीर्तितम्, तदेव च ‘तत्सत्य स आत्मा, तत्त्वमसि’ इत्येकत्व भविष्यतीति ता भविष्यद्वृत्तिमपेक्ष्य यज्जीवात्मनो पृथक्त्व यत्र कचिद्वाक्ये गम्यमानम्, तद्गौणम्, यथा ओदन पचतीति, तद्वत्॥
मृल्लोहविस्फुलिङ्गाद्यै सृष्टिर्या चोदितान्यथा।
उपाय सोऽवताराय नास्ति भेदः कथचन॥१५॥
ननु यद्युत्पत्ते प्रागज सर्वमेकमेवाद्वितीयम्, तथापि उत्पत्तेरूर्ध्व जातमिद सर्वं जीवाश्च भिन्ना इति। मैवम्, अन्यार्थत्वादुत्पत्तिश्रुतीनाम्। पूर्वमपि परिहृत एवाय दोष—स्वप्नवदात्ममायाविसर्जिता सघाता, घटाकाशोत्पत्तिभेदादिवज्जीवानामुत्पत्तिभेदादिरिति। इत एव उत्पत्तिभेदादिश्रुतिभ्य आकृष्य इह पुनरुत्पत्तिश्रुतीनामैदपर्यप्रतिपिपादयिष-
यापयास मृल्लोहविस्फुलिङ्गादिदृष्टा तोपन्यासै सृष्टि या च उदिता प्रकाशिता कल्पिता अन्यथान्यथा च, स सर्व सृष्टिप्रकारा जीवपरमात्मैकत्वबुद्ध्यवतारायोपायोऽस्माकम्, यथा प्राणसबादे वागाद्यासुरपाप्मवेधाद्यारयायिका कल्पिता प्राणवैशिष्ट्यबोधावताराय, तदप्यसिद्धमिति चेत्, न, शाखाभेदेष्वन्यथान्यथा च प्राणादिसवादश्रवणात्। यदि हि वाद परमार्थ एवाभूत, एकरूप एव सवाद सवशाखास्वश्रोष्यत, विरुद्धानेकप्रकारेण नाश्रोष्यत, श्रूयते तु, तस्मान्न तादर्थ्यंसवादश्रुतीनाम्। तथोत्पत्तिवाक्यानि प्रत्येतव्यानि। कल्पसर्गभेदात्सवादश्रुतीनामुत्पत्तिश्रुतीना च प्रतिसर्गमन्यथात्वमिति चेत्, न, निष्प्रयोजनत्वाद्यथोक्तबुद्ध्यवतार प्रयोजनव्यतिरेकेण। न ह्यन्यप्रयोजनवत्त्व सवादोत्पत्तिश्रुतीना शक्य कल्पयितुम्। तथात्वप्रत्तिपत्तये ध्यानार्थमिति चेत्, न, कलहोत्पत्तिप्रलयाना प्रतिपत्तेरनिष्टत्वात्। तस्मादुत्पत्त्यादिश्रुतय आत्मैकत्वबुद्ध्यवतारायैव, नान्यार्थाकल्पयितु युक्ता। अतो नास्त्युत्पत्त्यादिकृतो भेद कथचन॥
आश्रमास्त्रिविधा हीनमध्यमोत्कृष्टदृष्टय।
उपासनोपदिष्टेय तदर्थमनुकम्पया॥१६॥
यदि हि पर एवात्मा नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव एक पर-
मार्थत सन् ‘एकमेवाद्वितीयम्’ इत्यादिश्रुतिभ्य, असदन्यत्,किमर्थेयमुपासनोपदिष्टा ‘आत्मा वा अरे द्रष्टव्य’ ‘य आत्मापहतपाप्मा’ ‘स क्रतु कुर्वीत’ ‘आत्मेत्येवोपासीत इत्यादिश्रुतिभ्य, कर्माणि चाग्निहोत्रादीनि? शृणु तत्र कारणम्—आश्रमा आश्रमिणोऽधिकृता, वर्णिनश्च मार्गगा,गा आश्रमशब्दस्य प्रदर्शनार्थत्वात्, त्रिविधा। कथम्? हीनमध्यमोत्कृष्टदृष्टय हीना निकृष्टा मध्यमा उत्कृष्टा च दृष्टि दर्शनसामर्थ्य येषा ते, मन्दमध्यमोत्तमबुद्धिसामर्थ्योपेता इत्यर्थ। उपासना उपदिष्टा इय तदर्थंमन्दमध्यमदृष्ट्याश्रमाद्यर्थ कर्माणि च। न चात्मैक एवाद्वितीय इति निश्वितोत्तमदृष्ट्यर्थम्। दयालुना वेदेनानुकम्पया सन्मार्गगा सन्त कथमिमामुत्तमामेकत्वदृष्टिं प्राप्नुयुरिति, ‘यन्मनया न मनुते येनाहुर्मनो मतम्। तदेव ब्रह्म त्व विद्धि नेद यदिदमुपासते’ ‘तत्त्वमसि’ ‘आत्मैवेद सर्वम्’ इत्यादि श्रुतिभ्य॥
स्वसिद्धान्तव्यवस्थासु द्वैतिनो निश्चिता दृढम्।
परस्पर विरुध्यन्ते तैरय न विरुध्यते॥१७॥
शास्त्रोपपत्तिभ्यामवधारितत्वादद्वयात्मदशन सम्यग्दर्शनम्, तद्बाह्यत्वान्मिथ्यादर्शनमन्यत्। इतश्च मिथ्यादर्शन
द्वैतिना रागद्वेषादिदोषास्पदत्वात्। कथम् ? स्वसिद्धान्तव्यवस्थासु स्वसिद्धान्तरचनानियमेषु कपिलकणादबुद्धार्हतादिदृष्ट्यनुसारिणो द्वैतिनो निश्चिता, एवमेवैष परमार्थो नान्यथेति, तत्र तत्रानुरक्ता प्रतिपक्ष चात्मन पश्यन्तस्त द्विषन्त इत्येव रागद्वेषोपेता स्वसिद्धान्तदर्शननिमित्तमेव परस्परम्अन्योन्य विरुध्यन्ते। तैरन्योन्यविरोधिभिरस्मदीयोऽय वैदिक सर्वानन्यत्वादात्मैकत्वदर्शनपक्षो न विरुध्यते, यथा स्वहस्तपादादिभि। एव रागद्वेषादिदोषानास्पदत्वादात्मैकत्वबुद्धिरेव सम्यग्दर्शनमित्यभिप्राय।
अद्वैत परमार्थो हि द्वैत तद्भेद उच्यते।
तेषामुभयथा द्वैत तेनाय न विरुध्यते॥१८॥
केन हेतुना तैर्न विरुध्यत इत्युच्यते—अद्वैत परमार्थ, हि यस्मात् द्वैत नानात्व तस्याद्वैतस्य भेद तद्भेद, तस्य कार्यमित्यर्थ, ‘एकमेवाद्वितीयम्’ ‘तत्तेजोऽसृजत’ इति श्रुते, उपपत्तेश्च, स्वचित्तस्पन्दनाभावे समाधौ मूर्छाया सुषुप्तौ वा अभावात्। अत तद्भेद उच्यते द्वैतम्। द्वैतिना तु तेषा परमार्थतोऽपरमार्थतश्च उभयथापि द्वैतमेव, यदि च तेषा भ्रान्ताना द्वैतदृष्टि अस्माकमद्वैतदृष्टिरभ्रान्तानाम्, तेनाय हेतुना अस्मत्पक्षो न विरुध्यते तै, ‘इन्द्रो मायाभि’ ‘न
तु तद्द्वितीयमस्ति’ इति श्रुते। यथा मत्तगजारूढ उन्मत्तभूमिष्ठम्’ प्रतिगजारूढोऽह गज वाहयमा प्रति’ इति ब्रुवाणमपि त प्रति न वाहयत्यविरोधबुद्ध्या, तद्वत्। तत परमार्थतो ब्रह्मविदात्मैव द्वैतिनाम्। तेनाय हेतुना अस्मत्पक्षो न विरुध्यते तै॥
मायया भिद्यते ह्येतन्नान्यथाज कथचन।
तत्त्वतो भिद्यमाने हि मर्त्यताममृत व्रजेत्॥१९॥
द्वैतमद्वैतभेद इत्युक्ते द्वैतमप्यद्वैतवत्परमार्थसदिति स्यात्कस्यचिदाशङ्केत्यत आह—यत्परमार्थसदद्वैतम, मायया भिद्यत ह्येतत् तैमिरिकानेकचन्द्रवत् रज्जु सर्पधारादिभिर्भेदैरिव, न परमार्थत, निरवयवत्वादात्मन। सावयवह्यवयवान्यथात्वेन भिद्यते, यथा मृत घटादिभेदै। तस्मान्निरवयवमज नान्यथा कथचन, केनचिदपि प्रकारेण न भिद्यत इत्यभिप्राय। तत्त्वतो भिद्यमान हि अमृतमजमद्वय स्वभावत सत् मर्त्यता व्रजेत् यथा अग्नि शीतताम्। तच्चानिष्ट स्वभाववैपरीत्यगमनम्, सर्वप्रमाणविरोधात्। अजमद्वयमात्मतत्त्व माययैव भिद्यते, न परमार्थत। तस्मान्न परमार्थसद्द्वैतम्॥
अजातस्येव भावस्य जातिमिच्छन्ति वादिन।
अजातो ह्यमृतो भावो मर्त्यता कथमेष्यति॥२०॥
य तु पुन कचिदुपनिषद्व्यारयातारो ब्रह्मवादिनो वावदूका अजातस्यैव आत्मतत्त्वस्यामृतस्य स्वभावतो जातिम् उत्पत्तिम् इच्छन्ति परमार्थत एव, तेषा जात चेत्, तदेव मर्त्यतामेष्यत्यवश्यम्। स च अजातो ह्यमृता भाव स्वभावत सन्नात्मा कथं मर्त्यतामेष्यति ? न कथचन मर्त्यत्व स्वभाव वैपरीत्यमेष्यतीत्यथ॥
न भवत्यमृत मर्त्य न मर्त्यममृत तथा।
प्रकृतेरन्यथाभावा न कथचिद्भविष्यति॥२१॥
यस्मान्न भवति अमृत मर्त्य लोके नापि मत्यममृत तथा, तत प्रकृते स्वभावस्य अ यथाभाव स्वत प्रच्युति न कथचिद्भविष्यति, अग्नेरिवौष्ण्यस्य॥
स्वभावेनामृतो यस्य भावो गच्छति मर्त्यताम्।
कृतकेनामृतस्तस्य कथ स्थास्यति निश्चल॥२२॥
यस्य पुनर्वादिन स्वभावेन अमृतो भाव मर्त्यता गच्छति परमार्थतो जायते, तस्य प्रागुत्पत्ते स भाव स्वभावतो-
ऽमृत इति प्रतिज्ञा मृषैव। कथ तर्हि ? कृतकेनामृत तस्य स्वभाव। कृतकेनामृत स कथ स्थास्यति निश्चल ? अमृतस्वभावतया न कथचित्स्थास्यति। आत्मजातिवादिन सर्वथा अज नाम नास्त्येव। सवमेतन्मर्त्यम्, अत अनिर्मोक्षप्रसङ्ग इत्यभिप्राय॥
भूततोऽभूततो वापि सृज्यमाने समाश्रुति।
निश्चित युक्तियुक्त च यत्तद्भवति नेतरत्॥२३॥
नन्वजातिवादिन सृष्टिप्रतिपादिका श्रुतिर्न सगच्छते। बाढम, विद्यते सृष्टिप्रतिपादिका श्रुति, सा त्वन्यपरा, ‘उपाय सोऽवतारय’ इत्यवोचाम। इदानीमुक्तेऽपि परिहारे पुनश्चोद्यपरिहारौ विवक्षितार्थं प्रति सृष्टिश्रुत्यक्षराणामानुलोम्यविरोधशङ्कामात्रपरिहारार्थौ। भूतत परमार्थत सृज्यमाने वस्तुनि, अभूतत मायया वा मायाविनेव सृज्यमाने वस्तुनि समा तुल्या सृष्टिश्रुति। ननु गौणमुख्ययोर्मुख्ये शब्दार्थप्रतिपत्तिर्युक्ता, न, अन्यथासृष्टेरप्रसिद्धत्वान्निष्प्रयोजनत्वाच्च इत्यवोचाम। अविद्यासृष्टिविषयैव सर्वा गौणी मुख्या च सृष्टि, न परमार्थत, ‘सबाह्याभ्यन्तरो ह्यज’ इति श्रुते। तस्मात् श्रुत्या निश्चित यत् एक मेवाद्वितीयमजममृतमिति, युक्तियुक्त च युक्त्या च सपन्नम्,
तदेवेत्यवोचाम पूर्वैर्ग्रन्थै,तदेव श्रुत्यर्थो भवति, नेतरत्कदाचिदपि क्वचिदपि॥
नेह नानेति चाम्नायादिन्द्रो मायाभिरित्यपि।
अजायमानो बहुधा जायते मायया तु स॥२४॥
कथ श्रुतिनिश्चय इत्याह—यदि हि भूतत एव सृष्टि स्यात्, तत सत्यमेव नानावस्त्विति तद्भावप्रदर्शनार्थ आम्नाया न स्यात्, अस्ति च ‘नेह नानास्ति किंचन’ इत्याम्नायोयद्वैतभावप्रतिषेधार्थ, तस्मादात्मैकत्वप्रतिपत्त्यर्था कल्पिता सृष्टिरभूतैव प्राणसवादवत्। ‘इन्द्रो मायाभि’ इत्यभूतार्थप्रतिपादकेन मायाशब्देन व्यपदेशात्। ननु प्रज्ञावचनो मायाशब्द, सत्यम्, इन्द्रियप्रज्ञाया अविद्यामयत्वेन मायात्वाभ्युपगमाददोष। मायाभि इन्द्रियप्रज्ञाभिरविद्यारूपाभिरित्यर्थ। अजायमानो बहुधा विजायते’ इति श्रुते। तस्मात् जायते मायया तु स, शब्दोऽवधारणार्थ माययैवेति। न ह्यजायमानत्व बहुधाजन्म च एकत्र सभवति, अग्नाविव शैत्यमौष्ण्य च। फलवत्त्वाञ्चात्मैकत्वदर्शनमेव श्रुति निश्चितोऽर्थ, ‘तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत इत्यादिमन्त्रवर्णात् ‘मृत्यो स मृत्युमाप्नोति’ इति निन्दित
त्वाच्च सृष्ट्यादिभेददृष्टे॥
सभूतेरपवादाच्च सभव प्रतिषिध्यते।
को न्वेन जनयेदिति कारण प्रतिषिध्यते॥२५॥
अन्ध तम प्रविशन्ति ये सभूतिमुपासते’ इति सभूतेरुपास्यत्वापवादात्सभव प्रतिषिध्यते, न हि परमार्थसद्भूताया सभूतौ तदुपवाद उपपद्यत। ननु विनाशेन सभूते समुच्चयविधानार्थ सभूत्यपवाद, यथा ‘अन्धतम प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते’ इति। सत्यमव, देवतादर्शनस्य सभूतिविषयस्य विनाशशब्दवाच्यस्य च कर्मण समुच्चयविधानार्थसभूत्यपवाद, तथापि विनाशाख्यस्य कर्मण स्वाभाविकाज्ञानप्रवृत्तिरूपस्य मृत्योरतितरणार्थत्ववत् देवतादशनकमसमुच्चयस्य पुरुषसस्कारार्थस्य कर्मफलरागप्रवृत्तिरूपस्य साध्यसाधनैषणाद्वयलक्षणस्य मृत्यारतितरणार्थत्वम्। एव ह्येषणाद्वयरूपान्मृत्योरशुद्धेर्वियुक्त पुरुष संस्कृत स्यात्। अतो मृत्यारतितरणाथा देवतादर्शनकमसमुच्चयलक्षणा ह्यविद्या। एवमेवएषणाद्वयलक्षणाविद्याया मृत्योरतितीर्णस्य विरक्तस्योप निषच्छास्त्रार्थालोचनपरस्य नान्तरीयिका परमात्मैकत्वविद्योत्पत्तिरिति पूर्वभाविनीमविद्यामपेक्ष्य पश्चाद्भाविनी ब्रह्मवि-
द्या अमृतत्वसाधना एकेन पुरुषेण सबध्यमाना अविद्यया समुच्चीयत इत्युच्यत। अत अन्यार्थत्वादमृतत्वसाधन ब्रह्मविद्यामपेक्ष्य, निन्दार्थ एव भवति सभूत्यपवाद यद्यप्यशुद्धिवियोगहेतु अतन्निष्ठत्वात्। अत एव सभूतेरपवादात्सभूतेरापेक्षिकमेव सत्त्वमिति परमार्थसदात्मैकत्वमपेक्ष्य अमृतारय सभव प्रतिषिध्यते। एव मायानिर्मितस्यैव जीवस्य अविद्यया प्रत्युपस्थापितस्य अविद्यानाशे स्वभावरूपत्वात्परमार्थत को न्वेन जनयेत् ? न हि रज्ज्वामविद्याध्यारोपित सर्पं पुनर्विवेकतो नष्ट जनयेत्कश्चित्, तथा न कश्चिदेन जनयेदिति। को न्वित्याक्षेपार्थत्वात्कारण प्रतिषिध्यते। अविद्योद्भूतस्य नष्टस्य जनयितृकारण न किचितस्तीत्यभिप्राय, ‘नाय कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्’ इति श्रुते॥
स एष नेति नेतीति व्याख्यात निह्नुते यत।
सर्वमग्राह्यभावेन हेतुनाज प्रकाशते॥२६॥
सर्वविशेषप्रतिषेधेन ‘अथात आदेशा नेति नेति’ इति प्रतिपादितस्यात्मनो दुर्बोधत्व मन्यमाना श्रुति पुन पुनरुपायान्तरत्वेन तस्यैव प्रतिपिपादयिषया यद्यद्व्याख्यात तत्सर्वं निह्रुते। ग्राह्य जनिमद्बुद्धिविषयमपलपत्यर्थात् ‘स एष
नेति नेति’ इत्यात्मनोऽदृश्यता दर्शयन्ती श्रुति। उपायस्योपेयनिष्ठतामजानत उपायत्वेन व्याख्यातस्य उपेयवद्ग्राह्यता मा भूदिति अग्राह्यभावेन हेतुना कारणेन निह्नुत इत्यर्थ। ततश्चैवमुपायस्योपेयनिष्ठतामेव जानत उपेयस्य च नित्यैकरूपत्वमिति तस्य सबाह्याभ्यन्तरमजमात्मतत्त्व प्रकाशते स्वयमेव॥
सतो हि मायया जन्म युज्यते न तु तत्त्वत।
ततो जायते यस्य जात तस्य हि जायते॥२७॥
एव हि श्रुतिवाक्यशतै सबाह्याभ्यन्तरमजमात्मतत्त्वमद्वय न ततोऽन्यदस्तीति निश्चितमेतत्। युक्त्या चाधुनैतदेव पुनर्निर्धार्यत इत्याह—तत्रैतत्स्यात् सदा अग्राह्यमेव चेदसदेवात्मतत्त्वमिति, तन्न, कार्यग्रहणात्। यथा सतो मायाविन मायया जन्म कार्यम्, एव जगतो जन्म कार्य, गृह्यमाण मायाविनमिव परमार्थसन्तमात्मान जगज्जन्म मायास्पदमेव गमयति। यस्मात् सतो हि विद्यमानात्कारणात् मायानिर्मितस्य हस्त्यादिकार्यस्येव जगज्जन्म युज्यते, नासत कारणात्। न तु तत्त्वत एव आत्मनो जन्म युज्यते। अथवा, सत विद्यमानस्य वस्तुनो रज्ज्वादे सर्पादिवत् मायया जन्म युज्यते न तु तत्त्वतो यथा, तथा अग्राह्यस्यापि
सत एवात्मनो रज्जुसर्पवज्जगद्रूपेण मायया जन्म न तु तत्त्वत एवाजस्यात्मनो जन्म। यस्य पुन परमार्थसदजमात्मतत्त्व जगद्रूपेण जायते वादिन न हि तस्य अज जायत इति शक्य वक्तुम्, विरोधात्। तत तस्यार्थाज्जात जायत इत्यापन्नम्। ततश्चानवस्थापाताज्जायमानत्व न। तस्मादजमेकमेवात्मतत्त्वमिति सिद्धम्॥
असतो मायया जन्म तत्त्वतो नैव युज्यते।
वन्ध्यापुत्रो न तत्त्वेन मायया वापि जायते॥२८॥
असद्वादिनाम् असतो भावस्य मायया तत्त्वतो वा न कथचन जन्म युज्यते, अदृष्टत्वात्। न हि वन्ध्यापुत्रो मायया तत्त्वतो वा जायते। तस्मादत्रासद्वादो दूरत एवानुपपन्न इत्यर्थ॥
यथा स्वप्ने द्वयाभास स्पन्दते मायया मन।
तथा जाग्रद्द्वयाभास स्पन्दते मायया मनः॥२९॥
कथ पुन सतो माययैव जन्मेत्युच्यते— यथा रज्ज्वा विकल्पित सर्पोरज्जुरूपेणावेक्ष्यमाण सन्, एव मन परमात्मविज्ञप्त्यात्मरूपणावेक्ष्यमाण सत् ग्राह्यग्राहकरूपेण द्वयाभास स्पन्दते स्वप्न मायया रज्ज्वामिव सर्प, तथा तद्व
देव जाग्रत् जागरिते स्पन्दते मायया मन, स्पन्दत इवेत्यर्थ॥
अद्वय च द्वयाभासमन स्वप्ने न सशय।
अद्वयं च द्वयाभास तथा जाग्रन्न संशय॥३०॥
रज्जुरूपेण सर्प इव परमार्थत आत्मरूपेण अद्वय सत् द्वयाभास मन स्वप्ने, न सशय। न हि स्वप्ने हस्त्यादि ग्राह्य तद्ग्राहक वा चक्षुरादि, द्वय विज्ञानव्यतिरेकेणास्ति, जाग्रदपि तथैवेत्यर्थ, परमार्थसद्विज्ञानमात्राविशेषात्॥
मनोदृश्यमिद द्वैत यत्किंचित्सचराचरम्।
मनसो ह्यमनीभावे द्वैत नैवोपलभ्यते॥३१॥
रज्जुसर्पवद्विकल्पनारूप द्वैतरूपेण मन एवेत्युक्तम्। तत्र किं प्रमाणमिति, अन्वयव्यतिरेकलक्षणमनुमानमाह। कथम्?तेन हि मनसा विकल्प्यमानेन दृश्य मनोदृश्यम् इद द्वैत सर्वं मन इति प्रतिज्ञा, तद्भावे भावात् तदभावे चाभावात्। मनसो हि अमनीभावे निरुद्धे विवेकदर्शनाभ्यासवैराग्याभ्या रज्ज्वामिव सर्पे लय गते वा सुषुप्ते द्वैत नैवोपलभ्यत इति अभावात्सिद्ध द्वैतस्यासत्त्वमित्यर्थ॥
आत्मसत्यानुबोधेन न सकल्पयते यदा।
अमनस्तां तदा याति ग्राह्याभावे तदग्रहम्॥३२॥
कथ पुनरयममनीभाव इत्युच्यते—आत्मैव सत्यमात्मसत्यम्, मृत्तिकावत्, वाचारम्भण विकारा नामधय मृत्तिकेत्येव सत्यम्’ इति श्रुते। तस्य शास्त्राचार्योपदेशमन्ववबोध आत्मसत्यानुबोध। तेन सकल्प्याभावात्तन्न सकल्पयते दाह्याभावे ज्वलनमिवाग्ने यदा यस्मिन्काले, तदा तस्मिन्काले अमनस्ताम अमनोभाव याति ग्राह्याभावे तत् मन अग्रह ग्रहणविकल्पनावर्जितमित्यर्थ॥
अकल्पकमज ज्ञान ज्ञेयाभिन्न प्रचक्षते।
ब्रह्म ज्ञेयमज नित्यमजेनाज विबुध्यते॥३३॥
यद्यसहिद द्वैतम्, केन समञ्जसमात्मतत्त्व विबुध्यत इति, उच्यते—अकल्पक सर्वकल्पनावर्जितम्, अत एव अज ज्ञान ज्ञप्तिमात्र ज्ञेयेन परमार्थसता ब्रह्मणा अभिन्न प्रचक्षते कथयन्ति ब्रह्मविद। ‘न हि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यते’ अग्न्युष्णवत्, ‘विज्ञानमानन्द ब्रह्म’ ‘सत्य ज्ञानमनन्त ब्रह्म’ इत्यादिश्रुतिभ्य। तस्यैव विशेषणम्—ब्रह्मज्ञेय यस्य, स्वस्थ तदिद ब्रह्म ज्ञेयम औष्ण्यस्येवाभिवद्भिन्नम्,तेन आत्मस्वरूपेण अजेन ज्ञानेन अज ज्ञेयमात्मतत्त्व स्वयमेव विबुध्यते अवगच्छति। नित्यप्रकाशस्वरूप इव सविता नित्यविज्ञानैकरसघनत्वान्न ज्ञानान्तरमपेक्षत इत्यर्थ॥
निगृहीतस्य मनसो निर्विकल्पस्य धीमत।
प्रचारः स तु विज्ञेय सुषुप्तेऽन्यो न तत्सम॥३४॥
आत्मसत्यानुबोधेन सकल्पमकुर्वत् बाह्यविषयाभावे निरिन्धनाग्निवत्प्रशान्त सत् निगृहीत निरुद्ध मनो भवतीत्युक्तम्। एव च मनसो ह्यमनीभावे द्वैताभावश्चोक्त। तस्यैव निगृहीतस्य निरुद्धस्य मनस निर्विकल्पस्य सर्वकल्पनावर्जितस्य धीमत विवेकवत प्रचरण प्रचारो य, स तु प्रचार विशेषेण ज्ञेयो विज्ञेयो योगिभि। ननु सर्वप्रत्ययाभावे यादृश सुषुप्तिस्थस्य मनस प्रचार, तादृशे एव निरुद्धस्यापि, प्रत्ययाभावाविशेषात्, कि तत्र विज्ञेयमिति। अत्राच्यते—नैवम्, यस्मात्सुषुप्तेअन्य प्रचारोऽविद्यामोहतमोग्रस्तस्य अन्तर्लीनानेकानर्थप्रवृत्तिबीजवासनावतो मनस आत्मसत्यानु बोधहुताशविप्लुष्टाविद्याद्यनर्थप्रवृत्तिबीजस्य निरुद्धस्य अन्य एव प्रशान्तसर्वक्लेशरजस स्वतन्त्र प्रचार। अतो न तत्सम। तस्माद्युक्त स विज्ञातुमित्यभिप्राय॥
लीयते हि सुषुप्तौ तन्निगृहीत न लीयते।
तदेव निर्भय ब्रह्म ज्ञानालोक समन्तत॥३५॥
प्रचारभेदे हेतुमाह—लीयते सुषुप्तौ हि यस्मात्सर्वाभिर-
विद्यादिप्रत्ययबीजवासनाभि सह तमोरूपम् अविशेषरूप बीजभावमापद्यते तद्विवेकविज्ञानपूर्वक निगृहीत निरुद्ध सत न लीयते तमोबीजभाव नापद्यते। तस्माद्युक्त प्रचारभेद सुषुप्तस्य समाहितस्य मनस। यदा ग्राह्यग्राहकाविद्याकृतमलद्वयवर्जितम्, तदा परमद्वय ब्रह्मैव तत्सवृत्तमित्यत तदेव निर्भयम्, द्वैतग्रहणस्य भयनिमित्तस्याभावात्। शान्तमभय ब्रह्म यद्विद्वान्न बिभेति कुतश्चन। तदेव विशेष्यते— ज्ञप्तिर्ज्ञानम् आत्मस्वभावचैतन्यम्, तदेव ज्ञानमालोक प्रकाशो यस्य तद्ब्रह्म ज्ञानालोक विज्ञानैकरसधनमित्यर्थ। समन्तत समन्तात्, सर्वतो व्योमवन्नैरन्तर्येण व्यापकमित्यर्थ॥
अजमनिद्रमस्वप्नमनामकमरूपकम्।
सकृद्विभात सर्वज्ञ नोपचार कथचन॥३६॥
जन्मनिमित्ताभावात्सबाह्याभ्यन्तरम् अजम्, अविद्यानिमित्त हि जन्म रज्जुसर्पवदित्यवोचाम। सा चाविद्या आत्मसत्यानुबोधेन निरुद्धा यत, अत अजम्, अत एव अनिद्रम अविद्यालक्षणानादिर्मायानिद्रास्वापात्प्रबुद्धम्अद्वयस्वरूपेणात्मना, अत अस्वप्नम्। अप्रबोधकृते ह्यस्य नामरूपे, प्रबोधाश्च ते रज्जुसर्पवद्विनष्टे। न नाम्नाभिधीयते ब्रह्म, रूप्य
ते वा न केनचित्प्रकारेण इति अनामकम अरूपक च तत, ‘यतो वाचो निवर्तन्ते’ इत्यादिश्रुते। किंच, सकृद्विभात सदैव विभात सदा भारूपम्, अग्रहणान्यथाग्रहणाविर्भावतिरोभाववर्जितत्वात्। ग्रहणाग्रहण हि रात्र्यहनी, तमश्चाविद्यालक्षण सदा अप्रभातत्वेकारणम्, तदभावान्नित्यचैतन्य भारूपत्वाच्च युक्त सकृद्विभातमिति। अत एव सर्वंच तत्ज्ञप्तिस्वरूप चेति सर्वज्ञम्। नेह ब्रह्मण्येवविधे उपचरणमुपचार कर्तव्य यथा अन्येषामात्मस्वरूपव्यतिरेकेण समाधानाद्युपचार। नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावत्वाद्ब्रह्मण कथचन न कथचिदपि कर्तव्यसभव अविद्यानाशे इत्यर्थ॥
