[[शैव-उपनिषदः Source: EB]]
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ॐ नमो
ब्रह्मादिभ्यो
ब्रह्मविद्यासंप्रदायकर्तृभ्यो
वंशऋषिभ्यो
नमो गुरुभ्यः
DEDICATED TO
Brahma and the Rishis,
The Great Teachers
Who handed down Brahmavidya
through Generations
PREFACE
THE first edition of the S’AIVA UPANIṢADS was issued by the then Director of the Adyar Library, Pandit A. Mahadeva Sastri in 1925. It went out of print in 1948. The demand for copies of the work showed steady increase, and the present edition is now issued to meet the demand.This is only a reprint of the first edition.
Adyar Library
G. SRINIVASA MURTI,
17-4-1950
Hony. Director
——————
EDITOR’S NOTE TO THE FIRST EDITION
THE materials on which is based this edition of the S’AIVA-UPANISHADS comprised in this volume are the same as those described in the volume of The Yoga Upanishads.
August, 1925
A. MAHADEVA SASTRI
अस्मिन् सम्पुटे अन्तर्गतानामुपनिषदां सूची
| उपनिषन्नाम | ईशादिसंख्या |
| अक्षमालिकोपनिषत् | ६७ |
| अथर्वशिखोपनिषत् | २३ |
| अथर्वशिर-उपनिषत् | २२ |
| कालाग्निरुद्रोपनिषत् | २८ |
| कैवल्योपनिषत् | १२ |
| गणपत्युपनिषत् | ८९ |
| जाबाल्युपनिषत् | १०४ |
| दक्षिणामूर्त्युपनिषत् | ४९ |
| पञ्चब्रह्मोपनिषत् | ९३ |
| बृहज्जाबालोपनिषत् | २६ |
| भस्मजाबालोपनिषत् | ८७ |
| रुद्रहृदयोपनिषत् | ८५ |
| रुद्राक्षजाबालोपनिषत् | ८८ |
| शरभोपनिषत् | ५० |
| श्वेताश्वतरोपनिषत् | १४ |
विषयसूचिका
१. अक्षमालिकोपनिषत्
| अक्षमालालक्षणादिजिज्ञासा |
| अक्षमालालक्षणादि |
| अक्षमालायां ब्रह्मादिभावना |
| अक्षमालाशोधनादि |
| एकैकाक्षस्य एकैकेन मन्त्रेण संयोजनम् |
| देवमन्त्रविद्यातत्त्वानां सान्निध्यार्थो मन्त्रजपः |
| अक्षमालायां सर्वात्मकत्वभावना |
| अक्षमालिकास्तुतिः |
| विद्याफलम् |
२. अथर्वशिखोपनिषत्
| प्रथमः खण्डः |
| आदिप्रयुक्तध्यानजिज्ञासा |
| चतुष्पात्प्रणवध्यानम् |
| मात्राचतुष्टयस्वरूपम् |
| वर्णदेवताविशिष्टमात्रास्वरूपम् |
| विशिष्टप्रणवस्वरूपम् |
| विशिष्टप्रणवध्यानफलम् |
| स्थूलादिभेदैः प्रणवस्य चतुर्धा विभागः |
| दितीयः खण्डः |
| तुर्योङ्कारस्य तारकत्वम् |
| तस्य विष्णुत्वम् |
| तस्य ब्रह्मत्वम् |
| तस्य स्वयंप्रकाशत्वम् |
| तस्य महादेवत्वम् |
| तृतीयः खण्डः |
| तुर्योङ्कारनिरूपणम् |
| तुर्यज्ञानपथ एव सिद्धिकरः |
| तज्ज्ञानोपायः |
| शिवस्यैव ध्येयत्वम् |
| अध्ययनफलम् |
३. अथर्वशिर-उपनिषत्
| देवानां रुद्रस्वरूपजिज्ञासा |
| रुद्रैकत्वप्रतिपादनम् |
| रुद्रस्य सर्वात्मत्वम् |
| रुद्रज्ञानफलम् |
| देवकृतरुद्रस्तुतिः |
| रुद्रं प्रति देवानां प्रार्थना |
| ओङ्कारशब्दार्थः |
| प्रणवशब्दार्थः |
| सर्वव्यापिशब्दार्थः |
| अनन्तशब्दार्थः |
| तारशब्दार्थः |
| सूक्ष्मशब्दार्थः |
| शुक्लशब्दार्थः |
| वैद्युतशब्दार्थः |
| परंब्रह्मशब्दार्थः |
| एकशब्दार्थः |
| एकोरुद्रशब्दार्थः |
| ईशानशब्दार्थः |
| भगवच्छब्दार्थः |
| महेश्वरशब्दार्थः |
| महादेवशब्दार्थः |
| रुद्रस्य व्यापकत्वम् |
| एवमुपासनायाः फलम् |
| तृष्णावतां शान्त्युपायः |
| महापाशुपतव्रतम् |
| ग्रन्थपठनतदर्थज्ञानफलम् |
| रुद्रैक्य प्रार्थना |
| श्रीविद्यामोक्षप्रार्थना |
४. कालाग्निरुद्रोपनिषत्
| कालाग्निरुद्रोपनिषन्मन्त्रस्य ऋष्यादि |
| त्रिपुण्ड्रविधिजिज्ञासा |
| शाम्भवव्रतं नाम त्रिपुण्ड्रविधिः |
| त्रिपुण्ड्ररेखाप्रमाणम् |
| रेखात्रयस्य शक्तिदेवताऽऽदिप्रतिपादनम् |
| विद्याफलम् |
| ग्रन्थाध्ययनफलम् |
५. कैवल्योपनिषत्
| ब्रह्मविद्याजिज्ञासा |
| ब्रह्मविद्यासाधनं तत्फलं च |
| सविशेषब्रह्मध्यानपरिकरः |
| सर्वात्मब्रह्मदर्शनमेव परमसाधनम् |
| प्रणवध्यानविधिः |
| परमात्मन एव जीवरूपेण संसारः |
| जीवेश्वरयोरभेदः |
| अभेदानुभवप्रकाशः |
| अभेदानुभूतिफलम् |
| शतरुद्रीयजपविधिः |
६. गणपत्युपनिषत्
| गणपतिस्तुतिः |
| गणपति प्रति प्रार्थना |
| गणपतेः सर्वात्मतया स्तुतिः |
| गणपतिमनुः |
| गणपतिगायत्री |
| गणपतिध्यानम् |
| गणपतिमालामन्त्रः |
| विद्यापठनफलम् |
| विद्यासंप्रदाननियमः |
| काम्यप्रयोगाः |
| विद्यावेदनफलम् |
७. जाबाल्युपनिषत्
| ईश्वरोपासनं परमतत्त्वज्ञानसाधनम् |
| पशुपशुपतितत्त्वनिवेदनम् |
| विभूतिधारणस्य ज्ञानोपायत्वम् |
| शाम्भवव्रतम् |
| त्रिपुण्ड्रधारणप्रमाणम् |
| रेखात्रये भावनाविशेषः |
| भस्मधारणफलम् |
८. दक्षिणामूर्त्युपनिषत्
| शिवतत्त्वज्ञानेन चिरजीवित्वप्राप्तिः |
| शिवतत्त्वज्ञाने प्रश्नाः |
| परमशिवतत्त्वज्ञानस्वरूपम् |
| ज्ञेयदेवस्वरूपम् |
| चतुर्विंशाक्षरमनुः |
| नवाक्षरमनुः |
| अष्टादशाक्षरमनुः |
| द्वादशाक्षरमनुः |
| आनुष्टुभो मन्त्रराजः |
| निष्ठाऽऽदीनां निरूपणम् |
| शिवतत्त्वज्ञानोदयादिनिरूपणम् |
| अध्ययनवेदनफलम् |
९. पञ्चब्रह्मोपनिषत्
| पञ्चब्रह्मणामादौ जनिः |
| तेषां वर्णादिविषयकः प्रश्नः |
| महेशोपदिष्टं तद्रहस्यम् |
| सद्योजातस्वरूपम् |
| अघोरस्वरूपम् |
| वामदेवस्वरूपम् |
| तत्पुरुषस्वरूपम् |
| ईशानस्वरूपम् |
| पञ्चब्रह्मलयाधारः परमं ब्रह्म |
| परमब्रह्मज्ञानविधिः |
| शिवस्याद्वैतचैतन्यत्वम् |
| दहराकाशे शिवोपलब्धिः |
१०. बृहज्जाबालोपनिषत्
| प्रथमं ब्राह्मणम् |
| प्रजापतिकृताविद्याऽण्डसृष्टिः |
| विभूतिरुद्राक्षबृहज्जाबालजिज्ञासा |
| भस्मपञ्चकस्य नामस्वरूपनिरूपणम् |
| द्वितीयं ब्राह्मणम् |
| अग्नीषोमात्मकभस्मस्नानजिज्ञासा |
| जगतः अग्नीषोमात्मकत्वम् |
| जगतः शिवशक्यात्मकत्वम् |
| ज्ञानानधिकारिणां भस्मस्नानविधिः |
| जीवेशैक्यज्ञानतः संसारनिवृत्तिः |
| सविशेषब्रह्मोपासनेनाप्यमृतत्वप्राप्तिः |
| तृतीयं ब्राह्मणम् |
| विभूतियोगजिज्ञासा |
| विभूतेरुत्पत्तिक्रमः |
| गोमयादौ विद्याऽऽदिदृष्टिः |
| गवादिभस्मान्तस्य मन्त्रसंस्कारः |
| भस्मोद्धूलनप्रकारः |
| चतुर्विधं भस्मकल्पनम् |
| चतुर्थं ब्राह्मणम् |
| भस्मस्नानप्रकारः |
| भस्मस्नानकालविशेषाः |
| ज्ञानार्थिना शङ्खतोयादिमिश्रभस्म धार्यम् |
| त्रिपुण्ड्रविधिः |
| उद्भूलनाशक्तौ त्रिपुण्ड्रधारणम् |
| पञ्चमं ब्राह्मणम् |
| वेदत्रयदृष्टिपूर्वकं त्रिपुण्ड्रधारणम् |
| वर्णाश्रमभेदानुसारेण भस्मविशेषविधिः |
| भस्मधारणे फलविशेषः |
| भस्मधारणविमुखस्य दूषणम् |
| भस्मनिष्ठस्य स्वरूपमहिमवर्णनम् |
| षष्ठं ब्राह्मणम् |
| नामपञ्चकमाहात्म्यजिज्ञासा |
| भस्ममाहात्म्यख्यापनार्था करुणाख्यायिका |
| भस्मनः पापघ्नत्वख्यापनार्था अहल्याख्यायिका |
| भस्मनो हरिशंकरज्ञानप्रदत्वम् |
| भस्मनो भूतिकरत्वम् |
| ब्रह्मभावरहितज्ञानतत्साधनानां वैय्यर्थ्यम् |
| बृहज्जाबालविद्यामहिमा |
| सप्तमं ब्राह्मणम् |
| त्रिपुण्ड्रविधिः |
| भस्मधारणफलम् |
| भस्मस्नानफलम् |
| त्रिपुण्ड्रमाहात्म्यम् |
| विभूतिधारणमहिमा |
| रुद्राक्षधारणजिज्ञासा |
| रुद्राक्षजन्म |
| रुद्राक्षधारणमहिमा |
| अष्टमं ब्राह्मणम् |
| उपनिषत्पारायणफलजिज्ञासा |
| सर्वपूतत्वम् |
| अग्न्यादिस्तम्भनम् |
| मृत्य्वादितरणम् |
| सर्वलोकजयः |
| सर्वशास्त्रज्ञानम् |
| बृहज्जाबालाध्यापकस्य सर्वोत्तमत्वम् |
| बृहज्जाबालजपशीलस्य परंधामप्राप्तिः |
| परंधामस्वरूपम् |
११. भस्मजाबालोपनिषत्
| प्रथमोऽध्यायः |
| त्रिपुण्ड्रविधिजिज्ञासा |
| प्रातः कृत्यं होमान्तम् |
| भस्मधारणविधिः |
| भस्मधारणस्यावश्यकर्तव्यता |
| अकरणे प्रायश्चित्तम् |
| संस्कृतभस्माभावे कर्तव्यनिरूपणम् |
| भस्मधारणफलम् |
| द्वितीयोऽध्यायः |
| ब्राह्मणानां किं नित्यं कर्तव्यम् |
| प्रातः कृत्यत्रिपुण्ड्रधारणादि |
| शिवपूजाविधिः |
| शिवषडक्षर-अष्टाक्षरयोरुद्धारः |
| ब्रह्मस्वरूपम् |
| ब्रह्मज्ञानमेव मुक्तिसाधनम् |
| शिवस्य विश्वाधारत्वम् |
| शिवस्य पशुपाशमोचकत्वम् |
| शिवतत्त्ववेदनाशक्तानां काशीवासस्तरणोपायः |
| काशीवासिनां नियमविशेषाः |
| काश्यां ज्योतिर्लिङ्गार्चनं तत्फलं च |
| अनभ्यर्च्यशनादौ कृते प्रायश्चित्तम् |
| सर्वपातकपावनं शिवाभ्यर्चनम् |
| मुक्त्यादिसाधनं शिवाभिषेचनम् |
| शिवसायुज्यसाधनं शिवाभिषेचनम् |
| चन्द्रादिलोकसाधनं शिवाभिषेचनम् |
| काशीवासिनां शैवतारकोपदेशान्मुक्तिलाभः |
| काश्यामप्रमादेन वस्तव्यम् |
१२. रुद्रहृदयोपनिषत्
| सर्वदेवात्मकदेवविषयः शुकप्रश्नः |
| रुद्रस्य सर्वदेवात्मकत्वम् |
| शिवविष्णवोरैक्यम् |
| आत्मनस्त्रैविध्यम् |
| रुद्रस्य त्रिमूर्तित्वम् |
| रुद्रकीर्तनात् सर्वपापविमुक्तिः |
| सर्वस्य कारणानतिरिक्तत्वम् |
| परापरविद्ययोः स्वरूपम् |
| अक्षरज्ञानादेव संसारविनाशः |
| मुमुक्षोः प्रणवोपास्तिप्रकारः |
| जीवेशभेदस्य कल्पितत्त्वम् |
| अद्वैतज्ञानाच्छोकमोहनिवृत्तिः |
१३. रुद्राक्षजाबालोपनिषत्
| रुद्राक्षविषयो भुसुण्डप्रश्नः |
| रुद्राक्षोत्पत्तिः |
| रुद्राक्षधारणजपफलम् |
| रुद्राक्षाणामुत्तमादिभेदाः |
| रुद्राक्षाणां ब्रह्मक्षत्रादिजातिभेदाः |
| रुद्राक्षाणां ग्राह्यग्राह्यविभागः |
| शिखाऽऽदिस्थानेषु धारणाभेदः |
| तत्तत्स्थानधारणामन्त्राः |
| रुद्राक्षाणां वक्त्रभेदेन फलभेदः |
| रुद्राक्षधारिवर्ज्यानि |
| रुद्राक्षधारणामहिमा |
| रुद्राक्षोत्पत्तिस्तन्महिमा च |
| रुद्राक्षविद्यावेदनफलम् |
१४. शरभोपनिषत्
| ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये कोऽधिकतमः |
| रुद्रस्य श्रेष्ठत्वम् |
| शरभरूपेण रुद्रेण नृसिंहवधः |
| देवकृतशरभस्तुतिः |
| रुद्रानुग्रहः |
| रुद्रयाथात्म्यज्ञानफलम् |
| रुद्रमहिमा |
| विष्णुशिवयोरभेदः |
| शिवस्यैव ध्येयत्वम् |
| एतच्छास्त्रसंप्रदाननियमः |
१५. श्वेताश्वतरोपनिषत्
| प्रथमोऽध्यायः |
| जगत्कारणजिज्ञासा |
| परमात्मन उपादानकारणत्वम् |
| तस्य निमित्तकारणत्वम् |
| सर्वस्य जगतोऽध्यस्तत्वम् |
| ब्रह्मातिरेकेण न किंचिद्वेदितव्यम् |
| सम्यग्ज्ञानसाधनं ध्यानम् |
| द्वितीयोऽध्यायः |
| समाध्युपक्रमे परमेश्वरप्रार्थना |
| साङ्गयोगोपदेशः |
| योगसिद्धिः |
| मुख्ययोगस्तत्फलं च |
| तृतीयोऽध्यायः |
| मायया परमात्मनः सर्वकारणत्वम् |
| ईश्वरप्रसादप्रार्थना |
| निष्कलब्रह्मज्ञानादेव मोक्षः |
| निर्विशेषब्रह्मज्ञानोपायः |
| ईश्वरस्य सर्वमयत्वम् |
| ईश्वरस्य सर्वप्रत्यक्त्वम् |
| परमात्मवेदनाच्छोकनिवृत्तिः |
| चतुर्थोऽध्यायः |
| ईश्वरात् सम्यग्ज्ञानप्रार्थना |
| ईश्वरस्यैव स्वमायया निखिलकार्यप्रवेशः |
| जीवेश्वरभेदो मायिकः |
| मायाऽधिष्ठातुरीश्वरस्यैव सर्वस्रष्टृत्वम् |
| ज्ञानार्थमीश्वरप्रार्थना |
| ईश्वरज्ञानादेव पाशविमोकः |
| ज्ञानार्थं पुनरीश्वरप्रार्थना |
| पञ्चमोऽध्यायः |
| विद्याऽविद्ययोः स्वरूपम् |
| ईश्वरस्यैव विद्याप्रदातृत्वम् |
| ईशस्य सर्वाधिपत्यम् |
| ईशस्य वेदवेद्यत्वम् |
| जीवयाथात्म्यम् |
| जीवसंसारमूलम् |
| जीवेशैक्यज्ञानात् संसारमोक्षः |
| षष्ठोऽध्यायः |
| ईश्वरादन्यस्य कालादेरकारणत्वम् |
| सम्यग्ज्ञानसाधनम् |
| परमेश्वरादेव स्वज्ञानमोक्षयोः प्राप्तिः |
| ईश्वरवेदनमेव संसारतारकम् |
| मुमुक्षोरीश्वर एव शरणम् |
| सर्वशास्त्रार्थसंग्रहः |
| ब्रह्मविद्याऽधिकारिनिरूपणम् |
| नामधेयपदसूची |
| विशेषपदसूची |
अक्षमालिकोपनिषत्
वाङ् मे मनसि—इति शान्तिः
अक्षमालालक्षणादिजिज्ञासा
अथ प्रजापतिर्गुहं पप्रच्छ—भो भगवन् अक्षमालाभेदविधिंब्रूहीति। सा किंलक्षणा कतिभेदा अस्याः कति सूत्राणि कथंघटनाप्रकारः के वर्णाः का प्रतिष्ठा कैषाऽधिदेवता किं फलं चेति॥१॥
अकारादिक्षकारान्तवर्णजातकलेबरम्।
विकलेबरकैवल्यरामचन्द्रपदं भजे॥
इह खलु ऋग्वेदप्रविभक्तेयमक्षमालिकोपनिषत् पञ्चाशद्वर्णार्थप्रकटनव्यग्रापरम्परया ब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः श्रुतेः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। प्रजापतिगुहप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था।आख्यायिकामवतारयति—अथेति। अथ स्वाज्ञलोकस्याभ्युदयनिःश्रेयसाप्तिप्रतिबन्धतानवानन्तरं प्रजानां स्वसृष्टानां स्वाप्त्युपायप्रापकः प्रजापतिः चतुर्मुखःगुहं कुमारस्वामिनं पप्रच्छ। अयं स्वातिरिक्तप्रपञ्चः स्वाज्ञानविकल्पितः, सर्वापह्नवसिद्धं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति स्वज्ञानं विना स्वातिरिक्तास्तित्वभ्रमःन ह्यपह्नवपदं भजति, न हि स्वाज्ञलोकस्य सहसा स्वज्ञानमुदेति तस्याशुद्धान्तरत्वात्, तत्सत्त्वशुद्ध्यर्थमर्थानुसन्धानपूर्वकं मन्त्रानुष्ठानं कर्तव्यं, न ह्यशुद्धचित्तं
मन्त्रार्थप्रत्यगभिन्नब्रह्मविषयं भवति, तदुपायतयाऽक्षमालिकासु पञ्चाशद्वर्णान्सार्थान् विन्यस्य तयाऽक्षमालिकया जप्तो मन्त्रो मन्त्रजापकदुरितक्षयद्वारा मन्त्रार्थप्रत्यगभिन्नब्रह्माभिमुखमेनं करोतीत्येतमर्थं मनसि निधाय पृच्छति। किमिति? भो भगवन् इति॥१॥
अक्षमालालक्षणादि
तं गुहः प्रत्युवाच—
प्रवालमौक्तिकस्फटिकशङ्खरजताष्टापदचन्दनपुत्रजीविकाब्जरुद्राक्षा इत्यादिक्षान्तरमूर्तिसंविधानुभावाः। सौवर्णंराजतंताम्रं चेति सूत्रत्रयम्। तद्विवरे सौवर्णं तद्दक्षपार्श्वे राजतं तद्वामे ताम्रं तन्मुखे मुखं तत्पुच्छे पुच्छं तदन्तरावर्तनक्रमेण योजयेत्॥२॥
प्रजापतिप्रश्नमङ्गीकृत्य तं गुहः प्रत्युवाच। किमिति? प्रवालादिरुद्राक्षान्ताः दश भवन्ति। आदिक्षान्तरमूर्तिसंविधानुभावाः अकारादिक्षकारान्तरविलसिततत्तद्वर्णार्थमूर्तिभिः संविधेन संयोगेनानुभावा भावनीया इत्यर्थः। ततः किं इत्यत्र—
सौवर्णमिति। यदक्षजातं तद्विवरे॥२॥
अक्षमालायां ब्रह्मादिभावना
यदस्यान्तरं सूत्रं तद्ब्रह्म। यद्दक्षपार्श्वे तच्छैवम्। यद्वामे तद्वैष्णवम्। यन्मुखं सा सरस्वती। यत् पुच्छं सा गायत्री। यत्सुषिरं सा विद्या। या ग्रन्थिः सा प्रकृतिः। ये स्वरास्ते धवलाः। ये स्पर्शास्ते पीताः। ये परास्ते रक्ताः॥३॥
तदन्तरादौ ब्रह्मादयो भावनीया इत्याह—
यदिति। तथा यद्दक्षपार्श्वे राजतसूत्रवलयं तच्छैवम् ! यद्वामे ताम्रसूत्रवलयं तद्वैष्णवम्। प्रत्यक्षं या ग्रन्थिः
सा प्रकृतिः। ये स्वराः ते धवलाः सात्त्विकत्वात्। ये स्पर्शाः ते पीताः सत्त्वतमोमिश्रत्वात्। ये परास्ते रक्ताः राजसत्वात्॥३॥
अक्षमालाशोधनादि
अथ तां पञ्चभिर्गव्यैरमृतैः पञ्चभिर्गव्यैस्तनुभिः शोधयित्वा पञ्चभिर्गव्यैर्गन्धोदकेन संस्नाप्य तस्मात् सोङ्कारेण पत्रकूर्चेन स्नपयित्वाऽष्टभिर्गन्धैरालिप्य सुमनःस्थले निवेश्याक्षतपुष्पैराराध्य प्रत्यक्षमादिक्षान्तैर्वर्णैर्भावयेत्॥४॥
एवं संभाव्य अथ तां अक्षमालिकां पञ्चभिर्गव्यैरमृतैः नन्दाऽऽदिगोपञ्चकक्षीरैः पुनः पञ्चभिर्गव्यैस्तनुभिः तत्तनुभवगोमूत्रादिपञ्चकैः शोधयित्वा अथ पुनः पञ्चभिर्गव्यैः केवलदधिभिः गन्धोदकेन च संस्नाप्य। अष्टभिर्गन्धैः तक्कोलोशीरादिभिः मन्त्रशास्त्रप्रसिद्धैः आलिप्य। अकारादिक्षकारान्तैकपञ्चाशद्बीजात्मकमन्त्रैरक्षमालिकाविशिष्टं वा प्रातिस्विकेनैकैकाक्षमेकैकमन्त्रेण संयोजयेदित्यर्थः॥ ४॥
एकैकाक्षस्यैकैकेन मन्त्रेण संयोजनम्
ओमंकार1 मृत्युंजय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमांकाराकर्षणात्मक सर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमिंकार पुष्टिदाक्षोभकर तृतीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमींकार वाक्प्रसादकर निर्मल चतुर्थेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमुंकार सर्वबलप्रद सारतर पञ्चमेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमूंकारोच्चाटनकर दुःसह षष्ठेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमृंकार संक्षोभकर चञ्चल सप्तमेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमृृंकार संमोहनकरो
ज्ज्वलाष्टमेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओम्लृंकार विद्वेषणकर शूहक2 नवमेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओम्लृंकार मोहकर दशमेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमेंकार सर्ववश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमैंकार शुद्धसात्त्विक पुरुषवश्यकर द्वादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमोंकाराखिलवाङ्मय नित्यशुद्ध त्रयोदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमौंकार सर्ववाङ्मय वश्यकर शान्त चतुर्दशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमंकार गजादिवश्यकर मोहन पञ्चदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओमःकार मृत्युनाशनकर रौद्र षोडशेऽक्षे प्रतितिष्ठ।ॐ कंकार सर्वविषहर कल्याणद सप्तदशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ खंकार सर्वक्षोभकर व्यापकाष्टादशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ गंकार सर्वविघ्नशमन महत्तरैकोनविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ घंकार सौभाग्यद स्तम्भनकर विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ ङंकार सर्वविषनाशकरोग्रैकविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ चंकाराभिचारघ्न क्रूर द्वाविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ छंकार भूतनाशकर भीषण त्रयोविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ जंकार कृत्याऽऽदिनाशकर दुर्धर्ष चतुर्विशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ झंकार भूतनाशकर पञ्चविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ ञंकार मृत्युप्रमथन षड्विंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ टंकार सर्वव्याधिहर सुभग सप्तविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ ठंकार चन्द्ररूपाष्टाविंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ डंकार गरुडात्मक विषघ्न3 शोभनैकोनत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ ढंकार सर्वसंपत्प्रद सुभग4 त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ णंकार सर्वसिद्धिप्रद मोहकरैकत्रिंशेऽक्षे5 प्रतितिष्ठ।
ॐ तंकार धनधान्यादिसंपत्प्रद प्रसन्न द्वात्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ थंकार धर्मप्राप्तिकर निर्मल त्रयस्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ दंकार पुष्टिवृद्धिकर प्रियदर्शन चतुस्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ धंकार विषज्वरनिघ्न विपुल पञ्चत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ नंकार मुक्तिमुक्तिप्रद शान्त षट्त्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ पंकार विषविघ्ननाशन भव्य सप्तत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ फंकाराणिमादिसिद्धिप्रद ज्योतीरूपाष्टत्रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ बंकार सर्वदोषहर शौभनैकोनचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ भंकार भूतप्रशान्तिकर भयानक चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ओं मंकार विद्वेषिमोहनकरैकचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ यंकार सर्वव्यापक पावन द्विचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ रंकार दाहकर विकृत त्रिचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ लंकार विश्वंभर भासुर चतुश्चत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ वंकार सर्वाप्यायनकर निर्मल पञ्चचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ शंकार सर्वफलप्रद पवित्र षट्चत्वा रिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ षंकार धर्मार्थकामद धवल सप्तचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ संकार सर्वकारण सार्ववर्णिकाष्टचत्वारिंशेऽक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ हंकार सर्ववाङ्मय निर्मलैकोनपञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ लंकार सर्वशक्तिप्रद प्रधानपञ्चाशदक्षे प्रतितिष्ठ। ॐ क्षंकार परापरतत्त्वज्ञापक परंज्योतीरूप शिखामणौ प्रतितिष्ठ॥५॥
तत्र “अकारो वै सर्वा वाक् सैषा स्पर्शोष्मभिर्व्यज्यमाना बह्वी नानारूपा भवति” इति श्रुतितः सर्वे वर्णा अकारविकारा इत्युक्ता भवन्ति। “अक्षराणामकारोऽस्मि” इति स्मृतितश्च विष्णोः सर्वव्यापकत्वेन अकारादि-
क्षकारान्तबीजविशिष्टमन्त्रार्थत्वमुक्तं भवतीति ज्ञेयम्। विष्णोर्व्यापकत्वेऽपि मृत्युञ्जयत्वं कुतः? इत्यत्र सर्वापह्नवसिद्धं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति वेदनं सम्यग्ज्ञानं तत्स्वोदयसमकालकैवल्यफलकमित्यत्र—“ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति,” “य एवं निर्बीजं वेद निर्बीज एव स भवति” इत्यादि ज्ञानसमकालमेव कैवल्यफलानुवादिन्यः श्रुतयो मानम्। तथाविधज्ञानतत्साधनानुष्ठानविस्मारकं ब्रह्मातिरिक्तजाग्रज्जाग्रदाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तभेदजातास्तित्वं तस्य प्रमादकारित्वात् “प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि” इति, “प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्तव्यः कदाचन” इति च स्मृतेः। एवं स्वाज्ञानप्रभवस्वातिरिक्तास्तित्वभ्रमात्मकमृत्युं स्वज्ञानसमकालं जयत्यपह्नवं करोतीति मृत्युञ्जयत्वमुपपद्यत इति यत् तदेव वक्ष्यमाणैकपञ्चाशदकारादिक्षकारान्तमन्त्राणां परमाशय इत्याह—ओमिति। त्वमक्षमालाशिखामणिदक्षिणभागस्थप्रथमे अक्षे प्रतितिष्ठ इत्यादिना अक्षं प्रत्येवमावाहयेत्। तथा शिष्टाक्षजातं शिष्टवर्णैरावाहयेदित्याह—ॐ आंकारेत्यादिना। शूहक, स्वातिरिक्तं शून्यतयोहयतीति शूहकः, स्वातिरिक्तशून्यकरेत्यर्थः, स त्वं नवमे अक्षे प्रतितिष्ठ। प्रत्यक्षमेवमावाहयेत्॥ ५॥
देवमन्त्रविद्यातत्त्वानां सान्निध्यार्थोमन्त्रजपः
** अथोवाच ये देवाः पृथिवीपदस्तेभ्यो नमो भगवन्तोऽनुमदन्तुशोभायै पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम्॥६॥**
** अथोवाच ये देवा अन्तरिक्षसदस्तेभ्य ॐ नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु शोभायै पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम्॥७॥**
** अथोवाच ये देवा दिविषदस्तेभ्यो नमो भगवन्तोऽनुमदन्तुशोभायै पितरोऽनुमदन्तु शोभायै ज्ञानमयीमक्षमालिकाम्॥८॥**
** अथोवाच ये मन्त्रा या6 विद्यास्तेभ्यो नमस्ताभ्यश्चोंनमस्तच्छक्तिरस्याः प्रतिष्ठापयति॥९॥**
अथोवाच ये ब्रह्मविष्णुरुद्रास्तेभ्यः सगुणेभ्य ॐ नमस्तद्वीर्यमस्याः7 प्रतिष्ठापयति॥१०॥
अथोवाच ये सांख्या8दितत्त्वभेदास्तेभ्यो नमो वर्तध्वंवरोधे9 नुवर्तध्वम्10॥११॥
अथोवाच ये शैवा वैष्णवाः शाक्ताः शतसहस्रशस्तेभ्योनमो नमो भगवन्तोऽनुमदन्त्वनुगृह्णन्तु॥१२॥
अथोवाच याश्च मृत्योः प्राणवत्यस्ताभ्यो नमो नमस्तेनैतांमृडयत मुडयत॥१३॥
एवं पञ्चाशद्वर्णविशिष्टाक्षमालिकां स्पृष्ट्वा स्वाविद्यापदतत्कार्यब्रह्माण्डपटलवासिनो ये ये देवाः मन्त्रविद्यातत्त्वादयो विद्यन्ते तेषामत्र सान्निध्याय अस्याः सार्वात्म्यसिद्धये च वक्ष्यमाणमन्त्रान् जपेदित्याह—अथोवाचेति। अथोवाच ये देवाः द्योतनात्मकाः सर्वत्र पृथिव्यां सीदन्ति गच्छन्ति व्याप्य वर्तन्त इति पृथिवीषदः । अस्यामक्षमालिकायां स्थिरासना भूत्वा अनुमदन्तु अनुमोदनं सदा कुर्वन्तु पुनरस्या विशेषतः शोभायै शोभार्थं पितरोऽनुमदन्तु शोभायैज्ञानमयीं अक्षमालिकां प्राप्य अग्निष्वात्तादिपितरोऽपि सदाऽनुमोदनं भजन्त्वित्यर्थः॥६॥ तथा सर्वत्रानुभाव्यमित्याह—अथेति। पितृभिः सह अन्तरिक्षसदो देवा अप्यक्षमालिकां प्राप्य वरदाः सन्तः स्थिरासना भवन्त्विति प्रार्थनीया इत्यर्थः॥७–८॥ अस्मिन् लोके ये सप्तकोटिमहामन्त्रा विद्यन्ते या चतुष्षष्टिकला विद्या विद्यन्ते ताभ्यो नमः॥९–१०॥ ये सांख्यादितत्त्वभेदाः षण्णवतितत्त्वानि तेभ्यो नमः। ये षण्णवतितत्त्वभेदाः यूयमत्र वरो वराः सर्वोत्कृष्टाः सन्तः कामधेनव इव अक्षमालिकोपासकस्य वाञ्छितार्थदा भूत्वात्र सदा वर्तध्वमित्यर्थः॥११–१२॥ स्वभावतोऽमरं जीवं स्वभावतः
प्रच्याव्य मृतिं देहात्मभावनारूपां नयतीति मृत्युः स्वातिरिक्तास्तित्वभ्रमस्तस्य मृत्योः प्राणवत्य उपजीव्या याः शक्तयो विद्यन्ते स्वातिरिक्तभ्रमापनुत्तये ताभ्यो नमो नमः। ताः सर्वा यूयं मिलित्वा मत्कृतनमस्कारेण तेनैतां अक्षमालिकां मृडयत मृडयत। स्वोपासकसुखप्रदां कुरुतेत्यर्थः॥१३॥
अक्षमालायां सर्वात्मकत्वभावना
पुनरेतस्यां सर्वात्मकत्वं भावयित्वा भावेन पूर्वमालिकामुत्पाद्यारभ्यतन्मयीं महोपहारैरुपहृत्यादिक्षान्तैरक्षैरक्षमालामष्टोत्तरशतं स्पृशेत्॥
अकारादिलकारान्तद्विरावृत्त्याऽथ अकचटतपयश इत्यष्टवर्गं योजितं चेत्तदा अष्टोत्तरशतं भवति। क्षकारः सकृन्मेरुस्थाने योजनीय इत्यर्थः॥१४॥
अक्षमालिकास्तुतिः
अथ पुनरुत्थाप्य प्रदक्षिणीकृत्योंनमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले सर्ववशंकर्योनमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमालिकेऽशेषस्तम्भिन्योंनमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले उच्चाटन्योंनमस्ते भगवति मन्त्रमातृकेऽक्षमाले विश्वामृत्यो मृत्युंजयस्वरूपिणि11 सकलोद्दीपिनि सकललोकद[र]क्षा्दिके12 सकललोकोज्जीविके सकलोत्पादिके दिवाप्रवर्ति रात्रिप्रवर्तिके नद्यन्तरयासि13 देशान्तरयासि द्वीपान्तरयासि लोकान्तरयासि सर्वदा स्फुरसि सर्वहृदि वासयसि। नमस्ते परारूपे नमस्ते पश्यन्तीरूपे नमस्ते मध्यमारूपे नमस्ते वैखरीरूपे सर्वतत्त्वात्मिके सर्वविद्याऽऽत्मिके सर्वशक्त्यात्मिके सर्वदेवात्मके वसिष्ठेन मुनिनाऽऽराधिते विश्वामित्रेण मुनिनोपसेव्यमाने नमस्ते नमस्ते॥१५॥
अथ पुनरुत्थाप्य प्रदक्षिणीकृत्य वश्यादिषट्कर्मसाधकतया परमार्थपदप्रापिकतया च वक्ष्यमाणमन्त्रैरक्षमालिकां स्तौति—ओमिति। मृत्युञ्जयस्वरूपिणि स्वातिरिक्तविश्वाभिधानमृत्युग्रासस्वज्ञानरूपिणि, तथा सकलोद्द्वीपिनि। ईश्वरात्मना सकललोकद[र]क्षात्मिके। रवीन्द्वात्मना दिवाप्रवर्तिके रात्रिप्रवर्तिके। अन्तर्याम्यात्मना नद्यन्तरयासि नद्यन्तरं नदीपटलं यास्यसि। प्रत्यग्रूपेण सर्वदा स्फुरसि। सरस्वत्यात्मना नमस्ते परारूपे। वसिष्ठेन मुनिना “ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्ति” इति आराधिते। तथा विश्वामित्रेण॥१५॥
विद्याफलम्
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। तत् सायं प्रातः प्रयुञ्जानः पापोऽपापो भवति। एवमक्षमालिकया जप्तो मन्तः सद्यः सिद्धिकरो भवतीत्याह भगवान् गुहः प्रजापतिमित्युपनिषत्॥१६ ॥
विद्याफलमाह—प्रातरिति। कामिनां सद्यः कामितार्थसिद्धिकरो भवति। अकामिजप्तमन्त्रस्तु सद्यश्चित्तशुद्धिकरो भूत्वाऽस्य वेदान्तश्रवणादिमतिमुत्पाद्य सद्यः श्रवणादिजनितसम्यग्ज्ञानसमकालं सर्वापह्नवसिद्धनिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रावस्थानलक्षणविकलेबरकैवल्यसिद्धिकरो भवति। इतिशब्दस्त्वक्षमालिकोपनिषत्परिसमाप्त्यर्थः॥१६ ॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
अक्षमालोपनिषदो व्याख्यानं लिखितं लघु।
अक्षमालोपनिषदो व्याख्याग्रन्थः शतं स्मृतः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे सप्तषष्टिसङ्ख्यापूरकं
अक्षमालिकोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
——————
अथर्वशिखोपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
प्रथमः खण्डः
आदिप्रयुक्तध्यानजिज्ञासा
अथ हैनं पैप्पलादोऽङ्गिराः सनत्कुमारश्चाथर्वा14णमुवाच—
भगवन् किमादौ प्रयुक्तं ध्यानं ध्यायितव्यं किं तद्ध्यानं को वा ध्याता कश्च ध्येयः॥१॥
ओङ्कारार्थतया भातं तुर्योङ्काराग्रभासुरम्।
तुर्यतुर्यत्रिपाद्रामं स्वमात्रं कलयेऽन्वहम्॥
इह खल्वथर्वशिखोपनिषदोऽथर्ववेदप्रविभक्तत्वेनोपोद्घातादिकं प्रश्नोपनिषदादितुल्यम्। शिष्याचार्यपैप्पलादाद्यथर्वप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका वक्ष्यमाणविद्यास्तुत्यर्था। प्रकृतोपनिषदो विवरणमारभ्यते—अथेत्यादिना। अथ ह यथोक्तसाधनानुष्ठानसंजातचित्तशुद्ध्यनन्तरं खलु पिप्पलादस्यापत्यं पैप्पलादो नामतोऽङ्गिराः सनत्कुमारश्च एनं विख्यातं अथर्वाणमुवाच।
किमिति? हे भगवन् किं सर्वस्मात् आदौ प्रयुक्तं मुमुक्षुभिः कस्य ध्यानं ध्यातव्यं किं वा तस्य ध्यानं को वा ध्याता ध्यानकर्ता सर्वैः कश्च को वा ध्येय इति॥१॥
चतुष्पात्प्रणवध्यानम्
स एभ्योऽथर्वा15 प्रत्युवाच
—
ओमित्येतदक्षरमादौ प्रयुक्तं ध्यानं ध्यायितव्यमित्येतदक्षरं परं ब्रह्मास्य पादाश्चत्वारो वेदाचतुष्पादिदमक्षरं परं ब्रह्म॥२॥
एवं पिप्पलादाङ्गिरस्सनत्कुमारैः पृष्टो मुनिराह—स इति। य एवमेतैः पृष्टः सोऽयमथर्वा मुनिः एभ्यः प्रत्युवाच। किमिति? ओमिति ब्रह्मप्रतीकालम्बनतया सर्वस्मादादौ प्रयुक्तं ईश्वरेच्छयाऽऽविर्भूतं मुमुक्षुभिः प्रणवार्थेश्वरध्यानं ध्यायितव्यमिति यत् तदेतदक्षरं प्रणवार्थरूपं परं अपरं वा ब्रह्म, “परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः," “प्रणवो ह्यपरं ब्रह्म प्रणवश्च परः स्मृतः।” इति श्रुतेः। अस्य प्रणवस्य व्यष्टिसमष्टितदैक्यावस्थाविशिष्टस्य चत्वारो वेदाः पादा इव पादा चतुष्पात् इदमक्षरं परं अपरं वा ब्रह्म॥२॥
मात्राचतुष्टयस्वरूपम्
** पूर्वाऽस्य मात्रा पृथिव्यकारः स ऋग्भिर्ऋग्वेदो ब्रह्मा वसवो गायत्री गार्हपत्यः॥३॥**
** द्वितीयाऽन्तरिक्षं स उकारः स यजुर्भिर्यजुर्वेदो विष्णू16 रुद्रास्त्रिष्टुब्दक्षिणाग्निः॥४॥**
** तृतीया द्यौः स मकारः स सामभिः सामवेदो रुद्र17 आदित्या जगत्याहवनीयः॥५॥**
याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा सोमलोक ओंकारः साऽथर्वणैर्मन्त्रैरथर्ववेदः संवर्तकोऽग्निर्मरुतो विराडेकर्षिर्भास्वती स्मृता॥६॥
तस्याद्यमात्रास्वरूपमाह—पूर्वेति। अस्य प्रणवस्य पूर्वा आद्यमात्रा पृथिव्यकारः इत्यादेः प्राथम्यात् प्रथममात्रारूपत्वं युज्यत इत्यर्थः॥३॥ द्वितीयमात्रेयत्तामाह—द्वितीयेति। येयं द्वितीया मात्रा अन्तरिक्षं स उकार इत्यादेः प्रथममात्राप्रसक्तपृथिव्यकाराद्यपेक्षया आनन्तर्याद्वितीयमात्रात्वं युज्यत इत्यर्थः॥४॥ तृतीयमात्रेयत्तामाह—तृतीयेति। द्वितीयमात्रात्वेन प्रकटितान्तरिक्षोकाराद्यपेक्षया द्यौः मकार इत्यादेः समनन्तरत्वात् तृतीयमात्रात्वं युज्यत इत्यर्थः॥५॥ चतुर्थमात्रेयत्तामाह—याऽवसान इति। अस्य प्रणवस्य या अवसाना सेयं चतुर्थ्यर्धमात्रा प्रणवतुरीयांशः ओङ्कारः सोमलोकश्च अथर्वणमन्त्रग्रामविशिष्टः अथर्वणवेदश्च संवर्तकोऽग्निः प्रलयकालीनाग्निः मरुतः सप्त महाविराट् एक एव ऋषत्यवगम्यत इति एकर्षिः एवं विशेषणविशिष्टेयमर्धमात्रा तुर्यप्रकाशभास्यतया भास्वती स्मृता सर्ववेदान्तेष्वभिहितेत्यर्थः॥६॥
वर्णदेवताविशिष्टमात्रास्वरूपम्
प्रथमा रक्तपीता महद्ब्रह्मदैवत्या। द्वितीया विद्युमती कृष्णा विष्णुदैवत्या। तृतीया शुभाशुभा शुक्ला रुद्रदैवत्या। याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा विद्युमती सर्ववर्णा पुरुषदैवत्या॥७॥
पुनर्विशिष्टमात्रातदध्यक्षपादस्वरूपमाचष्टे—प्रथमेत्यादिना। येयं प्रथमा मात्रा अकाररूपिणी सेयं रक्तमिश्रपीतवर्णा। यस्या महान् ब्रह्मा देवता सेयं महद्ब्रह्मदैवत्या। योऽकारात्मिका द्वितीया मात्रा विद्युद्वत् द्योतनात् विद्युमती तन्मिश्रकृष्णवर्णोज्ज्वला विष्णुदैवत्या च भवति। मकारात्मिकेयं तृतीया मात्रा अर्धमात्रोकारसन्निहितत्वात् शुभाशुभा वर्णतः शुक्ला शुक्लतेजोमयेश्वरोपाधित्वात्रुद्रदैवत्या च भवति। याऽवसाने इत्युक्तार्थम्। सा विद्युमती विद्युन्निभा
सर्ववर्णहेतुत्वात् सर्ववर्णा स्वेन तुर्यरूपेण कृत्स्नमात्रातदध्यक्षप्रपञ्चपूरणात्पुरुषस्तुर्यात्मा स एव देवता यस्याः सेयं पुरुषदैवत्या च भवति॥७॥
विशिष्टप्रणवस्वरूम्
स एष ह्योंकारश्चतुरक्षरश्चतुश्चतुष्पादश्चतुः शिरश्चतुश्चतुर्धा मात्रा स्थूलमेतद्ध्रस्वदीर्घप्लुतम्॥८॥
विशिष्टप्रणवेयत्तामाह—
स एष इति। य एवमुक्तः स एष ह्योङ्कारः अकारादिभेदेन चतुरक्षरः विश्वाविराडोत्रादिभेदेन चतुश्चतुष्पादः चतुश्शिरः चतुस्तुर्यविशिष्टत्वात् चतुश्चतुर्धा मात्रा। यद्वा मात्र शब्दः कालवाची, स्थूलं प्रथममात्रा कालस्य स्थूलत्वात्, तथैतत् ह्रस्वं सूक्ष्मत्वात्, दीर्घंतदपेक्षया सूक्ष्मं, तदपेक्षया प्लुतं सुसूक्ष्मम्॥८॥
विशिष्टप्रणवध्यानफलम्
ॐ ॐ ॐ इति त्रिरुक्त्वा चतुर्थः शान्त आत्मा प्लुतप्रणवप्रयोगेण समस्तमोमिति प्रयुक्तमात्मज्योतिः सकृदावर्तते॥९॥
एवं प्रकारत्रयभेदेन प्रणवमुच्चार्य चतुर्थमात्राऽऽत्मकः शान्त आत्मा तुर्यस्य स्वातिरिक्तशान्तिसिद्धत्वात् एवं प्लुतप्रणवप्रयोगेण प्रणवाग्रनादज्योतिरनुसन्धानात् आत्मज्योतिः निरावृतं सत् सकृदावर्तते सदा विभातीत्यर्थः॥९॥
स्थूलादिभेदैः प्रणवस्य चतुर्धा विभागः
सकृदुच्चारितमात्रेणोर्ध्वमुन्नामयतीत्योंकारः। प्राणान् सर्वान्प्रलीयत इति प्रलयः18। प्राणान् सर्वान् परमात्मनि प्रणामयतीत्ये-
तस्मात् प्रणवः। चतुर्धाऽवस्थित इति सर्वदेववेदयोनिः सर्ववाच्यवस्तु प्रणवात्मकम्॥१०॥
प्रणवं चतुर्धा व्युत्पादयति—सकृदिति। सकृत् प्लुतोच्चारणतः मूलाधारादिब्रह्मरन्ध्रान्तमूर्ध्वं उन्नामयति उद्गच्छतीति ओङ्कारः। सर्वप्राणान्प्रलीयते प्रकर्षेण लयं नयतीति प्रलयः प्रणवस्य प्राणादिप्रलयहेतुत्वात्प्रलयत्वम्। सर्वप्राणान् परमात्मनि प्रणामयति प्रकर्षेण नमनमैक्यं गमयतीत्येतस्माद्धेतोः प्रणव उच्यते। एतत्कलनात्रयविरलः चतुर्थः “चतुर्थः शान्त आत्मा” इत्युक्तत्वात्। प्रणवस्थलांश ओङ्कारः, तत्सूक्ष्मांशः प्रलयः, तद्बीजांशः प्रणवः, चतुर्थस्तु संशान्तस्वातिरिक्तः इत्येवं चतुर्थाऽवस्थितः। इतिशब्दः वस्तुत एक इति द्योतकः। अभिधेयाभिधानरूपेण सर्वदेववेदयोनिः। यत एवमतः सर्ववाच्यवस्तु प्रणवात्मकं, न हि ब्रह्मप्रणवातिरिक्तमभिधेयजातभिधानजातं वाऽस्ति॥१०॥
इति प्रथमः खण्डः
——————
द्वितीयः खण्डः
तुर्योङ्कारस्य तारकत्वम्
देवाश्चेति संधत्तां सर्वेभ्यो दुःखभयेभ्यः19 संतारयतीति तारणात्तारः॥१॥
अभिधेयाभिधानदेववेदजातं पूर्वोक्ततुर्योङ्कारस्य तारकत्वं विष्णुत्वं ब्रह्मत्वं स्वयंप्रकाशत्वं महादेवत्वं च प्रकटयतीत्याह—देवाश्चेति। विश्वविश्वाद्यविकल्पा-
नुज्ञैकरसान्ताः प्रणवाभिधेयरूपा देवाः चशब्दात् अभिधानरूपा वेदाश्चइति, एवं संधत्तां संदधतां व्यत्ययेनाभिसन्धिंकृतवन्तः। किमिति? यस्तुरीयोङ्कारत्वेनाभिमतस्तस्य सर्वदुःखभयान्वितसंसृतिसंतारणात् स एव तारः॥१॥
तस्य विष्णुत्वम्
सर्वे देवाः संविशन्तीति विष्णुः॥२॥
किं च—
यत्र तुरीयोङ्कारे तुर्यतुर्ये विश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्ताः सर्वे देवाः तन्मात्रावशेषतया संविशन्तीति स विष्णुः तुर्योङ्कारः॥२॥
तस्य ब्रह्मत्वम्
सर्वाणि बृंहयतीति ब्रह्म॥३॥
किंच—यत् स्वातिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यजातं ग्रसित्वा स्वमात्रतया बृंहयतीति तद्धि ब्रह्म॥३॥
तस्य स्वयंप्रकाशत्वम्
सर्वेभ्योऽन्तः स्थाने20भ्यो ध्येयेभ्यः21 प्रदीपवत् प्रकाशयतीति प्रकाशः॥४॥
किंच स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तसर्वप्राण्यन्तर्बाह्यविलसितकामादिघटादिस्वप्रकाश्यध्येयेभ्यः विविक्ततया तत् सर्वं यः प्रदीपवत् प्रकाशयति स्वभास्यकामादिघटाद्यभावे, प्रकाशमात्रतया स्वयमवशिष्यत इति च तुरीयोङ्कारः प्रकाशः॥४॥
तस्य महादेवत्वम्
प्रकाशेभ्यः सदोमित्यन्तः शरीरे विद्युद्वद्द्योतयति मुहुर्मुहुरिति विद्युद्वत् प्रतीयां22 दिशं भित्त्वा23 सर्वांल्लोकान् व्याप्नोति व्यापयतीति व्यापनाद्व्यापी महादेवः॥५॥
किंच स्वान्तःशरीरे स्वप्रकाश्येभ्यः कामादिभ्यो विविक्ततया सदोमिति मुहुर्मुहुर्यो विषयजातं विद्युद्वत् द्योतयति प्रकाशयति तत् कथं यथा विद्युत्प्रतीयां स्वप्रकाश्यमेघावृतिरूपां दिशं भित्त्वा स्वविषयलोकैकदेशं व्याप्नोति तथा तुरीयोङ्कारस्वप्रतीतिविषयभूतां प्रतीयां स्वावृतिरूपिणीं मायाऽऽख्यां दिशं भित्त्वा स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितसर्वान् लोकान् तदुपलक्षितान्यनन्तकोटिब्रह्माण्डानि सच्चिदानन्दात्मना व्याप्नोति विश्वविराडोत्रादिरूपेण वा व्यापयतीति च येन केन वैवं व्यापनात् व्यापी महादेवः तुर्योङ्कार एवेति सर्वदेवानां वेदानामभिप्रेतोऽर्थः॥५॥
इति द्वितीयः खण्डः
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तृतीयः खण्डः
तुर्योङ्कारनिरूपणम्
** पूर्वाऽस्य मात्रा जागर्ति जागरितं द्वितीया स्वप्नं तृतीया सुषुप्तिश्वतुर्थी तुरीयम्॥१॥**
मात्राऽवस्थापादभेदविशिष्टतुर्योङ्कारं पुनरनूद्य विशदयति—पूर्वेति। अस्य तुरीयोङ्कारस्य पूर्वा मात्रा अकाराख्या पचीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यभौतिकरूपेण
जागतीति सैव जागरणमभिधीयते। अस्य द्वितीया उकाराख्या मात्रा अपञ्चीकृतपञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यजाग्रद्वासनाऽऽत्मिका स्वप्नं स्वप्नावस्था भवति। अस्य तृतीया मकाररूपिणी मात्रा तु पश्चीकृतापञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यव्यष्टिसमष्टिकारणरूपेयं सुषुप्त्यवस्था भवति। अस्य चतुर्थी अर्धमात्रारूपिणी मात्रा तु जाग्रदाद्यवस्थात्रयप्रपञ्चतत्कार्यभावाभावप्रकाशकं तुर्यंतुर्यावस्था भवति॥१॥
तुर्यज्ञानपथ एव सिद्धिकरः
मात्रा मात्राःप्रतिमात्रागताः सम्यक् समस्तानपि पादान्जयतीति स्वयंप्रकाशः स्वयं ब्रह्म भवतीत्येष सिद्धिकर एतस्माद्ध्यानादौ प्रयुज्यते। सर्वकरणोपसंहारत्वाद्धार्यधारणाद्ब्रह्म तुरीयम्॥२॥
** **एवमकारादिमत्राप्रविभक्तस्थूलसूक्ष्मादिमात्राः पूर्वपूर्वा उत्तरोत्तरप्रतिमात्रासु विलयं गता यदि तदा सम्यक् अकाराद्यर्धमात्राप्रविभक्तस्थूलादिमात्रापञ्चदशारोपापवादाधिकरणविश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तान् समस्तानपि पादान्तुर्यतुर्यपरायणतया जयतीति प्रबोधसमकालं विद्वान् स्वयंप्रकाशो भूत्वा स्वयं भवतीत्येव तुर्यतुर्यो निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति तत्त्वज्ञानपथः सिद्धिकरः। एतस्मादतिरिक्तः पन्थाः कुपथ इत्यर्थः। एतस्मात् कुपथात्अतिरिक्ततुर्यतुर्यप्रापकपथस्तु तुर्यतुर्यध्यानादौ आदिशब्दार्थनिर्विकल्पकसमाधौ च तदभिव्यक्तिः प्रयुज्यते। तत् कथं? तुर्यतुर्याधिगमस्य स्वातिरिक्तसर्वकरणोपसंहारसिद्धत्वात्। तदपह्नवसिद्धत्वेन यत् धार्यं तत्स्वमात्रमित्यवधारणात्तुर्यतुर्यं ब्रह्म स्वमात्रमवशिष्यत इत्यर्थः॥२॥
तज्ज्ञानोपायः
सर्वकरणानि संप्रतिष्ठाप्य ध्यानं विष्णुः प्राणं मनसि सह करणैः मनसि संप्रतिष्ठाप्य ध्याता रुद्रः प्राणं मनसि सह करणैर्नादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाप्य ध्यायीतेशानं प्रध्यायितव्यम्॥३॥
तत्रोपाय उच्यते—यत्तुर्यं ब्रह्मेति प्रथितं तत्र सर्वकरणानि संप्रतिष्ठाप्य सम्यग्विलापनं कृत्वा यदेतद्विलापनाधिष्ठानं तद्ब्रह्मास्मीति ध्यानं कृत्वा तत्प्रभावतः विष्णुः प्रधानपुरुषो भवति। यद्वा—करणैः सह प्राणं मनसि संप्रतिष्ठाप्य मनोमात्रावशिष्टं कृत्वा यस्य मनो ब्रह्माकारपरिणतं सोऽयमेवं ध्याता रुद्रो भवति। अथवा—मुमुक्षुभिः करणैः सह प्राणं मनसि मनस्तु ब्रह्मप्रणवनादान्ते परमात्मनि संप्रतिष्ठाप्य स्वमात्रतया अवस्थातुमीश्वरं ब्रह्म प्रकर्षेण ध्यायितव्यं तस्मात् ईशानं आत्मेति ध्यायीत॥३॥
शिवस्यैव ध्येयत्वम्
सर्वमिदंब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रास्ते संप्रसूयन्ते सर्वाणि चेन्द्रियाणि सह भूतैर्न कारणं कारणानां ध्याता24 कारणं तु ध्येयः सर्वैश्वर्यसंपन्नः सर्वेश्वरः शंभुराकाशमध्ये ध्रुवं स्तब्ध्वाऽधिकं क्षणमेकं क्रतुशतस्यापि चतुःसप्तत्या यत् फलं तदवाप्नोति कृत्स्नमोंकारगतिश्च सर्वध्यानयोगज्ञानानां यत् फलमोंकारो वेद पर ईशो वा शिव एको ध्येयः शिवंकरः सर्वमन्यत् परित्यज्य॥४॥
यस्मात् इदं सर्वंजगत् तत्सर्गस्थितिभङ्गकर्तारो ब्रह्मविष्णुरुद्राश्च ते संप्रसूयन्ते पञ्चभूतैः सह सर्वाणीन्द्रियाणि च संप्रसूयन्ते तत्कारणमीश्वराख्यं ब्रह्म, तदतिरेकेण भूतैः सहेन्द्रियाणि सत्त्वरजस्तमांसि वा नहि कारणपदं भजन्ति। मद्व्यतिरिक्तमणुमात्रं न विद्यते इति ध्याता परमेश्वरस्तु स्वयमेव सर्वध्येयो भूत्वा स्वकार्यत्वेऽपि मिथः कार्यकारणभावमापन्नानां वियदादीनां कारणं भवति।सर्वकारणत्वेन यो ध्येयः सोऽयं सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वसर्वकारणत्वसर्वान्तर्यामित्वादिसर्वैश्वर्यसम्पन्नः सर्वेश्वरः स्वांशजसर्वप्राणिस्वामित्वात् शंभुः सर्वसुखकृत्त्वात्एवंविशेषणविशिष्टः परमात्मा सदा यो विजयते तमेतं ध्रुवं आत्मानं यः कोऽपि वा पुरुषः स्वहृदयाकाशमध्ये अधिकं क्षणं एकं क्षणं क्षणार्धं वा ध्यानपूर्वकं स्तब्ध्वा
स्तम्भयित्वा ध्यायीत तस्य तद्भावापत्तिरेव परमफलं, आन्तरालिकफलं तु चतुस्सप्तत्यधिकशतक्रत्वनुष्ठानतो यत्फलं तदवाप्नोति कृत्स्नमोङ्कारगतिश्चानेन विदिता भवेत्। एवमोङ्कार ओङ्कारं यः वेद सोऽयं मुनिः सर्वध्यानयोगज्ञानानां यत्फलं विद्यते तदवाप्नोति। एवमोङ्कारवित् पर ईशो वा शिव एको ध्येयः स्वभक्तपटलस्य शिवङ्करश्च भवति। यस्मादेवं तस्मात् सर्वमन्यत् परित्यज्य तदधिकरणे निरधिकरणे वा॥४॥
अध्ययनफलम्
समाप्ताऽथर्वशिखा तामधीत्य द्विजो गर्भवासाद्विमुक्तो मुच्यत एतामधीत्य द्विजो गर्भवासाद्विमुक्तो विमुच्यत इत्योँ सत्यमित्युपनिषत्॥५॥
परिसमाप्तेयं अथर्वशिखा तामर्थतो द्विजः अधीत्य तज्ज्ञानमहिम्ना पुरैव गर्भवासाद्विमुक्तः स्वाज्ञानव्यवधानतो बद्धवद्भातः स्वाज्ञानापाये जीवन्मुक्तो भूत्वा विमुच्यते विदेहमुक्तो भवति। अभ्यास आदरार्थः। एतदथर्वशिखोपनिषदर्थविचारजन्यज्ञानेन विदेहमुक्तो भवतीत्युक्तमित्येतत्तत् ओं सत्यं अवितथम्। इत्युपनिषच्छब्दः प्रकृतोपनिषत्परिसमाप्त्यर्थः॥५॥
इति तृतीयः खण्डः
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
लिखितं स्याद्विवरणं शिखोपनिषदः स्फुटम्।
शिखोपनिषदो व्याख्या विंशत्यधिशतं स्मृता॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे त्रयोविंशतिसङ्ख्यापूरकं
अथर्वशिखोपनिषद्विवरण सम्पूर्णम्
अथर्वशिर-उपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
देवानां रुद्रस्वरूपजिज्ञासा
देवा ह वै स्वर्गं लोकमगमंस्ते देवा रुद्रमपृच्छन् को भवानिति॥१॥
अथर्वशिरसामर्थमनर्थव्रातमोचकम्।
सर्वाधारमनाधारं स्वमात्रं त्रैपदाक्षरम्॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयमथर्वशिरआख्योपनिषत् परंब्रह्मार्थतया दृश्यते। प्रश्नमुण्डकमाण्डूक्यवदस्या उपोद्घातादिकमूह्यम्। यथोक्तलक्षणलक्षिताया उपनिषदः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। देवताकदम्बरुद्रप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। केयमाख्यायिकेत्यत आह—देवा इति। स्वदेहप्रभया द्योतनवन्त इन्द्रादयः देवा, ह वा इति निपातौ वृत्तानुस्मरणार्थौ, स्वर्लोकनिवासिभिरपि गेयं स्वर्गं लोकं महाकैलासं अगमन्गतवन्तः। ये महाकैलासं प्रविष्टाः ते देवाः स्वातिरिक्तास्तितारुजं द्रावयति नाशयतीति रुद्रमपृच्छन् पृष्टवन्तः। किमिति? को भवानिति॥१॥
रुदैकत्वप्रतिपादनम्
सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममासं वर्तामि भविष्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति॥२॥
तैरेवं पृष्टो रुद्र आह—सोऽब्रवीदिति। य एवं देवैः पृष्टः सोऽयं रुद्रोऽब्रवीत्। किमिति? अस्मदादिप्रत्ययभासकप्रत्यग्रूपेण अहमेकः। तत्रोपपत्तिमाह—प्रथममिति। प्रथमं सृष्टेः प्राक् अहमासं स्थितवान् इदानीं वर्तामि इतो भविष्यामि च कालत्रयापरिच्छिन्नोऽस्मि। नान्यः कश्चिदपि मत्तः सर्वेश्वरात् व्यतिरिक्तोऽस्तिीति॥२॥
रुद्रस्य सर्वात्मत्वम्
सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं संप्राविशत्॥३॥
सोऽहं नित्यानित्योऽहं ब्रह्माहब्रह्माहं25 प्राञ्चः प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्चोदञ्चोऽहमधश्चोर्ध्वं च दिशश्चविदिशश्चाहं पुमानपुमान्स्त्रियश्चाहं सावित्र्यहं गायत्र्यहं सरस्वत्यहं त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्योऽहं दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्यहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहमृग्यजुस्सामाथर्वाङ्गिरसोऽहमक्षरमहं क्षरमहं गोप्योऽहं गुह्योऽहमरण्योऽहं पुष्करमहं पवित्रमहमग्रं च मध्यं च बहिश्च पुरस्ताद्दशसु दिक्ष्ववस्थितमनवस्थितं च ज्योतिरित्यहमेकः सर्वे च मामेव॥४॥
देवान् प्रत्येवमुक्त्वा सोऽयं रुद्रः निरावृतः स्वेन रूपेण सर्वान्तरात्ईश्वरात् अन्तरं स्वातिरिक्तसाक्ष्यभासकसाक्षिभावं प्राविशत्, “सर्वस्य साक्षी ततः सर्वस्मादन्यो विलक्षणः” इति श्रुतेः। अन्तर्याम्यात्मना प्राच्यादिदिशश्चान्तरं संप्राविशत्॥३॥य एवंविधः सोऽहं स्वज्ञादिदृष्टिमाश्रित्य आधाराधेयात्मना नित्यानित्यरूपः कारणं ब्रह्म कार्यंअब्रह्म आत्मानात्मरूपोऽपि अहमेव, ‘नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्तः” इति प्रतिज्ञातत्वात्।
प्रागादिदिक्षु अञ्चतीति प्राञ्चः इत्यादि समानम्। प्रागाग्नेयादिदिशश्च विदिशश्च अधोर्ध्वं च पुंनपुंसकस्त्रीजातिश्चगायत्र्यादिशक्तित्रयं च त्रिष्टुबादिछन्दस्त्रयं च गार्हपत्याद्यग्नित्रयं च प्रतिभासिकादिसत्यमपि यत्सत्तामाश्रित्य प्रवृत्तं सोऽहं सत्यः कामधेनुजातिः गौः गिरिजा गौरी वयसा ज्येष्ठः गुणतः श्रेष्ठः ज्ञानेन वरिष्ठः। अप्तेजोग्रहणं पञ्चभूतोपलक्षणार्थं—अप्तेजआदिपञ्चभूतं च ऋगादिवेदचतुष्टयं च कल्पितं क्षरं अकल्पितं अक्षरं च शत्रुणाऽवेदनीयं गोप्यं मित्रेणाप्यवेदनीयं गुह्यं च अरण्योऽरण्यं च पुष्करं पुण्यक्षेत्रं च पवित्रं शुद्धिहेतुस्नानादि च अयं मध्यं मूलं च सर्वान्तर्बहिश्च पुरस्तात् पूर्वादिदशसु दिक्षु यद्यदवस्थितं यद्यदनवस्थितं तत्तत्सर्वं च मत्स्वरूपज्योतिरिति प्रतिपर्यायमहमित्यनुसंधेयम्। नित्यानित्यादि अवस्थितमनवस्थितमित्यन्तं सर्वज्योतिरहमेवैकः न मत्तोऽन्यदस्ति, “सर्वज्योतिरसावहम्” इति श्रुतेः। हे देवाः सर्वे च यूयं मामेव सर्वमिति जानन्तु इति शेषः॥४॥
रुद्रज्ञानफलम्
मां यो वेद सर्वान् देवान् वेद गां गोभिर्ब्राह्मणान् ब्राह्मण्येन हवींषि हविषाऽऽयुरायुषा सत्यं सत्येन धर्मं धर्मेण तर्पयामि तर्पयामि॥५॥
यो मुमुक्षुः मामेवंविधं वेद सोऽयं मुनिः सर्वान् देवान् मत्स्वरूपतया वेद। तत्तद्रूपमास्थाय वैराजभावं वैकुण्ठभावं वैत्य स्वांशजजीवजातं तर्पयामीत्याह—गामिति। गोभिः स्वाधिष्ठितसूर्यरश्मिभिः गां भूमिं तर्पयामि ब्राह्मण्यापादककर्मणा ब्राह्मणान् तर्पयामीति सर्वत्रानुषज्यते। घृतादिहविषा हवींषि चरुपुरोडाशादीनि, आयुषा मुख्यप्राणरूपेण आयुः व्यष्टिप्राप्तं तर्पयामि, पारमार्थिकसत्येन व्यावहारिकादिसत्यं तर्पयामि, स्वात्मज्ञानधारणार्हधर्मेण अभ्युदयहेतुधर्मजातं तर्पयामि। आवृत्तिस्तर्पयामीति सर्वत्रानुवृत्त्यर्था॥५॥
देवकृतरुद्रस्तुतिः
स्वेन तेजसा ततो देवा रुद्रं नापश्यन् ते देवा रुद्रं ध्यायन्ति ततो देवा ऊर्ध्वबाहवः स्तुवन्ति—ॐ यो ह वै रुद्रः स भगवान्यश्च ब्रह्मा भूर्भुवः सुवः तस्मै वै नमो नमः शीर्षञ्जनदों विश्वरूपोऽसि॥६॥…यश्च विष्णुः…॥७॥…यश्च महेश्वरः…॥८॥…या चोमा…॥९॥…यश्च विनायकः…॥१०॥…यश्च स्कन्दः…॥११॥…यश्चेन्द्रः…॥१२॥…यश्चाग्नि…॥१३॥…या च भूः…॥१४॥…यश्चभुवः…॥१५॥…यश्चसुवः…॥१६॥…यश्च महः…॥१७॥…
यश्चजनः…॥१८॥…यश्च तपः
…॥१९॥…
यच्च सत्यम्…॥२०॥…या च पृथिवी…॥ २१॥…याश्चापः…॥२२॥…यच्च तेजः…॥२३॥…यश्चवायुः…॥२४॥…यच्चाकाशम्…॥२५॥…
यश्च सूर्यः… ॥२६॥…यश्च सोमः
…
॥२७॥
…
यानि च नक्षत्राणि…॥२८॥…ये चाष्टौ ग्रहाः…॥२९॥…यश्च प्राणः…॥३०॥…यश्च कालः
…
॥३१॥…यश्च यमः…॥३२॥…यश्च मृत्युः…॥३३॥…यच्चामृतम्…॥३४॥…यच्च भूतं भव्यं भविष्यत्…॥३९॥…यच्च विश्वम्…॥३६॥
…यच्च कृत्स्नम्…॥३७॥…यच्च सर्वम्…॥३८॥…यच्च सत्यम्…॥३९॥…
ब्रह्मैकत्वं द्वित्रिधोर्ध्वमधश्च त्वं शान्तिश्च त्वं पुष्टिश्च त्वं तुष्टिश्च त्वं हुतमहुतं विश्वमविश्वं दत्तमदत्तं कृतमकृतं परमपरं परायणं चेति॥४०॥
