श्वेताश्वतरोपनिषत्

[[श्वेताश्वतरोपनिषत् Source: EB]]

[

[TABLE]

अथ श्वेताश्वतरोपनिषत्प्रस्तावः।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-173129256631.png"/>

कृष्णयजुर्वेदस्य षडशीतिशाखासु श्वेताश्वतरशाखान्तर्गतेयमुपनिषदवगन्तव्या। यद्यपि वाजसनेयादिदशोपनिषदएवाधि-क्येन लब्धास्पदाः सन्ति तथाप्यस्यामुपनिषदि प्रसिद्धवेदमन्त्राणामाधिक्येन रक्षणाद् ब्रह्मात्मज्ञानविषयस्य स्फुटतया वर्णनाच्चास्या उपनिषदो महत्त्वं सुस्थिरमेव। अस्यामुपनिषदि कस्यापीतिहासः कठोपनिषदादिवत्प्रधानो नास्ति किन्तु वेदान्तविषयस्यात्मतत्त्वज्ञानस्यातिसुगमतया व्याख्यानमुपलभ्यते। अत्रोपनिषदि यद्यपि सर्वाणि पद्यानि सन्ति न कश्चिद्गद्यो भागस्तथापि येऽल्पीपीयसीमपि संस्कृतभाषां विदन्ति तेऽत्रत्याधिकतरपद्यानों मूलादेवार्थं बोद्धुं क्षमाः सम्भवन्ति। भाष्यन्तु विशेषेण तात्पर्यबोधनाय किञ्चिदपि संस्कृतमविजानतामर्थज्ञानाय दुर्ज्ञेयच्छन्दसामर्थस्य स्फोटनाय च मयारब्धम्॥

अस्यामुपनिषदि षडध्यायास्तत्राद्येऽध्याये कालादीनामेकैकशः सम्भूय वा कारणत्वं निराकृत्यैकस्य परगात्मनएवाभिन्न निमित्तोपादानकारणत्वमुपपाद्य तस्य स्वदेहस्थस्यैव ध्यानेन सदृष्टान्तेन साक्षात्कारपुरस्सरं मोक्षोपायः प्रदर्शितः। द्वितीये योगाभ्यासद्वारा सवितुर्देवस्योपासनमुक्तं तृतीयचतुर्थयोः स्तुतिप्रार्थनापुरस्सरं परेशस्य विशेषेण स्वरूपं गुणाः कर्माणि चोक्तानि। पञ्चमे जीवस्य बन्धकारणप्रदर्शनपुरस्सरं स्वीयवास्तवस्वरूपपरमात्मतत्त्वस्यज्ञानेनाखिलबन्धेभ्यो, विमुक्तिरु-क्ता षष्ठे कालादीनां कारणत्वं निराकृत्य नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्यैकस्यात्मतत्त्वस्यैव निर्गुणस्यापि सर्वकारणत्वं तद्विज्ञा-नेनैवाखिलबाधाभ्यो मोक्षश्चोक्तइति। इत्थमस्यामुपनिषदि विशदरीत्या परमात्मतत्त्वज्ञानेन सर्वविधदुःखनिवृत्तिसाधनपुर-स्सरं परमानन्दावाप्तिरूपाऽमीप्सितसिद्धिः प्रदर्शिता सा च योगाभ्यासद्वारा विशेषतो दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णेन लब्धुं शक्या॥

भाषार्थ— पूज्यपाद भगवान् शङ्कर स्वामिकृत (उपनिषद्भाष्य) व्युत्पन्न विद्वानों के लिये विशेष उपयोगी है, हमने साधा-रण संस्कृतज्ञों के अर्थ और विशेष कर हिन्दीभाषा मात्र जानने वालो की सुगमता के लिये समयानुसार प्रचरित सुगमसं-स्कृत और हिन्दीभाषा मे इस कृष्णयजुर्वेदीय श्वेताश्वतरोपनिषद्का सुगम व्याख्यान किया है। कृष्णयजुर्वेदकी छयाशी ८६ शाखाओमे से श्वेताश्वतरशाखाके अन्तर्गत यह उपनिषद् है। यद्यपि वाजसनेयादि दश ही उपनिषद् विशेष प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध है, तथापि अध्यात्म प्रसिद्ध वेदमन्त्रों के इस उपनिपद्मे विशेष कर संगृहीत होनेसे और आत्मतत्त्वज्ञान विषय का स्फुट प्रकार से वर्णन होनेसे इस श्वेताश्वतरोपनिषद्का महत्त्व भी प्रसिद्ध है। कठोपनिषदादिके तुल्य इस उपनिषद् में किसी का इतिहास प्रधान नही है किन्तु आत्मतत्त्वज्ञानरूप वेदान्तविषय का विशेष सुगमतासे वर्णन किया है। इस उप-निषद्में सब पद्यरचना ही है गद्यभाग कुछ नही है, तथापि जो लोग थोडा भी संस्कृत जानते हैं वे भी मूलके सरल होने से मूलको ही समझ सकते हैं। तात्पर्य जतानेके अर्थ और जो कुछ नाममात्र संस्कृत जानते हैं उन को अर्थ जाननेके लिये और कठिन छन्दोंका अर्थ प्रकट करनेके लिये ही हमने भाष्य किया है॥

इस उपनिषद् मे छः अध्याय हैं उन मे से प्रथमाध्यायसे कालादिका पृथक् २ वा सम्मिलित कारण होनेका खण्डन कर-के और एक परमेश्वरको ही निमित्त तथा उपादान कारण सिद्ध करके उस अपने २ शरीरस्थ परमात्मतत्व को साक्षात् जानने द्वारा मोक्षका उपाय दृष्टान्त सहित ध्यानसे दिखाया है। द्वितीयाध्यायमे योगसाधन द्वारा सवितादेवकी उपासनाका ही, तृतीय चतुर्थ अध्यायों में स्तुति प्रार्थना पूर्वक परमेश्वर के विशेष कर गुण कर्म और स्वरूपों का वर्णन किया है। पञ्च-माध्याय मे बन्धन का कारण दिखाने पूर्वक अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मतत्त्वके जानने द्वारा सम्पूर्ण, व-

न्धनो से छूटना कहा और पष्ठाध्याय में कालादि के कारण होनेका निराकरण करके नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव एक निर्गुण आत्मतत्त्वको सब संसार का कारण कहा और उस के सम्यक्ज्ञानसे हीसब प्रकारकी बाधाओं से छूटनेका वर्छन किया है। इस प्रकार इसउपनिषद् मे सब प्रकार के दुःखोंकी निवृत्ति होने पूर्वक परमेश्वरकेतत्वज्ञानसे सरल प्रकारसे परमानन्द प्राप्ति रूप अभीष्ट सिद्धि दिखादी गयी है इस भूलोक के और स्वर्गादि के दिव्य सुख भोगने सेहुए वैराग्यवान् पुरुष को यह सिद्धि योगाभ्यास द्वारा विशेष करप्राप्त हो सकती है॥

निवेदको—

भीमसेन शर्मा

ब्राह्मणसर्वस्व-सम्पादकः

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731580243111101-removebg-preview-removebg-preview.png"/>

श्रो३म्-श्रीमहागणाधिपतयेनमः।

अथ कृष्णयजर्वेदीयश्वेताश्वतरोपनिषद्भाष्यम्।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-173129311031.png"/>

ओ३म्— ब्रह्मवादिनो वदन्ति। किं कारणं ब्रह्म, कुतः स्म जाता, जीवाम केन, क्क च सम्प्रतिष्ठाः। अधिष्ठिताः केन, सुखतरेषु वर्त्तामहे, ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥ १॥

अ०— ब्रह्मवादिनो महर्षयो वाग्व्यापारेणान्यावाच्यापेक्षया ब्रह्मैवाधिक्येन वदितुं शीलाः शुद्धाः पुरुषाः परस्परमेकीभूत्वा वदन्ति। अस्य चराचरदृश्यस्य किं ब्रह्म कारणमाहोस्वित्कालादिकारणमिति। अथवा अकारणमिदं जगत्। अथवा ब्रह्मणः कारणत्वेऽपि किमुपादानकारणं ब्रह्माहोस्विन्निमितमथवोभयमिति प्रश्नः तच्च ब्रह्म किं लक्षणमस्ति। कुतो वयं जीवा जाताः स्म केन कारणेन वयं शरीरधारिणः कृताः, चिदात्म-

स्वरूपेण ‘जीवानां नित्यत्वाच्छरीरधारिणामेवोत्पत्तौ प्रश्नाशयः। केन च कारणभूतेन स्थितिकाले वयं जीवामः, क्वचाधारभूते प्रलयाद्यवसरे वयं प्रतिष्ठिता भवामः। केनाधिष्ठिता नियता वयं सुखेष्वितरेषु दुःखेषु च वार्तामहे। हे ब्रह्मविदो ब्रह्मज्ञानिनः! भवत्कृपातो वयमेतां व्यवस्थां लभेमहि जानीयाम॥

भा०—अत्र पञ्च प्रश्नास्तेषु प्रथमः सर्गारम्भे संसारस्य कारणजिज्ञासायां, द्वितीयः प्रकृतिपुरुषसंयोगहेतु-जिज्ञासायां, तृतीयः स्थितिदशायां कारणं ज्ञातुं, चतुर्थः प्रलयावस्थायां कारणं ज्ञातुम्। पञ्चमश्च कर्मफलाप्तौ कारणं विज्ञातुमेवं च सर्व-दैवतत्तूवं ज्ञातुं मनुष्यैरीक्षणमारब्धव्यमित्याशयः॥ १॥

भावार्थः—(ब्रह्मवादिनो वदन्ति) वाणी के व्यवहारसे ईश्वर विषय की ही अधिक चर्चा करने के स्वभाव वाले शुद्ध महर्षि लोग परस्पर मिलकर विचार करते वा कहते हैं कि इस चराचर संसार का (किं कारणं ब्रह्म?) क्या ब्रह्म ही कारण है? अथवा अन्य कोई कालादि कारण है? वा इस जगत् का कोई कारण ही नहीं। अथवा यह भी प्रश्न का अर्थ हो सकता है कि इस जगत के उपादान निमित्तों में से ब्रह्म कौन कारण है? वा दोनों कारण ब्रह्म है और उस ब्रह्म का क्या लक्षण है (कुतो जाताः स्म) इन सब

शरीरधारी जीव किससे उत्पन हुए हैं? वास्तविक स्वरूपसे जीव नित्य हैं, इस कारण शरीर धारण सम्बद्ध जीवों का प्रश्न जानो। (केन जीवाम) हम सब किस की सत्ता से जगत् की स्थिति दशा में जीवित रहते हैं? (क्व च सम्प्रतिष्ठाः) और प्रल-यादि के समय किस आधार पर हम सब रहते? (केनाधिष्ठिताः सुखेतरेषु वर्त्तामहे) और किस से नियत किये हुए हम लोग सुख दुःखों में प्रवृत्त हो रहे हैं अर्थात् हमको सुख दुःख कौन भुगाता है? हे (ब्रह्मविदः) ब्रह्मज्ञानी लोगो ! हम सब लोग (व्यवस्थाम्) इस विषय की व्यवस्था अर्थात् समाधान को आप की कृपा से ठीक २ जानें वा जान सकें।

** भा०**— इस आरम्भ के मन्त्र में पांच प्रश्न हैं उन में पहिला सृष्टि के आरम्भ समय संसार का कारण जानने की इच्छा से, दूसरा प्रश्न प्रकृति पुरुषके संयोग का हेतु जानने के लिये, तीसरा जगत् की स्थिति दशा का कारण जानने की, चौथा प्रलयादि दशा में जीव का आधार जानने और पाञ्चवां कर्मफल प्राप्ति में कारण जानने के लिये है। इसी प्रकार सब काल में सभी विचारशील विद्वान् मनुष्यों को गूढ़ विषयों का ठीक तत्त्व जानने के लिये समीक्षण वा आन्दोलन करना चाहिये॥ १॥

कालः स्वभावो नियतिर्यदूच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम्। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माऽप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥ २॥

** अ०—**कालः सर्ववस्तूनां विपरिणामहेतुः, स्वभावोऽग्नेरुष्णत्वादिकरूपा पदार्थानां नियता शक्तिः। नियतिः पुण्यपापल-क्षणं नियतविपाकं संचितं कर्म, यदृच्छा आकस्मिक्यकारणप्राप्तिः, भूतान्याकाशादीनि, पुरुषो विज्ञानात्माऽस्य सर्वस्य योनिः कारणमाहीस्विदेषां कालादीनां संयोगो योनिरिति विमर्शे प्रवृत्ते न योनिरिति पदद्वयं प्रत्येकेन कालादिना सम्बध्यते। कालो न योनिः स्वभावो न योनिरित्येवम्। सुखदुःखहेतोः स्वकर्मोपार्जितेष्टानिष्टफलभागेषु बद्धत्वादनीशः पराधीन आत्मा-पि जीवोऽपि न योनिरात्मभावादात्मत्वेन सर्वव्याप्तत्वेन सर्वनियन्तृत्वेन न कोऽपि कालादिर्जीवो वास्य कारणमिति॥

** भा०—**यद्यपि कालादीनि पृथक्पृथङ्मिलित्वा वाऽस्य जगतो निमित्तान्युपादानानि वा कानिचित्कारणानि भवन्ति। तथापि तेषां स्वयमसत्त्वादन्यसत्तापेक्षत्वात्पराधीनत्वात्सातिशयशक्तिमत्त्वान्निरतिशयशक्तिमदेव सर्वनियन्तृ किमपि कारणानामपि तेषां कारणं सम्भवत्येतच्च नत्वात्मभावादिति कथयता सूचितम्॥ २॥

भाषार्थः— (कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा) क्षणादि काल सब के परिवर्त्तन बदलने का हेतु स्वभाव— जैसे अग्नि की उष्णता अर्थात् अग्नि का स्वाभाविक गुण जैसे उष्मता गर्मी है वैसे पदार्थों की स्वाभाविक शक्ति, पुण्य पाप रूप नियत-फल को अवश्य देने बाला संचित वासनारूप कर्म्म अथवा यदृच्छा नाम अकस्मात् विना कारण ही संसार उत्पन्न हुआ, (भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम्) आकाशादि सूक्ष्म भूत अथवा पुरुष नाम जीवात्मा, क्या इन कालादि में से कोई एक २ इस प्रत्यक्ष जगत्का योनि नाम कारण है? अथवा (एषां संयोगः) इन सबका सयोग सृष्टि का कारण है? ऐसे विचारकी प्रवृत्ति में (न) नहीं अर्थात् कालादि एक २ वा इन का सयोग दोनों ही सृष्टिके कारण नहीं अर्थात् (आत्मभावात्सुखदुःख-हेतोरात्माप्यनीशः) जैसे अपने संचित इष्ट कर्म फल भोगों में फंसा होने से जीवात्मा पराधीन हुआ किसी कार्य का स्वतन्त्र कारणा नहीं होता वैसे पराधीन कालादिक भी सृष्टि के कारण नहीं हो सकते क्योंकि इनमें सर्वत्र व्याप्त सर्वनियन्तृता सब को अपने आधीन कर लेनेकी अनन्त शक्ति नहीं है। अर्थात् कालादि जड़ चेतन आत्मभाव नाम सर्वव्याप्त न होने से प्रबलता वा प्रधानता के साथ स्वतन्त्र सृष्टि के कारण नहीं किन्तु पराधीनतासे गौण कारण तो अवश्य हैं यह बात (आत्म-भावात्) पद से जतायी है॥

भा०— यद्यपि कालादि जड़ और चेतन जीवात्मा ये दोनों ही पृथक् २ वा मिलकर इस जगत् के निमित्त वा उपादान भिन्न २ कारण गौणरूपसे हो सकते हैं जिसमें काल, नियति, यदृच्छा और जीवात्मा ये निमित्त तथा स्वभाव और भूत सृष्टि के उपादान कारण हैं। तो भी उनके स्वयं

असत् होने के कारण अन्य सदात्मक ब्रह्म की सत्ता की अपेक्षा होने से और पराधीन होने तथा परिमित अल्प शक्ति वाले होने से असीम अपरिमित शक्तियुक्त कोई सर्वनियन्ता ही उन कालादि कारणों का भी कारण ठहरता है यह बात (न स्वात्मभावात्) कहनेसे जतायी गयी है। अर्थात् एक परमेश्वर ही सब का मूल प्रधान कारण है क्योंकि उस के विना काल प्रकृति और जीवादि कारण सब मिल कर भी सृष्टि नहीं कर सकते॥ २॥

** ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्। यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधि-तिष्ठत्येकः॥३॥**

अ०- एवमुक्तप्रकारेण कारणान्तरवादपक्षान्निराकृत्य वेदैकवेद्ये ब्रह्मणिप्रकारान्तरमपश्यन्तिश्रुतिराह—यएकोऽद्वितीयः परमेश्वरः कालामयुक्तानि कालेन जीवात्मना पुरुषेण च संयुक्तानि निखिलानि तानि कारणानि द्वितीमन्त्रोक्तानि स्वभावा-दीन्यधितिष्ठत्यधिष्ठातृत्वेन नियमयति। तस्यैव परमात्मनः स्वगुणैः प्रकृतिकार्यैः पृथिव्यादिपञ्चभूतैश्च निगूढां संवृतामाच्छन्नां देवात्मशक्तिं ध्यानयोगानुगता ध्यानरूपं योगं ध्येयस्वीकारो-

पांयमनुगता ध्येयाकारपरायणाः समाहितास्ते पूर्वोक्ता ब्रह्मवादिनो महर्षयो जगतो निर्मात्रीमपश्यन् हार्दचक्षुषा दृष्टवन्तः। तत्र देवात्मशक्तिमित्यस्य समासव्यासो बहुधा सम्भवति तद्यथा—देवस्य मायिनः परमेश्वरस्यात्मस्वरूपामेवास्वतन्त्रां माया-शक्तिं जगतः कारणभूतामपश्यन्त। अनेनैवाभिप्रायेणाग्रेऽस्मिन्नवे ग्रन्थ उक्तम्— मायांतु प्रकृतिंविद्यान्मायिनंतुमहेश्वर-मिति। भगवद्गीतासूक्तम्— मयाध्यक्षेणप्रकृतिः सूयतेसचराचरमिति। अत्रापि मायाशक्तिरस्वतन्त्रा ब्रह्मसत्तयैवावस्थिता च स्वगणैः सत्वरजस्तमोभिर्निगूढाऽऽवृतामायाशक्तिर्गुणाश्चानावृताः। इत्येकः पक्षः। अथवा देवात्मशक्तिं देवतात्मना—ईश्वर-रूपेणावस्थितां शक्तिं स्वगुणैः सर्वज्ञत्वादिभिरीश्वरगुणैर्निगूढां ब्रह्मात्मनैवानुपलभ्यमानाम्। तत्रोक्तम्— मायीसृजतेविश्व-मेतदित्यादि। इति द्वितीयः पक्षः। अथवा देवस्य परमेश्वरस्यात्मभूतां जगदुत्पत्तिस्थितिलयकर्त्री ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकां शक्तिं स्वगुणैः सत्वरजस्तमोभिर्निगूढां ब्रह्मात्मनैवानु-

पलभ्यमानाम् तथाचोक्तम्-ब्रह्मविष्णुशिवाब्रह्मन्! प्रधानाब्रह्मशक्तयइति। शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाः। अवस्थाभेदमाश्रित्य परस्यैव ब्रह्मणः सृष्ट्यादिकार्यं कुर्वन्ति। मूर्त्तिमद् ब्रह्मैव ब्रह्मविष्णुशिवनामरूपैः सृष्ट्यादिकं करोति नतु ब्रह्मादयस्ततो भिन्नाः स्वतन्त्राइति। इति तृतीयः पक्षः।अथवा देवात्मशक्तिमिति-देवश्च-आत्मा च शक्तिश्च यस्यब्रह्मण-स्त्रयोऽवस्थाभेदास्तां प्रकृतिपुरुषेश्वराणां स्वरूपभूतां ब्रह्मरूपेणावस्थितां शक्तिं कारणमपश्यन्। तच्चाग्रेप्रदर्शितम्— भोक्ताभोग्यं प्रेरितारंचमत्वा सर्वंप्रोक्तंत्रिविधंब्रह्ममेतदिति। स्वगुणैः प्रकृत्याद्युपाधिभिर्निगूढां शक्तिम्। एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढइत्युक्तत्वात्। इति चतुर्थः पक्षः। अथवादेवस्य प्रकाशस्वरूपस्यात्मनो व्यापकस्य परमेश्वरस्य स्वरूपभूतां दैवीशक्तिं स्वगुणैर्निर्गूढां जगतः कारणमपश्यन्निति पञ्चमः पक्षः॥

भा०— देवात्मशक्तिरूपे समस्तपदे ये पक्षाः प्रदर्शितास्ते शास्त्रानुकूलतया सर्वे सम्यगेवाभिमताबोध्याः। सवपक्षे-ष्विदमैक्य-

मनुसन्धेयम्— यद्ब्रह्मसत्तयैव सदिवप्रतीयमानं ब्रह्माधिष्ठितं बहुविधं कारणमस्वतन्त्रं निमित्तोपादानभूतमस्ति तस्य सर्वस्य स्वातन्त्र्येणाचेतनत्वादशक्यत्वान्मुख्यतया जगदुत्पादकत्वं नास्त्यपित्वेकस्यैव सर्वशक्तिमतः परमात्मनः सत्तया जगज्जायते तरमात्तस्यैव जगदुत्पादकत्वमभिज्ञा वेदाभिमतं मन्यन्ते। अस्य तृतीयमन्त्रस्याशयोऽयमस्ति—यद्वर्त्तमानकालेऽपि सूर्यादी-नामुदयारतादिनियमाः प्रत्यक्षमुपलभ्यन्ते प्रत्यहं चोत्पत्तिस्थितिलयाः पदार्थानां जायमानां ये दृश्यन्ते तेषां कारणान्यपि बहूनि प्रत्यक्षेणोपलभ्यन्ते परन्तु सर्वपदार्थेषु गूढाऽतिसूक्ष्मा चर्मचक्षुर्भ्यामलक्ष्या सर्वनियन्त्री काचिच्छक्तिरस्ति यया निय-न्त्रिताश्चराचरपदार्था नियमेन प्रवृत्ता दृश्यन्ते तस्याश्च पाश्चात्यादयो विद्वांसः किमपि नामान्तरं वदन्तु। तामेव देवात्मशक्तिं परमात्मस्वरूपं सर्ववरतुपु गूढां तत्तन्नामरूपावच्छिन्नामखिलपदार्थान्तः प्रविष्टामखिलक्रियाकारिकामुत्पत्त्यादेः प्रधानका-रणभूता-

मतिप्राचीनकालेऽपि ब्रह्मवादिनी महर्षयो ध्यानयोगेन दृष्टवन्तो ज्ञातवन्तइति॥

** भाषार्थ—**इस उक्त प्रकार से सृष्टि रचना के अन्य कारण वाद पक्षोका निषेध करके एक वेदके ही द्वारा जानने योग्य ब्रह्म मे अन्य कारण को न देखती हुई श्रुति कहती है कि (य एकः कालात्मयुक्तानि निखिलानि तानि कारणानि अधिति-ष्ठति) जो एक अद्वैत परमेश्वर काल और जीवात्मासे युक्त उन द्वितीय मन्त्र में कहे स्वभावादि मंत्र कारणो को अधिष्ठता रहता हुआ नियम बद्ध करता है। उसी परमेश्वर की (स्वगुणैर्निगूढाम्) प्रकृति के कार्य महत्तत्वादि और पृथिव्यादि पंच-महाभूतो से छिपी वा ढपी हुई (देवात्मशक्तिम्) परमात्म देव की आत्मस्वरूप शक्ति को (ध्यान योगानुगताः) ध्यानरूप योगाभ्यास में तत्पर ईश्वर प्राप्तिके उपाय मे संलग्न ईश्वर परायण समाहित हुए (ते) त्तन ब्रह्मवादी महर्षियों ने जगत् की रचनेवाली (अपश्यन्) दिये की आखो से देखा वा जाना ॥

** देवात्मशक्ति—**इम समस्त पद का अनेक प्रकार से समासार्थ हो सकता है मो दिखाते है। देवनाम माया के स्वामी परमेश्वर की आत्मस्वरूप अस्त्रतन्त्र पराधीन मायाशक्ति को जगत् कारण ब्रह्मवादियो ने देखा जाना। इसी अभिप्राय को आगे भी ग्रन्थमे दिखाया है कि माया नामक प्रकृति को जगत् का उपादान जानो और माया का स्वामी अधिष्ठाता परमे-श्वर है। तथा भगवद्गीता मे भी कहा है कि मुझ ईश्वर की अध्यक्षता मे प्रकृति माया चराचर जगत्को रचती है। यहा भो माया शक्ति अरवतन्त्र और ब्रह्म की सत्ता से अवस्थित मन्तव्य है। सत्व, रज और तमोगु

णों से वह माया ढपी हुई है पर गुगा प्रसिद्ध है यह एक पक्ष हुआ। द्वितीय पक्ष यह है कि— देवात्मरूप जो परमेश्वर उसी रूप से विद्यमान सर्वज्ञत्वादि ईश्वरीय गुणोंके सहित छिपी हुई अर्थात् ब्रह्म स्वरूपसे प्रतीत न होती हुई शक्तिको ध्यानसे देखा। उसी अंश में कहा है कि मायाधिष्ठाता भगवान् इस जगत्को बनाता है। यह द्वितीय पक्ष हुआ।

अथवा संसारको उत्पत्ति स्थिति लय करने वाली ब्रह्मा विष्णु शिव नामकी देवनाम परमेश्वरकी आत्म रूप शक्ति को देखा, वह शक्ति अपने सत्वरजस्तमोगुणों से आच्छादित होनेके कारण ब्रह्म स्वरूपसे प्रतीत नहीं होती। ब्रह्मा विष्णुशिव ये तीनों ब्रह्म की प्रधान शक्तियां हैं। अवस्था भेदके आधार पर ये शक्तियां परमेश्वरके ही सृष्टि आदि कामको करती हैं। वा यों कहो कि साकार परमेश्वर ही ब्रह्मादि नाम रूपोंसे संसारकी उत्पत्ति आदि करता है। एक ब्रह्म से भिन्न स्वतन्त्र ब्रह्मादि देव नहीं हैं। यह तीसरा पक्ष हुआ। अथवा जिस ब्रह्मके देव ईश्वर जीवात्मा, और माया शक्ति ये तीन अवस्था भेद हैं उस प्रकृति पुरुष और ईश्वर रूप, ब्रह्म रूपसे अवस्थित शक्तिको जगत्का कारण ब्रह्मवादियों ने जाना। इस वातको भोक्ता शीव, भोग्य प्रकृति और प्ररक देव ईश्वर ये तीनों ब्रह्म स्वरूप हैं ऐसा आगे इसी ग्रन्थ में कहा है। यह त्रिविध शक्ति भी प्रकृत्यादि उपाधियों से गूढ़ है। एक ही परमेश्वर सब चराचर में छिपा है ऐसा भी आगे कहा है यह चतुर्थ पक्ष हुआ। अथवा ज्योतिः स्वरूप व्यापक परमेश्वरकी स्वरूप भृत देवी शक्तिको अपने गुणों से आच्छादित जगत्का कारण ब्रह्मवादियोने ध्यान से देखा॥

** भावार्थः**- देवात्म शक्ति हम समास किये पद में जो पक्ष ऊपर दिखाये हैं वेदानुकून होनेसे उन सभी को ठीक जानो

तथा सब पक्षो मे निम्न लिखित एकता भी है कि ब्रह्मकी सत्ता से ही सत्तात्मक प्रतीत होने वाला ब्रह्मसे अधिष्ठित स्वतन्त्र निमित्त तथा उपादान रूप जगत्का बहुविध कारण है। उस सब कारण मे स्वतन्त्र चेतनता और शक्ति न होने से मुख्य कर ससारका उत्पादक नही होता किन्तु सर्व शक्तिमान् एक परमेश्वर की सत्तासे जगत्की उत्पत्ति होती है। तिससे उसी ईश्वरको जगत्‌का उत्पादक वेदानुकूल होनेसे विद्वान् लोग मानते है। इस तृतीय मन्त्रका अभिप्राय यह है कि वर्तमान कालमे भी सूर्यादिके उदय तथा अस्तादि हानेके नियम अटल दीखते है और सब पदार्थोंके जो उत्पत्ति स्थिति प्रलय भी प्रतिदिन होते दीखते है उनके अनेक कारण भी प्रत्यक्ष मिलते है। परन्तु सत्र पदार्थोंको नियम मे रखने वाली अतिसूक्ष्म चर्म चक्षुसे अदृश्य छिपी हुई सर्व नियन्त्री कोई एक शक्ति है जिससे नियमित हुए चराचर पदार्थ नियत प्रवृत्ति वाले दीखते है। अर्थात् जहा तक शोच विचारके हम पदार्थोंको जान सकते है उन सबसे भिन्न अति सूक्ष्म सबमे गूढ एक अन्य भी शक्ति नाम रूप रहित है। पाश्चात्यादि विद्वान् उस शक्तिका कुछ भी नाम कहे परन्तु हमारे पूर्वज महर्षियोने परमात्म स्वरूप उसी दिव्य शक्ति को सब वस्तुओमे छिपी उसी २ के नाम रूपसे विख्यात सव पदार्थोंमे प्रविष्ट सब चेष्टा कराने वाली उत्पत्ति आदि का मुख्य कारण स्वरूप अति प्राचीनकालमे भी ध्यान योग के द्वारा शोच विचार कर ज्ञान चक्षुसे देखा और जाना था॥

तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्द्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।

अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्॥४॥

** अ०**—य एकस्तानि निखिलानि कालात्मयुक्तानि कारणान्यधितिष्ठति स चोपनिषत्सु प्रकारद्वयेन प्रतिपाद्यते— जगत्स-म्बन्धं विहाय केवलस्वरूपमात्रेण क्वचिद्व्याख्यानप्रकारः क्वचिच्च— “एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपंरूपं प्रतिरूपो बहिश्च, इति तत्तन्नामरूपावच्छेदेन सोपाधिकस्य व्याख्यानम्। यथा पृथिव्यन्तर्गतान्याकाशवाय्वग्निजलानि स्थूलदर्शनेन भिन्नानि प्रतीयमानान्यपि सूत्रवस्त्रादिवद्वस्तुतोऽभिन्नान्येवाभिमतानि भवन्ति तथैव “सओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु,,इति वेदप्रमाणमा-श्रित्य वाससि सूत्रवत्परमेश्वरतोभिन्नं जगन्नास्ति। किन्तु सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन। इति मत्वा तमिति पदेन सर्वनियन्ता पूर्वंतृतीयमन्त्र उक्तः परमात्मा ब्रह्माण्डचक्रस्वरूपेण व्यपदिश्यते। प्रकृतिरव्यक्तमव्याकृतं परमाण्वोख्यं मायाऽभिधं वैकं सर्वस्य जगतः कारण-

मुपादानमेव सर्वाधारं नेभिस्थानीयमस्याधिष्ठातुरद्वितीयस्य परमात्मनस्तमेकनेमिम्। त्रिवृतं त्रिभिः सत्वरजस्तमोभिः प्रकृतिगुणैर्वृतमाच्छादितम्। ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियभेदेन दशेन्द्रियाण्ये-कादशं मनः पञ्चभूतान्येवं षोडश विकाराअन्तोऽवसानं विस्तारसमाप्तिर्यस्यात्मनस्तादृशं षोडशान्तं यद्वा प्रश्नोपनिषदुक्तषोडशकला अंशा अन्तोऽवसानं पूर्तिरस्य। अथवाऽव्यक्तकार्यं समष्टिरूपं विराट्सूत्रात्मद्वयं तद्व्यष्टिरूपाणि भूरादिचतुर्दशभुवनानि तानि षोडशान्तोऽवसानं यक्ष्य प्रपञ्चात्मनावस्थितस्य परमात्मनस्तं षोडशान्तम्। शतस्यार्द्धं पञ्चाशत्प्रत्ययभेदविपर्ययाः शक्तितुष्टिसिद्धिसंज्ञका अराइव यस्य तं शतार्द्धम्— तत्र पञ्चविपर्ययभेदाः शक्तेरष्टाविंशति-भेदास्तुष्टेर्नवाष्टौ च सिद्धयइति पञ्चाशत्। तमो मोहो महामोहस्तामिस्रोऽन्धतामिस्रइति पञ्चविधाऽविद्याविपर्ययभेदाः। मनोबुद्धिरहङ्कारः पञ्चतन्मात्राणीत्यष्टप्रकृतिष्वात्मबुद्धिस्तमोऽष्ट-विधम्। अणिमाद्यष्टसिद्धिषु सामर्थ्यप्राप्तिरष्टविधो मोहः। प-

ञ्चसु प्रत्यक्षेषु पञ्चस्वानुश्नविकेषु च शब्दादि विषयेषु भोगोत्कण्ठा दशविधो महामोहः। दशसु दृष्टानुश्रकविषयेष्वष्टविधैरै-श्वर्यैः प्रयतमानस्य तेषामसिद्धौ यः क्रोधः सोऽष्टादशविधस्तामिस्रः। अष्टविधैश्वर्येण दृष्टानुश्रविकदशविषयेषु भोगायोपस्थि-तेष्वर्द्धभुक्तेषु वा मृत्युना ह्रियमाणस्य यः शोकः— “अहो! महता श्रमेण क्लेशेन च समुपार्जिता मयेमे भोगाः नचोपभुक्ताः सन्निहितश्चायं मरणकालः पश्यतो मम सर्वमिदं प्रेयः प्रलीयते नात्र किमपि कर्तुं शक्तइति शोकसागरएव निमज्जामि,, जायते सोऽन्धतामिस्रइति गद्यते। इत्येवमन्धतामिस्रोऽप्यष्टादशविधएवास्ति तथा सति विपर्ययनाम्नीतमआदिपञ्चविधाऽविद्या द्वाषष्टिभेदा सम्पद्यते। मूकत्वाद्यभावो दशेन्द्रियशक्तयो नवतुष्टिषु चैकैकस्यां तुष्टौ द्वेद्वे शक्ती इत्यष्टादश इत्येवमष्टाविंशति-शक्तयः। नवविधा तुष्टिर्यथा— कश्चित्प्राकृतजगतस्तत्त्वमसारत्वं दुःखहेतुत्वं च सम्यग्बुद्ध्वा कृतार्थोऽस्मीति तुष्यति तत्त्वं ज्ञातुं शक्तइति च म-

न्यते स च पुनर्विरक्तः सन् विरक्तोऽहं सर्वं त्यक्तुं शक्तोवेति मन्यते तुष्यति च। एवमत्र द्विविधा शक्तिरस्ति। अन्यः कश्चित् किं जगतस्तत्त्वज्ञानेन किं वा संन्यासाश्रमोपादानेन मुक्तिस्तु स्वतएव बहुना कालेन भवतीति मत्वा तुष्यति। अपरः कोऽपि मन्यते नहि भाग्यमन्तरेण किमपि प्राप्तुं शक्यं यदि भाग्ये मोक्षोऽस्ति तर्हि भविष्यत्येवेति परितुष्यति। न जातु कामः कामा-नामुपभोगेन शाम्यतीति मत्वा विषयसङ्गदोषदर्शनादुपारभ्य कश्चित्तुष्यति। इमाश्चतस्तुष्टयो विषयाणामर्जनरक्षणादिषु हिंसा-दिदोषदर्शनेनास्वीकरणजन्याः पञ्चतुष्टयइति नवतुष्टयो व्याख्याताः। जन्मान्तरसंस्कारप्राबल्यादनायासेन प्रकृत्यादिविषयं यत्तत्त्वज्ञानं जायते सा प्रथमो हनामिका सिद्धिः शब्दानामभ्यासमन्तरेण पूर्वकालीनसंस्कारप्राबल्याद्यच्छब्दश्रवणमात्राजू-ज्ञानमुत्पद्यते सा द्वितीया सिद्धिः शब्दविषया। शास्त्राभ्यासाद् यत्प्रकृंष्टं ज्ञानमुत्पद्यते सा तृतीयाऽध्ययनसिद्धिः। आध्यात्मि-कादिसुखदुःखसहिष्णुत-

योत्पन्नं ज्ञानं त्रिविधा सिद्धिर्ज्ञानस्य, सुहृत्सङ्गेन या ज्ञानस्य सिद्धिः सा च सुहृत्प्राप्तिर्नाम सप्तमी सिद्धिः। आचार्याय हितव-स्तुदाने याविद्यासिद्धिः साऽष्टमी। एवं पञ्चाशदराः सभेदाः परिगणिता भवन्ति। दशेन्द्रियाणि तेषां च शब्दस्पर्शरूपरस-गन्धवचनादानविहरणोत्सर्गानन्दा दश विषयास्तान्येव विंशतिः प्रत्यरा अराणां दाढ्र्याय कीलकाइव भवन्ति तादृग्भिर्युक्तम्। अष्टसंख्यापरिमाणमस्य सोऽष्टकस्तादृशैः षड्भिरष्टकैर्युक्तम्। पञ्च तत्त्वानि मनो बुद्धिरहङ्कार इति प्रकृत्यष्टकम्, त्वक्चर्म-मांसरुधिरमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धात्वष्टकम्। अणिमाद्यैश्वर्याष्टकम्, धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्या भावाष्टकम्\। ब्रह्मप्रजापतिदेवगन्धर्वयक्षराक्षसपितृपिशाचा देवाष्टकम्। क्षान्तिर्दयाऽनसूयाशौचमनायासो मङ्गलमकार्पण्यमस्पृहेति गुणा-ष्टकम्। एतैः षड्भिरष्टकैर्युक्तम्। विश्वानि सर्वाणि स्वर्गनरकादीनि रूपाण्यस्य, एकः कामोऽभिलाषरूप एव

पाशो बन्धनमस्य तद् विश्वरूपं चैकपाशं च विश्वरूपैकपाशम्। धर्माधर्मज्ञानमार्गभेदा अस्येति त्रिमार्गभेदं यद्वा—उत्पत्ति-स्थितिलयास्त्रयो मार्गभेदा अस्य तत्। द्वे शुभाशुभे पृथक् २ मिश्रिते पुण्यपापे वा तयोः कर्मणोर्निमित्तभूतएको मोहो देहे-न्द्रियमनेा बुद्धिर्जात्यादिष्वनात्मस्वात्माभिमानोऽस्येति द्विनिमित्तैकमोहम्। एवं भूतं ब्रह्मणश्चक्रमिव ब्रह्माण्डमधीमः स्मराम-इत्युत्तरपद्येनान्वयोऽवगन्तव्यः। यद्वोक्तविधं ब्रह्मचक्रं ध्यानयोगानुगता अपश्यन्निति पूर्वेणान्वयः॥

** भा०**— नात्र चक्रपदमालङ्कारिकं यत्कुम्भकारशकटादीनां चक्राणि सातत्येन भ्रातानि दृष्ट्वा तद्वद् ब्रह्माण्डस्य चक्रत्वं कल्पितमिति। अपित्वनादिवेदाशयेन ब्रह्माण्डस्याविरतभ्रान्तस्य यच्चक्रत्वं स्वतः सिद्धं तद्बदेव गतिं लक्षयद्भिर्विपश्चिद्वर्यैः शकटाङ्गादीनामपि चक्रत्वमुपकल्पितम्। तेन ब्रह्माण्डस्य प्रधानं चक्रत्वमस्ति। कुम्भकारादिचक्राण्यत्यत्पकालं भ्रमन्ति संसारचक्रं च प्रतिकल्पारम्भे स्वाभाविकेक्षणेन परमात्मना सकृदेव

भ्राम्यते तच्च तन्नियमबद्ध प्रलयावधि सातत्येन भ्राम्यति न कदापि मध्ये तस्य विराम केनापि कर्त्तुं शक्यते। ध्यानयोगेन तत्त्वज्ञा एव तच्चक्रगतिं स्वात्मन्यालोचयन्ति। ये च केऽपि कदाचिच्चक्रगतिमालोचयन्ति ज्ञानचक्षुषा सम्यक् पश्यन्ति त एव तस्मात् प्राप्तविरामा शाम्यन्ति दुखान्मुच्यन्ते च यद्यपि तेषां दृष्टौ चक्रभ्रान्ति समाप्यते तथाप्यन्यसाधारणलौकिकपुरुषापे-क्षया तत्तथैवाविरततया भ्राम्यति तस्मादनाद्यनन्तकालीना चक्रगतिरस्ति। यद्यपि चक्रपदमत्र पद्ये नास्ति तथापि नेम्यरादि-लिङ्गैस्तदुपादानं स्फुटमेवास्ति॥ ४॥

** भाषार्थ—** जो एक ईश्वर काल तथा आत्मा जीवादि उन सम्पूर्ण सृष्टि के कारणो का अधिष्ठाता है। उपनिषद् ग्रन्थो में उसका दो प्रकार से व्याख्यान किया है। कहीं तो सत्तार के साथ व्यापक उत्पादक पालकादि सम्बन्ध को छोड के केवल स्वरूप मात्र से उसका वर्णन है और कही ‘वह ईश्वर सब पदार्थों में उन्ही २ के रूप से व्याप्त हो रहा है” उस २ नाम रूप से सोपाधिक ईश्वर का व्याख्यान है। जैसे पृथिवी के भीतर विद्यमान आकाश वायु अग्नि जलादि स्थल दृष्टि से भिन्न प्रतीत होने पर भी वस्तुत सूत तथा वस्त्र

वा सुवर्ण और कुण्डलादि के तुल्य एक ही माने गये हैं। वैसे विभु भगवान् प्रजा मे ओत प्रोत है ऐसा वेद प्रमाण होने से वस्त्र में सूत के तुल्य जगत् मे ईश्वर है, ईश्वर से भिन्न जगत् नही है। किन्तु यह सब जगत् ईश्वर ही है सत् चित् आनन्द स्वरूप से ईश्वर विद्यमान है। ऐसा मानकर तम् पद से तृतीय मन्त्रोक्त सर्व नियन्ता परमेश्वर का ब्रह्मा वह चक्र रूप से व्याख्यान किया है (तमेफनेमिम्) सबके

अधिष्ठाताअद्वितीय स्वामी उस ईश्वर से अधिष्ठित प्रकृति प्रधान अव्याकृत अव्यक्त परमाणु वा माया आदि जिस के नाम हैं ऐसा एक सूक्ष्म कारण ही जिसकी नेमि नाम नाह है (त्रिवृतम्) सत्त्व रजम् तमस् तीनो प्रकृतिके गुणो से युक्त वा आच्छादित (षोडशान्तम्) पाच ज्ञानेन्द्रिय पाच कर्मेन्द्रिय ग्यारहवा मन और पृथिव्यादि पाच भूत इन सोलह विकाररूप पदार्थोंमे जिसके अन्त नाम विस्तार की समाप्ति सपूर्णता होती अथवा प्रश्नोपनिषद् में कही सोलह कलाओ में जिसका अन्त है अथवा अव्यक्त का कार्य विराट् और द्वितीय सूनात्मा ये दो समष्टि रूप तथा व्यष्टि रूप चतुर्दश भुवन इन सोलह मे है अन्तनाम समाप्ति जिस प्रपञ्च रूप से अवस्थित परमेश्वर की वह षोडशान्त कहा गया (शतार्द्धारम्) सौ के आधे पचास अरा के तुल्य जिसमे लगे है। पाच विपर्यय नाम मिथ्याज्ञान वा अविद्या के भेद, अट्ठाईस प्रकार की शक्ति नौ प्रकार की तुष्टि और आठ प्रकार की सिद्धिया ये व्रत्माण्डरूप पहिये के पचाश अरा है। उन में तमस मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिस्र ये पाच अविद्या नामक विपर्ययके भेद है जिन में से मन, बुद्धि महङ्कार पाचतन्मात्र इन आठ प्रकृतियों में आत्मबुद्धि होना अर्थात् इन को समझना कि ये ही मै आत्मा हू यह आठ

प्रकार का तम अणिमा–छोटा हो जाना महिमा–बडा हो जाना, गरिमा–भारी हो जाना, लघिमा–हलका हो जाना, प्राप्ति जिस को चाहे पकड वा छू सके, प्राकाम्य–इच्छा का विघात न होना, ईशित्व सब को अपने अधीन कर दबा लेना और वशित्व जिस को चाहे वशीभूत कर सकना इन आठ सिद्धियो में सामर्थ्य को प्राप्त होना यह अठ प्रकारका मोह, इस जन्म में मिलने योग्य प्रत्यक्ष और जन्मान्तर में प्राप्त होने योग्य स्वर्गादि सम्बन्धी आनुश्रविक इन शब्दादि पाच २ कर दश विषयो में भोगने की उत्कट इच्छा का होना दश प्रकार का महामोह दृष्टादृष्ट पाच २ शब्दादि दो प्रकार के दश विषयो मे आठ प्रकार की सिद्धियो के साथ भोगने का प्रयत्न करते हुए पुरुषके विषय भोगोकी सिद्धि न होने पर अर्थात् विघ्नादि के कारण उस को विषयभोग प्राप्त न होने पर जो क्रोध होता है वह अठारह प्रकार का ता मिस्रनामक मिथ्याज्ञान तथा वैसे ही आठ सिद्धियोके द्वारा भोगने के लिये उपस्थित हुए प्रत्यक्ष परोक्ष दश विषयो का आधा भोग होने वा कुछ भी न भोग पाने पर ही मृत्यु ने आके जिसकी चोटी पकड ली उस पुरुष को जो शोक होता ‘कि हा। मैने बडे परिश्रम और बडे कष्ट से ये भोग के सामान सचित किये थे, अब यह मेरे मरने का समय आगया इन से कुछ भी सुख मैने न भोग पाया मेरे देखते ही मेरा यह प्रिय भोग साधन सब नष्ट हुआ जाता है। हाय अब क्या करू अब कुछ नही कर सकता इस से शोक समुद्र में ही डूबता हू यह अठारह प्रकार का अन्धतामिस्र दुख वा अविद्या है। इस प्रकार मिथ्याज्ञान वा विपर्यय रूप श्रविद्या के ६२ बासठ भेद होते अर्थात् ६२ प्रकार का मिथ्याज्ञान

हो जाता है। गूंगा आदि न होना दश इन्द्रियों को दश विध शक्ति और नव तुष्टियों के साथ १८ अठारह, एक २ तुष्टि के साथ दो २ प्रकार की शक्ति जैसे कोई धन के बिना संतुष्ट है तो धन के अभाव में दुःख न व्यापने की शक्ति और धन के मिलने पर त्याग वा उपेक्षा कर देने की शक्ति इस प्रकार एक २ तुष्टि से दो २ शक्ति सम्बन्ध रखती हैं। इस प्रकार अट्ठा-ईस शक्ति कहाती वा मानी जाती हैं। नव प्रकार की तुष्टि वा सन्तोष यह है कि कोई मनुष्य ससार के तत्त्व नाम असारता और दुःख हेतु होने को सम्यक् जान कर मैं कृतार्थ हूं ऐसा विचारकर संतुष्ट होता मैं तत्त्वज्ञानता हूं ऐसा मानता वही फिर विरक्त हुआ मैं विरक्त हूं सब त्याग सकता हूं ऐसा मानता और तुष्ट होता है ऐसे यहां दो प्रकार की शक्ति है। अन्य कोई कहता है कि जगत् के तत्त्वज्ञान से वा संन्यासाश्रम के ग्रहण से क्या प्रयोजन है? मुक्ति तो बहुत काल बीतने पर स्वयमेव ही हो जाती है। ऐसा मान कर सन्तुष्ट हो जाता है। तथा अन्य कोई मानता है कि भाग्य के बिना कुछ नहीं होता यदि हमारे भाग्य में मोक्ष है तो हो ही जायगा। ऐसा विचार स्थिर करके संतुष्ट हो जाता। तथा कोई पुरुष “विषय भोगों से कामना की तृप्ति होती नहीं, ऐसा मानकर विषयों के संग में दोष देखके भोगों से हटकर सन्तुष्ट होता है यह चार प्रकार की तुष्टि तथा पांच विषयों के भोगों का संचय और रक्षादि करने में हिंसादि दोष देख के उनका स्वीकार न करने से पांच प्रकार की तुष्टि उत्पन्न होती ऐसे ये नम्र तुष्टि हो जाती हैं। जन्मान्तर के संस्कारों की प्रबलता से सहज ही में जो प्रकृत्यादि विषयों का तत्वज्ञान हो जाता यह जन्म सिद्धि ,नामक प्रथम ऊह सिद्धि है।

शब्दों का अभ्यास किये बिना ही पूर्व संस्कारों की प्रबलता से जो शब्द के सुनने मात्र से अर्थज्ञान हो जाता है यह द्वितीय सिद्धि है इसी की सर्वभूतों का शब्दज्ञान भी कहते हैं। वेदादिशास्त्रों के अभ्यास द्वारा जो प्रबलज्ञान वा प्रबलशक्ति पूर्व संस्कारों की प्रबलता सहित प्रकट होती यह तीसरी अध्ययन सिद्धि,आध्यात्मिक आधिदैविक आधिभौतिक इन तीन प्रकार के सुख दुःखादि द्वन्द्वों के निर्विकल्प सहनद्वारा हुई शान्ति वा सन्तोष तीन प्रकार की ज्ञानसिद्धि मित्र वा शुद्ध हृदय पुरुषों के समागम से हुई ज्ञान की सिद्धि सुहृ त्प्राप्तिनामक सातवीं तथा गुरु के लिये हितकारी दुर्लभ पदार्थ को भी विद्यावल से लाकर देना यह आठवीं विद्या सिद्धि है। इस प्रकार ब्रह्मचक्र के पचास अरा गिनाये गये हैं। (विंशतिप्रत्यराभिः) दश इन्द्रियां और शब्द स्पर्शरूप रस गन्ध ये श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियों के यथासंख्य पांच विषय तथा हाथ का पकड़ना, पग का चलना, गुदा का त्याग, उपस्थ का आनन्द और वाणी का बोलना ये कर्मेन्द्रियों के पांच विषय सब मिलके बीस प्रत्यरा नाम पचास अराओं को पुष्ट रखने के लिये पच्चर कहाते हैं। इन से युक्ति, (अष्टकैःषड्भिः) आठ २ सख्या बाले छः अष्टकों से ‘युक्त इन में पांच सूक्ष्म तत्व मन बुद्धि और अहंकार यह प्रकृत्यष्टक त्वक् चर्म, मांस, रुधिर, मेदा, अस्थि, मज्जा, और और वीर्य यह धातुओं का द्वितीय अष्टक, अणिमा, महिमा गरिमा, लधिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व यह आठ प्रकारका तृतीयाष्टक धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, प्रज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्यं यह चौथा भावाष्टक ब्रह्मा, प्रजा पति, देव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पितर, और पिशाच यह पांचवां देवाष्टक, क्षमा, दया, अनुसूया, शौच अनायास मंगल

उदारता सन्तोष यह षष्ठगुणाष्टक इन छ अष्टको से युक्त (विश्वरूपैकपाशम्) स्वर्ग नरक, पशु, पक्षी, कीट पतंग स्था वरादि नाना रूप बाला एक कामना सुख भोग की अभिलाषा वा तृष्णा हो जिस की फासी वा बन्धन है (त्रिमार्गभेदम्) धर्म अथम और ज्ञानके तीन मार्ग भेद जिस के है अथवा उत्पत्ति स्थिति प्रलय रूप जिस के तीन मार्गभेद है (द्विनिमित्तैकमोहम्) शुभाशुभ नाम पाप पुण्य रूप दो प्रकार के जो कर्म उन का निमित्त शरीर इन्द्रिय, मन, बुद्धि और ब्राह्मणादि जाति इन अनात्म पदार्थों में आत्मभिमान कि ये ही हम है ऐसा एक मोह है जिसका उसे द्विनिमित्तैक मोह कहते है। ऐसे पहिया के तुल्य ईश्वर का यह संसारचक्र वा ब्रह्मचक्र है इस को ब्रह्मज्ञानी लोग ऐसा ही चिन्तन करते हैं।

भा०— यहा चक्र पद का अर्थ अलङ्कार से लेना आवश्यक नही है कि कुम्हार के चाक वा गाढी के पहिये की तुल्यता को लेकर ससार को चक्र कहा वामाना हो सो ठीक नही किन्तु सनातन वेद के आशय और अनुमानादि द्वारा निरन्तर सदा भ्रमणकरने परिवर्तन होने वाले संसार का जो चक्रपन स्वत सिद्ध स्वाभाविक है उसी के तुल्य दशा मानकर गाढ़ी के पहिये आदि को भी विद्वानोने ‘चक्र माना बा कहा है। इस से ब्रह्माण्ड ही मुख्य चक्र है। कुम्हारादि के चक्र बहुत थोडे काल तक घूमते परन्तु परमेश्वर के स्वाभाविक ईक्षण से प्रतिकल्प के आरम्भ में ससारचक्र एकवार घुमा दिया जाता है। वह ईश्वर के प्रबल नियम से प्रलय पर्यन्त निरन्तर घूमता रहता है जिनके एक बार घूमानेमे अनेक असंख्यजन्म मरणादि होते रहते हैं। प्रलय के पूर्व बीच मेंससारके जन्म मरणरदि सम्बन्धपरिवर्तन प्रवाहको कोई जन

रोक नहीं सकता। ध्यानावस्थसूक्ष्म एकाग्र बुद्धिसे तत्त्वज्ञानी लोग ही ससारचक्र के प्रवाहको अपने आत्मामें साक्षात् देख पाते वा परख सकते हैं। और जो कोई शुभ संस्कारी पुण्यात्मा कभी इस जगत् के परिवर्तन प्रवाहको ज्ञानदृष्टिसे सम्यक् देखते वा देख पाते हैं वेही संसारसागर की भयंकर तरंगों से बचने का उपाय करते हुये शान्त होते और दुःखों से छूटते हैं । यद्यपि उन तत्त्वज्ञ लोगों की दृष्टि में संसार चक्र का घूमना समाप्त होजाता है तथापि अन्य साधारण लौकिक पुरुषोंकी अपेक्षासे संसारचक्र का प्रवाह वैसाही निरन्तर वहा चला जाता है इससे सिद्ध हुआ कि बीच २ प्रलयकाल में प्रवाह के रुकजाने पर भी वार २ अनादि अनन्त असंख्य सृष्टि प्रलयोंका वार २ निरन्तर होते जाना भी एक चक्र प्रवाह है। इस से अनादि अनन्त संसारचक्र की गति निर्विकल्प सिद्ध है । यद्यपि चक्रपद इस श्लोक में नहीं है तथापि नेमि और अरा आदि चिन्हों से तथा छठे मन्त्र में ब्रह्मचक्र पद के स्पष्ट आने से चक्र का व्याख्यान स्फुट है॥ ४॥

पञ्चस्रोतोऽम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्। पञ्चावर्त्तां पञ्चदुःखौघ-वेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः॥५॥

अ०— संप्रति नदीरूपेण संसारात्मकब्रह्म प्रवाहं दर्शयति। पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि स्त्रोतांसि बुद्धिप्रवाहनिस्सरण-स्थानानि यस्या अ-

म्बुस्थानानोव तांपञ्चस्रोतोऽम्बुं नदीमधोम इति सर्वत्र सम्बन्धो बोध्यः। पञ्चभूतानि पृथिव्यादीनि योनयः कारणानि प्रवृत्तिहे-तूनि तैरुग्रा वक्रा च तां पञ्च प्राणा ऊर्मयो यस्यां तां, पञ्चबुद्धीनां चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियजन्यज्ञाना नामादिमूलं कारणं मनो यस्यां तां, पञ्च विपया आवर्त्तस्थानीया निमज्जनहेतवो यस्यां तां, गर्भवासजन्मजराव्याधिमरणजन्यपञ्चमहादुखौघानां वेगो यस्यां तां षडङ्गानि चतुश्चत्वारिंशच्च प्रत्यङ्गान्येवं पञ्चाशद्भेदाविभागा यस्यास्तां [तत्र चतस्रःशाखामध्यं शिर इति षडङ्गानि। विंश-तिरङ्गुलयः स्त्रोतांसि मस्तकोदरपृष्ठनाभिललाटनासाचिबुकवस्तिग्रीवाकर्णनेत्रभ्रूशड्खांसतण्डककक्षस्तनवृषणपार्श्वस्फि-ग्जानुबाहूरूणीति प्रत्यङ्गानि] अविद्यादयः पञ्चक्लेशाएव पर्वाणि बन्धनानि यस्यास्ताम्। एव नदीरूपेणावस्थितस्यनिखिल-स्य जगतो दृष्टान्तोदाहरणरूपं शरीरमिदमधीमः स्मरामइति ते ब्रह्मवादिनो ध्यानयोगानुगता अपश्यन्निति पूर्वेणान्वयः।