सर्वाभिलापविगत सर्वचिन्तासमुत्थित।
सुप्रशान्त सकृज्ज्योति समाधिरचलोऽभय॥
अनामकत्वायुक्तार्थसिद्धये हेतुमाह—अभिलप्यते अनेनेति अभिलाप वाक्करण सर्वप्रकारस्याभिधानस्य, तस्माद्विगत, वागत्रोपलक्षणार्था, सर्वबाह्यकरणवर्जित इत्येतत्। तथा, सर्वचिन्तासमुत्थित, चिन्त्यते अनयेति चिन्ता बुद्धि, तस्या समुत्थित, अन्त करणविवर्जित इत्यर्थ, ‘अप्राणो ह्यमना शुभ्र’ ‘अक्षरात्परत पर’ इत्यादिश्रुते। यस्मात्सर्वविषयवर्जित, अत सुप्रशान्त। सकृज्ज्योति सदैव ज्योति आ-
त्मचैतन्यस्वरूपेण। समाधि समाधिनिमित्तप्रज्ञावगम्यत्वात्,समाधीयते अस्मिन्निति वा समाधि। अचल अविक्रिय। अत एव अभय विक्रियाभावात्॥
ग्रहो न तत्र नोत्सर्गश्चिन्ता यत्र न विद्यते।
आत्मसस्थ तदा ज्ञानमजाति समता गतम्॥३८॥
यस्माद्ब्रह्मैव ‘समाधिरचलोऽभय’ इत्युक्तम्, अत न तत्र तस्मिन्ब्रह्मणि ग्रह ग्रहणमुपादानम्, न उत्सर्ग उत्सर्जन हान वा विद्यते। यत्र हि विक्रिया तद्विषयत्व वा, तत्र हानोपादाने स्याताम्, न तद्द्वयमिह ब्रह्मणि सभवति, बिकारहेतारन्यस्याभावान्निरवयवत्वाच्च, अतो न तत्र हानोपादाने सभवत। चिन्ता यत्र न विद्यते, सर्वप्रकारैव चिन्ता न सभवति यत्र अमनस्त्वात्, कुतस्तत्र हानोपादाने इत्यर्थ। यदैव आत्मसत्यानुबोधो जात, तदैव आत्मसस्थ विषया भावादग्न्युष्णवदात्मन्येव स्थित ज्ञानम, अजाति जातिवर्जितम्, समता गतम् पर साम्यमापन्न भवति। यदादौ प्रतिज्ञातम् ‘अतो वक्ष्याम्यकार्पण्यमजाति समता गतम्’ इति, इद तदुपपत्तित शास्त्रतश्चोक्तमुपसह्रियते—अजाति समता गतमिति। एतस्मादात्मसत्यानुबोधात्कार्पण्यविषयमन्यत्, यो वा एतदक्षर गार्ग्यविदित्वास्माल्लाकात्प्रैति
स कृपण’ इति श्रुते। प्राप्यैतत्सर्व कृतकृत्यो ब्राह्मणो भवतीत्यभिप्राय॥
अस्पर्शयोगो वै नाम दुर्दर्श सर्वयोगिणाम्।
योगिनो बिभ्यति ह्यस्मादभये भयदर्शिन॥३९॥
यद्यपीदमित्थ परमार्थतत्त्वम्, अस्पर्शयोगो नाम अय सर्वसबन्धारयस्पर्शवर्जितत्वात् अस्पर्शयोगो नाम वै स्मर्यते प्रसिद्ध उपनिषत्सु। दुःखेन दृश्यत इति दुर्दर्श सर्वयोगिणाम् वेदान्तविज्ञानरहितानाम्, आत्मसत्यानुबोधायासलभ्य एवेत्यर्थ। योगिन बिभ्यति हि अस्मात्सर्वभयवर्जितादपि आत्मनाशरूपमिम योग मन्यमाना भय कुवन्ति, अभये अस्मिन् भयदर्शिन भयनिमित्तात्मनाशदर्शनशीला अविवेकिन इत्यर्थ॥
मनसो निग्रहायत्तमभयं सर्वयोगिणाम्।
दुःखक्षय प्रबोधश्चाप्यक्षया शान्तिरेव च॥४०॥
येषा पुनर्ब्रह्मस्वरूपव्यतिरेकेण रज्जुसर्पवत्कल्पितमेव मन इन्द्रियादि च न परमार्थतो विद्यते, तेषा ब्रह्मस्वरूपाणाम् भय मोक्षाख्या च अक्षया शान्ति स्वभावत एव सिद्धा, नान्यायत्ता, ‘नोपचार कथचन’ इत्युक्ते, ये त्वतोऽन्ये
योगिनो मार्गगा हीनमध्यमदृष्टयो मनोऽन्यदात्मव्यतिरिक्तमात्मसबन्धि पश्यन्ति, तेषामात्मसत्यानुबोधरहिताना मनसो निग्रहायत्तमभय सर्वेषा योगिनाम्। किंच, दुःखक्षयोऽपि। न ह्यात्मसबन्धिनि मनसि प्रचलिते दुःखक्षयोऽस्त्यविवेकिनाम्। किंच, आत्मप्रबोधोऽपि मनोनिग्रहायत्त एव। तथा, अक्षयापि मोक्षाख्या शान्तिस्तेषा मनोनि ग्रहायत्तैव॥
उत्सेक उदधेर्यद्वत्कुशाग्रेणैकबिन्दुना।
मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदत॥४१॥
मनोनिग्रहोऽपि तेषाम् उदधे कुशाग्रण एकबिन्दुना उत्सेचनेन शोषणव्यवसायवत् व्यवसायवतामनवसन्नान्तकरणानामनिर्वेदात् अपरिखेदत भवतीत्यर्थ॥
उपायेन निगृह्णीयाद्विक्षिप्त कामभोगयोः।
सुप्रसन्न लये चैव यथा कामो लयस्तथा॥४२॥
किमपरिखिन्नव्यवसायमात्रमेव मनोनिग्रहे उपाय ? नेत्युच्यते, अपरिखिन्नव्यवसायवान्सन्, वक्ष्यमाणेनोपायन कामभोगविषयेषु विक्षिप्त मनो निगृह्णीयात् निरुन्ध्यादात्मन्येवेत्यर्थ। किंच लीयतेऽस्मिन्निति सुषुप्तो लय, तस्मिन्
लय च सुप्रसन्नम् आयासवर्जितमपीत्येतत्, निगृह्णीयादित्यनुवर्तते। सुप्रसन्न चेत्कस्मान्निगृह्यत इति, उच्यते, यस्मात् यथा काम अनर्थहेतु, तथा लयोऽपि, अत कामविषयस्य मनसो निग्रहबल्लयादपि निराद्धव्यत्वमित्यर्थ॥
दुःखं सर्वमनुस्मृत्य कामभोगान्निवर्तयेत्।
अज सर्वमनुस्मृत्य जात नैव तु पश्यति॥४३॥
क स उपाय इति, उच्यते— सर्वं द्वैतमविद्याविजृम्भित दुःखमेव इत्यनुस्मृत्य कामभागात् कामनिमित्ता भोग इच्छाविषय तस्मात् विप्रसृत मनो निवर्तयेत् वैराग्यभावनयेत्यर्थ। अज ब्रह्म सर्वम् इत्येतच्छास्त्राचार्योपदेशत अनुस्मृत्य तद्विपरीत द्वैतजात नैव तु पश्यति अभावात्॥
लये सबोधच्चित्त विक्षिप्त शमयेत्पुन।
सकषाय विजानीयात्समप्राप्त न चालयेत्॥४४॥
एवमनेन ज्ञानाभ्यासवैराग्यद्वयोपायन लय सुषुप्त लीन सबोधयेत् मन आत्मविबेकदर्शनेन योजयत्। चित्त मन इत्यनर्थान्तरम्। विक्षिप्त च कामभागेषु शमयेत्पुन। एव पुन पुनरभ्यासता लयात्सबोधित विषयेभ्यश्चव्यावर्तितम्, नापि साम्यापन्नमन्तरालावस्थ सकषाय सराग बीजसयुक्त
मन इति विजानीयात्। ततोऽपि यत्नत साम्यमापादयेत्। यदा तु समप्राप्त भवति, समप्राप्त्यभिमुखीभवतीत्यर्थ, तत तत् न चालयेत्, विषयाभिमुख न कुर्यादित्यथ॥
नास्वादयेत्सुख तत्र निसङ्ग प्रज्ञया भवेत्।
निश्चल निश्चरश्चित्तमेकीकुर्यात्प्रयत्नत॥४५॥
समाधित्सतो योगिनो यत्सुख जायते, तत् नास्वादयेत्तत्र न रज्येतेत्यर्थ। कथ तर्हि ? निःसङ्ग निस्पृह प्रज्ञया विवेकबुद्ध्या यदुपलभ्यते सुराम, तदविद्यापरिकल्पित मृषैवेति विभावयेत्, तताऽपि सुखरागान्निगृह्णीयादित्यर्थ। यदा पुन सुखरागान्निवृत्त निश्चलस्वभाव सत् निश्चरत्बहिर्निगन्छद्भवति चित्तम्, ततस्तता नियम्य उक्तोपायेन आत्मन्यव एकीकुर्यात प्रयत्नत। चित्स्वरूपसत्तामात्रमेवापादयेदित्यथ॥
यदा न लीयते चित्त न च विक्षिप्यते पुन।
अनिङ्गनमनाभास निष्पन्न ब्रह्म तत्तदा॥४६॥
यथोक्तेनोपायेन निग्रहीत चित्त यदा सुषुप्ते न लीयते, न च पुनर्विषयेषु विक्षिप्यते, अनिङ्गनम् अचल निवातप्रदी
पकल्पम्, अनाभास न केनचित्कल्पितेन विषयभावेनावभासते इति, यदा एवलक्षण चित्तम्, तदा निष्पन्न ब्रह्म, ब्रह्मस्वरूपेण निष्पन्न चित्त भवतीत्यर्थ॥
स्वस्थ शान्त सनिर्वाणमकथ्य सुखमुत्तमम्।
अजमजेन ज्ञेयेन सर्वज्ञ परिचक्षते॥४७॥
यथोक्त परमाथसुखमात्मसत्यानुबोधलक्षण स्वस्थ स्वात्मनि स्थितम्, शान्त सर्वानर्थोपशमरूपम्, सनिर्वाणम्, निर्वृतिर्निर्वाण कैवल्यम्, सह निवाणेन वर्तते, तच्च अकथ्य न शक्यते कथयितुम्, अत्यन्तासाधारणविषयत्वात्, सुखमुत्तम निरतिशय हि तद्योगिप्रत्यक्षमेव, न जातमिति यथा विषयविषयम्, अजेन अनुत्पन्नेन ज्ञेयेन अव्यतिरिक्त सत् स्वेन सर्वज्ञरूपेण सर्वज्ञ ब्रह्मैव सुख परिचक्षते कथयन्ति ब्रह्मविद॥
न कश्चिज्जायते जीव सभवोऽस्य न विद्यते।
एतत्तदुत्तम सत्य यत्र किंचिन्न जायते॥४८॥
सर्वोऽप्यय मनोनिग्रहादि मृल्लोहादिवत्सृष्टिरुपासना च उक्ता परमार्थस्वरूपप्रतिपत्त्युपायत्वेन, न परमार्थसत्येति। परमार्थसत्य तु न कश्चिज्जायत जीव कर्ता भोक्ता च नोत्प-
द्यत केनचिदपि प्रकारण। अतस्वभावत अजस्य अस्यएकस्यात्मन सभव कारण न विद्यते नास्ति। यस्मान्न विद्यतेऽस्य कारणम्, तस्मान्न कश्चिज्जायते जीव इत्येतत्। पूर्वेषूपायत्वेनोक्ताना सत्यानाम् एतत् उत्तम सत्य यस्मिन्सत्यस्वरूपे ब्रह्मणि अणुमात्रमपि किंचिन्न जायते इति॥
इति तृतीयमद्वैतप्रकरण सपूर्णम्॥
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अलातशान्तिप्रकरणम्॥
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ज्ञानेनाकाशकल्पेन धर्मान्यो गगनोपमान्।
ज्ञेयाभिन्नेन सबुद्धस्त वन्दे द्विपदा वरम्॥१॥
ओंकारनिर्णयद्वारेण आगमत प्रतिज्ञातस्याद्वैतस्य बाह्य विषयभदवैतथ्याच्च सिद्धस्य पुनरद्वैते शास्त्रयुक्तिभ्या साक्षान्निर्धारितस्य एतदुत्तम सत्यमित्युपसहार कृतोऽन्ते। तस्यैतस्यागमार्थस्य अद्वैतदर्शनस्य प्रतिपक्षभूता द्वैतिना वैनाशिकाश्च। तेषा चान्योन्यविरोधाद्रागद्वेषादिक्लेशाम्पद दर्शनमिति मिथ्यादर्शनत्व सूचितम्, क्लेशानास्पदत्वात्सम्यग्दर्शनमित्यद्वैतदर्शनस्तुतये। तदिह विस्तरेणान्योन्यविरुद्धतया असम्यग्दर्शनत्व प्रदर्श्य तत्प्रतिषेधेनाद्वैतदर्शनसिद्धिरुपसहर्तव्या आवीतन्यायेनेत्यलातशान्तिप्रकरणमारभ्यते। तत्राद्वैतदर्शनसप्रदायकतुरद्वैतस्वरूपेणैव नमस्कारार्थोऽयमाद्यश्लोक। आचार्यपूजा हि अभिप्रेतार्थसिद्ध्यर्थेष्यते शास्त्रारम्भे। आकाशेन ईषदसमाप्तमाकाशकल्पमाकाशतुल्यमित्येतत्। तेन आकाशकल्पेन ज्ञानेन। किम् ? धर्मानात्मन। किंविशिष्टान् ? गगनोपमान्
गगनमुपमा येषा ते गगनोपमा तानात्मनो धर्मान्। ज्ञानस्यैव पुनर्विशेषणम्—ज्ञेयैर्धर्मैरात्मभिरभिन्नम् अग्न्युष्णवत् सवितृप्रकाशवञ्च यत् ज्ञानम्, तेन ज्ञेयाभिन्नेन ज्ञानेन आकाशकल्पेन ज्ञेयात्मस्वरूपाव्यतिरिक्तेन, गगनोपमान्धर्मान्य स बुद्ध सबुद्धवान्नित्यमेव इश्वरा यो नारायणाख्य त वन्दे अभिवादये। द्विपदा वर द्विपदोपलक्षिताना पुरुषाणा वर प्रधानम्, पुरुषोत्तममित्यभिप्राय। उपदेष्टृनमस्कारमुखेन ज्ञानज्ञेयज्ञातृभेदरहित परमार्थतत्वदर्शनमिह प्रकरणे प्रतिपिपादयिषित प्रतिपक्षप्रतिषेधद्वारेण प्रतिज्ञात भवति॥
अस्पर्शयोगो वै नाम सर्वसत्त्वसुखो हित।
अविवादोऽविरुद्धश्च देशितस्त नमाम्यहम्॥२॥
अधुना अद्वैतदर्शनयोगस्य नमस्कार तत्स्तुतये— स्पर्शन स्पर्श सबन्धो न विद्यते यस्य योगस्य केनचित्कदाचिदपि, स अस्पर्शयोग ब्रह्मस्वभाव एव वै नामेति, ब्रह्मविदामस्पशयोग इत्येव प्रसिद्ध इत्यर्थ। स च सर्वसत्त्वसुखो भवति। कश्चिदत्यन्तसुखसाधनविशिष्टोऽपि दुखस्वरूप, यथा तप। अय तु न तथा । किं तर्हि ? सर्वसत्त्वाना सुख। तथा इह भवति कश्चिद्विषयोपभोग सुखो न हित, अय तु सुखो हितश्च नित्यमप्रचलितस्वभावत्वात्।
कि च अविवाद, विरुद्ध वदन विवाद पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहेण यस्मिन्न विद्यते स अविवाद। कस्मात् ? यत अविरुद्धश्च, य ईदृशो योग देशित उपदिष्ट शास्त्रेण, त नमाम्यह प्रणमामीत्यर्थ॥
भूतस्य जातिमिच्छन्ति वादिन केचिदेव हि।
अभूतस्यापरे धीरा विवदन्तः परस्परम्॥३॥
कथ द्वैतिन परस्पर विरुध्यन्त इति, उच्यते— भूतस्य विद्यमानस्य वस्तुन जातिम् उत्पत्तिम् इच्छन्ति वादिन केचिदेव हि सारया, न सर्व एव द्वैतिन। यस्मात् अभूतस्य अविद्यमानस्य अपरे वैशेषिका नैयायिकाश्च धीरा धीमन्त, प्राज्ञाभिमानिन इत्यर्थ। विवदन्त विरुद्ध वदन्तो हि अन्योन्यमिच्छन्ति जेतुमित्यभिप्राय॥
भूत न जायते किंचिदभूत नैव जायते।
विवदन्तोऽद्वया ह्येवमजातिं ख्यापयन्ति ते॥४॥
तैरेव विरुद्धवदनेन अन्योन्यपक्षप्रतिषेध कुर्वद्भि किं ख्यापित भवतीति, उच्यते— भूत विद्यमान वस्तु न जायते किंचिद्विद्यमानत्वादेव आत्मवत् इत्येव वदन असद्वादी साख्यपक्ष प्रतिषेधति सज्जन्म। तथा अभूतम् अविद्यमा
नम अविद्यमानत्वान्नैव जायते शशविषाणवत् इत्येव वदन्साख्योऽपि असद्वादिपक्षमसज्जन्म प्रतिषेधति। विवदन्त विरुद्ध वदन्त अद्वया अद्वैतिनो ह्येते अन्योन्यस्य पक्षौ सद सतोर्जन्मनी प्रतिषेधन्त अजातिम अनुत्पत्तिमर्थात्ख्यापयन्ति प्रकाशयन्ति ते॥
ख्याप्यमानामजातिं तैरनुमोदामहे वयम्।
विवदामो तै सार्धमविवाद निबोधत॥५॥
तैरव ख्यप्यमानामजातिम एवमस्तु इति अनुमोदामहे केवलम, न तै सार्ध विवदाम पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहेण यथा ते अन्योन्यमित्यभिप्राय। अत तम् अविवाद विवादरहित परमार्थदर्शनमनुज्ञातमस्माभि निबोधत हे शिष्या॥
अजातस्यैव धर्मस्य जातिमिच्छन्ति वादिन।
अजातो तो धर्मो मर्त्यतां कथमेष्यति॥६॥
सदसद्वादिन सर्वे। अय तु पुरस्तात्कृतभाष्य श्लोक॥
न भवत्यमृत मर्त्य न मर्त्यममृत तथा।
प्रकृतेरन्यथाभावो न कथचिद्भविष्यति॥७॥
स्वभावेनामृतो यस्य धर्मो गच्छति मर्त्यतात्।
कृतकेनामृतस्तस्य कथ स्थास्यति निश्चल॥८॥
उक्तार्थाना श्लोकानामिहोपन्यास परवादिपक्षाणामन्योन्यविरोधरयापितानुत्पत्त्यामोदनप्रदर्शनार्थ॥
सांसिद्धिकी स्वाभाविकी सहजा अकृता च या।
प्रकृति सेति विज्ञेया स्वभाव न जहाति या॥९॥
यस्माल्लौकिक्यपि प्रकृतिर्न विपर्येति, कासावित्याह—सम्यक्सिद्धि ससिद्धि, तत्र भवा सासिद्धिकी, यथा योगिना सिद्धानामणिमाद्यैश्वर्यप्राप्ति प्रकृति, सा भूतभविष्यत्कालयोरपि योगिना न विपर्येति। तथैव सा। स्वाभाविकी द्रव्यस्वभावत एव सिद्धा, यथा अग्न्यादीनामुष्णप्रकाशादिलक्षणा। सापि न कालान्तरे व्यभिचरति देशान्तरे वा, तथा सहजा आत्मना सहैव जाता, यथा पक्ष्यादीनामाकाशगमनादिलक्षणा। अन्यापि या काचित् अकृता केनचिन्न कृता, यथा अपा निम्नदेशगमनादिलक्षणा। अन्यापि या काचित्स्वभाव न जहाति, सा सर्वा प्रकृतिरिति विज्ञेया लोके। मिथ्या कल्पितेषु लौकिकेष्वपि वस्तुषु प्रकृतिर्नान्यथा भवति, किमुत अजस्वभावेषु परमार्थवस्तुषु ? अमृतत्वलक्षणा प्रकृतिर्नान्यथा भवेदित्यभिप्राय॥
जरामरणनिर्मुक्ता सर्वे धर्मा स्वभावत।
जरामरणमिच्छन्तश्च्यवन्ते तन्मनीषया॥१०॥
किंविषया पुन सा प्रकृति, यस्या अन्यथाभावो वादिभि कल्प्यते ? कल्पनाया वा को दोष इत्याह—निर्मुक्ता जरामरणादिसर्वविक्रियावर्जिता इत्यर्थ। क ? सर्वे धर्मा सर्वे आत्मान इत्येतत्। स्वभावत प्रकृतित एव। अत एवस्वभावा सन्तो धर्मा जरामरणमिच्छन्त इवेच्छन्त रज्ज्वामिव सर्पमात्मनि कल्पयन्त च्यवन्त, स्वभावतश्चलन्तीत्यर्थ। तन्मनीषया जरामरणचिन्तया तद्भावभावितत्वदोषेणेत्यथ॥
कारण यस्य वै कार्य कारण तस्य जायते।
जायमान कथमज भिन्न नित्य कथ च तत्॥
कथ सज्जातिवादिभि साख्यैरनुपपन्नमुच्यते इति, आह वैशेषिक—कारण मृदुपादानलक्षण यस्य वादिन वै काव्यम,कारणमेव कार्याकारेण परिणमते यस्य वादिन इत्यर्थ। तस्य अजमेव सत् प्रधानादि कारण महदादिकार्यरूपेण जायत इत्यर्थ। महदाद्याकारेण चेज्जायमान प्रधानम्, कथमजमुच्यते तै? विप्रतिषिद्ध चेदम—जायते अज चेति।
नित्य च तैरुच्यते। प्रधान भिन्न विदीर्णम्, स्फुटितमेकदशेन सत् कथ नित्य भवेदित्यर्थ। न हि सावयव घटादि एकदेशेन स्फुटनधर्मि नित्य दृष्ट लोके इत्यर्थ। विदीर्णं च स्यादेकदेशेनाज नित्य चेत्येतत् विप्रतिषिद्ध तैरभिधीयत इत्यभिप्राय॥
कारणाद्यद्यनन्यत्वमत कार्यमन तव।
जायमानाद्धि वै कार्यात्कारण ते कथ ध्रुवम्॥१२॥
उक्तस्यैवार्थस्य स्पष्टीकरणार्थमाह—कारणात् अजात् कार्यस्य यदि अनन्यत्वमिष्ट त्वया, तत कार्यमप्यजमिति प्राप्तम्। इद चान्यद्विप्रतिषिद्ध कार्यमज चेति तव। किंचान्यत्, कार्यकारणयोरनन्यत्वे जायमानाद्धि वै कार्यात् कारणम् अनन्यन्नित्य ध्रुव च ते कथ भवेत्? न हि कुक्कुट्या एकदेश पच्यत, एकदेश प्रसवाय कल्प्यते॥
अजाद्वै जायते यस्य दृष्टान्तस्तस्य नास्ति वै।
जाताच्च जायमानस्य न व्यवस्था प्रसज्यते॥१३॥
किंचान्यत्, यत् अजात् अनुत्पन्नाद्वस्तुन जायते यस्य वादिन कायम्, दृष्टान्त तस्य नास्ति वै, दृष्टान्ताभावे अर्थादजान्न किंचिज्जायते इति सिद्ध भवतीत्यर्थ। यदा पुन
जातात् जायमानस्य वस्तुन अभ्युपगम, तदपि अन्यस्माज्जातात्तदप्यन्यस्मादिति न व्यवस्था प्रसज्यते। अनवस्था स्यादित्यर्थ॥
हेतोरादि फल येषामादिर्हेतु फलस्य च।
हेतो फलस्य चानादि कथ तैरुपवर्ण्यते॥१४॥
‘यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्’ इति परमार्थतो द्वैताभाव श्रुत्योक्त, तमाश्रित्याह—हेतो धर्मादे आदि कारण देहादिसघात फल येषा वादिनाम, तथा आदि कारण हेतुर्धर्मादि फलस्य च देहादिसघातस्य, एव हेतुफलयोरितरेतरकायकारणत्वेन आदिमत्त्व ब्रुवद्भिएव हेतो फलस्य च अनादित्व कथ तैरुपवर्ण्यते विप्रतिषिद्धमित्यर्थ। न हि नित्यस्य कूटस्थस्यात्मनो हेतुफलात्मकता सभवति॥
हेतोरादिः फल येषामादिर्हेतु फलस्य च।
तथा जन्म भवेत्तेषा पुत्राज्जन्म पितुर्यथा॥१५॥
कथ तैर्विरुद्धमभ्युपगम्यत इति, उच्यत—हेतुजन्यादेव फलात् हेतोर्जन्माभ्युपगच्छता तेषामीदृशो विरोध उक्तो भवति, यथा पुत्राज्जन्म पितु॥
संभवे हेतुफलयोरेषितव्य क्रमस्त्वया।
युगपत्सभवे यस्मादसबन्धोविषाणवत्॥१६॥
यथोक्तो विरोधो न युक्तोऽभ्युपगन्तुमिति चेन्मन्यसे, सभवे उत्पत्तौ हेतुफलयो क्रम एषितव्य अन्वेष्टव्य त्वया–हेतु पूर्वं पश्चात्फल चेति। इतश्च युगपत्सभवे यस्माद्धेतुफलयो कार्यकारणत्वेन असबन्ध, यथा युगपत्सभवतो सव्येतरगोविषाणयो॥
फलादुत्पद्यमान सन्न ते हेतु प्रसिध्यति।
अप्रसिद्ध कथ हेतुः फलमुत्पादयिष्यति॥१७॥
कथमसबन्ध इत्याह— जन्यात्स्वतोऽलब्धात्मकात् फलात्उत्पद्यमान सन् शशविषाणादेरिवासतो न हेतु प्रसिध्यति जन्म न लभते। अलब्धात्मक अप्रसिद्ध सन शशविषाणादिकल्प तव स कथ फलमुत्पादयिष्यति ? न हि इतरेतरापेक्षसिद्धयो शशविषाणकल्पयो कार्यकारणभावेन सबन्ध कचिद्दृष्ट अन्यथा वेत्यभिप्राय॥
यदि हेतो फलात्सिद्धिः फलसिद्धिश्च हेतुत।
कतरत्पूर्वनिष्पन्न यस्य सिद्धिरपेक्षया॥१८॥
असबन्धतादोषेणापाकृतेऽपि हेतुफलयो कार्यकारणभावे, यदि हेतुफलयोरन्योन्यसिद्धिरभ्युपगम्यत एव त्वया, कतरत्पूर्वनिष्पन्न हेतुफलयो ? यस्य पश्चाद्भाविन सिद्धि स्यात्पूर्वसिद्धापेक्षया, तद्ब्रूहीत्यर्थ॥
अशक्तिरपरिज्ञान क्रमकोपोऽथ वा पुन।
एव हि सर्वथा बुद्धैरजाति परिदीपिता॥१९॥
अथ एतन्न शक्यते वक्तुमिति मन्यसे, सेयमशक्ति अपरिज्ञान तत्त्वाविवेक, मूढतेत्यर्थ। अथवा, योऽय त्वयाक्त क्रम हेतो फलस्य सिद्धि फलाच्च हेतो सिद्धिरिति इतरेतरानन्तर्यलक्षण, तस्य कोप विपर्यासोऽन्यथाभाव स्यादित्यभिप्राय। एव हतुफलयो कार्यकारणभावानुपपत्ते अजाति सर्वस्यानुत्पत्ति परिदीपिता प्रकाशिता अन्योन्यपक्षदोष ब्रुवद्भिर्वादिभि बुद्धै पण्डितैरित्यर्थ॥
बीजाङ्कुराख्यो दृष्टान्त सदा साध्यसमो हि स।
न हि साध्यसमो हेतु सिद्धौ साध्यस्य युज्यते॥
ननु हेतुफलयो कार्यकारणभाव इत्यस्माभिरुक्त शब्दमात्रमाश्रित्य च्छलमिद त्वयोक्तम्—‘पुत्राजन्म पितुयथा’