इत्थं प्रौढप्रकाशात्मना विश्वरूपं दर्शयन्तं देवा द्रष्टुमशक्ताः सन्तः तं ध्यायन्ति चतुस्त्रिंशन्मन्त्रैः स्तुवन्ति चेत्याह—स्वेनेति। देवा यैर्मन्त्रै रुद्रं स्तुवन्ति तान् मन्त्रानुदाहरति— ओमित्यादिना। ओमादौ मध्ये भूर्भुवः सुवरन्ते शीर्षञ्जनदों विश्वरूपोऽसि इति यथा प्रथममन्त्रोक्तादिमध्यान्तविन्यासः सर्वमन्त्रेषु समान इति वेदितव्यः। एतैर्मन्त्रैः स्तुतो रुद्रः प्रीतो भूत्वा देवानां स्वात्मानं दर्शयतीत्यर्थः॥६—
३९॥ श्रीरुद्रदर्शनेन सन्तुष्टा देवाः पुनस्तमेव स्तुवन्तीत्याह—ब्रह्मेकस्त्वमिति। त्वमेव ब्रह्म एकद्वित्रिसङ्ख्यावाच्यमपि त्वमेव ऊर्ध्वमधश्च त्वमेव स्वाविद्याद्वयतत्कार्यशान्तिरपि त्वमेव पुष्टिः बलं तुष्टिः आनन्दः त्वमेव हुतं होमः अहुतं तद्विपरीतं विश्वं आरोपः अविश्वं अपवादः दानं दत्तं तद्विपरीतं अदत्तं कृतमकृतं सकामनिष्कामकर्म परं कारणं अपरं कार्यंस्वांशजप्राणिपटलपरायणं परिसमाप्तिस्थानमपि त्वमेवेति सर्वत्रानुषज्यते॥४०॥
रुद्रं प्रति देवानां प्रार्थना
अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्।
किं नूनमस्मान् कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य॥४१॥
सर्वजगद्धितं वा एतदक्षरं प्राजापत्यं सूक्ष्मं सौम्यं पुरुषमग्राह्यमग्राह्येण वायुं वायव्येन सोमं सौम्येन ग्रसति स्वेन तेजसा तस्मा26 उपसंहर्त्रे महाग्रासाय वै नमो नमः॥४२॥
हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।
हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः॥४३॥
** तस्योत्तरतः शिरो दक्षिणतः पादो य उत्तरतः स ओङ्कारो य ओङ्कारः स प्रणवो यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तत् सूक्ष्मं यत् सूक्ष्मं तच्छुक्लं यच्छुक्लंतद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत् परं ब्रह्मेति स एकः स एको रुद्रः स ईशानः स भगवान् स महेश्वरः स महादेवः॥४४॥**
विधाऽन्तरेण देवास्तमेव प्रार्थयन्तीत्याह—अपामेति। हे अमृत रुद्र त्वत्प्रसादात् वयं सोमं अपाम पिबेम। एवं सोमादियागं कृत्वा अमृता अमरणधर्माणो देवा अभूम भवेम। यद्वा—स्वकृतयागादिफलं त्वय्येव समर्प्य ततस्त्वत्प्रसादसञ्जातचित्तशुद्धिप्राप्यज्ञानद्वारा तावकं ज्योतिः अहमेवास्मीति अगन्म गच्छामः। किंच त्वद्भावसंसिद्धज्ञानेन स्वाभेदेन द्योतमानान् देवान्विराडादीन् ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् वा अहमेवेदं सर्वं इति अविदाम स्वात्मतया पश्यामः। एवं त्वद्दत्ताभयान् अस्मान अरातिः कामाद्यरिषडुर्गः स्वाज्ञानं वा किं कृणवत् किं वा कुर्यात् न किमपीत्यर्थः। नूनं निश्चयम्। एवं स्वाज्ञानारातेरस्मच्चालनसामर्थ्याभावे मर्त्यस्य मरणधर्मविशिष्टस्य मम धूर्तिः दुष्कृतिः चालनं किमु कृणवत् दुष्कृतेरपि त्वत्प्रसादलब्धज्ञानसमकालं ब्रह्मरूपत्वात्, “पुण्यं पापं च चिन्मात्रं” इति श्रुतेः॥४१॥ ध्यानस्तवनलब्धरुद्रप्रसादा देवाः सर्वग्रासरुद्राय नमस्कुर्वन्तीत्याह—सर्वेति। यत् सर्वेषां जगतामन्तर्याम्याधाररूपेण हितं करोतीति सर्वजगद्धितम्। वाशब्दोऽवधारणार्थः। यत् एतत् रुद्राख्यं अक्षरं यत्प्राजापत्यं प्रजापतिभिः स्तुत्यत्वात् यन्निरतिशयसूक्ष्मं यत्स्वानन्यभक्तपटलसौम्यं यत् पूर्णभावेन पुरुषारव्यं यत् अग्राह्येण निर्विशेषरूपेण सर्वप्रमाणाग्राह्यमव्यक्तं ग्रसति वायव्येन सूत्ररूपेण वायुं आध्यात्मिकं ग्रसति, यत् सौम्येन रूपेण सोमं अमृतं ग्रसति, यत् स्वेन तेजसा स्वातिरिक्त-
स्वाज्ञानध्वान्तं ग्रसति तस्मै सर्वोपसंहर्त्रे स्वावशेषतया सर्वग्रासाय श्रीरुद्राय परमात्मने वै नमो नमः सर्वग्रासरुद्रोऽस्मीत्यैक्यानुसंधानं कुर्म इत्यर्थः, “नमस्त्वैक्यं प्रवदेत्” इति श्रुतेः॥४२॥ पुनः प्रकारान्तरेण देवाः स्वहृदि स्वात्मानं रुद्रं ध्यायन्तस्तत्स्वरूपेयत्तां वर्णयन्तीत्याह—हृदिस्था इति। हृञ्हरणे इति धातोः स्वाज्ञानहारिणि हृदि प्रतीचि सर्वाधारे रज्जुसर्पवत्तिष्ठन्तीति हृदिस्था देवताः सर्वाः इन्द्रादयः। तथा हृदि पञ्चवृत्तिसहितवागादिप्राणाश्च प्रतिष्ठिताः। यस्त्वं अकारादितिस्रो मात्रा या वर्तन्ते तासां परः, तुशब्दोऽवधारणार्थः। अकारादिमात्रातदध्यक्षविश्वविराडोत्रादेरपि पर एव भूत्वा हृदि विलसितवृत्तिसहस्रभावाभावप्रकाशकप्रत्यगभिन्नपरमात्मा त्वमसि स त्वं सर्वविलक्षणश्चासि॥४३॥तस्य हृदयस्योत्तरतः शिरः मकारः तदध्यक्षप्राज्ञादिश्च वर्तते,
शिरोवाची मकारः स्यादकारः पादवाचकः।
उकारो मध्यदेहः स्यात् तदात्मा तुर्य उच्यते॥
इति स्मृतेः। तथा दक्षिणतः पादः अकारः तदध्यक्षः प्रतिष्ठितः। य उत्तरतो मकारः विराजते स एवोङ्कारः मकारादेरोङ्कारावयवत्वात्॥४४॥
ओङ्कारशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यत ओङ्कारो यस्मादुच्चार्यमाण एव सर्वं शरीरमूर्ध्वमुन्नामयति तस्मादुच्यत ओङ्कारः॥४५॥
य ओङ्कारः स प्रणवः इत्यादिमन्त्रार्थस्तिरोहित इति मत्वा तदर्थजातं तद्ब्राह्मणमुखेन श्रुतिर्व्याकरोति—अथेति। आदौ प्रश्नोत्तररूपेण ओङ्कारस्वरूपं व्युत्पादयति—कस्मादिति। सर्वत्र अथशब्दः प्रश्नार्थः कस्मात् ओङ्कार इत्युच्यते। यस्मादुच्चार्यमाण एव यतः ओङ्कारोच्चारणादेव सर्वं शरीरं ऊर्ध्वमुन्नामयतीव भाति ओङ्कार इति तस्मादुच्यते॥४५॥
प्रणवशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते प्रणवो यस्मादुच्चार्यमाण एव ऋग्यजुस्सामाथर्वाङ्गिरसश्च यज्ञे ब्रह्म च ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति तस्मादुच्यते प्रणवः॥४६॥
य ओङ्कारः स प्रणव इति प्रणवशब्दार्थमाह—
अथेति। अथेत्यादि यस्मादुच्चार्यमाण एवेत्यन्तं सर्वत्र समानम्। यज्ञे ऋगादिवेदचतुष्टयं ब्रह्म, चशब्दः सर्वर्त्विगुपलक्षणार्थः, ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति, वेदर्त्विङ्निर्वर्त्ययज्ञस्य निष्कामधियाऽनुष्ठितस्य चित्तशुद्धिप्राप्यज्ञानद्वारा ब्राह्मण्युपदप्रणामहेतुत्वात्। ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति इत्युक्त्या ब्राह्मणेतराणां वेदतदर्थग्रहणधारणाधिकाराभावो द्योत्यते। तस्मादुच्यते प्रणवः॥४६॥
सर्वव्यापिशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते सर्वव्यापी यस्मादुच्चार्यमाण एव सर्वान्लोकान् व्याप्नोति स्नेहो यथा पललपिण्डं शान्तमूलमोतं प्रोतमनुप्राप्य व्यतिषिक्तस्तस्मादुच्यते सर्वव्यापी॥४७॥
सर्वव्यापिशब्दार्थमाह—
अथेति। यथा स्नेहो वसादिविकारः शान्तमूलं मूलतः पृथक्कृतं पललपिण्डं ओतं प्रोतमनुप्राप्य व्यतिषिक्तः तत्समग्रं व्याप्य वर्तते तथाऽयमात्मा स्वेन रूपेण सर्वान् लोकान् व्याप्नोतीत्यर्थः॥४७॥
अनन्तशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते अनन्तो यस्मादुच्चार्यमाण एवाद्यन्तं नोपलभ्यते तिर्यगूर्ध्वमधस्तात्तस्मादुच्यते अनन्तः॥४८॥
अनन्तशब्दार्थमाह—अथेति। स्वाविद्यापदतत्कार्यजातस्याद्यन्तवत्त्वेऽपि तदारोपापवादाधिकरणस्यात्मनस्तत्तिर्यगूर्ध्वमधस्तादाद्यन्तं नोपलभ्यते, तस्य त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वादनन्तत्वं निरङ्कुशमित्यर्थः॥४८॥
तारशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते तारं यस्मादुच्चार्यमाण एव गर्भजन्मजरामरणसंसारमहाभयात् संतारयति तस्मादुच्यते तारम्॥४९॥
तारशब्दार्थमाह—
अथेति। यद्ब्रह्माहमस्मीति स्मृतिमात्रतः स्वाज्ञविकल्पितजन्मादिसंसृतिसंतारणात् तारकत्वम्॥४९॥
सूक्ष्मशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते सूक्ष्मं यस्मादुच्चार्यमाण एव सूक्ष्मो भूत्वा परशरीराण्येवाधितिष्ठति तस्मादुच्यते सूक्ष्मम्॥५०॥
सूक्ष्मशब्दार्थमाह-—अथेति। यत्प्रत्यग्रूपेण वालाग्रशतैकभागादपि सूक्ष्मो भूत्वा विश्वविश्वादिरूपतः परशरीराण्येव अधितिष्ठति तद्वस्तुतः स्थूलसूक्ष्मादिकलनाविरलमित्यर्थः॥५०॥
शुक्रशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते शुक्लं यस्मादुच्चार्यमाण एव क्लन्दते क्लामयते27 तस्मादुच्यते शुक्लम्॥५१॥
शुक्रशब्दार्थमाह—अथेति। यत् स्वेनैव रूपेण क्रुन्दते प्रकाशते स्वातिरिक्तं क्लामयते प्रकाशयति तदेव शुक्लमुच्यते, “शुलतेजोमयं ब्रह्म” इति श्रुतेः॥५१॥
वैद्युतशब्दार्थः
** अथ कस्मादुच्यते वैद्युतं यस्मादुच्चार्यमाण एवातिमहति तमसि सर्वंशरीरं विद्योतयति तस्मादुच्यते वैद्युतम्॥१२॥**
वैद्युतशब्दार्थमाह—अथेति। यदात्मतत्त्वं स्वाज्ञदृष्ट्या अतिमहति तमसि गाढस्वाज्ञानध्वान्ते सर्वं शरीरोपलक्षितस्वाविद्यापदं स्वज्ञदृष्ट्या नेति नेति इति विद्योतयति तत् वैद्युतम्॥५२॥
परंब्रह्मशब्दार्थः
** अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म यस्मादुच्चार्यमाण एव बृहति बृंहयति तस्मादुच्यते परंब्रह्म॥५३॥**
** **परंब्रह्मशब्दार्थमाह—अथेति। स्वातिरिक्तं ग्रसित्वा स्वयमेव सर्वोत्कर्षेण वर्तत इति परं तद्रूपेणोपबृंहणात् परंब्रह्म॥५३॥
एक शब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यत एको यः सर्वान् लोकानुद्गृह्णात्यजस्रं सृजति विसृजति वासयति तस्मादुच्यत एकः॥५४॥
एकशब्दार्थमाह—अथेति। यः परमेश्वरः स्वविकल्पितसर्वान् लोकान्अहमेवेदं सर्वंइति स्वावशेषतया उद्गृह्णाति उपसंहरति, अजस्रमिति सर्वत्र संबध्यते, अजस्रं सृजति सूक्ष्मरूपेण पुनः स्थूलरूपेण विसृजति एवमपञ्चीकृतपञ्चीकृतभूतसृष्टिं कृत्वा स्वस्मिन् आधारभूते अजस्रं वासयति स्थितिं करोतीत्यर्थः॥५४॥
एको रुद्रशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यत एको रुद्रः—
एक एव रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः
इमान् लोकानीशत ईशनीयुर्जननीयुः।
प्रत्यञ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले
संसृज्य विश्वा भुवनानि गोप्ता॥
तस्मादुच्यत एको रुद्रः॥९९॥
एकोरुद्रशब्दार्थमाह—अथेति। स्वातिरिक्तरुग्द्रावको रुद्र एक एव तस्य निष्प्रतियोगिकत्वेनाद्वैतरूपत्वात्। तदतिरिक्तस्वाविद्यापदतत्कार्याणि न कदाचिदपि द्वितीयाय तस्थुः स्थितवन्तः तेषामाविद्यकत्वेन कारणतुल्यत्वात्। यः पुनः मूलाबीजांशयोगतः ईश्वरत्वमवलम्ब्य स्वविकल्पितेमान् लोकान्स्वस्वोचितव्यापृतौ ईशते ईष्टे, वचनव्यत्ययश्छान्दसः, नियमयति, य एते लोका ईशेन जननीयुः सृज्यमाना सृष्टा वा भवेयुः, य एवं सृष्टास्त एव ईशनीयुः स्वोचितकर्मणि नियुज्यमाना भवेयुः सोऽयमीश्वरः प्रत्यञ्जनाः ‘प्रतिजनाः तेषां हृदये सूत्रान्तर्यामिप्रत्यग्रूपेण तिष्ठति सृष्टिकाले चतुराननात्मना विश्वा विश्वानि संसृज्य सृष्ट्रा पुनः स्थितिकाले स्वस्मिन् भवन्तीति भुवनानि विष्ण्वात्मना गोप्ता रक्षिता पुनः अन्तकाले कालाग्निरुद्रात्मना संकोच उपसंहृत्य स्वयं एक एवावशिष्यत इत्यर्थः॥५५॥
ईशानशब्दार्थः
** अथ कस्मादुच्यत ईशानो यः सर्वान् लोकानीशत ईशनीभिः जननीभिः परमशक्तिभिः॥५६॥**
** अभि त्वा शूर नुमोदुग्धा इव धेनवः। ईशानमस्य जगतः सुवर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुषः॥ तस्मादुच्यत ईशानः॥५७॥**
ईशानशब्दार्थमाह—अथेति। यः सर्वान् लोकान् ईशते ईष्टे नियमयति। काभिर्नियमयतीत्यत्र ईशनीभिः अजडक्रियाशक्तिवृत्तिभिः, तथा
जननीभिः अजडज्ञानशक्तिवृत्तिभिः तथा परमशक्तिभिः अजडेच्छाशक्तिवृत्तिभिश्च य इमान् लोकानीशते॥५६॥स्वाज्ञानासहनात् हे शूर तं त्वां वयं अभितो नुमः यथा धेनुस्वामी स्वकीयतया अभिमता अदुग्धा अपि धेनवो धेनूः नोपेक्ष्य पालयति, द्वितीयार्थे प्रथमा, तथा नोऽस्मान् भवदाराधनं कर्तुमशक्तान् मत्वा केवलकरुणया परिपालय त्वत्पदपात्रीभूतान् कुर्वित्यर्थः। हे इन्द्र परमेश्वर अस्य जगतः जङ्गमस्य स्वस्वकर्मनियन्तृत्वात् ईशानं तस्थुषः स्थावरस्यापि वृद्ध्यादिविक्रियानियमनात् ईशानं सुवर्लोकोपलक्षितसर्वलोकदृशं द्रष्टारं निरङ्कुशसर्वज्ञं त्वां अभितो नुमः इति पूर्वेणान्वयः॥५७॥
भगवच्छब्दार्थः
** अथ कस्मादुच्यते भगवान् यः सर्वान् भावान्निरीक्षित्यात्मज्ञानं निरीक्षयति योगं गमयति तस्मादुच्यते भगवान्॥५८॥**
भगवच्छब्दार्थमाह—अथेति। यः सर्वान् स्वांशजसर्वान् भावान्जीवान् मत्स्वरूपमेव सर्वं मदतिरिक्तं नेतीति निरीक्षित्य पुनस्तेषामपि परमेश्वरोऽस्मीति आत्मज्ञानं निरीक्षयति प्रत्यक्परचितोः योगं ऐक्यज्ञानं गमयति प्रापयति स भगवानित्यर्थः॥५८॥
महेश्वरशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते महेश्वरो यः सर्वान् लोकान् संभक्षः संभक्षयत्यजस्रंसृजति विसृजति वासयति तस्मादुच्यते महेश्वरः॥५९॥
महेश्वरशब्दार्थसाह—अथेति। यः स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितसर्वलोकान्अजस्रं स्वदृष्ट्या संभक्षः उपसंहर्ता सन् संभक्षयति स्वात्ममात्रावशिष्टान् करोति अजस्रं सृजति विसृजति वासयतीत्युक्तार्थम्। एवं यः स्वमात्रमवशिष्यते स एव महेश्वर इत्यर्थः॥५९॥
महादेवशब्दार्थः
अथ कस्मादुच्यते महादेवो यः सर्वान् भावान् परित्यज्यात्मज्ञानयोगैश्वर्ये महति महीयते तस्मादुच्यते महादेवः॥६०॥
महादेवशब्दार्थमाह—अथेति। यः सर्वान् स्वातिरिक्तभावान् परित्यज्य मिथ्यात्वेन निरस्य स्वात्मज्ञानयोगैश्वर्ये स्वे महिम्नि महति महीयते सोऽयं महादेवः परमात्मेत्यर्थः॥६०॥
रुद्रस्य व्यापकत्वम्
तदेतद्रुद्रचरितं—
एषो हि देवः प्रदिशो नु सर्वाः
पूर्वो हि जातः स उ गर्भे अन्तः।
स विजायमानः स जनिष्यमाणः
प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति विश्वतोमुखः॥६१॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो
विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।
सं बाहुभ्यां धमति संपतत्रै-
र्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः॥६२॥
एवं रुद्रप्रशंसां कृत्वा तस्य व्यापकतामाह—तदेतदिति। देवा ह वा इत्यारभ्य यदेतदुक्तं तदेतत् श्रीरुद्रचरितम्। यः प्रणवादिमहादेवान्तशब्दैरभिहितः एष देवो हि स्वयंप्रकाशचिद्धातुर्निष्प्रतियोगिकचिन्मात्ररूपोऽपि त्वाज्ञादिदृष्टिमाश्रित्य आग्नेयपूर्वादिसर्वाः प्रदिशो दिशोऽनुगतो विराट्-हिरण्यगर्भरूपेण सर्वस्मात् पूर्वो हि जातः, “हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे” इति श्रुतेः।
स उ स एव प्राणिनां अन्तः गर्भे वर्तते। स एव मनुष्यादिरूपेण जायमानो जनिष्यमाणश्च प्रत्यञ्जनाः प्रतिप्राणिनः तेषां हृदये अन्तर्याम्यात्मना तिष्ठति युगपत् विश्वतोमुखः स्वाविद्यापदप्रविभक्तानन्तकोटिब्रह्माण्डालङ्कारप्राणिपटलरूपेण॥६१॥ विश्वतः सर्वतः चक्षुरुतापि विश्वतोमुखः तथा विश्वतोबाहुःउत विश्वतस्पात्। चक्षुरादिग्रहणमनुक्तावयवकरणग्रामोपलक्षणार्थम्। सं बाहुभ्यां धमति स्वसृष्टप्राणिजातं बाहुभ्यां संयोजयति यस्त्वेक एव सन् द्यौश्चभूमिश्च द्यावाभूमी तदुपलक्षितानन्तकोटिब्रह्माण्डानि संसारपतनत्राणनशक्तैः संपतत्रैः जीवैश्च सह जनयन्उत्पादयन्नास्ते सोऽयं परमार्थदृष्ट्या एक एवावशिष्यते। स्वस्य निष्प्रतियोगिकाद्वैतरूपत्वादेकत्वं निरङ्कुशमित्यर्थः॥६२॥
एवमुपासनायाः फलम्
तदेतदुपासितव्यं यद्वाचो
वदन्ति तदेव ग्राह्यम्।
अयं पन्था वितत उत्तरेण येन देवा येन ऋषयो येन पितरः प्राप्नुवन्ति परमपरं परायणं च॥६३॥
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये
विश्वं देवं जातवेदं वरेण्यम्।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा-
स्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्॥६४॥
यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको
येनेदं पूर्णं पञ्चविधं च सर्वम्।
तमीशानं पुरुषं देवमीड्यं
निदिध्यात्तारं28 शान्तिमत्यन्तमेति॥६५॥
एवमुपासनां तत्फलं चाह—तदिति। यत् सर्वापह्नवसिद्धं ब्रह्म स्वमात्रमिति ‘“सन्मात्रमसदन्यत्”, “ब्रह्ममात्रमसन्न हि” इत्यादिसर्ववेदान्तवाचोऽभिवदन्ति तदेतत् ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति उपासितव्यम्। कैवल्येच्छुभिरात्मत्वेन तदेव हि ग्राह्यम्। अयं पन्थाः मार्गोविततः, इतोऽतिरिक्तमार्गस्य कुपथत्वात्, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय” इति श्रुतेः। येन देवर्षिपितरः प्राप्नुवन्ति—किं तत्?परं परं ब्रह्म अपरं अपरं ब्रह्म उत्तरेण पथा परायणं चेति। के तत् प्राप्नुवन्ति ! ज्ञानकर्मसमुच्चयानुष्ठातारः ऊर्ध्वरेतसश्च, दक्षिणमार्गापेक्षया सोऽपि वितत इत्यर्थः॥६३॥ प्राप्यस्वरूपं तज्ज्ञानाज्ञानफलं चाह—वालाग्रमात्रमिति। स्वांराजप्राणिपटलहृदयस्य मध्ये वालाप्रमात्रं ततोऽपि सूक्ष्मम्। सर्वप्राण्यात्मतया विश्वसनीयत्वात् विश्वं देवं स्वप्रकाशं यतो ऋगादिचतुर्वेदा जातास्तं जातवेदं सर्वज्ञकल्पं, वरेण्यं सर्वैरपि वरणीयम्। एवं यो वर्तते तमात्मस्थं प्रत्यञ्चं पराग्भावसापेक्षप्रत्यग्भावापायसिद्धं परमात्मानं निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति येऽनुपश्यन्ति धीराः ब्रह्मविद्वरीयांसः तेषां शाश्वती शान्तिः विकलेबरमुक्तिः नेतरेषां स्वाज्ञानामित्यर्थः॥६४॥ उक्तार्थस्यातिसूक्ष्मतया पुनर्भङ्ग्यन्तरेण तदेव विशदयति—यो योनिमिति। यः परमात्मा कालत्रयेऽप्येकरूपोऽपि स्वाविद्याद्वयतत्कार्यप्रविभक्तयोनिं योनिं प्रतियोनिं विश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तवपुषा अधितिष्ठति वा अधितिष्ठति येनेदं परिदृश्यमानं पश्च विधं वियदादिपञ्चभूतभौतिकजातं सर्वं च पञ्चब्रह्मात्मनाऽपि पूर्णम्। तमीशानं स्वातिरिक्ताविद्याद्वयतत्कार्यपञ्चभूतभौतिकं ग्रसित्वा निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रतयाऽवस्थातुमीश्वरं पुरुषं स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्ताविद्यापदपूरणात् देवं स्वयंप्रकाशचिद्धातुं ब्रह्मादिभिरपि स्वात्मतया ईड्यं स्वाज्ञपटलसन्तारं यो मुनिः अहं ब्रह्मास्मि इति निदिध्यात् निदिध्यासनं ध्यानं कुर्यात् स मुनिः अत्यन्तं निरुपचरितं स्वा[न]तिरिक्तशान्ति विदेहकैवल्यं एति॥
तृष्णावतां शान्त्युपायः
प्राणेष्वन्तर्मनसो लिङ्गमाहु-
र्यस्मिन् क्रोधो या च तृष्णाऽक्षमा च।
तृष्णां छित्त्वा हेतुजालस्य मूलं
बुद्ध्या सञ्चिन्त्य स्थापयित्वा तु रुद्र रुद्र एकत्वमाहुः॥
तृष्णाबद्धानां ब्रह्मैक्यरूपिणी शान्तिः कथं भवतीत्यत आह—प्राणेष्विति। प्राणेषु ब्रह्मपिपीलिकान्तप्राणिषु अन्तः हृदये यस्मिन् स्वेप्सितकामापूरणसंजातः क्रोधश्च याऽप्राप्तविषयकतृष्णा च परश्रेयोदर्शनाक्षमा चवर्तते तत्र तन्मनसो लिङ्गं तत्त्वविद् आहुः। तत्र मनसो लिङ्गे संसृतिहेतुजालं स्वाविद्याद्वयतत्कार्यजातं तस्यापि मूलं हेतुभूतां तृष्णां मायां ब्रह्ममात्रज्ञानखड्गेन छित्त्वा अपह्नवं कृत्वा रुद्रे प्रतीचि स्वे महिम्नि तदपह्नवसिद्धमात्मानं बुद्धया संचिन्त्य स्थापयित्वा यत्तन्मात्रतयाऽवस्थितत्वं तत् रुद्र एकत्वमाहुः; “परेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति” इति श्रुत्यनुरोधेन सर्वंप्रत्यक्परविभागैक्यप्रभवसविशेषत्वरुजद्रावके रुद्रे स्वाज्ञविकल्पितं सर्वं स्वज्ञादिदृष्ट्या तन्मात्रपर्यवसन्नं ब्रह्मविदः आहुः कथयन्तीत्यर्थः॥६६॥
महापाशुवतव्रतम्
रुद्रं शाश्वतं वै पुराणमिषमूर्जं तपसा नियच्छत। व्रतमेतत्पाशुपतम्। अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्वंह वा इदं भस्म मन इत्येतानि चक्षूंषि भस्मान्यग्निरित्यादिना भस्म गृहीत्वा विमृज्याङ्गानि संस्पृशेत्तस्माद्भूतमेतत् पाशुपतम्॥६७॥
केवलस्वातिरिक्तास्तित्वपाशबद्धानां पशूनां कथं तद्विपरीतपशुपतियाथात्म्यरूपावस्थानलक्षणकैवल्यसिद्धिः स्यादित्याशङ्क्यतत्प्रापकोपायतया महापाशुपतव्रत्तमुपदिशति रुद्रमिति। हे स्वाज्ञलोकाः यूयं रुद्रं शाश्वतं वै पुराणं, तदतिरिक्तस्याशाश्वताज्ञानविकल्पितत्वेनेदानींतनत्वात् तदेव शाश्वतं पुराणं,
इषं इच्छाविषयं ऊर्जंअन्नं च रुद्राख्यं ब्रह्मैव तदतिरेकेण न किंचिदस्ति, तद्रुद्राख्यं ब्रह्माहमस्मीति तपसा विचारेण मनो नियच्छत नियमनं कुरुत। मुमुक्षुणैवं कर्तव्यमिति यत् तदेद्व्रततं पाशुपतं, पशुपतियाथात्म्यप्रापकत्वात्। तदतिरेकेण अग्न्यादिपञ्चभूत-मनआदिभौतिकजातसत्त्वात् कथं पशुपतियाथात्म्यसिद्धिरित्याशङ्क्य, अग्न्यादिपञ्चमहाभूतानि मनआदिभौतिकानि तद्धेत्वव्यक्तं च ब्रह्ममात्रज्ञानाग्निना भस्म कृत्वा तद्भस्म अग्निरित्यादिमनुना गृहीत्वा स्वमात्रज्ञानतोयेन विमृज्य स्वाज्ञदृष्टिविकल्पिताङ्गानि विसृजेत् तेन पशुपतियाथात्म्यलक्षणकैवल्यं स्यादित्याह—अग्निरितिभस्मेत्यादिना॥६७॥
ग्रन्थपठनतदर्थज्ञानफलम्
पशुपाशविमोक्षाय योऽथर्वशिरसं ब्राह्मणोऽधीते सोऽग्निपूतो भवति स वायुपूतो भवति स आदित्यपूतो भवति स सोमपूतो भवति स सत्यपूतो भवति स सर्वपूतो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति स सर्वेषु वेदेष्वधीतो भवति स सर्ववेदव्रतचर्यासु चरितो भवति स सर्वैर्देवैर्ज्ञातो भवति स सर्वयज्ञक्रतुभिरिष्टवान् भवति। तेनेतिहासपुराणानां रुद्राणां शतसहस्राणि जप्तानि भवन्ति। गायत्र्याः शतसहस्रं जप्तं भवति। प्रणवानामयुतं जप्तं भवति। रूपे रूपे दश पूर्वान् पुनाति दशोत्तरानाचक्षुषः पङ्क्ति पुनातीत्याह भगवानथर्वशिरोऽथर्वशिरः। सकृज्जप्त्वाशुचिः पूतः कर्मण्यो भवति द्वितीयं जप्त्वा गाणपत्यमवाप्नोति तृतीयं जप्त्वा देवमेवा29नुप्रविशत्यों सत्यम्॥६८॥
एवं भावयितुमशक्तस्यापि पशुपाशविमोचनोपायग्रन्थपठनतदर्थज्ञानफलं चाह—पश्विति। यः पशुपाशविमोचनार्थी ब्राह्मणोऽथर्वशिरसं उपनिषदं
अधीते तदर्थज्ञानं विनाऽपि ग्रन्थतः पठति सोऽयं मुमुक्षुरग्निवाय्वादित्यसोमसत्यवत् पूतः पवित्रो भवति। स सार्धत्रिकोटिमहातीर्थस्नातो भवति इत्यादि शिष्टं स्पष्टम्। प्रथमवारजपतः सर्वकर्मकृत्। द्वितीयवारजपस्तु गाणापत्यप्रापकः। केवलपाठतोऽर्थतो वा तृयीयवारजपस्तु तत्सायुज्यस्य कैवल्यस्यं वा प्रापको भवति। यदाहाथर्वशिरो भगवान् तदेतत् ओं सत्यं, न हि तत्र संशयोऽस्तीत्यर्थः॥६८॥
रुद्रैक्यप्रार्थना
** यो रुद्रो अग्नौ यो अप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुधः आविवेश। य इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥६९॥**
उक्तविशेषणविशिष्टरुद्रैक्यं प्रार्थयतीत्याह—
य इति। यो रुद्रः परमात्मेति प्रकटितः सोऽयं स्वाज्ञदृष्टिविकल्पिताग्न्यादिपञ्चभूतेष्वन्तर्याम्यात्मना—
ओषधीवीरुद्ग्रहणं भौतिकजातोपलक्षणार्थम्—भूतभौतिकजातं आविवेशेत्यर्थः “यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्नेष त आत्माऽन्तर्यामी” इति श्रुतेः। योऽयं रुद्रः हिरण्यगर्भात्मना इमा इमानि विश्वा विश्वानि अनन्तकोटिब्रह्माण्डानि प्रत्यण्डं भवन्तीति चतुर्दश भुवनानि चक्लृपे निर्मितवान् तस्मै एतत्सूत्रान्तर्याम्यादिकलनारुद्रावकरुद्राय प्रत्यगभिन्नपरमात्मने नमोऽस्तु रुद्रात्मात्मनोरैक्यमस्त्वित्यर्थः॥६९॥
श्रीविद्यामोक्षप्रार्थना
अस्य30 मूर्धानमस्य संशीर्योऽथर्वा31 हृदयं च मन्मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयन् पवमानोऽथ शीर्ष्णस्तद्वाऽथर्वशिरो देवकोशः समुज्झितः तत्प्राणोऽभिरक्षतु नियमन्नमथो मनःश्रियमन्नमथो मनो विद्यामन्नमथो मनो विद्यामन्नमथो मनो मोक्षमन्नमथो मनो मोक्षमन्नमथो मन इत्यों सत्यमित्युपनिषत्॥७०॥
स्वस्वभावानुरोधेन श्रियं विद्यां मोक्षं च देहीति प्रार्थयति—अस्येति। योऽथर्वा अथर्ववेदशिरः अस्य ब्रह्माण्डस्य अस्य पिण्डाण्डस्य च मूर्धानं समष्टिव्यष्टितुरीययोरैक्यं संशीः शंसितवान् “रुद्र एकत्वमाहुः” “तस्मै रुद्राय नमो अस्तु” इत्यादिना प्रतिपादितवानित्यर्थः। शंसीरित्यर्थेसंशीरिति वर्णव्यत्ययश्छान्दसः। मूर्ध्नस्तुर्याधिष्ठितत्वात्, “तुरीयं मूर्ध्नि संस्थितं” इति श्रुतेः। सर्वपावनहेतुत्वात् सोऽयं पवमानः परमेश्वरः हृदयं हृदयोपलक्षितान्तःकरणसहितप्राणं अथ प्रारब्धकर्मक्षयानन्तरं शीर्ष्णॊमस्तकात् तत्रत्यमन्मस्तिष्कात्सहस्रारमध्यगब्रह्मनाड्यन्तर्गतमेदोविकारात् ऊर्ध्वं प्रेरयन् तद्वा तत्रैव सहस्रारविलसितस्य देवस्य स्वप्रकाशचिद्धातोः तुर्यस्य स्वावृतिरूपः कोशः समुज्झितः विगलितः विशीर्णः इत्यर्थः। ततः तत्प्राणः तत्रत्यप्राणः परमेश्वरः निर्विकल्पकसमाधिपरवशं मत्कलेबरं अभिरक्षतु मशकाद्युपद्रवतः परिपालयतु। यावन्मद्विकल्पितकलेवरं भुवि तिष्ठति तावत् श्रियं इहलोकोपयोगिनानाविधसंपदं मद्देहधारणोपयोगि अन्नं अथो ब्रह्मविषयकं मनश्च प्राणः परमेश्वरो विदधातु इत्यध्याहार्यम्। यावद्देहधारणं तावत् स्वाविद्याद्वयतत्कार्यापह्नवसिद्धनिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रगोचरविद्यां अन्नं अथो मन इत्युक्तार्थम्। स्वकलेबरे सत्यसति स्वातिरिक्तमस्ति नास्तीति विभ्रममोक्षं विकलेबरकैवल्यं मामनिच्छन्तमपि वृणोतु। पर्यायत्रयेऽप्यावृत्तिरादरार्था। अस्यामुपनिषदि यद्यदुक्तं तत्सर्वं ॐ सत्यं सन्मात्रं “पश्यतेहापि सन्मात्रमसदन्यत्” इति स्वातिरिक्तासत्प्रपञ्चापह्नवसिद्धनिष्प्रतियोगिकसन्मात्रावशेषतावादिश्रुतेः। इत्युपनिषच्छब्दः प्रकृतोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥७०॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
लिखितं स्याद्विवरणमथर्वशिरसः स्फुटम्।
अथर्वशिरसो व्याख्या षष्ट्यधित्रिशतं स्मृता॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे द्वाविंशतिसङ्ख्यापूरकं
अथर्वशिरआख्योपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
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कालाग्निरुद्रोपनिषत्
सह नाववतु—इति शान्तिः
कालाग्निरुद्रोपनिषन्मन्त्रस्य ऋष्यादि
अथ कालाग्निरुद्रोपनिषत्32 संवर्तकोऽग्निऋषिरनुष्टुप् छन्दः श्रीकालाग्निरुद्रो देवता श्रीकालाग्निरुद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥१॥
ब्रह्मज्ञानोपायतया यद्विभूतिः प्रकीर्तिता।
तमहं कालाग्निरुद्रं भजतां स्वात्मदं भजे॥
इह खलु कृष्णयजुर्वेदप्रविभक्तेयं कालाग्निरुद्रोपनिषत् ब्रह्मज्ञानसाधनभस्मधारणविधिपरा। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। उपोद्घातादि पूर्ववत्। सनत्कुमारकालाग्निरुद्रप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका वक्ष्यमाणविद्यास्तुत्यर्था। जपार्थेयमुपनिषत्, अस्याः ऋषिच्छन्दोदेवताऽऽदिकीर्तनात्। एवमियमुपनिषत्प्रवृत्तेत्याह—अथेति। विद्योपक्रमार्थ अथशब्दः। स्वाज्ञानतत्कार्यं कालयति नाशयति निःशेषं भस्मीकरोतीति कालाग्निः परमेश्वरः तस्य स्वाज्ञानप्रभवसंसृतिरुग्द्रावकत्वात् स एव रुद्रः तत्पदमुपगमयतीति उपनिषत्। कालाग्निरुद्रविद्याप्रकाशकोऽयं महामन्त्रः। तस्य संवर्तकोऽग्निः स्वाविद्याऽण्डभस्मीकरणपटुः
प्रलयकालसूर्य एव ऋषिः। अनुष्टुप्छन्दः कालाग्निरुद्रो देवता, स्पष्टम्। जपविनियोगस्तु कालाग्निरुद्रप्रीतिकरः। अनेन जपेन प्रीतो भगवान् स्वमन्त्रजापिनां स्वाज्ञानं मोचयित्वा स्वज्ञानप्रदानेन स्वमात्रपदं प्रयच्छतीत्यर्थः॥१॥
त्रिपुण्ड्रविधिजिज्ञासा
अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रच्छ अधीहि भगवंस्त्रिपुण्ड्रविधिं सतत्त्वं किं द्रव्यं कियत् स्थानं कति प्रमाणं का रेखाः के मन्त्राः का शक्तिः किं दैवतं कः कर्ता किं फलमिति च॥२॥
आख्यायिकामवतारयति—अथेति। सनत्कुमारो नाम ब्रह्ममानसपुत्रो जातमात्रेण परमार्थतत्त्ववित् स्वयं कृतकृत्योऽपि स्वाज्ञलोकमवलोक्य तमुद्धर्तुमिच्छया अथ स्वाज्ञलोककर्मपरिपाकानन्तरं चिरकालध्यानतः प्रादुर्भूतं कालाग्निरुद्रं भगवन्तं स्वारोपितषड्गुणैश्वर्यसंपत्त्या विराजमानं पप्रच्छ पृष्टवान्। किं तत्? न हि स्वाज्ञलोकः स्वज्ञानोपदेशतः कृतार्थो भवति, तस्य स्वज्ञानाधिकाराभावात्। न ह्यनधिकारिषु सन्तः स्वज्ञानमुपदिशन्ति तेषां चित्तशुद्धिविकलत्वात्। तथात्वेऽपि ज्ञानोपदेशमहिम्ना कृतार्था भवेयुरिति चेन्न ; स्वाज्ञान्प्रति परमार्थोपदेशस्य तदधः प्रापकत्वात् इत्यत्र—
अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वंब्रह्मेति यो वदेत्।
महानरकसाम्राज्ये स तेन विनियोजितः॥
इति श्रुतेः। यत एवमतस्तेषामादौ स्वज्ञानसाधनोपदेशेन विशुद्धसत्त्वं भवति, ततः स्वज्ञानं जायते, ततः कृतकृत्या भवेयुरिति निश्चित्य तत्र स्वज्ञानान्तरङ्गसाधनं त्रिपुण्ड्रमेवेति मनसि निधाय, हे भगवन् कालाग्निरुद्र स्वाज्ञलोकविलसत्स्वाज्ञानग्रासस्वज्ञानान्तरङ्गसाधनं सतत्त्वं स्वतत्त्वज्ञानसहितं त्रिपुण्ड्रविधिमधीहि उपदिश, सप्रकारं प्रतिपादयेति पप्रच्छेत्यर्थः। किं तत्सप्रकारं? इत्यत आह—किं द्रव्यमित्यादि। स्पष्टम्॥२॥
शाम्भवव्रतं नाम त्रिपुण्ड्रविधिः
तं होवाच भगवान् कालाग्निरुद्रः। यद्द्रव्यं तदाग्रेयं भस्म33 सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्याग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म खमिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्मेत्यनेनाभिमन्त्रय मानस्तोके तनय इति समुद्धृत्य मा नो महान्तमिति जलेन संसृज्य त्रियायुषं जमदग्नेरिति शिरोललाटवक्षःस्कन्धेषु त्रियायुषैस्त्र्यम्बकैस्त्रिशक्तिभिस्तिर्यक् तिस्रोरेखाः प्रकुर्वीत व्रतमेतच्छाम्भवं सर्वेषु वेदेषु वेदवादिभिरुक्तं भवति तस्मात् समाचरेन्मुमुक्षुर्न पुनर्भवाय॥३॥
सनत्कुमारेणैवं पृष्टस्तं होवाच भगवान् कालाग्निरुद्रः। तत्र किं द्रव्यमिति प्रश्नोत्तरमाह— यद्द्रव्यमिति। यद्द्रव्यं त्रिपुण्ड्रस्य तत् बृहज्जाबालोपनिषदुक्तविधिना निष्पन्नमाग्नेयं भस्मेति। के मन्त्राः इति प्रश्नोत्तरमाह—सद्योजातादीति। सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैःदक्षिणहस्तेन श्रौतभस्म परिगृह्य वामहस्ते निधाय। अनेन पञ्चभूतमन्त्रसमुदायेन वामहस्तस्थं भस्म दक्षिणपाणिना स्पृशन्अभिमन्त्र्यपुनः मा नस्तोके तनये इति मन्त्रेण सम्यगुद्धृत्य उद्धृतं भस्म मा नो महान्तं इति मन्त्रेण जलेन संसृज्य। ततः “कियत्स्थानं” इति प्रश्नोत्तरमाह—त्रियायुषमिति। त्रियायुषं जमदग्नेः इति मन्त्रेण शिरोललाटवक्षस्स्कन्धेषु स्थलेषु धारयेदिति शेषः। “का रेखा” इति प्रश्नोत्तरमाह—त्रियायुषैरिति। त्रियायुषैः “त्रियायुषं” इति पञ्चभिर्मन्त्रैः त्र्यम्बकानुवाकैः मृत्युञ्जयसूक्तमन्त्रैः त्रिशक्तिभिः, दुर्गालक्ष्मीसरस्वतीभिः तत्प्रतिपादकमन्त्रैः “जातवेदसे सुनवाम सोमं” इति, “हिरण्यवर्णां हरिणीं” इति, “पावका नः सरस्वती” इति चु
दुर्गालक्ष्मीसरस्वतीमन्त्राः, तैः क्रियाज्ञानेच्छाशक्तिभिर्वा शिरोललाटादिस्थलेषु तिस्रो रेखाः प्रकुर्वीत। नियमेनैवं त्रिपुण्ड्रधारणं क्रियते इति यत् तत् एतत्शाम्भवव्रतम्। “कति प्रमाणं” इति प्रश्नोत्तरमाह—सर्वेष्विति। यदेतत्शाम्भवव्रतं तत् सर्वेषु वेदेषु बृहज्जाबालभस्मजाबालादिषु वेदवादिभिः संवर्तकादिभिः ये संसारान्मोक्तुमिच्छन्ति तैः एतत् शाम्भवव्रतं अवश्यं कर्तव्यमिति उक्तं भवति। यस्मादेवं तस्मान्मुमुक्षुरपुनर्भवाय एतत् त्रिपुण्ड्रधारणलक्षणं शाम्भवव्रतं समाचरेत्॥३॥
त्रिपुण्ड्ररेखाप्रमाणम्
अथ सनत्कुमारः प्रमाणमस्य पप्रच्छ त्रिपुण्ड्रधारणस्य॥४॥
त्रिधा रेखा आललाटादाचक्षुषोरामूर्ध्नोराभ्रुवोर्मध्यतश्च॥५॥
कति प्रमाणं इति प्रश्नोत्तरं वेदादिभिरुक्तं भवतीति सामान्येनोक्तमपि तद्विशेषबुभुत्सया सनत्कुमारोऽथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं अस्य त्रिपुण्ड्रधारणस्य प्रमाणं पप्रच्छ॥४॥ सनत्कुमारेणैवं पृष्टो भगवानेवमाह—त्रिपुण्ड्रेति। वैदिकत्रिपुण्ड्रधारणस्य त्रिधैव रेखाः आ ललाटात् आचक्षुषोः आमूर्ध्नोःआभ्रुवोर्मध्यतश्च चक्षुर्भ्रूयुगमारभ्य ललाटमस्तकपर्यन्तं त्रिपुण्ड्रं धारयेदित्यर्थः॥५॥
रेखात्रयस्य शक्तिदेवताऽऽदिप्रतिपादनम्
** याऽस्य प्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्वाकारो रजः34 स्वात्मा क्रियाशक्तिर्ऋग्वेदः प्रातःसवनं महेश्वरो देवतेति॥६॥**
** यास्य द्वितीया रेखा सा दक्षिणाग्निरुकारः सत्त्वमन्तरात्मा35चेच्छाशक्तिर्यजुर्वेदो माध्यंदिनं सवनं सदाशिवो देवतेति॥७॥**
याऽस्य तृतीया रेखा साऽऽहवनीयो मकारस्तमः36 परमात्मा ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयसवनं महादेवो देवतेति॥८॥
“का शक्तिः? किं दैवतं?” इति प्रश्नोत्तरमाह — याऽस्येति। याऽस्य त्रिपुण्ड्रस्य प्रथमा रेखा सा इयं गार्हपत्यः, चशब्दः पृथिव्यग्न्याद्युपलक्षणार्थः, व्यष्टिसमष्टिरूपोऽयं अकारः विश्वविराडोत्रधिष्ठितः रजो रजोगुणविशिष्टः भूर्लोकः स्वस्याः प्रथमरेखायाः आत्मा स्वात्मा क्रियाशक्तिः चतुराननाधिष्ठिता ऋग्वेदः प्रातः सवनं महान् अपरिच्छिन्नश्चासावीश्वरश्चेति महेश्वरः आत्मा देवता। इतिशब्दः प्रथमरेखाप्रमाणसमाप्त्यर्थः॥६॥ द्वितीयरेखेयत्तां विशदयति—याऽस्येति। अस्य त्रिपुण्ड्रस्य या द्वितीया रेखा सा एव दक्षिणाग्निःव्यष्टिसमष्टिरूपोऽयं उकारः तैजससूत्रानुज्ञात्रधिष्ठितः सत्त्वगुणः अन्तरात्मा विष्णुः चशब्दः त्रिष्टुबाद्युपलक्षणार्थः। इच्छाशक्तिः सत्यसङ्कल्परूपिणी यजुर्वेदो माध्यन्दिनं सवनं सदाशिवः द्वितीयरेखाया देवता। इतिशब्दः द्वितीयरेखाप्रमाणसमाप्त्यर्थः॥७॥ तृतीयरेखेयत्तामाह—याऽस्येति। अस्य त्रिपुण्ड्रस्य या तृतीया रेखा सा एव आहवनीयो मकारः व्यष्ट्यादिविभागयुक्तः प्राज्ञेश्वरानुज्ञैकरसाधिष्ठितः तमोगुणविशिष्टः परमात्मा रुद्रः, “परमात्मा महेश्वरः” इति श्रुतेः, ज्ञानशक्तिः निरङ्कुशसर्वज्ञरूपिणी सामवेदो गीतिविशिष्टः तृतीयसवनं महांश्चासौ देवश्चेति महादेवः अस्य तृतीयरेखाया देवता। इतिशब्दः तृतीयरेखासमाप्त्यर्थः। एवं रेखात्रये गार्हपत्यादिसदाशिवान्तदृष्टिः कार्येत्यर्थः॥८॥
विद्याफलम्
** त्रिपुण्ड्रविधिं भस्मना करोति यो विद्वान् ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति स सर्वेषु**
तीर्थेषु स्नातो भवति स सर्वान् वेदानधीतो भवति स सर्वान् देवान्ज्ञातो भवति स सततं सकलरुद्रमन्त्रजापी भवति स सकलभोगान् भुङ्क्ते देहं त्यक्त्वा शिवसायुज्यमेति न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तत इत्याह भगवान् कालाग्निरुद्रः॥९॥
“कः कर्ता?” इति प्रश्नोत्तरमाह—त्रिपुण्ड्रेति। य एवं विद्वान् मुनिः त्रिपुण्ड्रविधिं भस्मना करोति सोऽयं ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स्वाश्रमाचारसंपन्नः त्रिपुण्ड्राधिकारी कर्ता भवति। “किं फलं च” इति प्रश्नोत्तरं सामान्यविशेषफलमप्याह—स इति। य एवं विद्वान् स महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति—यद्येवमाचरणात् पुरा ब्रह्महत्याऽऽदिपातकी परदारप्रवेशाद्युपपातकी वा भवतु सः अपि तदा गुरुमुखादेवं त्रिपुण्ड्रविधिं ज्ञात्वा यथावत् करोति चेत् तेभ्यः पातकेभ्यः पूतः पावितो मवति सार्धत्रिकोटिसङ्ख्याविशिष्टसर्वेषु तीर्थेषु अस्नातोऽपि स्नातः स्नानफलभाक् भवति। तथा सर्वान् वेदानधीतो भवति सर्ववेदपारायणफलं चित्तशुद्ध्यात्मकं लभत इत्यर्थः। सर्वान् देवान् ज्ञातो भवति स सततं सकलरुद्रमन्त्रजापी भवति। स सकलभोगान् इहामुत्रप्रभवान् भुङ्क्ते इति यत्तदान्तरालिकफलं, मुख्यफलं तु वर्तमानदेहं देहाद्यभिमतिं वा त्यक्त्वा शिवेन सायुज्यं सयुग्भावं, यदि कदाचित् त्रिपुण्ड्रधारणमहिम्ना स्वातिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यापह्नवसिद्धं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति सम्यग्ज्ञानी भवति तदा परममुख्यफलं विकलेबरकैवल्यं वा एति। ततःकिं पुनरावर्तत इत्यत आह—नेति। “ब्रह्मभावं प्रपद्यैष यतिर्नावर्तते पुनः” इत्यादिश्रुत्यनुरोधेन न स पुनरावर्ततेन स पुनरावर्तत इत्याह भगवान् कालाग्निरुद्रः। आवृत्तिरादरार्थ॥९॥
ग्रन्थाध्ययनफलम्
** यस्त्वेतद्वाऽधीते सोऽप्येवमेव भवतीत्यों सत्यमित्युपनिषत्॥१०॥**
यस्त्वेवं कर्तुमशक्तः एतत्कालाग्निरुद्रोपनिषदं वाऽधीते सोऽप्येवमेव भविष्यति। किं तत्? यत् ओंकाराग्रविद्योततुर्यतुरीयं ब्रह्म तदेव सत्यं स्वातिरिक्तासदपह्नवसिद्धसन्मात्रं ब्रह्मैव भवति “सन्मात्रमसदन्यत्” इति श्रुतेः। इत्युपनिषच्छब्दः उपनिषत्समाप्त्यर्थः॥१०॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
कालाग्निरुद्रव्याख्येयं लिखिता स्वात्मशुद्धये।
कालाग्निरुद्रोपनिषद्व्याख्याग्रन्थस्तु सप्ततिः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे अष्टाविंशतिसङ्ख्यापूरकं
कालाग्निरुद्रोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
कैवल्योपनिषत्
सह नाववतु—इति शान्तिः
ब्रह्मविद्याजिज्ञासा
अथाश्वलायनो भगवन्तं परमेष्ठिनं परिसमेत्योवाच—
अधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां वरिष्ठां सदा सद्भिः सेव्यमानां निगूढाम्।
ययाऽचिरात् सर्वपापं व्यपोह्य परात् परं पुरुषमुपैति विद्वान्॥१॥
कैवल्योपनिषद्वेद्यं कैवल्यानन्दतुन्दिलम्।
कैवल्यगिरिजाऽऽरामं स्वमात्रं कलयेऽन्वहम्॥
इह खलु कृष्णयजुर्वेदान्तर्गतकेवलशाखायां विद्यात्रयं प्रकाशितम्। तत्र कर्मविद्याशीलिनां पुनरावृत्तिमच्चन्द्रलोकाप्तिरुक्ता। उपासनाविद्याशीलिनां कर्मोपासनासमुच्चयानुष्ठानादपुनरावृत्त्यर्हब्रह्मलोकाप्तिरभिहिता। मार्गद्वयविरक्तानामुक्तसाधनसम्पन्नानां कैवल्यावाप्तिसाधनतया ब्रह्मविद्यारूपेयं कैवल्योपनिषदारब्धा। वक्ष्यति चैवं “अधीहि भगवन् ब्रह्मविद्यां वरिष्ठां” इति, “तत्त्वमेव त्वमेव तत्”, “परात् परं पुरुषमुपैति विद्वान्” इति च। एवमुक्तलक्षणलक्षितकैवल्योपनिषदोऽल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। आख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। अथ यथोक्तसाधनसम्पत्त्यनन्तरं अश्वलायनापत्यं आश्वलायनः मुनिः भगवन्तं
षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नं परमस्थानस्थितितः परमेष्ठिनं शास्त्रोक्तविधिना परिसमेत्य श्रद्धाभक्तिपुरस्सरं उवाच किमित्यत आह—अधीहीति। हे भगवन् यया विद्यया विद्वान् अचिरात् कृत्याकृत्यप्रभवपुण्यपापे व्यपोह्य सहेतू तयाऽपह्नवीकृत्य, आरोपापवादापेक्षया तदधिकरणं परं तस्मादपि परं निरधिकरणं निष्प्रतियोगिकपूर्णंपुरुषं स्वमात्रधिया उपैति तामेतां स्वातिरिक्तास्तिताबुद्धेः निगूढां आवृतवद्भातां सदा सद्भिः ब्रह्मरातैः ब्रह्ममात्रपदप्रापकोपायतया सेव्यमानां चतुष्षष्टिकलाविद्यातोऽपि वरिष्ठां स्वातिरिक्तकलनाऽपह्नवसिद्धब्रह्ममात्रविद्यां अधीहि केवलकृपयोपदिशेत्यर्थः॥१॥
ब्रह्मविद्यासाधनं तत्फलं च
तस्मै स होवाच पितामहश्च श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवेहि॥२॥
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।
परेण नाकं निहितं गुहायां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति॥३॥
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे॥४॥
मुनिनैवं पृष्टो भगवानुवाच—तस्मा इति। य एवं पृष्टः सोऽयं जगत्पितरो दक्षादयःतेषां पिता पितामहः, चोऽप्यर्थः, सर्वलोकगुरुरपि यथोक्ताधिकारिणे तस्मै होवाच नोपेक्षां कृतवान्। यन्मया निरूप्यमाणं निर्विशेषं ब्रह्म यतो न सहसा साक्षात्कर्तुं शक्यं, अतस्तदुपायभूतश्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवेहि जानीहीत्यर्थः। मदुक्तार्थास्तिक्यबुद्धिः श्रद्धा, मदुक्तार्थभजनं भक्तिः, विजातीयप्रत्ययतिरस्कारपूर्वकं सजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणं ध्यानं, मदुक्तार्थपर्यवसानधीः योगः, एवं साधनवता ब्रह्म ज्ञातुं शक्यमित्यर्थः॥२॥ यथा श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादि ब्रह्मविद्यासाधनं तथा संन्यासोऽपीत्याह—न कर्मणेति। न श्रौतस्मार्तकर्मणा, न मनुष्यलोकसाधनप्रजया, न दैवमानुषवित्तेन चामृतत्वमस्ति तेषां
धर्मप्रजाधनानां गतागतलोकभ्रमणहेतुत्वात्। केनामृतत्वसिद्धिरित्यत आह—त्यागेनेति। एके परमार्थदर्शिनः श्रौतस्मार्तसर्वकर्मपरित्यागेन व्यक्ताव्यक्तविष्णुलिङ्गायमानपारमार्थिकसंन्यासेन ब्रह्ममात्रसम्यग्ज्ञानात्मना अमृतत्वं ब्रह्ममात्रावस्थितिलक्षणकैवल्यं आनशुः आनशिरे, प्राप्ता इत्यर्थः। कथं त आनशुरित्यत्र, कं सुखं तत्प्रतियोगि दुःखं अकं तद्यत्र न विद्यते स नाकः स्वर्गः तं परेण स्वर्गादेरुपरि। यद्वा—परेण स्वातिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यादपि परं नाकं परमानन्दरूपम्। गुहायां बुद्धौ निहितं सत् प्रत्यगभेदेन यद्विभ्राजते यत्प्रत्यक्परविभागासहं ब्रह्ममात्रं तन्मात्रावस्थानयतनशीलाः यतयः स्वावशेषतया विशन्ति तन्मात्रतया अवशिष्यन्त इत्यर्थः॥३॥ ये ब्रह्ममात्रपर्यवसन्नास्ते किंविशेषणविशिष्टा इत्यत्र—ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषदो हि वेदान्तः, तन्निष्पन्नं “ब्रह्ममात्रमसन्न हि” इत्याद्यसत्प्रपञ्चापह्नवसिद्धब्रह्ममात्रानुवादिश्रुतिसिद्धविज्ञानं, तेन ब्रह्म स्वमात्रमिति यैरेवमर्थो निश्चितस्ते वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः। स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तस्वाविद्यापदतत्कार्यापह्नवो हि संन्यासयोगः स्वातिरिक्तासंभवज्ञानं तस्मात् संन्यासयोगात्। यतयः—व्याख्यातम्। एवं विज्ञानवन्तो यतयस्ते ब्रह्मैव भवन्तीत्यत्र न विवादः। यद्येवं ज्ञानरहिताः केचन यतयस्ते रागादिकालुष्यभावात् शुद्धं सत्त्वमन्तःकरणं येषां ते विशुद्धसत्त्वाः सन्तः ते ब्रह्मलोकेषु—उपासनातारतम्यतस्तेषां भिन्नभिन्नतया भानाद्बहुवचनं युज्यते—तेषु ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले विराडपेक्षया परस्य ब्रह्मणोऽन्तकाले द्विपरार्धावसानकाले परामृतात् अव्याकृतोपाधितः परिमुच्यन्ति परिमुच्यन्ते सर्वतः सर्वे मुक्ता भवन्ति। यद्वा—ब्रह्मविद्वरीयांसो भूत्वा ब्रह्मविद्वरिष्ठताऽऽप्तये यतन्त इति यतयः। यैः ब्रह्म स्वावशेषतया लोक्यते ते ब्रह्मलोकाः ब्रह्मविद्वरिष्ठा इत्यर्थः। यद्वा—ब्रह्मैव लोका ब्रह्मलोकास्तेषु—पूजायां बहुवचनयोगात्—ब्रह्मलोकेषु ब्रह्ममात्रे परं स्वातिरिक्तं तत् कालयत्यपह्नवं करोतीति परान्तकालं तस्मिन् परान्तकाले ब्रह्मणि कार्यापेक्षया कारणस्य परत्वेनामृतत्वात् परामृतं कारणं तस्मात् कार्यकारणकलनारूपपरामृतात् परिमुच्यन्ति मुच्यन्ते। परामृता इति पाठान्तरं, स्वातिरिक्तपरत्वेन पराश्च ते अमृताश्चेति परामृताः
ब्रह्मविद्वरिष्ठाः। सर्वे पुरैव विमुक्ताः पुनः परिमुच्यन्त इत्युपचर्यन्ते, “परामृता ब्रह्मविदां वरिष्ठाः” इति प्रभोक्तेः, ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः॥४॥
सविशेषब्रह्मध्यानपरिकरः
विविक्तदेशे च सुखासनस्थः शुचिः समग्रीवशिरः शरीरः।
अत्याश्रमस्थः सकलेन्द्रियाणि निरुध्य भक्त्या स्वगुरुं प्रणम्य।
हृत्पुण्डरीकं विरजं विशुद्धं विचिन्त्य मध्ये विशदं विशोकम्॥५॥
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तरूपं शिवं प्रशान्तममृतं ब्रह्मयोनिम्।
तदादि37मध्यान्तविहीनमेकं विमुं चिदानन्दमरूपमद्भुतम्॥६॥
उमासहायं परमेश्वरं प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम्।
ध्यात्वा मुनिर्गच्छति भूतयोनिं समस्तसाक्षिं तमसः परस्तात्॥७॥
एवं निर्विशेषं ब्रह्म मन्दाधिकारिभिः प्रतिपत्तुमशक्यमिति मत्वा तदनुकम्पया सविशेषं निरूपयन् देशासनादिविशेषमाह—विविक्त इति। विविक्तदेशे जनसंबाधरहितप्रदेशे। चशब्दादुचितकाले। शुचिः सन् सुखासने स्वस्तिकादौ स्थित्वा समग्रीवशिरः शरीरः ऋजुकायो भूत्वा करणग्रामनिरोधनं कुर्यात्। कथमेवमाश्रमिणां संभवतीत्यत आह—अत्याश्रमस्थ इति। व्रतिकामिवनिनो ह्याश्रमिणस्तानतीत्य तुर्याश्रमे तिष्ठतीति अत्याश्रमस्थः, तस्य निर्विक्षेपतया करणग्रामनिग्रहक्षमत्वात्। सोऽयं परिव्राट् सकलेन्द्रियाणि निरुध्य स्वस्वव्यामृत्युपरमं कृत्वा येन परमार्थोपदेशः कृतस्तं स्वगुरुं भक्त्या प्रणम्य अथ स्वहृत्पुण्डरीकं रागाद्यभावात् विरजं अशुद्धाज्ञानाभावात् विशुद्धं तन्मध्ये हृदयकमलान्तःप्रदेशे स्वाविद्याऽपायात् विशदं शोचनीयस्वातिरिक्तवैरल्यात्विशोकं आत्मानं ध्यात्वा विचिन्त्य मनननिदिध्यासने कृत्वा॥५॥अतो
वाङ्मनसवृत्तिभिरगोचरं अचिन्त्यं शब्दादिविषयाभावात् अव्यक्तं परिच्छेदत्रयाभावात् अनन्नरूपं नित्यमङ्गलरूपत्वात् शिवं बाह्यान्तःकलनाऽभावात्प्रशान्तं सन्मानत्वात् अमृतं स्वकल्पितबृहतोऽपि बृहत्त्वात् ब्रह्म स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तस्वाविद्यापदहेतुत्वात् योनिम्। तथात्वे आद्यन्तवत्ता स्यादित्यत आह—तदिति। यत्कारणत्वेनाभिमतं तत् आदिमध्यान्त विहीनं, कार्यस्याद्यन्तवत्त्वेऽपि कार्यापाये कारणस्याकार्यकारणत्वेन ब्रह्ममात्रत्वात्। तन्मात्रत्वे हेतुमाह—एकमिति। बह्वपेक्षया एकस्याल्पत्वेन परिच्छेद्यता स्यादित्यत आह—विभुमिति। व्याप्यप्रसक्तौ व्यापिनमित्यर्थः। अत एव चिदानन्दं, सच्चिदानन्दमात्रत्वात्। तदेव रूपं, तदितररूपराहित्यात् अरूपं अत एव अद्भुतं, सर्वात्मत्वेऽपि तैरात्मत्वेनाग्रहणमद्भुतत्वम्॥६॥ तेषां स्वामित्वेन भानात् तत् कथमित्यत्र—उमासहायं अर्धनारीश्वरत्वात् विद्यासहायं वा। सर्वेषां स्वामित्वेन नियन्तृत्वात् परमेश्वरं प्रभुं त्रीणि सोमसूर्याग्निलोचनानि यस्य तं त्रिलोचनं, कण्ठे नीलं यस्य तं नीलकण्ठं, प्रसन्नवदनत्वात् प्रशान्तम्। यद्वा—प्रशमितभक्तपटलस्वाज्ञानत्वात् प्रशान्तम्। एवमुक्तलक्षणलक्षितमीश्वरं मुनिः अयमहमस्मीति सर्वभूतयोनिं तद्गतकारणताऽपाये समस्तसाक्षिं सर्वसाक्षिणं ध्यात्वा तद्ध्यानसंस्कृतचित्तवैशद्यात् साक्ष्यनिरूपितसाक्षिताऽपाये यच्चिन्मात्रमवशिष्यते तदेव स्वावशेषतया मुनिः गच्छति तमसः परस्तात् यद्विद्योतते तदेव भवतीत्यर्थः॥७॥
सर्वात्मब्रह्मदर्शनमेव परमसाधनम्
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट्।
स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः॥८॥
स एव सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यं सनातनम्।
ज्ञात्वा तं मृत्युमत्येति नान्यः पन्था विमुक्तये॥९॥
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
संपश्यन् ब्रह्म परमं याति नान्येन हेतुना॥१०॥
ब्रह्मभावं प्राप्य मुनिः कृतकृत्यो भवतीत्युक्तं, तदतिरेकेण ब्रह्मादेः सत्त्वात्कृतकृत्यता कुत? इत्याशङ्क्यस एव सर्वमित्याह—स इति। यो ब्रह्मीभूतः सोऽयं मुनिः ब्रह्मा चतुराननः स शिवः शूलपाणिः इन्द्रो वज्रधरः अक्षरः कूटस्थः, “कूटस्थोऽक्षर उच्यते" इति स्मृतेः परमः उत्तमः, स्वे महिम्निराजत इति स्वराट् स एव विष्णुः व्यापी हरिर्वा प्राणः पञ्चवृत्तिविशिष्टः स कालः कलयिता, यमो वा अग्निश्चन्द्रमाश्च॥८॥ किं बहुना—यद्यद्भूतादिकालत्रयपरिच्छिन्नं तत्तत्सर्वं स एवेत्यर्थः। यतस्तदतिरेकेणोक्तानुक्तकलना न किंचिदस्ति अतः सनातनं, ब्रह्मापि स मुनिरेवेत्यर्थः। यत एवंवित्सर्वात्मा ब्रह्ममात्रं वा भवति अतो ब्रह्मज्ञानादृते मृत्युतरणोपायो न कोऽप्यस्तीत्याह—ज्ञात्वेति। तं ज्ञात्वा स्वातिरिक्तमृत्युमतीत्य कृतकृत्यो भवतीति वर्तमानप्रयोगतो ज्ञानसमकालमेव स्वातिरिक्तं ग्रसित्वा विद्वान् ब्रह्मैव भवतीति द्योत्यते। स्वाज्ञानप्रभवमृत्युतरणोपायस्वज्ञानं विना न किंचिदस्तीत्यर्थः, “नान्यः पन्था अयनाय विद्यते” इति श्रुतेः॥९॥ कथमेवं मार्गान्तरसत्त्वादित्याशङ्क्यमार्गान्तरस्याभ्युदयहेतुत्वेन निःश्रेयसमार्गास्पर्शित्वान्निःश्रेयसहेतुर्ज्ञानादृते नास्तीति सोपायं तदेव दृढयति—सर्वेति। ब्रह्मादिस्तम्बान्तेषु सर्वभूतेषु प्रत्यग्रूपेण तिष्ठतीति सर्वभूतस्थमात्मानं प्रत्यगभेदेन पश्यन् पुनः स्वात्मनि सर्वाधिष्ठाने सर्वभूतानि कल्पितानीति विचिन्त्य यत्सर्वभूतारोपाधिकरणमेवमध्यारोपापवादमोहेऽपह्नवतां गते तन्निरूपिताधिकरणताऽपाये निरधिकरणब्रह्ममात्रतयोपबृंहणात् ब्रह्म परमं संपश्यन् तन्निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमेवेत्यवलोकयन्तद्वेदनदर्शनसमकालं तदेव याति तन्मात्रतयाऽवशिष्यते। विनैवं सम्यग्ज्ञानमुपायान्तरेण नैति, उक्तं ह्येतत् “नान्यः पन्था विमुक्तये” इति॥१०॥
प्रणवध्यानविधिः
आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ज्ञान38निर्मथनाभ्यासात् पापं दहति पण्डितः॥११॥
यदा एवं बोधो न जायते तदा तदर्थमुपायमाह—आत्मानमिति। आत्मानं अन्तःकरणं अधरारणिं कृत्वा प्रणवं उत्तरारणिं च कृत्वा, सर्वापवादाधिष्ठानब्रह्मास्मीति वेदान्तविचारजं ज्ञानं, युक्तिभिरनुचिन्तनं तन्निर्मथनं अभ्यासः तस्मात् ज्ञाननिर्मथनाभ्यासात् पण्डितो विद्वान् स्वाज्ञानपाशं दहति भस्मीकरोतीत्यर्थः॥११॥
परमात्मन एव जीवरूपेण संसारः
स एव मायापरिमोहितात्मा शरीरमास्थाय करोति सर्वम्।
स्त्र्यन्न39पानादिविचित्रभोगैः स एव जाग्रत् परितृप्तिमेति॥१२॥
स्वप्ने तु जीवः सुखदुःखभोक्ता स्वमायया कल्पितविश्वलोके40।