भा०—यथा निरन्तरमहोरात्रं नदीवहत्येवं प्राणिदेहप्रधानः ‘संसारोऽपि संसरत्येवा निशं नैरन्तर्येण तस्मादेव तस्य संसा-रत्वमन्वर्थं संघटते। अस्यां च संसारनद्यामनादिकालान्निमज्जन्नपि जीवो न बुध्यते न जागर्त्ति। कश्चिदेव कृतसाधनः सुकृत्स्व-दशां यदा चिन्तयति तदो सएतस्माद् दुःखप्रधानदीप्रवाहान्निस्सर्तुमपि प्रयततएव॥५॥

भावार्थः— अब इस पांचवें मन्त्र में नदीरूपसे संसारात्मक ब्रह्मप्रवाह को दिखाते हैं — (पञ्चस्रोतोऽम्बुम्) पांच ज्ञानेन्द्रि-यों के छिद्र बुद्धिरूप अम्बु नाम जल निकलने के सोता जिसमें विद्यमान हैं (पञ्चयोन्युग्रवकाम्) पांच पृथिव्यादि भूत ही इस नदी के योनि नाम उत्पत्तिस्थान हैं जैसे हिमालय पर्वत गङ्गा नदीके निकलनेका योनि नाम कारण है वैसे हम मनुष्या-दि प्राणियों के शरीर पृथिव्यादि भूतों से निकलते वा बनते हैं। और कारण की उग्रता तीब्रता से जैसे गङ्गादि नदियों में अनेक प्रकार की टेढाई होती वैसे यहां भी पृथिव्यादि कारण से ही शरीरोंमें नाना प्रकारकी कुटिलता आती है इस से हमारी देहरूप यह नदी कुटिल है (पञ्चप्राणोर्मिम्) इस शरीरनदी में प्रांच प्राण ही पांच प्रकार की तरंगें हैं (पञ्चबुद्ध्यादि-मूलाम्) ज्ञानेन्द्रियों से होने वाली पांच प्रकार की बुद्धियों का आदि मूल जिस में मन है ऐसी (पञ्चावर्त्ताम्) पांच शब्दादि विषय जिस शरीर नदी में आवर्त्त नाम भंवर अर्थात् जीवात्मा को डुबाने

वाले चक्कर है (पञ्चदुःखौघवेगाम्) गर्भवास. जन्मसमय, वृद्धपन अतिशिथिलावस्था, व्याधि–रोग और मरण इन पांच, दुःखों के कारण पापों का प्रवाह वेग से जिस में निरन्तर बहा करता है और (पश्चाशद्भेदाय्) जिस शरीर नदी के अङ्ग उपाग रूप मुख्य कर पचास भेद हैं [दो हाथ, दो गोड़े ये चार शाखा एक शिर एक मदिरा ये छः मुख्य अंग है वेद के छः अंगों से ही मनुष्य के छः अंग बने हैं क्योंकि वेद ईश्वरीय विद्या ही सब का कारण है इन छः अंग में ४४ प्रत्यड्ग है जैसे– हाथ और पगों को बीस अङ्गुलियां २१ स्रोतारूप नासें नाडी २२–मस्तक नाम मूर्द्धा २३–उदर २४ पोठ २५– नाभि २६–ललाट नाम माथा २७– नासिका, २८–चिवुक नाम ठोडी २९– वस्ति नाम पेंदन ३०– कण्ठ ३१– कान ३२ नेत्र ३३– भौंहें ३४–शङ्खु ३५- कन्धा ३६– तराह नाम टं कना ३७– कांखें ३८– स्तन नाम धन ३९- अरडकोष वा उपस्थ ४०– पसुलिया ४१– स्फिच् नाम कटिभाग ४२– जानुनाम घोटू ४३– बाहें ४४– दो जंघा ये चवालीस उपाङ्ग तथा पूर्वोक्त कुःअङ्ग सब पचास भेद हुए और (पञ्चपर्वाम्) और पाच अविद्यादि क्लेश जिसमें पांच गांठें हैं ऐसे नदीरूप से विद्य मान सव ब्रह्माण्ड की रचना के उदाहरण नमूना रूप इस शरीर को (अधीमः) इन ब्रह्मवादी लोग स्मरण करते हैं ऐसा उन योगी और ज्ञानी लोगों ने देखा जाता है॥

** भा०—** जैसे दिन रात निरन्तर नदी बहती है ऐसे ही प्राणियों के शरीर हो जिस में मुख्य हैं ऐसा यह सब संसार भी निरन्तर चलायमान रहता है इसी से उस का नाम संसार कहना सार्थक है। इस संसार नदी में जीव अनादि काल से डूबता तकलता गोते खाता हुआ भी नही जागता सभेत नहीं होता किन्तु कोई उत्तम साधनों वाला पुरया

त्मा पुरुष अपनी भीतरी दशा को जब शोचता है तब वह इस दुःख प्रधान नदी के प्रवाह से निकलने के लिये भी अवश्य प्रयत्न करता है॥

** सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन्हंसो म्राम्यते ब्रह्मचक्रे। पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्व-मेति॥६॥**

अ०–अस्मिन्कार्यकारणात्मकब्रह्मचक्रेकेन संसरति केन वा मुच्यतइति संसारमोक्ष हेतुद्वयप्रदर्शनार्थमाह सर्वप्राणिना-माजीवनमीषज्जीवनमस्मिंस्तस्मिन्सर्वाजीवे सर्वेषां प्राणिनां संस्थासमाप्तिः प्रलयो मरणं वाऽस्मिंस्तादृशे तस्मिन् पूर्वोक्ते ब्रह्मणः परमात्मनः स्वामिनो वृहन्ते महति चक्रे भ्रमणशीले संसारेऽविद्यादिवलेशैर्हसो हन्ति गच्छति ज्ञानं गमनं प्राप्तिं च करोति हन्ति प्रतिकूलमिति वा हंसः। स्वरूपेण शुद्धो निर्मलः सदसद्विवेचनशीलोऽपि जीवो भ्राम्यतेअनात्मभूतदेहादि-कमात्मानं मन्यमानो देवमनुष्यतिर्यगादि भेदभिन्ननानायोनिषु शुभाशुभकर्मभिश्चाल्यते।

केनहेतुनानानायोनिषु भ्रमतीत्याह। स्वमात्मानं जीवं प्रेरितारमीश्वरं च भेदेनात्मद्वयं पृथक्पृथग् ज्ञात्वाऽन्योऽसावन्योऽहम-स्मीति जीवेश्वरभेददर्शनेन संसारचक्रे परिवर्तते। केनमुच्यतइत्याह तेनेश्वरेणजुष्टोदीर्घकालावधि निरन्तरंसेवितस्सच्चिदान-न्दब्रह्मस्वरूपोऽहमस्मीति समाधाय जीवोऽमृतत्वं मरणादिदुःखाभावमेति प्राप्नोति।

** भा०—**

यथा नहि कोऽपि जलाशयं विहाय शुष्कस्थलाज्जलमाप्तुमर्हति तथैव सर्वदा शुद्धमुक्तेश्वरं विहाय दूरं स्वतोभिन्नं वा मत्वा न कोऽपि मोक्षाधिकारी भवितुमर्हति। यथा चाग्निरेव शीतस्यौषधं न कोऽप्यग्निमन्तरेण शीतस्यौषधं कदापि कर्तु-मर्हति। एवमीश्वराश्रयएव जीवात्मनः शुद्धर्मुत्तेश्च कारणं नान्यदित्येतदेव “तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽय-नाय०,,इत्यादिना वेदमन्त्रेणाप्युक्तं बोध्यम्॥६॥

भाषार्थः— इस कार्य कारण रूप ब्रह्मचक्र पर किस हेतु से भ्रमता वा किससे मुक्त होता है. सो दिखाते हैं (सर्वा—

जीवे) सब प्राणियोंका जिसमें थोड़ा जीवन है (सर्वसंस्थे) सब प्राणियों का प्रलय नाम भरण जिसमें हो जाता (तस्मिन् बृहन्ते ब्रह्मचक्रे हंसो भ्राम्यते) उस पूर्वोक्त वृहत् नाम बड़े सर्वस्वामी ब्रह्म परमात्मा के भ्रमणशील इस संसार रूप चक्र में हंस नाम ज्ञान, गमन और प्राप्ति करने वाला वा प्रतिकूल का हनन विनाश करने वाला स्वरूप से शुद्ध निर्मल सत्यासत्य का विवेचन शील भी जीवात्मा अविद्यादि क्लेशों से भ्रमाया जाता है अर्थात् जड़ माया स्वरूप अनात्मा शरीरादि को आत्मा मानता हुआ कि यही मैं हूं देव मनुष्य तथा तिर्यगादि अनेक योनियोंमें शुभाशुभ कर्मो द्वारा भूमता है। अनेक योनियां में क्यों भ्रमता है सो कहते हैं (प्रेरितारमात्मानं च पृथङ् गत्वा) अपने जीव स्व रूप और प्रेरक अन्तर्यामी ईश्वर को भेद के साथ अर्थात् दोनों आत्माओं को पृथक् २ जान कर अर्थात् वह ईश्वर मुक्त से भिन्न है और मैं जीव सदा ही उससे भिन्न हूं इस प्रकार द्वैत भेद ज्ञानसे संसार चक्र में भ्रमता है। फिर कैसे मुक्त होता है सो कहते हैं (जुष्टः) उस ईश्वर के साथ से वित कि सच्चिदानन्द ब्रह्म स्वरूप ही मैं हूं ऐसा समाधान करके (ततस्तेनासृतत्वमेति) तदनन्तर उस दीर्घ काल तक निरन्तर किये सेवन वा अहंग्रह उपासना से मरणादि सम्बन्धी महादुःख से छूट कर मुक्त हो जाता है।

** भा०**—जैसे कोई प्यासा मनुष्य जलाशय को छोड सूखी पृथिवीसे जलको प्राप्त नहीं कर सकता वैसे ही सर्वदा सर्वथा शुद्ध निर्दोष नित्य मुक्त ईश्वरको छोड़ वा अपने से पृथक् दूर मानकर कोई भी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता। और जैसे वेद के सिद्धान्तानुसार अग्नि हो शीत का औषध है इसी से किसी देश वा काल में कोई भी पुरुष अग्नि के

विना शीत की निवृत्ति कदापि नहीं कर सकता उसी प्रकार ईश्वर का आश्रय वा शरण लेना ही जीवात्मा की शुद्धि वा निर्दोष होने और मुक्ति का कारण है अन्य नही यही वेद का अटल अटूट सिद्धान्त “उसी ईश्वर को जान मान वा प्राप्त होकर मनुष्य मरणादि सम्बन्धी महान् दुःखसागर से छूट सकता है किन्तु इस मोक्षके लिये अन्य कोई मार्ग वा उपाय नहीं है, इत्यादि वेदमन्त्रसे कहा गया है॥६॥

उद्गीतमेतत्परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाक्षरं च। अत्रान्तरं ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनि-मुक्ताः॥७॥

अ०

एतत्प्रेरितृ ब्रह्मान्यस्मात्प्रपञ्चात् परमं निरतिशयं पद्मपत्रमिवाम्भसा प्रपञ्चेनासंस्पृष्टं तद्गीतमुत्कर्षेण वेदादिशास्त्रे गीतमुपदिष्टं “पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परागतिः,“तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदंयदिदमुपासते, इत्यादिना, मायाप्रकृत्या-द्यभिधजड़कारणस्य स्वातन्त्र्यसिद्धौ द्वैतापत्तिदोपआयाति तन्निराकरणायाह— तस्मिन् ब्रह्मणि जीवेश्वरप्रकृतिभेदेन भोक्तृ-भोग्यप्रेरितृभेदेन वा त्रयोऽवयवा भवन्ति तत्राक्षरं चाविनश्वरं

सर्वदैकरसं ब्रह्म प्रकृतिपुरुषरूपभोग्यभोक्त्रोः सर्वदा जगतः कारणावस्थायामपि सुप्रतिष्ठाऽऽधारः कथ्यते। अर्थात्प्रकृति-पुरुषौ साक्षिस्वरूपे ब्रह्मणि जलेजलतरङ्गवदन्यत्वापादकंनास्ति तस्मादद्वैतमेव अत्रानयोः प्रपञ्चब्रह्मणोस्त्रिषु भोक्त्रादिषु वा ब्रह्मविदो ब्रह्मज्ञानसाधनेषु प्रवृत्ता अन्तरं भेदं विदित्वा सच्चिदानन्दस्वरूपं नित्यं शुद्ध ध्रुवं कूटस्थं ब्रह्मानित्योऽशुद्धोऽध्रु वश्चलोऽसत्प्रपञ्चस्तस्य रज्जौ सर्पवद्वस्तुतोऽभाव एवास्तीति ज्ञात्वा तमाधिपरा ब्रह्मणि लीनाः स्वरूपशून्याइव भूत्वा योनि-मुक्ता जन्मजरामरणादिसंसारभयाद्विमुक्ता भवन्ति॥

** भा०**—

यद्यपि भोग्यभोक्तृरूपेण प्रकृतिपुरुषयोरत्र पृथक्त्वं दर्शितं तथापि यथा पृथिव्या विकाराणां कालत्रयेऽपि पृथि-व्येवाऽऽधारः प्रतिष्ठाऽस्ति अतएवोक्तं वाचारम्भणं विकारोनामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यमिति पृथिवीविकाराः पृथिवीरूपाएव सन्ति तथैव नामरूपमात्रं प्रकृतिपुरुषात्मकं जगद् वस्तुतो ब्र—

ह्मणोऽभिन्नमेव एवं ब्रह्मणि प्रपञ्चे च सदसद्रुपमन्तरं ज्ञात्वा ज्ञानिनां मोक्षो जायते॥७॥

भाषार्थ

(एतत्परमन्तु ब्रह्मोद्गीतम्) यह पूर्वोक्तअन्तर्यामी प्रेरक ब्रह्म, अन्य प्रपञ्च मायादि से निरतिशय महान् शुद्ध नित्य है, जैसे कमल के पत्ते मे जल नही लगता वैसे संसार के दोषो का स्पर्श उसके साथ नही होता इश्वीसे वेदादि शास्त्रमें उसका उत्कर्ष सर्वोपरि कहा गया है “पुरुष परमेश्वर से परे कुछ नही है वही सबकी काष्ठा [हद्द] सीमा तथा वही सबकी परागति है, चाहे यो कहो कि सब भावो की अन्तिम सीमाका नाम ही ईश्वर है माया वा प्रकृत्यादि जड को स्वतन्त्र मानने पर द्वैतापत्ति दोष आता है उस की निवृत्ति के लिये कहते है कि [तस्मिलयम्] उस एक ब्रह्म में जीव ईश्वर और प्रकृति ये तीन वा भोक्ता भोग्य ओर प्रेरक ये तीन भेद व्यावहारिक है। [सुप्रतिष्ठाऽक्षर च] उन तीनो में अक्षर नान अवि-नाशी सर्वदा एक रस रहने वाला ब्रह्म, प्रकृति पुरुषरूप भोग्य भोक्ता जोवं और जड ससार का सर्वदा कारण दशा मे भो अच्छा आधार अच्छे प्रकार अपने पन्नगत सम्हाल के रखने वाला होता वा क हाता है अर्थात् साक्षीरूप प्रेरक एक परमेश्वर ने प्रकृति और जीव जलमे जलतरग के तुल्य द्वैतके साधन नही होते,जैसे तरङ्ग भी जल का रूपान्तर है वैसे ही प्रकृति पुरुष भी जैसे ‘ब्रह्म से भिन्न नही इससे अद्वैत होना सिद्ध है (ब्रह्मविदोऽत्रान्तर विदित्वा) ब्रह्मज्ञान के साधनो मे लगे ब्रह्मज्ञानी लोग इन दो वा तीनो जीव ईश्वर प्रकृति मे परस्पर अन्तर— भेद जानकर कि नित्य शुद्ध अचल एकरम, कूटस्य ब्रह्म है और संसार अनित्य अशुद्दच

ल परिवर्त्ती है रज्जुमे सर्प जैसे वा स्तव मे नही किन्तु अज्ञान से सप जान भय होता वैसे ब्रह्म

में जगत् भी वस्तुतः नही है ऐसा जानके (ब्रह्मणि लीना स्तत्परा योनि मुक्ताः) समाधि द्वारा ब्रह्मके ध्यान में लीन और तत्पर हुए जन्म जरा मरणादि ससारके भयसे मुक्त हो जाते हैं।

** भा०**—

यद्यपि भोग्य भोक्ता रूप से प्रकृति पुरुषका ब्रह्म से पृथक् भाव यहां दिखाया है, तथापि जैसे पृथिवी के विकारों का तीन काल में भी पृथिवी ही आधारवा प्रतिष्ठा है। इसी लिये कहा गया है कि “विकार वस्तु वाणीसे कथन मात्र है किन्तु मृत्तिका ही सत्य है। इस से पृथिवीके विकारोंका पृथिवी रूप होना सिद्ध है। वैसे ही प्रकृति पुरुष रूप जगत् ब्रह्म से भिन्न वस्त्वन्तर वास्तव में नही है। इस प्रकार परमेश्वर और जगत् में सत् असत् नित्य अनित्य आदि महान् भेद को जान कर ज्ञानी महात्माओं का मोक्ष होता है॥७॥

संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः। अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाद् ज्ञात्वादेवं मुच्यते सर्व-पाशैः॥८॥

अ०— वस्तुतो ब्रह्मणएकत्वेऽद्वितीयत्वेऽपि व्यवहारदशायां जीवेश्वरप्रकृतीनामौपाधिकभेदं दर्शयित्त्वा तत्वज्ञानान्मोक्षो जीवस्य दर्शयति द्वाभ्याम्।अक्षरमविनश्वरमव्यक्तं निरतिशयसूक्ष्मं प्रकृत्याख्यं जगतः कारणं,

क्षरं विनश्वरं पृथिव्यादिस्थूलं जगद्वयमेतत्संयुक्तमितरेतरं संसृष्टं विश्वं सर्वमीशईश्वरो निरतिशयशक्तिः परमेश्वरो भरते धरति पुष्णाति च। तृतीयोऽनीशोऽज्ञानवन्धन हेतोः सर्वस्वामित्वाद्रहितो जीवात्मा भोवतृभावाद् भोगोत्कण्ठाकारणाद्बध्यतेऽविद्या-तत्कार्य देहेन्द्रियादिभिः सम्बध्यते। पुनः स— कदापि सुकृतप्राबल्यावसरे देवं द्योतनशीलं परमात्यानंतत्त्वतो ज्ञात्वा सर्वपा-शैर्बन्धनैर्मुच्यते॥

भा०—जगतः स्थूलदशायामेवानन्तभारस्य ब्रह्माण्डस्य धारकेण भाव्यं प्रलयकाले सूक्ष्मदशायां च भाराभावाद् धारका-पेक्षैव नास्ति। कार्यदशायां कारणं तत्रैव व्याप्तं तिष्ठति। लोकेऽपि यः प्रभुरीश्वरः सोऽन्यान् बिभर्त्ति यश्चानीशोऽप्रभुः स मत्त्यादिवद्भो गलोक्षेन बध्यते यदा च सोप्रभुरपि प्रभुत्वं जानाति तदा सोऽपि दैन्यं जहाति दुःखादपि मुच्यतएवमिहापि स्वस्य वास्तवं स्वरूपं ज्ञात्वा सर्व बन्धनैर्मोक्षः सम्भवति॥ ८॥

** भावार्थः**— वस्तुतः परमेश्वरको एक अद्वितीय होने पर भी व्यवहार दशामें जीव ईश्वर और प्रकृतिका औपाधिक भेद

दिखाके तत्त्वज्ञानसे जीवका मोक्ष होना दो मन्त्रोसे दिखाते हैं। (क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं संयुक्तमेतद्विश्वमीशो भरते) क्षर नाम विनष्ट होने वाला व्यक्त पृथिव्यादि स्थूल कार्य जगत् और अक्षर नाम अविनाशी अव्यक्त अति सूक्ष्म जगत् का कार-ण प्रकृति वा मायाप्रकृति ये दोनों कार्य कारण सदा संयुक्त रहते कारणमें कार्य तथा कार्यमें कारण सदा ही ओतप्रोत रहता यही सब संसार वा ब्रह्माण्ड भर है इस को असीम शक्ति रखने वाला सर्वस्वामी परमेश्वर सदा धारण वा पोषण करता है क्योंकि वही इनका मूल कारण है। (भोक्तृभावादनीशश्चात्मा बध्यते) तीसरा अज्ञान बन्धनसे असमर्थं सब जग-त्के साथ स्वामीपन न रखने वाला जीवात्मा अविद्यादि क्लेशों और उनके कार्य शरीर इन्द्रियादि के बन्धनमें विषयभोग के लालच से बंधता पीडित होता कष्ट भोगता है।और उनमेसे कभी कोई जीव (देवं ज्ञात्वा सर्वपाशैर्मुच्यते) द्योतनशील सर्व प्रकाशक चेतनों के चेतन ईश्वरको वास्तविक स्वरूपसे जान कर सब बन्धनों से छूट जाता है॥

** भा०—** संसार की स्थूल दशा में ही ब्रह्माण्डका अत्यन्त बोझा होनेसे धारण करने वालेकी विशेष आवश्यकता है। और प्रलय हो जाने पर संसारकी सूक्ष्म दशामे विशेष बोझा न होनेसे धारण कर्त्ता को वैसी अपेक्षा नहीं है। जगत् की कार्यद-शामें कार्यमें कारण व्याप्त हो कर रहता और प्रलयके समय कारण में कार्य सूक्ष्म होकर रहता है। लोकमें भी जो समर्थ धनाद्यैश्वर्य वाला होता वही अन्य असमर्थों का पालन पोषण करता है और जो असमर्थ होता वह मछली आदि के समान भोगके लोभ से बन्धन में फंस जाता है। जब वह असमर्थ भी प्रभुता के मर्मको जानता है तब दीनता को छोडता और दुःखोंसे भी छूटता ही है इसी प्रकार यहां भी

ईश्वरके और अपने वास्तविक स्वरूपको जानके ज्ञानी मुक्त होता है॥ ८॥

** ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशानीशावजाह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता। अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्त्तात्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममे-तत्॥९॥**

** अ०—** जीवापेक्षया ज्ञो ज्ञानस्वरूपईश्वरस्तदपेक्षया च जीवः शरीराद्यभिमानेनाज्ञो द्वाविमावीशानीशौ स्वाम्यस्वामिनाव-जावजायमानौ नित्यावनादी ईश्वरांशजीवस्य जन्ममरणादि प्रवाहः कदारभ्य प्रवृत्त इति वक्तुं ज्ञातुं वाऽशक्यमतो जीवत्व-स्यानादित्वम्। भोक्ता जीवो भोग्यं पृथिव्यादिविकारजन्यमन्नादिकं बहुरूपं ताभ्यां भोक्तृभोग्यार्थाभ्यां युक्तैका प्रकृतिरपि तृतीयाऽजाऽजायमाना नित्याऽनादिरिति यावज्जगतउत्पत्तिस्थिति प्रलयानामनादित्वादेव मायाया अनादित्वं ब्रह्मसत्तयैव द्वयोरात्मलाभाद्वस्तुतोऽसत्त्वमिति। सर्वस्मिन् कार्ये जगति तत्तद्रूपेण व्याप्तस्तत्तन्नामरूपावच्छिन्नो वासस्सु सूत्रवदोतः प्रो-

तश्च सर्वरूपोऽह्यकर्त्ता निष्क्रियोऽनन्तोऽनन्तशक्तिरात्मा व्याप्त ईश्वरइत्येतत्त्रयं ब्रह्मं ब्रह्मस्वरूपं ब्रह्मात्मकमेव यदा विन्दते प्राप्नोति लभतेऽर्थाद्यथाहाटके कटकादि कल्पितं तथा भगवति प्रकृतिपुरुषौ कल्पितौ वस्तुतो हाटकवदेकएव शुद्धो भग-वानिति जानाति तदा विश्वमायानिवृत्तिरित्युत्तरेणान्वयः॥

** भा०**— ईश्वरांशत्वेन जीवस्याजत्वं मायाया अपि ब्रह्मात्मकत्वेनैवाजत्वमवगन्तव्यम्। स्वरूपतः स्वातन्त्र्येण तयोरनादित्वे नेहनानास्तिकिंचनेत्यादिश्रुतिविरोधात अयस्कान्तवदनिच्छत्वादात्मनोऽकर्त्तृत्वं सन्निधिमात्रेण च कर्तृत्वमप्यस्त्येव। एवं व्य-वहारदशायामविद्योपाधेर्जीवत्वे समवायिकारणोपाधेश्च प्रकृतित्वेऽभिमतेऽपि ब्रह्मात्मकमेव वस्तुतः सर्वमिति तत्त्वज्ञानमेव मोक्षसाधनमित्याशयः॥ ९॥

भावार्थः— (ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशानोशौ) जीवकी अपेक्षा ईश्वर ज्ञानस्वरूप और ईश्वरापेक्षासे जीव शरीराद्यभिमानी होनेसे अक्ष है ईश्वर स्वामी मालिक और जीव स्वनाम उसकी मिल्कियतके अन्तर्गत है तथा दोनों जीव ईश्वर अज नाम अनादि हैं ईश्वरांश जीव का जन्म मरणादि प्रवाह कब से चला ऐसा कहना वा जानना अशक्य होनेसे जीवको अनादि

कहा, पर जीवत्व अनन्त नही है क्योकि ज्ञानदशा मे जीव भावका अन्त हो जाता है ओर (भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता ह्यो काऽ-जा) भोक्ता जीव तथा पृथिव्यादि विकारो से उत्पन्न होने वाला अनेक रूपोसे युक्त अन्न भोग्य है इन दोनो मे युक्त पूरा मेल रखने वाली तीसरी एक प्रकृति भी प्रज्ञा किसी से उत्पन्न नही होनेने नित्य अनादि है जगत्के उत्पत्तिस्थि तिप्रलयका प्रवाह कबसे चला इसका आदि न होनेसे कारण रूप मायाको अनादि कहा है। तथा प्रकृति ओर जीव दोनोका ब्रह्मसत्ता से ही स्वरूप लाभ होनेके कारण वास्तव मे स्वतन्त्ररूपसे दोनो अमत् है। (विश्वरूपो ह्यकर्त्ताऽनन्त श्चात्मा) सब कार्य कारणात्मक जगत् में उसी २ के रूप से व्याप्त वोरप्रोगे सूत जेसे उस २ वप्रके नामरूपसे माना जाता वैसे ही जगत्के सब पदार्थोंमें उसी २ के नामरूपसे विद्यमान परमेश्वर भी सवमे सूत्रवत् ओतप्रोत है इसीसे सर्वरूपधारी अकर्त्ता निष्क्रिय अनन्त शक्ति वाला आत्मा ईश्वर (एतत् अय ब्रह्म यदा विन्दते) इन तीनो जीव ईवर ओर प्रकृतिको तरग फेनादिको जल स्वरूप जानने के तुल्य ब्रह्म स्वरूप ब्रह्मात्मक जव जीव जान लेता है तव उस की सब माया सव छन्द कपट ईर्ष्या द्वेषादि दोष छूट जाते है॥

** भा०**— ईश्वराश होनेसे जीवका और ब्रह्मात्मकरूपसे ही प्रकृतिका अनादि होना जानो। यदि स्वतन्त्र स्वरूपसे उन दोनो को अनादि माना जाय तो (सर्वं खल्विदं ब्रह्म)इत्यादि श्रुतियोसे विरोध दोष है। चुम्बकके तुल्य इच्छारहित होनेसे आत्मा अकर्त्ता और सन्निधिमात्र से कर्त्ता भी माना जाता है। व्यवहार दशामें अविद्योपाधिका जीवत्व और उपादानकार-णोपाधि आरमाका प्रकृतित्व स्वीकृत होने पर भी जीव ओर प्रकृति वस्तुत ब्रह्मस्वरूप ही है ऐस तत्वज्ञान ही मोक्षका साधन है यही आशय है॥ ९॥

** क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावाद् भूयश्चान्ते विश्वमाया-निवृत्तिः॥१०॥**

इदानीं प्रधानेश्वरयोर्वैलक्षण्यं दर्शयित्वाऽऽत्मतत्वज्ञानेनामृतत्वं दर्शयति–महदादिरूपेण विपरिणमत इति प्रधानस्य क्षर-त्वम्। संहरति सर्वं स्वस्मिन्निति हर ईश्वरः। अमृतं च तदक्षरममृताक्षरं ब्रह्म हरस्य विशेषणमेतत्। एको देव ईश्वरः क्षरात्मा-नौ प्रकृतिपुरुषावीशते–ईष्टे तयोः स्वामी प्रभुर्भवति स्वाधिकारे स्वनियमे तौ स्थापयति। तस्य देवस्याभिध्यानाद्योजनादभेद-भावेन संयोजनात्तत्त्वभावात्तत्त्वस्य यथार्थभावस्य परमात्मस्वरूपस्य सत्यस्याश्रयणाद् भूयः पुनः पुनरम्यासेनाभिध्यानादिसे-वनाच्चान्ते विश्वस्या सुखदुःखमोहात्मिकाया मायाया आत्मत्वापन्नायाः प्रकृतेर्निवृत्तिर्भवति॥

भा०— प्रधानेन तत्कार्यजन्यभोगेन च जीवस्य विशिष्टः सम्बन्धएव बन्धः परमा-

त्मतो विमुखीकरणहेतुश्चास्ति प्रकृतिर्ममनिबन्धना जड़ा ततः पृथग्भावमन्तरेणेश्वरप्राप्तिरसम्भवा। अतः प्रकृतेर्हेयत्वमीश्वर-स्योपादेयत्वं स्वस्य च तादात्म्यं यदा जानाति तदैव मुक्तिहेतुकं ज्ञानं जायते॥ १०॥

भाषार्थ— अब माया और ब्रह्मको विलक्षणता दिखाके आत्माके तत्वज्ञानसे मोक्ष दिखाते है— (क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः) महत्तत्त्वादि रूप से परिणाम को प्राप्त होता इस कारण प्रकृति नामक माया क्षर नाम विनाशधर्मक है तथा प्रलय समयमें सब संसारको अपने भीतर हरण कर लेना इस से संहार कर्त्ता ईश्वर हर नित्य मुक्त और अविनाशी है। (एको देवः क्षरात्मानावीशते) एक ही देव ईश्वर प्रकृति और पुरुष नाम जीवका स्वामी होता उन दोनो को अपने अधिकार और नियममें सदा स्थापित करता है ईश्वरके नियम वा इच्छासे विरुद्ध जीव तथा प्रकृति कुछ नही कर सकते (भूयश्च तस्यामि-ध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात्) वार २ सस देव ईश्वरका समाधि द्वारा विशेष कर निरन्तर ध्यान करने, अभेदभावसे सयोजन करने और तत्व नाम परमात्मस्वरूप यथार्थ भाव सर्वथा सत्य का आश्रय करने से (अन्ते विश्वमायानिवृत्ति) अन्त में आत्मभाव को प्राप्त हुई सुख दुःख मोहात्मिका सब बुद्धि आदि रूप माया की भी निवृत्ति हो जाती है तब पुरुष केवल होनेसे मुक्त हो जाता है॥

** भा०**— प्रधान प्रकृति तथा उसके कार्य स्थूल जगत्सम्बन्धी भोगोंके साथ जीवका विशेष सम्बन्ध होना ही बन्धन तथा परमात्मासे विमुख करने वाला है। प्रकृति माया मुक्त

को बांधने वाली जड़ है उस से पृथक् हुए बिना ईश्वर की प्राप्ति असम्भव या दुर्लभ है ऐसा शोचा करें। इससे प्रकृति के त्याज्य होने, ईश्वर के ग्राह्य होने और अपने तादात्म्य सम्बन्धको जब जीव यथावत् जान लेता है तभी मुक्ति का हेतु ज्ञान हो जाता है॥१०॥

** ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः। तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवल आप्त-कामः॥ ११॥**

अ०— तं देवमीश्वरं ज्ञात्वा सर्वपाशानां बन्धहेत्वविद्यादिक्लेशानामपहानिस्तैः क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममरणयोः प्रहाणिः प्रकृष्टा हानिस्तेनाखिलमेव दुःखं हीयते दूरीभवति। तस्येश्वरस्य पुनरप्यभिध्यानाद् देहभेदे पूर्वकर्मोपात्तशरीरत्यागकाले विश्वमखि-लमैश्वर्यमस्य तादृशं प्रकृतिपुरुषद्वयापेक्षया तृतीयं पदं ब्रह्म प्राप्य केवल एकः प्रकृतिसङ्गाद्विमुक्त आप्तकामी मुक्तिपदं प्राप्तो भवति मन्यते च प्राप्तं प्रापणीयं क्षीणाः क्षेतव्याः क्लेशाः॥

** भा०**— सर्वमुमुक्षुपुरुषैः सर्वदा पूर्वं मिथ्याज्ञाननिवृत्तये प्रकृष्ट उपायः कार्यस्तेनैवोत्तरोत्तरं सर्वाभीष्टसिद्धिः सुलभा सम्भा-व्यते। मिथ्याज्ञानापाये पराधीनतादिसर्वबन्धनानां निवृत्तौ दुःखाभावः प्रथमा कक्षा, नष्टेषु च मिथ्याज्ञानादिदोषेषु मरणादि-भयनिवृत्तौ शान्तिलाभो द्वितीया दशा, तदनन्तरमीश्वरबोध ईश्वरप्राप्तिस्तृतीयपरिणामो मुक्तिः॥११॥

भाषार्थः— (देवं ज्ञात्वा सर्वपाशापहानिः) उस देव ईश्वर को जानकर बन्धन के हेतु सब अविद्यादि सूक्ष्म क्लेशों का भी नाश हो जाता है (क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः) और क्लेशों के क्षीण होजाने से जन्म मरण की उत्तम प्रकार सर्वथा हानि नाश हो जाता (तस्याभिध्यानाद् देहभेदे विश्वैश्वर्य तृतीयम्) उस ईश्वर का वार २ ठीक ध्यान करने से पूर्व कर्मानुसार धारण किये शरीरका त्याग नाम मरण होने के समय सम्पूर्ण ऐश्वर्योके स्वामी प्रकृति तथा पुरुष की अपेक्षासे तृतीय ब्रह्मपद को प्राप्त होके (केवल आप्तकामः) प्रकृति के सङ्ग से छूट कर केवल अभीष्ट कामना को प्राप्त हुआ मुक्तिपदको प्राप्त होता और मान लेता है कि मैंने प्राप्त होने योग्यको प्राप्त कर लिया तथा मेरे नष्ट होने योग्य क्लेश छूट गये॥

भा०— सब मुमुक्षु पुरुषीको सब समयमें पहिले मिथ्याज्ञान को छुडानेके प्रबल उपाय करना चाहिये। उसीसे आगे २ सुलभतासे सव अभीष्टोंकी सिद्धि होना सम्भव है। निथ्या ज्ञान

छूटने पर पराधीनतादि सब बन्धनोंकी निवृत्तिमें दुःख का अभाव प्रथम कक्षा, मिथ्याज्ञानादि दोषोंके नष्ट होने पर मरणा-दिका भय छूटनेसे शान्ति प्राप्त होना द्वितीय दशा, तदनन्तर ईश्वरका बोध ईश्वरकी प्राप्ति यह तीसरा परिणाम बदलनाही मुक्ति है॥११॥

** एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किञ्चित्। भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥**

** अ०—** एतदुक्तं तृतीयं ब्रह्म नित्यमेव स्वस्य आत्मन्यन्तःकरणे जीवस्वरूपेणाऽवस्थितमेव ज्ञेयं नान्यत्र वहिः क्वाप्यन्वेष्य-म्। कठोपनिषदि चोक्तम् “तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्,, हि यस्मादतो ब्रह्मणः परं प्रकृष्टं कल्याणहेतुकं न किमपि वेदितव्यमस्ति। भोक्ता जीवो भोग्या प्रकृतिर्माया प्रेरिता सर्वान्तर्यामीश्वरः सर्वं त्रिविधमप्येतद् ब्रह्मं ब्रह्मैव वेदे प्रोक्तं ब्रह्मणो भिन्नः कोऽपि भोक्त्रादिर्नास्ति भोक्त्रादिनामरूपैर्ब्रह्मैवावस्थितमित्याशयः॥

** भा०—**योगसमाधिना हृद्येव ब्रह्मणो ज्ञानायोद्योगः कार्यः। तेन बहिरन्वेषणाय प्रयतमाना भ्रान्ता इत्युक्तं भवति। लोकेऽ-पि यथा प्रधाने ज्ञातेऽप्रधानमनायासेनैव ज्ञातं भवति तथैव सर्वस्वामिनि ब्रह्मणि तादात्म्य भावेन ज्ञाते सर्वमेव ज्ञायते॥१२॥

** भाषार्थः—**(नित्यमेवैतदात्मसंस्थ ज्ञेयम्) इस पूर्व श्लोक में कहे तीसरे परमात्मा को अपने अन्तःकरण में नित्य ही जीव स्वरूप से अवस्थित जानना चाहिये किन्तु कहीं बाहर नही खोजना चाहिये अपने भीतर अन्तःकरण में ही मनुष्य को ईश्वर का ज्ञान वा प्राप्ति हो सकती है। कठोपनिषद् मे लिखा भी है कि “जो ज्ञानी लोग अपने अन्तःकरण में ही उस ईश्वर को देखते हैं उन हीको सनातनशान्ति और सुख प्राप्त होता है अन्यों को नहीं”(अतः परं वेदितव्यं किञ्चिन्नहि) जिस कारण इस शारीरब्रह्म से परे उत्तम वा अधिक जानने योग्य और कुछ भी नही है इससे अपने भीतर ही ब्रह्म को जाने। एक सर्वस्वामी मुख्य वस्तु ईश्वर के जान लेने पर वा उस की प्राप्ति हो जाने पर (भोक्ता, भोग्य प्रेरितारं च मत्वा) भोक्ता जीव, कार्य कारण रूप स्थूल सूक्ष्म भोग्य जगत् रूप माया और प्रेरक अन्तर्यामी परमेश्वर इस सब त्रिविधको मानके भी वेद में (सर्वमेतत् त्रिविधं ब्रह्मन् प्रोक्तम्) इस सबको त्रिविधब्रह्म कहा है ब्रह्मसे भिन्न भोक्तादि स्वतन्त्र कोई वस्तु नही है अर्थात् भोक्तादि नामरूपों से एक ब्रह्म ही अवस्थित है यही आशय जानो॥

**भा०—**योग समाधि द्वारा अपने हृदय में ही ब्रह्म कोजानने का उद्योग करना चाहिये। इस कारण ईश्वर को बाहर खोजने का उद्योग करने वाले भ्रान्ति में हैं, यह सिद्ध हो जाता है। लोक में भी जैसे प्रधानके जान लेने वा मिल जाने पर अप्रधान की मेल वा ज्ञान स्वयमेव हो जाता वैसे ही सर्वस्वामी ब्रह्म को अपने साथ तादात्म्य भावसे जानलेने पर सभी शेष जान लिया जाता है॥१२॥

वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्त्तिर्न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः। स भूयएवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्बोभयं वै प्रणवेन देहे॥१३॥

स्वदेहमरणं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवत्॥१४॥

तिलेषुतैलं दधनीव सर्पिरापः स्रोतस्स्वरणीषु चाग्निः। एवमात्मात्मनिगृह्यतेऽसौ सत्येनैनं तपसायोऽनुपश्यति॥१५॥

सर्वव्यापिनना-त्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्। आत्मवि

द्यातपोमूलं तद् ब्रह्मोपनिषत्परं तद् ब्रह्मोपनिषत्परम्॥१६॥

इति श्वेताश्वतरोपनिषदि प्रथमोऽध्यायः॥

**अ०—**यथा वंशारणिदीपशलाकादिकारणवस्तुन्यवस्थितस्य वह्नेर्मूर्त्तिः साक्षाद्रूपं न दृश्यते नैव च तस्य सूक्ष्मरूपावस्थि-तस्य नाशोऽभावोऽस्ति यद्यभावः स्यात्कुत उत्पद्येत। स भूयः पुनःपुनरेवेन्धनयोनिगृह्यो घर्षणमन्थनादिना साक्षान्निस्सरति। तद्वा तद्वद्देहे ब्रह्मणः प्राकट्यमप्राकट्यं चोभयमेवास्ति। प्रणवेन घर्षणादिना ब्रह्म गृह्यते साक्षाञ्ज्ञायते। स्वस्य देहमरणिं प्रणवं चोत्तरारणिं कृत्वा ध्यानयोगेन निर्मथनाभ्यासान्निगूढाग्निवद्देवं दीप्यमानं ज्योतिःस्वरूपं ब्रह्म पश्येत्साक्षात्कर्त्तुं यतेत। तिलेषु व्याप्तं तैलं यथा पीडनेनोपलभ्यते, दधनि व्याप्तमदृश्यं घृतं यथा मन्थनेन साक्षाज्जायते। स्रोतस्तु नद्याः समीपे भूमिभागखननेन यथाऽऽपो व्यज्यन्ते, अरणीषुमन्थनेन

च यथाऽग्निराविर्भवति। एवमात्मेश्वर आत्मनि स्वस्यैवान्तःकरणे गृह्यतेऽसौ परीक्षोऽपि तेन जनेन साक्षात् क्रियते यएनं सत्येन व्याजादिकं त्यक्त्वा सर्वभूतहितार्थवचनेन व्यवहरन् ज्ञानेन्द्रियमनसामेकाग्रतारूपेण जितेन्द्रियत्वेनतपोऽनुष्ठानेन चाऽनुपश्यति सर्वं पश्यन्तमनुपश्यति। क्षीरे सर्पिरिवार्पितं व्याप्तं सर्वव्यापिनमात्मानमीश्वरमात्मविद्यातपसोश्च मूलं प्रधानं प्रयोजनमुद्देशः, आत्मविद्यातपांसि च ब्रह्मज्ञानमुद्दिश्यैवोपदिष्टानि। तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्तीत्यादिकथनादवसेयमेतत्। एषह्येव साधु कर्म कारयति। उपनि०। ददामिबुद्धियोगंतं येनमामुपयान्तिते इति भगवद्गीतासु। उपनिषदएव परा प्रकृष्टबो-धहेतुका यस्य येन वा मुख्योपायेन ब्रह्मज्ञायते सएवोपनिषत्पदवाच्यइत्युभयथाप्येकएवार्थो निस्सरति। द्वित्वमत्राध्यायपरि-समाप्तिबोधनार्थं विज्ञेयम्॥

भा०— एतत्पद्यचतुष्टयेन“एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थम्”इति संक्षेपतो द्वादशपद्योक्तविषयस्य प्रपञ्चो व्याख्यानमिति यावत्।

तज्जपस्तदर्थभावनमित्यादियोगशास्त्रोक्तप्रकारेण यो जिज्ञासुर्दीर्घकालावधि नैरन्तर्येणेकाग्रचेतसा जितवाक्कायमानसो वाचकप्रणवेन वाच्यमीश्वरमुपास्ते ध्यायति तन्निष्ठस्तत्परस्तद्बुद्धिर्भवति स कालेन स्वात्मन्येव साक्षाज् ज्ञानचक्षुषा पश्यत्ये-वेश्वरमिति न कश्चिदविकल्पः केनापि कर्त्तुं युक्तः॥१३-१६॥

अ०(यथा योनिगतस्य वन्हेर्मूर्त्तिर्नदृश्यते नैव च लिङ्ग नाशः) जैने वांस अरणिऔर दोवामलाई आदि अपने कारण में रहते हुए अग्निका साक्षात्रूप नहीं दीख पड़ता और न उन वांस आदिमें कारणरूप अग्नि के चिन्हका अभाव होता यदि अभाव होता तो उनमें से उत्पन्न ही कहां से वा कैसे होता? (स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यः) वह अग्नि फिर २ वार २ ईधन के संयोग से घिसने मथने आदि द्वारा साक्षात् निकलता प्रकट होता जल उठता है (तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे) उसके तुल्य इस मानुष देह में ओम् की उपासना द्वारा परमेश्वर साक्षात् ज्ञात होता और ठीक उपासना हुए विना शरीर में अप्रकट तिरो-भूत रहता अर्थात् इसी शरीर में प्रकटता अप्रकटता दोनों होती हैं॥ (स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रगावंचात्तरारणिम्) अपने शरीर को अर्थात् अन्तःकरण की वृत्तियों को नीचे की अरणिऔर ओंकारको ऊपर की द्वितीय अरणि कर अर्थात् ओंकारके साथ ही अपनी बुद्धि इन्द्रिय, और शरीरको जोड़कर (ध्याननिर्मथनाभ्यासात्) ध्यानयोग के म थमथने के अभ्याससे (निगूढतद्देव पश्येत् ) वांस आदि में गुप्त अग्निके समान प्रकट हुए ज्योतिःस्वरूप अपने

हृदय में सब ओर से प्रकाशमान परमेश्वर को साक्षात् देख सकता है। (तिलेषु तेलं दधनीव सर्विरापः स्त्रोतः स्वरणीषु-चाग्निः) जैसे तिलोंमे व्याप्तअदृष्ट तेल कोल्हू में डालके पेरने से निकलता जैसे प्रत्यक्ष न दीखता हुआ दही में व्याप्त घी मन्थन करने से साक्षात् दीखने लगता, जैसे नदी के समीप सोता में पहिले से अदृष्ट जल खोदने से घू आता और जैसे अरणी नामक लकड़ी में व्याप्त अदृष्ट अग्निमथने वा घिसने से प्रकट हो जाता है (एवमात्मात्मनिगृह्यतेऽसौ) इसी प्रकार उस परोक्ष भी सर्वत्र व्याप्त ईश्वर को वह जीव आपने स्वरूप मे ग्रहण नाम साक्षात् करता है कि (य एनं सत्येन तपसाऽ-नुपश्यति) जो बढ़ाना मात्र छोड़ के सब प्राणियों के दिव कारी वचनों का व्यवहार करना हुआ जितेन्द्रियतारूप तप से वा सच्चे मन से तथा चित्त की एकाग्रता के साथ तप के अनुष्ठानसे सर्वद्रष्टा इस परमात्मा को ज्ञानदृष्टि से देखता है। (क्षीरे सर्पिरिवार्पितं सर्वव्यापिनमात्मानम्) दूध में जैसे घी व्याप्त होता वैसे सब पदार्थों जड़ चेतनों में व्याप्त (आत्मविद्यातपोमू-लम्) आत्मविद्या आत्माके वर्णन का बिषय और तप की प्रशंसा या व्याख्यान जिसकी प्राप्ति के उद्देश से प्रचरित किया गया है अथवा आत्मविद्या और तप नाम उसकी प्राप्ति का उपाय जानने का भी जो मूल है अर्थात् ईश्वर ही जिसपर कृपा करता है उससे वैसा उत्तम तप करा देता है तथा वही अपनी प्राप्ति कीबुद्धि मनुष्यको देता है जिससे उसको जानलेते वा साक्षात् कर लेते हैं। तथा (तद्ब्रह्मोपनिषत्परं तद्ब्रह्मोपनिषत्परम्) जिस का बोध वा ज्ञान होने वा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बतलाने के लिये उपनिषद् पुस्तक ही परमउपयोगी हैं वा यों कहो कि ईश्वर प्राप्ति का सब से अधिक वा अच्छा मार्ग बतलाने

वाले उपदेश का नाम ही उपनिषद् है। अर्थात् ब्रह्मज्ञान के लिये मुख्य उपाय उपनिषद् है। वा जो मुख्य उपाय हैउसी का नाम उपनिषद है। इस दोनों प्रकार के कथन का एकही आशय है।और अध्याय की समाप्ति जताने के लिये यहां द्विवचन किया है॥

भा०—“इस ब्रह्मको अपने अन्तःकरण में ही स्थित जानो”इस प्रकार बारहवें मन्त्रमें संक्षेप से कहे विषय का इन चार मन्त्रों से व्याख्यान वा विस्तार किया है। “उस ओ३म् पद का वाणी से जप उच्चारण और उसके वाच्यार्थ ईश्वर का भावन नाम उसमें वार २ चित्त ठहराना वा लगाना”इत्यादि योगशास्त्र में कहे प्रकार से जो विधासु पुरुष दीर्घकाल पर्यन्त एका-ग्रचित्त से मन वाणी और शरीर को वशीभूत करके वाचक ओ३म् पद से वाच्य ईश्वर की निरन्तर ध्यान उपासना करता उसी में निष्ठा रखता उसी में तत्पर रहता उसी में बुद्धि लगाता है वह काल पाकर अपने अन्तःकरण में ही ज्ञान चक्षु से ईश्वर को साक्षात् अवश्य ही देखता है। इस में किसी को कुछ विकल्प नहीं करना वा मानना चाहिये॥१३-१६॥

इति ब्राह्मणसर्वस्वाभिधमासिकपत्र
सम्पादकेन भीमसेनशर्मणा
निर्मितेश्वेताश्वतरोपनिषद्
भाष्ये प्रथमोऽध्यायः
समाप्तः॥

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732382945Screenshot2024-11-23at22-58-41EditBookE-Bharatisampat.png”/>

अथ द्वितीयाऽध्यायारम्भः।

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1731247955Screenshot2024-11-10194145.png”/>

युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ॥१॥

अ०— ध्याननिर्मथनाभ्यासाद् देवं पश्येन्निगूढवदिति प्रथमाध्याये ध्यानमुक्तं तस्यैव द्वितीयाध्याये व्याख्यानं क्रियते — सविता मनआदीनां प्रेरकोऽन्तरात्मा प्रथमं ध्यानकालारम्भेमनो युञ्जानः समाहितं कुर्वन्नग्नेः शरीरव्याप्तस्य बुद्धेः कारणभू-तस्य ज्योतिः प्रकाशंदेहे निचाय्य निश्चित्य तत्त्वाय तत्त्वबोधाय पृथिव्या अधि पार्थिवदेहस्य बुद्धिस्थाने धियो धारणावतीश्चि-न्तनपरा वा बुद्धीराभरदाहरेत्स्वाधीनाः कुर्यात्। यतः सविता सर्वप्रेरकः परमेश्वरोऽपि प्रथमं सर्गारम्भेप्राणिदेहेन साकं मनो-योगं कुर्वन् कर्त्तुं वेच्छन्नग्नेर्ज्योतिः स्थानं निचाय्य निश्चित्य पृथिव्या अधि पार्थिवशरीरस्य मध्ये तत्त्वाय तत्त्वबोधाय धिय आभ-रदाभरत्यादधाति॥

भा०— प्रकृतेर्महान्महतोऽहङ्कारस्ततो मनः प्रादुर्भवति। महत्पदवाच्या च सत्त्वगुणात्मिका बुद्धिः सा चाहङ्कारप्रधानस्य मनसः कारणं कारणाधीनं च सर्वत्रैव जगति कार्यं नियमेनैव लक्ष्यते। कठोपनिषदि चैतदभिप्रेत्यैव “बुद्धिन्तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च॥ मनसश्च परा बुद्धिः”इत्युक्तम्। यथाचेश्वरेण सर्गस्थितिलयेषु यानि कार्याणि सम्पादितानि तथैव यथाका-लं मनुष्यः कुर्वाणोऽनिष्टं जहातीष्टं चाप्नोति तस्मादयमेव धर्मः। यथा पाकंचिकीर्षन् कोपि पिष्टादिकारणमादौ सम्पादयति सन्निहिते चादुष्टे सम्यक्कारणे कार्योत्पत्तिः सुलभा। एवमत्र मनोनिग्रहे बुद्धिरेव कारणं यद्यात्मनः स्वामिनो बुद्धिः स्वाधीना तदा सारथिरूपबुद्धेरप्याधीनं प्रग्रहरूपं मनो भवति तथा च सति मनोनिरोधः सुकरः। पूर्वोक्तध्याननिर्मथनाभ्यासादीश्वर-साक्षात्काराय चादौ मनोनिग्रहेणावश्यं भाव्यम्। न च वायुकार्यमनसो निरोधमन्तरेण प्रदीपशिखावद् बुद्धेः स्थैर्यं सम्यक् प्रकाशश्च सम्भवति। नचास्थितप्रज्ञेन

ध्यानादिकं कर्त्तुं शक्यते तस्मादीश्वरसाक्षात्काररूपतत्त्वबोधाय मनोनिरोधं कुर्वता कर्त्तुमिच्छता वा पुरुषेण बुद्धेर्ज्योतिः स्थानं सुनिश्चित्य तत्र बुद्धिः स्थाप्या तथा सति मनोनिग्रहेण तत्त्वबोधः कर्त्तुं शक्यते तत्सिद्ध्यर्यं च ज्ञानसम्पादनपरस्य मम बाह्यविषयज्ञानादुपसंहृतं मनः परमात्मन्येव संयोजयितुमग्न्याद्यनुग्राहकदेवतानां यत्सर्ववस्तुप्रकाशनसामर्थ्यं तत्सर्वमस्मद्वा-गादिषु सविता प्रेरको देवः सम्पादयेद्यत्प्रसादाद्योगोऽवाच्यतइति प्रार्थनीयम्॥१॥

** भाषार्थः**—(ध्याननिर्मथनाभ्यासा०) इत्यादि कथन द्वारा ध्यान साधनसे आत्मज्ञान होना प्रथमाध्याय में कह चुके हैं उसी का व्याख्यान द्वितीयाऽध्याय में करते हैं। जिस कारण सविता नाम सब जगत्‌का उत्पादक परमेश्वर भी पहिले सृष्टिके आरम्भमें मनुष्यादि शरीरोंके साथ मनका संयोग करने की इच्छा करता हुआ सूक्ष्माग्नि तत्त्वके ज्योतिः स्वरूप प्रकाश के स्थानको निश्चित करके पार्थिव शरीर के भीतर ज्ञान को सिद्धिके लिये बुद्धियोंको स्थापित करता है। इसी प्रकार (सविता प्रथमं मनो युञ्जानः) मन आदि इन्द्रियोंका प्रेरक अन्तरात्मा प्रथम ध्यानके आरम्भ में मनको समाहित स्थिर एकाग्र करता हुआ (अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य) शरीर में व्याप्त बुद्धिके कारण रूप सूक्ष्माग्नितत्त्वके प्रकाश स्थानको शरीरमें निश्चय करके (तत्त्वाय पृथिव्या अधि धिय

आभरत्) तत्त्वबोधके लिये पार्थिव शरीर के बुद्धिस्थान में धारणावती चिन्ता में तत्पर बुद्धियोंको अच्छे प्रकार धारण नाम स्वाधीन करता है॥

**भा०—**प्रकृति से महत् महत् से अहङ्कार और उससे मन उत्पन्न होता है। और महत्तत्त्वका ही नाम सत्वगुण प्रधान बुद्धि है और वह बुद्धि अहङ्कार में प्रधान मनका कारण है तथा कारणके अधीन कार्यका होना जगत् में सर्वत्र नियमके साथ ही दीखता है। इसी अभिप्राय से कठोपनिषद् में लिखा वाकहा है कि “शरीररूप रथ पर बुद्धि सारथि और मन लगाम है इन्द्रिय घोड़े हैं सारथिके हाथ में वा अधीन लगाम का रहना प्रसिद्ध ही है।तथा मनसे बुद्धि परे है” सो कार्यसे कारण पर उत्तम वा सूक्ष्म होता हीहै। सृष्टि स्थिति और प्रलय के समय जिन, कार्यों को ईश्वर ने जिस प्रकार वा जिस क्रम अथवा जिस नियम के साथ उत्पन्न किया है वैसे ही उन २ कामोंको करता हुआ मनुष्य अनिष्टसे बचता छूटता और इष्टको प्राप्त होता वा जितना कर्त्तव्य नियमानुसार करता वा कर पाता है उतने इष्टका भागी होता है। इससे यही धर्म है। जैसे पाक बनाने की इच्छावाला कोई पुरुष पहिले भोजन के साधन आटा आदि को जोड़ता वा संचित करता है और निर्दोष ठीक साधनोके होनेपर प्रत्येक काम ठीक अच्छा सुगमता से सिद्ध हो सकता है। वैसे यहां मन को वशीभूत करने में बुद्धिही मुख्य कारण है यदि स्वामिरूप आत्मा के अधीन बुद्धि रहती है तो सारथिरूप बुद्धि के भी अधीन मन हो जाता है इस प्रकार सुगमतामे मनकी चञ्चलता रुक जाती मन स्थिर हो जाता है। तब पूर्वोक्त ध्यान सम्बन्धी निर्मथनके अभ्यास से ईश्वरका साक्षात्कार जानने के लिये प्रथममनकी स्थिरता शान्ति अवश्यहोनी चाहिये।