‘विषाणवच्चसबन्ध’ इत्यादि। न ह्यस्माभि असिद्धाद्धेतो फलसिद्धि, असिद्धाद्वा फलाद्धेतुसिद्धिरभ्युपगता। किं तर्हि ? बीजाङ्कुरवत्कार्यकारणभावोऽभ्युपगम्यत इति। अत्रोच्यते—बीजाङ्कुरारयो दृष्टान्तो य, स साध्येन सम तुल्यो ममेत्यभिप्राय। ननु प्रत्यक्ष कार्यकारणभावो बीजाङ्कुरयोरनादि, न, पूर्वस्य पूर्वस्य अपरभावादादिमत्त्वाभ्युपगमात्। यथा इदा नीमुत्पन्नोऽपरोऽङ्कुरो बीजादादिमान् बीज चापरमन्यस्मादङ्कुरादिति क्रमेणोत्पन्नत्वादादिमत्। एव पूर्व पूर्वोऽङ्कुरो बीज च पूर्व पूर्वमादिमदेवेति प्रत्येक सर्वस्य बीजाङ्कुरजातस्यादिमत्त्वात्कस्यचिदप्यनादित्वानुपपत्ति। एव हेतुफलयो। अथ बीजाङ्कुरसततेरनादिमत्त्वमिति चेत्, न, एकत्वानुपपत्ते, न हि बीजाङ्कुरव्यतिरेकेण बीजाङ्कुरसततिर्नामैका अभ्युपगम्यते हेतुफलसततिर्वा तदनादित्ववादिभि। तस्मात्सूक्तम् ‘हेतो फलस्य चानादि कथ तैरुपवर्ण्यते’ इति। तथा च अन्यदप्यनुपपत्तेर्न छलमित्यभिप्राय। न च लाके साध्यसमो हेतु साध्यस्य सिद्धौ सिद्धिनिमित्त युज्यत प्रयुज्यते प्रमाणकुशलैरित्यर्थ। हेतुरिति दृष्टान्तोऽत्राभिप्रेत, गमकत्वात्, प्रकृतो हि दृष्टान्त न हेतुरिति॥
पूर्वापरापरिज्ञानमजाते परिदीपकम्।
जायमानाद्धि वै धर्मात्कथ पूर्व न गृह्यते॥२१॥
कथ बुद्धैरजाति परिदीपितेति, आह— यदेतत् हेतुफलयो पूर्वापरापरिज्ञानम्, तच्चैतत् अजाते परिदीपकम्अवबोधकमित्यथ। जायमानो हि चेद्धर्मो गृह्यते, कथ तस्मात्पूर्वं कारण न गृह्यते ? अवश्य हि जायमानस्य ग्रहीत्रा तज्जनक ग्रहीतव्यम्, जन्यजनकयो सबन्धस्यानपेतत्वात, तस्मादजातिपरिदीपक तदित्यर्थ॥
स्वतो वा परतो वापि न किचिद्वस्तु जायते।
सदसत्सदसद्वापि न किंचिद्वस्तु जायते॥२२॥
इतश्च न जायत किंचित् यज्जायमान वस्तु स्वत परत उभयतो वा सत् असत् सदसद्वा न जायत, न तस्य कनचिदपि प्रकारेण जन्म सभवति। न तावत्स्वयमेवापरिनिष्पन्नात्स्वत स्वरूपात्स्वयमेव जायत, यथा घटस्तस्मादेव घटात्। नापि परत अन्यस्मादन्य, यथा घटात्पट। तथा नोभयत, विरोधात्, यथा घटपटाभ्या घट पटो वा न जायते। ननु मृदा घटो जायते पितुश्च पुत्र, सत्यम् अस्ति जायत इति प्रत्यय शब्दश्च मूढानाम्। तावेव तु शब्दप्रत्ययौ विवेकिभि परीक्ष्येत— किं सत्यमव
तौ, उत मृषा इति यावता परीक्ष्यमाणे शब्दप्रत्ययविषय वस्तु घटपुत्रादिलक्षण शब्दमात्रमेव तत्, ‘वाचारम्भणम्’ इति श्रुते। सञ्चेत् न जायते, सत्त्वात्, मृत्पिन्नादिवत्। यद्य सत्, तथापि न जायते, असत्त्वादेव, शशविषाणादिवत्। अथ सदसत्, तथापि न जायते विरुद्धस्यैकस्यासभवात्। अतो न किंचिद्वस्तु जायत इति सिद्धम्। येषा पुनर्जनिरेव जायत इति क्रियाकारकफलैकत्वमभ्युपगम्यते क्षणिकत्व च वस्तुन, ते दूरत एव न्यायापेता। इदमित्थमित्यवधारणक्षणान्तरानवस्थानात्, अननुभूतस्य स्मृत्यनुपपत्तेश्च॥
हेतुर्न जायतेऽनादे फल चापि स्वभावत।
आदिर्न विद्यते यस्य तस्य ह्यादिर्न विद्यते॥२३॥
किंच, हेतुफलयोरनादित्वमभ्युपगच्छता त्वया बलाद्धतुफलयोरजन्मैवाभ्युपगत स्यात्। कथम् ? अनादे आदिरहितात्फलात् हेतु न जायते। न ह्यनुत्पन्नादनादे फलाद्धेतो जन्मेष्यते त्वया, फल चापि आदिरहितादनादेर्हेतोरजात्स्वभावत एव निनिमित्त जायत इति नाभ्युपगम्यते। तस्मादनादित्वमभ्युपगच्छता त्वया हेतुफलयोरजन्मैवाभ्युपगम्यते। यस्मात्आदि कारण न विद्यते यस्य लोके, तस्य ह्यादि
पूर्वोक्ता जातिर्न विद्यते। कारणवत एव ह्यादिरभ्युपगम्यते, न अकारणवत॥
प्रज्ञप्ते सनिमित्तत्वमन्यथा द्वयनाशत।
सक्लेशस्योपलब्धेश्च परतन्त्रास्तिता मता॥२४॥
उक्तस्यैवार्थस्य दृढीकरणचिकीर्षया पुनराक्षिपति—प्रज्ञान प्रज्ञप्ति शब्दादिप्रतीति, तस्या सनिमित्तत्वम्, निमित्त कारण विषय इत्येतत्, सनिमित्तत्व सविषयत्व स्वात्मव्यतिरिक्तविषयतेत्येतत्, प्रतिजानीमहे। न हि निर्विषया प्रज्ञप्ति शब्दादिप्रतीति स्यात्, तस्या सनिमित्तत्वात्। अन्यथा निर्विषयत्वे शब्दस्पर्शनीलपीतलोहितादिप्रत्ययवैचित्र्यस्य द्वयस्य नाशत नाशोऽभाव प्रसज्येतेत्यर्थ। न च प्रत्ययवैचित्र्यस्य द्वयस्याभावोऽस्ति प्रत्यक्षत्वात्। अत प्रत्ययवैचित्र्यस्य द्वयस्य दर्शनात्, परेषा तन्त्र परतन्त्रमित्यन्यशास्त्रम्, तस्य परतन्त्रस्य परतन्त्राश्रयस्य बाह्यार्थस्य प्रज्ञानव्यतिरिक्तस्य अस्तिता मता अभिप्रेता। न हि प्रज्ञप्त प्रकाशमात्रस्वरूपाया नीलपीतादिबाह्यालम्बनवैचित्र्यमन्तरेण स्वभावभेदेनैतद्वैचित्र्य सभवति। स्फटिकस्येव नीलाद्युपाध्याश्रयैर्विना वैचित्र्य न घटत इत्यभिप्राय। इतश्च परतन्त्राश्रयस्य बाह्यार्थस्य ज्ञानव्यतिरिक्तस्यास्तिता। सक्ल-
शन सक्लेश, दुःखमित्यर्थं। उपलभ्यते हि अग्निदाहादिनिमित्त दुःखम्। यद्यग्न्यादिबाह्य दाहादिनिमित्त विज्ञानव्यतिरिक्त न स्यात्, ततो दाहादिदुःख नोपलभ्येत। उपलभ्यते तु। अत तेन मन्यामहे अस्ति बाह्योऽर्थ इति। न हि विज्ञानमात्रे सक्लेशो युक्त, अन्यत्रादर्शनादित्यभिप्राय॥
प्रज्ञप्तेः सनिमित्तत्वमिष्यते युक्तिदर्शनात्।
निमित्तस्यानिमित्तत्वमिष्यते भूतदर्शनात्॥२५॥
अत्रोच्यते—बाढमेव प्रज्ञप्ते सनिमित्तत्व द्वयसक्लेशोपलब्धियुक्तिदर्शनादिष्यते त्वया। स्थिरीभव तावत्त्व युक्ति दर्शन वस्तुनस्तथात्वाभ्युगमे कारणमित्यत्र। ब्रूहि किं तत इति। उच्यते—निमित्तस्य प्रज्ञप्त्यालम्बनाभिमतस्य तव घटादेरनिमित्तत्वमनालम्बनत्व वैचित्र्याहेतुत्वमिष्यतेऽस्माभि। कथम् ? भूतदर्शनात् परमार्थदर्शनादित्येतत्। न हि घटो यथाभूतमृदुपदर्शने सति तद्व्यतिरेकेणास्ति, यथा अश्वान्महिष, पटो वा तन्तुव्यतिरेकेण तन्तवश्चाशुव्यतिरेकेण इत्येवमुत्तरोत्तरभूतदर्शन आ शब्दप्रत्ययनिरोधान्नैव निमित्तमुपलभामहे इत्यर्थ। अथवा, अभूतदर्शनाद्बाह्यार्थस्य अनिमित्तत्वमिष्यते रज्ज्वादाविव सर्पादेरित्यर्थ। भ्रान्तिदर्शनविषयत्वाच्च निमि-
त्तस्यानिमित्तत्व भवेत्, तदभावे अभानात्। न हि सुषुप्तसमाहितमुक्ताना भ्रान्तिदर्शनाभावे आत्मव्यतिरिक्तो बाह्योऽर्थ उपलभ्यते। न ह्युन्मत्तावगत वस्त्वनुन्मत्तैरपि तथाभूतं गम्यते। एतन द्वयदर्शन सक्लेशोपलब्धिश्च प्रत्युक्ता॥
चित्त न स्पृशत्यर्थ नार्थाभास तथैव च।
अभूतो हि यतश्चार्थो नार्थाभासस्ततः पृथक्॥२६॥
यस्मान्नास्ति बाह्य निमित्तम्, अत चित्त न स्पृशत्यर्थं बाह्यालम्बनविषयम्, नाप्यर्थाभासम्, चित्तत्वात् स्वप्नचित्तवत्। अभूतो हि जागरितेऽपि स्वप्नार्थवदेव बाह्य शब्दाद्यर्था यत उक्तहेतुत्वाश्च। नाप्यर्थाभासश्चित्तत्पृथक्। चित्तमेव हि घटाद्यर्थवदवभासते यथा स्वप्ने॥
निमित्त न सदा चित्त सस्पृशत्यध्वसु त्रिषु।
अनिमित्तो विपर्यासः कथ तस्य भविष्यति॥२७॥
ननु विपर्यासस्तर्हि असति घटादौ घटाद्याभासता चित्तस्य, तथा च सति अविपर्यास कचिद्वक्तव्य इति, अत्रोच्यते— निमित्त विषयम् अतीतानागतवर्तमानाध्वसुत्रिष्वपि सदा चित्त न सस्पृशेदेव हि। यदि हि क्वचित्सस्पृशेत्, स अविपर्यास परमार्थ इत्यतस्तदपेक्षया असति
घटे घटाभासता विपर्यास स्यात्, न तु तदस्ति कदाचिदपि चित्तस्याथसस्पर्शनम्। तस्मात् अनिमित्त विपर्यास कथ तस्य चित्तस्य भविष्यति ? न कथचिद्विपर्यासोऽस्तीत्यभिप्राय। अयमेव हि स्वभावश्चित्तस्य, यदुत असति निमित्ते घटादौ तद्वदवभासनम्॥
तस्मान्न जायते चित्त चित्तदृश्य न जायते।
तस्य पश्यन्ति ये जातिं खे वै पश्यन्ति ते पदम्॥
‘प्रज्ञप्ते सनिमित्तत्वम्’ इत्यादि एतदन्त विज्ञानवादिनो बौद्धस्य वचन बाह्यार्थवादिपक्षप्रतिषेधपरम् आचार्येणानुमोदितम्। तदेव हेतु कृत्वा तत्पक्षप्रतिषेधाय तदिदमुच्यते— तस्मादित्यादि। यस्मादसत्येव घटादौ घटाद्याभासता चित्तस्य विज्ञानवादिना अभ्युपगता, तदनुमोदितमस्माभिरपि भूतदर्शनात्, तस्मात्तस्यापि चित्तस्य जायमानावभासता असत्येव जन्मनि युक्ता भवितुमिति अतो न जायते चित्तम्। यथा चित्तदृश्य न जायते अतस्तस्य चित्तस्य ये जातिंपश्यन्ति विज्ञानवादिन क्षणिकत्वदुःखित्वशून्यत्वानात्मत्वादि च, तेनैव चित्तेन चित्तस्वरूप द्रष्टुमशक्य पश्यन्त खे वै पश्यन्ति ते पद पक्ष्यादीनाम्। अत इतरेभ्योऽपि द्वैतिभ्योऽत्यतसाहसिका इत्यर्थ। येऽपि शून्यवादिन
पश्यन्त एव सर्वशून्यता स्वदर्शनस्यापि शून्यता प्रतिजानते, ते ततोऽपि साहसिकतरा ख मुष्टिनापि जिघृक्षन्ति॥
अजात जायते यस्मादजाति प्रकृतिस्ततः।
प्रकृतेरन्यथाभावो न कथचिद्भविष्यति॥२९॥
उक्तैर्हेतुभिरजमेक ब्रह्मेति सिद्धम्, यत्पुनरादौ प्रतिज्ञातम, तत्फलोपसहारार्थोऽय श्लोक— अजात यच्चित्त ब्रह्मैव जायते इति वादिभि परिकल्प्यत, तत् अजात जायते यस्मात् अजाति प्रकृति तस्य तत तस्मात् अजातरूपाया प्रकृतेरन्यथाभावो जन्म न कथचिद्भविष्यति।
अनादेरन्तवत्त्व च ससारस्य न सेत्स्यति।
अनन्तता चादिमतो मोक्षस्य न भविष्यति॥३०॥
अय चापर आत्मन ससारमोक्षयो परमार्थसद्भाववादिना दोष उच्यते— अनादे अतीतकोटिरहितस्य ससारस्य अन्तवत्त्व समाप्ति न सेत्स्यति युक्तित सिद्धिं नोपयास्यति। न ह्यनादि सन् अन्तवान्कश्चित्पदार्थो दृष्टो लोके। बीजाङ्कुरसबन्धनैरन्तर्यविच्छेदो दृष्ट इति चेत् न, एकवस्त्वभावेनापोदितत्वात्। तथा अनन्ततापि विज्ञानप्राप्तिकालप्रभवस्य मोक्षस्य आदिमतो न भविष्यति, घटादिष्वदर्शनात्।
घटादिविनाशवदवस्तुत्वाददोष इति चेत्, तथा च मोक्षस्य परमार्थसद्भावप्रतिज्ञाहानि, असत्त्वादेव शशविषाणस्यव आदिमत्त्वाभावश्च॥
आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।
वितथै सदृशा सन्तोऽवितथा इव लक्षिता॥३१॥
सप्रयोजनता तेषा स्वप्ने विप्रतिपद्यते।
तस्मादाद्यन्तवत्त्वेन मिथ्यैव खलु ते स्मृता॥३२॥
वैतथ्ये कृतव्याख्यानौ श्लोकाविह ससारमोक्षाभावप्रमङ्गेन पठितौ॥
सर्वे धर्मा मृषा स्वप्ने कायस्यान्तर्निदर्शनात्।
सवृतेऽस्मिन्प्रदेशे वै भूताना दर्शन कुतः॥३३॥
‘निमित्तस्यानिमित्तत्वमिष्यते भूतदर्शनात्’ इत्ययमर्थ प्रपञ्च्यते एतै श्लोकै॥
न युक्त दर्शन गत्वा कालस्यानियमाद्गतौ।
प्रतिबुद्धश्च वै सर्वस्तस्मिन्देशे न विद्यते॥३४॥
जागरिते गत्यागमनकालौनियतौ, देश प्रमाणतो य, तस्य अनियमात् नियमस्याभावात् स्वप्ने न देशान्तरगमन-
मित्यथ॥
मित्राद्यै सह समन्त्र्य सबुद्धो न प्रपद्यते।
गृहीत चापि यत्किचित्प्रतिबुद्धो न पश्यति॥३५॥
मित्राद्यै सह समन्ध्य तदेव मन्त्रण प्रतिबुद्धो न प्रपद्यते, गृहीत च यत्किंचिद्धिरण्यादि न प्राप्नोति, ततश्च न देशान्तर गच्छति स्वप्न॥
स्वप्ने चावस्तुक काय पृथगन्यस्य दर्शनात्।
यथा कायस्तथा सर्व चित्तदृश्यमवस्तुकम्॥३६॥
स्वप्ने च अटन्दृश्यते य काय, स अवस्तुक ततोऽन्यस्य स्वापदेशस्थस्य प्रथक्कायान्तरस्य दर्शनात। यथा स्वप्नदृश्य काय असन, तथा सर्व चित्तदृश्यम् अवस्तुक जागरितेऽपि चित्तदृश्यत्वादित्यथ। स्वप्नसमत्वादसज्जागरितमपीति प्रकरणार्थ॥
ग्रहणाज्जागरितवत्तद्धेतु स्वप्न इष्यते।
तद्धेतुत्वात्तु तस्यैव सज्जागरितमिष्यते॥३७॥
इतश्च असत्त्व जाग्रद्वस्तुन जागरितवत् जागरितस्येव ग्रहणात् ग्राह्यग्राहकरूपेण स्वप्नस्य, तज्जागरित हेतु अस्य स्व-
प्नस्य स स्वप्न तद्धेतु जागरितकार्यम् इष्यते। तद्धेतुत्वात् जागरितकार्यत्वात् तस्यैव स्वप्नदृश एव सज्जागरितम्, न त्वन्येषाम्, यथा स्वप्न इत्यभिप्राय। यथा स्वप्न स्वप्नदृश एव सन् साधारणविद्यमानवस्तुवदवभासते, तथा तत्कारण त्वात्साधारणविद्यमान वस्तुवदवभासनम्, न तु साधारण विद्यमानवस्तु स्वप्नवदेवेत्यभिप्राय॥
उत्पादस्याप्रसिद्धत्वादज सर्वमुदाहृतम्।
न च भूतादभूतस्य सभवोऽस्ति कथचन॥३८॥
ननु स्वप्नकारणत्वेऽपि जागरितवस्तुना न स्वप्नववस्तुत्वम्। अत्यन्तचलो हि स्वप्न जागरित तु स्थिर लक्ष्यत। सत्यमेवमविवेकिना स्यात्। विवेकिना तु न कस्यचिद्वस्तुन उत्पाद प्रसिद्ध। अत अप्रसिद्धत्वात् उत्पादस्य आत्मैव सर्वमिति अज सर्वम् उदाहृत वेदान्तेषु ‘सबाह्याभ्यन्तरोह्यज इति। यदपि मन्यसे जागरितात्सत असन्स्वप्नो जायत इति, तदसत्। न भूतात् विद्यमानात् अभूतस्य असत सभवाऽस्ति लोके। न ह्यसत शशविषाणादे स भवो दृष्ट कथचिदपि॥
असज्जागरिते दृष्ट्वा स्वप्ने पश्यति तन्मय।
असत्स्वप्नेऽपि दृष्ट्वा च प्रतिबुद्धो न पश्यति।
ननु उक्त त्वयैव स्वप्नो जागरितकार्यमिति, तत्कथमुत्पादाऽप्रसिद्ध इति उच्यते ? शृणु तत्र यथा कार्यकारणभावोऽस्माभिरभिप्रेत इति। असत् अविद्यमान रज्जुसर्पवद्विकल्पित वस्तु जागरिते दृष्ट्वा तद्भावभावितस्तन्मय स्वप्नेऽपि जागरितवत् ग्राह्यग्राहकरूपेण विकल्पयन्पश्यति, तथा अमत्स्वप्नेऽपि दृष्ट्वा च प्रतिबुद्धो न पश्यति अविकल्पयन् च शब्दात्। तथा जागरितेऽपि दृष्ट्वा स्वप्ने न पश्यति कदाचिदित्यथ। तस्माज्जागरित स्वप्नहेतुरित्युच्यते, न तु परमार्थसदिति कृत्वा॥
नास्त्यसद्धेतुकमसत्सदसद्धेतुक तथा।
सच्चसद्धेतुक नास्ति सद्धेतुकमसत्कुत॥४०॥
परमार्थतस्तु न कस्यचित्केनचिदपि प्रकारेण कार्यकारणभाव उपपद्यते। कथम्? नास्ति असद्धेतुकम असत् शशविषाणादि हेतु कारण यस्य असत् एव खपुष्पादे, तत् असद्धेतुकम् असत् न विद्यते। तथा सदपि घटादिवस्तु असद्धेतुकम् शशविषाणादिकार्यंनास्ति। तथा सच्च विद्यमान घटादि बस्त्वन्तरकार्यं नास्ति। सत्कायम् असत् कुत
एव सभवति? न चान्य कार्यकारणभाव सभवति शक्यो वा कल्पयितुम्। अतो विवेकिनामसिद्ध एव कार्यकारणभाव कस्यचिदित्यभिप्राय॥
विपर्यासाद्यथा जाग्रदचिन्त्यान्भूतवत्स्पृशेत्।
तथा स्वप्ने विपर्यासाद्धर्मास्तत्रैव पश्यति॥४१॥
पुनरपि जाग्रत्स्वप्नयारसतोरपि कार्यकारणभावाशङ्काम पनयन्नाह—विपर्यासात् अविवेकत यथा जाग्रत जागरिते अचिन्त्यान्भावान् अशक्यचिन्तनान् रज्जुसर्पादीनभूतवत् परमार्थवत् स्पृशेत स्पृशन्निव विकल्पयेदित्यथ, कश्चिद्यथा, तथा स्वप्ने विपर्यासात् हस्त्यादीन्पश्यन्निव विकल्पयति। तत्रैव पश्यति, न तु जागरितादुत्पद्यमानानित्यर्थ॥
उपलम्भात्समाचारादस्तिवस्तुत्ववादिनाम्।
जातिस्तु देशिता बुद्धेरजातेस्त्रसता सदा॥४२॥
यापि बुद्धै अद्वैतवादिभि जाति देशिता उपदिष्टा, उपलम्भनमुपलम्भ, तस्मात् उपलब्धेरित्यर्थ। समाचारात् वर्णाश्रमादिधर्मसमाचरणाच्च ताभ्या हेतुभ्याम् अस्तिवस्तुत्ववादिनाम् अस्ति वस्तुभाव इत्येववदनशीलाना दृढाग्रहवता
श्रद्दधाना मन्दविवेकिनामर्थोपायत्वेन सा दशिता जाति। ता गृहन्तु तावत्। वेदान्ताभ्यासिना तु स्वयमेव अजाद्वयात्मविषयो विवेको भविष्यतीति न तु परमार्थबुद्ध्या। ते हि श्रोत्रिया स्थूलबुद्धित्वात् अजाते अजातिवस्तुन सदा त्रस्यन्ति आत्मनाश मन्यमाना अविवेकिन इत्यर्थ। ‘उपाय सोऽवताराय’ इत्युक्तम्॥
अजातेस्त्रसता तेषामुपलम्भाद्वियन्ति ये।
जातिदोषा न सेत्स्यन्ति दोषोऽप्यल्पो भविष्यति॥
ये च एवमुपलम्भात्समाचाराच्च अजाते अजातिवस्तुन त्रसन्त अस्ति वस्त्विति अद्वयादात्मन वियन्ति विरुद्धयन्ति द्वैत प्रतिपद्यन्त इत्यर्थ। तेषाम् अजाते त्रसता श्रद्दधानाना सन्मार्गावलम्बिना जातिदोषा जात्युपलम्भकृता दोषा न सत्म्यन्ति सिद्धिं नोपयास्यन्ति, विवेकमार्गप्रवृत्तत्वात्। यद्यपि कश्चिद्दोष स्यात्, सोऽप्यल्प एव भविष्यति, सम्यग्दर्शनाप्रतिपत्तिहेतुक इत्यर्थ॥
उपलम्भात्समाचारान्मायाहस्ती यथोच्यते।
उपलम्भात्समाचारादस्ति वस्तु तथोच्यते॥४४॥
ननु उपलम्भसमाचारयो प्रमाणत्वादस्त्येव द्वैत वस्त्वि-
ति, न, उपलम्भसमाचारयोर्व्यभिचारात्। कथ व्यभिचार इति उच्यते—उपलभ्यते हि मायाहस्ती हस्तीव हस्तिनमिवात्र समाचरन्ति बन्धनारोहणादिहस्तिसबन्धिभिर्धर्मै, हस्तीति चोच्यते असन्नपि यथा, तथैव उपलम्भात्समाचारात् द्वैत भेदरूप अस्ति वस्तु इत्युच्यते। तस्मान्नापलम्भसमाचारौ द्वैतवस्तुसद्भावे हतूभवत इत्यभिप्राय॥
जात्याभास चलाभास वस्त्वाभास तथैव च।
अजाचलमवस्तुत्व विज्ञान शान्तमद्वयम्॥४५॥
किं पुन परमार्थसद्वस्तु, यदास्पदा जात्याद्यसद्वुद्धय इत्याह— अजाति सत् जातिवदवभासत इति जात्याभासम्, तद्यथा देवदत्तो जायत इति। चलाभास चलमिवाभासत इति यथा स एव दवदत्तो गच्छतीति। वस्त्वाभास वस्तु द्रव्य धर्मि, तद्वदवभासत इति वस्त्वाभासम्, यथा स एव देवदत्तो गौरा दीर्घइति। जायते देवदत्त स्पन्दते दीर्घो गौर इत्येवमवभासते। परमार्थतस्तु अजमचलमवस्तुत्वमद्रव्य च। किं तदेवप्रकारम् ? विज्ञान विज्ञप्ति, जात्यादिरहितत्वाच्छान्तम् अत एव अद्वय च तदित्यर्थ॥
एव न जायते चित्तमेव धर्मा अजा स्मृता।
एवमेव विजानन्तो न पतन्ति विपर्यये॥४६॥
एव यथोक्तेभ्यो हेतुभ्य न जायते चित्तम्। एव धर्मा आत्मान अजा स्मृता ब्रह्मविद्भि। धर्मा इति बहुवचन देहभेदानुविधायित्वादद्वयस्यैव उपचारत। एवमेव यथोक्त विज्ञान जात्यादिरहितमद्वयमात्मतत्त्व विजानन्त त्यक्तबाह्यैषणा पुनर्न पतन्ति अविद्याध्वान्तसागर विपर्यय, ‘तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत’ इत्यादिमन्त्रवर्णात्॥
ऋजुवक्रादिकाभासमलातस्पन्दित यथा।
ग्रहणग्राहकाभास विज्ञानस्पन्दित तथा॥४७॥
यथोक्त परमार्थदशन प्रपञ्चयिष्यन्नाह— यथा हि लोके ऋजुवक्रादिप्रकाराभासम् अलातस्पादितम् उल्काचलनम्, तथा ग्रहणग्राहकाभास विषयिविषयाभासमित्यर्थ। किं तत् ? विज्ञानस्पन्दित स्पन्दितमिव स्पन्दितमविद्यया। न ह्यचलस्य विज्ञानस्य स्पन्दनमस्ति, ‘अजाचलम्’ इति युक्तम्॥
अस्पन्दमानमलातमनाभासमज यथा।
अस्पन्दमान विज्ञानमनाभासमज तथा॥४८॥
अस्पन्दमान स्पन्दनवर्जित तदेव अलातम् ऋज्वाद्याकारेणाजायमानम् अनाभासम् अज यथा, तथा अविद्यया स्पन्दमानम् अविद्योपरमे अस्पन्दमान जात्याद्याकारेण अनाभासम् अजम अचल भविष्यतीत्यर्थ॥
अलाते स्पन्दमाने वै नाभासा अन्यतोभुव।
न ततोऽन्यत्र नि स्पन्दान्नालात प्रविशन्ति ते॥
किं च, तस्मिन्नेव अलाते रूप दमाने ऋजुवक्राद्याभासा अलातादन्यत कुतश्चिदागत्यालाते नैव भवन्तीति नान्यतोभुव। न च तस्मान्नि स्पन्दादलातादन्यत्र निर्गता। न च नि स्पन्दमलातमेव प्रविशन्ति ते॥
न निर्गता अलातात्ते द्रव्यत्वाभावयोगत।
विज्ञानेऽपि तथैव स्युराभासस्याविशेषत॥५०॥
कि च, न निर्गता अलातात् ते आभासा गृहादिव, द्रव्यत्वाभावयोगत, द्रव्यस्य भावो द्रव्यत्वम, तदभाव द्रव्यत्वाभाव, द्रव्यत्वाभावयोगत द्रव्यत्वाभावयुक्ते वस्तुत्वाभावादित्यर्थ। वस्तुनो हि प्रवेशादि सभवति, नावस्तुन। विज्ञानेऽपि जात्याद्याभासा तथैव स्यु, आभासस्य अविशेषत तुल्यत्वात्॥
विज्ञाने स्पन्दमाने वै नाभासा अन्यतोभुव।
न ततोऽन्यत्र नि स्पन्दान विज्ञान विशन्ति ते॥
न निर्गतास्ते विज्ञानाद्द्रव्यत्वाभावयोगत।
कार्यकारणताभावाद्युतोऽचिन्त्या सदैव ते॥५२॥
कथ तुल्यत्वमित्याह— अलातेन समान सर्वं विज्ञानस्य, सदा अचलत्व तु विज्ञानस्य विशेष। जात्याद्याभासा विज्ञाने अचले किकृता इत्याह—कार्यकारणताभावात् जन्यजनकत्वानुपपत्तेरभावरूपत्वात् अचिन्त्या ते यत सदैव। यथा असत्सु ऋज्वाद्याभासेषु ऋज्वादिबुद्धिर्दृष्टा अलातमात्रे, तथा असत्स्वेव जात्यादिषु विज्ञानमात्रे जात्यादिबुद्धिर्मृषैवेति समुदायार्थ॥