सुषुप्तिकाले सकले विलीने तमोऽभिभूतः सुखरूपमेति॥१३॥
पुनश्च जन्मान्तरकर्मयोगात् स एव जीवः स्वपिति प्रबुद्धः।
पुरत्रये क्रीडति यश्च जीवस्ततस्तु जातं सकलं विचित्रम्॥
आधारमानन्दमखण्डबोधं यस्मिन् लयं याति पुरत्रयं च॥१४॥
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी॥१५॥
ज्ञप्तिमात्रस्य कथं स्वाज्ञानपाश इत्यत आह—स एवेति। यः स्वातिरिक्तकलनाऽसहपरमात्मेति ख्यातः स एव निर्मायोऽपि स्वाज्ञानरूपया मायया परिमोहितात्मेव स्थूलादिशरीरमास्थाय सर्वत्रात्मात्मीयाभिमानतः सर्वव्यापारजातं करोति। किं च—स्त्र्यन्नपानादिविचित्रभोगैः स एव इन्द्रियैरिन्द्रियार्थग्रहणलक्षणजाग्रत्कलनापरितृप्तिमेति जाग्रदवस्थायां नानाविधसुखदुःखे आप्नोतीत्यर्थः॥१२॥स्वप्नेऽपि सुखदुःखभोक्तृत्वं सुषुप्तौ तदभावं च स्पष्टयति—
स्वप्ने त्विति। जाग्रदवस्थायामिव स्वप्नेऽपि। तुशब्दोऽप्यर्थः। जीवः प्राणानां धारयिता विविधवासनावासितसुखदुःखभोक्ता सुख्यहं दुःख्यहमिति प्रत्ययवान्। सुखादिभोक्तृत्वस्य वास्तवत्वं वारयति—स्वाज्ञानरूपया मायया विकल्पितविश्वलोके, वासनाप्रपञ्चेऽपि जागरणवत् सुखदुःखभोक्ता भवतीत्यर्थः। स्वानन्दभोगावसरसुषुप्तिकाले तत्रत्यतमसि सकले स्वातिरिक्तमोहे बिलीने सति स्वाज्ञानतमोऽभिभूतः सन् सुखरूपं ब्रह्म एति॥१३॥ यः सुषुप्तः स एव स्वप्नं जागरणं वैतीत्याह—पुनश्चेति। पुराऽऽनन्दात्मस्वरूपं प्राप्य पुनश्च जन्मान्तरकर्मयोगात् स एव जीवः स्वपिति सुषुप्ताद् स्वप्नस्थानं गच्छति प्रबुद्धो जागरणं वा गच्छति। यश्च य एव जीवः जाग्रदाद्यवस्थात्रयावच्छिन्नपुरत्रये शरीरत्रये क्रीडति विहरति ततस्तस्मात् प्रत्यगभिन्नपरमात्मनः। तुशब्दोऽवधारणार्थः। तत एव सकलं विचित्रं विविधनामरूपकर्मात्मकं विश्वं जातं रज्ज्वज्ञदृष्ट्या रज्जौ सर्पवद्विकल्पितम्। तदारोपापवादाधिकरणं किं? ततः किं किं जायते? कथमस्मिन् लीयते? इत्यत आह—आधारमिति। यत्स्वातिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यारोपापवादाधारभूतं यद्ब्रह्म तन्निरतिशयानन्दरूपं अखण्डबोधं सच्चिदानन्दरसस्वभावं यस्मिन् पुरत्रयोपलक्षितस्वाविद्यापदतत्कार्यजातं लयं याति॥१४॥ चशब्दात् पुनरुत्पत्त्यधिकरणमप्येतदेवेत्याह—एतस्मादिति। एतस्मात् सर्वाधिकरणात् आत्मनः क्रियाशक्त्यात्मकः प्राणो रज्जुसर्पवत्जायते, तथा ज्ञानशक्त्यात्मकं मनः ज्ञानकर्माख्यानि सर्वेन्द्रियाणि। चशब्दात्देहादिकमपि। खं वायुज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी इति पञ्चभूतान्यप्येतस्मादेव जायन्ते॥२५॥
जीवेश्वरयोरभेदः
यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत्।
सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत्॥१६॥
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि प्रपञ्चं यत् प्रकाशते।
तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबन्धैः प्रमुच्यते॥१७॥
त्रिषु धामसु यद्भोज्यं भोक्ता भोगश्च यद्भवेत्।
तेभ्यो विलक्षणः साक्षी चिन्मात्रोऽहं सदाशिवः॥१८॥
मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।
मयि सर्वं लयं याति तद्ब्रह्माद्वयमस्म्यहम्॥१९॥
व्यष्टिसमष्ट्यारोपापवादाधिकरणयोः स्वाज्ञदृष्ट्या भेदप्रसक्तौ स्वज्ञदृष्ट्या तयोरैक्यमाचष्टे—यदिति। व्यष्ट्याधारस्त्वंपदार्थः। समष्ट्याधारस्तत्पदार्थः। यत् स्वातिरेकेण किंचिदस्तीति विश्वसनीयविश्वस्यायतनं अधिकरणं स्वाधिष्ठेयविश्वापेक्षया परं व्यतिरिक्तं बृहत् ब्रह्म सर्वात्मा सर्वप्रत्यक्त्वात् महत्त्रिविधपरिच्छेदरहितंसूक्ष्मात् धीवृत्तेरपि सूक्ष्मतरं वस्तुतः स्थूलसूक्ष्मपरिमाणविरलं नित्यं पारमार्थिकसद्रूपत्वात्। उक्तविशेषणविशिष्टं यत् समष्टिप्रपश्चापवादाधिकरणं तत् ब्रह्म एव व्यष्टिप्रपञ्चापवादाधिकरणं त्वंपदार्थलक्ष्यं, यत्त्वंपदार्थलक्ष्यं तत् तत्पदार्थलक्ष्यमेव नान्यत्,“तत्त्वमसि",“अहं ब्रह्मास्मि", इत्यादिश्रुतेः। व्यष्ट्याद्यधिष्ठेयाभावे तत्सापेक्षाधिष्ठानत्वकलनाविरलं निरधिष्ठानं ब्रह्मैकमेवेत्यर्थः॥१६॥ ब्रह्मातिरेकेण जाग्रदादिप्रपञ्चसत्त्वात्कथं ब्रह्ममात्रसिद्धिः! तज्ज्ञानेन किं फलं? इत्यत आह—जाग्रदिति। जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादि—आदिशब्देन विश्वविराडोत्रादयो गृह्यन्ते—तद्विशिष्टं प्रपञ्चं प्रपञ्चः स्वातिरेकेण नास्तीति यत् ब्रह्म प्रकाशते—स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तप्रपञ्चे सति तत्प्रकाशकं तदभावे स्वयंप्रकाशमात्रमवशिष्यते। यदेवं सिद्धं तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा तत्स्वमात्रमिति ज्ञानसमकालं स्वातिरिक्तास्तितामोहप्रभवसर्वबन्धैः प्रमुच्यते॥१७॥ भोज्यादिकलनायां सत्यां कथं बन्धाद्विमुक्तः स्वमात्रमवशिष्यत इत्यत आह—त्रिष्विति। स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तत्रिषु धामसु जाग्रदादिस्थानेषु स्थूलप्रविभक्तानन्दरूपेण यत् प्रसिद्धं भोज्यं विश्वतैजसादिः भोक्ता स्थूलप्रविभक्तादिर्भोगः—चशब्दादधिदैवादिविभागोऽपि गृह्यते—तेभ्यः साक्ष्येभ्यः विलक्षणः साक्षी सर्वस्य साक्षी, “ततः सर्वस्मादन्यो विलक्षणः" इति श्रुतेः।
साक्ष्यसापेक्षसाक्षिताऽपाये पुरा योऽहंप्रत्ययगोचरः साक्षी सोऽहं चिन्मात्रः चिदेकरसत्वात् सदाशिवः नित्यकल्याणकैवल्यरूपत्वात्॥१८॥ स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तप्रपञ्चवैलक्षण्यमुक्त्वा मूलबीजांशयोगतः प्रपञ्चकारणमप्यहमेवेत्याह—मय्येवेति। विश्वारोपापवादाधिकरणे मय्येव सकलं स्वाविद्यापदतत्कार्यजातं जातं प्रतिष्ठितम् लयं च याति। यदेवं सकलकारणत्वेन सिद्धं स्वकार्यनिरूपितकारणताऽपाये तद्ब्रह्म निष्प्रतियोगिकाद्वितीयमस्मि॥१९॥
अभेदानुभवप्रकाशः
अणोरणीयानहमेव तद्वन्महानहं विश्वमिदं विचित्रम्।
पुरातनोऽहं पुरुषोऽहमीशो हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि॥२०॥
अपाणिपादोऽहमचिन्त्यशक्तिः पश्याम्यचक्षुः स शृणोम्यकर्णः।
अहं विजानामि विविक्तरूपो न चास्ति वेत्ता मम चित् सदाहम्॥
वेदैरनेकैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥२२॥
न पुण्यपापे मम नास्ति नाशो न जन्म देहेन्द्रिय बुद्धिरस्ति।
न भूमिरापो मम वह्निरस्ति न चानिलो मेऽस्ति न चाम्बरं च॥
स्वविज्ञानानुरूपं स्वानुभूतिं प्रकटयति—अणोरिति। यद्वदहं सर्वकारणं तद्वत् अणोः बुद्ध्यादेः तूलातत्कार्यादपि अणीयान् तथा महतो मूलाविद्याविजृम्भितस्वाविद्यापदतत्कार्यजातादपि महान् अणीयस्त्वमहत्त्वमविद्याद्वयसापेक्षं, “अणुत्वं बुद्धिनिष्ठं स्यान्महत्त्वं खादिनिष्ठितम्” इति स्मृतेः। अणुमहत्परिणतकार्यकारणकलनाऽन्वितं इदं विश्वं नानाविचित्रशोभितं अहमेवेत्यर्थः, “मद्व्यतिरिक्तमणुमात्रं न विद्यते” इति श्रुतेः। पुरातनः चिरन्तनोऽहं पुरुषोऽहं निष्प्रतियोगिकपूर्णरूपत्वात्। स्वाज्ञदृष्ट्या अहमीशः सर्वनियन्तृत्वात्। आदित्यात्मना हिरण्मयोऽहं ज्योतिर्मयत्वात्। शिवरूपमस्मि नित्यमङ्गलस्वरूपत्वात्॥२०॥ करणग्रामाभावेऽपि स्वस्य सर्वज्ञतामाह—अपाणीति।
पाणिपादचक्षुः श्रोत्रादिकरणग्रामवैरल्यात् अपाणिपादोऽहमचिन्त्यशक्तिः स्वाज्ञदुर्बोधशक्तित्वात्। एवंभूतोऽपि जवनो गृहीतेत्यर्थः। पश्याम्यचक्षुः स शृणोम्यकर्णः। स्वातिरिक्तं नेति अहं विजानामि। विविक्तरूपोऽऽहं, बुद्ध्याद्यतिरिक्तत्वात्। मम आनन्दात्मनो वेत्ता न चास्ति, सदा चिदहमस्मीत्यर्थः॥२१॥ इदानीं स्वस्य वेदशास्त्रप्रतिपाद्यत्वं सर्वविकारास्पृष्टत्वं च दर्शयति—
वेदैरिति। ऋगादिभिः अनेकशाखामण्डितैः वेदैरहमेव वेद्यः वेदान्तैकवेद्यत्वात्। व्यासभगवत्पादादिरूपेण वेदान्तकृत् सूत्रभाष्यादिकृत्त्वात्। कृत्स्नवेदविदेव चाहम्। परमार्थदर्शित्वख्यापकः चशब्दः॥२२॥ किं च पुण्यपापे मम न स्तः। मम नास्ति नाशः, सन्मात्रत्वात्। न जन्मदेहेन्द्रियबुद्धिरस्ति जनिमृतिमद्देहेन्द्रियादिविरलप्रत्यग्रूपत्वात्। न भूमिरापः इति पञ्चभूततत्कार्यजातमस्ति नास्तीति विभ्रमोऽपि न ममास्तीत्यर्थः॥२३॥
अभेदानुभूतिफलम्
एवं विदित्वा परमात्मरूपं गुहाशयं निष्कलमद्वितीयम्।
समस्तसाक्षिं सदसद्विहीनं प्रयाति शुद्धं परमात्मरूपम्॥२४॥
** **एवंविदः परमफलमाह—एवमिति। यत्रानात्मप्रपञ्चोऽपह्नवतां गतः परमात्मरूपं स्वात्ममात्रावशेषतया निरूपणात्, स्वाज्ञविकल्पितसर्वप्राणिगुहाशयं सर्वप्रत्यगभिन्नत्वात् निष्कलं प्राणादिनामान्तकलाऽपहृवसिद्धत्वात्, अद्वितीयं निष्प्रतियोगिकत्वात्, समस्तसाक्षिं समस्तसाक्षिणं आत्मानमेव सदसद्विहीनं व्यक्ताव्यक्तप्रपञ्चकलनाविरलं शुद्धं शुद्धचैतन्यं एवं अहमस्मीति विदित्वा तद्वेदनसमकालं परमात्मरूपं प्रयाति तन्मात्रतयाऽवशिष्यते॥२४॥
शतरुद्रीयजपविधिः
यः शतरुद्रियमधीते सोऽग्निपूतो भवति स्वर्णस्तेयात्41 पूतो भवति सुरापानात् पूतो भवति ब्रह्महत्यात् पूतो भवति कृत्याकृत्यात्
पूतो भवति तस्मादविमुक्तमाश्रितो भवत्यत्याश्रमी सर्वदा सकृद्वा जपेत्॥२५॥
अनेन ज्ञानमाप्नोति संसारार्णवनाशनम्।
तस्मादेवं विदित्वैनं कैवल्यं फलमश्नुते कैवल्यं फलमश्नुत इति॥२६॥
एवं परमात्मावगतिविरलस्य तदवगत्यर्थमुपायमाह—य इति। यः अनुत्पन्नसाक्षात्कारो मुमुक्षुः “नमस्ते रुद्र” इति शतरुद्रीयं रुद्राध्यायं अधीते यथाशक्ति नित्यं पठति। यद्वा—पञ्चरुद्रमधीते। सोऽयं श्रौतस्मार्तकर्महेत्वग्निवत्पूतो भवति स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति सुरापानात् पूतो भवति ब्रह्महत्यात्पूतो भवति। शास्त्रीयं कृत्यं अशास्त्रीयं अकृत्यं तस्मादपि पूतो भवति। तस्मात् एवं शतरुद्रीयाध्ययनात् अविमुक्तं काशीक्षेत्रं भ्रूमध्यगतज्योतिर्लिङ्गमविमुक्तं वा आश्रितो भवति। अत्याश्रमी संन्यासी सर्वदा सकृद्वा। वाशब्दोऽधिकारिविकल्पार्थः॥२५॥ एवं शतरुद्रपठनादुत्पन्नचित्तशुद्धितः कैवल्यप्रापकज्ञानद्वारा कैवल्यमाप्नोतीत्याह—अनेनेति। अनेन शतरुद्रीयजपेन अहं ब्रह्मास्मीति संसारार्णवनाशनं शोषणं ब्रह्ममात्रज्ञानमाप्नोति। यस्मादेवं तस्मादेवमेनं परमात्मानं स्वमात्रमिति विदित्वा तद्वेदनसमकालं विकलेबरकैवल्यं फलमश्नुते प्राप्नोति। अभ्यासेतिशब्दौ शास्त्रपरिसमाप्त्यर्थौ॥२६॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
लिखितं स्याद्विवरणं कैवल्योपनिषत्स्फुटम्॥
कैवल्योपनिषद्व्याख्याग्रन्थस्तु द्विशतं स्मृतः॥
इतीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे द्वादशसङ्ख्यापूरकं
कैवल्योपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
——————
गणपत्युपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
गणपतिस्तुतिः
ॐ लं नमस्ते गणपतये॥१॥
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि॥२॥
नित्यमृतं वच्मि। सत्यं वच्मि॥३॥
यन्नत्वा मुनयः सर्वे निर्विघ्नं यान्ति तत्पदम्।
गणेशोपनिषद्वेद्यं तद्ब्रह्मैवास्मि सर्वगम्॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं गणपत्युपनिषत् सर्वात्मभावप्रकटनव्यग्रा सर्ववर्जितचिन्मात्रपर्यवसन्ना विजृम्भते। अस्याः सङ्क्षेपतो विवरणमारभ्यते। परमदयावतीयं श्रुतिः स्वाज्ञलोकस्वाज्ञानविघ्नशान्तये स्वज्ञानसिद्धये च गणपतिं नत्वा स्तौति—ओमिति। यद्रूपं ॐ लं ओङ्कारलक्ष्यतुर्यरूपं ते तुभ्यं गणपतयेनमोऽस्तु, आवयोरैक्यमस्त्वित्यर्थः। यद्वा—लं इति मूलाधारबीजं, भूलाधारस्य गणपतिसदनत्वात्। यदोङ्कारार्थगणपतितत्त्वं लकारवाच्यपार्थिवांशमूलाधारे
विभाति तस्मै लकारवाच्यमूलाधारसदनाय गणपतये नमोऽस्त्विति॥१॥ नमस्कृत्य महावाक्यार्थप्रत्यगभिन्नब्रह्मत्वेन स्तौति—त्वमिति। त्वमेव श्रोत्रादिप्रत्यक्षं प्रतिकरणं तत्तद्विषयप्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ततया यच्चैतन्यं वर्तते तत्त्वमसि सर्वनियन्ताऽसीत्यर्थः। प्रकृतिमधिष्ठाय जीवरूपेण त्वमेव केवलं विष्ण्वात्मना कर्ताऽसि, अधिष्ठानात्मना त्वमेव केवलं धर्ताऽसि, रुद्रात्मना त्वमेव केवलं हर्ताऽसि, त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि यदिदं जगत्सर्वं परिदृश्यमानं ब्रह्मैव खलु तत्वमेव ब्रह्मासि सर्वप्रत्यग्रूपेण त्वं साक्षादात्माऽसि॥२॥ व्यावहारिकसत्यरूपेण त्वामेव नित्यं ऋतं वच्मि, पारमार्थिकधिया सत्यं वच्मि॥३॥
गणपतिं प्रति प्रार्थना
अव त्वं माम्। अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्। अव दातारम्। अव धातारम्। अवानूचानमव शिष्यम्। अव पुरस्तात्तात्। अव दक्षिणात्तात्। अव पश्चात्तात्। अवोत्तरात्तात्। अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्॥४॥
परापरब्रह्मभावमापन्नगणपते त्वं मां अव। शिष्येभ्यो वक्तारं त्वद्विद्यादातारं मां अव मत्तः श्रोतारं धातारं धारयितारं अनूचानसन्ततिभवं शिष्यं अव, आचार्यशिष्यौ सदा रक्षेत्यर्थः। हे वैराजभावमापन्नगणपते पूर्वाग्नेयादिदिक्षु विदिक्षूर्ध्वाधःप्रदेशेऽपि मयाऽऽन्तात् स्वाज्ञानतत्कार्यान्मां मोचयित्या तत्समन्तात् त्वयाऽऽत्तवैभवात् सर्वतो मां पाहि पाहि रक्ष रक्षेत्यर्थः॥४॥
गणपतेः सर्वात्मतया स्तुतिः
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि॥१॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति42। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्परिमिता पदानि। त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारे स्थितोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्।त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुवः सुवरोम्॥६॥
एवं त्वत्पालनशक्तिर्मे कुत इत्यत आह—त्वं इत्यादिना। ओङ्कारतदर्थः परापरब्रह्मात्मना त्वं वाङ्मयः। “श्रोत्रस्य श्रोत्रं” इत्यादिश्रुतिसिद्धप्रत्यक्षप्रवृत्तिनिमित्तेश्वरात्मना त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानतत्त्वज्ञानभासकज्ञप्तिमात्रोऽसीत्यर्थः॥५॥ ब्रह्मविष्णुरुद्रात्मना जगदुत्पत्तिस्थितिभङ्गकारणं त्वमेवेत्याह—सर्वमिति। पुनर्व्युत्थान तया सरूपविलयं भजति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति तत्त्वज्ञदृष्ट्या विरूपविलय भजति। स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितभूरादिपञ्चभूतानि परापश्यन्तीमध्यमावैखरीभेदेन तन्निष्पन्नशब्दजालमपि त्वमेवेत्याह—त्वमिति। स्वज्ञस्वाज्ञदृष्टिभ्यां त्वं तमआदिगुणत्रयातीतः। त्वं स्थूलादिदेहत्रयातीतः। एवं भूतादिकालत्रयातीतः। त्वं व्यष्टिसमष्ट्यात्मकप्रपञ्चस्य चतुर्दलात्मके मूलाधारे स्थितोऽसि नित्यम्। अजडक्रियाज्ञानेच्छाभेदेन त्वं शक्तित्रयात्मकः। ब्रह्मैवाहमस्मीति त्वां योगिनोध्यायन्ति नित्यम्ब्रह्मादिव्याहृत्यन्तरूपस्त्वमेवेत्याह—त्वमिति। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्थितिकर्ता विष्णुः संहारकर्ता रुद्रः। इन्द्राग्निवायुग्रहणमष्टदिक्पालकोपलक्षणार्थम्। जगच्चक्षुः सूर्यः जगदाप्यायनकरः चन्द्रः। एवंरूपेण सर्वत्रोपबृंहणात् ब्रह्म। तव व्याहृतित्रयात्मकोङ्कारस्वरूपेण सर्वात्मकत्वसिद्धमित्यर्थः॥६॥
गणपतिमनुः
गणादीन्43 पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं44 तदनन्तरम्।
अनुस्वारः45 परतरः अर्धेन्दुलसितं तथा॥
तारेण युक्तमेतदेव मनुस्वरूपम्॥७॥
गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहिता संधिः। सैषा गाणेशी विद्या॥८॥
** गणक ऋषिः। नृचद्गायत्री छन्दः। श्रीमहागणपतिर्देवता। ॐ46 गणपतये नमः॥९॥**
गणपत्यष्टाक्षरमनुं साङ्गं तद्गायत्रीं तद्ध्यानं तत्फलं चाह—
गणादीनिति। आदावोङ्कारमुच्चार्य ततो गणादीन् गणादिगणपतिमनुवर्णादिं तदनन्तरमनुस्वारः॥७॥ गकारः पूर्वरूपं तदुपरिविद्योतमान अकारो मध्यमरूपं, अनुस्वारश्चान्त्यरूपं, अर्धमात्रात्मको बिन्दुरुत्तररूपं, दीर्घोच्चारणप्रभवनादः संधानं कृत्स्नोच्चारणरूपा संहिता संधिः। यैवंविधा भवति सैषा गाणेशी विद्या॥८॥ तस्य ऋष्यादय उच्यन्ते—श्रीगणेशमहामन्त्रस्य गणक ऋषिः। गं बीजम्। नमः शक्तिः। गणपतय इति कीलकम्। गां इत्यादिषडङ्गम्। एकदन्तं इति ध्यानम्। लं इत्यादिपञ्चपूजा। ॐ गणपतये नमः इति मूलमन्त्रः, ततो हृदयादिध्यानपञ्चपूजा॥९॥
गणपति गायत्री
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥१०॥
ततस्तद्गायत्री—एकदन्तायेति॥१०॥
गणपतिध्यानम्
एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्।
अभयं वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्॥११॥
रक्तलम्बोदरं शूर्पसुकर्णं रक्तवाससम्।
रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्॥१२॥
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्47।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात् परम्॥१३॥
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः॥१४॥
ध्यानं तु—एकदन्तमिति॥११–१२॥ प्राण्यदृष्टवशादेवं आविर्भूतं च। मायेश्वरकलनातः परं विलक्षणमित्यर्थः॥१३॥ एवं ध्यानतः एवमिति। सविशेषगणपतिध्यानयोगिनां निर्विशेषगणपतिध्यायी वरो भवति॥१४॥
गणपतिमालामन्त्रः
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्नविनाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमोनमः॥१५॥
गणपतिमालामन्त्रमाह—नम इति। नमः ब्रह्मादिदेवतानां व्रातपतये मनुष्याणां गणपतये नमः। एवं गणपतिमन्त्रगायत्रीमालामन्त्रपुरश्चरणां यथावद्यः करोति तस्य चित्तशुद्धिर्जायते, ततोऽयं गणेशविद्याविचारप्रादुर्भूतज्ञानविज्ञानसम्यग्ज्ञानसमकालप्राप्यकैवल्यभाग्भवतीति प्रकरणार्थः॥१५॥
विद्यापठनफलम्
** एतदथर्वशिरो योऽधीते स ब्रह्मभूयाय कल्पते। स सर्वतः सुखमेधते। स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते। स पञ्चमहापातकोपपातकात्प्रमुच्यते। सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायंप्रातः प्रयुञ्जानोऽपापो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति॥१६॥**
** **विद्यापठनवेदनफलमाह—एतदिति। अर्थानुसन्धानपुरस्सरं एतदथर्वशिरो योऽधीते स ब्रह्मभूयाय कल्पते ब्रह्मीभूतो भवति। स सर्वतः सुखमेधते अखण्डानन्दमेति। स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते निर्विघ्नतया स्वपदं याति। पञ्चमहापातकघ्नमिदमेवेत्याह—स इति। कालत्रयाध्ययनफलं सर्वपापनिरसनपूर्वकं पुरुषार्थचतुष्टयप्रदमित्याह—सायमित्यादिना॥१६-१७॥
विद्यासंप्रदाननियमः
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्। यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति॥१७॥
काम्यप्रयोगाः
सहस्रावर्तनाद्यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्। अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति। चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति। इत्यथर्वणवाक्यं ब्रह्माद्याचरणं विद्यान्न बिभेति कदाचनेति। यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्रेण
यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति। यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वंलभते स सर्वं लभते। अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति। सूर्यग्रहणे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा स सिद्धमन्त्रो भवति। महाविघ्नात् प्रमुच्यते। महादोषात् प्रमुच्यते॥१८॥
यदनधिकारिणे न देयं तत् सर्वकामार्थदमित्याह—
सहस्रेति। अनेन अनयोपनिषदा वाग्मी भवति वाचालको भवति। देहपातपर्यन्ताभ्यासान्निर्भयब्रह्मभावमेति। धनार्थी यो दूर्वाङ्कुरैः यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यशोमेधाऽर्थी यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति॥१८॥
विद्यावेदनफलम्
स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति य एवं वेदेत्युपनिषत्॥ १९॥
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय स्वाश्रमाचारसंपन्नो भूत्वाऽर्थानुसन्धानतया गणेशोपनिषदं सदाऽनुसंदधाति मुनिः, यद्गणपतिविद्यानिष्पन्नं गणपतित्वं सर्वापह्नवसिद्धनिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रमिति य एवं वेद स स्वातिरेकेण सर्वासंभवं जानातीति स सर्वविद्भवति ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः। इत्युपनिषच्छदोः गणपत्युपनिषत्परिसमाप्त्यर्थः॥१९॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
गणेशोपनिषद्व्याख्या लिखिता स्वात्मगोचरा।
गणेशविवृतिग्रन्थः सप्ताशीतिरितीरितः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे एकोननवतिसङ्ख्यापूरकं
गणपत्युपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
जाबाल्युपनिषत्
आप्यायन्तु—इति शान्तिः
ईश्वरोपासनं परमतत्त्वज्ञानसाधनम्
** अथ हैनं भगवन्तं जाबालिं पैप्पलादिः पप्रच्छ भगवन् मे ब्रूहि परमतत्त्वरहस्यम्॥१॥**
** किं तत्त्वं को जीवः कः पशुः क ईशः को मोक्षोपाय इति॥२॥**
** स तं होवाच साधु पृष्टं सर्वं निवेदयामि यदाज्ञातमिति॥३॥**
** पुनः स तमुवाच कुतस्त्वया ज्ञातमिति॥४॥**
** पुनः स तमुवाच षडाननादिति॥५॥**
** पुनः स तमुवाच तेनाथ कुतो ज्ञातमिति॥६॥**
** पुनः स तमुवाच तेनेशानादिति॥७॥**
** पुनः स तमुवाच कथं तस्मात्तेन ज्ञातमिति॥८॥**
जाबाल्युपनिषद्वेद्यपरतत्त्वस्वरूपकम्।
पारमैश्वर्यविभवरामचन्द्रपदं भजे॥
इह खलु सामवेदप्रविभक्तेयं जाबाल्युपनिषत् ज्ञानसाधनभस्मधारणविधिप्रकटनव्यग्रा परापरतत्त्वपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विव-
रणमारभ्यते। पैप्पलादिजाबालिप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—अथेति। पप्रच्छ किमित्यत्र—भगवन्निति॥१॥ पैप्पलादिना पृष्टो जाबालिः निरुत्तरेण तूष्णीमास। “यतो वाचो निवर्तन्ते” इतिश्रुतिसिद्धपरमतत्त्वरहस्यब्रह्मणो निष्प्रतियोगिकाद्वैतत्वेन निरुत्तरमहामौनरूपत्वात् ब्रह्म तथाविधमित्यवगम्य तदवगत्युपायतया प्रश्नान्तरं पृच्छति—किं इति॥२॥ प्रश्नोत्तरमाह—स तं होवाचेति। किमिति—साध्विति। त्वया साधु पृष्टं तत् सर्वंनिवेदयामीति। एवं त्वया यदाज्ञातमिति॥३॥ निर्विशेषब्रह्मणः स्वभेदेन ज्ञातुमशक्यमिति प्रकटनायावचनेन पुनः स तमुवाच॥४-१०॥
पशुपशुपतितत्त्वनिवेदनम्
** पुनः स तमुवाच तदुपासनादिति॥९॥**
** पुनः स तमुवाच भगवन् कृपया मे सरहस्यं सर्वं निवेदयेति॥१०॥**
** स तेन पृष्टः सर्वं निवेदयामास तत्त्वम्। पशुपतिरहंकाराविष्टः संसारी जीवः। स एव पशुः। सर्वज्ञः पञ्चकृत्यसंपन्नः सर्वेश्वर ईशः पशुपतिः॥११॥**
** के पशव इति पुनः स तमुवाच॥१२॥**
** जीवाः पशव उक्ताः। तत्पतित्वात् पशुपतिः॥१३॥**
** स पुनस्तं होवाच कथं जीवाः पशव इति। कथं तत्पतिरिति॥१४॥**
** स तमुवाच यथा तृणाशिनो विवेकहीनाः परप्रेष्याः कृष्यादिकर्मसु नियुक्ताः सकलदुःखसहाः स्वस्वामिबध्यमाना गवादयः पशवः। यथा तत्स्वामिन इव सर्वज्ञ ईशः पशुपतिः॥१५॥**
सोऽयं जाबालिः तेन पैप्पलादिना पृष्टः सन् यद्वक्तव्यं तत्त्वं तत् सर्वंनिवेदयामास। किमिति निवेदयामासेत्यत आह—
पशुपतिरिति। स्वाज्ञानपाशेन
बध्यन्त इति पशवः, तेषां पतिः स्वामी पशुपतिः परमेश्वरः निरावृताजडक्रियाज्ञानेच्छासंपन्नोऽपि स्वाज्ञविकल्पिताहंकाराविष्ट इवाविष्टो यः संसारी जीव इति विख्यातः। स एव हि पशुरुच्यते। ईशस्यैव जीववद्भानात् शिवजीवयोरभेदः सिद्ध इत्यत्र—“जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः” इति, “तत्त्वमसि” “अहं ब्रह्मास्मि”, इत्यादिश्रुतेः, “कारणं कार्यमुत्पाद्य कार्यतामिव गच्छति” इति वार्तिककारोक्तेश्च। वस्तुतोऽयमीशः स्वातिरेकेण न हि सर्वमस्तीति जानातीति सर्वज्ञः “यः सर्वज्ञः सर्ववित्” इति श्रुतेः। स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितपञ्चब्रह्मात्मना सृष्ट्यादिपञ्चकृत्यसम्पन्नः सर्वश्चासावीश्वर इति सर्वेश्वरः परमार्थदृष्ट्या स्वावशेषेणावस्थातुं य ईष्टे स ईश एव पशुपतिः परमात्मेत्यर्थः॥११॥ पुनः पृच्छति—के पशव इति॥१२-१४॥पशूनां लक्षणमाह—यथेति॥१९-१७॥
विभूतिधारणस्य ज्ञानोपायत्वम्
तज्ज्ञानं केनोपायेन जायते॥१६॥
पुनः स तमुवाच विभूतिधारणादेव॥१७॥
शांभवव्रतम्
तत्प्रकारः कथमिति। कुत्रकुत्र धार्यम्॥१८॥
पुनः स तमुवाच सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैर्भस्म संगृह्याग्निरिति भस्मेत्यनेनाभिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य जलेन संसृज्य48 त्र्यायुषमिति शिरोललाटवक्षःस्कन्धेष्विति तिसृभित्र्यायुषैस्त्र्यम्बकैस्तिस्रो रेखाः प्रकुर्वीत। व्रतमेतच्छाम्भवं सर्वेषु वेदेषु वेदवादिभिरुक्तं भवति। तत् समाचरेन्मुमुक्षुर्न49 पुनर्भवाय॥१९॥
सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः इत्यादि कालाग्निरुद्रोपनिषदि व्याख्यातम्॥१९-२२॥
त्रिपुण्ड्रधारणप्रमाणम्
अथ सनत्कुमारः प्रमाणं पृच्छति त्रिपुण्ड्रधारणस्य। त्रिधा रेखा आललाटादाचक्षुषोरार्भ्रुवोर्मध्यतश्च॥२०॥
रेखात्रये भावनाविशेषः
** याऽस्य प्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्चाकारो रजो भूर्लोकः स्वात्मा क्रियाशक्तिः ऋग्वेदः प्रातःसवनं प्रजापतिर्देवो देवतेति। यास्य द्वितीया रेखा सा दक्षिणाग्निरुकारः सत्त्वमन्तरिक्षमन्तरात्मा चेच्छाशक्तिर्यजुर्वेदो माध्यन्दिनं सवनं विष्णुर्देवो देवतेति। याऽस्य तृतीया रेखा साऽऽहवनीयो मकारस्तमो द्यौर्लोकः परमात्मा ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयसवनं महादेवो देवतेति॥२१॥**
भस्मधारणफलम्
** त्रिपुण्ड्रं भस्मना करोति यो विद्वान् ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स50 महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति। स सर्वान्वेदानधीतो भवति। स सर्वान् देवान् ध्यातो भवति। स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति। स सकलरुद्रमन्त्रजापी भवति। न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते॥इति॥२२॥**
** ॐ सत्यमित्युपनिषत्॥२३॥**
आदौ यदवचनेनोक्तवान् तदोङ्काराग्रविद्योतमानं, “तुर्योङ्काराप्रविद्योतमानं तुर्यतुर्यं” इति श्रुतेः। यज्जाग्रज्जाग्रदाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तचतुष्पञ्चदशविकल्पासंभवप्रबोधसिद्धतुर्यतुर्यस्वरूपं तदेव सत्यं स्वाज्ञादिदृष्टिमोहे सत्यसति निष्प्रतियोगिकसन्मात्रमित्यर्थः, “पश्यतेहापि सन्मात्रमसदन्यत्” इति श्रुतेःमत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनञ्जय" इति स्मृतेश्च। इत्युपनिषच्छन्दो जाबाल्युपनिषत्समाप्त्यर्थः॥२३॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
जाबाल्युपनिषद्वयाख्या लिखिता शिवगोचरा।
जाबाल्युपनिषद्वयाख्या चत्वारिंशदितीरिता॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे चतुरुत्तरशतसङ्ख्यापूरकं
जाबाल्युपनिषद्विवरणंसम्पूर्णम्॥
दक्षिणामूर्त्युपनिषत्
सह नाववतु इति शान्तिः
शिवतत्वज्ञानेन चिरजीवित्वप्राप्तिः
** ब्रह्मावर्ते महाभाण्डीरवटमूले महासत्राय समेता महर्षयः शौनकादयस्ते ह समित्पाणयस्तत्त्वजिज्ञासवो मार्कण्डेयं चिरंजीविनमुपसमेत्य पप्रच्छुः केन त्वं चिरं जीवसि केन वाऽऽनन्दमनुभवसीति॥१॥**
** परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानेनेति स होवाच॥२॥**
यन्मौनव्याख्यया मौनिपटलं क्षणमात्रतः।
महामौनपदं याति स हि मे परमा गतिः॥
इह खलु कृष्णयजुर्वेदप्रविभक्तेयं दक्षिणामूर्त्युपनिषत् ससाधनपरमरहस्यशिवतत्त्वं प्रकाशयन्ती विजृम्भते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। शौनकादिमहर्षिपटलमार्कण्डेयप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आदावाख्यायिकामवतारयति—ब्रह्मावर्त इत्यादिना। पप्रच्छुः किमिति? केनेति॥१॥ एवं पृष्टो मुनिराह—परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानेनेति। अनधिकारिषु गोपनीयत्वात् परमरहस्यं यत्तत्त्वं यद्याथात्म्यं स्वातिरिक्ताशिवा-
विद्यापदतत्कार्यजातापह्नवसिद्धमिति ज्ञायते तत् परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानं तेनैवाहं चिरं जीवन् स्वानन्दमनुभवामीत्यर्थः॥२॥
शिवतत्त्वज्ञाने प्रश्नाः
** किं तत् परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानम्। तत्र को देवः। के मन्त्राः। का निष्ठा। किं तज्ज्ञानसाधनम्। कः परिकरः। को बलिः। कः कालः। किं तत्स्थानमिति॥३॥**
पुनस्ते तं पृच्छन्तीत्याह
—
किं तदिति॥३॥
परमशिवतत्त्वज्ञानस्वरूपम्
** स होवाच। येन दक्षिणामुखः शिवोऽपरोक्षीकृतो भवति तत् परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानम्॥४॥**
** **नवविधप्रश्नोत्तरं क्रमेण य आचार्यपदं गतो मार्कण्डेयः स होवाच। आद्यं प्रश्नमपाकरोति—येनेति।
शिवो गुरुः शिवो वेदः शिवो देयः शिवः प्रभुः।
शिवोऽस्म्यहं शिवः सर्वंशिवादन्यन्न किञ्चन॥
इति श्रुतिसिद्धप्रबोधेन येन। स्वदृष्टिपथं प्रविष्टानां मोक्षार्थिनां केवलमौनव्याख्यानतो निष्पन्ननिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रज्ञानसमकालप्रादुर्भूतस्वमात्रावस्थानलक्षणविकलेबरकैवल्यदक्षिणा देयेति यस्तद्वितरणाभिमुखो भवति सोऽय दक्षिणामुखः परमात्मा येन स्वोपदिष्टनिर्विशेषज्ञानेन स्वावशेषधिया अपरोक्षीकृतो भवति तद्धि तज्ज्ञानमित्यर्थः॥४॥
ज्ञेयदेवस्वरूपम्
यः सर्वोपरमे काले सर्वानात्मन्युपसंहृत्य स्वात्मानन्दसुखे मोदते प्रकाशते वा स देवः॥५॥
द्वितीयप्रश्नोत्तरमाह—य इति। स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितं सर्वं स्वज्ञानसमकालमुपरममपह्नवं गच्छतीति सर्वोपरमः तस्मिन् सर्वोपरमे काले स्वाज्ञविकल्पितस्वाविद्यापदतत्कार्यरूपान् सर्वान् स्वात्मनि स्वमात्रं उपसंहृत्य स्वात्मानन्दसुखे सच्चिदानन्दाकाशे स्वमात्रतया मोदते प्रकाशत इति वा स देव इति॥५॥
चतुर्विंशाक्षरमनुः
अत्रै मन्त्ररहस्यश्लोका भवन्ति—अस्य51 श्रीमेधादक्षिणामूर्तिमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः। देवता दक्षिणाऽऽस्यः। मन्त्रेणाङ्गन्यासः॥६॥
ॐ आदौ नम उच्चार्य ततो भगवते पदम्।
दक्षिणेति पदं पश्चान्मूर्तये पदमुद्धरेत्॥७॥
अस्मच्छन्दं चतुर्थ्यन्तं मेधां प्रज्ञां पदं वदेत्।
प्रमुच्चार्य ततो वायुबीजं च्छं च ततः पठेत्॥
अग्निजायां ततस्त्वेष चतुर्विंशाक्षरो मनुः॥७॥
स्फटिकरजतवर्णंमौक्तिकीमक्षमाला-
ममृतकलशविद्यां ज्ञानमुद्रां कराग्रे।
दधतमुरगकक्ष्यं चन्द्रचूडं त्रिणेत्रं
विघृतविविधभूषं दक्षिणामूर्तिमीडे॥८॥
तृतीयप्रश्नापकरणाय प्रज्ञामेधाविज्ञानप्रदमन्त्रानुदाहरति—अत्रेति। मायागर्भितप्रणवाभ्यां बीजादिकं मन्त्रपञ्चकसाधारणम्। मन्त्रेणाङ्गन्यासः॥६॥
मन्त्रोद्धारः ओमिति। मनुः—ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेघां प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहेति॥७–८॥
नवाक्षरमनुः
मन्त्रेण न्यासः—
आदौ वेदादिमुच्चार्य स्वराद्यं सविसर्गकम्।
पञ्चार्णं तत उद्धृत्य अतरं सविसर्गकम्।
अन्ते समुद्धरेत्तारं मनुरेष नवाक्षरः॥९॥
मुद्रां भद्रार्थदात्रीं सपरशुहरिणं बाहुभिर्बाहुमेकं
जान्वासक्तं दधानो भुजगबिलस52माबद्धकक्ष्यो वटाधः।
आसीनश्चन्द्रखण्डप्रतिघटितजटाक्षीरगौरस्त्रिणेत्रो
दद्यादाद्यः शुकाद्यैर्मुनिभिरभिवृतो भावशुद्धिं भवो नः॥१०॥
नवाक्षरमन्त्रमुद्धरति—आदाविति। ॐ दक्षिणामूर्तिरतरों इति नवाक्षरमनुः॥९-१०॥
अष्टादशाक्षरमनुः
मन्त्रेण न्यासः—
तारं ब्लूं नम उच्चार्य मायां वाग्भवमेव च।
दक्षिणापदमुच्चार्य ततः स्यान्मूर्तये पदम्॥११॥
ज्ञानं देहि पदं पश्चाद्वह्निजायां ततो न्यसेत्।
मनुरष्टादशार्णोऽयं सर्वमन्त्रेषु गोपितः॥१२॥
भस्मव्यापाण्डराङ्गः शशिशकलधरो ज्ञानमुद्राक्षमाला-
वीणापुस्तैर्विराजत्करकमलधरो योगपट्टाभिरामः।
व्याख्यापीठे निषण्णो मुनिवरनिकरैः सेव्यमानः प्रसन्नः
सव्यालः कृत्तिवासाः सततमवतु नो दक्षिणामूर्तिरीशः॥१३॥
ॐ ब्लूं नमो ह्रीं ऐं दक्षिणामूर्तये ज्ञानं देहि स्वाहा इत्यष्टादशाक्षरमनुः॥११-१३॥
द्वादशाक्षरमनुः
मन्त्रेण न्यासः—
तारं परां रमाबीजं वदेत् साम्बशिवाय च।
तुभ्यं चानलजायां तु मनुर्द्वादशवर्णकः॥१४॥
वीणां करैः पुस्तकमक्षमालां विभ्राणमभ्राभगलं वराढ्यम्।
फणीन्द्रकक्ष्यं मुनिभिः शुकाद्यैः सेव्यं वटाधः कृतनीडमीडे॥१५॥
ॐ ह्रीं श्रीं साम्बशिवाय तुभ्यं स्वाहा इति द्वादशाक्षरमनुः॥१४-१५॥
आनुष्टुभो मन्त्रराजः
विष्णू ऋषिरनुष्टुप् छन्दः। देवता दक्षिणाऽऽस्यः। मन्त्रेण न्यासः।
तारं नमो भगवते तुभ्यं वटपदं ततः।
मूलेति पदमुच्चार्य वासिने पदमुद्धरेत्53॥१६॥
वागीशाय54 पदं पश्चान्महाज्ञानपदं ततः।
दायिने पदमुच्चार्य मायिने55 नम उद्धरेत्॥१७॥
आनुष्टुभो56 मन्त्रराजः सर्वमन्त्रोत्तमोत्तमः॥१८॥
मुद्रापुस्तकवह्निनागविलसद्बाहुं प्रसन्नाननं
मुक्ताहारविभूषणं शशिकलाभास्वत्किरीटोज्ज्वलम्।
अज्ञानापहमादिमादिमगिरामर्थं भवानीपतिं
न्यग्रोधान्तनिवासिनं परगुरुं ध्यायाम्यभीष्टाप्तये॥१९॥
ॐ नमो भगवते तुभ्यं वटमूलनिवासिने। वागीशाय महाज्ञानदायिने मायिने नमः॥इति॥१६-१९॥
निष्ठाऽऽदीनां निरूपणम्
सोऽहमिति यावदास्थितिः सा निष्ठा भवति॥२०॥
तदभेदेन मन्वाम्रेडनं ज्ञानसाधनम्॥२१॥
चित्ते तदेकतानता परिकरः॥२२॥
अङ्गचेष्टार्पणं बलिः॥२३॥
त्रीणि धामानि कालः॥२४॥
द्वादशान्तपदं स्थानमिति॥२९॥
चतुर्थप्रश्नोत्तरं प्रकटयति—सोऽहमिति। यः स्वातिरिक्तकलनाऽपह्नवसिद्धब्रह्ममात्रतयाऽवशिष्यते सोऽहं स्वमात्रमिति यावदास्थितिः शरीरपातावधिवर्तनं
सैव हि ब्रह्मनिष्ठा भवति॥२०॥ पञ्चमप्रश्नमापूरयति—तदभेदेनेति। मन्तारं त्रायत इति मन्त्रः प्रत्यक्परचिदैक्यार्थमन्त्रप्रतिपाद्या देवता सैवाहमस्मीति तदभेदेन मन्त्रदेवताऽऽत्माभेदेन मन्वाम्रेडनं आवर्तनं तज्ज्ञानसाधनम्॥२१॥ षष्ठप्रश्नोत्तरमाचष्टे—चित्ते तदेकतानता परिकर इति। चित्ते तदेकतानता मन्त्रैकशरणत्वं परिकर उपकरणमित्यर्थः॥२२॥ सप्तमप्रश्नोत्तरमाह अङ्गचेष्टार्पणं बलिरिति। हस्तपादचलनादिकं सपर्या भवति॥२३॥ अष्टमप्रश्नोत्तरमाह—त्रीणि धामानि काल इति। स्वाविद्यापदस्थूलसूक्ष्मबीजरूपाणि त्रीणि धामानि कालः स्वातिरिक्तप्रपञ्चकलनानिर्वाहकत्वात् कालो गुणसाम्यमित्यर्थः॥२४॥ नवमप्रश्नं विशदयति—द्वादशान्तपदं स्थानमिति। द्वादशान्तशब्देन हृदयं सहस्रारं वोच्यते, प्रत्यगभिन्नपरमात्मन उपलब्धिस्थानत्वात्॥२५॥
शिवतत्त्वज्ञानोदयादिनिरूपणम्
ते ह पुनः श्रद्दधानास्तं प्रत्यूचुः—कथं वाऽस्योदयः। किं स्वरूपम्। को वाऽस्योपासक इति॥२६॥
स होवाच—
वैराग्यतैलसंपूर्णॆभक्तिवर्तिसमन्विते।
प्रबोधपूर्णपात्रे तु ज्ञप्तिदीपं विलोकयेत्॥२७॥
मोहान्धकारे निःसारे उदेति स्वयमेव हि।
वैराग्यमरणिं कृत्वा ज्ञानं कृत्वा तु चित्रगुम्57॥२८॥
गाढतामिस्रसंशान्त्यै गूढमर्थं निवेदयेत्।
मोहभानुजसंक्रान्तं विवेकाव्यं मृकण्डुजम्॥२९॥
तत्त्वाविचारपाशेन बद्धद्वैतभयातुरम्।
उज्जीवयन्निजानन्दे स्वस्वरूपेण संस्थितः॥३०॥
शेमुषी दक्षिणा प्रोक्ता सा यस्याभीक्षणे मुखम्।
दक्षिणाभिमुखः प्रोक्तः शिवोऽसौ ब्रह्मवादिभिः॥३१॥
सर्गादिकाले भगवान् विरिञ्चिरुपास्यैनं सर्गसामर्थ्यमाप्य।
तुतोष चित्ते वाञ्छितार्थांश्च लब्ध्वा सोऽस्योपासको भवति॥३२॥
स्वप्रश्नोत्तरहर्षिता मुनयः पुनः पृच्छन्तीत्याह —त इति। प्रत्यूचुः किमिति? कथमिति॥२६॥ क्रमेण प्रश्नत्रयमपाकरोति—स होवाचेति। तत्र कथं वाऽस्योदय इत्याद्यप्रश्नोत्तरमाह—वैराग्येति। तैलवर्तिपात्रस्थानीयवैराग्यभक्तिप्रबोधतो ज्ञप्तितया दीप्यत इति ज्ञप्तिदीपं प्रत्यञ्चमात्मानं स्वात्मधिया विलोकयेत्॥२७॥ एवं विलोकनतः किं स्यादित्यत्र स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितमोहान्धकारे स्वज्ञदृष्ट्या निस्सारे सत्यसति परमार्थदृष्ट्या स्वयमेव सदोदेति। हिशब्दा निस्संशयार्थः स्वाज्ञानगाढान्धकारे सति तदवलोकनं कुत इत्यत्राह—वैराग्यमिति। वैराग्यभक्ती पूर्वोत्तरारणी कृत्वा, यत्र मन्थानकाष्ठे चित्रोऽग्निगूढतया वर्तते तं चित्रगुं मन्थानशङ्कुं तत्स्थानीयं ज्ञानं कृत्वा॥२८॥ स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तगाढतामिस्रसंशान्त्यै सम्यङ्मथनं कृत्वा मथनाविर्भूतदारुगूढाग्निवत् गूढमर्थं वैराग्यज्ञानमथनप्रादुर्भूतं स्वाज्ञानतत्कार्यासंभवप्रबोधसिद्धं निवेदयेत् अवलोकयेत् जानीयादित्यर्थः॥ किं स्वरूपमिति प्रश्नोत्तरमाह—मोहेति। स्वाज्ञानमृत्युवक्त्रं प्रविष्टं मृकण्डुतनयं स्वज्ञानेनोज्जीवयन् तदात्मतयाऽवस्थितो भवतीति श्रुतेर्वचः॥२९-३०॥ किंविशेषणविशिष्टः परमात्मेत्यत्राह—शेमुषीति। शेमुषी तत्त्वज्ञानरूपिणी ब्रह्ममात्रप्रकाशनदक्षेति दक्षिणा प्रोक्ता सैव अस्य परमात्मन अभितः ईक्षणे साक्षात्करणे मुखं द्वारं भवति सोऽसौ शिवो ब्रह्मवादिभिः दक्षिणाभिमुखः इति प्रोक्तः प्रतिपादित इत्यर्थः,
ज्ञानैकगम्यत्वात्, “नान्यः पन्था अयनाय विद्यते" इति श्रुतेः॥३१॥ को वाऽस्योपासक इति प्रश्नोत्तरमाह—सर्गादिकाल इति॥३२॥
अध्ययनवेदनफलम्
य इमां परमरहस्यशिवतत्त्वविद्यामधीते स सर्वपापेभ्यो मुक्तो भवति। य एवं वेद स कैवल्यमनुभवतीत्युपनिषत्॥३३॥
विद्याऽऽन्तरालिकमुख्यफलप्रकटनपूर्वकमुपसंहरति—य इति। यथावत्य एवं वेद। इत्युपनिषच्छब्दः दक्षिणामूर्त्यपनिषत्समाप्त्यर्थः॥३३॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
दक्षिणामूर्त्युपनिषद्व्याख्येयं लिखिता लघु।
प्रकृतोपनिषद्व्याख्यासङ्ख्या नवतिसंयुता॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे एकोनपञ्चाशत्सङ्ख्यापूरकं
दक्षिणामूर्त्यपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
पञ्चब्रह्मोपनिषत्
सह नाववतु—
इति शान्तिः
पञ्चब्रह्मणामादौ जनिः
अथ पैप्पलादो भगवन् भो किमादौ किं जातमिति सद्यो जातमिति। किं भगव इति। अघोर इति। किं भगव इति। वामदेव इति। किं वा पुनरिमे भगव इति। तत्पुरुष इति। किं वा पुनरिमे भगव इति। सर्वेषां दिव्यानां प्रेरयिता ईशान इति। ईशानो भूतभव्यस्य सर्वेषां देवयोनिनाम्॥१॥
ब्रह्मादिपञ्चब्रह्माणो यत्र विश्रान्तिमाप्नुयुः।
तदखण्डसुखाकारं रामचन्द्रपदं भजे॥
इह खलु कृष्णयजुर्वेदप्रविभक्तेयं पञ्चब्रह्मोपनिषत् पञ्चब्रह्मतत्कार्यप्रपञ्चप्रकटनव्यग्रा ब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजृम्भते। अस्याः संक्षेपतो विवरणमारभ्यते। शाकलपैप्पलादप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—अथेति। किं जातमिति शाकलेन पृष्टः सन् सद्योजातमिति उवाच। सर्वेषां दिवि भवानां दिव्यानां देवानामपि अन्तर्यामितया प्रेरयिता ईशानः सर्वेश्वरत्वात्। भूतादिकालत्रयस्याप्ययमेवेशान इत्याह—ईशान इति॥१॥
तेषां वर्णादिविषयकः प्रश्नः
** कति वर्णाः। कति भेदाः। कति शक्तयः। यत् सर्वंतद्गुह्यम्॥२॥**
रक्तादिवर्णभेदं क्रियाऽऽदिशक्तिभेदं च पृच्छति—कति वर्णा इति। पञ्चब्रह्मतद्विद्याया अनधिकारिणो गोपनीयत्वं गुह्यत्वम्॥२-३॥
महेशोपदिष्टं तद्रहस्यम्
** तस्मै नमो महादेवाय महारुद्राय॥३॥**
** प्रोवाच तस्मै भगवान् महेशः॥४॥**
पञ्चब्रह्मविद्या कस्मै केनोक्तेत्यत्र प्रोवाच तस्मै पैप्पलादाय भगवान्महेश इति श्रुतेर्वचः॥४॥
सद्योजातस्वरूपम्
गोप्याद्गोप्यतरं लोके यद्यस्ति शृणु शाकल।
सद्योजातं मही पूषा रमा ब्रह्मा त्रिवृत् स्वरः॥५॥
ऋग्वेदो गार्हपत्यं च मन्त्राः सप्त स्वरास्तथा।
वर्णं पीतं क्रिया शक्तिः सर्वाभीष्टफलप्रदम्॥६॥
पैप्पलादः श्रोतारं शाकलमभिमुखीकृत्य सद्योजातादिपञ्चब्रह्मेयत्तां प्रपञ्चयति—गोप्यादिति। किं तत् गोप्याद्गोप्यमित्यत्र सद्योजातं सदाशिवपूर्वमुखं मही पूषा रमा ब्रह्मा त्रिवृत् विश्वविराडोतृचैतन्यम्॥५॥ अकारादिस्वरः। पञ्चाक्षरादयो मन्त्राः सरिगमेति सप्तस्वराः॥६॥
अघोरस्वरूपम्
अघोरं सलिलं चन्द्रं गौरी वेदद्वितीयकम्।
नीरदाभं स्वरं सान्द्रं दक्षिणाग्निरुदाहृतम्॥७॥
पञ्चाशद्वर्णसंयुक्तं स्थितिरिच्छाक्रियाऽन्वितम्।
शक्तिरक्षणसंयुक्तं सर्वाघौघविनाशनम्॥८॥
सर्वदुष्टप्रशमनं सर्वैश्वर्यफलप्रदम्॥९॥
पश्चिममघोरमुखमाह—अघोरमिति। सलिलं आपः। वर्णतो नीरदाभं स्वरं उकाराख्यं सान्द्रं स्निग्धं दक्षिणाभिरुदाहृतम्॥७॥ अकारादिपञ्चाशद्वर्णसंयुक्तम्। स्थितिः परिपालनं इच्छाक्रियाशक्तिद्वययुतं स्वविकल्पितशक्तिरक्षणसंयुक्तम्॥८–९॥
वामदेवस्वरूपम्
वामदेवं महाबोधदायकं पावकात्मकम्58।
विद्यालोकसमायुक्तं भानुकोटिसमप्रभम्॥१०॥
प्रसन्नं सामवेदाख्यं गानाष्टकसमन्वितम्।
धीरस्वरमधीनं चाहवनीयमनुत्तमम्॥११॥
ज्ञानसंहारसंयुक्तं शक्तिद्वयसमन्वितम्।
वर्णंशुक्लं तमोमिश्रं पूर्णबोधकरं स्वयम्॥१२॥
धामत्रयनियन्तारं धामत्रयसमन्वितम्।
सर्वसौभाग्यदं नृणां सर्वकर्मफलप्रदम्॥१३॥
अष्टाक्षरसमायुक्तमष्टपत्रान्तरस्थितम्॥१४॥
वामदेवाख्यदक्षिणमुखस्वरूपमाह—वामदेवमिति॥१०॥ सामवेदप्रविभक्तसप्तगानं भरतशास्त्रनिष्पन्नगीतिश्च गानाष्टकमित्युक्तम्। आमिति धीरस्वरम्॥११॥ ज्ञानशक्तिसंहारशक्तिभेदेन शक्तिद्वयसमन्वितम्॥१२॥ जाग्रदादिस्थूलप्रपञ्चादिधामत्रयनियन्तारं विश्वतैजसात्मना धामत्रयसमन्वितम्॥१३॥ अकचटतपयश इत्यष्टवर्गात्मना ॐ नमो महादेवाय इति वा अष्टाक्षरसमायुक्तं हृत्पुण्डरीकप्रविभक्ताष्टपत्रान्तरस्थितम्॥१४॥
तत्पुरुषस्वरूपम्
यत्तत् तत्पुरुषं प्रोक्तं वायुमण्डलसंवृतम्।
पञ्चाग्निना समायुक्तं मन्त्रशक्तिनियामकम्॥१५॥
पञ्चाशत्स्वरवर्णाख्यमथर्ववेद59स्वरूपकम्।
कोटिकोटिगणाध्यक्षं60 ब्रह्माण्डाखण्डविग्रहम्॥१६॥
वर्णं रक्तं कामदं च सर्वाधिव्याधिभेषजम्।
सृष्टिस्थितिलयादीनां कारणं सर्वशक्तिधृक्॥१७॥
अवस्थात्रितयातीतं तुरीयं ब्रह्मसंज्ञितम्।
ब्रह्मविष्ण्वादिभिः सेव्यं सर्वेषां जनकं परम्॥१८॥
तत्पुरुषाख्योत्तरमुखमाह—यदिति। सप्तकोटिमहामन्त्रशक्तिनियामकम्॥१५॥ पञ्चाशत्सङ्ख्याविशिष्टं पञ्चाशत्स्वरवर्णाख्यम्॥१६–१८॥
ईशानस्वरूपम्
ईशानं परमं विद्यात् प्रेरकं बुद्धिसाक्षिणम्।
आकाशात्मकमव्यक्तमोंकारस्वरभूषितम्॥१९॥
सर्वदेवमयं शान्तं शान्त्यतीतं स्वराद्बहिः।
अकारादिस्वराध्यक्षमाकाशमयविग्रहम्॥२०॥
पञ्चकृत्यनियन्तारं पञ्चब्रह्मात्मकं बृहत्॥२१॥
मध्यविलसितेशानमुखस्वरूपमाह—ईशानमिति॥१९॥ सप्तस्वराद्बहिः शान्त्याख्या काचन कलाऽस्ति तदतीतं तत्परं, “तत्परः परमात्मा” इति श्रुतेः॥२०॥ सृष्ट्यादिपञ्चकृत्यनियन्तारम्॥२१॥
पञ्चब्रह्मलयाधारः परमं ब्रह्म
पञ्चब्रह्मोपसंहारं कृत्वा स्वात्मनि संस्थितम्।
स्वमायावैभवान् सर्वान् संहृत्य स्वात्मनि स्थितः॥२२॥
पञ्चब्रह्मात्मकातीतो भासते स्वस्वतेजसा।
आदावन्ते च मध्ये च भासते नान्यहेतुना॥२३॥
पञ्चब्रह्मप्रपञ्चप्रविलापनात् तदाधारो भवतीत्याह—पञ्चेति॥२२-२३॥
परमब्रह्मज्ञानविधिः
मायया मोहिताः शंभोर्महादेवं जगद्गुरुम्।
न जानन्ति सुराः सर्वे सर्वकारणकारणम्।
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य परात् परं पुरुषं विश्वधाम॥२४॥
येन प्रकाशते विश्वं यत्रैव प्रविलीयते।
तद्ब्रह्म परमं शान्तं तद्ब्रह्मास्मि परं पदम्॥२५॥
पञ्चब्रह्ममिदं विद्यात् सद्योजातादिपूर्वकम्।
दृश्यते श्रूयते यच्च पञ्चब्रह्मात्मकं स्वयम्॥२६॥
पञ्चधा वर्तमानं तं ब्रह्मकार्यमिति स्मृतम्।
ब्रह्मकार्यमिति ज्ञात्वा ईशानं प्रतिपद्यते॥२७॥
पञ्चब्रह्मात्मकं सर्वं स्वात्मनि प्रविलाप्य च।
सोऽहमस्मीति जानीयाद्विद्वान् ब्रह्मामृतो भवेत्॥२८॥
इत्येतद्ब्रह्म जानीयाद्यः स मुक्तो न संशयः॥२९॥
पञ्चाक्षरमयं शंभुं परब्रह्मस्वरूपिणम्।
नकारादियकारान्तं ज्ञात्वा पञ्चाक्षरं जपेत्॥३०॥
सर्वंपञ्चात्मकं विद्यात् पञ्चब्रह्मात्मतत्त्वतः॥३१॥
पञ्चब्रह्मात्मिकींविद्यां योऽधीते भक्तिभावितः।
स पञ्चात्मकतामेत्य भासते पञ्चधा स्वयम्॥३२॥
एवं स्वयंप्रकाशमप्यात्मानं सोऽहमिति देवा अपि न जानन्तीत्याह—माययेति। सर्वकारणकारणं कारणभावमापन्नब्रह्मादेरपि कारणत्वात्, “यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं” इति श्रुतेः। यज्जगत्कारणं तद्रूपस्य सूक्ष्मतया न दृश्यत इत्याह—नेति॥२४॥ स्वातिरिक्तकलनाशान्तम्॥२५-२७॥ यद्यत्करणग्रामगोचरं तत्तत् पञ्चब्रह्मात्मकम्, तदतीतः परमात्माऽहमस्मीति ज्ञानी परमात्मैव भवतीत्याह—पञ्चेति। पञ्चब्रह्म पञ्चब्रह्मात्मकम् इदं विश्वं विद्यात्। यस्तत्प्रविलापनाधारः सोऽहमस्मि॥२८-२९॥ एवं पञ्चब्रह्मभावनया पञ्चाक्षरं जपन् य आस्ते स पञ्चब्रह्मैव भवतीत्युपसंहरति—पञ्चक्षरमिति॥३०-३२॥ पुरा एवमुक्त्वा॥३३॥
शिवस्याद्वैतचैतन्यत्वम्
एवमुक्त्वा महादेवो गालवस्य महात्मनः।
कृपां चकार तत्रैव स्वान्तर्धिमगमत् स्वयम्॥३३॥
यस्य श्रवणमात्रेणाश्रुतमेव श्रुतं भवेत्।
अमतं च मतं ज्ञातमविज्ञातं च शाकल॥३४॥
एकेनैव तु पिण्डेन मृत्तिकायाश्च गौतम।
विज्ञातं मृण्मयं सर्वंमृदभिन्नं हि कार्यकम्॥३५॥
एकेन लोहमणिना सर्वं लोहमयं यथा।
विज्ञातं स्यादथैकेन नखानां कृन्तनेन च॥३६॥
सर्वंकार्ष्णायसं ज्ञातं तदभिन्नं स्वभावतः।
कारणाभिन्नरूपेण कार्यं कारणमेव हि॥३७॥
तद्रूपेण सदा सत्यं भेदेनोक्तिमृषा खलु।
तच्च कारणमेकं हि न भिन्नं नोभयात्मकम्॥३८॥
भेदः सर्वत्र मिथ्यैव धर्मादेरनिरूपणात्।
अतश्च कारणं नित्यमेकमेवाद्वयं खलु।
अत्र कारणमद्वैतं शुद्धचैतन्यमेव हि॥३९॥
योऽन्तर्धिमगमत् स सर्वकारणं कारणविज्ञानेन कारणातिरिक्तं कार्यं नास्तीति कार्याभावे तत्सापेक्षकारणताऽभावादकार्यकारणं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमवशिष्यत इत्याह—यस्येति॥३४॥ येन कारणविज्ञानेन तदनतिरिक्तं कार्यं विज्ञातं स्यादित्यत्र—“येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातं” इत्युपक्रम्य “एकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं स्यात्” इत्यादिछान्दोग्यषष्ठाध्यायनिष्ठार्थं संक्षिप्य प्रकटयतीत्याह—एकेनेति॥३५-३६॥ तदभिन्नं स्वभावतः इत्यत्र उपपत्तिमाह—कारणेति॥३७॥ यदि कारणा[न]तिरिक्तं कार्यं तदा कार्यवत् कारणमप्यनेकतामर्हतीत्यत आह—तच्चेति। मृदाद्यतिरेकेण घटादिशकलस्याप्यदर्शनात्। न हि कारणभिन्नं कार्यमस्ति।
नाप्येकमेव कार्यकारणभावर्महति, अर्धजरतीयन्यायवदतिविरुद्धत्वात्॥३८॥ कार्यकारणभेदो नास्तीत्याह—भेद इति। यत एवं अतः॥३९॥
दहराकाशे शिवोपलब्धिः
अस्मिन् ब्रह्मपुरे वेश्म दहरं यदिदं मुने।
पुण्डरीकं तु तन्मध्ये आकाशो दहरोऽस्ति तत्।
स शिवः सच्चिदानन्दः सोऽन्वेष्टव्यो मुमुक्षुभिः॥४०॥
अयं हृदि स्थितः साक्षी सर्वेषामविशेषतः।
तेनायं हृदयं प्रोक्तः शिवः संसारमोचकः॥
इत्युपनिषत्॥४१॥
इत्थंभूतनिष्प्रतियोगिकाद्वैतात्मोपलब्ध्यधिकरणं किमित्यत आह—अस्मिन्निति। अस्मिन् दहराकाशे यः करणग्रामप्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ततया तदसङ्गत्वेन तद्भावाभावप्रकाशकतया तदसंभवप्रबोधसिद्धनिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रतया च तत्तद्दृष्ट्यनुरूपमवभासते स शिवः॥४०॥ शिवस्य हृदयोपलब्धत्वाद्धृदयस्यापि शिवत्वमुपचर्यत इत्यर्थः। इत्युपनिषच्छब्दः पञ्चब्रह्मोपनिषत्परिसमाप्त्यर्थः॥४१॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
पञ्चब्रह्मोपनिषदो व्याख्यानं लिखितं स्फुटम्।
पञ्चब्रह्मोपनिषदो व्याख्या पञ्चाशदीरिता॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे त्रिणवतिसङ्ख्यापूरकं
पञ्चब्रह्मोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
बृहज्जाबालोपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
प्रथमं ब्राह्मणम्
प्रजापतिकृताविद्याऽण्डसृष्टिः
आपो वा इदमासन् सलिलमेव। स प्रजापतिरेकः पुष्करपर्णे समभवत्। तस्यान्तर्मनसि कामः समवर्तत इदं सृजेयमिति। तस्माद्यत् पुरुषो मनसाऽभिगच्छति। तद्वाचा वदति। तत्कर्मणा करोति॥१॥
तदेषाऽभ्यनूक्ता—कामस्तदग्रे समवर्तताधि। मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। सतो बन्धुमसति निरविन्दन्। हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषेति। उपैनं तदुपनमति। यत्कामो भवति। य एवं वेद॥२॥
यज्ज्ञानाग्निः स्वातिरिक्तभ्रमं भस्म करोति तत्।
बृहज्जाबालनिगमशिरोवेद्यमहं महः॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं बृहज्जाबालोपनिषत् स्वातिरिक्तप्रपञ्चभस्मीकरणपटीयसी सती विजयते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। प्रश्न-