किन्तु वायु के कार्य नाम सन्तान रूप मनकी स्थिरता वा रुकावट हुए बिना दीपक की ज्योतिके समान बुद्धिकी स्थिर दशा और सम्यक् प्रकाश नही हो सकता और जिसकी बुद्धि स्थित नहीं ऐसामनुष्य ध्यानादि कुछ नहीं कर सकता इस कारण ईश्वर के साक्षात्काररूप तत्त्वबोध के लिये मन को स्थिर करते वा करनेकी इच्छा करते हुए पुरुषको चाहिये कि बुद्धिके ज्योतिःप्रकाश स्थानको सम्यक् निश्चय करके उसी स्थान में बुद्धिको स्थापित करे ऐसा होनेपर मनके रुक जानेसे ज्ञानकी दीप्ति होकर तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकता है और इसकी सिद्धिके लिये ज्ञान सम्पादनमें तत्पर हुए मेरे मनको बाह्य विषयसे हटाकर परमात्मा में सयुक्त करने के लिये अग्न्यादि अनुग्राहक देवताओंका जो सर्ववस्तुनों को प्रकाशित करनेका सामर्थ्य है उस सब सामर्थ्य को हमारे वाणी आदि इन्द्रियों में प्रेरक सविता देव प्राप्त करे कि जिस को कृणमे योग प्राप्त होता है ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये॥

युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुःसर्व। सुवर्गेयाय शक्त्या ॥२॥

अ०— वयं मनुष्या बुद्धिस्वायत्तीकरणपुरस्सरं युक्तेन समाहितेन निरुद्धेन वा मनसा सवितुः प्रेरकस्यान्तर्यामिणो देव-स्येश्वरस्य सवेऽनुज्ञायां ध्यानादिशुभकर्मणि स्वर्गाय विशिष्टसुखहेतुभूतपरमात्मप्राप्तये परमात्मवचनोऽत्रस्वर्गशब्दः। तस्यै-वसुखरूपत्वादितरसुखस्य तदंशत्वाच्च शक्त्या यथासामर्थ्यं

निरन्तरमवश्यं प्रयतामहइति दृढो व्यवसायः कार्यः॥

** भा०**— दुश्चरितान्मनो निरुध्यैव मनुष्यो ज्ञानयज्ञादिषु प्रवृत्तोऽभीप्सितं सुखविशेषरूपं परमात्मानमाप्नोति न च मनस्य-समाहित इति॥२॥

भाषार्थ— (वय युक्तेन मनसा) हम मनुष्य लोग बुद्धि को स्वाधीन करने पूर्वक युक्त समाहित वा विषयोकी फसावट से अलग हुए शुद्ध मनसे (सवितुर्देवस्य सर्वे) सबके प्रेरक अन्तर्यामी देव ईश्वरकी ध्यानादि शुभ कर्म रूप आज्ञामे (सुवर्गेया-यशक्त्या) विशेष सुख स्वरूप परमेश्वरको प्राप्तिके लिये यथा शक्ति निरन्तर प्रयत्न अवश्य करे। यह हमको दृढ निश्चय करना चाहिये कि सुख और शान्ति मिलने का ठीक यही मार्ग है।

भा०— दुराचारसे मनको हटा कर ही ज्ञान यज्ञादिके लिये प्रवृत्त हुआमनुष्य अभीष्ट विशेष सुख स्वरूप परमेश्वरको प्राप्त कर सकता है किन्तु मनके स्थिर हुए बिना नहीं॥२॥

युक्त्वाय सविता देवान् स्वर्यतों धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्॥३॥

अ०— सविता प्रेरकोऽन्तर्यामी विषयेभ्यः प्रत्यावृत्तान्स्वः प्रत्यगात्मवृत्तिजन्यसुखविशेष यतः प्राप्नुवतो धिया धारणावत्या सूक्ष्मबुद्ध्या

तत्वबोधेन दिवं द्योतनशीलं प्रकाशमयं बृहन्महद्ब्रह्म ज्योतिः प्रकाशं करिष्यत आविष्करिष्यतो देवान् चक्षुरादीनीन्द्रियाणि मनोवृत्तिविशेषान् युक्त्वाय योजयित्वा स्वकृपया विषयेभ्यः प्रत्यावृत्त्य तान् प्रसुवाति प्रसुवेत् शुभमार्गे तान् सविता प्रेरये-दिति प्रार्थयामहे॥

भा०—यथा चोदयकालीनः सवितृपदवाच्यः सूर्यः प्राणिनः स्वशक्तिप्रवेशेन प्रबोध्य कार्येषु प्रयोजयति। जगति सूर्यएव देवोमुख्यः प्रबोधकः प्रेरकश्चतस्मादेव तदुदयकाले प्रायेण प्राणिनो जाग्रति। सूर्यादिप्रबोधकप्रेरकाणामपि निरतिशय-प्रेरकः प्रबोधकश्चानादिसिद्ध ईश्वरः। सएव यान् स्वकार्येषु प्रेरयति ते सद्यो जगति जाग्रति। स्वस्येष्टानिष्टे विभज्य जानन्ति च येन यत्कार्यसिद्धिर्नियोगतो हेतुतश्च सम्भाव्यते तेनैव तत्साध्यमिति नियमएव सर्वत्रोपलभ्यते तस्मान्न नियमविरुद्धं किमपि कार्यमिति। इन्द्रियाणां विषयेभ्यो निरोधएव प्रत्यगात्मविचारवैशा-

रद्यस्य प्रधानं कारणं सचान्तर्यामिप्रेरकसवितृदेवानुग्रहेण निरोधः सुसाध्यस्तस्मात्प्रार्थना स्तुतिश्च सुगम उपायो योगसाधन-स्य तथा च सति मनसः स्थैर्यं सुखानुभवो ब्रह्मज्ञानं चेति सर्वं सुलभम्॥३॥

भाषार्थः—(सविता स्वर्यतो धिया दिवं वृहज्ज्योतिः करिष्यतो देवान् युक्त्वाय) प्रेरक अन्तर्यामी ईश्वर विषयों से पीछॆ-कोफिर लौट इन्द्रिय शक्तियो के अन्तःकरण में रुकने से बुद्धि वा ज्ञानकी अधिकता से उत्पन्न हुए सुख विशेषको प्राप्त होते हुए और धारणावती सूक्ष्म बुद्धि द्वारा हुए तत्वज्ञानसे प्रकाशशील अनन्त ब्रह्मज्योतिको प्रकट करते हुए चक्षु आदि इन्द्रिय रूप देवों नाम मनकी चक्षु आदि इन्द्रियरूप वृत्तियों को अपनी कृपाके साथ विषयों की ओरसे हटा वशीभूत निरुद्ध बुद्धिके साथ संयुक्त करके (तान् सविता प्रसुवाति) उन इन्द्रिय देवोंको सविता प्रेरक अन्तर्यामी देव शुभ मार्ग में चलने के लिये प्रेरणा करे ऐसी प्रार्थना हम लोग करते हैं॥

**भा०—**जैसे उदय होते समय सविता नामक सूर्य अपनी प्रेरक शक्तिके प्रवेश द्वारा प्राणियों को जगा कर उन २ के कामों में लगाता प्रेरणा करता है। सूर्य देवताही जगत् में मुख्य प्रेरक और जगाने वाला है इसी कारण सूर्योदय के समय प्रायः मनुष्यादि जागते हैं। सूर्यादि प्रबोधक और प्रेरकोंका भी सर्वोपरि प्रेरक और प्रबोधक अनादि सिद्ध ईश्वर है वही जिन मनुष्योंको अपने २ कर्त्तव्य में प्रेरित करता है वे जगत् में शीघ्र ही जाग जाते और अपने इष्ट अनिष्टको विभागके साथ जानने लगते है। और जिसके द्वारा जिस कार्यकी सिद्धि नियम वा हेतुता

पूर्वक अवश्य हो सकती है किन्तु अन्यके द्वारा उस कार्यकी वैसी सिद्धि नहीं हो सकती उसी से उसको सिद्ध करना चाहिये यह नियम सर्वत्र उपलब्ध होता है इस लिये नियम विरुद्ध कुछ नही करना चाहिये इन्द्रियोका विषयोसे रोकना ही भी तरी विचारको वृद्धि और स्वच्छताका कारण है वह इन्द्रियोका निरोधरूप योग अन्तर्यामी प्रेरक सविता देवके अनुग्र-हसे सुसाध्य है तिससे अन्तर्यामीकी स्तुति प्रार्थना ही योग साधन का सुगम उपाय है ऐसा होने पर मनकी स्थिरता सुखका अनुभव और ब्रह्मज्ञान यह सब होना सुगम वा सुलभ है॥३॥

युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रादधे वयुना विदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥

अ०—यो वायुनावित्प्रज्ञावेत्ता बुद्धिसाध्यसर्वकार्याणां तत्त्वतो वेत्ता सर्वज्ञोऽन्तर्याम्येकइदेकएव होत्रा कल्याणहेतुका धर्म्या यज्ञादिक्रिया वेदद्वारा विदधे विधानं कृतवान् तस्य विप्रस्य विशेषेण व्याप्तस्य बृहतोऽनन्तस्य विपश्चितः सर्वज्ञस्य देवस्य द्योतनात्मकस्य सवितुरन्तर्यामिण ईश्वरस्य मही महतो परिष्टुतिस्तैः कर्त्तव्या ये विप्रा मेधाविनः

प्रकृष्टसूक्ष्मस्थिरबुद्धियुताः प्रत्यगात्मविचारे रता मनो युञ्जते निरुन्धन्ति विषयेभ्यः प्रत्यावृत्य बुद्धितत्वेन स्वकारणेन योजय-न्ति। उतापि धियो बुद्धीन्द्रियाणि मनः सङ्गात्प्रत्यावृत्यात्मना साकं युञ्जत आत्मविचारे प्रवर्त्तयन्ति। आतश्चोपसर्गइति सूत्रेण कप्रत्ययान्तः प्राधातोर्विप्रशब्दः। विपश्चितइति मेधाविनाम वयुनेति च प्रज्ञाया नाम निघण्टौ॥

भा०—मनसो ज्ञानेन्द्रियाणां च समाधानं स्थैर्यं विषयवासनातो निवृत्तिं चेच्छ्दुभिर्जनैः सवितृपदवाच्यस्यैकस्यानन्तस्य सर्वज्ञस्यान्तर्यामिणः सर्वप्रेरकस्य परमात्मनो दीर्घकालावधि नैरन्तर्येणैकाग्रचेतसा विशिष्टा स्तुतिः कार्या। अनन्यसाध्या च विषयवासनानिवृत्तिर्यथा चोदकसाध्यां पिपासानिवृत्तिमन्यसाधनेन चिकीर्षतः फलावाप्तिरसम्भवा तथैवात्राभ्यासवैराग्यादि-साधनैर्मनोवृत्तिनिरोधावसरे परमात्मशरणागतिमन्तरेण नास्त्यन्या कापि ततोधिका तत्तुल्या वा गतिरिति ॥४॥

भाषार्थः— जो (वयुनाविदेकइद्धोत्रा विदधे) बुद्धि से होने वाले मानस गुप्त सब कामो का भी जानने वाला अन्तर्यामी एक ही ईश्वर विना किसीकी सहायता लिये कल्याण

की हेतु धर्मानुकूल यज्ञादि क्रियाओंका वेद द्वारा विधान करता अर्थात् कत्तव्य की आज्ञा देता है उन(विप्रस्य वृ हतो विपश्चितो देवस्य सवितुर्मही परिष्टुतिः) विशेष कर सर्व व्याप्त अनन्त सर्वज्ञ सबको चेतन करने वाले प्रेरक अन्तर्यामी ईश्वर की बड़ी अधिकतर स्तुति उन लोगोंको करनी चाहिये वा वे कर सकते हैं कि जो (विप्रामनो युञ्जत उत धियो युञ्जते) उत्तम सूक्ष्म स्थिर बुद्धि वाले भीतरी विचार में तत्पर बुद्धिमान् लोग मनको और ज्ञानेन्द्रियोंकी योगाभ्यास द्वारा ठीक करते हैं अर्थात् विषयोंकी भोगवासना से मनको तथा ज्ञानेन्द्रियोंको पीछा हटाके आत्मविचार में लगाते है॥

भा०— मन और ज्ञानेन्द्रियोंको सावधानता स्थिरता और विषयवासनाकीनिवृत्ति चाहते हुए मनुष्योंको उचित है कि वे सवितृपदवाच्य अनन्त सर्वज्ञ सर्व प्रेरक अन्तर्यामी एक परमेश्वरकी ही बहुत काल तक निरन्तर एकाग्रचित्त से विशेष कर स्तुति प्रार्थना करें। क्योंकि विषयवासना से ठीक निवृत्ति होनेका अन्य कोई साधन नही है जैसे कि जलसे मिटने वाली प्यासको अन्य वस्तुसे निवृत्त करनेकी इच्छा वालेको फल प्राप्त होना कम सम्भव है। वैसे यहां भी अभ्यास वैराग्यादि साधनोंके द्वारा मनको वृत्तियों का निरोध करने के समय परमात्मा के शरणागत हुए विना उस से अधिक वा उसके तुल्यअन्य कोई गति नही है। क्योंकि परमात्मा सर्वोपरि ससारी भागों को फंनावट से अलग है विषयवासनाका लेशमात्र भी इससे सम्बन्ध नहीं रखता तथा उसके शरण में पहुंचते ही अर्थात् स्वरूपावस्थित होते ही मनुष्य को ऐसा अद्भुत ज्ञानन्द मिलता है जिसके सामने संसारके सब विषयो के भोग अत्यन्त फीके पड़ जाते है॥४॥

युजे वांब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोका यन्ति पथ्येव सूराः।
शृण्वन्ति विश्वे अमृतस्य पुत्रा आये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥५॥

अ०— अत्र वामिति वचनव्यत्ययेन बहुवचनस्थाने द्विवचनम्। हे मनआदीनीन्द्रियाणि वां युष्माकं कारणभूतं पूर्व्यं पूर्वै-र्ब्रह्मादिभिरप्युपास्यं ब्रह्माहं युजे नमोभिश्चित्तप्रणिधानादिरूपैः प्रणामैर्निर्बीजसमाधिना च प्राप्तुमीहे तेन पथ्याइव सन्मार्गाद-नपेताः सुखेन गच्छन्तो मनुष्याइव निर्बाधाःसूराः सप्रकाशाः शुद्धा मालिन्यलेशेनापि रहिता मम श्लोकाः कीर्त्तयो वियन्ति विशेषेण दोर्घकालावधि चिरस्थायिन्यो भवन्तु। ये नरा योगाभ्यासादिशुभकर्मप्राबल्येन दिव्यानि धामानि स्थानानि ब्रह्मलो-कादीन्यात्तस्थुः प्राप्तास्तेऽमृतस्य परमात्मनः पुत्राइव रक्षणीयाः सर्वे जीवन्मुक्ता मुक्ताः प्राप्तसर्वयोगसिद्धयो वा यथेच्छाचा-रिणो ममेमां वाच शृण्वन्ति शृण्वन्तु॥

भा०— यथा मनोनिरोधेनेन्द्रियाणि निरुध्यन्ते। बुद्धिसमाधानेन मन एकाग्रं जायत एवमात्मनि परमात्मविचारलग्ने बुद्ध्या-दिकं सर्वं शान्तं तिष्ठति। तेन योगिना प्रतिज्ञातव्यं प्रार्थनीयं च योगिभिः सिद्धैर्जीवन्मुक्तैर्ज्ञानसीमानं प्रातैश्च ब्रह्मलोकादिवा-सिभिर्मम सङ्गोऽस्तु ते च मां मज्जन्तमुद्धरन्तु मम वाचं शृण्वन्तु। नच तेन कीर्त्तिरेषणीयाऽपितु पूर्वेषां योगिनां ज्ञानिनां च यथाऽद्यावधि चिरस्थायिनी निर्बाधाऽनिवार्या कीर्त्तिर्गच्छति तथाऽन्येषामपि धर्मभास्कराणां सूर्यस्येवानिवार्यः प्रकाशः प्रसर-त्येव। तदर्थं परमेश्वरेण विशिष्टः सम्बन्धस्तच्छरणागतिस्तदुपासनमेव प्रधानम्। इमे च पञ्च मन्त्राः शुक्लयजुर्वेदस्यैकादशा-ध्यायारम्भे यथायथमुपलभ्यन्ते। पाठान्तरं च शाखान्तरवदेवानुमीयते। तत्राद्याऽनुष्टुप् द्वितीया गायत्री, तृतीयाऽनुष्टुप्, चतु-र्थी जगती, पञ्चमी त्रिष्टुप्। ताभिश्चर्ग्भिर्योगाभ्यासप्रकारः प्रदर्शितः॥५॥

भाषार्थः—हेमन और ज्ञानेन्द्रियो। तुम्हारी चेतनता के कारण (पूर्व्यं ब्रह्म नमोभिर्युजे) पूर्व सृष्टि के आरम्भ वा कल्प

कल्पान्तरोंमें ब्रह्मादिको भी उपासना करने योग्य ब्रह्मको नमस्कार प्रणाम स्तुति प्रार्थनादि तथा निर्बीज समाधि द्वारा प्राप्त करने की चेष्टा मैं करता हूं। उससे (पश्येव सूराः श्लोका वियन्ति) उत्तम मार्गको न भूले वा उससे च्युत न हुए सुख पूर्वक अच्छे मार्ग में चलते हुए मनुणोंके तुल्य प्रकाश रूप शुद्ध लेशमात्र भी मलिनता से रहित मेरी कीर्ति वा यश दीर्घकाल तक विशेष कर चिरस्थायी हो। (ये) जो लोग योगाभ्यासादि शुभ कर्मों की प्रबलतासे (दिव्यानि धामान्यातस्थुः) ब्रह्मलो-कादि उत्तम स्थानों वा उत्तम दशाओं को प्राप्त हुये वे (विश्वेऽमृतस्य पुत्राः शृण्वन्ति) नित्य मुक्त परमात्माको पुत्रके समान रक्षकीय सब जीवनमुक्त वा मुक्त वा योग सिद्धियोंको प्राप्त हुए यथेच्छाचारी पुरुष मेरी इस वाणीको सुनें॥

भा०—जैसे मनके निरोधसे इन्द्रिय स्वयमेव वशीभूत हो जाते हैं तथा बुद्धिके सावधान निश्चल होने पर मन भी एकाग्र शान्त हो जाता है। इसी प्रकार अन्तरात्मा जब परमात्म रूप अपने विचार वा स्तुति प्रार्थना उपासना में लगता है तब बुद्धि आदि सब शान्त होकर ठहर जाते हैं । इस कारण योगी की प्रतिज्ञा वा प्रार्थना करनी चाहिये कि योगी सिद्ध जीव-न्मुक्त और ज्ञानकीसीमाको प्राप्त हुये ब्रह्मलोकादिमें निवास करने वाले पुरुषोंसे मेरा सङ्ग हो वे लोग डूबने हुए मुझको निकालें मेरी प्रार्थना वाणीका सुनें। उस पुरुषको अपनी कीर्ति वा प्रतिष्ठाकी इच्छा नहीं करनी चाहिये किन्तु पूर्वकाल में हो चुका अनेक योगी वा ज्ञानियोंकी जैसे अब तक चिरस्थायिनोनिर्विघ्न अनिवार्य कीर्तिस्वयमेव चली जाती है वैसे धर्म सूर्य अन्य पुरुषोंका भी प्रकाश जगत् में स्वयमेव फैलता है उनकोकोई रोक नहीं सकता। उस योगप्राप्तिके लिये पर-मेश्वर

से विशेष मेल तथा उसके शरणागत होना उसकी उपासना करना ही मुख्य है। ये पांच मन्त्र यजुर्वेद के अध्याय ११ग्यार-हवेंके आरम्भमें ऐसे ही ज्यों के त्यों हैं। कुछ पाठान्तर है वह शाखान्तर में होने के समान ही है। उनमें पहिले ‘अनुष्टप् ‘दूसरी गायत्री तीसरी अनुष्टप्, चौथी जगती और पांचवी त्रिष्टुपऋचाहै इन पाचों मन्त्रों में योगाभ्यासकी रीतिका मूल दिखाया गया है॥५॥

अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राभियुज्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्रसंजायते मनः॥६॥

अ०— यत्र यस्मिन्योगाभ्यासे विषयवासनां विहाय प्राणायामाभ्यासेन वाक्कर्मणा वेदाध्ययनेन च शारीरोऽग्निः परमास्मा-स्वरूपः प्रदीपयितुमभितः प्रतिदिनं मध्यते यत्र वायुरभियुज्यते प्राणत्रायुनिरोधोऽभ्यस्यते यत्र च सोमप्रधानं भोज्यमतिरि-च्यते त्यज्यतेऽल्पीक्रियत उत्तमभोजनवस्त्रधारणादितो मन आकृष्यते तत्र मनो मननं संजायते यद्वा यत्र यागेऽग्निररणिभ्या-मभिमथ्यते, यत्र प्रवर्ग्यसम्भरणादौ पवित्रप्रेरितो वायुरभियुज्यते यत्र दशापवित्रात्सोमरसोऽतिरिच्यते निस्सरति तत्र सोमया-गादौ प्रा-

र्थितदेवानुज्ञातस्य योगिनो मनः संजायते स्वर्गभोगतो कर्मणि प्रवर्त्तते।

भा०—बहुभिः साधनैर्ज्ञानारुद्दीपनेन समूल प्राणायामाभ्यासेन भोगोत्कण्ठाहासेन च मनः शुद्धं समाहितं सम्पद्यते यद्वा देवप्रेरणया भोगहेतौ सोमयागादि कर्मणि योगिमनः संजायते॥६॥

भावार्थः— (यत्राग्निरभिमथ्यते) जिस योगाभ्यास में योगी पुरुप विषय भोगकी वासनाको त्यागके प्राणायामके अभ्यास से तथा वेदाध्यन रूप वाणी के कर्मसे शरीरस्थ परमात्मरूप अग्निको प्रदीप्त करने के लिये मन्थन करता और प्राणके चढ़ाने उतारनेसे तथा पढ़ने से वायु बढ़ता है (यत्र वायुरभियुज्यते) जिस योग में प्राण वायु केरोकने का अभ्यास किया जाता है और (खोमो यन्त्रातिरिच्यते ) सोमतत्त्व जिसमें प्रधान है ऐसे भोज्य पदार्थको जिसमें लागता कम करता अर्थात् उत्तम भोजन वस्त्रादिसे मनको हटाता है (तत्र संज्ञायते मनः) उसी योगाभ्यास में मनन शक्ति हिताहित पहिचानने की योग्यता प्रगट हो जाती है। अथवा जिस यज्ञ में अरणियों के द्वारा का अग्नि मन्थन होता, तथा प्रग्यं संभरणादि कर्ममें पवित्र से प्रेरित वायु शब्द करता और विष सोमयागमें दशा पवित्र से सोमरस निकाला जाता है उस सोमयागादि कर्ममें प्रार्थित देवताको प्रेरणा से योगीका मन स्वर्ग भोगार्थं लगता है॥

भा०— बहुत साधनों द्वारा ज्ञानाग्निका उद्दीपन करके यमनियमादि सहित प्राणायाम के अभ्यास और भोगकी तृष्णा के त्यागसे मन शुद्ध समाहित स्थिर हो जाता है अथवा देवता

की प्रेरणासे स्वर्गीय सुख भोगके हेतु सोमयागादि कर्म में योगी का मनलग जाता है॥६॥

सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम्।
तत्र योनिं कृण्वसे नहि ते पूर्वमक्षिपत्॥७॥

षष्ठ्यर्थेतृतीया सवित्रा सवितुरन्तर्यामिणो देवस्य प्रसवेन सानुग्रहप्रेरणेन यो योगी पूर्व्यं सनातनं ब्रह्म परमात्मात्मानं जुषेत सेवेत। एवं यदि त्वं तस्मिन् ब्रह्मणि योनिं निष्ठां कृण्वसे करोषि तदा ते तव पूर्वकालीनं कर्म नह्यक्षिपत्—नहि जन्ममरणप्र-वाहे दुःखबहुले स्रोतसि त्वां प्रक्षेप्तुमर्हति॥

** भा०**— योऽन्तर्यामिणः सवितुर्देवस्यानुग्रहेण प्रेरितो योगी भोगान्निर्विण्णो ज्ञानसाधनानि संचित्य शुद्धसमाहितैकाग्रेण मनसा ब्रह्मण एवोपासनं करोति तस्यैव शरणं गच्छति नासावपरिमितं मरणादिदुःखं पुनर्लभतइति॥७॥

भाषार्थः— (सवित्रा प्रसवेन पूर्व्यं ब्रह्म जुषेत) अन्तर्यामीसविता देवकी कृपादृष्टि सहित प्रेरणा से जो योगी पुरुष सना-तन ब्रह्म परमात्माका सेवन करे (तत्र योनिं कृण्व से) इस प्रकार यदि तू उस ब्रह्म में निष्ठा करता है तो

(ते पूर्वं नह्यक्षिपत्) तेरा पूर्वकालमें किया संचित वासनारूप कर्म, दुःख जिस में बहुत है ऐसे जन्म मरणादि प्रवाह की प्रबल तरङ्गोंगें तुझ को नहीं फेंक सकता अर्थात् तू संसार के पार होने योग्य हो सकता है॥

भा०— जो अन्तर्यामी सविता देवके अनुग्रहसे प्रेरित हुआ।योगी पुरुष भोग से उदासीन हुआ ज्ञान के साधनों को संचय करके शुद्ध समाधिस्थएकाग्र मनसे ब्रह्मकी ही उपासना करता उसीके शरण में रहता है। वह मरणादि सम्बन्धी अपरिमितदुःखको फिर नहीं प्राप्त करता वा फिर नहीं फसता॥१॥

त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि॥८॥

अ०—ब्रह्मणि निष्ठाकरणमुक्तंविशदीक्रियते—उरोग्रीवाशिरांसि त्रीण्युन्नतानि यस्य तत्समवक्रं शरीरं स्थाप्य संस्थाप्य हृदीन्द्रयाणि चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य सन्नियम्य तैरूपदर्शनादिकमकृत्वा ब्रह्म प्रणव उडुपइव तरणसाधनं तेन भयावहानि नानानिरययातनाभयान्यावहन्ति प्रापयन्ति तानि सर्वाणि स्रोतांसीन्द्रियगोलकानि प्रबलप्रवाहयुताः सरितइव विद्वान् प्रतरेत॥

भा०—तज्जपस्तदर्थभावनप्रकारेण प्राणायामविधिरयम्। अभ्यासवैराग्यादिसाधनैरिन्द्रियवृत्तिर्वशीकृत्यैव शरीरं समम-चलं च स्थापयितुं शक्यते। इन्द्रियवशीकारः शरीरस्थैर्ये करणं सति च स्थैर्ये प्राणानायम्य मनसि प्रणवं जपन् प्रणवार्थमीश्वरं च भावयन् पुरुषो दुःखसागरं तरीतुं शक्नोतीत्याशयः॥

भाषार्थः—पूर्व मन्त्र में ब्रह्म निष्ठ होना कहा है उसी प्रकार दिखाते हैं—(त्रिरुन्नतं समं शरीरं स्थाप्य) ज्ञाती ग्रीवा और शिर ये तीनों जिस में ऊपर को उठे हों ऐसे सीधे शरीर को आसन पर स्थिर कर अर्थात् ऐसे शरीर से बैठकर तथा (हृदी-न्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य) चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को मनकी रुकावट से रोककर अर्थात् इन्द्रियों के साथमनको न लगा के किन्तु मनके साथ इन्द्रियों को जोड़ के (भयावहानि सर्वाणि स्रोतांसि विद्वान् ब्रह्माडुपेन प्रतरेत) प्रबल वेग से बहने वाली नदियों के समान विषयों में वहने वाली इन्द्रियों को नाना प्रकार के नरक भोग की यातना का भय पहुंचाने वाले जानता हुआ ओ३म् का अप और उस के वाच्यार्थ ईश्वर के चिन्तन रूप नौका से शिर के सात इन्द्रिय छिद्र सप्त स्रोतरूप नदियोंको तरे पार होवे।

भा०—(तज्जपस्तदर्थभावनम्) उस वाचक प्रणव का जप वाणी से वार २ उच्चारण और उसके वाच्य ईश्वर का भावन वार २ चिन्तन इस रीति से प्राणायाम का विधान यहां कहा जानो। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मन की वृत्तिरूप इन्द्रिय शक्तियों को वशीभूत करके ही कोई शरीर

को निश्चल ठहरा सकता है अर्थात् इन्द्रियोका वशीकार शरीर की स्थिरता का कारण है और शरीर के स्थिर होने पर प्राणकी गति को रोककर मनमे प्रणव का जप करता और प्रणवार्थ ईश्वर का भावनकरता हुआ दुःखसागर के पार हो सकता है॥८॥

प्राणान् प्रपीड्येह स युक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः॥८॥

अ०—स प्राणायामाभ्यासी योगो युक्ता नियता शान्ता चेष्टा देहक्रिया यस्य तादृग्भूत्वा मुहुर्मुहुर्निरोधेन प्राणान् प्रपीड्य प्रपीडनेन श्वासगमनागमनशान्तिं सम्पाद्य तथासति क्षीणे स्थिरदशामापन्ने प्राणे नासिकयैच्छ्वसीत न मुखेन। एवं दुष्टा अश्वा युक्ता अस्मिँस्तादृशं वाहनमिवैनं शरीररथं विद्वान् विजानन्नप्रमत्ती रश्मिरूपं मनो धारयेत। यत्र दुष्टाश्वा युक्तास्तद्रथवाहको यदि निमेषमात्रमपि प्रमाद्यति विस्मरति वा तदा ते दुष्टाश्वाः ससारथिस्वामिकं रथं सद्यएव गर्त्तादिषु नयन्ति पातयन्त्येव वा। तथैव

क्षणमपि विस्मृते दुष्टेन्द्रियवृत्तयः सद्यएव विषयगर्त्तेषुशरीररथं नेष्यन्त्येवं जानानएव न प्रमाद्यति॥

** भा०**—प्राणचेष्टायाः स्थिरीभावे शान्ता अपीन्द्रियवृत्तयो विस्मृत आत्मनि मध्येमध्ये पुनरपि विषयेषु धावन्ति तस्मादिन्द्रि-यवृत्तीनां निरोधकाले चेतस्येकाग्रेऽपि दुष्टाश्वानिवैवेन्द्रियाणि जानीयाज्जितानीति न विस्मरेत्॥९॥

भाषार्थः—(सयुक्तचेष्ठः प्राणान् प्रपीड्य) वह प्राणायामका अभ्यास करने वाला योगी पुरुष शरीरकी चेष्टाको शान्तकर वार २ रोकने द्वारा प्राण के गमन आगमनको शान्तप्रवाह से चलनेवाला करके (क्षीणे प्राणे नासिकयाच्छ्छासीत) ऐसा होने पर प्राण धीरे २ शान्त प्रवाह से चलने लगता है तब मुखको बन्द कर केवल नासिका से श्वास लेता जावे। सात द्वारोंमें मुख सब से बड़ा द्वार है इसी कारण इस में वाणी और रसना दो इन्द्रिया रहती है इसके बन्द रहने से दो इन्द्रियों को जीत सकता है इस लिये मुख को प्रथम बन्द करे परन्तु जबवलपूर्वक श्वास चलता है तब मुखका बन्द कर सकना कठिन है इस लिये प्राणशक्ति के निर्बल होने धीमे चलने बाली हो जाने पर ऐसा होना सुगम है (दुष्टाश्वयुक्तं वाहमिवैनं विद्वान्) दुष्ट घोड़े जिस में जुड़े हो ऐसे रथ [बग्घी अर्थात् दो वा चार घोड़े की गाढ़ी] के तुल्य दुष्ट इन्द्रिय घोड़ो से युक्त शरीर रथ को जागता हुआ (अप्रमत्तो मनो धारयेत) प्रमाद वा भूल न करके लगान की रस्सी रूप मन को दृढ़ता से पकड़े रहे। जिस गाड़ी में दुष्ट घोड़े लगे होते

है उस का हाकने वाला यदि क्षण भर भी उन की ओर से ध्यान हटा लेवे, वा ये घोडॆऐसे दुष्ट है जो थोडा भी भूलते ही गाडी को ले भाग जायेंगे ऐसा न जानता रहे तो वे दुष्ट घोडे रथके स्वामि सारथि तथा रथ तीनो को कही गढे आदि में ले जाके गिराते वा वृक्षादि में लेजाके दे देते हैं। वैसेही कोई योगी वा ज्ञानी इन दुष्ट इन्द्रियोकी स्वाभाविक दुष्टता को क्षण भर भी भूल जाये तो ये शीघ्र ही शरीररूप रथको विषयरूप गड्ढोमे ले जाते ऐसाजानता हुआ ही प्रमाद को छोड कर योगी मन को वशी भूत रख सकता है॥

भा०— प्राण की चेष्टा के स्थिर होने से इन्द्रियोकीशक्ति के शान्त होने पर भी बीच २ आत्माके किञ्चित् भी भूल जाने पर वे इन्द्रिय फिर २ विषयो की ओर भडियाये पशुके समान भागते हैं। इस कारण इन्द्रियोके रुकनेसे चित्तके एकाग्र होने पर भी दुष्ट घोडो के समान इन्द्रियो को जानता रहे किन्तु ये मेरे वशीभूत होगये ऐसा मानके भूल न जावे॥

समे शुचौ शर्करावह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।

मनोऽनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥

** अ०**— समेऽनिम्नेऽनुन्नते शुद्धे दुर्गन्धादिरहिते शर्करावह्निवालुकाविवर्जिते—शर्करापाषाणादि चूर्ण वह्निसामीप्यं वालुका-धिक्य च यत्र तस्माद्भिन्ने, कलहतुमुलादिशब्दाधिक्य-

जलं प्राण्योगमननिवासस्थानमाश्रयी, ग्रामघोपादिमनुष्यादिवासस्थानं तैरपि विशेषतो वर्जितेतादृशे मनोनुकूले मनःस्थैर्य-हेतुके यत्र दृश्यविषयसत्त्वाच्चक्षुषोः पीडनमाकर्षणं न सम्भवति तत्र गुहायां निवातस्थाने वा परमात्मनि चेतः प्रयोजयेत्॥

भा०— एवंभूते सर्वथा चित्तेन्द्रियाकर्षकहेतुवर्जित एव गुहादिस्थाने योगाभ्यासरीत्या परमात्मध्यानं कुर्वन् योगिजनः फलभावस्यादिति सम्भवति। यथा सत्स्वेव सम्यक्साधनेषु सर्वाणि कार्याणि सिद्ध्यन्ति तथैवात्रापि ज्ञेयम्॥१०॥

भाषार्थः— (समे शुचौ शर्करावह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः) जहां अधिक ऊंची नीचीपृथिवी ढारू न हो किन्तु समचौरस शुद्धदुर्गन्धादि रहित हो, ककरोली वा पथरीली न हो, जहां अग्नि वा गर्मी अधिक न हो, तथा जहां बालू अधिक न हो तथा जहाँ लड़ाई झगड़े वा मेला बाजार ग्रामादि के मनुष्यों का हल्ला गुल्ला न सुन पड़ता हो, जहां समीप वा सब ओर जलाशय न हो जिसमें जलार्थी प्राणि वा जलाशय निवासी जीव देखने में आवें ऐसे मङ्गल देशमें वा (मनोऽनु-कूले नतु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणं प्रयोजयेत्) मनकी स्थिरता के हेतु, जहां ग्रामादि सम्बन्धी कोई दर्शनीय वस्तु नहीं जिन के दीख पड़ने से चित्त उधरको खिंचे ऐसे अधिक वायकी गति

से रहित वा गुडारूप किसी स्थानमें योग साधन द्वारा आत्मामें चित्तको लगावे किन्तु वहां भी विषय वासनाकी ओर मन-को न जाने देवे॥

भा०— जहां चित्त वा इन्द्रियोंको अपनो ओर खेंचने वाला कोई कारण न हो गुहादि स्थानमें योगाभ्यासकी रीतिसे पर-मात्माका ध्यान करता हुआ इष्ट सुख शान्तिरूप फलका भागी हो यह सम्भव है। अर्थात् जैसे सब साधनों के ठीक होने पर ही सबकार्योंकी सिद्धि होती है वैसे यहां भी जानो॥१०॥

नीहरधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशिनाम् ।
एतानि रूपाणि पुरस्सराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥११॥

अ०— योगे क्रियमाणे सिद्ध्यभिमुखे दीर्घकालमभ्यस्ते नीहारस्तुषारोऽर्कः सूर्योऽनिलोवायुरनलोऽग्निः खद्योतादयश्च प्रसिद्धा एषां रूपाणीव ब्रह्मण्याविष्क्रियमाणे ध्यानयोगे लक्षितानि भान्ति ब्रह्मज्ञानं ब्रह्मणः साक्षात्कारः सद्यो भवितेति योग-सिद्धरूपब्रह्मज्ञानस्य पूर्वरूपाणि भवन्ति॥

** भा०**— नचाल्पकालाभ्यासिनोऽजितेन्द्रियस्य प्रमत्तस्य प्रतिकूलदेशे वा युञ्जानस्य

कस्यापि योगसिद्धिसूचकचिन्हानि भवितुमर्हन्ति तस्माद्योगमभ्यस्यन्सर्वाङ्गपूर्त्तये दीर्घकालावधि निरन्तरं श्रद्धया तीव्राभ्या-सेन यतेत॥११॥

भाषार्थः—(योगे) बहुत काल तक निरन्तर श्रद्धा पूर्वक योगाभ्यास करते २ जब योग सिद्ध होने का समय आता है तब(निहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशिनाम्) तुषार घुंआ, सूय, आधी, अग्नि जुगुनू, बिजुली, मणि और चन्द्रमा (एतानिब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि रूपाणि पुरस्सराणि) इन सबके रूप समाधि में ब्रह्म परमात्माका ज्ञान होने के पूर्व रूप होते है। अर्थात् जब योग सिद्धि द्वारा ईश्वरका साक्षात्ज्ञान होने का समय निकट आता है तब ध्यान में तुषारादि के से रूप क्रम से दीखने लगते हैं॥

भा०— थोड़े काल के योगाभ्यासी वा योगभ्रष्ट अजितेन्द्रिय प्रमादी निरुत्साही वा प्रतिकूल स्थान में योगाभ्यास करने वाले किसी अधकचरे योगीको योगसिद्धि के सूचक चिन्ह नहीं दीख सकते। इस कारण योगाभ्यास करता हुआ सब अङ्गों की पूर्ति के लिये बहुत काल तक श्रद्धा के साथ तीव्राभ्यास द्वारा निरन्तर प्रयत्न करता रहे॥११॥

पृथ्व्याप्यतेजोऽनिलखे समुस्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्रातस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥१२॥

** अ०—**पृथ्व्याप्यतेजोनिलखे समुत्थिते स्वदेहस्थपञ्चतत्त्वानां सम्यगुत्कर्षे निकृष्टांशह्रासेन शुद्धांशेप्रबलत्वं यात उन्नते तदेवं पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्तेदिव्यगन्धादिविपयप्रवृत्तौ सत्यां तस्य योगाग्निमयं शरीरं प्राप्तस्य योगिनो न रोगो न जरा न मृत्युः॥

** भा०—**यथा च सुवर्णादीनां यथायथा शोधनोपायाः क्रियन्ते तथातथा मलिनांशा असारा निवर्त्तन्ते शुद्धांशाश्च सारा वैशा-रद्यमाप्ताः प्रदीप्यन्ते। सारएव सर्वत्र शुद्धांश उच्यते। सारएव चिरस्थाय्यसारश्च सद्यो विनश्वरो भवत्येव। एवं योगाङ्गानुष्ठा-नप्रावल्येन बहुकालीनेन दृढेन शरीरेन्द्रियान्तःकरणानां मलिनांशाः शनैःशनैरपचीयन्ते शुद्धांशाश्चसारभूता उपचीयन्ते। तथा च सति सारभूता वज्रमण्यादयश्चिरन्तनस्थायिनोऽविनश्वराइव योगिशरीरं चिरन्तिष्ठति। असारमेवरोगा जरा चाक्राम-ति। यच्च दर्पणं यादृशं सारभूतं मालिन्यविहीनं च तस्मिन् तादृशमेवरूपवैशारद्यं सम्भवत्येवं शुद्धैः सारभूतैरेवेन्द्रियैर्विप्रकृ-ष्टतरगन्धादिविषयाणां

सम्यग्ग्रहणं सम्भवति॥ “ज्योतिष्मती स्पर्शवती तथा रसवती परा। गन्धवत्यपरा प्रोक्ता चतस्रस्तु प्रवृत्तयः॥ आसां योगप्रवृ-त्तीनां यद्येकापि प्रवर्त्तते। प्रवृत्तयोगं तं प्राहुर्योगिनो योगचिन्तकाः॥” योगभाष्येतु पञ्च षड्वा प्रवृत्तय उक्तास्तासु चतस्रो विषयवत्योऽविषया चैकोक्ता॥१२॥

भाषार्थः—(पृथ्व्याप्यतेजोऽनिलखे समुत्स्थिते) अपने शरीरस्थ पृथिवी अप् तेज वायु और आकाशरूप पञ्चतत्त्वोंके निकृष्ट मलिनांश का नाश हो कर शुद्धांश की प्रबलता वा उन्नति होने से इस प्रकार (पञ्चात्मके योग गुणे प्रवृत्ते) दिव्यग-न्धादि विषयों में प्रकृष्ट साक्षात् वृत्ति होने पर अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सूक्ष्म व्यवहित और अति दूर के शब्दादि विषयों किसाक्षात् बोध होनेकी शक्ति प्रकट होने पर (तस्य योगाग्निमयं शरीरं प्राप्तस्य न रोगो न जरा न मृत्युः) पञ्चतत्त्वकी शुद्धि द्वारा योगाग्निरूप शरीर को प्राप्त हुये उस योगी पुरुषको न रोग न निर्मलता और न मृत्यु सताता है॥

** भा०**— जैसे सुर्वणादि धातुओं के शोधने का जैसा २ तपाय किया जाता है वैसे २ मलिन अभार अंश उन सुवर्णादि के निकलते जाते और शुद्ध सारांश निर्मलता को प्राप्त हुये अंश उज्ज्वल होते हैं। तथा सार ही सर्वत्र शुद्धांश कहाता और सार ही चिरस्थायी होता वा जो शुद्ध चिरस्थायी अंश है वही सार कहाता और असार अपने स्वभाव से ही शीघ्र नष्ट होता है वाजो शीघ्र नष्ट होने वाला है वह असार कहाता है। वैसे ही योग के तप आदि अङ्गोंके अनुष्ठान की

प्रबलता से अर्थात् बहुत काल तक दृढ़ता के और निरन्तर श्रद्धा के साथ साङ्गोपाङ्ग योगाभ्यास करने से शरीर इन्द्रियां और अन्तःकरणके मलिनांश शनैः शनैः दूर हो जाते तथा शुद्ध सारभूतअंश रह जाते हैं। ऐसाहोने पर शङ्खसार वस्तु की अधिक स्थिति रह सकने से ही बहुत काल ठहरने वाले सार भूत अविनाशी हीरा आदि के तुल्य योगी का शरीर सहस्रोंवर्ष ठहरने वाला अविनाशी हो जाता है। असार मलिन वस्तु पर ही रोग और निर्वलतारूप जरावस्था अपना प्रभाव [दखल ] जमाते हैं इसी से योगी के शरीर को रोगादि नही दवा पाते। जो दर्पण जैसा साररूप वा जैसा मलिनता रहित होता उस में वैमा ही शुद्धरूप दीखना सम्भव है। इसी प्रकार शद्ध सारांशरूप निर्मल इन्द्रियों से अत्यन्त दूरस्थ सूक्ष्म वाछिपे हुये गन्धादि विषयों का ग्रहण वा बोध योगी को हो सकता है “ज्योतिष्मती, रसनी स्पर्शवती और गन्धवती ये चार योगप्रवृत्ति कही है। इन योगप्रवृत्तियों में से यदि किसी को एक भी सिद्ध हो जाय तो भी उस को योग में प्रविष्ट हुआ योगचिन्तक योगी लोग कहते हैं”। ये किसी अन्य ग्रन्थकार के दो श्लोक है इन में चार योग प्रवृत्ति मानी हैं। परन्तु (विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्नामनष्टःस्थितिनिबन्धनी) इस योगसूत्र पर व्यासभाष्य में पाच विषयोंकी पांच प्रवृत्ति मानी हैं। उन में चार विषयवती और एक अविषया है॥१२॥

लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति॥१३॥

**अ०—**लघुत्वमालस्याद्यभावआरोग्यं ज्वरादिजन्यदुःखाभावोऽलोलुपत्वं कर्मस्वचाञ्चल्यं शान्त्या धैर्येण च प्रवृत्तिर्वर्णस्या-कृतेर्ब्रह्मचर्यशौचाद्यनुष्ठानाधिक्येन शुद्धिर्दीप्तिः स्वरसौष्ठवं सङ्कोचाद्यभावेन मानसशौचेन च स्वरस्य सम्यक् स्पष्टतया निस्सरणम्, शुद्धसात्वकाल्पाहारसेवनादेव शरीराच्छुभो गन्धो मूत्रपुरीषयोश्चाल्पत्वं जायतएव। इतीमां प्रथमां योगप्रवृत्तिं वदन्ति योगीश्वराः। प्रथमश्रेणिं प्रविष्टस्य योगिनो लिङ्गानीमानि पूर्वरूपाणि भवन्ति॥

**भा०—**योगाङ्गसेवनरतपुरुषस्य लघुत्वादिलिङ्गानि जायमानानि तस्य प्रथमयोगश्रॆणिप्रवेशं सूचयन्ति। प्रथमश्रेणिप्रवेशा-नन्तरमेवद्वितीयादिश्रॆणिषु प्रवेशो युज्यते। एवं द्वितीयादिभूमिकास्वेव पूर्वपद्योक्ता योगप्रवृत्तिः सम्भवति यत्र योगाग्निमयं शरीरं योगिना प्रोप्यते। अत्र प्रथमपदोपादानादेवान्यप्रवृत्तेर्द्वितीयादित्वमायाति॥१३॥

भाषार्थः— (लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वम्) आलस्यादि को छोड कर शरीर का हलकापन, ज्वरादि रोगो का अभाव, कर्म करने में चञ्चलता का त्याग शान्ति और धीरज से प्रवृत्ति (वर्ण प्रसादं स्वरसौष्ठवं च) ब्रह्मचर्य और शौचादि के अ

धिक सेवन से आकृति की शुद्धि प्रसन्नता शान्तिभाव का दीखना, सकोचादि के अभाव और मनके शुद्ध होने से स्पष्टता से सम्यक् वाणी स्वर निकलना (गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्प योगप्रवृत्ति प्रथमा वदन्ति) शुद्ध सात्विक अल्प भोजन के सेवन से शरीर के छिद्रो द्वारा शुभ अच्छे गन्ध का निकलना और मूत्र पुरीषादि मलोका कम उत्पन्न होना तथा कम निकलना योगीश्वर लोग इस दशा को योग की पहिली प्रवृत्ति कहते वा योग की प्रथम श्रेणि में प्रवेश होने का लक्षण लघुत्वादि को कहते मानते है॥

भा०— यमनियमादि योगाङ्गो के सेवन में रत पुरुष के शरीर में प्रकट हुए लघुत्वादि चिह्न उस के योग की प्रथम श्रेणि में हुए प्रवेश को बताते हैं और प्रथम श्रेणी में प्रवेश होने पश्चात् ही द्वितीयादि श्रेणि मे प्रवेश हो सकता है। इस प्रकार द्वितीयादि भूमि वा दशा मे ही पूर्व श्लोक में कही योग प्रवृत्ति हो सकती है कि जहा योगाग्निस्वरूप शरीर को योगी प्राप्त कर सकता है। इस मन्त्र से प्रथम पद के कहने से ही अन्य पूर्वोक्त प्रवृत्ति द्वितीयादि श्रेणि में होनी सिद्ध है॥१३॥

यथैव विम्बं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत्सुधातम्।
तद्वात्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थोभवते वीतशोकः॥१४॥

अ०— यथैव विम्बं सुवर्णरजतादिमयं पात्रंशोधनाय मृदयोपलिप्तं यद्वा मालिन्यरूपमृत्तिका युक्तं तत्सुधातं सुधौतं सम्यक् प्रक्षालितं तेजोमयं तेजःस्वरूपं शुद्धं सद्

भ्राजते शोभते यद्वाऽग्नौ ध्मायमानं मलिनं विम्बं यथा भ्राजते तद्वा तद्वत् — [इवार्थेत्र वाशब्दः] इन्द्रियादिसङ्गरहित एको देही देहस्वामी जीव आत्मतत्त्वं स्वीयमेववास्तविकं स्वरूपं परमात्मसद्भावं प्रकर्षेण सूक्ष्मया प्रज्ञया समीक्ष्य वीतशोको निवृत्तशोकः सन् कृतार्थः सिद्धसङ्कल्पो भवते॥

भा०—स्वीय परमात्मरूपस्य साक्षात्कारेणास्य जीवस्य वह्न्यायादि संयोगेन धातूनामिव यदा दुर्वासनादिजन्यं सर्वं मालिन्यमनायासेन सद्य एव निवर्त्तते तदेकोऽद्वैतं स्वात्मतत्वं ध्यानेन पश्यन् कृत कृत्यो जायते॥१४॥

भाषार्थः— (यथैव विम्बं हृदयोपलिप्तम्) जैसे सुवर्ण चांदी आदि धातुओं का पात्र शुद्ध करने के लिये मट्टी से मांजा लिप्त किया वा सामान्य मलिनतारूप मट्टी से युक्त हुआ (तत्तेजोमयं सुधातं भ्राजते) वह अच्छे प्रकार धोनेपर वा अग्नि से धर कर घोंपने से शुद्ध तेजोमय हुआ शोभित होता चिलकने लगता है (तद्वैको देही—आत्मतत्वं प्रसमीक्ष्य वीतशोकः कृतार्थी भवते) उसी के तुल्य इन्द्रयादि के संग से रहित अपने स्वरूप में अवस्थित अकेला जीवात्मा अपने वास्तविक शुद्ध परमात्मा स्वरूप को सूक्ष्म बुद्धि से अच्छे प्रकार समीक्षण करके शोक से रहित कृतार्थ हो जाता है॥

** भा०**— अपने परमात्मा स्वरूप के साक्षात् ठीक जान लेने से दुर्वासनादि सम्बन्धी इस जीवको सब मलिनता जब सुगमता से शीघ्र ही छूट जाती है तब एक अद्वैत अपने आत्मतत्वको ध्यान से देखता हुआ कृतार्थ हो जाता है॥१४॥

यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥१५॥

अ०—जिज्ञासुर्जनोयदेह स्वदेहे दीपोपमेनात्मतत्वेन स्वस्य जीवस्वरूपेण युक्तः रवरूपावस्थो विषयेन्द्रियादिसङ्गव-र्जितो ब्रह्मतत्त्वं ब्रह्मणस्तत्वभावं प्रकर्षेण ध्यानगतः पश्येत्। तदाऽजमजन्मानं ध्रुवमचलं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धमसंसृष्टं देवं दीप्य-मानं स्वीयमीश्वररूपं ज्ञात्वा सर्वदुःखबन्धनैर्मुच्यते॥

भा०—जीवस्यान्तःकरणेऽनेकाः कुवासनापा दुःखबन्धहेतुका अनादिकालीना अहमेव मलिनः पापीत्यादयोऽज्ञानका-रिता ग्रन्थयो विद्यन्ते तासामेव पाशत्वं ताएव च सर्वविधदुःखमूलचिन्ता शोकादीनामुत्पादिकास्तासामात्मदर्शनेन सत्यां निवृत्तौ शोकादयोऽपि निवर्त्तते॥१५॥

भाषार्थः— (यदेह दोषोपमेनात्मतत्वेन युक्तो ब्रह्मतत्त्वम्) जब जिज्ञासु पुरुष अपने शरीरस्थअन्तःकरण में दीपक के तुल्य स्वरूप में अवस्थित अपने जीव स्वरूप से ब्रह्मतत्व को

(प्रपश्येत्) ध्यानावस्थित हो अच्छ प्रकार देखे और ईश्वरको (अजध्रुव सर्वतत्त्वैर्विशुद्ध देव ज्ञात्वा सर्वपाशैर्मुच्यते) अजन्मा अचल और सबपृथिव्यादि स्थूल सूक्ष्म तत्वो से अपरामृष्ट असयुक्त प्रकाशमान अपनेको परमात्मस्वरूप जान के सब दुख बन्धनो से छूट जाता है॥

भा०—जीव के अन्त करणमे अनादि काल से संचित दुख बन्धन की कारण कुवासनारूप कि मै हीमलिन तथा पापी हू इत्यादि अज्ञान से हुई अनेक गाठे विद्यमान है वे ही फासने वाली रस्सी के तुल्य बाधनेवाली तथा वे ही सब दुख मूल चिन्ता शोकादि को उत्पन्न करने वाली है। स्वात्मज्ञान होने से उनकी निवृत्ति होने पर शोकादि भी छूट जाते है।

एषॊह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वोह जातः स उ गर्भे अन्तः।
सएव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सर्वतो मुखः॥१६॥

अ०— एषपूर्वोक्तोदेवो दीप्यमान आत्मा सर्वादिशः प्रदिश्चानुगतो व्याप्तोऽन्तर्गर्भे मातुरुदरमध्ये पूर्व पूर्व जातः सर्गार-म्भे ब्रह्मरूपेण सर्व सृष्टुं स्वयमपि प्रादुर्भवति। सएव जातः सएव च जनिष्यमाणो सर्वारम्भे सएव जीवरूपेण शरीरेषु प्रादु-र्भूतःसएवचाग्रेऽपि प्रादुर्भविष्यति ततोऽन्यःस्वतन्त्रः कोऽपि जीवो नास्ति सर्वप्राणिषु प्रत्यङ्हृदि

जनानभिव्याप्य जीवरूपेण सर्वतोमुखस्तिष्ठति सर्वप्राणिगतानि मुखान्यस्य स सर्वतो मुखः॥

भा०—सर्गारम्भात्पूर्व परमात्मतो भिन्नंन किमप्यासीत्तदनन्तरं सएव सर्वत्र व्याप्तोविधातृरूपेण सर्गारम्भे प्रादुर्भूतः। सएव मातुरुदरे गर्भो भूत्वा जायते। सएव जीवरूपेण जगति जातोजनिष्यते च सर्वप्राणिनां प्रत्यगात्मरूपेण सर्वप्राणिषु तत्तदाकारेणावस्थितः॥१६॥

भाषार्थः— (एषो हदेवः प्रदिशोऽनुसर्वाः) यह पूर्वोक्तप्रकाशस्वरूप आत्मा सबदिशा और प्रदेशाओं में व्याप्त (स उ अन्तर्गर्भे पूर्वो हजातः) वही सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मरूप से सबको रचने के लिये सब से पहिले प्रकट होता है (सएव जातः स जनिष्यमाणः) सृष्टि के आरम्भ में ही परमात्मा जीवरूप से शरीरोंमें प्रकट हुआ और वही आगे होगा उससे भिन्न स्वतन्त्र कोई जीवात्मा नही है। (प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सर्वतोमुखः) वही सब प्राणियों में है ज्ञानशक्ति जिसकी ऐसा सब के हृदय में व्याप्त होकर जीवरूप से सब ओर सब को देखता है॥
में
भा०—सृष्टि के आरम्भ से पहिले पहिले एक परमेश्वर से भिन्न कुछ भी नहीं था तदनन्तर सर्गारम्भ में वही सर्वत्र व्याप्तविधाता रूप से प्रकट हुआ, वही माता के उदर गर्भरूप बनके उत्पन्न होता, और वही संसार में जीवरूप से प्रकट हुआ और आगे होगा। सब प्राणियोके बीच अन्त

रामरूप से विद्यमान उसी २ के आकार से उस २ में अवस्थित है॥

यो देवोऽग्नौयोऽप्सु योविश्वं भुवनमाविवेश।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषुतस्मैदेवाय नमोनमः॥१७॥

अ०—योगाभ्यासवन्नमस्कारादि कमप्यात्मज्ञान साधनमिति दर्शयति-यो देव एकएव नाना रूपेणावस्थित ईश्वरोऽग्नौ योऽप्सु य ओषधीषु यो वनस्पति योऽश्वत्थादिषु तत्तद्रूपेणावस्थितः एवमुपलक्षणमात्रकथनेन यो विश्वं सर्वं भुवनं लोकमावि-वेश तस्मै देवाय नमोनमोऽस्तु॥

भा०—सर्वव्याप्तेश्वराता द्वैताय यो भक्तयापुनःपुनर्नमस्करोति स्वेष्टसिद्धिं च ततो या चते तमेव स्तौति च स्वभावेनैव भक्तवत्सलस्तस्य कल्याणमवश्यं करोतीति भक्त्या नमस्कारादिना प्रसाद्यः। अहमात्मागुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। वसू-नां पावकश्चास्मि स्रोतसामम्मिजाह्नवी। अश्वत्स्थः सर्ववृक्षाणामित्यादिना तत्तद्रूपत्वं दर्शितम्। नमःपदस्य द्विर्वचनमध्यायपू-र्त्यर्थं चापि बोध्यम्॥१७॥