द्रव्य द्रव्यस्य हेतु स्यादन्यदन्यस्य चैव हि।
द्रव्यत्वमन्यभावो वा धर्माणां नोपपद्यते॥५३॥
अजमेकमात्मतत्त्वमिति स्थितम्। तत्र यैरपि कार्यकारणभाव कल्प्यते, तेषा द्रव्य द्रव्यस्या यस्यान्यत् हतु कारण स्यात्, न तु तस्यैव तत्। नाप्यद्रव्य कस्यचित्कारण स्वतन्त्र दृष्ट लोके। न च द्रव्यत्व धर्माणाम् आत्मनाम उपपद्यते अन्यत्व वा कुतश्चित्, येन अन्यस्य कारण-
त्व कार्यत्व वा प्रतिपद्येत। अत अद्रव्यत्वादनन्यत्वाच्च न कस्यचित्कार्यं कारण वा आत्मेत्यर्थ॥
एव न चित्तजा धर्माश्चित्त वापि न धर्मजम्।
एव हेतुफलाजातिं प्रविशन्ति मनीषिण॥५४॥
एव यथोक्तेभ्यो हेतुभ्य आत्मविज्ञानस्वरूपमेव चित्तमिति, न चित्तजा बाह्यधर्मा नापि बाह्यधर्मज चित्तम्, विज्ञानस्वरूपाभासमात्रत्वात्सर्वधर्माणाम्। एव न हेतो फल जायते, नापि फलाद्धेतुरिति हेतुफलयोरजातिं हेतुफलाजातिं प्रविशन्ति अध्यवस्यन्ति। आत्मनि हेतुफलयोरभावमेव प्रतिपद्यन्ते ब्रह्मविद इत्यर्थ॥
यावद्धेतुफलावेशस्तावद्धेतुफलोद्भव।
क्षीणे हेतुफलावेशे नास्ति हेतुफलोद्भव॥५५॥
ये पुनर्हेतुफलयोरभिनिविष्टा, तेषा किं स्यादिति, उच्यते— धर्माधर्माख्यस्य हेतो अह कर्ता मम धर्माधर्मौ तत्फल कालान्तरे कचित्प्राणिनिकाये जातो भोक्ष्ये इति यावद्धेतुफलयोरावेश हेतुफलाग्रह आत्मन्यध्यारोपणम्, तच्चित्ततेत्यर्थ, तावद्धेतुफलयोरुद्भव धर्माधर्मयोस्तत्फलस्य चा
नुच्छेदेन प्रवृत्तिरित्यर्थ। यदा पुनर्मन्त्रौषधिवीर्येणेव ग्रहावेशो यथोक्ताद्वैतदर्शनेन अविद्योद्भूतहेतुफलावेशोपनीतो भवति, तदा तस्मिन्क्षीणे नास्ति हेतुफलोद्भव।
यावद्धेतुफलावेश ससारस्तावदायत।
क्षीणे हेतुफलावेशे ससार न प्रपद्यते॥५६॥
यदि हेतुफलोद्भव, तदा का दोष इति उच्यते— यावत् सम्यग्दर्शनेन हेतुफलावेश न निवर्तते, अक्षीण ससार तावत् आयात दीर्घो भवतीत्यर्थ। क्षीणे पुन हेतुफलावेशे ससार न प्रपद्यते, कारणाभावात्॥
सवृत्या जायते सर्व शाश्वत नास्ति तेन वै।
सद्भावेन ह्यज सर्वमुच्छेदस्तेन नास्ति वै॥५७॥
ननु अजादात्मनोऽन्यन्नास्त्येव, तत्कथ हेतुफलयो ससारस्य च उत्पत्तिविनाशावुच्येते त्वया ? शृणु, सवृत्या सवरण सवृति अविद्याविषयो लौकिकव्यवहार तथा सवृत्या जायते सर्वम्। तेन अविद्याविषये शाश्वत नित्य नास्ति वै। अत उत्पत्तिविनाशलक्षण ससार आयत इत्युच्यते । परमार्थसद्भावेन तु अज सर्वम् आत्मैव यस्मात्, अतो जात्यभावात् उच्छेद तेन नास्ति वै कस्य-
चिद्धेतुफलादेरित्यर्थ॥
धर्मा य इति जायन्ते जायन्ते ते न तत्त्वतः।
जन्म मायोपम तेषा सा च माया न विद्यते॥५८॥
येऽप्यात्मानोऽन्य च धर्मा जायन्त इति कल्प्यन्ते, ते इति एवप्रकारा यथोक्ता सवृतिर्निर्दिश्यत इति सवृत्यैव धर्मा जायन्ते। न ते तत्त्वत परमार्थत जायन्ते। यत्पुनस्तत्सवृत्या जन्म तेषा धर्माणा यथोक्ताना यथा मायया जन्म तथा तत् मायोपम प्रत्येतव्यम्। माया नाम वस्तु तर्हि, नैवम्, सा च माया न विद्यते। मायेत्यविद्यमानस्याख्येत्यभिप्राय॥
यथा मायामयाद्बीजाज्जायते तन्मयोऽङ्कुरः।
नासौ नित्यो न चोच्छेदी तद्वद्धर्मेषु योजना॥५९॥
कथ मायोपम तेषा धर्माणा जन्मेति, आह—यथा मायामयात् आम्रादिबीजात् जायते तन्मय मायामय अड्कुर, नासावङ्कुरो नित्य न च उच्छेदी विनाशी वा। अभूतत्वादेव धर्मेषु जन्मनाशादियोजना युक्ति, न तु परमार्थतो धर्माणा जन्म नाशो वा युज्यत इत्यर्थ॥
नाजेषु सर्वधर्मेषु शाश्वताशाश्वताभिधा।
यत्र वर्णा न वर्तन्ते विवेकस्तत्र नोच्यते॥६०
परमार्थतस्त्वात्मस्वजेषु नित्यैकरसविज्ञप्तिमात्र सत्ताकेषु शाश्वत अशाश्वत इति वा न अभिधा, नाभिधान प्रवर्तत इत्यर्थ। यत्र येषु वर्ण्यन्ते यैरर्था, ते वर्णा शब्दा न वर्तन्ते अभिधातु प्रकाशयितु न प्रवर्तन्त इत्यर्थ। इदमेवमिति विवेक विविक्तता तत्र नित्योऽनित्य इति नोच्यते, ‘यतो वाचो निवतन्ते’ इति श्रुते॥
यथा स्वप्ने द्वयाभास चित्त चलति मायया।
तथा जाग्रद्द्वयाभास चित्त चलति मायया॥६१॥
अद्वय च द्वयाभास चित्त स्वमे न सशय।
अद्वय च द्वयाभास तथा जाग्रन्न सशय॥६२॥
यत्पुनर्वाग्गोचरत्व परमार्थत अद्वयस्य विज्ञानमात्रस्य, तन्मनस स्पन्दनमात्रम्, न परमार्थत इत्युक्तार्थौ श्लोकौ॥
स्वप्नदृक्प्रचरन्स्वप्ने दिक्षु वै दशसु स्थितान्।
अण्डजान्स्वेदजान्वापि जीवान्पश्यति यान्सदा॥
इतश्च वाग्गोचरस्याभावो द्वैतस्य—स्वप्नान्पश्यतीति स्वप्नदृक् प्रचरन् पर्यटन्स्वप्ने स्वप्नस्थाने दिक्षु वै दशसु स्थितान्
वर्तमानान् जीवान्प्राणिन अण्डजान्स्वेदजान्वा यान सदा पश्यतीति॥
स्वप्नदृक्चित्तदृश्यास्ते न विद्यन्ते तत पृथक्।
तथा तद्दृश्यमेवेद स्वप्नदृक्चित्तमिष्यते॥६४॥
यद्येवम्, तत किम् ? उच्यते—स्वप्नदृशश्चित्त स्वप्नदृक्चित्तम्, तेन दृश्या ते जीवा, तत तस्मात् स्वप्नदृक्चित्तात् पृथक् न विद्यन्ते न सन्तीत्यथ। चित्तमेव ह्यनेकजीवादिभेदाकारेण विकल्प्यते। तथा तदपि स्वप्नदृक्चित्तमिद तद्दृश्यमेव, तेन स्वप्नदृशा दृश्य तद्दृश्यम्। अत स्वप्नदृग्व्यतिरेकेण चित्त नाम नास्तीत्यर्थ॥
चरञ्जागरिते जाग्रद्दिक्षु वै दशसु स्थितान्।
अण्डजान्स्वेदजान्वापि जीवान्पश्यति यान्सदा॥
जाग्रच्चित्तेक्षणीयास्ते न विद्यन्ते तत पृथक्।
तथा तद्दृश्यमेवेद जाग्रतश्चित्तमिष्यते॥६६॥
जाग्रतो दृश्या जीवा तच्चिन्ताव्यतिरिक्ता चिन्तेक्षणीयत्वात्, स्वप्नदृक्चित्तेक्षणीयजीववत्। तच्च जीवेक्षणात्मकचित्त द्रष्टुरव्यतिरिक्त द्रष्टृदृश्यत्वात् स्वप्नचित्तवत्। उक्तार्थमन्यत्॥
उभे ह्यन्योन्यदृश्ये तेकिं तदस्तीति चोच्यते।
लक्षणाशून्यमुभय तन्मते नैव गृह्यते॥६७॥
जीवचित्ते उभे चित्तचैत्त्ये ते अन्योन्यदृश्ये इतरेतरगम्ये। जीवादिविषयापेक्ष हि चित्त नाम भवति। चित्तापेक्ष हि जीवादि दृश्यम्। अतस्ते अन्योन्यदृश्ये। तस्मान्न किंचिदस्तीति चोच्यत चित्त वा चित्तेक्षणीय वा। किं तदस्तीति विवेकिनोच्यते। न हि स्वप्ने हस्ती हस्तिचित्त वा विद्यते, तथा इहापि विवेकिनामित्यभिप्राय। कथम् ? लक्षणाशून्य लक्ष्यते अनयेति लक्षणा प्रमाणम्, प्रमाणशून्यमुभयचित्त चैत्त्य द्वय यत तन्मतेनैव तञ्चित्ततयैव तत् गृह्यते। न हि घटमतिं प्रत्यारयाय घटो गृह्यते, नापि घट प्रत्यारयाय घटमति। न हि तत्र प्रमाणप्रमेयभेद शक्यते कल्पयितुमित्यभिप्राय॥
यथा स्वप्नमयो जीवो जायते म्रियतेऽपि च।
तथा जीवा अमी सर्वे भवन्ति न भवन्ति च॥६८॥
यथा मायामयो जीवो जायते म्रियतेऽपि च।
तथा जीवा अमी सर्वे भवन्ति न भवन्ति च॥६९॥
यथा निर्मितको जीवो जायते म्रियतेऽपि च।
तथा जीवा अमी सर्वे भवन्ति न भवन्ति च॥७०॥
मायामय मायाविना य कृतो निर्मितक मन्त्रौषध्यादिभिर्निष्पादित। स्वप्नमायानिर्मितका अण्डजादयो जीवा यथा जायन्ते म्रियन्त च, तथा मनुष्यादिलक्षणा अविद्यमाना एव चित्तविकल्पनामात्रा इत्यर्थ॥
न कश्चिज्जायते जीव सभवोऽस्य न विद्यते।
एतत्तदुत्तम सत्य यत्र किंचिन्न जायते॥७१॥
व्यवहारसत्यविषये जीवाना जन्ममरणादि स्वप्नादि जीववदित्युक्तम्। उत्तम तु परमार्थसत्य न कश्चिज्जायते जीव इति। उक्तार्थमन्यत्॥
चित्तस्पन्दितमेवेद ग्राह्यग्राहकवद्द्वयम्।
चित्त निर्विषय नित्यमसङ्ग तेन कीर्तितम्॥७२॥
सर्वं ग्राह्यग्राहकवञ्चित्तस्पन्दितमेव द्वयम्। चित्त परमार्थत आत्मैवेति निर्विषयम्। तेन निर्विषयत्वेन नित्यम् असङ्ग कीर्तितम्। ‘असङ्गो य पुरुष’ इति श्रुते। सविषयस्यहि विषये सङ्ग। निर्विषयत्वाश्चित्तमसङ्गमित्यर्थ।
योऽस्ति कल्पितवृत्या परमार्थेन नास्त्यसौ।
परतन्त्राभिसवृत्या स्यान्नास्ति परमार्थतः॥७३॥
ननु निर्विषयत्वेन चदसङ्गत्वम्, चित्तस्य न नि सङ्गता भवति, यस्मात् शास्ता शास्त्र शिष्यश्चेत्येवमादेर्विषयस्य विद्यमानत्वात्, नैष दोष। कस्मात् ? य पदार्थ शास्त्रादिर्विद्यते, स कल्पितसवृत्या। कल्पिता च सा परमार्थप्रतिपत्त्युपायत्वेन सवृतिश्च सा तया योऽस्ति परमार्थेन, नास्त्यसौ न विद्यते। ‘ज्ञाते द्वैत न विद्यते’ इत्युक्तम्। यश्च परतन्त्राभिसवृत्या परशास्त्रव्यवहारेण स्यात्पदार्थ, स परमार्थतो निरूप्यमाणो नास्त्येव। तेन युक्तमुक्तम् ‘असङ्गतेन कीर्तितम्’ इति॥
अजः कल्पितसवृत्या परमार्थेन नाप्यज।
परतन्त्राभिनिष्पत्त्या सवृत्या जायते तु स॥७४॥
ननु शास्त्रादीना सवृतित्वे अज इतीयमपि कल्पना सवृति स्यात्। सत्यमेवम्, शास्त्रादिकल्पितसवृत्यैव अज इत्युच्यते। परमार्थेन नाप्यज, यस्मात् परतन्त्राभिनिष्पत्त्या परशास्त्रसिद्धिमपेक्ष्य य अज इत्युक्त, स सवृत्या जायते। अत अज इतीयमपि कल्पना परमार्थविषये नैव क्रमत इत्यर्थ॥
अभूताभिनिवेशोऽस्ति द्वय तत्र न विद्यते।
द्वयाभाव स बुद्ध्वैवनिर्निमित्तो न जायते॥७५॥
यस्मादसद्विषय, तस्मात् असत्यभूते द्वैते अभिनिवेशोऽस्ति केवलम्। अभिनिवेश आग्रहमात्रम्। द्वय तत्र न विद्यते मिथ्याभिनिवेशमात्र च जन्मन कारण यस्मात् तस्मात्द्वयाभाव बुद्धा निर्निमित्त निवृत्तमिथ्याद्वयाभिनिवेश य, स न जायते॥
यदा न लभते हेतूनुत्तमाधममध्यमान्।
तदा न जायते चित्त हेत्वभावे फल कुतः॥७६॥
जात्याश्रमविहिता आशीर्वर्जितैरनुष्ठीयमाना धर्मा देवत्वादिप्राप्तिहेतव उत्तमा केवलाश्च। धर्मा अधर्मव्यामिश्रा मनुष्यत्वादिप्राप्त्यर्था मध्यमा। तिर्यगादिप्राप्तिनिमित्ता अधर्मलक्षणा प्रवृत्तिविशेषाश्चाधमा। तानुत्तममध्यमाधमा विद्यापरिकल्पितान् यदा एकमेवाद्वितीयमात्मतत्त्व सर्वकल्पनावर्जित जानन् न लभते न पश्यति, यथा बालैर्दृश्यमान गगने मल विवेकी न पश्यति, तद्वत् तदा न जायते नोत्पद्यते चित्त देवाद्याकारै उत्तमाधममध्यमफलरूपेण। न ह्यसति हेतौ फलमुत्पद्यते बीजाद्यभाव इव सस्यादि॥
अनिमित्तस्य चित्तस्य यानुत्पत्तिः समाद्वया।
अजातस्यैव सर्वस्य चित्तदृश्य हि तद्यत॥७७॥
हेत्वभावे चिन्त नोत्पद्यत इति हि उक्तम्। सा पुनरनुत्पत्तिश्चित्तस्य कीदृशीत्युच्यते—परमार्थदर्शनेन निरस्तधर्माधर्माख्योत्पत्तिनिमित्तस्य अनिमित्तस्य चित्तस्येति या मोक्षाख्या अनुत्पत्ति, सा सर्वदा सर्वावस्थासु समा निर्विशेषा अद्वया च, पूर्वमपि अजातस्यैव अनुत्पन्नस्य चित्तस्य सर्वस्याद्वयस्येत्यर्थ। यस्मात्प्रागपि विज्ञानात् चित्त दृश्य तद्द्वय जन्म च, तस्मादजातस्य सर्वस्य सर्वदा चित्तस्य समा अद्वयैव अनुत्पत्ति न पुन कदाचिद्भवति, कदाचिद्वा न भवति। सर्वदा एकरूपैवेत्यर्थ॥
बुद्ध्वानिमित्तता सत्या हेतु पृथगनाप्नुवन्।
वीतशोक तथा काममभय पदमश्नुते॥७८॥
यथोक्तेन न्यायेन जन्मनिमित्तस्य द्वयस्य अभावादनिमित्तता च सत्या परमार्थरूपा बुद्ध्वाहेतु धर्मादिकारण देवादियोनिप्राप्तये पृथगनाप्नुवन् अनुपाददान त्यक्ताबाह्यैषण, सन् कामशोकादिवर्जितम् अविद्यादिरहितम् अभय पदम् अश्नुते, पुनन जायत इत्यर्थ॥
अभूताभिनिवेशाद्धि सदृशे तत्प्रवर्तते।
वस्त्वभाव स बुद्धै्वव निःसङ्ग विनिवर्तते॥७९॥
यस्मात् अभूताभिनिवेशात् असति द्वये द्वयास्तित्व निश्चय अभूताभिनिवेश, तस्मात् अविद्याव्यामोहरूपाद्धि सदृशे तदनुरूपे तत् चित्त प्रवर्तते। तस्य द्वयस्य वस्तुन अभाव यदा बुद्धवान्, तदा तस्मात् निःसङ्ग निरपेक्ष सत्विनिवर्तते अभूताभिनिवेशविषयात्॥
निवृत्तस्याप्रवृत्तस्य निश्चला हि तदा स्थिति।
विषय स हि बुद्धानां तत्साम्यमजमद्वयम्॥८०॥
निवृत्तस्य द्वैतविषयात् विषयान्तरे च अप्रवृत्तस्य अभावदर्शनेन चित्तस्य निश्चला चलनवर्जिता ब्रह्मस्वरूपैव तदा स्थिति, यैषा ब्रह्मस्वरूपा स्थिति चित्तस्य अद्वयविज्ञानैकरसधनलक्षणा। स हि यस्मात् विषय गोचर परमार्थदर्शिना बुद्धानाम्, तस्मात् तत्साम्य पर निर्विशेषमजमद्वय च॥
अजमनिद्रमस्वप्न प्रभात भवति स्वयम्।
सकृद्विभातो ह्येवैष धर्मो धातुस्वभावत॥८१॥
पुनरपि कीदृशश्चासौ बुद्धाना विषय इत्याह— स्वयमेव तत् प्रभात भवति न आदित्याद्यपेक्षम्, स्वय ज्योति स्वभावमित्यर्थ। सकृद्विभात सदैव विभात इत्येतत्। एष एव-
लक्षण आत्माख्या धर्म धातुस्वभावत वस्तुस्वभावतइत्यर्थ॥
सुखमाव्रियते नित्य दुःख विव्रियते सदा।
यस्य कस्य च धर्मस्य ग्रहेण भगवानसौ॥८२॥
एव बहुश उच्यमानमपि परमार्थतत्त्व कस्माल्लौकिकैर्न गृह्यत इत्युच्यते— यस्मात् यस्य कस्यचित् द्वयवस्तुनो धर्मस्य ग्रहेण ग्रहणावेशेन मिथ्याभिनिविष्टतया सुखमाव्रियते अनायासेन आच्छाद्यत इत्यर्थ। द्वयोपलब्धिनिमित्त हि तधावरण न यत्नान्तरमपेक्षते। दुःख च विव्रियते प्रकटीक्रियते, परमार्थज्ञानस्य दुर्लभत्वात्। भगवानसौ आत्माद्वयो देव इत्यर्थ। अतो वेदान्तैराचार्यैश्च बहुश उच्यमानोऽपि नैव ज्ञातु शक्य इत्यर्थ, ‘आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा’इति श्रुते॥
अस्ति नास्त्यस्ति नास्तीति नास्ति नास्तीति वा पुनः।
चलस्थिरोभयाभावैरावृणोत्येव बालिशः॥८३॥
अस्ति नास्तीत्यादि सूक्ष्मविषया अपि पण्डिताना ग्रहाभगवत परमात्मन आवरणा एव, किमुत मूढजनाना बुद्धि लक्षणा इत्येवमर्थ प्रदर्शयन्नाह— अस्तीति। अस्त्यात्मति
कश्चिद्वादी प्रतिपद्यते। नास्तीत्यपरो वैनाशिक। अस्ति नास्तीत्यपरोऽर्धवैनाशिक सदसद्वादी दिग्वासा। नास्ति नास्तीत्यत्यन्तशून्यवादी। तत्रास्तिभावश्चल, घटाद्यनित्यविलक्षणत्वात्। नास्तिभाव स्थिर, सदाविशेषत्वात्। उभय चलस्थिरविषयत्वात् सदसद्भाव। अभावोऽत्यन्ताभाव। प्रकारचतुष्टयस्यापि तैरेतैश्चलस्थिरोभयाभावैसदसदादिवादी सर्वोऽपि भगवन्तमावृणोत्येव बालिशोऽविवेकी। यद्यपि पण्डितो बालिश एव परमार्थतत्त्वानवबोधात्, किमु स्वभावमूढो जन इत्यभिप्राय॥
कोट्यश्चतस्र एतास्तु ग्रहैर्यासां सदाहृत।
भगवानाभिरस्पृष्टो येन दृष्ट स सर्वदृक्॥८४॥
कीदृक्पुनन परमार्थतत्त्वम्, यदवबोधादबालिश पण्डितो भवतीत्याह—कोट्य प्रावादुकशास्त्र निर्णयान्ता एता उक्ता अस्ति नास्तीत्याद्या चतस्र, यासा कोटीना है ग्रहणै उपलब्धिनिश्चयै सदा सर्वदा आवृत आच्छादित तेषामेव प्रावादुकाना य, स भगवान् आभि अस्ति नास्तीत्यादिकोटिभि चतस्रभिरपि अस्पृष्ट अस्त्यादिविकल्पनावर्जित इत्येतत्। येन मुनिना दृष्टो ज्ञात वेदान्तेष्वौपनिषद पुरुष, स सर्वदृक् सर्वज्ञ, परमार्थपण्डित इत्यर्थ॥
प्राप्य सर्वज्ञता कृत्स्ना ब्राह्मण्य पदमद्वयम्।
अनापन्नादिमध्यान्त किमत परमीहते॥८५॥
प्राप्य एता यथोक्ता कृत्स्ना समस्ता सर्वज्ञता ब्राह्मण्य पदम् ‘स ब्राह्मण’ ‘एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य’ इति श्रुते। अनापन्नादिमध्यान्तम् आदिमध्यान्ता उत्पत्तिस्थितिलया अनापन्ना अप्राप्ता यस्य अद्वयस्य पदस्य न विद्यन्ते, तत्अनापन्नादिमध्यान्त ब्राह्मण्य पदम्। तदेव प्राप्य लब्ध्वा किमत परमस्मादात्मलाभादूर्ध्वम् ईहते चेष्टते, निष्प्रयोजनमित्यर्थ। ‘नैव तस्य कृतेनार्थ’ इत्यादिस्मृते॥
विप्राणां विनयो ह्येष शमः प्राकृत उच्यते।
दम प्रकृतिदान्तत्वादेव विद्वाञ्शम व्रजेत्॥८६॥
विप्राणा ब्राह्मणाना विनय विनीतत्व स्वाभाविक यदेतदात्मस्वरूपेणावस्थानम्। एष विनय शमोऽप्येष एव प्राकृत स्वाभाविक अकृतक उच्यते। दमोऽप्येष एव प्रकृतिदान्तत्वात् स्वभावत एव चोपशान्तरूपत्वाद्ब्रह्मण। एव यथोक्त स्वभावोपशान्त ब्रह्म विद्वान् शमम् उपशान्ति स्वाभाविकी ब्रह्मस्वरूपा व्रजेत् ब्रह्मस्वरूपेणावतिष्ठत इत्यर्थ॥
सवस्तु सोपलम्भ च द्वय लौकिकमिष्यते।
अवस्तु सोपलम्भ च शुद्ध लौकिकमिष्यते॥८७॥
एवमन्योन्यविरुद्धत्वात् ससारकारणरागद्वेषदोषास्पदानि प्रावादुकाना दर्शनानि। अतो मिथ्यादर्शनानि तानीति तद्युक्तिभिरेव दर्शयित्वा चतुष्कोटिवर्जितत्वात् रागादिदोषानास्पद स्वभावशान्तमद्वैतदर्शनमेव सम्यग्दर्शनमित्युपहृतम्। अथेदानी स्वप्रक्रियाप्रदर्शनार्थ आरम्भ— सवस्तु सवृतिसतावस्तुना सह वर्तत इति सवस्तु, तथा च उपलब्धिरुपलम्भ, तेन सह वर्तत इति सोपलम्भ च शास्त्रादिसर्वव्यवहारास्पद ग्राह्यग्रहणलक्षण द्वय लोकादनपेत लौकिक जागरितमित्येतत्। एवलक्षण जागरितमिष्यते वेदान्तेषु। अवस्तु सवृतेरप्यभावात्। सोपलम्भ वस्तुवदुपलम्भनमुपलम्भ असत्यपि वस्तुनि, तेनसह वर्तत इति सोपलम्भ च। शुद्ध केवल प्रविभक्त जागरितात्स्थूलाल्लौकिक सर्वप्राणिसाधारणत्वात् इष्यते स्वप्न इत्यर्थ॥
अवस्त्वनुपलम्भ च लोकोत्तरमिति स्मृतम्।
ज्ञान ज्ञेय च विज्ञेय सदा बुद्धैः, प्रकीर्तितम्॥८८॥
अवस्त्वनुपलम्भ च ग्राह्यग्रहणवर्जितमित्येतत्, लोकोत्तरम्, अत एव लोकातीतम्। ग्राह्यग्रहणविषयो हि लोक, तदभा-
वात् सर्वप्रवृत्तिबीज सुषुप्तमित्येतत्। एव स्मृत सोपाय परमार्थतत्त्व लौकिक शुद्धलौकिक लोकोत्तर च क्रमेण येन ज्ञानेन ज्ञायते, तत् ज्ञान ज्ञेयम् एतान्येव त्रीणि, एतद्वयतिरेकेण ज्ञेयानुपपत्ते। सर्वप्रावादुककल्पितवस्तुनोऽत्रैवान्तर्भावात्, विज्ञेय यत्परमार्थसत्य तुर्याख्यमद्वयमजमात्मतत्वमित्यर्थ सदासर्वदैव, तल्लौकिकादि विज्ञेयान्त बुद्धै परमार्थदर्शिभिर्ब्रह्मविद्भि प्रकीर्तितम्॥
ज्ञाने च त्रिविधे ज्ञेये क्रमेण विदिते स्वयम्।
सर्वज्ञता हि सर्वत्र भवतीह महाधियः॥८९॥
ज्ञाने च लौकिकादिविषये ज्ञेये च लौकिकादौ त्रिविधे, पूर्वं लौकिक स्थूलम्, तदभावेन पश्चाच्छुद्ध लौकिकम्, तदभावेन लोकोत्तरमित्येव क्रमेण स्थानत्रयाभावेन परमार्थसत्ये तुर्ये अद्वये अजे अभये विदिते, स्वयमेव आत्मस्वरूपमेव सर्वज्ञता सर्वश्चासौ ज्ञश्चसर्वज्ञ, तद्भाव सर्वज्ञता इह अस्मिन् लोके भवति महाधिय महाबुद्धे। सर्वलोकातिशयवस्तुविषयबुद्धित्वादेवविद सर्वत्र सर्वदा भवति। सकृद्विदिते स्वरूपे व्यभिचाराभावादित्यथ। न हि परमार्थविदो ज्ञानिन ज्ञानोद्भवाभिभवौ स्त, यथा अन्येषा प्रावादुकानाम्॥
हेयज्ञेयाप्यपाक्यानि विज्ञेयान्यग्रयाणत।
तेषामन्यत्र विज्ञेयादुपलम्भस्त्रिषु स्मृत॥९०॥
लौकिकादीना क्रमेण ज्ञेयत्वेन निर्देशादस्तित्वाशङ्का परमार्थतो मा भूदित्याह—हेयानि च लौकिकादीनि त्रीणि जागरितस्वप्नसुषुप्तानि आत्मन्यसत्त्वेन रज्ज्वा सर्पवद्धातव्यानीत्यर्थ। ज्ञेयमिह चतुष्कोटिवर्जित परमार्थतत्त्वम्। आप्यानि आप्तव्यानि त्यक्तबाह्यैषणात्रयेण भिक्षुणा पाण्डित्यबाल्यमौनाख्यानि साधनानि। पाक्यानि रागद्वेषमोहादयो दोषा कषायाख्यानि पक्तव्यानि । सर्वाण्येतानि हेयज्ञेयाप्यपाक्यानि विज्ञेयानि भिक्षुणा उपायत्वेनेत्यर्थ। अग्रयाणत प्रथमत। तेषा हेयादीनामन्यत्र विज्ञेयात्परमार्थसत्य विज्ञेय ब्रह्मैक वर्जयित्वा। उपलम्भनमुपलम्भ अविद्याकल्पनामात्रम्। हयाप्यपाक्येषु त्रिष्वपि स्मृतो ब्रह्मविद्भिन परमार्थसत्यता त्रयाणामित्यर्थ॥