मुण्डकादिवदुपोद्घातादिकमस्यामप्यूह्यम्। भुसुण्डादिशिष्यवर्गकालाग्निरुद्रप्रश्नप्रतिवचन-रूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। अस्यामुपनिषदि स्वातिरिक्तं भस्म, ततः शिष्टं स्वयमेवेति प्रतिपाद्यते। तत्र स्वातिरिक्तेयत्तापरिज्ञानं विना न हि तद्भस्म भवितुमर्हतीति तदियत्ताप्रकटनाय पुराणमवतारयति—आपो वा इति। प्रलयकालीना आपो वै प्रसिद्धाः अनभिव्यक्तनामरूपं इदं अविद्याऽण्डं आसन् सलिलमेव। न हि सलिलादतिरिक्तं किंचिदस्ति। तत्र बृहज्जाबालमन्त्रद्रष्टा यः सोऽयं प्रजापतिरेकः पुष्करपर्णे नारायणनाभिपद्मे समभवत्। तस्य प्रजापतेरन्तर्मनसि कामः समवर्तत। किमिति? इदं अनन्तकोटिब्रह्माण्डात्मकमविद्याऽण्डं सृजेयमिति। यस्मादयं जगत्त्रष्टुकामो भवति तस्माद्यत्पुरुषः मनसा अन्तःकरणेन अभिगच्छति निश्चिनोति यन्मनसि स्मृतं तद्वाचा वदति। यद्वाचोक्तं तत् शरीरनिर्वर्त्यकर्मणा करोति॥१॥ ब्राह्मणोक्तेऽर्थे तदेषाऽभ्यनु पश्चात् उक्ता। वक्ष्यमाणाविद्याऽण्डोद्भूतेः अग्रे प्राक् अधिकत्वेन कामोऽभिलाषः समवर्तत। कामः क्वजातः इत्यत्र मनसोऽन्तःकरणस्य यद्रेतो वीर्यंप्रथममासीत्, स कामो भवतीति पूर्वेणान्वयः,
न हि संकल्पातिरिक्तं मनोऽस्तीति विचिन्त्यताम्।
काम जानामि ते रूपं संकल्पात् किल जायसे॥
इति स्मृतेः। सतः चक्षुर्ग्राह्यप्रपञ्चस्य बन्धुरिवोपकारकत्वात् कामो बन्धुः असति अचाक्षुषे ब्रह्मणि निरविन्दन् निःशेषमगमन्। कवयो मनस ईष्ट इति मनीट्धीः तया मनीषा हृदि प्रतीष्य अवलोक्य। उप समीपे एनं कामिनं उपनमति आप्नोति यस्य दारादिविषये कामो भवति स यत्कामो भवति इति मन्त्रसमाप्त्यर्थः। य एवं यो वेद जानाति स प्राजापत्यपदमश्नुत इत्यर्थः॥२॥
विभूतिरुद्राक्षबृहज्जाबालजिज्ञासा
स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा। स एतं भुसुण्डः कालाग्निरुद्रमगमदागत्य भो विभूतेर्माहात्म्यं ब्रूहीति॥३॥
** तथेति प्रत्यवोचद्भुसुण्ड61 वाच्यमानं62 किमिति॥४॥**
** विभूतिरुद्राक्षयोर्माहात्म्यं बभाणेति॥५॥**
** आदावेव पैप्पलादेन सहोक्त्तमिति॥६॥**
** तत्फलश्रुतिरिति॥७॥**
** तयोर्ध्वं किं वदामेति॥८॥**
** बृहज्जाबालाभिधां मुक्तिश्रुतिं ममोपदेशं कुरुष्वेति॥९॥**
इदानीं प्रासङ्गिकं परित्यज्य प्रकृतमनुसरति—स इति। सः प्रजापतिः तपोऽतप्यत आलोचनं कृतवान्। एवं स तपस्तप्त्वा यो वायसाकारो भुसुण्ड इति विख्यातः परमयोगी तमनुप्रविष्टवान्। सोऽयं प्रजापतिनाऽऽविष्टः भुसुण्डः स्वातिरिक्तभस्मावगत्यर्थं एतं कालाग्निरुद्रमगमत्। तं गत्वा किं कृतवानित्यत आह—आगत्य भो विभूतेर्माहात्म्यं ब्रूहीति॥३॥ भुसुण्डप्रश्नोत्तरं भगवानाह—तथेति प्रत्यवोचत्। किमिति? भुसुण्ड वाच्यमानं किमिति,उच्यमानं किमित्यर्थः॥४॥ आहेतरः विभूतिरुद्राक्षयोर्माहात्म्यं बभाणेति उपदिशेत्यर्थः॥५॥ पुरैवोक्तमित्याह—आदावेव पैप्पलादेन सहोक्तमिति, पैप्पलादेन साकं तुभ्यं विभूतिरुद्राक्षमाहात्म्यमुक्तमित्यर्थः॥६॥ इतर आह—तत्फलश्रुतिरिति। वक्तव्येत्यध्याहार्यम्॥७॥ ततः किमिति भगवानाह—तस्योर्ध्वं किं वदामेति॥८॥ इतर आह—बृहज्जाबालाभिधामिति॥९॥
भस्मपञ्चकस्य नामस्वरूपनिरूपणम्
ॐ तथेति। सद्योजातात् पृथिवी। तस्याः स्यान्निवृत्तिः। तस्याः कपिलवर्णा नन्दा। तद्गोमयेन विभूतिर्जाता॥१०॥
वामदेवादुदकम्। तस्मात् प्रतिष्ठा। तस्याः कृष्णवर्णा भद्रा। गोमयेन भसितं जातम्॥११॥
अघोराद्वह्निः। तस्माद्विद्या। तस्या रक्तवर्णा सुरभिः। तद्गोमयेन भस्म जातम्॥१२॥
तत्पुरुषाद्वायुः। तस्माच्छान्तिः। तस्याः श्वेतवर्णा सुशीला। तस्या गोमयेन क्षारं जातम्॥१३॥
ईशानादाकाशम्। तस्माच्छान्त्यतीता। तस्याश्चित्रवर्णा सुमना। तद्गोमयेन रक्षा जाता॥१४॥
विभूतिर्भसितं भस्म क्षारं रक्षेति भस्मनो भवन्ति पञ्च नामानि। पञ्चभिर्नामभिर्भृशमैश्वर्यकारणाद्भूतिः। भस्म सर्वाधभक्षणात्। शासनाद्भसितम्। क्षारणादापदां क्षारम्। भूतप्रेतपिशाचब्रह्मराक्षसापस्मारभवभीतिभ्योऽभिरक्षणाद्रक्षेति॥१५॥
भगवान् तत्प्रश्नमङ्गीकृत्य प्रतिवचनमभिधास्यति—ॐ तथेति। ओङ्कारस्यानुकृत्यर्थत्वात्, “ओमित्येतदनुकृतिः” इति श्रुतेः। आदौ वक्ष्यमाणनामपञ्चके तत्राद्यनामात्मकविभूतिस्वरूपमाह—सद्योजातादिति। ईश्वरपूर्वाभिमुखसञ्जातसद्योजातं प्रपद्यामीति मन्त्रतो जाता पृथिवी। तस्याः सकाशात् निवृत्तिकला संजाता। तस्याः सकाशात् नन्दा नाम कपिलवर्णा धेनुरभूत्। वक्ष्यमाणप्रकारेण संस्कृततद्गोमयेन विभूतिः संजाता॥१०॥ तद्वितीयभसितस्वरूपमाह—वामदेवादिति॥११॥ भस्मस्वरूपमाह—अघोरादिति॥१२॥ क्षारस्वरूपमाह—तदिति॥१३॥ रक्षास्वरूपमाह—ईशानादिति॥१४॥ एवं भस्मनः पञ्चनामान्यभिधाय तेषां यौगिकार्थमाह—विभूतिरिति॥१५॥
इति प्रथमं ब्राह्मणम्
____________
द्वितीयं ब्राह्मणम्
अग्नीषोमात्मकभस्मस्नानजिज्ञासा
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रमग्नीषोमात्मकं भस्मस्नानविधिंपप्रच्छ॥१॥
भुसुण्डो भगवन्तं भस्मस्नानविधिं पृच्छतीत्याह—अथ भुसुण्ड इति॥१॥
जगतोऽग्नीषोमात्मकत्वम्
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकं भस्म सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥२॥
अग्नीषोमात्मकं विश्वमित्यग्निरित्याचक्षते।
रौद्री घोरा या तैजसी तनूः।
सोमः शक्त्यमृतमयः शक्तिकरी तनूः॥३॥
अमृतं यत्प्रतिष्ठा सा तेजोविद्याकला स्वयम्।
स्थूलसूक्ष्मेषु भूतेषु त एव रसतेजसी॥४॥
द्विविधा तेजसो वृत्तिः सूर्यात्मा चानलात्मिका।
तथैव रसशक्तिश्चसोमात्मा चानलात्मिका॥५॥
वैद्युदादिमयं तेजो मधुरादिमयो रसः।
तेजोरसविभेदैस्तु वृतमेतच्चराचरम्॥६॥
अग्नेरमृतनिष्पत्तिरमृतेनाग्निरेधते।
अत एव हविः क्लृप्तमग्नीषोमात्मकं जगत्॥७॥
प्रश्नोत्तरं भगवानाह—अग्निरिति। यथैकोऽप्यग्निर्भुवनं प्रविश्य स्वाश्रयदार्वनुरूपं रूपं प्रतिरूपो बहुरूपो बभूव तथा एकं स्वातिरिक्तभस्म स्वातिरिक्तप्रपञ्चापवादाधिकरणं व्यष्टिसमष्टिप्रपञ्चारोपाधिकरणविश्वविराडोत्राद्यात्मना सर्वभूतान्तरात्मा भूत्वा तूलान्तःकरणोपाधियोगात् रूपं रूपं प्रतिरूपः स्वातिरिक्तप्रपञ्चापवादाधिकरणद्वितुर्यतदैक्याविकल्पात्मना तद्बहिश्च विलक्षणो भवति, “सर्वस्मादन्यो विलक्षणः” इति श्रुतेः। चशब्दाद्वस्तुतो निरधिकरणं निप्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रमवशिष्यत इति द्योत्यते॥२॥ भस्मनस्तत्कार्यविश्वस्य वाऽग्नीषोमात्मकत्वं कथमित्यत आह—अनीषोमात्मकमिति। अग्निश्च सोमव अग्नीषोमौ तावेव आत्मा यस्य तत् अग्नीषोमात्मकं तद्रूपेण विश्वासार्हंविश्वमग्निरित्युच्यते विश्वस्याग्नीषोमकार्यत्वात्। या तनूर्घोरा तैजसी च भवति अस्या अग्न्यंशत्वात्। अपरा तु शक्तिकरी तनूः अमृतमयः सोम एव शक्तिः वामभागस्थेडाशक्तेरमृतमयत्वात्॥३॥ अमृतं यत्प्रतिष्ठा यस्यां चन्द्रनाड्याममृतस्य प्रतिष्ठितत्वात् सेयं स्वयं चन्द्रनाडी तेजोविद्याकलाऽऽत्मिका भवति। त एव रसतेजसी स्थूलसूक्ष्मभूतेषु द्विधा भवतः॥४॥ सूर्याग्निभेदेन यथा तेजसो वृत्तिः द्विविधा तथैव सोमात्मानलात्मिकेति च रसशक्तिश्च द्विधा भवति॥५॥ तत्र किं तेजः को रस इत्यत्र विद्युदेव वैद्युत्, आदिशब्देन प्रदीपनक्षत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मयं हि तेजः मधुराम्लादिमयो रसः। इत्थं चराचरभेदभिन्नं जगत् तेजोरसभूतैरावृतम्। तुशब्दोऽवधारणार्थः॥६॥ मथनाविर्भूताग्नेः अमृतनिष्पत्तिः, नवनीतघृतादेर्मथनाग्निनिष्पन्नत्वात्। अमृतस्थानीयाज्यतैलकाष्ठगतस्नेहादिना अग्निरेधते वृद्धिमुपैति। यतो मथनाविर्भूतोष्णांशोऽग्निः तज्जोऽमृतविशेषः सोमो भवति, यत एवाग्नीषोमीयं हविः क्लृप्तं निष्पन्नं अत एवेदं जगत् अग्नीषोमात्मकमिति ज्ञेयम्॥७॥
जगतः शिवशक्त्यात्मकत्वम्
ऊर्ध्वशक्तिमयः सोम अधःशक्तिमयोऽनलः।
ताभ्यां संपुटितं तस्माच्छश्वद्विश्वमिदं जगत्॥८॥
अग्नेरूर्ध्वं भवत्येषा यावत् सौम्यं परामृतम्।
यावदग्न्यात्मकं सौम्यममृतं विसृजत्यधः॥९॥
अत एव हि कालाग्निरधस्ताच्छक्ति63रूर्ध्वगा।
यावदादहनश्चोर्ध्वमधस्तात् पावनं64 भवेत्॥१०॥
आधारशक्त्याऽवधृतः कालाग्निरयमूर्ध्वगः।
तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्तिपदास्पदः65॥११॥
शिवश्चोर्ध्वमयः शक्तिरूर्ध्वशक्तिमयः शिवः।
तदित्थं शिवशक्तिभ्यां नाव्याप्तमिह किंचन॥१२॥
असकृच्चाग्निना दग्धं जगत्तद्भस्मसात्कृतम्।
अग्नेर्वीर्यमिदं प्राहुस्तद्वीर्यं भस्म यत्ततः॥१३॥
अग्नीषोमात्मकतया जगत् प्रतिपाद्य पुनः शिवशक्त्यात्मकतया जगत् प्रदर्शयति — ऊर्ध्वति। ऊर्ध्वाधोभेदेन परमेश्वरशक्तिद्विविधा॥ सोमस्तूर्ध्वशक्तिमयः शिवफालाक्षस्थान्यपेक्षया सर्वोर्ध्वतन्मौलिप्रतिष्ठानात्। तदपेक्षया अधःशक्तिमयोऽनलः। यद्वा ऊर्ध्वशक्तिमयः सोमः शिवः स्वभक्तोर्ध्वपदप्रापकविद्याशक्तिसंपन्नत्वात्। यस्य शब्दादिविषये अलंबुद्धिर्न विद्यते सोऽयं अनलो जीवः अधः शक्तिमयः परमार्थतत्त्वाधः प्रापकतूलान्तःकरणाविद्याशक्तिसहितत्वात्। अयमविद्याशक्तिरित्यर्थः,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
इति स्मृतेः। यस्मादेवं तस्मात् ताभ्यां शिवशक्तिभ्यां स्वाज्ञदृष्ट्या स्वातिरेकेणास्तीति शश्वद्विश्वसनीयं इदं विश्वं जगत् संपुटितं कबलितमित्यर्थः॥८॥ यैषा
शिवशक्तिः अग्नेरप्यूर्ध्वं भवति यावत् सोमसंबन्धि सौम्यं परामृतं मूलाधारस्थाग्नेरूर्ध्वं यावदाज्ञाचक्रसहस्रारचक्रान्तरालविलसत्सोममण्डलं सौम्यं परामृतं विद्यते तदेतद्यावत् केवलकुम्भकोत्थितं अग्न्यात्मकं अग्निसंयुक्तं सत् अधः आपादं सौम्यममृतं विसृजति तावच्छिवशक्तियोगो भवतीत्यर्थः॥९॥ यतोऽग्नीषोमयोग एव शिवशक्तियोगो जीवेशैक्यं भवति अत एव ह्यधस्ताच्छक्तिः कालाग्निजीवाभिधाना ऊर्ध्वं ऐश्वरं तत्त्वं तावद्गच्छतीति ऊर्ध्वगा भवति। यावच्छ्विशक्तिस्थानीयजीवेशयोरैक्यं भवति तावत्पुराऽनुभूतभिदादहनोनिश्शेषदहनं भवति। चशब्दात् पुनर्जीवेशभिदायोगो द्योत्यते। ततः पुराऽनुभूतोर्ध्वाधःकलनामलं पावनं ब्रह्मभावापन्नमेव भवेत्॥१०॥ पुनरुक्तार्थमेव दृढयति—आधारेति। मूलाधारशक्त्याऽवधृतो युक्तोऽयं कालाग्निजीवः स्वोपाधिशक्त्यंशं विहाय ऊर्ध्वगो यथा भवति तथैव शिवशक्तिपदास्पदःशिवशक्त्यैक्यनिम्नगो भवतीव भवति वस्तुतस्तस्य निम्नोन्नतवैरल्यात्॥११॥ शक्तिशक्तिमतोरभेदमाह—शिव इति। शिवश्च शिवोऽपि ऊर्ध्वमयः शक्तिः यथा तथा ऊर्ध्वशक्तिमयः शिवः शिवातिरेकेण शक्त्यभावात्। इति यत् तदित्थं इह किंचन किंचिदपि शिवशक्तिभ्यां नाव्याप्तमस्ति सर्वं शिवात्मकमित्यर्थः॥१२॥ शिवातिरिक्तशक्त्यंशं भस्मापह्नवं कृत्वा तदपह्नवसिद्धं शिवं स्वमात्रमिति यः पश्यति तस्य तद्भावापत्तिः फलमिति ब्राह्मणार्थमुपसंहरति—असकृदिति। यत् असकृत् शास्त्रीयज्ञानाग्निना दग्धं तज्जगत् ब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीति सम्यग्ज्ञानाग्निना भस्मसात्कृतं भस्मावसानं कृतमित्यर्थः, “भस्मान्तं शरीरं” इति श्रुतेः। यत् यस्मात् कारणात् इदं जगत् अग्नेर्वीर्यं प्राहुः जगतस्तावदग्निस्थानीयजीवविकल्पितत्वात् ततः तस्मात् कारणात् तस्य जगतो वीर्यंभस्म नासति जगति तद्भस्म तदपह्नोतुमशक्यत्वात्॥१३॥
ज्ञानानधिकारिणां भस्मस्नानविधिः
यश्चेत्थं भस्मसद्भावं ज्ञात्वाऽभिस्नाति भस्मना।
अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैर्दुग्धपाशः स उच्यते॥१४॥
अग्नेर्वीर्यं च तद्भस्म सोमेणाप्लावितं पुनः।
अयोगयुक्त्या प्रकृतेरधिकाराय कल्पते॥१५॥
योगयुक्त्या तु तद्भस्म प्लाव्यमानं समन्ततः।
शाक्तेनामृतवर्षेण ह्यधिकारान्निवर्तते॥१६॥
एवं ज्ञातुमशक्तानां स्वाज्ञानपाशदहनोपायमाह—
यश्चेति। यश्च यः कोऽपि इत्थं वक्ष्यमाणब्राह्मणोक्तविधानेन यथाविधि भस्मसद्भावं ज्ञात्वा “अग्निरिति भस्म” इत्यादिमन्त्रैः भस्मना स्नाति सोऽयं विधिभस्मस्नानमहिम्ना दग्धस्वाज्ञानपाश इत्युच्यते॥१४॥ विधिभस्मस्नातस्य मुख्यभस्माधिगमाधिकारः कुत इत्यत आह—अग्नेरिति। यत् अग्नेर्वीर्यं तत् पुनः सोमेन शिवशक्त्यमृतवारिणा प्लावितं मिश्रीकृतमिव भाति। तत्प्रकृतेरयोगयुक्त्या सोमातिरेकेण प्रकृतिर्विकृतिर्वा न ह्यस्तीति श्रुत्यनुग्राहकयुक्त्या तर्केण यदि विशिष्टस्तदा पुमान् मुख्यभस्मावगत्यधिकाराय कल्पते अधिकारी भवतीत्यर्थः॥१५॥ व्यतिरेकमाह—योगयुक्त्येति। यस्तु शाक्तेनामृतवर्षेण प्रकृतविकृतयोगयुक्त्या तु समन्ततः प्लाव्यमानं भस्म स्वाविद्योपहितमात्मानं जानाति संसार्यहमित्यात्मानं पश्यति स पुमान् मुख्यस्वातिरिक्तभस्मावगत्यधिकारान्निवर्तते। अनधिकार्ययं मन्दप्रज्ञो भवतीत्यर्थः॥१६॥
जीवेशैक्यज्ञानतः संसारनिवृत्तिः
अतो मृत्युंजयायेत्थममृतप्लावनं सताम्।
शिवशक्त्यमृतस्पर्शे लब्ध एव कुतो मृतिः॥१७॥
यो वेद गहनं गुह्यं पावनं च ततोदितम्।
अग्नीषोमपुटं कृत्वा न स भूयोऽभिजायते॥१८॥
अनधिकारिताहेतुसंसारित्वासंभवोपायमाह—अत इति। यतः शक्तियोगयुक्त्या संसारित्वं अतः कारणात् स्वातिरिक्तास्तिताहेतुस्वाज्ञानमृत्युं जयति
अपह्नवं करोतीति मृत्युंजयः परमात्मा तस्मै मृत्युञ्जयाय इत्थं अमृतप्लावनं शिवातिरेकेण शक्त्यंशो न विद्यत इति स्वमात्रज्ञानसमर्पणं ये कुर्वन्ति ते सन्तः तेषां सतां स्वाज्ञदृष्ट्या शिवशक्त्यमृतस्पर्श एव लब्धेऽपि स्वज्ञदृष्ट्या शिवशक्त्यमृतस्पर्शवैरल्यात् कुतो मृतिः परमार्थदृष्ट्या न कुतश्चिदित्यर्थः॥१७॥ जीवशैक्यज्ञानतो नेह पुनर्जात्यादिरस्तीत्याह—य इति। यः पुमान्स्वाज्ञजनगहनं दुरवगमत्वात् गुह्यं अनधिकारिणे गोपनीयत्वात् पावनं च पवित्राणां पवित्रत्वात्। स्वातिरिक्तापावनासंभवद्योतकः चशब्दः। सर्वत्र ततत्वेन सदोदितं कदाऽप्यनस्तमितत्वात्। किं तत्? अग्नीषोमपुटं, पराक्प्रपञ्चदाहकत्वादग्निः प्रत्यक् सर्वात्मकत्वात्, स्वातिरिक्तसर्वाप्यायकत्वाच्च सोमः परमात्मा, तयोरग्नीषोमयोः प्रत्यक्परयोः पुटमैक्यं ब्रह्माहं अहमेव ब्रह्म इति वेद जानाति स मुनित्रेवमैक्यं कृत्वा तद्भेदसापेक्षप्रभवैक्यगतसविशेषांशमप्यपह्नवं कृत्वा तदपह्नवसिद्धं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमित्यवगम्य नेह पुनः स्वातिरिक्तास्तित्वमोहाय जायते तदासक्त्या म्रियते वेत्यर्थः॥१८॥
सविशेषब्रह्मोपासनेनाप्यमृतत्वप्राप्तिः
शिवाग्निना तनुं दग्ध्वा शक्तिसोमामृतेन यः।
प्लावयेद्योगमार्गेण सोऽमृतत्वाय कल्पते।
सोऽमृतत्वाय कल्पत इति॥१९॥
सविशेषब्रह्मोपासकोऽपि तत्प्रसादान्निर्विशेषब्रह्मोपासनाफलमेवैतीत्याह—शिवेति। स्वातिरिक्ताशिवग्रासः शिवः परमात्मा स एवाग्निः तेन शिवाग्निना तनुं तदुपलक्षितस्वाविद्यापदतत्कार्यजातं दग्ध्वा भस्मीकृत्य तत्पुनर्भस्मशक्तिरेव सोमः स एवामृतं तेन शक्तिसोमामृतेन योऽयं योगी सुषुम्नावायुप्रवेशलक्षणयोगमार्गेण प्लावयेत् पिण्डीकुर्यात् ईश्वरभावमापादयेत् सोऽपि तत्प्रसादलब्धनिर्विशेषज्ञानसमकालं अमृतत्वाय कैवल्याय कल्पते। आवृत्तिरेतद्ब्राह्मणसमाप्त्यर्था॥१९॥
इति द्वितीयं ब्राह्मणम्
______________
तृतीयं ब्राह्मणम्
विभूतियोगजिज्ञासा
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रं विभूतियोगमनुब्रूहीति होवाच॥१॥
भुसुण्डः पुनर्भगवन्तं विभूतियोगबुभुत्सया पृच्छतीत्याह—अथेति॥१॥
विभूतेरुत्पत्तिक्रमः
विकटाङ्गामुन्मत्तां महाखला66मशिवादिचिह्नान्वितां पुनर्धेनुं कृशाङ्कां वत्सहीनामशान्तामदुग्धदोहिनीं निरिन्द्रियां जग्धतृणां केशचेलास्थिभक्षिणींसंधिनीं नवप्रसूतां रोगार्तोगां विहाय प्रशस्तगोमयमाहरेद्गोमयं खसंस्थं ग्राह्यं शुभे स्थाने वा पतितमपरित्यज्यात ऊर्ध्वं मर्दयेद्गव्येन। गोमयग्रहणं कपिला वा धवला वा। अलाभे तदन्या गौः स्याद्दोषवर्जिता। कपिलागोभस्मोक्तम्। लब्धगो67भस्मना68 चेदन्यगोक्षारं यत्र कापि स्थितं यत्तन्न हि धार्यंसंस्काररहितं69 धार्यम्॥२॥
भुसुण्डेन विभूत्युत्पत्तिक्रमं पृष्टो भगवान् धेनुलक्षणादि सप्रकारमाह—विकटामिति। विकटाङ्गां विरूपाङ्गां उन्मत्तां इत्यादि रोगार्तांइत्यन्तविशेषणविशिष्टां गां विहाय कपिलादि वर्णतो गुणतः प्रशस्तगोः सकाशात् गोमयमाहरेत्। तदाहरणविधिस्तु गोमयं खसंस्थं अन्तरालस्थं शुभे स्थाने वा पतितं ग्राह्यं यन्निर्दुष्टं तत्’अपरित्यज्य अत ऊर्ध्वं गव्येन गोमयेन सम्यक् मर्दयेत्। यत्
गोमयग्रहणं कार्यमित्यत्र लाभे कपिला वा धवला वा अलाभे विकटाऽऽदिदोषवर्जिता वा स्यात् तस्याः सकाशात् गोमयं ग्राह्यम्। कपिलादिप्रशस्तगोशकृद्भस्म प्रशस्तत्वेन उक्तम्। एवं लब्धगोशकृद्भस्मनोद्धूलनादिः कार्यः। एवं लाभे दोषविशिष्टान्यगोक्षारं यत्र क्वापि स्थितं वक्ष्यमाणसंस्काररहितं वा न हि धार्यम्॥२॥
गोमयादौ विद्याऽऽदिदृष्टिः
तत्रैते लोका भवन्ति—
विद्याशक्तिः समस्तानां शक्तिरित्यभिधीयते।
गुणत्रयाश्रया विद्या सा विद्या च तदाश्रया॥३॥
गुणत्रयमिदं धेनुर्विद्याऽभूद्गोमयं शुभम्।
मूत्रं चोपनिषत् प्रोक्तं कुर्याद्भस्म ततः परम्॥४॥
वत्सस्तु स्मृतयश्चास्यास्तत्संभूतं तु गोमयम्।
इत्यर्थप्रकाशने एते श्लोका मन्त्रा भवन्तीत्याह—तत्रेति। समस्तानां शक्तीनां मध्ये विद्याशक्तिरेव शक्तिः। सा सत्त्वादिगुणत्रयाश्रया गुणत्रयमपि तदाश्रयम्॥३॥ इदं गुणत्रयमेव धेनुः। शुभं गोमयं विद्याऽभूत्। गोमूत्रमुपनिषत् इति प्रोक्तम्। इत्थं धेनुगोमयगोमूत्रादौ गुणत्रयविद्योपनिषद्दृष्टिंकुर्यात्॥४॥ अस्याः गुणत्रयविशिष्टधेन्वाः वत्सस्तु स्मृतिगणो ज्ञेयः। गोतद्वत्सेषु श्रुतिस्मृतिदृष्टिः कार्येत्यर्थः। तत्संभूतं यत् गोमयं तद्भस्म कुर्यादिति पूर्वेणान्वयः॥
गवादिभस्मान्तस्य मन्त्रसंस्कारः
आगाव इति मन्त्रेण धेनुं तत्राभिमन्त्रयेत्॥५॥
गावो भगो गाव इति प्राशयेत्तत्तृणं जलम्।
उपोष्य च चतुर्दश्यां शुक्ले कृष्णेऽथवा व्रती॥६॥
परेद्युः प्रातरुत्थाय शुचिर्भूत्वा समाहितः।
कृतस्नानो धौतवस्त्रः पयोर्ध्वं च सृजेच्च गाम्॥७॥
उत्थाप्य गां प्रयत्नेन गायत्र्या मूत्रमाहरेत्।
सौवर्णे राजते ताम्रे धारयेन्मृण्मये घटे॥८॥
पौष्करेऽथ पलाशे वा पात्रे गोशृङ्ग एव वा।
आदधीत हि गोमूत्रं गन्धद्वारेति गोमयम्॥९॥
आभूमिपातं गृह्णीयात् पात्रे पूर्वोदिते गृही।
गोमयं शोधयेद्विद्वान् श्रीर्मेभजतु मन्त्रतः॥१०॥
अलक्ष्मीर्म इति मन्त्रेण गोमयं धान्यवर्जितम्।
सं त्वा सिञ्चामि मन्त्रेण गोमूत्रं गोमये क्षिपेत्॥११॥
पञ्चानां त्वेति मन्त्रेण पिण्डानां च चतुर्दश।
कुर्यात् संशोध्य किरणैः सौरकैराहरेत्ततः॥१२॥
निदध्यादथ पूर्वोक्तपात्रे गोमयपिण्डकान्।
स्वगृह्योक्तविधानेन प्रतिष्ठाप्याग्निमीजयेत्॥१३॥
पिण्डांश्च निक्षिपेत्तत्र आद्यन्तं प्रणवेन तु।
षडक्षरस्य सूक्तस्य70 व्याकृतस्य तथाऽक्षरैः॥१४॥
स्वाहाऽन्ते जुहुयात्तत्र वर्णदेवाय पिण्डकान्।
आघारावाज्यभागौ च प्रक्षिपेद्व्याहृतीः सुधीः॥१५॥
ततो निधनपतये त्रयोविंशज्जुहोति च।
होतव्याः पञ्च ब्रह्माणि नमो हिरण्यबाहवे॥१६॥
इति सर्वाहुतीर्हुत्वा चतुर्थ्यन्तैश्च मन्त्रकैः।
ऋतं सत्यं कद्रुद्राय यस्य वैकंकतीति च॥१७॥
एतैश्च जुहुयाद्विद्वाननाज्ञातत्रयं तथा।
व्याहृतीरथ हुत्वा च ततः स्विष्टकृतं हुनेत्॥१८॥
इध्मशेषं तु निर्वर्त्य पूर्णपात्रोदकं तथा।
पूर्णमसीति यजुषा जलेनान्येन बृंहयेत्॥१९॥
ब्राह्मणेष्वमृतमिति तज्जलं शिरसि क्षिपेत्।
प्राच्यामिति दिशं71 लिङ्गैर्दिक्षुतोयं विनिक्षिपेत्॥२०॥
ब्रह्मणे दक्षिणां दत्त्वा शान्त्यै पुलकमाहरेत्।
आहरिष्यामि देवानां सर्वेषां कर्मगुप्तये॥२१॥
जातवेदसमेनं त्वां पुलकैश्छादयाम्यहम्।
मन्त्रेणानेन तं वह्निंपुलकैश्छादयेत्ततः॥२२॥
त्रिदिनं ज्वलन72स्थित्यै छादनं पुलकैः स्मृतम्।
ब्राह्मणान् भोजयेद्भक्त्या स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः॥२३॥
भस्माधिक्यमभीप्सुस्तु अधिकं गोमयं हरेत्।
दिनत्रयेण यदि वा एकस्मिन् दिवसेऽथवा॥२४॥
तृतीये वा चतुर्थे वा प्रातः स्नात्वा सिताम्बरः।
शुक्लयज्ञोपवीती च शुक्लमाल्यानुलेपनः॥२९॥
शुक्लदन्तो भस्मदिग्धो मन्त्रेणानेन मन्त्रवित्।
ॐ तद्ब्रह्मेति चोच्चार्य पौलकं भस्म संत्यजेत्॥२६॥
तत्र चावाहनमुखानुपचारांस्तु षोडश।
कर्तव्या73 व्याहृतास्त्वेवं ततोऽग्निमुपसंहरेत्॥२७॥
अग्नेर्भस्मेति मन्त्रेण गृह्णीयाद्भस्म चोत्तरम्।
अग्निरित्यादिमन्त्रेण74 प्रमृज्य च ततः परम्॥२८॥
संयोज्य गन्धसलिलैः कपिलामूत्रकेण वा।
चन्द्रकुङ्कुमकाश्मीरमुशीरं चन्दनं तथा॥२९॥
अगरुत्रितयं चैव चूर्णयित्वा तु सूक्ष्मतः।
क्षिपेद्भस्मनि तच्चूर्णमोमिति ब्रह्ममन्त्रतः॥३० \।\।
प्रणवेनाहरेद्विद्वान् ब्रह्मतो वटकानथ।
अणोरणीयानिति हि मन्त्रेण च विचक्षणः॥३१॥
तत्तन्मनुना गवादिसंस्कारं कुर्यादित्याह—आ गाव इति। “आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्” इति मन्त्रेण धेनुमभिमन्त्र्य॥५॥ “गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छात्” इति मन्त्रेण तृणोदकं प्राशयित्वा श्रौतभस्मव्रती शुक्लकृष्णपक्षयोरन्यतरचतुर्दश्यामुपोष्य॥६॥परेद्युः स्नानादिनित्यकर्म कृत्वा पयोर्ध्वं पयोदोहनानन्तरम्॥७॥ प्रयत्नेन गामुत्थाप्य सौवर्णाद्यन्यतमपात्रे गायत्र्यभिमन्त्रणपूर्वकं गोमूत्रमादधीत॥९॥ ततो “गन्धद्वारां” इति गोमयं आभूमिपातं पूर्वोदितपात्रे गृह्णीयात्॥१०॥ “श्रीर्मेभजतु अलक्ष्मीर्मे नश्यतु” इति मन्त्रेण गोमयं संशोध्य, “सं त्वा सिध्वामि” इति मन्त्रेण गोमये गोमूत्रं निक्षिप्य॥११॥ “पञ्चानां त्वा वातानां
यन्त्राय धर्त्राय गृह्णामि” इति चतुर्दश पिण्डान् कृत्वा, सौरकिरणैः शुष्कीकृत्य॥१२॥ पूर्वोक्तपात्रे निक्षिप्य, स्वगृह्योक्तविधानेन अग्निंप्रतिष्ठाप्य॥१३॥ आद्यन्तप्रणवोच्चारणपूर्वकं तत्रत्यवर्णैः स्वाहाऽन्तैः पञ्चब्रह्मपरब्रह्माधिष्ठितैः स्वाहाऽन्तैर्हुत्वा, तूष्णीं “अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहा” इति मन्त्रैर्व्याहृतिभिश्चहुत्वा॥१४-१५॥ ततः “निधनपतये नमः” इत्यादित्रयोविंशतिमन्त्रैः पञ्चब्रह्ममन्त्रैः॥१६॥ “ऋतं सत्यं परं ब्रह्म” इति, कद्रुद्राय प्रचेतसे मीढुष्टमाय तव्यसे” इति मन्त्राभ्यां च॥१७॥ “अनाज्ञातं” इति त्रयेण व्याहृतित्रयेण च यथावद्धुत्वा ततः स्विष्टकृत्पूर्णाहुती च हृत्वा॥१८॥ इध्मशेषं निर्वर्त्य, पूर्णपात्रोदकं “पूर्णमसि” इति यजुषा जलान्तरेण संपूर्य, “प्राच्यां दिशि देवाः” इत्यादिना दिक्षु तोयं निक्षिप्य॥१९॥ “ब्राह्मणेष्वमृतं” इति तज्जलं शिरसि संप्रोक्ष्य॥२०॥ब्रह्मदक्षिणां दत्वा, “आहरिष्यामि देवानां” इति जातवेदसं पुलकैः संछाद्य॥२१-२२॥ ब्राह्मणान् भोजयित्वा, स्वयमपि भुक्त्वा॥२३-२४॥ चतुर्थेऽऽहनि शान्तेऽग्नौ नित्यानुष्ठानानन्तरं “ॐ तद्ब्रह्म" इति मन्त्रेण पौलकभस्मत्यागपूर्वकं भस्ममात्रं पूर्वोदितपात्रे निक्षिप्य॥२५-२६॥ तत्र शिवमावाह्य, षोडशोपचारैरभ्यर्च्य, अग्निमुपसंहरेत्। इति श्रौतभस्माविर्भावविधिः॥२७॥
पुनर्भस्मनः संस्कारान्तरमुच्यते—अग्नेरिति। “अग्नेर्भस्मास्यग्नेः पुरीषमसि” इति मन्त्रेण चतुर्दश भस्मपिण्डान् गृहीत्वा ततः परं “अग्निरिति भस्म” इत्यादिमन्त्रेण सम्यग्विमृज्य एकीकृत्य॥२८॥ कपिलामूत्रदिव्यगन्धसलिलैः संमिश्र्य, चन्द्रकुङ्कुमकुसुमादिचूर्णसंयोजनं कृत्वा, “ओमिति ब्रह्म” इति, “अणोरणीयान्” इति च मन्त्राभ्यां अथ वटकान् कृत्वा, यथासंभवपात्रे निक्षिप्य नित्यं संपूजयेत्॥२९-३१॥
भस्मोद्धूलनप्रकारः
इत्थं भस्म सुसंपाद्य शुष्कमादाय मन्त्रवित्।
प्रणवेन विमृज्याथ सप्तप्रणवमन्त्रितम्॥३२॥
ईशानेति शिरोदेशं मुखं तत्पुरुषेण तु।
उरुदेशमघोरेण गुह्यं वामेन मन्त्रयेत्॥३३॥
सद्योजातेन वै पादान्75 सर्वाङ्गं प्रणवेन तु।
तत उद्धूल्य सर्वाङ्गमापादतलमस्तकम्॥३४॥
आचम्य वसनं धौतं ततश्चैतत् प्रधारयेत्।
पुनराचम्य कर्म स्वं76 कर्तुमर्हसि सत्तम॥३५॥
अथ भस्मोद्धूलनप्रकारमाह—प्रणवेनेति। वामहस्ते भस्म निक्षिप्य, प्रणवेन विमृज्य पुनः प्रणवेन सप्तवारमभिमन्त्र्य॥३२॥ “ईशानः सर्वविद्यानां” इत्यादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः शिरोमुखोरुगुह्यपादान्तं प्रणवेन शिष्टाङ्गं च उद्धूल्य, आचम्य, अहरहर्नित्यादिकर्म कर्तव्यमित्यर्थः॥३३-३५॥
चतुर्विधं भस्मकल्पनम्
अथ चतुर्विधं भस्मकल्पम्। प्रथममनुकल्पम्। द्वितीयमुपकल्पम्। उपोपकल्पं तृतीयम्। अकल्पं चतुर्थम्॥३६॥
अग्निहोत्रसमुद्भूतं विरजानलजमनुकल्पम्। वने शुष्कं शकृत्संगृह्य कल्पोक्तविधिना कल्पितमुपकल्पं स्यात्। अरण्ये शुष्कगोमयं चूर्णीकृत्यानुसंगृह्य गोमूत्रैः पिण्डीकृत्य कल्पोक्तविधिना कल्पितमुपोपकल्पम्।शिवालयस्थमकल्पं शतकल्पं च॥३७॥
इत्थं चतुर्विधं भस्म सर्वपापं निकृन्तयेन्मोक्षं ददातीति भगवान् कालाग्निरुद्रः॥३८॥
अनुकल्पादिभेदेन भस्मकल्पनं चतुर्विधमित्याह—अथेति॥३६॥ सूत्रभूतवाक्यचतुष्टयस्य वृत्त्यर्थमुत्तरो ग्रन्थ इत्याह—अग्नीति। स्पष्टोऽर्थः॥३७-३८॥
इति तृतीयं ब्राह्मणम्
____________
चतुर्थंब्राह्मणम्
भस्मस्नानप्रकारः
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रं भस्मस्नानविधिं ब्रूहीति होवाच॥१॥
अथ प्रणवेन विमृज्याथ सप्तप्रणवेनाभिमन्त्रितमागमेन तु तेनैव दिग्बन्धनं कारयेत् पुनरपि तेनास्त्रमन्त्रेणाङ्गानि मूर्धादीन्युद्धूलयेन्मलस्नानमिदम्॥२॥
ईशाद्यैः पञ्चभिर्मन्त्रैस्तनुं क्रमादुद्धूलयेत्। ईशानेति शिरोदेशं मुखं तत्पुरुषेण तु। ऊरुदेशमघोरेण77 गुह्यं वामेन। सद्योजातेन वै पादौ सर्वाङ्गं प्रणवेन।आपादतलमस्तकं सर्वाङ्गं तत उद्धूल्याचम्य वसनं धौतं श्वेतं प्रधारयेद्विधिस्नानमिदम्॥३॥
तत्र श्लोका भवन्ति—
भस्ममुष्टिं समादाय संहितामन्त्रमन्त्रिताम्।
मस्तकात्पादपर्यन्तं मलस्नानं पुरोदितम्॥ ४॥
तन्मन्त्रेणैव कर्तव्यं विधिस्नानं समाचरेत्।
ईशाने पञ्चधा भस्म विकिरेन्मूर्ध्नि यत्नतः॥१॥
मुखे चतुर्थवक्त्रेण अघोरेणाष्टधा हृदि।
वामेन गुह्यदेशे तु त्रिदशस्थानभेदतः॥६॥
अष्टावङ्गेन साध्येन पादावुद्धूल्य यत्नतः।
सर्वाङ्गोद्धूलनं कार्यं राजन्यस्य यथाविधि।
मुखं विना च तत्सर्वमुद्धूल्य78क्रमयोगतः॥७॥
पुनर्भुसुण्डो भगवन्तं भस्मस्नानविधिं पृच्छतीत्याह—अथेति॥१॥ भुसुण्डेनैवं पृष्टो भगवान् द्विविधभस्मस्नानप्रकारमाह—अथेति। अथ प्रातःस्नानानन्तरम्। प्रणवेनेत्याद्युक्तार्थम्। यत् सप्तप्रणवेनाभिमन्त्रितं तत् आगमेन तु आगममध्यविलसितपञ्चाक्षरेणापि। तेनैव दिग्बन्धनं कारयेत् \। पुनरपि तेन पञ्चाक्षरास्त्रमन्त्रेण मूर्धादिसर्वाङ्गं उद्धूलयेत् इति यत्तदिदं मलस्नानं, एवं मलस्नानतो निर्मलो भवतीत्यर्थः॥२॥
विधिस्नानं कीदृशमित्यत आह—ईशाद्यैरिति। उक्तार्थमेतत्॥३॥ तत्र एवमुक्तार्थप्रकाशकाः श्लोकाः मन्त्रा भवन्तीत्याह—भस्मेति। मन्त्रोक्तस्नानद्वयं पुरोक्तब्राह्मणेनैव व्याख्यातम्॥४॥ ईशाने ईशानमन्त्रेण॥५॥ चतुर्थवक्त्रेण तत्पुरुषमन्त्रेण सप्तधा विकिरेत्। हृदि अघोरमन्त्रेण अष्टधा विकिरेत्। गुह्यदेशे गुह्योपरि नाभिदेशे तु वामदेवमन्त्रेण नवधा विकिरेत्।तत्तदङ्गविद्यमानत्रिदशानां हस्तादिस्थानभेदतः॥६॥ उर आद्यष्टावङ्गानि विद्यन्ते। तत्र अङ्गेन हृदयादिमनुना साध्येन स्वाभिलषितसाध्यनामाक्षरयुक्तेनाभिमन्त्र्य, पादावुद्धूल्य, ततो ब्राह्मणेन विधिवत् सर्वाङ्गोद्धूलनं कार्यमित्यर्थः॥
ब्राह्मणेतरस्य कथमित्यत आह—राजन्यस्येति। राजन्यस्यायं विधिः—मुखं तत्पुरुषस्थानं विना क्रमयोगतः सर्वमुद्धूल्य नित्यादिकर्म कर्तव्यमित्यर्थः॥७॥
भस्मस्नानकालविशेषाः
संध्याद्वये निशीथे च तथा पूर्वावसानयोः।
सुप्त्वा मुक्त्वा पयः पीत्वा कृत्वा चावश्यकादिकम्॥८॥
स्त्रियं नपुंसकं गृध्रंबिडालं बकमूषिकम्।
स्पृष्ट्वा तथाविधानन्यान् भस्मस्नानं समाचरेत्॥९॥
देवाग्निगुरुवृद्धानां समीपेऽन्त्यजदर्शने।
अशुद्धभूतले मार्गे कुर्यान्नोद्धूलनं व्रती॥१०॥
कदा कदा भस्मस्नानं कर्तव्यमित्यत आह—सन्ध्याद्वय इति॥८-९॥अन्वयमुक्त्वा व्यतिरेकमाह—देवानीति॥१०॥
ज्ञानार्थिना शङ्खतोयादिमिश्रभस्मधार्यम्
शङ्खतोयेन मूलेन भस्मना मिश्रणं भवेत्।
योजितं चन्दनेनैव वारिणा भस्मसंयुतम्॥११॥
चन्दनेन समालिम्पेज्ज्ञानदं चूर्णमेव तत्।
मध्याह्नात् प्राग्जलैर्युक्तं तोयं तदनु वर्जयेत्॥१२॥
किं केवलभस्म धार्यमित्यत्र यदि ज्ञानार्थी तदा तेन शङ्खतोयादिमिश्रभस्म धार्यमित्यत आह—शङ्खतोयेनेति। मूलेन मूलमन्त्राभिमन्त्रितशङ्खतोयेनेत्यर्थः॥११॥ किं सदैवं धार्यं तत्राह—मध्याह्नात् इति॥१२॥
त्रिपुण्ड्रविधिः
अथ भुसुण्डो भगवन्तं कालाग्निरुद्रं त्रिपुण्ड्रविधिं पप्रच्छ॥१३॥
तत्रैते श्लोका भवन्ति—
त्रिपुण्ड्रं कारयेत् पश्चाद्ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम्।
मध्याङ्गुलीभिरादाय तिसृभिर्मूलमन्त्रतः॥१४॥
अनामामध्यमाङ्गुष्ठैरथवा स्यात्त्रिपुण्ड्रकम्।
उद्धूलयेन्मुखं विप्रः क्षत्रियस्तच्छिरोदितम्॥११॥
द्वात्रिंशत्स्थानकेचार्धं79षोडशस्थानकेऽपि वा।
अष्टस्थाने तथा चैव पञ्चस्थानेऽपि योजयेत्॥१६॥
उत्तमाङ्गे ललाटे च कर्णयोर्नेत्रयोस्तथा।
नासावक्त्रे गलेचैवमंसद्वयमतः परम्॥१७॥
कूर्परे मणिबन्धे च हृदये पार्श्वयोर्द्वयोः।
नाभौ गुह्यद्वये चैवमूर्वोः स्फिग्बिम्बजानुनी॥१८॥
जङ्घाद्वये च पादौ च द्वात्रिंशत्स्थानमुत्तमम्।
अष्टमूर्त्यष्टविद्येशान् दिक्पालान् वसुभिः सह॥१९॥
धरो ध्रुवश्च सोमश्च कृपश्चैवानिलोऽनलः।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टावितीरिताः॥२०॥
एतेषां नाममन्त्रेण त्रिपुण्ड्रं धारयेद्बुधः।
विदध्यात् षोडशस्थाने त्रिपुण्ड्रं तु समाहितः॥२१॥
शीर्षके च ललाटे च कण्ठे चांसद्वये तथा।
कूर्मरे मणिबन्धे च हृदये नामिपार्श्वयोः॥२२॥
पृष्ठे चैकं प्रतिस्थानं जपेत्तत्राधिदेवताः।
शिवशक्तिंच सादाख्यामीशं विद्याऽऽख्यमेव च॥२३॥
वामादिनवशक्तीश्च एते षोडश देवताः।
नासत्यो80 दस्रकश्चैव अश्विनौ द्वौ समीरितौ॥२४॥
अथवा मूर्ध्न्यलीके च कर्णयोः श्वसने तथा।
बाहुद्वये च हृदये नाभ्यामूर्खोर्युगे तथा॥२५॥
जानुद्वये च पदयोः पृष्ठभागे च षोडश।
शिवश्चेन्द्रश्च रुद्रार्कौ विघ्नेशो विष्णुरेव च॥२६॥
श्रीश्चैव हृदयेशश्च तथा नाभौ प्रजापतिः।
नागश्च नागकन्याश्च उभे च ऋषिकन्यके॥२७॥
पादयोश्च समुद्राश्चतीर्थाः पृष्ठेऽपि च स्थिताः।
एवं वा षोडशस्थानमष्टस्थानमथोच्यते॥२८॥
गुरुस्थानं ललाटं च कर्णद्वयमनन्तरम्।
अंसयुग्मं च हृदयं नाभिरित्यष्टमं भवेत्॥२९॥
ब्रह्मा च ऋषयः सप्त देवताश्च प्रकीर्तिताः।
अथवा मस्तकं बाहू हृदयं नाभिरेव च॥३०॥
पञ्च स्थानान्यमून्याहुर्भस्मतत्त्वविदो जनाः।
यथासंभवतः कुर्याद्देशकालाद्यपेक्षया॥३१॥
भुसुण्डस्तदुक्तोद्धूलनविधिं ज्ञात्वा त्रिपुण्ड्रविधिं ज्ञातुं पृच्छतीत्याह—अथेति॥ १३॥ तत्प्रश्नानुरोधेन भगवता यद्वक्तव्यं तत्र प्राचीना मन्त्रास्तदर्थ-
प्रकाशका भवन्तीत्याह—तत्रैते श्लोका भवन्तीति। ब्रह्मविष्णुशिवात्मकमेतदिति ज्ञात्वा त्रिपुण्ड्रं धारयेत्। तत्रादौ मध्याङ्गुलीभिः तिसृभिः मूलमन्त्रतः त्रिपुण्ड्रंकुर्यात्॥१४॥ अथवा अनामिकामध्यमाङ्गुष्ठैः त्रिपुण्ड्रं धारयेत्। ब्रह्मक्षत्रयोर्विशेषविधिमाह—उद्धूलयेदिति॥१५॥ त्रिपुण्ड्रधारणीयस्थानानि कतीत्याशङ्क्याह—द्वात्रिंशदिति॥१६॥ तत्र तदधिष्ठानदेवतासहितं द्वात्रिंशत्स्थानं निर्दिशति — उत्तमाङ्ग इति॥१७-१८॥ अष्टमूर्तयस्तु शिखण्डिश्रीकण्ठप्रभृतयः, सत्येशाद्या अष्टविद्याः, तदीशास्तु शिवोत्तमादयः शैवागमप्रसिद्धाः, अष्टवसवस्तु धरादयः। दिक्पाला इन्द्रादयः॥१९-२०॥षोडशस्थानं विशदयति—विदध्यादिति। पुनः पक्षान्तरमाह—अथवेति॥ २१-२७॥ एवं वा षोडशस्थानं जानीयादित्यर्थः॥ २८-२९॥ पक्षान्तरमाह—अथवेति॥३०॥ पर्यायचतुष्टयेषु कः मर्यायोऽनुष्ठेय इत्यत आह—यथेति॥३१॥
उद्धूनाशक्तोत्रिपुण्ड्रधारणम्
उद्धूलनेऽप्यशक्तश्चेत्त्रिपुण्ड्रादीनि कारयेत्।
ललाटे हृदये नाभौ गले च मणिबन्धयोः।
बाहुमध्ये बाहुमूले पृष्ठे चैव च शीर्षके॥३२॥
लाटे ब्रह्मणे नमः। हृदये हव्यवाहनाय नमः। नाभौ स्कन्दाय नमः। गले विष्णवे नमः। मध्ये प्रभञ्जनाय नमः। मणिबन्धे वसुभ्यो नमः। पृष्ठे हरये नमः। ककुदि शंभवे नमः। शिरसि परमात्मने नमः। इत्यादिस्थानेषु त्रिपुण्ड्रं धारयेत्॥३३॥
त्रिणेत्रं त्रिगुणाधारं त्रयाणां जनकं प्रभुम्।
स्मरन्नमः शिवायेति ललाटे तत्त्रिपुण्ड्रकम्81॥३४॥
कूर्पराधः पितृभ्यां तु ईशानाभ्यां तदोपरि।
ईशाभ्यां नम इत्युक्त्वा पार्श्वयोश्च त्रिपुण्ड्रकम्॥३५॥
स्वच्छाभ्यां नम इत्युक्त्वा धारयेत्तत्प्रकोष्ठयोः।
भीमायेति तथा पृष्ठे शिवायेति च पार्श्वयोः॥३६॥
नीलकण्ठाय शिरसि क्षिपेत् सर्वात्मने नमः।
पापं नाशयते कृत्स्नमपि जन्मान्तरार्जितम्॥३७॥
कण्ठोपरि कृतं पापं नष्टं स्यात्तत्र धारणात्।
कर्णे तु धारणात् कर्णरोगादिकृतपातकम्॥३८॥
बाह्वोर्बाहुकृतं पापं वक्षःसु मनसा कृतम्।
नाभ्यां शिश्नकृतं पापं पृष्ठे गुदकृतं तथा॥३९॥
पार्श्वयोर्धारणात् पापं परस्त्र्यालिङ्गनादिकम्।
तद्भस्मधारणं कुर्यात् सर्वत्रैव त्रिपुण्ड्रकम्॥४०॥
ब्रह्मविष्णुमहेशानां त्रय्यग्नीनां च धारणम्।
गुणलोकत्रयाणां च धारणं तेन वै श्रुतम्॥४१॥
उद्धूलनत्रिपुण्ड्रयोः किमनुष्ठेयमित्यत आह—उद्धूलनेऽपीति। कुत्र धार्यंत्रिपुण्ड्रमित्यत आह—ललाट इति॥३२-३३॥ पर्यायान्तरेण त्रिपुण्ड्रविधिं तत्फलं चाह—त्रिणेत्रमिति॥३४-४०॥ येन यदा विधिवद्विभूतिधारणं कृतं तेन ब्रह्मादिधारणं कृतमित्यर्थः॥४१॥
इति चतुर्थंब्राह्मणम्
पञ्चमं ब्राह्मणम्
वेदत्रयदृष्टिपूर्वकं त्रिपुण्ड्रधारणम्
मानस्तोकेति मन्त्रेण मन्त्रितं भस्म धारयेत्।
ऊर्ध्वपुण्ड्रं भवेत् साम मध्यपुण्ड्रं त्रियायुषम्॥१॥
त्रियायुषाणि कुरुते ललाटे च भुजद्वये।
नाभौ शिरसि हृत्पार्श्वे ब्राह्मणाः क्षत्रियास्तथा॥२॥
पुनर्विधाऽन्तरेण भस्मधारणत्रिपुण्ड्रवेदत्रयदृष्टिब्राह्मणादिवर्णचतुष्टयभस्मभेदभस्मधारण-विशिष्टफलं तद्दूषकमहापातकित्वं सर्ववर्णाश्रमावश्यधारकत्वं चाह भगवान् कालाग्निरुद्र इति श्रुतिराह—मा नस्तोकेतीति। “मानस्तोके तनये” इति मन्त्रेण अभिमन्त्रितं त्रिपुण्ड्रं भस्म धारयेत्। तत्र ऊर्ध्वपुण्ड्रं साम भवेत्, ऋगाद्यपेक्षया साम्न ऊर्ध्वत्वात्। ऊर्ध्वभागविलसिततिर्यक्पुण्ड्रेसामदृष्टिः कर्तव्येत्यर्थः। मध्यपुण्ड्रं तु त्रियायुषं—याजुषमित्यर्थे यायुषमिति वर्णव्यत्ययः। मध्यस्थतिर्यक्पुण्ड्रं संहितापदक्रमविशिष्टं त्रियायुषं विद्धीत्यर्थः। अधःस्थतिर्यक्पुण्ड्रे तु ऋग्वेददृष्टिः कर्तव्येत्यध्याहार्यम्॥१॥ य एवं रेखात्रये ऋक्सामत्रियायुषाणि तद्विशिष्टदृष्टिंकुरुते स विशिष्टफलभाक् भवतीत्यर्थः। यथा ब्राह्मणास्तथा क्षत्रियादयोऽपि ललाटे भुजद्वये नाभौ शिरसि हृत्पार्श्वे च त्रिपुण्ड्रंकुर्वन्त्वित्यर्थः॥२॥
वर्णाश्रमभेदानुसारेण भस्मविशेषविधिः
त्रैवर्णिकानां सर्वेषामग्निहोत्रसमुद्भवम्।
इदं मुख्यं गृहस्थानां विरजानलजं भवेत्॥३॥
विरजानलजं चैव धार्यं प्रोक्तं महर्षिभिः।
औपासनसमुत्पन्नं गृहस्थानां विशेषतः॥४॥
समिदग्निसमुत्पन्नं धार्यंवै ब्रह्मचारिणा।82
शूद्राणां श्रोत्रियागारपचनाग्निसमुद्भवम्॥५॥
अन्येषामपि सर्वेषां धार्यं चैवानलो83द्भवम्।
यतीनां ज्ञानदं प्रोक्तं वनस्थानां विरक्तिदम्।
अतिवर्णाश्रमाणां तु श्मशानाग्निसमुद्भवम्॥६॥
सर्वेषां देवालयस्थं भस्म शिवाग्निजं शिवयोगिनाम्।
शिवालयस्थं तल्लिङ्गलिप्तं वा मन्त्रसंस्कारदग्धं वा॥७॥
त्रैवर्णिकानां त्रैवर्णिकैः श्रौताग्निहोत्रसमुद्भवं भस्म धार्यमित्यर्थः॥३॥ गृहस्थैः विरजानलजं भस्म धार्यमिति महर्षिभिः प्रोक्तम्। औपासनसमुत्पन्नं यदि स्वीयं तदा गृहस्थैः विशेषतो धार्यमिति च॥४॥ समिदाधानाग्निजं भस्म ब्रह्मचारिणा धार्यम्। शूद्रैः श्रोत्रियपवनाग्निजं भस्म धार्यम्॥५॥ विधिवत्सिद्धभस्मालाभे सर्वेषां गोमयशुष्कजं भस्म धार्यमेव तद्भस्म यतीनां ज्ञानदं, वनस्थानां विरक्तिदम्। अतिवर्णाश्रमस्थानामवधूतानां श्मशानाग्निजं भस्म विहितमित्यर्थः॥६॥ सर्वेषां शिवयोगिनां शिवालयस्थं शिवाग्निजं शिवलिङ्गलिप्तं वा मन्त्रसंस्कारदग्धं वा विहितमित्यर्थः॥७॥
भस्मधारणे फलविशेषः
अत्रैते श्लोका भवन्ति—
तेनाधीतं श्रुतं तेन तेन सर्वमनुष्ठितम्।
येन विप्रेण शिरसि त्रिपुण्ड्रं भस्मना धृतम्॥८॥
त्यक्तवर्णाश्रमाचारो लुप्तसर्वक्रियोऽपि यः।
सकृत्तिर्यक्त्रिपुण्ड्राङ्कधारणात् सोऽपि पूज्यते॥९॥
एवं विधिभस्मधारी कृतार्थो भवति तद्विपरीतस्तद्दूषको वा हीयत इत्यस्मिन्नर्थे प्रकाशका एते मन्त्रा भवन्तीत्याह—अत्रैते श्लोका भवन्तीति। “तेनाधीतं” इत्यादि “धिग्विद्यामशिवात्मिकां” इत्यन्तं स्पष्टम्॥८-१७॥
भस्मधारणविमुखस्य दूषणम्
ये भस्मधारणं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्ति मानवाः।
तेषां नास्ति विनिर्मोक्षः संसाराज्जन्मकोटिभिः॥१०॥
महापातकयुक्तानां पूर्वजन्मार्जितागसाम्।
त्रिपुण्ड्रोद्धूलने द्वेषो जायते सुदृढं बुधाः॥११॥
येषां कोपो भवेद्ब्रह्मन् ललाटे भस्मदर्शनात्।
तेषामुत्पत्तिसांकर्यमनुमेयं विपश्चिता॥१२॥
येषां नास्ति मुने श्रद्धा श्रौते भस्मनि सर्वदा।
गर्भाधानादिसंस्कारस्तेषां नास्तीति निश्चयः॥१३॥
ये भस्मधारिणं दृष्ट्वा नराः कुर्वन्ति ताडनम्।
तेषां चण्डालतो जन्म ब्रह्मन्नूह्यंविपश्चिता॥१४॥
येषां क्रोधो भवेद्भस्मधारणे तत्प्रमाणके।
ते महापातकैर्युक्ता इति शास्त्रस्य निश्चयः॥१५॥
त्रिपुण्ड्रं ये विनिन्दन्ति निन्दन्ति शिवमेवते।
धारयन्ति च ये भक्त्या धारयन्ति शिवं च ते॥१६॥
धिग्भस्मरहितं फालं धिग्ग्राममशिवालयम्।
धिगनी84 शार्चनं जन्म धिग्विद्यामशिवात्मिकाम्॥१७॥
भस्मनिष्ठस्य स्वरूपमहिमवर्णनम्
रुद्राग्नेर्यत् परं वीर्यं तद्भस्म परिकीर्तितम्।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु वीर्यवान् भस्मसंयुतः॥१८॥
भस्मनिष्ठस्य दह्यन्ते दोषा भस्माग्निसंगमात्।
भस्मस्नानविशुद्धात्मा भस्मनिष्ठ इति स्मृतः॥१९॥
भस्मसंदिग्धसर्वाङ्गो भस्मदीप्तत्रिपुण्ड्रकः।
भस्मशायी च पुरुषो भस्मनिष्ठ इति स्मृतः॥२०॥
स्वातिरिक्तभ्रमद्रावको हि रुद्रः स एव अग्निः तस्य यत् परं वीर्यंस्वातिरिक्तासंभवप्रबोधजनकसामर्थ्यं तदेव स्वातिरिक्तभस्म स्वातिरिक्तापह्नवसिद्धं ब्रह्मेति स्मृतम्। यस्मादेवं तस्मात् कालत्रयेऽपि स्वातिरिक्तभस्मसंयुतः पुमान् वीर्यवान् भवेत्॥१८॥ एवं भस्मनिष्ठस्य भस्माग्निसङ्गमात् स्वातिरिक्तास्तिताभ्रान्तिसंभवा दोषाः दह्यन्ते भस्मभावं भजन्ति। इत्थंभूतो भस्मस्नानविशुद्धात्मा भस्मनिष्ठो भवति इति स्मृतः॥१९॥ यद्वा—भस्मसन्दिग्धसर्वाङ्गः ज्ञानाग्निभस्मीकृतसर्वाङ्गःभस्मावकुण्ठितसर्वाङ्गो वा भस्मसंदीप्तत्रिपुण्ड्रकः भस्मशायी च पुमान् भस्मनिष्ठो भवति इति स्मृतः॥२०॥
इति पञ्चमं ब्राह्मणम्
____________
षष्ठं ब्राह्मणम्
नामपञ्चकमाहात्म्यजिज्ञासा
अथ भुसुण्डः कालाग्निरुद्रं नामपञ्चकस्य माहात्म्यं ब्रूहीति होवाच॥१॥
विभूत्यादिनामपञ्चकमाहात्म्यबुभुत्सया भुसुण्डो भगवन्तं पृच्छतीत्याह—अथेति॥१॥
भस्ममाहात्म्यख्यापनार्था करुणाख्यायिका
अथ वसिष्ठवंशजस्य शतभार्यासमेतस्य धनंजयस्य ब्राह्मणस्य ज्येष्ठभार्यायाः पुत्रः करुण इति नाम। तस्य शुचिस्मिता भार्या। असौ करुणो भ्रातृवैरमसहमानो भवानीतटस्थं नृसिंहमगमत्। तत्र देवसमीपेऽन्येनोपायनार्थं समर्पितं जम्बीरफलं गृहीत्वाऽजिघत्। तदा तत्रस्था अशपन् पाप मक्षिको भव वर्षाणां शतमिति। सोऽपि शापमादाय मक्षिकः सन् स्वचेष्टितं तस्यै निवेद्य मां रक्षेति स्वभार्यामवदत्। तदा मक्षिकोऽभवत्। तमेवं ज्ञात्वा ज्ञातयस्तैलमध्ये ह्यमारयन्। सा मृतं पतिमादायारुन्धतीमगमत्। भो शुचिस्मिते शोकेनालमरुन्धत्याहामुं जीवयाम्यद्य विभूतिमादायेति। एषाऽग्निहोत्रजं भस्म—
मृत्युंजयेन मन्त्रेण मृतजन्तौ तदाऽक्षिपत्।
मन्दवायुस्तदा जज्ञे व्यजनेन शुचिस्मिते॥२॥
उदतिष्ठत्तथा जन्तुर्भस्मनोऽस्य प्रभावतः।
ततो वर्षशते पूर्णे ज्ञातिरेको ह्यमारयत्॥३॥
भस्मैव जीवयामास काश्यां पञ्च तथाऽभवन्।
देवानपि तथाभूतान् मामप्येतादृशं पुरा॥४॥
तस्मात्तु भस्मना जन्तुं जीवयामि तदाऽनघे85।
इत्येवमुक्त्वा भगवान् दधीचिः समजायत।
स्वरूपं च ततो गत्वा स्वमाश्रमपदं ययाविति॥५॥
एवं पृष्टो भगवानाख्यायिकां वक्तव्यार्थे प्रमाणयति—अथेति॥२-३॥ यस्मात् देवानपि तथाभूतान् स्वकृतदोषतो विपरीतभावमापन्नान् मामप्येतादृशं भस्मैव जीवयामासेति यस्मादेवं विश्रुतं तस्मात् मक्षिकत्वमापन्नमेतं जन्तुं हे अनघे शुचिस्मिते भस्मना जीवयामीत्युक्त्वा मक्षिकत्वमापन्नकरुणोपरि भस्म प्राक्षिपत्। ततोऽसौ करुणो भगवान् द्विजशापादागतमक्षिकत्वं विहाय दधीचिरिति नाम्ना समजायत। ततो यथापूर्वस्थितिं गत्वा स्वमाश्रमपदं ययौ। धनञ्जयसूनुर्यथावत् स्वाश्रमं गतवानित्यर्थः। इतिशब्दः करुणाख्यायिकासमाप्त्यर्थः॥४-५॥
भस्मनः पापघ्नत्वख्यापनार्थाऽहल्याख्यायिका
इदानीमस्य भस्मनः सर्वाघभक्षणसामर्थ्यं विधत्त इत्याह। श्रीगौतमविवाहकाले तामहल्यां दृष्ट्वा सर्वे देवाः कामातुरा अभवन्। तदा नष्टज्ञाना दुर्वाससं86 गत्वा पप्रच्छुः। तद्दोषं शमयिष्यामीत्युवाच। ततः शतरुद्रेण मन्त्रेण मन्त्रितं भस्म वै पुरा मयाऽपि दत्तं तेनैव ब्रह्महत्याऽऽदि शान्तम्॥६॥
इत्येवमुक्त्वा दुर्वासा दत्तवान् भस्म चोत्तमम्।
जाता मद्वचनात् सर्वे यूयं तेऽधिकतेजसः॥७॥
शतरुद्रेण मन्त्रेण भस्मोद्धूलितविग्रहाः।
निर्धूतरजसःसर्वे तत्क्षणाच्च वयं मुने।
आश्चर्यमेतज्जानीमो भस्मसामर्थ्यमीदृशम्॥८॥
सर्वपापघ्नंभस्मेत्यत्राऽऽख्यायिकाऽन्तरमाह—इदानीमिति॥६-८॥
भस्मनो हरिशंकरज्ञानप्रदत्वम्
अस्य भस्मनः शक्तिमन्यां शृणु। एतदेव हरिशंकरयोर्ज्ञानप्रदं ब्रह्महत्याऽऽदिपापनाशकं महाविभूतिदमिति॥९॥ शिववक्षसि स्थितं नखेनादाय प्रणवेनाभिमन्त्र्यगायत्र्या पञ्चाक्षरेणाभिमन्त्र्यहरिमस्तकगात्रेषु समर्पयेत्। तदा87 हृदि ध्यायस्वेति हरिमुक्त्वाऽथ हरिः स्वहृदि ध्यात्वा दृष्टो दृष्ट इति शिवमाह॥१०॥
ततो भस्म भक्षयेति हरिमाह हरस्ततः।
भक्षयिष्ये शिवं भस्म स्नात्वाऽहं भस्मना पुरा॥११॥
पृष्ट्वेश्वरं भक्तिगम्यं भस्मामक्षयदच्युतः।
तत्राश्चर्यमतीवासीत् प्रतिबिम्बसमद्युतिः॥१२॥
वासुदेवः शुद्धमुक्ताफलवर्णोऽभवत् क्षणात्।
तदाप्रभृति शुक्लाभो वासुदेवः प्रसन्नवान्॥१३॥
न शक्यं भस्मनो ज्ञानप्रभावं88 ते कुतो विभो।
नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु त्वामहं शरणं गतः॥१४॥
त्वत्पादयुगले शंभो भक्तिरस्तु सदा मम।
भस्मधारणसंपन्नो मम भक्तो भविष्यति॥१९॥
पुनरपि भस्म स्तौति—अस्येति। किं तन्माहात्म्यमित्यत्राह—एतदेवेति॥९॥ कथमस्य हरिशङ्करज्ञानप्रदत्वमित्यत्राऽऽख्यायिकामवतारयति—
शिववक्षसीति। शिवस्य शिवत्वहेतु स्वातिरिक्तभस्मैव शिवत्वसिद्धेः स्वातिरिक्ताशिवत्वापह्नवपूर्वकत्वात् तथा हरेरपि ज्ञानप्रदं भस्मैव। तत् कथमित्यत्राऽऽह—तदेति॥१०-१३॥ यद्भस्मस्पर्शनभक्षणाभ्यां नीलवर्णो वासुदेवः शुक्लवर्णोऽभवत् तद्भस्ममाहात्म्यं वक्तुं न शक्यमित्याह—न शक्यमिति। हे विभो व्यापकेश्वर ते तव भस्मनो ज्ञानप्रभावं त्वयाऽपि ज्ञातुं न हि शक्यम्। कुतो (न) मया तज्ज्ञातुं शक्यम्। यतस्त्वं स्वातिरिक्तभस्मसिद्धोऽस्यतस्ते नमोऽस्त्वित्याह—नम इति॥१४॥ हरिणा प्रार्थितो हर आह—भस्मेति। यो भस्मधारी स मद्भक्त एवेत्यर्थः॥१५॥
भस्मनो भूतिकरत्वम्
अत एवैषा भूतिर्भूतिकरीत्युक्ता। अस्य पुरस्ताद्वसव आसन् रुद्रा दक्षिणत आदित्याः पश्चाद्विश्वेदेवा उत्तरतो ब्रह्मविष्णुमहेश्वरानाभ्यां सूर्याचन्द्रमसौ पार्श्वयोः॥१६॥
यत एवं अत एवेति। तत् कथमित्यत्र वस्वादिविभूतीनामेतदायत्तत्वादित्याह—अस्येति। अस्य भस्मनो वस्वाद्यास्पदत्वाद्वस्वादिभूतीनां तदायत्तत्वाद्भूतेर्भूतिकरत्वं युज्यत इत्यर्थः॥१६॥
ब्रह्मभावरहितज्ञानतत्साधनानां वैयर्थ्यम्
तदेतदृचाऽभ्युक्तम्—
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते॥१७॥
स्वातिरिक्तभस्मसिद्धब्रह्ममात्रज्ञानतत्साधनानां ब्रह्मभावादृते वैयर्थ्यं स्यादित्येतदृगादिनाऽप्युक्तमित्याह—तदेतदृचाऽभ्युक्तमिति। ऋगादयः सर्ववेदाः
अक्षरे स्वातिरिक्तक्षरभस्मतः सिद्धे परमे व्योमनि निषेदुः यस्मिन्नक्षरे विराडादयो देवाः अधिनिषेदुः। यदृगादिवेदमस्तकप्रतिपाद्यं ब्रह्म निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति ऋगादिवेदविहितकर्मचित्तशुद्धिसंन्यासश्रवणादिसाधनेन यदि यो न वेद तदा स ऋचा किं करिष्यति न किमपीत्यर्थः। ये ऋगादितज्जकर्मसंन्यासश्रवणादिसञ्जातज्ञानेन विदुस्त इमे ब्रह्मविद्वरीयांसस्ते स्वे महिम्नि समासते ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः॥१७॥
बृहज्जाबालविद्यामहिमा
यदेतद्बृहज्जाबालं सार्वकामिकं89 मोक्षद्वारमृङ्मयं यजुर्मयं साममयं ब्रह्ममयममृतमयं भवति। यदेतद्बृहज्जाबालं, बालो वा युवा वा वेद स महान् भवति। स गुरुः सर्वेषां मन्त्राणामुपदेष्टा भवति। मृत्युतारकं गुरुणा लब्धं कण्ठे बाहौ शिखायां वा बध्नीत। सप्तद्वीपवती भूमिर्दक्षिणार्थं नावकल्पते तस्माच्छ्रद्धया यां कांचिद्गां दद्यात् सा दक्षिणा भवति॥१८॥
यदेतत्स्वातिरिक्तभस्मज्ञानप्रकाशकं ग्रन्थजातं तदपि तन्मयमिति स्तौति—यदेतदिति। ऋगादिसाहचर्यात् ब्रह्मशब्देन अथर्ववेद उच्यते। यदेतद्ग्रन्थजातार्थवित् सर्वज्ञेश्वरो भवति, एतदुपदेष्टुः सवस्वमपि दातुं नालमित्याह—यदिति॥१८॥
इति षष्ठं ब्राह्मणम्
___________
सप्तमं ब्राह्मणम्
त्रिपुण्ड्रविधिः
अथ जनको वैदेहो याज्ञवल्क्यमुपसमेत्योवाच भगवन् त्रिपुण्ड्रविधिं नो ब्रूहीति॥१॥
स होवाच सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्याग्निरिति भस्मेत्यभिमन्त्र्य मानस्तोक इति समुद्धृत्य त्रियायुषमिति जलेन संसृज्य त्र्यम्बकं यजामह इति मन्त्रेण शिरोललाटवक्षःस्कन्धेषु त्रिपुण्ड्रंधृत्वा पूतो भवति मोक्षी भवति। शतरुद्रेण यत् फलमवाप्नोति तत् फलमश्नुते स एष भस्मज्योतिरिति वै याज्ञवल्क्यः॥२॥
त्रिपुण्ड्रविषये जनकयाज्ञवल्क्याख्यायिकामवतारयति—अथेति॥ १॥ जनकप्रश्नोत्तरं मुनिराह—स होवाचेति। एतदर्थस्य पुरा प्रपञ्चितत्वान्नेह पुनरर्थो वर्णितः॥२॥
भस्मधारणफलम्
जनको ह वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यं भस्मधारणात्90 किं फलमश्नुत इति॥३॥
स होवाच तद्भस्मधारणादेव मुक्तिर्भवति तद्भस्मधारणादेव शिवसायुज्यमवाप्नोति न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते स एष भस्मज्योतिरिति वै याज्ञवल्क्यः॥४॥
जनको ह वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यं भस्मधारणात् किं फलमश्नुते न वेति॥५॥
तत्र परमहंसा नाम संवर्तकारुणिश्वेतकेतुदूर्वासऋभुनिदाघजडभरतदत्तात्रेयरैवतक-भुसुण्डप्रभृतयो विभूतिधारणादेव मुक्ताः स्युः स एष भस्मज्योतिरिति वै याज्ञवल्क्यः॥६॥
पुनर्भस्मधारणफलं पृच्छति—जनक इति॥३॥ स्वातिरिक्तं भस्मेति धारणात् निश्चयज्ञानात् स्वमात्रावशेषणरूपेयं मुक्तिः भवतीत्यर्थः॥४॥ श्रुतार्थदार्ढ्याय पुनः पृच्छतीत्याह—जनक इति॥५॥ राज्ञा पृष्ठेऽर्थे शिष्टाचारं प्रमाणयति—तत्रेति॥६॥
भस्मस्नानफलम्
जनको ह वैदेहः स होवाच याज्ञवल्क्यं भस्मस्नानेन किं जायत इति॥७॥
यस्य कस्यचिच्छरीरे यावन्तो रोमकूपास्तावन्ति लिङ्गानि भूत्वा तिष्ठन्ति ब्राह्मणो वा क्षत्रियो वा वैश्यो वा शूद्रो वा तद्भस्मधारणादेतच्छब्दस्य रूपं यस्यां तस्यां ह्येवावतिष्ठते॥८॥
भस्मस्नानं किंफलकमिति पुनः पृच्छति—जनक इति॥ ७॥ पृष्टो मुनिराह—यस्येति॥८॥
त्रिपुण्ड्रमाहात्म्यम्
जनको ह वैदेहः पैप्पलादेन सह प्रजापतिलोकं जगाम तं गत्वोवाच भो प्रजापते त्रिपुण्ड्रस्य माहात्म्यं ब्रूहीति॥९॥
तं प्रजापतिरब्रवीद्यथैवेश्वरस्य माहात्म्यं तथैव त्रिपुण्ड्रस्येति॥१०॥
अथ पैप्पलादो वैकुण्ठं जगाम तं गत्वोवाच भो विष्णो त्रिपुण्ड्रस्य माहात्म्यं ब्रूहीति॥११॥
यथैवेश्वरस्य माहात्म्यं तथैव त्रिपुण्ड्रस्येति विष्णुराह॥१२॥
गुरूदेवतापरायणोऽपि सम्राट् पामरलोकसंशयोच्छित्तये ब्रह्मविष्णुरुद्रलोकान् गत्वा ब्रह्मादिमुखतोऽपि त्रिपुण्ड्रमाहात्म्यमवगम्य सर्वत्र प्रकाशयामासेत्याह—जनक इति॥९-१४॥
विभूतिधारणमहिमा
अथ पैप्पलादः कालाग्निरुद्रं परिसमेत्योवाचाधीहि भगवन् त्रिपुण्ड्रस्य विधिम्॥१३॥
त्रिपुण्ड्रस्य विधिर्मया वक्तुं न शक्यमिति सत्यमिति होवाच। अथ भस्मच्छन्नः संसारान्मुच्यते। भस्मशय्याशयानस्तच्छब्दगोचरः शिवसायुज्यमवाप्नोति न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते। रुद्राध्यायी सन्नमृतत्वं च गच्छति। स एष भस्मज्योतिः। विभूतिधारणाद्ब्रह्मैकत्वं च गच्छति। विभूतिधारणादेव सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति। विभूतिधारणाद्वाराणस्यां स्नानेन यत् फलमवाप्नोति तत् फलमश्नुते। स एष भस्मज्योतिः। यस्य कस्यचिच्छरीरे त्रिपुण्ड्रस्य लक्ष्म वर्तते प्रथमा प्रजापतिर्द्वितीया विष्णुस्तृतीया सदाशिव इति स एष भस्मज्योतिः स एष भस्मज्योतिरिति॥१४॥
रुद्राक्षधारण जिज्ञासा
अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रच्छाधीहि भगवन् रुद्राक्षधारणविधिम्॥१५॥
सनत्कुमारो मुनिः रुद्राक्षेयत्तापरिज्ञानपूर्वकं तद्धारणविधिं ज्ञातुमिच्छन् पृच्छतीत्याख्यायिकामवतारयति—अथेति॥१५॥
रुद्राक्षजन्म
स होवाच रुद्रस्य नयनादुत्पन्ना रुद्राक्षा इति लोके ख्यायन्ते। सदाशिवः संहारं कृत्वा संहाराक्षं मुकुलीकरोति तन्नयनाज्जाता रुद्राक्षा इति होवाच। तस्माद्रुद्राक्षत्वमिति॥१६॥