** भाषार्थ**— (योऽग्न्यायोऽप्सुयओषधो यो वनस्पतिषु) जो अग्नि मे जो जलो मे जो ओषधियो—गेहू जौआदि मे और जो वट पीपल आदि वनस्पतियो मे रहता इत्यादि प्रकार से (यो देवोविश्व भूवनमाविवेश) जोदेव ईश्वर सब लोक लोकान्तर ससार भर में प्रविष्ट हो रहा है (तस्मै देवाय नमोनम) उस देव के लिये हम वार २ नमस्कार करते है वा करे अर्थात् अग्नि, जल, ओषधि और पीपल आदि वनस्पति इत्यादि सब में जा उसी २ के रूप से विद्यमान है उस को नमस्कार करे।

भा०— ससारस्थ अग्नि आदि पदार्थों मे जो प्रबल वा अद्भुत शक्ति दीखती है व सब जिसकी सत्ता मे वा नियम मे बद्ध होकर अपना २ काम देते है वही ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। जो पुरुष सर्व व्याप्त ईश्वर को भक्ति के साथ बार बार नमस्कार करता और अपने इष्ट को सिद्धि उससे भागता उसी को स्तुति करता है (स्वभाव से भक्तो का उद्धार करने वाला ईश्वर उसका कल्याण अवश्य करता है इस लिये भक्ति के साथ नमस्कारादि से उसको प्रसन्न करने का उद्योग अवश्य करना चाहिये भगवद्गीता अध्याय १० मे कहा है कि हे अर्जुन! मै सब प्राणिया मे एकात्मा रूप से विद्यमान् हू। वसुओ में अग्रि रूप, नदियों मे गंगा रूप और वृक्षो मे पीपल रूप हू इत्यादि कथन से परमेश्वर का उसे २ रूप होना दिखाया। यहा नम पद को अध्याय की समाप्ति दिखाने के लिये द्वित्व किया है॥१७॥

इति ब्राह्मणसर्वस्वमासिकपत्रसम्पादकेन
भीमसेनशर्मणानिर्मिते श्वेताश्वतरोपनिषद्भाष्ये
द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः॥२॥

अथ तृतीयाऽध्यायारम्भः।

यएको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभिः।
यएवैकउद्भवे सम्भवे च यएतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥१॥

अ०— मत्स्यबन्धनं जालमिवायं संसारः प्राणिबन्धहेतुत्वाज्जालं तस्य स्वामी जालवान्मायोपाधिरेकोऽद्वितीयो न तस्य स्वामित्वेऽन्यः कश्चित्सम्मिलितोऽस्ति। एवं यएक ईशनीभिः साधकतमाभिः स्वशक्तिभिरीशनशीलाभिर्वा—ईशत ईष्टे सर्वं स्ववशे स्थापयति। यएकएवोद्भवे उत्पत्तौ सम्भवे स्थितिकाले च सर्वांल्लोकानीशत ईशनीभिरित्युकानुवाद दार्ढ्यार्थः। (बहु-लं छन्दसि। २४।७३) शपो लुगभावः। ये जनास्तस्यैकत्वंसजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यत्वमीशितृत्वं चैतद्द्वयं तत्त्वतो विदुस्तेऽमृता भवन्ति॥

भा०—यथा मत्स्या जालान्निस्सर्त्तुंन शक्नुवन्त्येवप्राणिनो दुःखाधिके जगति

मग्ना अपि प्रायेण संसारजालान्निस्सर्त्तुमशक्ता भवन्ति। यथा धीवरादिजलवान् जाले न वध्यते तेन मत्स्यानेव बध्नाति तथैवे-श्वरो न बध्यते। यश्च कोऽपि जालस्वामिना मैत्रीं करोति न तं जाले बध्नाति सः। अपि तु बद्धमपि निस्सारयत्येवेति मत्वा जा-लस्वामिप्रसादाय दुःखान्मुमुक्षुणा विशिष्टोद्योगः कार्यः॥

भाषार्थः— (जालवान् य एक ईशनीभिरीशते) मछलियों को पकड़ने के लिये जैसा जाल बनाया जाता वैसे ही प्राणियों के बन्धन का हेतु होने से यह संसार जाल कहाता है उस संसार जाल का स्वामी जालवान् मायोपाधि ईश्वर कहाता, जो इतने बड़े अनन्त जाल वाला अपनी अनन्त शक्तियों द्वारा सब को वश में रखता है (य एवैकवद्भवे सम्भवे च सर्वांल्लो-कानीशत ईशनीभिः) जो एक ही किसी अन्य की सहायता न लेकर उत्पत्ति और स्थिति काल में वा प्रलय करने के समय सबसंसार को अपनी अनन्त शक्तियों से उत्पन्नआदि करता है उस की इच्छा से विरुद्ध तिलमात्र भी उत्पत्ति स्थिति प्रलय नहीं होता (यएतद्विदुस्तेऽमृता भवन्ति) जो मनुष्य उसकी एकता अर्थात् सजातीय विजातीय और स्वगत भेद से रहित होने को और सब स्वामीपन को तत्त्वरूप से ठीक २ जानते हैं वे मुक्त हो जाते हैं॥

**भा०—**जैसे जाल मे फसींमछलियां निकलना चाहती हुई भी निकल नहीं सकतीं फड़फड़ा २ कर उसी में मरजाती हैं। वैसे संसार के असंख्प दुःखों में फसे हुए भी प्राणी संसार

जालसे प्रायः निकल नहीं पाते। जैसे मछली पकड़ने वाले धीमर आदि जाल वाले जाल में स्वयं नहीं बंधते किन्तु उस जाल में मछलियों को ही पकड़ते बांधते हैं। वैसे ईश्वर भी संसार जाल में बद्धनहीं होता और जो कोई इस जाल के स्वामी से मित्रता मेलमिलाप करता है उस को वह जाल में नहीं बांधता किन्तु स्वयं बंधे हुए को भी अपनी कृपा दृष्टि से अवश्य निकाल लेता है। ऐसा मान कर दुःख से छूटने की इच्छा वाले मनुष्य को उचित है कि संसाररूप जाहा के स्वामी को प्रसन्न करने के लिये विशेष उद्योग वा प्रयत्न करे॥१॥

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमांल्लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ्जनांस्तिष्ठति सञ्चुकोपान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः॥२॥

अ०—यो जनान्मनुष्यादीन्संसृज्य सम्यगुत्पाद्य प्रत्यङ् तदन्तःकरणेषु क्षेत्रज्ञरूपेण तिष्ठति तिष्ठन्व्याप्तएव स्थितिकाले विश्वा विश्वानि सर्वाणि भवनानि गोपा रक्षति।अन्तकाले प्रलयावसरे च यः संचुकोप संकुपितः सर्वं संहरति। एवं य इमां-ल्लोकानीशनीभिः स्वीयमायाशक्तिभिरीशत ईष्टे हि यतो बहुदेवात्मकोऽपि स एको रुद्रः सर्गस्थि-

तिलयावसरेषु जालबद्धानां रोदयितैकएवास्ति तस्मादेव पूर्वजा ज्ञानिनो योगिनश्चद्वितीयायन तस्थुर्नोपतस्थिरे॥

भा०— सर्गस्थितिलयरूपकार्यत्रयस्य ब्रह्मादयस्त्रयः कर्त्तार उपाधिभेदेन भिन्ना अपि वास्तवेन रूपेणैकस्यैव ब्रह्मादीनि नामान्तराणि रूपान्तराणि च सन्ति। इह मुण्डो भवेह जटिलो भवेह शिखीभवेतिवदेकस्यैव नामानि रूपाणि च बहूनि भव-न्ति। सम्प्रत्यपि यउत्पद्यन्ते ये लब्धायुष्काः सुखं जीवन्ति ये च म्रियन्ते तेषां सर्वेषां प्रात्यहिकसर्गस्थितिलयानामप्यतीतानाग-तयोरिवैकएव ब्रह्मविष्णुशिवात्मकं प्रधानं कारणमिति ये सम्यग्बुध्यन्ते ते च तमेवैकं सोपाधिकैर्बहुभिर्नामरूपैरप्युपासते।यतः पूर्वैरपि मुमुक्षुभिस्तस्य सर्वाधीशस्यैकस्यैवोपासनमभिमतमतोऽस्माभिरपि तथैवानुष्ठेयम्॥२॥

भाषार्थः— (यो जनान् ससृज्यप्रत्यङ्तिष्ठति) जो मनुष्यों को सम्यक्उत्पन्न करके उन के भीतर अन्तःकरणो में क्षेत्रज्ञ नाम रूप से ठहरा और व्याप्त रहता हुआ हो जगत् के स्थिति काल में (विश्वा भुवनानि गोपाः) सब लोकों की रक्षा करता है (अन्तकाले संचुकोप) प्रलय का समय आते

ही जो सम्यक् कुपित हुआ सब का संहार कर देता है। इस प्रकार जो (इमांल्लोकानीशनीभिरीशते) इन सब लोकों को अपनी अनन्त माया शक्तियों से उत्पत्ति स्थितिप्रलय करता हुआ स्वाधीन रखता है (हि एको रुद्रः) जिस कारण संसार जाल में फसे हुए सब प्राणियों को रुलाने वाला रुद्र अनेक ब्रह्मा विष्णु आदि देवता नाम रूप होता हुआ भीएक ही है इसी कारण पूर्वज ज्ञानी योगी लोगों ने भी (द्वितीयाय न तस्थुः) अन्य किसी द्वितीय की भक्ति उपासना नही की किन्तु उस एक की ही उपासना सब करते आये हैं।

भा०—सृष्टि स्थिति और प्रलयरूप तीन कार्यों के करने वाले ब्रह्मा विष्णु रुद्र नामक तीन कर्त्ता उपाधि भेद से नाम रूपमात्र भिन्न होने पर भी वास्तविक स्वरूप से वे सब एक के ही ब्रह्मादि तीन नाम तथा रूप है। जैसे कोई कहे कि हे देवदत्त तू यहां मुण्ड हो यहां जटिल हो और यहा केवल शिखा धारी होना। इसी प्रकार एक के ही बहुत नाम तथा रूप हो जाते हैं। वर्तमान समय में भी जो उत्पन्न होते जो उत्तम दशा में जीवित रहते और जो मरतेजाते हैं उन सबके नित्यहोने वाले उत्पत्ति स्थिति प्रलयों का भी भूत भविष्यत् काल के तुल्य ब्रह्मविष्णुशिवात्मक एक ही प्रधान कारण है, जो लोग ऐसा ठीक २ जानते हैं वे देवता रूप सोपाधिक अनेक नाम रूपों से भी उसी एक की उपासना करते हैं। क्योंकि पूर्वज मुमुक्षु लोगों ने भी उसी एक सर्वाधीश की उपासना स्वीकार की है इस से हम को भी वैसा ही करना सचिन है॥२॥

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।

संबाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः॥३॥

अ०— तस्यै वा द्वितीयस्य रुद्रस्य विराडात्मनाऽवस्थितिं तत्स्रष्टृत्वं च दर्शयति— सर्वत्र व्याप्त्या सर्वशक्तिमत्तया च विश्वतः सर्वप्राणिगतानि चक्षूंषि दर्शनशक्तयो यस्य विश्वतः सर्वप्राणिगतं मुखं भक्षणभाषणरूपा शक्तिरस्य विश्वतः सर्वप्रा-णिनां बाहवः स्तम्भनशक्तयो यस्यैवं विश्वतः सर्वप्राणिनां पादा देशान्तरप्राप्तिशक्तयो यस्य स तादृशः सर्व शक्तिर्देवो द्योत-नशील एकएवेश्वरोद्यावाभूमी अग्नीषोमीयं दैवासुरं सप्रकाशमप्रकाशंवेत्यादिरूपं द्विविधं द्यावापृथिव्यात्मकं सर्गं जनयन् प्रादुर्भावयन् बाहुभ्यां बलद्वयेन दैवबलेनासुरबलेन च [बाहुर्वै बलमिति ब्राह्मणम्] यद्वा धर्माधर्माभ्यां सन्धमति संगमयति पतत्रैः पतनशीलैः संसरणस्वभावैः परिवृत्तिधर्मकैः पञ्चभूतैश्च विश्वा भूतानि संगमयति संयोजयति। धमतिर्गतिकर्मा निघण्टौ २।१४। पठितः स चात्रण्यर्थः॥

** भा०**—विश्वतश्चक्षुरित्यादिकथनेन तस्य सर्वशक्तिमत्वमत्र प्रतिपादितम्। एकएव चिदात्मा सर्वमनुष्यादिप्राणिष्ववस्थि-तोऽन्तःकरणेषु स्वचैतन्येन दर्शनादिशक्तिं जनयति तस्मात् सा विश्वतश्चक्षुरित्यादिरूपेण कथ्यते। यथा कायेन जलादिकं क्षोभयेदेवं यो भोग्यभोक्तृरूपस्त्रीपुरुषादिविविधंशक्तिद्वयेन सर्वमविरतमविश्रान्तं निरन्तरं भ्रामयति यन्त्रारूढमिव। तस्मा-द्यस्य स्वाभाविक बलेनैव सर्वो लोकलोकान्तरोऽनन्तोऽपि सर्गोऽविरामेण भ्राम्यति सकियच्छक्तिरिति ध्येयम्। शुक्लयजुषि १७।१९ मन्त्रोऽयं द्रष्टव्यः॥३॥

भाषार्थः—उसी एक अद्वैत रुद्र की विराट्रूप से स्थिति और विराट् रूप की रचना करने वाला भी वही है यह दिखाते हैं। सर्वत्र व्याप्त और सर्वशक्तिमान् होने से (विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः) स्थिति समय में सब प्राणियो में विद्यमान् चक्षुइ-न्द्रिय हैं जिस के अर्थात् सबको सब ओर भागे पीछे भीतर बाहर देखने की जिसमें शक्ति है तथा सब प्राणि शरीरों में भोजन और भाषण करने की शक्ति जिसकी है वा प्रलय के समय सब ओर से जिस में सबके निगल जाने की शक्ति है (विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्) स्थिति काल में सब प्राणियों के शरीरगत हाथ पगों से जो सर्वत्र काम कर रहा है अथवा अनन्त ब्रह्माण्ड को थांमने पकडने धारणा

करने की जिस को शक्ति तथा दूर से भी दूर देशान्तर में पहुंचने की शक्ति भी जिसमें सब ओर से विद्यमान है। वह ऐसा सर्वशक्तिमान् (एको देवो द्यावाभूमी जनयन्) एक ही देव ईश्वर अग्नि-सोम, देव-असुर वा प्रकाश अप्रकाश इत्यादि रूप दो २ प्रकार की आकाश पृथिव्यन्तर्गत सृष्टिको प्रकट करता हुआ (बाहुभ्यां संघमति) देव बल और असुरबल इस दो प्रकार के बल से अथवा धर्मधर्मरूप दो भुजाओं से प्राणियों को संयुक्त करता और (पतत्रैःसम्) चलायमान स्वभाव वाले परिवर्तन शील पांच भूतों से सब धराधर को संयुक्त करता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में वाहु शब्द का अर्थ बल लिया गया है [दोही बल मुख्य हैं धन वलस्वतन्त्र नहीं किन्तु पराधीन है जिसको बुद्धिबल वा बाहु बल दोनों होते वा एक होता उसी के पास धन भी आजाता है]॥

भा०—(विश्वतश्चक्षुः) इत्यादि कथन से उस ईश्वर का सर्वशक्तिमान् सब में व्याप्त होना सिद्ध किया है। एक ही चेतना-त्मा सब मनुष्यादि प्राणियों में अवस्थित रहता हुआ सब के अन्तःकरणों में अपनी चेतनता से दर्शनादि शक्ति प्रकट कर-ता है इसी कारण वह (विश्वतश्चक्षुः) इत्यादि नाम वाला हुआ है। जैसे कोई मनुष्य दोनों बाहु में बल पूर्वक जल आदि को क्षोभित करे वैसे जो भोग्य भोक्तारूप स्त्री पुरुषादि दो २ शक्तियों से सब संसारको बीचमें विश्राम न लेकर वा विराम न करके निरन्तर चक्र पर चढ़े हुए के तुल्य भ्रमा रहा है। इस कारण जिस के स्वाभाविक बल से ही सब लोक लोकान्तर अनन्त संसार भी निरन्तर भ्रमण कर रहा है कभी कोई ब्रह्मचक्र के वेग से निकल पाता है वह कैसी वा कितनीशक्ति वाला हो सकता है इस पर ध्यान

देना चाहिये। शुक्ल यजुर्वेद १७। १९ मे यह वेद का मन्त्र है ज्यो का त्यो यहा लिखा गया जानो॥३॥

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः।
हिरण्यगर्भं जनयामास पूर्वं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥४॥

अ०— क्षेत्रज्ञरूपेणावस्थितस्य तस्यैव सृष्टिप्रक्रियां प्रतिपादयन्मन्त्रद्रष्टर्षिः स्वाभिप्रेतं प्रार्थयते—इन्द्रादिदेवानां प्रभव उत्पत्तिहेतुरुद्भवः विभूतियोगहेतुश्च विश्वस्य सर्वस्याधिपोऽधिष्ठाता पालयिता वा रुद्रः सर्वेषां शास्ता रोदयिता महर्षिःसर्वज्ञो निरतिशज्ञानी यश्च पूर्व सर्वारम्भे हिरण्यगर्भ हितकरं रमणीयामत्युज्वलं ज्ञानं गर्भेऽन्तर्मध्ये यस्य तादृशं स्वस्यैवरूपं ब्रह्माणं पूर्व सर्गादौ जनयामास सर्व स्रष्टुं प्रकटीकरोति स ईश्वरः शुभया बुद्ध्या नोऽस्मान् संयुनक्तु येन निःश्रेयसमाजो वयं स्या-मेति प्रार्थनां कुर्म॥

भा०— यथा पुस्तकादीनां निर्माणं प्रकाशनमन्येषु प्रवृत्तिश्चैकेनैव क्रियते तथास्य

भौतिकस्य दैविकस्य च सर्वस्य जगत उत्पत्तिं प्रवृत्तिं च यएकएव ब्रह्मनामरूपेण स्वयमाविर्भूय करोति तस्मादेव स सर्वा-ध्यक्षः सर्वशास्ता सर्वज्ञश्चास्ति। यथा जलेनैव महती पिपासा निवर्त्तते नान्येन साधारणोपायेनैवं सर्वाधीशसर्वज्ञप्रार्थनोपासन-ध्यानादिनैव प्राणिनो महद्दुःखं निवर्त्तते॥४॥

भाषार्थः— पूर्व मन्त्र में कहे क्षेत्र रूप से सब प्राणियों में विद्यमान उसी परमेश्वर की सृष्टि प्रक्रिया दिखाते हुए मन्त्र द्रष्टा ऋषि अपने अभीष्ट फल प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं—(यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च) जो इन्द्रादि देवताओं की उत्पत्ति का और उन २ के महत्व नाम अष्टसिद्धि प्राप्ति का हेतु अर्थात् जो देवों देवत्त्वका भी कारण है (विश्वाधिपो रुद्रोमहर्षिः) जो सब जगत् का अधिष्ठाता वा रक्षक सर्वोपरि शासन कर्ता और महान् ऋषि नाम ज्ञानी सर्वज्ञ ज्ञानस्वरूप है। (पूर्वं हिरण्य-गर्भं जनयामास) पहिले सृष्टि के प्रारम्भ में अर्थात् प्रत्येक कल्प में सब के हितकारी रमणीक अत्युज्ज्वल ज्ञान है भीतर जिसके ऐसे अपने ही स्वरूप को को सबसृष्टि रचने के लिये ब्रह्म रूप से प्रकट किया और करता है (स नः शुभया बुद्ध्या संयुनक्तु) वह ईश्वर हम लोगों को अच्छी कल्याणकारिणीबुद्धि से संयुक्त करे जिस से हम निःश्रेयस सुख के भागी हों ऐसी प्रार्थना करते हैं॥

भा०—जैसे पुस्तकादि का बनाना और प्रवृत्तिनाम सर्वत्र प्रकाशित करना ये दोनों काम जहां एक ही करता वहीं उन पुस्तकादि पर उसका पूर्ण अधिकार होता वैसे भूतनाम

तत्व और देवनाम शक्तिरूप सूक्ष्म तत्रों सम्बन्धो सब जगत् की उत्पत्ति और उन २ कार्यों में प्रवृत्ति जो एक ही ब्रह्मा नाम रूप से स्वयं प्रकट होकर करता है इसी सेवह सर्वाध्यक्ष सबका शासक और सर्वज्ञ है। जैसे जलसे ही बढ़ी हुई व्यास शान्त वा निवृत्त होती है किन्तु अन्य किसी साधारण उपाय से नहीं इसी प्रकार सर्वक्ष की प्रार्थना उपासना और ध्यानादि से ही जन्म मरणादि सम्बन्धी महान् दुःख निवृत्त हो सकता है॥४॥

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥५॥

** अ०**—पुनरपि तस्य स्वरूपं दर्शयन्मन्त्रद्वयेनाभीष्टप्रार्थनां दर्शयति—हे गिरिशन्त! गिरौ पर्वते मेघे वा विद्यमानः शं सुखं तनोति भक्तमुपासकं सुखयति तत्सम्बुद्धौ, मिथ्याभाषिणां रोदयितः हे रुद्र! ते तव या शिवा सुखरूपा सुखप्रदा शान्ताऽ-विद्यातत्कार्यविनिर्मुक्ता सच्चिदानन्दब्रह्मस्वरूपाऽघोराऽभयप्रदा सर्वभयापहारिणो चन्द्रविम्बवदानन्दप्रदा पापेतरस्य पुण्-यस्यैव प्रकाशिनी स्मरणमात्रेणाद्यनाशिनी पुण्यमेवोपासकाय ददाति न

कदापि पापफलमिति तनूस्तव स्वरूपं तया शन्तमयाऽतिशयेन पूर्णानन्दस्वरूपया तनुवा तन्वा स्वरूपेण नोस्मानभिचा-कशीहि—अभिपश्य कृपादृष्टिं विधेहि॥५॥

यामिषुं गिरिशन्त! हस्ते विभर्ष्यस्तवे।
शिवां गिरित्र! तां कुरु मा

हि

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732533873Screenshot2024-11-23164651.png”/>सीः पुरुषं जगत्॥६॥

अ०— हे गिरिशन्त रुद्र! यामिषुं पापफलस्य दुःखस्य हेतुमनिष्टफलप्रदानशक्तिं पापष्वस्तवेक्षेप्तुं हस्ते विभर्षि धारय-सि। हे गिरित्र! गिरितो धर्मज्ञानप्रकाशावरकात्तमोरूपपापात्त्रातः! तामिषु शिवां शान्तां कुरु शान्त्या दुःखभोगं समाप्य त्वदुपासनेन वयं सुखिनः स्याम। जगज्जङ्गमं पुरुषं पुरुषत्वप्रधानं विशिष्टधर्म्यकार्यसाधनक्षमं कमपि मा हिंसीर्मा बधीः॥

भा०— स्तुतिपुरस्सरा प्रार्थनाऽत्र प्रधानास्ति। रुद्रनामरूपात्मकेश्वरस्तुतिप्रार्थनाभ्यां ये पुण्यरूपाः संस्कारा हृद्याविर्भव-न्ति तैः पूर्वसञ्चिता दुःखहेतवः कुसंस्कारास्तिरो-

भूयन्ते शिथिलीक्रियन्ते। द्वयेऽपि संस्कारा ईश्वराधीनाः पापसंस्काराश्च शस्त्राणीव दुःखप्रदाः। यस्य कल्याणमयं मङ्गलमयं सर्वभयापहं पुण्योदयरूपं च निरतिशयं स्वरूपं तदाश्रयेणैव सूर्योदये महत्तमइव सर्वः कुवासनारूपी हार्दः पापपुञ्जः सद्य-श्छिद्यते तस्यापि निरतिशयशुद्धज्ञानप्रकाशस्य परेशधृतस्य ज्ञानतमश्छेदने शस्त्रत्वं बोध्यम्। यथायथा सर्वाधीशस्यप्रार्थनां स्तुतिमुपासनां च चेतसा सम्यक् करोति तथा तथा हृदि शुद्धो ज्ञानप्रकाशो वृद्धिंगतो भवति। तस्मात्परमकल्याणसाधनमे-तदिति ज्ञात्वा सुज्ञेनानुष्ठेयम्। शुक्लयजुष्यपीमौमन्त्रौ द्रष्टव्यौ॥

अ० १६।मं०२।३॥५।६॥

** भाषार्थः**—फिर भी उन्हीं रुद्र भगवान् का स्वरूप वर्णन करते हुये दो मन्त्रो से प्रार्थना दिखाते हैं है (गिरशन्त ते या शिवाऽघोराऽपापकाशिनी तनूः) गिरि नाम पर्वत वा मेघ में विद्यमान रहते हुये उपासक मनुष्यों के लिये शं नाम कल्याण को विस्तृत करने वाले वा सत्यभाषणशील भक्त उपासक को सुखी रखने वाले तथा मिथ्यावादी वा वेदविरोधियों को रुलाने वाले रुद्र नामरूप ईश्वर! तुम्हारा जो सुखरूप सुखदाता शान्त अविद्या तथा माया जन्य कार्य के दोषोंसे पृथक् सच्चिदानन्द ब्रह्मरूप निर्भयता पहुंचाने वा सब प्रकार के भय

को हरने वाला तथा चन्द्रमा के तुल्य शान्ति सुख देने वाला और पाप से सर्वथा रहित निर्दोष पुण्यका ही प्रकाशक उपा-सक के लिये पुण्यको ही देने वाला किन्तु कभी पाप में न गिराने वाला स्मरणमात्रकरने से पाप नाशक शरीर रूप है (तथा शन्तमया तन्वा) उस अत्यन्त कल्याणमय पूर्ण आनन्द स्वरूप सुखदायी अपने शरीर से (नोऽभिचाकशीह) हम लोगों का देखिये हम पर कृपादृष्टि कीजिये॥

भाषार्थः— हे (गिरिशन्त!) पर्वत वा मेघ में रहते हुये भक्तको सुखी रखने वाले रुद्रनामरूप ईश्वर।(यामिषुमस्तवे हस्ते विभर्षि) जिस दुःख के हेतु अग्निष्टपाप के फल देनेकी शक्तिरूप शस्त्रको पापियों पर फेंकने के लिये हाथमें धारण करते हो। हे (गिरित्र) धर्म और ज्ञान के प्रकाशको ढापने वाले वद्दलके समान अज्ञानान्धकाररूप पाप से बचानेवाले ईश्वर।(तां शिवां कुरु) उस शस्त्रशक्ति को शान्त सुखमय करो जिससे हमलोग शान्ति के साथ दुःखभोग को समाप्तकरआपकी उपासना से सुखी हों और (जगत्पुरुषं मा हि

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732533873Screenshot2024-11-23164651.png"/>सीः) धर्मानुकूल विशेष कार्य साधने में समर्थ पुरुषार्थी सचेत मनुष्यादि किसी को भी मत मारो मत बधो॥

भा०—स्तुतिपूर्वक प्रार्थना करना इन दोनों मन्त्रों में प्रधान’ है। रुद्र नाम रूपवाले ईश्वर की स्तुति प्रार्थना के द्वारी जो पुण्य पवित्र स्वरूप संस्कार हृदय मेंपुण्य प्रकट होते है उनसे पूर्वकाल के संचित दुःखों के हेतु कुसंस्कार पाप तिरो होते दव जाते वा शिथिल हो जाते हैं। अच्छे बुरे दोनों प्रकार के संस्काररूप पाप पुण्य फल भोगने में ईश्वराधीन रहते उनमें पाप के संस्कार शस्त्रो के समान हृदय में दुःखोत्पादक होते हैं। जिस का कल्याणकारी मङ्गलमय सब भयों से बचाने वाला निरतिशय पुण्य सूर्य कासा उदय ही स्वरूप है उस रुद्र भगवान् का शरणलेने से

ही सूर्योदय होते ही महान् अन्धकारके तुल्यअब कुवासना रूप हृदय का पाप समूह शीघ्र ही नष्ट छिन्न भिन्न हो जाना हे ईश्वर में रहने वाला अत्यन्त शुद्ध वह ज्ञान प्रकाश भी अज्ञानरूप शत्रु के छेदन के लिये प्रबल शस्त्र मानना चाहिये सर्वा-धीश की स्तुति प्रार्थना उपासना को जैसा२ सम्यक् मन लगा के मनुष्य करता है वैसा २ उम के हृदय में शुद्ध ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है। इसी लिये स्तुति आदि परमकल्याण का साधन है यह जान कर विचार शील को अवश्य ऐसा ही करना उचित है। शुक्ल यजुर्वेद अ० ९६ में दूसरे तीसरे ये दोनो मन्त्र हैं॥५।६॥

ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारमीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति॥७॥

अ० पुनस्तस्यैव कारणात्मनाऽवस्थितिं प्रदर्शयन् ज्ञानान्मोक्षमाह—ततो जीवात्मयुक्ता ज्जगतः परं कारणरूपेण पृथग्भूतं यद्वा ततस्माज्जगदात्मनो विराजः परं बृहन्तमत्यन्तं वृद्धं विधातुरपेक्षयापि वृद्धेः पराकाष्ठां प्राप्तंसर्वभूतेषु सर्वचराचरेषु गूढं तत्तद्रूपेणैव यथानिकायं यस्य वरतुनो यादृश्याकृतिस्तस्यां तद्रूपेणैव व्याप्तमन्तरवस्थित विश्वस्य सर्व-

स्येकमेव परिवेष्टितारं तमेकमेव सर्वं ब्रह्माण्डंस्वस्यान्तः कृत्वा स्वात्मना सर्वं सर्वतो व्याप्यावस्थितमीशं यथावस्थितं ज्ञात्वा-ऽमृता जन्ममरणरहिता भवन्ति॥

भा०— ज्ञानी जनो देवमनुष्यादिसर्वप्राण्यपेक्षया मायापेक्षया च शुद्धममलं क्वाप्यसंसक्तं व्याप्तमनन्तं सर्वान्तर्यान्तर्या-मिणमखिलब्रह्माण्डं स्वान्तः कृत्वाऽवस्थितं स्वयमेव वास्तवेनेदृशं परमात्मरूपं ज्ञात्वा मुक्तो भवितुमर्हति नान्यथा॥७॥

भाषार्थः—फिर उसी ईश्वर की कारणरूप से अवस्थिति दिखाते हुए ज्ञान से मोक्ष होना कहते हैं—(ततः परं यथा निकायं सवभूतेषु गूढं विश्वैकं परिवेष्टितारम्) उस जीव सहितजगत् से वा जगत् रूप विराट् से परे वस्तु की जैसी आकृति वा जिस का जैसा शरीर है उसमें उसी २ के रूप से व्याप्त सबके भीतर स्थित सब को सब ओर से आच्छादित करने अर्थात् अपने भीतर रखने वाले (बृहन्तं तमीश ज्ञात्वा) ब्रह्मादि देवों से भी अत्यन्त बड़े बड़प्पन को पराकाष्ठा (हद्द) को प्राप्त हुए उस ईश्वर ज्यों का त्यों जान कर (अमृता भवन्ति) जन्म मरणरहित मुक्त हो जाते हैं॥

** भा०**—देव मनुष्यादि प्राणी और जडात्मक मायाकीअपेक्षा अति शुद्ध निर्मल, किसी में लिप्तन होने वाले, व्याप्त अन-न्त सबके अन्तःकरण में विद्यमान्, सबब्रह्माण्डको अपने भीतर करके ठहरे हुए वास्तव में अपने आप को ही ऐसे उक्त

परमात्मरूप जानके ज्ञानीमनुष्य मुक्त हो सकता है अन्यथा नहीं॥७॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय॥८॥

अ०—इदानीमुक्तमर्थं द्रढयितुं मन्त्रदृगनुभवं दर्शयित्वा उद्वैतात्मतत्त्वज्ञानादेव मोक्षो नान्यथेति दर्शयति अहं मन्त्रद्रष्टा—एतंप्रत्यगात्मरूपेण सर्वान्तःस्थं महान्तं सर्वात्मकत्वादादित्यवर्णं प्रकाशमयं तमशोऽविद्याऽज्ञानासर्वथैव परस्तादतिदूर-मन्धकारराहित्यस्य काष्ठां प्राप्तं [आदित्यप्रकाशाव्यवच्छेदार्थमिदं मेघादिनाऽऽच्छाद्यते सूर्यप्रकाशो न तथाऽयम्] पुरुषं पूर्णं वेद जानामि। तमेव पुरुषं विदित्वा मृत्युमत्येति—अतिक्रामति मृत्युस्तं नाक्रामति मृत्युं जयतीत्यर्थः। अयनाय निरन्तरं शा-न्त्या स्थित्यर्थं परमपदावाप्तये।ब्रह्म चक्रेण यद्भ्रमणं तत्समाप्तयेनान्यः कश्चिदपि, पन्था मार्गो लोके वेदे वा विद्यते॥

** भा०**—शुक्लयजुषि - अ० ३१। १८अयं मन्त्रः। अयमाशयः—यदा कदापि येन केनापि यत्रकुत्रापि यादृशं यावच्च शा-न्त्या स्थैर्य सुखं चावाप्यते तदा तत्र तेन प्रत्यगात्माभिमुखतया शारीरात्मज्ञानेनैव च कालत्रयेऽपि तावत्सुखंस्थैर्यं चावाप्तुं शक्यते। यत्र यादृशगुणाधिक्यं ततएव तल्लाभसम्भवात्। निरतिशयमहत्त्वादिविशिष्टशारीरसर्वज्ञेश्वरविज्ञानेनैवागाधसंसा-रार्णवोर्मिषुनिमज्जद्भिः पारगमनायोद्योगः कार्यः शान्त्या सुखेन स्थित्यैनास्त्यन्यः कश्चिदुपायइति॥८॥

भाषार्थः—अबपूर्वोक्त अर्थ को दृढ करने के लिये मन्त्रद्रष्टा ऋषि का अनुभव दिखाके अद्वैत अपने से अभिन्न आत्म-तत्त्वकेज्ञानसे मोक्ष होता है अन्यथा नही यह दिखाते हैं (अहमेतं महान्तमात्यिवर्णतमसः परस्तात्पुरुष वेद) मै मन्त्रद्रष्टा इस जीवात्मरूप से सब के भीतर शरीर में स्थित सर्वात्मक होने से महान् सूर्य के तुल्य प्रकाशमय तमोगुण रूप अविद्या-न्धकार से सर्वथाअयन्त दूर [अन्धकार के अभाव की जहां सीमाहो जाती है उस दशामें स्थित तन से परे कहने से जता-या हैकि मेघादि से सूर्य का आच्छादन होता किन्तु उस को आच्छादित करने वाला कोई नही ऐसे] पूर्ण व्याप्त पुरुष परमेश्वरको जानता हूं (तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति) उसी पुरुष को जान कर जीव मृत्यु को जीत सकता है (अयनाय

नान्यः पन्थाविद्यते) शान्ति के साथ निरुपद्रव ठहरने का स्थान प्राप्त करने के लिये अर्थात् परम पद प्राप्ति के लिये अन्य कोई मार्ग नहीं है अर्थात् ब्रह्मचक्रके साथ जो अनादि काल से जीव भ्रमण कर रहा है उस की समाप्ति अन्य किसीद्वारा नहीं होती केवल एक ईश्वर को जानके ही अत्यन्त शान्ति और सुख में स्थिर हो सकता है॥

भा०—शुक्ल यजुर्वेद अ० ३१ में यह अठारहवां मन्त्र है। इस मन्त्रका अभिप्राय यह है कि जब कभी जहां कहीं जिस किसी को जैसा कुछ स्थिर शान्ति वा स्थिर निरुपद्रव निरन्तर सुख मिला है मिलेगा वा मिल सकता है तब तहां तिस को तैसा सुख वा शान्ति स्वशरीर में स्थित ईश्वर की ओर तत्परता से वा उस जीवको नित्य शुद्ध सच्चिदानन्द मुक्त स्वभाव जाननेसे ही मिला है मिलेगा वा मिल सकता है। जिस वस्तु में जैसा गुण वा शक्ति विशेष कर होती उसकी प्राप्ति वही से हो सकती है प्यास तीनों कालमें जल से ही दूर हो सकती है अग्नि से कभी नहीं। इस लिये जिस में असीम महत्त्व वा सत्यप्रकाशरूप सुखादि गुण हैं उस शान्तिमय शारीर ईश्वर के विशेष ज्ञान से हीअगाध संसारसागर की भयङ्कर तरङ्गों मेंडूबते हुओं को पार होने के लिये उद्योग करना चाहिये शान्ति वा सुख से स्थिति होने के लिये अन्य कोई उपाय नहीं है॥८॥

यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्तिकिञ्चित्॥ वृक्षइव स्तब्धो दिवि

तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥९॥

अ०— कुतस्तमेव विदित्वामृत्युमत्येतीत्युच्यते यस्माच्छारीरात्पुरुषात्परं प्रकृष्टमपरं सांसारिकं पारमार्थिकं वा तद्भिन्नं किमपि नास्ति न यस्मादणीयः सूक्ष्मतरं न च ज्यायो महत्तरं किमप्यस्ति। अर्थात्परोऽपरोऽणीयान् ज्यायांश्चसर्वात्मकः सए-वास्ति। यश्चैकएवदिवि प्रकाशानन्दमयेस्वेमहिम्नि स्वस्वरूपे वा वृक्षइव स्तब्धोऽचलस्तिष्ठति तेन पुरुषेण पूर्णेन सर्वमिदं जगत्पूर्ण व्याप्तमर्थाद्यथा सूत्रैरोतप्रोतैः पूर्णः पटस्तस्मिन्सूत्रादन्यत्किमपि नास्ति तथा न शारीरेणात्मना पूर्णंचराचरं जगद-तोऽस्मिन्नामेतत् किमपि नास्ति। यस्मादीदृशस्तस्मात्तमेवाद्वितीयं पुरुषं ज्ञात्वा मृत्युमत्येतीति पूर्वपद्येन सम्बन्धोयोज्यः।

भा०— यत्रोत्कर्षादेः काष्ठाप्राप्तिः सएवेश्वरस्तादृशं स्वात्मानं जानन्नेव नित्यःशुद्धो मुक्तोऽनादिरनन्तोऽचलः कूटस्थः सर्व-शक्तिः सर्वनियन्ता सर्वज्ञः सनातनः स्वयमपि सम्भवतितस्यैव नित्यमुक्तस्यबोधो मोक्षहेतुः॥९॥

भाषार्थ :—किस कारण से उसी को जानकर मोक्ष हो सकता है सो कहते हैं—(यस्मात्परमपरं किञ्चिन्नास्ति) जिस शारीर आत्मा से अधिक उत्तम संसार वा परमार्थ का अन्य कोई पदार्थ नहीं है (यस्माजाणीयो न ज्यायोऽस्ति किञ्चित्) जिस से अधिक सूक्ष्म वा जिस से अधिक बढ़ा और कुछ नहीं जो सब सूक्ष्मोंसे सूक्ष्मबड़ों से बड़ा है अर्थात् पर अपर अति छोटा और अति बढ़ा वही सर्वात्मक सर्वमय एक शरीरस्थ आत्मा है (एको दिवि वृक्षइव स्तञ्चस्तिष्ठति) जो एक ही अपने प्रकाशानन्दमय स्वरूप या महिमा में सदा वृक्षके तुल्य अचल हुआ ठहरा हुआ है (तेन पुरुषेण सर्वमिदं पूर्णम्) उस सब में पूर्ण व्याप्त पुरुष से यह सब जगत् पूर्ण है अर्थात् सब में ईश्वर भरपूर हो रहा है अर्थात् जैसे ताना वानारूप सूत्रों से हो वस्त्र भरा पूरा है उसमेसूत भिन्न कुछ नहीं वैसे इस शरीरस्थआत्मा से चराचर जगत् पूर्ण है इस में आत्मासे भिन्न कुछ नहीं है इसी कारण उस एक अद्वैत ईश्वर को जान कर ज्ञानी मुक्त हो सकता है यह पूर्व मन्त्र के साथ इस का सम्बन्ध जानो।

भा०— जिस में उत्तमतादि की असीमता (हद्द) है वही ईश्वर होता वा ठहरता है अपने आत्म स्वरूप को वैसा जानता हुआ ही ज्ञानी पुरुष ही नित्य शुद्ध मुक्त, अनादि, अनन्त अचल कूटस्थसर्वशक्तिमान् सर्व नियन्ता सर्वज्ञ और सनातन स्वयं भी हो सकता है उसी नित्य मुक्त आत्मा का जानना ही मोक्ष का हेतु है॥९॥

ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति॥१०॥

अ०—तत इदं पदवाच्याज्जगत उत्तरं सूक्ष्मं जगत उपादानं प्रधानं ततोऽप्यतिशयेन यदुत्तरं तदुत्तरतरं तच्चारूपं रूपा-दिगुणरहित मनामयमाध्यात्मिकाद्यखिलतापविहीनं ये जनाःस्वाऽत्मन उत्तरतरमरूपं तापत्रयरहितं वास्तवं स्त्ररूपमेतद्वि-दुर्जानन्ति ते अमृता मुक्ताभवन्ति। अथेतरेतथा न जानन्ति दुःखमेवापियन्ति लभन्ते॥

भा०—लोकेऽपि यःस्वस्य सुखित्वकारणानि सम्यग् वस्तुतो वेत्ति स तथैव कुर्वाणः सुखं लभते यश्च न वेत्ति स दुःखमेवा-प्नोति॥१०॥

भाषार्थः— (ततो यदुत्तरतरम्) उस पूर्वोक्त इदं पदवाच्य स्थूल जगत् से उत्तर नाम परे जगत् का सूक्ष्म कारण प्रकृति वा माया है इससे भी जो उत्तर नाम परे है (तदरूपमनामयम् वह रूपादि गुणों और सब आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक दुःख वा उपद्रवों से रहित है (य एतद्विदुस्मृता भवन्ति) जो लोग त्रिविध दुःखों से रहित अरूप सब से परे अपने वास्तविक इस स्वरूप को जानते हैं वे अमृत नाम मुक्त हो जाते (अथेतरेदुःखमेवापि यन्ति) और जो लोग वैसा नहीं जानते वे दुःख को ही प्राप्त होते दुःखसागर में ही डूबते हैं॥

भा०— लोक में भी जो अपने सुखी होने के कारण को सम्यक् रीति से वास्तव में जानता है वह वैसा ही करता

हुआ सुखको प्राप्त कर सकता है और जो सुख प्राप्तिके मार्ग को जैसा वा जितना नही जानता वहवैसा वा उतना ही दुःख पाता है॥१०॥

सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगतः शिवः॥११॥

अ०—संप्रति तस्यैव सर्वात्मकत्वं दर्शयति सर्वेषु प्राण्यप्राणिषु मुखशिरोग्रीवासंबद्धभाषणदर्शनेक्षणनिगरणजीवनशक्त-योऽस्य तादृशः सर्वप्राणिनां गुहायां बुद्धौ शेते व्याप्तस्तिष्ठति, श्रीयशोवीर्यज्ञानवैराग्यैश्वर्याणि भगपदवाच्यानि यत्र निरतिश-यानि विद्यन्ते तादृशो भगवान् सर्वव्यापी शिवः सुख स्वरूपस्तस्मादेव सर्वगतोऽल्पगते भगवत्त्वसुखमयत्वयोरसम्भवात्॥

भा०—सर्वप्राण्यन्तःकरणेषु चिदाभासरूपेणावस्थितो योऽखिलशरीरगतमुखशिरोग्रीवाद्यङ्गैर्भाषणपर्यालोचननिगर-णादिकर्म करोति कारयति वा सएव भगवान्सर्वव्यापी शिवोऽस्ति तस्यैव बोधोऽमृक्प्राप्तेर्हेतुरिति पूर्वेण सम्बन्धः॥११॥

भाषार्थः—अब उसी परमेश्वर का सर्वरूप होना दिखाते हैं—(सर्वाननशिरोग्रीवः) सब प्राणियों में मुख शिर और ग्रीवा सम्बन्धिनी बोलने देखने शोचने औरनिगलने की शक्ति जिस की है अर्थात् एक ही आत्मासब प्राणियों में विद्यमान रहता हुआ अन्तःकरण तथा इन्द्रियोंको चेतनवत् करके बोलना देखना शोचना तथा निगलनादि कर्म करता वा।कराता है (सर्वभूतगुहाशयः) सब प्राणियोंकी हृदयस्य बुद्धि में जो व्याप्त रहता ठहरा हुआ है (स भगवान् सर्वव्यापी) शोभा, कीर्त्ति, पराक्रम, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य भगपदवाच्य ये सब जिस समष्टिरूप में असीम विद्यमान हैं ऐसा वह भगवान्जिस कारण सब में व्यास प्रविष्ट होनेके स्वभाव वाला है (तस्मात्सर्वगतः शिवः) इस से वह शिव नाम सुखस्वरूप और सब में प्राप्त है॥

भा०—सब प्राणियों के अन्तःकरण में चिदाभास रूप से विद्यमान जो एक परमेश्वर सब प्रकार के शरीर में विद्यमान मुख शिर और कण्ठादि अङ्गोसे बोलना शोचना और निगलनादि कर्म को करता वा कराता है वही सर्व व्यापी भगवान् शिव है वह प्रदीपादि प्रकाशवत् साक्षी अलिप्त होने से निर्दोष है। उस ऐसे भगवान् का ही जानना मुक्तिपाने का हेतु हो सकता है इस प्रकार इस मन्त्र को भी पूर्व विषय की पुष्टि के लिये जागो॥११॥

महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्त्वस्यैष प्रवर्त्तकः।
सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः॥१२॥

अ०—यतोमहानतएव प्रभुर्जगत उत्पत्तिस्थितिलयान्यथाकालमनायासेन कर्त्तुं समर्थः सत्त्वस्यान्तः करणस्य प्रवर्त्तकः प्रचारकः सुष्ठु सम्यङ्निर्मलां पापदोषरहितामिमां परमपदप्राप्तिं मुक्तिमीशानस्तस्या अध्यक्षोऽव्ययो ज्योतिर्मयः परिशु-द्धोविज्ञानप्रकाशस्वरूपश्च॥

भा०—नहि कोऽपि स्वयमसिद्धः परान् साधयतीति न्यायाद्दरिद्रोऽर्थिने धनं दातुमशक्तएव भवति तथैव यदि तस्मिन्मह-त्त्वादिकं न स्यान्मुक्तेः स्वामित्वादिकं च न स्यात्तदा कथमन्यस्मै दातुं शक्तः स्यात्॥१२॥

भाषार्थः—(महान् प्रभुर्वै पुरुषः) जो महान् होता वहप्रभु समर्थ भी होता वा हो सकता है महान् होने से ही जगत् के उत्पत्ति स्थिति लयों को अपने २ समयमें सहजमें कर सकता इसी से वह पुरुष है (एष सत्वस्य प्रवर्त्तकः) यह सत्वगुण-रूप अन्तःकरण नाम बुद्धि का मुख्य प्रवर्त्तक वा प्रचारक है (अव्ययो ज्योतिः सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानः) सम्यक् पाप दोष रहित अच्छी निर्मल परमपद प्राप्ति रूप मुक्ति का स्वामी मुक्ति का देने वाला सदा अविनाशी ज्योतिः स्वरूप विज्ञा-न प्रकाशमय है।

भा०—स्वयं असिद्ध अन्यों को सिद्ध नहीं बना सकता। इसी के अनुसार धनहीन से किसी अर्थी को धन नहीं मिल सकता। वैसे उस ईश्वर में महत्व वा मुक्ति का स्वामिपन न होता तो अन्य को महत्वरूप मुक्ति कैसे दे सके?॥१२॥

अङ्गुठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदामनीशो मनसाऽभिक्लृप्तो यएतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥१३॥

अ०—अन्तरात्मा बुद्धौ व्याप्तोऽङ्गुष्ठमात्रस्थानोपलभ्यत्वादङ्गुष्ठमात्रः सदा सर्वावस्थासु जनानां जननमरणधर्मिणां हृदये सन्निविष्टो लिङ्गशरीरेण कृतसम्बन्धः। मनीशो ज्ञानस्येशानोहृदा हृदयस्थेन मनसा मननेनाभिक्लृप्तोज्ञातुं शक्तः पुरु-षः सर्वत्र पूर्णः पुरिशरीरे शयनाद्वा पुरुषः। य एतदात्मतत्वमित्थमेव विदुस्तेऽमृता भवन्ति महाभयानकान्मरणदुःखान्मु-च्यन्ते॥

भा०— ये स्वस्यान्तः प्रविष्टं मननस्यापि प्रवर्त्तकं सर्वसुखाप्तिहेतुं तं बुध्यन्ते तएकाग्रचेतसा तदन्वेषणपरास्तं विदित्वा सर्वमनिष्टं जहतीष्टं च लभन्ते। अर्थात्—पञ्चकोशावियोगेन तत्तन्मय इवस्थितः। शुद्धात्मानीलवस्त्रादियोगेनस्फटिकोयथा। इत्यात्मबोधे-

ईश्वरोजीवकलयाप्रविष्टोभगवानित्यादिप्रमाणैश्च सर्वत्र व्याप्तएकएवेश्वरो जीवरूपेण सर्वशरीरेष्वप्यङ्गुष्ठमात्रपरिमितहृदये विद्यते तस्य स्वदेहे विज्ञानं सुलभं तमेव जानाना मुक्ता भवन्ति।

भाषार्थः—(सदा जनानां हृदये संनिविष्टोऽन्तरात्माऽङ्गुष्ठमात्रः) जीवन की सब दशाओं में जो सब प्राणियों के हृदय में व्याप्त रहता अर्थात् मरण पश्चात् लिङ्ग शरीर के साथ रहता, सब का अन्तर्यामी प्रेरक चिदाभास रूप से बुद्धि में अव-स्थित हृदय के अंगुष्ठ परिमित स्थान में ध्यान योग द्वारा योगियों को प्राप्त होने वाला (मनीशो हृदा मनसाभिक्लृप्तःपु-रुषः) मननशक्ति का भी स्वामी हृदयस्थ मननशक्ति से जानने योग्य पुरुष नाम सब में पूर्ण वा पुर नाम शरीर में रहने वाला ईश्वर है (य एतद्विदुस्तेऽसृता भवन्ति) जो लोग इस आत्मतत्त्वरूप ईश्वर को ऐसा ही जानते हैं वे महाभयानक मरणादि के दुःखसे बचजाते हैं॥

भा०—जो लोग अपने भीतर व्याप्त ज्ञान के भी प्रवर्त्तक सबसुखों की प्राप्ति के कारण ईश्वर को जानते हैं वे एकाग्र चित्त से उस के खोजने में तत्पर हुए उस को साक्षात् जान कर सब अनिष्ट को छोड़ते और इष्ट को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात्—“अन्नमय—स्थूलदेह, प्राणमय—इन्द्रिय शक्ति मनोमय विज्ञान—बुद्धि बोधमय, आनन्द मय इन पांच कोशों में उन २ के रूप से ही विद्यमान है वह नील वस्त्रादिके संयोग से स्फटिक के तुल्य उस२ रुप वाला दीखता हुआभी वास्तव में शुद्ध है यह बात आत्मबोध में लिखी है तथा जीवांश रूप से सब शरीरों में भगवान् विद्यमान है इत्यादि।

प्रमाणो के अनुसार जो सबमें व्याप्त एक ही परमेश्वर है वही जीवरूप से सब शरीरों मे भीअड्गुष्ठ मात्र परिमाण वाले हृदय स्थान में विद्यमान है उसका अपने शरीर में ज्ञान होना सुलभ है, उसी को सम्यक्जानने वाले मुक्त हो सकते हैं॥९३॥

सहस्रशीर्षापुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वत्तो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥१४॥

पुरुषएवेद

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732533873Screenshot2024-11-23164651.png"/> सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥१५॥

अ०—सहस्रमसंख्यानि शीर्षाणि यस्यैवमग्रेऽपि योज्यम्। अखिलप्राणिगतशिरोऽक्षिपादाद्यङ्गैरालोचनदर्शनगमनादीनि यः करोति साक्षीरान् कारयति वास विश्वतः सर्वतोऽन्तर्बहिश्च भूमिं पार्थिवशरीरादिकं भुवनं वा वृत्वा व्याप्य दशाङ्गुलिनि-र्देश्यमनन्तं दशदिक्स्थं सर्वं ब्रह्माण्डमतिक्रम्य ततोबहिरध्यतिष्ठद् व्याप्तस्तिष्ठति। यद्वा दशाङ्गुलपरिमितं नाभेरुपरि हृद-यं तत्रात्यन्तमाधिक्येन तिष्ठति।

यदिदं सर्वं प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानं स्थावरजङ्गमं यद्भूतमतीतं विनष्टं यच्च भव्यमनागतं तत् सर्वं पुरुष एवास्ति, उक्तमन्त्रेण तस्य सर्वात्मकत्वेऽपि प्रपञ्चदोषग्रस्तः स नास्त्यपि तु जले तरङ्गादीनामसत्त्ववत्परमात्मनि जगत्कल्पनमप्यसदेव किन्तु पुरुषएवाविद्याहेतोर्जगदुरूपेणावभासते वस्तुतः सर्वं खल्विदं ब्रह्मैवास्ति उत सर्वात्मकः सन्नपि सोऽमृतत्वस्य मुक्तेरीशानः स्वामी स्वयं सदा मुक्त एव यच्चान्नेनातिरोहत्यन्नभक्षणेन जीवति तस्य बद्धस्यापि सर्वजङ्गमस्येशानः स्वाम्यस्तीति॥

भा०एक एवाहिभूतात्मा भूतेभूते व्यवस्थितः।

एकधाबहुधाचैव दृश्यतेजलचन्द्रवत्॥

इत्यादिप्रमाणानुसारेण सर्वप्राणिष्वेकएव चेतनात्मा प्रदीपादिवदसक्तएव साक्षिरूपेणावस्थितः स्वयमकर्त्तापि सर्वं कर्म कारयति स विराडात्माऽसंख्यशिर आद्यवयववान् स्वेन सच्चिदानन्दरूपेण सर्वंब्रह्माण्डमावृत्यातिरिक्तोऽप्यस्ति त्रैकालिकं सर्वं च जगत्परमात्मरूपमेवास्ति स्वयं च सदामुक्तएवास्ति भक्तान्बन्धनान्मोचयति। सर्वस्य प्राणिवर्गस्या-

ध्यक्षोऽपि सएवारतीति ज्ञानं मोक्षसाधनं विज्ञेयम्॥१४॥१५॥

भाषार्थः—(सहस्रशीर्षा सहस्राक्षः सहस्रपात् पुरुषः) मनुष्यादि के शरीरोमें विद्यमान शिर आख और पग आदि अङ्गों से शोचना देखना और गमनादि कर्मों को जो करता या साक्षी रूप से कराता है ऐसा सब में बाहर भीतर व्योमवत् भरपूर व्याप्त पुरुष है (स विश्वनो भूमि वृत्वा दशाङ्गुलमत्यतिष्ठत्) वह सब ओर से पार्थिव शरीरादि वा भुवन रूप जगत् को आवरण कर अर्थात् सब को अपने भीतर रख और स्वय सब के सब ओर तथा भीतर बाहर व्याप्तहो के दश अंगुलियों के संकेत से जताने योग्य दशों दिशा मे स्थित सब ब्रह्माण्ड का उल्लङ्घन कर सबके बाहर भीतर ठहरा है वा नाभि से ऊपर दशागुल परिमित हृदय में अधिकता से अत्यन्त ठहरा हुआ है (इदं सर्वं यद्भूत यच्च भव्यं पुरुषएव) वर्तमान समय में जो प्रत्यक्ष दीखता भूत नाम जो पूर्व हो चुका नष्ट हो गया वा जो भविष्यत् में होने वाला है तीनों काल का यह सब जगत् पुरुष रूप ही है अर्थात् पूर्व मन्त्र से उस का सर्वात्मक होना सिद्ध होने पर भी संसार के दोष से लिप्त वह नहीं किन्तु जल में तरङ्गादि की कल्पना के तुल्य परमात्मामे जगत् की कल्पना भी असत् ही है क्योकि अज्ञान से ईश्वर ही जगत् रूप से प्रतीत होता है वास्तव मे सब ब्रह्म ही है (यदन्नेनातिरोहत्युतामृतत्वस्येशानः) जो अन्न खाकर जीवित रहता वा अन्न से शरीरधारी होता उस बद्ध जीवमात्र का और अमृत नाम मुक्तों की दशा का भी वह सर्वात्मक होकर भी स्वामी है अर्थात् स्वयं सदा मुक्त ही है अर्थात् मुक्ति और बन्धन सब उसी के आधीन है।