प्रकृत्याकाशवज्ज्ञेया सर्वे धर्मा अनादय।
विद्यते न हि नानात्व तेषा क्वचन किंचन।९१॥
परमार्थतस्तु प्रकृत्या स्वभावत आकाशवत् आकाश तुल्या सूक्ष्मनिरञ्जनसर्वगतत्वैसर्वे धर्मा आत्मानो ज्ञेया
मुमुक्षुभि अनादय नित्या। बहुवचनकृतभेदाशङ्का निराराकुर्वन्नाह— क्वचन क्वचिदपि किंचन किंचित् अणुमात्रमपि तेषा न विद्यते नानात्वमिति॥
आदिबुद्धा प्रकृत्यैव सर्वे धर्माः सुनिश्चिता।
यस्येव भवति क्षान्ति सोऽमृतत्वाय कल्पते॥९२॥
ज्ञेयतापि धर्माणा सवृत्यैव, न परमार्थात इत्याह— यस्मात् आदौ बुद्धा आदिबुद्धा प्रकृत्यैव स्वभावत एव यथा नित्यप्रकाशस्वरूप सविता, एव नित्यबोधस्वरूपा इत्यर्थ। सव धर्मा सर्व आत्मान। न च तेषा निश्चय कर्तव्य नित्यनिश्चितस्वरूपा इत्यर्थ। न सदिह्यमानस्व रूपा एव नैव वेति यस्य मुमुक्षो एव यथोक्तप्रकारेण सर्वदा बोधनिश्रयनिरपेक्षता आत्मार्थ परार्थ वा। यथा सविता नित्य प्रकाशान्तरनिरपेक्ष स्वार्थ परार्थ वेत्येव भवति क्षान्ति बाधकर्तव्यतानिरपक्षता सर्वदा स्वात्मनि, स अमृतत्वाय अमृतभावाय कल्पत मोक्षाय समर्थो भवतीत्यर्थ॥
आदिशान्ता ह्यनुत्पन्ना प्रकृत्यैव सुनिर्वृता।
सर्वे धर्मा समाभिन्ना अज साम्य विशारदम्॥
तथा नापि शान्तिकर्तव्यता आत्मनीत्याह—यस्मात् आदिशान्ता नित्यमेव शान्ता अनुत्पन्ना अजाश्च प्रकृत्यैव सुनिर्वृता सुष्ठूपरतस्वभावा नित्यमुक्तस्वभावा इत्यर्थ। सर्वे धर्मा समाश्च अभिन्नाश्च समाभिन्ना अज साम्य विशारद विशुद्धमात्मतत्त्व यस्मात्, तस्मात् शान्तिर्मोक्षो वा नास्ति कतव्य इत्यर्थ। न हि नित्यैकस्वभावस्य कृत किचिदथ वत्स्यात्॥
वैशारद्य तु वै नास्ति भेदे विचरता सदा।
भदनिम्ना पृथग्वादास्तस्मात्ते कृपणा स्मृता॥
य यथोक्त परमार्थतत्त्व प्रतिपन्ना, ते एव अकृपणा लाके, कृपणात्स्वन्य इत्याह— यस्मात् भेदनिम्ना भेदानुयायिन ससारानुगा इत्यर्थ। क’ पृथग्वादा प्रथक् नाम्नापा वस्तु इत्येव वदन येषा त प्रथग्वादा द्वैतिन इत्यर्थ। तस्मात्ते कृपणा क्षुद्रा स्मृता यस्मात् वैशारद्य विशुद्धि तन्नास्ति तेषा भेदे विचरता द्वैतमाग अविद्यापरिकल्पिते सर्वदा वर्तमानानामित्यर्थ। अतो युक्तमेव तेषा कापण्यमित्यभिप्राय॥
अजे साम्ये तु ये केचिद्भविष्यन्ति सुनिश्चिताः।
ते हि लोके महाज्ञानास्तच्च लोको न गाहते॥२५॥
यदिद परमार्थतत्त्वम्, अमहात्मभिरपण्डितैर्वेदान्तबहिष्ठैक्षुद्रैरल्पप्रज्ञैरनवगाह्यमित्याह—अजे साम्ये परमार्थतत्त्वे एवमेवेति ये केचित् स्त्रादयोऽपि सुनिश्चिता भविष्यन्ति चेत्, ते एव हि लोके महाज्ञाना निरतिशयतत्त्वविषयज्ञाना इत्यर्थ। तच्च तेषा वर्त्म तेषा विदित परमार्थतत्त्व सामान्यबुद्धिरन्यो लोको न गाहते नावतरति न विषयीकरोतीत्यथ। ‘सर्वभूतात्मभूतस्य समैकार्थं प्रपश्यत। देवा अपि मार्गे मुह्मन्त्यपदस्य पदैषिण। शकुनीनामिवाकाश गतिर्नैवोपलभ्यते’ इत्यादिस्मरणात्॥
अजेष्वजमसक्रान्त धर्मेषु ज्ञानमिष्यते।
यतो न क्रमते ज्ञानमसङ्ग तेन कीर्तितम्॥९६॥
कथ महाज्ञानत्वमित्याह— अजेषु अनुत्पन्नेषु अचलेषु धर्मेषु आत्मसु अजमचल च ज्ञानमिष्यते सवितरीव औरूण्य प्रकाशश्च यत, तस्मात् असक्रान्तम् अर्थान्तरे ज्ञानमजमिष्यते। यस्मान्न क्रमते अर्थान्तरे ज्ञानम्, तेन कारणेन असङ्ग तत् कीर्तितम आकाशकल्पमित्युक्तम्॥
अणुमात्रेऽपि वैधर्म्ये जायमानेऽविपश्चित।
असङ्गता सदा नास्ति किमुतावरणच्युतिः॥९७॥
इतोऽन्येषा वादिनाम् अणुमात्रे अल्पेऽपि वैधर्म्ये वस्तुनि बहिरन्तर्वा जायमाने उत्पद्यमाने अविपश्चित अविवेकिन असङ्गता असङ्गत्व सदा नास्ति, किमुत वक्तव्यम् आवरणच्युति बन्धनाशो नास्तीति॥
अलब्धावरणा सर्वे धर्मा प्रकृतिनिर्मला।
आदौ बुद्धास्तथा मुक्ता बुध्यन्त इति नायका॥
तेषामावरणच्युतिर्नास्तीति ब्रुवता स्वसिद्धान्ते अभ्युपगत तर्हि धर्माणामावरणम्। नेत्युच्यते—अलब्धावरणा अलब्धमप्राप्तमावरणम् अविद्यादिबन्धन येषां ते धर्मा अलब्धावरणा बन्धनरहिता इत्यर्थ। प्रकृतिनिर्मला स्वभावशुद्धा आदौ बुद्धा तथा मुक्ता, यस्मात् नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावा। यद्येव कथं तर्हि बुध्यन्त इत्युच्यते— नायका स्वामिन समर्था बोद्धु बाधशक्तिमत्स्वभावा इत्यर्थ। यथा नित्यप्रकाशस्वरूपोऽपि सन् सविता प्रकाशत इत्युच्यते, यथा वा नित्यनिवृत्तगतयोऽपि नित्यमेव शैलास्तिष्ठन्तीत्युच्यत, तद्वत्॥
क्रमते न हि बुद्धस्य ज्ञान धर्मेषु तायिनः।
सर्वे धर्मास्तथा ज्ञान नैतद्बुद्धेन भाषितम्॥९९॥
यस्मात् न हि क्रमत बुद्धस्य परमार्थदर्शिनो ज्ञान विषयान्तरेषु धर्मेषु धर्मसस्थ सवितरीव प्रभा। तायिन तायोऽस्यास्तीति तायी, सतानवतो निरन्तरस्य आकाशकल्पस्येत्यर्थ, पूजावतो वा प्रज्ञावतो वा सर्वे धर्मा आत्मानोऽपि तथा ज्ञानवदेव आकाशकल्पत्वान्न क्रमन्त क्वचिदप्यर्थान्तर इत्यर्थ। यदादावुपन्यस्तम् ‘ज्ञानेनाकाशकल्पेन’ इत्यादि, तदिदमाकाशकल्पस्य तायिनो बुद्धस्य तदनन्यत्वादाकाशकल्प ज्ञान न क्रमते क्वचिदप्यर्थान्तरे। तथा धर्मा इति आकाशमिव अचलमविक्रिय निरवयव नित्यमद्वितीयमसङ्गमदृश्यमग्राह्यमशनायाद्यतीत ब्रह्मात्मतत्त्वम्, ‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेविपरिलोपो विद्यते’ इति श्रुते। ज्ञानज्ञेयज्ञातृभेदरहित परमार्थतत्वमद्वयमेतन्न बुद्वेन भाषितम्। यद्यपि बाह्यार्थनिराकरण ज्ञानमात्रकल्पना च अद्वयवस्तुसामीप्यमुक्तम्। इद तु परमार्थतत्त्वमद्वैत वेदान्तष्वेव विज्ञेयमित्यर्थ॥
दुर्दर्शमतिगम्भीरमज साम्य विशारदम्।
बुद्ध्वा पदमनानात्व नमस्कुर्मो यथाबलम्॥१००॥
शास्त्रसमाप्तौ परमार्थतत्वस्तुत्यर्थं नमस्कार उच्यते— दुर्दर्शं दुःखेन दर्शनमस्येति दुर्दर्शम्। अस्ति नास्तीति चतुष्कोटिवर्जितत्वाद्दुर्विज्ञेयमित्यर्थ। अत एव अतिगम्भीर
दुष्प्रवेश महासमुद्रवदकृतप्रज्ञै। अज साम्य विशारदम्। इदृक् पदम् अनानात्व नानात्ववर्जित बुद्ध्वाअवगम्य तद्भूता सन्त नमस्कुर्म तस्मै पदाय। अव्यवहार्यमपि व्यवहारगोचरतामापाद्य यथाबल यथाशक्तीत्यर्थ।
अजमपि जनियोगं प्रापदैश्वर्ययोगा
दगति च गतिमत्ता प्रापदेक ह्यनेकम्।
विविधविषयधर्मग्राहि मुग्धेक्षणाना
प्रणतभयविहन्तृब्रह्म यत्तन्नतोऽस्मि॥१॥
प्रज्ञावैशाखवेधक्षुभितजलनिधेर्वेदनाम्नोऽन्तरस्थ
भूतान्यालोक्य मग्नान्यविरतजननग्राहघोरे समुद्रे।
कारुण्यादुहधारामृतमिदममरैर्दुर्लभ भूतहेतो
र्यस्त पूज्याभिपूज्य परमगुरुममु पादपातैर्नतोऽस्मि॥२॥
यत्प्रज्ञालोकभासा प्रतिहतिमगमत्स्वान्तमोहान्धकारो
मज्जोन्मज्जच्च घारे ह्यसकृदुपजनोदन्वति त्रासने मे।
यत्पादावाश्रिताना श्रुतिशमविनयप्राप्तिरन्या ह्यमोधा
तत्पादौ पावनीयौ भवभयविनुदौ सर्वभावैर्नमस्ये॥३॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
माण्डूक्योपनिषत्कारिकाभाष्य सर्पूणम्॥
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॥ ऐतरेयोपनिषत् ॥
श्रीमच्छकरभगवत्पादविरचितेन
भाष्येण सहिता।
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रिसमाप्त कर्म सहापरब्रह्मविषयविज्ञानेन। सैषा कर्मणो ज्ञानसहितस्य परा गतिरुक्थविज्ञानद्वारेणोपसहता। एतत्सत्य ब्रह्म प्राणाख्यम्। एष एको देव। एतस्यैव प्राणस्य सर्वे देवा विभूतय। एतस्य प्राणस्यात्मभाव गच्छन् दवता अप्येति इत्युक्तम्। सोऽयं देवताप्ययलक्षण पर पुरुषार्थ। एष मोक्ष। स चाय यथो
क्तेन ज्ञानकर्मसमुच्चयेन साधनेन प्राप्तव्यो नात परमस्तीत्येके प्रतिपन्ना। तान्निराचिकीर्षुरुत्तरकेवलात्मज्ञानविधानाथम्’आत्मा वा इदम्’ इत्याद्याह। कथं पुनरकर्मसबन्धिकेव लात्मविज्ञानविधानाथ उत्तरो ग्रन्थ इति गम्यते? अन्यार्थानवगमात्। तथा च पूर्वोक्तानां देवतानामग्न्यादीनां संसारित्व दर्शयिष्यत्यशनायादिदोषवत्त्वेन तमशनायापिपासाभ्यामन्ववार्जत्’ इत्यादिना। अशनायादिमत्सर्व संसार एव, परस्य तु ब्रह्मणोऽशनायाद्यत्ययश्रुते। भवत्वेव केवलात्मज्ञानं मोक्षसाधनम्, न त्वत्राकर्म्येवाधिक्रियते विशेषाश्रवणात्। अकर्मिण आश्रम्यन्तरस्येहाश्रवणात्। कर्म च बृहती सहस्रलक्षण प्रस्तुत्य अनन्तरमेवात्मज्ञानं प्रारभ्यते। तस्मात्कर्म्येवाधिक्रियते। न च कर्मासबन्ध्यात्मविज्ञानम्, पूर्ववदत्ते उपसंहारात्। यथा कर्मसबन्धिन पुरुषस्य सूर्यात्मन स्थावरजङ्गमादिसर्वप्राण्यात्मत्वमुक्त ब्राह्मणन मन्त्रेण च ‘सूर्य आत्मा’ इत्यादिना, तथैव ‘एष ब्रह्मैष इन्द्र’ इत्याद्युपक्रम्य सर्वप्राण्यात्मत्वम्। ‘यच्च स्थावरम्, सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रम्’ इत्युपसहरिष्यति। तथा च सहितोपनिषत्— ‘एत ह्येव बह्वृचा महत्युक्थे मीमासन्ते’ इत्यादिना कर्मसबन्धित्वमुक्त्वा ‘सर्वेषु भूतेष्वेतमेव ब्रह्मेत्याचक्षत’ इत्युपसंहरति।
तथा तस्यैव ‘योऽयमशरीर प्रज्ञात्मा’ इत्युक्तस्य ‘यश्चासावादित्य एकमेव तदिति विद्यात्’ इत्येकत्वमुक्तम्। इहापि ‘कोऽयमात्मा’ इत्युपक्रम्य प्रज्ञात्मत्वमेव ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ इति दर्शयिष्यति। तस्मान्नाकर्मसबन्ध्यात्मज्ञानम्। पुनरुक्त्यानर्थक्यमिति चेत्— ‘प्राणो वा अहमस्म्यृषे’ इत्यादि ब्राह्मणेन ‘सूर्य आत्मा’ इति च मन्त्रण निर्धारितस्यात्मन ‘आत्मा वा इदम्’ इत्यादिब्राह्मणेन ‘कोऽयमात्मा’ इति प्रश्नपूर्वक पुनर्निर्धारण पुनरुक्तमनर्थकमिति चेत्, न तस्यैव धर्मान्तरविशेषनिर्धारणार्थत्वान्न पुनरुक्ततादोष। कथम् ? तस्यैव कर्मसबन्धिनो जगत्सृष्टिस्थितिसहारादिधर्मविशेषनिर्धारणार्थत्वात् केवलोपास्त्यर्थत्वाद्वा, अथवा, आत्मेत्यादि परोग्रन्थसन्दर्भ आत्मन कर्मिण कर्मणोऽ यत्रोपासनाप्राप्तौ कर्मप्रस्तावेऽविहितत्वाद्वा केवलोऽप्यात्मोपास्य इत्येवमर्थ। भेदाभेदोपास्यत्वाच्च ‘एक एवात्मा’ कर्मविषये भेददृष्टिभाक्। स एवाकर्मकाले अभेदेनाप्युपास्य इत्येवमपुनरुक्तता॥
‘विद्या चाविद्या च यस्तद्वेदोभय≍ सह। अविद्यया मृत्यु तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते’ इति ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँसमा’ इति च वाजिनाम्। न च वर्षशतात्परमायुर्मर्त्यानाम्, येन कर्मपरित्यागेन आत्मानमुपा-
सीत ! दर्शित च ‘तावन्ति पुरुषायुषोऽह्ना सहस्राणि भवन्ति’ इति। वर्षशत ‘वायु कर्मणैव व्याप्तम्। दर्शितश्च मन्त्र ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि’ इत्यादि, तथा ‘यावज्जीवमग्निहोत्र जुहोति’ ‘यावज्जीव दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत’ इत्याद्याश्च, ‘त यज्ञपात्रैर्दहन्ति’ इति च। ऋणत्रयश्रुतेश्च। तत्र हि पारिव्राज्यादिशास्त्रम् ‘व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति’ इत्यात्मज्ञानस्तुतिपरोऽर्थवादोऽनधिकृतार्थो वा। न, परमार्थात्मविज्ञाने फलादर्शने क्रियानुपपत्ते— यदुक्तकर्मिण एव चात्मज्ञान कर्मसंबन्धि चेत्यादि, तन्न ,पर ह्याप्तकाम सर्वसंसारदोषवर्जित ब्रह्माहमस्मीत्यात्मत्वेन विज्ञाने, कृतेन कर्तव्येन वा प्रयोजनमात्मनोऽपश्यत फलादर्शने किया नोपपद्यते। फलादर्शनेऽपि नियुक्तत्वात्करोतीति चेत्, न नियोगाविषयात्मदर्शनात्। इष्टयोगमनिष्टवियोग वात्मन प्रयोजन पश्यस्तदुपायार्थी यो भवति, स नियोगस्य विषयो दृष्टो लोके, न तु तद्विपरीतनियोगाविषयब्रह्मात्मत्वदर्शी। ब्रह्मात्मत्वदर्श्यपि सश्चेन्नियुज्येत, नियोगाविषयोऽपि सन्न कश्चिन्न नियुक्त इति सर्वंकर्म सर्वेण सर्वदा कर्तव्य प्राप्नोति। तच्चानिष्टम्। न च स नियोक्तु शक्यते केनचित्। आम्नायस्यापि तत्प्रभवत्वात्। न हि स्वविज्ञानोत्थेन वचसा स्वयं नियुज्यते।
नापि बहुवित्स्वामी अविवेकिना भृत्येन। आम्नायस्य नित्यत्व सति स्वातन्त्र्यात्सर्वान्प्रति नियोक्तृत्वसामर्थ्यमिति चेत्, न उक्तदोषात्। तथापि सर्वेण सर्वदा सर्वमविशिष्ट कर्मकर्तव्यमित्युक्तो दोषोऽप्यपरिहार्य एव। तदपि शास्त्रेणैव विधीयत इति चेत्— यथा कर्मकर्तव्यता शास्त्रेण कृता, तथा तदप्यात्मज्ञान तस्यैव कर्मिण शास्त्रेण विधीयत इति चेत्, न विरुद्धार्थबोधकत्वानुपपत्ते। न ह्येकस्मिन्कृता कृतसंबन्धित्वं तद्विपरीतत्वं च बोधयितुं शक्यम्। शीतोष्णत्वमिवाग्ने। न चेष्टयोगचिकीर्षा आत्मनोऽनिष्टवियोगचिकीर्षा च शास्त्रकृता, सर्वप्राणिना तद्दर्शनात्। शास्त्रकृत चेत्, तदुभय गोपालादीना न दृश्येत, अशास्त्रज्ञत्वात्तेषाम्। यद्धि स्वतोऽप्राप्तम्, तच्छास्त्रेण बोधयितव्यम्। तच्चेत्कृतकर्तव्यताविरोध्यात्मज्ञानं शास्त्रेण कृतम्, कथं तद्विरुद्धा कर्तव्यता पुनरुत्पादयेत् शीततामिवाग्नौ तम इव च भानौ ? न बोधयत्येवेति चेत्, न, ‘स म आत्मेति विद्यात्प्रज्ञानं ब्रह्म’ इति चोपसंहारात्। ‘तदात्मानमेवावेत्तत्त्वमसि’ इत्येवमादिवाक्याना तत्परत्वात्। उत्पन्नस्य च ब्रह्मात्मविज्ञानस्याबाध्यमानत्वान्नानुत्पन्न भ्रान्त वा इति शक्य वक्तुम्। त्यागेऽपि प्रयोजनाभावस्य तुल्य-
त्वमिति चेत् ‘नाकृतेनेह कश्चन’ इति स्मृते— य आहुर्विदित्वा ब्रह्म व्युत्थानमेव कुर्यादिति, तेषामप्येष समानो दोष प्रयोजनाभाव इति चेत्, न अक्रियामात्रत्वाद्व्युत्थानस्य। अविद्यानिमित्तो हि प्रयोजनस्य भाव, न वस्तुधर्म, सर्वप्राणिना तद्दर्शनात्, प्रयोजनतृष्णया च प्रेर्यमाणस्य वाङ्मन कायै प्रवृत्तिदर्शनात्, ‘सोऽकामयत जाया मे स्यात्’ इत्यादिना पुत्रवित्तादि पाङ्क्तलक्षण काम्यमेवेत्युभे ह्येते साध्यसाधनलक्षणे एषणे एवेति वाजसनेयिब्राह्मणेऽवधारणात्। अविद्याकामदोषनिमित्ताया वाङ्मन कायप्रवृत्ते पाङ्क्तलक्षणाया विदुषोऽविद्यादिदोषाभावादनुपपत्ते क्रियाभावमात्र व्युत्थानम्, न तु यागादिवदनुष्ठेयरूप भावात्मकम्। तच्च विद्यावत्पुरुषधर्म इति न प्रयोजनमन्वेष्टव्यम्। न हि तमसि प्रवृत्तस्य उदित आलोके यद्गर्तपङ्ककण्टकाद्यपतनम्, तत्किंप्रयोजनमिति प्रश्नार्हम्। व्युत्थानं तर्ह्यर्थप्राप्तत्वान्न चोदनार्थ इति। गाईस्थ्ये चेत्पर ब्रह्मविज्ञान जातम्, तत्रैवास्त्वकुर्वत आसन न ततोऽन्यत्र गमनमितिचेत्, न कामप्रयुक्तत्वाद्गार्हस्थ्यस्य। ‘एतावान्वै काम’
‘उभे ह्येते एषणे एव’ इत्यवधारणात् कामनिमित्तपुत्रवित्तादिसंबन्धनियमाभावमात्रम्, न हि ततोऽन्यत्र गमन
व्युत्थानमुच्यते। अतो न गार्हस्थ्य एवाकुर्वत आसनमुत्पन्नविद्यस्य। एतेन गुरुशुश्रूषातपसोरप्यप्रतिपत्तिर्विदुष सिद्धा। अत्र केचिद्गृहस्था भिक्षाटनादिभयात्परिभवाच्च त्रस्यमाना सूक्ष्मदृष्टिता दर्शयन्त उत्तरमाहु। भिक्षोरपि भिक्षाटनादिनियमदर्शनाद्देहधारणमात्रार्थिनो गृहस्थस्यापि साध्यसाधनैषणोभयविनिर्मुक्तस्य देहमात्रधारणार्थमशनाच्छादनमात्रमुपजीवतो गृह एवास्त्वासनमिति, न, स्वगृहविशेषपरिग्रहनियमस्य कामप्रयुक्तत्वादित्युक्तोत्तरमेतत्। स्वगृहविशेषपरिग्रहाभावे च शरीरधारणमात्रप्रयुक्ताशनाच्छादनार्थिन स्वपरिग्रहविशेषभावेऽर्थाद्भिक्षुकत्वमेव। शरीरधारणार्थाया भिक्षाटनादिप्रवृत्तौ यथा नियमो भिक्षो शौचादौ च, तथा गृहिणोऽपि विदुषोऽकामिनोऽस्तु नित्यकर्मसु नियमेन प्रवृत्तिर्यावज्जीवादिश्रुतिनियुक्तत्वात्प्रत्यवायपरिहारायेति। एतन्नियोगाविषयत्वेन विदुष प्रत्युक्तमशक्य नियोज्यत्वाच्चेति। यावज्जीवादिनित्यचोदनानर्थक्यमिति चेत्, न, अविद्वद्विषयत्वेनार्थवत्त्वात्। यत्तु भिक्षो शरीरधारणमात्रप्रवृत्तस्य प्रवृत्तेर्नियतत्वम्, तत्प्रवृत्तेर्न प्रयोजकम्। आचमनप्रवृत्तस्य पिपासापगमवन्नान्यप्रयोजनार्थत्वमवगम्यते। न चाग्निहोत्रादीना तद्वदर्थप्राप्तप्रवृत्तिनियतत्वोपपत्ति। अर्थ-
प्राप्तप्रवृत्तिनियमोऽपि प्रयोजनाभावेऽनुपपन्न एवेति चेत्, न, तन्नियमस्य पूर्वप्रवृत्तिसिद्धत्वात्तदतिक्रमे यत्नगौरवादर्थप्राप्तस्य व्युत्थानस्य पुनर्वचनाद्विदुषो मुमुक्षो कर्तव्यत्वोपपत्ति। अविदुषापि मुमुक्षुणा पारिव्राज्य कर्तव्यमेव, तथा च ‘शान्तो दान्त’ इत्यादिवचन प्रमाणम्। शमदमादीना चात्मदर्शनसाधनानामन्याश्रमेष्वनुपपत्ते। ‘अत्याश्रमिभ्य परम पवित्र प्रोवाच सम्यगृषिसघजुष्टम्’ इति च श्वेताश्वतरे विज्ञायते I ‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशु’ इति च कैवल्यश्रुति। ज्ञात्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्’ इति च स्मृते। ‘ब्रह्माश्रमपदे वसेत्’ इति च ब्रह्मचर्यादिविद्यासाधनानां च साकल्येनात्याश्रमिषूपपत्तेर्गार्हस्थ्येऽस भवात्। न च असपन्न साधन कस्यचिदर्थस्य साधनायालम्। यद्विज्ञानोपयोगीनि च गार्हस्थ्याश्रमकर्माणि, तेषा परम फलमुपसंहृत देवताप्ययलक्षण ससारविषयमेव। यदि कर्मिण एव परमात्मविज्ञानमभविष्यत्, संसारविषयस्यैव फलस्योपसंहारो नोपापत्स्यत। अङ्गफल तदिति चेत्, न तद्विरोध्यात्मवस्तुविषयत्वादात्मविद्याया। निराकृतसर्वनामरूपकर्मपरमार्थात्मवस्तुविषयमात्मज्ञानममृतत्वसाधनम्। गुणफल संबन्धे हि निराकृतसर्वविशेषात्मवस्तुविषयत्व ज्ञानस्य न
प्राप्नोति, तच्चानिष्टम्, ‘यत्रत्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्’ इत्यधिकृत्य क्रियाकारकफलादिसर्वव्यवहारनिराकरणाद्विदुष, तद्विपरीतस्याविदुष ‘यत्र हि द्वैतमिव भवति’ इत्युक्त्वा क्रियाकारकफलरूपस्य संसारस्य दर्शितत्वाच्च वाजसनेयिब्राह्मणे। तथेहापि देवताप्ययं ससारविषय यत्फलमशनायादिमद्वस्त्वात्मक तदुपसंहृत्य केवल सर्वात्मकवस्तुविषय ज्ञानममृतत्वायं वक्ष्यामीति प्रवर्तते। ऋणप्रतिबन्धश्चाविदुष एव मनुष्यपितृदेवलोकप्राप्तिं प्रति, न विदुष, ‘सोऽयं मनुष्यलोक पुत्रेणैव’ इत्यादिलोकत्रयसाधननियमश्रुते। विदुषश्च ऋणप्रति बन्धाभावो दर्शित आत्मलोकार्थिन ‘किं प्रजया करिष्याम’ इत्यादिना। तथा ‘एतद्ध स्म वै तद्विद्वास आहुर्ऋषय कावषेया’ इत्यादि ‘एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वासोऽग्निहोत्र न जुह वाचक्रु’ इति च कौषीतकिनाम्। अविदुषस्तर्हि ऋणानपाकरणे पारिव्राज्यानुपपत्तिरिति चेत्, न, प्राग्गार्हस्थ्यप्रतिपत्तेर्ऋणित्वासंभवादधिकारानारूढोऽपि ऋणी चेत्स्यात्, सर्वस्य ऋणित्वमित्यनिष्ट प्रसज्येत। प्रतिपन्नगार्हस्थ्यस्यापि ‘गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेद्यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा’ इत्यात्मदर्शनसाधनोपायत्वेनेष्यत एव पारिव्राज्यम्। यावज्जीवादिश्रुतीनामविद्वदमुमुक्षुविषये कृतार्थता। छान्दोग्ये च केषा-