मुनिना पृष्टः स होवाच॥१६॥
रुद्राक्षधारणमहिमा
तद्रुद्राक्षे वाग्विषये कृते दशगोप्रदानेन यत्91 फलमवाप्नोति तत् फलमश्नुते। स एष भस्मज्योती रुद्राक्ष इति। तद्रुद्राक्षं करेण स्पृष्ट्वा धारणमात्रेण द्विसहस्रगोप्रदानफलं भवति। तद्रुद्राक्षे कर्णयोर्धार्यमाणे एकादशसहस्रगोप्रदानफलं भवति। एकादशरुद्रत्वं च गच्छति। तद्रुद्राक्षे शिरसि धार्यमाणे कोटिगोप्रदानफलं भवति। एतेषां स्थानानां कर्णयोः फलं वक्तुं न शक्यमिति होवाच। मूर्ध्नि चत्वारिंशच्छिखायामेकं त्रयं वा श्रोत्रयोर्द्वादश द्वादश कण्ठे
द्वात्रिंशद्बाह्वोः षोडश षोडश द्वादश द्वादश मणिबन्धयोः षट् षडङ्गुष्ठयोस्ततः संध्यां सकुशोऽहरहरुपासीत। अग्निर्ज्योतिरित्यादिभिरग्नौ जुहुयात्॥१७॥
“अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिस्सूर्यः स्वाहा” इति मन्त्रेणाज्याहुतीरग्नौ जुहुयात्, न हि रुद्राक्षाहुतीरित्यर्थः॥१७॥
इति सप्तमं ब्राह्मणम्
__________
अष्टमं ब्राह्मणम्
उपनिषत्पारायणफलजिज्ञासा
अथ बृहज्जाबालस्य फलं नो ब्रूहि भगवन्निति॥१॥
अहरहरर्थानुसन्धानपूर्वकमुपनिषत्पारायणफलेयत्तां पृच्छति—अथेति॥१॥
सर्वपूतत्वम्
स होवाच य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते सोऽग्निपूतो भवति स वायुपूतो भवति स आदित्यपूतो भवति स सोमपूतो भवति स ब्रह्मपूतो भवति स विष्णुपूतो भवति स रुद्रपूतो भवति स सर्वपूतो भवति स सर्वपूतो भवति॥२॥
अग्न्यादिना पूतो भवति अग्न्यादिवत् पूतो भवतीति वेत्यर्थः॥२॥
अग्नयादिस्तम्भनम्
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते सोऽग्निं स्तम्भयति स वायुं स्तम्भयति स आदित्यं स्तम्भयति स सोमं स्तम्भयति स उदकं स्तम्भयति स सर्वान् देवान् स्तम्भयति स सर्वान् ग्रहान् स्तम्भयति स विषं स्तम्भयति स विषं स्तम्भयति॥३॥
किच—य एतदिति॥३–५॥
मृत्य्वादितरणम्
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते स मृत्युं तरति92 स पाप्मानं तरति स ब्रह्महत्यां तरति स भ्रूणहत्यां तरति स वीरहत्यां तरति स सर्वहत्यां तरति स संसारं तरति स सर्वंतरति स सर्वं तरति॥४॥
सर्वलोकजयः
** य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते स भूर्लोकं जयति स भुवर्लोकं जयति स सुवर्लोकं जयति स महर्लोकं जयति स जनोलोकं जयति स तपोलोकं जयति स सत्यलोकं जयति स सर्वान् लोकान् जयति स सर्वान् लोकान् जयति॥५॥**
सर्वशास्त्रज्ञानम्
य एतद्बृहज्जाबालं नित्यमधीते स ऋचोऽधीते स यजूंष्यधीते स सामान्यधीते सोऽथर्वणमधीते सोऽङ्गिरसमधीते स शाखा अधीते
स कल्पानधीते स नाराशंसीरधीते स पुराणान्यधीते स ब्रह्मप्रणवमधीते स ब्रह्मप्रणवमधीते॥६॥
यत्र व्यष्टिसमष्ट्यात्मकजाग्रज्जाग्रदादितद्व्यष्टिसमष्ट्यारोपापवादाधिकरणविश्वविश्वाद्यविक-ल्पानुज्ञैकरसान्तचतुःपञ्चदशकलनापह्नवतां भजति तदपह्नवसिद्धोऽयं परमात्मा तुर्यतुर्यो ब्रह्मप्रणवशब्देनोच्यते। तत्रापह्नोतव्यजाग्रज्जाग्रदादिचतुष्पञ्चदशकलनाया अपि तादर्थ्येन तस्या अपि गौण्या वृत्त्या ब्रह्मप्रणवत्वं युज्यत इत्यर्थः॥६॥
बृहज्जाबालाध्यापकस्य सर्वोत्तमत्वम्
अनुपनीतशतमेकमेकेनोपनीतेन तत्सममुपनीतशतमेकमेकेन गृहस्थेन तत्समं गृहस्थशतमेकमेकेन वानप्रस्थेन तत्समं वानप्रस्थशतमेकमेकेन यतिना तत्समं यतीनां तु शतं पूर्णमेकमेकेन रुद्रजापकेन तत्समं रुद्रजापकशतमेकमेकेनाऽथर्वशिरःशिखाऽध्या-पकेन तत्सममथर्वशिरःशिखाऽध्यापकशतमेकमेकेन बृहज्जाबालोपनिषदध्यापकेन तत्समम्॥७॥
अत एव ग्रन्थपारायणस्य फलाधिक्यं दर्शयति—अनुपनीतेति॥७॥
बृहज्जाबालजपशीलस्य परंधामप्राप्तिः
तद्वा एतत् परं धाम बृहज्जाबालोपनिषज्जपशीलस्य यत्र न सूर्यस्तपति यत्र न वायुर्वाति यत्र न चन्द्रमा भाति यत्र न नक्षत्राणि भान्ति यत्र नाग्निर्दहति यत्र न मृत्युः प्रविशति यत्र न दुःखानि प्रविशन्ति सदानन्दं परमानन्दं शान्तं शाश्वतं सदाशिवं
ब्रह्मादिवन्दितं योगिध्येयं परं पदं यत्र गत्वा न निवर्तन्ते योगिनः॥८॥
यत्र स्वातिरिक्तभस्माधिकरणे सूर्यादयो न भान्ति मृत्युरपि यत्पदं स्प्रष्टुं न हि पारयति बृहज्जाबालोपनिषदर्थमननं कुर्वतः तद्वा एतत्परं धाम तद्धि सदानन्दं इत्यादिनवविशेषणविशिष्टम्॥८॥
परंधामस्वरूपम्
तदेतदृचाऽभ्युक्तम्—
तद्वष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततम्॥९॥
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते।
विष्णोर्यत्परमं पदम्॥ ॐ सत्यमित्युपनिषत्॥१०॥
“यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम” इत्यादिस्मृतिसिद्धं यद्धाम तदेतदृचा मन्त्रेणापि प्रतिपादितम्। किं तत्?— स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तप्रपञ्चाधिकरणतया विष्णोः व्यापकस्य व्याप्यसापेक्षव्यापकत्वाधिष्ठानत्वासंभवप्रबोधसिद्धं निरधिष्ठानतया परमं निरतिशयं स्वमात्रतया पद्यत इति पदं यत् तद्विष्णोः परमं पदं “राहोः शिरः” इतिवत् विष्णुयाथात्म्यं स्वातिरिक्तभस्मसिद्धं ब्रह्ममात्रं स्वावशेषतया सूरयः सदा पश्यन्ति। पश्यन्तीति व्यपदेशतः परिच्छेदता स्यादित्यत आह—दिवीति। दिवि द्योतनात्मके ब्रह्मणि इव चक्षुः दृष्टिर्दर्शनं तद्गोचरज्ञानं आततं अपरिच्छिन्नं तद्वद्विष्णुपदं निष्प्रतियोगिकपूर्णम्॥९॥ सूरयः कीदृशाः? विप्रासो विप्राः विपन्यवो विगतमन्यवः मन्युहेतुस्वातिरिक्तस्य स्वभावं गर्तत्वात् अतो जागृवांसः स्वाज्ञाननिद्राऽसंभवात् नित्यं जागरूकाः। यद्विष्णोः परमं पदं पश्यन्ति तद्दर्शनसमकालं तत् पदं समिन्धते तन्मात्रतया
अवशिष्यन्ते। इति एवं यत् प्रतिपादितं तत् ओं तुरीयोङ्काराग्रविद्योतत्वात्। तदेव तुर्यतुर्यं ब्रह्म सत्यं निष्प्रतियोगिकसन्मात्रत्वात्। इत्युपनिषच्छब्दः प्रकृतोपनिषत्समाप्त्यर्थः॥१०॥
इत्यष्टमं ब्राह्मणम्
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
लिखितं स्याद्विवरणं बृहज्जाबालभासकम्।
बृहज्जाबालटीकेयमशीत्यधिचतुःशतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे षड्विंशतिसङ्ख्यापूरकं
बृहज्जाबालोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
भस्मजाबालोपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
प्रथमोऽध्यायः
त्रिपुण्ड्रविधिजिज्ञासा
अथ जाबालो भुसुण्डः कैलासशिखरावासमोंकारस्वरूपिणं महादेवमुमाऽर्धकृतशेखरं सोमसूर्याग्निनयनमनन्तेन्दुरविप्रभं व्याघ्रचर्माम्बरधरं मृगहस्तं भस्मोद्धूलितविग्रहं तिर्यक्त्रिपुण्ड्ररेखाविराजमानफालप्रदेशं स्मितसंपूर्णपञ्चविधपञ्चाननं वीरासनारूढमप्रमेयमनाद्यन93न्तं निष्कलं निर्गुणं शान्तं निरञ्जनमनामयं हुम्फट्कुर्वाणं शिवनामान्यनिशमुच्चरन्तं हिरण्यबाहुं हिरण्यरूपं हिरण्यवर्णंहिरण्यनिधिमद्वैतं चतुर्थं ब्रह्मविष्णुरुद्रातीतमेकमाशास्यंभगवन्तं शिवं प्रणम्य मुहुर्मुहुरभ्यर्च्य श्रीफलदलैस्तेन भस्मना च नतोत्तमाङ्गः कृताञ्जलिपुटः पप्रच्छ—अधीहि भगवन् वेदसारमुद्धृत्य त्रिपुण्ड्रविधिं यस्मादन्यानपेक्षमेव मोक्षोपलब्धिः। किं भस्मनो द्रव्यम्।कानि
स्थानानि। मनवोऽप्यत्र के वा। कति वा तस्य धारणम्। के वाऽत्राधिकारिणः। नियमस्तेषां को वा। मामन्तेवासिनमनुशासयामोक्ष94मिति॥१॥
यत्सम्यग्ज्ञानकालाग्निः स्वातिरिक्तास्तिताभ्रमम्।
करोति भस्म निःशेषं तद्ब्रह्मैवास्मि केवलम्॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं भस्मजाबालोपनिषत् भस्मोद्धूलनत्रिपुण्ड्रशिवार्चनकाशीमाहात्म्यप्रकटनव्यग्रा ब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजृम्भते। अस्याः संक्षेपतो विवरणमारभ्यते। जाबालशिवप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—अथेति। ओंकारस्वरूपिणं ओंकारार्थतुर्यरूपिणम्। स्वातिरिक्ताशिवपटलं हुंफट्कुर्वाणं दूरादुत्सारयन्तम्। पप्रच्छ किमिति—अधीहीति। यस्मादन्यानपेक्षमेव मोक्षोपलब्धिः तन्मे ब्रूहीत्यर्थः॥१॥
प्रातःकृत्यं होमान्तम्
अथ स होवाच भगवान् परमेश्वरः परमकारुणिकः प्रमथान् सुरानपि सोऽन्वीक्ष्य॥२॥
पूतं प्रातरुदयाद्गोमयं ब्रह्मपर्णे निधाय त्र्यम्बकमिति मन्त्रेण शोषयेत्। येन केनापि तेजसा तत्स्वगृह्योक्तमार्गेण प्रतिष्ठाप्य वह्निंतत्र तद्गोमयद्रव्यं निधाय सोमाय स्वाहेति मन्त्रेण ततस्तिलव्रीहिभिः साज्यैर्जुहुयात्। अयं तेनाष्टोत्तरसहस्रं सार्धमेतद्वा। तत्राज्यस्य पर्णमयी जुहूर्भवति। तेन न पापं शृणोति। तद्धोममन्त्रस्त्र्यम्बकमित्येव। अन्ते स्विष्टकृत् पूर्णाहुतिस्तेनैवाष्टदिक्षु बलिप्रदानम्॥३॥
क्रमेण प्रश्नोत्तरं अथ स इति। यैरेवं षट्प्रश्नाः कृतास्तान् प्रमथान्॥२॥ किं भस्मनो द्रव्यमित्याद्यप्रश्नमपाकरोति—पूतमिति। अयं तेनाष्टोत्तरसहस्रं सार्धमेतद्वा “सोमाय स्वाहा” इति मन्त्रेण सार्धं अयं तेनेत्यष्टोत्तरसहस्रं जुहुयादित्यर्थः। अन्ते तद्धोमान्ते। अष्टदिक्षु बलिदानं “त्र्यम्बकं” इति मन्त्रेण कुर्यादित्यर्थः॥३॥
भस्मधारणविधिः
तद्भस्म गायत्र्या संप्रोक्ष्य तद्धैमे राजते ताम्रे मृण्मये वा पात्रे निधाय रुद्रमन्त्रैः95 पुनरभ्युक्ष्य शुद्धदेशे संस्थापयेत्। ततो भोजयेद्ब्राह्मणान्। ततः स्वयं पूतो भवति॥४॥
मानस्तोक इति सद्योजातमित्यादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैर्भस्म संगृह्याग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म देवा भस्म ऋषयो भस्म सर्वं ह वा एतदिदं भस्म पूतं पावनं नमामि सद्यः समस्ताघशासकमिति शिरसाऽभिनम्य पूते वामहस्ते वामदेवायेति निधाय त्र्यम्बकमिति संप्रोक्ष्य शुद्धं शुद्धेनेति संमृज्य संशोध्य तेनैवापादशीर्षमुद्धूलनमाचरेत्। तत्र ब्रह्ममन्त्राः पञ्च॥५॥
ततः शेषस्य भस्मनो विनियोगः। तर्जनीमध्यमानामिकाभिरग्नेर्भस्मासीति भस्म संगृह्य मूर्धानमिति मूर्धन्यग्रे न्यसेत् त्र्यम्बकमिति ललाटे नीलग्रीवायेति कण्ठे कण्ठस्य दक्षिणे पार्श्वे त्र्यायुषमिति वामेति कपोलयोः कालायेति नेत्रयोस्त्रिलोचनायेति श्रोत्रयोः शृणवामेति वक्त्रे प्रब्रवामेति हृदये आत्मन इति नाभौ
नाभिरिति96 मन्त्रेण दक्षिणभुजमूले भवायेति तन्मध्ये रुद्रायेति तन्मणिबन्धे शर्वायेति तत्करपृष्ठे पशुपतय इति वामबाहुमूले उग्रायेति तन्मध्ये अग्रेवधायेति तन्मणिबन्धे दूरेवधायेति तत्करपृष्ठे नमो हन्त्रइति अंसे शंकरायेति यथाक्रमं भस्म धृत्वा सोमायेति शिवं नत्वा ततः प्रक्षाल्य तद्भस्मापः पुनन्त्विति पिबेत्। नाधो त्याज्यं नाधो त्याज्यम्॥६॥
एतन्मध्याह्न्सायाह्नेषु त्रिकालेषु विधिभस्मधारणमप्रमादेन कार्यम्। प्रमादात् पतितो भवति॥७॥
ततः तद्भस्म गायत्र्या संप्रोक्ष्य॥४॥ मनवोऽप्यत्र के वेति तृतीयप्रश्नोत्तरमाह—मा नस्तोक इति। स्वातिरिक्तं भस्म करोतीति भस्म ब्रह्म सर्वात्मकत्वात्। अग्निरित्यादिपञ्चभूतग्रहणं जडप्रपञ्चोपलक्षणार्थम्। देवर्षिग्रहणं अजडप्रपञ्चोपलक्षणार्थम्। भस्मनो ब्रह्मतया जडाजडप्रपञ्चव्यापकत्वे “एकं भस्म सर्वभूतान्तरात्मा” इति बृहज्जाबालश्रुतेः। यत एवमतो भस्म ब्रह्म पूतं पावनं नमामि। किमर्थमस्य नमनमित्यत्र स्मृतिमात्रेण सद्यः समस्ताघशासकं इति शिरसाऽभिनम्य।शुद्धं शुद्धेन इति मन्त्रेण संसृज्य। तत्र “सद्योजातं” इत्यादिब्रह्ममन्त्राः पञ्च॥५॥ कानि स्थानानीति द्वितीयप्रश्नमपाकरोति त्र्यम्बकमिति। कति वा तस्य धारणमिति प्रश्नोऽप्यपाकृतः। तद्भस्म तद्भस्मोदकम्॥६॥के वाऽत्राधिकारिणः, नियमस्तेषां को वा इति प्रश्नद्वयमप्यपाक्रियते—एतदित्यादिना॥७-९॥
भस्मधारणस्यावश्यकर्तव्यता
ब्राह्मणानामयमेव धर्मोऽयमेव धर्मः। एवं भस्मधारणमकृत्वा नाश्नीयादापोऽन्नमन्यद्वा। प्रमादात्त्यक्त्वा भस्मधारणं न गायत्रीं
जपेत्। न जुहुयादग्नौतर्पयेद्देवानृषीन् पित्रादीन्। अयमेव धर्मः सनातनः सर्वपापनाशको मोक्षहेतुः। नित्योऽयं धर्मो ब्राह्मणानां ब्रह्मचारिगृहिवानप्रस्थयतीनाम्। एतदकरणे प्रत्यवैति ब्राह्मणः॥८॥
अकरणे प्रायश्चित्तम्
अकृत्वा प्रमादेनैतदष्टोत्तरशतं जलमध्ये स्थित्वा गायत्रीं जप्त्वोपोषणेनैकेन शुद्धो भवति। यतिर्भस्मधारणं त्यक्त्वैकदोपोष्य द्वादशसहस्रप्रणवं जप्त्वा शुद्धो भवति। अन्यथेन्द्रो यतीन्त्सालावृकेभ्यः पातयति॥९॥
संस्कृतभस्माभावे कर्तव्यनिरूपणम्
भस्मनो यद्यभावस्तदा नर्यभस्मदाहनजन्यमन्यद्वाऽवश्यं मन्त्रपूतं धार्यम्॥१०॥
इत्यादिसंस्कारसंस्कृतभस्मनः॥१०॥
भस्मधारणफलम्
एतत् प्रातः प्रयुञ्जानो रात्रिकृतात् पापात् पूतो भवति स्वर्णस्तेयात् प्रमुच्यते। मध्यन्दिने माध्यन्दिनं कृत्वोपस्थानान्तं ध्यायमान आदित्याभिमुखोऽधीयानः97 सुरापानात् पूतो भवति स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति ब्राह्मणवधात् पूतो भवति गोवधात् पूतो भवत्यश्ववधात् पूतो भवति गुरुवधात् पूतो भवति मातृवधात्
पूतो भवति पितृवधात् पूतो भवति। त्रिकालमेतत् प्रयुञ्जानः सर्ववेदपारायणफलमवाप्नोति सर्वतीर्थफलमश्नुते अनपब्रुवः सर्वमायुरेति विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यम्। एवमावर्तयेदुपनिषदमित्याह भगवान् सदाशिवः साम्ब सदाशिवः साम्बः॥११॥
सर्वतीर्थफलं सर्वतीर्थस्नानफलम्। प्राजापत्यं प्रजापतित्वं रायस्पोषं कुबेरत्वं गौपत्यं पशुपतित्वं विन्दते लभत इत्यर्थः। सदाशिवः साम्बः—आवृत्तिः प्रथमाध्यायसमाप्त्यर्था॥११॥
इति प्रथमोऽध्यायः
______________
द्वितीयोऽध्यायः
ब्राह्मणानां किं नित्यं कर्तव्यम्
अथ भुसुण्डो जाबालो महादेवं साम्बं प्रणम्य पुनः पप्रच्छ किं नित्यं ब्राह्मणानां कर्तव्यं यदकरणे प्रत्यवैति ब्राह्मणः। कः पूजनीयः। को वा ध्येयः। कः स्मर्तव्यः। कथं ध्येयः। क्व स्थातव्यमेतद्ब्रूहीति॥१॥
किं नित्यं ब्राह्मणैः कर्तव्यमित्यादिबुभुत्सया जाबालोमहादेवं पृच्छतीत्याह—अथेति॥१॥
प्रातःकर्तव्यत्रिपुण्ड्रधारणादि
समानेन तं होवाच। प्रागुदयान्निर्वर्त्य शौचादिकं ततः स्नायात्। मार्जनं रुद्रसूक्तैः। ततश्चाहतं वासः परिधत्ते पाप्मनोऽपहत्यै। उद्यन्तमादित्यमभिध्यायन्नुद्धूलिताङ्गं कृत्वा यथास्थानं भस्मना त्रिपुण्ड्रंश्वेतेनैव रुद्राक्षाञ्छ्वेतान् बिभृयात्। नैतत्रसंमर्शः। तथाऽन्ये। मूर्ध्नि चत्वारिंशत्। शिखायामेकं त्रयं वा। श्रोत्रयोर्द्वादश। कण्ठे द्वात्रिंशत्। बाह्वोः षोडशषोडश। द्वादशद्वादश मणिबन्धयोः। षट्षडङ्गुष्ठयोः। ततः संध्यां सकुशोऽहरहरुपासीत। अग्निर्ज्योतिरित्यादिभिरग्नौ जुहुयात्॥२॥
जाबालेन पृष्टो भगवान् सप्रमाणं प्रश्नोत्तरमाह—समानेन तं होवाचेति। किं तदिति—प्रागुदयादिति। उद्यन्तमादित्यं असावादित्यो ब्रह्मेति अभिध्यायन्। भस्मना त्रिपुण्ड्रं ललाटादौ धारयेत्। “ब्रह्मणो बिभृयाच्छ्वेतान्” इति श्रुत्यनुरोधेन श्वेतेनैव रुद्राक्षान् श्वेतान् बिभृयात्। ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय शौचादिकं निर्वर्त्य अथ रुद्रसूक्तमार्जनपूर्वकं स्नात्वा, अहतवस्त्रधारणपूर्वकं यथोक्तस्थानेषु भस्मोद्धूलनत्रिपुण्ड्ररुद्राक्षधारणं कृत्वा, अथ संध्याऽऽद्यनुष्ठानपूर्वकमौपासनाग्निहोत्रादिकं कृत्वा॥२॥
शिवपूजाविधिः
** शिवलिङ्गं त्रिसंध्यमभ्यर्च्य कुशेष्वासीनो ध्यात्वा साम्बं मामेव वृषभारूढं हिरण्यबाहुं हिरण्यवर्णंहिरण्यरूपं पशुपाशविमोचकं पुरुषं कृष्णपिङ्गलमूर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपं सहस्राक्षं सहस्रशीर्षं सहस्रचरणं विश्वतोबाहुं विश्वात्मानमेकमद्वैतं निष्कलं निष्क्रियं शान्तं**
शिवमक्षरमव्ययं हरिहर98हिरण्यगर्भस्रष्टारमप्रमेयमनाद्यन्तं रुद्रसूक्तैरभिषिच्य सितेन भस्मना श्रीफलदलैश्च त्रिशाखैरार्द्रैरनार्द्रैर्वा। नैतत्र संस्पर्शः। तत्पूजासाधनं कल्पयेच्च नैवेद्यम्। ततश्चैकादशगुणरुद्रो जपनीयः। एकगुणो99ऽनन्तः॥३॥
अथ शिवपूजां कुर्यादित्याह—शिवलिङ्गमिति। विराडात्मना सहस्रचरणं विश्वतोबाहुं विश्वात्मानं प्रत्यगभिन्नब्रह्मात्मना एकम्। ईश्वरात्मना हरिहरहिरण्यगर्भस्रष्टारं अप्रमेयं अनाद्यन्तं एवमुक्तविशेषणविशिष्टं शिवलिङ्गंरुद्रसूक्तैरभिषिच्य सितेन भस्मना चाभिषिच्य। उक्ताभिषेकद्रव्याणां नैतत्र संस्पर्शः॥३॥
शिवषडक्षर-अष्टाक्षरयोरुद्धारः
षडक्षरोऽष्टाक्षरो वा शैवो मन्त्रो जपनीयः। ओमित्यग्रे व्याहरेत्। नम इति पश्चात्। ततः शिवायेत्यक्षरत्रयम्। ओमित्यग्रेव्याहरेत्। नम इति पश्चात्। ततो महादेवायेति पञ्चाक्षराणि। नातस्तारकः परमो मन्त्रः। तारकोऽयं पञ्चाक्षरः। कोऽयं शैवो मनुः। शैवस्तारकोऽयमुपदिश्यते मनुरविमुक्ते शैवेभ्यो जीवेभ्यः। शैवोऽयमेव मन्त्रस्तारयति। स एव100 ब्रह्मोपदेशः॥४॥
शिवषडक्षरमष्टाक्षरं चोद्धरति—ॐ इति। केभ्य इत्यत्र—शैवेभ्य इति। यस्तारकः काश्यामुपदिश्यते स एव ब्रह्मोपदेशः॥४॥
ब्रह्मस्वरूपम्
ब्रह्म सोमोऽहं पवनः सोमोऽहं पवते सोमोऽहं जनिता मतीनां सोमोऽहं जनिता पृथिव्याः सोमोऽहं जनिताऽग्नेः सोमोऽहं जनिता सूर्यस्य सोमोऽहं जनितेन्द्रस्य सोमोऽहं जनितोत विष्णोः सोमोऽहमेव जनिता स यश्चन्द्रमसो देवानां भूर्भुवःस्वरादीनां सर्वेषां लोकानां च॥५॥
विश्वं भूतं भुवनं चित्रं बहुधा जातं जायमानं च यत्।
सर्वस्य सोमोऽहमेव जनिता विश्वाधिको रुद्रो महर्षिः॥६॥
हिरण्यगर्भादीनहं जायमानान् पश्यामि। यो रुद्रो अग्नौयो अप्सु य ओषधीषु यो रुद्रो विश्वा भुवना विवेशैवमेव। अहमेवात्माऽन्तरात्मा ब्रह्मज्योतिर्यस्मान्न मत्तोऽन्यः परः। अहमेव परो विश्वाधिकः॥७॥
ब्रह्म कीदृशमित्यत्र—योऽयमुमया सहितः सोऽयं ब्रह्म सोमोऽहम्। यः सूत्ररूपेण पवनो भूत्वा सर्वं पवते पवित्रीकरोति स सोमोऽहं परमेश्वर इत्यर्थः। यः सोमः सोऽहमीश्वरात्मना स्वातिरिक्तमत्यादिसर्वजनिता स्यामित्याह—जनितेति॥५॥ सर्वकारणत्वेऽपि सर्वातीतः स्यामित्याह—विश्वाधिक इति॥६॥ योऽन्तर्याम्यात्मना भुवनमाविवेश सोऽहं प्रत्यगभेदेन ब्रह्मज्योतिः। विश्वाधिकः विश्वारोपापवादाधिष्ठानत्वात्॥७॥
ब्रह्मज्ञानमेव मुक्तिसाधनम्
मामेव विदित्वाऽमृतत्वमेति तरति शोकम्। मामेव विदित्वा सांसृतिकीं रुजं द्रावयति तस्मादहं रुद्रो यः सर्वेषांपरमा गतिः सोऽहं सर्वाकारः॥८॥
स्वाज्ञलोको मामेव विदित्वा अमृतत्वमेति तरति शोकं यो मामेव “अहं ब्रह्मास्मि” इति विदित्वा आस्ते तस्य स्वाज्ञविकल्पितसांसृतिकीं रुजं द्रावयामि तस्मादहं रुद्रः निर्विशेषब्रह्मात्मना यः सर्वेषां परमा गतिः॥८॥
शिवस्य विश्वाधारत्वम्
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तं मामेव विदित्वोपासीत। भूतेभिर्देवेभिरभिष्टुतोऽहमेव॥९॥
भीषाऽस्माद्वातः पवते। भीषोदेति सूर्यः। भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च॥१०॥
सोमोऽत एव योऽहं सर्वेषामधिष्ठाता सर्वेषां च भूतानां पालकः। सोऽहं पृथिवी। सोऽहमापः। सोऽहं तेजः। सोऽहं वायुः। सोऽहं कालः। सोऽहं दिशः। सोऽहमात्मा। मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्॥११॥
तं विश्वोत्पत्तिस्थितिप्रलयाधारमहमस्मीति विदित्वोपासीत। भूतेभिर्देवेभिरभिष्टुतोऽहमेव मनुष्यादिभूतैर्देवैरपि च ब्रह्मास्मीति स्तुतोऽहमेव॥९॥ वातादिभयकारणमप्यहमेवेत्याह—भीषाऽस्मादिति। अत एवाहं वातादिभयहेतुरित्यर्थः॥१०॥ योऽहं सर्वेषामधिष्ठाता कूटस्थात्मना विष्ण्वात्मना सर्वेषां च भूतानां पालकः सोऽहं पृथिवीत्यादि॥११॥
शिवस्य पशुपाशमोचकत्वम्
ब्रह्मविदाप्नोति परम् \। ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम्॥१२॥
अचक्षुर्विश्वतश्चक्षुरकर्णो विश्वतःकर्णोऽपादो विश्वतःपादोऽपाणिर्विश्वतःपाणिरहमशिरा विश्वतःशिरा विद्यामन्त्रैकसंश्रयो विद्यारूपो विद्यामयो विश्वेश्वरोऽहमजरोऽहम्॥१३॥
मामेवं विदित्वा संसृतिपाशात् प्रमुच्यते। तस्मादहं पशुपाशविमोचकः। पशवश्चामानवान्तं मध्यवर्तिनश्च युक्तात्मानो यतन्ते मामेव प्राप्तुम्। प्राप्यन्ते मां न पुनरावर्तन्ते न पुनरावर्तन्ते॥१४॥
सर्वात्मकं ब्रह्माहमस्मीति यो वेद स तदेवाप्नोतीत्याह—ब्रह्मविदाप्नोति परमिति “ब्रह्मविदो मे ममात्मा ब्रह्मैव सत्यमात्मा ब्रह्मैव ब्रह्मात्मैव अत्र ह्येव न विचिकित्स्यं” इति श्रुतेः। किं च—योऽहं ब्रह्मा चतुर्मुखः स एव सदाशिवश्चास्तु। सर्वात्मैकत्वे ओमिति मानमकाराद्योङ्काराद्यवयवानां पञ्चब्रह्मपरब्रह्मार्थत्वात्॥१२॥ एवं निरुपाधिकसोपाधिकरूपाभ्यां अचक्षुः॥१३॥ मुमुक्षुः संसृतिपाशात् प्रमुच्यते। यस्मादेवं तस्मात्। के पशव इत्यत्र—पशवश्च ब्रह्मादि आमानवान्तं मध्यवर्तिनश्च। पशवो यदि समाहितात्मानो भवन्ति तदा मामाप्तुं यतन्ते क्रमेण ते मां प्राप्यन्ते मां प्राप्य केऽपि न पुनरावर्तन्ते॥१४॥
शिवतत्त्ववेदनाशक्तानां काशीवासस्तरणोपायः
त्रिशूलायां101 काशीमधिश्रित्य त्यक्तासवोऽपि मय्येव संविशन्ति। प्रज्वलद्वह्निगं हविर्यथा न यजमानमासादयति तथाऽसौ त्यक्त्वा कुणपंन तत्तादृशं पुरा प्राप्नुवन्ति। एष एवादेशः। एष उपदेशः। एष एव परमो धर्मः॥१५॥
एवं सविशेषनिर्विशेषरूपेण त्वद्वेदनाशक्तानां का गतिरित्याशङ्क्याह—त्रिशूलायामिति। चरमश्वासवेलायां मदुपदिष्टतारकोपदेशेन ते मां विदित्वा वेदनसमकालं मय्येव संविशन्ति। यत एवमतः मदाप्ति मज्ज्ञानायत्तेत्यर्थः। चिरकालसेवितश्रवणादिसंजातज्ञानेन त्वां प्राप्य अपुनरावृत्तिरस्तु। तत् कथं
चरमश्वासकालीनतारकोपदेशतो न पुनरावृत्तिरित्यत आह—प्रज्वलदिति। अन्त्यकालीनमत्सृतेर्मद्भावापत्तिहेतुत्वात्। तथा चेश्वरस्मृतिः—
अन्तकाले च मामेव स्मरन् मुक्त्वा कलेबरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥
इति तारकोपदेशमहिम्ना यदि निर्विशेषब्रह्मज्ञानं जातं तदा निर्विशेषब्रह्मैव भवति। यदि सविशेषज्ञानं तदा मत्सालोक्यादिमुक्तिमेत्य मल्लोके पुनर्मदुपदेशतो निर्विशेषज्ञानमासाद्य चतुष्पदैक्यसमये निर्विशेषं ब्रह्मैव प्रतिपद्यत इति। अत एव मुमुक्षवः काश्यामुषित्वा मरणमिच्छन्ति॥१५॥
काशीवासिनां नियमविशेषाः
सत्यात्तत्र कदाचिन्न प्रमदितव्यं तत्रोद्धूलनत्रिपुण्ड्राभ्याम्। तथा रुद्राक्षधारणात्तथा मदर्चनाच्च। प्रमादेनापि नान्तर्देवसदने पुरीषं कुर्यात्। व्रतान्न प्रमदितव्यम्। तद्धि तपस्तद्धि तपः काश्यामेव मुक्तिकामानाम्॥१६॥
न तत्त्याज्यं न तत्त्याज्यं मोचकोऽहमविमुक्ते निवसताम्। नाविमुक्तात् परं स्थानं नाविमुक्तात् परं स्थानम्॥१७॥
तत्र मृतिमात्रेण मुक्तिर्भवतीति यथेच्छाचरणं न कर्तव्यमित्याह—सत्यादिति॥१६॥ काशीक्षेत्रं मुमुक्षुभिः न कदाऽपि त्याज्यमित्यर्थः। कथमेवं? मोचकोहमविमुक्ते निवसतां अतो नाविमुक्तात् परं स्थानम्॥१७॥
काश्यां ज्योतिर्लिङ्गार्चनं तत्फलं च
काश्यां स्थानानि चत्वारि। तेषामभ्यर्हितमन्तर्गृहम्। तत्राप्यविमुक्तमभ्यर्हितम्। तत्र स्थानानि पञ्च। तन्मध्ये
शिवागारमभ्यर्हितम्। तत्र प्राच्यामैश्वर्यस्थानम्। दक्षिणायां विचालनस्थानम्। पश्चिमायां वैराग्यस्थानम्। उत्तरायां ज्ञानस्थानम्। तस्मिन् यदन्तर्निर्लिप्तमव्ययमनाद्यन्तमशेषवेदवेदान्तवेद्यमनिर्देश्यमनिरुक्तमप्रच्यवमाशास्यमद्वैतं सर्वाधारमनाधारमनिरीक्ष्यमहरहर्ब्रह्मविष्णुपुरन्दराद्यमरवरसेवितं मामेव ज्योतिःस्वरूपं लिङ्गं मामेवोपासितव्यं तदेवोपासितव्यम्॥१८॥
नैव भासयन्ति तल्लिङ्गं भानुश्चन्द्रोऽग्निर्वा102स्वप्रकाशं विश्वेश्वराभिधंपातालमधितिष्ठति। तदेवाहम्॥१९॥
तत्रार्चितोऽहं साक्षादर्चितः। त्रिशाखैर्बिल्वदलैर्दीप्तैर्वा योऽभिसंपूजयेन्मन्मना मय्याहितासुर्मय्येवार्पिताखिलकर्मा भस्मदिग्धाङ्गो रुद्राक्षभूषणो मामेव सर्वभावेन प्रपन्नो मदेकपूजानिरतः संपूजयेत् तदहमश्नामि तं मोचयामि संसृतिपाशात्। अहरहरभ्यर्च्य विश्वेश्वरं लिङ्गं तत्र रुद्रसूक्तैरभिषिच्य तदेव स्नपनं पयस्त्रिः पीत्वा महापातकेभ्यो मुच्यते न शोकमाप्नोति मुच्यते संसारबन्धनात्॥२०॥
अभ्यर्हितं श्रेष्ठम्। तस्मिन् यदन्तर्निलिप्तं ज्ञानवृत्त्यलिप्तत्वात् यन्निर्विशेषतया ज्ञेयं तत् अव्ययम्। अनिर्देश्यमनिरुक्तं इदमित्थमिति निर्देष्टुमशक्यतया निरुत्तरत्वात् अप्रच्यवमाशास्यं स्वधामतोऽप्रच्यवमच्युतं “ब्रह्माहमस्मि” इति मुमुक्षुभिः आशास्यं काङ्क्षणीयम्। किं तत्? अद्वैतं सर्वाधारमनाधारं आधेयसत्त्वे आधारं तदभावे निराधारं स्वातिरेकेण अनिरीक्ष्यं
अहरहर्ब्रह्मविष्णुपुरन्दराद्यमरवरसेवितं “ब्रह्माहमस्मि” इति भावितमित्यर्थः। किं ते भावयन्तीत्यत्र—“ज्योतिर्लिङ्गं भ्रुवोर्मध्ये नित्यं ध्यायेत् सदा यतिः” इति श्रुत्यनुरोधेन यतयो यतो मामेव ज्योतिःस्वरूपं लिङ्गं भावयन्ति अतो मामेवोपासितव्यं सर्वैरप्यहमेव स्वात्मतयोपासितव्यः यत्सर्वाधिकरणं तदेवोपासितव्यम्॥१८॥ तत् किं भान्वादिभास्यं तत् क्वासनमर्हतीत्यत आह—नैवेति। एते प्रकाशवन्तोऽपि नैव भासयन्तीत्यर्थः। किं तत् क्वेत्यत्र—विश्वेश्वराभिधमिति। किं तत् त्वद्भिन्नमित्यत्र—तदेवाहमिति॥१९॥ स्वाज्ञः केनोपायेन संसृतिपाशान्मुच्यत इत्यत्र यो हि मुमुक्षुः अहरहरभ्यर्च्येति। तदेव स्नपनं स्वाभिषेचितम्॥२०॥
अनभ्यर्च्याशनादौ कृते प्राश्चित्तम्
तदनभ्यर्च्य नाश्नीयात् फलमन्नमन्यद्वा। यदश्नीयाद्रेतोभक्षी भवेत्। नापः पिबेत्। यदि पिबेत् पूयपो भवेत्। प्रमादेनैकदा त्वनभ्यर्च्य मां भुक्त्वा भोजयित्वा केशान् वापयित्वा गव्यानां पञ्च संगृह्योपोष्य जले रुद्रस्नानम्। जपेत्त्रिवारं रुद्रानुवाकम्। आदित्यं पश्यन्नभिध्यायन् स्वकृतकर्मकृद्रौद्रैरेव मन्त्रैः कुर्यान्मार्जनम्। ततो भोजयित्वा ब्राह्मणान् पूतो भवति। अन्यथा परेतो यातनामश्नुते। पत्रैः फलैर्वा जलैर्वाऽन्यैर्वाऽभिपूज्य विश्वेश्वरं मां ततोऽश्नीयात्॥२१॥
मामेवमनभ्यर्च्य यो भोजनादिव्यापारं करोति स प्रत्यवैतीत्याह—तदिति। यत एवमतः पत्रैरिति। सोऽयमर्चको मत्प्रसादभाक् भवतीत्यर्थः॥२१॥
सर्वपातकपावनं शिवाभ्यर्चनम्
कापिलेन पयसाऽभिषिच्य रुद्रसूक्तेन मामेव शिवलिङ्गरूपिणं ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति। कापिलेन दध्नाऽभिषिच्य सुरापानात्
पूतो भवति। कापिलेनाज्येनाभिषिच्य स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति। मधुनाऽभिषिच्य गुरुदारगमनात् पूतो भवति। सितया शर्करयाऽभिषिच्य सर्वजीववधात् पूतो भवति॥२२॥
मदर्चनैव ब्रह्महत्यादिसर्वमहापातकभञ्जनीत्याह—कापिलेनेति॥२२॥
मुक्त्यादिसाधनं शिवाभिषेचनम्
क्षीरादिभिरेतैरभिषिच्य सर्वानवाप्नोति कामान्। इत्येकैकं महाप्रस्थशतं महाप्रस्थशतमानैः शतैरभिपूज्य मुक्तो भवति संसारबन्धनात्॥२३॥
भवबन्धमोचनार्थं कापिलक्षीरदध्याज्यशर्करादीनां इत्येकैकमित्यादि। द्वात्रिंशत्पलपरिमितप्रस्थशतं महाप्रस्थ उच्यते॥२३॥
शिवसायुज्यसाधनं शिवाभिषेचनम्
मामेव शिवलिङ्गरूपिणमार्द्रायां पौर्णमास्यां वाऽमावास्यायां वा महाव्यतीपाते ग्रहणे संक्रान्तावभिषिच्य तिलैः सतण्डुलैः सयवैः संपूज्य बिल्वदलैरभ्यर्च्य कापिलेना[ला]ज्यान्वितगन्धसारधूपैः परिकल्प्य दीपं नैवेद्यं साज्यमुपहारं कल्पयित्वा दद्यात् पुष्पाञ्जलिम्। एवं प्रयतोऽभ्यर्च्य मम सायुज्यमेति॥२४॥
मत्पूजैव मत्सायुज्यकारणमित्याह—मामेवेति॥२४॥
चन्द्रादिलोकसाधनं शिवाभिलोचनम्
शतैर्महाप्रस्थैरखण्डैस्तण्डुलैरभिषिच्य चन्द्रलोककामश्चन्द्रलोकमवाप्नोति। तिलैरेतावद्भिरभिषिच्य वायुलोककामो वायुलोक-
मवाप्नोति। माषैरेतावद्भिरभिषिच्य वरुणलोककामो वरुणलोकमवाप्नोति। यवैरेतावद्भिरभिषिच्य सूर्यलोककामः सूर्यलोकमवाप्नोति। एतैरेतावद्भिर्द्विगुणैरभिषिच्य स्वर्गलोककामः स्वर्गलोकमवाप्नोति। एतैरेतावद्भिश्चतुर्गुणैरभिषिच्य ब्रह्मलोककामो ब्रह्मलोकमवाप्नोति। एतैरेतावद्भिः शतगुणैरभिषिच्य चतुर्जालं ब्रह्मकोशं यन्मृत्युर्नावपश्यति। तमतीत्य मल्लोककामो मल्लोकमवाप्नोति नान्यं103 मल्लोकात् परं यमवाप्य न शोचति न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते॥२५॥
चन्द्रलोकादिसर्वलोकाप्तिसाधनमपि मत्पूजेत्याह—शतैरिति। “ब्रह्मणः कोशोऽसि” इति श्रुत्यनुरोधेन प्रणवो हि ब्रह्मकोशः तं—किंविशेषणविशिष्टं? व्यष्टिसमष्ट्यात्मकस्थूलसूक्ष्मबीजार्धमात्रांशतदारोपापवादाधिष्ठानविश्वविराडोत्रादिद्वितुर्याविकल्पान्त-भेदेन चतुर्जालं यत्स्वरूपं विमृत्यु तत्प्रणवं ब्रह्मलोकं वा अतीत्य मल्लोककामो मल्लोकमवाप्नोति नान्यं मल्लोकात् परं अस्ति मुमुक्षुः यमवाप्य न शोचति। न स पुनरावर्तते—आवृत्तिरवधारणार्था। “यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसंपद्यते न च पुनरावर्तते” इति श्रुतेः, यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम” इति स्मृतेश्च॥२५॥
काशीवासिनां शैवतारकोपदेशान्मुक्तिलाभः
लिङ्गरूपिणं मां संपूज्य चिन्तयन्ति योगिनः सिद्धाः सिद्धिं गताः यजन्ति यज्वानः। मामेव स्तुवन्ति वेदाः साङ्गाः सोपनिषदः सेतिहासाः। न मत्तोऽन्यदहमेव सर्वम्। मयि सर्वंप्रतिष्ठितम्। ततः काश्यां प्रयतैरेवाहमन्वहं पूज्यः॥२६॥
तत्र गणा रौद्रानना नानामुखा नानाशस्त्रधारिणो नानारूपधरा नानाचिह्निताः। ते सर्वे भस्मदिग्धाङ्गा रुद्राक्षाभरणाः कृताञ्जलयो नित्यमभिध्यायन्ति। तत्र पूर्वस्यां दिशि ब्रह्मा कृताञ्जलिरहर्निशं मामुपास्ते। दक्षिणस्यां दिशि विष्णुः कृत्वैव मूर्धाञ्जलिं मामुपास्ते। प्रतीच्यामिन्द्रः सन्नताङ्ग उपास्ते। उदीच्यामग्निकायमुमाऽनुरक्ता हेमाङ्गविभूषणा हेमवस्त्रा मामुपासते मामेव देवाश्चतुर्मूर्तिधराः॥२७॥
दक्षिणायां दिशि मुक्तिस्थानं तन्मुक्तिमण्डपसंज्ञितम्। तत्रानेकगणाः पालकाः सायुधाः पापघातकाः। तत्र ऋषयः शांभवाः पाशुपता महाशैवा वेदावतंसं शैवं पञ्चाक्षरं जपन्तस्तारकं सप्रणवं मोदमानास्तिष्ठन्ति। तत्रैका रत्नवेदिका। तत्राहमासीनः काश्यां त्यक्तकुणपाञ्छैवानानीय स्वस्याङ्के संनिवेश्य भसितरुद्राक्षभूषितानुपस्पृश्य मा भूदेतेषां जन्म मृतिश्चेति तारकं शैवं मनुमुपदिशामि। ततस्ते मुक्ता मामनुविशन्ति विज्ञानमयेनाङ्गेन104। न पुनरावर्तन्ते हुताशनप्रतिष्ठं हविरिव। तत्रैव मुक्त्यर्थमुपदिश्यते शैवोऽयं मन्त्रः पञ्चाक्षरः। तन्मुक्तिस्थानम्। तत ओंकाररूपम्। ततो मदर्पितकर्मणां मदाविष्टचेतसां मद्रूपता भवति। नान्येषामियं ब्रह्मविद्येयं ब्रह्मविद्या॥२८॥
मुमुक्षवः काश्यामेवासीना वीर्यवन्तो विद्यावन्तो विज्ञानमयं ब्रह्मकोशं चतुर्जालं ब्रह्मकोशं यं मृत्युर्नावपश्यति यं ब्रह्मा नावपश्यति
यं विष्णुर्नावपश्यति यमिन्द्राग्नी नावपश्येतां यं वरुणादयो नावपश्यन्ति तमेव तत्तेजःप्लुष्टविड्भावं हैममुमां संश्लिष्य वसन्तं105 चन्द्रकोटिसमप्रभं चन्द्रकिरीटं सोमसूर्याग्निनयनं भूतिभूषितविग्रहं शिवं मामेवमभिध्यायन्तो मुक्तकिल्विषास्त्यक्तवन्धा मय्येव लीना भवन्ति॥२९॥
अहमेव सर्वाप्यो मदतिरिक्तं न किंचिदस्तीत्याह—लिङ्गेति॥२६॥ ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रभेदेन देवाश्चतुर्मूर्तिधरा मामुपासत इति। स्पष्टोऽर्थः॥२७॥ ततस्ते स्वातिरिक्तभ्रमतो विमुक्ता मामनुविशन्ति॥२८॥ विज्ञानमयं ब्रह्मकोशं किं तत्? यथाव्याख्यातं चतुर्जालं ब्रह्मकोशं यं मृत्युः स्वात्मविस्मृतिः प्रमादः, “प्रमादं वै मृत्युमहं ब्रवीमि” इति स्मृतेः। स मृत्युः नावपश्यति। तत्तेजः प्लुष्टविड्भावं विराड्भावम्॥२९॥
काश्यामप्रमादेन वस्तव्यम्
ये चान्ये काश्यां पुरीषकारिणः प्रतिग्रहरतास्त्यक्तभस्मधारणास्त्यक्तरुद्राक्षधारणास्त्यक्तसोमवारव्रतास्त्यक्तगृहयागास्त्यक्तविश्वेश्वरार्चनास्त्यक्तपञ्चाक्षरजपास्त्यक्तभैरवार्चना भैरवीं घोरादियातनां नानाविधां काश्यां परेता भुक्त्वा ततः शुद्धा मां प्रपद्यन्ते च। अन्तर्गृहे रेतो मूत्रं पुरीषं वा विसृजन्ति तदा तेन सिञ्चन्ते पितॄन्। तमेव पापकारिणं मृतं पश्यन्नीललोहितो भैरवस्तं पातयत्यस्त्रमण्डले ज्वलज्ज्वलनकुण्डेष्वन्येष्वपि106। ततश्चाप्रमादेन निवसेदप्रमादेन निवसेत् काश्यां लिङ्गरूपिण्यामित्युपनिषत्॥३०॥
त्यक्तगृहयागाः औपासनादिहोमाः। काशीमरणप्रभावतो न हि मद्धामतश्च्यवन्त इत्यर्थः। मामेव प्रपद्यन्ते। यतः काश्यां विश्वेशस्तारकमुपदिशत्यतः सर्वे मुमुक्षवः काशीमधिश्रित्य अप्रमादेन वसन्तु। एवं वसतां विश्वेशोपदिष्टतारको विश्वेशभावप्रदो भवति। काशीक्षेत्रं विश्वेश्वरतनुत्वेन संभाव्याप्रमादेन वस्तव्यमित्यर्थः॥३०॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना
भस्मजाबालविवृतिर्लिखिता शिवगोचरा।
जाबालविवृतिग्रन्थः पञ्चाशदधिकं शतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे सप्ताशीतिसङ्ख्यापूरकं
भस्मजाबालोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
रुद्रहृदयोपनिषत्
सह नाववतु—इति शान्तिः
सर्वदेवात्मकदेवविषयः शुकप्रश्नः
प्रणम्य शिरसा पादौ शुको व्यासमुवाच ह।
को देवः सर्वदेवेषु कस्मिन् देवाश्च सर्वशः॥१॥
कस्य शुश्रूषणान्नित्यं प्रीता देवा भवन्ति मे।
यद्ब्रह्म रुद्रहृदयमहाविद्याप्रकाशितम्।
तद्ब्रह्ममात्रावस्थानपदवीमधुना भजे॥
इह खलु कृष्णयजुर्वेदप्रविभक्तेयं रुद्रहृदयोपनिषत् शिवविष्ण्वभेदप्रकटनपूर्वकमुमामहेश्वरसार्वात्म्यप्रकटनव्यग्रा निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। श्रीशुकव्यासप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—प्रणम्येति। उवाच ह—किमिति?—को देव इति॥१॥
रुद्रस्य सर्वदेवात्मकत्वम्
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच पिता शुकम्॥२॥
सर्वदेवात्मको रुद्रः सर्वे देवाः शिवात्मकाः।
रुद्रस्य दक्षिणे पार्श्वे रविर्ब्रह्मा योऽग्नयः॥३॥
वामपार्श्वे उमा देवी विष्णुः सोमोऽपि ते त्रयः।
या उमा सा स्वयं विष्णुर्यो विष्णुः स हि चन्द्रमाः॥४॥
इति शुकप्रश्नोत्तरं श्रीवेदव्यास आह—तस्येति॥२॥ श्रीवेदव्यास उवाच सर्वदेवात्मक इति॥३-४॥
शिवविष्ण्वोरैक्यम्
ये नमस्यन्ति गोविन्दं ते नमस्यन्ति शंकरम्।
येऽर्चयन्ति हरिं भक्त्या तेऽर्चयन्ति वृषध्वजम्॥५॥
ये द्विषन्ति विरूपाक्षं ते द्विषन्ति जनार्दनम्।
ये रुद्रं नाभिजानन्ति ते न जानन्ति केशवम्॥६॥
रुद्रात् प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दनः।
यो रुद्रः स स्वयं ब्रह्म यो ब्रह्मा स हुताशनः॥७॥
ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।
पुंलिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं भगवत्युमा॥८॥
उमारुद्रात्मिकाः सर्वाः प्रजाः स्थावरजङ्गमाः।
व्यक्तं सर्वमुमारूपमव्यक्तं तु महेश्वरम्॥९॥
उमाशंकरयोर्योगः स योगो विष्णुरुच्यते।
यस्तु तस्मै नमस्कारं कुर्याद्भक्तिसमन्वितः॥१०॥
शिवविष्ण्वोरेकत्वावगमायेदमाह—ये नमस्यन्तीति॥५-७॥ पुंलिङ्ग सर्वमीशानं ईशानरूपं, स्त्रीलिङ्गं भगवत्युमा उमारूपम्॥८–१६॥
आत्मनस्त्रैविध्यम्
आत्मानं परमात्मानमन्तरात्मानमेव च।
ज्ञात्वा त्रिविधमात्मानं परमात्मानमाश्रयेत्॥११॥
अन्तरात्मा भवेद्ब्रह्मा परमात्मा महेश्वरः।
सर्वेषामेव भूतानां विष्णुरात्मा सनातनः॥१२॥
रुद्रस्य त्रिमूर्तित्वम्
अस्य त्रैलोक्यवृक्षस्य भूमौ विटपशाखिनः।
अग्रंमध्यंतथा मूलं विष्णुब्रह्ममहेश्वराः॥१३॥
कार्यंविष्णुः क्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वरः।
प्रयोजनार्थं रुद्रेण मूर्तिरेका त्रिधा कृता॥१४॥
धर्मो रुद्रो जगद्विष्णुः सर्वज्ञानं पितामहः॥१५॥
रुद्रकीर्तनात् सर्वपापविमुक्तिः
श्रीरुद्र रुद्र रुद्रेति यस्तं ब्रूयाद्विचक्षणः।
कीर्तनात् सर्वदेवस्य सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१६॥
रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः॥१७॥
रुद्र ब्रह्मा उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो विष्णुरुमा लक्ष्मीस्तस्मै तस्यै नमो नमः॥१८॥
रुद्रः सूर्य उमा छाया तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रः सोम उमा तारा तस्मै तस्यै नमो नमः॥१९॥
रुद्रो दिवा उमा रात्रिस्तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रोयज्ञ उमा वेदिस्तस्मै तस्यै नमो नमः॥२०॥
रुद्रो वह्निरुमा स्वाहा तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो वेद उमा शास्त्रं तस्मै तस्यै नमो नमः॥२१॥
रुद्रो वृक्ष उमा वल्ली तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो गन्ध उमा पुष्पं तस्मै तस्यै नमो नमः॥२२॥
रुद्रोऽर्थ अक्षरः सोमा तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो लिङ्गमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नमः॥२३॥
सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात् पृथक्पृथक्।
एभिर्मन्त्रपदैरेव नमस्यामीशपार्वती॥२४॥
यत्र यत्र भवेत् सार्धमिमं मन्त्रमुदीरयेत्।
ब्रह्महा जलमध्ये तु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥२५॥
शिवशक्त्यात्मकं सर्वं तदतिरिक्तं न किंचिदस्तीति ज्ञानात् पञ्चमहापातकी विलीयत इत्याह—रुद्र इति॥१७-२५॥
सर्वस्य कारणानतिरिक्तत्वम्
सर्वाधिष्ठानमद्वन्द्वं परं ब्रह्म सनातनम्।
सच्चिदानन्दरूपं तदवाङ्मनसगोचरम्॥२६॥
तस्मिन् सुविदिते सर्वंविज्ञातं स्यादिदं शुक।
तदात्मकत्वात् सर्वस्य तस्माद्भिन्नं न हि क्वचित्॥२७॥
कारणब्रह्मातिरिक्तं न किंचिदस्तीत्याह—सर्वाधिष्ठानमिति॥२६-२७॥
परापरविद्ययोः स्वरूपम्
द्वे विद्ये वेदितव्ये हि परा चैवापरा च ते।
तत्रापरा तु विद्यैषा ऋग्वेदो यजुरेव च॥२८॥
सामवेदस्तथाऽथर्ववेदः शिक्षा मुनीश्वर।
कल्पो व्याकरणं चैव निरुक्तं छन्द एव च॥२९॥
ज्योतिषं च तथाऽनात्मविषया अपि बुद्धयः।
अथैषा परमा विद्या ययाऽऽत्मा परमाक्षरम्॥३०॥
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रं रूपवर्जितम्।
अचक्षुः श्रोत्रमत्यर्थं तदपाणिपदं तथा॥३१॥
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं च तदव्ययम्।
तद्भूतयोनिं पश्यन्ति धीरा आत्मानमात्मनि॥३२॥
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यो यस्य ज्ञानमयं तपः।
तस्मादत्त्रन्नरूपेण जायते जगदावलिः॥३३॥
मुण्डकोपनिषत्परमतात्पर्यार्थमाचष्टे—द्वे विद्ये इत्यादिना॥२८-४२॥
अक्षरज्ञानादेव संसारविनाशः
सत्यवद्भाति तत् सर्वं रज्जुसर्पवदास्थितम्।
तदेतदक्षरं सत्यं तद्विज्ञाय विमुच्यते॥३४॥
ज्ञानादेव हि संसारविनाशो नैव कर्मणा।
श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं स्वगुरुं गच्छेद्यथाविधि॥३९॥
गुरुस्तस्मै परां विद्यां दद्याद्ब्रह्मात्मबोधिनीम्।
गुहायां निहितं साक्षादक्षरं वेद चेन्नरः॥३६॥
छित्वाऽविद्यामहाग्रन्थिंशिवं गच्छेत् सनातनम्।
मुमुक्षोः प्रणवोपास्तिप्रकारः
तदेतदमृतं सत्यं तद्वेद्धव्यं मुमुक्षुभिः॥३७॥
धनुस्तारं शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥३८॥
लक्ष्यं सर्वगतं चैव शरः सर्वगतो मुखः।
वेद्धा सर्वगतश्चैव शिवलक्ष्यं न संशयः॥३९॥
न तत्र चन्द्रार्कवपुःप्रकाशते न वान्ति वाताः सकला देवताश्च।
स एष देवः कृतभावभूतः रूपं विशुद्धो विरजाः प्रकाशते॥४०॥
जीवेशभेदस्य कल्पितत्वम्
द्वौ सुपर्णौशरीरेऽस्मिन् जीवेशाख्यौ सह स्थितौ।
तयोर्जीवः फलं भुङ्क्ते कर्मणो न महेश्वरः॥४१॥
केवलं साक्षिरूपेण विना भोगं महेश्वरः।
प्रकाशते स्वयं भेदः कल्पितो मायया तयोः॥४२॥
घटाकाशमठाकाशौ यथाऽऽकाशप्रभेदतः।
कल्पितौ परमौ जीवशिवरूपेण कल्पितौ॥४३॥
तत्त्वतश्च शिवः साक्षाच्चिज्जीवश्च स्वतः सदा।
चिच्चिदाकारतो भिन्ना न भिन्ना चित्त्वहानितः॥४४॥
चितश्चिन्न चिदाकाराद्भिद्यते जडरूपतः।
भिद्यते चेज्जडो भेदश्चिदेका सर्वदा खलु॥४५॥
तर्कतश्च प्रमाणाच्च चिदेकत्वव्यवस्थितेः।
यथा परमाकाशप्रविभक्तभेदतो घटाकाशमठाकाश(शौ तत्) स्थानीयौ जीवेशौ विकल्पितावित्यर्थः॥४३॥ औपाधिकोऽयं जीवेशभेदो न तात्त्विक इत्याह—तस्वतश्चेति। जीवेशाद्यनुस्यूतचिच्चिदाकारतो भिन्ना जीवेशानुगता चित् चिदाकारतः चिद्विकल्पिताकारतः उपाधितो भिन्ना, स्वरूपतो न भिन्ना, कुतः? चित्वहानितः स्वरूपभेदे स्वरूपहानिः स्यादित्यर्थः॥४४॥ चितो या चित् सा चिढाकारादुपाधितो भिद्यते, उपाधीनां जडरूपत्वाद्भेदो युज्यत इत्यर्थः। जडापायेऽजडं ब्रह्मावशिष्यत इत्याह—भिद्यत इति। जीवेशविकल्पितोपाधिकृतभेदापाये निरुपाधिकेयं चिदेकैव भवति॥४५॥ निरुपाधिकचित एकत्वे हेतुमाह—तर्कतश्चेति॥
अद्वैतज्ञानाच्छोकमोहनिवृत्तिः
चिदेकत्वपरिज्ञाने न शोचति न मुह्यति।
अद्वैतं परमानन्दं शिवं याति तु केवलम्॥४६॥
अधिष्ठानं समस्तस्य जगतः सत्यचिद्धनम्।
अहमस्मीति निश्चित्य वीतशोको भवेन्मुनिः॥४७॥
स्वशरीरे स्वयं ज्योतिस्वरूपं सर्वसाक्षिणम्।
क्षीणदोषाः प्रपश्यन्ति नेतरे माययाऽऽवृताः॥४८॥
एवंरूपपरिज्ञानं यस्यास्ति परयोगिनः।
कुत्रचिद्गमनं नास्ति तस्य पूर्णस्वरूपिणः॥४९॥
आकाशमेकं संपूर्णंकुत्रचिन्नैव गच्छति।
तद्वत् स्वात्मपरिज्ञानी कुत्रचिन्नैव गच्छति॥५०॥
स योह वै तत् परमं ब्रह्म यो वेद वै मुनिः।
ब्रह्मैव भवति स्वस्थः सच्चिदानन्दमात्रकः। इत्युपनिषत्॥५१॥
प्रत्यक्परचिदैक्यज्ञानफलमाह—चिदिति॥४६-५०॥ यो यदा निर्विशेषं ब्रह्म स्वमात्रमिति जानाति स तदैव ब्रह्मैव भवति। वेदनसमकालं ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः। इत्युपनिषच्छन्दः रुद्रहृदयोपनिषत्परिसमाप्त्यर्थः॥५१॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
रुद्रहृदयोपनिषद्व्याख्यानं लिखितं लघु।
श्रीरुद्रहृदयव्याख्याग्रन्थः पञ्चाशदीरितः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे पञ्चाशीतिसङ्ख्यापूरकं
रुद्रहृदयोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
रुद्राक्षजाबालोपनिषत्
आप्यायन्तु—इति शान्तिः
रुद्राक्षविषयो भुसुण्डप्रश्नः
** अथ हैनं कालाग्निरुद्रं भुसुण्डः पप्रच्छ—कथं रुद्राक्षोत्पत्तिः, तद्धारणात् किं फलमिति॥१॥**
रुद्राक्षोपनिषद्वेद्यमहारुद्रतयोज्ज्वलम्।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तशिवमात्रपदं भजे॥
इह खलु सामवेदप्रविभक्तेयं रुद्राक्षजाबालोपनिषत् रुद्राक्षेयत्ताप्रकटनव्यग्रा ब्रह्ममात्रपर्यवसन्ना विजयते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। भुसुण्डकालाग्निरुद्रप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था।आख्यायिकामवतारयति—अथेति। भुसुण्डः सहजयोगित्वेन कृतकृत्योऽपि स्वाज्ञानां स्वातिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यजातारोपापवादाधारनिराधारसविशेषनिर्विशेषज्ञानं चित्तशुद्धिं विना नोदेति, चित्तशुद्धिर्विभूतिरुद्राक्षधारणादृते न संभवतीत्यालोच्य भस्मजाबालोपनिषदि भस्मोद्धूलनत्रिपुण्ड्रशिवपूजाविधिश्च शिवेन प्रकटितः, तत्रैव रुद्राक्षधारणविधिरपि संक्षेपत उक्तः भगवन्मुखेनैव, इदानीं रुद्राक्षतद्धारणालक्षणं तत्फलं च प्रकटितं चेत् श्रद्धया स्वाज्ञलोको रुद्राक्षधारणं करोति, तेनेश्वरप्रसादचित्तशुद्धिसंजातज्ञानद्वारा कृतार्थो भवेत्, इत्यनुकम्पया कालाग्निरुद्रं भुसुण्डः पप्रच्छ। ह इत्यैतिह्यार्थः॥१॥
रुद्राक्षोत्पत्तिः
तं होवाच भगवान् कालाग्निरुद्र। त्रिपुरवधार्थमहं निमीलिताक्षोऽभवम्। तेभ्यो जलबिन्दवो भूमौ पतितास्ते रुद्राक्षा जाताः। सर्वानुग्रहार्थाय तेषां नामोच्चारणमात्रेण दशगोप्रदानफलं दर्शनस्पर्शनाभ्यां द्विगुणफलमत ऊर्ध्वं वक्तुं न शक्नोमि॥२॥
तत्रैते श्लोका भवन्ति—
कस्मिन् स्थितं तु किं नाम कथं वा धार्यते नरैः।
कतिभेदमुखान्यत्र कैर्मन्त्रैर्धार्यते कथम्॥३॥
दिव्यवर्षसहस्राणि चक्षुरुन्मीलितं मया।
भूमावक्षिपुटाभ्यां तु पतिता जलबिन्दवः॥४॥
तत्राश्रुबिन्दवो जाता महारुद्राक्षवृक्षकाः।
स्थावरत्वमनुप्राप्य भक्तानुग्रहकारणात्॥५॥
भुसुण्डेनैवं पृष्टः तं होवाच भगवान् कालग्निरुद्रः। किमिति? त्रिपुरवधार्थमिति॥२॥ स्वोक्तार्थे मन्त्रानपि प्रमाणयति—तत्रैते श्लोका भवन्तीति॥३॥ इत्याशङ्क्याह—दिव्येति॥४–५॥
रुद्राक्ष धारणजपफलम्
भक्तानां धारणात् पापं दिवारात्रिकृतं हरेत्।
लक्षं तु दर्शनात् पुण्यं कोटिस्तद्धारणाद्भवेत्॥६॥
तस्य कोटिशतं पुण्यं लभते धारणान्नरः।
लक्षकोटिसहस्राणि लक्ष कोटिशतानि च॥७॥
तज्जपाल्लभते पुण्यं नरो रुद्राक्षधारणात्।
तद्धारणाजपफलमाह—भक्तानामिति॥६-७॥
रुद्राक्षणामुत्तमादिभेदाः
धात्रीफलप्रमाणं यच्छ्रेष्ठमेतदुदाहृतम्॥८॥
बदरीफलमात्रं तु मध्यमं प्रोच्यते बुधैः।
अधमं चणमात्रं स्यात् प्रक्रियैषा मयोच्यते॥९॥
उत्तमादिभेदेनास्य त्रैविध्यमाह—धात्रीफलप्रमाणमिति॥८-९॥
रुद्राक्षाणां ब्रह्मक्षत्रादिजातिभेदाः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चेति शिवाज्ञया।
वृक्षा जाताः पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः॥१०॥
श्वेतास्तु ब्राह्मणा ज्ञेयाः क्षत्रिया रक्तवर्णकाः।
पीता वैश्यास्तु विज्ञेयाः कृष्णाः शूद्रा उदाहृताः॥११॥
ब्राह्मणो विभृयाच्छ्वेतान् रक्तान् राजा तु धारयेत्।
पीतान् वैश्यस्तु बिभृयात् कृष्णाञ्छूद्रस्तु धारयेत्॥१२॥
तत्प्रविभक्तब्रह्मक्षत्रादिजातिरुद्राक्षा ब्रह्मक्षत्रादिभिर्धार्या इत्याह—ब्राह्मणा इति॥१०-१२॥
रुद्राक्षाणां ग्राह्याग्राह्यविभागः
समाः स्निग्धा दृढाः स्थूलाः कण्टकैः संयुताः शुभाः।
कृमिदष्टं छिन्नभिन्नं कण्टकैर्हीनमेव च॥१३॥
व्रणयुक्तमयुक्तं च षड् रुद्राक्षाणि वर्जयेत्।
स्वयमेव कृतद्वारं रुद्राक्षं स्यादिहोत्तमम्॥१४॥
यत्तु पौरुषयत्नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत्।
समान् स्निग्धान् दृढान् स्थूलान् क्षौमसूत्रेण धारयेत्॥१५॥
सर्वगात्रेण सौम्येन107 सामान्यानि विचक्षणः।
निकषे हेमरेखाभायस्य रेखा प्रदृश्यते॥१६॥
तदक्षमुत्तमं विद्यात् तद्भार्यंशिवपूजकैः।
तद्गुणदोषप्रकटनपूर्वकमयं ग्राह्योऽयमग्राह्य इत्याह—समा इति॥१३–१६॥
शिखाऽऽदिस्थानेषु धारणाभेदः
शिखायामेकरुद्राक्षं त्रिशतं शिरसा वहेत्॥१७॥
षट्त्रिंशतं गले दध्याद्बाह्वोः षोडशषोडश।
मणिबन्धे द्वादशैव स्कन्धे पञ्चशतं108 वहेत्॥१८॥
अष्टोत्तरशतैर्मालामुपवीतं प्रकल्पयेत्।
द्विसरं त्रिसरं वाऽपि सराणां पञ्चकं तथा॥१९॥
सराणां सप्तकं वाऽपि बिभृयात् कण्ठदेशतः।
मुकुटे कुण्डले चैव कर्णिकाहारकेऽपि वा॥२०॥
केयूरकटके सूत्रं कुक्षिबन्धे विशेषतः।
सुप्ते पीते सदाकालं रुद्राक्षं धारयेन्नरः॥२१॥
त्रिशतं त्वधमं पञ्चशतं मध्यममुच्यते।
सहस्रमुत्तमं प्रोक्तमेवं भेदेन धारयेत्॥२२॥
शिखाऽऽदिस्थानेषु धारणाभेदमाह—शिखायामिति॥१७-२२॥
तत्तत्स्थानधारणामन्त्राः
शिरसीशानमन्त्रेण कण्ठे109 तत्पुरुषेण तु।
अघोरेणगले धार्यं तेनैव हृदयेऽपि च॥२३॥
अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत् सुधीः।
पञ्चाशदक्षग्रथितान् व्योमव्याप्यभिचोदरे॥२४॥
पञ्च ब्रह्मभिरङ्गैश्च त्रिमाला पञ्च सप्त च।
ग्रथित्वा मूलमन्त्रेण सर्वाण्यक्षाणि धारयेत्॥२५॥
तत्तन्मन्त्रोच्चारणपूर्वकं तत्तत्स्थाने धार्यमित्याह—शिरसीति॥२३॥ रुद्राक्षाणां मध्यविलसितव्योमव्याप्यभिचोदरे रुद्राक्षमध्यस्थसुषिराकाशे अकारादिक्षकारान्तपञ्चाशदक्षरविन्यासपूर्वकसूत्रग्रन्थिग्रथितान् पञ्चब्रह्ममन्त्रैः पञ्चाक्षरीमन्त्रेण चाभिमन्त्र्य, अक्षमालिकोपनिषदुक्तरीत्या प्राणप्रतिष्ठाऽऽदिकं कृत्वासर्वाण्यक्षाणि धारयेदित्यर्थः॥२४-२५॥
रुद्राक्षाणां वक्त्रभेदेन फलभेदः
अथ हैनं भगवन्तं कालाग्निरुद्रं भुसुण्डः पप्रच्छ रुद्राक्षाणां भेदेन यदक्षं यत्स्वरूपं यत्फलमिति तत्स्वरूपं मुखयुक्तमरिष्टनिरसनं कामाभीष्टफलं ब्रूहीति होवाच॥२६॥
तत्रैते श्लोका भवन्ति—
एकवक्त्रं तु रुद्राक्षं परतत्त्वस्वरूपकम्।
तद्धारणात् परे तत्त्वे लीयते विजितेन्द्रियः॥२७॥
द्विवक्त्रं तु मुनिश्रेष्ठ चार्धनारीश्वरात्मकम्।
धारणादर्धनारीशः प्रीयते तस्य नित्यशः॥२८॥
त्रिमुखं चैव रुद्राक्षमग्नित्रयस्वरूपकम्।
तद्धारणाच्च हुतभुक् तस्य तुष्यति नित्यदा॥२९॥
चतुर्मुखं तु रुद्राक्षं चतुर्वक्त्रस्वरूपकम्।
तद्धारणाच्चतुर्वक्त्रः प्रीयते तस्य नित्यदा॥३०॥
पञ्चवक्त्रं तु रुद्राक्षं पञ्चब्रह्मस्वरूपकम्।
पञ्चवक्त्रः स्वयं ब्रह्म पुंहत्यां च व्यपोहति॥३१॥
षड्वक्त्रमपि110 रुद्राक्षं कार्तिकेयाधिदैवतम्।
तद्धारणान्महाश्रीः स्यान्महदारोग्यमुत्तमम्॥३२॥
मतिविज्ञानसंपत्तिशुद्धये धारयेत् सुधीः।
विनायकाधिदैवं च प्रवदन्ति मनीषिणः॥३३॥
सप्तवक्त्रं तु रुद्राक्षं सप्तमात्र धिदैवतम्।
तद्धारणान्महाश्रीः स्यान्महदारोग्यमुत्तमम्॥३४॥
महती ज्ञानसंपत्तिः शुचिर्धारयतः सदा।
अष्टवक्त्रं तु रुद्राक्षमष्टमात्रधिदैवतम्॥३५॥
वस्वष्टकप्रियं चैव गङ्गाप्रीतिकरं तथा।
तद्धारणादिमे प्रीता भवेयुः सत्यवादिनः॥३६॥
नववक्त्रं तु रुद्राक्षं नवशक्त्यधिदैवतम्।
तस्य धारणमात्रेण प्रीयन्ते नव शक्तयः॥३७॥
दशवक्त्रं तु रुद्राक्षं यमदैवमुदाहृतम्।
दर्शात्111 प्रशान्तिजनकं धारणान्नात्र संशयः॥३८॥
एकादशमुखं त्वक्षं रुद्रैकादशदैवतम्।
तदिदं दैवतं प्राहुः सदा सौभाग्यवर्धनम्॥३९॥
रुद्राक्षं द्वादशमुखं महाविष्णुस्वरूपकम्।
द्वादशादित्यरूपं च बिभर्त्ये
व हि तत्परः॥४०॥
त्रयोदशमुखं चाक्षं कामदं सिद्धिदं शुभम्।