भा०—एकही चेतनात्मा मनुष्य पशु पक्षी आदि भिन्न २ जातियोमें अनेक रूप से विद्यमान है प्रदीपादिसे देखे बिना केवल चक्षुसेजैसे अछा बुरा कुछ काम नही होता परन्तु दीपकादिको पाप पुरुष नही लगता वैसे शरीरेन्द्रियादि आत्मा के बिना कुछ नही कर सकते आत्मा स्वय अकर्त्ता होने पर भी सब कर्म कराता है वह विराट् रूप ईश्वर मनुष्यादि के असख्यशिर आदि अवयवो वाला होकर भी अपने वास्तविक सच्चिदानन्द रूप से सब ब्रह्माण्डको घर के सब में और सबसे पृथक् भी विद्यमान है। तीनो काल में होने वाला सब जगत् परमेश्वर ही है अर्थात् ससार बुद्धि असत् और आत्म बुद्धि सत् है। वह आत्मा सदा ही मुक्त है तथा भक्त उपासको को बन्धन कष्ट से छुडाने वाला है और सब प्राणियो का अधिष्ठाता भी वही है ऐसा सम्यक् ज्ञान होना मोक्षका साधन है॥१४॥१५॥

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥१६॥

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत्॥१७॥

अ०— सर्वतः पाणयः पादाश्च यस्येति सर्वदिक्षु सर्वचरयोनिषु च हस्तपादाद्यवयव-

युक्तः। लोके प्राणिवर्गे सर्वमावृत्य तिष्ठति। सर्वेन्द्रियगुणैरध्यवसाय संकल्पश्रवणादिशक्तिवदाभासोऽस्य तम्। सर्वेन्द्रिय-सङ्गवर्जितं सर्वस्य प्रभुं सर्वचरस्य स्थावरस्य च नियामकमीशानं सर्वचराचरस्य स्वामिनं सर्वस्य दृश्यस्य शरणं बृहदाश्रय-भूतं तदात्मतत्त्वमस्तीति॥

भावार्थः— प्राणिदेहेषु हस्तपादचक्षुराद्यङ्गानि वस्तुतो जडानि तेषु प्राणिशरीरेषु यएकएवात्मा मठाकाशवदवस्थितो यश्च हस्तादिना चक्षुरादिना च चेतनकार्य सर्वंकारयति यश्च सर्वेन्द्रियसङ्गरहितोऽपि श्रोतृस्वादिरूपेण प्रतीयते स एव परमेश्वरः सर्वाध्यक्षस्तस्यैव ज्ञानं मोक्षसाधनमस्ति॥१६॥१७॥

भाषार्थः —(सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्) सब ओर से सब योनियों में पकड़ने और चलने कीहाथ पांव सम्बन्धिनी शक्ति जिस में हैं और सब ओर चक्षु शिर तथा मुख सम्बन्धिनी देखने शोचने भक्षण करने की शक्ति जिस में है (सर्वतः श्रुतिमत्) और सर्वत्र सब प्राणियों में सुनने की शक्ति वाला तथा (लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति) जो लोक नाम प्राणि-शरीरोंमें सब का आवरण करके ब्रह्माण्डभर ठहरा हुआ है (सर्वेन्द्रियगुणाभासम् ) मन आदि अन्तःकरण तथा श्रोत्रादि बहिःकरणरूप सब इन्द्रियोंके विषयरूप

संकल्प अवणादि गुणों के साथ तत्तद्रूप से प्रतीत होने वाले (सर्वेन्द्रियविवर्जितम्) सब इन्द्रियो के सङ्गदोषो से रहित (सर्वस्यप्रभुमीशानम्) सब जड चेतन सूर्य चन्द्रादि जगत् का नियामक और स्वामी (सर्वस्य शरणं बृहत्) और सब का बड़ा आश्रय आधार रूप धारक पालक उत्पादक नाशकएक ही ईश्वर है॥

भा०—प्राणियों के शरीर मे हाथ पाव आदि अङ्ग जडहैं उन प्राणि शरीरो में जो एक हीआत्मा घर वा घटादि में आकाश के तुल्य विद्यमान है और जो आत्माहाथ आदि वा चक्षु आदि से होने वाले चेतन सम्बन्धी सब काम करा रहा है, और जो सब इन्द्रिय तथा विषयों के गुण दोषों से रहित है तथापि जो श्रोता आदि रूप जान पड़ता है वही आत्मासब का स्वामी परमेश्वर है अर्थात् जो जीव माना जाता है वही ईश्वर है उसीका ज्ञान मोक्षका साधन है॥९६॥९७॥

नवद्वारे पुरे देही हंसो लेलायतेबहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥१८॥

अ०— नव द्वाराणि सप्त शिरसि द्वे चाधस्तादस्मिंस्तादृशे शरीरनगरे स्थावरस्य चरस्य च सर्वस्य दृश्यस्य वशी सर्वं वशे यस्य सः हन्ति सर्वमविद्यात्मकं स हंसो जीवरूपेणावस्थितः परमात्मा देहस्थो वहिर्विषयानुपादातुं लेलायतेऽभिलषतीव॥

भा०—पुरुषशरीरे नवद्वाराणि स्त्रीशरीरेचैकं प्रस्रावार्थमधिकं तादृशनगरात्मकशरोरेऽवस्थितोऽपि विषयानुपादातुं लेला यमानत्वेन बद्धइव प्रतीयमानोऽपि स्वस्य वास्तविकस्वरूपेण सर्वं चराचरं स्ववशे स्थापयति तस्यैव शरीरे जीवरूपेणाव-स्थितरय भगवतः सर्वानर्थहानाय ज्ञानं सम्पादनीयम्॥१८॥

भाषार्थः—(स्थावरस्य चरस्य चसर्वस्य लोकस्य वशी) दृष्टि गोचर होने वाले स्थावर जङ्गम सब संसारीपदार्थों को वश में रखने वाला (नवद्वारे पुरे देही हसः) सात शिर में और दो नीचेके इन्द्रियरूप छिद्र जिसमें नौ द्वारे है ऐसे इस शरीररूप नगर राजधानी में बैठा सब अविद्यादि दोषों का हनन करने वाला होनेसे हस कहाता हुआ जीवरूपसे विद्यमान परमात्मा (बहिर्लेलायते) आख आदि झरोखों द्वारा बाहर को झांकता विषय भोग के अर्थ इन्द्रियों को लपकाता है॥

भाषार्थः—पुरुष के शरीर नगर में नौ द्वार हैं सात शिर में दो मलमूत्र त्याग के नीचे, स्त्रियों के शरीर में मूत्र त्याग का एक छिद्र अधिक होता है। ऐसे नवद्वार वाले नगर रूप मलिन शरीरमें रहता हुआ भी तथा विषयों के भोगार्थ लपकता होने से बद्ध जैसा प्रतीत होता भी अपने वास्तविक स्वरूप से सब चराचरको जो वश में रखता है। उसी जीवरूप से शरीरमें अवस्थित परमेश्वर को सब दुःखों से छूटने के लिये सम्यक्जानना चाहिये॥१८॥

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं नच तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महानतम्॥१८॥

अ०— अथ परमात्मनो वास्तविकं ज्ञानात्मनावस्थितं निर्विकारादिस्वरूपमाह—यः पाणिपादमन्तरेण सर्वं गृह्णाति सर्वत्र गन्तुं च शक्नोति चक्षुषी अन्तरेण सर्वं पश्यति कर्णमन्तरेण सर्वस्य गुप्तमपि शब्दंशृणोति च स एवानन्तःकरणोऽपि सर्वज्ञ-त्वात् सर्वं वेद्यं वेत्ति नच तस्याद्वैतत्वादन्यः कोऽपि वेत्तास्ति नान्योऽतोऽस्तिद्रष्टेतिश्रुतिः। श्रुतमग्र्यमनादिं महान्तमनन्तं पुरुषं परपुरुषत्वयुक्तं सर्वोत्पादकमीशं ब्रह्मविद आहुः॥

भा०—जीवरूपेण शरीरावस्थत्वात्पाण्यादिमान् प्रतीयमानोऽपि वस्तुतो विनश्वरसर्वसाधनरहित ईश्वरः स्वयमेव सर्वं वेत्ति तस्यान्यः कोऽपि वेत्ता नास्ति सचानादिकालान्महत्त्वेन पूर्णो व्याप्तस्तद्विज्ञानान्मोक्षः॥१९॥

भाषार्थः—अब ज्ञानरूप से अवस्थितपरमात्मा केनिर्विकारादि वास्तविक स्वरूप को दिखाते हैं (अपाणिपादो गवनो ग्रहीता) उन के हाथ पाव नहीं पर ग्रहण तथा वेगसे चलना हाथ पाव का काम करता (पश्यत्यचक्षुः शृणोत्यकर्णः) वहचक्षु के बिना ही सब के कामों को सर्वत्र देखता उस के कान नहीं पर सब की गुप्त बातों कोहै भी सर्वत्र सुनता (स वेत्ति वेद्यं ण च तस्यास्ति वेत्ता) अन्तःकरण रहित होने पर भी वही सबजाननेयोग्य को जानता परन्तु अद्वैत होने से अन्य कोई उसका जानने वाला नहीं है क्योंकि शरीरो मे एकेश्वर से भिन्न अन्य कोई देखने जानने वाला नही है। यह श्रुति में कहा है। (तमग्न्यं महान्तं पुरुषमाहुः) उसको अनादि अनन्त सर्वोपरि पुरुषपनसे युक्त सर्वोत्पादक ब्रह्मज्ञानी लोग कहते हैं॥

भा०— जीव वा क्षेत्र रूप से शरीरो में अवस्थित होने से आत्माहाथ आदि वाला दीखता हुआ भी वस्तुतः विनाशी सब साधनों से रहित ईश्वर स्वयमेव सबको जानता है। उसका वा गाया कार्य का अन्य कोई जानने वाला नहीं हैवह अनादि काल से अनन्त पूर्ण व्याप्त है उसीके ज्ञानसे मोक्ष होता है॥१९॥

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मागुहायां निहितोऽस्यजन्तोः।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम्॥२०॥

अ०— अस्यजन्तोर्ब्रह्मादिप्राणिमात्रस्य गुहायां हृद्देशे सूक्ष्मादपिसूक्ष्मतरोमहतोऽपि महत्तरो निरतिशयसूक्ष्मो निरतिश-यमहांश्चात्मा परमात्मा निहितोऽधिष्ठितस्तं महत्त्वादतिशयेन सर्वस्मादपरिच्छिन्नमक्रतुं क्लेशकर्मविपाकाशयैरसंसृष्टमीशं तस्यैव सर्वधारकस्य प्रसादात्तदनुग्रहमवाप्य वीतो निवृत्तो विषयाणामप्राप्तौ शोकस्तापोऽस्य तादृशो भूत्वैव जीवः कश्चित्प-श्यति तत्त्वतस्तमयमहमस्मीति साक्षात्स्वयमेवस्वात्मानं जानाति॥

भा०— निवृत्तशोकादिकल्मषःकश्चिदेव तस्य कृपयैव स्वस्यान्तःकरणे ध्यानेनैव निरतिशयसूक्ष्मत्वादिविशिष्टमेवेश्वरं स्वीयं वास्तवं स्वरूपं कदाचिदेव वेत्ति। तस्मात्साधारणः कोऽपि स्वस्यवेत्ता नास्तीति पूर्वकथनमपि पुष्टिमेव लभते॥२०॥

भाषार्थः—(अस्य जन्तोर्गुहायाम्) इस ब्रह्मादि प्राणी मात्र की हृदम देशस्थ बुद्धिमें (अणोरणीयान्महतो महीयानात्मा) सूक्ष्म से सूक्ष्म और बढ़ोंसे भी बड़ा अर्थात् सूक्ष्मता वामहत्त्व की अन्तिम सीमाको प्राप्त क्षेत्रज्ञरूप से (निहितः) स्थित है। और महत्वकी असीमता से सबसे अपरिच्छिन्न तमक्रतुंमहिमानमीश धातोः प्रमादाद्वीतशोकः पश्यति) कर्मफल भोगकी वासनाओ से अलिप्त महत्वरूप उस ईश्वरको उसीकी

कृपा वा प्रसन्नता से विषय भोगो के न मिलने का शोच ताप जिस का निवृत्त हुआऐसा हो कर ही कोई यह मैं हूं इस प्रकार साक्षात् अपने स्वरूपको ज्ञानी जानता अर्थात् देखता जागता है॥

भा०— शोकादि कल्मष जिस का दूर हुआ हो ऐसा कोई ही पुरुष उस की कृपा से ही अपने अन्तःकरण में ध्यान समाधि के द्वारा ही अत्यन्त सूक्ष्मतादि युक्त ही ईश्वर को नाम अपने वास्तविक स्वरूपको कभी जान पाता है। इस से साधारण कोई अपने आप को जानने वालानही है यह पूर्व का कथन भी ठीक पुष्ट हो जाता है॥२२॥

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनोऽभिवदन्ति नित्यम्॥२१॥

अ०— उक्तार्थदार्ढ्याय मन्त्रद्रष्टुरनुभवं दर्शयति—अहमेतमजरं जरावस्थारहितं विपरिणामधर्मशून्यं पुराणं सनातनं सर्वात्मानं सर्वेषामात्मरूपेण शरीरेष्ववस्थितं सर्वान्तर्यामिणं विभुत्वाद् व्यापकत्वात्सर्वस्मिन् गतं प्राप्तं यस्य ब्रह्मवादिनो जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यं च नित्यमभिवदन्ति तं वेद जानामीति मन्त्रद्रष्टा वदति॥

** भा०**— यस्य मिथ्याज्ञानापाये रागद्वेषमोहदोषा दग्धबीजकल्पा भवन्ति सएव शोकादिरहितो ध्यानयोगाभ्यासेन प्रत्यक्चे-तनस्वरूपं सर्वानन्दमयं परमात्मानं हृदि साक्षात्कुर्वन्परमं संतुष्यति ज्ञातं मया ज्ञातव्यमिति च मन्यते॥२१॥

भाषार्थ—पूर्वोक्त विचार की दृढता के लिये मन्त्र दृष्टा ऋषि अनुभव दिखाते हैं कि (ब्रह्मवादिनो यस्य जन्मनिरोध प्रव-दन्ति) ब्रह्मवादी लोग जिस के जन्म होने का अभाव कहते (नित्यमभिवदन्ति) और जिसको नित्य २अभिवादन नमस्कार प्रणामादि करते है उस (एतमजरं पुराण विभुत्वासर्वगत सर्वात्मानमहं वेद) इस जीर्णावस्था रहित अर्थात् जिसका परिव-र्तन नहीं होता सदा एक से सामर्थ्यवाले विभु—व्यापक होने से सब पदार्थों को प्राप्त सब के आत्मरूप से शरीरो में अव-स्थित सर्वान्तयामी मनातन ब्रह्म को मैं जानता हूं ऐसा मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहते है

भा०— मिथ्याज्ञान के छूटजाने पर जिस पुरुषके रागद्वेष मोहादि दोष भस्म हो जाते [जिन में फिर उगने की शक्ति नही रहती] वही शोकादि रहित पुरुष ध्यानरूप योगाभ्याससे अपने अन्तरात्मस्वरूप सर्व आनन्दमय परमात्माको हृदय में साक्षात् करता हुआ परम सन्तोष को प्राप्त होता और मानता है कि मैने ज्ञातव्य को जान लिया॥२१॥

इति ब्राह्मणसर्वरवमासिकपत्रसम्पादकेन
भीमसेनशर्मणानिर्मिते श्वेताश्वतरोपनिषद्भाष्ये
तृतीयोऽध्यायः समाप्तः॥

_____________

अथ चतुर्थाऽध्यायारम्भः।

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1731937480Screenshot2024-11-18191327.png"/>

यएकोऽवर्णॊबहुधा शक्तियोगाद् वर्णाननेकान्निहितार्थोदधाति।
विचैति चान्ते विश्वमादौ स देवः सनो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥१॥

अ०— य एकोऽद्वितीय ईश्वरः स्वयमवर्णॊब्राह्मणो शरीरेषु तत्तन्नामरूपैरवस्थितोऽपि वस्तुतः सर्वजातिवर्णत्ववर्जितो निहितार्थोव्यवसितकर्मफलभोगप्रयोजनः स्वार्थनैरपेक्ष्येण स्वस्मिन्बहुविधशक्तीनां सम्बन्धादनेकान् ब्राह्मणादिवर्णान्दधाति विदधाति। स देव आदौप्रलयात्पूर्वं सर्गारम्भकाले विश्वं सर्वमिदं रक्षति। अन्ते प्रलयावसरे च व्येति विनाशयति स नोऽस्मा-न् शुभया कल्याणाभिमुखया बुद्ध्या संयुनक्तु येन निःश्रेयसभाजः स्याम॥

भा०— यएकोऽसहाय एवास्य स्थावरजङ्गमस्योत्पत्तिस्थितिलयाननायासेनैव करोति

सएव निरतिशयः सर्वाध्यक्षः स्वस्य कल्याणाय मनुष्येण प्रार्थनीयः॥१॥

भाषार्थः—(यएकोऽवर्णो निहितार्थः) जो एक अद्वितीय ईश्वर ब्राह्मणादि शरीरोंमें उस २ नामरूपसे विद्यमान होने पर भी वास्तव में सब जाति और ब्राह्मणादिपन के गुणकर्मो के रहित सबको शुभाशुभ कर्मफलभुगाना ही जिसने सृष्टि रचने का मुख्य प्रयोजन रक्खा है ऐसा हुआ (बहुधा शक्तियोगादने कान्वर्णान्दधाति) अपने में नाना प्रकार की शक्तियों का योग होगे से अनेक ब्राह्मणादि वर्णों को [जो मूलरूप से चार वर्ण और अवान्तर भेदों से असख्य प्रकार के ब्राह्मणादि हो जाते हैं] बनाता है (स देवोऽन्ते विश्वं विधेति) वहदेव ईश्वर सृष्टिस्थितिवोअन्तमें प्रलय का समय आते ही इस जगत् को विनष्ट कर देना (चादौ) और प्रलय से पूर्व समय में सबकी रक्षा करता है (स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु) वह ईश्वर कल्याणकारिणी उत्तम धर्मानुकूलबुद्धि से हम को संयुक्त करे जिससे हम निःश्रेयस सुखकेभागी हो॥

भाषार्थः— जोएक ईश्वर किसी की सहायता न लेकर स्थावर जङ्गमरूप इससब जगत् के उत्पत्ति स्थिति, प्रलयों को सहज में ही किया करता है वहीसर्वोपरि मन्त्रका स्वामी है है मनुष्यको अपने कल्याण के लिये उसीकी प्रार्थना करनी चाहिये॥९॥

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः।
तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः॥२॥

अ०—अग्निः पाचको भस्मीकरणशक्तिमान्, आदित्यः कालविभागहेतुत्वात्सर्वभावपरिणामनिमित्तम्, सर्वचेष्टादिहेतुर्वा-युः, मृदुलावण्यादिगुणस्य प्रधानं कारणं चन्द्रमोऽभिधं सोमतत्वं सर्वत्र व्याप्तम्, शुक्रमतिशुक्लत्वं गुणः सर्वत्रस्थः, ब्रह्म बृह-त्तरः सर्वस्योत्पादनद्वारा वर्द्धको हिरण्यगर्भआत्मा आपोऽन्तर्दाहनिवारकं शीतगुणप्रधानं तत्त्वं, प्रजापतिः प्रजातायाः सृष्टेर-क्षको विराडात्मा। अग्न्यादिपदार्थानां यत्र निरतिशयत्वं भस्मीकरणादिशक्तीनां यत्र काष्ठाप्राप्तिः प्राधान्यं तदेवात्मतत्त्वं प्रधानभावेनाग्न्यादिपदवाच्यमर्थादग्न्यादिपदार्थेषु तत्तन्नामरूपावच्छिन्नं ब्रह्मात्मतत्वमेवास्ति नैवाग्न्यादयः परमात्मसत्तावलम्ब-नमन्तरेण किमपि कार्यं साद्धुं शक्ता इति बोध्यम्। एवकारः प्रत्येकमभिसंबध्यते॥

भा०— संसारस्थवस्तुषु गौणमन्यादित्वमग्न्यादिषु तत्तन्नामरूपेण विद्यमाने परात्मनि च निरतिशयं प्रधानमग्न्यादीनामप्य-ग्न्यादित्वस्य मूलकारणत्वात्तस्य। गौणमु-

ख्ययोर्मुख्ये कार्यसम्प्रत्यय इति न्यायोऽपीदृशादेव वेदान्निस्सारितः पाणिन्यादिभिस्ततः सार्वत्रिक एव विज्ञेयः। लोकेऽपि गौणमुख्ययोर्विदुषोः प्रसङ्गे मुख्यएव विद्वत्पदवाच्यः प्रतीयते विद्वांस्त्वयमेवास्तीति वदन्ति तद्वदिहापि योज्यम्। शुक्लय-जुर्वेदे अ० ३२ अयमरम्भमन्त्रः॥२॥

भाषार्थः—(तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः) सब को भस्म वा भक्षण करने की शक्ति वाला अग्निवही, काल विभाग का हेतु होने से सब विद्यमान पदार्थों के परिणामका निमित्त वही, सब चेष्टादि क्रियाओं का कारण वही और सब प्रकार की कोमलता वा शोभा का मूल कारण चन्द्रमा नामक सोमवही है (तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः सप्रजापतिः) तारे आादिकी अत्यन्त शुद्ध कान्ति वालाशुक्ल निर्मल वही सब से बड़ा उत्पत्ति द्वारा सबका बढ़ाने वाला हिरण्मय-गर्भब्रह्मा वही, भीतरी दाह वा ताप का निवारकशीतल गुण की प्रधानता वाला अप् वही और उत्पन्न हुई सृष्टि का सर्वोपरि रक्षक विराडात्मक प्रजापति वही है। अभिप्राय यह कि अग्नि आदि पदों का जिस में निरतिशय अर्थघटता अर्थात् भस्म करने आदि शक्तियों की जिस में अत्यन्त सोना हो जाती जो उन२ शक्तियों में सर्वोपरि प्रधान है वही आत्मतत्त्व प्रधानरूप से अग्नि आदि पदों का वाच्यार्थहै अर्थात् अग्निआदि पदार्थों में उसी २ अग्न्यादिक नामरूपसे परिच्छिन्नताप्रतीत होने वाला वही एक ब्रह्मस्व रूप आत्मतत्त्व है। क्योंकि परमात्म सत्ताका अबलम्ब हुए

विना अग्न्यादिपदार्थ कुछ भी दाहादि कर्म नही कर सकते इससे अग्न्यादि देवता नामरूप वही परमेश्वर है मन्त्र में एव शब्द प्रत्येक अग्न्यादि शब्द के साथ लगाने के लिये है॥

भाषार्थ०—अग्न्यादि नामक संसार के सब वस्तुओंमें अग्न्यादिपन गौणहै और अग्न्यादि में तत्तद्रूप से विद्यमान परमा-त्मा में अग्न्यादिपन असीमहै क्योकि अग्निआदि के अग्न्यादिपन का भी मूल कारण यही है(गौण० ) गौण मुख्यदोनों के प्रसङ्ग में मुख्यमें ही कार्य वा व्यवहार होता है। यह परिभाषारूप न्याय पाणिनि आदि आचार्यों ने ऐसे हीवेद मन्त्रों से निकाला है और वेद से निकलने के कारण ही यह नियम सर्वदेशी है सब को मानने ही पड़ता है। लोक में भी गौण मुख्य दो विद्वानों के एकत्र होने पर वा दो की चर्चाहोने पर मुख्य दो विद्वान् पदवाच्य होता है। लोग कहते हैं कि विद्वान् तो यही हैं। इसी प्रकार यहां भी अग्नि आदि पदों का वाच्यार्थ उस २ नामरूपसे विद्यमान वही एक ब्रह्म कहा जानो। यह मन्त्र यजुर्वेद अ० ३२ के आरम्भ में ऐसा हीज्यों का त्यों है॥२॥

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥३॥

अ०—हे परमात्मन्! सर्वस्योत्पादने त्वं स्त्री त्वमेव पुमान्—स्त्रीरूपायां प्रकृतौ त्वमेवोपादानशक्तिं दधासि निमित्तरूपं पुंस्त्वं च

त्वय्येवास्ति। तथा त्वं कुमार उत कुमार्य्यैव च भवसि। त्वमेव च जीर्णो वृद्धो भूत्वा दण्डेन वञ्चसि त्वमेव सर्वयोनिषु जीव-रूपेण प्रादुर्भूतः सर्वप्राणिषु सर्वरूपो भवसि॥

भा०— बाल्ययौवनवार्द्धक्यावस्थास्वेकएकएवात्मा बाल्याद्यवस्थारूपेण शरीरोपाधिधर्मेण बालादिरूपः प्रतीयमानोऽपि वस्तुतो बालो युवा वृद्धो वा नास्ति। स्त्रीपुंसकुमारकुमारीजीर्णपदैरवस्थात्रयबोधनेन सर्वचराचरसंसारवस्तुष्वेकस्यैवात्म-नोऽवस्थितिर्बोधिता। तथाचोक्तम्—एकएवहिभूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः। एकधाबहुधाचैव दृश्यतेजलचन्द्रवत्॥ एवमेक एवेश्वरः सर्वप्राण्यप्राणिषूद्भूतानुद्भूतचिच्छक्त्याप्रविष्टो दर्शनादिहेतुर्भवति॥३॥

भाषार्थः—हे परमात्मन्। सब को उत्पन्न करने में (त्वंस्त्रीत्वं पुमानसि) तुम्हीं खी और तुम्हींपुरुष हो अर्थात् तुम्ही सब के माता पिता भ्राता भगिनी वा पति पत्नी आदि भावको प्राप्त हुए हो। यद्यपि सब संसार की उत्पत्ति में प्रकृति स्त्री है तथापि उसमें तुम्हीं उपादानशक्तिको धारण करते हो और निमित्त कारणरूप पुरुषपन तुम में स्वतः ही है तथा त्वं कुमा-र उत वा कुमारी) तुम कुंआरे और कुंआरी

हो अर्थात् बालक बालिकारूप तुम्हीं हो (एवं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि) तुम वृद्ध अवस्था वाले शरीर में लकड़ी हाथ में लेकर उस के सहारे से चलते हो (त्व जातो भवसि विश्वतोमुखः) और तुम ही सर्वयोनिस्थप्राणियों में जीवरूप से प्रकट हो के सर्व रूप होते हो।

भा०— बालक युवा और वृद्धावस्थाओं में एकही आत्माशरीरोपाधि के धर्म बालादि अवस्था रूप से प्रतीत होता हुआ भी वास्तव में आत्माबालक युवा वा वृद्ध नही है। स्त्री पुंस् कुमार कुमारी और जीर्ण पदों से [अर्थात् कुमार कुमारी से बाल्य, स्त्रीपुंस् पदों से यौवन और जीर्णप्रद से वृद्धावस्था दिखायी हैं] तीन अवस्था बोधन द्वारा संसार के सबचराचर पदार्थों में एक ही अत्माकी विद्यमानता वोधित की है। यही बात (एक एव हि०) इलोकसे दिखायी है कि एक २ जाति में एक प्रकार से तथा अनेक जातियों में अनेक प्रकार से एक ही नित्य आमा प्रतिबिम्बित है। इस से सब चराचर में प्रकट वा अप्रकट रूप से एकही चेतन शक्ति रूप ईश्वर प्रविष्ट होकर देखनादि चेतन का काम करा रहा है॥३॥

नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः।
अनादिस्त्वं विभुत्वेन वर्त्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा॥४॥

अ०—हे परमात्मन्! नीलः कृष्णः पतङ्ग उत्पतनशीलो भ्रमरो लोहिताक्षो रक्तनेत्रो

हरितवर्णः शुकादिस्तडिद्गर्भेऽस्या तादृशमेव ऋतवः समुद्राश्चेत्यादिवस्तुषु तत्तद्रूपेणावस्थितः। अतएव नास्त्यादिः कारण-मस्य यतो विश्वानि भुवनानि जातान्युत्पन्नानि तादृशस्त्वं विभुत्वेनाद्यन्तशून्यत्वेन सर्वत्र वर्त्तसे॥

भा०—अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव। एवमीश्वरस्तत्तन्नामरूपेण सर्ववस्तुष्ववस्थित इत्येवात्रोपल-क्षणेन प्रदर्शितम्। यथा सूत्रमेव बहुविधवासीरूपेणावस्थितं भवति यथा च हाटकं भूषणनामरूपेणावस्थितं दृश्यते तथा चोक्तम्। सच्चिदात्मन्यनुस्यूते नित्येविष्णौप्रकल्पिताः। व्यक्तयो विविधाः सर्वा हाटके कटकादिवत्। इत्याहत्मबोधे—स ओतः प्रोतश्च विभूः प्रजाविति शुक्लयजुः संहितायाम्। इत्थं नीलकृष्णपतङ्गादिरूपेण भगवानेव विद्यते॥४॥

भाषार्थः—हे परमेश्वर! (नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षः) उड़ने के स्वभाव वाला काला पक्षी भौंरा—नाम भ्रमर तथा हरा लाल नेत्रों वाला तोता आदि पक्षी (तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः) तडित् नाम बिजुली जिस में रहती ऐसा मेघ, वसन्तादि ऋतु और समुद्र अन्तरिक्ष के वा पृथिवी के इत्यादि वस्तुओं में उन २ के ही नाम रूप से आप ही विद्यमान हैं

अर्थात् भ्रमरादि सब रूप तुम हीहो (अनादिस्त्व विभुत्वेन वर्त्तसे) जिन का आदि नामकारण कोई नही औरयतो जातानि भुवनानि विश्वा) जिन तुम से यह सब लोक लोकान्तर अनन्त ब्रह्माण्डभर उत्पन्न हुआ है ऐसे तुम आद्यन्त शून्य अनन्त रूप से विद्यमान हो।

भा०—कठोपनिषद् में लिखा है कि ‘जैसे अग्निसब जगत् के उस २ पदार्थ से उस २ के नाम मे ही बन रहा है, इसी प्रकार ईश्वर सब वस्तुओं में उसी २ के नाम रूप से व्याप्त हो रहा है। यहा नील पतङ्गादि के उपलक्षणमात्र से यह बात दिखालाई है कि जैसे एक सूत ही अनेक बस्त्रा के नाम रूप से विद्यमान है तथा जैसे सुवण अनेक भूषण नाम रूप हुआ दीखता है वैसे देव मनुष्य पशु पक्ष्यादि रूप मे एक ही ईश्वर विद्यमान है। आत्मबोध में लिखा है कि जैसे सुवर्णमे कडादि भूषण अनुस्यूत है वैसे ही सत् चित् स्वरूप विष्णु भगवान् में ये सब देवमनुष्यादि व्यक्तिया ओतप्रोत है। तथा शुक्ल यजु सहिता में लिखा है कि वह व्यापक परमेश्वर सबप्रजा में ओत प्रोत हो रहा है। इस प्रकार नील पक्षी आदि नाम रूप से एक भगवान् हीविद्यमान है।

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः॥
जो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोग्यामजोऽन्यः॥५॥

अ०— तेजोऽबन्नलक्षणां मायां दर्शयति लोहितशुक्लकृष्णां रजःसत्वतमोगुणमयीं समानरूपा उपादानकारणगुणप्रधाना बह्वीःप्रजाः सृजमानामजां स्वयमविनश्वरामनादिभूतामेकोऽजः कश्चिदनादिर्जीवो जुषमाणः तया प्रीतिं स्नेहं कुर्वन्ननुशेते भजतेऽन्यः कश्चिच्च मुक्ता भोग्या मयाऽन्यैश्चेयमिति मन्यमान एनां जहाति तेन मुच्यते॥

भा०— त्रिगुणात्मके प्रवाहेणानादिभूते जगति ये प्राणिनो भोगोत्कण्ठयाऽनुरज्यन्ते ते जन्ममरणप्रवाहपतिता दुःखमेवा-धिक्येन लभन्ते। ये भोगोत्कण्ठां समापयन्ति भोगा अस्माभिर्भुक्ता नात्र भोग्यं विशिष्टं सुखमस्त्यपितु दुःखमेव बहुलमिति मन्यमाना जहत्येनामजां प्रकृतिं ते विषयदोषदर्शिनो मुच्यन्ते दुःखबहुलात्संसारचक्रप्रवाहात्॥५॥

भावार्थः—छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित अग्नि, जल और पृथिवीरूपों में परिणत होने वाली अनादि सान्त माया नाम प्रकृति को दिखाते हैं (लोहितशुक्लकृष्णाम्) रक्तलाल रजोगुणी, शुक्ल श्वेत -सत्वगुणी, कृष्ण काली तमोगुणी इन तीनों गुणों वाली (सरूपा बह्वीःप्रजाः सृजमानामेकामजाम्) कारण के गुणानुकूल कार्य होने से अपने तुल्य गुणों

वाली नाना प्रकार की बहुतसी प्रजाओं को रचती हुई एक स्वरूप से अनादि प्रकृति से (जुषमाणो ह्येकोऽजोनुशेते) प्रीति अनुराग करता हुआकोई जीव उस के पास सोता उससे लिपटता सेवन भजन पूजन ध्यान उसी का करता है अन्योऽजो भुक्तभोग्यामेनां जहाति) और कोई अनादि जीव विरक्त सन्यासी महात्मा ज्ञानी इस प्रकृतिको असंख्य लोगों की भोगी हुई निकृष्ट वेश्या के समान बिगड़ी जूठो घृणित मान के छोड़ देता है उस के भोगने को बुरा समझता है इस कारण असंख्य बड़े २ दुःखों से बधजाता है॥

भा०— त्रिगुणमय, प्रवाहसे अनादि इस जगत् में जो प्राणी विषय सुख भोगने की उत्कण्ठा से अनुराग करते हैं वे जन्म मरणके प्रवाह में पड़े बहते हुए अधिकतासे दुःख हीपाते हैं। और जो भोगकी तृष्णाको समाप्त करते हैं कि भोग हमने भोग लिये अब अपने वा अन्यों के जूठे किये भोगों को क्या भोगें? इन भोगों में सुख थोड़ा तथा दुःख बहुत है ऐसा मानते हुए इस प्रकृतिमय संसारको छोड़ देते हैं वेही विषयों में दोष देखने वाले दुःख ही जिस में प्रधान है ऐसे संसारचक्र के प्रवाह से छूट जाते हैं। [ लोक में अब- वकरा - और -वकरीको कहते हैं। जैसे कोई वकरा एकसे बहुत बच्चे जनने वाली वकरी से प्रेम करे और कोई उस वकरी से उदासीन विरक्त हो जरवे ऐसे ही अनेक जीव इस संसाररूप प्रकृति के गुण विषयों से प्रीति रखते उससे लगे लिपटे जन्मते मरते चले जा रहे हैं और कोई २ कभी २ इस शरीरादि वा स्त्री आदि रूप प्रकृति से उदासीन विरक्त हो कर सनातन ईश्वर को गुण प्राप्त हो जाते हैं]॥५॥

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयो-

रन्यः पिप्पलं स्वाद्वृत्त्यनश्नन्नन्योऽअभिचाकशीति॥६॥

** अ०**—सुपर्णौशोभनगमनौ शोभनप्रकारेण जगतो रक्षकौ वा सयुजा सर्वदा संयुक्तौ व्याप्यव्यापकसम्बन्धेनाभिन्नौ सखाया समानख्याती आत्मपदवाच्यौ तौ द्वौ विज्ञानात्मपरमात्मानौ समानमेकमेव वृक्षं छिद्यमानं नश्वरं शरीरं परितः स्वजा-ते समाश्रयेते तयोरन्य एको जीवः स्वादु पिप्पलं सुखदुःखरूपं कर्मफलमति भुङ्क्तेऽन्यः परमात्माऽनश्नन् फलभोगात्सर्व-दैव नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभानवत्वेन विरक्तोऽभिचाकशीति साक्षिभूतः पश्यन्नास्ते। द्वेत्यादौ सुपांसुलुगित्यादिना प्रथमा-द्विवचनविभक्तेराकारादेशः॥

भा०—यद्यपि परमार्थतो विज्ञानात्मा जीवो वा कोऽपि नास्ति तथापि व्यवहारदशायां प्राण्यन्तःकरणालोके चिदाभासस्य जीवत्वं मठघटाकाशादिवदविच्छिन्नत्वेन सर्वशरीरावस्थस्यात्मनः परमेश्वरत्वमिति भेदमभ्युपगम्यानत्रात्मद्वयमुक्तं तच्चागा-मिमन्त्रेषु पर-

मार्थवस्त्वधारणार्थमेव। ऋक्सहितायां प्रथममण्डले सू० १६४।२० मन्त्रोऽय पठित॥६॥

भाषार्थ—(द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया) अच्छे प्रकार सर्व प्राप्त होने वाले वा जगत् के पदार्थों के सम्यक्रक्षक [पत्लृ-पतने से वा पृ पालन पूरणयो। धातु से पर्ण शब्द बना है] सब कालमे व्याप्य व्यापक सम्बन्धसे एक साथ रहने वाले तथा चेतन वा आत्मादि एक नाम से कहाने वाले दो पक्षियोके तुल्य जीवात्मा और परमात्मा (समान वृक्ष परिवस्वजाते) विनाश को प्राप्त होने वाले अनित्य शरीररूप एकही वृक्ष पर रहते है (तयोरन्य स्वादुपिप्पलमप्ति) उन दोगो मेसे एक जीवात्मा वृक्ष फल के तुल्य सुख दुख रूप कर्म के स्वादिष्ठ फल को खाता चीखता स्वाद ले २ कर खाता भोगता है और (अन्योऽ-नन्नन्नभिचाकशीति) द्वितीय परमात्माकुछ भी न खाता भोगता हुआ नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव होनेके कारण भोग से सदा विरक्त साक्षिरूप हो कर जीव के भोगो का तथा क्रियमाण कर्मों का सूर्यादिके प्रकाश वत् प्रेरक वा निमित्त है अर्थात् कर्म कराने और फल भुगाने वाला होने पर भी प्रदीपवत् निरिच्छहै।

भा०—यद्यपि वास्तव में पारमार्थिक विचार से विज्ञानात्मा वा जीव सच्चिदानन्द ईश्वर से भिन्न कोई नही है तथापि व्यवहार दशा में सब प्राणियो के बुद्धिरूप दर्पण में चेतन शक्ति का आभास वा प्रतिबिम्बजीव कहाता और घटमठा-काशादि के तुल्य अविच्छिन्नरूप से सब प्राणि शरीरो में अवस्थित परमेश्वर कहाता ऐसा भेद मान कर इस मन्त्र मे दो आत्मा इस लिये कहे है कि अगले मन्त्रो मे परमार्थ वस्तुका अवधारण जीवत्व की दुर्दशा दिखा कर किया जावे। यह मन्त्र सहिता में १। १६४।२० है॥६॥
,

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः॥७॥

अ०— समानएकस्मिन् वृक्षे छिद्यमाने नश्वरे देहे पुरुषो जीवोऽविद्याकामकर्मफलरागादिजन्यगुरुभाऽऽक्रान्तो नद्यामिव दुःखे निमग्नोनिश्चयेन देहात्मभावमापन्नोऽयमेवाहममुष्य पुत्रोऽस्य नप्ता कृशः स्थूली रूपवान् निर्गुणः सुखी दुःखीत्येवं कृतनिश्चयो नान्योऽस्मादस्मीति जायते म्रियते सम्बन्धिबान्धवैश्च संयुज्यते। एवंप्रकारेण निमग्नो मुह्यमानो मोहं कुर्वन्ननीश-याऽसमर्थत्वेन शोचति पुत्रो मम मृतो भार्य्या मे नष्टा धनं मेऽपहृतं किं कुर्याम्—कथं जीवेयम्—अशक्तोऽहं प्रतिकर्त्तुम्—न किमपि कर्त्तुं शक्नोमि। एवं रोदिति विलपति मुहुर्मुहुः सन्तप्यते दुःखानलेन दह्यमानः। यदा संस्कारप्रावल्याच्छुभफलो-दयाद्दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितयोगाभ्यासेन तस्मिन्नेव शरीरवृक्षेऽनिमग्नमन्यं

बहुभिर्जुष्टं स्वतोऽभिन्नमपि भिन्नमिवाविद्यया प्रतीयमानमीशमनन्तशक्तिंपश्यति साक्षात्करोति तदाऽस्येशरय महिमानं बुद्ध्वा वीतशोकः सर्वविधशोकवर्जितो भवति॥

भा०—लोकेऽपि यो यादृशदुःखप्रतीकारे समर्थो नासौ शोचति यश्च दुःखनिवारणेशक्तःसएव शोकमग्नो जायते दुःख-प्रतीकारसामर्थ्यं च प्रत्यगात्मविचारप्राबल्येन बुद्धितत्त्ववैशारद्याज्जायते। यो हि लोके यादृशो बुद्धिमान् दृश्यते स तावदेव दुःखप्रतीकारमारभते मुच्यते च दुःखात्। ईश्वरत्रोधश्च बुद्धेः सूक्ष्मत्ववैशारद्ययोरन्तिमं कृत्यमतएवोक्तम्—“दृश्यते त्वग्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि” अतएव सुखमभीप्सता दुःखं जिहासता च पुरुषेण समापितवाह्यविषयभोगोत्कण्ठेनाध्यात्मर-त्यासीनेन बुद्ध्यारूढेन भाव्यमिवत्यायातम्॥७॥

भावार्थः— (समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नः) एक ही नाशवान् शरीरादि जगत् में जीवात्मा अविद्या काम और कर्म फल भोग की वासनाओ सम्बन्धी भार से दबा हुआ दुःख रूप अगाध नदी में डूबता हुआ शरीर को ही आत्मा मानता है कि मै अमुक मनुष्य का पुत्र अमुक का पौत्र, दुर्बल

हृष्ट पुष्ट रूपवान् कुरूप, गुणवान्, मूर्ख, पण्डित, सुखी वा दुखी हूं ऐसा निश्चय वाला इन दशाओं से भिन्न मैं नहीं ऐसा मानता हुआ जन्मना मरता स्त्री पुत्रादि के साथ संयुक्त वियुक्त होता हुआ इस प्रकार इन्हीं मिथ्या विचारों में निमग्नतथा (मुह्यमानः) मोह जाल में फंसा हुआ (अनीशया शोचति) दुःख निवृत्ति के लिये असमर्थ हुआ शोचता है कि मेरा पुत्र मर गया हा। मेरी प्रिया स्त्री नष्ट हो गई हा ! मेरा धन छिन गया अधिकार छिन गया अब क्या करूं कैसे जीवूं मैं असमर्थ हूं वचने का कुछ उपाय नहीं कर सकता ऐसे रोता विलाप करता वार २ दुःखाग्नि से जलताहुआ सन्ताप करता है। और (यदा) जब संस्कार की प्रबलतानुसार शुभ फलका उदय होने से दीर्घ काल तक निरन्तर सेवन किये, योगाभ्यास द्वारा उसी शरीर वृक्ष में रहते हुए भी दुःखसागर में न डूबने वाले (अन्यं जुष्टमीशं पश्यति) अन्य बहुत ज्ञानियों योगियों से सेवित वास्तव में अपने से अभिन्न भी अपनी अविद्योपाधि होने से भिन्न प्रतीत होने वाले अनन्त शक्ति ईश्वर को साक्षात् देखता है (अस्य महिमानमिति वीतशोकः) तब ईश्वर की महिमा को जान कर सब प्रकार के शोकों तथा दुःखोंसे छूट जाता है।

भा०— लोक में भी जो दुःख के निवारण में जैसा समर्थ होता है उस को वैसा कम शोक सताता और जो दुःख के निवारण में असमर्थ होता वही शोकसागर में डूबता है। और दुःख हटाने का सामर्थ्य भी भीतरी विचार की प्रबलतासे बुद्धितत्व की ठीक शुद्धि तथा सूक्ष्मता होने पर ही होता है। जो जैसा लोक में बुद्धिमान् दीखता है वह वैसा ही दुःख निवृत्ति का उपाय करता और दुःख से बच जाता

है। ईश्वर का बोध भी बुद्धि की ठीक शुद्धि और सूक्ष्मता का अन्तिम फल वा परिणाम है। कठोपनिषद् में कहा भी है कि “तेज सूक्ष्म बुद्धि द्वारा सूक्ष्मदर्शियों को ईश्वर दीखता भी है, इसीलिये दुख का त्याग तथा सुख की प्राप्ति चाहने वाले पुरुष को बाह्य विषयोके भोग को तृष्णाको छोड़ के भीतरी आत्म विचार में रमते हुए बुद्धि पर आरूढहोना चाहिये यह अभि-प्राय निकला जानो॥७॥

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति यइत्तद्विदुस्त इमे समासते॥८॥

अ०—ऋच इत्युपलक्षणार्थम्। ऋग्वेदादेः सम्बन्धिनि प्राधान्येन वाच्येऽक्षरेऽविनाशिनि व्योमवद्व्यापके परमे निरतिशये यस्मिन्नधि मध्ये विश्वे सर्वेऽग्न्यादयो देवास्तन्मयं सर्वं जगन्निषेदुर्निषीदति निरन्तरं तिष्ठति। तदविनाशि ब्रह्म यो न वेद न जा-नाति स ऋचो ऋग्वेदादिवेदाध्ययनेन किं करिष्यति? न किमपीत्यर्थः। व्यर्थं तस्य वेदाध्ययनं यइद्यएव तद् ब्रह्म विदुस्त इमे समासते विगतकल्मषाः सर्वोपद्रवरहिताः सुखेन सम्यगासते परमशान्त्या तिष्ठन्ति॥

भा०=ऋग्वेदादयःसर्वे कर्मकाण्डप्रतिपादका अपि वेदाः कर्मकाण्डवर्णनमिषेण नानानामरूपात्मकाग्न्यादिदेवतानां प्रतिपादनेन परमेश्वरमेव प्रतिपादयन्ति। अग्न्यादिनामरूपैः परमात्मनएवावस्थितत्वात्। ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौब्रह्मणाहु-तम्। अहंक्रतुरहंयज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्। मन्त्रोऽहमहमेवाज्य—महमग्निरहंहुतम्॥ इत्यादिप्रमाणेष्वेकस्यैव परमात्मनः कर्मसम्बद्धसर्वसाधनात्मकत्वं दर्शितं तस्मात्कर्मप्रतिपादकवेदभागोऽपि चिदात्मबोधक एवास्ति। अयमेव परो धर्मो यद्य-थाकथमपि योगाभ्यासादिना परमात्मचिन्तनं कुर्यात्तदर्थ वेदोऽध्येतव्यो न च वेदाध्ययनमार्गेण परमात्मज्ञानसदृशमन्यत्र क्वापि सुखमानन्दो वास्ति तस्मात्तस्य परमधर्मत्वम्। अयमपि मन्त्रः। ऋग्वेदमण्डले १। सूक्ते१६४। ३९ द्रष्टव्यः॥८॥

भाषार्थ— (ऋचोअक्षरे परमे व्योमन्) यहा ऋचउपलक्षणार्थ है इससे ऋग्वेदादि वेदोके सम्बन्धि मुख्य वाच्यार्थ अवि-नाशी आकाश के तुल्य व्यापक (यस्मिन्नथि विश्वेदेवा

निषेदुः) जिस असीम अनन्त ईश्वर के भीतर बड़ी २ प्रबलशुक्तियों वाले सब अग्न्यादि देवता तथा देवमय सबस्थूलसूक्ष्म जगत् ठहरा हुआ है (तद्योन वेद शिमृचा करिष्यति?) उस अविनाशी ब्रह्म को जोपुरुष नही जानता वहऋग्वेदादि वेद पढ़ के क्या करेगा? अर्थात् कुछ नहीं, उसका वेद पढ़ाना व्यर्थताहीहै (यद्दत्तद्विदुस्त इमे समासते)और जो ही लोग उस ब्रह्म को जान लेते आत्म ज्ञान कीऔर जिन का विचार झुक जाता है वे इन पाप दोष उपद्रवादि से रहित होकर सुख पूर्वक शान्ति में ठहर जाते हैं।

** भा० -**कर्मकाण्डप्रतिपादक ऋग्वेदादि सब वेद कर्मकाण्डवर्णन के द्वारा अनेक नाम रूपात्मक अग्न्यादि देवताओं के प्रतिपादन से परमेश्वर का ही वर्णन करते हैं।क्योकि अग्न्यादि सब नाम रूपों से वही एक आत्मा अवस्थित है। श्रीभग-वद्गीता में लिखा है कि ब्रह्म रूपहविष्को जीव रूप ब्रह्म ने ब्रह्मात्मक अग्निमें होम कियाब्रह्मार्पण हो जाता है। तथा बड़े छोटे यज्ञ स्वधा स्वाहा,वषट्कार, पुरोडाशादि, मन्त्र आज्य घृत, अग्नि, होम इत्यादि सभी मैॆ ईश्वर हूं इत्यादि प्रमाणों में कर्म सम्बन्धीसब साधन रूप एक ही परमेश्वर को दिखाया है। तिस सेसिद्धहुआ कि कर्म प्रतिपादक वेद भाग भी ईश्वर बोधक है।मनुष्यके लिये यही परमधर्म है जो जिस किसी प्रकारयोगाभ्यासादि के द्वारा परमात्मा का चिन्तन करे। उसीको जानने के लिये वेद पढ़ना चाहिये और वेदाध्ययन केद्वारा परमात्मा को जानने से होने वाले सुख के समान अन्यत्र कहीं सुख वा आगन्द नही है। इसी से वह परमधर्महै। यह भी ऋग्वेदमण्डल १ सूक्त १६४ में ३९ उनतालीसवां मन्त्र है॥८॥

छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि
भूतं भव्यं यच्च वेदां वदन्ति।
अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्त-
स्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः॥९॥

** अ०-** यज्ञाः पञ्चमहायज्ञा दर्शेष्ट्यादयश्चक्रतवो ज्योतिष्टोमादयो मखाः, व्रतानिचान्द्रायणादीनि छन्दांसि दुःखवारकाणि गायत्र्यादीनि वेदचतुष्टयरूपाणि मनुष्येण सेव्यानि भूतं भव्यं भविष्यद्यच्च वर्त्तमानं त्रिकालस्थं वस्तुजातं सुखं दुखं च मनु-ष्यैर्भोक्तव्यम्।एतच्च वेदाः सृष्टः प्रयोजनं वदन्ति। अस्मादेव प्रयोजनाद्धेतोर्मायायाः प्रकृतेः स्वामीमायोऽस्यास्तीति मायी विश्वं सर्वमेतद्यज्ञादिकं सृजते रचयति तस्मिंश्च कार्ये जगतिशुभमनुष्ठातुमादिष्टा अप्यन्ये जीवाः केचिज्जीवा माययाऽविद्यया सन्निरुद्धाः शुभकर्मसेनाद्दूरीकृता रागादिभिर्बद्धाः॥

भा० - अस्यां सृष्टौ केषांचिज्जीवानांविशिष्टदुःखभोगायैव जन्म केषांचिन्मध्यकक्षायां सुखदुःखोभयभोगाय केषांचिच्चाधि

क्येन सुखभोगाय शुभानुष्ठानेन मोक्षभावाय
च जन्म भवति तत्र मध्या उत्तमा अपि
केचिद्रागेण रक्ता अधः पतन्ति कामक्रोधाद-
यएव तेषां पातकाः शत्रवो ज्ञेयाः॥९॥

** भाषार्थः-** (यज्ञाः क्रतवो व्रतानि छन्दांसि) पञ्चमहायज्ञादि नित्य कर्म तथा दर्शेष्टि आदि यज्ञ क्रतुनाम ज्योतिष्टोमादि बड़े यज्ञ और चान्द्रायणादि व्रत वां सब का मूलब्रह्मचर्य व्रत छन्द नाम छाता छप्पर छत्त आदि के समानविपत्तियों धाम मेघा-दि के समान जाने वाले दुःखों सेबचाने वाले गायत्र्यादि छन्दोबद्ध चारों वेद इन यज्ञादिकर्त्तव्यों के द्वारा मनुष्यादि प्राणि-यों को सुख मिले इसप्रयोजन से तथा (भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति) भूत भविष्यऔर वर्तमान इन तीनों काल के सब पदार्थ और सुख दुःखसामान्य वा निकृष्ट मनुष्यादि भोगें यही सृष्टि रचने काप्रयोजन है ऐसा वेद कहते हैं (अस्मान्मायी-सृजते विश्वमेतम्) इसी हेतु वा प्रयोजन से मायानामक प्रकृतिका स्वामीप्रकृति को सदा अपने आधीन रखने वाला ईश्वर इस पूर्वोक्त यज्ञादि सब जगत् को रचता है इस उक्त प्रयोजन सेसृष्टि की रचना होने पर भी (तस्मिंश्चान्यो मायया संनि-रुद्धः) उस कार्य जगत् में भोग के लालचसे शुभकर्मोके सेवनद्वारा ज्ञानाधिकारी होकर मुक्त होने के लिये रचे हुए भी अनेक जीव अविद्याग्रस्त हो के शुभ कर्मों के सेवन से रुकजाते रागादि में बद्ध हो जाते है।

** भा० -** इस सृष्टि में किन्हीं जीवों का विशेष दुःख भोगनेके लिये ही किन्हीं का मध्यम दशा में रह कर सुख दुःखदोनों भोगने के लिये और किन्हीं का शुभ कर्मानुष्ठान द्वारा

अधिक सुख भोगने वा मुक्ति होने के लिये जन्म हाता उनमें मध्यम और कही २ उत्तम कोटि के भी कोई २ मनुष्य रागादि में बद्ध होके नीचे को गिर जाते हैं और उन कोगिराने वाले काम क्रोधादि ही मुख्य शत्रु जानो ॥९॥

मायान्तु प्रकृतिं विद्यान्मा-
यिनन्तु महेश्वरम्। तस्यावयव-
भूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्॥१०॥

** अ० -** मायामेव प्रकृतिमस्य जगतउपादानकारणं विद्यान्मायास्वामिनं कालत्रयेऽपि सर्गस्थितिलयेषु मायाऽस्याधिकारेस्ति तं महान्तमीश्वराणामपीश्वरं निरतिशयैश्वर्यं मायिनंविद्यात्तस्य चिदात्मकस्य मायिनो मायासंबद्धैर्मायावशात्कल्पितावयवभूतैः सर्वमिदं भूरादिचतुर्दशभुवनात्मकं जगत् व्याप्तम्॥

भा०- ब्रह्मभिन्नत्वेन मायया असत्त्वादवस्तुत्वाच्च तरय मायाऽपि तदात्मकैवास्तिभिन्नत्वेन वस्त्वन्तरत्वे सति श्रुतिविरुद्धो द्वैतापत्तिदोषः। हाटकादौ भूषणकल्पनादिवद्ब्रह्मणि माया कल्पिताऽस्ति। अतो मायैव जगत उपादानं ब्रह्मैव वाऽस्यो-पादानमित्यनर्थान्तरं बोध्यम् तस्य भगवतो मायाकल्पि-

ताकाशवाय्वाद्यात्मकं ब्रह्माधिष्ठितमिदं सर्वंजगदस्ति॥१०॥

** भाषार्थः—**(मायान्तु प्रकृतिं विद्यात्) माया को हीप्रकृति नाम जगत् का उपादान कारण जानो और (मायिनंतु महेश्व-रम्) सृष्टि स्थिति और प्रलय तीनों काल में मायानामक प्रकृति को अपने अधिकार में रखने वाले माया केस्वामी असीम ऐश्वर्य युक्त अनन्त व्यापक ईश्वर को मायीजानो (तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्) उस चिदात्मक मायी ईश्वर के माया सम्बन्धी माया के कारणकल्पित हुए स्थूल सूक्ष्म अवयवों से यह सब चौदह भुवनस्वरूप जगत् व्याप्त हो रहा है॥

** भा०—**ब्रह्मसे भिन्न मायाका सद्भाव न होने तथा वस्त्वन्तर न होने से उस परमेश्वर की माया भी उसी का एक’रूप है। क्योंकि न मानने से वस्त्वन्तर सिद्ध हो जानेपर वेद के अटल सिद्धान्त से विरुद्ध द्वैतापत्ति दोष आवेगाइस से सुवर्णादि में भूषणादि के कल्पना मात्र होने के तुल्यब्रह्म में माया भी कल्पनामात्र है। इस से माया ही जगत्का उपादान कारण है वा ब्रह्म ही इस सब जगत्काउपादान कारण है ये दोनों बातें एक ही हैं। उस भगवान्की माया से कल्पित आकाश वायु आदि अवयवात्मक ब्रह्म से अधिष्ठित यह सब जगत् है॥१०॥

** यो योनिंयोनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदं सं च विचैतिसर्वम्। तमीशानं वरदं देवमीड्यंनिचाय्येमां शान्तिमत्यन्त-मेति॥११॥**