चिद्द्वादशरात्रमग्निहोत्र हुत्वा तत ऊर्ध्वं परित्याग श्रूयते। यत्त्वधिकृताना पारिव्राज्यमिति, तन्न, तेषा पृथगेव ‘उत्सन्नाग्निरनग्निको वा’ इत्यादिश्रवणात्, सर्वस्मृतिषु च अविशेषेण आश्रमविकल्प प्रसिद्ध, समुच्चयश्च। यत्तु विदुषोऽर्थप्राप्त व्युत्थानमित्यशास्त्रार्थत्वे, गृहे वने वा तिष्ठतो न विशेष इति, तदसत्। व्युत्थानस्यैवार्थप्राप्तत्वान्नान्यत्रावस्थान स्यात्। अन्यत्रावस्थानस्य कामकर्मप्रयुक्तत्व ह्यवोचाम, तदभावमात्र व्युत्थानमिति च। यथाकामित्वं तु विदुषोऽत्यन्तमप्राप्तम्, अत्यन्तमूढविषयत्वेनावगमात्। तथा शास्त्रचोदितमपि कर्मात्मविदोऽप्राप्त गुरुभारतयावगम्यते, किमुत अत्यन्ता विवेकनिमित्त यथाकामित्वम्? न ह्युन्मादतिमिरदृष्ट्युपलब्ध वस्तु तदपगमेऽपि तथैव स्यात्, उन्मादतिमिरदृष्टिनिमित्तत्वादेव तस्य। तस्मादात्मविदो व्युत्थानव्यतिरेकेण न यथाकामित्वम्, न चान्यत्कर्तव्यमित्येतत्सिद्धम्। यत्तु ‘विद्या चाविद्या च यस्तद्वेदोभयँसह’ इति न विद्यावतो विद्यया सहाविद्यापि वर्तत इत्ययमर्थ, कस्तर्हि? एकस्मिन्पुरुषे एतेन सह संबध्येयातामित्यर्थ, यथा शुक्तिकाया रजतशुक्तिकाज्ञाने एकस्य पुरुषस्य। ‘दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता’ इति हि काठके। तस्मान्न
विद्याया सत्यामविद्याया सभवोऽस्ति। ‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व’ इत्यादिश्रुते। तपआदि विद्योत्पत्तिसाधन गुरूपासनादि च कर्म अविद्यात्मकत्वादविद्योच्यते। तेन विद्यामुत्पाद्य मृत्यु काममतितरति। ततो निष्कामस्त्यक्तैषणो ब्रह्मविद्यया अमृतत्वमश्नुत इत्येतमर्थं दर्शयन्नाह— ‘अविद्यया मृत्यु तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते’ इति। यत्तु पुरुषायु सर्व कर्मणैव व्याप्तम्, ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समा’ इति, तदविद्वद्विषयत्वेन परिहतम्, इतरथा असभवात्। यत्तु वक्ष्यमाणमपि पूर्वोक्ततुल्यत्वात्कर्मणा अविरुद्धमात्मज्ञानमिति, तत्सविशेषनिर्विशेषात्मविषयतया प्रत्युक्तम्, उत्तरत्र व्याख्याने च दर्शयिष्याम। अत केवल निष्क्रियब्रह्मात्मैकत्वविद्याप्रदर्शनार्थमुत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते॥
आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति॥१॥
आत्मेति। आत्मा आप्नोतेरत्तेरततेर्वा पर सर्वज्ञ सर्वशक्तिरशनायादिसर्वसंसारधर्मवर्जितो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावोऽजोऽजरोऽमरोऽमृतोऽभयोऽद्वयो वै। इद यदुक्त नाम
रूपकर्मभेदभिन्न जगत् आत्मैव एक अग्रे जगत सृष्टे प्राक् आसीत्। किं नेदानीं स एवैक ? न। कथं तर्हि आसीदित्युच्यते? यद्यपीदानीं स एवैक, तथाप्यस्ति विशेष। प्रागुत्पत्ते अव्याकृतनामरूपभेदमात्मभूतमात्मैकशब्दप्रत्ययगोचर जगत् इदानीं व्याकृतनामरूपभेदत्वादनेकशब्दप्रत्ययगोचरमात्मैकशब्दप्रत्ययगोचर चेति विशेष। यथा सलिलात्पृथक् फेननामरूपव्याकरणात्प्राक्सलिलैकशब्दप्रत्ययगोचरमेव फेनम्, यदा सलिलात्पृथङ् नामरूपभेदेन व्याकृत भवति, तदा सलिल फेन चेति अनेकशब्दप्रत्ययभाक्सलिलमेवेति चैकशब्दप्रत्ययभाक्च फेन भवति, तद्वत्। न अन्यत्किंचन न किंचिदपि मिषत् निमिषद्व्यापारवदितरद्वा। यथा सारयानामनात्मपक्षपाति स्वतन्त्र प्रधानम्, यथा च काणादानामणव, न तद्वदिहान्यदात्मन किंचिदपि वस्तु विद्यते। किं तर्हि ? आत्मैवैक आसीदित्यभिप्राय। स सर्वज्ञस्वाभाव्यात् आत्मा एक एव सन् ईक्षत। ननु प्रागुत्पत्तेरकार्यकरणत्वात्कथमीक्षितवान्? नायं दोषः, सर्वज्ञ स्वाभाव्यात्। तथा च मन्त्रवर्ण— ‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता’ इत्यादि। केनाभिप्रायेणेत्याह—लोकान् अम्भ प्रभृतीन्प्राणिकर्मफलोपभोगस्थानभूतान् नु सृजै सृजेऽहम् इति।
स इमल्ँलोकानसृजत। अम्भो मरीचीर्मरमापोऽदोऽम्भ परेण दिव द्यौःप्रतिष्ठान्तरिक्ष मरीचयः। पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः॥२॥
एवमीक्षित्वा आलोच्य स आत्मा इमान् लोकान् असृजत सृष्टवान्। यथेह बुद्धिमास्तक्षादि एवप्रकारान्प्रासादादीन्सृजे इतीक्षित्वा ईक्षानन्तर प्रासादादीन्सृजति, तद्वत्। ननु सोपादानस्तक्षादि प्रासादादीन्सृजतीति युक्तम्, निरुपादानस्त्वात्मा कथं लोकान्सृजतीति? नैष दोष सलिलफेनस्थानीये आत्मभूते नामरूपे अव्याकृते आत्मैकशब्दवाच्ये व्याकृतफेनस्थानीयस्य जगत उपादानभूत सभवत। तस्मादात्मभूतनामरूपोपादानभूत सन् सर्वज्ञो जगन्निर्मिमीते इत्यविरुद्धम्। अथवा, विज्ञानवान्यथा मायावी निरुपादान आत्मानमेव आत्मान्तरत्वेन आकाशेन गच्छन्तमिव निर्मिमीते, तथा सर्वज्ञो देव सर्वशक्तिर्महामाय आत्मानमेव आत्मान्तरत्वेन जगद्रूपेण निर्मिमीते इति युक्ततरम्। एव च सति कार्यकारणोभयासद्वाद्यादिपशाश्च न प्रसज्जन्ते, सुनिराकृताश्च भवन्ति। कान् लोकानसृजतेत्याह— अम्भो
मरीचीर्मरमाप इति। आकाशादिक्रमेण अण्डमुत्पाद्य अम्भ प्रभृतीन् लोकानसृजत। तत्र अम्भ प्रभृतीन्स्वयमेव व्याचष्टे श्रुति। अद तत् अम्भ शब्दवात्त्यो लोक, परेण दिव द्युलोकात्परेण परस्तात् सोऽम्भ शब्द वाच्य, अम्भोभरणात्। द्यौ प्रतिष्ठा आश्रय तस्याम्भसो लोकस्य। द्युलोकादधस्तात् अन्तरिक्ष यत्, तत् मरीचय। एकोऽपि अनेकस्थानभेदत्वाद्बहुवचनभाक्—मरीचय इति, मरीचिभिर्वा रश्मिभि संबन्धात्। पृथिवी मर— म्रियन्ते अस्मिन् भूतानीति। या अधस्तात् पृथिव्या, ता आप उच्यन्ते, आप्नोते, लोका। यद्यपि पञ्चभूतात्मकत्व लोकानाम्, तथापि अब्बाहुल्यात् अब्नामभिरेव अम्भो मरीचीर्मरमाप इत्युच्यन्ते॥
स ईक्षतेमे तु लोका लोकपालान्नु सृजा इति। सोऽद्भ्य एव पुरुष समुद्धृत्यामूर्छयत्॥३॥
सर्वप्राणिकर्मफलोपादानाधिष्ठानभूताश्चतुरो लोकान्सृष्ट्वा स ईश्वर पुनरेव ईक्षत—इमे नु तु अम्भ प्रभृतय मया सृष्टा लोका परिपालयितृवर्जिता विनश्येयु, तस्मादेषा
रक्षणार्थ लोकपालान् लोकाना पालयितृॄन् नु सृजै सृजेऽहम् इति। एवमीक्षित्वा स अद्भ्य एव अप्प्रधानेभ्य एव पञ्च भूतेभ्य,येभ्योऽम्भ प्रभृतीन्सृष्टवान्, तेभ्य एवेत्यर्थ, पुरुष पुरुषाकार शिर पाण्यादिमन्त समुद्धृत्य अद्भ्य समुपादाय, मृत्पिण्डमिव कुलाल पृथिव्या, अमूर्छयत् मूर्छितवान् सपिण्डितवान्म्वावयवसयोजनेनेत्यर्थ॥
तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुख निरभिद्यत यथाण्ड मुखाद्वाग्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्या प्राण प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतामक्षिभ्या चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभिद्येता कर्णाभ्या श्रोत्र श्रोत्राद्दिशस्त्वड् निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो हृदय निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्या अपानोऽपानान्मृत्युःशिश्न निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आप॥४॥
इति प्रथमः खण्डः॥
त पिण्ड पुरुषविधमुद्दिश्य अभ्यतपत्, तदभिध्यान सकल्पकृतवानित्यर्थ, ‘यस्य ज्ञानमय तप’ इत्यादिश्रुते। तस्य अभितप्तस्य ईश्वरसकल्पेन तपसाभितप्तस्य पिण्डस्य मुख निरभिद्यत मुखाकार सुषिरमजायत, यथा पक्षिण अण्ड निर्भिद्यते एवम्। तस्माच्च निर्भिण्णात् मुखात् वाक् करणमिन्द्रिय निरवर्तत, तदधिष्ठाता अग्नि, ततो वाच, लोकपाल। तथा नासिके निरभिद्येताम्। नासिकाभ्यां प्राण, प्राणाद्वायु, इति सर्वत्राधिष्ठान करण देवता च— त्रय क्रमेण निर्भिण्णमिति। अक्षिणी, कर्णौ, त्वक्, हृदयमन्त करणाधिष्ठानम्, मन अन्तःकरणम्, नाभि सर्वप्राणबन्धनस्थानम्।अपानसंयुक्तत्वात् अपान इति पाय्विन्द्रियमुच्यते, तस्मात्तस्याधिष्ठात्री देवता मृत्यु। यथा अन्यत्र, तथा शिश्न निरभिद्यत प्रजननेन्द्रियस्थानम्। इन्द्रिय रेत रेतोविसर्गार्थत्वात्सह रेतसोच्यते। रेतस आप इति॥
इति प्रथमखण्डभाष्यम्॥
द्वितीयः खण्डः॥
ता एता देवताःसृष्टा अस्मिन्महत्यर्णवे प्रापतस्तमशनायापिपासाभ्यामन्ववार्जत्ता एनमब्रुवन्नायतन न प्रजानीहि यस्मिन्प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति॥१॥
ता एता अग्न्यादयो देवता लोकपालत्वेन सकल्प्य सृष्टा ईश्वरेण अस्मिन् ससारार्णवे ससारसमुद्रे महति अविद्याकामकर्मप्रभवदु खोदके तीव्ररोगजरामृत्युमहाग्राहे अनादौ अनन्ते अपारे निरालम्बे विषयेन्द्रियजनितसुखलवलक्षणविश्रामे पञ्चेन्द्रियार्थतृण्मारुतविक्षोभोत्थितानर्थशतमहोर्मौ महारौरवाद्यनेकनिरयगताहेत्यादिकूजिताक्रोशनोद्भूतमहारवे सत्यार्जवदानदयाहिंसाशमदमधृत्याद्यात्मगुणपाथेयपूर्णज्ञानोडुपे सत्सङ्गसर्वत्यागमार्गे मोक्षतीरे एतस्मिन् महत्यर्णवे प्रापतन्पतितवत्य। तस्मादग्न्यादिदेवताप्ययलक्षणापि या गतिर्व्याख्याता ज्ञानकर्मसमुच्चयानुष्ठानफलभूता, सापि नाल संसारदुःखोपशमायेत्ययं विवक्षितोऽर्थोऽत्र। यत एवम्, त-
स्मादेव विदित्वा परब्रह्म, आत्मा आत्मन सर्वभूतानां च, यो वक्ष्यमाणविशेषण प्रकृतश्च जगदुत्पत्तिस्थितिसंहारहेतुत्वेन, स सर्वससारदुःखोपशमनाय वेदितव्यम्। तस्मात् ‘एष पन्था एतत्कर्मैतद्ब्रह्मैतत्सत्यम्’ यदेतत्परब्रह्मात्मज्ञानम्, ‘नान्य पन्था विद्यतेऽयनाय’ इति मन्त्रवर्णात्। त स्थानकरणदेवतोत्पत्तिबीजभूत पुरुष प्रथमोत्पादित पिण्डमात्मानम् अशनायापिपासाभ्याम् अन्ववार्जत् अनुगमितवान् संयोजितवानित्यर्थः। तस्य कारणभूतस्य अशनायादिदोषवत्त्वात् तत्कार्यभूतानामपि देवतानामशनायादिमत्त्वम्। ता तत अशनायापिपासाभ्या पीड्यमाना एन पितामह स्रष्टारम् अब्रुवन् उक्तवत्य। आयतनम् अधिष्ठान न अस्मभ्य प्रजानीहि विधत्स्व, यस्मिन् आयतने प्रतिष्ठिता समर्था सत्य अन्नम् अदाम भक्षयाम इति॥
ताभ्यो गामानयन्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति। ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्नवै नोऽयमलमिति॥२॥
एवमुक्त ईश्वर ताभ्य देवताभ्य गा गवाकृतिविशिष्ट पिण्ड ताभ्य एवाद्भथ पूर्ववत्पिण्ड समुद्धृत्य मूर्छयित्वा आ
नयत् दर्शितवान्। ता पुन गवाकृतिं दृष्ट्वा अब्रुवन्। न वै न अस्मदर्थम् अधिष्ठाय अन्नमत्तुम् अयपिण्ड अलन वै। अल पर्याप्त। अत्तु न योग्य इत्यर्थ। गवि प्रत्याख्याते तथैव ताभ्य अश्वम् आनयत्। ता अब्रुवन्— न वै नोऽयममिति, पूर्ववत्॥
ताभ्य पुरुषमानयत्ता अब्रुवन्सु कृत बतेति पुरुषो वाव सुकृतम्। ता अब्रवीद्यथायतन प्रविशतेति॥३॥
सर्वप्रत्यारयाने ताभ्य पुरुषमानयत् स्वयोनिभूतम्। ता स्वयोनिं पुरुष दृष्ट्वा अखिन्ना सत्य सु कृत शोभन कृतम् इदमधिष्ठान बत इति अब्रुवन्। तस्मात्पुरुषो वाव पुरुष एवं सुकृतम्, सर्वपुण्यकर्महेतुत्वात्, स्वय वा स्वेनैवात्मना स्वमायाभि कृतत्वात्सुकृतमित्युच्यते। ता देवता ईश्वर अब्रवीत् इष्टमासामिदमधिष्ठानमिति मत्वा— सर्वे हि स्वयोनिषु रमन्ते, अत यथायतन यस्य यत् वदनादिक्रिया योग्यमायतनम्, तत् प्रविशत इति॥
अग्निर्वाग्भूत्वा मुख प्राविशद्वायुः प्राणो श्रूत्वानासिके प्राविशदादित्यश्चक्षुर्श्रू-
त्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्र भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वच प्राविशश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदय प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभि प्राविशदापो रेतो भूत्वा शिश्न प्राविशन्॥४॥
तथास्त्वित्यनुज्ञा प्रतिलभ्येश्वरस्य नगर्यामिव बलाधिकृतादय अग्नि वागभिमानी वागेव भूत्वा स्वयोनिं मुख प्राविशत् तथोक्तार्थमन्यत्। वायुर्नासिके, आदित्योऽक्षिणी, दिश कर्णौ, ओषधिवनस्पतयस्त्वचम्, चन्द्रमा हृदयम्, मृत्युर्नाभिम्, आप शिश्नम्, प्राविशन्॥
तमशनायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति । ते अब्रवीदेतास्वेव वा देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्यौ करोमीति । तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः॥५॥
इति द्वितीयः खण्डः॥
एव लब्धाधिष्ठानासु देवतासु निरधिष्ठाने सत्यौ अशनायापिपासे तम् ईश्वरम् अब्रूताम् उक्तवत्यौ—आवाभ्याम् अधिष्ठानम् अभिप्रजानीहि चिन्तय विधत्स्वेत्यर्थ। स ईश्वर एवमुक्त ते अशनायापिपासे अब्रवीत्। न हि युवयोर्भावरूपत्वाच्चेतनावद्वस्त्वनाश्रित्य अन्नात्तृत्व सभवति। तस्मात् एतास्वेव अग्न्याद्यासु वा युवा देवतासु अध्यात्माधिदेवतासु आभजामि वृत्तिसविभागेनानुगृह्णामि। एतासु भागिन्यौ यद्देवत्यो यो भागो हविरादिलक्षण स्यात्, तस्यास्तेनैव भागेन भागिन्यौ भागवत्यौ वा करोमीति। सृष्ट्यादावीश्वर एव व्यदधाद्यस्मात्, तस्मात् इदानीमपि यस्यै कस्यै च देवतायै देवताया अर्थाय हविर्गृह्यते चरुपुरोडाशादिलक्षण भागिन्यौ एव भागवत्यावेव अस्या देवतायाम् अशनायापिपासे भवत॥
इति द्वितीयखण्डभाष्यम्॥
तृतीयः खण्डः॥
स ईक्षते मे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति॥१॥
स एवमीश्वर ईक्षत। कथम् ? इमे तु लोकाश्च लोकपालाश्च मया सृष्टा, अशनायापिपासाभ्यां च सयोजिता। अतो नैषा स्थितिरन्नमन्तरेण। तस्मात् अन्नम् एभ्य लोकपालेभ्य सृजै सृजे इति। एव हि लोके ईश्वराणामनुग्रहे निग्रहे च स्वातन्त्र्य दृष्ट स्वेषु। तद्वन्महेश्वरस्यापि सर्वेश्वरत्वात्सर्वान्प्रति निग्रहे अनुग्रहे च स्वातन्त्र्यमेव॥
सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत। या वै सा मूर्तिरजायतान्न वै तत्॥२॥
स ईश्वर अन्न सिसृक्षु ता एव पूर्वोक्ता अप उद्दिश्य अभ्यतपत्। ताभ्य अभितप्ताभ्य उपादानभूताभ्य मूर्तिघनरूप धारणसमर्थं चराचरलक्षणम् अजायत उत्पन्नम्। अन्न वै तत् मूर्तिरूप या वै सा मूर्तिरजायत॥
तदेनदभिसृष्ट पराडत्यजिघासत्तद्वाचाजिघृक्षन्तन्नाशक्नोद्वाचा ग्रहीतुम्। स यद्धैनद्वाचाग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत्॥३॥
तत्प्राणेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुम्। स यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत्॥४॥
तच्चक्षुषाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतुम्। स यद्धैनच्चक्षुषाग्रहैष्यद्दृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥५॥
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुम्। स यद्धैनच्छ्रोत्रेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥६॥
तत्त्वचाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोत्त्वाचा ग्रहीतुम्। स यद्धैनत्त्वचाग्रहैष्यत्स्पृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥७॥
तन्मनसाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोन्मनसा ग्रहीतुम्। स यद्धैनन्मनसाग्रहैष्यद्ध्यात्वा हैवान्नमत्रप्स्यत्॥८॥
तच्छिश्नेनाजिघृक्षत्तन्नाशक्नोच्छिश्नेन ग्रहीतुम्। स यद्धैनच्छिश्नेनाग्रहैष्यद्विसृज्य हैवान्नमत्रप्स्यत्॥९॥
तदपानेनाजिघृक्षत्तदावयत्। सैषोऽन्नस्य ग्रहो यद्वायुरन्नायुर्वा एष यद्वायुः॥
तदेनत् अन्न लोकलोकपालान्नार्थ्याभिमुखे सृष्ट सत्, यथा मूषकादिर्मार्जारादिगोचरे सन्, मम मृत्युरन्नाद् इति मत्वा परागञ्चतीति पराङ् पराक्सत् अत्तृॄन् अतीत्य अजिघासत् अतिगन्तुमैच्छत्, पलायितु प्रारभतेत्यर्थ। तमन्नाभिप्राय मत्वा स लोकलोकपालसघातकार्यकरणलक्षण पिण्ड प्रथमजत्वादन्याश्चान्नादानपश्यन्, तत् अन्न वाचा वदनव्यापारेण अजिघृक्षत् ग्रहीतुमैच्छत्। तत् अन्न नाशक्नोत् न समर्थोऽभवत् वाचा वदनक्रियया ग्रहीतुम् उपादातुम्। स प्रथमज शरीरी यत् यदि ह एनत् वाचा अग्रहैष्यत गृहीतवान्स्यात्
अन्नम्, सर्वोऽपि लोक तत्कार्यभूतत्वात् अभिव्याहृत्य हैव अन्नम् अत्रप्स्यत् तृप्तोऽभविष्यत्। न चैतदस्ति। अतो नाशक्नोद्वा चा ग्रहीतुमित्यवगच्छाम पूर्वजोऽपि समानमुत्तरम्। तत्प्राणेन तच्चक्षुषा तच्छ्रोत्रेण तत्त्वचा तन्मनसा तच्छिश्नेन तेन तेन करणव्यापारेण अन्न ग्रहीतुमशक्नुवन्पश्चात् अपानेनवायुना मुखच्छिद्रेण तत् अन्नम् अजिघृक्षत्, तदावयत् तदन्नमेव जग्राह अशितवान्। तेन स एष अपानवायु अन्नस्य ग्रह अन्नग्राहक इत्येतत्। यद्वायु यो वायुरन्नायु अन्नबन्धनोऽन्नजीवनो वै प्रसिद्ध, स एष यो वायु॥
स ईक्षत कथ न्विद मदृते स्यादिति स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति स ईक्षत यदि वाचाभिव्याहृत यदि प्राणेनाभिप्राणित यदि चक्षुषा दृष्ट यदि श्रोत्रेण श्रुत यदि त्वचा स्पृष्ट यदि मनसा ध्यात यद्यपानेनाभ्यपानित यदि शिश्नेन विसृष्टमथ कोऽहमिति॥११॥
स एव लोकलोकपालसघातस्थितिम् अन्ननिमित्ता कृत्वा पुरपौरतत्पालयितृस्थितिसमा स्वामीव ईक्षत— कथ नु केन
प्रकारेण नु इति वितर्कयन्, इद मत् ऋते मामन्तरेण पुरस्वामिनम्, यदि कार्यकरणसंघातकार्यं वक्ष्यमाण कथं नु खलु मामन्तरेण स्यात् परार्थंसत्। यदि वाचाभिव्याहृतमित्यादि केवलमेव वाग्व्यवहरणादि, तन्निरर्थक न कथचन भवेत् बलिस्तुत्यादिवत्। पौरबन्धादिभि प्रयुज्यमान स्वाम्यर्थं सत्स्वामिनमन्तरेण असत्येव स्वामिनि, तद्वत्। तस्मान्मया परेण स्वामिना अधिष्ठात्रा कृताकृतफलसाक्षिभूतेन भोक्त्रा भवितव्य पुरस्येव राज्ञा। यदि नामैतत्सहत कार्यस्य परार्थत्वम्, परार्थिन मा चेतन त्रातारमन्तरेण भवेत्, पुरपौरकार्यमिव तत्स्वामिनम्। अथ कोऽहं किंस्वरूपं कस्य वा स्वामी? यद्यह कार्यकरणसंघातमनुप्रविश्य वागाद्यभिव्याहृतादिफल नोपलभेय राजेव पुरमाविश्याधिकृतपुरुषकृताकृतादिलक्षणम्, न कश्चिन्माम् अयं सन् एवरूपश्च इत्यधिगच्छेद्विचारयेत्। विपर्यये तु, योऽय वागाद्यभिव्याहृतादीदमिति वेद, स सन् वेदनरूपश्च इत्यधिगन्तव्योऽहं स्याम्, यदर्थमिद सहताना वागादीनामभिव्याहृतादि। यथा स्तम्भकुड्यादीना प्रासादादिसहताना स्वावयवैरसहतपरार्थत्वम्, तद्वदिति। एवमीक्षित्वा अत कतरेण प्रपद्या इति। प्रपद च मूर्धा च अस्य संघातस्य प्रवेशमार्गौ, अनयो कतरेण मार्गेणेद
स एतमेव सीमान विदार्यैतया द्वारा प्रापद्यत। सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नान्दनम्। तस्य त्रय आवसथास्त्रय स्वप्ना अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथ इति॥१२॥