तस्य धारणमात्रेण कामदेवः प्रसीदति॥४१॥
चतुर्दशमुखं चाक्षं रुद्रनेत्रसमुद्भवम्।
सर्वव्याधिहरं चैव सर्वदाऽऽरोग्यमाप्नुयात्॥४२॥
रुद्राक्षाणां वक्त्रभेदं जिज्ञासुर्भुसुण्डो भगवन्तं पृच्छतीत्याह—अथेति॥२६-३७॥ दशवक्त्ररुद्राक्षदर्शनं स्वातिरिक्ताखिलशान्तिकरमित्यर्थः॥३८-४२॥
रुद्राक्षधारिवर्ज्यानि
मद्यं मांसं च लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।
श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः॥४३॥
रुद्राक्षधारी मद्यमांसादिकं कदाऽपि नास्वादयेदित्याह—मद्यमिति॥४३॥
रुद्राक्षधारणामहिमा
ग्रहणे विषुवे चैवमयने संक्रमेऽपि च।
दर्शेषु पूर्णमासे च पूर्णेषु दिवसेषु च।
रुद्राक्षधारणात् सद्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥४४॥
रुद्राक्षमूलं तद्ब्रह्मा तन्नालं विष्णुरेव च।
तन्मुखं रुद्र इत्याहुस्तद्बिन्दुः सर्वदेवताः॥इति॥४५॥
ग्रहणादिपुण्यकालधारणात् सर्वपापनिवृत्तिंतत्त्रिमूर्तित्वं सर्वदेवतात्मकत्वं चाह—ग्रहण इति॥४४-४५॥
रुद्राक्षोत्पत्तिस्तन्महिमा च
अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रच्छाधीहि भगवन् रुद्राक्षधारणविधिम्। तस्मिन् समये निदाघजडभरतदत्तात्रेयकात्यायनभरद्वाजकपिलवसिष्ठपिप्पलादयश्च कालाग्निरुद्रंपरिसमेत्योचुः। अथ कालाग्निरुद्रः किमर्थं भवतामागमनमिति होवाच। रुद्राक्षधारणविधिं वै सर्वे श्रोतुमिच्छामह इति॥४६॥
अथ कालाग्निरुद्रः प्रोवाच। रुद्रस्य नयनादुत्पन्ना रुद्राक्षा इति लोके ख्यायन्ते। अथ सदाशिवः संहारकाले संहारं कृत्वा संहाराक्षं मुकुलीकरोति। तन्नयनाज्जाता रुद्राक्षा इति होवाच। तस्माद्रुद्राक्षत्वमिति कालाग्निरुद्रः प्रोवाच॥४७॥
तद्रुद्राक्षे वाग्विषये कृते दशगोप्रदानेन यत् फलमवाप्नोति तत् फलमश्नुते। स एव भस्मज्योती रुद्राक्ष इति। तद्रुद्राक्षं करेण
स्पृष्ट्वा धारणमात्रेण द्विसहस्रगोप्रदानफलं भवति। तद्रुद्राक्षे कर्णयोर्धार्यमाणे एकादशसहस्रगोप्रदानफलं भवति। एकादशरुद्रत्वं च गच्छति। तद्रुद्राक्षे शिरसि धार्यमाणे कोटिगोप्रदानफलं भवति। एतेषां स्थानानां कर्णयोः फलं वक्तुं न शक्यमिति होवाच॥४८॥
सनत्कुमारादयोऽपि रुद्राक्षेयत्तामवगन्तुं कालाग्निरुद्रं पृच्छन्तीत्याह—अथेति॥४६-४८॥
रुद्राक्षविद्यावेदनफलम्
य इमां रुद्राक्षजाबालोपनिषदं नित्यमधीते बालो वा युवा वा वेद स महान् भवति। स गुरुः सर्वेषां मन्त्राणामुपदेष्टा भवति। एतैरेव होमं कुर्यात्। एतैरेवार्चनम्। तथा राक्षोघ्नं मृत्युतारकं गुरुणा लब्धं कण्ठे बाहौ शिखायां वा बध्नीत। सप्तद्वीपवती भूमिर्दक्षिणार्थं नावकल्पते। तस्माच्छ्रद्धया यां कांचिद्गांदद्यात् सा दक्षिणा भवति। य इमामुपनिषदं ब्राह्मणः प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायमधीयानो दिवसकृतपापं नाशयति। मध्याह्नेऽधीयानः षड्जन्मकृतपापं नाशयति। सायं प्रातः प्रयुञ्जानोऽनेकजन्मकृतपापं नाशयति षट्सहस्रलक्षगायत्रीजपफलमवाप्नोति ब्रह्महत्यासुरापानस्वर्णस्तेयगुरुदारगमनतत्संयोगपातकेभ्यः पूतो भवति सर्वतीर्थफलमश्नुते पतितसंभाषणात् पूतो भवति पङ्क्तिशतसहस्रपावनो भवति शिवसायुज्यमवाप्नोति न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तत इत्यों सत्यमित्युपनिषत्॥४९॥
रुद्राक्षविद्यावेदनफलमाह—य इति। एतैरेव मन्त्रैः होमं कुर्यात्। एवमुक्तप्रकारेण रुद्राक्षधारी शिवप्रसादतश्चित्तशुद्धिं ज्ञानं चाप्य स्वातिरिक्ताशिवग्रासशिवसायुज्यं,
शिवो गुरुः शिवो वेदः शिवो देवः शिवः प्रभुः।
शिवोऽस्म्यहं शिवः सर्वंशिवादन्यन्न किञ्चन॥
इति श्रुतिसिद्धशिवतत्त्वज्ञानशिवस्वरूपावस्थानलक्षणं विदेहकैवल्यमेतीत्यर्थः। इत्युपनिषच्छब्दः रुद्राक्षजाबालोपनिषत्परिसमात्यर्थः॥४९॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
रुद्राक्षोपनिषद्व्याख्या लिखिता शिवगोचरा।
रुद्राक्षजाबालव्याख्याग्रन्थः पञ्चाशदीरितः॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणेऽष्टाशीतिसङ्ख्यापूरकं
रुद्राक्षजाबालोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्
शरभोपनिषत्
भद्रं कर्णेभिः—इति शान्तिः
ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये कोऽधिकतमः
अथ हैनं पैप्पलादो ब्रह्माणमुवाच भो भगवन् ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये को वाऽधिकतरो ध्येयः स्यात्तत्वमेव नोब्रूहीति॥१॥
सर्वंसन्त्यज्य मुनयो यद्भजन्त्यात्मरूपतः।
तच्छारभं त्रिपाद्ब्रह्म स्वमात्रमवशिष्यते॥
इह खल्वथर्वणवेदप्रविभक्तेयं शरभोपनिषत् सर्वैरपि सर्वात्मतयोपास्यपारमैश्वर्यतत्त्वं प्रकटयन्ती विजृम्भते। अस्याः स्वल्पग्रन्थतो विवरणमारभ्यते। पैप्पलादब्रह्मप्रश्नप्रतिवचनरूपेयमाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्था। आख्यायिकामवतारयति—अथेति। उवाच किमिति? भो भगवन्निति॥१॥
रुद्रस्य श्रेष्ठत्वम्
तस्मै स होवाच पितामहश्च हे पैप्पलाद शृणु वाक्यमेतत्॥२॥
बहूनिपुण्यानि कृतानि येन तेनैव लभ्यः परमेश्वरोऽसौ।
यस्याङ्गजोऽहं हरिरिन्द्रमुख्या मोहान्न जानन्ति सुरेन्द्रमुख्याः॥३॥
प्रभुं वरेण्यं पितरं महेशं यो ब्रह्माणं विदधाति तस्मै।
वेदांश्च सर्वान् प्रहिणोति चाग्र्यं तं वै प्रभुं पितरं देवतानाम्॥४॥
ममापि विष्णोर्जनकं देवमीड्यंयोऽन्तकाले सर्वलोकान् संजहार।
स एकः श्रेष्ठश्च वरिष्ठश्च॥५॥
पैप्पलादप्रश्नोत्तरं ब्रह्मोवाचेत्याह—तस्मा इति॥२॥ श्रोतारमभिमुखीकृत्य परमेश्वरं सर्वकारणत्वेन सर्वदेवश्रेष्ठत्वेन च स्तौति—बहूनीति। मोहान्न जानन्ति स्वात्मेति। अनन्तकोटिजन्मसुकृतपरिपाकसिद्धो यदधिगमः, ब्रह्मादयो यदंशसंभूताः, इन्द्रादयोऽपि यत्तत्त्वं न जानन्ति, यो हि चतुराननसर्वार्थसाधकवेदपूगप्रदाता, यः सर्वोपरमकाले सर्वानात्मन्युपसंहरति, सोऽयं परमेश्वर एव सर्वदेवेषु श्रेष्ठः वरिष्ठश्च भवतीत्यर्थः॥३–५॥
शरभरूपेण रुद्रेण नृसिंहवधः
यो घोरं वेषमास्थाय शरभाख्यं महेश्वरः।
नृसिंहं लोकहन्तारं संजघान महाबलः॥६॥
हरिं हरन्तं पादाभ्यामनुयान्ति सुरेश्वराः।
मा वधीः पुरुषं विष्णुं विक्रमस्व महानसि॥७॥
कृपया भगवान् विष्णुं विददार नखैः खरैः।
चर्माम्बरो महावीरो वीरभद्रो बभूव ह॥८॥
स एको रुद्रो ध्येयः सर्वेषां सर्वसिद्धये।
कथं पुनरस्य देववरिष्ठत्वमित्याकाङ्क्षायां लोकक्षोभकरनृसिंहनिग्रह-ब्रह्मशिरःपाटन-विश्वसर्गस्थितिभङ्गकरण—सर्वप्रासकालदर्पहरण-हालाहलगतिकुण्ठन-
स्वपदार्चकविष्णुचक्रप्रदानादिनिरङ्कुशनिप्रहानुग्रहाकुण्ठितशक्तिसंपन्नत्वात् सर्वदेववरिष्ठत्व-मीशस्य स्वभावसिद्धमिति देवैरप्युपास्यमानत्वं चाप्याह—यो घोरमिति॥६॥ तदा हरिम्॥७॥ देवैः प्रार्थितः तेषु कृपया॥८॥
देवकृतशरभस्तुतिः
यो ब्रह्मणः पञ्चमवक्त्रहन्ता तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥९॥
यो विस्फुलिङ्गेन ललाटजेन सर्वं जगद्भस्मसात्संकरोति।
पुनश्च सृष्ट्वापुनरप्यरक्षदेवं स्वतन्त्रं प्रकटीकरोति॥
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥१०॥
यो वामपादेन जघान कालं घोरं पपेऽथ हालाहलं दहन्तम्।
दक्षाङ्घ्रिनापस्मृतिमुग्रवीर्यं तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥११॥
यो वामपादार्चितविष्णुनेत्रस्तस्मै ददौ चक्रमतीव हृष्टः।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥१२॥
यो दक्षयज्ञे सुरसङ्घान् विजित्य विष्णुं बबन्धोरगपाशेन वीरः।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥१३॥
यो लीलयैव त्रिपुरं ददाह विष्णुं कविं सोमसूर्याग्निनेत्रः।
सर्वे देवाः पशुतामवापुः स्वयं तस्मात् पशुपतिर्बभूव।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥१४॥
यो मत्स्यकूर्मादिवराहसिंहान् विष्णुं क्रमन्तं वामनमादिविष्णुम्।
विविक्लवं पीड्यमानं सुरेशं भस्मीकृत्य मन्मथं यमं च।
तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥१९॥
एवंप्रकारेण बहुधा प्रतुष्टा क्षमापयामासुर्नीलकण्ठं महेश्वरम्॥१६॥
कथं देवाः स्तुवन्तीत्यत्र—यो ब्रह्मण इति॥९-१४॥ विविक्लवं श्रमान्वितम्॥१५॥ एवं देवैः प्रार्थितो भगवान् तत्प्रार्थनामङ्गीकृत्य तेषु प्रसादं चकारेत्याह—एवमिति॥१६॥
रुद्रानुग्रहः
तापत्रयसमुद्भूतजन्ममृत्युजरादिभिः।
नानाविधानि दुःखानि जहार परमेश्वरः॥१७॥
एवमङ्गीकरोच्छिवः प्रार्थनं सर्वदेवानाम्।
शङ्करो भगवानाद्यो ररक्ष सकलाः प्रजाः॥१८॥
यत्पादाम्भोरुहद्वन्द्वं मृग्यते विष्णुनाऽधुना।
स्तुत्वा स्तुत्यं महेशानमवाङ्मनसगोचरम्।
भक्त्या नम्रतनोर्विष्णोः प्रसादमकरोद्विभुः॥१९॥
ततस्तेषां तापत्रयसमुद्भूतजन्ममृत्युजरादिभिः संजातानि नानाविधानि दुःखानि जहार परमेश्वरः जहार निश्शेषमपहृतवान्॥१७॥ एवमङ्गीकरोत् अङ्गीचकार॥१८॥ तस्य देवैरपि दुरवगमत्वमाह—यदिति। अधुनाऽपि। तं स्तुत्वा तत्प्रभावत इन्द्रादयो देवास्तत्प्रसादं लेभिरे। ततो विष्णुरपि देवं प्रणिपत्य बहुधा स्तुत्वा कृताञ्जलिरासामास। ततः भक्त्या॥१९॥
रुद्रयाथात्म्यज्ञानफलम्
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कदाचनेति॥२०॥
अणोरणीयान्महतो महीयानात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम्॥२१॥
तद्याथात्म्यं तज्ज्ञानफलं चाह—यत इति॥२०॥ ब्रह्मणोऽवाङ्मनसगोचरत्वेन न कोऽपि तत्स्वरूपं पश्यतीत्याशङ्क्यतद्भजनलब्धप्रसादो मुनिस्तं यथावत् पश्यतीत्याह—अणोरिति। तमक्रतुं निर्विकल्पं स्वमात्रमिति पश्यति॥२१॥
रुद्रमहिमा
वसिष्ठवैयासिकिवामदेव विरिञ्चि112मुख्यैर्हृदि भाव्यमानः।
सनत्सुजातादिसनातनाद्यैरीड्यो महेशो भगवानादिदेवः॥२२॥
सत्यो नित्यः सर्वसाक्षी महेशो नित्यानन्दो निर्विकल्पो निराख्यः।
अचिन्त्यशक्तिर्भगवान् गिरीशः स्वाविद्यया कल्पितमानभूयः॥२३॥
अतिमोहकरी माया मम विष्णोश्च सुव्रत।
तस्य पादाम्बुजध्यानात्, दुस्तरा सुतरा113 भवेत्॥२४॥
तस्य वसिष्ठादिब्रह्मनिष्ठपटलेड्यनिर्विशेषस्वरूपमाह—वसिष्ठेति। हृदि प्रत्यगभिन्नब्रह्मरूपेण भाव्यमानः तथा सनत्सुजातादिसनातनाद्यैः “ब्रह्माहं” “अहमेव ब्रह्म” इत्यनवरतं ईड्यः। ब्रह्मादीनामपि य आदिः सोऽयम्॥२२॥ सत्यः कालत्रयाबाध्यत्वात्। नित्यः निरवधिकैश्वर्यसम्पन्नत्वात्। सर्वसाक्षी सर्वसाक्ष्यभावाभावेक्षितृत्वात्। महेशः महदादिप्रपञ्चेशितृत्वात्। यद्वानिष्प्रतियोगिकतया महान् परमात्माऽहमेवेत्यवस्थातुमीश्वरत्वात्। नित्यानन्दः भूमानन्दमात्रत्वात्। स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तविकल्पग्रासत्वात् निर्विकल्पः। निराख्यः नामरूपबाह्यत्वात्। यस्य शक्तिरघटितघटनासामर्थ्यत अचिन्त्या स्यात् सोऽयं अचिन्त्यशक्तिः। सर्वेश्वरत्वादचिन्त्यशक्तिमत्सर्वेश्वरत्वं वास्तवमित्याशङ्क्यस्वाविद्याकल्पितत्वे मानबाहुलयान्न हि वास्तवमित्याह—स्वाविद्ययेति। स्वदृष्ट्याऽविद्यमाना स्वाविद्या तया सर्वसाक्षित्वमचिन्त्यशक्तिम-
त्सर्वेश्वरत्वादिकं सर्वं कल्पितमेवेत्यत्र—“पश्यतेहापि सन्मात्रमसदन्यत्” “मद्व्यतिरिक्तमणुमात्रं न विद्यते”, “मायाक्लृप्तौ बन्धमोक्षौ नेश्वरत्वं न जीवता”, इत्यादिमानभूयस्त्वात् निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रत्वमेव वास्तवमित्यर्थः। भूय इत्यव्ययम्॥२३॥ यद्येवमविद्यमानाऽविद्या सर्वैरपि जेतुं शक्येत्यत आह—अतिमोहकरीति। मम ब्रह्मणो विष्णोश्चाप्यतिमोहं परिच्छिन्नब्रह्मत्वविष्णुत्वाभिमानं करोतीति अतिमोहकरी माया अनापन्नशवभावानां दुस्तराऽपि तत्पदध्यानतः सुतरा भवेदित्यर्थः॥२४॥
विष्णुशिवयोरभेदः
विष्णुर्विश्वजगद्योनिः स्वांशभूतैः स्वकैः सह।
ममांशसंभवो भूत्वा पालयत्यखिलं जगत्॥२५॥
विनाशं कालतो याति ततोऽन्यत् सकलं मृषा।
तस्मै महाग्रासाय महादेवाय शूलिने।
महेश्वराय मृडाय तस्मै रुद्राय नमो अस्तु॥२६॥
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः।
त्रीन् लोकान् व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः॥२७॥
चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च द्वाभ्यां पञ्चभिरेव च।
हूयते च पुनर्द्वाभ्यां स मे विष्णुः प्रसीदतु॥२८॥
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥२९॥
शरा जीवास्तदङ्गेषु भाति नित्यं हरिः स्वयम्।
ब्रह्मैव शरभः साक्षान्मोक्षदोऽयं महामुने॥३०॥
विष्ण्वादिः शिवाद्भिद्यत इत्यत आह—विष्णुरिति। स्वांशभूतैः स्वकैः सह जीवकोटिभिः साकम्॥२५॥ सर्वप्रपञ्चस्य स्वांशजत्वे सत्यत्वं स्यादित्याशङ्क्य प्रतिबिम्बं बिम्बमात्रवत् स्वज्ञानकाले स्वांशनाशः स्वमात्रमेवेत्याह—विनाशमिति। यः स्वाज्ञादिदृष्ट्यांऽशांशितया भातः तस्मै॥२६॥ पैप्पलादभेददृष्ट्यनुरोधेन विष्णुशिवयोर्नियम्यनियामकतोक्ता। शिवप्रसादतो विष्णुशिवभेदहेत्वज्ञानापायमालक्ष्य तयोरभेददार्ढ्याय विष्णुत्वेन तमेव प्रार्थयति—एक इति॥२७॥ कथं पुनरस्य विश्वयज्ञभोक्तृत्वमित्यत आह—चतुर्भिरिति। “आश्रावयेति चतुरक्षरमस्तु श्रौषडिति चतुरक्षरं यजेति। द्व्यक्षरं ये यजामह इति पञ्चाक्षरं द्व्यक्षरो वषट्कारः” इति श्रुतिसिद्धमन्त्रतो यत्र यज्ञे “यज्ञो वै विष्णुः” इति श्रुतिसिद्धे विष्णौ हूयते स मे विष्णुः परमेश्वरः स्वज्ञानं दत्त्वा प्रसीदत्वित्यर्थः॥२८॥ विष्णोर्यज्ञत्वेऽर्पणहविरादीनामनेकत्वात् विष्णोरनेकत्वं स्यादित्यत आह—ब्रह्मार्पणमिति। अर्पणहविरादिकं सर्वंविष्ण्वाख्यं ब्रह्मैवेत्यर्थः॥२९॥ शरभशब्दार्थनिर्वचनेनापि विष्णुशिवयोरत्यन्ताभेदमेव व्यक्तीकरोति—शरा इति। शरा जीवास्तदङ्गेषु पादादिशिरोरुहान्तेषु तस्य विष्णोरङ्गेषु तस्य शिवस्याङ्गेषु वा शरा अनन्तकोटिब्रह्माण्डानि तन्निवासिनो जीवाश्च मायया विकल्पिताः स्वाज्ञादिदृष्टिमोहे सत्यसति परमार्थतो भाति। विष्ण्वाख्यं ब्रह्मैव शरभः॥३०॥
शिवस्यैव ध्येयत्वम्
मायावशादेव देवा मोहिता ममताऽऽदिभिः।
तस्य माहात्म्यलेशांशं वक्तुं केनाप्य114शक्यते॥३१॥
परात्परतरं ब्रह्म यत् परात्परतो हरिः।
तत् परात्परतरो हीशस्तस्मात्तुल्योऽधिको न हि॥३२॥
एक एव शिवो नित्यस्ततोऽन्यत् सकलं मृषा।
तस्मात् सर्वान् परित्यज्य ध्येयान् विष्ण्वादिकान् सुरान्॥३३॥
शिव एव सदा ध्येयः सर्वसंसारमोचकः।
तस्मै महाग्रासाय महेश्वराय नमः॥३४॥
एवं विष्णुशिवयोरभेदेऽपि मायावशादेव। निर्मायस्य तस्य॥३१॥ क्षरप्रपञ्चात् परमक्षरमीश्वराख्यं तस्मात् परात् ईश्वरादपि परतरं परमाक्षरं ब्रह्म। यत्परादपि परमाक्षरं तदेव हरिः, परात् परतरत्वेन हरेर्विभातत्वात्। यत्परात् परतो हरिः इति ख्यातं तत्परात् परतरो विभात ईश एव हि। तस्मात् तुल्योऽधिकः समो वा कोऽपि न विद्यते, स्वातिरिक्तसामान्यस्य मृग्यत्वात्॥३२॥ यत एवमतः एक एव। यस्मादेवं तस्मात्। स्वाज्ञानतः परिच्छिन्नतया ध्येयान्॥३३॥ निष्प्रतियोगिकस्वमात्रधिया ध्येयः। यः स्वानां स्वातिरिक्तसंसार भ्रमापह्नवकृत् तस्मै॥३४॥
एतच्छास्त्रसंप्रदाननियमः
पैप्पलादं महाशास्त्रं न देयं यस्य कस्यचित्।
नास्तिकाय कृतघ्नाय दुर्वृत्ताय दुरात्मने॥३५॥
दाम्भिकाय नृशंसाय शठायानृतभाषिणे।
सुव्रताय सुभक्ताय सुवृत्ताय सुशीलिने॥३६॥
गुरुभक्ताय दान्ताय शान्ताय ऋजुमानसे।
शिवभक्ताय दातव्यं ब्रह्मकर्मोक्तधीमते॥३७॥
स्वभक्तायैव दातव्यमकृतघ्नाय सुव्रत।
न दातव्यं सदा गोप्यं यतो नैव द्विजोत्तम॥३८॥
एतत् पैप्पलादं महाशास्त्रं योऽधीते श्रावयेद्द्विजः स जन्ममरणेभ्यो मुक्तो भवति गर्भवासाद्विमुक्तो भवति सुरापानात्
पूतो भवति स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति ब्रह्महत्यात् पूतो भवति गुरुतल्पगमनात् पूतो भवति। स सर्वान् वेदानधीतो भवति। स सर्वान् देवान् ध्यातो भवति। स समस्तमहापातकोपपातकात् पूतो भवति। तस्मादविमुक्तमाश्रितो भवति। स सततं शिवप्रियो भवति। स शिवसायुज्यमेति। न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते। इत्याह भगवान् ब्रह्मेत्युपनिषत्॥३९॥
उक्तलक्षणलक्षितमेतच्छास्त्रमनधिकारिणे न देयं, अधिकारिणे देयमित्याह—पैप्पलादमिति॥३५-३७॥ उक्ताधिकारिलक्षणविरलाय न दातव्यम्॥३८॥ एतच्छास्त्रपठनतदर्थविचारणसामान्यमुख्यफलमाह—एतदिति। उपनिषच्छब्दः शरभोपनिषत्समात्यर्थः॥३९॥
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
शरभोपनिषद्व्याख्या लिखितेश्वरगोचरा।
शरभोपनिषद्व्याख्याग्रन्थजातं शतं स्मृतम्॥
इति श्रीमदीशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे पञ्चाशत्सङ्ख्यापूरकं
शरभोपनिषद्विवरणं सम्पूर्णम्॥
श्वेताश्वतरोपनिषत्
सह नाववतु—इति शान्तिः
प्रथमोऽध्यायः
जगत्कारणजिज्ञासा
ब्रह्मवादिनो वदन्ति—
किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठाः।
अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥ १॥
श्वेताश्वतरोपनिषन्मन्त्रग्रामप्रकाशितम्।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तब्रह्ममात्रमहं महः॥
इह खलु श्वेताश्वतरमन्त्रोपनिषदः कृष्णयजुर्वेदप्रविभक्तत्वात् कठवल्लीतैत्तिरीयादौ य उपोद्घातो वर्णितः स एवात्रापि द्रष्टव्य इति न पृथगत्र निरूप्यते। अध्यायषट्रकजुष्ठेयं श्वेताश्वतरोपनिषत्। तत्राद्यं वाक्यं ब्राह्मणम्। ततः कृत्स्नोपनिषन्मन्त्रात्मिका। तत्राद्यं ब्राह्मणवाक्यमाह—ब्रह्मवादिनो वदन्तीति। ब्रह्मवदनशीला मुनयः सर्वे मिलित्वा वेदार्थेतरस्वातिरिक्तास्तितावादिपक्षनिरसनपूर्वकं, “सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति” इति, “वेदार्थः परमाद्वैतं नेतरत्” इति च श्रुतिस्मृत्यनुरोधेन स्वातिरिक्तापह्नवसिद्धं ब्रह्ममात्रं निष्प्रतियोगिकतयाऽवशिष्यत इति वदन्ति कथयन्तीत्यर्थः॥
ब्राह्मणवाक्येन योऽर्थः प्रकाशितः तमेतमर्थमुत्तरे मन्त्राः प्रतिपादयन्तीत्याह—किंकारणमित्यादिना। स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तस्वातिरिक्तस्वाविद्यापदतत्कार्यजातस्य किं कारणं ब्रह्म अन्यद्वा, किं तद्ब्रह्म निर्विशेषं सविशेषं वा, किं तन्निमित्तमुपादानं वा, यद्वा निमित्तकारणमेवैतत्। वयमाकाशादिवत् कुत स्म जाताः स्थितिकाले ब्रह्मकार्यतया स्थिताः सुषुप्तिप्रलयादावुपादानब्रह्मणि लयं गताः सन्तः प्रबोधसर्गादौ पुनर्ब्रह्मकार्यतया वयं जाताः, अथवा जलचन्द्रघटाकाशस्थानीयाश्च वयं सुषुप्तिप्रलयादावुपाधिविलये बिम्बचन्द्रमहाकाशस्थानीयब्रह्मणैक्यमनुभूय पुनः प्रबोधादौ ब्रह्मविवर्ततया जाताः। जीवाम केन, केन वयं जीवामः, लडर्थे लोटू, अदृष्टेनेश्वरेण स्वभावेन वा। क्व च संप्रतिष्ठाः स्वापादावस्माकं विकारिण्यविकारिणि ब्रह्मणि वाऽवस्थानम्। क्व च संप्रतिष्ठिता इत्यस्मिन् पाठे मुक्तौ कीदृशे ब्रह्मणि वयमेकत्वेनावस्थिता इत्यर्थः। केन वयं अधिष्ठिताः अधिदेवतादित्यादिना ईश्वरेणोभाभ्यां वा अधिष्ठिताः सन्तः सुखेतरेषु सुखदुःखदप्रपञ्चेषु वर्तामहे हे ब्रह्मविदः वयं सम्यग्विचिन्त्य व्यवस्थां कुर्मः॥१॥
परमात्मन उपादानकारणत्वम्
कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम्।
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माऽप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥२॥
ते ध्यानयोगा115 अनुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिंस्वगुणैर्निगूढाम्।
यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥३॥
तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।
अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्॥४॥
पञ्चस्रोतोऽम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्त्रां116 पञ्चप्राणोर्मिंपञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्।
पञ्चावर्तांपञ्चदुःखौघवेगां पञ्चाशद्भेदां पञ्चपर्वामधीमः॥५॥
अत्रापरे ब्रह्मातिरिक्तकारणवादिनः समुत्तिष्ठन्ति तान्निराकृत्य वेदार्थपक्षंस्थापयति—काल इति। संसृतिकारणं काल एवेति कालविदो वदन्ति, स्वभाव इति लोकायतिकाः, पुण्यपापनियतिरेव कारणमिति मीमांसकाः, कल्पादौ प्राणिकर्मसापेक्षमीश्वरेण न किंचिदपि सृष्टं किंतु यदृच्छयेदं जायत इति निरीश्वरवादिनः, जगन्नित्यतावादिनो भूतानि कारणमिति वदन्ति, योनिः प्रकृतिः कारणमिति प्राकृताः शाक्ताः, पुरुषो हिरण्यगर्भ एव कारणमिति योगिनः इत्थं कालादिपुरुषान्तं स्वाज्ञानानुरोधेन चिन्त्यं चिन्तामात्रमवशिष्यते, नैतावताऽर्थसिद्धिः। प्रातिस्विकेन कालादीनां कारणताऽभावेऽपि मिलित्वा कारणता स्यादित्यत आह—संयोगः इति। कालादिप्रातिस्विकपक्षवदेषां संयोगोऽपि कारणतां नार्हति। तर्ह्येषां संयोगस्याप्यकारणत्वे तदपेक्षया किं कारणतामर्हतीत्यत आह—आत्मभावादिति। कालादीनां भोग्यत्वेन परतन्त्रत्वात् तदपेक्षया भोक्तुरात्मनः सत्त्वात् स एव मुख्यकारणं भवत्वित्यत आह—आत्माऽप्यनीश इति। जगन्निर्माणासमर्थ इत्यर्थः। कुतः? सुखदुःखकर्तृत्वहेतोः॥२॥ तस्याप्येवमकारणत्वे किं कारणत्वेन पश्यन्तीत्यत आह—त इति। ते ब्रह्मविदः ध्यानमेव योगो येषां ते ध्यानयोगाः सन्तः जगन्मूलकारणं अनुगता अपश्यन्। किमित्यपेक्षायामाह—देवात्मशक्तिमिति। देवस्य निर्विशेषत्वेन कारणत्वानुपपत्त्या तदभेदाध्यासेन तत्परतन्त्रा काचन देवात्मन ईश्वरत्वकलनाहेतुभूता देवात्मशक्तिः तां मायां सत्त्वादिस्वगुणैः स्रष्ट्रत्वादिगुणैश्च निगूढाम्। जगत्परिणामिकारणत्वेनापश्यन्नित्युक्तमायायाः स्फुरणशक्तिप्रदो यः परमात्मा कालप्रभृतीन्यात्मपर्यन्तानि कालात्मयुक्तानि निखिलानि कारणानि तान्येक एव अधितिष्ठति तेषां सत्ताप्रदत्वात्॥३॥ तमेव वैराग्यहेतोरुत्तरो मन्त्रः प्रतिपादयति रथचक्रतया—तमिति। यः सर्वाधिकरणतया वर्णितस्तमेतमात्मानं पूर्वमन्त्रे या स्वमायाशक्तितया निर्दिष्टा तस्याः संसारभ्रमणनिर्वाहकत्वेन स्वाधिष्ठातुर्देवस्य सैवैकनेमिः तमेकनेमिं सत्त्वादिगुणत्रययोगतो जगत्सृिष्टिस्थितिसंहारशक्तियु ब्रह्मविष्णुरुद्रैस्त्रिभिर्विशिष्टं त्रिवृतं यः प्रश्नोपनिषत्पठितप्राणादिनामान्तषोडशकलाऽवसाने विभाति तं षोडशान्तं यस्याकारादिलकारान्तपञ्चाशद्वर्णा
अरा इव विभान्ति तं शतार्धारं, ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं कर्मेन्द्रियपञ्चकं तत्तद्विषयपञ्चकं शब्दादिवचनादि मनआद्यन्तःकरणचतुष्टयं मन्तव्यादिविषयचतुष्टयं दिग्वातादिश्रोत्रादिचतुर्दशकरणाधिपाश्च प्राणादिपञ्चकं तत्र दशेन्द्रियाणि तद्विषयाश्च विंशत्यपरा अन्तःकरणादिना सह अष्टौ वसवो द्वादशादित्याश्च कीलस्थानीयाः प्रत्यराः विंशतिप्रत्यरैः युक्तम्। अराभिरिति स्त्रीलिङ्गं छान्दसम्। तैत्तिरीयपठितत्वक्चर्ममांसरुधिरमेदोऽस्थिमज्जानः शुक्लं चेति धात्वष्टकं, धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याधर्माज्ञानवैराग्यानैश्वर्याणि भावाष्टकं, गौतमोक्तदयाक्षान्त्यनसूयाशौचमङ्गलानायासाकार्पण्यास्पृहेत्यात्मगुणाष्टकं, अणिमाद्यैश्वर्याष्टकं, भूमिराप इत्यादि प्रकृत्यष्टकं,
ब्रह्मा प्रजापतिर्देवा गन्धर्वा यक्षराक्षसाः।
पितरश्च पिशाचाश्च देवाष्टकमुदाहृतम्॥
इति देवाष्टकं भवशर्वेशानपशुपत्युग्रभीमरुद्रमहादेव इति मूर्त्यष्टकं, एवं षड्भिरष्टकैः युक्तम्।विश्वरूपतया विवर्तत इति विश्वरूपः कामः तेनेदं सर्वं पाश्यते बध्यत इति स एव पाशः यस्य तं विश्वरूपैकपाशम्। अर्चिरादिरेको मार्गः, धूमादिरेकः, जायस्व म्रियस्वेत्याद्येकः, एते त्रयो मार्गभेदा यस्य तं त्रिमार्गभेदम्। द्वयोः पुण्यपापयोस्तन्मूलारागद्वेषयोश्च यन्निमित्तं कारणं तदेवैकं स एवानात्मन्यात्माभिप्रानलक्षणो मोहो यस्य तं द्विनिमित्तैकमोहम्।अपश्यन्निति क्रियापदमनुवर्तते॥४॥ स्वविवर्तसर्वाधिष्ठानत्वेन सर्वात्मकमात्मानं पूर्वमन्त्रतश्चक्ररूपेण निरूपितं नितरां वैराग्यहेतोरुत्तरो मन्त्रो नदीरूपेणापि निरूपयति। चक्षुरादिपञ्चज्ञानेन्द्रियाणि स्रोतांस्यम्बुस्थानीयानि यस्यास्तां पञ्चस्रोतोऽम्बुं पञ्चधा स्वस्वविषयेषु प्रवहितत्वात् पञ्चतन्मात्राःपञ्चयोनयस्त एवोग्राणि वक्त्राणि यस्यास्तां पश्चयोन्युग्रवक्त्रां, यस्या ऊर्मिस्थानीयाः प्राणादयः पञ्च भवन्ति तां पञ्चप्राणोर्मिं, बुद्ध्यादिमूलचक्षुरादिज्ञानेन्द्रियाणां विज्ञानशक्तिमदहङ्कारः स एव संसृतिमूलं यस्यास्तां पञ्चबुद्धधादिमूलां, आकाशादिपञ्चभूतान्येकैकावर्तस्थानीयगुणोत्तराणि यस्यास्तां पञ्चावर्तां, गर्भजन्मव्याधिजरामरणदुःखानि, अविद्याद्वयतत्कार्यरागद्वेषाभिनिवेशा वा पञ्च दुःखानि
ओघः पूरो वेगः पञ्चदुःखान्येव ओघवेगो यस्यास्तां पञ्चदुःखौघवेगां, पञ्चाशदक्षरदेवताभेदा यस्यास्तां पञ्चाशद्भेदाम्,
तमोमोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञितः।
इति पुराणप्रसिद्धानि, ईश्वरान्तर्यामिसूत्रहिरण्यगर्भविराड्रूपाणि वा पर्वाणि यस्यास्तां पञ्चपर्वां, एवं पूर्वोक्तविशेषणेषु अधीम इति प्रत्येकं संबध्यते। अनेन ‘किं कारणं ब्रह्म’ इति प्रश्नोऽपाकृतो भवति॥५॥
तस्य निमित्तकारणत्वम्
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन् हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥६॥
उद्गीतमेतत्117 परमं तु ब्रह्म तस्मिंस्त्रयं स्वप्रतिष्ठाक्षरं च।
अत्रान्तरं वेदविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनिमुक्ताः॥७॥
कुतः स्म जाता इत्यादिप्रश्नस्यापाकरणार्थमुत्तरे मन्त्रा इत्याह—सर्वाजीव इति। रजतव्याघ्रादीनां शुक्तिमायाव्यादिवच्चेतनाचेतनानां सत्तास्फूर्त्यानन्दप्रदतया जीवनहेतुभूते, सर्वलयाधिकरणत्वात् सर्वसंस्थे, वियदादिबृहतोऽपि बृहत्वात् बृहन्ते यत् सविशेषत्वेन प्रकृतं तस्मिन् ब्रह्मचक्रे जाग्रज्जाग्रदादिपञ्चदशावस्थातत्कार्यतदारोपापवादाधिकरणविश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तचैतन्यभेदगतसविशेषतां हित्वा स्वातिरिक्तं नेतीत्यपह्नवं कृत्वा सन्मात्रतया निष्प्रतियोगिकं स्वयमवशिष्यत इति हंसः परमात्मा स्वयं निष्प्रतियोगिकाद्वयोऽपि स्वाविद्यया जीवभावमेत्य पुण्यपापनियन्त्रितो नानायोनिषु भ्राम्यते परिभ्रमति। इत्थं विभ्रमहेतुः क इत्यत आह—पृथगिति। महाकाश-
बिम्बस्थानीयपरमात्मनः सकाशात् घटाकाशप्रतिबिम्बस्थानीयजीवात्मानं पृथक् भिन्नं मत्वा संसारचक्रे परिभ्रमतीत्यत्र—“अथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमस्मि”, “मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति”, “उदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति।”, इत्यादिश्रुतेः। यद्वा—स्वातिरिक्तदेहाद्युपलक्षितस्वाविद्यापदतत्कार्यजातादपि पृथग्विलक्षणं मत्वा शोधिततत्त्वंपदलक्ष्ययोरेकत्वे “तत्त्वमसि”, “अहं ब्रह्मास्मि”, इति श्रुतिप्रमाणतस्तत्पदलक्ष्यब्रह्मणा यदा त्वंपदलक्ष्यो जीव एकत्वेन जुष्टः सेवितो भवति तदा ततः तस्मात् एकत्वानुसन्धानात् स्वाज्ञाननिवृत्तिर्जायते तेन स्वाज्ञाननिवृत्त्याविर्भूतस्वज्ञानेन प्रत्यक्परविभागैक्यासहनिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रावस्थानलक्षणं अमृतत्वं कैवल्यं एति स्वप्रबोधसमकालं स्वयमेव ब्रह्म भवतीत्यत्र—“ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति” इत्यादिश्रुतेः॥६॥ हंसशब्दार्थात्मनि सर्वंविकल्पितमित्याह—उद्गीतमिति। स्वातिरिक्तस्वाविद्यापदतत्कार्यजातमस्ति नास्तीति विभ्रमादुपरि स्वातिरिक्तसामान्यापह्नवसिद्धं ब्रह्ममात्रं निष्प्रतियोगिकमवशिष्यत इतीशाद्यष्टोत्तरशतवेदान्तैर्गीतं प्रतिपादितं, किं तत्? एतत् प्रकृतं वस्तु निष्प्रतियोगिकत्वेन परमं उत्कृष्टम्। तुशब्दोऽवधारणार्थः। यदेवंरूपेण बृंहणात् ब्रह्म इति ख्यातं तस्मिन् निर्विशेषे ब्रह्मणि प्रणवार्थे स्थूलसूक्ष्मादिभागचतुष्टयविशिष्टाकारादिमात्रात्रयं तथा भागचतुष्टयविशिष्टसत्त्वादिगुणत्रयं तद्व्यष्टिसमष्टितदुभयैक्यारोपापवादाधिकरणविश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तत्रयं चतुष्पञ्चदशकलनाजुष्टं त्रित्रिसख्यारूपं यत्तत्सर्वं स्वाज्ञदृष्ट्या यस्मिन् विवृत्तं यत्कल्पनाधिकरणं तस्य स्वविकल्पितकलनायाः सत्तास्फूर्तिसुखप्रदत्वात् तदेतत् स्वप्रतिष्ठाक्षरं च स्वविकल्पितक्षरजातं ग्रसित्वा स्वयं न क्षरतीत्यक्षरम्। चशब्दोऽक्षरस्य निष्प्रतियोगिकत्वख्यापनार्थः। अत्र स्वविकल्पितसर्वप्रपञ्चे स्वप्रबोधतोऽपह्नवतां गते पुरा यत् अन्तरं अधिकरणं तन्निरधिकरणं ब्रह्ममात्रमिति वेदविदो विदित्वा वेदनसमकालं तत्पराः तत्पर्यवसन्नाः सन्तः ब्रह्मण्येव लीनाः एकीभूता भवन्ति। लयशब्दार्थंश्रुतिराह—योनिमुक्ता इति। योनिः कार्यनिरूपितकारणं तदस्ति नास्तीति विभ्रमतो विमुक्ताः, तद्भ्रान्तिमुक्तिरेव लयः तदाप्तिश्चेत्युपचर्यते॥७॥
सर्वस्य जगतोऽध्यस्तत्वम्
संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।
अनीशश्चात्मा बुध्यते भोक्तृभावाज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥८॥
ज्ञाज्ञौ द्वावजा वीशनी118शावजा ह्येका भोक्तृभोगार्थयुक्ता।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥९॥
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात् तत्त्वभावाद्भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ॥
ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः क्षीणैः क्लेशैर्जन्ममृत्युप्रहाणिः।
तस्याभिध्यानात्तृतीयं देहभेदे विश्वैश्वर्यं केवलआप्तकामः119॥११॥
स्वातिरिक्तकलनारोपापवादाधिकरणेयत्तां प्रतिपाद्येदानीं कार्यकारणरूपेण सर्वस्याध्यस्तत्वं तदपवादतो मोक्षप्रकारं च दर्शयति—संयुक्तमिति। कार्यकारणत्वेन संयुक्तं क्षरं स्वाविद्यापदतत्कार्यजातं, तस्य स्वज्ञानसमकालक्षरणात् क्षरत्वं, चतुर्विधक्षरप्रपञ्चप्रलयेऽपि यत् स्वरूपतो न क्षरति तत् अक्षरं चशब्दात् क्षरसापेक्षाक्षरताऽपाये परमाक्षरं एतत् इति द्योत्यते। प्राकृतं व्यक्तं प्रकृतिः अव्यक्तं तद्रूपत्वेन विश्वसनीयविश्वं अविद्यापदतत्कार्यजातं ईश्वरो विश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तवपुषा भरते बिभर्ति। य एवं बिभर्ति सोऽयं अनीशश्चात्मा तूलाविद्याऽऽवृतत्वेन यत्किंचिदपि कर्तुं त्यक्तुमशक्तत्वात्। चशब्दः स्वस्वरूपाज्ञत्वप्रदर्शनार्थः। कुत एवमित्यत्र भोक्तृभावात् एवं बुध्यते, स्वधर्मतया कर्तृत्वभोक्तृत्वादिकं स्वीकृत्यानीशोऽस्मीति मोहितत्वात्। स कदा स्वस्वरूपं भजतीत्यत आह—ज्ञात्वेति। अनेककोटिजन्मानुष्ठितसत्कर्मफलार्पणसन्तुष्टेश्वरप्रसादजनितचित्तशुद्धिपारिव्राज्यधर्मश्रवणादिसंजातसम्य-ग्ज्ञानेन स्वावशेषतया देदीप्यमानं देवं ज्ञात्वा तज्ज्ञानसमकालं स्वातिरिक्तास्तितावृत्तिभिः
पाश्यते बध्यते स्वाज्ञ इति पाशाःस्वातिरिक्तास्तिताबुद्धिवृत्तिरूपाः तैः सर्वपाशैः मुच्यते स्वावृतिबीजापाये स्वयमेवावशिष्यत इत्यर्थः॥८॥ निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रे मायाजीवेशतत्कार्यविकल्पः कथं सेत्स्यतीत्याशङ्क्य स्वाज्ञानतः सर्वं सिध्यतीत्याह—ज्ञाज्ञाविति। ज्ञाज्ञौ द्वौ ब्रह्ममात्राज्ञदृष्टिविकल्पितौ। तत्र बिम्बस्थानीय ईश्वरो हि ज्ञः सर्वज्ञत्वात्। प्रतिबिम्बस्थानीयोऽयं जीवोऽज्ञः, किंचिज्ज्ञत्वात्। द्वावेतौ मायाविकल्पितावित्याह—अजावीशनीशाविति। मायोपाधित्वेन बिम्बस्थानीयो हि ईशः, सर्वनियन्तृत्वेऽपि निरावृतत्वात्। स्वाविद्योपाधित्वेन प्रतिबिम्बस्थानीयो जीवः अनीशः, नियम्यत्वेन स्वाज्ञानावृतत्वात्। उभावपि अजौ ईशनीशावित्यत्र ह्रस्वं छान्दसम्। इत्थं जीवेशविभागहेतुः केत्यत आह—अजेति। परमार्थदृष्ट्या कालत्रयेऽपि न जायत इति अजा अलब्धात्मकत्वात्। स्वाज्ञसर्वानर्थकर्यजा एका हि। सेयं किंविशिष्टेत्यत्र प्रतिबिम्बस्थानीयभोक्तृजीवस्य दर्पणस्थानीया प्रकृतिः भोगार्थतया युक्तास्थिता स्वात्मन्यध्यस्तेत्यर्थः। एवं कल्पनाधिकरणत्वेन अनन्तश्चात्माऽपि विद्यते अन्तवत्कल्पनायाःपरिच्छिन्नत्वेऽपि तदधिकरणस्य त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वेनानन्तत्वात्। चशब्दो निष्प्रतियोगिकानन्त्यद्योतकः। सोऽयमात्मा विश्वरूपः विश्वकल्पनाधारतया विश्वसत्तास्फूर्तिप्रदत्वात्। तद्विकारास्पृष्टत्वात् अकर्ता हि। यस्मादयमकर्ता तस्माद्बिम्बस्थानीयमीश्वरं प्रतिबिम्बस्थानीयं जीवं दर्पणस्थानीयां प्रकृतिं चेति एतत् त्रयं यदा सम्यग्ज्ञानं जायते तदा निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रं विन्दते। तद्वेदनसमकालं विद्वान् ब्रह्मैव भवति। ब्रह्ममिति छान्दसम्॥९॥ जीवप्रकृत्योः नित्यानित्यत्वेनेश्वरनियम्यत्वं स्वातिरिक्तासंभवब्रह्मज्ञानतस्तन्मात्रावस्थितिं चाह—क्षरमिति। स्वज्ञानतः क्षरतीति क्षरं यस्मिन् सति स्वातिरिक्तं प्रतीयते तत् प्रधानं सम्यग्ज्ञानसमकालमदर्शनादसत्त्वं, तादृशज्ञानाभावे व्यावहारिकादित्वं क्षरतया मार्त्यप्रधानं यत्र विकल्पितं तदधिकरणं अमृतं च तदक्षरं चेति अमृताक्षरं आरोपवैलक्षण्येन नित्यत्वात् क्षरप्रधानसापेक्षप्रभवसविशेषतां वस्तुतो हरतीति हरः निष्प्रतियोगिकाद्वितीयत्वात् स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तदर्पणप्रतिबिम्बस्थानीयक्षरात्मानौ प्रकृतिजीवौ ईशते स्वयं चिन्मात्रतया तावीष्टे।
कोऽसौ? स्वावशेषतया दीप्यत इति देवः परमात्मा एकः तस्य चिन्मात्रतयाऽद्वितीयत्वात्। तद्याथात्म्यज्ञानफलमाह—तस्येति। स्वाज्ञादिदृष्टिप्रसक्तक्षरप्रधानतत्कार्यमोहे सत्यसति तदाधारतया यो दीप्यते तस्य देवस्य तद्गतविकारास्पृष्टचिन्मात्रतयाऽभितो ध्यानात् यश्चिन्मात्ररूपेणावशिष्यते सोऽहमस्मीति योजनात् वस्तुतः स्वातिरिक्तक्षरप्रधानापह्नवसिद्धपरमात्मा निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमवशिष्यत इति तत्त्वभावात्। इत्थंभूततत्त्वज्ञानात् पुराऽपि स्वातिरेकेण किंचिदस्तीति विश्वसनीयविश्वमाया निवृत्तैव तस्याः शशविषाणवदवस्तुत्वात् स्वाज्ञानतो विद्यमानेव भाता पुनः स्वज्ञानतो भूयश्चान्ते स्वाज्ञानावसानसमये या तद्रूपेण विश्वसनीया(?) विश्वमायानिवृत्तिः स्यादित्युपचर्यते। विद्यमानस्य निवृत्तिरुपपद्यते नाविद्यमानस्य निवृत्तिरस्ति, वस्तुतः प्रवर्तनीयनिवर्तनीयमायातत्कार्यवैरल्यात्। कालत्रयेऽपि निष्प्रतियोगिकनिर्विशेषं ब्रह्मैव स्वमात्रमवशिष्यते,
स्वयं मृत्वा स्वयं भूत्वा स्वयमेवावशिष्यते॥
इति श्रुतेः॥१०॥ एवं विदुषस्तद्भावापत्तिः स्यादित्याह—ज्ञात्वेति। यः स्वात्मेति प्रकृतस्तं देवं स्वयमेवेति ज्ञात्वा एवं ज्ञानात् पुरा स्वातिरेकेण किंचिदस्तीत्यविद्वान् पाश्यतीव भातः। ज्ञानसमकालं स्वातिरिक्तास्तितारूपसर्वपाशापहानिः ज्ञानाग्निना दाहो भवति। तद्दाहे तन्मूलरागद्वेषदाहः। ततो विहितप्रतिषिद्धक्रिया- (ततः)तद्धेत्वपूर्वेत्यादिस्वातिरिक्तास्तितारूपक्लेशाः सम्यग्ज्ञानदग्धा भवन्ति। एवं विदुषः क्षीणैः क्लेशैः जन्ममृत्युप्रहाणिः तद्धेतुस्वाज्ञानाभावात्। यः स्वज्ञानेन स्वमात्रमवशिष्यते तद्याथात्म्यं स्वयमेवेत्याभिमुख्येन ध्यानात् स्वमात्रावरणदेहोपलक्षिताविद्यापदतत्कार्ये स्वातिरेकेण नास्तीति भेदे अपह्नवं गतेऽथ धूमादिमार्गद्वयप्राप्यपुनरावृत्त्यपुनरावृत्तिलक्षणचन्द्रब्रह्मलोकगतैश्वर्यापेक्षया तृतीयं सम्यग्ज्ञानैकलभ्यं विश्वैश्वर्यं कैवल्यत्वेन विश्वसनीयपारमैश्वर्यं ब्रह्ममात्रावस्थालक्षणमिति प्रतिपाद्य पुनः स्वातिरिक्तास्तिताप्रभवदुःखनिवृत्तिलक्षणं स्वस्य कृतकृत्यतां चाह—केवल आप्तकाम इति। विद्वान् स्वयं केवलः अशेषविशेषशून्यब्रह्ममात्रपदारूढत्वात्। स्वाज्ञदशायां स्वातिरेकेण विषयजातं काम्यन्त इति कामाः, त एवेदानीं येन ब्रह्ममात्रतया आप्ताः सोऽयं आप्तकामः कृतकृत्य इत्यर्थः॥११॥
ब्रह्मातिरेकेण न किंचिद्वेदितव्यम्
एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नातः परं वेदितव्यं हि किंचित्।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वंप्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥१२॥
वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः।
स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे॥१३॥
यद्बोधतो विद्वान् कृतकृत्यो भवति तदेव स्वावशेषतया ज्ञेयं तदतिरेकेण किंचिदपि वेदितव्यं नास्तीत्याह—एतदिति। एतत् प्रकृतं ब्रह्मैव स्वमात्रमिति ज्ञेयं तदतिरिक्तपुरुषार्थाभावात्। यदेवं ज्ञेयं तत् नित्यमेव सन्मात्रत्वात्। तत्किमित्यत आह—आत्मसंस्थमिति। स्वात्ममात्रतया स्थितत्वात्। वेदितव्यान्तरमाशङ्क्याह—नेति। निष्प्रतियोगिकत्वेन ब्रह्ममात्रं वेदितव्यं अत ब्रह्ममात्रात् परं अपरं वेदितव्यं न किंचित् अस्ति तस्य निष्प्रतियोगिकत्वस्योक्तत्वात्। स्वाज्ञदशायां यत् भोक्त्रादिभिदाजातमनुभूतं तत् स्वाज्ञदशायां ब्रह्मैव जातमित्याह—भोक्तेति। द्वितीयार्थे प्रथमा। कार्योपाधिं जीवं भोक्तारं, दृश्यजातं भोग्यं, ईश्वरं प्रेरयितारं च भेददृष्ट्या ज्ञात्वा जीवतामापन्न इदानीं भोक्त्रादिभेदरूपं त्रिविधं एतद्ब्रह्मेति मत्वा प्रोक्तं श्रुतितात्पर्यज्ञैः प्रतिपादितम्। यद्वा—भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च प्रथमार्थे द्वितीया, एतद्भोक्त्रादिभेदजातं ब्रह्मेति मत्वा कृतकृत्यो भवतीत्यर्थः॥१२॥ यदेतत्त्रिविधभेदोपलक्षितस्वाविद्यापदतत्कार्यतिरोहितमिव दृश्यते प्रणवासिना तदावरणं सञ्छिद्य निरावृतं ब्रह्साक्षात्कुर्यादित्यत्र दृष्टान्तमाह—वह्नेरिति। यथा वह्नेः स्वयोनि-अरणिगतस्य मूर्तिः न दृश्यते स्वदाह्यदार्वावृतत्वात्। तत्र वह्निर्नास्तीति चेन्न तल्लिङ्गस्य सत्त्वात्। यतो नैव च लिङ्गनाशोऽस्ति। दृश्यते हि मथनेन तलिङ्गम्। स मथनात् प्राक् काष्ठतिरोहितो वह्निर्भवति भूयोभूयोमथनात् इन्धनयोनिः स्वयोनिदाहकत्वेन गृह्यः गृह्यते यथा तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे, उभयमिव वैशब्दस्योपमार्थत्वात्, दान्तिकेऽपि स्वदाह्यमायातत्कार्यतिरस्कृतत्वेन विद्यमानमविद्वद्दृष्ट्या
तत्सत्वे साक्षित्वादिकं लिङ्गं, तदुभयं सम्यग्ज्ञानात् प्राग्विद्यते, प्रणवेन प्रणवाख्यसाधनजनितब्रह्मात्मैक्यविद्यया पूर्वं स्वतिरस्कारानाद्यविद्यातत्कार्यदाहात् देहे कार्यकरणसंघातेऽरणिस्थानीये आत्मतत्त्वाभिव्यक्तिस्तदभिव्यक्तिलिङ्गं चोभयं विद्वत्सु गृह्यते। सम्यग्ज्ञानात् प्रागात्मतत्त्वतिरस्कारकाविद्यातज्जकार्यकरणसंघातलक्षणं स्वातिरिक्तत्वेनानुभूत सम्यग्ज्ञानादेतत्सर्वं ब्रह्ममात्रं भवतीति॥१३॥
सम्यग्ज्ञानसाधनं ध्यानम्
स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्।
ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत्॥१४॥
तिलेषु तैलं दधनीव सर्पिरापः स्रोतस्स्वरणीषु चाग्निः।
एवमात्माऽऽत्मनि गृह्यते120ऽसौ सत्येनैनं तपसा योऽनुपश्यति॥१५॥
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम्।
आत्मविद्यातपोमूलं तद्ब्रह्मोपनिषत्परं तद्ब्रह्मोपनिषत्परमिति॥१६॥
अत्र सम्यग्ज्ञानसाधनोपायमाह—स्वदेहमिति। स्वदेहं अधरारणिं कृत्वा स्वात्माभिव्यक्तिस्थानं कृत्वा षोडशनात्रात्मकप्रणवं चोत्तरारणिं कृत्वा अकारस्थूलांशवैराजीभूम्यादिपश्यन्तीभूम्यन्त-पञ्चदशमात्रातद्व्यष्टिसमष्टितदुभयैक्यारोपापवादाधिकरणविश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तचैतन्यगतविशेषांशापह्नवसिद्ध-निर्विशेषतुर्यतुरीयं ब्रह्म स्वमात्रमित्यनुसन्धानध्याननिर्मथनाभ्यासात् देवं स्वयंद्योतनस्वभावं चिन्मात्रं स्वावशेषतया पश्येत् ज्ञानी तदपरोक्षीकुर्यात्। पित्रादिसंचितनिधिर्यथा तदज्ञानादप्राप्तस्तज्ज्ञानादवाप्यते तथा मुमुक्षुः स्वाज्ञानात् निगूढवत् आत्मतत्त्वं स्वज्ञानात् स्वयमेवेति पश्यति॥१४॥ सङ्घातप्रत्यक्त्वेनात्मा द्रष्टव्य इत्यत्र दृष्टान्तमाह—तिलेष्विति। यथा तिलेषु
व्याप्यतिरोहिततैलं यन्त्रनिष्पीडनेनाभिव्यक्तं दृश्यते यथा दधनि मथनाविर्भूतनवनीतं सगुणब्रह्मस्थानीयं, तदेतन्नवनीतमग्निसंपर्कतो नवनीतभावं विहाय सुगन्धिघृतं भवतीति यत्तन्निर्गुणब्रह्माभिव्यक्त्युदाहरणं, यथा शुल्कस्रोतस्सु आपः खननेनाभिव्यक्ताः सत्यः कार्यकारिण्यो भवन्ति, यथा वा अरणीषु चाग्निः स्वयोनिद्वारुमथनेनाविर्भूतो भवति, यथाऽयं दृष्टान्तस्तथा एवमात्मा निर्विशेषचिद्धातुः आत्मनि गुहास्थबुद्धितत्त्वे गृह्यते श्रुत्याचार्यप्रसादात्तश्रवणादिभिरभिव्यज्यते। सत्येन सत्यवचनोपलक्षितयमादिसाधनेन बाह्यान्तःकरणनिरोधलक्षणतपसा चैनं सत्यतपस्संजातचित्तशुद्धिप्राप्यसम्यग्ज्ञानेन स्वावशेषतया पश्यति अपरोक्षीकरोतीत्यर्थः॥१५॥ कैवल्यसाधनं ज्ञानं तपआदि तत्साधनं ताभ्यां स्वात्माभिव्यक्तिमुक्त्वा प्रकरणार्थमुपसंहरति—सर्वव्यापिनमिति। स्वाविद्यापदतत्कार्यसर्वव्यापिनमात्मानं, क्षीरे सर्पिर्वत् सर्वत्र सारत्वेन अर्पितं, आत्मविद्यातपसी यस्य मूले स्वात्माभिव्यञ्जके तत् आत्मविद्यातपोमूलं यत्तत् ब्रह्म अद्वितीयं उपनिषत्परं प्रमाणान्तरनैरपेक्ष्येणोपनिषदेकमानतया पर्यवस्यतीत्युपनिषत्परं, उपनिषदर्थत्वेन निरतिशयानन्दतयाऽऽविर्भूतम्। द्विर्वचनमादरार्थम्। इतिशब्दोऽध्यायसमत्यर्थः॥१६॥
इति प्रथमोऽध्यायः
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द्वितीयोऽध्यायः
समाध्युपक्रमे परमेश्वरप्रार्थना
युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत्॥१॥
युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।
सुवर्गेयाय शक्त्या॥२॥
युक्त्वाय121 मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः क122रिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्॥३॥
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥
युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक123 एतु पथ्येव सूरेः124।
शृण्वन्तु125 विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥
स्वात्मनः स्वविद्यातपोमूलत्वं यदुक्तमुत्तरे मन्त्रास्तदेव प्रतिपादयन्तीत्याह—युञ्जान इति। समाध्युपक्रमसमये प्रथमं प्रपञ्चप्रसवगुणयुक् सविता परमेश्वरः स्वात्मनि मनो युञ्जानो योजयन्, किमर्थंमनोयोजनमित्यत्र तत्त्वाय स्वयाथात्म्यावगतये, तत्साधनत्वेन किं करोतीत्यत्र धियः स्वध्यानप्रतिबन्धिज्ञानेन्द्रियाणि, आसुरवृत्तिवियोगपूर्वकं सत्त्ववृत्तिभिःसंयोजयन्नित्यर्थः। अग्नेः अग्न्यादित्यादिज्योतिषां ज्योतिः अहमेवेति निचाय्य निश्चित्य पृथिव्याः तदुपलक्षितपञ्चभूतभौतिकजातात् अधि बुद्धौ तद्ब्रह्मज्योतिः आभरत् कार्यकरण-संवातप्रत्यक्त्वेनाहरत् अभिव्यनक्त्विति यावत्॥१॥ सवितृमण्डलस्थेशप्रार्थनाफलमाह—युक्तेनेति। देवस्य सवितुः सवे सत्यामनुज्ञायां तत्प्रसादात् प्रत्यगात्मनैकाग्र्यभावापन्नमनसा शमादिसाधनसंपन्नाः सन्तः सुवर्गेयाय निर्विशेषानन्दहेतुज्ञानसाधनश्रवणादिशक्त्या देवप्रसादलब्धंबलेन प्रयतामह इत्यर्थः॥२॥
विद्वन्मुमुक्ष्वनुग्राहकत्वमीश्वरस्य स्वभाव इत्याह—युक्त्वायेति। युक्त्वाय प्रत्यगात्मानं योजयित्वा तत्संयुक्तमनसा देवान् ब्रह्मेन्द्रादीन् स्वर्यतः स्वःशब्दवाच्यनिरतिशयानन्दस्वभावं यतो गच्छतो दे[दि?]वं बृहत् अद्वितीयं ज्योतिःचित्प्रकाशं धिया आविः करिष्यतो मनसः प्रत्यक्प्रावण्यमापाद्य अहं ब्रह्मास्मीति प्रत्यगभेदेन ब्रह्माविष्करिष्यत इत्यर्थः॥३॥ यः पुनः विद्यातपसोर्निमित्तभूतस्तस्यैवं परमेश्वरस्य मुमुक्षुभिर्महती परिष्कृतिः कर्तव्येत्याह—युञ्जत इति। विप्राः विद्वांसो बाह्मणाः “प्रा पूरणे” इति धातोः विप्रस्य देशतः पूर्णस्य बृहतः कालतो वस्तुतोऽपि पूर्णस्य विपश्चितो ज्ञप्तिमात्रस्य साक्षात्करणाय स्वमनो युञ्जते प्रत्यक्प्रवणं योजयन्ति धियो बुद्धीन्द्रियाण्यपि शब्दादिविषयेभ्यः प्रत्याहृत्य युञ्जते स्ववशं कुर्वन्ति। विहोत्रा दधे,—होत्राःऋत्विगभिधानमेतत्, इह तु तत्कर्मसु वर्तते—ऋत्विङ्निर्वर्त्यान्तःकरणवैमल्यहेतुभूताः क्रियाः सर्वा इति यावत्। वयुनाविदित्यत्र वयुनेति बुद्ध्यभिधानमेतत्, सर्वबुद्धिसाक्षी एकःइत् एवकारार्थः, एक एव सजातीयविजातीय भेदरहितः सर्वप्रत्ययसाक्ष्यद्वितीयो यः पूर्वोक्ताः क्रियाः दधे विदधे, पूर्वस्य वेः अत्रान्वयः, स एव सर्वज्ञेशो जीवात्मना जीवतामोक्षसाधनानुष्टानं करोतीति भूतपूर्वगत्या देवस्य स्वातिरिक्तप्रसवितुः सवितुः मही महती परिष्टुतिः परिष्कृतिः मुमुक्षुभिः कर्तव्येति वाक्यशेषः॥४॥ यथा पूर्वे करणग्रामप्रणिधानमुखेन ब्रह्म साक्षात्कुर्वन्ति तथाऽहं करवाणीति मुमुक्षुराहेत्याह—युजे वामिति पूर्व्यं ब्रह्म प्रतीचा युजे एकीकरोमि। केन साधनेन? वां युवयोः वाङ्मनसौ हे मनोबुद्धी वामहं प्रतीचि युजे समादधे नमोभिः नमस्कारैः सह मे श्लोकश्च पूर्वं ब्रह्मोद्दिश्येति वाक्यार्थः। मुमुक्षोर्मम श्लोकः कीर्तिः स्तुतिरीश्वरमुद्दिश्य व्येतु विविधमेतु, पूर्वव्युपसर्गस्यात्रान्वयः। पथ्येव सूरेः प्राज्ञस्य पथ्येव सन्मार्गप्रवर्तकनिमित्ता कीर्तिरितो विसर्पतुपञ्चमश्लोकं स्तुतिं विसृप्तं शृण्वन्तु आकर्णयन्तु विश्वे सर्वे अमृतस्य ब्रह्मणो हिरण्यगर्भादयः पुत्राः। क स्थिता इत्यत्र—आङित्युत्तरत्र सम्बन्धः—ये धामानि स्थानानि दिव्यानि आतस्थुः तिष्ठन्ति। तत्स्था ब्रह्मपुत्रा हिरण्यगर्भादयो मम स्तुतिं शृण्वन्त्वित्यर्थः॥५॥
साङ्गयोगोपदेशः
अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते126।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजायते मनः॥६॥
सवित्रा प्रसवेन जुषेत127 ब्रह्म पूर्व्यम्।
तत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूतमक्षिपत्128॥७॥
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि॥८॥
प्राणान् प्रपीड्येह स युक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः॥९॥
समे शुचौ शर्करावह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।
मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥
उत्तमाधिकारिणः शमादिसाधनसहित ब्रह्मज्ञानमुपदिश्य मध्यमाधिकारिणां सत्त्वशुद्धिहेतुयोगमुपदिशन्त्युत्तरे केचिन्मन्त्राः। तत्रादौ योगं संक्षिप्याह—अग्निरिति। यत्र मूलाधारे अग्निमण्डले त्रिकोणे अग्निर्मथ्यते क्षोभ्यते वायुर्यत्र मूलाधारगसुषुम्नायां अधि उपरि रुध्यते बिसतन्तुनिभाग्निशिखया सह, सोमः कल्पार्कचन्द्रमण्डलं ध्यातं सत् यत्र द्वादशान्ते अतिशयेन रिच्यते यत्र सुषुम्नायां मूलाधारादमृतं प्रस्रवद्भाव्यते तत्र मूलाधारगसुषुम्नायां ध्येयवस्तुप्रणवार्थगोचरं मनः संजायते॥६॥ ध्यानप्रकारमाह—सवित्रेति। द्वादशान्तस्थितेन सवित्रा कल्पार्केण प्रसवेन सोममण्डलात् सुषुम्नायां प्रसूतामृतेन जुषेत अधिकारी सेवेत, किं तत्? ब्रह्म ध्येयं वस्तु पूर्व्यं मूलाधारे स्थितम्। तत्र योनिं अग्निकुण्डलं ब्रह्मोपासनास्थानत्वेन कृण्वसे कुरुष्व।
न हि ते एवं कुर्वतस्तव कल्पार्केण विलापितचन्द्रमण्डलात् सुषुम्नायां स्रवदमृतेन पूर्तं पूरितं फलितं मूलाधारस्थं ब्रह्म अक्षिपत् न ह्याक्षिपत् कालक्षेपं न करोति। एवं ध्यातं ब्रह्म शीघ्रं फलं प्रयच्छतीत्यर्थः॥७॥ योगाङ्गनियममाह—त्रिरिति। उरो ग्रीवा शिर इति त्रीण्यङ्गान्युन्नतानि यस्य तत् शरीरं त्रिरुन्नतं यथा तथा तत् संस्थाप्य हृदीन्द्रियाणि सर्वाणि मनसा सह संनिवेश्य ब्रह्मप्रणवेयत्तावित् विद्वान् व्यष्टिसमष्ट्यात्मकजाग्रज्जाग्रदादितत्कार्यरूपाणि पश्यन् भयावहानि सर्वाणि स्रोतांसि ब्रह्मोडुपेन ब्रह्मप्रणवप्लवेन प्रतरेत प्रकर्षेण जाग्रज्जाग्रदादिपञ्चदशस्त्रोतांसि संतरेदित्यधिकारिणं श्रुतिरनुशास्ति॥८॥ प्राणायामप्रकारमाह—प्राणानिति। यः प्राणायामाधिकारी प्राणान् मूलाधारादिस्थले प्रकर्षेण मनसा सह प्रपीड्य निरुध्य “युक्ताहारविहारस्य” इत्यादिना युक्ता चेष्टा यस्य सः युक्तचेष्टः सन् मूलाधारादिगतत्रिपञ्चदशलक्ष्ये प्राणे क्षीणे तनुत्वं गते, अथ केवलकुभ्भकानन्तरमिडापिङ्गला-संज्ञिकनासिकयोः अन्यतरेण शनैः उच्छ्वसीत रेचयेत्। यया रेचयेत्तया पुनरापूर्य कुम्भयित्वा विरेचयेत्। एवं केवलकुंभकावधि शनैः शनैरभ्यसेत्। दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं रथं विद्वान् कुशलसारथिरिव बाह्यान्तःकरणनिरोधपूर्वकं अप्रमत्तः सन् मनो धारयेत॥९॥ योगाभ्यासोचितदेशमाह—सम इति। समे अनिम्नोन्नते शुचौ मेध्यप्रदेशे शर्करावह्निवालुकाभिः शब्दजलाश्रयादिभिश्च विवर्जिते किंच मनोऽनुकूले मनोरम्यप्रदेशे न तु चक्षुपीडने—विसर्गलोपश्छान्दसः—अग्न्यादित्यादिचक्षुःपीडारहिते प्रदेशे गुहायां निवातस्थलमाश्रित्य प्रयोजयेत् योगं समाधिं कुर्यात्॥१०॥
योगसिद्धिः
नीहारधूमार्कानलानिलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥११॥
पृथ्व्याप्यतेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे129 प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥
लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्ववर्णप्रसादं130 स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति॥१३॥