अ०

मायाकार्याखिलयोन्यधिष्ठात्रा विषयदादिकार्योत्पादकेन सर्वाधिष्ठातृत्वोपलक्षितसच्चिदानन्दात्मना ब्रह्माऽहमस्मी-त्येकत्वज्ञानान्मोक्ष दर्शयति- यएकोऽद्वैतीदेवोमायाविमुक्त आनन्दैकरसः परमेश्वरो योनिंयोनिंमूलोपादानमायायाः सर्वान-वान्तरभेदानधितिष्ठति सचान्तर्यामिरूपेणाप्रकृतिभेदेषु सत्तास्फूर्त्तिमाविर्भावयन्नधिष्ठाताभवति यस्मिन्नीशेप्रलयावसरे सर्व-मिदं जगत् समेति लीयतेसर्गकाले चाकाशादिरूपेण विविधतामेतिनाना भवति जीवात्मा तमीशानं सर्वनियन्तारं मोक्षरू-पसर्वोत्तमफलप्रदमीड्यं वेदादिनास्तुत्यंदेवं निचाय्य ब्रह्माहमस्मीस्ति निश्चित्येमां स्थालीपुलाकन्यायेन सुषुप्तादौ प्रत्यक्षे-णानुभूतां शान्तिमत्यन्तमेति प्राप्नोति॥

भा० - सर्वस्य रथूलसूक्ष्मस्य योऽध्यक्षःसर्गस्थितिलयहेतुः सर्वनियन्ता सर्वरक्षकः सर्वोपरि सुखप्रदः सर्वथा सर्वदा च शा-न्तिमयरतय प्रत्यगात्मनो देहादिष्वात्मभावं विहायचिदात्मस्वरूपबोधएव निरतिशयशान्तिप्राप्तेःप्राणिनः प्रधानं कार-णमस्ति॥११॥

भाषार्थः- माया से उत्पन्न सबदेव मनुष्यादि योनियोंके अधिष्ठाता आकाशादि कार्य के उत्पादक सर्वाधिष्ठाताहोने से उपलक्षित सच्चिदानन्द रूप आत्मा के साथ में ब्रह्महूं इस प्रकार का एकत्व ज्ञान होने से मोक्ष होना ग्यारंहवेंमन्त्र से दिखा (य एको योनिंयोनिमधितिष्ठति) जोएकअद्वैत देव माया से विमुक्त आनन्द रूप परमेश्वर मायानामक मूल उपादा-न के सब अवान्तर भेदां का अधिष्ठाताहै अर्थात् वह अन्तर्यामिरूप से प्रकृति के अवान्तर भेदों मेंउत्पादनादि स्फूर्त्ति प्रकट करता हुआ अधिष्ठाता होता है(यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वम्) जिस ईश्वर मेंप्रलय के समय यह सब जगत् लीन होता और उत्पत्ति केसमय आकाशादि रूप से नाना प्रकार के भेदों वाला प्रकटहोता (तमीशान वरदमीड्यंदेवम्) उस सर्वनियन्ता मोक्षरूप सर्वोत्तम फल देने वाले वेदादि शास्त्रों से स्तुतिके योग्यईश्वर देव का मैं ही ब्रह्म ईशानादि रूप हूं (निचाय्येमांशान्तिमत्यन्तमेति ) निश्चय करके स्थालीपुलाकन्याय सेनिद्रादि के समय प्रत्यक्ष अनुभव की हुई इस अत्यन्त शान्तिको प्राप्त हो जाता है जिस में दुःख उपद्रव वा विघ्नों कालेशमात्र भी नही है।

** भा० -** सब स्थूलसूक्ष्म जगत् का जो स्वामी सृष्टि स्थितितथा प्रलय का कारण सर्वनियन्ता, सर्वरक्षक, सर्वोपरि सुखदा-ता सब काल में और सब प्रकार से शान्तिस्वरूप है।शरीरादि में आत्मभावना न करके उस अपने वास्तविकस्वरूप का बोध ही जीव को अत्यन्त शान्ति मिलने काप्रधान कारण है॥१९॥

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च
विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः। हिर-
ण्यगर्भं पश्यत जायमानं स नो
बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥१२॥

** अo -** अखण्डिततत्त्वज्ञानाय प्रार्थनामाहयो देवानां स्थूलसूक्ष्माग्न्यादितत्त्वानां तत्तदभिमानिदेवानां च प्रभव उत्पत्तिस्थानमु-द्भवोनियमेन तैः कार्यसाधको विश्वस्याधिपतीरुद्रः शास्ता महर्षिः सर्वज्ञः सर्वविद्यानिधानस्य वेदस्य प्रकाशकोऽस्ति। जायमानं सर्गारम्भे विधातृरूपेण प्रादुर्भूयमानं हिरण्यगर्भनामरूपात्मकं परमेश्वरं हे जनाः! पश्यत ज्ञानचक्षुभ्यामितिशेषः। स सर्वज्ञः शुभया धर्मानुगामिन्या कल्याणकारिण्या रजस्तमोलेशमलापैतया तत्त्वज्ञानरूपया बुद्ध्या नोऽस्मान्संयुनक्तु = इति प्रार्थयामः॥

** भा०-** तस्येश्वरस्य गुणकर्मस्वभावानामालोचनेनैकाग्रचेतसा स्तुतिप्रार्थनाभ्यां चान्योपायापेक्षयाऽऽधिक्येन शान्तिमयं सुखं मनुष्येणाप्तुं शक्यते॥१२॥

भाषार्थः- अखिसडत तत्व ज्ञान प्राप्ति के लिये प्रार्थनाकहते हैं (यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्व ) जो स्थूल सूक्ष्म अग्न्यदि तत्वों का तथा उन २ अग्न्यादि के अभिमानीदेवो का उत्पादक और नियम के साथ उन २ से कार्य लेनेवाला (विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः) सब का स्वामी सब काशासक सर्वज्ञ नाम सब विद्याओ के आधार वेदका प्रकाशक(हिरण्यगर्भ पश्यत जायमा-नम्) सृष्टि के आरम्भ में सबके उत्पादनार्थविधाता रूप से प्रकट होने वाले हिरण्यगर्भनाम रूपात्मक परमेश्वर को हे मनुष्यो ! ज्ञानदृष्टि सेदेखो (स शुभया बुद्ध्या नः सयुनक्तु ) वह ईश्वर शुभकल्याण कारिणी धर्मानुगामिनी रजोगुण तमोगु-ण से लेशमात्र भी तमसे रहित तत्त्वज्ञान रूप बुद्धि से हम को संयुक्तकरे ऐसी हम प्रार्थना करते है।

** भा०-** उस ईश्वर के गुण कर्म स्वभावों के आलोचनद्वारा एकाग्रचित्तसे स्तुति प्रार्थना करके जैसां अधिक शान्तिरूप सुख मनुष्य को प्राप्त हो सकता है वैसा अन्य उपायनहीं॥१२॥

यो देवानामधिपो यस्मिंल्लोका अधिश्रिताः।
य ईशेऽस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥१३॥

** अ० -** यो देवानाममितशक्तिमतां ब्रह्मादिदेवानां तदवान्तरभेदानां चाधिपः स्वामीयस्मिन्नीश्वरे आधारे भूरादयो लोका अधि-

उपरिश्रिता यदाधारेणावस्थिता अध्यस्तालोकनामरूपैः प्रतीयन्ते। यएव परमेश्वरस्तत्तल्लोकस्थद्विपदो मनुष्यादेश्चतुष्पदः पश्वादेश्चेश ईष्टे तान् सर्वान्स्वाधीनान् करोति तस्मैकस्मै काय, सुखानन्दमयाय [स्मैभावच्छान्दसः] देवाय हविषा चरुपुरो-डाशादियज्ञसाधनैर्विधेम परिचरेम सेवेमहि। अत्र “लोपस्तआत्मनेपदेषु,, इति सूत्रेण छन्दोवन्मत्वाईष्ट इतितलोपः। अधीग-र्थदशां कर्मणीतिसूत्रेण कर्मणि पष्ठी च॥

भा०- चरुपुरोडाशादियागसाधनैस्तस्य यजनेन स्तुतिप्रार्थनादिकरणेन स्तुत्यादौ वागादेर्विशेषनियोगेन चेश्वरा-भिमुखतया मनुष्येण शान्त्याप्तयउद्योगः कार्यः॥१३॥

** भाषार्थः -** (यो देवानामधिपः) जो अतुल शक्ति वालेब्रह्मादि देवो तथा उन के अवान्तर भेद रूप देवों को वशीभूत रख-ने वाला ( यस्मिंल्लोका अधिश्रिताः ) जिस सर्वाधार ईश्वर के बीच भूरादि लोक जिस के सहारे से ठहरे’हुए हैं वा जिस में भूरादि लोक अध्यस्त हैं अर्थात् भूरादिलोक नाग रूप से प्रतीत हो (य ईशोऽस्यद्विपदश्चतुष्पदः)और जो परमेश्वर उस २ भूः भुवर् आदि लोक में रहते इसमनुष्यादि दो पग वाले और पश्वादि चार पग वाले प्राणिमात्र को स्वाधीन रखता है (कस्मै देवाय हविषा विधेम)

उस सुख का आनन्द स्वरूप देव की हम लोग अपने चरुपुरोडाशादि यज्ञ के साधनो से पूजा करे।

** भा०—**चारु पुरोडाशादि यज्ञ के साधनो से उसका पूजनकरने द्वारा तथा स्तुति प्रार्थनादि करके अर्थात् वाणी आदिको अन्य कामो से रोककर स्तुति आदि में हो अधिक लगाकर ईश्वर की ओर तत्पर रहते हुए मनुष्य को शान्ति प्राप्तकरने के लिये उद्योग करना चाहिये॥९३॥

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्यमध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारंज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति॥१४॥

** अ०—**सूक्ष्मतरप्रकृतिपरमाण्वादेरव्यक्तादप्यतिशयित सूक्ष्मतमं सूक्ष्मत्वस्य काष्ठांप्राप्त कलिलस्यागाधस्यानन्तस्य गहनस्यमोहावृतस्यजगतो मध्येऽन्त. साक्षिरूपेण निरञ्जनावस्थितमतएव विश्वस्य सर्वस्य स्रष्टारमनेकरूपं तत्तदवस्तुनि तत्तन्नाम्ना रूपेणविद्यमानं विश्वरयैकमेव परिवेष्टितारमनन्तं शिवमानन्दमयं परमात्मानं ज्ञात्वाऽत्यन्तं शान्तिमेति॥

** भा०—**निरतिशय सूक्ष्मत्वानन्तत्वनिर्विकारित्वादिकारणादेव कल्मषागारे जगति

सर्ववस्तुषु वर्त्तमानः सर्वस्य स्रष्टा सन्नपि परमेश्वरो वस्तुदोषैर्न लिप्यते तस्मादेव तस्यनिरतिशयशान्तस्य ज्ञानं जीवस्यात्यन्तशान्तिप्राप्तेः कारणं विज्ञेयम्॥१४॥

** भाषार्थः—**(सूक्ष्मातिसूक्ष्म कलिलस्य मध्ये) सूक्ष्म सेभी अति सूक्ष्म प्रकृति परमाण्वादि नामका अव्यक्त से भीपरे[वारीकी की हद्द को पहुंचे] मोह रूप अगाध अनन्तअविद्या से ढपे महाभयङ्कर संसार समुद्र के बीच साक्षी रूपसेवर्तमान निष्कलङ्क[वेदाग] रूप से अवस्थित इसी कारण(विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्) सब के उत्पादक तथा उस २वस्तु में विद्यमान (विश्वस्य परिवेष्टितारमेकं शिवं ज्ञात्वा)सब संसार को अपने भीतर रखने वाले एक ही आनन्दस्वरूप शिव को जानकर (अत्यन्तं शान्तिमेति ) जीव अत्यन्तशान्ति को प्राप्त हो जाता है।

**मा०—**सूक्ष्मता अनन्तता और निर्विकारीपग के असीमहोने से ही पापों के आधार जगत् में तथा जगत् के प्रत्येकपदार्थों में वर्तमान रहता और सबको उत्पन्नकरता हुआभी ईश्वर संसार के दोषों से दूषित नहीं होता इसी कारणसर्वोपरि अत्यन्त शान्तस्वरूपका जानना जीवको अत्यन्तशान्ति प्राप्त होने का कारण जागो॥१४॥

सएवकाले भुवनस्य गोप्ता
विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढः।
यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देव-

ताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति॥१५॥

** अ०—**सएव स्थितिकाले भुवनस्य चराचरस्य गोप्ता रक्षिता विश्वस्याधिपः स्वामीब्रह्मादिस्थावरावधि सर्वभूतेषु गूढोऽदृश्यउद्भूतानुभूतचिदात्मनाऽवस्थितो ब्रह्मर्षयो ब्रह्मत्वप्रधाना ज्ञानिनो देवता इन्द्रादयः क्षत्रत्वप्रधाना यरिमन् युक्ता संगच्छन्ते यमाप्नुवन्तितमेवंभूतं ज्ञात्वा जीवो मृत्युपाशान् छिनत्तितादात्म्यमाप्नोति॥

** भा०—**अग्नौ शीतनिवारणपाचनादिशक्तिरस्तीति ज्ञात्वैव तथा कुर्वाणस्तत्फलं लभते।एवमीश्वरं स्वात्मनाऽभेदेन तत्तच्छक्तिमन्तंज्ञात्वैव जीवो मरणादिजन्या परिमितदुःखामुक्तो भवितुं शक्नोति॥१५॥

** भाषार्थः—**( सएव काले भुवनस्य गोप्ता ) वही संसारके स्थिति काल में सब चराचर का रक्षक विश्वाधिपः सर्वभूतेषु गूढा) सब का स्वामी ब्रह्मादि स्थावर पर्यन्त सब मेंअदृश्य हो के प्रकट वा अप्रकट चिदात्म रूप से अवस्थित(ब्रह्मपयो देवताश्च यस्मिन् यक्ताः) तपस्वी ज्ञानी ब्रह्मर्षिब्राह्मण और क्षत्रत्व प्रधान इन्द्रादि देव जिस से मेन करतेजिस को प्राप्त होते नाम जिस में लीन हैं (तमेवं ज्ञात्वा

मृत्युपाशांश्छिनत्ति) उस को ऐसाहो जानकर जीव मृत्युकी फासियो को काट डालता और उसी का स्वरूप ही जाता है।
भा०—शीत निवारण और पकाने आदि की शक्तिअग्निमें है ऐसा जान कर ही उपाय करता हुआ पुरुष उसउस फल को जैसे प्राप्त कर पाता है। इसी प्रकार ईश्वरकोअपने से भिन्न वैसी २ शक्ति वाला जानकर ही जीव मरने आदि में होने वाले अपरिमित दुःखसे छूट सकता है॥१५॥

घृतात्परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं
ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा
देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥१६॥

** अ०—**प्रतपनानन्तरं ग्रीष्मादिकाले घृतस्योपरि यत्साररूपं मण्डमतिसूक्ष्मं दृश्यते।तद्वत्सराणामपिसारं सारवस्तुवन्मुमुक्षूणामानन्दप्रदं सर्वेषु जायमानेषु गूढ शिवं ज्ञात्वातथैकं विश्वस्यपरिवेष्टितारं देवं ज्ञात्वा जीवः’ सर्वपाशैरखिलदुःखहेतुबन्धनेर्मुच्यते।अत्र ज्ञात्वेत्यस्या-वृत्तिर्दार्ढ्यार्था ज्ञात्वैव सर्वपाशैर्मुच्यते नान्यथेति॥

** भा०—**घृतादिसारवस्तूपादानायैव सर्वोलोकस्तदाप्त्या सुखलाभं मन्यमानोऽनिशं

यतते। यश्च साराणामप्यसीमः सारस्तं प्रायेणन जानन्ति ये केऽपि कदाचित्तादृशं सारतायाः काष्ठां प्राप्तमीशं कथमपि विदन्ति तेतादृशमेवानन्तं सुखमश्नुवते। एकपदेनजीवाभिन्नस्य परेशस्यात्यन्तात्यन्तसूक्ष्मत्वबोधने नानन्दातिशयवत्त्वं निर्दोषत्वं सर्वप्राणिषुचित्स्वरूपेणावस्थानत्वं सर्वस्य सत्तादिप्रदतया व्यापित्वं च सम्यग्जानानः प्राप्यखिलबन्धनाद्विमुच्यते॥१६॥

भाषार्थः—(घृतात्परं मयहमिवातिसूक्ष्मम्) तपायेछाने हुए घी के ऊपर पड़ने वाली सार रूप अति सूक्ष्ममलाई के तुल्य(सर्वभूतेषु गूढ शिवं ज्ञात्वा) उत्पन्न हुएसब पदार्थों में गुप्त सार वस्तुओं के तुल्य मुमुक्षुओं कोनन्द देने वाले शिव को जानकर (विश्वस्यैकं परवेष्टितारंदेवं ज्ञात्वा ) और सव ब्रह्माण्ड के चारों ओर लपेटकर सबको अपने भीतर रखने वाले देव को जानके ही (सर्व पाशैः)जीवदुःखके सम्पूर्ण बन्धनों से (मुच्यते) छूट जाता है।यहां ज्ञात्वा पद दृढ़ता के लिये दोबार पढ़ा है कि जानके हो मोह की फांसों से छूट सकता है अन्यथा नहीं॥

** भा०—**घृतादि वा चांदी सुवर्णादि सार वस्तुओं काग्रहण करने के लिये ही सब लोग उस की प्राप्ति से सुखमानते हुए सदा उपाय करते है परन्तु जो सारोंका भी सार,सापनकी जिसमें पराकाष्ठा है उसको प्रायः लोग नही जानतेऔर जो कोई जब कभी जिम किसी प्रकार उस सारपनकी

अन्तिम दशा ईश्वर को जान लेते हैं वे उस की अपेक्षा अभ्यअसार वस्तुओ का त्याग कर वैसे ही असीम सुख को प्राप्तहो जाते हैं इस ग्रन्थ के अनेक मन्त्रो में कई बार कहे( सर्वभूतेषु गूढम् ) इत्यादि पद उस २ अभिप्राय को दृढकरने के लिये है इस मन्त्र में एक पद से जताता है कि जीवसे- अभिन्न परमेश्वर की सब से अति सूक्ष्मता का बोधहोने से उसकी आनन्द स्वरूपता निर्दोषता सब प्राणियोंमें चैतन्य रूप से स्थिरता और सब पदार्थों को सत्तादि देनेवाला होने से उस को व्यापकता को जानता हुआ ही प्राणीसब बन्धन के हेतु दुःखों से छूट सकता है॥१६॥

एष देवी विश्वकर्मा महात्मा
सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य
एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥१७॥

** अ०—**विश्वं सर्वं महदादिकार्यं कर्मक्रियमाणस्य विश्वकर्मा महांश्चासावात्मा सर्वव्यापी जनानां हृदये सदा सन्निविष्टो जलाद्युपाधिषु सूर्यादिप्रतिबिम्बवदवस्थितः।मनीषा बुद्धिरूपेण सूक्ष्मातिशुद्ध हृदयस्थमननरूपात्मानात्मविवेकज्ञानेनाभिक्लृप्तोऽभिव्यज्यमान एष प्रकृतो देवोऽस्ति ये साधनचतुष्टयसम्पन्ना विरक्ता जना एतत्तत्वमस्यादिवाक्य-

प्रतिपाद्यमखण्डैकर समेकमात्मतत्त्वं विदुस्तेऽमृता मुक्ता भवन्ति। अत्र मनीषेति तृतीयैकवचनविभक्तेः सुपामित्याकारादेशः॥

**भा०—**सर्वोत्पादकः सर्वान्तर्यामी सर्वसुखहेतुरीश्वरोऽस्मदन्तःकरणएव सदाऽवस्थितस्तदेव वास्तवं मम स्वरूपं नाहं शरीरेन्द्रियान्तःकरणादिरूप इति मत्वा विविक्तावकाशे निरुद्धैकाग्रचेतसा ये तं ज्ञातुं यतन्तेते तद्बोधेन दुःखान्मुच्यन्ते॥१०॥

भाषार्थः—(विश्वकर्मा महात्मा जनानां हृदये सदासंन्निविष्टः) माया के सम्बन्ध से महदादि सब कार्य जगत्को रचने वाला सर्वत्र व्यापकजलादि उपाधियों में सूर्यादिके प्रतिबिम्बके समान मनुष्यो के हृदय में सदा हो विद्यमान (मनीषा हृदा मनसाऽभिक्लृप्तः) सूक्ष्म अति शुद्ध हृदयस्य मननरूप आत्माअनात्मा के विवेक बुद्धि वा ज्ञान सेप्रकट जात होने वाला (एष देवः) यह प्रकृत देव ईश्वर है(यएतद्विदुस्तेऽमृताभवन्ति) शमादि चार साधनोसे युक्ततथा विरक्त जो मनुष्य तरयमसि० इत्यादि प्रमाण प्रतिपाद्य अखण्ड एक रस अपने से अधिक एक आत्मतत्व कोजानते हैं वे मुक्त हो जाते हैं।

** भा०—**सब का उत्पादक सब का अन्तर्यामी सब सुखोंका हेतु ईश्वर हमारे अन्तःकरण में हो सदा अवस्थित है। वही हमारा वास्तविक स्वरूप है। किन्तु शरीर इन्द्रिय औरअन्तःकरण रूप हम नहीं है ऐसा नाम कर रोके हुए एकाग्र

चित्तसे एकान्त प्रदेश में जो लोग उस को जानने का यत्नकरते हैं वे उस ईश्वर को जानकर शान्ति को प्राप्त हुएदुःख से छूट जाते हैं ॥१७॥

यदाऽतमस्तन्न दिवान रात्रि-
र्नसन्न चासच्छिवएव केवलः।
तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा
तस्मात्प्रसृता पुराणी॥१८॥

** अ०—**यदा निर्बीजासंप्रज्ञातसमाधिकालेतमः कार्याविद्यादिक्लेशजन्य दुर्निवार्यसूक्ष्म-वासनानामप्यभावस्तत्तदा न दिवा दिनमिति, नचरात्रिरिति, नच जगत्सद्विद्यतइति, नच मच्छरीरं मदीयाः पदार्था वा नसन्ति सर्वाभावइति, कोपि चेतोवृत्तिरूपःप्रत्ययो न भवत्यपितु स्वरूपशून्येनेव ध्येयाकारनिर्भासेन तत्स्थतदञ्जनतायाः समापत्तेःपराकाष्ठां प्राप्तेन तेन कल्याणमयएकः परमात्मैव दृश्यते। अर्थान्निवातस्थप्रदीपज्योतिरिव स्वीये वास्तविक परमात्मस्वरूपेऽवतिष्ठते।तच्चात्मतत्त्वमक्षरं स्वभावेनैवाविनश्वरं सवितुरुदयकालीन सूर्यादण्याधिक्येन शोभमानं प्र-

काशमयं तस्यापि कारणत्वात्। तस्मादेव चपुराणी सनातनी प्रज्ञा प्रकृष्ट सर्वोत्तम ज्ञानसाधिका वेदवाणी शैलान्नदीवज्जगति प्रसृता॥

** भा०—**“समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत्। तद्वाचां वक्तुंन केनापि शक्यतेऽतस्तादृशालौकिकाद्भुतसर्वोत्कृष्टसुखानुभवाय योगसमाधिमन्तरेणनान्यः कोऽप्युपाय-इति मत्वा स्वीयपरमात्मस्वरूपेऽवस्थित्याऽनुभूयमानानन्दावाप्तये योगाभ्यासस्तल्लिप्सुना प्रयत्नात्कार्यइति॥१८॥

** भाषार्थः—**(यदा तमस्तव दिवा न रात्रिः) जब निर्बीजवा असंप्रज्ञात नामक समाधिस्य हो जाने के समय तमोगुणके कार्य अविद्यादि क्लेश तथा अति कठिनता से निवृत्तहोने वाली विद्यादि को सूक्ष्म वासनाओं का भी प्रभावहो जाता है तब न दिन है ऐसा कह सकते न रात्रि (नतसश्वासच्छिवएव केवलः) जगत् विद्यमान है या मैं विद्यमान हूं.ऐसा भी नही कहा जाता, मेरा शरीर वा मेरे पदार्थ तथाअन्य मनुष्यादि नहीं हैं ऐसा भी भान नही होता किन्तुकिसीप्रकार की भी चित्त की वृत्ति उस समय नहीं होतीअपने स्वरूप से शून्य से हुए केवल ध्येय के आकार में लगेतत्स्थउसी की ओर झुकावट और तन्मय होना रूप समापत्ति की अन्तिम सीमा को प्राप्त जीवात्मा कल्याणमयएक परमात्मा को ही दीखने लगता है अर्थात् निर्वातस्थान के दीप ज्योति के तुल्य अपने वास्तविक परमात्म

स्वरूप में अवस्थित हो जाता है (तदक्षर तत्सवितुर्वरेण्यम्)वह आत्मतत्व स्वभाव से ही अविनाशी उदय कालके सूर्य सेअधिक शुद्ध प्रकाशस्वरूप तेजोमय है क्योकि वह सूर्यादिप्रकाशों का भी प्रकाशक है (तस्मात्पुराणी प्रज्ञा प्रसृता)उसी ईश्वर से सर्वोत्तम ज्ञान की हेतु सनातन वेदवाणीपर्वत से निकल के नदी के समान जगत् में फैली है॥

** भा०—**“समाधिद्वारा धोकर शुद्ध किये चित्तको परमात्मामें लगाने से जो सुख होता है वह वाणीसे कहने में नहींआता, इससे इस तथा अन्य उपनिषदों में कहे अनुसार वैसेअलौकिक सर्वोत्तम अद्भुत सुख का अनुभव करने के लियेयोग समाधिको छोड़ के अन्य कोई उपाय नहीं है ऐसामानकर उस अपने परमात्म स्वरूप मे अवस्थित होने सेप्रतीत होने वाले आनन्द का स्वाद चाहने वाला पुरुषप्रयत्न के साथ योगाभ्यास का अधिमात्र तीव्रसंवेग से उपायकरे॥१८॥

नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये
परिजग्रभत्। न तस्य प्रतिमा
अस्ति यस्य नाम महद्यशः॥१८॥

** अ०—**एनमुक्तं सर्वस्माद्वरेण्यं परमात्मानमपरिच्छिन्ननिरंशनिरवयवत्वादिनोर्ध्वंमध्ये तिर्यंञ्चं वा न कोऽपि परिजग्रभत्परिग्रहीतुं शक्नोति। न केनापि हस्ताद्यवयवेनस गृह्यते। यस्यैकस्याखिलदिग्देशकालेष्वप-

रिच्छिन्नं नामाभिधानं महद्यशोऽस्ति।सर्वदिग्देशकालेषु य एकएवेश्वरः कैरपि स्वस्वभाषानामभिर्गीयते तस्य प्रतिमा उपमाकापि नास्ति ययेदृशइति केनापि निर्दिश्येत॥

** भा०—**परिच्छिन्नं वस्तु ग्रहीतुं निरोद्धुंवा शक्यते परेशस्तु सर्वदिग्देशकालेष्वपरिच्छिन्नोऽस्ति तादृशाखण्डैकरसो द्वितीयःकोपि नास्ति येनोपमीयेत। भगवतः पूजार्थं प्रतिमानिर्माणमवतार-विग्रहाणां क्रियते नतुदिगाद्यनवच्छिन्नस्याखण्डस्य, भगवतो नामजपो महद्यशः करोति॥१९॥

** भाषार्थः—**(नैनमूर्ध्व न तिर्यञ्चं न मध्ये परिजग्रभत्)श्रम तथा अवयवोसे रहित होनेसे अपरिवहन सबसे उत्तमपरमात्मा को ऊपर नीचेवा बोधमें कहीं भी कोई हाथआदि से पकड़ नहीं सकता (यस्य नाम महद्यशः) जिसएक ईश्वर का सब दिशा देश और कालों में नाम के प्रचारद्वारा यश फैला है अर्थात् सब देशों और कालों में अपनी २भाषा के किन्हीं २ नामों द्वारा सब मनुष्य तीनों काल मेंअपने कल्याणार्थ एक ही ईश्वर को पुकारते गाते हैं (तस्यप्रतिमा नास्ति) उस की कोई प्रतिमा नाम उपमा नहीं हैजिस की समता द्वारा जताया जाय कि ईश्वर ऐसा है।

** भा०—**परिच्छिन्नवस्तु को कोई पकड़ वा रोक सकताहै और परमेश्वर सब दिशा देश और कालों में आकाशवत्अखण्डअपरिच्छिन्न है। वैसा अखण्ड एकएवद्वितीय

कोई पदार्थ नहीं है जिस की तुल्यता दिलायी जावे किईश्वर ऐसा है। भगवान् की पूजा के लिये जो प्रतिमाबनायी जाती है तो अवतार शरीरों की बनती हैं किन्तुदिगादि में एक रस अखण्ड व्यास ईश्वर की प्रतिमानहीं बनती। भगवत् का नाम अपना महती कीर्ति करनेवाला है॥१९॥

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा हृदिस्थं मनसा यएनमेवं
विदुरमृतास्ते भवन्ति॥२०॥

** अ०—**अस्य निर्गुणस्य प्रकृतेश्वरस्यरूपं संदृशे मनुष्याणां समक्षे दृग्गोचरे नकदापि क्वापि तिष्ठति। अतएव कश्चन कोप्येनं चक्षुषा न साक्षात्पश्यति। किन्तु हृदाहृदयस्थेनाविषयासक्तेन स्वरूपावस्थेनैकाग्रेणमनसा सूक्ष्मशुद्धविचारेण हृदिस्यमेवस्वरूपाभेदेन यएनं ज्ञातुं प्रवर्त्तते स एव पश्यति हार्दानुभवेन साक्षात्करोति। एवं ये तं विदुर्जानन्तितेऽमृता मरणादिजन्यापार-दुःखरहिताः प्राप्तभुक्तदशा भवन्ति॥

** भा०—**अरूपस्य वास्तवेन निर्गुणस्यनिराकारस्वरूपस्य परमात्मनः कोऽपि दर्शनं

कर्त्तुं न शक्नोति। तस्मादीश्वरः कोऽपि नास्तीति मत्वा मनुष्या नास्तिका न स्युरेतदर्थंभगवानसुरराक्षसादिविध्वंसायास्तिकभक्तानांरक्षणाय धर्मस्य संस्थापनाय च युगेयुगे यथावसरं बहुविधान्स्वीयान् मायाकल्पितान्मायोपाधिकान् मानुषादिशरीरविग्रहानाविर्भाव्य दृष्टिपथमायाति। तानि च रूपाणिमायोपाधिनैवदृश्यन्ते नतु वास्तविकानीतिबोध्यम् तस्माद् वास्तवेनारूपोऽदृश्योऽपिमायोपाधिना रूपवान् दर्शनीयश्च भवति॥२०॥

** भाषार्थ—**( अस्य रूप सदृशे न तिष्ठति ) इस निर्गुणप्रकृत ईश्वर का रूप गुण मनुष्यो के सामने कही कभी नहीठहरता इसी से ( एवं कश्चन चक्षुषा न पश्यति) इस निर्गुणकी कोई पुरुष आख से साक्षात् नही देख सकता किन्तु(हृदा मनसा हृदिस्थं य एनम्) विषयो की ओर न झुके वान फसे, स्वरूप में अवस्थित एकाग्र, शुद्ध सूक्ष्म विचार सेअपने हृदय में ही स्थित इस ईश्वर को अपने स्वरूप सेअभिन्न जानने के लिये जो चेष्टा करता है वही उस कोहृदय के अनुभव से साक्षात् कर पाता (एवं विदुस्तेऽमृता भवन्ति) जो लोग इस उक्त प्रकार से उस को जान लेते वेमरणादि के अपार दुःख से छूट जाते है।

** भा०—**वास्तव में रूप रहित निर्गुण निराकार अखण्डस्वरूप ईश्वर है इसी कारण धर्म चक्षु से उस का दर्शन कोईनहीं कर सकता इस दशा में ईश्वर कोई होता तो कही कभी

दीखता न? ऐसा मान कर मनुष्य नास्तिक न हो जाय इस्कारणा भगवान् असुर राक्षसादि स्वभाव वाले दुष्ट प्राणियोंका विध्वस करने आस्तिक भक्तजनों की रक्षा करने औरधर्म की फिर २ स्थापना करने के लिये यथावसर प्रत्येक युगमें माया कल्पित मायोपाधिक अपने बहुविध मनुष्यादिरूप वाले अवतार शरीरोंको प्रकट करके मनुष्यों के दृष्टिगोचर होते हैं। परमात्माके अवतार रूप मायात्मक उपाधियों से ही देखने में जाते हैं किन्तु वे रूप वास्तविक उसके नहीं हैं। तिससे सिद्ध हुआ कि ईश्वर वास्तव में अरूपतथा अदृश्य होने पर भी मायोपाधि से कृत्रिम रूप धारणकरके देखने योग्य भी होता है॥२०॥

अजातैत्येवं कश्चिद्भीरुःप्रति-
पद्यते। रुद्र ! यत्ते दक्षिणं मुखं
तेन मां पाहि नित्यम्॥२१॥

** अ०—**ईश्वरप्रसादादेवेष्टप्राप्तिरनिष्टहानंसुकरमिति मत्वा मन्त्रद्वयेन प्रार्थनोच्यते–हेरुद्र ! सर्वेषां शास्तः? इति यस्मात्त्वमजातोन जायसे तत्सहचरितदुःखव्याधिजराक्षुत्पिपासादिभिश्च न युज्यसे तस्मादेवं मत्वाकश्चिद्भीरुः संसारार्णवमज्जनभयाद्भीतस्त्वांप्रतिपद्यते तारकस्य तव शरणं गच्छति नसर्वः। अतो हे रुद्र ! यत्ते तव दक्षिणं प्रधा-

नमाभिमुख्यं कृपाकटाक्षेण स्वभक्तान्वीक्षणतेन मां मुमुक्षं जिज्ञासुं नित्यं सर्वदा पाहिपालयेति प्रार्थये यद्वा दक्षिणं सोत्साहं प्रवीणत्वगम्भीरत्वयुक्तं ध्यातं मुखं यद्वा दक्षिणदिशिभवं यमाभिधंमुखं तेन मुखेन मां शरणागतं पाहि रक्ष॥

**भा०—**लोके धनाद्यैश्वर्येण स्वतउत्कृष्टंसुखं भुञ्जानान् दृष्ट्वैव वोत्कृष्टसुखाप्तये जनाःप्रयतन्ते तथैवेहापि सर्वदुःखाद्विमुक्तस्य प्रार्थनोपासनाश्रय एव दुःखान्मुक्तः प्रधानं कारणंनहि कोऽपि दुःखायश्रितो लोकेऽपि सुखमाप्तुमर्हति॥२१॥

** भाषार्थः—**अतईश्वर की कृपा या प्रभवता से ही दृष्टसुख की प्राप्तिऔर अनिष्ट की हानि सुगमता से हो सकतीहै ऐसा मान कर दो मन्त्रो से प्रार्थना कही गई है (रुद्र!अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रतिपद्यते) हें सब के शासकरुद्र नाम रूप ईश्वर जिस कारण तुम जन्म लेकर व्याधिजराक्षुधा पिपासा और मरणादि के दुःखों में नहीं पडतेसदा शुद्ध एक रस रहते हो इस कारण तुम को ऐसा ही जानवा मान के संसारसागर में डूबने घा गोता खाने से डरा हुआमेरा जैसामनुष्य तुमको प्राप्त हो पाता है अर्थात् पार करनेवाले तुम्हारे शरण को गहता है किन्तु सब नही। इस सेहे ईश्वर!(ते दक्षिण मुखं तेन मा नित्यं पाहि) जोभक्त पर तुम्हारी प्रधान कृपा दृष्टि है उस से मुझ जिज्ञासु

मुमुक्षुकी नित्य सदाही रक्षा करो यही प्रार्थना करता हू अपनाप्रवीणता गम्भीरता युक्त ध्यान किया जो तुम्हारा उत्साहपूरित मुख है, अथवा दक्षिण दिशा में विद्यमान यमराजस्वरूप जो तुम्हारा मुख है उससे मुझ शरणागतकी रक्षा करो।

** भा०—**संसारी मनुष्य लोक में धनादि ऐश्वर्य के अधिकहोने से अपनी अपेक्षा उत्तम सुख भोगने वाले मनुष्यो कोसुन देख वा जान कर ही उत्तम सुख प्राप्तिके लिये धनादिकेउपार्जन में श्रम करते हैं। वैसे ही यहा भी सब दुखों सेमुक्त ईश्वर की प्रार्थना उपासना का आश्रय लेना ही दुखसे मुक्त होने का प्रधान कारण है। क्योकि जगत् में भी कोईमनुष्य दुख के शरणागत रहता हुआ सुख प्राप्त नही करपाता॥२१॥

मानस्तोके तनये मा न आयुषि
मा नो गोषु मा नो अश्वेषु
रीरिषः। वीरान्मा नो रुद्र!
भामितो वधीर्हविष्मन्तः सद-
मित्त्वा हवामहे॥२॥

** अ०—**हे रुद्र ! सर्वत्र सीदसि तिष्ठसि सदःपचाद्यच्। तादृशं सर्ववस्तुष्ववस्थितमिदेवत्वा त्वांहविष्मन्तो हव्यादिसाधनैर्होमादिकंकुर्वाणा वयं यतो हवामह आहूयामस्तस्मात्वंन नस्तोके पुत्रे, तनये पौत्रे, न आयुषि, नो

गोषु नोऽश्वेषु च मा रीरिषो रोषं क्रोधं माकुरु तब रोषेण तेषां विनाशो माभूत्। तथामत्कृतापराधेन भामितः क्रोधितो नो वीरान्पराक्रमशीलान् भृत्यादीन्मा वधीर्नोहिंसय।

** भा०—**ईश्वरभक्तानां पुत्रादयोऽकाले नैवम्रियन्ते। नास्ति यस्मात् बलिष्ठो, यत्समोवाकश्चित्प्रभुर्नास्ति न तमनादृत्य कोपिकमपि मारयितुं प्रभवति। अतएवोक्तम्-मृत्युर्धावति पञ्चमइति। प्रधानमृत्युदुःखवारणप्रार्थनेऽन्यान्यल्पानि दुःखान्युपलक्षणेन तदन्तर्भूतत्वादेव दूरीभवितुमर्हन्ति। दुःखस्यानिष्टस्य हानमेव प्राधान्येनेष्टावाप्तिर्बोध्या।ज्ञानेन मरणादिभयनिवृत्तिरेव प्रार्थनायाःप्रधानं प्रयोजनमल्पायुषि पुत्रादीनां मरणं नस्यादिति तु गौण प्रार्थनाफलं बोध्यम्। अयंचान्तिमो मन्त्रो यजुषि अ० १६ षोडशःपठित॥२२॥

** भाषार्थः—**(रुद्र सदमित्वाहविष्मन्तो हवामहे) हे रुद्र!तववस्तुओं में व्यापक अवस्थित ईश्वर!तुम को आज्यपुरोडाशादि हविष्यादि साधनों से होम करते हुए हम लोगजिस कारण बुलाते पुकारते स्तुति प्रार्थना करते हैं तिससेतुम (मा नस्तोके तनये मा न आयुषि) हमारे पुत्र पौत्र और

हमारे स्वयं जीवन में (मा नो गोषु मानोअश्वेषु रीरिषः)हमारी गौष्मोतथा हमारे घोड़ो में रिष क्रोध मत करो।तुम्हारे रोष क्रोध से हमारे पुत्रादि का नाश न हो जावे(भामितो मा नो वीरान् वधीः) हमारे किये अपराधों सेक्रोधित हुये हमारे पराक्रमशीलभृत्यादिकी हिंसा न कीजिये।

** भा०—**ईश्वर के भक्त पुरुषों के पुत्रादि अकाल में नहींमरते। जिस से अधिक बलवान् वा जिस के तुल्य कोई स्वामीनहीं है उसकी इच्छा के बिना उस का अनादर करके कोईकिसी को मार नही सकता। इसी लिये कठोपनिषद् में कहाहै कि “ईश्वर जहां नहीं चाहता वहां से पांचवां मृत्यु भीभागता है, सब से मुख्य मरण दुःख निवारण की प्रार्थना मेंउपलक्षय से उस के अन्तर्गत होने वाले अन्य खाटे २ सबदुःख दूर हो सकते हैं और अनिष्ट दुःख का छूटना ही मुख्यकर भ्रष्टकी प्राप्ति हुई जानो और ज्ञान के द्वारा मृत्यु आदिका भय छूटना ही मुख्य कर प्रार्थना का प्रयोजन है तथापूर्णथाहुए बिना बीच मेंपुत्रादि न करें यह भी प्रार्थनाका गौण प्रयोजन है। यह वाईसवां मन्त्र यजुर्वेदअ० १६ न० १६ है॥२२॥

इति ब्राह्मणसर्वस्वमासिकपत्रसम्पादकेन
भीमसेनशर्मणा निर्मिते श्वेताश्वतरोप-
निषद्भाष्ये चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः॥

अथ पञ्चमाध्यायारम्भः।

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732161034Screenshot2024-11-21092015.png”/>

द्वेअक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते
विद्याऽविद्ये निहिते यत्र गूढे।
क्षरन्त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
विद्याऽविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः॥१॥

** अ०—**यत्र यस्मिन्नक्षरेऽविनश्वरे निरतिशये ब्रह्मणा हिरण्यगर्भात्परे परस्मिन् परमात्मनि, यद्वा ब्रह्म परमात्मतत्त्वं परं याभ्यांप्रवाहेण जगत अनादित्वान्नास्त्यन्तोऽवसानंययोस्तेतादृश्यौ हेविद्याऽविद्ये निहिते अवस्थिते गूढे अनभिव्यक्तेसूक्ष्मत्वाददृश्येवर्तेते। तयोः क्षरं कल्याणमार्गाच्च्युतिहेतुरविद्याऽमृतं सर्वविधदु खान्मुक्तिहेतु विद्याऽस्ति।यस्तु विद्याविद्ये ईशते नियमयति स निरतिशयशक्तिः सर्वज्ञः परेशस्ताभ्यामन्यः॥

**भा०—**यो जनोऽविद्या दिक्लेशान्सर्वानर्थहेतूंस्त्यक्त्वा ज्ञानप्लवेन संसारसागरं तरीतुंसर्वदुःखाद्विमुक्तिंचेच्छति। तेन विद्याऽवि-

द्ययो स्वाम्येवाश्रयितव्य। नहि सर्वशक्तिस्वाम्याश्रयेण विना तदीयवरतुनो हानमुपादान वा कोऽपि कर्तुमर्हति॥१॥

** भाषार्थ—**(अक्षरे) शिव निरतिशय अविनाशी (ब्रह्मपरे)ब्रह्मा नामक हिरण्यगर्भसे परे विद्यमान परमात्मा में(ब्रह्मपरे स्वनन्ते विद्याविद्य निहिते गूढ) परमात्मा रूपआत्मतत्त्वजिन से परे है ऐसी प्रवाह से जगत् के अनादिछाने पर जिनका अन्त नाम समाप्ति नहीं किन्तु सदा जिगका तार चला जाता है ऐसी दो विद्या और अविद्या नामठोक समझना और उलटा समझना दोनोसूक्ष्मरूपसे अवस्थितसदृश्य हुई समान हैं (चरन्त्वविद्यामृतन्तु विद्या) उनदोनोमेसे कल्याण भाग से अलग करने भुलाने वाली अविद्याकहाती और मरणादि सम्बन्धी महादुःखदायी भयोसे बचानेवा सब दुखोसे लुडान वाली विद्या कहाती है (यस्तु विद्याऽविद्ये ईशते सोऽन्य) और जो विद्या अविद्या की व्यवस्थावा नियम कर्त्ता है जिस के नियम से विरुद्ध विद्या अविद्याकुछभी नही कर सकती जिस पर उसकी कृपा होती कोविद्या और जिस पर कोप होता उसी को अविद्या घरती है।वह अत्यन्त शक्ति वाला सर्वज्ञ ईश्वर विद्या अविद्या दोनोसे भिन्न तीसरा है॥

** भा०—**जो मनुष्य सब अनयों के हेतु आविद्यादि क्लेशोको छुड़ा के ज्ञान वा विद्यारूप नौका के द्वारा ससाररूपसमुद्र के पार होता वा सब दुखो से छूटना चाहता है उसको उचित है कि विद्या तथा अविद्या के स्वामी का ही शरणसोवे। क्योकि सर्वशक्तिमान् स्वामी का सहारा लिये बिनाउसकेवस्तु को कोई भी छोड़ नही सकता न ग्रहण कर

सकता है जो कि राजाकी आज्ञा पाकर वा इशारा मात्र पाकरराजकर्मचारी किसी को पकड़ते वा छोड़ते हैं। वैसे हीकर्मानुसार मनुष्यादि को अविद्या पकड़ती वा छोड़ती है॥१॥

यो योनिंयोनिमधितिष्ठत्येको
विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानै-
बिभर्त्ति जायमानं च पश्येत्॥२॥

**अ०—**योऽग्रे मैथुनसर्गात्पूर्वं सर्गारम्भेकपिलं कपिलवर्णं शुद्धं सात्विकं तैजसवर्ण-प्रधानाकृतिमृषिं ज्ञानाधारत्वयोग्यं स्वेनैवप्रसूतमुत्पादितं तं ज्ञानैर्वेदसंस्कारैर्बिभर्त्तिपुष्णाति। जायमानं प्रादुर्भूयमानं ज्ञानादिशुभगुणोत्कर्षैर्लब्धोच्चप्रतिष्ठं च पश्येत्पश्यतितदुपरि कृपादृष्टिं करोति यश्च योनिं योनिंपृथिव्यादिकं स्थानंस्थानं विश्वानि रूपाणिसर्वान् रूपादिगुणान्सर्वा योनीश्चसर्वाणिप्रभवकारणानि चाधितिष्ठति नियमयति सकपिलादिभ्योऽन्यः परइति॥

** भा०—**ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूवेत्यन्यत्रोक्तम्। सहि सर्वप्राणभृत्सु प्रथमो मुख्यः

सर्वोपरि वेढादिशास्त्रस्य गूढाशयं बुद्धवान्सर्वापेक्षया प्रशस्ततमोधार्मिको ज्ञानी चाभवत्। नहि ब्रह्माणमन्तरेण प्राणभृत्स्वन्यःकोऽपि तत्समस्ततोऽधिको वा सम्भवति।अत एव ब्रह्मादिस्थाक्रान्ता जीवगतिः सर्वैर्मन्यते। नच तादृशः कोऽपि देवः परमालकृपामन्तरेण सिद्धः सम्भवति। तस्माद्यस्यकृपया ब्रह्मादयोऽपि महत्त्वमाप्नुवन्ति सएवास्माभिराश्रयितव्यइत्याशयः॥२॥

** भाषार्थः—**(योऽग्नेकपिलं तमृषिं प्रसूतम्) जो मेथुनसृष्टि से पूर्व सृष्टि के आरम्भ में तैजसतत्त्वप्रधान’ शुद्ध सत्त्वगुणी तेजस्वी ज्ञानी होने योग्य अपने आप ही उत्पन्न कियेउन ऋषि नाम ब्रह्मा को (ज्ञानैर्विगतिं जायमानं च पश्येत्)वेद के सरकार रूप छानो से पुष्ट करता और प्रसिद्ध प्रकटहुए उस ब्रह्मा पर कृपादृष्टि करता वा रखता है ( य एकोयोनियोनिमधितिष्ठति ) और जो एक ही ईश्वर प्रत्येकपृथिव्यादि कार्य स्थान २ का ( विश्वानि रूपाणि योनीचसर्वा) व रूपादि गुणों तथा जिन से रथूलकार्य वस्तुउत्पन्न होते उन सब सूक्ष्म कारण तत्त्वोकाअधिष्ठातानियन्ता होता वह कपिलादि से भी अन्य नाम परे हैं॥

** भा०—**“सब इन्द्रादि देवताओ में मुख्य ब्रह्मा को प्रत्येकमहाकल्प के आरम्भ मे परमेश्वर पहिले उत्पन्न करता है,यह मुण्डकोपनिषद् में कहा है । एक परमेश्वर से नीचे सब

जगत् के प्राणियो में सर्वोपरि ब्रह्मा हैं ब्रह्मासे भिन्न प्राणियोमें अन्य कोई उत्तम वा अधिक नहीं हो सकता। इसीलियेब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त जीव की गति सबशात्रकारमानते है। परमात्मा की कृपा के बिना कोई मनुष्यादिप्राणी वैसे ब्रह्मापन के अधिकार को प्राप्त नही कर सकताइस कारण जिस की कृपा से ब्रह्मादि भी महत्व को प्राप्तहोते है उसी का आश्रय हम लोगो को करना चाहिये यहआशय है॥२॥

एकैकं जालं बहुधा विकुर्व-
न्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः।
भूयः सृष्ट्वा यतयस्तथेशः सर्वाधि-
पत्यं कुरुते महात्मा॥३॥

** अ०—**एष उक्तो देवईश्वरो मनुष्यपशुपक्ष्यादिरूपमेकैकं जालमेकैकं जातिभेदं जीवस्य बन्धहेतुत्वान्मत्स्यादिबन्धकं जालमिवबहुधा नानाप्रकारामेकैकां नानाभेदभिन्नांजातिं विकुर्वन् विशेषेण निर्मिमाणएवास्मिन्क्षेत्रे मायात्मके पञ्चतत्त्वमये ब्रह्माण्डे संहरतिनाशयति। मुहुर्मुहुरुत्पादयति नाशयति च।भूयः पुनरपि तथा तथैव मध्येमध्ये यतयोयतीन्[सुपोव्यत्ययः] लोकव्यवस्थायै यत्नशी-

लान् धर्मव्यवस्थापकानसुरविध्वंसकांश्चावतारान्मर्यादापुरुषोत्तमान्राजर्षीन् ब्रह्मर्षीं चसृष्ट्वोत्पाद्य संहरतीति पूर्वेणान्वयः। एवंमहात्मा निरतिशयात्मत्वविशिष्टः परेशःसर्वस्य सर्गस्थितिलयान्कुर्वन् सर्वाधिपत्यंकुरुते।

** भा०—**संजीवयति चाजत्रं प्रमापयतिचाव्ययः। मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहारएव च। क्रीडन्निवैतत् कुरुते परमेष्ठी पुनःपुनः॥ इति मनुस्मृतौ-तथा “सूर्याचन्द्रमसौधाता यथापूर्वमकल्पयत् ।,, इत्यादि वेदे यदुक्तं तस्यैवायमाशयः। योहि लोकेऽपि येषांयादृशं यावच्चावस्थापरिवर्तनं कर्त्तुं शक्नोतिस तेषां तादृशएवाधिपतिर्भवति। यश्च यरयसर्गप्रतिसर्गौ करोति न च कोपि तथा कुर्वन्तंव्याहन्तुमर्हति स मुख्योऽध्यक्षः॥३॥

भाषार्थः—( एष देव एकैकं जालं बहुधा विकुर्वन् ) यहपूर्वोक्त देव नाम प्रकाश स्वरूप ईश्वर, जीवो के बन्धन [कैदहोने पकड जाने के हेतु होने से मछली आदि को पकड़नेके जाल के समान ] के हेतु मनुष्य पशु पक्षी आदि नामकएक २ जाति भेद को नाना भेदो वाला विशेष कर बनाताहुआ [ ईश्वर ने मनुष्यादि एक २ जाति में असरूप अवान्तर

ज्ञातिभेद कर्मानुसार किये हैं] (अस्मिन् क्षेत्रेमुद्दरति) मायानिर्मितपञ्चतत्वमय इस ब्रह्माण्डरूप खदमे लीन करना जाताहै [जो २ शरीरादि जिस २ पृथिव्यादि सेउत्पन्न होते वे बार २ कर सदा उसी २ अपने कारण तस्व में लीन होते जातेहैं] अर्थात् वार उत्पन्न और नष्ट करता जाता है (ईशोभूस्तथा यतयः सुष्ट्वा) ईश्वर फिर २ वैसे पूर्व कहे साधारणों को रचना के समान ही बीच २ में लांक की व्यवस्थाकरने के लिये धर्म की व्यवस्था बांधने वाले अतुर राक्षसादिप्रकृति वाले धर्मनाशक प्राणियोंका विध्वंस करने वाले अवतारों को औरविशेष उद्योगी यत्नशील साहसी मर्यादापुरुषोत्तमराजर्षियाब्रह्मर्षियों को उत्पन्न करके उन का भीसंहार किया करता है [जैसे महाराजा भगवान् रामचन्द्रजीवाकृश्ःणादि हुए ] इस प्रकार (महात्मा सर्वाधिपत्यं कुरुते)निरतिशय आत्मिकशक्ति वाला परमेश्वर सबवष्ठे२ पराक्रमियों की भी उत्पत्ति स्थिति लय करता हुआ-अर्थात् पडोंसे भी बड़ों को अपने चक्र में घुमाता हुआ सब का स्वामीएकता है॥

** भा०—**मनुस्मृति में कहा है कि “अविनाशी ईश्वर सबको बार २ उत्पन्न और नष्ट करता है। तथा अपने आपएक ही दशा में ठहरा हुआ सेच करने के समान असंख्यमन्वन्तरों में अपार सृष्टि और काम किया करता है,तथा वेद में कहा है कि “विधाता ईश्वर सूर्य चन्द्रमादिबड़े २ शक्तिकारी वा कार्य साधक पदार्थको भी पूर्व कल्पोंके समान ही बनाया करता है, इत्यादि का अभिप्राय यहांकहा जानी। लोक में भी जो पुरुष जिन का जैसा बिगाड़घनावकर सकता है बढ वैसाही उन का अधिपति होताऔर जिस के उत्पत्ति प्रलय नियमानुसार जो करता और

वैसा करते हुए उस के काम में कोई विघ्न नहीं डाल सकताइसी से वह सब का मुख्य अध्यक्ष स्वामी है॥३॥

सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च ति-
र्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्-
वान्। एवं स देवो भगवान् वरे-
ण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः॥४॥

** अ०—**यद्-उ-अनड्वान् यद्वदनडूवानादित्यः सर्वादिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक्प्रकाशयन् भ्राजते [इवार्थेऽत्र- उ] एवं स भगवान् परमात्मापि प्रजास्वोतप्रोतसच्चिदानन्दस्वरूपेणोर्ध्वमधश्च तिर्यक सर्वा दिशःप्रकाशयन् भ्राजते तथा वरेण्यो वरणीयएको जीवमायाभ्यामभिन्नोऽद्वितीयः स देवोद्योतनशीलः परमात्मा योनिस्वभावान् स्वस्वकारणस्वभावधारिणः ‘पृथिव्यादीन् देवादींश्चपदार्थानधितिष्ठति॥

** भा०—**यथा सूर्यप्रकाशसाहाय्यमन्तरेणन कस्यापि किमपि कार्यं निष्पद्यते तथैवसच्चिदानन्दस्वरूपेण सर्वत्रावस्थितः सर्वं भ्रामयन् य ईश्वरः सर्वजगद्यात्राहेतुत्वेनास्य सर्व-

स्याधिष्ठाता भवति। यथाप्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमंरविः। क्षेत्रक्षेत्रीतथाकृत्स्नं प्रकाशयतिभारत। इति गीतासु-निमित्तंमनश्चक्षुरादिप्रवृत्तौ निरस्ताखिलोपाधिराकाशकल्पः। रत्रिर्लोकचेष्टानिमित्तंयथायः सनित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा॥ ईदृशमेव प्रकाशनमधिष्ठातृत्वं चात्रबोध्यम्॥४॥

** भाषार्थः—**( यद्वनड्वान् सर्वा दिशउर्ध्वमधश्चतिर्यक् प्रकाशयन् भाजते) जैसे सूर्य ऊपर नीचे और बीच में तिरछीसब दिशा नाम, सब ओरके पदार्थों को प्रकाशित करता हुआस्वयं प्रकाशित रहता है। एवं भगवान् वरेण्य एकः स देवः)इसी प्रकार भजन सेवन तथा स्वीकार करने योग्य वह एकअद्वितीय जीव और माया भी जिस में कल्पित अभिन्न हैंऐसा देव द्योतनशील परमात्मा भी सत् चित् आनन्दस्वरूपसेसबमें ओतप्रोत हुआ ऊपर नीचे बीच में सब दिशाओं कोप्रकाशित करता हुआ सुशोभित हो रहा है तथा (योनिस्वभावानधितिष्ठति ) अपने २ कारण के स्वभावको धारण करनेवाले पृथिव्यादि और देवतादि पदार्थों का अधिष्ठाताबनता है॥