एवमीक्षित्वा न तावन्मद्भृत्यस्य प्राणस्य मम सर्वार्थाधिकृतस्य प्रवेशमार्गेण प्रपदाभ्यामध प्रपद्ये। किं तर्हि, पारिशेष्यादस्य मूर्धान विदार्य प्रपद्ये इति लोक इव ईक्षित कारी य स्रष्टेश्वर, स एतमेव मूर्धसीमान केशविभागावसान विदार्थ च्छिद्र कृत्वा एतया द्वारा मार्गेण इम कार्यकारणसंघात प्रापद्यत प्रविवेश। सेयं हि प्रसिद्धा द्वा, मूर्ध्नि तैलादिधारणकाले अन्तस्तद्रसादिसंवेदनात्। सैषा विदृति विदारितत्वाद्विदृतिर्नाम प्रसिद्धा द्वा। इतराणि तु श्रोत्रादिद्वाराणि भृत्यादिस्थानीयसाधारणमार्गत्वान्न समृद्धीनि नानन्दहेतूनि। इदं तु द्वारं परमेश्वरस्यैव केवलस्येति। तदेतत् नान्दन नन्दनमेव। नान्दनमिति दैर्घ्यंछान्दसम्।
नन्दत्यनेन द्वारेण गत्वा परस्मिन्ब्रह्मणीति। तस्यैव सृष्ट्वा प्रविष्टस्यानेन जीवेनात्मना राज्ञ इव पुरम्, त्रय आवसथा— जागरितकाले इन्द्रियस्थान दक्षिण चक्षु, स्वप्नकाले अन्तर्मन, सुषुप्तिकाले हृदयाकाश इत्येते, वक्ष्यमाणा वा त्रयआवसथा— पितृशरीर मातृगर्भाशय स्व च शरीरमिति।त्रय स्वप्ना जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याख्या। ननु जागरित प्रबोधरूपत्वान्न स्वप्न। नैवम्, स्वप्न एव। कथम् ? परमार्थस्वात्मप्रबोधाभावात् स्वप्नवदसद्वस्तुदर्शनाच्च। अयमेव आवसथश्चक्षुर्दक्षिण प्रथम। मनोऽन्तर द्वितीय। हृदयाकाशस्तृतीय। अयमावसथ इत्युक्तानुकीर्तनमेव। तेषु ह्ययमावसथेषु पर्यायेणात्मभावेन वर्तमानोऽविद्यया दीर्घकाल गाढ प्रसुप्तस्वाभाविक्या, न प्रबुध्यतेऽनेकशतसहस्रानर्थसनिपादजदुःखमुद्गराभिघातानुभवैरपि॥
स जातो भूतान्यभिव्यैख्यत्किमिहान्य वावदिषदिति। स एतमेव पुरुष ब्रह्म ततममपश्यदिदमदर्शमिती३॥१३॥
स जात शरीरे प्रविष्टो जीवात्मना भूतानि अभिव्यैख्यत् व्याकरोत्। स कदाचित्परमकारुणिकेन आचार्येणा-
त्मज्ञानप्रबोधकृच्छब्दिकाया वेदान्तमहाभेर्यो तत्कर्णमूले ताड्यमानायाम्, एतमेव सृष्ट्यादिकर्तृत्वेन प्रकृत पुरुष पुरि शयानमात्मान ब्रह्म बृहत् ततम तकारेणैकेन लुप्तेन तततम व्याप्ततम परिपूर्णमाकाशवत् प्रत्यबुध्यत अपश्यत्। कथम् ? इदं ब्रह्म मम आत्मन स्वरूपमदर्श दृष्टवानस्मि। अहो इति। विचारणार्था प्लुति पूर्वम्॥
तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम तमिदन्द्र सन्तमिन्द्र इत्याचक्षते परोक्षेण। परोक्षप्रिया इव हि देवाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः॥१४॥
इति तृतीयः खण्ड॥
यस्मादिदमित्येव यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्मसर्वान्तरमपश्यत्न परोक्षेण, तस्मात् इदं पश्यतीति इदन्द्रो नाम परमात्मा। इदन्द्रो ह वै नाम प्रसिद्धो लोके ईश्वर। तम् एवम् इदन्द्र सन्तम् इन्द्र इति परोक्षेण परोक्षाभिधानेन आचक्षते ब्रह्मविद सव्यवहारार्थं पूज्यतमत्वात्प्रत्यक्षनामग्रहणभयात्।
तथा हि परोक्षप्रिया परोक्षनामग्रहणप्रिया इव एव हि यस्मात् देवा। किमुत सर्वदेवानामपि देवो महेश्वर। द्विर्वचन प्रकृताध्यायपरिसमाप्त्यर्थम्॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्द -
भगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवतकृतौ
ऐतरेयोपनिषद्भाष्ये प्रथमोऽध्यायः॥
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द्वितीयोऽध्यायः॥
अस्मिन्नध्याये एष वाक्यार्थ— जगदुत्पत्तिस्थितिप्रलयकृदससारी सर्वज्ञसर्वशक्ति सर्ववित्सर्वमिद जगत्स्वतोऽन्यद्वस्त्वन्तरमनुपादायैव आकाशादिक्रमेण सृष्ट्वास्वात्मप्रबोधनार्थं सर्वाणि च प्राणादिमच्छरीराणि स्वयं प्रविवेश, प्रविश्य च स्वमात्मान यथाभूतमिदं ब्रह्मास्मीति साक्षात्प्रत्यबुध्यत, तस्मात्स एव सर्वशरीरेष्वेक एवात्मा, नान्य इति। अन्योऽपि ‘स म आत्मा ब्रह्मास्मीत्येव विद्यात्’ इति ‘आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्’ ‘ब्रह्म ततमम्’ इति चोक्तम्। अन्यत्र च सर्वगतस्य सर्वात्मनो वालाग्रमात्रमप्यप्रविष्ट नास्तीति कथं सीमान विदार्य प्रापद्यत पिपीलिकेव सुषिरम् ? नन्वत्यल्पमिद चोद्यम्। बहु चात्र चोदयितव्यम्। अकरण सन्नीक्षत। अनुपादाय किंचिल्लोकानसृजत। अद्भे्यपुरुष समुद्धृत्यामूर्छयत्। तस्या-
भिध्यानान्मुखादि निर्भिन्न मुखादिभ्यश्चाग्न्यादयो लोकपाला। तेषां चाशनायादिसयोजन तदायतनप्रार्थन तदर्थं गवादिप्रदर्शनं तेषां च यथायतनप्रवेशन सृष्टस्यान्नस्य पलायनं वागादिभिस्तज्जिघृक्षेति। एतत्सर्वं सीमाविदारणप्रवेशसममेव॥
अस्तु तर्हि सर्वमेवेदमनुपपन्नम्। न, अत्रात्मावबोधमात्रस्य विवक्षितत्वात्सर्वोऽयमर्थवाद इत्यदोष। मायाविवद्वा, महामायावी देव सर्वज्ञ सर्वशक्ति सर्वमेतच्चकार सुखावबोधप्रतिपत्त्यर्थं लोकवदारयायिकादिप्रपञ्च इति युक्ततर पक्ष। न हि स्रष्ट्यारयायिकादिपरिज्ञानात्किंचित्फलमिष्यते। ऐकात्म्यस्वरूपपरिज्ञानात्तु अमृतत्वं फलं सर्वोपनिषत्प्रसिद्धम्। स्मृतिषु च गीताद्यासु ‘सम सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्त परमेश्वरम्’ इत्यादिना। ननु त्रय आत्मानो भोक्ता कर्ता ससारी जीव एक सर्वलोकशास्त्रप्रसिद्ध। अनेकप्राणिकर्मफलोपभोगयोग्यानेकाधिष्ठानवल्लोकदेहनिर्माणेन लिङ्गेन यथाशास्त्रप्रदर्शितेन पुरप्रासादादिनिर्माणलिङ्गेन तद्विषयकौशलज्ञानवास्तत्कर्ता तक्षादिरिवईश्वर सर्वज्ञो जगत कर्ता द्वितीयश्चेतन आत्मा अवगम्यते। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते’ ‘नेति नेति’ इत्यादिशास्त्रप्रसिद्ध औपनिषद् पुरुषस्तृ
तीय। एवमेते त्रय आत्मानोऽन्योन्यविलक्षणा। तत्र कथमेक एवात्मा अद्वितीय अससारीति ज्ञातुं शक्यते ? तत्र जीव एव तावत्कथं ज्ञायते ? नन्वेव ज्ञायते श्रोता मन्ता द्रष्ट्टा आदेष्टाघोष्टा विज्ञाता प्रज्ञातेति। ननु विप्रतिषिद्ध ज्ञायते य श्रवणादिकर्तृत्वेन अमतो मन्ता अविज्ञातो विज्ञाता इति च। तथा ‘न मतेर्मन्तार मन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातार विजानीया’ इत्यादि च। सत्य विप्रतिषिद्धम्, यदि प्रत्यक्षेण ज्ञायेत सुखादिवत्। प्रत्यक्षज्ञान च निवार्यते ‘न मतेर्मन्तारम्’ इत्यादिना। ज्ञायते तु श्रवणादिलिङ्गेन, तत्र कुतो विप्रतिषेध ? ननु श्रवणादिलिङ्गेनापि कथं ज्ञायते, यावता यदा शृणोत्यात्मा श्रोतव्यं शब्दम्, तदा तस्य श्रवणक्रिययैव वर्तमानत्वान्मननविज्ञानक्रिये न सभवत आत्मनि परत्र वा। तथा अन्यत्रापि मननादिक्रियासु। श्रवणादिक्रियाश्च स्वविषयेष्वेव। न हि मन्तव्यादन्यत्र मन्तु मननक्रिया सभवति। ननु मनस सर्वमेव मन्तव्यम्। सत्यमेवम्, तथापि सर्वमपि मन्तव्य मन्तारमन्तरेण न मन्तु शक्यम्। यद्येव किं स्यात् ? इदमत्र स्यात्— सर्वस्य योऽय मन्ता, स मन्तैवेति न स मन्तव्य स्यात्। न च द्वितीयो मन्तुर्मन्तास्ति। यदा स आत्मनैव मन्तव्य, तदा येन च मन्तव्य आत्मा आत्मना,
यश्च मन्तव्य, आत्मा, तौ द्वौ प्रसज्येयाताम्। एक एव आत्मा द्विधा मन्तृमन्तव्यत्वेन द्विशकलीभवेद्वशादिवत्, उभयथाप्यनुपपत्तिरेव। यथा प्रदीपयो प्रकाश्यप्रकाशकत्वानुपपत्ति, समत्वात्, तद्वत्। न च मन्तुर्मन्तव्ये मननव्यापारशून्य कालेऽस्त्यात्ममननाय। यदापि लिङ्गेनात्मान मनुते मन्ता, तदापि पूर्ववदेव लिङ्गेन मन्तव्य आत्मा, यश्च तस्य मन्ता, तौ द्वौ प्रसज्येयाताम्, एक एव वा द्विधेति पूर्वोक्ता दोष। न प्रत्यक्षेण, नाप्यनुमानेन ज्ञायते चेत्, कथमुत्त्यते ‘स म आत्मेति विद्यात्’ इति, कथं वा श्रोता मन्तेत्यादि? ननु श्रोतृत्वादिधर्मवानात्मा, अश्रोतृत्वादि च प्रसिद्धमात्मन, किमत्र विषम पश्यसि? यद्यपि तव न विषमम्, तथापि मम तु विषम प्रतिभाति। कथम ? यदासौ श्रोता, तदा न मन्ता, यदा मन्ता, तदा न श्रोता। तत्रैव सति, पक्षे श्रोता मन्ता, पक्षे न श्रोता नापि मन्ता। तथा अन्यत्रापि च। यदैवम्, तदा श्रोतृत्वादिधर्मवानात्मा अश्रोतृत्वादिधर्मवान्वेति संशयस्थाने कथ तव न वैषम्यम् ? यदा देवदत्तो गच्छति, तदा न स्थाता, गन्तैव। यदा तिष्ठति, न गन्ता, स्थातैव तदास्य पक्ष एव गन्तृत्व स्थातृत्व च, न नित्य गन्तृत्व स्थातृत्व वा, तद्वत्। तथैवात्रकाणा -
दादय पश्यन्ति। पक्षप्राप्तेनैव श्रोतृत्वादिना आत्मोच्यते श्रोता मन्तेत्यादिवचनात्। सयोगजत्वमयौगपद्य च ज्ञानस्य ह्याचक्षते। दर्शयन्ति च अन्यत्रमना अभूव नादर्शम् इत्यादि युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति च न्याय्यम्। भवत्वेव किं तव नष्ट यद्येव स्यात् ?
अस्त्वेव तवेष्ट चेत् श्रुत्यर्थस्तु न संभवति। किं न श्रोता मन्तेत्यादिश्रुत्यर्थ ?
न, न श्रोता न मन्तेत्यादिवचनात्। ननु पाक्षिकत्वेन प्रत्युक्त त्वया, न, नित्यमेव श्रोतृत्वाद्यभ्युपगमात्, ‘न हि श्रोतु श्रुतेर्विपरिलोपो विद्यते’ इत्यादिश्रुते। एवं तर्हि नित्यमेव श्रोतृत्वाद्यभ्युपगमे, प्रत्यक्षविरुद्धा युगपज्ज्ञानोत्पत्ति अज्ञानाभावश्चात्मन कल्पित स्यात्। तच्चानिष्टमिति। नोभयदोषोपपत्ति, आत्मन श्रुत्यादिश्रोतृत्वादिधर्मवत्त्वश्रुते। अनित्यानामूर्तानां च चक्षुरादीनादृष्ट्याद्यनित्यमेव संयोगवियोगधर्मिणाम्। यथा अग्नेर्ज्वलन तृणादिसयोगजत्वात्,तद्वत्। न तु नित्यस्यामूर्तस्यासंयोगविभागधर्मिण संयोगजदृष्ट्याद्य नित्यधर्मवत्त्व सभवति। तथा च श्रुति ‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ इत्याद्या। एव तर्हि द्वे दृष्टी चक्षुषोऽनित्या दृष्टि, नित्या चात्मन। तथा च द्वे श्रुतीश्रोत्रस्या-
नित्या, नित्या चात्मस्वरूपस्य। तथा द्वे मती विज्ञाती बाह्याबह्ये। एव ह्येव चेय श्रुतिरुपपन्ना भवति— ‘दृष्टेर्द्रष्टा श्रुते श्रोता’ इत्याद्या। लोकेऽपि प्रसिद्धचक्षुषस्तिमिरागमापाययो नष्टा दृष्टि जाता दृष्टि इति चक्षुर्दृष्टेरनित्यत्वम्। तथा च श्रुतिमत्यादीनामात्मदृष्ट्यादीना च नित्यत्वं प्रसिद्धमेव लोके। वदति ह्युद्धृतचक्षु स्वप्नेऽद्य मया भ्राता दृष्ट इति। तथा अवगतबाधिर्य स्वप्ने श्रुतो मन्त्रोऽद्येत्यादि। यदि चक्षु संयोगजैवात्मनो नित्या दृष्टिस्तन्नाशे नश्येत्, तदा उद्धृतचक्षु स्वप्ने नीलपीतादि न पश्येत्। ‘न हि द्रष्टृर्दृष्टे’ इत्याद्या च श्रुति अनुपपन्ना स्यात्। ‘तच्चक्षु पुरुषे येन स्वप्नपश्यति’ इत्याद्या च श्रुति। नित्या आत्मनो दृष्टिबाह्यानित्यदृष्टर्ग्राहिका। बाह्यदृष्टेश्च उपजनापायाद्यनित्यधर्मवत्त्वात्ग्राहिकाया आत्मदृष्टेस्तद्वदवभासत्वमनित्यत्वादि भ्रान्तिनिमित्त लोकस्येति युक्तम्। यथा भ्रमणादिधर्मवदलातादिवस्तु विषयदृष्टिरपि भ्रमतीव, तद्वत्। तथा च श्रुति ‘ध्यायतीव लेलायतीव’ इति। तस्मादात्मदृष्टेर्नित्यत्वान्न यौगपद्यमयौगपद्य वा अस्ति। बाह्यानित्यदृष्ट्युपाधिवशात्तु लोकस्य तार्किकाणां च आगमसंप्रदायवर्जितत्वात् अनित्या आत्मनो दृष्टिरिति भ्रान्तिरुपपन्नैव। जीवेश्वरपरमात्मभेदकल्पना च
एतन्निमित्तैव। तथा अस्ति, नास्ति, इत्याद्याश्च यावन्तो वाङ्मनसयोर्भेदा यत्रैक भवन्ति, तद्विषयाया नित्याया दृष्टेर्निर्विशेषाया। अस्ति नास्ति, एक नाना, गुणवदगुणम्, जानाति न जानाति, क्रियावदक्रियम्, फलवदफलम्, सबीज निर्बीजम्, सुख दुःखम्, मध्यममध्यम्, शून्यमशून्यम्, परोऽहमन्य, इति वा सर्ववाक्प्रत्ययागोचरे स्वरूपे यो विकल्पयितुमिच्छति, स नून स्वमपि चर्मवद्वेष्टयितुमिच्छति, सोपानमिव च पद्भ्यामारोढुम् जले खे च मीनाना व यसा च पद दिदृक्षते, ‘नेति नेति’ ‘यतो वाचा निवर्तन्ते’ इत्यादिश्रुतिभ्य, ‘को अद्धा वेद’ इत्यादिमन्त्रवर्णात्।
कथं तर्हि तस्य स म आत्मेति वेदनम्, ब्रूहि केन प्रकारेण तमह स म आत्मेति विद्याम्। अत्रारयायिकामाचक्षते— कश्चित्किल मनुष्यो मुग्ध कैश्चिदुक्त कस्मिंश्चिदपराधे सति धिक्त्वा नासि मनुष्य इति। स मुग्धतया आत्मनो मनुष्यत्वं प्रत्याययितुं कचिदुपेत्याह— ब्रवीतु भवान्कोऽहमस्मीति। स तस्य मुग्धता ज्ञात्वा आह— क्रमेण वोधयिष्यामीति। स्थावराद्यात्मभावमपोह्यन त्वममनुष्य इत्युक्त्वोपरराम। स त मुग्ध प्रत्याह— भवान्मा बोधयितुं प्रवृत्तस्तूष्णीं बभूव, किं न
बोधयतीति। तादृगेव तद्भवतो वचनम्। नास्यमनुष्य इत्युक्तेऽपि मनुष्यत्वमात्मनो न प्रतिपद्यते य, स कथ मनुष्योऽसीत्युक्तोऽपि मनुष्यत्वमात्मन प्रतिपद्येत? तस्माद्यथा शास्त्रोपदेश एवात्मावबोधविधि, नान्य। न ह्यग्नेर्दाह्यतृणादि अन्येन केनचिद्दग्धु शक्यम्। अत एव शास्त्रमात्मस्वरूप बोधयितुं प्रवृत्त सत् अमनुष्यत्वप्रतिषेधेनेव ‘नेतिनेति’ इत्युक्त्वोपरराम। तथा ‘अनन्तरमबाह्यम्’ ‘अयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभू’ इत्यनुशासनम्, ‘तत्त्वमसि’‘यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन क पश्येत्’ इत्येवमाद्यपि च। यावदयमेव यथोक्तमिममात्मान न वेति, तावदयं बाह्यानित्यदृष्टिलक्षणमुपाधिमात्मत्वेनोपेत्य अविद्यया उपाधिधर्मानात्मनो मन्यमानो ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तेषु स्थानेषु पुन पुनरावर्तमान अविद्याकामकर्मवशात्ससरति। स एव ससरन् उपात्तदेहेन्द्रियसघात त्यजति। त्यक्त्वा अन्यमुपादत्ते। पुन पुनरेवमेव नदीस्रोतोवज्जन्ममरणप्रबन्धाविच्छेदेन वर्तमान काभिरवस्थाभिर्वर्तते इत्येतमर्थ दर्शयन्त्याह श्रुति वैराग्यहेतो—
पुरुषे ह वा अयमादितो गर्भो भवति। यदेतद्रेतस्तदेतत्सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेज’ सभू-
तमात्मन्येवात्मान बिभर्ति तद्यथा स्त्रिया सिञ्चत्यथैनज्जनयति तदस्य प्रथम जन्म॥१॥
अयमेवाविद्याकामकर्माभिमानवान् यज्ञादिकर्म कृत्वा अस्माल्लोकाद्रुमादिक्रमेण चन्द्रमस प्राप्य क्षीणकर्मा वृष्ट्यादिक्रमेण इम लोक प्राप्य अन्नभूत पुरुषाग्नौ हुत। तस्मिन्पुरुषे ह वै अय ससारी रसादिक्रमेण आदित प्रथमत रेतोरूपेण गर्भो भवतीति एतदाह— यदेतत्पुरुष रेत, तेन रूपेणेति। तच्च एतत् रेत अन्नमयस्य पिण्डस्य सर्वेभ्य अङ्गेभ्य अवयवेभ्यो रसादिलक्षणेभ्य तेज साररूप शरीरस्य सभूत परिनिष्पन्न तत् पुरुषस्य आत्मभूतत्वादात्मा, तमात्मान रेतोरूपेण गर्भीभूतम् आत्मन्येव स्वशरीर एव आत्मान बिभर्ति धारयति। तत् रेत स्त्रिया सिञ्चति यदा, यदा यस्मिन्काले भार्या ऋतुमती तस्या योषाग्नौ स्त्रिया सिञ्चति उपगच्छन्, अथ तदा एनत् एतद्रेत आत्मनो गर्भरूप जनयति पिता। तत् अस्य पुरुषस्य स्थानान्निर्गमनरेत सेककाले रेतोरूपेण अस्य संसारिण प्रथम जन्म प्रथमावस्थाभिव्यक्ति। तदेतदुक्त पुरस्तात् ‘असावात्मा अमुमात्मानम्’ इत्यादिना॥
तत्स्त्रिया आत्मभूय गच्छति यथा स्वमङ्ग तथा। तस्मादेना न हिनस्ति सास्यैतमात्मानमत्र गतं भावयति॥२॥
तत् रेत यस्या स्त्रिया सिक्त सत्तस्या स्त्रिया आत्मभूयम् आत्माव्यतिरेकता यथा पितु एव गच्छति प्राप्नोति यथा स्वमङ्गस्तनादि, तथा तद्वदेव। तस्माद्धेतो एना मातर स गर्भो न हिनस्ति पिटकादिवत्। यस्मात्स्तनादि स्वाङ्गवदात्मभूय गतम्, तस्मान्न हिनस्ति न बाधत इत्यर्थ। सा अन्तर्वत्नी एतम् अस्य भर्तुरात्मानम् अत्र आत्मन उदरे गत प्रविष्ट बुद्ध्वा भावयति वर्धयति परिपालयति गर्भविरुद्धाशनादिपरिहारम् अनुकूलाशनाद्युपयोग च कुर्वती॥
सा भावयित्री भावयितव्या भवति त स्त्री गर्भ बिभर्ति सोऽग्र एव कुमार जन्मनोऽग्रेऽधि भावयति। स यत्कुमार जन्मनोऽग्रेधि भावयत्यात्मानमेव तद्भावयत्येषां लोकानां सतत्या एवं सतताहीमे लोकास्तदस्य द्वितीय जन्म॥३॥
सा भावयित्री वर्धयित्री भतुरात्मनो गर्भभूतस्य भावयितव्या वर्धयितव्या च भर्त्रा भवति। न ह्युपकारप्रत्युपकारमन्तरेण लोके कस्यचित्केनचित्सबन्ध उपपद्यते। त गर्भं स्त्री यथोक्तेन गर्भधारणविधानेन बिभर्ति धारयति अग्रे प्राग्जन्मन। स पिता अग्रे एव पूर्वमेव जातमात्र कुमार जन्मन अधि ऊर्ध्वं जन्मन जात कुमार जातकर्मादिना पिता भावयति। स पिता यत् यस्मात् कुमार जन्मन अधि ऊर्ध्वं अग्रे जातमात्रमेव जातकर्मादिना यद्भावयति, तत् आत्मानमेव भावयति पितुरात्मैव हि पुत्ररूपेण जायते। तथा ह्युक्तम् ‘पतिर्जाया प्रविशति’ इत्यादि। तत्किमर्थमात्मान पुत्ररूपेण जनयित्वा भावयतीति? उच्यते—एषा लोकानासतत्यै अविच्छेदायेत्यर्थः। विच्छिद्येरन्हीमे लोका पुत्रोत्पादनादि यदि न कुर्यु। एव पुत्रोत्पादनादिकर्माविच्छेदेनैव सतता प्रबन्धरूपेण वतन्ते हि यस्मात् इमे लोका, तस्मात्तदविच्छेदाय तत्कतव्यम्, न मोक्षायेत्यर्थ। तत् अस्य ससारिण कुमाररूपेण मातुरुदराद्यन्निर्गमनम्, तत् रेतोरूपापेक्षया द्वितीय जन्म द्वितीयावस्थाभिव्यक्ति॥
सोऽस्यायमात्मा पुण्येभ्य कर्मभ्य प्रतिधीयते। अथास्यायमितर आत्मा
कृतकृत्यो वयोगत प्रैति स इतः प्रयन्नेव पुनर्जायते तदस्य तृतीय जन्म॥४॥
अस्य पितु सोऽयं पुत्रात्मा पुण्येभ्य शास्त्रोक्तेभ्य कर्मभ्य कर्मनिष्पादनार्थं प्रतिधीयते पितु स्थाने पित्रा यत्कर्तव्यं तत्करणाय प्रतिनिधीयत इत्यर्थ। तथा च सप्रत्तिविद्याया वाजसनेयके— ‘पित्रानुशिष्टोऽह ब्रह्माह यज्ञ इत्यादि प्रतिपद्यते’ इति। अथ अनन्तर पुत्रे निवेश्यात्मनो भारम् अस्य पुत्रस्य इतर अयं य पित्रात्मा कृतकृत्य कर्तव्यात् ऋणत्रयात् विमुक्त कृतकर्तव्य इत्यर्थ, वयोगत गतवयाजीर्ण सन् प्रैति म्रियते। स इत अस्मात् प्रयन्नेव शरीरपरित्यजन्नेव, तृणजलूकादिवत् देहान्तरमुपाददान कर्मचितम्, पुनर्जायते। तदस्य मृत्वा प्रतिपत्तव्य यत्, तत् तृतीय जन्म। ननु ससरत पितु सकाशाद्रेतोरूपेण प्रथम जन्म, तस्यैव कुमाररूपेण मातुर्द्वितीय जन्मोक्तम्, तस्यैव तृतीये जन्मनि वक्तव्ये, प्रयतस्तस्य पितुर्यज्जन्म, तत्तृतीयमिति कथमुच्यते? नैष दोष, पितापुत्रयोरेकात्मत्वस्य विवक्षितत्वात्। सोऽपि पुत्र स्वपुत्रे भार निधाय इत प्रयन्नेव पुनर्जायते यथा पिता। तदन्यत्रोक्तमितरत्राप्युक्तमेव भवतीति मन्यते श्रुति। पितापुत्रयोरेकात्मत्वात्॥
तदुक्तमृषिणा। गर्भे तु सन्नन्वेषामवेदमह देवाना जनिमानि विश्वा। शतं मा पुर आयसीररक्षन्नधः श्येनो जवसा निरदीयमिति गर्भ एवैतच्छ्यानो वामदेव एवमुवाच॥५॥
एव ससरन्नवस्थाभिव्यक्तित्रयेण जन्ममरणप्रबन्धारूढ सर्वो लोक ससारसमुद्रे निपतित कथचिद्यदा श्रुत्युक्तमात्मान विजानाति यस्या कस्याचिदवस्थायाम्, तदैव मुक्तसर्वससारबन्धन कृतकृत्यो भवतीत्येतद्वस्तु, तत् ऋषिणा मन्त्रेणापि उक्तमित्याह— गर्भे नु मातुर्गर्भाशय एव सन्, नु इति वितर्के। अनेकजन्मान्तरभावनापरिपाकवशात् एषा देवाना वागग्न्यादीना जनिमानि जन्मानि विश्वा विश्वानि सर्वाणि अन्ववेदम् अहम् अहो अनुबुद्धवानस्मीत्यर्थः। शतम् अनेका बह्व्य मामा पुर आयसी आयस्यो लोहमय्य इवाभेद्यानि शरीराणीत्यभिप्राय। अरक्षन् रक्षितवत्य ससार पाशनिर्गमनात् अध। अथ श्येन इव जाल भित्त्वा जवसा आत्मज्ञानकृतसामर्थ्येन निरदीय निर्गतोऽस्मि। अहो गर्भ एव शयानो वामदेव ऋषि एवमुवाच एतत् ॥