एवमभ्यस्तयोगस्य योगसिद्धिचिह्नान्याह—नीहारेति। प्रथमं नीहाराकारेण चित्तवृत्तिः प्रवर्तते ततो धूमवत् ततोऽर्कानलानिलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशिनां च रूपसदृशानि एतानि योगानुभवसिद्धानि बुद्धेः रूपाणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि ब्रह्माविर्भावहेतुलिङ्गानि क्रमेणाविर्भवन्तीत्यर्थः॥११॥ योगसिद्धिसूचकचिह्नान्युक्तानि, ततः पञ्चभूतजयं तत्फलं चाह—पृथ्वीति। पादादिमस्तकान्तं पञ्चभूतमण्डलं तत्तदेवतामहंग्रहोपासनयोपास्य तेन पृथिव्यादिपञ्चभूतमण्डलवशीकरणं कृत्वा पृथिव्यामप्सु तेजसि वायौ खे च क्रमेण ध्यानेन समुत्थिते तत्तदुपासनया पञ्चात्मके वशीकृते योगगुणे प्रवृत्ते सति, अथ पृथिव्यादिमण्डलतत्तच्छक्तीनामुत्तरोत्तरक्रमेण पूर्वपूर्वं सर्वंस्वाभेदेन चिन्तयित्वा तस्य योगिनो योगो ध्यानं तदेवाग्निस्तेन वशीकृतपञ्चभूतात्मकं शरीरं प्राप्तस्य तस्य भूतभौतिकसंबन्धिनानारोगजातं जरा मृत्युः मरणं च कदाऽपि न भवति॥१२॥ किंच—लघुत्वनित्यादि। स्पष्टोऽर्थः॥१३॥
मुख्ययोगस्तत्फलं च
यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजतेतत् सुधान्तम्।
तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः॥
यदाऽऽत्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥१५॥
एष131 हि देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो हि जातः स उ गर्भे अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥
यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः॥१७॥
एवं योगेन शुद्धान्तरस्य मुख्ययोगं तत्फलं चाह—यथेति। यथैव बिम्बं आदर्शादि मृदया मृजया भस्मचूर्णादिना उपलिप्तं तेजोमयं प्रचुरतेजस्कं चूर्णादिमलेन तिरस्कृतपूर्वमलं तद्दर्पणादि भ्राजते दीप्यते तद्वा तद्वत् आत्मतत्त्वं स्वातिरिक्तानात्मापह्नवसिद्धमात्ममात्रं प्रसमीक्ष्य तत्स्वमात्रमित्यपरोक्षीकृत्य देही ब्रह्मविद्वरीयान् एकत्वदर्शनेनैव वीतस्वातिरिक्तास्तिताप्रभवशोकमोहस्सन् एक एव कृतार्थो भवते भवति। सुधौतमित्यस्मिन्नर्थे सुधान्तमिति छान्दसम्॥१४॥ निर्विशेषब्रह्मज्ञानसमकालं तद्भावापत्तिं दर्शयति—यदेति। यदा श्रुत्याचार्यप्रसादलभ्यवेदान्तश्रवणादिना प्रत्यगात्मतत्त्वेन तु, तुशब्दोऽवधारणार्थः, त्वंपदलक्ष्येण दीपोपमेन यथा दीपः स्वप्रकाश्यघटादेर्विलक्षणस्तथा स्वप्रकाश्यदेहेन्द्रियादेर्विलक्षणो भवितुमर्हतीति दीपोपमेन प्रत्यगात्मा सर्वसाक्षिणैव ब्रह्मतत्वं तत्पदलक्ष्यं इह हृदये शमादिसाधनयुक्तः प्रपश्येत् शोधिततत्त्वंपदार्थयोः अहं ब्रह्मास्मीत्येकीकुर्यादिति स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तभेदनिवृत्त्यर्थमधिकारिणमनुशास्ति। एवं तत्त्वंपदलक्ष्यैक्यज्ञानेन स्वाज्ञानेऽपह्नवतां गते ततस्तत्त्वमर्थविभागैक्यकलनाविरलं ब्रह्ममात्रमवशिष्यते। तत् किं ब्रह्ममात्रं जातमित्यत आह—अजमिति। स्वतः परतो वा जात्यसंभवात्। स्वयमजातं कथं सत्पदमर्हतीत्यत आह—ध्रुवमिति। अजातेःस्वरूपत्वेन निप्रतियोगिकसन्मात्रत्वात्। यत्सन्मात्रं तद्ध्रुवमेवेत्यर्थः। अध्रुवतत्त्वग्रामयोगाद्ध्रुवता कुतः इत्यत आह—सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं स्वाज्ञदृष्टिमाश्रित्य तत्त्वेषु सत्स्वपि स्वज्ञदृष्ट्या तैरसंस्पृष्टत्वात्। परमार्थदृष्ट्या निष्प्रतियोगिकशुद्धमेवेत्यर्थः। यच्छुद्धं तद्ध्रुवम्। तद्रूपेण द्योतनात् देवं स्वावशेषतया ज्ञात्वा तज्ज्ञानसमकालं मुच्यते सर्वपाशैः विद्वान् निर्मुक्तपाशो ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः॥१५॥ यत् परमार्थदृष्ट्या निष्प्रतियोगिकमवशिष्टमित्युक्तं तस्य स्वाज्ञदृष्ट्या ब्रह्मादिस्तम्बान्तभेदेन महदणु-
भेदेन चावस्थानं स्वज्ञदृष्ट्या प्रत्यक्तया सर्वान्तरत्वं चाह—एष इति। एष प्रकृतः परमात्मा निर्विशेषचिद्धातुः, हिःप्रसिद्धार्थोऽवधारणार्थोवा, निष्प्रतियोगिकतया द्योतनात् देवः प्रदिशः प्राच्याद्याः दिशः सर्वाः प्रति अनु अनुगतःव्याप्य स्थितत्वात्, कल्पादौ हिरण्यगर्भात्मना पूर्वो हि जातः किल। य एवं जातो हिरण्यगर्भः स उ स एव गर्भे ब्रह्माण्डोदरे विराडात्मना अन्तः वर्तते। स एव स्थूलसूक्ष्मसमष्टिकार्यकारणोपाधिकत्वेन यो जातः स एव व्यष्टिभूताधिष्ठातृजीवात्मना जातः, इतो जनिष्यमाणोऽपि स एव, प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वोपाधिषु प्रत्यगान्तरत्वेन जना इति शब्दाभिलप्यो भूत्वा तिष्ठति। किं बहुना, सर्वतोमुखः चेतनाचेतनात्मकत्वेन स एव स्थितः। हे जना इत्यन्योन्यसंबोधनं वा। जनान् प्रति प्रत्यगिति वा। अस्मिन् पक्षे द्वितीयार्थे प्रथमा॥१६॥ स एवैवं जात इत्युक्तम्। घटाकाशजलचन्द्रन्यायेन तज्जन्म न स्वेन रूपेणेत्याह—यो देव इति। यो देवः स्वयंप्रकाशः अग्नौ शब्दादितन्मात्रापञ्चीकृतभूतकार्यत्वेन तत्पञ्चकव्यापी बुद्धौ जलचन्द्रवद्घटाकाशवच्च हिरण्यगर्भात्मना विवेश, यो अप्सु पञ्चीकृतपञ्चभूतकार्यतया तद्व्यापी विराट्शब्दवाच्यतया विवेश, योऽनन्तसद्बोधानन्दवपुरात्मा व्यष्टिकार्योपाधिषु भुवनशब्दवाच्येषु इन्द्रादिरूपेण आविवेश यावद्भवनसत्तास्फूर्तिसुखप्रदत्वात्, यः फलपाकावसायिषु ओषधीषु स्थावरेषु आविवेश, यो वनस्पतिषु पुष्पफलवत्सु। स्वयमाविवेशेत्यत्र सर्वत्रानुषज्यते “तत् सृष्ट्वातदेवानुप्राविशत्” इत्यादिश्रुतेः। तस्मै सर्वान्तरायात्मने देवाय नमो नमः इति द्विर्वचनमध्यायपरिसमाप्त्यर्थमादरार्थं च॥१७॥
इति द्वितीयोऽध्यायः
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तृतीयोऽध्यायः
मायया परमात्मनःसर्वकारणत्वम्
य एको जालवानीशत ईशनीभिः सर्वाल्ँलोकानीशत ईशनीभिः।
य एवैक इह उद्भवे संभवे च य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥१॥
एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमान् लोकानीशत ईशनीभिः।
प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोप्ता॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्।
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः॥३॥
प्रकृतपरमात्मनो मायाविन इव मायया सर्वकारणत्वं प्रत्यक्त्वं चाह य एक इति। य एकोऽद्वितीयः परमात्मा जालवान् जालशब्देन जीवजातमत्स्यग्राही मायाशक्तिरुच्यते तदधिष्ठातृत्वेन तद्वानीश्वरः सर्वं ईशते ईशनीभिः मायाशक्तिभिः ईष्टे न तु स्वेन रूपेण स्वस्य निष्प्रतियोगिकाद्वितीयत्वात् स्वाज्ञदृष्ट्या लोक्यन्त इति सर्वान् लोकान् पृथिव्यादीन् भूरादीन् प्राणिभेदांश्च ईशनीभिः मायाशक्तिभिः मायावी ईशःईशते ईष्टे तत्तद्रूपो भूत्वा तत्तत्सर्वमीष्ट इत्यर्थः। एवं सर्वनियन्तृत्वमुक्त्वा तस्यैव सर्वकारणत्वं तद्याथात्म्यज्ञानफलं चाह—य इति। य एवैकोऽद्वितीयः परमात्मा स्वातिरिक्तसर्वोद्भवे हेतुत्वेन स्थितः कारणतया, सम्यग्भवतीति संभवः, तस्मिन् संभवे कारणैक्यलयोत्पत्तौ निमित्ततया स्थितः, तद्गतकार्यकारणसापेक्षसविशेषताऽपाये निर्विशेषं ब्रह्ममात्रमवशिष्यत इति य एतद्विदुः ब्रह्मविद्वरीयांसः ते एवं वेदनसमकालं अमृता भवन्ति विदेहमुक्ता भवन्तीत्यर्थः॥१॥ पूर्वमन्त्रोक्तार्थमेव पुनरप्याह—एको हीति। यः स्वातिरिक्तरुजं द्रावयतीति रुद्रः परमात्मा स एक एव। तस्मात् न द्वितीयाय तस्थुः स्वाविद्यापदतत्कार्याणि, रुद्रस्य निष्प्रतियोगिकाद्वितीयत्वात्। स्वाज्ञदृष्ट्या य इमान् लोकान् ईशत ईशनीभिः। प्रत्यङ्जनास्तिष्ठतीति व्याख्यातार्थमेतत्। सर्गकाले भुवनानि संसृज्य स्वसत्ताप्रदतया सम्यक् सृष्ट्वा स्थितिकाल आनन्दप्रदतया भुवनानां गोप्ता अन्तकाले स्वातिरिक्तं संचुकोच उपसंहरति च पश्यत् स्वाज्ञानापाये तत्कार्यस्वातिरिक्तकलनाविरलं ब्रह्मैवावशिष्यते॥२॥ प्राज्ञदृष्टिप्रसक्तस्वाविद्यापदस्थूलांशयोगतो विराडिव भातीत्याह—विश्वत इति।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तप्राणिनां चक्षूंषि मुखानि बाहवः पादादयोऽस्येति विश्वतश्चक्षुः उत अपि उत्तरत्र करणग्रामोपलक्षणार्थम्। सर्वप्राणिकरणग्रामसंयोजयितृत्वेन तत्प्रवृत्तिनिमित्तमेष एवेत्याह—संबाहुभ्यामिति। मनुष्यादीन् बाहुभ्यां संधमति संयोजयति धातूनामनेकार्थत्वात् पतत्रैः पादैः संधमति। सर्वपदार्थस्रष्टाऽप्येष एवेत्याह—द्यावाभूमीति। तदुपलक्षितस्वाविद्यापदतत्कार्यं जनयन्देव एकोऽद्वितीयः सर्वप्राणिकरणप्रवृत्तिनिमित्तं सन् वस्तुतः स्वातिरिक्तं ग्रसित्वा स्वयमेव विजृम्भत इत्यर्थः,
**ब्रह्मैवैकमनाद्यन्तमब्धिवत् प्रविजृम्भते॥**इति श्रुतेः॥३॥
ईश्वरप्रसादप्रार्थना
यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च विश्वाधिको रुद्रो महर्षिः।
हिरण्यगर्भं जनयामास पूर्वं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥४॥
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तनुवा शंतमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि॥५॥
यामिषं गिरिशंत हस्ते विभर्ष्यस्तवे।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिँसीः पुरुषं जगत्॥६॥
व्यष्टिसमष्टिप्रपञ्चहेतुत्वं मुमुक्षुस्वज्ञानप्रदत्वं चाह—यो देवानामिति। य ईशोऽग्न्यादिदेवानां प्रभवश्च उत्पत्तिक्रमात् प्रातिलोम्येन भवो यस्मिन् सः प्रभवः लयस्थानं, उद्भवत्यस्मादिति उद्भवः उत्पत्तिस्थानमिति यावत्, उपसर्गाणामनेकार्थत्वात्। विश्वश्चासावधिकश्चेति विश्वाधिकः निरतिशयानन्दत्वात्। रुद्रपदं व्याख्यातम्। महांश्चासावृषिश्चेति महर्षिः निरतिशयमहत्त्वेन सर्वज्ञत्वात्। स एव सृष्टेः पूर्वं सर्वप्राण्यन्तःकरणाभिमानिनं हिरण्यगर्भं जनयामास। सोऽयमीश्वरो नो अस्मान् योग्याधिकारिणः शुभं ब्रह्ममात्रं तद्विषयया शुभया बुद्ध्या संयुनक्तु येनाहं तत्पदं भजामि तथा मां नियोजयत्वित्यर्थः॥४॥
ईश्वरस्य सर्वमुमुक्ष्वनुग्राहकत्वमाह—या ते रुद्रेति। हे रुद्र या इयं श्रुतिस्मृतिपटलप्रसिद्धा तस्याः ते तव सकलनिष्कलतनोरस्तित्वे रुद्रशब्द एव प्रमाणं रुद्रेति, शिवा शुद्धा अजडक्रियाज्ञानेच्छाशक्तिमती निरतिशयानन्दनिष्कला च तनूः तनुः अघोरा नित्यप्रसन्ना पापप्रकाशिनी न भवतीति अपापकाशिनी स्वाभिव्यक्तेः पुण्यफलरूपत्वात्, तथा नोऽस्मान् स्वाप्तिसाधनविशिष्टान् निष्कलरूपया तन्वा शंतमया परमसुखतमया गिरौ कैलासे स्थितः शं तनोतीति हे गिरिशन्त अभि आभिमुख्येन प्रत्यक्तया चाकशीहि त्वं निष्कलभावेन मुमुक्षून् प्रति प्रकाशस्व॥५॥ सम्यग्ज्ञानहेतुसगुणतनुप्रार्थनमाह—यामिषुमिति। हे गिरिशन्त स्वातिरिक्तोपसंहारसमर्थत्वेन यां प्रसिद्धां इषुंहस्ते बिभर्षि धारयसि किमर्थम्? अस्तवे स्वोपसंहर्तव्यं प्रति क्षेप्तुं, गिरौ स्थितः सन् सर्वान् त्रायत इति हे गिरित्र स्वातिरिक्तोपसंहारसमर्थांशिवां कुरु इति पूर्वेणान्वयः। सम्यग्ज्ञानसाधनसंपन्नं पुरुषं तदुपायभूतशमादिविशिष्टं जगत् मा हिंसीःहिंसां मा कार्षीः, यावत्सम्यग्ज्ञानेन त्वत्पदं भजामि तावत् सम्यग्ज्ञानतत्साधनं मा हिंसीरित्यर्थः॥६॥
निष्कलब्रह्मज्ञानादेव मोक्षः
ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथा निकायं सर्वभूतेषु गूढम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारमीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति॥७॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥८॥
यस्मात् परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किंचित्132।
वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्॥९॥
ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापि यन्ति॥१०॥
निष्कलतनुं तज्ज्ञानफलं चाह—तत इति। ततो देवप्रसादानन्तरं स्वातिरिक्तपरत्वेन बृंहणात् परं ब्रह्म परं निरतिशयं बृहन्तं सर्वत्र परिपूर्णं, ईशमिति विशेषणात् पुल्ँलिङ्गनिर्देशः, यथा निकायं स्वातिरिक्तयोगात् स्वतो निर्विशेषं यथाऽयोगोलकानुगतवह्निवत् ब्रह्मादिस्तम्बान्तसर्वभूतेषु गूढं, विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं यथा मायावी मायाहस्त्यादीन् परिवेष्ट्य तिष्ठति यथा मृगतृष्णोदकरजतादीन्यूषरशुक्त्यादीन् परिवेष्ट्य स्थितानि तथा विश्वस्यान्तर्बहिश्च व्याप्य परिवेष्टितारमीशं तं विध्वस्तनिखिलोपाधिं निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति ज्ञात्वा ज्ञानसमकालं अमृता भवन्ति ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः॥७॥ ब्रह्ममात्रप्रबोधादेव तन्मात्रावस्थितिलक्षणकैवल्यं सिध्यति न तु प्रकारान्तरेणेत्याह—वेदेति। एतं प्रकृतं पुरीतत्युपलक्षितस्वाविद्यापदतत्कार्यजातं स्वावशेषतया ग्रसित्वा स्वेन रूपेण पूरणात् पुरुषं महान्तं अद्वितीयं आदित्यवर्णं स्वप्रकाशचिन्मात्रं स्वाज्ञानतपसः परस्तात् स्वेन रूपेणावस्थितं यः स्वाज्ञानतत्कार्यापह्नवसिद्धः तं आत्मानं स्वमात्रतया विदित्वा तद्वेदनसमकालं मृत्युं स्वातिरिक्तमतीत्यापह्नवं कृत्वा यत् स्वमात्रमवशिष्यते तत् अतिमृत्यु ब्रह्ममात्रं एति। सम्यग्ज्ञानादृते नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। स्वाज्ञानप्रभवबन्धनिवृत्तेः स्वज्ञाननिमित्तत्वाज्ज्ञानादेव मुक्तो भवतीत्यर्थः॥८॥ ज्ञानादृते मोक्षसाधनं नास्तीत्याह—यस्मादिति। यस्मात् पुरुषात् निर्विशेषचिन्मात्रात् परं उत्कृष्टमपकृष्टं वा किंचिन्नास्ति व्याविद्धस्वातिरिक्तत्वात् यस्मादणीयोऽणुतमं नास्ति, यस्मात् किंचित् अपि न ज्यायोऽस्ति यदतिरिक्तस्य मायामात्रत्वात्, निवातप्रदेशस्थवृक्ष इव स्तब्धःस्थाणुरविकारी दिवि स्वे महिम्नि स्वाराज्य एक एवावतिष्ठते निष्प्रतियोगिकाद्वैतरूपत्वात्, य एवं तिष्ठति तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वं त्रिपरिच्छेदवैरल्यात्। यतः पुरुषादतिरिक्तं न किंचिदस्ति अतस्तन्मात्रज्ञानात् तद्भावापत्तिः॥९॥ ज्ञानेतरमार्गावलम्बिनां न हि
पुरुषार्थसिद्धिः प्रत्युत बहुलतमदुःखमेवेत्याह—तत इति। यतो ब्रह्ममात्रज्ञानादेव केवल्यसिद्धिर्भवति ततः तस्मात् यदुत्तरतरं साधनान्तरं नास्ति तदरूपं निष्कलत्वात्, अत एव तत् अनामयं स्वाज्ञानरोगस्याविद्यकत्वेन कारणतुल्यत्वात्। य एतत् प्रकृतं स्वातिरिक्तापह्नवसिद्धं ब्रह्म स्वमात्रमिति विदुः त एव वेदनसमकालं अमृता भवन्ति ब्रह्मैव भवन्ति। अथेति पक्षान्तरद्योतकः। अथेतरे पक्षान्तरावलम्बिनो दुःखमेवापियन्ति न कदाऽपि कैवल्यसुखिनो भवन्ति। ततो ज्ञानादेव कैवल्यसिद्धिरित्यर्थः॥१०॥
निर्विशेषब्रह्मज्ञानोपायः
सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात् सर्वगतः शिवः॥११॥
महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्वस्यैष प्रवर्तकः।
सुनिर्मलामिमां शान्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः॥१२॥
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥१३॥
निर्विशेषप्रबोधोपायमाह—सर्वेति। स्वाव्यतिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यं सृष्ट्वातद्व्यष्टिसमष्टिस्थूलांशयोगतो विश्वविराडोत्रात्मना सर्वाण्याननानि शिरांसि ग्रीवाश्च अस्येति सर्वानन शिरोग्रीवः, इतरावयवानामुपलक्षणमेतत्, तथा स्वाविद्यापदव्यष्ट्यादिसूक्ष्मांशोपाधिकतैजससूत्रानुज्ञात्रात्मना सर्वेषामाब्रह्मस्तम्बपर्यन्तभूतानां हृदयविलसितलिङ्गशरीराश्रयस्तत्प्रवृत्तिनिमित्तसूत्ररूपत्वात्, तथा स्वाविद्यापदव्यष्ट्यादिबीजांशयोगतः प्राज्ञबीजानुज्ञैकरसात्मना सर्वतो व्याप्तुं शीलमस्येति सर्वव्यापी स हि भगवान् निरङ्कुशषड्गुणैश्वर्यसंपन्नत्वात्। यस्मादेवं तस्मात् सर्वगतः। तथा स्वाविद्यापदव्यष्ट्यादितुर्यांशासङ्गतो द्वितुर्यैक्याविकल्पात्मना स्वाविद्यापदस्थूलादिभागत्रयाशिवं ग्रसित्वा तुर्यांशेऽप्यसङ्गचिद्धातुः
शिवो भवति। स्वातिरिक्ताविद्यापदाशिवापह्नवसिद्धो वा शिवो भवति॥११॥ ज्ञानतत्फलदातेश्वर इत्याह— महानिति। महान् देशकालाद्यपरिच्छिन्नत्वात् प्रभुः जगच्चक्रचालकत्वेन नियन्तृत्वात् वैशब्दः प्रसिद्ध्यर्थः पुरुषः स्वेन रूपेणाखिलपूरणात् यः एवंविधः परमेश्वरः एष हि सत्वस्य प्रवर्तकः ये स्वानुग्रहभाजनास्तैः स्वाराधनधिया सत्कर्मोपासनयोगादीनि कारयित्वा तेषां यत् सत्वमन्तःकरणं तस्य वैमल्यापादनद्वारेणादौ प्रत्यक्प्रावण्यमापाद्य ततः प्रत्यगभिन्नब्रह्मगोचरं विधाय ततः प्रत्यक्परविभागैक्यकलना यत्र सुदुर्लभतामर्हति तद्धि निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रं तत्सम्यग्ज्ञानं प्रत्यप्येतस्य प्रवर्तकत्वात्,
धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वः॥
** **इत्यादि
परमाद्वैतविज्ञानमिदं भवभयापहम्।
भवप्रसादतो लभ्यं भावनारहितं परम्॥
इति श्रुतेः स्मृतेश्च। परमेश्वरप्रसादादेव स्वातिरिक्तशान्तिर्भवतीत्याह—सुनिर्मलामिति। स्वातिरिक्तमलापह्नवसिद्धां विद्वदनुभवैकगोचरां शान्तिं निरतिशयानन्दाविर्भावलक्षणां विकलेबरमुक्तिं प्रत्ययमेव ईशानः, मुमुक्षोः स्वाविर्भावहेतुः स्वयमेवेत्यर्थः। अत एवेश्वरो ज्योतिरव्ययः चिन्मात्रत्वेन नित्यत्वात्॥१२॥ ईश्वरस्यैव सर्वान्तःकरणयोगतो जीवत्वं स्वयाथात्म्यज्ञानतः स्वभावापत्ति चाह— अङ्गुष्ठमात्र इति। हृदयस्य स्वाङ्गुष्ठपरिमितिसुषिरवत्त्वेन तदुपलब्धृचैतन्यस्यापि तन्मात्रत्वमुपचर्यत इति अङ्गुष्ठमात्रः, वस्तुतः पूर्णत्वात् पुरुषः सर्पदिषु रज्ज्वादिवत्, सर्वान्तःकरणावभासकत्वेन सर्वभूतान्तरात्मा, प्रत्यगात्मरूपेण सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः हृदयाख्यसूक्ष्मशरीरसत्तास्फूर्त्यानन्दप्रदत्वात्, हृदा हृदयस्थबुद्ध्या मनःईष्ट इति मनीषा संकल्पादिमन्मनसाऽभिक्लप्तः प्रकाशितः। यद्वा—हृदा “हृञ् हरणे” इति धातोः नेति नेतीति स्वातिरिक्तप्रतिषेधोपदेशेन मनीषा ज्ञानविज्ञानात्मना मनसा सम्यग्ज्ञानेन च अभिक्लृप्तोऽभिप्रकाशित। य एतत् निर्विशेषं ब्रह्म स्वमात्रमिति विदुः त एव अमृताः भवन्तीत्युपचर्यते, पुरैव तेषां नित्यामृतस्वरूपत्वात्॥१३॥
ईश्वरस्य सर्वमयत्वम्
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥१४॥
पुरुष एवेदँ सर्वंयद्भूतं यच्च भव्यम्।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति॥१५॥
स्वाविद्यामवष्टभ्य सर्वस्रष्टृत्वं स्वसृष्टोपाध्यनुप्रवेशतो जीवत्वं स्वज्ञानतः स्वभावापत्तिं चाह—सहस्रेति। समष्टिजीवात्मना सहस्राणि शीर्षाण्यस्येति सहस्रशीर्षा पुरुषः पूर्णत्वात्। सहस्राक्ष इत्यादावपि एवमेव योजना। स प्रकृतेशःभूमिं भूम्युपलक्षितभौतिकजातं सर्वतो विश्वतोऽन्तर्बहिश्च वृत्वा व्याप्य अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलं हिरण्यगर्भं विराजं चातीत्य स्वे महिम्नि अत्यतिष्ठत्। यानि यानि दशसङ्ख्याकानि तानि तान्यङ्गुलपरिमाणोपलक्षितानि तानि सर्वाण्यतीत्य स्थितवानिति वा। अथवा भौतिकजातमन्तर्बहिर्व्याप्य तदपेक्ष्य दशाङ्गुलमत्यतिष्ठत्, दशाङ्गुलवचनं निरवधिकमहत्त्वोपलक्षणार्थम्॥१४॥ यत् सर्वकल्पनाधिष्ठानं तदेव सर्वमित्याह—पुरुष एवेदमिति। पुरुषातिरिक्तस्य मायामात्रत्वेन कारणतुल्यत्वात्, “पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः” इति श्रुतेः, पुरुषातिरेकेण यद्भूतं यच्च भव्यं यद्वर्तमानकालिकं च तदपि मायामात्रम्। तत्कल्पनाधिष्ठानं पुरुषमात्रमेवेत्याह—उतामृतत्वस्येशान इति। उतापि स्वातिरिक्तमार्त्यापह्नवसिद्धामृतत्वस्येशानः परमेश्वरः स्वाज्ञानबन्धनिरासकत्वात् यद्दृश्यजातमन्नं, सम्यग्ज्ञानेनाद्यत इत्यन्नशब्देन मायातत्कार्यमुच्यते, इत्थंभूतान्नेन वस्तुस्वभावमतिलङ्घ्य तदतिरेकेण अतिरोहति जायते, कार्यजातस्यापि सत्ताप्रदत्वेनाधिष्ठानत्वादीशानो नियन्ता परमेश्वर एवेत्यर्थः। यत्पुरुषतत्त्वमन्नेन कार्यरूपेण रोहति स्वगतहेयांशापाये स एवामृतत्वस्येशानः॥१५॥
ईश्वरस्य सर्वप्रत्यक्त्वम्
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥१६॥
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं सुहृत्133॥१७॥
नवद्वारे पुरे देही हँसो लेलायते बहिः।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च॥१८॥
ईश्वरस्य सर्वप्रत्यक्त्वेन सर्वात्मकतामाह—सर्वत इति। ब्रह्मादिस्तम्बान्तप्राणिपटलपाणिपादा अस्यैव पाणिपादा इति सर्वतः पाणिपादं तत् प्रकृतं ब्रह्म। सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं इत्यादेरप्येवमेव विग्रहः। तथा सर्वतः श्रुतिमल्लोके प्राणिनिकाये। किं बहुना, स्वातिरिक्तसर्वप्रपञ्चं सच्चिदानन्दरूपेण आवृत्य तिष्ठति॥१६॥ ईश्वरस्य स्वविकल्पितप्रपञ्चासङ्गतया सर्वसाक्षित्वं सर्वनियन्तृत्वादिरपीत्याह—सर्वेति। सर्वाणि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि तेषां गुणाःशब्दादयो यदधिगमादाभासमात्रतया दृश्यन्ते तत् सर्वेन्द्रियगुणभासं, वस्तुतः सर्वेन्द्रियविवर्जितं सर्वस्य प्रभुं स्वामिनं ईशानं नियन्तारं सर्वस्य शरणं सर्वापद्रक्षकत्वात् सुहृत् मित्रं सर्वावस्थायां हितकरम्। सर्वाणि पदानि प्रथमान्तानि नपुंसकानि। प्रभुं इत्यत्र लिङ्गविभक्तिव्यत्ययो द्रष्टव्यः॥१७॥ ग्रन्थलाघवात् बुद्धिलाघवमाश्रयणीयमिति न्यायादेतस्यार्थस्य दुरवगाह्यात्वेनोक्तार्थमेव पुनः पुनरुच्यते। शोधितजीवेशयोरेकत्वमसकृदुक्तम्। स्वमायाविकल्पितकार्यानुप्रवेशतो जीवत्वं तन्नियन्तृत्वं स्वज्ञानतः स्वमात्रतां च पुनरप्याह—नवद्वार इति। शिरसि सप्तद्वाराणि द्वाववाञ्चौ, एतानि नवद्वाराणि यस्मिन् तस्मिन् नवद्वारे पुरे शरीरे प्रविश्य देही पुराभिमानी सन् संसरति। कथमित्यत्र जाग्रदाद्यभिमानं क्रमेण गत्वा हित्वा ज्ञानविज्ञानाभ्यां सर्वे हत्वा
तुरीयं गच्छति सम्यग्ज्ञानेन तदपि हत्वा तुरीयातीतं स्वमात्रतया गच्छतीति वा हंसः परमात्मा लेलायते तद्बहिरेव भूत्वा लीलया चरति संसरतीव। अस्य वशे सर्वं वर्तत इति वशी सर्वस्य लोकस्य, स्थावरस्य चरस्य च वशी सर्वनियन्तेत्यर्थः॥१८॥
परमात्मवेदनाच्छोकनिवृत्तिः
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥
अणोरणीयान् महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः।
तमक्रतुं पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमीशम्॥२०॥
वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।
जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हि प्रवदन्ति नित्यम्॥२१॥
निष्कलेश्वरस्यापि स्वविद्यया करणग्रामराहित्यं तत्तद्व्यापारवत्त्वं सर्वज्ञतामनन्यवेद्यतामद्वितीयत्वं चाह— अपाणीति। पाणिपादा यस्य न विद्यन्ते सोऽयं अपाणिपादः निर्विशेषत्वात्, तथाऽपि ज्ञाताज्ञातसाक्षितया तत्र तत्र गच्छतीवेति जवनः स्वाभेदेन सर्वग्राहकत्वात् ग्रहीता च। शिष्टकर्मेन्द्रियाणामुपलक्षणमेतत्। स्वयं अचक्षुरपि स्वभावेन चक्षुस्तद्विषयं च पश्यति कर्णहीनोऽपि श्रोत्रतद्वृत्तिविषयं शृणोति। शिष्टज्ञानेन्द्रियाणामुपलक्षणमेतत्। किं बहुना, सोऽयं परमात्मा यद्व्यष्टिसमष्टिबाह्यान्तःकरणैर्वेदनीयं वेद्यं तत्सर्वं युगपत् वेत्ति सर्वज्ञत्वात्। विषयग्राहिकरणग्रामग्राहकवद्वेत्तृवेदयिता कश्चित् स्यादित्यत आह—न च तस्यास्ति वेत्तेति, “विज्ञातारमरे केन विजानीयात्” इति श्रुतेः। तं प्रकृतं अग्रे भवं अग्र्यं पुरुषं महान्तं त्रिविधपरिच्छेदशून्यं आहुः ब्रह्मविदः,
न व्यापित्वाद्देशतोऽन्तः कारणत्वान्न कालतः।
न वस्तुतोऽपि सार्वात्म्यादानन्त्यं ब्रह्मणि त्रिधा॥
इति चन्द्रिकोक्तेः॥२९॥ परमात्मन एकत्वं तज्ज्ञानात्कैवल्यं तज्ज्ञानाधिकारतां चाह—अणोरिति। अणोरणीयान् परमाणुवत् सूक्ष्मबुद्ध्यादेरपि सूक्ष्मतमत्वात्, महतो महीयान् आकाशादेर्महतोऽपि महत्तमत्वात्। बुद्ध्याकाशसापेक्षमणुत्वं महत्त्वं च न स्वतः, स्वस्य निष्प्रतियोगिकात्ममात्रत्वात्,
आत्ममात्रमिदं सर्वमात्मनोऽन्यन्न किंचन॥
इति श्रुतेः। यदि स्वाज्ञविकल्पिता हुद्गुहा तदा तत्र प्रत्यक्त्वेन निहितः। कस्य गुहेत्यत्र जनिमज्जन्तोःस्थूलशरीरस्य हृदयावच्छिन्नबुद्धिः गूहनात् गुहेत्युच्यते। यः प्रत्यगात्मतया प्रकृतः तमक्रतुं नानाविधसङ्कल्पविरलं महिमानं निरवधिकमहद्रूपं स्वातिरिक्तग्रसनेशं, “सर्वसंहारसमर्थः” इति श्रुतेः। इत्थंभूतं प्रत्यक्तत्वं परतत्त्वाभेदेन प्रत्यक्परभिदाऽसहपरब्रह्मतया वा धातुः ईश्वरस्य प्रसादात् यः पश्यति यदा सोऽयं तदा वीतस्वातिरिक्तास्तिताप्रभवशोको भवति॥२०॥ उक्तार्थदार्ढ्याय मन्त्रदृगनुभवमाह—वेदेति। वेदाहं इत्याचार्यपदारूढो मन्त्रद्रष्टा मुनिः। कि वेदेत्यत्र एतं अध्यायत्रयप्रतिपादितं अजरं अपक्षयशून्यत्वात् पुराणमिति च जन्मादिषड्भावविकारप्रतिषेधः, कूटस्थनित्यं, सर्वश्चासावात्मा चेति सर्वात्मानं सर्वेषामात्मानमिति वा सर्वगतं सर्वव्यापिनम्। कुत एवमित्यत्राह—विभुत्वादिति। आकाशादिविविधकार्यरूपेण भवतीति विभुः, तस्मात् सर्वगतम्। यस्य जगज्जन्मनिरोधं प्रवदन्ति एतदेव परमेश्वरकर्मेति ब्रह्मवादिनः हिः प्रसिद्धौ प्रवदन्ति नित्यं महाप्रलयमहासर्ग-अवान्तरप्रलयावान्तरसर्ग-सुषुप्तिप्रबोधेषु मध्ये च। यद्वा—जन्मनिरोधं जन्माभावं यस्य वदन्ति तमहं वेदेत्यन्वयः। स्वविकल्पितमायातत्कार्यापाये स एवेश्वरः परमात्मा “स्वमात्रमवशिष्यत इति तदपि वेदाहमित्यभिप्रायः॥”
इति तृतीयोऽध्यायः
चतुर्थोऽध्यायः
ईश्वरात् सम्यग्ज्ञानप्रार्थना
य एकवर्णो बहुधा शक्तियोगाद्वर्णाननेकान् निहितार्थो दधाति।
वि चैति चान्ते विश्वमादौ स देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥
अभ्यासस्य तात्पर्यलिङ्गत्वाद्वक्ष्यमाणार्थस्य दुरवगाह्यत्वाच्च जामितां विहायोक्तार्थमेव पुनःपुनरावर्तयति। चतुर्थाध्याये ईश्वरात् सम्यग्ज्ञानप्रार्थनं तत्त्वंपदार्थशोधनं द्वैतस्य मिथ्यात्वं, अद्वैतस्य सत्यत्वं निष्प्रतियोगिकत्वं च सम्यग्ज्ञानस्य कैवल्यान्तरङ्गसाधनत्वं च वक्ष्यते। तत्रादौ मुमुक्षोरीश्वरात् सम्यग्ज्ञानप्रार्थनमाह—य एक इति। यःचिद्धातुः एकोऽद्वितीयत्वात् नामरूपवैरल्यात् अवर्णः निर्विशेषत्वात् बहुधा बहुप्रकार-मायाशक्तियोगात् अनेकान् वर्णान् नामरूपाणि, यस्य स्रष्टव्यविषयेक्षणे निहितो निक्षिप्तोऽर्थः, दधाति व्याकरोति, पूर्वं स्वेक्षणतो नामरूपव्याकरणं कृत्वा पश्चाद्बहिर्व्याकरोति। अन्ते संहारकाले विश्वं वि चैति व्येति च, अन्तर्भावितणिजर्थोऽयं शब्दः, विगमयति स्वात्मनि सर्वमुपसंहरति। चकारादादौ दधातीति जगदुत्पत्तिस्थितिलयकारणत्वं द्योत्यते। य एवंविधः परमेश्वरो विजयते स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ससाधनतत्त्वज्ञानरूपया शुभया धिया योजयतु॥१॥
ईश्वरस्यैव स्वमायया निखिलकार्यप्रवेशः
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः।
तदेव शुक्रं134 तद्ब्रह्म तदाप135स्स प्रजापतिः॥२॥
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि सर्वतो136मुखः॥३॥
नीलःपतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तटिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः।
अनादिमत्त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा॥४॥
स्वमायायोगतः आधिदैविकोपाधीनुत्पाद्य तेष्वनुप्रविश्याग्न्याद्याख्यामवलम्ब्य तन्नियन्तृत्वेनापि स्वयमेवावतीत्याह—तदेवेति। तदेव ईश्वरतत्त्वं अग्निसूर्यवाय्वाख्यं तच्चन्द्रादिरूपेणापि स्थितं, तदु अपि अस्य सर्वत्रान्वयो द्रष्टव्यः, तदेव शुक्रं नक्षत्रजालवत् स्थितं, शुक्लमिति वा पाठे विराड्रूपेणापि स्थितं, तद्ब्रह्म तदापः अबभिमानिदेवतारूपत्वात्, स हि प्रजापतिःचतुराननरूपत्वात् “एष ब्रह्मैष इन्द्रः” इत्यादिश्रुतेः। अग्न्यादित्यादीनां वाक्चक्षुरादिसमष्टित्वाद्वागादिसमष्टिग्रहणमितरसमष्टीनामुपलक्षणार्थम्॥२॥ स्वमायाशक्त्या निखिलकार्योपाधीन् सृष्ट्वा तत्र घटाकाशवज्जलचन्द्रवच्च प्रविश्य तत्तदाख्यां प्राप्तवद्भातोऽपि स्वयमीश्वर एवेत्याह—त्वमिति। त्वमेव स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन स्थितोऽसि, तत्र कुमारकुमारीरूपेणापि स्थितोऽसि, त्वं जीर्णो जरठः करकलितदण्डेन वचसि संचरसि। कि बहुना, त्वमेव मायया सर्वतोमुखः नानाऽऽकारेण मायया जात इव लक्ष्यसे॥३॥ तिर्यगादिरूपेणापि त्वमेव वर्तस इत्याह—नील इति। नीलःपतङ्गः कृष्णभ्रमरादिःहरितः शुकादिःलोहिताक्षः कोकिलादिः तटिद्गर्भो मेघः ऋतवो वसन्तादयः षट् समुद्राः लवणाद्याः सप्त। नीलपतङ्गादिस्त्वमेवेत्यर्थः। आदिमन्न भवतीति अनादिमत् उत्पत्त्यादिरहितः त्वमेव। तव देशकालवस्त्वपरिच्छिन्नत्वात् विभुत्वेन वर्तसे विभुत्वेन वर्तमानमपि त्वमेवेति सर्वत्रानुषज्यते। यतो भुवनानि भूरादीनि विश्वा विश्वानि जातानि, भुवनाद्याविर्भावतिरोभावाधिकरणमपि त्वमेव॥४॥
जीवेश्वरभेदो मायिकः
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः ‘सृज्यमानां137 सरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यःपिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति॥६॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः॥७॥
इदानीं तेजोऽबन्नलक्षणां प्रकृतिं तद्विकारप्रपञ्चस्येश्वरविवर्ततामीश्वरस्य तदसङ्गत्वेन तत्कारणतां तद्गतविशेषांशापह्नवबोधतः कैवल्यसिद्धिं चाह—अजामिति। परमार्थदृष्ट्या कालत्रयेऽपि या न जायते तां अजां ब्रह्ममात्रप्रबोधसमकालं मूलप्रकृतेरलब्धात्मकत्वात्। स्वाज्ञदृष्ट्या तस्या एकत्वमनेकत्वं चाह—एकामिति। मूलप्रकृतेरेकत्वात्। लोहितशुक्लकृष्णां तेजोऽबन्नानि सृष्ट्वा तत्तदवस्थाऽऽपन्नत्वात्। यद्वा—रजस्सत्त्वतमोगुणात्मिकाम्। गुणत्रयानुयोगतो बह्वीःअनेकाः प्रविभक्तरूपेण जायन्त इति प्रजाः कारणप्रविभक्तरूपेण व्यज्यमानाः लोहिताद्यात्मना रजआद्यात्मना वा सरूपाः स्वसमानरूपाः सृज्यमानां उत्पादयन्तीमजां वस्तुतो जन्मराहित्यात् अजो ह्येकः पूर्वोक्तामजां जुषमाणोऽनुशेते क्षेत्रज्ञस्य स्वाविद्यापाशपाशितत्वेन तत्परवशत्वात्। तथाऽप्ययं तदसङ्गचिन्मात्रस्वरूपः प्राकृतपञ्चकोशेषु जलचन्द्रवदनुप्रविश्य तद्धर्मान् स्वधर्मत्वेनोररीकृत्य प्रकृतिप्राकृतपरवशोऽनुवर्तते। सर्वानर्थमूलकारणभूतां भुक्तभोगां वान्ताशनमिव एनामन्योऽजःपरमेश्वरो जहाति स्वमात्रज्ञानाग्निना भस्मीकरोतीत्यर्थः॥५॥ एकः प्रकृतिगुणान् भजमानस्तत्परतन्त्रतया संसरति, अपरस्तां परित्यज्य नित्यमुक्ततया अवतिष्ठत इति योऽर्थोऽभिहितस्तमेतमर्थं भङ्ग्यन्तरेणाचष्टे—द्वा सुपर्णेति। द्वा द्वौ घटाकाशमहाकाशस्थानीयौ जीवपरमात्मानौ सुपर्णा सुपर्णी शोभनपतनगमनौ सयुजा सयुजौ बिम्बप्रतिबिम्बभावमापन्नौ सखाया सखायौ समानाख्यानौ समानाभिव्यक्तिकारणौ चेतनत्वाजत्वसामान्यात् किंचिज्ज्ञत्वसर्वज्ञत्वोपाधिकत्वेन नियम्यनियामकत्वेन शुद्ध्यशुद्ध्युपाधिकत्वेन च प्रकृतिप्राकृतत्वेन समानं उच्छेदधर्मवत्त्वात् वृक्षं परिषस्वजाते परिष्वक्तवन्तौ। तयोः कार्यकारणोपाधिजीवेशयोर्मध्ये लिङ्गशरीराभिमानी अन्यो जीवः पिप्पलं पुण्य-
पापकर्मफलनिष्पन्नं स्वादु विविधविषयजफलं अत्ति भुङ्क्ते। जीवात् अन्यः परमेश्वरःपिप्पलं जीववत् अनश्नन् स्वयमविकृतः सन् अभिचाकशीति स्वातिरिक्तं नेतीत्यभितः पश्यन्नुदास्ते। यथा व्योमासनादित्यः स्वप्रकाश्यं प्रकाशयन् प्रकाशरूपेणास्ते तथाऽयमीश्वर इत्यर्थः॥६॥ जीवेशावनूद्य जीवस्य स्वयाथात्म्यज्ञानात् कैवल्यसिद्धिमाह—समान इति। पुण्यपापफलभोगायतनत्वेन समाने वृक्षे स्वाविद्याद्वयतत्कार्यपञ्चकोशात्मके स्वेन रूपेण सर्वत्र पूरणात् पुरुषःपरमेश्वरो निमग्नः स्वाविद्याजलधौ प्रतिबिम्बितत्वात् स्वस्वरूपतिरोधानं कर्तुं अनीशया स्वाविद्यया कर्ता भोक्ता सुखी दुःखी इत्यादिना मुह्यमानः सन् शोचति संसार शोकमनुभवति। “ब्रह्ममात्रमसन्न हि” इत्यादिश्रुत्यनुरोधेन स्वातिरिक्तासदपह्नवसिद्धं निष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रमिति ब्रह्मविद्वरिष्ठैस्तत्त्वज्ञानिभिः जुष्टं ब्रह्ममात्रं यदा स्वावशेषतया पश्यति तदा वीतस्वातिरिक्तास्तिताप्रभवशोको भवतीत्यन्वयः। कीदृशमात्मानं पश्यतीत्यत्र स्वाविद्याद्वयतत्कार्यात् अन्यं स्वावशेषतयाऽवस्थातुं ईशं तस्य प्रत्यगभिन्नपरमात्मनो महिमानं प्रत्यक्परविभागैक्यासहसत्तासामान्यरूपं यदा पश्यति तदा ब्रह्ममात्रप्रबोधतो वीतशोको ब्रह्मैव भवति॥७॥
मायाऽधिष्ठातुरीश्वरस्यैव सर्वस्रष्टृत्वम्
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्तइमे समासते॥८॥
छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति।
अस्मान् मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया संनिरुद्धः॥
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।
अस्या138वयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्॥ १०॥
यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको यस्मिन्निदं सं च वि चैति सर्वम्।
तमीशानं वरदं139 देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति॥११॥
ब्रह्ममात्रज्ञानतत्साधनानामीश्वराधीनत्वमीश्वरभावादृते तेषां वैय्यर्थ्यमीश्वरभावादेव कैवल्यसिद्धिं चाह—ऋच इति। ऋगादिसर्वे वेदाःअक्षरे परमे परमाक्षरे व्योमन् परमाकाशे परमात्मनि निषेदुः यस्मिन् पूर्वोक्तपरमाक्षरे देवा विराडादयः अग्न्यादयश्च अधि उपरि निषेदुः आश्रिताः तिष्ठन्ति। ऋगादिवेदप्रतिपादितसत्कर्मानुष्ठानसञ्जातचित्तशुद्धिसाधनचतुष्टयसहकृतपारमहंस्य-धर्मपूगवदनुष्ठितश्रवणादिसञ्जातसम्यग्ज्ञानतो यो यदि यद्ब्रह्म सर्वापह्नवसिद्धमिति सर्ववेदान्तार्थं तत् स्वमात्रमिति न वेद स तदा ऋचा तदुपलक्षितनिखिलवेदवेदान्तैः किं करिष्यति, न किमपि प्रयोजनं भवतीत्यर्थः, “एवं तं परमज्ञात्वा वेदैर्नास्ति प्रयोजनम्" इति स्मृतेः। ये वेदोक्तकर्मानुष्ठानतश्चित्तशुद्धिमेत्य यथोक्तसाधनविशिष्टकृतवेदान्त-श्रवणादिसम्यग्ज्ञानेन इत् तत् लभ्यं ब्रह्म स्वावशेषतया विदुस्त इमे ब्रह्मविद्वरीयांसः स्वे महिम्नि समासते कृतकृत्या ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः॥८॥ यद्ययं सविशेषब्रह्मवित् तदाऽयमीशभावमेत्य स्वशक्त्या पुरुषार्थोपयोगिवेदादीन् तन्निर्वर्त्ययागादीन् तत्साध्यकालत्रयपरिच्छिन्नव्यष्टिसमष्ट्यात्मकप्रपञ्च-जातं सृष्ट्वा तत्र जलचन्द्रवदनुप्रविश्य स्वाविद्याकामकर्मपाशैः सुतरां बद्धो जीवाख्यां लभत इत्याह—छन्दांसीति। छन्दांसि ऋगादिचतुर्वेदाः पञ्च यज्ञाः ज्योतिष्टोमादयः क्रतवः सयूपाः व्रतानि कृच्छ्रचान्द्रायणादीनि भूतं भव्यं भविष्यत् यच्च वेदा वदन्ति, यज्ञादिसाध्यत्वेन भूतादिकालपरिच्छिन्नः प्रपञ्च इत्यर्थे वेदा एव प्रमाणमित्येतत्। यच्छब्दः सर्वत्र संबध्यते। अस्मात् अकाराख्यात् ब्रह्मणः, एतत्सर्वमुत्पन्नमित्यध्याहार्यम्। कथं ब्रह्मणो जगत्कारणतेत्यत आह—मायी सृजते विश्वमिति। निर्विशेषब्रह्मणोऽपि मायायोगतः सविशेषतया सर्वस्रष्टृत्वमुपपद्यते। तस्मिन् ईश्वरसृष्टव्यष्ट्यादिप्रपञ्चे य ईशभावमापन्नः स एव मायया सन्निरुद्धः ततो मायया
अन्यः सन् परिवर्तते॥९॥ स्वाधिष्ठेयमायायाः प्रकृतित्वं तदारोपाधिकरणस्य मायित्वं स्यादित्याह—मायामिति। या परमार्थदृष्ट्या मा न भवति तां मायां तु मायामेव स्वाज्ञदृष्टिप्रकृतप्रकृतिं विद्यात् जानीयात्। अत्रेशत्वेन य उक्तः तं मायिनं तु मायावच्छिन्नमेव मायाऽधिष्ठातारं महेश्वरं विद्यात्। अस्य मायिनः अवयवभूतैः घटाकाशजलचन्द्रस्थानीयैः आकाशादिःसन् आकाशादिः स्फुरतीति व्याप्तं सर्वमिदं जगत् महाकाशव्याप्तेरध्यस्तत्वात् न तु स्वपरिणामित्वेन। तुशब्दत्रयस्याप्यवधारणमर्थः। यद्वा—मायाऽधिष्ठातुरीश्वरस्य अवयवभूतैः स्वस्मिन्नध्यस्तत्वात् तदेकदेशभूतैर्मायातत्सामर्थ्यैस्तद्विवर्तत्वेनैव व्याप्तं सर्वमिदं जगत्। स्वाध्यस्तसर्वकलनानिवृत्तये मुमुक्षुभिर्यत्नःकर्तव्य इत्यभिप्रायः॥१०॥ मायायोनेरवान्तराकाशादियोनीनां चाद्वितीयेशस्याधिष्ठातृत्वं, मायाऽधिष्ठानतो वियदाद्युत्पत्तिहेतुत्वं, वियदाद्यवान्तरयोनिमवष्टभ्येतरेषां सृष्टयादिहेतुत्वं तत्सर्वाधिष्ठानभूतपरमेश्वरयाथात्म्यज्ञानान्मोक्षसिद्धि चाह—यो योनिमिति। यः प्रकृतः परमेश्वरः योनिं मूलप्रकृतिं कारणोपाधिरूपां पुनः प्राकृतयोनिं कार्योपाधिरूपां च अधितिष्ठति तत्सत्तास्फूर्तिप्रदत्वात्। यद्वा—योनिं योनिं प्रत्यन्तर्यामिरूपेणाधितिष्ठति। यः सर्वयोन्यधिष्ठाता स एकोऽद्वितीयः। यस्मिन् मायाऽऽधारेश्वरे सर्वमिदं जगत् समेति संहारकाले विलयं याति पुनःसृष्टिकाले वि चैति वियदादिरूपेण तादात्म्यं प्रतिपद्यते तं प्रकृतं ईशानं स्वांशजजीवाभिलषितवरप्रदातारं देवं वेदैर्वेदविद्भिः ईडयं अहूमस्मीति निचाय्य साक्षात्कृत्य स्वातिरिक्तप्रकृतिप्राकृतापह्नवसिद्धां परमशान्तिं विदेहमुक्तिं एति॥११॥
ज्ञानार्थमीश्वरप्रार्थना
यो देवानां प्रभवोश्चोद्भवश्च विश्वाधिको रुद्रो महर्षिः।
हिरण्यगर्भं पश्यत140 जायमानं स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥
यो देवानामधिपो यस्मिन् लोका अधिश्रिताः।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥१३॥
हिरण्यगर्भोपास्येश्वरं प्रति सम्यग्ज्ञानं प्रार्थयति—य इति। उक्तार्थोऽय मन्त्रः। पश्यत अपश्यत् व्यत्ययेनात्मनेपदं, बहुलं छन्दसि, अमाङ्योगेऽपीत्थडभावः। अवान्तरस्थितिकर्तृत्वेन वेदप्रवर्तकत्वेन च निरीक्षणं कृनवानित्यर्थः॥१२॥ देवान् प्रति स्वामित्वं सर्वलोकाश्रयत्वं जीवजातनियन्तृत्वं मुमुक्षुभिरुपास्यत्वं चाह—य इति। यः प्रकृतः परमेश्वरः व्यष्टिसमष्टिदेवानामधिपः कारणोपाधिकत्वात् यस्मिन् भूरादयो लोकाः अधिश्रिताः ओतप्रोततयोपरिश्रिताः अस्य द्विपदो मनुष्यादेः चतुष्पदः पश्वादेश्चयः कारणोपाधिः ईशे ईष्टे, तकारलोपश्छान्दसः, कस्मै काय सुखरूपाय, स्मैभावश्छान्दसः, तस्मै देवाय हविषा विधेम चरुपुरोडाशादिभिः परिचरेम, विधेः परिचरणकर्मण एतद्रूपम्॥१३॥ ,
ईश्वरज्ञानादेव पाशविमोकः
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारं तमनेकरूपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति॥१४॥
स एव कालो भुवनस्य गोप्ता विश्वाधिपः141 सर्वभूतेषु गूढः।
यस्मिन् युक्ता ब्रह्मर्षयो देवताश्च तमेवं ज्ञात्वा मृत्युपाशांश्छिनत्ति॥
घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गूढम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥१६॥
एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति॥
यदाऽतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासच्छिव एव केवलः।
तदक्षरं तत् सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी॥१८॥
नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये परिजग्रभत्।
न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यशः॥१९॥
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति॥२०॥
ईश्वरस्य परमसूक्ष्मत्वं सर्वकारणत्वं सर्वसाक्षित्वं स्वज्ञानान्मोक्षप्रदत्वं च पुनरप्याह—सूक्ष्मेति। पृथिव्याद्यव्यक्तान्तानि पूर्वपूर्वापेक्षया उत्तरोत्तराणि सूक्ष्मतराणि, पृथिव्याद्यव्यक्तान्तगतसूक्ष्मादपि परमेश्वरतत्त्वं अतिसूक्ष्मं “केशकोट्यंशैकभागसूक्ष्मं ब्रह्म सुखात्मकम्” इति ब्रह्मप्रणवोक्तेः, स्वातिरिक्तत्वेन कलिलस्य स्वाविद्यापदतत्कार्यजातस्य मध्ये विश्वविश्वाद्यविकल्पानुज्ञैकरसान्तात्मनाऽवस्थितं स्वाज्ञदृष्टिविकल्पितविश्वस्य स्रष्टारं तं तच्छब्दार्थं नानाजलपात्रानुगतचन्द्रवत् स्वाविद्यापदतत्कार्येषु अनेकरूपवदवस्थितं स्वविवर्तविश्वस्यैकं अधिष्ठानं स्वाधिष्ठेयसत्तास्फूर्तिसुखप्रदतया तदन्तर्बहिः परिवेष्टितारं वस्तुतःस्वातिरिक्ताशिवापह्नवसिद्धं शिवं स्वमात्रमिति ज्ञात्वा शान्तिमत्यन्तमेति व्याख्यातम्॥१४॥ ईश्वरस्य सर्वस्रष्टृत्वपालकत्वोपसंहारकत्वं प्रत्यक्त्वं सर्वाप्यत्वं ज्ञानैकगम्यत्वं चाह—स एवेति। यः प्रकृतः स एव परमेश्वरः स्वातिरिक्तं कलयति स्वात्मसात्करोतीति कालः। काले इति पाठान्तरम्। तत्र जीवसञ्चितकर्मपरिपाककाले भुवनस्य तत्तत्कर्मफलानुरोधेन गोप्ता रक्षिता विश्वाधिपः विश्वस्वामी सर्वभूतेष्वनुप्रविष्टत्वेन गूढः। यस्मिन् संविन्मात्रेश्वरे ब्रह्मर्षयः सनत्कुमारादयः देवताश्च हिरण्यगर्भादयः युक्ताः एकतां गताःतं ईश्वरं ज्ञात्वा सोऽहमस्मीत्यपरोक्षीकृत्य स्वाज्ञानस्य मृत्युहेतुत्वेन मृत्युःस्वाज्ञानं तद्वृत्तिभिः पाश्यते बध्यत इति स्वाज्ञानवृत्तयः पाशाः तान् मृत्युपाशान् छिनत्ति, “मृत्युर्वै तमः” इति श्रुतेः॥१५॥ ईश्वरस्य परमानन्दस्वभावत्वं सर्वदोषा-
स्पृष्टत्वं जीवरूपेण सर्वभूतगूढत्वं सर्वव्यापित्वं स्वज्ञानात् स्वाज्ञानपाशापहानिं चाह—घृतादिति। घृतात् परं उपरि वर्तमानं मण्डं यथा सूक्ष्मं प्रीतिविषयं च तथा मुमुक्षुप्रीतिविषयं अतिसूक्ष्मं च ब्रह्मादिस्तम्बान्तभूतेषु अनुप्रविश्य विश्वविराडोत्रादिरूपेण वर्तमानमप्यतिगूढं स्वाज्ञदृष्टेरावृतवद्भानात्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं इत्याद्युक्तार्थम्॥१६॥ ईश्वरस्य सप्रपञ्चनिष्प्रपञ्चरूपेणावस्थानं तन्मात्रज्ञानान्मोक्षसिद्धिं चाह—एष इति। एष प्रकृतः परमात्मा मायाशक्तियोगान्महदादिविश्वं करोतीति विश्वकर्मा महानात्मा अस्येति महात्मा महाकाशस्थानीयपरमात्मरूपत्वात् सदा जनानां हृदये जलपात्रावलिगतचन्द्रवत् संनिविष्टः। हृदा मनीषेत्याद्युक्तार्थम्॥१७॥ स्वातिरिक्तकलनापाये स्वयमेवावशिष्यत इत्याह—यदेति। यदा परमार्थावस्थायां अतमः स्वाज्ञानासंभवात् तत् तदा न दिवा न रात्रिः दिवारात्र्यादिकलना न ह्यस्ति सन्न चासत् भावाभावकलना न ह्यस्ति। ततः किमवशिष्यत इत्यत्र शिव एव स्वातिरिक्ताशिवं ग्रसित्वा केवलः स्वमात्रतयाऽवशिष्यते, “सत् किंचिदवशिष्यते” इति श्रुतेः। यदीश्वरतत्त्वं तत् एव अक्षरं तत्पादार्थभूतं सवितुः ईश्वरस्य मुमुक्षुभिः प्रार्थनीयं वरेण्यं रूपं निर्गुणम्। स्वाविद्यातत्कार्यग्रासब्रह्मविद्यारूपेयं प्रज्ञा च पुराणी ब्रह्मादिपरंपरागता तस्मात् शिवादेव प्रसृता॥१८॥ ईश्वरस्याद्वितीयत्वमनुपमत्वं महद्विख्यातनामत्वं चाह—नैनमिति। एनं प्रकृतं शिवं ऊर्ध्वं न हि कश्चिदपि परिजग्रभत् न परिगृहीतुं शक्नुयात्, न तिर्यञ्चमपि परिजग्रभत् सन्मात्रत्वेन दिग्देशाद्यनवच्छिन्नत्वात्, न मध्ये परिजग्रभत् निरंशत्वेन मध्यस्थानाभावात्। न हि तस्य ईश्वरस्य प्रतिमा उपमा काचित् अस्ति निष्प्रतियोर्गिकत्वेन ब्रह्ममात्रत्वात्, यस्य परमेश्वरस्य नाम अभिधानं महद्यशः “निष्प्रतियोगिकपूर्ण-ब्रह्मगमकत्वात्॥१९॥ परमेश्वरस्यातीन्द्रियत्वं प्रत्यगभिन्नतां स्वज्ञानात् मोक्षसिद्धिं चाह—न सन्दृश इति। अस्य ईश्वरस्य यन्निर्विशेषरूपं चक्षुरादीन्द्रियैः संदृशे संदर्शनयोग्यदेशे न तिष्ठति। एतादृशं एनं ईश्वरं चक्षुषा तदुपलक्षितसर्वेन्द्रियैः कश्चन कोऽपि न पश्यति गृहीतुं न शक्नुयात् “यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति” इति
श्रुतेः। स्वात्मातिरिक्तात्मा नेति नेतीत्यपह्नवबोधरूपया हृदा निरहंभावमापन्नमनसा अखण्डाकारवृत्त्या हृदयगुहायां प्रत्यग्रूपेण तदभिन्नब्रह्मरूपेण तद्भेदैक्यासहब्रह्ममात्ररूपेण वा तिष्ठतीति हृदिस्थं एनं एवं ये यथोक्तसाधनसंपन्ना योग्याधिकारिणः स्वमात्रमिति विदुः ते तद्वेदनसमकालं अमृता भवन्ति॥२०॥
ज्ञानार्थे पुनरीश्वरप्रार्थना
अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्ये।
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम्॥२१॥
मा नस्तोके तनये मा न आयुषि
मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
वीरान् मा नो रुद्र भामितोऽवधी-
र्हविष्मन्तः सदमि त्वा हवामहे॥२२॥
ईश्वरस्य स्वाज्ञानग्रासस्वज्ञानप्रदत्वात् तत्प्रार्थनामाह—अजात इति। इतिशब्दो हेत्वर्थः। यस्मात् त्वं एवं उक्तप्रकारेण अजातः जनिमृत्यशनायाऽऽदिषड्भावषडूर्मिवैरल्यादजातः परमात्मा नाहं तत्सदृशः षड्भावषडूर्मिविशिष्टदेवहित्वादित्यात्मानं मत्वा कश्चित् जात्याद्यशनायाऽऽदिभावषट्कषडूर्मितो भीरुः सन् विशुद्धान्तःकरणो योग्याधिकार्यहं हे रुद्र ते तव यत्ते सर्वापह्नवसिद्धनिष्प्रतियोगिकब्रह्ममात्रावस्थानलक्षणकैवल्यदापनदक्षिणं समर्थं मुखं निषप्रतियोगिकनिर्गुणं स्वावशेषधिया प्रपद्ये तेन मुखेन योग्याधिकारिणं मां पाहि यत्ते नित्यं रूपं तन्मात्रं मां विधाय रक्षस्व। प्रपद्यते इत्यस्मिन् पाठे—कश्चिन्मुमुक्षुर्मोक्षसिद्ध्यर्थं त्वां प्रपद्यते अतोऽहमपि मोक्षसिद्ध्यर्थं त्वामेव प्रपद्य इत्यर्थः॥२१॥ अस्मच्छिष्यपरम्परां सम्यग्ज्ञानयोग्यां विधाय त्वं निष्कलभावं दत्त्वा पाहि कदाऽपि मा हिंसीरिति प्रार्थनामाह—मा न इति। नोऽस्माकं तोके शिष्यवर्गे तनये पुत्रवर्गेऽपि मा रीरिषः मा हिंसीः रिषतिधातोः हिंसार्थकत्वात्। मा न
आयुषि मा नो गोषु सम्यग्ज्ञानसाधनवाग्विभूतिषु मा नो अश्ववत् अश्वेषु इन्द्रियेषु, “इन्द्रियाणि हयानाहुः” इति श्रुतेः। मा रीरिष इति सर्वत्र संबध्यते। वीरान् विक्रमवतः परिचारकान् स्नातकान् नोऽस्माक हे रुद्र भामितः, भामक्रोधे ण्यन्तः, तैः कृतापराधेन क्रोधितः सन् वधीः, मा वधीरिति पूर्वप्रतिषेधेन संबन्धः। मदीयानां त्वत्प्रापकसम्यग्ज्ञानयोग्यतासिद्ध्यर्थं वयं त्वदाराधनसाधनहविष्मन्तो भूत्वा सदं सदा इत् एव सदैव त्वा त्वां हवामहे यजामहे। अथवा, न केवलमसौ निःश्रेयसार्थिभिरेव प्रार्थ्यः प्रेयोमार्गनिरतैरपि प्रार्थनीय इत्याह—मा न इति। अभ्युदयार्थिभिरनेन मन्त्रेणाग्निरेव प्रार्थित इत्यर्थः॥२२॥
इति चतुर्थोऽध्यायः
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पञ्चमोऽध्यायः
विद्याऽविद्ययोः स्वरूपम्
द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याऽविद्ये निहिते यत्र गूढे।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याऽविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः॥१॥
विद्याऽविद्ययोः परमेश्वरतन्त्रत्यं विद्याऽविद्येयत्तां विद्याऽविद्येशितृत्वं तदस्पृष्टत्वमित्याद्यर्थंप्रकटयितुं पञ्चमोऽध्वाय आरभ्यते। प्रथमं विद्याऽविद्ये अङ्गीकृत्याह—द्वे इति। विद्याऽविद्ये द्वे न क्षरतीति अक्षरे अक्षरात्मिके ब्रह्मपरे ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् परे, अथवा ब्रह्म च तत्परं चेति ब्रह्मपरं तस्मिन् ब्रह्मपरे परब्रह्मणीति यावत्। परनिपातश्छान्दसः। तुशब्दोऽवधारणार्थः।
तस्मिन् परब्रह्मण्येव अनन्ते परिच्छेदत्रयकथाविरले। विद्याऽविद्ये अक्षर इति विशेष्यत्वेनान्वयो दर्शितः। निहिते निक्षिप्ते परमेश्वराधीनतया नितरां स्थितत्वात्। यत्र यस्मिन् स्वयंप्रकाशतया गूढे अनभिव्यक्ते। तत्र विद्याऽविद्ययोर्लक्षणमाह—क्षरं त्विति। यद्यत् क्षरणहेतुः तत्तत् अविद्यैव। तुशब्दोऽवधारणार्थः। यद्यत् अमृतत्वसाधनं तत्तत् विद्यैव। तुशब्दोऽवधारणार्थः। या नित्यमोक्षपुरुषार्थप्रापकतया विद्यते सा विद्यैव। स्वर्गाद्यनित्यफलहेतुः कर्माविद्या। शमाद्युपबृंहितश्रवणादिनिष्पन्नेयं विद्या। यस्मादेवं तस्मात् पुरुषार्थेच्छुभिः सर्वकर्माणि संन्यस्य शमाद्युपबृंहितश्रवणादिरेवाश्रयितव्य इति भावः। विद्याऽविद्ये ईशते यस्तु यः परमात्मेष्टेनियमयति। तुशब्दश्चार्थः। यत्र विद्याऽविद्ये निहिते यश्च विद्याऽविद्ये ईष्टे स ताभ्यां अन्य विद्याऽविद्याऽऽरोपापवादाधिकरणत्वात्॥१॥
ईश्वरस्यैव विद्याप्रदातृत्वम्
योऽयोनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत्॥२॥
ईश्वरस्य सर्वाधिष्ठातृत्वेन स्वविद्याप्रदातृत्वमाह—योऽयोनिमिति। यः प्रकृतः परमेश्वरः एक एव सन् अयोनिं समष्टिमूलाविद्यां योनिं व्यष्टितूलाविद्यां च स्वसत्तास्फुरणप्रदतया अधितिष्ठति विश्वानि रूपाणि सर्वशरीराणि वियदादिसमष्टियोनीश्च सर्वाः तद्व्यष्टिरूपावान्तरयोनीश्चस्वसत्तास्फुरणप्रदतयाऽधितिष्ठति, ऋषिं अप्रतिहतज्ञानतया प्रसूतं कपिलं कनकवर्णं हिरण्यगर्भं य ईशःअग्रे सृष्टिकाले ज्ञानैःधर्मवैराग्यैश्वर्यैः निखिलवेदतदर्थपरिज्ञानैर्वा युतं बिभर्ति बभारेत्यर्थः। तं च जायमानं च पश्येत् विद्यासंप्रदायकर्तृत्वेन ददर्श॥२॥
ईशस्य सर्वाधिपत्यम्
एकैकं जालं बहुधा विकुर्वन् यस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः।
भूयः सृष्ट्वापतयस्त्वथेशः सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा॥३॥
सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान्।142
एवं स देवोभगवान् वरेण्यो योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः॥४॥
यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद्यः।
सर्वमेतद्विश्वमतिधिष्ठत्येको गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः॥९॥