** भा०—**जैसे सूर्य के प्रकाश की सहायता के बिना किसीका कुछ काम नहीं चलता वैसे सत् चित् आनन्दस्वरूप से सबमें ठहरा सबको भ्रमण कराता हुआ ईश्वर सब संसारकोनियमानुसार चलने का हेतु होने से सब का अधिष्ठाताहोता है। भगवद्गीता में कहा है कि जैसे एक सूर्य इस सबत्रिलोकोको प्रकाशित करते हैं वैसे सबके घट २ में विद्य

मान ईश्वर सब शरीरो को चेतन करता है। और इस्तामलकस्तोत्र में कहा है कि जैसे अन्धकार को हटाकर सूर्य सबकर्मों के निमित्त कारण है वैसे मन तथा चक्षुरादि इन्द्रियोकीचेतनता का निमित्त कारण अन्तरात्मा ईश्वर है वही अहंपदवाच्यशरीरी है। वह आकाश के तुल्य सब उपाधियों सेरहित है। ऐसा ही सूर्यवत् चेतन प्रकाश द्वारा सबका अधिष्ठाता ईश्वर है॥४॥

यच्च स्वभावं पचति विश्व -
योनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणा-
मयेद्यः। सर्वमेतद्विश्वमधितिष्ठ-
त्येकोगुणांश्च सर्वान् विनियो-
जयेद्यः॥५॥

** अ०—**यो विश्वयोनिः सर्वस्य कार्यस्यप्रधानं कारणमीश्वरो यच्च स्वभावं वाय्वादेर्गतिमत्त्वादिकं पचति साधयति। यच्चपाच्यान् परिणतियोग्यान् पृथिव्यादीन् परिणामयेत्परिणामयति यः सर्वान् सत्वरजस्तमोरूपान्सभेदान् गुणांस्तत्रतत्रेन्द्रियादिषु यच्चविनियोजयेद्विनियोजयति तदेतत्स एकः सर्वविश्वमधितिष्ठति। सर्वस्य पचनं विपरिणा-

मनं विनियोजनं च तस्य सर्वाधिष्ठातृत्वम्।यच्चेति क्रियाविशेषणमभ्युपगन्तव्यं सुधोभिः॥

** भा०—**लोकेऽपि तस्यतस्याधिष्ठातृत्वंतत्रत्यैः कैरपि कर्मभिरेव यथा निष्पद्यतएवमिह परमात्मवर्णनप्रसङ्गेऽप्यवगन्तव्यम्॥५॥

** भाषार्थः—**(यो विश्वयोनिर्यच स्वभावं पचति) जो सबकार्य वस्तुओंका मुख्य कारणईश्वर वायु में गति अग्नि मेंउष्णता आदि स्वभावनाम प्राकृतिक गुणों को वोपकातासिद्धकरता (पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेत्) अपनी २ दशाबदलने परिणत होने योग्य पृथिव्यादि को उत्पत्ति प्रलयादि में उस २ परिणाम दशा को वोप्राप्त करता (यः सर्वान् गुणांश्च यद्विनियोजयेत्) और जो ईश्वर अपने २अवान्तर भेदों सहित सत्त्वरजस्तमोरूप सब गुणों को उन २इन्द्रियादि में जो नियुक्त करता (एकः सर्वमेतद्विश्वमधितिष्ठति) वह एक ईश्वर इस सब कार्य कारणरूप ब्रह्माण्डका अध्यक्ष स्वामी इस प्रकार ठहरता है अर्थात् (एतत्)सब को पकाना सब का परिणाम करना और सब को सबमेंयुक्त करना यही उस का सर्वाधिष्ठाता होना है।मन्त्र में यत्पद क्रिया का विशेषण जागो॥

** भा०—**लोक में भी उस २ का अधिष्ठाता उस २ सम्बन्धी किन्हीं कर्मों के द्वारा ही जैसे होता है वैसे यहा भीसबको पकाने आदिके द्वारा ईश्वर सर्वाधिष्ठाता होता है॥५॥

तद्वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं तद्-
ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम्। ये पूर्वं,

देवा ऋषयश्च तद्विदुस्ते तन्मया
अमृता वैबभूवुः॥६॥

** अ०—**वेदानां गुह्या उपनिषदो वेदगुह्योपनिषदो वेदाशयं मूलमुपादाय याः प्रोक्तास्तासु वेदोपनिषत्सु तदात्मतत्त्वं गूढंसंवृतं विशिष्टाभ्यासरूपान्वेषणेनोपलभ्यं तद्ब्रह्मणो वेदस्य योनिं कारणं वेदएव योनिः कारणं प्रमाणमस्य वा तादृशं ब्रह्मा विधाता हिरण्यगर्भो सर्ववेदपारगचतुर्वेदविदेव वेदतेज्ञातुमर्हति। पूर्वं पूर्वकाले ये रुद्रादयो देवाऋषयश्च तद् ब्रह्मात्मतत्त्वं विदुस्ते तन्मयास्तदात्मस्वरूपाः सन्तोऽमृता मरणादिजन्यमहादुःखन्मुक्ता वै मुक्ताएव बभूवुः। तथैवेदानीमपि ये तं जानन्ति ज्ञास्यन्ति वा तेऽपितादृशा दुःखमुक्ता भवन्ति भविष्यन्ति च॥

** भा०—**येयेजना यथायथा वेदाशयज्ञानसाधनेन परमात्मानं जानन्ति ते तथातथातन्मया अमृताश्च भवन्ति तावदेव च ब्रह्मत्वमपि तेषुतेषु भवत्येव॥६॥

** भाषार्थः—**(वेदगुह्योपनिषत्सुतद्गूढम् ) वेदों का गुह्य’गूढाशय मार्मिक सिद्धान्त प्रकाशित करने वाली उपनिषदो में

वह आत्मतत्त्वगूढ़ नाम गुप्त है अर्थात् उपनिषदों का विशेषअभ्यास बार २ शोच विचार रूप नर्म खोजने से प्राप्तसकता है (तद् ब्रह्मयोनिं ब्रह्मा वेदते) ब्रह्म नाम वेद केउत्पादक प्रकाशक कारण वा वेद हिजिस को सिद्धि मेंकारण नाम प्रमाण है. ऐसे उस ईश्वर को चारों वेद के गानने वाले वेद पारग सृष्टि कर्त्ता हिरण्यगर्भ नामी ब्रह्मा होजान सकते हैं (पूर्वं ये देवा ऋषयश्च तद्विदुः) पूर्व काल मेंजिन २ इन्द्रादि देवताओं ने तथा ब्रह्मर्षि वा राजर्षियों नेब्रह्म नामक आत्मतत्त्वको जाना था इसी से (ते तन्मया अमृता वै बभूवुः) वे लोग उसी ब्रह्म में लीन मरणादिसम्बन्धी बड़े २ दुःखोंसे मुक्त ही हुए। इसी प्रकार इस समयभी जो लोग ईश्वर को जानते हैं वह जानेगे वे भी वैसेही दुःखों से मुक्त होते हैं और होंगे।

**भा०—**जो २ पुरुष जैसे २ वेदाशय रूप वेदान्त के ज्ञानरूप साधन से परमात्मा को जानते हैं वे वैसे २ तन्मय औरमुक्त होते तथा उन २ में उतना ही ब्रह्मपन भी सदा बढ़ताजाता है॥६॥

गुणान्वयो यः फलकर्मकर्त्ता
कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता। स
विश्वरूप स्त्रिगुणस्त्रिवर्त्माप्राणा-
धिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः॥७॥

** अ०—**अधुना द्वादशपर्यन्तैः षड्भिमन्त्रैस्त्वं पदार्थस्य जीवभावापन्नस्य वर्णनं प्रस्तू-

यते। गुणैः कर्मज्ञानकृतवासनामयैः सत्त्वादिगुणकार्यैरिन्द्रियैर्वाऽन्वयः सम्बन्धो यस्ययथा चक्षुषा पश्यति श्रोत्रेण शृणोतीत्यादिः। फललाभेच्छया कर्मणां कर्त्तातस्यैव स्वयंकृतस्य फलार्थस्य संचितस्य कर्मणा भोगोन्मुखस्योपभोक्ता स विश्वरूपोनाना योनिषु नानारूपधरः सुखदुःखमोहात्मगुणत्रयेण सम्बद्धस्त्रिवर्त्माधर्माधर्मज्ञानजन्या देवयानादयस्त्रयो मार्गभेदा अस्येतिपञ्चवृत्तिकस्य प्राणस्याधिपश्चैवं भूतो जीवात्मा स्वकृतकर्मभिरेव देहाद्देहान्तरं सञ्चरति गच्छति॥

** भा०—**अत्र पद्यषट्केन जीवस्य स्वरूपस्वभावादिकं स्पष्टता वर्ण्यते। अविद्योपाधिर्जीवइति वेदान्तसिद्धान्त, अविद्याजन्यकामकर्मादयो जीवस्य गुणान्वयत्वादौ कारणंबोध्यतएव गुणान्वयत्वादेवैपरीत्यं च परमात्मन्यर्थादेयावगन्तव्यम्। तादृशजीवस्य स्वीयवास्तवस्वरूप-परमात्मबोधेन सर्वबन्धनेभ्यो विमुक्तिं वक्ष्यति॥७॥

** भाषार्थ—**अब यहा से १२ पर्यन्त छ मन्त्रो से जीवरूप हुए त्व पदके अर्थ आत्मा से वर्णन का प्रस्ताव करतेहै। (यी गुणान्वयफलकर्मकर्ता) जो कर्म के सामने कीवासना रूप गुणो से वासत्वादि गुणो के कार्य इन्द्रियो सेसम्बन्ध रखने वाला [जैसे आख से देखना कान से सुनताआदि काम है] तथा फल भोग मिलने की इच्छा से कर्मकरने वाला (कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता) स्वय का मिलनेअर्थकिये उसी संचित कर्म के प्रारब्धरूप सुख दुख फल काभोगने वाला (स विश्वरूपत्रिगुणास्त्रिवर्त्मा) वह नामाप्रकार की योनियो में नाना प्रकार के रूप धारण करता, सुखदुख और मोह रूप सम्वादि तीनों गुणसे धन्धा, तथा ज्ञानपूर्वक किये यागादि धर्म से देवमार्ग, केवल धर्म से पितृयानतथा अधर्म से तिर्यगादि योनि मार्ग ये ज्ञानादि के सम्बन्धीउत्तम मध्यम निकृष्ट तीनो मार्ग जिस के जाने आने केलिये है (प्राणाधिप, सुञ्चरति स्वकर्मभि.) तथा पाच भेदोवाले प्राणका स्वामी ऐसा जीवात्मा अपने किये कर्मों केद्वारा ही एक शरीर छोडके शरीरान्तर को जाता ब्रह्मचक्रमेनिरन्तर घूमता है॥

** भा०—**इस प्रकरण में छ श्लोको द्वारा जीव केस्वरूप तथा स्वाभावादि का स्पष्टतया वर्णन करतेहै। वेदान्त का सिद्धान्त यह है कि अविद्योपाधि जीव है,विद्याज्ञान से प्रकट होने वाले काम कर्मादि जीव नामसूक्ष्म शरीरी माया युक्त आत्माके गुणो से बहु होने मेंधारण जातो, इसी कारण जीव को गुणान्वित कहने सेगुणान्यादि से विपरीतता परमात्मा नेंअर्थापत्ति द्वारासिद्ध है। ऐसे जीव की अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा केशेष द्वारा अब दुख बन्धनो से मुक्ति कहेंगे॥७॥

अङ्गुष्ठमात्रोरवितुल्यरूपः
संकल्पाहङ्कारसमन्वितो यः। बुद्धे
र्गुणेनात्मगुणेन चैव—आराग्रमा-
त्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः॥८॥

** अ०—**योऽङ्गुष्ठमात्र परिमितहृद्देशेऽवस्थितोरवितुल्यरूपो ज्योतिःस्वरूपः संकल्पाहङ्कारस-
मन्वितः सङ्कल्पैरहङ्कारेण बुद्धेर्गुणेन सुखदुःखादिभोगरूपेणात्मगुणेन शरीरगुणेन जरामरणादिना समन्वितश्चैवाराग्रमात्रः प्रतोदप्रोतलेहशल्याग्रभागमात्रसूक्ष्मपरिमाणोऽपरोऽपि जीवः सूक्ष्मदर्शिभिर्दृष्टः साक्षात्कृतोभवति द्वितीयोऽपिशब्दोऽत्र सम्भावनार्थे तेनापरोऽपि जले सूर्यप्रतिबिम्बवदन्य औपाधिकोऽपि जीवात्मा सम्भावितस्तत्त्वज्ञैरित्यर्थः॥

** भा०—**अङ्गुष्ठमात्रपरिमाणं सङ्कल्पादिभिःसमन्वयः स्थूलसूक्ष्मशरीरगुणेन सयोगश्चैतत्सर्वं स्थूलसूक्ष्मशरीरोपाधिकृतमौपाधिकमस्ति। उपाधिना सहैव मोक्षे निवर्त्तते रवितुल्यप्रकाशात्मकत्वं स्वाभाविकं नैव निवर्त्तते।यदास्य संकल्पादयो निवर्त्तन्ते तदा दुःखा-

न्मुच्यते निःश्रेयसमधिगच्छति। “यदा सर्वेप्रमुच्यन्ते कामा येस्य हृदि श्रिताः। अथमर्त्योऽमृता भवति, संकल्पादीनां प्राबल्यमेवब्रह्मचक्रेऽवस्थाप्य भ्रामयति। तरमात्सकल्पादिसमन्वितत्वप्रदर्शनं तच्छिथिलीभावेमुक्तिप्रदर्शनार्थम्॥८॥

** भाषार्थ—**(योऽङ्गुष्ठमात्रोरवितुल्यरूप) जो अंगूठाबराबर हृदयस्थान में रहता तथा सूर्य के तुल्य प्रकाश स्वरूप(संकलपाहङ्कारसमन्वितो बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव) वस्तुओकी प्राप्ति वा कार्यों की सिद्धि के संकल्पनाम कामनाओ सेअहङ्कारों से सुख दुख भोगरूप बुद्धि के गुण से [भागोबुद्धि सुख दुखादि की प्रतीति का नाम ही बुद्धि वही भोगहै यह वात्सायन का मत है ] और आत्मा नाम शरीरके जरा मरणादि गुणसे समन्वित सम्बद्ध रहने वाला (आराग्रमात्राप्यपरोपि दृष्ट) बैल आदि को हाकने के पैना वाकोडाआदि मे लगी आरा नाम लोहकी अरई के सूक्ष्मतरअग्रभाग के समान अतिसूक्ष्म जीबात्मा को सूक्ष्म दशियो नेसाक्षात् देखावा जाना है इस मन्त्र मे द्वितीय अपिशब्दसम्भावना अर्थ में है इससे जल में सूर्य प्रतिबिम्ब के तुल्यसूक्ष्म स्थूल शरीरोपाधि से अवच्छिन्न जीवात्मायी सभावनातत्वज्ञो ने की है॥

** भा०—**अङ्गुष्ठमात्र परिमाण, संकल्पादि से युक्त होना,और स्थूल सूक्ष्म शरीर के गुण के साथ सयोग दिखाना यहसबस्थून सूक्ष्म शरीरोपाधिसे हुआ औपाधिक है। इसीकारण मोक्ष में उपाधिके साथ हिमायामें लीन हो जाता है

परन्तु सूर्यवत् प्रकाश स्वरूप होना आत्माका स्वाभाविकपननिवृत्त नहीं होता जब इसके संकल्पादि निवृत्त हो जाते तबदुःखों से छूटता और मुक्ति को प्राप्त होता है । (यदा सर्वे)इत्यादि कथन द्वारा यही बात कठोपनिषद् मे स्पष्ट कहीहै कि जब हृदय में ठहरी हुई कामना छूटती है तभी मुक्तहो सकता है। संकल्पादि की प्रबलता ही ब्रह्मचक्र में धरके मनुष्य को भूमारही है। इस से सकल्पादि सम्बन्धदिखाना उस के शिथिल होने पर मुक्ति होना दिखानेवा जताने के लिये है॥८॥

वालाग्रशतभागस्य शतधाकल्पितस्य च। भागो जीवः सविज्ञेयः स चानन्त्याय कल्प्यते॥९॥

** अ०—**शतधा छिद्यमानस्य बालाग्रभागस्यय एको भागस्तस्यापि शतधाकल्पितस्य योभागस्तावत्परिमितो लिङ्गोपाधिर्जीवो विज्ञेयः।सच जीवः स्वीयवास्तविकस्वरूपेण आनन्त्यायानन्तभावाय नास्त्यन्तोऽस्य तादृशमोक्षभावाय कल्प्यते ज्ञानयज्ञादिना समर्थः क्रियते॥

** भा०—**एतेनातिसूक्ष्मत्वं जीवात्मन उच्यते। नच त्रसरेणुपरिमितस्य बालाग्रभागस्य दशसहस्राणि भागाः केनापि कल्पयितुंशक्यास्तस्माच्छब्दार्थप्राधान्यं विहाय वाक्या-

शयएव वक्तुरिष्ट। य इम मध्वद वेद आत्मान जीवमन्तिकात्। ईशानं भूतभव्यस्यन ततो विजुगुप्सते। एतद्वैतत्॥ इति कठोपनिषद्युक्तत्वात्परमात्मैव जीवस्यवास्तवंस्वरूपमस्ति, अत्रत्यमतिसूक्ष्मपरिमाणकथनंतु लिङ्गशरीरोपाधिकृअतबोध्यम् ॥९॥

** भाषार्थ—**(बालाग्रशतमागस्य शतधा कल्पितस्य च) बालके अग्रभाग के सौ टुकडकरने पर हुआ जो एक भागउस के भी फिर सौभाग करने पर जो एक भाग (मानोजीव स विशेष ) उतने परिमा वाला लिंग शरीरापाधिवाले जीव को जानो (स चानन्त्याय कल्प्यते) वह जीवअपने वास्तविक स्वरूप से जिस का अन्त नाम नाशनहीऐसे मोक्ष को प्राप्त होने के लिये ज्ञानयज्ञादि द्वारा समर्थकिया जाता वा होता है॥

** भा०—**इस कथन से जीवात्मा का अति सूक्ष्म होनाकहा है। किन्तु त्रसरेणु के तुल्य परिमाण वाले बाल के अग्रभाग के दश हजार टुकडे हो सकता सम्भव नहीं। इस लियेयहा शब्दार्थ की प्रधानता लेगा वक्ता को इष्ट नही किन्तुवाक्य का आशय लेना मात्र अभीष्ट वा उचित है कठोपनिषद् ४ वल्लीमें कहा है कि कर्म फलभोक्ता जीवात्मा कोजो मनुष्य भूत भविष्य के स्वामी परमेश्वर के साथ अभिन्नजानता है तभी मोक्ष रूप निर्भय दशा को प्राप्त होता है,इससे सिद्ध है कि जीवात्माका वास्तव स्वरूप परमेश्वर ही
है। और यहा कहा अतिसूक्ष्म परिमाण लिग शरीरोपाधिकृत जानो॥९॥

नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं
नपुंसकः। यद्यच्छरीरमादत्ते तेन
तेन स युज्यते॥१०॥

** अ०—**एष जीवात्मा ब्रह्मात्मस्वभावस्वात्स्वरूपतो नैव स्त्री नैष पुमान् नचैवायंनपुंसकोऽपितु यद्यत्त्रीत्वादिसंबर्द्धं शरीरमादत्ते तेन तेन स्त्रीत्वादिना स जीवो युज्यतेप्रयुज्यते लोके कन्येयं जाता पुत्रो जातो वेति।अर्थात्तत्तद्धर्मानात्मन्यध्यस्याभिमन्यते—सुरुपोऽहं कुरूपोऽहमहं पुमानहं स्त्री नपुंसकोऽहमित्यादि॥

** भा० —** जीवात्मनि स्त्रीत्वादेः किमपिचिह्नंस्वतो नास्ति। अपि तु शरीर एव स्त्रीत्वादिचिह्नानि स्फुटमुपलभ्यन्ते। एवं चपितापुत्रादयः सम्बन्धा अपि शरीरसंयोगादेवात्मनि व्यवह्नियन्ते। अविद्याग्रस्तैरेवास्माभिः शरीरधर्मा जीवात्मनि शुद्धेऽपि योज्यन्ते। तदेव दुःखस्य प्रधानं कारणम्।तन्त्रज्ञानोदये मिथ्याज्ञानापाये चपुंदेहधारिणा स्त्रीशरीरधारिणा वा प्रत्यगात्मविचार-

रतेन जीवेन स्त्रीत्वादिरहितं शुद्धं ब्रह्मात्मकंनित्यमखण्डैकरसं सर्वशक्तिमदाप्तकाममानन्दमयं स्वस्य रूपं बुद्ध्वा नानादुःखरहितेनसुखिना भूयते॥१०॥

** भाषार्थः—**(नैव स्त्रीन पुमानेष नचैवायं नपुंसकः) यहचक्षु आदि से देखना आदि कर्म करने द्वारा प्रत्यक्ष प्रतीतहोता जीवात्मा साक्षात् ब्रह्मस्वभाव वाला होने रूप सेन स्त्री न पुरुष और न नपुंसक है किन्तु (यद्यच्छरीरमादत्तंतेनतेन च युज्यते) स्त्रीपन आदि गुण वा चिन्हो से सम्बन्धरखने वाले जिस२ शरीरको कर्मानुसार धारण करता है उस २स्त्रीपन आदि के साथ वह जीव लोक में प्रयोग कियाजाता है कि यह कन्या हुई, पुत्र हुआ वा नपुंसक [हिजडा]हुआ अर्थात् उस २ स्त्री आदि शरीरके धर्मो को अपनेमें आरोपित करके अभिमान करता है कि मैं रूपवान्कुरूप, स्त्री, पुरुष वा नपुंषक हूं इत्यादि देहात्मवादरूपस्थूलअज्ञान कहाता है।

** भा०—**जीवात्मा में स्त्रीपन आदि का कोई चिन्ह स्वयंनहीं है किन्तु स्त्रिपन वा पुरुषपन आदि के चिह्न इस शरीरमे ही स्पष्ट दीखते हैं। इसी प्रकार पिता पुत्रादि के सम्बन्ध[नाते रिश्ते] भी शरीर के संयोग से ही आत्मा में कहेजाते हैं। अविद्या में फंसे हुये ही हम लोग स्वय शुद्ध भीजीवात्मा में शरीर के गुणों वा धर्मों को लगाते वा मानतेहैं यही मुख्य दुःख का कारण है। और जब तत्वज्ञानरूपविद्यासूर्यका उदय होनेसे मिथ्याज्ञानका नाश होने पर भीतरीअध्यात्म विचार में तत्पर पुरुष देहधारी वा स्त्री देहधारीजीवात्मा स्त्रीपन आदि से रहित अपने को शुद्ध ब्रह्मस्वरूप

नित्य, अखण्ड, एकरस, सर्वशक्तिमान् सब कामनाओं को प्राप्त,आनन्दस्वरूप ज्ञान पाता है तभी नाना प्रकार के अपार दुःखोसे रहित हुआ सुखी हो जाता है॥१०॥

संकल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैर्ग्रा-
साम्बुवृष्ट्यात्मविवृद्धजन्म। कर्मा-
नुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु
रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते॥११॥

** अ०—**केन निमित्तेन जीवः शरीराण्यदत्तइत्युच्यते—यथा—ग्रासाम्बुनोरन्नजलयोर्वृष्ट्या मुखद्वाराऽन्तरासेचनेन निगलनेनात्मनःशरीरस्य क्रमशो रसरुधिरादिक्रमेणैव विवृद्धजन्म वृद्धिः प्रत्यक्षं जायते । तथैव पूर्वोपात्तदेहपातावसरे देही जीवः सञ्चितकर्मजन्यैःसूक्ष्मैः संकल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैःस्थानेषु मनुष्यादियोनिषु कर्मानुगानि कर्मानुसारीणिरूपाणि मनुष्याकृत्यादिसम्बद्धानि शरीराण्यनुक्रमेण-अभिसम्प्रपद्यतेऽभितः सम्यक् प्राप्नोति। सर्वत्रैवायं जीवः पूर्वं संकल्पयतिप्रत्यभिज्ञादिना कामयते तदनन्तरमिन्द्रियार्थसंनिकर्षेण स्पृशति ज्ञानेन्द्रियैर्विषयमनुभ-

वति स्पर्शनपदमत्रोपलक्षणार्थं तदनन्तरं पश्यति जानाति सुखानुशयिना रागेण रज्यतेदृशिरत्र ज्ञानार्थः। तदनन्तरं च विषयं भोक्तुंप्रवर्त्तते तदासक्तो मुह्यति॥

** भा० -** जीवः कर्मानुकूलानि मनुष्यादिशरीराण्यादत्ते यथा कस्यचिज्जीवस्य मानुषदेहेनोपार्जितं बहुविधं नानायोनिषु गमनहैतुकं प्रबलं कर्म तत्रापि यत्कर्म तेष्वाधिक्येनप्रबलं तस्य फलं यत्र भोक्तुं युज्यते तादृशजाती तावज्जायते तदनन्तरं च यादृशकर्मफलभोग पर्याय स्तादृश जाती स जायते। तथाद्वादशे मनुनोक्तं संगच्छले-“श्वसूकरखरोष्ट्राणां गोजाविमृगपक्षिणाम्। चण्डालपुक्कसानां च ब्रह्महा योनिमृच्छति॥११॥

** भाषार्थः-** किस कारण मनुष्यादिस्थजीव शरीरोंको धारणकरता है सो कहते हैं (ग्रासाम्बुवृष्टद्यात्मविवृद्धजन्म) जैसेअन्न जल खानेसे रस रुधिरादि बनने द्वारा क्रमशः शरीरकीप्रत्यक्ष वृद्धि होती है। वैसेही पहिले धारण किये शरीर केछूटने के समय (देहीसंकल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहैः) जीवात्मासंचित कर्मों से होने वाले सूक्ष्म कामना, इन्द्रियों की प्रवृत्ति,साक्षात् बोध वा दृष्टिपात और मोह नाम उस २ शरीरादिमें आसक्ति

फंसनामतथा अपने को भूलजाना इन सबों के

द्वारा (स्थानेषु कर्मानुगामिरूपाणि—अनुक्रमेणाभिसम्प्रपद्यते) मनुष्यादि योनियों के शरीर रूप स्थानों में मनुष्पाद्याकृतियों वा भिन्न २ व्यक्तियों से सम्बन्ध रखने वाले भिन्न २रूपों को कर्मों के क्रमानुसार सम्यक् प्राप्त होता है। यहजीवात्मा सभी कामों में सर्वत्र ही प्रथम प्रत्यभिज्ञादि द्वारासंकल्प करता, तदनन्तर इन्द्रिय और विषयके संयोगसे स्पर्शकरता अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से विषय का अनुभव करता है।स्पर्शन के सब शरीर में व्याप्त होनेसे उपलक्षणार्थं ग्रहण है।तदनन्तर देखता जानता नाम सुखानुशयी राग से रंग जाताहै तिस पीछे विषय को भोगने में प्रवृत्त होता उस में लिप्तहुआ सब भूल जाता यही मोहहै॥

** भा० -** जीवात्मा कर्मानुकूल मनुष्यादि शरीरों को धारणकरता है। जैसे किसीजीव के मनुष्य देह से संचित कियेनानायोनियों में जन्म लेने के हेतु बहुत प्रकार प्रबलकर्म हैंउन में भी जो अधिकता से प्रबल कर्म होता उसका फल जडांभोगना उचित है वैसी जाति में प्रथम जन्म लेता और उसकेअनन्तर जैसे कर्म फल भोगको पारीहोती वैषी जाति मेंवह जन्म लेता है। इसी के अनुसार १२ बारहवें अध्याय मेंमनु स्त्रीका कहना ठीक घटता है कि ‘कुत्ता सुअरगधा, ऊंट, गौ, बकरीभेड़, मृग, पक्षी तथा धानुक भङ्गीआदि योनियोंमें ब्रह्महत्या करने वाला जीव क्रमशः जन्म लेता है॥११॥

स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि
चैव रूपाणि देहीस्वगुणैर्व्रणोति ।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयो-
गहेतुरपरोऽपि दृष्टः॥१२॥

** अ० -** देही जीवः स्वगुणैः स्वकृतकर्मजन्यसंचितसंस्कारैरेव तदनुकूलानि स्थूलानि सूक्ष्माणि च बहूनि रूपाणि मानुषादिनानारूपाणि शरीराणि वृणोति स्वीकरोत्यादत्ते।तत्तत्क्रियागुणैः पूर्वकृतकर्मगुणैरात्मगुणैर्भौतिकशरीरगुणैश्च सम्बद्धस्तेषां रूपाणां संयोगस्यहेतुः कारणमपरोऽपि परमात्मतो भिन्नोऽपिसांसारिको जननमरणादिमानौपाधिको जीवोदृष्टः सूक्ष्मदर्शिभिः साक्षात्कृतः। अर्थात्परएवात्मा मुख्यतया प्रेरकत्वेन प्रधानः संयोगहेतुस्तत्त्वज्ञैरनुभूयतेऽपरस्त्वौपाधिकभेदेन दृश्यते॥

भा० - स्थूलानीत्यादिना पूर्वस्यैव स्पष्टार्थोऽनुवादः। जीवः शरीरेण संयुज्यते कर्मानुकूलानि शरीराणि स्वीकरोति यद्यपीशापेक्षया जीवः परतन्त्रः स तन्नियमबद्ध एवकर्मानुगानि निरयादिरूपशरीराण्यादत्ते तथापि जीवः संयोगहेतुर्भवति जीवमन्तरेणको जायेत?, यो जायते स एव जीव इतिलक्षणं च निस्सरति शुद्धः परमेश्वरोलोकचेष्टानिमित्तसूर्य

डवेच्छादिरहितः प्रयोजकः

कारयिता पापपुण्ययोरस्ति। अन्तःकरणोपाध्यवच्छिन्नश्चिदाभासमात्रो जीवः कर्त्ताऽस्ति।अत एवशरीरसंयोगहेतुत्वमुभयोरपि मन्तव्यम्॥१२॥

भाषार्थः – ( देही स्वगुणैरेव बहूनि स्थूलानि सूक्ष्माणिच रूपाणि वृणोति) जीवात्मा अपने किये कर्मों से संचितहोने वाले संस्काररूप संचित कर्मों के द्वारा ही मनुष्यादिसम्बन्धी नाना प्रकार के रूपों वाले स्थूल सूक्ष्म अनेक शरीरोंको धारण करता है (क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरपि दृष्टः) और पूर्वकृत उन २ संचित कर्मों के गुणोंनाम सस्कारो से और भौतिक शरीर सम्बन्धी जातीय गुणोंसे संयुक्त हुआ, उन २ स्थूल सूक्ष्मशरीररूपों के संयोग काहेतु नाम कारण परमात्मा से भिन्न जीवात्मा भी सूक्ष्मदर्शियों ने साक्षात् किया इस देह में विद्यमान है अर्थात् चुम्बनवत् प्रेरक होने से परमात्मा ही मुख्य कर शरीर धारणादिप्रकृति संयोग का प्रधान हेतु विद्वानोंने जाना माना है तथाअपर नामजीवात्मा तो स्थूल सूक्ष्म शरीरोपाधियोंके कारणभिन्न प्रतीत होने वाला सयोग का गौण हेतु है।

** भा० =** स्थूलानि—आदि कथन से पूर्व कहे अंश को हीस्पष्टार्थ अनुवाद है। जीव शरीरी से सयुक्त होता कर्मानुसार शरीरों को धारण करता है। और यद्यपि ईश्वर कीअपेक्षा जीव परतन्त्र है वह उस के नियम में बन्धा हुआही कर्मानुसार नरकादि भोगरूप शरीरों को धारण करता हैतथापि शरीर के साथ संयोग होने का हेतु जीव भी अवश्यहै। मनुष्यादि प्राणियों की चेष्टा के निमित्त सूर्यनारायण

के तुल्य इच्छादिरहित सदा शुद्धनिर्विकार परमेश्वर पापपुण्य करने में और उन के फल भोगने में साक्षीमात्र प्रयोजककर्ता है। और अन्तःकरपाधिसेपृथक प्रतीत होने वालाचिदाभासमात्र जीव प्रयोज्य कर्ता है। इसी कारण शरीरसंयोग के तथा कर्मो के हेतु दोनों को मानना चाहिये॥१२॥

अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये
विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा
देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥१३॥

** अ० -** कलिलस्य गहनस्य परिवर्तनशीलक्ष्य संसारस्य मध्येऽनाद्यनन्तं सदैकरसमपरिवर्तनशीलं विश्वस्य सर्वस्य स्रष्टारमनेकरूपं तस्मिंस्तस्मिन् मायात्मके वस्तुनि तत्तदुरूपेणैव व्याप्तं विश्वस्यापरिमितस्यापि सर्वस्य ब्रह्माण्डस्यैकमेव परिवेष्टितारं स्वात्मनासर्वतो व्याप्यावस्थितं देवं स्वरयैव वास्तवंस्वरूपं परेशं ज्ञात्वा प्राणी सर्वपाशैर्बन्धनैदुखैर्मुच्यते॥

** भा०-** स सप्तमादिमन्त्रैः प्रतिपादितआत्मा स्वयं शुद्धोऽपि कल्पिताऽविद्याजन्यकामकर्म-फलरागादिगुरुभारैराक्रान्तो दुःख -

सागरनिमग्नो देहेऽहम्भावमापन्नो वासनाबद्धः प्रेततिर्थ्यङ्मनुष्यादियोनिषु जीवभावंप्राप्तः कदाचित्पुण्यवशादीश्वरार्थनिष्कामकर्मानुष्ठानेन वीतरागादिमलो ब्रह्मात्मज्ञानेनोत्पन्न होमुत्रार्थफलभोगविरागः शमादिसाधनचतुष्टयसम्पन्नस्तं स्वीयं वास्तवस्वरूपमात्मानं तत्त्वतो ज्ञात्वा विमुच्यते॥१३॥

** भाषार्थः -** (कलिलस्य मध्येऽनाद्यनन्तम्) एक दशा मेंन रहने वाले परिवर्तनशील अगाध वा असीम संसारममुद्र केबीच, जहा कोई भी एकसा नही रहता वहाअनादि अनन्तएकरस अपनी दशा न बदलने के स्वभाव वाले (विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम्) सब जगत् के रचने वाले उस २मायात्मक पदार्थनाम वस्तुमात्रमें उसी २ के रूप से व्याप्त (विश्वस्यैकं परिवेष्टितारम्) अपने स्वरूप से सब ब्रह्माण्ड के सब ओर व्याप्तहोके अवस्थित एकही सबको अपने भीतर रखने वाले (देवज्ञात्वासर्वपाशैर्मुच्यते) अपनेही वास्तविक स्वरूप देव ईश्वरकी जानकर प्राणी सबदुखबन्धनो से छूट जाता है।

** भा०–** सप्तमादि गत मन्त्रो में जीव रूप से कहा वहआत्मा स्वयं शुद्ध होने पर भी कल्पित अविद्या के कारणप्रकट होने वाले काम और कर्म के फल तथा रंगादि रूपअनेक बोझो से दबा हुआ दुःखसागर में गोता खाता शरीरको हम मानता वासना बन्धनों से अंधा प्रेत पश्वादि औरमनुष्यादि शरीरो मे जीव भाव को प्राप्त हुआ कभी पुण्योदय होने पर ईश्वरार्पण निष्काम कर्म के अनुष्ठान से रागादि मलिनता निवृत्त होने पर आत्मज्ञान से ऐहिक तथा

स्वर्गीय सुख भोग का लालच छूट जाने पर शमादि सेयुक्त हुआ अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को जान करमुक्त हो जाता है॥१३॥

भावग्राह्यमनीडाख्यं

भावा-भावकरं शिवम्।
कलासर्गकरंदेवं
ये विदुस्ते जहुस्तनुम्॥१४॥

** अ०-** भावेन सत्तयैव ग्राह्यं [अस्तीत्येवोपलब्धव्य इति कठे] यस्य सत्तयैव सर्वंसत्तात्मकमुपलभ्यते तस्यैव परा निरतिशयासत्तेतिग्राह्यम्, यद्वा भावेन विशुद्धान्तःकरणेन गृह्यते यस्तम्। नीडो निवासस्थानंगृहदेहादिकं तद्रहितं भावः स्थूलः सर्गोऽभावोलयस्तयोः कर्त्तारं शिवं कल्याणमयंतन्निष्टाः कल्याणमेव लभन्ते, कलानां प्राणादिषोडशमुण्डकोपनिषदुक्तानां सर्गकरं तादृशंदेवं दीप्यमानं परेशं ये स्वात्मत्वेन विदुर्जानन्तितनुं शरीरं जहति त्यक्त्वा च विदेहमुक्ता अपि भवन्त्येव॥

** भा० -** सर्वत्रैवास्तीति मत्वा यः सर्वदानतं विस्मरति तस्य गुणान् कर्माणि चसर्वदा ध्यायति सएव तं ज्ञातुमर्हति ॥१४॥

** भाषार्थःः-** (भावग्राह्यममीडः रूयम्) जिसकी सत्ता से हीतव सत्तारूप दीखता है उसी की सत्ता सर्वोपरि निरतिशयअविनाशिनी है इस कारण ईश्वर है क्योंकि उसके बिनाकिसीको अस्ति है ऐसा नहीं कह सकते इससे जो सदा है वहईश्वरभाव नाम सप्ता से ही ग्राह्य है अथवा भाव नाम विशुद्धान्तःकरण से ग्रहण करने योग्य है तथा नीड़ नाम घर वा शरीरादिकोई जिस का निवासस्थान नहीं (भावाभावकरं शिवम्)स्थूल सृष्टि और प्रलय करने बालां कल्याणस्वरूप जिस काशरण लेने वाले सभी कल्याण को ही प्राप्त होते हैं (कलासर्गकरंदेवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम्) तथा प्राणादि सोलह कला नाममुण्डकोपनिषद् में कहे सृष्टि के भागों नाम अंशों को रचनेयाला ऐसे देव नाम परमात्म कोजो लोग अपना वास्तविकस्वरूप जानते हैं वे शरीररूप बन्धनको छोड़ देते और विदेशमुक्त भी हो ही जाते हैं॥

भा० - सर्वत्र ही है इस प्रकार मानकर सब कालमें उत्तमोजो नहीं भूलता, खाते पीते चलते फिरते बैठते उठते सब दशावा स्थानों में उसी की महिमा से संसारको व्यवस्था चलती है।ऐसा देखता विचारता शोषता है उस के गुणकर्मों का सदाध्यान करता है वही उस को जाग सकता है॥१४॥

** इति ब्राह्मणसर्वस्वमासिकपत्रसम्पादकेनभीमसेनशर्मणा निर्मिते कृष्णयजुवैदीयश्वेता-श्वतरोपनिषद्भाष्येपञ्चमोऽध्यायः समाप्तः॥**

अथ षष्ठाऽध्यायारम्भः॥

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732203011Screenshot2024-11-21202940.png”/>

स्वभावमेके कवयो वदन्ति
कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः।
देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं
भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम्॥१॥

** अ० -** एके केचिल्लोके विद्वत्वेन विदिताःपरीक्षकामासाः कवयो विद्वांसः स्वभावमेवकारणं वदन्ति तथाऽन्ये वेदमर्माजानानाःपरितो मुह्यमानाः कालं कारणं वदन्ति।देवस्येश्वरस्य महिमा तु महत्त्वमेव सर्वस्यकारणमिति तु लोके वेदमर्मावलोकने ज्ञानोदये निष्पद्यते येन महिम्नेदं ब्रह्मचक्रमनिशमविरतं भ्राम्यते॥

** भा०-** कालस्वभावो निर्यातिर्यदृच्छेत्यादियदुक्तं प्रथमाध्याये तदुपलक्षणार्थमत्र कालस्वभावयोर्ग्रहणम्। कालः प्रजा असृजतकालो अग्रे प्रजापतिम्। अथर्ववेदे। इत्यादीनि वेदशास्त्रवाक्यानि दृष्ट्वा सापेक्षनिरपेक्षतया शास्त्रव्यवस्थामबुद्ध्वाच केचित्प-

ण्डितम्मन्याः कालादीनि कारणानि वदन्ति।तदिदमज्ञानम्। यतएकएव भूतभविष्यकालकारणानां सूर्यादीनामपि कारणं निरतिशमिति बहुत्र वेदादिषु सूचितम्। यद्यपिकालादीनि गौणानि सापेक्षाणि कारणानिभवन्ति तथापि निरपेक्षप्रधान कारणापेक्षयातेषामकारणत्वमवगन्तव्यं यद्वा कालः प्रजाअसृजतेत्यादिवाक्येषु कालात्मकः प्रजापतिःपरमेश्वरएव कालादिपदवाच्योऽभिप्रेत-इतियुक्तम्॥१॥

भाषार्थः - (एके स्वभावं तथान्ये परिमुह्यमानाः कवयःकाल वदन्ति) लोक में विद्वानुपनसे प्रसिद्ध कोई परीक्षकाभास लोग स्वभाव को तथा वेद के मर्म को न जानते हुएसबओर से पण्डिताई के अहंकाररूप मोह अन्धकार मेंफसे अपनेको पण्डित मानने वाले काल को कारण कहते वामानते है (लोके देवस्यैष महिमा तु) परन्तु वेद का मर्मबोध रूप ज्ञानोदय होने पर तो उस परमात्मा की महिमामहत्व सब का कारण है यह सिद्ध हो जाता है (येनेदब्रह्मचक्रं भ्राम्यते) जिस महिमा नाम अचिन्त्य अनन्तआश्चर्यरूप शक्ति से यह ब्रह्मचक्र प्रत्येक समय निरन्तरभ्रमाया जाता है॥

** भा० -** (कालःस्वभावो०) इत्यादि को प्रथमाध्यायकेप्रारम्भ में कहा है उस के उपलक्षणार्थं यहां काल औरस्वभाव का ग्रहण है “काल प्रजा को रचता और काल ने

ही पहिले प्रजापति को उत्पन्न किया, यह अथर्ववेद मेंकहा है।वेद शास्त्र के इत्यादि वचनों को देख के औरसापेक्ष निरपेक्ष रूप से शास्त्र की व्यवस्था को न जानकरअपने को पण्डित मानने वाले पण्डिताभास कोई लोगबालादिकों को सबका कारण कहते हैं सो यह उन काज्ञान है। क्योंकि वह ईश्वर भूत भविष्यत् काल के कारणसूर्यादि का भी निरतिशय निरपेक्ष कारण है यह बात वेदादिशास्त्रों के अनेक स्थलोंमे सूचित की गयी है। यद्यपिअथर्ववेद के मन्त्र का अर्थ सापेक्ष दशा में कालको कारणतादिखाने परक हो सकता है तथापि निरपेक्ष प्रधान कारण की अपेक्षा उनका कारण नहोना वा न मानना भी ठीकसिद्धही है अथवा (कालः प्रजा असृजत०) इत्यादि वेदवाक्यों में कालात्मक परमेश्वर ही कालादि पदों का वाच्यार्थ लेना इष्ट है ऐसा मान लेना चाहिये॥१॥

येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं
ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद्यः।
तेनेशितं कर्म विवर्त्तते ह पृथ्व्या-
प्यतेजोऽनिलखानि चिन्त्यम्॥२॥

** अ० -** यो ज्ञो ज्ञानस्वरूपः सर्ववित्सर्वज्ञोगुणी शुद्धत्वनिष्पापत्वादिगुणवान् कालस्यापि यः कालोऽन्तकरः। कालकारइति पाठेकालस्यापि कर्त्ता येनावृतं हि व्याप्तमेव सर्वमिदं जगत्सदावतिष्ठते न कदाप्यव्याप्तम्।

तेनेशितं तदधिष्ठातृप्रयोजकं सर्गाद्यर्थं यत्कर्म विवर्त्तते परिणमति तच्च परिणतं पृथिव्यादिपञ्चभूतात्मकं भवतीति चिन्त्यं सुधीभिः॥

भा० - क्रियमाणं सञ्चितं प्रारब्धनाम्नाभोगोन्मुखं च त्रिविधं कर्म। यदादौ क्रियतेतदेव परिणतं सञ्चित भवति तस्यापि परिणामः फलं सर्वत्र जायते। यथा वृक्षमूले कृतंसेचनादि कर्म रसादिरूपेण सञ्चितं फलरूपंजायते। एवमत्राध्ययस्कान्तमणिकल्पेश्वरप्रयोजककर्त्तृकं प्रकृत्याधारं सर्गारम्भेसदाजायमानं ‘संक्षोभनसञ्चलनादिकर्म परिणतिमापन्नं कालेन पृथिव्यादिपञ्चतत्त्वफलात्मकं सम्पद्यत एवं च सोऽयस्कान्तमणिकल्पईश्वरोऽस्य सर्वस्य प्रधानमनन्यं कारणं सिध्यति। सम्प्रति स्थूलकार्यदशायामपि तेनव्याप्तमेव सूर्यचन्द्रपृथिव्यादिकं सर्वं जगन्नियमेन प्रवाहहेतुकं जायते। तदुव्याप्तिमन्तरेण न किमपि कदापि व्यवस्थया स्थातुंकार्यं साद्धुं वाऽलं भवति॥२॥

भाषार्थः - (यो ज्ञ्ःसर्वविद् गुणी कालकालः) जोईश्वर ज्ञान स्वरूप सर्वत्रशुद्ध तथा सदा निष्पाप होने

आदि गुणो वाला और कालका भी काल है अर्थात् कालकोभी खा जाने वाला तथा (कालकार) ऐसा पाठान्तरमाना जाय तो जो काल का भी कर्त्ता करने वाला है (येनाघृतं हि सर्वमिदम्) जिस से व्याप्त ही यह सब जगत् सदारहता अर्थात् जिस मे प्रयास एक क्षणभर भी कोई तृणमात्र भी वस्तु नही ठहरता( तेनशित कर्म विवर्त्तते ह)बढी जिस का प्ररक वा अधिष्ठाता है ऐसा जो कर्म नामक्रिया सृष्टि रचना के लिये प्रवृत्त होती, वही परिणाम कोप्राप्त हुआ कर्म (पृथ्व्याप्यतेजोऽनिलखानि चिन्त्यम्)पृथिवी जल अग्नि वायु तथा आकाश नामक पञ्चत्वरूपसंसार बनता है यह विचारशीलो को चिन्त्य हैं॥

** भा० -** क्रियमाण संचित और भोगने में आने वालाप्रारब्धरूप यह तीन प्रकार का धर्म कहाता है जो प्रथमकरते समय क्रियमाण कहाता वही द्वितीय दशा में परिणतहुआ संस्कार पर दीर्घ काल तक रहने वाले संस्कार हीवासनारूप से संचित कर्म कहाते और वहीकर्म तीसरीदशा में परिणाम को प्राप्त प्रारब्धफल रूप होता है। इसका प्रत्यक्ष दृष्टान्त यह है कि जैसे वृक्ष की जड़ में कियाजलसोचनादि कर्म रसादिरूप से उस वृक्ष में संचित होताहुआ काल पाकर फलरूप से प्रकट होता है। इसी प्रकारयहा चुम्बक पत्थर के समीप होने मात्र से लोहे में क्रियाप्रकट होने के समान सृष्टि के आरम्भ में ईश्वरकी समीपताहोने मात्र है लोहस्यानी माया में संक्षोभन वा संचलननरूपसूक्ष्म स्वाभाविक जो क्रिया होती जिसका प्रेरक कर्त्ता ईश्वरही ठहरता है वही क्रिया परिणाम को प्राप्त होती हुईपृथिव्यादि पञ्चतत्व फल रूप से प्रकट हो जाती है। इसप्रकार वह ईश्वर चुम्बक पत्थर के समान कुछ चेष्टा वा

इच्छा न करता हुआ भी सब सृष्टि का मुख्य कारणं सिद्धहो जाता है। इस विचार के साथ सांख्यादि किसी दर्शनका विरोध नहीं जाता। वर्तमान समय की स्थूल कार्यदशामें भी सूर्य, चन्द्र वा पृथिव्यादि सब जगत् उस ईश्वर सेव्याप्त हुआ ही नियम पूर्वक प्रवाह

ढर्रा चलने का हेतु होरहा है। उसकी व्याप्तिके बिना कोई भी वस्तु कदापि नियम के साथ किसी कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता। इससेवह अबभी चुम्बक के समान क्रिया का हेतु है॥२॥

तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य
भूयस्तत्त्वस्य तत्त्वेन समेत्य योगम्।
एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा
कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः॥३॥

** अ० -** तद्भूतसर्गरूपं कर्म कृत्वा विनिवर्त्यभूयः पुनरीक्षणपुरस्सरं तत्त्वेन तत्त्वान्तरेणावादिनैकेन द्वाभ्यां त्रिभिर्वा तथाष्टभिःप्रकृतिभिः[पञ्चतन्मात्रतत्त्वानि मनो बुद्धिरहङ्कारइत्यष्टौ सांख्याभिमताः प्रकृतयः] योगंसमेत्य संगमय्य तथा कालेन, सूक्ष्मैरात्मगुणैः संकल्पादिरूपैरन्तःकरणगुणैश्च तत्त्वस्यपृथिव्यादितत्त्वस्य संयोगं कृत्वा नानाविधंवस्तु सृजति। सर्वं ब्रह्मचक्रं चालयतीति च॥

** भा०** - ईश्वरः सर्गारम्भेपूर्वं सूक्ष्मात्स्थूलभूतानि सृजत्यनन्तरं सर्वं परस्परसंयोगेन पञ्चविधं कृत्वा द्विभौतिकत्रिभौतिकानि चातुर्भौतिक पाञ्चभौतिकानि च नानाविधानि मनुष्यादिप्राणभृच्छरीरादीनि सृष्ट्वा तत्र बुद्ध्यादीनां संयोगं कृत्वा सर्वं चालयति॥३॥

** भाषार्थः -** (तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य) पूर्वोक्त पञ्चभूतोंकी सृष्टिरूप कर्मको करके ईश्वर ने फिर ईक्षण किया अर्थात्भूतों से अगली होने वाली सृष्टि के लिये ईश्वर ने अपनाभीतरी स्वाभाविक विचार करके (भूयस्तत्वनैकेन द्वाभ्यांत्रिभिरष्टभिर्वा कालेन च सूक्ष्मेरात्मगुणैश्चैव तत्वस्य योगंसमेत्य) फिर एक दो वा तीन तत्त्वान्तरोंके साथ [जगत् केकिन्हीं पदार्थों में दो का किन्हीं में तीन का और किन्हींमें चार तत्वों का संयोग प्रधान माना जाता और यही ठीकहै। आकाशतत्त्व यद्यपि सब में है तथापि उस का संयोगनाग बन्धन किसी में नहीं होता सदा सबसे अलग निर्लेपरहता है। [एक का १ के साथ संयोग होकर दो का, एक कादो के साथ मेलहोकर तीन का और एक का तीन के साथमेल होकर चारका संयोग बनेगा] तथा पांच तन्मात्र तत्व औरमन बुद्धि अहङ्कार इन सांख्य दर्शनकार की भागी हुई आटप्रकृतियों के साथ, काल के साथ और सङ्कल्प नामकामनाइच्छादिअन्तःकरणसम्म्बन्धी सूक्ष्म गुणों के साथ पृथिव्यादितत्व का संयोग करके नाना प्रकार के सांसारिक पदार्थ बनाता और सब ब्रह्मचक्रको प्रवाह के साथ चला रहा है॥

** भा०–** ईश्वर सृष्टि के प्रारम्भ में प्रथम सूक्ष्म से स्थूलपृथिव्यादि भूतो को रचता तदनन्तर सबभृता को परस्परमिलाके अर्थात् एक २ को पांच २ प्रकार का करके [इसीकोपचीकरण करते हैं जिस में पाच भून पचीस प्रकार के होजाते है] द्विमौतिक त्रिभौतिकचातुर्भौतिक और पाञ्चभौतिकनाना प्रकार के मनुष्यादि प्राणधारियो के शरीरादिपदार्थों को रचके तथा उन में बुद्धि आदि का सयोग करकेसबजगत् के प्रवाह को निरन्तर चलवा रहा है॥३॥

आरभ्य कर्माणि गुणान्वि-
तानि भावांश्च सर्वान्विनियोज-
येद्यः। तेषामभावे कृतकर्मनाशः
कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः॥४॥

** अ०** - सत्त्वादिशुभगुणान्वितानि कर्माण्यारभ्यकुर्वाण. सर्वान् भावान्सर्वान्संकल्पान्यो विनियोजयेदीश्वरार्पितानि कुर्यादिन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्त्तन्तइति धारयन्प्रकृतिःकुरुते कर्मेति जानन्वा कुर्यात्तेषां कर्मणांसंकल्पाऽहङ्काराणामभावे कृतानामपि रागद्वेषरहितकर्मणां नाशोजायते नच तदाकर्माणि नवानि सञ्जायन्ते। एवं कर्मक्षयेविद्यादिक्लेशवासनानां नाशे स जीवस्तत्त्वतः

पृथिव्यादितत्त्वेभ्यो वस्तुतोऽन्यश्चैतन्यस्वरूपोयाति स्थूलदेहं सूक्ष्मशरीरं च त्यक्त्वा केवलोगच्छति मुक्तो जायते॥

** भा०-** नच प्राणभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतइति गीतायामुक्तं तच्च कर्मणां यावद्देहभावत्वादैकान्तिकमेव सत्यम्। तस्माद्रागद्वेषवियुक्तानि दर्शनादीनि स्वाभाविकानिकर्माणि कुर्वाणो विज्ञो वालोन्मत्तादिवत्तज्जन्य शुभाशुभफलैः संस्कारसञ्चयाभावान्नलिप्यते। शास्त्रविहितानि विशेषेण सर्वाणिकर्माणि वाऽयस्कान्तवत्प्रयोजके परमगुरौसमर्पयेत् यथा बालादयो व्यभिचारस्तेयादिकंदुष्कर्म किमपि न कुर्वन्ति तथा विरक्तोपिन करोति संस्काराभावात् । येये च सूक्ष्माःसङ्कल्पा उत्तिष्ठन्ति तांस्तान् तत्रैव विलाययति। ध्यान हेयास्तद्वृत्तय इत्यादियोगसूत्रोप्रकारेण यदा सञ्चितवासनाः शिथिलीभवन्ति नव्याश्चनोत्पद्यन्ते तदा प्रवृत्तिहेतुसञ्चितकर्माभावे दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितध्यानयोगाभ्यासादिना स मुक्तो भवति॥४॥

** भाषार्थः-** (गुणान्वितानि कर्मास्वारभ्य) सत्वाद्विगुणोसे युक्त कर्मोंका प्रारम्भ करके कर्म करता हुआ भी (सर्वान्भाषान् यो विनियोजयेत्) जो पुरुष सब भावों नामकामनाओ को ईश्वर मे समर्पित करदे त्याग देवे (तेषामभावेकृतकर्म नाशः) उन कर्मों के अहङ्कारो वा सकल्पों के प्रभावमे रागद्वेष रहित होके किये कर्मों का नाश हो जाता अर्थात्उन स्वाभाविक वा शास्त्रोक्तकर्मों से गये २ संस्कार सहित

नहिहोते (कर्मक्षये तत्वतोन्यो याति) इस प्रकार रूचितवासनाओका धीरे धीरे ध्यानादि द्वारा नाशहोने पर वहजीव पृथिव्यादि तत्वोसेसे अर्थात् पार्थिवस्थूल शरीर सेसूक्ष्म से भी अपनेको भित्र जानता हुआ जोवस्तुतः शरीरखे भिन्नहै शरीर छोड़के कैवल्य दशा को प्राप्त हो जाता है॥

** भा० -** “जीवित रहने पर्यन्त कोई प्राणी सव कर्मों कोनहीं छोड़ सकता” यह गीता में कहा है सो शरीर रहने तककर्मोकासाथ होने से यह अत्यन्त ही सत्य है। इस से वकर्म छूट नही सकते तो ज्ञानी वा जिज्ञासु पुरुष रागद्वेषादिदोषो से रहित देखना सुनना आदि स्वाभाविक कमों कोकरता हुआ भी बालक वा उन्मत्तादि के समान संस्कारोंकासञ्चयन होने से संचित कर्म से होने वाले शुभाशुभ फलो सेलिप्त नहीं होता। विशेष कर शास्त्रोक्त वा सभी कर्मों कोचुम्बक के तुल्य सबके प्रेरक परमेश्वर में समर्पण कर देवेतथाजैसे काम संकल्प न होने से वालकादि चोरी व्यभिचारादि किसी दुष्ट कर्म को नही करते वैसे कामना पूर्वकसङ्कल्पो के प्रभाव से विरक्त भी वैसे काम नही करता। औरवासना रूप से अवस्थित को २ सूक्ष्म संस्कार ज्ञानीके चित्तमें उठते हैं उन २ को वही लीन वा नष्ट करता जाता है।( ध्यान हेयास्तद्वृत्तयः ) इत्यादि योग सूत्रों में कही रीति