स एव विद्वानस्माच्छरीरभेदादूर्ध्व उ-
त्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान्कामानाप्त्वामृतः समभवत्समभवत्॥६॥
इति चतुर्थ खण्डः॥
स वामदेव ऋषि यथोक्तमात्मानम् एव विद्वान् अस्मात् शरीरभेदात् शरीरस्य अविद्यापरिकल्पितस्य आयसवदनिर्भेद्यस्य जननमरणाद्यनेकानर्थशताविष्टशरीरप्रबन्धस्य परमात्मज्ञानामृतोपयोगजनितवीर्यकृतभेदात् शरीरोत्पत्तिबीजाविद्यादिनिमित्तोपमर्दहेतो शरीरविनाशादित्यर्थः। ऊर्ध्व परमात्मभूत सन् अधोभवात्ससारात् उत्क्रम्य ज्ञानावद्योतितामलसर्वात्मभावमापन्न सन् अमुष्मिन् यथोक्ते अजरेऽमरेऽमृतेऽभये सर्वज्ञेऽपूर्वेऽनपरेऽनन्तरेऽबाह्ये प्रज्ञानामृतैकरसे स्वर्गे लोके स्वस्मिन्नात्मनि स्वे स्वरूपे अमृत समभवत् आत्मज्ञानेन पूर्वमाप्तकामतया जीवन्नेव सर्वान्कामानाप्त्वा इत्यर्थ। द्विर्वचन सफलस्य सोदाहरणस्य आत्मज्ञानस्य परिसमाप्तिप्रदर्शनार्थम्॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्द-
भगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवतकृतौ
ऐतरेयोपनिषद्भाष्ये द्वितीयोऽध्यायः॥
————————–
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तृतीयोऽध्यायः॥
-
*
ब्रह्मविद्यासाधनकृतसर्वात्मभावफलावाप्तिं वामदेवाद्याचार्यपरम्परया पारम्पर्यश्रुत्यावद्योत्यमाना ब्रह्मवित्परिषद्यत्यन्तप्रसिद्धाम् उपलभमाना मुमुक्षवो ब्राह्मणा अधुनातना ब्रह्मजिज्ञासव अनित्यात्साध्यसाधनलक्षणात्ससारात् आ जीवभावाद्व्याविवृत्सवो विचारयन्त अन्योन्यं पृच्छन्ति। कथम्?—
कोऽयमात्मेति वयमुपास्महे कतरः स आत्मा येन वा पश्यति येन वा शृणोति येन वा गन्धानाजिघ्रति येन वा वाच व्याकरोति येन वा स्वादु चास्वादु च विजानाति॥१॥
यमात्मानम् अयमात्मा इति साक्षात् वयमुपास्महे क स आत्मेति, य चात्मानमयमात्मेति साक्षादुपासीनो
वामदेव अमृत समभवत्, तमेव वयमप्युपास्महे को नु खलु स आत्मेति एव जिज्ञासापूर्वमन्योन्य पृच्छताम् अतिक्रान्तविशेषविषयश्रुतिसस्कारजनिता स्मृतिरजायत— तम् ‘प्रपदाभ्या प्रापद्यत ब्रह्मेम पुरुषम्’ ‘स एतमेव सीमान विदार्य एतया द्वारा प्रापद्यत’ एतमेव पुरुष द्वे ब्रह्मणी इतरेतरप्रातिकूल्येन प्रतिपन्ने—इति। ते चास्य पिण्डस्यात्मभूते। तयोरन्यतर आत्मोपास्यो भवितुमर्हति। योऽत्रोपास्य, कतर स आत्मा इति विशेषनिर्धारणार्थं पुनरन्योन्य पप्रच्छुर्विचारयन्त। पुनस्तेषा विचारयता विशेषविचारणास्पदविषया मतिरभूत्। कथम्? द्वे वस्तुनी अस्मिन्पिण्डे उपलभ्येते—अनेकभेदभिन्नेन करणेन येनोपलभते, यश्चैक उपलभते, करणान्तरोपलब्धिविषयस्मृतिप्रतिसधानात्। तत्र न तावत् येनोपलभते, स आत्मा भवितुमर्हति। केन पुनरुपलभत इति, उच्यते—येन वा चक्षुर्भूतेन रूप पश्यति, येन वा शृणोति श्रोत्रभूतेन शब्दम्, येन वा घ्राणभूतेन गन्धानाजिघ्रति, येन वा वाक्करणभूतेन वाच नामात्मिका व्याकरोति गौरश्व इत्येवमाद्याम्, साध्वसाध्विति च, येन वा जिह्वाभूतेन स्वादु च अस्वादु च विजानातीति॥
यदेतद्धृदय मनश्चैतत्। सज्ञानमाज्ञान विज्ञान प्रज्ञान मेधा दृष्टिर्धृतिर्मतिर्मनीषा जूतिः स्मृति सकल्प क्रतुरसु कामो वश इति। सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति॥२॥
किं पुनस्तदेकमनेकधा भिन्न करणमिति, उच्यते। यदुक्त पुरस्तात् प्रजाना रेतो हृदय हृदयस्य रेतो मन मनसा सृष्टा आपश्च वरुणश्च हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा, तदेवैतद्धृदय मनश्च, एकमेव तदनेकधा। एतेनान्त करणेनैकेन चक्षुर्भूतेन रूप पश्यति, श्रोत्रभूतेन शृणोति, घ्राणभूतेन जिघ्नति, वाग्भूतेन वदति, जिह्वाभूतेन रसयति, स्वेनैव विकल्पनारूपेण मनसा सकल्पयति, हृदयरूपेणाध्यवस्यति। तस्मात्सर्वकरणविषयव्यापारकमेकमिद करण सर्वोपलब्ध्यर्थमुपलब्धु। तथा च कौषीतकिनाम् ‘प्रज्ञया वाच समारुह्य वाचा सर्वाणि नामान्याप्नोति प्रज्ञया चक्षु समारुह्य चक्षुषा सर्वाणि रूपाण्याप्नोति’ इत्यादि। वाजसनेयके च— ‘मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति हृदयेन हि रूपाणि विजानाति’ इत्यादि। तस्माद्धृदयमनोवाच्यस्य सर्वोपलब्धिकरणत्व प्रसिद्धम्। तदात्मकश्च प्राण ‘यो वै प्राण, सा
प्रज्ञा या वै प्रज्ञा स प्राण’ इति हि ब्राह्मणम्। करणसहतिरूपश्च प्राण इत्यवोचाम प्राणसवादादौ। तस्माद्यत्पद्भ्यां प्रापद्यत, तद्ब्रह्म तदुपलब्धुरुपलब्धिकरणत्वेन गुणभूतत्वान्नैव तद्वस्तु ब्रह्म उपाम्य आत्मा भवितुमर्हति। पारिशेष्याद्यस्योपलब्धुरुपलब्ध्यर्था एतस्य हृदयमनोरूपस्य करणस्य वृत्तयो वक्ष्यमाणा, स उपलब्धा उपास्य आत्मा नोऽस्माकं भवितुमर्हतीति निश्चय कृतव त। तदन्त करणापाधिस्थस्योपलब्धु प्रज्ञानरूपस्य ब्रह्मण उपलब्ध्यथा या अन्त करणवृत्तयो बाह्यान्तर्वर्तिविषयविषया, ता इमा उच्यन्ते— सज्ञान सज्ञप्ति चेतनभाव, आज्ञानम् आज्ञप्ति ईश्वरभाव, विज्ञान कलादिपरिज्ञानम्, प्रज्ञान प्रज्ञप्ति प्रज्ञता, मेधा ग्रन्थधारणसामर्यम्, दृष्टि इन्द्रियद्वारा सर्वविषयोपलब्धि, धृति धारणम् अवसन्नाना शरीरन्द्रियाणां ययोत्तम्भन भवति, ‘धृत्या शरीरमुद्वहन्ति’ इति हि वदन्ति, मति मननम्, मनीषा तत्र स्वातन्त्र्यम्, जूति चेतसो रुजादिदु खित्वभाव, स्मृति स्मरणम्, सकल्प शुक्लकृष्णादिभावेन सकल्पन रूपादीनाम्, क्रतु अध्यवसाय, असु प्राणनादिजीवनक्रियानिमित्ता वृत्ति, काम असनिहितविषयाकाङ्क्षा तृष्णा, वश स्त्रीव्यतिकराद्यभिलाष, इत्येव-
माद्या अन्त करणवृत्तय उपलब्धुरुपलब्ध्यर्थत्वाच्छुद्धप्रज्ञानरूपस्य ब्रह्मण उपाधिभूतास्तदुपाधिजनितगुणनामधेयानि सज्ञानादीनि सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञप्तिमात्रस्य प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति, न स्वत साक्षात्। तथा चोक्तम् ‘प्राणन्नेव प्राणो नाम भवति इत्यादि॥
एष ब्रह्मैष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्वे देवा इमानि च पञ्च महाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव। बीजानीतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोद्भिज्जानि चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किचेद प्राणि जङ्गम च पतत्रि च यच्च स्थावरम्। सर्व तत्प्रज्ञानेत्र प्रज्ञाने प्रतिष्ठित प्रज्ञानेत्रो लोक प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञान ब्रह्म॥३॥
स एष प्रज्ञानरूप आत्मा ब्रह्म अपर सर्वशरीरस्थ प्राणप्रज्ञात्मा अन्त करणोपाधिष्वनुप्रविष्टो जलभेद्गतसू-
र्यप्रतिबिम्बवत् हिरण्यगर्भ प्राण प्रज्ञात्मा। एष एव इन्द्र गुणात्, देवराजो वा। एष प्रजापति य प्रथमज शरीरी, यतो मुखादिनिर्भेदद्वारेणाग्न्यादयो लोकपाला जाता, स प्रजापतिरेष एव। येऽपि एते अग्न्यादय सर्वे देवा एष एव। इमानि च सर्वशरीरोपादानभूतानि पञ्च पृथिव्यादीनि महाभूतानि अन्नान्नादत्वलक्षणानि एतानि। किंच, इमानि च क्षुद्रमिश्राणि क्षुद्रैरल्पकैर्मिश्राणि, इवशब्द अनर्थक, सपादीनि। बीजानि कारणानि इतराणि चेतराणि च द्वैराश्येन निर्दिश्यमानानि। कानि तानि? उच्यन्ते— अण्डजानि पक्ष्यादीनि, जारुजानि जरायुजानि मनुष्यादीनि, स्वेदजानि यूकादीनि, उद्भिज्जानि च वृक्षादीनि। अश्वा गाव पुरुषा हस्तिन अन्यच्च यत्किंचेद प्राणि। किं तत् ? जङ्गम यच्चलति पद्भ्यां गच्छति, यच्च पतत्रि आकाशेन पतनशीलम्, यच्च स्थावरम् अचलम्, सर्वं तत् अशेषत प्रज्ञानेत्रम्, प्रज्ञप्ति प्रज्ञा, तच्च ब्रह्मैव नीयतेऽनेनेति नेत्रम्, प्रज्ञा नेत्र यस्य तदिद प्रज्ञानेत्रम्, प्रज्ञाने ब्रह्मण्युत्पत्तिस्थितिलयकालेषु प्रतिष्ठितम्, प्रज्ञाश्रयमित्यर्थ। प्रज्ञानेत्रो लोक पूर्ववत्, प्रज्ञाचक्षुर्वा सर्व एव लोक। प्रज्ञा प्रतिष्ठा सर्वस्य जगत तस्मात् प्रज्ञान ब्रह्म। तदेतत्प्रत्यस्तमितसर्वोपाधिविशेष सत् निरञ्जन निर्म-
ल निष्क्रिय शान्तम् एकम् अद्वय नेति नेतीति सर्वविशेषापोहसवेद्य सर्वशब्दप्रत्ययागोचर तदत्यन्तविशुद्धप्रज्ञोपाधिसबन्धेन सर्वज्ञमीश्वर सर्वसाधारणाव्याकृतजगद्बीजप्रवर्तक नियन्तृत्वादन्तर्यामिसज्ञ भवति। तदेव व्याकृतजगद्बीजभूतबुद्ध्यात्माभिमानलक्षण हिरण्यगर्भसज्ञ भवति। तदेव अन्तरण्डोद्भूतप्रथमशरीरोपाधिमत् विराट्प्रजापतिसज्ञ भवति। तदुद्भूताग्न्याद्युपाधिमत् देवतासज्ञ भवति। तथा विशेषशरीरोपाधिष्वपि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तेषु तत्तन्नामरूपलाभोब्रह्मण। तदेवैक सर्वोपाधिभेदभिन्न सर्वै प्राणिभिस्तार्किकैश्चसर्वप्रकारेण ज्ञायते विकल्प्यते च अनेकधा। ‘एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्। इन्द्रमेकेऽपरे प्राणम परे ब्रह्म शाश्वतम्’ इत्याद्या स्मृति॥
स एतेन प्रज्ञेनात्मनास्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान्कामानाप्त्वामृतः समभवत्समभवत्॥४॥
इति पञ्चम खण्ड॥
स वामदेवोऽन्यो वा एव यथोक्त ब्रह्म वेद प्रज्ञेनात्मना, येनैव प्रज्ञेन आत्मना पूर्वे विद्वासोऽमृता अभूवन् तथा
अयमपि विद्वान् एतेनैव प्रज्ञेन आत्मना अस्मात् लोकात् उत्क्रम्येत्यादि व्याख्यातम्। अस्माल्लोकादुत्क्रम्य अमुष्मिन् स्वर्गे लोके सर्वान्कामान् आप्त्वा अमृत समभवत्समभवदित्योमिति॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
ऐतरेयोपनिषद्भाष्यं सपूर्णम्॥
[TABLE]
॥ श्री ॥
उपनिषन्मन्त्राणां
॥ वर्णानुक्रमणिका ॥
| अ |
| अग्निर्मूर्धा चक्षुषी |
| अग्निर्वाग्भूत्वा मुख |
| अत समुद्रा गिर० |
| अथवणे या प्रवदेत |
| अमात्रश्चतुर्थोऽ यव |
| अरा इव रथनाभौ |
| अविद्याया बहुधा |
| अद्यायामतरे |
| आ |
| आत्मा वा इदमेक |
| आवि सनिहित |
| इ |
| इष्टापूर्त म यमाना |
| ए |
| एतस्माज्जायते प्राण |
| एतेषु यश्चरते भ्राज |
| एष ब्रह्मैष इन्द्र |
| एष सर्वेश्वर एष० |
| एषोऽणुरात्मा चेतसा |
| एह्येहीति तमाहुतय |
| ओ |
| ओमित्येतदक्षरमिद |
| क |
| कामान्य कामयत |
| काली कराली च मनो० |
| कोऽयमात्मति वय० |
| ग |
| गता कला पञ्चदश |
| ज |
| जागरितस्थानो बहि० |
| जागरितस्थानो वैश्वानरो० |
| त |
| तच्चक्षुषाजिघृक्षत् |
| तच्छिश्नानाजिघृक्षत् |
| तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत् |
| तत्त्वचाजिघृक्षत् |
| तत्प्राणेनाजिघृक्षत् |
| तत्रापरा ऋग्वेदो |
| तत्स्त्रिया आत्मभूय |
| तदपानेनाजिघृक्षत् |
| तदुक्तमृषिणा |
| तदतत्सत्य मन्त्रेषु |
| तदेतत्सत्य यथा |
| तदेतत्सत्यमृषिर |
| तदेतदृचाभ्युक्त |
| तदेनदभिसृष्ट |
| त मनसाजिघृक्षत् |
| तप श्रद्धे ये ह्युप० |
| तपसा चीयते ब्रह्म |
| तमभ्यतपत्तस्याभि० |
| तमशनायापिपासे |
| तस्माच्च देवा बहुधा |
| तस्मादग्नि समिधो |
| तस्मादिद द्रो नामे० |
| तस्मादृच साम |
| तस्मै स विद्वानुपस० |
| तस्मै स होवाच |
| ता एता देवता सृष्टा |
| ताभ्य पुरुषमानयत्ता |
| ताभ्यो गामानयत्ता |
| द |
| दियो ह्यमूर्त पुरुष |
| द्वा सुपर्णा सयुजा |
| ध |
| धनुगृहीत्वौपनिषद |
| न |
| न चक्षुषा गृह्यते |
| न तप सूर्यो भाति |
| नान्त प्रज्ञ नबहि प्रज्ञ |
| नायमात्मा प्रवचनेन |
| नायमात्मा बलहीनेन |
| प |
| परीक्ष्य लोक कर्म० |
| पुरुष एवेद विश्व |
| पुरुष ह वा अय० |
| प्रणवो धनु शरो |
| प्राणो ह्येष य सर्व |
| प्लवा ह्येते अदृढा |
| ब |
| बृहच्च तद्दिव्यमचिन्त्य० |
| ब्रह्मा देवाना प्रथम |
| ब्रह्मैवेदममृत |
| भ |
| भिद्यते हृदयग्रन्थि |
| म |
| मनोमय प्राणशरीर ० |
| य |
| य य लोक मनसा |
| य सर्वज्ञ सर्ववित् |
| य सर्वज्ञ सर्ववित् |
| यत्तदद्रेश्यमग्राह्य० |
| यत्र सुप्तो न कचन |
| यथा नद्य स्यन्दमाना |
| यथोर्णनाभि सृजते |
| यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु |
| यदा पश्य पश्यते |
| यदा लेलायते ह्यर्चि |
| यदेतद्धृदय मनश्चैतत् |
| यस्मिन्द्यौ पृथिवी |
| यस्याग्निहोत्रमदश० |
| व |
| वेदान्तविज्ञानसुनि |
| श |
| शौनको ह वै महाशालो |
| स |
| स इमॉल्लोकानसजत |
| स इक्षत कथ विद |
| स ईक्षतेमे नु लोका |
| स ईक्षतेमे नु लोकाश्च |
| स एतमेव सीमान |
| स एतेन प्रज्ञेनात्मना |
| स एव विद्वानस्मा० |
| सप्राप्यौनमृषयो |
| स जातो भूतान्यभि |
| सत्यमेव जयते नानृत |
| सत्येन लभ्यस्तपसा |
| सप्त प्राणा प्रभवति |
| समाने वृक्षे पुरुषो |
| स यो ह वै तत्परम् |
| सर्व ह्येतद्ब्रह्माय |
| स वेदैतत्परम ब्रह्म |
| सा भावयित्री भवति |
| सुषुप्तस्थान प्राज्ञो० |
| सोऽपोऽभ्यतपत् |
| सोऽयमात्माध्यक्षर ० |
| स्वप्नस्थानस्तैजस |
| स्वप्नस्थानोऽ त प्रज्ञ |
| ह |
| हिरण्मये परे कोशे |
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॥ श्रीः ॥
गौडपादीय-
कारिकानुक्रमणिका॥
| पृष्ठम् |
| अ |
| अकल्पकमज ज्ञान |
| अकारो नयते विश्वम् |
| अज कल्पितसंवृत्या |
| अजमनिद्रमस्वप्नम् |
| अजमनिद्रमस्वप्नम् |
| अजात जायते यस्मात् |
| अजातस्यैव धर्मस्य |
| अजातस्यैव भावस्य |
| अजातेस्त्रसता तेषाम् |
| अनाद्वै जायते यस्य |
| अजेष्वजमसक्रान् |
| अजे साम्ये तु ये केचित् |
| अणुमात्रेऽपि वैधर्म्ये |
| अतो पश्चाम्यकार्पण्यम् |
| अदीर्घत्वाच्च कालस्य |
| अद्वय च द्वयाभास |
| अद्वय च द्वयाभास |
| अद्वैत परमार्थो हि |
| अनादिमायया सुप्तो ० |
| अनादेरन्तवत्त्व च |
| अनिमित्तस्य चित्तस्य |
| अनिश्चिता यथा रज्जु |
| अत स्थानात्तु भेदाना |
| अन्यथा गृह्णत स्वप्नो ० |
| अपूर्व स्थानिधर्मो हि |
| अभावश्च रथादीना |
| अभूताभिनिवेशाद्धि |
| अभूताभिनिवेशोऽस्ति |
| अमात्रोऽनन्तमानश्च |
[TABLE]
| काल इति कालविदो |
| कोट्यश्चतस्र एतास्तु |
| क्रमत न हि बुद्धस्य |
| ख |
| ख्याप्यमानामजातिं तै |
| ग |
| ग्रहणाज्जागरितवत् |
| ग्रहो न तत्र नोत्सग |
| घ |
| घटादिषु प्रलानेषु |
| च |
| चरञ्जागरिते जाग्रत् |
| चित्त न संस्पृशत्यथ |
| चित्तकाला हि येऽतस्तु |
| चित्तस्पन्दितमेवेद |
| ज |
| जरामरणनिर्मुक्ता |
| जाग्रच्चित्तेक्षणीयास्ते |
| जाग्रद्वत्तावपि त्वत |
| जात्याभास चलाभास |
| जीव कल्पयते पूर्वे |
| जीवात्मनो पृथक्त्व यत् |
| जीवात्मनोरन यत्वम् |
| ज्ञाने च त्रिविधे ज्ञेये |
| ज्ञानेनाकाशकल्पेन |
| त |
| तत्त्वमाध्यात्मिक दृष्ट्वा |
| तस्मादेव विदित्वैनम् |
| तस्मान्न जायते चित्त |
| तैजसस्योत्यविज्ञाने |
| त्रिषु धामसु यस्तुल्य |
| त्रिषु धामसु यद्भोज्य |
| दक्षिणाक्षिमुखे विश्वो० |
| दुःख सर्वमनुस्मृत्य |
| दुर्दर्शमतिगम्भीरम् |
| द्रव्य द्रव्यस्य हेतु स्यात् |
| द्वयोर्द्वयोर्मधुज्ञाने |
| द्वैतस्याग्रहण तुल्यम् |
| ध |
| धर्मा य इति जायन्ते |
| न |
| न कश्चिज्जायते जीव |
| न कश्चिज्जायते जीव |
| न विरोधो न चोत्पत्ति |
| न निर्गता अलातात्ते |
| न निर्गतास्ते विज्ञानात् |
| न भवत्यमृत मत्य |
| न भवत्यमृत मत्य |
| न युक्त दर्शन गत्वा |
| नाकाशस्य घटाकाशो |
| नाजेषु सर्वधर्मेषु |
| नात्मभावेन नानेद |
| नात्मान न पर चैव |
| नास्त्यसद्धेतुकमसत् |
| नास्वादयेत्सुख तत्र |
| नि स्तुतिर्निर्नमस्कारो |
| निगृहीतस्य मनसो |
| निमित्त न सदा चित्त |
| निवृत्तस्याप्रवृत्तस्य |
| निवृत्ते सर्वदुःखानाम् |
| निश्चिताया यथा रज्ज्वा |
| नेह नानेति चाम्नायात् |
| प |
| पञ्चविशक इत्येके |
| पादा इति पादविदो |
| पूर्वापरापरिज्ञानम् |
| प्रकृत्याकाशवज्ज्ञेया |
| प्रज्ञते सनिमित्तत्वम् |
| प्रज्ञप्ते सनिमित्तत्वम् |
| प्रणव हीश्वर विद्यात् |
| प्रणवो ह्यपर ब्रह्म |
| प्रपञ्चो यदि विद्येत |
| प्रभव सर्वभावाना |
| प्राण इति प्राणविदो |
| प्राणादिभिरन तैस्तु |
| प्राप्य सर्वज्ञता कृत्स्ना |
| फ |
| फलादुत्पद्यमान सन् |
| ब |
| बहि प्रज्ञो विभुर्विश्वो |
| बीजाङ्कुरायो दृष्टान्त |
| बुद्ध्वानिमित्तता सत्या |
| भ |
| भावैरसद्भिरेवायम् |
| भूत न जायते किंचित् |
| भूततोऽभूततो वापि |
| भूतस्य जातिमिच्छन्ति |
| भोगाथ सृष्टिरित्यन्ये |
| म |
| मकारभावे प्राज्ञस्य |
| मन इति मनोविदो |
| मनसा निग्रहायत्तम् |
| मनोदृश्यमिद द्वैत |
| मरणे सभवे चैव |
| मायया भिद्यते ह्येतत् |
| मित्राद्यै सह सम य |
| मृल्लोहविस्फुलिङ्गाद्यै |
| य |
| य भाव दर्शयेद्यस्य |
| यथा निर्मितको जीवो |
| यथा भवति बालाना |
| यथा मायामयाद्बाजात् |
| यथा मायामयो जीवो |
| यथा स्वप्नमयो जीवो |
| यथा स्वप्ने द्वयाभास |
| यथा स्वप्नेद्वयाभास |
| यथैकस्मिन्घटाकाशे |
| यदा न लभते हेतून् |
| यदा न लीयते चित्त |
| यदि हेतो फलात्सिद्धि |
| यावद्धेतुफलावेश स० |
| यावद्धेतुफ्लावेशस्ता |
| युञ्जीत प्रणवे चेत |
| योऽस्ति कल्पितसवृत्या |
| र |
| रसादयो हि ये काशा |
| रूपकायसमारयाश्च |
| ल |
| लय संबोधयच्चित्त |
| लीयते हि सुषुप्तौ तत् |
| लोकाल्ँलोकविद प्राहु |
| व |
| विकरोत्यपरा भावान् |
| विकल्पो विनिवर्तेत |
| विज्ञाने स्पन्दमाने वै |
| विपर्यासाद्यथा जाग्रत् |
| विप्राणा विनयो ह्येष |
| विभूतिं प्रसव त्वये |
| विश्वस्यात्वविवक्षायाम् |
| विश्वो हि स्थूलभुड्० |
| वीतरागभयक्रोधै |
| वेदा इति वेदावदो |
| वैतथ्य सर्वभावाना |
| वैशारद्यतु वै नास्ति |
| स |
| स एष नेति नेतीति |
| संघाता स्वप्नवत्सर्वे |
| सभव हेतुफलया |
| सभूतेरपवादाच्च |
| संवृत्या जायते सर्व |
| सतो हि मायया ज म |
| सप्रयोजनता तेषा |
| सर्वस्य प्रणवो ह्यादि |
| सर्वाभिलापविगत |
| सर्वे धर्मा मृषा स्वप्ने |
| सवस्तु सोपलम्भ च |
| सासिद्धिकी स्वाभाविकी |
| सुखमव्रियते नित्य |
| सूक्ष्म इति सूक्ष्मविद |
| सृष्टिरिति सृष्टिविदो |
| स्थूल तर्पयते विश्व |
| स्वतो वा परतो वापि |
| स्वप्नजागरिते स्थाने |
| स्वप्नदृक्चित्तदृश्यास्ते |
| स्वप्नदृक्प्रचरन्स्वप्ने |
| स्व ननिद्रायुतावाद्यौ |
| स्वप्नमाये यथा दृष्टे |
| स्वप्नवृत्तावपि त्व त |
| स्वाने चावस्तुक काय |
| स्वभावेनामृतो यस्य |
| स्वभावो नाम्रतो यस्य |
| स्वसिद्धान्तयवस्थासु |
| स्वस्थ शात स–र्वाणम् |
| ह |
| हेतोरादि फल येषाम् |
| हेतोरादि फल येषाम् |
| हेतोर्न जायतेऽनादे |
| हेयज्ञेयाप्यपाक्यानि |
]