व्यष्टिसमष्टिकरणग्रामं स्वमायया सृष्ट्वातदात्मप्रवेशितुः सर्वाधिपत्यमाह—एकैकमिति। एकैकं जालं पुरुषमत्स्यानां बन्धनहेतुत्वाद्व्यष्टिसमष्ट्यन्तःकरणरूपं व्यष्टिसमष्टिप्राणज्ञानकर्मेन्द्रियाणामेकैकं जालं तज्जालावस्थामेत्य तत्तत्कर्मोपासनानुगुणं बहुधा विकुर्वन् यस्मिन् क्षेत्रे नित्यप्रलयादाविदं सर्वं एष देवः संहरति उपसंहृतवान्। भूयः पुनरपि व्यष्ट्याद्युपाधीन् सृष्ट्वाऽथ पतयस्तु पतींश्च तुश्चार्थे, तत्तदुपाध्यधिष्ठातॄन् ब्रह्मादिस्तम्बान्तान् सृष्ट्वाऽथ सर्वोपाधितदुपहितानामसौ महात्मा ईश्वरोऽयं आधिपत्यं नियन्तृत्वं कुरुते॥३॥ ईशस्य सर्वज्ञत्वं नियन्तृत्वं चाह—सर्वा इति। सर्वाः प्राच्यादिचतस्रो दिशः तद्वर्तिनः सर्वपदार्थांश्च ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक् उपदिशश्चतस्रश्च ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्विदिग्गतपदार्थांश्च प्रकाशयन् भ्राजते, यत् उ इत्यनर्थको निपातः, यद्यदेति यावत्। जगच्चक्रवाहने युक्तत्वात् यथा अनड्वान् आदित्यः प्राच्यादिदिशः स्वप्रभया भासयन् भ्राजते तथेश्वरोऽपीत्याह—एवमिति। यथा आदित्यः स्वप्रकाश्यमवभासयन् स्वयं भासते एवं स प्रकृतो देवः स्वातिरिक्तं नेति नेतीति भासयन् स्वयमेव भ्राजते य एवंविधः स हि भगवान् षड् गुणैश्वर्यसंपन्नः, अभ्युदयनिःश्रेयसकाङ्क्षिभिः वरेण्यः स्वामित्वेन स्वात्मतया वा वरणीयः सोऽयमन्तर्याम्यादिरूपेण योनिः स्वाविद्याद्वयं वियदाद्यण्वन्ताः तत्स्वभावाः तान् यो निस्वभावान् हिरण्यगर्भादिस्तम्बपर्यन्तभावांश्च स्वयं एक एव अधितिष्ठति नियमयति॥४॥ ईश्वरस्य सर्वपाचकत्वं स्वाधिष्ठेयमायाऽनुकारित्वं सर्वनियन्तृत्वं जीवजातकर्मानुरोधेन विनियोजयितृत्वं चाह—यच्चेति। यच्च इति लिङ्गव्यत्ययः, यश्चेश्वरः सर्व
प्रकाशयन् सर्वत्र व्याप्य स्थितः, किं च भूतानां स्वभावं तत्तत्कार्यानुरोधेन संनिधिमात्रकर्तृतया पचति कोऽयं? विश्वयोनिः ईश्वरःविश्वसंभवस्थितिप्रलयहेतुत्वात्। यद्वा—विश्वा योनयो यस्य नियम्याः स विश्वयोनिः। पाकयोग्यान् पाच्यांश्च सर्वान् स्वात्मसत्तासंनिधिमात्रेण योऽयमीश्वरः परिणामयेत् सोऽयं एक एवेश्वरः सर्वमेतत् विश्वमधितिष्ठति अधिष्ठाय नियमयति, किं च पापपुण्यानुगुणतया सत्त्वादिगुणान् अध्यात्मादिभेदभिन्नेषु विनियोजयेद्यः स संसृतिकारणनिवृत्त्यर्थं सोऽयमीश्वरः स्वात्मतया वेदितव्य इत्यर्थः। अथवा यच्छब्दस्योत्तरमन्त्रगततच्छब्देन सम्बन्धः॥५॥
ईशस्य वेदवेद्यत्वम्
तद्वेद143गुह्योपनिषत्सु गूढं तद्ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम्।
ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद्विदुस्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः॥६॥
ईश्वरस्य वेदवेदान्तगूढत्वं सर्वदेवर्षिभिरात्मतया वेद्यत्वं स्वज्ञानान्मोक्षं चाह—तद्वेदेति। यद्विश्वमधितिष्ठति यद्गुणान् विनियोजयेत् तत् प्रकृतमीश्वरतत्त्वं वेदोगुह्योपनिषत्सु वेदगतकर्मभागे यष्टव्यत्वेन तदपेक्षया गुह्ये सगुणविद्यायामुपास्यत्वेन निर्गुणप्रकाशकोपनिषद्भागे ज्ञेयत्वेन च, एवं वेदगुह्योपनिषत्सु गूढम्। यद्वा—वेदश्चासौ गुह्यश्चेति वेदगुहाः, तदपेक्षया गुह्योपनिषत्सु शक्तितात्पर्याभ्यां प्रमेयत्वेन यत् संवृतम्। ब्रह्म वेदस्तद्योनिं ब्रह्मयोनिं तद्ब्रह्मा हिरण्यगर्भो वेदते स्वात्मतया जानाति। पूर्वं पूर्वकाले ये यथोक्तसाधनसंपन्ना देवा अग्न्यादयः ऋषयश्च वामदेवादयः तत् तच्छब्दार्थं स्वमात्रतया विदुः तद्वेदनसमकालं ते तन्मयाः तद्भावारूढाः सन्तोऽमृता वै विदेहमुक्ता एव बभूवुः ‘‘ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति” इति श्रुतेः। शब्दः एवं शास्त्रन्यायानुभवप्रसिद्धिद्योतकः॥६॥
जीवयाथात्म्यम्
गुणान्वयो यः फलकर्मकर्ता कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा प्राणाधिपः144 संचरति स्वकर्मभिः॥
अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः संकल्पाहंकारसमन्वितो यः।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः॥८॥
वालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते॥९॥
नैव स्त्री न पुमानेषो नैव चायं नपुंसकः।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते॥१०॥
तत्पदार्थयाथात्म्यं प्रतिपाद्य त्वंपदार्थेयत्तां प्रकटयितुमुत्तरे केचिन्मन्त्राः प्रस्तूयन्ते। तत्रादौ जीवस्य कर्तृत्वादिसंसृतिरुपाधिकृतेत्याह—गुणान्वय इति। सत्वादिगुणा एवान्वयो यस्य स गुणान्वयः, किंचिद्रजउपसर्जनसत्वगुणावष्टम्भतो मुक्तिसाधनश्रवणादिकर्म करोति, ईषत्सत्वोपसर्जनरजोगुणप्रधानः सन् स्वर्गादिफलसाधनं कर्म करोति, ईषद्रजउपसर्जनतमोगुणप्रधानः सन् नरकादिसाधनं कर्म करोति, एवं सत्वादिगुणपरवशः सन् फलवत्कर्मकर्ता स्वकृतस्य तस्यैव कर्मणः फलस्य स एव उपभोक्ता च। यो गुणपरवशो भूत्वा फलवत्कर्माण्युपचिनोति स स्वकृतकर्मभिः विश्वरूपो नानारूपो भवति, यस्य गुणाः कामक्रोधलोभाख्यास्त्रयः सः त्रिगुण देवपितृयाणतिर्यग्वर्त्मानि यस्य सः त्रिवर्त्मा पञ्चवृत्तिमत्प्राणाधिपः करणजाताधिपतिश्च कार्यकरणस्वामी सन् सप्तदशात्मकलिङ्गशरीरमात्मसात्कृत्य सत्वादिकामादिगुणपरवशो भूत्वा शुभाशुभकर्माणि कृत्वा तत्फलपाशवेष्टितः सन् सागरमध्यपतितशुष्कालाबुवत् संसारदुःखमहोदधौ संचरति संचरते। परस्मैपदं छान्दसम्॥७॥ जीव एवात्मा, अस्य कर्तृत्वादिरौपाधिकः, अतोऽस्य ज्ञाताज्ञातसाक्षित्वमखण्डैकरसत्वं चाह—अङ्गुष्ठमात्र इति। स्वाङ्गुष्ठपरिमितहृदयान्तर्वर्त्यव्याकृताकाशासनत्वात् अङ्गुष्ठमात्रः न स्वेन रूपेणास्याङ्गुष्ठमात्रत्वं तस्य विभुत्वात्। रवितुल्यरूपः स्वयंप्रकाशत्वात्, “अत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिः” इति श्रुतेः। मानसोपाधित्वादहंकारोपाधिकत्वाच्च संकल्पाहंकारसमन्वितो यः रवितुल्य-
रूपश्च स हि बुद्धेः लिङ्गशरीरस्य गुणेन परिच्छेदभेदादिना सच्चिदानन्दात्मगुणेन चैवाराग्रमात्रो न स्वतः, आरा प्रतोदः, तदुपरि प्रोतलोहाग्रस्य मात्रेव मात्रा परिमितिः यस्य सोऽयमित्यर्थः। वस्तुतोऽयं स्वेन रूपेण दृष्टः नान्येन दृष्टः प्रकाशितः कारणोपाध्यपेक्षया अयं अवरःकार्योपाधित्वात्॥८॥ जीवस्य परिच्छित्तिरौपाधिकी, स्वतोऽयमपरिच्छिन्न इत्याह—वालाग्रेति। वालाग्रस्य यः शततमो भागस्तस्यापि पुनः शतधा कल्पितस्य च यो भागः स यथा सूक्ष्मः तद्वत् जीवोऽतिसूक्ष्मः उपाध्यवच्छिन्नरूपेण सूक्ष्मो विज्ञेयः। स च आनन्त्याय कल्पते। चकारोऽवधारणे। स्वातिरिक्तोपाध्यसंभवप्रबोधतोऽयं ब्रह्ममात्रमवशिष्यत इत्यर्थः॥९॥ जीवस्य लिङ्गशरीरोपाधिकत्वं तदतीतत्वं चोक्त्वेदानीं स्वतः स्थूलदेहवैलक्षण्यं स्वाविद्यया स्थूलदेहतद्धर्मभाक्त्वं चाह—नैवेति। जीवस्य चिन्मात्ररूपत्वादयमेव जीवो नैव स्त्री पुमान् नपुंसको वा भवितुमर्हति। किं तु स्वाज्ञानपुरस्सरं मिथ्याऽभिमानात् यद्यत् स्थूलशरीरमादत्ते स्वीकुरुते तेन तेन स्त्र्यादिरूपेण तद्धर्मकृशत्वादिरूपेण च स विज्ञानात्मा युज्यते संरज्यते स्त्री पुमान्नपुंसको वा अहं जातो मृतः कृशः स्थूलः इत्यादिमिथ्याऽभिमानतः संसरतीत्यर्थः। चशब्देन निरुपाधिकचिन्मात्रता द्योत्यते॥१०॥
जीवसंसारमूलम्
संकल्पनस्पर्शनदृष्टिहोमैर्ग्रासाम्बुवृष्ट्या चात्म विवृद्धिजन्म।145
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसंप्रपद्यते॥११॥
स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां संयोगहेतुरवरोऽपि दृष्टः॥१२॥
स्वस्योपाधिपरिग्रहे कर्तृत्वादिसंसृतिधर्मभाक्त्वे च किं मूलमित्यत आह—संकल्पनेति। एवमेव भवितव्यमिति मनसः संकल्पनेन स्पर्शनं त्वगिन्द्रियव्यापारो गङ्गोदकचण्डालादिस्पर्शनं पुण्यपापहेतुः, तेन स्पर्शनेन दृष्टिःचक्षुर्व्या
पारः सत्पुरुषपतितदर्शनं पुण्यपापहेतुः, तेन दर्शनेन, होमो हस्तव्यापारः अग्निहोत्राभिचारादिहोमः पुण्यपापहेतुः, तेन होमेन, इतरेन्द्रियव्यापाराणामुपलक्षणमेतत्। एतैः सङ्कल्पनस्पर्शनदृष्टिहोमैः ग्रासाम्बुवृष्ट्या ग्रासवृष्ट्या अम्बुवृष्ट्या च, ग्रासोऽन्नं वृष्टिरतिदानं, देशकालपात्रेष्वत्यादरेणान्नाम्बुनोर्दानमतिदानं पुण्यहेतुः, तद्विपरीतेष्वतिदानं पापहेतुः। अथवा योग्यायोग्यपात्रेषु ग्रासाम्बु वृष्टिदानं पुण्यपापहेतुः। एवं ग्रासाम्बुवृष्टया चात्मविवृद्धिजन्म एवमेतेषां कर्तुर्विवृद्धिजन्म विवृद्धिश्व जन्म च विवृद्धिजन्म ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तयोनिषु विवृद्धिजन्म च विवृद्ध्यादीतरभावविकाराश्च भवन्तीति विवृद्धिरित्युपलक्षणम्। इममेवार्थं स्पष्टयति—कर्मानुगानीति। पुण्यकर्मानुसारीणि हिरण्यगर्भदेवताशरीराणि पापानुसारीणि तिर्यग्रूपाणि समप्रधानपुण्यपापानुसारीणि मनुष्यशरीराणि अनुक्रमेण देही लिङ्गशरीरोपाधिकः आत्मा आध्यात्मिकादिस्थानेषु ब्रह्मादिस्तम्बान्तरूपाणि अभिसंप्रपद्यते॥११॥ संसारभजनप्रकामाह—स्थूलानीति। पार्थिवत्वेन स्थूलशरीराणि भूलोकवर्तीनि, ततः सूक्ष्माणि अम्मयानि शरीराणि भुवर्लोकपरिवर्तीनि ततोऽपि सूक्ष्माणि शरीराणि स्वर्लोकवर्तीनि, ततोऽपि सूक्ष्माणि शरीराणि वायव्यानि महर्लोकवर्तीनि, ततोऽपि सूक्ष्माणि नभोमयानि शरीराणि तपस्सत्यलोकवर्तीनि। सर्वशरीरारम्भे सर्वभूतान्यारम्भकतया वर्तन्ते, यत एवमतस्तत्तल्लोकवर्तितत्तच्छरीरारम्भे तत्तद्भूतप्राधान्यं द्रष्टव्यम्। यद्वा—हस्त्यादिशरीराणि स्थूलानि, मशकादिशरीराणि सूक्ष्माणि, एवं बहूनि अनेकानि शरीराणि देही विज्ञानात्मा स्वात्मसत्त्वादिगुणैः तदवच्छिन्नसत्तास्फुरणादिभिर्वा वृणोति संभजते श्रौतस्मार्तविहितक्रियाऽपूर्वगुणैरात्मनो लिङ्गशरीरस्य गुणैर्विहितप्रतिषिद्धोपासनादिभिश्च, वृणोतीति पूर्वेणान्वयः, “तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च” इति श्रुतेः। तेषां कार्यकरणतद्धर्माणां संयोगहेतुः भोगायतनभोक्तृभोगोपकरणादिभावेनान्वयस्य हेतुः निमित्तं पूर्वप्रज्ञा चेति॥१२॥
जीवेशैक्यज्ञानात् संसारमोक्षः
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारं तमनेकरूपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥१३॥
भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम्।
कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम्॥१४॥
त्वंपदार्थभूतस्य संसारगतिमुक्त्वाऽथेदानीं स्वारोपितहेयांशत्यागपूर्वकं तत्पदार्थैक्यज्ञानान्मोक्षसिद्धिमाह—अनादीति। अनाद्यनन्तं आदिमध्यान्तविकलं कलिलस्य मलवत्संसारस्य मध्ये तदसङ्गसाक्षित्वेन स्थितं विश्वस्य स्रष्टारं तमनेकरूपं त्रिकोणत्वाद्यनेकायःपिण्डानुगतवह्निवद्ब्रह्मादिपिपीलिकान्तेषु जलचन्द्रवदनुप्रविश्य तत्तद्रूपेणावभासमानम्। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं इत्युक्तार्थम्॥१३॥ परमेश्वरस्य सर्वहेतुत्वं तद्याथात्म्यज्ञानान्मोक्षसिद्धिं चाह—भावेति। भावग्राह्यं शुद्धान्तःकरणग्राह्यं नीडं शरीरं तद्रहितं अनीडाख्यं अशरीरं इत्याद्युपनिषत्ख्यायमानम्। यद्वा—नीडं स्थानं आख्याऽभिधानं, अस्य ते नाख्ये न विद्येते इत्यनीडाख्यम्। स्वातिरिक्तविश्वभावाभावयोः सृष्टिप्रलययोरारोपापवादयोः कलनां करोतीति भावाभावकरं शिवं तुर्यानन्दरूपत्वात्। कलया स्वमायाशक्त्या समस्तभूतसर्गकरं, यद्वा प्राणादिनामान्तकलासर्गकरं, चतुष्षष्टिकलानां सृष्टिकरमिति वा, देवं नित्यानुभवैकरसं ये यथोक्तसाधनसंपन्नाः ब्रह्माहमस्मीति विदुस्ते तनुं प्रकृतिप्राकृतरूपां जहुः त्यजन्ति प्रकृतिप्राकृत-कलनापह्नवसिद्धब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः॥१४॥
इति पञ्चमोऽध्यायः
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षष्ठोऽध्यायः
ईश्वरादन्यस्य कालादेरकारणत्वम्
स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथाऽन्ये परिमुह्यमानाः।
देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम्॥१॥
येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद्यः।
तेनेशितं कर्म विवर्तते ह पृथ्व्याप्यतेजोऽनिलखानि चिन्त्यम्॥२॥
परमेश्वरस्य सर्वहेतुत्वं सर्वसमत्वं सम्यग्ज्ञानैकलभ्यत्वमित्यादिबह्वर्थप्रकटनार्थं षष्ठाध्याय आरभ्यते। प्रथमाध्याये कालादिगतजगत्कारणत्वं निरस्य परमेश्वरस्यैव जगत्कारणत्वं समर्थितम्। इदानीं तु कालादीनां स्वाज्ञविकल्पितत्वमाह—स्वभावमिति। एके कवयः संसारचक्रकारणं पदार्थानां स्वभावमेव वदन्ति। कालं कारणमित्यन्ये कालविदः। तत्र स्वभावग्रहणं वेदबाह्यासल्लौकिकविशिष्टोपलक्षणार्थम्। कालमिति वैदिकपक्षमवलम्ब्यैव, तस्येश्वरस्वरूपत्वात्। तद्विपरीतकालग्रहणं परमार्थेतरभ्रमोपलक्षणार्थम्। एवं केचन परिमुह्यमानाः तेषां परमार्थपक्षाज्ञत्वात्। तुशब्द एतान् पक्षान् व्यावर्तयति। येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रं तस्यायमेव देवस्य महिमा। परमार्थातिरिक्तनानामतानि स्वाज्ञानविकल्पितान्येवेत्यर्थः॥१॥ सर्वज्ञत्वादिकमीश्वरस्येत्याह—येनेति। येन स्वाविद्याऽऽरोपाधिकरणेनेश्वरेण इदं परिदृश्यमानं जगत् सर्वमावृतं नित्यं नियमेन महाप्रलयादावैक्येन स्थित्यवस्थायां तादात्म्येनावृतम्। स कीदृशः? ज्ञः सर्वज्ञत्वात्।
कालःसृजति भूतानि कालः संहरति प्रजाः।
सर्वे कालस्य वशगा न कालः कस्यचिद्वशः॥
इति स्मृतिसिद्धकालस्य महिमा यः स परमेश्वराधीन एवेत्याह—कालकाल इति। कालारोपापवादाधिकरणत्वात्। अपहतपाप्मत्वादयो गुणा अस्येति गुणी। अहमेवेदं सर्वमिति स्वाभेदेन सर्वं जानातीति सर्ववित् “यःसर्वज्ञः सर्ववित्” इति श्रुतेः, योऽनन्तसुखानुभूतिः स हि सर्वविदित्यर्थः। अस्य सर्वा विद्याऽस्तीति वा सर्वविद्यः। तेन ईश्वरेण हि सर्वं ईशितं नियमितं क्रियत इति कर्म विवर्तते विकल्प्यते। ह प्रसिद्धौ। विवर्तकममाह—पृथ्वीति। पाठक्रमादर्थक्रमस्य बलीयस्त्वात् स एवेहाश्रयणीयः। “आत्मन आकाशः संभूतः” इत्यादिश्रुत्यनुरोधेनाऽऽकाशादिकर्म विवर्तते ततो भौतिकं सर्वम्। चिन्त्यं लोके कारणत्वेन
प्रसिद्धानां वादिमतिविकल्पितानां परमेश्वरविवर्तत्वमेव न तु स्वातन्त्र्यमिति परीक्षकैश्चिन्त्यम्॥२॥
सम्यग्ज्ञानसाधनम्
तत् कर्म कृत्वा विनिवृत्य146 भूयस्तत्त्वस्य तत्त्वेन समेत्य योगम्।
एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः॥३॥
आरभ्यकर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः।
तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः॥४॥
आदिः स संयोगनिमित्तहेतुःपरस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः।
तं विश्वरूपं भवभूतमीड्यं देवं स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम्॥५॥
सम्यग्ज्ञानसाधनसर्वस्वमाह—तदिति। मनोवाक्कायैर्यद्यत् क्रियते तत् सर्वंकर्म भगवदाराधनधिया कृत्वा पुनः कर्मतत्फलेभ्यो विनिवृत्य सर्वकर्मसंन्यासं कृत्वा तत्त्वस्य त्वंपदलक्ष्यस्य तत्त्वेन तत्पदलक्ष्येण योगं सम्यगैक्यमेत्य। तत्र कानि साधनानीत्यत्राह—एकेनेति। एकेन गुरूपसदनेन द्वाभ्यां देशिकेशभक्तिभ्यां त्रिभिः श्रवणमनननिदिध्यासनैः अष्टभिः यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिभिः। वाशब्दश्चार्थे। अनेकजन्मपरिपक्वकालेन चकारः चरमजन्मार्थः। दयाक्षान्तिशौचमङ्गलास्पृहाऽकार्पण्या-नायासानसूयाऽऽख्यैः आत्मगुणैः सूक्ष्मैः अनेकजन्मसु ज्ञानार्थमनुष्ठितपुण्यसंस्कारैश्चत्वारिंशद्भिः। एतैः साधनैः स्वात्मपरमात्मैक्यलक्षणं ज्ञात्वा मुक्तो भवतीति भावः॥३॥ पूर्वमन्त्रोक्तमेवार्थंस्पष्टयति—आरभ्येति। नित्यनैमित्तिककर्माणि ईश्वराराधनगुणान्वितानि आरभ्य कृत्वा तेन परिपक्वान्तरः सन् सर्वभावान्वितपदार्थान्विनियोजयेदिति यतेः समाधिप्रकारकथनमिदं,—“वाचाऽऽरम्भणं विकारो नामधेयं” इति श्रुत्यनुरोधेन कार्यसामान्यं कारणमात्रतया प्रविलाप्य कारणी-
भूतमायोपाधिमपि निष्प्रतियोगिकचिन्मात्रतया बुद्ध्वाय इत्थं योजयेत् स यतिस्तन्मात्रपदवीमियादित्यर्थः। एवं साक्षात्कृतब्रह्मतत्त्वदृष्ट्या ये स्वाज्ञदशायामनुभूताः प्रकृतिप्राकृतविकाराः तेषामभावे दाहे सत्यागाम्यादिकर्मत्रयनाशो भवति, कर्मत्रयस्य ब्रह्ममात्रप्रबोधसमकालमकर्मब्रह्मपदवीं गतत्वात्। एवं कर्मक्षये स्वातिरिक्तकर्मत्रयापह्नवे सति तदानीं स विद्वान् मुनिः कर्मत्रयतत्कार्यापह्नवसिद्धं यद्ब्रह्ममात्रं तत् स्वावशेषतया याति विदेहमुक्तो भवतीत्यर्थः। य इत्थंभूतस्तत्त्ववित्तत्त्वतः स्वाज्ञदृष्टिप्रसक्तस्वातिरिक्तप्रपञ्चमोहे सत्यसति तदन्यः कालत्रयेऽपि ब्रह्मविद् ब्रह्मैवेत्यर्थः॥४॥ परमेश्वरप्रसादादेव कैवल्यहेतुसम्यग्ज्ञानं जायत इत्याह—आदिरिति। सर्वेषां आदिःअधिष्ठानत्वात्, यः सर्वाधिष्ठाता स प्रकृतः परमेश्वरः, जीवस्य परमात्मना सम्यग्योगः संयोगः, तस्य निमित्तानां एकेन द्वाभ्यामित्यादिनोक्तानां हेतुः कारणभूतः। यद्वा—शरीरसंयोगनिमित्तानां पुण्यपापानां संकल्पनस्पर्शनदृष्टिहोमैरित्यादिनोक्तानाम्। परः व्यतिरिक्तः। कस्मात्? अतीतानागतवर्तमानरूपात् त्रिकालात् परः कालाद्यनवच्छिन्न इत्यर्थः। यस्य कला अवयवाः प्रश्नोपनिषत्पठितप्राणादिनामान्ता वा न सन्ति सोऽयं अकलः। अपिशब्दः पूर्वसमुच्चयार्थः। ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषत्सु सम्यग्ज्ञानिषु दृष्टः। श्रुत्याचार्य वेद्यतया यः प्रसिद्धः तं एवंभूतं विश्वरूपं उपासकचित्तानुरोधेन विचित्रविश्वरूपधरत्वात्, भवत्यस्मिन् सर्वमिति भवः स चासौ भूतः अवितथस्वरूपश्चेति तं भवभूतं सर्वेषां ईड्यं देवं स्वप्रकाशं स्वचित्तोपलक्षितलिङ्गशरीरे तिष्ठतीति स्वचित्तस्थं पूर्वमेव प्रत्यक्त्वेनावस्थितं अहं ब्रह्मास्मीत्युपास्य तत्प्रसाद-लब्धसम्यग्ज्ञानसमकालं मुक्तो भवति। अयं मन्त्रः सगुणवस्तुपर इति केचन वदन्ति। तद्रीत्या सगुणब्रह्मोपासनात् सम्यग्ज्ञानाधिकारो भवतीत्यर्थः॥५॥
परमेश्वरादेव स्वज्ञानमोक्षयोः प्राप्तिः
स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्ततेऽयम्।
धर्मावहं पापनुदं भगेशं ज्ञात्वाऽऽत्मस्थममृतं विश्वधाम॥६॥
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परभं च दैवतम्।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेशमीड्यम्॥७॥
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च॥
न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः॥
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः।
देव एकः स्वमावृ147णोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्॥१०॥
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥११॥
एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं रूपं148 बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।
तत् कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥
परमेश्वरस्य सर्वाधिष्ठातृत्वं स्वाभ्युपायप्रापकत्वं स्वयाथात्म्यज्ञानान्मोक्षसिद्धिं चाह—स इति। स वृक्षकालाकृतिभिः इति पञ्चम्यर्थे तृतीया, सोऽयमीश्वरः, वृक्षशब्देन संसार उच्यते, तत्रानुस्यूतं कालतत्त्वं काल उच्यते, तस्मादा समन्तात् कृतिराकृतिर्महदादिकार्यरूपेण कृतिः प्रकृतिः स्वाधिष्ठातृसहिता चेदाकृतिर्मूलप्रकृतिरुच्यते, तस्याश्च परोऽन्यः तेभ्यः परः विलक्षणःस्वयमुत्कृष्टश्चेति वाऽर्थः। यस्मात् ईश्वरात् अयं प्रपञ्चः परिवर्तते तं धर्मावहं तत्तदाश्रमरूपेण तत्तद्धर्मवहनात् स्वेषां स्वप्रापकधर्मप्रदातारमित्यर्थः। तेनैव
पापनुदं पापक्षपयितृ यन्नाम, भगस्य षड्विधैश्वर्यस्य ईशं आत्मन्यन्तःकरणे प्रत्यगभिन्नब्रह्मरूपेण तद्वृत्तिसहस्रभावाभावप्रकाशकतया तिष्ठतीति आत्मस्थं अमृतं अमरणधर्माणं विश्वधाम विश्वाधिष्ठानं, वस्तुतोऽधिष्ठेयसापेक्षाधिष्ठानगतविशेषापायान्निरधिष्ठानं निष्प्रतियोगिकस्वमात्रतया ज्ञात्वा, तत्समकालं तन्मात्रतयावशिष्यत इति वाक्यशेषः॥६॥ सर्वेशितृत्वं तज्ज्ञानात् कृतकृत्यतामाह—तमिति। तं प्रकृतं परमात्मानं जगद्धेतूनां ब्रह्मादीश्वराणामपि परमं उत्कृष्टं महेश्वरं देवतानां इन्द्रादीनामपि देवत्वप्रापकत्वेन परमं उत्कृष्टं दैवतं च व्यष्टिसमष्टिकरणाधिपतीनामपि परमं पतिं स्वामिनं प्राकृतेभ्यः परस्तात् परमं देवं भुवनेशं वेदेतिहासादिभिःईड्यं विदाम विद्मः। लडर्थे लोट्। एवमीश्वरमात्मतया ज्ञात्वा तत्पदवीं प्राप्य वर्तामहे। ईश्वरापत्तिर्हि मुक्तिरित्यर्थः॥७॥ परमार्थत ईश्वरस्य कार्यकारणशून्यत्वमाह—न तस्येति। तस्य परमात्मनो व्यष्टिसमष्ट्यात्मककार्यं शरीरं बाह्यान्तःकरणजातं च न विद्यते अद्वितीयसन्मात्रत्वात्। तेन समः तत्समश्च तस्मात् अभ्यधिकश्च न दृश्यते वेदेष्वित्यर्थः। कार्यकरणानि पुराणादिषु बहुशःश्रूयन्त इत्यत आह—परेति। परा सर्वोत्कृष्टा अस्य शक्तिःप्रकृतिः, देवात्मशक्तिमित्युक्तत्वात्, सेयं विविधा अनन्तकार्यकरणतया श्रूयते सर्वत्र। सेयं परा शक्तिर्न तत्स्वाभाविकी इत्यत आह—स्वाभाविकीति। निर्विशेषस्य तदभावेऽपि सविशेषेश्वरस्य स्वाभेदेन कीर्त्यत इति स्वाभाविकी सर्वज्ञेयविषयत्वेन सर्वज्ञत्वादिलक्षणा अस्य स्वरूपत्वात् स्वाभाविकी नान्यायत्ता स्वसंनिधिमात्रेण प्रकृतिप्राकृतं सर्वं वशीकृत्य नियन्त्राऽधिष्ठितनियमनात् वलक्रिया च स्वभावसिद्धा ना (?) नन्यत्वात्॥८॥ ईश्वरस्य अनन्यपतित्वं सर्वकारणताऽऽदि स्यादित्याह—न तस्येति। तस्यपरमेश्वरस्य स्वातिरेकेण कश्चित् स्वामी पतिः न ह्यस्ति लोके स्वस्यैव सर्वस्वामित्वात्। न च स्वातिरेकेण ईशिता नियन्ताऽप्यस्ति। येनासावनुमीयते तत् नैव च तस्य लिङ्गं अस्ति। कार्यदर्शनादेव हि कारणमनुमीयते। न हि कारणं द्रष्टुं शक्यते तस्यामूर्तत्वात्। अतःसर्वज्ञं ब्रह्म जगत्कारणमित्यस्यार्थस्य वेदैकगम्यत्वान्नानुमानगम्यताऽस्तीत्यर्थः। यद्वा—कार्यसामान्यस्यास्मिन्
विलयनात् तन्निरूपितकारणताऽपि नास्ति। स एवंभूतः परमेश्वर एव स्वमायया सर्वकारणं, करणाधिपो जीवः करणग्रामाधिकरणत्वात् तस्यापि कारणोपाधिरीश्वरः पतिः स्वामी। यद्वा— करणाधिपश्चासावधिपतिश्चेति करणाधिपाधिपःस्वस्यैव जीवरूपेणापि स्थितत्वात् “अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि” इति श्रुतेः। यथा विराट् कारणहिरण्यगर्भस्यापि कारणान्तरमधिपत्यन्तरमपि विद्यते तथा तस्यापि स्यादित्यत आह—न चेति। अस्येशितुः स्वातिरिक्तसर्वकारणत्वेन न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपोऽस्ति स्वस्यैव सर्वकारणतया स्वामित्वात्। यस्मादेवं तस्मादयमेव मुमुक्षुभिरात्मत्वेन ज्ञातव्यः॥९॥ इदानीं मन्त्रदृगभिप्रेतार्थप्रार्थनामाह—य इति। यः परमेश्वरः तन्तुनाभ इव। कथं? यथोर्णनाभिः स्वशरीरप्रभवतन्तुभिः आत्मानमावृणोति तद्वत् प्रधानजैःमायातत्कार्यनामरूपकर्मभिः स्वतन्त्रोऽपि स्वेच्छया सर्वकल्पनाधिकरणत्वेन स्वात्मानं स्वयमेव आवृणोति। स परमेश्वरो नोऽस्माकं यथोक्ताधिकारिणां दधातु ददातु धारयतु वा। किं तत्? ब्रह्म तदव्ययं चेति ब्रह्माव्ययम्। स्वाज्ञानमुन्मूलयन् स्वाप्तिहेतुः स्वज्ञानं विदधात्विति भावः॥१०॥ परमेश्वरस्य स्वाज्ञादिदृष्ट्यनुरोधेन सर्वभूतगूढत्वं व्यापकत्वं सार्वात्म्यं नियन्तृत्वं निर्गुणैकत्वं चाह—एक इति। एकःअद्वितीयः। व्योमवदात्मन एकत्वे जडत्वं स्यादित्यत आह—देव इति। देदीप्यमानरूपत्वात्। एवं किं न भातीत्यत आह सर्वभूतेषु गूढ इति। सर्वभूतेषु आत्मैकत्वेन विदुषां भासमानोऽप्यविदुषां गूढवन्न भासत इत्यर्थः। व्यष्टिभूतान्तर्गूढत्वेन परिच्छिन्नता स्यादित्यत आह—सर्वव्यापीति। व्योमवद्व्यापकत्वमस्योपपद्यते। सर्वव्यापकत्वे व्योमवदचेतनत्वं स्यादित्यत आह—सर्वभूतान्तरात्मेति। सर्वभूतान्तर्विलसितप्रत्यगात्मनश्चेतनत्वे सति व्यापकत्वात्। सर्वकर्मफलदातेश्वरस्तद्भिन्न इत्याह—कर्माध्यक्ष इति। कूटस्थस्यैव मूलाबीजांशयोगत ईश्वरत्वेन सर्वप्राणिभावानुरोधेन तत्कृतकर्मणः फलदातृत्वात्। सूत्रात्मा तद्भिन्न इत्यत आह—सर्वभूताधिवास इति। ईश्वरस्यैव मूलासूक्ष्मांशयोगतः सर्वभूतेषु सूत्रात्मना अधिवसन् सर्वभूतनियन्ता भवतीत्यर्थः। सर्वभूतनियन्तृत्वे विकारित्वं स्यादित्यत आह—साक्षीति।
साक्षिणः साक्ष्यगतविकारास्पृष्टत्वेन निर्विकारत्वात्। साक्ष्यभासकत्वव्यपदेशः स्यादित्यत्राह—चेतेति। स्वभास्यसाक्ष्यताऽपाये तन्निरूपितसाक्षित्वभासकतावैरल्याच्चैतन्यमात्रो भवतीत्यर्थः। विशेषे सति चैतन्यमात्रता कुत इत्यत आह—केवल इति। विशेषसामान्यशून्य इत्यर्थः। सत्त्वादित्रिगुणे सति केवलता कुत इत्यत आह—निर्गुणश्चेति। त्रिगुणतद्धेतुगुणसाम्याभावात् केवल त्वमुपपद्यत इत्यर्थः। चशब्दो निष्प्रतियोगिकनिर्गुणत्वख्यापक इत्यर्थः॥११॥ ईश्वरभावमापन्नानामीश्वरसाक्षात्कारजन्यसुखं नेतरेषां भवतीत्याह—एक इति। एकोऽद्वितीयः सर्वमस्य वशे वर्तत इति वशी बहूनां निष्क्रियाणां अचेतनानां नामरूपकर्मणामारोपापवादाधिकरणं एकं सत्यज्ञानसुखात्मकं अखण्डैकरसात्मकं आत्मानं बहुधा मायामहदादिबहुप्रकारं यः करोति, “तदात्मानं स्वयमकुरुत” इति श्रुतेः। तमेवंभूतं परमेश्वरं स्वविकल्पितानात्मापह्नवसिद्धमात्ममात्रतया तिष्ठतीति आत्मस्थं स्वावशेषतया येऽनुपश्यन्ति धीराः ब्रह्मविद्व-रीयांसः तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषां सिध्यति स्वाज्ञानावृतदृष्टित्वात्॥१२॥ परमेश्वरस्य नित्यचेतनत्वं कर्माध्यक्षत्वं स्वयाथात्म्यज्ञानान्मोक्षसिद्धिं चाह—नित्य इति। लोके नित्यत्वेन प्रसिद्धानामाकाशादीनां नित्यत्वहेतुः पारमार्थिकनित्यः लोके चेतनत्वेन प्रतिपन्नानां प्रमात्रादीनामयं पारमार्थिकचेतनः। स्वेतरनित्यत्वचेतनत्वयोर्मायामात्रत्वे “अतोऽन्यदार्तं” इति श्रुतेः। ब्रह्मादिस्तम्बान्तजीवानां बहूनां यः स्वयं एक एव सन् ईश्वरः तत्तत्प्राणिसुकृताद्यनुरोधेन कामान् विदधाति। तत् ब्रह्म जगत कारणं साङ्ख्यं वेदान्तमहा-तात्पर्यजन्यसम्यग्ज्ञानं ब्रह्ममात्रगोचरं तत्साधनश्रवणादिः योगः ताभ्यां साङ्ख्ययोगाभ्यां अधिगम्यं ज्ञातव्यं ज्ञात्वा देवं इत्याद्युक्तार्थम्॥१३॥
ईश्वरवेदनमेव संसारतारकम्
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥१४॥
एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव149 विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥१५॥
स विश्वकृद्विश्वविदात्मयोनिर्ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद्यः।
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः॥१६॥
स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय॥१७॥
ईश्वरस्याऽऽदित्याद्यनवभासकत्वमाह—न तत्रेति। तत्र स्वयंप्रकाशचिद्धातौ सर्वावभासकोऽपि सूर्यो न भाति सूर्यादेस्तत्प्रकाशजडीकृतत्वात्। तथा चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयं अस्मद्गोचरः अग्निः। स्वभास्यसत्त्वासत्त्वाभ्यां यो भामात्रतया विजृम्भते प्रत्यक्षादिप्रमाणनैरपेक्ष्येण तमेव भान्तं सूर्यादयोऽनुसृत्य भान्तीव भान्ति तस्य भासा सूर्यादिघटान्तं जगत् इदं सर्वं विभाति। यत एवमतो भामात्रः परमात्मेत्यर्थः॥१४॥ परमेश्वरस्य स्वातिरिक्तकलनाबाधकत्वं तत्पदाप्तिहेतुज्ञानमेव तदतिरिक्तोपायो नास्तीत्याह—एक इति। स्वातिरिक्तकलनासर्वस्वं हत्वा स्वमात्रमवशिष्यत इति हंसः परमात्मा एक एव भुवनस्यास्य मध्ये अयमेक एव हंसो नान्योऽतोऽस्ति स एव अहं ब्रह्मास्मीति सम्यग्ज्ञानफलकारूढः स ह्यग्निरिव अग्निः, सयथा काष्ठावृतोऽपि मथनादाविर्भवति एवं स्वयमाविर्भूय स्वावारककाष्ठं भस्मीकरोति तथा स्वाविद्यातत्कार्यावृत आत्मा अग्निः, उत्तराधरारणिस्थानीयगुरुशिष्यसंवादमथनस्थानीयश्रवणादिजन्यसम्यग्ज्ञानफलकाऽऽरूढः सन् स्वावारकाविद्याद्वयतत्कार्यतूलराशिं भस्मीकृत्य स्वमात्रमवतिष्ठत इत्यग्निः आत्मेत्युच्यते, सोऽयमग्निरन्तःकरणसमुदायसलिले संनिविष्टो यः प्रकृतिप्राकृतापह्नवसिद्धः तं परमात्मानं स्वात्ममात्रतया विदित्वा तद्वेदनसमकालमतिमृत्युं ब्रह्म एति। स्वातिरिक्तास्तिताभ्रमो हि मृत्युः स यत्रापह्नवं भजति सोऽतिमृत्युः
परमात्मेत्यर्थः। इत्थंभूतसम्यग्ज्ञानात् अन्यः पन्था मार्गो न विद्यते अयनाय मोक्षाय॥१५॥ उक्तार्थमेव पुनर्विशदयति—स विश्वकृदिति। स प्रकृतः परमात्मा मूलाबीजांशयोगत ईश्वरत्वमवलम्ब्य स्वशक्त्या विश्वं करोतीति विश्वकृत् स्वातिरेकेण विश्वं नेति नेतीति जानातीति विश्वयाथात्म्यवित् आत्मयोनिः स्वे महिम्नि स्वयमेव जातत्वात्। यद्वा—ब्रह्मादिस्तम्बान्तात्मनां योनिः आत्मयोनिः, तत्त्वंपदार्थरूपेण स एव स्थित इति यावत्। ज्ञः चित्स्वरूपः, सर्वोपसंहर्तुः कालस्यापि कालः उपसंहर्तृत्वात्, गुणी मायातत्कार्यगुणी अपहतपाप्मादिगुणवान् वा। सर्वा विद्या अस्येति सर्वविद्यः स्वस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति वा सर्वविद्यः। प्रधानश्चासौ क्षेत्रज्ञश्चेति प्रधानक्षेत्रज्ञः स एव पतिश्चेति प्रधानक्षेत्रज्ञपतिः। यद्वा—प्रधानं क्षेत्रत्वेन जानातीति प्रधानक्षेत्रज्ञःईश्वरःतस्यापि साक्षी पतिः। गुणेशः सत्त्वादिगुणनियन्तृत्वात्। सम्यग्ज्ञानज्ञाततया संसारमोक्षहेतुः नाशहेतुःअज्ञानेनाज्ञाततया संसारस्थितिलक्षणबन्धहेतुः कारणम्॥१६॥ स्वे महिम्नि प्रतिष्ठां कर्मादिनैरपेक्ष्येणेशितृत्वं चाचष्टे—स इति। स प्रकृत ईश्वरःतन्मयो ज्ञाततया अज्ञाततया च बन्धमोक्षहेतुरूपः, स्वार्थे मयट्। हि प्रसिद्धौ। अमृतोऽमरणधर्मा ईशसंस्थःईश्वरत्वेन सम्यगवस्थितत्वात्। ज्ञः चित् प्रकाशःसाक्षितया सर्वं गच्छतीति सर्वगः भुवनस्यास्य दृश्यप्रपञ्चस्य गोप्ता स्वानन्दप्रदतया पालयिता। अस्य जगतो नित्यमेव य ईशे ईष्टे, यथोक्तलक्षणेशादन्यत्र जगत ईशनाय अन्यो हेतुर्न विद्यते। सर्वत्रेशनक्रियायां स एव कर्ता नान्यः कर्ता विद्यत इति यावत्॥१७॥
मुमुक्षोरीश्वर एव शरणम्
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तँह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥१८॥
ईश्वरस्य सम्यग्ज्ञानप्रदत्वेन मुमुक्षुरीश्वरशरणो भूयादित्याह—य इति। यः प्रकृतः परमेश्वरः सर्वजीवसमष्टिरूपं ब्रह्माणं, विश्वसर्गस्थित्यन्तकर्तृत्वेन
स्वमायया विदधाति सृष्टवान् यः प्रकृतेशःपूर्वं सर्गादौ स्वेन सृष्टो हिरण्यगर्भः तस्मै वेदांश्च प्रहिणोति प्रददौ। किमर्थं? महाप्रलयविच्छिन्ने संप्रदाये यथोक्ताधिकारिषु वेदार्थसंप्रदायस्थापनाय तस्मै वेदांस्तु ददौ। तं एतमीश्वरं देवं, ह एवार्थे, स्वात्मबुद्धिप्रकाशं अहं ब्रह्मास्मीति स्वपदाप्तिसाधनबुद्धिप्रकाशयितारं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये प्रपन्नो भवेयमित्यर्थः॥१८॥
सर्वशास्त्रार्थसंग्रहः
निष्कलं निष्क्रियँ शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्।
अमृतस्य परँ सेतुं दग्धेन्धनमिवानलम्॥१९॥
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः।
तदा शिव150मविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥२०॥
कृत्स्नशास्त्रे यावन्तोऽर्थाःप्रकाशितास्तान् सर्वान् मन्त्रद्वयेन संक्षिपति—निष्कलमिति। प्राणादिनामान्तकला यत्प्रबोधसमकालमपह्नवं भजति तदपह्नवसिद्धं हि निष्कलम्। सक्रियस्य निष्कलता कुत इत्यत आह—निष्क्रियमिति। निरवयवस्य क्रियाऽसंभवान्निष्कलत्वं निष्क्रियत्वं च सिद्धमित्यर्थः। अशान्तस्वातिरिक्तदेहादिप्रपञ्चस्य निष्क्रियत्वं दुर्लभमित्यत आह—शान्तमिति। स्वमात्रावगतेः स्वातिरिक्तशान्तिपूर्वकत्वान्निष्क्रियत्वं सिद्धमित्यर्थः। स्वातिरिक्ताभावादेव निरवद्यं स्वावद्यहेतोः शान्तत्वान्निरवद्यं निष्प्रतियोगिकसन्मात्रमित्यर्थः। स्वाज्ञदृष्ट्या स्वातिरिक्तसत्त्वे तत्राञ्जनं स्यादित्यत आह— निरञ्जनमिति। स्वाज्ञदृष्ट्या स्वातिरिक्तस्य बाधितत्वात् तत्सत्त्वासत्त्वाभ्यां निरञ्जनमित्यर्थः। मार्त्यस्वाविद्याद्वयतत्कार्यं यत्र विलीयते तदधिकरणं अमृतं तस्यापि परं निरधिकरणं स्वाधेयनिरूपिताधिकरणगतसविशेषसिन्धुसेतुमिव सेतुं स्वातिरिक्ताविद्यापदतत्कार्यजातं स्वतावन्मात्रतया दग्ध्वा अपह्न-
वीकृत्य स्वावशेषधिया मोक्षीभवतीति दग्धेन्धनमिवानलमित्युच्यते॥१९॥ यदा चर्म वेष्टयिष्यन्ति मानवाःतद्वदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति चेत् तदा एवं विशिष्टशास्त्रोपसंहारभूतं पूर्वमन्त्रप्रकाशितं निष्कलमित्यादिविशेषणविशिष्टं षोडशकलाऽपसिद्धत्वेन शिवं स्वप्रकाशमात्रं निष्प्रतियोगिकस्वमात्रमिति अविज्ञाय स्वातिरिक्तास्तिताप्रभवदुःखस्यान्तो नाशो भविष्यति। यस्मादेवं तस्मात् स्वाज्ञानप्रभवसंसारोऽस्तीति प्रसक्तौ न हि स्वज्ञानमन्तरा तन्निवृत्तिरुपपद्यते। परमार्थदृष्ट्या तु स्वातिरिक्तमस्ति नास्तीति न हि विभ्रमस्यावकाशोऽस्ति, किं तु स्वाज्ञादिदृष्टिप्रसक्त्या स्वातिरिक्तास्तिताभ्रमे सत्यसति स्वयमेव निष्प्रतियोगिकमवशिष्यते। न हि तत्र संशयोऽस्तीत्यर्थः॥२०॥
ब्रह्मविद्याऽधिकारिनिरूपणम्
तपःप्रभावाद्देवप्रसादाच्च ब्रह्म151 ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्।
अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम्॥२१॥
वेदान्ते परमं गुह्यं पुरा कल्पे152 प्रचोदितम्।
नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वै पुनः॥२२॥
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥
प्रकाशन्ते महात्मन इति॥२३॥
इत्थं संप्रदायपरंपराऽऽगतब्रह्मविद्याया मोक्षफलपर्यन्तत्वं दर्शयितुं विद्याऽधिकारिणं दर्शयति—तप इति। रूढत्वेन कृच्छ्रचान्द्रायणादिलक्षणस्य तपसः “तप इति तपो नानशनात् परं” इत्यादिश्रुतिसिद्धस्य, स्वेन्द्रियमनसोः
एकाग्रलक्षणस्य वा तपसः “मनसश्चेन्द्रियाणां च ह्यैकाग्र्यं परमं तपः” इति स्मरणात्, तत्फलभूत-विचारात्मकस्य वा तपसः “तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व” इति श्रुतिप्रकटितस्य वा प्रभावात् सामर्थ्यादनन्तकोटिजन्मसूपासितस्य देवस्य प्रसादाच्च स्वातिरिक्तकलनापह्नवप्रबोधसमकालं स्वमात्रतया बृंहणात् ब्रह्म शब्द ऐतिह्यार्थः। श्वेताश्वेतरो नाम विद्वान् महर्षिः स्वेन यद्ब्रह्म स्वावशेषतया साक्षात्कृतं तदेव ब्रह्मयाथात्म्यं व्रतिकामिवनिकुटीचकबहूदकहंसाश्चाश्रमिणः, तानतीत्य परमहंसाश्रमे ये वर्तन्ते ते खल्वत्याश्रमिणः परमहंसपरिव्राजकाः, तेभ्यो हि अत्याश्रमिभ्यः यत् पूर्वोक्तं ब्रह्मयाथात्म्यं तदेव परमं निष्प्रतियोगिकनिर्विशेषब्रह्ममात्रगोचरं पवित्रं स्वविद्याद्वयापवित्रशोधकं वसिष्ठागस्त्यवामदेवश्रीशुकोद्दालकवीतहव्यसनकादिमहर्षिसङ्घेन जुष्टं सेवितं ब्रह्ममात्रज्ञानं प्रोवाच यथा ब्रह्ममात्रं स्वावशेषतया साक्षात्कृतं भवेत् तथा प्रोवाच॥२१॥ प्रशब्देन गुरोरुपदेशकालं दर्शयति—वेदान्त इति। वेदान्त इति जातावेकवचनम्। ईशावास्यादिमुक्तिकोपनिषदन्ताष्टोत्तरशतोपनिषत्सु परमं परमात्मतत्त्वं परमपुरुषार्थहेतुत्वात् गुह्यं पारमहंस्यं अनधिकारिषु गोपनीयत्वात् पुरा पूर्वस्मिन् कल्पे प्रचोदितं सम्यगनुशासितं, गुरुशिष्यसंप्रदायपरंपरया सम्यगागतमिति वा। कल्पादावीश्वरेण हिरण्यगर्भं प्रति यत् प्रचोदितं उपदिष्टं तदिदं ब्रह्ममात्रविज्ञानं नाप्रशान्ताय स्वातिरिक्तनिरासक-ब्रह्ममात्रज्ञानसाधनसाधनचतुष्टयसम्पत्तिविकलाय न कदाऽपि दातव्यम्। तत्रापि नापुत्राय अशिष्याय वा न दातव्यम्। प्रशान्तान्तरपुत्राय शिष्याय वा सम्यक् तच्छीलं परीक्ष्य दातव्यम्॥२२॥ देवतादेशिकभक्त्योर्विद्याप्राप्तावन्तरङ्गसाधनत्वमाह—यस्येति। यस्य मुमुक्षोः देवे परमेश्वरे परा निर्हेतुकी भक्तिःविद्यते यथा देवे तथा गुरावपि निर्हेतुकी भक्तिः यदि विद्यतेतदा तस्य मुमुक्षोः गुरुदेवतयोरेकत्वं भावयतोऽस्यामुपनिषदि श्वेताश्वतरेण मुनिना येऽर्थाः कथिताः त एव अर्थाः अस्य महात्मनो महानुभावस्य प्रकाशन्ते फलपर्यवसायिनो भवन्ति। यस्मादेवं तस्माद्विद्यार्थिभिर्देवतादेशिकविषये निर्हेतुकी भक्तिः कर्तव्या,
परमाद्वैतविज्ञानं कृपया वै ददाति यः।
सोऽयं गुरुवरः साक्षाच्छिव एव न संशयः॥
इति स्मृतेः। द्विर्वचनमादरार्थम्। इत्युपनिषच्छब्दौ विशिष्टोपनिषत्समात्यर्थो॥२३॥
इति षष्ठाध्यायः
श्रीवासुदेवेन्द्रशिष्योपनिषद्ब्रह्मयोगिना।
श्वेताश्वतरोपनिषद्वयाख्येयं लिखिता स्फुटम्।
श्वेताश्वतरोपनिषदो व्याख्याग्रन्थः सहस्रकम्॥
इति श्रीमदशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषच्छास्त्रविवरणे चतुर्दशसङ्ख्यापूरकं
श्वेताश्वेतरोपनिषद्विवरण सम्पूर्णम्॥
नामधेयपदसूची
यत्र पुटसंख्यानन्तरं तिर्यग्रेखायाः परं संख्या वर्तते तत्र तावती पदावृत्तिर्बोध्या
[TABLE]
| दत्तात्रेयः | |
| दधीचिः | |
| दुर्वासाः | |
| निदाघः | |
| नीललोहितः | |
| पितामहः | |
| पैप्पलादः | |
| पैप्पलादिः | |
| भरद्वाजः | |
| भुसुण्डः | |
| भैरवः | |
| महागणपतिः | |
| महादेवः | |
| महेशः | |
| महेश्वरः | |
| मार्कण्डेयः | |
| मृकण्डुजः | |
| याज्ञवल्क्यः | |
| रैवतकः | |
| वसिष्ठः | |
| विष्णुः | |
| वीरभद्रः | |
| व्यासः | |
| शरभः | |
| शाकलः | |
| शिवः | |
| शुकः | |
| शुचिस्मिता | |
| श्वेतकेतुः | |
| श्वेताश्वतरः | |
| सनत्कुमारः | |
| सरस्वती | |
| साम्बः | |
| सूर्यः | |
| सोमः | |
| स्कन्दः | |
| हरः | |
| हरिः |
विशेषपदसूची
यत्र पुटसंख्याऽनन्तरं तिर्यग्रेखायाः परं संख्या वर्तते तत्र तावती पदावृत्तिर्बोध्या
| अकल्पम् |
| अकारः |
| अक्षरम् |
| अग्निः |
| अग्नीषोमपुटम् |
| अग्नीषोमात्मकम् |
| अंकारः |
| अणोरणीयान् |
| अत्याश्रमस्थः |
| अथर्वशिरः |
| अथर्वशीर्षम् |
| अद्वैतम् |
| अधमम् |
| अनन्तः |
| अनपब्रुवः |
| अनलः |
| अनाज्ञातत्रयम् |
| अनुकल्पम् |
| अन्तरिक्षसदः |
| अपरा |
| अभक्ष्यम् |
| अमृतम् |
| अमृतप्लावनम् |
| अरुन्धती |
| अर्धमात्रा |
| अलक्ष्मीः |
| अविद्या |
| अष्टवक्तम् |
| अष्टस्थानम् |
| अष्टादशार्णः |
| आकाशः |
| आत्मज्योतिः |
| आत्मतत्त्वम् |
| आत्मा |
| आदिक्षान्ताः |
| आदित्याः |
| आनुष्टुभः |
| इध्मशेषम् |
| उकारः |
| उत्तमम् |
| उत्पत्तिसांकर्यम् |
| उद्धूलनम् |
| उपकल्पम् |
| उपदेशः |
| उपनिषत् |
| उपासकः |
| उपोपकल्पम् |
| ऋतम् |
| एकः |
| एकवक्त्रम् |
| एकादशगुणरुद्रः |
| एकादशमुखम् |
| ऐश्वर्यस्थानम् |
| ओङ्कारः |
| कपिला |
| कवयः |
| कर्ष्णायसम् |
| कालाग्नि |
| कृतकर्मनाशः |
| क्षंकारः |
| क्षत्रियाः |
| क्षरम् |
| क्षारम् |
| गाणेशीविद्या |
| गायत्री |
| गुह्यम् |
| ग्रहाः |
| चतुर्जालम् |
| चतुर्थवक्त्रम् |
| चतुर्दशमुखम् |
| चतुर्विंशाक्षरः |
| छाया |
| जनः |
| जागरितम् |
| जालवान् |
| जीवः |
| जुहूः |
| ज्ञप्तिदीपम् |
| ज्ञानदम् |
| ज्ञानसाधनम् |
| ज्योतिः |
| तत्त्वम् |
| तत्पुरुषः |
| तन्तुनाभः |
| तपः |
| तारः |
| तारकम् |
| तारा |
| तुरीयम् |
| तृतीया रेखा |
| तेजः |
| तेजोविद्याकला |
| त्रयोदशमुखम् |
| त्रिपुण्ड्रम् |
| त्रिपुण्ड्रविधिः |
| त्रिमाला |
| त्रिमुखम् |
| त्रियायुषम् |
| दक्षिणाभिमुखः |
| दक्षिणामूर्तिः |
| दक्षिणास्यः |
| दक्षिणा |
| दग्धपाशः |
| दशवक्त्रम् |
| दहरः |
| दिविषदः |
| देवः |
| देही |
| द्वात्रिंशत्स्थानम् |
| द्वादशमुखम् |
| द्वादशवर्णकः |
| द्विवक्त्रम् |
| धवला |
| धारणम् |
| धिक् |
| धेनुः |
| नन्दा |
| नरः |
| नववक्त्रम् |
| नवाक्षरः |
| नारी |
| निवृत्तिः |
| निष्ठा |
| पञ्चब्रह्मम् |
| पञ्चवक्त्रम् |
| पञ्चस्थानानि |
| पञ्चाक्षरम् |
| पण्डितः |
| पन्थाः |
| परमतत्त्वरहस्यम् |
| परमरहस्यशिवतत्त्वज्ञानम् |
| परमात्मरूपम् |
| परमेश्वरः |
| पराः |
| परिकरः |
| परंब्रह्म |
| पशवः |
| पशुपतिः |
| पशुपाशविमोचकः |
| पावनम् |
| पाशुपतम् |
| पिप्पलः |
| पीठम् |
| पुण्डरीकम् |
| पुरत्रयम् |
| पुरुषः |
| पुरुषदैवत्या |
| पुष्पाञ्जलिः |
| पूर्णपात्रोदकम् |
| पूर्णाहुतिः |
| पृथिवीषदः |
| प्रकाशः |
| प्रकृतिः |
| प्रजापतिः |
| प्रणवः |
| प्रतिष्ठा |
| प्रलयः |
| बलिः |
| बलिप्रदानम् |
| ब्रह्म |
| ब्रह्मकार्यम् |
| ब्रह्मचक्रम् |
| ब्रह्मतुरीयम् |
| ब्रह्मदैवत्या |
| ब्रह्ममन्त्राः |
| ब्रह्मवादिनः |
| ब्रह्मविद्या |
| ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः |
| ब्रह्मविष्णुरुद्राः |
| ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्राः |
| ब्रह्मा |
| ब्रह्मोपदेशः |
| ब्राह्मणाः |
| भगवान् |
| भद्रा |
| भवः |
| भसितम् |
| भस्म |
| भस्मज्योतिः |
| भस्मधारणम् |
| भस्मनिष्ठः |
| भस्मस्नानम् |
| भूतिकरी |
| भेदः |
| मकारः |
| मनुस्वरूपम् |
| मलस्नानम् |
| महः |
| महर्षिः |
| महात्मा |
| माया |
| मायी |
| मार्जनम् |
| मुक्तिस्थानम् |
| मृत्युतारकम् |
| यज्ञः |
| यतयः |
| यमः |
| रक्षा |
| रत्नवेदिका |
| रवि |
| रसः |
| रसतेजसी |
| राक्षोघ्नम् |
| रुद्रः |
| रुद्रचरितम् |
| रुद्रदैवत्या |
| रुद्रस्नानम् |
| रुद्राक्षाः |
| रौद्री |
| लक्ष्मीः |
| लिङ्गम् |
| लिङ्गलिप्तम् |
| वत्सः |
| वसवः |
| वह्निः |
| वाणी |
| वामदेवः |
| वासुदेवः |
| विचालनस्थानम् |
| विद्या |
| विद्याशक्तिः |
| विधिस्नानम् |
| विनायकः |
| विभूतिः |
| विरक्तिदम् |
| विरजानलजम् |
| विरिञ्चिः |
| विश्वधाम |
| विश्वरूपः |
| विश्वाधिक |
| विश्वेदेवाः |
| विष्णुदैवत्या |
| विष्णुब्रह्ममहेश्वराः |
| वेदिः |
| वैकङ्कती |
| वैद्युतम् |
| वैयासिकिः |
| वैराग्यम् |
| वैराग्यस्थानम् |
| वैश्याः |
| वैष्णवम् |
| शक्तिः |
| शक्तिकारी |
| शङ्करः |
| शतरुद्रीयम् |
| शम्भुः |
| शान्तिः |
| शान्त्यतीता |
| शाम्भवम् |
| शिवरूपम् |
| शिवसायुज्यम् |
| शिवाग्निजम् |
| शुक्लाभः |
| शुद्धचैतन्यम् |
| शुक्लम् |
| शूद्राः |
| शैवम् |
| षड्वक्त्रम् |
| षोडशदेवताः |
| षोडशस्थानम् |
| सकलरुद्रमन्त्रजापी |
| सच्चिदानन्दः |
| सत्यम् |
| सदाशिवः |
| सद्योजातम् |
| सप्तवक्त्रम् |
| सर्वव्यापी |
| सम्मर्शः |
| साङ्ख्यादितत्त्वभेदाः |
| साम |
| सिद्धमन्त्रः |
| सुपर्णा |
| सुमना |
| सुरभिः |
| सुशीला |
| सुषुप्तिः |
| सूर्यात्मा |
| सूक्ष्मम् |
| सूत्रत्रयम् |
| सोमात्मा |
| संयोगः |
| संस्कार |
| संस्पर्शः |
| संवर्तकः |
| स्थानम् |
| स्पर्शाः |
| स्वात्मपरिज्ञानी |
| स्वाहा |
| स्विष्टकृतम् |
| स्वप्नम् |
| स्वयंप्रकाशः |
| स्वराः |
| हुताशनः |
| हृदयम् |
| हंसः |
]
-
“अकार, आकार, इत्येवानुस्वारं विनैव सर्ववर्णानां ग्रहणम् – अ१, अ२,” ↩︎
-
“गूहक—अ २. ग्रहक—अ, अ१.” ↩︎
-
“विपद्घ्न—अ, अ १, उ १.” ↩︎
-
“सुखद—उ १.” ↩︎
-
“मोहनक— क.” ↩︎
-
“कलास्ते—उ.” ↩︎
-
“द्वितीयम—क.” ↩︎
-
“संख्या—क, अ १.” ↩︎
-
“विरो—मु. " ↩︎
-
“निव—क,” ↩︎
-
“मृत्यु – अ १, उ १.” ↩︎
-
" त्मिके उ, उ १. " ↩︎
-
“न्तरंयाउ, मु, अ.” ↩︎
-
" थर्व—अ, अ २, मु.” ↩︎
-
“थर्वाः— उ, मु, अ १,अ २, थर्वः—उ १.” ↩︎
-
“विष्णुरु —अ १. " ↩︎
-
“रुद्रादि—अ २, क, उ.” ↩︎
-
“प्रणवः - अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“भवेभ्यः—क” ↩︎
-
“स्थानि—क.” ↩︎
-
“ध्यायिभ्यः —क.” ↩︎
-
“प्रतीयादि—क प्रतीचीं दि—अ,” ↩︎
-
“दिशं भि—क.” ↩︎
-
“धाताध्या—क. ध्याता ध्या—अ १,” ↩︎
-
“ब्रह्माहं —अ, अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“तस्मादुप-अ, अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“क्लमयते—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“निदिध्यायात्तारं—अ २, क.” ↩︎
-
“देवमेव प्र—क” ↩︎
-
“अद्य—अ १, क. " ↩︎
-
“भर्व—अ २, क.” ↩︎
-
“निषदः सं—मु,उ.” ↩︎
-
“गोमयं भ—क” ↩︎
-
“रजो भूर्लोकः स्वा—मु, क.” ↩︎
-
“सत्वमन्तरिक्षमन्त—– मु.” ↩︎
-
“स्तमो द्यौर्लोकः प—मु.” ↩︎
-
" तमादि—मु.” ↩︎
-
“ध्यान—अ, अ १, क.” ↩︎
-
“स्त्रियन्न—मु.” ↩︎
-
“जीवलो—क.” ↩︎
-
“स वायुपूतो भवति स आत्मपूतो भवति इत्यधिकः—मु” ↩︎
-
“लयिष्यति—अ १, अ २, उ १.” ↩︎
-
“गणादं —मु.” ↩︎
-
“वर्णादीन् त—अ २.वर्णानुस्तद —उ १.” ↩︎
-
“एतच्छ्लोकार्थो नातिस्पष्टः। व्याख्या तु यथाऽऽकरं धृता.” ↩︎
-
“ॐ गं ग—अ १, क.” ↩︎
-
“मुत्तमम् अ १, अ २.” ↩︎
-
“संमृज्य —अ २.” ↩︎
-
“रपुन— क.” ↩︎
-
“समस्तम—अ, अ १, ३ १.” ↩︎
-
““अस्यश्री” इति— नास्ति अ, १, अ, २, क.” ↩︎
-
“वरस—अ, अ १.” ↩︎
-
“मुच्चरेत्—अ, अ १.” ↩︎
-
“अ, .अ १ कोशयोः एतच्छलो कार्धस्थाने “प्रज्ञमेधापदं ततो वदेत्” इति पाठो दृश्यते. " ↩︎
-
“पदमुद्ध—अ, अ १.” ↩︎
-
“अतः पूर्वं अ, अ १ कोशयोः “ वह्निजायां ततस्त्वेष द्वात्रिंशद्वर्णको मनुः।” इत्यधिकः.” ↩︎
-
“चित्तगुं—उ १.” ↩︎
-
“पावकात्मजम्—अ, अ १.” ↩︎
-
“मथर्वेद——अ २.” ↩︎
-
“गुणा - उ १.” ↩︎
-
“सुण्डं—मु.” ↩︎
-
“वच्य—अ १, क. वक्ष्य - अ.” ↩︎
-
“स्तच्छ—अ २, क.” ↩︎
-
“पावनो—क.” ↩︎
-
“पदात्मकः—अ १, अ २, क. पदास्पदम्—अ” ↩︎
-
“मलिनामशि—अ १, अ २,क.” ↩︎
-
“लब्धं—मु.” ↩︎
-
“भस्मनो—उ, मु.” ↩︎
-
“संस्कार्यर—उ. संस्कारसहि—मु.” ↩︎
-
“सूत्रस्य—उ.” ↩︎
-
“दिशां—अ २,क.” ↩︎
-
“ज्वलसंस्थि—अ १, अ२, उ १. ज्वलनं स्थि—क.” ↩︎
-
“कुर्याद्वयाहृतिभिस्त्वेवं—उ, मु.” ↩︎
-
“दिभिर्मन्त्रैः—उ, उ १.” ↩︎
-
“पादौ – अ २. पादाः - अ १, उ १,क.” ↩︎
-
“त्वं – अ, अ १.” ↩︎
-
“ऊरु—उ, उ १.” ↩︎
-
“ऋतु—क.” ↩︎
-
“चाथ—क.” ↩︎
-
“नासत्यौ—क. नासत्या—अ २.” ↩︎
-
“तु त्रि—अ २, क.” ↩︎
-
“चारिणः—अ १, उ१.” ↩︎
-
“दावा—अ १.” ↩︎
-
“शात्मकं—अ १, अ २, उ १.” ↩︎
-
“तवान—क.” ↩︎
-
“दूर्वा—उ १.” ↩︎
-
“ततो—–क.” ↩︎
-
" ज्ञाने प्र—अ १, क.” ↩︎
-
“कालिकं—क.” ↩︎
-
“भस्मधारिणा—उ.” ↩︎
-
“यत् फलं भवति तत्—उ, उ १.” ↩︎
-
“जयति—अ १, अ २,क.” ↩︎
-
“द्यन्तं—क. द्यनन्तनि—अ १, अ २.” ↩︎
-
“य मो—अ १,” ↩︎
-
“रुद्रसूक्तैः—–उ, उ १.” ↩︎
-
“नाभू—उ १.” ↩︎
-
“यमानः—क, अ १.” ↩︎
-
“हरिहिरण्य—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“एको गु—क.” ↩︎
-
“एवं—अ १.” ↩︎
-
“त्रिशूलगां का—मु.” ↩︎
-
“‘ग्निर्वायुः स्व—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“नान्यं लोकात्—अ १, अ २,क.” ↩︎
-
“ना ञ्चेन—अ १, अ २, क,” ↩︎
-
“वसन्तश्च—अ १,क.” ↩︎
-
“कूटे—अ २, क,” ↩︎
-
“साम्येन—क. " ↩︎
-
" पञ्चदशं—अ १,” ↩︎
-
“मुखं— उ, उ १,” ↩︎
-
“मति—क, अ १, उ १,” ↩︎
-
“दर्शनाच्छान्ति—अ २.” ↩︎
-
“विरिञ्च—अ १, अ २.” ↩︎
-
“सुस्तरा—क, अ १, अ २, उ १,” ↩︎
-
“केनापि श—अ १, अ २.” ↩︎
-
“योगानु—क, उ, मु.” ↩︎
-
“वक्रां—क, उ, मु.” ↩︎
-
“उद्गीध—अ, अ १, क.” ↩︎
-
“वीशानी—उ, मु.” ↩︎
-
“आत्मका—अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“जायते - अ, अ १, अ २, क. " ↩︎
-
“युक्तोन—क” ↩︎
-
“ब्रह्मज्यो—अ १, क” ↩︎
-
“श्लोकायन्ति— उ, मु. " ↩︎
-
“सूराः— उ, मु.” ↩︎
-
“शृण्वन्ति— उ, मु.” ↩︎
-
“भियुज्यते—उ, मु.” ↩︎
-
“जुषेतद्ब्र—अ, अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“पूर्व—उ, मु.” ↩︎
-
“योगगुणैः—अ, अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“वर्णप्रसादः— उ१” ↩︎
-
“एषो हि—क, उ १.” ↩︎
-
“कश्चित्—अ, अ २, उ, मु.” ↩︎
-
“बृहत्—मु” ↩︎
-
“शुक्रममृतं त—अ, अ १, अ २, क.” ↩︎
-
“स्तत्प्र—उ, मु.” ↩︎
-
“विश्वतो—अ, क.” ↩︎
-
“सृजमा—अ १, अ २, क, उ, मु.” ↩︎
-
“अस्या—अ, मु.” ↩︎
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“परमं दे—अ १.” ↩︎
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“पश्यति—अ, अ १, क” ↩︎
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“विश्वाधिकः—क.” ↩︎
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“यन्नभस्वान्—अ १” ↩︎
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" यद्वेद—क.” ↩︎
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“विश्वाधि— अ, अ १, अ २.विश्वाधि— अ, अ १, अ २.” ↩︎
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“विवृद्धजन्म—उ, मु.” ↩︎
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“विनिवर्त्य—अ, अ १, अ २, क, मु.” ↩︎
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“समा—अ, अ १, अ २, क” ↩︎
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“बीजं ब—उ, मु.” ↩︎
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“तमेवं—अ१” ↩︎
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“देव–उ, मु.” ↩︎
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“ब्रह्माह—अ १, अ २, क” ↩︎
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“करूप—अ, अ १, अ २, क.” ↩︎