से जबसचित वासना धीरे २ शिथिल होती जाती शौरनयी वासना उत्पक्ष नहीं होने पातीतब संसार में फंसावटके हेतु सचित कम के प्रभावमे दीर्घकाल तक निरन्तर श्रद्धाभक्ति के साथ सेवन किये ध्यान योगाभ्यासादि द्वारा वहयोगी मुक्त हो जाता है॥४॥

आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः
परस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः।
तंविश्वरूपं भवभूतमीड्यं देवं
स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम्॥५॥

** अ०—**स ईश्वर आदिः सर्वकारणानामपिकारणं शरीरसंयोगादिनिमित्तानां सञ्चितकर्मणामविद्यादीनां च हेतुस्त्रिकालाद्वर्त्तमानातीतानागतरूपकालत्रयात्परो भिन्नोऽवच्छेदेन तत्र कालो नोपावर्त्तते सच प्राणादिषोडशकलास्वन्तर्गतो नास्ति। एवं भूतो मनीषिभिर्दृष्टः साक्षात्कृतः क्रियते च तं तादृशंविश्वरूपं सर्वरूपवद्वस्तुषु तत्तद्रूपेणावस्थितंभवत्यस्मात्सर्वमिति भवो भूतोऽविनश्वरोनित्यं विद्यमान एवेदृशमीड्यं सर्वस्तुत्यं देवमीश्वरं स्वचित्तस्थं पूर्वमुपास्याऽयमहमस्मीतितन्निष्ठो भूत्वा जीवस्तत्त्वतोऽन्यो यातीति

तन्निष्ठो भूत्वा जीवस्तत्त्वतोऽन्यो यातीतिपूर्वेणैवान्वयः॥

** भा० -** चेतः समाधाय तस्याद्यादिपदैःकृतं व्याख्यानं विविक्तप्रदेशे यो ध्यायतिवहिःकरणान्यन्तःकरणानि च वशीकरोति सएकस्मिन् ग्रन्थेऽध्याये पद्ये वा तस्य स्वामिनो महत्वमानन्दस्वरूपं च मनसोपलभ्यतुष्यत्येवसएव साधुकर्म कारयति तं यमेभ्योलोकेभ्यउन्निनीषतइत्यादि प्रमाणेन सएवसर्वं कारयति॥५॥

** भावार्थः-** (सा आदिः संयोगनिमित्तहेतुः) वह सब काआदि मूल कारण, शरीर संयोगादि के निमित्तसंचित कर्मविद्यादि का भी हेतु अर्थात् शुभाशुभ कर्म कराने वालाहै (त्रिकालात्परः ) भूत भविष्य वर्तमान रूप तीनों कालसे परे नाम भिन्न जिस में भेद करने वाले काल की प्रवृत्तिनहीं कि पहिले पा वा आगे होगा वा अय हुआ पहिले नया इत्यादि (अलोऽपि दृष्टः) जो प्रायादि सोलह कलाओके अन्तर्गत नही ऐसे ईश्वर को ज्ञानी ध्यानी लोग साक्षात्देखते जानते हैं (तं विश्वरूपं भवभूतीड्यम् ) समरूपवान्वस्तुप्रो मे उसी २रूप से अवस्थित सत्र के उत्पत्ति स्थानअविनाशी नित्य विद्यमान, सबको स्तुति प्रार्थना करने योग्य(स्वचित्तस्थं देवं पूर्वमुपास्य) अपने चित्त नाम अन्तःकरणमें स्थित ऐसे दिव्यस्वरूप ईश्वर को यही मै हूं इस प्रकार

तत्पर तन्निष्ठ होने पूर्वक प्रथम उपासना करके जीव पञ्चतत्वमय शरीर के बन्धन से छूट सकता है।

** भा० -** चित्त का समाहित करके उस के आद्यादिपदों सेकिये व्याख्यान को जो पुरुष एकान्त में बैठ कर शोचताऔर बाहर भीतर के इन्द्रियो को वशीभूत करता है वहएक ग्रन्थ वा एक अध्याय अथवा एक श्लोक में ही उससर्वाध्यक्ष के महत्त्व वा आनन्दस्वरूप को मन से प्राप्त करकेसन्तुष्ट अवश्य होता है जिस को ऊपरी दशा में पहुंचानाचाहता उससे वही शुभ वार्म कराता है और वही ईश्वर अशुभकर्म कराता है, इस प्रमाणानुसार वही सब कराता है

सवृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो
यस्मात्प्रपञ्चः परिवर्त्ततेऽयम्।
धर्मावहं पापनुदं भगेशं ज्ञात्वा-
त्मस्थममृतं विश्वधाम॥६॥

** अ०**- समानं वृक्षं परिषस्वजाते-इत्यादिषु वृक्षः संसारउक्तस्तस्याकृतयः सूर्यादीनां रचनाप्रकारभेदाः कालाकृतयोऽहरादिरूपास्ताभिः परो भिन्नोऽन्यस्ताभिरलिप्तः। यस्मादयं प्रपञ्चो व्यक्तीभूतः संसारः परिवर्त्तते आविर्भवति स्तिरोभवति च तं धर्मावहं ध्यायिनां धर्मप्रापकमधर्मनाशकं सर्वैश्वर्याणामीशं स्वामिनं विश्वस्य धामाधारममृतमम-

रणधर्मकमात्मस्थं स्वान्तःकरणस्थं ज्ञात्वातत्त्वतोऽन्यो याति॥

** भा० -** आत्मा यद्यपि संसारवृक्षकालाद्याकृतिषु तत्तदाकाररूपेणैव तत्रतत्र प्रविष्टस्तथापि वारतवस्वरूपेण वृक्षाद्याकृतिभ्यो भिन्नएव।सर्वाकृतिरहित्वा देवातीन्द्रियरतस्मादेव ध्यानयोगाभ्यासादिप्रबलतरसाधनैः शुद्धया सूक्ष्मप्रज्ञया तं कश्चिदेवाश्चर्यमिव पश्यति॥६॥

** भाषार्थः-** (यरमादय प्रपञ्चःपरिवर्तन्ते) जिससे यह प्रत्यक्षदोखता स्थूलजगत्का सब फेला प्रवृत्त हुआ है। अर्थात् जिससेइसका उत्पत्ति विनाशरूप सदा परिवर्तन होता रहता है(स वृक्षकाला कृतिभिः परोऽन्यः ) वह सूर्यादि रूप वृक्षानाशवान् संसार की भिन्न२ बनावटों तथा दिनरात आदिकालकी भिन्न २ आकृतियों से प्रलिप्त और उदा अलग है।(धर्मावहं पापनुदं भगेशन् ) उस, ध्यान शील पुरुषोंके हृदयमें धर्मको पहुंचाने, सचित करने वाले पापरूप धर्म कोभगाने वाले, सबऐश्वर्योंके स्वामी (ज्ञात्वात्मत्स्यममृतं विश्वधाम) सबके आधारभूत गरणा धर्मसे रहित ईश्वरको नेअन्तःकरणमें स्थित जानकर जीव संसार के दुःख यवनों सेछूट सकता है॥

** भा० -** आत्मा यद्यपि संसार वृक्षकी और कालादिकोआकृतियोंमें उन्हीं २ के नामरूपसे विद्यमान रहता हुआ सबका प्रेरकया प्रवर्तक है तथापि अपने वास्तविक स्वरुप कालादिनीआकृतियोंसे भिन्न हीहै। सब प्रकार की बनावटोसेरहितहोने के कारण ही ईश्वर अतीन्द्रिय हे इन्द्रियगोचर नही

होता, इसी कारण ध्यान तथा योगाभ्यासो द्वारा शुद्ध सूक्षबुद्धि से कोई ही उस को आ

श्चय के तुल्य जान सकता वादेख सकता है॥६॥

तमीश्वराणां परमं महेश्वरं
तं देवतानां परमं च दैवतम्।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्वि-
दाम देवं भुवनेशमीड्यम्॥७॥

** अ० -** ईश्वराणां वैवस्वतादीनां राजादीनांवा परमं महेश्वरं राजाधिराजादीनामपिमहान्तं निरतिशयं प्रभुं देवतानामग्न्यादीनांच परमं देवतं निरतिशयदेवत्वेन सयुक्तंपतीनां प्रजापत्यादीनामपि परमं पतिं रक्षकंसूक्ष्मतराव्यक्तादपि परस्तात् सूक्ष्मतरं तं भुवनानामीशमीड्यं सर्वस्तुत्यं देवमीश्वरं विदामवयं जानीयामेति जनैरुत्साह उद्योगो वाकार्य्यः’

** भा० -** अत्र सर्वभावापेक्षयैश्वरस्य निरतिशयत्वं स्फुटमेव प्रत्याय्यते तस्मात्तस्य सातिशयज्ञानायोद्योगो न कार्यः। ईश्वरत्वादीनां यत्र काष्ठाप्राप्तिः स एव वाच्य ईश्वरोऽत्रोपनिषत्सु ज्ञेयत्वेनेष्टइति॥७॥

** भाषार्थः-** (तमीश्वराणां परमं महेश्वरम्) उस यमराजआदि ईश्वरोके भी परम ईश्वर अर्थात् राजाधिराजों [शाह-शाहो] के भी ऊपर अनन्त सामर्थ्य वाले प्रभु (तं देवतानांपरमं च दैवतम्) उस अन्यादि वा इन्द्रादि देवताओं केभी परम देवता सर्वोपरि देवतापन से युक्त (पतीनां परमंपतिं परस्तात्) प्रजापति आदि प्रजा रक्षको के भी परमरक्षक, अतिसूक्ष्म अव्यक्त नामक कारण से भी परे सूक्ष्मतर(भुवनेशं देवमीडयं विदाग) उस सब भुवनों के स्वामीसबको स्तुति करने योग्य देव ईश्वर को हम जानें वा जानसकें ऐसा उत्साह या उद्योग मनुष्योंको करना चाहिये॥

** भा० -** यहां सबविद्यमान पदार्थों की अपेक्षा स्पष्ट होईश्वरको निरतिशय प्रतीत कराया है इसलिये उसको किसीसे छोटा या किसी के बराबर जानने का उद्योग कदापि नहीकरना चाहिये। ईश्वरादिपनके जहां काष्ठा प्राप्ति नाम इद्दहै वही वाच्य ईश्वर यहां उपनिषदों में जाननेको इष्ट है \।\।७\।\।

न तस्य कार्यं करणं च
विद्यते न तत्समश्चाभ्यधि-
कश्च दृश्यते। पराऽस्य शक्ति-
विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी
ज्ञानबलक्रिया च॥८॥

** अ० –** तस्य कार्यं शरीरं करणं चक्षुरादि साधनं च वस्तुतो न विद्यते तत्समस्तत्तुल्यस्ततोऽभ्यधिको वा न कश्चिद दृश्यते स्वाभा-

विकीज्ञानक्रियारूपा सर्वविषयज्ञानप्रवृत्तिर्बलक्रिया स्वसन्निधिमात्रेण सर्वस्य वशीकरणरूपा चास्येश्वरस्य विविधैव परा निरतिशयाऽनन्ता च शक्तिः श्रूयते वेदादिति शेषः॥

** भा० -** नहि लोकेषु कोऽपि ज्ञानेन्द्रियैमनःषष्ठैर्विना ज्ञानक्रियां भोगायतनशरीरेणविना या बलक्रियां कर्त्तुं शक्नोति। यश्चस्वभावेनैव देहेन्द्रियैर्विनापि सर्वस्य धारणंपालनं च करोति। रार्वहिताय सर्वविद्यामयंवेदं चोपदिशति तत्तुल्यस्ततोऽधिको वा कोभवितुमर्हति? न कोऽपीति बहुविधावतारशरीरेषु सत्स्वपि तानि शरीरेन्द्रियाणि वास्तविकानि तस्य न भवन्ति किन्तु नाट्यदृश्यवत्कल्पितान्येवातउक्तं मायामाणवको हरिरितिति॥८॥

** भाषार्थः-** (तस्य कार्य करणं च न विद्यते) उस ईश्वरकर कार्यनाम शरीर तथा करणनाम चक्षु आदि इन्द्रियवास्तव मे नही हैं (न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते) तथा नकोई उम्र के बराबर और न कोई उस से अधिक दीखता है।(स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया परा च विविधैव शक्तिरस्यश्रूयते) स्वाभाविक मन विषयोको जानने की प्रवृत्ति ज्ञानक्रियारूप पर अपनी समीपता होनेमात्र से व पृथिव्यादिको वशी करने वाली स्वाभाविकी बलक्रियारूप नाना प्रकारकी परा नाम अनन्तशक्ति इस ईश्वर की वेद से सुनी जाती
या सिद्धयोगी ज्ञानियों के कथन से सुनने में आती है॥

** भा० -** लोक में कोई पुरुष मन सहित व ज्ञानेन्द्रियो केबिना ज्ञानक्रिया नाम किमी को जान सकता तथा भोग केस्थान शरीर केकिसी प्रकार का तठागाधरना पकडना फेकनादि बल सम्बन्धीकुछ फर्म नहीं कर सकता।परन्तु जो स्वभाव से ही शरीर और इन्द्रियो के बिना भीसब जगत् का अनन्त धारणपालन तथा सब के हितार्थशुद्धसर्व विद्यामय वेद का उपदेश मनुष्यों को करता है। उस केतुल्य वा उससे अधिक और फोन हो सकता है? अर्थात्कोई नही। अनेक प्रकार के अवतार शरीर धारण करने परभी वे अवतार के शरीरेन्द्रिय ईश्वर के वास्तविक नहीहोते किन्तु नाटक दिखाने के तुल्य कल्पनामात्र शरीर होतेहै इसी कारण श्रीमद्भागवत मे लिखा है कि मायामात्रअवतार शरीर होते है॥८॥

न तस्य कश्चित्पतिरस्तिलोके
नचेशिता नैव च तस्यलिङ्गम्।
स कारणं करणाधिपाधिपो
न चास्य कश्चिज्जनितान चाधिपः॥९॥

** अ० -** लोके तस्य कश्चित्पतिर्नास्त्यत एवचेशिता नियन्ताऽपि नास्ति। नच तस्यकिमपि लिङ्गं चिह्नंधूमादिवदनुमापकमस्ति।करणाधिपस्येन्द्रियस्वामिनो जीवस्याप्यधिपःस्वामी स सर्वस्य कारणमभिन्ननिमित्तोपा-

दानमस्त्यतएवास्य कश्चिज्जनिता जनयितोत्पादको नास्ति नचास्य कश्चिदधिपोऽस्ति॥

** भा० -** कस्याप्यधिकारे यो न तिष्ठतिसर्वदा सर्वथा स्वतन्त्रो, निराकारः सर्वाध्यक्षःसर्वनियन्ता सर्वोत्पादकः सर्वविघशक्तेःकाष्ठांप्राप्तश्चसएवेश्वरो नो ब्रह्म दधात्वित्युत्तरेणान्वयः॥९॥

** भाषार्थः -** (लोके तस्य कश्चित्पत्तिर्नास्ति ) दृष्टि गोचरहोने वाले संसार में उसका कोई पति नाम रक्षक वा पालकनही है (न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् ) न उसका कोईनियन्ता-उसको नियम में चलाने वाला तथा न धूमादि सेअग्नि आदि को जानने के तुल्य उसका अनुमान कराने वालाजगत में कोई चिन्ह है (स कारणं करणाधिपाधिपः) वहसब संसार का निमित्त तथा उपादान कारण और करण नामइन्द्रियों के स्वामी जीवका भी अधिष्ठाता प्रभु है (नचास्यकचिज्जनिता न चाधिपः) और इस ईश्वरका न कोई उत्पादक कारण और न कोई स्वामी है॥

** भा० -** जो किसी के अधीन नही रहता, सब काल मेंसब प्रकार से जो स्वतन्त्र, निराकार, निराधार, निर्विकार,सर्वस्वामी सर्व नियन्ता, सर्वोत्पादक और असीम शक्ति वालाहै वही ईश्वर हमारे लिये ज्ञानमय वेद का धारण करे यहअगले मन्त्रकी प्रार्थना के साथ सम्बन्ध जानो॥९॥

यस्तूर्णनाभइव तन्तुभिः प्रधा-

नजैः स्वभावतो देवएकः स्वमावृ-
णोत्। स नो दधातु ब्रह्माप्ययम्॥१०॥

** अ० -** यधोर्णनाभिः, स्वदेहजैस्तन्तुभिःस्वस्यैव देहमावृणोति। तथैव प्रधानजैः प्रकृतिजैस्तन्तुभि-र्महदादिकार्यात्कार्यान्तरापन्नैस्तारतरैर्नानाभेदभिन्नैःपदार्थैर्य एको देवईश्वरः स्वभावतः स्वाभाविकेनैव गुणेन स्वंस्वस्य रूपमावृणोत् सर्वस्मिन्कार्यवस्तुनि व्याण्यादृश्योऽवस्थितः। स ईश्वरो नोऽस्मभ्यमप्यमव्ययमविनश्वरं ब्रह्म दधातु ददातु तद्रूपोऽहं भवेयमित्याशयः॥

** भा० -** परमेश्वरस्यैव सम्यक्क्स्वरूपबोधेतत्वज्ञानमुत्पद्यते तदैव मिथ्याज्ञाननिवृत्तिःसत्यामेव तस्यां दुःखनिवृत्तिरतो जिज्ञासुपुरुषैरात्मबोधायेश्वरप्रार्थनमावश्यकं कार्यम्॥१०॥

** भाषार्थः—** (ऊर्णनाभइव) जैसे मकरी अपने ही देह सेप्रकट हुए जालरूप सूतों से अपने को हो ढांपती है वैसे ही(प्रधान जैस्तन्तुभिर्य एको देवः स्वभावतः स्वभावृणोत्)प्रकृति नामक प्रधान से होने वाले महदादि कार्यों के नानाभेद भिन्न ताररूप [सिलसिलेवार]सूत्रोंसे जो एक ही देवईश्वर अपने स्वाभाविक गुण से अपने स्वरूप का श्रावरणकरता अर्थात् सब कार्य वस्तुनों में व्यापक होके अदृश्यरूप

से ठहरता है [अथवा यों कहो कि कार्य पदार्थ जो प्रयरूपबने हैं उन की फंसावट ही अपने वास्तविक स्वरूप के नदीख पड़ने का ढक्कन वा रुकावटहै (हिरण्मयेन पात्रेणसत्यस्यापिहितं सुखम्) इस वेद मन्त्रका भी यही अभिप्रायहै] (स नोऽप्ययं ब्रह्म दधातु) वह ईश्वर हमारे लियेअविनाशी आत्मतत्वके शुद्ध ज्ञानका दान करे अर्थात् अटलतत्वज्ञान हम को देवे ऐमीप्रार्थना इन करते हैं॥

** भा० -** परमेश्वरका ही ठीक २ स्वरूप जान लेने पर तत्त्वज्ञान होता है तभी मिथ्याज्ञान जो सब दुःखों का मूलकारण है उस की निवृत्ति होती और अविद्या की निवृत्तिहोने पर ही मनुष्य की भीतरी आंखें खुलतीऔर दुःख दूरभागते हैं इस कारण आत्मबोध होने के लिये ईश्वर कीप्रार्थना करना आवश्यक जानो॥१०॥

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः
सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी-
चेता केवल निर्गुणश्च॥११॥

** अ० -** एको देव ईश्वरः सर्वप्राणिषु गूढःसंवृतः सर्वाशेष्वयस्यग्निवद् व्याप्तिशीलः सर्वभूतानां प्राणिनामन्तरात्मा प्रेरकः कर्मणामध्यक्षः प्रयोजकत्वात् सर्वभूतेष्वधि-उपरिभावेन स्वस्यानन्तशक्त्या नियमयन् वसति,

साक्षी सर्वस्य शुभाशुभं कर्म सर्वत्र पश्यतिसर्वस्य चेताऽन्तकरणानां चेतयिता केवलःसर्वस्मात्सदा निर्लिप्तो निर्गुणः सस्वादिगुणासंसृष्टः॥

** भा० -** एवं प्रकारेण सर्वत्रावस्थितं सर्वसाक्षिणं सर्वनियन्तारं भूरादिलोकेष्वग्न्यादिषुच तत्तन्नामरूपैरेव विद्यमानं तत्तदात्मकं योजीवः स्वीयं वास्तवं स्वरूपं जानन् सदैवाश्रयति सएव कृतार्थः सम्पद्यते॥११॥

** भाषार्थः -** (एको देवः सर्वभूतेषु गूढः) एक ही देव ईश्वरसब प्राणियों में गुप्त सूक्ष्मरूप से लिपा (सर्वव्यापी सर्वभृतान्तरात्मा) सब वस्तुओं के सर्वंशोंमें लोहे में अग्निकेतुल्य व्यापक, सूबप्राणियों का अन्तर्यामीप्रेरक (कर्माध्यक्षःसर्वभूताधिवासः) प्रयोजन होने से कर्मों का अध्यक्ष, सबप्राणियों को अपनी अनन्त शक्ति से नियममें

घनासा हुआसबमें स्वामी होकर बसता (साक्षी होता केवलो निर्गुणश्च)सबके शुभाशुभ कर्मों को सर्वत्र देखता सबके अन्तःकरणोको चिताने-वाला, सदा सबसे अलग और सत्वादिगुणों सेसदा अलग रहता है॥

** भा० -** इस प्रकार से सर्वत्र विद्यमान सर्वसाक्षी और सर्वनियन्ता पृथिव्यादि लोकों में अग्न्यादि में तथा मनुष्यपश्चादि में उस२ के ही नाम रूपों से विद्यमान उस २ रूपपरमेश्वर को को मनुष्य अपना वास्तविक स्वरूप जानताहुआ सदा शरण लेता वही कृतार्थ हो जाता है॥११॥

एकोवशी निष्क्रियाणां बहूना-
मेकं बीजं बहुधा यः करोति। तमा-
त्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां
सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥१२॥

** अ० -** निष्क्रियाणां क्रियारहितानां बहूनामन्तःकरणावच्छिन्नचिदाभासानां जीवानां यएकोवशी वशे स्थापयिता। अन्तःकरणोपाधिभेदेन बहुत्वमापन्नश्चेतनात्मा वस्तुतोनिष्क्रिय एवानात्मशरीरा- दिधर्मान्स्वस्मिन्नारोण्यकर्त्ता भोक्ताऽहमित्यभिमन्यते। एकं बीजंप्रकृत्याख्यं कारणं यो बहुधा नानाकार्यरूपंकरोति विस्तारयति। ये धीरा ध्यानशीलास्तमात्मस्थमात्मन्यवस्थितमनुपश्यन्ति सर्वान्पश्यन्तं पश्यन्ति जानन्ति तेषामेव मोक्षाख्यंशाश्वतं सनातनं सुखं नेतरेषामिति॥

** भा० -** भूषणादिबहुभेदभिन्नमपि सुवर्णमेकमेव यथा सदखिलभूषणान्यधितिष्ठतियथैकमेव सूत्रमखिलं वासोजातमधितिष्ठतितथैव देवमनुष्य तिर्यगादिगतं जीवजातमेकएवात्मा परमेश्वरोऽधितिष्ठति तदधीनाः सर्वे

जीवाः सच वस्तुतो निष्क्रियः कर्त्तृत्वभोक्तृत्वादिशून्यः सएवाहमस्मीति पश्यन् धीरोनित्यं शान्तिसुखमाप्नोति नान्य॥१२॥

** भाषार्थः -** (बहूना निष्क्रियाणाय एको वशी) क्रियागुण रहित अन्तकरणोपाधि से भिन्न २ प्रतीत होने वालेव्याप्त एक आत्माके छायारूप बहुत जीवो को जोएक हीअपने अधीन रखता अर्थात् चेतन स्वरूप एक ही आत्मतत्वअन्तःकरणो के अनेक होने से अनेक रूप प्रतीत होता हुआक्रिया गुण से रहित है वह शरीरेन्द्रियो के धर्मों को अपनेमें आरोपित करके अपने को कर्त्ता भोक्तादि मानता है।(य एक बीजं बहुधा करोति) जो प्रकृतिरूप एक ही बीजनाम कारण को असंख्य प्रकार का कार्य रूप बनाता फैलाताहै (ये धीरास्तमात्मस्थमनुपश्यन्ति) जो ध्यानी ज्ञानी योगीलोग सब को देखते हुये उस को अपने स्वरूप में अवस्थितदेखते जानते है कि ईश्वर ही जीव नाम रूप से विद्यमानहै (तेषां शाश्वतं सुख नेतरेषाम्) उन्ही को मुक्तिनामकसनातन सुख मिलता है अन्योको नहीं॥

** भा० -** भूषणादि अनेक रूप होता हुआ भी सुवर्ण जैसेवस्तु एक ही रहता है और सब भूषणादि एक सुवर्ण केही अधीन होते हैं वा जैसे सभीं वज्र एक सुवर्ण के हीअधीन होते हैं। वैसे ही देव मनुष्य पश्वादि सभीयोनिस्थजीव मात्र एक ही आत्मतत्व के अधीन है। औरवह आत्माकर्तृत्वभोक्तृत्वादि से रहित निष्क्रिय है। वहीसर्वगतआत्मा मेरा वास्तविक स्वरूप है ऐसा जागता हुआविद्वान् शान्ति सुख को प्राप्त होता है अन्य नही॥१२॥

नित्यो नित्यानां चेतनश्चे-
तनानामेको बहूनां यो विद-
धाति कामान्। तत्कारणं सांख्य-
योगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते
सर्वपाशैः॥१३॥

** अ० -** नित्यानां जीवानां पृथिव्यादीनांवा मध्ये योऽतिशयेन नित्यः, चेतनानां जीवानां मध्ये यो निरतिशयचेतनः, यएको बहूनांजीवानां कामान् कामनानिमित्तान् भोगान्शुभाशुभकर्मफलानि विदधाति तत्सर्वस्य कारणरूपं सांख्ययोगाधिगम्यं चेतनाचेतनभेदबोधजितेन्द्रियत्वादिना प्राप्तुं योग्यं देवंद्योतनात्मकमीश्वरं ज्ञात्वा सर्वपाशैः सर्वदुःखबन्धनैर्जीवो मुच्यते॥

** भा० -** यत्रैकत्वं नित्यत्वं चेतनत्वं विधातृत्वं सर्वकारणत्वमेकाग्रचेतः साध्यविवेकेनज्ञेयत्वं देवत्वं च निरतिशयं काष्ठां प्राप्तंतस्यैव बोधोऽगाधसंसारार्णवपारगमनाय सेतुरिति तस्य नित्यत्वचेतनत्वाभ्यामेव जी-

वानांनित्यत्वचेतनत्वे विकारेषु प्रकृतिगुणवद् विद्येते इत्यभिप्रायः॥१३॥

** भाषार्थः -** (यो नित्यानां नित्यश्चेतनानां चेतनो बहूनामेकः कामान् विदधाति) जो नित्य जीवों वापृथिव्यादि मेंभी सर्वोपरि नित्य, चेतन जीवों में जो सर्वोपरि चेतन कोबहुतो में एक ही ईश्वर है वही कामनारूप संकल्प हीजिनकेनिमित्त कारण है ऐसे शुभाशुभ कर्म फलों को देता भुगातावा नियत करता है। (तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं देवंज्ञात्वा) उस सबके कारण विवेकरुपातिरूप सांख्यज्ञान औरसावधानता जितेन्द्रियता रूप योग से ही प्राप्त होने योग्यचेतन प्रकाशमय देव ईश्वरको जानकर जीव (सर्व पाशैर्मुच्यते)सब दुःख के बन्धनो से छूट जाता है॥

** भा० -** जिस में एकत्व, नित्यत्व, चेतनत्व, रचनाशक्तिसर्व कारणत्व, एकाग्र चित्त से सिद्ध होने वाले विवेक द्वाराशेपत्व, और देवत्व असीम दशा को पहुंचा विद्यमान हैउसी का जानना अगाध संसार सागरके पार पहुंचने के लियेअच्छा सीधा उत्तम पुल बंधा हुआ है जैसे मानव शरीरादिविकार पदार्थों में मूल कारण पृथिव्यादि के गन्धादि गुणरहते हैं वैसे एक अपरिच्छिन्नआत्मा के ही नित्यत्व औरचेतनत्वसब पृथिव्यादि में वा जीवो में विद्यमान हैं॥१३॥

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र-
तारकं नेमा विद्युतो भान्ति
कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तम-
नुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं
विभाति॥१४॥

** अ० -** तत्र तस्मिन् ब्रह्मणि न सूर्यो नचन्द्रतारकं भाति नेमाः प्रत्यक्षमुपलभ्यमानाविद्युतः कार्याग्नेःकारणभूता अपि यदा भान्तितर्हि कुतोऽयं कार्योऽग्निर्भायात्। किन्तु तमेवपरमात्मानं भान्तं प्रकाशयन्तं सर्वं सूर्यादिकमनुभाति तत्प्रकाशसाहाय्यमुपलभ्यैव प्रकाशते। अर्थात् तस्य भासा दीप्त्या सर्वमिदं सूर्यादिकं विभाति प्रकाशते सूर्यादीनांस्वतः प्रकाशनसामर्थ्यं नास्ति किन्तु परमेश्वरएव तत्तन्नामरूपावच्छिन्नस्तेषां प्रकाशस्य मूलमस्ति॥

** भा० -** यथा सूर्योदयकालानन्तरं नक्षत्राण्युल्कापाताश्चदिवा सन्तोप्येवं तिरोभवन्तियथा तदभावः प्रतीयते सर्वत्रैव सजातीयेनबलवता निर्बलसजातीयबाधनियमात्। एवंप्रकाशत्वसामान्येन सजातीयपरमात्मनि प्रकाशमयसमक्षे सर्वे सूर्यादयोऽस्तं यन्ति।अतएव ब्रह्मज्ञानोपायेषु सूर्यादेः प्रकाशस्योपयोगो नापेक्षते॥१४॥

** भाषार्थः -** (तत्र न सूर्यो न चन्द्रतारकं भाति) उस परमेश्वर में न सूर्य न चन्द्रमा और न तारे, प्रकाश करते (नेमा
,

विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः) तथाये प्रत्यक्ष चमकने वालीबिजुली जो कार्यरूप भौतिकाग्नि का कारण है वे भी जबउसमें प्रकाश नही कर सकतीं तो इस कार्यरूप अग्नि कीक्या शक्ति है जो वहा प्रकाश पहुंचावे किन्तु (तमेव भान्तंसर्वमनुभाति) उसी परमात्मा को प्रकाशित देख के सबज्योति प्रकाशित होती है अर्थात् (तस्य भासा सर्वमिदविभाति) उसी के दिये प्रकाश को पाकर ये सबसूर्यादिप्रकाश करते है सूर्यादि पदार्थों में स्वय प्रकाशन शक्ति नहीहै किन्तु उनमें उस२ नाम रूप से विद्यमान एक परमेश्वरही उनकी प्रकाश शक्ति का मूल कारण है॥

** भा० -** जैसे सूर्यका उदय होते पश्चात् दिनमें वहीं आकाशमण्डलमें विद्यमान भी तारागण तथा उल्कापात ऐसे ढपजाते या दवजाते है जिस से उन का दिन में अभाव होप्रतीत होता है सो यह सर्वत्र का नियम है कि सजातीयबलवान् निर्बलसजानीय का सदा ही बाधक होता है।इस प्रकार प्रकाशपन की सामान्यता से प्रकाशस्वरूप सजातीय परमात्मा के सामने सब सूर्यादि का प्रकाश अप्रकाशहो जाता है वा यों कहो कि जिन योगियों के अन्त करण मेंप्रागज्ञान के प्रकाश का उदय होता है उन को सूर्यादि काप्रकाश फीका प्रतीत होने लगता है। इसी लिये ब्रह्मज्ञानके साधन वा उपायों में सूर्यादि के प्रकाश की अपेक्षा नहींमानी गयी है॥१४॥

एको हंसोभुवनस्यास्य मध्ये
सएवाग्निः सलिले सन्निविष्टः ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः
पन्था विद्यतेऽयनाय॥१५॥

** अ०** = अस्य सर्वस्य भुवनस्य ब्रह्माण्डस्यमध्ये एकएव हंसो विद्यादितमो हत्वा निरतिशयतया विविक्तः स एवाग्निरविद्यादिदाहकोभूत्वा सलिले देहात्मना परिणते मानुषादिशरीरे यद्वा यज्ञदानादिना शोधिते सलिलवत्स्वच्छेऽन्तःकरणे सन्निविष्टो जलेऽग्निरिवप्रविष्टस्तत्तद्रूपएववर्तते तमेवैकं विदित्वाजीवो मृत्युमत्येति। अयनाय परमपदाप्तयेऽन्यः पन्था न विद्यते॥

** भा०—-** अग्नित्त्वादिष तत्तदाकारेणावस्थितस्य यस्येश्वरस्य सर्वदाहकत्वं प्रकाशकत्वं हंसत्वं विवेचकत्वं च निरतिशयं काष्ठांप्राप्तं तस्यैव बोधो मोक्षस्य सर्वदुःखप्रहाणस्य हेतुरस्ति॥१५॥

** भाषार्थः -** (अस्य भुवनस्य मध्य एको हंसः) इस अनन्तब्रह्मारुडके बीच एक ही अविद्यादि अन्धकार सर्वथा नाशकवा सबका सर्वोपरि विवेषक है (सएवाग्निःसलिले सन्निविष्टः) वही अविद्यादि का दाहक दोषों को सर्वथा नष्टकरने वाला अग्नि हो कर जलसे पृथिवी ओषधि अन्न औरशुक्र द्वारा परिणाम को प्राप्त हुए मनुष्यादि के शरीर में वायद्दानादि के द्वारा स्वच्छ जलके तुल्य अन्तःकरण में प्रवेशकरके जल में अग्निके तुल्य उसी २ के रूप से विद्यमान है(तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति) उसी को जान कर जीव

मृत्युरूप ग्राहके भय से बच सकता है (अयमायान्यः पन्थान विद्यते परमपद प्राप्तिके लिये अन्य कोई मार्ग नही है।

** भा० -**अग्न्यादि तत्त्वोमें उस २ के रूपसे विद्यमान जिसईश्वर के सबको जलाने की शक्तिरूप अग्निपन प्रकाशकताऔर रूप विवेचन शक्ति ये सब गुण निरतिशय असीमरूप से हैं उसी का जानना सब दुःखों से छूटने का मुख्यहेतु है॥१५॥

स विश्वकृद्विश्वविदात्मयो-
निर्ज्ञःकालकालो गुणी सर्वविद्यः।
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसार-
मोक्षस्थितिबन्धहेतुः॥१६॥

** अ० -** स विश्वकृत्सर्वस्य कर्त्ता स्रष्टा विश्ववित्सर्वस्य वेत्ता - आत्मा सर्वान्तर्यामी सर्वस्ययोनिः कारणं ज्ञो ज्ञानस्वरूपः कालस्यापिकालः कर्त्ता वा शुद्धत्वादिगुणवान् सर्ववित्सर्वं विन्दति प्राप्नोति। प्रधानक्षेत्रपतिः प्रकृतिविज्ञानात्मनोः पालकः। सत्त्वादिगुणानामीशः संसारः प्रवाहप्रवृत्तिर्मोक्षो निःश्रेयसाधिगमः स्थितिः प्रलयो बन्धो देहेन्द्रियादिभिर्जीवस्य सम्बन्धः सर्गस्तेषां हेतुः कारणम्॥

** भा०–** यतः सएव संसारमोक्षादिदशानांहेतुस्तस्मात्तस्यैव शरणगतस्तमेव विदित्वाऽ-

पारसंसारसमुद्रपारं भवितुं शक्नोति नान्यः
कचिदुपायोऽस्ति॥१६॥

** भाषार्थः-** (स विश्वकृद्विश्वविदात्मयोनिवह सब कास्रष्टा सब का ज्ञाता सर्वान्तर्यामी प्रेरक तथा सब का कारण(ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद्यः) जो कि ज्ञानस्वरूप कालका भी अन्त करने वा रचने वाला शुद्धत्वनिष्पापत्वादि गुणयुक्त तथा सब को सदा प्राप्त है (प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेश.)प्रकृति और बुद्धिगत चिदाभासरूप जीव का पालक रक्षक,सत्वादि गुणों का स्वामी और (संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतु)प्रवाहरूप से जगत् की प्रवृत्ति, मोक्षप्राप्ति, प्रलय और उत्पत्तिका कारण है॥

भा० - जिस कारण वही बन्धमोक्षादि दशाओं का हेतुफर्ता धर्त्ता है इस से विज्ञानात्मा जीव उसी के शरणागतहुआ उसीको जानकर अपार संचार समुद्र के पार हो सकताहै किन्तु विपत्तियो से बचनेका अन्य कोई उपाय नहीं है॥१६॥

स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो
ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव
नान्यो हेतुर्विद्यते ईशनाय॥१७॥

** अ० -** यो ज्ञो ज्ञानस्वरूपः सर्वगः सर्वव्याप्तोऽस्य सर्वस्य ब्रह्माण्डस्य गोप्ता रक्षकस्तन्मयो तत्तद्वस्तुतितत्तन्मयो ज्योतिर्मयोवाऽमृतो मरणरहित ईशे प्रधानत्वमापन्ना-

स्वैश्वर्यवतीषु राजादिविभूतिषु विशेषेण यःसंतिष्ठते स ईशसंस्थ एवंभूत एवास्य सर्वस्यजगतो नित्यमेवेशे नियन्ता भवति। नानाविभूतिरूपावस्थितिमन्तरेणान्यो हेतुरीशनायन विद्यते॥

** भा० -** यदि परमेश्वरः सर्वमयोऽविनश्वरो ज्ञानस्वरूपः सर्वत्र व्याप्तश्चराचरस्यरक्षको राजादिरूपनानाविभूतिषु विशेषेणावस्थितो न स्यात्तदा सर्वं ब्रह्माण्डं स्ववशेस्थापयितुमपि न शक्नुयात्। किन्तु सर्वमयत्वादिनैव सर्वनियन्ता भवति॥१७॥

** भाषार्थः -** (यो नः सर्वगोऽस्य भुवनस्य गोप्ता) जोज्ञानस्वरूप सर्वव्याप्तइस सबब्रह्माण्डका रक्षक (सतन्मयोह्यभृतईशसंस्थ ) वह उस २ आकाशादि पदार्थ में उसी २के रूप से विद्यमान अथवा ज्योतिःस्वरूप मृत्यु से रहितउस २ समुदाय मे प्रधानता को प्राप्त ऐश्वर्य वालीराजादि विभूतियों में विशेषरूप से अवस्थित ऐसा रहताहुआ ही ईश्वर (अस्य जगतो नित्यमेवेशे) इस जगत्का नित्य ही नियन्ता अपने नियम में चलाने वाला होताहै किन्तु (ईशनायान्यो हेतुर्न विद्यते)अनेक विभूतियोंमें विशेषरूप से अवस्थित रहने आदि सेभिन्न सर्वनियन्ताहोने के लिये अन्य कोई हेतु नहीं है अर्थात् गीता में लिखाहै कि मै ईश्वर मनुष्यो में राजा, मृगों में सिंह हूं, इत्यादि

प्रत्येक समुदाय में प्रधानरूप से ईश्वर ही विद्यमान रहताहुआ नियन्ता होता है॥

** भा० -** यदि परमेश्वर सर्वमय, अविनाशी, ज्ञान स्वरूप,सबमें व्याप्त चराचर का रक्षक और राजादि रूप अनेकविभूतियो में विशेष रूप से अवस्थित न होता तो सबब्रह्माण्ड को अपने वश में नही रख सकता इस कारण सर्वमय होते आदि कारण से हीसर्वनियन्ता हो रहा है॥१७॥

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै

त<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732371004Screenshot2024-11-23164651.png”/>ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमु-
क्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥१८॥

** अ०** - यः परमेश्वरः पूर्वं प्रत्येक सर्गारम्भसर्ववेदान् ज्ञातुं योग्यं पुरुषविशेषं विदधातिसृजति। यस्तस्मै वेदांश्च प्रहिणोति प्रगमयतिप्रकर्षेणान्यादिद्वारा प्रापयति तमेवात्मबुद्धिप्रकाशं स्वस्य सूक्ष्मातिविशारदबुद्धिद्वारैवप्रकाशोबोधो यस्य भवति तादृशं देवं द्योतनशीलमीश्वरं शरणं सर्वाश्रयभूतं मुमुक्षुर्वैमुमुक्षुः सन्नोवाहं प्रपद्ये प्राप्नोमि॥

** भा० -** मामपि स ईश्वरो ब्रह्मवद्वेदतत्त्वज्ञानपात्रं कुर्यात्तस्य शरणागत्या वेदतत्त्वं

ज्ञातुं योग्योऽहं भवेयम्। यो मुमुक्षुः सन्नेवसर्वस्य शरणं प्रपित्सते तस्यैव तत्सम्बन्धेन शुद्धा सूक्ष्मा च बुद्धिस्तस्य प्रकाशिकाबोधिकाभवति सत्यमेव च तादृशमनीषायां वेदस्य मर्म ज्ञातु स शक्नोति तस्मान्मुमुक्षुणा सतैव पुरुषेण आश्रयितव्यइति॥१८॥

** भाषार्थ–** (य पूर्वं ब्रह्माव विदधाति) जो परमेश्वरप्रत्येक कल्प सृष्टि के प्रारम्भ में सब वेदो को जानने कीयोग्यता रखने वाले ब्रह्मा नामक पुरुष को रचता(योवैतस्मै बेदाच प्रहिणोति) तथा जो ही ईश्वर उस ब्रह्मा केलिये वेदो को अग्नि आदि के द्वारा अच्छे प्रकार पहुचाताहै (आत्मबुद्धिप्रकाश वह शरणदेवम् ) अपनी सूक्ष्म प्रतिशुद्धनिर्मल बुद्धि द्वारा ही जिस को मनुष्य जान सकता हैउसी प्रसिद्ध सब के आश्रयरूप आधार शरण लेने योग्य देवप्रकाशमय ईश्वरकी (अहं मुमुक्षुर्वैप्रपद्ये )मैससारके अगाधदुखो से छूटने की इच्छा रखता हुआ ही माप्त होता हू॥

** भा० -** मुझ को भी वह ईश्वर वेद का तत्व जानने योग्यकरे उस की शरणागति द्वारा वेद के तत्व को जानने योग्यमैं होऊ। इस प्रकार जो दुखो से छूटने की इच्छा रखताहुआ ही उस सब से आश्रय [आसरे] को प्राप्त होनाचाहता है उसी को ईश्वरोपासना द्वारा सूक्ष्म निर्मल हुईबुद्धि उस को जताने प्रकाशित करने वाली होती और वैसीबुद्धि होते पर ही मनुष्य वेद का मर्म जान सकता हैइस से मुमुक्षु होकर ही मनुष्यको ईश्वरका शरण लेनाचाहिये॥१८॥

निष्कलं निष्क्रियं शान्तं
निरवद्यं निरञ्जनम्।अमृतस्य
पर<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732371363Screenshot2024-11-23164651.png”/>सेतुं दग्धेन्धनमिवानलम्॥१६॥

** अ०–**अथ तस्य निर्गुणं स्वरूपमुच्यतेनिष्कलमंशांशिभावरहितं निष्क्रियं निर्विकारंशान्तमचलं कूटस्थं निरवद्यमनिन्द्यं निरञ्जनंनिष्कलङ्कं दग्धेन्धनानलमिवसर्वथा शुद्धममृतस्य परं सर्वापेक्षया प्रकृष्टं सेतुं शरणंमुमुक्षुः समेवाहं प्रपद्यइति पूर्वपद्येन साकमेवान्वयः॥

** भा०—** वस्तुतो निरवयवादिरूपस्यैवपरमात्मनो ध्यानं बोधः शरणागतिश्चापार-दुःखसमुद्रात्पारगमनाय यादृशं प्रधानं साधनंन तादृशमन्यत्सम्भवति सर्वस्थूलवस्तुषु तत्तदाकारेण साकारे सगुणेऽपि तस्य वास्तवं निर्गुणं स्वरूपं ध्यायेदित्यभिप्रायः॥१६॥

**भाषार्थः —**अथ परमेश्वरका निर्गुण स्वरूपकहा जाताहै-(निष्कलं निष्क्रियं शान्तम्) अंशांशिभावऔर क्रियासे होने वाला विकार जिस में नही ऐसे शान्तिमय अचलकूटस्थ सदा एकरस(निरवद्यं निरञ्जनम्) जिस में कोईअवगुण न होगे से किसी को ग्लानि नही होती सब कलंकों

से रहित (दग्धेन्धनमिवानलस्) इंधन के जल चुकने परजिस का धुआं मिट गया हो ऐसे अग्नि के समान सर्वथाशुद्ध ज्योतिःस्वरूप (अमृतस्य परं सेतुम् ) और महाभयङ्करमरणादि सम्बन्धीदुःखसागर के पार होनेके लिये सर्वोपरिसर्वोत्तम पुलरूप को मुक्ति की इच्छा रखता हुआ ही मैंप्राप्त होऊ यह पूर्वपद्य के साथ मेल वा अन्वय इस काभी जानो॥

** भा०-** वस्तुतः निरवयवादि रूप हो परमात्मा का- जानना, ध्यान करना वा उसका शरण लेना अपारदुःखसागर से पार होने के लिये जैसा वहा मुख्य साधन है वैसाअन्य कोई साधन नही हो सकता अर्थात् स्थूल पदार्थों मेंउस २ के रूप से विद्यमान सगुण साकार परमेश्वर में भीउसके वास्तविक निर्गुण स्वरूप का चिन्तन करे॥१६॥

यदा चर्मवाकाशं वेष्टयि-
ष्यन्ति मानवाः। तदा देवमवि-
ज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥२०॥

** अ० -** यदा यस्मिन् स्थूलसर्गाभावकालेप्रलये चर्मवत्संकुचिताः सन्तो मानवा जीवा आकाशमविच्छिन्नंशून्यदशापन्नमिव प्रकृत्याख्यं तत्त्वं वेष्टयिष्यन्ति तदाश्रयं करिष्यन्ति तदा देवमीश्वरमविज्ञाय स्थूल देहेन्द्रियभोग्यस्य दुःखस्य प्रलयावधि सापेक्षोऽन्तोंनाशो भविष्यति॥

** भा० -** प्रलयकाले रात्रौ स्वप्नावसरइवमूर्छितोन्माददशायामिव वा स्थूलदेहसम्बद्धानां विषयेन्द्रियसंनिकर्षोत्पन्नानां च दुःखानामभावो जायते। तदानीं जातेऽपिदुःखाभावे परमात्मज्ञानप्रकाशाभावादानन्दानुभवोन जायते। तस्मान्नासौ मुक्तिसुखे परिगणनमर्हति॥

** भाषार्थः–** (यदा चर्मवन्मानवा आकाशम्) जब स्थूलसृष्टि के न रहने पर प्रलय के समय अग्नि में चामके समानसंकुचित हुए मानव नाम जीवात्मा आकाश के तुल्यअविच्छिन्नशून्य दशा को पहुंचने के तुल्य हुए प्रकृति वा मायानामक तत्त्वका (वेष्टयिष्यन्ति) आश्रय करेंगे अर्थात् स्थूलशरीरादि के न रहने पर माया के अवलम्बसे जब जीव ठहरेंगे (तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति) तब अप्रकाशमयअपने वास्तवस्वरूप ईश्वरको न जान कर भी स्थूलशरीर और इन्द्रियों से भोग में आने वाले दुःखों का प्रलयसमय तक के लिये सापेक्ष नाश हो जावेगा॥

** भा० -** रात में भराभर सोते समय के समान वा मूर्छितउन्माद (बेहोश ) दशा के तुल्य स्थूल शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाविषय और इन्द्रियों के संयोग से प्रतीत होने वाले दुःखोंका प्रलयके समय अभाव हो जाता है। तब दुखों का प्रभावहोने पर भी अपने असली स्वरूप ईश्वर का बोध न होने सेअर्थात् ईश्वर के सम्बन्धका ज्ञान प्रकाश न होने से ज्ञानन्दका अनुभव नहीं होता इसी से मुक्ति सुख में उस को नहीगिन सकते॥२०॥

तपःप्रभावादेवप्रसादाच्च ब्रह्महश्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्॥
अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम्॥२१॥

** अ०—**बहिरन्त करणानां वशीकरणेन द्वन्द्वसहनशक्तिरूपात्तपसईश्वरप्रसादाच्च ब्रह्म विद्वानात्मतत्त्वं विजानन् श्वेताश्वतरोऽथ स्वानुभवदृढत्वानन्तरमृषिसङ्घजुष्टमृषीणां महर्षिर्ब्रह्मर्षीणां समूहेनानन्तसुखावाप्तये जुष्टं सेवितंपरमं पवित्रं ब्रह्मात्याश्रमिभ्यः पूज्यप्रशस्ताश्रम-वासिभ्यस्तुपस्विभ्यः संन्यासिभ्यः सम्यक्प्रोवाच॥

** भा०—**तपसआधिक्याद्दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितादीश्वरप्रणिधानविशेषाच्च सर्वदा सर्वएव जनो ब्रह्म ज्ञातुमर्हति। यश्चसम्यक्तया यज्जानाति सएव तदन्यस्मै वक्तुंशक्नोति च तस्माद् ब्रह्मजिज्ञासुना प्रबलं तपईश्वरप्रणिधानं च दीर्घकालावधि श्रद्धयानिष्ठया तत्परतया च कार्यम्॥२१॥

** भाषार्थः** - (तपःप्रभावाद्देवप्रसादाच्च ब्रह्म विद्वान् ह श्वेताश्वतरः) बाहर भीतर के इन्द्रियों को वशीभूत करने द्वारा शीतोष्णादि सहन रूप तप बलसे और ईश्वरकी प्रसन्नता वा कृपासेआत्मतत्त्वको जानते हुए श्वेताश्वतर नामक प्रसिद्ध तपस्वीऋषि ने(अथ ऋषिसङ्घजुष्टं परम पवित्रम्) अपने अनुभवरूप ज्ञान को दृढ़ करने पश्चात् ब्रह्मर्षि महर्षियो केसमुदायनेअनन्त सुख प्राप्तिके लिये सदा जिसका सेवन किया है।ऐसे परम पवित्र आत्मस्वरूप का (अत्याश्रमिभ्यःसम्यक्प्रोवाच) अत्यन्त पूजनीय तपोवन के निवासी परमहंस संन्यासितपस्वियो के लिये सम्यक् वर्णन वा उपदेश किया॥

** भा० -** दीर्घकाल तक श्रद्धा वा आदर के साथ सेवन कियेअधिक प्रबल तप से तथा तन मन धन लगाके अधिक कालतक श्रद्धा के साथ निरन्तर की परमेश्वर की विशेष भक्ति सेसबकाल में सभी मनुष्य आत्मतत्व को जान सकते है। जोमनुष्य सम्यक् प्रकार से जिसको जान लेता है, वही अन्यको उपदेश द्वारा जा सकता है। इसलिये आत्मतत्व केजिज्ञासुको इन्द्रिय निग्रह पूर्वक उग्र तप और ईश्वर भक्तिविशेष समारोह से करनी चाहिये२१॥

वेदान्ते परमं गुह्यं पुरा
कल्पे प्रचोदितम्। नाप्रशान्ताय
दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा
पुनः॥\।२२॥यस्य देवे परा भक्ति-
र्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते

कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महा-
त्मनः। प्रकाशन्ते महात्मनः॥२३॥

इति श्वेताश्वतरोपनिषत्समाप्ता॥

** अ० -** वेदान्तउपनिषत्सु ब्रह्मर्षिभिर्विदितवेदितव्यैःपरावरज्ञैःपुराकल्पे पूर्वेऽतिप्राचीने सर्गारम्भ-कालेपरमं गुह्यं गोप्यानामपि गोप्यतममात्मतत्त्वं प्रचोदितं प्रोक्तंतदप्रशान्तायापुत्रायाशिष्याय वा पुनर्न दातव्यम्।नास्ति शिष्यः पुत्रश्चास्य यश्च शास्तुंयोग्यो नास्ति तादृशायोभयस्मै न देयमपितु देवईश्वरे यस्य परा भक्तिर्यथेश्वरे तथैवगुरौ यस्य भक्तिः श्रद्धाऽचाञ्चल्यमनन्यमनस्कता चास्ति। अथवा गुरुरूपेणावतीर्णमीश्वरं स्वगुरुविग्रहं यो मन्येत। श्वेताश्वतरेणमहात्मना कथिता एतस्यामुपनिषद्युक्ताअर्थास्तस्य महात्मनः प्रकाशन्ते तेनं सभ्यग्विज्ञायन्ते॥

** भा० -** निवातप्रदीपवद्विषयवायुनाऽचलितरागद्वेषरहितचेतसा यादृशो विषयमर्माव-

धिविचारः सम्यग्जायते न तादृशश्चलचित्तेनेति यश्चाप्रशान्तोऽपुत्रोऽशिष्यो वा नासौशास्त्रस्य मर्म ज्ञातुं शक्नोति। यथा दुष्टसङ्गेनदोषा आयान्त्येवमध्यापनादावप्रशान्तादिसङ्गेनाशान्त्यादिदुःख-हेतुदोषागमनसम्भवः परिश्रमानर्थक्यं तु दोषोऽरत्ये वातस्तादृशेभ्योब्रह्मविद्यादानं प्रतिषिद्धं शान्तिश्रद्धादिगुणान्विताय च दानमुत्तममिति सर्वमवदात्तम्॥२३॥

** भाषार्थः—**(पुरा कल्पे वेदान्ते परमं गुह्यं प्रचोदितम्)पूर्व वीते अतिप्राचीन सर्वारम्भ काल मे वेद के सिद्धान्तरूपउपनिषदों के बीच पूर्वापर के जानने वाले साक्षात् प्रबलज्ञानी ब्रह्मर्षि लोगो ने ईश्वर सम्बन्धी अत्यन्त गूढ विषयकहा है जिस को सर्वसाधारण लोग सहज ने नहीं समझसकते इसीलिये (नाप्रशान्ताय नापुत्रायाशिष्याय वा पुनर्दातव्यम्)जिस को शान्ति वा लोभादि निवृत्ति द्वारावैराग्य नही हुआ (लोभी-तृष्णा की नदी में बहने वालाकभी शान्त स्थिर स्वस्थ नहीं रह सकता ] वा जिस के पुत्रन हो वा जो किसी का पुत्र न हो अर्थात् व्यभिचार सेउत्पन दोने के कारण जिस का पिता कोई खास न हो—ऐसे को तथा को धर्मनिष्ठ सभ्य गुरुभक्त मनुष्य नहीं ऐसे कोवेदान्तका उपदेश न देवे। परन्तु (यस्य देवे पर भक्तिर्यथा देवेतथा गुरौ) जिस योग्य श्रद्धालु शिष्य की अनेक देवता रूपधारीपरमेश्वर से प्रबल भक्ति हो और जैसी ईश्वर में वैसी हीभक्तिगुरुके शरीर में हो वा गुरुको जो ईश्वरका अवतार ही

मानता हो जितेन्द्रिय हो लोभ लालच रहित हो (कथिताएतेऽर्थास्तस्य महात्मनः प्रकाशन्ते महात्मनः प्रकाशन्ते)इस उपनिषद् में श्वेताश्वतर महर्षि ने कहे ये बिषय उसीईश्वरभक्त गुरुभक्त महाशय के हृदय में प्रकाशित होते उसीमहात्मा के हृदय में प्रकाश उत्पन करते हैं॥

** भा० -** वायु रहित स्थान में रक्खे हुए जलते दीपक केतुल्य काम क्रोध लोभादि विषयवायु से न हुलाये हुएचित्तसे जैसा सूक्ष्म विषय का मर्म पर्यन्त विचार वा बोध होसकता है। वैसा चञ्चलचित्त से कदापि नहीं होता। इसी कारणजो अशान्त अपुत्र और अशिष्य है वह शास्त्र के मर्म कोकदापि नहीं जान सकता। जैसे दुष्ट के सङ्गसे दोष लगतेहैं वैसे ही उपदेश वा पढ़ाने आदि में अशान्तादि के सङ्गसे ज्ञानीको दुःख कष्ट वा दोष लगें यह सम्भव है और परिश्रम का व्यर्थ होना भी दोष हो है इसलिये वैसोको विद्यादान करना निषिद्ध किया है। और श्रद्धालु महाशय गम्भीरशान्त सुशील को विद्या देना उत्तम है॥२३॥

इति ब्राह्मणसर्वस्वमासिकपत्रसम्पादकेनभीमसेनशर्मणा
निर्मिते श्वेताश्वतरोपनिषद्भाष्ये
षष्ठोऽध्यायो ग्रन्थश्चायं
समाप्तः॥

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1732160120Screenshot2024-11-21090457.png”/>

]